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________________ ( २१ ) इस सम्बन्त्र में स्पष्ट उल्लेख किया है। यही बात मार्ग में नदी-संतरण तथा दुर्भिक्ष आदि में प्रलम्ब-ग्रहण सम्बन्धी ३. अपवादों के सम्बन्ध में भी है। ये सब अपवाद भी अहिंसा महाव्रत के हैं । जीवन, प्राखिर जीवन है, वह संयम को साधना में एक प्रमुख भाग रखता है। और जीवन सचमुच वही है, जो शान्त हो, समाधिमय हो, निराकुल हो । अस्तु, उत्सर्ग में रहते यदि जीवन में समाधिभाव रहता हो, तो वह ठीक है । यदि किसी विशेषकारणवशात् उत्सर्ग में समाधिभाव न रहता हो, अपवाद में ही रहता हो, तो अमुक सीमा तक वह भी ठीक है । अपने आप में उत्सर्ग और अपवाद मुख्य नहीं, समाधि मुख्य है । मार्ग कोई भी हो, अन्ततः समाधिरूप लक्ष्य की पूर्ति होनी चाहिए। सत्य का उत्सर्ग और अपवाद सत्य भाषण, यह भिक्षु का उत्सर्ग-मार्ग है । दशवकालिक सूत्र में कहा है"मृषावाद -असत्य भाषण लोक में सर्वत्र समस्त महापुरुषों द्वारा निन्दित है। असत्य भाषण अविश्वास की भूमि है। इसलिए निग्रन्थ मृषावाद का सर्वथा त्याग करते हैं।" । परन्तु साथ में इसका अपवाद भी है। प्राचारांग सूत्र में वर्णन आता है, कि एक भिक्ष मार्ग में जा रहा है। सामने से व्याध आदि कोई व्यक्ति आए और पूछे कि-"प्रायुष्मन् ! श्रमण ! क्या तुमने किसी मनुष्य अथवा पशु आदि को इवर आते-जाते देखा है ?" इस प्रकार के प्रसग पर प्रथम तो भिक्षु उसके वचनों की उपेक्षा करके मीन रहे। यदि मीन न रहनेजैसी स्थिति हो, या मौन रहने का फलितार्थ स्वीकृति सूचक जैसा हो, तो "जानता हुआ भी यह कहदे, कि में नहीं जानता।'' ३७-बाल-वृद्ध-ग्लाननिमित्तं वर्षत्यपि जलघरे भिक्षायै निःसरतां कम्बलांवृतदेहाना न तथाविधाकाय विराधना । -योगशास्त्र, स्वोपन वृत्ति ३, ८७ ३८-तमो संजयामेव उदमंसि पविजा । -प्राचा० २, १, ३, २, १२२ ३९–एवं श्रद्धाणादिसु, पलंबगहणं कया वि होजाहि । --निशीष भाष्य, मा० ४८७६ ४.-मुसावाप्रो य लोगम्मि, सम्य साहूहि गरिहियो । प्रविस्सासो य भूयाणं ; तम्हा मोसं विवजए । -श० भ० ६ गा.१३ ४१-"तुसिणीए उवेहेज्बा, जाणं वा नो जाणंति वएखा।" प्राचा० २, १, ३, ३, १२६ भिक्षोर्गच्छतः कश्चित् संमुखीन एतद् बयात-मायुष्मन् श्रमम! भवता पथ्यागच्छता कश्चिद् मनुष्यादिरुपलब्ध: ? तं चैवं पृच्छन्तं तूष्णीमावेनोपेक्षेत, यदि वा जाननपि नाहं जानागि इत्येवं वदेत् । -मापा०२, १, ३, ३, १२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001830
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAmar Publications
Publication Year2005
Total Pages644
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_nishith
File Size10 MB
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