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( १६ ) समय पर उनका पूर्ण प्रौचित्य के साथ उपयोग न होने के कारण साधना-भ्रष्ट हो जाते हैं। इस सम्बन्ध में व्यवहार भाष्य और उसकी वृत्ति में एक बड़ा ही सुन्दर रूपक पाया है -
एक प्राचार्य के तीन शिष्य थे। अपने प्राचार्यत्व का गुरुतर पद-भार किसको दिया जाय ?, अस्तु तीनों की परीक्षा के विचार से प्राचार्य ने एक-एक को पृथक्-पृथक् बुलाकर कहा"मुझे अाम्र लाकर दो।"
अतिपरिणामी, साथ में दूसरी और भी बहुत सी अकल्य वस्तु लाने की बात करता है। अपरिणामी कहता है-"आम्र, साघु को कल्पता नहीं है । भला, मैं कैसे लाकर दूं?"
परिणामी कहता है-"भंते ! आम्र कितने ही प्रकार के होते हैं। क्या कारण है, और तदर्थ कौन-सा प्रकार अभीष्ट है, मुझे स्पष्ट प्रतिपत्ति चाहिए । और यह भी बताएं कि कितने लाऊ ? मात्रा का ज्ञान मेरे लिए आवश्यक है। कहीं ऐसा न हो कि मैं गलती कर जाऊं।"
__ प्राचार्य की परीक्षा में परिणामवादी उत्तीर्ण हो जाता है। क्योंकि वह उत्सर्ग और अपवाद की मर्यादा को भली भांति जानता है। वह अपरिणामी के समान गुरु की अवहेलना भी नहीं करता, और अतिपरिणामी की तरह कारणवश एक प्रकल्प्य वस्तु मांगने पर अन्य अनेक प्रकल्प्य वस्तु लाने को भी नहीं कहता। परिणामवादी हो जैन साधकों का समुज्ज्वल प्रतिनिधि चित्र है । क्योंकि वह समय पर देश, काल आदि की परिस्थिति के अनुरूप अपनेआपको ढाल सकता है। उसमें जहाँ संयम का जोश रहता है, वहाँ विवेक का होश भी रहता है ।
अपरिणामी, उत्सर्ग से ही चिपटा रहेगा। और अतिपरिणामी अपवाद का भी दुरुपयोग करता रहेगा । किस समय पर और कितना परिवर्तन करना, यह उसे भान ही नहीं रहेगा। मपरिणामी, सर्वथा अपरिवर्तित क्रिया-जड़ होकर रहेगा तो अतिपरिणामी, परिवर्तन के प्रवाह में बहता ही जाएगा, कहीं विराम ही न पा सकेगा। धर्म के रहस्य को, साधना के महत्व को परिणामी साधक ही सम्यक् प्रकार से जान सकता है, और तदनुरूप अपने जीवन को पवित्र एवं समुज्ज्वल बनाने का नित्य-निरंतर प्रयत्न कर सकता है। अहिंसा का उत्सर्ग और अपवाद
____ भिक्षु का यह उत्सर्ग मार्ग है, कि वह मनसा, वाचा, कायेन किसी भी प्रकार के स्थूल एवं सूक्ष्म जीवों की हिंसा न करे। क्यों नहीं करे? इस के समाधान में दशवैकालिक सूत्र में भगवान् ने कहा है-"जगती तल के समग्र जीव-जन्तु जीवित रहना चाहते हैं , मरना कोई नहीं चाहता। क्योंकि सब को अपना जीवन प्रिय है। प्राणि वध घोर पाप है। इसलिए निन्थ भिक्षु, इस घोर पाप का परित्याग करते हैं।"७४
३४-सब्बे जीवा वि इच्छंति, जीविउ न मरिजि। तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति गं ॥
-दश० भ०६, गा० ११ ।
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