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________________ ( २० ) उपर्युक्त कथन, जैन साधना पथ में प्रथम श्रहिंसा महाव्रत का उत्सर्ग मार्ग है । परन्तु कुछ परिस्थितियों में इसका अपवाद भी होता है। वैसे तो श्रहिंसा के अपवादों की कोई इयत्ता नहीं है । तथापि वस्तुस्थिति के यत्किचित् परिबोध के लिए प्राचीन आगमों तथा टीकाग्रन्थों में कुछ उद्धरण उपस्थित किए जारहे हैं । भिक्षु के लिए हरित वनस्पति का परिभोग निषिद्ध है । यहाँ तक कि वह हरित वनस्पति का स्पर्श भी नहीं कर सकता। यह उत्सर्ग मार्ग है । परन्तु इसका अपवाद मार्ग भी है । आचारांग सूत्र में कहा गया है, कि "एक भिक्षु, जो कि अन्य मार्ग के न होने पर किसी पर्वतादि के विषम-पथ से जा रहा है । यदि कदाचित् वह स्खलित होने लगे, पड़ने लगे, तो अपने आप को गिरने से बचाने के लिए तरु को, गुच्छ को, गुल्म को, लता को, वली को तथा तृण हरित आदि को पकड़ कर सँभलने का प्रयत्न करे । भिक्षु का उत्सर्ग मार्ग तो यह है, कि वह किसी भी प्रकार की हिंसा न करे। परन्तु, हरित वनस्पति को पकड़कर चढ़ने या उतरने में हिंसा होती है, यह अपवाद है । यदि सूक्ष्मता से विचार किया जाए तो यह हिंसा भी हिंसा के लिए नहीं होती है, अपितु अहिंसा के लिए ही होती है। गिर जाने पर अंग-भंग हो सकता है, फिर प्रार्त रौद्र दुर्ध्यान का संकल्प विकल्प श्रा सकता है, दूसरे जीवों को भी गिरता हुआ हानि पहुँचा सकता है । अतः भविष्य की इस प्रकार स्व-पर हिंसा की लंबी श्रृंखला को ध्यान में रख कर यह अहिंसा का ग्रपवाद है, जो मूल में हिंसा के लिए ही है । । वर्षा बरसते समय जीवों की विराधना होती है, स्पर्शमात्र भी निषिद्ध है परन्तु साथ में इसका यह प्रपवाद भी है, कि चाहे वर्षा बरस रही हो, तो भी भिक्षु उच्चार (शौच और प्रस्रवण (मूत्र) करने के लिए बाहर जा सकता है । ६ मलमूत्र का बलात् निरोध करना, स्वास्थ्य और संयम दोनों ही दृष्टि से वर्जित है । मलमूत्र के निरोध में ग्राकुलता रहती है, और जहाँ श्राकुलता है, वहाँ न स्वास्थ्य है, और न संयम । वर्षा में बाहर-गमन के लिए केवल मल मूत्र का निरोध ही अपवादहेतु नहीं है, अपितु बाल, वृद्ध और ग्लानादि के लिए भिक्षार्थं जाना अत्यावश्यक हो, तब भी उचित यतना के साथ वर्षा में गमनागमन किया जा सकता है । योगशास्त्र की स्वोपज्ञ वृत्ति में प्राचार्य हेमचन्द्र ने तणाणि भिक्षु प्रपने उपाश्रय से बाहर नहीं निकलता। क्योंकि जलीय हिंसा होती है। पूर्ण अहिंसक भिक्षु के लिए सचित्त जल का भिक्षु का यह मार्ग उत्सर्ग मार्ग है । ३५ --- से दत्थ पलमाणे वा रुक्खाणि वा, गुच्च्खाणि वा, गुम्माणि वा, लयाश्रो वा, वल्लीओ वा. हरियाणि वा भवलंबिय धवलंविय उत्तरिज्जा ' वा, - श्राचागंग, २ श्रुत० ईर्याध्ययन, उद्देश २ । ३६ - इतरस्तु सति कारणे यदि गच्छेत्- प्राचारांग वृत्ति २, १, १, ३, २० वच्या मुतं न धारए । दशवेकालिक प्र० ५, गा० १६ उच्चार-प्रश्रवणादिपीडितानां कम्बलावृतदेहानां यच्छतामपि न तथाविधा विराधना । Jain Education International - योगशास्त्रस्वोपज्ञवृत्ति ३ प्रकाश ८७ श्लोक । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001830
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAmar Publications
Publication Year2005
Total Pages644
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_nishith
File Size10 MB
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