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________________ ( ) एकान्त नहीं, अनेकान्त कुछेक विचारक जीवन में उत्सर्ग को ही पकड़ कर चलना चाहते हैं, वे अपनी सम्पूर्ण शक्ति उत्सर्ग की एकान्तसाधना पर ही खर्च कर देने पर तुले हुए हैं, फलतः जीवन में अपवाद का सर्वथा अपलाप करते रहते हैं । उनकी दृष्टि में (एकांगी दृष्टि में) अपवाद धर्म नहीं, अपितु एक महत्तर पाप है । इस प्रकार के विचारक साधना के क्षेत्र में उस कानी हथिनी के समान हैं, जो चलते समय मार्ग के एक ओर ही देख पाती है। दूसरी ओर कुछ साधक वे हैं, जो उत्सर्ग को मूलकर केवल अपवाद को पकड़ कर ही चलना श्रेय समझते हैं. जीवन-पथ में वे कदम कदम पर अपवाद का सहारा लेकर ही चलना चाहते हैं। जैसे शिशु, बिना किसी सहारे के चल ही नहीं सकता । ये दोनों विचार एकांगी होने से उपादेय कोटि में नहीं आ सकते। जैन धर्म की साधना एकान्त की नहीं, अपितु प्रनेकान्त की सुन्दर और स्वस्थ साधना है । ४८१० जैन संस्कृति के महान् उन्नायक आचार्य हरिभद्र ने प्राचार्य संघदास गणी की भाषा में एकान्त पक्ष को लेकर चलने वाले साधकों को संबोधित करते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा है भगवान् तीर्थंकर देवों ने न किसी बात के लिए एकान्त विधान किया है और न किसी बात के लिए एकान्त निषेध ही किया है। भगवान् तीर्थंकर की एक ही श्राज्ञा है, एक ही आदेश है, कि जो कुछ भी कार्य तुम कर रहे हो, उसमें सत्यभूत होकर रहो । उसे वफादारी के साथ करते रहो ।” आचार्य ने जीवन का महान् रहस्य खोल कर रख दिया है। साधक का जीवन न एकान्त निषेध पर चल सकता है, और न एकान्त विधान पर ही । यथावसर कभी कुछ लेकर और कभी कुछ छोड़कर ही वह अपना विकास कर सकता है । एकान्त का परित्याग करके ही वह अपनी साधना को निर्दोष बना सकता है । साधक का जीवन एक प्रवहण-शील तत्त्व है । उसे बाँधकर रखना भूल होगी । नदी के सतत प्रवहण-शील वेग को किसी क्षुद्र गर्त में बाँधकर रख छोड़ने का अर्थ होगा, उसमें दुर्गन्ध पैदा करना तथा उसकी सहज स्वच्छता एवं पावनता को नष्ट कर डालना । जीवन-वेग को एकान्त उत्सर्ग में बन्द करना, यह भी भूल है और उसे एकान्त अपवाद में कैद करना, यह भी चूंक है। जीवन की गति को किसी भी एकान्त पक्ष में बांधकर रखना, हितकर नहीं । जीवन को बाँधकर रखने में क्या हानि है ? बाँधकर रखने में, संयत करके रखने में तो कोई हानि नहीं है । परन्तु एकान्त विधान और एकान्त निषेध में बाँध रखने में जो हानि है, वह एक भयंकर हानि है । यह एक प्रकार से साधना का पक्षाघात है। जिस प्रकार पक्षाघात में जीवन सक्रिय नहीं रहता, उसमें गति नहीं रहती, उसी प्रकार विधि-निषेध के पक्षपातपूर्ण एकान्त प्राग्रह से भी साधना की सक्रियता नष्ट हो जाती है, उसमें यथोचित गति एवं प्रगति का प्रभाव हो जाता है । Jain Education International १० - न विकिवि प्रणुष्णातं, पडिसिद्धं नावि जिनवरिदेहि । तित्थगराणं आणा, कज्जे सच्चेण होयम्य ॥७७६॥ - उपदेश पद For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001830
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAmar Publications
Publication Year2005
Total Pages644
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_nishith
File Size10 MB
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