SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४ ) प्राचार्य मल्लिषेण उत्सर्ग और अपवाद के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण स्पष्टीकरण करते हैं- " सामान्य रूप से संयम की रक्षा के लिए नवकोटिविशुद्ध आहार ग्रहण करना, उत्सर्ग है । परन्तु यदि कोई मुनि तथाविध द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-सम्बन्धी आपत्तियों से ग्रस्त हो जाता है, और उस समय गत्यन्तर न होने से उचित यतना के साथ अनेषणीय आदि आहार ग्रहण करता है, यह अपवाद है । किन्तु अपवाद भी उत्सर्ग के समान संयम की रक्षा के लिए ही होता है ।"" एक अन्य ग्राचार्य कहते हैं- "जीवन में नियमोपनियमों की जो सर्वसामान्य विधि है, वह उत्सर्ग है । और जो विशेष विधि है, वह ग्रपवाद है ।" " कि बहुना, सभी ग्राचार्यों का ग्रभिप्राय एक ही है कि सामान्य उत्सर्ग है, और विशेष अपवाद है । लौकिक उदाहरण के रूप में समझिए कि प्रतिदिन भोजन करना, यह जीवन की सामान्य पद्धति है । भोजन के बिना जीवन टिक नहीं सकता है, जीवन की रक्षा के लिए उत्सर्गतः भोजन आवश्यक है । परन्तु अजीर्ण ग्रादि की स्थिति में भोजन का त्याग करना ही श्रेयस्कर है । किन्हीं विशेष रोगादि की स्थितियों में भोजन का त्याग भी जीवन की रक्षा के लिए आवश्यक हो जाता है । अर्थात् एक प्रकार से भोजन का परित्याग ही जीवन हो जाता है । यह भोजन सम्बन्धी ग्रपवाद है । इसी प्रकार ग्रमुक पद्धति का भोजन सामान्यतः ठीक रहता है, यह भोजन का उत्सर्ग है । परन्तु उसी पद्धति का भोजन कभी किसी विशेष स्थिति में ठीक नहीं भी रहता है, यह भोजन का ग्रपवाद है । साधना के क्षेत्र में भी उत्सर्ग और अपवाद का यही श्रम है। उत्सर्गतः प्रतिदिन की साधना में जो नियम संयम की रक्षा के लिए होते हैं, वे विशेषतः संकट कालीन अपवाद स्थिति में संयम की रक्षा के लिए नहीं भी हो सकते हैं । अतः उस स्थिति में गृहीत नियमों में परिवर्तन करना आवश्यक हो जाता है, वह परिवर्तन भले ही बाहर से संयम के विपरीत ही प्रतिभामित होता हो, किन्तु अंदर में संयम की सुरक्षा के लिए ही होता है । ७ आहार के लिए स्वयं हिंसा न करना, न करवाना व हिंसा करने वालों का अनुमोदन करना । आहार आदि स्वयं न पकाना, न पकवाना, न पकाने वालों का अनुमोदन करना । प्राहार आदि स्वयं न खरीदना, न दूसरों से खरीदवाना, न खरीदने वालों का अनुमोदन करना । - स्थानाङ्ग सूत्र ६,३,६८१ ८ यथा जैनानां संयमपरिपालनार्थं नवकोटिविशुद्धाहारग्रहणमुत्सर्गः । तथाविध द्रव्य-क्षेत्र काल- भावापत्सु च निपतितस्य गत्यन्तराम वे पंचकादिपतनया नेषणीयादिग्रहणमपवादः । सोऽपि च - स्याद्वाद मञ्जरी, कारिका ११ संयमपरिपालनार्थमेव । Jain Education International ६ सामान्योक्तो विधिरुत्सर्गः, विशेषोक्तो विधिरपवादः । For Private & Personal Use Only - दर्शन शुद्धि www.jainelibrary.org
SR No.001830
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAmar Publications
Publication Year2005
Total Pages644
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_nishith
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy