Book Title: Chandra Pragnaptisutram
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्य श्री घासीलालजी महाराजविरचितया-चंद्रज्ञप्तिप्रकाशिकाख्यया व्याख्यया संमलड्कृतं श्रीचंद्रप्रज्ञाप्तसूत्रम् -: नियोजकः :संस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानि पण्डित मुनिश्री कन्हैयालालजी महाराजः । -: प्रकाशकः :--- श्रीवीकानेरनिवासि श्रेष्ठिश्री अगरचंदजी भेरुदानजी सेठिया तत्पुत्र प्रदत्तद्रव्य साहाय्येन श्री. अ. भा. श्वे. स्था. जैनशास्त्रोद्धार समिति प्रमुखः अष्ठि श्री शांतिलाल मंगलदासभाई महोदयः मु. राजकोट प्रथम भावृत्तिः ___ प्रति १२०० वीर संवत् विक्रम संवत् २४९९ २०२९ मूल्यम् रु. ३०-०० ईसवी सन् १९७३ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवानु : શ્રી અ. ભા. સ્થાનકવાસી જેને શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ है. रेडिया यूपा २४, शीट, (सौराष्ट्र) Pablished by: Sbri Akhil Bharat S.S. Jain Shastroddhar Samiti Garedia kuva Road RAJKOT (Saurashtra), W. Ry. India ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञा, जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैप यत्नः । उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालोह्ययं निरवधिविपुला च पृथ्वी ॥१॥ हरि गीतच्छन्दः करते अवज्ञा जो हमारी यत्न ना उनके लिये । जो जानते हैं तत्व कुछ फिर यत्न ना उनके लिये ॥ जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई तत्व इससे पायगा । है काल निरवधि विपुल पृथ्वी ध्यानमें यह लायगा ॥१॥ मूल्य रु. ३०-०० प्रथम आवृत्ति प्रति १००० वीर. सवता-२४.९९ विक्रम , २०२९ ईसवी सन् १९७३ मुद्रक-श्रीरामानन्द प्रिन्टिंग प्रेस, कांकरिया रोड, अहमदाबाद-२२ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमान् सेठ श्रीभैरोंदानजी सेठिया को संक्षिप्त जीवनी जैन समाज के महान स्तम्भ एवं अमूल्यरेत्न श्री भैरोदानजो सेठिया का सम्पूर्ण जीवन शिक्षा प्रसार एवं समाज सेवा में हि व्यतीत हुआ । युवक सा साहस, संतों के मदृश समभाव एवं उदार दानवीरता के गुणों की त्रिवेणो उनके स्वभाव का अंग थी । मानव जीवन को सार्थक बनाकर आपने सेवा और त्यागमय जीवन का आदर्श समाज के सन्मुख प्रस्तुत किया । आपका जीवन पूरा इतिहास है और आप द्वारा स्थापित" श्री अगर चन्द भैदान सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था चीकानेर" एक "प्रकाश-स्तम्भ" ज्ञान को विलास रश्मियां पुनः प्रतिष्ठित कर यह संस्था चिरकाल तक समाज की सेवा करती रहेगी। श्री भैरोदान जी सेठिया का जन्म वीसा ओसवाल कुल में विक्रम संवत् १९२३ विजयादशमी को बीकानेर रियासत के कस्तूरिया नामक गाँव में हुमा । आपके पिता का नाम श्री मान् सेठ धर्मचन्द जी था । भाप चार भाई थे। श्री प्रतापमल जो और श्री अगर चन्दजो आप से बड़े और श्री हजारीमल जो आपसे छोटे थे । दो वर्ष की अल्पायु में ही आपके पिताजी 'का स्वर्गवास हो गया । सात वर्ष की आयु में बीकानेर के बड़े उपाश्रय में साधुजी नामक यति के पास आपकी शिक्षा का आरम्भ हुमा । दो वर्ष पढ़ कर वि. स. १९३२ में कलकत्ते को यात्रा की ओर लौटकर वीकानेर के निकट शीववाड़ी गांव में रहे। स. १९३६ में आपने बम्बई की यात्रा की। वहाँ अपने बड़े भई श्रीमगर चन्द जो के पास रहकर व्यापारिक एवं व्यावहारिक शिक्षा पाई । साथही मापने हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती भाषाएँ सीखी। ". १९४० में बम्बई से लौटे । इसी वर्ष में आपका विवाह बीकानेर राज्य के आडसर गाँव के श्रीमान् दुलीचन्द जी नाहर को सुपुत्री रूपकुंवर के साथ हुमा । भाईयों में सम्पत्ति आदि विमाजन होने पर आपने स्वावलम्बी जीवन में प्रवेश किया। मं. १९४१ में आप पनः नई के लिए रवना हुए और वहाँ एक फर्म मुनीम नियुक्त हुए । इसी वर्ष आपकी मातेश्वरी गंगाबाई का वम्बई में स्वर्गवास हो गया पर आपने धैर्यपूर्वक इस कष्ट को सहन किया। बम्बई में आप सात वप रहकर संवत १९४८ में कलकत्ते गये । कार्यकुशल, धर्म परायण एवं मितव्ययो पत्नी के सहयोग से आपने बम्बई में ३०००. रु० एकत्र कर लिये थे। इस पूजी से मनिहारी और रग की दुकान , खोली और गोली सूता का कारखाना शुरू किया । अध्यवसाय, परिश्रम, नम्रता, ईमानदारी, व्यापारिकज्ञान आदि गुणों के कारण आपके व्यापार Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में आशातीत विस्तार हुआ । श्रीमान् अगर चन्द का ओ भी अपनो फर्म में सम्मिलित कर लिया और अब फर्म का नाम "."सो. बी सेठिया एन्ड कम्पनी रख दिया । वेल्जियम, स्विटजरलैडबर्लिन के रंग के कारखानो की तथा गाँवलाज gablan आष्ट्रिया के मनिहारी कारखाने की सोल, एजेन्सियाँ प्राप्त करली । आपने हावड़ा में 'धी सेठिया कलर एन्ड केमिकल वर्क्स लिमिटेड नामक रंग का, कारखाना खोला जो भारत वर्ष का सर्व प्रथम रंग का कारखाना.था रंग विश्लेषण के फार्मुले सीखने केलिए आपने एक जर्मन विशेषज्ञ को दैनिक पाँच मिनट के लिए,३००, रुपये मासिक, पर: नियुक्त किया था । स. १९७१ (सन् १९१४) के प्रथस विश्वयुद्ध में रंगों के भाव बढ़ जाने से रंग के कारखानेसे' आशातीत लाभ हुआ। ', ' ।। होमिय पैथी चिकित्सा पद्धति को आपने सं. १९६५ में अपनाया और उसकी अनुकलता, सुगमता से प्रभावित हुए । फलस्वरूप आपने प्रख्यात डाक्टर जतीन्द्रनाथ मजमूदारके पास होमियोपैथी का अभ्यास किया और प्रवीणता. प्राप्त की। इसका साकार रूप आज "सेठिया जन होमियोपैथिक औषधालय" है, जहां वार्षिक५५००० की सख्या में जनता निःशुल्क चिकित्सा, पा रही है। वि.सं., १९६.९ (.१९१३ ) में बीकानेर में महात्मा गांधी रोड (पूर्व नाम किंग एडवर्ड मेमोरियल रोड) पर "बो. सेठिया एन्ड सन्स" नाम से, दुकान खोली वह आज भी बीकानेर की प्रथम श्रेणी की विश्वस्त जो जनरल एवं फेन्सी सामान के लिए प्रसिद्ध है। - सं..१९७०, में बीकानेर में स्कूल स्थापित को जहां बच्चों को व्यावहारिक शिक्षा के साथ साथ धार्मिक शिक्षा भी, दी जाती थी। इससे भी पहले आपने शास्त्र भण्डार का काम शुरू करा दिया था । सं...१९७२ (१९१६ ) से पुस्तक प्रकाशन का काम शुरू किया. लागत मूल्य और उससे भी कम मूल्य पर साहित्य उपलब्धकर,जैन समाज के विकास में, आपने,महत्वपूर्ण भूमिका अदा को । संस्थाने अब तक अर्थात् सं.२०२८ तक १४० ग्रन्थ प्रकाशित किए हैं जिनमें किसी किसी को "१८ आवृत्ति तक छप चुकी है । कतिपय महत्वपूर्ण ग्रन्थों के नाम इस प्रकार है ।... | FT. (ii. If .. TEETHICE EPe k . . . . . . 1 HR PHP जैन-सिद्धान्त बोल संग्रह माग, १ से ८ ।, दशवैकालिक सूत्र , , . .जैन दर्शन ।। I'. • • . उत्तराध्ययन सूत्र अहित प्रवचन 'प्रश्न .व्याकरण सूत्र . . . नवतत्त्व ( विस्तार सहित ) ' ' । आचारांग सूत्र प्रः श्रुतं स्कध भगवती सूत्र एवं "पन्नवणा सूत्र के थोकड़े, ' शब्दार्थ, अन्वयाथ भावार्थ सहित । "Tink hti '' ..] ६ ।। ।।। 17 in !... . Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत् १९७८ में श्री अगरचन्द जी एवं मापने मिलकर समाज में शिक्षा एवं धर्म प्रचार के लिए अगरचन्द भैरोदान सेठिया जैन पारमार्थिक संस्थाएँ स्थापित को जिसका नवीन ट्रस्टडोड २१ सितम्बर १९४४ ई० को फलकत्ते में (स. २००१ आसोज सुदी ६) कराया गया। संस्था में उस समय भी चल और अचल पांच लाख रुपये की संपत्ति थी। २१. ३. ४६ को व्याख्यन भवन (सेठिया कोठड़ी) एवं ता. २८. ३. ४६ को संस्था को सस्था के कार्यालय बीकानेर में ट्रष्टडोड रजिस्टर्ड कराया । औषधालय, कन्यापाठशाला, छान्नायम्स, पुस्तकालय, का सिद्धान्तगाला आदि विभागों के माध्यम से संस्था समाज को सेवा कर रही है। सं. १९७९ श्रावण वदो १० पन्द्रह वर्ष की उम्रमें आपके पुत्र उदयचन्द' जी का ' मसामयिक निधन हो जाने के कारण आपके मन पर संसार की असारता हा गहरा प्रभाव ' पहा । आपने कलकत्ते का व्यापार समेट लिया और धार्मिक ज्ञान प्रसार ओर लगे । सं. १९९४ में आपने "ज्ञान इफावनी' की रचना को जो सं १९९८ में प्रकाशित हुई । सन्. १९२६ में माप अ. भा. इवे. स्था. जैन काकांस के प्रथम अधिवेशन के सभापति बने । ' बीकानेर नगर और राजा के लिए की गई आपकी सेवाए अविस्मरणीय है:१० वर्ष तक बीकानेर म्युनिसिपल बोर्ड के कमिश्नर रहे । सन् १५२९ में सबसे पहले जनता में से आप ही सर्व सम्मति से बोर्ड के वाइस-प्रेसिरेन्ट चुने गये। सन् १५३१ में राज्य ने आपको ऑनरेरी मजिस्ट्रेट बनाया । दो वर्ष तक आप वेंच ऑफ ऑनरेरी मजिस्ट्रेट्स में कार्य करते रहे | आपके फैसले किये हुए मामलों की प्रायः अपोलें नहीं हुई। सन् १५३८ में म्युनिसिपल बोर्ड की ओर से माप बीकानेर लेनिस्लेटिव एसेबली के सदस्य चुने गये। मई १५४९ में महिला जागृति परिपद् , नीकानेर की स्थापना के समय मुक्तहाथ से दान दिया। सन् १९३० में बीकानेर ऊलन प्रेस खरीदा और ऊल बरिंग फैक्टरी (Wool Burring Factory) खरीदो । यहां की वंधी गठि अमेरिका, लीवरपूल आदि स्थानों को जाती हैं । बिकानेर में ऊनव्यवसाय की प्रगति में ऊन प्रेस का भी हाथ है । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गायगोधों के घास, कबूतरों के चुगे के लिए एवं अन्य सहायता के लिए पृथक् पृथक् फंड स्थापित कर सेठिया जी ने परोपकार भावना का सुन्दर उदाहरण उपस्थित किया है । सेठिया नाइट कॉलेज की स्थापना करके आपने ज्ञान के नये आयाम प्रदान किये । रात्रि । को हाईस्कूल इन्टर बी. ए., एम. ए. एवं संस्कृत व हिन्दी की परीक्षाओं के लिए यहां नियमित कक्षाए लगती थी । रात्रि में आशुलिपि (शोर्ट, हेन्ड) की कक्षा भी खोली गई थी। । । उल्लेखनीय है कि उस समय बीकानेर में मेट्रिक से आगे की पढ़ाई नहीं थी और दिन को अर्थोपार्जन कर रात्रि को विद्याध्ययन कर अपनी उन्नति कर सके इसी दृष्टि से नाइट कॉलेज खोला गया था । उस समय बीकानेर में शिक्षा की चेतना कम थी उसे जागृत कर जो सेवा सेठिया जी ने की है उसे बीकानेर भूलेगा नहीं। सेठिया जी स्वनिर्मित महापुरुष थे। गरीबी और अभाव की परिस्थितियों से उठकर उन्होंने ,अध्यवसाय, साहस एवं अथाक परिश्रम से अपने परिवार को ही समृद्धिशाली नहीं बनाया, . समाज की सेवा भी की । वे स्वावलम्बी थे और अहंकार उनसे कोसों दूर था । ___मुनि न होते हुए भी आपका त्यागमय जीवन देखकर सबका मस्तक झुक जाता था । सदा साधक रहकर नवीन ज्ञान सीखते रहे और आपने अपने व्यवसायिक अनुभवों के आधार पर अनेक व्यापारी बनाये। दिनांक २०-८-६१ को प्रातः दस बजकर पचास मिनिट पर संथारा पूर्वक आपने पार्थिव शरीर छोड़ा पर उनके कार्य अमर हैं । सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था आज चहुंमुखी .. प्रगति पर है और समाज की सेवा कर रही है । संस्था ने शताधिक विद्वान तैयार किए हैं जो विविध क्षेत्रों में महत्वपूर्ण पदों पर हैं। आप सदा स्वावलम्बी, साहसी, अध्यवसायशील एवं कर्मठ रहे । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S T RAX > NA .. Panasi HMMM. SHASTNEL ar dledias 1 श्रीमान शेठश्री अगरचन्दजी भेरुदानजी शठिया:-बीकानेर Page #8 --------------------------------------------------------------------------  Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - -—આમુરબ્બીશ્રીઓ રોટ શ્રી શાંતિલાલ મંગળદારાભાઈ અમદાવાદ (0) રોકી શામજીભાઈ વેલજીભાઈ વીરાગી-રાજકોટ સ્વ. સુધીરભાઈ જયંતીલાલ ઝવેરી (વ.) શેઠશ્રી છગનલાલ શામળદાસ ભાવસાર અમદાવાદ, મુંબઈ નનનન . 1 : નામ શેઠશ્રી રામજીભાઈ શામજીભાઈ વાજા વિરાજચંદ્રની રસ, વીરાણ-રાજકેટ, उमेला-सुपुत्र चि. महेतावचन्दजी सा. नाना-अनिलकुमार जैन दोयत्ता दिल्ही Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આદ્યમુરબ્બીશ્રીઓ નનનન - - - છે - - - અet 3 (સ્વ) શેઠશ્રી હરખચંદ કાલીદાસ વારિઆ ભાણવહ (સ્વ.) શેઠ રંગજીભાઈ મેહનલાલ શાહ અમદાવાદ, - - - piebtesten - - memandu (સ્વ) શેઠશ્રી દિનેશભાઈ કાંતિલાલ શાહ અમદાવાદ, સ્વ. શેઠશ્રી જીવરાજભાઈ મૂલચંદભાઈ ધ્રાંગધ્રા - - - - - * - - - - - - : -- *.. \" * ht : c શેઠશ્રી જેસિંગભાઈ પિચલાલભાઈ અમદાવાદ સ્વ. શેઠશ્રી આત્મારામ માણેકલાલ અમદાવાદ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આમુરબ્બીશ્રીઓ જન્મ - - - - - - - - - 1 1 પટેલ ડોસાભાઈ ગોપાલદાર મુ ગંદ (જી. અમદાવાદ) ૧ અમીચંદભાઈ તથા ૨ ગીરધરભાઈ બાટવિયા મુ. બેંગલોર - - - - ------ - - - - * ૧૧ ---- * છે કે આ - * * :- છે મદ્રાસવાલા સ્વર્ગસ્થ ન્યાયમૂતિ રસ્તીલાલભાઈ ભાયચંદભાઈ મહેતા tી જ જોવીસ્ટાસ્ટની જુરિજા मुः उदयपुर - - - - - - 1 - -- - - - - *. . સ્વ, શેઠ માણેકચંદ નેમચંદ મુ. માંગરેલ श्रीमान् शेठ कानुगा श्री गंगडमलजी-अहमदावाद Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આમુરબ્બીશ્રીઓ । - - - h- Santonmutuata 7 स्व. शश्री eReu मना५४. शाल स्त्र. शेट श्री ताराचंदजी साहेब गेलडा Mela. मद्रास. 7 . 7 - - -- 3 . Lamkisha ................ श्रीमान् शेट सा. चीमनलालजी सा. शेट श्री कीशनलालजी फुलचंद मा० अखभचंदजा सा. अजीतवाले (सपरिवार) बंगलोरखाले . 1 बच्चे वेठेला-मोटाभाइ श्रीमान् मूलचंदजी जवाहीरलालजी वरडिया पाजुमां बेटेला-भाई मिश्रीलालजी बरडिया उमेला-सोयी नानाभाई पूनमचंदजी बरडिया श्रीमान् सेठश्री खींवराजजी सा. चोरडिया मु० मद्रास . Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवमुच्चीश्रीओ - d thrvasnawwarngmaynear શ્રીમાન રેઠ પોપટલાલ માવજીભાઈ મહેતા, જામજોધપુર श्रीमान् शेठ धनराजजी पन्नालालली जांगडा, मु. जालना ----namaveena m -- woman . L.... .............. शेठधी मिश्रीलालनी लालचंदजी सा. लुणिया तथा शेउश्री जेवतराजजी अमदावाद मुसा भूतमाशा રાજકેટ - Animat- -- - in- Anus ... ... .... । अवेरी सlene elect मोना स्व. श्रीमान शेटश्री मुकननंदजीसारण वालिया पाली मारवाड .. भदाय Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयमुरव्वीश्रीओ It 5 પs , પ. * ' * * * * શ્રીમાન શેઠ મણીલાલ પોપટલાલ વોરા અમદાવાદ, જન્મ તા. ૧૦–૬–૧૯os શ્રીમાન સ્ત્રીની પૂરી नाहटा, मु. देहली \1. P / * \ \ ---- ------ * = 1 S ક - ક મ - જ ૧ - : - ૧૧ - , , -- નામ ઇ . ; ' , ' , શ્રી વૃજલાલ દુર્લભજી પારેખ રાજકેટ, કેકારી હરવિંદ જેચંદભાઈ રાજકેટ, " બાન ' - , -માં - -~ 'E ના . હે ના - શેઠશ્રી મણીલાલ પાલનપુરવાળા ભાઈ શ્રીમાન લાલાજી કપુરચંદજીનારા Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयमुरवीश्रीओ - - - - ) શ્રી ધારશીભાઇ જીવણલાલ મી શ્રીમ ર નમાં રતનાલીમ K, શ્રી વિનોદકુમાર વિરાણી રાજકેટ शेठश्री देवचढभाई फोजीलालमाई चलाणी-सुरत શેઠ શ્રી અમુલખભાઈ મલકચંદ પાલનપુરવાલા Page #16 --------------------------------------------------------------------------  Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्रस्य विषयानुक्रमणिका प्रथमं प्राभृतम् क्रमांक विपय पृष्ठांक १ मङ्गलाचरणम् १-३ २ शास्त्रप्रतिज्ञा ३-४ ३ विंशति प्राभृन संख्या तदर्थश्च ४-५ ४ प्रामृतान्तर प्राभृन नगनविपयनिरूपणम् ५-९ ५ प्रथा प्रामृतान्तरप्राभूतविषयनिरूपणम् ६ द्वितीयमामृतान्तप्राभूतविषयनिरूपणम् १०-११ ७ दशमप्रामुनगतान्तरप्राभृतनिरूपणम ११-१४ ८ मुहतद्वय प्रवृद्धि निरूपणम् १५ ९ सूर्यादिम साऽडोगत्रवृतिहानिनिरूपणम १५-१८ १० बाह्याभ्यन्तरमण्डलमंचारि गत्रिदिवप्रमाणनिरूपणम् १९-२३ ११ आदिस्यसंवत्सरनिरूपणम २३-२५ १२ रात्रिदिवयोहानिवृद्विक्रमनिरूपणम् २५-३० १३ परिपूर्ण पश्चदश मुहर्तगत्रिंदिवयोगर्भावनिरूपणम् ३०-३३ १४ दाक्षिणात्यायॊत्तगई मण्डलसंस्थिनिस्वरूपनिरूपणम् ३३-४३ १५ सूर्यपरिभ्रमणविचारः ४३४९ १६ द्वौ मूर्यो परस्पर कियदन्तरेण चारं चरतः ४९-५८ १७ द्वितीयमासे द्वयोः सूर्ययोगन्तर्यम् ५८-६१ १८ सूर्यस्य द्वि समुद्रावगाहनिरूपणम ६१-१८ १९ सूर्यस्य एकरात्रिंदिवे यावत् प्रथमद्वितीय पण्मामाऽहोरात्र क्षेत्रसंचरण निरूपणम् ६८-७८ २० चन्द्रादि मण्डलसंस्थितिं मण्डलपदानां प्रमाणनिरूपणम् ७८-९० २१ द्वितीयपण्मासे सूर्यपरिभ्रमणनिरूपणम् ९१-९२ २२ आदितः अष्टप्राभृतेष्वागत विषयस्योपसंहारः ९६-९९ द्वितीयं प्राभृतम् २३ सूर्यस्य द्वितीय पण्मासाहोरात्रे क्षेत्रसंचरणम् तथा च सूर्यस्य मण्डलात् मण्डलान्तर संचरणम् ९९-१११. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ प्रतिमुहूर्त सूर्यस्य गतेनिरूपणम् २५ गतिविषये स्वसिद्धांतप्रतिपादनम् २६ सर्वाभ्यन्तर मण्डले सूर्यस्य प्रवेशः २७ चन्द्रसूर्ययोः प्रकाशक्षेत्रनिरूपणम् २८ प्रका शस्य सस्थाननिरूपणम् २९ तापक्षेत्रसंस्थितिनिरूपणम् ३० सूर्यलेश्यायाः प्रतिघातस्वरूपम् ३१ मोजसंस्थितिनिरूपणम् ३२ सूर्यावरणनिरूपणम् ३३ सूर्यस्य उदयसस्थिनिनिरूपणम् ३४ भगवता प्रदर्शितदिवसरात्रिप्रकारस्तन्मुहूर्त्तमाने च ३५ दक्षिणार्धात्तरार्धे वर्षाकालादिनिरूपणम् ३६ सूर्यः पौरुषि छायां कति काष्ठां निवर्तयिष्यति ३७ पौरुषोच्छायायाः प्रमाणनिरूपणम् ३८ पौरुषीच्छयाविषयेऽन्यतोर्थिकमतम् स्वमतनिरूपणं च ३९ चन्द्रसूर्ययोः मावलिकानिपातः ४० नक्षत्राणां चन्द्रेण सह योगनिरूपणम् ४१ एवंमागनक्षत्रस्वरूपनिरूपणम् ४२ योगस्यादि निरूपणम् १३ योगसम्बन्धान्नक्षत्राणां कुलत्वादिकम् ४४ पूर्णिमायां नक्षत्रयोगनिरूपणम् ४५ पूर्णिमायां कुलोपकुलादिकम् ४६ अमावास्या योगकारी कुलादिनक्षत्रम् तथा च नक्षत्रसन्निपातः ४७ नक्षत्रसंस्थाननिरूपणं तथा च नक्षत्राणां तारासंख्यानिरूपणम् ४८ नक्षत्राणां नेतृत्वं तथा च पौरुपी प्रमाण प्रतिपादकगाथार्थ १९ चन्द्रमार्गनिरूपणम् ५० चन्द्रमार्गान्तरम् तथा च चन्द्रसूर्यमण्डलमार्गतदन्तरं च । ५१ नक्षत्राणां देवतादिकम् ११२-१२० १२१-१३४ १३४-१४१ १४२-१४९ १४९-१५२ १५२-१६६ १६७-१७१ १७२-१८३ १८४-१८५ १८६-१९१ १९२-१९९ २००-२०६ २०७-२१० २१०-२१६ २१६-२२५ २२६-२२८ २२९-२३९ २४०-२४४ २४५-२५६ २५७-२५९ , २६०-२८४ २८४-२८९ - २८९-३१० ३१०-३१५ ३१६-३३० ३३०-३३४ ३३४-३५१ . ३५१-३५३ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक पृष्ठांक विषय ५२ एनदश दिवसरात्रीणां नामानि तथा च तिथिनामानि ५३ अष्टाविंशतिनामाणां गोत्राणि भोजनानि च ५४ चन्द्रादित्यचानिरूपणम् ५५ लशकलोकोत्तरमासनामानि ५६ संवत्सरवरूपनिरूपणम् ५७ हितोय युगसवासनिरूपणम् ५८ प्रमाणसंवन्मरनिरूपणम् ५९ लक्षणसंवत्मनिरूपणम् ६० नक्षचकहानिरूपणम् ६१ नक्षत्रस्वरूपनिरूपणम् ६२ सीमाविष्कंभनिरूपणम् ६३ नक्षत्राणां चत्रेण सह योगकरणम् ६४ पौर्णमास्यमावास्यानिरूपणम् ६५ सूर्यस्य पौर्णमामी परिसमाप्तिदेशः १६ चन्द्रस्यामावास्या परिसमप्तिदेशनिरूपणम् ६७ सूर्यस्यामावास्या परिसमाप्तिदेशनिरूपणम् ६८ चन्द्रसूर्यो वा केन नक्षत्रेण पौर्णमासी समापयतीति ६९ सूर्यचन्द्रयोरमावास्या परिसमाप्तिनिरूपणम् ७. नक्षत्रेण सह योगकालनिरूपणम् ७१ नक्षत्रपरिभागनिरूपणम् ७२ संवत्सराणामादिस्वरूपनिरूणम् ७३ नक्षत्रादि सवत्सराणां संख्यादिकनिरूपणम् ७४ पश्चसंवत्सराणां संमेलने रात्रिंदिवपरिमाणं ७५ संवत्सराणां समादि समपर्यवसानम् • ७६ ऋतुवक्तव्यता प्रतिपादनम् '७७ सूर्यचन्द्रयोः आवृत्तिस्वरूपम् ७८ सूर्यचन्द्रयोः हेमन्तीमावृत्तिस्वरूपम् ७९ छत्रातिछत्रयोगे चन्द्रयोगनिरूपणम् । ३५३-३६१ ३६१:-३६६ ३६६-३६८ ३६८-३६९ ३७०-३७६ ३७६-४०३ ४०४-४११ ४१२-४१५ ४१५-४२० ४२०-४२४ ४२४-४२९ ४२९-४३१ ४३२-४३५ ४३६-४३९ ४४०-४४२ ४४२-४४४ ४४५-४५६ ४५७-४६४ ४६४-४७० ४७०-१७३ ५४७४-४८८ ४८९-५०० ५०१५५०६ ५०६-५१५ • ५१५-६३५ ५३५-५५६ ५५६-५६६ ५६७-५६९ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पृष्ठांक क्रमांक विषय । ८. चन्द्रमसो वृद्धयपवृद्धिनिरूपणम्' . ५७०-५७५ - ८१ मण्डलेषु चन्द्रार्धमासचारनिरूपणम् ५७६-५९२ ८२ ज्योत्स्नाधिक्यनिरूपणम् ५९२-५९६ ८३ ज्योतिष्काणां शीघ्रगांतनिरूपणम् ५९६-६०२ ८४ चन्द्रसूर्यनक्षत्राणां परस्परं मण्डलभागनिरूपणम् ६०२-६०७ ८५ चन्द्रादीनां नक्षत्रमासचरणनिरूपणम् ६०७-६१८ ८६ अहोरात्राधाश्रित्य चन्द्रादीनां मण्डलचारम् ६१८-६२३ ८७ चन्द्रस्य ज्योत्स्नालक्षणादिनिरूपणम् ६२५८८ चन्द्रसूर्याणां च्यवनोपपातनिरूपणम् ६२६-६२८ ८९ भूमितः सूर्यचन्द्रयो रुच्चत्वनिरूपणम् ६२९-६३४ ...९० ताराविमानाधिष्ठातृणां अणुत्वतुल्यत्वम् ६३५५६३६ ९१ मन्दरलोकान्तपर्वतात् चन्द्रस्य परिवारज्योतिश्चक्रचारम् ।। ६३७९२ सर्वाभ्यन्तरादि चारसूत्रनिरूपणम् ६३८-६४१ ९३ विमानपरिमाणनिरूपणम् ६४१-६४२ ९४ चन्द्रविमानवाहकदेवानां सख्या .६४२-६४४ . ९५ ताराणांपरस्परमन्तरनिरूपणम् ..९६ चन्द्रसूर्याणामग्रमहिण्य कथनम् . .. । ६४६-६४९ ९७ ज्योतिष्कदेवानां स्थितिनिरूपणम् ६४९-६५० ९८ चन्द्रादीनां अल्पबहुत्वम् , ९९. चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां सख्यादिकम् १०. मनुष्यक्षेत्रस्थितचन्द्रादिदेवाना उत्पत्तिक्षेत्रम् ६८०-६८४ ...१०१. पुष्करवरद्वीपसबन्धी वक्तव्यता . ..। , , , ' ६८४-६८८ १०२ इन्द्रादि द्वीपसमुद्रनिरूपणम् । ।।।।। , -६८८-६९० १०३, चन्द्रसूर्याणामनुभावनिरूपणम् । ६९१-६९३ १०४ राहु वक्तव्यता . ..६९३-७०२ १०५ चन्द्रस्य 'शशी' सूर्यस्य 'आदित्य, नामकारणम् ७०२-७०४ १०६ चन्द्रसूर्ययोरग्रमहिषीणां सख्यादिवर्णनम् ७०४-७१० '१०७ अष्टाशीतिग्रहनामानि ७१०-७१५ समाप्त , । ।।.. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । श्रीवीतरागायनमः। जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्य-श्री-घासीलालबतिविरचितया चन्द्रज्ञप्तिमकाशिकाख्यया व्याख्यया समलङ्कृतम् श्री-चन्द्रप्रज्ञाप्तिसूत्रम्। मङ्गलाचरणम् नम्रीभूतपुरन्दरादिमुकुट,-भाजन्मणिच्छायया, चित्रानन्दकरी सदा भगवती यस्याङ्घ्रिलक्ष्मीः परा । सद्विज्ञान-निरन्तसिन्धुलहरी,-मग्नाः स्वकर्मक्षयं, फुत्वाऽनन्तमुखस्य घाम भविनः प्रापुः श्रये तं जिनम् ॥१॥ विमलः केवलाऽऽलोक,-प्रभासंभारभासुरः । त्रिजगन्मुकुरो धीरो, वीरो विजयतेतराम् ॥२॥ श्रीसुधर्मा महावीर-लब्धरत्नोज्वलो गणी । निवबन्ध तदुक्ताथै, नमस्तस्मै दयालवे ॥३॥ अर्थतत्करुणालब्ध,-विवेकामृतविन्दुना । तन्यते घासिलालेन, 'चन्द्रज्ञप्तिमकाशिका' ॥४॥ पूज्य ईश्वरलालश्च, गणिवर्यो हि विश्रुतः । चन्द्रप्रज्ञप्तिवृत्तिश्च, तत्स्मृत्यर्थ विरच्यते ॥५॥ अथ सूत्रकारोऽविघ्नेन शास्त्रसमाप्त्यर्थम् इष्टसिद्धयर्थं च प्रथममिष्टदेवताप्रीत्यर्थं तत्स्तवमाह-'जयई' इत्यादि । मूलम्-जयइ नवनलिणकुवलय-वियसियसयवत्तपत्तलदलच्छो । वीरो गइंदमयगलसललियगयविकमो भयवं ॥१॥ छाया-जयति नवनलिनकुवलयविकसितशतपत्रपत्रलदलाक्षः । घीरो गजेन्द्रमदकलसललितगतविक्रमो भगवान् ॥१॥ व्याख्या-अत्र स्तवो द्विविध:-गुणोत्कीर्तनरूपः, साक्षात्प्रणामरूपश्च । तत्र साक्षात्प्रणामरूपः स्तवः साम्प्रतकाले नैव संपद्यते, सम्प्रति तीर्थकरस्याविद्यमानत्वात् । यत् स्थापनातीर्थकरस्य Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे साक्षात्प्रणामरूपः स्तवः कर्तुं शक्यते, इति कथ्यते तन्मिथ्यात्वविलसितम् , स्थापनायां तन्निस्सारत्वेन तत्र तीर्थकरत्वस्यासंभवात् । एतद्विपये विस्तरतो मत्कृतायामनुयोगद्वारस्यानुयोगचन्द्रिकाटीकायां विलोकनीयम् । गुणोत्कीर्तनरूपः स्तवश्वात्र प्रस्तूयते-'जयइ' जयति विजयवान् भवति रागादिशत्रुजेत. त्वात् , कः ! इत्याह-वीरो, वीरः श्रीमहावीरश्चरमतीर्थकर इत्यर्थः । अत्र 'जयति' इति वर्तमानप्रयोगः कथम् ! नैवात्र संप्रतिकाले भगवान् वीरो विद्यते ? इति न, तीर्थकराणां ज्ञानसत्तायाः सर्वत्र सर्वदा कालत्रयेऽपि विद्यमानत्वात् तेषां सदैव वर्तमानत्वमेवेति न किमपि शङ्कनीयम् । __अथवा रागादिशत्रवस्तु पूर्वमेव निर्मूलीकृताः किन्तु तत्फलभूतं सिद्धत्वमधाप्यप्रतिहतमेव तिष्ठति, इति सिद्धत्वफळे हेतुत्वेन उपचारात् 'जयतीत्युक्तम् । अथवा सम्प्रत्यपि भक्त्या ध्यानगोचरीभूतो ध्यातॄणां रागादिशत्रून् अपाकरोति उक्तञ्च-भत्तीइ जिणवराणं, खिप्पंति पुन्चसंचिया कम्मा । आयरियणमोकारे, विज्जा मंता य सिझंति ।।' भक्त्या जिनवराणां क्षिप्यन्ते पूर्वसंचितानि कर्माणि | आचार्यनमस्कारे विद्या मन्त्राणि च सिध्यन्ति, इति वचनात् , ततो जयतीति प्रयोगो युक्त एव । यद्वा जयति सर्वानपि सुरासुरादीन् अतिशेते धातूनामनेकार्थत्वात् , यो हि सुरासुरेभ्योऽपि स्वगुणैरतिशायी वर्तते स प्रेक्षावतां नमस्करणीयो भवत्येव गुणाधिक्यात् ततो जयतीति युक्तमेव । कोऽसौ इत्याह-वीरो-वीरः, 'शूर-वीर विक्रान्ती' इति धातोः वीरयति कषायादिशत्रन् प्रति विक्रामतीति वीरः । अस्य वीर इति नाम न यादृच्छिकं किन्तु यथावस्थितमेव परीपहोपसर्गादिनेतृत्वविषयं वीरत्वमाश्रित्य सुरैः कृत. मिदं नामानन्यसाधारणमिति । अनेन अपायापगमरूपोऽतिशयो ध्वन्यते । अथवा 'ई' गतिप्रेरणयोः' इति धातोः वि-विशेषेण ईरयति-प्रेरयति अपुनर्भावरूपेण आत्मनः सकाशात् अष्टविधकर्माणि च्यावयतीति वीरः, यद्वा ईर्षातुर्गत्यर्थकोऽपि, अतः वि-विशेषेण शीघ्रतया ईरयति गच्छति शिवमिति वीरः, अत्र भगवतोऽपायावगमातिशयप्रतिपत्तिः सूचिता सूत्रकारेणेति । किविशिष्टो वीरः ? इत्याह-'नवनलिण-कुवलय-वियसिय-सयवत्त-पत्त लदलच्छो' नवनलिन-कुवलय-विकसित-शतपत्र-प्रतलदलाक्षः, तत्र नवं-नूतनम्-अल्पकालिकं यत् नलिनम्-ईपद्रक्त कमलम् तथा कुवलयं नीलोत्पलम् , तथा विकसितं-प्रफुल्लितं शतपत्रं-सामान्यकमलं तस्य प्रतले-अस्थूले ये दले-पत्रे तद्वत् अक्षीणि नेत्रे यस्य स तथा, यस्य भगवतो नेत्रद्वयम् उपान्ते रक्ताभायुक्तत्वेन ईषद्क्तं, नीलामायुक्तत्वेन ईपन्नीलम् प्रफुल्लितत्वेन आयतम् कोमलं-मनोहारि च वर्तते इति भावः । पुनः कीदृशो वीरः ? इत्याह-'गइंदमयगलसललियगयविकमो' गजेन्द्रमदकलसललितगतविक्रमः, अत्र-'मदकल' शब्दस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् तेन मदकलः मदेन सुन्दरः , तरुण इत्यर्थः, एतादृशो यो गजेन्द्रः गजानां मध्ये इन्द्र इव इन्द्रः शेषगजेभ्यो गुणातिशयित्वात् , Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका मङ्गलाचरणं शास्त्रप्रतिज्ञा ३ तस्य सललितं लालियसहितं मनोजलीलासहितत्वात् एतादृशं यत् गतं गमनं तद्वत् विक्रमः पदन्यासो यस्य स तथा मदोन्मत्तगजेन्द्रवत् मनोहारिगतियुक्त इत्यर्थः, पुनः कीदृशो वीरः ? इत्याह-'भयवं' भगवान्-भगः ऐश्चर्यादिरूपः, उक्तश्च ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसा श्रियः। धर्मस्याय प्रयत्नस्य, पण्णां भग इतीङ्गना ॥१॥ सोऽस्यास्तीति भगवान् । भगवच्छब्दस्य विस्तृतव्याख्या आचारागसूत्रे प्रथमश्रुतस्कन्धस्य मत्कृतायामाचारचिन्तामणिटीकायां विलोकनीया । अनेन वागतिशयः पूजातिशयश्च सूध्यते । पूजाऽत्र सुरासुरनरनिकरकृततीर्थकरादरसत्कारलक्षणा विज्ञातव्येति । आभ्यां द्वाभ्यामतिशयाभ्यां ज्ञानातिशयो लभ्यते, जानातिशये सति अपायापगमातिशयस्यावश्यम्भावात् अपायापगमातिशयोऽपि सिध्यति । तीर्थकराणां अपायाऽपगम-पूजा-वाणी-ज्ञानातिशयभेदात् चत्वारो मूलातिशया भवन्ति । एते चत्वारोऽतिशयाः-'अवढियकेसमंसुरोमनहे' अवस्थितकेशश्मश्रुरोमनखः, इत्यादिचतुत्रिंशदतिशयानामुपलक्षणम्, उपरोक्तमूलातिशयचतुष्टयमन्तरेण शेषाणां चतुत्रिंशदतिशयानामसम्भवात् , ततश्च चतुरिंशदतिशयोपेतो भगवान् वीरो जयतीति पूर्वेण सम्बन्धः ॥ गा० १॥ पूर्व वर्तमानतीर्थकर श्रीवर्धमानस्वामिनं प्रणम्य साम्प्रतं सामान्येन पञ्चपरमेष्ठिनां नमस्कारमाह-'नमिऊण' इत्यादि । मूलम् नमिऊण असुरसुरगरुलभुयगपखिदिए गयकिलेसे। अरिहे सिद्धायरिए, उवज्झाए सव्वसाहू य ॥२॥ छाया-नत्वा असुरसुरगरुडभुजगपरिवन्दितान् गतक्लेशान् । महंतः सिद्धाचार्यान् , उपाध्यायान् सर्वसाधूश्य ॥२॥ व्याख्या-'असुरसुरगरुलभुयगपरिदिए' असुरसुरगरुडभुजगपरिवन्दितान् तत्रअसुरा-असुरकुमारा, सुराः-वैमानिकदेवाः गरुडाः सुवर्णकुमारदेवाः, भुजगाः नागकुमारदेवाः उपलक्षणात् शेषाणां-विद्युत्कुमारादीनामपि ग्रहणं भवति, तैः परिवन्दितान् नमस्कृतान् 'गयकिलेसे' गतक्लेशान् अपगतजन्ममरणादिक्लेशान् एतादृशान् अर्हतः तीर्थकृतः, तथा 'सिद्धायरिए। सिद्धाचार्यान् सिद्धान् चायाँश्च, तत्र सिद्धान् व्यपगतसकलकर्ममलत्वेन सिद्धिगतिनामधेयं स्थान प्राप्तान् , आचार्यान् स्वयं पञ्चविधज्ञानाद्याचारं परिपालयन्तः सन्तः परान् प्रति तदुपदेश Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HAvahaMNAM चन्द्रप्राप्तिसूत्रे दानतत्परान् 'उवशाए' उपाध्यायान् स्वयं द्वादशामाध्ययनं कुर्वन्तः परान् तदध्ययनमानसान् कारयन्तस्तान 'सन्चसाहू य' सर्वसाधूध ज्ञानक्रियातो मोक्षसाधनप्रवणान् अर्द्धतृतीयद्वीपस्थितान् मुनीन् 'नमिजण' नया-नमस्कृत्य, किम् ! इत्याह मूलस्--फुडवियडपागडत्थं, वोच्छं पुवसुयसारनीसंदें। सुहुमगणिणोवइ8, जोइसगणरायपण्णत्तिं ॥३॥ छाया-स्फुटविकट प्रकटार्था', घपये पूर्वश्रुतसारनिस्यन्द । सूक्ष्मगणिनोपदिधां, ज्योतिर्गणराजप्राप्तिम् ॥३॥ ज्याख्या---'फुडवियडपागडत्य' स्फुटविकटप्रकटाम्-स्फुटः स्पष्टो यथावस्थितो विगलबोधविषयत्वात् , विकट:-गम्भीरार्थः कुशामबुद्धिगम्यत्वात् , प्रकटः साक्षादक्षरेष्वेव परिस्फुरणशीलः, एतादृशोऽर्थों यस्यां सा तथा ताम् 'पुच्चसुयसारनीसंद' पूर्वश्रुतसारनिस्यन्दम्पूर्वगतं श्रुतं पूर्वश्रुतं तस्य सारः सारभूतं निस्यन्दं सारस्यापि सारभूताम् , अनेन-इयं चन्द्रप्रज्ञप्तिः पूर्षेभ्य उद्धृतेति बन्यते । ननु इयं च न पूर्वाणि स्वयमधीय तत उद्धृता किन्तु गुरूपदेशानुसारतः, इत्यत्राह-'मुहुम' इत्यादि 'मुहुमगणिणोवईट' सूक्ष्मगणिनोपदिष्टाम् , सूक्ष्म इति सूक्ष्मबुद्धियुको यो गणी-आचार्यः, तेनोपदिष्टाम् , गुरुणा पूर्वाणि यथान्याख्यातानि तान्यधीत्य तेभ्य उद्धृतामिति भावः, 'जोइसगणरायपण्णत्ति' ज्योतिर्गणराजप्रज्ञप्तिम् , तत्र ज्योतीषिप्रहनक्षत्रतारारूपाणि, तेषां गणः-सगृहस्तस्य राजा चन्द्रः, तस्य प्रज्ञप्तिम्-प्रज्ञाप्यते प्ररूप्यतेऽनयेति प्रज्ञप्तिः तत्त्वरूपप्रतिपादिका वचनपद्धतिः, ताम् 'वोच्छं' वक्ष्ये प्रतिपादयिष्यामि प्ररूपयिष्यामीत्यर्थः ॥३॥ पूर्वेषु चनादिवतन्यता गौतमप्रश्नभगवन्निर्वचनरूपैव वर्तते तत इयं चन्द्रप्रज्ञप्तिरपि तथैव प्ररूपणीयेति प्रथम गौतमप्रश्नस्योपक्षेपं निरूपयति --'नामेण' इत्यादि । मूलम्-नामेण इंदभूइ-त्तिगायमो वंदिऊण तिविहेणं । पुच्छइ जिणवस्वसह, जोइसरायस्स पण्णति ॥४॥ छाया-नाम्ना इन्द्रभूतिरिति गौतमो पन्दित्वा त्रिविधेन । पूच्छति जिनघरवृषभ, ज्योतीराजस्य प्राप्तिम् ॥४॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनप्तिप्रकाशिका टीका विशतिप्राभृतसंख्या तदर्थश्च ५ व्याख्या-'नामेण' नाम्ना 'इंदभूति' इन्द्रभूतिरिति इन्द्रभूतिरिति नाम्ना प्रसिद्धः, 'गोयमो' गौतमः गोनमगोगो पन्नः, सः 'तिविण'-त्रिविधेन मनोवाकायेन 'चंदित्ता' वन्दित्वा 'जिणवरवसई' जिनवमुपगं जिनसंपु श्रे; श्रीवर्धमानस्वामिनं 'पुच्छइ' पृच्छति । किमित्याह'जोइसरायम्स' योनीराजस्य चन्द्रस्य उपलक्षणात् सूर्यादीनां च 'पण्णत्ति' प्रज्ञप्तिम् प्रज्ञाप्यतेप्ररूप्यते-जन्दमूनांदीनां नारस्य यथास्थितियत्र सा प्रजन्तिस्तां पृच्छतीति सम्बन्धः ॥४॥ एवं गौतमेन पृष्टः सन् भगवान् मध्गं तत्सम्बद्धं शितिसख्यकेषु प्रामृतेषु यद् वक्तव्यं तद् गाथापनकेनाइ-'कड़ मंडलाइ' इत्यादि । मृलम्क इ मंडलाइ बच्चइ १, तिरिच्छा किं व गच्छई २॥ ओभासइ केवइयं ३, सेयाए किं ते संठिती ॥ गा० ५॥ कहिं पडिहया लेस्सा ५, कहं ते ओयसंठिती ६। के मृरियं वरयंति ७, कह ते उदयसंठिती ८॥गा ६॥ कइकट्ठा पारिसी-छाया ९ जोगेत्ति किं ते आहिए १०॥ के ते संवच्छराणाई ११, कइ संबच्छराइ य १२॥ गा०७॥ कहिं चंदमसो वुड्डी, १३, कया ते जोसिणा बहू १४। के य सिग्घगई वुत्ते १५कि ते जोसिणलक्षणं १६॥गा०८॥ चयणोववाय १७ उच्चत्तं १८, सूरिया कइ आहिया १९ । अणुभावे केरिसे वुत्ते, २०, एवमेयाइ वीसई ॥गा०९॥ छायाकति मण्डलानि ब्रजनि १, तिर्यक् किं च गच्छति २। अवभासयति कियत्कं. ३ श्वेतायाः किं ते संस्थितिः४॥ गा०५॥ कुत्र प्रतिहता लेश्या ५, कयं ते ओजःसंस्थितिः । के सूर्य चरयन्ति ७, कथं ते उदयसंस्थितिः ८॥गा० ६ ॥ कतिकाप्टा पौरुपीछाया ९, योग इनि किं ते आख्यातः १० । कस्ते संवत्सराणामादिः १२, कति संवत्सरा इति च १२॥ गा ०७॥ कुत्र चन्द्रमसो वृद्धिः १३, कदा ते ज्योत्स्ना यही १४ । कश्च शीघ्रगतिरुक्तः १५, किं ते ज्योत्स्नालक्षणम् १६ ॥ गा०८। च्यवनोपपातौ १७, उच्चत्वं १८, सूर्याः कति आख्याताः १९। अनुभाव कीदृश उक्त २०, एवमेतानि विंशतिः ॥ गा० ९॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे व्याख्या- 'कइ मंडलाइ बच्चई' कति मण्डलानि व्रजति चतुरशीत्यधिकशतमण्डलेषु सूर्यो वर्षमध्ये कति मण्डलानि एकवारं, कति वा मंडलामि द्विःकृत्वो व्रजतीत्येतन्निरूपणाविषयक प्रथमं प्राभूतमस्ति । अस्मिन् अष्टावन्तरप्रभृतानि, चतुर्थान्तरप्राभृतादारभ्याष्टमान्तरप्रामृतपर्यन्तमेकोनत्रिंशत् प्रतिपत्तयश्च सन्ति १ । 'तिरिच्छा किं व गच्छइ' तिर्यक् किं वा गच्छति सूर्यस्तिर्यग दिशि कथं चलति, इति विषयकं द्वितीयं प्रामृतं वर्त्तते, अस्मिन् त्रीणि अन्तरप्राभृतानि चतुर्दश प्रतिपत्तयश्च सन्ति २ । 'ओभासइ केवइयं' अवभाषते कियस्कम् , चन्द्रः सूर्यश्च कियत्प्रमाणक क्षेत्र प्रकाशयतीतिविषयकं तृतीयं प्रामृतम्, अत्रान्यतैर्थिकप्ररूपणारूपा द्वादश प्रतिपत्तयः सन्ति ३। 'कि ते संठिती' का ते सस्थितिः, ते मते चन्द्रसूर्ययोः किदृशं संस्थानं वर्त्तते? इति विपकं चतुर्थ प्रामृतमस्ति । अत्रान्यतैर्थिकप्ररूपणारूपा पोडश पोडशचेति द्वात्रिंशत् प्रतिपत्तयः सन्ति । अत्र तापक्षेत्रस्यान्धकारक्षेत्रस्यापि च प्ररूपणा उर्वमस्तिर्यक् च कियत्तपतीत्यपि च प्ररूपणा वर्तते ४॥ गा० ५ ॥ 'कहिं पडिहया लेस्सा' कुत्र प्रतिहता टेश्या, सूर्यस्य लेश्या-तेजः कुत्र प्रतिहता भवतीतिनिरूपकं पञ्चमं प्रामृतम् । अस्मिन् अन्यतैर्थिकप्ररूपणारूपा विंशतिः प्रतिपत्तयः सन्ति ५ । 'कहं ते ओयसंठिती' कथं ते ओजःसंस्थितिः, ते तव मते कथं केन प्रकारेण सर्वदा एकरूपाऽवस्थायिनी ओजसः प्रकाशस्य संस्थितिः-संस्थानम् , अथवा-अन्यथा वा संस्थितिनानाप्रकारेण वा भवतीतिप्ररूपकं षष्ठं प्रामृतम् । अस्मिन् अन्यतैर्थिकप्ररूणारूपाः पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः सन्ति ६ । 'के सरियं वरयंति'के सूर्य वरयन्ति, सूर्य दूरस्थिताः के पुद्गलाः सूर्य सूर्यतेजः वरयन्ति=सूर्यलेश्यां प्राप्तुमिच्छन्ति स्पृशन्तीत्यर्थः, इतिप्रतिपादकं सप्तमं प्राभृतम् । अत्रान्यतैर्थिकप्ररूपणारूपाः विंशतिः प्रतिपत्तयः सन्ति ७ । 'कहं ते उदयसंठिती' ते तव मते कथं केन प्रकारेण सूर्यस्य-उदयस्य उपलक्षणात् अस्तस्य च सस्थितिः प्रकारः यत्र दिवसो रात्रि ; भवति तत्र कः प्रकारः १, यदा दक्षिणोत्तरयोः प्रथमसमयो भवति तदा पूर्वपश्चिमयोः तस्माद् द्वितीये समये प्रथमः समयो भवति । अत्र जम्बूद्वीपादर्धपुष्करदीपपर्यन्तस्य वर्णनमस्ति, इतिनिरूपकमष्टमं प्रामृतम् । अस्मिन् अन्यतैर्थिकप्ररूणारूपास्तिस्रः प्रतिपत्तयः सन्ति ८ ॥ गा० ६ ॥ 'कहकदा पोरिसीछाया' कतिकाष्ठा पौरुषीछाया कतिकाष्ठा कियत्प्रकर्षप्रमाणा पौरपीछाया पौरुषीकालस्य किंप्रमाणा छाया भवतीति प्ररूपकं नवमं प्रामृतम् , तत्रान्यतैर्थिकप्ररूपणारूपास्तिनः प्रतिपत्तयः सन्ति । अत्र सूर्यतेजसः स्वरूपं वर्णितम् । यस्मिन् Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रतिप्रकाशिका टोका प्रामृतान्तरप्राभृततद्गतविषयनिरूपणम् ७ समये सूर्यः स्वतेनसा पुरुषस्य छायां निर्वर्त्तयति तद्वर्णनेऽन्यतैर्थिक प्ररूपणारूपाः पञ्चविं - शतिः प्रतिपत्तयः सन्ति । पौरुपीच्छायानिर्वर्त्तने हे प्रतिपत्ती स्तः, सूर्य: कतिका - ष्ठां पौरुषीच्छायां निर्वर्तयतीतिविषये पण्णवतिः प्रतिपत्तयोऽपि सन्ति, एवं सर्वमेलने पइर्विशत्यधिकं शतमेकं ( १२६) प्रतिपत्तयः सन्ति । तथा पौरुप्यामर्धपौरुष्यां देहपौरुष्यां च कति दिनानि व्यतीयन्ते ? कति दिनानि अवशिष्यन्ते ? तथा पुरुषन्छायायां कति दिनानिगष्ठन्ति ? कति दिनानि अवशिष्यन्ते इति, तथा छाया पचविशतिविधा भवतीतिनिरूपकं नवमं प्राभृतम् ९ । जोएत्ति किं ते आहिए' योग इति किं ते आख्यातः, ते तव मते योग इति किम् ? किस्वरूपो योगः ? इति चन्द्रसूर्याभ्यां सह कतिनक्षत्राणां योगो भवतीतिप्रतिपादकं दशमं प्राभृतम्, अत्रान्यतैर्थिकप्ररूपणारूपाः पश्च पञ्चेति दश प्रतिपत्तयः सन्ति १० । 'के ते संवच्छ राणाई' कस्ते संवत्सराणामादिः, ते तव मते संवत्सराणामादिरन्तश्च कः कतिसख्यकाः संवत्सराः? इतिप्रतिपादकमेकादशं प्राभृतम् ११ । 'कइ संवच्छराइ य' कृति संवत्मरा इति च संवत्सराः कति सन्ति ! पञ्च संवत्सरा सन्ति तेषां मासा दिनानि मुहूर्त्ताश्च कति ? तथा एकस्मिन् युगे चन्द्रऋतोः सूर्यतोश्च कथनम् दशविधयोगानां कथनं च, तथा कस्मिन् नक्षत्रे छत्रपरच्छत्रयोर्योगो भवति ? इत्येतद्विषयकं द्वादशं प्राभृतम् १२ ॥ गा० ७ ॥ 'कहं चंदमसो छुट्टी' कथं चन्द्रमसो वृद्धिः उपलक्षणात् हानिश्च कथम् ? कृष्णपक्षेचन्द्रस्य विमानं राहुविमानसंयोगेन रक्तो भवति तदा प्रतिदिनं क्रमश उद्योतस्य हानिर्जायते, शुक्लपक्षे राहुविमानेन विरक्तो भवति तदा क्रमश उद्योतस्य वृद्धिर्भवति, एवममावास्यायाश्चरमसमये चन्द्रो रक्तो भवति, पूर्णिमायाश्चरमसमये चन्द्रो विरक्तो भवति, शेषसमये रक्तो विरक्तश्च भवति, मुहूर्त्तादीनां मानं. चन्द्रो युगादौ कुतः प्रविशति, अथ नक्षत्रस्य मासार्धं चन्द्रस्यार्ध - मण्डलानि कति चलन्ति ? एवं चन्द्रस्य मासार्थे चन्द्रमण्डलानि कति चलन्ति ? नक्षत्रस्य - मासा - र्घादारभ्य चन्द्रस्य मासार्धपर्यन्तं चन्द्रस्य मण्डलार्धानि कतिसंख्यकान्यधिकानि चलन्ति, चन्द्रस्य स्वस्य कानि मण्डलानि सन्ति । तथाऽन्यस्य ग्रहादेः कानि मण्डलानि सन्ति ? इत्यादिविषयप्रतिपादकं त्रयोदशं प्राभृतम् १३ 'कया ते जोसिणा बहू' कदा ते ज्योत्स्ना बही, ते तव म ज्योत्स्ना चन्द्रिका वही प्रभूता कदा वर्त्तते । उपलक्षणात् अल्पा वा कदा ? इत्यादि विषयकं चतुर्दशं प्राभृतम् १४, 'के य सिग्घगई चुत्ते' कश्च शीघ्रगतिरुक्तः, चन्द्रादीनां पञ्चानां ज्योतिष्काणां मध्ये कः शीघ्रगतिः कश्च मन्दगतिरस्ति, चन्द्रः सूर्यो नक्षत्रं वा एकस्मिन् मण्डले कति भागान् चलति ?, पश्चानां युगानामेकैकस्मिन् मासे चन्द्रः सूर्यो नक्षत्रं च कति कति मण्डलानि चलन्ति ? तथा एकस्मिन् अहोरात्रे चन्द्रसूर्यनक्षत्राणि कति कति मण्डलानि चलन्ति ? सूर्यस्य नक्षत्रस्य Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे वा एककस्मिन् मण्डले कति कति अहोरात्राणि भवन्ति ?, एकस्मिन् युगे प्रत्येकस्य कति मण्डलानि भवन्ति, इत्यादिविषयकं पञ्चदशं प्राभृतम् १५ । 'किं ते जोसिणलक्खणं' किं ते ज्योत्स्नालक्षणम्, ते तव मते ज्योत्स्नायाः चन्द्रसूर्यप्रकाशरूपायाः किं लक्षणम् , उपलक्षणात् छायायाः अन्धकारस्य किं लक्षणम् ? इत्यादिविषयकं पोडशं प्राभृतम् १६ ।। गा० ८ ॥ 'चयणोववाय' च्यवनोपपातौ चन्द्रसूर्ययो अच्यवनमुपपातश्रेतिविषयकं सप्तदश प्राभृतम् , अत्रान्यतैर्थिकप्ररूपणारूपा. पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः सन्ति १७ । 'उच्चत्त' उच्चत्वम् , चन्द्रसूर्यादीनां समभूमिभागात् कियत्प्रमाणकमुच्चत्वम् ? इत्येतत्प्रतिपादकमष्टादशं प्रामृतम् । अत्रान्यतैर्थिकप्ररूपणारूपाः पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः सन्ति १८। 'सरिया कति आहिया' सूर्याः कति आख्याताः, द्वीपसमुद्रेषु चन्द्रसूर्यादयः कति कतिसंख्यकाः कथिताः ? इत्येतत्प्रतिपादकमेकोनविंशतितमं प्रामृतम् , अत्रान्यतैर्थिकप्ररूपणारूपा द्वादश प्रतिपत्तयः सन्ति १९ । 'अणुभावे केरिसे बुत्ते' अनुभावः कीदृश उक्तः ! चन्द्रसूर्ययोरनुभावः अभावः सुखमित्यर्थः स कीदृशः किंस्वरूपकः उक्तः कथितः ! चन्द्रसूर्ययोः सुखस्य वर्णनं युवकपुरुषदृष्टान्तेन तस्मादुत्तरोत्तरमनन्तगुणविशिष्टतरं सुखं वानव्यन्तरादारभ्यासुरकुमारपर्यन्तं वर्णितम् , तेभ्योऽनन्तगुणविशिष्टतरं सुखं ग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां कथितम् , तेभ्योप्यनन्तगुणविशिष्टतरं मुखं चन्द्रसूर्ययोः प्रतिपादितम् । चन्द्रसूर्ययोर्मेसनविपये राहुवर्णनम्-अत्रान्यतैर्थिकप्ररूपणारूपे द्वे द्वे चेति चतस्रः प्रतिपत्तयः सन्ति, अष्टाशीतिग्रहनामप्रतिपादनम्, चन्द्रप्रज्ञप्तेर्ज्ञानदानादिवर्णनं चेत्यादिविषयकं विशतितमं प्राभृतम् २० । 'एवमेताणि वीसई' एवमेतानि विंशतिः प्राभृतानि चास्यां चन्द्रप्रज्ञप्त्यां सन्ति । एषु विंशतिसंख्यकेपु प्राभृतेपु मध्ये त्रिषु प्रथम-द्वितीय-दशमरूपेषु प्राभृतेषु क्रमशोऽष्ट-त्रिद्वाविंशति-रूपाणि त्रयस्त्रिंशद् अन्तरप्राभृतानि सन्ति, शेषेपु सप्तदशसु प्राभूतेषु अन्तरप्रामृतानि न सन्ति । अत्रान्यतैर्थिकप्ररूपणारूपाः प्रतिपत्तयः सर्वा मिलित्वा सप्तपञ्चाशदधिकशतत्रयसंख्यकाः (३५७) भवन्ति ।। अथ प्राभृतशब्दस्य कोऽर्थः ! उच्यते-इह प्रामृत नाम यन्महापुरुषाय देशकालौचित्येन परिणामसुखदं विशिष्टं वस्तु उपनोयते तत् प्राभृतनाम्ना लोके प्रसिद्धम् । प्राभ्रियते-पोष्यते महापुरुषस्यान्तर्गतं मनो येन तत् प्रामृतम्-उपहारः (भेट) इति भाषाप्रसिद्धम् , अनया व्युत्पत्त्या वक्ष्यमाणा शास्त्रपद्धतयोऽपि परमदुर्लभाः परिणामसुखदाश्च ता विनयादिगुणसंपन्नेभ्यः शिष्येभ्यो देशकालौचित्येन समुपनीयन्तेऽत एताः शास्त्रपद्धतयः प्राभृतानीव प्रामृतानि सन्ति तत एताः शास्त्रपद्धतयोऽपि प्राभृतशब्देन प्रोच्यन्ते । एषु चान्तर्गतानि प्राभूतानि प्राभूतप्राभूतानीति कथ्यन्ते ॥गा०९॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा०१ गा०१० - १२ प्रथमप्राभृतगतान्तरप्राभृतविषयनिरूपणम् ९ तदेवं विंशतेरपि प्राभृतानामर्थाधिकाराः प्रदर्शिताः, अथ विंशतेरपि प्राभृतानामपान्तर्गतप्राभृतप्राभृतानां विषयान् वर्णयन पूर्वं प्रथमप्राभृतगताष्टप्राभृतप्राभृतानां विषयान् वर्णयति - 'बुड्ढो - बुड्ढी' इत्यादि । मूलम् — बुड्ढडो - बुड्ढी मुहुत्ताणं, अद्धमंडल संटिई, ते चिणं पडियर, अंतरं किं चरंति य ॥१०॥ ओगाहइ केवइयं, केवइयं च विकंपई । मंडलाण य संटाणे विक्खंभे अठ्ठ पाहुडा || ११|| छाया - वृद्ध्यपवृद्धी मुहर्त्तानां अर्धमण्डलसंस्थितिः । कस्ते चोर्ण प्रतिचरति अन्तरं किं चरन्ति च ॥ १० ॥ अवगाहते कियत्कं कियत्कं च विकम्पते । मण्डलानां च संस्थानं, विष्कम्भः अष्ट प्राभृतानि ॥११॥ व्याख्या -'बुड्ढो - बुड्ढी मुहुत्ताणं' वृद्धयपवृद्धो मुहर्त्तानाम् प्रथमस्य प्राभृतस्याष्टौ प्राभृतप्राभृतानि सन्ति तेषु प्रथमे प्रामृतप्रामृते = अन्तरप्राभृते अहोरात्रगतानां मुहर्त्तानां वृद्धि: - वर्धनम्, अपवृद्धिः=हानिः, इत्येतद्विषयवक्तव्यता वर्त्तते १ । 'अद्धमंडलसंठिई' अर्धमण्डल संस्थितिः, दक्षिणोत्तरयोः संचरतोर्द्वयोः सूर्ययोर्यन्मण्डला, तस्य प्रत्यहोरात्रं या संस्थितिः - संस्थानम् = माकृतिः तस्या वर्णनं द्वितीयेऽन्तरप्रामृते वर्त्तते २ । 'के ते चिण्णं पडियरइ' कस्ते चीर्णं प्रतिचरति, भगवन् 1 ते तव मते द्वयोः सूर्ययोर्मध्ये कः सूर्यः कियत्क्षेत्रं स्पृष्ट्वा पुनः अपरेण सूर्येण चीर्णम् = पूर्वसंक्रान्तं क्षेत्रं प्रतिचरति=संचरतीति । तथा जम्बूद्वीपे द्वौ सूर्यौ स्तः तन्मध्ये कः सूर्यो भरतक्षेत्रस्य, कश्च ऐरवतक्षेत्रस्यास्ति, स्वं प्रति स्वस्य कानि मण्डलानि कानि चान्यस्य मण्डलानीत्यादिविषयकं तृतीयमन्तरप्राभृतम् ३ । 'अंतरं किं चरंति य' अन्तरं किं चरतश्च, द्वावपि सूया परस्परं कियत्परिमितस्य क्षेत्रस्यान्तरं कृत्वा चारं चरतः । इतिविषयकं चतुर्थमन्तरप्राभृतम्, अत्र विषये - ऽन्य तैर्थिक प्ररूपणारूपाः पट्ट् प्रतिपत्तयः सन्ति ४ । 'ओगाहइ केवइयं ' अवगाहते कियत्कं एकैकेन रात्रिन्दिवेन एकैकः सूर्यः कियत्कं = कियत्प्रमाणकं क्षेत्रमवगाहते - अवगाह्य चारं चरतीति - विषयकं पञ्चममन्तरप्रामृतम् अत्र परमतरूपाः पञ्च प्रतिपत्तयः सन्ति ५, 'केवइयं च विकंपई' कियत्कं च विकम्पते, कियत्कं - कियत्प्रमाणकं च क्षेत्रं विकम्पते-विमुचति विमुध्य चारं चरतीतिविषयकं पष्टमन्तरप्राभृतम्, अत्र परमतरूपाः सप्त प्रतिपत्तयः सन्ति ६ । 'मंडलाण य संठाणे' मण्डलानां च संस्थानम्, सूर्यादीनां मण्डलानि कीदृशसंस्थानयुक्तानि वर्त्तन्ते ! इतिविषयकं सप्तममन्तरप्राभृतम्, अत्रान्यतैर्थिकप्ररूपणारूपा अष्ट प्रतिपत्तयः सन्ति ७ । १ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे वा एककस्मिन् मण्डले कति कति अहोरात्राणि भवन्ति , एकस्मिन् युगे प्रत्येकस्य कति मण्डलानि भवन्ति, इत्यादिविषयकं पञ्चदशं प्राभृतम् १५ । 'किं ते जोसिणलक्खणं' किं ते ज्योत्स्नालक्षणम् , ते तव मते ज्योत्स्नायाः चन्द्रमूर्यप्रकाशरूपायाः किं लक्षणम् , उपलक्षणात् छायायाः अन्धकारस्य किं लक्षणम् ? इत्यादिविषयकं पोडशं प्राभृतम् १६ ।। गा० ८ ॥ 'चयणोववाय' च्यवनोपपातौ चन्द्रसूर्ययो श्च्यवनमुपपातश्चेतिविषयकं सप्तदश प्राभृतम् , अत्रान्यतैर्थिकप्ररूपणारूपा. पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः सन्ति १७ । 'उच्चत्तं' उच्चत्वम् , चन्द्रसूर्यादीनां समभूमिभागात् कियत्प्रमाणकमुच्चत्वम् ? इत्येतत्प्रतिपादकमष्टादशं प्रामृतम् । अत्रान्यतैर्थिकप्ररूपणारूपाः पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः सन्ति १८। 'सरिया कति आहिया' सूर्याः कति आख्याताः, द्वीपसमुद्रपु चन्द्रसूर्यादयः कति कतिसंख्यकाः कथिताः ? इत्येतत्प्रतिपादकमेकोनविंशतितमं प्रामृतम् , अत्रान्यतैर्थिकप्ररूपणारूपा द्वादश प्रतिपत्तयः सन्ति १९ । 'अणुभावे केरिसे बुत्ते' अनुभावः कीदृश उक्तः ! चन्द्रसूर्ययोरनुभावः प्रभावः सुखमित्यर्थः स कीदृशः किंस्वरूपकः उक्तः कथितः ! चन्द्रसूर्ययोः सुखस्य वर्णनं युवकपुरुषदृष्टान्तेन तस्मादुत्तरोत्तरमनन्तगुणविशिष्टतरं सुखं वानव्यन्तरादारभ्यासुरकुमारपर्यन्तं वर्णितम् , तेभ्योऽनन्तगुणविशिष्टतरं सुखं ग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां कथितम् , तेभ्योप्यनन्तगुणविशिष्टतरं सुखं चन्द्रसूर्ययोः प्रतिपादितम् । चन्द्रसूर्ययोर्मेसनविषये राहुवर्णनम्-अत्रान्यतैर्थिकप्ररूपणारूपे द्वे द्वे चेति चतस्रः प्रतिपत्तयः सन्ति, अष्टाशीतिग्रहनामप्रतिपादनम् , चन्द्रप्रज्ञप्तेर्ज्ञानदानादिवर्णन चेत्यादिविषयकं विशतितमं प्राभृतम् २० । 'एवमेताणि वीसई' एवमेतानि विंशतिः प्राभृतानि चास्यां चन्द्रप्रज्ञप्त्यां सन्ति । एपु विंशतिसंख्यकेपु प्राभृतेषु मध्ये त्रिपु प्रथम-द्वितीय-दशमरूपेषु प्राभृतेषु क्रमशोऽष्ट-त्रिद्वाविंशति-रूपाणि त्रयस्त्रिंशद् अन्तरप्राभृतानि सन्ति, शेषेषु सप्तदशसु प्रामृतेषु अन्तरप्रामृतानि न सन्ति । अत्रान्यतैर्थिकप्ररूपणारूपाः प्रतिपत्तयः सर्वा मिलित्वा सप्तपञ्चाशदधिकशतत्रयसंख्यकाः (३५७) भवन्ति । अथ प्रामृतशब्दस्य कोऽर्थः ! उच्यते-इह प्रामृतं नाम यन्महापुरुपाय देशकालौचित्येन परिणामसुखदं विशिष्टं वस्तु उपनीयते तत् प्रामृतनाम्ना लोके प्रसिद्धम् । प्राभ्रियते-पोष्यते महापुरुषस्यान्तर्गतं मनो येन तत् प्रामृतम्-उपहारः (भेट) इति भाषाप्रसिद्धम् , अनया व्युत्पत्त्या वक्ष्यमाणा शास्त्रपद्धतयोऽपि परमदुर्लभाः परिणामसुखदाश्च ता विनयादिगुणसंपन्नेभ्यः शिष्येभ्यो देशकालौचित्येन समुपनीयन्तेऽत एताः शास्त्रपद्धतयः प्रामृतानीव प्रामृतानि सन्ति तत एताः शास्त्रपद्धतयोऽपि प्राभृतशब्देन प्रोच्यन्ते । एषु चान्तर्गतानि प्राभृतानि प्रामृतप्राभृतानीति कथ्यन्ते ॥गा०९॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा०१ गा०१०-१२ प्रथमप्राभृतगतान्तरप्राभृतविषयनिरूपणम् ९ तदेवं विंशतेपि प्राभृतानामर्थाधिकाराः प्रदर्शिताः, अथ विंशतेरपि प्राभूतानामपान्तर्गतप्राभृतप्राभृतानां विषयान् वर्णयन् पूर्व प्रथमप्राभृतगताष्टप्राभृतप्राभूतानां विषयान् वर्णयति-'बुहोवुड्ढी' इत्यादि । मूलम्वु ड्डो-वुड्डी मुहत्ताणं, अद्धमंडलसंठिई, के ते चिण्णं पडियरइ, अंतरं किं चरंति य॥१०॥ ओगाहइ केवइयं, केवइयं च विकंपई। मंडलाण य संगणे विक्खंभे अ पाहुडा ||११|| छाया-वृद्धयपवृद्धी मुहर्तानां अर्धमण्डलसंस्थितिः। कस्ते चीर्ण प्रतिवरति अन्तरं किं चरन्ति च ॥१०॥ अवगाहते कियत्कं, कियत्कं च विकम्पते । मण्डलानां च संस्थानं, विष्कम्भः अष्ट प्रामृतानि ॥११॥ व्याख्या-'बुड्ढो-वुड्ढी मुहुत्ताणं' वृद्धयपवृद्धी मुहूर्तानाम् प्रथमस्य प्राभृतस्याष्टौ प्राभृतप्रामृतानि सन्ति, तेपु प्रथमे प्राभृतप्रामृते अन्तरप्राभृते अहोरात्रगतानां मुहर्तानां वृद्धिः-वर्धनम्, अपवृद्धिः हानिः, इत्येतद्विपयवक्तव्यता वर्त्तते १ । 'अद्धमंडलसंठिई' अर्धमण्डलसंस्थितिः, दक्षिणोत्तरयोः संचरतोईयोः सूर्ययोर्यन्मण्डलार्ध, तस्य प्रत्यहोरात्रं या संस्थितिः संस्थानम् आकृतिः तस्या वर्णनं द्वितीयेऽन्तरप्राभृते वर्तते २ । 'के ते चिण्णं पडियरई' कस्ते चीर्ण प्रतिचरति, भगवन् ! ते तव मते द्वयोः सूर्ययोर्मध्ये कः सूर्यः कियत्क्षेत्रं स्पृष्ट्वा पुनः अपरेण सूर्येण चर्णिम् पूर्वसंक्रान्तं क्षेत्र प्रतिचरति संचरतीति । तथा जम्बूद्वीपे द्वौ सूर्यों स्तः तन्मध्ये कः सूर्यो भरतक्षेत्रस्य, कश्च ऐरवतक्षेत्रस्यास्ति, स्वं प्रति स्वस्य कानि मण्डलानि, कानि चान्यस्य मण्डलानीत्यादिविषयक तृतीयमन्तरप्रामृतम् ३ । 'अंतरं कि चरंति य' अन्तरं किं चरतश्च, द्वावपि सूर्यों परस्परं कियस्परिमितस्य क्षेत्रस्यान्तरं कृत्वा चारं चरतः ? इतिविषयकं चतुर्थमन्तरमामृतम् , अत्र विषये ऽन्यतैर्थिकप्ररूपणारूपाः षट् प्रतिपत्तयः सन्ति ४ । 'ओगाहइ केवइयं' अवगाहते कियत्कं एकैकेन रात्रिन्दिवेन एकैकः सूर्यः कियत्कंकिय प्रमाणक क्षेत्रमवगाहते-अवगाह्य चारं चरतीतिविषयक पञ्चममन्तरप्राभृतम् , अत्र परमतरूपाः पञ्च प्रतिपत्तयः सन्ति ५, 'केवडयं च विकंपई' कियत्कं च विकम्पते, कियत्कं-कियत्प्रमाणकं च क्षेत्र विकम्पते-विमुश्चति विमुच्य चारं चरतीतिविपयकं षष्ठमन्तरप्रामृतम् , अत्र परमतरूपाः सप्त प्रतिपत्तयः सन्ति ६ । 'मंडलाण य संठाणे' मण्डलानां च संस्थानम् , सूर्यादीनां मण्डलानि कीदृशसंस्थानयुक्तानि वर्त्तन्ते ? इनिविषयकं सप्तममन्तरप्राभृतम् , मान्यतैर्थिकप्ररूपणारूपा अष्ट प्रतिपत्तयः सन्ति ७ । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० चन्द्रप्रक्षतिसूत्रे 'विखंभे विष्कम्म.-तेपामेव सूर्यादिमण्डलानां विष्कम्भः कियत्प्रमाण इति, उपलक्षणात् बाहल्यस्य आयामस्य परिधेश्च ग्रहणं भवति, इतिविषयकमष्टममन्तरप्राभृतम् , अत्र परमतरूपास्तिनः प्रतिपत्तयो वर्तन्ते ८ । 'अ पाहडा' अष्ट प्रामृतानि प्रथमे प्रामृते एतानि पूर्वोक्तानि अष्टसंख्यकानि अन्तरप्रामृतानि सन्ति । एतेषु अष्टस्वपि प्राभृतप्राभृतेषु परमतरूपाः सर्वा एकोनत्रिंशत् प्रतिपत्तयः सन्तीति ॥१०-११|| पूर्वमष्टानामन्तरप्रामृतानां निरूपणं कृतम् , सम्प्रति तेपु कुन कति कति परमतरूपाः प्रतिपत्तयः सन्तीति संग्रहगाथामाह-'छप्पंच य इत्यादि । मूलम् छ-प्पंच य सत्तेव य, अ य तिन्नि य हवंति पडिवत्ती पढमस्स पाहुडस्स उ, हवंति एयाआ पडिवत्ती ॥१२॥ छाया-पट पञ्च च सप्तैव च अष्ट च निनश्च भवन्ति प्रतिपत्तयः । प्रथमस्य प्रामृतस्य तु, भवन्ति पताः प्रतिपत्तयः ॥१२॥ व्याख्या-अत्रायेषु त्रिषु अन्तरप्रामृतेषु प्रतिपत्तयो , सन्ति, चतुर्थमारभ्याष्टमपर्यन्तं प्रतिपत्तयः सन्ति, ता इमा:-'छ' 'इति पट् चतुर्थे प्रामृतप्रामृते परमतरूपाः पट् प्रतिपत्तयो वर्त्तन्ते ४ । 'पंच य' इति पश्च च पश्चमे पश्चसंख्याकाः प्रतिपत्तयः सन्ति ५ । 'सत्तेव य' सप्तैव च पष्ठे सप्त ६ । 'अट्ट य' अष्ट च सप्तमेऽष्ट ७ । 'तिन्नि य हवंति पडिवत्ती'तिम्रश्च भवन्ति प्रतिपत्तयः, अष्टमे तिम्रः प्रतिपत्तयः सन्ति ८ । एवम् 'पढमस्स पाहुडस्स उ' प्रश्रमस्य प्रामृतस्य तु प्रथमस्य प्रामृतस्य मूलप्रामृतस्य चतुरादिपु पञ्चसु प्रामृतप्रामृतेषु सर्वा एकोनत्रिंशन्सख्यका 'भवंति पडिवत्ती' भवन्ति प्रतिपत्तयः, भवन्ति सन्ति प्रतिपत्तयः-अन्यतैर्थिकप्ररूपणारूपा इति सर्वेषु प्रामृतप्रामृतेषु परमरमुपप्रदर्य पश्चात् स्वमतमपि प्रकटीकृतं भगवतेति ॥१२॥ अथ विंशतिमूलप्राभूतेषु द्वितीयमूलप्रभृतगतानां त्रयाणां प्रभृतप्राभूतानामधिकारानाह-'पडिवत्तीओ' इत्यादि । मुलम्-पडिवत्तीओ उदए, अदुवऽस्थमणेसु य । भेयघाए कण्णकला, मुहुत्ताण गई इय ॥१३॥ छाया-प्रतिपत्तय उदये अथवा स्तमयनेषु च । भदधातः कर्णकला मुहर्तानां गतिरिति ॥१॥ व्याख्या-'पडिवत्तीओ उदए अदुवऽत्यमणेसु य प्रतिपत्तय उदये अथवाऽस्तमयनेषु च द्वितीयप्रामृतस्य प्रथमेऽन्तरप्रामृते सूर्यस्य उदये अथवा अस्तमयनेषु च सूर्यः कुत्रोदेति कुत्रास्त Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "चन्द्रप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१ गा० १३-१५ द्वितीयमाभृतगतान्तरप्राभृतविषयनि० १९ मेतीत्येवंरूपाः प्रतिपत्तयः परमतरूपाः प्रतिपादिताः सन्ति १। द्वितीयेऽन्तरप्राभृते 'भेयघाए कण्णकला' भेदघातः कर्णकला, तत्र भेदः-मण्डलस्यापान्तरालं, तत्र घातो-गमनम् ‘इन हिंसागत्योः इतिवचनात् स केपाश्चिन्मतेनात्र प्रतिपादनीयः, यथा विवक्षितमण्डलं सूर्यः पूरयित्वा तत्पश्चाद् अपरमनन्तरं मण्डलं संक्रामतीत्येवंरूपो भेदधातोऽत्र वर्णनविषयो वर्त्तते । तथा कर्णकलेति-कर्णः कोटिभागः अग्रभाग इत्यर्थः, तमधिकृत्यान्येषां मतेन कला वर्णनीयाः, यथा विवक्षितमण्डले द्वावपि सूर्यों प्रथमक्षणे प्रविष्टौ सन्तौ पूर्वापरस्थितं कोटिद्वयं लक्षीकृत्य बुद्धिद्वारा सम्पूर्णस्य यथावस्थितमण्डलस्य विवक्षितत्वादपरमण्डलस्य कर्णकोटिभागं संमुखीकृत्य एकैकया कलया मात्रयेत्यर्थः अपरमण्डलाभिमुखं गच्छन्तौ चारं चरतः, इत्येवंविषयोऽपि चात्र द्वितीयेऽन्तरप्राभ्ने वर्त्तत इति२ । तृतीयेऽन्तरप्राभृते च 'मुहुत्ताणं गई इय' प्रतिमण्डलं मुहूर्तानां गतिरिति गतिपरिमाणं वर्णनीयमस्ति, इति-एवं पूर्वोक्ताः द्वितीयप्राभृतस्य त्रयाणां प्राभृतप्राभूतानां विषयाः कथिता इति ॥१३॥ सूर्यः कदा शीघ्रगतिर्भवति कदा मन्दगतिश्चेति प्रतिपादयिपुराह-'निक्खममाणे' इत्यादि । मूलम्-निक्खममाणे सिग्घगई, पविसंते मंदगई इय । चुलसीइसयं पुरिसाणं, तेसिं च पडिवत्तीओ ॥१४॥ छाया-निष्कामन् शीघ्रगतिः, प्रविशन् मन्दगतिरिति । चतुरशीतिशतं पुरुपाणां, तेषां च प्रतिपत्तयः ॥१४॥ व्याख्या-'निक्खममाणे' निष्क्रामन् सर्वाभ्यन्तरमण्डलाद् बहिर्दक्षिणाभिमुख निर्गच्छन् , उत्तरोत्तरमण्डलं संक्रामन् सूर्यः 'सिग्घगई' शीघ्रगतिः शीघ्रगतिमान् भवति । अस्मिन् समये उत्तरोत्तरं दिनप्रमाणस्य हानिः, रात्रिप्रमाणस्य च वृद्धिर्भवतीति भावः । तथा 'पविसंते' प्रविशन् सर्वबाह्यमण्डलादभ्यन्तरमण्डलाभिमुखं गच्छन् सूर्यः 'मंदगई' मन्दगतिः अन्तोऽन्तो मण्डलमागच्छन् उत्तरोत्तरं मन्दमन्दतरादिना मन्दगतिः मन्दगतिमान् भवति । अस्मिन् समये उत्तरोत्तरं दिनप्रमाणस्य वृद्धिः रात्रिप्रमाणस्य च हानिर्भवतीति भावः । तेसिं च तेषां च मण्डलानां 'चुलसीहसयं' चतुरशीतिशतं-चतुरशीत्यधिकं शतमेकं मण्डलानां वर्तते, सूर्यस्य तानि मण्डलानि चतुरशीत्यधिकशतसंख्यकानि सन्ति, तेषां च मण्डलानां विपये सूर्यस्य प्रतिमुहूर्तगतिपरिमाणवक्तव्यतायां 'पुरिसाणं' पुरुषाणाम् अन्यतैर्थिक जनानां 'पडित्तीओ' प्रतिपत्तयः-मतान्तररूपाः सन्ति ॥१४॥ सम्प्रति द्वितीयमूलप्राभृतगतानां पूर्वोक्तानां त्रयाणां प्राभृतप्राभूतानां मध्ये कस्मिन् कस्मिन् प्राभूतप्राभूते कति कति प्रतिपत्तयः सन्तीति निरूपयन्नाह-'उदयमि' इत्यादि । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे मूलम्--उदयम्मि अट्ठ भणिया, मेयग्घाए दुवे च पडिवत्ती। चत्तारि मुहत्तगईए, होति विइयम्मि पडिवत्ती ॥१५॥ छाया-उदये अष्ट भणिताः, मेधाते हे च प्रतिपत्ती ।। चतस्रः मुहर्तगतौ, भवन्ति द्वितीये प्रतिपत्तय ॥१५॥ व्याख्या-'उदयम्मि' उदये उदयशब्दोपलक्षिते प्रथमे प्रामृतप्राभृते 'अट्ट' अष्टौ अष्टसंख्यका प्रतिपत्तयः 'भणिया' भणिताः कथिताः तीर्थकरगणधरैरिति गम्यते १, 'भेयग्याए' भेदघाते भेदघातोपलक्षिते द्वितीये प्रामृतप्राभृते 'दुवे च च द्विसंख्यके 'पडिवत्ती प्रतिपत्ती. वर्तेते २, 'चत्तारि' चतस्रः चतुःसंख्यकाः प्रतिपत्तयः, कुत्र ? 'मुहत्तगईए' मुहर्तगतौ ‘मुहुताणगई इतिशब्दोपलक्षिते तृतीये प्रामृतप्रामृते सन्ति ३ । इत्येवं द्वितीयप्राभृतस्य त्रिपु प्राभूतप्रामृतेषु सर्वाश्चतुर्दशसंख्यकाः प्रतिपत्तयो भवन्तीति ॥१५॥ ___ साम्प्रतं विंशतिमूलप्रामृतेषु मध्ये दशममूलप्रामृतगतद्वाविंशतिसंख्यकान्तरप्राभूतानामर्थाधिकारान् वर्णयितुं गाथाचतुष्टयमाह-'आवलिया' इत्यादि । मूलम्-आवलिया १ मुहुत्तग्गे २ एवं भागो ३ य जोगस्स ४ । कुला ५ य पुण्णमासी ६ य, संनिवाए ७ य संठिई ८॥१६॥ तारग्गं ९ च णेता इ १०, चंदमग्गत्ति ११ यावरे। देवाण य अज्झयणा १२, मुहुत्ताणं नामया १३ इय ॥१७॥ दिवसाराई य वुत्ता १४ य, तिहि गोत्ता १६ भोयणाणि य १७ आइच्च चार १८ मासा १९ य, पंच संवच्छरा २० इय ॥१८॥ जोइसस्स य दाराई, २१ नक्खत्तविसए २२ इय । दसमे पाहुडे एए, वावीसं पाहुडपाहुडा ॥१९॥ छाया-आवलिका १ मुहाग्रं २-पर्व भागाश्च ३ योगस्थ ४ । कुलाश्च ५ पूर्णमासी ६ च, संनिपातश्च ७ संस्थितिः ८ ॥१६॥ तारा ९ च नेता १० इति, चन्द्रमार्ग ११ इति चापरस्मिन् । देवानां च अध्ययनानि, १२ मुहर्तानां नामकानि १३ इति च ॥१७॥ दिवसा रात्रयश्च उक्ताश्च १४ तिथिः-१५गोत्राणि १६ भोजनानि १७च । आदित्यचारः १८ मासाश्च १९ संवत्सरा २० इति ॥१८॥ ज्योतिपश्च द्वाराणि, २१ नक्षत्रविषय २२ इति । दशमे प्राभृते एते, द्वाविंशतिः प्राभृतमामृतानि ॥१९॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१ गा०१६-१९ दशमप्राभृगतान्तरप्राभृतविपयनि० १३ __ व्याख्या-दशमे मूलप्राभृते द्वाविंशतिसंख्यकानि प्राभृनप्राभृतानि सन्ति, तेषामर्थाधिकारान् दर्शयति-तत्र प्रथमे प्राभृतप्राभृते 'आवलिया' इति-आवलिकाक्रमो वर्णनीयो वर्तते, यथा-अभिजिदादीनि नक्षत्राणि भवन्तीति, अत्र पञ्च प्रतिपत्तयः सन्ति १, 'मुहुत्तग्गे' इति मुहूत्तांग्रम् नक्षत्रविषयकं मुहूर्तप्रमाणं द्वितीये प्राभृतप्राभृते वर्तते, अर्थात् चन्द्रेण सह नक्षत्राणां कतिमुहूर्तपर्यन्तं योगो भवति, तथा सूर्येण सह कति अहोरात्रिषु योगो भवतीति २, 'एवं' एवम्-अनेन प्रकारेण भागा' इति भागाः पूर्वपश्चिमादिप्रकारेण तृतीये प्राभृतप्रामृते वक्तव्या इति ३, 'जोगस्स' योगस्य. चतुर्थे प्राभृतप्राभृते योगस्यादिवर्णनीयः, यथा वक्ष्यति च-"कहं ते जोगस्स आदी आहियत्ति वएज्जा" इति रूपः, इदमुक्तं भवति-युगस्यादौ चन्द्रेण सह प्रातः सायंकाले च नक्षत्रस्य योगो भवतीति कथनमत्र वर्त्तते ४, 'कुला य' कुलानि च पञ्चमे प्राभृते कुलानि, च-शब्दात् उपकुलानि कुलोपकुलानि चाधिकृत्य नक्षत्राणां चन्द्रेण सह योगो भवतीति वर्णनं विद्यते ५, 'पुण्णमासी य' पौर्णमासी च, पण्ठे प्राभृतप्रामृते पूर्णमासीवक्तव्यता, च-शब्दाद् अमावास्याया अपि वक्तव्यता विज्ञेया, पूर्णिमायां यस्य नक्षत्रस्य योगो भवति तन्नक्षत्रसत्कस्य कुलस्य कुलोपकुलस्य च वर्णनं वर्तते, एवममावास्यायामपि विज्ञेयम् । एकस्मिन् युगे द्वापष्टि६२संख्यकाः : पौर्णमास्यः, द्वाषष्टिसंख्यका एवामावास्या इति सर्वाः संमिलिताः चतुर्विशत्यधिकशत(१२४)संख्यकाः पर्वाणि कथ्यन्ते, इयत्परिमितानामेव नक्षत्राणां चन्द्रेण सह योगो भवतीति ६, 'संनिवाए य' संनिपातश्च, संनिपातः संयोग इति, यस्यां पूर्णिमायां यस्य नक्षत्रस्य चन्द्रेण सह योगो भवति तस्यैव नक्षत्रस्य अमावास्यायां कस्मिन् मासे चन्द्रेण सह योगो भवतीति सप्तमे प्राभृतप्राभृते विद्यते ७, 'संठिई' संस्थितिः, अष्टमे प्राभृतप्राभृते अष्टाविंशतिनक्षत्राणां संस्थानकथनं वर्त्तते ८, ॥ १६ ॥ 'तारग्गं च' तारामं च, नवमे 'प्रामृतप्राभृते अष्टाविंशतिनक्षत्राणां तारापरिमाणं, कस्य नक्षत्रस्य कति ताराः ? इति वर्णयिष्यते ९, 'णेता इ' नेता इति, दशमे प्राभृतप्रामृते 'नेता' इति नायकः रात्रेरधिष्ठायकः' यन्नक्षत्रं यस्मिन् मासे स्वस्योदयेन अस्तमयनेन चाहोरात्रस्य समाप्ति नयति, तथा यन्नक्षत्रमाश्रित्य यस्यां तिथौ रात्रेः पौरुषीभागः क्रियते तस्य वर्णनमत्र वर्त्तते १०, 'चंदमग्गत्ति यावरे' चन्द्रमार्ग इति चापरस्मिन् , अपरस्मिश्चअन्यस्मिन् एकादशे प्राभृतप्राभृते, इत्यर्थः चन्द्रमार्ग इति चन्द्रमार्गस्य उपलक्षणात् सूर्यमार्गस्य च नक्षत्राणि समधिकृत्य कथनं वर्तते, यथा चन्द्रमण्डलस्य कानि कानि नक्षत्राणि दक्षिणोत्तरभागेन योग योजयन्तीति, चन्द्रस्य यस्मिन् मण्डले नक्षत्रमण्डलानि संक्रामन्ति यस्मिंश्च न संक्रामन्ति, इति, सूर्यचन्द्रमण्डलेपु नक्षत्राणां मण्डलानि संक्रामन्ति इति, सूर्यचन्द्रयोर्विकम्पनक्षेत्रं 'चेत्यादि Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे वर्णनमस्ति ११, 'देवाणं अज्झयणा' देवानामध्ययनानि, द्वादशे प्राभृतप्राभृते देवानां नक्षत्राधिष्ठायकदेवानाम् अध्ययनानि-अधीयन्ते जायन्ते एभिरिति व्युत्पत्त्या अध्ययनानि अभिधेयानि नामानि वर्णनीयत्वेन सन्ति १२,'मुहुत्ताणं नामया इय' मुहर्तानां नामकानीति च त्रयोदशे प्रामृतप्रामृते एकाहोरात्रसम्बन्धिनां त्रिंशन्मुहुर्तानां किं किं नामेति वर्णनम् १३॥ १७॥ 'दिवसा राई य वुत्ता य' दिवसा रात्रयश्च उक्ताश्च-चतुर्दशे प्राभृतप्राभृते एकस्य पक्षस्य दिवसानां रात्रीणां च प्रकरणात् नामानि उक्तानीति १४, 'तिही' तिथयः, पञ्चदशे प्राभृतप्रामृते 'तिहि'-इति पञ्चदशतिथीनां नामान्युक्तानि १५, 'गोत्ता' गोत्राणि, पोडशे प्रामृतप्राभृते 'गोत्ता' इतिअष्टाविंशतिनक्षत्राणां गोत्राणि प्रोक्तानि १६, 'भोयणाणि य भोजनानि च, मप्तदशे प्राभृतप्रामृते 'भोयणाणि' इति-अष्टाविंशतिनक्षत्राणां भोजनान्युक्तानि, यथा-अमुकस्मिन् नक्षत्रे अमुक वस्तु भुक्त्वा गमनं शुभाय भवतीति १७, 'आइच्चचार' आदित्यचारः अष्टादशे प्रामृतप्रामृते आदित्यस्य सूर्यस्य, उपलक्षणात् चन्द्रस्य च चारः-चरणं संचरणलक्षणं कथितम् १८, 'मासा य मासाश्च-एकोनविंशतितमे प्रामृतप्रामृते एकस्य संवत्सरस्य कति मासाः, तेषां च कानि लौकिकनामानि ? कानि च लोकोत्तरनामानीति कथनम् १९, पंच संवच्छरा इय' पञ्च संवत्सरा इति । पञ्च संवत्सरा इति पञ्चेति पञ्चसंख्यकाः-नक्षत्र-युग-प्रमाण-लक्षणशनैश्चरसंज्ञकाः संवत्सराः, तेषां वक्तव्यताऽत्र विंशतितमे प्राभृतप्राभृते वर्त्तते २०॥१८॥'जोईसस्स य दाराई, ज्योतिषश्च द्वाराणि-एकविंशतितमे प्रामृतप्राभृते ज्योतिषः-नक्षत्रचक्रस्य द्वाराणि वाच्यानि यथा-अष्टाविंशतिनक्षत्राणि पूर्वपश्चिमादिप्रकारेण किद्विाराणि-कस्य नक्षत्रस्य किं द्वारमिति वर्णनम् , अत्र पश्च प्रतिपत्तयः सन्ति २१, 'नखत्तविसए इय' नक्षत्रविषय इति-द्वावि. शतितमे प्रामृतप्रामृते नक्षत्राणाम् उपलक्षणात् चन्द्रसूर्ययोगादीनां च-विषयः-निर्णयोऽत्र वक्तव्यत्वेन वर्तते २२। 'दसमे पाहुडे' दशमे मूलप्रामृते 'एए' एते पूर्वप्रदर्शिताः 'वावीसं' द्वाविंशतिः द्वाविंशतिसंख्यकाः 'पाहुडपाहुडा' प्रामृतप्रामृतानि सन्तीति । इदमुक्तं भवति-प्रथमप्राभृतादारभ्य दशमप्रामृतपर्यन्तम् (२९-१४-१२-३२-२०-२५-२०-३-१२६-१०) एकनवत्यधिकशतद्वय (२९१) परिमिताः प्रतिपत्तयः सन्ति । तदने एकादशप्रामृतादारभ्य षोडशप्रामृतपर्यन्तं प्रतिपत्तयो न सन्ति । पुनः सप्तदशाद् विंशतिपर्यन्तं चतुर्यु प्रामृतेषु क्रमशः पञ्चविंशति-पञ्चविंशतिद्वादशचतुःसंख्यकप्रतिपतिसंमेलनेन सर्वाः पट्टपष्टि' (६६) प्रतिपत्तयः सन्ति । एवं सर्वेषु विंशतिसंख्यकेपु प्राभृतेपु सर्वाः प्रतिपत्तयो मिलित्वा सप्तपञ्चादशदधिकशतत्रय(३५७)संख्यका भवन्तीति कोष्ठके प्रदर्शितम् अत्र तृतीयमूलप्रामृतादारभ्य नवममूलप्रामृतपर्यन्तं, तथा एकादशादारम्य विंशतितममूलप्रामृतपर्यन्तं च प्रामृतप्रामृतानि न सन्तीति ॥१९॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशातिप्रकाशिकाटीका प्रा० १ सू० १ मुहर्त्तवृद्धयपवृद्धिनिरूपणम् १५ - - - मूलप्रामृतान्तरप्रामृत-प्रतिपत्तीनां काष्ठकमिदम्मूलप्राभृत- अन्तरप्राभूत | प्रतिपत्ति- || मूलप्रामृत- अन्तरप्रामृत-1 प्रतिपत्ति संख्या क्रमाद्दाः सख्या क्रमाद्वाः संख्या संख्या १ २९ ११ . २ १२ १२ . . २० - - - ६ २५ २० 1०1०1०1०। । १७ । २५ ८ | २५ ९ १२ - - । २० ४ १२६ १० । २२ । १० पूर्व मूलप्रामृतान्तरप्रामृत-तदन्तर्गतप्रतिपत्तिसंन्या, तदधिकाराश्चाभिहिताः । साम्प्रतं प्रथमप्रामृतस्य प्रथमेऽन्तरप्रामृते यदुक्तम् 'वुडढो-चुड्ढी मुहुत्ताणं' इति तदेव विवेचयितुं प्रथम सूत्रमाह 'तेणं कालेणं' इत्यादि । मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएण मिहिला णामं णयरी होत्था, वण्णओ। तीसे गं मिहिलाए णयरीए पहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीमाए एत्थ णं मणिभद्दे णाम चेइए होत्था चिराईए वण्णओ। तीसे ण मिहिलाए णयरीए जियसत्तणामं राया, धारणी देवी, क्ण्णओ। तेणं कालेण तेणं समएणं सामी समोसढे, परिसा णिग्गया, धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया जाव राया जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेहे अंतेवासी इंदभूई णामं अणगारे गोयमगोत्ते सत्तुस्सेहे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी-ता कहं ते मुहुत्ताणं वुड्ढोवुड्ढी य आहिएत्ति वएज्जा 'गोयमा'! ता अट्ट एगृणवीसे मुहुत्तसयाइं सत्तावीसं च सत्तसद्विभागा मुहुत्तस्स आहिएत्ति वएज्जा ॥ सू० १॥ छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये मिथिलानाम नगरी आसीत् , वर्णकः । तस्याः खलु मिथिलाया नगर्या वहिः उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे, अत्र खलु मणिभद्र नाम चैत्यमासीत् चिरातीतं वर्णकः । तस्यां खलु मिथिलायां नगर्या जितशत्रुर्नाम राजा, धारणी देवी वर्णकः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये स्वामी समवसृतः परिषत् निर्गता, धर्मः कथितः, परिषत् प्रतिगता, यावत् राजा यामेव दिशं (आश्रित्य) प्रादुर्भूतः तामेव Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे दिश प्रतिगतः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमजस्य भगवतो महावीरस्य ज्येष्ठः __ अन्तेवासी इन्द्रभूति म अनगार गौतमगोत्रः सप्तोत्सेध यावत् पर्युपासीन. एवमवादीत् तावत् कथं ते मुहूत्तानां वृद्धयपवृद्धी च आख्याते इति वदेत् , गौतम ! तावत् ___ अष्टौ एकोनविंशतिः मुहूत्तशतानि, सप्तविंशतिश्च' सप्तपष्टिभागाः मुहूर्तस्य आख्याता इति वदेत् ॥ सू० १॥ व्याख्या- 'तेण कालेणं' तस्मिन् काले भगवद्विहरणकाले 'तेणं समएणं' तस्मिन् समये हीयमानलक्षणे चतुर्थारकरूपे 'मिहिला णाम णयरी होत्था' मिथिला नाम नगर्यासीत् । सा तदा कीदृशी मासीत् ? इत्याह-'वण्णओ' वर्णकः वर्णनप्रकार, तस्या नगर्या अत्र वर्णनं वक्तव्यम्, तच्च वर्णनम् औपपातिकसूत्रोक्तचम्पानगरीवत् 'ऋद्धस्थिमियसमिद्धा' इत्यादिनगरीवर्णनं सर्वमत्र वाध्यम् । 'तीसे थे' तस्याः खलु 'मिहिलाए णयरीए' मिथिलाया नगर्या 'वहिया' बहिः बहिर्भागे 'उत्तरपुरथिमे दिसीभाए' उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे उत्तरपूर्वयोरन्तराले ईशानकोणे इत्यर्थः 'एत्य णं' अत्र खलु अत्रैव नान्यत्र 'मणिभद्दे णाम चेइए' मणिभद्रं नाम चैत्यं यक्षायतनम् 'होत्था' आसीत् , कीदृग् ? इत्याह-'चिराईए' चिरातीतम् अत्यन्तातीतकालिकम् अतिपुरातनम् 'वण्णओ' वर्णकः, अस्यापि वर्णनम् औपपातिकसूत्रोक्तपूर्णभद्रचैत्यवद्विज्ञेयम् । 'तीसे णं मिहिलाए णयरीए तस्यां खलु मिथिलायां नगर्याम् 'जियसत्तू णामं राया' जितशत्रुर्नाम राना, धारणी देवी' धारणी देवी-धारणीनाम्नी पट्टराज्ञी आसीत् । 'वण्णभो' वर्णकः वर्णनमत्र वक्तव्यमिति । राजराज्ञी वर्णनमत्रौपपातिकसूत्रोक्तो वाच्यः । 'तेणं कालेणं' तस्मिन् काले जितशत्रुशासनकाले 'तेणं समएणं' तस्मिन् समये तदुपलक्षितवर्तमानसमये 'सामी' स्वामी श्रीमहावीरः 'समोसढे' समवसृतः सुखसुखेन विहरन् प्रामानुग्राम द्रवन् यथारूपमवग्रहमवगृह्य संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् तस्मिन् मणिभद्रे चैत्ये समागतः । 'परिसा णिग्गया' परिपन्निर्गता, भगवदागमनं श्रुत्वा मिथिलानगरीतो जनसमूहो भगवद्वन्दनाथं तद्देशनाश्रवणार्थ च निर्गत-इत्यर्थः । 'धम्मो कहिओ' धर्मः कथितः अगारानगाररूपः श्रुतचारित्ररूपश्च धर्मों भगवता प्रतिपादितः, अत्रापि औपपातिकसूत्रोक्ता 'अत्थि लोए अत्थि अलोए'तथा 'जद जीवा वच्चंति' इत्यादिरूपा सर्वा धर्मदेशनाऽत्र वक्तव्या । 'परिसा पडिगया' परिपत् प्रतिगता, धर्मदेशनां श्रुत्वा परिषद् यस्या दिशाया प्रादुर्भूता तस्यामेव दिशायां प्रतिगता-गतवती । 'जाव राया जामेच दिसि पाउन्भूए तामेच दिसि पडिगए' यावत् राजा यामेव दिशमाश्रित्य प्रादुर्भूतः ता मेव दिशं प्रतिगतः, जितशत्रुराजाऽपि भगवतोऽन्तिके धर्म श्रुत्वा निशम्य दृष्टतुष्टः प्रीतिमना हर्षदशविसर्पहृदयः श्रमणं भगवन्तं महावीर प्रश्नानि पृष्ट्वा अर्थान् गृहीत्वा श्रमणं भगवन्तं महावीरें वन्दित्वा नमस्यित्वा मणिभद्राच्चैत्यात् प्रतिनिष्क्रम्य यामेव दिशमाश्रित्य प्रादुर्भूतः समागतः तामेव Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १-१ सू०१ सूर्यादिमासाऽहोरात्रवृद्धिहानिनि० १७ दिशं प्रतिगतः । तेण कालेणं' तस्मिन् काले परिषत्प्रतिगमनानन्तरं 'तेणं समएणं' तस्मिन् समये परिषद्गमनानन्तरं तदुपलक्षितसमये 'समणस्स भगवओ महावीरस्स' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'जेहे अंतेवासी' ज्येष्ठोऽन्तेवासी प्रधानशिष्यः, अनेन गौतमस्य प्रथमागमनं सकलसंघाधिपतित्वं च सूच्यते । 'इंदभूई णाम अणगारे'। इन्द्रभूतिर्नाम-इन्द्रभूतिनामकः अनगारः वाह्याभ्यन्तरपरिग्रहवर्जितः, 'गोयमगोत्ते' गौतमगोत्र:-गोत्रेण गौतमः गौतमगोत्रोत्पन्न इत्यर्थः, किं विशिष्टः ? इत्याह- 'सत्तुस्सेहे' सप्तोत्सेधः सप्तहस्तोच्छेययुक्तशरीरधारी 'जाव' यावत्, अत्र याव त्पदेन 'समचउरंससंठाणसंठिए वज्जरिसहनारायसंघयणे' इत्यारभ्य 'सुस्मसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं' इत्यादि संग्रात्यम्, तद्वयाख्यानं च श्रीभगवतीसूत्रस्य प्रथमशतकेऽस्मत्कृतायां प्रमेयचन्द्रिकाटीकायां विलोकनीयम् । 'पज्जुवासमाणे' पर्युपासीनः मनोवाक्कायरूपया त्रिविधया पर्युपासनया सेवां कुर्वन् ‘एवं वयासी' एवमवादीत्-एवम्-वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत्-कथितवान् । किं कथितवान् ? इत्याह-'ता कहं ते' इत्यादि । 'ता कहं ते' तावत् कथं ते तावत् प्रथमम् सन्न्यप्यन्येऽस्यां चन्द्रप्रज्ञप्त्यां बहवो विषया प्रष्टव्यत्वेन, किन्तु आसतां ते, साम्प्रतं पूर्व त्वेतावदेव पृच्छामि यत्-हे भगवन् ते-तव मते तव ज्ञानविषये कथं केन प्रकारेण 'मुहुत्ताण' मुहर्तानाम् नक्षत्रसूर्यचन्द्रप्रस्तुमाससम्बन्धिनाम् अहोरात्रविषयाणां 'बुइढोवुड्ढी य' वृद्धयवृद्धी च चकारोऽत्र पृथक्पटापेक्षया, तेन वृद्धिरपवृद्धिश्चेति ज्ञातव्यम् । वृद्धिः दिवसरात्रिगतमुहर्तानां वर्धनम् , अपवृद्धिः-तेषामेव हानिश्च 'आहिएत्ति' आख्याते-कथिते इति 'वएज्जा' वदेत् एतद्विषयं यदि कोऽपि मां पृच्छेत् तदाऽहं किमुत्तरं ददामीति हे भगवन् ! कृपया भवान् वदतु कथयतु । एवमग्रेऽपि विज्ञेयम् | भगवानाह-हे गोतम ! 'ता' तावत् प्रथमम् यथा त्वया यत् प्रथमं पृष्टं तदेव तदुत्तरमाश्रित्य प्रथमं कथयामि, तथाहि-'अठ एगृणवीसं मुहुत्तसयाई अष्टौ एकोनविंशतिर्मुहर्तशतानि, एकस्य नक्षत्रमासस्य एकोनविंशत्यधिकान्यष्टशतानि(८१९) मुहर्तानाम्, तथा 'मुहुत्तस्स' मुहर्त्तस्य एकस्य च मुहूर्तस्य 'सत्तावीसं च' सप्तविंशतिश्च 'सत्तसटिभागा' सप्तपप्टिभागाः, एकस्य मुहर्तस्य यदि सप्तपष्टिर्भागाः क्रियन्ते तेषु सप्तविंशतिभांगा गृह्यन्ते (८१९२७) एतावन्मुहूर्त्तपरिमितो नक्षत्रमासो भवतीति 'आहिए त्ति'आख्यातम् इति 'वएज्जा' वदेत् एवं पृच्छकस्य कथ्यतामिति । एतदेव स्पष्टयति-इह चन्द्र-चन्द्रा-ऽभिवर्द्धित-चन्द्राऽभिवर्द्धितरूपपञ्चसंवत्सरात्मके युगे मप्तपष्टिनक्षत्रमासा (६७) भवन्ति, अहोरात्ररूपाणि दिनानि च त्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८३०) भवन्ति, एतेषां सप्तषष्टिसंख्यकनक्षत्रमासैर्भागे हृते लब्धानि सप्तविंशतिरहोरात्राणि (२७) शेषा तिष्ठत्येकविशतिः । सा मुहूर्त्तानयनाथ त्रिंशता गुणने जातानि त्रिंशदधिकानि षट् शतानि ६३०। एतेषां सप्तषष्ट्या भागो ह्रियते, लब्धा नव९ मुहूर्ताः, Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे शेषा सप्तविंशतिरवतिष्ठते २७, आगतोऽयं नक्षत्रमासः सप्तविंशतिरहोरात्रा नव मुहर्ताः, एकस्य मुहूर्तस्य च सप्तविंशतिः सप्तपष्टिभागाः २ । तत्र सप्तविशत्यहोरात्रा मुहूर्त्तानयनार्थम् एकस्याहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहर्ता भवन्तीति त्रिशता गुण्यन्ते जातानि दशोत्तराणि अष्टौ शतानि ८१० तेषां मध्ये उपरिप्रदर्शितनवमुहर्त्तप्रक्षेपणेन जातानि पूर्वप्रदर्शितानि एकोनविंशत्यधिकाष्टशतानि ८१९ । आगतमेतत् नक्षत्रमासस्य मुहूर्तपरिमाणम्-एकोनविंशत्यधिकानि अष्टौ शतानि एकस्य मुहूर्तस्य च सप्तविंशतिः सप्तपष्टिभागाः ८१९-२० इति । अस्योपलक्षणत्वादेव सूर्यादिमासानामप्यहोरात्रसंख्यां परिभाव्य मुहूर्तपरिमाणं यथासूत्रं परिभावनीयम् । तदपि प्रदयते-सूर्यमासस्य पश्चदशोत्तरनवशतानि ९१५ मुहूर्तानां भवन्ति, तथाहि-एकस्मिन् युगे सूर्यमासाः पष्टिर्भवन्ति ६०, अहोरात्राणि च त्रिंशदधिकानि अष्टादश शतानि १८३० । एतेषां सूर्यमासरूपया षष्ट्या भागो हियते तदा लब्धाः त्रिंशदहोरात्राः, शेष षष्ट्या अर्धं त्रिंशदवतिष्ठते, तच्चाहोरात्रस्याधं भवति, एतावत् सार्धं त्रिंशदहोरात्रं (३०॥) सूर्यमासपरिमाणमायातम् । त्रिंशन्मुहर्तश्चाहोरात्रो भवतीति सार्वत्रिंशत् त्रिंशता गुणने कृते जातानि मुहूर्तानां नव शतानि अर्धे चाहोरात्रस्य पञ्चदश मुहूर्तास्तत आयातं पूर्वप्रदर्शितं सूर्यमासस्य मुहूर्तानां परिमाणम् पञ्चदशोत्तराणि नव शतानीति ९१५ । अथ चन्द्रमासमुहूर्तपरिमाणं प्रदर्श्यते-एकस्मिन् युगे चन्द्रमासा द्वाषष्टिर्भवन्ति, त्रिंशदुत्तराष्टादशशतानि १८३० चाहोरात्रा भवन्ति । एतेषामहोरात्राणां १८३० चन्द्रमाससंख्यारूपया द्वापष्टया भागे हृते लब्धानि एकोनत्रिंशदहोरात्राः एकस्य चाहोरात्रस्य द्वात्रिंशद् द्वापष्टिभागाः २९३२ अथवा-साधैकोनत्रिंशदहोरात्राणि-एकश्च-द्वापष्टिभागः२९-१ । एते द्वात्रिशद् द्वाषष्टिभागा मुहगनयनाथ त्रिंशता गुण्यन्ते तेन जातानि षष्टयुत्तराणि-नव शतानि ९६० । एतेषां द्वापष्टया भागे हृते लब्धाः पञ्चदश मुहूर्ताः, शेषाश्च त्रिंशत् ३० । एकोनत्रिंशत् २९ अहोरा. त्राश्च मुह नयनाथ त्रिशता गुण्यन्ते ततो जातानि सप्तत्युत्तराणि अष्टौ शतानि ८७०, ततः पूर्वप्रदर्शितानां पञ्चदशमुहन्नामेषु प्रक्षेपणे समागतं चन्द्रमासे मुहूर्तपरिमाणम् पञ्चाशीत्युत्तराणि अष्टौ शतानि, एकस्य मुहूर्त्तस्य च त्रिंशद् द्वापष्टिभागाः ८८५-३० इति । अथ ऋतुमासमुहूर्तपरिमाणं प्रदश्यते-एकस्मिन् युगे त्रिंशद् ऋतवो भवन्ति । ऋतुमासश्च त्रिंशदहोरात्रपरिमितो भवति । अस्य नव शतानि मुहूर्तानां भवन्ति ९००, तथाहि-युगस्याहोरात्रा ६२ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१-१०२वाह्याभ्यन्तरमण्डलसंचारे रात्रिन्दिवप्रमाणनि० १९ विशदुत्तराष्टादशशतानि १८३० भवन्ति । अस्याः १८३० संख्यायात्रिंशता भागे हते एकस्या ऋतोः पष्टिरहोरात्रा भवन्ति ६० । एषां मुहर्त्तानयनार्थं त्रिशता गुणने जातानि अष्टादश शतानि १८०० । एकस्या ऋतोर्दो मासौ भवतोऽतोऽष्टादशशतानि द्वाभ्यां विभज्यन्ते ततो जातानि एकस्य ऋतुमासस्य नव शतानि (९००) परिपूर्णानि मुहूर्त्तानामिति ॥ एतत्सुखावबोधार्थं यन्त्र प्रदर्थते १ मासस्याहोरात्राः २७ दि. ९ मु. २७ ६७ ३० दि. १५ मु. (३०|) मासनाम नक्षत्रमास माश्रित्य सूर्यमा समश्रित्य चन्द्रमास माश्रित्य ऋतुमासमाश्रित्य युगमासाः ६७ ६० ६२ २९ दि. ३२ ६२ अथवा २९ दि. १५ मु. २९॥ - १ ६२ १ मासस्य मुहूर्त्ताः ८१९ २७ ६७ ९१५ ८८५-३० ६२ ६१ ३० ९०० अथ युगमासानयनविधिः- पञ्च संवत्सरात्मकस्य युगस्य त्रिंशदुत्तराष्टादशशत - १८३०संख्यका अहोरात्रा भवन्ति, ते च यस्याः संख्याया नक्षत्रादिमासस्याहोरात्रैर्गुणने त्रिंशदुत्तरा - ष्टादशशत १८३०संख्या पूर्यते, ते एव नक्षत्रादिमासमाश्रित्य युगमासा भवन्ति, तथाहिनक्षत्रमासस्याहोरात्राः सप्रविंशतिर्नवमुहूर्त्तयुक्ता (अहो ० २७ मु. ९) तथा सप्तविशतिः सप्तषष्टि २७ ६७ भागाः, इयं संख्या सप्तषष्ट्या गुण्यते तदा नायन्ते युगदिनानि पूर्वोक्तानि त्रिंशदुत्तराष्टादशशतसंख्यकानि १८३०, ततो नक्षत्रमासमाश्रित्य जाता युगमासाः सप्तषष्टिः ६७ । एवं सूर्यादिमासविषयेऽपि विज्ञेयम्, तच्चोपरितनकोष्ठ के प्रदर्शितं ततोऽवसेयम् । तदेवं मास सम्बधिनं मुहूर्तपरिमाणं प्रदर्शितम्, एतदनुसारेण चन्द्रादिसंवत्सरसम्बन्धिनं युगसम्बन्धिनं च मुहर्त - परिमाणं स्वयमूहनीयमिति ॥ सू० १ ॥ पूर्व मुहूर्त्तपरिमाणं प्रदर्शितम्, साम्प्रतं प्रत्ययनं या दिवसरात्रिविषया मुहूर्त्तानां वृद्धि - रपवृद्धिश्च भवति तां प्रदर्शयितुमाह- 'ता जया णं' इत्यादि । मूलम् - ता जया णं ते मुरिए सव्वन्तराओ मंडलाओ सन्ववाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चर, सव्ववाहिराओ मंडलाओ सव्वन्तरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे एसा णं अद्धा केवइएणं राईदियग्गेणं आहिएत्ति वएज्जा ? ता तिणि छावटे राइंदियसयाई राइंदियग्गेणं आहिएत्ति वएज्जा ।। सू० २॥ छाया- तावत् यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरात् मण्डलात् सर्ववाह्य मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति, सर्ववाह्यात् मण्डलात् सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति पषा खलु अद्धा कियता रात्रिंदिवाण आख्यातेति वदेत् । तावत् त्रीणि पट्पष्टिः रात्रिन्दिव. शतानि रात्रिन्दिवाण आख्यातेति वदेत् ॥ सू० २॥ व्याख्या-'ता' तावत् तावच्छब्दार्थः पूर्ववदेव सर्वत्र भावनीयः, यत्-अन्येषु प्रष्टव्यविषयेषु सत्स्वपि प्रथमं सूर्यचारादिविषयं पृच्छामीति गौतमवाक्यम् , हे भगवन् , 'जया णं' यदा खलु यस्मिन् काले 'सरिए सूर्यः 'सन्चभंतराओ मंडलाओ' सर्वाभ्यन्तरात् सर्वेषां मण्डलानां मध्ये यद् माभ्यन्तरं मण्डलं नहि तदने आभ्यन्तरत्वं मण्डलानाम् , तस्मात् निस्सृत्येतिशेषः 'सव्ववाहिरं मंडलं' सर्वबाह्यं मण्डलं, सर्वेषां मण्डलानां मध्ये यद् बाह्यं मण्डलं, नहि तदने मण्डलानां बाह्यत्वम् , बाह्यत्वेन सन्तिमं मण्डलं 'संकमित्ता' उपसंक्रम्य-आक्रम्यतत्रागत्येत्यर्थः 'चारं चरई' चारं चरति-गति करोति, तथा यदा च 'सव्ववाहिरामो मंडलाओ' सर्वबाह्यात् मण्डलात् प्रतिक्रम्य प्रतिनिध] 'सचन्भतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं 'उपसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरई' चारं चरति तदा 'एसा गं' एषा खलु 'अद्धा'एषः कालः सर्वाभ्यन्तरमण्डलान्निस्सृत्य सूर्यः सर्वबाह्यमण्डले गत्वा पुनस्तत्रैव सर्वाभ्यन्तरमण्डले समागच्छति, एतद्विषयकोऽन्तरकालः 'केवइएणं राइदियग्गेणं' कियता रात्रि न्दिवाण कतिसंख्यकेनाहोरात्रप्रमाणेन 'आहिए' आख्यतः-कथितः पूर्वतीर्थकरगणधरैः । 'त्ति' इति 'वएज्जा' वदेत् कथयतु भवान् इति गौतमप्रश्नः । भगवानाह-हे गौतम ! 'ता' तावत् प्रथमं शृणु, यत् यदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलान्निस्सृत्य सर्ववाद्यमण्डलं प्राप्य चारं चरति, एवं सर्वबाह्यमण्डलात्प्रतिनिवर्त्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलमभिव्याप्य चारं चरति, एतद्विपयकोऽन्तरकालः 'तिणि छावट्ठी राइंदियसयाई त्रीणि पट्पष्टिः रात्रिन्दिवशतानि षट्पष्टयुत्तरत्रिशताहोरात्राणि (३६६ ) 'आहिएत्ति' आख्यातः इयदिवसप्रमाणोपेतः सूर्यसवत्सरः कथित इति 'वएज्जा' वदेत् स्वशिष्यादिभ्य इति ॥सू० २ ॥ पुनः प्रश्नयति-ता एयाए णं' इत्यादि । मूलम्-ता एयाए णं अद्धाए सरिए कइ मंडलाई चरइ ? कइ मंडलाई दुक्खुत्तो चरइ ? कइ मंडलाई एगखुत्तो चरइ ? । ता चुलसीई मंडलसयं चरइ, वेयासीई च मंडलसयं दुक्खुत्तो चरइ, तं जहा-निक्खममाणे चेव पविसमाणे चेव । दुवे य खलु मंडलाई एगक्खुत्तो चरइ, तं जहा-सबभंतरं चेव मंडलं, सच्चवाहिरं चेव मंडल।सू०३॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१-१०३-४ सूर्यसंचारमण्डलसंख्या- दिनरात्रिमाननि०२१ छाया - तावत् पतया खलु अद्धया सूर्य कति मण्डलानि चरति ? कति मण्डaft द्विकृत्वश्वरति ? कति मण्डलानि पककृत्वश्चरति १ । तावत् चतुरशीतिर्मण्डलशतं चरति, द्वपशीतं च मण्डलशतं द्विः कृत्वश्चरति, तद्यथा - निष्क्रामन् चैव प्रविशन् चैव । द्वे च खलु मण्डले एककृत्वश्चरति, तद्यथा - सर्वाभ्यन्तरं चैव मण्डलं, सर्वपाहा चैव मण्डलम् ॥ सू० ३ ॥ व्याख्या- 'ता' तावत् प्रथमम् 'एयाए' एतया - 'सर्वाभ्यन्तरमण्डलात् सर्व वाह्यमण्डले गत्वा पुनस्ततो निवर्त्य सर्वाभ्यन्तरमण्डले समागच्छति एतद्रूपया 'अद्धाए' मद्धया - कालेन 'सूरिए' सूर्य: 'कड़ मंडलाई' कति मण्डलानि कतिसंख्यकानि मण्डलानि 'चरइ' चरति-भ्रमण - विषयीकरोति ? तेषु पुनः 'कई मंडला " कति मण्डलानि 'दुक्खुत्तो' द्विः कृत्वः - द्विवारं 'चरई ' चरति ? तथा 'कड़ मंडलाई' कति मण्डलानि 'एगखुत्तो' एककृत्वः - एकवारं 'चर' चरति ! भगवान् नाह—हे गौतम | 'ता' इति इति तावत् 'चुलसी' चतुरशीतिः 'मण्डलसयं' मण्डलशतं च चतुरशीत्यधिकं शतमेकं १८४ मण्डलानां 'चरई' चरति भ्रमणविषयी करोति ततोऽधिकस्य सूर्यसम्बन्धिमण्डलस्याऽसद्भावात् । तथा 'बेयासीई' द्वयशीतिः 'मंडलसयं' मण्डलशतं च द्वयशीत्यधिकं शतमेकं १८२ मण्डलानां 'दुक्खुत्तो' द्विः कृत्वः द्विवारं 'चरइ' चरति ‘तं जहा' तद्यथा - 'णिक्खममाणे चेव पविसमाणे चेव' निष्क्रामन् चैव सर्वाभ्यन्तर मण्डलाद्वहिनि स्मरन् प्रविशन् चैव सर्वबाह्यमण्डलात्सर्वाभ्यन्तरमण्डलं प्रापयंश्चेति द्विवारं चरतीति । 'दुवे य खलु मंडलाई 'ट्टे च खलु मण्डले सर्वाभ्यन्तर सर्व बाह्यरूपे 'एगक्खुत्तो' एकवारं एकैकवारम् 'चरइ' चरति - 'तं जहा ' तद्यथा - 'सच्च मंतरं चैव मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं चैव मण्डलम् तथा 'सव्वारिं चैव मंडलं' सर्वबाह्यं चैव मण्डलम् एकवारं सर्वाभ्यन्तरमण्डलम्, एकवारं च सर्वबाह्यमण्डलमिति भावः ॥ सू० ३ || " अथादित्यसंवत्सरस्य दिवसरात्रि मुहर्त्तविषये प्रश्नयति - 'जइ खलु' इत्यादि । मूलम् – जइ खलु तस्सेव आइच्चसंवच्छरस्स सई अट्ठारस मुहुत्ते दिवसे भव, स अहारसमुहुत्ता राई भवइ, सई दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, सई दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । से पढमे छम्मासे अस्थि अट्टारसमुहुत्ता राई, नत्थि अहारसमुहुत्ते दिवसे, अत्थि दुवालसमुहुत्ते दिवसे, नत्थि दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । दोच्चे छम्मासे अस्थि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे, णत्थि अट्ठारसमुहुत्ता राई, अस्थि दुवालसमुहुत्ता राई, णत्थि दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ । पढमे वा छम्मासे दोच्चे वा छम्मासे णत्थि पणरसमुहुत्ते दिवसे भवइ णत्थि पणरसमुहुत्ता राई भवइ तत्थ को हेउत्ति वएज्जा ? || सू० ( ४ ) १ || Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे छाया-यदि खलु तस्यैव आदित्यसंवत्सरस्य सकृद् अष्टादशमुहत्तों दिवसो भवति, सकृद् अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति, सकृद् द्वादशमुहत्तों दिवसो भवति, सकृद् द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति । अथ प्रथमे पण्मासे अस्ति अष्टादशमुहर्ता रात्रिः, नास्ति अष्टादशमुहत्तों दिवसः, अस्ति डावशमुहर्तो विवसः, नास्ति द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति । द्वितीये पण्मासे अस्ति अष्टादशमुहतो दिवसः नास्ति अष्टादशमुहुर्ता रात्रि', अस्ति द्वादशमुहुर्ता रात्रिः, नास्ति द्वादशमुहुर्ती दिवसो भवति । प्रथमे वा पण्मासे द्वितीये वा पण्मासे नास्ति पञ्चदशमुहतों दिवसो भवति. नास्ति पञ्चदशमुहुर्ता रात्रिर्भवति तत्र को हेतुरिति वदेत् ? ।। सू० ४(१)। व्याख्या-'जइ खलु' यदि खलु सूर्यस्य सामान्यतया परिभ्रमणस्य चतुरशीत्यधिकैकशतसंख्यकानि सर्वाणि मण्डलानि(१८४)सन्ति, तत्र पट्पष्टयधिकशतत्रय(३६६)रानिन्दिवपरिमितायामद्धायां मध्यगतानि द्वयशीत्यधिकशत(१८२)मण्डलानि द्विःकृत्वश्चरति, प्रथमान्तिममण्डटयोश्चैकैकवारं चरतीत्येवं भगवता प्ररूपितम् 'तस्सेच' तस्यैव षट्पष्टयधिकशतत्रयरात्रिन्दिवपरिमाणस्य (३६६) 'आइच्चसंवच्छरस्स' आदित्यसंवत्सरस्य 'सई सकृत् एकवारम् 'अट्ठारसमुहत्ते' अष्टादशमुहूर्तः अष्टादशमुहूर्तपरिमितः 'दिवसे भवई' दिवसो भवति, तथा 'सई' सकृत् एकवारम् 'अट्ठारसमुहुत्ता' अष्टादशमुहूर्त्ता अष्टादशमुहूर्तपरिमिता 'राई भवई' रात्रिर्भवति पुनश्च 'सई' सकृत् एकवारं 'दुवालसमुहुत्तो' द्वादशमुहूर्त्तः द्वादशमुहूर्तपरिमितः 'दिवसे भवई' दिवसो भवति, तथा 'सई' सकृत्-एकवारं 'दुवालसमुहुत्ता' द्वादशमुहूर्त्ता द्वादशमुहर्तपरिमिता 'राई भवई' रात्रिभवति 'से' अथ तत्रापि 'पढमे छम्मासे' प्रथमे षण्मासे यदा सूर्यः चतुरशीत्यधिकैकशततमरूपेऽन्तिमे सर्ववाह्यमण्डले चरति तपे प्रथमे पण्मासे इत्यर्थः 'अस्थि' मस्ति 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भष्टादशमुहर्ता रात्रिः, किन्तु 'नत्यि' नास्ति 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे'अष्टादशमुहुतों दिवसः, तथा-'अस्थि' अस्ति 'दुवालसमुहुने दिवसे'द्वादशमुहूत्तों दिवसः, किन्तु 'नस्थि' नास्ति 'दुवालसमुहुत्ता राई' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिभवति । एवम्-'दोच्चे छम्मासे' द्वितीये षण्मासे सूर्यस्य चतुरशीत्यधिकैकशत (१८४) संख्यकेषु मण्डलेषु प्रथममण्डलोपरि परिभ्रमणरूपे द्वितीये घण्मासे सर्वाभ्यन्तरमण्डरूपे इत्यर्थः 'अत्थि' अस्ति 'अहारसमुहुत्ते दिवसे' अष्टादशमुहत्तों दिवसः किन्तु ‘णत्यि' नास्ति 'अठारसमुहुत्ता राई' अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिः, तथा 'अत्थि' अस्ति 'दुवालसमुहुत्ता राई' द्वादशमुहर्ता रात्रिः किन्तु ‘णत्थि' नास्ति 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे' द्वादशमुहूर्ती दिवसो भवति । पुनश्चैवमपि भवति यत् 'पढमे वा छम्मासे' प्रथमे वा षण्मासे अन्तिममण्डलोपरि सूर्यसंचरणसमये, तथा 'दोच्चे वा छम्मासे' द्वितीये वा षण्मासे प्रथममण्डलोपरि स्थिते सूर्ये 'णत्यि' अत्र 'णत्थि' निनकारवाचकोऽव्ययः ‘पण्णरसमुहुत्ते दिवसे' पञ्चदशमुहूत्तों दिवसः 'भवई' भवति, णस्थि' न 'पण्णरसमुहुनाराई पञ्चदशमुहूर्ता रात्रिः 'भवइ' भवति 'तत्थ' Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०९-१ सू०४ पाहाभ्यन्तरमण्डलसंचारेणदिनरात्रिमाननि० २३ तत्र एतादृश्यां स्थिती 'को हेऊ' को हेतुः-किं कारणम् ? 'त्ति वएज्जा' इति वदेत् इति कथ्यतामिति गौतमप्रश्नः सू० ४ (१) ।। पूर्व गोममेन दिवसरात्रिपरिमाणविषये प्रश्नः कृत इति प्रदर्शितम् , साम्प्रतं भगवता किमुत्तरं दत्तमिति प्रदर्शयन् उत्तरवाक्यमाह-'ता अयं णं' इत्यादि । मूलम् - ता अयं णं जंबुद्दीवे दीये सव्वदीवसमुद्दाणं सबभंतराए जाव विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते । ता जयाणं सरिए सबभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । निक्खममाणे सुरिए नवं संवच्छरं अयमाणे पढमसि अहोरत्तंसि अभितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सुरिए अम्भितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरड तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहि एगसट्ठिभागमुहुत्तेहि ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ दोहि एगसद्विभागमुहुत्तेहि अहिया । से णिक्खममाणे सुरिए दोच्चंसि अहोरतंसि अ०भतर तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सुरिए अम्भितरं तच्चं मंडलं उवंसकमित्ता चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहि एगसद्विभागमुहुतेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, चउहि एगसहिभागमुत्तेहि अहिया । एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे मूरिए तयाणतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे दो दो एगसटिभागमुहुत्ते एगमेगे मंडले दिवसखेत्तस्स विबुड्ढेमाणे २ रयणिखेत्तस्स अभिवुड्ढेमाणे२ सव्ववाहिरं मंडलं उपसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सुरिए सव्ववाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं सव्वन्भंतरमंडलं पणिहाय एगेणं तेयासीएणं राइंदियसएणं तिण्णि छावढे एगसहिभागमुहुत्तसयाई दिवसखेत्तस्स निव्वुढित्ता राइखेत्तस्स अभिवुढित्ता चारं चरई तया णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ । एस ण पढमे छम्मासे । एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे |सू० ४ (२) ॥ से पविसमाणे सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरसि वाहिराणतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सूरिए वाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरई तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगसट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिए । से पविसमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तसि बाहिरं तच्चं मंडलं उचसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सुरिए बाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ चउहि एगसद्विभागमुहुत्तेहि Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्र प्रज्ञप्तिसूत्रे २४ ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउर्हि एगसट्टिभागभुहुत्तेहिं अहिए । एवं खलु एएणं उarei पविसमा सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडल संकममाणे२ दो दो एसट्टिभागमुहुत्ते एगमेगे मंडले राइखेत्तस्स निब्बुड्ढेमाणे२ दिवसखेत्तस्स अभिबुड्ढेमाणे सव्वमंतर मंडलं उपसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सूरिए सव्व - बाहिराओ मंडलाओ सव्वमंतर मंडलं उवसंकमित्ता- चारं चरइ तया णं सव्ववाहिरं मंडल पणिहाय एगेणं तेयासीएणं राईदियसएणं तिष्णि छावट्टिएगसट्ठिभागमुहुत्तसाई राइखेत्तस्स निव्वुटित्ता दिवसखेत्तस्स अभिवुढित्ता चारं चरह तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । एस णं दोच्चे छम्मासे । एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे । एस णं आइचसंवच्छरे । एसणं आइच्चसंवच्छरस्स पज्जवसाणे || सु० ४ ( ३ ) || इति खलु तस्सेवं आइचचसंवच्छरस्स सई अहारसमुहुत्ते दिवसे भवई, सई अट्ठारसमुत्ता राई भवइ । सई दुवालसमुहुत्तो दिवसे भवइ, सई दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । पढमे छम्मासे अस्थि भट्टारसमुहुत्ता राई, णत्थि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, अस्थि दुवालसमुहुत्ते दिवसे, णत्थि दुवालसमुहुत्ता राई भइ । दोच्चे छम्मासे अस्थि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे, णत्थि अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, अस्थि दुवालसमुहुत्ता राई, णत्थि दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ । पढमे वा छम्मासे दोच्चे वा छम्मासे णत्थि पण्णरसमुहुत्ते दिवसे, णत्थि पण्णरसमुहुत्ता राई भवइ, गण्णत्थ राईदियाणं बुड्ढोबुड्ढी मुहुचाणं चयोवचएणं, णण्णत्थ वा अणुवायगई ॥ सृ० ४ ॥ || पढमस्स पाहुडस्स पढमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥ १-१ ॥ छाया त् अयं खलु जम्बूद्वीपो द्वीपः सर्वद्वीपसमुद्राणां सर्वाभ्यन्तर. यावत् विशेषाधिकः परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः । तावत् यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलम् उपसंक्रम्य चार चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षकः अष्टादशमुत्त दिवसो भवति, द्वादशमुहुर्त्ता रात्रिर्भवति । अथ निष्क्रामन् सूर्यः नव सवत्सर अयन् प्रथमे अहोरात्रे अभ्यन्तरानन्तर मण्डल उपसंक्रम्य चार चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः अभ्यन्तरानन्तर मण्डल' उपसंक्रम्य चार चरति तदा खलु अष्टादशमुहूर्त्ता दिवसो भवति द्वाभ्याम् एक षष्टिभागमुहूर्त्ताभ्यामूनः, द्वादशमुहर्त्ता रात्रिर्भवति द्वाभ्याम् एकषष्टिभागमुहर्त्ताभ्यामधिका, अथ निष्क्रामन् सूर्यो द्वितीये अहोरात्रे अभ्यन्तर तृतीय मण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः अभ्यन्तर तृतीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति तदा खलु अष्टादशमुत्त दिवसो भवति चतुर्भिरे कषष्टिभागमुहुर्तेरूनः, द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति चतुर्भिरे कषष्टिभागमुहुत्तैरधिका । पव खलु पतेन उपायेन निष्क्रामन् सूर्य तदनन्तरात् Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १-१ सू०४ आदित्यसंवत्सरनिरूपणम् २५ मण्डलात् तदनन्तर मण्डल संझामन्२ द्वौ द्वौ एकपष्टिभागमुहत्तौँ एकैकस्मिन् - मण्डले दिवसक्षेत्रस्य निर्वर्धयन्२ रजनीक्षेत्रस्य अभिवर्धयन्२ सर्ववाह्य मण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः सर्ववाहां मण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति तदा खलु सर्वाभ्यन्तर मण्डल प्रणिधाय पकेन व्यशीतिकेन रात्रिदिवशतेन त्रीणि पट्पष्टिः एकपष्टिभागमुहर्त्तशतानि दिवसक्षेत्रस्य निर्वयं, रात्रिक्षेत्रस्य अभिवर्ध्य चारं घरति तदा खलु उत्तमकाष्ठम्राप्ता उत्कर्पिका अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति, जघन्यको द्वादशमुहत्तों दिवसो भवति । एतत् खलु प्रथमं पण्मासम् । एतत् खलु प्रथमस्थ पण्मासस्य पर्यवसानम् । अथ प्रविशन् सूर्यों द्वितीयं पण्मालम् अयन् प्रथमेऽहोरात्रे वाह्यानन्तर मण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति । तावत् यदा खलुसूर्यः बाह्यानन्तर मण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति तदा खलुअष्टा. दशमुहर्ता रात्रिर्भवति द्वाभ्यामेकपप्टिभागमुहर्ताभ्यामूना,द्वादशमुहत्तौ दिवसो भवति द्वाभ्यामेकपप्टिभागमुहर्ताभ्यामधिकः । अथ प्रविशन् सूर्यो द्वितीयेऽहोरात्रे वाह्य तृतीय मण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति । तावत् यदा खलु सूर्यो वाह्य तृतीय मण्डमुपसंक्रम्य चार चरति तदा खलु अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति चतुभिरेकपष्टिभागमुहतैरूना, द्वादशमुहत्तों दिवसो भवति चतुभिरेकपाटिभागमुहत्तरधिकः। एवं खलु पतेन उपायेन प्रविशन् सूर्य: तदन्तरात् मण्डलात् नदनन्तरं मण्डलं संक्रामन्२ द्वौ द्वौ एकपप्टिभागमुहत्तौ एकस्मिन् मण्डले रात्रिक्षेत्रस्य निर्वर्धयन २ दिवसक्षेत्रस्य अभिवर्धयन्२ सर्वाभ्यन्तरमण्डलसुपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः सर्ववाहात् मण्डलात् सर्वाभ्यन्तर मण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति तदा खलु सर्ववाह्यमण्डलं प्रणिधाय एकेन ज्यशीतिकेन रात्रिदिवशतेन त्रीणि पट्पष्टिः एकपष्टिभागमुहर्त्तशतानि रात्रिक्षेत्रस्य निर्वयं, दिवसक्षेत्रस्याभिवर्थ्य चार चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षकः अष्टादशमहत्तों दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति । एतत् खलु द्वितीयं पण्मासम् , एतत् खलु द्वितीयस्य यण्मासस्य पर्यवसानम् , एप खलु आदित्यसंवत्सरः । एतत् खलु आदित्यसंवत्सरस्य पर्यवसानम् ॥ सू० ॥ इति खलु तस्यैवम् आदित्यसंवत्सरस्य सकृत् अष्टादशमुहूतौ दिवसो भवति, सकृत् अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति, सकृत् हादशमुहर्तो दिवसो भवति, सकृत् द्वादशमुहर्ता रात्रि र्भवति । प्रथमे पण्मासे अस्ति अष्टादशमुहर्ता रात्रिः, नास्ति अष्टादशमुहतों दिवसो भवतिः अस्ति द्वादशमुहत्तौ दिवसः, नास्ति द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति । दितीये पण्मासे अस्ति अष्टादशमुहत्तौ दिवसः, नास्ति अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति, अस्ति द्वादशमुहर्ता रात्रिः, नास्ति द्वादशमुहतों दिवसो भवति । प्रथमे वा पण्मासे दितीये वा षण्मासे नास्ति पञ्चदशमुहत्तों दिवसः, नास्ति पञ्चदशमुहर्ता राधिर्भवति-नान्यत्र रात्रिन्दिवानां वृद्धयपवृद्धिभ्यां मुहर्तानां चयोपचयेन, मान्यत्र वा अनुपातगत्या ॥ सू०४॥ । प्रथपस्य प्राभृतस्य प्रथमं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥ १-१॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसत्रे व्याख्या-'ता' तावत् 'अयं णं' अयं खलु प्रत्यक्षोपलभ्यमानः 'जम्बूद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपो द्वीपः जम्बूद्वीपाभिधानो मध्यजम्बूद्वीपः, स कीदृशः ? इत्याह-सव्वदीवसमुदाणं सर्वद्वीपसमुद्राणाम् एतदतिरिक्तावशिष्टानां सर्वेषां दीपानां समुद्राणां च मध्ये 'सबभतराए' सर्वाभ्यन्तरः सर्वथाऽभ्यन्तरवर्ती 'जाव विसेसाहिए' यावत् विशेषाधिकः, अत्र यावत्पदेन "सन्चखुड्डागे वट्टे, तेल्लापूयसंठाणसंठिए बट्टे, रहचक्कवालसंठाणसंठिए बट्टे, पुक्खरवरकण्णियासंठाणसंठिए वट्टे, पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए जोयणसयसहस्समायामविक्खंभेणं तिन्नि जोयणसयसहस्साइंसोलस सहस्साइंदोन्नि य सत्तावीसे जोयणसए तिन्नि कोसे अहावीसं च धणुसयं, तेरस य अगुलाई अद्धगुलं च किंचि" इति पाठः संग्राह्यः । तथा च छायासर्वक्षुल्लको वृत्तः, तैलापूपसंस्थानसंस्थितो वृत्तः, रथचक्रवालसंस्थानसंस्थितो वृत्तः, पुष्करवरकर्णिकासंस्थानसंस्थितो वृत्तः, प्रतिपूर्णचन्द्रसंस्थानसंस्थितः योजनशतसहस्रमायामविष्कम्मेन, त्रीणि योजनशतसहस्राणि षोडश सहस्राणि द्वे च सप्तविशतियोंजनशते (३१६२२७) त्रयः क्रोशाः, अण्टाविंशतिश्च धनुःशतम् , त्रयोदश च अङ्गुलानि, अर्धाङ्गुलं च किञ्चिद् इति विशेषाधिक इति सम्बन्धः 'परिक्खेवेण पण्णत्ते' परिक्षेपेण परिधिना प्रज्ञप्तः । स च-आयामविष्कम्भाभ्यां लक्षयोजनप्रमाणत्वात् सर्वेभ्यो लघुः, 'वट्टे' त्ति वृत्तः गोलाकारः, तत्परिधिश्च-सप्तविंशत्यधिकद्विशतोत्तरषोडशसहस्राधिकं लक्षत्रयं (३१६२२७) योजनानाम् , तदुपरि क्रोशत्रयम्, अष्टाविंशत्युत्तरमेकं शतं १२८ धनुषाम् पुनश्च त्रयोदशाङ्गुलानि किञ्चिद्विशेषाधिकमर्धमङ्गुलं चेतिपरिमिता । अस्य विशेषव्याख्याऽन्यत्र विज्ञेया । अस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वीपे 'ता' इति तावत् 'जया ' यदा खलु यस्मिन् काले 'मूरिए' सूर्यः 'सबभंतरमंडलं' सर्वाभ्यन्तरमण्डलम् सूर्यसंचरणस्य सर्वमण्डलानि चतुरशीत्यधिकैकशत (१८४) संख्यकानि भवन्ति, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमिति मेरोः पार्श्वस्य मण्डलं सर्वप्रथमं मण्डलमित्यर्थः 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य तत्रागत्य 'चारं चरई' चारं चरति-संचरति सायनकर्कसंक्रान्तिपूर्वदिवसे इति भावः "उत्तमकपत्ते' उत्तम. काष्ठाप्राप्तः पराकाष्ठाप्राप्तः, अत्र काष्ठाशब्दः प्रकर्षार्थवाचकस्तेन परमप्रकर्पप्राप्तः इत्यर्थः, अतएव 'उक्कोसए' उत्कर्षकः उत्कृष्टः यतोऽधिकोऽन्यो दिवसो न भवति स इति भावः 'अहारसमुहुने' अष्टादशमुहूर्त अष्टादशमुहूर्तपरिमितकालयुक्तः पत्रिंशद्घटिकायुक्त इत्यर्थः 'दिवसे भवई' दिवसो भवति 'जहणिया' जघन्यिका सर्वलध्वी 'दुवालसमुहुत्ता' द्वादशमुहर्ता द्वादशमुहूर्तपरिमिता चतुर्विशतिघटिकायुक्तेत्यर्थः 'राई भवई' रात्रिर्भवति जम्बूद्वीपे क्षेत्रविशेषे इति भावः । एष अहोरात्रः पाश्चात्यसूर्यसंवत्सरस्य पर्यवसानम् । ___अथ सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलात् निष्क्रमणविषये प्राह--से निक्खममाणे इत्यादि, 'से' सः 'निक्खममाणे' निष्क्रामन् सर्वाभ्यन्तररूपप्रथममण्डलाबहिर्गमन Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १-१ सू० ४ रात्रिन्दिवयोहानिवृद्धिमनिरूपणम् २७ मार्ग प्रति गच्छन् 'मूरिए' सूर्यः 'नव' नवं पूर्वसंवत्सरादन्यं 'सवच्छरं' संवत्सरं 'अयमाणे' अयन् प्राप्नुवन् तत्र प्रवर्त्तमान इत्यर्थः 'पढमें प्रथमे तद्विषयके माये 'अहोरत्तं सि' अहोरात्रे 'अभितराणंतरं' अभ्यन्तरानन्तरं सर्वाभ्यन्तरमण्डलात् द्वितीय 'मंडलं' मण्डलम् 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रग्य तत्र स्थित्वा 'चार चरई' चारं चरति परिभ्रमति गतिं करोतीत्यर्थः । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल 'सूरिए' सूर्यः 'अभितराणंतर मंडलं' अभ्यन्तरानन्तरं मण्डलं पूर्वोक्तं हितीयं मण्डलं 'उवसंकमित्ता चार चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु -'अट्ठारसमुहुत्ते' अष्टादशमुहूर्तः 'दिवसे भवई' दिवसो भवति किन्तु सः 'दोहि द्वाभ्यां 'एगसहिभागमुहुत्तेहि' एकपष्टिभागमुहर्त्ताभ्यां 'ऊणे' ऊनः न्यूनो भवति(१७ तथा 'राई' रात्रिः बालसमुहुत्ता' द्वादशमुहूर्ता भवति, सा च 'दोहि एगसद्विभागमुहुत्तेहि अहिया' द्वाभ्यामेकपष्टिभागमुहूर्ताभ्यामधिका भवति (१२ -२)कथमेतदित्याह-इह चैकं मण्डलमेकेनाहोरात्रेण सूर्यद्वयद्वारा परिसमाप्यते, प्रत्यहोरात्रं मण्डलस्य त्रिंशदधिकाऽष्टादशशतसंख्यका (१८३०) भागाः परिकल्प्यन्ते, तेषु एकैकः सूर्य एकैकं भागं दिवस क्षेत्रस्य रात्रिक्षेत्रस्य वा यथाकालं हापयिता वर्धयिता वा भवति, स च मण्डलगत एको भागस्त्रिंशदधिकाष्टादशशततमोऽन्तिमो भागो मुहूत्तैकष्टिभागेषु द्विभागरूपो भवति(२) तच्चेत्थम्-मण्डलस्य ते त्रिंशदधिकाष्टादशशतभागाः (१८३०) सूर्यद्वयमाश्रित्य एकेनाहोरात्रेण प्राप्यते, एकोऽहोरात्रश्च त्रिशन् मुहर्त्तप्रमाणो भवति, ते च त्रिंशन्मुहूर्त्ता एकैकसूर्याश्रयणेन सूर्य द्वयापेक्षया पष्टिर्मुहर्त्ता भवन्ति, ततस्त्रैराशिकगणितक्रमावसरः प्राप्तः, तथा च-यदि षष्टिमुहर्तेषु त्रिशदधिकाष्टादशशतभागा लभ्यन्ते तदा एकस्मिन् मुहूते कति मुह० भागाः-मुह. भागा लभ्यन्ते ! एवं भाजक-भाज्य-गुणकरूपराशित्रयस्थापना यथा-६० १८३०॥ १॥ अत्रान्त्येन एककरूपेण गुणकराशिना मध्यगतभाज्यराशिगुण्यते, भाजक भाज्य गुणकजातानि तान्येव त्रिंशदधिकाष्टादशशतानि (१८३०) एपामायेन पष्टि- राशिः गशि.- राशिः | रूपेण भाजकराशिना भागो हियते तदा लब्धाः सार्धत्रिंशद्भागाः (३०॥), एतावन्तो भागा एकस्मिन् मुहूर्ते लभ्यन्ते । स चैको मुहूर्त एकपष्टिभागीक्रियते, ते एकपष्टिभागाः साईत्रिंशता विभाज्यते तत आगतौ द्वौ । एवमेको भाग आगतः-द्वाभ्यां मुहूर्त्तकषष्टिभागाभ्याम अथ प्रकारान्तरमेतत्-त्र्यशीत्यधिकैकशताहोरात्रै (१८३)षण्णा मुहूर्तानां हानिर्वृद्धिर्वा भवति, Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ चन्द्रप्रतिसूत्रे अत्र पृच्छयते-यदि त्र्यशीत्यधिकशताहोरात्रैः पडू मुहर्त्ता हानौ वृद्वौ वा भवन्ति तदा एकेनाहोरात्रेण महो० मु० अहो ० |१८३ ६ १ अत्रापि अन्त्येन राशिना किं लभ्यते ? अत्रापि राशित्रयं भवति, स्थापनाच -- एककरूपेण मध्यराशिः पट्संख्यारूपो गुण्यते जातास्त एव पट्, एते त्र्यशीत्यधिकैकशतेन भागहरणं प्राप्यते किन्त्वत्रोपरितनस्य भाज्यराशेः स्तोकत्वेन भागों न ह्रियते ततो भाज्यभाजक - राश्योखिकेनापवर्त्तना क्रियते तेन जात उपरितनो राशिकिरूपः २, अधन्तनो राशिच - एकपष्टिरूपः। आगतौ द्वौ मुहूर्त्तेकपष्टिभागौ ? तौ चैकस्मिन्नहोरात्रे वृद्धिरूपेण हानिरूपेण वा ६१ प्राप्यते इति । 'से' सः 'णिक्खममाणे' निष्क्रामन् बहिर्निस्सरन् 'सूरिए' सूर्यः 'दोच्चंसि' द्वितीये प्रथमस्यायनस्य द्वितीये 'अहोरत्तंसि' अहोरात्रे 'अभ्यंतरं' आभ्यन्तरं 'तच्चं ' तृतीयं सर्वाभ्यन्तरमण्डलापेक्षया तृतीय 'मंडल' मण्डलम् 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य प्राप्य 'चारं चरई' चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल 'सूरिए' सूर्यः 'अभितरं तच्चं मंडलं' आभ्यन्तरं तृतीयं मण्डलं 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरई' चारं चरति 'तथा णं' तदा खलु 'अहारसमुहुत्ते ' अष्टादमुशहूर्त: ' दिवसे भवइ' दिवसो भवति किन्तु सः 'चउहिं एगसट्ठिभागमुहुत्तेर्हि' चतुभिरेकपष्टिभागमुहूत्र्त्तेः 'ऊणे' ऊनः हीनो भवति, तथा 'दुवालसमुहुत्ताराई भवः' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति किन्तु सा च 'चउहिं एगसट्टिभागमुहुत्तेर्हि' चतुर्भिरेकषष्टिभागमुतैः 'अहिया' अधिका भवति, प्रत्यहोरात्रं प्रतिमण्डलं द्वाभ्यामेकषष्टिभागाभ्यां हीनत्वाधिकत्वसद्भावात् 'एवं खलु' एवं खल, एवम् अनेनैव प्रकारेण खलु निश्चितम् 'एए' एतेन पूर्वप्रदर्शितेन प्रत्यहोरात्रं प्रतिमण्डलमेकपष्टिभागेषु द्विभागरूपहानिवृद्धिरूपेण 'उचापणं' उपायेन अनया रात्ध्या इत्यर्थः 'णिक्खममाणे' निष्क्रामन् मण्डलपरिभ्रमणगत्या शनैः शनैः सर्वबाह्यमण्डलरूपदक्षिणाभिमुखं गच्छन् 'रिए' सूर्यः 'तयाणंतराओ' तदनन्तरात् विवक्षितात् पूर्वस्थानरूपात् ‘मंडलाओ’ मण्डलात् 'तयाणंतरं' तदनन्तरं तदग्रेतनं 'मंडल' मण्डलं 'संकममाणे' संक्रामन् प्राप्नुवन् प्रत्यहोरात्रं 'दो दो' द्वौ द्वौ 'एगसट्टिभागमुहुत्ते' एकपष्टिभागमुहूर्त्तो 'एगमेगे मंडले' एकैकस्मिन् मण्डले प्रतिमण्डलमित्यर्थः ' दिवस खेत्तस्स' दिवसक्षेत्रस्य दिवस भागस्य 'निब्बुड्ढेमाणे२' निर्वर्धयन् २ हापयन् २ दिवस न्यूनं कुर्वन्नित्यर्थः तथा 'रयणिखेत्तस्स' रजनीक्षेत्रस्य रात्रिभागस्य 'अभिबुड्ढेमाणे २' अभिवर्धयन् २ रात्रिभागमधिकं कुर्वन्नित्यर्थः क्रमेण 'सव्ववाहिरं' सर्वबाह्यं चतुरशीत्यधिकशततमम् यत् त्र्यशीत्यधिकशततमें अहोरात्रे प्रथमपण्मास - 1 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १-१ सू० ४ रात्रिन्दिवयोहानिवृद्धिक्रमनिरूपणम् २९ पर्यवसानभूतं भवति तत् सर्वमण्डलेभ्यो बाह्यमन्तिममण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति । इदमुक्तं भवतिसूर्यस्य सर्वाणि मण्डलानि चतुरशीत्यधिकशतसंख्यकानि (१८४) भवन्ति, तेषु सूर्यस्य भ्रमणं तु सर्वाभ्यन्तररूपं विहाय शेषत्र्यशीत्यधिकशतसंख्यकेष्वेव मण्डलेषु भवति ततरूयशीत्यधिकशततमेऽहोरात्रे चतुरश.त्यधिकशततम मण्डलं प्राप्नोत्येवेति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल 'सरिए' सूर्य. 'सन्धबाहिरं मंडलं' सर्वबाह्यं मण्डलं 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरइ' चारं चरति 'तया णं' तदा खल 'सव्यभंतरमंडलं' सर्वाभ्यन्तरमण्डलं 'पणिहाय' प्रणिधाय आश्रित्य तत्र सूर्यस्य स्थितत्वात्तमररिंगगथ्य द्वितोयमण्डलादारभ्येत्यर्थः 'एगेणं' एकेन 'तेयासीएणं' त्र्यशीतिकेन त्र्यशीत्यधिकेन 'राईदियसएणं' रात्रिंन्दिवशतेन त्र्यशीत्यधिकशतसंख्यकैरहोरात्रैरित्यर्थः 'तिन्नि छावही एगसहिभागमुहुत्तसयाई' त्रीणि पल्पष्टिः एकपष्टिभागमुहूर्तशतानि षट्पष्टयधिकशतयसंख्यकमुहूर्तेकषष्टिभागान् (२६६ दिवसक्षेत्रस्य 'निच्चुडित्ता' निर्वर्ण्य हापयित्वा 'राइखेत्तस्स रात्रिक्षेत्रस्य तानेव भागान 'अभिवुढित्ता' अभिवर्ध्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तमकद्वपत्ता' उत्तमकाष्टाप्राप्ता परमप्रकर्षप्राप्ता अत एव 'उक्कोसिया' उत्कर्षिका सर्वोत्कृष्टा ततः परमाधिक्याभावात् 'अट्ठारसमुहुत्ता' अष्टादशमुहूर्ता पत्रिंशद्घटिकापरिमिता 'राई भवइ' रात्रिर्भवति तथा 'जहण्णए' जघन्यकः सर्वन्यूनः ततः परं न्यूनत्वाभावात् 'दुवालसमहत्ते' द्वादशमुहतः चतुर्विशतिघटिकापरिमितः 'दिवसे भवइ' दिवसो भवति । 'एस णं' एतत् खलु 'पढमे छम्मासे' प्रथमं पण्मासम् । सूत्रे आपत्वात्पुंस्त्वम् एवमग्रेपि 'एस णं' एतत् खलु त्र्यशीत्यधिकशततमाहोरात्रं 'पढमस्स छम्मासस्स' प्रथमस्य पण्मासस्य 'पज्जवसाणे पर्यवसानम् अन्तिममहोरात्रमित्यर्थः । अथ द्वितीयम् उत्तराभिमुखं पण्मासं प्रदर्श्यते-‘से पविसमाणे' इत्यादि । 'से' इति सः अथवा 'से' अथ-दक्षिणाभिमुखसूर्यचारानन्तरं 'पविसमाणे' प्रविशन् सर्वबाह्यमण्डलात्सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं प्रविशन् उत्तराभिमुखं गच्छन् 'सरिए' सूर्यः 'दोच्चं' द्वितीयं 'छम्मासं' षण्मासं उत्तरदिक्सम्बन्धि 'अयमाणे' अयन प्राप्नुवन् 'पढमंसि' प्रथमे 'अहोरत्तसि' अहोरात्रे द्वितीयपण्मासस्य प्रथमे रात्रिन्दिवे 'वाहिराणंतरं' सर्वबाह्यमण्डलादनन्तरं 'मंडलं' मण्डलं पश्चानुपूर्त्या सर्वबाह्यमण्डलात् द्वितीयं-चतुरशीत्यधिकशततममण्डलात् त्र्यशीत्यधिकशततमं मण्डलं 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरइ' चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सरिए' सूर्यः 'वाहिरागंतरं मंडलं' बाह्यानन्तरं मण्डलं सर्वबाह्यमण्डलादाक्तनमभ्यन्तरं मण्डलं 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चार चरई' चार चरति । 'तया णं' तदा खल 'अद्वारसमुहुत्ता' अष्टादशमुहूर्त्ता 'राई भवई' Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફ્ चन्द्र रात्रिर्भवति, सा च 'दोहिं एगसट्टिभागमुहुत्ते हि' द्वाभ्यामेकपष्टिभागमुहूर्त्ताभ्यां 'ऊणा' ऊना न्यूना भवति, तथा 'दुवालसमुहुत्ते' द्वादशमुहूर्त्तः 'दिवसे भवइ' दिवसो भवति स च 'दोहिं एगसद्विभागमुहुत्तेर्हि' द्वाभ्यामेकपष्टिभागमुहर्त्ताभ्यां 'अहिए' अधिको भवति अत आग्भ्यरात्रेर्हान्यभिमुखत्वात् दिवसस्य च वृद्धयभिमुखत्वात् । ' से' अथ पुनश्च 'पविसमाणे' प्रविशन् अभ्यन्तरं गच्छन् 'सूरिए' सूर्यः 'दोच्चंसि' द्वितीये 'अहोरत्तंसि' अहोरात्रे 'बाहिरं' बाह्यं पश्चानुपूर्व्या बाह्यमार्गतः समापतन्तं सर्वबाह्यमण्डलादर्वाक्तनं 'तच्चं मंडलं' तृतीयं मण्डलं 'उबसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरई' चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सरिए' सूर्यः 'बाहिरं' बाह्यं पूर्वोक्तरूपं 'तच्चं मंडलं' तृतीयं मण्डलं 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरइ' चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'अट्टारसमुहुत्ता राई भवर' अष्टादशमुहर्त्ता रात्रिभवति सा च 'चउहिं एगसद्विभागमुहुत्ते हिं' चतुभिरेकषष्टिभागमुहूर्त्तेः 'ऊणा' ऊना भवति, प्रतिरात्रि द्वाभ्यां मुह्त्तैकपष्टिभागाभ्यां हीनत्वक्रमसद्भावात्, 'दुवालसमुहुते दिवसे भवइ' द्वादशमुहूर्ती दिवसो भवति, स च 'चउहिं एगसट्टिभागमुहुत्ते हि' चतुर्भिरकपष्टिभागमुहूतैः 'अहिए' अधिको भवति प्रतिदिवस द्वाभ्यामेकपष्टिभागमुहूर्त्ताभ्यां वृद्धित्वक्रमसद्भावात् । ' एवं ' एवम् अनयारीत्या 'खलु' निश्चितं 'एएणं' एतेन अव्यवधानप्रदर्शितेन 'उवाएणं' उपायेन प्रकारेण 'पविसमाणे' प्रविशन् एकतो द्वितीयमभ्यन्तरं मण्डलं प्रति गच्छन् 'सूरिए' सूर्यः 'तयाणंतराओ' तदनन्तरात् एकस्मादनन्तरभूतात् 'मंडलाओ' मण्डलात् 'तयाणंतरं' तदनन्तरं एकस्मादर्वाकनं द्वितीयं ‘मंडलं' मण्डल ‘संकममाणे' संक्रामन् प्राप्नुवन् 'दो दो' द्वौ द्वौ ' एगसट्ठिभागमुहुत्ते ' एकपष्टिभागमुहर्त्तो' 'एगमेगे मंडले' एकैकस्मिन् मंण्डले 'राइखेत्तस्स' रात्रिक्षेत्रस्य रात्रिभागस्य 'निब्बुड्ढेमाणे२' निर्वर्धयन् २ हापयन् २, तथा 'दिवसखेत्तस्स' दिवसक्षेत्रस्य दिवस - भागस्य 'अभिवुड्ढेमाणे२' अभिवर्धयन् २ 'सव्वमंतरमंडलं' स र्वाभ्यन्तरमण्डल तृतीया - चतुर्थे चतुर्थात्पञ्चममिति क्रमेण सर्वेभ्यो मण्डलेभ्यो यदभ्यन्तरं पश्चानुपूर्व्या चतुरशीत्यधिकशततमं त्र्यशीत्यधिकशतसंख्य काहोरात्रैर्गम्यमानं पूर्वानुपूर्व्या च सर्वप्रथमं मण्डलं 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरई' चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल 'सरिए' सूर्य: 'सव्ववाहिराओ मंडलाओ' सर्ववाह्यात् मण्डलात् 'सव्वमंतरमंडल' सर्वाभ्यन्तरमण्डलं 'उनसे - कमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरइ' चारं चरति 'तया णं तदा' खलु 'सव्ववाहिरं मंडलं' सर्वबा मण्डलं 'पणिहाय' प्रणिधाय आश्रित्य अभ्यन्तरप्रयाणसमये तत्र सूर्यस्य स्थितत्वात्तमपरिगणय्यतदर्वाक्तनद्वितीयमण्डलादारभ्येत्यर्थः 'एगेणं' एकेन 'तेयासीएणं' त्र्यशीतिकेन त्र्यशीत्यधिकेन 'राईदियस एणं' रात्रिन्दिवशतेन त्र्यशीत्यधिकशतसंख्यकैरहोरात्रैरित्यर्थः ' तिणि' त्रीणि 'छाचट्टी' पट्षष्टिः 'एगसट्टिभागमुहुत्तरायाई एकपष्टिभागमुहूर्त्तशतानि पपष्टयधि Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१-१ सू०४ परिपूर्णपञ्चदशमुहर्तरात्रिन्दिवयोरभावनि० ३१ कशतत्रयसंख्यकमुहूर्त्तकपष्टिभागान् इखेत्तस्स' रात्रिक्षेत्रस्य रात्रिभागस्य 'निव्वु हित्ता' निर्वय॑ हापयित्वा तथा 'दिवसखेत्तस्स' दिवसक्षेत्रस्य दिवसभागस्य 'अभिवुढित्ता' अभिवर्ध्य 'चारं चरई' चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तमकट्ठपत्ते' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्षाप्तः अत एव 'उक्कोसए' उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्टः ततः परमाधिक्याभावात् 'अट्ठारसमुहुत्ते' अष्टादशमुहर्तः 'दिवसे भवई' दिवसो भवति, तथा 'जहणिया' जन्यिका सर्वली ततः परं लघुत्वाभावात् 'दुवालसमुहुत्ता' द्वादशमुहूर्ता 'राई भवइ रात्रिर्भवति, 'एस णं' एतत् खलु-'दोच्चे छम्मासे' द्वितीयं पण्मासं जातम् । 'एस णं' एतत् खलु 'दोच्चस्स छम्मासस्स' द्वितीयस्य षण्मासस्य 'पज्जवसाणं' पर्यवसानम् अन्तिममहोरात्रमिति । साम्प्रतमुपसंहरति-'इइ खल' इत्यादि । 'इइ' इति-यस्मादेवं तस्मात् कारणात् 'खलु' निश्चितं 'तस्स' तस्य पट्पष्टयधिकशतत्रयाहोरात्रपरिमितस्य 'आइञ्चसंवच्छरस्स' मादित्यसंवत्सरस्य मध्ये 'एवं' इति अनेन पूर्वोक्तप्रकारण 'सई सकृत् एकवारं 'अद्वारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति, तथा 'सई सकृत् एकवारं 'अद्वारसमुहुत्ता राई भवई' अष्टादशमुहुर्ता रात्रिभवति । 'सई' सकृत् एकवारं 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ' द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति सई सकृत एकवारं 'दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति । तथा 'पदमे छम्मासे' प्रथमे षण्मासे 'अस्थि अद्वारसमुहत्ता राई अस्ति अष्टादशमुहर्ता रात्रिः सर्वाभ्यन्तरमण्डलाद्वाह्यमण्डलं प्राप्ते सूर्ये रात्रेधुद्धिसद्भावात् , सा च प्रथमषण्मासस्य अन्तिमेऽहोरात्रे भवति किन्तु 'नत्थि अट्ठारस मुहत्ते दिवसे भवई' नत्वष्टादशमुहुत्तों दिवसो भवति तदा दिवसस्य हानिसद्भावात । तथा तस्मिन्नेव पण्मासे 'अस्थि दुवालसमुहुत्ते दिवसे' अस्ति द्वादशमुहुत्तों दिवसः, स च प्रथमपण्मासस्य अन्तिमेऽहोरात्रे भवति, किन्तु 'नस्थि दुवालसमुहुत्ता राई भवई' न तु द्वादशमहत रात्रिर्भवति । एवम्-'दोच्चे छम्मासे' द्वितीयस्मिन् षण्मासे सूर्यस्य पुनः सर्वबाह्य मण्डलात् सर्वाभ्यन्तरमण्डलं प्रति गमनलक्षणे 'अस्थि अट्ठारमुहुत्ते दिवसे' अस्ति अष्टादशमुहुत्तों दिवमः तदा दिवसस्य वृद्धिसद्भावात् , किन्तु 'णस्थि अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई' न त्वष्टादश मुहुर्ता रात्रिभवति तदा रात्रैर्वृद्धयसद्भावात् । तथा 'अस्थि दुवालसमुहुत्ता राई' अरित द्वादश मुहर्ता रात्रिः तदा रात्रेानिसद्भावात् , किन्तु 'नत्थि दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' न तु द्वादश मुहर्तो दिवसो भवति तदा दिवसस्य हान्यसद्भावात् । तथा 'पढमे वा छम्मासे दोच्चे वा छम्मासे' प्रथमे वा षण्मासे द्वितीये वा पण्मासे प्रथमद्वितीयरूपोभयोरपि पण्मासयोः 'णत्थि पण्णरसमुहुत्ते दिवसे' नास्ति पञ्चदशमुहूत्तों दिवसः, एवमेव 'णस्थि पण्णरसमुहुत्ताराई भवई' नैव पश्चदशमुहूर्ता रात्रिर्मवति, ‘णणत्थ' नान्यत्र 'राईदियाणं वदोवड्ढीए' रात्रिन्दिवानां Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे .aaaaaaaaaamiri वृद्धयपवृद्धिभ्यां, रात्रिन्दिवानां वृद्धिमपवृद्धिं च विहाय अन्यत्र न भवति, वृद्धिरपवृद्धिश्च रात्रिन्दिवानां मर्यादया भवति मर्यादामतिक्रम्य वृद्ध्यपवृद्धी कदापि न भवतः. अतो मर्यादया पण्मासद्वयेऽपि न पश्चदशमुहर्तो दिवसो भवति, न च पञ्चदशमुहर्ता रात्रिर्भवति । ते वृद्धयपवृद्धी च कथं भवेताम् ? तत्राह-'मुहुत्ताणं चओवचएणं' मुहर्तानां पश्चदशसंख्यकानां चयेन-अधिकत्वेन वृद्धिः, अपचयेन-हीनत्वेन अपवृद्धिः कदाचित् किश्चिद्हीनपश्चदशमुहतों दिवसो भवति, कदाचित , किश्चिदधिकपञ्चदशमुहूत्तों दिवसो भवति, एवं रात्रिविपयेऽपि विज्ञेयम् , किन्तु परिपूर्णपञ्चदश. मुहूर्तो न दिवसो भवति, न च परिपूर्णपञ्चदशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति दिवसरात्र्योरेवमेव क्रमसद्भावात, पञ्चदशमुहूर्तानां होनाधिकत्वेन दिवसरात्री भवतः । एवम् ‘णण्णत्थ वा अणुवायगईए' नान्यत्र वा अनुपातगत्या, अनुपातगतिं विहायान्यत्र न भवति, अनुपातगतिः-अनुसारगतिः, सा चैवम्सूर्यसंवत्सरस्य सर्वे अहोरात्राः षट्पष्टयधिकशतत्रयसंख्यका (३६६) भवन्ति, पण्मासे च तदर्ध रात्रिन्दिवानां त्र्यशीत्यधिकशतं (१८३) भवति, त्र्यशीत्यधिकशततमे मण्डले पड् मुहुर्ता हानिवृद्धित्वेन प्राप्यन्ते तदा तदर्धे कृते त्रयो मुहर्ता हानिवृद्धित्वेन लभ्यन्ते । इतश्च न्यशीत्यधिकशतसंख्यकाहोरात्राणामधं क्रियते तदा लभ्यते सार्धा एकनवतिः (९१) ततः एकनवतिसंख्यकेपु पूर्णतया समाप्तेषु सत्सु तदुपरि द्विनवतितमस्य मण्डलस्य चार्धे गते पञ्चदश मुहर्ता लभ्यन्ते, अहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तप्रमाणत्वात्, ततो मण्डलस्याधैकल्पनायां पञ्चदशमुहर्तो दिवसः पञ्चदशमुहर्ता च रात्रिर्लभ्यते। सा च मण्डलार्धकल्पना कत्तु न शक्यते यतः सूर्यस्य मण्डलान्मण्डलान्तरगमनं शास्त्रसंमतं नत्वर्धमण्डलस्य विवक्षाऽपि । इयमत्र भावना-सूर्यस्य प्रत्यहोरात्रं द्वाभ्यामेकपष्टिभागाभ्यां गतिर्भवति ततः सर्वाभ्यन्तरमण्डले गते सूर्ये अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, द्वादशमुहूर्ताच रात्रिर्भवति, एवं सर्वबाह्यमण्डले गते सूर्ये अष्टादशमुहर्ता रानिर्भवति द्वादशमुहर्तश्च दिवसो भवति, तदनन्तरं सूर्यः प्रतिमण्डलमेकपष्टिभागेपु द्विभागपरिमितेन कालेन चार चरति, एतावत्प्रमाणकालेन मण्डलात् मण्डलान्तरं गच्छति, न त्वर्धमण्डलम् , एवं द्वितीयेऽहोरात्रे सर्वाभ्यन्तरमण्डलात् द्वितीयं वाह्यसम्बन्धिमण्डलं गच्छति तदा, तथा सर्व बाह्यमण्डलात् द्वितीयमाभ्यन्तरसम्बधिमण्डलं गच्छति तदा च द्वाभ्यामेकपष्टिभागाभ्यामहोरात्रस्य हानिर्वृद्धिर्वा भवति । एवं क्रमेण कृतायां योजनायां सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलाहिर्गमनसमये एकनवतितमे मण्डले गते सूर्ये त्रिभिरेकषष्टिभागैरधिकः पञ्चदशमुहूत्तों (१५ ३) दिवसो भवति, अष्टपञ्चाशद्भिरेकपष्टि भागैरधिका चतुर्दशमुहूर्ता (१४- विति । एवं द्विनवतितमें मण्डले गते सूर्य एकेनैकपष्टिभागेनाधिकः पञ्चदशमुहूत्तों (१५-६६ दिवसो भवति, पष्टिसंख्यरैकषष्टि Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १-२ सू० ५ दाक्षिणात्यार्द्धमण्डलसंस्थितिस्वरूपम् ३३ भागैरधिका चतुर्दशमुहर्ता (१४-६) रात्रिर्भवति, एवं सर्वबाह्यमण्डालात् सर्वाभ्यन्तरमण्डलाभिमुखगमनसमये दिवसस्य वृद्धिः, रात्रेश्च हानिः कर्तव्या । तथा च सूर्यस्य बाह्यादभ्यन्तरगमनसमये एकनवतितमे मण्डले गते सूर्य अष्टपश्चाशगिरेकपष्टिभागैरधिकश्चतुर्दशमुहूत्तों (१४-१८) दिवसो भवति, रात्रिश्च त्रिभिरेकषष्टिभागैरधिका पञ्चदशमुई (१५-१) भवति एवं द्विनवतितमे मण्डले गते सूर्ये पष्टिसंख्यकैरेकपष्टिभागैरधिकश्चतुर्दशमुहूत्तों (१४) दिवसो भवति, रात्रिश्च एकेनैकषष्टिभागेनाधिका पञ्चदशमुहर्ता (१५ ..) भवति । एवं करणे पञ्चदशमुहत्तों दिवसः पञ्चदशमुहर्ता रात्रिश्च कदापि न लभ्यते । एकनवतितममण्डलादपरि द्विनवतितमं मण्डलमधं रथाप्यते तदा दिवसस्य रात्रश्च पञ्चदशमुहूर्तात्मकं समानत्वं लभ्यते नान्यथा, तच्च भगवता न विवक्षितम् अतः पञ्चदशमुहूत्तों दिवसः, पञ्चदशमुहूर्ता च रात्रिः परिपूर्णत्वेन कदापि न भवतीत्यवधारणीयमिति | 'पाहुडियागाहाओ' प्राभृतिका गाथाः पोकार्थसंग्राहिका गाथाः अत्र 'भाणियचाओ' भणितव्याः वक्तव्याः । एता गाथाः साम्प्रतं कापि पुस्तके न लभ्यन्तेऽतो व्युन्छिन्ना जाता इत्यनुमीयते ॥ सू० ४ ॥ इति प्रथमस्य मामृतस्य प्रथमं प्राभृतमाभृतं समाप्तम् ॥१-१॥ पर्व प्रथमस्य प्राभृतस्य प्रथमं मुहर्त्तवृद्ध्यपवृद्धिप्रतिपादकं प्राभृतप्राभृतं प्रतिपादितम् ,साम्प्रतमर्द्धमण्डलसंस्थितिनिरूपकं द्वितीयं प्राभृतप्राभृतं प्रतिपादयन्नाह-'ता कहं ते अद्धमंडलसंटिड इत्यादि। मलम-'ता कहं ते अद्धमंडलसंठिई आहितेति वदेजा ? तत्थ खलु इमा दुविहा अद्धमंडलसंठिई पण्णत्ता, तं जहा-दाहिणा चेव अद्धमंडलसंठिई, उत्तरा चेत्र अद्धमंडलसंठिई २ । ता कहं ते दाहिणा अद्धमंडलसंठिई आहितेति वदेज्जा ? ता अयणं जंबुद्दीचे दीवे सवदीवसमुदाणं जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ते । ता जया णं सूरिए सबभतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । से निक्खममाणे सरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि दाहिणाए अंतराए भागाए तस्सादिपएसाए अभितराणंतरं उत्तरं अदमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सूरिए अभितराणंतरं उत्तरं अदमंडलसंठिई उक्संकमित्ता चारं चरइ तयाणं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगहिभागमुहुत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगहिभागमुहुत्तेहि अहिया । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे से णिक्खममाणे सरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि उत्तराए अंतराए भागाए तस्सादिपएसाए अम्भितरं तच्चं दाहिणं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चार चरइ । ता जया णं सरिए अभितरं तच्चं दाहिणं अद्धमण्डलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहि एगद्विभागमुहुत्तेहिं उणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ चउहि एगटिभागमुहुत्तेहिं अहिया । एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे सरिए तयाणंतराओ तयाणंतरंसि तंसि २ देसंसि तं तं अद्धमंडलसंठिई संकममाणे२ दाहिणाए अंतराए भागाए तस्सादिपएसाए सव्ववाहिरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चार चरइ । ता जया णं सूरिए सव्ववाहिरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जद्दण्णएदुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ । एस णं पढमे छम्मासे । एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे । से पविसमाणे सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि उत्तराए अंतराए भागाए तस्सादिपएसाए वाहिराणंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सरिए वाहिराणंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगद्विभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगद्विभागमुहुत्तेहि अहिए । से पविसमाणे सरिए दोच्चंसि अहोरतसि दाहिणाए अंतराए भागाए तस्सादिपएसाए बाहिराणंतरं तच्च उत्तरं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सुरिए वाहिराणंतरं तच्चं उत्तरं अद्धमंडलसंठिई उपसंकमित्ता चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ चउहि एगट्टि भागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहिं एगहिभागमुहुत्तेहिं अहिए । एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतराओ तयाणंतरं तसि २ देसंसि तं तं अद्धमंडलसंठिई सकममाणे२ उत्तराए अंतराए भागाए तस्सादिपएसाए सव्वभतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया ण सूरिए सब्बभतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकहपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । एस णं दोच्चे छम्मासे । एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे । एसणं आइच्चे संवच्छरे । एसण आइञ्चसंवच्छरस्स पज्जवसाणे ॥ ५॥ ॥ दाहिणा अद्धमंडलसठिई समत्ता ॥ छाया-तावत् कथं ते अर्धमण्डलसंस्थितिः आख्यातेति वदेतू ? तत्र खलु इयं द्विविधा अर्धमण्डलसंस्थितिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-दाक्षिणात्या चैव अर्धमण्डलसंस्थितिः । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १-२ सू०५ दक्षिणात्यार्द्धमण्डलसंस्थितिस्वरूपम् ३५ औतरा चैव अर्धमण्डलसंस्थितिः । तावत् कथं ते दाक्षिणात्या अर्धमण्डलसंस्थितिः आख्यातेति वदेत् ? तावत्अयं खलु जम्बुद्वीपो द्वीपः सर्वद्वीपसमुद्राणां यावत्-परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः । तावत् यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरां दक्षिणाम् अर्धमण्डलसंस्थितिम् उपक्रम्य चार चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्पकः अष्टादशमुहर्तो दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति । अथ निकामन् सूर्यःनवं संवत्सरं अयन् प्रथमे अहोराने दाक्षिणात्यात् अन्तरात् भागात् तस्यादिप्रदेशात् आभ्यन्तरानन्तराम औत्तराम् अर्धमण्डलसंस्थितिम् उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदाखलु सूर्यः आभ्यन्तरानन्तराम् ओत्तरां अर्द्धमण्डलसंस्थितिम् उरसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु अष्टादशमुहतॊ दिवसो भवति द्वाभ्याम् एकपष्टिभागमुहर्ताभ्याम् ऊनः द्वादशमुहता रात्रिर्भवति द्वाभ्याम् एकपष्टिभगमुहर्ताभ्याम् अधिका । अथ निष्क्रामन् सूर्यः द्वितीये अहोराने औत्तरात् अन्तरात् भागात् तस्यादिप्रदेशात् आभ्यन्तरां तृतीयों दाक्षिणात्यां अर्धमण्डलसंस्थिति उपसंक्रम्य वारं चरति । तापत् यदा खलु सूर्यः आभ्यन्तरां वतीयां दाक्षिणात्याम् अर्धमण्डलसंस्थितिम् उपसंक्रम्य चार चरति तदा खलु अष्टादशमुहा दिवसो भवति चतुर्भिः एकपष्टिभागमुहत्तः ऊनः, द्वादशमुहर्ता रात्रिभवति चतुर्भिरेकपष्टिभागमुहत्तैः अधिका। एवं खलु पतेन उपायेन निष्क्रामन् सूर्य. तदनन्तरात् तदनन्तरस्मिन् तस्मिन् २ देशे तां तां अर्धमण्डलसंस्थिति संक्रामन् दाक्षिणात्यात् अन्तरात् भागात् तस्याविप्रदेशात् सर्ववाद्याम् औत्तराम् अधमण्डलसंस्थितिमउपसंक्रम्य चार चरति। तावत् यदा खलु सूर्यः सर्ववाह्याम् औत्तराम् अर्धमण्डलस्थितिम् उपसंक्रम्य चार चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्फपिका अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति, जघन्यकः द्वादशमुहत्तों दिवसो भवति। एतत् खलु प्रथमम् पण्मासम् । एतत् खलु प्रथमस्य पण्मासस्य पर्यवसानम् । अथ प्रविशन् सूर्यः द्वितीयं पण्मासम् अयन् प्रथमे अहोरात्रे पौत्तरात् अन्तरात् भागात तस्यादिप्रदेशात्-बाह्यानन्तरां दाक्षिणात्याम् अर्धमण्डलसंस्थितिम् उपसंक्रम्य चार घरति । तावत् यदा खल सुर्यः वाहानन्तरां दाक्षिणात्याम् अर्घमण्डलसंस्थितिम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति द्वाभ्याम् एकपष्टिभागमुहर्ताभ्याम् ऊना, द्वाशमुहत्ती दिवसो भवति द्वाभ्याम् एकपप्टिभागमुहर्ताभ्याम् अधिकः । अथ प्रविशन् सूर्यः द्वितीये अहोरात्र दाक्षिणात्यात् अन्तरात्भागात् तस्यादिप्रदेशात् वाह्यानन्तरां तृतीयाम् औत्तराम् अर्धमण्डलसंस्थितिम् उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः बाह्यां तृतीयाम् औतराम् अर्धमण्डलसंस्थितिम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु अष्टादशमहर्ता रात्रिर्भवति चतुर्भिः पकपष्टिभागमुहत्तैः ऊना, द्वादशमुहत्तों दिवसो भवति चतुभिः एकपष्टिभागमुहत्तः अधिकः । एवं खलु एतेन उपायेन प्रविशन् सूर्यः तदनन्तरात् तदनन्तरां तस्मिन् २ देशे तां ताम् अर्धमण्डलसंस्थितिं संक्रामन् २ औतरात् अन्तरात् भागात् तस्यादिप्रदेशात् सर्वाभ्यन्तरां दक्षिणात्याम् अधमण्डलसंस्थितिम् उपसंक्रम्य चारं चति । तावत् यदा खलु सर्वाभ्यन्तरा दाक्षिणात्याम् अर्धमण्डलसंस्थितिम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्त अष्टादशमुहृत्तौ दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति । एतत् खलु द्वितीयं षण्मासम् । एतत् खलु द्वितीयस्य षण्मासस्य पर्यवसानम् । एष खलु आदित्यसंवत्सरः । एतत् खलु आदित्यसंवत्सरस्य पर्यवसानम् ॥ सू० ५॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे • व्याख्या-हे भदन्त ! 'ता' तावत् पूर्ववत् 'कह' कथं 'ते' तव मते 'अद्धमंडलसंठिई अर्धमण्डलसंस्थितिः अर्धमण्डलव्यवस्था 'आहिया' आख्याता 'ति' इति 'वएज्जा' वदेत् वदतु इति भावः । 'अर्धमण्डलसंस्थितिः' इत्यस्य क आशयः ?-अधमण्डलस्य मण्डलार्धस्य संस्थितिः सूर्यपरिभ्रमणव्यवस्था सा अर्धमण्डलसंस्थितिरुच्यते, तथा च-इह यत् एकैकः सूर्यः एकैकाहोरात्रेण एकैकस्य मण्डलस्यार्धभागमेव भ्रमणेन परिपूरयति अत्र कथमेकैकस्य सूर्यस्य प्रत्यहोरात्रं प्रत्येकाधमण्डलपरिभ्रमणव्यवस्था वर्तते इति प्रश्नः । भगवानाह-'तत्थ खलु' इत्यादि । 'तत्य खलु तत्र अर्धमण्डलसंस्थितिविचारे खल निश्चयेन 'इमा' इयं वक्ष्यमाणा दुविहा' द्विविधा द्विप्रकारा 'अद्धमंडलसंठिई' अर्धमण्डलसंस्थितिः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता मया अन्यतीर्थकरैश्च 'तं जहां तद्यथा सा यथा-'दाहिणा चेव' दाक्षिणात्या चैव दक्षिणदिक्चारिसूर्यविषया 'अद्धमंडलसंठिई' अर्धमण्डलसंस्थितिः तथा 'उत्तरा चेव' औत्तरा चैव उत्तरदिक्चारिसूर्यविषया 'अद्धमडलसंठिई अर्धमडलसंस्थितिः २ । पुनः प्रश्नयति-ता 'कह' ते' इत्यादि, ज्ञाता द्विविधा अर्धमण्डलसंस्थितिः किन्तु तत्र 'ता' तावत् प्रथमं द्वयोर्मध्ये 'कई कथं केन प्रकारेण 'ते' तव मते 'दाहिणा' दाक्षिणात्या दक्षिणदिग्भवा दक्षिणदिक्चारिसूर्यविषया 'अद्धमंडलसंठिई अर्धमण्डलसंस्थितिः 'आहिता' आख्याता कथिता 'ति' इति 'वएज्जा' वदेत् वदतु भवान् । भगवानाह-'ता अयण्णं' इत्यादि, 'ता' तावत् अयणं अयं खलु प्रत्यक्षं दृश्यमानोऽयं 'जंबुद्दीवे दीवे' जंबूद्वीपो द्वीपः मध्यजम्बूद्वीपः 'सव्वदीवसमुदाणं सर्वद्वीपसमुद्राणां 'जाच' यावत् यावत्पदेन 'सधभतराए सव्वखुवाए' इत्यादि जम्बूद्वीपवर्णनं संक्षेपतः पूर्व प्रथमप्राभृतस्य प्रथमेऽन्तरप्रामृते कृतं तत्र विलोकनीयम् 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः। 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल 'मूरिए' सूर्यः 'सन्चभंत' सर्वाभ्यन्तरां सर्वाभ्यन्तरमण्डलसम्बन्धिनीम् 'दाहिण' दाक्षिणात्यां' दक्षिणदिग्भवां 'अद्धमंडलसंठिई' अर्धमण्डलसंस्थितिम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति तया ॥' तदा खल 'उत्तमकट्ठपत्ते उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्षप्राप्तः 'उकोसए' उत्कपकः सर्वोत्कृष्टः ततः परमाधिक्याभावात् अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ' अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति 'जहणिया' जघन्यिका सर्वलध्वी ततः परं हीनत्वाभावात् 'दुवालसमुहुत्ता राई भवई' द्वादशमुहर्ता रात्रिभवति । सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतदाक्षिणात्याधमण्डलसंस्थितिमुपसंक्रान्तः सन् प्रथमक्षणादूर्ध्व सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलाभिमुखं शनैः शनैः तथा कथश्चिदपि मण्डलगत्या परिभ्रमति येनाहोरात्रपर्यन्तभागे ये सर्वाभ्यन्तरमण्डलगता भष्टचत्वारिशदेकपष्टिभागास्तान्, अपरं च योजनद्वयमतिक्रम्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलानन्तरं द्वितीयं यद् उत्तरार्धमण्डलं तस्य सीमां प्राप्नोति, तदेवाह 'से' अथ तदनन्तरं 'निक्खममाणे निष्क्रामन् सर्वाभ्यन्तरदाक्षिणात्याधमण्डलसंस्थितितः प्रथमक्षणादूर्व शनैः शनैनिस्सरन् 'सूरिए' सूर्यः अहोरात्रेऽतिक्रान्ते सति 'ण' नवं नूतनं स्थितसंवत्सरा Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिका टोका प्रा०१-२ सू० ५ दाक्षिणात्याऽर्द्धमण्डलसंस्थितिस्वरूपम् ३७ दपरं 'संवच्छ' संवत्सरं 'अयमाणे' मयन् प्राप्नुवन् 'पढमंसि अहोरतसि' प्रथमेऽहोरात्रे नूतनसंवःसरस्य आदिमेऽहोरात्रे 'दाहिणाए' दाक्षिणात्यात् दक्षिणदिग्भवात् 'अंतराए' अन्तरात् अपान्तरालभागात् सर्वाभ्यन्तरमण्डलगताष्टचत्वारिंशयोजनकषष्टिभागाधिकयोजनद्वयप्रमाणरूपात् विनिर्गत्य 'तस्स' तस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलानन्तरं यद् उत्तरार्धमण्डलं तस्य 'आइपएसाए' आदिप्रदेशात् आदिप्रदेशमाश्रित्येत्यर्थः 'अम्भितराणंतर आभ्यन्तरानन्तरां सर्वाभ्यन्तरमण्डलाग्रेऽनुपदं वर्तमानां 'उत्तरं' मौत्तरां उत्तरदिग्भवां 'अद्धमंडलसंठिई' अर्धमण्डलसंस्थितिं 'उपसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरई' चारं चरति विचरति परिभ्रमतीत्यर्थः । स चात्रापि पूर्ववदादिप्रदेशादूर्घ शनैः शनैरप्रेतनापरमण्डलाभिमुखं यथाकथञ्चनापि चरति येन तस्याहोरात्रस्यान्तिमे भागे तदपि मण्डलमष्ट चत्वारिंशदेकपष्टिभागरूपम् अन्यच्च योजनद्वयं परित्यज्य दक्षिणदिग्भवस्य तृतीयमण्डलस्य सीमायां वर्तते । 'जया णं' यदा खलु 'सूरिए' सूर्यः 'अभितराणंतरं' आभ्यन्तरानन्तरां द्वितीयां 'उत्तरं' औत्तरां 'अद्धमंडलसंठिई' अर्धमण्डलसंस्थितिं 'उबसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं तदा खलु 'अद्वारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहुत्तों दिवसो भवति किन्तु 'दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहि' द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहुर्ताभ्यां 'ऊणे' ऊनः हीनो भवति तथा 'दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति किन्तु 'दोहिं एगहिभागमुहुत्तेहिं' द्वाभ्यामेकपष्टिभागमुहूर्ताभ्यां 'अहिया' अधिका भवति । 'से' अथ-अनन्तरं द्वितीयस्यामुत्तरार्धमण्डलसंस्थितौ परिभ्रमणानन्तरं 'निक्खममाणे' निष्क्रामन् तत्स्थानात् पूर्वोक्तप्रकारेण निस्सरन् 'सरिए' सूर्यः तस्यैवाभिनवसंवत्सरस्य 'दोच्चंसि अहोरत्तसि द्वितीयेऽहोरात्रे 'उत्तराए' अंतरात् उत्तरदिग्भवात् 'अंतराए' अन्तरात् द्वितीयोत्तरार्धमण्डलगतात् पूर्वप्रदर्शितप्रमाणोपेतापान्तरालरूपात् विनिर्गत्य 'तस्स' तस्य दक्षिणदिग्भावितृतीयाघमण्डलस्य 'आइपएसाए' आदिप्रदेशात् आदिप्रदेशमाश्रित्येत्यर्थः 'अम्भितरं तच्चं' आभ्यन्तरी तृतीयां सर्वाभ्यन्तरमण्डलापेक्षया तृतीयां 'दाहिणं' दाक्षिणात्यां 'अद्धमंडलसंठिइ' अर्घमण्डलसंस्थिति 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसक्रम्य चारं चरति । अत्रापि पूर्ववदेव तस्याहोरात्रस्य पर्यन्ते पूर्वोक्तविधिनैव चतुर्थोत्तरार्धमण्डस्य सीमायां समागत्य सूर्योऽवतिष्ठते । 'ता' तावत् 'जया णं यदा खल 'सरिए' सूर्यः अम्भितरं' मान्यन्तरां तच्चं' तृतीयां 'दाहिणं' दाक्षिणात्यां 'अदमंडलसंठिई अर्धमण्डलसंस्थितिं 'उपसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति तथा गं' तदा खलु 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ' अष्ठादशमुहूर्तों दिवसो भवति किन्तु 'चउहिं एगट्रिभागमहुत्तेहि'चतुर्भिरेकपष्टिभागमुहूत्तैः 'ऊणे' उनो हीनो भवति तथा 'दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति किन्तु 'चउहि एगट्ठिभागमुहुत्तेर्हि' चतुभिरेकपष्टिभागमुहूर्तेः 'अहिया' अधिका भवति एवं' एवमेव 'खलु' निश्चयेन 'एएणं' एतेन पूर्वप्रदर्शिताधमण्डलसस्थितित्रय Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे रूपेण 'उवाएणं' उपायेन क्रमेण प्रत्यहोरात्रं तत्तन्मण्डलगताटचत्वारिंशद्योजनैकपप्टिभागतदनन्तरयोजनद्वयोल्लइनपूर्वकं तत्तदनेतनानन्तरस्थितप्रत्येकाधमण्डलसस्थितिपरिभ्रमणरूपेण विधिना "णिक्खममाणे' निष्क्रामन् पूर्वस्थानादनन्तरस्थानं गच्छन् 'मूरिए' सूर्यः 'तयाणतराओ' तदनन्तरादधमण्डलात् 'तयाणंतरं' तदनन्तरां तदनन्तरस्थितां 'तसि तसि' तस्मिन् तस्मिन् 'देसंसि' देशे प्रदेशे दक्षिणपूर्वभागे उत्तरपश्चिमभागे वा 'तं तं' तां तां 'अद्धमंडलसंठिई' अर्धमण्डलसंस्थितिं 'संकममाणे २' संक्रामन् संक्रामन् एकृस्या अर्धमण्डलसंस्थितेरपरामर्धमण्डल. संस्थितिं स्वगत्या गच्छन् २ प्रथमस्य पण्मासस्य द्वयशीत्यधिकशत(१८२) तमाहोरात्रस्य पर्यन्तभागे गते सति 'दाहिणाए' दाक्षिणात्यात् दक्षिणदिग्भवात् 'अंतराए' अन्तरात् सर्वाभ्यन्तरमण्डलमधिकृत्य द्वयशीत्यधिकशत-(१८२)-तममण्डलाताष्टचत्वारिंशद्योजनैकपष्टिभागतदनन्तरवाह्ययोजनद्वयप्रमाणोपेतापान्तराल रूपात् 'भागाए' भागात् निस्सृत्य 'तस्स' तस्य सर्वबाह्यमण्डलगतस्योत्तरार्धमण्डलस्य 'आइपएसाए' आदिप्रदेशात् अदिप्रदेशमाश्रित्य 'सन्चवाहिन' सर्वबाह्यां 'उत्तरं औत्तराम् उत्तरदिग्भवां 'अद्धमंडलसंठिई अर्धमण्डलसंस्थितिं 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल 'सूरिए' सूर्यः 'सबवाहिरं' सर्वबाह्यां 'उत्तरं' औत्तराम् उत्तरदिग्भवां 'अद्धमंडलसंठिई' अर्धमण्डलसंस्थिति 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खल 'उत्तमकट्ठपत्ता' उत्तमकाष्ठाप्राप्ता परमप्रकर्षप्राप्ता 'उक्कोसिया' उत्कर्पिका सर्वगुर्वी-तत आधिक्याभावात् 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई' अष्टादशमुहूर्ता रात्रिभवति, तथा 'जहण्णए' जघन्यकः सर्वलघुः ततो हीनत्वाभावात् 'दुवालसमुहुत्ते' द्वादशमुहूर्तः 'दिवसे भवई' दिवसो भवति । उपसंहरन्नाह-'एस णं' इत्यादि, 'एस गं' एतत् खलु पढमे छम्मासे' प्रथम पण्मासम् । 'एस णं एतत् खल 'पढमस्स छम्मासस्स प्रथमस्य पण्मासस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानं पर्यन्तभागः ॥ अथार्धमण्डलसंस्थितिविषये द्वितीयं षण्मासं विवृणोति-से पविसमाणे' इत्यादि । 'से' अथानन्तरं निष्क्रमणानन्तरं प्रथमपण्मासस्य अन्तिमेऽहोरात्रेऽतिक्रान्ते सतीत्यर्थः 'पविसमाणे' प्रविशन अभ्यन्तरं गच्छन् 'मरिए' सूर्यः 'दोच्चं' द्वितीय 'छम्मासं' घण्मासं 'अयमाणे' अयन् प्राप्नुवन् ‘पढमंसि अहोरत्तंसि' प्रथमे अहोरात्रे 'उत्तराए' औत्तरात् उत्तरदिग्भागस्थितसर्ववाह्यमण्डलसम्बन्धिनः 'अंतराए भागाए' अन्तराद् भागात् सर्वबाह्यानन्तरस्थितार्धमण्डलगताष्टचत्वारिंशद्योजनकषष्ठिभागतदनन्तरपूर्वभावियोजनद्वयप्रमाणापान्तरालरूपाद् भागात् विनिर्गत्य 'तस्स' तस्य दक्षिणदिग्भाविसर्वबाह्यानन्तरदक्षिणार्धमण्डलस्य 'आइपएसाए' आदिप्रदेशात् आदिप्रदेशमाश्रित्य 'वाहिराणंतरे' बाह्यानन्तरं सर्वबाह्यमण्डलादनन्तरभूता Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१-२ सू०५ दाक्षिणात्याईमण्डलसंस्थितिरकरूपम् ३९ माभ्यन्तरां 'दाहिणं' दाक्षिणात्यां 'अद्धमण्डलसंठिई' अर्धमण्डलसंस्थिति 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसक्रग्य चार चति । अत्रापि स्वचारगत्या सूर्यस्याप्रेतनसीमायामागमनं पूर्ववदेव मावनीयम् । एवमग्रेऽपि विज्ञेयम् । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सूरिए' सूर्यः 'वाहिराणतरं' याशानन्तरां पूर्वोक्तरूपां 'दाहिणं' दाक्षिणात्यां 'अद्धमंडलसंठिई मधमण्डलसंस्थिति 'उवसंकमित्ता चार चरइ' उपसंक्रग्य चारं चरति 'तया गं' तदा खल 'अट्ठारसमुहुत्ता राई . भवई' मष्टादश मुहर्ता गनिर्भवति किन्तु सा 'दोहिं एगद्विभागमुहत्तेहि' द्वाभ्यामेकपष्टिभागमुहर्ता-यां 'ऊणा' ऊना पूर्वगतराव्यपेक्षया हीना भवति, तथा 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' द्वादशमहत्तों दिवसो भवति किन्तु सः 'दोहिं एगहिभागमुहुत्तेहि' द्वाभ्यामेकपष्टिभागमुहर्ताभ्यां 'अहिए' अधिकः पूर्वगतदिवसापेक्षयाऽघिको भवति । 'से' अथ प्रथमाहोरात्रादनन्तरं 'पविसमाणे पूर्ववत् प्रविशन्नेव 'सरिए सूर्यः 'दोच्चंसि अहोरत्तंसि' द्वितीयेऽहो राने 'दाहिणाए' दाक्षिणात्यात् 'अंतराए भागाए' अन्तराद् भागात् पूर्वप्रदर्शितप्रमाणापान्तराउरूपभागान्निस्सृत्य 'तस्स' तस्य सर्ववाहबादभ्यन्तरतृतीयोत्तरार्धमण्डलस्य 'आइपएसाए' मादिप्रदेशात् आदिप्रदेशमाश्रित्य वाहिराणंतर बाह्यानन्तरां बाह्यादनन्तरभूतामाभ्यन्तरां तच्च तृतीयां सर्ववाद्यार्धमण्डलसस्थितिमपेक्ष्य तृतीयां 'उत्तसं' मौतरां 'अद्धमंडलसंठिई अर्धमण्डलसंस्थिति 'उपसंकमित्ता चार चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया ण' यदा खल सूर्यः 'वाहिराणतर' वातानन्तरां पूर्वोक्तां 'तच्च' तृतीयां पूर्वोक्तरूपां 'उत्तर' औतरां 'अद्धमंडलसंठिई मर्धमण्डलसंस्थिति 'उपसंकमित्ता चारं चरइ' उपसक्रम्य चारं चरति तयाण' तदा खल 'अद्वारसमुहत्ता राई भवई अष्टादशमुहूर्ता रात्रिभवति,, सा च 'चउहि एगहिभागमुहुत्तेहि' चतुभिरेकषष्टिभागमहत्तः 'ऊणा' ऊना होना भवति, तथा 'दुवालसमुहत्तो दिवसो भवई' द्वादशमहत्तों दिवसो भवति स च 'चरहिं एगहिभागमूहत्तेहि चतुभिरेकग्टिभागमहत्तः 'अहिए' अधिको भवति एवं पूर्गक्तरीत्या 'खलु निश्चयेन 'एएण' एतेन पूर्वप्रदर्शितेन अर्धमण्डलसंस्थितित्रयरूपेण 'उवाएणं' उपायेन क्रमेण विधिना 'पविसमाणे' प्रविशन् अभ्यन्तरं गच्छन् 'मूरिए' सूर्यः 'तयाणंतराओ' तदनन्तरात् अर्धमण्डलात् 'तयाणंतरं तदनन्तरां तदस्थितां 'तंसि तसि'- तस्मिन् तस्मिन् 'देसंसि' देश-प्रदेशे दक्षिणपूर्वभागे उत्तरपश्चिमभागे वा 'तं तं' तां तां 'अद्धमंडलसंठिई' अर्धमण्डलसंस्थितिं 'संकममाणे२' संक्रामन्२ एकस्याधमण्डलसंस्थितेरपरामर्धमण्डलसंस्थिति स्वगत्या गच्छन् गच्छन् द्वितीयस्य पण्मासस्य द्वयशीत्यधिकशत-(१८२)-तमाहोरात्रस्य पर्यन्तभागे गते सति 'उत्तराए' औत्तरात् उत्तरदिग्भवात् 'अंतराए भागाए' अन्तरात् भागात् सर्वबाह्यमण्डलापेक्षया द्वयशीत्यधिकशततममण्डलगताष्टचत्वारिशयोजनकषष्टिभागतदनन्तराभ्यन्तर Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे योजनद्वयप्रमाणापान्तरालरूपभागात् 'तस्स' तस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलगत दक्षिणार्ध मण्डलस्य 'आइपएसाए' आदिप्रदेशात् आदिप्रदेशमाश्रित्य 'सव्वन्तरं' सर्वाभ्यन्तरां 'दाहिणं' दाक्षिणात्यां 'अद्धमंडलसंठिई' अर्धमण्डलसंस्थितिं 'उवसंकमित्ता चारं चरड़' उपसंक्रम्य चारं चरति, सूर्यस्य चारविधिना सीमायामागमनं पूर्ववदेवावसेयम् । 'ता' तावत् 'जया'ण' यदा खल 'सूरिए' सूर्यः 'सव्वभंतरं' सर्वाभ्यन्तरां 'दाहिणं' दाक्षिणात्यां 'अडमंडलसठि ' अर्धमण्डलसंस्थितिं ‘उवसंकमित्ता चारं चरह' उपसंक्रम्य चारं चरति ' तया णं' तदा खलु 'उत्तमकट्टपत्ते' उत्तमकाष्ठाप्रातः परमप्रकर्षगतः 'उक्कोसए' उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्टः तत व्याधिक्याभावात्, 'अहारसमुहुत्ते दिवसे भवछ' अष्टादशमुत्तों दिवसो भवति 'जहणिया' जधन्यिका सर्वलध्वी ततो लाघवाऽभावात् 'दुवाकसमुहुत्ता राई भवः' द्वादशमुहर्त्ता रात्रिर्भवति । उपसंहरन्नाह - 'एस णं' इत्यादि । 'एस णं' एतत् खलु 'दोच्चे छम्मासे' द्वितीयं षण्मासम् । 'एस णं' एतत् खलु 'दोच्चस्य छम्मासस्स' द्वितीयस्य पण्मासस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानं सर्वान्तिमभागो वर्त्तते । 'एस गं' एष खलु 'आइच्चे संवच्छ रे' आदित्यः संवत्सर 'एस णं' एतत् खलु 'आइच्चसंचच्छरस्स' आदित्य संवत्सरस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानं पर्यन्तभागः | ०५ || ॥ इति दाक्षिणात्या अर्धमण्डलसंस्थितिः समाप्ता ॥ ४० गता दाक्षिणात्या अर्धमण्डलसंस्थितिः, साम्प्रतमौत्तरामर्धमण्डलसंस्थितिं विवृण्वन्नाह-'ता कहं ते उत्तरा अद्धमंडल संठि' इत्यादि । मूलम् - ता कहं ते उत्तरा भद्धमंडल संठिई आहितेति चदेज्जा ? ता अयण्णं जंबुtata ata सव्वदीच जावपरिक्खेवेणं पण्णत्ते । ता जया णं सूरिए सव्वव्यंतरं उत्तरं अद्धमंडलसंठि उवसंकमित्ता चारं चरह तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अहारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । से निक्खममाणे णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि उत्तराए अंतराए भागाए तरसाइपएसाए अभ्यंतरानंतरं दाहिणं अद्धमंडल संठि उवसंकमित्ता चारं चरड़ । ता जया णं सूरिए अभ्यंतरानंतरं दाहिणं अद्धमंडल संठि उवसंकमित्ता चारं चरइ तथा णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिंएगद्विभागमुहुत्ते हिंऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहिं अहिया । सेणिक्खममाणे सरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि दाहिणाए अंतराए भागाए तस्साइपएसाए अभितराणंतरं तच्चं उत्तरं अद्धमंडलसंठि उव संकमित्ता चारं चरइ । ता जयाणं सरिए अन्तराणंतरं तच्चं उत्तरं अद्धमंडलसंठि उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भव चउहिं एगट्टिभागमुहुतेहिं ऊणे. दुवालसमुहुत्ता राई भवइ चउहिं एगट्टिभाग Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०-१-२ सू०६ औत्तरार्द्धमण्डलसंस्थितिखरूपम् ४१ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm मुहुत्तेहिं अहिया । एवं खलु एएणं उवाएणं निक्खममाणे सरिए तयाणंतराओ तयाणतरं तंसि तंसि देसंसि तं तं अद्धमंडलसंठिई संकममाणे २ उत्तराए अंतराए भागाए तस्साइपएसाए सब्बवाहिरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जयाणं-मूरिए सव्ववाहिरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरह तया णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ । एस णं पढमे छम्मासे । एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे । से पविसमाणे सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि दाहिणाए अंतराए भागाए तस्साइपएसाए वाहिराणंतरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिई उपसंकमित्ता चारं चरइ। ता जयाणं सूरिए वाहिराणंतरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिई उपसंकमित्ता चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ दोहि एगहिभागमुहुत्तेहि ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोर्डि एगहिभागमुहत्तेर्दि अहिए । से पविसमाणे सरिए दोच्चंसि अहोरतसि उत्तराए अंतराए भागाए तस्साइपएसाए वाहिरं तच्च दाहिणं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जयाणं सरिए वाहिरं तच्चं दाहिणं अद्धमंडलसंठिई उपसंकमित्ता चारं चरइ तया णं अद्वारसमुहुत्ता राई भवइ चउहि एगद्विभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहि एगहिभागमुहुत्तेहि अहिए । एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे मुरिए तयाणंतराओ तयाणंतरं तंसि तसि देसंसि तं तं अद्धमंडलसंठिई संकममाणे २ दाहिणाए अंतराए भागाए तस्साइपएसाए सबभंवरं उत्तर अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सुरिए सव्वभंतरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिई उपसंकमित्ता चार चरइ तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अद्वारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहन्निया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । एस णं दोच्चे छम्मासे । एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे एस ण आइच्चे संवच्छरे । एस णं आइच्चसंवच्छरस्स पज्जवसाणे ।। मूत्र ६॥ ॥ उत्तरा अद्धमंडलसंठिई समत्ता ॥ पढमस्स पाहुडस्स बीयं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥ १-२ ।। छाया-तावत् कथं ते औत्तरा अर्धमण्डलसंस्थिति आख्यातेति वदेत् १ तावत् अयं खलु जम्बूद्वीपो द्वीप सर्वद्वीप-यावत्-परिक्षेपेण प्रशप्तः । तावत् यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरां औत्तराम् अर्धमण्डलसंस्थितिम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षक: अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति । अथ निष्का Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ चन्द्रप्रप्तिसूत्रे मन् सूर्यः नवं संवत्सरं अयन् प्रथमे अहोरात्रे औत्तरात् अन्तराद् भागात् तस्यादिप्रदेशात् अभ्यन्तरानन्तरं दाक्षिणात्यां अर्धमण्डलसंस्थितिम् उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् या खलु सूर्य अभ्यन्तरानन्तरां दक्षिणात्यां अर्धमण्डलसंस्थिति उपसंक्रम्य चारं चरतिता खलु अष्टादशमुत्तों दिवसो भवति द्वाभ्याम् एकषष्टिभागमुहर्त्ताभ्यां ऊनः, द्वादशमुहर्त्ता गत्रिर्भवति द्वाभ्यां एकपष्टिभागमुहर्त्ताभ्यां अधिका । अथ निष्क्रामन् सूर्यः द्वितीये अहोरात्रे दाक्षिणात्यात् अन्नराद् भागात् तस्यादिप्रदेशात् अभ्यन्तरानन्तरां तृतीयां औत्तरां अर्धमण्डलसंस्थितिम् उपसंक्रस्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः अभ्यन्तरानन्तरां तृतीयां औत्तरां अर्धमण्डलसंस्थिति उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु अष्टादशमुत्तों दिवसो भवति चतुर्भिरेकपष्टिभागमुहत्तेः ऊनः, द्वादशमुहर्त्ता रात्रिर्भवति चतुर्भिरेकप प्रिभागमुहन्तैरधिका । एवं खलु एतेन उपायेन निष्क्रामन् सूर्यः तदन्तरात् तदनन्तरां तस्मिन् तस्मिन् देशे तां तां अर्धमण्डलसंस्थिति संक्रामन् २ भौप्तरात् अन्तरात् भागात् तस्यादिप्रदेशात् सर्वबाह्यां दाक्षिणात्यां अर्धमण्डसंस्थिति उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सर्ववाह्यां दाक्षिणात्यां अर्धमण्डसंस्थिति उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्कर्षिका अष्टादशमुत्त रात्रिर्भवनि, जघन्यकः द्वादशमुहत्तों दिवसो भवति तत् खलु प्रथमं पण्मासम् । पतत् खलु प्रथमस्य पंण्मासस्य पर्यवसानम् । अथ प्रविशन् सूर्यः द्वितीयं पण्मासं अयन् प्रथमे अहोरात्रे दाक्षिणात्यात् अन्तराद् भागात् तस्यादिप्रदेशात् वाह्यानन्तरां औत्तरां अर्धमण्डलसंस्थिति उपसंक्रम्य चारं चरति तावत् यदा खलु सूर्यः वाह्यानन्तरां औप्तरां अर्धमण्डलसंस्थिति उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु अष्टादशमुहर्त्ता रात्रिर्भवति द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहत्तभ्याम् ऊना, द्वादशमुत्तों दिवसो भवति द्वाभ्यामेकपष्टिभागमुहूर्त्ताभ्यामधिकः । अथ प्रविशन् सूर्य. द्वितीये अहोरात्रे औत्तरात् अन्तराट् भागात् तस्यादिप्रदेशात् वाह्यां तृतीयां दाक्षिणात्यां अर्धमण्डलसंस्थिति उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु वाह्यां तृतीयां दाक्षिणात्यां अर्धमण्डलसंस्थिति उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु अष्टादशमुहर्त्ता रात्रिर्भवति चतुर्भिरेकपष्टभागमुहूतैः ऊना, द्वादशमुत्तों दिवसो भवति चतुर्भिरेकपटिभागमुहत्तैरधिकः । पवं खलु पतेन उपा येन प्रविशन् सूर्यः तदनन्तरात् तदनन्तरां तस्मिन् तस्मिन् देशे तां तां अर्धमण्डलसंस्थितिं संक्रामन् २ दाक्षिणात्यात् अन्तराद् भागात् तस्यादिप्रदेशात् सर्वाभ्यन्तरां औत्तरां अर्ध मण्डलसंस्थिति उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सर्वाभ्यन्तरां औत्तरां अर्धमण्डलसंस्थिति उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु उत्तमकाष्टाप्राप्तः उत्कर्पकः अष्टादशमुहर्त्ता दिवसो भवति, द्वादशमुहर्त्ता रात्रिर्भवति । पतत् खलु द्वितीयं पण्मासम् । एतत् खलु द्वितीयस्य पण्मासस्य पर्यवसानम् । एष खलु आदित्य संवत्सरः । एतत् खलु आदित्य संवत्सरस्य पर्यवसानम्" | सृ० ६ | ॥ औत्तरा अर्धमण्डल संस्थितिः समाप्ता ॥ 'प्रथमस्य प्रामृतस्य द्वितीयं प्रामृतमामृतं समाप्तम् ॥१-२॥ व्याख्या- 'ता तावत 'क' कथं केन प्रकारेण 'ते' तव मते उत्तरा' भौत्तरा Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा० १ -२सू०६ औतरार्द्धमण्डलसंस्थितिस्वरूपम् ४३ 'अद्धमंडलसंठिई' अर्द्धमण्डलसंस्थितिः 'आहिया' आख्याता 'त्तिवएज्जा' इति वदेत् एतद् वदतु भगवान् इति-प्रश्नः । भगवानाह-'ता' तावत् 'अयण' मयं खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपो द्वीपः मध्यजम्बूद्वीपः 'सव्वदीव जाव परिक्खेवेणं' सर्वद्वीप यावत् परिक्षेपेण सर्वद्वीपसमुद्राणां मध्ये सर्वाभ्यन्तरः सर्वेभ्यो द्वीपसमुद्रेभ्यः क्षुल्लकः एकलक्षयोजनायामविष्कम्भपरिमाणवत्त्वात् , परिक्षेपेण परिधिना पूर्वप्रदर्शितप्रमाणेन 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः । 'ता' तावत् 'जयाण' यदा खल 'सरिए' सूर्यः 'सव्वन्भंतरं' सर्वाभ्यन्तरं सर्वाभ्यन्तरस्थितां 'उत्तर' औत्तरां उत्तरदिग्भाविनी 'अद्धमंडलसंठिई' अर्धमण्डसंस्थितिं 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं तदा खलु 'उत्तमकट्ठपत्ते' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उक्कोसए' उत्कर्षकः 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, 'जहणिया' जघन्यिका सर्वलम्वी 'दुवालसमुहुत्ता राई भवई' द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति । अग्रे प्रथमे षण्मासे, द्वितीये पण्मासे इति परिपूर्ण आदित्यसंवत्सरे यथा दाक्षिणात्याया अर्धमण्डलसंस्थितेाख्या कृता तथैवास्या औत्तराया अर्धमण्डलसंस्थितेरपि सर्वा व्याख्याऽवसेया, विशेषस्तु एतावानेव यद् दाक्षिणात्यार्घमण्डलसंस्थितौ 'दाहिणं दाहिणाए' दाक्षिणात्यां दाक्षिणात्यात्' इति दाक्षिणात्यशब्देन व्याख्यात तदत्र मौत्तरायामधमण्डसंस्थितौ सर्वत्र 'उत्तरं उत्तराए' 'औत्तरां औतरात्' इति शब्देन व्याख्येयम्, शेपं सर्व दाक्षिणात्यार्धमण्डसंस्थितिवदेव विज्ञेयमतोऽत्र विस्तरभयान्न व्याख्या कृता। मूलार्थः सर्वोऽपि छायागम्यत्वात् सुगम एवेति विरम्यते ॥ सू० ६ ॥ ॥ इत्यौत्तरा अर्धमण्डलसंस्थितिः समाप्ता ।। ।। इति प्रथमस्य मामृतस्य द्वितीयं प्राभृतमाभृतं समाप्तम् ॥ गतं प्रथमस्य मूलप्राभृतस्य द्वितीयं प्राभृतप्राभृतम् , साम्प्रतं 'किं ते चिण्णं पडिचरई' । इति चीर्णप्रतिचरणाधिकारविषयकं तृतीयं प्राभृतप्राभृतं व्याख्यायते-'ता किं ते चिण्णं' इत्यादि । ___ मूलम् - ता किं ते चिण्णं पडिचरइ आहितेति वदेज्जा ?, तत्थ खलु इमे दुवे सूरिया पण्णत्ता तं जहा-भारहे चेव सरिए ?, एरवए चेव सूरिए । ता एते णं दुवे सूरिया पत्तये २ तीसाए २ मुहुत्तेहिं एगमेगं अद्धमंडलं चरइ सट्ठीए सट्ठीए मुहुत्तेहिं एगमेगं मंडलं संघाएंति । ता णिक्खममाणा खलु एते दुवे सूरिया णो अण्णमण्णरस चिण्णं पडिचरंति, पविसमाणा खलु एते दुवे सूरिया अण्णमण्णस्स चिण्णं पडिचरंति, तत्थ णं को हेउ-त्ति वदेज्जा ? ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ते । तत्थ णं अयं भारहे चेव सूरिए जंबुद्दोवस्स दीवस्स पाईणपडीणाययाए उदीणदाहिणाययाए जीवाए मंडलं चउवीसएणं सएणं Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे छेत्ता दाहिणपुरथिमिल्लंसि चउभागमंडलंसि वाणउई मरियमयाइं जाइं सुरिए अप्पणा चेव चिण्णाई पडिचरइ, उत्तरपच्चस्थिमिल्लसि चउभागमंडलंसि एक्काणउई सूरियमयाइं जाई सूरिए अप्पणा चेव चिण्णाई पडिचरइ । तत्थ अयं भारहे सूरिए एरवयस्स सूरियस्स जंबुद्दीवस्स दीवस्स पाईणपडीणाययाए उदीणदाहिणाययाए जीवाए मंडलं चउवीसएणं सएणं छेत्ता उत्तरपुरस्थिमिल्लंसि चउभागमंडलंसि वाणउइं सूरियमयाई जाई सरिए परस्स चिण्णाई पडिचरइ, दाहिणपच्चस्थिमिल्लंसि चउभागमंडलंसि एक्काणउई सूरियमयाई जाई सुरिए परस्स चेव चिण्णाई पडिचरइ । तत्थ अयं एरवए सुरिए जंबुद्दीवस्स दीवस्स पाईणपडीणाययाए उदीणदाहिणाययाए जीवाए मंडलं चउवीसएणं सएणं छेत्ता उत्तरपच्चस्थिमिल्लसि चउभागमंडलंसि वाणउई मरियमयाई जाई सरिए अप्पणा चेव चिण्णाई पडिचरइ, दाहिण पुरथिमिल्लंसि चउन्भागमंडलंसि एक्काण उई मरियमयाइं जाई सूरिए अप्पणा चेव चिण्णाई पडिचरइ । तत्थ णं अयं एरवए सूरिए भारहस्स सूरियस्स जंबुद्दीवस्स दीवस्स पाईणपडीणाययाए उदीणदाहिणाययाए जीवाए मंडलं चउवीसएणं सएणं छित्ता दाहिणपच्चत्थिमिल्लसि चउभागमंडलसि वाणउई रियमयाई जाई सूरिए परस्स चिण्णाई पडिचरइ, उत्तरपुरस्थिमिल्लिंसि चउभागमंडलंसि एक्काणउई सूरियमयाई जाई सूरिए परस्स चेव चिण्णाई पडिचरइ । ता निक्खममाणा खलु एते दुवे सूरिया णो अण्णमण्णस्स चिण्णं पडिचरंति, । पविसमाणा खल्लु दुवे रिया अण्णमण्णस्स चिण्ण पडिचरंति । सयमेगं चोत्तालं ॥ गाहाओ ॥ सू० ७॥ || पहमपाहुडस्स तइयं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥ १-३॥ छाया-तावत् किं ते चीर्ण प्रतिचरति आख्यातमिति वदेत् ? तत्र स्खलु इमौ द्वौ सूर्यो प्रक्षप्तौ तद्यथा-भारतकश्चैव सूर्यः ? ऐरवतिकश्चैव सूर्य. २ । तावत् पतो खलु द्वौ सूर्या प्रत्येकं २ त्रिंशता २ मुहूर्तः एकैकमर्धमण्डलं चरतः, पटया पष्टया मुहूर्तः पफैक मण्डलं संघातयतः । तावत् निष्कामन्तौ खलु एतौ द्वौ सूया नो अन्योन्यस्य चीर्णप्रतिचरतः, प्रविशन्तौ खलु पतौ हौ सूर्यो अन्योन्यस्य चीर्ण प्रतिचरत , तत्र को हेतुः १ इति वदेत् । तावत् अयं खलु जम्बूद्वीपो द्वीपः यावत् परिक्षेपेण प्राप्त । तत्र खलु अयं भारतकश्चैव सूर्यः जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य प्राचीप्रतीच्यायतया उदीचीदक्षिणायतया जीवया मण्डलं चतुर्विशतिकेन शतेन छित्वा दक्षिणपौरस्त्ये चतुर्भागमण्डले द्वानवति सूर्यमतानि यानि सूर्यः आत्मनैव चीर्णानि प्रतिचरति, उत्तरपाश्चात्ये चतुर्भागमण्डले एकनवति सर्यमतानि यानि सूर्य आत्मनैव चोर्णानि प्रतिचरति । तत्रायं भारतकः सूर्यः परवतिकस्य सूर्यस्य जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य प्राचीप्रतीच्यायतया उदीचीदक्षिणायतया जीवया Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा० १-३५०७ सूर्यपरिभ्रमणविचारः ४५ मण्डलं चतुर्विशतिकेन शतेन छित्त्वा उत्तरपौरस्त्ये चतुर्भागमण्डले द्वानवति सूर्यमतानि यानि सूर्यः परस्य चोर्णानि प्रतिचरति, दक्षिणपाश्चात्ये चतुर्भागमण्डले एकनवर्ति सूर्यमतानि यानि सूर्यः परस्यैव चीर्णानि प्रतिचरति । तत्रायम् ऐरवतिकः सूर्यः जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य प्राचीप्रतीच्यायतया उदीचोदक्षिणायतया जीवया मण्डलं चतुर्विशतिकेन शतेन छित्वा उत्तरपाश्चात्ये चतुर्भागमण्डले द्वानवति सूर्यमतानि यानि सूर्य आत्मनैव चीर्णानि प्रतिचरति, दक्षिणपौरस्त्ये चतुर्भागमण्डले पकनवति सूर्यमतानि यानि सूर्यः आत्मनैव चीर्णानि प्रतिचरति । तत्र खलु अयम्-ऐरवतिकः सूर्यः भारतकस्य सूर्यस्य जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य प्राचीप्रतीच्यायतया उदीचीदक्षिणायतया जीवया मण्डलं चतुर्विशतिकेन शतेन छित्त्वा दक्षिणपाश्चात्ये चतुर्भागमण्डले द्वानवति सूर्यमतानि यानि सूर्यः परस्य चीर्णानि प्रतिचरति, उत्तरपौरस्त्ये चतुर्भागमण्डले एकनवति सूर्यमतानि यानि सूर्यः परस्यैव चीर्णानि प्रतियरति सतो निष्क्रामन्ती खलु पत्तौ द्वौ सूर्यो नो अन्योन्यस्य चीर्ण प्रतिचरतः । “शतमेकं चतुश्चत्वारिशम्" | गाथा । स्त्र ॥७॥ ॥ प्रथमप्राभूतस्य तृतीयं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥ १-३ ॥ व्याख्या-'ता' तावत् 'कि' किम् कथं केन प्रकारेण 'ते' तव मते चिण्ण पडिचरइ' 'किं चीर्ण मतिचरति' इति 'आहिय' इति आख्यातं कथितम् ! इति-एतद्विपयं 'वएज्जा' वदेत बदतु कथयतु भगवान् ! इति प्रश्नः-उत्तरमाह-'तत्थ खलु' इत्यादि । 'तत्थ खलु' तत्र खल 'इमे' इमौ शास्त्रप्रसिद्धौ ‘दुवे' दो 'सरिया' सूर्यो 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तौ कथितौ पूर्वतीर्थंकरगणधरैरिति, 'त' जहा' तद्यथा तौ यथा-भारहए चेव सरिए' भारतकश्चैव यः सर्वबाह्यमण्डलस्य दक्षिणात्येऽधमण्डले चारं चरितुं समारभते स भरतक्षेत्रप्रकाशकत्वाद् भारतः सूर्यः, 'एरवए चेव सरिए' ऐरवतश्चैव यस्तस्यैव सर्वबाह्यमण्डलस्य औत्तरेऽर्धमण्डले चारं चरति स ऐरवतक्षेत्रप्रकाशकत्वाद ऐरवतः सूर्यः २ । 'ता' ततः 'एते णं' एतौ भरतैरवतक्षेत्रे चारिणौ खलु 'दुवे सरिया' दो सूर्यों पत्तेयं २ प्रत्येकं २ एकैकत्वमाश्रित्य 'तीसाए तीसाए' त्रिंशता त्रिंशता मुहत्तेहि' मुहूर्तेः 'एगमेग' एकैकं 'अद्धमंडलं' अर्धमण्डलं 'चरंति' चरतः परिभ्रमतः 'सट्ठीए सट्ठीए पष्ट्या षष्ट्या-पष्टिपष्टिसंख्यकैः ‘मुहुत्तेहि' मुहर्तेः 'एगमेगं' एकैकं 'मंडलं' मण्डलं 'संघाएंति' संघातयतः सार्द्धमेव परिपूरयतः, न तु पूर्वापरेण 'तो' तत्र-एकसूर्य. सवत्सरमध्ये 'निक्खममाणा खलु' निष्क्रामन्तौ सर्वाभ्यन्तरमण्डलान्निस्सरन्तौ खलु "एते दुवे सूरिया' एतौ द्वौ सूर्यो 'णो' नौ नैव 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य परस्परस्य 'चिणं' चीर्ण तत्तद्वारा पूर्व सेवितं क्षेत्रं 'पडिचरंति' प्रतिचरतः अपरोऽपरेण चीण क्षेत्रे, अन्योऽन्येन च चीर्णे क्षेत्रे तो न परिभ्रमतइत्यर्थः, (इदं जम्बूद्वीपचित्रवशादवसेयम् ) किन्तु 'पविसमाणा' प्रविशन्तो सर्वबाह्यमण्डलादभ्यन्तरं चतुरशीत्यधिकशततमं मण्डलं गच्छन्तौ खल-एते दुवे सूरिया एतौ द्वौ सूर्यो 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य 'चिणं चीर्ण तत्तद्वारा पूर्व सेवितं क्षेत्र Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे 'पडिचरंति' प्रतिचरतः परिभ्रमतः । गौतमः पृच्छति-तत्थ थे' तत्र एवंविधव्यवस्थायां 'को देऊ' को हेतुः किं कारणम् ! "त्तिवएज्जा ' इति वदेत् इति भगवन् । कथयतु । भगवानाह-'ता' तावत् श्रूयताम् 'अयण्ण' अयं खलु 'जंबूद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपो द्वीपः 'जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ते' यावत् परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः जम्बूद्वीपपरिमाणं पूर्व प्रतिपादितं ततो विज्ञेयम् । 'तत्थ णं' तत्र खलु 'अयं प्रत्यक्षं दृश्यमानः 'भारहे चेव' भारतश्चैव भरतक्षेत्रप्रकाशकत्वाद् भारतः 'सूरिए' सूर्यः 'जंबुद्दीवस्स दीवस्स' जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य 'पाईणपडीणाययाए' प्राचीप्रतीच्यायतया पूर्वदिशातः पश्चिमदिशापर्यन्तं या दीर्घा तया तथा-'उदीणदाहिणाययाए' उदीचीदक्षिणायतया उत्तरदिशातो दक्षिणदिशापर्यन्तं या दीर्घा तया 'जीवाए' जीवया जीवासा. दृश्याज्जीवा प्रत्यञ्चा, तया उ.+द. ते द्वे अपि जीवे अधिकृत्येत्यर्थः 'मंडलं' मण्डलं यस्मिन् यस्मिन् मण्डले सूर्यः परिभ्रमति तत्तन्मण्डलं 'चउवीसएण सएणं' चतुर्विशतिकेन चतुर्विशत्यधिकेन शतेन (१२४) 'छत्ता' छित्वा विभज्य तस्य तस्य मण्डलस्य चतुर्विशत्यधिकशतसंख्यकान् भागान् परिकल्प्य, तेषां चतुर्दिकत्वात् चतुर्भािगो हर्त्तव्यः, तेनागताः प्रतिदिक् एकैकमण्डलस्य एकत्रिंशद् एकत्रिंशद्भागाः, ततस्तेषु 'दाहिणपुरथिमिल्लसि' दक्षिणपौरस्त्ये दक्षिणपूर्वदिक् स्थिते आग्नेय्यां दिशि वर्तमाने 'चउभागमंडलंसि' चतुर्भागमण्डले चतुर्भागीकृते मण्डले मण्डलस्य चतुर्भागे तस्य तस्य चतुर्वि शत्यधिकशतसंख्यकत्वेन परिकल्पितस्य मण्ड लस्य चतुर्थे मागे एकत्रिंशसंख्यकरूपे इत्यर्थः सूर्यसंवत्सरसम्बन्धिनि द्वितीये षण्मासे 'वाणउई' द्विनवति द्वयधिकनवतिसंख्यकानि मण्डलानि चतुर्भागरूपाणि 'मरियमयाई, सूर्यमतानि सूर्येण भारतसूर्येण पूर्व मतानि अतएव 'जाइ' यानि 'अप्पणा चेव आत्मनैव स्वयं 'चिण्णाई' चीर्णानि पूर्व सर्वाभ्यन्तरमण्डलाद्वहिनिष्क्रमणसमये मासेवितानि तानि 'मूरिए' सूर्यः 'पडिचरई' प्रतिचरति तेषु परिभ्रमतीत्यर्थः । तानि न परिपूर्णचतुर्भागमात्राणि किन्तु स्व स्वमण्डलगतचतुर्विशत्यधिकशतसम्बध्यष्टा दशाष्टादशभागप्रमितानि । ते चाष्टादशाष्टादशभागा न सर्वेष्वपि मण्डलेपु भवन्ति, प्रतिनियतदेशे एष भवन्ति, किन्तु कापि मण्डले कुत्रापि, केवल दक्षिणपौरस्त्यस्य चतुर्भागमध्ये भवन्ति तत माह-दाहिणपुरथिमिल्लसि' इति । तथा स एव भारतः सूर्यः तस्यैव द्वितीयषण्मासस्य मध्ये 'उत्तरपच्चस्थिमिल्लंसि' उत्तरपाश्चात्ये वायव्यकोणे 'चउभागमंडलंसि' चतुर्भागमण्डले मण्डलस्य चतुर्भागे 'एक्काणउई' एकनवति एकनवतिसख्यकानि मण्डलानि पूर्ववत् स्वस्वमण्डलगतचतुर्विशत्यधिकशतसम्बन्ध्यष्टादशाष्टदशभागप्रमितानि 'सूरियमयाई सूर्यमतानि Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१-३ सू०७ सूर्यपरिभमणविचारः ४७ सर्वाभ्यन्तरमण्डलान्निष्क्रमणकाले मतानि, एतदेव स्पष्टयति- 'नाई अप्पणा चेव' यानि-आत्मनैव स्वयं पूर्व चिण्णाई' चीर्णानि तानि 'सूरिए'सूर्यः भारतः सूर्यः 'पडिचरई' प्रतिचरति । अत्र चतुरशीत्यधिकशतसंख्यकेपु सर्वेषु मण्डलेषु सर्वबाह्यमण्डलात् शेषाणि त्र्यशीत्यधिकशतसंख्यकानि मण्डलानि सन्ति, तानि च प्रत्येक द्वितीयषण्मासमध्ये द्वाभ्यामपि सूर्याभ्यां परिभ्रम्यन्ते, अर्थात् द्वितीयपण्मासे तेषां ज्यशीत्यधिकशतसंख्यकमण्डलानां मध्ये एकस्मिन् एकस्मिन् मण्डले द्वावपि सूर्यों परिभ्रमतः । सर्वेष्वपि दिग्विभागेपु प्रत्येकस्मिन् दिग्विभागे एकस्मिन् मण्डले एक एव सूर्यः परिभ्रमति, द्वितीये तु अपरः सूर्यः । एवं सर्वान्तिममण्डलपर्यन्तमपि परिभावनीयम् । तत्र द्वितीयपण्मासे दक्षिणपौरस्त्ये दिगविभागे भारतः सूर्यो द्विनवतिसंख्यकानि मण्डलानि परिभ्रमति, ऐरवना सूर्यएकनवतिसंख्यकानि मण्डलानि परिभ्रमति । उत्तरपाश्चात्ये दिगविभागे च ऐरवतः सूर्यो विनवतिसंख्यकानि मण्डलानि परिभ्रमति भारतः सूर्यश्च-एकनवतिसंख्यकानि मण्डलानि परिभ्रमति । एवं व्यशीत्यधिकशतसंख्यकेपु सर्वेष्वपि मण्डलेषु द्वयोः सूर्ययोः परिभ्रमणं भवतीति । एतच्च पट्टिकादौ मण्डलानि विलिख्य परिभावनीयम् । अतएवोक्तम्-दक्षिणपोरस्ये हिनवतिसंख्यकानि मण्डलानि, उत्तरपाश्चात्ये च एकनवतिसंख्यकानि मण्डलानि भारतः सूर्यः स्वयं पूर्व चीर्णानि प्रतिचरतीति । तदेवं भारतसूर्यस्य स्वचीर्णप्रतिचरणपरिमाणं प्रदर्शितम् अथ च तस्यैव भारतसूर्यस्य परचीर्णप्रतिचरणपरिमाणं प्रदर्शयति'तत्थ णं अयं भारहें' इत्यादि । 'तत्थ' तत्र मध्यजम्बूद्वीपे 'अयं' अयं प्रस्तुत प्रकरणोल्लि खितो जम्बूद्वीपसम्बन्धीभरतक्षेत्रप्रकाशकारित्वाद् भारतः सूर्यः 'जंबुद्दीवस्स दीवस्स' जंबू. द्वीपस्य द्वीपस्य 'पाईणपडीणाययाए प्राचीप्रतीच्यायतया पूर्वपश्चिमदीर्घया, तथा 'उदीणदाहिणाययाए' उदीचीदक्षिणायतया उत्तरदक्षिणदीर्घया 'जीवाए' जीवया जीवासादृश्यात जीवा तया दवरिकयेत्यर्थः 'मंडलं' मण्डलं चतुर्भिविभक्तं तत्तन्मण्डलं 'चउवीसएणं सएणं' चतुर्विशतिकेन चतुर्विशत्यधिकेन शतेन शतभागेन 'छेत्ता' छित्वा-हृत्वा 'उत्तरपुरथिमिल्लंसि' उत्तरपौरस्त्य उत्तरपूर्वदिग् विभागे ईशानकोणे इत्यर्थः 'चउभागमंडलंसि' चतुर्भागमण्डले मण्डलस्ये चतुर्थे भागे तेषामेव द्वितीयानां पण्णां मासानां मध्ये 'एरवयस्स सूरियस्स', ऐरवतस्य सूर्यस्य 'वाणउई' द्वानवति द्विनवतिसंख्यकानि 'सूरियमयाई र्यमतानि ऐरवतसूर्येण पूर्व निष्क्रमणकाले मतानि मती कृतानि-जाई' यानि 'सरिए' सूर्यः भारतः सूर्यः 'परस्स चिण्णाई' परस्य ऐरवतस्य सूर्यस्य द्वारा चिण्णाई' चीर्णानि निष्क्रमणकाले तानि 'पडिचरइ' प्रतिचरति, तथा 'दाहिणपच्चत्थिमिल्लंसि' दक्षिणपाश्चात्ये नैऋतकोणे च 'चउभागमडलंसि' चतुर्भागमण्डले मण्डलस्य चतुर्थे भागे 'एक्काणउई' एकनवति एकनवति संख्यकानि 'सूरियमयाई सूर्यमतानि एरवतसूर्यमतानि ऐरवतसूर्यसम्बन्धीनि 'जाई' यानि 'मरिए' सूर्यः Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रशप्तिसूत्रे -भारतः सूर्यः 'परस्स चेव' परस्यैव ऐरवतसूर्यस्यैव द्वारा 'चिण्णाई' चीर्णानि 'पडिचरइ' प्रतिचरति । एकस्मिन् भागे द्विनवतिरेकस्मिन् भागे च एकनवतिरित्यत्रापि भावनीयम् | इत्थं च भारतः सूर्यो दक्षिणपौरस्त्ये भागे - द्विनवतिसंख्यकानि, उत्तरपाश्चात्ये भागे च एकनवति संख्यकानि स्वयं चीर्णानि प्रतिचरति, उत्तरपौरस्त्ये भागे द्विनवतिसंख्यकानि दक्षिणपाश्चात्ये भागे च एकनवतिसंख्यकानि परचीर्णानि ऐवतसूर्यचीर्णानि प्रतिचरतीतिभावः । साम्प्रतमैरवतसूर्यविषयं प्रतिपादयति-'तत्थ' तत्र जम्बूद्वीपमध्ये 'अयं अयं प्रत्यक्षतउपलभ्यमानः जम्बूद्वीपसम्बन्धी ‘एरवए सूरिए' ऐरवतक्षेत्रप्रकाशकारित्वात् ऐरवतः सूर्यः 'जंबुद्दीवस्स दीवस्स' जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य पाइणपडीणाययाए प्राचीप्रतीच्यायतया पूर्वपश्चिमदीधया 'उदीणदाहिणाययाए' उदीचीदक्षिणायतया उत्तरदक्षिणदीर्घया 'जीवाए' जीवया 'मंडलं' मण्डलं चतुर्भिवक्तिं तत्तन्मण्डलं 'चउवीसएणं सरणं' चतुर्विशकेन शतेन चतुर्विशत्यधिकैकशतेन 'छेत्ता' छित्त्वा 'उत्तरपच्चथिमिल्लसि' उत्तरपाश्चात्ये भागे 'चउमाग मंडलंसि' चतुर्भागमण्डले मण्डलस्य चतुर्थे भागे 'वाणउई-द्विनवति द्विनवतिसंख्य कानि 'मरियमयाई' सूर्यमतानि-ऐरवतसूर्येणैवमतानि मतीकृतानि 'जाई' यानि 'सरिए' सूयः ऐरवतसूर्यः 'अण्पणा चेव' आत्मनैव स्वयं 'चिण्णाई' चीर्णानि 'पडिचरई' प्रतिचरति, तथा 'दाहिणपुरथिमिल्लसि' दक्षिणपौरस्त्ये भागे 'चउन्भागमंडलंसि' चतुर्भागमण्डले मण्डलचतुर्थभागे एकाणउई' एकनवति एकनवतिसख्यकानि सूरियमयाई' सूर्यमतानि ऐरवतसूर्येगैव मतानि 'जाई' यानि सरिए सूर्यः ऐरक्तसूर्यः 'अण्पणाचेव' आत्मनैव स्वयं 'चिण्णाई' चीर्णानि 'पडिचरई' प्रतिचरति । 'तत्थ णं' तत्र खलु जम्बूद्वीपे 'अयं' अयं पूर्वप्रदर्शितः 'एरवए सरिए' ऐरवतः सूर्यः' जंबूद्दीवस्स दीवस्स' जम्बूद्वीपस्य जम्बूद्वीपनामकस्य द्वीपस्य 'पाईणपडि गाययाए प्राचीप्रतीच्यायतया पूर्वपश्चिमदीर्घया 'उदिणदाहिणाययाए' उदीची दक्षिणायतया उत्तरदक्षिणदीर्घया जीवया 'मंडलं' मण्डलं तत्तन्मण्डलं'चउचीसएणं सएणं' चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्ता' छित्वा विभज्य 'दाहिणपच्चस्थिमिल्लंसि' दक्षिणपाश्चात्ये भागे 'चउभागमंडलंसि' चतुर्भागमण्डले मण्डलचतुर्मागे 'भारहस्स सूरियस्स' भारतस्य सूर्यस्य भारतसूर्यसम्बन्धीनि 'वाणउई द्वानवति द्वानवतिसंख्यकानि 'सूरियमयाई सूर्यमतानि भारत सूर्यमतानि 'जाई' यानि 'मूरिए' सूर्यः ऐरवतः सूर्यः 'परस्स' परस्य भारतसूर्यस्य द्वारा 'चिण्णाई' चीर्णानि पडिचरइ' प्रतिचरति, तथा 'उत्तरपुरस्थिमिल्लसि' उत्तरपौरस्त्ये भागे 'चउभागमंडलंसि' चतुर्भागमण्डले मण्डलचतुर्थभागे तस्यैव भारतम्यस्य एकाणउई" एकनवति एकनवतिसंख्यकानि 'सरियमयाई' सूर्यमतानि भारतसूर्यप्रतिसेवितानि 'जाई' यानि 'सरिए सूर्यः ऐरवतसूर्यः 'परस्स चेव' परस्यैव द्वारा चिण्णाई'चीर्णानि 'पडिचरई' प्रतिचरति । अयं भावः-ऐरवतः सूर्यः उत्तरपश्चिमे भागे द्वोनवतिसंख्यकानि मण्डलानि, दक्षिणपूर्वे Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिका टोका प्रा०१-४सू०८ द्वयोः सूयर्योः परस्परमन्तरं लभ्यते ४९ भागे च एकनवति संख्यकानि मण्डलानि स्वयं चीर्णानि प्रतिचरति, दक्षिणपश्चिमे भागे द्विनवति संख्यकानि मण्डलानि उत्तरपूर्वं च एकनवति संख्यकानि मण्डलानि परचीर्णानि अर्थात् भारतसूर्य चीर्णानि प्रतिचरतीति । उपसहारमाह-'ता' इत्यादि 'ता' तावत् 'निक्सममाणा' निष्कामन्तौ खल 'एते' एतौ शास्त्रप्रसिद्धौ ‘दुवे' द्वौ भारतैरवतसम्बन्धिनौ 'सूरिया' सूर्यो ‘णो' नो नैव 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य परस्परस्य 'चिणं' चीणं क्षेत्रं 'पडिचरति' प्रतिचरतः,किन्तु 'पविसमाणा' प्रविशन्तौ सर्वाभ्यन्तरमण्डलामिमुखं गच्छन्तो खल 'एते हुने सूरिया' एतौ द्वौ सूर्यो 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य परस्परस्य 'चिण' चीण क्षेत्रं 'पडिचरंति' प्रतिचरतः, किन्तु 'पविसमाण' प्रविशन्तौ सर्वाभ्यन्तरमण्डलाभिमुरवं गच्छन्तौ खलु 'एते दुवे सूरिया' एतो द्वौ सूर्यो'अण्णमण्णस्य' भन्योन्यस्य 'चिण्णं' चिर्ण क्षेत्रं पडिचरंति' प्रतिचरतः । अत्र 'सयमेगं चोताल' शतमेकं चतुश्चत्वारिंशं, एवम्भूतादिपदगर्भिताः 'गाहाओं' गाथाः संग्रह गाथा पठितव्याः। ताश्च नोपलभ्यन्तेऽतः कथयितुं न शक्यन्ते । अस्य सूत्रस्यायमाशयः अत्र भारतः सूर्यः अभ्यन्तरं प्रविशन् प्रत्येकं मण्डलं द्वौ चतुर्भागौ स्वयं ची# प्रतिचरति, द्वौ च परची! अर्थात् ऐरवतसूर्यची? प्रतिचरति । एवम् ऐरवतः सूर्योऽपिअभ्यन्तरं प्रविशन् प्रत्येकं मण्डलं द्वौ चतुर्भागौ स्वयं ची! चरति, द्वौ च परचीगर्थात् भारतसूर्यचीणोंप्रतिचरति इत्येवं प्रतिमण्डलमेकं देनाहोरात्रद्वयेन उभय सूर्यचीर्णप्रतिचरणविवक्षायां सर्वेऽष्टो चतर्भागाः प्रतिचीर्णा लम्यन्ते, ते च चतुर्भागाश्चतुर्विशत्यधिकशतसम्बन्ध्यष्टादशभागप्रतिता भवन्ति, तच्च प्राक प्रदर्शितमेव, तत एतेऽष्टौ चतुर्भागा अष्टादशभिर्गुणिताभवन्ति चतुश्चत्वारिंशधिकैकशतसंख्यकाः । (१४४) इति ॥सू० ७|| । इति प्रथमस्य मामृतस्य तृतीयं प्राभृतमाभृतं समाप्तम् ॥१-३॥ गत प्रथमस्यमूलप्राभृतस्य तृतीयं प्राभृतप्राभृतम् ' साम्प्रतम् 'अंतरं किं चरंति य' द्वौ 'सूर्यों परस्परं कियदन्तरेण चारं चरतः, इत्यधिकार विषयकं चतुर्थ प्राभृतां विक्रयते-'ता केवइयं ते' इत्यादि । मूलम्-ता केवइयं ते एए दुवे सूरिया अण्णमण्णस्स अंतरं कटु चारं चरंति आहितेति वएज्जा ! तत्थ खलु इमामो छ पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-तत्थ एगे एवमासु-ता एगं जोयणसहस्स एगं च तेत्तीसं जोयणसयं, अण्णमण्णस्स । अंतरं कटु सूरिया चारं चरंति, एगे एवमासु ।१। एगे पुण एवमासु ता एगं Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे जोयणसहस्सं एगं चउतीसं जोयणसयं अण्णमण्णरस अंतरं कटु सूरिया चारं चरंति, एगे एवमाहंसु ।२। एगे पुण एवमासु-ता एगं जोयणसहस्सं एगं च पणतीसं जोयणसयं अण्णमण्णरस अंतरं कट्टु सूरिया चार चरंति, एगे एवमासु ।३। एगे पुण एवमाहंसु ता एग दीव एग समुई अण्णमण्णस्स अतरं कटु सूरिया चार चरंति, एगे एवमाहंसु ।४। एगे पुण एवमाहंसु-ता दो दीवे दो समुद्दे अण्णमण्णस्स अंतरं कटु सूरिया चारं चरंति, एगे एवमाहंमु ५। एगे पुण एवमाइंसु-ता तिणि दीवे तिणि समुद्दे अण्णमण्णस्स अंतरं कटु सूरिया चार चरंति, एगे एवमाहस ।६। एयं पुण एवं वयामो ता पंच पंच जोयणाई पणतीसं च एगहिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले अण्णमण्णस्स अंतरं अभिवुड्ढेमाणा वा निव्वुड्ढेमाणा वा सरिया चारं चरंति । तत्थ णं को हेऊ आहि तेति वज्जा ! ता अयण्णं जम्बुद्दीवे दीवे जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ते, ता जया णं एते दुवे सूरिया सम्बनंतर मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति तया णं णवणउई जोयणसहस्साई छच्च चत्ताले जोयणसयाई अण्णमण्णस्स अंतरं कटु चारं चरंति तया णं उक्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । से निक्खममाणा सरिय णवं संवच्छरं अयमाणा पढमंसि अहोरत्तंसि अमितराणं तरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति । ता जयाणं एते दुवे सूरिया अन्भितराणं तरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति तया णं णवणवई जोयणसहस्साइं छच्चापणताले जोयणसयाई पणतीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स अण्णमण्णस्स अंतरं कटु चारं चरंति तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहि एगद्विभागमुहुत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगद्विभागमुहुत्तेहिं अहिया । से निक्खममाणा सूरिया दोच्चंसि अहोरत्तंसि अमितरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति । ता जयाणं एते दुवे सूरिया अन्भितरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति तया णं णवणवई जोयणसहस्साई छन्व इक्कावण्णे जोयणसयाइं नव य एगहिभागे जोयणस्स अण्णमण्णस्स अंतरं कटु चार चरंति तया णं अद्वारसमुहत्ते दिवसे भवइ चउहि एगद्विभागमुहुत्तेहि ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ चउहि एगद्विभागमुहुर्तेहि अहिया । एवं खल्लु एएणं उवाएणं णिक्खममाणा एते दवे सूरिया तयाणं तराओ मंडलाओ, तया णं तरं मंडलं संकममाणा २ पंच-पंच जोयणाई पणतीसं च एगहिभागे जोयणस्स एग मेगे मंडले अण्णमण्णस्स अंतरं अभिवढेमाणा २ सव्ववाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरंति । ता जयाणं एते दुवे सूरिया सव्ववाहिनं मडल उवसंकमित्ता चारं चरति तया णं एगं जोयणसयसहस्स छच्चसढे जोयणसयाई अण्णमण्णस्स अंतरं कट्टु चारं चरंति, तया णं उत्तमकट्टपत्ता Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा० १-४सू०८ द्वयोः सूर्योः परस्परमन्तरं लभ्यते ५१ उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ । एसणं पढमे छम्मासे । एसणं पढमस्स छम्मासस्त पज्जवसाणे ॥ सूत्रम् ८॥ छाया- तावत् कियत्कं ते पतो द्वौ सूर्यो अन्योन्यस्य अन्तरं कृत्वा चारं चरतः ! असंव्यातमिति वदेत् तत्र खलु इमाः पट् प्रतिपत्तयःप्रशतः तद्यथा-तत्र एके एवमाहुः-तावत् एकं योजनसहस्त्रम् एकं च त्रयस्त्रिशत् योजनशतम् अन्योन्यस्य अन्तरं कृत्वा सूर्यो चार चरतः, एके एवमाहः ।। एके पुनरेवमाणुः तावत् एकं योजनसहस्त्रम् एकं चतुस्त्रिंशत् योजनशतम् अन्योन्यस्य अन्तरं कृत्वा च्या चार चरतः, एके एवमाहुः ।२। पके पुनरेव माहुः-तावत् एकं योजनसहस्त्रम् पकं च पञ्चत्रिंशत् योजनशतम् अन्योन्यस्य अन्तरं कृत्वा सूर्यो चारं चरतः, पके पचमाहुः ।३। एके पुनरेवमाहु-तावत् एक द्वीपं एक समुद्रं अन्योन्यस्य अन्तरं कृत्वा सूर्यो चारं घरतः, एके एवमाः ।४। एके पुनरेवमाणुः तावत् द्वौ द्वीपो हौ समुद्रो अन्योन्यस्य अन्तरं कृत्वा सूया चारं चरतः, पके प्यमाहुः ५।पके पुनरेवमाहुः-तावत् त्रीन् द्वीपान श्रीन समुद्रान् अन्योन्यस्य अन्तरं शरघा सूर्यो चारं चरतः, एघमाहुः ।।। वयं पुनरेवं वदामः-तापत् पञ्च पञ्च योजनानि पञ्चनिशच्च पकपछिभागान् योजनस्य एकैकस्मिन् मण्डले अन्योन्यस्य अन्तरं अभिवर्धयन्तौ या निर्वर्धयन्तो वा सूर्यो घारं चरतः । तत्र सलु को हेतुरारयातः ? इति वदेत् । तावत् अयं खलु जम्बूद्वीपो द्वीपः यावत् परिक्षेपेण प्राप्त । तावत् यदा खलु पतौ दो सूर्यो सर्वारयन्तरमण्डलं उपसंक्रम्य चारं चरतः तदा खलु नवनवति योजनसहस्त्राणि पट् च चत्वारिंशत् योजनशतानि अन्योन्यस्य अन्तरं रुत्वा लो चारं चरतः तदा खलु उसमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षक: अष्टादशमुहतों दिवसोभवति, जघन्यिका द्वादशमुहहर्ता रानिर्भवति । तो निष्क्रामन्तौ सूर्यो नव संवत्सरं अयन् प्रथमे अहोरात्रे अभ्यन्तरानन्तरं मंडलं उपसंक्रम्य चारं चरतः तावत् यदा खलु एतौ द्वौ सूयौं अभ्यन्तरानन्तरं मंडलं उपसंक्रम्य चारं चरतः तदा बलु नवनवति योजनलहसस्त्राणि पटू च पञ्च चत्वारिंशत् योजनशतानि पञ्चत्रिशच्च एक पष्टि भागान् योजनस्य अन्योन्यस्य अन्तरं कृत्वा चारं चरतः तदा खलु अष्टादशाहत्तों दिवसो भवति द्वाभ्यामेकषष्टि भागमुहर्राभ्यां ऊनः, द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति द्वाभ्यामेकपटिभागमुहर्ताभ्यामधिका । तो निष्कामन्ती सयौं द्वितीये अहोरात्रे अभ्यन्तरं तृतीयं मण्डलं उपसंक्रम्य चारं चरतः। तावत् यदा बलु पती द्वौ सूयौं अभ्यन्तरं तृतीयं मण्डलं उपसंक्रम्य चारं चरत तदा खल नवनवति योजनसहसस्त्राणि पट् च एक पञ्चशत् योजनशतानि नव च एकपटिभागान योजनस्य अन्योन्यस्य अंतरं कृत्वा चार चरत तदा खलु अष्टादशमुहत्तों दिवसो भवति चतुर्भिरेकपष्टिभागमु हत्तनाद्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति चतुर्भिरेकपष्टिभागमुहतरधिका । एवं खलु ण्तेन उपायेन निष्कामन्ती ही सूर्यो तदनन्तरात् मण्डलात् तदनन्तरं मडलं संक्रामन्तौ २ पञ्चपञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशच एकपष्टिभागान् योजनस्य एकैकरिमन् मण्डले अन्योन्यस्य अन्तरं अभिवर्धयन्तौ २ सर्व वाह्ममण्डलं उपसंक्रम्य चारं चरतः । तावत् यद खलु एतौ द्वौ सूर्यो सर्ववाझं मण्डलमुएसंक्रम्य चारं चरत तदा खलु पकं योजना Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ चन्द्रप्रशप्तिसूत्रे शतसहस्त्रं पट्र च पष्टि' योजनशतानि अन्योन्यस्य अंतरं कृत्वा चारं चरत तदा खलु उत्तमकाप्टाप्राप्ता उत्कर्पिका अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति, जघन्यक' द्वादशमहत्तौ दिवसो भवति । एतत् स्खलु प्रथमं पण्मासम् । एतत् खलु प्रथमस्य पण्मास्य पर्यवसानम् ॥सू० ८॥ ___ व्याख्या 'ता' तावत् ते तव ते केवइयं कियत्कं 'एए' एतौ भारतैरवतसम्बन्धिनौ 'दुवे सरिया' द्वौ सूर्याजम्बूद्वीपगतौ 'अण्णमण्णस्स' भन्योन्यस्य परस्परस्य 'अंतरं अन्तरं 'कट्ट' कृत्वा 'चारचरंति' चारंचरतः इति 'आहितं' आख्यातम् 'त्ति' इति 'वदेज्जा' वदेत् वदतु हे भगवन् ।। अथ भगवान् अस्मिन् विषये अन्यतैर्थि कमतरुपाः षट्र प्रतिपत्तीः प्रदर्शयति-तत्थ खल्लु' इत्यादि, 'तत्थ खल' तत्र खलु तस्मिन् चास्यान्तरविषये 'इमाओ' इमाः वक्ष्यमाणस्वरुपाः 'छ' पट्ट 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः परमतमान्यताविषयाः 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः पूर्वतीर्थकरगणधरैः ता एव प्रदर्शयति-'तत्थ एगे' इत्यादि । 'तत्थ' तत्र तत्तत्प्रतिपत्तिप्ररुपकाणां मध्ये 'एगे' एके केचन प्रथमाः 'एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आइंसु' आहुः स्व शिष्यान् परान् वा प्रतिकथयन्ति, तदेव दर्शयति-'ता' तावत् 'एगं जोयणसहस्स' एकं योजनसहस्त्रं सहस्त्रयोजनं 'च' तथा 'एगं तेत्तीसं जोयणसयं' एकं त्रयस्त्रिंशत् योजनशतं त्रयस्त्रिशदधिकैकशतसंख्यकं (११३३) 'अण्णमण्णस्य' अन्योन्यस्य अंतरं कटु' अन्तरं व्यवधानं कृत्वा जम्बूद्वीपे 'सरिया' सूर्यो दो सूर्यो 'चारं चरंति' चारं चरतः, उपसंहारमाह 'एग्गे एवमासु' एके एवमाहुः एके केचन एवं पूर्वोक्त प्रकारेण कथयन्ति । इति प्रथमा प्रतिपत्तिः १। अथ द्वितीयामाह'एगे पुण एवमाहंसु' एके पुनरेवमाहुः अर्थः पूर्वोक्तवद् भावनीयः, एवं सर्वत्रापिभावना कार्यो । 'ता' तावत् 'एगं जोयणसहस्सं' एक योजनसहस्त्रं तदुपरि 'एगं उत्तीसं जोयणसयं' एक चतुस्त्रिंशदयोजनशतं चतुस्त्रिंशदधिकं शतमेकं योजनानां (११३४) 'अण्णमण्णस्स अंतरं कटु' अन्योन्यस्यान्तरं कृत्वा 'सूरिया' सूर्यो 'चारं चरंति' चारं चरतः । पूर्वोक्तप्रकारेण एगे एवमासु एवं एक्माहुः इति द्वितीयां प्रतिपत्तिः । अथ तृतीयामाह-एगे पुण एवमाहंमु' एके पुनरेवमाहुः-'ता' तावत् 'एगं जोयणसहस्सं' एकं योजनसहस्त्रं 'एगं च पणतीसं जोयणसय' एकं च पञ्चत्रिंशद् योजनशतं पञ्चत्रिंशदधिकैकशतं (११३५) 'अण्णमण्णस्स अंतरं कटु' अन्योन्यस्यान्तरं कृत्वा 'सूरिया' द्वौ सूर्यो 'चारं चरंति' चारं चरतः । एगे एवमाहंसु' एके एवमाहुः । इति तृतीया प्रतिप्रत्तिः ३॥ अथ चतुर्थी माह 'ता' तावत् ‘एगे पुण एवमाइंसु' एकेपुनरेवममाहुः-एगं दीवं एगं समुई' एक द्वीपमेकं समुद्रं 'अण्णमण्णस्स अंतरं कट्ट' परस्परस्य अन्तरं कृत्वा 'मरिया' सूयौँ 'चारं चरंति' चारं चरतः 'एगे एवमाहंसु' एके एवमाहुः इति चतुर्थी प्रतिपत्तिः ४॥ अथ पञ्चमीमाह-'ता' तावत् 'एगे पुण एवमाइंस' एके पुनरेवमाहुः 'ता' तावत् 'दो दीवे' दो समुद्दे' द्वौ द्वीपौ द्वौ समुद्रौ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१-४ सू०८ द्वयोः सूययोंः परस्परमन्तरं भभ्यते ५३. 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य 'अंतर कटु' अन्तरं कृत्वा 'सूरिया' सूर्यो 'चारं चरंति' चारं चरतः । 'एगे एवमासु' एक-एवमाहुः । इति पञ्चमीप्रतिपत्तिः ५॥ अथ पष्ठीमाह-'एगे पुणएवमाईमु' एके पुनरेवमाहुः-एके केचन पष्ठाः पुनः परमतवादिन एवं वक्ष्यमाण प्रकारेण आहुः कथयन्ति-'ता' तावत् 'तिणि दीवे तिणि समुद्दे' त्रीन द्वीपान् त्रीन् समुद्रान् 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य 'अंतरं कटु' अन्तरं व्यवधानं कृत्वा 'मरिया' सूर्यो 'चारं चरंति' चारं चरतः । 'एगे एवमाहंसु' एके एवमाहुः षष्ठतमाः परमतवादिनः पूर्वोक्त प्रकारेण प्रति पादयन्ति । इति षष्ठी प्रतिपत्तिः ६॥ एते पूर्वोक्ता अन्यतैथिंका यथावस्थितवस्तुतत्त्वज्ञानाभावात् मिथ्यावादिनः सन्ति । अथ भगवान् पूर्वपूर्वतीर्थंकरान् आश्रित्यबहुदचनेन स्वमतं प्रकटयति-'वयंपुण' इत्यादि । 'वयं पुणवयं पुन: अधावधि अस्मत्पर्यन्त येऽनन्तस्तीर्थकरा पूर्व जाता. वर्तमाने च पूर्व वर्तमाने च पूर्वा महाविदेहक्षेत्रेसन्तिस्तानपेक्ष्य वयं सर्वे इतिभावः ‘एवं' एव वन्यमाणप्रकारेण 'वयामो वदामः कथयामः प्ररूपयामइत्यर्थः । तदेवदर्शयति-'ता' इत्यादि । 'ता' तावत् द्धावपिसूया सर्वाभ्यन्तरमण्डलान्निष्क्रामन्ती प्रतिमण्डलं 'पंच पंच जोयणाई पञ्च पञ्च योजनानि तदुपरि 'पणतीसं च एगाढिभागे जोयणम्स' पञ्चत्रिंशच्च एकपष्टिभागान् योजनस्य, एकस्य योजनस्य पञ्चत्रिंशसंख्यकान् भागान् ‘एगमेगेमडले' एकैकस्मिन् मण्डले प्रत्येकस्मिन् मण्डले 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य परस्पररय भारतः सूर्यः ऐरवतस्य, ऐरवत सूर्यो भारतस्य पूर्वपर्वमण्डलगतान्तरापेक्षयाऽग्रेड 'अंतरं अन्तरं अन्तरपरिमाणं 'अभिवुड्ढेमाणा वा' अभिवर्धयन्तौ वा, 'वा' अथवा निवुइढेमाण' निर्वर्धयन्ती हापयन्तौ सर्ववाह्यमण्डलादभ्यन्तरं प्रविशन्तौ प्रतिमण्डलं पूर्वोक्त प्रमाण न्यून कुर्वन्तौ 'सूरिया' द्वावपि सूयौ 'चारं चरंति' चारं चरतः परिभ्रमतः इत्युत्तरम् । कथमेतावाप्रमाणं प्रतिमण्डलमन्तरं लभ्यते ? इति चेदुच्यते-इह एकः सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतान् अष्टचत्वारिंशद् एकपष्टि भागान् योजनस्य तथा-अपरे च द्वे योजने स्पृष्ट्वा सर्वाभ्यन्तरादनन्तरं यदने तनं द्वितीयं मण्डल, तस्मिन् द्वितीये मण्डले चारं चरति, एवं द्वितीयोऽपि सूर्यः पूर्वोक्त प्रमाणमेव क्षेत्रं स्पृष्ट्वा सर्वाभ्यन्तरादनन्तरे द्वितीयेमण्डले चारं चरति, एवं द्वे योजने अष्टचत्वारिंशच एकपष्टिभागा योजनस्येति द्वयोः सूर्ययोः संमेलने जाताः पञ्चयोजनानि पश्चत्रिशच्च एक षष्टिभागा योजनस्य तथा चाङ्कस्थापना २-३८ । संमेलने जाता ४-८६ चतुरग्रेतना । षटशीति | २-४८) संख्याचैकषष्ट्या ६१ विभाज्यते तदालब्धमेकम् १ तच्च चतुः संख्यायां योजने जाताः पञ्च, शेषाः पञ्चत्रिंशत् तत आगतं पूर्वोक्त प्रमाण-पश्चयोजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकपष्टिभागाः ५-३५ ३५ ६१ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्र प्रज्ञप्तिसूत्रे योजनस्य एतावत्प्रमाणाद्वयोः सूर्ययोरन्तरे वृद्धिर्हानिर्वा अग्रेऽग्रे प्रत्येकस्मिन्नहोरात्रे भवतीति सर्वत्रभावनीयम् । एवं श्रुत्वा भगवान् गौतम पुनः पृच्छति - 'तत्थ णं' इत्यादि । 'तत्थ णं' तत्र तस्यां भवत्प्रदर्शितव्यवस्थायां खलु हे भदन्त ! 'को हे उ' को हेतुः किं कारणं, तदवगमेका उपपत्ति 'त्ति' इति 'वएज्जा' वदेत्, प्रसादं कृत्वा कथयतु हे भगवनिति । एवं गौतमेन पृष्टे भगवान् पूर्वोक्त विषयं स्पष्टयति- 'ता अयण्णं' इत्यादि । 'ता' तावत् प्रथमं जम्बूद्वीपपरिमाणं श्रूयताम् 'अयणं' अयं प्रत्यक्ष दृश्यमानः खलु 'जंबुदीवो दीवो' जम्बूद्वीपो द्वीपः मध्यजम्बूद्वीपः 'जान' यावत् - यावत्पदेन पूर्वप्रदर्शितं सर्वमपि जम्बूद्वीपपरिमाण प्रतिपादकं वाक्यमत्रापि भावनीयम् । 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण अयं पूर्वप्रदर्शितपरिमाणेन परिधिना 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः कथितः । 'ता' तावत् 'जयाणं' यदा खल्लु 'एते दुवे सूरिया' एतौ द्वौ सूर्ये 'सम्बन्धंतर मंडल' सर्वाम्यन्तरमण्डमं 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरंति' चारं चरतः 'तया णं' तदा खलु 'णवणउई जोयणसहस्साई' नवनवति योजनसहस्त्राणि नवनवति सहस्रसंख्यकानि योजनानि तदुपरि 'छच्च' षट् ' चत्ताले' चत्वारिंशत् 'जोयणसयाई' योजनशतानि चत्वारिंशदधिक षट् शतसंख्याकानि ( ९९६४० ) योजनानि 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य 'अंतरं कट्टु' अन्तरं कृत्वा 'सूरिया' सूर्यै 'चारं चरंति' चारं चरतः अतएव ' तया णं तदा खलु 'उत्तमकट्टपत्ते उत्तमकाष्ठा प्राप्तः परमप्रकर्पप्राप्तः 'उक्कोसए' उत्कर्षकः ततः परमुत्कर्षाभावात् 'अट्ठारसमुहुत्ते' अष्टादशमुहूर्त्तः षट् त्रिंशद् घटिकायुक्तः 'दिवसे भवई' दिवसो भवति 'जहणिया ' जधन्यिका सर्वलध्वी ततः परं लाघवाभावात् 'दुवालसमुहुत्ता' द्वादशमुहर्त्ता द्वादशमुहूर्त्तवती चतुर्विंशति घटिका युक्ता 'राई भव' रात्रिर्भवति । अत्राह - सर्वाभ्यन्तरे मण्डले द्वयोः सूर्ययोः परस्परं 'णवणउई जोयणसहस्साईं' इत्यादि कथितप्रमाणकमन्तरे कथमुपलभ्यते । इति चेदाह - इह जम्बूद्वीपो द्वीपः आयाम विष्कम्भाभ्यामेकलक्ष योजनप्रमाणः ( १००००० ) तत्रैकः सूर्यो जम्बूद्वीपस्य मध्ये अशीत्यधिकमेकं शतं योजनानि समवगाह्य सर्वाभ्यन्तरमण्डले 'चारं चरति ' एवं द्वितीयोऽपि अशीत्यधिकमेकं शतं योजनानां समवगाह्य चारं चरति अशीत्यधिकं शतमेकं द्वाभ्यां गुणितं द्वयोः सूर्ययोः संमिलितं जातं षष्ट्यधिकं शतत्रयम् (३६०) एतत् जम्बूद्वीपस्य लक्षयोजनप्रमाणादपनीयते तत आगतं पूर्वोक्तमन्तरपरिमाणं चत्वारिंशदधिक षट्शत्तोत्तरनवनवति सहस्रयोजनरूपम् (९९६४० ) । तथा च कोष्ठकम् - ५४ 7 जम्बूद्वीपप्रमाणम् - १००००० लक्षमेकम् एष अपनेय राशिः सूर्य दयावगाह्यक्षेत्रम् ३६० - षष्ट्यधिकं शतत्रयम् एष अपनयन सूर्ययान्तरक्षेत्रम् - ९९६४० - चत्वारिंशदधिक षट् शतोत्तरनवनवति सहस्त्रराशिः संख्यकम् एष अपनीत राशिः सूर्यः द्वयान्तरम् । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ चन्द्रप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १-४सू०८ द्वयोः सूयर्योः परस्परमन्तरं लभ्यते ५५ 'ता' तौ द्वौ निक्खममाणा' निष्क्रामन्तौ सर्वाभ्यन्तरमण्डलाद् वहिर्गच्छन्तौ 'मरिया' सूर्यो णवं संवच्छर' नव संवत्सरं सूर्यसंवत्सरं 'अयमाणा' अयन्तौ प्राप्नुवन्तौ तस्यैव नवसंवत्सरस्य 'पढमंसि अहोरत्तंसि' प्रथमेऽहोरात्रे 'अभितराणं तरं मंडलं' अभ्यन्तरानन्तरं अभ्यन्तरातनं मण्डलं 'उपसंकमित्ता चारं चरंति' उपसंक्रम्य चारं चरतः । 'ता' तावत् 'जयाणं' यदा खलु 'एते दुवे सूरिया' एतौ द्वौ सूर्यो 'अभितराणं तरं मंडलं' अभ्यन्तरानन्तरं मण्डलं 'उवसंकमित्ता चारं चरति' उपसंक्रम्य चारं चरतः 'तया णं' तदा खलु 'नवनवई जोयणसहस्साई' नवनवति योजनसहस्त्राणि तदुपरि 'छच्च पद 'पणताले' पञ्च चत्वारिंशत जोयणसयाई योजनशतानि पञ्च चत्वारिंशदधिकानि षट् शतानि (९९६४५) योजनानिमिति भावः पुनः 'पणतीस च' पत्रिशन 'एगहिगमागे' एकपष्टिभागान् 'जोयणस्स' योजनस्य, तथा चाहतः-९९६४५ ३५, एतावत्प्रमाणं अण्णमणस्स' अन्योन्यस्स परस्यरस्य एकतो द्वितीयस्य 'अंतरं' अन्तरं व्यवधानं 'कटुं कृत्वा चारं चरंति' चारं चरतः अतएव 'तया णं' तदा तस्मिन् काले खलु 'अद्वारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहत्तों दिवसो भवति किन्तु सः 'दोहि एगाद्विभागमुहुत्तेहि' द्वाभ्यामेकपष्टिभागमुहर्ताभ्यां 'ऊणे' ऊनः हीनो भवति, तथा 'दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति, सा च 'दोहि एगद्विभागमुहुत्तेहि द्वाभ्यामेकपष्टिभागमुहूर्ताभ्यां 'अहिया' अधिका भवति, यावत्प्रमाणेन दिवसो न्यूनो भवति तावत्प्र. माणेनैव रात्रे हिसद्भावात् । पुनरपि ते णिक्खममाणा सूरिया' तो निष्क्रामन्तो द्वितीयमण्डलान्निस्सरन्तौ सूया नवस्य सूर्य संवत्सरस्य 'दोच्चंसि अहोरत्तंसि' द्वितीये अहोरात्रे 'अन्भितरं' आभ्यन्तरं सर्वाभ्यन्तरं तच्चं मंडलं' तृतीयं मंडलं 'उवसंकमित्ता चारं चरंति'उपसंक्रम्य चारं चरतः 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'एते दुवे सरिया' एतौ दो सूर्यो 'अभितरं तच्च 'मंडलं' आभ्यन्तरं तृतीयं मण्डलं 'उवसंकमित्ता चारं चरंति' उपसंक्रम्य चारं चरतः 'तया णं तदा खलु 'नवनवई' नवनवति 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्त्राणि 'छच्च एकावण्णे जोयणसयाई' पद एक पश्चाशत् योजनशतानि एक पञ्चाशदधिकानि षट्शत्योजनानि 'नव य एगद्विभागे जोयणस्स' नव च एक पष्टिभागान् योजनस्य 'अण्णमण्णस्य अन्योन्यस्य 'अंतरं कटु चारं चरंति' अन्तरं कृत्वा चारं चरतः, अतएव 'तया णं' तदा तस्मिन् समये खलु 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवई' मष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, किन्तु सः 'चउहि एगद्विभागमुहुत्तेहि' चतुभिरेकषष्टिभागमुहूर्तेः 'ऊणे' ऊनः हीनो भवति, तथा 'दुवालसमुहुत्ताराईभवई' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिमवति, किन्तु सा 'चउर्हि एगहिभागमुहुत्तेहि' चतुर्भिरेकषष्टिभागमुहूर्तेः 'अहिया' अधिका भवति । द्वयोः सूर्ययोरेतावदन्तरं कया रीत्या समुपलभ्यते ! अत्रोच्यते Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे एतौ द्वौ सूर्यो यदा सर्वाभ्यन्तरमण्ले चारं चरतः तदा चत्वारिंशदधिकपदशतोत्तरनवनवतिसहस्त्रसंख्यक (९९६४०) योजनानि द्वयोः सूर्ययोः परस्परमन्तरं भवतीति प्रतिपादितम् । ततोऽग्रे निष्क्रमणसमये वृद्धःप्राप्तत्वात् प्रत्यहोरात्रं पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकपष्टिभागान् योजनस्य संवध्य सूया गतिं कुरुतः, इति पूर्व सिद्धान्तरूपेण प्ररूपितम् । तदनुसारेण सूर्यो यदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलादतनं मण्डलमुपसंक्रामतः, तदा तस्मिन् प्रथमेऽहोरात्रे पूर्व प्रदर्शितप्रमाणे(९९६४०) पञ्चत्रिंशदेक पष्टिभागोत्तरपञ्चयोजनानां (५-१) संमेलने निष्क्रामणावसरत्वादन्तरमध्येवृद्धिमाश्रित्य आगतं (९९४५ ३१) प्रथमाहोरात्रप्रमाणम् । एवं द्वितीयेऽहोरात्रे गताहोरात्र संख्यायां (९९६४५ ३१) पञ्चत्रिंशदेकपष्टिभागाधिकपञ्चयोजनानांसंमेलने आगतं (९९६५१ ।। द्वितीयाहोरात्रप्रमाणाम् । एवमग्रेऽपि संवर्धनक्रमः परिभावनीयः यावत् प्रथम पण्मासस्यान्ते सर्ववाह्यमण्डलचारसमये पष्टयधिकषट्शतोत्तरमेकं लक्ष योजनानां (१००६६०) द्वयोः सूर्ययोः परस्परमन्तरं लभ्यते तावत्पर्यन्तं योजनीयमिति । तदेव सक्षेपेण दर्शयति-'एवं खलु' इत्यादि । 'एवं' इति अनेनपूर्वोक्तेन 'उवाएणं' उपायेन विधिना तथा च एकतएकः सूर्यः प्रतिमण्डलं द्वे योजने अष्टचत्वारिंशच्च एकपष्टिभागान् (२४८) योजनस्यविकम्प्य (उपभुज्य) चारं चरति, अपरतो द्वितीयोऽपिसूर्यएवमेव भटचत्वारिंशदेकपष्टि भागयुतं योजनद्वयं (२- विकम्प्य चार चरति, एवं द्वयोमलने जातं ३५ पञ्चयोजनानि पञ्चविंशच्चैकषष्टिभागाः (५-1) परिमाणम्, एवं रूपेण निष्क्रामन्तौ तौ । द्वावपि जम्बूद्वीपगतौ सू? पूर्वपूर्वस्मात् तदनन्तरस्थितात् मण्डलात् तदनन्तर स्थितं मण्डलं संक्रामन्तौ एकैकस्मिन् मण्डले पूर्वपूर्वमण्डलगतान्तरपरिमाणापेक्षयापञ्च पञ्च योजनानि पञ्चैत्रिंश चैकषष्टि भागान् (५-३४) योजनस्यपरस्परमभिवर्धयन्तौ २ नवसूर्यसंवत्सरस्य व्यशीत्यधिकशत(१८३)तमेऽहोरात्रे प्रथम षण्मास पर्यवसानभूते सर्वबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरतः, तस्मिन् समये द्वयोः सूर्ययोरन्तरं षष्टयत्तर षट् शताधिक लक्षमेक (१००६६०) योजनानां प्राप्यते, इत्यो स्पष्टी भविष्यति । एतेन विधिना 'निक्खममाणा' निष्क्रामन्तौ 'एते दुवे सूरिया' एतौ दो सूयौँ 'तया णं तराओ' तदनन्तरात् यत्र सूयौ स्थितौ तस्मात् 'मंडलाओं मण्डलात् 'तयाणं तरं तदनन्तर तदने स्थितं 'मंडलं' मण्डलं 'संकममाणा, २ संक्रामन्तौ २ पंच Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १-४सू० ८ द्वयोः सूयर्योः परस्परमान्तर्यनिरूपणम् ५७ पंच जोयणाई' पञ्च पञ्च योजनानि 'पणतीसं च एगसहिभागे जोयणस्स' पञ्चत्रिंशच्च एकषष्टिभागान् (५-१६) योजनस्य 'एगमेगे मंडले' एकैकस्मिन् मण्डले 'अण्णमण्णस्स, अन्योन्यस्य परस्परस्य भारतः सूर्य ऐरवतस्य, ऐरवतश्च सूर्यो भारतस्य 'अंतरं' व्यवधानं 'अभिवुडढेमाणा २' अभिवर्धयन्तौ २'सव्ववाहिरं मंडलं' सर्ववाद्यं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरंति' चार चरतः 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'एते दुवे सूरिया' एतौ द्वौ सूर्यो 'सन्यवाहिरं मंडलं' सर्वबाह्य मण्डलम् 'उचसंकमित्ता चारं चरंति' उपसंक्रम्य चार चरतः 'तया ण" तदा खलु 'एग जोयणसहस्सं' एक योजनशतसहस्र लक्षमेकं योजनानां, तथा 'छच्च सहे जोयणसयाई पट् च पष्टिः पष्टयधिकानि योजनशतानि पष्टयधिकपट्शतोत्तरैकलक्षयोजनपरिमितम् (१००६६०) 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य 'अंतरं कट्टु' अन्तरं व्यवधानं कृत्वा 'चार चरंति' चारं चरतः । मतएव 'तया णं' तदा खल 'उत्तमकट्टपत्ता' उत्तमकाष्ठाप्राप्ता परमप्रकर्षप्राप्ता 'उक्कोसिया' उत्कर्पिका सर्वाधिकपरिमाणा ततः परमाधिक्याभावात 'अद्वारसमुहुत्ता' अष्टादशमुहूर्ता 'राई भवइ' रात्रिर्भवति, तथा 'जहण्णए' जघन्यकः सर्वलघु प्रमाणः ततः परं लाघवाभावात् 'दुवालसमुहुत्ते' द्वादशा मुहूर्तः 'दिवसे भवइ' दिवसो भवतीति । यदा द्वौ सूर्यो सर्वबाह्यमण्डले चारं चरतस्तदा तयोरन्तरं षष्टयधिकषट्शतोत्तरैकलक्षयोजन (१००६६०) परिमितं भवतीति यत् प्रतिपादितं तत् कथमुपलभ्यते ? इति तदेव प्रदर्शयामः-एतयोर्दयोः सूर्ययोर्मध्ये एकैकस्य सूर्यस्य प्रतिमण्डलं योजनद्वयमष्टचत्वारिंशच्च एकपष्टिभागाः-(२८) योजनस्य संचरणक्षेत्रं भवति, ततः एतत्क्षेत्रप्रमाणमेकस्य सूर्यस्य भवेत् तत् द्वयोः सूर्ययोः क्षेत्रपरिमाणय संमेल्यते तदा जातं पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशच्च एकषष्टिभागा योजनस्य (५-३५) इति पूर्व प्रदर्शितम् , तच्चात्र द्वयोः सूर्ययोनिष्क्रमणावसरत्वादभिवर्धमानं गृह्यते । सर्वाभ्यन्तरमण्डलाच्च सर्वबाह्य मण्डलं ज्यशीत्यधिकशततमं (१८३) वर्तते, ततः पूर्वप्रदर्शितं यदभिवर्धनक्षेत्रं पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशष्चैकषष्टिभागाः (५-३७एतद्रूपं तत् त्र्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यते । तत्र पञ्चानां योजनानां व्यशीत्यधिकशतेन गुणने समागतं गुणनफलं पञ्चदशोत्तरनवशत (९१५)संख्यकम् । ततः शेषा एकपष्टिभागसंख्या पञ्चत्रिंशत् (३५)इयमपि त्र्यशीत्यधिकशतेन गुण्यते प्राप्त गुणनफलं पञ्चोत्तर चतुःषष्टिशत (६४०५) संख्यकम् । एषः शशिरेकषष्टयाराधिकत्वादेकषष्टया भागो हियते लब्धं Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रप्तिसूत्रे पञ्चोत्तरमेकं शतम् (१०५)। एषा संख्या - पूर्वगुणिते योजनराशौ पश्चोत्तरनवशत ( ९१५) रूपे प्रक्षिप्यते तदा जातं विशत्यधिकदशशत (१०२०) संख्यकम् । एष राशिः सर्वाभ्यन्तरमण्डल - गतोक्तपरिमाणे चत्वारिंशदधिकषट्शतोत्तरनवनवतिसहस्रयोजनरूपे (९९६४०) प्रक्षिप्यते ततः समागतं यथोक्तं षष्ट्यधिकषट्शतोत्तरैकलक्ष (१००६६०) संख्यकं सर्वबाह्यमण्डले चारं चरतो - र्द्वयोः सूर्ययोरन्तरपरिमाणमिति । उपसंहरन्नाह - 'एस णं पढमे छम्मासे' एतत् खलु प्रथ षण्मासम् । 'एस णं' एतत् खलु 'पढमस्स छम्मासस्त' प्रथमस्य षण्मासस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानम् - अन्तिममहोरात्रमिति” ॥ सूत्रम् ८॥ " उक्तं चतुर्थप्रामृतप्राभृतस्य सूर्यान्तरविषयं प्रथमं षण्मासम् अथ तस्यैव तदेव द्वितीयं षण्मासं प्रस्तौति- 'ते पविसमाणा' इत्यादि । ५८ www. मूलम् - ते पविसमाणा सूरिया दोच्चं छम्मासं अयमाणा पढमंसि अहोरत्तंसि वाहिराणंतरं मडलं उचसंकमित्ता चारं चरंति । ता जया णं एते दुवे सूरिया बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति तया णं एवं जोयणसयसहस्सं छच्चउप्पण्णे जोयणसयाई छत्तीसच एगसद्विभागे जोयणस्स अण्णमण्णस्स अंतरं कट्टु चारं चरंति तया अहारसमुत्ता राई भवई दोहिं एगसविभागमुहुत्तेर्हि ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एसट्टिभागमुत्तेर्हि अहिए । ते पविसमाणा सूरिया दोच्चंसि अहोरत्तंसि वाहिरं तच्चं मंडल उवसंक्रमित्ता चारं चरंति । ता जया णं एते दुवे सूरिया वाहिरं तच्चं मंडल उपसंकमित्ता चारं चरंति तया णं एगं जोयणसयसहस्सं छच्च अडयाले जोयणसाई वाण च एगसद्विभागे जोयणस्स अण्णमण्णस्स अंतरं कट्टु चारं चरंति तयाणं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ चउहिँ एगसद्विभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ उहि एसट्टिभागमुहुत्तेहिं अहिए । एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणा एते दुवै सूरिया तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणा २ पंच पंच- जोयणाई पणती से एगसद्विभागे जोयणस्स एगमेगे मंडळे अण्णमण्णस्स अंतरं निव्बुड्ढेमाणा २ सव्वव्यंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति ता जया णं एते दुवे सूरिया सन्चव्यंतरं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरंति तया णं णवणउई जोयणसहस्साईं छच्च चचाले जोयणसयाई अण्णमण्णस्स अंतरं कट्टु चारं चरंति, तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । एस णं दोच्चे छम्मासे । एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे । एस णं आइच्चे संचच्छरे । एस णं आईच्चसंवच्छरस्स पज्जवसाणे ॥ सूत्रम् ९॥ पढमस्स पाहुडस्स चउत्थं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥१-४॥ • Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०-१-४ सू०९ द्वितीयपण्मासे द्वयोः सूर्ययोरान्तर्यम् ५९ छाया-तौ प्रविशन्तौ सूर्यों द्वितीयं पण्मासम् अयन्तौ प्रथमे अहोरात्रे वाहानन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरतः । तावत् यदा खलु पतौ द्वौ सूर्यो याह्यानन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरतः तदा खलु एकं योजनशतसहस्रं षट् च चतुष्पञ्चाशद् योजनशतानि पत्रिंशच्च एकपष्टिभागान् योजनस्य अन्योन्यस्य अन्तरं कृत्वा चारं चरतः तदा खलु अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति द्वाभ्यामेकपष्टिभागमुहर्ताभ्याम् ऊना, द्वादशमुहत्तॊ दिवसो भवति द्वाभ्यामेकपष्टिभागमुहर्ताभ्याम् अधिकः । तौ प्रविशन्तौ सूर्यो द्वितीये अहोरात्रे वाहां तृतीयं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरतः । तावत् यदा खलु पती दो सूर्यो वाह्य तृतीयं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरतः तदा सलु एकं योजनशतसहस्त्र पटू व अष्टचत्वारिंशद् योजनशतानि द्विपञ्चाशच्च एकपष्टिभागान योजनस्य अन्योन्यस्य अन्तरं कृत्वा चारं चरतः तदा खलु अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति चतुर्भिरेकपष्टिभागमुहूर्तः जना, द्वादशमुहत्तों दिवसो भवति चतुर्भिरेकपष्टिभागमुहर्तरधिकः । एवं खलु एतेन उपायेन प्रविशन्तो एतौ द्वौ सूर्यो तदनन्तरात् मण्डलात् तदनन्तरं मण्डलं संक्रा. मन्तौ २ पञ्च पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशद् एकपष्टिभागान् योजनस्य एकै कस्मिन् मण्डले अन्योन्यस्य अन्तरं निवर्धयन्तौ निर्वर्धयन्तौ सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरतः तावत् यदा खलु पतौ द्वौ सूर्यो सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरतः तदा खलु नवनवति योजनसहस्राणि पट् च चत्वारिंशद् योजनशतानि अन्योन्यस्य अन्तरं कृत्वा चारं चरतः तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्पकः अष्टादशमुहत्तॊ दिवसो भवति, जयन्यिका द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति । एतत् खलु द्वितीयं पण्मासम् । एतत् खलु द्वितीयस्य पण्मासस्य पर्यवसानम् । एप खलु आदित्यः संवत्सरः । एतत् खलु आदित्यसंवत्सरस्थ पर्यवसानम् ॥सू० ९॥ प्रथमस्य प्राभृतस्य चतुर्थ प्राभृतमाभृतं समाप्तम् ॥१-४॥ व्याख्या-'ते' तो तावेव भारतैरवतसम्बधिनी 'पविसमाणा' प्रविशन्तौ सर्वबाह्याद् मण्डलात् सर्वाभ्यन्तरमण्डलाभिमुखं गच्छन्तो 'सूरिया' सूर्यो 'दोच्च छम्मासं' द्वितीयं षण्मासम् 'अयमाणा' अयन्तौ प्राप्नुवन्तौ तस्यैव 'पढमंसि अहोरत्तंसि' प्रथमेऽहोरात्रे 'वाहिराणतरं' बाह्यानन्तरं सर्वबाह्यमण्डलादभ्यन्तराभिमुखं द्वितीयं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरंति' चारं चरतः । 'ता' तावत् 'जया ण' यदा खलु ‘एते दुवे सूरिया' एतौ द्वौ सूर्यो 'वाहिराणंतरं मंडलं' बाह्यानन्तरं वाह्यभागतोऽन्तःस्थितं द्वितीयं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरंति' उपसंक्रम्य चारं चरतः 'तया गं' तदा खलु 'एग जोयणसयसहस्सं' एक योजनशतसहस्र 'छच्च चउपण्णे जोयणसयाई' पट्चतुष्पञ्चाशयोजनशतानि चतुष्पश्चाशधिकपटशतोत्तरमेकं लक्षम् 'छव्वीसं च एगसट्ठिभागे जोयणस्स' पविशतिं चैकपष्टिभागान् योजनस्य (१००६५४ अत्र सूर्ययोरभ्यन्तरप्रवेशकाले प्रथमषण्मासप्रदर्शितविधिना पष्टयधिकपट्शतोत्तरैकलक्षरूपात् (१००६६०) सर्वबाह्यमण्डलस्थित Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे ६० Aama सूर्यान्तरपरिमाणात् पश्चत्रिंशदेकषष्टिभागयुक्तयोजनपञ्चक (५-३१) प्रमाणस्य प्रतिमण्डलं हानेरवसरत्वात् हानिकरणादेतावत्प्रमाणम् 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य 'अंतरं कटु' अन्तरं कृत्वा चारं चरंति' चारं चरतः 'तया गं' तदा खल 'अद्वारसमुहुत्ता राई भवई' मष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति किन्तु सा 'दोहि एगसद्विभागमुहुत्तेहि' द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्त्ताभ्यां 'ऊणा' ऊना होना भवति । 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ' द्वादशमुहूत्तों दिवसो भवति किन्तु सः 'दोहिं एगसहिभागमुहुत्तेहिं द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्ताभ्याम् 'अहिए' अधिको भवति, अहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तप्रमाणत्वेन रात्रेर्यावत्प्रमाणमूनत्वं भवेत् तावत्प्रमाणेनैव दिवसाधिकत्वस्यावश्यम्भावात् 'ते' तौ द्वौ 'पविसमाणा' प्रविशन्तौ सर्वाभ्यन्तरमण्डलाभिमुखं गच्छन्तौ 'परिया' सूर्यो 'दोच्चंसि अहोरत्तसि' द्वितीयेऽहोरात्रे 'वाहिर' बाह्य सर्वबाह्यभागाप्राप्तम् 'तच्चं मंडलं' तृतीयं मण्डलं 'उबसंकमित्ता चारं चरंति' उपसंक्रम्य चारं चरतः । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'एते दुवे सरिया' एतौ द्वौ सूर्यो 'वाहिरं बाह्यं तच्चं मंडलं' तृतीय मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरंति' उपसंक्रम्य चारं चरतः 'तया णं' तदा खलु 'एग जोयणसयसहस्स' एकं योजनशतसहस्र 'छच्च अडयाले जोयणसयाई' षड् अष्टचत्वारिशयोजनशतानि मष्टचत्वारिंशदधिकषट्शतोत्तरमेकं लक्षं (१००६४८) तथा 'वाव णं च एगसहिभागे जोयणस्स द्विपञ्चाशच्च एकपष्टिभागान् योजनस्य (१००४८ १.अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य 'अंतरं कटु' अन्तरं कृत्वा 'चार चरंति' चारं चरतः 'तया गं' तदा खलु 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई' अष्टदशमुहूर्ता रानिर्भवति किन्तु सा 'चउहि एगसद्विभागमुहत्तेहि' चतुभिरेकषष्टिभागमुहूर्तेः 'ऊणा' ऊना होना भवति' तथा 'दुवालसमुहत्ते दिवसे भवई' द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति किन्तु सः 'चउहि एगसहिभागमुहुत्तेहि चतुमिरेकषष्टिमागमुहूर्तेः 'अहिए' अधिको भवति । 'एवं' अनेन प्रकारेण 'खलु' निश्चितम् 'एएण' एतेन पूर्वमनुपदर्शितेन प्रतिमण्डलं पञ्चयोजनपञ्चत्रिंशदेकपष्टिभाग (५-२५ हायनरूपेण 'उवाएणं' उपायेन विधिना 'पविसमाणा' प्रविशन्तौ सर्वाभ्यन्तरमण्डलं प्रति गच्छन्तौ 'एए दुवे सूरिया' एतौ द्वौ सूर्यो 'तयाणंतराओ मंडलाओ' तदनन्तरान्मण्डलात् स्वस्थानरूपात् 'तयाणतरं मडलं' तदनन्तरं तदप्रेऽनुपदं वर्तमानं मण्डलं 'संकममाणा २' संक्रामन्तौ २ 'पंच पंच जोयणाई' पञ्च पश्च योजनानि 'पणतीसे एगसहिभागे जोयणस्स' पश्चत्रिशदेकपष्टिभागान् योजनस्य 'एगमेगे मंडले' एकैकस्मिन् मण्डले 'अण्णमण्णस्स' Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१-४ सू०९ द्वितीयपण्मासे द्वयोः सूयोरान्तर्यम् ६१ अन्योन्यस्य 'अंतरं' अन्तरं व्यवधानं 'निव्वुड्ढेमाणा २' निर्वर्धयन्तौ २' हापयन्तौ २ 'सबभतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् 'उपसंकमित्ता चारं चरंति' उपसंक्रम्य चारं चरतः मण्डलान्मण्डलं गच्छत इति भावः । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'एए दुवे सूरिया' एतौ द्वौ सूर्यो ‘एवंरीत्या' संचरन्तौ 'सव्वभंतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् 'उपसंकमित्ता चारं चरंति' उपसंक्रम्य चारं चरतः 'तया णं' तदा खलु 'नवनवई जोयणसहस्साई नवनवतियोजनसहस्राणि छच्च' षट् 'चत्ताले' चत्वारिंशत् 'जोयणसयाई' योजनशतानि चत्वारिंशदधिकानि षट् शतानि योजनानां च (९९६४०) 'अण्णमण्णस्स' अन्योन्यस्य 'अंतरं कट्ट' अन्तरं व्यवधानं कृत्वा 'चारं चरंति' चारं चरतः 'वया गं' तदा तस्मित् काले खलु 'उत्तमकट्टपत्ते उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परम प्रकपसंपन्नः 'उक्कोसए' उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्टः ततः परमाधिक्याभावात् 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमहत्तों दिवसो भवति, तथा 'जहणिया' जघन्यिका सर्वलम्वी ततः परं हीनत्वाभावात् 'दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति । अयं भावः द्वयोः सूर्ययोः सर्वाभ्यन्तरमण्डलस्थितौ चत्वारिंशदधिकपद शतोत्तरैनवनवतिसहस्रं योजन (९९६४०) संख्यकसर्वजघन्यमन्तरं भवति तथा सर्ववाह्यमण्डलस्थितौ पट्यधिकपट्शतोत्तरैकलक्षयोजन (१०.६६०) संख्यकं सर्वोत्कृष्टमन्तरं भवति। अत्र सर्वाभ्यन्तरमण्डलतः मर्ववाह्यमण्डलामनार्थ निष्क्रमणकाले द्वयोः सूर्ययोरन्तरस्य वृद्धिः, सर्वबाह्यमण्डलतः सर्वाभ्यन्तरमण्डलगमनाथ प्रवेशकाले च हानिर्भवतीति । उपसंहरन्नाह-एस गं' इत्यादि । 'एस णं' एतत् पूर्वोक्तं खल 'दोच्चे छम्मासे' द्वितीयं षण्मासम् । 'एस णं' एतत् खलु 'दोच्चस्स छम्मासस्स' द्वितीयस्य षण्मासस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानम् अन्तिममहोरात्रम् 'एस णं' एष खलु 'आइच्चे संवच्छरे' आदित्यः संवत्सरः पण्मासद्वयरूपो वर्त्तते । 'एस णं' एतत् खलु 'आइच्च संवच्छरस्स' आदित्यसंवत्सरस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानम्-अन्तभागः ॥सू० ९॥ प्रथमस्य मूलप्राभृतस्य चतुर्थ प्राभृतमाभृतं समाप्तम् ॥१-४ ___ गतं प्रथमस्य मूलप्राभृतस्य चतुर्थ प्रामृतप्राभृतम् । अथ तद्वत पञ्चमं प्रारभ्यते, अस्य 'चायमभिसम्बन्धः पूर्वम् 'ओगाहइ केवइयं' कियन्तं द्वीपं समुद्रं वा सूर्योऽवगाहत इति यत् संग्रहगाथायां प्रोक्तं तदेवात्र प्रदर्शयिष्यते, इति सम्बन्धेनायातस्यास्य पञ्चमप्राभृतप्राभृतस्येदमादिमं सूत्रम् ‘ता केवइयं ' इत्यादि । ___ मूलम्-ता केवइयं ते दीवं वा समुई वा ओगाहित्ता सूरिए चार चरइ आहितेति वदेज्जा ? तत्थ खलु इमाओ पंच पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-तत्थेगे एवमासु वा एगं जोयणसहस्सं एगं च तेत्तीस जोयणसयं दीवं वा समुई वा ओगाहिता सरिए Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ चन्द्रप्रशतिसूत्रे चारं चरइ, एगे एवमाहंसु १। एगे पुण एवमाहंसु - ता एगं जोयणसहस्सं एग चउत्तीसं जोयणसयं दीवं वा समुदं वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरह, एगे एवमाहंसु २ । एगे पुण मासु-ता एवं जोयणसहरसं एगं च पणतीसं जोयणसयं दीवं वा समुदं वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरह, एगे एवमाहंसु ३ । एगे पुण एवमाहंस-ता अव दीवं वा समुदं वा ओगाहित्ता सूरिए चार चरs, एगे एवमाह ४। एगे पुण एवमाहंसु - ता नो किंचिदी वा समुचा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरइ एगे एवमाहं ५ | तत्थ जे ते एवमाहंसु ता एगं जोयणसहस्सं एगं तेत्तीसं जोयणसयं दीवं वा समुद्द वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरइ ते एवमाहंसु - जया णं सुरिए सव्चव्यंतरं मंडलं उचसंकमित्ता चारं चरइ तया णं जंबुद्दीवं दीवं एगं जोयणसहस्सं एगं तेत्तीसं जोयणसयं ओगाहित्ता सूरिए चारं चरड़ तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । ता जया णं सरिए सव्ववाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चर तया गं लवणसमुद्द एगं जोयणसहस्सं एगं च तेत्तीसं जोयणसयं ओगाहित्ता चारं चरई तया णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवर जहणए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ १ । एवं चोत्तीसं जोयणसयं २ | पणतीसे वि एवं चैव भाणियच्चं ३ | तत्थ णं जे ते एवमाहंसु - ता अवढं दीवं वा समुदं वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरइ ते एवमाहंसु - जया णं सूरिए सच्च अंतरं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं अवइढं जंबुद्दीवं दीवं ओगाहित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्टारसमुहुत्ते दिवसे भव, जहणिया दुबालसमुहुत्ता राई भवइ, एवं सव्ववाहिरे वि, णवरं अवढं लवणसमुद्द तया णं राई दियं तत्र ४ । तत्थण जे ते एवमाहंसु-ता णो किंचि दीवं वा समुद्दे वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरह, ते एवमाहंसु - ता जया णं सरिए सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं णो किंचि जंबुद्दीव दीवं ओगाहित्ता सूरिए चारं चरइ तथा णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अहारसमुत्ते दिवसे भवइ, तदेव एवं सच्चवाहिरए मंडले, णवरं णो किंचि लवणसमुद्दे ओगाहित्ता चारं चरs, राई दियं तहेव. एगे एवमाहंसु ||५|| वयं पुण एवं वयामो ता जया णं सूरिए सव्वन्तरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरड़ तथा णं जंबूद्दीवं दीवं असीई जोयणसयं ओगाहित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुत्ता राई भवइ । 'ता जया णं सूरिए सव्ववाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरड़, तया णं लवणसमुद्द Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका मा०१-५ सू०१० सूर्यस्य द्वीपसमुद्रावगाह निरूपणम् ६३ तिणि तीसंजोयणसयाई मोगाहित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ ॥ सूत्र ॥ १० ___ "पढमस्स पाहुडस्स पंचमं पाहुडं समत्तं" १-५॥ छाया तावत् कियत्कं ते द्वीपं वा समुद्रं वा अवगाहा सूर्यः चारं चरति आख्यातमिति वदेत् ? । नत्र खलु इमा. पञ्च प्रतिपत्तय. प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एके एवमाहुः तावत् एक योजनसहस्रम् पकं च त्रयस्त्रिशद् योजनशतं दीपं वा समुद्रं वा अवगाह सूर्यः चारं चरति, पके पवमाहुः१। एके पुनरेवमाहुः-तावत् एकं योजनसहस्रम् एकं चतुस्त्रिंशद् योजनशतं द्वीपं वा समुद्र वा अवगाहा सूर्यः चारं चरति एके पवमाहुः २। एके पुनरेवमाहुः तावत् एकं योजनसहनम्, एकं च पञ्चत्रिंशद योजनशतं द्वीपं वा समुद्र वा अवगाहा सूर्यः चारं चरति, एके पवमाहुः ३॥ एके पुनरेवमाहुः तावत् अपार्द्ध द्वीपं वा समुद्र घा अवगाह सूर्य चारं चरति, पके एवमाहुः-४। एके पुनरेवमाहुः-तावत् नो कञ्चित् द्वीपं वा समुद्र घा अवगाह्य सूर्यः चारं चरति, पके एवमाहुः ५। तत्र ये ते पवमाहुः तावत् पक योजनसहनम्, पकं त्रयस्त्रिंशद्योजनशतं द्वीपं वा समुद्र वा अवगाह्य सूर्यः चारं चरति, ते एवमाहुः-यदा खल्लु-सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु जम्बूद्वीपं दीपम् एकं योजनसहस्रम्, एकं च प्रयस्त्रिंशद् योजनशतम् अवगाहा सूर्यः चारं चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्पकः अष्टादशमुहृत्तौ दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहर्ता राधिर्भवति । तावत्-यदा खलु सूर्यः सर्ववाद्यं मण्डम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु लवणसमुद्रम् एकं योजनसहस्रम् एकं च त्रयस्त्रिंशद योजनशतम् अवगाह्य चारं चरति तदा स्खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्कर्षिका अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति, जघन्यकः द्वादशमुहतॊ दिवसो भवति । एवं चतुस्त्रिंशद् योजनशतम् २। पञ्चत्रिंशत्यपि एवमेव भणितव्यम् । तत्र स्खलु ये ते एवमाहु.-तावतू अपार्छ द्वीपं वा समुद्र वा अवगाह्य सूर्यः चारं चरति, ते एवमाहुः-यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु अपार्द्ध जम्बूद्वीपं द्वीपम् अवगाह्य चारं चरति तदा स्खल उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्पकः अष्टादशमुहत्तॊ दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादश मुहर्ता रात्रिर्भवति । एवं सर्ववाद्येऽपि; नवरं अपार्द्ध लवणसमुद्रं । तदा खलु रात्रिन्दिवं तथैव ४। तत्र खलु ये ते एवमाहुः तावत् नो किञ्चित् द्वीपं वा समुद्र वा अवगाह्य सूर्यः चारं चरति, ते एवमाहुः-तावत् यदा खलु सूर्य. सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा स्खलु नो कञ्चित् जम्बूद्वीपम् द्वीपम् अवगाह्य सूर्यः चार चरति तदा खलु उत्तमकाण्ठाप्राप्तः उत्कर्षक अष्टादशमुहत्तों दिवसो भवति, तथैव । एवं सर्ववाहो मण्डले, नवरं नो कञ्चित् लवणसमुद्रम् अवगाह चारं चरति । रात्रिन्दिवं तथैव एके एवमाहुः ५। वयं पुनरेवं वदामः तावत् यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य पारं चरति तदा खलु जम्बूद्वीपं द्वीपम् अशीतिः योजनशतं अवगाह्य चारं चरति, तदा खलु Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षक: अष्टादशमुहत्ततॊ दिवसो भवति, जयन्यिका द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति । तावत् यदा खल सूर्यः सर्ववाह्य मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खल लवणसमुद्र त्रीणि त्रिंशद्योजनशतानि अचगाह्य चार चरति तदा खल उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्कर्पिका अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति, जघन्यकः द्वादशमुहूर्ती दिवसो भवति ॥सूत्र १०॥ प्रथमस्य प्राभृतस्य पञ्चमं प्राभृतमाभृतं समाप्तम् ॥१-५।। व्याख्या-'ता' तावत् 'केवइयं' कियत्कं कियत्प्रमाणं 'ते' तव मते दीयं वा समुई वा' द्वीपं वा समुद्र वा 'ओगाहित्ता' अवगाह्य उल्लङ्घय 'सूरिए' सूर्यः 'चारं चरइ'-चारं चरति एतद्विषये 'आहितेति' किम् आख्यातम् ? इति 'पएज्जा' वदेत् वदतु हे भगवन् ! इति गौतमस्य प्रश्नानन्तरमेतद्विषये भगवान् प्रथमं परमतरूपाः पञ्च प्रतिपत्तीः सामान्यत उपदर्शयतिहे गौतम ! 'तत्थ तत्र सूर्यस्य द्वीपसमुद्रावगाहविषये खलु 'इमाओ' इमाः अनुपदं वक्ष्यमाणाः 'पंच' पश्च पश्च संख्यकाः 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः परतीर्थिकमान्यतारूपाः 'पण्णताओ' प्रज्ञप्ताः कथिताः । ताः काः १ इत्याह-'तं जहा' तद्यथा ता यथा-'एगे एके केचन पश्चसु प्रथमाः परतीर्थिकाः 'एवमाइंसु' एवमाहुः एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः कथयन्ति-'ता' तावत् प्रथमम् अन्यबहुवक्तव्यतासु प्रथम श्रूयताम्-'एगं जोयणसहस्सं' एक योजनसहस्रम् एकसहस्रयोजनानि 'एगं च तेत्तीसं जोयणसयं एक च त्रयस्त्रिंशत् योजनशतम् एकं शतं योजनानां तदुपरि त्रयस्त्रिंशच्च योजनानि त्रयस्त्रिंशदधिकैकशतोत्तरैकसहस्रं (११३३) योजनानीत्यर्थः, एतावत्प्रमाणं 'दीवं वा समुदं चा' द्वीपं वा समुद्रं वा 'ओगाहित्ता' अवगाह्य 'रिए' सूर्यः 'चारं चरई' चारं चरति, उपसंहरन्नाह-'एगे' एके केचन प्रथमाः परतीर्थिकाः 'एवं' एवं-पूर्वोक्तप्रकारेण 'आइंसु' आहुः कथयन्तीति प्रथमा प्रतिपत्तिः १। अथ द्वितीयामाह-'एगे पुण' एके केचन प्रथमतोऽन्ये द्वितीयाः पुनः 'एवमासु' एवमाहुः वक्ष्यमाणप्रकारेण कथयन्ति-'ता' तावत् 'एगं जोयणसहस्सं 'एगं चउतीसं जोयणसयं एक योजनसहनमेकं चतुस्त्रिंशत् योजनशतं चतुस्त्रिंशदधिकैकशतोत्तरैकसहस्रं (११३४) योजानानि 'दीवं वा समुदं वा' द्वीपं वा समुद्रं वा 'ओगाहित्ता' अवगाह्य 'मूरिए' सूर्यः 'चारं चरई' चारं चरति, उपसंहारमाह-'एगे एवमासु' एके पूर्वोक्ता द्वितीयाः एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः । इति द्वितीया प्रतिपत्तिः २। अथ तृतीयामाह-'एगे' एके केचन पूर्वोक्कद्वयादन्ये तृतीया परतीर्थिकाः 'एवमाहंमु' एवमाहुः वक्ष्यमाणप्रकारेण कथयन्ति-'ता' तावत् 'एगं जोयणसहस्सं एगं च पणतीसं जोयणसयं' एकं योजनसहस्रम् एकं च पश्चत्रिंशद् योजनशतम्-पश्चत्रिंशदधिकशतोत्तरकसहनं (११३५) योजनानि 'दीवं वा समुई वा द्वीपं वा समुद्रं वा 'ओगा Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतिप्रकाशिका टीका प्रा० १-५ सू० १० सूर्यस्य द्वीपसमुद्रावगाहनिरूपणम् ६५ हित्ता' अवगाह्य 'सूरिए' सूर्यः चारं चरइ' चारं चरति 'एगे एवमाहंसु' एके एवं पूर्वोकप्रकारेण आहुः । इति तृतीया प्रतिपत्तिः ३ । अथ चतुर्थीमाह - 'एगे' एके केचन पूर्वोक्त त्रयादन्ये चतुर्थाः परतीर्थिकाः ' एवं ' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति - 'ता' तावत् 'अवढ' अपार्द्धम् - अपगतम् अर्द्ध यस्मात् तदपार्द्ध शेषीभूत मर्द्धम् - अर्द्ध मात्रमित्यर्थः 'दीवं वा समुहं वा' द्वीपं वा समुद्रं वा 'ओगाहित्ता' अवगाह्य 'सूरिए' सूर्यः 'चारं चरई' चारं चरति । 'एगे एवमाहंसु' एके एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः । इति चतुर्थी प्रतिपत्तिः ४ । मथ पञ्चमीमाह - 'एगे' एके केचन पूर्वोक्त चतुष्टयादन्ये पञ्चमाः परतीर्थिकाः एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंस' आहु:- कथयन्ति - 'वा' तावत् 'नो' नैव 'किंचि' किञ्चित् किञ्चित्प्रमाणमपि 'दीवं वा समुद्दे वा' द्वीपं वा समुद्रं वा 'भोगाहिसा ' अवगाह्य 'सूरिए' सूर्यः 'चारं चरई' चारं चरति, 'एगे एवमाहंस' एके एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः कथयन्ति । इति पञ्चमा प्रतिपत्तिः ॥५॥ - , एताः पूर्वप्रदर्शिताः पञ्चसंख्यकाः परमतरूपाः प्रतिपत्तय एतद्विषये सन्ति ताः संक्षेपेण प्रदर्शिताः अथ ता एव परतीर्थिक मान्यतारूपाः पञ्च प्रतिपत्तीः एकैकशः स्पष्टीकरोति'तत्थ जे ते' इत्यादि । 'तत्थ' तत्र तासु पञ्चसु प्रतिप्रत्तिपु 'जे ते' ये ते पूर्वोकाः प्रथमाः परतीर्थिकाः 'एवमाहंसु' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः - 'ता' तावत् 'एगं जोयणसहस्सं एगं तेत्तीस जोयणसयं' एकं योजनसहस्रम् एकं त्रयस्त्रिंशदयोजनशतम् - प्रयत्रिंशदधिकैकशतोत्तरैकसहस्रं (११३६) योजनानि 'दीवं वा समुद्दे वा' द्वीपं वा समुद्रं वा 'ओगाहित्ता' अवगाह्य 'सूरिए' सूर्यः 'चारं चरई' चारं चरति ये एवं कथयन्ति 'ते' ते प्रथमाः ' एवं ' एवम् अनेन वक्ष्यमाणेन आशयेन 'आहंस' आहुः कथयन्ति, तदाशयं प्रदर्शयति'जया'णं' इत्यादि 'जया णं' यदा खल 'सूरिए' सूर्यः 'सव्वभंतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'जंबुद्दीवं दीवं' जम्बूद्वीपं द्वीपं मध्यजम्बूद्दीप' ' एगं' इत्यादि - त्रयस्त्रिंशदधिकैकशतो न्तरैक सहस्रयोजनप्रमाणं (१९३३) 'ओगाहित्ता सूरिए चारं चरई' अवगाह्य सूर्यः चारं चरति अतएव ' तया णं' तदा खल 'उत्तमकट्टपत्ते' उत्तमकाष्ठा प्राप्तः 'उक्कोसए' उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्टः 'अट्ठारसमुहुसे दिवसे भवई' अष्टादशमुत्त दिवसो भवति, तथा 'जहणिया' जघन्यिका सर्वलध्वी 'दुवालसमुडुत्ता राई भवर' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति । अथ 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल 'रिए' सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलान्निष्क्रामन् अग्रेऽग्रे गच्छन् 'सव्वबाहिर मंडल' सर्वबा - Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A. चन्द्रप्रज्ञप्तिस्त्रे wwwmommmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm ह्यम् अन्तिमं व्यशीत्यधिकशततमं मण्डलम् ‘उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं तदा खलु ‘लवणसमुई' लवणसमुद्रम् ‘एगं' इत्यादि-त्रयस्त्रिंशदधिकशतोत्तरक सहनं (११३३) योजनपरिमितं 'ओगाहित्ता' अवगाह्य 'चारं चरई' चारं चरति 'तया गं तदा खल 'उत्तमकहपत्ता' उत्तमकाष्ठाप्राप्ता परमप्रकर्षप्राप्ता 'उक्कोसिया' उत्कर्षिका सवोंस्कृष्टा 'अद्वारसमुहुत्ता राई भवई' अष्टादशमुहूर्ता रात्रिभवति, तथा 'जहण्णए' जघन्यकः सर्वलघुः 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति । इति प्रथमप्रतिपत्तिस्पष्टीकरणम् ॥१॥ - अथ द्वितीयप्रतिपत्तिस्पष्टीकरणमतिदेशेनाह-एवं' इत्यादि ‘एवं चोत्तीसं जोयणसयं' एवं चतुर्विद् योजनशतं चतुस्त्रिंशदधिकमेकं शतम् । एवम् प्रथमप्रतिपत्तिस्पष्टीकरणवदेव द्वितीयप्रतिपत्तिस्पष्टीकरणं सर्वं पठनीयं, विशेषस्त्वयम् तत्र-प्रथमप्रतिपत्ती त्रयस्त्रिशदधिकशतोत्तरैकसहस्रयोजनपरिमितं जम्बूद्वीपं सर्वाभ्यतरमण्डलोपर्सक्रमणसमये, एतावदेव सर्ववाह्यमण्डलोपसंक्रमणसमये लवणसमुद्रमवगाह्य सूर्पस्य चारं चरणमुक्तम् , अत्र द्वितीयप्रतिपत्तौ तु चतुनिशदधिकैकशतोत्तरैकसहस्रयोजनपरिमितं (११३४) जम्बूद्वीपं लवणसमुद्रं चावगाह्य सूर्यस्य चार चरणं परिभावनीयम् । इति द्वितीयप्रतिपत्तिस्पष्टीकरणम् २, अथ तृतीयप्रतिपत्तिस्पष्टीकरणमप्यतिदेशेनाह-'पणत्तीसे वि' इत्यादि । 'पणतीसे वि' पश्चत्रिंशत्यपि-पञ्चत्रिंशंदधिकशतोत्तरैकसहस्रयोजनपरिमितजम्बूद्वीपलवणसमुद्रावगाहनविषयेऽपि सर्व सूत्रम् ‘एवं चेव एवमेव प्रथमप्रतिपत्तिस्पष्टीकरणसूत्रवदेव 'भाणियचं' भणितव्यं कथितव्यम् । द्वयोरपि सूत्रालापक: स्वयमूहनीयः स्पष्टत्वान्नोल्लिखितः । इति तृतीयप्रतिपत्तिस्पष्टीकरणम् ३, अथ चतुर्थी प्रतिपत्तिस्पष्टीकरणमाह-'तत्थ जे ते' इत्यादि । 'तत्थ' तत्र पञ्चसु प्रतिपत्तिषु 'जे ते' ये ते चतुर्थप्रतिपत्तिवादिनोऽन्यतीर्थिकाः 'एवमाइंसु' एवम् अनेन वक्ष्यमाणेन प्रकारेण आहुः कथयन्ति “ता? तावत् 'अवड्ढं' अपार्द्धम् अपगर्द्धम् ' अर्द्धमात्रं "दीवं वा समुदं वा' द्वीपं वा समुद्रं वा 'ओगाहित्ता' अवगाह्य 'सरिए सूर्यः 'चारं चरइ चारं चरति, एवं कथयन्ति 'ते' ते चतुर्थास्तीर्थान्तरीयाः एवं' एवम् अनेन वक्ष्यमाणेन आशयेन 'आईसु' आहुः कथयन्ति, तथाहि-'जयाणं! यदा खल 'सरिए सूर्यः 'सव्वन्भंतरं मंडलं' - सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् ‘उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं तदा खलु 'अवड्ढं' अपार्द्धम् अपगतार्द्धम् । अर्द्धमात्र' 'जंबूद्दीवं दी' जम्बूद्वीपं दीपं मध्यजम्बूद्वीपम् 'ओगाहित्ता चारं चरइ' अवगाह्य चारं चरति 'तया णं, तदा खलु उत्तमकट्ठपत्ते' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः 'उक्कोसए' उत्कर्षकः 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति, तथा 'जहणिया' जघन्यिका सर्वलध्वी 'दुवालसमुहुत्ता राई भवई' द्वादशमुहर्ता रानिर्भवति, 'एवं सव्ववाहिरे वि' एवं अनेनैव प्रकारेण सर्वबाझेऽपि Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशिका अप्तिप्रकाटीका प्रा०१-५ सू०१० सूर्यस्य द्वीपसमुद्रावगाहनिरुपणम् ६७ सर्वबाह्यमण्डलविषयेऽपि वाच्यम् । 'नवरं नवरं केवलं, विशेषस्त्वयम् यदत्र 'अवड्ढे लवणसमुदं' अपार्द्ध लवणसमुद्रम् इति वाच्यम् तथाहि-यदा सूर्यः सर्वबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु अपार्द्ध लवणसमुद्रमवगाह्य चारं चरतीति । तथा-'तया णं राइंदियं तहेव' तदा खल रात्रिन्दिवं तथैव रात्रिदिवसप्रमाणं तथैव प्रथमप्रतिपत्तिस्पष्टीकरणे सूर्यस्य सर्ववाह्यमण्डलसंचरणसमये यथा कथितं तथैवात्रापि वाच्यम् । यथा-यदा सूर्यः सर्वेबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्यापाईलवणसमुद्रं वाऽवगाह्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्कर्षिका अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति, तथा जघन्यकः द्वादशमुहतों दिवसो भवतीति । संपूर्ण आलापकप्रकारस्तु स्वयमूहनीयः । इति चतुर्थप्रतिपत्तिस्पष्टीकरणम् ॥४॥ - अथ पश्चमप्रतिपत्तिस्पष्टीकरणमाह-'तत्य जे ते' इत्यादि 'तत्थ' तत्र पञ्चसु प्रतिपत्तिषु जे ते' ये ते पञ्चमाः परतीथिकाः 'एवमामु' एवमाहु- एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण कथयन्ति'ता' तावत् 'गो' नो नैव 'किंचि' किञ्चित् किञ्चिन्मात्रमपि 'दीवं वा समुदं वा' द्वीप वा समुद्रं वा 'ओगाहित्ता' अवगाह्य 'सरिए' सूर्यः 'चारं चरई' चारं चरति ते पञ्चमाः परतीर्थिकाः 'एवं' वक्ष्यमाणाशयेन 'आइंसु' आहुः कथयन्ति । तदेव प्रदर्शयति-'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल 'सूरिए' सूर्यः 'सचन्मतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खल 'णो' ,नो नैव 'किंचि' किञ्चित् किञ्चिन्मात्रमपि जंबुद्दीचं दी' जम्बूद्वीपं द्वीपम् 'ओगाहित्ता' अवगाह्य 'सूरिए' सूर्यः 'चारं चरइ'-चारं चरति 'तया णं' तदा खल 'उत्तमकट्टपत्ते' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्षवान् 'उक्कोसए'. , उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्टः सकलसूर्यसंवत्सरदिवसमानप्रमाणादन्तिमगुरुप्रमाणयुक्तः 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ' अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति, 'तहेव' तथैव पूर्ववदेव रात्रिरपि विज्ञेया तथा च 'जहणिया दुवालसमुहत्ता' राई भवई' इति पाठं संयोज्य, जपन्यिका सर्वलध्वी सकलसूर्यसपत्सररात्रिमानप्रमाणादन्तिमलघुप्रमाणयुक्ता द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवतीति । एवं पूर्वोक्तप्रकारेणैव 'सव्ववाहिरे मंडले' सर्वबाह्ये मण्डले भावना कर्त्तव्या 'नवरं' केवलं विशेष एतावानेव यत् सूर्यः ‘णो' नो नैव 'किंचि' किञ्चित् किश्चिन्मात्रमपि लवणसमुई' लवणसमुद्रम् 'ओगाहित्ता' अवगाह्य 'चारं चरई' चारं चरति । अयं भावः-पञ्चमास्तीर्थान्तरीया एवं कथयन्ति यत्-सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलोपसंक्रमणकालेऽपि न किश्चिदपि जम्बूद्वीपमवगाहते किं पुनः शेषमण्डलपरिभ्रमणकाले । एवं सर्वबाह्यमण्डलोपसंक्रमणकालेऽपि सूर्यों लवणसमुद्रमपि न : किञ्चिदवगाहते कि पुनः शेपमण्डलपरिभ्रमणकाले । तर्हि कथं चारं चरति ? इत्याशङ्कायां शृणु-द्वीपसमुद्रयोरपान्तराल एव सकलेष्वपि मण्डलेषु चारं चरतीति । 'राई दियं तहेव' रात्रिन्दिवं तथैव रात्रिदिवसप्रमाणं पूर्वोक्तवदेव, तथा च-सूर्यो यदा. सर्व Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे बाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा न किञ्चिल्लवणसमुद्रमवगाहते, तदा च उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्कर्षिका अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति जघन्यः द्वादशमुहूत्तों दिवसो भवति, इति पञ्चमप्रतिपत्तिस्पष्टीकरणम् ५, उपसंहारमाह-'एगे एवमाहंमु' एके एवमाहुः एके केचन पञ्चमप्रतिपत्तिवादिनः एवं पूर्वप्रदर्शितप्रकारेण माहुः कथयन्तीति ५। पूर्व परतीथिकानां पञ्च प्रतिपत्तयः प्रतिपादिताः, साम्प्रतं भगवान् तेषां मिथ्याभावप्रदर्शनार्थ स्वमतमुप्रदर्शयति-'वयं पुण' इत्यादि । 'वयं पुण' वयं पुनः ‘एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामो' बदामः कथयामः तच्छृणु 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सरिए' सूर्यः 'सम्वन्भंतर मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् 'उपसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खल "जंबुद्दीवं दीवं' जम्बूद्वीपम् द्वीपं 'असीई जोयणसयं' अशीतिः योजनशतं च अशीत्यधिक मकं शतं योजनानाम् 'ओगाहिला' अवगाह्य उल्लवय 'चार चरइ' चारं चरति 'तया गं' तदा खलु 'उत्तमकट्ठपत्ते' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्षसंपन्नः 'उक्कोसए' उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्टः 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति 'जहणिया' जघन्यिका सर्वलध्वी 'दुवालसमुहता राई भवई' द्वादशमुहर्ता रात्रिभवति 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु हरिए' सूर्यः सव्ववाहिरं मंडलं' सर्ववायं मण्डलम् 'उपसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरई' चारं चरति 'तया णं तदा खलु 'लवणसमुई लवणसमुद्रं 'विणि वीसं जोयणसयाई त्रीणित्रिंशत् योजनशतानि त्रिंशदधिकानि त्रीणि शतानि (३३०) योजनानाम् 'ओगाहित्ता' अवगाह्य 'चारं चरई' चारं चरति 'तया णं' तदा खल 'उत्तमकट्टपत्ता' उत्तमकाष्ठाप्राप्ता परमप्रकपवती 'उक्कोसिया' उत्कर्षिका सर्वगुर्वी 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई' अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति 'जहण्णए' जघन्यकः सर्वलघुः 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवह' द्वादशमुहत्तों दिवसो भवतीति । 'गाहाओ भाणियवाओ अत्र सूत्रार्थसंग्रहविषया गाथा भणितव्याः ता नोपलभ्यन्ते । इति ॥सूत्र १०॥ ॥ प्रथमस्य मूळमामृतस्य पन्चमं माइतमामृतम् ॥१-५॥ अथ प्रथमस्य मामृतस्य षष्ठं मामृतमामृतम् । गतं प्रथमस्य मूलप्राभूतस्य पञ्चमं प्राभूतप्राभृतम् , अथ षष्ठमारभ्यते, तस्य चायमभिसम्बन्धः पूर्व संग्रहगाथायां यदुक्तम् 'केवइयं च विकंपई' कियत्कं च विकम्पते सूर्य एकेन रात्रिन्दिवेन कियन्मानं क्षेत्र चलति ? इत्यत्र प्रदर्शयिष्यते, इति सम्बन्धेनायातस्यास्य षष्ठप्रामृतप्राभूतस्येदमादिसूत्रम्-'ता केवइयं' इत्यादि, Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwww चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १-६ सू०११ सूर्यस्य एकरात्रिदिवे क्षेत्रसंचरणम् ६९ मूलम्-ता केवइयं ते एगमेगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता २ सरिए चारं चरइ आहि. तेति वदेज्जा ? । तत्थ खलु इमाओ सत्त पडिवत्तीओ, पण्णत्ताओ तं जहा-तत्थेगे एवमाहम - ता दो जोयणाई अद्धदुचत्तालीसे तेसीई सयभागे जोयणस्स एगमेगेणं राइदिएण विकंपइत्ता २ सरिए चारं चरइ, एगे एवमाइंसु ।१। एगे पुण एवमाइंसु-ता अदाइज्जाई जोयणाई एगमेगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता २ सूरिए चारं चरइ, एगे एवमाहं ।२। एगे पुण एवमाइंसु-ता तिभागूणाई तिन्नि जोयणाई, एगमेगेणं राईदिएणं विकंपइत्ता २ सूरिए चारं चरह, एगे एवमाइंसु ।३। एगे पुण एवमाइंसु -ता तिणि जोयणाई अद्धसीतालीसं च तेसीइसयभागे जोयणस्स एगमेगेणं राईदिएणं विकंपइत्ता २ सरिए चारं चरइ, एगे एवमाहंस ।४। एगे पुण एवमाइंसुता अद्भुट्ठाई जोयणाई एगमेगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता २ मरिए चारं चरइ, एगे एवमाइंसु ।५। एगे पुण एवमाइंसु-ता चउभागूणाई चत्तारि जोयणाई एगमेगेणं राइदिएणं विकंपहत्ता २ सुरिए चारं चरइ, एगे एवमाहंसु ।६। एगे पुण एवमाहंमु-ता चत्तारि जोयणाई अद्धवावण्णं च तेसीइंसयभागे जोयणस्स एगमेगेणं राइदिएणं विकंपईत्ता २ सरिए चारं चरइ, एगे एवमाइंसु ७ वयं पुण एवं वयामो ता दो जोयणाई अड़यालीसं च एगसद्विभागे जोयणस्स एगमेगं मंडलं एगमेगेणं राईदिएणं विकंपइत्ता २ सूरिए चारं चरइ । तत्थ णं को हेऊ ? इति वदेज्जा । ता अयण्णं जंबुद्दीषे दीवे जाव परिक्खेवेणं पण्णते, ता जया णं सरिए सम्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकद्वपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । से णिक्खममाणे मरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि अन्भितराणतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सूरिए अभितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं दो जोयणाई अडयालिसं च एगसहिभागे जोयणस्स एगेणं राईदिएणं विकंपइत्ता। चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगसहिभागमुहुतेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगसहिभागमुहुत्तेहिं अहिया । से णिक्खममाणे सरिए दोच्चंसि अहोरसि अभितरं तच्चं मंडलं उवसंकमिता चारं चरइ । ता जया णं सुरिए अभितरं तच्चं मंडलं उत्रसंकमित्ता चारं चरइ तयाणं पंच जोयणाई पणतीसं च एगसद्विभागे जोयणस्स दोहिं राईदिएहिं विकंपइत्ता चारं चरइ तया ण अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवह चउहि एगसद्विभागमुहुत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ चउहि एगसहिभागमुहुत्तेहिं अहिया । एवं खल एएणं उवाएणं णिक्खममाणे सरिए Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्र तयाणंतराओ • मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे २ दो जोयणाई अडयालीस च एगसद्विभागे जोयणस्स एगमेगं मंडलं एगमेगेणं राई दिएहिं विकंपमाणे २ सय बाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सरिए सबभंतराओ मंडलाओ सबबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं सन्चभतरं मंडल पणिहाय एगेणं तेसीएणं राइंदियसएणं पंचदमुत्तरजोयणसए विकंपइत्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकहपत्ता उक्कोसिया अहारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ । एस णं पढमे छम्मासे । एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे सूत्र ११॥ . . छाया- तावत् कियत्कं ते एकैकेन रात्रिन्दिधेन विकम्प्य विकम्प्य सूर्यः चार चरति ? आख्यातमिति वदेत् । तत्र खलु इमाः सप्त प्रतिपत्तयः प्रशताः, तद्यथा-तत्रैके एवमाहुः तावत् द्वे योजने अर्द्धद्विचत्वारिंशतः ज्यशीतिशतभागान् योजनस्य एकैकेन रात्रिदिवेन विकरप्य २ सूर्य. चारं चरति, एके पवमाहुः ।। एके पुनरेवमाहुः-तावत् अर्द्ध तृतीयानि योजनानि एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य २ सूर्यःचारं चरति, एके एवमाहुः॥२॥ एके पुनरेवमाहुः-तावत् त्रिभागोनानि श्रीणि योजनानि पकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य २ सूर्यः चार चरति, पके पचमाहुः ॥३॥ एके पुनरेवमाहुः तावत् त्रीणि योजनानि अर्द्धसप्तचत्वारिंशतश्च व्यशीतिशतभागान् योजनस्य एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य २ सूर्यः चारं चरति, पके एवमाहुः ।। पके पुनरेवमाहुः-तावत् अर्द्धचतुर्थानि योजनानि पकैकेन रात्रिन्दुिवेन विकम्प्य २ सूर्यः चारं चरति एके पवमाहुः ॥५॥ एके पुनरेवमाहुः-तावत् चतु. र्भागोनानि चत्वारि योजनानि एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य २ सूर्यः चारं चरति, एके एवमाहुः ६. एके पुनरेवमाहुः-तावत् चत्वारि योजनानि अर्द्धद्विपञ्चाशतश्च ज्यशीति शतभागान्’ योजनस्य पकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य २ सूर्यः चारं चरति, एके एवमाटुंः ७ . वयं पुनरेवं वदामः-तावत् द्वे योजने अष्टचत्वारिंशतश्च एकषष्टिभागान् योजनस्य पकैकं मण्डलम् एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य २ सूर्यः चारं चरति । तंत्र खलु को हेतुः ! इति वदेत् तावत् अयं खलु जम्बूद्वीपो द्वीपः यावत् परिक्षेपेण प्राप्तः। तावद् यदा खलु यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षक: अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहूर्ता राधिर्भवति । स निष्क्रामन् सूर्य: नवं संवत्सरम् अयन् पढमे अहोरात्रे अभ्यन्तरानन्तरं मण्डलम् उवसंक्रम्य चार चरति । ताषद् यदा खलु सूर्यः अभ्यन्तरानन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु द्वे योजने अष्टचत्वारिंशतश्च एकषष्टिभागान् योजनस्य एकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य ३ चारं चरति तदा खलु अष्टादशमुहूत्तों दिवसो अवति द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्ताभ्याम् ऊना, द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति द्वाभ्यामेकषष्टिभागमहूर्त्ताभ्याम् अधिका । स निष्क्रामन् सूर्यः द्वितीये अहोरात्रे अभ्यन्तरं तृतीय मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः अभ्यन्तरं तृतीयं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशच एकषष्टिभागान् योजनस्य द्वाभ्यां रात्रिन्दिवाभ्यां विकम्प्य-चारं चरति Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा० ५-६ सू० ११ सूर्यस्य एकरात्रिन्दिवे संचरणम् ७१ तदा खलु अष्टादशमुहत्तों दिघसो भवति चतुर्भिः एकपप्टिभागमुहतैः ऊनः, द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति चतुर्भिः एकपप्टिभागमुहत्तैः अधिका । एवं खलु एतेन उपायेन निष्कामन् सूर्यः तदनन्तरात् मण्डलात् तदनन्तरं मण्डलं संक्रामन् २ ३ योजने अष्टचत्वारिंशतश्च एकपष्टिभागान् योजनस्य एकैकं मण्डलम् एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्पमानः २ सर्ववाह्य मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति। तावत् यदा खल्लु सूर्यः सर्वाभ्यन्तराद् मण्डलात् सर्वपाहां मण्डलम् उपसंक्रम्य वारं चरति तदा खलु सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं प्रणिधाय एकेन श्यशीतिकेन रात्रिन्दिवशतेन पञ्चदशोत्तरयोजनशतानि विकम्प्य चारं चरति तदा खल उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्कर्पिका अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति, जघन्यकः द्वादशमुहत्तों दिवसो भवति, एतत् खलु प्रथमं पण्मासम् । एतत् खलु प्रथमस्य पण्मासस्य पर्यवसानम् ।स०११ व्याख्या-'ता' तावत् 'केवइयं' कियत्कं कियत्परिमितं क्षेत्रं 'ते' तवमते 'एगमेगेणं राई दिएणं' एकैकेन रात्रिन्दिवेन महोरात्रेण 'विकंपइत्ता २' विकम्प्य २ अवष्ठष्ठ्य २ विकम्पनं नाम स्व स्वमण्डलादहिः शनैर्गत्या निस्सरणमभ्यन्तरप्रवेशनं वा शनैर्गत्या स्पृष्ट्वा २ घेत्यर्थः 'भरिए' सूर्यः 'चारं चरइ' चारं चरति, इति 'आहितेति' माख्यातमिति 'वदेज्जा' वदेत् बदतु हे भगवन् इति प्रश्नः । भगवान् एतद्विषयेऽन्यतैर्थिकमतरूपाः सप्त प्रतिपत्तीः प्रदर्शयति'तत्थ खलु' इत्यादि । 'तत्थ' तत्र सूर्यविकम्पनविषये खल 'इमाओ' इमाः वक्ष्यमाणाः 'सत्त' सप्त-सप्त संख्यकाः 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः परतीर्थिकमान्यता रूपाः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ताः कथिताः । ठाः काः ! इत्याह 'तं जहा' तथथा ता यथा-ता एव प्रदर्शयति 'तत्पेगे' इत्यादि 'तत्थ' तत्र सप्तसु प्रतिपत्तिप्रतिपादकेषु मध्ये 'एगे' एके केचन प्रथमप्रतिपत्तिवादिनः 'एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आइंसु' आहुः कथयन्ति, किमाहुरित्याह'ता दो जोयणाई' इत्यादि 'ता' तावत् 'दो जोयणाई' द्वे योजने 'अदद्वचत्तालीसे" अर्द्धद्विचत्वारिंशतः, अों द्विचत्वारिंशदिति द्विचत्वारिशत्तमो मागो यत्र संख्यायां ते अर्द्धदिचत्वारिंशतस्तान् अ‘धिकैकचत्वारिंशत्संख्यकान् 'तेसीइसयभागे' ध्यशीतिशतभागान् व्यशीत्यधिकशतसम्बन्धिभागान् 'जोयणस्स' योजनस्य ज्यशीत्यधिकशतसंख्यकै (१८३) गिर्योनने विभक्ते सति ये शेषा अ‘धिकैकचत्वारिंशत्संख्यका भागाः [२१] तान् एतावद्योजनप्रमाणं क्षेत्रमित्यर्थः 'एगमेगेणं' एकैकेन 'राईदिएणं' रात्रि १८३ न्दिवेन एकैकाहोरात्रकालेन 'विकंपइत्ता २, विकम्प्य २ शनैः शनैरुल्लमयेत्यर्थः 'रिएं' सूर्यः 'चारं चरई' चारं चरति, मथोपसंहारमाह-'एगे एवमाइंसु' एके एवमाहुः. एके केचन प्रथमप्रतिपत्तिवादिनः एवं पूर्वकथितप्रकारेण आहुः कथयन्ति । इति प्रथमा प्रतिपत्तिःश एगे पुण' एके केचन द्वितीयप्रतिपत्तिवादिनः पुनः ‘एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आइंस माहुः कथयन्ति तदेवाह-'ता' तावत् 'अढाइज्जाइं अर्द्धतृतीयानि सार्द्धसिंख्यकानि Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ चन्द्रप्रनप्तिसूत्रे 'जोयणाई' योजनानि साईद्विसंख्यकयोजनप्रमाणं क्षेत्रम् ‘एगमेगेणं' एकैकेन 'राइदिएणं' रात्रिन्दिवेन अहोरात्रेण 'विकंपइत्ता' २ विकम्प्य २ 'रिए चार चरई' सूर्यः चारं चरति, 'एगे एवमाइंसु' एके द्वितीया एवं पूर्वोक्तप्रकारेण माहुः कथयन्ति । इति द्वितीया प्रतिपत्तिः २ 'एगे पुण एवमासु' एके पुनरेवमाहुः 'ता' तावत् 'तिभागृणाई' त्रिभागोनानि तृतीयो भाग ऊनो येषु तानि त्रिभागोनानि 'तिणि जोयणाई त्रीणि योजनानि 'एगमेगेणं राइदिएणं' एकैकेन रात्रिन्दिवेन 'विकंपइत्ता' २, विकम्प्य २ 'सरिए चारं चरई' सूर्यः चारं चरति, 'एगे एवमाइंसु' एके तृतीया एवं पूर्वोक्तरीत्या आहुः कथयन्ति । इति तृतीया प्रतिपत्तिः ३ 'एगे पुण एवमाहंमु' एके केचन चतुर्थाः पुनः एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः कथयन्ति 'ता' तावत् 'तिण्णि जोयणाई' त्रीणि योजनानि 'अद्धसीतालीसे च' अर्द्धसप्तचत्वारिंशतश्चेति सार्द्धषट्चत्वारिंशतश्च (४६.) 'तेसी तिसयभागे' व्यशीतिशतभागान् ज्यशीत्यधिकशतसंख्यक ( १८३) भागान् 'जोयणस्स' योजनस्य [३ १६॥ एतावत्परिमितक्षेत्रे 'एगमेगेण राइंदिएणं' एकैकेन रात्रिन्दिवेन एकेन एकेन-अहोरात्रेणेत्यर्थः 'विकंपइत्ता' विकम्प्य २ 'परिए' चारं चरई' सूर्यः चारं चरति, 'एगे एवमाइंसु' एके केचन चतुर्थाः एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः कथयन्ति । इति चतुर्थी प्रतिपत्तिः ४ 'एगे पुण एवमासु' एके केचन पञ्चमाः पुनः एवं वक्ष्यमाणरीत्या आहुः कथयन्ति-'ता' तावत् 'अधुटाई भर्द्धचतुर्थानि सार्द्धत्रीणि (३॥.) 'जोयणाई' योजनानि 'एगमेगेणं राइदिएणं' एकैकेन रात्रिन्दिवेन 'विकंपइत्ता २' विकम्प्य २ 'मुरिए' सूर्यः 'चारं चरई' चार चरति, 'एगे एवमाईसु' एके केचन पञ्चमाः एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः कथयन्ति । इति पश्चमी प्रतिपत्तिः ५ 'एगेपुण एवमाइंसु' एके केचन पष्ठाः पुनः एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण माहुः कथयन्ति 'ता' तावत् 'चउभागृणाई' चतुर्भागोनानि चतुर्थो भाग ऊनो येषु तानि भागत्रयसहितानि 'चत्तारि जोयणाई' चत्वारि योजनानि (३||.) एगमेगेणं राइदिएणं' एकैकेन रात्रिन्दिवेन 'विकंपहत्ता २' विकम्प्य 'सरिए चारं चरइ' सूर्यः चारं चरति 'एगे एवमामु' एके केचन षष्ठाः एवं पूर्वोक्तप्रकारेण माहुः कथयन्ति । इति षष्ठी प्रतिपत्तिः ६ 'एगे पुण' एके केचन सप्तमाः पुनः एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः कथयन्ति-'ता' तावत् 'चचारि जोयणाई चत्वारि योजनानि 'अद्धवावण्णे च' अर्द्धद्विपञ्चाशतश्च मद्धों द्विपञ्चाशत्तमो भागो यत्र तान् सार्दैकपञ्चाशतश्च 'तेसीतिसयभागे' त्र्यशीतिशतभागान् व्यशीत्यधिकशतसंख्यकभागान् 'नोयणस्स' योजनस्य [v११॥ एतत्परिमित क्षेत्र ‘एगमेगेण राइंदिरण' एकैकेन राशि Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१-६ २०११ सूर्यस्य प्रथमपण्मासाहोरात्रे क्षेत्रसंचरणम् ७३ न्दिवेन 'विकंपाचा २' विकम्प्य २ 'सरिए चारं चरई' सूर्यः चारं चरति, 'एगे एवमाइंसु' एके केचन सप्तमाः एवं पूर्वोक्तप्रकारेण माहुः कथयन्ति । इति सप्तमा प्रतिपत्तिः ७ पूर्व परमतवादिनां सप्तप्रतिपत्तीः प्रदर्य साम्प्रतं भगवान् स्वमतं प्ररूपयति-'वयं पुण' इत्यादि । 'वयं पुण' वयं पुनः पूर्वपूर्वतीर्थकरानुद्दिश्य वयं पुनः एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'क्यामो' वदामः केवळालोकेनाऽऽलोक्य कथयामः-'ता' तावत् - 'दो जोयणाई' हे योजने 'अडयालीसं च एगसट्ठिभागे' अष्टचत्वारिंशतश्च एकषष्टिभागान् [२-१८] 'जोयणस्स' योजनस्य, अष्टचत्वारिंशदेकपष्टिभागसहितयोजनद्वयपरिमितम् 'एगमेगं मंडलं' एकैकं मण्डलम् 'एगमेगेणं राइदिएण' एकैकेन रात्रिन्दिवेन अहोरात्रेण 'विकपइत्ता' २ विकम्प्य २ 'मूरिए चारं चरई' सूर्यः चारं चरति । सूर्य एकेन अहोरात्रेण दे योजने अष्टचत्वारिंशदेकपष्टिभागान् एकैकं मण्डलं स्पृष्ट्वा २ चारं चरतीति भावः । गौतमः पुनः पृच्छति-तत्य ण' तत्र भवत्प्रतिपादितपूर्वोक्तविषये खलु को हेऊ' को हेतुः किं कारणं का तत्र व्यवस्थेत्यर्थः 'इति' इति-एवं तां व्यवस्था 'वदेज्जा' वदेत् हे भगवन् ! कथयतु, इति प्रश्नः । भगवानाह-'ता अयण्णं' इत्यादि 'ता' तावत् 'अयण्णं' अयं खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपो द्वीपः मध्यजम्बूद्वीपः पूर्वप्रतिपादितस्वरूपः पूर्वप्रदर्शितप्रमाणः 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः कथितः । तत्र 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खले 'सरिए' सूर्यः 'सम्वन्भंतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तमकट्ठापत्ते' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्षप्राप्तः सर्वथा वृद्धिगतः 'उक्कोसए' उत्कर्षकः उत्कृष्टः अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, तथा 'जहण्णया' जघन्यिका सर्वलध्वी 'दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' द्वादशमुहर्ता रात्रि र्भवतीति । 'ता' तावत् तत्पश्चात् 'से' सः 'निक्खममाणे सुरिए' निष्क्रामन् सूर्यः 'णवं संवच्छरं अयमाणे' नवं संवत्सरमयन् प्राप्नुवन् 'पढमंसि अहोरतसि' प्रथमेऽहोरात्रे 'अभंतराणंतरं' अभ्यन्तरानन्तरं सर्वाभ्यन्तरमण्डलानन्तरस्थितं 'मंडलं' द्वितीयं मण्डलं 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु मूरिए' सूर्यः 'अभितराणंतरं' अभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चार चरति 'तया णं' तदा खल 'दो 'जोसणाई' द्वे योजने 'अडयालीसं च एगसद्विभागे' अष्टचत्वारिंशतं च एकषष्टिभागान् ‘जोयणस्स' योजनस्य-[२-४८ एगेणं राइदिएण' एकेन Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे गत्रिन्दिवेन एकाहोरात्रेण 'विकंपईत्ता २' विकम्प्य २ उल्लड्ध्य २ 'चारं चरइ' चारं चरनि 'तया णं' तदा खलु 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति किन्नु मः 'दोहिं एगसहिभागमुहुत्तेहिं' द्वाभ्यामेकपष्टिभागमुहूर्त्ताभ्यां 'ऊणे' ऊनः हीनो भवति न तु परिपूर्णाऽष्टादशमुहत्तों भवति, तथा 'दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' द्वादशमुहूर्ता गत्रिर्भवति सा च 'दोहि एगहिभागमुहुत्तेहि' द्वाभ्यामेकपष्टिभागमुहर्ताभ्यां 'अहिया' अधिका भवति यावन्मात्रा दिवसस्य हानिर्भवति तावन्मात्राया रात्रे द्विसद्भावात् । ‘से निक्खममाणे मरिए स निष्क्रामन् सूर्यः 'दोच्चंसि अहोरत्तंसि' द्वितीयेऽहोरात्रे 'अभितर अभ्यन्तरम् अभ्य न्तरसम्बन्धिनं 'तच्चं मंडलं' तृतीयं मण्डलं 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरइ' चारं नति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सरिए' सूर्यः 'अम्भितरं' अभ्यन्तरम् अभ्यन्तरगतं 'तच्चं मंडलं तृतीयं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता' उपसक्रम्य 'चारं चरई' चारं चरति । 'तया णं' तदा खल 'पंच जोयणाई पंच योजनानि 'पणतीसं च एगसहिभागे' पञ्चत्रिंशतं च एक पष्टिभागान् योजनस्य 'दोहिं राइदिएहि' द्वाभ्यां रात्रिन्दिवाभ्याम् अहोरात्रद्वयेन 'विकंपइत्ता' विकम्य २ 'चारं चरई' चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'अद्वारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहत्तों दिवसो भवति किन्तु सः 'चउहि एगसद्विभागमुहुत्तेहि'- चतुभिरेकपष्टिभागमुहत: 'ऊणे' ऊनः हीनो भवति, तथा 'दुवालसमुहुत्ता राई भवई' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, मा च 'चउहि एगसद्विभागमुहुत्तेहि' चतुभिरेकपष्टिभागमुहत्तैः 'अहिया' अधिका भवति, दिवमहान्यां रात्रेराधिक्यस्य स्वभावात् । अग्रेऽतिदेशेनाह-एवं इत्यादि 'एवं' एवम्-अनया रीत्या खस 'एएणं' एतेन पूर्वोक्तेन 'उवाएणं' उपायेन विधिना 'णिक्खममाणे सरिए' निष्क्रामन् मूर्यः 'तयाणंतराओ मंडलाओ' तदनन्तरात् तृयीयादेमण्डलात् 'तयाणंतरं मंडलं' तदनन्तरं चतुर्थादिकं मण्डलम् यत्र सूर्यः स्थितस्ततोऽग्रेडप्रेतनं मण्डलं 'संकममाणे २' संक्रामन् २ चल्न नलन् 'दो जोयणाई' द्वे योजने 'अडयालीसं च एगसट्ठिभागे' भष्टचत्वारिंशतं च एक पष्टिभागान् 'जोयणस्स' योजनस्य 'एगमेगं मंडल' एकक मण्डलम् 'एगमेगेणं राईदिएणं' किन गनिन्दिवेन 'विकंपमाणे २' विकम्पमानः २ स्पर्गन् स्पर्शन् प्रथमपण्मासस्य अन्तिमे जयदी यधिकशतनमेऽहोरात्रे 'सन्यवाहिरं मंडलं' सर्ववाग्यं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपमंक्रम्य चार चरति । 'ना' तावत् 'जया गं' यदा खल्ल 'सरिए' सूर्यः 'सव्वन्भंतराओ मंदलालो' मान्यन्तरात मण्डलात् 'सन्वयाहिरं मडलं' सर्ववाद्यं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरड' उपक्रम्य चार चरति 'तया णं' नदा खल्ल 'मन्बभंतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं Mazi पणिहाय' प्रणिधाय अवधीय तत आरम्येत्यर्थः 'एगेणं तेसीएणं राईदियसएणं' पोन व्य य केन गत्रिंदिवशतेन व्यशीयधिकशन (१८३) संख्यकैः अहोरात्रैः 'पंचदमुत्त Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रातिप्रकाशिका टोका प्रा० १-६सू११ सूर्यस्य प्रथमपण्मासाहोरात्रे क्षेत्रसंचरणम् ७५ राई जोयणसयाई' पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि दशोत्तराणि पञ्चशतयोजनानि (५१०) 'विकंपइत्ता' विकम्प्य 'चारं चरइ' चारं चरति । कथमेतदुपलभ्यते ? इति प्रदर्शयामः-एकैकस्मिन् रात्रिन्दिवे द्वे द्वे योजने तदुपर्यष्टचत्वारिंशद् एकपष्टिभागा योजनस्येत्येतत्प्रमाणं क्षेत्रं सूर्यश्चलति तत्र पूर्व योजनद्वयं व्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यते, जातानि पदषष्टयधिकानि त्रीणि शतानि (३६६) तत्पश्चादष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागा व्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्ते, नातास्ते चतुरशीत्यधिकसप्ताशीतिशत (८७८४) संख्यकाः । एषा संख्या योजनानयनार्थमेकषष्टया विभज्यते, लब्धं चतुश्चत्वारिंशदधिकं शतमेकम् (१४४)। एषा संख्या पूर्व या योजनसंख्या (३६६) जाता तस्यां प्रक्षिप्यते, ततो जातानि दशोत्तराणि पञ्चशतानि (५१०) इति । एतावत्प्रमाणं क्षेत्रं सूर्यो विकम्प्य चारं चरति 'तया णं' तदा खल 'उत्तमकट्ठपत्ता' उत्तमकाठाप्राप्ता परमप्रकर्षसपन्ना 'उक्कोसिया' उत्कर्षिका सर्वोत्कृष्टा सर्वगुर्वीत्यर्थः 'अट्ठारसमुहुत्ता' अष्टादशमुहर्ता 'राई भवइ' रात्रिर्भवति, तथा 'जहण्णए' जघन्यकः सर्वलघुः 'दुवासलमुहुत्ते' द्वादशमुहूर्तः 'दिवसे भवई' दिवसो भवति । अथ प्रथमपण्मासस्य उपसंहारमाह'एस णं' एतत् खलु 'पढमे छम्मासे' प्रथमं पण्मासम्-‘एस णं' एतत् खलु 'पढमस्स छम्मासस्स' प्रथमस्य पण्मासस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानम्-अन्तिममहोरात्रम् ॥सू० ११॥ पूर्व प्रथमपण्मासपर्यन्तभूताहोरात्रिपर्यन्ते सर्ववायमण्डलगतयोजनाष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागयुक्तयोजनदयमतिक्रम्य सूर्यः सर्वबाह्यानन्तरद्वितीयमण्डलसीमायां वर्तते, इति प्रदर्शितम् , साम्प्रतं ततो द्वितीयस्य पण्मासस्य अनन्तरे प्रथमेऽहोरात्रे प्रथमक्षणे सर्ववाह्यानन्तरमभ्यन्तरं द्वितीयं मण्डलं सूर्यः प्रविशतीति प्रदर्शयन्नाह-'से पविसमाणे' इत्यादि। . मूलम् - से पविसमाणे सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढ़मंसि अहोरत्तसि वाहिराणतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरड । ता जया णं सुरिए वाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तयाणं दो जोयणाई अडयालीसं च एगसहिमागे जोयणस्स एगेण राईदिएणं विकंपइत्ता चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई, दोहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहि ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगसहिभागमुहुत्तेहिं अहिए, से पविसमाणे मूरिए, दोच्चंसि अहोरत्तसि बाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सरिए वाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तयाणं पंचजोयणाई पणतीसं च एगस विभागे जोयणस्स दोहिं राइदिएहिं विकंपइत्ता २ चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ चउहि एगसट्ठिभागमुहुत्तेहि ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे मवइ चउहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहि अहिए एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रमतिसूत्रे तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मडलं संक्रममाणे २ दो जोयणाई अडयालीसं च एगसद्विभागे जोयणस्स एगमेगं मंडलं एगमेगेणं राईदिएणं विकंपमाणे २ सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सूरिए सव्ववाहिराओ मंडलाओ सव्वमंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं सव्ववादिरं मंडल पणिहाय एगेणं तेसीएणं राईदियसपूर्ण पंचदसुत्तरे जोयणसए विकंपड़त्ता चारं चरड़, तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहण्णिया दुवादसमुहुत्ता राई भवइ । एस णं दोच्चे छम्मा से । एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे । एस णं आइच्चे संवच्छरे । एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे || सू० १२॥ पढमस्स पाहुडस्स छहूं पाहुडपाहुड समत्तं ॥ १-६ ॥ ७६ छाया - स प्रविशन् सूर्यः द्वितीयं षण्मासम् अयन् प्रथमे अहोरात्रे वाह्यानन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः वाह्यानन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु द्वे योजने अष्टचत्वारिंशतं च पकषष्टिभागान् योजनस्य एकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य चारं चरति तदा खलु अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, द्वाभ्यामेकपटिभागमुहूर्त्ताभ्याम् ऊना, द्वादशमुहन्त दिवसो भवति द्वाभ्यामेकपटिभागमुहूर्त्ताभ्याम् अधिकः । स प्रविशन् सूर्यः द्वितीये अहोरात्रे बाह्य तृतीयं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः वाह्यं तृतीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु पञ्चयोजनानि पञ्चत्रिशतं च एकषष्टिभागान् योजनस्य द्वाभ्यां रात्रिन्दिवाभ्यां विकम्प्य२ चारं चरति तदा खलु अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति चतुर्भिरेकषष्टिभागमुहुः ऊना, द्वादशमुहत्तों दिवसो भवति चतुभिरेकषष्टिभागमुहूतैः अधिकः । एवं खलु एतेन उपायेन प्रविशन् सूर्यः तदनन्तरात् मंडलात् तदनन्तरं मण्डलं संक्रामन् २ द्वे योजने अष्टचत्वारिंशतं च एकपष्टिभागान् योजनस्य पकैकं मण्डलं एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्पमान. २ सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः सर्वबाह्यात् मण्डलात् सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा स्खलु सर्ववाह्यं मण्डलं प्रणिधाय एकेन त्र्यशीतेन रात्रिन्दिवशतेन पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि विकम्प्य चारं चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठा प्राप्तः अष्टादशमुत्तों दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति । एतत् खलु द्वितीयं षण्मासम् । पतत् खलु द्वितीयस्य पण्मासस्य पर्यवसानम् । एषः खलु आदित्यः संवत्सरः । पतत् खलु आदित्यस्य संवत्सरस्य पर्यवसानम् ||१२|| || प्रथमस्य प्राभृतस्य षष्ठं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥ १-६॥ व्याख्या - 'से' सः 'पचिसमाणे' प्रविशन् सर्वाभ्यन्तरमन्डलाभिमुखं गच्छन् 'सूरिए' सूर्यः 'दोच्चं छम्मासं' द्वितीयं षण्मासम् ' अयमाणे' अयन् प्राप्नुवन् 'पढमंसि अहोरत्तंसि ' प्रथमेऽहोरात्रे 'बाहिराणंतरं मंडलं' बाह्यानन्तरं मण्डलं सर्वबाह्यमण्डलादनन्तरमभ्यन्तरं द्वितीयं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरइ' चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यंदा खल 'सूरिए' सूर्यः 'बाहिराणंतरं' बाह्यानन्तरं सर्वबाह्यमण्डलादनन्तरं यत् अभ्यन्तरं द्वितीय Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा०१-६सू०१२ सूर्यस्य द्वितीयपण्मासाहोरात्रे क्षेत्रसंचरणम् ७७ मण्डलं तत् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'दो जोयणाई द्वे योजने 'अडयालीसं च एगसहिभागे' अष्टचत्वारिशतं च एकषष्टिभागान् 'जोयणस्स' योजनस्य 'एगेणं राइदिएणं' एकेन रात्रिन्दिवेन 'विकंपइत्ता' विकम्प्य 'चारं चरइ' चारं चरति, 'तया णं' तदा खल 'अद्वारसमुहुत्ता राई भवई' भष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, किन्तु सा 'दोहिं एगसहिभागमुहुत्तेहि' द्वाभ्यामेकपष्टिभागमुहूर्ताभ्याम् 'ऊणा' ऊना हीना भवति, तथा 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ' द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति, स च 'दोहिं एगस विभागमुहुत्तेहि' द्वाभ्यामेकपष्टिभागमुहूर्त्ताभ्याम् 'अहिए' अधिको भवति । 'से' सः 'पविसमाणे' प्रविशन् सर्वाभ्यन्तरमण्डलं प्रति गच्छन् 'मूरिए' सूर्य: 'दोच्चंसि' अहोरत्तंसि' द्वितीयस्य पण्मासस्य द्वितीयेऽहोरात्रे 'वाहिरं तच्चं' वावं तृतीयं बाह्यभागाद् गमनसम्बन्धित्वाद् बाह्यं सर्ववाह्यमण्डलादभ्यन्तरं तृतीयं 'मंडलं' मण्डलम् 'उपसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चार चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सरिए' सूर्यः 'वाहिरं वच्चं' वायं तृतीयं बाह्यात् तृतीयं वा 'मंडलं' मण्डलम् 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चहई चारं चरति 'तया णं तदा खलु 'पंच जोय णाई' पञ्च योजनानि 'पणतीसं च एगसद्विभागे जोयणस्स' पञ्चत्रिंशतं च एकषष्टिभागान् योजनस्य 'दोहिं राइदिएहि' द्वाभ्यां रात्रिन्दिवाभ्यां 'विकंपइत्ता' विकम्प्य 'चारं चरई' चारं चरति, 'तया णं' तदा खल 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई' अष्टादशमुहूर्ता रानिर्भवति किन्तु सा 'चउहि एगसहिभागमुहुत्तेहि' चतुर्भिरेकपष्टिभागमुहूर्तेः 'ऊणा' ऊना हीना भवति, तथा 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ' द्वादशमुहत्तों दिवसो भवति, सच 'चउहि एगद्विभागमुहुत्तेहिं' चभिरेकपष्टिभागमहत्तैः 'अहिए' अधिको भवति । 'एवं' एवम्-अनेन प्रकारेण खलु 'एएणं' एतेन पूर्वप्रदर्शितेन 'उवाएण' उपायेन विधिना 'पविसमाणे' प्रविशन् सर्वाभ्यन्तरमण्डलाभिमुखं गच्छन् 'मुरिए' सूर्यः 'तयाणंतराओ मंडलाओ' तदनन्तरात् यत्र सूर्यो वर्तते तस्मात मण्डलात् 'तयाणंतरं मंडलं' तदनन्तरं तदने स्थितं मण्डलं 'संकममाणे २' संक्रामन् २'दो जोयणाई' योजने 'अडयालीसं च एगसद्विभागे जोयणस्स' अष्टचत्वारिशतं च एकपष्टिभागान् योजनस्य 'एगमेगेणं राइदिएणं' एकैकेन रात्रिन्दिवेन अहोरात्रेण 'विकंपमाणे २१ विकम्पमानः २ 'सम्वन्भंतरं मंडलं' सर्वाभ्यिन्तरं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरइ' चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सूरिए' सूर्यः 'सब्वबाहिराओ मंडलाओ' सर्वबाह्यात् मण्डलात् 'सव्वन्भंतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'सव्ववाहिरं मंडलं' सर्वबाह्य मण्डलं 'पणिहाय' प्रणिधाय अवधीकृत्य तत मारभ्येत्यर्थः 'एगेणं तेसीएणं राइंदियसएणं' एकेन त्र्यशीतिकेन रात्रिन्दिवशतेन व्यशीत्यधिकशतसंख्यकैः रात्रिन्दिवैः 'पंचदमुत्तरे जोयणसए' पंचद Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रशप्तिसूत्रे शोत्तराणि योजनशतानि दशोत्तरपञ्चशतसंख्यकयोजनानि (५१०) 'विकंपइत्ता' विकम्प्य 'चारं चरइ' चारं चरति । कथमेतद् जायते इति प्रकारः प्रथमपण्मासव्याख्यायां प्रदर्शित इति ततोऽवसेयः । 'तया गं' तदा खलु 'उत्तमकद्वपत्ते' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्षयुक्तः 'उकोसए' उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्टः 'अद्वारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, तथा 'जहणिया' जघन्यिका सर्वलध्वी 'दुवालसमुहुत्ता राई भवई' द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवतीति । उपसंहारमाह-'एस गं' इत्यादि 'एस णं' एतत् खल 'दोच्चे छम्मासे' द्वितीयं पण्मासम् । 'एस णं' एतत् खल 'दोच्चस्स छम्मासस्स' द्वितीयस्स पण्मासस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसा. नम्-अन्तिममहोरात्रम् । 'एस णं' एप खलु 'आइच्चे संवच्छरे' मादित्यः संवत्सरः । 'एस णं' एतत् खलु 'आइच्चस्स संवच्छरस्स' आदित्यस्य संवत्सरस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानं-पर्यन्तमहोरात्रम् ॥सू० १२॥ प्रथमस्य मूलमाभृतस्य पष्ठं प्रामृतमाभृतं समाप्तम् ॥१-६॥ । अथ प्रथमस्य मामृतस्य सप्तम भाभृतमामृतम् ।। गतं षष्ठं प्राभृतप्राभृतम् , अथ सप्तममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-पूर्व द्वारगाथायां 'मंडलाणं य संठाणं' मण्डलानां च संस्थानम् , इत्युक्तं तदेवात्र प्रदर्शयिष्यते, इति सम्बन्धेनायातस्यास्येदमादिसूत्रम्-'ता कहं ते मंडलसंठिई' इत्यादि । मूलम्- ता कह ते मंडलसंठिई आहितेति वदेज्जा ? । तत्थ खलु इमायो अट्ठ पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ तं जहा-तत्थेगे एवमाहंस-ता समचउरंससंठाणसंठिया मंडलसठिई आहितेति वदेज्जा, एगे एवमासु ।१। एगे पुण एवमासु ता विसमचउरंससंठाणसंठिया मंडलसंठिई आहितेति वदेज्जा, एगे एवमाहस ।२। एगे पुण एवमाहंसुता समचउकोणसंठिया मंडलसंठिई आहितेति वदेज्जा, एगे एवमासु ।३। एगे पुण एवंमासु ता विसमचउक्कोणसंठिया मंडलसंठिई आहितेति वदेज्जा, एगे एवमासु ।४। एगे पुण एचमाहंसु-ता समचक्कवालसंठिया मंडलसंठिई आहितेति वदेज्जा एगे एवमाहंसु ।५। एगे पुण एवमासु ता-विसमचक्कवालसंठिया मंडलसंठिई आहितेति वदेज्जा, एगे एवमाहंसु ।६. एगे पुण एवमाहंसु-ता चक्कद्धचक्कवालसंठिया मंडलसंठिइं आहितेति वदेज्जा, एगे एवमासु ७। एगे पुण एवमाहंस-ता छत्तागारसंठिया मडलसंठिई आहितेति वदेज्जा, एगे एवमासु ।८। तत्थ जे ते एवमासु -ता छत्तागारसंठिया मंडलसंठिई आहितेति वदेज्जा एएणं णएणं णायव्वं,णो चेव णं इयरेहिं ।।सू० १३॥ पढमस्स पाहुदस्स सत्तमं पाहुडं समत्तं । १-७ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिकाटोका प्रा०१-७ सू०१३ चन्द्रादिमण्डलसंस्थितिनिरूपणम् ७९ छाया-तावत् कथं ते मण्डलसंस्थितिः आख्याता ? इति वदेत् , तत्र खलु इमा अष्टौ प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तत्र पके एवमाहुः तावत्-समचतुरस्रसंस्थानसंस्थिता मण्डलसंस्थितिः आख्याता इति वदेत् , पके एवमाहुः ।। एके पुनरेवमाहुः-तावत् विषमचतुरस्रसंस्थानसंस्थिता मण्डलसंस्थितिः आख्याता इति वदेत् पके एवमाहु ।२। एके पुनरेवमाहुः-तावत् समचतुष्कोणसंस्थिता मण्डलसंस्थितिः आख्याता इति वदेत् एके पवमाहुः ॥३. पके पुनरेवमाहुः तावत् विषमचतुष्कोणसंस्थिता मण्डलसंस्थितिः आख्याता इति वदेत् पके पवमाहुः ।४। पके पुनरेवमाहुः तावत् समचक्रवालसंस्थिता मण्डलसंस्थितिः आख्याता इति वदेत् एके एचमाहुः ॥५॥ एके पुनरेवमाहुः-तावत् विषमचक्रवालसंस्थिता मण्डलसंस्थितिः आख्याता इति वदेत् , एके पवमाहुः ।६। पके पुनरेवमाहुःतावत् चकाचक्रवालसंस्थिता मण्डलसंस्थितिः आख्याता इति वदेत् , एके पवमाहुः ७) एके पुनरेवमाहुः-तावत् छत्राकारसंस्थिता मण्डलसंस्थितिः आख्याता इति वदेत् एके एवमाहुः । तत्र ये ते पवमाहुः-तावत् छत्राकारसंस्थिता मण्डलसंस्थिति आख्या. तेति वदेत् पतेन नयेन ज्ञातव्यम् , नेव खलु इतरैः ॥सु० १३॥ प्रथमस्य प्राभृतस्य सप्तमं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥ १-७ व्याख्या - 'ता' तावत् 'कई कथं केन प्रकारेण कीदृशीत्यर्थः 'ते' तवमते 'मंडलसंठिई' मण्डलसंस्थितिः मण्डलानां चन्द्रादिमण्डलानां संस्थितिः संस्थानम् आकृतिरित्यर्थः 'आहिता' आख्याता कथिता 'इति वदेज्जा' इति वदेत्-वदतु हे भगवन् । इति गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह-'तत्थ' तत्र मण्डलसंस्थितिविपये खल निश्चितम् 'इमाओ' इमाः अग्रेऽनुपदं पदर्शयिप्यमाणा 'अट्ट' अष्टौ अष्टसंख्यकाः 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः मिथ्यात्वगर्भिताः परतीथिंकमतरूपाः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ताः तैस्तीर्थान्तरीयै रिति । 'तं जहा' तद्यथा-'ता' यथा-ता एव प्रदर्शयति-'एगे एवमाहंमृ' इत्यादि, 'एगे' एके केचन प्रथमास्तीर्थान्तरीयाः ‘एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आइंसु' आहुः कथयन्ति । तदेव प्रदर्शयति-'ता' इत्यादि । 'ता' तावत् 'समचउरंससंठाणसंठिया' समचतुरस्रसंस्थानसंस्थिता समाः तुल्या चतस्रः मस्रयो भागाः यत्र तत् समचतुरखें तादृशं संस्थानम् -आकृतिः समचतुरस्रसंस्थानं तेन संस्थिता तदाकारेण स्थिता सा तथा, एतादृशी 'मंडलसंठिई' मण्डलसंस्थितिः चन्द्रादिमण्डलसंस्थानम् 'आहिता' आख्याता कथिता 'इति' इति अनेन प्रकारेण 'वदेज्जा' वदेत् कथयेत् इति वक्तव्यं सर्वैरिति भावः । उपसंहारमाह-'एगे' एके केचन प्रथमाः 'एवं' एवं पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहंस' आह! कथयन्तीति प्रथमा प्रतिपत्तिः ।१। एवमग्रेऽपि व्याख्यानव्यम् । • तथा च द्वितीया, विषमचतुरस्रसंस्थानसंस्थिता मण्डलसंस्थितिरिति वदन्ति ।२। तृतीयाःसमचतुष्कोणसंस्थिता समत्वेन चतुष्कोणा मण्डलसंस्थितिरिति वदन्ति ।३। चतुर्थाः विषमचतुः । एकोणसंस्थिता यत्र चतुष्कोणे सत्यपि समत्वं न वर्तते एतादृशी मण्डलसंस्थितिरिति वदन्ति Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्ति .:: Narwary srin मधनि पन्ति 141 पा:.x x. inindia ने एता उल स्थिति ... ... ..... ...: काग मण्डस्थितिरिति । . . . i E" निका मालस्थितिरिनि बदन्ति FerrrrrrrrHATE: FIR मा , EN भगवान स्वमने प्रकट *', rink TRA प्रनिश मणे 'जे ने' से नित् आमा र , मामय नगा 'ना' नावन छत्तागारसं. fe . ... ... नी 'मंडलमंठि: मलमरियानः 'आहितेति' • ete infrth 'पदेगन मनि । 'एएम' पनेन पूर्वमनुपदं प्रदर्शितन को ..ERRAATRIशेष मानुरभिमायो नयः' इति वर. -: a1 Town 'गानीलसागरमंस्थिता मन्टलमंम्पितिवर्नने' एवं बाप ! 'नो नवजव मानियेन नम्बद्ध 'इयरेरि' ri s ix ria गमावग्यमान वागावासियवयम् ॥ { मगाय माभनाग मममा माभनमाभनं ममाप्तम् ॥१-७॥ मग यमन मा गम्पाट प्रान पानं मारभ्यते । A rtin Rपूर्व नागामायाँ गन 'विनयम' F-...- +4 या गागाभाग्दोरीन प्रमाग प्रदर्श zा मना किया गमाया याहनेग, फेवाया भागामगि Train भागा? विदेश भ गल मा निणि पतिPathi परमार-मा मनापि भरल्यया नोगामा i i नगर मापामग्rिi, निमिण जोगण. rreniti गया परिवाना, पर्ग पगमारा पगे ; artifferiगा पारि या Friri , TET परमागमा मना HTTE R पर पनी मनमर्य * Strni Tyाई पनि Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा० १-८ सू० १४ मण्डलपदानां प्रमाणनिरूपणम् ८१ __वयं पुण एवं वयामो-ता सव्वावि णं मंडलचया अडयालीसं एगसद्विभागे जोयणस्स वाहल्लेणं, अणियया आयामविक्खभपरिक्खेवेणं आहियाति वदेज्जा । तत्थ ण को हेऊ ? ति वदेज्जा । ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ते । ता जया णं सरिए सन्यम्भतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया ण सा मंडलवया अडयालीस एगसद्विभागे जोयणस्स वाहल्लेणं, णवणउइजोयणसहस्साई छच्च चत्ताले जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं, तिष्णि जोयणसयसहस्साई पण्णरसजोयणसहस्साई एगूणणउई जोयणाई किंचिविसेसाहिया परिक्खेवेणं, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवई । से णिक्खममाणे सूरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि अभितराणतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ ता जया णं सुरिए अभितराणंतरं मंडलं उपसंकमित्ता चारं चरइ तया णं सा सव्वावि मंडलवया अडयालीसं एगसद्विभागा जोयणस्स वाइल्लेणं, णवणवइजोयणसहस्साई छच्च पणयाले जोयणसयाई. पणतीसं च एगसद्विभागा जोयणस्स आयामविक्खभेणं, तिणि जोयणसयसहस्साई पण्णरसं च सहस्साई एगं सत्तुत्तरं जोयणसयं किंचि विसेसूर्ण परिक्खेवेणं, तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहि ऊणे, दुवालमुहुत्ता राई भवइ दोहि एगसद्विभागमुहुत्तेहि अहिया । से निक्खममाणे सरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि अभितरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सुरिए अभितरं तच्चं मंडलं उचसंकमित्ता चारं चरइ तया णं सा मंडलवया अडयालीसं एगसहिभागा जोयणस्स वाहल्लेणं, णवणवइजोयणसहस्साई छच्च एकावन्ने जोयणसयाई णव य एगसटिभागा जोयणरस आयामविक्खंभेणं, तिणि जोयणसयसहस्साई पण्णरस य सहस्साई एगं च पणवीस जोयणसयं परिक्खेवेणं पण्णत्ता, तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहि ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ चउहि एगसद्विभागमुहुत्तेंहि अहिया । एवं खलु एएणं उवाएणं निक्खममाणे मृरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं उवसंकममाणे २ पंच जोयणाई पणतीसं च एगसहिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले विक्खभवुदि अभिवुड्ढेमाणे २ अट्ठारस २ जोयणाई परिरयवुइति अभिवड्ढेमाणे २ सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जयाणं मूरिए सम्बवाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं सा सव्वा वि मंडलवया अडयालीस एगसद्विभागा जोयणस्स वाहल्लेणं, एगं जोयणसयसहस्सं छच्चसही जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसयसहस्साई अट्ठारससहस्साइं तिण्णि य पण्णरमुत्तरे जोयणसयाई परिक्खेवेणं, ११ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे नयानमारमा सोनिया अद्वारसमुहत्ता राई भवट, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे i m परमे हम्मामे । एम णं पहमान छम्मायस्स पज्जवसाणे ॥ सू० १४ ॥ जागा -नापन मांगपि पलु मण्डलपदानि कियाकानि यादल्येन कियत्कानि न? शियाकानि परिपेण पारयातानि इति वदेत् , तत्र खलु इमाः Ram Pा, राधा-तक यमामु-जावत् सांण्यपि गलु मण्डलपदानि 1.1... Main n योजनानम् एकं त्रयस्त्रिशद्योजनशनम् आयामविष्कम्मेण त्रीणि Ram प्रोणिच नवनवतियोजनशनानि परिक्षण प्राप्तानि, पका एवमाहुः या:-मागत् मयंग्यपि ग्रलु मण्डलपदानि योजनं बादल्यन, एक योजनम नम्पिार योजनशाम् जायायिफम्मेण, प्रीणि योजनसहस्राणि चत्वारि नानि गरिनपण मानि, के पयमाहुः ।। पके पुनरेवमाहुः तावत् का मामलानियोजन यादन्येन. एक योजनसहनम एकच पञ्चत्रिशद योजना माणि , भौणि, गोजमसात्राणि चत्वारि पञ्चोत्तराणि योजनशनानि friiher r न. पयमा ३ पुरंग बदाम--- नायन मर्यापि गलु मण्डलपदानि अप्रचत्वारिंशद् पकपष्टिमामा सामान्यन अनियतानि मायामधिकम्मपरिक्षेपण भारयातानि इति वदेत् । दोन घमेन् ? जान् धयं मलु जम्यूदीपो जीपः यावत् परिक्षण प्राप्तः। मा , मयं मयोभ्यन्तरं मण्डलम उपसंगम्य चार चरति तदा सलु तानि निमाग्मिन पपष्टिभागा योजनस्य बादल्यन, नयनपनियोजनसहPati-re दिनानि आयानविष्यामिण, प्रीणि योजनशतमात्राणि पञ्च:: स माप एकोननवतियोजनानि पिचिनिशेषाधिकानि परिक्षेपेण तदा म्लु ... 13. र शमुटनों दियमो भवनि, जयन्यिका बादशमुह रात्रि... ' : : मई सन्मम अयन प्रथमे महाग अभ्यन्तरानन्तरं मण्डलम् mer fT नात् यदा गन्दु नगः भ्यन्नगान माउन्टम् उपसाम्य ex. rint Pain माप मानि भएनत्याशिन्पकपटिभागा ir it. म नमणि पटन पनवन्याग्गिाद योजनातानि पम्च. ..., frait गोमागण. प्राणि योजनानामणि पचदश re,ri irri मिनिन्दिपण, नदा गट अाशमहत्तों ::..fot.iriram नामानां गर्मियन जाभ्यामेकर. . . . . . . . . . . inग सम्यान गनीय मण्डलम ": HTRA मयं मन्नर एनाग मग मम, उपसंकाय it ori trati. iranनल नारिका परिभागा गागम्य याद ::"....::.:.in गद पान्माद म न नर चपक गट. ....... .....marte Hain naमाण पब ner. ......... Frepar marriffaमो भनि चमि. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोको प्रा० ६-८ सू० १४ मण्डलपदानां प्रमाणनिरूपणम् ८३ रेकषष्टिभागामुहूर्तरूनः, द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति चतुर्भिरेकपष्टिभागमुहूर्तरधिका । एवं खलु पतेन उपायेन निष्क्रमन सूर्यः तदनन्तरात् मण्डलात् तदनन्तरं मण्डलम् उपसंक्रामन् २ पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशच्च एकपष्टिभागा योजनस्य एकैस्मिन् मण्डले विष्क म्भवृद्धिम् अभिवर्धयन् २ अष्टादश योजनानि परिरयवृद्धिम् अभिवर्धयन् २ सर्ववाहां मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः सर्ववाह्य मण्डलम् उपसंक्रम्य चार चरति तदा खलु तानि सर्वायपि मण्डलपदानि अष्टचत्वारिंशद् एकपष्टिभागा योजनस्य वाहव्येन, एकं योजनशतसहन्नं पट् पष्टिः योजनशतानि आयामविष्कम्भेण, त्रीणि योजनशतसहस्राणि अष्टादशसहस्राणि त्रीणि च पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि परिक्षेपेण, तदा खलु उत्तमकाण्ठाप्राप्ता उत्कर्पिका अष्टादशमुहर्ता गत्रिर्भवति, जघन्यकः द्वादशमुहत्तों दिवसो भवति । एपा खलु प्रथमा पणाली । एतत् खलु प्रथमायाः पण्मास्या पर्यवसानम् ॥१४॥ व्याख्या-'ता' तावत् ' 'सव्वा विणं' सर्वाण्यपि खल 'मंडलवया' मण्डलपदानि मण्डलरूपाणि पदानि सूर्यमण्डलस्थानानीत्यर्थः 'केवइयं कियत्कानि कियत्प्रमाणानि 'बाहल्लेणं' वाहल्येन स्थौल्येन तथा 'केवइयं कियाकानि कियत्प्रमाणानि 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण' आयामः दैय विष्कम्भः विस्तारः तयोः समाहारे यामविष्कम्भ, तेन आयामविष्कम्भे त्यर्थः दैर्येण विस्तारेण च कियत्प्रमाणानि सर्वाण्यपि मण्डलपदानीति भावः, तथा 'केवइयं' कियत्कानि कियत्प्रमाणानि परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना, कियत्प्रमाणा तेषां परिधिरिति भावः आहिता' आख्यातानि कशिनानि तीर्थंकरैः 'इति' इति-एतद्विषयं 'वदेज्जा' वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् इति गौतमस्य प्रश्नः । भगवानाह-'तत्थ' तत्र खलु निश्चयेन 'इमा' इमा वक्ष्यमाणाः 'तिण्णि' तिम्रः 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः परमतरूपाः 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः कथिता अन्यैरन्यैस्तीर्थान्तरीयैरिति, 'तं जहा' तद्यथा-ता यथा-'तत्व' तत्र तिसृषु प्रतिपत्तिपु. मध्ये 'एगे' एके केचन प्रथमास्तीर्थान्तरीयाः ‘एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति । किमाहुरित्यत्राह-'ता' इत्यादि 'ता' तावत् 'सव्वावि णं' सर्वाण्यपि खलु 'मंडलवया' मण्डलपदानि, 'मंडलवया' इति सूत्रे स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् , तानि सर्वाण्यपि मण्डलपदानि प्रत्येकं 'जोयणं' योजनमेकं 'वाहल्लेणं' बाहल्येन स्थौल्येन, तथा 'एगं जोयणसहस्सं' एक योजनसहनम् एक सहस्रयोजनम्, 'एग' एकं 'तेत्तीसं' त्रयस्त्रिंशत् 'जोयणसर्य' योजनशतम् , त्रयस्त्रिशदधिकमेकं शन योजनानाम् 'आयामविक्खंभेणं' आयाभविष्कम्मेण दैर्ध्यविस्तारेण, 'तिष्णि जोयणसयसहस्साई त्रीणि योजनशतसहस्राणि सहनत्रययोजनानि 'तिणि य नवनवईजोयणसयाई त्रीणि च नवनवनियोजनशतानि नवनवत्यधिकशतत्रय योजनानां परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि कथितानि मण्डलपदानि । उपसंहारमाह-एगे एवमाहंसु' एके केचन प्रथमाः एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः-कथयन्तीति प्रथमा प्रतिपत्तिः ॥१। एपामेवं कथनं मिथ्याभावगर्भितं वर्तते, कथमित्याह-एपां प्रथमास्तीर्थान्तरीया स्वमते आयामविष्कम्भप्रमाणं Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे त्रयस्त्रिंशदधिकशतोत्तरैकसहस्र (११३३) योजनपरिमितं प्रतिपादयन्ति परिधिपरिमाणं च ते वृत्तपरिमाणात् परिपूर्ण त्रिगुणमेव समिच्छन्ति न तु विशेषाधिकं तेन तेषां मते आयामविष्कम्भपरिमाणं त्रिगुणितं जायते नवनवत्यधिकत्रिशतोत्तरसहस्रत्रययोजनपरिमितं (३३९९) समागच्छति, इदं परिधिपरिमाणं 'विक्खंभवग्गदहगुणकरणे वहस्स परिरओ होइ" विष्कम्भवर्गदशगुणकरणे वृत्तस्य परिरयो भवति, इति परिधिगणितेन तन्न समीचीनम् । एवं करणे परिधिमाणं द्वयशोत्यधिकपञ्चशतोत्तरसहस्रत्रययोजनपरिमितं (३५८२) किञ्चित्समधिकमायाति. तथा हि-त्रयस्त्रिंशदधिकशतोत्तरैकसहन (११३३) योजनानि आयामविष्कम्भपरिमाणं स्थाप्यते. एतेषां वर्गो विधीयते तदा द्वादशलक्षाणि ज्यशीतिसहस्राणि एकोननवत्यधिकानि पट् शतानि च (१२८३६८९) । एषा दशभिर्गुण्यते तदा एका कोटिः अष्टाविंशतिर्लक्षाणि पत्रिंशत सहस्राणि नवत्यधिकाष्टशतानि च (१२८३६८९०) जायन्ते, एतेषां वर्गमूलानयने यथोक्तं द्वयशीत्यधिकपश्चशतोचरसहस्रत्रयं (३५८२) किश्चिद्विशेषाधिकमित्यतः परिधिपरिमाणमसमीचीनत्वान्न सिध्यति । एवं करणादपरमपि मतद्वयं परिधिपरिमाणमसद्गतमेवेति । अथ द्वितीयां प्रतिपत्तिमाह-'एगे पुण' इत्यादि, 'एगे पुण' एके केचन द्वितीयाः पुनः ‘एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आईसुकथयन्ति-'ता' तावत् 'सव्वावि णं मंडलवया' :सर्वाण्यपि खलु मण्डलपदानि प्रत्येक 'जोयणं' योजनमेकं 'बाहल्लेणं' बाहल्येन, तथा 'एग जोयणसहस्सं' एकं योजनसहस्रम् 'एगं च चउतीसं जोयणसयं' एकं च चतुस्त्रिंशद् योजनशतं चतुर्विशदधिकशत्तोरैकसहस्र(११३४) योजनपरिमितानि 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण, तथा 'तिण्णि जोयणसहस्साई' त्रीणि योजनसहस्रानि, 'चत्तारि विउत्तराई जोयणसयाई' चत्वारि व्युत्तराणि योजनशतानि दूयधिकचतुःशत (४०२) योजनपरिमितानि 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण, 'एगे एवमासु' एके द्वितीया एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः-कथयन्तीति द्वितीया प्रतिपत्तिः ।२। एषाऽपि मिथ्याभावप्रदर्शनगर्भिता प्रथमप्रतिपत्तिप्रदर्शितरीत्या गणिते कृते सति परिधिपरिमाणस्यासङ्गतत्वदर्शनात् ।। अथ तृतीयां प्रतिपत्तिमाह-एगे पुण' एके केचन तृतीयाः परमतवादिनः पुनः ‘एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आइंसु आहुः कथयन्ति-'ता' तावत् 'सव्वावि मंडलवया' सर्वाण्यपि मण्डलपदानि प्रत्येकं 'जोयणं' योजनमेकं 'बाहल्लेणं' बाहल्येन. तथा 'एगं जोयणसहस्सं' एक योजनसहस्रम् ‘एगं च पणतीसं जोयणसयं' एकं च पश्चत्रिंशद् योजनशतम्-पञ्चत्रिंशदधिकशत्तोत्तरैकसहस्र (११३५) परिमितानि 'आयामविक्खंभेण' आयामविष्कम्भेण, तथा 'तिण्णि जोयणसहस्साई' त्रीणि योजनसहस्राणि 'चत्तारि पंचुत्तराई जोयणसयाई' चत्वारि पञ्चोत्तराणि योजनशतानि पञ्चोत्तरचतुःशताधिकसहस्रत्रय (३४०५) परिमितानि 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण, उपसंहरति-'एगे एवमासु' एके केचन तृतीयाः एवं Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रेशप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१-८ सू० १४ मण्डलपदांनां प्रमाणनिरूपणम् ८५ पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः कथयन्तीति तृतीया प्रतिपत्तिः ।३। एषाऽपि मिथ्याभावपोषिका पूर्ववदेव गणितरीत्या परिधिपरिमाणस्यासाङ्गत्यगर्मितत्वात् । इति तिस्रोऽपि प्रतिपत्तयो मिथ्याभावप्ररूपकत्वादनादरणीयाः । साम्प्रतं भगवान् स्वमतं प्रदर्शयति-'वयं पुण' इत्यादि 'वयं पुण' वयं पुनः 'एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकरण 'क्यामो' वदामः-कथयामः. कथमित्याह-'ता' तावत् 'सव्वावि मंडलवया' सर्वाण्यपि मण्डलपदानि प्रत्येकम् 'अडयालीसं एगसट्ठिभागा जोयणस्स' अष्टचत्वारिंशद् एकपष्टिभागा ) योजनस्य 'वाहल्लेणं' वाहल्येन एतद् बाहल्यपरिमाणं नियतं सर्वत्र बाहल्यपरिमाणस्यैतावत एव सद्भावात् , किन्तु 'अणियया' अनियतानि · 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण, तथा 'परिक्वेणं' परिक्षेपेण च. आयामविष्कम्भपरिक्षेपैः पुनरनियतानि सर्वाण्यपि मण्डलपदानि वर्तन्ते तत्र सर्वेषां पृथक्त्वेन लाभात् अत आयामविष्कम्भपरिक्षेपैरनियतानि सर्वाग्यपि मण्डलपदानि 'अहिया' आख्यातानि कयितानि 'इति वदेज्जा' इति वदेत् गौतमः पुनः पृच्छति 'तत्थ णं' इत्यादि 'तत्थ णं' तत्र खल एवं मण्डपदानामनियतत्वप्रतिपादने 'को हेऊ को हेतुः किं कारणं का व्यवस्था ? 'इति वदेज्जा' इति वदेत् कथयतु हे भगवन् ! ततो भगवानाह-'ता' तावत् अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे' अयं खलु जम्बुद्वीपो द्वीपः - 'जाव' यावत् अत्र यावत्पदेन जम्बूद्वीपपरिमाणं पूर्ववद् वोच्यम् पूर्वप्रदर्शितप्रकारः 'परिक्खेवेण' परिक्षेपेण परिधिना 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः कथितः । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु सिरिए सूर्यः 'सन्चभंतर मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चार चरइ, उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया ण' तदा खलु 'सा मंडलघया' तानि मण्डलपदानि मण्डलस्थानानि 'अडयालीस एगसहिभागजोयणस्स' अष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य 'वाहल्लेणं' वाहल्येन पृथुत्वेन,बाहल्यपरिमाणस्य नियतत्वेनाग्रे सर्वत्र एतावत्प्रमाणत्वेनैव व्याख्यातव्यम् । तथा 'नवनवइजोयणसहस्साई नवनवतियोजनसहस्राणि 'छच्च चत्ताले जोयणसयाई' षट् च चत्वारिंशद् योजनशतानि चत्वारिंशदधिक षट् शतोत्तरनवनवतिसहस्र (९९६४०) योजनपरिमितानि 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण आयामेन निष्कम्भेण च, तथा 'तिण्णि जोयणसयसहस्साई त्रीणि योजनशतसहस्राणि 'पण्णरसनोयणसहस्साई' पश्चदशयोजनसहस्राणि 'एगृणणवईजोयणाई' एकोननवतियोजनानि एकोननवत्यधिकपञ्चदशसहस्रोत्तरलक्षत्रय (३१५०८९) परिमितानि 'किंचिविसेसाहियाई' किश्चिद्विशेषाधिकानि 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण वर्तन्ते 'तया णं' तदा खल्ल 'उत्तमकट्ठपत्ते' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्पसम्पन्नः तदने प्रकर्षताया अभावात् 'उक्कोसए' उत्कर्षक' सर्वोत्कृष्ट ततोऽनन्तरमुत्कर्षाभावात 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे भवइ' अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति, तथा 'दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति इदं सूत्रोक्तमायामविष्कम्भपरिमाणं कथं लभ्यते इति प्रदर्शयामः, तथाहि-सर्वाभ्यन्तरमण्डलमेकतोऽशीत्यधिकमेकं शतं (१८०) जम्बूद्वीपमवगाह्य स्थितम् एवमपरतोऽपि-अशीत्यधिकमेकं शतं (१८०) जम्बूद्वीपमवगाह्य स्थितमिति तयोःसमेलने जातं षष्टयधिकं शतत्रयम् (३६०) एषा संख्या लक्षयोजनरूपज्जम्बूद्वीपपरिमाणम् शोध्यते ततो जातं यथोक्तपरिमाणमायामविष्कम्भयोः चत्वारिंशदधिकषट् शतोत्तरनवनवतिसहस्रयोजनपरिमितम् (९९६४०)। परिक्षेपपरिमाणानयनं यथा सर्वाभ्यन्तरमण्डलस्य विष्कम्भो नवनवतियोजनसहनाणि चत्वारिंशदधिकपट्शतोत्तराणि (९९६४०) अस्याः संख्याया वर्गो विधीयते जातः सः नवनवति. अष्टाविंशतिः, द्वादश, पण्णवतिः, द्वे च शून्ये (९९२८ १२९६००) हत्येवं रूपः, ततो दशभिर्गुणने एकशून्याधिका पूर्वोक्ता संख्या (९९२८१२९६०००), अस्या वर्गमूलानयने लब्धं यथोक्तं त्रीणि लक्षाणि नवाशीत्यधिक पञ्चदशसहस्रोत्तराणि(३१५०८९) परिक्षेपपरिमाणमिति, शेषं द्वेलक्षे एकोनाशीत्यधिकाष्टादशसहस्रोत्तरे (२१८०७९) एतावत्प्रमाणं स्थितं तत्त्यक्तमिति भगवन्मतं केवळालोकालोकितत्वेन समीचीनं सिद्धमिति । 'से' सः 'णिक्खममाणे' निष्क्रामन् 'सरिए' सूर्यः 'णवं संवच्छरं अयमाणे नवं संवत्सम् अयन् प्राप्नुवन् सन् 'पढमंसि अहोरत्तंसि' प्रथमेऽहोरात्रे 'अभितरोणंतरं मंडलं' अभ्यन्तरमण्डलादनन्तरं स्थितं द्वितीय मण्डलम् 'उपसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल 'रिए' सूर्यः। 'अभितराणतरं मंडलं' आभ्यन्तरानन्तरं सर्वाभ्यन्तरानन्तरंद्वितीयं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं तदा खल 'सा सव्वा वि मंडलवया' तानि सर्वाण्यपि मण्डलपदानि प्रत्येकम् 'अडयालीस एगसट्ठिभागा जोयणस्स' अष्टचत्वारिंशद् एकषष्टिभागा योजनस्य 'बाहल्लेणं' बाहल्येन वर्त्तन्ते, तथा 'णवणवइजोयणसहस्साई' नवनवतियोजनसहस्राणि 'छच्च पणताले जोयणसयाई षट्च पञ्चचन्वारिंशद् योजनशतानि पणतीसं च एगसद्विभागा जोयणस्स' पञ्चत्रिंशच्च एकषष्टिभागा योजनस्य (९९६४५ ३५/६१) 'आयामविक्खंभेणं' आयाभविष्कम्भेण सन्ति तथा 'तिण्णि जोयणसयसहस्साई' त्रीणि योजनशतसहस्राणि 'पण्णरसं च सहस्साई' पञ्चदश च सहस्राणि 'एगं सत्तुतरं जोयणसयं' एक सप्तोत्तरं योजनशतम्-सप्तोत्तरशताधिकपञ्चदशसहस्रोत्तरलक्षत्रयम् (३१५१०७) 'किंचिविसेसूर्ण' किञ्चिद्विशेषोनं किञ्चिद् त्रयोविं. शत्येकषष्टिभागहीनत्वात् । व्यवहारनयमतेन लोकेऽपि किञ्चिन्यूनसंख्याया अपि परिपूर्णत्वेन विवक्षा लभ्यते । निश्चयनयमतेन तु एतावती संख्या भवति तथा च (३१५१०६-३८६१) इति एतावत्परिमितानि सर्वाण्यपि मण्डलपदानि परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना वर्तन्ते। अत्र यत् 'किंचिविसेसूर्ण' इति कथितं तत् अन्तिमाङ्कसप्तसख्यायाः परिपूर्णाभावात् कथितम् । 'तया णं' Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०-१-८ सू० १४ मण्डलपदानां प्रमाणनिरूपणम् ८७ तदा पूर्वोक्तपरिस्थितौ खलु 'अद्वारसमुहुत्ते दिवसे भवइ' अष्टादशमुहूर्ती दिवसो भवति किन्तु सः 'दोहिं एगसद्विभागमुहुत्तेर्हि' द्वाभ्यामेकपष्टिभाग मुहूर्त्ताभ्याम् 'ऊणे' ऊनः हीनो भवति, तथा 'दुवालसमुहुत्ता राई भवई' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति सा च 'दोहिं एगसट्टिभागमुहतेहिं' द्वाभ्यामेकपष्टिभागमुहूर्त्ताभ्याम् 'अहिया' अधिका भवतीति । कथमेतदायामविष्कम्भयोः परिधैश्च परिमाणं लभ्यते इति तदेव प्रदर्शयामः, तत्र प्रथम - मायामविष्कम्भयो. परिमाणं प्रदर्श्यते, तथाहि - एकः सूर्यो द्वे योजने एकस्य योजनस्य सर्वा - भ्यन्तरमण्डलगताष्टचत्वारिंशदेकपष्टिभागांश्च - (२ - ४८६१) बहिरवष्टभ्य द्वितीये मण्डले चारं चरति । एवमेव द्वितीयोऽपि सूर्यो द्वे योजने, सर्वाभ्यन्तरमण्डलगताष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागांश्च (२ - ४८/६१) वहिरवष्टभ्य पुनर्द्वितीये मण्डले चारं चरति ततो द्वयोः संमेलने जातानि पञ्चयोजनानि तदुपरि योजनस्य पञ्चत्रिंशदेकपष्ठिभागाश्च ( ५ - ३५ / ६१) भवन्ति । एषा संख्या प्रथममण्डलायामविष्कम्भपरिमाण (९९६४०) मध्येऽधिकत्वेन प्रक्षिप्यते ततो जातं यथोक्तमायामविष्कम्भपरिमाणं पञ्चचत्वारिशदधिकपट्ातोत्तरनवनवतिसहस्रयोजनानि पञ्चत्रिंशचैकपष्टिभागा योजनस्य ( ९९६४५ - ३५/६१ ) इति । इदमायाविष्कम्भपरिमाणं लब्धम् । परिघिपरिमाणमेवं लभ्यते, तथाहि - पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकपष्टिभागा योजनस्य, इत्यस्य सर्वे - एक षष्टिभागाः क्रियन्ते तदर्थं पश्च योजनानि एकषष्ट्या गुण्यन्ते, जातानि पञ्चोत्तराणि त्रीणि शतानि (३०५) एषु एकषष्टिभागेषु उपरितनाः शेषाः ये पञ्चत्रिंशत् (३५) एकषष्टिभागास्ते प्रक्षिप्यन्ते ततो जातानि चत्वारिंशदधिकानि त्रीणि शतानि (३४०) एतेषां वर्गकरणात् जातं पट् शताधिक पञ्चदशसहस्रोत्तरमेकं लक्षम् (११५६००) एषोऽङ्कसमुदायो दशभिर्गुण्यते ततो जाता एकशून्याधिका पूर्वोक्ता संख्या ( ११५६०००) । एषां वर्गमूलानयने लभ्यते पञ्चसप्तत्यधिक्रमेकं सहस्रम् (१०७५) । अस्य योजनकरणार्थमेकपष्ट्या भागो ह्रियते तदा लब्धानि सप्तदशयोजनानि अष्टत्रिंशच्च एकषष्टिभागा योजनरय ( १७ - ३८।६१) शेपाऽष्टत्रिंशदूपासंख्या निष्ठति सात्यक्ता । एतत् (१७ - ३८१६१) पूर्वमण्डलपरिधिपरिमाण (३१५०८९) मध्येऽधि कत्वे प्रक्षिप्यते ततो जातं यथोक्तं परिधिपरिमाणं सप्तोत्तरशताधिकपञ्चदशसहस्रोत्तरं लक्षत्रयम् (३१५१०७) किञ्चिद्विशेपोनं- किञ्चिदूनत्रयोविशत्येकषष्टिभागानां होनत्वादिति । 'सेणिक्खममाणे सूरिए' स निष्क्रामन् सूर्यः 'दोच्चंसि अहोरत्तंसि' द्वितीयेऽहोरात्रे अभितरं मंडल' अभ्यन्तरम् अभ्यन्तरसम्बन्धित्वादभ्यन्तरं तृतीयं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सूरिए' सूर्यः 'अभितरं तच्चं मंडलं'. अभ्यन्तरं तृतीयं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति । 'तया णं' तदा खल 'सा मंडलच्या' तानि मण्डलपदानि 'अड़यालीसं एगसट्टिभागा जोयणस्स' अष्टचत्वारिं Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे शदेकपष्टिभागा योजनस्य 'बाहल्लेणं' बाहल्येन, 'णवणवइजोयणसहस्साई' नवनवतियोजनसहस्राणि 'छच्च एकावण्णे जोयणसयाई' षट् च एकपञ्चाशद् योजनशतानि 'णव य एगसद्धि भागा जोयणस्स' 'नव च एकषष्टिभागा योजनस्य एकपञ्चाशदधिकषट्रशत्तोत्तरनवनवतिसहस्रयोजनानि योजनस्य नवैकपष्टिभागसमधिकानि (९९६५१-९।६१) 'आयामविक्खभेणं' आयामविष्कम्भेण वर्तन्ते । कथमेतत्परिमाण लभ्यते ? इति प्रदर्श्यते-पूर्ववदत्रापि प्रतिमण्डलचारं वृद्धिमर्यादया पञ्च- . योजनानि पञ्चत्रिंशञ्चैकषष्टिभागा योजनस्य (५ मण्डलायामविष्कम्भपरि माणादधिकत्वेन प्राप्यन्ते ततो भवति यथोक्तमायामविष्कम्भपरिमाणं (९९५१ .). तथा च--पूर्वमण्डलायामविष्कम्भपरिमाणं . पञ्चचत्वारिंशदधिकषट्शतोतरनवनवतिसहस्रयोजनानि . पञ्चत्रिशच्चैकषष्टिभागाः (९९६४५३१) तन्मध्ये पञ्चयोजनानि पंञ्चत्रिंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्य (५-३५) संयोज्यन्ते यथा ९९६४५-३५) । ६१ र ५-३५ (९९६५०-७०). संयोजनेन समागताः सप्ततिसंख्यका (७०) एक षष्टिभागास्ते एकषष्टया ६१ विभज्यते लब्धमेकं योजनं तद् योजनसंख्यायां प्रक्षिप्यते शेषाः नव- एक पष्टिभागाः स्थिता इति जातं यथोक्तं परि माणम्' (१९६५१६) " इति । । -:तिण्णि जोयणसयसहस्साई' त्रीणि योजनशतसहस्राणि 'पण्णरस य सहस्साई' पञ्च' दश च सहस्राणि 'एगं च पणवीसं जोयणसयं' एकं च पञ्चविंशतिः योजनशतम्-पञ्च विंशत्यधिकशतोत्तरपञ्चदशसहस्राधिक-लक्षत्रय योजनानाम् (३१५१२५) परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना वर्तन्ते सर्वाणि मण्डलपदानीति । -". कथमेतत् परिधिपरिमाणमुपलभ्यते ? इति प्रदर्श्यते तथाहि पूर्वमण्डलपरिधिपरिमाण-(३१. ५१०७) मध्ये अष्टादशयोजनानि अधिकत्वेन प्रक्षिप्यन्ते ततो भवति सूत्रोक्तमेतन्मण्डलपरिधिपरिमाणं पञ्चविंशत्यधिकशतोत्तरपञ्चदशसहस्राधिकत्रिलक्षयोजनपरिमितं (३१५१२५) भवतौति । अत्र निश्चयनयमतेन तु सप्तदशयोजनानि अष्ट त्रिंशच्चैकषष्टिभागाः (१७३८, एष Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा०१-८ सू०१४ . मण्डलपदानां प्रमाणनिरूपणम् ८६ प्रक्षेपकराशिरस्ति किन्तु सूत्रकृता व्यवहारनयमनुसृत्य परिपूर्णाष्टादशयोजनानि कथितानि लोके हि व्यवहारनयेन किञ्चिदूनराशेरपि परिपूर्णत्वेन व्यवहियमाणत्वात् । पूर्वमण्डलपरिमाणे 'किंचिविसेसणं' इति प्रोक्तं तदपि व्यवहारनयमतेन परिपूर्णमिव विवक्ष्यते । तथाचोक्तम्-- "सत्तरसजोयणाई अतीसं च एगसद्विभागा, एवं निच्छएणं, सववहारेण पुण अट्ठारसजोयणाई" इति 'सप्तदशयोजनानि अष्टत्रिंशच्च एकषष्टिभागा एतत् निश्चयेन, सव्यवहारेण पुनः अष्टादशयोजनानि" इति छाया । "तया ण' तदा खलु 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति किन्तु सः 'चउर्हि एगसद्विभागमुहुत्तेहि' चतुभिरैकपष्टिभागमुहूर्तेः 'उणे' उनः हीनो भवति, तथा 'दुवालसमुहुत्ता राई भवई' द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, सा च 'चउहि एगसहिभागमुहुत्तेहि' चतुभिरैकपष्ठिभागमुहत्तैः 'अहिया' अधिका भवति । 'एवं' एवम् अनेनैव प्रकारेण खलु 'एएणं' एतेन पूर्वोक्केन 'उवाएणं' उपायेन विधिना 'णिक्खममाणे सरिए' निष्कामन् सूर्यः 'तयाणंतराओ मंडलाओ' तदनन्तरात् पूर्वमण्डलादनन्तरस्थितात् यत्र सूर्यो वर्तते तस्मादित्यर्थः मण्डलात 'तयाणंतरं मंडलं' तदनन्तरं मण्डलं तदने स्थितं मण्डलम् 'उवसंक्रममाणे २, उपसंक्रामन् २ 'पंच जोयणाई' पञ्च योजनानि 'पणतीसं च एगसहिभागे जोयणस्स' पञ्चत्रिंशतं च एकपष्टिभागान् योजनस्य 'एगमेगे मंडले. एकैकस्मिन् मण्डले प्रत्येकमण्डले इत्यर्थः 'विक्खंभवुढि' विष्कम्भवृद्धिम् 'अभिवुड्ढेमाणे २' अभिवर्धयन २ तथा 'अट्ठारस २ जोयणाई अष्टादश २ योजनानि 'परिरयबुटि' परिरयवृद्धि परिधिवृद्धिम् 'अभिवड्ढेमाणे २' अभिवर्धयन् 'सव्ववाहिरं मंडलं' सर्ववाह्यं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य धारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'मूरिए' सूर्यः 'सव्ववाहिरं मंडलं' सर्वबाह्यं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं सा मंडलवया' तदा खल तत् मण्डलपदम् 'अडयालिसं एगसहिभागा जोयणस्स' अष्टचत्वारिंशदेकपण्टिभागा योजनस्य 'वाहल्लेणं' बाहल्येन सन्ति 'एगं जोयणसहस्सं' एक योजनसहस्रं 'छच्च सही जोयणसयाई' षट् षष्टिः योजनशतानि षष्टयघिकानि पट् शतानि योजनानां षष्ट्याधिकपट्शतोत्तरैकलक्षयोजनानि (१००६६०) 'आया मविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण तथा 'तिन्नि जोयणसयसहस्साई' त्रीणि योजनशतसहस्राणि 'अट्ठारससहस्साई' अष्टादशसहस्राणि 'तिण्णि य पण्णरमुत्तराई जोयणसयाई' प्रीणि च पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि-पञ्चदशाधिकत्रिशतोत्तराष्टादशसहस्राधिकत्रिलक्षयोजनानि (३१८३१५) परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना वर्तन्ते । १२ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० चन्द्रप्रक्षप्तिसत्रे ___कथमायामविष्कम्भयोः परिधेश्च परिमाणमेतावत्परिमितमुपलभ्यते । इति प्रदर्शयामः, तत्र पूर्वमायामविष्कम्भपरिमाणं प्रदर्श्यते, तथाहि -सर्वाभ्यन्तरमण्डलात् सर्वबाह्यं मण्डलं त्र्यशीत्यधिकैकशततमं (१८३) वर्तते, प्रत्येकस्मिन् मण्डले च विष्कम्भे २ पञ्चपञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकपष्टिभागाः ( ५३१) योजनस्य वर्द्धन्ते ततः एतत् त्र्यशीत्यधिकैकशतेन गुण्यते, तत्र पञ्च योजनानां व्यशीत्यधिकशतेन गुणने जातानि पञ्चदशोत्तरनवशतानि योज नानि (९१५) एकषष्टिभागानां त्र्यशीत्यधिकशतेन गुणने जातानि पञ्चाधिकचतुःशतोत्तराणि षट् सहस्राणि, (६४०५) एतावन्त एक पष्टिभागाः जाताः, एषां योजनानयनार्थ मेकपष्टया ६१ भागो हियते, लब्धं पञ्चोत्तरं शतम् (१०५) एषा योजनसंख्या लब्धा, एतां पूर्वलब्धयोजनराशौ पञ्चदशाधिकनवशत (९१५) रूपे प्रक्षिप्यते तदा जातं विशत्यधिकमेकं सहस्रम् (१०२०) एपोऽङ्कसमुदायः सर्वाभ्यन्तरमण्डलायामविष्कम्भपरिमाणे (९९६४०) ऽधिकत्वेन प्रक्षिप्यते ततो जायते यथोक्तं पष्ट्यधिक पट्ट शतोत्तरैकलक्ष (१००६६.) रूपं परिमाणमायामविष्कम्भयोर्भवतीति । अथ परिधिपरिमाणं कथं लभ्यते ? इति प्रदीते, तथाहिपरिक्षेपपरिमाणे यत् 'पञ्चदशोत्तराणि' इति कथितं तानि पञ्चदशोत्तराणि किश्चिन्न्यूनानि ज्ञातव्यानि । तथाहि-अस्य मण्डलस्यायामविष्कम्भपरिमाण षष्टयधिकषट्शतोत्तरमेकं लक्षम् (१००६६०), अस्य वर्गकरणात् जातम् एककः शून्यमेककस्त्रिको दिकश्चतुष्कस्त्रिकः पञ्चकः षट्को द्वे शून्ये (१०१३२४३५६००) इति ततो दशभिर्गुणने जातमेकं शून्यमधिकम् (१०१३२४३५६०००) अस्य वर्गमूलानयने लन्धानि-चतुर्दशोत्तरशतत्रयाधिकाष्टादशसहस्रोत्तरलक्षत्रयम् (३१८३१४), शेषमवतिष्ठते-चतुरुत्तरचतुःशताधिकत्रिपश्चाशत्सहस्रोत्तरं लक्षपश्चकम् (५५३४०४) छेदराशिः अष्टाविंशत्यधिकपदेशतोत्तरपत्रिंशत्सहस्राधिकं लक्षपटकम् (६३६६२८)। एवं रीत्या पञ्चदशतमं योजनं किंचिदूनं प्राप्यते तथापि व्यवहारनयमतेन सूत्रकृता परिपूर्ण विवक्षाया पञ्चदशोत्तराणीत्युक्तम् । अथवा द्वितीयप्रकारेण प्रदश्यन्ते-पूर्वपूर्वमण्डलमधिकृत्याऽग्रेड प्रतिमण्डले परिधिवृद्धौ सप्तदश सप्तदश योजनानि अष्टत्रिंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्य(१७३८) प्राप्यन्ते तत एते त्र्यशीत्यधिकशतेन गुण्यन्ते, तत्र पूर्व योजनानां गुणने जातानि-एकादशोतरैकशताधिकानि त्रीणि सहस्राणि (३१११), ततो येऽष्टत्रिंशदेकषष्टिभागास्तेऽपि व्यशीत्यधिकशतेन गुण्यन्ते, जातानि चतुष्पञ्चाशदधिकनवशतोत्तराणि षट् सहस्राणि (६९५४), एतेषां योजनकरणार्थमेकषष्ट्या भागो हियते, तेन लब्धं चतुर्दशोत्तरमेकं शतम् (११४), एतानि योजनानि लब्धानि, तानि पूर्वोक्ते गुणनफलमूते योजनराशौ (२११४) प्रक्षिप्यन्ते ततो जातानि Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका ग्री०१-८ सू०१४ मण्डलंपदांना प्रमाणनिरूपणम् ९३ पञ्चविंशत्यधिकद्विशतोत्तराणि त्रीणि सहस्राणि (३२२५) एषोऽकसमुदायः सर्वाभ्यन्तरमण्डलपरिमाणे नवाशीत्यधिकपंचदशसहस्रोत्तरत्रिलक्ष (३१५०८९) रूपेऽधिकत्वेन प्रक्षिप्यते, तेन जातानि चतुर्दशोत्तरत्रिशताधिकाष्टादशसहस्रोत्तराणि त्रीणि लक्षाणि (३१८३१४) इति सूत्रोकं परिधिपरिमाणमुपलब्धम् । तथा सप्तदशयोजनानाम् , अष्टत्रिंशदेकपष्टिभागानामुपरि पञ्चसमत्यधिकानि त्रीणिशतानि (३७५) शेषत्वेनोद्धरन्ति तानि ज्यशीत्यधिकशतेन गुणनात् जातानि पञ्चविंशत्यधिकपटशतोत्तराणि अष्टपष्टिसहस्राणि (६८६२५)एतेषां पञ्चाशदधिकशतोत्तरसहस्रद्वयरूपेण (२१५०) छेदराशिना भागो हियते तदा लब्धा एकत्रिंशदेकपष्टिभागा योजनस्य, शेषमल्पत्वात्त्यकम् । परं मूत्रकृता व्यवहारनयमतेन परिपूर्णयोजनविवक्षया 'पञ्चदशोत्तराणि" इत्युक्तम् । एवं यदाऽऽयामविष्कम्भपरिधिपरिमाणं भवति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तमकट्ठपत्ता' उत्तमकाष्टा प्राप्ता परमप्रकर्षसम्पन्ना 'उकोसिया' उत्कर्पिका सर्वोत्कृष्टा सर्वगुर्वीयतोऽनन्तरमाधिक्याभावात् 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई' अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिभवति, तथा 'जहण्णए' जघन्यकः सर्वलघुः यतोऽनन्तरं लाघवाभावात् 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' द्वादशमुहत्तों दिवसो भवतीति । 'एस णं' एतत् खलु 'पढमे छम्मासे' प्रथमं षण्मासम् । 'एस णं' एतत् खलु 'पढमस्स छम्मासस्स' प्रथमस्य पण्मासस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानम्-अन्तिममहोरात्रम् । यतोऽने सूर्यस्य चारक्षेत्राभावात् ॥सू०१४॥ ॥ एतद रात्रिद्धिरूपं प्रथमं पण्मासम् ।। गत सूर्यसंवत्सरस्य मण्डलपदरूपं प्रथमं षण्मासम् साम्प्रतं तत्सम्बद्धमेव द्वितीयं षण्मासं. प्ररूप्यते, तस्येदमादिसूत्रम्-‘से पविसमाणे सुरिए' इत्यादि । मूलम्-से पविसमाणे सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तसि वाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सरिए बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं सा मंडलवया अडयालीसं एगसहिभागा जोयणस्स बाहल्लेणं, एग जोयणसयसहस्सं छच्च चउप्पण्णे जोयणसयाई छब्बीसं च एगसहिभागा जोयणस्स आयामविक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसयसहस्साई अट्ठारससहस्साई दोण्णि य सत्ताणउए जोयणसयाई परिक्खेवेणं, तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ दोहि एगसहिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई दोहिं एगसहिभागमुहुत्तेहि अहिए । से पविसमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तसि वाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सरिए वाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे तया णं सा मंडलवया अडयालीसं एगसद्विभागा जोयणस्स वाहल्लेणं, एग जोयणसयसहस्सं छच्च अडयाले जोयणसयाई वावण्णं च एगसद्विभागा जोयणस्स आयामविक्खंभेणं, तिणि जोयणसयसहस्सोई अट्ठारससहस्साई दोण्णि च एगृणासी ई जोयणसयाई परिक्खेवेणं, तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ चउहिं एगसटिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहिं एगसहिभागमुहुत्तेहि अहिए । एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे २ पंच पंच जोयणाई पणतीसं च एगसद्विभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले विक्खंभवुढि निव्वुड्ढे माणे २ अट्ठारसजोयणाई परिरयवुदि णिव्वुड्ढेमाणे २ सन्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ वा जया णं सूरिए सबभतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं सा मंडलवया अडयालीसं एगसद्विभागा जोयणस्स वाहल्लेणं, णवणवई जोयणसहस्साई छच्च चत्ताले जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसयसहस्साई पण्णरससहस्साई एगणणउई च जोयणाई किंचिविसेसाहियाइं परिक्खेवेणं, तया णं उत्तमकढपत्ते उक्कोसए अहारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । एस णं दोच्चे छम्मासे । एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे । एस ण आइच्चे संवच्छरे । एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे ॥९० १५॥ छाया-स प्रविशन् सूर्यः द्वितीयं षण्मासम् अयन् प्रथमे अहोरात्र वाद्यानन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तद्यदा खलु सूर्यः वाहानन्तरं मण्डलं उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु.तानि मण्डलपदानि अष्टचत्वारिंशद् एकपप्टिभागा योजनस्य.वाहल्येन, एक योजनशतसहस्रं षट् च चतुप्पञ्चाशत् योजनशतानि षड्विशतिश्च एकष्टिभागा योजनस्य आयामविष्कम्मेण, त्रीणि योजनशतसहस्राणि अष्टादशसहस्राणि द्वे च सप्तनवतियोजनशते परिक्षेपेण, तदा खलु अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भर्वात द्वाभ्यामेकपष्टिभागमुहर्ताभ्याम् ऊना, द्वादशमुहर्तो दिवसो भवति द्वाभ्यामेकपष्टिभागमूहर्ताभ्याम् अधिकः । . स प्रविशन् सूर्यः द्वितीये अहोरात्रे पाह्यं तृतीयं मण्डलम् उयसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः वाह्य तृतीयं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु तानि मण्डपदानि अष्टचत्वारिंशद् एकषष्टिभागा योजनस्य वाहल्येन, एक योजनशतसहस्र षट् च अष्टचत्वारिंशद् योजनशतानि द्विपञ्चाशच्च एकपष्टिभागा योजनस्य आयामविष्कम्मेण त्रीणि योजनशतसहस्राणि अष्टादशसहस्राणि द्वे च एकोनाशीतिः योजनशतानि परिक्षेपण तदा स्खलु अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति चतुर्भिरेकपष्टिभागमुहत्तैः ऊना, द्वादशमुहत्तों दिवसो भवति चतुभिरेकषष्टिभागमुहूत्तैः अधिकारी एवं खलु पतेन उपायेन प्रविशन् सूर्यः तदनन्तरात् मंडलात् तदनन्तरं मण्डलं संक्रामन् २ पञ्च पञ्च योजनानि पञ्चत्रिशतमैकष्टिभागान योजनस्य एकैकस्मिन् मण्डले विष्कम्भवृद्धि निर्वर्धयन् २ अष्टादश Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिकाटोका प्रा०१-८ सू.१५ द्वितीयषण्मासे सूर्यपरिभ्रमणम् ९३ योजनानि परिरयवृद्धि निर्वर्धयन् २ सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति । तावद् यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु तानि मण्डलपदानि अष्टचत्वारिंशद् एकपष्टिभागा योजनस्य वाहल्येन, नवनवतियोजनसहस्राणि षट् चत्वारिंशद् योजनशतानि आयामविष्कम्मेण, त्रीणि योजनशतसहस्राणि पञ्चदश च सहनाणि पकोननवतिश्च योजनानि किञ्चिद्विशेपाधिकानि परिक्षेपेण । तदा खल्लु उत्तम. काष्ठाप्राप्तः उत्कर्पकः अष्टादशमुहतो दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहर्ता रात्रिभवति एतत् खलु द्वितीयं पण्मासम् । एतत् खलु द्वितीयस्य पण्मासस्य पवर्यसानम् । पप खलु आदित्यः संवत्सरः। एतत् खलु आदित्यस्य संवत्सरस्य पर्यवसानम् ।।२० १५॥ ___ व्याख्या-ततः ‘से पविसमाणे सूरिए' म प्रविशन् सर्वाभ्यन्तरमण्डलाभिमुखं गच्छन् 'दोच्चं छम्मासं' द्वितीयं पण्मामम् दिवसवृद्धिरूपम् 'अयमाणे' अयन् प्राप्नुवन् 'पढमंसि अहोरतसि' प्रथमे अहोरात्रे 'वाहिराणंतरं मंडलं' सर्ववाद्यानन्तरमभ्यन्तरमार्गगतद्वितीयं मण्डलम् 'उपसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चार चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल 'मरिए' सूर्यः 'वाहिराणंतरं मंडलं' बाह्यानन्तरं मण्डलम् 'उबसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चार चरति 'तया णं तदा खल 'सा मंडलवया' तानि मण्डपदानि 'अडयालीसं एगसद्विभागा जोयणस्स' अष्टचत्वारिंशदेकपष्टिभागाः योजनस्य बाहल्येन वर्तन्ते, 'एग जोयणसयसहस्स एक योजनशतसहस्र 'छच्च चउप्पण्णे जोयणसयाई' पट् च चतुष्पञ्चाशद् योजनशतानि 'छब्बीसं च एगसद्विभागा जोयणस्स' पड्विंशतिश्च एकपष्टिभागा योजनस्य चतुष्पञ्चाशदधिकपट्शतोत्तरैकलक्षयोजनानि योजनस्य पइविंशत्येकषष्ठिभागसहितानि (१००६५१-२६ 'आयामविवखंभेणं' यामविष्कम्भेण वर्तन्ते । कथमेतत्परिमाणमुपलभ्यते ? इति विशदी क्रियते, तथाहि-मण्डलमेतत् एकतो द्वे योजने सर्वबाह्यमण्डलगतानष्टचत्वारिंशतमेकपष्टिभागांश्च (२-११) योजनस्य मुक्वाऽभ्यन्तरमवस्थितम् , 'अपरतोऽपि द्वे योजने सर्ववाह्य मण्डलगतानष्टचत्वारिंशतमेकपष्टिभागांश्च (२-) योजनस्य मुक्त्वाऽभ्यन्तरमवस्थितमिति तयोर्दयोः सम्मेलने जातानि पञ्चयोजनानि पंचत्रिंशच्चैकपष्टिभागा योजनस्य (५-३५)त्ति' एतत् सर्वबाद्यमण्डलगतायामविष्कम्भपरिमाणात् (१००६६०) शोध्यते ततो जातं यथोक्तं चतुष्पञ्चाशदधिकषट्शतोत्तरैकलक्षयोजनानि पड्विंशतिश्चैकषष्टिभागाः (१००६५४-२६ आयामविष्कम्भपरिमाणमिति । तथा 'तिण्णि जोयणसयसहस्साइ' त्रीणि योजनशतसहस्राणि 'अद्वारस Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ • www www.www.~~ AN Inv चन्द्रमतिसूत्रे सहस्साइ' अष्टादशसहस्राणि 'दोणि य सत्ताणउए जोयणसयाई' द्वे च सप्तनवतिः योजनशते सप्तनवत्यधिकद्विशतोत्तर|ष्टादशसहस्राधिकत्रिलक्षयोजनानि ( ३१८२९७) 'परिवखेवेणं' परिक्षेपेण वर्त्तन्ते । कथमेतदवसीयते ? इत्याह पूर्वमण्डलात् अस्य मण्डलस्य आयामविष्कम्भपरिमाणे पंच योजनानि पंचत्रिंशच्च एकषष्टिभागा योजनस्य न्यूनत्वेन भवितुमर्हन्ति सूर्यस्याभ्यन्तरगतिकत्वात् पंचत्रिंशदेकपष्टिभागसहितानां पंचानां योजनानां (५- परिरये निश्चयनयम तेन ६१ सप्तदशयोजनानि अष्टत्रिशच्चैकषष्टिभागा योजनस्य लभ्यन्ते किन्तु सूत्रकृता व्यवहारनयमः श्रित्य परिपूर्णानि अष्टादश योजनानि कथितानि । प्रागुकात् सर्वं चाह्यमण्डलपरिधिपरिमाणात् पंचदशोतर शतत्रयाधिकाष्टादशसहस्रो त्तर त्रिलक्ष ( ३१८३१५) रूपात् अष्टादशयोजनानि शोध्यन्ते ततो जातं यथोक्त' सप्तनवत्यधिकद्विशतोत्तराष्टादशसहस्राधिकत्रिलक्षयोजन (३१८२९७) परिमितंपरिधिपरिमाणं भवतीति । 'तया णं' तदा खलु 'अद्वारसमुहुत्ता राई भवई' अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति किन्तु 'सा दोहिं एगसद्विभागमुहुत्तेर्हि' द्वाभ्यामेकपष्टिभागमुहूर्त्ताभ्याम् 'ऊणा' ऊना होना भवति तथा 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ' द्वादशमुहुत्तों दिवसो भवति, स च 'दोहिं एगसद्विभागमुहुत्तेर्हि' द्वाभ्यामेकपष्टिभागमुहूर्त्ताभ्याम् 'अहिए' अघिको भवतीति । 'से पविसमाणे' ततः 'से' सः 'पवितमाणे' प्रविशन् 'सूरिए' सूर्यः दोच्चंसि अहो - रत्तंसि' द्वितीयेऽहोरात्रे 'बाहिरं' बाह्यं बाह्यमार्गात्प्राप्तं 'तच्चं मंडल' तृतीयं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसक्रम्य चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सूरिए' सूर्यः बाहिर तच्चं मंडल उवसंकमित्ता चारं चर' बाह्यं तृतीयं मंण्डलम् उपसंक्रम्य चार चरति । 'तया णं' तदा खलु तद् मण्डलपदम् ' अडयालीसं एगसट्टिभागा जोयणस्स' अष्टचत्वारिंशदेकपष्टिभागा योजनस्य 'वाहरलेणं' बाहल्येन । एगं जोयणसय सहस्सं' एकं योजनशतसहस्रम् एकलक्षयोजाना नि 'छच्च अडयाले जोयणसयाई' षट् च अष्टचत्वारिंशद्योजनशतानि अष्टचत्वारिंशदधिकषट्शतयोजनानि 'बावण्णं च एगसद्विभागा जोयणस्स' द्विपञ्चाशच्च एकषष्टिभागा योजनस्य (१००६४(१३) एतावत्परिमितम् 'आयाम विक्खंभेणं' आयामवि ०कम्पेण, एतत्परिमाणं कथं लभ्यते ! तत्प्रदर्श्यते, तथाहि - अस्मात् प्राक्तनमण्डलस्यायामवि ष्कम्भपरिमाणं लक्षमेकं चतुष्पञ्चाशदधिकपट्ातोत्तरम्, षडविंशतिश्चैषष्टिभागा योजनस्य (१००६५४ २६ )वर्त्तते, एतत्परिमाणात् पूर्वमण्डलात् पञ्चयोजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकपष्टि ६१ आगतं पूर्वोकमायामविष्कम्भपरिमाण तृतीयमण्डलपद भागाः (५-३५) शोध्यन्ते ६१ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चद्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १-८ सू० १५ . द्वितीयषण्मासे सूर्यपरिभ्रमणम् ९५ स्येति । तथा 'तिण्णि जोयणसयसहस्साई' त्रीणि योजनशतसहस्राणि त्रिलक्षयोजनानि, 'अट्ठारससहस्साई अष्टादशसहस्राणि 'दोण्णि य एगृणासोई जोयणसयाई द्वे च एकोनाशीतिः योजनशते एकोनाशीत्यधिके द्वेशते च योजनानाम् (३१८२७९) 'परिक्खेवेण' परिक्षेपेण परिधिना विद्यते । तथाहि-अस्मात्-प्राक्तनमण्डलस्य परिधिपरिमाणम् (३१८२९७) इत्येवं रूपम् । प्राक्तनमण्डलविष्कम्भपरिमाणादिदं मण्डलं योजनस्य पञ्चत्रिंशदेकपष्टिभागसहितैः पञ्चभियोंजनैर्विष्कम्भतो न्यूनमस्ति, विष्कम्भन्यूनत्वे परिक्षेपन्यूनत्वस्यावश्यंभावात् पञ्चानां योजनानां पञ्चत्रिंशदेकपप्टिभागसहितानां परिधिप्रमाणं व्यवहारतोऽष्टादशयोजनानि लभ्यन्ते, तानि च पूर्वमण्डलपरिमाणात् (३१८२९७) इत्येवं रूपात् अष्टादश हीनाः क्रियन्ते तत आगतं यथोक्तं (३१८२७९) परिधिपरिमाणम् । 'तया गं' तदा तस्मिन काले खलु एतद्रूपपरिक्षेपपरिधिपरिमाणपमये इन्यर्थः, 'अट्ठारसमुहुता राई भवइ' अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति किन्तु 'चरहिं एगसट्ठिभागमुहुत्तेहि ऊणा' चतुभिरेकषष्टिभागमुहूर्तरूना होना भवति । तथा 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भव:' द्वादश मुहत्तों दिवसो भवनि, स च 'चउहि एगसट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिए' चतु. मिरेकपष्टिभागमुहूर्तरधिको भवतीति । "एवं खलु' इत्यादि ‘एवं' एवम् अनेन प्रकारेण खल-निश्चितम् 'एएणं' एतेन पूर्वोक्तेन 'उवाएणं' उपायेन युक्तिना 'पविसमाणे' प्रविशन् मर्वाभ्यन्तरमण्डलं प्रतिगच्छन् 'मूरिए' सूर्यः 'तयाणतराओ मंडलाओ' तदनन्तराद मण्डलाद् 'तयाणंतरं मंडलं' तदनन्तरं तदग्रेतनं मण्डलं 'संकममाणे २' संक्रामन् २ 'पंच पंच जोयणाई' पञ्च पञ्च योजनानि 'पणतीसं च एगसद्विभागे जोयणस्स' पश्चत्रिंशच्च एकपष्टिभागान् योजनस्य 'एगमेगे मंडले' एकैकस्मिन् मण्डलं 'विक्खंभवुट्टि' विष्कम्भवृद्धि 'निव्वुड्डेमाणे २' निर्वर्धयन् २ 'हापयन् २' हीनां कुर्वन् २ इत्यर्थः, तथा 'अट्ठारसजोयणाई अष्टादशयोजनानि परिरयचुडि' परिरयवृद्धि परिधिपरिमाणवृद्धि 'निव्वुझ्ढेमाणे २' निर्वर्धयन् २ हापयन् २ 'सव्वभं. तरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति सर्वाभ्य. न्तरमण्डले परिभ्रमतीत्यर्थः । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल्ल 'मुरिए' सूर्यः 'सव्वभंतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं तदा खलु ‘सा मंडलवया' तन्मण्डलपदमू 'अडयालीसं एगसहिभागा जोयणस्स' अष्टचत्वारिंशदेकष, ष्टिभागा योजनस्य 'वाहल्लेणं' बाहल्येन, तथा 'णवणवइजोयणसहस्साई नवनवतियो. जनसहस्राणि 'छच्च चत्ताले जोयणसयाई' षट् च चत्वारिंशद् योजनशतानि चत्वारिंशदधिकषट शतयोजनानि (९९६४०) 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण । तथा 'तिणि जोयण Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे सयसहस्साई त्रीणि योजनशतसहस्राणि त्रीणि लक्षाणि 'पण्णरस य सहस्साई पञ्चदशसहस्राणि 'एगूणणवई य जोयणाई एकोननवतिश्च योजनानि (३१५०८९) 'किंचिविसेसाहियाई' किचिद्विशेषाधिकानि 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण वर्त्तते 'तया णं' तदा खलु 'उत्तमकट्ठपत्ते' उत्त. मकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्षाप्तः 'उक्कोसए' उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्टः 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूत्र्तो दिवसो भवति, तथा 'जहणिया' जघन्या सर्वलध्वी 'दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' द्वादशमुहर्ता रानिर्भवतीति । 'एस णं दोच्चे छम्मासे' एतत् खलु द्वितीयं षण्मा. सम् । 'एस ण दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे' एतत् खलु द्वितीयस्य पण्मासस्य पर्यव. सानम् अन्तिममहोरात्रम् । 'एस णं आइच्चे संवच्छरे' एप खलु आदित्यः संवत्सर । 'एस ण आइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे' एतत् खलु आदित्यस्य संवत्सरस्य पर्यवसानपर्यन्तभागः ॥सू० १५॥ अथ प्रथममूलभाभृतगताष्टममाभृतप्राभृतकथितविषयवक्तव्यतामुपसंहरन्नाह-'ता सव्वा वि णं इत्यादि । मूलम्–ता सव्वा विणं मंडलवया अडयालीसं च एगसट्ठिभागा जोयणस्स वाहल्लेणं, सव्वा वि णं मंडलंतरिया दो जोयणाई विक्खंभेण, एस णं अद्धा एगे तेयासीई जोयणसए सपडिपुण्णा पंचदसुत्तराई जोयणसयाई आहितेति वदेज्जा । ता अभंतराओ मंडलवयाओ वाहिरा मंडलवया वाहिराओ मंडलवयाओ अभितरा मंडलवया एस णं अद्धा पंचदमुत्तराई जोयणसयाई, अडयालीसं च एगसद्विभागा जोयणस्स आहिया । ता अभितराओ मंडलवयाओ वाहिरा, मंडलवया वाहिराओ मंडलणयओ अम्भितरा मंडलवया, एस णं अद्धा पंचनवुत्तराई जोयणसयाई तेरस एगसद्विभागाजोयणस्स आहितेति वदेज्जा। अभितराओ मंडलवयाओ, वाहिराओ मंडलवयाओ वाहिरा मंडलचया अभितरा मंडलवया, एस णं अद्धा केवइया आहितेति वदेज्जा ?, ता पंचदमुत्तराई जोयणसयाई आहितेअि वदेज्जा ॥ सू०॥ १६ "इय चंदपण्णत्तीए पढमस्स पाहुडस्स अट्ठमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥१-८॥ "इय पढमं पाकुडं समत्तं ॥१॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१-८ सू०१६ आदितः अष्टप्राभूतेष्यागतविषयस्योपसंहारः ९७ . छाया--तानि सर्वाण्यपि स्खलु मण्डलपदानि अष्टचत्वारिंशच्च एकंपष्टिभागा योजनस्य पाहल्येन, सर्वाण्यपि खलु मण्डलान्तराणि द्वे योजने विष्कम्भेण । पष खलु मध्वा एकं ज्यशीतिः योजनशतम् सप्रतिपूर्णानि पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि आण्याता इति वदेत् । तावत् अभ्यन्तराद् मण्डलपदाद् पाह्य मण्डलपदं याह्याद् मण्डलपदाद् अभ्यन्तरं मण्डलपदम् पप खलु अध्या पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि अष्टचत्वारिंशच्च एक पष्टिभागा योजनस्य आख्याता। तावद् आभ्यन्तराद् मण्डलपदाद् बाह्य मण्डलपदं वाद्यांद् मण्डलपदाद् माभ्यन्तरं मण्डलपदम् , एष खलु अध्वा पञ्चनवोत्तराणि योजनशतानि, प्रयोदश एकपष्टिभागा योजनस्य आख्यात इति वदेत् । अभ्यन्तरेभ्यः मण्डलपदेभ्यः, बाहोभ्यः मण्डलपदेभ्यश्च चाहानि मण्डलपदानि, अभ्यन्तराणि मण्डलपदानि, पष मलु अध्या कियत्क. पाण्यात इति वदेत् ? तावत् पंचदशोत्तराणि योजशतानि आण्यात इति वदेत् ॥सूत्र १६॥ इति चन्द्रप्रशप्त्यां प्रथमस्य प्राभूतस्य अष्टमं प्राभूतप्राभृतं समाप्तम् ॥१-८॥ , ॥ इति प्रथम प्राभृतं समाप्तम् ॥१॥ व्याख्या-'ता सबा वि णं' तानि सर्वाण्यपि खल 'मंडलवया' मण्डलपदानि प्रत्येकम् 'अडयालीसं च एगसद्विभागा जोयणस्स' भष्टचत्वारिंशच्च एकषष्टिभागा योजनस्य, 'वाहल्लेणं बाहल्येन नियतानि सन्ति । बाहल्यस्योपलक्षणत्वात् मायामविष्कम्भपरिक्षेपैर्यथासम्भवं प्रत्येकमनियतानि सन्तीति वाच्यम् । तथा 'सव्वा वि णं मंडलंतरिया' सर्वाण्यपि मण्डलान्तरकाणि मण्डलान्तराणि प्रत्येकमण्डलमाश्रित्य व्यवधानानि 'दो दो जोयणाई द्वे योजने 'विक्खंभेणं' विष्कम्मेण सन्ति । 'एस णं' एप खलु योजनस्याष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागयुक्तयोजनद्वयरूपः 'अद्धा' मध्वा सूर्यमार्गः 'एगं तेयासीई जोयणसयं' एक व्यशीतिः योजनशतं त्र्यशीत्यधिकमेकं योजनशतं (१८३ ) त्र्यशीत्यधिकैकशतयोजनसमुत्पन्नः 'सपडिपुण्णाई स प्रतिपूर्णानि संपूर्णानि न न्यूनाधिकानि 'पंचदमुत्तराई जोयणसयाई पश्चदशोत्तराणि योजनशतानि दशोत्तराणि पञ्चशतयोजनानि (५१०) 'आहिए' माख्यातः मार्गः 'इति, वएज्जा' इंति वदेत् तानि दशोत्तरपश्चशतयोजनानि कथं भवेदिति प्रदर्श्यते सूर्यस्य प्रत्यहोरात्रं प्रतिमण्ड-- लभ्रमणं योजनस्याष्टचत्वारिंशदेकपष्टिभागयुक्तयोजनद्वयेन (२-४८ ६१) भवनि । . मण्ड-. लानि च घ्यशीत्यधिकमेकं शतमतो द्वयोर्गुणनं कर्तव्यम् , तथाहि प्रथमं वे योजने त्र्यशीत्यधिकशतेन गुण्येते जातानि पट्पष्टयधिकानि त्रीणि शतानि (३६६) पुनश्च अष्टचत्वारिंशदेकपष्टिभागास्त्र्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्ते ते च जाताः चतुरशीत्यधिकसप्ताशीतिशत (८७८४) संख्यकाः । एते च योजनानयनार्थमेकपष्टया विभज्यन्ते 'लब्धं चतुश्चत्वारिंशदधिकमेकं शतम् । (१४४) तच्च पूर्वप्राप्तयोजनराशौ (३६६) प्रक्षिप्यते जातानि दशोत्तराणि पश्चशतानि (५१०)। मस्यैवार्थस्य स्पष्टीकरणाथै पुनराह-'ता' इत्यादि । ' , . , .. . .. , Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रप्तिसूत्रे 'ता' तावत् - तत्र 'अभितराओ मंडळवयाओ' अभ्यन्तरात् सर्वाभ्यन्तरात् मण्डलपदात् सर्वाभ्यन्तरमण्डलमध्यभागचरमान्तरूपात् सर्वाभ्यन्तरमण्डलमध्यभागचरमान्तमवधी कृत्येत्यर्थः यावत् 'वाहिरा' मंडळवया' बाह्यं सर्वबाह्य मण्डलपदम्, सर्वबाह्यमण्डल बहिर्भागचरमान्तरूपम् एवं 'बाहिराओ मंडलवयाओ' बाह्यात् सर्वबाह्यात मण्डलपदात् सर्व बाह्यमण्डल बहिर्भागचरमान्तरूपात् सर्वबाह्यमण्डल बहिर्भागचरमान्तमवधी कृत्येत्यर्थः यावत् 'अभितरा मंडलवया' आभ्यन्तरं सर्वाभ्यन्तरं मण्डलपदम् सर्वाभ्यन्तरमडलमध्यभाग चरमान्तरूपम् ' एस णं' एषः अभ्यन्तरमध्यभागचरमान्तबाह्यबहिर्भागचरमान्तरूपयोः बाह्यबहिर्भागचरमान्ताभ्यन्तरमध्यभागचरमान्तरूपयोश्च मण्डलपदयोर्व्यवधानरूपः 'अद्धा' अध्वा सूर्यसंचरणमार्ग : 'पंचदमुत्तराई योजनसयाई' पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि दशोत्तरपश्चशतयोजनानि, तदुपरि 'अडयालीसं च एगसट्टिभागजोयणस्स' अष्टचत्वारिंशच्च एकषष्टिभागयोजनस्य 'आहिए' आख्यातः । पूर्वस्मादध्वपरिमाणादस्याध्वपरिमाणस्य सर्व बाह्यमण्डलगत बाहल्यपरिमाणेनाधिक्यसद्भावात् । तथा - 'तो' तावत् 'अभितराओ मंण्डलवयाओ' अभ्यन्तरात् मण्डलपदात् सर्वाभ्यन्तरमण्डलबहिर्भागचरमान्तरूपात् 'बाहिरा मंडलवया' बाह्य मण्डलपदं सर्वबाह्यमण्डलभध्यभागचरंमान्तरूपम्, तथा 'बाहिराओ मंडलवयाओ' बाह्यात् मण्डपदात् सर्वबाह्यमध्यभागचरमान्तरूपात् 'अभिंतरा मंडलवया' अभ्यन्तरं मण्डलपदं सर्वाभ्यन्तरमण्डल बहिर्भागचरमान्तरूपम् 'एस णं' एषः द्वयोर्द्वयो र्मण्डलयोर्मध्यगतव्यवधानरूपः खलु 'अद्धा' अध्वा सूर्यमार्गः 'पंच नवुत्तराई जोयणसयाई' पञ्चनदोत्तराणि योजनशतानि नवोत्तरपञ्चशतयोजनानि तदुपरि 'तेरस ए गाट्टिभागा जोयणस्स' त्रयोदश एकषष्टिभागा योजनस्य ( ५०९ - १३, ६१) एंतस्परिमितो मार्गः 'आहिते' आख्यातः अस्याध्वपरिमाणस्य पूर्वस्मादध्वपरिमाणात् एकं योजनं पर्श्वत्रिंशश्च एकषष्टिभागा योजनस्य ( १ - ३५ | ६१ ) इत्येवंरूपेण सर्वाभ्यन्तरमण्डलगत सर्व बाह्यमण्डलगतबाहल्यपरिमाणेन हीनत्वात् इति 'वएज्ज' इति वदेत् । तथा अभितंराओ मंडलवयाओ' अभ्यन्तरात् मण्डलपदात् सर्वाभ्यन्तरमण्डलमध्यभागचरमान्तरूपात् ' एवं 'बाहिराओ मंडल याओ' बाह्यात् मण्डलपेदात् सर्वबाह्यमण्डलमध्यभागचरमान्तरूपाच्च ' 'बाहिर मंडलवया' बाह्य मण्डलपदं सर्वबाधमण्डलवहिर्भागचरमान्तरूपम् एवम् 'अभितरा मंडळचया' अभ्यन्तरं मण्लपदं सर्वाभ्यन्तरमण्डल बहिर्भागचरमान्तरूपं च 'एस णं' एषः द्वयो र्द्वयोर्मण्डलयोर्व्यवधानरूपः खलु 'अद्धा' अध्वा सूर्यमार्गः 'केवइया' कियत्कः कियत्परिमितः - किपरिमाण: 'आहितेति वदेज्ज' माख्यातइति वदेत् । भगवानाह - 'ता' इत्यादि 'ता' तावत् ' स मार्गः पंचदमुत्तरा जोयणसयाई' पश्चदशोत्तराणि योजनशतानि दशोत्तरपञ्चशत 1 7 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा०-१-८ सू० १६ अष्टप्राभृतेष्वागतविषयस्योपसंहारः ९९ योजनानि ( ५१० ) दशोत्तर पश्चशतयोजनपरिमितः 'आहितेति वदेज्ज' आख्यात इति वदेत्" सूत्र ॥१६॥ इति श्री-विश्वविख्यात -जगद्दल्लभ - प्रसिद्धवाचक पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक - प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकप्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक - श्री शाहुछत्रपति कोल्हापुररानप्रदत्त "जैनशास्त्राचार्य" पदभूषित - कोल्हापुर राजगुरु बालब्रह्मचारी - जैनशास्त्राचार्य - जैनधर्म दिवाकर श्रीघासीलालवति - विरचिंतायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्र प्रज्ञप्तिप्रकाशिका - ख्यायां व्याख्यायां प्रथमं मूलप्रामृतप्राभृतं सम्पूर्णम् ॥ १-८॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ॥ अथ द्वितीयं प्राभृतं प्रारभ्यते ॥ गतं विशतिमूलप्राभृतेषु प्रथ' मूलप्रामृतम्, अथ, द्वितीतं प्रामृतं प्रारभ्यते, अत्र त्रीणि प्रामृतप्रा भृतानि सन्ति तेषु प्रथम प्राभृतप्रामृतं प्रोच्यते, तत्र चायमर्थाधिकारः-'कथं सूर्यस्तिर्यक् परिभ्रमति" इति एतद्विषये प्रथम सुत्रमाह-'ता कहं ते तिरिच्छगई' इत्यादि मूलम-ता कहं ते तिरिच्छगई आहितेति वएज्जा ? तत्थ खलु इमाओ अट्ट पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा तत्थेगे एवमाइंसु-ता पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ पाओ मरोची आगासंसि उत्तिइ, से णं इमं लोयं तिरियं करेइ, करित्ता पच्चस्थिमिल्लसि लोयंसि सायं आगासंसि विद्धंसइ एगे एवमाहंस :१। एगे पुण एवमाहंसु-ता पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ पाओ सरिए आगासंसि उत्तिहइ से णं इंम लोयं तिरिय करेइ, करित्ता पच्चस्थिमिल्लंसि लोयंतसि सायं सुरिए आगासंसि विद्धंसइ, एगे एवमाइंसु ।२। एगे पुण एवमासु-ता पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ पाओ सरिए आगासंसि उत्तितुइ, से णं इमं लोयं तिरियं करेइ, करिता पच्चस्थिमिल्लंसि लोयतसि सायं आगासं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता. अहे पडियागच्छइ पडियागच्छित्ता पुणरवि अवरभूपुरस्थिमिल्लाओ लोयंताओ पाओ सुरिए आगासंसि उत्तिइ, एगे एवमासु ।३। एगे पुण एवमाईस-ता पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ पाओ सूरिए पुढविकायंसि उत्तिटइ, से णं इमं लोय तिरियं करेइ, करित्ता पच्चस्थिमिस्लंसि लोयतंसि सायं सरिए पुढविकार्यसि विद्धंसइ, एगे एवमाहंस 181 एगे पुण एवमाहंसु ता पुरथिमिल्लाओ लोयं ताओ पाओ सरिए पुढविकायंसि उत्तिहइ, से णं इमं लोयं तिरियं करेइ करित्ता पच्च, थिमिळसि लोयंसि सायं मुरिए पुढविकायंसि अणुपविसइ, अणुपविसित्ता अहे पडियागच्छइ, पडियागच्छित्ता पुणरवि अवरभूपुरथिमिल्लाओ लोयंताओ पाओ सरिए पुदविकायसि उत्तिट्ठइ, एगे एवमाइंसु ।५। एगे पुण एवमाहमु ता पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ पाओ सरिए आउकार्यसि उत्तिट्टइ, से णं इमं लोयं तिरियं करेइ, करित्ता पच्चथिमिल्लंसि लोयतंसि सायं सरिए आउकायंसि विद्धंसइ एगे एवमाहंमु १६। एगे पुण एवमाइंसु-ता पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ पाओ सरिए आउकासि उत्ति, से गं इमं लोयं तिरियं करेइ करिता पर्चात्यमिल्लसि लोयतंति सायं सुरिए आउफायंसि पत्रिसह, पविसित्ता अहे पडियागच्छइ, पडियागच्छित्ता पुणरवि अवरभृपुरथिमिल्लाओ लोयंताओ पाओ सुरिए आउकार्यसि उत्तिइ, एगे एव माहंमु 191 एगे पुण एवमास-ता पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ बहूई जोयणाई, बहूई जोय Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०२-१ सू०१ सूर्यस्य द्वितीयषण्मासाहोरात्रे क्षेत्रसंचरणम् १०१ णसयाई, वहूई जोयणसहस्साई, उड्ढं दूरं उप्पइत्ता एत्थ णं पाओ सरिए आगासंसि उत्तिटइ, से णं इमं दाहिणड्डं लोयं तिरिय करेइ, करित्ता उत्तरड्ढलोयं तमेव राओ, से णं इमं उत्तरडूढलोयं तिरियं करेइ, करित्ता दाहिणड्ढलोयं तमेव राओ से गं इमाई दाहिणउत्तरढलोयाई तिरियं करित्ता पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ बहूई जोयणाई वहई जोयणसयाई, वहुई जोयणसहस्साई उड्दं दूरं उप्पइत्ता एत्थ णं पाओ सूरिए आगासंसि उत्तिट्टइ, एगे एवमाहंसु ।८। वयं पुण एवं वयामो-जंबूदीवस्स तादीवस्स पाईणपडीणायय-उदीणदाहिणाययाए जीवाए मंडलं उन्बीसेणं सएणं छेत्ता दाहिणपुरथिमिल्लंसि उत्तरपच्चस्थिमिल्लसि य चउभागमंडलंसि इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ अट्ठजोयणसयाई उइदं उप्पइत्ता एत्थ णं पाओ दुवे सरिया उत्तिद्वंति, ते णं इमाई दाहिणुत्तराई जंबूद्दीवभागाई तिरियं करेंति, करिता पुरथिमपच्चत्थिमाई जंबूहीवभागाइं तामेव राओ, ते णं इमाई पुरथिमपच्चस्थिमाइं जंबुद्दीवभागाइं तिरियं करेंति, करित्ता दाहिणुत्तराई जंबूद्दीवभागाइं तामेव राओ, ते णं इमाई पुरथिमपच्चत्थिमाइं जंबूढीव. भागाई तिरियं करेंति, करित्ता दाहिणुत्तराई जंवूद्दीवभागाइं तामेव राओ, ते णं इमाई दाहिणुत्तराई पुरथिमपच्चस्थिमाइं य जंबुद्दीवभागाइं तिरिय करेंति, करिता जंबूद्दीवस्स दीवस्स पाईणपडीणायय-उदीण दाहिणाययाए जीवाए मंडलं चउव्वीसएणं सएणं छेत्ता दाहिणपुरथिमिल्लंसि उत्तरपच्चस्थिमिल्लंसि य चउभागमंडलंसि इसीसे रयण, प्पभाए पुढचीए वहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ अजोयणसयाई उड्ढे उप्पइत्ता, एत्थ णं पाओ दुवे सूरिया आगासंसि उत्तिटुंति ॥सू० १॥ वितियस्स पाहुडस्स पढमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥२-१ छाया-तावत् कथं ते तिर्यग्गतिराख्यातेति वदेत् ? । तत्र खलु इमा अष्टप्रतिपत्तयः प्रशताः, तद्यथा-तत्रैके पवमाहुः-तावत् पौरस्त्यातू लोकान्तात् प्रातः मरीचिः माकाशे उत्तिष्ठति, स खलु इमं लोकं तिर्यक् करोति, कृत्वा पाश्चात्ये लोकान्ते सायम् आकाशे विध्वंसते, एके एवमाहुः ॥११ एके पुरनरेवमाहुः-तावत् पौरस्त्यात् लोकान्तात्म प्रातः सूर्यः आकाशे उत्तिष्ठति, स खलु इमं लोकं तिर्यक् करोति, कृत्वा पाश्चात्ये लोकान्ते सायं सूर्यः आकाशे विध्वंसते, एके एवमाहुः ।२। एके पुनरेवमाहुः-तावत् पौरस्त्यात् लोकान्तात् प्रातः सूर्यः आकाशे उत्तिष्ठति, स खलु इमं लोकं तिर्यक् करोति, कृत्वा पाश्चास्वे लोकान्ते सायम् आकाशम् अनुप्रविशति, अनुप्रविश्य अधः प्रत्यागच्छति, प्रत्यागत्य पुनरपि अपरभूपौरस्त्यात् लोकान्तात् प्रातः सूर्य आकाशे उत्तिष्ठति, एके एवमाहु ३. एके पुनरेवमाहुः-तावत् पौरस्त्यात् लोकान्तात् प्रातः सूर्यः पृथिवीकाये उत्तिष्ठति, Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्र स खलु इम लोकं तिर्यक् करोति, कृत्वा पाश्चात्ये लोकान्ते सायं सूर्यः पृथिवीकायं विश्वंसते, एके एवमाहुः-४॥ एके पुनरेवमाहुः-तावत् पौरस्त्यात् लोकान्तात् प्रातः सूर्यः पृथिवीकाये उत्तिष्ठति, स खलु इमं लोकं तिर्यक् करोति, कृत्वा पाश्चात्ये लोकान्ते सायं सूर्यः पृथिवीकाये अनुप्रविशति, अनुपविश्य अधः प्रत्यागच्छति प्रत्यागत्य, पुनरपि अपरभूपौरस्त्यात् लोकान्तात् प्रातः सूर्यः पृथिवीकाये उत्तिष्टति, एके एवमाहुः ।५ एके पुनरेवमाहुः तावत् पौरस्त्यात् लोकान्तात् प्रातः सूर्यः अपकाये उत्तिष्ठति स खलु इमं लोकं तिर्यक् करोति, कृत्वा पाश्चात्येलोकान्ते सायं सूर्यः अप्काये विध्वंसते, एके पवमाहु ।६। एके पुनरेषमाहुः-तावत् पौरस्त्यात् लोकान्तात् प्रातः सूर्यः अपूकाये उत्तिष्ठति, स खलु इमं लोकं तिर्यक् करोति, कृत्वा पाश्चात्ये लोकान्ते सायं सूर्यः अपकाये प्रविति, प्रविश्य अधः प्रत्यागच्छति, प्रत्यागत्य पुनरपि अपरभूपौरस्त्यात् लोकान्तात् प्रातः सूर्यः अपकाये उत्तिष्ठति, एके एवमाहुः ७१ एके पुनरेवमाहुः-तावत् पौरस्त्यात् लोकान्तात् बहूनि योजनानि, यहूनि योजनशतानि, बहूनि योजनसहस्राणि ऊर्ध्वं दुरम् उत्पत्य अत्र खलु प्रातः सूर्यः अकाशे उत्तिष्ठति, स खलु इमं दक्षिणार्ध लोक तिर्यक् करोति कृत्वा उत्तरार्धलोकं तस्यामेव रात्रौ स एव इमं उत्तरार्धलोकं तीर्यक् करोति कृत्वा दक्षिणाधलोकं तस्यामेव रात्रौ स खलु इमा दक्षिणोत्तरार्धलोको तिर्यक् कृत्वा पौरस्त्यात् लोकान्तात् वह्वनि योजनानि पनि योजनशतानि बहूनि योजनसहस्राणि ऊर्ध्व दुरम् उत्पत्य अत्र खलु प्रातःसूर्यः आकाशे उत्तिष्ठति, पके पवमाहुः ।। वयं पुनरेवं वदामः तावत् जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य प्राचीप्रतीच्यायतोदीची दक्षिणायतया जीवया मण्डलं चतुर्विशतिकेन शतेन छित्त्वा दाक्षिणपौरस्त्ये उत्तरपाश्चात्ये च चतुर्भागमण्डले अस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः बहुसमरमणीयात् भूमिभागात् अष्टयोजनशतानि ऊर्ध्वम् उत्पत्य अत्र खल्लु प्रातः द्वौ स्यों उत्तिष्ठतः, तौ खलु इमो दक्षिणोत्तरी जम्बूद्वीपभागो तिर्यक कुरुतः, कृत्वा पौरस्त्यपाश्चात्यौ जम्बूद्वीपभागौ तस्मामेव रात्री, तो खलु इमौ पौरस्त्यपाश्चात्यौ जम्बूद्वीपभागी तिर्यक् कुरुतः, कृत्वा दक्षिणोत्तरौ जम्बूद्वीपभागौ तस्यामेव रात्रौ, तौ स्खलु इमौ दक्षिणोत्तरौ पौरस्त्यपाश्चात्यौ च जम्बूद्वीपभागौ तिर्यक् कुरुतः, कृत्वा जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य प्राची प्रतीच्यायतोदीचीदक्षिणायतया जीवया मण्डलं चतुर्वि शतिकेन शतेन छित्वा दक्षिणपौरस्त्ये उत्तरपाश्चात्ये च चतु. र्भागमण्डले अस्याः रत्नप्रभाया पृथिव्याः बहुसमरमणीयात् भूमिभागात् अष्ट योजनशतानि कर्ध्वम् उत्पत्य, अत्र खलु प्रातः द्वौ सूया आकाशे उत्तिष्ठतः ॥सू०१॥ ॥ द्वितीयस्य प्राभृतस्य प्रथम प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥२-१।। व्याख्या-'ता' तावत्-प्रथमप्रष्टव्यप्रभूते विषये सत्यपि प्रथममेतावदेव. पृच्छामि. यत् 'कह' कथं केन प्रकारेण 'ते' भवतो मते 'तिरिच्छगई' तिर्यग्गतिः तिर्यक्तया परिभ्रमण सूर्यस्य 'आहिता' आख्यता ? 'इति वदेज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवन् !, गौतमेन एवं पृष्टें' भगवन् प्रथममेतद्विषये परतीर्थिकमिथ्याभावोपदर्शनाय तेषां मान्यतारूपा अष्टप्रत्तिपत्तीः प्रदर्शयति. 'तत्थ खलु' इत्यादि । 'तत्थ' तत्र सूर्यस्य तिर्यग्गतिविषये खलु 'इमाओ' इमाः वक्ष्यमाणाः Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतिप्रकाशिका टीका प्रा०२ - १ सू०१ सूर्यस्य द्वितीयपण्मासाहोरात्रे क्षेत्रसंचरणम् १०३ 'अ' अष्टौ अष्टसंख्यकाः 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः परतैर्थिकमान्यतारूपाः 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः 'तं जहा' तद्यथा--ता एव क्रमेणाह - 'तत्थेगे' इत्यादि । 'तत्थ' तत्र तेषु अष्टसु परतीथिंकेषु मध्ये 'एगे' एके केचन प्रथमाः परतीर्थिकाः ' एवं ' एवम् - वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः - कथयन्ति - 'ता' तावत् 'पुरत्थिमिल्लाओ' लोयंताओ' पौरस्यात् पूर्वदिग्भागवर्तिनः लोकान्तात् लोकान्तिमभागात् ऊर्ध्वमितिशेषः पूर्वस्यां दिशीत्यर्थः 'मरीची' इति मरीचिसंघातः किरणसमूह इत्यर्थः 'आगासंसि उत्ति' आकाशे उत्तिष्टति उत्पद्यते एतेनायमाशयः - नैतद्विमानं, न रथः, न च कोऽपि देवता रूपः सूर्यः किन्तु तथाविधलोकस्वाभाव्यात् एप किरणसङ्घात एव वर्त्तल गोलाकारः प्रतिदिनं पूर्वे दिग्विभागे प्रातराकाशे समुत्पद्यते येन सर्वत्र प्रकाशः प्रसरति । 'से णं' स खलु एवम्भूतः मरीचिसंघातः समुत्पन्नः सन् 'इमं' इमं दृश्यमानं 'लोय' लोकं तिर्यक् लोकं ‘तिरियं करेड़' तिर्यक्कू करोति तिर्यक् परिभ्रमन् एष मरीचिसंघात इमं तिर्यगूलोकं प्रकाशयतीतिभावः, 'करिता' कृत्वा तिर्यक् कृत्वा च ' पच्चत्थिमिल्लंसि लोयंतंसि ' पाश्चात्ये लोकान्ते पश्चिमदिग्वत्तिलोकान्तिमभागे 'सायं' सन्ध्यासमये 'विद्धंसइ' विध्वंसते तथा विधलोकानुभावात्तत्राकाश एवं ध्वंसमुपयाति विलीनो भवतीति भावः । एवं सकलकालमेव भवतीति, अत्रोपसंहारमाह- 'एगे एत्रमासु' एके प्रथमास्तीर्थान्तरीयाः एवं - पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः–कथयन्तीति । एषा प्रथमा प्रतिपत्तिः ॥ १ ॥ द्वितीयामाह - 'एगे पुण' एके केचन द्वितीया पुनः ' एवं ' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहंसु' आहुः कथयन्ति । किं कथयन्तीत्याह - 'ता' इति वाक्यालङ्कारे 'पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ' पौरस्त्यात् लोकान्तात् पुर्वदिग्विभागात् उर्ध्वं 'पाओ' प्रातः 'सूरिए' सूर्यः लोकप्रसिद्धो देवतारूप: 'आगासंसि उति ' आकाशे उत्तिष्ठति उदेति तथाविधलोकस्वाभान्यात् आकाशे उत्पद्यते 'से' स खलु उत्पन्नः सन् सूर्यः 'इमं लोय' इम तिर्यगलोकं ‘तिरियं करेइ' तिर्यक्करोति तिर्यक् परिभ्रमन् प्रकाशयतीति भावः ।' करिता ' कृत्वा तिर्यक् कृत्वा 'पच्चत्थिमिल्लेसि लोयंतंसि' पाश्चात्ये लोकान्ते पश्चिमायां दिशि 'सायं' सायं सन्ध्याकाले 'सूरिए' सूर्यः 'आगासंसि ' आकाशे एव 'विद्धंसई' विध्वंसते विलीयते इति भावः । उपसंहारमाह - एगे एवमाहंस' एके केचन पूर्वप्रदर्शिता द्वितीयप्रतिपत्तिवादिनः एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः कथयन्ति । इति द्वितीया प्रतिपत्तिः | २ || अथ तृतीयां प्रत्तिपत्तिमाह - ' एगे पुण' एके पुनः तृतीयास्तीर्थान्तरीयाः 'एवमाहंसु' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः - कथयन्ति, तदेव प्रदर्श्यते 'ता' तावत् 'पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ' पौरस्त्यात् लोकान्तात् उर्ध्व 'पाओ' प्रातः 'सूरिए' सूर्यः देवतारूपः तथाविध पुराणशास्त्रप्रसिद्धः सदावस्थायी 'आगासंसि उत्ति ' आकाशे उत्तिष्ठति 'से णं' स खलु उत्थितः सन् 'इमं लोयं तिरियं करेइ' इमं मनुष्यलोकं तिर्यक् करोति 'करिता' कृत्वा च ' पच्चत्थिमिल्लंसि लोयंतंसि' पाश्चात्ये लोकान्ते – लोक Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४... चन्द्रप्राप्तिस्त्र चरमभागे 'सायं' सायं सन्ध्याकाले 'आगासं अणुपविसई' आकाशमनुप्रविशति 'अणुपविसित्ता' अनुप्रविश्य 'अहे पडियागच्छति' अधः अधोभागेन प्रत्यागच्छति अधोलोकं प्रकाशयन् प्रतिनिवर्त्तते । एपो मते पृथिवी गोलाकाराऽत एव लोकोऽपि गोलाकार एव । इदं च मतं तीर्थान्तरीयेषु सम्प्रतिकालेऽपि विद्यते ततस्तद्गतपुराणशास्त्रादेव सम्यक् ज्ञातव्यम् ।। अस्मिन् मतेऽपि त्रयो भेदा वर्तन्ते, तथाहि-एके मन्यन्ते सूर्य आकाशे प्रातरुद्गच्छति १, अन्ये कथयन्ति पर्वतशिरसि उद्गच्छति २, अपरे मन्यन्ते समुद्रादुत्तिष्ठति ।३। अत्र तु प्रथमानां मतमुपन्यस्तमिति । 'पडियागच्छित्ता' प्रत्यागत्य अधोलोकात्प्रतिनिवर्य 'पुणरवि पुनरपि यथा पूर्वदिने तथैव भूयोऽपि 'अवरभूपुरस्थिमिल्लाओ लोयंताओ' अपरभूपौरस्त्यात् लोकान्तात पृथिव्या अधोभागात् विनिर्गत्य-पूर्वदिग्वर्तिलोकान्ताद् ऊर्ध्वम् 'पाओ' प्रातः प्रभातकाले 'सरिए' सूर्यः 'पागासंसि' आकाशे 'उत्तिति' उत्तिष्ठति उदयमेति । एवमेव सर्वदैव-इयं व्यवस्था वर्तते तथाविधलोकस्व भाव्यात् । उपसंहारे-'एगे' एके तृतीयाः परतीर्थिका 'एवमासु' एवं पूर्वोक्तरीत्या आहुःकथयन्तीति तृतीया प्रतिपत्तिः ।३। अथ चतुर्थीमाह-'एगे पुण' एके पुनः चतुर्थाः 'एचमाइंसु' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण माहुः कथयन्ति, तथाहि-'ता' तावत् पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ' पौरस्त्यात् लोकान्तात् 'पाओ' प्रातः 'सूरिए' सूर्यः देवतारूपः 'पुढिवीकार्यसि' पृथिवीकाये पृथिकायमध्ये उदयाचलाभिधपर्वतशिरसीत्यर्थः 'उत्तिई उतिष्ठति उदयमेति 'से णं' स खल सूर्यः 'इमं लोयं तिरियं करेइ' इमं लोकं मनुष्यलोकं तिर्यक्करोति तिर्यक् परिभ्रमन् मनुष्यलोकं प्रकाशयतीत्यर्थः । एवमग्रेऽप्यर्थो वाच्यः । 'करित्ता' कृत्वा तिर्यक् कृत्वा 'पच्चस्थिमिल्लंसि लोयंतसि' पाश्चात्ये लोकान्ते 'सायं' सायं सन्ध्यासमये 'मरिए' सूर्यः 'पुढवी कायंसि' पृथिवीकाये अस्ताचलाभिधपर्वतशिरसि 'विद्धंसइ' विध्वंसते विलयमेति । एवं प्रतिदिनं भवति एवंविधजगत्स्थितिस्वाभाव्यादिति । उपसंहारः-'एगे' एके चतुर्थाः ‘एवं' एवम् पूर्वोक्तप्रकारेण 'आइंसु' आहुः कथयन्तीति चतुर्थी प्रतिपत्तिः ।४। अथ पश्चमी प्रतिपत्तिमाह-'एगे पुण'एके पश्चमाः पुनः ‘एवं' वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आइंसु' माहुः-कथयन्ति-'ता' तावत् 'पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ' पौरस्त्याल्लोकान्तात् उर्ध्व 'पाओ' प्रात: 'यरिए' सूर्यः देवतारूपः 'पुढवीकार्यसि' पृथिवीकाये 'उत्तिहई' उत्तिष्ठति उदयाचलपर्वतशिरसि उद्गच्छति ‘से णं' स खलु 'इमं लोयं' इमं मनुष्यलोकं 'तिरियं करेइ' तिर्यक करोति 'करिचा' तिर्यक् कृत्वा 'पच्चस्थिमिल्लंसि लोयंतसि' पाश्चात्ये लोकान्ते 'सायं' सन्ध्याकाले 'सरिए' सूर्यः 'पुढवीकायंसि' पृथिवीकाये अस्ताचलपर्वतमस्तके 'अणुपविसई' अनुप्रविशति 'अणुपविसित्ता' अनुप्रविश्य 'अहे' अधः अधोभागवर्त्तिनं लोकं प्रकाशयन् 'पडियागच्छइ' प्रत्यागच्छति प्रतिनिवर्त्तते 'पडियागच्छित्ता' प्रत्यांगत्य 'पुणरवि' पुनरापे द्वितीयदिवसे भूयो Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०२-१ सू०१ सूर्यस्य द्वितीयषण्मासाहोरात्रे क्षेत्रसंघरणम् १०५ ऽपि 'अवरभूपुरथिमिल्लाओ लोयंताओ' अपरभूपौरस्त्यात् लोकान्तात् अवः पृथिवीसम्बन्धिपूर्वदिग्भागात् 'पाओ' प्रातः 'सुरिए' सूर्यः 'पुढवीकार्यसि' पृथिवीकाये पुनरुदयाचलंपर्वतमस्तके 'उत्तिई उत्तिष्ठति उदयमेति उपसंहारमाह-एगे' एके पञ्चमाः परतीर्थिका ‘एवं' पूर्वोक्तप्रकारेण 'आईसु' आहुः कथयन्तीति पञ्चमी प्रतिपत्तिः ।५। अथ षष्ठीमाह-'एगे पुण' एके केचन षष्ठमतवादिनः पुनः 'एवमाइंसु' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः कथयन्ति, तदेवाह'ता' तावत् 'पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ' पौरस्त्यात् लोकान्तात् 'पाओ' प्रातः 'सूरिए' सर्यः 'आउकायंसि' अप्काये पूर्वदिग्वत्तिसमुद्रे "उत्तिट्टई' उत्तिा ठति 'सेणं' स खलु सूर्य: 'इमं लोयं' इमं लोकं मनुष्यलोकं 'तिरियं करेइ' तिर्यक् करोति 'करित्ता' कृत्वा 'पच्चत्यिमिल्लसि लोयंतंसि' पाश्चात्ये लोकान्ते 'सायं सायं सन्ध्यासमये 'आउकामि' अप्काये पश्चिमदिग्वत्तिसमुद्रे विद्धंसई विध्वंसते ध्वंसमेति । उपसंहारः 'एगे' एके षष्ठाः षष्ठप्रतिपत्ति वादिनः 'एवमासु' एवं पूर्वोक्तरीत्या आहुः कथयन्तीति पष्ठी प्रतिपत्तिः ।६। अथ सप्तमी माह-'एगे पुण' एके सप्तमाः पुन 'एवमाइंसु' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण माहुः कथयन्ति, किं कथयन्तीत्याह-'ता' तावत् पुरथिमिल्लाओ लोयंताओं' पौरस्यात् लोकान्तात् ऊर्ध्व 'पाओ' प्रातः 'मृरिए' सूर्यः 'आउकायंसि' मकाये पूर्वसमुद्रे उत्तिई उत्तिष्ठति उद्गछति से णं. स खल उद्गतः सन् 'इम लोय' इमं लोकं तिरियं करे तिर्यक करोति प्रकाशयति 'करित्ता' कृत्वा 'पच्चथिमिल्लंसि लोयतंसि' पाश्चात्ये लोकान्ते 'सायं' सायं सन्ध्यायां 'सरिए' सूर्यः 'आउकार्यसि' अप्काये पश्चिमीयसमुद्रे 'पविसई' प्रविशति 'पविसित्ता' प्रविश्य 'अहे' अधः अधोलोके गत्वा तं प्रकाश्य 'पडियागच्छई' प्रत्यागच्छति पुनरायाति 'पडियागच्छित्ता' प्रत्यागत्य अधोभागात्पुनरागत्य 'पुणरवि' पुनरपि द्वितीयदिने 'अवरभूपुरथिमिल्लाओ लोयंताओ' अपरभूपौरस्त्यात् लोकान्तात् अधः पृथिव्याः पूर्व दिग्भागात् 'पाओ' प्रातः 'सरिए' सूर्यः आउकायंसि' अप्काये पूर्वसमुद्रे 'उत्तिहई' उत्तिष्ठति उपसंह रमाह-'एगे' एके पूर्ववर्णिताः सप्तमाः परतीर्थिकाः 'एवमाहंसु' एवं पूर्वोकप्रकारेण माहुः कथयन्तीति सप्तमी प्रतिपत्तिः ।७। अथाष्टमी प्रदर्शयति-'एगे पुण' एके अष्टमाः पुनः 'एवमाहंस' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः कथयन्ति 'ता' तावत् 'पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ' पौरस्त्यात् लोकान्तात् प्रथमं 'वहुई जोयणाई' बहूनि योजनानि, ततः क्रमशः 'पहुई जोयणसयाई' बहूनि योजनशतानि. तदनु पुनः क्रमेण 'वहुई जोयणसहस्साई' बहूनि योजनसहस्राणि 'उड्ढे दूरं' ऊवं दूरम्-ऊर्ध्वत्वेन दुरम् 'उप्पइत्ता' उत्पत्य उपरि गत्वा 'एल्थ णं' अत्र खलु 'पाओ' प्रातः प्रभातसमये 'सूरिए' सूर्यः देवतारूपः 'आगासंसि' Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिस्त्रे आकाशे पूर्वदिगाकाशभागे 'उत्तिहई' उत्तिष्ठति उदयमेतिः ‘से णं' स उदितः सन् खलु ‘इम' इमं प्रसिद्धं 'दाहिणढं लोयं' दक्षिणा दक्षिणदिस्थितमद्ध लोकं 'तिरियं करेइ' तिर्यक् करोति स्वतेजसा प्रकाशयति 'करित्ता' कृत्वा दक्षिणार्द्धलोकं प्रकाश्य 'उत्तरढलोयं' उत्तगईलोकम् उत्तरदिक् स्थितं लोकं 'तमेव राओ' तस्यामेव रात्री करोति 'दक्षिणाद्ध दिनसद्भावे उत्तरार्धे रानेरवश्यम्भावात् 'से गं' स खल सूर्यः तिर्यक् परिभ्रमन् 'इमं उत्तरड्ढलोयं' इममुत्तरदिक्स्थितं लोकाई 'तरियं करेई तिर्यक् करोति 'करिचा' कृत्वा पुनः 'दाहिणढलोयं' दक्षिणार्द्धलोकं दक्षिणदिग्भवमर्द्ध लोकं 'तमेव रामओ' तस्यामेव रात्रौ करोति उत्तरार्दै दिनसत्वे दक्षिणार्द्ध रात्रिसद्भावात् । एवं 'से णं' स खलु सूर्यः 'इमाई दाहिणुत्तरढलोयाई इमो दक्षिणोत्तरार्द्धलोको दक्षिणदिक्थितमई लोकम् उत्तरदिक्थितम? लोकं चेति द्वावपि लोको 'तिरियं करित्ता' तिर्यक् कृत्वा पुनः 'पुरस्थिमिल्लाओ लोयंताओ' पौरस्त्यात् लोकान्तात् पूर्ववदेव "बहुई जोयणाई' बहूनि योजनानि 'वहूई जोयणसयाई' वहनि योजनशतानि 'बहूइं जोयणसहस्साई' वहूनि योजनसहस्राणि 'उइद्वंदूरं' ऊच दूर उर्वत्वेन दूरम् 'उप्पइत्ता' उत्पत्य उपरिगत्वा 'एत्थ णं' अत्र खलु अस्मिन् स्थाने 'पाओ' प्रातः प्रभातकाले 'सूरिए' सूर्यः 'आगासंसि' आकाशे 'उत्तिहई' उत्तिष्ठति उद्गच्छति । उपसंहारमाह-एगे' एके अष्टमाः परतीथिकाः 'एचमाईसु' एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः कथयन्तीत्यष्टमी प्रतिपत्तिः ।। - एवमष्टापि प्रतिपत्तीः प्रदर्य भगवान् स्वमतं प्रदर्शयति-'वयं पुण' इत्यादि । ., . 'वयं पुण' वयं पुनः अत्र पुनः शब्दः 'तु' इत्यस्यार्थवाचकः, तेन वयं तु 'एवं' वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामो' वदामः कथयामः, तदेवाह 'ता' इत्यादि 'ता' तावत् 'जबूद्दी वस्स' जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य मध्यजम्बूद्वीपस्य 'पाईण पडीणायय-उदीणदाहिणाययाए' प्राचीप्रतीच्यायतोदीचीदक्षिणायतया जीवया दवरिकया 'मंडल' मण्डलं सूर्यमण्डलं 'चउव्चीसएणं' चतुर्विशतिकेन शतेन चतुर्विशत्यधिकैकशतेन (१२४) छेत्ता' छित्त्वा विभज्य मण्डलस्य चतुर्विशत्यधिकैकशतसंख्यकान् भावान् परिकल्प्य तन्मण्डलं पुनः पूर्वोक्तजीवया चत्वारो भागाः क्रियन्ते दक्षिणपूर्वोत्तरपश्चिमरूपाः अतस्तत्राह-'दाहिणपुरस्थिमिल्लंसि' दक्षिणपौरस्त्ये, 'उत्तरपच्चस्थिमिल्लंसि' उत्तरपौरस्त्ये च एतद्रूपे 'चउभागमंडलंसि' चतुर्भागगमण्डले मण्डलचतुर्भागे एकत्रिंशत्प्रमाणरूपे 'इमीसे' अस्याः शास्त्रप्रसिद्धायाः ‘रयणप्पभाए पुढचीए' रत्नप्रभायाः पृथिव्याः ‘बहुसमरमणिज्जामो भूमिभागाओ' बहुसमरमणीयात् भूमिभागात् रत्नप्रभापृथिवीसमतलभागात् 'अट्ठजोयणसयाई अष्ट योजनशतानि-अष्टशतसंख्यकयोजनानि; 'उड्ढं' उर्व उपरि 'उप्पइत्ता' उत्पत्य-गत्वा रत्नप्रभापृथिवीसमतलभागादुपरि अष्टशतयोजनातिक्रमणानन्तरमित्यर्थः 'एत्थ णं' अत्र खल अस्मिन् स्थाने 'पाओ' प्रातः 'दुवे Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रकाशिका टीका प्रा०२-१ सू० १ सूर्यस्य द्वितीयपण्मासाहोरात्रे क्षेत्रसंचारणम् १०७ 'वरिया' द्वौ सूर्यै 'उत्तिति' उत्तिष्ठतः उद्गच्छतः, तत्रैको भारतः सूर्यो दक्षिणपौरस्त्ये मण्डलचतुर्भागे, अपर ऐरखतः सूर्यश्च उत्तरपौरस्त्ये मण्डलचतुर्भागे उद्गच्छति, एवं क्रमेण द्वावपि सूर्यैौ तत्र तत्र स्थाने उदयं प्राप्नुत इतिभावः 'ते णं, ता खलु द्वौ सूर्यो यथाक्रमम् 'इमाई' इमो 'दाहिणुत्तराई' दक्षिणोत्तरौ जंबुद्दीवभागाई' जम्बद्वीपभागौ 'तिरियं करेंति' तिर्यक् कुरुतः प्रकाशयतः । अयमाशयः - दक्षिणपौरस्त्ये मण्डलचतुर्भागे भारत: सूर्य उद्गत्य तिर्यक् परिभ्रमन् मेरोर्दक्षिणभागं प्रकाशयति, उत्तरपाश्चात्ये मण्डलचतुर्भागे ऐरवतः सूर्य उद्गन्य तिर्यक् परिभ्रमन् मेरोरुत्तरभागं प्रकाशयतीति, 'द्वीकरिता ' कृत्वा जम्बूद्वीपस्य दक्षिणोत्तरभागौ प्रकाश्य 'पुरत्थिमपच्चत्थिमाई' पौरस्त्यपाश्चात्यो 'जंबुद्दीवभागाई' जम्बूद्वीपभागों जम्बूद्वीपस्य पूर्वपश्चिमभागौ पूर्वपश्चिमभागद्वयं 'तमेव राओ' तस्यामेव रात्रौ कुरुतः तत्तद्दिवसस्य -रात्रिभागौ कुरुतः जम्बूद्वीपस्य दक्षिणोत्तरभागयोः सूर्यद्वयस्य संचरणसमये पूर्वपश्चिमभागे रात्रभवति, तदा नैकोऽपि सूर्य पूर्वभागं पूर्वपश्चिमभागं वा प्रकाशयितुं शक्यतेऽतस्तदा पूर्वपश्चिमजम्बूद्वीपभागे रात्रि र्भतीति भावः । द्वौ सूर्यो दक्षिणोत्तरभागयोस्तिर्यक्करणानन्तरं पूर्वपश्चिमभागौ तिर्यकू कुरुत इतिक्रमप्रदर्शनार्थं 'करिता' इत्युध्यते । पुनश्च 'ते णं' तौ खलु द्वावपि सूर्यो दक्षिणोस्तरभागदिवससमाप्त्यनन्तरम् ‘इमाई' इमौ प्रसिद्धौ 'पुरत्थिमपच्चत्थिमाई पौरस्त्यपाश्चात्यौ पूर्वपश्चिमरूपौ 'जंबुद्दीवभागाई' जम्बूद्वीपभागौ ' तिरियं करेंति' तिर्यक् कुरुतः पूर्वपश्चिमभागौ प्रकाशयतः । अयं भावः–मेरोरुत्तरभागे ऐरवतः सूर्यस्तिर्यक् परिभ्रम्य तत्पश्चात् मेरोरेव पूर्वदिशि तिर्यक्परिभ्रमति, भारतः सूर्यश्च पूर्व मेरोर्दक्षिणभागे तिर्यक्परिभ्रम्य तत्पश्चात् मेरोः पश्चिमभागे तिर्यक्परिभ्रमतीति । 'करिता' कृत्वा जम्बूद्वीपपूर्वपश्चिमभागौ तिर्यक् कृत्वेत्यर्थः ' दाहिणुत्तराई ' दक्षिणोत्तरौ 'जंबुद्दीवभागाई' नम्बूद्वीप भागौ जम्बूद्वीपस्य दक्षिणभागम् उत्तरभागं च ' तामेव राओ' तस्यामेव रात्रौ कुरुतः । मयं भावः - यदा द्वौ सूर्यौ क्रमेण पूर्वपश्चिमभागौ प्रकाशयतस्तदा दक्षिणभागे उत्तरभागे च रात्रिर्भवेत्, सूर्ययोः पूर्वपश्चिमभागसंचरणसमये उत्तरदक्षिणभागयोरेकोऽपि सूर्यः प्रकाश न करोतीति । एवं 'ते णं' तौ खलु सूर्यौ 'इमाई' इमौ पूर्वप्रदर्शितौ दाहिणुत्तराई' दक्षिणोत्तरौ, तथा 'पुरत्थिमपच्चत्थिमाई य' पौरस्त्यपाश्चात्यौ च 'जंबुदीवभागाई' जम्बूद्वीपभागौ ' तिरियं करेंति' तिर्यक् कुरुतः प्रकाशयतः 'करिता' कृत्वा जम्बूद्वीपस्य दक्षिणोत्तरभागौ पूर्वपश्चिमभागौ च क्रमेण प्रकाश्य 'जंबुद्दीवस्त दीवस्स' जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य ' पाईणपडिणायय - 'उदीचीणदाहिणाययाए' प्राची प्रतीच्यायतोदीची दक्षिणाय तया पूर्वात् पश्चिमपर्यन्तमायतया दीर्घया उत्तरात् दक्षिणपर्यन्तमायतया दीर्घया 'जीवाए' जीवया जीवाः प्रत्यश्चा तत्सदृशत्वात् जीवा तथा जीवया दवरिकयेत्यर्थः 'मंडल' सूर्यमण्डलं 'चउव्वीस एण सएणं' चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन 'छेत्ता' विभज्य मण्डलस्य चतुर्विंशत्यधिकसंख्यकान् भागान् . Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रहमिस्त्र C o m...............mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm -परिकल्पयेत्यर्थः 'दाहिणपुरथिमिल्लसि' दक्षिपौरस्त्ये तथा 'उत्तरपच्चस्थिमिल्लंसि' उत्तर... पाश्चात्ये च 'चउभागमंडलंसि' चतुर्भागमण्डले मण्डलस्य चतुर्भागे एकत्रिंशद्भागपरिमिते 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए' अस्याः शास्त्रप्रसिद्धाया रत्नप्रभायाः पृथिव्याः 'बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ' बहुसमरमणीयात् समतलभूमिभागात् 'अट्ट जोयणसयाई' अष्ट योजनशतानि अष्टशतयोजनानि 'उड्ढं' उर्ध्वम् उपरिभागे 'उप्पइत्ता' उत्पत्य गत्वा उपर्यष्टशनयोजनगमनानन्तरं य आकाशभागो वर्त्तते 'एत्थ णं' अत्र खलु 'पाओ' प्रातः 'दुवे सुरिया' द्वौ सूर्यो, तत्र -यो भारतः सूर्यः स उत्तरपश्चिममण्डलचतुर्भागे, ऐरवतसूर्यश्च दक्षिणपौरस्त्यगतमण्डल चतुर्भागे 'आगासंसि' आकाशे उत्तिद्वंति' उत्तिष्ठतः स्वस्वक्रमेण उदयमासादयतः । . :- पूर्वस्मिन्नहोरात्रे य उत्तरभागं प्रकाशितवान् स दक्षिणपौरस्त्ये दक्षिणपूर्व दिग्गतमण्डल बतुर्भागे उदयमेति, यश्च दक्षिणभागं प्रकाशितवान् स उत्तरपश्चिमदिग्गतमण्डलचतुर्भागे उदयमासादयति सर्वकालं, तथाविधजगत्स्वाभाव्यादिति ॥सू० १ ॥ ... ॥ इति द्वितीयस्य प्रामृतस्य प्रथमं प्राभृतप्राभृतं सम्पूर्णम् ॥ २-१ ॥ गतं द्वितीयस्य मूलप्राभृतस्य प्रथम प्रामृतप्रामृतम्, तत्र भरतैरवतसूर्ययोस्तिर्यक् परि भ्रमणवक्तव्यता प्रोक्ता । साम्प्रतं द्वितीय प्रामृतप्राभृतं प्रारभ्यते, अस्यायमर्थाधिकारः-'कथं सूर्यों मण्डलान्मण्डलान्तरं संक्रामति' इत्येतद्विषयकं प्रथमं सूत्रमाह-'ता कहं ते मंडलामो मंडलं इत्यादि । , - मूलम्-ता कहं ते मंडलाओ मंडलं संकममाणे सरिए चारं चरइ आहिएति चएज्जा, तत्थ खलु इमायो दुवे पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-तत्थेगे एवमाइंसुवा मंडलाओ मंडलं संकममाणे सरिए भेयघाएणं संकामइ, एगे एवमासु १। एगे पुण एवमाहंमु-ता मंडलाओ मंडलं संकममाणे सरिए कण्णकलं निव्वेढेइ, एगे एवमासु ।२। तत्थ णं जे ते एवमाइंसु-ता मंडलाओ मंडलं संकममाणे सूरिए भेयघाएणं संकामइ तेसि णं अयं दोसे ता जेणंतरेणं मंडलाओ मंडलं संकममाणे सरिए भेयघाएणं संकमइ एचइयं च णं अद्ध पुरओ न गच्छइ, पुरओ, अगच्छमाणे मंडलकालं परिहवेइ, तेसि णं अयं दोसे ।। तत्थ णं जे ते एवमाइंसु ता मंडलाओ मंडलं संकममाणे सुरिए कण्णकलं णिव्वेदेइ, तेसि णं अयं विसेसे-ता जेणंतरेणं मंडलाओ मंडलं संकममाणे सरिए कण्णकलं णिवेढेइ, एवइयं च णं अद्धं पुरओ गच्छइ, पुरओ गच्छमाणे मंडलकालं ण परिहवेइ, तेसि णं अयं विसेसे ।२। तत्थ जे ते एवमाहंसु-मंडलाओ मंडलं संकममाणे सरिए कण्णकलं णिन्वेढेइ, एएणं णएणं णेयव्वं णो चेव णं इयरेणं ॥१०॥ ॥ वितियस्स पाहुडस्स वितिय पाहुडपादुडं समत्तं ॥२-२॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा०२-२ सू०१ सूर्यस्य मण्डलात् मण्डलान्तरसंचरणम् १०९ - छाया-तावत् कथं ते मण्डलात् मण्डलं संक्रामन् सूर्य चारं चरति आख्यात इति वदेत् तत्र खलु इसे द्वे प्रतिपत्ती प्रज्ञप्ते, तद्यथा-तत्रैके पवमाहुः-तावत् मण्डलात् मण्डलं संक्रामन् सूर्यः भेदधातेन संक्रामति, पके एवमाहुः ।। पके पुनः पवमाहुः-तावत् मण्डलात् मण्डलं संक्रामन् सूर्य कर्णकलां निर्वेष्टयति, एके एवमाहुः । तत्र खलु ये ते एवमाहुः-तावत् मण्डलात् मण्डलं संक्रामन् सूर्यः भेदघातेन संक्रामति तेषां स्खलु अयं दोपः-तावत् येनान्तरेण भण्डलात् मण्डलं संक्रामन् सूर्यः भेद्घातेन संक्रामति, पतावती च खलु अद्धां पुरतः न गच्छति. पुरतः अगच्छन् मण्डलकालं परिभवति, तेषां खलु अयं दोषः ।। तन खलु ये ते एवमाहुः-तावत् मण्डलात् मण्डलं संक्रामन् सूर्यः कर्ण कलां निर्वेटयति, तेषां खलु अयं विशेपः तावत् येनान्तरेण मण्डलात् मण्डलं संक्रामन् सूर्यः कर्णकलां निवेष्टयति, पतावती च खलु अद्धां पुरतो गच्छति, पुरतः गच्छन् मण्डल कालं न परिभवति, तेषां खलु अयं विशेषः ।२। तत्र ये ते एवमाहुः-मण्डलात् मण्डलं संक्रामन् सूर्यः कर्णकला निर्वेटयति, एतेन नयेन ज्ञातव्यम् नो चैव खलु इतरेण ॥सू०१॥ द्वितीस्य प्राभृतस्य द्वितीयं प्राभृनप्राभृतं समाप्तम् ॥२-२॥ व्याख्या-'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण हे भगवान् ? 'ते' ते तव भवन्मते 'मंडलाओ मंडलं' मण्डलात् एकस्मात् मण्डलात् 'मंडलं' अपरं मण्डलं 'संकममाणे' संक्रामन् 'सरिए' सूर्यः 'चारं चरइ' चारं चरति परिभ्रमति केन प्रकारेण सूर्यश्चारं चरन् 'आहितेति वदेज्जा' आल्यातः कथितः इति वदेत् कथयतु हे भगवन् ? अत्र हि सूर्यस्य एकस्मान्मण्डलादन्यस्मिन् मण्डले संक्रमणमेव वक्तव्यमस्ति, अतस्तदेव प्रधानं कृत्वा वाक्यस्य भावार्थभावना कर्त्तव्या । भगवानाह-हे गौतम 'तत्थ' तत्र एवंविधसंक्रमणविपये खल्ल 'इमे' इमे वक्ष्यमाणस्वरूपे 'दुवे' द्वे 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्ती परतीथिंफमान्यतारूपे 'पण्णताओ' प्रज्ञप्ते : कथिते 'तं जहा' तद्यथा ते द्वे प्रतिपत्ती यथा-तदेव दर्शयति-तत्थ' तत्र मण्डलामण्डलसंक्रमणविषये 'एगे' एके केचन परमतवादिनः 'एवमासु' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः-कथयन्ति । किं कथयन्तीत्याह-'ता मंडलाओ मंडलं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'मंडलाओ मंडलं' मण्डलात् यत्रस्थितस्तस्मात् मण्डलात् मण्डलम्-अग्रेतनमपरमण्डलाभिमुखं 'संकममाणे' संक्रामन् गनि कुर्वन् 'सरिए सूर्यः 'भेयघाएणं' भेदघातेन, तत्र भेदः प्रतिमण्डलस्यापान्तरालभागः, तत्र घातः गमनं तेन मण्डलस्य नाम मण्डलाऽपान्तरालगमनपूर्वकमित्यर्थः 'संकामइ' संक्रामति स्वचारगत्या गच्छति, विवक्षितं मण्डलं पूरयित्वा तदनन्तरमपान्तरालगमनेनापरं द्वितीयं मण्डल संक्रम्य च तत्र मण्डले चारं चरति, उपसंहारमाह-'एगे' एके पूर्वोकाः प्रथमास्तीर्थान्तरीयाः ‘एवं पूर्वप्रदर्शितप्रकारेण आहुः कथयन्तीति प्रथमा प्रतिपत्तिः ।१। अथ द्वितीयां दर्शयति-'एगे पुण' एके द्वितीयाः पुनः 'एवमाइंसु' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः कथयन्ति, तदेवाह-'ता' तावत् 'मंडलाओ मंडलं संकममाणे सूरिए' मण्डलान्मण्डलं सक्रामन्-सक्रमितुमिच्छन् सूर्यः यत्र गन्तुमिच्छति Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रतिस्त्र ___-परिकल्पयेत्यर्थः 'दाहिणपुरथिमिल्लसि' दक्षिपौरस्त्ये तथा 'उत्तरपच्चथिमिल्लंसि' उत्तर. पाश्चात्ये च 'चउभागमंडलंसि' चतुर्भागमण्डल मण्डलस्य चतुर्भागे एकत्रिंशद्भागपरिमिते 'इमीसे स्यणप्पभाए पुढवीए' अस्याः शास्त्रप्रसिद्धाया रत्नप्रभायाः पृथिव्याः 'वहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ' बहुसमरमणीयात् समतलभूमिभागात् 'अट्ट जोयणसयाई' अष्ट योजनश. तानि अष्टशनयोजनानि 'उड्ढं' उर्ध्वम् उपरिभागे 'उप्पइत्ता' उत्पत्य गत्वा उपर्यष्टशनयोजनगम-नानन्तरं य आकाशभागो वर्तते 'एत्य णं' अत्र खलु 'पाओ' प्रातः 'दुवे सूरिया' द्वौ सूर्यो, तत्र -यो भारतः सूर्यः स उत्तरपश्चिममण्डलचतुर्भागे, ऐरवतसूर्यश्च दक्षिणपौरस्त्यगतमण्डल चतुर्भागे 'भागासंसि' आकाशे उत्तिटुंति' उत्तिष्ठतः स्वस्वक्रमेण उदयमासादयतः । .. पूर्वस्मिन्नहोरात्रे य उत्तरमागं प्रकाशितवान् स दक्षिणपौरस्त्ये दक्षिणपूर्वदिग्गतमण्डलचतुर्भागे उदयमति, यश्च दक्षिणभागं प्रकाशितवान् स उत्तरपश्चिमदिग्गतमण्डलचतुर्भागे उदयमासादयति सर्वकालं, तथाविधजगत्स्वाभाव्यादिति ॥सू० १ ॥ : - ॥ इति द्वितीयस्य प्रामृतस्य प्रथमं प्राभृतप्राभृतं सम्पूर्णम् ॥ २-१ ॥ - गतं द्वितीयस्य मूलप्रामृतस्य प्रथम प्रामृतप्रामृतम्, तत्र भरतैरवतसूर्ययोस्तिर्यक् परि भ्रमणवकन्यता प्रोक्का । साम्प्रतं द्वितीयं प्राभृतप्रामृतं प्रारभ्यते, अस्यायमर्थाधिकारः-'कथं सूर्यो मण्डलान्मण्डलान्तरं संक्रामति' इत्येतद्विषयकं प्रथमं सूत्रमाह-वा कहं ते मंडलाओ मंडलं इत्यादि । , , मूलम्-ता कहं ते मंडलाओ मंडलं संकममाणे सरिए चार चरइ आहिएति वएज्जा, तत्थ खलु इमाओ दुवे पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-तत्थेगे एवमाइंसुता मंडलाओ मंडलं संकममाणे सरिए भेयघाएणं संकामइ, एगे एवमाइंसु ।। एगे पुण एवमाइंसु-ता मंडलाओ मंडलं संकममाणे सरिए कण्णकलं निव्वेढेइ, एगे एवमासु ।२। तत्थ णं जे ते एवमाइंसु-ता मंडलाओ मंडलं संकममाणे सूरिए भेयघाएणं संकामह तेसि णं अयं दोसे ता जेणंतरेणं मंडलाओ मंडलं संकममाणे सूरिए भेयघाएणं संकमइ एवइयं च णं अद्धं पुरओ न गच्छइ, पुरओ, अगच्छमाणे मंडलकालं परिहवेइ, तेसि णं अयं दोसे ।१। तत्थ णं जे ते एवमाइंसु ता मंडलाओ मंडलं संकममाणे सरिए कण्णकलं णिव्वेटेइ, तेसि णं अयं विसेसे-ता जेणंतरेणं मंडलाओ मंडल संकममाणे सुरिए कण्णकलं णिवेढेइ, एवइयं च णं अद्धं पुरओ गच्छइ, पुरओ गच्छमाणे मंडलकालं ण परिहवेइ, तेसि णं अयं विसेसे ।२। तत्थ जे ते एवमाइंसु-मंडलाओ मंडल संकममाणे सरिए कण्णकलं णिवेढेइ, एएणं णएणं णेयव्वं णो चेव णं इयरेण ॥१० १॥ ॥ वितियस्स पाहुडस्स वितिय पाहुडपादुडं समत्तं ॥२-२॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा०२-२ सू०१ सूर्यस्य मण्डलात् मण्डलान्तरसंचरणम् १०९ • छाया-तावत् कथं ते मण्डलात् मण्डलं संक्रामन् सूर्यः चारं चरति आख्यात इति वदेत् तत्र खलु इमे द्वे प्रतिपत्ती प्रज्ञप्ते, तद्यथा-तत्रैके पवमाहुः-तावत् मण्डलात् मण्डलं संक्रामन् सूर्यः भेदधातेन संक्रामति, पके एवमाहुः।। एके पुनः पवमाहुः-तावत् मण्डलात् मण्डलं संक्रामन् सूर्य कर्णकलां निर्वेष्टयति, एके एवमाहुः ।। तत्र खलु ये ते पवमाहुः-तावत् मण्डलात् मण्डलं संक्रामन् सूर्यः भेदधातेन संक्रामति तेषां खलु अयं दोपः-तावत् येनान्तरेण मण्डलात् मण्डलं संक्रामन् सूर्यः भेद्घातेन संक्रामति. एतावती व खलु अद्धां पुरतः न गच्छति, पुरतः अगच्छन् मण्डलकालं परिभवति, तेषां खलु अयं दोषः । तत्र खलु ये ते पवमाहुः तावत् मण्डलात् मण्डलं संक्रामन् सूर्यः कर्ण कलां निवेशयति, तेषां खलु अयं विशेषः तावत् येनान्तरेण मण्डलात् मण्डलं संक्रामन् सूर्यः कर्णकलां निवेष्टयति, पतावती च बलु अद्धा पुरतो गच्छति, पुरतः गच्छन् मण्डल कालं न परिभवति, तेषां खलु अयं विशेषः ।२। तत्र ये ते एवमाहुः-मण्डलात् मण्डलं संक्रामन् सूर्यः कर्णकला निर्वेण्यति, एतेन नयेन शातव्यम् नो चैव खलु इतरेण सू०॥ द्वितीस्य प्राभृतस्य द्वितीयं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥२-२१॥ व्याख्या-'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण हे भगवान् ? 'ते' ते तव भवन्मते 'मंडळामो मंडलं' मण्डलात् एकस्मात् मण्डलात् 'मंडलं' अपरं मण्डलं 'संकममाणे संक्रामन 'मरिए' सूर्यः 'चारं चरई' चारं चरति परिभ्रमति केन प्रकारेण सूर्यश्चारं चरन् 'आहितेति वदेज्जा' आख्यातः कथितः इति वदेत् कथयतु हे भगवन् ? अत्र हि सूर्यस्य एकस्मान्मण्डलादन्यस्मिन् मण्डले संक्रमणमेव वक्तव्यमस्ति, अतस्तदेव प्रधानं कृत्वा वाक्यस्य भावार्थभावना कर्त्तव्या । भगवानाह -हे गौतम 'तत्थ' तत्र एवंविधसंक्रमणविषये खल्ल 'इमें इमे वक्ष्यमाणस्वरूपे 'दुवे' द्वे 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तो परतोथिंकमान्यतारूपे 'पण्णत्ताओं' प्रज्ञप्ते कथिते 'तं जहा' तद्यथा ते द्वे प्रतिपत्ती यथा-तदेव दर्शयति-'तत्थ' तत्र मण्डलान्मण्डलसंक्रमणविषये 'एगे' एके केचन परमतवादिनः 'एवमासु' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः-कथयन्ति । किं कथयन्तीत्याह-'ता मंडलाओ मंडलं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'मंडलाओ मंडलं' मण्डलात् यत्रस्थितस्तस्मात् मण्डलात् मण्डलम्-अग्रेतनमपरमण्डलाभिमुखं 'संकममाणे' संक्रामन् गतिं कुर्वन् 'सरिए सूर्यः 'भेयघाएणं' भेदघातेन, तत्र भेदः प्रतिमण्डलस्यापान्तरालभागः, तत्र घातः गमनं तेन मण्डलस्य नाम मण्डलाऽपान्तरालगमनपूर्वकमित्यर्थः 'संकामइ' संक्रामति स्वचारगत्या गच्छति, विवक्षितं मण्डलं पूरयित्वा तदनन्तरमपान्तरालगमनेनापरं द्वितीयं मण्डल संक्रम्य च तत्र मण्डले चारं चरति, उपसंहारमाह-'एगे' एके पूर्वोक्ताः प्रथमास्तीर्थान्तरीयाः 'एवं पूर्वप्रदर्शितप्रकारेण आहुः कथयन्तीति प्रथमा प्रतिपत्तिः ।१। अथ द्वितीयां दर्शयति-'एगे पुण' एके द्वितीयाः पुनः 'एवमाइंसु' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः कथयन्ति, तदेवाह-'ता' तावत् 'मंडलाओ मंडलं संकममाणे सरिए' मण्डलान्मण्डलं संक्रामन्-सक्रमितुमिच्छन् सूर्यः यत्र गन्तुमिच्छति Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ দ্বিসাহিঙ্কা तदधिकृतमप्रेतनं मण्डलं प्रथमक्षणादूर्ध्वमारभ्य कर्णकलां यथास्यात्तथा क्रियाविशेषणमेतत् 'निव्वेढेई' निर्वेष्टयति मुश्चति तथा चात्रेयं भावना-भारतो वा ऐरवतो वा सूर्यः स्वस्वस्थाने उदितः सन् अपरमण्डलगतं कर्ण मण्डलस्य प्रथमकोटिभागलक्षणं लक्ष्यीकृत्याधिकृतमण्डलं प्रथमक्षणादुपरि प्रतिक्षणं कलयातिक्रान्तं यथास्यात्तथा निर्देष्टयतीति द्वितीया प्रतिपत्तिः ।। अथात्र प्रतिपत्तिद्वये भगवान् वस्तुतत्त्वं प्रदर्शयति-'तत्थ णं' इत्यादि, 'तत्थ णं' तत्र प्रतिपत्तिद्वयमध्ये खल 'जे ते एवमाइंस' ये ते एवमाहुः यत् 'ता तावत् मंडलाओ मंडलं संकममाणे सारए' मण्डलान्मण्डलं संक्रामन् सूर्यः 'भेयघाएणं' भेदघातेन 'संकामई' संक्रामति स्वगत्या गच्छति 'तेसि गं' तेषां प्रथमप्रतिपत्तिवादिनां खल मते 'अयं' अयं वक्ष्यमाणस्वरूपः 'दोसे' दोषो वर्तते, को दोषः ? इति दर्शयति-ता जेणंतरेण' इत्यादि 'ता' तावत् 'जेण' येन कालेन यावत्परिमित कालमाश्रित्येत्यर्थः 'अंतरेण' अन्तरेण अपान्तरालेन 'मंडलाओ' मंडलं संकममाणे सरिए' मण्डलान्मण्डलं संक्रामन् सूर्यः 'भेयघाएणं' भेदघातेन.'संकामई' संक्रामतीति यदुक्तं तन्न सम्यक् यतः 'एवइयं च णं अद्धं एतावती च खल अद्धाम् आश्रित्य एतावत्कालेनेत्यर्थः सूर्यः 'पुरओ' पुरतः अग्रेतने द्वितीये मण्डले 'न गच्छई' न गच्छति ! न गन्तुं शक्नोतीत्यर्थः । कथं न गच्छति ! इति प्रदयते -एकस्मात् मण्डलादपरस्मिन् मण्डले संक्रमणं कुर्वन् सूर्यः यावता कालेनापान्तरालं गच्छति तावत्परिमितकालानन्तरं परिभ्रमितुमिच्छति तदा द्वितीयमण्डलसम्बन्ध्यहोरात्रमध्यात् त्रुटयति ततो द्वितीये परिभ्रमन् तत्पर्यन्ते तावत्परिमितं कालं परिभ्रमितुं न शक्नोति तद्गताहोरात्रस्य परिपूर्णीभूतत्वात् , यतो हि 'पुरक्ते अगच्छमाणे' पुरतः अगच्छन् द्वितीयमण्डलपर्यन्ते च न गच्छन् 'मंडलकालं' मण्डलकालं मण्डलपरिभ्रमणकालं यावत्परिमितकालेन परिपूर्णमण्डले भ्रम्यते तत् कालं 'परि हवेई' परिभवति-हापयति न्यूनीकरोति तस्य कालस्य हानिरुपजायते, एवं सति सर्वजगत्प्रसिद्ध प्रतिनियताहोरात्रपरिमाणव्याघातः प्रसज्येताऽतो न तेषामिदं मतं समीचीनम् तस्माद्धेतोराह'तेसि णं' तेषां प्रथमानां खलु मते 'अयं' अयं पूर्वप्रदर्शितः 'दोसे' दोषोऽस्ति अथ द्वितीयप्रतिपत्तिविषये कथयति 'तत्थ णं जे ते' इत्यादि । 'तत्थ णं' तत्र खलु प्रतिपत्ति द्वयमध्ये 'जे ते' ये ते 'एवमाहंमु' एवमाहुः-'ता' तावत् 'मंडलाओ मंडलं' मण्डलान्मण्डलं 'संकममाणे सुरिए' संक्रामन् सूर्यः 'कण्णकलं' कर्णकलं पूर्वोत्तस्वरूपं यथास्यात्तथा 'निव्वेढेइ' निर्वेष्टयति अधिकृतमण्डलं मुश्चति 'तेसि णं तेषां खलु 'अयं' अयं वक्ष्यमाणप्रकारकः 'विसेसे' विशेषः गुणः अस्ति, तमेवाह-'ता' तावत् 'जेणंतरेण' येन यावत्परिमितेन कालेन अंतरेण-अपान्तरालेन 'मंडलाओ मंडलं संकममाणे सरिए' मण्डलान्मण्डलं संक्रामन् सूर्यः 'कण्णकलं' कर्णकलं कलयाऽतिक्रान्तं मण्डलस्य प्रथमकोटिभागरूपं कर्ण यथास्यात्तथाऽधि Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रकाशिका टीका प्रा० २-२१ सूर्यस्य मण्डलात् मण्डलान्तरसंचरणम् १११ कृतमण्डलं 'निव्वेढेइ' निर्वेष्टयति मुश्चति, 'एवइयं च णं अद्ध" एतावतीं च खलु अद्धां यावत् एतावता कालेनेत्यर्थः 'पुरओ गच्छई' पुरतो द्वितीयमण्डलपर्यन्ते गच्छति तथा च ' पुरओ गच्छमाणे' पुरतो गच्छन् द्वितीयमण्डलपर्यन्तं प्राप्नुवन् 'मंडलकाले ' मण्डलकाल मण्डला पान्तराल समयं 'न परिहवे ' न परिभवति न हापयतीति, तथा च अधिकृतमण्डलस्य किल कर्णकलापूर्वकं निवॆष्टितत्वात् अपान्तरालकालोऽधिकृतमण्डलसम्बन्धिन्ये वाहो रात्रेऽन्तर्भूतः, एवं च द्वितीयमण्डले सूर्यस्य संक्रमणे सति तद्गतकालस्य मनागपि हानिर्नस्यात् ततो यावता कालेनापान्तरालं गम्यते तावत्प्रमाणेन कालेन सूर्यः पुरतो गच्छति एवं च मण्डलकालं न हापयति - प्रसिद्धेन यावत्परिमितेन कालेन तन्मण्डलं परिसमाप्यं भवेत् तावत्परिमितेन कालेन तन्मण्डलं पूर्णतया समापयति न तु किश्चिन्मात्रापि मण्डलकालहानिर्भवति ततो जगद्विदितप्रतिनियताहोरात्रपरिमाणे न कोऽपि व्याघातः प्रसज्येत । 'तेसि णं' तेषां खलु द्वितीयानाम् 'अयं ' स्मयं पूर्वप्रदर्शितः ‘विसेसे' विशेषः गुणो वर्त्तते । पुनरस्यैव मतस्य समीचीनतां प्रदर्शयति- 'तत्थ ' इत्यादि, तत्थ' तत्र 'जे ते एवमाहंसु' ये ते एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण माहुः कथयन्ति यत्'मंडलाओ मंडलं संकममाणे सूरिए' मण्डलान्मण्डलं संक्रामन् सूर्य: 'कण्णकलं निव्वेढे ' कर्णकलां निर्वेष्टयति इति, 'एएणं' एतेन द्वितीयप्रतिपत्तिवादिकथितेन 'णएणं' नयेन - अभिप्रायेण अस्माकं मतेऽपि मण्डलान्मण्डलान्तरसंक्रमणं 'णेयव्वं' ज्ञातव्यम् किन्तु 'नो चेव णं' नैव स्खल 'इयरेणं' इतरेण प्रथमप्रतिपत्तिवादिकथितेन, अन्यैर्वा कैश्चित् कथितेन नयेन । तत इदमेव मतं ज्ञातव्यम् इतरेमते दोपसद्भावेन अस्यैव मतस्य समीचीनत्वात् तीर्थकरसंमतत्वाच्चेति ॥ ॥ इति द्वितीयस्य मूलप्राभृतस्य द्वितीयं प्राभृतप्राभृतं सम्पूर्णम् ॥२- २॥ द्वितीयस्य प्राभृतस्य तृतीयं प्राभृतप्राभृतम् । तदेवमुक्तं द्वितीयमूलप्राभृतस्य द्वितीयं प्राभृतप्रामृतम्, अथ तृतीयमाह अस्यायमर्थाधिकारः - " मण्डले २ प्रतिमुहूते सूर्यस्य गतिर्व कन्या " इत्येतद्विषयकं सूत्रमाह- 'ता केवइयं' इत्यादि । - मूलम् ता केवइयं खेत्तं सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छ ? आहितेति वएज्जा । तत्थ खल इमाओ चत्तारि पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा तत्थ एगे एवमाहंसु - ता छ छ जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छा, एगे एवमाहंसु |१| एगे पुण एवमाता पंच पंच जोयणसहस्साई बरिए एगमेगेणं मुदुतेणं गच्छइ, एगे एव Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे मासु २। एगे पुण एवमाहंस-ता चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, एगे एवमाहंसु ।३। एगे पुण एवमासु ता छवि पंचवि चत्तारि वि जोयणसहस्साई सरिए एगमेगेण मुहुत्तेणं गच्छइ एगे एवमाहंसु ।४। तत्य णं जे ते एवमाहंसु-ता छ छ जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, ते एवमाइंसुता जया णं सुरिए सन्चन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, तंसि च णं दिवसंसि एग जोयणसयसहस्सं अट्ठ य जोयणसहस्साई तावक्खेत्ते पण्णत्ते । ता जया णं सूरिए सववाहिरं मंडलं उपसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहन्नए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तसि च णं दिवसंसि' चावत्तरि जोयणसहस्साई तावक्खेते पण्णत्ते तया णं छ छ जोयणसहसाई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ ॥१॥ - तस्य णं जे ते एवमासु-ता पंच पंच जोयणसहस्साई सरिए एगमेगेण मुहुत्तेणं गच्छइ ते एवमाइंसु-ता जया णं सुरिए सन्चभंतरं मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उकोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ तसि च णं दिवसंसि नउइजोयणसहस्साई तावक्खेत्ते पण्णत्ते जया णं. संचवाहिरं मंडल उवसंकमित्ता चार चरइ तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ तंसि च णं दिवसंसि सहि जोयण सहस्साई तावक्खेत्ते पण्णचे तया णं पंच पंच जोयणसहस्साइं सूरिए एगमेगेणं • मुहुत्तेणं गच्छइ ॥२॥ . , तत्य णं जे.ते एवमाहंस-चचारि चत्वारि जोयणसहस्साई सरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ ते एवमाहंस ता जया णं सूरिए सबभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं दिवस-राई तहेव, तंसि च ण दिवसंसि वावत्तरि जोयणसहस्साई तावक्खेते पण्णत्ते, ता जया णं सुरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं राइंदिवं तहेव, तसि च णं दिवसंसि अडयालीसं जोयणसहस्साई तावक्खेत्ते पण्णते, तया गं चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साइं सरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ ॥३॥ : . - तत्थ णजे ते एवमाइंसु छवि पंचवि चत्तारि वि जोयणसहस्साई सरिए एगमेगेणे Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा०२-३ सू०१ मण्डले २ प्रतिमुहूर्त सूर्यस्य गतेर्निरूपणम् ११३ मुहुत्तेणं गच्छइ ते एवमाहंसु ता सूरिए उग्गमणमुहुत्तंसि अत्थमणमुहुत्तंसि य सिग्धगई भवइ तया णं छ छ जोयणसहस्साई एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, मज्झिमं तावक्खेत समासाएमाणे २ सरिए मज्झिमगई भवइ तया णं पंच पंच जोयणसहस्साई एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, मज्झिमं ताव क्खेत्तं संपत्ते सरिए मंदगई भवइ तया ण चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साई एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छड । तत्थ को हेऊ ? ति वएज्जा, ता अयगणं जंबद्दीवे दीवे जाव परिक्खेवेणं पप्णत्ते । ता जया णं सरिए सव्वम्भतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया ण उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता-राइ भवइ, तंसि च णं दिवससि एक्काण उइजोयणसहस्साई तावखत्ते पण्णत्ते । वा जया णं सरिए सच्चबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तम. कट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ तंसि च ण दिवसंसि एगसहिजोगणसहस्साई तावक्खेते पण्णत्ते तया णं छ विपंच वि चत्तारि विजोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, एगे एवमाइंसु ।४। सू० १॥ छाया-तावत् कियत्कं क्षेत्रं सूर्यः एकैकेन मुहून गच्छति आख्यातम् इति वदेत् तत्र खलु इमाः चतस्रः प्रतिपत्तयः प्राप्ताः तद्यथा तत्र पके एवमाहुः-तावत् पट् पड्योजनसहस्राणि सूर्यः पकैकेन मुहर्तेन गच्छति, पके पवमाहुः।१। पके पुनः पवमाहुःतावत् पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहतेन गच्छति, एके एवमाहुः ।। एके पुनरेवमाहुः तावत् चत्वारि चत्वारि योजनसहस्राणि सूर्यः एकैकेन मुहूर्तन गच्छति, पके पवमाहुः ॥३॥ एके पुनः पवमाहुः-तावत् षडपि पञ्चापि चत्वार्यपि योजनसहस्राणि सूर्यः एकैकेन मुहर्तेन गच्छति ।४। तत्र खलु ये ते पवमाहुः तावत् पटू पड्योजनसहस्राणि सूर्यः एकैकेन महसेन गच्छति, ते पवमाहुः-यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठा प्राप्तः उत्कर्पकः अष्टादशमुहत्तों दिवसो भवति जघन्यिका द्वादशमुहू रात्रिर्भवति, तस्मिश्च खलु दिघसे एकं योजनशतसहस्रम् अटयोजनसहस्राणि तापक्षेत्र प्राप्तम् । तावत् यदा खलु सूर्यः सर्वघाचं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्कर्पिका अष्टादशमुहर्चा रात्रिर्भवति जघन्यकः द्वादशमुहतोंदिवसो भवति, तस्मिश्च खलु दिवसे द्वासप्ततिं योजनसहस्राणि तापक्षेत्रं प्रशप्तम् तदा खलु पट् पड्योजनसहस्राणि सूर्यः एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति ।। तत्र खलु ये ते पवमाहुः-तावत् पञ्च पञ्चयोजनसहस्राणि सूर्यः एकैकेन मुहत्तन गच्छति, ते पवमाहुः-तावद् यदा स्खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षक: अष्टादशमुहतों दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति, तस्मिश्च खलु दिवसे नवति योजनसहस्राणि तापक्षेत्रं प्राप्तम् । यदा खलु सर्ववाह्य मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठा प्राप्ता अष्टादशमहर्ता रात्रिभवति जघन्यकः द्वादशमुहत्तों दिवसो भवति, तस्मिश्च खलु दिवसे पष्टि योजनसहस्राणि तापक्षेत्र प्रक्षप्तम् तदा खल पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि सूर्यः एकैकेन मुहत्तेन गच्छति ।। तत्र खल ये ते एवमाहुः-तावत् चत्वारि चत्वारि योजनसहस्राणि सूर्यः एकैकेन मुहूतेन गच्छति ते एवमाहुः-तावद् यदा स्खल सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तवा खल दिवस-रात्री तथैव, तस्मिश्च स्खल दिवसे द्वासप्तति योजनसहस्राणि तापक्षेत्र प्रक्षप्तम, तावद् यदा खल सूर्यः सर्ववाह्य मण्डलम् उपसंक्रम्य चार चरति तदा रात्रिन्दिवं तथैव, तस्मिश्च स्खल दिवसे अष्टचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि तापक्षेत्रं प्रमतम्, तदा खलु चत्वारि चत्वारि योजनसहमाणि सूर्यः एकैकेन मुहन गच्छति ॥३॥ तत्र खल ये वे एवमाहुः-पडपि पञ्चापि चत्वार्यपि योजनसहस्राणि सूर्यः पकैकेन मुहान गच्छति,ते पवमाहुः तावत् सूर्य उद्गममुहर्त च अस्तमयनमुहृतं च शीघ्रगतिर्भवति तदा स्खल पट पड्योजसहस्राणि एकैकेन मुहर्तन गच्छति। मध्यमं तापक्षेत्रसमासादयन् २ सूर्यः मध्यमगतिर्भवति तदा खल पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि पकैकेन मुहृतेन गच्छति । मध्यम तापक्षेत्र संप्राप्तः सूर्यः मन्दगतिर्भवति तदा स्खल्ल चत्वारि चत्वारि योजनसहस्राणि एकैकेन मुहतेन गच्छति । तत्र को हेतुः इति वदेत्-तापद् अयं खलु जम्बूद्वीपो द्वीपः यावत् परिक्षेपेण प्रक्षप्तः । तावद् यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसम्क्रम्य चारं चरति तदाखल उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षक: अष्टादशमुहतों दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहर्ता रात्रिभवति तस्मिश्च खलु दिवसे एकनवति योजनसहस्राणि तापक्षेत्रं प्रज्ञप्तम् । ___तावद् यदा खल सूर्यः सर्ववाह्य मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खल उत्तमका. ष्ठाप्राप्ता उत्कपिका अष्टादशमुहत्तों रात्रिर्भवति जघन्यका द्वादशमूहों दिवसो भवति तस्मिश्च खलु दिवसे एकपष्टियोजनसहस्राणि तापक्षेत्र प्राप्तम्, तदा खलु पडपि पञ्चापि चत्वार्यपि योजनसहस्राणि सूर्यः एकैकेन मुवत्तेन गच्छति, पके पवमाहुः ।४। सू० १ ॥ ___व्याख्या-'ता केवइय' इत्यादि । 'ता' इति तावत् 'केवइयं कियत्कं कियत्परिमितं 'खेत क्षेत्रं परिभ्रमणमार्ग 'सरिए' सूर्यः 'एगमेगेणं' एकैकेन 'मुहुत्तेणं' मुहूर्तेन 'गच्छइ' गछति ? एतद्विषये हे भवगन् भवता किम् 'आहिए' आख्यातम् ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् इति वदतु कथयतु । गौतमेन एवमुक्ते सति भगवान् प्रथमं परमतस्य मिथ्याभावप्रदर्शनाया न्यतैथिकानां प्रतिपत्तीः प्रदर्शयति-'तत्थ' इत्यादि । 'तत्थ खलु' तत्र सर्यस्य परिभ्रमणमार्गविपये खलु निश्चयेन 'इमाओ' इमाः वक्ष्यमाणाः 'चत्तार' चतस्रः 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः परमताभिप्रायरूपाः 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः 'तं जहा' तद्यथा ता यथा-'तत्थ तत्र चतुर्पु प्रतिप्रत्तिवादिपु मध्ये 'एगे' एके केचन प्रथमाः परतीर्थिकाः 'एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंस' Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०-२-३ सू०१ मण्डले २ प्रतिमुहूर्त सूर्यस्य गतेनिरूपणम् ११५ आहुः कथयन्ति-यत् 'ता' तावत् 'सूरिए' सूर्यः 'छ छ जोयणसहस्साई' षट्र षड्योजनसहस्राणि पट् पट् सहस्रयोजनपरिमितं क्षेत्रं 'एगमेगेणं मुहुत्तेणं' एकैकेन मुहूर्तेन 'गच्छइ' गच्छति पारयतीत्यर्थः. 'एगे' एके प्रथमाः 'एवं' एवं पूर्वोक्तप्रकारेण 'आइंसु' आहुः कथयन्ति । १ । 'एगे पुण' एके द्वितीयप्रतिपत्तिवादिनः पुनः ‘एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आइंसु' आहुः कथयन्ति–'ता' तावत् 'सरिए' सूर्यः पंच पंच जोयणसहस्साई' पञ्च पञ्चयोजनम्हवाणि 'एगमेगेणं मुहुत्तेणं' एकैकेन मुहूर्तेन 'गच्छइ' गच्छति 'एगे' एके द्वितीयाः ‘एवं' पूर्वकथितप्रकारेण 'आहेसु' आहुः ।२। 'एगे पुन' एके केचन तृतीयप्रतिपत्तिवादिनः पुनः ‘एवं एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आइंसु' आहुः कथयन्ति-'ता' तावत् 'सरिए' सूर्यः 'चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साई चत्वारि चत्वारि योजनसहस्राणि 'एगमेगेणं मुहतेणे' एकैकेन मुहूर्तेन 'गच्छइ' गच्छति, 'एगे' एके तृतीयाः परतीर्थिकाः ‘एवं' एवं पूर्वोत्त: प्रकारेण 'आइंसु' आहुः कथयन्ति ।३। 'एगे पुण' एके पुनश्चतुर्थाः परतीर्थिकाः पुनः ‘एवं', वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आइंसु' आहुः कथयन्ति-'ता' तावत् 'सरिए' सूर्यः 'छ वि पंच वि चत्तारि वि जोयणसहस्साई पडपि पश्चापि चत्वार्यपि योजनसहस्राणि 'एगमेगेणं मुहुत्तेण' एकैकेन मुहूर्तेन 'गच्छइ' गच्छति 'एगे' एके चतुर्थाः ‘एवं पूर्वोक्तप्रकारेण 'आइंस' आहुः कथन यन्ति ।।। चतुर्थस्यायं भावः-सूर्य एकैकेन मुहर्तन पट्सहस्रयोजनानि पञ्चसहस्रयोजनानि चतुः सहनयोजनान्याप च गच्छतीति । भगवान् तेषां यथाक्रमं स्वरूपं प्रदर्शयति 'तत्थ णं जे ते' इत्यादि । 'तत्थ णं तत्र चतुर्पु प्रतिपत्तिवादिषु मध्ये खलु 'जे ते एवमासु' ये ते प्रथमाः परमतवादिनः एवमाहुः एवं कथयन्ति यत् 'ता' तावत् 'छ छ जोयणेसहस्साई षट् षड्योजनसहस्राणि ण्ट षट् सहस्रयोजनानि 'सुरिए' सूर्यः 'एगमेगेणं मुहुत्तेणं' एकैकेन मुहर्तन 'गच्छई' गच्छत्तीति 'ते' ते एवं वक्तारः ‘एवं' एवं अनेन वक्ष्यमाणेन अभिप्रायेण 'आइंस माहुः कथयन्ति, तदेव प्रदर्शयति 'जया णं' यदा खल 'सूरिए' सूर्य. 'सव्वन्भतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति “तया णं' तदा खल 'उत्तमकट्ठपत्ते' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्षप्राप्तः 'उकोसए' उत्कर्पकः सर्वाधिकप्रमाणकः 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ' अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति 'जहणिया' जघन्यिका सर्वलन्ची 'दुवालसमुहुत्ता राई भवई' द्वादशमुहूत्त' रात्रिर्भवति, सूर्यस्य •सर्वाभ्यन्तरमण्डलसंचरणसमये अष्टादशमुहूर्तेभ्यो न न्यूनो नाधिको दिवसो भवति, न च द्वादशमुहूर्तेभ्यो न्यूनाऽधिका वा रात्रिर्भवतीति भावः । 'तंसि च णं दिवसंसि' तस्मिश्च खलु दिवसे 'एग जोयणसयसहस्सं'. एक योजनशतसहस्रम् एकलक्षयोजनं तदुपरि..'अट्ट य जोयणसहस्साई भष्ट च योज; Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे नरहस्राणि अष्टसहस्रयोजनानि अष्टसहस्राधिकै कलक्षयोजनपरिमितं 'तावक्खेत्ते' तापक्षेत्रं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् । अयं भावः-सूर्यो यदा सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चारं चरति तदा दिवसोऽष्टादशमुहूत्तों भवति एकेन मुहूर्तेन च पट्सहस्रयोजनानि सूर्यो गच्छतीति कथितं ततोऽष्टादशसंख्या घट्सहस्रैर्गुण्यते ततो जातमेकं लक्षमष्टसहस्राधिकं (१०८०००) तापक्षेत्रप्रमाणम् । एवमग्रेऽपि मण्डले मण्डले निष्क्रमणकाले तसन्मण्डलसत्कहीनदिवसपरिमाण प्रतिमुहूर्तगतिपरिमाणेन पदसहस्रयोजनरूपेण गुणनात् तापक्षेत्रपरिमाणं हानिरूपेण प्रत्येकमण्डलस्य स्वयमूहनीयम् । एवं क्रमेण वहिनिष्क्रामन् 'सूरिए' सूर्यः 'ता' तावत् 'जया णं' यदा ग्वल 'सव्ववाहिरं मंडलं' सर्वबाह्यं मण्डलम् 'उपसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति, सूर्यो यदा सर्वबाह्यं मण्डलं प्राप्नोति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तमकट्टपत्ता' उत्तमकाष्ठा प्राप्ता 'उकोसिया' उत्कर्षिका सर्वोत्कृष्टा 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ' अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, 'जहण्णए' जघन्यकः सर्वलघुः 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' द्वादशमुहूर्ता दिवसो भवति, 'तंसि च णं दिवसंसि' तस्मिन् च खल दिवसे 'चावचरि जोयणसहस्साई द्वासप्तति योजनसहस्राणि द्वासप्तति (७२०००) सहस्रयोजनपरिमितं 'तावक्खेत्ते पण्णते' तापक्षेत्रं प्रज्ञप्तम् । 'तया णं तदा खलु 'छ छ जोयणसहस्साइं सुरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ' षट् षड्योजनसहस्राणि पट् षट् सहस्रयोजनानि एकैकेन मुहूतन गच्छाते । अत्रापि पूर्ववद् विभावनीयम् यथा-तापक्षेत्र तु दिवसे एव भवति ततो दिवसपरिमाणं गृह्यते सूर्यस्य सर्वबाह्यमण्डलसंचरणसमये दिवसस्य द्वादशमुहूर्ता भवन्ति, एक मुहूर्तस्य गमनकालः पट्सहनयोजनपरिमितस्तेनात्र द्वादशमुहूर्ताः षट्सहस्रैर्गुण्यन्ते जातं द्वासप्ततिसहस्रयोजनपरिमितं तापक्षेत्रमिति । एवमेव सर्वबाह्यमण्डलादभ्यन्तरं सूर्यस्य गमनकाले क्रमेण प्रतिमण्डलस्य तापक्षेत्रपरिमाणं वृद्धित्वेन स्वयं भावनीयम् , अनेन क्रमेण प्रविशन् सूर्यो यदा सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं प्राप्नोति तदा तदेव अष्टसहस्राधिकलक्षपरिमितं तापक्षेत्र भविष्यतीति । अनेनामिप्रायेण ते प्रथमास्तीर्थान्तरीया एवं कथयन्तीतिभाव. ॥१॥ अथ भगवान् द्वितीयप्रतिपत्तिवादिनामभिप्रायं प्रदर्शयति-तत्थ णं' इत्यादि 'तत्थ णं' तत्र चतुर्पु मध्ये खलु 'जे ते' ये ते द्वितीयप्रतिपत्तिवादिनः 'एवमासु' एवमाहुः-'ता' तावत् 'पंचपंच जोयणसहस्साई' पञ्च पश्च योजनसहस्राणि पश्चसहस्रयोजनानि 'मुरिए' सूर्यः एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छई एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, इति ये वदन्ति 'ते एबमासु' ते द्वितीयास्तीर्थान्तरीयाः एवम्-अनेन वक्ष्यमाणेन अभिप्रायेण आहुः कथयन्ति, तमेवाभिप्रायं प्रदर्शयति-'ता जया गं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु सरिए' सूर्यः 'सबभतरं मंडलं उसकमित्ता Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०२-३ सू०१ मण्डले २ प्रतिमुहर्त सूर्यस्य गतेनिरूपणम् १९७ चारं चरइ' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया गं' तसा खलु 'उत्तमकट्टपत्त उक्कोसए' उत्तमकाष्ठाप्राप्त उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्टः 'महारसमुहुत्ते दिवसे भवइ' भष्टादश मुहूत्तों दिवसो भवति 'जहणिया' जघन्यिका सर्वलध्वी 'दुवालसमुहत्ता राई भवइ' द्वादश मुहूर्ता रात्रिर्भवति, 'तंसि च णं दिवसंसि' तस्मिश्च खलु दिवसे अष्टादशमुहूर्तप्रमाणे 'नउई जोयणसहस्साई' नवति योजनसहस्राणि नवतिसहस्रयोजनपरिमितमित्यर्थः 'तारखेत्ते पण्णत्ते' तापक्षेत्रं प्रज्ञप्तम् कथमेतदित्याह-एपां मते सूर्यः एकैकेन मुहूर्तेन पञ्च पञ्चसहनयोजनानि गच्छति सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलसंचरणसमये दिवसः अष्टादशमूहत्तों भवति ततः पञ्चसहस्रसंख्या अष्टादशभिर्गुण्यते तत आयाति तापक्षेत्रस्य यथोकं परिमाणं नवतिसहस्रयोजनपरिमित (९००००) तस्मिन् दिवसे, इति एवमग्रे सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलात् सर्ववाद्यमण्डलाभिमुखगमने मध्ये मध्ये प्रतिमण्डले दिवमपरिमाणस्य पञ्चसहनैर्गुणने तत्तन्मण्डलस्य दिवसस्य होनत्वेन हीनं हीनं तापक्षेत्रमायाति । एवं सर्वबाह्यमण्डलाभिमुखं सचरन् ‘जया णं' यदा खल्ल 'सववाहिरं मंडलं' सर्ववाह्य मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति सर्ववाह्यमण्डले आयाति 'तया णं' तदा खल 'उत्तमकट्ठपत्ता' उत्तमकाष्टाप्राप्ता परमप्रकर्षसम्पन्ना 'उवशोसिया' उत्कर्षिका सर्वगुर्वी 'अद्वारसमुहुत्ता राई भवई' मष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति 'जहण्णए' जघन्यकः सर्वलघुः 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवड' द्वादशमुहूर्तों दिवसो भवति 'तंसि च णं' तस्मिंश्च द्वादशमुहूर्तपरिमिते खल 'दिवसंसि' दिवसे 'सद्विजोयण सहस्साई'षष्टियोजनसहस्राणि पष्टिसहस्रयोजनपरिमितं' 'तावखेत्ते पण्णत्ते' तापक्षेत्रं प्रज्ञप्रज्ञप्तम् । अत्रापि दिवसमुहूर्तसंख्यां द्वादशपरिमितां पञ्चसहस्रैर्गुणयित्वा यथोक्तपरिमाणं षष्टिसहस्रयोजनरूपं परिभावनीयम् तत एवाह-'तया णं' तदा खल 'पंच पंच जोयणसहस्साई पञ्चपञ्चयोजनसहस्राणि 'सुरिए' सूर्यः 'एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छई' एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति अनेनाभिप्रायेण ते द्वितीयास्तीर्थान्तरीयाः सूर्यस्य एकैकमुहूर्तगम्यमार्ग पश्च पञ्च सहस्रयोजनपरिमितं कथयन्तीति । एवं यदा सर्वबाह्यमण्डलात् सर्वाभ्यन्तरमण्डलाभिमुखं सूर्यो गन्तुमारमते तदा मध्ये मध्ये तत्तन्मण्डलगतदिवसमुहूर्त्तसंख्यायाः पश्चसहस्रैर्गुणने तत्तन्मण्डलस्य तापक्षेत्रं वृद्धित्वेनायाति, एवं यदा सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं सूर्यः प्राप्नोति तदा यथोक्तं नवतिसहस्रयोजनपरिमितं द्वितीयतीर्थान्तरीयाभिमतं तापक्षेत्रं भवतीति ॥२।। अथ भगवान् तृतीयप्रतिपत्त्यभिप्रायं प्रदर्शयति-तत्थ ण' इत्यादि 'तत्थ णं' तत्र तापक्षेत्रविषये खलु 'जे ते' ये ते तृतीयास्तीर्थान्तरीयाः 'एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति, तदेव दर्शयति-'चनारि चत्तारि जोयणसहस्साई चत्वारि चत्वारि योजनसह स्राणि चतुश्चतुः सहस्रयोजनानि 'सरिए' सूर्यः 'एगमेगेणं मुहुत्तण' एकैकेन मुहूर्तेन 'गच्छइ' Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे गच्छति, इति ते णं' ते खलु ‘एवं' एवम्-अनेन वक्ष्यमाणाभिप्रायेण 'आहेसु' कथयन्ति, तमेव प्रकारमाह-'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सरिए' सूर्यः 'सयभंतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् ‘उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य 'चारं चरइ' चारं चरति 'तया णं' तदा खल 'दिवसराई तहेव' दिवस रात्री तथैव-तथा च उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षक: अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवतीति, 'तंसि च णं दिवसंसि' तस्मिंश्च खलु दिवसे 'बावत्तरि जोयणसहस्साई' द्वासप्ततियोजनसहस्राणि-द्वासप्ततिसहस्नयोजनपरिमितं 'तावखेते पण्णत्ते' तापक्षेत्र प्रज्ञप्तम् । तथाहि-एतेषां तृनीयानां मते सूर्यः प्रतिमुहूत्तै चतुःसहस्रयोजनानि गच्छति सर्वाभ्यन्तरमण्डले अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति ततश्चाष्टादशमुहूर्ताश्चतुःसहस्रैर्गुण्यन्ते तदा भवति द्वासप्ततिसहस्रयोयनप्रमाणं (७२०००) तापक्षेत्रमिति, 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सरिए सूर्यः 'सन्धबाहिरं मंडलं' सर्वबाह्य मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चार चरति 'तया ण' तदा खल 'राईदियं तद्देव' रात्रिन्दिवं तथैव, तथा च उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्कर्पिका अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति, जघन्यकः द्वादशमुहूत्तों दिवसो भवति, तंसि च णं' तस्मिश्च द्वादशमुहूर्तपरिमिते खलु 'दिवसंसि' दिवसे 'अंडयालीसं जोयणसहस्साई' अष्टचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि अष्टचत्वारिंशत्सहस्रयोजनपरिमितं 'तावखेत्ते पण्णत्ते' तापक्षेत्रं प्रज्ञप्तम् । कथ मिति दर्शयति-एपां तृतीयानां मते सूर्यस्य गमनं प्रतिमुहत्तं चतुश्चतुःसहस्रयोजनपरिमितमस्ति, सर्वबाह्यमण्डले च द्वादशमुहर्तपरिमितो दिवसो भवति तेन चतुःसहनसख्याद्वादशभिर्गुण्यते तदा समायाति अष्टचत्वारिंशत्सहस्रयोजनपरिमितं तापक्षेत्रम् , अनेन प्रकारेण ते कथयन्ति 'तया णं' तदा खलु 'चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साई' चत्वारि चत्वारि योजनसहस्राणि 'मूरिए' सूर्यः 'एगमेगेणं मुहुत्तणे' एकैकेन मुहूर्तेन 'गच्छई' गच्छति । मध्यमध्यमण्डलेपु पूर्वोक्तरीत्या तत्तन्मण्डलगतं तापक्षेत्रं सूर्यस्य निष्क्रमणसमये प्रवेशसमये हान्या वृद्धया चावसेयमिति एव सूर्यो यदा सर्वबाह्यमण्डलाद् सर्वाभ्यन्तरमण्डलाभिमुखं गच्छति तदा मध्यमध्यमण्डलसचरणसमये यस्मिन् यस्मिन् मण्डले यावत्परिमितं दिवसपरिमाणं भवति तत्तत्संख्यया चतुः सहस्राणां गुणने गुणनफलपरिमितमेव तत्तन्मण्डले तापक्षेत्रं भवति । अनेन क्रमेण गच्छन् सूर्यो यदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलं प्राप्नोति तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डले गते सूर्ये तदेव पूर्वोक्तं तदभिमतं ताप क्षेत्रप्रमाणं द्वासप्ततिसहस्रयोजनपरिमितमायातीति ।३।। __ अथ चतुर्थप्रतिपत्त्याभिप्रायमाह-'तत्य णं' इत्यादि । तत्थ णं' तत्र तापक्षेत्रविषये स्खल 'जे ते' ये ते चतुर्थास्तान्तरीयाः 'एवं' वक्ष्यमाणप्रकरेण 'आइंसु' कथयन्ति तदेवाह'छ वि पंच वि चत्तारि वि' पडपि पश्चापि चत्वार्यपि 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि पद सहस्रयोजनान्यपि, पञ्चसहनयोजनान्यपि चतु सहस्र योजनान्यपि च 'मरिए' सूर्यः ‘एग Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०२-३ सू०१ मण्डले २ प्रतिमहत्तं सूर्यक्ष्य गतेनिरूपणम् ११९ मेगेणं मुहुत्तेणं' एकैकेन मुहूर्तन 'गच्छइ' गच्छति, इति ये कथयन्ति 'ते' ते पूर्वोक्तरूपेण वकारः ‘एवं' एवम् अनेन वक्ष्यमाणेनाभिप्रायेण 'आहेसु' आहुः-कथयन्ति तच्छ्रयताम्'ता' तावत् 'यरिए' सूर्यः 'उग्गमणाहुत्तंसि' उद्गमनमुहूर्त एवम् 'अस्थमणमुहुत्तंसि य' अस्तमयनमुहर्ने च उदयकाले अस्तकाले चेत्यर्थः 'सिग्धगई भवई' शीघ्रगतिर्भवति ततः 'तया गं' तदा उदयास्तसमये खलु सूर्यः 'छ छ जोयणसहस्साई' पट् षड्योजनसहस्राणि 'एगमेगेणं मुहुत्तेणं' एकैकेन मुहूर्तेन 'गच्छड' गच्छति, सूर्य उदयास्तकाले शीघ्रगतित्वेन एकस्मिन् मुहूर्त पट्सहस्रयोजनपरिमितं क्षेत्रं पारयतीति भावः ततः पश्चात् 'मझिम तावखेत्त' मध्यमं तापक्षेत्रं 'समासाएमाणे २' समासादयन् २ प्रापयन्२ 'मूरिए' सूर्यः मज्झिमगई भवइ' मध्यमगतिर्भवति 'तया णं तदा तस्मिन् काले खल 'पंचपंचजोयणसहस्साई' पञ्चपञ्चयोजनसहस्राणि पञ्चपञ्चसहस्रयोजनानि 'एगमेगेणं मुहुत्तेणं' एकैकेन मुहूर्तेन 'गच्छई' गच्छति । तथा 'मज्झिम तावखेत्तं' मध्यमं तापक्षेत्रं 'संपत्ते' सम्प्राप्तो भवेत् तदा 'सूरिए' सूर्यः 'मंदगई भवई' मन्दगतिर्भवति 'तया णं' तदा खलु 'चत्वारि चत्तारि जोयणसहस्साई' चत्वारि चत्वारि योजनसहस्राणि चतुश्चतुःसहस्रयोजनानि 'एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ' एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, यदा सूर्यो मध्यमतापक्षेत्रेऽधिरूढो भवति तदा मन्दगतित्वेन एकैकस्मिन् मुहूत चतुश्चतुःसहस्रयोजनपरिमितमेव क्षेत्रं पारयितुं शक्नोति न ततोऽधिकमिति भावः । एवं भगवता कथिने सति गौतमः पृच्छति-'तत्थ' तत्र सूर्यस्य एवं गमने 'को हेऊ' को हेतुः किं कारणम् 'त्तिवएज्जा' इति वदेत् तद्गतिकारणं कथयतु भगवन् ! . एवं गौतमेन पृष्टे भगवान् तत्कारणं प्रतिपादयति-ता अयं णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'अयं णं' अयं लोकप्रसिद्धः खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वोपो द्वीपः मध्यजम्बूद्वीपः जम्बूद्वापस्य वर्णनं सर्वमत्र वाच्यम् , कियत्पर्यन्तम् ? इत्याह 'जाव परिक्खेवेणं पण्ण' यावत् परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः परिधिपर्यन्तं वाच्यम् । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'रिए' सूर्यः 'सव्वम्भर मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं तदा खल्ल 'उत्चमकट्ठपचे' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः 'उक्कोसए' उत्कर्षकः 'अद्वारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति 'जहणिया' जन्यिका सर्वलध्वी 'दुवालसमुहत्ता राई भवई' द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति । 'तं सि च णं' तस्मिन् च खलु पूर्वोक्तप्रमाणे 'दिससंसि' दिवसे 'एक्काणउई' एकनवतिं 'जोयणसहस्साई योजनसहस्राणि एकनवतिसहस्रयोजनपरिमितं 'तावखेत्ते पण्णत्ते' तापक्षेत्रं प्रज्ञप्तम् । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० चन्द्रप्राप्तिसूत्रे तथाहि-सूर्योदयसमयमुहूर्तेऽस्तसमयमुहूर्ते च प्रत्येकं पट् षड्योजनसहस्रपरिमितो गमनकालः कथितः, तयोईयोर्मीलने जातानि द्वादशसहनयोजनानि (१२०००) सर्वाभ्यन्तरं मुहर्त्तमात्रगम्यं तापक्षेत्रं सम्प्रति न गृह्यते मध्यमे च तापक्षेत्रे पश्चदशमुहूर्तगम्यप्रमाणं पश्च पञ्चसहस्रयोजनानि सूर्यो गच्छतीति, पञ्चदशयोजनसहस्राणि पञ्चदशभिर्गुण्यन्ते तदा नातानि पञ्च सप्ततिसहस्रयोजनानि (७५०००) अथ च सर्वाभ्यन्तरमुहूर्त्तमात्रगम्यं तापक्षेत्रं चतुःसहस्रयोजन (४०००) परिमितं, तत् तथा उदयास्तसमयसंपन्नानि पूर्वोक्तानि द्वादशसहस्रयोजनानि च, एवं १२-७५-४ सर्वमीलने जातानि एकनदतिसहस्राणि (९१०००) । एव मष्टादशमुहर्तप्रमाणे दिवमे समागतं यथोक्तं तापक्षेत्रप्रमाणमिति । अन्यथा चैतानि न घटन्त इति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल 'सुरिए' सूर्यः 'सव्ववाहिरं मंडलं' सर्वबाह्य मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ उपसंक्रम्य चारं चरति 'तयाणं' तदा खल 'उत्तमकट्ठपत्ता' उत्तमकाष्ठा प्राप्ता सर्वोत्कृष्टप्रकर्षसंपन्ना 'उक्कोसिया' उत्कर्षिका सर्वोत्कृष्टा 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई' अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति 'जहण्णए' जघन्यकः सर्वलघुः 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ' द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति, 'तंसि च ण' तस्मिंश्च द्वादशमुहूर्तपरिमिते 'दिवसंसि' दिवसे 'एगसहिजोयणसहस्साई एकपष्टियोजनसहस्राणि एकपष्टिसहस्रयोजनपरिमितं (६१०००) 'तावखेत पण्णत्ते तापक्षेत्रं प्रज्ञप्तम् । कथमेतद् घटते ? इति प्रदर्श्यते-उदयकालमुहूर्त, अस्तकाल मुहूर्ते च प्रत्येकं पदे षड्सहस्रयोजनानि सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छतीति द्वयोर्मीलने जातानि द्वादशसहस्रयोजनानि (१२०००) सर्वाभ्यन्तरं मुहूर्तमात्रगम्यं तापक्षेत्रं सम्प्रति न गृह्यते, शेषा नवमुहूर्ताः तेप सूर्यः पञ्च पञ्चसहस्रयोजनानि प्रतिमुहत्तं गच्छति ततः पञ्चसहस्रयोजनानि नवभिर्गुण्यन्ते जातानि पञ्चचत्वारिंशत् -सहस्रयोजनानि (४५०००) सर्वाभ्यन्तरे मुहूत्तैकगम्ये तापक्षेत्र चतुःसहस्रयोजनानि एकैकेन मुहूर्तेन गच्छनीति चत्वारि योजनसहस्राणि (१०००) तथा उदयास्तकालसंपन्नानि पूर्वोक्तानि द्वादशसहस्रयोजनानि (१२०००) •एवं १२-४५-४ सर्वसंमेलने जातं यथोक्तम् एकपप्टिसहस्रयोजनपरिमितं (६१०००) द्वादशमुहूर्तपरिमिते दिवसे तापक्षेत्रप्रमाणम् । न चैतदन्यथोपपद्यत इति, 'तया णं तदा खलु एवं कृते सति 'छ वि पंच वि चत्तारि वि' पडपि पञ्चापि चत्वार्यपि 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि पट्पञ्चचतुःसहस्रयोजनपरिमितं क्षेत्रं 'सूरिए' सूर्यः 'एगमेगेणं मुहुत्तण' एकैकेन मुहूर्तेन 'गच्छइ' गच्छति । एतदभिप्रायेण चतुर्थास्तीर्थान्तरीयाः सूर्यस्य प्रतिमुहूर्त्तगमनकालं पट्पञ्चचतुःसहस्रयोजनपरिमितं प्रतिपादयन्तीति विज्ञेयम् । उपसंहारमाह-'एगे' एके चतुर्थाः परमतवादिनः 'एवं' एवं पूर्वप्रदर्शितप्रकारेण 'आइंसु' आहुः कथयन्तीति ॥सू० १॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. २-३ सू २ पूर्वोक्तविषये स्वसिद्धांतप्रतिपादवम् १२१ पूर्व परमतरूपाश्चतस्रः प्रतिपत्तयः प्रदर्शिताः, साम्प्रतं भगवान् स्वमतं प्रदर्शयति'वयं पुण' इत्यादि । वयं पुण एवं वयामो-ता साइरेगाइं पंच पंच जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहत्तेणं गच्छइ तत्थ को हेऊ ? त्ति वएज्जा ता अयं णं जंवुद्दीवे दीवे जाव परि खेवेण पण्णत्ते ता जया णं सुरिए सन्चभतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरई तयाणं पंच पंच जोयणसहस्साई दोणि य एकावण्णे जोयणसयाई एगणतीसं च सद्विभागे जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, तया णं इहगयस्स मणुसस्स सीयालीसाए जोयणसहस्सेहि, दोहि य तेवढेहिं जोयणसएहि, एक्कवीसाए य सहिभागेहि जोयणस्स सरिए चक्खुप्फासं हन्वमागच्छइ तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । से निक्खममाणे सरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तसि अमितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरई । ता जया णं सरिए अभितराणंतरं मंडलं उपसंकमित्ता चारं चरइ तया णं पंच पंच जोयणसहस्साई दोण्णि य एकावण्णे जोयणसयाई सीयालीसं च सद्विभागे जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ तया णं इह गयस्स मस्सस्स सीयालीसाए जोयणसहस्सेहिं अउणासीए य जोयणसए सत्तावण्णाए सटिंभागेहि जोयणस्स, सद्विभागं च एगडिहा छेत्ता एगूणवीसाए चुण्णियामागेहि सरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ, तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगसहिभागमुहुचेहि अहिया। से निक्खममाणे सरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि अब्भतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सरिए अभितरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं पंच २ जोयणसहस्साई दोण्णि य वावण्णे जोयणसयाइं पंच य सहिभाए जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ तया णं इहगयस्स मणूसस्स सीयालीसाए जोयणसहस्सेहिं छण्णउईए य जोयणेहिं तेत्तीसाए य सहिभागेहि जोयणस्स सद्विभागं च एगसहिदा छेत्ता दोहि चुण्णियाभागेहि सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ, तया णं अट्ठारस मुहुत्ते दिवसे भवइ, चउहि एगसहिभागमुहुत्तेहिं हीणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ चउहिएगसद्विभागमुहुत्तेहिं अहिया । एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे मुरिए तयाणंतराभो तयाणंतरं मंडलामो मंडलं संकममाणे २ अट्ठारस २ सहिभागे जोयणस्स एग Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રરર चद्राप्तिप्रकाशिका मेगे मंडले मुहत्तगई अभिवुड्ढेमाणे २ चुलसीई साइरेग जोयणाई पुरिसच्छायं णिव्वुड्ढेमाणे २ सव्ववाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं मूरिए सवधाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं पंच जोयणसहरसाइ तिन्नि य पंचुत्त राई जोयणसयाई पण्णरस य सहिभागे जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, तया णं इगयस्स मण्सस्स एक्कतीसाए जोयणसहस्सेहि अहहिं एक्कतीसेहिं जोयणसएहिं तीसाए य सहिभागे जोयणस्स सरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ तया णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ । एस णं पढमे छम्मासे । एसणं पढमस्य छम्मासस्स पज्जवसाणे ॥सू० २॥ छाया-वयं पुनरेवं वदामः-तावत् सातिरेकाणि पञ्च पत्र योजनसहस्राणि सुर्यः पकैकेन मुहर्तन गच्छति । तत्र को हेतु: ? इति वदेत् तावत् अयं बलु जम्बूद्वीपो द्वीपः यावत् परिक्षेपेण प्रक्षप्तः । तावत् यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि द्वे च एकपञ्चाशयोजनशते एकोनत्रिशतं पष्टिभागान् योजनस्य एकैकेन मुट्टत्तन गच्छति, तदा खलु इहगतस्य मनुष्यस्य सप्तचत्वारिंशता योजनसहःद्वाभ्यां च त्रिपठाभ्यां योजनशताभ्याम् पकविंशत्या च पष्टिभागे. योजनस्य सूर्यः चक्षुःस्पर्श हव्यमागच्छति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्त उत्कर्षक: अष्टादशमुत्तों दिवसो भवति जयन्यिका द्वादशमुहर्ता रात्रि भवति । स निष्क्रामन् सूर्यः नवं सवत्सरम् अयन् प्रथमे अहोरात्रे अभ्यन्तरानन्तर मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः अभ्यन्तरानन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु पञ्चपञ्चयोजनसहस्राणि हे च एकपञ्चाशद्योजनशते सप्तचत्वारिंशतं च पप्टिमागान् योजनस्य कैकेन मुहर्तन गच्छति, तदा खलु इह गतस्य मनुष्यस्य सप्तचत्वारिंशतायोजनसहनैः एकोनसप्ताशीतिं च योजनशतानि सप्त पञ्चाशता पष्टिभागैः योजनस्य पष्टिभागं च एकपरिघा छित्त्वा एकोनविंशत्या चूर्णिकाभागैः सूर्यः चक्षुःस्पर्श हव्यमागच्छति तदा स्खलु अष्टादशमुहूतौ दिवसो भवति द्वाभ्यामेण्वपष्टिभागमुहर्ताभ्यामेधिका। म निक्रामन् मूर्यः द्वितीये अहोरात्र अभ्यन्तरं तृतीयं मण्डलम् उपसंक्रम्य चार चरनि । तावत् यदा खलु सूर्यः अभ्यन्तरं तृतीयं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खल पञ्च २ योजनसहस्राणि द्वे च द्विपञ्चाशतं योजनशते पञ्च च पष्टिभागान् योजनस्य पकैकेन मुहर्तन गच्छनि तदा खलु इहगतस्य मनुष्यस्य सप्तचत्वारिंशता योजनसहरीः पण्णवत्या च योजनैः त्रयस्त्रिंशताच पष्टिभागैः योजनस्य पष्टिभाग एकपष्टिया छित्वा द्वाभ्यां चूर्णिकामागाभ्यां सूर्यः चक्षुःस्पर्श हव्ययागच्छति, तदा स्खलु अष्टादशमुहत्तौ दिवसो भवति चतुभिरेकपटिभागमुहत्तहीनः द्वादशमुहर्ता रात्रि भवति चतुभिः एकपप्टिभागमुहर्तरधिका । एवं खल्लु एतेन उपायेन ष्क्रिामन् सूर्यः तदनन्तरात् तदनन्तरं मण्डलात् Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०२-३ सू०२ पूर्वोक्तविषयेस्वसिद्धांतप्रतिपादनम् १२३ मण्डलं संक्रामन् २ अष्टादश २ षष्टिभागान् योजनस्य एकैकस्मिन् मण्डले मुहूर्तगतिम् अभिवर्धयन २ चतुरशीति सातिरेक योजनानि पुरुषच्छायां निर्वर्धयन् २ सर्ववाह्य मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः सर्ववाह्य मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति, तदा खलु पञ्च योजनसहस्राणि त्रीणि च पञ्चोत्तराणि योजनशतानि पञ्चदश च षष्टिभागान् योजनस्य एकैकेन मुहन गच्छति, तदा खलु इहगतस्य मनुष्यस्य एकत्रिंशता योजनसहन्नः अष्टभिः एकत्रिशता योजनशतः त्रिशता च षष्ट्रिभागैः योनस्य सूर्यः चक्षुः स्पर्श हव्यमागच्छति, तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्कर्पिका अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति जघन्यकः द्वादशमुहूत्तों दिवसो भवति । एतत् खलु प्रथमं पण्मासम् । एतत् खलु प्रथमस्य पण्मासस्य पर्यवसानम् 'सूत्र २ ॥ व्याख्या-'वयं पुण' इति 'वयं पुण' वयं पुनः वयं तु 'एवं' वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामो' वदामः कथयामः, तदेव दर्शयनि-'ता' तावत् 'साइरेगाई' सातिरेकाणि किञ्चिदविकानि 'पंच पंच जोयणसहस्साई' पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि पञ्चपञ्चमहसूयोजनानि 'सरिए' सूर्यः एगमेगेणं मुहत्तेणं' एकैकेन मुहर्नेन 'गच्छइ' गच्छति । एवं भगवता प्रोक्ते गौतमोऽत्र हेतु पृच्छति'तत्थ को हेऊ' तत्र सूर्यस्य एकैकमुहर्तपरिमितकालेन सातिरेकपच्चसहस्रयोजनगमने को हेतु किं कारणं कोपपत्तिः ? 'इनि' इति 'वएज्जा' वदेत् हे भगवन् ! वदतु कथयतु । भगवान् तत्कारणं प्रदर्शयति-'ता' तावत् 'अयं णं' अयं खलु 'जम्बुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपो द्वोपः मध्यजम्बूद्वीपः 'जार परिक्खेवेणं पण्णत्ते' यावत्परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः अत्र यावत्पदेन जम्बूद्वीपवर्णनं सर्व पठनीयं परिधिपरिमाणपर्यन्तमिति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सुरिए' सूर्यः 'सवमंतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् 'उपसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तयाणं' तदा खलु 'पंच २ जोयणसहस्साई' पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि 'दोण्णि य एकावण्णे जोयणसयाई द्वे च एकपञ्चाशद्योजनशते एकपञ्चाशदधिकद्विशतयोजनानि (५२५१) 'एगूणतीसं च सहिभागे जोयणस्स' एकोनत्रिंशतं च पष्टिभागान् योजनस्य (५२. ५१९ एतावत्परिमितं क्षेत्रं सूर्यः ‘एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ' एकैकेनः मुहूत्तन गच्छति प्रत्येक मुहूर्ते एतावत्परिमितं क्षेत्रं पारयतीति भावः । एतत्कथमुपलभ्यते' ? इति प्रदर्श्यतेभरतैरवतसम्बन्धिनौ द्वौ सूर्यो एकैकं मण्डलम् एकैकेन अहोरात्रेण परिसमापयतः, एकैकस्य सूर्यस्यैकैकाहोरात्रगमने वस्तुतो द्वाभ्यामहोरात्राभ्यां परिभ्रमणमाश्रित्य मण्डलपरिसमाप्तिर्भवति' । द्वयोरहोरात्रयोः षष्टिमुहर्ता भवन्ति प्रत्येकाहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तप्रमाणत्वात् । एषां षष्टिसंख्या भाजकराशित्वेन विज्ञेया, भाज्यराशिश्च मण्डलपरिधिपरिमाणसंख्या, मण्डलपरिधिपरिमाणं च सर्वाभ्यन्तरे मण्डले एकोननवत्यधिकंपञ्चदशसहस्रोत्तराणि त्रोणि लक्षाणि-(३१ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ wwwwwwwwwwww. ram rommmmmmmmmmmmmmwww.mmmmmer amrrrrrrrmmmmmmm चन्द्रप्राप्तिसूत्रे ५०८९)। एषा भाज्यराशिसंख्या पूर्वप्रदर्शितेन षष्टिसंख्यकेन (६०) भाजकराशिना विभज्यते भाज्यराशे जकराशिना भागो हियते, भागे हृते लब्धं यथोक्तं सूर्यस्य एकमुहूर्तगम्यक्षेत्रम्-एकपञ्चाशदधिकद्विशतोत्तरपञ्चसहस्रयोजनपरिमितं यीजनस्यैकोनत्रिशत्पष्टिभागाधिकम् (५२५१ २८, इति । अथ सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चारं चरन् उदयमानः सूर्य इहगतानां मनुष्याणां कियत्परिमिते क्षेत्रे व्यवस्थितो दृष्टिगोचरी भवतीति प्रदर्शयन्नाह-'तया णं' इत्यादि । 'तया णं तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलसंचरणसमये खलु 'इहगयस्स' इहगतस्य भरतक्षेत्रस्थितस्य 'मणूसस्स' मनुष्यस्य अत्र जातावेकवचनं तेन इहगतानां मनुष्याणामित्यर्थः 'सीयालीसाए जोयणसहस्सेहि' सप्तचत्वारिंशता योजनसहनैः सप्तचत्वारिंशत्सहस्रयोजनैः (१७०००) 'दोहि य तेवढेहिं जोयणसएहि' द्वाभ्यां च त्रिपष्टाभ्यां योजनशताभ्यां त्रिषष्ट्यधिकद्विशतयोजनः (२६३) 'एकवीसाए य सहिभागेहिं जोयणस्स' एकविंशत्या च पष्टिभागैर्योजनस्य (२१, योजनस्यैकविंशतिपष्टिभागयुक्तैः त्रिपष्टयधिकशतद्वयोत्तरसप्तचत्वारिंशत्सहस्रयोजनैरित्यर्थः (४७२६३-२१) 'मुरिए' सूर्यः 'चक्खुप्फार्स' चक्षुः स्पर्श ‘हब्वं' इति शीघ्रम् 'आगच्छई' आगच्छति प्राप्नोति दृष्टिगोचरीभवतीत्यर्थः । अस्योपपत्तिमाह-इह दिवसार्द्धन यावत्परिमितं क्षेत्र व्याप्तं भवति तावत्परिमिते क्षेत्रे व्यवस्थितः सूर्य उपलभ्यते, यदा मूर्यः सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चार चरति तदाऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, अष्टादशानामर्द्धं कृते लभ्यन्ते नवमुहूर्ताः, सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चारं चरन् सूर्य एकपञ्चाशदधिक द्विशतोत्तरपञ्चसहस्रयोजनानि योजनस्यैकोनत्रिंशत् पष्टि भागाश्च ( ५२५१३) एकैकेन मुहूर्तेन गच्छतीति भगवता पूर्व प्रतिपादितम् एषा संख्या दिवसस्या रूपैर्नवभिर्मुहूर्तेर्गुण्यते ततः समायाति यथोक्नं सूर्यस्य दृष्टिगोचरविषयकं परिमाणमिति । गणितप्रकारो यथा-एक पञ्चाशदधिकद्विशतोत्तरपञ्चसहस्रसंख्या-(५२५१) नवमिर्गुण्यते जातानि एकोनषष्ट्यधिकशतद्वयोत्तरसप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि-(४७२५९) ततश्च-एकोनत्रिंशत् पष्टिभागा नवभिर्गुण्यन्ते जातम्-एकपष्टयुत्तर शतद्वयम्-(२६१) अस्य योजनानयनाथ षष्टया भागो ह्रियते लब्धाश्चत्वारः-४,एते च पूर्व संपादितायां संख्यायां (४७ २५ योज्यते, तदा जातं (१७२६३) शेपा एकविंशतिः (२१) पष्टिभागाः स्थिता इति समा Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०२-३ सू०२ पूर्वोक्तविषये स्वसिद्धांततिपादनम् १२५ गतं यथोक्तं सूर्यस्य दृष्टिपथप्राप्तताविषयक परिमाणम् (१७२६३ १४) इति । 'तया णं' तदा तस्मिन् सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलसंचरणसमये खलु उत्तमकट्ठपत्त' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्षप्राप्तः उक्कोसए' उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्टः 'अद्वारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति, 'जहणिया' जघन्यिका सर्वलध्वी 'दुवालस मुहुत्ता राई भवइ' द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवतीति । __अथ सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलान्निष्क्रमणवक्तव्यनामाह-'से निक्खममाणे' इत्यादि । 'से' सः सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारगत. 'निक्खममाणे' निष्क्रामन् सर्वाभ्यन्तरमण्डलात्सर्वगह्यमण्डलाभिमुखं गच्छन् 'सरिए सूर्यः 'णवं संवच्छरं' नवं संवत्सरं दिवसहानिरात्रिवृद्धिरूपम् 'अय माणे' अयन् प्राप्नुवन् ‘पढमंसि अहोरत्तंसि' प्रथमेऽहोरात्रे 'अभितराणंतरं' अभ्यन्तरानन्तरं सर्वाभ्यन्तरमण्डलादतनं 'मंडलं' द्वितीय मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चार चरति । 'ता' तावत् 'जया णं यदा खलु 'सुरिए' सूर्यः 'अभितराणंतरं मंडलं' अभ्यन्तरादनन्तरं स्थितं मण्डलं द्वितीयमण्डलम् 'उपसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तयाण'तदा खल 'पंच पंच जोयणसहस्साई' पञ्चपञ्चयोजनसहस्राणि 'दोणिय एकावण्णे जोयणसयाई द्वे एकपञ्चाशते योजनशते 'सीयालीसं' च सद्विभागे जोयणस्स' सप्तचत्वारिंशतं च पष्टिभागान् योजनस्य एकपञ्चाशदधिकशतद्वयोत्तरपञ्चसहनयोजनानि योजनस्य सप्तचत्वारिंशत्पष्टिभागसहितानि (५२५१-66) 'एगमेगेणं मुहुत्तेणे' एकैकेन मुहूर्तेन सूर्यः 'गच्छइ' गच्छति चलति कथमेतदवसीयते ! इत्याह-सर्वाभ्यन्तरमण्डलादनन्तरे द्वितीये मण्डले परिधिपरिमाणं सप्तोत्तरशताविकपञ्चदशमहस्रोत्तराणि त्रीणि लक्षाणि (३१५१०७) व्यवहारतः परिपूर्णानि, निश्चयेन तु किञ्चिन्यूनानि, ततश्च प्रागुक्तयुक्त्याऽस्य पष्टया भागो ह्रियते, ततो लभ्यते यथोक्तमस्मिन् द्वितीये मण्डले सूर्यस्य मुहूर्तगतिपरिमाणम् (५२५१४७) । ____ अथवा एवमपि ज्ञायते-पूर्वोक्तसर्वाभ्यन्तरमण्डलपरिधिपरिमाणात् (३१५०८९) अस्य द्वितीयमण्डलस्य परिधिपरिमाणे व्यवहारतः परिपूर्णाष्टादशयोजनानि वर्धन्ते, तदा जायन्ते (३१५१०७) निश्चयनयमतेन किश्चिन्न्यूनानि, ततश्च अष्टादशानां योजनानां षष्टयाभागे हृते लभ्यन्तेऽष्टादशषष्टिभागा योजनस्य, ततश्च षष्टिभागाः षष्टिभागेष्वेव प्रक्षिप्यन्ते इति नियमात् एतेऽष्टादशपष्टिभागाः प्राक्तनमण्डलगतमुहूर्तपरिमाणगतेषु ( त्रिंशत्यष्टिभागेषु प्रक्षिप्यन्ते ७१- - Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ चन्द्रज्ञप्तिसूत्रे ततो भवति यथोक्तं अस्मिन् द्वितीयमण्डले मुहूर्तगतिपरिमाणं सप्तचत्वारिंशत्पष्टिभागसहितम् (५२५१-१तया णं' तदा द्वितीयमण्डलचारसमये खलु 'इहगयस्म मणूसस्स' इहगनस्य भर तक्षेत्रस्थितस्य मनुष्यस्य जातावेकवचनत्वात् भरतक्षेत्रस्थिताना मनुष्याणामित्यर्थः, 'सीयालीसाए' जोयणसहस्सेहि' सप्त चत्वारिंशता योजनसहस्रैः 'अउणासीए य जोयणसएणं' एकोनाशीतेन योजनशतेन एकोनाशीत्यधिकेन योजनशतेन (१७९) 'सत्तावण्णाप सहिभागेहिं जोयणस्स' सप्तपञ्चाशता षष्टिभागैयोजनस्य, 'सद्विभागं च' षष्टिभागमेकं च 'एगढिहा छेत्ता' एकपष्टिधा छित्वा एकषष्टिछेदराशिं कृत्वा तेन छित्त्वेत्यर्थः तत्सम्बन्धिभिः 'अउणावीसाए चुणियाभागेहि' एकोनविंशत्या चूर्णिकाभागैः-(४७१७९ ) 'सरिए' मूर्यः 'चक्खुप्फासं' चक्षुःस्पर्शम् 'इव्वं' शीघ्रम् आगच्छइ' आगच्छति प्राप्नोति दृष्टिगोचरीभवतीत्यर्थः । कथमेतदवसीयते । तदेवाह अस्मिन् द्वितीये मण्डले सूर्यस्य महूर्तगतिपरिमाणं पूर्वप्रदर्शितम् एकपञ्चाशदधिकशतद्वयोत्तरपञ्चसहस्रयोजनानि, सप्तचत्वारिंशच्च पष्टिभागा योजनस्य (५२५१. ४७/६१) इति , अत्र द्वितीयमण्डले सूर्यस्य संचरणसमये दिवसोऽष्टादशमुहूर्तः द्वाभ्यां मुहूत्तैकपष्टिभागाभ्यां च हीनो भवति निष्क्रमणकाले प्रतिमण्डलं दिवसरात्र्योः मुहर्तेकषष्टिभागद्वयस्य क्रमेण हानिवृद्धिनियमसद्भावात् , दिवसस्य हानिः रात्रेश्च वृद्धिर्भवतीतिभावः । ततो दिवसप्रमाणस्याधैः क्रियते तस्याधं नवमुहूर्ताः एकेन मुतिकषष्टिभागेन हीनाः, तत एषामेकषष्टिभागकरणाथै , नवमुहर्ता एकपण्ट्या गुण्यन्ते जातानि एकोनपञ्चाशदधिकानि पञ्चशतानि (५४९) दिवसप्रमाणः एकेन एकपष्टिभागेन होनोऽतोऽस्मात् एकं रूपं निष्कास्यते ततो जातानि-अष्टचत्वारिंशदधिकानि पञ्चशतानि (५४८) । ततोऽस्य द्वितीयमण्डलस्य सप्तोत्तरशताधिकपञ्चदशसहस्रोंत्तराणि त्रीणि लक्षाणि (३१५१०७) परिधिपरिमाणमिति । एषा संख्या अष्टचत्वारिंशदधिकपञ्च शतैः (५४८) गुण्यते, तेन जातः-एककः, सप्तकः, द्विकः, षट्कः, सप्तकः, अटकः, षट्क', त्रिकः, षट्कः इति सप्तदश कोटयः, पड्विंशतिलक्षाः, अष्टसप्ततिः सहस्राणि, षट् शतानि तदु. परि पट्त्रिंशञ्च-(१७२६७८६३६)। तत्र एकषष्टिः षष्टया गुण्यते जातानि षष्टयधिकपट्शतोत्तराणि त्राणि सहस्राणि (३६६०)। अनया संख्यया पूर्वोक्तसंख्याया भागो हियते, हृते च भागे लब्धानि एकोनाशीत्यधिक शतोत्तराणि सप्त चत्वारिंशत्सहस्राणि योजनानाम् (४७१ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा०२ ३ सू०२ पूर्वोक्तविषये स्वसिद्धांतप्रतिपादनम् १२७ ७२), शेषे पण्णवन्यधिक चतुःशतोत्तराणि त्रीणि सहस्राणि (३४९६) अवतिष्ठन्ते । ततोऽ. स्माद् योजनानि न समायान्ति, अतः षष्टिभागानयनार्थ मूत्रे 'सद्विभागं च एगढिहा छेत्ता' इति कथितं, तद्वचनादत्र छेदराशिरेकषष्टियिते, अनेन भागे हृते लभ्यन्ते सप्तपश्चाशत् षष्टि भागाः (५७/६०) एकस्य च पष्टिभागस्य सम्बन्धिन एकोनविंशतिरेकषष्टिभागाः (१९।६१) इति । जातानि (४७१७९ ५७/६०-१९६१ चर्णिका भागः) इति । एवं संप्राप्त मूलसूत्रोक्तं सूर्यस्य चक्षुःपथप्राप्तनाविषयक परिमाणमिति । 'तया ण' तदा पूर्वोक्तप्रमाणैर्योजनैः द्वितीयमण्डलगतस्य सूर्यस्य चक्षुःप्राप्तिसमये खलु 'अट्ठारसमुहुत्तो दिवसो भवइ' अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति किन्तु सः 'दोहिं एगसष्टिभागमुहुत्तेहिं ऊणे' द्वाभ्यामेकपष्टिभागमुहूर्ताभ्यामूनः- हीनो भवति, 'दुवालसमुहुत्ता राई भवई' द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति सा च 'दोहिं एगसहिभागमुहुत्तेहि अहिया' द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्ताभ्यामधिका । ___मथ तृतीयमण्डलवक्तव्यतामाह-'से निक्खममाणे' इत्यादि । से 'स: निक्खममाणे' निष्क्रामन् सर्वाभ्यन्तरमण्डलात्सर्ववाह्यमण्डलाभिमुखं गच्छन् 'सरिए' सूर्यः 'दोच्चंसि अहोरत्तंसि' नवसंवत्सरस्य द्विनीयेऽहोरात्रे 'अभितरं' आब्भ्यन्तरसम्बन्धिनं 'तच्चं मंडलं' तृतीयं मण्डलम् ‘उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया ण' यदा खल 'मूरिए' सूर्यः 'अभिवरं तच्चं मंडलं' अभ्यन्तरं तृतीय मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खल पंच पंचजोयणसहस्साई पञ्च पञ्च योजन सहस्राणि 'दोणि य वावण्णे जीयणसयाई द्वे च द्विपञ्चाशदधिके योजनशते 'पंच य सहिभागे जोयणस्स' पञ्च च षष्टिभागान् योजनस्य द्विपञ्चाशदधिकशतद्वयोत्तरेपञ्चसहस्रयोजनानि योजनस्य षष्टिभागपञ्चकसहितानि (५२५२ ५/६०) 'एगमेगेण मुहुत्तेण' एकैकेन मुहूर्तेन प्रतिमुहूर्तमित्यर्थः 'गच्छई' गच्छति चलति । ___ कथमेतदित्याह-अस्मिन् सर्वाभ्यन्तरमण्डलात्ततीये मण्डले मण्डलपरिधिः पञ्चदशसहस्रोत्तराणि त्रीणि लक्षाणि, तदुपरि पञ्चविंशत्यधिकं शतमेकं च (३१५१२५) अस्याः सख्या याः पूर्वोक्तयुक्त्या पष्टया भागे हृते लभ्यतेऽस्य तृतीयस्य मण्डलस्य मुहूर्तगतिपरिमाणम् (५२५२ ५/६०) इति । अथवा अस्मात्प्राक्तनमण्डलमुहूत्र्तगतिपरिमाणादस्मिन् तृतीये मण्डले मुहूर्तगतिपरिमाणविचारे प्राक् प्रतिपादितरीत्या अष्टादश एकषष्टिभागा योजनस्य अधिका लभ्यन्ते ततस्ते पूर्वमण्डलमुहूर्तगतिपरिमाणे (५२५१ ४७/६०) अधिकत्वेन प्रक्षि Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ -.-. चन्द्रप्राप्तिसूत्रे प्यन्ते ततो भवति यथोक्तमस्मिन् तृतीये मण्डले सूर्यस्य मुहूर्तगतिपरिमाणम्-(५२५२५/६०) इति । 'तया णं' तदा खल 'इहगयस्स मणसस्स' इहगतस्य मनुष्यस्य जातावेकवचनत्वात् भरतक्षेत्रगतानां मनुष्याणामित्यर्थः 'सीयालीसाए जोयणसहस्सेहि' सप्तचत्वारि शत्ता योजनसहनैः 'छण्णउइए य जोयणेहिं' षण्णवत्या च योजनः 'तेत्तीसाए य सद्विभागेहि जोयणस्स' त्रयस्त्रिंशता च पष्टिभागैर्योजनस्य 'सहिमागं च एगसद्विहा छेत्ता' एक पष्टिभागम् एकपष्टिधा छित्त्वा 'देहिं चुणियाभागेहि' द्वाभ्यां चूर्णिकाभागाभ्यां (४७०९६ ३३/६० । २.६१ चू) 'रिए' सूर्यः 'चक्लुप्फासं' चक्षुःस्पर्श 'हच्चमागच्छई' शीघ्रमागच्छति सूर्यः पूर्वप्रदर्शितयोजनादिना दुरतश्चक्षुर्गोचरी भवतीतिभावः । तदेव दर्शयति । अस्मिन् तृतीये मण्डले यदा सूर्यश्चार चरति तदा योजनस्य चतुर्मुहूर्त्तकपष्टिभागहीनोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसी भवति, अस्याध द्विमुहूत्तकपष्टिभागहीना नवमुहर्ता भवन्ति । नव मुहूर्तान एकपष्टया गुणयित्वा द्वावेकपष्टिभागौ तेभ्योऽपनीयेते तदा जाताः सप्तचत्वारिंशदुत्तराणि पश्च शतानि एकपष्टिभागाः (५४७) तदनु अनेन राशिना तृतीयमण्डलपरिधिपरिमाणं गुण्यते, तच्च पश्चविंशत्युत्तरैकशताधिक पञ्चदशसहस्रोत्तराणि त्रीणि लक्षाणि (३१५१२५) अस्याः संख्यायाः पूर्वसम्पादितैः सप्तचत्वारिंशदुत्तरपञ्चशतै (५४७) र्गुणने जाताः सप्तदशकोट्यः त्रयोविंशतिलक्षाणि त्रिसप्ततिः सहस्राणि पञ्चसप्तत्यधिकानि त्रीणि शतानि च (१७, २३७३, ३७५) । एषाम् एकपष्टयाः पष्टिसंख्यया गुणने यानि लब्धानि षष्टयघिकानि पद त्रिंशच्छतानि (३६६०) तैर्भागी हियते तदा लब्धानि षण्णवत्यधिकानि सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि (४७०९६), शेषमुद्धरति पश्चदशषिके द्वेसहस्र (२०१५)। तत इयं संख्या भाजकान्न्यूनत्वाद् योजनानि न लभ्यन्तेऽतः पष्टिभागानयनार्थम् ‘एगसट्ठिहा छेत्ता' इति मूलसूत्रवचनात् छेदराशिरेकषष्टिम्रियते, तेन भागे हुने लब्धास्त्रयस्त्रिंशत् पष्टिभागा (३३१६०), एकस्य च पष्टिभागस्य सत्कौ द्वावेक पष्टिभागौ (२।६१), एष एव चूर्णिका भागः । एवं गणितरीत्या लब्धं मूलसूत्रोक्तम्-४७०९६३३१६०-२।६१चू०) सूर्यस्य भरतक्षेत्रस्थमनुष्याणां दृष्टिपथप्राप्तता विषयकं परिमाणमिति । 'तया णं' तदा तृतीय मण्डलगतस्य सूर्यस्य चक्षुःपथप्राप्तिकाले खल 'अद्वारसमुहत्तो दिवसो भवई' अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति किन्तु सः 'चउहि एगसट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणे' चतुर्भिरेकपष्टिमागमुहूर्तरूनः हीनो भवति तथा 'दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, सा च 'चउहि एगसट्ठिभागमुहुत्तेहि' चतुर्मिरेकषष्टिभागमुहूर्तेः 'अहिया' अधिका भवति सूर्यस्य निष्क्रमणकाले दिवसस्य हान्याः रात्रेश्च वृद्धेर्नियमसद्गावात् । अथाग्रेतनानां चतुर्थादिमण्डलानां विषयेऽतिदेशमाह -'एवं' इत्यादि । 'एवं खलु' एवम्-अनेन रीत्या खलु 'एएणं उवाएणं' एतेन पूर्वप्रदर्शितेन उपायेन विधिना सूर्यस्य प्रतिमुहर्तगतिपरिमाणस्या Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टोका प्रा०२ - ३ सू० २ पूर्वोक्तविषये स्वसिद्धांत प्रतिपादनम् १२९ ष्टादशाष्टादशषष्टिभागवृद्धिमाश्रित्येथेः 'णिक्खममाणे' निष्कामन अभ्यन्तरान्मण्डलात् सर्वबाह्यमण्डलाभिमुखं गच्छन् 'सूरिए' सूर्यः 'तयाणंतराओ तयाणंतरं' तदनन्तरात् तदनन्तरं 'मंडलाओ मंडल' मण्डलान्मण्डलम् एकस्मान्मण्डलाद् द्वितीयं मण्डलं 'संकममाणे२' संक्रामन् संकामन् 'अट्ठारस २ सद्विभागे जोयणस्स' अष्टादशाष्टादशपष्टिभागान् योजनस्य व्यवहारतः परिपूर्णान् निश्चयत. किश्चिन्न्यूनान् 'एगमेगे मंडले' एकैकस्मिन् मण्डले 'मुहुत्तगई' इत्यत्र सप्तम्यर्थे द्वितीया तेन मुहूर्तगतौ 'परिबुड्ढेमाणे' २' परिवर्धयन् परिवर्धयन् 'तुलसी' चतुरशीर्ति 'सीयाई' इति गीतानि किञ्चिन्न्यूनानि योजनानि, किञ्चिन्न्यून चतुरशीतियोजनानि 'पुरिस छायं' अत्रापि सप्तम्यर्थे द्वितीया तेन पुरुषच्छायाया, पुरुषछाया पुरुषस्य छाया यतो भवति, सा, प्रस्तावात् प्रथमत उदयमानस्य सूर्यस्य दृष्टिपथप्राप्तता गृह्यते तस्यामेकैकस्मिन् मण्डले किञ्चिदूनचतुरशीर्ति योजनानि 'निव्बुद ढेमाणे २' निर्वर्धयन् २ हापयन् २ हीनानि कुर्वन्नित्यर्थः सूर्यः 'सव्ववाहिरं मंडल' सर्वबाह्यं मण्डलं त्र्यशीत्यधिकशततमं मण्डलम् उवसंकमित्ता चारं चरई ' उपसंक्रम्य चारं चरति । अत्रायं भावः पूर्वं किञ्चिन्यूनानि चतुरशीतियोजनानि' इत्युक्तं तत्स्थूलदृष्टया प्रोक्तम्, परमार्थतस्तु तदेवम्-यशीतिर्योजनानि, त्रयोविंशतिश्च षष्टिभागा योजनस्य, एकस्य षष्टिभागस्य एकषष्टिधा छिन्नस्य सत्का द्विचत्वारिंशद्वागाश्च (८३ - २३।६० - ४२/६१ ) एषा संख्या दृष्टिपथप्राप्तता - विषये विषयहानौ ध्रुवराशि जतः । ततो यस्य यस्य मण्डलस्य दृष्टिपथप्राप्ततां ज्ञातुमिच्छद्भिः सर्वाभ्यन्तरमण्डलगततृतीयमण्डलादारभ्य अर्थात् तृतीयं मण्डलं प्रथमं परिकल्प्य ततोऽग्रे तत्तन्मण्डलसंख्यया षट्त्रिंशत्संख्या गुणनीया, तथा च- सर्वाभ्यन्तरमण्डलात्तृतीये मण्डले एकेन, चतुर्थे द्वाभ्यां पञ्चमे त्रिभिः - यावत् सर्वग्राह्यमण्डले छ्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यते । गुणनाद् यद् आगतं तद् ध्रुवराशिमध्ये प्रक्षेपणीयम् । प्रक्षिप्ते सति यद् जायते तत् पूर्व मण्डलगत दृष्टिपथप्राप्ततामध्यादपकृष्यते । अपकृष्टे या संख्या जाता तत्प्रमाणा तस्मिन् विवक्षिते मण्डले दृष्टिपथप्राप्ता ज्ञातव्या । अथ त्र्यशीतियोजनानीत्यादिरूपो ध्रुवराशिः कथमुत्पद्यते ? अत्रोच्यते 1 अत्र सर्वाभ्यन्तरमण्डले दृष्टिपथप्राप्तता परिमाणम् त्रिषष्ट्यधिकशतद्वयोत्तराणि सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि तदुपरि योजनस्य एकविंशतिः षष्टिभागाश्च ( ४७२६३-२१।६०), एतच्च अष्टादशमुहूर्त्तदिवसार्धं नवमुहूर्त्तगम्यं परिमाणं वर्त्तते तत एकस्मिन् मुहूर्ते कषष्टिभागे पूर्वोक्तदृष्टिपथप्राप्तताविषयकं परिमाणं कियदागच्छतीति विचारणायां मुहूर्त्तानामेष्ट भागकरणार्थं नवमुहूर्त्ता एकषष्टया गुण्यन्ते जातानि एकोनपञ्चाशदधिकानि पञ्चशतानि (५४९) मुहूर्त्तेक षष्टिभागाः । एतैर्भागो ह्रियते लब्धाः पडशीतिर्योजनानि पञ्चषष्टिभागा योजनस्य, एकस्य च षष्टिभागस्य एकषष्टिधा छिन्नस्य सत्काश्चतुर्विंशतिभागाः - ( ८६ - ५१६०- ) २४ ६१ १७ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० चन्द्रप्रचप्तिसूत्रे इति । गणितप्रकारश्चेत्थम्-सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि त्रिपष्टयुत्तरशतद्वयं च, एकविंशतिश्च षष्टिभागाः (४७२६३-२१२६०) एतस्याः संख्याया एकोनपञ्चाशदधिकपञ्चशत (५४९) संख्यया भागो हियते, तत्र-योजनानां (१७२६३) भागे हृते लब्धा पडशीतिः (८६), शेपमेकोनपञ्चाशत् (४९) उद्धरति, अस्याल्पत्वाद् योजनानि नायान्ति तत् एतस्य पष्टिभागानयनाथै पष्टया गुण्यते, जातानि चत्वारिंशदधिकानि एकोन त्रिंशच्छतानि (२९४०) अस्मिन् उपरिस्था एकविंशतिः पष्टिभागाः क्षिप्यन्ते जातानि-एकपष्ठयधिकानि एकोनत्रिंशच्छतानि (२९६१), अस्य एकोनपञ्चाशदधिकपञ्चशतेन (५४९) भागो हियते लब्धाः पञ्चषष्ठिभागाः (५।६०) शेपं पोडगाधिक शतद्वयमुद्धरति (२१६) पुनरप्यस्याल्पत्वात्' पष्टिभागानायान्ति तत एक पष्टिभागानयनाथै शेषमेकपष्टया गुण्यते जातानि त्रयोदशसहस्राणि शतमेकं पट् सप्तत्यधिकं च (१३१७६), पुनश्चास्य एकोनपञ्चाशदधिकपञ्चशतैः (५४९) भागो हियते लब्धाश्चतुर्विशतिरेकपष्टिभागाः पूर्णाङ्काः, न किञ्चिदवशिष्यते-तच्च-(८६-५।६० । २४६१) इति । तथा चाकतो गणितमिदम्५४९) ४७२६३ (८६ ४३९२ ४३३४३ ३२९४ ४९ ४९ गुणनम् २९४० गुणनफलम् २१ पष्टिभाग प्रक्षेपणे २९६१ नाता अङ्क श्रेणि ५४९) २९६१ (५ भागाः।-पष्टिभागाः ५ २७४५ २१६ शेषम्। २१६ ६१ । गुणनम् १३१७६ गुणनफलम् Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०२-३ सू० २ पूर्वोक्तविषये स्वसिद्धांतप्रतिपादनम् १३१ ५४९१६६०६/२० तथा च-८६.४ / २५ इति सम्पन्नम् । ४२१९६ २१९६ पूर्णाङ्काः। पूर्वपूर्वमण्डलादनन्तरानन्तरप्रत्येकमण्डले परिधिपरिमाणविचारणायामष्टादशाष्टादशयोजनानि व्यवहारतः परिपूर्णानि वर्धन्तेऽतः पूर्वपूर्व मण्डलगतमुहर्तगतिपरिमाणादनन्तरानन्तरे प्रतिमण्डलं मुहूर्तगतिपरिमाणविचारणायामष्टादशाष्टादश एकपष्टिभागा योजनस्य प्रतिमुहूर्त प्रवर्धमाना ज्ञातव्याः । प्रतिमुहूर्तेकपष्टिभागाश्चाष्टादश एकस्य पष्टिभास्य सत्का एकपष्टिभागाः । सर्वाभ्यन्तरमण्डलादनन्तरे मण्डले नवभिर्मुहूत्तः, एकेन मुहूर्त्तकपष्टिभागेन होनै विन्मानं क्षेत्रं व्याप्यते तावन्मात्रे क्षेत्र स्थितः सूर्यो दृष्टिपथप्राप्तो भवति, ततोऽष्टादशमुहूर्तदिवसपरिमाणस्या नव, ततो मुहर्तानामेकपष्टिभागानयनार्थ नवमुहूर्त्ता एकपष्टया गुण्यन्ते, जातानि एकोनपञ्चाशदधिकानि. पञ्चशतानि ( ५४९) । सूर्यस्य निष्क्रमणकाले प्रतिमण्डलं दिवसो मुहूर्तस्य द्वाभ्यामेकषष्टिभागाम्यां हीनो भवतीति द्वयोरेकपष्टिभागयोरप्यघे क्रियते ततो जात एकएकषष्टिभागः, अयमेकोनपञ्चाशदाधकपञ्चशतेभ्योऽपनीयते जातानि अष्टचत्वारिंशदधिकानि पञ्चशतानि (५४८)। एतैरष्टादशानां गुणने नातानि चतुःषष्टयधिकानि अष्टनवतिशतानि ( ९८६४ ) एषामेक पष्टिभागकरणार्थमेकषष्ट्या भागो हियते लन्धा एकपष्टयधिकशतसंख्यकाः (१६१) षष्टिभागाः तथा त्रिचत्वारिंशच्च एकपष्टिभागस्य सत्का एकपष्टिभागाः ( एक पष्टयधिकशतसंख्यकानां पष्टिभागानां योजनानयनाथें पष्टया भागो हियते लब्धे द्वे योजने, शेषा एकचत्वारिंशत् पष्टिभागाः स्थिताः, ततो जातं द्वे योजने एकचत्वारिंशच्च पष्टिभागा योजनस्य, एकस्य षष्टिभागस्य सत्कात्रिचत्वारिंशदेकपष्टिभागाः (२-४१॥ ४३) इति । एषा सं ब्या, पूर्वोक्तात्-पडशीतियोजनानि पञ्चपष्टिभागाः योजनस्य, एकपष्टिभागस्य च सत्का श्चतुविशतिरेकषष्टिभागाः ( ८६-५२४) इत्येतस्मादपकृष्यते । अपकृष्टे च तस्मिन् स्थिताः शेषाः त्र्यशीति योजनानि त्रयोविंशतिः षष्टिभागा, योजनस्य, एकस्य षष्ठिभागस्य सत्का द्विचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः ( ८३ २३ । १२) एतावत् द्वितीये मण्डले दृष्टिपथप्राप्तता विषये सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतदृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणात् हानितया लभ्यते । अनेन किमित्याह ६० Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रश्नप्तिसूत्रे memornimammmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmahrammarrmmerrrrrrrrrrrrrrrrrrn.mommami सर्वाभ्यन्तरमण्डलगताद् दृष्टिपथप्राप्ततायां हानी ध्रुवरागिरस्ति, अतएव ध्रुवरागिपरिमाणाद् द्वितीये मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणमेताबता हीनं जायत इति । एतदेव मतोऽग्रेऽनन्तरानन्तरविषयदृष्टिपथप्राप्तताविचारणायां हानौ ध्रुवराशिरिति ध्रुवराशेरुत्पत्तिः । ततो द्वितीयमण्डलादनन्तरं तृतीये मण्डले एष एव ध्रुवरागिः एकस्य पष्टिभागस्य सत्कैः पदे त्रिंशता एकपष्टिभागैः सहितः सन् यावान् भवति तथाहि-त्र्यशीतियोजनानि चतुर्विशतिः पष्टिभागा योजनस्य, एकस्य षष्टिभागस्य सत्काः सप्तदश एकपष्टिभागाः (८३- २४/१५ ) ०६१ इति । एतावान् द्वितीयमण्डलगताद् दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणात शोध्यते ततो भवति यथोक्तं तृतीयमण्डले दृष्टिपथप्राप्तताविषयकं परिमाणमिति । एवं चतुर्थे मण्डले एष एव ध्रुवराशि सप्तत्या सहितः कायः, यतोहि चतुर्थ मण्डलं तृतीयमण्डलमाश्रित्य गण्यते तदा द्वितीयंभवति ततः पदत्रिंगत् द्वाभ्यां गुण्यते तदा द्वासप्ततिर्भवतीत्यतो द्वासप्तत्या सहितः क्रियते तदा जायते-त्र्यशीतियोजनानि चतुर्विंशतिः पष्टिभागा योजनस्य, एकस्य पष्टिभागस्य सत्कास्त्रिपश्चाशद् एकषष्टिभागाः (८३-२४ १३.) इति । एष राशितृतीयमण्डलगताद् दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणात् शोध्यते ततो भवति चतुर्थे मण्डले दृष्टिपथप्राप्तताविषयकं परिमाणम् , तथाहि त्रयोदशाधिकानि सप्तचत्वारिंशत्सहनयोजनानि, अष्टौच पष्टि भागा योजनस्य, एकस्य च षष्टिभागस्य सत्का दश एकपष्टिभागाः, ते चाङ्कतो यथा-(१७०१३ . ८१) अनया युक्त्या पश्चममण्डलादारभ्य यावत् एकाशीत्यधिकशततममण्डलपर्यन्त दृष्टिपथप्राप्तताविपयक परिमाणं स्वयमूहनीयम् । अथ सन्तिमसर्वबाह्यमण्डलव्यवस्था क्रियते, तथाहि-सर्ववाह्यमण्डलं च तृतीयमण्डलमवधीकृत्य द्वयशीत्यधिकशततमं (१८२) मण्डलं भवति, मतः पूर्वोक्तनियमेन पत्रिंशद् द्वयशीत्यधिकशतेन गुण्यते, जातानि द्विपञ्चाशदधिकानि पञ्चषष्टिशतानि (६५५२) ततः अस्य राशेः पण्टिभागानयनार्थमेषष्ट्या भागो हियते तदा लब्धं सप्तोत्तरमेक शतम् (१०७) शेषाः पञ्चविंशतिरेकपष्टिभागास्तिष्ठन्ति (२५) एपा पञ्चविंशति ध्रुवराशौ प्रक्षिप्यते, प्रक्षेपणे च जातम्-पश्चाशीतियों जनानि एकादश पष्टिभागा योजनस्य, एकस्य पष्टिभागस्य सत्काः पट् एकपष्टिभागाः (८५ : त्रिंशनश्चोत्पत्तिर्यथा-पूर्वस्मात् २ मण्डलादप्रेतनेडप्रेतने मण्डले दिवसो द्वाभ्यां द्वाभ्यां मुहर्तकपष्टिभागाभ्यां हीनो भवति, प्रतिमुहूर्त्तकपष्टिभा. गाच्चाष्टादश एकस्य पष्टिभागस्य सत्का एकपष्टिभागा हीयन्ते ततो द्वयोरष्टादशक रूपयो Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M चन्द्रशप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०२-३ सू०२ पूर्वोक्तपिपये स्वसिद्धांतप्रतिपादनम् १३३ रेकषष्टिभागयोमीलने जाताः षदत्रिंशत् । एते चाष्टादश एकषष्टिभागा' निश्चयनयेन कलया न्यूना भवन्ति न तु परिपूर्णाः, किन्तु व्यवहारनयमाश्रित्य पूर्व परिपूर्णतया विवक्षिताः । तच्च कलया न्यूनत्वं प्रतिमण्डलं भवद् भवद् यदा द्वयशीत्यधिकशततमे गण्डले एकत्र पिण्डित क्रियते तदा एकषष्टिभागाः पप्टिसंख्यका होना भवन्ति, एतदपि व्यवहारत एव ज्ञातव्यम् निश्चयतस्तु किश्चिदधिका अपि एकषष्टिभागा हीयन्ते, इत्यवसेयम् । तत एते अष्टषष्टिभागाः अपनीयन्ते, तदपनयने च पश्चाशीतियोजनानि नवपष्ठिभागा योजस्य । एकरय पष्टिभागस्य सत्काः पष्टिरेकषष्टिभागाः ( ८५-९६९) इति जातम्,, तत एतत् सर्वबाह्यमण्ड-गत् पूर्वस्थितात् एकाशीत्यधिकशततममण्डलगतात्-एकत्रिंशत्सहस्राणि पोडशोत्तराणि नवशनयोजनानि, एकोनचत्वारिंशत् पष्टिभागा योजनस्य, एकस्य च पष्टिभागस्य सत्काः षष्टिरेकपष्टिभागाः " ३१९१ इत्येवं रूपात् दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणात् शोध्यते ततो जायते यथोक्तं सर्वबाह्ये मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणम् तच्च सूत्रकार' स्वयमेवाने कथयिष्यति । तत एवं पुरुषच्छायाया दृष्टिपथप्राप्तनारूपायां द्वितीयादिपु केपुचिन्मण्डलेपु चतुरशीनि २ किश्चिन्न्यूनानि योजनानि उपरितनेषु तु मण्डपु अधिकानि अधिकतराणि योजनानि हापयन्-हापयन् तावदवसेयं यावत् सूर्यः सर्वबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति । अथाग्रे मूलं व्याख्यायते-'ता जयाणं' इत्यादि। 'ता' तावत् ' जया णं' यदा खलु मूरिए' मूर्यः ‘सव्ववाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ' सर्वबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति 'त्या णं तदा खल 'पंच जोयणसहस्साई पंचयोजनसहस्राणि 'तिन्नि य पंचुतराई जोयणसयाई त्रीणि च पञ्चोत्तराणि योजनशतानि 'पण्णरस य सद्विभागे जोयणस्स' पञ्चदश च पष्टिभागान् योजनस्य (५३०५२५) 'एगमेगेणं मुहत्तेणं' एकैकेन मुहूर्तेन 'गच्छइ' गच्छति चलति । तत्कथमित्याह-अस्मिन् सर्वबाह्ये मण्डले परिधिपरिमाणं त्रीणि लक्षाणि अष्टादशसहस्राणि, पञ्चदशोत्तराणि त्रीणि शतानि च (३१८३१५) ततोऽस्य पूर्वोक्तयुक्त्या पष्टया भागो हियते, ततो लभ्यते यथोक्तं पञ्चाधिकशतत्रयोत्तराणि पञ्चसहस्राणि' पञ्चदश चैकषष्टिभागा योजनस्य (५३०५५) मुहूर्त्तगतिपरिमाणमिति । 'तया ण' तदा खलु 'इह गयस्स मणूसस्स' इह गतस्य मनुष्यस्य जातावेकवचनत्त्वात्-भरतक्षेत्रगतानां मनुष्याणामित्यर्थः 'एकतीसाए जोयणसहस्सेहि' एकत्रिंशता योजनसहनैः 'अहिं एक्कतीसेहि जोयणसएहि' Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० १३४ चन्द्रप्राप्तिसूत्र अष्टभिरेकत्रिगैरेकत्रिगतासहितैः योजनशतैः 'तीसाए य सद्विभागेहि जोयणस्स' त्रिंशता च घटिभागैर्योजनस्य (३१८३१३०) 'सरिए' सूर्यः 'चक्खुप्फार्स' चक्षुः स्पर्श चक्षुर्विषयगोचर 'हवं' शीघ्रम् 'आगच्छइ' आगच्छति प्राप्नोति । अस्मिन् सर्वबाह्यमण्डले सूर्यस्य संचरणसमये दिवसो द्वादशमुहूर्तप्रमाणो भवति । दिवमस्य चार्थेन यावापरिमितं क्षेत्रं व्याप्त भवति तावत्परिमिते क्षेत्रे व्यवस्थित उदयमानः सूर्य उपलभ्यते । द्वादशानां मुहर्तानामधैं पइमुहर्ता भवन्ति ततो या स्मिन् मण्डले मुहूत्र्तगतिपरिमाणं पञ्चोत्तरशतत्रयाधिकानि पञ्चसहस्रयोजनानि पञ्चदश च षष्टिभागा योजनस्य (५३०५१ एतत् पड्भिर्गुणने समायाति यथोक्तं दृष्टि पथप्राप्तता परिमाणमिति । 'तया णं तदा खल्लु 'उत्तमकट्ठपत्ता' उत्तमकाष्ठा प्राप्ता परमप्रकर्षसंपन्ना 'उक्कोसिया' उत्कर्पिका सर्वोत्कृष्टा 'अद्वारममुहुत्ता राई अवई' अष्टादशमुहूर्ता रात्रि भवति, तथा 'जहण्णए' जघन्यकः सर्वलघुः 'दुवालसाहुत्ते दिवसे भवई' द्वादशमुहत्तों दिवसो भवति । 'एस णं एतत् खल्ल 'पढमे छस्मासे' प्रथमं पण्मासम् । 'एस णं' एतत् खलु 'पढमस्स छम्मासस्स' प्रथमस्य पण्मामस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानम्-अन्तिममहोरात्र मिति सू० २॥ प्रोक्तमिदं सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलान्निष्क्रमणविषयकं प्रथम पण्मासम् , अथ, सर्वाभ्यन्तरमण्डले सूर्यस्य प्रवेशविषयकं द्वितीयं षण्मासं प्रोच्यते-से पविसमाणे सरिए' इत्यादि मूलम् --रो पविसमाणे सरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरसि वाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सुरिए वाहिराणतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं पंच २ जोयणसहरमाई तिणि य चउरुत्तराई जोयणसयाई सत्तावणं च सहिभाए जोयणस्स एगमेगेण मुहुत्तेणं गच्छड, तया णं इह गयस्स मासस्स एक्कतीसाए जोयणसहस्सेहिं नहि य सोलमुत्तरेहिं जोयणसएहि एगूण चत्तालीसाए सठिभागेहि जोयणस्स, सहिभागं च एगसहिहा छेत्ता सहीए चुणियाभागेहिं सरिए चक्खुफालं हचमागच्छइ तया णं अट्ठारसमुहत्ता राई भवइ दोहि एगसहिभागमुहुत्तेहि ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगसट्ठिमागयुहुत्तेहिं अहिए । से पविसमाणे सूरिए दोच्चसि अहोरत्तसि वाहिरं तच्च मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सुरिए बाहिरं तच्च मंडलं उवसंक्रमित्ता चार चरइ तया णं पंच जोयण सहस्साई तिन्नि य चउत्तराइ जोयणसयाइ एगूणचत्तालीसं च सट्ठिभागे जोयणस्स Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०२-३ सू०३ सर्वाभ्यन्तरे मण्डले सूर्यस्य प्रवेशः १३५ एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ तया णं इहगयस्स मणूमन्स एगाहिएहिं बत्तीसाए जोयणसहस्सेहिं एगूणपण्णाए य सद्विभागेहिं जोयणस्य, सट्ठिभागं च एगट्ठिहा छेत्ता नेवीसाए चुणियाभागेहिं सूरिए चक्खुप्फासं हव्यमागच्छइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ चरहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहिं ऊणा. दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहि एगसद्विभागमुहुत्तेहि अहिए । एवं खलु एएण उवाएणं पविसमाणे सरिए तयाणंतराओ तयाणतरं मंडलामो मंडलं संक्रममाणे संकममाणे अट्ठारस २ मद्विभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले मुहुत्तगई णिवुड्ढेमाणे २ साइरेगाई पंचासीई २ जोयणाई पुरिसच्छायं अभिवुड्ढेमाणे २ सयमंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सूरिए सव्वमंतरं मंडलं उवासंकमित्ता चारं चरइ तया णं पंच जोयणसहस्साई दोणि य एक्कावण्णे जोयणसयाई एगृणतीसं च सहिभागे जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ तया णं इहगयस्स मासस्स सीयालीसाए जोयणसहस्सेहिं दोहि य तेवढेहिं जोयणसएहिं एक्कवीसाए य सट्ठिभागेहि जोयणस्स सूरिए चक्खुफासं हव्यमागच्छइ तया णं उत्तमकठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । एस णं दोच्चे छम्मासे । एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे । एस णं आइच्चे संवच्छरे । एस णं आइच्चसंवच्छरस्म पज्जवसाणे ॥सू० ३।। || वितियस्स पाहुडस्स तइयं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥ २॥ ३ ॥ ॥ वितिय पाहुडं समत्तं ॥२॥ छाया - स प्रविशन् सूर्यः द्वितीयं पण्मासम् अयन् प्रथमे अहोरात्रे वाद्यानन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तावत् यदा खलु सूर्यः बाह्यानन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति तदा सलु पञ्चयोजनसहस्राणि त्रीणि च चतुरुत्तराणि योजनशतानि, सप्तपञ्चाशतं च पष्टिभागान् योजनस्थ एकैकेन मुहर्तन गच्छति तदा खलु इहगतस्य मनुष्यस्य एकत्रिंशता योजनसहस्रः नवभिश्च षोडशोत्तरै ोजनशतैः एकोनचत्वारिंशता षष्टि भागैर्योजनस्य, पष्टिभागं च एकपष्टिधा छित्त्वा षष्टया चूर्णिकाभागैः सूर्यः चक्षुः स्पर्श हव्यमागच्छति, तदा स्खलु अष्टादशहर्ता रात्रिर्भवति द्वाभ्यामेकपष्टिभागमुहूर्ताभ्याम् ऊना द्वादशमुहूत्तों दिवसो भवति द्वाभ्यामेकर्याष्टभागमुहर्ताभ्याम् अधिकः । स प्रविशन् सूर्यः द्वितीये अहोराने वाह्य तृतीयं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः बाह्य तृतीयं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु पञ्च योजनसहस्राणि त्रीणि च चतुरुत्तराणि योजनशतानि एकोनचत्वारिंशतं च षष्टिभागान् योजनस्य एकैकेन मुहत्तेन गच्छति, तदा खलु इह गतस्य मनुष्यस्य पकाधिकैः द्वात्रिंशता योजनसहौः एकोनपञ्चाशता च पष्टिभगै योजनस्य, पष्टिभागं च एकषष्टिधा छित्त्वा त्रयोविंशत्या चूर्णिकाभागैः सूर्यः चक्षुःस्पर्श हव्यमागच्छति तदा खलु अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति चतुभिरेकषष्टिभागमु Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ चन्द्रशतिसूत्रे हुत्तैः : ऊना, द्वादशमुत्तों दिवसो भवति चतुर्भिरेकषष्टिभाग मुहूर्तैरधिकः । एवं सलु पतेन उपायेन प्रविशन् सूर्यः तदनन्तरात् तदनन्तरं मण्डलात् मण्डलं संक्रामन् २ अष्टादश अष्टादशपष्टिभागान् योजनस्य पकेकस्मिन् मण्डले मुहूर्त्तगति निर्वर्धयन् २ सातिरेकाणि पञ्चाशीति २ योजनानि पुरुपच्छायाम् अभिवर्धयन् २ सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु पञ्च योजनसखाणि द्वे च पकपञ्चाशते योजनशते एकोनत्रिशतं च पष्टिभागान् योजनस्य एकैकेन मुहूर्त्तेन गच्छति तदा खलु इहगतस्य मनुष्यस्य सप्तचत्वारिंशता योजन सहस्रैः द्वाभ्यां च त्रिपष्टाभ्यां योजनशताभ्यां एकविंशत्या च पष्टिभागयोजनस्य सूर्यः चक्षुःस्पर्श हव्यमागच्छति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्त उत्कर्षकः अष्टादशमुत्तों दिवसो भवति, नघन्यिका द्वादशमुह रात्रिर्भवति । पतत् खलु द्वितीयं षण्मासम् । पतत् खलु द्वितीयस्य षण्मासस्य पर्यवसानम् । एष खल आदित्यः संवत्सरः । पतत् खल आदित्य संवत्सरस्य पर्यवसानम् | सू० ३ द्वितीयप्राभृमस्य तृतीयं प्रामृतप्राभृतं समाप्तम् २-३ द्वितीयं प्राभृतं समाप्तम् ||२|| व्याख्या -- 'से' स ' पत्रिसमाणे' प्रविशन् सर्वचाह्यमण्डलात् सर्वाभ्यन्तरमण्डलाभिमुखं गच्छन् 'दोच्चं छम्मासं' द्वितीयं दिवसवृद्धिरूपं पण्मासम् 'अयमाणे' अयन् प्राप्नुवत्, पंढमंसि अहोरत्तंसि' प्रथमेऽहोरात्रे 'वाहिराणंतरं मंडलं' बाह्यानन्तरं सर्व बाह्यमण्डलादनन्तरं सर्वाभ्यन्तरगमनमार्गस्थितं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसक्रम्य चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'वाहिराणंतरं मंललं' बाह्यानन्तरं मण्डलम् 'उवसंकमिंत्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'पंचजोयणसहस्साई ' पश्चयोजनसहस्राणि पश्चसहस्रयोजनानि 'तिण्णि य चउत्तराई जोयणसयाईं त्रीणि च चतुरुत्तराणि योजनशतानि सत्ता पण्णं च सट्टि भाष जो यणस्स्य सप्तपञ्चाशतं च पष्टिभागान् योजनस्य (५३०४ ू ँ)‘एगमेगेणं मुहुत्तणं गच्छइ' एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति । तथाहि--अत्रमण्डले परि ५७. ६० ५७ घिपरिमाणं - सप्तनवत्यधिकद्विशतोत्तराष्टादशसहस्राधिक त्रिलक्ष योजनानि (३१८२१७) । ततो ऽस्याः संख्यायाः प्रागुक्तयुक्त्या षष्ट्या भागो हियते तदा लब्धं यथोक्तं मुहूर्त्तगतिपरिमाणम् (५३०४६०) अथ दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणमाह- तयाणं' इत्यादि । 'तया णं' तदा खलु ‘इहगयस्स मणूसस्स' इहापि पूर्ववज्जाता वेकवचनं तत इहगतानां भरतक्षेत्रस्थितानां मनुष्याणाम् 'एक्aतीसाए जोयण सहस्सेहिं' एकत्रिंशता योजनसहस्रैः 'नवहि य सोलसुत्तरेहिं जोयणसएहिं' नवभिश्च षोडशोत्तरैर्योजनशतैः, 'एग्णचत्तालीसाए सद्विभागेहिं जोयणस्स' एकोन चत्वारिंशतापष्टिभागैर्योजनस्य 'सद्विभागं च एगद्विहा छेत्ता' षष्टिभागं च एकषष्टिधा छित्त्वा Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०२ सू० ३ सर्वाभ्यन्तरे मण्डले सूर्यस्य प्रवेशुः १३७ -~ तत्सत्कैः ‘सट्ठीए चुणियाभागेहिं' षष्ट्या चूर्णिकाभागैः (३१९१६३९६९) 'सरिए सूर्यः 'चक्खुप्फासं' चक्षुः स्पर्श 'इव्वमागच्छइ' हव्यमागच्छति-चक्षुर्गोचरी भवतीत्यर्थः । कथमिति दर्श्यते-सूर्यस्यास्मिन् मण्डले प्रथमेऽहोरात्रे संचरणसमये द्वाभ्यां मुहर्तकष्टिभागाभ्यामधिको द्वादश मुहूर्तो दिवसो भवति, ततो द्वादशानां दिवसमुहूर्तानामर्ध क्रियये तदा जाताः पड़ मुहूर्ताः द्वयोर्मुहूर्तकभागयोरर्धको मुहत्तै कपष्टिभागश्च ततः पड़ मुहूर्ताः एकश्च मुहूर्त कषष्ठिभागः (६) इति जातम् । तत एषां सर्वेषामेकषष्टिभागानयनार्थमेतान् पडपि मुहूर्तान् एकषष्टया गुणयित्वा एकएकषष्टिभागस्तत्राधिकत्वेन प्रक्षिप्यते ततो जातानि सप्तपष्टयुत्तराणि त्रीणि शतानि (३६७) । ततः सर्वबाह्यमण्डलादप्रेतने द्वितीये मण्डले यत्परिधिपरिमाणमू-सप्तनवत्यधिकद्विशतोत्तराष्टादशसहस्राधिकत्रिलक्षयोजनसंख्यकम्-(३१८२९७) तत् एभिर्दिवसमु हर्चानामेकषष्टिभागैः सप्तपष्टयुत्तरत्रिशत (३६७) संख्यकैर्गुण्यते जाता एकादश कोटयः, अष्टषष्टिलक्षाः, चतुर्दशसहस्राणि, नवनवत्यधिकानि नवशतानि च (११, ६८, १४, ९९९) अस्याः संख्याया एकपष्टिगुणितया पष्टया पष्टयधिक पट् त्रिशच्छतरूपया (३६६०) भागो हियते । हृते च भागे लब्धानि षोडशोत्तरनवशताधिकानि एकत्रिंशत् सहस्राणि (३१९१६) । उदरन्ति, शेषाणि एकोनचत्वारिंशदधिकानि चतुर्विंशतिशतानि (२४३९) । एभिर्योजनानि नायान्ति ततोऽस्य पष्टिभागकरणार्थमेकपष्टया भागो हियते, लब्धा एकोनचत्वारिंशत् षष्टिभागाः, शेषा स्थिताः षष्टिः ते च एकस्य पष्टिभागस्य सत्काः पष्टिरेकपष्टिभागाः, तथा चाहतः-(३१९१६ - ) इत्यायातं यथोक्तं चक्षुःपथप्राप्तताविषयं परिमाणम् 'तया णं' तदा खल सूर्यस्य सर्ववाह्यानन्तराक्तिनद्वितीयमण्डलचारकाले खलु 'अट्ठारसमुहुत्ता' अष्टादशमुहर्ता 'राई भवइ' रात्रिर्भवति, सा 'दोहिं एगसहिभागमुहुत्तेहिं' द्वभ्यामेकषष्टिभागमुमुहर्ताभ्याम् 'ऊणा' ऊना हीना भवति, । 'दुवालसमुहुत्तो दिवसो भवई' द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति, स च 'दोहिं एगसहिभागमुहुत्तेहिं द्वाभ्यामेकष्टिभागमुहूर्ताभ्याम् 'अहिए' अधिको भवति । तथा 'से' सः 'पविसमाणे' प्रविशन् सर्वाभ्यन्तरमण्डलाभिमुखं गच्छन् सर्वबाह्यान न्तरार्वाक्तन द्वितीयस्मात् मण्डलादने गच्छन्नित्यर्थः 'सूरिए' सूर्यः 'दोच्चंसि अहोरत्तसि' द्वितीयेऽहोरात्रे 'बाहिरं' बाह्यं बाह्यमार्गप्राप्तत्वाद् बाह्यं तच्चं मंडलं' तृतीयं सर्वबाह्यमण्डलमाश्रित्य तृतीयस्थानगतं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उ५ कम्य चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'मूरिए सूर्यः 'वाहिरं वच्चं मंडलं' बाह्यं तृतीयं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता ...३९/६०. Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ... चन्द्रप्राप्तिसूत्रे चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'पंचजोयणसहस्साई' पञ्चयोजनहसहस्राणि पश्चसहनयोजनानि 'तिन्नि य चउत्तराई जोयणसयाई' त्रीणि च चतुरुत्तराणि योजनशतानि 'एगृणचत्तालीसं च सद्विभागे जोयणस्स' एकोनचत्वारिंगतं च पष्टि भागान् योजनस्य (५३०४२८) 'एगमेगेणं मुहुत्तेणं' एकैकेन मुहूर्तेन 'गच्छद' गच्छति । अत्र मण्डले परिधिपरिमाणं त्रीणि लक्षाणि अष्टादशसहस्राणि एकोनांशीत्यधिकशतद्वयोत्तराणि (३१८२७९) अस्य पष्टया भागे हृते लभ्यते यथोक्तं मुहूर्त्तगतिपरिमाणम् (२३०:४-) इति । 'तया थे' तदा खलु 'इह गयस्स मणसस्स' इह गतस्य मनुष्यस्य भरतक्षेत्रस्थितमनुष्यानामित्यर्थः 'एगाहिएहिं बत्तीसाए जोयणसहस्सेहि' एकाधिकः द्वात्रिंशता योजनसहनैः 'एग्णपण्णाए य सहिमागेहिं जोयणस्स' एकोनपञ्चाशता च पष्टिभागैर्योजनस्य, सद्विभाग च एगसहिहा छेत्ता' पष्टिभागं च एकपष्टिधा छित्त्वा पष्टिभागस्यैकषष्टिधा छेदनप्राप्तैः 'तेवीसाए चुष्णियाभागेहिं' त्रयोविंशत्या चूर्णिकाभागैः (३२०१९४४२३, हरिए' सूर्यः 'चक्खुफास' चक्षुःस्पर्श 'हच्चमागच्छइ' हव्यमागञ्छति । तथाहि- " सूर्यस्य प्रवेशसमयेऽत्र तृतीयमण्डले दिवसः मुहूः कपष्टिभागचतुष्टयाधिको द्वादशमुहतप्रमाणो दिवसो भवति, तस्या पडूमुहूर्ताः द्वाभ्यां मुहूर्ते कषष्टिभागाभ्यामधिकः (मु. ६-1 तत एकपष्टिभागकरणार्थं पडपि मुहूर्त्ता एकपष्टया गुण्यन्ते जाता पट् पष्टयधिकानि त्रीणि शतानि (३६६) अत्र द्वावेकपष्टिभागी प्रक्षिप्येते ततो जातमष्टपष्टयधिकं शतत्रयम् ,(३६८) एपा गुणकसंख्या विज्ञेया । ततोऽस्मिन् तृतीयमण्डले परिधिपरिमाणं त्रीणि लक्षाणि अष्टादशसहस्राणि एकोनाशीत्यधिके द्वे शते च (३१८२७९) एते गुण्याङ्का ज्ञातव्याः । पूर्वसम्पादितगुणकसख्यया (३६८) गुण्याङ्काः (३१८२७९) गुण्यन्ते, जातानि एकादश कोटयः, एकसप्ततिलमाणि, पड्विंशतिः सहस्राणि, द्विसप्तत्यधिकानि षट् शतानि च-(११-७१-२६-६७२).। ततश्च पष्टिरेकपष्टया गुण्यते तदा पष्टयधिकपट् त्रिंशत् शतानि (३६६०) जायन्ते, अनेन भागोहियते, हृते च भागे लब्धानि द्वात्रिंशत्सहस्राणि तदुपर्येकं च (३२००१) शेषतया द्वादशोत्तराणि त्रीणि सहस्राणि (३०१२) समुद्धरन्ति । एतेषां पष्टिभागकणार्थमेकपष्टया भागो हियते लब्धा एकोनपञ्चाशत् पष्टि भागाः (१९, त्रयोविंशतिश्च एकस्य-पष्टिभागस्य संस्का एक Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०२-३ सू०३ सर्वाभ्यन्तरे मण्डले सूर्यस्य प्रवेशः १३९, पष्टिभागाः १३) सर्वसंख्या- (३२००१-४६३) इति । 'तया गं' तदा पूर्वोक्ते सूर्यस्य चक्षुःस्पर्शसमये खलु 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई' अष्टादशमुहूर्ता रानिर्भवति किन्तु सा 'चउहिं एगसहिभागमुहुत्तेहिं ऊणा' चतुर्भिरेकषष्टि भागमुहत्तैः ऊना होना भवति 'दुवालसमुहुत्तों' दिवसो भवइ' द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति स च 'चउहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहि अहिए' चतुभिरेकपष्टिभागमुहूर्तेरधिको भवति । अथाने चतुरादि मण्डलेपु चातिदेशमाह-'एवं खलु' इत्यादि ! "एवं' एवम्-अनेन प्रकारेण खल निश्चितम् 'एएण' एतेन पूर्वप्रदर्शितेन 'उवाएण' उपायेन विधिना 'पविसमाणे' प्रविशन् तत्तदभ्यन्तरचतुरादि मण्डलाभिमुखं गच्छन् 'सरिए' सूर्यः 'तयागंतराओ तयाणंतर' तदनन्तरात् तदनन्तरं 'मंडलाओ मंडलं' मण्डलान्मण्डलम् एकस्मात् मण्डलादं द्वितीयं मण्डलं 'संकममाणे २'-संक्रामन् २ अग्रेड गतिं कुर्वन् 'अट्ठारसअट्ठारस' सहिभागे जोयणस्स' प्रतिमण्डलमष्टादशाष्टदशपष्टिभागान् योजनस्य व्यवहारतः परिपूर्णान् , निश्चयतः किञ्चिन्यूनान् ‘एगमेगे मंडले' एकैकस्मिन् मण्डले प्रत्येकमण्डले 'मुहत्तगईमुहर्तगतिम् अत्र सप्तम्यर्थे द्वितीया प्राकृतत्वात्, तेन मुहूर्तगतौ-मुहूर्तगतिपरिमाणे "णिव्वुड्ढेमाणे २' निर्वर्धयन् २ हापयन् २ परिरयमधिकृत्य हानिसद्भावात् 'साइरेगाई' सातिरेकाणि किश्चिदधिकानि 'पंचासीई जोयणाई' पञ्चाशीति योजनानि 'पुरिसच्छाय' पुरुपच्छायाम् अत्रापि सप्तम्यर्थे द्वितीया भावाद् पुरुपच्छायायां दृष्टिपथप्राप्ततारूपायाम् 'अलिवुड्ढमाणे २' अभिवर्धयन् २ 'सव्वमंतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् ‘उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति । . अत्र तृतीयमण्डलादारभ्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलं द्वयशीत्यधिकशततमं भवति ततश्चतुर्थमण्डलादारभ्य एकाशीत्यधिकशततममण्डलपर्यन्तं हापनाभिवर्धनप्रकारः पूर्वोक्तयुक्त्या स्वयमूहनीयः । विस्तरतो व्याख्या च सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रस्य मत्कृतायां सूर्यज्ञप्तिप्रकाशिकायां व्याख्यायां विलोकनीया । अथं सर्वाभ्यन्तरमण्डलस्य गणितप्रकारः प्रदश्यते, तथाहि-यदा तु सर्वाभ्यन्तर मण्डले सूर्यश्चारं चरति तदा यदि दृष्टिपथप्राप्तताविषयकं परिणामं ज्ञातुमिष्यते तदा षट्त्रिंशत् (३६)द्वयशीत्यधिकशतेन (१८२) गुण्यते तृतीयमण्डमधिकृत्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलस्य चशीत्यधिकशततमसंख्यकत्वात् । ततो गुणने जातानि द्विपञ्चाशदधिकानि पञ्चषष्टिशतानि (६५५२) एपामेकषष्टया भागो हियते लब्धं सप्तोत्तरमेकं शतं ४) षष्टिभागानाम् ६० Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - प्रसिध ६०६१ पं पञ्चविंशतिरेकपष्टिभागाः (२५)एतञ्च पञ्चाशीतियोंजनानि नवषष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्काः पष्टिरेकपष्ठिभागाः (८५ - ६९) इत्येवं रूपात् ध्रुवराशेरपकृष्यते जातानि पश्चात् त्र्यशीतिर्योजनानि, द्वाविशतिः षष्टिः भागा योजनस्य, एकस्य षष्टि भागस्य सत्काः पञ्चत्रिंदेकपष्टिभागाः (८३-१२ । अत्र यत् षट्त्रिंशत् २ ६०६१ एकपष्टिभागाः प्रोक्तास्ते परमार्थतः कलया न्यूना लभ्यन्ते इति प्रागेवोक्तम्, तच्च कलान्यूनत्वं प्रतिमण्डलं भवत् २ यदा द्वयशीत्यधिकशततमे मण्डले एकत्र पिण्डितं क्रियते तदा अष्टषष्टिरेकपष्टि भागा लभ्यन्ते । तत एतेऽपि भूयः प्रक्षिप्यते ततो जायते-त्र्यशीतिर्योजनानि त्रयोविंशतिः पष्टिभाग योजनस्य, एकस्य पष्टिभागस्य सत्काः द्विचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः(८३ ) इति । एतेषु सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलगतं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं संयोज्यते, तच्चसप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि एकोनाशीत्यधिकमेकं शतं च योजननाम् सप्तपञ्चाशत् षष्टिः भागा योजनस्य, एकस्य पष्टिमागस्य सत्का एकोनविंशतिरेकपष्टिभागाः (४७१७९ - इत्येवंरूपमस्ति । एतस्य संयोजने भवति यथोक्तं सर्वाभ्यन्तरे मण्डले दृष्टिपथप्राप्तता परिमाणम्-सप्तचत्वारिंशत् सहस्राणि त्रिपष्टयधिकं शतद्वयं योजनानाम्, एकविंशतिश्च षष्टि भागा योजनस्य (४७२६३ २ इति । एतच्चाने सूत्रकारः स्वयं प्रदर्शयिष्यतीति । एवं दृष्टिपथप्राप्ततायां कतिपयेपु मण्डलेषु पञ्चाशीति योजनानि सातिरेकाणि, अप्रतनेषु चतुरशीति योजनानि, पर्यन्ते यथोक्ताधिकसहितानि त्र्यशीति योजनानि अभिवर्धयन् २ तावद् वकव्यं यावत् सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति । तदेव सूत्रे दर्शयति 'त' जया ण' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल्ल 'मुरिए' सूर्यः 'सबभतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता 'चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खल 'पंचयोजणसह स्साई पञ्चयोजनसहस्राणि 'दोणि य एक्कावण्णे जोयणसयाई द्वे एकपञ्चशते योजनशते एकपञ्चाशदधिके द्वे शते योजननाम् 'एगणतीसं च सट्ठिभागे जोयणस्स' एकोनत्रिंशतं चष ष्टिभागान् योजनस्य (५२५१-२९, एगमेगेण' मुहुत्तेणं एकैकेन मुहूर्तेन 'गच्छ " Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० २-३ सू०३ सर्वाभ्यन्तरे मण्डले सूर्यस्य प्रवेशः १४१ गच्छति चलति, 'तया णं तदा खलू 'इहगयस्स मशसस्स' इहगतस्य मनुष्यस्य जातावेकवचनात् भरतक्षेत्रस्थितानां मनुष्याणां 'सीयालीसाए जोयणसहस्से हिं' सप्त वत्वारिंशता योजनसहनैः 'दोहि य तेवढेहिं जोयणसएहि' द्वाभ्यां च त्रिषष्टाभ्यां त्रिषष्टयधिकाभ्यां योजन शताभ्यां त्रिपष्टयधिक द्विशतयोजनैः 'एक्कवोसाए सहिभागेहिं जोयणस्स' एकविंशत्या षष्टि भागैर्योजनस्य (४७२६३ 'सरिए' सूर्यः 'चक्खुप्फास' चक्षुःस्पर्श दृष्टिगोचरतां 'हव्यमागच्छइ' हव्यमागच्छति शीघ्र प्राप्नोति, 'तया गं' तदा खलु उत्तमकट्ठपत्ते' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्षता सम्पन्नः 'उक्कोसए' उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्टः 'अट्टरसमुहुत्ते दिवसे भवइ' अष्टादशमुहूर्तों दिवमो भवति, 'जहणिया' जयन्यिका सर्वलध्वी 'दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' द्वादशमुहूर्ता रात्रिभवति । एतच्च मुहूर्तगतिपरिमाणं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं च यत् पूर्वमेव प्रदर्शितं तत्तु सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलान्निष्क्रमणप्रारम्भविषयकं प्रदर्शितम् अत्र तु सूर्यस्य सर्वबाह्यमण्डलात्सर्वाभ्यन्तरमण्डलप्राप्तिविषयकमिति नात्र पुनरुक्तेः शंकाऽपोति । अथोपसंहार माह ___'एस णं दोच्चे छम्मासे एतत् खलु द्वितीयं पण्मासम् ‘एस णं एतत् खलु दोच्चस्स छम्मासस्स' द्वितीयस्य पण्मासस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानम्-अन्तिममहोरात्रम् ‘एस णं' एप खलु 'आइच्चे संवच्छरे' आदित्यः संवत्सरः सम्पूर्गो जातः । 'एस णं' एतत् खलु 'आइच्च संवच्छरस्स' आदित्यसंवत्सरस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानम्-समाप्तिदिवसोऽस्ति । इति श्री-विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यानैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रोशाहुछत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त जनशास्त्राचार्य" पदभूषित-कोल्हापुर राजगुरु बालब्रह्मचारी-जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलालवति-विरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीकायां द्वितीयप्राभृतस्य तृतीयं प्रामृतप्रामृतं समाप्तम् ॥२-३॥ द्वितीयं मूलप्राभृतं समाप्तत् ॥२॥ ॥ श्रीरस्तु॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ तृतीयं प्राभृतं प्रारभ्यते गतं द्वितीयं मूलप्रामृतम्, तत्र सूर्यः तिर्यक् कथं गच्छतीत्युक्तम् । संप्रति तृतीयमारभ्यते, अत्र 'चन्द्रौ सूर्यो च कियक्षेत्रं प्रकाशयन्ति ?' इत्येतद्विषयं प्रदर्शयन्नाह-'ता केवइयं' इत्यादि मूलम्ता केवइयं खेत्तं चंदमसरिया ओभासेंति उज्जोति तवेंति पगासें ति आहितेति वएज्ज तत्थ खलु इमाओ वारसपडिवत्तीओ पन्नत्ताओ, तं जहा-तत्थेगे एवमाहंमु-ता एगं दीवं एगं समुदं चंदिमसरिया ओभासे ति उज्जोवेति तवेति पगासेंति एगे एवमाहंसु ।१। एगे पुण एवमाइंसु-ता तिण्णि दीवे तिणि समुढे चंदि मसूरिया ओभासेंति ४ एगे एवमासु ।२। एगे पुण एवमाहंसु-ता अद्धचउत्थे दीवेअद्धचउत्थे समुहे चंदिमसरिया ओभाति ४, एगे एवमासु ।३। एगे पुण एवमाहंमु ता सत्तदीवे सत्त समुद्दे चंदिमसूरिया ओभाति ४, एगे एवमासु ।४। एगे पुण एवमाइंसु-ता दसदीवे दससमुद्दे चंदिमसूरिया ओभासेंति ४, एगे एवमासु १५। एगे पुण एवमासु ता वारस दीवे वारससमुद्दे चंदिमसरिया ओभासेति ४, एगे एव माहंसु ।६। एगे पुण एवमाहंसु-ता वायालीसं दीवे वायालीसं समुहें चंदिमसरिया ओभासेंति ४, एगे एवमासु १७। एगे पुण एवमाइंसु-ता वायत्तरि दीवे वावतार समुढे चंदिमसूरिया भोभासेंति ४, एगे एवमाहंसु ।८। एगे पुण एवमाहंसु-ता वायालीसं दीवसयं वायालीसं समुइसयं चंदिममरिया ओभासेंति ४, एगे एवमाहंसु ।९। एगे पुण एवमाहंसु-ता वायत्तरि दीवसयं वावत्तरि समुद्दसयं चंदिमसरिया ओभासेंति ४, एगे एवमाहमु ।१०। एगे पुण एवमासु-ता वायालीस दीवसहस्सं पायालीसं समुहसहस्सं चंदमसरिया ओभासें ति ४, एगे एवमाहंस ।११। एगे पुण एवमाहंसुता वायत्तरि दीवसहस्सं वावत्तरि समुद्दसहस्सं चंदिमसूरिया ओमासेंति उज्जोति तवेंति पगासें ति, एगे एवमाहं ॥१२॥ ___ वयं पुण एवं वयामो-अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सबहीवसमुदाणं जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ते । से णं एगाए जगईए सवयो समंता'संपरिक्खित्ते । साणं जगई अट्ठजोयणाई उड्ड उच्चत्तण पण्णत्ता एवं जहा जवुद्दीवपण्णत्तीए तहेव निरवसेसं जाच एवामेव सपुब्बावरेणं जंबुद्दीवे दीवे चोइस सलिलासयसहस्सा, छप्पण्णं च सलीलासहस्सा भवंतीतिमक्खायं । जंधुढोवे दीवे पंच चकभागसंठिए आहिए त्ति वएज्जा, ता कहं जंबुहीवे दीवे पंचचक्कभागसंठिए आहिए तिवएज्जा ? ता जया णं एए दुवे सूरिया सबमंतर मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तया णं जम्बुढीवस्स दीवस्स तिण्णि पंचचक्कभागे Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिका टोका प्रा-३ २०१ . चन्द्रसूर्यायोः प्रकाशक्षेत्रनिरूपणम् १४३ ओभासेंति उज्जोयेति तवेंति पभासेंति, तं जहा-एगे वि सरिए एग दिवढं पंचचक्कभाग ओभासेइ उज्जोवेइ तवेइ पगासेइ, एगे वि सूरिए एगं दिवढं पंच चक्कभागं ओभासेइ उज्जोवेइ तवेइ पगासेइ तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अद्वारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । ता जया णं एए दुवे सूरिया सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति तया णं जबुद्दीवस्स दीवस्स दोणि पंच चकभागे ओभासेंति उज्जोवेंति तति पगासेंति । ता एगे वि सूरिए एगं पंचचक्कभागं ओभासेड़ उज्जोवेड तवेइ पगासेइ तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ ॥सू० १॥ छाया-तावत् कियत्कं क्षेत्र चन्द्रसूर्या अवभासयन्ति उद्द्योतयन्ति तापयन्ति प्रकाशयन्ति, (अत्र किम् ) आत्यातम् ? इति वदेत् । तत्र खलु इमा द्वादश प्रतिपत्तयः प्रशप्ताः तद्यथा तत्रैके पचमाहुः-तावत् पकं द्वीपम् एकं समुद्रं चन्द्रसूर्या अवमासयन्ति उद्योतयन्ति तापयन्ति प्रकाशयन्ति, एके एवमाहुः ।। एके पुनरेवमाहुः तावत् त्रीन् द्वीपान त्रीन् समुद्रान चन्द्रसूर्या अवभासयन्ति ४ पके एवमाहुः ।।पके पुनरेवामाहुः तावत् अर्द्धचतुर्थान् द्वीपान अर्धस्तुर्थान् समुद्रान चन्द्रसूर्या अवभासयन्ति ४, एके एवमाहुः ।। एके पुनरेववाहुः तावत् सप्तहीपान सप्तसमुद्रान् चन्द्रसूर्या अवभासयन्ति ४, एके पवमाहुः ।४। एके पुनरेवमाहुः तावत् दशद्वीपान् दशसमुद्रान् चन्द्रसूर्या अवभासयन्ति ४, एके एवमाहुः ५। पके पुनरेवमाहुः तावत् द्वादशद्वीपान् द्वादशसमुद्रान् चन्द्रसूर्या अवभासयन्ति ४, पके पवमाहुः ।६। एके पुनरेवमाहुः-तावत् द्विचत्वारिंशतं द्वीपान द्विचत्वारिंशतं समुद्रान् चन्द्रसूर्या अवभासयन्ति ४, एके एवमाहुः ७१ एके पुनरेवमाहु:तावत् द्वासप्ततिं द्वीपान हासप्तति समुद्रान् चन्द्रसूर्या अवभासयन्ति ४, एके एवमाहुः 1८। एके पुनरेवमाहुः-तावत् हाचत्वारिंशतं द्वीपशतं द्विचत्वारिंशतं समुद्रशतं चन्द्रसूर्या अवभासयन्ति ४ एके पवमाहुः ।। एके पुनरेवमाहुः-तावत् द्विसप्तति द्वीपशतं द्विसप्तति समुद्रशतं चन्द्रसूर्या अवभासन्ति ४, एके एववमाहुः ।१०। एके पुनरेवमाहुः-तावत् द्विचत्वारिशतं द्वीपसहस्रं द्विचत्वारिंशतं समुद्रसहस्त्रं चन्द्रसूर्या अवभासयन्ति ४, एके एवमाहुः ।११। एके पुनरेवमाहुः-तावत् द्विसप्ततिं द्वीपसहस्रं द्विसप्ततिं समुद्रसहस्रं चन्द्रसूर्या अधमासयन्ति उद्योतयन्त तापयन्ति प्रकाशयन्ति,एगे पवमाहुः ॥१२॥ वयं पुनरेवं वदामः-अयं खलु जम्बूद्वीपो द्वीप. सर्वद्वीपसमुद्राणां यावत् परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः । स खलु एकया जगत्या सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः । सा खलु जगती अष्ट योजनानि उर्ध्वमुच्चत्वेन प्रशप्ता एवं यथा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यां तथैव निरवशेषं यावत् एवमेव सपूर्वापरेण, जम्बूद्वीपे द्वीपे चतुर्दश सलिलाशतसहस्राणि षट् पञ्चाशच्च सलिला सहस्राणि (१४५६०००) भवंतीति आख्यातम् । जम्बूद्वीपो द्वीपः पञ्चचक्रभागसंस्थितः आख्यात इति वदेत् । तावत् कथं जम्बूद्वीपो द्वीपः पञ्चचक्रभागसंस्थित आख्यातः ? इति वदेत्-तावत् यदा खलु एतौ द्वौ सूयौ सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरतः Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ चन्द्रप्राप्तिस्त्रे तदा खलु जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य त्रीन् पञ्चचक्रभागान् अवभासयतः उद्योतयतः तापयतः प्रकाशयतः, तद्यथा-एकोऽपि सूर्यः एकं द्वयधं (द्वितीयाध-सार्द्धमेकं) पञ्चचक्रभागम् अवभासयति ४, एकोऽपि सूर्यः द्वध (द्वितीया-सार्धमेक) पञ्चचक्रभागम् अवभासयति उद्द्योतयति तापयति प्रकाशयति तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षक: अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति, जन्यिका द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति । तावत् यदा खलु एतौ द्वौ सूयौँ प्रर्ववाह्य मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरतः तदा खलु जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य द्वौ पञ्च चक्रवालभागान् अवभासयनः उद्द्योतयतः तापयतः प्रकाशयतः । तावत् एकोऽपि सूर्य एकं पञ्च, चक्रभागम् अवभासयति उद्द्योतयति तापयति प्रकाशयति । तदा खलु उत्तमकाष्ठा प्राप्ता उत्कर्पिका अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति, जघन्यको द्वादशमुहत्तों दिवसो भवति ।सू० १॥ ॥ चन्द्रप्रशप्त्यां तृतीय प्राभृतं समाप्तम् ॥ell व्याख्या-'ता केवइयं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'केवइयं' कियकं कियत्परिमितं क्षेत्रं 'चंदिमसरिया' चन्द्रसूर्याः बहुवचनं च जम्बूद्वीपे चन्द्रद्वयसूर्यद्वयसद्रावात् 'ओभासेंति' अवभासयन्ति, तत्र अवमासस्तु ज्ञानस्य प्रतिभासोऽपि भवेदितितन्निराकर्तुमाह-'उज्जोवेति' उद्द्योतयन्ति, 'धुतिर्दीप्तौ' इति धातोः प्रेरणायां रूपम-दीपयन्तीत्यर्थः, 'तति' तापयन्ति, एतत् चन्द्रे कथं घटते तस्य शीतरश्मित्वेन प्रसिद्धत्वात, तत्राह-चन्द्रप्रकाशेऽपि आतपशब्दस्य लोके व्यवहारो दृश्यते, उक्तञ्च "चन्द्रिका कौमुदी ज्योत्स्ना, तथा चन्द्रातपः स्मृतः ॥" इति कोषवचनात् आभाससहितं कुर्वन्तीत्यर्थः, तथा 'पगासें ति' प्रकाशयन्ति स्वतेजसा प्रकाशयुक्त कुर्वन्ति ? प्राय एकार्थिका इमे धातवः, देशमेदात् सर्वदेशीयानामवबोधार्थ प्रयुक्ता इति विज्ञेयम्' आहित' आख्यातम् हे भगवन् भवन्मत एतद्विपये किमाख्यातम् ? 'ति' इति 'धएज्जा' वदेत् • वदतु कथयतु हे भगवन् ! आपत्वाद् वदेत्, इति स्थाने वदतु, इति तकारव्यत्ययः कर्त्तव्यः । एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानेतद्विपये परतीथिकानां मिथ्याभावप्रदर्शनाय प्रथमं तेषां प्रतिपत्तीः प्रदर्शयति-'तत्थ खलु' इत्यादि । 'तत्थ' तत्र चन्द्रसूर्याणां क्षेत्रावभासनविचारे खलु 'इमाओ' इमाः वक्ष्यमाणाः 'बारस' द्वादश 'पडिबत्तीओ' प्रतिमत्तयः परमतरूपाः 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः 'तं जहा' तद्यथा ता यथा 'तत्थ' तत्र तेपु द्वादशप्ठ प्रतिपत्तिवादिषु मध्ये 'एगे एके केचन प्रथमाः ‘एवं एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आईसु' आहुः कथयन्ति । किं कथयन्तीत्याह-'ता' तावत् 'चंदिमसरिया' चन्द्रसूर्यो, प्राकृते द्विवचनस्थाने बहुवचनं भवति तत्र द्विवचनाभावात्, तदुक्तम्-"वहुवयणेण दुवयणं' इति । अत्र चन्द्रसूयौ इति द्विवचनं तेषां परतोर्थिकानां मते एकस्य चन्द्रस्य एकस्य च सूर्यस्य मान्यता सद्भावात् एतौ चन्द्रसुयौ 'एग दीव' एक द्वीपं “एगं समुदं एक समुद्रं च 'ओभासेंति' अवभासयतः 'उज्जोवेंति उद्योतयतः 'तवेंति' तापयतः 'पगासेंति' प्रकाशयतः । 'एगे' एके इमे प्रथमास्तीर्थान्तरीया 'एवं' पूर्वोक्तप्रकारेण 'आईमु' आहुः कथयन्ति ।। एवमग्रेऽप्येकादशस्वपि प्रतिपत्तिपु योजना कर्तव्या, व्याख्यातु छायागम्याऽतो न Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा०३ सूर चन्द्रसूर्ययोः प्रकाशक्षेत्रनिरूपणम् १४५ विवियते । विशेषस्तु, खल्वेतावानेव, तथाहि-द्वितीयाः प्रतिपत्तिवादिनश्चन्द्रसूर्ययोरवभासनादिविषये त्रीन् , द्वीपान् त्रीन् समुद्रान, कथयन्ति ।२। तृतीया मर्द्धचतुर्थान् सार्धान् त्रीन् द्वीपान् सार्द्धान् त्रीन् समुद्रान् ३, चतुर्थाः सप्तद्वीपान् सप्तसमुद्रान् ४,:पश्चमाः दश द्वीपान् दशसमुद्रान् ५ पठाः द्वादशद्वीपान द्वादशसमुद्रान् ६, सप्तमा द्विचत्वारिंशतं द्वीपान् द्विचत्वारिंशतं समुद्रान् ७, अष्टमा द्विसप्तति द्वीपान् द्विसप्तति समुद्रान् , नवमा द्विचत्वारिंशदधिकशतसंख्यकान् द्वीपान् द्विचत्वारिंशदधिकशतसंख्यकान् समुद्रान् ९, दशमाः द्विसप्तत्यधिकशतसंख्यकान् द्वीपान् द्विसप्तत्यधिकशतसंख्यकान् समुद्रान् १०, एकादशा द्विचत्वारिंशदधिकसहस्रसंख्यकान् द्वीपान् द्विचत्वारिंशदधिकसहनसख्यकान् समुद्रान् ११ द्वादशाः द्विसप्तत्यधिकसहस्रसंख्यकान् द्वीपान् द्विसप्तत्यधिक सहस्रसंख्यकांश्च समुद्रान् चन्द्रसूर्यो अवभासयतः, उद्योतयतः, तापयतः प्रकाशयत इति कथयन्ति । इति द्वादशप्रतिपत्तिस्वरूपम् । अथ भगवान् स्वमतं प्रदर्शयति-'वयं पुण' इत्यादि । 'वयं पुण' वयं तु अत्र पुनः शब्दस्त्वर्थ 'एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामो' वदामः-कथयामः 'अयण' अयं लोकप्रसिद्धः खलु 'जम्बूद्दीवे दीवे' 'जम्बूद्वीपो द्वीपः मध्यजम्बूद्वीपः 'सव्वदीवसमुदाणं' सर्वद्वीपसमुद्राणां मध्यस्थितः सर्वलघुः 'जाव' यावत् 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिनां 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः । अस्य वर्णनमादौ प्रदर्शितम् । 'सेणं' स खलु जम्बूद्वीपो द्वीपः 'एगाए जगईए' एकया जगत्या 'सव्वओ समंता' सर्वतः समन्तात् 'संपरिक्खित्ते' संपरिक्षिप्तः परिवेष्टितो वर्तते । 'साणं जगई' सा खलु, जगती 'तहेव जहा 'जंबूद्दीवपन्नत्तीए' तथैवास्ति यथा.येन प्रकारेण जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यां कथितम् । कियत्पर्यन्तं कथनीयमित्याह-'जाव' यावत् ‘एवामेक सपन्चावरेणं एवमेव सपूर्वापरेण पूर्वापरसहितेन । 'जंबूद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'चोइस सलिलासय सहस्सा' चतुर्दशसलिलाशतसहस्राणि सलिलानां चतुर्दशलक्षाणि, 'छप्पन्नं च सलिलासहस्सा' षट् पश्चाशच्च सरित्सहस्राणि पद पञ्चाशत्सहस्राणि सलिलानां सरितां नदीनामित्यर्थः (१४५६०००) 'भवंति' भवन्ति-सन्ति 'इति मक्खाया' इत्याख्यातं भगवतेति । विशेषजिज्ञासुभिर्जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रमेव द्रष्टव्यमिति । 'जंबूद्दीवे णं दीवे' जम्बूद्वीपः खल द्वीपोऽसौ 'पंच चक्कभागसंठिए' पश्चचक्रभागसंस्थितः पञ्चभिः चक्रभागैः चक्रवालभागैः संस्थितः पञ्चचक्रवालसंस्थानसस्थित इत्यर्थः । 'आहिते' आल्यातो मया 'ति वएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्य इति । एवं भगवता प्रोक्ते गौतमः पुनः पृच्छति-'ता कह' इत्यादि । 'ता' तावत् 'कह' कथं केन कारणेन हे भगवन् ! भवता 'जवूदीवे दीवे' जम्बूद्वीपो द्वीपः 'पंच चक्कभागसंठिए आहिए' पञ्च Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1nM चन्द्राप्तिसूत्रे चक्रभागसंस्थितः आक्ष्यातः ! 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु । एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह-'ता जयाणं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल. 'एए' एतौ प्रवचनवेतृणां प्रसिद्धौ ‘दुवे सुरिए' द्वौ . समुदितौ सूर्यो 'सव्वभंतरमंडळ उवसंकमित्ता चारं चरति' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरतः 'तया गं' तदा खल 'जंबुद्दीवस्स दोवस्स' जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य 'तिणि पंच चक्कभागे' त्रीन् पञ्च चक्रभागान् पञ्चचक्रवालभागान् 'ओमासेति' भवभासयतः 'उज्जोवेति' उद्घोतयतः 'तवेंति' तापयतः, 'पगासेंति' प्रकाशयतः 'तं जहा' तद्यथा-तथाहि-'एगे विसरिए' एकोऽपि सूर्यः एकस्तु सूर्यः 'एग दिवढं' एकं परिपूर्णमेकं द्वयर्घ द्वितीया च सार्वैकमित्यर्थः 'पंच चक्कभार्ग' पञ्च चक्रभाग पञ्चमं चक्रवालभागम् अयं भावः-एकं पञ्चमं चक्रबालमार्ग द्वितीयस्य पञ्चमस्य चक्रबालभागस्यार्धेन सहितम् 'ओभासेइ उज्जोवेइ तवेइ पगासेई' अवभासयति उद्योतयति तापयति प्रकाशयति । 'एगे वि' सूरिए' एकस्तु अपरः सूर्यः 'एगं दिवढं' एक तदन्यं परिपूर्णमेकं द्वयर्घ द्वितीयमधु च सार्धमेकमित्यर्थः पंच चक्कभाग पञ्चमं चक्रवालभागम् 'ओभासेइ' ४, अवभासयति उद्योतयति तापयति प्रकाशयति । अयं भावः-- अनयोईयोः सूर्ययोः प्रकाशितभागमीलने परिपूर्ण भागत्रयं प्रकाश्यं भवति । अयमाशयः-जम्बूद्वीपगतानां पञ्चानां चक्रवालानां षष्टयधिकषट्शतोत्तरसहस्रत्रयभागाः(३६६०) कल्प्यन्ते, तस्य पश्चभागकरणार्थ पञ्चभिर्भागो हियते लब्धानि द्वात्रिंशदधिकानि सप्तशतानि (७३२) 'एग दिवड्डं' इति कथनात् इयं संख्या सार्धा क्रियते तदा जातमष्टानवत्यधिक सहस्रमेकम् (१०९८) ततः सर्वाभ्यन्तरमण्डले वर्तमान एकोऽपि सूर्यः षष्टयधिकषट्शतोचर सहनत्रय (३६६०) संख्यकानां भागानां मध्यात् अष्टानवत्यधिकैकसहन (१०९८) परिमितं भागम् अवभासयति । एवमपरोऽपि सूर्यः-अष्टानवत्याधिकैकसहन (१०९८) परिमितं भागम् अवमासयति, उभयोर्योगकरणे जातानि षण्णवत्यधिकानि एकविंशतिशतानि (२१९६)। एतत्परिमितभाग चक्रवाळप्रकाश्यमानं लभ्यते शेषं चतुष्षष्टयधिकचतुर्दशशत (१४६४) परिमितभागेऽन्धकारो लभ्यते, तदा च पश्च चक्रवालभागमध्यात् द्वौ चक्रवालभागौ रात्रिः, त्रयश्चक्रवालभागाः दिवसः । तथाहि-एकतोऽपि एकः पश्चमो भागो द्वात्रिंशदधिकसप्तशत(७३२) भागा रात्रिः, अपरतोऽपि एकः पञ्चमो भागो द्वात्रिंशदधिकसप्तशत , (७३२) भागा रात्रिः । द्वयोर्मीलने जातानि चतुष्पष्टयधिकानि चतुर्दशशतानि (१४६४), एतत्परिमितोऽन्ध. कारभागो लभ्यते । शेषाः षण्णवत्यधिकैकविंशतिशत (२१९६) भागाः। एतत्परिमितः प्रकाश भागो-दिवसो-लभ्यते, ततः सर्वेषामन्धकारमागानामुद्योतभागानां च संमेलने भवन्ति Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा०३ सू० १ चन्द्रसूर्ययोः प्रकाशक्षेत्रनिरूपणम् १४७ षष्टयधिकानि षट् त्रिंशछतानि (३६६०) जम्बूद्वीपस्य पश्चचक्रवालभागानां कल्पिताः सर्वे भागा । | सर्वाभ्यन्तरमण्डले द्वयोः सूर्ययो प्रकाशभागाः २१९६ तथाच कोष्ठकम् - अन्धकारमागा: १४६४ सर्वमेलने - - ३६६० सम्प्रति दिवसरात्रिप्रमाणमाह-'तया णं' इत्यादि । 'तया णं' तदा--पूर्वोक्तपरिमितप्रकाशान्धकारसमये खलु 'उत्तमककृपत्ते' उत्तमकाष्ठाप्राप्त परमप्रकर्षसंपन्नः 'उक्कोसए' उत्कर्षकः सर्वगुरुः 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ' अष्टादशमुहतों दिवसो भवति, 'जहणिया' जघन्यिका सर्वलध्वी 'दुवालसमुहुत्ता राई भवई' द्वादशमूहूर्ता रात्रिर्मवति । अथ सर्वबाह्यमण्डलवकव्यतामाह-'ता जया णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया ण' यदा खल 'एए दुवे सरिए एतौ द्वौ स्यौं 'सबबाहिरं मंडलं उबसंकमित्ता चार .चरंति' सर्वबाह्य -मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरतः 'तया णं तदा खलु 'जंबुद्दीवस्स दीवस्स' जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य दोणि चक्कभागे' द्वौ चक्रभागौ चक्रवालभागी 'ओभासेंति ४' अवभासयतः उद्योतयतः, तापयतः, प्रकाशयतः । अथ-एकैकसूर्यमधिकृत्याह'ता एगे वि' इत्यादि । 'ता' तावत् 'एगे वि सुरिए' तयोर्मध्ये एकोऽपि सूर्यः-एकः सूर्यः अपि वाक्यालङ्कारे 'एग पंचचक्कभागं' एकं पश्चमं चक्रवालभागं द्वात्रिंशदधिकसप्तशत (७३२) भागरूपम् 'ओमासेइ ४' भवभासयति, उद्योतयति, तापयति, प्रकाशयति । एवम्-'एगेवि मूरिए' एकोऽपरोऽपि सूर्यः 'एग चक्कभागं' एकं पश्चमं चक्रमालभागं द्वात्रिंशदधिकसप्तशत (७३२) रूपम् 'ओभासेइ ४' अवभासयति, उद्योतयति, तापयति. प्रकाशयति । अयं भावः-सर्वबाद्यमण्डले 'द्वयोः सूर्ययोश्चारसमये तो समुदितौ द्वौ सूर्यों द्वौ चक्रवालभागौ चतुष्षष्टयधिकचतुर्दशशत (१४६४) भागरूपौ प्रकाशयतः, अतः सर्वबाह्यमण्डलचारसमये चतुष्पष्टयधिकचतुर्दशशत (१४६४) भागपरिमितः उद्घोतभागो दिवसरूपो लभ्यते शेषाजयश्चक्रवालभागाः षण्णवत्यधिकैकविंशतिशत (२१९६) भागपरिमितोऽन्धकारभागो रात्रिरूपो लभ्यते, तथा चैवं सर्वेषामुद्घोतान्धकारभागानां संमेलने भवन्ति षष्टयधिकानि पद त्रिशच्छतानि (३६६०) जम्बूद्वीपभागाः। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे - प्रकाशभागा: १४६४ - - - - - - wwwimmmmmmmm कोष्टकम् सर्ववाह्यमण्डले द्वयोः सूर्ययोः मध्यमण्डलेपु. द्वयशीत्यधिकशत - (१८२)संख्यकेषु प्रतिमण्डलं प्रति सूर्यनिष्क्रमणकाले भागद्वयस्य हानिः अन्धकारभागाः- २१९६ प्रवेशकाले च मागदयस्य वृद्धि सर्वमेलन -- - ३६६० विज्ञेयेति । । अयमाशय:--सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारसमये- प्रत्येकसूर्यस्याष्टानवत्यधिकदशशत (१०९८) मागपरिमितोद्योतभागसगावात् द्वयोः सूर्ययोः षण्णवत्यधिककविंशतिशत (२१९६) भाग. परिमित उद्योतः, शेष चतुष्पष्टयधिकचतुर्दशशत (१४६४) भागपरिमितोऽन्धकारभागयोर्मीलने घट्यधिकानि पद त्रिंशच्छतानि (३६६०) भागा. जम्बूद्वीपस्य पञ्च चक्रवालसम्बन्धिनो लम्यन्ते सर्वबाह्यमण्डलचारसमये च एतद्विपरीतं भवति, यथा-द्वयोः सूर्ययोःचतुष्पष्टयधिकचतुर्दशशत (१४६४) मागपरिमित उद्योतभागः, पणवत्यधिकविंशतिशत (२१९६) .भागपरिमितोऽन्धकारभागो भवति, द्वयोर्मीलने च भवन्ति- - पष्टयधिकानि पत्रिंशच्छतानि (३६६०) भागाः जम्बूद्वीपस्येति सर्वं पूर्व कोष्ठकद्वये प्रदर्शितमिति । . . ' अथ रात्रिदिवसप्रमाणमाह-'तयाण' इत्यादि । 'तया णे' तदा पूर्व प्रदर्शितपरिमितप्रकाशान्धकारसमये खल 'उत्तमकट्ठपत्ता' उत्तमकाष्ठाप्राप्ता परमप्रकर्षसंपन्ना 'उक्कोसिया' उत्कर्पिका सर्वोत्कृष्टा सर्वगुर्वीत्यर्थः 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई' अष्टादशमुहूर्ता रात्रिभवति, 'जहण्णए' जघन्यकाः सर्वलघुः 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवतीति । ' एवं द्वितीयमण्डलादारभ्य इचशीत्यधिकशततममण्डलपर्यन्तविचारणायामेवं ज्ञातव्यम्-सर्वबाह्यमण्डले यदा सूर्यश्चारं चरति तदा एक सूर्यमधिकृत्य 'द्वात्रिंशदधिकसप्तशत (७३२) भागाएकस्य पञ्चमस्य चक्रवालस्य सम्बन्धिनः उद्योतस्य लम्यन्ते तथा-अष्टनवत्यधिकदशशत(१०९८) भागाः शेषाः चतुश्चक्रवालसम्बन्धिनः अन्धकारस्य लभ्यन्ते । सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारसमयेऽटनवत्यधिकदशशत (१०९८) भागाः सार्धे कचक्रवालसम्बन्धिनो भवन्ति, एतेभ्यो मर्वबाह्यमण्डलगना द्वात्रिंशदधिकसप्तशत (७३२) भागाः शोध्यन्ते तदा शेषाः पट्पष्टधिकत्रिंशत (३६६) भागा न्यूना लम्यन्ते । एषा न्यूनसंख्या त्र्यशीत्य-धिकैकशत (१८३) संख्यकेपु मण्डलेषु भवति ततोऽनेन (१८३) पट्पष्टचधिकत्रिशत (३६६) भागानां भागो हियते तदा लम्यते द्वौ भागौ। अनयोईयो गयोर्हानिः प्रत्येकमण्डलेषु क्रमेण भवति । एवं सर्वाभ्यन्तरमण्डलात् सर्वबाद्यमण्डलं प्रतिसूर्यस्य गमनसमये प्रतिमण्डलं भागद्वयमुद्योतस्य Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीक प्रा० ३-४ चन्द्रसूर्ययोः प्रकाशक्षेत्रनिरूपणम् १४९ हापयन् २ यदा सर्वबाह्यमण्डलं सूर्यः प्राप्नोति तदा द्वात्रिंशदधिक पप्तशत (७३२) भागा उद्योतस्य भवन्ति । एवमेव द्वितीयर्यविषयेऽपि स्वयमूहनीयम् । द्वयोमर्मीलने द्वयोः सूर्ययोः सर्वबाह्यमण्डलस्थितौ षष्टयधिकषट्त्रिंशच्छत (३६६) भागमध्यात् चतुष्षष्टयधिकचतुर्दशशत (१४६४) भागा जम्बूद्वीपे द्वीपे प्रकाश्यमाना भवन्ति, शेषेषु षण्णवत्यधिककविंशतिशत(२१९६) भागा अन्धकारस्य भवन्ति, एपु रात्रिर्भवतीत्यर्थः । सर्वमीलने भवन्ति जम्बूद्वीपस्य पञ्चचक्रवालसम्बन्धिनः षष्टयधिकपत्रिंशच्छत (३६६०) भागा इति । एवं यथा प्रथमे षण्मासे सर्वाभ्यन्तरमण्डलान्निष्कामतोयोः सूर्ययोर्जम्बूद्वीपविषयकः प्रकाशविधिः क्रमेण प्रतिसूर्य भागद्वयहान्या हीयमानः प्रोक्तस्तथैव द्वितीयषण्मासे सर्वबाह्यमण्डलात्सर्वाभ्यन्तरमण्डलं प्रविशतोईयोः सूर्ययोर्जम्बूद्वीपविषयकः प्रकाशविधिः प्रतिसूर्यक्रमेण भागद्वयवृद्धया वर्धमानो ज्ञातव्य इतै स्वयमूहनीयम् । अत्रोक्तमन्यत्र -छत्तीसे भागसए, सर्टि काऊण जंबुदीवस्स । तिरियं तत्तो दो दो, भागे वड्ढेइ हायई वा ॥१॥ छाया-पटत्रिंशद्भागशतानि पष्टिं (३६६०) कृत्वा जम्बूद्वीपस्य तिर्यक् (शनैः शनैः क्रमेण) ततो द्वौ द्वौ भागौ वर्धते हीयेते वा ॥१॥ अत्रविपये पुनरपि विस्तरतो व्याख्यानं सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रस्य मत्कृतायां सूर्यजप्तिप्रकाशिकाव्याख्यायामवलोकनीयमिति ॥सू० १॥ ॥ अथ चतुर्थ भाभृतम् भारभ्यते ॥ गतं तृतीयं प्राभृतम् , तत्र सूर्यचन्द्रयोः प्रकाश्यमानक्षेत्रमुक्तम् । साम्प्रतं चतुर्थमारभ्यते, अस्मिन् 'कहं ने सेययाए संठिई आहिया' कथं श्वेततायाः संस्थितिराख्याता इति प्रकाशस्य संस्थानरूपोऽर्थान्धकार. प्ररूपयिष्यते ततस्तद्विपयं सूत्रमाह-'ता कहते सेययाए" इत्यादि। मूलम्-ता कहं ते सेययाए संठिई अहिया ? तिवएज्जा तत्थ खल इमा दुविहा संठिई पण्णता, त जहा-चंदिमसूरियसंठिई य १ तावक्खेत्तसंठिईय २। ता कहं ते चंदिमसरियसंठिई आहिया ? ति वएज्जा, तत्थ खलु इमाओ सोलस पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-तत्ोंगे एवमाहंसु ता समचउरंससंठिया चंदिमसूरियसंठिई पण्णता, एगे एवमाहसु १। एगे पुण एवमाहंसु ता विसमचउरंससंठिया चंदिमसूरियसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु ।२। एवं एएणं अभिलावेणं समचउक्कोणसंठिया ३, विसम चउक्कोणसंठिया :४। 'समचक्कवालसंठिया ५, विसमचक्कवालसंठिया ६, चक्कद्ध Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे चक्कवालसंठिया ७. छत्तागारसंठिया ८, गेहसंठिया ९, गेडावणसंठिया १०, पासाय संठिया ११, गोपुरसंठिया १२ पेच्छाघरसंठिया १३ यतलसंडिया १५, एगे पुण एवमाहंसु-वालग्गपोईया संठिया त्ता एगे एवमाहंसु १६' तत्थ णं जे ने एवमाहंसु-ता समचउरं संठिया चंदिमसूरियसंठिई पण्णत्ता. एएणं णपणं णेयव्वं नोचैव णं इयरेहिं सू० १|| वलभीसंठिया १४, इम्मिचंदिमसूरियस ठिई पण्ण - १५० छाया - तात कथं ते प्रवेतनायाः संस्थितिः आख्याता ? इति वदेत् । तत्र लु इयं द्विविधा संस्थितिः प्रज्ञप्ता तद्यथा चन्द्रसूर्यसंस्थितिश्च १ नापक्षेत्रसंस्थितिश्च २, तावत् कथं ने चन्द्रसूर्य संस्थितिः श्राख्याता १ इति वदेत् । तत्र स्खलु इमाः षोडश प्रतिपत्तयः प्रज्ञमाः । तद्यथा नत्रै के पवमाहुः - तावत् समचतुरखे संस्थिता चन्द्र सूर्य संस्थितिः प्रप्ता, एके माहुः |१| पके पुनरेवमाहुः तावत् विषमचतुरस्रमं स्थिता चन्द्रसूर्यसंस्थितिः प्रक्षता, पके एवमाहु |२| एवम एतेनाभिलापेन समचतुष्कोण संस्थिता ३, विषमचतुष्कोण संस्थिता ४, मन्चक्रवालसंस्थिता ७ विषप्रचक्रचालसंस्थिता ६. चक्रार्धचक्रवालर्स स्थिता ७ छत्राकारसंस्थिता ८, गेहसंस्थिता ९, गेहापणसंस्थिता १०, प्रासादसंस्थिता ११, गोपुर संस्थिता १२ प्रेक्षागृहसंस्थिग १३ वलभीसंस्थिता १४ हर्म्यनल संस्थिता १५, एके पुनरेव माहु' वालाग्रपोतिकासंस्थिता चन्द्रसूर्यसंस्थिति प्रज्ञप्ता एके पवमाहुः - १६, नत्र खलु ये ते माहुः - तावत् समचतुरससंस्थिता चन्द्रसूर्यसंस्थितिः प्रज्ञप्ता, पतेन नयेन ज्ञातव्यं नो चैव खलु इतरैः ॥ सू० १ ॥ व्याख्या – 'ता' तावत् 'क' कथं केन प्रकारेण 'ते' तव भवतां मते. 'सेययाए ' श्वेततायाः शुक्लतायाः ‘संठिई’ संस्थितिः संस्थानम् 'आदिया' आख्याता कथिता ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु भगवन् ! | भगवानाह - ' तत्थ' इत्यादि । ' तत्थ' तत्र श्वेतताविषये स्खलु 'इमा' इयं वक्ष्यमाणस्वरूपा 'दुविहा' द्विविधा द्विप्रकारा 'संठिई' संस्थितिः 'पण्णत्ता' प्रजमा, 'तं जहा' तद्यथा - सा यथा - ' चंदिमसूरियसंठिई य' चन्द्रसूर्यसंस्थितिश्च १, 'ताव - क्खेत्तसंठिई य' तापक्षेत्रसंस्थितिश्च २ | श्वेतता च चन्द्रसूर्यविमानानां तत्कृततापक्षेत्रस्य चेत्युभयोरपि श्वेततायोगात् श्वतता, सा द्विविधा भवति । अथ द्वयोर्मध्ये पूर्वं चन्द्रसूर्यसंस्थितिमाह'ता कहं ते' इत्यादि 'ता' तावत हे भगवन् 'क' कथं केन प्रकारेण कीदृशीत्यर्थः 'ते' त्वया 'चं दिमसूरियसंठिई' चन्द्रसूर्य संस्थिति चन्द्रसूर्य विमानसंस्थानरूपा 'आहिया' आख्याता 'तिवएज्जा' इति वदेत वदतु कथयतु भगवन् । इयं चन्द्रसूर्यविमानसंस्थितिः द्वयोश्चन्द्रयोद्वयोः सूर्ययोरिति चतुर्णामपि अवस्थानरूपा पृष्टा गौतमेनेति ज्ञातव्यम् । एवं गौतमेन पृष्टे सति भगवान् पूर्वमस्मिन् श्रुतताविषये परतीर्थिकानां यावत्य: प्रतिपत्तयो लोके प्रचलन्ति तावती: प्रदर्शयति- 'तत्थ खलु' इत्यादि । 'तत्थ' तत्र चन्द्रसूर्य संस्थितिविषये खलु 'इमाओ' इमा वक्ष्यमाणः 'सोलस' पोडश पोडशसंख्यकाः 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः परमतरूपाः 'पण्ण Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० ४ सू० १ प्रकाशस्य संस्थाननिरूपणम् १५१ चाओ' प्रज्ञप्ताः 'तं जहा' तथा ता यथा-'तत्थ' तत्र षोडशसु प्रतिपत्तिवादिषु 'एगे' एके केचन प्रथमा ‘एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आइंसु' माहुः कथयन्ति-'ता' तावत् 'समैचउरससंठिया' समचतुरस्रसंस्थिता समाः चतस्रः अत्रयः भागा यस्याः सा तथा समचतुर्भागवती 'चंदिमसरियसंठिई' चन्द्रसूर्यसंस्थितिः चन्द्रसूर्यविमानानां संस्थानरूपा 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता । उपसंहारमाह-एगे एवमहिंसु' एके प्रथमास्तीर्थान्तरीया एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः कथयन्ति ।१। इदमुपसंहारवाक्यमने सर्वत्र वाध्यम् । 'एगे पुण' एके द्वितीयाः पुनः ‘एचमाहंस' एवमाहुः 'ता' तावत् 'विसमचउरंससंठिया' विषमचतुरस्रसंस्थिता विषमचतुर्भागवती चंदिमखरियसंठिई' चन्द्रसूर्यसस्थितिः प्रज्ञप्ता 'एगे एवमासु' एके एवमाहुः ।२। 'एवं एएणं कमेणं' एवमेतेन प्रतिपत्तिद्वयप्रदर्शितेन क्रमेण मालापककमेणाने सर्वत्र योजना कर्त्तव्या । तृतीया एवमाहु-समचउक्कोणसंठिया' समचतुष्कोणसंस्थिता ३। इति । चतुर्थाः-'विसमचउक्कोणसंठिया' विषमचतुष्कोणसंस्थिता-विषमतया चतुष्कोणसंस्थानवतीति ४ पश्चमा:-'समचक्कबालसंठिया' समचक्रवालसंस्थितेति ५। षष्ठाः-'विसमचक्कवालसंठिया' विषमचक्रवालसंस्थितेति ६। सप्तमाः-'चक्कद्धचक्कवालसंठिया' चक्रार्धचक्रवालसंस्थिता, चक्रं रथचक्रं, तस्य यदर्ध चक्रवालं तत्सदृशसंस्थानवतीति ७ अष्टमाः- छत्तागारसंठिया' छत्राकारसंस्थितेति ८। नवमाः-'गेहसंठिया' गेहसंस्थिता-वास्तुविधयोपनिबद्धस्य गृहस्येव सस्थितं संस्थान यस्याः सा तथा, तादृशीति ९ दशमाः-गेहावणसंठिया' गेहापणसस्थिता-गृह युक्त आपणः गेहापणः वास्तुविद्या प्रसिद्धः, तत्सदृशसंस्थानवतीति-१०। एकादशाः-'पासायसंठिया' प्रासाद संस्थिता "प्रासादो धनिनां गृहम्" तत्सदृशसंस्थानवती ११। द्वादशाः-'गोपुरसंठिया' गोपुरसंस्थिता गोपुरं-पुरद्वारं, तत्सदृशसंस्थानवती १२। त्रयोदशाः-'पेच्छाघरसंठिया' प्रेक्षागृहसंस्थिता-प्रेक्षागृहं वास्तुशास्त्रप्रसिद्ध नाटकादिगृहं तत्सदृशसंस्थानवती १३। चतुर्दशाः-'वलभीसंठिया' वलभीसंस्थिता-वलभीगृहाच्छादनार्थ दीयमानं दीर्घलम्ब काष्ठं, तद्वत्संस्थानं यस्या सा ताहशीति १४। पश्चदशाः-'हम्मियतलसंठिया' हयंतलसंस्थिता-हम्मे-राजगृहं तस्य तलं, तत्सदृशमिति वदन्ति १५। 'एगे पुण' एके षोडशाः-पुनः ‘एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहेसु' आहुः कथयन्ति-'ता' तावत् 'वालग्गपोइया संठिया' वालाग्रपोतिकासंस्थिता तत्र 'वालाग्रपोतिका' देशीशब्दोय माकाशतडागमध्ये व्यवस्थितक्रीडास्थानवाचकः लघुप्रासाद इत्यर्थः, तद्वत् संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा तत्सदृशसंस्थानयुक्ता 'चंदिमसरियसंठिई' चन्द्रसूर्यसंस्थितिः ‘पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, 'एगे' एके षोडशाः ‘एवं' एवं-पूर्वोक्तप्रकारेण 'आइंसु' आहुः कथयन्तीति १६। प्रदर्शिताः परमतवादिनां षोडश प्रतिपत्तयः अथ भगवान् एतासु-प्रतिपत्तिषु या समोचीना प्रतिपत्तिस्ता प्रदर्शयन्नाह-'तत्थ' इत्यादि । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..................चन्द्रप्राप्तिसूत्रे १५२ . . 'तत्थ णं' तत्र षोडशसु प्रतिपत्तिवादिषु खलु 'जे-ते' ये ते केचित् प्रथमाः 'एवमाहंसु' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण बाहुः कथयन्ति 'ता' तावत् 'समचउरंससंठिया' समचतुरस्रसस्थिता समचतुरनसंस्थानसंस्थिता 'चंदिमसूरियसंठिई' चन्द्रसूर्यसंस्थितिः ‘पण्णचा' प्रज्ञप्ता इति । 'एएणं' एतेन अनुपदं पूर्वकथितेन 'नएणं' नयेन अभिप्रायेण 'नेयवं' ज्ञातव्यम् अस्माकं मतेऽपि चन्द्रसूर्यसंस्थितिः समचतुरस्रसंस्थानसंस्थिता कथिता एतस्या एव सत्यत्वात् , अतः 'नो चेव णं इयरेहि नैव खलु इतरैः शेषपञ्चदशप्रतिपत्तिवादिनां नये अभिप्रायैश्चन्द्रसूर्यसंस्थितिर्ज्ञातव्या तेषां मिथ्यारूपत्वादिति । पूर्व चन्द्रसूर्यसंस्थितिः समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितेति भगवता प्रदर्शितम्, सा च कथं संगच्छते ? इति प्रदश्यते, तथाहि-इह सर्वेऽपि कालविशेषाः सुषमसुषमादयो युगमूलाः, युगस्य चादौ श्रावणे मासे कृष्णपक्षस्य प्रतिपदि प्रातरुदयसमये एकः सूर्यो दक्षिणपूर्वस्या मित्याग्नेयकोणे वर्तते, तद्भिन्नो द्वितीयः सूर्यः पश्चिमोत्तरस्यामिति वायव्यकोणे वर्त्तते । एवं चन्द्रश्च तत्समये एको दक्षिणपश्चिमायामिति नैऋत्यकोणे वर्तते, तदन्यस्तु उत्तरपूर्वस्यामिति ऐशान्यकोणे वर्त्तते तस्माद् युगस्यादौ चन्द्रसूर्याः समचतुरस्रसंस्थानसंस्थिता भवन्तीत्यतो भगवता चन्द्रसूर्ययोः संस्थितिः समचतुरस्रसंस्थिता प्रतिपादिता । यच्चात्र मण्डलापेक्षया चन्द्रयोः संस्थितिविषये वैषम्य लभ्यते यथा तस्मिन् समये सूर्यो सर्वाभ्यन्तरमण्डले चारं चरतः, चन्द्रौ च तदा सर्वबाह्यमण्डले वर्तेते तेन चन्द्रयोः संस्थितिः समचतुरस्रसंस्थिता न भवेत' तत्तु मल्पमिति कृत्वा सूत्रकृता न विवक्षिता, :यतः सुषमासुषमादिरूपाणां समस्तकालविशेषाणामादिभूतस्य युगस्यादौ समचतुरस्रसंस्थिता चन्द्रसूर्ययोः संस्थितिर्भवति तत एतेषां संस्थितिः समचतुरस्रसंस्थानतया वर्णिता। ___अन्यथा वा स्व स्व सम्प्रदायानुसारेण समचतुरस्रसंस्थितिर्विचारणीयेति ।।