SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इसका समाधान, हत्कल्प भाष्य में, इस प्रकार दिया गया है "उत्सर्ग अपने स्थान पर श्रेय एवं सबस है । और अपवाद अपने स्थान पर श्रेय एवं सबम है। इसके विपरीत उत्सर्ग के स्थान पर अपवाद अश्रेय एवं निर्बल है, और प्रपवाद के स्थान , पर असा प्रश्रेय एवं निर्बल है।३२ . प्रत्येक जीवन क्षेत्र में स्व-स्थान का बड़ा महत्व है । स्वस्थान में जो गुरुत्व है, वह पर स्थान में कहां? मगर, जल में जितना शक्तिशाली है, क्या उतना स्थल भूमि में भी है ? नहीं, मगर का श्रेय और बल दोनों ही स्वस्थान-जल में है। इसी प्रकार उत्सर्ग और अपवाद का श्रेय और बल भी अपेक्षाकृत है । उत्सर्ग के स्थान में उत्सर्ग और अपवाद के स्थान में अपवाद का प्रयोग ही जीवन के लिए हितकर है। यदि अज्ञानता अथवा दुराग्रह के कारण इनका विपरीत प्रयोग किया जाए, तो दोनों ही अहितकर हो जाते हैं। उत्सर्ग और अपवाद का स्वस्थान और परस्थान शिष्य जिज्ञासा प्रस्तुत करता है-"भंते ! उत्सर्ग और अपवाद में साधक के लिए स्वस्थान कौन-सा है ? और पर स्थान कौन-सा है ?" इस जिज्ञासा का सुन्दर समावान बृहत्कल्प भाष्य में इस प्रकार दिया गया है "जो साधक स्वस्थ और समर्थ है उसके लिए उत्सर्ग स्वस्थान है, और अपवाद परस्थान है । किन्तु जो अस्वस्थ एवं असमर्थ है. उसके लिए अपवाद स्वस्थान है, और उत्सर्ग परस्थान है।"33 देश, काल और परिस्थिति-वशात् उत्सर्ग और अपवाद के स्थानों में यथाक्रम स्व-परत्व होता रहता है । इस पर से स्पष्ट ही सिद्ध हो जाता है, कि साधक जीवन में उत्सर्ग और अपवाद का समान भाव से यथा परिस्थिति ग्रादान एवं अनादान करते रहना चाहिए । परिणामी, अतिपरिणामी और अपरिणामी साधक जैन धर्म की साधना न अति परिणामवाद को लेकर चलती है, और न अपरिणामवाद को लेकर ही चलती है । जो साधक परिणामी है, वही उत्सर्ग और अपवाद का मार्ग भली भांति समझ सकता है, और देशकालानुसार उनका उचित उपयोग भी कर सकता है । किन्तु अति परिणामी और अपरिणामी साधक उत्सर्ग एवं अपवाद को समझने में असमर्थ रहते हैं, फलतः ३२-सट्टाणे सट्टाणे, सेया बलिणो य हुंति खलु एए । सट्ठाण-परट्ठाणे, य हुंति वत्यूतो निष्फन्ना ।।३२३॥ -बृहत्कल्प भाष्य पीठिका ३३ - संथरमो सट्ठाणं, उस्सग्गो असहुणो परट्ठाणं । ज्य सट्ठाण पर वा, न होई वत्यू-विगा किंचि ॥३२४।। -हत्कल्प भाष्य पीठिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001830
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAmar Publications
Publication Year2005
Total Pages644
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_nishith
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy