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________________ प्राचार्य जिनदास ने निशीथ चूर्णि में उपयुक्त भाष्य पर विवरण करते हुए स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि जो उत्सर्ग में प्रतिषिद्ध हैं, वे सब-के-सब कारण उत्पन्न होने पर कल्पनीय-ग्राह्य हो जाते हैं। ऐसा करने में किसी प्रकार का भी दोष नहीं है ।। उत्सर्ग और अपवाद का यह विचार ऐसा नहीं कि विचार जगत् के किसी एक कोने में ही पड़ा रहा हो, इधर-उधर न फैला हो। जैन साहित्य में सुदूर अतीत से लेकर बहुत आगे तक उत्सर्ग और अपवाद पर चर्चा होती रही, और वह मतभेद की दिशा में न जाकर पूर्वनिर्धारित एक ही लक्ष्य की ओर बढ़ती रही । प्राचार्य जिनेश्वर अपने युग के एक प्रमुख क्रियाकाण्डी प्राचार्य हुए है । परन्तु उन्होंने ने भी शास्त्रीय विधि निषेधों के सम्बन्ध में एकान्त का अाग्रह नहीं रखा । प्राचार्य हरिभद्र के अष्टक प्रकरण पर टीका करते हुए वे चरक संहिता का एक प्राचीन श्लोक उद्धत करते हैं कि __"देश, काल और रोगादि के कारण मानव-जीवन में कभी-कभी ऐसी अवस्था भी प्रा जाती है कि जिस में कार्य कार्य बन जाता है और कार्य प्रकार्य हो जाता है । अर्थात् जो विधान है वह निषेव कोटि में चला जाता है, और जो निषेध है वह विधान कोटि में प्रा पहुंचता है।"1" उत्सर्ग और अपवाद की एकार्थ-साधनता प्रस्तुत चर्चा में यह बात विशेषरूप से ध्यान में रखने जैसी है कि उत्सर्ग और अपवाद दोनों एकार्थ-साधक होते हैं, अर्थात् दोनों का लक्ष्य एक होता है, दोनों एक दूसरे के पूरक होते हैं, साधक होते हैं, बाधक और घातक नहीं । दोनों के सुमेल से ही, एकार्थ-साधकत्व से ही साधक का साधनापथ प्रशस्त हो सकता है।" उत्सर्ग और अपवाद यदि परस्पर निरपेक्ष हों, अन्यार्थक हों, एक ही प्रयोजन को सिद्ध न करते हों, तो वे शास्त्र-भाषा के अनुसार उत्सर्ग और अपवाद ही नहीं हो सकते । शास्त्रकार ने दोनों को मार्ग कहा है । और मार्ग वे ही ---- - - - - - --- १४- जाणि उस्सग्गे पडिसिद्धागि, उप्पण्मे कारणे सन्वाणि वि ताणि कप्पति । ण दोसो ......... ॥५२४५॥ - निशीथ चूणि. १५ - उत्पद्यते ही सावस्था, देशकालामयान् प्रति । पस्यामकार्य कार्य स्यात, कर्म कायं च वर्जयेत् ।। - महकप्रकरण २७ - ५ टीका १६-नोत्सृष्टमन्यार्थमपोचते च ।। -प्रन्ययोगव्यवच्छेदिका, ११ वीं कारिका समर्थमेवाश्रित्य शास्त्रपूत्सर्गः प्रवर्तते, तमेवार्थमाश्रित्यापवादोऽपि प्रवर्तते, तयो निम्नोन्नतादिव्यवहारवत् परस्परसापेक्षत्वेन एकार्थसाधनविषयत्वात् । -स्यादादमडारी, का. ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001830
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAmar Publications
Publication Year2005
Total Pages644
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_nishith
File Size10 MB
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