सू० १॥ अथ पूर्वप्रतिज्ञातां तापक्षेत्रसंस्थितिं प्रतिपादयन्नाह-'ता कहं ते तावक्खेत्तसठिई' इत्यादि। मूलम्-ता कहं ते तावक्खेतसठिई आहिया ? ति वएज्जा, तत्थ .खल इमाओ सोलस पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ तं जहा-तत्य णं एगे एव माहंमु-ता गेहसंठिया तावक्खेत्तसंठिई पण्णत्ता ।। एवं ताओ चेव अट्ठ पडिवत्तीओ णेयवाओ जाव वालग्गपोइया संठिया तावक्खेत्तसंठिई पण्णत्ता एगे एव माहंसु ।८। एगे पुण एव माहंसुतां जस्संठिए जंबुद्दीवे दीवे तस्संठिया तावक्खेत्तसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमाइंसु ।९। एगे पुण एवमाईमु-ता जस्संठिए भारहे वासे तस्संठिया तावक्खेत्तसंठिई पण्णता Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्र प्रज्ञप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०३ सू०२ तापक्षेत्र संस्थिति निरूपणम् १५३ एगे एवं मासु |१०| एवं उज्जाणसंठिया | ११ | निज्जाणसंठिया १२। एगओ सिधसंठिया १३। दुहओ णिसधसंठिया १४ । सेयणगसंठिया तावक्खेत्तसेठिई पण्णत्ता एगे एवमाहं | १५ | एगे पुण एवमाहंसु-ता सेणगपिट्ठसंठिया तावक्खेत्तसंठिई पण्णत्ता एगे एवमा १६ | चयं पुण एवं वयामो-ता उद्धीमुहकलंबुया पुप्फसंठिया तावक्खेत्तसंठिई पण्णत्ता अंतो संकुडा वार्ड वित्थडा, अंतो वहा वाहिँ पिहला, अंतो अंकमुहसंठिया वाहिं सत्थि यमुहसंठिया, उभओ पासेणं तीसे दुवे वाहाओ अवट्टियाओ भवंति, पणयालीसं पणयाळीसं जोयणसहस्साइं आयामेणं, तीसे दुवे बाहाओ अणवट्टियाओ भवंति तं जहासन्वन्तरिया चैव वाहा, सन्ववाहिरिया चैव बाहा । तत्थ को हेऊ ? त्ति वदेज्जा । ता अण्णं जंबुद्दीवे दीवे जात्र परिक्खेवेण पण्णत्ते । ता जया णं सूरिए सव्त्रन्तरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ तया णं उद्धीमुहकलंचुयापुप्फसंठिया तावक्खेत्तसंठिई आढिया ति एज्जा - अंतो संकुडा चाहिं वित्थडा, अंतो वट्टा वाहि पिडुला, अंतो अंकमुहसंठिया बाहिं सत्थियमुहसंठिया. दुइओ पासेणं तीसे तहेव जाव सव्ववाहिरिया चेव बाहा । तीसेण सव्वन्तरिया बाहा मंदरपव्वयंतेणं णव जोयणसहस्साईं, चतारि य छलसीई जोयणसयाई, णव य दसभागा जोयणस्स परिक्खेवेणं आहिया तिवएज्जा । ता सेणं परिक्खेवविसेसे कओ आहिए ? ति वएज्जा, ता जे णं मंदरस्स पव्वयस्स परिक्खेवे, तं परिक्खेवं तिहिं गुणित्ता दसहि छित्वा दसहि भागे हीरमाणे एस णं परिक्खेवविसेसे आहिए तिवएज्जा । तीसे णं सव्क्वाहिरिया वाहा लवणसमुदं ते गं चउ उई जोयणसहस्साई, अट्ठ य अट्टसहिं जोयणसयाई चत्तारि य दसभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं आहिया तिवएज्जा । ता से णं परिक्खेवविसेसे कओ आहिए ? ति वएज्जा, ता जेणं जंबुद्दीवस्स दीवस्स परिक्खेवे तं परिक्खेवं तिहिं गुणित्ता दसहि छित्ता दसहि भागे हीरमाणे एस णं परिक्खेवविसेसे आहिए ति वएज्जा । ता से णंतावक्खेत्ते केवइए आयामेणं आहिए ? ति वएज्जा, ता अट्ठत्तरिं जोयणसहस्साइं तिण्णि य तेत्तीसाई जोयणसयाई जोयणतिभागे य आयामेणं आहिए ति वएज्जा । तया णं किं संठिया अंधगारसंठिई आहिया ? ति वएज्जा, उद्धीमुहकलंबुया पुप्फसंठिया तहेव जाब बाहिरिया चैव वाहा । तीसे णं सव्वन्तरिया वाहा मंदरपव्वयतेणं छज्जीयणसहस्साइं तिष्णि य चउवीसे जोयणसयाई छच्च दस भागे जोयणस्स परिक्खेवेणं आदिया ति वज्जा । तीसे णं परिक्खेवविसेसे कओ आहिए ? ति वएज्जा, ता जे गं २० Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ - . wwwwwwwwwwimmiwwwimaxMAIMER मंदरस्स पव्वयस्स परिक्खेवे, तं परिक्खेवं दोहिं गुणेत्ता सेसं तहेव । तीसे णं सचवाहिरिया वाहा लवणसमुदंतेणं तेवहिजोयणसहस्साई, दोणि य पणेयाले जोयणसयाई छच्च दसभागा जोयणस्स परिक्खेवेणं आहिया ? तिवएज्जा । ता से णं परिक्खेवविसेसे कओ आहिए ? तिवएज्जा, ता जे णं जंबुद्दीवस्त दीवस्स परिक्खेवे, त परिक्खेवं दोहि गुणित्ता दसहि छेत्ता, दसहि भागे हीरमाणे एस णं परिक्खेवविसेसे आहिए तिवएज्जा । ता से गं अंधयारे केवइए अयामेणं आहिए ? ति वएज्जा, ता अट्टतरि जोयणसहस्साई तिण्णि य तेत्तीसाई जोयणसयाई, जोयणतिभागं च आयामेणं आहिएति वएज्जा । तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । सू० २ ॥ छाया-तावत् कथं ते तापक्षेत्रसंस्थितिः आख्याता ? इति वदेत् । तत्र खलु इमा पोडश प्रतिपत्तयः प्रताः । तद्यथा-तत्र खल एके एवमाहुः-तावत् गेहसंस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रशता ।। एवं ता पव अष्ट प्रतिपत्तयः ज्ञातव्या यावत् वालाग्रपोतिका संस्थिता तापक्षेत्रस्थितिः प्राप्ताः । एके एवमाहुः ।। पके पुनरेवमाहुः तावत् यत्संस्थितः जम्बूद्वीपो द्वीपः तत्संस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रक्षप्ता, पके एचमाहुः ।९। एके पुनरेवमाहुः-तावत् यत्संस्थितः भारतो वर्षः तत्संस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिः प्राप्ता, पके एवमाहु: १० एवम् उधानसंस्थिता ११, निर्याणसंस्थिता १२, एक तो निषघसंस्थिता १३, द्विधातो निपघसंस्थिता १४, सेचनकसंस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिः प्राप्ता, एके पवमाहुः ॥१५॥ पक्रेपुनरेवमाहुः-तावत् सेचनकपृष्टसंस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रक्षप्ता, एके एवमाहुः १६ घयं पुनरेवं वदामः-तावत् उर्ध्वमुखकलम्बुका पुष्पसंस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रक्षप्ताअन्तः संकुचिता पहिविस्तृता, अन्तर्वृत्ता वहिः पृथुला, अन्तः अङ्कमुत्रसंस्थिता वहिः स्वस्तिकमुखसंस्थिता, उभयतः पावन तस्याः वाहे अवस्थिते भवतः, पञ्चचत्वारिंशत् पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहनाणि आयामेन, तस्या के वाहे अनवस्थिते भवतः, नद्यथा-सर्वाभ्यन्तराचैव वाहा ।११ सर्ववाह्या चैव बाहा ।। तत्र को हे तुः इति वदेत् । तावत् अयं खलु जम्बूद्वीपो द्वीपा यावत् परिक्षेपेण प्राप्तः । तावत् यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु ऊधींमुस्खकलम्वुकापुष्पसंस्थिता तापक्षेत्रसंस्थिति. आख्याता इति वदेत्- अन्तः संकुचिता वहि बिस्तृता, अन्तर्वृत्ता बहिः पृथुला, अन्त' अंकमुखसंस्थिता बहिः स्वस्तिकमुखसंस्थिता, द्विधातः पावेन तस्या तथैव यावत् सर्वधाह्या चैव पाहा। तस्याः खल सर्वाभ्यन्तरा बाहा मन्दरपर्वतान्ते नवयोजनसहस्राणि चत्वारि च पडशीति योजनशतानि, नव च दशभागान् योजनस्य परिक्षेपेण आख्याता इति वदेत् । तावत् स खल परिक्षेपविशेषः कुतः आख्यातः ? इति वदेत् तावत् यः खल मन्दरस्य पर्वतस्य परिक्षेप, तं परिक्षेपं त्रिभिगुणयित्वा दशभिच्छित्वा, दशभिर्भागे हियमाणे एप खलु परिक्षेपविशेष आख्यात इति वदेत् । तस्याः खलु सर्ववाह्या वाहा लवणसमुद्रान्ते चतुर्नवति योजनसहस्राणि, अष्ट व Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा० ३- सू० २ तापक्षेत्रसंस्थितिनिरूपणम् १५५ अष्टषष्टि योजनशतानि चतुरश्च दशभागान् योजनस्य परिक्षेपेण आख्याता इति वदेत् । तावत् स खलु परिक्षेपविशेषः कुत आख्यातः ? इति वदेत् । तावत् यः खलु जम्बूद्वीपरय द्वीपस्य परिक्षेपः, तं परिक्षेपं त्रिभिर्गुणयित्वा दशभिग्छित्त्वा-दशभिर्भागे ह्रियमाणे पप खलु परिक्षेपविशेष आख्यात इति वदेत् । तावत् तत् खलु तापक्षेत्र कियत्कम् आयामेन आख्यातम् ? इति वदेत् । तावत् अष्टसप्ततिं योजनसहस्राणि त्रीणि च त्रयस्त्रिंशतं योजनशतानि, योजनविभागांश्च आयामेन आख्यातम् इति वदेत् । तदा खलु किं संस्थिता अन्धकारसंस्थितिः-आख्याता ? इति वदेत् ऊ/मुखकलम्बुका पुष्पसंस्थिता तथैव यावत् पाहा चैव बाहा। तस्याः खलु सर्वाभ्यन्तरा पाहा मन्दरपर्वतान्ते षड्योजनसहस्राणि श्रीणि च चतुर्विशति योजनशतानि पडदशभागान् योजनस्य परिक्षेपेण आख्याता इति वदेत् । तस्याः खलु परिक्षेपविशेषः कुत आख्यातः ? इति वदेत् । तावत् यः खलु मन्द. रस्य पर्वतस्य परिक्षेपः, तं परिक्षेपं द्वाभ्यां गुणयित्वा शेषं तथैव । तस्याः खलु सर्ववाहा वाहा लवणसमुद्रान्ते त्रिपष्टियोजनसहस्राणि च पञ्चचत्वारिंशतं योजनशते पड्दशभागान् योजनस्य परिक्षेपेण आख्याता इति वदेत् । तावत् स खलु परिक्षेपविशेषः-कुत आख्यातः १ इति वदेत् । तावत् यः खलु जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य परिक्षेपः, तं परिक्षेपं छाभ्यां गुणयित्वा दशभिश्छित्त्वा दशभिर्भागे ह्रियमाणे एष खलु परिक्षेपविशेषः आख्यात इति घदेत् । तावत् स खलु अन्धकारः क्रियत्कः आयासेन आख्यातः ? इति वदेत् । तावत् अष्ट्रसप्तति योजनसहस्राणि, त्रीणि च त्रयस्त्रिशतं योजनशतानि, योजनविभागं च आयामेन आण्यात इति वदेत् । तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षक: अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहर्ता रानिर्भवति । सू०२॥ व्याख्या-'ता' तावत् कह' कथं केन प्रकारेण कीदृशीत्यर्थः ते तव भगवतो मते 'ताबक्खेत्तसंठिई तापक्षेत्रसंस्थिति. तापक्षेत्रस्य संस्थानं 'आहिया' आख्याता कथिता कि संस्थित तापक्षेत्रमाख्यातमिति भाव , 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु भगवान् । 'तत्थ' तत्र तापक्षेत्रसस्थितिविषये 'इमाओ' इमाः वक्ष्यमाणप्रकाराः 'सोलस' षोडश पोडशसंख्यकाः 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः परमतरूपाः 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः कथिताः, 'तं जहा' तद्यथा-ता यथा'तत्थ णं' तत्र तापक्षेत्रसंस्थितिविषये खल ‘एगे पुण' एके केचन प्रथमाः प्रतिपत्तिवादिनः 'एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आइंसु' आहुः-कथयन्ति-'ता' तावत् 'गेहसंठिया' गेहसंस्थिता वास्तुशास्त्रप्रसिद्धगृहाकारा तावक्खेत्तसंठिई' तापक्षेत्रसंस्थितिः ‘पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, 'एगे' एके पूर्वोक्ता प्रथमा 'एवं' एवं पूर्वोक्तरूपेण 'आइंसु' अ'हु:-कथयन्ति १ 'एवं' एवम्-अनेन आलापक प्रकारेण 'ताऔ चेव' ता एव पूर्वोक्ताः पूर्वसूत्रोका नवमीगेहसंस्थितित आरभ्य अन्तिमाः 'अट्टपडिवत्तीओ' अष्टप्रतिपत्तयः पोडशपर्यन्ता अत्र 'णेयव्याओ' ज्ञातव्याः, कढक् प्रतिपत्तिपर्यन्तमित्याह-'जाव' यावत् षोडशीयाऽत्राष्टमी भवेत् सा 'वालग्गपोइया संठिया' वालाग्रपोतिका संस्थिता 'तावक्खेत्तसंठिई तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रज्ञप्ता, 'एगे' एके अष्टमाः प्रतिपत्ति Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रतिसूत्रे १५६ वादिनः 'एवं' एवं पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहंसु' आहुः - कथयन्ति |८| एषामष्टानां व्याख्या पूर्व चन्द्रसूर्यसंस्थितिप्रकरणे कृता तत्रतोऽवगन्तव्या नात्र प्रपचितेति, 'एगे पुण' एके नवमाः पुनः ' एवं ' एवं - वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः - कथयन्ति - 'ता' तावत् 'जस्संठिए जम्बूद्दीवेदीवे' यत्संस्थितः यत्संस्थानवान् जम्बूद्वीपो द्वीपः 'तस्संठिया' तत्संस्थिता ' तावक्रखेत्तसंठिई ' तापक्षेत्रसंस्थितिः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, 'एगे एवमाहंसु' एके एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः कथयन्ति ९, 'एगे पुण' एके दशमाः पुनः 'एवमाहंस' एवं वदयमाणप्रकारेण आहुः - 'ता' तावत् 'जस्संठिए भारहे वासे' यत्संस्थितः भारत वर्षे भरतक्षेत्र 'तस्संठिया' तत्संस्थिता 'ताव - क्खेत्तसंठिई पण्णत्ता' तापक्षेत्र संस्थितिः प्रज्ञप्ता, 'एगे एत्रमाहंसु' एके दशमा एवं पूर्वोत प्रकारेण आहुः १० ' एवं ' एवम् अनेन प्रकारेण आलापककरणेन 'उज्जाणसंठिया' उद्यानसंस्थिता ११, ‘निज्जाणसंठिया' निर्याण संस्थिता, निर्याणनाम पुरस्य निर्गमनमार्गः, तत्संस्थिता १२, 'एगओ णिसघसंठिया' एकतो निषधसंस्थिता, एकतो रथस्यैकस्मिन् पार्श्वे निनितरां यः सहते स्वपृष्टभागे समारोपितं भारमिति निषधः - बलीवर्दः, तस्येव एकतः पार्श्वसंलग्नबलीवर्दस्येव संस्थानं यस्याः सा तथा १३, 'दुहओ णिसघसंठिया' द्विघातो निषधसंस्थिता, रथस्य उभयपार्श्वयोर्यो बलीवर्दो तयोरिव संस्थानं यस्याः सा तथा १४, 'सेयणगसंठिया ' सेचनकसंस्थिता सेचनकः श्येनकः पक्षिविशेषः वाज इति प्रसिद्धः, तस्येवसंस्थितं संस्थानं यस्या सा तथा, 'तावक्खेतसं ठिई' तापक्षेत्रसंस्थितिः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता 'एगे एवमाहंस' एके एवमाहुः, १५ | 'एगे पुर्ण' एके षोडशाः प्रतिपत्तिवादिनः पुनः ' एवं ' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति 'ता' तावत् 'सेयणगपिट्ठसंठिया' सेचनकपृष्टसंस्थिता श्येनक पक्षिपृष्टभागस्य संस्थानसमाना 'तात्रक्खेत्तसंठिई' तापक्षेत्रसंस्थितिः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता 'एगे एवमाहंसु' एके घोडशा एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः कथयन्तीति ॥१६॥ तदेवं प्रदर्शिताः पोडशापि प्रतिपत्तयो मिथ्या रूपाः, ता निराकृत्य भगवान् स्वमतं प्रदयति - 'वयं पुण' इत्यादि । 'वयं पुण' वयं पुनः वय तु ' एवं ' एवं - वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामो' वदामः कथयामः, तदेवाह - 'उद्धीमुह' इत्यादि । 'ता' तावत् 'उद्धीमुहकलंबुया पुप्फसंठिया' उर्ध्वमुख कलम्बुका पुष्पसंस्थिता उर्ध्वभूतमुखस्य कलम्बुका नाम नालिका बनस्पतिविशेषः तस्य पुष्पस्येव संस्थितं संस्थानं यस्या सा तथाविधा तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रज्ञप्ता । सा कीदृशी भवेदित्याह - 'अंतो संकुडा वाहिं वित्थडा' अन्तः संकुचिता बहिर्विस्तृता, अन्तः मेरुदिशि, बहिर्लवणसमुद्रदिशि क्रमेण संकुचिता विस्तृता चेति । पुनश्च 'अंतो वट्टा अन्तर्वृत्ता, अन्तर्मेरुदिशि वृत्तेति अर्धवलयाकारा अर्धगोलाकारा इत्यर्थः सर्वतो - त्तमेरुस्थितान् त्रीन् द्वौ वा दशभागान् अभिव्याप्य तस्या व्यवस्थितत्वात् 'चाहिँ पिहुला' बहिः पृथुला बहिः लवणसमुद्रदिशि विस्तारमुपगता । एतदेव पुनः स्पष्टयति 'अंतो अंकमुह " Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०-३ सू०२ तापक्षेत्रसंस्थितिनिरूपणम् १५७ संठिया' अन्तः अङ्कमुखसंस्थिता, अन्तः मेरुदिशि भकः उत्सङ्गः स च पन्नासनोपविष्टस्य तद्रप मासनवन्धः, तस्य मुखम् अग्रभागः अर्धवलयाकारस्तदाकारवत्संस्थानं यस्याः सा तथा, 'बाहिं सत्थियमुहसंठिया' बहिः स्वस्तिकमुखसंस्थिता बहिर्लवणसमुद्रदिशि स्वस्तिकः मङ्गलाकृतिविशेषः प्रमिद्धः, तस्य मुखम् अग्रभागः तस्येवातिविस्तीर्णतया संस्थानेन संस्थिता । 'उभओ पासेणं' उभयतः पार्थेन मेरोरुभयोः पार्श्वयोः 'तीसे' तस्यास्तापक्षेत्रसंस्थितेः सूर्यभेदेन द्विधाऽवस्थितायाः 'दुवे वाहाओ' द्वे वाहे प्रत्येकमेकैकभावेन 'अवट्ठियाओ भवंति' अवस्थिते भवतः जम्बूद्वीपगतमायाममाश्रित्यावस्थिते इतिभावः। सा एकैका बाहा कियत्प्रमाणा! इत्याह'पणयालीसं' इत्यादि । 'पणयालीसं पणयालीसं' प्रत्येकं बाहा पञ्चचत्वारिंशत् पञ्चत्वारिशद् योजनसहस्राणि (४५०००) आयामेन । तथा 'तीसे' तस्याः तापक्षेत्रसंस्थितेकैकस्याः 'दुवे वाहाओ' द्वे बाहे 'अणव ट्ठियाओ भवंति' अनवस्थिते भवतः 'तं जहा' तद्यथा ते यथा'सम्वन्भंतरिया चेव सव्ववाहिरिया चेव' सर्वाम्यन्तरा चैव वाहा सर्वबाह्या चैव बाहा, तत्र सर्वाभ्यन्तरा या मेरुमसीपे विष्कम्भमधिकृत्य बाहा सा, सर्वबाह्या च या लवणदिशि जम्बूद्वीपपर्यन्तभागे विष्कम्भमधिकृत्य वाहा सा । अत्र आयामः दक्षिणोत्तरायतत्वमाश्रित्य विज्ञेयः, विष्कम्भश्च पूर्वापरायतत्वमाश्रित्य विज्ञेय इति । भगवता एवमुक्ते गौतमः स्पष्टावबोधार्थ पुनः पृच्छति'तत्थ' इत्यादि । 'तत्थ' तत्र तस्यामेवंविधायां व्यवस्थायां 'को हेऊ' को हेतुः ? किं कारणम् अत्रोपपत्तिः का ? 'आहिए' आख्यातो भवता कथितः 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे-भगवन् । भगवानाह-'ता' इत्यादि । 'ता' - तावत् 'अयण्णं' अयं लोकप्रसिद्धः खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपोद्वीपः मध्यनम्बूद्वीपः 'जाव' यावत्-यावत्पदेन जम्बूद्वीपस्य तत्परि धेश्च सर्वं वर्णनमत्र वाच्यम्, तत्र प्रतिपादितपरिमितो जम्बूद्वीपः 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परि धिना 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः । ततः किम् ? इत्याह-'ता जयाणं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'मूरिए' सूर्यः 'सन्चभतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरई' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति, 'तया णं' तदा खलु उद्धीमुहकलंवुयापुप्फसंठिया'ऊर्ध्वमुखकलम्बुका पुष्पसंस्थिता 'तावक्खेत्तसंठिई तापक्षेत्रसंस्थितिः 'आहिया' आख्याता 'ति वएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः । सा कीदृशी ? इत्याह-'अंतो संकुडा बाहिं वित्थडा' अन्तः संकुचिता बहिहिस्तृता, पुनश्च–'अंतो वा वाहिं पिहुला, अन्तो वृत्ता अर्धवलयाकारा, बहिः पृथुलाविस्तीर्णा, पुनश्च–'अंतो अंकमुहसंठिया वाहिं सस्थियमुहसंठिया' अन्तः अङ्कमुखसंस्थिता, बहिः स्वस्तिकमुखसंस्थिता, अर्थः प्राग्वत् 'दुहओ पासेणं' द्विघात' पार्श्वण उभयपार्श्वे इत्यर्थः 'तीसे' तस्याः तापक्षेत्रसंस्थिते. 'तहेव जाव सव्ववाहिरिया चेव वाहा' तथैव पूर्वोकवदेव यावत् सर्वबाह्या चैव बाहा,. यावत् पदेन 'दुवे चाहाओ' इत्यादि पूर्वोक्त आलापः सर्वो Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ - चन्द्रप्रशप्तिसूर्य वाच्यः । 'तीसेणं' तस्या तापक्षेत्रसंस्थितेः खलु 'सन्चभतरिया चाहा' सर्वाभ्यन्तरा बाहा 'मंदरपव्वयंते णं' मन्दरपर्वतान्ते मेरुपर्वतसमीपे तत्परिक्षेपगततया 'नव जोयणसहस्साई नव योजनसहस्राणि 'चत्तारि य छअसीई जोयणसयाई' चत्वारि षडशीतिः योजनशतानि षडशीत्यधिकानि चतुःशतयोजनानि 'नव य दसभागे जोयणस्स' नव च दशभागान योजनस्य (९४८६९.) परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना पूर्वोक्तपरिधिवती सर्वाभ्यन्तरा बाहा मेरु पर्वतसमीपे 'आहिया' आख्याना 'ति वएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्य इति । गौतमः पुनः प्रश्नयति-'ता सेणं' इत्यादि । 'ता' तावत् हे भगवन् 'से ण' सः तापक्षत्रसंस्थितिविषयः खलु 'परिक्खेवविसेसे' परिक्षपविशेषः मन्दरपरिरय-परिक्षेपणविशेष इत्यर्थः 'कओ" कुतः कस्मात् कारणात् इयत्परिमितः 'आहिए' आख्यातः ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु भवान् हे भगवन् । भगवानाह-'ता जे गं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जे णं' यः खलु 'मंदरस्स पव्वयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'परिक्खे' परिक्षेपः परिरयगणितसिद्धः त्रयोविंशत्यधिकपट्शतोत्तरै कत्रिंशत्सहस्र (३१६२३) परिमितो वर्त्तते 'तं परिक्खे' तं परिक्षेपं 'तिहिं गुणित्ता' त्रिभिर्गुणयित्वा ततः 'दसहिं छित्ता' दशभिन्छित्त्वा-विभज्य भागं हत्वा दशभिर्विभज्यते इति भावः 'दसहि भागे हीरमाणे'दशभिर्भाग हियमाणे यो राशिर्लभ्यते 'एस णं' एष खलु राशिः (९४८६ . 'परिक्खेत्रविसेसे' परिक्षेपविशेषः मन्दरसमीपे तापक्षेत्रपरिमाणमागच्छति, कस्मादेवं क्रियते ? इति चेदाह-इह सर्वाभ्यन्तरे मण्डले यदा सूर्यो वर्तते तदा जम्बूद्वीपसम्बन्धिनश्चक्रवालस्य' यत्र तत्र प्रदेशे तत्तच्चक्रवालक्षेत्रप्रमाणानुसारेण त्रीन् दशभ शयतीति पूर्वमेवोक्तम् । साम्प्रतं मन्दरसमीपगततापक्षेत्रचिन्ता क्रियतेऽतः प्रथमं यथा मन्दरपरिरयः सुखेनाववुध्यते तदर्थमेवं क्रियते इति । तथा हि गणितप्रकारः-मन्दरपर्वतस्य विष्कम्भपरिमाणं दशसहस्रयोजन(१००००) परिमितम् । अस्य वर्गः क्रियते, या संख्या भवेत् सा तत्परिमितसंख्ययैव गुणनेनवर्गों भवति । एवं वर्गे कृते जाता दशकोट्यः (१००००००००) एकाङ्कोपरि अष्टशून्यानि, तासां' दशकोटिकानां दशभिर्गुणने एक शून्यं दशकोट्याउपरिवर्धते तेन जातं कोटिशतम् (१००००. ०००००) एकाङ्कोपरि नवशून्यानि । अस्य राशेरासन्नवर्गमूलानयने लब्धानि किञ्चिन्यून त्रयोविंशत्यधिकषट्शतोत्तराणि एकत्रिंशत्सहस्राणि-(३१६२३) निश्चयतः, व्यवहारतस्तु परिपूर्णानीति विवक्ष्यते, अयं राशिस्त्रिभिर्गुण्यते तदा जायन्ते चतुर्नवतिसहस्राणि "कोनसप्तत्यधिकानि अष्टशतानि (९४८६९) एषां दशभिर्भागे हृते लम्यन्ते षडशीत्यधिकचतुःशतोत्राणि नवसहस्रयोजनानिशेषा Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० ३ सू० २ तापक्षेत्रसंस्थितिनिरूपणम् १५९ नवच दशम नवच दश भागा योजनस्य(९४८६,१) इति लब्धं यथोक्तं मन्दरसमीपे तापक्षेत्रपरिमाणमिति, उक्तञ्चान्यत्रापि-'मंदरपरिरयरासी, तिगुणे दसमाइयमिज लद्धं । तं होइ तावखेत्तं अभितरमंडले रविणो ॥१॥ इति । छोया-मन्दरपरिरयराशौ, त्रिगुणिते दशभाजिते यल्लब्धम् । तद्भवति तापक्षेत्रं, अभ्यन्तरमण्डले रवेः॥१॥ इति । उक्तं च सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलस्थितिसमये मन्दरसमीपे तापक्षेत्रसंस्थितेः सर्वाभ्यन्तरबाहाया विष्कम्भपरिमाणम् । अथ च लवणसमुद्रदिशि जम्बूद्वीपपर्यन्ते स्थितायाः सर्वबाह्या बाहाया विष्कम्भपरिमाणमाह-'तीसे णं' इत्यादि, 'तीसे थे' तस्याः खल तापक्षेत्रसंस्थितेः 'सब्बवाहिरिया वाहा' सर्वबाह्या बाहा 'लवण समुदंते थे' लवणसमुद्रान्ते 'चउणउई जोयणसहस्साई चतुर्नवतिर्योजनसहस्राणि 'अट्ठय अट्ठसहे जोयणसयाई' अष्ट च अष्टषष्ठि योजनशतानि अष्टषष्टयधिकानि अष्टशतयोजनानि 'चत्तारि य दसभागे जोयणस्स' चतुरश्चदशभागान् योजनस्य (९४८६८१) यावत् 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण जम्बूद्वीपपरियपरिक्षेपेण 'आहिया' आख्याता 'वि वएज्जा' इति वदेत् । अथास्य स्पष्टबोधार्थ गौतमः प्रश्नयति-'ता से णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'से णं' स खलु एतावान् परिक्षेपविशेषस्तापक्षेत्रसंस्थितेः 'कओ आहिए' कुत आख्यातः कस्मात्कारणात् कथितः 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु भगवन् । इति गौतमेन प्रश्ने कृते तदेव भगवान् द्वदर्शयति-ता जेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जेणं' यः खल जम्बूद्वीपस्य परिक्षेपः परिरयगणितप्रसिद्धः परिक्खेवविसेसे' परिक्षेपविशेषः अस्ति 'तं परिक्खे' तं परिक्षेपम् 'तिहि गुणित्ता' बिभिर्गुणयित्वा 'दसहि छित्ता' दशमिश्छित्त्वा दशभिर्भागं हत्वा, दशभिर्विभज्यते इति भावः, 'दसहि भागे हीरमाणे' दशभिभागे हियमाणे दशभिर्विभाजिते सति यो राशिलभ्यते "एस णं' एष : भागलब्धः खलु 'परिक्खेवविसेसे' परिक्षेविशेषः 'आहिए' आख्यातः। एतच्च यथोकं जम्बूद्वीपपर्यन्ते लवणदिशि तापक्षेत्रपरिमाणं भवति 'ति वएज्जा' इति वदेत्, कथयेत् स्वशिष्येभ्य इति । तद्गणितविधिश्चेत्थम्-जम्बूद्वीपस्य परिक्षेपः-सप्तविंशत्यधिकद्विशसोत्तरषोडशसहस्राधिकानि त्रीणि लक्षाणि योजनानाम् (३१६२२७) तदुपरि गव्यूतत्रयम् (३) अष्टाविंशत्यधिकमेकं धनुः शतम् (१२८) सार्धत्रयोदशाङ्गुलानि (१३||) च' मत्र निश्चयत एक योजनं किञ्चिन्यून वर्तते किन्तु व्यवहारतः अष्टाविंशत्यधिकं शतद्वयं परिपूर्ण विज्ञेयं ततः-अष्टाविंशत्यधिकशतद्वयोत्तरषोडशसहस्राधिकानि त्रीणि लक्षाणि योजनानां (३१६२२८) जम्बूद्वीपपरिधिम्रहीतव्यः । एषा संख्या त्रिभिर्गुण्यते मातानि-चतुरशीत्यधिकषट्शताधिकाष्टाचत्वारिंशत्सहसोस्राणि Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० चन्द्रप्रतिसूत्रे नवळक्षाणि (९४८६८४) एतेषां दशभिर्भागे हृते लभ्यते यथोक्तं नम्बूद्दीपपर्यन्ते २, सर्वबाह्याबाहाया विष्कम्भपरिमाणम्–(९४८६८०० ) इति । तदेवमुक्तं नम्बूद्वीपे तापक्षेत्रसंस्थितेः सर्वाभ्यन्तराया सर्वबाह्यायाश्च बाहाया विष्कम्भपरिमाणम् । साम्प्रतं सामस्त्येन तापक्षेत्रपरिमाणमायामतः कियत् इति जिज्ञासायामाह - 'ता से णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'से णं' तत् खल्लु 'तावखेत्ते' तापक्षेत्रं 'केवइयं' कियत्कं । कियत्प्रमाणकम् 'आयामेणं' आयामेन सामस्त्येन दक्षिणोत्तरायततया 'आहियं' आख्यातम् । 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवन् । भगवानाह - 'ता अट्ठत्तरिं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'अत्तरि' अष्टसप्ततिं 'जोयर्णसहस्साइ' योजनसहस्राणि अष्टसप्ततिसहस्रयोजनानि 'तिष्णि य तेत्तीस जोयणसयाई' त्रीणि त्रयत्रिशतं योजनशतानि त्रयस्त्रिंशदधिकत्रिशतयोजनानि 'जोयणतिभागं च' योजनत्रिभागं च एकस्य योजनस्य तृतीयं भागं यावत् ७८३३३–) योजनत्रिभागं ‘जोयण तिभागं च' व्यायामेय दक्षिणोत्तरायतया 'आयामेणं' आयामेन दक्षिणोत्तरायतया 'आहिये' आख्यातं कथितम् 'ति वएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः । अयमाशय::- सर्वाभ्यन्तरे मण्डले यदि सूर्यश्चारं चरति तदा तस्य तापक्षेत्रं दक्षिणोत्तरायततामाश्रित्य मेरोर्मध्यभागाद् आरभ्य यावत् लवणसमुद्रस्य षष्ठो भागो भवेत् तावद् वर्धते, अत्रार्थे चाह मेरुस्समझभागा, जाव य लवणस्स रुंदछन् भागा । तावायामो एसो, सगडुद्धी संठिओ नियमा ॥ १ ॥ छाया - मेरोर्मध्यभागात् यावच्च कवणस्य रुंद पट्टभागाः । तापायामः, एष शकटो द्विसंस्थितो नियमात् ॥ १॥ इति 1, एषः तापक्षेत्रस्यायामः । तत्र मेरोरारभ्य जम्बूद्वीपपर्यन्तभागं यावत् पञ्चचत्वारिंशत्सहस्रयोज - नानि ( ४५०००) लवणसमुद्रस्य विस्तारश्च द्विलक्षयोजनानि एषां षष्ठो भागः षष्ठेन भागहरणात् ऊधः त्रयत्रिंशत्सहस्रयोजनानि, त्रयस्त्रिंशदधिकशतत्रयोत्तराणि योजनस्य च त्रिभागः (३३३३३ ं)। ततोऽस्यां संख्यायां पञ्चचत्वारिंशत् सहस्रयोजनानां संमेलने जातं यथो कम् (७८३३३–÷) श्रायामपरिमाणम् । मेरोरारम्य जम्बूद्वीपपर्यन्तभागं यावत् पञ्चचत्वारिशत्सहस्रयोजनानि कथं स्युरित्याह-जम्बूद्दीपपरिमाणमेकलक्षयोजनकम् तस्मात् मेरोर्भागः - दशसहस्र Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०२... बद्रप्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०४ सू०२ तापक्षेत्रसंस्थितिनिरूपणम् १६१ योजनपरिमिता, स जम्बूद्वीपपरिमाणात् शोध्यते ततो भवेयुः नवतिसंहस्रयोजनानि, एषां भागद्वयकरणे एकस्य भागस्य लभ्यन्ते पश्चचत्वारिंशत्सहस्रयोजनानीति । उक्तं तापक्षेत्रपरिमाणं, साम्प्रतं सर्वाभ्यन्तरमण्डलमाश्रित्यान्धकारसंस्थितिं प्रतिपादयन्नाह'तया गं' इत्यादि____ 'तया ' तदा खलु सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारसमये 'कि संठिया' किं संस्थिताकीदृक्सस्थानवती 'अंधगारसंठिई' अन्धकारसंस्थितिः 'आहिया' माख्याता ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवन् ? भगवानाह-'ता' तावत् 'उद्धीमुहकलबुया पुष्फसंठिया' उर्ध्वमुखकलम्बुका पुष्पसंस्थिता 'तहेब जाव वाहिरिया चेव वाहा' तथैव यावत् बाह्याचैव वाहा तथैव पूर्वोक्तवदेवात्र पाठो ग्राह्यः । कियत्पर्यन्तमित्याह-यावत् बाह्या चैव बाहा, तत्रत्यप्रकरणं चेत्थम्आख्याता इति वदेत् , कीदृशी सा अन्धकारसंस्थितिः ? अत्राह-तथा च तत्पाठः-'अंतो संकुडा वाहि वित्थडा, अंतो वट्टा वाहिपिडुला, अंतो अंकमुहसंठिया, बाहि सस्थियमुइसंठिया, उभओ पासेणं तीसे दुवे वाहाओ अवट्ठियाओ भवंति, पणयालीसं पणयालीसं जोयणसहस्साई आयामेणं, तीसे दुवे वाहाओ-अणवठियाओ भवंति, तंजहा-सम्बन्भतरिया चेव वाहा सन्ववाहिरियाचेव वाहा” एषां पदानामर्थः पूर्व व्याख्यातः, स तत्र विलोकनीयः । इमे द्वे वाहे अत्र अन्धकारसंस्थितेतिव्ये, इति विशेषः । तयोयोहियोर्मध्ये प्रथमं सर्वाभ्यन्तराया वाहाया विष्कम्भमाश्रित्य परिमाणमाह-'तीसे गं' इत्यादि । ___तीसे णं' तस्या अन्धकारसंस्थितेः खल 'सव्वम्भतरिया वाहा' सर्वाभ्यन्तरा बाहा या - 'मंदरपव्ययंतेणं' मन्दरपर्वतान्ते मन्दरपर्वतसमीपे वर्तते सा 'छज्जोयणसहस्साई 'षड् योजनसहस्राणि पट्सहस्रयोजनानि 'तिणि य चउवीसे' जोयणसयाई, त्रीणि च चतुर्विंशतिः योजनशतानि चतुर्विशत्यधिकत्रिशतयोजनानि 'छच्च दसभागे जोयणस्स' षट् च दशभागान् योजनस्य ६३२४.६.) परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण 'आहिया' आख्याता 'ति वएज्जा' इतिवदेत् कथयेत् स्वशिष्येभ्य इति । अत्र गौतमः पृच्छति 'ता से णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'से गं' स खलु पूर्वोक्तः 'परिक्खेवविसेसे' परिक्षेपविशेषः 'कोआहिए' कुतः कस्मात्कारणात् आख्यातः ! 'तिववएज्जा ' इति वदेत् वदतु हे भगवन् ! | भगवानाह-हे गौतम ? 'ता' तावत् 'जेणं' यः खलु 'मंदरस्स पव्वयस्स परिक्खेवे' मन्दरस्य पर्वतस्य परिक्षेपः प्राक प्रतिपादितप्रमाणोऽस्ति ''तं परिक्खे' तं परिक्षेपम् 'दोहिं गुणित्ता' द्वाभ्यां गुणयित्वा 'सेसं तहेव' शेषं तथैव पूर्ववदेव २१ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिस्त्र अनुसंधेयम्, तथाहि-'दसहिं छित्ता दसहि भागे हीरमाणे एस णं परिक्लेवविसेसे आहिएति वएज्जा' छाया-दशमिश्छित्वा, दशभिर्भागे हियमाणे एष खलु परिक्षेपविशेष आख्यात इति वदेत् । किंग द्वाभ्यां गुणनम् ? दशभिश्च भागहरणम् ? इति चे दाह इह द्वयोः सूर्ययोः सर्वाभ्यन्तरमण्डलचरणसमये एकस्यापि सूर्यस्य जम्बूद्वीपगतचक्रवालस्य यस्मिन् तस्मिन् वा प्रदेशे यत्तच्चक्रवालक्षेत्रानुसारेण त्रयोदशभागाः प्रकाश्याः स्युः, तत उभयसंयोगे दशभागाः षड् भवन्ति, तेषां प्रत्येकं त्रयाणां त्रयाणां दशमागानामपान्तराले दो द्वौ दशभागी रजनी भवतः, ततः कारणात् द्वाभ्यां गुणनं कथितम् । तौ च द्वौ दशभागाविति दशभिर्भागहरणं कथितम्। 'सेसं तहेव' शेपं तथैव पूर्ववदेव' अथ सर्वबाह्यबाहा विषये प्राह-'तीसेणं' तस्याः खल मन्धकारसंस्थितेः 'सव्ववाहिरिया वाहा' सर्वबाह्या बाहा 'लवणसमुदंतेणं' लवणसमुगान्ते लवणसमुद्रसमीपे जम्बूद्वीपपर्यन्तभागे 'तेवष्टि जोयणसहस्साई' त्रिषष्टिजोयनसहस्राणि 'दोणि य पणयाले जोयणसयाई पश्चचत्वारिंशते योजनशते पञ्चचत्वारिंशदधिके द्वे शते 'छच्च दसभागे जोयणस्स' पडू च दशभागान् योजनस्य (६३२४५,) यावत् 'परिक्खे. वेणं' परिक्षेपेण जम्बूद्वीपपग्रियपरिक्षेपेण 'आहिया' आख्याता 'ति वएज्जा' इति वदेत् । पुनीतमः स्वशिष्याणां स्पष्टाववोधार्थ प्रश्नयति-'ता से गं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'से थे' स खलु अन्धकारसंस्थितेः 'परिक्खेवविसेसे' परिक्षेपविशेषः 'कओ' कुतः कस्मात् कारणात् 'आहिए' आख्यातः ? 'ति वएज्जा' इति वदेत्-वदतु कथयतु हे भगवन् ! एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवान् तद्दर्शयति-'ता जेणं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जे,ण' यः खलु 'जंबुद्दीवस्स दीवस्स' जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपः पूर्वप्रदर्शितः 'तं परिक्खे' तं परक्षेपम् 'दोहि गुणित्ता' द्वाभ्यां गुणयित्वा 'दसहि छेत्ता' दशभिछित्त्वा दशभिर्विभज्यते इति भावः ततः 'दसहि भागे हीरमाणे' दशमिागे हियमाणे यो राशिर्लभ्यते 'एस'ण' एष खलु-'परिक्खेवविसेसे' परिक्षेपविशेषः अन्धकारसंस्थितेः 'आहिए' आख्यातः 'ति वएज्जा' इति वदेत् स्वशिप्येभ्यः । अस्य कारणं पूर्व प्रदर्शितमेव । तथा च तद्दश्यते-जम्बूद्वीपस्य परिक्षेपपरियाणम् अष्टाविंशत्यधिकशतद्वयोचरपोडशसहस्राधिकानि त्रीणि लक्षाणि (३१६२२८) एष राशिम्यां गुण्यते जातानि अस्य द्विगुणानि षड् लक्षाणि पट्पञ्चाशदधिकचतुःशतोत्तरद्वात्रिंशत्सहस्राधिकानि (६३२४५६) एषामकानां दशभिर्भागो हियते तदा लब्धानि पश्चचत्वारिंशदधिकद्विशत्तोचराणि त्रिषष्टि Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा० ४- सू० २ तापक्षेत्रसंस्थितिनिरूपणम् १६३ सहस्रयोजनानि षट् च दश भागा योजनस्य (६३२४५। .) एवमेष सूत्रप्रदर्शित प्रमाणेs. न्धकारसस्थितेः परिक्षेपविशेष आगच्छतीति । उक्त सर्वबाह्याया अपि पाहाया, विष्कम्भपरिमाणम् , साम्प्रतं सामस्त्येनान्धकारसंस्थितेरायामप्रमाणविषये गौतमः पृच्छति–ता से गं' इत्यादि । 'ता' तावत् ‘से ' स खलु अन्धकारः 'केवहए' कियत्कः कियत्प्रमाणः 'आयामेणं' आयामेन 'आहिए' आख्यातः-कथितः भवता ? 'ति वएज्जा' इति वदेत्-वदतु हे भगवन् भगवान् तम्प्रमाणं प्रदर्शयति-'ता अत्तरि' इत्यादि । 'ता' तावत् स अन्धकारः 'अद्वतरिजोयणसहस्साई' -अष्टसप्ततियोजनसहस्राणि अष्टसप्ततिसहस्रयोजनानि 'तिण्णि य तेत्तीसं जोयणसयाई' त्रीणि च त्रयस्त्रिंशद् योजनशतानि त्रयस्त्रिंशदधिकशतत्रययोजनानि 'जोयण तिभागं च' योजनत्रिभागं च यावत् (७८३३३-) 'आयामेणं' आयामेन 'आहिए' आख्यातः 'ति वएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः कथयेत् । अथ तत्समयगतदिवसरात्रिप्रमाणमाह-'तया गं' इत्यादि । 'तया गं तदा खलु 'उत्तमकट्टपत्ते' उत्तमकाष्ठा प्राप्तः परमप्रकर्षसम्पन्नः 'उक्कोसए' उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्टः 'अट्टारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, 'जहणिया' जघन्यिका सर्वलध्वी 'दुवालसमुहुत्ता राई भवई' द्वादशमुहूर्ता रात्रिभवति ॥० २॥ तदेवमुक्का सर्वाभ्यन्तरे मण्डले तापक्षेत्रसंस्थितिः अन्धकारसंस्थितिश्च, साम्प्रतं सर्वबाह्यमण्डलगतां तामाह 'ता जया गं' इत्यादि । __ मूलम्-ता जया णं सरिए सव्ववाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ तया णं कि संठिया तावक्खेत्त संठिई आहिया ? तिवएज्जा, ता उद्धीमुहकलं यापुप्फसंठिया तावक्खेत्तसंठिई आहिया ति वएज्जा । एवं जं अभितरमंडले अंधयारसंठिईए पमाणं तं वाहिरमंडले तावक्खेत्तसंठिईए पमाणं जं तर्हि तावक्खेत्तसंठिईए पमाणं तं बाहिरमंडले अंधयारसंठिईए पमाणं भाणियव्वं जाव तया णं उत्तमकहपत्ता उक्कोसिया अट्टारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ । ता जंबुद्दीवेणं दीवे सूरिया केवइयं खेत उड्दतवेंति ? केवइयं खेत्तं अहे तवेंति ? केवइयं खेतं तिरियं तवेंति !। ता जंबुद्दीवे णं दीवे सरिया एग जोयणसयं उड्ढं तवेंति, अट्ठारसजोयणसयाई अहे Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्र तति, सीयालीसं जोयणसहस्साई दुन्नि य, तेवड्ठे जोयणसए एकवीसं च सहिभागे जोयणस्स तिरियं तवेति ॥सू० ३॥ चंदपन्नत्तीए चउत्थं पाहुडं 'समत्तं ।।४।। _छाया-तावत्' यदा खलु सूर्यः सर्ववाह्य मण्डलमुपसंक्रम्य चारं ' चरति तदा खलु किंसंस्थिता तापक्षेत्रसस्थितिः आख्याता ? इति वदेत् । तावत् ऊर्ध्वमुखकलम्वुकापुष्पसंस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिः आख्याता, इति वदेत् । एवं यत् अभ्यन्तरमण्डले अन्ध. कारसंस्थिते प्रमाणं तयाह्यमण्डले तापक्षेत्रसंस्थितेः प्रमाणम् यत् तत्र तापक्षेत्रसंस्थितेः प्रमाणं तद् वाघमण्डले अन्धकारसंस्थितेः प्रमाणं भणितव्यम् यावत् तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्कर्षिका अष्टादशमुहर्ता रात्रिभवति, जघन्यका द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति । तावत् जम्बूद्वीपे स्खलु द्वीपे सूर्यो कियत्कं क्षेत्रम् ऊर्ध्व तापयतः ? कियत्कं क्षेत्रम् अध: तापयतः । कियत्कं क्षेत्रं तिर्यग्तापयतः । तावत् जम्बूद्वीपे खलु द्वीपे सूर्यो एक यो जनशतम् ऊध्वं तापयता, अष्टादशयोजनशतानि अधः तापयतः, सप्तचत्वारिंशयोजनसहस्राणि द्वे त्रिपष्टिः योजनशते एकविंशति च षष्टि भागान् योजनस्य तिर्यक् तापयतः। सू०३।। चन्द्रमज्ञप्त्यां चतुर्थ प्राभृतं समाप्तम् ॥४॥' व्याख्या-'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'मुरिए' सूर्यः 'सव्ववाहिरं मंडलं उवसंकमिता चारं चरइ' सर्वबाह्य मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं तदा खलु 'कि संठिया तावक्खेत्तसंठिई आहिया' किं संस्थिता कीदृक् संस्थानवती । तापक्षेत्रसंस्थितिराख्याता 'तिवएज्जा' इति वदेद् वदतु हे भगवन् , एवं गौतमेन प्रश्ने कृले भगवानाह-'ता' तावत् 'उद्धीमुहकलंघुया पुप्फसंठिया तापक्खेत्तसंठिई आहिया' ऊर्ध्वमुखकलम्बुकापुष्पसंस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिराख्याता" 'तिवएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः अथ पूर्वसूत्रातिदेशमाह-'एवं', इत्यादि. 'एवं' एवं पूर्वोकप्रकारेण 'ज' यत् 'अभितरमंडले' सर्वाभ्यतरमण्डले सूर्यस्य चारसमये 'अंधयारसं-. ठिईए पमाण' अन्धकारसंस्थितेः प्रमाणमुक्तम् 'ते' तत् प्रमाणं 'बाहिरमंडले' सर्वबाह्यमण्डले सूर्यस्य चारसमये 'तावक्खेत्तसंठिईए'. तापक्षेत्रसंस्थितेः 'पमाणं' प्रमाणः विज्ञेयम् । 'ज' यत् 'तहिं तत्र सर्वाभ्यन्तरमण्डले सूर्यस्य चारसमये 'तावक्खेत्तसंठिईए पमाणं' तापक्षेत्रसंस्थितेः प्रमाणमुक्तम् 'त' तत् 'बाहिरमण्डले' सर्ववाह्यमण्डले सूर्यस्य चारसमये 'अंधकारसंठिईए' अन्धकारसंस्थितेः 'पमाणं' प्रमाण ज्ञातव्यम् । सर्वाभ्यन्तरमण्डगतेसूर्ये यत् अन्धकारसंस्थितिप्रमाणं तत् बाह्यमण्डलगते सूर्य तापक्षेत्रस्य प्रमाणं वोच्यम् । यत् सर्वाभ्यन्तरमण्डले सूर्यस्य चारसमये तापक्षेत्रसंस्थितिप्रमाणं तदत्र बाघमण्डलेअन्धकारसंस्थितिप्रमाण बोध्यम् । सर्वाभ्यन्तरसर्वबाह्यमण्डयोः परस्परमन्धकारतापक्षेत्रसस्थितिप्रमाणं वैपरोत्येन सदृशं विज्ञेयमितिभावः । इदं प्रकरण पूर्वोक्तं कियत्पर्यन्तं बोध्यम् ? तदेवाह-'जाव' इत्यादि, 'जाव" यावत वक्ष्यमाणं. रात्रि Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० ४ सू० ३ तापक्षेत्रसंस्थितिनिरूपणम् १६५ दिवस परिमाणमायाति तावत् - वक्तव्यम् । तदेवाह - ' तया णं' तदा खलु 'उत्तमकट्टपत्ता' उत्तमकाष्ठा प्राप्ता 'उक्कोसिया' उत्कर्षिका 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भव' अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, 'जहण्णए' जघन्यकः सर्वलघुः 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ' द्वादशमुहूर्त्ता दिवसो भवति, इत्यालापकपर्यन्तं सर्वं पूर्वोक्तं प्रकरणमत्र बोच्यम् । विशेषः केवलमयम् - यत् तत्र अष्टादशमुहूर्त्तो दिवसः द्वादशमुहूर्त्ता रात्रि कथिता, अत्र तु अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्द्वादशमुहूर्ती दिवसो भवतीति प्रदर्शितमेवेति । तत्रत्या सूत्ररचनात्वेवम् – 'उद्धीमुहकलंवुया पुप्फसठिया तावखेत्तसंठिई ' उर्ध्वमुखकलंबुकापुष्पसंस्थिता तापक्षेत्र संस्थितिरित्युक्तम्, सा च - ' अंतो संकुडा बाहि वित्थडा, अंतो वहा वाहि पिडुला, अंतो अंकमुहसंठिया वाहिँ सत्थियमुहसंठिया, उभओ पासेणं तसे दुवे बाहाओ अवट्टियाओ०" इत्यादि, सर्वोऽपि पाठोऽत्र पठनीयः, विस्तरभयाद् विरम्यते । एषा व्याख्याऽपि तत्र विलोकनीया विस्तरजिज्ञासुभिः सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रस्य मस्कृतायां सूर्य ज्ञप्तिप्रकाशिका टीकायां विलोकनीयम् । तत्रायं सर्वोऽपि पाठ संगृहीत इति । यत् तापक्षेत्र - चिन्तायां मन्दरपरिरयादेर्द्वाभ्यां गुणनं कृतं तत् अन्धकारचिन्तायां त्रिभिर्गुणनं कृतम्, ततोऽनन्तरं विभाजनं तूभयत्रापि दशभिरेव कृतम् । तथा सर्वबाह्यमण्डले चारं चरतः सूर्यस्य लवणसमुद्रमध्ये तदनुरोधात् तापक्षेत्रं पञ्च हस्रयोजन परिमितं भवति, अन्धकारश्चायामतो वर्धतेऽतः स त्र्यशीतिसहस्रयोजन परिमितः कथित इति । उक्तं च तापक्षेत्रसंस्थितेः, अन्धकारसंस्थितेश्च परिमाणम् । अथ च जम्बूद्वीपे द्वौ सूर्यो ऊर्ध्वमधः, पूर्वाऽपरे च विभागे किय क्षेत्रं तापयतः ? इति तन्निरूपणार्थमाह – 'ता जंबुद्दीवेणं दीवे' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जंबुद्दीवेणं दीवे' जम्बूद्वीपे खलु द्वीपे 'सूरिया' सूर्यैौ द्वौ सूर्यो प्रत्येकं ‘केवइयं खेत्तं' कियत्कं कियत्प्रमाणं क्षेत्रम् 'उड्टं तवेंति' ऊर्ध्वं तापयतः प्रकाशयतः, । ' केवइयं खेत्तं' कियत्कं कियत्प्रमाणं क्षेत्रम् 'अहे' अधः 'तवेंति' तापयतः । 'केवइयं खेत्तं' कियत्कं कियस्प्रमाणं क्षेत्रम् 'तिरियं तवेंति' तिर्यक् तापयतः । इति प्रश्ने कृते भगवानाह - 'ता' इत्यादि 'ता' तावत् 'जंबुद्दीवे णं दीवे' जम्बूद्वीपे खलु द्वीपे 'सूरिया' द्वौ सूर्यै प्रत्येकम् ' एगं जोयणसयं' एक योजनशतम् एकशतयोजनपर्यन्तम् 'उड्ढ' ऊर्ध्वं स्वविमानाद् ऊर्ध्वभागं 'तवेंति' तापयतः, 'अट्टारस जोयणसयाई' अष्टादशयोजनशतानि अष्टादशशतयोजनपर्यन्तम् 'अहे' अधः स्वविमानादधोभागे अधोलोकग्रामापेक्षया 'तर्वेति' तापयतः, तथा 'सीयालीस जोयणसहस्साई' सप्तचत्वारिंशयोजन सहस्राणि सप्तचत्वारिंशत्सहस्रयोजनानि ' दुन्निय तेवढे जोयणसयाई' द्वे च त्रिषष्टिः योजनशते त्रिषष्ट्यधिकद्विशत योजनानि 'एक्कवीसं च सद्विभागे जोयणस्स'- एकविंशर्ति च - Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ चन्द्रप्रक्षेप्तिसूत्रे षष्टिभागान् योजनस्य (१७२६३/ २१) तिरिय' तिर्यक् स्वविमानात् पूर्व भागेऽपरभागे च 'तति' तापयतः प्रकाशयतः । अयमाशयः-~-अघोलौकिकग्रामाः समतलमूभागाद् अधः एकसहस्रयोजनेन व्यवस्थिताः, तत्रापि सूर्यप्रकाशः प्रसरति । ततः समतलभूभागस्याध एकसहस्रयोजनपर्यन्तं, तदूर्ध्व चाष्टशत योजनानि, इत्युमयमीलनेऽष्टादशशतयोजनानि भवन्ति, तिर्यक् च स्वविमानात् पूर्वापरभागद्वये सूर्या प्रत्येकं त्रिषष्टयधिकशतद्वयोचराणि सप्तचत्वारिंशत्सहनयोजनानि, एकविंशतिं च षष्टिभागान् योजनस्य (४७२६३ २१) प्रकाशयत इति ॥सू ० ३॥ इति श्री--विश्वविख्यात-जगहल्लम-जप्रसिद्धवाचक पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यानैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहुच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त "जैनशास्त्राचार्य" पदभूषित-कोल्हापुर राजगुरु बालब्रह्मचारि-जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलालति-विरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकायां चतुर्थ मूलप्रामृतं समाप्तम् ॥४॥ ॥ श्रीरस्तु || KATA Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ पंचमं प्राभृतं प्रारभ्यते॥ व्याख्यातं चतुथै प्राभृतं, तत्र श्वेततायाः संस्थितिरुक्ता, साम्प्रतं पञ्चमं प्रारभ्यते मनायमर्थाधिकारः-'कहिं पडिहया लेस्सा, कस्मिन् लेश्या प्रतिहता। इत्येतद्विषयोऽत्रप्ररूपयिष्यते, तस्य चेदमादिम सूत्रम्-'ता कस्सि णं' इत्यादि। मूलम्-ता कस्सि ण सूरियस्स लेस्सा पडिहया आहिया ! ति वएज्जा । तत्थ खल इमाओ वीसं पडिवत्तीओ पण्णचाओ, तं जहा-तत्थेगे एवमाइंसु ता मंदरंसिणं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया आहिया तिवएज्जा, एगे एवमासु ।१। एगे पुण एवमाइंसु-ता मेरुसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया आहिया तिवएज्जा, एगे एबमाइंसु ।२। एवं एएणं अभिलावेणं ता मणोरमंसि णं पन्वयंसि ।३। ता सुदंसणंसि णं पन्चयंसि ।४ता सयंपभंसि णं पव्वयंसि ।५। ता गिरिरायंसि णं पव्वयंसि ।। ता रयणुच्चयंसि णं पव्वयंसि १७ ता सिलुच्चयंसिणं पन्वयंसि । ता लोयमझंसि णं पन्चयसि ।९। ता लोयणार्मिसिणं पव्वयंसि ।१० ता अच्छंसि णं पव्वयंसि ।१। ता सरियावत्तसि णं : पब्वयंसि ।१२। ता सूरियावरणंसि णं पन्वयंसि ।१३। ता उत्तमंसिणं पवयंसि ।१४। ता दिसादिसि णं पव्वयंसि ।१५।ता अवयंसंसि णं पव्वयंसि।१६। ता धरणिखीलंसि णं पव्वयंसि ।१७। ता धरणिसिगंसि णं पन्वयंसि ।१८ ता पवर्तिदंसि णं पव्वयंसि ।१९। एगे पुण एवमाइंसु ता पब्वयरायसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया आहियाति वएज्जा, एगे एवमाइंसु ॥२०॥ वयं पुण एवं वयामो-ता मंदरेवि पवुच्चइ, मेरु वि पवुच्चइ जाव पव्वपरायावि पवुच्चइ (२०) ता जे णं पुग्गला सूरियस्स लेस्सं फुसंति ते णं पुग्गला सूरियस्स लेस्सं पडिहणंति अदिहा वि णं पुग्गला सूरियस्स लेस्सं पडिहणंति, चरिमलेस्संतरगया वि पुग्गला सूरियस्स लेस्सं पडिहणति ॥ सू० १॥ ॥ चंदपन्नत्तीए पंचमं पाहुडं समत्तं ॥५॥ छाया-तावत् कस्मिन् खलु सूर्यस्य लेश्या प्रतिहता आख्याता? इति वदेत् । तत्र खलु इमा विंशतिः प्रतिपत्तयः प्रक्षप्ताः तद्यथा-तत्र पके पवमाहुः-तावत् मन्दरे खलु पर्वते सूर्यस्य लेश्या प्रतिहता आख्याता, इति वदेव, एके पवमाहुः ११। एके पुनरेव माहुःतावत् मेरोः खलु पर्वते सूर्यस्य लेश्या प्रतिहता आख्याता इति वदेत्, पके पवमाहुः १२॥ एवम् एतेन अभिलापेन तावत्-मनोरमे खलु पर्वते ३ तावत् सुदर्शने खलु पर्वते ।४। तावत् स्वयंप्रभे खलु पर्वते ।। तावत् गिरिराजे खलु पर्वते ६ तावत् रत्नोच्चये खलु पर्वते ७ तावत् शिलोच्चये खलु पर्वते । तावत् लोकमध्ये खलु पर्वते । तावत् लोकनाभौ खलु पर्वते ।१०। तावत् अच्छे खलु पर्वते ॥११॥ तावत् सूर्यावर्त्त खलु पर्वते ।१२। तावत् सूर्यावरणे खलु पर्वते ॥१३॥ तावत् उत्तमे खलु पर्वते १४ तावत् दिशादौ बलु Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे पर्वते ।१५। तावत् अवतंसे स्खल पर्वते १६ तावत् घरणिकीले खलु पर्वते 1१७) तावत् घरणिशृङ्गे खलु पर्वते ।१८ तावत् पर्वतेन्द्रे खलु पर्वते ।१९। एके पुनरेव माहुः-तावत् पर्वतराजे खलु पर्वते सूर्यस्य लेश्या प्रतिहता आख्याता इति वदेत् , एके पवमाहुः ॥२०॥ वयं पुनरेवं वदामः-तावत् मन्दरोऽपि प्रोच्यते, मेरुरपि प्रोच्यते तावत् पर्वतराजोऽपि (२०) प्रोच्यते । तावत् ये खलु पुद्गलाः सूर्यस्य-लेश्यां स्पृशन्ति ते खलु पुद्गलाः सूर्यस्य _ लेश्यां प्रतिघ्नन्ति, अदृष्टा अपि खल पुद्गलाः सूर्यस्य लेश्यां प्रतिघ्नन्ति, चरमलेश्यान्त· रगता अपि खलु पुद्गलाः सूर्यस्य लेश्यां प्रतिध्नन्ति सू० ॥१॥ . . . चन्द्रप्रशत्यां पञ्चमं प्रामृतं समाप्तम् ॥५॥ व्याख्या:-'ता' तावत् सर्वाभ्यन्तरमण्डले यदा सूर्यश्चारं चरति तदा सूर्यस्य लेश्या प्रसरतीति ‘कस्सि णं' कस्मिन् खलु स्थाने 'सूरियस्स लेस्सा' सूर्यस्य लेश्या तेजो रूपा पडिहया' प्रतिहता अवष्टब्धा प्रतिरुद्धेत्यर्थः 'आहिया' आख्याता ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवन् । . इदमत्र तात्पर्यम्-इहाभ्यन्तरं प्रविशन्ती सूर्यस्य लेश्याऽवश्यं प्रतिहता भवति, सा च कस्मिन् स्थाने प्रतिहता भवतीति जिज्ञामा नायते यतो हि सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरे सर्वबाह्ये च मण्डले चारसमये पश्चचत्वारिंशत्सहस्रयोजनपरिमितमेव जम्बूद्वीपगतं तापक्षेत्रमायामतः प्रोक्तम् , इयत्परिमितं तापक्षेत्रं च सर्वाभ्यन्तरमण्डलस्थिते सूर्ये लेश्याप्रतिघातं 'विना नोपलभ्यते, यद्येवं न मन्यते तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलाद्वहिः सूर्यस्य निष्क्रमणसमये तत्सम्बन्धिनस्तापक्षत्रस्यापि निष्क्रमणसद्भावात्, सूर्यस्य . सर्वबाह्यमण्डलचारसमये तापक्षेत्रमायामतो हीनमायाति, किन्तु तस्य हीनत्वं न प्रतिपादितम् , मतो ज्ञायते सूर्यस्य लेश्या क्वापि प्रतिहताऽवश्यं जाता भवेत् , इति तद वबोधाय एप प्रश्नो गौतमेन कृतः । इमं प्रश्नं स्पष्टी कर्तृकामो भगवान् प्रथममेतद्विपये यावत्यः प्रतिपत्तयः सन्ति ता उपदर्शयति -'तत्थ खलु' इत्यादि ।। 'तत्थ खलु' तत्र लेश्याप्रतिघातविषये खलु 'इमाओ' इमा अग्रे वक्ष्यमाणस्वरूपाः 'वीसं' विंशतिः विंशतिसंख्यकाः 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः परमतमान्यतारूपाः 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः कथिताः. - 'त जहां तद्यथा-ता यथा-'तत्थ' तत्र विंशतिप्रतिपत्तिवादिपु. मध्ये 'एगे' एके केचन प्रथमास्तीर्थान्तरीयाः 'एव माहंसु' एवं , वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः कथयन्ति–'ता' - तावत् 'मंदरंसि णं पव्वयंसि' मन्दरे खलु पर्वते 'सरियस्स लेस्सा' सूर्यस्य लेश्या तेजो रूपा 'पडिहया' प्रतिहता 'आइिया' आख्याता 'ति वएज्जा' इति वदेत् इति कथनीयमित्यर्थः 'एगे' एके प्रथमाः एवमाहंस एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः ।१। 'एगे पुण' एके केचन द्वितीया 'एवमाहमु एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः कथयन्ति -'ता' तावत् 'मेरुसि णं पव्व· यंसि' मेरौः खल पर्वते 'मरियस्स लेस्सा' सूर्यस्य लेश्या 'पडिहया आहिया' प्रतिहता Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०-५सू०१ सूर्यलेश्यायाः प्रतिघातस्वरूपम् १६९ माख्याता 'ति वएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः कथयेत् 'एगे' एके पूर्वोक्का द्वितीयाः एकमासु' एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः कथयन्ति ।२। 'एवं' भनेन प्रकारेण 'एएणं' एतेन पूर्वमनुपदप्रदर्शितेन 'अभिलापेण' आलापकप्रकारेण शेषा अपि प्रतिपत्तयः कथनीयाः । अत्रतु केवलं प्रतिपत्तय एव प्रदर्श्वन्ते, आलापकयोजना स्वयं करणीया, तथाहि-'ता मणोरमंसि णं पबयंसि' तावत् मनोरमे खल पर्वते ।३। 'ता सुदंसगसि णं पब्वयंसि' तावत् सुदर्शने खल पर्वते ।४। 'ता सयंपमंसि णं पचयंसि' तावत् स्वयंप्रमे खल्ल पर्वते .५। 'ता गिरिरायसिणं पव्वयंसि' तावत् गिरिराजे खलु पर्वते ।६। 'ता रयणुच्चयंसि णं पव्वयंसि' तावत् रत्नोचये खलु पर्वते ७'ता सिलुच्चयंसि णं पव्वयंसि' तावत् शिलोच्चये खलु पर्वते ।। 'ता लोयमझंसि णं पव्वयंसि' तावत् लोकमध्ये खलु पर्वते ।९। 'ता लोयणाभिसि ण पन्चयंसि' तावत् लोकनाभौ खलु पर्वते ।१०'ता अच्छंसि खलु पनयंसि तावत् अच्छे खलु पर्वते ।११। 'ता सूरियावत्तंसि णं पव्वयंसि' तावत् सूर्यावर्ते खलु पर्वते ।१२। 'ता सूरियावरणंसि णं पवयंसि तावत् सूर्यावरणे खल पर्वते ।१३। 'ता उत्तमंसि णं पव्वयंसि' तावत् उत्तमे खल पर्वते ।१४। 'ता दिसादिसि णं पन्चियंसि' तावत् दिशादौ खलु पर्वते ।१५। 'ता अवतंसंसि पव्वयंसि' तावत् भवतसे खलु पर्वते ।१६। 'ता धरणिखीलंसिणं पव्वयंसि' तावत् धरणिकीले खलु पर्वते ।१७। 'ता धरणिसिंगंसि णं पन्वयंसि' तावत् धरणिशृङ्गे खल पर्वते ।१८। 'ता पञ्चतिदंसि णं पव्वयंसि' तावत् पर्वतेन्द्रे खलु पर्वते ।१९। 'एगे पुण' एके विंशतितमप्रतिपत्तिवादिनः पुनः 'एवमासु' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः कथयन्ति 'ता' तावत् 'पव्वयरायसि णं 'पन्चयंसि' पर्वतराजे खलु पर्वते 'सरियस्स' सूर्यस्य 'लेस्सा' लेश्या तेजोरूपा 'पडिहया' प्रतिहता 'आहिया' आख्याता 'ति वएज्जा' इति वदेत् । उपसंहारमाह'एगे एके विंशतितमाः परमतवादिनः 'एवं' एव पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहेसु' आहुः कथयन्ति ॥२०॥ ___ यद्यप्येते मन्दरादयः सर्वेऽपि शब्दा वस्तुत एकार्थिका एव, तथापि भिन्नाभिप्रायत्त्वेन कथितत्वादेते विंशतिरपि प्रतिपत्तिवादिनो मिथ्याप्ररूपका एवेति प्रदर्य साम्प्रतं भगवान् स्वमतप्रदर्शयन्नाह-'वयं पुण इत्यादि । _ 'वयं पुण' वयं तु अत्र 'पुनः' शब्दः 'तु' इत्यर्थे, 'एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामो' वदामः कथयामः । तदेवाह-'ता" इत्यादि । 'ता' तावत् यत्र लेश्या प्रतिहता भवति स पर्वतः ‘मंदरे वि पवुच्चई' मंदरोऽपि प्रोच्यते, 'मेरूवि पवुच्चई' मेरुरपि प्रोच्यते 'जाव' यावत् , यावत्पदेन मध्यगतानां मनोरमादारभ्य पर्वतेन्द्रपर्यन्तानां सप्तदशानां ग्रहणं भवति द्वौ मन्दरमेरुनामानी पर्वती पूर्व सूत्रे प्रोक्तो । 'पव्वयरायावि पवुच्चई' पर्वतराजोऽपि विंशति २२ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० पद्रप्राप्तिस्त्र तमः प्रोच्यते, पर्वतराजोऽपि स एव प्रोच्यते नान्यः कश्चिदन्यः पर्वत इति । अयमेको पर्वतो विंशतिनामभिः कथं ख्यात इति तेषामर्थाधिकारः प्रदर्श्यते तथाहि(१) मन्दरः-पल्योपमस्थितिकमन्दराभिधदेवनिवासस्थानयोगात् । . (२) मेरु:-तस्य समस्ततिर्यग्लोकमध्यभागस्य मर्यादाकारित्वात् । (३) मनोरमः-अतिसुरूपतया देवानां मनोरमणहेतुकत्वात् ।। (४) सुदर्शन:-जाम्बूनदजातीय सुवर्णमयत्वेन वज्ररत्नबहुलत्वेन च मनोमोदजनकसुष्टुद शनवत्त्वात् । (५) स्वयंप्रभः- रत्नबहुलतया आदित्यादिनिरपेक्षस्वयंप्रभावत्वात् । (६) गिरिराजः-सर्वगिरीणामुच्चैरत्वेन तीर्थकरजन्मोत्सवाभिषेकाश्रयत्वेन च गिरीणां मध्ये राजसादृश्यात् । (७) रनोच्चयः-नानाविधरनानामतिशयेन चयस्थानत्वात् । (८) शिलोच्चयः-पाण्डुकम्बलादिशिलानां तदुपरि चयसद्भावात् । (९) लोकमध्यः- समस्ततियंगू लोकस्य मध्यवर्तित्वात् । (१०) लोकनाभि:-~-स्थालमध्यस्थित समुन्नतवृत्तचन्द्रतुल्यत्वेन स्थालाकारतिर्यग्लोकस्य नाभि सादृश्यात् । (११) अच्छ:-अतिनिर्मलजाम्बूनदसुवर्णवज्रादिरत्नबहुलत्वेन स्वच्छकान्तिमत्त्वात् । (१२) सूर्यावर्तः-सूर्यस्य उपलक्षणाच्चन्द्रग्रहनक्षत्रतारारूपाणां प्रदक्षिणावर्तस्थानत्वात् । (१३) सूर्यावरणः-सूर्यादिभिः परिभ्रमणशीलरावृतत्वात् । (१४) उत्तमः-गिरीणां मध्ये सर्वोत्कृष्टत्वेन उत्तमत्वात् । (१५) दिशादिः- गोस्तनाकाराष्टप्रदेशात्मकरुचकादेव दिग्विदिशामादियिते, तस्यमध्यवत्तित्वात् (१६) अवतंसकः-गिरीणां चूडामणिसादृश्यात् । एपा पोडशानां नामसंग्राहक गाथाद्वयं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिप्रसिद्धंयथा-"मंदर-मेरु-मनोरम,-मुदसण-सयंपभेय गिरिराया । रयणोच्चए सिलोच्चय, मज्झे लोगस्स नाभी य ॥१॥ अच्छेय सूरियावत्ते, सूरियावरणे इय ।। उत्तमे य दिसाई य वडिंसे इय सोलसे ॥२॥ छाया पूर्वप्रदर्शितनामभिः सुगमैवेति । ' (१७) धरणिकीलः-पृथिव्याः कीलकसादृश्यात् । (१८) धरणिशृङ्गः-पृथिव्याः शृङ्गसाश्यात् । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीक प्रा० ५ सू०१ सूर्यलेण्यायाः प्रतिघातस्वरूपम् १७१ (१९) पर्वतेन्द्रः-पर्वतानां मध्ये इन्द्रसादृश्यात् । (२०) पर्वतरानः-पर्वतानां मध्ये राजसादृश्यात् । इति विंशति मानीति । एतेषां शब्दानामेकार्थिकत्वे सत्यपि भिन्नार्थप्रतिपादकत्वेन एता विंशतिरपि प्रतिपत्तयो मिथ्यारूपा एवेति विज्ञेयम् । अथ भगवान् सूर्यलेश्यायाः प्रतिहतिस्वरूप प्रदर्शयति- 'ता जे णं' इत्यादि । इय च लेश्याप्रतिहतिः मन्दरेऽप्यस्ति अन्यत्रापि चास्तीत्याह-'ता' तावत् 'जे णं पुग्गला' ये खलु पुद्गलाः मेरुतटभित्तिसंस्थिताः 'सरियस्स लेस्स, सूर्यस्य लेश्यां 'फुसंति' स्पृशन्ति 'ते णं पुग्गला' ते खलु पुद्गलाः 'सरियस्स लेस्स' सूर्यस्य लेश्यां 'पडिहणंति' प्रतिघ्नन्ति अभ्यन्तरं प्रविशन्त्याः सूर्यलेश्यायास्तैः प्रतिस्खलितत्वात् । तथा 'अदिहा विण पोग्गला' अदृष्टा अपि खल येऽपि पुद्गला मेरुतटभित्तिसंस्थिता अपि दृश्यमानपुद्गलान्तर्गताः सन्तः सूक्ष्मत्वान्न चक्षुः स्पर्शमायान्ति ते अदृष्टा मपि पुद्गला 'सरियस्स लेस्स' सूर्यस्य लेश्यां 'पडिहणंति' प्रतिघ्नन्ति तैरपि अभ्यन्तरं प्रविशन्त्याः सूर्यलेश्यायाः स्वशक्त्यनुरूपं प्रतिस्खल्यमानत्वात् । तथा पुनरपि 'चरिमलेस्संतरगयावि णं पोग्गला' चरमलेश्यान्तरगता अपि खलु पुद्गलाः येऽपि च मेरोरन्यत्र भागेऽपि च चरमलेश्याविशेष संस्पर्शवन्तः पुद्गला अपि 'सरियस्स लेस्स' सूर्यस्य लेश्यां 'पडिहणंति' प्रतिघ्नन्ति तैरपि चरमलेश्यासंस्पर्शकत्वेन चरमलेश्यायाः प्रतिहन्यमानत्वात्।।सू० १॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-जप्रसिद्धवाचक पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यानैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहुच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त "जैनशास्त्राचार्य" पदभूषित-कोल्हापुर राजगुरु बालब्रह्मचारि-जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलालबति-विरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका ख्यायां व्याख्यायां पञ्चमं प्राभृतं समाप्तम् ॥५॥ ॥ श्रीरस्तु ॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ षष्ठं प्रामृतं प्रारभ्यते ॥ व्याख्यातं पश्चमं प्राभृतम् तत्र सूर्यस्य लेश्याप्रतिघातः प्रोक्तः । साम्प्रतं षष्ठं व्याख्यायते, तस्य चायमर्थाधिकार.-'कई ते ओयसठिई' कथं ते मोजः संस्थितिः, इति पूर्वप्रतिज्ञात-विषयं विवृण्वन् आदिमं सूत्रमाह-'ता कहं ते ओयसंठिई' इत्यादि । । मूलम्-ता कहं ते ओयसठिई आहिया ति वएज्जा, तत्थ खलु इमाओ- पणवीस पडिवचीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-तत्थेगे एवमासु ता अणुसममेव सूरियस्सोया अण्णा उप्पज्जइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंम् । १ । एगेपुण एवमाहंसु ता-अणुमुहुत्तमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जई अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु । २ । एवं एएणं अभिः लावेण-ता अणुराईदियमेव । ३ ' ता अणुपक्खमेव । ४। ता अणुमासमेव । ५। ता अणुउउमेव । ६। ता अणु अयणमेव । ७। ता अणुसंवच्छरमेव । ८। ता अणु जुगमेव ।९। ता अणुवाससयमेव । १० । ता अणुवाससहस्समेच । ११) ता. अणु वाससयसहस्समेव । १२। ता अणुपुन्वमेव । १३। ता अणुपुब्वसयमेव । १४.।.. वा अणुपुन्वसहस्स मेव । १५.1 ता अणुपुच्चसयसहस्समेव । १६ । ता अणुपलिओवममेव । १७। ता अणुपलिओचमसयमेव । १८ । ता अणुपलिओवमसहस्समेव । १९ ।। ता अणुपलिओवमसयसहस्समेव । २० । ता अणुसागरोवममेव । २११ ता अणुसागरोवमः सयमेव । २२ । ता अणुसागरोवमसहस्समेव । २३ । ता अणुसागरोत्रमसयसहस्समेव.. । २४ । एगे एवमाइंसु-ता अणुउस्सप्पिणि ओसप्पिणिमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु । २५। ___ वयं पुण एवं वयामो-ता तीसं तीसं मुहुत्ते सरियस्स ओया अवटिया भवइ, तेण परं सरियस्स ओया अणवडिया भवइ । छम्मासे सुरिए ओयं णिबुड्ढेइ, छम्मासे सरिए ओयं अभिवुड्ढेइ । णिक्खममाणे मरिए देसं. णिचुड्ढेइ, पविसमाणे सुरिए देसं अभिवुड्ढेइ । तत्थ को हेऊ ! तिवएज्जा, वा अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ते । ता जया णं सुरिए सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । से णिक्खममाणे सूरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तसि अभितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सूरिए अभितराणंतरं मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरइ तया णं एगेणं राईदिएणं एगं भागं ओयाए दिवसखित्तस्स णिवुड्ढित्ता रयणिखित्तस्स अभिवइढित्ता चारं चरइ, मंडलं अट्ठारसहिं तीसेहिं सएहि छित्ता, Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा० ६ सू० १ ओजसंस्थितिनिरूपणम् १७३ तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहि एगसद्विभागमुहुत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहि अहिया । से णिक्खममाणे सरिए दोच्चंसिरहोरत्तंसि अम्भितराणंतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं मूरिए अभितराणं तरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं दोहिं राइदिएहि दो भागे ओयाए दिवसखेत्तस्स णिवुद्वित्ता, २ रयणिखेत्तस्स अभिवडढेता चारं चरइ, मंडलं अट्ठारसेहिं तीसेहिं सएहि छेत्ता, तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहिं एगसद्विभागमुहुतेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ चउहिं एगसहिभागमुहुत्तेहिं अहिया । एवं खलु एएण उवाएणं णिक्खममाणे मुरिए तयाणंतराओ तयाणंतरं मंडलाओ मंडल संकममाणे २ एगमेगे मंडले एगमेगेणं राईदिएणं एगमेग २ भागं ओयाए दिवसखेत्तस्स निव्वुड्ढेमाणे २ रयणिक्खेत्तस्स अभिवड्ढेमाणे २ सव्ववाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सरिए सबभंतराओ मंडलाओ सम्बवादिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं सन्मभंतरं मंडलं पणिहाय एगेणं तेसीएणं राइंदियसएणं एग तेसीयं भागसयं ओयाए दिवसखेत्तस्स णिव्वुडेत्ता रयणिखेत्तस्स अभिवुड्ढेत्ता चारं चरइ, मंडलं अट्ठारसहि तीसेहि सएहिं छेत्ता, तया णं उत्तमकहपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ । एस णं पढमे छम्मासे । एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे । से पविसमाणे सरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि वाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सूरिए वाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं एगेणं राइदिएणं एगं मागं ओयाए रयणिखेत्तस्स णिव्वुड्ढेत्ता, दिवसखेत्तस्स अभिव्वुड्ढेत्ता चारं चरइ मंडलं अट्ठारसहिं तीसेहिं सएहिं छेत्ता, तयाणं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ दोहि एगसट्ठिभागमुहुत्तेहिं उणा. दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहिं अहिए । से पविसमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरसि वाहिराणंतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सूरिए वाहिराणतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया ण दोहि राइदिएहि दोभाए ओयाए रयणि खेत्तस्स णिवुड्ढेत्ता, दिवसखेत्तस्स अभिव्वुड्ढेत्ता चारं चरइ, मंडलं अट्ठारसहिं तीसेहि सएहि छेत्ता, तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ चउहि एगसद्विभागमुहुत्तेहि उणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहि एगसहि भागमुहुत्तेहि अहिए । एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सुरिए तयाणंतराभो' तयाणंतरं मंडलाओ मंडलं संकममाणे २ एगमेगेणं Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ चन्द्रप्राप्तिसूत्र राईदिएणं एगमेगं भाग ओयाए रयणिखेत्तस्स णिचुड्ढेमाणे २, दिवसखेत्तस्स अभिड्ढेमाणे २ सचभंतरं मंडलं उपसंकमित्ता चारं चरइ । ता जया णं सरिए सव्वचाहिराओ मंडलाओ सम्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं सव्ववाहिरं मंडलं पणिहाय एगेणं तेसीएणं राइंदियसएणं एगं तेसीयं भागसयं ओयाए रयणि खेत्तस्स णिचुड्ढेत्ता, दिवसखेत्तस्स अभिव्वुड्ढेत्ता चारं चरइ, मंडलं आहारसहि तीसेडि सएहि छेत्ता, तया णं उत्तमकहपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया. दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । एस णं दोच्चे छम्मासे । एसणं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे। एसणं आइच्चे संवच्छरे। एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे ।।०१।। छद्रं पाहुडं समत्तं ॥६॥ छाया- तावत् कथं ते ओजः संस्थितिः आख्याता? इति वदेत् तत्र खलु इमाः पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः प्राप्ताः तद्यथा-तत्र एके एवमाहुः-तावत् अनुसमयमेव सूर्यस्य. ओजः अन्यत् उत्पद्यते अन्यत् अपैति, एके पवमाहु: ।। एके पुनः एव माहुः-तावत् अमु. हुर्तमेव सूर्यस्य ओजः अन्यत् उत्पद्यते, अन्यत् अपैति, एके एवमाहुः ।। एवं एतेन अभिला पेन-तावत् अनुरात्रिन्दिवमेव ॥३॥ तावत् अनुपक्षमेव । तावत् अनुमासमेव ।५। तावत् अनु ऋतुमेव ६ तावत् अन्वयनमेव ७ तावत् अनुसंवत्सरमेव ८ तावत् अनुयुगमेव ।९। तावत् अनुवर्षशतमेव 1901 तावत् अनुवर्षसहस्रमेव ।११। तावत् अनुवर्षशतसहस्रमेव ।१२। तावत् अनुपूर्वमेव ।१३। तावत् अनुपूर्वशतमेव ॥१४॥ तावत् अनुपूर्वसहस्रमेव ।१५। तावत् अनुपूर्वशतसहस्रमेव ।१६। तावत् अनुपल्योपमेव ॥१७ तावत् अनुपल्योपमशतमेव ॥१८॥ तावत् अनुपल्योपमसहस्रमेव ।१९। तावत् अनुपल्योपमशतसहस्रमेव १२० तावत् अनुसा गरोपममेव ।२१। तावत् अनुसागरोपमशतमेव ।२२। तावत् अनुसागरोपमसहस्रमेव ॥२३॥ तावत् अनुसागरोपमशतसहस्रमेव ।२४। एके पुनः एवमाहुः तावत् अनूत्सर्पिण्यवसर्पिणीमेव सूर्यस्य ओजः अन्यत् उत्पद्यते अन्यत् अपैडि, एके एव माहुः २५।। वयं पुनः एवं वदामः-तावत् त्रिशतं त्रिंशतं मुहर्तान् सूर्यस्य ओज. अवस्थित भवति, ततः परं सूर्यस्य ओजः अनवस्थितं भवति । पण्मासान् सूर्यः ओजः निर्वर्धयति, पण्मासान् सूर्य ओजः अभिवर्धयति। निष्कामन् सूर्यः देशं निवर्धयति, प्रविशन् सूर्यः देशमभिवर्धयति । तत्र को हेतुः ? इति वदेत् । तावत् अयं स्खल जम्बूद्वीपो द्वीपः यावत् परिक्षेपेण प्रशप्तः। तावत् यदा खल सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठा प्राप्तः उत्कर्षक: अष्टादशमुद्दती दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति । स निष्क्रामन् सूर्यः नव संवत्सरं अयन् प्रथमे अहोरात्रे अभ्यन्तरानन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति । तापत् यदा खलु सूर्यः अभ्यन्तरानन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु एकेन रात्रिन्दिवेन एकं भागम् ओजसा दिवसक्षेत्रस्य निर्वध्य, रजनीक्षेत्रस्य अभिवय चारं चरति, मण्डलम् अष्टादशभिः त्रिंशता शतैः छित्त्वा तदा खलु अष्टादशमुहतों दिवसो भवति द्वाभ्यामेकपष्टिभागमुहर्चाभ्याम् ऊनः, द्वादशमुहर्ता रात्रि Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० ६ सू० १ ओजसंस्थितिनिरूपणम् १७५ भवति द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुत्तभ्यामधिका । स निष्क्रामन् सूर्यः द्वितीयेऽहोरात्रे आभ्य न्तरानन्तरं तृतीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः आभ्यन्तरानन्तरं तृतीयं मडण्लमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु द्वाभ्यां रात्रिन्दिवाभ्यां द्वौ भागौ ओजसा दिवसक्षेत्रस्य निर्वर्ध्य २ रजनीक्षेत्रस्य अभिवर्ध्य चारं चरति, मण्डलम् अष्टादशभिः त्रिंशता शतैः छित्त्वा तदा खलु अष्टादशमुत्तों दिवसो भवति चतुर्भिरे कषष्टिभागमुहूतैः : ऊनः द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति चतुर्भिरेकपटिभागमुहूर्तेरधिका । एवं खलु एतेन उपायेन निष्क्रामन् सूर्यः तदनन्तरात् तदनन्तरं मण्डलात् मण्डलं संक्रामन् २ एकैकस्मिन् मण्डलै कैकेन रात्रिन्दिवेन पकैकं भागम् ओजसा दिवसक्षेत्रस्य निर्वर्धयन् २, रजनीक्षेत्रस्य अभिवर्धयन् २ सर्वबाह्यं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरात् मण्डलात् सर्ववाह्यं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं प्रणिधाय पकेन व्यशीतिकेन रात्रिन्दिवशतेन एकं व्यशीतिकं भागशतम् ओजसा दिवसक्षेत्रस्य निर्वर्ध्य, रजनीक्षेत्रस्य अभिवर्ध्य चारं चरति, मण्डलम् अष्टादशभिः त्रिशता शतैः छित्त्वा तदा खलु उत्तमकाष्ठा प्राप्ता उत्कर्षिका अष्टादश मुहूर्त्ता रात्रिर्भवति जघन्यक: द्वादशमुहुत्तों दिवसो भवति । पतत् खलु प्रथमं षण्मासम् । एतत् खलु प्रथमस्य पण्मासस्य पर्यवसानम् ॥ सः प्रविशन् सूर्यः द्वितीयं षण्मासम् अयन् प्रथमे अहोरात्रे वाह्यानन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः वाह्यानन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु पकेन रात्रिन्दिवेन एकं भागम् ओजसा रजनीक्षेत्रस्य निर्वर्ध्य दिवसक्षेत्रस्य अभिवर्ध्य चारं चरति, मण्डलम् अष्टादशभिस्त्रिशता शतैः छित्त्वा तदा खलु अष्टदशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहृताभ्याम् ऊना द्वादशमुत्तों दिवसो भवति द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्त्ताभ्याम् अधिकः । स प्रविशन् सूर्यः द्वितीये अहोरात्रे वाह्यानन्तरं तृतीय मण्डलम्वसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः बाह्यानन्तरं तृतीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु द्वाभ्यां रात्रिन्दिवाभ्यां द्वौ भागौ ओजसा रजनीक्षेत्रस्य निर्वर्ध्य, दिवसक्षेत्रस्य अभिवर्ध्य चारं चरति, मण्डलम् अष्टादशभिः त्रिंशता शतैः छित्त्वा तदा खलु अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिभवति चतुर्भिरेकषष्टिभागमुहर्त्तेरूना, द्वादशमुहूर्त्ती दिवसो भवति चतुर्भिरेकषष्टिभाग रधिकः । एवं खलु एतेन उपायेन प्रविशन् सूर्यः तदनन्तरात् तदनन्तरं मण्डला मण्डलं संक्रामन् २ एकैकेन रात्रिन्दिवेन पकैकं भागम् ओजसा रजनीक्षेत्रस्य निर्वर्ध्य २, दिवसक्षेत्रस्य अभिवर्ध्य २ सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं उपसंक्रम्य चारं चरति । तावत् यदा खलु सूर्यः सर्ववाह्यात् मण्डलात् सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं रति तदा खलु सर्ववाह्य मण्डलं प्रणिधाय पकेन व्यशीतिकेन रात्रिन्दिवशतेन एक यशतिकं भागशतम् ओजसा रजनीक्षेत्रस्य निर्वर्ध्य दिवसक्षेत्रस्य अभिवर्ध्य चारं चरति, मण्डलम् अष्टादशभिः त्रिंशता शतैः छित्त्वा तदा खलु उत्तमकाष्ठाप्राप्तः उत्कर्षकः अष्टादशमुहूर्त्ती दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिभंति । पतत् खलु द्वितीयं षण्मासम् । एतत् खलु द्वितीयस्य षण्मासस्य पर्यवसानम् । एष खलु आदित्यः संवत्सरः । पतत् खलु आदित्यस्य संवत्सरस्य पर्यवसानम् ॥ सू० १ ॥ ॥ चन्द्रप्रज्ञप्त्यां षष्ठं प्राभृतं समाप्तम् ६॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रशतिसूत्रे व्याख्या- 'ता' तावत् 'ते' तव भवतो मते 'क' कथं केन प्रकारेण किं सर्वदा एकरूपा उतान्यथा 'ओयसंठिई' ओजः संस्थितिः ओजसः प्रकाशस्य संस्थितिः - संस्थानम् अवस्था नमित्यर्थ 'आहिया' आख्याता कथिता ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् हे भगवन् कथयतु । इति गौतममस्य प्रश्नः । अथ भगवान् एतद्विषये अन्यतैर्थिकानां मान्यतारूपा यावत्यः प्रतिपत्तयः सन्ति ताः प्रदर्शयति- 'तत्थ' इत्यादि । ' तत्थ खलु' तत्र ओजः संस्थितिविषये खल 'इमाओ' इमा अग्रे वक्ष्यमाणाः 'पणवीस पञ्चविंशतिः 'पडिवत्तभो' प्रतिपत्तयः परमतरूपा 'पण्णताओ' प्रज्ञताः कथिताः 'तं जहा ' तद्यथा ता यथा 'तत्थेगे' इत्यादि । 'तत्थ' तत्र पञ्चविंशति संख्यकेषु प्रतिपत्तिवादिषु 'एगे' एके केचन प्रथमा: ' एवं ' एवं वन्यमाणप्रकारेण 'आहंसु ' कथयन्ति, किं कथयन्तीति प्रदर्शयति- 'ता अणुसमयमेव' इत्यादि 'ता' तावत् 'अणुसमयमेव' अनुसमय मेव प्रतिसमयमेव समये समये प्रतिक्षणमित्यर्थः 'सूरियस्स' सूर्यस्य 'ओया' ओजः प्रकाशः, सूत्रे 'ओया' इति स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् 'अण्णा' उप्पज्जइ' अन्यत् उत्पद्यते ' तथा 'अण्णा' अन्यत् अपरमेव अजः 'अवेइ' अपैति पृथक् भवति, अयं भावः सूर्यस्यौजः प्राक्तनं भिन्नप्रमाणमुत्पद्यते प्राक्तनाद् भिन्नमेव ओजः विनश्यति इति । उपसंहारमाह - 'एगे' एके प्रथमा 'एवं' एवं पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहंस' आहुः कथयन्तीति |१| 'एगे पुण' एके द्वितीयाः पुनः 'एवमाहंसु' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः - 'ता' तावत् 'अणुमुहुत्तमेव' अनुमुहूर्तमेव प्रतिमुहूर्त्तमेव 'सूरियस्स ओया' सूर्यस्य ओजः 'अण्णाउत्पज्जइ' अन्यत् उत्पद्यते, 'अण्णा भवेइ' अन्यत् यत् पूर्वमासीत् तत् अपैति विनश्यति, उपसंहारः - 'एगे' एके द्वितीयाः ' एवं ' पवं पूर्वोक्तप्रकारेण 'आईसु' आहुः कथयन्ति |२| ' एवं ' एवम् 'एए' एतेन आद्य प्रतिपत्तिद्वयप्रोक्तेन 'अभिलावेणं' अभिलापेन अभिलापप्रकारेण अग्रेsपि विज्ञेयमिति भावः । तथा च - 'ता' तावत् अणुराइदियमेव ' अनुरात्रिन्दिवमेव प्रत्येकमहोरात्रमेव | ३ | 'ता अणुपक्खमेव' तावत् अनुपक्षमेव |४| 'ता अणुमासमेव ' तावत् अनुमासमेव | ५ | 'ता अणुउउ मेव' तावत् अनुऋतुमेव प्रतिवसन्तादिरूपमेव । ६ । 'ता अणुअयणमेव' तावत् अन्वयनमेव, अयनंनाम दक्षिणायनोत्तरायणरूपं द्वयम् |७| 'ता अणुसंवच्छरमेव ' तावत् - अनुसंवत्सरमेव, संवत्सरः - द्वादशमासरूपः | ८ | 'ता अणुजुगमेव ' तावत् अनुयुगमेव पञ्चवर्षा त्मकयुगमेव | ९| 'ता अनुवाससयमेव ' तावत् अनुवर्पशतमेव | १० | 'ता अणुवाससहस्समेव' तावत् अनुवर्षसहस्रमेव ॥ ११ ॥ ता अणुवाससय सहरसमेव ' तावत् अनुवर्पशत सहस्रमेव अनुलक्षवर्पमेवेत्यर्थः । १२। ‘ता अणुपुञ्चमेव ' तावत् अनुपूर्वमेव ॥ १३ ॥ ता अणुपुञ्चसयमेव तावत् अनुपूर्वशतमेव | १४ | 'ता अणुपुव्वसहस्तमेव तावत् पूर्वसहस्रमेव, | १५ | 'ता अणुपुञ्चस यसहस्समेव ' तावत् अनुपूर्वशतसहस्रमेव, शतसहस्रमिति लक्षम् | १६ | 'ता १७६ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा०६ सू० १ ओजसंस्थितिनिरूपणम् १७७ अणुपलिभोवममेव ' तावत् अनुपल्योपममेव | १७| 'ता अणुपळि ओवमसयमेव' तावत् अनु. पल्योपमशतमेव ।१८। ता अणुपलिओवमसहस्समेत्र' तावत् अनुपल्योपमसहस्रमेव । १९ । अणुपलिओ वमसय सहरसमेव ' तावत् अनुपल्योपमशतसहस्रमेव | २० | 'ता अणुसागरोचममेव' तावत् अनुसागरोपममेव | २१ | 'ता अणुसागरोवमसयमेव' तावत् अनुसागरोपमशतमेव । २२| ता अणुसागरोत्रमसहस्तमेव' तावत् अनुसागरोपमसहस्रमेव ॥ २३॥ 'ता अणुसागरोवमसय सहरसमेव ' तावत् अनुसागरोपमशतसहस्रमेव | २४| 'एगे पुण' एके पञ्चविंशतितमाः परतीर्थिकाः पुनः ' एवं ' एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंस' आहुः कथयन्ति 'ता' तावत् 'अणुउस्सप्पिणिओसप्पिणिमेव' अनुत्सर्पिण्यवसर्पिणीमेव प्रत्येकोत्सर्पिण्यवसर्पिणीका - लमेव 'सूरियस्स ओया' सूर्यस्य ओज. 'अण्णा' अन्यत् अपरं पूर्वस्थितम् 'अवेइ' अपैति बिनश्यति 'एगे' एके पञ्चविंशतितमाः परमतवादिनः ' एवं ' एवं पूर्वप्रदर्शितप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति । इति पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः | २५ | इति, इमाः पूर्वप्रदर्शिताः सर्वा अपि प्रतिपत्तयः मिथ्यारूपाः सन्ति मत आसां निराकरणेन भगवान्' स्वमतमुपन्यस्यति - 'वयं पुण' इत्यादि । 'वयं पुण' वयं तु ' एवं ' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामो' वदामः कथयामः, तदेवाह - 'ता तीसं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'तीस तीस मुहुत्ते' त्रिशतं त्रिशतं मुहूर्त्तान् जम्बूद्वीपे प्रतिवर्ष परिपूर्णतया त्रिंशन्मुहूर्त्तपरिमितकालपर्यन्तम् 'सूरियस्स ओया' सूर्यस्य मनः - प्रकाशः 'अवट्टिया भव' अवस्थितं यथावस्थितं भवति । अयमाशय: - सूर्य संवत्सरस्य पर्यन्तभागे यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डले चारं चरति तदा सूर्यस्य जम्बूद्वीपगतमोजः त्रिशतं मुहर्त्तान् यावत् परिपूर्ण - प्रमाणयुक्तं भवति । 'तेणं परं तेन परं ततोऽनन्तरं सर्वाभ्यन्तरमण्डलात्परम् 'सूरियस्स ओया' सूर्यस्य ओजः 'अणवट्टिया' अनवस्थितं नियतप्रमाणरहितं ' भवइ' भवति । कस्मात् कारणादित्याह- 'छम्मासे' इत्यादि । यतो हि सर्वाभ्यन्तरमण्डलात् अग्रे चरतः सूर्यस्य निष्क्रमणसमय गतान् प्रथमान् सूर्यसंवत्सरसम्बन्धिनः 'छम्मासे' षण्मामान् यावत् 'सूरिए' सूर्यः 'ओयं' खोमः जम्बूद्वीपगतं प्रकाशं 'णिव्बुड्ढेइ' निर्वर्धयति प्रत्यहोरात्रमेकैकस्य त्रिंशदधिकाष्टादशशत १८३० संख्यकभाग सम्बन्धिनो भागस्य होनकरणेन हापयति । एवं तदनन्तरं सूर्यसंवत्सरस्य द्वितीयान् प्रवेशसमयगतान् 'छम्मासे' पण्मासान् यावत् षण्मासपर्यन्तमित्यर्थः 'सूरिए' सूर्यः 'ओय' भोजः प्रकाशम् 'अभिवड्ढे ' अभिवर्धयति प्रत्यहोरात्रं त्रिंशदधिकाष्टा दशशत (१८३०) संख्यभाग सत्कैक भागवर्धनेन तत्र वृद्धिं करोति । एतदेव स्पष्टयति- 'णिक्खममाणे' इत्यादि 'णिक्खममाणे' निष्क्रामन् सर्वाभ्यन्तरमण्डलाद्वहिर्निर्गच्छन् 'सूरिए' सूर्यः २३ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ चन्द्रप्रशति 'देस' देशं भागैकरूप प्रत्येकमण्डले 'णिबुडूढेइ' निर्वर्धयति हापयति, 'पविसमाणे' प्रविशन् सर्वबाह्यमण्डलात् सर्वाभ्यन्तरमण्डलाभिमुखं गच्छन् 'सुरिए' सूर्यः 'देसं' देशं भागैकरूपं प्रत्येकमण्डले 'अभिवड्ढेई' अभिवर्धयति तत्र वृद्धिं करोतीति । अत एवोच्यते सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारसमये त्रिंशन्मुइतन् यावत् परिपूर्णतया सूर्यस्य ओजः अवस्थितं तिष्ठति, ततः परम् अनवस्थितमिति । अत्र गौतमः प्रश्नयति-तत्थ' इत्यादि । 'तत्थ' तत्र-सुयोजसोऽवस्थितानवस्थितविषये 'को' किदृशः 'हेऊ' हेतु. तत्र किंकारणम् १ 'तिवएज्जा' इति वदेत् हे भगवन् तत्र कारणं वदतु कथयतु । अथ भगवान् तत्कारणं प्रदर्शयन्नाह-'ता अयण्णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'अयण्णं' अयं खलु लोकप्रसिद्धः 'जम्बुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपो द्वीपः मध्यजम्बूद्वीपः 'जाव' यावत् 'परिक्खेवेणं पण्णत्ते' परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः, यावत्पदेन जम्बूद्वीपप्रमाणं सर्वमन्त्र वाच्यम् । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल 'मरिए' सूर्यः सचन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरई' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं तदा खलु 'उत्तमकट्टपत्ते' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्पसंपन्नः 'उक्कोसए' उत्कर्षक: सर्वोत्कृष्टः 'अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति, 'जहणिया' जघन्यिका सर्वलध्वी 'दुवालसमुहुत्ता राई भवई' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिभवतीति ज्ञातव्यम् । ___ अथ सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलान्निष्क्रमणसमयव्यवस्था प्रदर्शयति-से णिक्खममाणे इत्यादि । 'से' सः "णिक्खममाणे' निष्क्रामन् सर्वाभ्यन्तरमण्डलात् सर्वबाह्यमण्डलाभिमुखं गच्छन् 'सूरिए' सूर्यः ‘णवं संवच्छर' नवं संवत्सर दिवसहापनरात्रिवर्धनरूपम् 'अयमाणे' अयन् प्राप्नुवन् 'एढमंसि अहोरत्तंसि' प्रथमेऽहोरात्रे 'अभितराणंतरं मंडलं' अभ्यन्तरानन्तरं सर्वाभ्यन्तरमण्डलाद् द्वितीयं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चार चरति । 'ता' तावत् जया णं' यदा खलु 'सरिए' सूर्यः' अभितराणंतरं मंडलं' अभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं मण्डलम् 'उपसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं तदा खलु 'एगेणं राइदिएणं' एकेन रात्रिन्दिवेन एकाहोरात्रेण सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतेन 'एगं भागं ओयाए' एकं भागमोजसः 'दिवसखित्तस्स' दिवसक्षेत्रस्य दिवसक्षेत्रगतस्य 'णिव्वुड्ढित्ता' निर्वर्थ्य हापयित्वा प्रथमक्षणादूचं शनैः शनैः कलामात्रहापनेन अहोरात्रस्य पर्यन्तभागे न्यूनीकृत्य, नथा एवमेव 'रयणिखेत्तस्स' रजनीक्षेत्रस्य रजनीक्षेत्रगतस्य ओजसस्तमेव एक भागम् 'अभिवइढित्ता' अभिवय॑ च 'चारं चरई' चारं चरति मण्डलं कैच्छित्त्वा एक भाग हापयति वर्धयतीत्यत्राह 'मंडलं' मण्डलं मर्वाभ्यन्तराद् द्वितीयं मण्डलम् 'अटारसहिं तीसेहि सएहि' अष्टादशभिः त्रिंगता गतः त्रिशदधिकाप्टादशशतैः (१८३०) 'छित्ता' छित्त्वा विभज्य । अयं भावः-एकस्य मण्डलस्य त्रिंशदधिकाष्टादशशतभागाः कस्थ्यन्ते, तत्सम्बन्धिनमेकं भागमिति । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा०-६ सू० १ भीजसंस्थितिनिरूपणम् १७९ ते पुनस्त्रिंशदधिकाष्टादशशत भागाः कथं कल्प्यन्ते ? इति प्रदर्श्यते - इह - एकैकं मण्डलं द्वौ सूर्यौ एकैकेनाहोरात्रेण परिभ्रम्य पूरयतः । अहोरात्रश्च त्रिंशन्मुहूर्त्त प्रमाणो भवति, प्रतिसूर्यं चाहोरात्रगणनायां परमार्थतो द्वयोः सूर्ययोः द्वौ अहोरात्रौ भवतः । अतो द्वयोरहोरात्रयोर्मुहूर्त्ताः षष्टिसंख्यका नायन्तेऽतो मण्डलं प्रथमतः षष्ट्या भागैर्विभज्यते एकस्य मण्डलस्य पष्टिभागा जाता इत्यर्थः । अथ निष्क्रामन्तौ द्वौ सूर्यो प्रत्यहोरात्रं प्रत्येकं द्वौ द्वौ मुहूर्त्तेक षष्टिभागौ हापयत, प्रविशन्तौ चाभिवर्धयतः, ततश्च द्वौ मुहूर्त्ते कषष्टिभग समुदितौ भवतः, तयोरेकः सार्वत्रिंशत्तमो भागो भवति, ततः षष्टिरपि भागाः सार्वत्रिशताते जाताखिशदधिकाष्टादशशतभागा (६० x ३० ॥ = १८३० ) । अत्र गुण्याङ्काः षष्टि (६०) गुणकाङ्क्षाः सार्धत्रिंशत् (३०|) अनयोर्गुणने समायाति यथोका संख्या (१८३०) इति । एवं निष्क्रामन् सूर्यः प्रतिमण्डलं त्रिंशदधिकाष्टादशशतसंख्यकभागानां सत्कमेकैकं भागं दिवसक्षेत्रगतस्य भोजस. ( प्रकाशस्य) हापयन् हापयन् रजनीक्षेत्रस्य चाभिवर्धयन् अभिवर्धयन् सूर्यः सर्ववाह्यमण्डले गच्छति ततः सर्वबाह्यमण्डलपर्यन्तमेव वक्तव्यम् । सर्व वाह्यमण्डले त्र्यशीत्यधिकमेकं शतं (१८३ ) भागानां दिवसक्षेत्रगतस्य प्रकाशस्य हापनेन रजनीक्षेत्रस्य चाभिवर्धनेन भवति । एतच्च त्र्यशीत्यधिकं भागशतं त्रिंशदधिकाष्टादशशतभागानां दशमो भागो भवति, ततः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात् सर्वचाह्यमण्डले दिवसक्षेत्रस्य जम्बूद्वीपचक्रवालदशभागस्त्रुट्यति, रजनी क्षेत्रस्य चाभिवर्धते इति पूर्वमभिहितमेव । एवमेव सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं प्रविशन् प्रतिमण्डलं त्रिंशदधिकाष्टादशशत भागानां सत्क मेकैकं भागं दिवसक्षेत्रगतस्य प्रकाशस्याभिवर्धयन् रात्रिक्षेत्रगतस्य प्रकाशस्य च हापयन् तावद् वक्तव्यं यावत् सर्वाभ्यन्तरे मण्डले त्र्यशोत्यधिकैकशतभागं (१८३) दिवसक्षेत्रगतस्य प्रकाशस्याभिवर्धयति, रजनीक्षेत्रस्य च त्र्यशीत्यधिकशतभागं हापयति । एतत् त्र्यशीत्यधिकं भागशतं च जम्बूद्वीपचक्रवालस्य दशमो भागो भवति, ततः सर्वबाह्य मण्डलात् सर्वाभ्यन्तरमण्डले दिवसक्षेत्रगतस्य प्रकाशस्यैको दशमश्चक्रवालभागोऽभिवर्धते, रजनीक्षेत्रस्य चैषस्त्रुट्यति, इति यत् प्रागभिहितं तत्समुचितमेवेति । एतत्सर्वं भगवान् मूळे प्रदर्शयिष्यति । तदेवाह - ' तया णं' इत्यादि । 'तया णं' तदा सूर्यस्य निष्क्रमणसमये खलु यदा एकेन रात्रिन्दिवेन एकं भागं दिवसक्षेत्रगतस्य प्रकाशस्य हापयित्वा रजनीक्षेत्रस्य चाभिवर्ध्य सूर्यश्चारं चरति तदा इत्यर्थः, 'अद्वारसमुहुत्ते दिवसे भव' अष्टादशमुहूर्त्ते दिवसो भवति किन्तु स. ' दोहिं एगसट्टिभागमुहुत्तेहिं ऊणे' द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्त्ताभ्यासूनः - होनो भवति, 'दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, सा च 'दोहिं एगसद्विभागमुहुत्तेर्हि' अहिया द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्त्ताभ्यामधिका भवतीति । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे पुनश्च–'से' सः 'णिक्खममाणे सुरिए' निष्क्रामन् सूर्यः 'दोच्चंसि अहोरत्तसि' द्विती. येऽहोरात्रे 'अभिंतराणंतरं तच्चं मंडलं माभ्यन्तरानन्तरम् सर्वाभ्यन्तरमण्डलादतनं तृतीयं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उवसंक्रम्य चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा बलु 'सूरिए' सूर्यः 'अभिंतराणंतरं तच्चं मंडलं, आभ्यन्तरानन्तरं तृतीयं मण्डलम् 'उपसंकमित्ता चार चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खल 'दोहिं राईदिएहि' द्वाभ्यां रात्रिन्दिवाभ्यां 'दो भागे' द्वौ भागौ 'ओयाए' ओजसः 'दिवसखेत्तस्स' दिवसक्षेत्रस्य दिवसक्षेत्रगतस्य 'णिन्चुइढित्ता' निर्वर्ण्य-हापयित्वा, तथा--'रयणिखेत्तस्स' रजनीक्षेत्रस्य रजनीक्षेत्रगतस्य 'अभिवड्ढेत्ता' अभिवर्ध्य 'चारं चरई' चारं चरति, 'मंडलं' मण्डलम् 'अद्वारसहिं तीसेहि सरहि' अष्टादशभिः त्रिंशता शतैः त्रिंशदधिकाष्टादशशतैः 'छेत्ता' छित्वा विभज्य मण्डलस्यविभागाः करणीया इत्यर्थः । 'तया गं' तदा खलु 'अद्वारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति, स च 'चउहि एगसद्विभागमुद्दुत्तेहिं चतुभिरेकपष्टिभागमुहूर्तः 'ऊणे' ऊनः हीनो भवति । तथा 'दुवालसमुहुत्ता राई भवई' द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति, सा च 'चउहि एगसद्विभागमुहुत्तेहिं चतुभिरेकषष्टिभागमुहूतैः 'अहिया' अधिका भवति । 'एव खलु' एवम्अनेन प्रकारेण खल 'एएण' एतेन पूर्वप्रदर्शितेन 'उवाएण' उपायेन युक्तिरूपेण "णिक्खममाणे सुरिए' निष्क्रामन् सूर्यः 'तयाणंतराओ तयाणंतरं तदनन्तरात् तदनन्तरं 'मंडझाओ मंडलं' मण्डलान्मण्डलम् एकस्मान्मण्डलाद् अग्रेतनं द्वितीय मण्डलं-'संकममाणे २' संकामन् २ 'एगमेगे मंडले' एकैकस्मिन् मण्डले 'एगमेगेणं राइदिएणं' एकैकेन रात्रिन्दिवेन'एगमेगं भार्ग' एकैकं भागम् 'ओयाए' ओजसः 'दिवसखेत्तस्स' दिवसक्षेत्रस्य दिवसक्षेत्रग. तस्य 'णिवढेमाणे २' निर्वर्धयन् २ हापयन् २, 'रयणिखेत्तस्स रजनीक्षेत्रगतस्य मोज सश्च एकैकं भागम् 'अभिबढेमाणे २' अभिवर्धयन् २, 'सव्ववाहिरं मडलं' सर्वबाह्य मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसक्रम्य चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया गं' यदा खल 'रिए' सूर्यः 'सबभतराओ मंडलाओ' सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात् 'सव्ववाहिरं मंडलं' सर्वबाह्य मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा स्खल 'सब्वभंतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डल 'पणिहाय' प्रणिधाय अवधीकृत्य 'एगेणं नेसीएणं राइदियसएणं' एकेनत्र्यशीतिकेन त्र्यशीत्यधिकेन रात्रिन्दिवशतेन त्र्यशीत्यधिकैकशतसंख्यकैरहोरात्रैः (१८३) 'एगं तेसीयं भागसंयं' एक व्यशंतिकं भागशतं व्यशीत्यधिकै कशततम भागम् 'ओयाए' ओजसः 'दिवसखेत्तस्म' दिवसक्षेत्रगतस्य 'णिबुड्ढेत्ता' निर्वर्थ्य हापयित्वा, 'श्यणिखेत्तस्स' रजनी क्षेत्रस्य च 'अभिव्बुड्ढेत्ता' अभिवर्ध्य चारं चरति, मण्डलम् तन्मण्डलं 'अट्ठारसेहिं तीसेहिं सएहि' अष्टादशमिः त्रिंशता अधिकैः शतैः (१८३०) 'छेत्ता' छित्त्वा विभज्य विभज्यन्ते इत्यर्थः Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०६ सू०१ ओजसंस्थितिनिरूपणम् १८१ भागाः क्रियन्ते इति भावः । 'तयाणं' तदा खलु तत्प्रस्तावे खलु 'उत्तमकट्टपता' उत्तमकाष्ठाप्राप्ता परमप्रकर्षयुका 'उक्कोसिया' उत्कर्पिका सर्वगुर्वी 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ' अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति 'जहण्णए' जयन्यकः सर्वलघु' 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ' द्वादशमु. हूत्तों दिवसो भवति । उपसहारमाह-'एस ' इत्यादि । 'एस गं' एतत् पूर्वप्रदर्शितं खलु 'पढमे छम्मासे' प्रथमं सूर्यस्य निष्क्रामणेन संजातं रात्रिवृदि-दिवसहानिरूपं षण्मासम् । 'एस णं' एतदेव खलु 'पढमस्स छम्मासस्स' प्रथमस्य षण्मासस्य ‘पज्जवसाणे' पर्यवसानम्-अन्तिममहोरात्रमिति ॥ अथ सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डले प्रवेशस्य वक्तव्यतामाह-'से पविसमाणे' इत्यादि । 'से सः 'पविसमाणे' प्रविशन् सर्वाभ्यन्तरमण्डलाभिमुखं गच्छन् 'मुरिए' सूर्यः 'दोच्चं' द्वितीयं दिवसवृद्धिरात्रिहानिरूपं 'छम्मासं' षण्मासं 'अयमाणे' भयन् प्राप्नुवन् 'पढमंसि अहोरत्तंसि' प्रथमेऽहोरात्रे 'वाहिराणवरं मंडलं' वाह्यानन्तरं सर्वबाह्यमण्डलाद्वितीय मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल 'सरिए' सूर्यः 'बाहिराणंतरं मंडलं' बाह्यानन्तरं द्वितीयं मण्डलम् 'उपसंकमित्ता चार चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया गं' तदा खल ‘एगे णं राइदिएणं' एकेन रात्रिन्दिवेन 'एगं भाग' एक भागम् 'ओयाए' भोजसः प्रकाशस्य, कीहशत्य !-'रयणिखेत्तस्स' रजनीक्षेत्रगतस्य 'णि ड्डित्ता' निर्वर्ण्य हापयित्वा, तथा 'दिवसखेत्तस्स' दिवसक्षेत्रस्य ओजसः-एक भागं 'अभिवुड्ढेत्ता' अभिवर्ध्य 'चारं चरई' चारं चरति । 'मंडलं' मण्डलं च 'अट्ठारसहि तीसेहि सएहि अष्टादशशतै स्त्रिंशदधिकः 'छेत्ता' छित्वा विभज्य मण्डलस्य त्रिंशदधिकाष्टादशशतभागाः कर्त्तव्या इति भावः । 'तया णं' तदा खल 'अहारसमुहुत्ता राई भवई' अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, सा च 'दोहि एगसहिभागमुहुत्तेहिं' द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्ताभ्याम् 'उणा' ऊना हीना भवति, 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ' द्वादशमुहूत्र्तो दिवसो भवति, स च 'दोहि एगसद्विभागमुहुत्तेहिं अहिए' द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्ताभ्यामधिको भवति । पुनश्च 'से' सः 'पविसमाणे सूरिए' प्रविशन् सर्यः 'दोच्चंसि अहोरत्तंसि' द्वितीयेऽहोरात्रे 'वाहिराणंतरं' बाह्यानन्तरं बाह्यभागादगेतनं तच्चं मंडलं' तृतीयं मण्डलम् ‘उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसक्रम्य चारं चरति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल 'मूरिए' सूर्यः वाहिराणंतरं तच्चं मंडलं' बाह्यानन्तरं तृतीय मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु दोहिं राईदिएहि' द्वाभ्यां रात्रिन्दिवाभ्यां 'दो भाए, द्वौ भागो ओयाए' ओजसः 'रयणिखेत्तस्स' रजनीक्षेत्रगतस्य 'णिचुडढेत्ता' निर्वयं हापयित्वा 'दिवसखेत्तस्स' दिवसक्षेत्रगतस्य च ओजसो द्वौ भागौ 'अभिव्वुड्ढेत्ता' अभिवर्ध्य चारं चरति, 'मंडलं' तन्मण्डलं च 'अट्ठारसेहिं तीसेहि Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्र सएहि' त्रिंशदधिकाष्टादशशतैः 'छेत्ता' छित्वा विभज्य मण्डलस्य भागान् कृत्वा सूर्यश्चारं चर. तीति भावः । 'तया णं तदा खलु अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ' भष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, सा च 'चउहिं एगसहिभागमुहुत्तेहिं उणा' चतुर्मिरेकपष्टिभागमुहूर्तः ऊना भवति । 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' द्वादशमुहूत्चों दिवसो भवति, स च 'चउहिं एगसहिभागमुहुत्तेहिं चतुर्भिरेकपष्टिभागमुहूतैः 'अहिए' अघिको भवति । 'एवं खलु' एवमनेन प्रकारेण खलु 'एएणं उवाएणं' एतेन पूर्वोक्तरूपेण उपायेन विधिना 'पविसमाणे सुरिए' प्रविशन् सूर्यः 'तयाणंतराओ तयाणंतरं' तदनन्तरात् तदनन्तरं 'मंडलाओ मंडलं' मण्डलान्मण्डलं 'संकममाणे २' संक्रामन् २ 'एगमेगेणं राइंदिएणं' एकैकेन रात्रिन्दिवेन 'एगमेगं भागं' एकैकं भागम् मोजसः 'रयणिखेत्तस्स' रजनीक्षेत्रगतस्य 'णिव्वुझेढमाणे २' निर्वर्धयन् २ हापयन् २, तथा 'दिवस खेत्तस्स' दिवसक्षेत्रगतस्य 'अभिवुड्ढेमाणे २' अभिवर्धयन् २ 'सबभतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चार चरति 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल 'मूरिए' सूर्यः 'सब्बवाहिराओं' सर्वबाद्यान्मण्डलात् 'सबभंतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खल 'सव्ववाहिरं मंडलं' सर्वबाह्यमण्डलं 'पणिहाय' प्रणिधाय अवधीकृत्य तत आरभ्येत्यर्थः ‘एगेणं तेसीएणं राइंदियसएणं' ज्यशीत्यधिकैकशत (१८३) संख्यकैः रात्रिन्दिवैः 'एग तेसीयं भागसयं' यशोत्यधिकैकशततमं मागम् 'ओयाए' ओजसः 'स्यणिखेत्तस्स' रजनीक्षेत्रगतस्य 'णिव्वुड्ढेत्ता' निर्व हापयित्वा, तथा 'दिवसखेत्तस्स' दिवसक्षेत्रगतस्य च मोजसः एक भाग 'अभिवुड्ढेत्ता' अभिवर्य 'चारं चरई' चारं चरति, 'मंडलं' तन्मण्डलं च 'अट्ठारसेहि तीसेहिं सएहि' त्रिंशदधिकाष्टादशशतसंख्यकैः छित्त्वा भागान् कृत्वा मण्डलस्य भागाः कर्तव्याः । 'तया णं तदा खल 'उत्तमकहपत्ते' उत्तमकाष्ठा प्राप्तः परमप्रकर्पसंपन्नः 'उक्कोसए' उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्टः 'अट्ठारस. मुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, 'जहणिया' जयन्यिका सर्वलघ्त्री 'दुवा. लसमुहुत्ता राई भवई' द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवतीति । उपसंहार एवं वाच्यः, तथाहि-एवं पूर्वोक्तप्रकारेण व्यवस्थायां सत्यां कथ्यते यत्-प्रति सूर्य संवत्सरपर्यन्तभागे सर्वाभ्यन्तरे मण्डले त्रिशनं मुहूर्तान् यावत् सूर्यस्य परिपूर्णमोजः भव स्थितं भवति, ततः परमनवस्थितं भवति । सर्वाभ्यन्तरेऽपि च मण्डले त्रिंशद् मुहूर्त्तान् यावत् परिपूर्णमवस्थितमोज. कथ्यते, एतद् व्यवहारतो विज्ञेयम, निश्चयतः पुनस्तत्रापि प्रथमक्षणादूर्व शनैः शनैः हियमाणं ज्ञातव्यम् यतो हि प्रथमक्षणादूर्ध्व सूर्यः एकस्मान्मण्डलादनन्तरं द्वितीयमण्डलाभिमुखं चारं चरतीति । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० ६ सू १ भोजसंस्थितिनिरूपणम् १८३ उप संहारमाह-'एस गं' इत्यादि । 'एस णं' एतत्खलु 'दोच्चे छम्मसे' द्वितीयं षण्मासम् । 'एस णं' एतत्खलु 'दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे' द्वितीयस्स पण्मासस्य पर्यवसानम् अन्तिममहोरात्रमिति । 'एस णं आइच्चे संवच्छरे' एष खल मादित्यः संवत्सरः समाप्तः । 'एस णं' एतत् खलु 'आइच्चस्स संवच्छरस्स' आदित्यस्य संवत्सरस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसा. नम्-अन्तिममहोरात्रमस्तीति ।सू० १॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहुच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त "जैनशास्त्राचार्य" पदभूषित-कोल्हापुर राजगुरु बालब्रह्मचारि-जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलालति-विरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका 'ख्यायां व्याख्यायां षष्ठं प्राभृतं समाप्तम् ॥५॥ || श्रीरस्तु ॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्यातं पष्ठं प्रामृतम् व्याख्यातं षष्ठं प्रामृतम् । तत्र-ओजःसंस्थिति प्रतिपादिताः, अथ सप्तमं प्रामृतं व्याख्यायते तस्य चायमाधिकारः किं ते सूरियं वरई' किं ते सूर्य वरयति ! हे भगवन् तव मते सूर्य कः वरयति प्रकाशयति, इत्येतदधिकारं विवृण्वन्नाह–'ता किं ते सरियं' इत्यादि । ___मूलम्-ता किं ते सरियं वरह आहितेति वएज्जा । तत्थ खलु इमाओ वीसई पडिवत्तीभो पण्णत्ताओ, तं जहा-तत्थ खलु एगे एवमासु-ता मंदरे णं पन्चए परियं वरइ, एगे एवमासु ।१। एगे पुण एवमाहंस-ता मेरुवणं पच्चए सरियं वरइ, एगे एव मासु ।२। एवं एएणं अभिलावेणं जाव चीसइमा पडिवत्ती जाव ता पन्चयराएणं पव्वए सुरियं वरइ, एगे एवमाहंसु ।२०। वयं पुण एवं व्यामो मंदरे वि पवुच्चइ, मेरू वि पधुच्चइ, एवं जाव पचयराओ वि पवुच्चइ । ता जे ण पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसंति ते णं पोग्गला सूरियं वरंति, अदिहावि गं पोग्गला सूरियं वरंति, चरमलेस्संतरगया वि णं पोग्गला सूरियं वरंति ॥२०॥ चंद पन्नत्तीए सत्तमं पाहुडं समत्तं ॥७॥ छाया- तावत् कस्ते सूर्य घरयति आख्यात इति वदेत् । तत्र खलु इमा विशतिः प्रतिपत्तयः प्रशप्ता, तद्यथा-तत्र खलु एके पवमाहुः तावत् मन्दरः खलु पर्वतः सूर्य वरयति, पके एवमाहुः ।। एके पुनरेवमाहुः-तावत् मेरुः स्खलु पर्वतः सूर्य वरयति, एके पवमाहुः ।२। पवम् एतेन अभिलापेन यावत् विशतितमा, प्रतिप्रतिः, यावत्-तावत् पर्वतराजः खलु पर्वतः सूर्य वरयति एके पचमाहुः ।२०। वयं पुनरेवं वदामः-मन्दरोऽपि प्रोच्यते, मेरुरपि प्रोच्यते, एवं यावत् पर्वतराजोऽपि प्रोच्यते । तावत् ये खलु पुद्गलाः सूर्यस्य लेश्यां स्पृशन्ति ते खलु पुद्गला. सूर्य धरयन्ति, अष्टा अपि स्खलु पुद्गलाः सूर्य वरयन्ति, चरमलेश्यान्तरणता अपि स्खलु पुद्गलाः सूर्य वरयन्ति ।।स्० ॥ चन्द्रप्राप्त्यां सप्तमं प्राभृतं समाप्तम् ॥७॥ व्याख्या -'ता' तावत् 'किं' कः 'ते' तवमते 'मूरियं' सूर्य 'वरइ वरयति' वर ईप्सायाम् वरयन् आप्तुमिच्छन् स्वप्रकाशकत्वेन स्वीकुर्वन् 'आहिए' आख्यातः १ 'तिवएज्जा' इति वदेत् । अत्र भगवान् प्रतिपत्तीः प्रदर्शयति-तत्थ खलु' तत्र सूर्यस्य वरणविषये खल 'इमाओ' इमाः वक्ष्यमाणाः 'वीसई विंशतिः विंशतिसंख्यकाः 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः परमतरूपाः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ताः, 'तं जहा' तद्यथा-ता यथा-'तत्थ खलु' तत्र विंशति-प्रतिपत्तिवादिषु मध्ये खल 'एगे' एके प्रथमाः 'एवं' एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंस' आहुः कथयन्ति 'ता' तावत् 'मंदरेण पचए' मन्दरः खल पर्वतः 'सरिय' सूर्य 'वरई वरयति मन्दरः पर्वतो हि सूर्येण Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्ति प्रकाशिकाटीका प्रा० ७ सू० १ सूर्यवरणनिरूपणम् १८५ मण्डलपरिभ्रम्या सर्वतः प्रकाश्यते ततः सः सूर्य स्वप्रकाशकत्वेन वरयतीति प्रोच्यते । एवमप्रेऽपि बोध्यम् । 'एगे एवमासु' एके प्रथमा एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः ॥१॥ 'एगे पुण' एके द्वितीयाः पुनः ‘एवं' एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहेसु' आहु. 'ता' तावत् 'मेरू णं पव्वए' मेरः खलु पर्वतः 'सूरिय' सूर्य 'वरई' वरयति, 'एगे एवमासु' एके हितोया एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः । 'एवं' अनेन प्रकारेण 'एएणं' एतेन पूर्वोक्तेन 'अभिलावेणं' अभिलापेन अग्रेऽपि आलापकाः कर्तव्याः। कियत्पर्यन्तमित्याह-'जाव' इत्यादि । 'जाव' यावत् 'वीसइमा' विंशतितमा 'पडिवत्ती' प्रतिपत्तिः भवेत् 'जाव' यावत् 'ता' पूर्ववत् 'पव्ययराए णं पव्वए' पर्वतराजः खलु पर्वतः 'मूरियं वरई' सूर्य वरयति 'एगे एवमासु' एके विंशतितमाः प्रतिपत्तिवादिनः एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः कथयन्ति । अत्र मन्दरादारभ्य पर्वतराजपर्यन्तं विशतिशब्दानां व्याख्या पूर्व पञ्चमप्रामृते सूर्यस्य लेप्याप्रतिघातप्रकरणे कृतेति तत्र विलोकनीया । एता विंशतिरपिप्रतिपत्तयो मिथ्यारूपाः एकस्य मन्दरस्यैव विंशतिनामवत्वात् तदेव भगवान् स्वमतं प्रदर्शयन्नाह-'वयं पुण' इत्यादि । 'वयं पुण' वयं पुनः वयं तु 'एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामो' वदामः कथयामः-'मंदरेवि पवुच्चई मन्दरोऽपि प्रोच्यते- एते विंशतिप्रतिपत्तिवादिनः अन्यान्य नाम माश्रित्य कथयन्ति किन्तु विंशतिनामवान् एक एव पर्वतो वर्तते नान्यः। एप एव पर्वतः मन्दर इति प्रोच्यते । तथा 'मेरू वि पवुच्चइ मेरुरपि प्रोच्यते 'एवं जाव पचयराओ वि पवुच्चई' एवं यावत् मनोरमादारभ्य विशतितमना मवान् पर्वतराजोऽपि प्रोच्यते एपां नाम्नां सार्थकत्वं पश्चमप्रामृते सविस्तर प्रदर्शितं तत्तत्र विलोकनीयम् । न केवलं मेरुरेव सूर्य वरयति किन्तु अन्येऽपि पुद्गलाः सूर्य वरयन्तीत्याह- ता जे णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जेणं' ये खलु 'पोग्गला' पुग्दलाः 'सूरियस्स लेस्सं फुसंति' सूर्यस्य लेश्यां स्पृशन्ति ते णं पोग्गला' ते खलु पुगदलाः 'सूरियं वरंति' सूर्य वरयन्ति पुनश्च 'अदिहा विणं पोग्गला' अदृष्टा अपि खलु पुद्गला ये च प्रकाश्यमानपुद्गलस्कन्धान्तर्गता मेरुस्थिताः सूर्येण प्रकाशिता अपि अतिसूक्ष्मत्वान्न दृष्टिस्पर्शमुपयान्ति ते अदृष्टा अपि पुद्गलाः खलु प्रागुक्तरीत्या 'सूरियं वरंति' सूर्य वरयन्ति, तेषामपि सूर्येण प्रकाश्यमानत्वात् । पुनश्च 'चरमलेस्संतरगया वि णं पोग्गला' चरमलेश्यान्तर्गता अपि सूर्यप्रकाशान्तर्वत्तिनोऽपि खलु पुद्गला 'सूरियं वरंति' सूर्य वरयन्तीति ॥सू०१॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक्रपञ्चदशभापाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहु छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त "जैनशास्त्राचार्य" पदभूषित-कोल्हापुर राजगुरु बालब्रह्मचारि-जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलालवति-विरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका ख्यायां व्याख्यायां सप्तमं प्राभृतं समाप्तम् ॥५॥ || श्रीरस्तु ॥ २१ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ अष्टमं प्रामृतम् ॥ गतं सप्तमं प्रामृतम् , तत्र कः सूर्य वरयतीत्युक्तम् । अथाष्टममारभ्यते, अस्य चाय मर्थाधिकारः-'कहं ते उदयसंठिई' कथं ते उदयसंस्थितिः केन प्रकारेण सूर्य उदेति, इति पूर्वप्रति ज्ञातमेवार्थ प्रदर्शयति-ता कह ते उदयसंठिई' इत्यादि । मूलम्-ता कह ते उदयसंठिई आहिया ? ति वएज्जा । तत्थ खल्ल इमाओ तिण्णि पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-तत्थ एगे एवमाहंसु-ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणइढे अटारसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं उत्तरड्ढे वि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ । ता जया णं उत्तरड्ढे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ तयाणं दाहिणड्ढे वि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ । ता जया णं दाहिणड्ढे सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं उत्तरड्ढे वि सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, ता जया णं उत्तरड्ढे सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं दाहिणड्ढे वि सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवइ । एवं एएणं अभिलावेणं सोलसमुहुत्ते, पण्णरसमुहुत्ते, चोदसमूहुत्ते तेरसमुहुत्ते। ता जया णं दाहिणड्ढे वारसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं उत्तरड्ढे वि वारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जया णं उत्तरड्ढे वारसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं दाहिगड्ढे वि वारसमुहुत्ते दिवसे भवइ । तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिम पच्चत्थिमेणं सया पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, सया पण्णरसमुहुत्ता राई भवइ, अवट्ठिया णं तत्थ राइंदिया पण्णत्ता समणाउसो एगे एवमाइंसु ॥१॥ __एगे पुण एवमाइंसु-ता जया णं जबुद्दीवेदीवे दाहिणड्ढे अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ तया णं उत्तरड्ढे वि अहारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ, जया णं उत्तरड्ढे अट्ठारसमुद्त्ताणतरे दिवसे भवइ तया णं दाहिणड्ढे वि अहारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ । एवं परिहवियव्वं-सत्तरसमुहुत्ताणतरे, सोलसमुहुत्ताणंतरे, पण्णरसमुहुत्ताणंतरे, चउइसमुहुत्ताणंतरे, तेरसमुहुत्ताणंतरे, ता जया णं दाहिणड्ढे वारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ तया णं उत्तरड्ढे वि वारसमहुत्ताणतरे दिवसे भत्रइ, जया णं उत्तरड्ढे वारसमुहुत्ताणंतरे दिवमे भवड तया णं दाहिणड्ढे वि वारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्य पच्चयस्स पुरस्थिमपच्चस्थिमेणं नो सया पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, नो सया पण्णरसमुहत्ता राई भवइ, अणवदिया णं तत्य राइंदिया पण्णत्ता समणाउसो ! एगे एवमाहंस ॥२॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० ८ सू० ३ सूर्यस्य उदयसंस्थितिनिरूपणम् १८७ एगे पुण एवमासु-ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे अहारसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, जया णं उत्तरइढे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं दाहिणड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । ता जया णं दाहिणड्ढे अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ.तया णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, जया णं उत्तरढे अहारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ तया णं दाहिणड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । एवं सत्तरसमुहुत्ते दिवसे, सत्तरसमुहुत्ताणतरे, सोलसमुहुत्ते सोलसमुहुत्ताणंतरे, पण्णरसमुहुत्ते, पण्णरसमुहुत्ताणंतरे, चउद्दसमुहुत्ते चउद्दसमुहुत्ताणतरे, तेरसमुहुत्ते, तेरसमुहुत्ताणंतरे । ता जया णं दाहिणडूढे वारसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं उत्तरड्ढे वारसमुहुत्ता राई भवइ, जया गं उत्तरड्ढे वारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ तया ण जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमपच्चत्थिमेण णेवत्थि पण्णरसमुहुत्ते दिवसे णेवत्थि पण्णरसमुहुत्ता राई भवइ वोच्छिण्णाणं तत्थ राइंदिया पण्णत्ता समणाउसो एगे एवमाहंमु ॥३॥ सू० १॥ छाया-तावत् कथं ते उदयसंस्थितिः आझ्याता इति वदेत् । तत्र खलु इमाः तित्रः प्रतिपत्तयः प्रशप्ताः तद्यथा-तत्र एके एचमाहुः-तावत् यदा खल्लु जम्बुद्वीपे द्वीपेदक्षिणार्धे अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति तदा खलु उत्तरार्धेऽपि अष्टादशमुहत्तों दिवसो भवति । तावत् यदा खलु उत्तरार्धे अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति तदा खलु दक्षिणार्धेऽपि अष्टादशमुहत्तौ दिवसो भवति । तावत् यदा खलु दक्षिणार्धे सप्तदशमुहत्तॊ दिवसो भवति तदा खलु उत्तरार्धेऽपि सप्तदशमुहतों दिवसोभवति, तावद् यदा खलु उत्तरार्धे सप्तदशमुहूत्तों दिवसो भवति तदा खलु दक्षिणार्धेऽपि सप्तदशमुहत्तों दिवसो भवति । पम्व एतेन अभिलापेन पोडशमुहूर्त्तः, पञ्चदशमुहतः, चतुर्दशमुहर्तः, त्रयोदशमुहर्त्तः । तावत् यदा खलु दक्षिणार्धे द्वादशमुहत्तों दिवसो भवति तदा खलु उत्तरार्धेऽपि द्वादशमुहत्ततॊ दिवसो भवति यदा खलु उत्तरार्धे द्वादशमुहत्तों दिवसो भवति तदा स्खलु दक्षिणार्धेऽपि द्वादशमुहत्तों दिवसो भवति, तदा खलु जम्बुद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्यपाश्चात्ये सदा पञ्चदशमुहर्तो दिवसो भवति, सदा पञ्चदशमुहर्ता रात्रिर्भवति, अवस्थितानि खलु रात्रिन्दिवानि प्रज्ञप्तानि श्रमणायुष्मन्तः, एके एवमाहुः ॥१॥ ___ एके पुनरेवमाहुः-तावत् यदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणा) अष्टादशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति तदा खलु उत्तरार्धेऽपि अष्टादशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति, यदा वलु उत्तरार्धे अष्टादशमुहर्त्तानन्तरो दिवसो भवति तदा खलु दक्षिणार्धेऽपि अष्टादशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति । एवं परिहातव्यम्-सप्तदशमुहूर्तानन्तरः, षोडशमुहूर्तानन्तरः, पञ्चदशमुहर्तानन्तरः, चतुर्दशमुहनिन्तरः, त्रयोदशमुहूर्तानन्तरः । तावत् यदा खलु दक्षिणार्धे द्वादशमुहर्तानन्तरो दिवसो भवति तदा खलु उत्तरार्धेऽपि द्वादशमुहूर्त्तानन्तरो दिवसो भवति, यदा खलु उत्तरार्ध द्वादशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति तदा खलु दक्षिणार्धेऽपि Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रप्तिसूत्रे द्वादशमुनिन्तरो दिवसो भवति, तदा खलु जम्बुद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्य - पाश्चात्ये नो सदा पञ्चदशमुत्तों दिवसो भवति, तो सदा पञ्चदशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, अनवस्थितानि खलु तत्र रात्रिन्दिवानि प्रज्ञप्तानि श्रमणायुष्मन्तः, एके पवमाहुः |२| १८८ एके पुनरेवमाहुः -- तावत् यदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणायें अष्टादशमुहूर्त्ती दिवसो भवति तदा खलु उत्तरार्धे द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, यदा खलु उत्तराधे श्रष्टादशमुत्तों दिवसो भवति तदा खलु दक्षिणार्धे द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति । तावत् यदा खलु दक्षिणार्धे अष्टादशसुर्त्तानन्तरो दिवसो भवति तदा खलु उत्तराधे द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, यदा खलु उत्तराधे अष्टादशमुहूतनिन्तरो दिवसो भवति तदा खलु दक्षिणार्धं द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति । एवं सप्तदशमुहृत्त दिवसः सप्तदशमुहर्त्तानन्तर षोडशमुहूर्तः, पोडशमुहूर्त्तानन्तरः, पञ्चदशमुहूर्तः, पञ्चदशमुहर्त्तानन्तरः, चतुर्दशमुहर्त्तः, चतुर्दशमुहूतनिन्तरः, त्रयोदशमुहूर्त्तः, त्रयोदशमुहूर्त्तानन्तरः, तावत् यदा खलु दक्षिणार्धे द्वादशमुत्तों दिवसो भवति तदा खलु उत्तरार्धे द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, यदा खलु उत्तरार्धे द्वादशमुहर्त्तानन्तरो दिवसो भवति, तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्यपाश्चात्ये नैवास्ति पञ्चदशमुत्त दिवसः, नैवास्ति - पञ्चदशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, व्यवच्छिन्नानि खलु तत्र रात्रिन्दिवानि प्रचप्तानि श्रवणायुष्मन्तः एके पवमाहु. ३| ||सू० १॥ व्याख्या : -- 'ता' इति तावत् 'क' कथं केन प्रकारेण 'ते' तव भवन्मते 'उदय संठिई' उदयसंस्थितिः 'आहिया' आख्याता कथिता ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु भवान् ! गौतमेन एवं प्रश्ने कृते भगवान् पूर्वमेतद्विषये परमतरूपास्तिस्रः प्रतिपत्तीः प्रदर्शयति- 'तत्थ खलु' इत्यादि । 'तत्थ खलु' तत्र - उदयसंस्थितिविषये म्वल 'इमाओ' इमाः अग्रे प्रदर्श्यमानाः 'तिण्णि' तिस्रः 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ता कथिताः, 'तं जहा' तद्यथा ता यथा- 'तत्थ ' तत्र त्रिषु प्रतिपत्तिवादिपु मध्ये 'एगे' एके प्रथमाः ' एवं ' एवं - वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल्ल 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे जम्बूद्वीप नामके द्वीपे मध्यजम्बुद्वीपे ' दाहिणड्ढे ' दक्षिणार्धे दक्षिणदिक् स्थितेऽभागे 'अहारसमुत्ते दिवसे भव' अष्टादशमुहूर्ती दिवमो भवति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तरड्ढेवि' उत्तरार्धेऽपि उत्तरदिक् स्थितेऽर्थ मागेऽपि 'अट्ठारसमुहुत्तो दिवसे भवः' अष्टादशमुहूतों दिवमो भवति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'उत्तरड्ढे ' उत्तरार्धे' अहारसमुहुत्ते दिवसे भवइ' अष्टादशमुत्त दिवसो भवति 'तया णं' तदा खल 'दाहिणड्ढे वि' दक्षिणार्धेऽपि अट्ठारस मुहुत्ते दिवसे भव' अष्टादशमुहर्त्ता दिवसो भवति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'दाहिणड्ढे ' दक्षिणार्थे 'सत्तरसमुहतो दिवसे भवइ' सप्तदशमुहूर्ती दिवसो भवति 'तया णं' तदा खल्ल 'उत्तरड्ढे वि' उत्तरार्धेऽपि 'सत्तरसम्मृहचो दिवसो भव' सप्तदशमुहूर्ती दिवसो Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०-८सू०१ सूर्यस्य उदयसंस्थितिनिरूपणम् १८९ भवति, 'जया णं' यदा खलु 'उत्तरड्ढे' उत्तरार्धे 'सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवई' सप्तदशमुहूर्तो दिवप्तो भवति 'तया णं' तदा खल 'दाहिणड्ढे वि' दक्षिणार्धेऽपि 'सत्तरसमुहुत्तो दिवसो भवइ' सप्तदशमुहूर्तो दिवसो भवति । ‘एवं' एवम्-अनया रीत्या 'एएणं' एतेन पूर्वोक्तेन 'अभि. लावणं' अभिलापेन पूर्वोक्ताभिलापानुसारेण-एकैकमुहूर्त्तहान्या षोडशमुहूर्तदिवसादारभ्य त्रयोदशमुहूर्त्तदिवसपर्यन्तमभिलापाः कर्त्तव्या इति भावः । तदेवाह --'सोलसमुहुत्ते' षोडशमुहूर्तः, 'पण्णरसमुहुत्ते' पञ्चदशमुहूत्र्तः, 'चोदसमुहुत्ते' चतुर्दशमुहूर्तः, 'तेरसमुहुत्ते' त्रयोदशमुहूर्तः । एषामालापकाः स्वयमूहनीयाः । अथ द्वादशमुहूर्त्तविपये सूत्रकारः स्वयमाह-'ता जया णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'दाहिणड्ढे' दक्षिणार्धे वारसमुहुत्ते दिवसे भवइ' द्वादशमुहत्तों दिवसो भवति 'तया गं तदा खलु 'उत्तरड्ढे वि' उत्तरार्धेऽपि 'वारसमुहुत्ते दिवसे भवई' द्वादशमुहुर्ती दिवसो भवति 'ता' तावत् 'जया ण' यदा खल 'उत्तरड्ढे वारसमुहुत्ते दिवसे भवई' उत्तरार्धे द्वादशमुहूत्तों दिवसो भवति 'तया णं' तदा खलु 'दाहिगड्ढेवि वारसमुहुत्ते दिवसे भवई' दक्षिणार्धेऽपि द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति । 'तया णं तदा अष्टादशमुहर्त्तादि दिवसकाले खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बुद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्स पन्चयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरथिमपच्चत्थिमेणं' पौरस्त्यपाश्चात्ये पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि पूर्वपश्चिमयोर्दिशोरित्यर्थः 'सया' सदा सर्वदा सर्वकाले 'पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवई' पञ्चदशमुहूत्तों दिवसो भवति, तथा 'सया' सदा सर्वदा सर्वकाले 'पण्णरसमुहुत्ता राई भवई' पश्चदशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, न तत्र न्यूनाधिकानि रात्रिंदिवानि भवन्तीति भावः । कुतः किं तत्र कारणमित्याह-'अवट्ठिया गं' अवस्थितानि सर्वदैकप्रमाणानि खलु 'तत्थ तत्र मन्दरपर्वतस्य पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि 'राइंदिया' रात्रिन्दिवानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि कथितानि अस्माकं पूर्वा चार्यैः 'समणाउसो' श्रमणायुष्मन्तः हे श्रमणाः हे आयुष्मन्तः चिरजीविनः शिष्याः !, उपसंहारः-'एगे' एके प्रथमाः प्रतिपत्तिवादिनः 'एवं' एवं पूर्वप्रदर्शितप्रकारेण 'आहंस' आहुः कश्यन्ति प्रतिपादयन्ति । एषा प्रथमा प्रतिपत्तिः ॥१॥ अथ द्वितीयां प्रतिप्रत्तिमाह-'एगे पुण' इत्यादि । 'एगे' एके द्वितीयप्रतिप्रत्तिवादिनः पुनः ‘एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहेसु' आहुः कययन्ति । तदेव दर्शयति-'ता जया णं' इत्यादि । 'वा' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'जवुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'क्षहिणड्डे' दक्षिणार्धे "अट्टारसमुहुत्ताणंतरे' अष्टादशमुहूर्त्तानन्तरः Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० चन्द्रप्राप्तिसूत्रे अष्टादशमुहूर्तेभ्यो न्यूनः 'दिवसे भवइ' दिवसो भवति । अत्र-अनन्तरशब्दो न्यूनार्थवाची वर्त्तते । 'तयाण' तदा खलु 'उत्तरड्ढेवि उत्तरार्धेऽपि 'अट्ठारसमुहुत्ताणतरे' अष्टादशमुहूर्त्तानन्तरः 'दिवसो भवई' दिवसो भवनि। 'जया णं' यदा खल 'उत्तरड्ढे' उत्तरार्धेः 'अद्वारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवई' अष्टादशमुहूर्त्तानन्तरो दिवसो भवति 'तया णं' तदा खल 'दाहिणड्ढे वि' दक्षिणार्धेऽपि 'अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवई' अष्टादशमुहूर्त्तानन्तरो दिवसो भवति । 'एवं' एवम्-अनेन प्रकारेण 'परिहावेयव्वं' परिहातव्यम् एकैकमुहूत्तहान्या न्यूनीकर्तव्यम् । तदेव परिहाणिप्रकारमाह 'सत्तरस' इत्यादि । सत्तरसमुहुताणतरे' सप्तदशमुहूर्त्तानन्तरः, सोलसमुहुताणंतरे' पोडशमुहर्त्तानन्तरः, 'पण्णरसमुहुत्ताणंतरे' पञ्चदशमुह नन्तरः, 'चउद्दसमुहुत्ताणंतर': चतुर्दशमुहूर्त्तानन्तरः, 'तेरसमुहुत्ताणंतरे' त्रयोदशमुहूर्त्तानन्तरः । अथ द्वादशमुहूर्तानन्तरसूत्रं सूत्रकारः स्वयं दर्शयति-ता जया गं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जया गं' यदा खलु 'दाहिणड्ढे' दक्षिणार्धे 'वारसमुहुत्ताणंतरे' द्वादशमुहूर्तानन्तरः 'दिवसे भवई' दिवसो भवति 'तया णं तदा खल 'उत्तरढे वि' उत्तरार्धेऽपि 'दुवालसमुहुत्ताणतरे' द्वादशमुहूर्तानन्तरः 'दिवसे भवई' दिवसो भवति । 'जया णं' यदा खलु उत्तरड्ढे उत्तरार्धे 'दुवालसमुहुत्ताणंतरे' द्वादशमुहूर्त्तानन्तरः 'दिवसे भवइ' दिवसो भवति 'तया णं' तदा खलु 'दाहिणड्ढेवि' दक्षिणार्धेऽपि 'दुवालसमुहुत्ताणतरे' द्वादशमुहूर्त्तानन्तरः, द्वादशमुहूर्तेभ्यो न्यूनः 'दिवसे भवइ' दिवसो भवति । 'तया ण' तदा अष्टादशादिद्वादशमुहूर्तानन्तरदिवससमये खलु “जम्वहोवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्स पब्धयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरथिमपच्चत्थिमेण पौरस्त्यपाश्चात्ये पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि 'नो' नैव 'सया' सदा सर्वकाले 'पण्णरसमहुत्ते दिवसे भवइ' पञ्चदशमुहूत्तों दिवसो भवति, तथा 'नो' नैव सया' सदा सर्वकालं 'पण्णरसमहूत्ता राई भवइ' पञ्चदशमुहूर्ता रात्रि भवति । तत्र को हेतुः । इत्याह-'अणवटिया' इत्यादि, 'अणवटिया णं' अनवस्थितानि अनियतप्रमाणानि खलु तत्र मन्दरस्य पूर्वापरदिशोः 'राहंदिया' रात्रिन्दिवानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञातानि अस्मत्पूर्वाचार्यः कथितानि 'समणाउसो' श्रमणायुष्मन्तः हे चिरजीविनः श्रमणा इति । उपसंहारः'एगे' एके द्वितीयप्रतिपत्तिवादिनः 'एवं' एवं पूर्वोक्तप्रकारेण 'आईसु' आहुः कथयन्ति । एपा द्वितीया प्रतिपत्तिः ।२। अथ तृतीयां प्रतिपत्तिमाह-'एगे' इत्यादि। एगेपुण' एके तृतीयाः परतीर्थिकाः पुनः एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहेसु' आहुः कथयन्ति, तदेवाह -'ता जयाणं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु जंबु दीवे दीवे जम्बूद्वीपे द्वीपे 'दाहिणइढे' दक्षिणार्धे दक्षिणदिक् स्थिने जम्बूद्वीपस्यार्धे भागे 'अद्वारसमुहुत्ते दिवसे भवई' अष्टादशमुहतों दिवसो भवति Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीक प्रा० ८ सू० १ सूर्यस्य उदयसंस्थितिनिरूपणम् १९१ 'तथा णं' तदा खल 'उत्तरड्ढे' उत्तरार्धे उत्तरदिकू स्थिते जम्बूद्दीपस्यार्धे भागे ' दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, 'जया णं' यदा खल उत्तरड्ढे उत्तरार्धे 'अट्ठार समुहुत्ते दिवसे भव' अष्टादशमुत्तों दिवसो भवति 'तया णं' तदा खलु 'दाहिणड्ढे ' दक्षिणार्धे 'अट्ठारसमुत्ताणंतरे दिवसे भव' अष्टादशमुहूर्त्तानन्तरः अष्टादशभ्यो मुहूर्तेभ्यो हीनो दिवसो भवति ‘तया णं' तदा खलु 'उत्तरड्ढे' उत्तरार्धे 'दुवालसमुहुत्ता राई भवः' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, 'जया णं' यदा खलु ' उत्तरड्ढे ' उत्तरार्धे 'अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे' अष्टादशमुहूर्त्तानन्तरः अष्टादशमुहूर्त्तेभ्यो होनः 'दिवसे भवइ' दिवसो भवति 'तया णं' तदा खलु ' दाहिणड्ढे ' दक्षिणा 'दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति । ' एवं ' एवम् अनेन अभिलापप्रकारेण तावदवक्तव्यं यावत् त्रयोदशमुहूर्त्तानन्तरदिवससूत्रमायाति । अत्र पूर्णमुहूर्तेः, अनन्तरैः किञ्चिन्न्युनैश्च मुहूर्त्तेः द्वौ द्वौ आलापको कर्त्तव्यौ, सर्वत्र रात्रिस्तु द्वादशमुहूत्र्त्तेव वक्तव्या । तदेवाह - सत्तरसमहुत्ते दिवसे' १ सप्तदशमुत्तों दिवमः १, 'सत्तरसमुहुत्ताणंतरे' सप्तदशमुहूर्त्तानन्तरः २, 'सोलसमुहुत्त' पोडशमुहूर्त. ३, 'सोलसमुहुत्ताणंतरे षोडशमुहर्त्तानन्तरः ४, 'पण्णरसमहुत्ते' पञ्चदशमुहूर्त: ५, 'पण्णरसमुहुत्ताणंतरे' पञ्चदशमुहूर्त्तानन्तरः ६ चउदसमुहुत्ते' चतुर्दशमुहूर्त्तः ७, 'चउद्दसमहुत्ताणंतरे' चतुर्दशमुहूर्त्तानन्तरः ८, 'तेरसमुहुत्ते' त्रयोदशमुहूर्त्तः ९, 'तेरस हुत्तणंतरे' त्रयोदशमुहूर्त्तानन्तरः १०, । एते दशभालापका पूर्वप्रदर्शितरीत्या स्वयमूहनीयाः । अथ द्वादशमुहूर्त्तालापकद्वयं सूत्रकार. स्वयं प्रदर्शयति - 'ता जया णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'दाहिणड्ढे' दक्षिणार्धे 'वारसमुहुत्ते दिवसे भवइ' द्वादशमुहूर्ती दिवसो भवति 'तया णं' तदा खल 'उत्तरड दे' उत्तरार्धे 'वारसहुत्ता राई भवइ ' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, 'जया णं' यदा खल 'उत्तरड़ 'ढे उतरार्धे 'बारसहुत्ताणंतरे' द्वादशमुहूर्त्तानन्तरः दिवसे भवइ' दिवसो भवति 'तया णं' तदा खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्स पव्वयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरत्थिमपच्चत्थिमेणं' पौरस्त्यपाश्चात्ये पूर्वापरदिग्भागे 'णेत्रत्थि' नैवास्ति 'पण्णरसमुहुत्ते दिवसे' पञ्चदशमुत्त दिवसः, तथा 'वस्थि' 'नैवास्ति 'पण्णरसमुहुत्ता राई' पञ्चदश मुहूर्त्ता रात्रिः 'भवइ' भवति । कथमित्याह – 'वोच्छिण्णा णं' व्यवच्छिन्नानि विनष्टानि खलु ' तत्थ राइंदिया' तत्र रात्रिन्दिवानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि अस्मदाचार्यैः 'समणाउसो' हे श्रमणायुष्मन्तः । उपसंहारः - 'एगे' एके तृतीयाः ' एवं ' एवं पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्तीति । इति तृतीया प्रतिपत्तिः | ३ |सू०||१|| उक्तास्तिस्रः प्रतिपत्तयः, एता स्तिस्रोऽपि प्रतिपत्तयो मिथ्यारूपाः सन्ति भगवतामनभिमतत्वात् । अत्रापि ये तृतीयाः परतीर्थिकाः सदैव द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिं प्रतिपादयन्ति तेषां प्ररूप Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ चद्रप्रप्तिसूत्रे णायां विरोधः प्रज्ञक्ष पव लोके रात्रेहनाधिकरूपत्वेन समुपलभ्यमानत्वात् । एवं सति भगवान् स्वमतं प्रदर्शयति-वयं पुण' इत्यादि । मूलम् - वयं पुण एवं व्यामो ता जंबुद्दीचे दीवे सूरिया उदीणपाईणं उग्गच्छंति पाईणदाहिणं आगच्छति । पाईणदाहिणं उग्गच्छंति दाहिणपडीणं आगच्छंति २। दाहिण पडणं उग्गच्छंति पडीण उदीर्णं आगच्छति ३। पडीणउदीर्ण उग्गच्छंति उदीणपाईण आगच्छति ४ ॥१॥ ता जया णं जीवे दीवे दाहिणड् ढे दिवसे भव तया णं उत्तरड्ढे वि दिवसे भवड़, जया णं उत्तरड्ढे दिवसे भवड़ तथा णं जबुद्दीवे दीवे मदरस्स पच्चयस्स पुरस्थिमपच्चस्थिमेण राई भवः । जया णं जबुद्दीवे दीवे मदरस्स पव्त्रयस्त पुरत्थिमेणं दिवसे भव तया णं पच्चत्थिमेणं वि दिवसे भवइ, जया ण पच्चत्थिमेणं दिवसे भवद्द तया णं जबही दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं राई भवइ |२| ता जया णं जबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे उक्कोसए अहारसमुहुत्ते दिवसे भवs तथा णं उत्तरहढे वि उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवड़, जया णं उत्तरइढे उक्कोसए अहारसमुहुत्ते दिवसे भवइ तथा णं जबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्त्रयस्त पुरत्थिमपच्चत्थिमेण जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । ता जया णं जबुद्दीवे दीवे मंदस्स पञ्चयस्स पुरस्थिमेणं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे ras तया ण पच्चत्थिमेण वि उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ ।, जया णं पच्चस्थिमेणं उक्कोसए अहारस्समुहुत्ते दिवसे भवइ तथा णं जघुद्दीवे दीवे मंदरस्स पत्रयस्स उत्तरदाहिणेणं जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । एवं अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, साइरेगा दुवालसमुहुत्ता राई भवई, सत्तरसमुहुत्ते दिवसे तेरसमुहुत्ता राई भवइ । सत्तरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे साइरेगा तेरसमुहुत्ता राई भवइ । सोलसमुहुत्ते दिवसे उद्दमुत्ता राई भव | सोलसमुहाणंतरे दिवसे साइरेगा चउदसमुहुत्ता राई भवइ । पण्णरसमुत्ते दिवसे पण्णरसमुत्ता राई भवइ । पण्णरसमुत्ताणंतरे दिवसे साइरेगा पण्णरसमुहुत्ता राई भवइ | चउदसमुहुत्ते दिवसे सोलसमुहुत्ता राई भवः । चउदसमुहुत्ता णंतरे दिवसे साइरेगा सोलसमुहुत्ता राई भवइ । तेरसमुहुत्ते दिवसे सत्तरसमुहुत्ता राई भइ | तेरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे साइरेगा सत्तरसमुहुत्ता राई भवइ । ता जया णं जद्दीचे दिवे दाहिणड्ढे जद्दण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं उत्तरड्ढे विजह - ory दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ । ता जया णं उत्तरड्ढे जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं जद्दीचे दीवे मंदरस्त पव्वयस्स पुरत्थिमेण पच्चत्थिमेण उक्कोसिया Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० ८सूर भगवताप्रदर्शितदिवसरात्रिपकारस्तन्मुहूर्तमानं च १९३ अद्वारसमुहुत्ता राई भवइ । ता जया पं.जबुद्दीवे दीवे. मंदरस्स. पव्वयस्स पुरथिमेणं जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं पच्चत्थिमेण वि जहण्णए दुवालस्समुहुत्ते दिवसे भवइ । जया णं पच्चत्थिमेणं जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं जवुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं दाहिणेणं उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ ॥३॥ सू०२॥ छाया-वयं पुनरेवं वदामः तावत् जम्बूद्धीपे द्वीपे सूर्यो उदीचीप्राच्याम् उद्गच्छतः प्राचीदक्षिणस्याम् आगच्छतः ।। प्राची दक्षिणस्थामुद्गच्छतः दक्षिण प्रतीच्यामागच्छतः २ दक्षिणप्रतीच्यामुद्गच्छतः ३ प्रतीच्युदीच्यामुद्गच्छतः उदीचीप्राच्यामागच्छतः ४ ॥१॥ तावत् यदा स्खल जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणा दिवसो भवति तदा खलु उत्तरार्धेऽपि दिवसो भवति । यदा खलु उत्तरार्धे दिवसो भवति तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्यपाश्चात्ये रात्रिर्भवति । यदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दस्य पर्वतस्य । पौरस्त्ये दिवसो भवति तदा खल पाश्चात्येऽपि दिवसो भवति । यदा खलु पाश्चात्ये दिवसो भवति तदा खलु जम्बूद्वीपे छीपे मन्दरस्य , पर्वतस्य उत्तरदक्षिणे रात्रिर्भवति ॥२॥ तावत् यदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्धे उत्कर्षक: अष्टादशमुहत्तों दिवसो भवति तदा खलु उत्तरार्धेऽपि उत्कर्षक: अष्टादशमुहत्तों दिवसो भवति । तदा खलु उत्तरार्धे ' उत्कर्षका अष्टादशमुहत्ती दिवसो भवति तदा खलु जम्बूद्वोपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्यपाश्चात्ये जघन्यिका द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति । तावत् यदा खलु जम्बूद्वीपे द्वोपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्स्ये अष्टादशमुहत्तों दिवसो भवति तदा खल पाश्चात्येऽपि उत्कर्षक: अष्टादशमुहा दिवसो भवति, यदा खलु पाश्चात्ये उत्कर्षकः अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति तदा स्खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरदक्षिणे जघन्यिका द्वादशंमुहर्ता रात्रिर्भवति । एम्-अष्टादशमुहर्तानन्तरो दिवसो भवति, सातिरेका द्वादशमुहूर्ता सत्रिर्भवति। सप्तदशमुहत्तों दिवसः त्रयोदशमुहर्ता रात्रिर्भवति । सप्तदशमुहर्ता नन्तरो दिवसः सातिरेका प्रयोदशमुहूर्ता रात्रिर्भवति । षोडशमुहत्तों दिवसः चतुर्दशमुहर्ता रात्रिभवति । षोडशमुहूनिन्तरः दिवसः सातिरेका चतुर्दशमुहतों रात्रिभवति । 'पञ्चदशमुहूर्ती दिवस! 'पञ्चदशमुहर्ता रात्रिर्भवति । पञ्चदशमुहूर्तानन्तरो दिवसः सातिरेका पञ्चदशमुहत्ता रात्रिर्भवति । चतुर्दशमुहत्तॊ दिवसः षोडशमुहर्ता रात्रिर्भवति। चतुर्दशमुहानन्तरो दिवसः सातिरेका षोडशमुह रात्रिभः वति । त्रयोदशमुहूतों दिवसः सप्तदशमुहर्ता रात्रिभवति । त्रयोदशमुहूर्तानन्तरो दिवसः सातिरेका सप्तदशमुहर्ता रात्रिभवति । तावत् यदा' खलु जम्बुद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्धेजघन्यकः द्वादशमुहत्तौ दिवसो भवति तदा खलु उत्तरार्धेऽपि जघन्यकः द्वादशमुहूत्तों दिवसो भवति। तावत् यदा खलु उत्तरार्धे जघन्यकः द्वादशमुहूत्तों दिवसो भवति तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये पाश्चात्ये उत्कर्पिका अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति तावत् यदा-खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये जघन्यकः द्वादशमुहूर्तों दिवसो भवति तदा खलु पाश्चात्येऽपि जघन्यको . द्वादशमुहूों दिवसो भवति । यदा २५ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ ...., बद्रप्राप्तिसूत्रे खलु पाश्चात्ये जघन्यको द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरे दक्षिणे उत्कर्षिका अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति ॥३. सू०,२॥' :. ___व्याख्या-'वयं पुण' वयं तु 'एवं' एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामो' वदामः । किं वदामः । तदेवाह-'ता जंबुद्दीवे दीवे' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'सरिया' सूर्यौ द्वौ सूर्यो' भरतैरवतसम्वन्धिनौ मण्डलात्या परिभ्रमन्तौ 'उदीणपाईणं' उदीचीप्राच्या उत्तरपूर्वस्याम् ईशानकोणे 'उग्गच्छति' उद्गच्छतः उद्गत्येत्यर्थः 'पाईणदाहिणं प्राचीदक्षिणस्यां पूर्वदक्षिणायाम्-अग्निकोणे 'आगच्छति' मागच्छतः अस्तं प्राप्नुतः १। 'पाईणदाहिणं' प्राचीदक्षिणस्याम् अग्निकोणे 'उग्गच्छंति' उद्गच्छतः उद्गल्य 'दाहिणपडीणं' दक्षिणप्रतीच्या नैर्ऋतकोणे 'आगच्छंति' मागच्छन्तः अस्तं प्राप्नुतः २ । 'दाहिणपडीणं' दक्षिणप्रतीच्याम् 'उग्गच्छंति' उद्गच्छतः उद्गत्य 'पडीणउदीणं' प्रतीच्युदीच्यां वायुकोणे 'आगच्छंति, मागच्छतः अस्तं प्राप्नुतः।३। 'पडीणउदीणं' प्रतीच्युदीच्यां वायुकोणे 'उग्गच्छंति' उद्गच्छतः उद्गत्य 'उदीणपाईणं' उदीचीप्राच्याम् ईशानकोणे. 'आगच्छति मांगच्छतः अस्तं प्राप्नुतः । एवं द्वौ भरतरवतसूर्यो ईशानकोणाद् उद्गल्य चतुर्पु विदिक्षु उदयास्तक्रमेण परिभ्रम्य अन्ते ईशानकोणे एव अस्तं प्राप्नुतः । एवं जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य, परितः द्वौ सूर्यो मण्डलगत्या परिभ्रम्य चारं चरतइति भावः । - - अयं तावत् सामान्यतः समुदितयोयोः सूर्ययोरुदयास्तविधिः प्रदर्शितः । विशेषत एकैकसूर्यमाश्रित्य तद्विधिरेवं ज्ञातव्यः-अत्र एकः सूर्यो द्वितीयसूर्यस्य सन्मुखं प्रतिकूलदिशि चारं चरति इति लोकव्यवस्थाया नियमः, यथा-यदा एकः सूर्यः उत्तरपूर्वस्यामीशानकोणे उद्गछति तदा द्वितीयः दक्षिणपश्चिमायां नैर्ऋतकोणे उद्गच्छति, यदा उत्तरपूर्वस्यांमुद्गतः सूर्यः प्राचीदक्षिणस्याम् आगच्छति पूर्वक्षेत्रापेक्षया अस्तमेति तत्क्षेत्रापेक्षया 'चोद्गच्छतीत्यवधेयम्तदा दक्षिणप्रतीच्या नैऋतकोणे उद्गतः सूर्यः प्रतीच्युदीच्याम् , वायव्यकोणे, आगच्छतीति पूर्वक्षेत्रापेक्षयाऽस्तमेति तत्क्षेत्रापेक्षया चोद्गच्छतीति ज्ञातव्यम् न कदापि सूर्य उद्गच्छति न चास्तमेति च किन्तु सूर्यस्य चक्षुपोः स्पर्शास्पर्शमाश्रित्य लोका उदयास्तशब्देन व्यवहरन्ति । सूर्यस्य चक्षुःस्पर्श सूर्य उदितः, इति चक्षुःस्पर्शामावे सूर्यः' अस्तंगतः इति लोका व्यवहरन्तीति विवेकः । प्रकृतमनुसरामः-यदा एकः सूर्यः पूर्वदक्षिणस्याम् अग्निकोणे, उंदूगच्छति तदाऽपरः प्रतीच्युदीच्या तत्सन्मुखं वायव्यकोणे समुद्गच्छति, एप , द्वयोः सूर्ययो उदयविधिः । यदा पूर्वदक्षिणोद्गतश्च भारतः सूयों भरतादीनि क्षेत्राणि मेरुदक्षिणदिग्भावीनि मण्डलगत्या परिभ्रमन् प्रकाशयति, तदाऽपरः सूर्यः पश्चिमोत्तरस्यां वायव्यकोणे समुद्गतः सन् तत ऊवे मण्डलगत्या परिभ्रमन् ऐरवतादीनि क्षेत्राणि यानि मेरोरुत्तरदिगुमावीनि वर्तन्ते तानि Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०८०२ भगवताप्रदर्शितदिवसरात्रिप्रकारस्तन्मुहर्तमानं च १९५ प्रकाशयति । यदा भारतश्च सूर्यः पूर्वदक्षिणस्यामुद्गत्य दक्षिणप्रतीच्या नैऋतकोणे समागतः सन् अपरविदेहक्षेत्रमाश्रित्य उदयमेति तदा ऐरवतः सूर्यः प्रतीच्युदीच्या वायव्यकोणेसमुद्गत्य उत्तरपूर्वस्यामागतः सन् पूर्वविदेहमाश्रित्य उदयमेति । दक्षिणप्रतीच्या नैऋतकोणे समुद्गतः सन् सूर्यः तत उर्व मण्डलगत्या परिभ्रमन् अपरविदेहान् प्रकाशयति । उत्तरपूर्वस्याम् ईशानकोणे समुद्गतस्तु तत ऊर्ध्व मण्डलगत्या परिभ्रमन् पूर्वविदेहान् प्रकाशयति । तत एष पूर्वविदेहप्रकाशकः सूर्यों पूर्वदक्षिणस्याम् आग्नेयकोणे भरतादि क्षेत्रापेक्षया उदयमेति, अपरविदेहप्रकाशकः सूर्यस्तु प्रतीच्युदीच्या वायव्यकोणे उदयमेतीति ।. _____ तदेवं जम्बूद्वीपे द्वीपे सूर्ययो रुदयविधिः प्रदर्शितः, साम्प्रतं क्षेत्रविभागेन दिवसरात्रि विभागमाह-ता जया णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'जवुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'दाहिणढे दिवसे भवई' दक्षिणार्धे दिवसो भवति 'तया णं' तदा खल 'उत्तरड्ढे वि' उत्तरार्धेऽपि 'दिवसे भवई' दिवसो भवति द्वयोः सूर्ययोः परस्परं समकालं सन्मुखं प्रतिकूलदिक्चारित्वात् । तदा एकः सूर्यः दक्षिणदिशि परिभ्रमति तदाऽपरः सूर्योऽवश्यमुत्तरदिशि परिभ्रमति ततः दक्षिणार्धे उत्तरार्धे च उभयत्र दिवसो भवत्येवेति भावः । 'जया णं' यदा खलु 'उत्तरड्ढे' उत्तरार्धे उपलक्षणात् दक्षिणार्धं च 'दिवसे भवई' दिवसो भवति 'तया णं' तदा खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपद्विीपे 'मदरस्स पन्चयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरथिमपञ्चत्थिमेणं' पौरस्त्यपाश्चात्ये पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि 'राई भवइ' रात्रिर्भवति द्वयोः सूर्ययो दक्षिणोत्तरचरणापूर्वपश्चिम-योरेकस्यापि सूर्यस्योपस्थितेरभावात् । 'जया णं' यदा खल जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीप "मंदरस्स पच्चयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्ये पूर्वस्यां दिशि 'दिवसे भवई' दिवसो भवति 'तया णं तदा खल जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य 'पच्चत्थिमेणं पि' पाश्चात्येऽपि पश्चिमायां दिशायामपि 'दिवसे भवई' दिवसो भवति द्वयोः सूर्ययोः परस्परं विपरीतदिशोः समकाल 'संचरणस्वभावत्वात् उभयत्र दिवसो भवत्येव । यदा एकः सूर्यः पूर्वस्यां चार चरति तदाऽपरः पश्चिमायां दिशि चारं चरत्येवेति । 'जया णं' यदा खलु 'पच्चत्थिमेणं' पाश्चात्ये पश्चिमायां दिशि उपलक्षणात् पूर्वस्यां च दिशि 'दिवसे भवई' दिवसो भवति 'तया णं तदा खल्लु 'जवुद्दीवे दीवे जम्बूद्वीपे द्वीपे 'मदरस्स पव्वयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'उत्तरदाहिणेणं उत्तर दक्षिणे उत्तरस्यां दक्षिणस्यां च दिशि 'राई भवई' रात्रिर्भवति द्वयोः सूर्ययोः पूर्वपश्चिमदिशोः संचरणसमये उत्तरे दक्षिणे च एकस्यापि सूर्यस्योपस्थित्यभावात् ।'२॥ एवं दिवसरात्रिविभागमुपदर्य साम्प्रतं तत्प्रमाणमुपदर्शयति-'ता जया णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया णं यदा खलु 'जंबुद्दीवे दीवे। जम्बूद्वीपे द्वीपे दाहिणड्ढे' दक्षिणार्धे 'उक्कोसए' उत्कर्षकः 'अट्ठार Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे १९६ समुहुत्ते दिवसे भव' अष्टादशमुहूर्त्ती दिवसो भवति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तर देवि ' उत्तराsy- 'उक्कोसए' उत्कर्षकः 'अहारसमुहुते दिवसे भवइ' अष्टादशमुत्तों दिवसों भर्वात । द्वयोः सूर्ययोः परस्परं विपरीत समकालसन्मुखमण्डलचारित्वेन यदा एकः सूर्यः दक्षिणा सर्वाम्यन्तरमण्डले चारं चरति तदाऽपरोऽपि उत्तरार्धे सर्वाभ्यन्तरमुण्डले चारं चरति तथा स्वाभा व्यात् ततो दक्षिणोत्तरयोरुभयत्र समान दिवसप्रमाणत्वं समीचीन मेवेति भावः । 'जया णं' यदा खल्ल 'उत्तरद्रुढे' उत्तरार्धे उपलक्षणात् दक्षिणार्धे च 'उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवद्द' उत्कर्षकः अष्टादशमुहूर्त्ता दिवसो भवति 'तया णं जंबुद्दीचे दीवे' तदा खलु जम्बूक पे - द्वीपे 'मंदरस्स पव्वयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरस्थिमपच्चत्थिमेण' - पौरस्त्यपाश्चात्ये पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि 'जहणिया' जधन्यिका सर्वलध्वी 'दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति । सर्वाम्यन्तरमण्डले चारं चरतोः द्वयोः सूर्ययोः सर्वत्रापि द्वादशमुहूर्त्ताया एव रात्रे - र्भावात् । यतो हि त्रिंशन्मुहूर्त्ताहोरात्रसत्त्वेऽष्टादश मुहूर्त्तास्तत्र दिवसभागे व्यतीता, नाता तो द्वादशमुहूर्त्ता एव रात्रेः शेषा स्तिष्ठेयुरिति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' नम्बूद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्स पञ्चयस्स ' मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरस्थिमेणं' - पौरस्त्ये पूर्वस्यां दिशि 'उक्कोस अट्ठारसमुडुत्ते दिवसे भवः' उत्कर्षकः अष्टादशमुहूर्त्ती दिवसो भवति 'तया णं' तदा खलु 'पच्चत्थिमेण वि' पाश्चात्येऽपि पश्चिमदिशायामपि 'उक्कोसए अट्ठारससुहुत्ते दिवसे 'भवद्द' उत्कर्षकः अष्टादशमुहूर्त्ते दिवसो भवति । द्वयो सूर्ययोः परस्परविपरीत संमुखमण्डल समकालचा रित्वेन यदा पूर्वदिकुचारी सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डले चारं चरति तदाऽपरः पश्चिमदिकू - चारी सूर्योऽपि सर्वाभ्यन्तरमण्डले चारं चरति तथा स्वाभाव्यात् ततः पूर्वपश्चिमयोः उभयत्रापि दिवसयोः समानप्रमाणत्वं भवत्येवेति भावः । ' जया णं' यदा खल्ल 'पच्चत्थिमेणं' पाश्चात्ये पश्चिमदिशायाम् उपलक्षणात् पूर्वस्यां दिशि च 'उक्कोसर' उत्कर्षक:: 'अहारसमुहुत्ते दिवसे भवइ' अष्टादश मुहूत्तों दिवसो भवति 'तया णं' तदा खलु 'जंबुद्रीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्स पव्त्रयस्त' मन्दरस्य पर्वतस्य 'उत्तरदाहिणेणं' उत्तरदक्षिणे उत्तरस्यां दक्षिणस्यां 'च दिशि 'जहण्णिया' नघन्यिका सर्वलध्वी 'दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' र्द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति । सूर्ययोः सर्वाम्यन्तरमण्डलचारसमये रात्रे र्द्वादशमुहूर्त्ताया एवं सर्वत्र सद्भावात् त्रिंशन्मुहूर्त्ताहोरात्रप्रमाणेऽष्टादशमुहूर्त्तानां तत्र दिवसभागे व्यतीतत्वाच्चेति । 'एवं एवम् अनेनाभिलापप्रकारेणाग्रे सर्वत्र भावना करणीया । तत्र यदा. 'अट्ठारस, मुहुचाणंतरे' अष्टादश मुहूर्त्तानन्तरः अष्टादशमुहूर्त्तात् किश्चिन्यूनः 'दिवसे भवइ' दिवसो भवति तदा' 'साइरेगा' सातिरेका किञ्चिदधिका यदा दिवसे यावत्परिमितं न्यूनत्वं भवति तदा रात्रौ तावत्परिमितमेवाघि कत्वं भावनीयम् । 'दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्मति । एवमेकैकमुहूर्तस्य 1 1 " Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा०८ सू०२ भगवता प्रदर्शितदिवसरात्रि प्रकारस्तन्मुहूर्त्तमानं च १९७ किंचित्प्रमाणस्य वा दिवमप्रमाणे यथा यथा न्यूनत्वं जायते तथा तथा रात्रिप्रमाणे एकैकमुहूर्त्तस्य किंचित्प्रमाणस्य वाऽधिकत्वं ज्ञातव्यम् । तथाहि यदा - 'सत्तरसमुहुत्ते दिवसे सप्तदश मुहूर्त्तो दिवस तदा 'तेरसमुहुत्ता राई भवइ' त्रयोदशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति । यदा 'सत्तरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे' सप्तदशमुहूर्त्तानन्तरः सप्तदशमुहूर्त्तेभ्यः किंचिन्न्यूनो दिवसो भवति तदा 'साइरेगातेरसमुहुत्ता राई भवई' सातिरेका किंचिदधिका त्रयोदशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति । यदा 'सोलसमुडुत्ते दिवसे' पोडशमुहूर्त्तो दिवसो भवति तदा ' चउद्दसमुहुत्ता राई भवः' चतुर्दशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति । यदा 'सोलसमुहुत्ताणतरे दिवसे' षोडशमुहूर्त्तानन्तरः षोडशमुहूर्त्तेभ्यः किंचि - म्यूनो दिवसो भवति तदा 'साइरेगा' सातिरेका किंचिदधिका ' चउदसमुहुत्ता राई भवइ' चतुर्दशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति । यदा 'पण्णरसमुहुत्ते दिवसे' पञ्चदशमुहूर्ती दिवसो भवति तदा 'पण्णरसमुहुत्ता राई भवई' पश्चदशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति । अत्र पूर्वं प्रथमप्राभृतस्य प्रथमे प्राभृतप्राभृते कथितम् - 'नत्थि पण्णरसमुहुत्ते दिवसे नत्थि पण्णरसमुहुत्ता राई भवइ' नास्ति परिपूर्णपञ्चदशमुहूत दिवसो नास्ति परिपूर्णा पञ्चदशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवनीति, अस्य कारणमपि गणितेन तत्र प्रदर्शितम् तत्रत्यमेतत्कथनं निश्चयनयमाश्रित्य कृनं वर्तते, अत्र व्यवहारनयमाश्रित्य 'पञ्चदशमुहूर्त्ती दिवसः पञ्चदशमुहूर्त्ता रात्रिः ' इति कथितमतो न कोऽपि दोषः । दृश्यते हि लोके किञ्चिन्न्यूनाधिकशत संख्यायाम् इदमेकं शतम्' इति व्यवहार इति । प्रकृतमनुसरामः – यदा 'पण्णरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे' पञ्चदशमुहूर्त्तानन्तरो दिवसो "भवति पञ्चदशमुहुर्त्तेभ्यः किञ्चिन्न्यूनो दिवसो भवति तदा 'साइरेगा' सातिरेका किञ्चिदधिका 'पण्णरसमुहुत्ता राई भव' पञ्चदशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति । यदा- - 'चउद्दसमुहूत्ते दिवसे' चतुदेशमुहूर्त्ती दिवसो भवति तदा 'सोलसमुहुत्ता राई भवइ' षोडशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति । यदा चउद्दसमुहुत्ताणंतरे दिवसे' चतुर्दशमुहूर्त्तानन्तरः चतुर्दशमुहूर्त्तेभ्यः किञ्चिन्न्यूनो दिवसो भवति तदा 'साइरेगा' सातिरेका किञ्चिदधिका 'सोलसमुहुत्ता राई भवइ' षोडशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति । यदा 'तेरसमुहुत्ते दिवसे' त्रयोदशमुहूर्त्ता दिवसो भवति तदा 'सत्तरसमुहुत्ता राई भवइ' सप्तदशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति । यदा 'तेरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे' त्रयोदशमुहूर्त्तानन्तर. त्रयोदशमुहूर्त्तेभ्यः किञ्चिन्न्यूनो दिवसो भवति तदा 'साइरेगा' सातिरेका किञ्चिदधिका 'सत्तरसमुहुत्ता राई भवइ' सप्तदशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति । अथाप्रे सूत्रकारः स्वयमालापक प्रदर्शयति 'ता जया णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बुद्वीपे द्वीपे 'दाहिणड्ढे' दक्षिणार्धे 'जहण्णए' जघन्यकः सर्वलघुः 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ' द्वादश Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे मुहूत्र्तो दिवसो भवति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तरड्ढे वि' उत्तरार्धेऽपि 'जहण्णए' जघन्यकः 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ' द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति । 'ता' तावत् 'जया ण यदा खल उत्तरड्ढे' उत्तरार्धे उपलक्षणादक्षिणार्धं च 'जहण्णए' जघन्यकः सर्वलघुः 'दुवालासमुहुत्ते दिवसे भवइ' द्वादशमुहूत्र्तो दिवसो भवति 'तया ण' तदा खल 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बुद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्स पव्वयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरस्थिमेणं पच्चत्थिमेणं' पौरस्त्ये पाश्चात्ये पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि 'उक्कोसिया' उत्कर्षिका सर्वोत्कृष्टा 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई' अष्टादशमुहूर्ता रानिर्भवति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु जंबुद्दीवे दीवे' जम्बुद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्स पब्वयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरथिमेणं' पौरस्त्ये पूर्वस्यां दिशि 'जहण्णए' जघन्यकः सर्वलघुः दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति 'तया गं' तदा खलु 'पच्चस्थिमेण वि' पाश्चात्येऽपि पश्चिमायां दिशायामपि 'जहण्णए' जघन्यकः सर्वलघुः 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति । 'जया णं' यदा खलु पच्चत्थिमेणं' पाश्चात्ये पश्चिमदिशि उपलक्षणात् पूर्वदिशि च 'जहण्णए' जघन्यकः 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति । 'तया णं' तदा खल 'जंबुद्दीवेदीवे' जम्बुद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्स पव्वयस्स' मन्दरस्स पर्वतस्य 'उत्तरेणं दाहिणेणं' उत्तरे दक्षिणे 'उक्कोसिया' उत्कर्षिका सर्वोत्कृष्टा 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई' अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति ॥३॥ अत्रायं निष्कर्षः-दो सूर्यौ जम्बुद्वीपे परस्परं प्रतिकूलदिशि संमुखं स्व स्व क्षेत्रे समकालं समानगत्या चारं चरतः, ततो दक्षिणोत्तरयो. सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारसमये उभयत्र अष्टादशमुहूत्र्तो दिवसो भवेत् , सर्वबाह्यमण्डलचारसमये उभयत्र समकालं द्वादशमुहूत्ततॊ दिवसो भवेत् । यदा सूर्यौ दक्षिणोत्तरयोश्चार चरतस्तदा पूर्वपश्चिमयोः रात्रिभवेत् , यदा पूर्वपश्चिमयोश्चारं चरतस्तदा दक्षिणोत्तरयोः रात्रिभवेदिति सुज्ञातमेव । ___ यदा सूर्यौ दक्षिणोत्तरयोः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमाश्रित्य चार चरतस्तदोभयत्र समकालम् अष्टादशमुहूत्र्तो दिवसो भवति, पूर्वपश्चिमयोश्चोभयत्र समकालं द्वादशमुहर्ता रात्रिभवेदिति प्रथमः प्रकारः।१। यदा सूर्यो दक्षिणोत्तरयोः सर्वबाह्यमण्डलमाश्रित्य चारं चरतस्तदा तत्रो भयत्र समकालं द्वादशमुहूत्तों दिवसो भवति, पूर्वपश्चिमयोश्चाष्टादशमुहूर्ता रात्रिभवति, अहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तप्रमाणत्वात् । इति द्वितीय. प्रकारः ।२। यदा सूर्यो पूर्वपश्चिमयोः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमाश्रित्य चारं चरतस्तदा तत्रोभयत्र समकालम् अष्टादशमुहूत्ततॊ दिवसो भवति, दक्षिणो. त्तरयोश्चोभयत्र द्वादशमुहूर्ता रानिर्भवतीति तृतीयः प्रकारः ।३। यदा सूर्यो पूर्वपश्चिमयोः सर्व Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाकिा टीक प्रा०८सू०२ भगवता प्रदर्शितदिवसरात्रिप्रकारस्तन्मुहर्चमानं च १९९ बाह्यमण्डलमाश्रित्य चारं चरतस्तदा तत्रोभयत्र समकालं द्वादशमुहूत्तों दिवसो भवति, दक्षिणोतरयोश्चोभयत्र अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवतीति चतुर्थ. प्रकारः ।४। मथैषां चतुर्णामपि प्रकाराणा सुगमबोधार्थ चत्वारि कोष्ठकानि प्रदर्श्यन्ते ALAMDAMund प्रथमप्रकारकोष्टकम् (१) । द्वितीयप्रकारकोष्टकम (२) दक्षिणोत्तयोःसूर्यद्वयस्यसर्वाभ्यन्तर-दक्षिणोत्तर्योः सूर्यद्धयस्यसर्वबाह्यमण्डलगती १२ द्वादश मुहर्तारात्रिः। मण्डलगत्तौ १८ अष्टादश मुहर्तारात्रिः। पू० प. ब जब जब - १८अष्टा- १२द्वादश १२द्रादन MAHARAJaasharare पा ११८ अष्टा दशमुहौद दशमुहतो. मुहतोंदिवसः दिवसः दिवसः । १२ द्वादशमुहूर्त्तारात्रिः। । १८ अष्टादशमुहौशनिः। महत्ता दिवसः ८५ -म । . तृतीयप्रकारकोष्टकम् (३) चत्तुर्यप्रकारकोष्टकम् (४) पूर्वपश्चिमयोः सूर्यद्वयस्यसर्वाभ्यन्तर-पूर्वपश्चिमयोः सूर्यदयस्यसर्यबाहामण्डलगतौ १८ अष्टादशमुहतॊ दिवसः। मण्डलगती १२ द्वादशमुहत्तॊ दिवसः। प.-छ - /जंबूद. द० १२ द्वादश उ. द्वादश-१८ अष्टा| मुहूत्ता-दश मुहूर्ता रात्रिः। रात्रिः । । १८अष्टा दशमुहती रात्रिः १८ अष्टादश मुहूत्र्तो दिवसः १२ द्वादश मुहूर्तो दिवसः। पूर्व दक्षिणाङ्केत्तरार्द्धयोर्दिवसरात्रिप्रकारः, तन्मुहूर्तमानं च प्रदर्शितम् , साम्प्रतं दक्षिणार्धेउत्तरार्धे कदा कदा वर्षाकालस्य प्रथमः समयः प्रतिपद्यते इति दर्शयितुमाह-'ता' जया णं इत्यादि। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० चन्द्रप्राप्तिसूत्र मूलम्-ता जया णं जंबुढीवे दीवे दाहिणड्ढे वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ तया णं उत्तरड्ढे वि वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ, जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पच्चयस्स पुरथिमेणं पच्चत्थिमेणं अणंतरपुराकडे कालसमयंसि वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ तयाण जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं दाहिणेणं अणंतरपच्छाकडे कालसमयंसि वासाणं पढमे समए पडिपुण्णे भवइ । जहा समए एवं आवलिया, आणपाय, थोवे, लवे, मुहुत्ते, अहोरत्ते, पक्खे, मासे, उऊ,एए दस आलाचगा वासाणं माणियन्वा 18 ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दहिणड्ढे हेमंताणं पढमे समए पडिवज्जइ तया णं उत्तरड्ढे वि हेमंता णं पढमे समए पडिवज्जड, जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्ययस्स पुरस्थिमेणं पच्चस्थिमेणं अणंतरपुराकडे कालसमयसि यं हेमंताणं पढमे समए पडिवज्जइ० एयस्स वि दस आलावगा जाव उऊ भाणियचा ।५। ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे गिम्हाणं पढमे समए पडिवज्जइ तया ण उत्तरड्ढेत्रि गिम्हाणं पढमे समए पडिवज्जइ । ता जया णं उत्तरदाहिणढे गिम्हाणं पढमे समए पडिवज्जइ तया णं जंबुद्दीवे दीवे पुरस्थिमेणं पच्चस्थिमेणं अणंतरपुराकडे कालसमयसि गिम्हाणं पढमे समए पडिवज्जइ० एयस्स वि दस आलावगा जाव उऊ भाणियव्या ।६। ता जया णं जवुहीवे दीवे दाहिणड्डे पढमे अयणे पडिवज्जइ । जया णं उत्तरड्ढे वि पढमे अयणे पडिवज्जइ तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमेणं पच्चत्थिमेणं अणंतरेपुराकडे कालसमयंसि पढमे अयणे पडिवज्जइ । ता जया णं जंधुढीवे दीवे मदरस्स पचयस्स पुरस्थिमेणं पढमे अयणे पडिवज्जइ तया ण पच्चस्थिमेण वि पढमे अयणे पडिबज्जइ । ता जया णं पच्चत्थिमेणं पढमे अयणे पडिवज्जइ तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्ययस्स उत्तरेण दाहिणेण अणतरपच्छाकडे कालसमयंसि पढमे अयणे पडिपुन्ने भवइ ! एवं संवच्छरे जुगे वाससए ‘वाससहस्से वाससयसहस्से पुन्चंगे, पुब्वे, तुडियंगे, तुडिए, अववंगे, अबवे, हुहुयंगे, हुहुए, उप्पलंगे, उप्पले, पउमंगे, पउमे. णलिणंगे, णलिणे, अच्छ निउरंगे, अच्छनिउरे अउयंगे, अउए, नउयंगे, नउए चूलियगे, चूलिया, सीसपहेलियंगे, सीसपहेलियां, पलिओवमे, सागरोवमे । ता जया ण जंबुद्दीवे दीवे दाहिगड्ढे पढमे समए उस्सप्पिणी पडिवज्जइ तया णं उत्तरइढे वि पढमे समए उस्सप्पिणी पडिवज्जड, जया ण उत्तरड्ढे पढमे समए उस्सप्पिणी पडिवज्जइ तया णं जंबुढीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमेणं पच्चत्थिमेणं उस्सप्पिणी, नेवत्थि अवहिए णं तत्थ काळे पण्णत्ते समणाउसो ७ . ' Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.-८ सू०३ दक्षिणार्धात्तरार्धे वर्षाकालादिसमयनिरूपणम् २०१ एवं लवणसमुद्दे धायईसंडे कालोए ता अभितरपुक्खरहेण वि सूरिया उत्तरपाईणमुगच्छंति पाईणदाहिणं आगच्छंति । एवं जंबुद्दीववत्तव्वया भाणियन्वा जाव उस्सप्पिणी वि सू० ३॥ चदपन्नत्तीए अट्ठमं पाहुडं समत्तं ॥८॥ छाया-तावत् यदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्धे वर्षाणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते तदा स्खलु उत्तरार्धेऽपि वर्षाणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते । यदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य. पर्वतस्य पौरस्त्ये पाश्चात्ये अनन्तरपुराकृते काललमये वर्षाणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरे दक्षिणे अनन्तरपश्चात्कृते कालसमये वर्षाणां प्रथमः समयः प्रतिपूर्णी भवति । यथा समयः एवम्आवलिका, आनप्राणी, स्तोका, लक., मूहूर्तः, अहोरात्रः, पक्षः, मासः, अतुः, एते दश आलापका वर्षाणां भणितव्याः । तावत् यदा नलु जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्धे हेमन्तानां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते तदा खलु उत्तरार्धेऽपि हेमन्तानां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते, तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये पाश्चात्ये अनन्तरपुराकृते कालसमये हेमन्तानां प्रथमः समयःप्रतिपद्यते एतस्यापि दश आलापका यावत् ऋतुम् भणितव्याः।५। तावत् यदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्धे ग्रीष्माणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते तदा खल उत्तरार्धेऽपि ग्रीष्माणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते । तावत् यदा खल उत्तरदक्षिणार्धे ग्रीष्माणां प्रथम समयः प्रतिपद्यते तदा खल जम्बूद्वीपे द्वीपे पौरस्त्ये पाश्चात्ये अनन्तरपुराकृते कालसमये ग्रीष्माणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते । एतस्यापि दश आलापका यावत् ऋतुम् भणितव्याः ॥६॥ तावत् यदा खल जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्धं प्रथमम् अयनं प्रतिपद्यते तदा खल उत्तराधेऽपि प्रथमम् अयनं प्रतिपद्यते । यदा स्खल उत्तरार्धे प्रथमम् अयनं प्रतिपद्यते तदा बलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये पाश्चात्ये अनन्तरपुराते कालसमये प्रथमम् अयनं. प्रतिपद्यते । तावत् यदा खल जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये प्रथमम् अयन प्रतिपद्यते तदा खल पाश्चात्येपि प्रथमम् अयनं प्रतिपद्यते। तावत् यदा खलु पाश्चत्येप्रथम् अयनं प्रतिपद्यते । तदा खल जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरे दक्षिणे अनन्तरपश्चात्कृते कालसमये प्रथम् अयनं प्रतिपूर्ण भवति । एवं संवत्सरः, युगम् वर्ष शतम् वर्षसहस्रम्। वर्षशतसहस्रम् , पूर्वाह्न, पूर्वम् , त्रुटिताङ्गं, त्रुटितम् , अटटाङ्ग, अटटम्, अववाङ्ग, अववम् हुहुकाझं, हुहुकम् , उत्पलाझं, उत्पलम् , पद्माङ्ग, पद्मम् , नलिनाङ्ग, नलिनम् अच्छनिकुराङ्ग अच्छनिकुरम्, अयुताङ्गम् , अयुतम् , नयुताङ्ग नयुतम् , चूलिकाङ्ग चूलिका, शीर्षप्रहेलिकाङ्ग शीर्षप्रहेलिका पल्योपमं, सागरोपमम् । तावत् यदा खल जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणाधैं प्रथमे समये उत्सर्पिणी प्रतिपद्यते तदा खलु उत्तरार्धेऽपि प्रथमे-समये उत्सर्पिणी प्रतिपद्यते यदा खलु उत्तरार्धे प्रथमे समये उत्सर्पिणी प्रतिपद्यते तदा खल जम्बूद्वीपे-द्वीपे-, मन्दरय पर्वतस्य पौरस्त्ये पाश्चात्ये उत्सर्पिणी नैवास्ति अवस्थितस्तत्र कालः प्रक्षप्तः श्रमणायुष्मन् १७॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ चन्द्रप्राप्ति एवं लवणसमुद्रे, धातकीखण्डे, कालोदे, तावत् अभ्यन्तरपुष्करार्धेऽपि स्यौं उत्तरप्राच्यामुग्दच्छतः । प्राचीदक्षिणस्यामागच्छतः । एवं जम्बूद्वीपवक्तव्यता भणितव्या यावत् उत्सर्पिण्यपि ॥ सू० ३ ॥ चन्द्रप्रज्ञप्त्याम् अष्टमं प्राभृतं समाप्तम् ॥ ८॥ व्याख्या- 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'दाहिगड्ढे' दक्षिणार्धे 'वासाणं' वर्षाणां वर्षाकालस्य सूत्रे बहुवचनमार्फत्वात् 'पढमे समए पडिवज्जई' प्रथमः समयः प्रारम्भसमयः प्रतिपद्यते आरब्धो भवति 'तयाणं तदा खलु 'उत्तरड्ढे' वि उत्तरार्धेऽपि 'वासाणं पढमे समए पडिवज्जई' वर्षाणां वर्षाकालस्य मासचतुष्टरूपस्य प्रथमः समयः प्रतिपद्यते दक्षिणोत्तरयोः समकालमेव द्वयोः सूर्ययोश्चारचरणात् । 'तया णं तदा वल 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'मन्दरस्स पब्वयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य पुरथिमेणं पच्चत्थिमेणं' पौरस्त्ये पाश्चात्ये पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि "अणंतरपुराकडे अनन्तरपुराकृते अनन्तरं दक्षिणोत्तरयोर्वर्षाणां प्रथमसमयात् द्वितीये पुराकृते अग्रे स्थिते 'कालसमयसि' कालसमये, समयस्तु अनेकार्थवाचकः-'समयः शपथाचारकालसिद्धान्तसंविदः' इति वचनात्, ततस्तद्वयवच्छेदार्थ कालेति विशेषणं दत्तम् , तेन कालसमये काल रूपे समये इत्यर्थः 'वासाणं पढमे समए पडिबज्जई' वर्षाणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते 'तया णं तदा खलु 'जंबुद्दीवे दीवे जम्बूद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्स पव्वयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'उत्तरेणं दाहिणेणं' उत्तरे दक्षिणे च 'अणंतरपच्छाकडे' अनन्तरपश्चात्कृते पश्चाद्गतानन्तरसमये पश्चानुपूर्ध्या द्वितीये - तस्मात् पूर्वस्मिन्ननन्तरे 'कालसमयंसि' कालसमये 'वासाणं पढमे समए' वर्षाणां प्रथमः समयः 'पडिपुण्णे भवई' प्रतिपूर्णो भवति । दक्षिणोत्तरयोः वर्षाणां प्रथमसमयसमाप्त्यनन्तरमेव पूर्वपश्चिमयोः वर्षाणां प्रथमसमयस्य प्रारम्भन्यायात् । यदा दक्षिणोत्तरयोः वर्षाकालसमयस्य पूर्णानन्तरमेव पूर्वपश्चिमयो. सूर्यगतिसद्भावात् एकस्य सूर्यस्य दक्षिणभागात् पश्चिमे भागे गतिर्भवति, द्वितीयस्य उत्तरभागात् पूर्वे भागे गतिर्भवति, ततः समीचीनमेव पूर्वकथनमिति ।१। 'जहा समए' यथा समयः यथा समयमाश्रित्य आलापकप्रकारः प्रदर्शितः ‘एवं' एवम्-अनेनैवालापकप्रकारेण शेषा नव 'आवलिया' आवलिका २, 'आणपाण' मानप्राणौ श्वासोच्छास समयः ३, 'थोवे स्तोकः ४ लवे' लवः ५ 'मुहुत्ते' मुहूर्तः ६, 'अहोरत्ते' अहोरात्रः ७, 'पक्खे' पक्षः ८, 'मासे' मासः ९, "ऊऊ' ऋतुः १० 'एए' एते पूर्वोक्ताः 'दस' दश समयमवधीकृन्य दश संख्यका 'आलावगा' आलापकाः 'चासाणं' वर्षाणां वर्षाकालस्य 'भाणियन्या' भणितव्याः आलापकाः करणीया इत्यर्थः, आलापक प्रकारश्च स्वयमूहनीयः ।४। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०८ ०३ दक्षिणार्धोत्तराधे वर्षाकालादिसमय निरूपणम् २०३ अथ वर्षाकालं प्रतिपाद्य हेमन्तकालं प्रदर्शयितुमाह- 'ता जया णं हेमंताणं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'जंबुद्दीवे दोवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे ' दाहिणड्ढे ' दक्षिणार्घे 'हेमंताण' हेमन्तानां हेमन्तकालस्य मासचतुष्टयरूपस्य 'पढमे समए' प्रथमः समयः 'पडिवज्जइ' प्रतिपद्यते प्रविष्टो भवति --' तया णं' तदा खलु 'उत्तरड्ढे वि' उत्तरार्धेऽपि 'हेमं - ताणं पढमे समए पडिवज्जइ' हेमन्तानां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते, 'जया णं' यर्दा खलु जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्दीपे द्वीपे 'मंदरस्स पन्चयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरत्थिमेणं पच्चत्थिमेणं' पौरस्त्ये पाश्चात्ये पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि 'अणंतरपुराकडे' अनन्तरपुराकृते तदनन्तरे दक्षिणोत्तरहेमन्तप्रथमसमयादनन्तरं द्वितीये पूर्वानुपूर्व्या अग्रे स्थिते 'कालसमयं सि' कालसमये कालरूपे समये 'हेमंताणां' हेमन्तानाम् ' पढमे समए' प्रथमः समयः 'पडिवज्जइ ' प्रतिपद्यते तदा दक्षिणोत्तरयोरनन्तरपश्चात्कृत्ते पश्चानुपूर्व्या पूर्वस्मिन् कालसमये हेमन्तानां प्रथमः समयः परिपूर्णो भवतीति सुगममेव । 'एयस्स वि' एतस्यापि हेमन्तकालस्यापि ' दसलावगा' दश - आपका ः 'जाव ऊऊ' यावत् ऋतुम् समयादारभ्य ऋतुपर्यन्ताः 'भाणियव्वा' भणितव्याः ||५|| अथ सूत्रकारः ग्रीष्मकालं प्रदर्शयितुमाह - 'ता जया णं गिम्हाणं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे ' दाहिणड्ढे ' दक्षिणाधें ' गिम्हाणं पढमे समए पडिवज्जइ' ग्रीष्मणां ग्रीष्मकालस्य चतुर्मासरूपस्य प्रथमः समयः प्रतिपद्यते ' तया णं' तदा खलं 'उत्तरड्ढे वि' उत्तरार्धेऽपि 'गिम्हाणं पढमे समए पडिवज्जइ' ग्रीष्माणां ग्रीष्मकालस्य चतुर्मासरूपस्य प्रथमः समयः प्रतिपद्यते । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'उत्तरदाहिणड्ढे' उत्तरदक्षिणार्धे उत्तरार्धे दक्षिणार्धे च ' गिम्हाणं पढमे समए पडिवज्जइ' प्रोष्माणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते ‘तया णं' तदा खलु 'जबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'पुरत्थिमेणं पच्चत्थिमेणं पौरस्त्ये पाश्चात्ये च 'अणंतरपुराकडे' अनन्वरपुराकृते उत्तरदक्षिणगतग्रीष्मकालस्य द्वितीये 'कालसमयंसि' कालसमये ' गिम्हाणं पढमे समए' ग्रीष्माणां प्रथमः समयः 'पडिवज्जइ ' प्रतिपद्यते, इत्यादि 'एयस्स वि' एतस्यापि ग्रीष्मकालस्यापि 'दस आलावगा' दशालापकाः 'जाव ऊऊ' यावत् ऋतुम् समयादारभ्य ऋतुपर्यन्ताः 'भाणियव्वा' भणितव्याः पूर्वोक्तालापकवत् करणीयाः | ६ | पूर्वं वर्षाहेमन्तग्रीष्मरूप ऋतुत्रयस्य वक्तव्यतां प्रतिपाद्य साम्प्रतम् - अयनादि वक्तव्यता माह - 'ता जया णं अयणे' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'दाहिणड्ढे' दक्षिणार्धे 'पढमे अयणे' प्रथमम् अयनम् 'पडिवज्जइ' प्रतिपद्यते ' तया णं' Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे तदा खलु 'उत्तरड्ढे वि' उत्तरार्धेऽपि 'पढमे अयणे पडिवज्जई' प्रथमम् अयनं प्रतिपद्यते । । 'जया णं' यदा खल 'उत्तरड्ढे' उत्तरार्वे उपलक्षणात् दक्षिणार्धेऽपि च उभयत्र सूर्यसद्भावात् 'पढमे अयणे पडिवज्जइ' प्रथमम् अयनं प्रतिपद्यते 'तया णं' तदा खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्स पव्ययस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरस्थिमेणं पच्चत्थिमेणं' पौरस्त्ये पश्चात्ये पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि 'अणंतरे पुराकडे' अनन्तरे - पुराकृते अग्रेतने अनन्तरे 'कालसमये' दक्षिणोत्तरगतायनप्रथमसमयात् द्वितीये समये इत्यर्थः 'पढमे अयणे' प्रथमम् अयनं 'पडिवज्जइ प्रतिपद्यते भवति । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्स पचयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्ये पूर्वदिशायां 'पढमे अयणे पडिवज्जई प्रथमम् अयनं प्रतिपद्यते भवति 'तया णं तदा खलु पच्चत्थिमेण वि पाश्चात्येऽपि पश्चिमदिशायामपि 'पढमे अयणे पडिवज्जइ' प्रथमम् अयनं प्रतिपद्यते भवति पूर्वपश्चिमयोः सूर्यद्वयस्य समकालं समरेखायां संचरणस्वभावात् । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'पच्चत्थिमेणं' पाश्चात्ये पश्चिमभागे पूर्वभागे च 'पढमे अयणे पडिवज्जई' प्रथमम् अयनं प्रतिपद्यते 'तया णं' तदा खल 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्स पव्वयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'उत्तरेण दाहिणेणं' उत्तरे दक्षिणे च उत्तरदिशि दक्षिणदिशि च 'अणंतरे पच्छाकडे' अनन्तरे पश्चात्कृते पश्चानुपूर्व्याऽनन्तरे पूर्वपश्चिमभागसमापन्नायनसमयात्पूर्वस्मिन् 'काल समयसि' कालसमये 'पढमे अयणे' प्रथमम् अयनं 'पडिपुन्ने भवइ' प्रतिपूर्णं भवति तत्र प्रतिपूर्णानन्तरमेवात्र तत्सद्भावो भवेदिति न्यायात् । इदं सर्व व्याख्यानं पूर्वोक्त समयसूत्रवदेव वाच्यम् । 'एवं' एवम्-अनयैव रीत्या अनेनैवाऽऽलापकप्रकारेण च अग्रे संवत्सरयुगादेरारभ्य पल्योपमसागरोपमपर्यन्तमवसेयम् । तदेव दर्शयति-'संवच्छरे जुगे' इत्यादि । संवत्सरयुगादितः पल्योपमसागरोपमपर्यन्तं सर्वोऽपि पाठः तद्व्याख्या चेति सर्वं सुगमं छाया गम्यमेवेति विरम्यते । सांप्रतमुत्सर्पिणी कालमधिकृत्याह-'ता जया ण' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'दाहिणड्डे' दक्षिणार्धे 'पढमे समए' प्रथमे समये 'उस्सप्पिणी पडिवज्जइ' उत्सर्पिणी प्रतिपद्यते प्रारभते 'तया णं' तदा खलु 'उत्तरड्ढे वि' उत्तरार्धेऽपि 'पढमे समये' प्रथमे समये 'उस्सप्पिणी पडिवज्जइ' उत्सर्पिणी प्रतिपद्यते प्रारभते 'जया णं' यदा खलु 'उत्तरढे' उत्तरार्धे दक्षिणार्धे च 'पढमे समए' प्रथमे समये 'उस्सप्पिणी पडिवज्जइ' उत्सर्पिणी प्रतिपद्यते 'तया णं' तदा तस्मिन् समये खल्ल 'जंबुट्टीचे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'मंदरम्य पव्ययस्स' मन्दरस्स पर्वतस्य 'पुरत्थिमेणं पच्चत्थिमेणं पौरस्त्ये पाश्चात्ये पूर्वपश्चिमयोः 'उस्सप्पिणी' उत्सर्पिणी उपलक्षणाद् अवसर्पिण्यपि 'णेवस्थि Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिंका टीका प्रा०८ सू०३ दक्षिणार्धोत्तरार्धे वर्षाकालादिसमयनिरूपणम् २००६ नैवास्ति 'अवहिए ' अवस्थितः खलु सदा समानः 'तत्थ' तत्र पूर्वपश्चिमयोः 'काले पण्णत्ते' कालः प्रज्ञप्तः कथितः तथास्वाभाव्यात् 'समणाउसो' हे श्रमण ! आयुष्यन् ? गौतम ? ॥७॥ तदेवं जम्बूद्वीपवक्तव्यता प्रोक्ता, साम्प्रतं लवणसमुद्रादि वक्तव्यतामाह-'एवं लवणसमुद्दे' इत्यादि। 'एवं' एवम् - अनेन जम्बूद्वीपे सूर्ययोरुद्गमादि प्रदर्शितं तथैव 'लवणसमुद्दे' लवणसमुद्रे तथा 'धायईसंडे' धातकी षण्डे 'कालोए' कालोदे समुद्रे 'ता' तावत् 'अभितरपुक्खररेण वि' आभ्यन्तरपुष्करार्धेऽपि 'सूरिया' सूर्याः द्वासप्ततिसंख्यकाः 'उत्तरपाईणमुरगच्छंति' उत्तरप्राच्याम् ईशानकोणे उद्गच्छन्ति 'पाईणदाहिणं आगच्छति' प्राचीदक्षिणस्याम् अग्निकोणे मागच्छन्ति । 