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( १५ ) करने वाला मुनि दोषों से रहित होता है, वह पुनः विशुद्धि प्राप्त कर सकता है । तत्त्वतः तो उसका व्रत-भंग होता ही नहीं है ।२४
व्रत-भंग क्यों नहीं होता, प्रत्यक्ष में जब कि व्रत-भंग है ही ? उक्त शंका का समाधान द्रोणाचार्य अपनी टीका में करते हैं कि - "अपवाद-सेवन करने वाले साधक के परिणाम विशुद्ध हैं। और विशुद्ध परिणाम मोक्ष का हेतु ही होता है, संसार का हेतु नहीं।"*
जैन धर्म के सम्बन्ध में कुछ लोगों की धारणा है कि वह जीवन से इकरार नहीं करता, अपितु इन्कार करता है। परन्तु यदि तटस्थ दृष्टि से गंभीरतापूर्वक विचार किया जाए, तो मालूम पड़ेगा कि वस्तुतः जैन धर्म ऐसा नहीं है। वह जीवन से इन्कार नहीं करता, अपितु जीवन के मोह से इन्कार करता है। जीवन जीने में यदि कोई महत्त्वपूर्ण लाभ है, और वह स्वपर की हित-साधना में उपयोगी है, तो जीवन सर्वतोभावेन संरक्षणीय है। प्राचार्य भद्रबाहु, अपने उक्त सिद्धान्त के सम्बन्ध में, देखिए, कितना तर्कपूर्ण समाधान करते हैं--
"साधक का देह संयमहेतुक है, संयम के लिए है। यदि देह ही न रहा तो फिर संयम कैसे रहेगा ? अतएव संयम की साधना के लिए देह का परिपालन इष्ट है ।" २५
यह वाणी प्रान के किसी भौतिकवादी को नहीं है, अपितु सुदूर अतीत युग के उस महान् अध्यात्मवादी की है, जो आध्यात्मिकता के चरम शिखर पर पहुँचा हुआ साधक था। बात यह है कि अध्यात्मवाद कोई अंधा प्रादर्श नहीं है ! वह आदर्श के साथ यथार्थ का भी उचित समन्वय करता है। उसके यहाँ एकान्त पक्षाग्रह-जैसी कोई बात नहीं है। मुख्य प्रश्न है-कारण और अकारण का। प्राचार्य जिनदास की भाषा में, साधक के लिए अकारण कुछ भी अकल्पनीय अनुज्ञात नहीं है, और सकारण कुछ भी अकल्पनीय निषिद्ध नहीं है।२९
__ यदि स्पष्ट शब्दों में निश्चयनय के माध्यम से कहा जाए तो, साधक, न जीवन के लिए है और न मरण के लिए है। वह तो अपने ज्ञान, दर्शन और. चारित्र की सिद्धि के लिए है। अतः जिस जिस प्रकार ज्ञानादि की सिद्धि एवं वृद्धि होती हो, उसे उसी प्रकार करते रहना चाहिए, इसी में संयम है । २७ यदि, जीवन से ज्ञानादि की सिद्धि होती हो, तो जीवन की रक्षा
२४-सव्वत्थ संजमं, संजमामो अप्पाणमेव रक्खिबा।
मुबइ अइवायाप्रो, पुणो विसोही न याऽविरई ॥४६॥ न याऽविरई, कि कारणं ? तस्याशयशुद्धतया, विशुद्धपरिणामस्य च मोक्षहेतुत्वात् ।
-प्रोधनियुक्तिटीका, गा० ४६ । २५-संजमहेउं देहो धारिजइ सो को उ तदभावे । संजम-फाइनिमित्तं, देहपरिपालणा इट्ठा ॥४७॥
°ोधनियुक्ति २६-णिक्कारणे प्रकप्पणिज्जं न किं चि अणुण्णायं, अववायकारणे उप्पण्णे प्रकप्पणिज्ज ण कि चि पडिसिद्ध । निच्छयववहारतो एस तित्यकराणा ।..... कज्जति अववादकारणं, तेण जति पडिसेवति तहा वि सचा भवति, सबो ति संजमो ॥५२४८।।
-निशीथचूर्णि २७-कज्जं जाणादीयं उस्सग्गववायत्रो भवे सच्वं ।
तं तह समायरंतो, तं सफल होइ सव्वं पि ॥५२४६॥ .- निशीथभाष्य
-प्रोपनियुक्ति
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