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विधि - निषेध अपने आप में एकान्त नहीं हैं । यथापरिस्थिति विधि निषेध हो सकता है और निषेध विधि | जीवन में इस ओर नियत जैसा कुछ नहीं है । आचार्य उमास्वाति प्रशमरति प्रकरण में स्पष्टतः लिखते हैं कि
"भोजन, शय्या, वस्त्र, पात्र तथा प्रोषध प्रादि कोई भी वस्तु शुद्ध कल्प्य ग्राह्य होने पर भी प्रकल्प्य प्रशुद्ध - अग्राह्य हो जाती है, और प्रकल्प्य होने पर भी कल्प्य हो जाती है । " "
"देश, काल, क्षेत्र, पुरुष, अवस्था, उपधात और शुद्ध भावों की समीक्षा के द्वारा ही वस्तु कल्प्य ग्राह्य होती है । कोई भी वस्तु सर्वथा एकान्त रूप से कल्प्य नहीं होती ।
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वस्तु अपने-आप में न अच्छी है, न बुरी है । व्यक्ति-भेद से वह अच्छी या बुरी हो जाती है । श्राकाश में चन्द्रमा के उदय होने पर चक्रवाक दम्पती को शोक होता है. चकोर को हर्ष । इस में चन्द्रमा का क्या है ? वह चक्रवाक और चकोर के लिए अपनी स्थिति में कोई भिन्न-भिन्न परिवर्तन नहीं करता है । चक्रवाक और चकोर की अपनी मनः स्थिति भिन्न है, अतः उसके अनुसार चन्द्र अच्छा या बुरा प्रतिभासित होता है। इसी प्रकार साधक भी विभिन्न स्थिति में रहते हैं, उनका स्तर भी देश, काल आदि की विभिन्नता में विभिन्न स्तरों पर ऊँचानीचा होता रहता है । प्रतएव एक ही वस्तु एक साधक के लिए निषिद्ध अग्राह्य होती है, तो दूसरे के लिए उसकी अपनी स्थिति में ग्राह्य भी हो सकती है । परिस्थिति और तदनुसार होने वाली भावना ही मुख्य है । यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी । जिसकी जैसी भावना होती है, उसको वैसी ही सिद्धि प्राप्त होती है। लोक भाषा में भी किंवदन्ती है कि जाकी रही भावना जैसी, प्रभुमूरत देखी तिन तैसी । अर्थात् सत्य एक ही है, वह विभिन्न देश काल में विभिन्न मनोभावों के अनुसार विभिन्न रूपों में परिलक्षित होता रहता है ।
निशीथ सूत्र
भाष्यकार इस सम्बन्ध में बड़ी ही महत्त्वपूर्ण बात कहते हैं । वे समस्त उत्सर्गों और अपवादों, विधि और निषेधों की शास्त्रीय सीमाओं की चर्चा करते हुए लिखते हैं कि :
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"समर्थ साधक के लिए उत्सर्गं स्थिति में जो द्रव्य निषिद्ध किए गए है, वे सब प्रसमर्थं साधक के लिए प्रपवाद स्थिति में कारण विशेष को ध्यान में रखते हुए ग्राह्य हो जाते हैं ।"१७
११--किविच्छुद्धं कल्प्यमकल्प्यं स्यात् स्यादकल्यमपि कल्प्यम् ; पिण्ड : शय्या वस्त्र, पात्रं वा भेषजायं वा १११४५ ।। १२ -- देशं कालं पुरुषमवस्यामुपघातशुद्धपरिणामान्
प्रसमीक्ष्य भवति कल्प्यं, नेकान्तात्कल्प्यते कल्प्यम् ।। १४६ ।।
१३ - उस्सम्गेण णिसिद्धाणि, जाणि दव्त्राणि संघरे मुणिणो । कारकजाए जाते, सव्वाणि वि ताणि कति ।। ५२४५ ।।
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- प्रामरति
- निशोथ भाष्य
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