'एवं' एवम्-अनेन आलापकप्रकारेण 'जंबुद्दीववत्तव्यया' जम्बूद्वीपवक्तव्यता 'भाणियव्वा' भणितव्या। कियत्पर्यन्तमित्याह-'जाव' इत्यादि 'जाव उस्सप्पिणी वि' यावत्उत्सर्पिण्यपि उत्सर्पिण्यालापकपर्यन्तमिति । अत्र यो विशेषः स प्रदश्यते, लवणसमुद्रेऽयं विशेषः जम्बूद्वीपे द्वौ सूर्यो स्तः किन्तु लवणसमुद्रे चत्वारः सूर्याः सन्ति द्विगुणक्षेत्र विस्तारात् । तेषु चतुर्पु सूर्येषु द्वौ सूर्यो जम्बूद्वीपदक्षिणार्धसूर्यस्य समश्रेणिप्रतिवद्धौ स्तः, द्वौ च उत्तरार्धसूर्यस्य समणिप्रतिबद्धौ स्तः । यदा जम्बूद्वीपे एकः सूर्यो दक्षिणपूर्वस्यामुदेति तदा तस्य समश्रेणिप्रतिवधौ द्वौ सूर्ची लवणसमुद्रे दक्षिणपूर्वस्यामुदयं प्राप्नुतः । एवं जम्बूद्वीपगतो द्वितीयः सूर्यो दक्षिणपूर्वकोणस्य सम्मुखं पश्चिमोतरे उदयमेति तदा लवणसमुद्रेऽपरौ द्वौ सूर्यो जम्बूद्वीपगतसूर्यस्य समश्रेणिप्रतिबद्धौ पश्चिमोत्तरे उदयं प्राप्नुतः । एवमुदयविधिर्जम्बूद्वीपसूर्यवदेव ज्ञातव्यः विशेषः केवलमेतावानेव यदत्र द्वौ सूर्यो, लवणसमुद्रे च चत्वार इत्यतो द्वौ द्वौ एकैकस्यां दिशि वकन्यौ । एवमेव यदा लवणसमुद्रस्य दक्षिणार्धे दिवसो भवति । तदा उत्तरार्धेऽपि दिवसो भवति । एवं यदा उत्तरार्धे दिवसो भवति तदा दक्षिणार्धेऽपि दिवसो भवति । यदा लवणसमुद्रस्य दक्षिणार्धे उत्तरार्धे च दिवसो भवति तदा पूर्वपश्चिमयोः रात्रिभवति तदानीं तत्र सूर्याचारभावात् । यदा लवणसमुद्रस्य पूर्वपश्चिमयोर्दिवसो भवति तदा दक्षिणोत्तरयोः रात्रिभवति तदानीं तत्र सूर्याभावात् । दिवस रात्र्योर्यावत्कं प्रमाणं जम्बूद्वीपे कथितं तावन्मानं लवणसमुद्रेऽपि भणितव्यम् , तच्च 'नेवत्थि तत्थ ओसप्पिणी अवट्ठिएणं तत्थ काले पण्णत्ते समणाउसो' इत्येतत्पर्यन्तं सर्व जम्बूद्वीपवक्तव्यतावदेव पठितव्यमिति ॥ आलापकप्रकारः स्वयमूहनीयः । एषा लवणसमुद्रस्य वक्तव्यता कथिता । यथा लवण समुद्रस्य वक्तव्यता कथिता तथैव धातकी खण्डस्य वक्तव्यता वाच्या विशेष एतावान् यत्-अत्र क्षेत्रस्य विशालता सद्भावात् द्वादशसूर्या द्वादशैव चन्द्राः सन्ति तेषां परस्परं समत्वात् , एवमग्रेऽपि विज्ञेयम् तेषु द्वादशसु सूर्येषु षट् सूर्या Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंद्रप्रक्षप्तिसूत्र दक्षिणार्धे षट् च उत्तरार्धे पूर्वोक्तजम्बूद्वीपक्रमेणैव चारं चरन्ति । एते द्वादशापि सूर्याः जम्बूद्वीपलवणसमुद्रगतसूर्याणां समश्रेणिप्रतिबद्धास्तेनैव क्रमेण चार चरन्ति । एषामुदयास्तविधिः जम्बूद्वीपगतसूर्यवदेव विज्ञेयः । दिवसरात्रिप्रकारोऽपि जम्बूद्वीपवदेवावसेयः। उत्सर्पिण्यवसर्पिणीपर्यन्तं सर्वोऽपि प्रकारो जम्बूद्वीपवदेव भणितव्यः । आलापकाः स्वयं करणीया इति । ___कालोदघिसमुद्रस्यापि वक्तव्यता लवणसमुद्रवदेव पठितव्या, विशेषोऽत्रैतावान् यत् अत्र क्षेत्रविस्ताराधिक्यात् द्विचत्वारिंशत् सूर्याः सन्ति, तेपु एकविंशतिः सूर्या दक्षिणविभागे, एक विंशतिरेव उत्तरविभागे चारं 'चरन्ति । एतेऽपि जम्बूद्वीपलवणसमुद्रधातकीखण्डगतसूर्याणां समश्रेणिप्रतिबद्धास्तेनैव क्रमेण स्वस्वक्षेत्रं प्रकाशयन्ति । दिवसरात्र्यादिप्रकारः पूर्ववदेव विज्ञातव्य इति । अथाभ्यन्तरपुष्कराविषये कथ्यते-अत्रापि सर्वा वक्तव्यता जम्बूद्वीपवदेव विचारणीया, विशेषस्त्वयम्-यदत्र द्वा सप्ततिः सूर्याः सन्ति । तेषु पूर्ववदेव षट्त्रिंशत् सूर्या दक्षिणे पटै त्रिंशदेव उत्तरे प्रकाशयन्ति । अन्यत्सर्वं दिवसरात्रिप्रकारः, तथा वर्षाऋतु समयादारभ्योत्सर्पिण्यवसर्पिणी वक्तव्यतापर्यन्तं सर्वोऽपि विचारश्चेत्यादि जम्बूद्वीपवक्तव्यतासदृशमेव भणितव्यम् । एवं क्रमेण सार्धतृतीयद्वीपवक्तव्यता भवति, तत्र द्वात्रिंशदधिकैकशत (१३२) संख्यकाः -सूर्याः निरन्तरं चार चरन्ति । सर्वत्र जवूद्वीपादारभ्य सार्धतृतीयद्वीपपर्यन्तं यत्र यावन्तः सूर्यास्तत्र तावन्त एव चन्द्रा भवन्तीति विज्ञेयमिति ॥सू०३॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहुच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त "जैनशास्त्राचार्य" पदभूषित-कोल्हापुर राजगुरु बालब्रह्मचारि-जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलालति-विरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका ख्यायां व्याख्यायाम् अष्टमम् प्राभृतं समाप्तम् ॥५॥ ॥ श्रोरस्तु ॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ नवमं प्राभृतं प्रारभ्यते तदेवमुक्तमष्टमं प्राभृतम्, तत्र जम्बूद्वीपे सूर्योदयमर्यादा प्रदर्शिता । अथ नवमं प्राभृतं प्रारभ्यते, अत्र पूर्व द्वारकथनावसरे 'कइ कट्ठा पोरिसी छाया' कतिकाष्ठा पौरुषी छाया, इति कथितम्, सूर्यः पौरुषी छायां कतिकाष्ठां निवर्तयति ? इत्यर्थाधिकारो निरूपयिष्यते इति सम्बन्धेनायातस्यास्य नवमस्य प्राभृतस्येदमादिमं सूत्रम्-'ता कइकडे' इत्यादि । मूलम्-ता कइकडं ते सूरिए पोरिसी छाया णिवत्तेइ आहितेति वएज्जा, तत्थ खल इमाओ तिणि पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-तत्थ एगे एवमाहंसु-ताजेणं पोग्गला सरियस्स लेस्सं फुसंति ते णं पोग्गला संतप्पंति. ते ण पोग्गला संतप्पमाणा तयाणंतराई वाहिराई पोग्गलाई संताविति-त्ति एस णं से समिए तावखेत्ते, एगे एवमाइंसु।१। एगे पुण एवमाइंस-ता जेणं पोग्गला सरियस्स लेस्सं फुसंति ते ण पोग्गला नो संतप्पंति, ते णं पोग्गला असंतप्पमाणा तयाणंतराइं वाहिराई पोग्गलाई नो संतावेंति एस ण से समिए तावखेत्ते, एगे एवमासु ।२। एगे पुण एवमाइंसु-ता जे णं पोग्गला सूरियस्स लेस्सं फुसंति ते गं पोग्गला अत्यंगइया संतवेंति, अत्थे गइया नो संतति, अत्थेगइया संतप्पमाणा तयाणंतराई वाहिराई पोग्गलाई संताति, अत्थेगइयाअसंतप्पमाणा तयाणंतराई वाहिराई पोग्गलाई नो सताति, एस णं से समिए तावखेत्ते, एगे एवमाहंसु ॥३॥ वयं पुण एवं वयामो-ता जामो इमाओ चंदिमसरियाणं देवाणं विमाणेहितो लेस्साओ पहिया अभिनिस्सडाओ ताओ पयाविति, एयासि ण लेस्साणं अंतरेसु २ अण्णयराओ छिन्नलेस्साओ संमुच्छंति, तए णं ताओ छिन्नलेस्साओ संमुच्छियाओ समाणीओ तयाणंतराई वाहिराई पोग्गलाई संताविति त्ति, एसण से समिए ताव खेत्ते ॥०॥ छाया--तावत् कतिकाष्ठां ते सूर्यः पौरुषी छायां निवर्तयति आख्यातमिति वदेत् । तत्र खलु इमास्तिस्रः प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तत्र पके पवमाहुः तावत् ये खलु पुद्गलाः सूर्यस्य लेश्यां स्पृशन्ति ते स्खलु पुद्गलाः संतप्यन्ते, खलु पुद्गलाः संतप्यमानाः तदनन्तरान् वाह्यान् पुद्गलान् संतापयन्ति इति एतत् खलु तत् समितं तापक्षेत्रम् , एके पवमाहुः ।। एके पुनरेवमाहुः--तावत् ये खलु पुद्गलाः सूर्यस्य लेश्यां स्पृशन्ति ते खलु पुद्गला नो संतप्यन्ते, ते खलु पुद्गला असंतप्यमानाः तदनन्तरान् बाह्यान् पुद्गलान् नो संतापयन्ति, एतत् खलु तत् समितं तापक्षेत्रम् एके एवमाहुः ।२। एके पुनरेवमाहुः-- तावत् ये खलु पुद्गलाः सूर्यस्य लेश्यां स्पृशन्ति, ते खलु पुद्गलाः अस्त्येके संतप्यन्ते, Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ चन्द्रप्राप्तिस्त्रे अस्त्येके नो संतप्यन्ते (ये) अस्त्येके संतप्यमानाः (ते) तदनन्तरान् बाह्यान् पुद्गलान् संतापयन्ति, अस्त्येके असंतप्यमानाः तदनन्तरान् वाह्यान् पुद्गलान् नो संतापयन्तीति, एतत् खलु तत् समितं तापक्षेत्रम् एके पवमाहुः ।। __वयं पुनरेवं बदाम. तावत् या इमाः चन्द्रसूर्ययोर्दैवयोः विमानेभ्यः लेश्याः बहिः अभिनिस्सृताः ता प्रतापयन्ति, पतासां खलु लेश्यानाम् अन्तरेषु अन्यतराः छिन्नलेश्याः समूर्छन्ति, तत. खलु ता छिन्नलेश्याः संमूर्छिताः सत्यः तदनन्तरान् वाह्यान पुद्गलान् संतापयन्तीति पतत् खलु तत् समित तापक्षेत्रम् ॥१॥सू०१॥ व्याख्या-'ता' तावत् 'कइक' कतिकाष्ट कति कतिप्रमाणा काष्ठा प्रकर्षो यस्याः सा कतिकाष्ठा ता किंप्रमाणामित्यर्थः 'ते' तवमते 'सूरिए' सूर्यः पोरिसिं पुरुष भवा पौरुषी तां 'छाय' छायां पुरुषसम्बन्धिनी छायां 'निव्वत्तेइ' निवर्तयति करोति, अत्रविषये भवन किम्'आहियं', आख्यातम् ? 'ति वएज्जा ' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् ! इति गौतमस्य प्रश्नः । अत्र भगवान् पूर्वमेतद्विषये यावत्यः प्रतिपत्तयो वर्तन्ते ता दर्शयति-'तत्थ खल' इत्यादि । 'तत्थ' तत्र पौरुषी छायाप्रमाणविषये खलु तापक्षेत्रस्वरूपविषयाः 'इमाओ' इमाः वक्ष्यमाणाः 'तिण्णी' तिम्रः' 'पडीवत्तीओ' प्रतिपत्तयः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ताः, 'तं जहा तद्यथा-'तत्थ' तत्र त्रिपु प्रतिपत्तिवादिपु मध्ये 'एगे' एके प्रथमाः एवं' एवम्-वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु आहुः कथयन्ति । किं कथयन्तीत्याह-'ता जे णं" इत्यादि । 'ता' तावत् 'जे णं' ये खलु पोग्गला पुद्गला. ' 'सूरियस्स लेस्सं सूर्यस्य लेश्यां 'फूसति' स्पृशन्ति 'ते णं पोग्गला' ते खलु पुद्गलाः 'संतप्पंति' संतप्यन्ते; अत्र कर्मकर्तरि प्रयोगः, 'ते ण-पोग्गला-ते-खलु पुद्गलाः सतप्पमाणा' संतप्यमानाः सूर्यलेश्यातापेन संतप्ता भवन्तः सन्तः 'तयाणंतराई' तदन्तरान् संतप्यमानपुद्गलानामव्यवधानाऽग्रे स्थितान् 'वाहिराई. बाह्यान् तत्प्रदेशाबहिःस्थितान् 'पोग्गलाई' पुद्गलान् सूत्रे नपुंसकत्वमापत्वात्', 'संतातित्ति' सन्तापयन्ति, इति, अत्र इति शब्दः प्रस्तुतवाक्यपरिसमाप्तिसूचकः 'एस णं' एतत् एवंस्वरूपं खलु 'से' तस्य सूर्यस्य 'समिए समितं संपन्नं 'तावखेत्ते' तापक्षेत्रमस्ति । अत्र पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् । उपसंहारः 'एगे' एके प्रथमाः 'एवं' एवं पूर्वोक्तप्रकारेण 'आइंसु' आहुः कथयन्ति । इति प्रथमा प्रतिपत्तिः ॥१॥ अथ द्वितीयां प्रतिपत्तिमाह-एगे पुण' इत्यादि ‘एगे पुण' एके द्वितीया पुनः ‘एवं एवं वन्यमाणप्रकारेण 'आइंसु' माहुः कथयन्ति- 'ता' तावत 'जे णं-पुग्गला' ये खलु पुद्गलाः 'मूरियस्स लेस्सं'- सूर्यस्य लेश्यां 'फुसंति' स्पृशन्ति 'ते णं पोग्गला' ते खल पुद्गलाः 'नो संतप्पति' नो सतप्यन्ते संतप्ता न भवन्ति ते णं पोग्गला' ते खल्ल पुद्गला: 'असंतप्पमाणा' असंतप्यमानाः नसंतप्ता. भवन्तः सन्तः 'तयाणंतराई' तदनन्तरान् अव्यवधानेन वद Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० ९ सू०१ सूर्यः पौरुषी छायां कतिकाष्ठां निवर्तयन्तीति २०९ तदनस्थितान् 'वाहिराई' बाह्यान् बहिःस्थितान् 'पोग्गलाई' पुद्गलान् 'नो संतप्पेति' नो सन्तापयन्ति, ते णं पोग्गला' ते खलु पुद्गलाः 'असंतप्पमाणा:' असंतप्यमानाः 'तयणंतराई तदनन्तरान् अव्यवहिताग्रे स्थितान् 'वाहिराई' बाह्यान् 'पोग्गलाई' पुद्गलाम् 'नो संतावेति' नो संतापयन्ति संतप्तान् न'कुर्वन्ति, 'एस ण' एतत् खलु 'से' तस्य सूर्यस्य 'समिए' समितं संपन्नं 'तावखेत्ते' तापक्षेत्रम् । “एगे' एके एते द्वितीयाः परतीर्थिकाः 'एवं 'एवं पूर्वोक्तरीत्या 'आइंसु' आहुः कथयन्तीति द्वितीया प्रतिपत्तिः ।२। अथ तृतीयां प्रतिपत्तिमाह- 'एगे पुण' इत्यादि । 'ता' तावत् 'एगे पुण' एके तृतीया प्रतिपत्तिवादिनः पुनः ‘एवं' एवम्-वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहेसु' आहुः कथयन्ति । तदेवाह 'ता जे णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जे णं पोग्गला'ये खलु पुद्गलाः 'सरियस्स लेस्सं संति' सूर्यस्य लेश्यां स्पृशन्ति 'ते णं पोग्गला' ते खलु पुद्गलाः 'अत्गइया' अस्त्येके सूर्यलेश्या स्पर्शकारिपुद्गलानां मध्ये केचित् पुद्गलाः 'संतप्पंति' संतप्यन्ते तथा 'अत्थेगइया' अस्त्येके तेषां मध्ये केचित्पुद्गलाः 'नो संतप्पंति' नो संतप्यन्ते तत्र ये 'अत्थेगइया' अस्त्येके 'संतप्पमाणा' संतप्यमाना भवन्ति ते 'तयाणंतराई' तदनन्तरान् तदनन्तरस्थितान् 'वाहिगई' ब्राह्यान् ‘पोग्गलाई पुद्गवान् 'संतावेति' संतापयन्ति । ये च 'अत्थेगइया' अस्त्येके केचन सूर्यलेश्यास्पर्शकपुद्गलाः 'असंतप्पमाणा' असंतप्यमानाः न संतप्ता भवन्तः सन्त' 'तयाणंतराई तदन्तरान् स्वस्याग्रे स्थितान् 'वाहिराई ‘बाह्यान् तत्प्रदेशाद्वहिःस्थितान् 'पोग्गलाई 'पुद्गलान् 'नो संताविति-त्ति नो सन्तापयन्तीति । 'एस गं' एतत् खलु से' तस्य सूर्यस्य 'समिए' समितं संप्राप्तम् 'तावखेचे' तापक्षेत्रम् । उपसंहारः-'एगे' एके तृतीयाः ‘एवं' एवं पूर्वोक्कप्रकारेण 'आईमु १माहुः कथयन्ति । इति तृतीया प्रतिपत्तिः ३॥ अथ भगवान् मिथ्या रूपा स्तिस्रः परतीर्थिक प्रतिपत्तीः प्रदय स्वमतं प्रदर्शयति-'वयं पुण इत्यादि । 'वयं पुण एवं वयामो वयं पुनरेवं वदामः- 'ता' तावत् 'जाओ इमाओ' या इमाः 'चंदसुरियाणं देवाणं' चन्द्रसूर्याणां देवानां' जम्बूद्वीपे द्विद्विचन्द्रसूर्ययोः सद्भावाद् बहुवचनम् 'विमाणेहितो' विमानेभ्यः लेस्साओ' लेश्याः 'वहिया अभिनिस्सडाओ' बहिरमिनिस्सृताः 'ताओ' ताः बाह्यं यथोचितमाकाशम् ‘पयाविति१ प्रतापन्ति प्रकाशयन्ति 'एतासिणं' एतासां विमानेभ्यो निस्सृतानां 'लेस्साणं' लेश्यानां 'अंतरेसु२' अन्तरेपुर प्रत्येकमपान्तरालेषु अण्णयरात्रो' अन्यतराः काश्चिदन्यतमाः 'छिन्नलेस्साओ' छिन्नलेश्याः छिन्नमूला लेश्याः 'संमुच्छंति, संमूर्छन्ति तथास्वभावात् समुद्भवन्त । 'तए णं' १ततः खलु 'ताओ' ताः पूर्वोक्ता 'छिन्नलेस्साओ' छिन्नलेश्याः छिन्नमूला लेश्या: 'समुच्छियाओ समाणीओ' १संमूछिताः २७ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० चन्द्रशतिसूत्रे सत्यः ' तयणंतराई' तदनत्तरान् - अव्यवधानेन तदग्रे स्थितान् 'बाहिराई पोग्गलाई' बाह्यान् पुगद्लान् 'संतात्रिंती' संतापयन्ति । इति पूर्ववत् 'एस णं' एतत् खलु 'से' तस्य सूर्यस्य 'समिए' समितं संपन्नं 'तावखेत्ते ' तापक्षेत्रम् ॥ सू० १ ॥ पूर्वं तापक्षेत्रस्य स्वरूपप्रतीपन्नता प्रोक्ता, साम्प्रतं किं प्रमाणां पौरूषों छायां सूर्यो निर्वर्त्तयतीति प्रदर्शयन्नाह - 'ता कइकडं ते' इत्यादि । मूलम् - ता कहकते सूरिए पोरिसीं छायं निव्वत्ते ? आहिते ? ति वदेज्जा । तत्थ खलु इमाओ पण्णati पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ तं जहा - तत्थ एगे एवमाहंसु ता अणुसमयमेव सूरिए पोरिस छायं निव्वत्तेइ एगे एवमाहं |१| एगे पुण एवमा हंसु ता अणुमुत्तमेव सरिए पोरिसिच्छायं णिव्वत्ते एगे एवमाहं |२| एवं एए अभिलावेण जाओ चेव ओयसंठिईए (प्राभृतं ६) पण्णचीसं पडिवत्तीओ ताओ चेव यवाओ जाएगे पुण एवमाहंसु ता अणुउस्सप्पिणीओसप्पिणीमेव सूरिए पोरिसि छायं निव्वत्ते, एगे एवमाहंस ||२५|| वयं पुण एवं वयामो-ता सूरियस्स णं उच्चत्तं लेस्स च पडुच्च छाया उद्देसो, उच्चत्तं छायं पच्च लेस्सुद्देसे, लेस्सं च छायं पडुच्च उच्चत्तद्देसो |२| तत्थ खलु इमाओ दो पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - एगे एवमाहंसु - ता अस्थि णं से दिवसे जसि चणं दिवसंसि सूरिए चउ पोरिसिं छायं निव्वत्ते, अहवा दुपोरिसिं छायं निव्वत्ते, एगे एवमा |१| एगे पुण एवमाहंसु - ता अस्थि णं से दिवसे जंसि च णं दिवसंसि सूरिए दुपोरिसिं छायं निव्वत्ते, अहवा नो किचिवि पोरिसिं छायं निव्वत्तेइ एगे एवमाहंसु 121 तत्थ णं जे ते एवमामु-ता अस्थि णं से दिवसे जंसि च णं दिवसंसि सूरिए चउपोरिसिंछायं निव्वत्तेर, अहवा अस्थि णं से दिवसे जंसि च णं दिवसंसि सूरिए पोरिसिं छायं निव्वत्ते, ते णं एत्रमाहंसु - ता जया ण सूरिए सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तथा णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ तंसि च णं दिवसंसि सूरिए चउपोरिसिं छायं निव्चत्ते, तं जहा उग्गमणमुहुत्तंसि अत्यमणमुहुत्तंसि य लेस्सं अभिबुड्ढेमाणे वा निव्वुड्ढेमाणे वा ॥ ता जयाणं सूरिए सव्ववाहिरं मंडलं उचसंक्रमित्ता चारं चरइ, तयाणं उत्तमक पत्ता उकोसिया अट्टारसमुहुत्ता राई अभइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ तंसि चणं दिवसंसि सूरिए दुपोरिसिं छायं निव्वत्तेड, तंजहा- उग्गमणमुहुत्तसि य अत्थमणमुहुत्तंसि य लेस्सं अभिबुड्ढेमाणे वा निव्वुढेसाणे वा |१| तत्थ णं जे ते एवमाहं ता अस्थि णं से दिवसे जंसि च णं दिवसंसि सरिए दुपोरिसिं छायं निव्वत्ते, अहवा अस्थि णं से दिवसे जंसि च णं दिवसंसि सूरिए नो किंचिचि पोरिसिं Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०-९०३ पौरुषीछायायाः प्रमाणनिरूपणम् २११ निव्वते ते एवमाहंसु-ता जया णं सूरिए सव्व मंतरं मंडलं उवसंकभित्ता चारं चरह तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अहारसमुहुत्ते दिवसे भवइ जहणिया दुवाल समुहुत्ता राई भवर तंसि च णं दिवसंसि सूरिए दुपोरिसीं छायं णिव्वत्तेइ, तं जहा उग्गमण मुहुसि य अत्थमणमुहतसि य, लेस्सं अभिवुट्टेमाणे वा निब्बुड्ढेमाणे वा । ता जया णं सूरिए सव्ववाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकठ्ठपत्ता उक्कोसिया अठ्ठारसमुहुत्ता राईभवइ जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ तंसि च णं दिवसंसि सूरिए नो किंचिवि पोरिसिं छायं निव्वत्ते, तं जहा उग्गमणमुहतसि य अत्थमणमुहुत्तंसि य, नो चेव णं लेस्सं अभिवुद्देमाणे वा निबुड्ढे माणे वा ||०२|| छाया-- - तावत् कविकाष्ठांते सूर्यः पौरुषों छायां निर्वर्त्तयति । आख्यातमिति वदेत् । तत्र खल इमाः पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तय. प्रज्ञप्ताः तद्यथा-तत्र एके एवमाहुः - तावत् अनुस मयमेव सूर्यः पौरुषीं छांयां निवर्त्तयति एके पवमाहुः |१| एके पुनरेवमाहुः - तावत् अनुमुहूर्तमेव सूर्यः पौरूषों छायां निर्वर्त्तयति पके एवमाहुः |२| एवम् एतेन अभिलापेन या एव ओजः संस्थितौ (प्रा०६) पञ्चविंशतिः प्रतिपचयः, ता पव ज्ञातव्याः, यावत् - एके पुनः एवमाहुः तावत् अनुसर्पिण्यवसर्पिणीमेव सूर्यः पीरूपीं छायां निर्वर्त्तयति, एके एवमाहु |२५| वयं पुनरेवं वदामः - तावत् सूर्यस्य खलु उच्चत्वं लेश्यां च प्रतीत्य छायोद्देशः १ उच्चत्वं छायां च प्रतोत्य लेश्योद्देशः, लेश्यां च छायाँ च प्रतीत्य उच्चश्वोद्देशः २ । तत्र खलु इमे द्वे प्रतिपत्ती प्रज्ञप्ते तद्यथा पके एवमाहुः तावद् अस्ति खलु स दिवसः यस्मिश्व खलु दिवसे सूर्यः चतुःपोरुषों छायां निर्वर्त्तयति, अथवा द्विपौरूषों छायां निर्वर्त्तयति, एके पवमाहुः |१| एके पुनरेवमाहुः - तावत् अस्ति खलु स दिवसः यस्मिश्च खलु दिवसे सूर्यः द्विपौरूषों छायां निर्वत्तयति, अथवा नोकाञ्चिदपि पौरुप छायां निर्वत्तं यति, एके पवमाहुः |२| तत्र खलु ये ते पवमाहुः - तावत् अस्ति खलु स दिवसः यमिव खलु दिवसे सूर्यः चतुःपौरूषीं छाय निर्वर्त्तयति अथवा अस्ति खलु सः दिवस. यस्मिंश्च खलु दिवसे सूर्यः द्विपौरूषीं छायां निर्वर्त्तयति, ते खलु एवमाहुः तावत् यदा खल सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खल उत्तमकाष्ठा प्राप्तः उत्कर्षकः अष्टादशमुत्त दिवसो भवति, जघन्यिका द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति तस्मिव खलु दिवसे सूर्यः चतुः पौरुष छायां निर्वर्त्तयति, तद्यथा - उद्गमनमुहूर्त्ते च, अस्तमनमुहूर्त्ते च लेश्याम् अभिवर्धयन् वा निर्वर्धयन्वा । तावत् यदा खलु सूर्यः सर्ववाह्यं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठा प्राप्ता उत्कर्षिका अष्टा दशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति जघन्यकः द्वादशमुहूर्त्ता दिवसो भवति तस्मिंश्च खलु दिवसे सूर्यः द्विपौरुष छायां निर्वर्त्तयति तद्यथा उद्गमनमुहूर्त्ते च अस्तमन मुहूर्त्त व लेश्यां अभिवर्धयन् वा निर्वर्धयन् वा |१| तत्र खलु ये ते एवमाहुः तावत् अस्ति खलु स दिवसः म खलु दिवसे सूर्यो द्विपौरूपीं छायां निर्वर्त्तयति, अथवा अस्ति खलु स दिवसः Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 २१२ चन्द्र प्रज्ञप्तिसूत्रे स्मश्च खलु दिवसे सूर्यो न किञ्चिदपि पौरुप छायां निर्वर्तयति ते पत्रमाहुः - तावद् यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यान्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खल उत्तमकाष्ठा प्राप्तः उत्कषकः अप्रादशमुत्तों दिवसो भवति, जघन्यका द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति तस्मिन खलु दिवसे सूर्यः, द्विपरूपों छायां निर्वर्त्तयति, तद्यथा - उद्गमनमुहूर्चे च अस्तमनमुहूर्त्ते च लेश्याम् अभिवर्धयन् वा निर्वर्धयन् वा । तावत् यदा खलु सूर्यः सर्ववाां मण्डलमुपसंक्रम्य चार' चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठा प्राप्ता उत्कर्षिका अष्टादशमुहर्त्ता रात्रिर्भयति, जघ.. न्यकः द्वादशमुत्तों दिवसो भवति तस्मिश्च खलु दिवसे सूर्यः नो काञ्चिदपि पौरूषीं छायां निर्वर्त्तयति, तद्यथा उद्गमनमुहूर्त्ते च अस्तमन् मूहूर्त्ते च नो चैव खलु लेश्याम् अभिवर्धयन् वा निर्वर्धयन् वा । "सूत्र २ || व्याख्या- 'ता' तावत् 'कइकट्ठे' कतिकाष्ठां कियत्प्रकर्षोपेतां प्रकर्षतः कियत्परिमितां हे भगवन् 'ते' तवमते 'सूरिए' सूर्यः 'पोरिसीं छायां' पौरुषों छायां- पुरुषेण निर्वृत्ता पौरुपी पुरुषप्रमाणा तां तादृशीं छायां 'निव्वत्ते' निर्वर्तयति रचयति करोतीत्यर्थः । कियत्प्रमाणां पराकाष्ठासंपन्नां पौरुषों छायां सूर्यो निर्वर्त्तयतीति भावः । एतद्विषये किम् 'आहिए' आख्यातम् ' ' तिबएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् । गौतमेन एवं प्रश्ने कृते भगवानाह हे गौतम ! 'तत्थ णं' तत्र' पौरुषीछाया विषये स्खलु 'इमाओ' इमाः अनुपदम प्रदर्श्यमानाः 'पंचविसई' पञ्चविंशतिः 'पडिवत्तीओ प्रतिपत्तयः अन्यतैर्थिकमतरूपाः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ताः कथिताः 'तं जहा' तद्यथा ता यथा - ' तत्थ' तत्र पञ्चविंशतिप्रतिपत्तिवादिपु मध्ये 'एगे' एके प्रथमाः ' एवं ' एवम् वन्यमाणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति 'ता' तावत् 'अणुसमयमेच' अनुसमयमेव समयं समर्थ प्रति — प्रतिसमयमित्यर्थः सूरिए' सूर्य: 'पोरिसीं छायं' पौरुष छायाम् । अत्र पौरुषीछाया लेश्यावशेन संपद्यतेऽतः पौरुषी छायेति शब्देन लेइया ग्रहीतव्या कारणे कार्योपचारात् तेन लेइयां निर्वर्त्तयतीति भावः । उप संहारः 'गे' एके प्रथमा ' एवं ' एवम् पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहंसु' आहुरिति १ । ' एवं ' एवत् अनया रीत्या 'एगे पुण' एके द्वितीयाः पुनः 'एवमाहंसु' एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः कथयन्ति - 'ता' तावत् 'अणुमुहुत्तमेव' अनुमुहूर्त्तमेव-प्रतिमुहूर्त्तं 'सूरिए' सूर्यः 'पोरिसिं छायं' पोरुपीं छायां 'णिव्त्रत्तेइ' निर्वर्त्तयति करोति 'एगे' ऐके द्वितीयाः एवं' एवम् पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहंस' आहुः कथयन्ति २ । 'एएणं अभिलापेणं' एतेन प्रथमेन द्वितीयेन च अभिलापेन प्रथमद्वितीयाभिलापप्रकारणे 'जाओ वेव' या एव 'ओयसंठिईए' ओजः संस्थितौ पष्ठप्रामृतोक्ते ओजःसंस्थितिप्रकारेण 'पंचवीसई पडिवत्तीओ' पश्चविंशतिः प्रतित्तयः प्रतिपादिता 'ताओ चेच' ता एवात्रापि समयानन्तरं समयमुहूर्त्तानन्तरमहोरात्रादिरूपाः 'णेयव्वाओ' ज्ञातव्याः । कियत्पर्यन्तमित्याह - ' जावे त्यादि । 'जाव' यावत् तासु पञ्चविंशतिप्रतिपत्तिषु चरमप्रतिपत्तिः उत्सपण्यवसर्पिणीरूपाऽऽयाति तावदिति तामेव चरम प्रतिपत्ति सूत्रकारः स्वयं. Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रश्नप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०९ सू २ पौरुषोछायायाः प्रमाणनिरूपणम् २१३ प्रदर्शयति 'एगे पुण' इत्यादि, 'एगे पुण' एके पञ्चविंशतितमाः प्रतिपत्तिवादिनः पुनः 'एवं' एवम्-वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आईसु' माहुः-कथयन्ति-यत् 'ता' तावत् 'अणुउस्सप्पिणी ओसप्पिणीमेव' अनूत्सर्पिण्यवसर्पिणीमेव प्रत्येकमुत्सर्पिणीमवसप्पिणी चाधिकृत्य 'सरिए' सूर्यः 'पोरिसी छाय' पौरुषी छायां 'निव्वत्तेइ निर्वयति निर्माति । उपसंहारः-'एगे' एके पञ्चविंशतितमाः 'एवं' एवम्---पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहेसु' आहुः कथयन्ति ।२५। आसां पञ्चविंशतिप्रतिपत्तीनामालापकप्रकारः प्रथमप्रतिपत्तिप्रोक्तालापकप्रकारेण स्वयमूहनीयः । अथ भगवान् ‘एताः परमतरूपा विंशतिरपि प्रतिपत्तयो मिथ्यारूपाः सन्ति इति कृत्वा स्वमतं प्रदर्शयति-'वयं पुण' इत्यादि । ___ 'वयं पुण' वयं पुनः वयं तु 'एवं' एवम् वक्ष्यमाणरीत्या 'वयामौ' 'वदाम. कथयामः 'ता' तावत् 'सूरियस्स णं' सूर्यस्य खल 'उच्चत्तं लेस्स च' उच्चत्वं लेश्यांतेजोरूपां च 'पड्डुच्च' प्रतीत्य आश्रित्य 'छाया उद्देसो' छायोद्देशः छायाप्रकारो भवति, अयमाशयः यदा सू! लेश्यां तेजोरूपां प्रसारयन् उदयमेति तदा पुरुषस्य प्रकाश्यवस्तुनो वा छाया दीर्घा भवति, उदयसमये लोकव्यवहारेण 'सूर्य आसन्नं वर्तते' इति कथ्यते । तदनन्तरं सूर्यों यथा यथा उच्चैरुच्चस्तरं चाधिरोहति तथा तथा तेजोरूपा लेश्या वर्धते पुरुषस्य प्रकाश्य वस्तुनो वा छाया च हीना हीनतरा भवन्तीति दृश्यते । एवं मध्याह्नपर्यन्तं छाया होना हीन तरा हीनतमा भवति । अयं प्रथमच्छायोद्देशः ॥१॥ अथ 'उच्चत्तं छायं च पडुच्चलेस्सदेसो" सूर्यस्य मध्यागतस्य उच्चत्वं छायां च प्रतीत्य हेश्योद्देशः लेश्याप्रकारो भवति । अयं भावः-यदा सूर्यो मध्याह्नसमयेऽस्माकं मस्तकोपरि वर्त्तते तदा लोक व्यवहारेण ज्ञायते-सूर्यः सर्वोच्चभागे समागत इति, यदा च पुरुषस्य प्रकाश्यवस्तुनो वा छायापरमप्रकर्षेण हीना लध्वी जायते, सा चेतस्ततः पार्वभागेन भवति, तदा सूर्यस्य लेश्या तेजोरूपा पराकाष्ठा प्राप्ता जायतेऽतोऽयं लेश्योदेशो द्वितीयो भवतीति ।२। 'लेस्सं च छायं च पडुच्च उच्चत्तउद्देसौ' लेश्यां च छायां च प्रतीत्य उच्चत्वोद्देशः । अयमाशयः मध्याह्रादूर्ध्वं सूर्यो यथा यथा उच्चत्वतो नीचर्नीचैस्तरमतिकामति तथा तथा लोकव्यवहारेण कथ्यते-सूर्यः उच्चप्रदेशादधो गच्छतीति, यथा यथा सूर्यो नीचैर्गच्छति तथा तथा तेजोरूपा लेश्याऽपि हीना हीनतरा भवति, पुरुषस्य प्रकाश्यवस्तुनो वा छायाऽपि दीर्घा भवतीति ज्ञायते । मध्यान्हगतोच्चत्त्वमधि. कृत्यायमुद्देशो वर्त्ततेऽतोऽयमुच्चरवोद्देशस्तृतीयो भवतीति ।३। एते त्रयोऽप्युद्देशाः प्रतिक्षणमन्यथा ऽन्यथा निवर्तन्ते तत एषु एकतरस्य तथा तथा प्रतिक्षणं विवर्तमानस्योद्देशत उपलम्भादितरस्याप्युद्देशस्यावगमः स्वयं कर्तव्य इति । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ चंद्रप्रप्तिसूत्रे तदेवं लेश्यास्वरूपं प्रतिपादितम्, अथ पौरुषीछायापरिमाणविषयेऽन्यतैर्थिकप्रतिपत्ति द्वयं वर्तते तत्प्रदर्शयितुमाह- 'तत्थ' इत्यादि । 'तत्थ खलु' तत्र पौरुषोछायापरिमाणविषये खलु 'इमाओ' इमे वक्ष्यमाणस्वरूपे 'दो पडिवत्तीओ' द्वे प्रतिपत्ती 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ते कथिते । 'तं जहा' तद्यथा ते द्वे यथा 'एगे' एके द्वयोर्मध्ये प्रथमाः प्रतिपत्तिवादिनः ' एवं ' एवम् - वक्ष्यमाणप्रकारेण ' आसु' आहुः कथयन्ति तथाहि 'ता' तावत् 'अस्थि णं' अस्ति खलु 'से दिवसे' स दिवसः एतादृशो दिवसो भवति खल 'जंसि च णं' यस्मिंश्च खलु 'दिवसंसि' दिवसे 'सूरिए' सूर्यः उदयास्तसमये 'चउ - पोरिसिं छायं निच्वत्तेइ' चतुष्पौरुष छायां निर्वर्त्तयति उत्कृष्टेन रचयति करोतीत्यर्थः । चतुः पौरुषी मिति चतुःपुरुषप्रमाणां पुरुषशरीरचतुर्गुणामित्यर्थ उपलक्षणात् अन्यस्य कस्यापि प्रकाश्य वस्तुनस्तस्मिन् दिवसे तद्वस्तुतश्चतुर्गुणां छायां निर्वर्त्तयतीति भावः । ' अहवा' अथवा ' अस्ति स दिवसो यस्मिश्च दिवसे सूर्यः 'दुपोरिसिं छायं' द्विपौरुषीं छायां द्विगुणां छायाम् उद्गमना स्तमनसमये 'निव्वत्तेइ' निर्वर्त्तयति नान्यथेति । 'एगे' एके ' एवं ' एवम् पूर्वोक्तप्रकारेण ‘आहंसृ' आहुः कथयन्ति |१| 'एगे पुण' एके द्वितीयाः पुनः एवं एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति यत्- 'ता' तावत् 'अस्थि णं' अस्ति भवति खलु 'से दिवसे' स दि. वसः 'जंसि च णं' यस्मिन् खलु 'दिवसंसि' दिवसे उद्गमनास्तमनमुहूत्र्त्ते 'सूरिए' सूर्यः 'दुपरिसिं छायं' द्विपौरुषीं छायां कस्यापि प्रकाश्यवस्तुनः द्विगुणां छायामित्यर्थः "निव्वत्तेई' निर्वर्त्तयति निर्माति । 'अहवा' अथवा 'अस्थि णं' अस्ति खल 'से दिवसे' स दिवसः 'जंसिचणं दिवसं सि' यस्मिंश्च खलु दिवसे उदयास्तसमये 'न किंचिवि पोरिसिं छायां' न काश्चिदपि पौरुषीं छायां 'निव्वत्तेइ' निर्वर्त्तयति । 'एगे' एके द्वितीयाः ' एवं ' एवम् पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति |२| तदेवं द्वे अपि प्रतिपत्ती प्रदर्श्य साम्प्रतं केन कारणेन एतौ द्वौ प्रतिपत्तिवादिनौ एवं कथयतः इत्येवं भावयति-'तत्थ' इत्यादि । 'तत्थ' तत्र द्वयोर्मध्ये 'जे ते' ये ते प्रथमा 'ए' एवम् - वक्ष्यमाणप्रकारेण ‘आईसु’ आहुः कथयन्ति यत् 'अत्थि णं से दिवसे' अस्ति खलु स दिवस: 'जैसि चणं दिवससि' यस्मिंश्च खलु दिवसे 'सूरिए' सूर्यः 'चउपोरिसिं छायं निव्वत्तेह' चतुष्पौरुषीं छायां निर्वर्त्तयति, 'अहवा' अथवा 'दुपोरिसिं छायं निव्चत्ते ' द्विपौरुषीं छायां निर्वर्त्तयति 'ते णं' ते खलु ' एवं ' एवम् अनेन वक्ष्यमाणेन कारणेन 'आहंस' आहुः कथयन्ति तदेवकारणं दर्शयति- 'ता' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा: खल 'सरिए' सूर्य. 'सव्वमंतरं मंडलं उवसंक्रमित्ता चारं चरई' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खल Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०९० २ पौरुषी छायायाः प्रमाणनिरूपणम् २१५ 'उत्तमकट्ठपत्ते' उत्तमकाष्ठा प्राप्तः परमप्रकर्षसंपन्नः 'उक्कोसए' उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्टः 'अट्ठारस - मुहुत्ते दिवसे भवइ' अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति, 'जहण्णिया' जधन्यिका सर्वलध्वी 'दुवालसमुहुत्ता राई भव' द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति 'तंसि च णं दिवसंसि तस्मिंश्च खलु सर्वोत्कृष्टदिवस सर्वजघन्यरात्रिरूपे दिवसे 'सूरिए' सूर्यः 'चउपोरिसिं छायं' चतुष्पौरुषों छायां 'निव्वत्तेइ ' निर्वर्त्तयति । कस्मिन् समये ' इत्याह- 'तं जहा' तद्यथा 'उगमणमुहुत्तंसि' य अत्थमणमुहुत्तंसि य' उद्गमनमुहूर्ते च अस्तमनमुहूर्त्ते च 'लेस्सं' लेश्यां तेजी रूपाम् 'अभिवुड्ढेमाणे वा' अभिवर्धयन् वा उद्गमनमुत्ते तेजोरूपां स्वलेश्यां प्रवर्धयन् वा, तथा 'निव्बुड्ढेमाणे वा' निर्वर्धयन् वा सूर्योऽस्तमनसमये स्वलेश्यां हापयन् वा । सूर्यो द्विपौरुप छायां कदा निर्वर्त्तयतीति दर्शयति 'ता जया णं इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल 'सूरिए' सूर्यः 'सब्ववाहिरं मंडलं उत्रसंकमित्ता चारं चरइ' सर्व बाह्यमण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति 'तया णं' तदा खलु 'उत्तमकट्टपत्ता' उत्तमकाष्ठा प्राप्ता परमप्रकर्षसंपन्ना 'उक्कोसिया' उत्कर्षिका सर्वोत्कृष्टा 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई' अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, 'जहण्णए' जघन्यकः 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ' द्वादशमुहूर्त्तो दिवसो भवति 'तंसि च णं' तस्मिंश्च सर्वोत्कृष्टरात्रि - सर्वजघन्यदिवसरूपे खलु ' दिवसं सि' दिवसे 'सूरिए' सूर्य, 'दुपोरिसिं छायं निव्वत्तेर' द्विपौरुषीं छायां निर्वर्तयति पुरुषस्य प्रकाश्य वस्तु नो वा द्विगुणां छायां निर्वर्त्तयतीति भावः । कदा द्विपौरुषी छाया भवतीत्याह 'तं जहा ' तथा 'उग्गमणमुहतसि य अत्थमणमुहुत्तंसि य' उद्गमनमुहूर्त्ते च अस्तमनमुहूर्त्ते च उदयास्तसमये इत्यर्थः । तच्च ‘लेस्सं' लेश्यां स्वतेजोरूपां 'अभिवुड्ढेमाणे वा' अभिवर्धयन् वा 'निव्बुड्ढे माणे वा' निर्वर्धयन् वा लेश्यां हापयन् वा, उदयसमये लेश्यां वर्धयन् अस्तमनसमये च लेश्यां हापयन् हीनां कुर्वन् वा द्विपौरुष छायां सूर्यो निर्वर्त्तयतीतिभावः । इति प्रथमप्रतिपत्तेर्भेदद्वयस्य स्पष्टी - करणम् |१| 1 अथ द्वितीयप्रतिपत्तेर्भेदद्वयस्य स्पष्टीकरणमाह - ' तत्थ णं जे ते' इत्यादि, 'तत्थ णं' तत्र द्वयोर्मध्ये ये ते द्वितीयाः प्रतिपत्तिवादिनः यत् 'एवमाहंसु' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेणाहुः यत् 'ता' तावत् 'अत्थि णं से दिवसे' अस्ति भवति खलु स दिवसः 'जैसि णं दिवसंसि' यस्मिन् स्खलु दिवसे 'सरिए' सूर्यः 'दुपोरिसिं छायं निव्वत्तेइ' द्विपौरुषीं छायां निर्वत्तयति । 'अहवा' अथवा ‘अत्थि णं' अस्ति खलु 'से दिवसे' स दिवस: 'जंसि णं दिवसंसि' यस्मिन् खलु दिवसे 'सूरिए' सूर्यः 'नो किंचिवि' नो नैव काश्चिदपि किञ्चिन्मात्रामपि 'पौरिसिं छायां' पौरुषीं छायां 'निव्वत्तेइ' निर्वर्त्तयति, 'ते' ते द्वितीयाः प्रतिपत्तिवादिनः ' एवं ' एवम् वक्ष्यमाण् Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ चन्द्रप्राप्तिसूत्र कारणेन अनुपदं प्रदयमानं कारणमाश्रित्य 'आई' आहुंः-कथयन्ति । तदेव दर्शयति 'ता जया णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल 'सूरिए' सूर्यः 'सव्वन्भतर मंडलं उव. संकमित्ता चारं चरइ' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति "तया णं तदा खल 'उत्तमकहपत्ते उक्कोसए' उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्पता प्राप्तः अतएव उत्कर्षकः सर्वोत्कृष्ट. 'अहारसमुहत्ते दिवसे भवइ' अष्टादशमुहूर्ती दिवमो भवति 'जहणिया' जघन्यिका सर्वलध्वी 'दुवा लसमुहत्ता राई भवई' द्वादशमुहूर्ता रानिर्भवति 'तसि च णं दिवसंसि' तस्मिश्च खलु दिवसे अष्टादशमुहूत्र्तपरिमितदिवसद्वादशमूर्तपरिमितरात्रिरूपे दिवसे सूरिए' सूर्यः 'दुपोरिसी छायं निव्वत्तेई' द्विपौरुपी छायां निवर्तयति, कदा ! इत्याह 'तंजहा' इत्यादि । 'तं जहा' तद्यथा तथाहि-'उग्गमणमुहुत्तसि य उद्गमनमुहूर्त-उदयका च पत्र मुहूर्तशब्दः कालवाची, एवं सर्वत्रापि । तथा 'अत्थमणमुहुर्तसि य अस्तमन्मुहूर्ते सूर्यास्तकाले चेति । कथमित्याह-'लेस्स' लेश्यां स्वतेजोरूपाम् अभिवुड्ढे माणे वा' अभिवर्धयन् वा 'निव्वुड्ढेमाणे वा' निवर्धयन् हापयन् वेति । तथा--'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल 'मुरिए' सूर्यः 'सव्ववाहिरं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरई' सर्वबाह्यं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति 'तयाणं' तदा खल 'उत्तमकट्टपत्ता' उत्तमकाष्ठा प्राप्ता परमप्रकर्पसंपन्ना अतएव 'उक्कोसिया' उत्कर्षिका सर्वोत्कृष्टा 'अट्टारसमुहुत्ता राई भवई' अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति 'जहण्णए' जघन्यकः सर्वलघुः 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ' द्वादशमुहूत्र्तो दिवसो भवति, तसि च णं' 'दिवसंसि' तस्मिश्च तादृशे पूर्वोक्तरात्रि दिवसप्रमाणरूपे दिवसे 'सुरिए' सूर्यः ‘णो' नैव 'किंचिवि' किश्चिदपि किञ्चिन्मात्रामपि 'पोरिसी छायां' पौरुषी छायां निवर्तयति, कदेति दर्शयति-तं जहा' तद्यथा तथाहि-'उग्गमणमुहुत्तसि य' उद्गमनमुत्त उदयकाले च तथा 'अस्थमणमुहुर्तसि य' अस्तमनमुहूर्ते अस्तकाले च 'नो चेव णं' नैव च खलु 'लेस्सं' लेश्यां स्वतेजोरूपाम् 'अभिवुड्ढेमाणे वा अभिवर्धयन् वा 'निव्वुड्ढेमाणे वा' निर्वर्धयन् वेति । दिवसपरमहानिरात्रिपरमवृद्धिरूपे दिवसे सूर्यः स्वलेश्यामा वृद्धि हानि वा अकुर्वन् उदयका मस्तकाले च कदाचिदपि किञ्चिन्माघामपि पौरुषी छायां नो निर्वत्तयतीति भावः ॥स० २॥ पूर्वं परतार्थिकानां प्रतिपत्तिद्वयं, तत्स्पष्टीकरणं च श्रुत्वा गौतमो भगवन्तं स्वमतविषये प्रश्नयति-'ता कइकटं' इत्यादि । मूलम् :-ता कइकट्ठते सुरिए पोरिसिं छाय निव्वत्तेइ आहिए। ति वएज्जा। तत्य खलु इमाओ छण्णउई पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-तत्थेगे एवमाहंस-ता अत्यि णं से देसे जसि च णं वेससि सरिए एगपोरिसिं छायं निन्वत्तेइ, एगे एवमाहंम्म ॥१॥ एगे पुण एवमाह-वा अत्थि णं से देसे जंसिच णं देसंसि सूरिए दुपोरिसिं छायं Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०९ सू३ पौरुषोछायाविषयेऽन्यतीथिकमतम् २१७ निव्वत्तेइ, एगे एवमासु ।२। एवं एएणं अभिलावेणं णेयव्वं जाव-एगे पुण एवमाईमु-ता अत्थि ण से देसे जंसि च ण देसंसि सरिए छण्णउइ-पोरिसिं छायं णिव्वत्तेइ, एगे एवमाइंसु १९६तत्थणं जे ते एवमाहंमु-ता अस्थि णं से देसे जंसि च णं देसंसि सूरिए एगपोरिसिं छायं णिवत्तेइ, ते एवमासु-ता सूरियस्स णं सबहेडिमाओ सूरियप्पडि हिओ वहिता अभिणिसिहाहिं लेस्साहि ताविज्जमाणोहिं इमीसे रयणप्पभाए पुढचीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ जावइयं उड्ढं उच्चत्तेणं एवइयाए एगाए अद्धाए एगेणं छायाणुमाणप्पमाणेण ओमाए एत्थ णं से सूरिए एगपोरिसिं छायं निव्वत्तेइ ।१। तत्थ णं जे ते एवमाइंसु-ता अस्थि णं से देसे जसि च णं देससि सरिए दुपोरिसिं छायं निव्वत्तेइ, ते एकमाइंसु-ता सूरियस्स णं सबहेडिमानो सूरियप्पडिहिओ वहिता अभिणिसिद्वाहि लेस्साहिं ताविज्जमाणीहिं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ जावइयं सुरिए उडूढं उच्चत्तंण एवइयाहिं दोहि अद्धाहि दोहिं छायाणुमाणप्पमाणेहिं ओमाए एत्थ णं से सूरिए दुपोरिसिं छायं णिवत्तेइ ।२। एवं णेयव्वं जाव तत्थ जे ते एवमाहंसु-ता अस्थि णं से देसे जंसि चणं देसंसि सरिएः छण्णउइपोरिसिं छायं णिवत्तेइ, ते एवमाहंस-ता सरियस्स णं सव्वहिटिमाओ सूरियप्पडिहिओ वहित्ता अभिणिसिहाहि लेस्साहिं ताविज्जमाणी हि इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमाणिज्जाओ भूमिभागाओ जावइयं सूरिए उड्ढं उच्चत्तेगं एवइयाहिम छण्णउईए अद्धाहिं छण्णउईए छायाणुमाणप्पमाणेहिं ओमाए, एत्थ णं से सुरिए छण्णउइ-पोरिसिं छायं णिवत्तेइ १९६॥सू०३॥ छाया-तावत् कतिका ते सूर्यः छायां नियति१ आख्यातमिति वदेत् । तत्र खलु इमाः षण्णवतिः प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः त जहा तत्र पके पवमाहु:-अस्ति खल सदेश:-यस्मिश्च खलु देशे सूर्यः एकपौरुषी छायाँ निर्वतयति एके पुनः एवमाहुः-तावद अस्ति स देशः यस्मिश्च खलु देशे सूर्यः द्वि रुषी छायां निर्वतयति, एके एवमाहुः '२॥ एवं पतेन अभिलापेन नेतन्यं यावत् एके पुनः एवमाहुः-तावत् अस्ति खलु स देशः यस्मिश्च स्खल देशे सूर्यः षण्णवतिपौरूषी छायां निवर्तयति, एके एक्माहुः । ९६॥ तत्र खलु ये ते पवमाहुः तावत् अस्ति खल स देशः यस्मिश्च खलु देशे सूर्य. एकपौरूषी छायां निर्वतयति, एघमाहुः-तावत् सूर्यस्य खलु सर्वाधस्तनात् सूर्यप्रतिधेः वहिस्तात् अभिनिस्सृष्टाभिः लेश्यामिः तप्यमानाभि. अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः बहु समरमणीयात् भूमिभागात् यावत्कम् ऊर्ध्वमुच्चत्वेन एतावता एकेन अध्वना एकेन छायानुमानप्रमाणेन अवमितः अत्र स सूर्यः एक पौरूषों छायां निर्वतयति ।। तत्र खल येते एवमाहुः तावत् अस्ति खलु स देशः यस्मिश्च खलु देशे सूर्यः द्विपौरूषों छायां निवर्तयति ते एवमाहुः तावत् सूर्यस्य खलु सर्वाधस्तनात् सूर्यप्रतिधे वहिस्तात् अभिनिस्सृष्टाभिः ૨૮ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे लेश्याभिः तप्यमानाभिः अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पहुसमरमणीयाद् भूमिभागात यावत्कं सूर्यः ऊर्वमुच्चत्वेन पताघद्भयां द्वाभ्याम् अध्वभ्यां द्वाभ्यां छायानुमानप्रमाणाभ्याम् अमितः, अन खलु स सूर्यः द्विपौरूपी छायां तिर्वर्तयति ।। पवं नेतव्यं यावत्-तथ ये ते पवमाहुः तावत् अस्ति खल स देशः यस्मिन्च खल वेशे सूर्यः पण्णवतिपौरूपी.छायां निर्यात, ते पवमाहुः तावत् सूर्यस्य स्खलु सर्वाधस्तनात् सूर्यप्रतिधेः बहिस्तात् अभिनिस्सृष्टाभिः लेश्यामि तप्यमानाभिः अस्याः खल रत्नप्रभायाः पृथिव्याः बहुसमरमणीयात् भूमिभागात् यावत्कं यः ऊर्ध्वमुच्चत्वेन पतावन्द्रिः पण्णवत्या अभिः पण्णवत्या छायानुमानप्रमाणः अमितः अत्र खलु स सूर्यः पण्णवतिपौरूपी छायां निर्वतयति ॥९६ासू०३|| व्यास्या-'ता' तावत् 'कइकट्ठ' कतिकाष्ठां उत्कर्पण किं प्रमाण 'ते' तव भवतो मते 'रिए' सूर्यः 'पोरिसिं छाय' पौरुषी पुरुषप्रमणाम् उपलक्षणात् कस्यापि प्रकाश्यवस्तुनस्तत्प्रमाणां देशविभागेन छायां 'निव्वत्तेई निर्वर्त्तयति, एतद्विषये भवता किम् 'आहिय' आख्या तम् ! 'ति वएज्जा' इति वदेत् कथयतु हे भगवन् भगवान् । स्वमतेन देशविभागमाश्रित्य पौरुषी छायां पृथक् २ तथा तथा-अनियतप्रमाणामने वक्ष्यति, परतीर्थिकास्तु देशविभागेन प्रतिदिवस प्रतिनियतामेव पौरुपी छायां प्रतिपादयन्ति ततः प्रथमं तन्मता एव प्रतिपत्तीः प्रदर्शयति-'तत्य' इत्यादि । 'तत्य खलु' तत्र देशविभागेन प्रतिदिवस प्रतिनियतपौरुषों छाया विषये 'इमाओ' इमाः अनुपदवक्ष्यमाणाः 'छण्णउई' पण्णवतिः पण्णवतिसंख्यकाः 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः परमतरूपा. 'पण्णचाओ' प्रज्ञप्ताः, तं जहा' तद्यथा- ता यथा-'तत्थ' तत्र परतीर्थि कानां पण्णवति प्रतिपत्तिवादिनां मध्ये 'एगे' एके प्रथमाः ‘एवं' एवम्-वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहे' माहुः कथयन्ति–'ता' तावत् 'अत्थि णं' अस्ति खलु ‘से देसे' स एतादृशो देशः प्रदेशः 'जसिच ण देसंसि' यस्मिंश्च खलु देशे 'सरिए' सूर्यः आगतः सन् ‘एगपोरिसिं' एक पौरुषी एक पुरुपपरिमितां पुरुषसमानामेव, पुरुषशब्दस्योपलक्षणत्वात् सर्वस्यापि प्रकाश्यवस्तुनः स्वस्व प्रमाणां 'छाय' छायां 'निव्वत्तेइ' निर्वतयति करोति, 'एगे' एके प्रथमाः ‘एवं' एवम् पूर्वकथितप्रकारण 'आहेसु' माहुः कथयन्ति ।१। 'एगे पुण' एके द्वितीयाः पुनः ‘एवं' एवम्-वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंमु' आहुः कथयन्ति-'ता' तावत् 'अस्थि णं से देसे' अस्ति खलु कोऽपि स देशः प्रदेशः 'जसि च णं देसंसि' यस्मिंश्च खलु देशे 'सूरिए' सूर्यः समागतः सन् 'दुपोरिसि छाय' द्विपीरुपी द्विपुरुषप्रमाणां पुरुषस्य प्रकाश्यस्य कस्यापि वस्तुनः द्विगुणां छायां 'निव्वत्तेई' निवर्तयनि, उपसंहार. 'एगे' एके द्वितीयाः 'एवं' एवम् पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहे' आहुः-कथयन्ति ।२। 'एवं' एवम्-अनेनैव पूर्वोक्केन प्रकारेण 'एएणं' एतेन पूर्वोक्तेन 'अभिगवणं' अभिलापेन सूत्रपाठगमेन शेपं त्रिनवतिसंख्यकानां मध्यगतानां तृतीयप्रतिपत्तित आरम्य Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा० ९ सू०३ पौरुपीछायाविषयेऽन्यतीर्थिकमतम् २१९ पञ्चनवतितमप्रतिपत्तिपर्यन्तं तावत् 'नेयन्वं' नेतन्यं ज्ञातव्यं 'जाव' यावत् षण्णवतितमप्रतिपत्तिसूत्रमायाति । तामेव षण्णवतितमा प्रतिपत्ति सूत्रकारः स्वयं प्रदर्शयति 'ता अस्थि गं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'अस्थि णं से देसे' अस्ति विद्यते खल सः देशः 'जसि च णं देसंसि' यस्मिंश्च खलु देशे 'मूरिए' सूर्यः आगतः सन् 'छण्णउइपोरिसिं छायं' षण्णवतिपौरुषीं पण्णवतिपुरुषप्रमाणां पुरुषस्य प्राकाश्यवस्तुनश्च षण्णवतिगुणां छायां 'निव्वत्तेई' निवर्तयति । मध्यगतात्रिनवतिसंख्यका मालापाश्च पूर्वोत्तरीत्या स्वयमेव विघातव्याः सुगमत्वान्न प्रदर्शिताः उपसंहारः 'एगे' एके षण्णवतितमप्रतिपत्तिवादिनः 'एवं' पूर्वोक्तरीत्या 'आहंमु' आहुः कथयन्ति ।९६। ___ अथ भगवान् ‘एते पण्णवतिप्रतिपत्तिवादिनः केन हेतुना एवं कथयन्ति ?' इति तेषां भावनिका प्रदर्शयति-तत्थ णं जे ते' इत्यादि । 'तत्थ णं जे ते' तत्र षण्णवतिप्रतिपत्तिवादिषुमध्ये ये ते प्रथमाः ‘एवं' एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आईमु' आहुः कथयन्ति, तदेव दर्शयति'ता अस्थि णं' इत्यादि, 'ता अस्थि णं से देसे जसि च णं देसंसि सरिए एगपोरिसिं छायं निव्वत्तेइ' अर्थः सुगमः पूर्वप्रदर्शितश्च, 'ते' प्रथमप्रतिपत्तिवादिनः ‘एवं' एवम् अनेन वक्ष्यमाणेन हेतुना 'आहंसु आहुः कथयन्ति, तमेव हेतुं प्रदर्शयति-ता मूरियस्लणं इत्यादि 'ता' तावत् 'सूरियस्स णं' सूर्यस्य खल 'सबहेडिमाओ' सर्वाधस्तनात् सर्वथाऽधस्तनस्थितात् 'मरियप्पडिहिओ' सूर्यप्रतिधेः सूर्यप्रतिधानात् सूर्यनिवेशात् सूर्यनिवेशस्थानादित्यर्थः 'वहिता' बहिस्तात् बहिर्भागे 'अभिणिसिहाहि' अभिनिस्सृष्टाभिः बहिर्निस्सृिताभिरित्यर्थः 'लेस्साहि' लेश्याभिस्तेजोरूपाभिः, कीदृशीभिः ? 'तविज्जमाणीहि तप्यमानाभिः सूर्यतेजसा तप्ताभिः सह 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए' अस्याः प्रसिद्धायाः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः 'बहुसमरमणिज्जाओ 'भूमिभागाओ' बहुसमरमणीयात् भूमिभागात् रत्नप्रभापृथिवीसमतलभूमिभागात् 'जावइयं' यावत्कं यावत्परिमितम् 'उहुं उच्चत्तेणं' उर्ध्वमुच्चत्वेन उच्चत्वमाश्रित्य ऊर्ध्व स्थितः 'एवइयाए' एतावता 'एगाए अदाए' एकेन अध्वना 'एगेणं छायाणुमाणपमाणेणं' एकेन छायानुमानप्रमाणेन प्रकाश्यवस्तुप्रमाणेन प्रकाश्यस्य वस्तुनो यमुद्देश्यमाश्रित्य प्रमाणमनुमीयते तेन, अत्राकाशप्रदेशे सूर्यसमीपे प्रकाश्यस्य वस्तुनः प्रमाणं साक्षात् परिग्रहीतुं न शक्यते किन्तु देशतः-अनुमानेन ततश्छायानुमानप्रमाणेनेत्युक्तम् , 'ओमाए' भवमितः अनुमितः यः प्रदेशः 'एत्थ ण' अत्र एकेन छायानुमानप्रमाणेन अनुमितप्रदेशे समागतः सन् 'सरिए' सूर्यः 'एगपोरिसिं छाय' एकपौरुषी पुरुषप्रमाणां प्रकाश्यवस्तुप्रमाणां वा छायां 'निव्वत्तइ' निर्वर्तयति । अत्रेदं बोध्यम्-प्रथमं सूर्ये उदयमाने या लेश्या विनिर्गत्य प्रकाशमाश्रिताः ताभिः प्रकाश्यवस्तुदेशे ऊर्ध्व क्रियमाणाभिः किञ्चित्पूर्वाभिमुखमबनताभिः प्रकाश्येन वस्तुना च यः परि Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० चन्द्रप्रनप्तिसूत्र च्छिन्न आकाशप्रदेशः सन्ताप्यते तत्र समागतः प्रकाश्यवस्तुप्रमाणां छायां निवर्तयति एवमुत्तरत्रापि विज्ञेयम् ।। अथ द्वितीयप्रतिपत्तिभावं प्रदर्शयति-'तत्थ णं' इत्यादि । 'तत्य थे' तत्र घण्णवतिप्रतिपत्तिवादिपु मध्ये खलु-'जे ते' ये ते द्वितीयाः 'एवं' एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आइंसु' आहुः कथयन्ति-'ता' तावत् 'अस्थि णं से देसे सि च णं देससि सरिए दुपोरिसिं छायं निव्वत्तेइ' इति अर्थः सुगम एव पूर्व प्रदर्शितश्च, 'ते' द्वितीयाः ‘एवं' एवम्-अनेन हेतुना 'आईस' आहुः कथयन्ति, तमेव हेतुं प्रदर्शयति 'ता' इत्यादि, 'ता' तावत् 'सरियस्स णं' सूर्यस्य खल 'सन्चहेट्ठिमाओ' सर्वाधस्तनात् सर्वथाऽधोभागे स्थितात् 'सूरियप्पडिहिओ' सूर्य प्रतिधेः सूर्यनिवेशात् 'पहित्ता' बहिस्तात् 'अभिणिस्सिट्ठाहि' अभिनिस्सृष्टाभिः बहिनिर्गताभिः 'लेस्साहि' लेश्याभिः तेजोरूपाभिः 'तविज़्जमाणीहि तप्यमानाभिः तापं मुञ्चन्तीभिः सह 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए' अस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः 'बहुसमरमणिज्जाओ भूमि भागाओ' वहुसमरमणीयात् भूमिभागात् समतलभूमिभागात् 'जावइयं' यावत्कं यावत्परिमितम् 'मूरिए' सूर्यः 'उद्डं उच्चत्तेणं' ऊर्ध्वमुच्चत्वेन उच्चत्त्वमाश्रित्य ऊर्व स्थितः 'एवइयाहि एतावद्यां 'दोहि अद्धाह' द्वाम्यामध्वभ्यां, 'दोहिं छायाणुमाणप्पमाणेहि द्वाभ्यां छायानुमानप्रमाणाभ्यां प्रकाश्यवस्तुप्रमाणाभ्याम् 'ओमाए' अवमितः अनुमितः परिच्छिन्नो यो देशः 'एत्थ णं' अत्र खलु देशे स्थितः सन् ‘सूरिए दुपोरिसिं छायं णिवत्तेइ सूर्यः द्विपौरुषींम् प्रकाश्यवस्तुनः पुरुपस्य वा द्विगुणां छायां निवर्तयनीति ।२। 'एवं' एवम्-अनेन अभिलाप प्रकारेण-एकैकप्रतिपत्तौ एकैकछायानुमानप्रमाणवृद्धिरूपेण 'णेयव्वं नेतन्यं तावत् ज्ञातव्यं 'जाव' यावत् पञ्चनवतितमप्रतिपत्त्यभिलापः संपूर्णो भूत्वा षण्णवतितमप्रतिपत्त्यभिलापः प्रारभेत तावत्पर्यन्तमित्यर्थः सूत्रालापकाश्च स्वयमूहनीयाः। अथ षण्णवतितमप्रतिपत्तिभावनिकां सूत्रकारः स्वयं प्रदर्शयति-'तत्थ' इत्यादि, 'तत्थ' तत्र षण्णवतिप्रतिपत्तिवादिमध्ये 'जे ते' ये ते घण्णवतितमाः प्रतिपत्तिवादिनः सन्ति ते 'एवं' एवम्-वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आईसु' आहुः कथयन्ति, 'तदेवाह-'ता' इत्यादि, 'ता' तावत् 'अस्थि णं' अस्ति विद्यते खलु ‘से देसे' स देशः सूर्यसंस्थितिप्रदेशः 'जसि च णं देसंसि' यस्मिंश्च खलु देशेऽवस्थितः सन् 'सूरीए' सूर्यः 'छण्णउइ पोरिसिं छायं' पण्णवतिपौरुपी छायां पुरुषस्य अन्यस्य वा प्रकाश्यवस्तुनः षण्णवतिगुणां छायां 'निव्वत्तेइ' निर्वतयती करोतीति ये कथयन्ति ते 'एवं' एवम् अनेन वक्ष्यमाणेन कारणेन अग्रे कथ्यमानं कारणमाश्रित्येत्यर्थः 'आइंस' आहुः कथयन्ति । तदेव कारणं प्रदर्शयति-'ता सूरियस्स णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'मूरियस्स णं' सूर्यस्य खलु 'सन्वहिहिमानो' सर्वाधस्तनात् 'सरियप्पडिहिओ' सूर्यप्रतिधेः सूर्यनिवेशात् 'वहिता' बहिस्तात् बहिः 'अभिनिसिहादि' Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० ९ सू०२ पौरुषीछायाविषयेऽन्यतीर्थिकमतम् २२१ अभिनिस्सृष्टाभिः बहिर्निस्सृताभिरित्यर्थः 'लेस्साहि' लेश्याभिः 'तविज्जमाणीहि तप्यमानाभिः सूर्यतेजसा तप्ताभिः सह 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए' अस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः 'बहुसमरमणिज्जाभो भूमिभागाओ' वहुसमरमणीयात् भूमिभागत् रत्नप्रभापृथिवीममतलभागात् 'जावइयं' यावत्कं' यावत्परिमितं 'सूरिए' सूर्यः 'उड्ढे उच्चत्तेणं' ऊर्ध्वम् उच्चत्वेन उच्चत्वमाश्रित्य ऊर्ध्वं वर्तते 'एवइयाहिं' एतावत्कै ‘पण्णउईए' षण्णवत्या पण्णवतिसंख्यकैः ‘अद्धाहिं' अध्वभिः 'छण्णउईए' पण्णवत्या षण्णवतिसंख्यकैः ‘छायाणुमाणप्पमाणेहिं' छायानुमनप्रमाणैः छायाया अनुमानप्रमाणान्याश्रित्य सूर्यसमीपस्थितप्रकाश्यवस्तुप्रमाणस्य ग्रहणाशक्यत्वात् 'ओमाए' अव मितः अनुमितः अनुमानविषयीकृतो भवेत् , 'एत्थ णं' अत्र अस्मिन्देशे खलु 'सूरिए' सूर्यः 'छण्णाउइपोरिसिं छायां' षण्णवतिपौरुषी षण्णवतिगुणां पुरुषादिसम्बन्धिनी छायां 'निव्वत्तेइ' निवर्तयति रचयति पूर्वप्रदर्शितप्रदेशे पुरुषस्य प्रकाश्यवस्तुनो वा छायां पण्णवतिगुणा दीर्घा भवतीति भावः ॥सू० ३॥ उक्ता अन्यतीथिकानां षण्णवतिः प्रतिपत्तयः , ताश्च मिथ्यारूपाः अतोऽस्वीकरणीयाः सन्ति अथ भगवान् सम्यगुरूपं स्वमतं प्रकटयति-वयं पुण' इत्यादि । मूलम्- वयं पुण एवं वयामो-सूरिए-साइरेगअउणटिपोरिसिं छायं निव्वत्तेइ । ता अवड्ढपोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा सेसे वा ? ता तिभागे गए वा सेसे वा । ता पोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा सेसे वा ? ता चउभागे गए वा सेसे वा । ता दिवड्ढपोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा सेसे वा ? ता पंचभागे गए वा सेसे वा । एवं अदापोरिसिं छोडं २ पुच्छा दिवसस्स भागं छोडं छोडं२ वागरणं जाव ता अवड्ढएगूणसट्ठिपोरिसी ण छाया दिवसस्स किं गए वा सेसे वा ? ता एगृणवीसइसयभागे गए वा सेसे वा? ता एगृणसहिपोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा सेसे वा ? बावीससहस्सभागे गए वा सेसे वा । ता साइरेगएगूणसहिपोरिसी गं छाया दिवसस्स किं गए वा सेसे वा ? ता पत्थि किंचि गए वा सेसे वा। तत्थ खलु इमा पणवीसनिविद्या छाया पण्णत्ता तं जहा-खंभछाया १, रज्जुच्छाया २, पागारछाया ३, पासायछाया ४, उच्चत्तछाया अणुलोमछाया ६, पडिलोमछाया ७, आरोविया छाया ८, उच्चारो विया छाया २, समापडिहया छाया १०, खीलछाया ११,, पंथछाया १२, पुरओ दग्गा पिट्टओ दग्गा १३, पुरिमकट्ठभागोवगया छाया १४, पच्छिमकहभागोवगया १५, छायाणुवादिणी १६, कट्ठाणुवादिणी १७, छायाइकंपदीहा सगडच्छाया तत्थ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३ चन्द्रप्रति णं इमा अट्ठविहा गोलच्छाया पण्णत्ता तं जहा - गोलच्छाया १८, अवड्ढ गोलच्छाया १९, गोलच्छाया २०, अवड्ढगोलच्छाया २१, गोलावलिच्छाया २२, अवड्ढगोलावलिच्छाया २३, गोलपुंजच्छाया २४, अड्ढगोल पुंजच्छाया २५, ० ४ ॥ नवमं पाहु समत्तं ॥९॥ छाया - वयं पुनरेवं वदामः सूर्यः सातिरेकैकोनपटिपौरुपीं छायां निर्वत्तयति । तावत् अपार्धपौरूपी बल छाया दिवसस्य किं गते वा शेपे वा ? तावत् त्रिभागे गते वा शेवा ३ तावत् पौरुपी खलु छाया दिवस्य किं गते वा शेपे वा ? तावत् चतुर्भागे गते वा शेषे वा १ तावत् द्वयर्धपौरूपी खल छाया दिवसस्य किं गते वा शेषे वा ? | तावत् पञ्चभागे गते वा शेषे वा ? | एवम् अर्धपौरूपों क्षिप्त्वा २ पृच्छा । दिवसस्य भागं क्षिप्त्वाख्याकरणं यावत् तावत् अपार्थैकोनपटिपौरूपी खलु छाया दिवसस्य किंवा शेषे वा ? | तावत् एकोनविंशतिशतभागे गते वा शेषे वा ? | तावत् एकोनपप्रिपौरूपी खलु छाया दिवसस्य कि गते वा शेषे वा ? द्वाविंशतिसहस्रभागे गते वा शेषे वा । तावत् सातिरेकैकोनपष्टिपौरुपी खल छाया दिवसस्य किं गते वा शेपे वा ? तावत् नास्ति किञ्चिद्गते वा शेषे वा । तत्र खलु इमा पञ्चविंशतिनिविष्ठा छाया प्रनप्ता तद्यथा स्तम्भच्छायार, रज्जुच्छाया २, प्राकारच्छाया ३, प्रासादच्छाया ४, उच्चत्वच्छाया', अनुलोमच्छाया ६ प्रतिलोमच्छाया ७ आरोपिता छाया ८ उच्चारोपिता छाया ९ समा प्रतिहताछाया १०, कीलच्छाया ११, पान्धच्छाया १२, पुरत उदग्रा पृष्ठतउद्या १३, पौरस्त्यकाष्ठभा गोपगता छाया १४ । पाश्चात्य काष्ठभागोपगता १५, छायानुवादिनी १६, काष्ठानुवादिनी १७, छायातिकम्पदीर्घा शकटच्छाया, तत्र खलु इमा अष्टविधा गोलच्छाया प्राप्ता तद्यथा - गोलच्छाया१८, अपार्धगोलच्छाया १९, गोलच्छाया २०, अपागोलच्छाया २१, गोलावलिच्छाया २२, अपार्धगोलावलिच्छाया २३, गोलपुञ्जच्छाया २४, अपार्धगोलपुज्जच्छाया २५ || सू०४ नवमं प्राभृतं समाप्तम् ॥१॥ व्याख्या- 'वयं पुण' वयं पुनः ' एवं ' एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामी' वदामः कथयाम | तदेवाह - 'सूरिए' इत्यादि 'सूरिए' सूर्यः 'साइरेगअरणहिपोरिसि' सातिरेकैकोनपष्टिपौरुपीम्, उदयसमयेऽस्तसमये च 'छायं' छायां 'निव्वत्ते' निर्वर्त्तयति । एतदेव स्पष्टयति -‘ता अवइढ' इत्यादिः 'ता' तावत् 'अवड्ढपोरसी णं छाया' अपार्धपौरुषी खलु छाया, अपगतमद्वं यस्याः सा अपार्धा सा चासौ पौरुपीचेति - अपार्धपौरुपी छाया अर्धपौरुषी छायेत्यर्थः पुरुषस्य उपलक्षणात् प्रकाश्यस्य सर्वस्यापि वस्तुन इत्यग्रेऽपि विज्ञेयम्, अपार्थपौरुषी अर्धपुरुषप्रमाणेत्यर्थः छाया 'दिवसस्स' दिवसस्य 'किं' किम् कतमे भागे 'गए चा' गते वा व्यतितवा कतितमे 'सेसे वा' शेपे वा अवशिष्टे वा भागे भवति, पापौरुपी छाया दिवसस्य कतितमे भागे व्यतीते कतितमे वा भागेऽवशिष्टे भवतीति प्रश्नः Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०९ सू०३ पौरुषीछायाविषये स्वमनिरूपणम् २२३ भगवानुत्तरमाह-'ता' इत्यादि, 'ता' तावत् 'ति भागे' त्रिभागे दिवसस्य भागत्रये 'गए वा' गते वा व्यतीते वा 'सेसे वा' शेष वा अवशिष्टे वा, दिवसस्य 'भागत्रये गते' इति एक स्मिन्नन्तिमे भागे 'भागत्रये शेषे' इति दिवसस्यादिमे एकस्मिन् भागे अपार्धपौरुषी छाया भवतीति भावः। पुनः प्रश्नयति-'ता' तावत् 'पोरसी णं छाया पौरुषी खल संपूर्णपुरुष प्रमाणा छाया 'दिवसस्स' दिवसस्य 'किं गए वा सेसे वा' कि गते वा शेषे वा भवति ? अर्थः पूर्ववत् भगवानाह–'ता' तावत् 'चउभागे' दिवसस्य चतुर्भागे भागचतुष्टये गते वा, व्यतीते वा अरतमनसमये इत्यर्थः 'सेसे वा' शेपे वा दिवसस्य भागचतुष्टयेऽवशिष्टे उद्गमनसमये इत्यर्थः संपूर्णपुरुषप्रमाणा छाया भवतीति । इयं छायाऽन्यत्र सर्वाभ्यातरमण्डलगतं सूर्यमाश्रित्य प्रोता, उक्तश्च-"पुरिस-ति संकू पुरिससरीरं वा तओ पुरिसे निप्पन्ना पोरिसी, एवं सव्वस्स वत्थुणो जया सयप्पमाणा छाया भवइ तया पोरिसी हवइ, एयं पोरिसीपमाणं उत्तरायणस्स अंते, दक्षिणायणस्स आइए इक्कम्मि दिणे हवइ, अओ परं अद्धएगसहिभागा अंगुलस्स दक्षिणायणे वड्दति. उत्तरायणे हस्संति । एवं मण्डले मण्डले अन्ना पोरिसी'' इति छाया-पुरुष इति शङ्खः, पुरुषशरीरं वा, ततः पुरुषे निष्पन्ना पौरुपी एवं सर्वस्य वस्तुनो यदा स्वप्रमाणा छाया भवति तदा पौरुषी भवति, एवं पौरुषीप्रमाणम् उत्तरायणस्य मन्ते, दक्षिणायनस्य आदौ एकस्मिन् दिने भवति, अतः परम् अर्धेकपष्टिभागा अंगुलस्य दक्षिणायने वर्धन्ते, उत्तरायणे हासति, एवं मण्डले मण्डले अन्या पौरुषी, इति । अत इदं सकलमपि पौरुषीविभागपरिणामक थनं सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डच्चारसमयमाश्रित्य विज्ञेयम् । तथा पुनः प्रश्नयति-'ता' तावत् 'दिवड्ढपोरसी गं' छाया, द्वयर्धपौरुषी खलु द्वितीयायाः पौरुण्या मधं यत्र सा द्वयर्धा, सा चासौ पौरुषी चेति तथा साधैंक पुरुषप्रमाणा पौरुषीत्यर्थः, एतादृशी छाया 'दिवसस्स' दिवसस्य 'कि गते वा सेसे वा' किं-कतमे भागे गते वा अवशिष्टे वा भवतीति प्रश्नः । उत्तरमाह 'ता' तावत् 'पंचमभागे पश्चमभागे 'गते वा सेसे वा' गते वा शेषे वा भवति, दिवसस्य पञ्चभागाः कल्प्यन्ते तत्र पञ्चमे भागे द्वयर्धपौरुषी छाया मवतीति भावः । ‘एवं' एवम् अनेन पूर्वोक्तेन क्रमेण अग्रेऽपि 'अद्धपोरिसि' अर्धपौरुषी प्रत्येकस्मिन् प्रश्ने 'छोडं २' क्षिप्त्वा २ संवर्ध्य संवर्येत्यर्थः 'पुच्छा' पृच्छा प्रश्नः कर्त्तव्या, तथा प्रत्येकस्मिन् उत्तरवाको 'दिवसस्स' दिवसस्य 'भाग' भागमेक 'छोटु २' क्षिप्त्वा २ संवर्ध्य २, 'वागरणं' व्याकरणम् उत्तरं कर्त्तव्यम् । तच्चैवम् – "विपोरिसी णं' छाया दिवसस्स किं गए वा सेसे वा ? ता छब्भागे गए वा सेसे वा । ता अढाइज्जपोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा सेसे वा ?, ता सत्तभागे गए बा सेसे वा" इत्यादिरीत्या सूत्रालापकाः स्वयमूहनीयाः-कियत्पर्यन्त मित्याह Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिस्त्र 'जाव' इत्यादि, जाव' यावत्-'अवड्ढए गृणसद्विपोरसी णं छाया' अपार्धे कोनषष्टि पौरुपी खल छाया, अपगता अर्धा यन्याः सा अपार्धा, सा चासौ एकोनषष्टिरिति अपाधैंकोनषष्टिः सार्धाष्टपञ्चाशद्रूपा, सा च पौरुषीति अपाधै कोनषष्टिपौरुषी खलु छाया 'दिवसस्स' दिवखस्य 'कि गए वा सेसे वा' कि गते वा शेपे वा भवति ? । उत्तरमाह-ता' तावत्'एगणवीसइसयभागे' एकोनविंशतिशतभागे' दिवस्य एकोनविंशतिशतभागशरणे एकोनविंशतिशततमे भागे गए वा सेसे वा' गते वा शेपे वा आपाधै कोनषष्टिपौरुषी छाया भवतीति भावः । प्रश्नयति-'ता' तावत् 'एगूणसहिपोरिसी णं छाया' एकोनषष्टिपीरुपो खलु छाया 'दिवसस्स' दिवसस्य ' किंगए वा सेसे वा' किं गते वा शेषेवा भवतीति प्रश्नः । उत्तरमाह- 'वावीस हस्सभागे' द्वाविंशतिसहस्रभागे, दिवसस्य द्वाविंशति महसभागकरणे द्वाविंशतिसहस्रतमे भागे 'गए वा सेसे वा' गते वा शेषे वा एकोनषष्टिपौरुपीछाया भवति । पुनः प्रश्नयति 'ता' तावत् 'साइरेगएगूणसट्ठिपोरिसी गं' सातिरेकैकोनषष्टिः साधिका अधिकेन सहिता किञ्चिदधिका एकोनषष्टिरिति सातिरेकैकोनषष्टिः, सा चासौ पौरुषी चेति सातिरेकपौरुपी खलु छाया' छाया 'दिवसस्त दिवसस्य किं गए वा सेसे वा' कि गते वा शेषे वा भवतीति प्रश्नः । उत्तरमाह -'ता' तावत् 'णस्थि किचि गए चा सेस वा' नास्ति न भवति एतादृशी पौरुपी छाया दिवसस्य किञ्चिन्मात्रोऽपि भागे गते वा शेपेवेति ॥ 'तत्थ' तत्र छायाविचारे खलु 'इमा' इमाः वक्ष्यमाणा 'पणवीसनिविटा' पञ्चविंशतिनिविष्ठा पञ्चविंशतिनिवेशवत्यः, पञ्चविशतिप्रकारसंनिवेशयुक्ता 'छाया' छाया 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, 'तं जहा' तद्यथा-खंभछाया स्तम्भछाया, स्तम्भवदीर्घा छाया १ 'रज्जुच्छाया' रज्जुच्छाया दवरिकाछाया रज्जुवत्तिर्यग्भूता छाया २, पागारच्छाया' प्राकारच्छाया, प्रकारो नगरवेष्टनभित्तिः, तदाकारा छाया ३ 'पासायच्छाया' प्रासादच्छाया 'प्रासादो धनिनां गृहम्' इति वचनात् प्रासादवद्विस्तीर्णा छाया ४, 'उच्चत्तच्छाया' उच्चत्वच्छाया शिवरवदुच्चत्वमाश्रित्य छाया ५, 'अणुलोमच्छाया' अनुलोमच्छाया सरलछाया ६, 'पडिलोमच्छाया' प्रतिलोमच्छाया बक्रच्छाया, आरोविया छाया' आरोपिता छाया आरोपितस्य यष्टयादेश्छाया, ८, 'उच्चारोविया छाया' उच्चारोपिता छाया ऊर्वीकृतयण्ट्यादेश्छाया. ९, समापडिहया छाया' समाऽप्रतिहता समा समतया हस्ते गृहीता अतएव अप्रतिहता केनापि वस्तुना न प्रतिहता या यष्टिः तस्याश्छाया १०, 'खीलच्छाया' कोलच्छाया-कीलस्य काष्ठकीलस्य लोहकीलस्य वा छाया ११, 'पंथच्छाया' मार्गे चलत छाया १२, 'पुरओ दग्गा पिट्टओ दग्गा' पुरतउदग्रा पृष्ठतउदग्रा-पूर्व पुरतः अग्रे हस्तमूर्वीकृत्य पश्चादधः करोति, तस्यैतादृशस्य हस्तस्य छाया पुरतः पृष्ठतश्चोदना छाया कथ्यते १३, 'पुरिमकहमागोवगया' पौरस्त्यकाष्ठभागोपगता, पौरस्त्ये सूर्यमधिकृत्य Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०९सू०२ पौरुषीछायायाः प्रमाणनिरूपणम् २२५ पूर्वस्यां दिशि स्थापितकाष्ठभागमुपगता छाया १४, 'पच्छिमकट्ठभागोवगया' पाश्चात्य. काष्ठभागोपगता एवं पाश्चात्ये सूर्यमधिकृत्य पश्चिमायां दिशि स्थापितकाष्ठभागमुपगता छाया १५, 'छायाणुवादिणी' छायानुवादिनी छायानुवादकारिणी छाया प्रमाणकारिणी छाया १६, 'कहानुवादिणी' काष्ठानुवादिनी काष्ठप्रमाणकारिणी छाया १७,छायाइकंपदीहा सगडच्छाया' छायादि कम्पदीर्घा शकटच्छाया छायादिकम्पनकारिणीत्वेन दीर्घा लम्बा शकरच्छाया गन्त्री छाया 'तत्थ' तत्र तस्यां छायायां खलु 'इमा' इयं वक्ष्यमाणा 'अट्टविहा' अष्टविधा अष्टप्रकारा 'गोलच्छाया' गोलाकारा वर्तुला छाया 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, 'तं जहा' तद्यथा-'गोलच्छाया' 'गोळच्छाया-गोलवद्वर्तुला छाया १८, अवड्ढगोलच्छाया' अपार्धगोलच्छाया-अर्धगोलच्छाया १९, 'गोलगोलच्छाया' गोलगोलच्छाया गोलैर्बहुभिगोलैमिलित्वा यो निष्पादित एको गोलः स गोलगोलः, तस्य छाया वलयाकारा २०, अवड्ढगोलगोलच्छाया' अपार्धगोलगोलच्छाया अर्धगोलच्छाया काचनिर्मित बालक्रीडनकगोलाकारा २१, 'गोलावलिच्छाया' गोलावलि. छाया- गोलानाम्-अनेकगोलानां या आवलिः पंक्तिः सा गोलावलिः, तस्याश्छाया मध्याह्नसूर्याकारा २२ 'अवड्ढगोलावलिच्छाया' अपार्धगोलावलिच्छाया-अर्धोलावलिच्छाया पूर्णिमा मध्यरात्रिवर्तिचन्द्राकारा २३, 'गोलपुंजच्छाया' गोलपुआच्छाया, गोलानां पुनः-समूहः तस्य छाया गम्भीरगाकारा २४, 'अवड्ढगोलपुजच्छाया' अपार्धगोलपुअच्छाया; गोलसमूहस्या तस्य छाया अर्धगम्भीरगर्त्ताकारा २५, इति ॥सू० ४॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहुच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त "जैनशास्त्राचार्य" पदभूषित-कोल्हापुर राजगुरु बालब्रह्मचारि-जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलालवति-विरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका ख्यायां व्याख्यायाम् नवमम् प्रामृतं समाप्तम् ॥५॥ ॥ श्रीरस्तु ॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दशमं प्राभृतम् ॥ गतं नवमं प्राभृतम् तत्र सूर्यस्य पौरुपी छाया निर्वर्त्तनं प्रदर्शितम् । अथ दशमं प्राभृतं प्रारभ्यते, तत्र पूर्वं द्वारगाथायां ' जोएत्ति किं ते आहिए' योग इति किं ते आख्यात इति प्रतिज्ञातमिति तद्विषयमत्र दशमे प्राभृते प्रतिपादयिष्यते अत्र द्वाविंशतिः प्राभृतप्राभृतानि सन्ति, तत्र प्रथमे प्राभृतप्राभृते नक्षत्र परिपाटी, प्रतिपाद्यते - ' ता जोगे त्ति' इत्यादि । मूलम् - ar जोगेत्ति आवलिया निवाए आहिएत्ति वएज्जा । ता कहं ते वत्थुस्स जोगेत्ति वत्थुस्स आवलियाणिवाए आहिए ? त्ति एज्जा । तत्थ खलु इमाओ पंच पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - तत्येगे एवमाहंसु-ता सव्वे वि णं णक्खत्ता कत्तियादिया भरणिपज्जवसाणा पण्णत्ता एगे एवमाहंसु || १|| एगे पुण एवमाहंसु - ता सव्वेणिं नक्त्ता मघादिया अस्सेसापज्जवसाणा पण्णत्ता, एगे एवमाहं ॥२॥ एगे पुण एवमाता सव्वे विणं नक्खत्ता धणिहाझ्या सवणपज्जवसाणा पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु || ३ || एगे पुण एवमाहंसु ता सव्वे वि णं णक्खत्ता अस्सिणीआदिया रेवईपज्जवसाणा पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु ||४|| एगे पुण एवमाहंसु ता सव्वे वि णं णकख त्ता भरणीआइया अस्सिणीपज्जवसाणा पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु ||५|| वयं पुण एवं वयामो- -ता सव्वे विणं णक्खत्ता अभिईआदिया उत्तरासाढापज्जवसाणा पण्णत्ता, तं जहा - अभिई सवणो जाव उत्तरासादा || सू० १|| ||दसमस्स पाहुडस्स पढमं पाहुडं समत्तं ॥ १०१ ॥ छाया - तावत् योग इति वस्तुनः आवलिकानिपात आख्यात इति वदेत् तावत् कथं ते योग इति वस्तुनः आवलिकानिपात आख्यातः ! इति वदेत् । तत्र खलु इमाः पञ्च प्रतिपत्तयः प्राप्ताः तद्यथा-तत्रैके एवमाहुः तावत् सर्वाण्यपि खलु नक्षत्राणि कृत्तिकादिकानि भरणीपर्यवसानानि प्रज्ञप्तानि, पके एवमाहुः |१| एके पुनः एवमाहुः तावत् सवयपि खलु नक्षत्राणि मघादिकानि अश्लेषापर्यवसानानि प्रज्ञप्तानि, एके पवमाहुः |२| पके पुनः पवमाहुः - तावत् सर्वाण्यपि खलु नक्षत्राणि धनिष्ठादिकानि श्रवणपर्यवसानानि प्रज्ञतानि, एके पवमाहुः । ३ । एके पुनः पचमाहुः - तावत् सर्वाण्यपि खलु नक्षत्राणि अश्विन्यादिकानि रेवतो पर्यवसानानि प्रज्ञप्तानि, पके एवमाह । पके पुनः एवमाहुः तावत् सर्वाण्यपि खलु नक्षत्राणि भरण्यादिकानि अश्विनी पर्यवसानानि प्रज्ञप्तानि, एके पवमाहुः | ५| वयं पुनः पचं वदामः -- तावत् सर्वाण्यपि खलु नक्षत्राणि अभिजिदादिकानि उत्तराषाढापर्यवसानानि प्रप्तानि तद्यथा - अभिजित् १ श्रवणः २ यावत् उत्तरापाढा २७ ॥ सू० १॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिप्रकाशिका टीका प्रा० १० १ सू १ चन्द्रसूर्ययोः आवलिकानिपातः २२७ 'व्याख्या -- 'ता जोगेत्ति' इति । 'ता' तावत् - आस्तां तावदन्यत् कथनीयं साम्प्रतमेतावदेव कथ्यते-यत् ‘जोगेत्ति' योग इति 'वत्थुस्स' वस्तुनः नक्षत्रजातस्य ' आवलियानिवाए ' आवलिकानिपातः आवलिकया पंक्तचा क्रमेणेत्यर्थः निपातः चन्द्रसूर्यैः सह संपातः संयोगः स एव योग इति 'आहिए' आख्यातः कथितो मया 'त्ति वएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः कथयेत् । भगवता एवमुक्ते गौतमः पृच्छति 'ता कहं ते' इत्यादि, 'ता' तावत् प्रथमं हे भगवन् ? ' ते ' त्वया 'कह' कथं केन प्रकारेण 'जोएत्ति' योग इति 'वत्थुस्स' वस्तुनः नक्षत्रजातस्य 'आवलियाणिवाए' आवलिकानिपातः क्रमेण चन्द्रसूर्यैः सह संपात : 'आहिए' आख्यातः कथितः, तस्य कः प्रकारः ? 'त्तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु भगवान् अथात्र भगवान् प्रथममन्यतीर्थिकाणां प्रतिपत्तीः प्रदर्शयति 'तत्थ खलु' इत्यादि, 'तत्थ' तत्र नक्षत्राणां योगविषये स्खलु 'इमाओ' हमाः अग्रे प्रवक्ष्यमाणाः 'पंच' पञ्चेति पचसंख्यकाः 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः कथिताः, 'तं जहा' तद्यथा ता यथा - ' तत्थ' तत्र पञ्चसु प्रतिपत्तिवादिषु मध्ये 'एगे' एके प्रथमाः ' एवं ' एवम् - वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति 'ता' तावत् 'सव्वे वि णं णक्खता' सर्वाणि समस्तानि अपि खलु नक्षत्राणि 'कत्तियादिया भरणी पज्जवसाणा' कृत्तिकादीनि भरणीपर्यवसानानि कृत्तिकात आरभ्य भरणीपर्यन्तानि सर्वेषां नक्षत्राणामादौ कृतिका अन्ते भरणी इति 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि । उपसंहारः - 'एगे' एके प्रथमाः 'एवं' एवं पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहंसु' माहुः कथयन्ति |१| 'एगे पुण' एके द्वितीयाः पुनः ' एवं ' एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंस' आहुः कथयन्ति - 'ता' तावत् 'सव्वे चि णं णक्खत्ता' सर्वाण्यापि खलु नक्षत्राणि 'मघाइया अस्सेसापज्जवसाणा' मघादिकानि अश्लेषापर्यवसानानि मघात आरभ्य अश्लेषापर्यन्तानि सर्वेषां नक्षत्राणां आदौ मघा, अन्ते अश्लेषा, इति 'पण्णत्ता' प्रज्ञतानि कथितानि, 'एगे एवमाहंसु' एके एवमाहुः द्वितीया एवं कथयन्ति |२| 'एगे पुण' एके तृतीयाः पुनः ' एवं ' एवम् - वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति 'ता' तावत् 'सच्चा विणं णक्खत्ता' सर्वाण्यपि खल नक्षत्राणि 'घणिट्ठादिया सवणपज्जवसाणा' घनिष्ठादिकानि श्रवणपर्यवसानानि घनिष्ठात आरभ्य श्रवणपर्यन्तानि सर्वेषां नक्षत्राणामादौ धनिष्ठा, अन्ते श्रवणः, इत्येवं रूपाणि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि 'एगे एवमाहु' एके तृतीया एवमाहुः | ३ | 'एगे पुण' एके चतुर्थाः पुनः ' एवं ' एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति - 'ता' तावत् 'सव्वे - वि णं णक्खत्ता' सर्वाण्यपि खलु नक्षत्राणि 'अस्सिणीआदिया रेवई पज्जवसाणा' अश्विन्यादिकानि रेवतीपर्यवसानानि, अश्विनीत आरम्य रेवतीपर्यन्तानि सर्वेषां नक्षत्राणामादौ अश्विनी अन्ते रेवती, इत्येवं रूपाणि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि कथितानि, 'एगे एवमाहंसु' एके चतुर्था एव माहुः |४| 'एगे पुण' एके पश्चमा पुनः ' एवं ' एवम् वक्ष्माणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः 'सब्वेवि णं णक्खत्ता' सर्वाण्यपि खलु नक्षत्राणि 'भरणीआदिया अस्सिणीपज्जवसाणा' भरण्यादिकानि अश्विनीपर्यवसानानि, भरणीत आरभ्य अश्विनीपर्यन्तानि, सर्वेषां नक्षत्राणामादौ भरणी, Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ चन्द्रप्रतिको अन्ते चाश्विनी, इत्येवंरूपाणि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि, 'एगे एवमाहंमु' एके पश्चमा एवमाहुः ।। तदेवमन्यतीर्थिकाणां पञ्च प्रतिपत्तीः प्रदर्य भगवान् साम्प्रतं स्वमतं प्रकटयति-'वयं एण' इत्यादि, 'वय पुण' क्यं पुन: 'एवं' एवम्-वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामो' वदामः कथयामः, तदेवाह-'ता' इत्यादि, 'ता'तावत् 'सव्वे विणं णक्खत्ता' सर्वाण्यपि खलु नक्षत्राणि 'अभिईआदिया उत्तरासाढा पज्जवसाणा' अभिजिदादिकानि उत्तराषाढापर्यवसानानि, अभिजित आरभ्य उत्तराषाढा. पर्यन्तानि, सर्वेषां नक्षत्राणामादौ अभिनित्, अन्ते च उत्तराषाढा वर्तते, इत्येवं रूपाणि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि कथितानि, वस्तुतो नक्षत्राणां गणनाक्रमः अभिजिदादिकः उत्तराषाढापर्यवसान एव भवति, नान्यः क्रमः समीचीनः, अन्यतीर्थिकाणां पञ्चापि प्रतिपत्तयो मिथ्यारूपा मतो न स्वीकरणीयाः । तान्येव नक्षत्राणि दर्शयति-'अभिई' इत्यादि, अभिजित् १, 'सवणे श्रवणः २, 'जाव' यावत् , यावत्पदेन धनिष्ठा ३, शतभिषक् ४, पूर्वाभाद्रपदः ५, उत्तराभाद्रपदः ६, रेवती ७, अश्विनी ८, भरणी ९, कृत्तिका १०, रोहिणी ११, मृगशिरः १२, मार्दा १३, पुनर्वसुः १४, पुष्य १५, अश्लेषा १६, मघा १७, पूर्वाफाल्गुनी १९, हस्तः २०, चित्रा २१, स्वातिः २२, विशाखा २३, अनुराधा २४, ज्येष्ठा २५, मूलम् २६, पूर्वाषाढा २७ इति संग्राह्यम् 'उत्तरासाढा' उत्तराषाढा २८, इत्यष्टाविंशतितम नक्षत्रं वाच्यम् । अत्राशङ्कयते यत्-सर्वेषां नक्षत्राणामादौ अभिजित् अन्ते च उत्तराषाढा, इत्येव कथम् ? इत्याह-इह सर्वेषामपि सुषममुषमादि रूपकालविशेषाणामादि च युग भवति, उक्तश्च- 'एए उ सुसममुसमादओ अद्धाविसेसा जुगादिना सह पवतंति जुगतेण सह समप्पंति' छाया-एते तु सुषमसुषमादयः अद्धाविशेषा युगादिना सह प्रवर्तन्ते, युगान्तेन सह समाप्यन्ते, इति । युगस्यादिश्च-श्रावणमासे बहुलपक्षे प्रत्तिपत्तिथौ बालवकरणे अभिजिन्नक्षत्रे चन्द्रेण सह योग प्राप्ते सति भवति, तथा चोक्तम् "सावणवहुलपडिवए, वालवकरणे अभीइनक्खत्ते । सव्वस्थ पढमसमए, जुगस्स आई वियाणाहि" ॥१॥ छाया-श्रावणबहुलप्रतिपदि, बालवकरणे अभिजिन्नक्षत्रे । सर्वत्र प्रथमसमये, युगस्य मादि विजानीहि ॥१॥ सर्वत्रेति भरते, ऐरवते, महाविदेहे चेति । अतएव भगवता कथितम्-अभिजिदादीनि उत्तरापाढापर्यवसानानि सर्वाणि नक्षत्राणि भवन्तीति ॥सू०१॥ इति-श्री-विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रतिशुद्धगधगद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहच्छत्रापति कोल्हापुररानप्रदत्त "जैनशास्त्राचार्य" पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरु बालब्रह्मचारि-जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलालति-विरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रप्रज्ञप्तिप्रकाशिकाख्यातां व्याख्यायाम् दशमप्रामृते प्रथममं प्रामृतं समाप्तम् ॥१०-१॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दशमस्य प्राभृतस्य द्वितीयं प्राभृतप्राभृतम् ॥ पूर्व दशमस्य प्रथमे प्राभृतप्राभृते नक्षत्रपरिपाटी प्रतिपादिता, अथात्र द्वितीये प्राभृतप्राभृते चन्द्रसूर्याभ्यां सह नक्षत्राणां योगविषयकं मुहूर्तपरिमाणं वक्तव्यं स्यादिति तद्विषयकमिदमादिमं सूत्रम्-'ता कहं ते मुहुत्तग्गे' इत्यादि मूलम् - ता कहं ते मुहत्तग्गे आहिए ? ति वएज्जा, ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अस्थि णक्खत्तं ज णं णवमुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तसद्विभाए मुहत्तस्स चंदेण सद्धि जोयं जोएइ ? अत्थि णवत्ता जे णं पण्णरसमुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति २, अस्थि नक्खत्ता जे णं तीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति ३, अत्थि णंनक्खत्ता जे णं पणयालीसे मुहुत्ते चंदेण सद्धि जोयं जोएंति ४, ता एएसिणं अट्ठावीसाए णक्खताणं कयरं नक्खत्तं ज णं नवमुहुत्ते सतावीसं च सत्तविभाए मुहत्तस्स चंदेण सद्धिं जोयं जोएड १, कयरे णक्खत्ता जे णं पण्णरसमुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति २. कयरे णक्खत्ता जे ण तीस मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएं ति ३, कयरे णक्खत्ता जे णं पणयालीसे मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जएंति ४, ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं तत्थ जं तं णक्खत्तं जं णं णवमुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तद्विभाए मुहत्तस्स चंदेण सद्धिं जोयं जोएई से णं एगे अभीई १, तत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं पण्णरसमुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति ते णं छ तं जहा-सतभिसया १, भरणी २' अद्दा ३, अस्सेसा ४, साई ५, जेट्ठा ६।२। तत्थ जे ते णक्खत्ता जे ण तीसं मुहुते चंदेण सद्धि जोयं जोएंति ते णं पण्णरस, तं जहा-सवणे १, धणिहा २, पुब्बाभद्दवया ३, रेवई ४, अस्सिणी ५. कत्तिया ६; मग्गसिरा ७, पुस्सं ८ महा९ पुन्याफग्गुणी १०; इत्यो ११, चित्ता १२, अणुराहा १३, मूलो १४, पुवआसाढा १५, ३। तत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं पणयालीसे मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएति तेणं छ, तं जहा-उत्तराभवया १, रोहिणी २, पुणव्वसू ३ उत्तराफग्गुणी ४, विसाहा ५, उत्तरासाढा ६, ४ ॥सू० १॥ _छाया-तावत् कथं ते मुहूर्ताग्रम् आख्यातम् १३ इति वदेत्, तावत् पतेषां खलु अष्टाविंशतेः नक्षत्राणां अस्ति नक्षत्रं यत् खलु नव मुहूर्तान सप्तविंशतिं च सप्तषष्टिभागान् मुहूर्तस्य चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति १, सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु पञ्चदश मुहर्तान् चन्द्रेण साधं योरों युञ्जन्ति २, । सन्ति नक्षत्राणि यानि स्खलु त्रिंशत् मुहूर्तान् चन्द्रेण सार्ध योग युञ्जन्ति ३सन्ति खलु नक्षत्राणि Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० चन्द्रप्राप्तिसूत्रे यानि खलु पञ्चचत्वारिंशद मुहर्त्तान् चन्द्रेण साध योग युञ्जन्ति ४ तावत् एतेषां खलु अष्टाविंशतेः नक्षत्राणां कतरत् नक्षत्रं यत् खलु नव मुहर्तान् सप्तविंशति च सप्तषष्टिमागान् मुहर्तस्य चन्द्रण सार्ध योगं युनक्ति १, कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु पञ्चदश मुहर्लान् चन्द्रेण लार्ध योग युञ्जन्ति २। कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु त्रिंशद् मुहर्लान् चन्द्रेण सधि योगं युञ्जन्ति ३। कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु पञ्चचत्वारिंशद् मुहूचांन् चन्द्रेण साधं योग गुञ्जन्ति ।. तावत् एतेषां खलु अष्टाविंशते नक्षत्राणां तत्र यत्तन्नक्षत्रं यत् खलु नव मुहर्तान् सप्तविंशतिं च सप्तपष्टिभागान मुहर्तस्य चन्द्रेण साधु योग युनक्ति तत् खलु एकम् अभिजित् । तत्र यानि तानि नक्षत्राणि यानि खलु पञ्चदशमुहर्त्तान् चन्द्रेण साधं योगं युञ्जन्ति तानि खलु पट् तद्यथा-शतभिषक् १, भरणी २, आर्द्रा ३, अश्लेपा ४, स्वातिः ५, ज्येष्ठा ६२। तत्र यानि तानि नक्षत्राणि यानि खलु त्रिंशत् मुहतान् चन्द्रेण साधं योगं युञ्जन्ति तानि खलु पञ्चदश, तद्यथा-श्रवणः १, घनिष्टा २, पूर्वाभाद्रपदा ३, रेवती ४, अश्विनी ५, कृत्तिका ६, मृगशिरः ७, पुण्यः ८, मघा ९, पूर्वाफाल्गुनी १०, हस्तः ११, चित्रा १२, अनुरावा १३ मूलम् १४, पूर्वापाढा १५,३ तत्र यानि तानि क्षत्राणि यानि खलु पञ्चचत्वारिंशत् मुहर्तान् चन्द्रेण साधं योगं युञ्जन्ति नानि खलु पद. तद्यथा-उत्तराभाद्रपदा १, रोहि णी २, पुनर्वसु ३, उत्तराफाल्गुनी ४ विशाखा ५, उत्तरापाढा ६ ॥ ०१॥ __व्याख्या- 'ता कहते' इति, 'ता' तावत् 'कह' कथं हे भगवन् ! केन प्रकारेण 'ते' त्वया प्रतिनक्षत्रं 'मुहत्तग्गे' मुहूर्तानं चन्द्रेण सह नक्षत्राणां योगसम्बन्धि मुहूर्तपरिमाणम् 'आहियं' माख्यानम् ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् कथयतु । एवं गौतमेनोक्ते भगवानाह 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां खल 'अट्ठावीसाए नक्खत्ताणं' अष्टाविंशते: नक्षत्राणां मध्ये 'अस्थि' अस्ति 'नक्खत्त' नक्षत्रं 'ज ' यस्खल नक्षत्रं 'नवमुहुत्ते' नवमुहूर्त्तान् ‘सत्तावीसं च सत्तहिभागे' सप्तविंशतिं च सप्तपष्टिभागान् ‘मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य, सप्तपष्टिभागयुक्तान् नवमुहूर्त्तान् यावत् 'चंदेण सद्धि' चन्द्रेण सार्थ 'जोयं जोएड' योगं युनक्ति १। 'अस्थि' सन्ति 'नक्खत्ता' नक्षत्राणि 'जेणं यानि खलु नक्षत्राणि 'पण्णरसमुहुत्ते' पञ्चदशमुहूर्तान् यावत् पञ्चदशमुहूर्तपर्यन्तमित्यर्थः 'चंदेण सद्धि' चन्द्रेण साधं 'जोयं जोएंति' योगं युञ्जन्ति कुर्वन्ति २ । 'अत्थि' सन्ति 'णक्खत्ता' नक्षत्राणि 'जे णं' यानि खलु नक्षत्राणि 'तीम मुहुत्ते' त्रिशन्मुहूर्तान् त्रिंशन्मु. हतपर्यन्तं 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति' चन्द्रेण साधं योगं युञ्जन्ति ।३। 'अस्थि' सन्ति 'णक्खत्ता'नक्षत्राणि 'जे णं' यानि खलु ‘पणयालीसे मुहत्ते'पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तान् यावत् 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएति' चन्द्रेण साधं योग युञ्जन्ति । एवं भगवता सामान्येन कथितान् चन्द्र नक्षत्रयोगरूपान् चतुरो विषयान् श्रुत्वा भगवान् गौतमो विशेषनिर्णयार्थ प्रत्येकमेकैकशः पृच्छति 'ता एएसि णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां 'अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अष्टाविंशते नक्षत्रणां मध्ये 'कयरं' कतरत् किं नामकं 'णक्खत्तं' नक्षत्रं 'जे णं' यत् खलु नक्षत्रं 'नवमुहुत्ते Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १०-२ सू०१ नक्षत्राणां चन्द्रेण सह योगनिरूपणम् २३१ सत्तावीस च सत्तट्टिभाए मुहुत्तस्स' सप्तविंशति सप्तषष्टिभागयुक्तान् नवमुहूर्त्तान् यावत् 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएड़' चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति १ । 'कयरे णक्खत्ता' कतराणि नक्षत्राणि किं नामधेयानि नक्षत्राणि 'जे णं' यानि खलु 'पण्णरसमुहुत्ते' पञ्चदशमुहूर्त्तान् यावत् 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति' चन्द्रेण साधै योगं युञ्जन्ति २ | 'कयरे णक्खत्ता' कतराणि नक्षत्राणि 'जेणं' यानि खलु ‘तीसं मुहुत्ते' त्रिंशन्मुहूर्त्तान् यावत् 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति' चन्द्रेण सार्धं योगं युञ्जन्ति ३ । 'कयरे' कतराणि कानि 'णक्खत्ता' नक्षत्राणि 'जे णं' यानि खलु 'पणयाली से मुहुत्ते' पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तान् यावत् 'चंद्रेण सद्धिं जोये जोएंति' चन्द्रेण सार्धं योगं युञ्जन्ति । एवं गौतमेन पृष्टे सति भगवान् एकैकशः कृत्वा चतुरोऽपि प्रश्नान् स्पष्टीकरोति - 'ता एएसि णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'एएमिणं' एतेषां खलु 'अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' अष्टाविंश तेर्नक्षत्राणां 'तत्थ' तत्र मध्ये 'ज तं णक्खत्तं' यत्तत् नक्षत्रं 'जेणं' यत् खलु 'णवसुहुत्ते सत्तावीसं च सतट्टिभाए मुहुत्तस्स' सप्तविंशतिं सप्तपष्टिभागयुक्तान् नवमुहूर्त्तान् यावत् 'चंदेणं सद्धिं जोयं जोएड' चन्द्रेण मार्धं योगं युनक्ति 'से णं' तत् खलु 'एगे अभीई' एकम् अभिजित् नक्षत्रमस्ति । एतत् कथम् इति प्रदर्श्यते इदमभिजिन्नक्षत्र सप्तषष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रस्यैक विंशतिभागान् यावत् चन्द्रेण सह योग प्राप्नोति, मुहूर्त्तगतभागकरणार्थमेते च एकविंशतिरपि भागा एकस्याहोरात्रस्य त्रिशन्मुहूर्त्त प्रमाणत्वात् त्रिंशता गुन्यन्ते ( २१ x ३० ) जातानि त्रिंशदधिकानि षट्शतानि (६३०) कालमाश्रित्य एतावान् सीमाविस्तारोऽभिजिन्नक्षत्रस्य भवति, उक्तं चाऽन्यत्रापि “छच्चेव सया तीसा भागाणं अभिई सीमविवक्खंभो । दिट्ठो सहरगो सव्वेहिं अनंतनाणीहिं " ||१|| छाया - षडेव शतानि त्रिशत् भागानाम् अभिजित्सीमा विष्कम्भः दृष्टः सर्वलघुकः सर्वैः अनन्तज्ञानिभिः ||१|| इति तानि त्रिंशदधिकषट्शतानि (६३० ) सप्तषष्ट्या विभज्यन्ते ततो लब्धा नवमुहूर्त्ताः एकस्य मुहूर्त्तस्य च सप्तविंशतिः सप्तषष्ठिभागाः (९६७) अतएवोकम् “अभिइस्स चदजोगो सत्तट्टीखंडिओ अहोरत्तो । भागा य सत्तवीस ते पुण अहिया नव मुहुत्ता " ॥ १॥ छाया - अभिजितः चन्द्रयोगः सप्तषष्टिखण्डितम् अहोरात्रम् । भागाश्च सप्तविंशतिः, ते पुनः अधिका नवमुहूर्त्ताः | १| इति । स्पष्टयति- ' तत्थ' इत्यादि । 'तत्' अथ भगवान् पञ्चदशमुहूर्त्तविषयक द्वितीयं प्रश्नं तत्र अष्टाविशतिनक्षत्राणां मध्ये 'जे ते णक्वत्ता' यानि 'पण्णरसमुडुत्ते" पञ्चदशमुहूर्त्तान् यावत् 'चंदेण योगं युञ्जन्ति 'णं' तानि खलु 'छ' तानि नक्षत्राणि 'जेणं' यानि खलु सद्धिं जोयं जोएंति' चंद्रेण सार्धं षट् सन्ति ' तं जहा ' तद्यथा 'सयभिसया' Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww. २३२ चन्द्र प्राप्तिसूत्रे 'शतभिषक् १ 'भरणी' भरणी २, 'अदा' आर्द्रा ३, 'अस्सेसा' अश्लेषा ४, 'साई' स्वातिः ५, 'जेहा' जेष्ठा ६॥ एतेषां पण्णामपि नक्षत्राणां प्रत्येक सप्तषष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रस्य सम्बन्धिनः सार्धान् त्रयस्त्रिंशद्भागान् (३३॥) यावत् चन्द्रेण सह योगो भवति तत एते सार्धत्रयस्त्रिंशद्भागाः मूत्र्तगतसप्तषष्टिभागकरणाथ त्रिंशता गुण्यन्ते तत्र प्रथम त्रयस्त्रिंशत् त्रिंशता गुण्यन्ते जातानि नवधिकनवशतानि (९९०) ततो यदुपरि अध तदपि त्रिंशता गुण्यते लब्धाः पञ्चदशमुहूर्तस्य सप्तपष्टिभागाः, तेषां पूर्वराशौ प्रक्षेपणे जातं पञ्चोत्तरं सहस्रमेकम् (१००५)। एवं चैतेषां पण्णां नक्षत्राणां प्रत्येकं कालमाश्रित्य सीमाविस्तारः पञ्चोत्तरसहस्रमुहर्तगतसप्तषष्टिभागप्रमितः, अत्राह “सयभिसया भरणीए, अहा अस्सेसा साइ जिहाए । पंचोत्तरं सहस्सं भागाणं सीमाविक्खभो ॥१॥ छाया-शतभिषग्भरण्योः आर्द्रा लेषा-स्वातिज्येष्ठानाम् । पञ्चोत्तरं सहस्र भागानां सीमाविष्कम्भः ॥१॥इति । अस्य पञ्चोत्तरसहस्रस्य सप्तषष्ट्या भागे हृते लब्धाः पञ्चदशमुहूर्ताः । अतएवोक्तं च.. "सयभिसया भरणी य अद्दा अस्सेससाइजिट्टा य । एए छन्नक्खत्ता, पण्णरसमुहत्तसंजोगा" ||१|| छाया शतभिषक् भरणी च आर्द्रा अश्लेषा स्वातिः ज्येष्ठा च एतानि पढ्नक्षत्राणि, पञ्चदशमुहूत्तसंयोगानि ॥२॥इति।। ____ अथ त्रिंशन्मुहूर्त्तविषयकं प्रश्नं स्पष्टयति तत्थ' इत्यादि, 'तत्थ' तत्राष्टाविंशतिनक्षत्राणां मध्ये 'जे ते णक्खत्ता 'यानि तानि नक्षाणि 'जे ण' यानि खल 'तीस मुहुत्ते' त्रिंशन्मुहूर्तान् यावत् 'चंदेण सद्धिं जोय जोएंति' चन्द्रेण साधू योगं युञ्जन्ति, 'ते णं पण्णरस' तानि खल पञ्चदश, 'तं जहा 'तद्यथा-'सवणो' श्रवणः १. 'धणिहा' धनिष्ठा २, 'पुन्वाभहवया पुर्वाभाद्रपदा ३, रेवई' रेवती ४, 'अस्सिणी' अश्विनी ५, 'कत्तिया' कृत्तिका ६, 'मग्गसिरं 'मृगशिरः ७, 'पुस्सं' पुण्यम् ८, 'मघा' 'मघा' ९, पुन्चाफग्गुणी' पूर्वाफाल्गुनी १०, हत्थो' हस्तः ११, 'चित्ता' चित्रा १२. 'अनुराहा' अनुराधा १३, 'मूलो' मूलम् १४, 'पुव्वआसाढा' पूर्वापाढा १५, । तथाहि एतेषा पञ्चदशानां नक्षत्राणां कालमाश्रित्य प्रत्येकं सीमा विष्कम्मो मुहूर्तगतसप्तपष्टिभागानां दशोत्तरं सहस्रद्वयसू (२०१०] भवति । तत्कथमित्याह एषु प्रत्येक नक्षत्रमेकाहोरात्रस्य सप्तषष्टिसप्तपष्टिभागान् (६७) यावत् चन्द्रेण सह योगं करोति ततोऽहोरात्रस्य त्रिशन्मुहूर्त्तप्रमाणत्वात्सप्तषष्टिः त्रिंशता गुण्यते तदा जायते यथोक्को राशिः (२०१०)। तस्य सप्तपष्टया भागो हियते लब्धा स्त्रिंशत् मुहूर्ताः ३०॥इति । अथ चतुर्थ पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तविषयक प्रश्नं स्पष्टयति-'तत्थ' इत्यादि । 'तत्य' तत्र मष्टाविंशतिनक्षत्राणां मध्ये 'जे ते णक्खत्ता' यानि तानि नक्षत्राणि 'जे णं' यानि Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १०-२ सू० १ नक्षत्राणां चन्द्रेण सह योगनिरूपणम् २३३ खलु 'पणयालीस मुहुत्ते' पञ्चचत्वारिंश-मुहर्त्तान् यावत् 'चंदेण सद्धि जोयं जोएंति' चन्द्रेण साध योगं युआन्ति 'तेणं छ' तानि खलु षट् सन्ति, 'तंजहा' तद्यथा 'उत्तराभवया' उत्तराभाद्रपदा १, 'रोहिणी' रोहिणी २, 'पुणव्वसू, पुनर्वसुः३, 'उत्तराफग्गुणी' उत्तराफाल्गुनी४, "विसाहा, विशाखा,५, 'उत्तरासाढा, उत्तरापाढा६ । एतेषां षण्णां नक्षत्राणां प्रत्येक कालमाश्रित्य सीमाविष्कम्भः पञ्चदशोत्तरसहस्रनय (३०१५) मुहूत्र्तगतसप्तषष्टिभागप्रमितो वर्त्तते एष कथं जायते ? इत्याह- एषां प्रत्येकमेकस्याहोरात्रस्य एकार्घोत्तरं शतमेकं सप्तषष्टिभागान् (१) यावत् चन्द्रेण सह योगं करोति ततः एका?त्तरं शतमेकं (१००) सप्तषष्टया गुण्यते तदा जायते पूर्वोक्को राशिः (३०१५) इति अस्य पश्चोत्तरसहस्रनयराशेः (३०१५) सप्तषष्टया भागो हियते ततो लब्धाः पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्ताः, उक्तञ्च "तिन्नेव उत्तराई पुणव्वसू रोहिणी विसाहा य । एए छन्नक्खत्ता, पणयालमुहुत्तसंजोगा ॥१॥ छाया-तिम एव उत्तरा ३ (उत्तराभाद्रपदा १, उत्तरा फाल्गुनी २ उत्तराषाढा ३, )पुनर्वसुः४, रोहिणी ५ विशाखा ६ च । एतानि पद नक्षत्राणि पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तसंयोगानि ॥१॥ शेष नक्षत्रमुहूर्तविपये पुनश्चोक्तम् _ 'अवसेसा नक्खत्ता णव पण्णरस हुंति तीसइमुहुत्ता । चंदंमि एस जोगो , नक्खत्ताणं समवखाओ ॥२॥ छाया-अवशेषाणि नक्षत्राणि अभिजिदेकम्१, शतभिषादयः षद६ श्रवणादयः पञ्चदश १५, इति द्वाविशतिनक्षत्राणि क्रमेण नव पञ्चदश भवन्ति त्रिंशन्मुहूर्तानि चन्द्रे एष योगः नक्षत्राणां समाख्यातः।। २। सू १ ॥ उक्तोऽयं नक्षत्राणां चन्द्रेण सह योगः, सांप्रतं सूर्येण सह योगं प्रदर्शयन्नाह-'ता ऐएसिणं' इत्यादि । मूलमः- ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अत्थि णक्खत्ते जे णं चत्वारि अहोरत्ते छच्च मुहुत्ते सूरिएण सद्धिं जोयं जोएइ ।१। अस्थि णक्खत्ता जे णं छ अहोरत्ते एक्कवीसं च मुहुत्ते सरिएण सद्धिं जोयं जोएंति ।। अत्थि णक्खत्ता जे णं तेरस अहोरत्ते वारस य मुहुत्ते सूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति ३ । अत्थि णक्खत्ता जे णं वीसं अहो, . रत्ते तिण्णि य मुहुत्ते सुरिएण सद्धिं जोय जोएंति ।४। ३० Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ चन्द्रप्राप्ति ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं कयर णक्खत्तं चत्तारि अहोरत्त छच्च मु. हुत्ते सूरिएण सद्धिं जोयं जोएइ ।१॥ कयरे णक्खता जे णं छ अहोरत्ते एक्कवीसमइत्ते सरिपण सद्धिं जोयं जोएंति २। कयरे णक्खत्ता जे णं तेरस अहोरत्त वारस य मुहत्ते सुरिएण सद्धिं जोयं जोएंति ३ । कयरे णक्खत्ता जे णं वीसं अहोरत्ते तिन्नि य मुहुत्त सूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति ४। ता एएसि णं अट्ठावीसाए णवखत्ताणं तत्थ जे से णक्खत्ते जे ण चत्तारि अहोरत्ते छच्च मुहुत्ते सरिएण सद्धिं जोयं जोएइ से णं अभिई ११ तत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं छ अहोरत्ते एक्कवीसं च हुत्ते सरिएण सद्धिं जोयं जो ति ते णं छ तं जहा-- सयभिसया १, भरणी २, अदा ३, अस्सेसा ४' साई ५, जेटा ६, २॥ तत्थ जे ते नक्खत्ता तेरसअहोरत्ते दुवालस य मुहुत्ते सूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति ते णं पण्णरस तं जहा-सवणो १, धणिहा २, पुन्वाभदवया ३, रेवई ४, अस्सिणी ५, कत्तिया ६, मग्गसिरं ७, पूसो ८, मघा९, पुच्चाफल्गुणी १०, हत्थो ११, चित्ता १२, अणुराहा १३, मूलो १४, पुव्वाआसाढा १५।३ तत्थ जे ते णक्खत्ता जे ण वीस अहोरत्ते तिण्णि य मुहुत्ते सूरिए ण सद्धिं जोयं जोएंति ते णं छ त जहा उत्तराभवया १, रोहिणी २, पुणव्वर ३, उत्तराफग्गुणी ४, विसाहा ५, उत्तरासाडा ६४ ॥सू०२॥ छाया-तावत् एतेषां खलु अष्टाविंशते नक्षत्राणां अस्ति नक्षत्रं यत् खलु चत्वारि अहोरात्राणि पट् च मुहान् सूर्येण साध योगं युनक्ति ११ सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु पड् अहोरात्रान् एकविंशतिं च मुहर्तान् सूर्येण साधं योग युञ्जन्ति । सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु त्रयोदश अहोरात्रान् द्वादश च मुहान सूर्येण साधं योगं युञ्जन्ति ३ सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु विंशति अहोरात्रान् त्रीन् च मुहूर्तान् सूर्येण साध योग युञ्जन्ति ४ तावत् पतेषां खलु अष्टाविंशतः नक्षात्राणां कतर नक्षत्रं यत् चतुरोऽहोरात्रान पट् च मुहान् सूर्येण साधं योग युनक्ति | कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु षड् अहोरात्राणि एकविंशति मुहान सूर्येण साधं योगं युञ्जन्ति २ । कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु प्रयोदश अहोरात्रान द्वादश च मुहूर्चान् सूर्येण साधं योगं युज्जन्ति ३ । कतराणि नक्षप्राणि यानि खलु विशतिम् अहोरात्रान् श्रीन् मुहूर्तान् सूर्येण साध योगं युजन्ति ।। तवत् पतेपां स्खल अष्टाविंशतेः नक्षत्राणां तत्र यत्तत् नक्षत्रं यत् खलु चतुरोऽहोरात्रान् षट् च मुहत्तान् सूर्येण साधं योग युनक्ति तत् खलु अभिजित् । तत्र यानि तानि नक्ष आणि यानि खलु पड् अहोरात्रान् एकविशनि च मुहूर्तान् सूर्येण साधं योगं युज. न्ति तानि खलु पटू तद्यथा-शतभिपक् १, भरणी २, आर्दा ३, अश्लेपा, स्वाति: ५ ज्येष्ठा ६, तत्र यानि तानि नक्षत्राणि त्रयोदश अहोराशन द्वादश च मुहर्तान् सूर्येण साधै योगं युञ्जन्ति तानि खलु पञ्चदश तद्यथा-थवणः १, निष्ठा २, पूर्वाभाद्रपदा३,रेवती ४, अश्विनी ५, कृत्तिका ६, मृगशिरः ७, पुण्यम् ८, मघा ९, पूर्वाफाल्गुनी, हस्तः ११, Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्र प्रकाशिका टोका प्रा०१० - २०१ नक्षत्राणां चन्द्रेण सह सहयोग निरूपणम् २३५ चित्रा १२, अनुराधा १३, मूलम् १४, पूर्वाषाढा १५/३॥ तत्र यानि तानि नक्षत्राणि यानि खल विंशतिम् अहोरात्रान् त्रीन् च मुहूर्त्तान् सूर्येण सार्धं योगं थुज्जन्ति तानि खलु षट्, तद्यथा - उत्तराभाद्रपदा १, रोहिणी २, पुनर्वसुः ३, उत्तराफाल्गुनी ४, विशाला ५, उत्तराषाढा ६|४|| २ || || दशमस्य प्राभूतस्य द्वितीयं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१०२॥ व्याख्या - भगवानाह — 'ता एएसि ण' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषां खलु 'अट्ठावीसार णक्खत्ताणं' अष्टाविंशतेर्नक्षत्राणाम् 'अस्थि' अस्ति भवति 'णक्खत्ते' नक्षत्र 'जंणं' यत् खलु 'चत्तारि अहोरत्ते' चतुरोऽहोरात्रान् 'छच्च मुहुत्ते' षट् च मुहूर्त्तान् यावत् 'सूरिएण सद्धि' सूर्येण साधे 'जय जोएइ' योगं युनक्ति १, तथा - 'अस्थि' सन्ति 'णक्खत्ता' नक्षत्राणि 'जेणं' यानि खलु 'छ अहोरते' षड् अहोरात्रान् एकविंशतिं च मुहूर्तान् यावत् 'सूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति' सूर्येण सार्धं योगं युज्जन्ति २| 'अस्थि' सन्ति 'णक्खत्ता' नक्षत्राणि 'जे णं' यानि खलु 'तेरस अहोरत्ते' त्रयोदश अहोरात्रान् 'बारस य मुहुत्ते' द्वादश च मुहूर्त्तान् 'रिए सद्धि जोयं जोएंति' सूर्येण सार्धं योगं युञ्जन्ति ३ | 'अस्थि' सन्ति कानिचित् 'णक्खत्ता' नक्षत्राणि 'जेणं' यानि खलु 'वीस अहोरत्ते' विंशतिमहोरात्रान् 'तिष्णि य मुहुत्ते' त्रीन् च मुहूर्त्तान् 'सूरिएणं सद्धि जोयं जोएंति' सूर्येण सार्धं योगं युञ्जन्ति ४ । 44 एवं भगवता सामान्येन कथितान् सूर्यनक्षत्रयोगविषयकान् चतुरो विषयान् श्रुत्वा गौतमः पृच्छति - 'ता एएसि णं' इत्यादि, हे भगवन् 'ता' तावत् प्रथमं कथय 'एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' एतेपां खलु अष्टाविंशतेः नक्षत्राणां मध्ये 'कयरं णक्खत्तं' कतरत् किं नामधेयं नक्षत्रम् 'जं णं' यत् खलु 'चत्तारि अहोरत्ते' चतुरोऽहोरात्रान् 'छच्च मुहुत्ते ' षट् च मुहूर्त्तान् यावत् 'सूरिएण सद्धिं जोयं जोएइ' सूर्येण सार्धं योगं युनक्ति १, 'कयरे णक्खत्ता' कतराणि किंनामधेयानि नक्षत्राणि 'छच्च अहोरते' षट् चाहोरात्रान् 'एकवीसं मुहुत्ते' एकविंशति मुहूर्त्तान् यावत् 'सूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति' सूर्येण सार्धं योगं युञ्जन्ति २ । 'कयरे णक्खत्ता' कतराणि कानि नक्षत्राणि 'जे णं' यानि खलु 'तेरस अहोरते' त्रयोदश अहोरात्रान् 'बारस य मुहुत्ते ' द्वादश च मुहर्त्तान् यावत् 'सूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति' सूर्येण सार्धं योगं युञ्जन्ति ३। 'करे णक्खत्ता' कतराणि कानि नक्षत्राणि 'जे णं' यानि खलु 'वीसं अहोरते' विंशतिमहोरात्रान् 'तिष्णि य मुहुत' त्रीन् च मुहूर्त्तान् यावत् 'सूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति' सूर्येण सार्धं योगं युञ्जन्ति । H # एवं गौतमेन पृष्टे सति भगवान् चतुरोऽपि प्रश्नान् एकैकशः स्पष्टीकरोति तत्र प्रथममाह'ता एएसि णं' इत्यादि 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषां खलु 'अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' अष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये 'तत्थ' तत्र तेषु नक्षत्रेषु 'जे से णक्खत्ते' यत्तत् नक्षत्रं 'चत्तारि अहोरत्ते' : Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे चतुरोऽहोरात्रान् 'छच्च मुहुत्ते'पद च मुहूर्तान् यावत् 'मूरिएण सद्धिं' सूर्येण साधं 'जोयं जोएई' योगं युनक्ति से ण' तत् खलु 'अभीई' अभिजिन्नक्षत्रमवगन्तव्यम् । कथमित्याह-इह च यन्नक्षत्रमेकस्याहोरात्रस्य सम्बन्धिनो यावतः सप्तपष्टिभागान् चन्द्रेण सह योगं करोति तन्नक्षत्रं सूर्येण सह अहोरात्रस्य तावतः पञ्चभागान् यावत् योगं करोति, उक्तश्च-'जं रिक्खं जाव. इए वच्चइ चंदेण भागसत्तट्ठी। तं पणभागे राईदियस्स-सूरेण तावइए ।११ छाया-यत् ऋक्षं यावत्कान् व्रजति चन्द्रेण भागान् सप्तसष्टिम् । तत् पञ्च भागान् रात्रिन्दिवस्य तावत्कान् ॥१॥ इति । अत्रेदं बोध्यम्-यन्नक्षत्रमभिजिन्नामकं चन्द्रेण सह नवमुहूर्त्तान् सप्तविंशति च सप्तपष्टिभागान् यावत् योगं करोति तदत्र सूर्येण सह चतुरोऽहोरात्रान् षड् मुहूर्तान् यावत् योगं करोति १ । यानि च शतभिपगादीनि षड् नक्षत्राणि प्रत्येक चन्द्रेण सह पञ्चदशमुहूर्तान् यावद् योगं कुर्वन्ति तान्यत्र प्रत्येकं सूर्येण सह पड् अहोरात्रान् एकविंशति च मुहूर्तान् यावत् योगं कुर्वन्ति २ । यानि च श्रवणादीनि पञ्चदश नक्षत्राणि प्रत्येक त्रिंशद् मुहान यावत् चन्द्रेण सह योगं कुर्वन्ति तान्यत्र सूर्येण सार्ध त्रयोदशाहोरात्रान् द्वादश च मुहूर्त्तान् यावत् योग कुर्वन्ति ३ । यानि उत्तराभाद्रपदादीनि पढ् नक्षत्राणि प्रत्येकं पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तान् यावत् चन्द्रेण सह योगं कुर्वन्ति तान्यत्र सूर्येण साध विंशतिमहोरात्रान् श्रीन् मुहर्ता श्च यावत् योगं कुर्वन्ति ४ । कोष्ठकं यथाचन्द्रसूर्याभ्यां सह नक्षत्राणां योगकोष्ठकस् चन्द्रेण सह मुहूर्तानां | सूर्येण सहाहोरात्राणां नक्षत्रनामानि योगः मुहतानां च योगः मभिजित् १ मु० ९-२७ महो० ४ मु. ६ सप्तपष्टिः भागाः ६७ ६-२१ - शतभिषक् १, भरणी २, आर्दा ३, अश्लेषा ४, स्वातिः ५, ज्येष्टा ६ । प्रत्येकम् श्रवणः १. धनिष्ठा २, पू० भा० ३, रेवती ४, अश्विनी ५, कृतिका ६, मृगशिरः ७, पुष्यं ८, मधा ९, १० फा० १०, हस्तः ११, चित्रा१२, अनुराधा १३, मूलम् १४, पू० फा०. १५, प्र० उ० मा० १, रोहिणी २, पुनर्वसुः ३, उ०फा० ४, विशाखा ५, उ० पा० ६, प्र० १३-१२ २०-३ - - - Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ `चन्द्रशप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १० - २०१ नक्षत्राणां चन्द्रेण सह योगनिरूपणम् २३७ अयमाशयः -- यदभिनिन्नक्षत्रं चतुरः अहोरात्रान् षड् मुहूर्त्ताश्च यावत् सूर्येण सह योगं करोति तदेवम् - सामान्यतया एकस्मिन् युगे एकं नक्षत्रं सप्तषष्टिवारान् चन्द्रेण सह योगं करोति, सूयण च सह पञ्चवारान् योगं करोतीति सिद्धान्तः । यदभिजिन्नक्षत्रं चन्द्रेण सह नवमुहूर्त्तान् सप्तविंशति च सप्तषष्टिभागान् यावत् योगं करोति, एनं राशिम् अभिजिन्नक्षत्रमेकस्मिन् युगे २७ चन्द्रेण सह सप्तषष्टिवारान् यावद् योगं करोति, अतएव सप्तषष्ट्या गुणयेत् (९×६७) ६७ ततो नायते त्रिंशदधिकानि पट् शतानि (६३०) तच्चैवम्-नवमुहूर्ताना सप्तषष्ट्या गुणने जातं त्र्यधिकं षट्शतम् (६ ० ३) अस्मिन् राशौ सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते जातो यथोक्तो राशिः (६३०) । एकस्याडोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्त्ताः भवन्त्यतः पूर्वोक्तो राशिः (६३०) त्रिंशता (३०) विभज्यते लब्धा एकविंशतिः (२१) सप्तषष्टि भागाः, एतदेव नक्षत्रमेकस्मिन् युगे पञ्च वारान् योगं करोति तत एकविंशतिः सप्तषष्टि भागा पञ्चभिर्विभज्यन्ते तत आगच्छन्ति चत्वारः ४, एकं च शेषं तदपि त्रिंशता गुणितं जातात्रिंशत् एतेऽपि पञ्चभिर्विभज्यन्ते लब्धा षट् ६ ततोऽभिजिन्नक्षत्रं चतुरः अहोरात्रान् पट् च मुहूर्तान् यावत् सूर्येण सह योगं करोतीति सिद्धम् १ । उक्तञ्च — "अभिई छच्च मुहुत्ते चत्तारि य केवले अहोरत्ते । सूरेण समं चच्चइ. इत्तो सेसाण बुच्छामि " ॥ १॥ छाया - अभिजित् पट् च मुहूर्त्तान् चतुरः केवलान् अहोरात्रान् । सूर्येण समं व्रजति, इतः शेषाणां वक्ष्यामि ॥१॥ इति | १ | अथ द्वितीयं प्रश्नं स्पष्टयति 'तत्थ' इत्यादि । 'तत्थ' तत्र 'जे ते णक्खत्ता' यानि तानि नक्षत्राणि 'जेणं' यानि खलु 'छच्च अहोरत्ते' षट् च अहोरात्रान् 'एक्कवीसं च मुहुत्ते एकविंशतिं च मुहूर्त्तान् 'सूरिएण सद्धिं जोये जोएंति' सूर्येण सार्धं योगं युञ्जन्ति ' तेणं छ' तानि खलु षटू, 'तं जहा ' तथथा – 'सय भिसया' शतभिषक् १, 'भरणी' भरणी २, 'अदा' आर्द्रा ३, 'अस्सेसा' अश्लेषा ४, 'साई' स्वाति: ५, 'जेट्ठा' ज्येष्ठाः ६ इति । तत्कथमिति प्रदर्श्यते-एतानि षड् नक्षत्राणि प्रत्येकं चन्द्रेण सह पञ्चदशमुहूर्त्तान् योगं कुर्वन्ति, चन्द्रेण सह युगे सप्तषष्टिवारयोगकरणत्वेन पञ्चदश सप्तषष्ट्या, गुण्यन्ते जातं पञ्चोत्तरमेकं सहस्रम् (१००५), ततः अहोरात्रस्य त्रिशन्मुहूर्त्तत्वेनास्य त्रिंशता भागो ह्रियते लब्धा अर्धेन सह त्रयस्त्रिंशत् (३३॥) सप्तषष्टिभागाः, ततो युगे म्रर्येण सह पञ्चवारयोगकरणत्वेन एषा संख्या (३३॥) पञ्चभि Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ चन्द्रप्राप्ति विभज्यते तत्र त्रयस्त्रिंशतः पञ्चभिर्भागे हृते लब्धाः षट् (६) अहोरात्राः । तदुपरि शेष साध त्रयम् (३ तदपि त्रिंशता गुणयित्वा पञ्चभिर्विभग्यते लब्धा एकविंशतिः (२१) इति, अतः पई अहोरात्रान् ६ एकविशति च मुहूर्तान् यावत् पण्णां मध्ये प्रत्येकं नक्षाम् सूर्येण सह योगं करोतीति सिद्धम् । अत्रोक्तम् - "सयभिसया १ भरणी २ य अदा ३, अस्सेस ४ साइ ५ जिट्ठा ६ य । वच्चंति मुहुत्ते इक्कवीसं छच्चेवऽहोरत्ते" ॥१॥ छाया-शतभिषा १, भरणी २ च, आर्द्रा ३, अश्लेषा ४, स्वातिः ५ ज्येष्ठा ६ च । वजन्ति मुहूर्तान् एकविशति षट् चैवाहोरात्रान् इति ।२। अथ तृतिय प्रश्नं स्पष्टयति- 'तत्थ' इत्यादि , 'तत्थ' 'तत्र अष्टाविंशतिनक्षत्राणां मध्ये 'जे तेणखत्ता' यानि तानि नक्षत्राणि 'तेरस अहोरत्ते' त्रयोदश अहोरात्रान् 'दुवालस य मुहत्ते' द्वादश च मुहूर्तान् 'सरिएण सद्धिं जोयं जोएंनि' सूर्येण साधू योगं युञ्जन्ति 'ते णं' तानि खल 'पण्णरस' पञ्चदश सन्ति, 'तं जहा' तद्यथा-'सवणो' श्रवणः 'धणिहा' धनिष्ठा ।२, 'पुन्वाभदवया' पूर्वाभाद्रपदा ३, रेवई 'रेवतिः ४ 'अस्सिणी' अश्विनी ५, 'कत्तिया' 'कृत्तिका ६, 'मग्गसिरं 'मार्गशिरः ७, 'पूसो 'पुण्यम् ८, 'मघा' मघा ९, 'पुन्चाफग्गुणी' पूर्वाफाल्गुनी १०, 'इत्थो' हस्तः ११, 'चित्ता' चित्रा १२, 'अणुराहा' अनु. राधा १३, 'मूलो' मूलम् १४, 'पुन्चाआसाहा' पूर्वापाढा १५, इति, तथाहि-एतानि पञ्चदश नक्षत्राणि प्रत्येकत्वेन चन्द्रेण सह त्रिंशन्मुहूर्त्तान् योगं कुर्वन्ति ततस्त्रिंशत् (३०) सप्तषष्टया गुण्यन्ते जाते दशोत्तरे द्विसहने (२०१०) अस्य राशेत्रिशता भागो हियते लब्धाः सप्तपष्टिः (६७) ततः सप्तपष्टयाः पञ्चमिर्भागो हियते लब्धास्त्रयोदश (१३) महोगत्राः, शेष द्वयं (२) तदपि त्रिंशता गुण्यते जाता षष्टिः (६०) पञ्चभिर्भागे हुते लब्धाः द्वादश (१२) अतः-- प्रयोदशाहोरात्रान् द्वादशमुहूर्ती श्च यावत् सूर्येण सह योगो भवतीति सिद्धम् । उक्तंचात्र"अवसेसा नक्खत्ता पण्णरस वि सूरसहपया जंति वारस चेव मुहुत्ते तेरस य समे अहोरचे छाया-अवशेषाणि नक्षत्राणि पञ्चदशापि सूर सहगता यान्ति द्वादश चैव मुहूर्तान् । त्रयोदश च समान् अहोरात्रान इति अत्र 'अवसेसा' इति पदेन ज्ञायते यदियं गाथा तत्रत्य प्रकरणेऽन्तिमा भवतुमर्हतीति विवेकः ।३।। अथ चतुर्थे प्रश्नं स्पष्टयति- 'तत्थ 'इत्यादि, 'तत्थ' तत्र अष्टाविंशति नक्षत्राणां मध्ये 'जे ते एक्णत्वा' यानि तानि नक्षत्राणि 'जे ण' यानि खल 'विस अहोरत्ते' विंशतिमहोरात्रान् 'तिणि य मुहत्ते_त्रीश्च मुहूर्तान् 'मूरि Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१०-२ सू० १ नक्षत्राणां चन्द्रेण सह योगनिरूपणम् २३९ एणं सद्धिं जोय जोएंति 'सूर्येण सार्धं योग युञ्जन्ति 'तेणं छ' तानि खलु षट् सन्ति, 'तंजहा 'तथथा – 'उत्तरा भदवया 'उत्तराभाद्रपदा १, 'रोहिणी' रोहिणी २, 'पुणव्वसू' पुनर्वसुः ३, 'उत्तराफग्गुणी' 'उत्तरफाल्गुनी ४, 'विसाहा 'विशाखा ५, उत्तरासादा उत्तरा - षाढा ६, इति । तदेवं नायते-- एतानि नक्षत्राणि प्रत्येकत्वेन चन्द्रेण सह पञ्चचत्वारिंशत् (४५) मुहूर्त्ता यावत् योगं कुर्वन्ति ततः पञ्चचत्वारिंशत् सप्तषष्टया गुण्यन्ते जातानि पञ्चदशोत्तराणि त्रीणि सहचाणि (१०१५) एतेषां त्रिंशता भागो ह्रियते लब्धमर्थेन सहितं शतमेकम् ( १०० अत्र शतस्य पञ्चभिर्भागे हृते लब्धाः विशतिरहोरात्रा ः २०, उपरि यद, तदपि त्रिशता गुण्यते नाताः पञ्चदश १५, एषां पञ्चभिर्भागे हृते लब्धं त्रयम् ३, इति विंशतिमहोरात्रान् त्रींश्च मुहूर्त्तान् यावत् सूर्येण सह योगो भवतीति सिद्धम् । विशेषबोधार्थ पूर्वस्थं कोष्टकं द्रष्टव्यमिति सु०॥२॥ इति - श्री - विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ - प्रसिद्धवाचक पञ्चदशभाषाकलितललितकला पालापक-प्रतिशुद्धगधगद्यनैकग्रन्थनिर्मापक- वादिमानमर्दक- श्री शाहुच्छत्रपति कोल्हापुररानप्रदत्त "जैनशास्त्राचार्य” पदभूषित-कोल्हापुररानगुरु बालब्रह्मचारि - जैनशास्त्राचार्य - जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलालवति - विरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका - ख्यायां व्याख्यायाम् दशमप्राभृतेः द्वितीयं प्राभृतं समाप्तम् ॥१०-२ ॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमस्य मूलपामृतस्य तृतीयं प्रामृतप्रामृतम् । व्याख्यतं दशमस्य मूलप्रामृतस्य द्वितीयं प्रामृतप्रामृतम् , तत्र चन्द्रसूर्याभ्यां सह नक्षत्राणां योगः प्रतिपादितः अथ तृतीयं प्रामृतप्राभृतं व्याख्यायते, अत्र नक्षत्रयोगप्रसंगात्- 'कथमेव भागानि नक्षत्राणि आख्यातानि,, इत्येवं व्याख्यास्यते, मनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य तृतीयप्रामृतप्रामृतस्येदं सूत्रम् –'ता कहं ते एवं भागा' इत्यादि । मुलम:-ता कहं ते एवं भागा णक्खत्ता आहिया ? तिवएज्जा, ता एएसिणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अन्थि णक्खत्ता पुन्वंभागा समखेत्ता तीसमुहुत्ता पण्णत्ता ११ अस्थि णक्खत्ता पच्छंभागा समखेत्ता तीसमुहुत्ता पण्णत्ता २। अस्थि णक्खत्ता णतंभागा अवड्ढखेत्ता पण्णरसमुहुँत्ता ३। अत्थि णक्खत्ता उभयंभागा दिव. इढखेत्ता पणयालीसं मुहुत्ता पण्णत्ता ४ ता एएसिणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं कयरे णक्खत्ता जे णं पुन्छभागा समखेत्ता तीसंमुहुत्ता पण्णत्ता १। कयरे णक्खत्ता जे णं पच्छंभागा समखेत्ता तीसं मुहुत्ता पण्णत्ता २ । कयरे णक्खत्ता जे णं णत्तं भागा अवहखेत्ता पण्णरसमुहुत्ता पण्णत्ता ३॥ कयरे णक्खत्ता जे णं उभयंभागा दिवड्ढखेत्ता पणयालीसंमुहुत्ता पण्णत्ता ४। ता एएसिणं अट्ठावीसाए नक्खत्ताणं तत्थ जे ते णक्खत्ता पुग्वंभागा समखेत्ता तीसं मुहुत्ता पण्णत्ता ते णं छ,तं जहा पुत्वभवया १, कत्तिया २, महा ३, पुन्चाफग्गणी ४, मूलो ५, पुव्वासाढा ६१। तत्थ जे ते णक्खत्ता पच्छंभागा समखेत्ता तीसं मुहुत्ता पण्णत्ता, ते णं दस तं जहा-अभिई १,सवणो २, धणिट्ठा ३, रेवई ४, अस्सिणी, मिगसिरं ६, पूसो ७, हत्थो ८, चित्ता ९, अणुराहा १०१२। तत्य जे ते णक्खत्ता णत्तं भागा अवड्ढखेत्ता पण्णरसमुहुत्ता पण्णत्ता ते णं छ, तं जहासर्याभसया १, भरणी २, अद्दा ३, अस्सेसा ४, साई ५, जेहा ६,३। तत्थ जे ते णक्खत्ता उभयं भागा दिवड्ढखेत्ता पणयालीसं मुहुत्ता पण्णत्ता ते णं छ, तं जहाउत्तराभवया १, रोहणी२' पुणवम् ३, उत्तराफग्गुणी ४ विसाहा ५, उत्तरासाढा ६४ासू०१॥ दसमस्स पाहुडस्स तइयं पाहुड समत्तं ॥१०३ छाया-तावत् कथं ते एवं भागानि नक्षत्राणि आख्यातानि ? इति वदेत् । तावत् पतेषां खलु अष्टाविंशते नक्षत्राणां सन्ति नक्षत्राणि पूर्वभागानि समक्षेत्राणि त्रिशन्मुहर्तानि प्रतानि । सन्ति नक्षत्राणि पञ्चाद्भागानि समक्षेत्राणि त्रिंशन्मुहर्तानि प्रकतानि । सन्ति नक्षत्राणि नक्कभागानि अपार्धक्षेत्राणि पञ्चदश मुहर्तानि प्रनतानि Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१०-३ सू० १ . एवंभागनक्षत्रस्वरूपनिरूपणम् २४१ सन्ति नक्षत्राणि उभयभागानि द्वयर्धक्षेत्राणि पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तानि प्रज्ञप्तानि । __तावत् पतेषां खलु अष्टाविंशतेः नक्षत्राणां कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु पूर्वभागानि समक्षेत्राणि त्रिंशन्मुहर्तानि प्रज्ञप्तानि १॥ कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु पश्चाद्भागानि समक्षेत्राणि त्रिशन्मुहर्तानि प्रज्ञप्तानि २ कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु नक्तंभागानि अपाधक्षेत्राणि पञ्चदशमुहर्तानि प्राप्तानि । कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु उभयभागानि द्वयर्धक्षेत्राणि पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तानि प्रज्ञप्तानि ।। तावत् एतेषां खलु अष्टाविंशते नक्षत्राणां तत्र यानि तानि नक्षत्राणि पूर्वभागानि समक्षेत्राणि त्रिंशन्मुहर्तानि प्रज्ञप्तानि नानि खलु षट्, तद्यथा-पूर्वाभाद्रपदा १, कृत्तिका २, मघा ३, पूर्वाफाल्गुनी ४, मूलम् ५, पूर्वाषाढा ६, ११। तत्र यानि तानि नक्षत्रणि पश्चानागानि समक्षाणि त्रिंशन् मुहर्तानि प्रज्ञप्तानि तानि खलु दश, तद्यथा-अभिजित् । श्रवणः २, धनिष्ठा ३, रेवती ४, अश्विनी ५, मृगशिरः ६, पुष्यम् ७, हस्तः ८, चित्रा ९, अनुराधा १० ।। तत्र यानि तानि नक्षत्राणि नक्तंभागानि अपार्धक्षेत्राणि पञ्चदशमुहूर्तानि प्रशप्तानि तानि सलु पद, तद्यथा-शतभिषक् १, भरणी २, आर्द्रा ३, अश्लेषा ४, स्वातिः ५, ज्येष्ठा ६, ३॥ तत्र यानि तानि नक्षत्राणि उभयभागानि द्वयर्धक्षेत्राणि पञ्चचत्वारिशन्मुहर्तानि प्रशप्तानि तानि खलु पद्, तद्यथा-उत्तराभाद्रपदा १, रोहिणी २, पुनर्वसुः ३, उत्तराफाल्गुनी ४, विशाखा ५, उत्तराषाढा ६, ४|सू० १॥ ___॥ दशमस्य प्राभृतस्य तृतीयं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१०॥ व्याख्या-'ता कई ते' इत्यादि, 'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण हे भगवन् 'ते त्वया' एवं भागानि एवम्-अनेन वक्ष्यमाणप्रकारेण भागा येषां तानि एवंभागानि वक्ष्यमाण प्रकारभागसपन्नानि 'णक्खत्ता' नक्षत्राणि 'आहिया' आख्यातानि 'त्ति' इति-एतद्विषयं 'वएज्जा' वदेत् वदतु कथयतु ममेति गौतमस्य प्रश्नः । भगवानाह-'ता' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां खलु 'अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' अष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये 'अत्थि' सन्ति कियन्ति 'णक्खत्ता' नक्षत्राणि 'पुव्वंभागा' पूर्वभागानि पूर्व दिवमस्य भागः पूर्वभागः प्रातः कालरूपः स चन्द्रयोगस्यादिमाश्रित्य विद्यते येषां तानि पूर्वभागानि, चन्द्रेण सह नक्षत्रयोगस्य यः प्रातःकाल आदिभागः स एव दिवसस्य पूर्वभागो व्यपदिश्यते, एतादृशपूर्वभागानीत्यर्थः 'समखेत्ता' समक्षेत्राणि, समं सम्पूर्ण क्षेत्रम्- अहोरात्ररूपं चन्द्रयोगमाश्रित्यास्ति येषां तानि समक्षेत्राणि प्रातः कालादारभ्य सम्पूर्णाहोरात्रभोग्यानि अतएव 'तीसंमुहुत्ता' त्रिंशन्मुहूर्तानि त्रिंशन्मुहूर्तप्रमाणानि ३१ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ चन्द्रप्राप्तिस्त्र 'पण्णत्ता' प्रजातानि १ । तथा-'अत्थि' सन्ति 'णक्खत्ता' नक्षत्राणि कानिचित् यानि 'पच्छं भागा' पश्चाद्भागानि चन्द्रयोगस्यादिमाश्रित्य दिवसस्य सायंकालादारभ्य द्वितीयदिवससायंकालपर्यन्तभोग्यानि तानि पश्चाद्भागभोग्यानि कथ्यन्ते 'समखेत्ता' समक्षेत्राणि रात्रिंन्दिवभोग्यानि 'तीसं मुहुत्ता' त्रिशन्मुहूर्तानि चन्द्रयोगस्यादिमाश्रित्य दिवसस्य पश्चाद्गागात्सायंकालादारभ्य द्वितीयदिवससायंकालपर्यन्तं त्रिशन्मुहूर्तभोग्यानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि २ । तथा'अस्थि' सन्ति 'णक्खत्ता' नक्षत्राणि कानिचित् यानि 'नतंभागा' नक्तं भागानि, नक्तं-रात्रौ चन्द्रयोगस्यादिमाश्रित्य भागः अवकाशो येषां तानि तथा, 'अबढखेत्ता' अपार्थक्षेत्राणि अपगतमधैं यस्य तदपार्धम्-अर्द्ध मात्रं क्षेत्रं येषां चन्द्रयोगमाश्रित्य तानि-अपार्धक्षेत्राणि रात्रिमात्रक्षेत्राणि, अतएव 'पण्णरसमुहुत्ता' पश्चदशमुहूर्त्तानि चन्द्रयोगमाश्रित्य पञ्चदशमुहूर्ता विद्यन्ते येषां तानि पञ्चदशमुहर्तानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञतानि ३ । तथा 'अस्थि' सन्ति 'णक्खत्ता' नक्षत्राणि कानिचित् यानि 'उभयंभागा' उभयभागानि दिवसरात्रिभागानि चन्द्रयोगस्यादिमाश्रित्य भागी येषां तानि तथा एतानि कियत्प्रमितक्षेत्राणि सन्ति ? तत्राह-'दिवढखेत्ता' द्वयर्यक्षेत्राणि द्वितीयम् अधं यत्र तद् द्वयय सार्धमहोरात्रप्रमित क्षेत्रं येषां तानि-प्रथमतया प्रातःकालादारभ्य सपूर्णमेकमहोरात्रं त्रिंशन्मुहूर्तात्मकं पुनश्चा होरात्रः, द्वितीयदिवसमात्ररूपः पश्चदशमुहूर्तात्मकः न तु रात्रिभागः एतद्रूपं द्वयर्षमिति सार्धमहोरात्ररूपं क्षेत्रं येषां तानि द्वयर्धक्षेत्राणि, अतएव 'पणयालीस मुहुत्ता' पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि ४ । एवं भगवता सामान्येन प्रोक्ते विशेषजिज्ञासया भगवान् गौतमः पृच्छति 'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसिणं अट्ठावीसाए नक्खत्ताणं' एतेषां खलु अष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये 'कयरे णक्खत्ता' कताराणि कानि नक्षत्राणि 'पुन्वंभागा' पूर्वभागानि प्रातःकालव्यापीनि 'समखेत्ता' समक्षेत्राणि समस्ता. होरात्रभोग्यानि, 'तीसंमुहत्ता' त्रिंशन्मुहूर्तानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि १ । तथा-'कयरे णक्खत्ता' कतगणि कानि नक्षत्राणि 'पच्छंभागा' पश्चा दागानि सायंकालप्यापीनि 'समखेत्ता' सम. क्षेत्राणि 'तीसंगुहुत्ता' त्रिशन्मुहूर्त्तानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि १२ । तथा-'कयरे णक्खत्ता' कतराणि कानि नक्षत्राणि 'गत्तंभागा' नक्तंभागानि-रात्रिभागानि-रात्रिमात्रभोग्यानि 'अबढखेत्ता' अपार्थक्षेत्राणि-अर्धक्षेत्रभोग्यानि 'पण्णरसमुहुत्ता' पञ्चदशमुहूर्त्तानि रात्रिमात्रव्यातत्वात् पञ्च दशमुहूर्त्तमात्रयोगकारकाणि 'पण्णत्ता' प्रज्ञतानि १३ । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १०-३ सू० १ पवंभागनक्षत्रस्वरूपनिरूपणम् २४३ तथा-'कयरे णक्खत्ता' कतराणि कानि नक्षत्राणि 'उभयं भागा' उभयभागानि दिवप्तरात्रिभागव्यापीनि 'दिवड्ढखेत्ता' द्वयर्वक्षेत्राणि सार्धाहोरात्रयोगकारीणि एकः सम्पूर्णोऽहोरात्रः, द्वितीयाहोरात्रस्यार्धदिवसमात्ररूपम् , इत्येव द्वयर्धक्षेत्राणि, अतएव 'पणयालीस मुहुत्ता' पञ्च चत्वारिंशन्मुहर्तानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि १४ । एवं गौतमेन प्रश्नचतुष्टये पृष्टे सति भगवान् चतुरोऽपि प्रश्नान् एकैकशः कृत्वा समाधत्ते-'ता एएसि गं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसिणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' एतेषां खलु अष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां 'तत्थ' तत्र मध्ये 'जे ते णक्खत्ता' यानि तानि नक्षत्राणि 'पुच्चभागा' पूर्वभागानि प्रातःकालव्यापीनि 'समखेत्ता' समक्षेत्राणि संपूर्णक्षेत्रचारीणि मतएव 'तीसं मुहुत्ता' त्रिंशन्मुहूर्तानि त्रिंशन्मुहूर्तभोग्यानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि 'ते णं' तानि खल 'छ' पद, 'तं जहा' तद्यथा-'पुचपोहवया' पूर्वप्रोष्ठपदा १, 'कत्तिया' कृत्तिका २, 'मघा' मघा ३, 'पुवाफग्गुणी' पूर्वाफाल्गुनी ४, 'मूलो' मूलम् ५, 'पुव्वासाढा' पूर्वाषाढा इति ६ । तथा—'तत्थ' तत्र अष्टाविंशतिनक्षत्रेषु 'जे ते णक्खत्ता' यानि तानि नक्षत्राणि 'पच्छंभागा' पश्चाद्भागानि सायंकालव्यापीनि 'समखेत्ता' सगक्षेत्राणि मतएव 'तीसंमुहुत्ता' त्रिंशन्मुहूर्त्तानि त्रिशन्मुहूर्तभोग्यानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि 'ते णं दस' तानि खलु दश, 'तं जहा' तद्यथा-'अभीई' अभिजित् १, 'सवणो' शवणः २, 'धणिट्टा' धनिष्ठा ३, 'रेवई' रेवती ४, 'अस्सिणी' अश्विनी - ५, 'मिगसिर' मृगशिरः ६, 'पूसा' पुण्यम् ७, 'हस्तो' हस्तः ८, 'चित्ता' चित्राः ९, 'अणुराहा' अनुराधा १०, । अत्र दशसु नक्षत्रेषु श्रवणादीनि नवनक्षत्राणि समक्षेत्राणि सन्ति, एकमभिजिन्नक्षत्रं समक्षेत्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तास्मकस्य सप्तपष्टिभागाः क्रियन्ते तेषु-एकविंशतिभाग (२१/६७) क्षेत्रभोग्यमस्ति तथापि अस्याभिजितः समक्षेत्रे एव गणना कृता व्यवहारनयमाश्रित्येति विवेकः । इति २ । तथा-'तत्थ' तत्र अष्टाविंशतिनक्षत्रेषु 'जे ते णवत्ता' यानि तानि नक्षत्राणि, णत. भागा' नक्तंभागानि रात्रिमात्रव्यापीनि, अतएव 'अवड्ढखेत्ता' अपार्ध क्षेत्राणि अर्धक्षेत्रस्थायोनि रात्रिमात्रस्थायित्वात् अतएव च पण्णरसमुहुत्ता' पञ्चदशमुहूर्तानि पञ्चदशमुहूर्तभोग्यानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि तेणं छ' तानि खलु षट्, 'तं जहा' तद्यथा-'सयभिसया' शतभिषकू १, 'भरणी' भरणी २, 'अदा' आर्द्रा ३, 'अस्सेसा' अश्लेषा ४, 'साई' स्वातिः ५, 'जेहा' ज्येष्ठा ६, इति ३ । 'तत्थ' तत्र अष्टाविशते नक्षत्रेपु जे ते णक्खत्ता' यानि तानि नक्षत्राणि 'उभयंभागा' उभयभागानि दिवसरात्रिरूपभागद्वयव्यापीनि 'दिवढखेत्ता' द्वयर्धक्षेत्राणि सार्धाहोरात्रस्थायीनि प्रथमदिवसस्य प्रातःकाले चन्द्रेण सह योगमुपेत्य सम्पूर्णमहोरात्रं त्रिंशन्मुहूर्तात्मकं भुक्त्वा पुनस्तदुपरि द्वितीयदिवसस्य सायंकालपर्यन्तं पञ्चदशमुहूर्ताश्च यावत्तिष्ठन्ति, इत्येवं रूपं व्यर्थक्षेत्राणि Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० त्रिंश चन्द्रप्रातिसूत्रे सन्ति, अतएव 'पणयालीसं मुहुत्ता' पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तानि पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तभोग्यानि 'पण्णत्ता' प्रजातानि 'ते णं छ' नानि खलु प, 'तं जहा' तद्यथा – 'उत्तराभनया' उत्तग भाद्रपदा १, 'रोहणी रोहिणी २, 'पुणवम् पुनर्वसुः ३, 'उत्तरा फग्गुणी' उत्तराफाल्गुनी ४, 'विसाहा' विशाचा ५, 'उत्तरासाहा' उत्तरापाढा ६ इति ४, एपां सर्वेषां नक्षत्राणामभिजिदादि क्रमेण स्पष्टीकरण भावना मूत्रकार स्वयमले चतुर्थ प्रामृतप्रामृत करिष्यते इति सू०१॥ अष्टाविंशनिनक्षत्राणां पूर्वभागादि ज्ञानार्थ कोष्टकम् संख्या नक्षत्रनामानि | किंभागानि कियक्षेत्राणि कियन्मुहूर्तानि पूर्वाभाद्रपदा १ कृत्तिका २, मधा३ पूर्वाफाल्गुनी ४, मूलम् ५ पूर्वभागानि| समक्षेत्राणि २० ३० त्रिंशन्मु हूर्तानि पूर्वाषाढा ६, अभिजित् १, श्रवणः २ धनिष्ठा ३, रेवती ४, आश्विनो ५, मृगशिरः ६ पुप्यम् ७, इस्त ८, चित्री ९, पश्चाद्भागानि | समक्षेत्राणि न्मुहूर्तानि अनुराधा १०, शतभिषक् १, भरणी २, आर्द्रा ३. अश्लेपा १, स्वाति ५, जेष्ठा ६, नक्तं भागानि अपाय | १५ पञ्च क्षेत्राणि दशमुहूर्तानि उत्तराभाद्रपदा १. रोहिणी, पुनर्वसुः३, ४५ पन्च | उत्तराफाल्गुनी ४, विशाखा ५, उभय । चत्वारिंशन्मु उत्तरापाढा ६ । भागानि क्षेत्राणि | इति श्री-विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहुन्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त "जैनशास्त्राचार्य" पदभूपित-कोल्हापुर राजगुरु वालब्रह्मचारि-जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलालति-विरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका ख्यायां व्याख्यायाम् दशमस्य प्रामृतस्य तृतीयं प्रामृतप्रामृतं समाप्तम् १०-३|| १चर्घ | हानि Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमस्य मूलपाभृतस्य चतुर्थ प्राभतप्राभृतम् तदेवं तृतोये प्रामृतप्राभृते चन्द्रेण सह नक्षत्राणां पूर्वभागादि निरूपितम् तत्प्रमङ्गात् चतुर्थं प्राभृतप्रामृतं व्याख्यायते, अत्र पूर्वोक्तानां चन्द्रेण सह योगस्यादिवतव्यः स्यात् यतो नक्षत्राणां पूर्व भागादिक योगस्यादिज्ञानमन्तरेण न ज्ञातुं शक्यते, मतोऽस्मिन् चतुर्थे प्राभृतप्रामृते अभिजिदाद्यष्टाविंशतिनक्षत्राणां क्रमेण योगस्यादि निरूपयन्नाह--'ता कहं ते जोगस्स आदी' इत्यादि। मूलम्-ता कहं ते जोगस्स आदी अहिते? ति वएज्जा ता अभीइ सवणा खलु दुवे णक्खत्ता पच्छाभागा समखेत्ता साइरेगउणयालीसमुहुत्ता तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएति, तओ पच्छा अवरं साइरेगं दिवसं, एवं खलु अभिइसवणा दुवे णक्खत्ता एगराई एगंच साइरेगं दिवसं चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति, जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियटुंति जोयं अणुपरियहित्ता सायं चंदं धणिहाणं समप्पंति ।२। ता धणिट्ठा ग्वलु णक्खत्ते पच्छा भागे समखेते तीसंमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोइत्ता तओ पच्छा राई अवरंच दिवसं, एवं खलु धणिहा णक्खत्ते एगं च राई एगं च दिवसं चंदेणं सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोइत्ता जोय अणुपरियट्टइ, अणुपरियहित्ता सायं चंद सयभिसयाणं समप्पेइ ३। ता सयभिसया खलु णक्खत्ते णतंभागे अवडूढखेत्ते पण्णरसमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोय जोएइ णो लभइ अवरं दिवसं, एवं खलु सयभिसया एक्खत्ते एगं राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियटइ, जोयं अणुपरिएट्टित्ता पाओ चंद पुव्वापोवयाणं समप्पेइ ४। ता पुन्वापोढवया खलु णक्खत्ते पुन्वंभागे समखेत्ते तीसं मुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण संद्धिं जोयं जोएइ, तो पच्छा अवरराई एवं खलु पुवापोहवया णक्खत्ते एगं च दिवसं एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टई' अणुपरियद्वित्ता पाओ चंद उत्तरापोहवयाणं समप्पेइ ५, ता उत्तरापोवया खलु णक्खत्ते उभय भागे दिवढखेत्ते पणयालीसमुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ अवरंच राई तओ पच्छा अपरं दिवसं, एवं खलु उत्तरापोट्टवया णक्खत्ते दो दिवसे एग च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्ठइ अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं रेवईणं समप्पेई ६। ता रेवई खलु णक्खत्त पच्छे भागे समखेत्ते तीसं मुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, तो पच्छा अवरं दिवसं एवं खल्लु रेवई णक्खत्ते Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे एग राई एगं च दिवस चदेण सद्धिं जोयं जोएइ जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टइ अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं अस्सिणीणं समप्पेइ ७ । ता अस्सिणी खलु णक्खत्ते पच्छं भागे समखेत्ते तीसं झुहुत्ते तप्पडमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएड, तो पच्छा अवरं दिवसं एवं खलु अस्सिणी णक्खत्ते एगं च राई- एगं च दिवसं चंदेण सद्धिं जोय जोएइ, जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, अणुपरियहित्ता सायं चंदं भरणीणं समप्पेइ ८ । ता भरणी खलु णक्खत्ते णत्तं भागे अवड्ढखेत्ते पण्णरसमुहुत्ते तप्पढ. मयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, णो लभइ अवरं दिवसं, एवं खलु भरणी णक्खत्ते एग राई चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियहइ अणुपरियहित्ता पाओ चंदं करियाणं समप्पेइ ९। ता कत्तिया खलु णक्खत्ते पुच्वंभागे समखेते तीसं मुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धि जोयं जोएड तओ पच्छा राई एवं खलु कत्तिया णक्खत्ते एगं च दिवस एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, अणुपरियहित्ता पाओ चंदं रोहिणीणं समप्पेइ १० । रोहिणी जहा उत्तराभवया ११ । मगसिरं जहा धणिहा ।१२। अद्दा जहा सयभिसया १३, पुणञ्चम् जहा उत्तराभवया १४ । पुस्सो जहा धणिहा १५ । अस्सेसा जहा सयभिसया १६ । महा जहा पुयाफरगुणी १७ । पुच्चाफग्गुणी जहा पुण्याभदवया १८। उत्तराफग्गुणी जहा उत्तरामहवया १९/ हत्थो चित्ता य जहा धणिट्ठा २०-२१॥ साई जहा सयभिसया २२। विसाहा जहा उत्तराभचया २३। अणुराहा जहा पणिहा १४ जिट्टा जहा सयभिसया २५। मूलं २६, पुब्बासाहा य जहा पुयाभदवया २७। उत्तरासाढा जहा उत्तराभवया २८, ॥९० १०॥ दसमस्स पाहुडस्स चउत्थं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥१०-४|| छाया-तावत् कथं त्वया योगस्य आदिः आख्यातः? इति वदेत, तावत् अभिमिच्छवणी खलु हे नक्षत्रे पश्चाद्भागे समक्षेत्रे सातिरेकैकोनचत्वारिंशन्मुहत्तं तत्प्रथमतया सायं चन्द्रेण लाधं योग युक्तः , ततः पश्चाद् अपरं सानिरेक दिवसम्, एवं खलु अभिजि. च्यछणौ हे नक्षत्रे पकारात्रिम्, एकं च सातिरेक दिवस चन्द्रेण सह योग युक्तः, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयतः योगम् अनुपरिवर्त्य सायं चन्द्र धनिष्ठायै समर्पयतः ।। तावत् धनिष्टा खलु नक्षत्र पश्चानागं समक्षेत्रं त्रिंशन्मुहत्त तत्प्रथमतया सायं चन्द्रेण साध. योगंयुनक्ति, योग युक्त्वा नतः पश्चात् रात्रिम् अपरं च दिवसम्, पचं खलु धनिष्ठा नक्षप्रम् पकां च रात्रिम् एकं च दिवस चन्द्रेण साध योग युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तर्यात, अनुपरिवर्त्य सायं चन्द्र शतभिपजे समर्पयति ३. तावत् शतभिषक खलु नक्षत्र नकभागम् अपार्थक्षेत्र पञ्चदशमुहर्त तत्प्रथमनया सायं चन्द्रेण साध योगं Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा०१०-४ सू०१ योगस्यादिनिरूपणम् २४७ ~~ ~~~~~~~~~~ युनक्ति, नो लभते अपरं दिवसम्, एवं खलु शतभिपग् नक्षत्र पकां रात्रि चन्द्रेण सार्ध योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति, योगम् अनुपरिवर्त्य प्रातः चन्द्र पूर्वा. प्रोष्ठपदायै समर्पयति ।४ तावत् पूर्वाप्रोष्ठपदा खलु नक्षत्र पूर्वभागं समक्षेत्र त्रिंशन्मुहूर्त तत्प्रथमसया प्रातः चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति, ततः पश्चात् अपररात्रिम्, एवं खलु पूर्वाप्रोष्ठपदानक्षत्रम् एकं च दिवसम् पकां च रात्रि चन्द्रेण सार्ध योगं युक्ति योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति, अनुपरिवयं प्रातः चन्द्रम् उत्तराप्रोष्ठपदायै समर्पयति ।। तावत् उत्तरा प्रोष्ठपदा खलु नक्षत्रम् उपयभागं द्वयर्धक्षेत्र पञ्चचत्वारिंशन्मुहर्त तत्प्रथमतया प्रातः चन्द्रेण साधं योगं युक्ति-अपरां च रात्रि, ततः पश्चात् अपरं दिवसम्, एवं खलु उत्तसपोष्ठपदा नक्षत्र द्वौ दिवसौ एकां च रात्रि चन्द्रण साधं योगं युक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्त्तयति, अनुपग्वियं सायं चन्दं रेवत्यै समर्पयति । तावत् रेवतो खलु नक्षत्रं पश्चाद्भागं समक्षेनं त्रिशन्मुहूर्त तत्प्रथमतया सायं चन्द्रेण सार्ध योगं युनक्ति, ततः पश्चात् अपरं दिवसम् प्वं खलु रेवनीनक्षत्रम् परात्रिम् एकं चविवसं चन्द्रेण सार्ध योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति, अनुपरिवर्त्य सायं चन्द्रम् अश्विन्यै समर्पयति । तावत् अश्विनी खलु नक्षत्रं पश्चाद्भारां समक्षेत्रं त्रिंशन्मुहर्च तत्प्रथमतया सायं चन्द्रेण सार्ध योग युनक्ति, ततः पश्चात् अपरं दिवसम् एव खल अश्विनी नक्षप्रम् एकां च गत्रिम् एकं च दिवस चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति, अनुपरिवर्त्य सायं चन्द्र भरण्यै समर्पयति । तावत् भरणी खलु नक्षत्र नक्तंभागम् अपार्धक्षेत्र पञ्चदशमुहत्त तत्प्रथमतया सायं चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति, नो लभते अपरं दिवसम्, एवं खलु भरणी नक्षत्रम् एकां रात्रि चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्त्तयति, अनुपरिवर्त्य प्रातः चन्द्रं कृत्तिफायै समर्पयति ।। तावत् कृत्तिका खलु नक्षत्र पूर्वभागं समक्षेत्रं त्रिंशन्मुहूर्त तत्प्रथमतया प्रातः चन्द्रण साधू योग युनक्ति ततः पश्चात् त्रिम्, एवं खलु कृत्तिमानक्षत्रम् एकं च दिवसम्, पकांच रात्रिं चन्द्रेण साधं योग थुनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति, अनुपरिवर्त्य प्रातः चन्द्र रोहिण्यै समर्पयति ।१०। रोहिणो यथा उत्तराभाद्रपदा ११॥ मृगशिरः यथा धनिष्ठा ।१२। आर्द्रा यथा शतभिषक् ।।३। पुनर्वसुः यथा-उत्तराभाद्रपदा ।१४। पुष्यं यथा धनिष्ठा ।१५। अप्रलेपा यथा शतभिषक् ।१६। मघा यथा पूर्वाफाल्गुनी ।१७। पूर्वाफाल्गुनी यथा पूर्वाभाद्रपदा ।१८। उत्तराफाल्गुनी यथा-उत्तराभाद्रपदा ।१९ हस्तः चित्रा च यथा धनिष्ठा ।२०-२१॥ स्वातिः यथा शतभिषक् ।२२। विशाखा यथा-उत्तराभाद्रपदा ॥२३॥ अनुराधा यथो धनिष्ठा २४। ज्येष्ठा यथा शतभिषक् ।२५ मूलं पूर्वाषाढा च यथा पूर्वा भाद्रपदा १२६-२७। उत्तरापाढा यथा उत्तराभाद्रपदा . सू. १।। । इति दशमस्य प्रामृतस्य चतुर्थं प्राभृत प्राभृत समाप्तम् १०-४॥ व्याख्या-'ता कहं ते' इति । 'ता' तावत् 'कह' कथ केन प्रकारेण 'ते' त्वया 'जोगस्स' योगस्य चन्द्रनक्षत्रयोगस्य 'आई' आदि योगस्य प्रथमसमयरूप 'आहिए' आख्यात. ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् । अत्र निश्चयनयमतेन चन्द्रयोगस्यादिः सर्वेषां नक्षत्राणां न प्रतिनियतकालप्रमाणोऽस्ति, किन्तु अप्रतिनियतकालप्रमाणो वर्तते ततः स. करणवशादव, Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे गन्तव्यम् तच्च करणम्-अन्यग्रन्येभ्योऽवसेयम् । अत्रतु व्यवहारनयाश्रयणेन वाहुल्यतो यस्य नक्षत्रस्य यदा चन्द्रयोगस्यादिर्भवेत् तं प्रतिपादयितुमाह-'अभीई' इत्यादि 'ता' तावत् 'अभिइसवणा' अभिजिच्छवणौ खल 'दुवे णक्खत्ता द्वे नक्षत्रे 'पच्छभागा' पश्चाद्भागे दिवसस्य पश्चाद्भागव्यापके 'समखेत्ता' समक्षेत्रे समस्तक्षेत्रभोंग्ये अत्राय विवेकः इदमभिजिन्नक्षत्रं समक्षेत्रम् अपार्थक्षेत्र त्यर्धक्षेत्र वा न किमप्यस्ति, किन्तु तत् श्रवणनक्षत्रेण सह संबद्ध गृहीनमित्य मेदोपचारेण समक्षेत्रं परिकल्प्य समक्षेत्रत्वेनोपात्तमिति | इमे हे नक्षत्रे 'साइरेग उणयालीसमुहत्ते' सातिरेकैकोनचत्वा रिंशन्मुहूर्ते 'तप्पढमयाए' तत्प्रथमतयेति प्रथममेव 'साय' सायं संध्याकाले, मत्र 'सायं' इति दिवसस्य कतितमाच्चरमभागादारभ्य याचदात्रे कतितमो भागो भवेत् अर्थात् यावत्कालं नक्षत्रमण्डलालोकः परिस्फुटो न भवेत् तावत्परिमितः कालविशेषः 'साय' इति विवक्ष्यते तस्मिन् सायंकाले 'चंदेण सद्धि जोयं जोएंति' चन्द्रेण साध योग युकः । तत्र अभिजिन्नक्षत्रस्य च नव मुहर्ताः तथा चतुर्विशतिरेकपष्टिभागाः, एकोनचत्वारिंशच्च सप्तपष्टिभागाः मन्ति, श्रवणस्य त्रिंशन्मुहूर्ताः इत्युभयोर्मीलने दुयोर्नक्षत्रयोः सातिरेका एकोनचत्वारिंशन्मुहूर्ता भवन्तीत्यत उक्तम् 'साइरेगउणयालीसमुहुत्ता' इति । यद्यपि अभिजिन्नक्षत्रयोगे प्रातः काले युगस्यादि भवति तथापि एकविंशनि मतपष्टिभागान यावत् श्रवणनक्षत्रेण सह समक्षेत्रं भवति तत एवास्यापि पश्चाद्भागत्वेन विवक्षा कृता । श्रवणनक्षत्रं च मध्याह्लादूर्ध्वमपसरति दिवसे चन्द्रेण सह योगं करोति ततः श्रवणनक्षत्रसाहचर्यादभिजिन्नक्षत्रस्यापि सायंकाले चन्द्रेण सह योगं युनक्तीति विवक्षामवल म्च्य सामान्यतः 'सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति' इति कथितम् । अथवा युगस्यादिमतिरिच्याऽन्यदा बाहुल्यमाश्रित्येदं कथितमिति नात्र कश्चिद्दोपो विभावनीयः । एवमुक्तनक्षत्रद्वयं 'तओ पच्छा' ततः पश्चात् रात्र्यनन्तम् 'अवरं साइरेग दिवसं' अपरं सातिरेकचतुर्विशत्येक पष्ठिभागैकोनचत्वारिंशत्सप्तपष्टिभागरूपाधिक्यसहितम् अपरं द्वितीय दिवसं यावत् चन्द्रेण सह योगं युकः । उपसहारमोह ‘एवं खलु' इत्यादि ‘एवं' एवम् अनेन प्रकारेण खलु-निश्चयेन 'अभिइसवणा' अभिजिच्छ्रवणौ 'दुवे णक्खत्ता' द्वे नक्षत्रे सायं समयादारभ्य 'एगराई' एक रात्रिम् 'एगं च साइरेग दिवसं एकं च सातिरेक किञ्चदधिकचतुर्विशत्येकपष्टिभागैकोनचत्वारिंशन्सप्तपष्टिभागाधिकं चंदेण सद्धिं जोगं जोएंति' चन्द्रेण साधू योगं युक्तः योग कुरुतः 'जोयं जोएत्ता' चन्द्रेण सार्धमेतावन्तं कालं योगं युक्त्वा तदन्तरं 'जोयं अणुपरियर्ट वि' योगम् अनुपरिवर्तयतः ततः पगवर्तेते, मात्मान चन्द्रात् पृथक् कुरुत इत्यर्थः 'जोयं अणुपरियद्वित्ता' योगं चानुपरिवयं 'सायं' सायं सन्ध्याकाले दिवसस्य कतितमे पश्चाद्भागे इत्यर्थः 'चंद' चन्द्रं धणिवाणं' घणिष्ठायै' 'चतुत्थीए छट्ठी' इति वचनात् प्राकृते चतुथ्यर्थं पष्ठी, वहुवचनं चार्षात्वात् तेन घनिष्ठायै इत्यर्थः 'समप्पंति' समर्पयतः तत्समये अभिजिच्छूवणधणिष्ठा Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १०-४ सू० १ योगस्यादिनिरूपणम् २४९ इति श्रीणि नक्षत्राणि किश्चित्कालं चन्द्रेण सह प्रथमतो योगं युञ्जन्ति तेन एतानि त्रीण्यपि नक्षत्राणि पश्चाद्भागानि बोध्यानि २। 'ता' तावत् ततः 'धणिट्ठा खलु णक्खत्ते' घनिष्ठा खलु नक्षत्र 'पच्छंभागे' पश्चाद्भागं सायं समये तस्य चन्द्रेण सह प्रथमतो योगकारकत्वात् 'समखेत्तं' समक्षेत्र रात्रिदिवसरूपसमस्त क्षेत्र स्थापित्वात् अतएव 'तीस मुहूत्ते' त्रिशन्मुहूर्तात् यावत् 'तप्पढम, याए' तत्प्रथमतया प्रथममेव ' सायं' संन्ध्याकाले 'चंदेण सद्धि जोयं जोएइ' चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति 'जोयं जोइता' योगं युक्त्वा चन्द्रेण सह योगं कृत्वा 'तओ पच्छा' ततः पश्चात् सायंसमयादूर्ध्व 'राई' तां रात्रिं 'अवरं च दिवस' अपरं द्वितीयं च दिवसं यावत् चन्द्रेण सह तिष्ठति । उपसंहारमाह - ' एवं खलु' इत्यादि ' एवं ' एवम् उक्तरीत्या 'खल' निश्चयेन 'धणिट्ठा णक्खत्ते' घनिष्ठा नक्षत्रं 'एगं च राई' एकां च तां रात्रिम् 'एग च दिवस' एकंच - द्वितीय दिवसं यावत् 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ' चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति 'जोयं जोएत्ता' पूर्वोक्तकालं त्रिंशन्मुहूर्त्तरूपं यावत् योगं युक्त्वा तदनन्तरं 'जोयं अणुपरियह ' योगमनुपरिवर्त्तयति चन्द्रात्स्वमात्मानं पृथक्करोति 'जोय' अणुपरियद्वित्ता' योगमनुपरिवर्त्य 'सायं' सायं द्वितीदिवसस्य सन्ध्यासमये 'चंदं' चन्द्रं 'सयभिसयाणं' शतभिषजे 'समप्पेइ' समर्पयति ३ | 'ता' तावत् ततः 'सय भिसया खलु णक्खत्ते' शतभिषक् खलु नक्षत्रं 'णत्तभागे' नक्तं भागं रात्रिमात्रव्यापित्वात् 'अवड्ढखेत्तं' अपार्धक्षेत्रम् अर्धक्षेत्रस्थायित्वात् अतएव 'पण्णरसमुहुत्ते ' पश्चदशमुहूर्त्ते पश्चदशमुहूर्त प्रमाणकमेतन्नक्षेत्रे 'तप्पढमयाए' तत्प्रथमतया प्रथममेव ' सायं' सायं काले 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ' चन्द्रेण सार्ध योगं युनक्ति एवं च योगयुक्तं सदेतन्न क्षत्रं 'णो लभइ अवरं दिवस' नो नैव लभते अपरं द्वितीयं दिवसं नक्तंभागत्वेन रात्रिमात्र व्यापित्वात् किन्तु चन्द्रेण योगं युक्त्वा राज्यन्त एव समाप्तिमुपैति अत आह- ' एवं ' एवम् उक्तरीत्या खलु निश्चयेन 'सय भिसया णक्खत्ते' शतभिषक् नक्षत्रम् 'एगं राई' एकामेव रात्रिं यावत् 'चंद्रेण सद्धिं जोयं जोइ' चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति 'जोयं जोएत्ता' योगं युक्त्वा 'जोय अणुपरियह' योगम् अनुपरिवर्त्तयति, 'जोयं अणुपरियद्वित्ता' योगम् अनुपरिवर्त्य 'पाओ' प्रातः प्रभातकाले 'चंदं' चन्द्रं 'पुब्वपोहवयाणं' पूर्वाप्रोष्ठपदायै पूर्वाभाद्रपदायै 'समप्पेइ' समर्पयति । ता, तावत् ततस्तत् 'पुन्वापोट्ठवया खलु णक्खत्ते' पूर्वाप्रोष्ठप्रदा खलु नक्षत्रं 'पुव्वं भागे' पूर्वभागं प्रातः कालव्यापित्वात् 'समखेत' समक्षेत्र संपूर्णक्षेत्रस्थायित्वात् अतएव 'तीसं मुहुत्ते' त्रिंशन्मुहूते त्रिंशन्मुहूर्त प्रमाणयुक्तं 'तप्पढमयाए' तत्प्रथ मतया प्रथममेव, 'पाओ' प्रातः प्रभातकाले 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ' चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति, 'जोयं जोएत्ता' योगं युक्त्वा 'तओ पच्छा' तत् पश्चात् योगकरणानन्तरं दिवसं तद्दिवसं ३२ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ' चन्द्रप्राप्तिसूत्रे सकलम् 'अवरं च राई अपरां च रात्रिम्-एक दिवसं द्वितीयां च रात्रि यावत् योगं युनक्ति'। उपसंहारमाह-'एवं खलु' एवम्-उक्तप्रकारेण खल 'पुव्वापोट्टवयाणक्खत्ते' पूर्वप्रोष्ठपदानक्षत्रम् 'एग दिवसं एगं च राई' एक दिवसमेकांच रात्रिं यावत् 'चंदेण सद्धि जोयं जोएइ' चन्द्रेण साध योगं युनक्ति, 'जोयं जोएत्ता' योगं युक्त्वा-'जोय अणुपरियट्टई' योगमनुपरिवर्तयति 'जोयं अणुपरियट्टित्ता' योगमनुपरिवर्त्य 'पाओ' प्रातः प्रभातसमये 'चंदं' चन्द्रम् 'उत्तरापोट्टयाणं' उत्तराप्रोष्ठपदायै-उत्तराभाद्रपदायै 'समप्पेइ' समर्पयति ॥५॥ 'ता' तावत् ततः 'उत्तरापोट्ट वया खलु णक्खत्ते' उत्तराप्रोष्ठपदा खलु नक्षत्रम् 'उभयभाग' उभयभागं दिवसरात्रिरूपोभयस्थायि 'दिवढखेत्ते द्वचक्षेत्रं साधैंकाहोरात्रक्षेत्रम् अतएव 'पणयालीसमुहुत्ते' पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त 'तप्पढमयाए' तत्प्रथमतया प्रथम 'पाओ' प्रातः प्रभातसमये 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ' चन्द्रेण सार्ध योग युनक्ति 'जोय जोएत्ता' योग युक्त्वा 'तं सकलं दिवसं' तं सकलं दिवसं तदिवसानन्तरम् 'अवरं च राई' अपरां दिवससमाप्त्यनन्तरं जायमानां रात्रि 'तो पच्छा' ततः पश्चात् रात्रिसमाप्त्यनन्तरं जायमानम् 'अवरं दिवसं' अपरं द्वितीय दिवसं यावत् चन्द्रेण सार्धं तिष्ठति, एतदेवोपसंहाररूपेण स्पष्टीकरोति ‘एवं खलं' इत्यादि, 'एवं' एवम्-उक्तरीत्या खल निश्चयेन 'उत्तरापोहवया णक्खत्ते' उत्तराप्रोष्ठपदा नक्षत्रं 'दो दिवसे एगं चराई द्वौ दिवसौ एकः प्रथमयोगकरणदिवसः, द्वितीयः रात्र्यनन्तरं जायमानो दिवसः, एवं द्वौ दिवसौ एका च रात्रि दिवसद्वयमध्यगतां रात्रि यावत् 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ' चन्द्रेण सार्ध योग, युनक्ति 'जोयं जोइत्ता' योगं युक्त्वा, 'जोयं अणुपरियट्टइ' योगमनुपरिवर्तयाति, 'जोयं अणुपरियट्टित्ता' योगमनुपरिवयं 'सायं' सायं सन्ध्याकाले 'चंद' चन्द्रं रेवईणं' रेवत्यै समप्पेइ' समर्पयति ।६। 'ता' तावत् ततः 'रेवई खलु णक्खत्ते रेवती खलु नक्षत्रं 'पच्छंभागे' पश्चाद्भागं सायंकालव्यापित्वात् 'समखेत्ते' समक्षेत्र परिपूर्णाहोरात्ररूपक्षेत्रस्थायित्वात् अतएवं 'तीसं मुहुत्ते! त्रिंशन्मुहूतं त्तत् 'तप्पढमयाए' तत्प्रथमतया प्रथम 'सायं' सायं सन्ध्यासमये 'चंदेण सद्धि जोयं जोएइ' चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति योगं प्राप्नोति, 'तो पच्छा' ततः पश्चात् तदात्यनन्तरम् 'अवरं दिवसं' अपरं द्वितीयं दिवसं यावत् चन्द्रेण साधैं तिष्ठति । तदेव स्पष्टयति-'एवं खलु इत्यादि, ‘एवं खलु' अनेन प्रकारण 'रेवईणक्खत्ते' रेवतीनक्षत्र 'एग राई' एकां रात्रि योगप्रारम्भरात्रिम् 'एगं च दिवस' एकं च द्वितीय दिवसं यावत् 'चंदेण सद्धिं' चन्द्रेण साध 'जोय जोएई' योगं युक्ति, 'जोयं जोएत्ता' योगं युक्त्वा 'जोय अणुपरियदृइ' योगम् अनुपरिवर्तयति, 'जोय अणुपरियट्टित्ता' योगमनुपरिवर्त्य 'सायं' सायं काले 'चंद' चन्द्रम् 'अस्सिणीणं अश्विन्यै 'समप्पेइ' समर्पयति ७/ 'ता' तावत् ततः 'अस्सिणी खलु णखत्ते' अश्विनी खलु नक्षत्र 'पच्छे भागे' पश्चाद्भागं सायंकाले चन्द्रेण सह युज्यमानत्वात् 'समखेत्ते' समक्षेत्र परिपूर्णरानिन्दिव Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १०-४ सू० १ योगस्यादिनिरूपणम् २५१ स्थायित्वात् अतएव 'तीसं मुहुत्ते' त्रिंशन्मुहूर्त, ततः 'तप्पढमयाए' तत्प्रथमतया प्रथम 'सायं' सायं काले 'चंदेण सद्धिं जोय जोएइ' चन्द्रेण साधू योगं युनक्ति 'तओ पच्छा' ततः पश्चात् रात्र्यनन्तरम् 'अवरं दिवसं' अपरं द्वितीयं दिवसं यावत् चन्द्रेण साधं तिष्ठति । उपसंहारः-एवं खलु' एवम् अनया रीत्या खल निश्चयेन 'अस्सिणीणक्खत्ते' अश्विनी नक्षत्र 'एग राई' एकां योगप्रारम्भरूपां रात्रिम् ‘एगं च दिवस' एकम् अग्रे समागमिष्यमाणं दिवसं यावत् 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ' चन्द्रेण सार्घ योगं युनक्ति, 'जोयं जोइत्ता' योगं युक्त्वा 'जोयं अणुपरियट्टई' योगमनुपरिवर्त्तयति, 'जोयं अणुपरियट्टित्ता' योगमनुपरिवत्ये 'सायं' सायंकाले 'चंदं चन्द्रं 'भरणीणं समप्पेई' भरण्यै समर्पयति ।८'ता' तावत् ततः 'भरणी खलु णक्खत्ते' भरणी खलु नक्षत्र 'णतंभागे' नक्तं भागं सायंकालव्यापि भूत्वा रात्रिमात्रस्थायित्वात् 'अवढखेत्ते' अपार्धक्षेत्रम् अर्धक्षेत्रप्रमाणोपेतम् , अतएव 'पण्णरसमुहत्ते' पञ्चदशमुहर्ते, ततः 'तप्पढमयाए' तत्प्रथमतया प्रथम 'सायं' सन्न्यासमये 'चंदेण सद्धि जोयं जोएई' चन्द्रेण सार्ध योग युनक्ति रात्रिमानं तिष्ठति किन्तु 'णो लभइ अवरं दिवस' नो-नैव लभते अपरं द्वितीयं राज्यन्ते समागमिष्यमाणं दिवसं, तत्तु रात्र्यन्ते एव समाप्तिमेति । उपसंहारव्याजेन तदेव स्पष्टयति ‘एवं खलु' इत्यादि ‘एवं' अनेन प्रकारेण खलु 'भरणीणक्खत्ते' भरणीनक्षत्रम् 'एग राई' एकां तां रात्रिमेव 'चंदेणसद्धि जोयं, जोएई' चन्द्रेण साधं योग युनक्ति 'जोयं जोइत्ता' योगं युक्त्वा 'जोयं अणुपरियट्टई' योगम् अनुपरिवर्त्तयति 'जोयं अणुपरियहित्ता' योगमनुपरिवत्यै 'पाओ' प्रातः प्रभातसमये 'चंद' चन्द्रं 'कत्तियाणं' कृत्तिकायै 'समप्पेइ' समर्पयति ।९। 'ता' तावत् तथा 'कत्तियाखलु णक्खत्ते' कृत्तिका खलु नक्षत्रं 'पुव्वंभागे' पूर्वभागम् प्रातश्चन्द्रेण सह युज्यमानत्वात् 'समखेत्ते समक्षेत्रम् अतएव 'तीसं मुहत्ते' त्रिंशन्मुहूर्ते प्रातःसमयादूर्व संपूर्णे दिवसरात्रिस्थायित्वात् , ततः 'तप्पढमयाए' तत्प्रथमतया प्रथमं 'पाओ' प्रातः 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ' चन्द्रेण सार्ध योगं युनक्ति 'तो पच्छा' ततः पश्चात् सकलदिवसानन्तरं 'राई रात्रि सकलां रात्रि यावत् चन्द्रेण साधं तिष्ठति । तदेवाह-'एवं' एवम् अनेन रीत्या 'खलु' निश्चयेन 'कत्ति याणक्खत्ते' कृत्तिकानक्षत्रम्, 'एगं च दिवसं' एकं च दिवसम् ‘एगं च राई' एकां च रात्रिं यावत् 'चंदेण सद्धिं जोयं जोइए' चन्द्रेण साधू योगं युनक्ति 'जोयं जोइत्ता' योगं युक्त्वा 'जोयं अणुपरियट्टइ' योगम् अनुपरिवर्तयति योगाद् भात्मानं पृथक्करोति 'अणुपरियट्टित्ता' अनुपरिवर्त्य 'पाओ' प्रातः 'चंद' चन्द्रं 'रोहिणीणं' रोहिण्यै 'समप्पेई' समर्पयति ।१०। तदेवम् अभिजित आरभ्य कृत्तिकापर्यन्तं दशनक्षत्राणां चन्द्रेण सह योगप्रकारः सविस्तर प्रदर्शितः, साम्प्रतं शेषाणां रोहिणीत आरभ्य उत्तराभाद्रपदापर्यन्तमष्टादशनक्षत्राणां चन्द्रेण सह योगप्रकारमतिदेशेनाह-'रोहिणी जहा' इत्यादि 'रोहिणी जहा उत्तराभया' रोहिणी यथा उत्तराभाद्रपदा Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ चन्द्रप्राप्तिसूत्र नक्षत्र पूर्व कथितं तथैव विज्ञेयम् , तथाहि तावत् रोहिणी खलु नक्षत्रम् उभयभाग द्वयर्धक्षत्रं पञ्चचत्वारिंशन्मुहूत तत्प्रथमतया प्रातः चन्द्रेण सह योगं युनक्ति सहलं दिवसम् अपरां च रात्रि यावत् , ततः पश्चात् अपरं द्वितीय दिवसं सायंकालपर्यन्तं चन्द्रेण सह योग युनक्ति एवं खलु रोहिणीनक्षत्र द्वौ दिवसौ एकां च रात्रिं यावत् चन्द्रेण साध योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति योगम् अनुपरिवयं सायं चन्द्रं मृगशिरसे समर्पयति ११। 'मिगसिरं जहा धणिहा' मृगशिरो नक्षत्रं यथा धनिष्ठानक्षत्र पूर्व कथितं तथैव भावनीयम् , तथाहि-तावत् मृगशिरो नक्षत्र पश्चाद्भागं समक्षेत्रं त्रिंशन्मुहूत्तं तत्प्रथमतया सायं चन्द्रेण साध योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा तां सकलां रात्रि ततः पश्चात् अपरं दिवसं यावत् तिष्ठति, एवं खलु मृगशिरो नक्षत्रम् एकां रात्रिम् एकं च दिवसं यावत् चन्द्रेण साधं योग युनक्ति योग युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति, योगम् अनुपरिवर्त्य सायं चन्द्रम् आर्द्रायै समर्पयति, 'सायं' इति परिस्फुटनक्षत्रमण्डलालोकसमये, इत्यों बोध्यः आनिक्षत्रस्य नक्तंभागत्वादिति १२। 'अदा जहा सयभिसया' आर्द्रा यथा शतभिषक् तथा ज्ञातव्या, तच्चैवम्-तावत् भाः खलु नक्षत्रं नक्तंभागम् अपार्धक्षेत्रं पञ्चदशमुहूत्त तत्प्रथमतया सायं चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति, एतत् आ नक्षत्रं नो लभते अपरम् अन्यं दिवस रात्रिमात्रभोग्यत्वात् , एवं खल मानक्षत्रम् एकां रात्रिं यावत् चन्द्रेण साधू योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति, योगम् अनुपरिवयं प्रातः चन्द्रं पुनर्वसवे समर्पयति ।१३। 'पुणवम् जहा उत्तराभवया' पुनर्वसुः यथा उत्तराभाद्रपदा कथिता तथैव विज्ञेयः, तथाहितावत् पुनर्वसुः खलु नक्षत्रम् उभयभागं द्वयर्धक्षेत्रं पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त तत्प्रथमतया प्रातः चन्द्रेण साध योगं युनक्ति, ततः सकल दिवप्तम् अपरां च रात्रि ततः पश्चाद् अपरं दिवसं च यावत् एवं खल पुनर्वसुः नक्षत्र द्वौ दिवसौ एकां च गत्रिं चन्द्रेण साधै योगं युनक्ति योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति, योगम् अनुपरिवर्त्य सायं द्वितीयदिवसस्य सायंकाले नक्षत्रमण्डलस्य परिस्फुटनकाले चन्द्रं पुष्याय समर्पयति १४। 'पुस्सो जहा धणिटा' पुण्यो यथा धनिष्ठा, पुष्यनक्षत्रं यथा धनिष्ठा नक्षत्रं पूर्व प्रतिपादितं तथैव विज्ञेयम् तदेवाह-तावत् पुष्यः खलु नक्षत्रं पश्चाद्भागं सायंकालव्यापित्वात् समक्षेत्रं त्रिंशन्मुहर्त तत्प्रथमतया-सायं चन्द्रेण सार्ध योगं युनक्ति योगं युक्त्वा ततः पश्चात् रात्रिसमाप्त्यनन्तरम् अपरं द्वितीयं दिवसं यावत् , एवं खलु पुष्यो नक्षत्रम् एकां रात्रिम् एकं च दिवसं यावत् चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति, योगम् अनुपरिवर्त्य सायं काले चन्द्रम् अश्लेषायै समर्पयति १५॥ 'असलेसा जहा सयभिसया' मलेपा यथा शतभिषगूनक्षत्रं तथाऽवसेया, तथाहि-तावत् मलेपा, खलु नक्षत्रं नक्तंभागम् अपार्धक्षेत्रं त्रिशन्मुहत्त तत्प्रथमतया सायं चन्द्रेण साध योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा नो लभते अपरं द्वितीय दिवसं नक्तं भागत्वेन रात्रिमात्रभोग्यत्वात् एवं खल Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रातिप्रकाशिका टीका प्रॉ०१०-५ सू०१ योगस्यादिनिरूपणम् २५३ अश्लेषानक्षत्रम् एकां रात्रिमेव चन्द्रेण साधू योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति, योगम् अनुपरिवर्त्य प्रातः रात्र्यनन्तरं प्रभातसमये चन्द्रं मघायै समर्पयति १६। 'मघा जहा पुव्वा फुग्गुणी' मघा यथा पूर्वाफाल्गुनी अग्रे वक्ष्यमाणा तथैव बोध्या, मत्राने 'पुवाफग्गुणी जहा पुव्वाभद्दवया' इति वक्ष्यतेऽतो मघा पूर्वाभाद्रपदावद् विज्ञेयेति विवेकः ।। '' तच्चैवम् – तावत् मघा खल नक्षत्रं पूर्वभागं समक्षेत्रं त्रिंशन्मुहूर्त तत्प्रथमतग प्रातः चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा ततः पश्चात् दिवससमाप्त्यनन्तरम् अपशं रात्रि यावत् तिष्ठति एवं खलु मघानक्षत्रम् एकं दिवसम् एकां च रात्रि यावत् चन्द्रेण साधू योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति योगम् अनुपरिवर्त्य प्रातः चन्द्र पूर्वाफाल्गुन्यै समर्पयति १७४ 'पुव्वाफग्गुणी जहा पुब्वाभहवया' पूर्वाफाल्गुनी यथा पूर्वाभाद्रपदा कथिता तथैव विज्ञेया, तथाहि-तावत् पूर्वाफाल्गुनी खलु नक्षत्रं पूर्वभागं प्रातः कालव्यापित्वात् , समक्षेत्रम् समस्तक्षेत्रस्थायित्वात् त्रिंशन्मुहूत्त परिपूर्णाहोरात्रभोग्यत्वात् तन्नक्षत्रं तत्प्रथममतया प्रातः चन्द्रेण सह योगं युनक्ति, ततः पश्चात् दिवससमाप्त्यनन्तरम् अपरां रात्रिम् एवं खलु पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्रम् एकं च दिवसम् एकां च रात्रिम् चन्द्रेण सार्ध योगं युनक्ति योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति, योगम् अनुपरिवर्त्य प्रातः चन्द्रम् उत्तराफाल्गुन्यै समर्पयति १८। 'उत्तराफग्गुणी जहा उत्तराभवया' उत्तराफाल्गुनी यथा पूर्वम् उत्तराभाद्रपदा कथिता तथैव विज्ञेया तथाहि-तावत् उत्तराफाल्गुनी खलु नक्षत्रम् उभयभागं द्वयर्धक्षेत्रम् दिवसद्वयैकरात्रिस्थायित्वात् अतएव पञ्चचत्वारिंशन्मुहूं तत्प्रथमतया प्रातः चन्द्रेण साध योगं युनक्ति त दिवसम् अपरां च दिवसान्ते जायमाना मन्यां रात्रि ततः पश्चात् रात्र्यनन्तरम् अपरं दिवसम् एवं खलु उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रं द्वौ दिवसौ एकां च रात्रि यावत् चन्द्रेण सार्ध योगं युनक्ति, योग युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्त्तयति योगम् अनुपरिवर्त्य सायं चन्द्रं हस्ताय समर्पयति १९। तथा 'हत्थो चित्ता य जहा धणिहा' हस्त चित्रा चेति नक्षत्रद्वयं पूर्व धनिष्ठानक्षत्र कथितं तथैव विज्ञेयम् । तच्चैवम्-तावत् हस्तः खलु नक्षत्रं पश्चाद्भागं समक्षेत्रं त्रिंशन्मुहूर्त तत्प्रथमतया सायं चन्द्रेण सार्ध योगं युनक्ति, तां रात्रिम् अपरंच दिवसं यावत् चन्द्रेण साधू चलति, एवं खलु हस्तनक्षत्रम् एकां च रात्रिम् एकं च दिवसं यावत् चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवत्तयति, योगम् अनुपरिवर्त्य सायं चन्द्रं चित्रायै समर्पयति ।२०। तदनन्तरं तावत् चित्रा खलु नक्षत्र पश्चाद्भागं समक्षेत्रं त्रिशन्मुहूर्त तत्प्रथमतया सायं चन्द्रेण सार्ध योगं युनक्ति, ततः पश्चात् राज्यनन्तरम् अपरं दिवस यावत् योगं करोति, एवं खलु चित्रानक्षत्रम् एकां रात्रिम् एकं च दिवसं यावत् चन्द्रेण सार्ध योग युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति, योगम् अनुपरिवयं सायं चन्द्रं स्वात्यै समर्ययति ।२१। 'साई जहा सयभिसया' स्वातिर्यथा शतभिषग्नक्षत्रं कथितं तथा विज्ञेया, तथाहि Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे तावत् स्वातिः खलु नक्षत्रं नक्तं भागम् अपार्धक्षेत्रं पञ्चदशमुहूर्त्त तत्प्रथमतया सायं चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति इदं स्वातिनक्षत्रं नो लभते अपरं द्वितीयं दिवसं रात्रिमात्रव्यापित्वात्, एवं स्खलु स्वातिर्नक्षत्रम् एकां गत्रिमेव यावत् चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्त्तयति, योगम् अनुपरिवर्त्य प्रातः चन्द्र विशाखायै समर्पयति २२ । 'विसाहा जहा उत्तराभद्दवया' विशाखा यथा, उत्तराभाद्रपदा तथा वक्तव्या, तथाहि - तावत् विशाखा खलु नक्षत्रम् उभयभागं द्व्यर्धक्षेत्रं पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तं तत्प्रथमतया प्रातः चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति, तदिवसम्, अपरां दिवसान्ते समागम्यमानां च रात्रिं ततः पश्चात्, रात्र्यनन्तरम् अपरं द्वितीयं दिवसम्, एवं खलु विशाखानक्षत्रं द्वौ दिवसौ एकां च रात्रि यावत् चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्त्तयति, योगम् अनुपरिवर्त्य सायं चन्द्रम् अनुराराधायै समर्पयति । २३ 'अणुराहा जहा धणिट्ठा' अनुराधा यथा घनिष्ठा कथिता तथा वाच्या, तदित्थम् - तावत् अनुराधा खलु नक्षत्रं पश्चाद्भागं सायंकालव्यापित्वात् समक्षेत्रं गत्रिदिवसरूपसंपूर्णक्षेत्रस्थायित्वात् अतएव त्रिंशन्मुहूर्त तत्प्रथमतया सायं चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति, तां सकलां रात्रिं ततः पश्चात् रात्र्यनन्तरम् अपरं दिवसं यावत्तिष्ठति, एवं खलु अनुराधानक्षत्रम् एकां रात्रिम् एकं च दिवसं यावत् चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्त्तयति, योगम् अनुपरिवर्त्य सायं चन्द्रं जेष्ठायै समर्पयति । २४ ' जेहा जहा सयभिसया' ज्येष्ठा यथा शतभिषक् तथा वाच्या, सा चेत्थम् - तावत् ज्येष्ठा खलु नक्षत्रं नक्तं भागम् अपार्धक्षेत्रं पञ्चदशमुहूर्त्त तत्प्रथमतया सायं चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति किन्तु नक्तं भागत्वात् नो लभते अपरं द्वितीयं दिवस रात्रावेवास्य समाप्तिसद्भावात् एवं खलु ज्येष्ठानक्षत्रं एकां रात्रिमेव यावत् चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्त्तयति, योगम् अनुपरिवर्त्य प्रातः चन्द्रं मूलाय समर्पयति २५ | 'मूलो जहा पुव्वाभद्दत्रया' मूलं यथा पूवाभाद्रपदा तथा वक्तव्यम् तथाहि--- तावत् मूलं खलु नक्षत्रं पूर्वभागसमक्षेत्रं त्रिंशन्मुहूर्त्त तप्रथमतया प्रातः चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति, तत्सकलं दिवसं ततः पश्चात् दिवसानन्तरम् अपराम् अप्रे समागम्यमानाम् अपरां रात्रिं यावत् एवं खलु मूलनक्षत्रम् एकं च दिवस एकां रात्रि यावत् चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति यक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति योगम् अनुपरिवर्त्य प्रातः चन्द्रं पूर्वाषाढायै समर्पयति । २६ | 'पुन्वासाढा जहा पुव्वाभद्रवया' पूर्वाषाढा यथा पूर्वाभाद्रपदा कथिता तथा पठनीया, तच्चैवम् तावत् पूर्वाषाढा खलु नक्षत्रं पूर्वभागं ममक्षेत्रं त्रिंशन्मुहूर्त्त तत्प्रथमतया प्रातः चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति, तं दिवसं ततः अपरां च रात्र यावत् चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्त्तयति, योगम् अनुपरिवर्त्य प्रातः चन्द्रम् उत्तराषाढायै समर्पयति । उत्तरासाठा जहा उत्तरभदवया' उत्तरापाढा " Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १०-४ सू१ योगस्यादिनिरूपणम् २५५ यथा उत्तराभाद्रपदा तथा बोध्या, सा चैवम्-तावत् उत्तराषाढा खलु नक्षत्रम् उभयभागं दूयर्धक्षेत्रं पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त तत्प्रथमतया प्रातः चन्द्रेण सार्ध योगं युनक्ति, तदिवसं ततः अपरां रात्रि ततः पश्चात् राज्यनन्तरम् अपरं दिवस यावत् चन्द्रेण सह तिष्ठति एवं खलु उत्तराषाढानक्षत्रं द्वौ दिवसौ एकां च रात्रि यावत् चन्द्रेण साध योगं युनक्ति योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति, योगम् अनुपरिवर्त्य सायं चन्द्रम् अभिजिच्छु वणाभ्यां समर्पयति ।२८। एवमिदम् अभिजित मारभ्य उत्तराषाढापर्यन्तम् अष्टाविंशतिनक्षत्रात्मकं नक्षत्रचक्र चन्द्रेण सार्ध योगं युनक्तीति । इदं योगप्रकारेण पञ्चदश मुहर्त्तात्मकदिवस-पञ्चदशमुहर्तात्मकरात्रिरूपसमदिवसरात्रि समयगतं विज्ञेयम्, नक्तं भागनक्षत्रस्य पञ्चदशमुहूर्तत्वेन, द्वयर्यक्षेत्रनक्षत्रस्य च पञ्चचत्वारिंशन्मूतत्वेन प्रतिपादनात् तदेवं बाहुल्यमाश्रित्य पूर्वोक्तप्रकारेण यथोक्तकालषु नक्षत्राणि चन्द्रेण सार्ध योगं युञ्जन्ति कानिचित् पूर्वभागानि, कानिचित् पश्चाद्भागानि कानिचित् नक्तंभागानि कानिचिच्च उभयभागानि कथितानीति ॥सूत्रम् १ ।। इति श्री चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रप्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीकायां दशमस्य प्राभृतस्य चतुर्थं प्रामृतप्रामृतं समाप्तम् ॥ १०-४ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक -वादिमानमर्दक-श्रीशाहुन्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त "जैनशास्त्राचार्य" पदभूषित -कोल्हापुर राजगुरु बालब्रह्मचारि-जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलालति-विरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका ख्यायां व्याख्यायाम् दशमस्य प्रामृतस्य चतुर्थ प्रामृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१०-४॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३ . ६ 50 ३० ३० ११ ३० /अष्टाविंशति नक्षत्राणांभागक्षेत्र-मुहर्तज्ञानार्थ कोष्टकम् नक्षत्रम् भागाः । क्षेत्रम अभिजित् पश्चान्दागम् | समक्षेत्रम साति श्रवणश्य ३0/साति धनिष्ठा पश्चान्दागम समक्षेत्रम ३० ।४ । शतभिषक । नक्तंभागम अपाधक्षेत्रम | १५ |पू पूर्वी भाद्रपदा | पूर्व भागम समक्षेत्रम ३०., उत्तरा भाद्रपदा| उभयभागम् व्यधक्षेत्रम ४५. ७ रेवती पश्चान्दागम समक्षेत्रम रा अधिनी पश्चान्दागम समक्षेत्रम भरणी नतंभागम अपाधक्षेत्रम १५ १० कृत्तिका पूर्व भागम् समक्षेत्रम रोहिणी उभयभागम् | ट्यधक्षेत्रम् ४५ १२ मृगशिरः पश्चान्दागम् समक्षेत्रम १३ आटी, नक्तंभागमा अपाधक्षेत्रम १४ पुनर्वसः उभय भागम् । यधक्षेत्रमा ४५ पुष्यम् पश्चान्दागम | समक्षेत्रम ३० अश्लेषा नक्तंभागम् | अपाधक्षेत्रम | ३० । १७ मघा 'पूर्वभागम् । समक्षेत्रम १८ पूर्वी फाल्गुनी पूर्वभागम | समक्षेत्रमा ३० उत्तरा फाल्गुनी उभयभागम् । द्वयर्धक्षेत्रम| ४५. २० हस्तः पश्चान्दागम् समक्षेत्रम् २१ चित्रा | पश्चान्दागम् । समक्षेत्रम | ३० । स्वातिः नक्तंभागमा अपाधक्षेत्रम १५ विशाखा उभयभागम व्यर्थक्षेत्रम अन्नुराधा पश्चान्दागम् समक्षेत्रम २५ ज्येष्ठा नक्तंभागम् अपाधक्षेत्रम मूलम पूर्व भागम | समक्षेत्रम पूर्वाषाढा पूर्वभागम् । समक्षेत्रम उत्तराषाढा । उभयभागम् । द्वचधक्षेत्रमा ४५ १५ पू १५ १ . ३० - - 14 ابعاد اب یہ ابہام ابهام 1 - - - रिदा - - Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दशमस्य प्राभृतस्य, पञ्चमं प्राभृतमाभृतम् ॥ व्याख्यातं दशमस्य मूलप्राभृतस्य चतुर्थ प्राभृतप्राभृतम्, तत्र चन्द्रेण सार्धमष्टाविंशतिनक्षत्राणां योगः पूर्वभागादिकं च प्रदर्शितम्, अथास्मिन् पञ्चमप्रामृतप्राभृते योगसम्बन्धान्नक्षत्राणां कुलत्वम्, उपकुलत्वम्, कुलोपकुलत्वं च प्रदर्शयन्निदं सूत्रमाह-'ता कहं ते कुला' इत्यादि। मूलम्-ता कहने कुला आहिया ति वएज्ज, तत्थ खल इमे बारस कुला, वारस उचकुला, चचारि कुलोचकुला पण्णत्ता । वारस कुला तं जहा सविट्ठा, (धणिहा) कुलं १, उत्तराभवयाकुलं २, अस्सिणी कुलं ३, कत्तियाकुलं ४, मगसिरकुलं ५, पुस्स कुलं ६, मघाकुलं ७, उत्तराफग्गुणीकुलं ८ , चित्ताकुलं ९, विसाहाकुलं १०, मूलंकुलं ११, उत्तरासाढाकुलं १२, वारस उवकुला तं जहा-सवणो उपकुलं १, पुत्वभवयाउवकुलं २, रेवईउवकुलं ३, भरणीउपकुलं ४, रोहिणीवकुलं ५, पुणव्वसुउपकुलं ६, अस्सेसाउवकुलं ७, पुन्वाफग्गुणी उवकुलं ८ हत्थोउवकुलं ९, साईउवकुलं १०, जेट्टाउवकुलं ११, पुव्वासाढाउवकुलं १२, चत्तारि कुलोवकुला तं जहा -अभिइकुलोवकुलं १, सयभिसया कुलोवकुलं २, अदा कुलोवकुलं ३, अणुराहा कुलोवकुल ४ ॥सू० १॥ दसमस्स पाहुडस्स पंचमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥१०-५॥ छाया-तावत् कथं ते कुलानि आख्यातानि इति वदेत्, ता खलु इमानि द्वादश कुलानि १२, द्वादश उपकुलानि १२, चत्वारि कुलोपकुलानि ४ प्रज्ञप्तानि । द्वादश कुलानि तद्यथा- श्रविष्ठा (धनिष्ठा) कुलम् १, उत्तराभाद्रपदाकुलम् २, अश्विनीकुलम् ३, कृत्तिकाकुलम् ४, मृगशिरः कुलम् ५, पुष्यकुलम् ६, मघाकुलम्, उत्तराफाल्गुनीकुलम् ८, चित्राकुलम् ९, विशाखा कुलम् १०, मूलं कुलम् ११, उत्तराषाढाकुलम् १२, द्वादश, उपकुलानि तद्यथा श्रवणः उपकुलम् १, पूर्वाभाद्रपदा उपकुलम् २, रेवती उपकुलम् ३, भरणी उपकुलम् ४, रोहिणी-उपकुलम् ५, पुनर्वसुः उपकुलम् ६, अश्लेषा-उपकुलम् ७, पूर्वाफाल्गुनी उपकुलम् ८, हस्तः उपकुलम् ९, स्वातिः - उपकुलम् १०, ज्येष्ठाउपकुलम् ११, पूर्वाषाढा-उपकुलम् १२, चत्वारि कुलोपकुलानि, तद्यथा-अभिजित् कुलोपकुलम, १, शतभिषक्-कुलोपकुलम् २, आद्रा-कुलोपकुलम् ३, अनुराधा कुलोपकुलम् ॥सू०१।। दशमस्य प्राभृतस्य पञ्चमं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् १०-५॥ ।। व्याख्या-ता कहं ते' इति ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण 'ते' त्वया 'कुला' कुलानि 'आहिया' आख्यातानि-कथितानि ? ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु-कथयतु हे भगवन् ! भगवानाह-'तत्थ' तत्र कुलादिविषये-खलु-निश्चयेन 'इमे' इमानि वक्ष्यमाणानि 'वारस' द्वादश 'कुला' कुलानि सन्ति तथा 'वारस' द्वादश 'उचकुला' उपकुलानि सन्ति, तथा 'चत्तारि' चत्वारि 'कुलोचकुला' कुलोपकुलानि सन्ति, । तत्र 'बारस' द्वादश 'कुला' कुलानि, भवन्ति 'तं जहा' तयथा तानि यथा 'सविट्ठा कुलं' इत्यादि, कुलानीति किम्, तत्राह यानि नक्षत्राणि यान् मासान् समापयन्ति मास सदृशनामानि भवन्ति तानि नक्षत्राणि कुलानीति Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रशतिसूत्रे कथ्यन्ते-तानि द्वादश १२| उपकुलानीति किम् ? तत्राह - मा ससदृशनामक नक्षत्रेभ्यः पूर्वगतानि नक्षत्राणि यदि यान् मासान् समाप्तिं नयन्ति तानि उपकुलानि कथ्यन्ते तान्यपि द्वादश १२ | यानि पश्चानुपूर्व्या तृतीयानि नक्षत्राणि यान् मासान् समाप्ति नयन्ति तानि कुलोपकुलानि कथ्यन्ते तानि च चत्वार्येव भवन्ति ४ । तान्येव दर्शयामः - श्रविष्ठः, श्रावणो मासः प्रायः श्रविष्ठया घनिष्ठा - परपर्यायया समाप्तिमेतीति । श्रावणपूर्णिमायां यदि धनिष्ठा भवेत्तदा धनिष्ठा नक्षत्रं कुलमुच्यते १, भाद्रपदपूर्णिमायां यदि उत्तराभाद्रपदा भवेत्तर्हि तत् कुलं कथ्यते २ एवम् आश्विन - पूर्णिमायां यदि अश्विनी भवेत्तदा तन्नक्षत्रं कुलम् ३, कार्त्तिकपूर्णिमायां कृत्तिकानक्षत्रं कुलम् ४, मार्गशीर्षमासे मृगशिरो नक्षत्रं कुलम् ५, पौष पूर्णिमायां पुष्यनक्षत्रं कुलम् ६, माघपूर्णिमायां मघानक्षत्रं कुलम् ७, फाल्गुन पूर्णिमायाम् उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रं कुलम् ८, चैत्र पूर्णिमायां चित्रा नक्षत्र कुलम् ९, वैशाख पूर्णिमायां विशाखानक्षत्रं कुलम् १०, ज्येष्ठपूर्णिमायां मूलनक्षत्रं कुलम् ११, आषाढपूर्णिमायाम् उत्तराषाढा नक्षत्रं कुलम् १२, एतानि द्वादशनक्षत्राणि कुलानि कथ्यन्ते । एतेभ्यः पूर्ववर्त्तीनि नक्षत्राणि यदि भवेयुस्तदो तानि उपकुलानि कथ्यन्ते, तथाहिश्रावणपूर्णिमायां श्रवणनक्षत्रं भवेत्तदा तद् उपकुलं कथ्यते १, एवं भाद्रपदपूर्णिमायां पूर्वाभाद्रपदा नक्षत्रमुपकुलम् २, आश्विन पूर्णिमायां रेवतीनक्षत्रमुपकुलम् ३, कार्त्तिक पूर्णिमायां भरणी नक्षत्रमुप कुलम् ४, मार्गशीर्ष पूर्णिमायां रोहिणी नक्षत्रमुपकुलम् ५ पौष पूर्णिमायां पुनर्वसु नक्षत्रमुपकुलम् ६, माघपूर्णिमायाम् अश्लेषा नक्षत्रमुपकुलम् ७ फाल्गुन पूर्णिमायां पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रमुपकुलम् ८, चैत्र पूर्णिमायां हस्तनक्षत्रमुपकुलम् ९, वैशाख पूर्णिमायां स्वाति नक्षत्रमुपकुलम् १०| ज्येष्ठपूर्णिमायां ज्येष्ठा नक्षत्रमुपकुलम् ११, आषाढपूर्णिमायां पूर्वाषाढानक्षत्रमुपकुलम् १२, इति । यद्युपकुलनक्षत्रात् पूर्ववर्त्तिनक्षत्रम् अर्थात् पश्चानुपूर्व्या प्रायो माससदृशनामक कुलनक्षत्रात् पूर्ववर्त्ति तृतीयं नक्षत्रं पूर्णिमायां भवेत्तदा तत् कुलोपकुलं कथ्यते तानि चत्वार्येव, सूत्रोपदिष्टानां चतुर्णामेव नक्षत्राणां श्रावण-भाद्रपद - पौष - ज्येष्ठरूपासु चतसृष्वेव पूर्णिमासु कादाचित्कत्वेन योगसंभवात्, तथाहि — श्रावण पूर्णिमायां यदि अभिनिन्नक्षत्रं भवेत्तदा तत् कुलोपकुलं कथ्यते १, एवं भाद्रपदपूर्णिमायां शतभिपग्नक्षत्रं कुत्रोपकुलम् २, पौष पूर्णिमायाम् आर्द्रा नक्षत्रं कुलोपकुलम् ३, ज्येष्ठपूर्णिमायां चानुराधा नक्षत्र कुलोपकुलं कथ्यते ४, इति । उक्तश्च — मासाण सरिसनामा, हुंति कुला उवकुळा उ हिट्ठिमगा । हुंति पुण कुलोवकुला अभीइ-सय- अह -अणुराहा " ॥ १ ॥ छाया -- मासानां सदृशनामानि भवन्ति कुलानि उपकुलानि तु अघस्तनानि । भवन्ति पुनः कुलोपकुलानि अभिजित् १, शतभिषक् २, आर्द्रा ३ अनुराधा ॥ १ ॥ 'हिट्टिमगा' इति अघस्तनानि अधोभागस्थितानि कुलनक्षत्रेभ्यो यानि पूर्व स्थितानि पश्चानु पूर्व्या कुलनक्षत्रेभ्यो द्वितीयानीत्यर्थः । २५८ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E LF-က အသဒယတ X/X - - ။ဥe नाथ कॉष्टकम्।। नक्षत्र नाम्न फुल | उपकुल भिजित प्रचणः धणिष्ठा शतभिः पू.भा. उ.भा. रेवती अग्छिनी भरणी कृत्तिका रोहिणी मृगशिरः आी पुनसुः मुष्यं अश्लेषा | १७ मघा १८ पू. फा. [१९ उ.फा इस्त्तः २१ चित्रा स्वाति: विशावा अनुराधा ज्येष्ठा मूलम् २७ पू.षा. २८ उ.षा. इति श्रीचन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रो चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीकायां दशमस्य प्रामृतस्य पञ्चमं प्रामृतप्राभृतं समाप्तम् -१०-५॥ X/XX/x/x/x/x/xorlxixixixixix/x/x/x/xonx/x/x/XI २० २५ २६ DIPAT Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमप्राभृतस्य षष्ठं प्राभृतप्राभृतम् । तदेवमुक्तं पञ्चमं प्रामृतप्राभृतम् , तत्राष्टाविंशतिनक्षत्राणां कुलादिसंज्ञा प्रदर्शिता । अथ षष्टं प्रामृतप्रामृतं वित्रियते, अत्र द्वादश पूर्णिमाः द्वादश अमावस्या वक्तव्याः स्युः, तत्र पूर्णिमासु कति कति नक्षत्राणि योगं युञ्जन्तीति प्रदीते-'ता कहते पुण्णमासी' इत्यादि । मूलम्-ता कहं ते पुण्णमासी आहिया ? ति वएज्जा, तत्य खलु इमाओ वारस पुण्णमासीओ, वारस अमावासाओ, पण्णताओ तं जहा-साविट्ठी १ पोवई २, आसोयी३, कत्तियी ४, मग्गसिरी ५, पोसी ६, माही ७, फग्गुणी ८, चेत्ती ९, वेसाही १०, जेट्ठा मूली ११, आसाठी १२, ता साविढि णं पुण्णमासि कइ णक्खत्ता जोएंति ? ता तिणि णक्खत्ती जोएंति, तं जहा-अभिई १, सवणो २, धणिहा ३ (१) ता पोट्टवईणं पुण्णिमं कइ णवखत्ता जोएंति, ता तिण्णि णक्खत्ता जोएंति, तं जहासयभिसया १, पुब्बापोट्टवया २, उत्तरापोट्टवया ३, (२) ता आसोई णं पुण्णिम कइ णक्खत्ता जोएंति ?, ता दोणि णक्खत्ता जोएंति, तं जहा-रेवई अस्सिणी य (३) ता कत्तिई णं पुण्णिमं कइ णक्खत्ता जोएंति, ता दोणि णक्खत्ता जोएंचि तं जहा-भरणी कत्तिया च(४)।ता मग्गसिरिंणं पुणिमं कह णक्खत्ता ज़ोएंति ? तादोणि णक्खत्ता जोएंति तं जहा रोहिणी मग्गसिरा य (५) । ता पोसिं पुणिमं कइ णक्खत्ता जोएंति ?, ता तिण्णि णक्खत्ता जोएंति तं जहा-अहा १, पुणन्वर २, पुस्सो ३ (६) ता माहिणं पुण्णिम कइ णक्खत्ता जोएंति ?, ता दोणि णक्खत्ता जोएंति, तं जहा-अस्सेसा मघा य (७) ता फग्गुणिं णं पुणिमं कइ णक्खत्ता जोएति ? ता दोन्नि नक्खत्ता जोएंति. तं जहा-पुच्चाफरगुणी उत्तराफग्गुणी य (८) ता चे िणं पुण्णिमं कइ णक्वत्ता जोएति ? ता दोणि णक्खत्ता जोएंति तं जहा-इत्थो चित्ता य (९)। ता वेसाहिणं पुणिमं कइ णक्खत्ता जोएंति ? ता दोणि णक्खत्ता जोएंति' तं जहा - साई बिसाहा य (१०) ता जेहामूछि ण पुणिमं कइ णक्खत्ता जोएंति ? ता तिण्णि णक्खत्ता जोएंति तं जहा-अणुराहा १, जेहा २, मूलो य ३, (११) तावत् आसाहिं णं पुण्णिम कइ णक्खत्ता जोएंति ? ता दो णक्खत्ता जोएंति, तं जहा-पुत्रासादा उत्तरासाढा य (१२) ॥० १॥ छाया तावत् कथं ते पूर्णमास्य आस्याता ? इति वदेत् , तत्र खलु मा द्वादश पूर्णिमास्यः, द्वादश अमावास्याः प्रशताः तद्यथा-श्राविष्टी १, प्रोष्ठपदी २, आश्विनी ३, कार्तिकी ४, मार्गशीर्षी ५, पोपी ६, माघी ७फाल्गुनी ८, चैत्री ९, वैशाखी १०, जेष्ठा मूली ११ आपाढी १२, । तावत् श्राविष्टी खलु पूर्णिमा कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति, १, तावत् Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा० १०-२ सू०१ पुर्णिमायां नक्षत्रयोगनिरूपणम् २६१ श्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति, तद्यथा - अभिजित् १, श्रवणः २, धनिष्ठा ३ । (१) तावत् प्रोष्ठपद खलु पूर्णिमां कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति । तावत् त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति, तद्यथाशतभिषक १, पूर्वपदा २, उत्तरप्रोष्ठपदा ३ । (२) तावत् आश्विन खलु पूर्णिमां कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ? ४ तावत्-द्वे नक्षत्रे युङ्क्तः, तद्यथा-रेवती अश्विनी च ३ । तावत् कार्त्तिक खलु पूर्णिमां कति नक्षत्राणि युज्जन्ति ! तावत् द्वे नक्षत्रे युक्तः तद्यथा-भरणी कृत्तिका च. ४ । तावत् मार्गशीर्षी खलु पूर्णिमां कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति । तावत् द्वे नक्षत्रे युङ्क्तः, तद्यथा - रोहिणी मृगशिरश्च ५) तावत् पौष खलु पूर्णिमां कति नक्षत्राणि युज्जन्ति ?, तावत् त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति, तद्यथा आर्द्रा १ पुनर्वसुः २, पुष्यम् ३ । (६) तावत् मालु पूर्णिमां कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति १, तावत् द्वे नक्षत्रे गुङ्क्तः, तद्यथा - अषा मधाच ७ तावत् फाल्गुन खलु पूर्णिमां कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ?, तावत्-द्वे नक्षत्रे युङ्क्तः तद्यथा - पूर्वाफाल्गुनी उत्तराफाल्गुनी च ८ । तावत् चैत्रीं खलु पूर्णिमां कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ! तावत् द्वे नक्षत्रे युक्तः, तद्यथा-हस्तः चित्रा च ९ । तावत् वैशाखीं खलु पूर्णिमां केति नक्षत्राणि युज्जन्ति ? तावत् द्वे नक्षत्रे युङ्क्तः, तद्यथा - स्वातिः विशाखा च १० । तावत् ज्येष्ठामूलीं खलु पूर्णिमा कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति । तावत् त्रोणि नक्षत्राणि युञ्चन्ति तयथा - अनुराधा १ ज्येष्ठा २, मूलं च ३ |११| तावत् आषाढ़ी खलु पूर्णिमां कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ? तावत् द्वे नक्षत्रे युङन्तः, तद्यथा - पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा च ॥ (२२) ॥ सू०१ ॥ व्याख्या - गौतमः पृच्छति - 'ता कहं ते पुण्णमासी' इत्यादि 'ता' तावत् 'कह' केन प्रकारेण कैः कैः नक्षत्रैर्युक्ता इत्यर्थः ' पुण्णमासी' पूर्णमास्यः उपलक्षणात् अमावास्याश्च 'आहिया' आख्याताः कथिताः ? ‘ति वएज्जा' इति वदेत्-एतद्विषयं वदतु हे भगवन् ! एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह—'तत्थ' इत्यादि, 'तत्थ' तत्र पूर्णमास्यमावास्याविषये 'स्खलु' निश्चयेन 'बारस पुण्णमासीओ' द्वादश पूर्णमास्यः, तथा 'वारस अमावासाओं' द्वादश अमावास्याश्च 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः कथिताः ‘तंजहा' तद्यथा ता यथा - 'साविट्ठी' इत्यादि, 'साविट्ठी' श्राविष्ठी श्रविष्ठेति धनिष्ठा तदुपलक्षिता श्राविष्ठी श्रावणमासभाविनी पूर्णिमा श्राविष्ठी कथ्यते, इयं प्रथमा पूर्णिमा १। 'पोवई' प्रोष्ठपदी प्रोष्ठपदा उत्तराभाद्रपदा तदुपलक्षिता भाद्रपदमासभाविनी पूर्णमासी प्रोष्ठपदी कथ्यते २। 'आसोई' आश्विनी अश्विनी नक्षत्रोपलक्षिता आश्विनमासभाविनी पूर्णिमा आश्विनी कथ्यते ३ | 'कत्तिई' कार्त्तिकी - कृत्तिकानक्षत्रोपलक्षिता कार्त्तिकमास भाविनी पूर्णिमा कार्त्तिकी कथ्यते ४ । 'मग्गसिरी' मार्गशीर्षी - मृगशिरोनक्षत्रोपलक्षिता मार्गशीर्षमास भाविनी पूर्णिमा मार्गशीर्षी कथ्यते ५। 'पोसी' पौषी पुष्यनक्षत्रोपलक्षिता पौषमासभाविनी पूर्णिमा पौपी कथ्यते ६, । 'माही' माघी मघानक्षत्रोपलक्षिता माघमासभाविनी पूर्णिमा माघी कथ्यते ७) 'फग्गुणी' फाल्गुनी उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रोपलक्षिता फाल्गुनमासभाविनी पूर्णिमा फाल्गुनी कथ्यते ८| 'चेत्ती' 'चैत्री - चित्रा नक्षत्रोपलक्षिता चैत्रमासभाविनी पूर्णिमा चैत्री कथ्यते ९ । 'वेसाही' वैशाखी - विशाखा नक्षत्रोपलक्षिता वैशाखमासभाविनीं पूर्णिमा वैशाखी कथ्यते १०। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ चन्द्रप्राप्तिस्त्र 'जेहामूली' मूल नक्षत्रोपलक्षिता ज्येष्ठमासभाविनी पूर्णिमा ज्योष्ठामूली कथ्यते १११ 'आसादी' आषाढी-उत्तरापाढानक्षत्रोपलक्षिता आपाढमासभाविनी-पूर्णिमा आषाढी कथ्यते १२। इति द्वादश पूर्णिमानामानीति । अथ कति कति नक्षत्राणि कस्यां पूर्णिमायां योगं कुर्वन्ति ? इति प्रश्नान् उत्तराणि च प्रदर्शयति-ता साविट्टिणं, इत्यादि 'ता' तावत् 'साविष्टि ' श्राविष्ठी पावणमास भाविनों पूर्णिमां 'कइ नक्खत्ता' कतिनक्षत्राणि कियत्संख्यकानि नक्षत्राणि 'जोएंति' युञ्जन्ति कानि नक्षत्राणि चन्द्रेण सह योगं कृत्वा श्राविष्ठी पूर्णिमां समापयन्तीति भावः । भगवानाह'ता तिण्णि' इत्यादि 'ता' तावत् 'तिणि णक्खत्ता' त्रीणि नक्षत्राणि 'जोएंति' युञ्जन्ति योगं कुर्वन्ति त्रीणि नक्षत्राणि चन्द्रेण साधं यथायोग संयुज्य श्राविष्ठी पूर्णिमां समापयन्ति 'तं जहा' तद्यथा तानीमानि --'अभिई' अभिजित् १ 'सवणो' २ श्रवणः 'धणिहा' धनिष्ठा ३। इमां पूर्णिमा वस्तुतः श्रवणो धनिष्ठा चेति द्वे एव नक्षत्रे श्राविष्टी पूर्णिमासी परिसमापयतः किन्तु अभिजिन्नक्षत्रं श्रवणेन सह संबद्धं वर्ततेऽतः पूर्णिमासमापने तस्यापि ग्रहणं कृतमिति १। एतत्कथं परिज्ञायते ? इति प्रश्ने तत्परिज्ञानं करणपरिज्ञानमन्तरेण न भवतीत्यन्यत्र प्रसिद्धममावास्यापौर्णमासीविषयकचन्द्रयोगपरिज्ञानार्थ करणं प्रदर्श्यते " नाउमिह अमावासं जइ इच्छसि कम्मि होइ रिक्खम्मि। अवहारं ठाविज्जा तत्तियरूवेहि संगुणए ॥१॥ छावट्ठी य मुडुत्ता, विसद्विभागा य पंच पडिपुण्णा । वासद्विभाग-सत्तसहिगो य इक्को हबइ भागो ॥२॥ एयमवहाररासिं, इच्छ अमावाससंगुणं कुज्जा । नक्खत्ताणं एत्तो, सोहणगविहिं निसामेह ॥३॥ वाचीसं च मुहुत्ता, छायालीसं विसट्ठिभागा य । एयं पुणवमुस्स य, सोहेयव्वं हवइ वुच्छं ॥४॥ वावत्तरं संयं फग्गुणीण वाणउइ य वे विसाहामु । चत्तारि य वायाला, सोज्झा अह उत्तरासाढा ॥५॥ एयं पुणवमुस्स य विसद्विभागसहियं तु सोहणगं । इत्तो अभीइआई, विइयं बुच्छामि सोहणगं ॥६॥ अभिइस्स नव मुहुत्ता, विसट्ठिभागा य हुंति चउवीसं 1 छावट्ठी य समत्ता, भागा सत्तहिछेकया ॥७॥ अउणसी पोहवया, निमु चेव नवोत्तरं च रोहिणिया । तिम नवनवएस भवे, पुणव्वसू फग्गुणीओ य ॥८॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१०-६ सू० १ पुर्णिमायां नक्षत्रयोगनिरूपणम् .२६३ m पंचेव अउणपन्नं सयाइ, अउणुत्तराई छच्चेव । सोज्झाणि विसाहासु, मूले सत्तेव चोयाला ॥९॥ अट्ठसय अउणचीसा, सोहणगं उत्तरासाढाणं । चउवीसं खलु भागा, छावही चुण्णियाओ य ॥१०॥ एयाई सोहइत्ता, जं सेसं तं हवेइ नक्खत्तं । इत्थं य करेइ उड्डवई, सूरेण समं अमावासं ॥११॥ इच्छापुन्निमगुणिओ, अवहारो सोत्थ होइ कायव्वो। तं चेव य सोहणगं, अभिइआई तु कायव्वं ॥१२॥ सुद्धम्मि य सोहणगे; जं सेसं त हविज्ज नक्खत्त । तत्थ य करेइ उडवई, पडिपुन्नो पुण्णिमं विमलं ॥१३॥ छाया-धातुमिह अमावास्यां, यदि इच्छसि कस्मिन् भवति नक्षत्रे । अवधार्थ स्थापयेत् तावत्करूपैः संगुणयेत् ॥१॥ षट् पटिश्च मुहर्ताः, द्विपष्टि भागाश्च पञ्च प्रतिपूर्णाः । द्वापष्टिभागस्य सप्तपष्टिकश्च एको भवति भागः ॥२॥ पतमवधार्यराशिम् इच्छितामावास्यासंगुणं कुर्यात् । नक्षत्राणाम् इतः शोधनविधि निशाम्यत ॥३॥ द्वाविंशतिश्च मुहर्ताः पट् चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागाश्च । एतत् पुनर्वसोश्च शोधयितव्यं भवति वक्ष्ये ॥४॥ द्वासप्ततं शतं फाल्गुनीनां द्विनवतिश्च द्वौ विशाखासु । चत्वारि च द्विचत्वारिंशतानि शोध्यानि अथ उत्तराषाढा ॥५॥ एतत् पुनर्वसोश्च, द्विषष्टिभागसहितं तु शोधनकम् । इतः अभिजिदादि द्वितीयं वक्ष्यामि शोधनकम् ॥६॥ अभिजितो नव मुहर्ताः द्विषष्टिभागाच भवन्ति चतुर्विशतिः । षट्पटिश्च समस्ता भागा. सप्तषष्टिछेदकृताः ॥७॥ एकोनषष्ठं प्रोष्ठपदा त्रिषु चैव नवोत्तरं च रोहिणिका । त्रिसु नवनवेपु भवेयुः पुनर्वसुः फाल्गुन्यश्च ॥८॥ पञ्चैव एकोनपञ्चाशतानि शतानि पकोनसप्तत्युत्तराणि षडेव । शोध्यानि विशाखासु मूले सप्तैव चतुश्चत्वारिंशतानि ॥९॥ अष्टशतम् एकोनविंशतम् शोधनकम् उत्तराषाढानाम् । चतुर्विशतिः खलु भागा. षट्षष्टिः चूर्णिकाश्च ॥१०॥ पतानि शोधयित्वा यत् शेष तद् भवति नक्षत्रम् । इत्थं च करोति उडुपति. सूरेण समम् अमावास्याम् ॥११॥. , Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ इच्छित पूर्णिमागुणितः अवधार्यः सोऽत्र भवतिकर्तव्यः । तदेव च शोधनकम् अभिजिदादि तु कर्त्तव्यम् ॥ १२ ॥ चन्द्र प्रतिसूत्रे शुद्धे च शोधनके यत् शेषं तद् भवेन्नक्षत्रम् | तत्र च करोति उदुपतिः प्रतिपूर्णः पूर्णिमां विमलाम् ||१३|| इति || एताः गाथाः क्रमेण व्याख्यायन्ते - 'नाउ मिह' इत्यादि 'इह' इह युगे 'जड़' यदि त्वम् 'आमावासं' आमावास्यां ज्ञातुमिच्छसि यत् कस्मिन् नक्षत्रे वर्त्तमानाऽमावास्या परिसमाप्ता भवतीति, तदा'। तत्तियरूवेहिं' तावत्करूपैः, याममावास्यां ज्ञातुमिच्छसि तत्पर्यन्तं यावत्यो Sमावास्या व्यतीता जातास्तावत्संख्यया 'अवहार' अवधार्यम् अवधार्यते प्रथमतया स्थाप्यते इति अवघार्थः ध्रुवराशिः तं 'ठाचित्ता' स्थापयित्वा पट्टिकादो लिखित्वा व्यतीतामाचास्यासंख्यया तम् अवधार्य राशि ‘संगुणए' संगुणयेत् ॥ १॥ कोऽसौ अवधार्यराशिरिति तं प्रदर्शयति- 'छावही ' इत्यादि 'छावही य सुहुत्ता' पट्षष्टिश्च मुहूर्त्ताः। एकस्य मुहूर्त्तस्य च 'पंचपडिपुण्णा विसहि भागा' परिपूर्णाः शेपरहिताः पश्च' द्वापष्टिभागा तथा 'वासट्टिभाग' इति द्वाषष्टिभागस्य 'सत्तसद्विगो य एक्को हवाइ भागो' सप्तषष्टितम एको भागो भवति अयं भावः - एकस्य द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिभागाः क्रियन्ते, तेषु ५ १ एकः सप्तषष्टितमो भागः । (६६. '६२ ६७,६२ p 1) इति एतावत्प्रमाणः अवधार्यराशिर्भवतीति ॥२॥ एतावत्प्रमाणस्यावधार्यराशेः कथमुत्पत्तिः ? इति प्रदर्श्यते - अत्र यदि चतुर्विंशत्यधिकशतसंख्यकैः पर्वभिः सूर्यनक्षत्र पर्यायाः पञ्च लभ्यन्ते तदा द्वाभ्यां पर्वभ्यां किं लभ्यते ? इति त्रैराशिको गणित प्रकारस्ततो राशित्रयं स्थाप्यते यथा १२४ । ५। २ । अत्रान्त्येन द्विकरूपेण राशिना मध्यमः पश्र्वकरूपो राशिर्गुण्यते नाताः दश (१०) अय छेद्यराशिः अतः चतुर्विशत्यधिकं शतं च छेदकराशिः अतः छेदकराशिना छेद्यराशेर्भागहरणं कर्त्तव्यमिति चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन दशकरूपस्य राशेर्मागो हियते, तत्र छेद्यस्य दशकरूपस्य राशे न्यूनत्वेन भागो न ह्रियते तेन पछेद कराइयोद्विकेनापवर्त्तना क्रियते, तेन छेद्यस्य दशकरूपस्य पश्च लभ्यन्ते एष पञ्चकरूपः उपरितनराशिः छेदकस्य द्विकेनापवर्त्तनाकरणे द्वापष्टिर्लभ्यते, एप द्वापष्टिरूपः अधस्तनो राशि:, तेन पञ्च द्वाषष्टि भागाः इति । एतेन नक्षत्राणि कर्त्तव्यानीति नक्षत्रकरणार्थम् त्रिंशदधिकाष्टादशशतैः (१८३०) सप्तषष्टिभागरूपैरुपरितनळेधराशिः पञ्चकरूपो गुण्यते जातानि पञ्चाशदधिकैकनवतिशतानि ( ५x१८३० = ९१५० ), अथ चाघस्तन श्छेदराशिपष्टिप्रमाणः (६२) एपोऽपि सप्तपष्ट्यागुण्यते, जातानि चतुष्पञ्चशदधिकैकचत्वारिंशच्ठतानि (६२ × ६७ = ४१५४ ) स्थापना चेव्थम् - ९१५० ) । अत्रव्य उपरितनों ४१५४ राशिर्मुहूर्द्धानयनार्थं दिवसस्य त्रिंशन्मुहूर्त्तत्वेन भूयत्रिशता गुण्यते जाते पञ्चशतोत्तरचतुःसप्तति Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १०-६ सू०१ पूर्णिमायां नक्षत्रयोगनिरूपणम् २६५ सहस्राधिके द्वे लक्षे (२७४५००) तथा च - ९१५०x३० =२७४५००। अस्य राशेः चतुष्पञ्चाशदधिकचत्वारिंशच्छतै ( ४०५४) र्भागो हियते - लब्धा षट्षष्टिर्मुहूर्त्ताः तथा च षट्त्रिंशदधिकानि त्रीणि शतानि (३३६) एष २७४५०० (६६ । शेषा अंशाः ४०५४) शेषाः ३३६, राशि द्वषष्टिभागानयनार्थं द्वापष्ट्या गुण्यते जातानि द्वात्रिंशदधिकाष्टशतोत्तराणि विंशतिसहस्राणि (२०८३२ ) अस्यापि अनन्तरोक्तेन चतुष्पञ्चाशदघिकै कचत्वारिशच्छतरूपेण (४१५४) छेदराशिना भागहरणं क्रियते लब्धाः पञ्च द्वाषष्टिभागा: ( ५ ), शेषास्तिष्ठन्ति (६२) । ततस्तस्या द्वाषष्ट्या अपवर्त्तना क्रियते जात एककः ?, छेदगशेश्चतुर्विंशत्याधिकशत रूपस्य द्वाषष्ट्याऽपवर्त्तनायां लब्धा सप्तषष्टिः ततः मायातं-पटू पष्टिर्मुहूर्त्ताः एकस्य च मुहूर्तस्य ७ पञ्च द्वाषष्टिभागा, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकः सप्पषष्टिभागः । ६६-५-६२ इति तदेवं जातमवधार्थराशिप्रमाणम् । अवधार्यराशेरुत्पत्तिरेषा भवतीति । ६७ ६२ अथ शेषविधि प्रदर्शयति- 'एयमवहाररासि' इत्यादि, 'एयं' एतम् पूर्वोक्तम् 'अवहाररासिं' अवघार्थर।शिम् 'इच्छअसावाससंगुणं कुज्जा' इच्छितामावास्यासंगुणं यामवास्यां ज्ञातुमिच्छा वर्त्तते तम्प्रमितया सख्यया गुणितं कुर्यात् व्यतिक्रान्तामावास्यासंख्यया भवधार्यराशिं गुणयेदिति भाव: । गुणयित्वा गुणनराशिमेकत्र स्थापयेदित्याशयः 'एत्तो' इत उर्ध्वं च नक्षत्राणि शोधनीयानि भवन्तीति 'नक्खत्ताणं' नक्षत्राणां 'सोहणविहिं' शोधनविधि वक्ष्यमाणं शोधनप्रकारं 'निसा मेह' | निशाम्यत शृणुध्वम् ||३|| प्रथमं पुनर्वसुशोधनकमाह – 'बावीस इत्यादि 'वावीसं' च सुहुत्ता' द्वाविशतिश्च मुहूर्त्ताः एकस्य च मुहूर्त्तस्य ‘छायालीसं विसद्विभागा' षट्चत्वारिंशदद्विषष्टिभागाः - (२२६२) 'ए' एतत् - एतावत्प्रमाणं 'पुणन्वसुस्स' पुनर्वसोः पुनर्वसु नक्षत्रस्य 'सोहेयच्वं भव' शोधयतिव्यं भवति । 'घुच्छं' वक्ष्यामि शेषनक्षत्राणा शोधनकानि अग्रे कथयिष्यामि || ४ || कथमेतस्योत्पत्तिरिति चेदाह - इह यदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेन पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते तदा एकं पर्वातिक्रम्यैकेन पर्वणा कतिपया लभ्यन्ते ? इति त्रिराशिकगणितप्रकारोऽयंजायते, तथा च स्थापना (१२४|५| १ | ) अत्रान्त्येन एककराशिना पञ्चकरूपो मध्यराशिर्गुण्यते तदा जाताः पञ्चैव । तेषां चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन भागो हियते, पञ्चकरूपराशेन्यूनत्वेन भागो न ह्रियते तदा स्थिताः पञ्चैव शेषरूपाः, तेन लब्धाः पञ्च - चतुर्विंशत्यधिकशत भागाः (५।१२४) । ततो नक्षत्रानयनार्थमेष राशिः त्रिंशदधिकैरष्टादशभिः शतैः (१८३०) सप्तषष्टिभागरूपैर्गुणयितव्यइति गुणकारराशिः त्रिंशदधिकान्यष्टादशशतानि (१८३०) छेदराशिश्चतुर्विंशत्यधिकमेकं शतम् ૩૪ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ चन्द्रप्रबप्तिस्त्रे (१२४)। तयोर्गुणकार-छेदराश्योरपवर्त्तना क्रियते ततो गुणकारराशिर्जातः पञ्चदशोत्तराणि नवशतानि (९१५), छेदराशिपिटिर्जातः । ततः पन्च च पञ्चदशोत्तरनवशत (९१५) संख्यया गुण्यप्ते, सातानि पञ्च सप्तत्युत्तराणि पञ्चचत्वारिंशच्छतानि (१५७५), अपवर्तनया लब्धच्छेदराशि पिष्टिरूपः, स सप्तषष्टया गुण्यते, मातानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि एकचत्वारिंशच्छतानि (११५४), तथा पुष्यनक्षत्रस्य ये त्रयोविंशतिः सप्तषष्टिभागाः (२३।६७) ये प्राक्तनयुगचर्मपर्वाणि सूर्येण सह योग युञ्जन्ति ते (२३) द्वापष्टया गुण्यन्ते नातानि षविंशत्यधिकानि चतुर्दशशतानि-(२३४६२=१४२६)। एतानि प्राकनात् पञ्चसप्तत्यधिकपञ्चचत्वारिंशच्छतप्रमाणराशेः (१५७५) शोध्यन्ते तिष्ठन्ति शेषतया एकोनपञ्चाशदधिकैकत्रिशच्छतानि (३१४९)। तत एतानि मुहूर्तानयनाथ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि सप्तत्यधिकचतुःशतोत्तराणि चतुर्णवति सहनाणि-(३१४९४३०=९४४७०)। एषां चतुष्पञ्चाशदधिकैकचत्वारिंशच्छतरूपेण (४११४) भागो हियते, लब्धा द्वाविंशतिर्मुहूर्ताः शेषरूपेण तिष्ठन्ति द्वयशीत्यधिकानि त्रिशच्छतानि (३०८२) तथा च भागहरणस्थापना--(भाजकाः ४१५४) भाज्याः, ९४ ४७० लब्धाः २२)। अस्य शेषाः ३०८२ शेषाङ्काः द्वयशीत्यधिकत्रिंशच्छतरूपाः (३०८२ द्वापष्टिभागानयनाथ द्वाषष्ट्या, गुण्यन्ते, जातं चतुरशीत्यधिकैकनवतिसहस्रोत्तरं लक्षमेकम् (१९१०८४)। एषां चतुष्पञ्चाशदधिकैकचत्वारिशच्छत (४१५४) रूपेण छेदराशिना भागो हियते, लब्धा षटू चत्वारिंशद् एकस्य मुहर्त्तस्य द्वापष्टि भागा इति समागतं पूर्वोक्तं द्वाविंशतिर्महर्ताः पटू चत्वारिंशश्च द्वापष्टिभागाः- (२२-४६) इति प्रमाणं पुनर्वसुनक्षत्रस्य शोधनकम् । एपा पुनर्वसुनक्षत्रस्य शोधनकोत्पत्तिः ॥ अथ 'चुच्छं' वक्ष्ये' इति प्रतिज्ञया शेषनक्षत्राणां शोधनकान्याह-'वायत्तरं सयं' इत्यादि, 'वायत्तरं सयं' इति-द्वासप्ततं शतं चेति द्वासप्तत्यधिकमेकं शतं 'फग्गुणीण' फाल्गुनीनाम् उत्तरफाल्गुनीनां शोध्यं भवति । अयमाशयः-दासप्तत्यधिकेनैकेन शतेन पुनर्वस्वादीनि उत्तरफाल्गुनी पर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धचन्तीति । एवमग्रेऽपि भावार्थो वोध्यः । तथा-'वाणउइय वे विसाहामु' इनि, विशाखासु हस्तादारभ्य विशाखापर्यन्तेपु नक्षत्रेषु शोधनकं द्विनवत्यधिकं शतद्वयम् (२९२) 'अई' अथानन्तरम् 'उत्तरासादा' इति-अनुराधात भारभ्योत्तरापाढा पर्यन्तानि पञ्च नक्षत्राणि अधिकृत्य 'सोज्झा' शोध्यानि, कियन्तीत्याह-'चत्तारि य वायाला' चत्वारिंशतानि द्विचत्वारिंगच्च-इनि हिचल्वारिंशदधिकानि चत्वारिंशतानि (४४२) भवन्तीति ॥५॥ 'एयं पुण' इत्यादि 'एयं' एतत् पूर्वप्रदर्शितं पुनः 'सोहणगं' शोधनकं सर्वमपि 'पुणन्चमुस्स'पुनर्वसोः पुनर्वसुसम्बन्धि वर्तत कियदित्याह-'विसटिभागसहियं द्वापष्टिभागसहितं समवसेयम् । तथाहि-यो पुनर्वसु ६२ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०२०-६ सू० १ पुर्णिमायां नक्षत्रयोगनिरूपणम् २६७ सम्बन्धिनो द्वाविशतिर्मुहूर्तास्ते सर्वेऽपि उत्तरस्मिन् शोधनकेऽन्तः प्रविष्टाः प्रवर्तन्ते किन्तु न द्वाषष्टि भागाः, ततो यद् यच्छोधनकं शोभ्यते तत्र तत्र पुनर्वसु सम्बन्धिनः षट्चत्वारिंशद् द्वाषाष्टिभागा उपरितनाः शोधनीया इति । इदं च पुनर्वसोरारभ्य उत्तरापाढा पर्यन्तं प्रथमं शोधनकमुक्तम् , 'इत्तो' इतः अत्रतोऽग्रे 'अभिइआई' अभिजिदादिम् अभिजितमादि विधाय आदौ अभिजितं कृत्वा 'विइयं सोहणगं' द्वितीय शोधनकं 'पुच्छामि' वक्ष्यामि-कथयिष्यामि ॥६॥ तदेव गाथा चतुष्टयेन दर्शयति 'अभिइस्स' इत्यादि 'अभिइस्स' अभिजितः अभिजिन्नक्षत्रस्य शोधनकं 'नवमुहुत्ता' नवमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य 'चउवीसं विसष्ठिभागा य' चतुर्विशति षष्टिभागाश्च, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य 'सत्तहिछेयकया' सप्तषष्टिछेदकृताः 'समत्ता' समस्ताः रिपूर्णाः शेषरहितत्वात् 'छावट्ठीभागा' षट्पष्टिर्भागाः भवन्ति ।७। तथा 'अउणटुं' इत्यादि, 'अउपहुँ' एकोनषष्टम्-एकोनषष्टयधिकं शतं 'पोट्टवया' प्रोष्ठपदेति पदानाम् उत्तरभाद्रपदानां शोधनकम् , कि तात्पर्यमित्याह-एकोनषष्टयधिकेन शतेन अभिजित मारभ्य उत्तरभाद्रपदापर्यन्त षड्नक्षत्राणि शुद्धयन्ति । एवमग्रेऽपि योजना कर्तव्या। तदेवान्तिमनक्षत्रमाश्रित्य सूचयतिरोहिणिका-अश्विनीत आरभ्य रोहिणी पर्यन्तानि चत्वारि नक्षत्राणि 'तिसु चेव नवोत्तरं च' त्रिषुचैव नवोत्तरेषु च शतेषु नवोत्तराणि श्रीणि शतानि (३०९) नवोत्तरशतत्रयभागः शुद्धयन्ति । तथा 'तिसु नवनवएसु' त्रिषु नवनवतेषु नवनवत्यधिकेषु त्रिषु शतेषु नवनवोत्तरशतत्रय(३९९)भागः 'पुणव्यम' पुनर्वसुः मृगशिरसमारभ्य पुनर्वसुपर्यन्तानि त्रीणि नक्षत्राणि शुद्धयन्ति । तथा नवमगाथापूर्वार्धकथितानि 'अउणपन्नं पंचेव सयाई' एकोनपश्चाशदुत्तराणि पश्चशतानि एकोनपञ्चाशदधिकपञ्चशतभागैः (५४९) 'फग्गुणीओ' फाल्गुन्यः उत्तरफाल्गुन्यः पुष्यत आरभ्य उत्तरफाल्गुनी पर्यन्तानि पञ्चनक्षत्राणि शुद्धयन्ति 1८1 तथा 'विसाहासु' विशाखासु हस्तत आरभ्य विशाखापर्यन्तेषु चतुर्पु नक्षत्रेषु 'अउणुत्तराई' एकोनसप्तस्यधिकानि 'छच्चेव सयाई' षट्शतानि (६६९) 'सोज्झाणि' शोध्यानि भवन्ति । 'मूले" मूलपर्यन्ते अनुराधात आरभ्य मूल नक्षत्रपर्यन्तेषु त्रिषु नक्षत्रेषु 'सत्तेव चोयाल' सप्तैव चतुश्चत्वारिंशत् चतुश्चत्वारिंशदधिकानि सप्तशतानि (७४४) शोध्यानि ॥९॥ 'उत्तरासाढाणं' उत्तराषाढानाम्-उत्तराषाढापर्यन्तानामिति पूर्वाषाढा उत्तरापाढा-इति द्वयोर्नक्षत्रयोः 'सोहणगं' शोधनकम् 'अट्ठसय अउणवीसा' एकोन विंशत्यधिकानि अष्टौ शतानि (८१९) सन्तीति । सर्वेष्वपि च शोधनकेषु उपरि अभिजिन्नक्षत्रस्य मम्बन्धिनो मुहूर्तस्य 'चउवीसं खलु भागा' चतुर्विशति षिष्टिभागा तथा 'छावडीचुण्णियाओ य' षट्पष्टिश्च चूर्णिकाश्च एकस्य द्वाषष्टि भागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागा चूर्णिकाभागाः । ६६६६, शोधनीयाः ॥१०॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ चन्द्रप्राप्तिसूत्र उपसंहारमाह-'एयाई' इत्यादि, 'एयाई' एतानि पूर्वप्रदर्शितानि शोधनकानि यथायोगं 'सोहईत्ता' शोधयित्वा एतेषु शोधितेषु सत्सु 'जं सेस' यत् शेष भवेत् 'तं' तत् 'नक्खत्तं हवई' नक्षत्रं भवति । 'इत्थ य' अत्र च एतस्मिन् नक्षत्रे 'उडुवई' उडुपतिः चन्द्रः 'सूरेण समं' सूरेण सम, सूर्येण सह स्थित्वा 'अमावासं करेइ' अमावास्यां करोति स्वाभीप्सितामावास्यायामेतन्नक्षत्रं भवतीति भावः ॥११॥ एवममावास्याविषयचन्द्रयोगपरिज्ञानार्थ करणमभिहिनम्, साम्प्रतं पूर्णिमाविषयचन्द्रयोगपरिज्ञानार्थ करणमाह-'इच्छापुण्णिमगुणिओ' इत्यादि, अत्रापि योऽमावास्या चन्द्रयोगपरिज्ञानेऽवधार्यराशिः प्रोक्तः स एव ग्राह्यः । 'इच्छापुण्णिमगुणिओ' इच्छितपूर्णिमागुणितः इति अयमवधार्यराशिः-(६६ ) उक्तश्चैष राशिः पूर्व द्वितीयगाथायां, तथाहि 'छावट्ठीयाहुत्ता, विसद्विभागा य पंच पडिपुना। वासद्विभागसहिगो य इको हवइ भागो२॥ इति, व्याख्यातेयं गाथा तत्रैवेति । 'सोत्य' सोऽत्र 'यवहारो थ' अवधार्यराशिः पूर्णिमां ज्ञातुमिच्छति तत्संख्यया गुणितः 'कायव्यो होई' कर्त्तव्यो भवति गुणयितव्य इत्यर्थः, गुणयित्वा च 'तं चेव य सोहणगं' तदेव च शोधनकं पूर्वप्रदर्शितं शोधनकम् 'अभिइआई अभिजिदादिक 'कायचं' कर्त्तव्यम्, न तु पुनर्वसुप्रभृतिकमिति भावः ।१२। 'सुद्धस्मि य सोहणगे' शुद्धे च शोधनके, कृते च शोधनके 'जं सेस तं' यत् शेपं तत् 'नक्खत्त' नक्षत्रं 'हविज्ज' भवेत् तस्यां पूर्णिमायाम् । 'तत्थ य' तत्र च तस्मिन् नक्षत्रे 'उडवई' उडुपतिः चन्द्रः 'पडिपुन्नो' प्रतिपूर्णः सकलकलासम्पन्नः 'विमल पुण्णिम' विमलां निर्मला पूर्णिमा 'करेइ' करोति । इत्येप पौर्णमासी. चन्द्रनक्षत्रपरिज्ञानविषयकरणगाथाद्याक्षरार्थः । अथात्रास्यैव भावना क्रियते-अत्र कोऽपि प्रच्छकः प्रश्नं करोति-युगस्यादौ प्रथमा पूर्णिमा श्राविष्ठी श्रावणमासभाविनी भवति सा कस्मिन् चन्द्रनक्षत्रे समाप्तिमेति ? इति प्रश्ने तत्रावधार्यो राशिः-पट्पष्टिमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य परिपूर्णाः पञ्चद्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तपष्टितमो भागः --६६ ११ १इत्येतद्रूपोऽवधार्यगशिः स्थाप्यते, एष राशिः प्रच्छकेन ६६६२६७ ५१ प्रथमायाः पौर्णमास्याविपये प्रश्नः कृत स्तत एकेन गुण्यते, एकेन गुणितः स एव भवति “एकेन गुणितं तदेव भवति" इति वचनात् , ततस्तस्मात् अभिजितो नवमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्वि शति विष्टिभागाः, एकस्य द्वापष्टिभागस्य पट्पष्टिमप्तपष्टिभागाः (९ - te_२४१६६) इत्येतत्परिमा ६२।६७ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १०-६ सू०१ पुर्णिमायां नक्षत्रयोगनिरूपणम् २६९ णकं शोधनकं शोधनीयम्, तत्र षट्पष्टितो नव मुहूर्ताः शोधिता. स्थिता. शेषाः सप्तपञ्चाशत् (५७) तेभ्य एक मुहूर्त गृहीत्वा तस्य द्वापष्टिर्भागाः क्रियन्ते, ते च द्वापष्टिभागा अपि द्वापष्टिभागराशौ पञ्चकरूपे प्रक्षिप्यन्ते जाताः सप्तपष्टिषष्टिभागाः, तेभ्यश्चतुर्विशति शोध्यते स्थिताः शेपास्त्रिचत्वारिंशत् (४३) तेभ्य एकं रूपं गृहीत्वा तस्य सप्तपष्टिर्भागाः क्रियन्ते, कृताश्च ते सप्तपष्टिभागा अपि सप्तपष्टिभागानामेकभागमध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जोता अष्टपष्टिः सप्तपष्टिभागाः (तेभ्यः पट्यष्टिः शोध्यते तदा स्थितौ शेपो द्वौ सप्तपष्टि भागौ(५६- - ततः श्रवणस्य त्रिंशन्मुहूत्र्ता पट्पञ्चशतः शोध्यन्ते स्थिताः शेपाः पविंशति र्मुहूर्ताः, तत आगतं धनिष्ठानक्षत्रस्य पड्विशतिमुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य द्विचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु गतेपु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्विसंख्यकसप्तपष्टि भागे ( २६४२.२ ) व्यतीते सति, तथा-त्रिपु मुहूर्तेषु, एकस्य मुतस्य एकोनविंशतिसंख्यकेषु द्वापष्टिभागेपु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चपष्टिसख्यकसप्तपष्टिभागेषु च शेषेषु प्रथमा श्राविष्ठी पौर्ण मासी परिसमाप्तिमेति । यदि द्वितीया श्राविष्ठी पूर्णिमा विचार्यते तदा सा युगस्यादितः आरभ्य त्रयोदशो भवति । अवधार्यराशिः पूर्वोक्त एव (६६-५/६७ त्रयोदशभिर्गुण्यते जाता अष्ट पञ्चाशदधिकानि अष्टशतानि मुहूर्ताः (८५८) एकस्य च मुहूर्तस्य पश्चपष्टिषष्टि भागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सम्बन्धिनलयोदशसप्तपष्टिभागाः(८५८ ) एतस्मात् एकोनविंशत्यधिकाष्टशत-८१९ मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्ठिभागस्य सम्बन्धिनः षट्पष्टिः सप्तपष्टि भागाः ६६ (८१९-२६३एकस्य नक्षत्रपर्यायस्यशोध्यन्ते, ततः स्थिताः शेपा:-कोनचत्वारिंशन्मुहूर्ता. एकस्य च मुहर्तस्य चत्वारिंशद् द्वापष्टि भागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्दश सप्तषष्टि भागाः- (३९४०१.४), तत एतस्मात् नव मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशतिपष्टिभागा. एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पष्टि. सप्तपष्टि भागाः अभिजिन्नक्षत्रस्य शोध्यन्ते, स्थिताः शेषाः त्रिंशन्मुहूर्ताः, एकस्य मुहूर्तस्य पञ्चदश द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वाष्टिभागस्य पञ्चदश सप्तपष्टिमागाः (३०-१५/१५), तेभ्यस्त्रिशन्मुहूर्ता श्रवणस्य शोध्यन्ते, तत आगतम्-एकस्य मुहू Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रसू ૨૭૦ तस्य वदशसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चदशसु सप्तपष्टिभागेपु १५. ६) गतेषु सत्सु तथा एकोनत्रिंशति मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य पट्चत्वारिंशति द्वापष्टि १५| ६२ 0 ६ ૬૭ भागेपु. एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्विपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु (२९- १३ ६)शेषेषु च धनिष्ठानक्षत्रं द्वितीयां श्राविष्ठ पूर्णिमां परिसमापयति । यदा तृतीयां श्राविष्ठीं पूर्णिमां ज्ञातुमिच्छेत् तदा सा युगस्यादितः पञ्चविंशतितमेति पञ्चविंशत्या पूर्वोक्तोऽवधार्यराशिर्गुण्यते, जातानि पञ्चाशदधिकानि पोडशशतानि (१६५०), एकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्चविंशत्यधिकमेकं शतं द्वाषष्टिभागाः १२५/२५)। (१२५) एकस्य च द्वाष्टि भागस्य पञ्चविंशतिः सप्तषष्टिभागाः २५ ( १६५० ६२ ६७ अस्मात् अष्ट त्रिंशदधिकपोडशशतमुहूर्त्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वात्रिंशदधिकं शतम् ( १६३८-०२ / २३२) द्वयोर्नक्षत्रपर्याययोः शोध्यन्ते, स्थिताः शेषाः द्वादशमुहूर्त्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य पंञ्चसप्ततिद्वपिष्टिभागाः, च द्वापष्टिभागस्य सप्तविंशतिः ६७' एकस्य सप्तपष्टिभागाः ,७५/२७. १२ --- २४ ६६ ६२ ६७)। ततो नव मुहूर्त्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विशति र्द्वापष्टिभागाः एकस्य च द्वापष्टभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागाः (९- 1) शोध्यन्ते, तिष्ठन्ति शेषाः त्रयो मुहर्त्ताः, एकस्य च मुहू६२/६७ र्त्तस्य पञ्चाशत् द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्याष्टाविंशतिः सप्तपष्टिभागाः (३६८२ ६० एतेषु भागेषु गतेषु, तथा पर्विंशतौ मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकादशसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकोनचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु (२६६६३ ६४) शेपेषु सत्सु च श्रवणनक्षत्रं तृतीयां श्राविष्ठीं पौर्णमासीं समापयति । एवं रीत्या चतुर्थी श्राविष्ठ पूर्णिमां युगस्यादितः सप्तत्रिंशत्तमां (३७) धनिष्ठानक्षत्रं त्रयोदशसु मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टा विंशती द्वापष्टिभागेपु एकस्य च द्वाषष्टिमागस्य द्विचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेपु, २८ ४२ ( १३ गतेषु तथा पोढशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहर्त्तस्य त्रयस्त्रिंशति द्वापष्टिभागेपु, ६२ ६७एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चविंशतो मप्तषष्टिभागेषु (१६ - ३३/२५. . शेषेषु सत्सु परिसमा ६२/६ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १०- ६२० १ पूर्णिमायां नक्षत्रयोगनिरूपणम् २७९ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm पयति । पञ्चमी श्राविष्ठी पूर्णिमां युगादित एकोनपश्चाशत्तमां श्रवणनक्षत्रं सप्तदशसु मुहूर्तेषु, एकस्य मुहूर्तस्यैकस्मिन् द्वापष्टिभागे, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु १७/१/४५ । गतेषु, तथा द्वादशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य पष्टिसंख्यकेषु द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापण्टिभागस्य द्वाविंशतौ सप्तपष्टिभागेषु (१२६०२२) शेषेषु परिसमापयति । अतएव सूत्रे कथितम्-"ता साविहिं ण पुण्णमासिं कइ णक्खत्ता जोएंति ? ता तिण्णिणक्खत्ता जोएंति, तं जहा अभिई १ सवणो२ धणिद्वा३ ।" इति ॥१॥ तदेवं श्राविष्ठोपूर्णिमापरिसमापकानि नक्षत्राणि प्रदर्शितानि, साम्प्रतं यानि नक्षत्राणि प्रोष्ठपदी पूर्णिमां समापयन्ति, तानि प्रदर्शयति-'ता पोवई णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'पोवई णं पुण्णिम' प्रोष्ठपदी भाद्रपदमासभाविनी खलु पूर्णिमां 'कई' कति कति संख्यकानि 'णक्खत्ता' नक्षत्राणि चन्द्रेण 'जोएंति' युञ्जन्ति इत्यादि, कतिनक्षत्राणि चन्द्रेण सह योगं युक्तवा भाद्रपदभाविनी पूर्णिमां समापयन्तीति भावः । भगवानाह -- 'ता तिण्णि' इत्यादि । 'ता' तावत् 'तिणि णक्खत्ता' ,णि नक्षत्राणि 'जोएंति' युनन्ति प्रोष्ठपदीपर्णिमानक्षत्रत्रययुक्ता भवतीति भावः। तान्येव दर्शयति- 'तं जहा' इत्यादि 'तं जहा' तद्यथा तानि नक्षत्राणि यथा-'सयभिसया' शतभिषक् १ 'पुन्वा पोहवया' पूर्वप्रोष्ठपदा पूर्वाभाद्रपदा २ 'उत्तरा पोट्टवया' उत्तरप्रोष्टपदा-उत्तराभाद्रपदा ३॥ तत्र प्रथमा प्रोष्टपदी पूर्णिमाम् उत्तरभाद्रपदानक्षत्रं सप्तदशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिपु सप्तषष्टिभागेषु, (१७-१७ ३) गतेषु, तथा सप्तविंशतौ मुहूर्तपु, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्दशसु द्वापष्टिभागेपु . एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतु:पष्टौ सप्तपष्टिभागेषु (२०१६६४) शेषेषु ममापयति उत्तरभाद्रपदानक्षत्रस्य पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् १। द्वितीयां प्रोष्ठपदी पूर्णिमा पूर्वभाद्रपदानक्षत्रम्-एकविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य मुहूर्त्तस्य च विंशतौ द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षोडशसु सप्तपष्टिभागेपु (२१ .५) गतेपु, तथा अष्टसु मुहूर्तेपु. एकस्य च मुहूर्तस्य एकचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एक पञ्चाशति सप्तपष्टिभागेपु ( ८११.५१) शेषेषु परिसमाप्ति नयति २ । तृतीयां प्रोष्ठपदी पूर्णिमां शतमिपग् नक्षत्रं नवस मुहूत्तेपु, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चपञ्चा शति द्वापष्टिमागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकोन त्रिंशति ,सप्तपष्टिभागेपु (९ ) Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ चन्द्रप्रप्तिसूत्रे गतेषु तथा पञ्चसु मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य षट्सु द्वापष्टिभागेपु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य अष्टाविंशती सप्तषष्टिभागेषु (५६३३८) शेषेषु च समापयति शतभिषग्नक्षत्रस्य पञ्चदश मुद्दर्त्तात्मकत्वात् '३॥ चतुर्थी प्रोष्ठपदीं पूर्णिमाम् उत्तरभाद्रपदानक्षत्रं चतुर्षु मुहूर्त्तेपु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य विंशति द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु २० ४३) गतेपु, तथा चत्वारिंगति मुहूर्त्तेपु, एकस्य न मुहूर्त्तस्य एकचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु ( ४ - ६२ ६७ PAW AN ६ एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्विंशतौ सप्तपष्टिभागेषु ( ४०६३१ ३२) शेषेषु समापयति उत्तरभाद्रपद नक्षत्रस्य पञ्च चत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् |४| पञ्चमीं प्रोष्ठपदीं पूर्णिमां पूर्वभाद्रपदा नक्षत्रम् अष्टसु मुहूर्त्तेषु. एकस्य च मुहूर्त्तस्य गपट्सु द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पञ्चा - शति सप्तपष्टभागेषु ( ८३ २८) गतेपु, तथा एकविंशतौ मुहूर्त्तेषु एकस्य मुहूर्त्तस्य पञ्च ६५६ पञ्चाशति द्वापटिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकादशसु सप्तषष्टिभागेषु (२१६०२/३० - शेषेषु परिसमाप्ति नयतीति २ ।' आसोइं णं' इत्यादि 'आसोई णं' आश्विनीम् आश्विनमा सभाविनीं खलु 'पुण्णिमं' पूर्णिमां 'कइणक्खत्ता जोएंति' कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति चन्द्रेण सह - योगं कृत्वा समापयन्ति ? भगवानाह – 'ता' तावत् 'दोणि णक्खत्ता' द्वे नक्षत्रे 'जोति' युक्तः 'तं जहा ' तद्यथा--' - 'रेवर्ड य अस्सिणी य' रेवती च अश्विनी च । काञ्चिद् आश्विन पौर्णमासीम् उत्तरभाद्रपदा नक्षत्रमपि कदाचित् परिममापयति परं तन्नक्षत्रं प्रोष्ठपदीमपि पूर्णिमां समापयति अतो लोके तन्नाम्ना तस्या एव पूर्णिमाया अभिधानात्तत्रैव तस्य प्राधान्यम, अतोऽत्र तन्न विवक्षितमिति न दोपः । आश्विन पूर्णिमाममाप्तिप्रकारमाह-- प्रथमामाश्विनीं पौर्णमासीमश्विनीनक्षत्रम् अष्टसु - मुहूत्र्त्तेपु, एकस्य च महत्तस्य द्विपञ्चाह । पष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्षु सप्तष्टिभागेषु (८) 5) गतेपु, तथा एकविंशतौ महत्तैपु एकस्य च मुहूर्त्तस्य नवसु द्वापष्टिभागेपु ६२/६२ , ५२ ४. ६३, ६ ३ ६ ३) एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिष्टौ मप्तपष्टिमार्गेषु (२१ माश्विनों पौर्णमासी श्वतीनक्षत्रं द्वादशसु मुहर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्चविंशतौ द्वापष्टिभागेपु, ६२ ६७ शेपेषु समापयति । द्वितीया Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १०-६ सू०१ पूर्णिमायां नक्षत्रयोगनिरूपणम् २७३ एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तदशसु सप्तषष्टिभागेपु २८ गतेपु, तथा' सप्तदशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य पत्रिंशति द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चाशतिसप्तपष्टिभागेषु (१७३६।५० शेपेषु समापयति २ । तृतीयामाश्विनी पौर्णमासीमुत्तराभाद्रपदानक्षत्रं त्रिंशतिमुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य पष्टौ द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वाष्टिभागस्य त्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु ( ३०० गतेषु तथा चतुर्दशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्यैकस्मिन् द्वापष्टिभागे, एकस्य च द्वापण्टिभागस्य सप्तत्रिंगति सप्तपष्टिभागेपु(१४१३) शेपेषु समापयति उत्तराभाद्रपदनक्षत्रं पञ्च चत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकमस्तीति पूर्वकथितमेवेति । ३। चतुर्थीमाश्विनी पौर्णमासी रेवतीनक्षत्रं पञ्चतिगतौ मुहूर्तपु, एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टाविशतौ 'द्वापष्ठिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुश्चत्वारिंगति सप्तषष्टिभागेपु (२५२८९१) गतेपु, तथा चतुर्यु मुहर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रयस्त्रिंशति द्वाष्टिभागेषु एकस्य च द्वाष्टिभागस्य त्रयोविंशतौ सप्तपष्टिभागेषु ४२२२शेपेषु समापयति ।४। पञ्चमीमाश्विनी पौर्णमासीमुत्तरभाद्रपदनक्षत्र चतुश्चत्वारिंशति मुहूर्तेपु एकस्य च मुहूर्त्तस्यैकादशसु द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापन्टिभागस्य सप्तपश्चागति सप्तपष्टिभागेपु (१४ ) गतेपु तथथैकस्य मुहूर्तस्य पञ्चागतिं द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य दशसु सप्तपष्टिभागेषु (०५०१०) शेपेषु समाप्ति नयति उत्तरभाद पदनक्षत्रस्य पञ्चत्वारिंगन्मुहूर्तात्मकत्वात् ॥५॥ गता आश्विनो पूर्णिमावक्तव्यता अथ कार्तिकी पूर्णिमा परिसमाप्तिप्रकारमाह 'कत्तिय'इत्यादि 'कत्तियं णं पुण्णमं' कार्तिकी कार्तिकमासभाविनी खलु पूर्णिमां कइ णक्खत्ता जोएंति' कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति कियत्संख्यकाणिनक्षत्राणि चन्द्रेण सह योगं कृत्वा कार्तिकीपूर्णिमां परिसमापयतीति गौतमस्य प्रश्नः । भगवानाह 'ता' तावत् 'दोणि णक्खत्ता' द्वे नक्षत्र 'जोएंति' युवतः 'तं जहा' तद्यथा ते इमे 'भरणी कत्तियाय' भरणी कृत्तिका च । इहापि काञ्चित् कार्तिकी पूर्णिमा कदाचित् अश्विनीनक्षत्रमपि समापयति किन्तु तस्याश्विन्यां पूर्णिमायां प्राधान्यात् , तदत्र न विवक्षितमतो ६२/६७ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vvvvvvvvvws द चन्द्रप्राप्तिसूत्रे २७४ ऽत्र भरण्याः कृत्तिकायाश्च योगप्रकारमाह--प्रथमां कार्तिकी पूर्णिमां कृत्तिकानक्षत्रमेकोनत्रिंशति मुहर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तपश्चाशति द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पश्चसु सप्तषष्टि भागेषु (२९ गतेषु तथैकस्य मुहूर्तस्य चतुर्यु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य द्वाषष्टौ सप्तषष्टि भागेषु (०१.६२) शेषेषु समाप्ति नयति ।१॥ द्वितीयां कार्तिकी पूर्णिमा कृत्तिकानक्षां त्रिषु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य अष्टादशसु सप्तषष्टिभागेषु ३३०१८ गतेषु तथा षड्विंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहू तस्य एकत्रिंशति द्वाषष्टि भागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकोनपञ्चाशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु समापयति ।२।-तृतीयां कार्तिकी पूर्णिमामश्विनीनक्षत्रं द्वाविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिषु द्वाषष्टि भागेषु एकस्य च द्विषष्टि भागस्य एकत्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु - गतेपु तथा सप्तसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टपञ्चाशति द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाष्टिभागस्य षट्त्रिंशति सप्तपष्टि भागेषु(७ ५८३६) शेषेषु समापयति ।३। चतुर्थी कार्तिकी पौर्णमासी कृत्तिकानक्षत्रं त्रयोदशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रिषु द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पश्च चत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु [ १३३-18] गतेषु तथा षोडशमु मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टापश्चाशति द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वाविंशतो सप्तपष्टिभागेषु ( १६१८१२२ शेषेषु समापयति ।४। पञ्चर्मी कार्तिकी पूर्णिमां भरणीनक्षत्र पञ्चसु मुहूर्तेपु, एकस्य च मुर्तिस्य पोडशमु द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्याष्टपश्चाशति सप्तपष्टि भागेषु ५१६ गतेपु, तथा नवसु मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य नवमु सप्तपष्टिभागेषु ९४५ ९ शेषेषु समातिं नयति, भरणीनक्षत्रस्य पञ्चदशमुहूर्तात्मकत्वात् ।५। ६२18७० ६२६७ ६२६७ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा० १०-६० १ पूर्णिमायां नक्षत्रयोगनिरूपण २७५ उक्तः कात्तिक पूर्णिमाया नक्षत्रयोगप्रकारः, अथ मार्गशीर्षमास पूर्णिमाया नक्षत्रयोगमाह'मग्गसिरिं णं' इत्यादि 'मग्गसिरिं णं पुष्णिमं' मार्गशीर्षी मार्गशीर्ष मासभाविनीं खलु पूर्णिमां 'कइ णक्खत्ता एंति' कतिनक्षत्राणि युञ्जन्ति भगवन्नाह - 'ता' तावत् ' दोणि णक्खत्ता जति' द्वे नक्षत्रे युक्त 'तंजहा' तद्यथा - ते इमे - 'रोहिणी मग्गसिरोय' रोहिणी मृगशिरश्च । तत्रप्रथमां मार्गशीर्षौ पूर्णिमां मृगशिरोनक्षत्रम् — एकविगतौ मुहूर्त्तेपु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य - सम्बन्धिनो द्वाषष्टिभागस्य षट्सु सप्तषष्टिभागेषु २१ - - | ६१ गतेषु तथा - अष्टसु मुहूर्त्तेपु, एकस्य च मुहू६२/६७ र्त्तस्य सम्बन्धिद्वाषष्टिभागस्य एकषष्टौ सप्तपष्टि भागेषु (८- . शेषेषु समाप्तिं नयति । १ । द्विती६२/६७ ० यां मार्गशीर्षी पूर्णिमां रोहिणीनक्षत्रम् — एकोनचत्वारिंशति मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्चत्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकोनविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु ३९ ६२/६७ ३५/१९ गतेषु तथा पञ्चसु मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य षड्विंगतौ द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य अष्टचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु ५. २६ |४८ शेषेषु समापयति, रोहिणीनक्षत्रस्य पञ्चचत्वारिंशन्मु ६२ ६७ हूर्त्तात्मकत्वात् ॥२॥ तृतीयां मार्गशीर्षी पौर्णमासीमपि रोहिणी नक्षत्रम् त्रयोदशसु - मुहूर्त्तेपु, एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टसु द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वाविंशति — सप्तषष्टि ८ २२ भागेषु १३ - गतेपुं तथा एकत्रिंशति मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रिपञ्चाशति द्वाषष्टि ६३/६७ 1 भागेषु, एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य पञ्चचत्वारिंशति सप्तषष्टि भागेषु — ३१ ५३/४५ शेषेषु परिपूरयति ।३। चतुर्थी मार्गशीर्षी पूर्णिमां मृगशिरोनक्षत्रे सप्तसु मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टचत्वारिंगति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्चत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु ७ ४८४६ ६२ ६७ गतेषु तथा द्वाविंशतौ मुहूर्त्तेपु एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रयोदशसु षष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टि भागस्यैकविंशतौ सप्तषष्टि भागेषु २२१३/२१ शेषेषु समापयति ।४। पञ्चमी मार्गशीष पूर्णिमां ६२ | रोहिणी नक्षत्रं षड्विंशतौ मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्यैकविंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च २१/५९ गतेषु, तथा अष्टादशसु मुहूर्त्तेषु, एकस्य च ६२ ६७ द्वाषष्टिभागस्यैकोनषष्टौ सप्तषष्टिभागेषु २६ 1.2 . Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૬ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे ६०६७ मुहत्तस्य चत्वारिंश्यति द्वापष्टि भागेपु, एकस्य च द्वापष्टि भागस्याप्टसु सप्तपष्टिभागेपु, १८४०८शेपेषु समाप्ति नयति ।। उक्ता मार्गशीपीपौर्णमासी वक्तव्यता, साम्प्रतं पौपी-पौर्णमासी-वक्तव्यतामाह'ता पोसिं णं' इत्याटि 'ता' तावत् 'पोसिं ण' पुण्णिम' पौषी पौषमासभाविनी खलु पूर्णिमां 'कइ णक्खत्ता जोएंति' कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति, कतिसंख्यकानि नक्षत्राणि चन्द्रेण सह योगं कृत्वा पौपी पूर्णिमा परिसमापयति ? भगवानाह-'ता' तावत् 'तिण्णि णक्खत्ता जोएंति' त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति, 'तं जहा' तद्यथा-तानीमानि–'अदा' आर्द्रा 'पुणव्यसू' पुनर्वसुः २, 'पुस्सो' पुष्यः ३, तत्र प्रथमां पोपी पौर्णमासी पुनर्वसुनक्षत्रं द्विचत्वारिंशति मुहूर्तेषु, एकस्य च मुर्तस्य पञ्चसु द्वापष्टिभागेपु,. एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तसु सप्तपष्टिभागेषु-(४२३२८ गतेपु; तथा-द्वयोर्मुहूर्त्तयोः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य पट्पञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पष्टौ सप्तपष्टिभागेषु (२०६०६९ शेपेषु समाप्ति नयति पुनर्वमुनक्षत्रस्य पञ्च चत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् १, द्वितीयां 'पोपी पौर्णमासी पुनर्वसुनक्षत्रम् पञ्चदशसु मुहूर्तपु, एकस्य च मुहूर्तस्य चत्वारिंशति द्वापष्टिभागपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य विंगतौ सप्तपष्टिभागेषु (१५० ) गतेपु, तथा-एकोनत्रिंशति मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्तस्यै कविशतौ द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशति सप्तपष्टि भागेषु (२९, १७) शेपेषुः समापयतिं २, तृतीयां पौपी पूर्णिमामग्रेऽधिकमासस्यागमिष्यमाणत्वादधिकमासाटर्याक्तनी पौर्णमासीमामा॑नक्षत्रं चतुर्पु मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रयोदशसु द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु (१९२२) गतेषु तथा--दशसु मुहतपु, एकस्य च मुइतस्याप्टचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुस्त्रिअनि सप्तपष्टिभागेषु (१०४०।२९) शेपेषु समाप्ति नयति, आर्द्रानक्षत्रस्य पञ्चदशमुहूर्तात्मकन्चात् ३, पुनश्चाधिकमासमाविनीमपरां तृतीयां पौपी पूर्णिमा पुप्यनक्षत्र दशसु मुहर्तेपु, एकस्य च मुहूर्तस्याप्टादशसु द्वापप्टिभागपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु दश६७ ६२ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १०-६०१ पूर्णिमायां नक्षत्रयोगनिरूपणम् २७७ ( १. १८/३४) गतेपु, तथा — एकोनविंगतौ मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य चत्वारिगति द्वाषष्टि ६२।६७ भागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयस्त्रिगति सप्तपष्टिभागेषु ( १९ - - ९४२।१२) शेषेषु समाप यति ३, चतुर्थी पौषीं पौर्णमासीं पुनर्वसु नक्षत्रम् – अष्टाविशतौ मुहूर्त्तेपु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रिपञ्चागति द्वाषष्टिभागेपु. एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तचत्वारिगति सप्तपष्टिभागेपु तथा — पोङगसु मुहूर्त्तेपु, एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टसु द्वाषष्टिभागेषु, (२८ ५३।४७) गतेपु, ६२।६७ ८ ।२०. '६२।६७ एकस्य च द्वापष्टिभागस्य विंगतौ सप्तषष्टिभागेपु (१६ शेपेपु परिणमयति ४, पञ्चमी पौषीं पौर्णमासीं पुनर्वसुनक्षत्रं द्वयोर्मुहूर्त्तयोः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य पविगतौ द्वाषष्टिभागेपु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षष्टौ सप्तपष्टिभागेषु (२२६/६०) गतेषु, तथा —— — द्विचत्वारिंशतिमुहू '६२।६७' पु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्चत्रिंशति द्वापष्टि भागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तसु सप्तपष्टि भागेषु (४२ - - ) शेपेषु समाप्तिं नयति ॥५॥ ३५/७ ६२६७ गता पौपी पौर्णमासी वक्तव्यता, अथ माघी पौर्णमासी वक्तव्यतामाह - ' ता माहि णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'माहि णं पुण्णमं' माधी माघमासभाविनीं पूर्णिमां ' कइ णक्खत्ता जोएंति' कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ! भगवानाह - 'ता' तावत् माघीं खलु पूर्णिमां 'दोण्णि णक्खत्ता जोएंति' द्वे नक्षत्रे युक्तः, 'तं जहा' तद्यथा - ते इमे – 'अस्सेसा महा य' अश्लेषा मधा च । अत्रच' शब्दात् काञ्चिन्माघी पूर्णिमां पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रं, काञ्चिच्च पुष्यनक्षत्रमपि युनक्ति योगं करोतीति विज्ञेयम् । तथाहि-- प्रथमां माघ पौर्णमासीं मघानक्षत्रम् - अष्टादशसु मुहूर्त्तेषु, एकस्य च ं मुहूर्त्तस्य दशसु द्वापष्टि भागेपु, एकस्य च द्वापष्टि भागस्याष्टसु सप्तषष्टिभागेषु १०१८ ६२।६७ (१८६२।६७) गतेषु, तथा—एकादशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्यैकपञ्चागति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकोनषष्टौ सप्तपष्टिभागेषु (११ ५१/५१, -) शेषेपु, समापयति १, द्वितीयां माघीं पौर्णमासीमा श्लेषानक्षत्रम् षट्सु मुहूर्त्तेपु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्चचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च- -द्वाषष्टिभागस्यैकविंगतौ सप्तषष्टिभागेषु (६) ४५/२१ '६२।६७ 21, 2 1/ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे ६२४७ गतेपु, तथा—अष्टसु मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्तस्य पोडशसु द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापप्टिभागस्य षट्चत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेपु (८१६।४६) शेपेषु समाप्ति नयति २, तृतीयां माघीं पूर्णिमा पूर्वाफाल्गुनीनक्षमेकस्मिन् मुहूर्ते, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशतौ द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चत्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु (१२३।३५) गतेषु, तथा—अष्टाविंशतौ मुहूर्तपु, एकस्य च मुहूर्तस्याष्टत्रिंशति द्वाषष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वात्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु (२८ )शेषेपु समापयति ३, चतुर्थी माघी पौर्णमासी मघानक्षत्रं चतुर्यु मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टपञ्चाशति द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्याष्टचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु (१८४८) गतेपु, तथा--पञ्चविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूंतस्य त्रिपु द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकोनविंशतौ सप्तपष्टिभागेषु (२५ शेपेपु समापयति ४, पञ्चमी माघी पौर्णमासी पुष्यनक्षत्रं त्रयोविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मूर्तस्यैकत्रिंशति द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकपष्टौ सप्तपष्टिभागेषु (२३२९१६२) गतेपु, तथा—पट्सु मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पढ्यु सप्तपष्टिभागेषु (६३०। ६) शेपेषु समापयति ।५॥ . व्याख्याता माघी पौर्णमासी, अथ फाल्गुनी पौर्णमासी विवृणोति–'ताफग्गुणिं ण' इत्यादि 'ता तावत् 'फग्गुणि णं पुण्णिम' फाल्गुनी फाल्गुनमासभाविनी-खल पूर्णिमां 'कइ णक्खता जोएंति'कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ? भगवानाह-'ता दुन्ति णक्खत्ता जोएंति'तावत् द्वे नक्षत्रे युक्तः, 'तं जहा' तद्यथा ते इमे "पुव्वफग्गुणी उत्तरफग्गुणीय' पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी च। तत्र-प्रथमा फाल्गुनी पौर्णमासीमुत्तराफाल्गुनी नक्षत्रं चतुर्विशतौ मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चदशसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य नवसु सप्तपष्ठिभागेषु (२४१५...) ६८१६७ गतेपु, तथा-विंगतौ मुहूर्तपु, एकस्य च मुइतस्य पट्चत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापप्टिमागस्याप्टापञ्चाशति सप्तपष्टिमागेपु (२०१६.५८) शेषेषु परिसमापयति, उत्तरा ६२।६७ ६रा६ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दरा६७ ६२। ६७ ६२।६७ चन्द्रप्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १०-६ सू०१ पूणिमायां नक्षत्रयोगनिरूपणम् २७९ फाल्गुनी नक्षत्रस्य पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् ।१। द्वितीयां फाल्गुनी पौर्णमासी पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रं सप्तविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चागति द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वाविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु (२७५०।२२ ) गतेषु, तथा-द्वयोर्मुहूर्त्तयोः, एकस्य च मुहूर्तस्यै कादशसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु (२.१. -) शेषेषु समाप्ति नयति ।२। तृतीयां फाल्गुनी पौर्णमासीमुत्तराफाल्गुनीनक्षत्रं सप्तत्रिंशतौ मुहूर्तेपु,एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टाविंशतौ द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्त्रिंशति सप्तपष्टि भागेपु(३७२८.२६) गतेषु, तथा सप्तसु मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रयस्त्रिंशति द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकत्रिंशति सप्तपष्टि भागेषु ( ७३३॥३१ ) शेषेषु समापयति ।३। चतुर्थी फाल्गुनी पौर्णमासीमुत्तराफाल्गुनीनक्षत्रम्-एकादशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्यैकस्मिन् द्वापष्ठिभागे, एकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकोनपञ्चाशति सप्तपष्टिभागेषु ') गतेपु, तथा-त्रयस्त्रिंशति मुहर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य पष्टौ द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्याष्टादशसु सप्तपष्टिभागेषु (३३६०।१८, शेषेषु परिणमयति ।। पञ्चमी फाल्गुनी पौर्णमासी पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्रं चतुर्दशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य षट्त्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वाषष्टौ सप्तपष्टिभागेषु १४२६६२) गतेषु, तथा - ६२।६७ , तथा - पञ्चदशसु मुहूर्तपु, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चविंशतौ द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चसु सप्तषष्टिभागेषु ( १५२१०५ शेषेषु परिसमापयति ।५। ६शद ___ गता फाल्गुनी पूर्णिमावक्तव्यता, साम्प्रतं चैत्रीमाह-'ता चेति णं' इत्यादि 'ता चेति णं' तावत् चत्री चैत्रमासभाविनी खल्ल 'पुण्णिम' पूर्णिमां 'कइ णक्खत्ता' कति नक्षत्राणि 'जोएंति' युञ्जन्ति चन्द्रेण सह संयुज्य चैत्री पूर्णिमां समापयति, भगवानाह—'ता' तावत् 'दोण्णि णक्खत्ता जोएंति' द्वे नक्षत्रे युक्तः, 'तं जहा' तद्यथा-ते यथा—'हत्थो चित्ताय' हस्तिः चित्रा च । तत्र--प्रथमां चैत्री पौर्णमासी चित्रानक्षत्रं पश्चदशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहू Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० चन्द्रप्राप्तिसूत्रे ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ vvvvvv ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ६२१६७ ६२।६७ था ६०६७ त्वा 21६७ तस्य विंगतौ द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभगस्य दशसु सप्तपष्टिभागेपु (१५२०१० गतेषु तथा—चतुर्दशसु मुहूत्र्तपु, एकस्य च मुहूर्तस्यैकचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तपञ्चाशति सप्तपष्टिभागेषु (१४४९५७) शेपेषु समापयति ।१। द्वितीयां चैत्री पौर्णमासी हस्तिनक्षत्रम्-अष्टादशसु मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चपञ्चाशति द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयो विंगतौ सप्तपष्टिभागेषु (१८१५९२) गतेपु, तथा एकादशसु मुहर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य पट्सु द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुश्चत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु (११६ १४४) शेपेपु समाप्ति नयति ।२। तृतीयां चैत्री पौर्णमासी ६२/६७ चित्रानक्षत्रम्-अष्टाविंगतौ मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयस्त्रिंशति द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागन्य सप्तत्रिंगति सप्तषष्टिमागेपु (२८३३३३७) गतेपु तथा—एकस्मिन् मुहूर्ते, एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टाविंशतौ द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेपु (१९८४) शंपेषु समाप्ति नयति ।३। चतुर्थी चैत्री पौर्णमासी चित्रानक्षत्रं द्वयोर्मुहूतयोः, एकस्य च मुहूर्तस्य पमु द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चाशति सप्तपष्टिभागेपु (२५ ) गतेपु, तथा सप्तविशती मुहूर्तपु, एकस्य च मुइतस्य पञ्चपञ्चाशति द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तदशसु सप्तपष्टिभागेपु (२७५५११७) शेपे' परिणमयति ।४। पञ्चमी चैत्री पौर्णमासी हस्तिनक्षत्रं पञ्चसु मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्तस्यैक चत्वारिंगति वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिपष्टौ सप्तपष्टिभागेषु (५४११६२ '६२२६७ गतेपु, तथा---चतुर्विगतौ मुहूर्तपु, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिंगतौ द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागन्य चतुर्युसप्तपष्टि भागेषु (२४ ) शेपेषु समापयति ॥५॥ त्र्यान्याना चैत्री पौर्णमासी. साम्प्रत वैशाग्वीं पौर्णमासी व्यारव्यातुमाह-'ता वेसाहि णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'वेसाहिं णं पुण्णिम' वैशाखी वैशाखमासभाविनी पूर्णिमां 'कइ णक्वत्ता * ૨૧૬૭ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रश्नप्तिप्रकाशिका टोका प्रा ०-६ सू०१ पूर्णिमायां नक्षत्रयोगनिरूपणम् २८१ जोएंति' कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ? भगवानाह-'ता दोणि णक्खत्ता जोएंति' तावत् द्वे नक्षत्रे युक्तः ' ' तं जहा' तद्यथा-ते यथा-'साई विसाहा य स्वातिः, विशाखा च । चशब्दात्----अनुराधा च, इदमनुराधानक्षत्रं च विशाखा नक्षत्रात् परं वर्तते, तस्य परस्यां ज्येष्ठामूलीपूर्णिमायामुपादानं करिष्यति नत्वेह सूत्रे साक्षादुपात्तम् अत्र तु विशाखानक्षत्रस्यैव प्राधान्यमिति । तत्र-प्रथमां वैशाखी पौर्णमासी विशाखानक्षत्रं पत्रिंशति मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चविगतौ द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य- एकादशसु सप्तषष्टिभागेषु (३६२५) गतेषु तथा—अष्टसु मुहूर्तेपु एकस्य च मुहूर्त्तस्य पत्रिशति द्वाषष्टिभागेषु, '६२।६७ एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पट्पञ्चाशति सप्तपष्टिभागेषु ( ८१६शेपेषु समाप्ति नयति, विशाखानक्षत्रस्य पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् ।१। द्वितीयां वैशाखी पौर्णमासी विशाखानक्षत्रं नवसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तत्य पण्टौ द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्विशतौ सप्तषष्टिभागेषु (९६०।२४ गतेषु, तथा—पञ्चत्रिंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्यैकस्मिन् द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेपु (३५१ ४३ ६२।६७ शेषेषु परिसमापयति ५। तृतीयां वैशाखी पौर्णमासीम् अनुराधानक्षत्रं चतुर्पु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टत्रिंगति द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य अष्टत्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु (४२८३८) गतेपु, तथा-पञ्चविंशतौ मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशतौ द्वाषष्टिभा- ६२१६७ गेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकोनत्रिंशतौ सप्तषष्टिभागेषु (२५२३।२९शेषेषु परिणमयति ३। चतुर्थी वैशाखी पौर्णमासी विशाखानक्षत्रं त्रयोविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य एकादशसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकपञ्चाशति सप्तपष्टिभागेपु (२३१११५१ ६२।६७ गतेषु तथा एकविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षोडशसु सप्तपण्टिभागेषु (२१ ) शेपेषु परिसमाप्ति नयति । पञ्चमी वैशाखी पौर्णमासी स्वातिनक्षत्रम् एकादशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुः ३६ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० चन्द्रप्रनप्तिसूत्रे wwwwwwww wovu wwwwwimmaaanwarrior ६२।६७ तस्य विंशतौ द्वापष्टिभागेपु, एकम्य च द्वापष्टिभगस्य दामु सप्तपष्टिभागेपु (१५२०११ ६२।६७ गतेषु तथा-चतुर्दशमु मुहूत्र्तपु, एकस्य च मुहूत्तस्यैकचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तपञ्चाशति सप्तपष्टिभागेषु (१४४३।१४) शेपेषु समापयति ।१। द्वितीयां चैत्री पौर्णमासी हस्तिनक्षत्रम्-अष्टादशसु मुहर्तेपु, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चपञ्चायति द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयो विंगतो सप्तपष्टिभागेषु (१८५५१२२) गतेषु, तथाएकादशसु मुहर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य पदमु द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुश्चवारिंशति सप्तपष्टिभागेपु (११६ १४.४) शेपेषु समाप्ति नयति ।२। तृतीयां चैत्री पौर्णमासी चित्रानक्षत्रम्-अष्टाविंगतौ मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयस्त्रिंशति द्वायष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिमागस्य सप्तत्रिंगति सप्तषष्टिभागेषु (२८२३२७ गतेषु तथा---एकस्मिन् मुहूर्ते, एकस्य च मुहूर्त्तस्याप्टाविंशतौ द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चत्वारिंशति सप्तपप्टिभागेपु (१२८१४०) शेपेषु समाप्तिं नयति ।३। चतुर्थी चैत्री पौर्णमासी चित्रानक्षत्रं द्वयोर्मुहूतयोः, एकस्य च मुहूर्तस्य पट्टु द्वापष्टिमागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चागति सप्तपष्टिभागेपु (२६ १५०) गतेपु, तथा सप्तविंशनी मुहूर्नेपु, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चपञ्चाशति ६रा६७ द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तदशसु सप्तपष्टिभागेपु (२७१११) शेपेषु परिणमयति ।४। पञ्चमी चैत्री पौर्णमासी हस्तिनक्षत्रं पञ्चसु मुहर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्यैक चत्वारिंशति द्रापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिपष्टौ सप्तपष्टिभागेपु (५४११६३ ६।६७ गतेषु, तथा-चतुर्विशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहर्तस्य त्रिंगतौ द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्मुसप्तपष्टि भागेषु (२४२०१४ ) शेपेषु समापयति ||५|| व्याख्याता चैत्री पौर्णमासी, साम्प्रतं वैशाखी पौर्णमासी व्यारव्यातुमाह-'ता वेसाहिं गं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'वेसाहिं णं पुण्णिम' वैशाखी वैशाखमासभाविनी पूर्णिमां 'कइ णक्खत्ता Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा ०-६ सू०१ पूर्णिमायां नक्षत्रयोगनिरूपणम् २८१ जोएंति' कति नक्षत्राणि युनन्ति ? भगवानाह—'ता दोणि णक्खत्ता जोएंति' तावत् द्वे नक्षत्रे युक्तः' ' तं जहा' तद्यथा—ते यथा—'साई विसाहा य' स्वातिः, विशाखा च । चशब्दात्---अनुराधा च, इदमनुराधानक्षत्रं च विशाखा नक्षत्रात् परं वर्तते, तस्य परस्यां ज्येष्ठामूलीपूर्णिमायामुपादानं करिष्यति नत्वेह सूत्रे साक्षादुपात्तम् अत्र तु विशाखानक्षत्रस्यैव प्राधान्यमिति । तत्र-प्रथमां वैशाखी पौर्णमासी विशाखानक्षत्रं पत्रिंशति मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चविगतौ द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य- एकादशसु सप्तषष्टिभागेषु (३६२५६११) गतेपु तथा--अष्टसु मुहूर्तेपु एकस्य च मुहूर्त्तस्य पविशति द्वापष्टिभागेषु, '६२।६७ एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पञ्चाशति सप्तपष्टिभागेषु (८२७११६) शेपेषु समाप्ति नयति, विशाखानक्षत्रस्य पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् ।। द्वितीयां वैशाखी पौर्णमासी विशाखानक्षत्रं नवसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य पष्टौ द्वापण्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्विशतौ सप्तपष्टिभागेषु (९६०२४) गतेषु, तथा—पञ्चत्रिंशतौ मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्त दराद २०६७ स्यैकस्मिन् द्वापष्टिभागेपु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेपु (३५२ ११३ शेपेषु परिसमापयति ५। तृतीयां वैशाखी पौर्णमासीम् अनुराधानक्षत्रं चतुर्पु मुहर्तेपु, एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टत्रिंशति द्वापण्टिभागेपु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य अष्टत्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु (४२८३.८) गतेपु, तथा-पञ्चविगतौ मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशतौ द्वाषष्टिभा ६।६७ __ गेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकोनत्रिशतौ सप्तषष्टिभागेषु (२५२३।२९) शेषेषु परिणमयति ३। चतुर्थी वैशाखी पौर्णमासी विशाखानक्षत्रं त्रयोविंशतौ मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्तस्य एकादशसु द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेपु (२३.६.११ १९६२।६७ गतेषु तथा एकविंगतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चाशति द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षोडशसु सप्तपष्टिभागेषु (२११०।१६। शेषेषु परिसमातिं नयति । पञ्चमी वैशाखी पौर्णमासी स्वातिनक्षत्रम् एकादशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुः Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राद चन्द्रप्राप्तिसूत्रे पष्टौ सप्तपष्टिभागेषु (११४६६४) गतेषु, तथा—त्रिपु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्चदशसु द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिपु सप्तषष्टिभागेपु (३ ) शेपेषु परिसमापयति, स्वातिनक्षत्रस्य पञ्चदशमुहूर्तात्मकत्वात् ||५|| तदेवमुक्तं वैशाखीपूर्णिमाप्रकरणम् , अथ ज्येष्ठामूली पूर्णिमाप्रकरणं . विवृणोति-'ता जेहामूलिं णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जेट्ठामूलिं ' ज्येष्ठामूली व्येष्टमासमाविनी खल 'पुष्णिम पूर्णिमां 'कइ गक्खत्ता जोएंति' कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ? भगवानाह–'ता' तावत् 'तिण्णि णक्खत्ता जोएंति' त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति, 'तं जहा' तद्यथा तानि यथा'अणुराहा' अनुराधा १, 'जेहा' ज्येष्ठा २, 'मूलों' 'मूलम् ३ तत्र-प्रथमा ज्येष्ठामूली पौर्णमासी मूलनक्षत्रं द्वादशसु मुहत्तेपु, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिंशति द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वादशसु सप्तपष्टिभागेषु (१२३०।१२ गतेषु, तथा सप्तदशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहर्त्तत्य एकत्रिंशति द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्च पञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु ( १७ ) शेपेषु परिसमापयति । द्वितीयां ज्येष्ठामूलीं ज्येष्टमासमाविनी पौर्णमासी ६२।६७ ज्येष्ठानक्षत्रम्-- एकस्मिन् मुहूर्ते, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिपु द्वाषष्टिमागेपु, एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य पञ्चविंशती सप्तपष्टिभागेपु (१ गतेपु, तथा त्रयोदशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टपश्चाशति द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्विचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु (१३ गयेषु परिसमाप्ति नयति ज्येष्ठानक्षत्रत्य पञ्चदश मुहूर्तात्मकत्वात् ।२। तृतीयां ज्येष्ठामूली पौर्णमासी मूलनक्षत्रं पञ्चविगतौ मुहर्तेपु, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च टापष्टिभागस्य एकोनचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु (२५४३३० गतेपु, तथातृतीयां ज्येष्टामूली पौर्णमासी पूर्वोक्तं मूलनक्षत्रं चतुर्पु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टादशसु हापष्टिभागेपु. एकस्य च द्वापष्टिभागम्य अष्टाविंशतौ सप्तपष्टिभागेषु ( 5) शेपेषु परिसमा पयति ।३। चतुर्थी ज्येष्ठामूलीं पौर्णमासी ज्येष्ठा नक्षत्रं चतुर्दशसु मुहुर्तेषु, एकस्य च महतस्य पोडशस Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२/६७ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टी प्रा० -६ सू१ पूर्णिमायां नक्षत्रयोगनिरूपणम् २८३ द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्विपञ्चाकति सप्तपष्टिभागेषु (१४१६/१२ गतेषु, तथा एकस्य मुहूर्त्तस्य पञ्चचत्वारिशति द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चदशसु सप्तषष्टिभागेपु () शेषेषु परिपूरयति ज्येष्टानक्षत्रस्य पञ्चदशमुहूर्तात्मकत्वात् ।। पञ्चमी ज्येष्ठामूली पौर्णमासीम्-अनुराधानक्षत्रं सप्तदशसु मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकपञ्चाशति द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चपष्टौ सप्तपष्टिभागेषु (१०३०६७ गतेषु, तथा द्वादशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य दशसु द्वापष्टिभागेषु शेपेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वयोः सप्तषष्टिभागयोः (१२३०१२) शेषयोश्च परिपूर्णा करोति ॥५॥ तदेवं प्रतिपादिता ज्येष्ठामूली पूर्णिमा, साम्प्रतमाषाढी पूर्णिमा प्रतिपादयितुमाह-'ता आसाहिणं' इत्यादि. 'ता' तावत् 'आसादिणं पुण्णिम' आपाढीम्-आषाढमासभाविनी पूर्णिमा कणक्सत्ता जोएंति' कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ? कियत्संख्यकानि नक्षत्राणि चन्द्रेण सह भोगं कृत्वा आषाढी पूर्णिमा परिसमापयन्तीत्यर्थः । भगवानाह--'ता दोणवत्ता जोएंति' तावत् द्वे नक्षत्रे युक्तः चन्द्रेण सह पूर्णिमायां योगं कुरुत इति भावः, 'तंजहा' तद्यथा-ते द्वे इमे-'पुव्वा साढा उत्तरासाढा य' पूर्वापाढा, उत्तरापाढा चेति । तत्र-प्रथमामापाढ़ी पौर्णमासी उत्तराषाढानक्षत्रम् अष्टादशसु मुहूर्तेपु एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चत्रिंगति द्वाषष्टिभागेपु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयोदशसु सप्तषष्टि भागेपु (१८३१) गतेषु, तथा पड् विंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य षड् विंशतौ द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुष्पञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु (२६.२६५४) शेपेषु समापयति, उत्तरापाढानक्षत्रस्य पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तात्मकत्वात् ।। द्वितीयामाषाढी पौर्णमासौं पूर्वाषाढानक्षत्रं द्वाविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टसु द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पड्विंशतौ सप्तपष्टिभागेषु (२२८) गतेषु-तथा-सप्तसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेपु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु (७0 शेषेषु च परिपूर्णतां नयति ।२। तृतीयामाषाढी पौर्णमासीम्, उत्तराषाढानक्षत्रम्, एक त्रिंशति मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्याष्टाचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य । ६२६७ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे མགཤའགགགས ६२/६७ १३२ चत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु (३१६३० गतेषु, तथा --त्रयोदशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोदशसु द्वाषष्टिभागेपु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तविंगतौ सप्तषष्टिभागेषु (१३ का शेषेषु समाप्ति नयति ।३। चतुर्थी खलु पौर्णमासीमपि उत्तराषाढा नक्षत्रं पञ्चसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य एकविंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिपञ्चाशति सप्तपष्टि भागेषु (५६१३) गतेषु, तथा—एकोनचत्वारिंशति मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्तस्य चत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्दशसु सप्तपष्टिभागेषु (३९३०१४ शेषेषु परिणमयति । पञ्चमीमापाढी पौर्णमासी पूर्वापाढानक्षत्रम् अष्टसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य षट् पञ्चाशति द्वाषष्टिभागेपु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट् षष्टौ सप्तषष्टि भागेषु तथा-एकविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चसु द्वापष्टिभागेषु, गतेषु एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य एकस्मिन् सप्तपष्टिभागे (२१ ) गते च परिसमापयति ५। अधिकमाससम्बन्धिनी पुनस्तामेव पञ्चमीमाषाढी पौर्णमासीमुत्तराषाढानक्षत्रं पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तात्मकं स्वयं परिसमाप्नुवन् तामपि परिसमापयति, अधिकमासिक्याषाढी पौर्णमासी समाप्तिसमकालमेवोत्तराषाढा नक्षत्रं चन्द्रेण सह सजातं योगमाश्रित्य स्वयमपि समाप्तिमेतीति भावः । अत्र चन्द्रप्रज्ञप्त्यामस्माभिः पूर्णिमासमापकनक्षत्राणामतिक्रान्ता भागाः शेषा भागाश्चेति, द्वयमपि प्रदर्शितम्, सूर्यप्रज्ञप्तौ तु शेषा एव भागा विवक्षिता नत्वतिक्रान्ता भागा इत्यवधेयम् ॥सू० १॥ ॥ इति पौर्णमासी समापकनक्षत्रप्रकरणं समाप्तम् ॥ पूर्व यानि नक्षत्राणि चन्द्रेण सह योगं कृत्वा यां यां पौर्णमासों समापयन्ति तानि प्रदर्शितानि, साम्प्रतं गतार्थमपि विषयं मन्दमतिप्रबोधनार्थ कुलादि योजनामाह-'ता सावहि णं इत्यादि । ६२६७ मूलम् -ता सावर्टि णं पुण्णिम किं कुलं जोएइ उचकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? । ता कुल चा जोएड, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ । कुल जोएमाणे धणिहा णक्खत्ते जोएइ, उपकुलं जोएमाणे सवणणक्खत्ते जोएइ, कुलोवकुलं जोएमाणे अमिईणक्सत्तं जोएइ । साविहिं पुण्णिमं कुलं वा जोएइ, उवकुळ वा जोएइ, कुलोवकुलं Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० ६ सू० २ पूर्णिमायां कुलोपकुलादिकम् २८५ वा जोएइ। कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता, कुलोवकुलेण वा जुत्ता साविही पुणिमा जुत्ताति बत्तच्वं सिया १। ता पोहबद णं पुण्णिमं किं कुलं जोएइ, उबकुलं जोएइ. कुलोवकुल जोण्ड ? ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोपड । कुलं जोएमाणे उत्तरापोट्टया णक्यत्ते जोएड उवकुलं जोएमाणे पुत्रापोहवया णक्सत्ते जोएड, कुलोचकुलं जोएमाणे समिसया णक्खत्ते जोएइ, पोवई णं पुण्णिमं कुलं वा जोएइ, उवकुंल वा जोएड, कुलोचकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता कुलोचकुलेण वा जुत्ता. पोवई पुण्णिमा जुत्ता-ति बत्तव्य सिया २। ता आसोई णं पुणिमं किं कुलं जोएइ, उबकुल जोएइ कुलोवकुलं जोएइ ? ता कुलं वा जोएड, उपकुलं वा जोएड, नो कुलोवकुलं जोएड, कुलं जोएमाणे अस्सिणी णक्खत्ते जोएइ, उबकुलं जोएमाणे रेवई णक्खत्ते जोएइ, आसोई णं पुणिमं कुलं वा जोएइ, उपकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता उचकुलेण वा जुत्ता आसोईणं पुण्णिमा जुत्ता-ति वत्तवं सिया ३। एएणं अभिलावेणं जाव पोसि पुण्णिमं, जेहामूलिं, पुण्णिमं च कुलोवकुल पि जोएइ, अवसे सास कुलोक्कुला णत्थि जाव आसाढी पुणिमा जुत्ताति वत्तव्यं सिया ।। सू० २॥ छाया- तावत् श्राविष्ठी खलु पुर्णिमां किं कुलं युनक्ति, उपकुलं युनक्ति,कुलोपकुलं युनक्ति ? तावत् कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युतक्ति कुलोपकुलं वा युनक्ति कुलं युचत् धनिष्टानक्षत्र युक्ति उपकुलं युञ्जत् श्रवणनक्षत्र युनक्ति कुलोपकुलं युंजत् अभिजि न्नक्षत्र युनक्ति श्राविष्टी पूर्णिमां कुलं वा युक्ति उपकुलं वा युनक्ति कुलोपकुलं वा युनक्ति कुलेण वा युक्ता उपकुलेन वा युक्ता कुलोपकुलेन वा युक्ता श्राविष्टी पूर्णिमा युक्तेति वक्तव्यं स्योत् ११ तावत् प्रौष्ठपदी खलु पूर्णिमा किं कुलं युनक्ति उपकुल युनक्ति कुलोपकुलं युनक्ति तावत् कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति कुलोपकुलं वा युनक्ति कुलं युञ्जत् उत्तराप्रोष्ठपदानक्षत्र युनक्ति उपकुलं युञ्जत् पूर्वाप्रोष्ठपदानक्षत्र युनक्ति कुलोपकुलं युञ्जत शतभिपग् नक्षत्र युनक्ति । प्रौष्ठदी खल्ल पुर्णिमा कुल वा युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति कुलोपकुलं वा युनक्ति कुलेण वा युक्ता उपकुलेन वा युक्ता कुलोपकुलेन वा युक्ता पौष्टपदी पर्णिमा युक्ता इति वक्तव्यं स्यात् ।२. तावत् अश्विनी खल पूर्णिमा किं कुलं युनक्ति उपकुलं युनक्ति कुलोपकुलं युनक्ति । तावत् कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति नो कुलोपकुलं युक्ति । कुलं युञ्जत् अश्विनीनक्षत्र युनक्ति उपकुलं युञ्जत् रेवतीनक्षत्र युनक्ति । आश्विनी खलु पूर्णिमा कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युनकिन कुलेण वा युक्ता उपकुलेन वा युक्ता आश्विनी खलु पूर्णिमा युक्ता इति वक्तव्यं स्यात् ।। पतेन अभिलापेन यावत् पौषीं पूर्णिमां ज्येष्ठामूली पूणिर्मा च कुलोपकुलमपि युनक्ति अवशेषासु कुलोपकुलोनि न सन्ति यावत् आषाढी पूर्णिमा युक्ता इति वक्तन्यं स्यात् १२शासू०२।। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ www.www.www. www चन्द्रप्राप्तिसूत्रे व्याख्या-गौतमः पृच्छति-'ता सावढि णं' इति, 'ता' तावत् 'सावि िणं' श्राविष्ठिं श्रावणमासमाविनी खलु 'पुण्णिम' पूर्णिमां कि 'कुलं जाएद' कुलं युनक्ति, किं कुलसंजकं नक्षत्रं चन्द्रेण सह योगं कृत्वा श्राविष्ठी पूर्णिमा परिसमापयति ! एवमग्रेऽपि सर्वत्र योजना कर्त्तव्या, कि 'उव कुलं जोएइ' उपकुलं युनक्ति, किं 'कुलोचकुलं जीएइ' कुलोपकुलं युनक्ति ? भगवानाह---'ता' तावत् 'कुलं वा जोएइ' कुलं वा युनक्ति, अत्र 'वा' शब्दस्य समुच्चयार्थकत्वात् कुलमपि युनक्तीत्यर्थः, एवमग्रेऽपि विज्ञेयम्, 'उपकुलं वा जोएई' उपकुलमपि युनक्ति, 'कुलीवकुलं वा जोएइ' कुलोपकुलमपि युनक्ति, तत्र 'कुल जोएमाणे' कुलं युञ्जत् कुलसंज्ञक नक्षत्रं योगं कुर्वन्नित्यर्थः 'धनिट्ठाणक्खत्त' धनिष्ठानक्षत्र 'जोएइ' युनक्ति, धनिष्ठानक्षत्रस्यात्र कुलसज्ञकत्वात् 'उवकुलं जोए माणे' उपकुलं युश्नत् 'सवणणक्खत्ते जोएइ' श्रवणनक्षत्रं युनक्ति, श्रवणनक्षत्रस्यात्रोपकुलसंज्ञकत्वात् , 'कुलोवकुलं जोएमाणे' कुलोपकुलं युञ्जत् 'अभिईणक्खत्ते' अभिजिन्नक्षत्रं 'जीएइ' युनक्ति अभिजिन्नक्षत्रस्यात्र कुलोपकुलसंज्ञकत्वात् । अभिजिन्नक्षत्रं हि तृतीयायां श्राविष्ट्यां पौर्णमास्यां किञ्चिदधिकद्वादशमुहर्तेपु शेपेपु-चन्द्रेण सह योगं युनक्ति ततः श्रवणेन सहास्य सहचरत्वात् स्वस्य च तृतीय श्राविष्ठ्याः पौर्णमास्या. पर्यन्तवर्त्तित्वात् तदपि तां परिसमापयतीति विवक्षया 'युनक्ति इत्यभिहितम् । उपसंहारमाह-'सावहिं णं' इत्यादि, 'सावहिं णं पुण्णिमं' श्राविष्ठी खलु पूर्णिमा 'कुलं वाजोएइ, उपकुलं वा जोएइ, कुलोचकुलं वा जोएइ' कुलं वा युनक्ति, उपकुलं वा युनक्ति कुलोपकुलं वा युनक्ति । ततः किमित्याह—'कुलेण वा जुत्ता उपकुलेण वा जुत्ता, कुलोवकुलेण वा जुत्ता'कुलेनापि युक्ता, उपकुलेनापि युक्ता, कुलोपकुलेनापि युक्ता 'साविही पुण्णिमा' श्राविष्ठी पुर्णिमा 'जुत्ताति वत्तव्वं सिया' युक्तेति कुलादित्रिकैर्युक्ताऽस्तीति वक्तव्यं वाच्यं स्यात् ।१। 'ता' तावत् 'पोहबइ णं पुण्णिम' प्रोष्ठपदी भाद्रपदी भाद्रपदमासभाविनी खल पूर्णिमा 'किं कुलं जोएइ, उपकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ' कि कुलं युनक्ति, उपकुलं युनक्ति, कुलोपकुलं युनक्ति ? भगवानाह-'ता' तावत् 'कुल वा जोएइ उवकुलं वा जोएइ कुलोवकुलं वा जोएई' कुलमपि युनक्ति, उपकुलमपि युनक्ति, कुलोपकुलमपि युनक्ति । तत्र 'कुलं जोएमाणे' कुलं युञ्जत् , यदा कुलसंज्ञक नक्षत्रमत्र पूर्णिमायां योगं करोति तदा 'उत्तरापोहवयाणक्खत्ते' उत्तराप्रोष्ठपदानक्षत्रं 'जोएइ' युनक्ति योगं करोति, "उपकुलं जोएमाणे' उपकुलं युञ्जत् 'पुवापोहवया णक्खत्ते' पूर्वाप्रोष्ठपदानक्षत्र 'जोएइ' युनक्ति, 'कुलोवकुलं जोएमाणे' कुलोपकुलं युञ्जत् ‘सयभि सया णक्खत्ते जोएइ' शतभिपग नक्षत्रं युनक्ति, अतएव 'पोहबई णं पुण्णिम' प्रोष्ठपदी खलु पूर्णिमा 'कुलं वा जोएइ, उपकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोए३' कुलं वा युनक्ति, उपकुलं वा युनक्ति, कुलोपकुलं वा युनक्ति, भाद्रपदपूर्णिमायाम् उत्तराप्रोष्ठपदा पूर्वाप्रोष्ठपदा शतभिषग्नक्षत्राणामेव कुलादि संज्ञकत्वात् । एवमधिकृत्यैव प्रौष्ठपदी पूर्णिमा 'कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता. कुलोवकुलेण वा जुत्ता' कुलेनापि युक्ता, उपकुलेनापि युक्ता, कुलोपकुळेनापि युक्ता 'पोट्ठवई Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०६ सू०२ पूर्णिमायां कुलोपकुलादिमम् २८७ पुण्णिमा' प्रौष्ठपदी पूर्णिमा 'जुत्तत्ति' युक्तेति चत्तचं सिया' वक्तव्यं स्यात् शिष्येभ्यः कथनीयं स्यादिति ।२। 'आसोईणं पुण्णिमं' आश्विनी आश्विनमासभाविनी खलु पूर्णिमा 'किं कुलं जोएइ उपकुलं जोएइ, कुलोचकुलं जोएइ' कि कुलं युनक्ति, उपकुलं युनक्ति, कुलोपकुलं युनक्ति ? भगवानाह-'कुलं वा जोएइ उपकुलं वा जोएई' कुलमपि युनक्ति, उपकुलमपि युनक्ति किन्तु 'नो कुलोवकुलं जोएई' नो-नैव कुलोपकुलं युनक्ति, अत्र कुलोपकुलयोयोरेव चन्द्रेण सह योग सद्भावात् कुलत्वेन उपकुलत्वेन कि कि नक्षत्र वर्त्तते ? इत्याह---'कुलं जोएमाणे कुलं युञ्जत् अत्र यदि कुलनक्षत्रं योगं करोति तदेत्यर्थः 'अरिसणीणक्खत्ते जोएइ' अश्विनीनक्षत्रं युनक्ति योगं करोति, तथा 'उपकुलं जोएमाणे' उपकुलं युजत्, यदि उपकुलनक्षत्रं योगं करोति तदा 'रेवई णक्खत्ते' रेवतोनक्षत्रं 'जोएइ' युनक्ति चन्द्रेण सह योगं करोति, अतएव कथ्यते 'आसोई णं पुण्णिम' आश्विनी खल पूर्णिमां 'कुलं वा जोएइ उवकुलं वा जोएइ' कुलमपि युनक्ति उपकुलमपि युनक्ति. या शब्दः सर्वत्र समुच्चयार्थकः । एपापूर्णिमा अनेनैव कारणेन 'कुलेण वा जुत्ता उचकुलेण वा जुत्ता' कुलेनापि युक्ता उपकुलेनापि युक्ता भूत्वा 'आसोईणं पुण्णिमा' आश्विनी खलु पूर्णिमा 'जुत्ताति' युक्तेति 'वत्तव्वं सिया' वक्तव्यं स्यात् कथनीयं भवेत् ३। अथानेऽतिदेशेनाह-एवं' इत्यादि ‘एवं' एवम् अनया रीत्या 'एएणं' एतेन पूर्वोक्तेन पूर्वप्रदर्शितप्रकारेण 'अभिलावेणं' अभिलावेन सूत्ररचनारूपेण 'जाव' यावत् 'पोसिं पुण्णिमं जेहामूलिं पुण्णिमं च' पोपी पूर्णिमां ज्येष्ठामूली ज्येष्ठमासभाविनी पूर्णिमा च 'कुलोचकुलंपि जोएइ' कुलोपकुलमपि युनक्ति, पौष्यां पूर्णिमायां कुलोपकुलमानक्षत्रम् ज्येष्ठामूल्यां पूर्णिमायां च कुलोपकुलमनुराधानक्षत्रमिति विज्ञेयम् । तत्र पौषपूर्णिमायां कुलं पुष्यनक्षत्रम्, उपकुलं पुनर्वसुनक्षत्रमस्ति, तथा ज्येष्ठामूल्यां पूर्णिमायामिति ज्येष्ठमासभाविन्यां पूर्णिमायां कुलं मूलनक्षत्रम् उपकुलं ज्येष्ठानक्षत्रं भवतीति कुलादीनि त्रीण्यपि नक्षत्राणि चन्द्रेण सह यथायोगं योगं कुर्वन्तीति, 'अवसेसासु' अवशेपासु पूर्वप्रदर्शितातिरिक्तासु पूर्णिमासु 'कुलोचकुला नत्थि' कुलोपकुलानि न सन्ति, तासु कुलानि उपकुलानि चैव चन्द्रेण, सह योगं कुर्वन्ति न तु कुलोपकुलानीति भावः । कियत्पर्यन्तमित्याह'जाव' इत्यादि, 'जाव आसाढी पुण्णिमा जुत्ताति वत्तव्वं सिया' यावत्-आषाढी पूर्णिमा युक्तेति वक्तव्यं स्यात् इत्येतत्पर्यन्तं पूर्वप्रदर्शितसूत्रालापकप्रकारेण ज्ञातव्यम् । आलापकाश्च स्वयमूहनीयाः कस्यां पूर्णिमायां किं कुलं किमुपकुलमिति प्रदर्श्यते-श्राविष्ठीत आरभ्य आश्विनी पूर्णिमापर्यन्तं तिस्रः पूर्णिमास्तु पूर्वसूत्रे एव प्रदर्शिताः पौषी-ज्येष्टा मूलीति पूर्णिमाद्वयं तु पर्वं व्याख्यायां प्रदर्शितम् । शेपास्तथाहि-कार्त्तिक्यां पूर्णिमायां कृतिकानक्षत्रं कुलं, भरणी नक्षत्रमुपकुलम् ४॥ मार्गशीर्पपूर्णिमायां मृगशीर्षनक्षत्रं कुलं, रोहिणीनभत्रमुपकुलम् ५। पौषी पूर्व प्रदर्शिता कुला दित्रययोगयुक्तेति पूर्व द्रष्टव्यम् ६। माघीपूर्णिमायां मधानक्षत्रं कुलम्, अश्लेषानक्षत्रमुपकुलम् Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ श्रवण: x भरणी x x मघा चन्द्रप्राप्तिसूत्रे ७) पत्गुन पूर्णिमायाम् उत्तरापात्गुनी नक्ष बुलं. पूर्वापार नी नक्षमुपवुलम ८। क्षेत्री पूर्णिमायां चित्राक्षत्रं कुलं, हस्तनक्षत्रमुपकुलम् ९। वैशाखी पूर्णिमायां विशाखानक्षत्रं कुलं, स्वातिनक्षत्रमुपकुपम् १०। ज्येष्ठपूर्णिमा कुलादित्रययुक्तेति पूर्व प्रदर्शिता ११। आपाढी पूर्णिमायामुत्तरापाढानक्षत्रं कुलं, पूर्वापाढा चोपकुलम् ११। इति द्वादश पूर्णिमा प्रकरणम् ।।सू ०२॥ कुलादिनक्षत्रज्ञानार्थ कोप्टकम् मास स. मासाः कुलम् उपकुलम् कुलोपकुलम् श्रावण पूर्णिमायाम् धनिष्ठा अभिजित् भाद्रपदपूर्णिमायाम् उत्तराभाद्रपट: पूर्वाभाद्रपदः शतभिपक् अश्विनपूर्णिमायाम् अश्विनी रेवती कार्त्तिकपूर्णिमायाम् कृत्तिका मार्गशीर्षपूर्णिमायाम् मृगशिरः रोहिणी पोपपूर्णिमायाम् पुण्यम् पुनर्वनुः माघपूर्णिमायाम् अश्लेषा फाल्गुनपूर्णिमायाम् उत्तरा फाल्गुनी पूर्वाफाल्गुनी चैत्रपूर्णिमायाम् चित्रा हस्तः वैशाख,पूर्णिमायाम् विशाखा स्वातिः ज्येष्ठपूर्णिमायाम् ज्येष्ठा अनुराधा १२ आपाढ़पूर्णिमायाम् उत्तरापाढा पूर्वापाढा x __अभिजित आरभ्य ऊत्तराषाढा पर्यन्तमष्टाविंशतिनक्षत्राणा मुहूर्त्तसकलना कोष्ठकम् । नक्षत्र नक्षत्र नामानि मुहूर्तभोग सकलित नक्षत्र नक्षत्र नामानि मुहूर्त्तभोग सकलित संख्या प्रमाण मुहर्ताः संख्या प्रमाण मुहूर्ताः | १| अभिजित् । ९-२७, ९-२७ । |१०| कृत्तिका | ३० २६४-, ३९-२७ ४५, ३०९-, ३. धनिष्ठा ६९-, १२] मृगशिरः ३३९-, गतभिया १३ आर्द्रा १५ ३५४-, पूर्वाभाद्रपदा । ११४-, १४ पुनर्वसुः ३९९-, उत्तराभाद्रपदा) ४५ १५९-, १५ पुण्यः ३० ४२९-, रेवती १८९-, | १६ | अश्लेपा अश्विनी २१९-, |१७| मघा ३० ४७४-, भरणी २३४-, १८ पूर्वाफाल्गुनी ३० ५०४-, x x x x श्रवणः ११] रोहिणी 6 com ८४-, ४४४, Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१० प्रा. प्रा. ६ सू०१ अमावस्या योगकारी कुलादिनक्षत्रम् २२९ चित्रा ६२४-, * * * * * * * * * मूला उत्तरा फाल्गुणी ५४९-, हस्तः ५७९-, ६०९-" स्वातिः विशाखा ६६९-" अनुराधा ६९९-" ज्येष्ठा ७१४-, ७४४-, पूर्वाषाढा ७७४-, उत्तराषाढा ८१९-, इति द्वादश पूर्णिमायोगकारि कुलादि नक्षत्रप्रकरणं समाप्तम् तदेवं पूर्णिमायोगकारि कुलादि नक्षत्रवक्तव्यता प्रतिपादिता साम्प्रतममावास्या योगकारी कुलादि नक्षत्रवक्तव्यतामाह -- 'दुवालस अमावासाओ' इत्यादि । मूलम् -दुवालस अमावासाओ पण्णत्ताओ तं जहा-साविट्ठीपोहवइ जाव आसाही' ता साविहिणं अमावासं कइ णक्खत्ता जोएंति ? ता दुन्नि णक्खत्ता जोएंति, तं जहा-असेस्सा महा य १ । एवं एएणं अभिलावेणं णेयव्वं-ता पोट्ठवई दो णक्खत्ता जोएंति तं जहा-पुव्वाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी य २ । आसोई दो हत्थो चित्ता य ३। कत्तिइं दो, तं जहा-साई विसाहा य ४। मग्गसिरि तिण्णि, तं जहा अणुराहा, जेट्टामूलो य ५। पोसिं दो, तं जहा-पुव्वासाढा उत्तरासाढा ६ माहिं तिण्णि, तं जहा-अभीई सवणो धणिहा य ७ । फग्गुणिं तिण्णि तं जहा-सयभिसया पुव्वपोट्टवया उत्तरपोट्टवया य ८ । चेत्तिं तिण्णि, तं जहा-उत्तरभद्दावया, रेवई, अस्सिणी य ९ । वेसाहिं दो, तं जहा-भरणी कत्तिया य १० । जेट्ठामूलिं दो, तं जहा-रोहिणी मग्गसिरं च ११ । ता आसाढि णं अमावासं कइ णक्खत्ता जोएंति ? ता तिण्णि णक्खत्ता जोएंति, तं जहा-अद्दा, पुणव्वसू, पुस्सो य १२ । ता साविहिं णं अमावासं किं कुलं जोएइ ? उवकुलं जोएइ ? कुलोचकुलं जोएइ ? कुलं वा जोएइ, उपकुलं वा जोएइ नो लब्भइ कुलोवकुलं । कुलं जोएमाणे महाणक्खत्ते जोएइ, उवकुलं वा जो एमाणे असलेसा णक्खत्ते जोएइ कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता साविट्ठी अमावासा जुत्ता- ति वत्तव्वं सिया । एवं णेयव्यं णवरं मग्गसिराए, माहीए फग्गुणीए, Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० चन्द्रप्राप्तिसूत्रे आसाढीए य अमावासाए कुलोवकुलं भाणियव्वं' सेसासु कुलोवकुलं णस्थि ॥सू० ३॥ "चंदपन्नत्तीए दसमस्स पाहुउस्स छटुं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥१०-६॥ छाया द्वादश अमावास्याः प्राप्ताः, तद्यथा---श्राविण्ठी, प्रोष्ठपदी २, यावत् । आपाढी १२ तावत श्राविष्ठी खलु अमावास्यां कति नक्षत्राणि गुञ्जन्ति, तावत् हे नक्षत्रे युक्तः तद्यथा-अपलेपा मघा च ५ ण्वम् एतेन अभिलापेन ज्ञातव्यम्-तावत् प्रौष्ठपदी हे न-1 क्षत्रे युइक्तः तद्यथा-पूर्वाफाल्गुनी उत्तराफाल्गुनी च २। आश्विी हे तद्यथा हस्तः चित्रा च ३ कार्तिकी द्वे तद्यथा-स्वातिः विशाखा च ४ मार्गशीपीम् त्रीणि, तद्यथा-अनुराधा, ज्येष्ठाभूलं च ५। पोपी द्वेतद्यथा-पूर्वापाढा उत्तरापाढा च ६ माधीम् त्रीणि, तद्यथा-अभिजित् श्रवण. धनिष्ठा च फोल्गुनों त्रीणि तद्यथा-शतभिषक् पूर्व प्रौष्ठपदा उत्तरप्रौष्ठपदा च, ८ चैत्री त्रीणि तद्यथा-उत्तराभाद्रपदा, रेवती, अश्विनी च ९॥ वैशाखी द्वे तद्यथा-भरणी कृत्तिका च १०। ज्येष्ठामूली द्वे तद्यथा-रोहिणी मृगशिरश्च ११॥ तावत् आषाढी खलु अमावास्यां कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ? तावत् त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति, तद्यथा-आ, पुनर्वसुः, पुण्यश्च १२ तावत् श्रावष्ठी खलु अमा. वास्यां किं कुलं युनक्ति ? उपकुलं युनक्ति ? कुलोपकुलं युनक्ति ? कुलं वा युनक्ति, उपकुलं वा युनक्ति, नो लभते फुलोपकुलम् कुलं युञ्जत् मघानक्षत्रं युनक्ति, उपकुलं वा युञ्जत् अश्लेषा नक्षत्रं युनक्ति, कुलेन वा युक्ता उपकुलेन वा युक्ता श्राविष्ठी अमावास्या युक्ता इति वक्तव्यं स्यात् । एवं ज्ञातव्यं, नवरं मार्गशीर्ष्या, माध्यां फाल्गुन्याम् आषाढ्यां च अमावास्यायां कुलोपकुलं भणितव्यम् शेषासु कुलोपकुलं नास्ति सू० ३॥ ॥इति चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे दशमस्य प्राभृतस्य षष्ठं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् १०-६॥ व्याख्या-'दुवालस' इति 'दुवालस अमावासा पण्णत्ता' द्वादश अमावास्या प्रज्ञप्ताः, 'तंजहा' तद्यथा-ता यथा-'साविट्ठी' श्राविष्ठी श्राविष्ठा अपरपर्याया धनिष्ठा, तया समाप्यमानो मासः श्राविष्ठः श्रावणः, श्रावणमासमाविनी अमावस्या श्राविष्ठीति १। 'पोहवई' प्रोष्ठपदी प्रोष्ठपदा उत्तरभाद्रपदा, प्रोष्टपदानक्षत्रेण समाप्यमानो मासः प्रोष्टपदः, भाद्रपदमासः, तत्र भाविनी अमावास्या प्रौष्ठपदी कथ्यते २। 'जाव आसाढी' यावत् आषाढी उत्तरापाढानक्षत्रेण समाप्यमानाऽऽपाढमासभाविनी अमावास्या आषाढी १२। अत्र यावत्पदेन-आश्विनी ३, कार्तिकी ४, मार्गशीर्षी ५, पौषी ६, माधी ७, फाल्गुनी ८, चैत्री ९, वैशाखी १०, ज्येष्ठामूली ११, इति पाठस्य संग्रहः । तत्र अश्विनीनक्षत्रसमाप्यमानाऽऽश्विनमासभाविनी अमावास्या आश्विनी ३, कृत्तिकानक्षत्रसमाप्यमान कार्तिकमासभाविनी अमावास्या कार्तिकी ४, मृगशिरोनक्षत्र समाप्यमानमार्गशीर्पमासभाविनी अमावास्या मार्गशीपी ५, पुण्यनक्षत्रसमाप्यमान पोपमासभाविनी अमावास्या पौषी ६, मघानक्षत्रसमाप्यमान माघमासभाविनी अमावास्या . माघी ७, उत्तरा फाल्गुनीनक्षत्रसमाप्यमानफाल्गुनमासभाविनी अमावास्या फाल्गुनी ८, चित्रा नक्षत्रसमाप्यमान चैत्रमासमाविनी अमावास्या चैत्री ९, विशाखा नक्षत्रसमाप्यमान वैशाखमासभाविनी अमावास्या वैशाखी १० मूलनक्षत्र समाप्यमान ज्येष्ठमासभाविनी अमावास्या ज्येष्ठामूली ११। इति Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिका टीका०प्रा. १०प्रा. प्रा. ६ सू०१ अमावास्यायोगकारी कुलादिनक्षत्रम् २३१ द्वादशामावास्यानामानि ।' अथा योगकारकनक्षत्रसंख्यापूर्वकं कुलादि प्रदर्शयति–'ता साविढि णं' इत्यादि 'ता' तावत् 'साविटिं णं' श्राविष्टी श्रवणमासभाविनी खल 'अमावास अमावास्यां 'कइ णक्खत्ता जोएंति' कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ? 'ता' तावत् 'दोण्णि णक्खत्ता जोएंति' द्वे नक्षत्रे युक्तः, 'तंजहा' तद्यथा-'अस्सेसा महा य' अश्लेपा मघा च, एते द्वे नक्षत्रे श्राविष्ठीममावास्यां चन्द्रेण सह योगं कृत्वा परिसमापयत इति भावः ।। __ अयमाशयः-यदिह व्यवहारनयमतेन पौर्णमास्यां यन्नक्षत्रं भवति तस्मादारभ्य पश्चानुपूर्व्या प्रायः पञ्चदश नक्षत्रममावास्यायां भवति । तथा-अमावास्यायां यन्नक्षत्रं भवति तत भारभ्य परतः पूर्वानुपूर्व्या प्रायः पञ्चदशं नक्षत्र पूर्णिमायां भवतीति सामान्यतो नियमो वर्त्तते । एतन्नियमात् श्राविष्ठयां पूर्णिमायां किल श्रवणो धनिष्ठा वा प्रोक्ता ततोऽस्यां श्राविष्ठ्याममावास्यायाम्-अश्लेपा मघा वा प्रायो भवत्येव । लोके च तिथि गणितानुसारेण व्यतीतायाममावास्यायां, वर्त्तमानायामपि च प्रतिपदि, द्वयोर्मध्ये यस्मिन्नहोरात्रे सूर्योदये प्रथमतोऽमावास्या भवेत् स सकलोऽप्यहोरात्रः अमावास्येति व्यवहियते, तत्रामावास्यायाः सूर्योदयव्यापिनीत्वात् तत एवं व्यवहारतोऽमावास्यायां मघानक्षत्रं प्राप्यते इति न कश्चिद्दोपः । निश्चयनयमतेन तु श्राविष्ठीमिमाममावास्यां वक्ष्यमाणानि त्रीणि नक्षत्राणि परिसमापयन्ति, तथाहि-पुनर्वसुः पुण्यः, अश्लेषा चेति । कथमेवमायातीति-अमावास्यायां चन्द्रेण सह नक्षत्रयोगपरिज्ञानार्थ करणमाश्रित्य तप्रक्रिया प्रदर्श्यते तत्र करणं तु प्रागुक्तमेव, अथ कोऽपि पृच्छति युगस्यादौ प्रथमां श्राविष्ठीममावास्यां किं नक्षत्रं चन्द्रेण सह योगं युञ्जत् सत् परिसमापयतीति । तत्र पूर्वप्रदर्शितोऽवधार्यराशिः-पट्पष्टिर्मुहर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तषष्टि भागः (६६ १२ इयत्प्रमाणः स्थाप्यते स्थापयित्वा च प्रथमाममावास्यायाः पृष्ठत्वादेकेन गुण्यते एकेन गुणने स एव राशिरायातीति तावानेवावधार्यराशिः-(६६१) जातः तत एतस्माद्राशेः पुनर्वसुनक्षत्रस्य शोधनकं शोध्यते, तच्च शोधनकम्-द्वाविशतिर्मुहर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य षट् चत्वारिंशद् द्वापष्टि भागाः-(२२६६) इत्येवं प्रमाणकम् । तत्र पूर्वषट्षष्टि मुहूर्तेभ्यो द्वाविशति मुहूर्ताः शोधिताः शेषाश्चतुश्चत्वारिशत् ४४, ततो द्वाषष्टि भागशोधनार्थ तस्माच्चतुश्चत्वारिंशद्राशेरेकं रूपं निष्कास्य तस्य द्वापष्टि भागाः क्रियन्ते, तत एषु द्वापष्टिभागेपु ये पञ्च द्वा षष्टिमगाः सन्ति ते प्रक्षिप्यन्ते जाता. सप्तपष्टिः ६७, पूर्वोराशि स्त्रिचत्वारिशज्जातः ४३, ततः सप्तषष्टि भागेभ्यः पुनर्वसु शोधनकस्थितः षट् चत्वारिंशद्राशिः ४६, शोध्यते, तिष्ठन्ति शेषा एकविंशतिः २१, तत एक रूप निष्कासनानन्तरं स्थितेभ्यस्त्रिचत्वारिंशतः ४३, मुहूर्तेभ्यस्त्रिंशन्मुहूर्ताः Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રયર चन्द्रप्राप्तिसूत्रे ३०, पुष्यस्य शोध्यन्ते स्थिताः शेषास्त्रयोदश मुहूर्ताः १३। तथा—अवधार्यराशे रूपरितनश्चकः सप्तपष्टि भागः । एवमवस्थित एवेति समागतास्त्रयोदशमुहूर्ताः एकस्य च मुहूर्तस्य एकविशतिपिष्टभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकः सप्तपष्टिभागः (१३२३ २) इति । अश्लेषा नक्षत्रं चापार्धक्षेत्रमिति पञ्चदशमुहूर्त्तात्मकं, ततस्त्रयोदशसु मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्तस्य एकविगतौ द्वापष्टिभागेषु गतेषु, तथा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकस्मिन् सप्तपष्टिभागे (१३ ११६ गते सति, तथा—एकस्मिन् मुहूर्ते, एकस्य च मुहूर्त्तस्य चत्वारिंशति द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टि मागस्य षट्पष्टौ सप्तपष्टिभागेषु (१४०६६) शेपेषु प्रथमा श्राविष्ठ्यमावास्या समाप्तिमुपगच्छतीति । वक्ष्यति चाग्रे 'ता एएसिं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं अमावासं चंदे केणं नक्खत्तेणं जोएइ ? ता असिलेसाहि, असिलेसाणं एक्को मुहुत्तो, चत्तालीसं वावटि भागा मुहुत्तस्स, वावविभाग च सत्तहिहा छेत्ता छावही चुणिया भागा सेसा" इति । छाया तावत् एतेषां पञ्चानां संवत्सराणां प्रथमाममावास्यां चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति ?, तावत् अश्लेषया, अश्लेषा खलु एको मुहूर्तः, चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य, द्वापष्टिभागं च सप्तपष्टिधा छित्त्वा पट्पष्टि चूर्णिकाभागाः (१६०६९) शेषाः, इति प्रथमा श्राविष्ठी अमावास्या१ अथ द्वितीया श्राविष्ठ्यमावास्या चिन्त्यते इयं द्वितीया श्राविष्ठ्यमावास्या युगादित आरभ्य त्रयोदशीति पूर्वोक्तो ध्रुवराशिः-(६६ १ ३) त्रयोदशभिर्गुण्यते ततः प्रथमं षट्पष्टिर्मुहस्त्रियोदशभिर्गुणिता जाता अष्टपञ्चाशदधिकाष्टशतसंख्यकाः (८५८) मुहूर्ताः, ततः पञ्च द्वापष्टिभागास्त्रयोदशभिर्गुणिता जाताः पञ्चपष्टिापष्टिभागाः , तत एकः सप्तपष्टिभागस्त्रयोदशभिर्गु ६२/६७) ततः णितस्ततो जाता स्त्रयोदश सप्तपष्टिभागाः १३, इति तत्स्थापना-८५८-१ "चत्तारि य वायाला सोज्या अह उत्तरासाढा” इति अत्रैव करणगाथागत पञ्चमगाथा वचनात् प्रथमशोधनकातैतिचत्वारिंशदधिकैश्चतुः शत संख्यकैः (१४२) मुहूर्तः, पद चत्वारिंशता Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१० प्रा. प्रा. ६सू०१ अमावास्यायोगकारी कुलादिनक्षत्रम् २३३ द्वाषष्टि भागैश्च-(१) पुनर्वसुत आरभ्योत्तरापाढा पर्यन्तानि नक्षत्राणि शोध्यन्ते यथा ८५८-६५-१३ शोध्य संख्या ४४२-४६-० शोधक सख्या स्थितानि शेषाणि षोडशोत्तराणि चत्वारि शतानि, एकस्य ४१६-१९-१३ शोधनफलम् च मुहूर्तस्य एकोनविंशतिपष्टिभागाः एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयोदश सप्तपष्टिभागा ( ४१६३१) । तत एतस्माद् राशेः--नवत्यधिकशतत्रय (३९९) संख्यका मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशतिर्दापष्टिभागाः (१३) एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पट् षष्टि सप्तपष्टिभागाः ६७) इति (३९९२६/६६समुदितो राशिरुपरिष्ठराशेः शोध्यते, तथाहि-पूर्व षोडशोत्तर चतुःशत (४१६) राशेः नवनवत्यधिकत्रिशत (३९९) राशिः शोधिता, लब्धाः शेपाः सप्तदश मुहूर्ताः. १७), अग्रे उपरितना द्वापष्टिभागा एकोनविंशतिः (१९) एतेभ्यो न्यूनत्वेन चतुर्विशतिर्न शोध्यते तत शोधनार्थ सप्तदशमुहूर्तेभ्य एक मुहूर्त निष्कास्यास्य द्वापष्टिभागाः क्रियन्ते, एते द्वाषष्टिभागाः एकोनविंशतौ द्वापष्टिभागराशौ मिप्यन्ते ततो जाता द्वापष्टिभागाः एकाशीतिः(८१)शोधन योग्या तत एतस्माद् राशेश्चतुर्विशतिः शोध्यते, स्थिता पश्चात् सप्तपञ्चाशत्(५७), अस्मादेकं रूपं निष्कास्य सप्तपष्टिभागाः क्रियन्ते, एते सप्तपष्टि भागास्त्रयोदशसु सप्तपष्टिभागेषु क्षिप्यन्ते जाता अशीतिः(८०), एभ्यः षट् षष्टि सप्तषष्टिभागाः गोध्यन्ते, स्थिताः पश्चात् चतुर्दश (१४) इत्यागताः पुष्यनक्षत्रस्यातिक्रान्ता भागा-पोडश मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य षट्पञ्चाशद् द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्दश सप्तपष्टि भागाः (१६-६ त्रिंशन्मुहूर्तात्मकस्य पुष्यनक्षत्रस्यैतावत्परिमितेषु भागेष्वतिक्रान्तेपु द्वितीया श्राविष्ठी अमावस्या परिसमाप्तिमेतीति ।२। अथ तृतीया श्रावष्ट्यमावास्या विचार्यतेतत्र सा युगस्यादित आरभ्य पञ्चविंशतितमेति 1) पञ्चविंशत्या गुण्यते जातानि पञ्चाशदधिकानि षोडशशतानि (१६५०) मुहूर्तानां भवन्ति, तथा एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चविंशत्यधिकमेकं शतं द्वाषष्टिभागाः (१२५) एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चविंशतिः सप्तषष्टिभागाः २५ । तथाहि (१६५० १२५/२५ 1) इति । तत्र द्विचत्वारिंशदधिकचतुःशतमुहूर्त्ताः (४४२) एकस्य च मुहूर्तस्य षट् Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwww Movwwwwwwwwwwwwwwww चन्द्रप्रमप्तिसूत्रे चत्वारिंशद् (४६) द्वापष्टिभागाः-(४४२६६) एतत् पुनर्वसु प्रभुत्युत्तरापाढापर्यन्तं प्रथमं शोधनक पूर्वोक्तात् अमावास्या सख्या गुणितध्रुवराशः (१६५०- - एतावत्परिमितात् शोध्यते, गोधिते च स्थितानि पश्चात् मुहूर्तेभ्यः अष्टोत्तराणि द्वादशशतानि (१२०८) मुहूर्नानाम , ततः पंचविंशत्युत्तरैकशतसंख्यकेभ्यो द्वापष्टिभागेभ्यः पट्चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागनां गोधने स्थिताः पश्चात् एकोनागीनिः (७९) द्वापाष्टिभागाः पञ्चविंशतिः (२५) सप्तपष्टिमागाश्च यथा पूर्व तथैव स्थिताः, तथाहि स्थापना (१२०८-१२।३७ । तत एतस्माद राशेः एकोनविंशत्यधिकाष्टशतमुहूत्र्ताः (८१९) एकस्य मुहूर्तस्य चतुर्वि 'शतिर्दापष्टिभागाः (१६) एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पट् पष्टिः (६७) सप्तपष्टिभागा. (८१९-२३६६) एतत्परिमित एको नक्षत्रपर्यायः शोध्यते ततः स्थिता पश्चात्-नवाशीत्यधिकत्रिंशतमुहूर्ताः (३८९) एकस्य च मुहूर्तस्य चतुष्पञ्चागद् (५४) द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पविंशतिः (२६) सप्तपष्टिभागाः (३८९-६३६७) ततः पुनर्नवोत्तरशतन्त्रयमुहूर्ता (३०९), एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशति पिष्टिभागाः (२४), एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पट्पष्टिः ६६ सप्तपष्टि भागाः, (३०९-२६६५, एतत्परिमितं करणगाथा सप्तमाष्टमोक्तानाम् अभिजित आरभ्य रोहिणिका पर्यन्ताना नक्षत्राणां शोधनकं शोध्यते, स्थिता पश्चात्-अशीतिर्मुहर्ताः (८०) एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकोनत्रिंशद (२९) द्वापष्टिभागाः एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तविंशतिः (२७) सप्तपष्टिभागाः(८०--- नतः स्त्रिंशन्मुहर्ता अस्माद्राशेमंगशिरसः शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चात् पञ्चाशन्मुहूर्ताः (५०) पुनरस्माद्राशे. पञ्चदशमुहूर्ता आर्द्रायाः शोध्यन्ते स्थिता' पश्चात् पञ्चत्रिंशत् (३५) मुहूर्ताः । ततः पञ्चचत्वारिंशन्मुहर्त्तात्मकस्य पुनर्वसु नक्षत्रस्य पञ्चत्रिंशतिमुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनत्रिंशति द्वापष्टिमागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तपष्टिभागेषु (३५ ) गतेपु तृतीया श्राविष्ठधमावास्या परिसमाप्तिमेति ।३।। ६२/६७ ६२१६७ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१० प्रा. प्रा. ६ सू०१ अमावास्यायोगकारी कुलादिनक्षत्रम् २३५ ___ एवं चतुर्थी श्राविष्ठीममावास्यां पञ्चदामुहूर्तात्मकमलेषानक्षत्रमेकस्य मुहूर्तस्य सप्तसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु (० - परिसमापयति ।। पञ्चमी श्राविष्ठीममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मक पुष्यनक्षत्रं त्रिषु मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्तस्य द्विचत्वारिंशतिद्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुष्पञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु (३- ) गतेषु परिसमापयति ॥५॥ अथ प्रौष्ठपदीप्रमृत्यमावास्याविषये प्राह -'एवं' इत्यादि, ‘एवं' एवम् अनया रीत्या 'एएणं' एतेन अनन्तरोक्तेन 'अभिलावेणं' अभिलापेन आलापकप्रकारेण अग्रे प्रौष्ठपदी प्रभृत्यमावास्याविपये 'णेयवं' नेतव्यं ज्ञातव्यम् , तथाहि-'पोट्ठवई' इत्यादि, 'पोढवई' प्रोष्ठपदी भाद्रपदमासभाविनीममावास्यां 'दो णक्खत्ता जोएंति द्वे नक्षत्रे युक्तः योगं कृत्वा परिसमापयतः, 'तंजहा' तद्यथा ते द्वे यथा-पुव्वाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी य' पूर्वाफाल्गुनों उत्तराफाल्गुनी च । इदं तु व्यवहारतः कथ्यते, वस्तुतस्तु त्रीणि नक्षत्राणि प्रोष्ठपदीममावस्यां परिसमापयन्ति, तत्र तृतीयाया' पञ्चम्याश्च प्रोष्ठपद्यमावास्यायाः परिसमापकत्वात । तथाहि-प्रथमां प्रोष्ठपदीमावास्यां पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकमुत्तराफाल्गुनी नक्षत्रं चतर्ष महर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य पड्विंशतौ द्वाषष्टि भागेपु गतेषु, तथा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वयोः सप्तपष्टि भागयोः (४---)गतयोः सतोः समापयति ।१। द्वितीयां प्रोष्ठपदीममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्तात्मकं पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्रं । सप्तसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य एकषष्ठौ द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चदशसु सप्तपष्टि भागेषु (४७६६१९) व्यतिक्रान्तेषु परिसमापयति ।२। तृतीयां प्रोष्ठपदीममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्तात्मकं मघानक्षत्रम् एकादशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुस्त्रिंशति द्वाषष्टि भागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य अष्टाविगतौ सप्तपष्टिभागेषु (११-२ ) परिपूरितेषु समाप्ति नयति ।३। चतुर्थी प्रोष्ठपदीममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्तात्मकं पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रम्एकविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य द्वादशसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्विचत्वारिंशति सप्तष्टि भागेषु(२१ १२।१२) गतेषु परिसमापयति ।४। पञ्चमी ष्ठि-, ३४२८ । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७१४५ २३६ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे पदीममावास्यां त्रिंगन्मुहूर्तात्मक मघानक्षत्रं चतुर्वि गतौ मुहर्तपु. एकस्य च मुहर्तस्य सप्तचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चाशति सप्तपष्टि भागेषु (२४ व्यतीतेपु परिपूरयति ॥५॥ अथाश्विनीममावास्यां प्रदर्शयति--- 'आसोई' इत्यादि, 'आसोई दो' आश्विनीम् आश्विनमासभाविनीममावास्या द्वे नक्षत्रे तद्यथा 'हत्थो चित्ता य' हस्तश्चित्रा चेति नक्षत्रद्वयं युनक्ति योगं कृत्वा समापयति । इदमपि व्यवहारत एव कथ्यते, निश्चयतस्तु तृतीयमुत्तराफाल्गुनीनक्षत्रमप्याश्विनीममावास्यां परिसमापयतीति । तत्र प्रथमामाश्विनीममावास्यां त्रिगन्मुहर्त्तात्मक हस्तनक्षत्रं पञ्चविंशतौ मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकत्रिंशति द्वापष्ठिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिपु सप्तपष्ठिभागेपु (२५-२६ ) गतेपु १, तथा द्वितीयामाश्विनीममावास्यां पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकमुत्तराफाल्गुनीनक्षत्रं चतुश्चत्वारिशति मुहर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्यु द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागम्य पोडशमु मतपष्टिभागेषु (४४ ६) व्यतिक्रान्तेषु २, तथा तृतीयामाश्विनीममावास्या पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मिकं तदेवोत्तराफाल्गुनीनक्षत्रं सप्तदशसु मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकोनचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेपु, एकस्य द्वापष्टिभागस्य एकोनविंशति सप्तषष्टिभागेषु (१०३९।२९) समाप्तेषु ३, तथा चतुर्थीमाश्विनीममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्तात्मकं हस्तनक्षत्रं द्वादशसु मुहुर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तदशसु द्वाप॑ष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिचत्वारिंशति सप्तपष्ठिभागेपु (१२-. ३११३ ७ ५२१५४ ४३) व्यतिक्रान्तेपु ४, तथा पञ्चमीमाश्विनीममावास्यां पञ्चचत्वारिंशन्मुहर्तात्मकमुत्तराफाल्गुनीनक्षत्रं त्रिंशतिमुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य द्विपञ्चाशति द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुष्पञ्चाशति सप्तपष्टिभागेपु (३०- चातिक्रान्तेषु परिसमापयति ||५|| . अथ कार्तिकीममावास्यां प्रदर्शयति—'कत्तिई' इत्यादि, 'कत्तिइ' कोर्तिकी कार्तिकमासभाविनीममावास्यां दो 'तं जहा' द्वे नक्षत्रे तद्यथा-'साई विसाहा य' स्वातिविशाखा च एते द्वे नक्षत्रे युक्तः योगं कुरुतः । अत्रापीदं व्यवहारनयेन प्रोक्तम्, निश्चयनयेन तु तृतीयं चित्रा Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिका टीका गा०१० प्रा. प्रा. ६ सू०३ अमावास्यायोगकारी कुलादिनक्षत्रम् २३७ नक्षत्रमपीमां कार्तिकीममावास्यां परिसमापयति । तत्र प्रथमां कार्तिकीममावास्यां पञ्चचत्वारिंशन्मुहर्तात्मकं विशाखा नक्षत्रं पोडशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य पद त्रिशति द्वाषष्टि भागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्यु सप्तपष्टिभागेषु (१६३६४ ) गतेषु १, तथा द्वितीयां कार्तिकीममावास्यां पञ्चदशमुहूर्तात्मकं स्पानिनक्षत्रं पञ्चसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य द्वाविंशतौ द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तषष्टिभागेपु (५ ) व्यतीतेषु २, तथा तृतीयां कार्तिकीममावास्यां त्रिशन्मुहूर्तात्मकं चित्रानक्षत्रम्-अष्टसु मुहूर्तेपु एकस्य च मुहूर्तस्य चतुश्चत्वारिंशति द्वापष्टि भागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिंशति सप्तपष्टिभागेपु (८००१२) परिपूरितेपु ३, तथा चतुर्थी कार्तिकीममावास्यां पञ्चचत्वारिशन्मुहूर्तात्मकं विशाखानक्षत्र त्रयोदशसु मुहर्तपु, एकत्य न मुहूर्तस्य द्वाविंशतौ द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुश्चत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेपु (१३.३ ) समाप्तेपु ४, तथा पञ्चमी कार्तिकीममावास्यां त्रिशन्मुहूर्तात्मकं चित्रानक्षत्रम् एकविंशतौ मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तपञ्चाशति द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तपञ्चाशति सप्तपष्टि भागेपु (२१ ) गतेषु च समापयति ॥५॥ - अय मार्गशीपीममावास्यां विवृणोति—'मग्गसिरि' इत्यादि, 'मग्गसिरि' मार्गशीर्षी मार्गशीर्षमासमाविनीममावास्यां 'तिण्णि' त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति 'तं जहा' तद्यथा-'अणुराहा, जेठा, मूलो य' अनुराधा, ज्येष्ठा, मूळ च । अत्र व्यवहारनयेन इमानि पूर्वोक्तानि त्रीणि नक्षत्राणि मार्गशीपीममावास्यां परिसमापयन्ति, किन्तु निश्चयनयमतेन तु इमानि वक्ष्यमाणानि त्रीणि नक्षत्राणि समापयन्ति, तथाहि-विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा चेति । तत्र प्रथमां मार्गशीपीममावास्यां पञ्चदशमुहूर्तात्मकं ज्येष्ठानक्षत्रं सप्तसु मुहूर्तपु, एकस्य च मुहूर्तस्य एकचत्वारिंशति द्वापष्टि भागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य, पञ्चसु सप्तपण्टिभागेषु (७४९॥ गतेपु परिसमापयति १, द्वितीयां मार्गशीपीममावास्यां त्रिशन्मुहूर्त्तात्मक मनुराधानक्षत्रम्-एकादशसु मुहूर्तपु, एकस्य च मुहूर्तत्य चतुर्दशसु द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य अष्टादशसु सप्तपष्टिभागपु (११४१८) परिपूर्णेषु २, तथा तृतीयां मार्गशीर्षीममावास्यां पञ्चचत्वारि शन्मुहूर्तात्मकं विशाखानक्षत्रम्-एकोनविंशति मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य ६२६६७) Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रनप्तिसूत्रे करमान वाटभागेषु, एकस्य च दापन्टिभागत्य एकत्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु " ... पाना प्राप्नेगु ३, तथा चतुर्थी मार्गशीर्षीममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्तात्मकमनुम जमिनी मुहर्तषु एकस्य च मुहूर्तम्य सप्तविंशना द्वापष्टिभागेषु च, एकस्य बाटि मागस्य पञ्चत्वारिंगनि सप्तपष्टि भागेपु (२४ ) व्यतीतेपु ४, तथा पनी मार्गमीपानमावाग्यां पञ्चन वारिंगन्मुहर्तामक विशाखानक्षत्रं त्रिचत्वारिंशति महर्तेपु पकम्य न महतम्य सम्बन्धिनो टापष्टिभागरय माटपञ्चाशति सप्तपष्टिभागेपु च २७४५ (3 १८ 1) परिपूर्णपु पग्सिमायनि ॥५॥ प भ मनावाग्यामाह-पोसि' इन्यादि, 'पोसि' पोपी पोपमासमाविनीममावास्यां 'दो' हे नक्षत्रे 'जा नथा-'पुच्चामाहाउत्तरामाहा य' पूर्वापाढा उत्तरापाढा चेति । इदमपिव्यवहारत न वनानु गतीयं मून्दनशनमपि पोपीममावास्यां परिसमापयति । तत्र प्रथमां पोपीममाव या नांगर पूर्वापाढानानम्-अष्टावियतो मुहर्तेपु, एकस्य च महतस्य षट्चत्वारिTY कम्य न धाष्टिभागस्य पदमु सप्तपष्टिभागेषु, (२८-१६१९ गतेषु, Home3) ( ६२६७ 13 पगमावान्या मिमहत्तान्मकं पूर्वापाद्वानक्ष द्वयोर्मुहर्तायोर्गतयोः मतोः एकस्य नाय गतीनगिनी प्राष्टिमागेषु एफग्य च द्वापष्टिभागस्य एकोनविंशती सप्तपष्टि न्य नीपु २, नथा तृतीयामभिवर्धितमासभाविनीममायास्यां पञ्चचत्वाiv... मादायम--एकादश मुहर्तपु, कम्य च महत्तस्य एकोनपष्टौ हापष्टिमागेपु न मानाय स्यामान समप्रभागेषु (११ १२ परिपूर्णषु ३, तशा चतुर्थी • मांग पूर्णपादान पनद मन गहयु, एकग्य च मुहर्तस्य पट्पना -1 mi? ग माग पनवारिम नि मष्टि भागेषु (१५ ,,५६१४६ TRIP e rifr:ममा गलनाग कोनविंदाती मृहपु एकग्य न :: परिभामग्य एकोनपटी मष्टि भागेषु (१० दाइ ६२१६७ 15 • .: :: मा . "माहि. मी मागममानिनामगावाग्या निष्णि' ", "-भीर गलगो पणिहाय' भगितितअयमः, निष्टा र Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ चन्द्रशप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१० प्रा. प्रा. ६ सू०३ अमावास्या योगकारी कुलादिनक्षत्रम् २३९ एतानि त्रीणि नक्षत्रणि युञ्जन्ति परिसमापयन्तीत्यर्थः एतानि पूर्वोक्तानि त्रीणि नक्षत्राणि व्यवहारनयमाश्रित्य प्रोक्तानि निश्चयनयेन तु एतानि वक्ष्यमाणानि त्रीणि नक्षत्राणि मघाीममावास्यां परिसमापयन्ति, तानि त्रीणीमानि उतरापाढा अभिजित्, श्रवणश्चेति । तत्र प्रथमां माधीममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्तात्मक श्रवणनक्षत्रं दशसु मुहूर्तेपु एकस्य च मुहूर्तस्य पड्विशतौ द्वापष्टि भागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य अष्टसु सप्तपष्टिभागेषु (१०१८ ) गतेपु तथा द्वितीयां माधीममावास्य सप्तविशति सप्तपष्टि भाग युक्त नवमुहूर्तात्मकममिजिन्नक्षत्र ९ ३० त्रिंश मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्त त्य षड्विंशतौ द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य विशतौ सप्तपष्टि भागेषु ३-२६।२० व्यतीतेपु तथा तृतीयां माधीममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्तात्मकं श्रवणनक्षत्रं त्रयोविंशतौ मुहूर्तेपु एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनचन्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य पञ्च त्रिंशति सप्तपष्टि भागेपु (२३३०३-) परिपूर्णेपु ३, चतुर्थी माघीममावास्या सप्तविंशति सप्तषष्टिभागयुक्तनवमुहूर्तात्मकमभिजिन्नक्षत्रं पट्ट मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तत्रिंशति द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशतिसप्तपष्टिभागेषु (६५ ) गतेपु ४, तथा पञ्चमी माघीममावास्याम् पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकमुत्तरापाढानक्षत्रं पञ्चविंशतौ मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्तस्य दशसु द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षष्टौ सप्तपष्टिभागेषु च (२५१०६०) व्यतीतेषु परिसमापयति ।५/ ६२६७ ६/६७ ६१६७ अथ फाल्गुनीममावस्याविषये-प्राह-'फग्गुणीं' इत्यादि, फग्गुणी' फाल्गुनी फाल्गुनमासभाविनोममावास्यां 'तिण्णि' त्रीणि नक्षत्राणि योगं कुर्वन्ति तानि यथा-'सयभिसया, पुव्वपोट्टवया य, उत्तरपोढवया य' शतभिशक्, पूर्वप्रोप्ठपदा उत्तरप्रोष्ठपदाचेति । एतदपि व्यवहारत एव, निश्चयतस्तु अमूनि वक्ष्यमाणानि त्रीणि नक्षत्राणि फाल्गुनीममावास्यां समापयन्ति, तानीमानिधनिष्टा, शतभिषक्, , पूर्वाभाद्रपदाचेति । तत्र प्रथमां फाल्गुनीममावास्या त्रिंशन्मुहूर्तात्मक पूर्वभाद्रपदानक्षत्र षट्सु मुहूर्तपु, एकस्य च मुहूर्तस्य एकत्रिंशति द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य नवसु सप्तपष्टिभागेषु (६३-) व्यतीतेषु १, तथा द्वितीयां फल्गुनी ६०६७ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ g २४० चन्द्रप्राप्तिसूत्रे And andani annann MAMAMA INNA ममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकं धनिष्ठानक्षत्रं विशतो मुहर्त्तेपु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्षु · द्वा पष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वाविंशतौ सप्तपष्टिभागेषु (२०२, २२) समाप्तेषु, २ तथा ६२|६७ तृतीयां फाल्गुनीममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकं पूर्वापाढानक्षत्रं चतुर्दशसु मुहूर्त्तेपु, एकस्य च मुहर्त्तस्य ४४ ३६) चतुश्चत्वारिशतिद्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पत्रिशतिसप्तभागेपु (१४ ६२/६७ गतेषु ३, चतुर्थी फाल्गुनी ममावास्यां पञ्चदशमुहूर्त्तात्मकं शतभिषक् नक्षत्रं त्रिपु मुहूर्त्तेषु एकस्य च सप्तदशसु द्वाषष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकोन पञ्चागति सप्तषष्टिभागेपु (३ १७४९ ६२/६७ गतेषु ४, पञ्चमीं फाल्गुनीममावास्यां त्रिशन्मुहूर्तात्मकं घनिष्ठानक्षत्रं पट्सु मुहर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य द्विपञ्चाशति द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वापष्टौ सप्तषष्टिभागेषु च (६ ५२/६२) ६२ ६७ समतिक्रान्तेषु परिसमापयति |५| अथ चैत्रीममावास्यामाह-'चेत्ति' इत्यादि, 'चेति' चैत्रीं चैत्रमासभाविनीममावास्यां 'तिण्णि' त्रीणि समापयन्ति, 'तं जहा ' तद्यथा 'उत्तरभच्वया, रेवई, अस्सिणी य' उत्तराभाद्रपदा, रेवति, अश्विनी चेति । इदमपि व्यवहारतः, निश्चयतस्तु वक्ष्यमाणानीमानि त्रीणि नक्षत्राणि चैत्रीममावास्यां परिसमापयन्ति, तानि यथा पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा रेवती चेति । तत्र प्रथमा चैत्रीममावास्यां पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तात्मकमुत्तराभाद्रपदा नक्षत्रं सप्तत्रिंशतिमुहूर्त्तेपु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य षट्त्रिशति द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य दशसु सप्तषष्टिभागेषु (३७ ३६/१०)व्यतीतेषु १, द्वितीयां चैत्रीममावास्यां पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तात्मिकमुत्तराभाद्रपदा - ६२ ६ नक्षत्रम्-एकादशसु मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य नवसु द्वाषष्टिभागेपु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य / ६२ त्रयोविंशतौ सप्तपष्टिभागेषु (११- ३० गतेषु २, तृतीयां चैत्रीममावास्यां त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकं रेवतीनक्षत्रं पञ्चसु मुहूर्त्तेपु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकोनपञ्चाशति द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिभागेषु (५४३ ३७) परिपूर्णेषु ३, चतुर्थी चैत्रीममावस्यां पञ्चचत्वारिंशम्मुहूर्त्तात्मकमुत्तराभाद्रपदानक्षत्र त्रयोविंशतौ मुहूर्त्तेपु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य द्वाविशतौ द्वापष्टिभागेपु, ३२२/५०) गतेषु ४, पञ्चमों चैत्रीम 2 एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चाशति सप्तपष्टिभागेपु (२३ - मावास्यां त्रिशन्मुहूर्त्तात्मक पूर्वाभाद्रपदानक्षत्रं सप्तविंशतौ मुहूर्त्तेपु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तपञ्चा ६२ ६७ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका०प्रा.१०प्रा प्रा.६ सू०३ अमावास्यायोगकारी कुलादिनक्षत्रम् २४१ ६२६७ शति द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिपष्टौसप्तपष्टिभागेषु (२७५०६३) गतेषु च ६२६७ समापयति ॥५॥ अथ वैशाखीममावास्यामाह-'वइसाहि' इत्यादि, 'वइसाहि' वैशाखी वैशाखमासभाविनीममावास्या 'दो' द्वे नक्षत्रे समापयतः, 'तं जहा' तद्यथा-ते द्वे इमे-भरणीकत्तिया य' भरणी कृत्तिका चेत्ति । अत्राप्येते द्वे नक्षत्रे व्यवहारतः कथिते, निश्चयतस्तु त्रीणि नक्षत्राणि वक्ष्यमाणानि वैशाखीममावारयां परिपूरयति, तानीमानि-रेवती, अश्विनी, भरणी चेति । तत्र-प्रथमां वैशाखीममावास्याम् त्रिंशन्मुहूर्तात्मकश्विनीनक्षत्रम्-अष्टाविंगतौ मुहूर्तेपु एकस्य च मुहूर्तस्य एकचत्वारिशति द्वापष्टिमागेपु एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य एकादशसु सप्तपष्टि भागेपु (२८१२, गतेषु १, द्वितीयां वैशाखीममावास्याम्-त्रिंशन्मुहूर्तात्मकमश्विनीनक्षत्रं द्वयोर्मुइत्तयोर्गतयोः, एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनचत्वारिशति द्वापष्टिभागेपु एकस्य च द्वापष्टिभागत्य त्रयोविशतौ सप्तषष्टि भागेषु (२२२) व्यतीतेपु २, तृतीयां वैशाखीममावास्यां पञ्चदशमुहूर्तात्मकं भारणीनक्षत्रम्एकादशसु मुहुर्तेपु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुःपञ्चाशति द्वापष्टि भागेपु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य अष्टत्रिंाति सप्तपष्टिभागेषु (११५४२८) गतेषु ३, चतुर्थी वैशाखीममावास्यां त्रिगन्मुहूर्तात्मकमश्विनीनक्षत्रं पञ्चदशसु मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविशतौ द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकपञ्चात्राति सप्तपष्टिभागेषु (१५२०५१) गतेषु ४, पञ्चमी वैशाखीममावास्यां त्रिशन्मुहूर्तात्मकं रेवतीनक्षत्रम्-एकोनविंशतौ मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्तस्य सम्बन्धिन एकस्य द्वाषष्टिभागस्य चतुःपटौ सप्तपष्टिभागेषु (१९-) गतेषु च परिसमापयति ।५। अथ ज्येष्ठमासभाविनीममावास्यां प्रदर्शयति-'जेट्ठामूलिं' इत्यादि 'जेहामूलिं' ज्येष्ठामूलीं ज्येष्ठमासभाविनीममावास्यां 'दो' द्वे नक्षत्रे परिसमापयत., 'तं जहा' तद्यथा-ते द्वे इमे-'रोहिणीमिगसिरं च रोहिणी मृगशिरश्चेति । एतदपि व्यवहारतः कथितं, निश्चयतस्तु कृत्तिका रोहिणी चेति द्वे नक्षत्रे ज्येष्ठामूलीममावास्यां परिसमापयत. । तत्र प्रथमां ज्येष्ठामूलीममावास्यां पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तात्मकं रोहिणीनक्षत्रम् एकोनविगतौ एकोनविगतौ मुहूर्तेपु एकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशति द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वादशसु सप्तषष्टिभागेपु (१९०६ार ६२/६७ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रन्नप्तिसूत्रे परिसमाप्तेपु, द्वितीया ज्येष्ठामूली ममावस्यां त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकं कृत्तिका नक्षत्रं त्रयोविंशनौ मुहर्त्तेपु एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकोनविंगतौ द्वापष्टिभागपु, एकस्य च होपष्टि भागस्य पञ्चविंशती २४२ १९/२५ सप्तष्टिभागे (२३ व्यतीतेषु २, तृतीयां ज्येष्ठामूलीममावास्यां पञ्चचत्वारिंग ફરતિ ૭ न्मुहूर्त्तात्मकं रोहिणी नक्षत्र द्वात्रिशति मुहूर्त्तेपु, एकरय च मुहूर्त्तस्य एकोनपष्ठौ द्वापष्टिभागपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकोनचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु (३२. 2) परिपूर्णता गतेषु ३, चतुर्थी ६२६७ ज्येष्ठामूलीममावास्यां पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तात्मकं रोहिणीनक्षत्रं पट्सु मुहूर्त्तेपु, एकस्य च मुहर्त्तस्य . ३२५२ द्वात्रिंशतौ द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्विपञ्चागति सप्तपष्टिभागेपु (६) ६२६७ परिसमाप्तेपु ४, तथा पञ्चमी ज्येष्ठामूलोममावास्यां त्रिशन्मुहुर्त्तात्मकं कृत्तिकानक्षत्रं दर्शसु मुहूर्त्तेपु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्चसु द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चपष्ठौ सप्त५ ६५) समतिक्रान्तेषु समापयति ५ । ६२/६७ पष्टिभागपु (१० अथापाढीममावास्यां सूत्रकारः स्वयं सूत्रालापकेन प्रदर्शयति 'ता आसाहिं णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'आसार्दिणं' आपाठीं आषाढमासभाविनीम् खलु ' अमावासिं' अमावास्यां 'कइणक्खत्ता जोएंति' कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ? चन्द्रेण सह योगं कृत्वा आपाढीममावास्यां परिसमापयन्ति ? भगवानाह - 'ता' इत्यादि, 'ता' तावत् 'तिष्णि णक्खत्ता जोएंति' त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति ‘तं जहा' तद्यथा - ' अहा पुणव्वसू पुस्सी' आर्द्रा, पुनर्वसुः पुण्यः | १२ | अत्रापि इमानि पुर्वाक्तानि त्राणि नक्षत्राणि व्यवहारमाश्रित्य प्रोक्तानि निश्चयनयेन पुनरिमा नि वन्यमाणानि त्रीणि नक्षत्राणि आपाठीममावास्यां परिसमापयन्ति तानि यथा - मृगशिरः, आर्द्रा, पुनर्वसुचेति तत्र प्रथमामापाडी ममावास्या पञ्चदशमुहूर्त्तात्मकमार्द्रा नक्षत्रं दशसु मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकपञ्चागति द्वापष्टिभागेपु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयोदशसु सप्तपष्टिभागेपु (१० 5 ५१ 0 ६२ ६७ १३ व्यक्तिक्रान्तेषु १, यथा-द्वितीयामापाढीममावास्यां त्रिंशन्मुहुर्त्तात्मकं मृगशिरो नक्षत्रं सप्तचिंगतो मुहूर्त्तेपु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्वि शतौ द्वापष्टिभागेपु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पङ्क्तिौ सप्तपष्टिभागेषु २७- २४।२६ गतेषु २, तथा तृतीयामापाढीममावास्या पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तात्मकं पुनर्वग्मुनक्षत्रं नवसु मुहूर्त्तेपु एकस्य च मुहूर्त्तस्य द्वयोष्टिभागयो. एकस्य च ६२।६७ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६७ ६२६७ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१० प्रा. प्रा ६ सू०३ अमावास्यायोगकारी कुलादिनक्षत्रम् २४३ mmmmmm द्वाष्टिभागस्य चत्वारिशति मप्तपष्टिभागेषु (९-२४०) गतेषु ३, तथा चतुर्थीमापाढीममावास्यां त्रिशन्मुहूर्तात्मकं मृगशिरा नक्षत्रं सप्तदिशतौ महत्तेपु. एकरय च मुहूर्तरय सप्तत्रिशतिद्वापष्टिमागेषु एकस्य च द्वापप्टिभागस्य त्रिपञ्चाशतिसप्तपष्टिभागेपु(२९-२०१२ समतिक्रान्तेपु ४, तापञ्चमीमाषाढीममावास्यां पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तात्मकं पुनर्वसुनक्षत्रं द्वाविशतौ मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्तस्य पोडशसु द्वापष्टिभागेपु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य अष्टसु सप्तपष्टिभागेपु च (२ पूर्णतां प्राप्तेपु सत्सु परिसमापयतीति । ५ । ॥इति द्वादशामावास्या विचारः समाप्तः॥ गतो द्वादशाऽमावास्यानां परिसमापकचन्द्रयोगकारकनक्षत्राणा विधिः साम्प्रतमेतासामेवामावास्यानां कुलादिसज्ञकनक्षत्रयोजना प्रदर्शयति-ता 'साविहिं ' इत्यादि गौतमः पृच्छति 'ता' तावत् 'साविति णं' श्रावष्टी श्रावणमासभाविनीम् 'अमावासं अमावास्यां 'किं कुलंजोएई' किं कुलं कुलसंज्ञकनक्षत्रं 'जोएइ' युनक्ति चन्द्रेण सह योगं कृत्वा ताममावास्या परिसमापयतीतिभावः अथवा 'उवकुलं जोएइ' उपकुलं युनक्ति उपकुलं कुलनक्षत्रात् पूर्वस्थित नक्षत्रं योग करोति ? अथवा 'कुलोचकुलं' कुलोपकुलं कुलनक्षत्रात् पश्चानुपूर्व्या तृतीयं नक्षत्रं 'जोएइ' युनक्ति १ इति प्रश्नः । भगवानाह-हे गौतम ! श्राविष्ठीममावास्यां 'कुलं वा जोएई' कुलं वा युनक्ति अत्र वा शब्दः अप्यर्थे तेन कुलमपि युनक्तीत्यर्थः एवमग्रेऽपि सर्वत्र विज्ञेय म् तथा 'उवकुलं वा जोएइ' उपकुलमपि युनक्ति किन्तु 'नो लब्भइ कुलोवकुलं' न लभते नो प्राप्नोति कुलोपकुलं, कुलनक्षत्रात् पश्चानुपूर्व्या तृतीयं नक्षत्रं श्राविष्ठीममावास्यां योगकारकत्वेन न प्राप्नोतीति भावः एवं तर्हि कुलत्वेन च उपकुलत्वेन कि किं नक्षत्रं श्राविष्ठीममावास्यां युनक्ताति प्रश्ने ते द्वे नक्षत्रे प्रदर्शयति 'कुलं जोएमाणे' इत्यादि 'कुलं' कुलं कुलसंज्ञक नक्षत्रं 'जोएमाणे' युञ्जन् योगं कुर्वन् 'महाणखत्ते' मघानक्षत्रं 'जोएइ युनक्ति चन्द्रेण सह योगं कृत्वा श्राविप्ठीममावास्यां परिसमापयतीति भावः अत्र कुलनक्षत्रं मघेति तात्पर्यम् अत्र यत् मधानक्षत्रं कुलत्वेन प्रोक्तं तद् व्यवहारतः प्रोक्तम् व्यवहारतो हि व्यतीतायाममावास्यायां वर्तमानायां च प्रतिपदियोऽहोरात्रप्रारम्भेऽमावास्यया सम्बद्धः स समस्तोऽप्यहोरात्रः 'अमावास्या इति व्यवहियते तत एव व्यवहारमाश्रित्य श्राविष्ट्याममावास्यायां मधानक्षत्रस्य संभवादत्रोक्तं यत कुलं युञ्जन्मघानक्षत्रं युनक्तीति, किन्तु निश्चयनयेन तु कुलं युञ्जत् पुष्यनक्षत्रं श्राविष्ठीममावास्यां युनक्तीतिप्रतिपत्तव्यं कुलप्रसिद्ध्या प्रसिद्धस्य तस्यैव श्राविष्ट्याममावास्यायां संभवात् एतच्च प्रागेवोक्तम्, उत्तरसूत्रमपि व्यवहारमाश्रित्य यथा योगं परिभावनीयमिति 'वा' वा अथवा 'उवकुलं' उपकुलं नक्षत्रं 'जोएमाणे युञ्जन् योगं कुर्वन् 'असिलेसा णक्खते' अश्लेषानक्षत्रं मघातः पूर्वस्थितं 'जोएइ' युनक्ति श्राविष्ठ्याममावास्यायां चन्द्रेण सहयोगं करोतीत्यर्थः कुलोपकुलं नक्षत्रं समायातीति भावः ॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ www.wwws चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे ___ अथोपसंहारमाह- कुलेण वा इत्यादि, 'कुछेण वा जुत्ता उपकुलेण वा जुत्ता' कुलेन वा युक्ता उपकुलेन वा युक्ता भवति, अत एव साविट्टीअमावासा' श्राविष्टी अमावास्या जुत्ताति' युक्ता इति 'वत्तव्यं सिया' वक्तव्यं स्यात् द्वाभ्यां कुलेन उपकुलेण च युक्ता कथ्यते न तु कुलोपकुलेन युक्तेति भावः ‘एवं' एवम्-अनेन प्रकारेण 'नेयचं' नेतव्यं ज्ञातव्यम् एवं द्वादशानामप्यमावास्यानामालापकप्रकारः स्वयमूहनीय इति भावः यद्वैशिष्ट्यं तहर्शयति'नवरं' इत्यादि 'नवरं नवरं केवलं विशेपस्त्वयम्-'मग्गसिराए' मार्गशीर्ष्या मार्गशीर्षमासभाविन्याम् 'माहीए' माध्यां माघमासभाविन्याम् 'फग्गुणीय ए' फाल्गुन्यां फागुनमासमाविन्याम् 'आसाढीए य' आषाढ्याम् आपाढमासभविन्यां चामावास्यायां 'कुलोचकुलं भाणियच्च कुलोपकुलं नक्षत्रं भणितव्यम् आसु चतसृप्वेवामावास्यासु कुलोपकुलनक्षत्रं भवतीति भावः 'सेसासु' शेषासु मार्गशीर्षमाधफाल्गुनाऽऽपाढमासगतामावास्यातिरिक्तासु अष्टस्वमावास्यामु 'कुलोवकुलं नत्थि' कुलोपकुलं नास्ति न भवतीति |सू० ३॥ चित्रा आश्विन्याम् द्वादशामावास्या योगकारक कुलादि नक्षत्र कोप्टकम् मा. संख्या | अमावास्या नाम कुलम् उपकुलम् कुलोपकुलम् श्राविष्ट्याम् | मघा अश्लेपा प्रौष्ठपद्याम् । | उत्तरा फाल्गुनी । पूर्वा फाल्गुनी (भाद्रपद्याम्) हस्तः कार्तिक्याम् विशाखा स्वातिः मार्गशीर्ष्याम् ज्येष्ठा अनुराधा पोप्याम् उत्तरापाढा पूर्वापाढा माध्याम् धनिष्ठा श्रवणः अभिजित् फाल्गुन्याम् उत्तराभाद्रपदा पूर्वाभाद्रपदा शतभिपक् चैत्र्याम् अश्विनी रेवती वैशाख्याम् कृतिका भरणी ज्येष्ठामूल्याम् मृगशिरः रोहणी | आपाढ्याम् पुष्यः पुनर्वसुः इति श्री जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर घासीलाल मुनिविरचितचन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे चन्द्रज्ञप्तिटीकायां दशमस्य प्रामृतस्य पष्ठं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ।।१०-६।। ० ० आर्दा Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१० प्रा.प्रा.७सू०१ पूर्णिमानाममावास्यायांनक्षत्रसंनिपातः ३०५ दशमस्य प्राभृतस्य सप्तमं प्राभृतप्राभृतम् । गतं दशमस्य प्राभृतस्य षष्ठं प्राभृतप्राभृतम् तत्र द्वादशानाममावास्यानां योगकारक-- नक्षत्राणां कुलादिनक्षत्राणां च विवेचनं कृतम् अधुना सप्तमं प्राभृतम् विविच्यते, अत्र पूर्णिमानाममावास्यानां च चन्द्रयोगमाश्रित्य परस्परं नक्षत्रैः संयोगरूपः संनिपातो वक्तव्य इति तद्विषयकसूत्रमाह-ता कहं त संनिवाए इत्यादि । मूलम्-ता कहं ते संनिवाए आहिएति वएज्जा । ता जया णं साविट्ठी पुण्णिमा भवई तया णं माही अमावासा भवइ । जया णं माही पुण्णिमा भवइ तया णं साविट्ठी अमावासा भवइ । जया णं पोट्टबई पुण्णिमा भवइ तया णं फग्गुणी अमावासा भवइ । जया णं फग्गुणी पुणिमा भवइ तया णं पोट्टवई अमावासा भवइ । जया णं आसोई पुण्णिमा भवइ तया णं चेत्ती अमावासा भवइ । जया णं चेत्ती पुण्णिमा भवइ तया णं आसोई अमावासा भवइ । जया णं कत्तिई पुण्णिमा भवइ तया णं वेसाही अमावासा भवइ जया णं वेसाही पुण्णिमाभवइ तया णं कत्तिया अमावासा भवइ । जया णं मग्गसिरी पुण्णिमा भवइ तया णं जेहामूली अमावासा भवइ । जयाणं जेट्टामूली पुण्णिमा भवइ तया णं मग्गसिरी अमावासा भवइ । जया णं पोसी पुण्णिमा भवइ तया णं आसाढी आमावासा भवइ । जया णं आसाढी पुण्णिमा भवइ तया णं पोसी अमावासा भवइ ।। सू०१॥ ॥ दसमस्स पाहुडस्स सत्तमपाहुडं समत्तं ॥१०-९ ॥ छाया-तावत् कथं ते संनिपातः आख्यातः ? इति वदेत् । तावत् यदा खलु श्राविष्ठी पूर्णिमा भवति तदा खलु माघी अमावास्या भवति । यदा खलु माघी पूर्णिमा भवति तदा खलु श्राविष्ठी अमावास्या भवति । यदा प्रोष्ठपदी पूर्णिमा भवति तदा खलु फाल्गुनी अमावास्या भवति । यदा फाल्गुनी पूर्णिमा भवति तदा खलु प्रोष्ठपदी अमा. वास्या भवति । यदा खलु आश्विनी पूर्णिमा भवति तदा चैत्री अमावास्या भवति यदा खलु चैत्री पूर्णिमा भवति तदा खलु आश्विनी अमावास्या भवति यदा खलु कात्तिकी पूर्णिमा भवति तदा खलु वैशाखी अमावास्या भवति । यदा खलु वैशाखी पूर्णिमा भवति तदा खलु कार्तिकी अमावास्या भवति । यदा खलु मार्गशीर्षी पूर्णिमा भवति तदा खलु ज्येष्ठामूली अमावास्या भवति । यदा खलु ज्येष्ठामूली पूर्णिमा भवति तदा खलु मार्गशीर्षी अमावास्या भवति । यदा खलु पौषी पूर्णिमा भवति तदा खलु आषाढी अमावास्या भवति । यदा खलु आपाढी पूर्णिमा भवति तदा खलु पाषी अमावास्या भवति ॥सू० ॥ दशमस्य प्राभृतस्य सप्तम प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् १०-७।। व्याख्या-'ता' कहते' इति, 'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण हे भगवन् 'ते' त्वया 'संनिवाए' संनिपातः पूर्णिमासु अमावास्यासु च चन्द्रयोगमाश्रित्य नक्षत्राणां सनिपातः सयोगः 'आहिए' आख्यातः कथितः ? 'ति' इति-एतत्प्रकरणं मम 'वएज्जा' वदेत् Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रनप्तिसूत्रे वदतु कथयतु हे भगवान् ! इति गौतमेन पृष्टे भगवानाह---हे गौतम ! पूर्णिमाऽमावास्यानां चन्द्रयोगमाश्रित्य नक्षत्रप्रकरणं व्यवहारनयेन कथयामि तथाहि-ता' तावत नक्षत्रं त्रिप्रकारकं भवति कुलनक्षत्रम् ?, उपकुलनक्षत्रम् २, कुलोपकुलनक्षत्रं चेति । तेषु 'जया णं' यदा खल कुलादिषु धनिष्ठा-श्रवणा-ऽभिजिद्रूपेषु व्यवहारनयेन नक्षत्रेण युक्ता साविट्ठी पुण्णिमा' श्राविष्टी पूर्णिमा श्रावणमासभाविनी पूर्णिमा भवेत् 'तया णं' तदा खलु 'माही अमावासा' माधी माघमासभाविनी अमावास्यापि व्यवहारतः धनिष्ठा-श्रवणाऽभिजिन्नक्षत्रमध्ये केनाप्येकेन नक्षत्रण युक्ता 'भवई' भवति ? 'जया णं' यदा खलु 'माही पुणिमा माघमासभाविनी पूर्णिमा मघाऽ'लेया नक्षत्रयोर्मध्ये येन नक्षत्रेण युक्ता 'भवई' भवति तदा 'साविही अमावासा' श्राविष्ठी अमावास्यऽपि मघाश्लेपयोर्मध्ये केनाप्येकेन नक्षत्रेण युक्ता 'भवह' भवति ।२। 'जया ण' यदा खल 'पोट्ठवई' प्रोष्ठपदी भाद्रपदमासभाविनी 'पुण्णिमा' पूर्णिमा त्रिपु-उत्तराभाद्रपदपूर्वाभाद्रपटशतभिपगू रूपेपु कुलादिसंज्ञकेपु मध्ये केनाप्येकेन नक्षत्रेण युक्ता भवति 'तया ण' तदा खल 'फग्गुणी' फग्गुनी फाल्गुनमासभाविनी 'थमावासा' अमावास्यापि एप्वैवमध्ये केनाप्येकेन नक्षत्रेण युक्ता 'भवई' भवति ३ 'जया णं' यदा खल 'फग्गुणी' फाल्गुनी फाल्गुनमासभाविनी 'पुण्णिमा' पूर्णिमा उत्तराफाल्गुनी पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्रयोः कुलादिसज्ञयोर्मध्ये केनाप्येकेन नक्षत्रेण युक्ता भवति 'तया णं तदा खलु 'पोट्टबई' प्रोष्ठपदी भाद्रपदमासमाविनी 'अमावासा' अमावास्याऽपि पूर्वोक्तयोर्नक्षत्रयोर्म ये केनचिदेकेन नक्ष ण युक्ता 'भवइ' भवति ४ 'जया णं' यदा खल 'आसोई' आश्विनी-आश्विनमासभाविनी 'पुण्णिमा' पूर्णिमा अश्विनी रेवतीनक्षत्रयोः कुलादिसंज्ञयोर्मध्ये येन केनाप्येकेन नक्षत्रेण युक्ता भवति 'तया णं' तदा खलु 'चेत्ती' चैत्री चैत्रमासमाविनी 'अमावासा' अमावास्यापि पूर्वोक्तयोर्द्वयोर्मध्ये केनाप्येकेन नक्षत्रेण युक्ता अमावासा' अमावस्या 'भवति ५ । 'जया णं' यदा खलु 'चेत्ती' चैत्री चैत्रमासभाविनी 'पुण्णिमा' पूर्णिमा चित्रा हस्तयोः कुलादिसज्ञयोयोनक्षत्रयोर्मव्यात् केनाप्येकेन नक्षत्रेण युक्ता 'भवइ' भवति 'तया णं तदा खलु 'आसोई' आश्विनी-आश्विनमासभाविनी अमावासा अमावास्याऽपि पूर्वोक्तयोयोर्नक्षत्रयोर्मव्यात् केनाष्येकेन नक्षत्रेण युक्ता 'भवइ' भवति ६ 'जया णं' यदा खल्ल 'कत्तिकी' कात्तिकी कार्तिकमास भाविनी 'पुण्णिमा' पूर्णिमा कृत्तिका भरणी नक्षत्रयोः कुलादिसंज्ञयोर्द्वयोर्मव्यात् येन केनाप्येकेन नक्षत्रेण युक्ता 'भवइ' भवत 'तया णं तदा खलु 'वैसाही वैशाखी वैशाखमासभाविनी 'अमावासा, अमावास्यापि पूर्वोक्तयोईयोर्नक्षत्रयोर्मध्यात् केनाप्येकेन नक्षत्रेण युक्ता 'भवई' भवति 'तया णं' तदा खलु 'कत्तिया कार्तिकी कार्तिकमासभाविनी 'अमावासा' अमावास्याऽपि पूर्वोक्तयोदयानक्षत्रयोर्म यात् केनाप्येकेन नक्षत्रेण युक्ता "भवइ' भवति ८ 'जया ण' यदा खलु 'मग्गसिरी'मार्गशीपी 'पुण्णिमा'पूर्णिमा मृगशीर्ष-रोहिणीनक्षत्रयोः कुलादिसंज्ञयोयोर्मध्यात् येन केनाप्येकेन नक्षत्रेण युक्ता 'भवइ भवति तया णं तदा Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१० प्रा. प्रा. ७ सू०१ पूर्णिमानाममावास्यायांनक्षत्रसंनिपातः३०७ खलु 'जेहामूली'ज्येष्ठामूली ज्येष्ठमासभाविनी 'अमावासा'अमावास्याऽपि पूर्वोक्तयोर्द्वयोर्नक्षत्रयोमध्यात् केनाप्येकेन नक्षत्रेण युक्ता 'सवइ भवति ? 'जया णं' यदा खलु 'जेट्ठामूली'ज्येष्ठामूलीज्येष्ठमासभाविनी 'पुण्णिमा'पूर्णिमा मूलज्येष्ठा-ऽनुराधारूपेषु त्रिपु कुलादिसज्ञकेपु नक्षत्रेपु मध्यात् येन केनाप्येकेन नक्षत्रेण युक्ता भवइ' भवति 'तया णं'तदा खल 'मग्गसिरी'मार्गशीपी-मार्गशीर्षमासभाविनी 'अमावासा'अमावास्याऽपि पूर्वोक्तानां त्रयाणां नक्षत्राणां मध्यात् केनाप्येकेन नक्ष'त्रेण युक्ता भवइ' भवति१० 'जया णं'यदा खलु 'पोसी पौषीपोपमासभाविनी'मुण्णिमा' पूर्णिमा पुष्यपुनर्वस्वाऽऽर्दाकोपु त्रिपु कुलादिस षु नक्षत्रेषु मन्यात् येन केनाप्येकेन नक्षत्रेण युक्ता भवई'भवति तया णं'तढा खल 'आसाढी आषाढमासभाविनी अमावासा अमावास्याऽपि पूर्वोक्ताना त्रयाणां नक्षत्राणा मव्यात् कनचिदेकेन नक्षत्रण युक्ता भवइ'भवति ११ 'जया णं' यदा खलु 'आसाढी आपाढी-आषाढमासभाविनी पुण्णिमा'पूणिमा उत्तराषाढा पूर्वापाढारूपयोईयोन क्षत्रयोर्मध्यात् केना'येकेन नक्षत्रेण युक्ता 'भवइ'भवति तयाणं' तदा खलु 'पोसी पौषमासभाविनी अमावासा अगावास्याऽपि पूर्वाक्तयोईयो क्षत्रयोर्मध्यात् केनाप्येकेन नक्षत्रेण . युक्ता . 'भनइ'भवति १२ इति ॥ सू०१॥ ॥ पूर्णिमाऽमावास्याज्ञानार्थ कोष्ठकम् ॥ | संख्या मास पूर्णिमा | कुल नक्षत्रम् | उपकुल नक्षत्रम् | कुलोपकुल | मासामावास्या | श्राविष्ठी-श्रावण नक्षत्रम् | माघी अमा. ३० मास-पूर्णिमा १५ धनिष्ठा श्रवण अभिजित् | फाल्गुनी अ. ३० प्रोष्ठपदी-भाद्रपद चैत्री अमा, ३० मास-पूर्णिमा १५/ उत्तराभाद्रपद पूर्वा भाद्रपद वैशाखी अ.३० आश्विनी १५ | आश्विनी | रेवती । | ज्येष्ठामूली-ज्येष्ठकार्तिकी १५ / कृत्तिका | भरणी मास अमा. ३० मार्गशीपी १५ | मृगशिरः | राहीणो आषाढी :३० ___ पोपी १५ । पुष्यः पुनर्वसु । श्राविष्ठी-श्रावण माघी १५ मघा । अश्लेपा मास अ..३० फाल्गुनी १५ | उत्तराफल्गुनी पूर्वाफाल्गुनी . प्रोष्ठपदी-भाद्र चैत्री १५ पद० अ. ३० वैशाखी १५ चित्रा हस्तः आश्विनी अ.३० ज्येष्ठामूली-ज्ये- विशाखा | कार्तिकी अ.३० एमास पू. १५ मूलम् । ज्येष्ठा अनुराधा , मार्गशीर्ष अ.३० आषाढी १५ | उत्तरापाढा पूर्वा पाढा x,. . पौषी-अ..३० । x x x x x x | स्वाति x Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे १३०८. ___ अथ प्रकारान्तरेणेदं सूत्रं व्याख्यायते-'ता जया गं' इत्यादि 'ता जया णं' तावत् यदाखलु, 'साविट्ठी'श्राविष्ठी श्रविष्टा-धनिष्ठानक्षत्रं तेन युक्ता पूर्णिमा भवति'तया णं तदा खलु तत्प्र्णिमातः प्राक्तना 'अमावासा'अमावास्या 'माही'माघी मघानक्षत्रयुक्ता भवइ'भवति यतो हि व्यवहारनयमतेन पूर्णिमानक्षत्रात् पश्चानुपूर्व्या पञ्चदशे चतुर्दशे वा नक्षत्रेऽमावास्या भवति श्राविष्ठानक्षत्रात् मघानक्षत्रस्य पश्चानुपूर्व्या पञ्चदशत्वात् एतच्च व्यवहारतः श्रावणमासमधिकृत्यावसेयम्१ एतदेव वैपरीत्येनाह-'जयर णं'यदा खलु 'माही'माधी मघानक्षत्रयुक्ता 'पुण्णिमा भवई' पूर्णिमा भवति 'तया णं तदा खलु 'अमावासा'अमावास्या तत्पूर्णिमातः प्राक्तना अमावास्या 'साविट्ठी' श्राविष्ठी धनिष्ठानक्षत्रयुक्ता भवति मघात आरभ्य पश्चानुपूर्व्या धनिष्ठानक्षत्रस्य पञ्चदशत्वात् एतच्च व्यवहारतो माघमासमाश्रित्य विज्ञेयम् २ 'जया णं'यदा खलु 'पोहवइ'प्रोष्ठपदी उत्तराभाद्रपदानक्षत्रयुक्ता 'पुण्णिमा पूर्णिमा 'भवई'भवति'तया णं तदा खलु 'अमावासा'तत्प्राक्तना अमावास्या फग्गुणी'फाल्गुनी-उत्तरफाल्गुनीनक्षत्रयुक्ता भवइ' भवति उत्तरभाद्रपदातः पूर्वमुत्तरफाल्गुनीनक्षत्रस्य पञ्चदशत्वात् अपान्तरालगतनक्षत्रस्य स्तोककालस्थायित्वेन प्रायो व्यवहारेण न गण्यते लोके अभिजिन्नक्षत्रं वर्जयित्वा शेपसप्तविशतिनक्षत्राणां व्यवहारत्वात् उक्तञ्च समवायाङ्गसूत्रे-“जंबुद्दीवे दीवे अभिई वज्जेहिं सत्तावीसाए नक्खतेहिं संववहारो वट्टइ"इति छायाजम्बूद्वीपे द्वीपे अभिजिद्वजैः सप्तविंशत्या नक्षत्रैः संव्यवहारो वर्त्तते इतिवचनात् उत्तरभाद्रपदानक्षत्रात् उत्तरफाल्गुनोनक्षत्रं पश्चानुपूर्व्या गणने पञ्चदशं भवतीति एतच्च भाद्रपदमासमाश्रित्य प्रोक्तमवसेयम् ३ 'जयाणं यदा खलु 'फग्गुणी'फाल्गुनीउत्तराफाल्गुनी नक्षत्रयुक्ता यदा 'पुण्णिमा' पूर्णिमा भवइ'भवति-भवेत्'तया णं'तदा खलु 'अमावासा'तत्पश्चाद्गताऽमावास्या पोढवई'प्रोष्ठपदोउत्तरभाद्रपदानक्षत्रयुक्ता भवइ'भवति-भवेदित्यर्थः उत्तरफाल्गुनीनक्षत्रात् उत्तरभाद्रपदानक्षत्रस्य चतुर्दशत्वात् इदं च फाल्गुनमासमाश्रित्य प्रतिपादितम् ४ 'जया णं' यदा खलु 'आसोई' आश्विनी अश्विनी नक्षत्रयुक्ता पुण्णिमा 'पूर्णिमा भवइ' भवति-भवेत्-'तयाणं' तदा खलु 'अमावासा' अमावास्या पूर्णिमातः प्राग्गता अमावास्या 'चेत्ती' चैत्री-चित्रा नक्षत्रयुक्ता 'भवइ, भवति । भवेत् अश्विनीनक्षत्रात् पश्चानुपूर्व्या गणने चित्रानक्षत्रस्य पञ्चदशत्वात् एतद्व्यवहारनयेन प्रोक्तम्, निश्चयतस्तु एवं न, इदं व्यवहारत आश्विनमासमधिकृत्य प्रोक्तम्, आश्विनमासभाविन्याम, मावास्यायां च चित्रानक्षत्रस्य प्रायोऽसम्भवात् अतः व्यवहारनयमतेन' इति पूर्वमेव प्रद र्शितम् ५ 'जया णं' यदा खलु 'चेती' चैत्री चित्रानक्षत्रयुक्ता 'पुण्णिमा भवइ' पूर्णिमा ' भवति 'तयाणं' तदा खलु 'अमावासा' पूर्णिमातः प्राक्तना अमावास्या 'आसोई 'आश्विनी अश्विनीनक्षत्रयुक्ता 'भवइ'भवति इदं व्यवहारतश्चत्रमासमाश्रित्य प्रोक्तम् चैत्रैमासमाविन्यम- मावास्यायामश्विनीनक्षत्रस्य निश्चयनयेन प्रायोऽसम्भवात् ६ 'जयाणं' यदा खलु 'कत्तिइ' । कार्तिकी-कृत्तिकानक्षत्रोपेता 'पुण्णिमाभवइ' पूर्णिमा भवति 'तया णं' तदा खल 'अमावासा' Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका०प्रा.१०प्रा. प्रा.७ सू०१ पूर्णिमानाममावास्यायांनक्षत्रसंनिपातः ३०९ एतत्पूर्णिमातः प्राग्वर्तिनी अमावास्या 'वेसाही' वैशाखी विशाखा नक्षत्रोपेता भवइ'भवति, कृत्तिका नक्षत्रात् पश्चानुपूर्ध्या विशाखानक्षत्रस्य पञ्चदशत्वात्। तथा 'जया णं यदा खलू 'वेसाही' वैशाखी विशाखानक्षत्रयुक्ता 'पुण्णिमा भवई' पूर्णिमा भवति. 'तया णं' तदा खलु 'अमावासा' पश्चाद्गता अमावास्या 'कत्तिई' कार्तिकी-कृत्तिकानक्षत्रयुक्ता 'भवइ' भवति, विशाखातः कृत्तिकायाः पश्चानुपूर्व्या गणने चतुर्दशत्वात् , एतद् वैशाखमासमधिकृत्य विज्ञातव्यम् ८ । 'जया णं' यदा खल 'मग्गसिरी' मार्गशीर्षी मृगशिरीनक्षत्रोपेता 'पुण्णिमा' भवई' पूर्णिमा भवति 'तया णं' तदा खलु 'जेहामूली' ज्येष्ठानक्षत्रयुक्ता 'अमावासा' तत्पूर्णिमातः प्राक्तनाऽमावास्या 'भवइ' भवति, इदं च ज्येष्ठमासमाश्रित्य प्रोक्तमित्यवसेयम् ९। 'जया णं' यदा खलु, 'जेहामूली' ज्येष्टामूली ज्येष्ठानक्षत्रोपेता 'पुण्णिमा भवई' पूर्णिमा भवति 'तयाणं तदा खलु 'अमावासा' प्राग्गताऽमावास्या 'मग्गसिरी' मार्गशीर्षी मृगशिरोनक्षत्र युक्ता 'भवइ' भवति १० । 'जया णं' यदा खल 'पोसी' पोपी पुष्यनक्षत्रयुक्ता 'पुण्णिमा भवइ' पूर्णिमा भवति 'तया णं' तदा खलु तत्प्राग्भवा 'अमावासा' ममावास्या 'आसाढी' उत्तरा पाढानक्षत्रयुक्ता 'भवइ' भवति, इदं पौषमासमाश्रित्य कथितम् ११। तथा'जया णं'यदा खलु 'आसाठी, आपाढ़ी उत्तरापाढा नक्षत्रयुक्ता 'पुण्णिमा भवइ, पूर्णिमा भवति, 'तया णं, तदा खल तत्प्राक्तना 'अमावासा, अमावास्या 'पोसी, पौषी पुष्यनक्षत्रोपेता 'भवइ, भवति इदमाषाढमासमधिकृत्याभिहितमित्यवसेयम् १२ ॥ सू० १॥ "पूर्णिमाऽमावास्या नक्षत्रकोष्ठकम्" संख्या पूर्णिमा नक्षत्रम् तत्प्राक्तनामावास्यानक्षत्रम् चित्रा 20. MGM com श्रवणः मघा मघा श्रवणः उत्तराभाद्रपदा उत्तराफाल्गुनी उत्तराफाल्गुनी उत्तराभाद्रपदा अश्विनी चित्रा अश्विनी कृत्तिका विशाखा विशाखा कृत्तिका मृगशिरः ज्येष्ठामूलम् (ज्येष्ठा) ज्येष्ठामूलम् मृगशिरः पुण्यः उत्तराषाढा १२ उतराषाढा पुष्यः "इति चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्रे चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीकायां सप्तमं प्रामृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१०-७॥ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० । . MuN som wwwwww................................ • चन्द्रप्राप्तिसूत्रे दशमस्य ग्रामृतस्याप्टमं प्राभृतप्राभृतम् । तदेवं व्याख्यात दशग्रय प्राभृतस्य सप्तमं प्रामृतप्रामृतम्, अथाष्टमं व्याख्यायते, नस्य चायमभिसम्बन्ध -पूर्वप्रामृते पूर्णिमाऽवास्यानां परस्परं नक्षत्रैः मह सयोगरूप. सनिपात प्रदर्शित अथ त प्ररतावादत्र नक्षत्राणां सस्थानं प्रदर्श्यते-'ता कह तं नक्खत्त संठिई' इत्यादि । मूलम्-ता कहं ते नक्खत्तसटिई आहिए ? ति वएज्जा । ता एएसिणं अट्ठावीसाए णवत्ताणं अभिई ण णयखत्ते किं संठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! गोसीसावलिसंठिए पण्णाने १ । सवणे णवसन्ते कि सठिए पण्णत्ते ?, काहार संठिए पण्णत्ते २ धणिहा णनखत्ते कि संठिए एण्णत्ते ? सउणिपलीणगसंठिए .पण्णत्ते ३ । सयभिसया णक्खत्ते किं सठिए पप्णत्ते ? पुप्फोवयारसंठिए पण्णत्ते ४ । पुच्चापोहचया णक्खत्ते उत्तरभवया णवखत्ते य किं संठिए पष्णते ? अवहढवावी संठिए पण्णत्ते ५।६। रेवईणक्खत्ते कि संठिए पण्णत्ते ? णावासंठिए पण्णत्ते ७ । अस्सिणी णक्खत्ते किं संठिए पण्णत्ते ? आसखंघसंठिए पण्णत्ते ८ । भरणीणक्वत्ते किं संठिए पण्णत्ते भगसंठिए पण्णत्ते ९ । कत्तिया णक्खत्ते कि संठिए पण्णत्ते ? छुरघरसंठिए पण्णत्ते १०। रोहिणीणक्खत्ते किं संठिए पण्णत्ते ? सगडद्धिसंठिए पण्णत्ते ११ । मिगसिराणक्खत्ते कि संठिए पण्णत्ते ? मिगसीसावलिसंठिए पण्णत्त १२ । अहाणक्खत्ते किं संठिए पण्णत्ते ! रुधिरविंदुसंठिए पण्णत्ते १३ । पुणव्वसुणक्खत्ते कि संठिए पण्णत्ते १ तुला संठिए पण्णत्ते, १४ । पुस्से णक्खत्ते किं संठिए पण्णत्ते ? वद्धमाणसंठिए पण्णत्ते १५ । अस्सेसा णक्यत्ते कि संठिए पण्णत्ते ? पडागरांठिए पण्णत्ते १६ । महाणक्खत्ते कि संठिए पण्णत्ते पागारसंठिए पण्णत्ते १७ । पुयाफग्गुणीणक्खत्ते किं संठिए पण्णत्ते ! अद्धपलियंकसंठिए 'पण्णत्ते १८ । एवं उत्तराफग्गुणी वि १९ । हत्थे णक्खत्ते किं संठिए पण्णत्ते हत्थसंठिए पण्णत्ते २० । चित्ताणक्खत्ते किं संठिए पण्णत्ते ! मुहफुल्लसंठिए पण्णत्ते २१ । साइणक्खत्ते किं संठिए पण्णत्ते ! खीलगसंठिए' पण्णत्त २२ । विसाहा' णक्खत्ते किं संठिए पण्णत्ते ? दामणिसंठिए पण्णत्ते २३ । अणुराहा णक्खत्ते कि संठिए पण्णते ? एगावलिसंठिए पण्णत्ते २४ । जेहाणक्खत्ते किं संठिए पण्णत्ते गयदंतसंठिए पण्णते २५ । मूलेणखत्ते कि संठिए पण्णत्ते ? बिच्छुय लंगूल संठिए पण्णते २६ । पुन्चासाढाणक्खत्ते किं संठिए पण्णत्ते ? गयविक्कमसंठिए पण्णत्ते २७ उत्तरासाढाणक्रयत्ते कि संठिए पण्णत्ते ? सीमिसीइया संठिए पण्णत्ते ॥ सू०१॥ "दसमस्स पाहुडस्स अट्टमं पाठुङपाहुडं समत्तं ॥१०॥ ८॥ . ? तुला १५ । अस्सेसा पणते पागारसंहित Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा०१० प्रा. प्रा. ८ सू०१ नक्षत्रसंस्थाननिरूपणम् ३११ छाया तावत् कथं ते नक्षत्रसंस्थितिः आख्याता ? इति वदेत् । तावत् एतेषां खलु अष्टाविंशतेः नक्षत्राणां अभिजित् खलु नक्षत्रं किं संस्थितं प्रज्ञप्तम् ? । गौतम ! गोशीविलिसस्थित प्रज्ञप्तम १। श्रमणो नक्षत्रं किं संस्थित प्रज्ञप्तम् ? काहार (कावड) संस्थित प्रज्ञप्तम् । धनिष्ठा नक्षत्रं किं संस्थित प्रज्ञप्तम् ? शकुनि प्रलीनक (पक्षिपञ्जर) संस्थित प्राप्तम् ३॥ शतभिपग् नक्षत्रं किं संस्थित प्राप्तम् ? पुष्पोपचारसंस्थितं प्रशप्तम् ४। पूर्वा प्रोग्यपदानक्षत्रम् उत्तरा प्रोष्टपदा नक्षत्रं च किं संस्थित प्राप्तम् ? अपार्धचापी संस्थित प्रज्ञप्तम् ५। रेवती नक्षत्र कि संस्थितं प्रशप्तम् नौका संस्थितं प्रक्षप्तम् ७ अश्विनी नक्षनं किं संस्थितं प्रज्ञप्तम् ? अश्वस्कन्धसंस्थित प्रज्ञप्तम् । भरणीनक्षत्र 'कि संस्थित प्रनतम् ? भगवंस्थित प्रामम् । कृत्तिका नक्षत्रं कि संस्थितं प्रज्ञप्तम् ? क्षुरगृहसंस्थितं प्राप्तम् १०। रोहिणी नक्षत्रं किं संस्थितं प्रशप्तम् ? शकटोद्धि संस्थितं प्राप्तम् १२॥ मृगशिरोनक्षत्रं किं संस्थित प्रजप्तम् ? मृगशीर्षावलिसंस्थितं प्रधप्तम् १२। आर्द्रा नक्षत्र कि संस्थित प्राप्तम् १ रुधिरविन्दुसंस्थितं प्राप्तम् १३॥ पुनर्वसुनक्षत्रं किं संस्थितं प्रशप्तम् ? तुला संस्थितं प्रशप्तम् १४॥ पुण्यो नक्षत्रं किं संस्थितं प्रज्ञप्तम् ? . वर्धमान संस्थित प्रनतम् १५५ अश्लेपानक्षत्रं किं संस्थित प्रनतम् ? पताका संरिथतं प्रज्ञप्तसू१६ मधानक्षनं कि संस्थित प्राप्तम् । प्राकार संस्थित प्रज्ञप्तम् १७ पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र, कि संस्थितं प्रज्ञप्तम् ? अर्धपल्यङ्कसंस्थित प्रज्ञप्तम् १८1 एवम्-उत्तराफाल्गुन्यपि १९| हस्तो नक्षत्रं किं संस्थितं प्राप्तम् ? हस्तसंस्थित प्राप्तम् २०॥ चित्रानक्षत्रं किं संस्थित प्रज्ञतम् ? मधु (महुडो) पुष्पसंस्थित प्राप्तम् २१। स्वाति नक्षत्र कि संस्थित प्रजप्तम् ? कीलक संस्थित प्रज्ञप्तम् २२॥ विशाखा नक्षत्रं किं ,संस्थित प्राप्तम् ? दामनी (पशुवन्धनरज्जु) संस्थित प्राप्तम् २३॥ अनुराधा नक्षत्र कि संस्थित प्रज्ञप्तम् ? एकावलि (हार) संस्थितं प्रशप्तम् २५॥ ज्येष्ठा नक्षत्रं किं स्थित प्रज्ञप्तम् ? गजदन्तसस्थितं प्रज्ञप्तम् २५। मूलोनक्षत्रं किं संस्थितं प्रज्ञप्तम् ? वृश्चिकलागूल (वृश्चिकपुच्छ) संस्थितं प्रज्ञप्तम् २६ । पूर्वापाढानक्षत्रं कि संस्थितं प्रशप्तम् ? गजविक्रम (गजपादन्याससंस्थितं प्रक्षप्तम् २७ । उत्तरापाढानक्षत्रं किं संस्थितं प्रशतम् ? सिंहनिपीदिका (सिंहोपवेशन) संस्थितं प्रज्ञप्तम् २८ ॥ सू० १॥ .: दशमस्य प्राभृतस्याप्टमं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् १० व्याख्या-'ता कहते नक्खत्तसंठिई' इत्यादि । गौतमः पृच्छति-'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण'ते' त्वया 'णक्खत्त संठिई' नक्षत्रसस्थितिः नक्षत्राणां सस्थितिः संस्थानम् आकार इति नक्षत्रसस्थितिः नक्षत्राकृतिः 'आहिया' आख्याता कथिता 'त्ति इति 'वएज्जा' वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् ! तदेव प्रतिनक्षत्र विषये गौतम प्रश्न-भगवदुत्तरप्रतिपादकानि सूत्राण्याह 'ता एएसिणं'' इत्यादि । 'ता' तावत्-एएसिणं, एतपां शास्त्रप्रसिद्धानामभिजिदादीनां . 'अहावीसाए' अष्टाविशनेः अष्टाविंशतसत्यकानां 'णक्खत्ताणं' नक्षत्राणां मन्ये यत् 'अभीई ण णक्खत्ते' अभिजित् खलु नक्षत्रं 'किं संठिए' किं सस्थितं कीदृगाकारसयुक्तं 'पण्णत्वं प्रज्ञप्तम् हे भगवन्' अभिजिन्नक्षत्रस्य कीदृश आकारो वर्तते ? इति गौतमस्य प्रश्नः । भगवानाह-हे गौतम ! अष्टा विंशतिनक्षत्राणां मध्ये यद् अभिजिनक्षत्रं :प्रथम वर्त्तते तत् 'गोसीसांवलिसंठियं' गोशीविलि FHHHTHHTHHTH Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ चन्द्रमतिसूत्रे संस्थितं, गोः बलीवर्दस्य शीर्ष - मस्तकं गोशीर्ष तस्य आवलिः तत्पुद्गलानां दीर्घरूपा श्रेणिः, तदाकारं संस्थानं 'पण्णत्तं' प्रज्ञप्तम् १ । एवमग्रेऽपि शेषाणि सूत्राणि स्वयं व्याख्यातव्यानि सूत्राणि - छायागम्यानीति न व्याख्यायन्ते |२८| अत्र अभिजिताद्यष्टाविंशतिनक्षत्राणां यथासंख्यं संस्थानसग्राहिका जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिगतास्तिस्रो गाथाः प्रदर्यन्ते, तथाहि — " गोसीसावलि १, काहार २, सउणि, ३ पुप्फोवयार ४, चावीय ५ । ६ (पूर्वीतरारूपं प्रोष्ठपदद्वयम् ) । णावा, आसक्खंधग ८. भग ९ छुरघरए १० य सगडुद्धी । ११ ॥१॥ मिग सीसावलि १२ रुहिर बिंदु १३ तुल १४ चन्द्रमाण १५ पडागा १६ । पागार १७ पल्लंके १८-१९ (पूर्वतराफाल्गुनीद्वयम् ), हत्थे २० महुफुल्लए २१ चेव ||२|| २२ खीलग २२ दामिणि २३ एगावली ३४ य गयदंत २५ विच्छ्रयणंगृले ३६ या गयविक्कमे २७ य तत्तो, सीहनिसीया २८ य संठाणा ॥३॥" छाया - गोगीर्पावलि ? कहार ( कवड) २ शकुनिः ३ पुप्पोपचारः ४ वापी (पूर्वोत्तरारूपं प्रोष्ठपदाहयं ) ५/६ नौका ७ अश्वस्कन्ध ८ भग ९ क्षुरगृहं १० च शकटोद्धि ११||१ || मृगशीर्षावलि १२ । रुधिरबिन्दु १३, तुला १४ वर्धमानक १५ पताका १६ । प्राकारा १७ पल्यङ्क (पूर्वोत्तराफाल्गुनीयम् ) १८/१९, हस्त २० मधुपुष्पकं २१ चैव ||२|| कीलक २२ दामनि २३ एकावलिः २४ च गजदन्त २५ वृश्चिकलाङ्गुलं २६ च । गज विक्रमश्च, (गजपादन्यासः) २७ ततः सिंहनिपीदिका २८ च संस्थानानि ॥ ३ ॥ इति । सू० १ ॥ इति चन्द्र प्रज्ञप्तिसूत्रे चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीकायां दशमस्य प्राभृतस्याष्टमं प्राभृत प्राभृतं समाप्तम् ॥ १० ॥ दशमस्य प्राभृतस्य नवमं प्राभृतप्राभृतम् व्यख्यतमष्टमं प्रामृतप्राभृतम् तत्राष्टाविंशतिनक्षत्राणां संस्थानानि प्रदर्शितानि । अथ नवमं प्राभृतप्राभृतं व्याख्यायते, नक्षत्राणां संस्थानानि च तारासंख्याविना न भवितुमर्हन्तीत्यत्र नवमे प्राभृतप्राभृते नक्षत्राणां तारासंख्या प्रदर्श्यते - ता कहं ते तारग्गे । इत्यादि । मूलम् - ता कहते तारग्गे आहिए ? ति चएज्जा । ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभीईणक्खत्ते कइ तारे पण्णत्ते ? गोयमा ? तितारे पण्णत्ते १ । सवण णक्खते कइ तारे पण्णत्ते ? तितारे पण्णत्ते २ । धणिट्ठा णक्खत्ते कइतारे पण्णत्ते ? पंचतारे पण्णत्ते ३ । सयभिसया णक्खत्ते कइतारे पण्णत्ते ? दुतारे पण्णत्ते ४ । पुन्यापोहवया क्खत्ते कइतारे पण्णत्ते ? दुतारे पण्णत्ते ५ । एवं उत्तरापोद्ववयावि ६ । रेवईणखत्ते कइतारे पण्णत्ते ? बत्तीसतारे पण्णत्ते ७ । अस्सिणी णक्खत्ते कइतारे पण्णत्ते ? तितारे पण्णत्ते ८ । एवं सव्वे पुच्छिज्जिंति - भरणी० तितारे ९ । कत्तिया० छत्तारे १० । रोहिणी ० पंचतारे ११ । मिगसिर ० तितारे १२ । अद्दा० एगतारे १३ पुणव्वसु० Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १०प्रा. प्रा.९ सू०१ नक्षत्राणां तारासंख्यानिदर्शनम् ३१२ पंचतारे १४ । पुस्से० तितारे १५ अस्सेसा० छत्तारे १६। महासत्ततारे १७ ॥ पुन्वाग्गुणी दुतारे, १८ । एवं उत्तराफग्गुणी वि दुतारे १९ । हत्थे पंचतारे २० । चित्त० एगतारे २१ । साई० एगतारे २२ । विसाहा० पंचतारे २३।" अणुराहा० पंचतारे २४। जेट्टा० तितारे २५ । मूले एगारसतारे. २६.1. पुव्वासाढा० चउतारे २७ । उत्तरा माढा णक्खत्ते कइतारे पण्णत्ते ?. चउतारे पण्णते ॥ सू०.१॥ : दसमस्स पाहुडस्स नवमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥१०-९॥ छाया-तावत् कथं ते तारा आख्यातम् ? इति वदेत् । तावत् एतेषां खलु अष्टाविंशतेनक्षत्राणाम् अभिजिन्नक्षत्रं कतितारं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! त्रितारं प्रज्ञप्तम् १ श्रवणो नक्षत्र कतितारं प्रज्ञप्तम् १ त्रितारं प्रशप्तम् २।- धनिष्ठा नक्षत्र कतितार प्रश तम् पश्चतारं प्रज्ञप्तम् ३ । शतभिपग्नक्षत्र कतितारं प्रज्ञप्तम् ?' शततार प्रज्ञप्तम् ४ । पूर्वा प्रोष्ठपदानक्षत्रं कृतितारं प्रशप्तम् ? :द्वितारं प्रज्ञप्तम् । एवम्-उत्तरामोष्ठपदापि ६/रेवती नक्षत्र कतितारं प्रशप्तम् ? द्वात्रिंशत्तारं प्रज्ञप्तम् ७ । अश्विनी नक्षत्र कंतितारं प्रज्ञप्तम् ? त्रितारं प्रज्ञप्तम् ८ । एवं सर्वाणि (नक्षत्राणि) पृच्छयन्ते-भरणी० त्रितारम् ९। कृत्तिका० षद तारम् १०-रोहिणो० पञ्चतारम् ११ । मृगशिरोन त्रितारम् १२। आर्द्रा० एकतारम १३ । पुनर्वसु०पञ्चतारम् १४ । पुण्यो न० त्रितारम् १५॥ अश्लेषा पटूतारम्८१६ मधासप्ततारम् १७. पूर्वाफाल्गुनी द्वितारम् १८ा पवमुत्तराफाल्गुन्यपि० द्वितारम् १९॥ हस्तों न०पञ्चतारम् २० । चित्रा० एकतारम् २श स्वातिन एकतारम् २२॥ विशाखा पञ्चतारम् २३॥ अनुराधा पञ्चतारम् २४। ज्येष्ठा० त्रितारम् २५। मूलो न० एकादशतारम् २६, पूर्वाषा ढा० चतुस्तारम् २७ । उत्तराषाढानक्षत्र कतितारं प्रज्ञप्तम्-१ चतुस्तारं. प्रज्ञतम् ॥ सू०१॥ दशमस्य प्राभृतस्य नवम, प्राभृतप्राभृतं समाप्तम्,,१०-१.... । ' व्याख्या-गौतमः पृच्छति--ता'कह तारंग्गे' इत्यादि । 'ता''तावत् 'कही। कथं--केन प्रकारेण 'ते' त्वया 'तारग्गे' तारग्रं--ताराप्रमाणम्-अष्टाविंशतिनक्षत्राणां तारा-संख्या - 'आहिए' आख्यात कथितम् ? 'ति, इति 'वएज्जा' वदेत् वदतु कथ्यतु हे भगवन् तदेव अनयति-'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां लोकप्रसिद्धानाम् 'अट्ठावीसाएं- अष्टाविंशतः अष्टाविंशतिसंख्यकानां खलु णक्खत्ताणं' नक्षत्राणां मध्ये 'अभिईणक्खत्ते' अभिजिनक्षत्रं 'कइतारे' कतितार कियत्तारा युत्तं पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम्--कथितम् ! भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम । अभिजिन्नक्षत्रं तितारे 'पण्णत्ते, त्रितारं तारात्रययुक्तं प्रज्ञप्तम् १ । 'सर्वणे णक्खत्त-श्रवणः श्रवणाभिधनक्षत्र कतितारे' 'पण्णत्ते, कतितारं प्रज्ञप्तम् ! तितारे पण्णत्ते ? त्रितारं प्रज्ञप्तम् '२। एंवमनया रीत्या सर्वाण्यपिप्रश्नसूत्राणि निर्वचनसूत्राणि च स्वयं सयोज्यं. भणितव्यानि । व्याख्यातु अर्थस्य 'छायागम्यत्वान्न विवियते । सर्वनक्षत्रताराप्रमाणप्रतिपादकं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिगतं गाथाद्वयमत्र प्रदर्श्यते-"तिग १ तिंग २ पंचग-३ सया४ दुग, ५ दुग ६ वत्तीसं ७ तिगं (तहतिगंए च) छ १० पंचग ११ तिग १२ इक्कग १३, पंचग १४ तिग १५ इक्कंग..१६ चे ॥१॥ सत्तग १७ 'दुग १८ दुग १९, पंचग २०, इक्कि २१ क्कग, २२.पंच २३चड़ २४ तिगं २५ चेव । इक्कारसग २६ चउक्कं २७, चउक्कगं २८ चेव तारग्गी ॥