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उत्सर्ग और अपवाद की परिभाषा
उत्सर्ग और अपवाद की चर्चा बहुत गंभीर एवं विस्तृत है। प्रतः सर्वप्रथम लंबी चर्चा में न जाकर हम प्राचीन प्राचार्यो की धारणा के अनुसार संक्षेप में उत्सर्ग और अपवाद की परिभाषा पर विचार कर लेना चाहते हैं।
आचार्य संघदास, उत्' उपसर्ग का अर्थ 'उद्यत' करते हैं और 'सर्ग' का 'विहार' । अस्तु जो उद्यत विहार चर्या है, वह उत्सर्ग है । उत्सर्ग का प्रतिपक्ष अपवाद है । क्योंकि अपवाद, भिक्षादि में उत्सर्ग से प्रच्युत हुए साधक को ज्ञानादि-अवलम्बनपूर्वक धारण करता है। अर्थात् उत्सर्ग में रहते हुए साधक यदि ज्ञानादि गुणों का सरक्षण नहीं कर पाता है, तो अपवाद सेवन के द्वारा उनका संरक्षण कर सकता है।
प्राचार्य हरिभद्र का कथन है कि "द्रव्य क्षेत्र, काल ग्रादि की अनुकूलता से युक्त समर्थ साधक के द्वारा किया जाने वाला कल्पनीय (शुद्ध) अन्नपानगवेषणादि-रूप उचित अनुष्ठान, उत्सर्ग है। और द्रव्यादि की अनुकूलता से रहित का यतनापूर्वक तथाविध अकल्प्य-सेवनरूप उचित अनुष्ठान, अपवाद है।"
भाचार्य मुनिचन्द्र सूरि, सामान्य रूप से प्रतिपादित विधि को उत्सर्ग कहते हैं और विशेष रूप से प्रतिपादित विधि को अपवाद । अपने उक्त कथन का आगे चल कर वे और भी स्पष्टीकरण करते हैं कि समर्थ साधक के द्वारा संयमरक्षा के लिए जो अनुष्ठान किया जाता है, वह उत्सर्ग है । और असमर्थ साधक के द्वारा संयम की रक्षा के लिए ही जो बाहर में उत्सर्ग से विपरीत-सा अनुष्ठान किया जाता है, वह अपवाद है। दोनों ही पक्षों का विपर्यासरूप से अनुष्ठान करना, न उत्सर्ग है और न अपवाद, अपितु संसाराभिनन्दो प्राणियों को दुश्चष्टा मात्र है।
४ उज्जयम्सग्गुस्सग्गो, अववाग्रो तस्म चेव पडि वक्खो। . उस्सग्गा विनिवतिय, धरेड सालबमवाप्रो ।।३१६।।
-बृहत्कल्पभाष्य पीठिका उद्यत: सर्ग:-विहार उत्सर्गः । तम्य च उत्सगंस्य प्रतिपक्षोऽपवादः । कथम् ? इति चेद् प्रताह - उत्सर्गाद् अध्वाऽवमोदर्यादिषु विनिपतितं' प्रच्युतं ज्ञानादिसालम्बमगवादो धारयति ॥३१६॥
-~-प्राचार्य मलयगिरि ५ दवादिएहिं जुत्तस्सुम्सग्गो जदुचियं अणुढा । प्रियस्स तमववाग्रो, उचियं चियरस्स न उ तस्स ॥
- उपदेश पद, गा० ७६४ ६ सामान्योक्तो विधिरुत्सर्गः । विशेषोक्तस्त्वपवाद । द्रव्यादियुक्तस्य यतदौचित्येन अनुष्ठान स उत्सर्गः, तद्रहितस्य पुनस्तदौचित्येनैव च यदनुष्ठानं सोऽपवादः । यच्चतयोः पक्षयोविपयसिन अनुष्ठानं प्रवर्तते, न स उत्सर्गोऽपवादो वा, किन्तु संसाराभिनन्दिसत्वचेष्टितमिति ।
--उपदेशपद-सुखसम्बोधिनी, गा० १८१-७८४
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