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उपसंहार
( २६ )
उत्सर्ग और अपवाद छेद सूत्रों का मर्म स्थल है । अतएव भाष्यों, चूर्णियों तथा तत्सम्बन्धित अन्य प्रचार ग्रन्थों में प्रस्तुत विषय पर इतना अधिक विस्तृत विवेचन किया गया है कि यह क्षुद्र निबन्ध समुद्र में की एक नन्हीं बूँद जैसा लगता है, वस्तुतः बूंद भी नहीं । फिर भी यथा मति, यथा गति कुछ लिखा गया है, और वह जिज्ञासु की ज्ञान-पिपासा के लिए एक जल कण ही सही, किन्तु कुछ है तो सही ।
प्रस्तुत निबन्व का प्रक्षरशरीर कुछ पुरानी और कुछ नयी विचार सामग्री के धार पर निर्मित हुआ है, और वह भी चिन्तन के एक आसन पर नहीं । बीच-बीच में विक्षेप. पर - विक्षेप प्राते रहे, शरीर-सम्बन्धी और समाज सम्बन्धी भी । अतः लेखन में यत्र-तत्र पुनरुक्ति की झलक प्राती है । परन्तु वह जहाँ दूषण है, वहाँ भूषण भी है । उत्सर्ग और अपवाद जैसे महनातिगहन विषय की स्पष्ट प्रतिपत्ति के लिए पुनरुक्तता का भी अपने में एक उपयोग है, और वह कभी-कभी प्रावश्यक हो जाता है ।
- उपाध्याय अमर मुनि
७३ - पन्ना वि हु पडिमेवा, सा उ न कम्मोदएण जा जयतो । सा कम्मलकरणी, दप्पाऽजय कम्मजणणी उ ॥
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- ब्य> भा० उद्देश १, गा० ४२
या कारणे यतमानस्य यतनया प्रवर्तमानस्य प्रतिसेवना, सा कर्मक्षयकरणी। सूत्रोक्तनीत्या कारणे यतनया बतमानस्य ततस्तत्रामा राधनात् ।
व्यवहार माध्य - दुति
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