२३॥” इति॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिस्त्रे तिनः३ | अष्टाविशति | नक्षत्राणां सं. | स्थान तारा सं० नक्षत्रनामानि। संस्थानानि . तारासंख्या | अभिजित् गोशीर्षावलि. तिस्रः ३ श्रवणः काहार. (कावड) धनिष्ठा शकुनि ‘पंजर. पञ्च ५ शतभिषक् पुष्पोपचार. शतम् १०० पूर्वाभाद्रपदा अपार्धवापी. | तारे २ उत्तराभाद्र रेवती नौका. द्वात्रिंशत ३२ / २१ अश्विनी अश्वस्कन्ध. तितः ३ भरणी भग सं. तिसः ३ 214 - و ہر دم संख्याकोष्ठकम् | क्रम् । नक्षत्रनामानि ! संख्यास्थानानि | तारा संख्या पुष्यः वर्धमान (शराव) | तिस्रः ३ . अश्लेषा पताका स. । मघा प्रकार स. सप्त ७ पूर्वाफाल्गुनी | अर्धपल्यक स. | देतारे २ । उत्तराफाल्गुनी हस्तः हस्त स. पञ्च ५ चित्रा मधु (महरा) पु. स्वातिः कीलक सं० | एका १ | पञ्च ५ विशाखा दामिनि (रज्जु) सं.. अनुराधा एकावलिहार सं. | पञ्च ५ ज्येष्ठा गजदन्त स. तिल ३ मूल० वृश्चिकपुच्छ । एकादश ११ पूर्वाषाढा गजपादन्या स. | चतसः ४ उत्तराषाढा सिंहनिषया सं | चतस्रः ४ २२ م م - कृत्तिका राहिणी क्षुरगृह. . शकटोद्धि षट ६ पञ्च ५ मृगशिरः आर्द्रा ।१४ | पुनर्वसु मृगशीर्षावलि. रुधिरबिन्दु. | तुला सं. तिनः ३ एका. १ पञ्च ५ ~ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीकाप्रा०१० मा. प्रा. १० सू०१ नक्षत्रणां तारासंख्यानिदर्शनम् ३१५ छाया-त्रिक १ त्रिक २ पञ्चक ३ शत ४ द्विक ५ ठिक ६ द्वात्रिंशत् १ त्रिकं ८ तथा त्रिकं ९ च षट् १० पञ्चक ११ त्रिक १२ एकक १३-पञ्चक १४ · त्रिकं १५ एककं १६ चैव १॥ सप्तक १७ द्विक १८ द्विक १९ पंचक २०, एक २१ कक २२ पंचक २३ चतुः २४ त्रिकं २५ चैव । एकादशक २६ चतुष्कं २७ चतुष्कं २८ चैव ताराप्रम् ॥२॥ इति । ____एतद्गाथाद्वयोक्तक्रमेणाष्टाविंशति नक्षत्राणां ताराप्रमाणमवसेयमिति ॥सू०.१॥ . . इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालपक-प्रविशुद्ध। गद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहुच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त "जैनशास्त्रा- .. चार्य" पदभूषित-कोल्हापुर राजगुरु बालब्रह्मचारि-जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्मदिवाकर . श्रीघासीलालति-विरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका ख्यायां व्याख्यायां दशमस्य प्राभृतस्य-नवमं प्रामृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१०-९॥ ॥ श्रीरस्तु॥ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Se HD '" "" ܝ ܐ ܕ 12 दशमस्य श्रभृतस्य दशमं प्राभृतमाभृतम् ॥ : ९ • व्याख्यातं नवमं प्राभृतप्रामृतम् । तत्र नक्षत्राणां तारासंख्या, प्रदर्शिता, अथ दशमं प्रामृतप्राभृतं व्याख्यायते, अत्रं स्वस्यास्तगमनेन कति नक्षत्राणि अहोरात्रपरिसमापकतया कं मासं नयन्तीति कोऽहोरात्रस्य नक्षत्ररूपो नेता ?" इति नक्षत्राणां नेतृत्वं तत्तदधिकृत्य पौरुषी परिमाणं च प्रदर्श्यते— 'ता कहं ते णेया' इत्यादि । " मूलम् ता कहं ते या आहिए ति वएज्जा । ता वासाणं पढमं मासं कइ णक्खत्तार्णेति' ? ता चित्तारि णक्खत्तार्णेति तं जहा - उत्तरासाढा, अभीई सवणे, धणिट्ठा । उत्तरासादाचोद्दस - अहोर इ, अभिई सत्त अहोरत्ते णेइ, सवणे अह अहोरते णेइ धणिट्ठा एवं अहोरात इ। तंसि चणं मासंसि चउरंगुलाए- पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियई । तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे दो पायाइं चत्तारि य अंगुलाई पोरिसी भवइ १ । १ ता वासणि दोच्च मांस कई णक्खत्ता र्णेति ? ता चत्तारि णक्खता णेंति, तं जहा - धणिट्ठा, सयभिसया, पुव्यपोहवया । एवं एएणं अभिलावेणं जहेव जंबुद्दीवपन्नत्तीए तव एत्थंपि भाणियन्वं, तं जहा - घणिट्ठा चोदसअहोरते णेइ सयभिसया सत्त अहोरते णे, पुन्यापोहवा अट्ठ अहोरते णेइ, उत्तरापोहवया एगं अहोरतं णेइ । तंसि च णं मासंसि अट्ठगुलाए पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियदृइ तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे दो पयाई अट्ठ अंगुलाई पोरिसी भवइ २ । ता वासाणं तइयं मासं कइ णक्खत्ता ति ? ता तिण्णि णक्खत्ता णेंति, तं जहा - उत्तरपोट्ठवया, रेवई, अस्सिणी उत्तरापोट्ठवया चोदसअहोरत्ते णेइ, रेवई पण्णरस अहोरत्ते णेड अस्सिणी एगं अहोरतं णेइ । तंसि च णं मासंसि दुवालसँगुलाए पोरिसीए छाया सूरिए अणुपरियदृ । तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहत्थाई तिणि पयाई पोरिसी भवइ ३ । ता वासाणं चउत्थं मासं कइ णक्खत्ता र्णेति ? ता तिष्णि णक्खत्ता णंति, तं जहा - अस्सिणी, भरणी कत्तिया । अस्सिणी चउदस अहोरचे णेइ, भरणी पण्णरस अहोरते णेइ, कत्तिया एगं अहोरत्तं णेइ, तंसि च णं मासंसि सोलसंगुलाए पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियह, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिणि पयाई चारि अंगुलाई पोरिसी भवइ ४ ता हेमंताणं पढमं मासं कइ णक्खत्ता ति ? ता तिष्णि णक्खत्ता पेंति, तं जहा - कत्तिया, रोहिणी, संठाणा । कत्तिया चोद्दसअहोरते णेइ, रोहिणी पण्णरस अहो - Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा०१० प्रा. प्रा. १० सू०१नक्षत्राणां नेतृत्वं पौरूषीपरिमाण च ३१७ m रत्ते णेइ, संठाणा एग अहोर णेइ । तसि च णं मासंसि वीसंगुलाए पोरिसीए छायाए सरिए अणुपरियट्टइ, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिण्णि पयाई अट्ठ अंगुलाई पोरिसी भवइ ॥१॥ ___ता हेमंताणं दोच्चं मासं कइ णक्खत्ता ऐति ? चत्तारि णक्खत्ता ति, तं जहासंठाणा, अदा, पुणवम् पुस्सो । संठाणा चोदसअहोरते णेइ, अहा सत्त अहोरत्ते णेइ, पुणव्वसू अट्ठ अहोरत्ते णेइ पुस्से एग अहोरत्तं णेड । तंसि च णं मासंसि चउवीसंगुलाए पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ । तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहटाणि चत्तारि पयाई पोरिसी भवइ २। ता हेमंताणं तइयं मासं कइणवत्ता येति ? ता त्तिण्णि णक्खत्ता णेति तं जहापुस्से अस्सेसा महा । पुस्से चोदसअहोरत्ते णेइ, अस्सेसा पंचदस अहोरत्ते णेइ, महा 'एगे अहोरत्तं णेइ । तंसि च णं मासंसि वीसंगुलाए पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरि यट्टइ । तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिण्णि पयाई अहंगुलाई पोरिसी भवई ३ । ता हेमंताण चउत्थं मासं कइ णक्खत्ता गंति ? ता तिण्णि णक्खत्ता ऐति, तं जहा महा पुन्वाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी । महा चोद्दस अहोरत्ते णेइ, पुव्वाफग्गुणी ‘पण्णरस अहोरत्ते णेइ, उत्तराफरगुणी एगं अहोरत्तं णेइ । तंसि च णं मासंसि सोलसंगुलाए पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ । तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिण्णि पयाई चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवइ ४ । । . . ता गिम्हाणं पढम मासं का णक्खत्ता ऐति ? ता तिण्णि णक्खत्ता ऐति, तं जहा .उत्तराफग्गुणी, हत्थो चित्ता । उत्तराफग्गुणीचोइस अहोरत्ते हत्थो पण्णरस अहोरत्ते णेइ, चित्ता एगं अहोरत्तं णेइ । तंसि च णं मासंसि दुवालसंगुलाए पोरिसी छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ । तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहट्टाई य तिण्णि पयाई पोरिसी भवई १। - ता गिम्हाणं वितियं मास कइ णक्खत्ता ऐति ? ता तिण्णि णवखत्ता ऐति तं जहा'चित्ता, साई, विसाहा, चित्ता चोदस अहोरते णेइ, साई पण्णरस अहोरत्ते णेइ, विसाहा एग अहोरत्तं णेइ, । तसि च णं मासंसि अटुंगुलाए पोरिसीए छायाए सरिए अणुपरियदृइ तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे दो पयाई अट्ठ अंगुलाई पोरिसी -भवइ २ । गिम्हाणं तइयं मासं कइ णक्खत्ता णेति ? ता चत्तारि णक्खत्ता ऐति तं जहाविसाहा अणुराहा, जेट्ठा, मूले य । विसाहा • चोदसअहोरत्ते णेइ, अणुराहा, सत्त अहोरत्ते णेइ, जेहा अह अहोरते णेइ, भूलो एग अहोरत्तं णेइ । तंसि च णं मासंसि चउरंगुलाए Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ ।। चन्द्रप्राप्तिसूत्रे पोरिसीए छायाए सरिए अणुपरियटइ । तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे दो पयाई चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवइ ३। __ता गिम्हाणां चउत्थं मासं कइ णक्खत्ता पंति ? ता तिण्णि णक्खत्ता णेति, तं जहांमूलो, पुवासाढा, उत्तरासाढा । मूलो चोदसअहोरत्ते णेइ, पुव्वासाढा पण्णरस अहोरत्ते णेइ उत्तरासाढा एग अहोरत्तं णेह । (इयत्पर्यन्तं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिपाठः) जाव तसि च णं मासंसि वट्टाए, समचउरंससंठियाए णग्गोहपरिमंडलाए सकायमणुरंगिणीए छायाए सरिए अणुपरियट्टइ तस्स णं मासस्त चरिमे दिवसे लेहटाई दोपयाई पोरिसी भव ॥२०१॥ ॥ दसमस्स पाहुडस्स दसमं पाहुडपाहुडं समत्त ॥१०-१०॥ छाया -तावत् कथ ते नेता आख्यातः १ इति वदेत् । तावत् वर्षाणां प्रथम मासं कति नक्षत्राणि नयन्ति ? तावत् चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति, तद्यथा-उत्तरापाढा, अभिजित्, श्रवणः, घनिष्ठा । उत्तरापाढा चतुर्दश अहोरात्रान् नयति, अभिजित् सप्तमहोरात्रान् नयति, श्रवणः अष्ट अहोरात्रान् नयति, धनिष्टा पकम् अहोरात्रं नयति । तस्मिश्च खलु मासे चतुरगुलयापौरुप्या छायया सूर्यः अनुपरावर्चत्ते । तस्य खलु मासस्य चरिमे दिवसे हे पदे चत्वारि च अगुलानि पौरुपी भवति १ । तावत् वर्षाणां द्वितीयं मास कति नक्षत्राणि नयन्ति? तावत् चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति तद्यथा-धनिष्ठा शतभिपक्, पूर्वाग्रोष्ठपदा, उत्तराप्रोष्ठपदा । पवम् पतेन'अभिलापेन यथैव जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यां तथैव अत्रापि भणितव्यम् , तद्यथा-धनिष्ठा चतुर्दश अहोरात्रान् नति, शतभिपक सप्त अहोरात्रान् नयति, पूर्वाप्रोष्ठपदा अष्ट अहोरावान् नयति, उत्तराम्रोप्ठपदा एकम् अहोरात्रं नयति । तस्मिश्च खलु मासे अष्टाइगुलया पौरुप्या छायया सूर्यः अनुपरावर्त्तते । तस्य मासस्य चरमे दिवसे । पदे अष्ट अङगुलानि पौरुपी भवति २। तावत् धर्पाणां तृतीयं मास कति नक्षत्राणि नयन्ति ? तावत् त्रीणि नक्षेत्राणि नयन्ति, तद्यथा-उत्तराप्रोष्ठपदा, रेवती अश्विनी । उत्तराप्रोण्ठपदा चतुर्दश अहोरात्रान् नयति, रेवती पञ्चदश अहोरात्रान् नयति, अश्विनी एकम् अहोरात्रं नयति । तस्मिंश्च खलु मासे द्वादशाङगुलया पौरुण्या छायया सूर्यः अनुपरावर्तते । तस्य खलु मासस्य चरमे दिवसे रेखास्थानि, त्रीणि पदानि पौरुपी भवति ३। ।। । ।। तावत् वर्षाणां चतुर्थ मास-कति नक्षत्राणि नयन्ति ? तावत् त्रीणि नक्षत्राणि नयन्ति, तद्यथा-अश्विनी, भरणी, कृत्तिका । अश्विनी चतुर्दश अहोरात्रान् नयति, भरणी पञ्चदश अहोरात्रान् नयति, कृत्तिका एकम् अहोरात्र नयति । तस्मिश्च -खलु मासे पोडशादगुलयापौरुण्या छायया सूर्य अनुपरावर्तते । तस्य खलु मासस्य चरमे दिवसे त्रीणि पदनि चत्वारि अडगुलानि पौरुपी भवति ।। . . . , , , . __ तावत् हेमन्तानां प्रथम मास कति- नक्षत्राणि नयन्ति ? तावत् त्रीणि नक्षत्राणि नयन्ति, तद्यथा-कृत्तिका, रोहिणी संस्थाना । कृत्तिका चतुर्दश, अहोरात्रान् नयति, रोहिणी पञ्च दश अहोरात्रीन् नयति, संस्थाना पकमहोरात्र नयति । तस्मिश्च खलु मासे विशत्यगुलया Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा०१० प्रा. प्रा. १० सू०१ नक्षत्राणां नेतृत्वं पौरूषीपरिमाणं च ३१९ पौरुष्या छायया सूर्यः अनुपरावर्त्तते, तस्य खलु मासस्य चरमे दिवसे त्रीणि पदानि अष्ट अम्गुलानि पौरुषी भवति । १ । 1 तावत् हेमन्तानां द्वितीयं मासं कति नक्षत्राणि नयन्ति तावत् चत्वारि, नक्षत्राणि नयन्ति, तद्यथा - संस्थांना, आर्द्रा पुनर्वसुः पुण्यः । संस्थाना चतुर्दश अहोरात्रान् नयति, आर्द्रा सप्त- अहोरात्रान् नयति, पुनर्वसुः अष्ट अहोरात्रान् नयति, पुष्यः एकमहोरात्रं नयति । तस्मिंश्च खलु मासे चतुर्विंशत्यदगुल्या पौरुष्या छायया सूर्यः अनुपरावर्त्तते । तस्य खलु मासस्य चरमे दिवसे रेखास्थानि चत्वारिपदानि पौरुपी भवति । २ । तावत् हेमन्तानां तृतीयं मासं कतिनक्षत्राणि नयन्ति ? तावत् त्रीणि नक्षत्राणि नयन्ति तथा पुष्यः अश्लेषामघा । पुष्यः चतुर्दश अहोरात्रान् नयति, अश्लेषा पञ्चदश अहोरात्रान् नयति मघा एकमहोरात्रं नयति । तस्मिंश्च खलु मासे विंशत्युदगुल्या पौरुष्या छायया सूर्यः अनुपरावर्त्तते । तस्य खलु मासंस्य चरमे दिवसे त्रीणि पदानि अष्ट अडगुलानि पौरुषी भवति।३ । 1 { तावत् हेमन्तानां चतुर्थ मास कति नक्षत्राणि नयन्ति तावत् त्रीणि नक्षत्राणि नयन्ति तद्यथा - मघा, पूर्वाफल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी । मघा चतुर्दश अहोरात्रान् नयति, पूर्वाफाल्गुनी पञ्चदश अहोरात्रान् नयति, उत्तरफाल्गुनी एकमहोरात्र नयति । तस्मिंश्च खलु मासे पोडशोगुलया पौरुपया छायया सूर्य अनुपरावर्तते । तस्य खलु मासस्य चरमे दिवसे त्रीणि पदानि चत्वारि अद्गुलानि पौरुषी भवत | ४ | "," तावत् ग्रीष्माणां प्रथमं मांस, कति नक्षत्राणि नयन्ति । तावत् त्रीणि नक्षत्राणि नयन्ति तद्यथा - उत्तराफाल्गुनी हस्तः चित्रा ! उत्तराफाल्गुनी चतुर्दश अहोरात्रान् नयति, हस्तः पञ्चदश अहोरात्रान् नयति, चित्रा एकमहोरात्रं नयति । तस्मिश्च खलु मासे द्वादशाङ्गुलया पौरूष्या छायया सूर्यः अनुपरावर्त्तते । तस्य खलु मासस्य चरमे दिवसे रेखा स्थानि त्रीणि पदानि पौरुपी भवति । १ । तावत् श्रीमाणां द्वितीयं मासं कति नक्षत्राणि नयन्ति ? तावत् त्रीणि नक्षत्राणि नयन्ति, तद्यथा - चित्रां, स्वाति विशाखा । चित्रा चतुर्दश अहोरात्रान् नयति, स्वातिः पञ्चदश अहोरात्रान् नयति, विशाखा एकमहोरात्रं नयति । तस्मिंश्च खलु मासे अष्टाङ्गुलया पौरुष्या छायया सूर्यः अनुपरावर्त्तते । तस्य खलु मासस्य चरमे दिवसे द्वे पदे अष्टअङ्गुलानि पौरुषी भवति । २ । ग्रीष्माणां तृतीयं मास कति नक्षत्राणि नयन्ति ? तावत् चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति, तद्यथा - विशाखा अनुराधा ज्येष्टा मूलम् । विशाखा चतुर्दश अहोरात्रान् नयति, अनुराधा सप्तमहोरात्रान् नयति, ज्येष्टा अष्टअहोरात्रान् नयति, मूलम् एकमहोरात्रं नयति तस्मिंश्च खलु मासे चतुरङ्गुलया पौरुण्या छायया सूर्यः अनुपरावर्त्तते । तस्य च खलु मासस्य चरमे दिवसे द्वे चत्वारि अंगुलानि पौरुषी भवति । ३ । तावत् ग्रीष्माणां चतुर्थ मासे कति नक्षत्राणि नयन्ति ? तावत् त्रीणि नक्षत्राणि नयन्ति तद्यथा - मूलं पूर्वाषाढा उत्तराषाढा, मूलं चतुर्दश अहोरात्रान् नयत पूर्वाषाढा, पञ्चदश अहोरात्रान् नयति, उत्तराषाढा एकं नक्षत्रं नयति । ( जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति संगृहीतः पाठो गतः ) यावत् तस्मिंश्च खलु मासे 'वृत्तया समचतुरस्रसंस्थितया न्यग्रोधपरिमण्डलया स्वकायमनुरङगिण्या छायया सूर्यः अनुपरावर्त्तते तस्य खलु मासस्य चरमे दिवसे रेखास्थे द्वे' पदे पौरूषी भवति । ४ । सू" १ " hracit "" Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AN ३२० • व्याख्या-गौतमः पृच्छति 'ना फहं ते णेया' अनि । 'ना' नादन ‘फर कथं केन प्रकारेण 'ते' त्वया 'णेया' नेता स्वस्याऽग्तगयनेनाहोगपग्मिगाएको नहररूपी ना नायकः 'आहिए' माख्यातः ! 'तिवएज्जा' इति वदेत वदनु कथयनु है भगवन् ! नदेव प्रनयन्नाह'ता वासाणं' इत्यादि । 'ता' तावत 'बासाणं' वर्षाणां वामनु गम्बन्मिनां नी मामानां श्रावण-भाद्रपदा-ऽऽश्विन-कार्तिकरपाणा गये 'पदम' प्रधगम - आदि 'मागं'धापण अणं 'कइ' कति कियत्संख्यकानि 'णवखत्ता' नक्षत्राणि 'गति' नन्ति बन्यानगमनपूर्वकमदोगनपरिसमापकतया गमयन्ति । एवं गौतगेन प्रम्ने प्ते भगवानाद,--'ना चचार्ग' रत्यादि, 'ता' तावत् 'चत्तारि णक्सत्ता' चत्वारि नक्षत्राणि 'गनि' मेण नयन्नि नान्यत्र दशेयनि-नं जहा, इत्यादि तंजा-तद्यथा-तानीमानि--'उत्तगसाहा' उत्तगपाढा ?, 'अभिई' भनिन २ 'मवणी' श्रवणः ३, धणिहा धनिष्टा ४ वेति । तर 'उत्तरामाटा' उनरापादान 'चाष्टम' चतुर्दश मासस्यादिमान् चतुर्दश संख्यकान्, 'अहोरत्ते' अहोराधान गरिन्दियानि 'इ' नयन म्यस्याऽस्तगमनेनाहोरात्रपरिसमापकतया गमयति १ । नधा नपश्चात् नतुर्दशाहोगमानन्तरं 'अभिई' अभिजिन्नक्षत्रं 'सत्त अहोरत्ते' सप्ताहोरात्रान् पादशाहोगवादारभ्य एफविंशतितमाहो. रात्रपर्यन्तं 'णेई' नयति स्वयमस्त प्राप्याहोरात्रपरिसगाएकनया गमयनि २॥ तदनन्तरं 'गवणों' श्रवणः श्रवणनक्षत्रं 'अअहोरत्ते' अष्टाहोरात्रान्-द्वावियनितमाहोगवादारभ्य एकोनविंगतमाहो. रात्रपर्यन्तं 'णेई' नयति । एवं सर्वसंकलनया गता श्रावणमासस्यकोनरिंशदहोगमाः तदनन्तरं शेषम् 'एग अहोरत्त' एकमहोरात्रत्रिंगत्तमं 'धणिहा' धनिष्टानसत्रं 'णेई' नयति स्व‘स्याऽस्तगमनेनैकाहोरात्रपरिसमापनपूर्वकं माससमापफतया श्रावणं मासं परिसमापयति । एवं चत्वारि नक्षत्राणि श्रावणमासपरिसमापकानि सन्तीति । अथ सूर्यपरावर्तनमाह-तंसिचणं' इत्यादि, 'तंसि च णं' तस्मिन उत्तरापाढादिनक्षत्रचतुष्टयेन परिसमाप्यमाने 'मासंमि' मासे श्रावणे मासे 'चउरंगुलाए पोरसीए' चतुरगुलया चतुर-गुलाधिया पौरुप्या पुरुष प्रमाणया, 'छायाए' छायया 'मरिए' सूर्यः 'अणुपरियट्टइ' 'गनुपरावर्त्तते, 'मनु' इति प्रतिदिवस परावर्तते पृथग भवति । अत्रेदं बोध्यम्-श्रावणमासे प्रथमाहोराबादारन्य प्रति दिवसमन्यांन्यमण्डलसक्रमणेन यथा तस्य श्रावणमासस्यान्तिमे दिवसे तथा कथञ्चनापि द्वे पदे चत्वारि अड्गुलानि पौरुपी भवेदित्येवं क्रमेण सूर्यस्य सक्रमणं भवति, तदेव दर्शयति-तस्स गं' इत्यादि, 'तस्स गं. मासस्स' तस्य स्खल श्रावणस्य मासस्य 'चरमे दिवसे' चरमे दिवसे अन्तिमे दिने 'दोपयाई'? द्वे पदे--'चत्तारि अंगुलाणि' चत्वारि अगुलानि चतुरद्गुलाधिक द्विपदप्रमिता 'पोरिसी भवई' पौरुपी भवति ॥१॥ " । अथ वर्षाणां द्वितीयं मासं प्रदर्शयति-ता वासाणं दोच्चं' इत्यादि । 'ता' तावत्' 'वासाणं' 'वर्षाणां वरात्रस्य वामतोरित्यर्थः 'दोच्चं मासं' द्वितीयं, मासं भाद्रपदलक्षण 'कइ णक्खचा: Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रवप्तिप्रकाशिका टोका प्रा०१० प्रा.प्रा. १० सू०१ नक्षत्राणां नेतृत्व पौरूषीपरिमाणं च ३२५ गति' कति नक्षत्राणि नयन्ति स्वस्याऽस्तगमनेन भाद्रपदमासं परिसमापयन्तीत्यर्थः । 'ता' तावत् 'चत्तारि णक्खत्ता ऐति' चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति'। कानि तानीत्याह-'तं जहा'' इत्यादि "तं जहा' तद्यथा-तानीमानि-'धनिहा' धनिष्टा १, 'सयभिसया' शतभिषक् '२, 'पुचपोट्ट, वया' पूर्वाप्रोष्ठपदा ३, 'उत्तरपोद्ववया' उत्तराप्रोष्टपदा ४ प्रोष्टपदेति भाद्रपदा विज्ञेया । अथातिदेशमाह-एवं' इत्यादि, ‘एवं' एवम्-अनेन प्रकारेण 'एएण अभिलावेणं' एतेन पूर्वमनुपदप्रदर्शिताभिलापक्रमेण 'जहेब' यथैव 'जम्बूहीवपन्नत्तीए' जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यां सप्तमवक्षस्कारे कथितं तहेव' तथैव 'एत्थंपि' अत्रापि चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रगतेऽस्मिन् प्रकरणेऽपि 'भाणियन्वं' भणितव्यम् । तदेव प्रदर्शयामः- 'तं जहा' तद्यथा-तत्रत्यं ' प्रकरणं यथा- 'धणिट्ठा इत्यादि, 'धणिहा' धनिष्ठा नक्षत्रं 'चोदसअहोरत्ते' भाद्रपदमासरय प्रथमान् चतुर्दश अहोरात्रान् स्वयमस्तगतं भूत्वा . चतुर्दशाहोरात्रपरिसमापकतया 'णेइ' नयति चतुर्दशाहोरात्रान् परिसमापयतीत्यर्थः, तत्पश्चात् 'सयभिसया' गतभिपगनक्षत्रं 'सत्तअहोरत्ते' सप्ताहोरात्रम् पञ्चदशाहोरात्रादारभ्य एकविंशतितमाहोरात्रपर्यन्तं 'णेइ' नयति स्वयमस्तगमनेन भाद्रपदमासस्यैकविंशतितममहोरात्रं समापयति ।। तदनन्तरं 'पुव्वापोहवया' पूर्वाप्रोष्ठपदा पूर्वाभाद्रपदा नक्षत्रं 'अट्ठअहोरत्ते' अष्टाहोरात्रान् द्वाविंशतितमाहोरात्रादारभ्यैकोनत्रिंशत्तमाहोरात्रपर्यन्तं । । 'णेइ' नयति भाद्रपदमासस्यैकोनत्रिंशदहोरात्रान् परिसमापयति ततश्च 'उत्तरापोहवया' उत्तराप्रोष्ठ पदा-उत्तराभाद्रपदानक्षत्रं 'एग अहोरत्तं एकमहोरात्रं यो मासपूतों शेषएकाऽहोरात्रः स्थितः तम् उत्तराभाद्रपदानक्षत्रं 'णेइ' नयति । अस्यैकस्याहोरात्रस्य समाप्तौ भाद्रपदमासः समाप्तो भवतीति भावः । 'तंसि च णं' तस्मिंश्च खलु 'मासंसि, मासे भाद्रपदलक्षणे 'अटैगुलाए पोरिसीए' अष्टाड्गुलया पौरुष्या अष्टाड्गुलाधिकया पुरुपप्रमाणया 'छायाए' छायया. मरिए' सूर्यः 'अणुपरियट्टई' अनुपरावर्त्तते प्रतिदिवसं निवर्त्तते, अत. 'तस्स णं मासस्स' तस्य खल मासस्य 'चरिमे दिवसे' चरमे अन्तिमे दिवसें 'दो पयाई द्वे पदे तथा. 'अट्ट अंगुलाई अष्टाङ्गुलाधिकपदद्वयप्रमिता 'पोरिसी भवई' पौरुपी भवति २ । एवमग्रेऽपि सर्वत्रः । विज्ञेयम् । व्याख्या छायागम्यत्वेन सुगमत्वाद् ग्रीष्माणां तृतीयमासज्येष्ठमासपर्यन्तं न विवियते, 'वर्षाणां चतुर्थमापाढमासंत्वग्रे वक्ष्यतीति । नवरं वर्षा ऋतोस्तृतीय आश्विनमासः ३'। चतुर्थः कार्तिकमासः ४ । एवं हेमन्त ऋतोः प्रथमो मार्गशीर्षमासः १, द्वितीय पौषः २, तृतीयो माघः३, चतुर्थश्च फाल्गुनो मासः ४ इति । एवं ग्रीष्म ऋतो. प्रथमश्चैत्रो मासः १, द्वितीयः 'वैशाखः २, तृतीयोज्येष्ठः ३, चतुर्थश्च आषाढमासः ४, इति द्वादश मासा भवन्ति । एवमापाढस्य चरमे दिवसे 'लेहत्थाइंदो पयाई' इति रेखास्थो रेखा-पादपर्यन्तवर्त्तिनी सीमा तस्थे द्वे पदे पौरुषो भवति परिपूर्णपद द्वयपरिमिता पौरुषी भवतीति भावः एवं व्याख्येयम् । इयं चतुरङ्गला वृद्धि प्रतिमासं श्रावणमासादारभ्यः पौषमासपर्यन्तं भवति । तत्पश्चाच्च प्रतिमासं चतुरङ्गला, हानिर्वाच्या सूर्यस्योत्तरायणगतत्वात् । इयं च हानिराषाढमासपर्यन्त भवति, अत आषाढमासस्य चरमे दिवसे द्विपदा 'पौरुषी भवति । तदेव प्रदर्श्यते–'ता गिम्हाणं' इत्यादि 'ता' तावत् गिम्हाणं'ग्रीष्माणां ग्रीष्मऋतोः ११ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A चन्द्रप्राप्तिसूत्रे 'चउत्थं मासं' चतुर्थं मासम् आपादलक्षणं 'कड़ णक्खत्ता ऐति' कति नक्षत्राणि नयन्ति स्वस्यास्तगमनेन मासपरिसमापकतया गमयन्ति ? 'ता' तावत् 'तिणि णक्खत्ता णेति' त्रीणि नक्षत्राणि नयन्ति, 'तंजहा तद्यथा-तानीमानि-'मूलो' मूलम् १ पूच्चासाढा' पूर्वापाढ़ा २ 'उत्तरासाढा' उत्तरापाढ़ा ३ । तत्र 'मूलो' मूलं नक्षत्रं 'चोदस अहोरत्ते णेई' आद्यान् चतुर्दशअहोरात्रान् 'नयति' १। 'पुन्चासाढा' पूर्वापाढा 'पण्णरसअहोरते णेई' पञ्चदशाहोरात्रान् नयति २। 'उत्तरासाढा' उत्तरापाढा 'एग अहोरत्तं' एकं त्रिंशत्तममहोरात्र 'णेई' नयति स्वयमस्तगमनेन त्रिंशत्तमाहोरात्रसमापनपूर्वकं तमापाढमासं परिसमा पयतीति भावः 'तंसि च णं मासंसि' तस्मिंश्च आपाढलक्षणे खलु मासे 'वट्टाए' वृत्तया, वर्तुलया वृत्तस्य प्रकाश्यवस्तुनः वृत्तया 'छायया' इत्यग्रेण सम्बन्धः, एवं 'समचउरंससंठियाए' समचतुरस्रसंस्थितया समचतुरस्रसंस्थानवतः प्रकाश्य वस्तुनः समचतुरम्राकारया छायया, तथा 'णग्गोहपरिमंडलाए' न्यग्रोधपरिमण्डलया न्यग्रोधो वट; तदाकारस्य प्रकाश्यवस्तुनस्तदाकारया, छायया, उपलक्षणमेतत् अनेन यत्संस्थानसंस्थितं प्रकाश्यं वस्तु भवति तस्य छायाऽपि तत्संस्थानवती भवतीति सर्वसंस्थानेषु विज्ञेयम् यत् आपाढमासे प्रायः सर्वस्यापि प्रकाश्यवस्तुनः दिवसस्य चतुर्भागेऽतिक्रान्ते चतुर्भागे शेपे वा स्वप्रमाणा छाया भवति, निश्चयनयेन तु आषाढमासस्य चरमे दिवसे, तत्रापि सूर्ये सर्वाभ्यन्तरमण्डले चारं चरति सति प्रकाश्यवस्तु संस्थानसदृशा छाया भवति. अत एवोक्तम् “वट्टस्स वट्टयाए" इत्यादि । एतदेव सूत्रकारः स्पष्टयति 'सकायमणुरंगिणीए' इति । 'सकायमणुरंगिणीए' स्वकायमनुरङ्गिण्या-स्वस्य , स्वकीयस्य छायानिवन्धनस्य प्रकाश्यवस्तुनः कायः-शरीरं स्वकायस्तम् अनु रज्यते-अनुकारं विदधातीत्येवं शीला अनुरङ्गिणी 'द्विपद्गृह' इत्यादिना धिनञ् प्रत्ययः तया स्वकायमनुरंङ्गिण्या 'छायाए' छायया 'मुरिए' सूर्यः 'अणुपरियई' अनु-प्रतिदिवसं परावर्तते । अयमागयः-आपाढस्य प्रथमादहोरात्रादारभ्य प्रतिदिवपमन्यान्यमण्डलसंक्रमणेत यया सर्वस्यापि प्रकाश्यवस्तुनो दिवसस्य चतुर्भागेऽतिक्रान्ते चतुर्भागे शेषे वा स्वानुकारा स्वप्रमाणा च छाया भवेत् तथा कथञ्चनापि सूर्यः परावते, इति । ततः 'तस्स णं मासस्स' तस्य खलु आपाढस्य मासस्य 'चरिमे दिवसे चरमे अन्तिमे त्रिंशत्तमे दिवसे 'लेहटाई' रखापर्यन्तभागवर्तिनी सीमा तत्रस्थिते रेखास्थिते 'दो पयाई' द्वे पदे पदद्वयप्रमिता 'पोरिसी भवई' पौरुषी भवतीति सूत्रार्थः । अस्य सूत्रस्य विशेषव्याख्या जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यां मत्कृतायां प्रकाशिकाव्याख्यायां विलोकनीयमिति । अत्र यद् आषाढमासस्य चरमदिवसे द्विपदा पौरुपी भवतीत्युक्तं तत् पौरुपी प्रमाण व्यवहारत उक्तम्, निश्चयतः पुनः सार्धस्त्रिंशताऽहोरात्रै-(३०॥) चतुरङ्गुला वृद्धिः श्रावणमासादराम्य पोपमासपरिसमाप्तिपर्यन्तं पट्सु मासेपु दक्षिणायनगते सूर्ये भवति, एवमेव चतुरड्गुला हानिर्माघमासादारभ्यापाढमासपरिसमाप्ति पर्यन्तं षट्सु मासेपु उत्तरायणगते सूर्ये भवतीति ज्ञातव्यम् । निश्चयतः पौरुण्याश्चतुरङ्गला वृदिर्हानिश्च मौरमासमधिकृत्य भवति, सौरमासस्यैव सार्धत्रिंशदिवसप्रमाणत्वाद, अत्र यच्चान्द्रमासा कथितास्ते लोकव्यवहारमाश्रित्य कथिता इति विभावनीयम् । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या | मास नाम | नक्षत्र नाम दि. | तथा दि. | दि व दि. साः दि. श्रवण ८ | उत्तराषाढा १४ दि | अभिजित् ७ धनिष्ठा-1 श्रावणः धनिष्ठा-१४ भाद्रपदः शतभिषक्-७ उत्तरा भाद्र-१ पूर्वाभाद्र ८ आश्विनः __x उत्तरा भाद्रपद-१४] रेवतो-१५ अश्विनी-१ कर्तिकः आश्विनी-१४ भरणी-१५ कृत्तिका-१ x मार्गशीर्षः - x रोहिणी-१५ कृत्तिका-१४ मृगशिर-१ पौषः मृगशिरः-१४ । आर्द्रा-८ पुर्नवसु-७ पुष्यः १ माघः पुष्यः-१४ अश्लेषा-१५ मघा-१ x फाल्गुनः मघा-१४ पूर्वा फाल्गुनी १५, उत्तरा फा.-१ x चित्र: उत्तराफाल्गुनी १४ हस्त:-१५ चित्रा-१ x वैशाखः चित्रा-१४ स्वातिः १५ विशाखा-१ x ज्येष्ठः विशाखा-१४ अनुराधा-७ ज्येष्ठा-८ मूलम्-१ आषाढ मूलम्-१४ | पूर्वाषाढा-१५ उत्तराषाढा Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रशतिसूत्रे अत्र निश्चयतः पौरुपी प्रमाणप्रतिपादिका अन्यत्रोक्ता अष्टौ करणगाथाः 'पव्वे' इत्यादि प्रदर्यन्ते— ३२४ पचे पण्णरसगुणे, तिहि सहिए पोरिसीए आणयणे । छन्दसीइसयविभत्ते, जं लद्धं तं वियाणाहि ॥१॥ जड़ होइ विसमलं, दक्खिणमयणं ठविज्जनायव्वं । अह व समं लडं, नायव्वं उत्तरं : अयणं ॥ २ ॥ अयणगए निहिरासी चउग्गुणे पव्वपाय भयव्वं । जं गुलाणि खयबुढी पोरिसीए य ॥३॥ दक्खिणबुड्ढी दुपया, अंगुलया णं तु होइ नायव्वा । उत्तर अयणे हाणी, कायन्त्रा चउहि पाएहिं ॥४॥ सावण बहुल पडिवया, दुपया पुण पोरिसी धुवाहोड़ | चत्तारि अंगुलाई, मासेणं वड्ए तत्तो ||५|| ढक्कत्ती भागा, तिहिए पुण अंगुलस्स चत्तारि । दक्खिणणे चुट्टी, जाव. उ चत्तारि उ पयाई || ६ || उत्तर अयणे हाणी, चउहिं पायाहिं जाव दो पाया । एवं तु पोरिसीए, चुहढि - खया हुंति नायव्वा ॥ ७॥ geet वा हाणी वा, जावइया पोरिसीए दिट्ठा उ । तत्तो दिवगणं, जं लद्धं तु तु अयणगयं ॥८॥ इति । छाया - पर्व पञ्चदशगुणं, तिथिसहितं पौरुष्या आनयने । पडगनिशनविभक्तं यल्लब्धं तद् विजानीहि ॥ १ ॥ यदि भवनि विषम ब्धं दक्षिणमयनं स्थापयेत ज्ञातव्यम् । अथ भवति समं धं ज्ञातव्यम् उत्तरम् अयनम् ॥२॥ अयनगत. निथि राशि;, चतुर्गुणः पर्वपाद भक्तव्यम् | यह धम् (यानि धानि) अड्गुलानि, क्षयवृद्विपौरुप्याश्च ॥३॥ दक्षिणे वृद्विः द्विपक्ष, चतुरङ्गुलकाना तु भवति ज्ञातव्या । उत्तर हानि कर्त्तव्या चतुर्भिः पाढे ||४|| " श्रावण बहुल प्रतिपदि विपदा पुनः पौरुपी वा भवति । चत्वारि अद्गुल, गामेन वर्धनं नत्तः (तस्मात् ) ||५|| एदि भागाः तिष्याः पुनः अगम्य चत्वारः । दक्षिने अपने वृद्भिः यावनु चवारि तु पदानि ॥६॥ '' Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . चन्द्रप्तिप्रकाशिकाटीकाप्रा०१० प्रा. प्रा. १० सू०१पौरुषी प्रमाणप्रतिपादकगाथार्थः ३२५ उत्तरे अयने हानिः, चतुर्भिः पादैः यावत् द्वौ पादौ । . ऐवं तु पौरुष्याः, वृद्धि-क्षयौ भवतः ज्ञातव्यौ ॥७॥ वृद्धिः वा हानिः वा, यावत्का पौरुष्या दृष्टा तु। तत्तः दिवसगतेन यत् लब्धं तत् खु अयनगतम् ॥८॥ इति । एता गाथाः क्रमेण व्याख्यायन्ते- 'पव्वे पण्णरसगुणे' पर्वपञ्चदशगुण-युगमध्ये यस्मिन् पर्वणि यस्यां तिथौ पौरुपीपरिमाणं ज्ञातुमिप्यते तस्मात् पूर्वयुगादित आरभ्य यावन्ति पर्वा,ण, पूर्णिमा रूपाणि व्यतीतानि तेषां संख्या ध्रियते, तत्पश्चात् 'तिहिसहिए' तिथि सहितः यस्या तिथे. पौरुपोपरिमाणं ज्ञातुमिच्छेत् तस्यास्तिथेः पूर्व यावत्यस्तिथयो गतास्तत्सख्यया यो राशिः पूर्वमेकत्रस्थापितः स सहितः युक्तः कर्त्तव्यः, तस्मिन् रागो गतः तिथिसंख्या प्रक्षिप्यते इत्यर्थः । किमर्थमित्याह 'पोरिसीए आणयणे' पौरुष्या आनयने पौरुष्वानयनार्थमित्यर्थः । ततः-तिथिसहितः पूर्वोक्तो राशिः 'छलसीइसयविभत्ते पडशीतिशत विभक्तः षडशीत्यधिकेन शतेन तस्य रोशेर्भागो हियते-अत्रायं भावः-एकस्मिन् सौरमासे सूर्यतिथयः सार्धत्रिंशद् भवन्ति तदवधौ चन्द्रतिथय एकत्रिंशद् भवन्ति, ततोऽयनस्य पण्मासत्वेन मासस्य सूर्य तिथयः सार्धत्रिंशत् पड्केन गुण्यन्ते ततो भवति पडशीत्यधिकमेकं शतं (१८६) मण्डलानामेक स्मिन्नयने तथा तदवधिगतचन्द्रतिथयश्चैकत्रिंशत् पड्केन गुण्यन्ते ततो भवति षडशीत्यधिकमेकं शतं (१८६) चन्द्र तिथीनामेकस्मिन् अयने ततः त्र्यशीत्यधिकशतपरि माणमण्डलात्मके एकस्मिन्नयने चन्द्रनिष्पादिततिथीनां पडशीत्यधिकशतप्रमाणत्वेन पडशीत्यधिकशतेन भागहरणं कथितम् भागे च हृते 'जं लद्धं' यत् लब्धं भागहारेण यत् प्राप्तं 'तं वियाणाहि' तत् विजानीहि हृदि सम्यगवधारयेत्यर्थः ॥ १॥ ततः 'जइ होइ विसमलखें। यदि भवति विपमं लन्धं यदि लब्धं, लब्धसंख्या विपमा एक-त्रिपञ्चादिरूपा भवेत् तदा तत्पर्यन्तवर्ति 'दक्षिणमयणं' दक्षिणमयनं दक्षिणायनं 'ठविज्जनायव्वं' स्थापयेत् ज्ञातव्यं, भवेदित्यर्थः । 'अह' अथ यदि 'समं लद्धं' सम लब्धसमसंख्या द्विकचतुष्क-पटकादिरूपा लब्धा भवेत् तदा तत्पर्यन्तवर्ति 'उत्तरं अयणं नायव्वं' उत्तरमयनम् उत्तरायणं ज्ञातव्यम् ॥२॥ तदेवमुक्तो, दक्षिणोत्तरायणपरिज्ञानोपायः । साम्प्रतं पडशीत्यधिकशतेन भागे हृते यच्छेपमवतिष्ठते, अथवा भागसंभवेन यच्छेपं तिष्ठति तद्गतविधि प्रदर्शयति-'अयणगए' इत्यादि । 'अयणगए तिहिरासी' अयनगतस्तिथिराशि:-पूर्व भागे हूते भागसंभवे वा अवशेपीभूतो योऽयनगत स्तिथिराशिः-पूर्वभागे हते भागसंभवे वा अवशेषीभूतो योऽयनगतस्तिथिराशि स्तिष्ठति सः 'चउग्गुणे' चतुर्गुणः कर्तव्यः चतुर्भि चतुर्गुण्यते इत्यर्थः, गुणिते सति यः गुणनफलरूपो राशिः सः 'पन्चपाय भइयव्यं' पर्वपादेन भक्तव्यः पर्वपादेन पर्वचतुर्थां शेन तस्य भागो हर्त्तव्यः, तथाहि युगमध्ये यानि सर्वसकलनया पर्वाणि चतुर्विशत्यधिकशत(१२४)संख्यकानि कथमित्याह Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे एकस्मिन् युगे अधिकमासद्विकयुक्तत्वेन द्वापष्टिमासा (६२) भवन्ति, एकस्मिन्मासे च पूर्णिमाऽमावास्यारूपं पर्वद्वयं भवति ततो द्वापष्टि द्वाभ्यां गुण्यते- जातं चतुर्विंशत्यधिकमेकं शतम् (१२४) । ततश्चतुर्विंगत्यधिकशतसंख्यकानि. पर्वाणि पर्वपादेन पर्वचतुर्थी शेन एकत्रिंशद्रूपेण विभज्यन्ते तेपा भागो हियते इत्यर्थः । हूते च भागे 'जं लद्धं' यल्लब्धं या संख्या चतुष्करूपा लभ्यते तत्परिमितानि 'अंगुलाई' अड्गुलानि च चत्वार्यड्लानि चकारादड्गुलांशाश्च 'पोरिसीए' पौरुण्याः 'खयवुड्ढी' क्षयवृद्धी ज्ञातव्ये भागलब्धसंख्यापरिमितानि चत्वार्यगुलानि पौरुण्याः पदध्रुवराशेः क्षयत्वेन उत्तरायणे, तथा पदध्रुवराशेरुपरि वृद्धित्वेन च दक्षिणायने ज्ञातव्यानोति ।।३।। एतदेवाने चतुर्थगाथाव्याख्यायां प्रदर्शयिष्यते । अथ एवम्भूतस्य गुणकारस्य तथा भागहारस्य कथमुत्पत्तिः । इति तदुत्पत्तिः प्रदातेयदि पडशीत्यधिकेन तिथिशतेन चतुर्विंशत्यड्गुलानि उत्तरायणे क्षयत्वेन दक्षिणायने च वृद्धित्वेन प्राप्यन्ते तदा एकस्यां तिथौ अड्गुलानां किं प्रमाणः क्षयः किं प्रमाणा च वृद्धि भवेत् ? इति प्रश्ने तत्प्रकार-२ माह अत्र राशित्रयं जातम् तत्स्थापना यथा-- तिथिषु । अगुलानि । दिवसे । का हानिर्वृद्वि | अब अन्त्येन एककरूपेण राशिना मध्यमश्च |१८६।२४ ।१ ।का हानाद्ववा | अत्र अन्त्येन एककरूपेण गशिना मध्यातुर्विंशतिरूपो राशिगुण्यते, एकेन गुणने च एतावानेव जातश्चतुर्विंशतिसंख्यकः २४, "एकेनगुणितं तदेव भवति' इति वचनात् , ततः अस्य चतुर्विंशतिरूपस्य राशेः आयेन पडशीत्यधिकशतरूपेण राशिना भागो हियते, भाज्यराशेश्चतुर्विशितिरूपस्योपरितनस्य स्तोकत्वे षडशीत्यधिकशतरूपभाजकराशिना भागो न हियते (२४) । ततो भागहाराभावे भाज्य-भाज्यकराश्यो पटकेनापर्तना क्रियते, पट्केन भागो ह्रियते इत्यर्थः ततो जात उपरितनो भाज्यराशिश्चतुष्करूपः अधस्तनो भाजक राशिश्च एकत्रिशत् ()। ततो लब्धा एकैकस्यां तिथौ चत्वार एकत्रिशभागाः ( ) क्षयत्वेन वृद्वित्वेन वेति तदेवमुक्त उपरितनो राशिर्गुणकारः अधस्तनश्च भागहार इति गुणाकार भााहारयोरुत्पत्तिरिति । अत्र सूत्रे आपाढमासस्य चरमदिवसे आपाढपूर्णिमायां द्विपदा पौरुपी भवतीत्युक्तम् । तत आरभ्य दक्षिणायनत्वेन प्रतितिथौ चतुरेकत्रिंशभाग ( ) वृद्विक्रमेण श्रावणपूर्णिमायां चतुरगुलाधिका द्विपदा पौरुषी भवति । एव प्रतिमास चतुरगुलवृद्विक्रमेण पोपपूर्णिमायां चतुष्पदा पौरुषी भवति । तत उत्तरायण Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा०मा १० पौरूषीप्रमाणप्रतिपादकगाथार्थः प्रवेशेन प्रतितिथौ चतुरेकत्रिंशद्भाग ( ३२७ ४ ) हानिक्रमेण आषाढपूर्णिमायां पुनद्विपदा पौरुषी ३१ जायते, इत्यवधेयमिति ॥ ३ ॥ प्रकृतमनुसरामः-अथ कस्मिन्नयने कियत्प्रमाणापद घुमवराशिमधिकृत्य वृद्धिर्हानिर्वा भवतीति प्रदर्शयितुं चतुर्थीगाथा व्याख्यायते - 'दक्खिणवुड्ढी' इत्यादि 'दक्खिणबुड्ढी' दक्षिणे वृद्धिः, दक्षिणायने सूर्ये गते पौरुषी प्रमाणे वृद्धिर्ज्ञातव्या, यथा - आपाढपूर्णिमायां द्विपदापौरुषी भवति तत्पश्चाद्दक्षिणायनं प्ररभतेऽतः पदद्वयस्योपरि अड्गुलानां वृद्धिर्विज्ञेया । एतदेवाह - 'दुपयाद्विपदात् पदद्वयादुपरि ‘अंगुलयाणं' अड्गुलकानां 'वुड्ढी होइ' वृद्धि र्भवति सा 'नायव्वा' ज्ञातव्या । उत्तरे अयणे' उत्तरे अयने उत्तरायणे गते सूर्ये या पूर्वे दक्षिणायनान्तिमदिवसे पौष पूर्णिमायां चत्वारः पादाः पौरुपी जाताः तेभ्यः 'चउहिं पाए हि' चतुर्भ्यः पादेभ्य ' हाणीका यव्वा' हानि कर्त्तव्या ॥ ४ ॥ अथ युगमध्ये प्रथमे संवत्सरे दक्षिणायने यस्मादिवसादारभ्य वृद्धि र्भवेत्तं पञ्चमषष्ठेति गाथा द्वयेन प्ररूपयति-‘सावणवहुल:' इत्यादि । सावणवहुलपडिवया' श्रावण बहुलप्रतिपदायां युगस्य प्रथमे संवत्सरे श्रावणमासे कृष्णपक्षस्य प्रतिपदायाम् आपाढपूर्णिमातो द्वितीये दिवसे 'दुपया पुण पोरसी धुवा हो' द्विपदा पुनः पौरुपी ध्रुवा - निश्चिता भवति । ' तत्तो' तत्त तदिवसात् श्रावण कृष्णप्रतिपदात आरभ्याग्रे 'मासेणं' मासेन सूर्यमासमाश्रित्य सार्वत्रिंशदहोरात्रप्रमाणेन, चन्द्रमासमाश्रित्य एकत्रिंशत्तिथिभिः 'चत्तारि अंगुलाई' चत्वारि अंगुलानि पौरुपी ‘वड्ढए' वर्धते प्रतिमासान्ते चतुरङ्गुलानां पौरुपो प्रमाणे वृद्विर्भवति सूर्यस्य दक्षिणायनगतत्वात् ॥ ५ ॥ ४ सूर्यमासचन्द्रमासेति कथमवसीयते ? इति तदेव प्रदर्श्यते - 'इक्कतीस ' इत्यादि, 'इक्कतीसहभागा' इतिकथमवसीयते इति तदेव प्रदर्श्यते - 'इकतीस ' इत्यादि 'इकतीसइ भागाति - हिए पुण अंगुलस्स चत्तारि' एकत्रिंशद्भागाः तिथौ पुनरङ्गुलस्य चत्वारि - ' तिहिए' एकस्यां तिथौ अङ्गुलस्य चत्वार एकत्रिंशद्भागाः - वृद्धिरूपेण भवन्ति, सा च 'दक्खिणअयणे - 'ड्ढी' दक्षिणेऽयने वृद्धिः, एषां चतुरेकत्रिंशद्भागानां दक्षिणायने वृद्धिर्भवति । कियत्पदपर्यन्त मित्याह - ' जाव उ चत्तारि उ पयाई' यावत् तु चत्वारितु पदानि - यावत् दक्षिणायन चरम दिने चतुष्पदमिता पौरुषी भवेत् तावत् वृद्धिर्ज्ञातव्येति भावः ||६|| ३१ अथ पौरुष्याः पदहानिमाह - 'उत्तरअयणे' इत्यादि, उत्तर अयणे' उत्तरे अयने उत्तरा - यणे 'हाणी' हानि र्भवेत्, कथमित्याह - ' चउहिं पायाहिं' चतुर्भ्यः पादेभ्यः उत्तरायण प्रथमदिव सादारभ्य चतुर्भ्यः पादेभ्यो हानिः प्रारभते प्रतितिथौ चतुरेकत्रिंशद्भागक्रमेण, कियत्पर्यन्तमित्याह - 'जाव दो पाया' यावत् द्वौ पादौ यावत् उत्तरायणचरमदिवसे द्विपदा पौरुषी भवेत् तावत् हा 3 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे नि तव्येति । उपसंहरन्नाह-एवंतु' इत्यादि, 'एवंतु' अनेन पूर्वोक्तप्रकारेण 'पोरिसीए' पौरुप्या: 'बुट्टिखया' वृद्धिक्षयौ होति' भवतः, इति तौ वृद्धिक्षयौ 'नायव्या' ज्ञातव्यौ ॥७॥ अथायनस्याद्यतः कति दिवसा गता इति पौरुषी प्रमाणमधिकृत्य प्रदर्शयन्नाहे-'वुढिवा' इत्यादि, 'बुड्ढीवा हाणी वा' वृद्धिर्वा हानि, 'जावइया पोरिसीए दिहाउ' यावती पौरुण्या दृष्टा तु, 'तत्तो' तत्तः तस्सकागात्-'दिवसगएणं' दिवसगतेन दिवमानां गमनेन 'जं लद्धं' यल्लब्धं प्राप्त दिवसप्रमाणं 'तं खु' तत् खल्लु 'अयणगयं' अयनगतं तावत्परिमितमयनं गतमित्यवधार्यम् । अस्या गाथाया अयं गावः-ईप्सितदिने 'अद्य अयनस्य कतिदिवसा व्यतीता' इति ज्ञातुमिच्छेत् तदा तदीप्सितदिने यदि दक्षिणायनं भवेत् तदा तस्मिन् दिवसे यावन्तः पादाः अगलसहिताः पौरुप्या वर्धिता भवेयुस्तान् प्रतितिथि एकत्रिंगदागचतुष्टयवृद्धिक्रमेण तिथीगणयेत् यावत्यस्तिथयो लभ्यन्ते यावन्तो दिवसान अयनस्य जानीयात् यत् दक्षिणायनस्य' इयन्तो दिवसा गता इति । एवमेव उत्तरायणे हानिमाश्रित्य दिवसा गणनीया इति ||८|| तदेवमक्षरार्थमाश्रित्य करणगाथानां व्याख्यानं कृतम्' साम्प्रतमुदाहरणं प्रदर्श्यते-यदि दक्षिणायने पदद्वयस्योपरि चत्वारि अङ्गुलानि यस्मिन् दिवसे पौरुप्या' लभ्यन्ते तदा कोऽपि पृच्छतिअद्य दक्षिणायनस्य कति तिथयो गता? इति प्रश्ने शृणु-अत्र त्रैराशिककर्मावतारो यथा-यदि अङ्गुलस्य चतुभिरेकत्रिशद्भागैरेका तिथि र्लभ्यते ततश्चतुर्भिरड्गुलैः कति तिथयो लभ्यन्तेः' इति प्रश्ने राशित्रयस्थापना क्रियते-/एकत्रिगद्भागा तिथिः मडगुलानि। .. "7 -४-१- १ "अत्रान्त्यो राशिरड्गुलरूपः, मा अस्यकत्रिंशदागकरणार्थमेकत्रिशता गुण्यते जातं चतुर्विशत्यधिकमेकशतम् (१२४) अनेन मध्योराशि रेककरूपो गुण्यते जातं नदेव चतुर्विशत्यधिकं गतम् १२४ । अस्य चतुष्करूपेणादि रागिना भागो ह्रियते लब्धा एकत्रिंशत्संख्येति । एतास्तिथयो ज्ञातव्याः, तेन आगतं दक्षिणायने एकत्रिंशत्तमायां तिथौ पौरुप्यां चतुरड्गुला वृद्धि रिति दक्षिणायनस्य अद्यैकत्रिंशदिनानि गतानिति पग्भिावनीयमिति । एवमुत्तरायणे पदचतुष्टया दष्टाङ्गुलानि होनानि पौरुष्या 'यस्मिन् दिने लभ्यन्ते तदा कोऽपि पृच्छति-अद्य उत्तरायणस्य कतितिथयो गता. १ इति प्रश्ने शृणु-अत्रापि राशिक क्रियते, यथा-यदि अगुलस्य चतुर्मिरेकत्रिंगद्गागरेका। तिथिर्लभ्यते तदाऽष्टभिरगुहीनः कनितिथयो लभ्यन्ते । इति राशियरथापना क्रियते ... एक त्रिशदागाः। तिथिः। अङ्गुलानि।... अत्राप्यन्त्यो राशिरेकत्रिशद्गागकरणार्थमेकत्रिंशता गुण्यने-जाते अष्टचत्वारिंशदधिके द्वे शते -(२५८) अनेन राशिना मन्यो राशिरेकक यथा-- Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा १० प्रा०प्रा १० पौरुषीप्रमाणप्रतिपादकगाथार्थः ३२९ दधिके द्वे शते (२४८) इति । अस्य राशेः (२४८) आयेन चतुष्करूपेण राशिना भागो हियते लब्धा द्वापष्टिः ६२ । आगतमुत्तरायणे द्वापष्टितमायां तिथौ पौरुष्यामष्टावड्गुलानि हीनानीति गतानि उत्तरायणस्य द्वापष्टिदिनानीति विभावनीयमिति ॥८॥ इति करणगाथाः ॥८॥ तदेवं क्रमेण व्याख्याता अष्टापि करणगाथाः । साम्प्रतं 'युगस्यादितोऽमुकस्मिन् पर्वणि कतिपदा पौरुपी भवति ? इत्युदाहरणैः प्रदर्शयति-यथा कोऽपि पृच्छति-युगे आदित आरभ्य पञ्चाशीतितमे पर्वणि पञ्चम्यां तिथौ कतिपदा पौरुपी भवति ? तत्र चतुरशीति म्रियते, तस्याश्चाधस्तात् पञ्चम्यां तिथौ पृष्ट मिति पञ्च स्थाप्याः ।८४। चतुरशीतिश्च पञ्चदशभिर्गुण्यते जातानि 'षष्टयधिकानि द्वादशशतानि (१२६०), एतेषु मध्ये अधस्तना ये पञ्च स्थतास्ते प्रक्षिप्यन्ते, जातानि पञ्चषष्टयधिकानि द्वादशशतानि (१२६५) एपां पडशीत्यधिकेन शतेन १८६, भागो हियते, लब्धा पट् ६, आगतं पड़ अयनानि गतानि, सप्तममयनं वर्तते । ततस्तद्गतं च शेपमेकोन पञ्चाशदधिकं शतं १४९ तिष्ठति । तत एप राशिश्चतुर्भिगुण्यते जातानिः पण्णवत्यधिकानि पञ्चशतानि ५९६ । एपामेकत्रिशता भागो हते लब्धा एकोनविंशति १९, शेपास्तिष्ठन्ति सप्त ७, तत्र द्वादशाङ्गुलः पादो भवतीत्येकोनविशते. १९ द्वादशकेन भागो हियते तेन लब्धमेकं पदम्, शेषाः सप्त, तानि चाड्गुलानि, तेन जातमेकं पदं सप्तचागुलानि पद षष्ठं चायनमुत्तरायणं, तच्च गतं, सप्तमं तु दक्षिणायनं वर्तते, ततो ये च सप्त एक त्रिंगद्भागाः पूर्व शेपीभूता वर्तन्ते तेषां यवाः कार्याः, तत्र-अष्ट यवात्मकमेकमड्गुलमिति ते' सप्त , अष्टभिर्गुण्यन्ते जाताः षट् पञ्चाशत् ५६ अस्यकत्रिंशता भागे हृते लब्ध एको यवः, शेपास्तिष्ठन्ति पञ्चविशतिः,२५. एते एकस्य यवस्य पञ्चविंशतिरेकत्रिशद्भागाः, ततो जातम् एक पदम् , सप्त अड्गुलानि, एको यवः, एकस्य च यवस्य पञ्चविंशतिरेकत्रिंशद्भागाः पदम्-अङ्गुलानि-यवः-एकत्रिंशद्भागाः १--७----१ -२५ एकः राशिः पदद्वयप्रमाणे ध्रुवराशौ प्रक्षिप्यते, तत आगतम् पञ्चाशीतितमे पर्वणि पञ्चम्यां तिथौत्रीणि पदानि,' सप्तअगुलानि, एको यवः, एकस्य च यस्य 'पञ्चविंशतिरेकत्रिंशद्गागाः (पद. अं यवः भागा इत्येतावती पौरुपीति ।। -३-७-१-२५ 7. " तथा पुनरन्यः कोऽपि पृच्छति' -सप्तनवतितमे पर्वणि पञ्चम्यां तिथौ कतिपदा पौरुषी भवति १, तत्र' पण्णवतियिते तस्याश्चाधस्तात् पञ्च, पण्गवति च पञ्चदशभिर्गुण्यते, जातानि Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० www.mmminen arrr- m..maananam चन्द्रप्राप्तिसूत्रे चत्वारिंशदधिकानि चतुर्दशशतानि (१४४०), एपो मध्ये येऽधस्तनाः पञ्च ते प्रक्षिप्यन्ते, जातानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि चतुर्दशशतानि (१४४५) एषां पङगोत्यधिकशतेन (१८६) भागो हियते, लब्धानि सप्त ७ इति सप्त अयनानि, शेषं तिष्ठति त्रिचत्वारिंशदधिकमेकं शतम् (१४३) एतत् चतुर्भिर्गुण्यते जातानि द्विसप्तत्यधिकानि पञ्चशतानि (५७२), एपामेकत्रिंशता भागो हियते लब्धानि अष्टादश (१८) तानि चाड्गुलानि, द्वादशाड्गुलं पदमिति द्वादशभिरड्गुलैस्तु पदं लभ्यते, शेपं पट्, तानि चाडगुलानि तत आयातम् एकं पदं षड अड्गुलानीति । तत एकत्रिंशता भागे हते ये उद्धृताश्चतुर्दश १४, ते यवानयनार्थमष्टभिर्गुण्यन्ते जातं तिष्ठति द्वादशोत्तरं शतम् (११२) अस्य-एकत्रिंशता भागो ह्रियते लब्धस्त्रयः ३, ते च यवाः ३, शेपा तिष्ठति एकोनविंशतिः ते च एकोनविंशति रेक त्रिंगद्रागाः । ततः एकं पदं पड़ अड्गुलानि, त्रयो यवाः, एकस्य यवस्य एकोनविंशतिश्वैकत्रिंशद्वागाः ( ) इति प्राप्तम् । अत्र सप्तचाय नानि गतानि अष्टमं वर्तते, तच्चायनमुत्तरायणं भवति, उत्तरायणे च पदचतुष्टयरूपाद् ध्रुवराशेहानिर्भवेदिति पूर्वोक्ताङ्कश्रेणिः ( १) पदचतुष्टयात् होना क्रियते ' तदा शेष तिष्ठति-द्वे-पदे- पञ्चाङ्गुलानि, चत्वारो यवाः एकस्य च यवस्य द्वादश एकत्रिंशद्भागा (प. अं यवा. भागाः २-५-४ , एतावतीयुगादित आरभ्य सप्तनवतितमे पर्वणि पञ्चम्यां तिथो पौरुषी ३१)। पितायुगादित . भवतीत्युत्तरमवसेयम् एवं सर्वत्र गणना परिभावनीयेति ॥ सू०१॥ "इति चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकायां टीकायां दशमस्य प्रामृतस्य दशमं प्राभृतप्रामृत समाप्तम् ॥ १०-१०॥ दशमस्य प्राभृतस्य-एकादश प्राभृतप्राभृतम् । गतं दशमं प्राभृतप्रामृतम् , तत्र नक्षत्राणां नेतृत्वं पौरुषो प्रमाणं च प्रदर्शितम् । अथ एकादर्श प्राभृतप्रामृतं प्रारभ्यते, अत्र नक्षत्राण्यधिकृत्य चन्द्रमार्गाः, चन्द्रमण्डलान्तरं सूर्यमार्गश्च प्रदर्शयिष्यते, इति सम्बन्धेनायातस्यास्यैकादशप्रामृतप्रामृतस्य प्रथमं चन्द्रमार्गविषयकमिदमादिसूत्रम्-'ता कहते चंदमग्गा इत्यादि । मूलम्-ता कहं ते चंदमग्गा आहिएति वएवज्जा । ता एएसिण अट्ठावीसाए णक्खताणं अस्थि णक्खत्ता जे ण सया चंदस्स दाहिणेणं जोयं जोएंति ॥१॥ अस्थिणखत्ता जे णं सया चंदस्स उत्तरेण जो जोएंति ॥२॥अस्थि णक्खता जेणं सया चंदस्स Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा०१० प्रा. प्रा. ११ सू०१ चन्द्रमार्गनिरूपणम् ३३१ दाहिणेण वि उत्तरेण वि पमपि जोयं जोएँति ॥३॥ अस्थि णक्खत्ता जे णं सया' चंदस्स दाहिणेणं वि पमपि जोयं जोऍति ॥४॥ अत्थि णक्खत्ता जेणं चंदस्स सया पमई जोयं जोएँति ॥५॥ ता एएसिणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं कयरे णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स दाहिणेण जोयं जोएति, तहेव जाव कयरे णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स पमई जोयं जोएंति ? ता एएसिणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं जे णं णक्खत्ता सया चंदस्स दाहिणेणं जोयं जोएँति ते ण छ, तंजहा-संठाणा १, अद्दा, २, पुस्लो ३, अस्सेसा ४, हत्थो ५, मूलो ६। तत्थ णं जे ते णक्खत्ता जेणं सया चंदस्स उत्तरेणं जोयं जोऍति, ते णं वारस, तंजहा-अभिई १, सवणो २, धणिहा ३, सयभिसया ४, पुन्यांभवया ५, उत्तराभइया ६, रेवई ७, अस्सिणी ८, भरणी ९, पुन्चाफग्गुणी १०, उत्तराफग्गुणी ११, साई १२ । तत्थ णं जे ते णक्खत्ता जे णं चंदस्स दहिणेण वि उत्तरेण वि पमपि जोयं जोऍति तेणं सत्त, तंजहाकत्तिया १, रोहिणी २, पुणब्धम् ३, महा ४, चित्ता ५, बिसाहा ६, अणुराहा ७ । तत्थ णं जे ते णक्खता जेणं चंदस्स दाहिणेण वि पमपि जोयं जोएँति ताओ णं दो आसाढाओ तो य सव्ववाहिरे मण्डले जोयं जोएँसुवा, जोऍतिवा, जोइस्संति वा तत्थ णं जं तं णक्खत्तं जं णं सया चंदस्स पमई जोयं जोएइ सा गं एगा जेहा ॥सूत्र १॥ . छाया-तावत् कथं ते चन्द्रमार्गाः आख्याताः ? इति वदेत्, तावत् एतेषां खलु अष्टाविंशतेन त्राणां सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु सदा चन्द्रस्य दक्षिणे योगं युञ्जन्ति ॥१॥ सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु सदा चन्द्रस्य उत्तरे योगं युञ्जन्ति ।। सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु सदा चन्द्रस्य दक्षिणेऽपि उत्तरेऽपि प्रमर्दमपि योगं युञ्जन्ति ।३। सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु सदा चन्द्रस्य दक्षिणेऽपि प्रमर्दमपि योग शुञ्जन्ति । सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु चन्द्रस्य सदा प्रमद योग युञ्जन्ति ।। तावत् एतेपाम् अष्टाविंशतेनक्षत्राणां कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु सदा चन्द्रस्य दक्षिणे योगं युञ्जन्ति' तथैव यावत् कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु सदा चन्द्रस्य प्रमर्द योगं युञ्जन्नि ? तावत् , एतेषां खलु अष्टाविंशतेनक्षत्राणां यानि खलुं नक्षत्राणि सदा चन्द्रस्य दक्षिणे योगं युञ्जन्ति तानि खलु पट् तद्यथा-संस्थाना १, आर्द्रा २, पुष्यः ३, अश्लेपा ४, हस्त ५, मूलम् ६, । तत्र खलु यानि तानि नक्षत्राणि यानि खलु सदा चन्द्रस्य उत्तरे योग युञ्जन्ति तानि खलु द्वादश, तद्यथा-अभिजित् १, श्रवणः २, धनिष्ठा ३, शतभिषा ४, पूर्वाभाद्रपदा ५, उत्तराभाद्रपदा ६, रेवती ७, अश्विनी ८, भरणी ९, पूर्वाफाल्गुनी १०, उत्तरा फल्गुनी ११, स्वाति १२, तत्र खलु यानि तानि नक्षआणि यानि खलु चन्द्रस्य दक्षिणेऽपि, उत्तरेऽपि, प्रमर्दमपि योगं युञ्जन्ति तानि खलु सप्त, तंद्यथा-कृत्तिका १, रोहिणी २, पुनर्वसु ३, मघा ४, चित्रा ५, विशाखा ६, अनुराधा ७,। तत्र खलु यानि तानि नक्षत्राणि यानि खलु चन्द्रस्य दक्षिणेऽपि प्रमर्दमपि योग । युञ्जन्ति Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे ते द्वे आपाढे, ते च सर्व वाह्ये मण्डले योगम् अयुञ्जतां वा, युङ्क्तो वा, योक्ष्यतो वा। तत्र यत्तत् नक्षत्रं यत् खलु सदा चन्द्रस्य प्रमद योगं युनक्ति सा खलु पका ज्येष्ठा। ॥सूत्र०१॥ - व्याख्या--'ता कहते इति । 'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण 'ते' त्वया 'चमग्गा' चन्द्रमार्गाः नक्षत्राणां दक्षिणत उत्तरतः प्रमर्दतः, अथवा सूर्यनक्षत्रैर्विरहिततया अविरहितया चन्द्रस्य मार्गा मण्डत्वगत्या परिभ्रमणरूपा मण्डलरूपा वा मार्गाः 'अहिया' आख्याताः कथिताः १ 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् । एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह-'ता एएसि ण' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषां ज्योतिः शास्त्रप्रसिद्धानां 'अट्ठावीसाए' णक्खत्ताणं' भष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये 'अत्थि' सन्ति 'अस्थि इति एकवचन बहुवचनवाचकमव्ययपदं, तेन सन्तीत्यर्थः ‘णक्खत्ता नक्षत्राणि कानिचित्, 'जे णं यानि खल 'सया' सदा निरन्तरं 'चंदस्स चन्द्रस्य 'दाहिणेणं' दक्षिणे दक्षिणभागे दक्षिणस्यां दिशि स्थितानि 'जोयं जोएंति' योगं युञ्जन्ति चन्द्रेण सह योगं कुर्वन्तीत्यर्थः । तथा 'अत्थि' सन्ति कानिचित् 'णक्खत्ता' नक्षत्राणि 'जेणं' यानि खलु 'सया' सदा 'चंदस्स' चंद्रस्य 'उत्तरेण' उत्तरे उत्तरस्यां दिशि स्थितानि 'जोयं जोएंति' योग युञ्जन्ति २ । तथा 'अस्थि' सन्ति कानिचित् ‘णक्खत्ता' नक्षत्राणि 'जे णं यानि खलु 'सया' सदा 'चंदस्स' चंद्रस्य 'दाहिणेण वि' दक्षिणेऽपि 'उत्तरेण वि' उत्तरेऽपि 'पमईपि' प्रमदमपि प्रमर्दरूपमपि मध्यमार्गेण गमनरूपमपि 'जोयं' जोएंति योग युञ्जन्ति ३ । तथा-'अत्थि' सन्ति कानिचित् 'णक्खत्ता नक्षत्राणि 'जे णं' यानि खल्ल 'सया' सदा चंदस्स चंद्रस्य दाहिणेणं 'पमपि' दक्षिणे प्रमर्दमपि प्रमर्दरूपमपि 'जोय जोएंति' योगं युञ्जन्ति ॥४॥ तथा 'अस्थि णक्खत्ता' सन्ति कानिचित् नक्षत्राणि "जे णं'' यानि खलु 'चदस्स' चद्रस्य 'सया' सदा ‘पमई' प्रमर्दरूपं 'जोयं जोएंति' योगं युञ्जन्ति ॥५। एवं भगवता सामान्यतो नक्षत्राणां पञ्च योगप्रकाराः प्रदर्शिताः अथ भगवन् गौतमः कानि कानि नक्षत्राणि चन्द्रस्य दक्षिणादिक्रमेण योगं युञ्जतीति भिन्नतया स्पष्टावबोधार्थ पुनः पृच्छति-'ता' 'एएसिणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'एएसिणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' एतेषाम् अष्टाविंशतेनेक्षत्राणा मव्ये 'कयरे 'णक्खत्ता' कतमानि किनामानि कति नक्षत्राणि सन्ति 'जेणं' यानि खलु 'सया' सदा चंदस्स दाहिणेणं जोयं जोएंति' चन्द्रस्य दक्षिणे स्थितानि योगं युञ्जन्ति ? ॥१॥ तहेव' तथैव यथा पूर्वप्रकरणे नक्षत्रयोगप्रकाराः कथितास्तथैवात्रापि वक्तव्या. स्पष्टार्थत्वात्पुनर्न विविच्यन्ते । कियत्पर्यन्तं ते वक्तव्याः तत्राह-'जाव' इत्यादि 'जाव' यावत् पञ्चमं प्रकारम् तदेवाह-'फयरे' इत्यादि 'कयरे' कतमानि किनामानि कति सख्य कानि च 'णक्खत्ता' नक्षत्राणि सन्ति 'जे णं' यानि खलु नक्षत्राणि 'सया' सदा 'चदस्स' चन्द्रस्य 'पमई' प्रर्मदरूपं 'जोयं' जोएंति योगं युञ्जन्ति ! ।५। HEHTELNORIGHTET Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रासिम हाशिमा टीका प्रा १० प्रा. प्रा ११ चन्द्रमार्गनिरूपणम् ३३३ एवं गौतमेन पृष्टे सति भगवान् तानि भिन्न भिन्नरूपेण प्रदर्शयति 'ता एएसिणं' इत्यादि 'ता तावत् 'एएसि ण अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' एतेषां खलु अष्टाविशतेर्नक्षत्राणां मध्ये 'जे णं' णक्खत्ता यानि खलु नक्षत्राणि 'सया' सदा सर्वकाल 'चदस्स दाहिणेण' चन्द्रस्य दक्षिणे दक्षिणस्यां दिशि स्थितानि 'जोयं जोएंति' योगं युञ्जन्ति 'ते णं' तानि खलु 'छ' षट् षट् संख्यकानि सन्ति 'तं जहा' तयथा तानि यथा 'संठाणा' सस्थाना मृगशिरः १, 'अदा' आर्द्रा २, 'पुस्सो' पुष्य ३ 'अस्सेसा' अलेपा ४, 'हत्थो' हस्तः ५, 'मूलो' मूलश्च ६, इति एतानि सर्वाण्यपि मृगशिर आदीनि नक्षत्राणि पञ्चदशस्य चन्द्रमण्डस्य बहिश्चार चरन्ति तथाचोक्त जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ । संठाणा अद्द पुस्सोऽसिलेस हत्थो तहेच मूला य । वाहिरओ वाहिरमंडलस्त छप्पि य नवखत्ता ॥१॥ छाया-संस्थाना आर्द्रा पुष्यः अश्लेपा हस्तस्तथैव मूलश्च । बाह्यतो बाह्यमण्डलस्य पडपि च नक्षत्राणि ॥१॥ एतानि नक्षत्राणि सदैव दक्षिणदिग् व्यवस्थितान्येव चन्द्रेण सह योग युञ्जन्ति नान्यथेति ॥१॥ 'तत्थ' तत्र तेपु नक्षत्रयोगप्रकारेषु 'जे ते णक्खत्ता' यानि तानि नक्षत्राणि सन्ति तेषु 'जे णं' यानि खलु नक्षत्राणि 'सया' सदा सर्वदा 'चंदस्स उत्तरेणं जोयं जोएंति' चंद्रस्य उत्तरे उत्तरदिशि स्थितानि योग युञ्जन्ति 'ते णं' तानि खलु 'वारस' द्वादश सन्ति 'तंजहा' तद्यथा तानीमानि-अभिई अभिजित् १' 'सवणो' श्रवणः २, धनिष्ठा धनिष्ठा ३, 'सयभिसया' शतभिषक् ४, 'पुन्या भदवया' पूर्वाभाद्रपदा ५, 'उत्तराभवया' उत्तराभाद्रपदा, ६, रेवई' रेवती, अस्सिणी, अश्विनी ८, 'भरणी' भरणी ९, पुव्वाफग्गुणी' पूर्वाफल्गुनी १०, उत्तराफरगुणी उत्तराफल्गुनी ११, साई' स्वातिः १२, इति एतानि द्वादशापि नक्षत्राणि सर्वाभ्यन्तर चन्द्रमण्डले चारं चरन्ति । यदा चंद्रस्य एतैः सहयोगो भवति तदा स्वभावतः एव चन्द्र शेपेष्वेव मण्डलेपु वर्त्तते तत एतानि उत्तरदिगू व्यवस्थितान्येव सदैव चन्द्रेण सह योगं युबन्तीति २ ।। तत्थ तत्र 'जे ते णक्खत्ता' यानि तानि नक्षत्राणि सन्ति तेषु 'जे णं' यानि खलु नक्षत्राणि 'चंदस्स' चन्द्रस्य 'दाहिणेणवि' दक्षिणेऽपि 'उत्तरेणवि' उत्तरेऽपि 'पमद्द पि' प्रमर्दरूपमपि 'जोयं जोएंति' योग युञ्जन्ति 'तेणं सत्त' त्ते खलु सप्त सन्ति; 'तंजहा तद्यथा तानि यथा 'कत्तिया' कृत्तिका १, 'रोहिणी' रोहिणी 'पुणव्यसू' पुनर्वसु ३, 'महा' मघा ४, "चित्ता' चित्रा ५, 'विसाहा' विशाखा ६, 'अनुराहा' अनुराधा ७, । ३ । तथा 'तत्थ' तत्र अष्टाविंशतिनक्षत्राणा मध्ये ये यानि 'नक्खत्ता' नक्षत्राणि सन्ति तेषा मध्ये 'जे णं' ये द्वे खलु नक्षत्रे 'चंदस्स' चन्द्रस्य 'दाहिणेणवि' दक्षिणेऽपि तथा Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www चन्द्रप्राप्तिसूत्र ते व आपाढे, ते च सर्व बाह्य मण्डले योगम् अयुञ्जनां वा, युती वा, योक्ष्यतो वां। तत्र यचद ननत्रं यत् स्खलु सदा चन्द्रस्य प्रमदं योगं युनक्ति सा खलु पका ज्येष्ठा। सूत्र०॥ ___व्याख्या--'ता कहते इति । 'ता' तावत् 'कई' कथं केन प्रकारण 'त' त्वया 'चदमनगा चन्द्रमागाः नत्राणां दक्षिणत उत्तरतः अमर्दतः, अथवा मूर्यनक्षत्रविरहिततया अदिरहितया चन्द्रस्य मागा मण्डत्वगत्या परिमणरूपा मण्डलन्दपा वा मार्गाः 'यडिया' आख्याताः ऋथिताः ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु है भगवन् । एवं गौतमेन ग्रने कृन भगवानाह-'ता एएसिणं इत्यादि, 'ना' तावत् 'एएसिणं' एतेषां ज्योतिः शा प्रसिद्धानां 'अट्ठावीसाए णवत्ताण' अष्टाविंशनिक्षत्राणा मध्ये 'अत्यि' सन्ति 'अत्यि' इनि एकवचन-बहुञ्चनवाचनमव्ययपदं, तेन सन्तीत्यर्थः ‘णखत्ता नक्षत्राणि कानिचित्, जणं यानि खछु 'सया' सदा निरन्तरं 'चंदस्स चन्द्रत्य 'दाहिणणं' दक्षिणे दक्षिणमागे दक्षिगत्यां दिशि त्थितानि 'जायं जोएंति' योगं युञ्जन्ति चन्द्रेण सह योगं कुर्वन्तीत्यर्थः ! तथा 'अत्यि' सन्ति ऋानिचिन् ‘णवसत्ता नक्षत्राणि 'जेणं' यानि खल 'सया' सदा 'चदस्य चंद्रस्य 'उत्तरेण उत्तरे उत्तरस्यां दिशि स्थितानि 'जोयं जोएंति' योग युञ्जन्ति २ तथा 'अत्थि' सन्ति शानिचित् 'णखत्ता' नक्षत्राणि 'जे णं' यानि ख 'सया' सदा 'चंदस्स' चंद्रस्य 'दाहिणण वि' दक्षिणेऽपि 'उत्तरंण वि' उत्तरेऽपि 'पमपि प्रमर्दमपि प्रमदरूपमपि मध्यमागंग गमनरुपमपि 'जोयं जोएंति योग युञ्जन्ति ३ । तथा-'अत्यि' 'सन्ति कानिचिन् 'णक्खत्ता नक्षत्राणि 'ज णं' यानि खलु 'सया' सदा चंदस्स चंद्रस्य दाहिणणं 'पमपि' दक्षिणे प्रमर्दमपि प्रमर्दरूपमपि 'जोय जाति योग गुञ्जन्त || तथा 'अस्थि णक्खत्ता' सन्ति कानिचित् नक्षत्राणि 'जणं' यानि बुलु चिदस्स' चंद्रत्य 'सया' सदा 'पमह' प्रमर्दरूपं 'जोय जोएंति' योगं शुञ्जन्ति ॥ एवं भगवता सामान्यता नक्षत्राणां पञ्च योगप्रकागः प्रदर्शिताः अथ भगवन् गौतमः नानि कानि नक्षत्रागि चन्द्रस टक्षिणादिक्रमंग योगं युञ्जति भिन्नतया स्पष्टावबोबाथ पुनः पृच्छति-'ता' 'एएमिणं इत्यादि 'तां तावत् 'एएसिणं असावीसाए णक्खत्ताणं' पंपाम् अष्टावियनक्षत्राणा मध्ये 'क्रयरे 'णक्खत्ता' कतमानि र्किनामानि कति नक्षत्राणि सन्ति 'जण यानि खक 'सया' सहा चंदास दाहिणेग जोयं जोएंति' चन्द्रस्य दक्षिणे स्थि'नानि योगं युजन्ति ? ॥१॥ तहेव तथैव यथा पूर्वप्रकरणे नक्षत्रयोगप्रकाराः कथितान्नथैवाति वक्तव्याः सटार्थवाचुनने विविच्यन्तं । कियापर्यन्तं ते वकव्याः तत्राह-'जाव' इत्यादि 'जाव' यावत् पञ्च प्रकारम् तदेवाह-कयर' इत्यादि कयरे कतमानि किनामानि ऋति संख्यकानि च णवत्ता नक्षत्राणि सन्ति 'जे णं' यानि खलु नक्षत्राणि 'सया सदा 'चंदन्स' चन्द्रस्य ‘पमई' प्रर्नदरूपं 'जोय' जोएंति योगं युञ्जन्ति ? ५१ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रमार्गनिरूपणम् ३३३ चन्द्रशासप्रकाश का टाका प्रा १० प्रा. प्रा. ११ एवं गौतमेन पृष्टे सति भगवान् तानि भिन्नभिन्नरूपेण प्रदर्शयति 'ता एएसिण' इत्यादि 'ता तावत् 'एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' एतेषां खलु अष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये 'जे णं' णक्खत्ता यानि खलु नक्षत्राणि 'सया' सदा सर्वकाल 'चंदस्स दाहिणेण' चन्द्रस्य दक्षिणे दक्षिणस्यां दिशि स्थितानि 'जोयं जोएंति' योग युञ्जन्ति ते णं' तानि खलु 'छ' षट् पट् संख्यकानि सन्ति 'तं जहा' तद्यथा तानि यथा 'संठाणा' सरथाना मृगशिरः १, 'अदा' आर्द्रा २, 'पुस्सो' पुष्य ३ 'अस्सेसा' अश्लेपा ४, 'हत्थो' हस्तः ५, 'मूलो' मूलश्च ६, इति एतानि सर्वाण्यपि मृगशिर आदीनि नक्षत्राणि पञ्चदशस्य चन्द्रमण्डस्य बहिश्चार चरन्ति तथाचोक्तं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ । संठाणा अह पुस्सोऽसिलेस हत्थो तहेव मूला य । वाहिरओ वाहिरमंडलस्त छप्पि य नक्खत्ता ॥१॥ छाया-संस्थाना आर्द्रा पुष्यः अलेपा हस्तस्तथैव मूलश्च । वाह्यतो वाह्यमण्डलस्य पडपि च नक्षत्राणि ॥१॥ एतानि नक्षत्राणि सदैव दक्षिणदिग् व्यवस्थितान्येव चन्द्रेण सह योग युञ्जन्ति नान्यथेति ॥१॥ 'तत्थ' तत्र तेपु नक्षत्रयोगप्रकारेपु 'जे ते णक्खत्ता' यानि तानि नक्षत्राणि सन्ति तेषु 'जे णं' यानि खलु नक्षत्राणि 'सया' सदा सर्वदा 'चंदस्स उत्तरेणं जोयं जोएंति' चंद्रस्य उत्तरे उत्तरदिशि स्थितानि योग युञ्जन्ति 'ते थे' तानि खलु 'वारस' द्वादश सन्ति 'तंजहा' तद्यथा तानीमानि-अभिई अभिजित् १' 'सवणो' श्रवणः २, धनिष्ठा धनिष्ठा ३, 'सयभिसया' शतभिषक् ४, 'पुवा भड्वया' पूर्वाभाद्रपदा ५, 'उत्तराभवया' उत्तराभाद्रपदा, ६, 'रेवई' रेवती, अस्सिणी, अश्विनी ८, 'भरणी' भरणी ९, पुन्वाफग्गुणी' पूर्वाफल्गुनी १०, उत्तराफरगुणी उत्तराफल्गुनी ११, साई' स्वातिः १२, इति एतानि द्वादशापि नक्षत्राणि सर्वान्यन्तरे चन्द्रमण्डले चारं चरन्ति । यदा चंद्रस्य एतैः सहयोगो भवति तदा स्वभावतः एव चन्द्रः शेपेष्वेव मण्टलेपु वर्तते तत एतानि उत्तरदिगू व्यवस्थितान्येव सदैव चन्द्रेण सह योगं युलन्तीति २ ।। तत्थ तत्र 'जे ते णक्खत्ता' यानि तानि नक्षत्राणि सन्ति तेषु 'जे णं' यानि खलु नक्षत्राणि 'चंदस्स' चन्द्रस्य 'दाहिणेणवि' दक्षिणेऽपि 'उत्तरेणवि' उत्तरेऽपि "पमद्दपि' प्रमर्दरूपमपि 'जोयं जोएति' योग युञ्जन्ति 'तेणं सत्त' ते खलु सप्त सन्ति; 'तंजहा तद्यथा तानि यथा 'कत्तिया' कृत्तिका १, 'रोहिणी' रोहिणो 'पुणव्यसू' पुनर्वसु ३, 'महा' मघा ४, 'चित्ता' चित्रा ५, 'विसाहा' विशाखा ६, 'अनुराहा' अनुराधा ७, । ३ । तथा 'तत्थ' तत्र अष्टाविंशतिनक्षत्राणां मध्ये ये यानि 'नक्खत्ता' नक्षत्राणि सन्ति तेषा मध्ये 'जेणं' ये द्वे खलु नक्षत्रे 'चंदस्स' चन्द्रस्य 'दाहिणेणवि' दक्षिणेऽपि तथा Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे 'पमहपि' प्रमर्दमपि 'जोयं जोएंति' योगं युक्तः 'ता ओय' ने हे नक्षत्रे सव्ववाहिरे मंडले सर्व बाह्यमण्डलव्यस्थित 'जोयं जोएमु वा' योगमयुक्ताम् वा योगमकुरुतां 'जोएति वा' युद्क्तो वा योगं कुरुतः 'जोएग्संति वा' योध्यतो योगं करिष्यत वा । अत्रेयं भावना एते पूर्वापाढा उत्तरापाढ़ा चंति है अपि आपाढे प्रत्येकं चतुस्तार, उक्तच्च पूर्व अस्यैव नवमे प्रामृते-नक्षत्रतारा संख्याप्रकरण-'पुब्बासाढा चउत्तारे, उत्तरासाहा चउत्तार' इति, तत्र द्वे द्वे तारे सर्वबाह्यस्य पञ्चदशस्य मण्डलस्याभ्यन्तर भवतः, द्वं द्वे च बहिर्भवतः । तत्र ये द्वे द्वे तारे बहिर्भवतस्ते चन्द्रस्य पञ्चदशेऽपि मण्डलं चार चरनस्तदा ते दक्षिणदिग्व्यवस्थिते स्तः, ततस्तदपेक्षया "दाहिणेण वि" इति दक्षिणेऽपि योगं युक्तः, इत्युक्तम् । तथा ये द्वे द्वे नारे अभ्यन्नर स्न, तयोर्मध्येन नियमतश्चन्द्रो गच्छतीति, यतोहि-यटा पूर्वापाढोत्तरापाढाभ्यां सह चन्द्रो योगं समुपैति तदाऽभ्यन्तरतारकाणांमध्यतो गच्छतीति नियमः । तदपेक्षया “पमईपि" इति प्रमर्दमपि योगं इति कथ्यते ॥४॥ __तथा-'तत्व' तत्र-अष्टाविशति नक्षत्रेषु 'जतं णक्खत्त' यत्तन्नक्षत्रं 'जणं' यत् खल 'सया' सदा सर्वकालं 'पमह जायं' प्रमदं योग मध्यतो गमनरूपं योग 'जोएई' युनक्ति 'सा ण एका जेट्ठा' सा खलु एका ज्येष्ठा तत् खलु एकं ज्येष्ठानक्षत्रमिति भावः ।।सूत्र १॥ तदेवमुक्ता मण्डलगत्या परिभ्रमणरूपश्चन्द्रमार्गाः, साम्प्रतं मण्डलरूपान् चन्द्रमार्गान् तदन्तराणि सूर्यमार्गाश्चाभिधातुमाह-'ता कइ णं ते चंदमंडला' इत्यादि । मूलम्-ता कइणं ते चंदमंडला आहिएति वएज्जा, ता पण्णरय चंदमंडला आहिएति वएज्जा । एएसिणं पण्णरसण्डं चंद्रमण्डलाणं अत्थि चंदमंडला जे णं सया णक्खत्तेहिं अविरहिया, १, अस्थि चंदभंडला जे णं सया णक्खत्तेहिं विरहिया २, । अस्थि चंदमंडला जे णं रविससि णक्खत्ताण सामण्णा भवंति ३। अस्थि चंदमंडला जे णं सयाआइच्चेहिं विरहिया ।४ ता एएसिणं पग्णरसह चंदमंडलाणं कयरे चंदमंडला जे णं सया णक्खत्तेहिं अविरहिया जाच कयरे चंदमंडला जे णं सया आइच्चेहिं विरहिया १ ता एएसि णं पण्णरसहं चंदमंडलाणं तस्य जे ते चंदमंडला जेणं सया णक्खत्तेहि अविरहिया ते ण अट्ट, तं जहा पढमे चंदमंडले, १' तइए चंदमंडले, छठे चंदमंडले ३, सत्तमे चंदमंडले ४, अट्ठये चंदमंडले ५, इसमे चंदमंडले ६, एगारसे चंदमंडले ७, पण्णरसमे चंदमंडले ८, । तत्थ जे ते चदमंडला जे णं सया णक्खत्तेहिं विरहिया ते णं सत्त, तंजहा-बीए चंदमंडले १, चउत्थे चंदमंडले २, पंचमे चंदमंडळे ३, नवमे चंदमंडले ४, वारसमे चंदमंडले ५, तेरसमे चटमंडले ६, चउसमे चंदमंडले ७, । तत्य जेते चंदमंडले जे णं ससिरविणक्खत्तागं समाणा भवंति ते णं चत्तारि तं जहापढमे चंदमंडले १, वीए चदमंडले २, इक्कारसमे चदमंडले ३, पण्णरसमे Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. ११ चन्द्रमार्गान्तरम् ३३५ चंदमंडले ४, तत्थ जेते चंदमंडला जे णं सया आइच्चेहि विरहिया तेणं पंच, तं जहा-छठे चंदमंडले १, सत्तमे चंदमंडले १, अट्ठमे चंदमंडले ३, नवमे चंदमंडले ४, दसमे चंदमंडले ५, ॥सूत्र २॥ "दसमस्स पाहुडस्स एगारसमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥१०-११॥ छाया तावत् कतिखल्लु ते चन्द्रमण्डलानि आख्यातानि ? इति वदेत्, तावत्पञ्चदश चन्द्रमण्डलानि आख्यातानि इतिवदेत् । तावत् एतेषां खलु पञ्चदशानां चन्द्रमण्डलानां सन्ति चन्द्रमण्डलानि यानि खलु सदा नक्षत्रैरविरहितानि । सन्ति चन्द्रमण्डलानि यानि खलु सदा तक्षविरहितानि २ । सन्ति चन्द्रमण्डानि यानि खलु रवि शशि नक्षत्राणां सामान्यानि भवन्ति ३। सन्ति चन्द्रमण्डलानि यानि खलु सदा अदित्याभ्यां विरहितानि ४। तावत् एतेषां खलु पञ्चदशानां चन्द्रमण्डलानां कतमानि चन्द्रमण्डलानि यानि खलु सदा नक्षत्रैः विरहितानि ? यावत् कतमानि चन्द्रमण्डलानि यानि खलु सदा आदित्याभ्यां विरहितानि ? तावत् एतेषां खलु पञ्चदशानां चन्द्रमण्डलानां तत्र यानि तानि चन्द्रमण्डलानि यानि खलु नक्षत्रैः अविरहितानि तानि खलु अष्ट, तद्यथा-प्रथम चन्द्रमण्डलम् १ तृतीय चन्द्रमण्ड लम् , २ पष्ठं चन्द्रमण्डलम् ३, सप्तमं चन्द्रमण्डलम् ४, अष्टम चन्द्रमण्डलम् ५, दशमं चन्द्रमण्डलम् ६, एकादशं चन्द्रमण्डलम् ७, पञ्चदश चन्द्रमण्डलम् ८॥ १, तत्र यानि तानि चन्द्रमण्डलानि यानि खलु सदा नक्षत्रैः विरहितानि तानि खलु सप्त, तद्यथा-द्वितीयं चन्द्रमण्डलम् १, चतुर्थ चन्द्रमण्डलम् २, पञ्चमं चन्द्रमण्डलम् ३, नवमं चन्द्रमण्डलम् ४, द्वादशं चन्द्रमण्डलम् ५, त्रयोदशं चन्द्रमण्डलम् ६, चतुर्दशं चन्द्रमण्डलम् ७।२॥ तत्र यानि तानि चन्द्रमण्डलानि यानि खलु शशि-रवि नक्षत्राणां सामान्यानि भवन्ति तानि खलु चत्वारि, तद्यथा प्रथम चन्द्रमण्डलम् १, द्वितीयं चन्द्रमण्डलम् २, एकादशं चन्द्रमण्डलम् ३, पञ्चदशं चन्द्रमण्डलम् ४, ३॥ तत्र यानि तानि चन्द्रमण्डलानि यानि खलु सदा आदित्याभ्यां विरहितानि तानि खलु पञ्च, तद्यथा-पष्ठं चन्द्रमण्डलम् १, सप्तमं चन्द्रमण्डलम् २, अष्टमं चन्द्रमण्डलम् ३, नवमं चन्द्रमण्डलम् ४, दशमं चन्द्रमण्डलम् ५ ४ासू० २॥ दशमस्य प्राभृतस्य एकादश प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१०-११॥ ___ व्याख्या-गौतमः पृच्छति 'ता कइणं ते चंदमंडला' इति 'ता' तावत् 'कइ णं' कति खलु कियन्ति खल 'ते' ते त्वया 'चंदमंडला' चन्द्रमण्डलानि 'आहिया' आख्यातानि कथितानि 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् ! । भगवानाह 'ता' तावत् 'पण्णरस' पञ्चदश पञ्चदशसंख्यकानि 'चंदमंडला' चन्द्रमण्डलानि 'आहिया' आख्यातानि मया कथितानि 'ति' इति एवं प्रकारेण 'वएज्जा' वदेत् कथयेत् स्वशिष्येभ्य इति । तत्र पञ्च चन्द्रमण्डलानि जम्बूद्वोपे सन्ति शेषाणि च दशमण्डलानि लवणसमुद्रे सन्ति । उक्तञ्च जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे. जंबूद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइयं ओगाहित्ता केवइया चंदमंडला पण्णत्ता ? गोयमा ! जंबू दीवेणं दीवे असीयं जोयणसयं ओगाहित्वा एत्थ ण चंदमंडला पण्णता । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्र लवणेणं भंते समुद्दे केवइयं ओगाहित्ता केवड्या चंदमंडला पण्णत्ता ? गोयमा ! लवणे णं साहे तिणि तीसाई जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ णं दस चंदमंडला पण्णत्ता एवामेव सपुव्वावरेणं जम्बूद्दीवे लवणे य पण्णरस चंदमंडला भवंतीति अक्खायं ।। छाया--जम्बूद्वीपे खल भदन्त ! द्वीपे कियत्कं (क्षेत्र) अवगाह्य कियन्ति चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि ४ गौतम ! जम्बूद्वीपे खल द्वीपे अशोतं (अशीयविकं ) योजनशतम् अवगाह्य अत्र, खलु पञ्च चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञतानि । लवणे खलु भदन्त! समुद्रे कियत्कं (क्षेत्रं ) अवगाद्य कियन्ति चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञमानि ? गौतम ! लवणे खलु समुद्रे त्रीणि त्रिंशत् योजनशतानि अवगाह्य अत्र खलु दश चन्द्रमण्डलानि प्रजातानि । एवमेव सपूर्वापरण जम्बूद्वीपे लवणे च पञ्चदश चन्द्रमण्डलानि भवन्तीति आख्यातम् ॥ अस्य व्याख्या जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिमूत्रस्य मत्कृतायां.. .....याख्यायां विलोकनीयेति । अथ भगवान् चन्द्रमण्डलानां नक्षत्रादिना सह योगं प्रदर्शयति-ता एएसि णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां खलु 'पण्णरसण्ह' पञ्चदशानां 'चंदमंडलाण' चन्द्रमण्डलानां मध्ये 'अस्थि त्ति, सन्ति एतादृशानि 'चंदमंडला' चन्द्रमण्डलानि 'जे णं' यानि खलु 'सया' सदा सर्वकालं 'णक्खत्तेहि' नक्षत्रैः 'अविरहिया' अविरहितानि युक्तानि तिष्ठन्ति ! 'अस्थि सन्ति कियन्ति एतादृशानि 'चंदमंडला' चन्द्रमण्डलानि 'जेणं' यानि खल्लु 'सया' सदा सर्वकालं 'णक्खत्तेहि नक्षत्रैः 'विरहिया' विरहितानि नक्षत्रयोगवर्जितानि तिष्ठन्ति २। 'अस्थि' सन्ति कियन्ति 'चंदमंडला' चन्द्रमण्डलानि 'जेणं' यानि खलु 'रविससि नक्खत्ताणं रविशशिनक्षत्राणां रविशशिनक्षत्राण्याश्रित्य 'सामण्णा' सामान्यानि सर्वसाधारणानि तिष्ठन्ति, येपु चन्द्रमण्डलेपु रविरपि गच्छति शश्यपि गच्छति नक्षत्राण्यपि गच्छन्तित्यतः सूर्यचन्द्रनक्षत्रेति सर्वेषामपि भोग्यानीति भावः ३ । 'अस्थि' सन्ति क्रियन्ति एतादृशानि 'चंदमंडला' चन्द्रमण्डलानि 'जे णं' यानि खलु 'सया' सदा सर्वकालं 'आइच्चेहि' आदित्याभ्यां जम्बूद्वीपे सूर्यद्वयस्य सद्गावात् द्वाभ्यां सूर्याभ्यां 'विरहिया' विरहितानि सूर्याभोग्यानि तिष्ठन्ति न तेषु कदापि द्वावपि सूर्योचारं चरत इति भावः । ४ एवं भगवता सामान्येन प्रोक्ते सति गौतमः एकैकशश्चचन्द्रमण्डलविषये विशेषावबोधार्थ पुनः पृच्छति 'ता एएसि णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसिणं' ? एतेषां खेल 'पण्णरसण्इं पञ्चदशानां 'चंदमंडलाणं' चन्द्रमण्डलानां मध्ये 'कयरे' कतमानि कानि कियन्ति 'चंदमंडला' चन्द्रमण्डलानि सन्ति 'जेणं' यानि खलु 'सया' सदा 'णक्खत्तेहि नक्षत्रैः अविरहिया' अविरहितानि विरहरहितानि युक्तानीत्यर्थः तिष्ठन्ति ! ११ 'जाव' यावत्, अत्र यावत्पदेन पूर्व भगवता प्रोक्तमालापकद्वयमत्र वाच्यम्, तथाहि-कानि चन्द्रमण्डलानि सन्ति यानि सदा 'नक्षत्रविरहितानि नक्षत्रभोगवर्जितानि तिष्ठिन्ति २ । तथा कानि चन्द्रमण्डलानि सन्ति यानि Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. ११ चन्द्रसूर्यमण्डलमार्गतदन्तरंच ३३७ रविशशिनक्षत्राणां सामान्यानि सर्वसाधारणानि रविशशिनक्षत्रेति त्रयाणामपि भोग्यानि सन्ति ३। चतुर्थमालापकं सूत्रकार एव विशदयति–'कयरे' इत्यादि, एतेषां पञ्चदशानां चन्द्रमण्डलानां मव्ये 'कयरे' कतमानि कानि 'चदमंडला' चन्द्रमण्डलानि 'जे णं' यानि खलु 'सया' सदा 'आइच्चेहिं आदित्याभ्यां 'विरहिया' विहितानि सूर्यद्वययोगरहितानि तिष्ठन्ति ! । इति गौतमेन पृष्ठे सात भगवान् चतुरोऽपि प्रश्नान् एकैकशः कृत्वा 'समाधत्ते-'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतासा खलु 'पण्णरसण्हं' पञ्चदशानां 'चंदमंडलाणं' चन्द्रमण्डलानां, 'तत्थ' तत्र तेपा मध्ये 'जे ते चदमंडला' यानि तानि चन्द्रमण्डलानि 'जे णं' यानि खल 'सया' सदा सर्व कालं ‘णक्खत्तेहिं अविरहिया' नक्षत्रैः अविरहितानि नक्षत्रयोगयुक्तानीत्यर्थः सन्ति 'तेणं अह' तानि खलु अष्ठ, 'तं जहा' तद्यथा-तानीमानि 'पढमे चंदमंडले' प्रथमं चन्द्रमण्डलम् १, 'तइए चंदमंडले' तृतीयं चन्द्रमण्डलम् २, 'छठे चंदमंडले पष्ठं चन्द्रमण्डलम् ३, 'सत्तमे चंदमंडले' 'सप्तमं चन्द्रमण्डलम् ४, 'अट्ठमे चंदमंडले' अष्टमं चन्द्रमण्डलम् ५, 'दसमे चंदमंडले' दशमं चन्द्रमण्डलम् ६, 'एगारसे चंदमंडले' एकादशं चन्द्रमण्डलम् ७, 'पण्णरसे चंदमंडले' पञ्चदशं चन्द्रमण्डलम् ८ । एपामष्टानां चन्द्रमण्डलानां मव्ये कस्मिन् मण्डले कति २ नक्षत्राणि भवन्तीति प्रीते-एपामष्टानां चन्द्रमण्डलानां मध्ये प्रथमे चन्द्रमण्डले द्वादश नक्षत्राणि भवन्ति, तथाहि-अभिजित् १, श्रवणः२, धनिष्ठा ३, शतभिषक ४, पूर्वाभाद्रपदा ५, उत्तराभाद्रपदा ६, रेवती ७, अश्विनी ८, भरणी ९, पूर्वाफाल्गुनी १०, उत्तराफाल्गुनी ११, स्वातिः १२, ॥ उक्तञ्च "अभिई १, सवण २, धणिहा ३, सयभिसया ४, दो य होंति भदवया ६ । रेवइ ७, अस्सिणी ८, भरणी ९ दो फग्गुणी ११, साइ १२ पढमंमि ॥१॥ छाया-स्पष्टैवेति ।। तृतीये चन्द्रमण्डले पुनर्वसुर्मघा चेति द्वे नक्षत्रे २, षष्ठे एकैव कृत्तिका ३, सप्तमे रोहिणी चित्रा चेति द्वे नक्षत्रे ४, अष्टमे एका विशाखा ५, दशमे अनुराधा ६, एकादशे ज्येष्ठा ७, पञ्चदशे चाष्टौ नक्षत्राणि भवन्ति तथाहि-मृगशिरः १, आर्द्रा २, पुष्यः ३, अश्लेषा ४, हस्तः ५, मूलम् ६, पूर्वापाढा ७, उत्तराषाढा ८, चेति, ऐषु आद्यानि षड्नक्षत्राणि पञ्चदशस्य मण्डलस्य, यद्यपि बहिश्चारं चरन्ति तथापि तत्प्रत्यासन्नवर्तित्वात्तानि तत्र गणितानीति न कश्चि दोष इति, एवमेतान्यष्ट चन्द्रमण्डलानि सदैव नक्षत्रै रविरहितानि युक्तानि तिष्ठन्तीति ।। 'तत्थ' तत्र पञ्चदशसु चन्द्रमण्डलेपु मध्ये 'जे ते चंदमंडला' यानि तानि चन्द्रमण्डलानि सन्ति तेषु 'जे णं'यानि खलु 'सया'सदा सर्वकालं ‘णक्खत्तेहि विरहिया' नक्षत्रै विरहितानि नक्षत्रयोगवर्जितानि येषु कदाप्येकमपि नक्षत्रं योगं न युनक्ति तादृशानि 'ते ण' तानि खलु 'सत्त' Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्र प्रज्ञप्तिसूत्रे ३३८ सप्त सन्ति, 'तं जहा' तद्यथा तानि यथा - 'वितिए चंदमंडले' द्वितीयं चन्द्रमण्डलम् ' 'चउत्थे चंदमंडले' चतुर्थे चन्द्रमण्डलम् २, 'पंचमे चंदमंडले' पञ्चमं चन्द्रमण्डलम् ३, 'नवमे चंदमंडले' नवमं चन्द्रमण्डलम् ४, 'वारसमे चंदमंडले' द्वादशं चन्द्रमण्डम् ५, 'तेरसमे चंदमंडले' त्रयोदगं चन्द्रमण्डलम् ६, 'चउसमे चंदमंडले' चतुर्दशं चन्द्रमण्डलम् ७, |२| 'तत्थ' तत्र पञ्चदशसु चन्द्रमण्डलेषु 'जे ते चंदमडला' यानि तानि चन्द्रमण्डलानि सन्ति तेषु ' जेणं' यानि खल 'ससिरवि नक्खत्ताणं' शगिरवि नक्षत्राणां कृते 'सामण्णा' सामान्यानि सर्वसाधारणानि सर्वेषां चारयोग्यानि 'भवंति' सन्ति ' ते णं' तानी खल 'चत्तारि' चत्वारि ' 'तं जहा ' तद्यथा — तानीमानि - 'पढमे चंदमंडले' प्रथमं चन्द्रमण्डलम् १, 'वीए चंदमंडले' द्वितीयं चन्द्रमण्डलम् २, 'इक्कारसमे चंदमंडले' एकादशं चन्द्रमण्डलम् ३, 'पण्णरसमे चंदमंडले' पञ्चदशं चन्द्रमण्डलम् ४ | ३ | तथा - 'तत्थ' तत्र तेषु पश्चदशसु चन्द्रमण्डलेषु 'जे ते चंदमंडला' यानितानि चन्द्रमण्डलानि सन्ति तेषु 'जे णं' यानि खल्ल 'सया' सदा सर्वकालं दिवसे रात्रौवा 'आइच्येहि विरहिया' आदित्याम्या सूर्याभ्यां विरहितानि सूर्यमण्डलस्पर्शवर्जितानि 'तेणं' तानि खलु पञ्च' पञ्च, 'तं जहा ' तद्यथा तान यथा- 'छडे चंदमंडले' पष्ठं चन्द्रमण्डलम् १, 'सत्तमे चंदमंडले' सप्तमं चन्द्रमण्डलम् २, 'अट्टमे चंद मंडले' अष्टमं चन्द्रमण्डलम् ३, 'नवमे चंदमंडले' नवमं चन्द्रमण्डलम् ४, 'दसमे चंदमंडले' दशमं चन्द्रमण्डलम् ५, इति । अत्रैवं गम्यते यत्–यानि एकतः पञ्च पर्यन्तानि पञ्च १ - २ - ३ - ४ - ५ ) चन्द्रमण्डलानि सर्वाभ्यन्तराणि, तथा यानि च - एकादशत आरभ्य पञ्चदशपर्यन्तानि पञ्च (११-१२ -१३-१४-१५) चन्द्रमण्डलानि सर्ववाद्यानीत्येतानि दश चन्द्रमण्डलानि सूर्यस्यापि साधारणानि सूर्यस्यापि चारयोग्यानि सन्ति येषु सूर्योऽपि चारं चरति । शेषाणि पष्ठत आरभ्य दशपर्यन्तानि ६–७–८–९~१० पञ्च चंद्रमण्डलानि चन्द्रस्यैवासाधारणानि यतस्तत्र चन्द्र एव चारं चरति नतु कदाचिदपि सूर्य इति, उक्तञ्च " दसचेव मंडलाई, अभिंतरवाहिरा रवि ससीणं । सामण्णाणि उ नियमा, पत्तेया होंति सेसाणि ॥ १ ॥ छाया - दश चैव मण्डलानि आभ्यन्तर - वाह्यानि रविशशिनोः । सामान्यानि तु नियमात् प्रत्येकानि भवन्ति शेषाणि ॥ १ ॥ अर्थः स्पष्टः नवरं प्रत्येकानि - एकमेकं प्रति प्रत्येकम्, तानि प्रत्येकानि - चन्द्रस्य असा - धारणानि, चन्द्रस्यैव भोग्यानि न तु कदाचिदपि सूर्यस्य । तेषु कदाचिदपि सूर्यो न गच्छतीति भावः । अत्र किम् चन्द्रमण्डलं कियता सूर्यमण्डलेन न स्पृश्यते ? तथा चन्द्रमण्डलस्यापान्तराळे Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा०मा ११ चन्द्रसूर्यमण्डलमार्गतदन्तरंच कियन्ति सूर्यमण्डलानि भवन्ति तथा पष्ठमण्डलादारभ्य दशमण्डलपर्यन्तानि पञ्च (६-७-८१०) चन्द्रमण्डलानि कथं सूर्याभ्यां न स्पृश्यन्ते ? इति तद्विभाग उपदर्श्यते- -तत्र प्रथममेतद्विभागप्रदर्शनार्थं सूर्यस्य विकम्पक्षेत्रकाष्ठा प्ररूप्यते विकम्प इति शनैः शनै संचरणरूपा गतिरिति । अत्र सूर्यस्य विकम्पक्षेत्रकाष्ठा, काष्ठेति विकम्पक्षेत्रस्य उत्कृष्ठं परिमाणमिति, सा च दशोत्तराणि पञ्च योजनशतानि (५१० ) । तथाहि--यदि सूर्यस्य एकेनाहोरात्रेण विकम्पो द्वे योजने, एकस्य च योजनस्य अष्टचत्वा रिंशदेकषष्टिभागाः (२–० लभ्यन्ते तदा त्र्यशीत्यधिकशता (१८३) होरात्रैः कति योजनानि त्रैराशिकं गणितं क्रियते, तत्र राशित्रयं स्थाप्यते - १८३ । अत्रान्त्यराशिना ६१ लभ्यन्ते ? इति ४८ ६१ मध्यराशिर्गुण्यते ततो मध्यराशिगतयोजनद्वयस्य सवर्णनार्थम् (एकपष्टि भागकरणार्थम्) द्वे योजने एकपटया गुण्येते जातं द्वाविंशत्यधिकमेकं शतम् (१२२) जाता एते एकषष्टिभागाः, एषु ये अष्टचत्वारिंशदेकपष्टिभागा स्थितास्ते प्रक्षिप्यन्ते जातं सप्तत्यधिकमेकं शतम् ( १७० ) संजात एप गुण्यराशिरन्त्येन त्र्यशीत्यधिकशत (१८३ ) संख्यकराशिना गुण्यते जातानि दशोत्तरशताधिकानि एकत्रिंशत्सहस्राणि (३१११० ) । एते एकषष्टिभागाः सन्ति, एषां योज - नानयनार्थमेकपष्ट्या भागो हियते, लब्धानि दशोत्तराणि पञ्चशतयोजनानि ( ५१० ) एता - वती त्र्यशीत्यधिकशताहोरात्रः सूर्यस्य विकम्पक्षेत्रकाष्ठा । एप दशोत्तर पञ्चशत योजनपरिमितः सूर्यस्य त्र्यशीत्यधिकशतमण्डलपरिभ्रमणमार्गः, नातोऽधिकमित्यतो विकम्पक्षेत्रकाष्ठेत्युच्यते । अथ चन्द्रस्य विकम्पक्षेत्रकाष्ठा प्रदर्श्यते चन्द्रस्य विकम्पक्षेत्रकाष्ठा नवाधिकपञ्चशतयोजनानि एकस्य च योजनस्य त्रिपञ्चाशदेकपष्टिभागाः (५०९ ५३ ) । ततो यदि चन्द्रमसो विकम्पः एके ६१ नाहोरात्रेण पट् त्रिंशद्योजनानि, एकस्य च योजनस्य पञ्चविंशति रेकषष्टिभागाः एकस्य चक षष्ठि भागस्य चत्वारः सप्तभागाः ३६ लभ्यन्ते तदा चतुर्दशभिरहोरात्रैः कतिभागा लभ्यन्ते ± ६१७ ५ ४ अत्रापि राशित्रयात्मकं गणितं भवति ततो राशित्रयस्थापना क्रियते सा चेत्थम् ३६ २५ ६१ ३३९ - १1१४ ४ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे अत्र सवर्णनाथं--प्रथमं मध्यराशिगत पट् त्रिंशद् योजनानामेकपष्टिभागकरणार्थ पट् त्रिंशद् योजनरागिरेकपष्टया गुण्यते जातानि पण्णवत्यधिकानि एकविशतिशतानि (२१९६) एपु पञ्चविंशतिरेकपष्टिभागाः क्षिप्यन्ते जातानि (२२२१) एप राशिः सप्तभागकरणार्थ सप्तभिर्गुण्यते, जातानि पञ्चदशसहस्राणि पञ्चशतानि एकविंशत्याधिक द्वाविंशतिशतानि सप्तचत्वारिशदधिकानि (१५५४७) एपु च चत्वारः सप्तभागाः प्रक्षिप्यन्ते, ततो जातानि पञ्चदशसहस्राणि एक पञ्चाशदधिकानि पञ्चशतानि (१५५५१) जाता एप सप्तभागराशिः तताच योजनानयनार्थमेकपष्टिलक्षण छेदराशिरपि सप्तभिर्गुण्यते, जातानि सप्तविंशत्यधिकानि चत्वारिशतानि (४२७) एपश्छेदराशिः तत उपरि निष्पादित सप्तभाग राशिः (१५५५१) चतुर्दशरूपेणान्त्यराशिना गुण्यते, जातानि-द्व लक्षे चतुर्दशाधिक सप्तगतोत्तराणि सप्तदशसहस्राणि च (२.१७७१४) जात एपश्छेद्यराशिः अस्य छेदकराशिना सप्तविंशत्यधिक चतुःगत (४२७) रूपेण भागो हार्यः, ततो भागसरलाथै छेद्यछेदकराश्योः सप्तभिरपवर्तना क्रियते द्वयोराश्योः सप्तभिर्भागो हियते इत्यर्थः । ततः पूर्व छेदराशेः (४२७) सप्तभिरपवर्तना करणाज्जाता एकपष्टि ६१ । ततश्छेद्यराशे (२१७-७१४) सप्तभिरपवर्तना करणाज्जात एप राशिः द्वयधिकशतोत्तराणि एकत्रिशत्सहस्राणि (३११०२) । अस्याऽपवर्तनासंपन्नेन एकपष्टिरूपेण छेदराशिना भागो हियने, लब्धानि नवोत्तराणि पञ्चशतयोजनानि, शेपा एकस्य च योजनस्य त्रिपश्चाशदेकपष्टिभागाः (५०९ । ५२प्राप्त एतावती चन्द्रमसो विकम्पक्षेत्रकाष्ठा । अथवाऽपवर्तनाया अकरणे एपा रीतिः' ६१ ६१ तथाहि छेद्यराशेः (२१७७१४) छेदराशिना सप्तविंशत्यधिक चतुःशत (४२७) रूपेण भागो, हृते लभ्यन्ते नवोत्तराणि पञ्चशतानि (५०९), स्थितानि शेपाणि एक सप्तत्यधिकानि त्रीणि शतानि (३७१) एनं राशिमेकपष्टिभागानयनार्थमेकपष्टया गुणयित्वा पुनः सप्तविशत्यधिकचतुःशत(४२७) रूपेण छेदराशिना भागो हरणीयः तेन लब्धाः त्रिपञ्चाशद् एक पप्टिभागाः ततः समा. गत पूर्वोक्तं योजनप्रमाण ५०९५३ ) चन्द्रमसो विकम्पक्षेत्रकाष्ठाया इति । अथ योर्द्वयोः सूर्यमण्डलयो योश्च चन्द्रमण्डलयोः परस्परमन्तरं प्रदर्श्यते, तथाहि-एक स्य सूर्यमण्डलस्य द्वितीयस्य सूर्यमण्डलस्य च परस्परमन्तरं दे द्वे योजने भवतः । एवं एकस्य चन्द्रमण्डलस्य द्वीतीयस्य चद्रमण्डलस्य च परस्परमन्तरं पञ्चत्रिंशद् योजनानि, एकस्य च योजनस्य त्रिंशद् एकपष्टिभागाः, एकस्य च एकपष्टिभागस्य चत्वारः सातभागाः, एतत्परिमितं भवति उक्तञ्च जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ती ___ "सूरमंडलस्स णं भंते सूरमंडलस्स एस णं केवइए अवाहाए अंतरे पण्णत्ते ! गोयमा दो जोयणाई सूरमंडलस्स अवाहाए अंतरे पण्णत्ते" तथा-चंदमंडलस्स Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा प्रा. ११ चन्द्रसूर्यमण्डलमार्गतदन्तरंच ३४१ णं भंते ! चंदमंडलस्स एस णं केवइए अवाहाए अंतरे पण्णत्ते ! गोयमा ! पणतीसंजोयणाइं तीसं च एगद्विभागा जोयणस्स, एगंच एगसहिभागं सत्तहा छिता चत्तारि य चुण्णिया भागा ऐसा चंदमंडलस्स अवाहाए अंतरे पण्णत्ते" छाया-सुरमण्डलस्य खलु भदन्त ! सूरमण्डलस्य एतत् खल्ल कियत्कम् अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् ! गौतम ! द्वे योजने सूरमण्डलस्य सूरमण्डलस्य अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् । तथा-चन्द्रमण्डलस्य खलु भदन्त ! चन्द्रमण्डलस्य एतत् खल कियत्कं अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् गौतम् ! पञ्चत्रिंशत् योजनानि, त्रिंशच्च एकपष्टिभागा योजनस्य, एकं च एकषष्टिभागं सप्तधा छित्वा चत्वारश्च चूर्णिका भागा शेषाः३५-३०/- चू ) तदेतत् चन्द्रमण्डलस्य ६१/७ अवाधया अंतरं प्रज्ञप्तम् ।। एतत् सूर्यमण्डलस्य चन्द्रमण्डलस्य चान्तरं प्रोक्तं तत् स्वस्वमण्डलविष्कम्भपरिमाणेन युक्ते कृते सूर्यस्य-चन्द्रस्य च विष्कम्पपरिमाणमायाति । उक्तञ्च सरविकंपो एक्को, समंडलाहोइ मंडलंतरिया । चंदविकंपो य तहा, समंडला मंडलंतरिया ॥२॥ अस्याः काचिदक्षरगमनिका क्रियते-'सूरविकंपो' इत्यादि, मंडलंतरिया मण्डलान्तरिका मण्डलस्य मण्डलस्य च अन्तरं 'समंडला' समण्डला मण्डलेन सहिता, अत्र मण्डलशब्देन मण्डलविष्कम्भो गृह्यते, तेन समण्डलिका मण्डलविष्कम्भसहिता, पूर्वोक्तमन्तरं सूर्यमण्डलविष्कम्भयुक्तं भवति तदेव 'एक्को सूरविकंपो एक सूर्यविक्रम्पो भवति सूर्यस्य विकम्पक्षेत्रपरिमाणं भवतीति भावः। 'तहा य' तथैव सूर्य विकम्पवदेव मण्डलान्तरं मण्डलविष्कम्भयुक्तं कुर्यात् तत् चन्द्रविकम्पक्षेत्रं भवतीति । तथाहि-एकं सूर्यमण्डलस्यान्तरं द्वे योजने, इति पूर्व प्रदर्शितम् । सूर्यमण्डलविष्कम्भश्च-अष्टचत्वारिंशदेकपष्टिभागाः (१) । ततो द्वयोर्मेलने जातमेकस्य सूर्यमण्डस्य विकम्पपरिमाणम् । योजने, एकस्य च योजनस्य अष्टचत्वारिंशद् एकषष्टिभागाः-२-१८) एतत् सूर्यमण्डलस्य विकम्पपरिमाणम् । एवं चन्द्रमण्डलान्तरं पञ्चत्रिंशत् योजनानि, एकस्य च योजनस्य त्रिंशद् एक षष्टिभागाः, एकस्य चैकषष्टिभागस्य च चत्वारः सप्तभागाः ये चूर्णिकाभागाः कथ्यन्ते तस्मिन् चन्द्रमण्डलान्तरे चन्द्रमण्डलविष्कम्भपरिमाणेन Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रनप्तिसूत्रे सहिते कृते एकश्चन्द्रविकम्पो भवतीति । अथ विकम्पक्षेत्रज्ञानार्थमुक्तञ्च सगमंडलेहि लद्धं सगकट्ठाओ हवंति सविकंपा । जे सगविक्खमजुया, हवंति सगमंडलंतरिया ॥१॥" संक्षेपतो व्याख्या-'जे' ये चन्द्रस्य सूर्यस्य वा विकम्पाः, कीदृशास्ते ? 'सगविक्खंभजुया' स्वकविष्कम्भयुताः 'सगमंडलंतरिया' रवकमण्डलान्तरिकाः, स्व स्व मण्डलविष्कम्पपरिमाणसहितानि स्व स्व मण्डलान्तराणि भवन्ति तानि तत्प्रमाणाः 'सगकट्ठाओ' स्वककाष्ठायाः-स्व स्व विकम्पयोग्यक्षेत्रपरिमाणस्य 'सगमंडलेहि' स्वकमण्डलैः स्व स्व मण्डलसंख्यया भागो हृते 'लद्ध' यत् लब्धं या संख्या लभ्यते तत्प्रमाणाः 'सविकंपा' स्व स्व विकम्पाः स्व स्व विकम्पक्षेत्रपरिमाणानि 'हवंति' भवन्ति ॥१॥ तदेव दर्श्यते-सूर्यस्य विकम्पक्षेत्रकाष्ठा दशोत्तरपञ्चशतयोजनानि (५१०) एपा मेकपष्टिभागाः करणीया अत एप राशि रेकपष्टया गुण्यते जातानि दशोत्तरशताधिकानि एकत्रिंशत्सहस्राणि (३१११०) एष भाज्यराशिर्जातः अथ भाजकराशिः क्रियते विकम्पक्षेत्रे सूर्यमण्डलानि च त्र्यशीत्यधिकमेकं शतं (१८३) । एतदप्येकपष्टया गुण्यते जातानि त्रिषष्ठ्यधिकशत्तोत्तराणि एकादश सहस्राणि (१११६३), एष भाजकराशिर्जातस्ततोऽनेन भाजकराशिना पूर्वस्य भाज्यराशेः (३१११०) भागो हियते.लब्धे द्वे योजने (२), स्थितानि शेपाणि चतुरशीत्य धिकानि सप्ताशीतिशतानि (८७८४) अस्य न्यूनत्त्वाद्भागो न हियतेऽत एक षष्ठिभागा आनेतव्या अत एकपष्टया गुणनात् पूर्व यो भाजकराशिः त्र्यशीत्यधिकशत १८३ रूपस्तेन भागो हरणीयः हृते च भागो लब्धा अष्टचत्वारिंशदेकपष्टिभागाः ४८ परिपूर्णाः ततो वे योजने, एकस्य च योजनस्य अष्टचत्वारिंशदेकपष्टिभागा (२४८ )एतद्-एकैकस्य सूर्यस्य एकैकाहोरात्रमाश्रित्य विकम्पक्षेत्रमापातमिति । तदेवमुक्तमेकैकसूर्यस्य एकैकाहोरात्रमाश्रित्य विकम्पक्षेत्रम् । अथ चन्द्रस्य तदेव विकम्पक्षेत्रं प्रदर्श्यते-तत्र चन्द्रस्य विक्रम्पक्षेत्रकाष्ठा नवोत्तरपञ्चशतयोजनानि, त्रिपञ्चाशदेकपष्टिभागाः (५०९५३) । एतत् पूर्व प्रदर्शिमेव । अथ एकषष्टिभागानयनार्थ पूर्व योजनानि नवोत्तर पञ्चशतानि (५०९) एकपष्टया गुण्यन्ते जातानि एकोनपञ्चाशदधिकानि एकत्रिंशत्सहस्रयोजनानि (३१०४९) तत एपु ये उपरितनाः त्रिपञ्चाशदेकषष्टिभागाः सन्ति ते प्रक्षिप्यन्ते जातानि द्वयुत्तरशताधिकानि एकत्रिंशत्सहस्रयोजनानि (३११०२), चन्द्रस्य विक्रम्पक्षेत्रे चतुर्दश मण्डलानि १४ सन्ति तत एकपष्टिगुणित विकम्पक्षेत्रकाष्ठाराशेर्भागहरणार्थ मण्डलान्यपि एकषष्टया गुण्यन्ते ततश्चतुर्दश एकपष्टया गुण्यन्ते जातानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि अष्टशतानि (८५४) अनेन पूर्वराशे (३११०२) र्भागो हियते लब्धानि पट् त्रिंशद् योजनानि (३६), तिष्ठन्ति शेषाणि अष्टपञ्चाशदधिकानि त्रीणि शतानि (३५८) तत एकपष्टया गुणनात् पूर्व यो मण्डलसंख्यारूपो Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१७ चन्द्रप्राप्तिकाशिका टीका प्रा. १० प्रा प्रा. ११ चन्द्रसूर्यमण्डलमार्गतदन्तरंच ३४३ भाजकराशि श्चतुर्दशरूपः १४, तेन शेषाङ्कानां (३५८) भागो हिएते लब्धा पञ्चविंशतिरेकषष्टिभागाः (२५) पुनः शेषास्तिष्ठन्ति अष्टो, एते सप्तभागकरणाथै सप्तभि र्गुण्यन्ते जाताः षट् पञ्चाशत् (५६), एषां चतुर्दशमि भांगे हृते लब्धाश्चत्वारः सप्त भागाः ४ परिपूर्णाः (३६ । एतावत्प्रमाण एकैकस्य चन्द्रस्यैकैकाहोरात्रमाश्रित्य विकम्प इति । ___ तदेवं चन्द्रसूर्ययो विकम्पक्षेत्रकाष्ठा प्रदर्शिता, तथा चन्द्रमण्डलानां सूर्यमण्डलानां च परस्परमन्तरमपि चोक्तम् ॥ अथ पूर्व यदुक्तम् कियन्ति चन्द्रमण्डलस्यापान्तराले सूर्यमण्डलानि ?' इति तद्विषयकप्रस्तुतप्रकरणं प्रस्तूयते-तत्र सर्वाभ्यन्तरे चन्द्रमण्डले सर्वाभ्यन्तरं सूर्यमण्डलं सर्वात्मना प्रविष्टं भवति तत्र-चन्द्रमण्डलस्य केवलमष्टावेव एक पष्टिभागाः बहिरवशिष्टास्तिष्ठन्ति, चन्द्रमण्डलात् सूर्यमण्डलस्य अष्टैकपष्टिभागैीनत्वात् , ततो द्वितीयस्माच्चन्द्रमण्डलाद् अर्वाग् अपान्तराले द्वादशसूर्यमार्गा भवन्ति । कथमेतदिति गणितेन प्रदर्श्यते तथाहि-द्वयोश्चन्द्रमण्डलयोरन्तरं पञ्चत्रिंशद् योजनानि एकस्यच योजनस्य त्रिंगच्चैकषष्टिभागाः, एकस्य चैकपष्टिभागस्य सबन्धिनश्चत्वारः सप्तभागाः (३५३० )इति पूर्व प्रदर्शितमेव तत्र पूर्व योजनानि एकषष्टिभागकरणाथै पञ्चत्रिंशदेकषष्टया गुण्यन्ते, जातानि पञ्चत्रिंशदधिकानि एकविशतिशतानि (२१३५), एते एकपष्टिभागा जाताः एषु त्रिंशदेकषष्टिभागा उपरितनाः प्रक्षिप्यन्ते जातानि पञ्चपष्टयधिकानि एकविंशतिशतानि (२१६५) स्थिता उपरितना एकस्यैकषष्टिभागस्य चत्वारः सप्तभागाः ( 2 ) ते तिष्टन्तु । अथ सूर्यस्य विकम्पो द्वे योजने एकस्य च योजनस्य अष्टचत्वा रिंशदेकषष्टिभागाः: (२३८) तत पूर्व योजनद्वयमेकपट्या गुण्यते जातं द्वाविंशत्यधिकमेकं शतम् (१२२), तत एखूपरितना योजनस्याष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते जातं सप्तत्यधिकमेकशतम् (१७०), अनेन पञ्चषष्टयधिकैकविंशतिशतानां (२१६५) भागो ह्रियते लब्धा द्वादश, एते द्वितीयचन्द्रमण्डलादगपान्तराले सूर्यमार्गा भवन्ति, अथ च शेषं यत् पञ्चविंशत्यधिकमेकं शतं तिष्ठति (१२५) तत एक पष्टिद्विगुणितेन द्वाविंशत्यधिकशतेन भागे हृते द्वे योजने लब्धे, एते द्वे योजने द्वादशस्य सूर्यमार्गस्योपरि द्वे योजने (२) शेपास्तिष्ठन्ति त्रयः एकषष्टिभागाः (२) एषु ये प्रथमे चन्द्रमण्डले सर्वात्मना सूर्यमण्डले प्रविष्टे सति ये शेषाः सूर्यमण्डलादधिका अष्टावेकषष्टिभागास्ते प्रक्षिप्यन्ते, जाता एकादश एकषष्टि भागाः (११), तत आगतम्-द्वाद । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे शात्सूर्यमार्गात् परतो द्वितीयस्माच्चन्द्रमण्डलादकू द्वे योजने, एकस्य च योजनस्य एकादशएकपष्टिभागाः, एकस्य च एकपष्टिभागस्य सम्बधिनश्चत्वारः सप्तभागाः (२---, तत्र योजनद्वयानन्तरं सूर्यमण्डलमस्ति अतो द्वितीयाच्चन्द्रमण्डलदर्वा . क् एकादश एकपष्टिभागान् एकस्यच एकपष्टिभागस्य सम्बन्धिनश्चतुरः सप्तभागान् यावत् सूर्यमण्डलमभ्यन्तरं प्रविष्टम् । ततः परं पत्रिंशदेकपष्टिभागाः, एकस्य च एकपष्टिभागस्य सम्बन्धिनस्त्रयः सप्तभागाः(२६-) एतावत्परिमितं सूर्यमण्डलं चन्द्रमण्डलसंमिश्रं वर्तते । ततः सूर्यमण्डलात् परत एकोनविंशतिमेकपष्टिभागान् एकस्य च एकपप्टिभागस्य चतुरः सप्तभागान (--) यावत् ७ ७ चन्द्रमण्डलं वहिर्वि निर्गतं भवति । तत परं पुनस्तृतीयाच्चन्द्रमण्डलादाक् पूर्वोक्तपरिमाणमन्तरम् तथाहि-पञ्चत्रिंशद् योजनानि एकस्य च योजनस्य त्रिंशद् एकपष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टि भार्गस्य सत्काश्चत्वारः सप्तभागाः(३५-३०-) एतत्परिमिते चान्तरे द्वादश सूर्यमार्गाः लभ्यन्ते उपरि च द्वे योजने, एकस्य च योजनस्य त्रयएकपष्टिभागाः, एकस्य च एकपष्टिभागस्य सम्बन्धिनश्चत्वारः सप्तभागः(२-३) सन्ति, अस्मिन् राशी ये प्रागुक्ता द्वितीयचन्द्रमण्डलस्य सम्बन्धिनः सूर्यमण्डलाद् बहिर्विनिर्गता एकस्य योजनस्य एकोनविंशतिरेकपष्टिभागाः, एकस्य च एकपष्टिभागस्य चत्वार सप्तभागाः, (१९४) ते प्रक्षिप्यन्ते (३-४ जाता, इमे) त्रयोविंशतिरेकपटिमागाः, एकस्य च एकपष्टिमागस्य सम्बन्धी एकः सप्तभागः(१३.५-) तत इदं निष्पन्नम् द्वितीयाच्च-द्रमण्डलात्परतो द्वादश सूर्यमार्गाः, अन्तिमाद् द्वादशात् सूर्यमार्गाच्च परतो योजन द्रयमतिक्रम्य सूर्यमण्डलं भवति, तच्च सूर्यमण्डलं तृतीयाच्चन्द्रमण्डलादत्रियोविंशतिमेकपष्टि भागान्, एकस्य च एकपष्टिभागस्य सम्बन्धिनः एक सप्तभाग(२३ यावत् अभ्यन्तरं प्रविष्टम् । ततो ये शेपाः सूर्यमण्डलस्य चतुर्विशतिरेकपष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य पढ़ ५७ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६११७ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा १० प्रा. प्रा. ११ चन्द्रसूर्यमण्डलमागतदन्तरंच ३४५ सप्तभागाः आसन् ते तृतीयचन्द्रमण्डलसम्मिश्रास्तिष्ठन्ति । ततस्तृतीयं चन्द्रमण्डलम् एकस्य योजन-' स्य एकत्रिंशतमैकषष्टिभागान्, एकस्य च एकप्टिभागस्य सत्कमेकं सप्तभागं यावत् सूर्यमण्डलाद् वहिर्विनिर्गतम् । ततः पुनरप्यायातं ययोक्तं चन्द्रमण्डलान्तरम् (३५-३ ) एतावदन्तरे च द्वादश सूर्यमार्गा लभ्यन्ते। अन्तिमस्य द्वादशस्य सूर्यमार्गस्योपरि द्वे योजनने एकस्य च योजनस्य त्रय एकपष्टि भागाः, एकस्य च एकपष्टिभागस्य सम्बन्धिन' चत्वारः सप्तभागाः (२-३१) ततोऽस्मिम् राशौ ये तृतीयमण्डलसम्बन्धिनः सूर्यमण्डलाद्वहिर्विनिर्गता एकस्य योजनस्य एकत्रिंशद् एकपष्टिभागाः, एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्क एकः सप्तभागः (३ ) ते प्रक्षिप्यन्ते, ततो जाता एकस्य योजनस्य चतुस्त्रिंशदेकपष्टिभागाः, एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्काः पञ्च सप्तभागाः(३४५) तत इदमायातं वस्तुतत्त्वम्-तृतीयस्माच्चन्द्रमण्डलात्परतो द्वादश सूर्यमार्गाः, द्वादशाच्च सूर्यमार्गान् परतो योजनद्वयेऽतिक्रान्ते सूर्यमण्डलं वर्त्तते, तच्च सूर्यमण्डलं चतुर्थाच्चन्द्रमण्डलादर्वाक् चतुस्त्रिंशतमेकषष्टिभागान्, एकस्य च एकषपष्टि भागस्य सत्कान पञ्चसप्तभागान् (8) यावत् अभ्यन्तरं प्रविष्टम् ततः शेषाः स्थिताः सूर्यमण्डलस्य त्रयोदश एकषष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सम्बन्धिनौ द्वौ सप्तभागी (१३ २) इति, एतावच्चतुर्थचन्द्रमण्ड नसम्मिश्रं जातम् ततश्चतुर्थस्य चन्द्रमण्डलस्य द्विचत्वारिं शदेकषष्टिभागाः एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काः पञ्च सप्तभागा (४३/-) सूर्यमण्डला दहिविनिर्गता भवन्ति ततः भूयोऽप्ययातं यथोक्तं (३५-३० , चन्द्रमण्डलान्तरपरिमाणम् । एतस्मिन्नन्तरे द्वादश सूर्यमार्गा लभ्यन्ते इति । अन्तिमस्य द्वादशस्य च सूर्यमार्गस्योपरि द्वे योजने, एकस्य च योजनस्य त्रय एकपष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सम्वन्धिनः पञ्च सप्तभागाः (२- ३ ४) । एषु च य आद्य चतुर्थ चन्द्रमण्डलस्य सूर्यमण्डलाद बहिर्वि Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे निर्गता योजनस्य द्वाचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः, ऐकस्य च एकपष्टिभागस्य सम्बन्धिनः पञ्चसप्त ते प्रक्षिप्यन्ते ततो जाता योजन द्वयोपरि पट् चत्वारिंशदेकपप्टिभागाः; एकस्य च एकषष्टिभागस्य सस्को द्वौ सप्तभागी (२-४६२) इति, ततो वस्तुत एवं ज्ञातव्यम्चतुर्थाच्चन्द्रमण्डलात् परतो द्वादश सूर्यमार्गाः सन्ति, तेपु द्वादशा सूर्यमार्गात् परतो वे योजने अतिक्रम्य सूर्यमण्डं वर्तते, तच्च सूर्यमण्डलं पञ्चमाच्चन्द्रमण्डलादर्वाक् पट् चत्वारिंशतमेकष्टिभांगीन् , एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्कौ द्वौ सप्तभागो (१६२ यावत् अभ्यन्तरं प्रविष्टम् । शेष सूर्यमण्डलस्य एकपष्टिभागः, एकस्य च एकपष्टिभागस्य पञ्च सप्तभागाः(१) इत्येतप्रमाण पञ्चमचन्द्रमण्डलसम्मिश्रं वर्तते । तस्य पञ्चमस्य चन्द्रमण्डलस्य चतुष्पञ्चाशदेकपष्टिभागाः, एकस्य च एकपष्टिभागस्य द्वौ सप्तभागौ(११२) इति सूर्य मण्डलाद्वहि विनिर्गतं वर्तते, तदेवं पञ्च सर्वाभ्यन्तराणि चन्द्रमण्डलानि सूर्यमण्डलसम्मिश्राणि भवन्ति । एवं चतुर्पु च चन्द्रमण्डलान्तरेपु प्रत्येकं द्वादश द्वादश सूर्यमार्गा भवन्तीति सिद्धम् । तदेवं पूर्व "दस चेव मंडलाई' इति गाथायामभ्यन्तराणि बाह्यानि च पञ्च पञ्चेति दशमण्डलानि रविशशिनोः सामान्यानि सन्तीति कथितम् , तेंपु यानि पञ्च सर्वाभ्यन्तराणि मण्डलानि सूर्यमण्डलसंमिश्राणि भवन्ति तानि प्रदर्शितानि, . अथ तत्रैव गाथायां "पत्तेया हौति सेसाणि" इत्युक्तं, तत्र शेपाणि पष्ठादारभ्य दशमपर्यन्तानि पञ्च मण्डलानि प्रत्येकानीति चन्द्रस्यैव गम्यानि न तु कदाचिदपि सूर्यस्य इति सूर्यमण्डला संस्पृष्टानि सन्तीति तान्यत्र प्रदान्ते-- __ पञ्चमाच्चन्द्रमण्डलात् परतो भूयः षष्ठं चन्द्रमण्डलमधिकृत्यान्तरं पञ्चत्रिंशद् योजनानि, एकस्य च योजनस्य त्रिंशदेकपप्टिभागाः एकस्य च एकषष्टिभागस्य सम्बन्धिन श्चत्वारः सप्तभागाः (३५२१) भवन्ति । तत्र च प्रथम मेकपष्टिभागकरणार्थ पञ्चत्रिंशत् एकपष्टया गुण्यन्ते जातानि पञ्चत्रिंशदधिकानि एकविंशतिगतानि (२१३५) । एपूपरितना ये त्रिंशदेकषष्टि भागास्ते प्रक्षिप्यन्ते जातानि पञ्चपष्टयधिकानि एकविंशतिशतानि (२१६५)। ततश्चैतेषु ये पञ्चमस्य चन्द्रमण्डलस्य सूर्यमण्डलाइहि निर्गताश्चतुष्पञ्चाशदेकपष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य संस्को द्वौ सप्तभागौ ( १२) इति ये साम्प्रतमेव पूर्वप्रदर्शितास्ते एकपष्टिभागाः (५४) Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ चन्द्रप्राप्तिकाशिका टीका प्रा. १० प्रा प्रा. ११ चन्द्रसूर्यमण्डलमार्गतदन्तरंच ३४७-~~ प्रक्षिप्यन्ते जातानि एकोनविंशत्यधिकानि द्वाविंशतिशतानि (२२१९) । अथ 'सूर्यस्य विकम्प:-17 दे योजने, अष्ट चत्वारिंशच्चैकषष्ठिभागाः (२८) तंत्रक पष्ठिभागानयनाथ द्वे योजने एकषष्टयाड गुण्येते जाता एकषष्टिभागा द्वाविशत्यधिकमेकं शतम् (१२२), तत एषु ये उपरितना अष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागास्ते प्रक्षिप्यन्ते जातं सप्तत्यधिकमेक गतम् (१७०)। अनेन एकोनविंशत्यधिक द्वाविशतिशत(२२१९) रूपस्य पूर्वराशेर्भागो हियते, लब्धास्त्रयोदश (१३) शेपास्तिष्ठन्ति नव ११, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काः पट सप्तभागाः(१ तत इदमायातम्-पञ्चमाच्चन्द्रमण्डलात्परतत्रयोदश सूर्यमार्गा. एषु त्रयोदशस्य च सूर्यमार्गस्योपरिपष्ठाच्चन्द्रमण्डलादर्वाक् अन्तरं योजनस्य नव एक पष्टिभागाः एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्काः . पट् सप्तभागा,, (1) भवन्ति, तत परत पष्ठ पद पञ्चाशदेकपष्टिभागात्मकं चन्द्रमण्लमायाति । ततः परं सूर्यमण्डलादर्वाक अन्तरं पट्पञ्चाशदेकपष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य एकः सप्तभागः ) अस्ति, तदनन्तरं सूर्यमण्डलं वर्त्तते, तस्माच्च परतः चतुरुत्तरमेकं शतमेकषष्टिभागाः; एकस्य च एकपष्टिभागस्य सम्बन्धी एकः सप्तभागः एतत्संख्यया हीनं यथोक्तपः रिमाणकं चन्द्रमण्डलान्तरं लभ्यते इति । तस्मात्सूर्य मण्डलात्परतोऽन्ये द्वादश सूर्यमार्गा लभ्यन्ते ततः' सर्व संमेलनेन तस्मिन्नप्यन्तरे त्रयोदश सूर्यमार्गाः सन्ति । तस्य च त्रयोदयस्यान्तिमस्य सूर्यमार्गस्योपरि सप्तमाच्चन्द्रमण्डलादर्वाक् अन्तरम् एकविशतिरेकपष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य श्रेय: । भवन्ति, ततः परमग्रे सप्तमं चन्द्रमण्डलमस्ति । तस्माच्च सप्तमाच्चन्द्रमण्डला, त्परतश्चतुश्चत्वारिंशता एकपष्टिभागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कौश्चतुर्भिःसप्तभोग -) सूर्यमण्डलं, ततो द्विनवतिसंख्थैरेकषष्टिभागैः, एकस्य एकषष्टिभागस्य च सत्कैश्चतुर्भिः सप्तमागैः (१२) न्यूनं यथोक्तप्रमाणं चन्द्रमण्डलान्तरं ततः परमत्तीत्यन्येऽपि द्वादशसूर्यमार्गा लभ्यन्ते । ततस्तस्मिन्नप्यन्तरे सर्वसंकलनया त्रयोदश सूर्यमार्गाः त्रयोदशस्य सूर्यमार्गस्य बहिरष्टमाच्चन्द्रमण्डलादर्वाक् अन्तरं त्रयस्त्रिंशदेकषष्टिभागाः (२३), ततोऽष्टमं. चन्द्रमण्डलं वर्ततेना 59' सप्तम Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ mamim चन्द्रप्रनप्तिसूत्रे तस्माच्चाप्टमाच्चन्द्रमण्डलात्परतनयस्त्रिंशता एकपष्टिभागः(३३) सूर्यमण्डलं वर्तते, तत एकाशीतिसंख्यैरकपष्टिभागैरूनं यथोक्तप्रमाणं चन्द्रमण्डलान्तरं पुरतो विद्यते इति ततः पुरतोऽन्येऽपि द्वादशसूर्यमर्गाः सन्ति, ततस्तस्मिन्नप्यन्तरे सर्वसङ्कलनया त्रयोदश सूर्यमार्गाः, त्रयोदशाच्च सूर्यमार्गात् पुरतो नवमा चन्द्रमण्डलादर्वाक् अन्तरं चतुश्चत्वारिंशदेकपष्टिभागाः, एकस्य च एकपष्टिभागस्य सम्बन्धिनश्चत्वारः सप्तभागाः (-)। ततः परं नवमं चन्द्रमण्डलम् । तस्माच्च नवमाच्चन्द्रमण्डलात्परत एकविंशत्या एकपष्टिभागैः एकस्य च एकपष्टिभागस्य त्रिभिः सप्तभागैः(२१३) सूर्यमण्डलम् , तत एकोन सप्ततिसंख्यैरेकपण्टिभागै., एकस्य च एकपष्टिभागस्य त्रिभिःसप्तभागैः (६९३ ) हीनं यथोदितप्रमाणं चन्द्रमण्डलान्तरम् । तत्र चान्ये द्वादशसूर्यमार्गाः । एवमस्मिन्नप्यन्तरे सर्व सङ्कलनया त्रयोदश सूर्यमार्गाः । तस्य चान्तिमस्य त्रयोदशस्य सूर्यमार्गस्योपरि, दशमान्चन्द्रमण्डलादर्वान् अन्तरं षट्पञ्चाशदेकपष्टिभागाः, एकस्य च एकपष्टिभागस्य एकः सप्तभार दशमं चन्द्रमण्डलम् । तस्माच्च दशमाच्चन्द्रमण्डलात्परतो नवभिरेकषष्टिभागः, एकस्य च एक पष्टिभागस्य सत्कैः पभिः सप्तभागः (--) सूर्यमण्डलम् , ततः सप्तपञ्चाशता एकपष्टि भागः, एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्कैः पभिः सप्तभागः (१) न्यून पूर्वोक्तप्रमाणं चन्द्रमण्डलान्तरम् । ततः पुनरपि द्वादश सूर्यमार्गा लभ्यन्ते इति तस्मिन्नप्यन्तरे सर्वसंकलनया त्रयोदश सूर्यमार्गाः सन्ति । तत्रान्तिमस्त्रयोदशः सूर्यमार्गस्तस्य त्रयोदशस्य सूर्यमार्गस्योपरिएकादशान्चन्द्रमण्डलादर्वाक् अन्तरं सप्तपष्टिरेकपष्टिभागाः, एकस्य च एकपष्टिभागस्य सम्बन्धिनः पञ्च सप्तभागा (--)। इत्येवं पटादारभ्य दशमपर्यन्तानि पञ्च चन्द्रमण्डलानि सूर्यात्संस्पृष्टानि प्रदर्शितानि । एतत्प्रदर्शने पट्सु च चन्द्रमण्डलान्तरेपु त्रयोदश सूर्यमार्गा भवन्तीत्यपि जातम् । अथैतदनन्तरमकादशादिपञ्चदशान्तानि पञ्च चन्द्रमण्डलानि पुनरपि सूर्यसंस्पृष्टानि भवन्तीति प्रदर्श्यते राख Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. ११ चन्द्रसूर्यमण्डलमार्गतदन्तरंच ३४९ एकादशे चन्द्रमण्डले चतुःपञ्चाशदेकपष्टिभागाः एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कौ द्वौ सप्तभागौ (8) इत्येतावत् सूर्यमण्डलादभ्यन्तरं प्रविष्टम्, एक एकपष्टिभागः, एकस्य च एकष्टि KAN भागस्य पर एतावन्मानं सूर्यमण्डलसम्मिश्रम् एकादशाच्चन्द्रमण्डलादहिर्विनि र्गतं सूर्यमण्डलम्, षट्चत्वारिंशदेकपष्टिभागाः, एकस्य च एक पष्टिभागस्य सत्कौ द्वौ सप्तभागौ (वा-) तत् एतावता हीनं परतश्चन्द्रमण्डलान्तरमस्तोति द्वादश सूर्यमार्गा लभ्यन्ते । ततः परमेकोनाशीत्या एकपष्टिभागः, एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्काभ्यां द्वाभ्यां सप्तभागाभ्यां द्वादशं चन्द्रमण्डलं लभ्यन्ते । तच्च द्वादशं चन्द्रमण्डलं द्विचत्वारिंशतमेकपष्टिभागान्, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कान् पञ्चसप्तभागान् (१२ ) यावत् सूर्यमण्डलादभ्यन्तर प्रविष्टम् । शेपं च योजनस्य त्रयोदश एकपष्टिभागाः एकस्य च एकपष्टि भागस्य सत्को द्वौ सप्तभागी ( १३२) । एतवन्मात्रं चन्द्रमण्डलं सूर्यमण्डलसम्मिश्रं वर्तते । तस्माच्च द्वादशाच्चन्द्रमण्डलात् सूर्यमण्डलं योजनस्य चतुस्त्रिंशतमेकपष्टिभागान् , एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्कान् पञ्चसप्तभागान् (३४) यावत् एतत्परिमितमित्यर्थः वहिर्विनिर्गतं भवति, तत एतावन्मात्रेण न्यून परतश्चन्द्रमण्डलान्तरं वर्तते, तत्र च द्वादशसूर्यमार्गा लभ्यन्ते तत्र द्वादशाच सूर्यमार्गात् परतो नवतिसंख्यकै रेकपष्टिभागः, एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्कैः षद्भिः सप्तभागै ६१७ त्परिमितक्षेत्रमुल्लद्धये त्यर्थः त्रयोदशं चन्द्रमण्डलं वर्तते । तच्च त्रयोदशं चन्द्रमण्डलम् एकत्रिंशतमेकपष्टिभागान् , एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्कमेकं सप्तभागम्-एक सप्तभागसहितकत्रिंशदेकषष्टिभागपरिमितं सूर्यमण्डलादभ्यन्तरं प्रविष्टं विद्यते । स्थितास्तस्य शेषाश्चतु mM विंशतिरेकषष्टि भागाः, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सम्बन्धिनः षट् सप्तभागाः (१६) एतावन्मात्रं चन्द्रमण्डलं सूर्यमण्डलसम्मिश्रं भवति । तस्माच्च त्रयोदशाच्चन्द्रमण्डलात् त्रयोविंशतिमेकषष्टि Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० चन्द्रप्राप्तिसूत्र भागान् , एकत्य च एकपष्टिभागस्य सत्कमेकसप्तभागं यावत् सूर्यमण्डलं वहिर्विनिर्गतं वर्त्तते, तत एतावता पम्हिीणं परत’चन्द्रमण्डलान्तरं भवति । तत्र द्वादशसूर्यमार्गा लम्यन्ते । सन्तिमादबा द्वादशाच्च मूर्यमार्गात् परतो द्वन्तरशतैकपण्टिमागैः, एकस्य च एक पष्टिभागस्य सत्कैस्त्रिाभिः सप्त भागे. (१०२ ३) एतावत्क्षेत्रानिक्रमणानन्तरमित्यर्थ. चतुर्दश चन्द्रमण्डलं लभ्यते, तच्च चतुर्दशं चन्द्रमण्डलं सूर्यमण्डलात् एकोनविंशतिमेकपष्टिभागान् , एकस्य च एकपष्टिभागरय सत्कान् चतुरः सप्तभागान (2) यावत् अभ्यन्तरं प्रविष्टं विद्यते । निष्ठन्ति शेषा' पत्रिशदेकषष्टिभागाः, एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्कास्त्रय. 'सप्तभागाः (1) इत्येतावत्परिमितं चन्द्रमण्डलं सूर्यमण्डलसम्मिश्रं भवति । तस्माच्चतुर्दशाच्चन्द्रमण्डलात्-एकादश एकपष्टिभागान् , एकस्य च एकपष्टिभागस्य चतुरः सप्तभागान( यावत् एतत्परिमितमित्यर्थः सूर्यमण्डलं बहिर्विनिर्गतं वर्तते तत एतावता परिमाणेन न्युनं यथोक्त परिमाण चन्द्रमण्डलान्तरमायाति तत्र च द्वादश सूर्यमार्गा लभ्यन्ते । पुनश्च द्वादशात्सूर्यमार्गात् परतश्चतुर्दशोत्तरशतसंख्यकैरेकपष्टिभागैः पञ्चदशं चन्द्रमण्डलं लभ्यते । तच्च पञ्चदशं चन्द्रमण्डलं सर्वान्तिमात् सूर्यमण्डलादर्वाक्-अष्टैकपष्टिभागान् (८) यावत् अभ्यन्तरं प्रविष्टं वर्तते । तिष्ठन्ति ये शेपा अष्टचत्वारिंशदेकपष्टिभागास्ते सूर्यमण्डलमम्मिश्रा भवन्तीति । एतानि-एकादशादीनिपञ्चदशपर्यन्तानि पञ्चचन्द्रमण्डलानि सूर्यमण्डलसम्मिश्राणि भवन्ति । एषु च चरमेषु चतुर्थचन्द्रमण्डलान्तरेपु द्वादश द्वादश सूर्यमार्गा भवन्तीति । अथोपसंहियते--चन्द्रस्य पञ्चदशमण्डलानि भवन्ति, तत्र एकादीन पञ्चमपर्यन्तानि पञ्चमण्डलानि आभ्यन्तराणि, तथा--एकादशादीनि पञ्चदशपर्यन्तानि पञ्चमण्डलानि च बाह्यानि कथ्यन्ते, एतानि दशमण्डलानि चन्द्रसूर्ययोः साधारणानीति दशचन्द्रमण्डलानि सूर्यमण्डलसम्मिश्राणि भवन्ति, तथा षष्ठादारभ्य दशमपर्यन्तानि पञ्चमण्डलानि प्रत्येकानीति तानि केवलं चन्द्र एव स्पृशति, न कदाचिदपि सूर्यः, इति एतानि सूर्यमण्डलसंस्पृष्टानि भवन्तीत्येवं सर्व सविस्तरं प्रदर्शितम् । सूर्यमार्गाश्च चतुर्दशस्वेव चन्द्रमण्डलेपु लभ्यन्ते तत्रैवान्तरसद्भावात् न तु सर्वान्तिमे पञ्चदशे चन्द्रमण्डले तदग्रेऽन्तराभावात्, इति-अष्टसु आयेपु चतुर्यु चरमेषु च चतुर्यु अभ्य Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा०मा ११ चन्द्रसूर्यमण्डलमार्गतदन्तरंच न्तरबाह्येषु चन्द्रमण्डलान्तरेषु द्वादश द्वादश सूर्यमार्गा भवन्ति । तदतिरिक्तेषु पञ्चमादिदशमपर्यन्तेषु पट्सु च चन्द्रमण्डलान्तरेषु त्रयोदश सूर्यमार्गा भवन्ति, उक्तञ्च--- चंदंतरेस असु, अभितरवा हिरे सूरस्स | वारस वारस मग्गा, छसु तेरस तेरस भवंति ॥ १॥ इति छाया - चन्द्रान्तरेषु अष्टसु, अभ्यन्तरबाह्येषु सूरस्य । द्वादश द्वादश मार्गाः पट्सु त्रयोदश त्रयोदश भवन्ति ॥ १ ॥ " इति चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे चन्द्रज्ञप्ति प्रकाशिकायां टीकायां दशमस्य प्राभृतस्य एकादशं प्राभृतप्राभृतं समाप्तं १०-११ । । दशमस्य प्राभृतस्य द्वादशे प्राभृतप्राभृतम् । गतमेकादशं प्राभृतप्राभृतम्, तत्र चन्द्रमण्डलानि, तदन्तराणि सूर्यमार्गाश्च प्रदर्शिताः, अत्र च नक्षत्राणां देवताध्ययनानि वक्तव्यानोत्यधिकृत्य द्वादशं प्राभृतप्रामृतं प्रारभ्यते, तस्य चेदं सूत्रम् 'ता कहं ते देवयाणं अज्झयणा' इत्यादि । ३५१ मूलम् - ता कहं ते देवयाणं अझयणा आहिया ? तिवएज्जा-ता एएसि णं अट्ठावीस नक्खत्ताणं अभिई णक्खत्ते वंभदेवयाए पण्णत्ते १ । सवणे णक्खत्ते विडुदेवया पण्णत्ते २ । एवं जहा जंबूदीवपण्णत्तीए जाव उत्तरासाढा णक्खत्ते विसुदेवया पण्णत्ते ॥ ० १ ॥ छाया - तावत् कथं ते देवतानां अध्ययनानि आख्यातानि ? इति वदेत् । तावत् पतेषां खलु अष्टाविंशतेः नक्षत्राणां अभिजित् नक्षत्रं किं देवताकं प्रज्ञप्तम् १ ब्रह्मदेवताकं प्रज्ञप्तम् १ | श्रवणनक्षत्रं किं देवताकं प्रज्ञप्तम् ? विष्णु देवताकं प्रज्ञप्तम् २ | एवं यथा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यां यावत् उत्तराषाढा नक्षत्रं विष्वग्देवाकं प्रज्ञप्तम् २८ ||सू० १ ॥ दशमस्य प्राभृतस्य द्वादशं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् || १० | १२|| व्याख्या - 'ता कहं ते' इति 'ता' तावत् 'कहं, कथं केन प्रकारेण हे भगवन् ! 'ते' त्वाया 'देवयाणं' देवतानां नक्षत्राधिष्ठातॄणां 'अज्झयणा' अध्ययनानि - अधीयन्ते ज्ञायन्ते यैस्तानि अध्ययनानि अभिधानानि नामानीतिभावः 'आहिया' आख्यातानि कथितानि 'तिवएज्जा' इति वदेत् कथयेत्, प्रतिपादयन्तु भवन्तः, इति गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह - 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां खलु ‘अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' अष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये 'अभिई णक्खत्ते' अभिजिन्नक्षत्रं 'वंभदेवयाए ' ब्रह्मदेवताकं ब्रह्माभिधदेवताकं 'पण्णत्तं ' प्रज्ञप्तम् | अभिजि - न्नक्षत्रस्य ब्रह्माभिधो देवोऽधिष्ठाताऽस्ति, एवमग्रेऽपि सर्वत्र योज्यम् । 'सवणे णक्खत्ते' श्रवणनक्षत्र Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे 'वण्हुदेवयाए' विष्णु देवताकं 'पण्णत्त' प्रज्ञप्तम् श्रवणस्याधिष्ठाता विष्णुनामको देवोऽस्तीति । 'एवं' एवम्-अनयैव रीत्या 'जहा जंबुद्दीवपण्णत्तीए' यथा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यां-जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिसूत्रे कथिनं तथैवात्रापि वाच्यम् । कियत्पर्यन्त मित्याह- 'जावे' इत्यादि, यावत् 'उत्तरासाढाणक्खत्ते विमुदेवयाए पण्णत्ते' उत्तरापाढनक्षत्रं विष्वग्देवनाकं प्रज्ञप्तम् । अत्र 'जावें' ति यावत्पदेन धनिष्ठा नक्षत्राटारभ्य पूर्वापाढानक्षत्रपर्यन्तानां मध्यमानां पञ्चविंशतिनक्षत्राणां देवतानामानि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तितोऽवगन्तव्यानि, तथाहि--"धणिहा णक्खत्ते वसुदेयाए पण्णते ३, सयभिसया णक्खत्ते वरुणदेवयाए पण्णत्ते ४, पुव्यापोट्टवया णक्खत्ते अयदेवयाए पण्णत्ते ५, उत्तरपीद्ववया णक्खत्ते अभिवइढिदेवयाए पण्णत्ते ६, रेवई णक्खत्ते पुस्स देव याए पण्णत्ते ७, अस्सिणी णक्खत्ते अस्सदेवयाए पण्णत्ते ८, भरणी णक्खत्त जमदेवयाए पण्णत्ते ९, कत्तिया णक्खत्ते अग्गिदेवयाए पण्णत्ते १० रोहिणी णक्खत्ते पयावइदेवयाए पण्णत्ते ११, संठाणा णक्खत्ते सोमदेवयाए पण्णत्ते १२, अदा णक्खत्ते रुहदेवयाए पण्णत्ते १३. पुणव्वमु णक्खत्ते अदिइ देवयाए पण्णने १४, पुस्स णक्खत्ते वहस्सइदेवयाए पण्णत्ते १५, अस्सेसा णक्खत्ते सप्पदेवयाए पण्णत्ते १६, मघा णक्खत्ते, पिडदेवयाए पण्णत्ते १७ पुचाफग्गुणी णक्खत्ते भगदेवयाए पण्णत्ते १८, उत्तराफग्गुणी णक्खत्ते अज्जमदेवयाए पण्णत्ते १९, हत्थे सविइदेवयाए पण्णत्ते २०, चित्ता णक्खत्ते तहदेवयाए पण्णत्ते २१, साइ णक्खत्ते वाउ देवयाए पण्णत्त २२, विसाहा णक्खत्ते इंदग्गिदेवयाए पण्णत्ते २३, अणुराहा णक्खत्ते मित्तदेवयाए पण्णत्ते २४, जेटा णखत्ते इंददेवयाए पण्णत्ते २५, मूल णक्खत्ते गिरईदेवयाए पण्णत्ते २६, पुब्बासाढा णक्खत्ते आउ देवयाए पण्णत्ते २७।" छाया-धनिष्ठा नक्षत्रं वसुदेवताकं प्रज्ञप्तम् ३, शतभिपग नक्षत्र वरुणदेवताकं प्रज्ञप्तम् ४, पूर्वाप्रोष्ठपदा नक्षत्रम् अजदेवताकं प्रज्ञप्तम् ५, उत्तराप्रोष्ठपदा नक्षत्रम् अभिवृद्विदेवताकं प्रज्ञप्तम् ६, रेवतीनक्षत्रं पुष्यदेवताकं प्रज्ञप्तम् ७, अश्विनीनक्षत्रम् अश्व (अश्वमुख) देवताकं प्रज्ञप्तम् ८, भरणीनक्षत्रं यमदेवताकं प्रज्ञप्तम् ९, कृत्तिकानक्षत्रम् अग्नि देवताकं प्रज्ञप्तम् १०, रोहिणीनक्षत्रं प्रजापति देवताकं प्रज्ञप्तम् ११, संस्थान (मृगशिरो) नक्षत्रं सोमदेवताकं प्रज्ञप्तम् १२, आर्द्रानक्षत्रं रुद्रदेवताकं प्रज्ञप्तम् १३, पुनर्वसुनक्षत्रम् अदिति देवताकं प्रज्ञप्तम् १४, पुण्यनक्षत्रं बृहस्पतिदेवताकं प्रज्ञप्तम् १५, अश्लेपानक्षत्रं सर्पदेवताकं प्रज्ञप्तम् १६, मघानक्षत्रं पितृदेवताकं प्रज्ञप्तम् १७, पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्रं' भगदेवताकं प्रज्ञप्तम् १८, उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रम् अयेमदेवताकं प्रज्ञप्तम् १९, हस्तनक्षत्रं सवितृदेवताकं प्रज्ञप्तम् २०, चित्रानक्षत्रं त्वष्टदेवताकं प्रज्ञप्तम् २१, स्वातिनक्षत्रं वायु देवताकं प्रजप्तम् २२, विशाखानक्षत्रम् इन्द्राग्नि देवताकं प्रज्ञप्तम् २३, अनुराधानक्षत्रं मित्रदेवताकं प्रज्ञमम् २४, ज्येष्ठानक्षत्रम् इन्द्रदेवताकं प्रज्ञप्तम् २५, मूलनक्षत्रं निरति देवताकं 'प्रज्ञप्तम् २६, पूर्वापाढा नक्षत्रम् अप देवताकं प्रज्ञप्तम् २७ । देवतानामसङ्ग्राहिका इमास्तिस्त्रो गाथाः Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. १२ नक्षत्राणां देवतादिकम् ३५३ "वम्ह १, विण्हू २ य वसू ३, वरुणो ४, तहऽजो ५ अणंतरं होई । अभिवढि ६, पूस ७, गंधव ८ चेव परतो जमो होइ ॥१॥ अग्नि १० पयावइ ११, सोमे १२, रुद्दे १३ अदिई १४ वहस्सई १५ चेव । णागे १६, पिइ १७ भग १८ अज्जम १९ सविया २० तहा ३१ य वाऊ २२ य ॥२॥ इंदग्गी २३, मित्तोवि २४ य इंदे २५ निरई २६ य आउ २७ विस्तू २८, य । नामाणि देवयाणं हवंति रिक्खाण जहक्कमसो" ॥३॥ छाया- "ब्रह्मा १ विष्णुश्च २, वसुः ३ वरुणः ४ तथा अजः ५ अन्तरं भवति । अभिवृद्धिः ६ पूपा ७ गन्धर्वः (अश्वमुखः) ८ चैव परतः यमो ९ भवति ॥१॥ अग्निः १० प्रजापतिः ११ सोम १२ रुद्रः १३ अदिति १४, बहस्पति १५ श्चैव । नागः (सर्पः) १६ पितृ १७ भगः १८ अर्यमा १९, सविता २०, त्वष्टा २१ च वायुश्च २२ ॥२॥ इन्द्राग्निः २३, मित्रो २४ ऽपि च इन्द्रः २५ निरतिः २६ अप २७ विश्वश्च २८ । नामानि देवतानां भवन्ति ऋक्षाणां यथाक्रमशः ॥३॥" इति । इत्येतानि अष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां देवतानामानि प्रोक्तानि ॥सू० १॥ इति चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे चन्द्रज्ञप्ति प्रकाशिका व्याख्यायां दशमस्य प्राभृतस्य द्वादशं प्रामृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१० । १२॥ ॥ दशमस्य प्राभृतस्य त्रयोदशं प्राभृतप्राभृतम् ॥ गतं दशमस्य प्राभृतस्य द्वादशं प्रामृतप्राभृतम् , तत्राष्टाविंशतेर्नक्षत्राणामधिष्ठातृ देवता नामानि प्रदर्शितानि । अथ त्रयोदशं प्राभृतप्राभृतं प्रारभ्यते, अत्र च मुहूर्तानां नामानि वक्तव्यानीति तद्विषयकं सूत्रमाह-'ता कहं मुहुत्ताणं नामधेज्जा' इत्यादि । । - 'मूलम् ता कहं ते मुहुत्ताणं नामधेज्जा आहिया ? ति वएज्जा । ता एगमेगस्स ण अहोरत्तस्स तीस मुहुत्ता पण्णत्ता, तंजहा-"रुदे १ सेए २, मित्ते ३, वाऊ ४ ठवई ५ तहेव अभिचंदे ६ ।माहिद ७ वलव ८ वभो ९ वहुसच्चे १० चेव ईसाणे ११ ॥१॥ तट्टे १२ य भवियप्पा १३, वेसमणे १४ वारुणे य १५ आणंदे १६ । विजए १७ य वीससेणे १८, पयावई १९ चेव उवसमए २० ॥२॥ गंधव्व २१ अग्गिवेस्से २२, सयवसहे २३ आयवं २४ च अममे २५ य । अणवं २६ च भोम २७ वसहे २८, सबढे २९ रक्खसे ३० चेव ॥३॥सू०१॥ दसमस्स पाहुडस्स तेरसमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥१०॥१३॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ । चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे छाया-तावत् कथं त्वया मुहर्तानां नामधेयानि आख्यातानि ? इति वदेत् । तावत् पकैकस्य खलु अहोरात्रस्य त्रिंशत् मुहर्ताः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-"रुद्रः १ श्रेयान् २ मित्रं ३, वायु ४ स्थपति. ५ तथैव अभिचन्द्रः ६, माहेन्द्रः ७ बलवान् ८, ब्रह्मा ९, वहुसत्य १०, चैव ईशानः ११ ॥११॥ त्वष्टा १२ च भावितात्मा १३, वैश्रवणः १४ वारुणश्च १५ आनन्द: १६ । विजयश्च १७ विश्वसेनः १८ प्रजापतिः १९, चैव उपशमकः २० ॥२॥ गन्धर्व २१ अग्निवेश्यः २२, शतवृपभः २३ आतपवान् २४ च अममश्च २५ । ऋणवान २६ च भौमः २७ वृषभः २८ सर्वार्थः २९ राक्षसः ३० चैव ॥३॥ सू० ॥ दशमस्य प्राभृतस्य त्रयोदश प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१०॥१३॥ दशमस्य प्रामृतस्य त्रयोदशं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१०॥१३॥ व्याख्या-'ता कहते' इति, 'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण 'ते' त्वया 'मुहुताणं' मुहूर्तानां 'नामवेज्जा' नामधेयानि नामानि 'आहिया' आख्यातानि ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् इति वदतु हे भगवन् ? एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह-'ता' तावत् ‘एगमेगस्स णं अहोरत्तस्स' एकैकस्याहोरात्रस्य 'तीसं मुहत्ता पण्णत्ता' त्रिंशत् मुहूर्ताः प्रज्ञप्ताः । के ते त्रिंशत् मुहूर्ता : इत्याह 'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-ते इमे । तानेव दर्शयति तिसृभिर्गा थाभिः- 'रुद्दे' इत्यादि, 'रुद्दे' रुद्रः, प्रथमस्य मुहूर्तस्य रुद्र इति नामधेयम् १ । एवमग्रेऽपि वक्तव्यम्, तेषां नाममात्राण्याह-'सेए' श्रेयान् द्वितीयस्य मुहूर्तस्य श्रेयान् इति नाम २ । तृतीयस्य मुहूर्त्तस्य मित्र मितिनाम । शेपा व्याख्या निगदसिद्धा ॥सू० १॥ इति चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका टोकाया दशमस्य प्राभृतस्य त्रयोदशं प्राभृत प्राभृतं समाप्तम् ॥१०॥१३॥ दशमस्य प्राभृतस्य चतुर्दश प्राभृतप्राभृतम् । व्याख्यातं दशमस्य प्रामृतस्य त्रयोदशं प्राभृतप्रामृतम्, तत्र त्रिंशन्मुहूर्तानां नामानि प्रतिपादितानि । अथ चतुर्दश प्रामृतप्रामृतं वित्रियते, अत्र पञ्चदशदिवसाना पञ्चदशरात्रीणां च नामानि प्रतिपादनीयानीति तस्येदं सूत्रम्-'ता कहते दिवसाणं' इत्यादि । . मूलम्-ता कहं ते दिवसाणं नामधेज्जा आहिय-त्ति वएज्जा । ता एगमेगस्स णक्खत्तस्सं पण्णरस २ दिवसा पण्णत्ता, तं जहा-पडिवयादिवसे १, वितिया दिवसे २ जाव पण्णरसी दिवसे १५ । ता एएसि णं पण्णरसण्हं दिवसाणं पण्णरसनामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा----"पुव्वंगे १ सिद्धमणोरमे २ य, तत्तो मणोहरो ३ चेव । जसभद्दे ४ य जसोधर २५ सयकामसमिद्धे ६ तिय ॥१॥ इंदमुद्धाभिसित्ते, य सोमणस ८ धणंजए ९ य योद्धव्वे । अत्थसिद्धे १० अभिजाते ११, अच्चासणे १२, य -~-, सतंजए १३ ॥२॥ अग्गिवेस्से १४ उवसमे १५ दिवसाणं णामधेज्जाई ॥" Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. १४ पञ्चदशदिवसरात्रीणां नामानि ३५५ ता कहते राईओ आहिय-त्ति वएज्जा ता एगमेगस्स ण णक्खत्तस्स पण्णरस राईओ पण्णताओ, तं जहा पडिवया राई वितिया राई जाव पण्णरसी राई । ता एयासिणं पण्णरसण्हं राईणं पण्णरसनामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा–उत्तमा १, य सुणक्खत्ता, एला एलावच्च ३ जसोधरा ४ । सोमणसा ५ चेव तहा, सिरिभूया ६ य वोद्धव्वा ॥१॥ विजया, य वेजयंती ८, जयंति ९ अपराजिया १० य गच्छा ११ य समाहारा १२ चेव तहा तेया १३ य तहा य अइतेया १४ ॥२॥ देवाणंदा १५ निरई, रयणीणं, णाम धेज्जाई" ॥सू० १॥ दसमस्स पाहुडस्स चउद्दसमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥१०॥१४॥ छाया-तावत् कथं त्वया दिरसानां नामधेयानि आख्यातानि ? इति वदेत् । तावत् एकैकस्य खलु पक्षस्य पञ्चदश पञ्चदश दिवसाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा--प्रतिपदा दिवसः १, द्वितीया दिवसः २ यावत् पञ्चदशी दिवसः १५ । तावत् एतेषां खलु पञ्चदशानां दिवसानां पञ्चदश नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा--"पूर्वाङ्गः १, सिद्धमनोरमश्च २, ततो मनोहरः ३ चैव । यशोभद्रश्च ४ यशोधरः ५सर्वकामसमृद्धः ६ इति च ॥१॥ इन्द्रमूर्धाभिषिक्तच, सो मनसः ८ धनञ्जयश्च ९ बोद्धव्यः अर्थसिद्धः १० अभिजातः अत्यशनश्च १२ शतञ्जयः १३ ॥२॥अग्निवेश्यः १४ उपशमः १५, दिवसानां नामधेयानि ॥" तावत् कथं त्वया राज्यः आख्याताः १ इति वदेत् । तावत् एकैकस्य पक्षस्य पञ्चदश पञ्चदश राज्य. प्रज्ञप्ताः तद्यथा-प्रतिपदारात्री १, द्वितीयारात्री यावत् पञ्चदशीरात्री । तावत् एतासां खलु पञ्चदशानां रात्रीणां पञ्चदश नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा"उत्तमा १ च सुनक्षत्रा २ ऐलापत्या ३ यशोधरा सौमनसा ५, चैव तथा, श्री संभूता ६ च बोद्धव्या ॥१॥ विजया ७, च वैजयन्ती ८, जयन्ति ९ अपराजिता १० च गच्छा ११ चं समाहारा चैव तथा, तेजा १३ च तथा च अतितेजा १४ देवानन्दा १५ निरतिः रजनीनां नामधेयानि ॥११॥ दशमस्य प्राभृनस्य चतुर्दशं प्राभृतमाभृत समाप्तम् ॥१०॥१४॥ व्याख्या -- 'ता कहते' इति । 'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण केन क्रमेण 'ते, त्वया 'दिवसाणं' दिवसानां 'नामधेज्जा' नामधेयानि नामानि 'आहिया' आख्यातानि ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कशयतु हे भगवन् एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह-'ता एगमेगस्स णं' इत्यादि 'ता' तावत् 'एगमेगस्स णं पक्खस्स' एकैकस्य खलु पक्षस्य 'पण्णरस २' पञ्चदश पञ्चदश 'दिवसा पण्णता' दिवसाः प्रज्ञप्ताः 'तं जहा' तद्यथा-ते यथा-'पडिवयादिवसे' प्रतिपदादिवसः 'वितिया दिवसे' द्वितीया दिवसः २, 'जाव' यावत् 'पण्णरसीदिवसे' पञ्चदशीदिवसः १५।अत्र यावत्पदेन तृतीया दिवसः ३, चतुर्थी दिवसः ४ इत्यादिक्रमेण 'चतुर्दशी दिवसः इत्यन्तं संग्राह्यम् 'ता' तावत् 'एएसि णं पण्णरसण्हं दिवसाणं' एतेषां खलु पञ्चदशानां Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे दिवसानां 'पण्णरसणामधेज्जा' पञ्चदशनामधेयानि नामानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि 'तं जहा' तद्यथा तानि यथा-'पुन्चंगे' इत्यादि पुच्चंगे पूर्वाङ्ग प्रतिपदा दिवसस्य पूर्वाङ्ग इति नाम १। सिद्धमणोरमे य' सिद्वमनोरमश्च द्वतीयादिवसस्य सिद्धमनोरमा इति नाम 'ततो' ततः तदनन्तरं 'मणोहरो चेव' मनोहरचैव तृतीयादिवसस्य मनोहर इति नाम ३। अनेन क्रमेण चतुर्थी दिवसस्य यशोभद्रो नाम, इत्यारभ्य पञ्चदशी दिवसस्य-पूर्णिमा दिवसस्य अमावास्या दिवसस्य च उपशम इति नाम, इत्यन्तं सर्व स्वयमूहनीयम् । अत्र पूर्णिमा अमावास्या चेति द्वयोर्ग्रहणार्थ सूत्रकृता 'पण्णरसी दिवसे' पञ्चदशी दिवसः, इत्युक्तम् तयोः प्रतिपक्षं पञ्चदशत्वात् । शेप स्पष्टम् । अथ रात्रीणां नामान्याह-ता कहते राईओ' इत्यादि । 'ता' तावत् 'कह' कथं केन क्रमेण 'ते' त्वया 'राईओ' रत्र्यः 'आहिया' आख्याताः 'ति वएज्जा' इति वदेत् पदतु कथयतु हे भगवन् ? एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह 'ता एगमेगस्स णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'एगमे गस्स णं पक्खस्स' एकैकस्य पक्षस्य 'पण्णरस' २ पञ्चदश पञ्चदश 'राईओ पण्णत्ताओ' रात्र्यः प्रज्ञप्ताः 'तं जहा' तद्यथा-ता यथा-'पडिवयाराई प्रतिपदा रात्री । 'वितियाराई' द्वितीया रात्री २, 'जाव' यावत् 'पण्णरसीराइ' पञ्चदशी रात्रो, अत्रापि यावत्पदेन तृतीया रात्री ३ चतुर्थी रात्री ४, इत्यादि क्रमेण 'चतुर्दशीरात्री' इत्यन्तं संग्राह्यम् । अत्र द्वितीयारात्री' इत्यादिपदैः द्वितीया-तृतीयादि तिथयो बोन्या न तु सख्येति । अथ रात्रीणां नामान्याह-'ता एयासि एं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'एयासि णं' एतासां वक्ष्यमाणानां 'पण्णरसण्ह' पञ्चदशानां 'राईणं' रात्रीणां 'पण्णरस नामधेज्जा पण्णत्ता' पञ्चदश नामधेयानि नामानि प्रज्ञप्तानि 'तं जहा' तद्यथा-उत्तमा य उत्तमा च प्रथमा-प्रतिपत्सम्बन्धिनी रात्री रुत्तमा-उत्तमानाम्नी भवति । 'मुणक्खत्ता' सुनक्षत्रा द्वितीया सम्वन्धिनी रात्री सुनक्षत्रा कथ्यते २। एवं क्रमेण तृतीयात आरभ्य पञ्चदशी रात्री 'देवाणंदा' देवानन्दा इत्यन्तं स्वयमूहनीयम् । अस्य व्याख्या छायागम्याऽतो न विवियते ॥सू० १॥ ॥इति चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका व्याख्याया दशमस्य प्राभृतस्य चतुर्दश प्रामृत प्रमृतं समाप्तम् ॥१०॥१४॥ दशमस्य प्राभृतस्य पञ्चदशं प्राभृतप्राभृतम् । गतं चतुर्दश प्रामृतप्राभृतम् तत्र पञ्चदशानां दिवसानां, पञ्चदशानां रात्रीणां च नामानि प्रदर्शितानि । अथ पञ्चदशं प्राभृतप्राभृतं प्रारभ्यते अत्र दिवसतिथि रात्रितिथीनां च नामानि विक्तुं सूत्रमाह-'तं कहते तिही' इत्यादि । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा प्रा. १५ दिवसतिथि रात्रितिथीनां नामानि ३५७ मूलम्-ता कहते तिहीओ आहिया ? ति वएज्जा । तत्थ खलु इमा दुविहाओ तिहीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-दिवसतिहीओ य राईतिहीओ य । ता कहते दिवसतिहीओ आहिया ? तिवएज्जा । ता एगमेगस्स णं पक्खस्स पण्णरस दिवस तिहीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-नंदा १ भहा २ जया ३ तुच्छा ४ पुण्णा ५ पक्खस्स पंचमी ५ । पुणरवि नंदा ६ भदा ७ जया ८ तुच्छा ९ पुण्णा १० पक्खस्स दसमी १०॥ पुणरवि नंदा ११ भदा १२ जया १३ तुच्छा १४ पुण्णा १५ पक्खस्स पण्णरसी । एवं एया तिगुणा तिहीओ सव्वेसि दिवसाणं । ता कहते राई तिहीओ आहिया ? तिवएज्जा । ता एगमेगस्स णं पक्खस्स पण्णरस पण्णरस राईतिहीओ पण्णत्ताओ तं जहा-उग्गवई १ भोगवई २ जसवई ३ सचट्ठसिद्धा ४ सुहाणामा ५, पुणरविउग्गवई ६, भोगवई ७ जसवई ८ सव्वट्ठसिद्ध ९ सुहाणामा १० पुणरवि उग्गवई ११ भोगवई १२ जसबई १३ सव्वट्ठसिद्धा १४ सुहाणामा १५ एवं एया तिगुण तिहीओ सन्चासिं राईणं ॥सू. १॥ दसमस्स पाहुडस्स पण्णरसमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥१०॥ १५॥ छाया-तावत् कथं ते तिथयः आख्याताः ? इति वदेत् । तत्र खलु इमा द्विविधाः तिथयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-दिवसतिथयश्च ? रात्रीतिथयश्च २। तावत् कथं ते दिवसतिथयः आख्याता. ? इति वदेत् । तावत् एकैकस्य खलु पक्षस्य पञ्चदश दिवसतिथयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'नंदा १ भद्रा २ जया ३ तुच्छा ४ पूर्णा ५ पुनरपि नन्दा ६, भद्रा ७ जया ८ तुच्छा ९ पूर्णा १० पक्षस्य दशमी १० पुनरपि नन्दा ११ भद्रा १२ जया १३ तुच्छा १४ पूर्णा १५, पक्षस्य पदशी १५ । एवम् एताः त्रिगुणाः तिथयः सर्वपां दिवसानाम् । तावत् कथं ते रात्री तिथय आख्याताः ? इति वदेत् । तावत् एकैकस्य खल पक्षस्य पञ्चदश प पदश रात्री तिथयः प्रशप्ताः, तद्यथा-उग्रवती १ भोगवती २ यशोमती ३ सर्वार्थसिद्धा४ शुभानाम्नी ५। पुनरपि उग्रवती ६ भोगवती ७ यशोमती ८ सर्वार्थसिद्धा शुभानाम्नी १० । पुनरपि-उग्रवती ११ भोगवती १२ यशोमति १३, सर्वार्थसिद्धा १४ शुभानाम्नि १५ एवम् एता त्रिगुणाः तिथयः सर्वासां रात्रीणाम् ॥ सू० १॥ ॥दशमस्य प्राभृतस्य पञ्चदशे प्राभृतमाभृतं समाप्तम् ॥१०॥१५॥ ___व्याख्या--'ता कहते तिहीओ' इति । 'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण 'ते' तवमते 'तिहीओ' तिथयः 'आहिया' आख्याताः कथिताः ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हेभगवन् ! । अत्र पृञ्छ्यति यत् दिवसानां च विषये कः प्रतिविशेषः येन दिवसेभ्यः पृथक् तिथयः पृच्छ्यन्ते ? अत्राह-इह सूर्य निष्पादिता अहोरात्रा भवन्ति, तिथयश्च चन्द्रनिष्पादिताः, चन्द्रमसो वृद्धि हानिभ्यां तिथीनां निष्पाद्यमानत्वात् , उक्तञ्च Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे "तं स्यय कुमुयसिरिसप्पभस्स चंदस्स राइसु रुयस्स । लोए तिहित्ति निययं, भण्णइ वुड्ढीए हाणीए ॥१॥" छाया-रजत कुमुदश्री सत्प्रभस्य चन्द्रस्य रात्रिमुरुचेः। लोके तिथि रिति नियतं, भण्यते (यस्य) वृद्धया हान्या ॥१॥ इति । चन्द्रस्य या वृद्धि निर्वा भवति सा न स्वरूपतः किन्तु राहुविमानकृता भवति, यदा राहु विमानेन चन्द्रविमानमात्रियते तदा चन्द्रस्य हानिरन्यथा वृद्धिर्भवतीति लोके कथ्यते-चन्द्रस्य हानिर्वृद्धिर्वा जातेति । राहुश्च द्विविधः पर्वराहुः ध्रुव (नित्य) राहुश्च । पर्वराहोर्विचारोऽत्रानुपयुक्तइत्यग्रे वक्ष्यते, अन्यत्र वा स्थले वर्त्तते इति तत्रतोऽवसेय. । अत्र प्रस्तुतप्रकरण ध्रुवराहोरिति तस्य विपये विविच्यते-यो ध्रुवराहुस्तस्य विमानं कृष्णं स च चन्द्रमण्डलस्याधस्ताच्चतुरड्गुलान्तरेण नित्यं चारं चरति । अथ - चन्द्रमण्डलं वुद्धया चतु पष्टि संख्यक गैः परिकल्प्यते यदिदं चन्द्रमण्डलं चतुष्पष्टि भागात्मकमिति । तत एतेषां चतु. पष्टिभागाना कुलानां पोडशत्वात् पोडशभिर्भागो हियते लब्धाश्चत्त्वारश्चतुःपष्टिभागाः एते पञ्चदशसु दिवसेपु चन्द्रममण्डलस्य प्रत्येक दिवसस्य आवरणभागाः सन्ति । तेन तिथीनां पञ्चदशत्वात्पञ्च दशभिस्तिथिभिः पष्टि भागाश्चचन्द्रस्य राहुणा आत्रियन्ते शेपः स्थितश्चतुर्भागात्मक एको भागः स च चन्द्रमण्डलस्य सदाऽनावृताएव तिष्ठति, एप एव चन्द्रमण्डलस्य पोडशीकलेति प्रसिद्धम्, एपा पोडशीकला कदाऽपि नात्रियते । स च ध्रुवराहुः कृष्णपक्षस्य प्रतिपदि चन्द्रमण्डलस्याधश्चतुरड्गुलान्तरेण चारं चरन स्वकीयेन पञ्चदशेन भागेन यः पोडशीकला सज्ञाकश्चतुर्भागात्मकः सदाऽनावार्यः पोडशो भागस्तं मुकवा शेपस्य पष्टि भागात्मकस्य चन्द्रमण्डलस्य तिथीनां पञ्चदशत्वात् पञ्चदश भागा भवन्ति तेषु ध्रुवराहुः स्वकोयेन पञ्चदशेन भागेन चतुर्भागात्मकमेकं पञ्चदशं भागमावृणोति । एवं द्वितीयायां स्वकीयाभ्यां द्वाभ्या पञ्चदशभागाभ्यां द्वौ पञ्चदशभागौ अप्ट भागात्मको चन्द्रमण्डलस्याऽऽवृणोति । तृतीयायां च स्वकीयैस्त्रिभिः पञ्चदश भागैस्त्रीन् पञ्चदशभागान् द्वादशभागात्मकान् चन्द्रमण्डलस्यावृणोति । एवमावरणवृद्वया यावद् अमावस्यायां स्वकीयैः पञ्चदशभिः पञ्चदशभागैः पञ्चदशापि पञ्चदशभागान् चन्द्रमण्डलस्यावृणोति, तदा चन्द्रमण्डलस्य पप्टिरपि भागा अवृता भवन्ति प्रतिदिनावारक चतुर्भागेन पञ्चदशानां गुणने पष्टिभागानां लाभादिति । एवं शुक्लपक्षे एतावत्परिमितमेव भागं चन्द्रमण्डलस्य प्रकटी करोति ततः प्रतिपदायामेकं चतुर्भागात्मकं पञ्चदशं भागं प्रकटीकरोति । एवं द्वितीयायां द्वौ, तृतीयायां त्रीन् चतुर्भागात्मकान् पञ्चदशभागान् प्रकटी करोति । एवमावरणहान्या यावत् पञ्चदश्यां चतुर्भागात्मकान् पञ्चदशाऽपि पञ्चदशभागान् प्रकटीकरोति तदा चन्द्रमण्डलस्य पष्टिरपि भागा आनावृता भवन्ति ततः सर्वमपि चन्द्रमण्डलं सर्वात्मना परिपूर्ण लोके दृश्यते । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१० प्रा०मा १५ दिवसतिथिरात्रितिथीनां नामानि ३५९ वक्ष्यति चामुमेवार्थ सूत्रकारोऽऽपि 'तत्थ णं जे से धुवराहू' इत्याद्यालापकेन । ततो यावत्परिमितेन कालेन पञ्चदशो भागः पष्टि भागसत्कचतुर्भागात्मको हानि वद्धिं वा प्राप्नोति स तावान् कालविशेषः कृष्णपक्षे शुक्लपक्षे वा तिथिरित्युच्यते । उक्तञ्च - "सोलसभागा काऊण उडुवई हायएत्थ पण्णरस । तत्तियमित्ते भागे पुणोवि परिवड्ढए जोण्हे ॥१॥ कालेण जेण हायइ, सोलसभागो उसा तिही होइ । तह चेव य वुड्ढीए, एवं तिहिणो समुप्पत्ती ॥२॥" छाया-पोडशभागान् कृत्वा उडुपतेः हीयन्तेऽत्र पञ्चदश । तावन्मात्रान् भागान् पुनरपि परिवर्धयेत् ज्योत्स्ने (शुक्लपक्षे) ॥१॥ कालेन येन हीयते पोडशो भागस्तु सा तिथि भवति । तथैव च वृद्धया, एवं तिथेः समुत्पत्तिः ॥२॥ इति । तिथि विपये वृद्ध सम्प्रदायो यथा-अहोरात्रस्य द्वापष्टिभागकरणे ये एक पष्टिभागास्ताव त्प्रमाणा तिथिः । अथाहोरात्रस्त्रिशन्मुहुर्तप्रमाणो भवतीति प्रतीत एव किन्तु तिथिः कियन्मुहूर्तप्रमाणा भवतीत्यत्रोच्यते तिथिश्च परिपूर्णा एकोनत्रिंशन्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य द्वात्रिंशद् द्वा पष्टिभागाः (२९२) एतावत्प्रमाणा भवन्ति, उक्तञ्च अउगतीसं पुण्णा, उ मुहुत्ता सोमओ तिही होइ । भागा वि य बत्तीसं, वावहिकाएण' छेएण" ॥१॥ छाया -- एकोनत्रिंशत् पूर्णास्तु मुहूर्ताः सा मतातिथिर्भवति । भागा अपि च द्वात्रिंशत् द्वापष्टिकृतेन छेदेन ॥१॥ इति । एतत्कथं भवतीति चेदाह-इह अहोरात्रस्य द्वाषष्टिर्भागाः क्रियन्ते, ततस्तत्सत्का ये एक षष्टि भागा स्तावत्प्रमाणा तिथिरिति कथ्यते, तत्रैकषष्टि स्त्रिशता गुण्यते जातानि त्रिंशत्यधिकानि अष्टादशशतानि (१८३०) । एते किल द्वाषष्टिभागीकृतस्याहोरात्रस्य मुहूर्तसत्का अंशाः जाताः, ततो मुहूर्तानयनार्थमेपां त्रिंशदधिकाष्टादशशतानां (१८३०) द्वाषष्ठ्या भागो हियते लब्धा एकोनत्रिंगन्मुहूर्ताः, तदुपरि एकस्य मुहूर्तस्य च द्वात्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः २९ ३२एतावत्प्रमाणा तिथिर्भवति एतावतैर कालेन चन्द्रमण्डलगतः चतुर्भागात्मकः पूर्वप्रदर्शित ६२ प्रमाणः षोडशो भागो हानिमुपगच्छति वृद्धिं वा प्राप्नोति तत एतावानेव तिथेः परिमाणकालो भव Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० चन्द्र प्रज्ञप्तिसूत्रे एषा तीति तदेवमेषोऽहोरात्रस्य तिथेश्च प्रतिविशेषो लब्धोऽत एव दिवसात् पृथक् तिथे प्रश्नः कृतइति । एवं गौतमेन तिथिविषये प्रश्ने कृते सति भगवानाह - ' तत्थ खलु' इत्यादि । 'तत्थ खलु' तत्र तिथिविषयविचारे खलु 'इमा' वन्यमाणाः 'तिहीओ' तिथिय: 'दुविहा' द्विविधा 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ताः कथिताः,' तं जहा ' तद्यथा - ता इमाः 'दिवस तिहीओ राईतिहीओ य' दिवसतिथयः रात्रि तिथयश्च । दिवस तिथिरिति तिथे: पूर्वार्धभागः, रात्रितिथि रिति तिथे. पश्चार्धभागइति । पुनगैंतम. पृच्छति - 'ता कहते दिवसतिहीओ' इत्यादि 'ता' तावत् 'क' कथं केन प्रकारेण 'ते' त्वया 'दिवस तिहीओ' दिवसतिथ्य' 'आहिया' आख्याता 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् ! एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह 'ता एगमेगस्स णं, तावत् ' एगमेगस्स णं' एकैकस्य खलु ' पक्खस्स' पक्षस्य ' पण्णरस' पञ्चदश पञ्चदश ' दिवस तिहीओ पण्णत्ताओ' दिवसतिथयः प्रज्ञप्ताः कथिताः । ' तं जहा ' तद्यथा - ता यथा 'गंदा' १, भद्दार जया ३ तुच्छा ४, पुण्णा५, नन्दा १ भद्रा २ जया३ तुच्छा ४ पूर्णा५ । तत्र प्रथमा प्रतिपदा तिथि नन्देति कथ्यते, एवं द्वितीयाभद्रा २, तृतीया जया, ३ चतुर्थी तुच्छा इयं लोके रिक्ता शब्देन प्रसिद्धा ४ पञ्चमी तिथि पूर्णा कथ्यते ५ । एषा पूर्णा 'पक्खस्स पंचमी' पक्षस्य पञ्चमी तिथि भवति ५ एवं 'पुणरवि' पुनरपि अग्रेतनाः पञ्च तिथय. - नन्दा इत्यादि नन्दा ६ भद्रा ७ जया ८ तुच्छा ९ पूर्णा १० भवति पूर्णा 'पक्खस्स दसमी' पक्षस्य दशमी तिथिर्भवति १० । एवमेव ' पुणरवि' पुनरपि 'नंदा' इत्यादि नन्दा ११ भद्रा १३ जया १२ तुच्छा १४ एपा पूर्णा 'पक्खस्स पण्णरसी' पक्षस्य पञ्चदशी तिथि र्भवतीति १५ । ' एवं ' एवम् अनया रोल्या 'ता' ता' 'तिगुणा' त्रिगुणाः 'नन्दा, भद्रा, जया, तुच्छा, पूर्णा' एभिर्नामभित्रिरावर्त्तनेन सम्पन्नाः पञ्चदश ‘तिडीओ' तिथयः 'सव्वेसिं दिवसाणं' परिपूर्णपक्षस्य दिवसानां भवन्तीति । पुनर्गौतमो रात्रितिथिविपये पृच्छति - 'ता कहं ते राई तिहीओ' इत्यादि । 'ता' तावत् 'क' कथं कया नाम परिपाट्या 'राई तिहीओ' रात्रितिथय 'आहिया' आख्याताः कथिताः ? 'ति वएज्जा' इति-इत्यपि वदेत् वदतु - कथयतु हे भगवन् । एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह - 'ता एगमेगस्स णं' इत्यादि । 'ता' तावत् ' एगमेगस्स णं पक्खस्स' एकैकस्य खलु पक्षस्य 'पण्णरस २' पञ्चदश पञ्चदश 'राईतिहीओ' रात्रि तिथयः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ताः कथिताः, 'तं जहा' तद्यथा - ता यथा - 'उग्गवई' उग्रवती प्रथमा प्रतिपत्सम्बन्धिनी रात्रितिथिः उग्रवती १ 'भोगवई' भोगवती द्वितीया सम्बन्धिनी रात्रितिथि· भोगवती कथ्यते २ । 'जसवई' यशोमती तृतीया तिथि सम्बन्धिनो रात्रितिथिः यशोमतीनाम्ना कथ्यते ३, 'सव्वहसिद्धा' सर्वार्थसिद्धा चतुर्थी तिथि सम्बन्धिनी रात्रि तिथि. सर्वार्थसिद्वेति प्रसिद्धा ४ । 'सुहाणाम' शुभानाम्नी पञ्चमी तिथि सम्बन्धिनी रात्रि तिथि शुमेति नाम्ना प्रोच्यते, एषा पक्षस्य पञ्चमी रात्रितिथिरिति ५ । पूर्णा १५ भवति । Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. १६ अष्टाविंशतिनक्षत्राणां गोत्राणि ३६१ 'पुणरवि' पुनरपि भूयोऽपि अग्रेतना' पष्ठीत आरभ्य दशमी पर्यन्ताः पञ्चरात्रि तिथय एभिरेव पूर्वोक्तैर्नामभिः कथ्यते तथाहि-षष्ठी रात्रि तिथिः उग्रवती ६ सप्तमी भोगवती ७, अष्टमी यशोमती ८, नवमी सर्वार्थसिद्धा ९ दशमी शुभानाम्नी १० । एपा पक्षस्य दशमी रात्रितिथिर्भवतीति १० । 'पुणरवि' पुनरपि अग्रेतनाः एकादशीत आरभ्य पञ्चदशी पर्यन्ताः रात्रि तिथयोऽपि एकादशी-उग्रवती ११, द्वादशी भोगवती १२ त्रयोदशी यशोमती १३, चतुर्दशी सर्वार्थसिद्वा १४, पञ्चदशी च शुभानाम्नी १५ । एपा पक्षस्यान्तिमा पञ्चदशी रात्रि तिथि विज्ञेया १५ । 'एया' एताः उग्रवती प्रभृतयः पञ्च नामवत्यः 'तिगुणा' त्रिगुणाः त्रिरावर्चनेन संपन्नाः पञ्चदश 'तिहीओ' तिथयः सब्बासिं राईणं' सर्वासां रात्रीणां, पक्षसम्बन्धिनीनां भवन्तीति ॥सू० १॥ इति चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका व्याख्यायां दशमस्य प्रामृतस्य पञ्चदशं प्राभृतप्रामृतं समाप्तम् ॥१०॥१५॥ । दशमस्य प्राभृतस्य पोडशं प्राभृतप्राभृतम् । व्याख्यातं पञ्चदशं प्राभृतप्रामृतम् , तत्र दिवसतिथिनां रात्रितिथिनां च नामानि प्रदर्शितानि । अथ षोडशं प्रामृतप्राभृतं व्याख्यायते, अत्राष्टाविंशति नक्षत्राणां गोत्राणि वक्तव्यानीति तद्विषयकं सूत्रमाह -'ता कहं ते गोत्ता' इत्यादि । मूलम् --ता कहते गोत्ता आहिया ? ति वएज्जा । ता एएसिणं अट्ठावीसाए णक्खताणं अभिई णक्खत्ते भोग्गलायणसगोत्ते ?, सवणे णवखत्ते संखायणसगोत्ते पण्णत्ते २ । धणिहाणक्खत्ते अग्गभावसगोत्ते ३ । सयभिसया णक्खत्ते कण्णलायणसगोत्ते पण्णते ४। पुव्वापोहवया णक्खत्ते जोउकण्णियसगोत्ते पण्णत्ते ५। उत्तरा पोहवया णक्खत्ते धणंजयसगोते पण्णत्ते ६। रेवईणक्खत्ते पुस्सायणसगोते पण्णत्ते ७ । अस्सिणीणक्खत्ते अस्सायणसगोत्ते ८। भरणी णक्खत्ते भग्गवेस्ससगोत्ते पण्णत्ते ९ । कत्तिया णक्खत्ते अग्गिवेस्सगोत्ते पण्णत्ते १० । रोहिणीणक्खत्ते गोयमगोत्ते पण्णत्ते ११॥ मग्गसिरणक्खत्ते भारद्दायसगोत्ते पण्णत्ते १२ । अदाणक्खत्ते लोहिच्चायणसगोते पण्णत्ते १३ । पुणव्वसुणक्खत्ते वासिट्ठसगोत्ते पण्णत्ते १४। पुस्सणक्खत्ते उज्जायणसगोत्ते--पण्णत्ते १५। अस्सेसा णक्खत्ते मंडव्वायणसगोत्ते पण्णत्ते १६ । मघाणक्वत्ते पिंगायणसगोत्ते पण्णत्ते १७ । पुव्वाफग्गुणीणखत्त गोवल्लायणसगोत्ते पण्णत्ते १८ । उत्तराफग्गुणीणक्खत्ते कासवगोत्ते पण्णत्ते १९। हत्थणक्खत्ते कोसियगोते पण्णत्ते २० । चित्ताणकखत्ते दब्भियायणसगोत्ते ४६ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ 'चन्द्रप्राप्तिसूत्रे पण्णत्ते २१ । साइणक्खत्ते चामरच्छगोत्ते पण्णत्ते २२। विसाहाणक्खत्ते 'सुंगायणसगोत्ते पण्णत्ते २३ अणुराहा णक्खत्ते गोल व्यायणसगोते पण्णत्ते २४ जेठाणक्खत्ते तिगिच्छा. यणसगोत्ते पण्णत्ते २५ । मूलणक्खत्ते कच्चायणसगोते पण्णत्ते २६ । पुच्चासाढाणक्खत्ते वज्झियायणसगोत्ते पण्णत्ते २७। उत्तरासाढाणक्खत्ते वग्धावच्चसगोत्तं पण्णत्तै २८॥सू०१॥ दसमस्स पाहुडस्स सोलसमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥ १०॥ १६॥ छाया-तावत् कथं ते गोत्राणि आख्यातानि ? इति वदेत् । तावत् एतेषां खलु अष्टाविंशतेनक्षत्राणाम् अभिजिन्नक्षत्र मुद्गलायनगोत्र प्रज्ञप्तम् १ । श्रवणनक्षेत्र संख्यायन गोत्र प्रभातम् २) धनिष्टानक्षत्रम् अग्रभावगोत्र प्राप्तम् शतभिपग्नक्षत्रं कर्णलायनगोत्रं प्रनप्तम् ४, पूर्वा प्रोष्ठपदानक्षत्र जोउकणिकगोत्रं प्रज्ञप्तम् ५। उत्तरामोष्ठपदानक्षत्र धनञ्जयगोत्रं प्रक्षप्तम् ६, रेवती नक्षत्रं पुण्यायनगोत्रं प्रज्ञप्तम् ७, अश्विनीनक्षत्रम् अश्वायन गोत्रं प्रनप्तम् ८, भरणीनक्षत्र भग्नवेश्यगोत्रं प्रनप्तम् ९, कृत्तिकानक्षत्र अग्निवेश्यगोत्रं प्रक्षप्तम् १०, रोहिणीनक्षत्रं गौतमगोत्रं प्राप्तम् ११. मृगशिरोनक्षत्र भारद्वाजगोत्रं प्राप्तम् १२, आनिक्षत्र लोहित्यायनगोत्र प्रज्ञप्तम् १३ पुनपुनक्षत्रं वासिष्ठगोत्रं प्रशप्तम् १४, पुण्यनक्षत्रं ऊर्जायनगोत्रं प्रनप्तम् १५ अश्लेपा नक्षत्रं माण्डव्यायनगोत्रं प्रशप्तम् १६ मघा नक्षत्रं पिङ्गायनगोत्रं प्रनप्तम्' १७ पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रं गोचल्लायनगोत्रं प्रज्ञप्तम् १८ उत्तराफल्गुनीनक्षत्र काश्यपगोत्रं प्रजप्तम् १९ हस्तनक्षत्रं कौशिकगोत्रं प्रशप्तम् २० । चित्रानक्षत्रं दर्भिकायनगोत्रं प्रज्ञप्तम् २१ । स्वातीनक्षत्रं चाम (भाग) रच्छगोत्रं प्रनप्तम् २२ । विशाखानक्षत्रं संगायनगोत्रं प्रज्ञप्तम् २३ । अनुराधानक्षत्र गोलध्यायनगोत्रं प्रज्ञप्तम् २४॥ ज्येष्ठानक्षत्रं चिकित्सायनगोत्रं प्रज्ञप्तम् २५। मूलनक्षत्र कात्यायनगोत्रं प्रज्ञप्तम् २६। पूर्वोपाढानक्षत्रं वज्झिकायनगोत्रं प्रनप्तम् २७ । उत्तरापाढानक्षत्र व्याघापत्यगोत्र प्रनप्तम् २८ ॥ सू० १॥ .. दशमस्य प्राभृतस्य पोडशं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥ १०-१६ ॥ व्याख्या-'ता कहं ते गोत्त ।' इति 'ता' तावन् 'कह' कथं-नक्षत्राणां कानि 'गोत्ता' गोत्राणि 'ते' त्वया 'आहिया' आख्यातानि ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु नक्षत्राणां गोत्राणि कथयतु हे भगवन् एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह—'ता' तावत् 'एएसिणं . एतेषालोकप्रसिद्वानां खलु 'अद्वावीसाए णस्नत्ताणं' अष्टाविंशतेनक्षत्राणा मध्ये 'अभिईणक्खत्ते' अभिजिन्नक्षत्रं 'मोग्गलायसगोत्ते' मुद्गलायनगोत्रं प्रज्ञप्तम् १ । 'मोग्गलायणस' इत्यत्र सकार अर्पत्वात् । एवमग्रेऽपि विज्ञेयम् । अन्यत्सर्वं सुगमं छाया गम्यं चेति न वित्रियते । ननु नक्षत्रा-. णामपि किं गोत्राणि भवन्ति ? इत्यत्राह नक्षत्राणां स्वरूपतो न गोत्रसंभवः किन्तु गोत्रस्वरूप मेतादृशं लोकप्रसिद्धिमगमत् । गोत्रं च प्रकाशकाद्यपुरुषाभिधानतस्तदपत्यं सन्तानो, गोत्रमभिधी; यते, यथा कश्यपस्यापत्यं सन्तान. काश्यप इति काश्यपाभिधानं गोत्रं-भवति किन्तु न चैवं स्व: रूपं गोत्रमत्र नक्षत्राणां सभवति, तेपामौपपातिकजन्मत्वेनापत्यत्वासंभवात् तत इत्थं गोत्रसं Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा प्रा. १६ अष्टाविंशतिनक्षत्राणां गोत्राणि ३६३ भवो ज्ञातव्यः- यन्नक्षत्रं शुभाशुभग्रहैराक्रान्तं भवेत् तद्गोत्रोत्पन्नस्य पुरुषस्य यथाक्रमं शुभमशुभं - वा भवति यथा - अभिजिन्नक्षत्रे यदि शुभग्रहो वर्त्तते तदा मुद्वलायनगोत्रोत्पन्नस्य पुरुषस्य शुभ. फलजनकं भवतीत्येवमधिकृत्य गोत्राणा प्रश्नोपपत्तिर्जातेति । अत्र जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिप्रोक्ता गोत्र - नामसग्राहिकाश्चतस्रो गाथाः प्रदर्थन्ते "मोग्गल्लायण १ संखायणे २ य तह अग्गभाव ३ कण्णल्ले ४ | तत्तोय जोकणे ५, धणंजए ६ चेव बोद्धव्वे ॥१॥ पुस्सायण, अस्सायण ८, भग्गवेसे ९ अग्गिवेसे १० य । गोयम ११ भारढाए १२, लोहिच्चे १३ चेववासि १४ ॥२॥ उज्जायण १५ मंडव्यायणे १६ य पिंगायणे १७ य गोवल्ले १८ । 1 कासव १९ को सिय २० दग्भिय २१ चाम (भाग) रच्छा २२ । य मुंगाए २३ ॥३॥ गोलव्यायण २४ तिमिच्छायणे २५ य कच्चायणे २६ हवइ मूले । तत्तो य वज्झियायण २७ चग्धावच्चे २८ य गोत्ताई || ४ || " छाया — मुद्गलायनं १ सख्यायनं २ च तथा अग्रभावम् ३ कर्णलायनम् ४, ततथजोउ-कर्णि ५ धनञ्जयं ६ चैत्र वोद्वव्यम् ॥ १॥ पुष्यायनं ७ अश्वायनं ८ भग्नवेश्यं ९ च अग्निवेश्यं १० च । गौत्तमं ११ भारद्वाजं १२ लौहित्यं १३ चैव वागिष्टम् १४ ॥ २ ॥ ऊर्जायनं १५ माण्डव्यायनं १६ च पिङ्गायनं १७ च गोवल्लं १८ । काश्यपं १९ कौशिकं २० दर्भिकं २१ चाम (भाग) रच्छं २२ च सुँगाकम् २३ ||३|| गोल्यायनं २४ चिकित्सायनं २५ च कात्यायन -- २६, भवति मूले। ततश्च वञ्झिकायनं २७ व्याघ्रापत्यं २८ च गोत्राणि ॥४॥ इति सूत्र, इति चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका व्याख्यायां दशमस्य प्राभृतस्य षोडशं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥ १० ॥ १६ ॥ दशमस्य प्राभृतस्य सप्तदशं प्राभृतप्राभृतम् । गतं दशमस्य प्राभृतस्य षोडशं प्रामृतप्राभृतम्, तत्र नक्षत्राणां गोत्राण्यभिहितानि । अथ सप्तदर्श प्राभृतप्राभृतं प्रारभ्यते, अत्र नक्षत्राणां भोजनानि प्रतिपादनीयानीति, तद्विषयं सूत्रमाह--- ' ता कहते भोयणा' इत्यादि । 1. मूलम् ता कहते भोयणा आहिया ? तिवएज्जा । ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खताणं कत्तियाहिं दहिणा भोच्चा कज्जं साहिति !, रोहिणीहिं वसभमंसं भोच्चा कज्जे ' साहिति २, मिगसिरेण मिगमंसं भोच्चा कज्जं साहिंति ३, अद्दाहिं णवणीएणं भोच्चा कज्जं साहिति ४, पुणव्वसुणा घएणं भोच्चा कज्जं साहिति ५, पुस्सेणं खीरेणं W Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे भोच्चा कज्ज साहेति ६, अस्सेसाए दीवगमंस भोच्चा कज्ज साहेति ७, मघाहिं कसोतिं (कंसार) भोच्चा कज्ज साहिति ८, पुव्वा फग्गुणीहिं मेढगमंसं भोच्चा कज्ज साति ९, उत्तराफग्गुणीहिं णक्खीममं भोच्चा कज्ज साहिति १०, हत्थेणवत्थाणीएण भोच्चा कज्ज साहेति ११ चित्ताहिं मुग्गसूपेण भोच्चा कज्ज सहिति १२, साइणा फलाई भोच्चा कज्जं साहेति १३, विसाहाहि अतसियं भोच्चा कज्ज साहेंति १४, अणुराहाहि मासकूरं भोच्चा कज्जं साहेति १५, जेहाहिं कोलट्ठिएणं भोच्चा कन्न साहिति १६, मूलेणं मूलगसाएणं भोच्चा कज्ज साहेति १७, पुव्वासाढाहिं आमलगसरीरं भोच्चा कन्जं साहिति १८, उत्तरासाढाहिं विल्लेहिं भोच्चा कज्ज साहिति १९, अभीइणा पुप्फेहि भोच्चा कज्ज साहिति २०, सवणेणं खीरेण भोच्चा कज्ज साहिति २१, धणिहाहिं जूसेणं भोच्चा कज्ज साहेति २२, सयभिसयाए तुवराओ भोच्चा कज्ज साहिति २३, पुच्चापोहवयाहि कारिल्लएहिं भोच्चा कर्ज साहेति २४, उत्तरापोवयाहिं वराहमसं भोच्चा कज्ज साहेति २५, रेवईहिं जलयरमंस भोच्चा कज्ज साहेति २६, अस्सिणीहि तित्तिरमंस अहवा बट्टगमंस भोच्चा कज्ज साहेति २७, भरणीहिं तिलतंदुलगं भोच्चा कज्ज साहेति २८, । सू० । १॥ दसमस्स पाहुडस्स सत्तरसमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥१०॥ छाया-तावत् कय ते भोजनानि अख्यातानि ? इति वेदत् । तावत् एतेषां खलु जष्टाविंशते नक्षत्राणां कृतिका सुघ्ना भक्त्वा कार्य साधयन्ति १, रोहिणीपु वृपभमांस भुक्त्वा कार्य साधयन्ति २, मृगशिरसि मृगमांसं भुक्त्वा कार्य साधर्यान्त ३ आद्रो सुनवनीतेन भुक्त्वा कायं साधयन्ति ४ पुनर्वसी धृतेन भुक्त्वा कार्य साधयन्ति ५ पुष्ये क्षीरेण भुक्त्वा कार्य साधयन्ति ६ अश्लेपायां द्वीपक मांसं भुक्त्वा कार्य साधयन्ति ७ मधासु कसो ति (कसार) भुक्त्वा कार्य साधयन्ति ८ पूव फल्गुनीपु मण्डूकमांसं भुक्त्वा कार्य साधन्ति९ उत्तराफाल्गुनीपु नखिमांस भुक्त्वा कार्य साधयन्ति १० हस्तेवत्थाणीएण वस्त्रानीकेन भुक्त्वा कार्य साधयन्ति ११ चित्रासु मुद्रूपेणभुक्त्वा कार्य साधयन्ति १२ स्वातौ फलानि भुक्त्वा कार्य साधयन्ति १३ विशाखासु अतसिकां भुक्त्या कार्य साधर्यान्त १४ अनुराधा सुमापकूरं भुक्त्वा कार्य साधयन्ति १५ ज्येष्ठासु कोलास्यिकेन भुक्त्वा कार्य साधयन्ति १६ मूले मूलकशाकेन भुक्त्वा कार्य साधयन्ति १७ पूर्वाषाढासु अमठक शरीरं भुक्त्वा कार्य साधयन्ति १८ उत्तरापाढासु दिल्यः भुक्त्वा कार्य साधयन्ति १९ अभिजिति पुष्पैः भुक्त्वा कार्य साधयन्ति २० श्रवन क्षीरेण भुक्त्वा काय साधयन्ति २१ धनिष्ठासु यूपेण भुक्त्वा कार्य साधयन्ति २३ पूर्वा प्रोप्ठपदासुकारवेलकैः भुक्त्वा कार्य साधयन्ति २४ उत्तरा प्रोष्ठपदासु वराहमांसं भुक्त्वा काय साधयन्ति २५ रेवतीपु जलचरमांसं भुक्त्वा कार्य साधः यन्ति २६ अश्विनीपु तित्तिरिमाम् अथवा वर्तकमासं भुक्त्वा कार्य साधयन्ति २७ भरणीषु तिलतन्दुलक भुक्त्या कार्य साधयन्ति २८ ॥ १ ॥ दशमस्य प्राभृतस्य सप्तदश प्रामृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१०॥ १७ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका टोका प्रा. १० प्रा०मा १७ नक्षत्राणां भोजनानि ३६५ व्याख्या --- 'ता कहं ते भोयणा' इति, 'ता' तावत् 'कहं' केन प्रकारेण हे भगवान् ! 'ते' त्वया 'भोयणा' भोजनानि केषु केषु नक्षत्रेषु कानि कानि भोजनानि करणीयानीति 'आहिया' आख्यातानि कथितानि ' ' त्ति वएज्जा' इति वदेत् कथयतु हे भगवन् ! । `एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह - ' ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषा खलु 'अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' अष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये 'कत्तियाहि' कृत्तिकासु कृत्तिका नक्षत्र दिने 'दहिणा' दध्ना सह भोजनं 'भोच्चा' भुक्त्वा गमने लोकाः 'कज्जं साहति' कार्यं साधयन्ति, कृत्तिकानक्षत्रदिने यदि पुमान् दधि भुक्त्वा कार्यार्थ गच्छति तदा तस्य तत्कार्यं सिध्यतीति भावः ? एवं सर्वत्र भावना करणीया, सुगमत्वान्न व्याख्यायते । वस्तुत इदं सप्तदशं प्राभृतप्राभृतं न भगवता प्रतिपादितं किन्तु केनाऽप्यत्र प्रक्षिप्तमिति प्रतिभाति, नेयं भाषाशैली भगवतो लभ्यते, यतोऽत्र सूत्रे कुत्रचित् 'कत्तियाहिं रोहिणीहिं, अद्दाहिं' इत्यादि तृतीया बहुवचनं लभ्यते कुत्रचिच्च 'पुणव्वसुणा पुस्सेणं, अद्दाए' इत्यादि तृतीयैकवचनं लभ्यते । अन्यच्च भोज्यवस्तुविपये कुत्रचित्तृतीया कुत्रचिद्वितीया च । यथा - " दहिणा भोच्चा, णवणीएण भोच्चा, खीरेण भोच्चा' इति तृतीया कुत्रचिच्च यत्र मांसविपयकथनं तत्र द्वितीया, यथा"वसभ मंसं भोच्चा, मिगमंसं भोच्चा, दीवगमंस मोच्चा" इत्यादि, एवमव्यवस्थित जल्पनेन ज्ञायते नेदं भगवता प्ररूपितमिति । अन्यच्च कतिपयस्थलेषु स्थलचर जलचर - खेचर प्राणिनां मांसभक्षणं कार्यसिद्धौ कारणत्वेन प्रतिपादितं तत्तु नितान्तमसङ्गतमेव, यतः पट्कायप्रतिपालकस्य पट्कायरक्षणोपदेशतत्परस्य च भगवतो मुखान्नैष मासभक्षण विधिर्भवितुमर्हति शास्त्रेषु कुत्रापि 'नैतादृशी वाणी भगवत' समुपलभ्यतेऽतो निश्चीयते - नेदं भगवदुपदेशविपयकमिति । अस्तु अन्यदपि सयुक्तिकं कारणं श्रूयताम् शास्त्रेषु सर्वत्र नक्षत्राणां गणना - अभिजिन्नक्षत्रादारभ्यैव कृता युगस्याद्यदिवसेऽभिजित एव सद्भावात् । अत्रैव शास्त्रे पूर्वं दशम प्राभृतस्य प्रथमे प्रभृतप्रा आदावेव सूत्रमिदम् "ता कहं ते जोगेति वत्थुस्स आवलियाणिवाए आहिएति वएज्जा, तत्थ खलु. इमाओ पंच पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एवमाहंसु ता सव्वेवि णक्खत्ता कत्तियादियाभरणी पज्जवसाणा एगे एवमाहंसु || १ ||" इयमन्यतीर्थिकाना प्रथमा प्रतिपत्तिः एते . कृत्ति - कादीनि भरणी पर्यवसानानि नक्षत्राणि मन्यन्ते एवमन्यतीर्थिकानां पञ्च प्रतिपत्तयः सन्ति । तत्र; द्वितीयाः-‘मघादिकानि अश्लेषा पर्यवसानानि सर्वाणि नक्षत्राणि' इति २, तृतीयाः- धनिष्ठादीनि श्रवणपर्यवसानानि' इति ३ चतुर्थाः अश्विन्यादीनि रेवती पर्यवसानानि सर्वाणि नक्षत्राणि' इति कथयन्ति |५| एता पञ्चापि प्रतिपत्तयो मिथ्या रूपा इति कथयित्वा भगवान् स्वमतं प्रदर्शयति “दयं पुण एवं वयामो— सव्वेवि णं णक्खत्ता अभिई आइया उत्तरासाढापज्जव - साणा पण्णत्ता, तंजहा - अभिई सवणो जाव उत्तरासाढा ||" इति । ""," } Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे __ अस्य मलयगिरि सूरिणा कृता 'टीका यथा-- "युगस्य चादिः प्रवर्तते श्रावणमासि बहुलपक्षे प्रतिपदितिथौ वालवकरणे अभिजिन्नक्षत्रे चन्द्रेण सह योगमुपागच्छति (सति) तथा चोक्तम्-ज्योतिएकरण्डके सावण बहुलपडिवए वालवकरणे अभिईनक्खत्ते । सव्वत्थ पढमसमये जुगस्स आई वियाणाहि ॥१॥ इति 'सव्वत्थ' सर्वत्रेति भरतैरवते महाविदेहे च । इत्थं सर्वेपामपि कालविशेषाणामादौ चन्द्र योगमधिकृत्याभिजिन्नक्षत्रस्य वर्त्तमानत्वादभिजिदादीनि नक्षत्राणि प्रज्ञप्तानि" इति टीका । __अत्र कृत्तिकातो भरणी पर्यवमानानि नक्षत्राणि प्रथमान्यतीथिकैः-संमतानि मन्ति, तन्म तानुसारेणेदं - प्रामृतप्राभृतं दृश्यते । नेदं भगवतो मतमित्यतः स्पष्टं ज्ञायतेऽस्मिन् सप्तदशे प्रामृतप्रमृते भगवतः प्ररूपणा न भवितु महतीत्यलं विस्तरेणेति ॥सू०१॥ ॥इति चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका व्याख्यायां दशमस्य प्रामृतस्य सप्तदशं प्राभृतप्रामृतं समाप्तम् ॥१०॥१७॥ दशमस्य प्राभृतस्याष्टादशं प्रामृतप्राभृतम् ॥ तदेवमुक्तं सप्तदशं प्रामृतप्राभृतम्, तत्र नक्षत्राणां भोजनानि प्रोक्तानि । अथाष्टादशं प्रामृतप्रामृतं प्रारभ्यते, अत्र चन्द्रादित्यचारा वक्तव्या इति तद्विपयकं सूत्रमाह-'ता कहते चारा' इत्यादि, मूलम्-ता कहं ते चारा आहिया ति वएज्जा। तत्थ खलु इमे दुविहा चारा पण्णत्ता, तं जहा-आइच्च चारा य चंदचारा य । ता कहते चंदचारा आहिया ति वएज्जा। ता पंच संवच्छरिए णं जुगे अभिई णक्खत्ते सत्तसढिचारे चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ ?, सवणेणं णक्खते सत्तढि चारे चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ २ एवं जाव उत्तरासाढा णक्खते सत्तढि चारे चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ । ता कहं ते आइच्चचारा आहियाति वएज्जा, ता पंच संवच्छरिएणं जुगे अभिईणक्खते पंच चारे सूरेण सद्धिं जोयं जोएइ एवं जाव उत्तरा साढा णवखते पंच चारे सूरेण सद्धिं जोयं जोएइ ॥सू० १॥ दसमस्य पाहुडस्स अट्ठारसमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥१०।१८, छाया-- तावत् कथं ते चारा आख्यानः ? इति वदेत् । तावत् इमे द्विविधाः चाराः प्रशताः, तद्यथा-आदित्यचाराश्च चन्द्रचाराश्च । तावत् कथं ते चन्द्रचारा आख्याताः ? इति वदेत् । तावत् पञ्च सावत्सरिके खलु युगे अभिजिन्नक्षत्रं सप्तपष्टि चारान् चन्द्रेण साघ योग युनकि १ श्रवणः खलु नक्षत्रं सप्तपष्टि चारान् चन्द्रेण साधं योग युनकि २ एवं Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. १८ चन्द्रादित्यचारनिरूपणम् ३६७ यावत् उत्तराषाढ़ानक्षत्र सप्तषष्टिं चारान् चन्द्रेण साधं योग युनक्ति । तावत् कथं ते आदित्य चारा आख्याताः ? इति वदेत् । तावत् पञ्च सांवत्सरिके खलु युगे अभिजिन्नक्षत्रं पञ्च चारान् सूरेण साधं योग युनक्ति ॥सू० १॥ दशमस्य प्राभृतस्याप्टादशं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१०॥१८॥ व्याख्या-'ता कहते चारा' इति 'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण कया सख्यया 'ते' त्वया 'चारा आहिया' चाराः संचरणरूपाः आख्याताः ? 'त्ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् १। एवं गौतमेन पृष्ठे भगवानाह-'तत्थ खलु' तत्र चारविचारे खलु 'इमें वक्ष्यमाणाः 'दुविहा चारा पण्णत्ता' द्विविधाः चाराः प्रज्ञप्ताः 'तंजहा' तद्यथा---'आइच्चचारा य चंदचारा य' आदित्यचाराश्च चन्द्रचाराश्च । प्रथमं गौतमश्चन्द्रचारविषये पृच्छति-'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण संख्यामधिकृत्य 'चंद चारा' चन्द्रचारा 'आहिया' आख्याता 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवन् ? । भगवानाह'ता' तावत् 'पंच संवच्छरिएणं' पञ्च सांवत्सरिके चन्द्र-चन्द्रा-ऽभिवर्धित-चन्द्रा-ऽभिवर्धितरूप पञ्च सवत्सरात्मके खलु 'जुगे' युगे 'अभिईणक्खत्ते' अभिजिनक्षत्र 'सत्तसहिचारे' सप्तषष्टि चारान् यावत् सप्तपष्टिचारपर्यन्तं "चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ' चन्द्रेण सार्ध योगं युनक्ति, एकस्मिन् युगे पञ्च सवत्सरात्मके चन्द्रोऽभिजिन्नक्षत्रेण सह संयुक्तो भूत्वा सप्तपष्टिसंख्यकान् चारान् चरतीति भावः, एकस्मिन् युगे चन्द्राभिजिन्नक्षत्रयोः सप्तपष्टिवारान् संयोगो भवतीति तात्पर्यम् । एतत्कथं-ज्ञायते ? अत्राह-इह योगमाश्रित्य चन्द्रस्य समस्तनक्षत्रचक्रपरिभ्रमणपरिसमाप्तिरेकेन नक्षत्रमासेन जायते, अतः प्रत्येकस्मिन् नक्षत्रमासे एकैकस्मिन्नहोरात्रे चन्द्रेण सह एकैकनक्षत्रयोगसंभवाद् युग सम्बन्धिपु सप्तषष्टिमार्गेपु सप्तषष्टिवारान् चन्द्रस्याभिजिता सह योगसमुपपत्तिर्लभ्यते ततश्चन्द्रोऽभिजिता नक्षत्रेण सह संयुक्तः सन् युगमध्ये सप्तषष्टिसंख्यकान् चारान् चरतीति सिद्धयति । एवं रीत्या सर्वनक्षत्रैः सह चन्द्रयोगो विज्ञेयः, यतः येन नक्षत्रेण सह यस्मिन् नक्षत्रमासे चन्द्रस्य योगो भवति स पुनश्चन्द्रस्य योग स्तेन नक्षत्रेण सह द्वितीये नक्षत्रमासे भविष्यति प्रत्येकमासे एकैकनक्षत्रेण सह चन्द्रयोगसद्भावात् । एवम् 'सवणेणं णक्खते' श्रवणः खलु नक्षत्रं 'सत्तर्हि चारे' सप्तषष्टिं चारान् यावत् 'चंदेण सद्धिं' चन्द्रेण साध 'जोयं जोएई' योगं युनक्ति । 'एवं जाव' एवम्-अनेन क्रमेण यावत् यावत्पदेन धनिष्ठात आरभ्य पूर्वाषाढा नक्षत्रपर्यन्तानि पञ्चविंशतिरपि नक्षत्राणि एकस्मिन् युगे प्रत्येक मधिकृत्य सप्तपष्टिं २ चारान् चन्द्रेण सह योगं युञ्जन्ति । अथाष्टाविंशतितमं नक्षत्रमाह- 'उत्तरासाढाणक्खत्ते उत्तराषाढानक्षत्रं 'सत्तद्विचारे' सप्तपष्टिं चारान् 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ' चन्द्रेण सार्ध योगं युनक्तीति २८॥ अथादित्यचारान् प्रदर्शयति-गौतमः पृच्छति-'ता कहते आइच्चचारा' इत्यादि, 'ता' तावत् 'कह' कथं कया रीत्या कया संख्ययेत्यर्थः 'ते' त्वया । 'आइच्च चारा' आदित्य Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ चन्द्रप्रचाप्तिसूत्रे चारा 'आहिया' आख्याताः कथिताः ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् ! । एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह-'ता' तावत् 'पंचसंवच्छरिएणं जुगे' पञ्चसावत्सरिके पूर्वोक्त पञ्च संवत्सरात्मके खल युगे 'अभीईनक्खत्ते' अभिजिन्नक्षत्र 'पंचचारे' पञ्चचारान् यावत् 'सूरेण सद्धिं' सूरेण साधं 'जोय जोएइ' योगं युनक्ति । कथमित्याह-अत्र योगमाश्रित्य सूर्यस्य समस्त नक्षत्रचक्रचारपरिसमाप्तिरेकेन सूर्यसवत्सरेण जायते, ते च सूर्यसवत्सरा एकस्मिन् युगे पञ्चैव भवन्ति ततः प्रत्येकस्मिन् संवत्सरे एकैकस्मिन् मासे एकैकनक्षत्रयोगसनावात् युगसम्बन्धिपु पञ्चसु संवत्सरेपु पञ्चवारानेव सूर्यस्याभिजिता सह योगसमुपपत्तिर्लभ्यते ततोऽभिजिन्नक्षत्रेण सह संयुक्तः सूर्य एकस्मिन् युगे पञ्च चारान्चरतीति सिध्यति । एवं रीत्या सर्वनक्षत्रैः सह सूर्ययोगएकस्मिन् युगे पञ्चचारान् यावत् भवतीति विज्ञेयम् । ततः यत्मिन् सवत्सरे येन नक्षत्रेण संह'सूर्यस्य योगो भवति स पुनः सूर्यस्य योगस्तेन नक्षत्रेण सह द्वितीये सवत्सरे भविष्यति प्रत्येक सवत्सरे एकैकनक्षत्रेण सह सूर्ययोग सद्भावात् ‘एवं' एवम्-अनया रीत्या 'जाव' यावत् अत्र यावत्पदेन श्रवणनक्षत्रादारभ्य पूर्वापाढानक्षत्रपर्यन्तानि पड्विंशतिनक्षत्राणि एकस्मिन् युगे प्रत्येक पञ्च पञ्चचारान् सूर्येण सह योगं युञ्जन्ति । अथाष्टाविंशतितमनक्षत्रमाह-'उत्तरासादानक्खते' उत्तरापाढानक्षत्रं 'पंचचारे' पञ्चचारान् 'सुरेण सद्धि' सूर्येण साधं 'जोयं जोएइ' योगं युनक्तीति । २८ ॥सू० १॥ ' ' चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्रे चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका व्याख्यायां दशमस्य प्रामृतस्य अष्टादशं प्रामृतप्रामृतं समाप्तम् ॥१०॥१८॥ ॥ दशमस्य प्राभृत्तस्यैकोनविंशतितमं प्राभृतप्राभृतम् ॥ गतमष्टादशं प्रामृतप्रामृतम् तत्र चन्द्रचारा आदित्यचाराश्च प्रदार्शिताः । अथैकोनविंशतितमं प्रामृतप्राभृतं प्रारभ्यते, अत्र संवत्सरस्य मासा वक्तव्या इति तद्विपयं सूत्रमाह-'ता कहते मासा' इत्यादि। मूलम्-ता कहं ते मासा आहिया ? तिवएज्जा । ता एगमेगस्स णं संवच्छरस वारस मासा पण्णत्ता । तेसिं च णं वारसण्डं मासाणं दुविदा नामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा लोइया लोउत्तरिया य। तत्थ लोइया नामा सावणे, भवए २, आसोए ३, जाव आसाढे १२ । लोउत्तरिया णामा-"अभिणंदे १, सुपाढे २ य, विजए ३ पीइवद्धणे ४१ सेज्ज से ५ य सिवइ यावइ, सिसिरे ७ वि य हेमवं ८॥१॥ नवमे वसंतमासे ९, दसमे कुसुम संभवे १० एगारसमे णिदाहे ११, वण विरोही य वारसे ॥२॥ सू० १ . दसमस्स वाहुडस्स गूणवीसइमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥१० १९॥ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा १० प्रा. प्रा. १९ लौकिक लोकत्तरमासनामानि ३६९ छाया - तावत् कथं ते मासा आख्याताः १ इति वदेत् । तावत् एकैकस्य खलु संवत्सरस्य द्वादशमासाः प्रज्ञताः । तेषां च खलु द्वादशानां द्विविधानि नामधेयानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-लौकिकानि लोकोत्तराणि च । तत्र लौकिकानि नमाने - श्रावणः १, भाद्रदः २ आश्वितः ३, यावत् आपादः १२ । लोकोत्तराणि नामानि - अभिनन्दः १ सुप्रतिष्ठश्वर, विजय. ३ प्रोतिवर्धनः ४ । पश्च ५ शिवश्चापि ६, शिशिरः ७ अपि च है पचान् ॥१॥ नमो वनमास ९ दशमः कुः१० । पकादशो निदाधः ११ वनविरोधी व द्वादशः १२॥२॥ सू० १॥ दशमस्य प्राभृतस्य एकोनविंशतितमं प्राभृतनाभृतं समाप्तम् ||१०|१९|| व्याख्या - ' ता कहते सासा' इति । 'ता' तावत् 'क' कथं केन प्रकारेण किंनामधेयाः 'ते' वा 'मासा आहिया' मासा आख्याना' कथिता : 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् एवं गौतमेन पृष्ठे भगवानाह - ता' तावत् 'एग वेगस्स णं संच्छर' एकैकस्य खलु संवत्सरस्य ‘बारसगासा पण्णत्ता' द्वादश द्वादश मासाः प्रज्ञता 'तेसिं च णं वारस - मासाणं' तेषां च खलु द्वादशानां मासानां 'दुचिता नामभेज्जा पण्णत्ता' द्विविधानि नामधेयानि प्रज्ञतानि लौकिकानि लोकोत्तराणि च ' तत्थ' तत्र लौकिकलोकोत्तराणां मध्ये 'लोइया नामा' लौकिकानि नामानि, तथाहि 'सावणे १, भवए २, आसोए ३,' श्रावणः १, भाद्रपद २, आश्विनः ३, 'जाव आसाढे' यावत्-आपाढः १२, अत्र यावत्पदेन कार्तिकः ४, मार्गशीर्षः ५, पौपः ६, माघः ७, फाल्गुनः ८, चैत्रः ९, वैशाखः १०, ज्येष्ठः ११, एपां संग्रहः कर्त्तव्यः । द्वादश आषाढ इति सूत्रे कथितमेवेति । लोउत्तररिया० नामा लोकोत्तराणि नामानि यथा - अभिगंदे पट्टे' अभिनन्दः १, सुप्रतिष्ट २ श्व, 'विजए पीइवद्धणे' विजयः ३ प्रीतिवर्धनः ४ । 'सेज्जसे य सिवे यावि' श्रेयांसश्च ५ शिवश्चापि 'च' तथा शिवनामापि च षष्ठो मासः ६ । शिशिरः ७, अपि च तथा हेमवं' 'हैमवान् ८ || १ || 'नवमे वसंतमासे' नवमो वसंतमासः वसन्ता - भिधो नवमी मासः ३, 'दसमे कुसुमसंभवे' दशमो मासः कुसुमसंभवः १० इति । एगारसमे णिदाहे' एकादशी मासः निदाघः ११ इति, 'वण विरोही य' वनविरोधी च 'चारसे' द्वादशः १२ ॥ २ ॥ सू० १ ॥ " " ॥ इति चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका व्याख्यायां दशमस्य प्राभृतस्य एकोनविशति तमं प्राभृत प्राभृतं समाप्तम् || १० | १९ ॥ ॥ दशमस्य प्राभृतस्य विंशतितमं प्राभृतप्राभृतम् ॥ व्याख्यातमेकोनविंशतितमं प्राभृतप्राभृतम्, तत्र लौकिकलोकोत्तरमासानां नामान्यभिहि तानि । अथ विंशतितमं प्राभृतप्राभृतं प्रोच्यते, तत्र संवत्सराः वक्तव्या इति तद्विपयकं सूत्रमाह 'ता कहं ते संवच्छरा' इत्यादि । ४७ 44 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० चन्द्रप्रवप्तिसूत्रे मूलम्-ता कहं ते संवच्छरा आहिया ति वएज्जा । ता पंच संवच्छरा आहिया, ति वएज्जा तं जहा-णक्खत्तसंवच्छरे १, जुगसंवच्छरे २, पमाणसंवच्छरे ३, लक्खणसंवच्छरे ४, सणिच्छरसंवच्छरे ॥सू० १॥ छाया-तावत् कथ ते संवत्सरा आख्याता इति वदेत् तद्यथा-नक्षत्रसंवत्सरः१, युगसंवत्सरः २, प्रमाणसंवत्सरः ३, लक्षणसंवत्सर ४, शनैश्चरसंवत्सरः सू०१॥ व्याख्या-गौतमः पृच्छति-'ता कहं ते संवच्छरा' इति तावत् हे भगवन् 'कह' कथं कतिसंख्यका 'ते' त्वया 'संवच्छरा' संवत्सराः 'आहिया' आख्याताः ? इति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु । भगवानाह-'ता' तावत् 'पंच संवच्छरा' आहिया' पञ्च संवत्सरा 'अहिया' मया आख्याताः 'ति वएज्जा' इति वदेत् कथयेत् स्वगिष्येभ्यः । 'तं जहा' तद्यथाते पञ्च संवत्सरा यथा-'णक्खत्त संवच्छरे' नक्षत्रसंवत्सरः तत्र यावताकालेन अष्टाविंशति नक्षत्रैः सह चन्द्रस्य योगसमाप्ति भवेत् यावत् कालेन चन्द्रोऽष्टाविंशती नक्षत्रेषु भोगं कृत्वा तेभ्यः पृथग भवेत् तावत्परिमितः कालविशेपो नक्षत्रमासो भवति ते नक्षत्रमासा यावता कालेन द्वादश व्यतीता भवन्ति तावत्परिमितः कालविशेपो नक्षत्रसंवत्सरः कथ्यते, अथ च एको नक्षत्रमासो द्वादशभिर्गुणितो नक्षत्रसंवत्सरो भवति, उक्तञ्च "नक्खत्तं चंद जोगो वारस गुणिओ य नक्खत्तो ।।" छाया-~-नक्षत्रचन्द्रयोगः द्वादशगुणितश्च नाक्षत्रः (संवत्सरः) । इति । अत्र पुनरेकेन ऊनिकृतो नक्षत्र पर्याय योग एको नक्षत्रमासः-सप्तविंशतिरहोरात्राः, एकस्याहोरात्रस्य एकविंशतिः सप्तपष्टि भागः (२७-) एतावत्परिमितो भवति । एप एकस्य नक्षत्रमासस्याहोरात्रपरिमाणरूपो राशिर्यदा द्वादशभिर्गुण्यते तदा यस्तड्गुणनफलराशि भवेत् तत्परिमिताहोगत्रप्रमाणो नक्षत्रसंवत्सरो भवति, तच्च गुणनफलमेतावत्परिमितं भवति-सप्तविंशत्यधिकानि त्रीणि अहोरात्रशतानि, एकस्याहोरात्रस्य च एकपञ्चाशत् सप्तपष्टिभागाः(३२७५३) इति कथमेतदवसीयते इति तद्गणितं प्रदर्श्यते - एकनक्षत्रमासाहोरात्र (२०२१) द्वादशभिर्गुणने प्रथम सप्तवशिति दशभिर्गुण्यते जातानि चतुर्विशत्यधिकानि त्रीणि शतानि (३२४) तत उपरितनो रागिरेकविंशतिः (२१) एपोऽपि द्वादशभिर्गुण्यते जाते द्विपञ्चाशदधिके द्वेशते (२५२), ततोऽस्याऽहोरात्रानयनार्थ सप्तपष्टया भागो हियते लब्धास्नया, पते पूर्व स्थितेऽहोरत्रराशौ (३२४) प्रक्षिप्यन्ते जातानि मप्तविंशत्यधिकानि Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका 'टीका प्रा.१० प्रा०प्रा २० संवत्सरस्वरूपनिरूपणम् ३७१ त्रीणि शतानि शेषा एक पञ्चाशत्सप्तषष्टिभागाः (३२७-५) तदेवमायातं नक्षत्रसंवत्सराहोरात्र ६७ प्रमाणम्, एतावदहोरात्रप्रमाणो नक्षत्रसंवत्सरो भवतीति १ । द्वितियः 'जुगसंवच्छरे' युगसंवत्सरः, तत्र युगं पञ्च संवत्सरात्मकम् तत्पूरकः संवत्सरो युगसंवत्सरः । यदा चान्द्र-चान्द्राऽभिवर्धितचान्द्राऽभिवर्धितरूपाः पञ्च संवत्सराः परिपूर्णा व्यतीता भवेयुस्तदा एको युगसंवत्सरः परिपूर्णो भवतीति ।२। तृतीयः ‘पमाण संवच्छरे' प्रमाणसवत्संरः युगस्य प्रमाणहेतुः संवत्सरः प्रमाणसंव त्सरः । 'लक्खण संवच्छरे' लक्षणसंवत्सरः, लक्षणेन यथावस्थितेन उपेतः संवत्सरो लक्षणसंवत्सरः ४ । 'सणिच्छरसंवच्छरे' शनैश्चरसंवत्सरः, शनैश्चरेण निप्पादितः संवत्सरः पञ्चमःशनैश्चरसंवत्सरः ५ ॥ सू० १॥ पूर्व पञ्चापि संवत्सरा नामतः प्रतिपादिताः, अथैतेषां यथाक्रमं भेदान् प्रदर्शयति'ता नक्खत्तसंवच्छरे' इत्यादि । मूलम्-ता णक्खत्तसंवच्छरेणं दुवालसविहे पण्णत्ते, तं जहा सावणे १ भदवए २ जाव आसाढे १२। जं वा वहस्सई महग्गहे दुवालसहिं संवच्छरेहिं सव्वं णक्खत्तमंडलं समाणेइ ॥सू० २॥ छाया- तावत् नक्षत्रसंवत्सरः खलु द्वादशविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा श्रावणः १ भाद्रपदः २, यावत् आपाढः १२२ यद्वा वृहस्पति महा ग्रहः द्वादशभिः संवत्सरैः सर्व नक्षत्रमण्डलं समानयति । सु० २॥ व्याख्या-'ता' तावत् प्रथमं नक्षत्रसंवत्सरः कथ्यते–'णक्खत्तसंवच्छरेणं' नक्षत्रसंवत्सरः खलु 'दुवालसविहे पण्णत्ते द्वादशविधः द्वादशप्रकारकः प्रज्ञप्तः कथितः, 'तं जहा' तद्यथा-'सावणे भदवए' श्रावणः १, भाद्रपदः २, 'जाव आसाढे' यावत् आपादः १२॥ यावत्पदेन-आश्विनः २ कार्तिकः ४ मार्गशीर्षः ६ पौषः ६ माघः ७ फाल्गुनः ८, चैत्र: ९ वैशाखः १०, ज्येष्ठः ११, एते नव मासा गृह्यन्ते । इह-एकः समस्त नक्षत्रयोगपर्यायो द्वादशभि गुणने नक्षत्रसंवत्सरो भवति । एवं ये नक्षत्रसंवत्सरस्य पूरका द्वादश समस्तनक्षत्रयोगपर्यायाः श्रावण भाद्रपदादिनामानस्तेऽपि अवयवे समुदायोपचारान्नक्षत्रसवत्सर इति । यथा-श्रावणादारभ्याषाढपर्यन्तः कालविशेषः नक्षत्रसवत्सरः १। एवं सर्वत्र संयोजनीयम् । अथ द्वितीय प्रकारमप्याह-'जं वा' इत्यादि, 'जं वा' यद्वा-अथवा-'वहस्सई महग्गहे' बृहस्पतिर्महाग्रहः 'दुवालसहि संवत्सच्छरेहि' द्वादशभिः सवत्सरैः 'सव्वं नक्खत्तमंडलं' सर्वमष्टाविंशति नक्षत्रात्मकं नक्षत्रमण्डलं योगमधिकृत्य परिभ्रमणेन 'समाणेइ' समानयति समापयति, एषोऽपि नक्षत्र संवत्सर Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ चन्द्रप्रशप्तिसूत्र शब्देन कथ्यते, अयमाशयः यत् यावता कालेन बृहस्पतिनामा महाग्रहो नक्षत्रैः सह योगमाश्रित्याभिजिदादीनि अष्टाविंशतिमपि नक्षत्राणि परिसमापयति तावत्परिमितो द्वादशवर्षात्मको नक्षत्रसंवत्सरो भवतीति प्रथमः संवत्सरः ।१॥ सू० २।। अथ द्वितीयं युगसंवत्सरमाह-'ता जुगसंवच्छरेणं' इत्यादि । मूलम्-ता जुगसंवत्सरेणं पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-चंदे १ चंदे २ अभिवड्ढिए ३ चंदे ४ अभिवइढिए ५। ता पढमस्स णं चंदसंबच्छरस्स चउव्वीस पत्रा पण्णत्ता १। दोच्चस्स चंदसंवच्छरस्स चउवीसं पचा पण्णत्ता २। तच्चस्स णं अभिवढिय संवच्छरस्स छब्बीसं पवा पण्णत्ता ३। चउत्थस्स णं चंदसंवच्छरस्स चउवीसं पव्या, पण्णत्ता ४। पंचमस्स णं अभिवड्ढयवच्छरस्स छव्वीसं पचा पण्णत्ता ५। एवामेव सपुव्वावरेणं पंचसंवच्छरिए जुगे एगे चउवी से पन्चसए भवतीति मक्खायं ॥सू० ॥ छाया-तावत् युगसंवत्सरः खलु पञ्चविधः, प्राप्तः तद्यथा-चान्द्रः १, चान्द्रः २, अभिवद्धितः३, चन्द्र अभिवदितः५ तावत् प्रथमस्य खलु चान्द्रसंवत्सरस्य चतुर्विशति पर्वाणि प्रनप्तानि । द्वितीयस्य खलु चान्द्रसंवत्सरस्य चतुर्विंशतिः पाणि प्रज्ञप्तानि । तृतीयस्थ खलु अभिवद्धित संवत्सरस्य पदिशतिः पर्याणि प्रजातानि ३ चतुर्थस्य खलु चान्द्रसंवत्सरस्य चतुर्विशतिः पणि प्रतानि पञ्चमस्थ खलु अभिवद्धित संवत्सरस्य षड्विशतिः पर्वाणि प्रनप्तानि ५। पचमेव सपूर्वापरेण पञ्चसांवत्सरिके युगे चतुर्विश पर्वशतं (१२४) भवतीत्याख्यातम् ॥सू० ॥ व्याख्या- 'ता जुगसंवच्छरेणं' इति, 'ता' तावत् 'जुगसंवच्छरेणं' युगसंवत्सरः खलु युगपूरकः संवत्सरः स खलु 'पंचविहे पण्णत्ते' पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, 'तं जहा' तद्यथा-'चंदे १ चंदे २ अभिवइदिए ३ चदे ४ अभिवइदिए ५, चान्द्रः १ चान्द्रः२ अभिवद्धितः ३ चान्द्रः ४ अमिवर्द्वितः ५' एतन्नामान पञ्च संवत्सराः कथिता इति, तथा चोक्तम् --- चंदी चंदो अभिवइढिओ य चंदोऽभिवडिओ चेव । पंच सहियं जुगमिणं दिदं तेलुक्कदंसीहिं ॥१॥ पढमविया उ चंदा अभिवढियं वियाणाहि । चंद चेव चउत्थं, पचममभिवढियं जाण ॥२॥ छाया-चान्द्रः १ चान्द्रः २ अभिवर्द्धितश्च ३, चान्द्रः ४ अभिवर्द्धितश्चैव ५ पञ्चसहितं युगमिदं दृष्टं त्रैलोक्यदर्शिभिः ॥१॥ प्रथमद्वितीयौ तु चान्द्रौ, तृतीयमभिवति विजानीहि । चान्द्रं चैव चतुर्थं पञ्चममभिवर्द्धितं जानीहि ॥२॥ इति Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा प्रा. २० संवत्सरस्वरूपनिरूपणम् ३७३ . ' अथैते पञ्च चान्द्रादि संवत्सराः पृथक् यथाक्रमं व्याख्यायन्ते, तत्र प्रथम, चान्द्रसंवत्संरस्य व्याख्या क्रियते, तथाहि अमावास्या पौर्णमासीनां द्वादश द्वादश परिवर्ती यावताकालेन परिसमाप्ता भवन्ति तावकालविशेषश्चान्द्रः संवत्सरो निष्यद्यते, उक्तञ्च - . . "आमावासा पूण्णिमा-परियट्ठा जावएण कालेण . .. वारस होति य तावं, संवच्चरो हवइ चंदो ॥१॥ "अमावास्या पूर्णिमा परिवर्तायावत्केन कालेन द्वादश द्वादश भवन्ति च तावान् (कालविशेषः) संवत्सरो भवतिचान्द्रः ।।१।। इतिच्छाया। अमावास्या पूर्णिमा परिवत्तों यावता कालेन भवति सकाल विशेषश्चान्द्रमासः एकस्मिन् चान्द्रमासेऽमावास्या पूर्णिमयोरेकैकयोरेव सद्भावात् । तस्मिंश्च चान्द्रमासे कियन्ति रात्रिन्दिवानि भवन्ति ! इत्यत्राह-एकस्य चान्द्रमासस्य-एकोनत्रिंशदहोरात्राः, एकस्याहोरात्रस्य च द्वात्रिशद्-द्वाषष्टि भवन्ति । एकस्मित् चान्द्रसंवत्सरे द्वादश मासा भवन्तीति 'द्वादर्शभि ण्यन्ते, जातानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि त्रीणि शतानि रात्रिन्दिवानि, एकस्य रात्रिन्दिवस्य द्वादश द्वापष्टिभागाः (३५४१३) एतत्परिमाणश्चान्द्रसंवत्मर आयाति । १ । एवं द्वितीयंश्वान्द्रसंवत्सरीऽपि परिभावनीयः ।। भागाः (२ अथ तृतीयोऽभिवर्द्धितसंवत्सरो व्याख्यायते यस्मिन् संवत्सरेऽधिकमासो भवति सोऽभिः वर्द्धितसंवत्सरः कथ्यते । अस्मिन् संवत्सरे त्रयोदश चान्द्रमासा भवन्ति । तथा .चोक्तम् "तेरस य चंदमासा, एसो अभिवड्डिओ ३ वोद्धव्वो" त्रयोदश च चान्द्रमासाः एषः; अभिवर्द्धितस्तु बोद्धव्यः, इतिच्छाया । अथ चैकचान्द्रमासाहोरात्रसंख्या त्रयोदशभिर्गुणनीया. भविष्यति, सा च संख्या-एकोनत्रिदशदहोरात्राः, एकस्य चाहोरात्रस्य द्वात्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः (२ ३२) इतिपूर्व प्रदर्शितमेव, अस्य राशेस्त्रयोदशभिर्गुणने जातानि त्र्यशीत्यधिकानि त्रिशताहो रात्राणि, एकस्याहोरात्रस्य च चतुश्चत्वारिशद् द्वाषष्टिभागाः (३८३१४ । एतावदहोरात्रपरिमाणोऽभिवर्द्धितसंवत्सरो निप्पद्यते ३ । एवं चतुर्थपञ्चमयोश्चान्द्राभिवद्धितयोरपि संवत्सरयोरहोरा Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे त्रसंख्या परिमावनीया । सर्वसंकलनया एकस्य युगस्य-अष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि अहोरात्राणिभवन्तीति । - अथ कथमधिकमाससंभवः येनाऽभिवर्द्धितसंवत्सर उपजायते ? एपोऽधिकमासश्च कियता कालेन संभवतीति प्रदर्यते-अत्र युगं चान्द्र-चान्द्रा-ऽभिवति-चान्द्रा-ऽभिवर्द्धितेति पञ्चसंवत्सरात्मकं भवति, सूर्यसंवत्सरापेक्षया च विचार्यमाणेऽस्मिन् युगे अन्यूनातिरिक्तानि पञ्चवर्षाणि भवन्ति । अथ सूर्यमासः सार्धत्रिंशदहोरात्रप्रमाणः (३०), चान्द्रमासश्च पूर्व प्रदर्शितो द्वात्रिंश द्वापष्टिभागसहित एकोनत्रिंशदहोरात्रप्रमाणः (२९ ३२) ततो गणितपरिपाट्या सूर्यसंवत्सर सम्बन्धित्रिशन्मासातिक्रमे एकश्चान्द्रमासोऽधिक आयाति । स च कथं लभ्यते इति ज्ञापनायात्र वृद्धसंप्रदायोक्त करण गाथा प्रोच्यते" "चंदस्स जो विसेसो, आइच्चस्स य इविज्जमासस्स तीसइ गुणिओ संतो, हवइ अहिमासगो एक्को" ॥१॥ ___.. छाया-चन्द्रस्य यो विश्लेपः, आदित्यस्य च भवेत् मासस्य | त्रिंशद्गुणितः सन् भवति खलु अधिकमास एकः ॥१॥ इति । अस्या गाथाया अर्थः प्रद्यते-'आइच्चस्स मासस्स' आदित्यस्य मासस्य मध्यात् 'चंदस्स, जो विसेसो हविज्ज' आदित्यसंवत्सरसम्बन्धिनो मध्यात् चन्द्रस्य चन्द्रमासस्य विश्लेपः शोधनरूपो भवेत् स 'तीसइ गुणियो संतो' त्रिंशद्गुणितः सन् ‘एक्को अहिमासओ' एकोऽधिकमासो भवतीति गाथार्थः । एतद्गणितं यथा-सूर्यमासः सार्धत्रिंशद् दिनप्रमाणः (३०॥) चन्द्रमासश्च एकोनत्रिंशद् दिनानि, एकस्य च दिनस्य द्वात्रिंशच्च द्वापष्टिभागाः (२९३२) इतिसूर्यमास दिनेभ्यः चन्द्रमासदिनानि द्वापष्टिभागसहितानि शोध्यन्ते ततः स्थितं पश्चादेकं दिनमेकेन द्वापष्टिभागेन न्यूनम्, एतच्च सूर्यमासात् चन्द्रमासस्य प्रतिमाससत्कं न्यूनत्वम् । तच्च दिनत्रिंशता गुण्यते जातानि त्रिशदिनानि (३०) एकश्च द्वापप्टिभागोऽपि त्रिंशता गुण्यते जाता एकस्य दिनस्य 'त्रिंशद्वापष्टिभागाः (३०) एते त्रिंशद्वापष्टिभागाः त्रिंगदिनेभ्यः शोध्यन्ते, स्थितानि शेपाणि एकोनत्रिंशदिनानि एकस्य च दिनस्य द्वात्रिंशद् द्वापष्टिभागाः (२९३२, । कथमित्याह-त्रिशदिनेभ्य एक रूपं निष्कास्यते,-स्थितानि शेषाणि एकोनत्रिंशहिनानि, निष्कासितस्य एकस्य द्वापष्टि भागकरणार्थं तद् द्वाप घ्या गुण्यते जाता द्वापष्टिः (६२) अस्माद राशे स्त्रिंशत् शोध्यन्ते स्थिताः शेपा द्वात्रिंशद् द्वाप‘ष्टिभागाः (३२) तन आगतो यथोक्त प्रमाणश्चान्द्रमासः (२९-३२) इत्येवरूपो भवति सूर्यसं-. Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. २० संवत्सरस्वरूपनिरूपणम् ३७५. वत्सरस्य त्रिंशन्मासातिक्रमे एकोऽधिकमासः । अत्रान्याऽपि सरला रीतिः प्रदयते-सार्धत्रिशदिनप्रमाणात्सूर्यमासात् द्वात्रिंशद् द्वाषष्टि भागसहितानि एकोनविंशदिनानि, चान्द्रामासस्य शोध्यन्ते स्थितमेकं दिनमेकेन द्वाषष्टिभागेन न्यून, तच्च एक षष्टि पिष्टिभागाः (६१) एतावत्प्रमाणं भवति, एतच्च सूर्यमांसे प्रतिमासं चन्द्रमासस्य न्यूनत्वं सिद्धम्, एतच्च सूर्यस्य त्रिंशन्मासैः संघातीभूय एकश्चन्द्रमासोऽधिको निष्पद्यते तदेव दर्श्यते, एते एकषष्टि षिष्टिभागाः सूर्यस्य 'त्रिंशन्मासै गुण्यन्ते जातानि त्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८३०) द्वापष्टिभागाः, एषां मासदिनानयन) द्वाषष्ट्या भागो हियते लब्धानि एकोनत्रिंशदिनानि स्थिताः शेपा द्वात्रिंशवाषष्टि भागाः। एतावत्परिमितएकश्चन्द्रमास स्त्रिंशता सूर्यमासैरधिकोलभ्यते, अयं भावः-सूर्यस्य त्रिंशन्मासाः चन्द्रस्य एकत्रिंशन्मासैः परिपूर्यन्ते एष एवाधिको मासो, भवतीति । एकस्मिन् युगे पष्टिः सूर्यमासा भवन्ति ततः, पुनरपि सूर्यसंवत्सरस्य त्रिंशन्मासातिक्रमे द्वितीयोऽधिकमासो भवति । एवमेकस्मिन् युगे युगाः , एकैकाधिकमाससंभवाद् द्वौ अधिकमासौ भवतः, तथा चोक्तम् सट्ठीए अइयाए, हवइ हु अहिमासगो जुगद्धमि । वावीसे पव्वसए हवा य वीओ युगद्धम्मि" ॥१॥ . . .-- छाया-पष्टौ अतीतायां भवति खलु अधिकमासो युगार्धे । द्वाविंशति पर्वशते भवति च द्वितीयो युगाधं ॥१॥ इति । अयं भावः-पष्टौ पर्वणाम्-अमावास्या पूर्णिमा रूपाणाम् पर्वणामित्यर्थः षष्टि संख्यायां 'अईयाए'। अतीतायां व्यतिक्रान्तायां सत्याम् त्रिंशतिमासेषु पर्वणां षष्टि' संभवात् तदने 'जुगदम्मि' युगार्धे 'अहिमासो हवइ' अधिकमासो भवति सूर्यस्य त्रिंशन्मासरूपे' युगाधु चन्द्रस्य एकत्रिंशन्मासा इति भावः । एवं 'वावीसे पव्वसए' द्वाविंशत्यधिके पर्वशते द्वार्विशत्यधिकैकशततमे पर्वणि 'व्यतीते सति 'जुगद्धमि' युगार्धे द्वितीये युगाईं युगान्ते इत्यर्थः पुनरपि 'बीओ हवइ' द्वितीयोऽधिमासो भवति, एकस्मिन् युगेऽधिकमासद्वयसंभवादिति 'सूर्यस्य पष्टि मासेषु चन्द्रस्य द्वाषष्टि मासाः परिपूर्णा भवन्तीति भावः, तेन युगमध्ये तृतीये संवत्सरेऽधिकमासः, ततः पञ्चमे, इति युगेऽभिविर्षितसंवत्सरौ द्वौ भवत इति । Fr अथैकस्मिन् युगे सर्वसंख्यया किमन्ति पर्वाणि भवन्तीति प्रदर्शयितुकामः प्रति संवसरस्य पर्वसंख्यामाह-'ता पढमस्स णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'पढमस्स गं' प्रथमस्य खलु 'चंदसंवच्छरस्स'. चान्द्रसंवत्सरस्य 'चउव्वीसं पन्चा पण्णत्ता' चतुर्विंशतिः पर्वाणि अमावास्या पूर्णिमारूपाणि प्रज्ञप्तानि चान्द्रसंवत्सरस्य द्वादशमासात्मकत्वात् , एकैकस्मिन् मासे च पर्वद्वयसद्भावात् ।१। 'दोच्चस्स गं' Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रनप्तिसूत्रे द्वितीयस्य खलु 'चंदसंबच्छरस्स' चान्द्रसंवत्सरस्य 'चउच्चीसं पव्या पण्णत्ता' चतुर्विशतिः पर्वाणि प्रज्ञप्तानि, अत्रैव पूर्वोक्तकारणसद्भावात् ।२। 'तच्चस्स णं' तृतीय स्य खलु अभिव ढिय संवच्छरस्स' अभिवर्द्धितसंवत्सरस्य 'छब्बीसं पचा पण्णता' पविशतिः पर्वाणि प्रज• सानि अस्य त्रयोदशमाससद्भावात् ३ । 'चउत्थस्स णं' चतुर्थस्य खच 'चंदसंबच्छरस्स' चान्द्रसंवत्सरस्य 'चउच्चीसं पचा पण्णत्ता' चतुर्विशतिः पर्वाणि प्रज्ञप्तानि अस्यापि द्वादशमासात्मकत्वात् ।४। 'पंचमस्स णं' पञ्चमस्य खलु 'अभिवढिय संबच्छरस्स' अभिवर्द्धित संवत्सरस्य 'छन्थीम पन्ना पण्णता' पइविंशतिः पर्वाणि प्रजातानि, पूर्ववदस्यापि त्रयोदशमांसात्मकत्वात् ५ । अथ युगपर्वाणां सर्वसंकलनामाह - 'एवामेव' इत्यादि 'एवामेव' एवमेव अनेनैव प्रकारण 'सपुबावरेणं' सपूर्वापरेण पूर्वापरगतसर्वपर्वसंख्यासंमेलनेन 'पंचसंवच्छरिए जुगे' पञ्च सांवत्सरिके पञ्च संवत्सरात्मके युगे एकस्मिन् युगे 'एगे चउव्धी से "पत्रसए भवई' एक चतुर्विशशतं चतुर्वि शत्यधिक पर्वशतं भवति चतुर्वि शत्यधिकैकशतसंख्यकानि पर्वाणि एकस्मिन् युगे भवन्तीति भावः, 'इति मक्खाय' इत्याख्यातं इति कथितं सर्वैः पूर्वतीर्थकरैर्म या चेति सूत्रार्थः ॥३॥ . ___ युग संवत्सरयन्त्रम् |सं.-सं. | संवत्सरनामानि | मास सख्या पूर्व संख्या ! अहोरात्र सख्या | द्वापष्टिभाग संख्या चान्द्र ३५४ चान्द्र २४ ३५४ ३ । 'भभिवद्धित। । १३ ३८३ चान्दः । . ११ । २१ ३५४ ५. अभिवद्धितः । १६ २६ । ३८३ संकलन- ५ . १८२८ १२४ -." .:., द्वापष्ठि भाग समेलनेन, १८३० अहोरात्राणि युगस्य i. . • अथ कस्मिन् अयने कस्मिन् वा मण्डले किं पर्वपरिसमाप्तिमुपैतीति विचारणायां वृद्धोक्ता श्चतस्रः पर्वकरणगाथा अत्र प्रदर्श्यन्ते- . ८, - "इच्छपव्वेहि. गुणिउं अयणं स्वऽहियं तु कायव्वं । सोज्झं च हवइ. एत्तो, अयणक्खेत्तं उड्डुवइस्स ॥१॥ जइ अयणा सुझंति, तइपवजुया उ रूवसंजुत्ता। - । तावइयं तं अयणं, 'नथि निरंसंमि रूवजुयं ॥२॥ . कसिणंमि होइ रूप,-प्पक्खेवो दो य होति भिन्नमि ।। F• ". जाइया तावंइया, एए ससिमंडला होति ॥३॥. .. .. . ओयमि उ गुणकारे, अभितरमंडले हवइ आई । 1 :: जुगं मिय गुणकारे, वाहिरगे मंडले आइ ॥४॥ १२ । 1 १२ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीकाप्रा १, प्रा प्रा २० सू. ३ द्वितीययुगसंपलानिरूपणम् ३७७ छाया-इच्छापर्वभि गुणयित्वा अयनं रूपाधिकं तु कर्तव्यम् । शोध्यं च भवति अस्मात् अयनक्षेत्रं उड्डपतेः ॥१॥ यावन्ति अयनानि शुद्धयन्ति तावत्पर्वयुतानि तु रूपसंयुक्तानि । । . तावत्कं तद् अयनं, नास्ति निरंशे रूपयुतम् ॥२॥ कृत्स्ने भवति रूप प्रक्षेपः द्वौ च भवतः भिन्ने । यावत्कानि तावत्कानि, एतानि शशिमण्डलानि भवन्ति ॥३॥ ओजसितु गुणकारे, अभ्यन्तरमण्डले, भवति आदिः । युग्मे च गुणकारे अभ्यन्तरमण्डले भवति आदिः ॥४॥ आसां गाथानां क्रमेण संक्षेपतो; व्याख्या : क्रियते-'इच्छापव्वेहि' इच्छापर्वभिः यस्मिन् पर्वणि अयनमण्डलादि ज्ञातु मिच्छेत् तद् 'इच्छापव्वेहि' स्वेच्छितपर्वभिः 'गुणेउं', गुणयित्वा किमिति ? ध्रुवराशिम् । अथ कोऽसौ ध्रुवराशिरिति ध्रुवराशिः प्रदश्यतेअत्र ध्रुवराशिप्रतिपादिका गाथा प्रोच्यते "एगंच मंडलं मंडलस्स सत्तहभाग चत्तारि। नव चेव चुणियाओ, इगतिसकरण छेएण ॥१॥" अस्य छाया-एकं च मण्डलं मण्डलस्य सप्तषष्टि भागश्चत्वारः । नव चव चूर्णिका भागाः, ऐकत्रिंशत्कृतेन छेदेन ॥१॥ इति । अस्या अयमर्थः-एकं मण्डलम्, एकस्य च मण्डलस्म चत्वारः सप्तषष्टिभागाः, तथा एकस्य च सप्तपष्टिभागस्य एकत्रिशत्कृतेन छेदेन नव चूर्णिका भागाः (१ /- ) इति. ६७३१ गाथार्थः । एतत्प्रमाणो ध्रुवराशिः स्थाप्यते । अयं च पर्वगतक्षेत्राद् अयनगतक्षेत्रस्यापगमे शेपी भूतो वर्तते । अस्योत्पत्तिरग्रे वक्ष्यते । · तत एवम्भूतं ध्रुवराशिं इच्छा पर्वभिः इच्छितपर्वभिर्गुणयित्वा तत्पश्चात् 'अयणं रूवाहियं तु कायव्वं' अयनं रूपाधिक तुकर्त्तव्यम् एकं रूपमयने प्रक्षेपणीय मित्यर्थः । एवं गुणितस्य मण्डलराशे यदि चन्द्रस्यायनक्षेत्रंपरिपूर्णमधिकं वा संभाव्यते तदा 'सोझं च हवइ एत्तो' एतस्माद् इच्छितपर्वसख्या गुणितात् मण्डलराशेः 'अयणक्खेत्तं उड्डवइस्स' उड्डुपतेः चन्द्रस्यायनक्षेत्रं शोध्यं भवति ॥१॥ 'जइ' इत्यादि । 'जई' यावन्ति यावत्संख्यकानि अयनानि 'मुझंति' शुद्धयन्ति 'तइपव्वजुयाइ' तावत्सख्यकपर्वयुतानि कृत्वा भूयः 'ख्वसंजुचा' खूपयुक्तानि एकरूपयुक्तानि च अयनानि क्रियन्ते । एवं करणे यावत्कं भवति 'तावइयं तं अयण' तावत्कमेव तदयनं विज्ञेयम् 'नस्थि निरंसंमि रूब जुयं' नास्ति निरंशे रूपयुक्तं तत्कर्त्तव्यम् । यदि पुनः परिपूर्णानि १८ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ चन्द्रप्रतिसूत्रे मण्डलानि शुद्रयन्ति राशिश्च पश्चान्निर्लेपो जायते तदा तदयनसंख्यानं निरंग सद् रूपयुक्तं नास्ति, तत्र निरंशेऽयनराशौ रूपं न प्रक्षिप्यते इति भावः ||२|| 'कसिणमि' इत्यादि 'कसिणमि' कृःस्ने परिपूर्गे राशौ रूपप्रक्षेवो भवति, मण्डराशौ एकं रूपं प्रक्षेपणीयं भवती तिभावः । 'भिन्नंमि' भिन्ने खण्डे भिन्नराशौ अंश सहिते राशौ सति मण्डलरागौ 'दो य होति' द्वे रूपे प्रक्षेपणीये भवतः प्रक्षेपेच कृते सति 'जावइया' इति यावन्ति मण्डलानि भवन्ति, यावान् मण्डलराशिर्भवतीत्यर्थः 'तावइया' तावन्ति एतानि राशिमण्डलानि इच्छिते पर्वणि भवन्ति ||३|| तथा 'ओमि उ' इत्यादि, 'ओयंमि गुणकारे' ओजसि विषमे गुणकारे सति, यदि इच्छितेन पर्वणा ओजो रूपेण विषमलक्षणेन गुणकारो भवेत्तदा 'अमितरमंडळे 'हवड़ आई ' अभ्यन्तरमण्डले आदिर्दव्यः । अथ च 'जुग्गंमि य गुणाकारे' युग्मे चेति समसंख्यके गुणकारे सति यदि इच्छितेन पर्वणा समलक्षणेन समसंख्यकपर्वणा गुणकारी भवेत्तदा 'वाहिरगे मंडले आई' - बाह्ये मण्डले आदिर्विज्ञेयः || ४ || इतिकरणगाथाऽक्षरार्थः ॥ अथैतेषां भावनाप्रकारः प्रदर्श्यते - अथ कोऽपि पृच्छेत् यत् युगादौ प्रथमं पर्व कस्मिन्नयने कस्मिन् वा मण्डले समाप्तिमेति ? तत्र प्रथमं पर्व पृष्टमितिवामपार्श्वे पर्वसूचक एकरूपोऽङ्कः स्थापनीयः, ततस्तयैव अनुश्रेणिदक्षिणपार्श्वे अयनसूचक एककः स्थाप्यते, तस्य चानु श्रेणि मण्डलसूचक एककः स्थापनीयः, तस्य मण्डलस्य चाधस्तात् चत्वारः सप्तपष्टि भागाः स्थाप्याः तेपामग्यधस्तात् नव एकत्रिंशद्भागाः स्थापनीयाः यथा - ( ( ) पर्व अयनं १ AFAAAeloved on मण्डलम् १-४ ६७ - एप पर्वोऽपि ध्रुव राशि रस्ति तत एक संख्यकमयनमेकेन इच्छितेन पर्वणा गुण्यते जातमेकमेव, ३१ ४ ततः 'अयणं रूवाहियं च कायचं' इति वचनात् एकक लक्षणेऽयनराशौ एकं रूप प्रक्षिप्यते जातं द्विकम्, एतच्च एककलक्षणात् मण्डलराशेर्न गुद्धयति ततः 'दोयहोंति भिन्नंमि' इति वचनात् भिन्ने खण्डे मण्डलराशौ रूपे प्रक्षिप्यते जातो मण्डलराशिखिकरूपः तदेव मागतं प्रथमं पर्व (२ अयनं ३ तृतीय - मण्डलस्य ( ९ ३) द्वितीयेऽयने, तृतीयस्य मण्डलस्य 'ओयंमि गुणकारे अतिरमंडले वह आई' ओजसि चिपमे गुणकारे अभ्यन्तरमण्डले आदि भवतीति वचनात् अत्र एककरूप विपमाङ्कत्वेन अभ्यन्तरवर्तिनः अभ्यन्तरवत्तिं तृतीयमण्डलस्य चतुर्षु सप्तषष्टिभागेषु, एकस्य च सप्तषष्टि भागस्य नवसु एकत्रिंशद्भागेपु ( २ अयने ३ तृतीय मण्डलस्य ६७ ३१ 8 ९ 1 गतेषु समामिपैनीति | भयनंचात्र चन्द्रस्य विज्ञेम् । तच्च चन्द्रायणं युगस्यादौ ३१ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा.प्रा.२० सू३ द्वितीययुगसंवत्सरनिरूपणम् :३७९ प्रथममुत्तरायणं, द्वितीयं दक्षिणायनमिति द्वितीये दक्षिणे चन्द्रायणे अभ्यन्तरवर्त्तिनस्तृतीयस्य मण्डलस्येति विज्ञेयम् १। तथा अन्यः कोऽपि पृच्छति-द्वितीय पर्व कस्मिन्नयने कस्मिन् वा मण्डले समाप्तिमेति ? अत्र द्वितीयं पर्व पृष्टमिति स एव प्राकू प्रोक्तो ध्रुवराशिः ( 4) समस्तोऽपि द्वाभ्यां गुण्यते ततो जाते द्वे अयने, द्वे मण्डले, अष्टौ सप्तपष्टिभागाः, अष्टादश एकत्रिंद्भागाः ..। १८) इति, 'अयणं रूवाहियं तु कायव्वं' अयनं रूपाधिकं तु कर्त्तव्यम्, इति वचनात् हिकरूपेऽयने एक प्रक्षिप्यते जातं त्रिकम् () एतदयनं च मण्डलराशेस्तो कत्वान्न शुद्धयति, ततः 'दो य होति भिन्नमि' इति वचनात् भिन्ने-खण्डेऽस्मिन् द्विकरूपे मण्डलराशौ द्वे प्रक्षिप्येते ततो जातश्चतुष्करूपो मण्डलराशिः (४) ततः समागतं द्वितीयं पर्व तृतीयेऽयने चतुर्थस्य मण्डलस्य 'जुग्गंमि य गुणकारे वाहिरगे मंडले हवइ आई' युग्मे च गुणकारे वाह्ये मण्डले भवति आदिः, इति वचनात् अत्र द्विकरूपसमराशित्वेन बाह्यमण्डला दर्वाग् वर्तिनो मण्डलस्य अष्टसु सप्तपष्टिभागेपु, एकस्य च सप्तपष्टिभागस्य अष्टादशसु एक त्रिंशद्भागेपु (३-४- ८) गतेषु परिसमाप्ति समुपैति २॥ ६७३१ ___ एवं चतुर्दशपर्वप्रश्नविषये ध्रुवराशिः (१-१-९)चतुर्दशभिर्गुण्यते, गुणने च जातानि अयनानि चतुर्दश (१४) षट् पञ्चाशत् सप्तषष्टिभागाः (५६) षड्विंशत्यधिकमेकं शतं च एक त्रिशद्भागाः [१४-१४-१५अत्र एकत्रिंशाद्भागाः [१२६] एकत्रिंशतोऽधिकत्वाद् एकत्रिंशता विभज्य लब्धाङ्काः सप्तषष्टिभागेषु प्रक्षेप्याः, शेषार्णिका भागा ज्ञातव्याः, इति गाणितेन षड्विंशत्यधिकैकशतस्य एकत्रिंशता भागो हियते, लब्धाश्चत्वारः सप्तषष्टिभागा शेषौ द्वौ चूर्णिका भागौ तिष्ठतः, चत्वारो लब्धाङ्काः उपरितने षट्पञ्चाशद्रूपे सप्तषष्टिभागराशौ प्रक्षिभ्यन्ते जाताः पष्टिः सप्तषष्टि भागाः, तत आगत एष राशिः- [१४-१४-६०/२] इति । ततः चतुर्दशभ्यश्च मण्डलेभ्यस्त्रयोदशभिर्मण्डलैस्त्रयोदश मिश्च सप्तषष्टिभागैरयनं शुद्धं, तेन पूर्वाण्ययनानि चतुर्दशसख्यकानि युतानि क्रियन्ते, ततः 'अयणं रूवाहियं तु कायन्वं' अयनं रूपाधिक Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० चन्द्रसू तु कर्त्तव्यम्, इति वचनात् सूयोऽपि तत्रैकं रूपं प्रक्षिप्यते, जातानि पोडग अयनानि, सतपष्टि भागाश्च चतुष्पञ्चाशत् [५४ ] मण्डलरागौ उद्धरितास्तिष्ठन्ति ते पष्टिरूपे सप्तषष्टिभागरागौ प्रक्षिष्यन्ते जातादचतुर्दशोत्तरशतसंख्यकाः [११४] अस्य सप्तपट्या भागो हियते लब्धमेकं मण्डलम् पश्चात् सप्तचत्वारिंशत् [ ४७ ] स'तपष्टि भागास्तिष्ठन्ति, ततः 'दो य होति भिन्नमि' द्वे' च भवतो भिन्ने [प्रक्षेपणीये] इति वाचनातू मण्डलरागी द्वे प्रक्षिप्येते जातानि त्रीणि मण्डलानि, चतुर्दशभिश्चात्र गुणितं कृतम् चतुर्दशरागिश्च यद्यपि युग्मरुपस्तथाऽप्यत्र मण्डल रेक मयनमधिकं प्रवेष्टमितित्रीणि मण्डलानि अभ्यन्तमण्ड दारभ्य द्रष्टव्यानि तत आयातम् - पोडंऽयने अभ्यन्तरमण्डलादारभ्य तृतीये मण्डले सप्त चत्वारिंशत्सप्तपष्टिभागेषु व्यतीतयु, एकस्य च सप्तपष्टिभागस्य द्वयोरेक त्रिशद्वागयोर्व्यतीतयोः सतोतुर्दर्श पर्व समाप्तिमुपयातीति | १४ | अथ द्वापष्टितम पर्वविपये प्राह-अत्र कोऽपि पृच्छति हापष्टितमं पर्व कस्मिन्नयन कस्मिश्च मण्डले अ- म. ४ समाप्तं भवतीति । अत्रापि स पूर्वोक्तो ध्रुवराशि:- द्वापष्टि पर्वविषये पृष्टमिति १- १ ६७३१' ध्रुवराशिपष्टचा गुण्यंत जातानि द्वापष्टिरयनानि, द्वापष्टिरेव मण्डलानि एकेन गुणिते तदेव भवतीति वचनात्, चतुर्णां सप्तषष्टिभागानां द्वापष्ट्या गुणने जाता अष्टचत्वारिंशदधिकद्विशतसन्यकाः (२४८) सप्तपष्टिभागाः, नवानामेकत्रिंशद्वागानां द्वापटिया गुणने जाता अष्टपञ्चाशदधिक पञ्चात सख्यका एकत्रिंशद्भागाः (६२-६२ २४८/५५८ -) । प्रथममष्टपञ्चाशदधिकानां पञ्चगतानामे ६७ | ३१ कत्रिगङ्गा गानां सप्तपष्टि भागानयनार्थमेकत्रिंशता भागो हियते लब्धाः परिपूर्णा अष्टादश सप्तपष्टिभागाः, एते उपरितने अष्टचत्वारिंशदधिकशतद्वयरूपं (२४८) सप्तपष्टिभागराशौ प्रक्षिप्यन्ते जाते पढ़ पष्टयधिके ट्ठे छाते (२६६) सप्तपष्टिभागानाम् (६२-६२ - २६६ ) | उपरि च यानि द्वापष्टि मण्डलानि ६७ सन्ति तेभ्योऽयनस्य मण्ड सत्कत्रयोदश सप्तमष्टिभागयुक्तत्रयोदशमण्डलात्मकत्वेन द्विपञ्चाशता मण्डलै' एकस्य च मण्डलस्य द्विपञ्चशता सप्तर्षष्टि भागै (५२ - ६२) चत्वारि अयनानिधान, तान्ययनरांगौ प्रक्षियन्ते जातानि पद्मष्टिश्यनानि (६६) पश्चात्तिष्ठन्ति नवमण्डलानि, एकस्य मण्डलस्य च पञ्चदश सप्तषष्टिभागाः (९-६७) । एते पञ्चदश सप्तपष्टिभागाः सप्तपष्टिभागरागौं (२६६) प्रक्षिप्यन्ते जाते एकाशीत्यविके दे शते (२८१) अस्य राशे सप्तपाट्या भागे हते लब्धानि चत्वारि मण्डलानि शेपास्तिप्यन्ति त्रयोदश सप्तपष्टिभागा मण्डलस्य, एते च मण्डलराशौ प्रक्षिप्य - Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा १० प्रा०प्रा.२० सू३ द्वितीययुगसंवत्सरनिरूपणम् ३८१ न्ते, जातानि त्रयोदश मण्डलानि, त्रयोदशमण्डलैः त्रयोदशभिश्च सप्तपष्टिभागैः (१३-१३) परिपूर्णमेकमयनं लब्धमिति तदयनराशौ प्रक्षिप्यते, जातानि सप्तपष्टिः (६७) अयनानि, 'नत्थि निरंसंमि रूव जुयं' इति वचनादयनराशौ रूपं न प्रक्षिप्यते, केवलं 'कसिणमि होइ रूवपक्खेवो' इति वचनान्मण्डले एकं रूपं न्यस्यते, द्वापप्टया च गुणकारः कृत इति द्वाषष्टि राशि युग्मोऽस्ति, यान्यपि च चत्वार्ययनानि तान्यपि युग्मरूपाणि, रूपं चात्राधिकमेकं न प्रक्षिप्तमिति पञ्चममयनं तत्स्थाने द्रष्टव्यमित्यत्र बाह्यमण्डलमादिविज्ञेयम्, तत आयातम्-सप्तपण्टावयनेषु परिपूर्णेपु व्यतीतेपु बाह्यमण्डले प्रथमरूपे परिसमाप्ते सति द्वापष्टितमं पर्व परिपूर्णतां प्राप्तमिति ।६२।। अनेन रीत्या यथेच्छितानि सर्वाणि संयोज्य कर्तव्यानि परिभावनीयानि वा अथ जिज्ञासुजनानुग्रहाय पर्वायनप्रस्तारोऽत्र लेशतः प्रदर्यते - प्रथम पर्व द्वितीयेऽयने तृतीये मण्डले, तृतीयस्य मण्डलस्य चतुर्पु सप्तपष्टिभागेपु, एकस्य च सप्तपष्टिभागस्य नवसु एकत्रिंशद्भागेपुप.म.न. ४ ) गतेषु समाप्तमिति ध्रुवराशि कृत्वा पर्वायनमण्डलेषु प्रत्येकमेकैकं (१-२-३-६७/३१ रूपं प्रक्षेपणीयम्, भागेपु च तावत्सख्याका भागा प्रक्षेप्तव्याः, जात एतावान् राशि:-द्वे पर्वे त्रीणि अयनानि, चत्वारि मण्डलानि, अष्ट सप्तपष्टिभागाः, अष्टादश एकत्रिंशद्भागाःप.-अ. म.८१८) इति । मण्डले चायनक्षेत्रे परिपूर्ण त्रयोदश मण्डलानि, एकस्य च मण्ड(२-३-४-६७३१ लस्य त्रयोदशसप्तपष्टिभागा (१३-१३), एतावत्प्रमाणमयनक्षेत्रं शोधयित्वाऽयनराशौ प्रक्षेपणीयम्, अनया रीत्याऽने वक्ष्यमाणप्रस्तारः सम्यक्तया विचारयितव्यः । स प्रस्तारश्चायम्प्रथमं पर्व द्वितीयेऽयने, तृतीये मण्डले, तृतीयस्य मण्डलस्य चतुर्पु सप्तपष्टि भागेषु, एकस्य च सप्तपष्टिभागस्य नवसु एकत्रिंशद्गागेपु गतेपु समाप्तम् १ द्वितीयं पर्व-तृतीयेऽयने चतुर्थे मण्डले, चतुर्थस्य मण्डलस्य च अष्टसु सप्तपष्टिभागेपु, एकस्य च सप्तपष्टिभागस्य अष्टादशसु एकत्रिशद्भागेषु ३-४ -१८ गतेषु समाप्तम् २ । तृतीयं पर्व--चतुर्थेऽयने, पञ्चमे मण्डले, पञ्चमस्य मण्डलस्य च द्वादशसु सप्तपष्टि भागेपु, एकस्य च सप्तपप्टिभागस्य सप्तविंशतौ एकत्रिंशद्भागेषु १ ७ गतेपु समाप्तम् ३ । चतुर्थे पर्व पञ्चमेऽयने, षष्ठे मण्डले --५-६७३१ र २ । पा षष्ठस्य मण्डलस्य च सप्तदशसु सप्तपष्टि भागेषु, एकस्य च सप्तपष्टिभागस्य पञ्चसु एकत्रिंशदागेषु ५-६ २७ गतेषु समाप्तम् ४। पञ्चमं पर्व-षष्ठेऽयने, सप्तमे मण्डले, सप्तमस्य २-३-६७ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૮૨ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे मण्डलस्य एकविंगतौ सप्तपष्टिभागेपु, एकस्य च सप्तपष्टिभागस्य चतुर्दशसु एकत्रिंशद्गागेपु ६-७-२१ १४ गतेपु समाप्तं भवति ५, एवमग्रेऽपि-गतपर्वणः-अयन-मण्डल-सप्तपष्टि भागै-कत्रिंशद्भागेपु-एककम् १, एककम् १, चत्वारः ४, नव ९, च (१-१-४-९) इत्येवं रूपो ध्रुवराशिरग्रेऽग्रे प्रत्येकरिमन् समेलनेन आगामि पर्वणः अयनादि सर्वं समायाति । तत्र एकत्रिंशद्भागा यदि-एकत्रिंशतोऽधिका भवेयुस्तदा तत्सख्याया एकत्रिंशता भागं हृत्वा लब्धाङ्क एककरूपः पूर्वरिथते सप्तपष्टिभागराशौ प्रक्षेप्तव्य, ये शेषास्ते एकत्रिंगड़ागा अवसेयाः । एवं यदि सप्तपष्टि भागाः सप्तपष्टितोऽधिका भवेयुस्तदा सप्तपष्टया भागं हत्वा लब्धाङ्क एककरूपः पूर्वरिथते मण्डलराशौ प्रक्षेप्तव्यः, ये शेपास्ते सप्तपष्टि भागा अवसेया. एवं यदि मण्डलानि त्रयोदशतोऽधिकानि भवेयुस्तदा अयनस्य त्रयोदशसप्तपष्टिभागयुक्ता त्रयोदशमण्डलात्मकत्वेन मण्डलानां सप्तपष्टिभागानां च प्रत्येकं त्रयोदशन भागं हत्वा मण्डल भागलब्धाङ्क एककरूपोऽयनराशौ प्रक्षेप्तव्यः, ततः सप्तपष्टिभागानां त्रयोदशेन भागे हृते ये लब्धाङ्कास्ते मण्डलराशौ प्रक्षेतव्याः तयो योः शेषाङ्कलभ्यो मण्डलराशिः सप्तपष्टि भागराशिश्चावसेयः । इत्येवमग्रे सर्वत्र योजना कार्या । अत्र पञ्च पर्वाणि तु व्याख्यायामपि प्रदर्शितान्येव । पर्व योजनायाः सुखावबोधार्थ पञ्च दशपर्वात्मकं कोष्ठकं स्थाप्यते, तत्र विलोकनीयम् अग्रे च स्वयमूहनीयमिति । तच्चेदं कोष्टकम् "पर्व समाप्ती अयनादिकोष्टकम् ।" पर्व संख्या सप्तपष्टि भागाः एकत्रिंशद्गागा अयनानि मण्डलानि scom ९-प्रक्षेप्यो राशिः ..... ... ___c Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका टीका प्रा० १० प्रा. प्रा. २० सू०३ द्वितीययुगसंवत्सरनिरूपणम् ३८३ अथ कि पर्व कस्मिन् चन्द्रनक्षत्रयोगे समाप्ति मेतीति विचारणायां वृद्ध सम्प्रदायोक्तास्तिस्रः करणगाथाः प्रदश्यन्ते "चउवीससयं काऊण पमाणं सत्तहिमेव फलं । इच्छापव्वे हि गुणं, काऊणं पज्जया लद्धा ॥१॥ अट्टारसहि सएहिं तीसेहिं सेसगम्मि गुणियम्मि । तेरस विउत्तरेहि, सएहिं अभिइम्मि सुद्धम्मि ॥२॥ सत्तद्विबिसट्ठीणं, सव्वग्गेणं तओ उजं सेसं । तं रिक्खं नायव्वं, जत्थ समत्थं हवइ पव्वं ॥३॥ छायाः-चतुर्विं शशतं कृत्वा प्रमाणं सप्तषष्टिमेव फलम् । इच्छापर्वभिर्गुणं कृत्वा पर्यायाः लब्धाः ॥१॥ अष्टादशभिः शतैः त्रिंशता (अधिकैः) शेपके गुणिते । त्रयोदशभिः द्वयुत्तरैः शतैः अभिजिति शुद्धे ॥२॥ .. सप्तषष्टि द्वाषष्टयोः सर्वाग्रेण ततस्तु यत् शेषम् । , तद् ऋक्षं ज्ञातव्यं, यत्र समाप्तं भवति पर्व ॥३॥इति ।। .. आसां भावमधिकृत्य संक्षेपतो व्याख्या क्रियते-त्रैराशिकविधौ ‘चउवीससयं पमाणं काऊण' चतुर्विशत्यधिकं शतं प्रमाणराशिं कृत्वा 'सत्तटिमेव फलं' सप्तपष्टि रूपं फलराशि कृत्वा 'इच्छापव्वेहिं' इच्छितपर्वभिः स्वेप्सितपर्वभिः यानि पर्वाणि ज्ञातुमिच्छेत् तैः 'गुणं काऊणं' गुणं गुणकारं कृत्वा विधाय आधेन चतुर्विंशत्यधिकशतरूपेण राशिना भागे हृतेऽङ्का लभ्यन्ते ते 'पज्जया लद्धा' पर्यायाः लब्धा इति ज्ञातव्यम् , ॥१॥ 'सेसगम्मि गुणियस्मि' यः पुनः शेषो राशिरवतिष्ठते तस्मिन् 'अट्ठारसहिं सएहिं तोसेहि' त्रिंशदधिकै रष्टादशभिः शतै गुणिते सति ततः 'तेरस विउत्तरेहि सएहि' द्वयुत्तरैस्त्रयोदशभिः गतेः 'अभिइम्मि सुद्धम्मि' अभिजिति शुद्धे, अयं भावः-अभिजित् शोधनीयः अभिजिन्नक्षत्रस्य भोग्यानामेकविंशतिसप्तषष्टिभागानां द्वाषष्ट्या गुणने एतावत एव (१३०२) शोधनकस्य लभ्यमानत्वात् , ततस्तस्मिन् शोधने ॥२॥ 'सत्तहि विसट्टिणं' सप्तषष्टि द्विषष्टीनां सप्तषष्टि संख्यका या द्विषष्ट्यस्तासां 'सव्वग्गेणं' सर्वाग्रेण 'तओ उजं सेसं ततस्तु यत् शेषम् , अयं भावः-सप्तपष्ट्या द्विपष्टौ गुणितायां यो राशिर्भवति तेन राशिना भागे हृते यद् लब्धं यो राशिर्लभ्यते तद्राशि प्रमाणानि नक्षत्राणि शुद्वानि, इति विज्ञेयम् , यत्पुनर्भागहरणात् शेषमवतिष्ठते 'तं रिक्खं नायव्वं तद् ऋक्षं-नक्षत्रं ज्ञातव्यं 'जत्थ समत्तं हवइ पव्वं' यत्र विवक्षितं पर्व समाप्तं भवति, तत् पर्व समाप्ति नक्षत्रं ज्ञातव्यमिति भावः ॥३॥ एषा करणगाथानां भावतो व्याख्या ॥ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwmmmmmmmmmarrrrrrrrrrrrrrrrrrrr. amar चन्द्रप्राप्तिसूत्रे अथ करणगाथानां भावमाश्रित्य गणितेन भावना क्रियते सा चेत्थम्-अत्र त्रैराशिकं यथा यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वगतेन (१२४) सप्तपष्टिः (६७) पर्याया लभ्यन्ते तदा एकेन (१) पर्वणा किं लभ्यते ? राशित्रयस्थापना । १२४।६७।१। अत्रायं नियमः अन्त्येन राशिना मध्यराशिं गुणयित्वा स आधराशिना विभाज्यः । एतन्नियमानुसारेण अन्त्येन. एककरूपेण राशिना मध्यराशिः सप्तपष्टिरूपो गुण्यते, 'एकेन गुणितं तदेव भवति' इति न्यायात् जाता सप्तपष्टिरेव (६७) अस्य आयेन चतुर्विशत्यधिकशतरूपेण (१२१) राशिना भागो हरणीयः, स च स्तोकत्वाद्गागो न हियते, तनो नक्षत्रानयनार्थम्-'अट्ठारसहि,सएहिं तीसेहिं गुणियम्मि' इति द्वितीयगाथोक्तवचनात् त्रिंशदधिकरण्टादशमि शतैः (१८३०) सप्तपष्टिभागरूपैः सप्तपष्टे गुणकारः कर्तव्यो भवेत् , नतोऽङ्गानामाधिक्येन भूयमानत्वादर्धेनाऽपर्तनां कृत्वा गुणयितव्या सप्तपष्टिः, ततोऽस्य गुणकारराशेः (१८३०) चतुर्विंशत्यधिकशत (१२४) रूपस्य छेद राशेश्चानापवर्तना कर्तव्या जातो गुणकारराशिः पञ्चदशोत्तराणि नवशतानि (९१५) छेदराशिश्च द्वापष्टि संख्यो (६२) जातः, अथ सप्तपष्टिः पञ्चदशोत्तरनवशर्ते गुण्यते जातानि-एकपष्टिः सहस्राणि, त्रीणि शतानि पञ्चोत्तराणि (६१३०५) एतस्मादभिजिन्नक्षत्रस्य द्वयुत्तराणि त्रयोदश शताणि (१३०२) शुद्धानि, स्थितानि शेपाणि त्र्युत्तराणि पष्टिसहस्राणि (६०००३), अपवर्तनालब्धो द्वापष्टिरूपः (६२) छेदराशिः सप्तपष्टया गुण्यते, जातानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि एकचत्वारिंशच्छतानि (४१५४) तैर्भागो हियने लब्धाश्चतुर्दश (१४), तेन श्रवणादीनि पुष्य पर्यन्तानि चतुर्दशनक्षत्राणि शुद्वानि, यानि शेपाणि सप्तचत्वारिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८४७) स्थितानि तानि मुहूर्त्तानयनाथ त्रिंगता गुणने जातानि-दशोत्तरचतुःशताधिकानि पञ्चपञ्चाशत्सहस्राणि (५५४१०), एपां पुनश्चतुप्पञ्चाशदधिकैकचत्वारिंशच्छतैः (४१ ५४) भागो ह्रियते लब्धास्त्रयोदश (१३) मुहर्ताः, भागे हते यानि अष्टोत्तराणि चतुर्दशशतानि (१४०८) शेपाणि तिष्ठन्ति । तानि द्वापष्टि भागानयनाथ द्वापष्टया गुणयितव्यानि भवन्ति, ततोऽधिकाकानां स्वल्पाककरणार्थ गुणकारच्छेदराश्यो घण्टयाऽपवर्तना क्रियते अपवर्त्तना अपर्कपः द्वाष्टया भागं हत्वा लब्धाङ्करूपः स्वल्पाको राशिः क्रियते इति भावः, एवं कृते गुणकारराशे पिष्टे पष्ट्या भागे हृते एककरूपो लब्धः, एवं चतुष्पञ्चाशदधिकैकचत्वा रिंशच्छतरूपस्य (४१५४) राशे पिष्टयाऽपवर्तिते भाग हृते इत्यर्थः छेदराशि सप्तपष्टिरूपो लब्धस्तेन गुणकार राशिरेककः (१) छेदराशिः सप्तपटिरूपो लब्धस्तेन गुणकार राशिरककः (१) छेदराशिः सप्तपष्टि (६७) जातः तत एककेन गुणकारराशिना गुणितः उपरितन. अष्टोत्तरचतुर्दशशत (१४०८) रूपो राशि र्जातस्तावानेव (१४०८) अस्यापवर्तित सप्तपष्टया भागो हियते, हृते च भागे लब्धा एकविंशतिः (२१) शेषस्तिष्टत्येकः, स च एकस्य द्वापप्ठिभागस्य एकः सप्तपष्टि भागोऽस्ति, तत आगतं यत् प्रथमं पर्व मालेपायास्त्रयोदश मुहर्त्तान् , एकस्य च मुहूर्तस्य एकविंशति Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. २० सू ३. द्वितीययुगसंवत्सरनिरूपणम् ३८५ द्वापष्टिभागान्, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकसप्तपष्टिभागं--(१३--- ६२/६७ पगतमिति । एवम्-अश्लेषानक्षत्रस्य एतावत्परिमित मुहूर्तादि प्रमाणे चन्द्रेण सह योगे समाप्ते सति प्रथमं पर्व समाप्तिमेतीति ज्ञातव्यम् १ । ___ अथ यदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेन (१२४) सप्तषष्टिः पर्याया लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यां पर्वभ्यां कियल्लभ्यते, एतदपि त्रैराशिकं गणितं जायते, तथाहि राशित्रयस्थापना- । १२४ । ६७ । २ । अत्रापि अन्त्येन राशिना मध्यमो राशिगुण्यते, जातं चतुस्त्रिंशदधिकं शतमेकम् (१३४), अस्य आयेन चतुर्विंशत्यधिकशतरूपेण रागिना भागो हियते, लब्ध एको नक्षत्रपर्यायः, शेषा स्थिताः दश, तत एते नक्षत्रानयनाथ त्रिंशदधिकैरष्टादशशतैः (१८३०) सप्तपष्टिभागै गुणयितव्या भवन्तीत्यत्रापि गुणाकारच्छेदराश्योरर्धेनापवर्तना कर्तव्या, तेन जातो गुणकारराशिः पञ्चादशोत्तराणि नवशतानि (९१५) छेदराशिश्च द्वापष्टि (६२) भवति । तत्र दशरूपो राशिः पञ्चादशोत्तरैवभिः शतैः (९१५) गुण्यते, जातानि पञ्चाशदधिकानि एक नवतिशतानि (९१५०)। एभ्यो द्वयुत्तराणि त्रयोदशशतानि (१३०२) अभिजिन्नक्षत्रस्य शोध्यानि, शोधिते च स्थितानि शेषाणि भटचत्वारिंशदधिकानि अष्टसप्ततिशतानि (७८४८) । तत्र द्वापष्टिरूपश्चेदराशिः सप्तपष्टया गुण्यते, जातानि चतुष्पश्चाशदधिकानि एकचत्वरिंशच्छतानि (४१५४) एतैर्भागो हियते, लब्धमेकं नक्षत्रं श्रवणरूपम्, शेषाणि यानि चतुर्नवत्यधिकानि पट् त्रिंशच्छतानि (३६९४) तिष्ठन्ति तानि मुहूर्तानयनाथ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातम्-एक लक्ष, दशसहस्राणि, अष्टौ शतानि विंशत्युत्तराणि (११०८२०) पपां छेदराशिना भागो हियते, हूते च भागे लब्धाः षड्विंशतिर्मुहूर्ताः २६ , शेषाणि यानि पोडशोत्तराणि अष्टाविंशतिशतानि (२८१६) तिष्ठन्ति तानि द्वापष्टिभागानयनाथै द्वापष्टग गुणनीयानीति गुणकारछेदराश्यो पिष्टयाऽपवर्तना कर्त्तव्या, तेन जातो गुणकारराशिरेककरूपः (१) छेदराशिश्च सप्तपष्टिः । तत्रैकेन गुणित उपरितनो रागिः पोडशोत्तराष्टाविंशतिशतरूपो जातस्तावानेव (२८१६), अस्य सप्तषष्ट्या भागे हते लब्धा द्वाचत्वारिंशत् (४२) द्वापष्टिभागाः, शेषौ स्थितौ द्वौ तौ च एकस्य द्वाषष्टिभागस्य द्वौ सप्तपष्टिभागौ, तत आगतम् द्वितीयं पर्व धनिष्ठानक्षत्रस्य षड्विंशति मुहूर्तान् एकस्य च मुहूर्नस्य द्वि चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागान् , एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वौ सप्तपष्टिभागौ (२६-8-) मुक्त्वा समाप्तिमुपयातीति । एवं धनिष्ठानक्षत्रस्य एतावत्परिमितमुहूर्त्तादि प्रमाणे चन्द्रेण सह योगे समाप्ते सति द्वितीयं पर्व परिसमाप्तिमुपगच्छतीति विज्ञातव्यम् । २ । ____एवं शेपेष्वपि, युगार्धम् द्विषष्टिपर्यन्तेषु पर्वसु सर्वाणि पर्वसमाप्ति नक्षत्राणि भावनीयानि । तत्समाहिकाश्चेमा पञ्च गाथा: Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रतिसूत्रे "सप्प १ धणिहा २ अज्जम ३ अभिवृद्धि ४ चित्त ५ आस ६ दग्गी ८। रोहिणि ८ जिट्टा ९ मिगसिर १०, विस्सा ११ ऽदिति १२ सवण १३ पिउदेवा १४ ॥१॥ अज १५ अज्जम १६ अभिवृड्डी १७ चित्ता १८ आसो १९ तहा विसाहाओ २० । रोहिणि २१ मूलो २२ अहा २३ वीस २४ पुस्सो २५ धनिट्टा २६ य ||२|| भग २७ अज २८ अज्जम २९ पूसो ३०, साइ ३१ अग्गी ३२ य मित्तदेवा ३३ य । रोहिणि ३४ पुचा साठा ३५ पुणव्त्र, ३६ वीसदेवा ३७ य || ३ || अहि ३८ वसु ३९ भगा ४० भिड्डी ४१ हत्थ ४२ ऽस्स ४३ विसाह ४४ कत्तिया ४५ जेहा ४६ | सोमा ४७ ऽऽउ ४८ वी सवणो ५० पिउ ५९ वरुण ५२ भगा ५३ भिवुड्डी ૩૮૬ ५४ य ॥४॥ चित्ता ५५ ऽऽस ५६ विसाह ५७ ऽग्गी, ५८ मूलो ५९ अद्दा ६० ये विस्स ६१ पुरसोय । एए जुगपुच्वद्धे, विसद्विपव्वे नक्खत्ता ||५|| i छाया: – सर्पः १ धनिष्ठा २ अर्यमा ३ अभिवृद्धिः ४ चित्रा ५ अश्वः ६ इन्द्राग्निः ७ । रोहिणी ८ ज्येष्ठा ९ मृगशिरः १०, विश्वा ११ दिति १२ श्रवण १३ पितृदेवाः १४ ॥१॥ अजः १५ अर्यमा १६ अभिवृद्धि : १७, चित्रा १८ अश्वः १९ तथा विशाखा २० । रोहिणी २१ मूलम् २२ आर्द्रा २३, विष्वक् २४ पुण्यः २५ धनिष्ठा २६ च ||२|| भगः २७ अजः २८ अर्यमा २९ पुण्यः ३०, स्वातिः ३१ अग्निः ३२ च मित्रदेवश्च ३३ रोहिणी ३४ पूर्वापाढा ३५, पुनर्वसु ३६ विष्वग्देवाः ३७ च ||३|| अहिः ३८ वसुः ३९ भगा ४० ऽभिवृद्वि ४१ हस्ता ४२ व ४३ विशाखा ४४ कृत्तिक ४५ ज्येष्ठाः ४६ | सोमः ४७ आयु. ४८ रवि: ४९ श्रवणः ५०, पिता ५१ वरुणः ५२ भगः ५३ अभिवृद्धिश्च ५४ ॥ ४ ॥ 1 चित्रा ५५ अश्व: ५६ विशाखा ५७ अग्निः ५८ मूलं ५९ आर्द्रा ६० च विष्वक् ६१ पुण्यश्च ६२ । एते युग पूर्वार्द्ध, द्विपष्टि पर्वसु नक्षत्राणि ॥५॥ इति आसां व्याख्या - प्रथमस्य पर्वणः समाप्तिकाले सर्पः - सर्प देवतोपलक्षित नक्षत्रम्अश्लेप १ | एवं द्वितीयस्य धनिष्ठा २ । तृतीयस्यार्यमा अर्यमा देवतोपलक्षिता उत्तरफाल्गुन्यः ३ । चतुर्थरयाभिवृद्वि - अभिवृद्विदेवतोपलक्षिता उत्तरभाद्रपदा ४ । पञ्चमस्य चित्रा ५ । पष्ठस्यावः अश्वदेव नोपलक्षिता- अश्विनी ६ । सप्तमस्य इन्द्राग्निः इन्द्राग्निदेवतोपलक्षिता - विशाखा 1 अष्टमस्य रोहिणी ८ नवमरय ज्येष्ठा ९ | दशमस्य मृगशिरः १० | एकादशस्य विश्वा विश्वदेवतोपलक्षिना - उत्तराषाढा ११ | हादगस्यादितिः - अदिति देवतोपलक्षितः पुनर्वसुः १२ त्रयोदशस्य, . Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रां.२० सू. ३. द्वितययुगसंवत्सरस्वनिरूपणम् ३८७ श्रवणः १३ । चतुर्दशस्य पितृदेवा: - पितृदेवतोपलक्षिता मघा १४ । पञ्चदशस्थान:अजदेवतोपलक्षिताः पूर्वभाद्रपदा : १५ षोडशस्यार्यमा अर्यमदेवतोपलक्षिना उत्तरफाल्गुन्यः १६, सप्तदगस्य अभिवृद्धिः - अभिवृद्धिदेवतोपलक्षिता उत्तरभाद्रपदा १७ । अष्टादशस्य चित्रा १८ | एकोनविंशतितमस्याश्वः अश्व देवतोपलक्षिता - अश्विनी १९ । विशतितमस्य विशाखा २० एकविशतितमस्य रोहिणी २१ द्वाविशतितमस्य मूलः २२ । त्रयोविंशतितमस्यार्द्रा २३ । चतुर्विंशतितमस्य विष्वकू - विष्वग् देवतोपलक्षिता उत्तराषाढा २४ । पञ्चविंशतितमस्य पुप्यः २५ । पविंशतितमस्य धनिष्ठा २६ । सप्तविंशतितमरय भगः- भगदेवतोपलक्षिताः पूर्वाफाल्गुन्यः २७ • अष्टा विंगतितमस्याजः - अज देवतोपलक्षिताः पूर्वभाद्रपदा २८ एकोनत्रिशत्तमस्यार्यमा अर्यमदेवतोपलक्षिता उत्तरफाल्गुन्यः २९ त्रिंशत्तमस्य पुष्यः पुष्यदेवतोपलक्षिता रेवती ३० । एकत्रिंशत्तमस्य स्वातिः ३१ । द्वात्रिंशत्तमस्याग्नि-अग्निदेवतोपलक्षिताः कृत्तिकाः ३२ । त्रयसिशत्तमस्य मित्रदेवामित्रनाम देवतोपलक्षिता - अनुराधा ३३ । चतुस्त्रिंशत्तमस्य रोहिणी ३४ । पञ्चत्रिंशत्तमस्य पूर्वापाढा ३५ । पत्रिशत्तमस्य पुनर्वसुः ३६ सप्तत्रिंशत्तमस्य विष्वग्देवाः - विष्वग्देवतोपलक्षिता उत्तराषाढाः ३७ | अष्टत्रिशत्तमस्याहि: - अहि देवतोपलक्षिता अश्लेपा ३८ । एकोनचत्वारिंशत्तमस्य वसु:- वसुदेवतोपलक्षिता धनिष्ठा ३९ । चत्वारिंशत्तमस्य भगःभगदेवतोपलक्षिताः पूर्वाफाल्गुन्य: ४० । एकचत्वारिंशत्तमस्याभिवृद्धिः - अभिवृद्धिदेवतोपलक्षिता उत्तरभाद्रपदाः ४१ । द्वाचत्वारिंशत्तमस्य हस्तः ४२ । त्रिचत्वारिंशत्तमस्याश्वः - अश्वदेवतोपलक्षिता - अश्विनी ४३ | चतुश्चत्वारिंशत्तमस्य विशाखा ४४ । पञ्चचत्वारिंशत्तमस्य कृत्तिका ४५ । पट्चत्वारिशत्तमस्य ज्येष्ठा ४६ । सप्तचत्वारिंशत्तमस्य सोमः - सोमदेवतोपलक्षितं मृगशिरा ४७ | अष्टचत्वारिंशत्तमस्यायुः - आयुर्देवतोपलक्षिताः पूर्वापाढा : ४८ । एकोनपञ्चाशत्तमस्य रविः--रचिनामकदेवतोपलक्षिता पुनर्वसुः ४९ । पञ्चाशत्तमस्य श्रवणः ५० । एक पञ्चाशत्तमस्य पिता- पितृ देवतोपलक्षिता मघा ५१ द्विपञ्चाशत्तमस्य वरुणः- चरुणदेवतोपलक्षितं शतभिपक् ५२ त्रिपञ्चाशत्तमस्य भगः - भगदेवतोपलक्षिताः पूर्वफाल्गुन्यः ५३ । चतुष्पञ्चाशत्तमस्या भिवृद्धिः - अभिवृद्धि देवतोपलक्षिता उत्तरभाद्रपदा : ५४ । पञ्च पञ्चाशत्तमस्य चित्रा ५५ । पट्पञ्चाशत्तमस्याश्वः-अश्व देवतोपलक्षिता- अश्विनी ५६ । सप्तपञ्चाशत्तमस्य विशाखा ५७ । अष्ट पञ्चाशत्तमस्याग्निः-अग्निदेवतोपलक्षिताः कृत्तिकाः ५८ । एकोनषष्टितमस्य मूलम् ५९ । षष्टितमस्य आर्द्रा ६० एकपष्टितमस्य विष्वक्- विश्वग्देवतोपलक्षिता उत्तराषाढा ः ६१ । द्वाषष्टितमस्य पुष्यः ६२ । उपसंहरन्नाह - 'एए' इत्यादि, 'एए' एतानि पूर्वोक्तानि 'नक्खत्ता' नक्षत्राणि द्विषष्टिसख्यकानि जुगपुव्वद्धे' युगपूर्वार्द्धे युगस्याद्धे पूर्वभागे 'विसद्धि पब्वेसु' द्विषष्टि पर्वसु क्रमेण ज्ञातव्यानि ||५|| इति गाथापञ्चकार्थः ॥ एवमेव प्रागुक्तकरणवशा दुत्तरार्धेऽपि द्वापष्टि सख्यकेषु पर्वसु एतान्येवानेनैव क्रमेण नक्षत्राणि वेदितव्यानि । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૮ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे अथ सूर्य मण्डलान्याश्रित्य पर्व समाप्तिर्विचार्यते, यथा--कस्मिन सूर्यमण्डले किं पर्वसमा प्तिमेतीति, अत्रापि करणगाथामाह "सूरस्स वि नायचो, सगेण अयरेण मंडलविभागो। 'अयणम्मि उ जे दिवसा, रूबहिए मंडले हवइ ॥१॥ छाया--सूरस्यापि ज्ञातव्यः, स्वकेन अयनेन मण्डलविभागः । अयने तु ये दिवसाः रूपाधिके मण्डले भवति ॥१॥ इति अस्य व्याख्या-'सरस्सवि' सूर्यस्यापि 'मंडलविभागे' पर्वविपयो मण्डलविभागः 'नायव्यो' ज्ञातव्यः, कथम् ? 'सगेण अयणेण' स्वकेन अयनेन, सूर्यसम्बन्धिनाऽयतेन ज्ञातव्य इति । अयं भावः-सूर्यस्य स्वकीयमयनमपेक्ष्य तस्मिन् तस्मिन् मण्डले तस्य तस्य पर्वणः समाप्तिरवधायनि । तत्र 'अयणम्मि' अयने तु शोधिते सति 'जे दिवसा', ये दिवसाः शेपा उद्धरिताः अयनशोधनानन्तरं येऽवशिष्टा दिवसा स्तिष्ठन्ति तत्संख्यके 'रूवाहिए मंडले' रूपाधिके-एककरूपसहिते मण्डले 'हवइ' भवति तदीप्सितं पूर्व समाप्तं भवतीति विज्ञातव्यम् ॥ एप करणगाथासंक्षेपार्थ. ॥१॥ विस्तरार्थस्तु भावनया वेदितव्यः, सा चेत्थम्-इह यत्-अमुकं पर्व कस्मिन् मण्डले समातं भवतीति ज्ञातुमिच्छेत् तदा ईप्सितपर्वसंख्या स्थाप्यते सा च पञ्चदशभिगुणयेन् गुणिता सा संख्या एकरूपाधिका कर्तव्या, ततः तद्राशिनः संभव तोऽवमरात्रा पात्यन्ते, ततो यदि सा संख्या त्र्यशीत्यधिकशतेन भागहरणीया भवेत् तर्हि तस्यास्यशीत्यधिकशतेन भागो हियते, हते च भागे यानि लब्धानि तान्ययनानि ज्ञातव्यानि, भागावशिष्टा या दिवस संख्याऽवतिष्ठते तस्या अन्तिमे मण्डले यद् विवक्षितं तत् पर्व समाप्तं भवतीत्यवधारणीयम् । तत्र यदि उत्तरायणं वर्त्तते तदा सर्वबाह्य मण्डलमादित्येन कर्तव्यम्, उत्तरायणे सर्ववाह्य मण्डलमादिर्भवतीति भावः, यदि दक्षिणायनं वर्त्तते तदा सर्वाभ्यन्तरं मण्ड छमादित्वेन विज्ञेयम्, दक्षिणायने सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमादिर्भवतीति भावः । इति पर्वसमाप्त्यानयनप्रकारः प्रदर्शितः, अथ तदेव सोदाहरणं परिभाव्यते तथाहि __ यथा कोऽपि पृच्छेत्-युगे प्रथमं पर्व सूर्यस्य कस्मिन् मण्डले समाप्तं भवतीति । अत्र प्रथम पर्वविषयक प्रश्न-इति-एफक. (१) स्थाप्यते, स पञ्चदशभिर्गुण्यते जाताः पञ्चदश (१५) अत्रैकोऽप्यवमरात्रो न संभवतीति न किमपि पात्यते, स्थिताः पञ्चदशैव (१५) ते च पञ्चदशरूपाधिकाः क्रियन्ते जाता. पोडश १६ युगादौ च प्रथमं पर्व दक्षिणायने भवतीत्यत आगतम्-युगे प्रथम मण्डल सर्वाभ्यन्तरमण्ड उमादि कृत्वा पोडशे मण्डले समाप्तं जातमिति ॥१॥ ___ अथ कोऽपि पृच्छेत्-चतुर्थ पर्व कस्मिन् मण्डले परिसमाप्तिमेतीति । तत्र चतुर्थपर्वविषयकः प्रश्नः कृत इति चतुष्काऽङ्गः स्थाप्यते (१) सच पञ्चदशभिर्गुण्यते जाता पष्टिः, ६० अत्रैकोऽवमरात्रः सभवतीत्येकोऽस्माद्गशः पात्यते जाता एकोनपष्टि ५९ सा पुनरेकरूपयुक्ता क्रियते Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा १० प्रा. प्रा. २० सू. ३ द्वितीययुगसंवत्सरनिरूपणम् ३८९ जाता भूयोऽपि षष्टिरेवेति समागतं यत्-चतुर्थं पर्व सर्वाभ्यन्तरमण्डलमादि कृत्वा पष्टितमे मण्डले समाप्तिमुपगच्छतीति ।। एवं पञ्चविंशतितमपर्वविपये प्रश्ने पञ्चविंशतिधियते, सा पञ्चदशभिर्गुण्यते जातानि पञ्चसप्तत्यधिकानि त्रीणि शतानि (३७५) । अत्र पड् अवमरात्रा जायन्ते इति पूर्वोक्तराशेः (३७५) पशोध्यन्ते, तिष्ठन्ति शेषाणि एकोनसप्तत्यधिकानि त्रीणि शतानि (३६९) एषां त्र्यशीत्यधिकशतेन (१८३) भागो हियते लब्धौ द्वौ (२) पश्चात्तिष्ठन्ति त्रीणि, तानि रूपयुक्तानि क्रियन्ते जातानि चत्वारि, यौ च द्वौ लब्धाङ्कौ, तेन द्वे अयने दक्षिणायनोत्तरायणरूपे शुद्धे, तत आयातं-तृतीये दक्षिणायनरूपेऽयने सर्वाभ्यन्तरमण्डलमादि कृत्वा चतुर्थे मण्डले पञ्चविंशतितमं पर्व समाप्तं भवतीति ।२५/ ___अथ चतुर्विशत्यधिकशततमपर्वविषय. प्रभो भवेत्तदा चतुर्वि शल्यधिकशसंख्यको राशिः (१२४) स्थाप्यते, एपोऽपि पूर्ववत् पञ्चदशभिर्गुण्यते, जातानि-पष्टयधिकानि अष्टादशशतानि (१८६०) चतुर्विंशत्यधिक पर्वशते च अवमरात्रास्त्रिंशजाता. (३०) इति त्रिशत्पात्यते, जातानि त्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८३०), एतेपु रूपयुक्तेपु कृतेपु जातानि-एकत्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८३१) एपां त्र्यशीत्यधिकशतेन (१८३) भागो हियते लब्धानि दशायनानि, शेषोऽवतिष्ठते एकः (१) दशमं चायनं युगपर्यन्तभागे उत्तरायणम्, ततः संप्राप्तम्-उत्तरायणपर्यन्ते सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चतुर्विंशत्यधिकशततमं (१२४) पर्वसमाप्ति प्राप्तमिति (१२४)। गतं पर्वसमापकसूर्यमण्डलप्रकरणम्, साम्प्रतं पर्वसमापक सूर्यनक्षत्रप्रकरणं प्रस्तूयते, तत्र, पूर्व तत्प्रदर्शिकास्तिस्रः करेणगार्थाः प्रदयन्ते "चउवीससयं काऊण पमाण पज्ज य पंच फलं । इच्छापव्वेहिं गुणं काऊणं पज्जया लद्धा ॥१॥ अट्ठारस य सएहिं, सेसगंमि गुणियम्मि । सत्तावीससएसुं, अट्ठावीसेसु पूसम्मि । सत्तट्ट विसट्ठीणं सव्वग्गेण तओ उजं सेसं । तंरिक्खं सूरस्स उ, जत्थ समत्तं हवइ पव्वं ॥३॥ 'एतासां तिसृणां करणगाथानां क्रमशो व्याख्या क्रियते-चउवीससयं काऊण पमाणं' चतुर्विंशतिशतं चतुर्विशतिशतप्रमितं प्रमाणं प्रमाणराशि कृत्वा 'पज्जए य पंच' पञ्च पर्यायान् 'फलं' फलं कुर्यात् । ततः 'इच्छापव्वेहिं गुणं काऊण' इच्छापर्वभिः ईप्सितपर्वराशिना गुणं-गुणकारं कृत्वा तत आयेन राशिना चतुर्विशत्यधिकशतरूपेण भागे हृते ये लब्धास्ते 'पज्जाया लद्धा' पर्याया लब्धा इति विज्ञेयम् । ते च शुद्धा ज्ञातव्याः ॥१॥ - Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे 'अट्ठारसयसएहिं तीसेहिं' अष्टादशकशैतस्त्रिंशदधिकैः (१८३०) 'सेसगंमि गुणियम्मि' शेपके भागे हृते यत् शेपमवतिष्ठते तस्मिन् गुणिते सति 'सत्तावीस सएसं अट्ठावीसेस' अष्टाविंशत्यधिकेपु सप्तविंशनिशतेषु (२७२८) शुद्वेषु 'पूमि' पुष्यः शुद्धयति, तस्मिंश्च पुण्ये शुढे ॥२॥ 'सत्तट्ट विसहीणं सनग्गेण' सप्तपष्टि संख्यकद्वापण्टीनां सर्वाग्रेण यद् भवति, अयं भाव--सप्तपष्ट्या द्वापष्टिगुण्यते गुणिताया च तस्यां यद् भवति चतुष्पञ्चाशदधिकानि एकचत्वारिंशच्छनानि (१४५४) तेन भागे हते यो राशिलब्धः तावन्ति नक्षत्राणि शुद्धानि ज्ञातव्यानि यत्पुन. 'तो उ' ततोऽपि भागहरणादपि 'जं सेसं' यत् शेपं तिष्ठति 'तं रिक्खं उ' तत् ऋक्षं नक्षत्रं तु 'सूरस्स' मूरस्य मूर्यस्य सम्बन्धि ज्ञातव्यम्, क्रिमित्याह-'जत्थ समत्तं हवइ पचं' यत्र रामाप्त भवति पर्व, तदेव सूर्यनक्षत्रं पर्व समापकं भवतीति-भाव. । इति करण गाथात्रयार्थः ॥३॥ आसां भावना चेन्थम् यदि चतुर्विशत्यथिकशतसंख्यकैः पर्वभिः पञ्च मूर्यनक्षत्रपर्याया लम्यन्ते तदा एकेन पर्वणा कति लभ्यन्ते ? त्रैराशिकं गणितं कर्त्तव्य भवेत् राभित्रयस्थापना-1 १२४।५।१। अत्र त्रैराशिक गणितेऽन्त्येन राशिना मध्यमराशिगुणयित्वा आयेन राशिना भागो हग्णीय इति नियमात् अन्त्यराशिना एककरूपेण मध्यमे राशौ पञ्चरूपे गुणिते जानस्तावानव पञ्चक रूपों रागिः (५) अस्य आयेन राशिना चतुर्विगत्यधिक शत [१२४] रूपेण भागहरणं प्राप्यते, तच्च स्तोकत्वान्न सभवति, ततो नक्षत्रानयनार्थम् - त्रिंशदधिकाप्टादशगतै [१८३०] सप्तपष्टिभागैर्गुणयिष्याम इति तदर्थ गुणकार-छेदराश्योरर्द्धनापवर्तना कर्तव्या, एवं कृते जातो गुणकारराशिः पञ्चदशोत्तरनवशतसंख्यकः [९१५] छेदराशिः द्वापष्टिः [६२] ततो ये त्रैराशिके मध्यस्थिताः पञ्च ते पञ्चदशोत्तैनव शतै गुण्यन्ते जातानि पञ्च सप्तत्यधिकानि पञ्चचत्वारिंशच्छतानि [४५७५] । इतश्च पुण्यस्य चतुश्चत्वारिंशद् [४४] भागाः द्वापण्ट्या [६२] गुण्यन्ते जातानि अष्टाविंशत्यधिकानि सप्तविंशतिशतानि [२७२८] एतानि पूर्वराशे. [४५७५] गोव्यन्ते, निष्कास्यन्ते, स्थितानि पश्चात् सप्तचत्वारिंशदधिकानि आटादशशतानि [१८४७] । तत्र छेदरागिषष्टिरूपः सप्तपष्टया गुण्यते, जातानि चतुप्पञ्चागढधिकानि एक चत्वारिंशच्छतानि [४१५४] एभिः पूर्वीतराशेर्भागो हियते किन्तु छेद्यराशिः स्तोक., अतस्तस्य स्तोकवाद् भागो न हियते ततो दिवसा आनेतन्याः, तत्र च छेदराशिस्तु द्वापष्टिरूपः, किन्तु परिपूर्ण नक्षत्रानयनार्थमेव हि द्वापष्ठिः सप्तप्टया गुणिता, परिपूर्ण च नक्षत्र मिदानी नायाति ततो मूल एव द्वापष्टि रूपश्छेदराशिः, केवलं पञ्चभिः सप्तष्टि भागैरहोरात्रो भवतीत्यतो दिवसानयनार्थ द्वापष्टिः पञ्चभिर्गुणनीयः, द्वापप्टेः पञ्च भिर्गुणने जातानि दशोत्तराणि त्रीणि शतानि [३१०] एतैः पूर्वोक्तस्य सप्तचत्वारिंशदधिकाष्टादशशतराशेः [१८४] भागो हरणीयः हृते च भागे लब्धाः पञ्च दिवसाः[५] शेष तिष्ठति सप्तनवत्यधिके द्वे शते [२९७] इति । एप राशि मुहूर्तानयनाथ त्रिंशता गुण्यते तत्र गुणाकार छेदराश्योः शून्येनापवर्तना कर्तव्या, तत्र Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. २० सू ३ द्वितीययुगसंवत्सरनिरूपणम् ३९१ गुणाकारराशि स्त्रिशत् [३०] सजातस्त्रिकरूपः [३] छेदरागिर्दशोत्तरशतत्रयरूपः [३१०] स जात एकत्रिंशत् (३१) तत्र त्रिकरूपेण गुणकारराशिना उपरितनः सप्तनवत्यधिकशतद्वयरूपो [२९७] राशिर्गुण्यते जातानि-एकनवत्यधिकानि अष्टौ गतानि [८९१] एषामेकत्रिंशद्रूपेण (३१) छेदराशिना भागो. हियते, लब्धा अष्टाविंशति मूहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविशति रेकत्रिंशद्भागाः (२८-२२) तत आगतम्-प्रथमं पर्व अश्लेपानक्षत्रस्य पञ्च दिवसानां, एकस्य च दिव सस्याप्टाविंशति मुहूर्तानाम्, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशत्येकत्रिंशद्भागानां [६. मु. भा. ५-२८--२३] भोगं कृत्वा समाप्तं भवतीति । - अथवा--पूर्वोक्तगणितगतत्रैराशिकमध्यस्थितपञ्चकराशी (५) पञ्चदशोत्तरनवशत (९१५) राशिना गुणिते समागतो यः पञ्चसप्तत्यधिक पञ्च चत्वारिंशच्छत (४५७५) रूपो राशिः तस्मात्-द्वापष्टि गुणित चतुश्चत्वारिंशत्पुष्यभाग (४४) समागताष्टाविंशत्यधिक सप्तविशति (२७२८) राशिरूपे पुण्ये शुद्ध स्थितानि पश्चात् सप्तचत्वारिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८४७)तानि सूर्यमूहूर्तानयनाय त्रिंशता गुण्यन्ते जातानि--पञ्च पञ्चाशत् सहस्राणि चत्वारिशतानि दशोरत्ताणि (५५४१०) एपां प्रागुक्तेन सप्तषष्टि गुणितद्वाषष्टि समागत-चतुष्पञ्चाशददिकैक चत्वारिशच्छत (४१५४) रूपेण छेदराशिना भागो हियते, लब्धालयोदश (१३) मुहूर्ताः तिष्ठन्ति शोषाणि अष्टोत्तर चतुर्दशशतानि (१४०८) तत एतानि द्वाषष्टि भागानयनाथ द्वापष्टया गुणयितव्यानि भवन्तीति गुणकारछेदराश्यो षिष्टयाऽपवर्त्तना कर्तव्या तत्र गुणकाररागिपष्टिस्ततस्तस्या द्वाषष्टया अपवत्तना करणे लब्ध एककरूपः (१) छेदराशेश्चतुष्पञ्चाशदधिकैकचत्वारिंशच्छत (४१५४) रूपस्य द्वाषष्टयाऽपवर्तना करणे जाता सप्तषष्टिः (६७) तत्र द्वापष्टयाऽपर्तितैकक रूपेण गुणकारराशिना गुणितः अष्टोत्तरचतुर्दशशत (१४०८) रूपो राशिर्जातस्तावानेव (१४०८)। ततोऽपवर्तितेन सप्तषष्टि (६७) रूपेण छेदराशिना छेद्यते--भागो हियते इत्यर्थः, हृते च भागे लब्धा एकविंशतिः २१ द्वाषष्टि भागा एकस्य मुहूत्र्तस्य यश्चशेप एकः, स एकस्य द्वापष्टि भागस्य एकः सप्तपष्टिभागः (१३-- )। तत एवं समागतम् युगस्यादौ ६४६७ प्रथमम् अमावास्यारूपं पर्वसूर्योऽश्लेषानक्षत्रस्य त्रयोदश मुहूर्तान् एकस्य च मुहूर्त्तस्य एक विंशतिद्वापष्टि भागान् एकस्य च द्वावष्टि भागस्य एक सप्तषष्टि भागम् (१३ - )भुक्त्वा समापयतीति । ६/६७ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रति अथ च यदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेन पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते तर्हि द्वाभ्यां पर्चा - भ्यां कति सूर्यनक्षत्र पर्याया लभ्यन्ते १ । अत्रापि राशित्रयस्थापना - । १२४|५|२| पूर्वोक्तरीत्याऽत्रापि अन्त्येन राशिना द्विकरूपेण मध्यराशि. पञ्चकरूपो गुण्यते, जाता दग (१०) एषां चतुर्विंशत्यधिकैकगतरूपेण आद्य राशिना भागहरणं प्राप्यते किन्तु भाजक राशे र्भाग्यराशि स्तोकोऽतो भागो न ह्वियते ततो नक्षत्रानयनार्थं त्रिंशदधिकाष्टादशशत (१८३०) संख्यया गुणयितव्यमिति गुणकारच्छेदराश्योरर्थेनाऽपवर्त्तना क्रियते, जातोऽयं गुणकारराशिः पञ्चदशोत्तरनवशतसंख्यक (९१५) छेदराशिचतुर्वि गत्यधिकशत (१२४) रूपः सोऽर्धेनापवर्त्तिते जातो द्वापष्टिः (६२) तत्र पञ्चदशोत्तरनवगतैः (९१५) दश (१०) गुण्यन्ते जातानि पञ्चाशदधिकानि एक नवतिशतानि (९१५०), एम्य: पूर्वपदर्शितानि अष्टाविंशत्यधिकानि सप्तविंशतिशतानि (२७२८) पुष्यसम्बन्धीनि शोध्यन्ते, शोधिते च स्थितानि पश्चात् - द्वाविंशत्यधिकानि चतुष्पष्टिशतानि (६४२२) छेदराशिर्द्वापष्टिरूपः, स सप्तपष्टचा गुण्यते जातानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि एक चत्वारिंशच्छतानि (४१५४) एतैर्भागो हियते, लब्धमेकं नक्षत्रम् अश्लेपारूपम्, तच्चाले पानक्षत्रम - क्षेत्रं पञ्चदश मुहूर्त्तात्मकत्वात्, अत एतद्गताः पञ्चदश मुहूर्त्ता अधिका ज्ञातव्याः, पूर्वं भागे हृते यानि शेपाणि तिष्ठन्ति-अष्टपष्टयधिकानि द्वाविंशति शतानि (२२६८) तानि मुहूर्त्तानयनार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते जातानि - अपष्टिः सहस्राणि चत्वारिंशदधिकानि (६८०४०) तेषां चतुष्पञ्चाशदधिकैकचत्वारिंशच्छत (४१५४) रूपेण छेदराशिना मागो हियते, लब्धाः पोडश मुहर्त्ताः तिष्ठन्ति शेपाणि पट्सप्तत्यधिकानि पञ्चदगगतानि (१५७६) एतानि द्वापष्टि भागानयनार्थ द्वाषष्ट्या गुणयितव्यानीति गुणकारच्छेदराइयोर्द्वापष्ट्याऽपवर्त्तना क्रियते, तेन जातो गुणकारराशिरेकरूपः (१) छेदराशिः सप्तषष्टिः (६७) तत्रोपरितनो राशि: राशि: (१५७६) एकेन गुणितो जातस्तावानेव (१५७६ ) अस्य सप्तपष्टचा भागे हृते लब्धास्त्रयोविंगति द्वपष्टि भागाः (२३) शेषारितष्ठन्ति पञ्चत्रिंशत्, ते च पञ्चत्रिंशत् सप्तपष्टि भागाः (३५) तत्र ये पोडश मुहूर्त्ता लब्धास्ते, तथा ये चोद्धरिताः पाश्चात्याः पञ्चदशमुहूर्त्तास्ते एकत्र मील्यन्ते जात एकत्रिंशत् (३१) तत्र त्रिगता मधा शुद्धा, पश्चादुद्धरत्येकः सूर्यमुहर्त्तः १ तत आगतं श्रावणमासभावि पौर्णमासीरूपं पूर्वफाल्गुनी नक्षत्ररयैकं मुहूर्तम् एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रयोविंशतिं द्वापष्टि भागानू, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चत्रिशतं सप्तपष्टि भागान् : (१-२३ (३५) भुक्वा सूर्यो द्वितीयं ६२/६७ ३९२ पर्व समापयतीति । तथा चोक्तं शेषमुहूर्त्तविपये "ता पुव्वाहिं फग्गुणीहिं पुव्वाणं फग्गुणीणं अट्ठावीस च मुहुत्ता अट्टत्तीसं च वासविभागा मुहुत्तस्स वासद्विभागं च सत्तद्विहा छेत्ता बत्तीसं चुणिया भागा सेसा " छाया -- तावत् पूर्वाभिः फाल्गुनीभिः पूर्वाणां फाल्गुनीनां अष्टाविंशति Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा प्रा. २० सू ३ द्वितीययुगसंवत्सर निरूपणम् ३९३ मुहूर्त्ताः, अष्टत्रिंशच्च द्वाषष्टिभागाः मुहूर्त्तस्य, द्वाषष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा द्वात्रिशत् चूर्णिकाः भागाः शेषाः । २८- ३८ - ३२ पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्रस्य समक्षेत्रत्वेन त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकत्वात् भुक्तशेषयोर्द्वयोः संमेलने जायन्ते पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रस्य परिपूर्णास्त्रिशन्मुहूर्त्ताः (३०) इति । तथा यदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेन पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते तदा त्रिभिः कति सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते । अत्रापि राशित्रयस्थापना - । १२४|५|३ | अत्राप्यन्त्येन राशिना त्रिकरूपेण मध्यः पञ्चकरूपो राशिर्गुण्यते जाताः पञ्चदश (१५) तेषामाद्येन चतुर्विंशत्यधिकशत (१२४) रूपेण राशिना भागहरणं प्राप्यते, भाज्यराशं स्तोकत्वाद् भागो न हियते ततो नक्षत्रानयनार्थमष्टादशभिः शतै खिशदधिकैः (१८३०) सप्तषष्टिभागै गुणयिष्याम इति गुणकारच्छेदराश्योरर्द्धेनापवर्त्तना क्रियते, जातो गुणकारराशिः पञ्चदशोत्तराणि नव शतानि (९१५) छेदराशिर्द्वाषष्टिः (६२) । तत्र पञ्चदशोत्तरनवशतैः पञ्चदश गुण्यन्ते, जातानि पञ्चविंशत्यधिकसप्तशतोतराणि त्रयोदश सहस्राणि (१३७२५), एभ्यः अष्टाविंशत्यधिकानि सप्तविंशतिशतानि (२७ २८) पुष्यनक्षत्रसम्बन्धीनि शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चात् सप्तनवत्यधिक नवशतोत्तराणि दश सहस्राणि(१०९९७), छेदराशि य द्वाषष्टिरूपः स सप्तषष्ट्या गुण्यते जातानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि एकचत्वारिंशच्छतानि (४१५४), एतैर्भागो हियते, लब्धे द्वे नक्षत्रे, ते चाश्लेपा मघारूपे, तत्राश्लेषा नक्षत्रमपार्द्धक्षेत्रं पञ्चदशमुहूर्त्तात्मकमित्येतद्गताः पञ्चदशसूर्यमुहूर्त्ता उद्धरिता ज्ञातव्याः, इतश्च पूर्वं भागे हृते यानि स्थितानि शेषाणि नवाशीत्यदिकानि षड्विंशतिशतानि (२६८९ ), तानि मुहूर्त्ता - नयनार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि अशीति सहस्राणि सप्तत्यधिकानि षड्शतानि (८०६७०), एषां छेदराशिना चतुष्पञ्चाशदधिकैक चत्वारिंगच्छत रूपेण (४१५४) भागो हियते, लव्धा एकोनविंशतिर्मुहूर्त्ताः (१९), शेषाणि तिष्ठन्ति चतुश्चत्वारिंशदधिकानि सप्तदशशतानि ( १७४४), एतानि द्वाषष्टि भागानयनार्थं द्वाषष्ट्या गुणनीयानीति गुणकार - च्छेदराश्यो द्वषिष्टयाऽपवर्त्तना क्रियते, जातो गुणकार राशिरेकरूपः (१), छेदराशिः सप्तषष्टिरूपः (६७) तत्रो परितनो यो राशिचतुश्चत्वारिंशदधिकसप्तदश शतरूपः (१७४४), स एकेन गुणितस्तावानेव १७४४) अस्य सप्तषष्टया भागो ह्रियते, लब्धा षडूविंशति र्द्वा पष्टिभागाः स्थितौ शेषौ द्वौ तौ च एकस्य द्वाषष्टि भागस्य द्वौ सप्तषष्टि भागौ- २६ - ) तत्र पूर्वं ये लब्धा एकोनविशतिमुहूर्त्ताः (१९) ये चाश्लेषा नक्षत्रसत्काः पञ्चदश सूर्यमुहूर्त्ता उद्धरिताः, एतद्द्वयमपि एकत्र मील्यते जाताश्चतुस्त्रिंशन्मुहूर्त्ताः (३४) अत्र त्रिंशता पूर्व फाल्गुनी शुद्धा, शेषाः स्थिता श्चत्वारो मुहूर्त्ता (४) तत आगतम् - उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रसम्बन्धिनां चतुर्णां मुहूर्त्तानाम्, एकस्य च मुहूर्त्तस्य षड्विशति र्द्वा षष्टिभागानाम् एकस्य च २६ २) भोगं कृत्वा सूर्यः भाद्रपदमासगतामावास्या द्वाषष्टि भागस्य द्वयोः सप्तषष्टि भागयो : ( ४ - ) ६२६७ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ . चन्द्रप्राप्तिसूत्रे रूपं तृतीय पर्व समापयतीति ।। अनेनैव रीत्या शेषपर्वसमापकान्यपि सूर्यनक्षत्राण्यानेतन्यानोति । तथा चोक्तं शेपभागविपये-"..... .ता उत्तराहिं चेव फग्गुणीहि, उत्तराणं फग्गुणीणं चत्तालीस मुहुत्ता पणतीसं च वासद्विभागा मुहत्तस्स, वासटिभागं च सत्तट्टिहा छेत्ता पण्णही चुणिया भागा सेआ" छाया-तावत् उत्तराभिः चैव फाल्गुनीभिः, उत्तराणां फाल्गुनीनां चत्वारिंशन्मुहूर्ता, पञ्चत्रिंशच्च द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य, द्वापष्टिभागं च सप्तपष्टिधा ठित्वा पञ्चपष्टिः चूर्णिका भागाः शेपाः (४०-२८-१)उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रस्य द्वयर्धक्षेत्रत्वेन पञ्चचत्वारिंशन्मुहुर्तात्मकत्वात् मुक्त शेपयोईयोः संमेलने जायन्ते उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रस्य परिपूर्णा पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्ता (४५) इति । ___ अथवा कस्मिन् पर्वणि किं सूर्यनक्षत्रं भवतीति परिज्ञानार्थमत्रेमाः सप्त करणगाथाः प्रदर्श्यन्ते'तेत्तीसं' इत्यादि, तथाहि "तेत्तीसं च मुहुत्ता, विसटिभागा य दो मुहुत्तस्स । चुत्ती चुण्णियभागा, पब्बीकया रिक्ख धुवरासी ॥१॥ इच्छा पच्च गुणाओ, धुवरासीओ य सोहणं कुणम् । पूसाईणं कमसो, जह विट्ठमणतनाणीहि ॥२॥ उगवीसं च मुहुत्ता, तेयालीसं विसहि भागा य । तेत्तीस चुण्णियाओ, पूसस्स य सोहणं एयं ॥३॥ उगुयालसयं उत्तर-फग्गु उगुणह दो विसाहामु । चत्तारि नवोत्तर उत्तराण साढाण सोज्झाणि ॥४॥ (प्र. ५०००) सव्वत्थ पुस्ससेसं, सोज्झं अभिइस्स च उरइगवीसा । वावट्ठी छन्भागा, वत्तीसं चुण्णिया भागा ॥५॥ उगुणत्तर पंच सया, उत्तर भवय सत्त उगुवीसा । रोहिणि अट्टनवोत्तर, पुणव्वसंतम्मि सोज्झाणि ॥६॥ अट्ठसया उगुवीसा, विसहिभागा य होति चउवीसं । छावट्ठी सत्तहि भागा पुस्सरस्स सोहणगं ॥७॥" छाया- त्रयस्त्रिंशच्च मुहूर्ताः, द्वापष्टि भागौ च द्वौ मुहूर्तस्य । चतुस्त्रिशत् चूर्णिका भागा पर्वीकृत ऋक्षध्रुव राशिः ॥१॥ इच्छापर्वगुणात् ध्रुवराशितश्च शोधनं कुरुत । पुण्यादीनं क्रमशः यथा दृष्टमनन्तज्ञानीभिः ॥२॥ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिरकाशिका टीका प्रा. १० मा. प्रा. २० सू. ३ द्वितीययुगसंवत्सरनिरूपणम् ३९५ एकोनविंशतिश्च मुहूर्ताः त्रिचत्वारिंशद् द्वाषष्टि भागाश्च । त्रय स्त्रिंशत्-चूर्णिकाः, पुष्यस्य शोधन मेतत् ॥३॥ एकोन चत्वारिंशं शतम् उत्तरफाल्गुनीनाम् एकोनपष्टे द्वे (शते) विशाखासु । चत्वारि नवोत्तराणि (शतानि) उत्तराषाढानां शोध्यानि ॥४॥ सर्वत्र पुष्पशेष, शोध्यं अभिजितः चत्वारि एकोनविशानि । द्वापष्टिः षड् भागाः, द्वात्रिंशत् चूर्णिका भागाः ॥५॥ एकोनसप्ततानि पञ्च शतानि उत्तरभाद्रपदानां सप्त एकोन विाशनि । रोहिणी अष्ट नवोत्तराणि पुनर्वस्वन्ते शोध्यानि ।।६॥ अष्ट शतानि एकोन विंशानि, द्वापष्टि भागाश्च भवन्ति चतुर्विंशतिः । पट् षष्टिः सप्तषष्टि भागाः पुण्यस्य शोधनकम् ॥७॥ एतेषां क्रमेण संक्षेपतो व्याख्या-'तेत्तीसं च मुहुत्ता विसद्विभागा य दो मुहत्तस्स' त्रय स्त्रिंशन्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य द्वौ द्वापष्टि भागौ तथा 'चुत्तीचुण्णिया भागा' एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य चतुस्त्रिंशत् चूर्णिका भागाः || ३३ एप सर्वेष्वपि पर्वसु 'पव्वीकया' ६२/६७ पर्वीकृतः एकेन पर्वणा निष्पादितः 'रिक्खधुवरासी' ऋक्षध्रुवराशि:-सूर्यनक्षत्रविषयोऽयं ध्रुवराशिः ॥१॥ एष ध्रुवराशिः कथमुपपद्यते ? इत्येतदाह-एप त्रैराशिकात समुपपद्यते, तथाहि-यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन पञ्चसूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते तदा एकेन पर्वणा कति पर्याया लभ्यन्ते । इति त्रैराशिकं यथा -१२४।५।१। अत्रापि त्रैराशिकगणितरीत्या अन्त्येन मध्यं गुणयित्वा आयेन भागहरणं भवतीति न्यायात् अन्त्येन एक रूपेण राशिना मध्यः पञ्चरूपो राशि र्गुण्यते जातस्तावानेव पञ्चरूपो राशिः (५) तत आयेन चतुर्विशत्यधिक शत रूपेण(१२४)भागो हियते किन्तु मध्यराशेः स्तोकत्वाद् भागो न लभ्यते ततो लब्धा एकस्य सूर्यनक्षत्रपर्यायस्य पञ्च चतुर्विशत्यधिकशतभागाः (१), एतान् नक्षत्रानयनाथ त्रिंशदधिकाष्टादशशतैः (१८३०) सप्तषष्टि भाग गुणयिष्याम इति गुणकारच्छेदराश्योरर्धेनापवर्तना क्रियते जातो गुणकारराशिः पञ्चदशोत्तराणि नवशतानि (९१५) छेदराशि षिष्टिः (६२) ततः पञ्चदशोत्तर नवशत (९१५) रूपेण गुणकार राशिना पञ्च गुण्यन्ते, जातानि पञ्च सप्तत्युत्तराणि पञ्चचत्वारिंशच्छतानि (४५७५) एतानि मुहू नयनाथ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातमेकं लक्षं, सप्तत्रिशत्सहस्राणि, पञ्चाशदधिके । शते च (१३७२५०), छेदराशि ा पष्टिरूपः सप्तषष्ट्या गुण्यते जातानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि एक चत्वारिंशच्छतानि (४१५४) एभिरूपरितनराशेः (१३७२५०) भागो हियते, लन्धास्त्रयस्त्रिशन्मुहुर्ताः (३२)शेषम्-अष्ट षष्टयधिकमेकं शतं (१६८) तिष्ठति, एष राशि षष्टि भागानयनाथ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ चन्द्रप्रप्तिसूत्रे द्वापष्ट्या गुणयितव्य इति गुणकारच्छेदराश्यो र्द्वा पटाचाऽपवर्त्तना क्रियते, जांता द्वा पटयाsपवर्तितो द्वापष्टिरूपो गुणकारराशिरेकरूपः (१), छेदराशि: चतुष्पञ्चाशदधिकैक चत्वारिंशच्छतरूपो हा पष्ट्चाऽपवर्त्तित्तो जातः सप्तपष्टिरूपः (६७), ततोऽष्टपष्टयधिकैकशतरूपो राशिरेकेन गुणितो जा तस्तावानेन (१६८), अस्य सप्तपटचा भागे हते लब्धौ द्दौ द्वापष्टिभागौ, एकस्य च द्वापष्टि४ ) इति । एवमेतत् प्रथम गाथोक्त ध्रुवराशि २ ४. भागस्य चतुस्त्रिंशत् सप्तपष्टि भागाः (३३ ६२ ६७ प्रमाणं समुपपन्नमिति द्वितीयगाथाभावना ॥२॥ अथ तृतीया गाथा व्याख्यायते - 'इच्छापत्रगुणाओ' इत्यादि । 'इच्छापत्रगुणाओ' इच्छापर्वगुणात् इच्छा यस्य पर्वणो इतुमिच्छा, तद्विषयं यत् पर्चेति पर्वसंख्यानं तद् इच्छापर्व, तेन गुणः - गुणकारो यस्य ध्रुवराशे स इच्छापर्वगुणः, तस्मात् इच्छापर्वगुणात् इच्छितपर्वगुणितात्, एतादृशात् 'घुवर सीओ' ध्रुवराशितश्च ध्रुवराशिसकाशाच 'सोहणं कुणसु' शोधनं कुरुत, केपामि - त्याह 'पूसाइणं कमसो' पुष्यादीनां नक्षत्राणां क्रमशः क्रमेण शोधनं कुर्यादित्यर्थः । कथमेतद् ज्ञातम् ! 'जड़ दिहमणंतनाणीहिं' यथा दिष्टम् - यथोपदिष्टमनन्तज्ञानिभिस्तथा कुर्यादिति भावः ॥२॥ अथ तृतीय गाथया तदेव शोधनकं दर्शयति- 'उगवीसं' इत्यादि, 'उगवीसं च मुहुत्ता' एकोनविंशतिश्च मुहूर्त्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य 'तेयालीसं विसद्विभागा य' त्रिचत्वारिंशद् द्वाषष्टि भागाश्च तथा एकस्य द्वाषष्टि भागस्य ' तेत्तीस चुण्णियाओ' त्रयस्त्रिंशच्चूर्णिका भागाः चू (१९-४३/३३ ) 'पूसल्स सोहणं एयं' पुष्यस्य शोधनमेतत् - अनुपदोक्तमेतत् पुष्यनक्षत्रस्य ६२६७ शोधनकमस्ति ||३|| 2 अथ तृतीयगाथाया भावना - एतावत्कं पुण्यशोधनकं कथमुपपद्यते ' इत्यत्राह - इह पाश्चात्य युगपरिसमाप्तौ पुष्यनक्षत्रस्य त्रयोविंशतिः सप्तपष्टिभागा गताः, शेपाश्चतुश्चत्वारिंशद्वागा [ ४४ ] अवतिष्ठन्तं, तत् एते मुहर्त्तानयनार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि विंशत्यधिकानि त्रयोदशशतानि ( १३२० ), एषां सप्तपष्ट्या भागो हरणीयः, लब्धा एकोनविंशतिर्मुहुर्त्ताः (१९), शेपाः सप्तचत्वारिंशत् (४७) तिष्ठन्ति ते द्वः पष्टि भागनायनार्थ द्वापष्ट्या गुण्यन्ते, जातानि - चतुर्दशो - त्तराणि एकोनत्रिशच्छतानि ( २९१४) तत एतां सप्तपष्टया भागो हियते, लब्धास्त्रिचत्वारिंशत् (४३) द्वापष्टि भागाः ये शेपास्ते एकस्य च द्वापष्टि भागस्य त्रयस्त्रिंशत् (३३) सप्तपष्टि भागा इति तृतीय गाथा || अथ चतुर्थी गाथां व्याख्यायते --' उगुयाल सयं' इत्यादि 'उगुयालसयं' एकोनचत्वारिंशं गतम् - एकोनचत्वारिंशदविकं शतं मुहर्त्तानां एकोनचत्वारिंशदधिकं मुहूर्तशत (१३९) Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा २० सू३ द्वितीययुगसंवत्सरनिरूपणम् ३९७ ६२/६७ 'उत्तर फग्गु' उत्तराफाल्गुनीनामिति-उत्तरा फाल्गुनी पर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यम् । 'उगुणह दो' एकोनपष्टि द्वे इति, एकोनपष्टयधिके द्वे शते(२५९) विसाहासु' विशाखासु हस्तत आरभ्य विशाखापर्यन्तेषु शोध्ये । 'चत्तारि नवोत्तर' चत्वारि नवोत्तराणि शतानि नवोत्तराणि चत्वारि मुहूर्तगतानि (४०९) 'उत्तराणसाहाण' उत्तरापाढानाम्-अनुराधात आरभ्य उत्तराषाढ़ा पर्यन्तानां नक्षत्राणा 'सोज्झाणि' शोध्यानि (४०९) इति चतुर्थगाथा व्याख्या ॥४॥ अथ पञ्चमी गाथा व्याख्यायते-'सव्वत्थ' इत्यादि, 'सव्वत्थ' सर्वत्र एतेषु सर्वेष्वपि शोधनेषु 'पुस्ससेसं' पुष्यशेपं यत्पुण्यस्य मुहूर्तेभ्यः शेष एकस्य मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशत् द्वाषष्टि भागाः, एकस्य च द्वापष्टि भागस्य त्रयस्त्रिंशत्सप्तपष्टि भागाः ४३३३ इत तत् प्रत्येक 'सोझ' गोध्यं शोधनीयम्, तथा 'अभिइस्स' अभिजितः अभिजिन्नक्षत्रस्य 'चउर उगवीसा' चत्वारि एकोनविशानि-एकोनविशत्यधिकानि चत्वारि मुहूर्त शतानि तथा 'वावहि छब्भागा' द्वापष्टिः षड्भागा:-एकस्स्य च मुहूर्तस्य पड्दापष्टि भागाः, 'वत्तीसं चुणिया भागा' तथा द्वात्रिंशच्चर्णिका भागाः- एकस्य च द्वापष्टि भागस्य द्वात्रिंशत्सप्तषष्टि भागाः (४१९-६ २११) ६२६७ इति शोध्यम्, एतावता पुण्यादीनि अभिजित्पर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धयन्तीति भावार्थः ॥५॥ अथ पष्ठी गाथा व्याख्यायते-'उगुणत्तर०' इत्यादि, 'उगुणत्तर पंचसया' एकोन सप्तानि एकोन सप्तत्यधिकानि पञ्चशतानि मुहूर्तानाम् (५६९) 'उत्तरभद्दवय' उत्तरभाद्रपदानाम्श्रवणत आरभ्य उत्तरभाद्रपदा पर्यन्तानां शोध्यानि । तथा 'सत्तउगुवीसा' सप्तएकोनविंशत्यधिकानि सप्तशतानि (७१९) 'रोहिणी' रोहिणीरेवतीत आरभ्य रोहिणी पर्यन्तानां शोध्यानि 'अट्टनवोत्तर' अष्टनवोत्तराणि नवोत्तराष्टशतानि (८०९) 'पुणवसंतम्मि' पुनर्वस्वन्ते पुनर्वसुपर्यन्ते मृगशिरस आरभ्य रोहिणी पर्यन्तानां नक्षत्राणां 'सोज्झाणि' शोध्यानिशोधनीयानि भवन्तीति ॥६॥ ___ अथ सप्तमी गाथा व्याख्यायते-'अट्ठसया' इत्यादि, 'अट्ठसया उगुवीसा' अष्टशतानि एकोनविंशानि-एकोनविंशत्यधिकानि अष्टौ मुहूर्तगतानि (८१९), 'विसहिभागा य हौति चउवीसा' द्विषष्टि भागाश्च भवन्ति चतुर्विंशतिः-एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिषष्टिभागाः, तथा 'छावहि सत्तट्टि भागा' पट् पष्टिसप्तषष्टि भागाः, एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य पट् षष्टिः-सप्तपष्टि भागाः (८१९-२४६६ ) इति ‘पुस्सस्स सोहणगं' पुण्यस्य शोधनकमस्ति, ६२६७ २० एतावता सम्पूर्ण एक सूर्यनक्षत्रपर्यायः शुद्धयतीति तात्पर्यार्थः ।.७॥ इति करणगाथा व्याख्या समाता ॥१-७॥ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ चन्द्रप्रनप्तिसूत्र आसां भावना चेत्थम्-अथ कोऽपि पृच्छति-प्रथमं पर्व कस्मिन् सूर्यनक्षत्रे समाप्तं भवति । अत्र ध्रुवशशि:-त्रयस्त्रिंशन्मुहूर्ताः एकस्य मुहूर्तस्य द्वौ द्वापष्टिभागौ, एकस्य च द्वाघष्टि भागस्य चतुस्त्रिंशत् सप्तपष्टि भागौ (३३ -)| एप ध्रुवशिः स्था यते । एपो ध्रुवराशिः प्रथमपर्वविषयक प्रश्नत्त्वाद् ६४७ ६२/६७ एकेन गुण्यते, जातस्तावानेव । ३३।२।३४। एतस्मात् पुण्यशोधनकम्-एकोनविशतिर्मुहूर्ताः, एकस्य मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशद द्वापष्टि भागा ,एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत्सप्तपष्टिभागाः(१९३२) इत्येवं प्रमाणं शोव्यते शोधिते स्थिताः शेपास्त्रयोदशमुहूर्ताः एकस्य च मुहूर्तस्य एक विंशति पिष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तपष्टि भागः (१३२११) । तत ६२६७ आगतम-अलेपानक्षत्रस्यैतावद्भागान् भुक्त्वा सूर्यः प्रथमं पर्व श्रावणमासगतामावास्या रूपं परिसमापयतीति ॥१॥ द्वितीयपर्वविचारणायामपि स पूर्वोक्त एव ध्रुवराशि:-३३।२।३४ । अत्र द्वितीयपर्वविषयक प्रश्नत्वादेप ध्रुवराशिभ्यां गुण्यते जाताः पट्पष्टिर्मुहर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च द्वापष्टिभागाः, एकस्य च दुपष्टिभागरय एकः सप्तपण्टिभागः ६६५।१। एतस्मात् पुप्यशोधनकं यथोक्तप्रमाण-११।४३।३३ । शोध्यते, स्थिताः पश्चात् पट् चत्वारिंशन्मुहूर्ताः, त्रयोविशति-पष्टि भागाः, पञ्चत्रिंगत्सप्तपष्टिभागाः ४६॥२३॥३५॥ एतस्मात् पञ्चदश मुहूत्तों अश्लेपानक्षत्रस्य शोध्यन्ते, रिथताः पश्चात् एकत्रिशन्मुहर्ता (३१) एग्यः - त्रिंशन्मुहूर्ता मघा नक्षत्रस्य शोध्यन्ते, स्थिनः पश्चादेको मुहर्तः (१) तत आगतम् द्वितीयं पर्व सूर्यः पूर्वफाल्गुनी नक्षत्रस्य एक मुहूर्तम् एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशति द्वापष्टिभागान्, एकस्य च द्वापष्टि भागस्य पञ्चत्रिंशतं सप्तपष्टि भागान्– (१९३२) भुक्त्वा परिसमापतीति । २। तृतीय पर्व पृच्छायामपि स एव ध्रुवराशिः ३३२।३४ त्रिभिर्गुण्यते, जाता नव नवतिर्मुहर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तद्वापष्टि भागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्च त्रिंशत्सप्तपष्टिभागाः (९९ ) । एतस्मादागः पुण्यशोधनकं (१९।१३।३३) शोच्यते, स्थिनाः पश्चात्-एको नागीनि मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूत्र्तस्य पविशते पिष्टि भागा , एकस्य च द्वापष्टि भागस्य द्वौ सप्त पष्टि भागो (७९२० २) । ततः पञ्चदश मुर्ता अलपाया. शोठ्या., स्थिताः पश्चात चतुपष्टि मुहर्ताः (६४)। अस्माद्राशे. त्रिशन्मुहूर्ता मघायाः शोव्याः, स्थिताः पश्चात् चतुस्लिंगन्मुहूर्ताः (३४), अस्मात् त्रिंशन्मुहूर्ताः पूर्वफगुन्या शोध्याः पश्चाच्चत्वारो मुहूर्ताः (१) तत आगतम्-तृतीय Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. २० सू. ३. द्वितीययुगसंवत्सरनिरूपणम् ३९९ पर्व भाद्र पदमासामावास्या लक्षणं सूर्य उत्तरफाल्गुनी नक्षत्रस्य चतुरो मुहूर्तान् , एकस्य च मुहूर्तस्य षड् विंशतिं द्वाषष्टिभागान् , एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य दो सप्तपष्टिभागौ भवत्वा समाप्तिनयतीति ।३। इत्येतानि त्रीणि पर्वाणि गणितेन प्रदर्शितानि अनयैव रीत्या शेपेपु पर्वस्वपि सर्व समापकानि सूर्यभोगनक्षत्राणि स्वयमूहनीयानीति । अत्र युग पूर्वार्धभावि द्वाषष्टि पर्व गत सूर्यनक्षत्रसूचिका इमाश्चतस्रो गाथाः प्रदर्श्यन्ते "सप्प-भग-अज्जमदुगं, हत्थो चित्ता विसाह मित्तो य । जेहाइयं च छक्कं अजाभिवुड्ढी दु पूसासा ॥१॥ छक्कं च कत्तियाई, पिइ-भग अज्जमदुगं च चित्ता य । वाउ विसाहा अणुराह जेट्ट आउंच वीसु दुगं ॥२॥ सवणधणिट्ठा अनदेव अभिवुडूढी दुमस्स जम बहुला ॥ रोहिणि सोम दिइ दुगं, पुस्सों पिइ भगज्जमा हत्थो ॥३॥ चित्ता य जिवज्जा, अभिई अंताणि अट्ट रिक्खाणि । एए जुग पुन्बद्धे, विसट्रिपव्वेसु रिक्वाणि ॥४॥ छाया-सर्प १ भग २ अर्यमद्विकं ४ हस्त ५ चित्रा ६ विशाखा, मित्रं च । ज्येष्ठादिकं च षट्कं १४, अज १५ अभिवृद्धि द्विकं १७ पुण्याश्चो १९ ॥१॥ पट्टकं च कृत्तिका दि २५ पितृ २६ भग २७ अर्यमद्विकं २९ च चित्रा ३० च । वायुः ३१ विशखा ३२ अनुराधा ३३ ज्येष्ठा ३४ आयुः ३५ विश्वद्विकम् ३, ॥२॥ श्रवणः ३८, धनिष्ठा ३९ अजदेवः ४० अभिवृद्धिद्विकं ४२ अश्व ४३ यमबहुलौ ४५ रोहिणी ४६ सोमः ४, अदितिद्विकं ४९ पुष्यः ५० पितृ ५१ भग ५२ अर्यमा ५३ हस्त ५४ चित्रा ५५ च ज्येष्ठावर्जानि अभिजिदन्तानि अष्ट ऋक्षाणि ६२ । ॥३॥ एतानि युगपूर्वार्धे द्विपष्टि पर्वसु ऋक्षाणि ॥४॥ इति ।। एतासां व्याख्या-प्रथमस्य पर्वणः समाप्तौ सूर्यनक्षत्र सर्पः सर्पदेवतोपलक्षिताऽश्लेषा १, द्वितीयस्य भगः-भगदेवतोपलक्षितः पूर्वफाल्गुन्यः २, ततः अर्यमद्विकमिति तृतीयस्यार्यमदेवतोपलक्षिता उत्तरफाल्गुन्यः ३, चतुर्थस्यापि उत्तरफाल्गुन्यः ४, पञ्चमस्य हस्तः ५ पष्ठस्य चित्रा ६, सप्तमस्य विशाखा ७, अष्टमस्य मित्रदेवतोपलक्षिताऽनुराधा ८, ततो ज्येष्ठादिकं पट्क ज्येष्ठादीनि पड् नक्षत्राणि क्रमेण वक्तव्यानि, तथाहि-नवमस्य ज्येष्ठा ९, दशमस्य मूलम् १०, एकादशस्य पूर्वाषाढा ११, द्वादशस्योत्तराषाढा १२, त्रयोदशस्य श्रवणः १३, चतुर्दशस्य धनिष्ठा १४, पञ्चदशस्याजः अजदेवतोपलक्षिताः पूर्वभाद्रपदाः १५, 'अभिवुढिदुर्ग' . अभिवृद्धिद्विकमिति षोड़शस्याभिवृद्धिः अभि Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० चन्द्रप्रनप्तिसूत्रे वृद्धि देवतोपलक्षिता उत्तरभाद्रपदाः १६, सप्तदशस्यापि उत्तर भाद्रपदा १७, अष्टादशस्य पुण्यः-पुण्य देवतोपलक्षिता रेवती १८, एकोनविंशतितमस्याश्व-अश्वदेवतोपलक्षिता अश्विनी १९, 'छवकं च कत्तिायाई' पट्कं च कृत्तिकाटिकमिति कृतिकात आरभ्य पुष्यपर्यन्तानि नक्षत्राणि क्रमेण पण्णां पर्वणाम्, तथाहि विंशतितमस्य कृत्तिका २०, एकविंशतितमस्य रोहिणी २१, द्वाविंशतितमस्य मृगशिरः २२, त्रयोविंशतितमस्य आर्द्रा २३, चतुर्विंशतितमस्य पुनर्वसुः २४, पञ्चविंशतितमस्य पुष्यः २५, पड्विंशतितमस्य पितृदेवतोपलक्षिता मघा २६, सप्तविंशतितमस्य भग'-भगदेवतोपलक्षिताः पूर्वफाल्गुन्यः २७, 'अज्जमदुर्ग' अर्यमट्टिकमिति अष्टाविंशतितमस्य २८, एकोनत्रिंशत्तमस्य २९, च द्वयोरपि 'अज्जम' इनि अर्थमा-अर्यमदेवतोपलक्षिता उत्तराफाल्गुन्यः २८-२९ त्रिंशत्तमस्य चित्रा ३०, एकत्रिंशत्तमस्य वायुः-वायुदेवतोपलक्षिता स्वातिः ३०, द्वात्रिंशत्तमस्य विशाखा ३२, त्रयस्त्रिंशत्तमस्यानुराधा ३३, चतुस्त्रिंशत्तमस्य ज्येष्ठा ३४ पञ्चत्रिं शत्तमस्य पुनरायु:-आयुर्देवतोपलक्षिताः पूर्वापाढाः ३५, 'वीसुदुर्ग' इति विवद्विकं विष्वग् योनक्षत्रयोः तथाहि पत्रिंशत्तमस्य विश्वग्देवतोपलक्षिता उत्तरापाढाः ३६, सप्तत्रिंशत्तमस्यापि उत्तराषाढाः ३७, अष्टत्रिंगत्तमस्य श्रवणः ३८, एकोनचत्वारिंशत्तमस्य धनिष्ठा ३९, चत्वारिंशत्तमस्याजः-अजदेवतोपलक्षिताः पूर्वभाद्रपदाः ४०, एकचत्वारिंशत्तमस्याभिवृद्धिः'अभिवुडदिदगं' अभिवृद्धियोरिति अभिवृद्धिदेवतोपलक्षिता उत्तरभाद्रपदाः ४१, द्विचत्वारिंशत्तमस्याप्युत्तरभाद्रपदा, ४२, त्रिचत्वरिंशत्तमस्याश्वः अश्वदेवतोपलक्षिता अश्विनी ४३, चतुश्चत्वारिशत्तमस्य यम-यमदेवतोपलक्षिता भरणी ४४, पञ्चचत्वारिंशत्तमस्य बहुला-बहुलदेवतोपलक्षिताः कृत्तिका ४५, पट् चत्वारिंशत्तमस्य रोहिणी ४६, सप्तचत्वारिशत्तमस्य सोमः-सोमदेवतोपलक्षितं मृगशिरः ४७, 'अदिइदुर्ग' अदिति द्विकम्, इति-अष्टचत्वारिंशत्तमस्य एकोन पञ्चाशत्तमस्य चादितिः-अदिति देवतोपलक्षितं पुनर्वसुनक्षत्रम् ४८-४९, पञ्चाशत्तमस्य पुष्यः ५०, एकपञ्चाशत्तमस्य पिता-पितृदेवतोपलभिताः मधा ५१, द्विपञ्चशत्तमस्य भगः-भगदेवतोपलक्षिताः पूर्वफाल्गुन्यः ५२, त्रिपञ्चाशत्तशस्यार्यम-अर्यमदेवतोपलक्षिता · उत्तरफाल्गुन्य ५३, चतुष्पञ्चाशत्तमस्य हस्तः ५४, अतोऽग्रे 'चित्ता य जिवज्जा अभिई अंताणि अट्ठरिक्खाणि' चित्रा चेति चित्रादीनि अभिजित्पर्यन्तानि ज्येष्ठारहितानि अप्टनक्षत्राणि क्रमेण वक्तव्यानि, तथाहि-पञ्चपञ्चागत्तमस्य चित्रा ५५, पद पञ्चाशत्तमस्य स्वाति. ५६, सप्तपञ्चाशत्तमस्य विशाखा ५७, अष्टपञ्चाशत्तमस्यानुगधा ५८ एकोनपष्टितमस्य मूलम् ५९, पष्टितमस्य पूर्वापाढाः ६०, एकपष्टितमस्योत्तराः पाढाः ६१, द्वापष्टितमस्यामिजित् ६२, इति । एतानि द्वापटिनक्षत्रानि यथायोग मुक्त्वा सूर्यः युगस्य पूवार्धे द्वापष्टिसंख्यकानि Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रनप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१० प्रा०प्रा.२० सू३ द्वितीययुगसंवत्सरनिरूपणम् ४०१ पर्वाणि समापयतीति । एवमेव करणवशात् युगस्योत्तरार्धेऽपि द्वाषष्टि पर्वसु सूर्यनक्षत्राणि स्वयमूहनीयानीति । युगस्य चरमदिवसे किं पर्व कियत्सु मुहूर्तेषु गतेषु समाप्तिमेतीत्येतद्विपयारितनः गाथा अत्र प्रदर्श्यन्ते "चउहि हियम्मि पव्वे, एक्को सेसम्मि होइ कलिओगो । वेसु य दावरजुम्मो, तिसु तेया चउसु कडजुम्मो ॥१॥ . कलिओगे तेणउई, पक्खेवो दावरम्मि वावट्ठी । तेओए एक्कतीसा, कडजुम्मे नत्थि पक्खेवो ॥२॥ सेसद्ध तीस गुणे, पावट्ठो भइयंमि जं लद्धं । जाणे तइसु मुहुत्तेसु, अहोरत्तस्स तं पव्वं ॥३॥ छाया-चतुर्भिहते (भक्ते) पर्वणि, एकस्मिन् शेपे भवति कल्योजः । । द्वयोश्च द्वापरयुग्मः, त्रिपु त्रेतौजः चतुर्यु कृतयुग्मः ॥१॥ कल्योजे त्रिनवतिः प्रक्षेपो द्वापरे द्वाषष्टिः । वेतौजे एकत्रिंशत्, कृतयुग्मे नास्ति प्रक्षेपः ॥२॥ शेषार्धे त्रिंशद्गुणिते द्वापष्टि भाजिते यल्लब्धम् । जानीयात् तावत्केपु मुहूर्ते अहोरात्रस्य तत् पर्व ॥३॥ इति एतासां व्याख्या-'चउहि' इत्यादि, 'पन्वे' पर्वणि पर्वराशौ 'चउहिं हियमि' चतुभिं र्भागे हते ' सति 'एक्के सेसंमि' एकस्मिन् शेषे सति यद्येकः शेषोऽवतिष्ठते तदा सः 'होइ कलिओगो' भवति कल्योजः कल्योजो भवति, 'वेसु य दावरजुम्मो' द्वयोश्च शेषयोपरयुग्मः, 'तिमु तेया' त्रिपु शेषेषु त्रेतौज', 'चउसु कडजुम्मो' चतुषु शेषेषु च कृतयुग्मो भवतीति ॥१॥ अर्थतेषु प्रक्षेपराशिमाह-'कलिओगे' इत्यादि कलि ओगे' कल्योजे कल्योजराशौ 'तेणउई त्रिनवतिः ‘पक्खेवो' प्रक्षेपः प्रक्षेपणीयो राशिः, 'दावरम्मि बावट्ठी' द्वापरे द्वापरराशौ द्वापष्टिः द्वाषष्टिराशिः प्रक्षेपणीयो भवति, 'तेऊएएक्कतीसा' त्रेतौजे एकत्रिंशत् , 'कडजुम्मे नत्थि पक्खेवो' कृतयुग्मे न कोऽपि प्रक्षेपः प्रक्षेपणीयो राशिनं भवतीति ॥२॥ एवं प्रक्षेपे कृते तेषां प्रक्षिप्तप्रक्षेपाणां पर्वराशीनां चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन (१२४) भागो हियते, भागे हृते यच्छेषं तस्य किं कर्त्तव्यमिति तद्विधिमाह'सेसद्धे' इत्यादि, 'सेसद्धे' शेषाधैं शेषस्य भागावशिष्टस्यार्धं क्रियते, तस्मिन् 'तीसगुणे' त्रिंशद्गुणिते त्रिशता गुणनं क्रियते, ततस्तस्य 'वावट्ठीभाइए' द्वाषष्टि भाजिते द्वाषष्टया भागेहृते सति 'जं लद्धं यलब्धं यो राशिर्लब्धः, 'तइस मुहुत्तेसु' तावत्केषु मुहूर्वेषु भागलब्धराशि Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ चन्द्रप्रति 2 परिमितेषु मुहूर्त्तेपु, कस्य ' 'अहोरत्तस्स' अहोरात्रस्य तावत्परिमितेषु मुहूर्त्तेषु 'तं पव्वं' तत्पर्व समाप्तं भवति 'जाणे' जानीयात् । भागे हृते यो राशिः शेषोऽवतिष्ठते तं राशि मुहूर्तस्य भागरूपं जानीयात् यत् - एकस्य मुहूर्त्तस्य एतावन्तो भागा इति । तद्विवक्षितं पर्व चरमेऽहोरात्र सूर्योदयादनन्तर तावत्सु मुहूर्त्तेषु तावत्सुच मुहूर्त्तभागेषु व्यतीतेषु परिसमाप्तिं प्राप्तमिति ज्ञातव्यमिति ॥३॥ गता करणगाथा व्याख्या, अथ तद्भावना प्रदर्यते-अत्र कोऽपि पृच्छेत्-प्रथमं पर्वचरमेऽहोरात्रे कति मुहूर्तातिक्रमेण परिसमाप्तिं गतम् ? इति प्रश्ने प्रथमं पर्व पृच्छात्वेन एकः स्थाप्यते, अयमेकरूपो राशिः कल्योजः 'कलिओगे तेणउई' इति वचनादत्र त्रिनवतिः प्रक्षेपणीया, प्रक्षेपणे जाता चतुर्नवतिः (९४) अस्य चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन (१२४) भागो ह्रियते एकस्मिन् युगे पूर्वाद्वे उत्तरार्धे च पर्वणां चतुर्विंशत्यधिकशतसंख्यकत्वात् । अत्र भाजकाद् भाज्यस्य स्तोकत्वाद् भागो न लभ्यते ततो यथासंभवं करणलक्षणं कर्त्तव्यम् तत्र चतुर्नवतेरर्थं क्रियते जाताः सप्तचत्वरिंशत् (४७), एते त्रिंशता गुण्यन्ते जातानि चतुर्दशशतानि दशोत्तराणि (१४१०) एषां द्वापष्ट्या भागो ह्रियते, लधा द्वाविंशतिर्मुहूर्त्ताः (२२) शेपातिष्ठन्ति षट्चत्वारिंशत् (४६), ततश्छेद्य - छेटकराश्योरर्धेनापवर्त्तना क्रियते तत्र छेधराशेः पट्चत्वरिंशद्रूपस्यार्ध त्रयोविंशतिः (२३) छेदकराशेर्द्वाषष्टिरूपस्यार्धमेकत्रिंशत् (३१) तेन लब्धास्त्रयोविंशतिरेकत्रिंशद्वागा तत आगतम् - प्रथमं पर्व चरमेऽहोरात्रे द्वाविंशर्ति मुहूर्त्तान, एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रयोविंशतिमेकत्रिंशद्भागान् (२२-२३) अतिक्रम्य समाप्तिं ३१ ३२ गतमिति |१| अथ द्वितीयपर्वप्रश्ने प्राह — द्वितीयपर्वप्रश्नत्वेन द्विको त्रियते स च द्वापरयुग्मराशिरिति 'दावरम्मिं वावडी' इति वचनादत्र द्वापष्टिः प्रक्षिप्यते जाता चतुष्षष्टिः (६४) इयं चतुविंशत्यधिकशतेन भागं न लभते स्तोकत्वात् ततोऽस्या अर्ध क्रियते जाता द्वात्रिंशत् (३२) सा त्रिंशता गुण्यते जातानि पष्टयधिकानि नवशतानि (९६०) तेषां द्वापष्ट्या भागो ह्रियते लब्धाः पञ्चदश मुहूर्त्ताः (१५), पश्चात्तिष्ठति त्रिंशत्, ततश्छेद्यच्छेदकराश्योंरधेनापवर्त्तना करणे लब्धा पञ्चदश एकत्रिशद्भागाः (१५), तत आगतम् द्वितीयं पर्व चरमेऽहोरात्रे पञ्चदशमुहूर्त्तानाम् एकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्चदशैकत्रिंशद्भागानाम् [ ३१ " (१५–१५) अतिक्रमणे समाप्तं भवतीति ।२। ३१ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा प्रा.२०.३ द्वितीययुगसंवत्सरनिरूपणम् ४०३ अथ तृतीयं पर्व प्राह-अत्र तृतीय पर्व पृच्छात्त्वेन त्रिको राशिः स्थाप्यते, स च त्रेतौजराशि रिति 'तेओए एकतीसा' इति वचनात् अत्र एकं त्रिंशत् प्रक्षिप्यते, जातांश्चतुस्त्रिंशत् (३४), एते चतुर्विंशत्यधिकशतेन भागं न लभन्ते, तत स्तस्यार्धं क्रियते जाताः सप्तदश (१७) एते त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि दशोत्तराणि पञ्च शतानि(५१०), एपा द्वापष्टया भागो हियते, लब्धा अष्टौ (८) शेपाः स्थिताश्चतुर्दश (१४), ततश्छेद्यच्छेदकराश्योरपवर्तनायां कृतायां लब्धाः सप्तएकत्रिंशद्भागाः (-) तत आयातम्-तृतीयं पर्व चरभेऽहोरात्रेऽष्टौ मुहूर्तान् एकस्य च मुहूर्तस्य सप्त एकत्रिंशद्भागान् (८) अतिक्रभ्य समाप्तिमेतीति ॥३॥ . ___ अथ चतुर्थपर्वविषये प्रोच्यते-चतुर्थपर्वपृच्छयां चतुष्को राशिः स्थाप्यते (४)। "अयं च कृतयुग्मराशि रिति 'कडजुम्मे नस्थि पक्खेवो' इति वचनादत्र न किमपि प्रक्षिप्यते । एते चत्वार श्चतुर्विंशत्यधिकशतेन भागं न लमन्ते ततोऽस्यार्ध क्रियते जातौ द्वौ, एतौ त्रिंशता गुण्येते जाता षष्टिः (६०), एतस्या द्वाषष्ट्या भागो न प्राप्यते स्वन्पत्वात् , ततश्छेद्यच्छेदक राश्योरघुनापवर्तना करणेन जाता विंशदेकत्रिंशद्भागाः (३०तत आगतम्-चतुर्थ पर्व चरमेऽहोरात्रे मुहूर्तस्य त्रिंशदेव त्रिंशदागानतिक्रम्य समाप्तिमेतीति ।४। अनयैव रोत्या शेपेष्वपि पञ्चमपर्वत आरभ्य त्रयोविंशत्यधिगतपर्यन्तेपु पर्वसु भावना कर्तव्येति । अथ चतुर्विशत्यधिकशततमपर्वविपये प्राह एकस्य युगस्य पञ्चवर्षात्मकस्याभिवर्द्धित मासद्वयसंभवात् पूर्वार्द्ध द्वाषष्टिः, उत्तरार्धेऽपि द्वापष्टिरिति मिलित्वा सर्वाणि चतुर्विशत्याधिकशत (१२४) संख्यकानि पर्वाणि भवन्ति, तत्रान्तिम चतुर्वि शत्यधिक शतरूपो राशिरत्र स्थाप्यते (१२४), अस्य च चतुर्भिर्भागे हते न किमपि शेपमवतिष्ठते इत्ययं कृतयुग्मोराशिस्ततः 'कडजुम्मे नत्थि पक्खेवो' इत्यत्र न किमपि प्रक्षिप्यते, ततश्चतुर्विशत्यधिकशतेन भागे हते जातो राशि निलेपः, न किमप्यवशिष्यते तत आगतम्-सम्पूर्ण · चरमम होरात्रं भुक्त्वा चतुर्विशत्यधिकशततमं 'पर्व समाप्तं भवतीति ॥सू० ३॥ . ॥ इति युगसवत्सरप्रकरणं समाप्तम् ।। तदेवमुक्तो युगसंवत्सरः, सम्प्रति प्रमाणसवत्सरमाह--'ता पमाणसंवच्छरे' इत्यादि । मूलम्-ता पमाणसंवच्छरे पंचविहे पण्णते, तं जहा-नक्खत्ते १ चंदे २, उऊ ३ आइच्चे ४ अभिवढिए ५॥ सू.० ४॥ छाया-तावत् प्रमाणसंवत्सरः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-नाक्षत्रः १, चान्द्रः २, आर्तवः ३ आदित्यः ४ अभिवद्धित. ५॥ सू० ४ ॥ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ - चन्द्रप्राप्तिसूत्रे व्याख्या--'ता' इति, 'ता' तावत् 'पमाणसंवच्छरे' प्रमाणसंवत्सरः प्रमाणनामकः संवत्सरः 'पंचविहे पण्णत्ते' पञ्चविधः प्रज्ञप्तः कथितः, 'तं जहा' तद्यथा--- ते यथा-'नक्खत्ते' नक्षत्र:--नक्षत्रसंवत्सरः १ 'चंदे' चान्द्रः चन्द्रसंवत्सरः २, 'उऊ' ऋतुः-ऋतु संवत्सरः ३, 'आइच्चे' आदित्यः-आदित्य संवत्सरः ४, 'अभिवदृढिए' अभिवद्धितः-अभिवतिसंवत्सरश्च ५, इदं प्रमाणसवत्सरस्य पञ्चविधत्वमुक्तम् , तत्र नक्षत्रसंवत्सरस्य, चन्द्रसंवत्सरस्य, अभिवर्द्धितसवत्सरस्य च सविस्तरं स्वरूपं पूर्वमुपदर्शितमेव, अत्र ऋवादित्यसंवत्सरयोः स्वरूपं विविच्यतेसत्र संवत्सर इति किम् ! तर्शयति ३ घटिके एको मुहूर्तः ते त्रिंशद् एकोऽहोरात्रः, परिपूर्णाः पञ्चदशाहोरात्रा:-एकः पक्षः, द्वौ पक्षी एको मासः, ते द्वादशमासाः परिपूर्णा भवेयुस्तदा एकः संवत्सरो भवति । तत्र यस्मिन् संवत्सरे परिपूर्णानि पष्टयधिकानि त्रीणि शतानि (३६०) अहोरात्राणां भवन्ति स ऋतु संवत्सरः कथ्यते । ऋतवो हि वसन्तादयो लोकप्रसिद्धाः, तत्प्रधानः संवत्सरः ऋतुसंवत्सरः । अस्य संवत्सरस्यापरमपि नामदयं विद्यते, तथाहि-कर्म संवत्सरः सवनसंवत्सरश्च, तत्र कर्मेतिलौकिको व्यवहारः, तत्प्रधानः संवत्सरः कर्मसंवत्सरः यतोलोके प्रायः सर्वोऽपिव्यवहारोऽनेनैव संवत्सरेण जायते, तथा चैतत्सम्बन्धिनं मासमधिकृत्यान्यत्र प्रोक्तम्-- . "कम्मो निरंसयाए, मासो ववहारकारगो लोए । सेसा उ संसयाए, यवहारे दुक्करो घेत्तुं ॥१॥" छाया-कर्म :-कर्ममासो निरंशतया मासो व्यवहार कारको लोके । शेपास्तु सांशतया व्यवहारे दुष्कराग्रहीतुम् ॥१॥ इति ॥ अयं कर्ममासो निरंशो भवति, निरंशः अशरहितः परिपूर्ण त्रिंशदहोरात्रप्रमाणः, शेषा मासाः सांशाः अंशसहिता भवन्ति, अशास्तु त्रिंशदहोरात्राणामुपरि घटिकादि रूपाः कथ्यन्ते, - अतोऽन्ये मासा सांशतया व्यवहारे ग्रहीतुं दुष्करा भवन्ति, अन ऋतुसंवत्सरगतो मासः कर्म मास' कथ्यत इति भावार्थः । अस्यापरंनाम सवनसंवत्सरः, तत्र सवनमिति कर्मसु प्रेरण, भ्रू प्रेरणे इति धातोः सवनं सिध्यति, सवनसंवत्सरः प्रेरणाप्रधानः संवत्सर इति, अनेन व्यवहारे प्रेरणा जायते, तत्प्रधानः सवत्सरः सवनसंवत्सरः कथ्यते, उक्तञ्च "बेनालिया मुहुत्तो, सही उण नालिया अहोरत्तो। पन्नरस अहोरत्ता, पक्खो तीसं दिणा मासो ॥१॥ संवच्छरो उ वारस, मासा पक्खा यत्ते चउन्धीसं । तिन्नेव सया सहा, हवंति राइंदियाणं तु ॥२॥ एसो सकमो भणिो , नियमा संवच्छरस्स कम्मरस । । कम्मोत्ति सावणो-त्तिय, उउ इत्ति तस्स नामाणि ॥३॥" Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिक टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. २० सू० ४ प्रमाणसंवत्सरनिरूपणम् ४०५ m छाया--द्वे नाडिके (घटिके) मुहूर्तः, षष्टिः पुन नाडिकाः अहोरात्रः । पञ्चदश अहोरात्राः पक्षः त्रिंशद्दिनानि मासः ॥१॥ संवत्सरस्तु द्वादश मासाः, पक्षाश्च ते चतुर्विंशतिः । त्रीण्येवशतानि षष्टयधिकानि भवन्ति रात्रिन्दिवानां तु ॥२॥ एषस्तु क्रमो भणितः, नियमात् संवत्सरस्य कर्मणः । कर्म इति सावन इति च ऋतुरिति च तस्य नामानि ॥३॥ इति । अथ च यावता कालेन प्रावृडादयः षडपि ऋतवः परिपूर्णाः प्रवृत्ता भवन्ति तावत्परिमितः कालविशेष आदित्य संवत्सरो भवति ऋतुपरिवर्तनस्यादित्याधीनत्वात् उक्तञ्च "छप्पि-उ ऊ परियट्टा एसो संवच्छरो उ आइच्चो" पडपि ऋतुपरिवर्ताः एप संवत्सरस्तु आदित्यः, इतिच्छाया | लोके यद्यपि पष्टयहोरात्रप्रमाणः प्रावृडादिक ऋतुः प्रसिद्धाऽस्ति तथापि वस्तुतः स एकषष्टयहोरात्रप्रमाणा वेदितव्यः, तथैवोत्तर कालमव्यभिचारदर्शनात् , अतएव चास्मिन् आदित्यसंवत्सरे पट् षष्टयधिकानि त्रीणि शतानि (३६६) रात्रिन्दिवानां भवन्ति । आदित्यमासः सार्ध त्रिंशदहोरात्र परिमितो, भवति, तत एतत्परिमितैदशभिश्च मासैरादित्यसंवत्सरो भवति, उक्तंचान्यत्रापि पञ्चस्वपि संवत्सरेपु रात्रिन्दिवानां यथोक्तं परिमाणम् - "तिन्नि अहोरत्तसया, छावट्टा भक्खरो हवइ वासो। तिन्ना सया पुण सहा कम्मो संवच्छरो होइ ॥१॥ तिन्नि अहोरत्तसया, चउ पन्ना नियमसो हवइ चंदो। भागो य वारसेव य वावट्टि करण छेएण ॥२॥ तिन्नि अहोरत्तसया, सत्तावीसा य होति नक्खत्ता । एक्कावन्नं भागा, सत्तट्टिकरण छेएण ॥३॥ तिन्नि अहोरत्तसया, तेसीईचेव होइ अभिवड्ढी । चोयालीसंभागा, वावटिकएण छेएण ॥४॥ छाया--त्रीणि अहोरात्रशतानि षट् षष्टयधिकानि (३६६) भास्करे भवति वर्षः । त्रीणि शतानि पुनः षष्टयधिकानि (३६०) अहोरात्राणां) कर्मसंवत्सरो भवति ॥१॥ त्रीणि अहोरात्रशतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि (३५४) (अहोरात्राणां) नियमतो भवति चान्द्रः (संवत्सरः)। भागश्च द्वादशैव च द्वापष्टिकृतेन छेदेन(३५४१२) ॥२॥ . Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे . त्रीणि अहोरात्रशतानि सप्तविंशत्यधिकानि च भवन्ति नाक्षत्रः । एक पञ्चाशद् भागा सप्तपष्टिकृतेन छेदेन (३२७५१७ ॥३॥ . त्रीणि अहोरात्रशतानि त्र्यशीत्यधिक्रानि (अहोरात्राणां) चैव भवति अभिवद्धितः । (संवत्सरः) चतुश्चत्वारिंशद् भागा द्वापष्टिकृतेन छेदेन (३८३४) ॥४॥ इति । - सख्या m ३५ पञ्च संवत्सराहोरात्र कोष्टकम् संवत्सरनामानि अहोरात्र संख्या | भागाः आदित्यसवत्सरः ३६६ कर्मसंवत्सरः ३६० ] x चन्द्रसवत्सरः १२/६२ नक्षत्रसंवत्सरः ३२७. ५१/६७.. | ५ | अभिवर्धितसंवत्सरः ___ ३८३ | ४१/६२) .. प्रत्येक संवत्रस्याहोरात्रपरिमाणमग्रे वक्ष्यति, प्रस्तावादिहाप्युक्तम् | अथ संवत्सराहोरात्र प्रमाणान्मासाहोरात्रसंख्या कति भवतीति प्रदर्श्यते-तथाहि सूर्यसंवत्सरः, पद षष्टयधिक शतत्रयाहोरात्रपरिमितो (३६६) भवति, द्वादशभिश्च मासरेकः संवत्सरो भवति, तत्र पट्पष्टयधिकानां त्रयाणां शताना द्वादशभिर्भागो न हियते ततोऽर्धं क्रियते ततोलब्धमेकस्य दिवसस्यार्ध मित्येतावत्परिमाणः सार्धत्रिंशदहोरात्ररूपः सूर्यमासः (३०॥ १। द्वितीयस्य कर्मसंवत्सरस्य पष्टयधिकानि त्रीणि शतानि रात्रिन्दिवानां (३६०) भवन्ति, तेषां द्वादशभिर्भागे हृते लब्धास्त्रिंशदहोरात्राः (३०), इत्येतत्परिमाणं कर्ममासस्य भवति २। तृतीयस्य चान्द्रसंवत्सरस्य परिमाण चतुष्पञ्चाशदधिकानि त्रीणि शतानि रात्रिन्दिवानाम् ,, एकस्याहोरात्रस्य च द्वादश द्वापष्टि भागाः, तत्र चतुष्पञ्चाशदधिकानां त्रयाणां शतानां द्वादशभिर्भागो हियते, हते च भागे लब्धा एकोनत्रिंशदहोरात्राः, तिप्टन्ति शेषा ,पडहोरात्राः, एते च द्वापष्टि भागकरणार्थं द्वापष्टया गुण्यन्ते, जातानि द्विसप्तत्यधिकानि त्रीणि शतानि (३७२), एतेषु ये उपरितना द्वादश द्वापष्टि भागाः स्थितास्ते प्रक्षिप्यन्ते, जातानि चतुरशीत्यधिकानि त्रीणि शतानि (३८४) एषां द्वादशभिभर्भागे हृते लब्धा द्वात्रिशद् द्वापष्टि भागाः (२९३२) एतावत्परिमाणश्चन्द्रमासः ३ । चतुर्थस्य नक्षत्रसंत्सरस्य परिमाणं सप्तविंशत्यविक्रानि त्रीणि शतानि रात्रिन्दिवानाम्, तथा एकस्य च Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रातिप्रकाशिका टीका प्रा.१० प्रा० प्रा. २० सू. ४ प्रमाणसंवत्सर निरूपणम् ४०७ रात्रिन्दिवस्य एक्पञ्चाशत् सप्तषष्टि भागा (३२७५१ ) तत्र सप्तविंशत्यधिकानां त्रयाणां शतानां ६७ द्वादशभिर्भागे हृते लब्धाः सप्तविंशतिरहोरात्राः तिष्ठन्ति शेषास्त्रयः, एते च सप्तषष्टि भागानयनार्थं सप्तषष्ट्या गुण्यन्ते, जाते एकोत्तरे द्वे शते (२०१) एषु च ये उपरितना एकपञ्चाशत् सप्तषष्टि भागास्ते प्रक्षिप्यन्ते, जाते द्विपञ्चाशदधिके द्वे शते (२५२) एषां द्वादशभिर्भागे हुते लब्धा एक विंशतिः सप्तषष्टि भागा (२७२१) एतावत्परिमितो नक्षत्रमासो भवति ४ । ६७ अथ पञ्चमस्याभिवर्द्धितसंवत्सरस्य परिमाणं त्र्यशीत्यधिकानि त्रीणि शतानि रात्रिन्दि - वानाम्, एकस्य च रात्रिन्दिवस्य चतुश्चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागाः ( ३८३ ४४ ) एतावत्परिमा६२ णोऽभिर्द्धितसवत्सरः । तत्र त्र्यशीत्यधिकानां त्रयाणां शतानां द्वादशभिर्भागो हरणीयः हृते च भागे लब्धा एकत्रिंशद् अहोरात्राः, तिष्ठिन्ति शेषा एकादशाहोरात्राः, ते च चतुर्विशंत्युत्तरशतभागकरणार्थं चतुर्वि शत्युत्तरशतेन (१२४) गुण्यन्ते जातानि चतुष्चष्ट्य - धिकानि त्रयोदशशतानि (१३६४), ततो ये चोपरितनाश्चतुश्चत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागास्तेऽपि चतुर्विंशत्युत्तरशत भागकरणार्थं द्वाभ्यां गुण्यन्ते, जाताऽष्टाशीतिः इयंमनन्तरराशौ प्रक्षिप्यते, जातानि द्विपञ्चाशदधिकानि चतुर्दश शतानि (१४५२), एषां द्वादशभिर्भागे हृते लब्धमेकविंशत्युत्तरं शतम् (१२१) इति एकविंशत्युत्तरशतं चतुर्विंशत्युत्तरशत भागाः (३१- १२४) एतावत्परिमितोऽभिवर्द्धितमासो भवति । स. १ आदित्यमासस्य २ कर्ममासस्य ३ चन्द्रमास्य ४ 7 आदित्यादि मासाहोरात्र कोष्ठकम् मास नाम नक्षत्रमासस्य ५ | अभिवर्धितमासाहोरात्रप्रमाणम् मासाहोरात्रसंख्या ( ) सार्ध त्रिंशदिनानि (३०|) परिपूर्णा त्रिंशदहोरात्राः (३०) एकोनत्रिंशदहोरात्राः (२९-३२ द्वात्रिंशदद्वाषष्टि भागाः ६२ सप्तविंशतिरहोरात्राः (२७–२१ एकविंगति. सप्तषष्टिभागाः ६७ एकत्रिंशदहोरात्राः एकविंश (३१ - १२१ त्युत्तरशतं चतुर्विंशत्युत्तर १२४ शतभागाः 127 Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे पूर्वोक्त पञ्चसंवत्सरगतमासाहोरात्रपरिमाणप्रतिपादिका वृद्धसम्प्रदायोक्तास्तिस्रो गाथा अत्र प्रदश्यन्ते, तथाहि "अइच्चो खलु मासो, तीसं अद्धं च सावणो तीसं । चंदो एगुणतीसं विसद्विभागा य बत्तीसं ॥१॥ नक्खत्तो खलु मासो, सत्तावीसं भवे अहोरत्ता । असा य एक्कवीसा, सत्तट्टिकरण छेएण ॥२॥ अभिवढिओ य मासो, एक्कतीसं भवे अहोरत्ता । भागसय मेक्कवीसं, चउवीससएण छेएण ॥३॥ छाया-आदित्यः खलु मासः, त्रिंशद् अर्धं च (अहोरात्राः) सावनस्विंगत् । चान्द्र एकोनत्रिंशत् द्वापष्टिभागाश्च द्वात्रिंशत् ॥१॥ नाक्षत्रः खलु मासः, सप्तविंशतिभवेद् अहोरात्राः । अंशाश्च एकविंशतिः सप्तपष्टिकृतेन छेदेन ॥२॥ अभिवर्धितश्च मासः, एकत्रिंशद् भवेद् अहोरात्राः । । भागशतमेकविंशतिः चतुर्विशतिशतेन छेदेन ॥३॥ इन्ति । पुतैरेव पञ्चभिः संवत्सरैरेकं प्रागुक्तस्वरूपं युगं भवति, अथैतत् पञ्चसंवत्सरात्मकं युगं मासानधिकृत्य प्रमीयते, तत्र युगप्रागुक्तस्वरूपं यदि सूर्यमासैविभज्यते तदा पष्टि सूर्यमासात्मकं युगं भवति, तथाहि-सूर्यमासे सार्धास्त्रिंशद् अहोरात्रा भवन्ति, ते चैकस्मिन् युगे त्रिंशदधिकाष्टादशशतसंख्यकाः (१८३०) भवन्ति । कथमेतद् ज्ञायते ? इति चेदुच्यते-- अत्र युगे त्रयश्च संवत्सराः, द्वौचाभिवर्धितसंवत्सरी, एवं पञ्च संवत्सरा भवन्ति । एकैक स्मिंश्च चन्द्रसंवत्सरे चतुप्पञ्चाशदधिकानि त्रीणि शतानि (३५४) अहोरात्राणां भवन्ति, तदुपरि एकस्य चाहोरात्रस्य द्वादश द्वापष्टिभागाः (३५४-) भवन्ति, तत एष राशिः अकस्मिन् युगे चन्द्रसंवत्सराणां त्रिकत्वात् त्रिभिर्गुण्यते, जातानि द्वापट्याधिकानि दशशतानि अहोरात्राणाम्, एकस्य चाहोरात्रस्य पत्रिंशद् द्वापष्टिभागाः (१०६२२६), तथा – अभिवर्द्धित संवत्सरौ चात्र द्वौ, एकैकस्मिन् अभिवर्द्धितसंवत्सरे चाहोरात्राणां त्र्यशीत्यधिकानि त्रीणि शतानि, चतुश्चत्वारिंशच्च टापष्टि भागा एकस्याहोरात्रस्य (३८३४१) ततोऽमिवर्धितसवत्सरावत्र द्वाविति एष राशि म्या गुण्यते जातानि सप्तपष्टयधिकानि सप्तशतान्यहोत्राणाम्, एकस्य चाहोरात्रस्य पद ६२ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा १० प्रा. प्रा. २० सू४ प्रमाणसंवत्सरनिरूपणम् ४०९ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww विंशति षिष्टि भागाः (७६७२६), तदेवं चन्द्रसंवत्सरत्रयस्याऽहोरात्राणाम्--(१०६२२६) अमिवर्द्धितसंवत्सरद्वयस्य च अहोरात्राणां (७६७१६) च संमीलने सर्वाहोरात्राणां त्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८३०) भवन्ति, सूर्यमासश्च पूर्वोक्तरीत्या सार्घत्रिंशदहोरात्रप्रमाणः (३०॥) इति तेन भागे हूते लभ्यते च स्पष्टमेव षष्टि (६०)। एवं युगमध्ये सूर्यमासा षष्टि रिति सिद्धम् । ___ अथ युगं सावनमासैविभज्यते, तथाहि सावन (कर्म) संवत्सरस्य तु एकस्मिन् युगे एकषष्टिर्मासाः ६१ भवन्ति । कथमित्याह-एकस्मिन् युगे त्रयश्चन्द्रसंवत्सराः, द्वौ चाभिवर्धितसंवत्सरौ इति द्वयाहोरात्रमीलने त्रिंशदधिकान्यष्टादशाहोरात्रशतानि (१८३०) भवन्तीति पूर्वमुक्तमेव ततः सावनमासस्य त्रिंशदिनमानत्वान् पूर्वोक्तो (१८३०) राशि स्त्रिंशता भज्यते इते च भागे लब्धा एकपष्टि रिति सावनसंवत्सरस्यैकस्मिन् युगे एकषष्टिर्मासा भवन्तीति सिद्धम् २ ।। ____ अथ युगं चन्द्रमासैविभज्यते-तत्र युगे चन्द्रमासा द्विषष्टि भवन्ति, कथमवसीयते ? इति चेदाह- चन्द्रमासपरिमाणमेकोनत्रिंशदहोरात्राः, एकस्याहोरात्रस्य च द्वात्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः २९२-) ततः प्रथममेकोनत्रिंशदहोरात्रा द्वाषष्टिभागकरणार्थ द्वाषष्टया गुण्यन्ते जातानि अष्टानवत्यधिकानि सप्तदशशतानि (१७९८), ततो ये उपरितना द्वात्रिंशद् द्वापष्टि भागास्तेऽत्र प्रक्षिप्यन्ते, जातानि त्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८३०)। ततो येऽपि च पूर्वप्रदर्शिता युग गताश्चन्द्रसंवत्सराभिवर्द्धितसंवत्सराहोरात्रा अष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि (१८३०), तेऽपि द्वाषष्ट्या गुण्यन्ते, जातास्ते–एको लक्षः, त्रयोदशसहस्त्राणि, चत्वारिशतानि षष्टयाधिकानि (११३४६०) । एतेषां त्रिंशदधिकाष्टादशतैः (१८३०) चन्द्रमाससम्बन्धिद्वाषष्टि भागरूपैर्भागो हियते लब्धा द्वाषष्टिश्चन्द्रमासा (६२) इत्येकस्मिन् युगे चन्द्रसंवत्सरस्य द्वाषष्टिमासा भवन्तीति सिद्धम् । __ अथ तदेव युगं नक्षत्रमासैः परिगण्यते-तत्रैकस्मिन् युगे नक्षत्रमासाः सप्तषष्टिर्भवन्ति । कथमिति प्रदर्श्यते--नक्षत्रमासपरिमाणं सप्तविंशतिरहोरात्राः, एकस्य चाहोरात्रस्य एकविंशतिः सप्तषष्टिभागाः, (२७२१) । तत्र प्रथमं सप्तविंशतिरहोरात्राः सप्तषष्टिभागकरणाथै सप्तषष्ट्या गुण्यन्ते जातानि नवोत्तराण्यष्टादशशतानि (१८०९) ततो ये उपरितना एकविंशतिः सप्तषष्टि भागास्तेऽत्र प्रक्षिप्यन्ते, प्रक्षिप्ते च जातानि त्रिंशदधिकाष्टादशशतानि (१८३०) युगस्यापि ये त्रिंशदधिकानि अष्टादशाहोरात्रशतानि (१८३०) तान्यपि सप्तषष्टया गुण्यन्ते जातो राशि:--- ६२ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० ' चन्द्रप्राप्तिसूत्रे ' एको लक्षः, द्वाविंशतिः सहस्राणि, दशोत्तराणि पट् शतानि च (१२२६१०) । एतेषां त्रिंशदधिकैरष्टादशशतनक्षत्रमाससम्बन्धि सप्तपष्टिभागरूपै भागो हरणीयः, हृते च भागे लब्धाः सप्तपष्टिमासाः (६७) एवमेकस्मिन् युगे नक्षत्रसंवत्सरस्य ,सप्तपष्टिर्मासा भवन्तीति सिद्धम् ४ । तथा यदि अभिवतिसंवत्सरमासैर्युगं विभज्यते-तत्रैकस्मिन् युगेऽभिवर्द्धितमासाः सप्तपञ्चाशत् (५०) सप्ताहोरात्राः, एकादशमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशति षिष्टिमागाः ( मा. अहो. मु. भागाः ) इत्येतदभिवर्धितमासंप्रमाणं भवति । कथमेतदवसीयते ? इत्याह ५७-७-११-२२ ) अभिवर्द्धितमासस्य परिमाणम् एकत्रिंशदहोरात्राः; एकस्य चाहोरात्राः एकस्य चाहोरात्रस्य एकविंशत्युत्तरशतं चतुर्विशत्युत्तरशतभागाः (३१-१२१ ) तत्र एकत्रिंशदहो रात्राश्चतुविंशत्युत्तरशतभागकरणार्थ चतुर्वि शत्युत्तरशतेन गुण्यन्ते, जातानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि अष्टत्रिंशच्छतानि (३८४४) तत उपरितनमेकविंशत्युत्तरं शतमत्र प्रक्षिप्यते, जातानि-पञ्चषटयधिकानि एकोनचत्वारिंगच्छतानि(३९६५)। ये च पूर्वोक्तास्त्रिंशदधिकाष्टादशशतसंख्यका युगस्याहोरात्राः (१८३०) ते चतुर्विशत्युत्तरेण शतेन गुण्यन्ते, जातो राशिः-द्वे लक्षे षड्विंशतिः सहस्राणि, नवशतानि, विंशत्यधिकानि च (२२६९२०) इत्येतत्परिमितः । तत एषामेकोन चत्वारिंशच्छतैः पञ्चषष्टयधिकैरभिवर्द्धितमाससम्बन्धि । चतुर्विशत्यधिकशतभागरूपै र्भागो हियते लब्धाः सप्तपञ्चाशन्मासाः तिष्ठन्ति शेषाणि पञ्चदशोतराणि नवशतानि ( ९१५) तेषामहोरात्रानयनाथ चतुर्विशत्यधिकशतेन भागो हियते, लब्धाः सप्ताहोरात्राः, तिष्ठन्ति शेषाः- सप्तचत्वारिंशत् चतुर्विंशत्युत्तरशतभागाः। तत्र चतुर्भािगः, एकस्य च भागस्य चतुर्भिस्त्रिंशद्भागः ('४-:.) एको मुहूर्तो भवति, तथाहि-एकस्मिन्नहोरात्रे त्रिंशन्मुहूर्ता भवन्ति, एकस्मिन्नहोरात्रे च चतुर्वि शत्युत्तरमेकं शतं (१२४) भागानां कल्प्यते, ततस्तस्य चतुर्विगत्युत्तरशतस्य त्रिंशता भागो हियत, लब्धाश्चत्वारो भागाः, शेपा एकस्य च भागस्य-सम्बन्धिनश्चत्वारस्त्रिंशद् भागाः (४-:-) एतद् एकस्य मुहूर्त्तस्य परिमाणं जातम् । ततः पञ्चचत्वारिंशद्भागै', एकस्य भागस्य सत्कैश्चतु दशमिस्त्रिशद्गागः ( ४५-११ )एकादशमुहूर्त्ता लब्धाः कथमित्याह-पूर्व सप्तरात्रिन्दिवलाभानन्तरं स्थिता. सप्तचत्वारिंशत् चतुर्वि प्रत्युत्तरशत भागाः । (१७.) एतेभ्य एकादशमुहूर्ताः .३० Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१० प्रा०मा.२० सू.. प्रमाणसंवत्सरनिरूपणम् ४११.... ) पूर्वोक्तरूपा गताः, शेषस्तिष्ठत्येको भागः, एकस्य भागस्य च. सत्काः षोडशत्रिंशद्भागाः-( १-१६ )। अस्य त्रयोविंशतिद्वषिष्टभागाः (. २३ ) कथं भवन्तीत्याह-अस्यैः . कस्य भागस्य, षोडशानां त्रिंशद्भागानां च सर्वे षट् चत्वारिंशत् त्रिंशद्भागा जाताः, एते च किल एकस्य मुहूर्तस्य चतुर्विशत्युत्तरशतभागसम्बन्धिनः सन्ति, ततः षट्चत्वारिशतः ( ४६), चतुर्विशत्युत्तरशतस्य ( १२४) च द्विकेनापवर्तना क्रियते, लब्धा एकस्य मुहूर्तस्य त्रयोविंशति षिष्टिभागाः (२३) । तदेव मेकस्मिन् युगेऽभिवद्धि तसंवत्सरमासाः-सप्तपञ्चाशन्मासाः सप्ताहोरात्राः ६२ एकादश मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशतिषिष्टिभागाः ( मा० अहो. मु० भागा) एता ( ५७-७- ११ २३) एताव त्परिमिता भवन्तीतिसिद्धम् । उक्तं चान्यत्रापि--- "तत्थ पडिमिज्जमाणे, पंचहि माणेहिं पुन्वगणिएहिं । मासेहि विभज्जंता, जइ मासा होति तेवोच्छ ॥१॥ अत्र 'तत्थ' इति तत्र 'पचहि माणेहि' इति पञ्चभिर्मानैः-मान संवत्सरैः प्रमाण संवत्सरै-' रादित्यचन्द्रादिभिरित्यर्थः, 'पुन्चगणिएहिं' पूर्वगणितैः-प्राक् प्रतिसख्यातस्वरूपै । 'पडिमिज्ज- । माणे' प्रतिमीयमाने-प्रतिगण्यमाने 'मासेहि': मासैः-सूर्यादिमासैः । शेष सुगममिति ॥१॥ उक्तञ्च-युगसम्बन्धि पञ्चसंवत्सरमासविषये-- "आइच्चेण उ सट्ठी, मासा उउणो उ होंति एगदठी। चंदेण उ वा-चट्ठी, सत्तट्ठी होंति नक्खत्ते ॥ १॥ सत्तावण मासा सत्तय राइंदियाई अभिवड्ढे । इक्कारस य मुहुत्ता विसट्टि भागा य तेवीसं ॥२॥ छाया-आदित्येन तु ( विभज्यमानाः ) षष्टिर्मासाः ६० ( युगे ) ऋतोस्तु ( मासाः ) भवन्ति एकषष्टिः । ६१। चन्द्रेण तु (विभज्यमाना मासाः) द्वाषष्टिः ६२ सप्तषष्टिर्भवन्ति नक्षत्रे ॥१॥ सप्तपञ्चाशद् मासाः ५७ सप्त च रात्रिन्दिवानि, अभिवर्द्धिते । एकादश च मूहूर्ताः ११ द्विषष्टिभागाश्च त्रयोविंशतिः ( २ ॥२॥ इति सू० ॥ ५ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे साम्प्रतं-लक्षणसंवत्सरमाह- 'ता लक्खणसंवच्छरे' इत्यादि । मूलम्-ता लक्खणसंवच्छरे पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-नक्खत्ते, १ चंदे उऊ ३, आइच्चे ४, अभिवढिए ५, ता लक्खणसंवच्छरे पंचविहा लक्खणा पण्णत्ता,-तं जहा-- "समगं णक्खत्ता जोयं जोएंति समगं उऊपरिणमंति । नच्चुण्हेंनाइसीए, वहुउदए होइ णक्खत्ते ॥१॥ ससि समग पुण्णमासिं, जोइंति विसमचारि णक्खत्ता । कडओ बहुउदओ य, तमाहु संवच्छरं चंदं ॥२॥ विसमं पवालिणो परिणमंति अणु ऊसुदिति पुप्फफलं । वासं न सम्म वासइ, तमाहु संवच्छरं कम्मं ॥३॥ पूढवि दगाणं च रसं, पुप्फ फलाणंच देइ आइच्चे। अप्पेण वि वासेणं, सम्म निप्फज्जए सस्सं ॥४॥ आइच्च तेयतविया, खण लवदिवसाउऊ परिणमंति । पूरेइ निण्णथलए, तमाहु अभिवड्ढयं जाण ॥५॥ ता सणिच्छरसंवच्छरेणं अट्ठावीसइ विहे पण्णत्ते, तं जहा-अभिई १ सवणे २ जाव उत्तरासाढा २८ । जंवा सणिच्छरे महग्गहे तीसाए संवच्छरेहि सव्वं, णक्खत्तमडलं समाणेइ । ॥सूत्र॥५॥ दसमस्स पाहुडस्स वीसइमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥१०-२०॥ छाया-तावत् लक्षणसंवत्सरः पवविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथानाक्षत्रः १. चान्द्रः २, आर्तवः ३, आदित्यः ४, अभिवद्धितः ५। तावत् लक्षणसंवत्सरे पञ्चविधानि लक्षणानि प्रक्षतानि, तद्यथा "समकं नक्षत्राणि योगं युञ्जन्ति, समकम् ऋतवः परिणमन्ति । नात्युष्णः नातिशीतः, वहृदको भवति नाक्षत्रः, ॥१॥ शशिसमकपूर्णमासी योग युञ्जन्ति विषमचारिनक्षत्राणि । कटुको बहूदकश्च, तमाहु संवत्सरं चान्द्रम् ॥२॥ विपमं प्रवालिनः परिणमति अनृतुपु ददति पुष्पफलम् । वर्ष न सम्यक वर्पति, तमाहुः संवत्सरं कार्मम् ॥३॥ पृथिव्युदकानां च रस, पुष्पफलानां च ददाति आदित्यः । अल्पेनाऽपि वर्पण, सम्यग् निष्पद्यते सस्यम् ॥8॥ आदित्य तेजस्तप्ताः, क्षणलवदिवसातवः परिणमन्ति । पूरयति निम्नस्थलकान्, तमाहु अभिवद्धितं जानीहि ॥५॥ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१० प्रा० प्रा.२० सू ५ लक्षणसंवत्सरनिरूपणम् ४१३ __ तावत् शनैश्चर संवत्सरः खलु अष्टाविंशतिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अभिजित् १ श्रवणः २ यावत् उत्तराषाढा । यद्वाशनैश्वरो महाग्रहः त्रिंशद्भिः संवत्सरैः सर्वं नक्षत्रमण्डल समानयति । सू० ५॥ दशमस्य प्राभृतस्य विंशतितमं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥१८-२०॥ व्याख्या-'ता लक्खणसंवच्छरे' इति, 'ता' तावत् 'लक्खणसंवच्छरे' लक्षणसंवत्सरः पूर्वोक्तरूप: पंचविहे' पञ्चविधः पश्चप्रकारकः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः कथितः, 'तं जहा' तद्यथा-ते यथा 'णक्खत्ते' नाक्षत्रः नक्षत्रसवत्सरः १, 'चंदे' चान्द्रः चन्द्रसंवत्सरः २, 'उऊ' आर्त्तवः ऋतुसंवत्सरः ३, 'आइच्चे' आदित्यः आदित्यसवत्सरः ४, 'अभिवढिए' अभिवतिः अभिवर्द्धितसवत्सरः पञ्चमः ५ । ते नक्षत्रादि संवत्सराः यथोक्तरात्रिन्दिवप्रमाणरूपलक्षणोपेता केवलं न भवति किन्तु तेभ्यः पृथग्भूता अन्यलक्षणोपेता अपि भवन्तीत्याह-'ता लक्षणसंवच्छरे' इत्यादि 'ता' तावत् 'लक्खणसंवच्छरे' लक्षणसवत्सरे नाक्षत्रादि पञ्च संवत्सरात्मके 'पंचविहा लक्खणा' पञ्चविधानि, लक्षणानि प्रत्येकस्मिन् पृथक् पृथक् प्रकारकाणि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि कथितानि 'तं जहा' तद् यथा-तानि यथा- तत्र प्रथमं नाक्षत्रसंवत्सरलक्षणानि प्रदर्शन्ते–'समगं' इत्यादि, यस्मिन् संवत्सरे 'समगं' समकम्-एककालमेव ऋतुभिः सहैव 'णक्खत्ता' नक्षत्राणि उत्तरापाढा प्रभृतीनि 'जोयं जोएंति' योगं युञ्जन्ति चन्द्रेण सह योगं कुर्वन्ति, तां पौर्णमसी परिसमापयन्तीत्यर्थः १ । तथा 'समगं' समकम् एककालमेव 'उऊ' ऋतवः षडपि समकालमेव 'परिणमंति' परिणमन्ति परिणाम प्रामुवन्ति तस्मिन् संवत्सरे, तया तया परिसमाप्यमानया पौर्णमास्या सहैव निदाधाद्या ऋतवोऽपि परिसमाप्तिमुपयान्तीति भावः, अयमाशयः यस्मिन् संवत्सरे माससदृशनामकैर्नक्षत्रैस्तस्य तस्य ऋतोः पर्यन्तवर्ती मासः परिसमाप्यते, तां तां पौर्णमासी परिसमापयत्सु मासेषु तया तया पौर्णमास्या सह निदाधाद्या ऋतवोऽपि परिसमाप्ति मुपयान्ति, तथाहि-यथा उत्तराषाढा नक्षत्रमाषाढी पौर्णमासी परिसमापयति तथां तया आषाढपौर्णमास्या सह निदाध ऋतुरपि परिसमाप्ति प्राप्नोति, अतोऽ सौ नक्षत्रसंवत्सर' नक्षत्रानुरोधेन तस्य तथा तथा परिणमनसद्भावात् २ । तथा 'नच्चुण्हे' नात्युष्णा' न विद्यते अतिशयेन-उष्णरूपः परितापो यस्मिन् स नात्युष्णाः उष्णताधिक्याभावात् ३। तथा नाइसीए' नातिशीतः शैत्याधिक्याभावात् ४। तथा 'वहृदओ' बहूदकः बहु पुष्कलम् उदकवर्षणं यस्मिन् स बहूदकः वर्षणाधिक्यात् ५ । एतादृश पञ्च लक्षणयुक्तः 'नक्खत्ते' नाक्षत्रः नक्षत्रसंवत्सरः 'होई' भवतीति ॥१॥ अथ चान्द्रसंवत्सरलक्षणान्याह-'ससिसमग' इत्यादि, यस्मिन् संवत्सरे विसम चारिणक्खत्ता' विषमचारीणि मासविसदृशनामानीत्यर्थः 'ससिसमग' शशिना समकं शशिना सह 'पुण्णमासिं' तां तां पौर्णमासी 'जोइंति' युञ्जन्ति परिसमापयन्ति तथा यः Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ चन्द्रप्रशप्तिसूत्रे ... ....... mm...armerreramarrrrrrrmmmmmmmmminerarmirm 'कडुओ' कटुकः गीतातपरोगादिदोपवहुल्येन परिणामदारुणः 'य' च तथा 'वहुउदओ' बहूदकः वृष्टि बहुको भवति 'तं संवच्छरं तं सवत्सरं 'चंद' चन्द्रं 'आहु' आहुः कथयन्ति । . अत्र चन्द्रानुरोधात् मासानां परिसमाप्तिर्भवति, न तु माससदृशनामनक्षत्रानुरोधादिति ॥२॥ ____ अथ कर्मसंवत्सरलक्षणान्याह-'विसमं पवालिणो' इत्यादि, यस्मिन् संवत्सरे 'पवालिणो' प्रवालिनः वनस्पतयः 'विसम' विपमं विषमकालं कालवैपरीत्येन 'परिणमंति' परिणमन्ति प्रवालाकुरादिनया परिणाम प्राप्नुवन्ति तथा ते एव वृक्षादि वनस्पतयः 'अणु ऊहा' अनृतुपु स्व स्व ऋतु विपरीतकालेऽपि 'पुप्फफलं' पुष्पफलं पुष्पाणि फलानि च "दिति' ददति प्रयच्छन्ति स्व स्व ऋत्वभावेऽपि वृक्षाः फलन्तीत्यर्थः तथा 'वासं' वर्षे वृष्टिं 'न सम्मवासइ' न सम्यग् वर्षति यथाकालं वृष्टिरपि न भवति 'तं संवच्छरं' तं तादृशं संवत्सरं 'कम्म' कामै कर्मसवत्सरं 'आहु' आहुः कथयन्ति ॥३॥ __साम्प्रतं सूर्यसंवत्सरलक्षणान्याह-'पुढविदगाणं' इत्यादि । यस्मिन संवत्सरे 'पुढविदगाणं' पृथिव्युदकानां पृथिव्या उदकानां च, 'च तथा 'पुप्फफलाणं' पुष्पफलाना' पुप्पानां फलानां च 'ईस' रसम् 'आइच्चे' आदित्यः सूर्यः ददाति पृथिवीं परिमितसरसतापप्रभावान्मधुरादि रसबहुला, उदकं माधुर्यस्वास्थादि गुणयुक्तं पुष्पाणि चम्पकार्दानि सुगन्धबहुलानि, फलानि आम्रादीनि अतिशयरसयुक्तानि चादित्यः करोतीति भावः । तथा तत्प्रभावात् 'अप्पेण वि वासेण' अल्पेनापि वर्पण स्वल्प वृष्टयाऽपि तथाविधसरसजलप्रभावात् 'सस्सं सस्यं धान्यं 'सम्म' सम्यक् परिपूर्णतया 'निप्फज्जए' निप्पद्यते निष्पन्नं भवति, एतादृशं संवत्सरं आदित्यसंवत्सरं कथयन्ति ॥४॥ अभिवद्वितसंवत्सरलक्षणान्याह-'आउच्चतेयतविया' इत्यादि । यस्मिन्सवत्सरे 'खणलवदिवसा' क्षणलवदिवसा तत्र क्षणः कतिपयावलिकारूपः लवः सप्तस्तोकरूपः, तथाहि-असख्यातावालीकानामेक आनप्रान, सप्तानप्राणानामेकः स्तोकः सप्तस्तोकानामेको लवः, तादृशसमय लवरूपो लव तथा दिवसः अहोरात्रस्त्रिंशन्मुहूर्तात्मकः एते सर्वेऽपि तथा 'उऊ' ऋतवोऽपि पडपि ऋतवः 'आइच्चतेयतविया' आदित्यतेजस्तप्ताः सूर्यातपेन संतप्ताः ‘परिणमंति' परिणमन्ते प्रसरिता भवन्ति 'णिण्णथलए' निम्नम्थलान् 'पूरेइ' पूरयति पांशुना जलेन वा, त संवत्सरं 'अभिवढियं' अभिवर्द्धित 'जाण' जानीहि ॥५॥ इत्येवं लक्षणसंवत्सरो वर्णितः, साम्प्रतं शनैश्चरसंवत्सरमाह-'ता सणिच्छरेणं इत्यादि 'ता' तावत् 'सणिच्छरसंवच्छरेणं' शनैश्चरसवत्सरः खलु 'अट्ठावीसइविहे' अष्टाविंशति विधः अष्टाविशनि प्रकारकः 'पण्णत्त' प्रज्ञप्तः कथितः 'तं जहा' तद्यथा 'अभिई अभिजित 'सवणे' श्रवणः 'जाव यावत् 'उत्तरासाढा' उत्तरापाढा, अत्र यावत्पदेन धनिष्टात आरभ्य पूर्वापाढा पर्यन्तानि पञ्चविंशतिनक्षत्रनामानि सग्राह्याणि शनैश्चरमहाग्रहस्याप्टाविशति नक्षत्रपरिभ्रमणकालमाश्रित्य शनैश्चरसंवत्सरोऽष्टाविंशतिविधः प्रोच्यते, तथाहि-अभिजिदिति Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा.प्रा.२०५ लक्षणसंवत्सरनिरूपणम् ४१५ यावत्परिमितं कालं अनैश्चगेऽभिजिन्नक्षत्रेण सह योगं करोति तावत्परिमितः कालः अभिजिच्छनैश्चरसंवत्सरः एवं यावत् कालं श्रवणेन सह शनैश्चरो योगं करोति तावत्परिमितः कालः श्रवणशनैश्चरसंवत्सर. कथ्यते । यस्मिन् यस्मिन् संवत्सरे येन येन नक्षत्रेण सह शनैश्चरो योगं युनक्ति स स संवत्सरस्तत्तन्नक्षत्रनाम्ना गनैश्चरसंवत्सरः कथ्यते इति भावः । तथा 'जं वा' यद्वा-अथवा 'सणिच्छर महरगहे अनैश्चरो महाग्रह 'तीसाए संवच्छरेहि' त्रिंशता त्रिंशत्संख्यकै. संवत्सरैः 'सव्वं नक्खत्तमंडलं' सर्व नक्षत्रमण्डलम् अष्टाविंशतिनक्षत्रात्मकं 'समाणेई' समानयाति स्व गत्या समापयति स कालः त्रिशद्वर्षात्मकः शनैश्चरसंवत्सर. इत्यपि बोध्यमिति । ॥सू० ५॥ इति श्री चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे चन्द्रज्ञप्ति प्रकाशिकायां--- टोकायां दशमस्य प्राभृतस्य विंशतितमम प्राभृतप्रामृतं समाप्तम् श्री रस्तु । ॥ दशमस्य प्राभृतस्यैकविंशतितमं प्राभृतप्राभृतम् ॥ गतं दशमग्य प्राभृतस्य विंशतितमं प्राभृतप्राभृतम्, तत्र पञ्च सवत्सरा. प्ररूपिताः । अथैकविंशनिनमं प्राभृतप्राभृतं निरूप्यते, अत्र पूर्वप्रतिज्ञातं यत् 'जोइसियदाराई ज्योतिषिक द्वाराणीति नक्षत्रचक्रस्य द्वाराणि वक्तव्यानि सन्तीति तद्विषयकं सूत्रमाह--'ता कहते जोइसस्स दारा' इत्यादि । मूलम्-ता कहते जोइसस्स दारा आहिया ति वएज्जा' तत्थ खलु इमाओ पंच पडिवत्तीभो पण्णत्ताओ, तं जहा-तत्थेगे एवमाहंमु ता कत्तियाइया सत्त नक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णता एगे एवमाहंसु ॥१॥ एगे पुण एव माहंसु-ता महाइया सत्त णक्खत्ता पुन्वदारिया पण्णत्ता एगे एव माहंसु ॥२॥ एगे पुण्ण एव माहंसु-ता धणिहाइया सत्त णवत्ता पुन्चदारिया पण्णत्ता, एगे एव माहंसु ॥३॥ एगे पुणएवमाहंसु-अस्सिणियाइया सत्त णक्खत्ता पुन्चदारिया पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु ॥४।। एगे पुणएवमाहंसु-ता भरणियाइया सत्त णक्खत्ता पुन्बदारिया पण्णत्ता एगे एवमाहंमु ॥५॥ तत्थ णं जे ते एव। माहंगु ता कत्तियाइया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता ते एवमासु तं जहा-कत्तिया, १ रोहिणी २, सठाणा ३, अदा ४, पुणव्वसु ५, पुस्सो ६, असिलेसा ७ ता महाइया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता, तं जहा-महा १, पुनाफग्गुणी २, उत्तराफग्गुणी ३. हत्थो ४, चित्ता ५। साई ६, विसाहा ७ ता अणुराहाइया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता, तं जहा अणुराहा १, जेठा २, मूलो ३, पूव्वासाढा ४, उत्तरासाढा ५, अभिई ६, सवणो ७। ता धणिहाइया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता, तं जहा-धणिट्टा १ सयभिसया २, पुब्बापोद्ववया ३, उत्तरापोवया ४, रेवई ५, अस्सिणी ६, भरणी ७। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसू ४१६ ॥१॥ तत्य णं जे ते एवमाईसु-ता महाइया सत्तणक्खत्ता पुन्वदारिया पण्णत्ता ते एवमाहंमु, तं जहा-महा १, पुवाफग्गुणी २, उत्तराफग्गुणी ३, हत्थो ४, चित्ता ५, साई ६, विसाहा ७ । ता अणुराहाइया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता, तं जहा-अणुराहा १, जेट्टा २, मूले ३, पुव्यासाढा ४, उत्तरासाढा ५, अभिई ६, सवणे ७) ता धणिहाइया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता, तंजहा-धणिटा १, सयभिसया २, पुव्वापोहवया ३, उत्तरापोट्टवया ४, रेवई ५, अस्सिणी ६, भरणी ७ ता कत्तियाइया सत्तणक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता, तं जहा-कत्तिया १, रोहिणी २, संठाणा ३, अद्दा ४ पुणव्यम् ५, पुस्सो ६, अस्सेसा ७॥२॥ तत्थ णं जे ते एवमाइंसु-ता धणिहाइया सत्त णक्खत्ता पुन्चदारिया पण्णत्ता, ते एवमाहंमु, तं जहा-पणिहा १, सयभिसया २, पुव्वाभहवया ३, उत्तरामवया ४, रेवई ५, अस्सिणी ६, भरणी ७ ता कत्तियाइया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता, तं जहा-कत्तिया १, रोहिणी २, संठाणा ३, अद्दा ४, पुणन्वसू ५, पुस्सो ६, अस्सेसा ७ ता महाइया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णता, तं जहा-महा १, पुव्वाफग्गुणी २, उत्तराफग्गुणी ३, हत्थो ४, चित्ता ५, साई ६, विसाहा ७) ता अणुराहाइया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता, तं जहा-अणुराहा १, जेठा २, मूलो ३, पूच्यासाढा ४, उत्तरासाढा ५, अभिई ६, सवणो ७ ॥३॥ तत्थ णं जे ते एवमाहंसु-ता अस्सिणियाइया सत्तणक्खत्ता पुच्चदारिया पण्णत्ता ते एव माहंसु, तं जहा-अस्सिणी १, भरणी २, कत्तिया ३, रोहिणी ४, संठाणा ५, अहा ६, पुणव्यसू ७। ता पुस्साइया सत्तणक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता तं जहा-पुस्सो १, अस्सेसा २, महा ३, पुवाफग्गुणी ४, उत्तराफग्गुणी ५, हत्थो ६, चित्ता ७ ता साइयाइया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता, तं जहा-साई १, विसाहा २, अणुराहा ३, जेट्टा ४, मूलो ५, पुयासाठा ६, उत्तरासाढा ७ ता अभिइआइया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता, तं जहा-अभिई १, सवणो २, धणिहा ३ सयभिसया ४, पुन्वभवया ५, उत्तरभद्दवया ६, रेवई ७ ॥४॥ तत्थ णं जे ते एव माहंमु-ता भणियाइया सत्त णक्खत्ता पुन्वदा रिया पण्णत्ता, ते एवमाहंमु तं जहा-भरणी १, कत्तिया २, रोहिणी ३, संठाणा ४, अदा ५, पुणव्यम् ६, पुस्सो ७) ता अस्सेसाइया सत्त णक्खत्ता दादिणदारिया पण्णत्ता, तंजहा-अस्मेसा १, महा २, पुव्याफग्गुणी ३, उत्तराफग्गुणी ४, हत्थो ५, चित्ता ६, साई ७। ता विसाहाट्या सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता, तं जहा-विसाहा १, अणुगहा २, जेठा ३, मृलो ४, पुब्बासाढा ५, उत्तरासाढा ६, अभिई ७। ता सवणाइया सत्तणखत्ता उत्तरदाग्यिा पण्णत्ता, तं जहा-सवणो १, धणिट्ठा २, सयभिसया ३, पुच्चापोवया ४, उत्तरपोवया ५, रेवई ६, अस्सिणी ७। ॥५॥ एते एवमाहंस । Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिक टीका ण. १० प्रा. प्रा. २१ सू०१ नक्षत्रचक्रद्वारनिरूपणम् ४१७ वयं पुण एवं वयामो-ता अभिइयाइया सत्त णक्खत्ता पुन्बदारिया पण्णत्ता, तं जहा-अभिइ १. सवणो २, धणिट्ठा ३, सयभिसया ४, पुव्वापोट्टवया ५, उत्तरापोवया ६, रेवई ७१ ता अस्सिणियाइया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता, तं जहा-अस्सिणी १, भरणी २. कत्तिया ३. रोहिणी ४, संठाणा ५, अहा ६, पुणन्वसू ७। ता पुस्साइया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता, तं जहा-पुस्सी १, अम्सेसा २, महा ३, पुव्वाफग्गुणी ४, उत्तराफरगुणी ५, हत्थो ६, चित्ता ७। ता साइयाइया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णता, तं जहा-साई १, विसाहा २, अणुराहा ३, जेट्ठा ४, मूलो ५, पुबासाहा ६, उत्तरासाठा ७ ॥सूत्र॥१॥ दसमस्स पाहुडस्य एकवीसइमं पाहुडपाहुडं समत्तं । १०-२१॥ छाया-तारत् कथं ते जोतिपस्य द्वाराणि आख्यातानि ? इति वदेत् , तत्र खल इमाः पञ्च प्रतिएत्तय प्रजताः, तद्यथा-तत्रके एवमाहुः-तावत् कृत्तिकादिकानि सप्त नक्ष. प्राणि पूर्वद्वाराणि प्रजातानि, पके पवमाहुः ।१। एके पुनरेवमाहुः-तावत् मघादिकानि सप्तनक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि प्रजातानि, एके एवमाहुः । २। पके पुनरेवमाहुः-तावत् धनिष्ठा दिकानि सप्तनक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि प्रनतानि, एके एव माहुः । ३ । एके पुनरेवमाहुः-तावत् अश्विन्यादिकानि सप्तनक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि प्रज्ञप्तानि, पके पवमाहुः ।। एके पुनरेवमाहुःतावत् भरण्यादिनानि सप्तनक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि प्रनतानि, एके एवमाहुः ।५। तत्र खलु ये ते एवमाहुः तावत् कृत्तिकादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि प्रज्ञप्तानि ते पवमाहुः तद्यथा-कृत्तिका १, रोहिणी २. संस्थाना (मृगशिरः) ३, आद्रा ४, पुनर्वसुः ५, पुण्यः ६, अश्लेपा ७, तावत् मघादिकानि सप्तनक्षत्राणि दक्षिणद्वाराणि प्रशप्तानि तद्यथा-मघा १, पूर्वाफाल्गुनो २, उत्तराफाल्गुनी , हस्तः ४, चित्रा ५, स्वातिः ६, विशाखा ७ । तावत् अनुराधादिकानि सप्तनक्षत्राणि पश्चिमद्वाराणि प्रशप्तानि, तद्यथा-अनुराधा १, ज्येठा २, मूलः ३, पूर्वाषाढा ४, उत्तरापाढा ५, अभिजित् ६, श्रवणः ७ । तावत् धनिष्ठादिकानि सप्तनक्षत्राणि उत्तर द्वाराणि प्रजातानि, तद्यथा धनिष्ठा १, शतभिषक् २, पूर्वाप्रोष्ठपदा ३, उत्तराप्रोष्ठपदा ४, रेवती , अश्विनी ६ भरणी ७ ॥ १॥ तत्र खलु ये ते एवमाहुः-तावत्-मधादिकानि सप्तनक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि प्रशप्तानि ते एवमाहुः, तद्यथा-मघा १, पूर्वाफाल्गुनो २, उत्तराफाल्गुनी ३ हस्तः ४ चित्रा ५स्वातिः ६ विशाखा ७। तावत् अनुराधादिकानि सप्तनक्षत्राणि दक्षिणद्वाराणि प्राप्तानि, तद्यथा-अनुराधा १, ज्येष्ठा २, मूलः ३, पूर्वापाढा ४, उत्तरापाढा ५, अभिजित् ६, श्रवणः ७, । तावत् धनिष्ठादिकानि सप्तनक्षत्राणि पश्चिमद्वाराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-धनिष्ठा १, शतभिपक् २, पूर्वापोष्ठपदा ३, उत्तराप्रोष्ठपदा ४, रेवतो ५, अश्विनी ६, भरणो ७ । तावत् कृत्तिकादिकानि सप्तनक्षत्राणि उत्तरद्वाराणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-कृत्तिका १, रोहिणी २, संस्थाना (मृगशिरः) आद्रा ४, पुनर्वसुः ५, पुष्यः ६, अश्लेषा ७, ॥ २ ॥ तत्र खलु ये ते पवमाहुः तावत् धनिष्ठादिकानि सप्तनक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि प्रज्ञप्तानि ते पवमाहुः तद्यथा-धनिष्ठा १, शतभिषक् २, पूर्वाभाद्रपदा ३, Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे " उत्तराभाद्रपदा ४, रेवती ५, अश्विनी ६, भरणी ७| तावत् कृत्तिकादिकानी सप्तनक्षत्राणि दक्षिण (राणि प्रजप्तानि तद्यथा - कृत्तिका १, रोहिणी २, संस्थाना (मृगशिरः) ३, आर्द्रा ४, पुनर्वसुः पुण्यः ६, अश्लेषा ७ तावत् मघादिकानि सप्तनक्षत्रीणि पश्चिमद्वाराणि प्रज्ञतानि तद्यथा - मघा १, पूर्वाफाल्गुनी २, उत्तराफाल्गुनी ३, हस्तः ४, चित्रा ५, स्वातिः ६, विशाखा । तावत् अनुराधादिकानी सप्तनक्षत्राणि उत्तरद्वाराणि प्रज्ञप्तानि तद्यथाअनुराधा, १, ज्येष्ठा २, मूलः ३ पूर्वाषाढा ४, उत्तराषाढा ५, अभिजित् ६, श्रवणः ७, ||३|| तत्र खलु ये ते पत्रमाहुः - तावत् अश्विन्यादिकानी सप्तनक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि प्रज्ञप्तानि, ते माहुः तद्यथा - अश्विनी १ भरणी २, कृत्तिका ३, रोहिणी ४, संस्थाना (मृगशिरः) ५ आर्द्रा ६, पुनर्वसुः ७, तावत् पुष्यादिकानि सप्तनक्षत्राणि दक्षिणद्वाराणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - पुण्यः १, अश्लेषा २, मघा, ४, पूर्वाफाल्गुनी ४, उत्तराफाल्गुनी, हस्तः ६, चित्रां ७] तावत् स्वातिकादिकानि सप्तनक्षत्राणि पश्चिमद्वाराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा - स्वातिः १, विशाखा २, अनुराधा ३, ज्येष्ठा ४, पूर्वाषाढा ६ उत्तराषाढा ७७ तावत् अभिजिदादिकानि सप्तनक्षत्राणि उत्तरद्वाराणि प्रनप्तानि तद्यथा - अभिजित् १, श्रवणः धनिष्ठा ३, शतभिपक् ४, पूर्वाभाद्रपदा ५ उत्तराभाद्रपदा ६, रेवती ॥४॥ तत्र खलु ये ते एवमाहुः तावत् भरण्यादिकानि सप्तनक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि प्रनप्तानि ते पवमाहु तद्यथा - भरणी १, कृत्तिका २, रोहिणी ३, संस्थाना (मृगशिरः) ४, आर्द्रा ५, पुनर्वसुः ६, पुण्यः ७ तावत् अम्लेपादिकानि सप्तनक्षत्राणि दक्षिणद्वाराणि प्रजप्तानि तद्यथा - अश्लेषा १, मघा २, पूर्वाफल्गुनी ३ उत्तराफाल्गुनी ४, हस्तः ५, चित्रा ६ स्वातिः ७| तावत् विशाखादिकानी सप्तनक्षत्राणि पश्चिमद्वाराणि प्राप्तनि, तद्यथा - विशाखा १, अनुराधा २, ज्येष्ठा ३, मूलः ४, पूर्वापाढा ५, उत्तराषाढा ६. अभिजित् ७१ तावत् श्रवणादिकानी सप्तनक्षत्राणि उत्तरद्वाराणि प्रनप्तानि तद्यथा - श्रवणः १, धनिष्ठा २, शतभिषक् ३, पूर्वाप्रोष्ठपदा ४, उत्तराप्रोष्ठपदा ५, रेवती ६, अश्विनी ||५|| ते एवमाहुः । वयं पुनरेवं वदामः - तावत् अभिजिदादिकानि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि प्रन्नप्तानि तद्यथा अभिजित् १, श्रवणः २, धनिष्ठा ३, शत भिषक् ४, पूर्वा प्रोष्ठपदा ५, उत्तराप्रोष्ठपदा ६, रेवती ७| तावत् अश्विन्यादिकानि सप्तनक्षत्राणि दक्षिणद्वाराणि प्रनप्तानि तद्यथा अश्विनी १, भरणी २, कृत्तिका ३, रोहिणी ४, संस्थाना (मृगशिरः) ५, आर्द्रा ६, पुनर्वसुः ७| तावत् पुण्यादि सप्तनक्षत्राणि पश्चिम द्वाराणि प्रजप्तानि तद्यथा - पुण्यः १ अश्लेषाः २, मघा २, पूर्वाफाल्गुनी ४, उत्तराफाल्गुनी, हस्त' ६, चित्रा ७] तावत् स्वातिकादिकानि सप्तनक्षत्राणि उत्तरद्वाराणि प्रजतानि तद्यथा - स्वाति १, विशाखा २, अनुराधा ३, ज्येष्ठा ४, पूर्वाषाढा ७॥ सूत्र- १९॥ नि चन्द्रप्तिसूत्रे चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीकायां दशमस्य प्राभृतस्य एकविंशतितमम् प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ||१०-२१॥ व्याख्या- 'ता कहते जोइसदारा' इति, 'ता तावत् 'कई' कथं केन क्रमेण 'ते' त्वया 'जोडमदारा' ज्योतिपद्वाराणि नक्षत्रद्वाराणि 'आहिया' आख्यातानि कथितानि 'ति चएज्ज' इति वदेत् चद्रतु कथयतु हे भगवन् । इति गौतमेन पृष्टे भगवानाह - 'तत्थ' इत्यादि, 'तत्थ' तत्र ज्योतिषहारविषये खलु 'इमाओ' हमा वक्ष्यमाणाः 'पंच' पञ्चसंख्यकाः 'पडित्तीओ' प्रतिपत्तय परमतरूपाः 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः कथिताः । ता एव दर्शयति- 'तत्येगे' इत्यादि, 'तत्थ' ४१८ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा. १० प्रा. प्रा. २१ सू.१ नक्षत्रचक्रद्वारनिरूपणम् ४१९ NAM नत्र पञ्चमु प्रतिपत्तिवादिपु मध्ये 'एगे' एके केचन 'एवमाहंमु एवमाहु. एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहु कथयन्ति । किमाहुरित्याह- 'ता कत्तियाइया' इत्यादि 'ता' तावत् 'कत्तियाइया' कृत्तिकादीनि 'सत्तनक्खत्ता' सप्तनक्षत्राणि 'पुव्वदारिया' पूर्वद्वाराणि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि । इह येषु नक्षत्रेषु पूर्वस्यां दिशि गमनं कुर्वतः प्रायः शुभं भवति तानि पूर्वद्वाराणि नक्षत्राणि कथ्यन्ते । अथवा नक्षत्रचक्रस्य पूर्वभागचारीणि कृत्तिकादीनि सप्तनक्षत्राणि सन्तीति पूर्वद्वाराणि कथ्यन्ते इति । इदं प्रथमप्रतिपत्तिवादिमतग १ । शेषाश्चत्तमः प्रतिपत्तयः सुगमा इति न व्याख्यायते । अयमाशयः-द्वितीयप्रतिपत्तिवादिमते मघादीनि सप्तनक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि ।१। तृतीयप्रत्तिपत्तिवादिमते- धनिष्टादीनि सप्तनक्षाणि पूर्वद्वाराणि ।३। चतुर्थप्रतिपत्तिवादिमते-अश्विन्यादीनि सप्तनक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि ।४। पञ्चमप्रतिपत्तिवादिमने भरण्यादीनि सप्तनक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि सन्तीति ।५। एवं पञ्चप्रतिपत्तिवादिना पश्चमतानि संक्षेपतः प्रोक्तानि, अथैतेपां प्रत्येक शेष दक्षिण-पश्चिमोत्तरद्वारविषये भावनां प्रदर्शयति- 'तत्थ णं जे ते' इत्यादि 'तत्त्व णं' तत्र पञ्चमु प्रतिपत्तिवादिपु खलु 'जे ते' ये ते प्रथमाः प्रतिपत्तिवादिनः ‘एवं' एवम् पूर्वोक्त प्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति यत् 'ता' तावत् कृत्तिकादीनि सप्तनक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि प्रज्ञप्तानि ते 'एवं' एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण सप्तनक्षत्राणि 'आहंमु आहुः, तान्येव सप्तनक्षत्राणि नामनिर्देशपूर्वकं दर्शयति 'तं जहा' इत्यादि, 'त जहा' तयथा-तानि सप्त यथा-कृत्तिका १, रोहिणी २, मृगशिरः ३, आर्द्रा ४ पुनर्वसुः ५, पुप्यः ६, मालेपा ७ । अष्टाविंशतिनक्षत्राणां पूर्व-दक्षिण-पश्चिमोत्तररूपदिक्चतुष्टये प्रत्येकस्मिन् दिशि सप्त सप्तनक्षत्राणि तत्तदिग् द्वाराणि क्रमेण भवन्ति, तथाहि-कृत्तिकात आरभ्याश्लेपा पर्यन्तानि सप्तनक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि ७। तदप्रेतनानि मघात आरभ्य विशाखा पर्यन्तानि सप्तनक्षत्राणि दक्षिण द्वाराणि १४ । तदनेतनानि-अनुराधात आरभ्य श्रवणपर्यन्तानि सप्तनक्षत्राणि पश्चिमद्वाराणि २१ । तटनेतनानि धनिष्ठात आरभ्य भरणी पर्यन्तानि सन्तनक्षत्राणि उत्तरद्वाराणि सन्ति २८ । एप प्रथम प्रतिपत्तिवादिमतेऽष्टाविंशतिनक्षत्राणा क्रमः।१। एवं द्वितीय प्रतिपत्तौ मघात आरभ्य अश्लेपापर्यन्तान्यष्टाविंशति नक्षत्राणि पूर्वादि दिक् चतुष्टये सप्त सप्त विभजनेनावसेयानि । एतद् द्वितीयप्रतिपत्तेः स्पष्टीकरणम् ।२ तृतीयप्रतिपत्तौ धनिष्टात आरभ्य श्रवणपर्यन्ताष्टाविशतिनक्षत्राणि प्रत्येकस्मिन् दिगि सप्त सप्त क्रमेण विज्ञेयानि ।३। चतुर्थप्रतिपत्तौ अश्विनीत आरभ्य रेवती पर्यन्ताष्टा विंशतिनक्षत्राणि पूर्वादि प्रत्येकदिशि सप्त सप्त क्रमेण स्थापनीयानि ।४। पञ्चमप्रतिपत्तौ भरणीत आरभ्याश्विनी पर्यन्ताप्टाविंशतिनक्षत्राणि पूर्वादि दिक् चतुष्टये सप्तसप्त क्रमेण ज्ञातव्यानि 1५। तदेवं पञ्चप्रतिपत्तिस्पष्टीकरणं प्रोक्तम् । अक्षरगमनिका स्वयमूहनीयेति । अथ भगवान् स्वमतं प्रदर्शयति 'वयं पुण' इत्यादि, 'वयं पुण' वयं पुनरिति वयं तु 'एवं' वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामो' वदामः कथयामः 'ता' तावत् 'अभीइयाइया' अभिजिदादीनि 'सत्तणक्खत्ता' सप्तनक्षत्राणि 'पुव्वदारिया पण्णत्ता' पूर्वद्वाराणि प्रज्ञप्तानि । शेष सुगमम् । अयमाशयः-- अत्राभिजित आरभ्य Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे उत्तरापाढापर्यन्तानि अष्टाविंशति नक्षत्राणि सप्तसप्तक्रमेण पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरद्वाराणि ज्ञात व्यानीति सूत्र ॥१॥ ।। इति चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीकायां दशमस्य प्रामृतस्य एकविंशतितमं प्रामृतप्रामृतं समाप्तम् ॥ १०-२१ श्री रस्तु दशमस्य प्राभृतस्य द्वाविंशतितमं प्राभृतप्राभृतम् । तदेवमुक्तमेकविंशतितमं प्रामृतप्रामृतम् । तत्र ज्योतिपद्वाराणि प्ररूपितानि । साम्प्रतं द्वाविंशतितमं प्रामृतप्रामृतं प्रस्तृयते, अत्रायमर्थाधिकारः- यत् पूर्वं द्वारगाथायां 'नक्खत्तविचएत्तिय नक्षत्रविविचय इति च, इनि प्रोक्तं तदनुसांग्णास्मिन् प्रामृतप्राभृते नक्षत्राणा विचय इति स्वरूपनिर्णयः प्रदर्शयिष्यते इति तद्विषयकं मूत्रमाह-'ता कहं ते नक्खत्तविचए' इत्यादि । मूलम्- ता कहं ते नक्खत्तविचए आहिएति वएज्जा, ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे जाव परिक्खवणं पण्णत्त । ताजंबुढीवेणं दीवेणं दो चंदा पभासेमुवा, पभासेंति वा, पमासिस्संति वा । दो सूरिया तविमु वा नवेति वा तविस्संति वा । छप्पण्णे नक्खत्ता जोयं जोइंग्लुवा जोइंति वा जोइस्संतिवा, तं जहा दो अभिई, दो सवणा दो धणिहा, दो सयभिसया, दो पुव्यापाहवया दो उत्तरापोट्टचया, दो रेवई, दो अस्सिणी दो भरणी, दो कत्तिया, दो रोहिणी, दो संठाणा, दो अहा, दो पुणव्वसू, दो पुस्सा, दो असिलेसा, दो पुन्याफरगुणी, दो उत्तराफग्गुणी, दो इत्था दो चित्ता, दो साई दो विसाहा, दो अणुराहा, दो जेटा दो मूला, दो पुव्वासाढा दो उत्तारासाढा । ता एएसिं णं छप्पण्णाए नक्खत्ताणं अत्यि णवत्ता जे ण णव मुहु सत्तावीसं च सत्तद्विभागे मुहुत्तरस चंदेण सद्धि जोयं जोएंति । अन्थि णक्खत्ता जे णं पणयालीस मुहुत्ते चंदे सद्धिं जोयं जोएंति ॥ता एएसिणं छप्पण्णाए गक्खत्ताणं कयरे णक्खत्ता जे णं णवमुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तढिमागे मुहत्तय चंदण मद्धिं जोयं जोएंति, कयर णक्खत्ता जे णं पण्णरसमुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोति?. कयर णवत्ता जे ण तीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति ? कयरेणक्खत्ता जे पणयालीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति ? ता एएसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ता णं तय जेते णक्सना जेणं णव मुद्दुत्ते सत्तावीसं च सत्तट्टिमागे मुहत्तस्स जोयं जोएंति तणं दो अभिः । तत्य जे ने णक्खत्ता जेणं पण्णरसमुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति ते ण वाग्म नं जहा-दो सयभिमया, दो भरणी, दो अहा, दो अस्सैसा दो साई दो जेहा । तत्य जेणं नीसं गृहन चंदेण सद्धिं जोयं जोएंनि ते णं तीसं, तं जहा दो सवणा दो धणिहा. दो गुवागावया, दो रेवई, दो अस्सिणी, दो कत्तिया दो संठाणा, दो पुस्सा, Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्द्रप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. २२ सू. १. नक्षत्रस्वरूपनिरूपणम् ४२१ दो महा, दो पुत्राफरगुणी, दो हत्था, दो चित्ता, दो अणुराहा दो मूला दो पुव्वासांढा | तत्थ जेते णक्खत्ता जेणं पणयालीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति ते णं वारस, तं जहा- दो उत्तरापोट्ठवया, दो रोहिणी, दो पुणव्वसू दो उत्तराफग्गुणी दो विसाहा, दो उत्तरासाढा । ता एएसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ता णं अस्थि णक्खत्ता जेणं चत्तारि अहोरत्ते छच्च मुहुत्ते सूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति । अस्थि णक्खत्ता जेणं छ अहोरते एक्कवीस व मुहुत्ते सरिएण सद्धिं जोयं जोएंति । अस्थि णक्खत्ता जे णं तेरस अहोरते दुवालमय मुहुत्ते सूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति । अस्थि नक्खत्ता जे णं वीस अहोरत्ते तिन्नि य मुहुत्ते सूरिणमद्धिं जोयं जाएंति ता एएसि णं छप्पणाए णक्खत्ताणं कयरे णक्खत्ता जे णं तं चेत्र उच्चारेयव्वं । ता एएसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं तत्थ जे ते णक्खत्ता जेणं चत्तारि अहारते छच्च मुहुत्ते सरिएण सद्धिं जोयं जोएंति ते णं दो अभिई । तत्थ जेते क्खना जेण छ अहोरत्ते एक्कवीसं च मुहुत्ते सरिएण सद्धिं जायं जोएंति तेणं वारस तं जहा- दो मयभिसया, दो भरणी, दो अहा, दो अस्सेसा, दो साई, दो जेहा | तत्थ जे ते गत्ता जेणं तेरस अडोहत्ते वारस य मुहुत्ते सूरिएण सद्धि जोयं जोएति तेणं तीसं, तं जहा- दो सवणा, जाव दो पुव्वासाढा । तत्थ जे ते णक्खत्ता जेण वीसं अहोर तिष्णिय मुहुत्ते सूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति तेणं वारस, तं जहा - दो उत्तरापोडवया जाव दो उत्तरासाठा | सूत्र - १॥ छाया -- तावत् कथं ते नक्षत्रवित्रयः आख्यातः इति वदेत् तावत् अयं खलु जम्बूद्वीपो द्वीपः यावत् परिक्षेपेण प्रश्नप्तः तावत् जम्बुद्वीपे खलु द्वीपे द्वौ चन्द्रौ प्राभासतां वा प्रभासेते वा प्रभासिष्येते १ । द्वौ सूर्यो अतापयतां वा तापयतो वा, तापयिष्यतो वा । पञ्चाशत् नक्षत्राणि योगमयुञ्जन् वा युञ्जन्तिवा, योक्ष्यन्ति वा तद्यथा - द्वौ अभिजितौ ३, श्रवण, धनिष्ठे ६, हे शतभिषजौ ८, हे पूर्वाप्रोष्ठपदे १०, द्वे उत्तराप्रोष्ठपदे १२. है. १४ द्वे अश्विन्यौ १६, हे भरण्यौ १८, द्वे कृत्तिके २० द्वे रोहिण्यौ २२, द्वे संस्थाने (मृगशिरसी) २४; द्वे आर्द्र २६, डौ पुनर्वसू २८, द्वौ पुण्यौ ३० द्वे अश्लेषे ३२, द्वे मधे ३४, द्वे पूर्वाफाल्गुन्बी ३६, द्वे. उत्तराफाल्गुन्यौ ३८ द्वौ हस्तौं ४० द्वे चित्रे ४२, द्वे स्वाती ४४, द्वे विशाखे ४६, द्वौ अनुराधे ४८, द्वे ज्येष्ठे ५०, द्वौ भूलौ ५२, हे पूर्वाषाढे ५४ द्वे उत्तराषाढे ५६ | तावत् पतेषां खलु पट्ट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु नव मुहूर्तान् सप्तविशति च सप्तपष्ठिभागान् मुहर्त्तस्य चन्द्रेण सार्धं योगं युञ्जन्ति । सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु पञ्चदश मुहर्त्तान् चन्द्रेण सार्धं योग युञ्जन्ति । सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु त्रिंशन्मुहूर्त्तान् चन्द्रेण सार्ध योगं युञ्जन्ति । सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु पञ्चत्वारिंशन्मुहर्त्तान् चन्द्रेण सार्धं योगं युञ्जन्ति । तावत् एतेषां खलु षट् पञ्चाशतो नक्षत्राणां कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु नव मुहूर्त्तान् सप्तविंशतिं च सप्तषष्टिभागान् मुहूर्तस्य चन्द्रेण सार्धं योगं युञ्जन्ति ?, कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु पञ्चदश मुहूर्त्तान् चन्द्रेण सार्धं - Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwww चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे योगं युञ्जन्ति ?, कनराणि नक्षत्राणि खलु त्रिंशन्मुहूर्तान् चन्द्रेण साधं योग गुञ्जन्ति ?, कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु पञ्चचत्वारिंशन्मुहर्त्तान् चन्द्रेण साधं योगं युञ्जन्ति ?, तावत् एतेषां खलु पट्पञ्चशतो नक्षत्राणां, तत्र यानि तानि नक्षत्राणि यानि खलु नव मुहर्तान् सप्तविंशति च सप्तपष्टिभागान् मुहूर्तस्य चन्द्रेण साधं योगं युन्ति तौ खलु ही अभिजितौ । तत्र यानि तानि नक्षत्राणि यानि खलु पञ्चदश मुहर्तान् चन्द्रेण सार्घ योग युञ्जन्ति तानि खलु द्वादश, तद्यथा-टो · शतभिषजौ २, हे भरण्यौ ४, हे आढ़े ६, ढे अश्लेपे, हे स्वाती १०, हे ज्येष्ठे १२ । तत्र यानि खलु त्रिंशन्मुहूर्तान् चन्द्रेण सार्ध योगं युञ्जन्ति तानि खलु त्रिंशत्, तद्यथा-दौ श्रवणौ २, हे धनिष्ठे ४, हे पूर्वाभाद्रपदे ६, द्वे रेवत्यो ८ द्वे अश्विन्यौ १०, द्वे कृत्तिके १२ टे संस्थाने (मृगशिरसो) १४, द्वौ पुप्यो १६, द्वे मये १०, हे पूर्वाफाल्गुन्यो २०, द्वौ हस्ती २२, हे चित्रे २४, द्वे अनुराधे २६, हौ मूलौ २३, हे पूर्वापाढे ३० । तत्र यानि तानि नक्षत्राणि यानि खलु पञ्चचत्वारिं शन्मुहान चन्द्रेण साधं योगं युन्ति तानि खलु द्वादश, तद्यथा-वे उत्तराप्रोष्ठपदे २ द्वे रोहिण्यो ४, द्वौ पुनर्वसू ६, ३ उत्तराफाल्गुन्यौ ८, हे विशाखे १०, हे उत्तरापाढे १२, तावत् एतेषां खलु पट् पञ्चाशतो नक्षत्राणां सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु चतुरोऽहो रात्रान् पट् च मुहर्त्तान् सूर्येण साध योग युञ्जन्ति । सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु षइ अ होरात्रान् एकविशतिं च मुहान् सूर्येण सार्ध योग युञ्जन्ति । सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु त्रयोदशाहोरात्रान् द्वादश च मुहर्तान् सूर्येण साधं योगं युञ्जन्ति । सन्ति नक्षत्राणि यानि खलु विशतिमहोरात्रान् बीन् मुहर्तान् सूर्येण साध योग युञ्जन्ति । एतेपां खलु पट् पञ्चाशतो नक्षत्राणां कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु तदेव उच्चारयितव्यम् । तावत् पतेषां खलु पद पञ्चाशतो नक्षत्राणां तत्र यानि तानि नक्षत्राणि यानि खलु चतुरोऽहोरात्रान् पट् च मुहर्नान् सूर्येण साधं योग युञ्जन्ति तानि खलु द्वो अभिजिती । तत्र तानि नक्षत्राणि यानि खलु पड् अहोरात्रान् पविशनि च मुहर्तान् सूर्येण साधं योग गुञ्जन्ति तानि खलु द्वादश, तद्यथा-ठी शतभिपजौ २, द्वे भरण्यौ ४ । आडै ६, द्वे अश्लेपे ८, 8 स्वातो १०, हे ज्येप्ठे १२, । तत्र यानि तानि नक्षत्राणि यानि खलु त्रयोदशाहोरात्रान् द्वादश च मुहनान् सूर्येण मार्ध योगं युञ्जन्ति, नानि वलु त्रिंशत्, तद्यथा-वे श्रवणे २, यावत् में पूर्वापाढे ३०, । नत्र यानि तानि नक्षत्राणि यानि खलु विंशतिमहोरात्रान् त्रीन च मुहतान् सूर्यण साधं योगं गुञ्जन्ति तानि खलु द्वादश, तद्यथा- हे उत्तरामोष्ठपदे २, यावत् उत्तरापाढे १२, ॥ सूत्र -१॥ व्याख्या 'ता कहते नक्खत्तविचए' इति 'ता तावत् कह' कथं 'ते' त्वया 'नक्वत्तविचए' नक्षत्रविचयः नक्षत्राणां विचय तदर्थनिर्णयनम् स्वरूपनिर्णय इत्यर्थः नक्षत्रविचयः, उचान्यत्र - "आप्तवचनं प्रवचनं ज्ञान्या विचयस्तदर्थनिर्णयनम् ।" इति तथाहिनक्षत्राणां स्वरूपनिर्णय त्वया केन प्रकारेण 'आहिए' आख्यात• ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् दनि एतद्विषय है भगवान् वदतु कथयतु । इति गौतमेन पृष्टे भगवानाह---'ता अयं णं इत्यादि, 'ना' नावत् 'अयं णं' अय खल प्रसिदः 'जंबुढीवे दीवे' जम्बूद्वीपो द्वीपःमध्यजम्बू द्वीप सर्वद्वीपममुद्राणा मर्वाभ्यन्तर. सर्वक्षुल्लक इत्यादि विशेषणविशिष्टः लक्षयोजनपरिमित आया Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा० प्रा. २२ सू. १ नक्षत्रस्वरूपनिरूपणम् ४२३ मविष्कम्भेण तथा योलमाः, पोडशसहस्राणि सप्तविंशत्यधिकं शतद्वयंच योजनम् त्रयः क्रोशाः, अष्टाविंशत्यधिकशतधनुपि, साधत्रयोदशाङ्गुलानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि, एतावत्परिमितः 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना 'पण्णत्तं' प्रज्ञप्तः कथितः । 'ता' तावत् तादृशे 'जंबहीवेणं दीवे' जम्बूद्वीपे खलु द्वीपे 'दो चंदा' द्वौचन्द्रौ 'पभासिसु' प्रभासतां वा भूतकाले, 'पभासेंतिवा' प्रभासेते वा वर्तमानकाले, 'पभासिस्मंति वा प्रभासियेते वाऽनागतकाले, अतीत वर्तमानानागतरूपे कालत्रयेऽपि प्रभासमानौ वर्त्तते इति भावः । एवं 'दो सरिया' द्वौ सूर्यो 'तर्विसु वा' अतपताम् 'तवेतिवा' तपतः तविस्तंतिवा' तपिण्यतः, द्वौ सूर्यावपि जम्बूद्वीपे कालत्रयेऽपि तपन्तौ वर्तत इति भावः । तथा पट्पञ्चाशत् नक्षत्राणि अष्टाविंशते नक्षत्राणां प्रत्येक द्विद्धिर्भावेन पटू पन्चाशत्संख्यकानि नक्षत्राणि 'जोय' योगं चन्द्रसूर्यैः सह युति 'जोइस्संतिवा', योन्यन्ति वा, पतानि नक्षत्राण्यपि कालनत्रये चन्द्रसूर्यः सह योगं युञ्जन्ति इति भावः । तान्येव दर्शयति'तं जहा' इत्यादि, तं जहा' तद्यथा तानि यथा-'दो अभिई' द्वौ अभिजितो, इत्यत आरभ्य द्वे उत्तगपाढे. इनि पर्यन्तानि द्विर्भािवेन पट् पञ्चाशन्नक्षत्राणि मूलसूत्रादेव विज्ञेयानीति । अथ नक्षत्राणां चन्द्रेण सह योगपरिमाणं प्रतिपादयन्नाह–'ता एएसिणं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां खलु 'छप्पण्णाए णक्खत्ताणं' पट् पञ्चागतो नक्षत्राणा 'अस्थि णक्खत्ता' सन्ति कानिचिन्नक्षत्राणि 'जेणं' यानि खलु ‘णव मुद्दुत्ते' नवमुहूर्त्तान् , 'सत्तावीस च सत्तहिमागे मुहत्तस्स' एकस्य च मुहर्तस्य सप्तविंशति सप्तपष्ठिभागान् यावत् 'चंदेण सद्धि जोयं जोएंति' चन्द्रेण साधू योगं युञ्जति । 'अस्थि नक्वत्ता' सन्ति कानिचिन्नक्षत्राणि 'जेणं' यानि खल 'पण्णरसमुहत्ते पञ्चदशमुहूर्तान् यावत् 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति' चन्द्रेण साध योगं युञ्जन्ति । 'अस्थि नक्खत्ता' सन्ति कानिचिन्नक्षत्राणि 'जेणं' यानि खलु 'तीसं मुहत्ते' त्रिंगन्मुहूर्तान् यावत् चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति' चन्द्रेण सार्ध योगं युञ्जन्ति । 'अस्थि णखत्ता' सन्ति कानिचिन्नक्षत्राणि 'जेग' यानि खलु ‘पणयालीसं मुहुत्ते' पञ्चचत्वारिशन्मुहूर्तान् यावत् 'चदेण सद्धिं जोयं जोएति' चन्द्रेण साधं योगं युञ्जन्ति पूर्व भगवता सामान्येन नक्षत्र योगः प्रोक्तः, साम्प्रतं एतानेव चतुरो विषयान् गौतमः पृथक् पृथक्त्वेन पृच्छति- 'ता एएसि णं' इत्यादि, व्याख्या स्पष्टा। ' अथ भगवान् तानेव विषयान् पृथक् पृथग् रूपेण नामनिर्देशपूर्वकं स्पष्टयति-ता एएसि" इत्यादि, व्याख्या सुगमा अथ पट् पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये यानि यानि नक्षत्राणि सूर्येण सह योगं युञ्जन्ति तेषां सख्या नामानि च पृथक् पृथक् प्रदर्शयति—'ता एएसिणं' इत्यादि, व्याख्या पाठ सिद्धा। एषां विशेषव्याख्या पूर्वमस्यैव दशमस्य प्राभृतस्य द्वितीये प्रामृतप्राभृते कृतेति तत्र विलोकनीया । सूत्र ॥१॥ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ संख्या १ ૨ ૐ ४ ५ . ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ १९ २० २१ २२ २३ २४ चन्द्रेण सूर्येण सार्धं च नक्षत्रयोगकोष्टकम् नक्षत्रनामानि चन्द्रेण सह मुहूर्ता अभिजित् श्रवण धनिष्ठा शतभिषकू पूर्वाभाद्रपदा उत्तराभाद्रपदा रेवती अश्विनी भरणी कृत्तिका रोहिणी मुगशिरः आर्द्रा पुनर्वसुः पुण्य अपा मघा पूर्वाफाल्गुनी उत्तराफाल्गुनी हस्त चित्रा स्वाति विशाखा अनुराधा ज्येष्ठा ९-२७१६७ ३० ३० १५ मूल पूर्वाषाढा उत्तरापाढा ३० ४५ ३० ३० १५ ३० ४५ ३० १५ ४५ ३० १५ ३० ३० ४५ ३० ३० १५ ४५ ३० १५ सूर्येण सहाहोरात्राः ४ ३० ३० ४५ १३ १३ ६ १३ २० १३ १३ ६ १३ २० १३ ६ ૨૦ १३ ६ १३ १३ २० १३ १३ ६ २० १३ ६ चन्द्र प्रज्ञप्तिसूत्रे १३ १३ २० मुहूर्त्ताः ६ १२ १२ २१ १२ ३ १२ १२ २१ १२ ३ १२ २१ 3 १२ २१ १२ १२ २५ t २७ ૨૮ पूर्व कालमाश्रित्य चन्द्रेण सूर्येण च सह पट्पश्चागन्नक्षत्राणां योगपरिमाणं प्रतिपादितम्, साम्प्रतं क्षेत्रमाश्रित्य तच्चिन्तयन् प्रथमं सीमाविष्कम्भं प्रतिपादयति- 'ता कहते सीमाविवखंभे' इत्यादि । मूलम् - ता कहं ते सीमाविक्खमे आहिएति वएज्जा । ता एएसि णं छप्पण्णए णक्खाणं अस्थि गक्खत्ता जेसि णं छ सयातीसा सत्तविभागतीसह भागाणं सीमा विक्खंभो अत्थि णवखत्ता जेसि णं सहस्सं पंचोत्तरं सत्तट्ठिभागतीसहभागाणं सीमाविवसंभो १२ १२ २१ ३ १२ २१ १२ १२ ३ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा. प्रा. २२ सू.२ सीमाविष्कम्भनिरूपणम् ४२५ अस्थि णक्खत्ता जेसि णं दो सहम्सा दयुत्तरा सत्तद्विभागतीसइ भागाणं सीमा विक्खभो। अस्थि जक्सत्ता जेसि णं तिसहस्सं पंचदमुत्तरं सत्तट्ठिभागतीसइभागाणं सीमाविक्खभो । ता एएसि गं छप्पण्णाए णक्खत्ता णं कयरे णक्खत्ता जेसि णं छसयातीसा तं चेव उच्चारेयव्यं जाच ता एएसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ता णं कयरे णक्खत्ता जेसि णं तिसहस्सं पंचदमुत्तरं यत्तद्विभागतीसहभागाणं सीमाविक्ख भो ? । ता एएसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं तत्त्य जे ते णक्खता जेसि णं छ सया तीसा सत्तद्विभागतीसइभागाणं सीमाविक्खनो ते णं दो अभिई । तत्थ जे ते णखत्ता जेसि णं सहस्सं पंचुत्तरं सत्तविभागती सइभागाणं सीमा विक्खंगो ते णं बारस, तं जहा-दो सयभिसया २, जाव दो जेट्टा १२ । नत्य जे ते णवत्ता जेमि णं दो सहस्सा दयुत्तरा सत्तद्विभागतीसइभागाणं सीमा विक्ख भो तेणं तीसं. तं जहा-तो-सवणा २ जाव दो पुव्बासाहा ३० । तत्थ जे ते णखत्ता जेसिणं तिसहस्सं पंचदमुत्तरं सत्तद्विभाग तीसर भागाणं सीमा-विक्खंभोते णं वारस, तं जहा-दो उत्तरापोवया २ जाव दो उतरासाढा । सूत्र ॥२॥ छाया-तावत् कथं ते सीमाविष्कम्भ आख्यातः? इति वदेत् तावत् पतेपां खलु पाञ्चाशतो नक्षत्राणां (मध्ये) सन्ति नक्षत्राणि येषां खलु पट् शतानि त्रिशानि (विशदधिकानि) सप्तपष्टिभागत्रिंशद्भागानां विष्कम्भः। सन्ति नक्षत्राणि येषां खलु द्वे सहा दशोत्तरे सप्तपष्टि भागत्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः। सन्ति नक्षत्राणि येषां ग्वलु त्रिसहनं पञ्चदशोत्तरं सप्तपष्टिभागात्रिंशद्भगानां सीमाविष्कम्भः । तावत् एतेषां खलु पष्टि पञ्चाशतो नक्षत्राणां कतराणि नक्षत्राणि येषां खलु पट्शतानि त्रिशानि तदेवउच्चारयितव्यं यावत् एतेषां स्खलु पट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां कतराणि नक्षत्राणि येषां खलु त्रिसहस्रपञ्चदशोत्तरं सप्तपष्टित्रिशद्भागानां सीमाविष्कम्भः तावत् पतेषां खलु षट्पञ्चाशतो नक्षत्रणां तत्र यानि तानि नक्षत्राणि येपां खलु पट्शतानि त्रिंशानि सप्तपष्टिभागत्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः, तौ खलु द्वौ अभिः जितौ । तत्र यानि तानि नक्षत्राणि येषां खलु सहन पञ्चोत्तरं सप्तपष्टि भाग त्रिंशद्भागार्ना सीमाविष्कम्भः तानि खलु द्वादश तद्यथा-द्वी शतभिपजौ २ यावत् द्वौ ज्येष्ठे । तत्र यानि तानि नक्षत्राणि येषां खलु हे सहने दशोत्तरे सप्तपष्टि भाग त्रिंशद्भगानां सीमाविष्कम्भा, तानि खलु त्रिंशत्, तद्यथा-द्वौ श्रवणौ २ यावत् हे पूर्वापाढे ३०। तत्र यानि तानि नक्षत्राणि येषां खलु त्रीणि सहस्त्राणि पञ्चदशोत्तराणि सप्तपष्टि भागत्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भा, तानि खलु द्वादश, तद्यथा-वे उत्तराप्रोष्टपदे यावत् द्वे उत्तरापाढे ॥सू० २॥ व्याख्या- 'ता कहं ते सीमाविक्खभे' इति, 'ता' तावत् ,'कह' कथं केन प्रकारेण क्रियत्या विभागसख्यया हे भगवान् ! 'ते' त्वया 'सीमा विक्खंभे सीमाविष्कम्भः- सीमा विस्तार 'आहिए' आख्यातः, १ 'तिवएज्जा' इति वदेत, एतद्विपये कथयतु । एवं गौतमेंन पृष्टे भगवानाह Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे 'ता एएसिणं' इत्यादि । इहाप्टाविंशत्या नक्षत्रै स्वगत्या स्व स्व कालपरिमाणेन क्रमशो यावत्परिमितं क्षेत्रं बुद्ध या व्याप्यमानं सम्भाव्यते तावत्परिमितमेकमर्द्धमण्डलमुपकल्प्यते, एतावत्प्रमाणमेव द्वितीयमर्द्धमण्डलमित्येवं प्रमाणं वुद्धिपरिकल्पितमेकं परिपूर्णमण्डलं कल्प्यते, तस्य मण्डलस्य मंडलं सयसहस्सेण अट्ठाणउएहिं सएहिं छित्ता इच्चेसनक्खत्ते खेत्तपरिभागेनक्खत्तविचए पाहुढे आहिएत्तिवेमि" छाया-मण्डलशतसहस्रेण अष्टानवतिभिः शतै छित्त्वा इत्येष नाक्षत्रः क्षेत्रपरिभागः नक्षत्रविचये प्रामृते आख्यात इति ब्रवीमि-इति । इति वाक्ष्यमाणवचनात अष्टानवतिशत सहस्रविभागैर्विभज्यते । किमेवंविधसख्यकभागानां कल्पने प्रमाणम् ? इति चेदाह-इह नक्षत्राणि त्रिविधानि भवन्ति तथाहि-समक्षेत्राणि, अर्थक्षेत्राणि, द्वयर्धक्षेत्राणि च, तत्र समक्षेत्राणि त्रिंशन्मुहूर्तानि, अर्धक्षेत्राणि पञ्चदशमुहर्तानि, द्वयर्धक्षेत्राणि पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तानीति । अयं भावः यावत्प्रमाणं क्षेत्रं यैनक्षत्ररेकेनाहोरात्रेण गम्यते तावत्क्षेत्रप्रमाणं योगं यानि नक्षत्राणि चन्द्रेण सह युञ्जन्ति तानि नक्षत्राणि समक्षेत्राणि कथ्यन्ते, तानि च पञ्चदश, नथाहि-श्रवणः १, धनिष्ठा २, पूर्वाभाद्रपदा ३, रेवती ४, अश्विनी ५, कृत्तिका ६, मृगशिरः ७, पुप्यः ८, मघा ९, पूर्वाफाल्गुनी १०, हस्तः ११, चित्रा १२, अनुराधा १३, मूलः १४, पूर्वापाढ़ा १५, इति । तथा यानि नक्षत्राणि अहोरात्रप्रमितस्यत्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकस्याई पञ्चदशमुहूर्तात्मकं क्षेत्रं चन्द्रेण सह योग युञ्जन्ति तानि अर्द्धक्षेत्राणि प्रोच्यन्ते, तानि च पट्-तथाहि-शतभिपक् १, भरणी २, आर्द्रा ३, अश्लेषा ४, स्वातिः ५, ज्येष्ठा ६, चेति । तथा द्वितीयम यस्य तद् द्वयर्धेसार्धमेकमित्यर्थः, तद् द्वयर्धमर्दाधिक क्षेत्रमहोरात्रप्रमितं पश्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकं चन्द्रयोगयोग्यं येषां तानि द्वयर्धक्षेत्राणि, एतान्यपि षट् तथाहि-उत्तराभाद्रपदा १, उत्तराफाल्गुनी २, उत्तराषाढ़ा ३, रोहिणी ४, पुनर्वसुः ५, विशाखा ६ चेति । अथ सीमापरिमाणं चिन्त्यते, तत्राहोरात्रः सप्तपष्टि भागी क्रियते, पूर्णाहोरात्रं च चन्द्रयोगयोग्यं येषां नक्षत्राणां भवति तानि नक्षत्राणि समक्षेत्राणि, तेषां समक्षेत्राणां क्षेत्रं प्रत्येक सप्तषष्टि भागाः परिकल्प्यन्ते इति समक्षेत्रस्य नक्षत्रस्य सप्तपष्टिभागाः (६७), अर्धक्षेत्रस्य सार्धास्त्रयविंशभागाः (३३॥) द्वयर्थक्षेत्रस्यैकं शतमर्द्व च (१००॥) अभिजिन्नक्षत्रस्य एकविंशतिसप्तपष्टिभागः ( २१ ) भवन्ति, अभिजितः सप्तविंशतिसप्तपष्टिभागयुक्तनवमुहूर्त्तान् यावत् चन्द्रयोगयोग्यत्वात् , एते च सप्तपष्टिभागाः त्रिंशन्मुहुर्तात्मकपूर्णाहोरात्रस्य परिकल्तिाः सन्तीति रीत्याऽभिजित एकविंशतिः सप्तपष्टिभागा लभ्यन्ते इति विवेकः । समक्षेत्राणि नक्षत्राणि च पञ्चदशेति सप्तपष्टिभागाः पञ्चदशमिर्गुण्यन्ते, जातं पञ्चोत्तरमेक सहस्रम् (१०५) । अर्धक्षेत्राणि पडिति सार्धास्त्रयस्त्रिंशत् (३३॥) भागा पड्भिर्गुण्यन्ने, जाते एकोत्तरे द्वे गते (२०१)।यक्षेत्राणि पट् ततः सार्धशतमेकं (१००) Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा० प्रा. २२ सू. २ सीमाविष्कम्भनिरूपणम् ४२७ च पभिर्गुण्यते, जातानि व्युत्तराणि षट् शतानि (६०३) । अभिजिन्नक्षत्रस्यैकविंशतिः सप्तषष्टिभागा इति सर्वसंकलनया जातानि हिंशदुत्तराणि अष्टादशशतानि (१८३० । एतावद्भागपरिमितमेंकमर्द्ध,ण्डलं भवति, एवं द्वितीयमर्द्धमण्डलमपि एतावद्भागपरिमितमेवेति द्वयोस्त्रिंशदधिकाष्टादशशतयोर्मेलने जातानि षष्टयधिकानि पशिच्छतानि (३६ ६०) एकैकस्मिन् अहोरात्रे किल त्रिंशन्मुहर्ता भवन्तीति प्रत्येकमेतेपु पट्यधिकपट्त्रिंशच्छत संख्यकेपु भागेषु (३६६०) त्रिंशद्भागकल्पनायां त्रिंशता गुण्यन्ने जातमष्टानतिशताधिकमेकं शतसहस्रम् (१०९८००)। तत इत्थं मण्डलस्य भागान् परिकल्प्येव भगवान् प्रतिवचनं ददाति-'ता एएसिणं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां खलु 'छप्पण्णाए णवखत्ताणं' पटू पञ्चाशतो नक्षत्राणा मध्ये 'अत्थि णक्खता' सन्ति कानिचिन्नक्षत्रानि 'जेसि णं' एपा र ल 'छ सया तीसा' पट्शतानि त्रिंशानि, त्रिंशदधिकानि पढ्शतानि (६३०) 'सत्तट्ठिभागतीसइभागाणं' सप्तपष्टिभागत्रिंशद्भागानां 'सीमाविक्खंमो' सीमाविष्कम्भः सीमाविस्तारोऽस्तीति । 'अत्थि णक्खत्ता' सन्ति कानिचिन्नक्षत्राणि येषां खलु 'सहस्सं पंचुत्तरं सहस्र पञ्चोत्तरं पञ्चाधिकमेकं सहस्रं (१००५) 'सत्तद्विभागतीसइभागाणं' सप्तपष्टिभागत्रिंशद्भागानां 'सीमाविक्खंभो' सीमाविष्कम्भः । 'अत्थिणक्खत्ता' सन्ति कानिचिन्नक्षत्राणि 'जेसि णं' येषां खलु 'दो सहस्सा दमुत्तरा' द्वे सहने दशोत्तरे दशाधिक सहस्रद्वयं (२०१०) सत्तद्विभागतीसइभागाणं' सप्तपष्टिभागत्रिंशद्भागानां 'सीमाविक्खंभो' सीमाविष्कम्भः । 'अत्यि णक्खत्ता सन्ति कानिचिन्नक्षत्राणि 'जेसिणं' येषां खल 'तिसहस्सं पंचदमुत्तरं त्रिसहस्रं पञ्चदशोत्तरं पञ्चदशाधिकं सहस्रत्रयं (१०१५) 'सत्तद्रिभागतीसहभागाणं' सप्तष्टि भागत्रिंशदागानां 'सीमाविक्खंभो' सीमाविष्कम्भः एवं भगवता प्रोक्ते केपां नक्षत्राणां कियत्परिमितः सीमाविष्कम्भः १ इति गौतमः पृच्छति-'ता एएसि णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषां खल 'छप्पण्णाए णक्खत्ताणं' पट् पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये 'कयरे णक्खत्ता' कतराणि नक्षत्राणि कानि नक्षत्राणि एतादृशानि 'जेसि णं' येपां खलु नक्षत्राणां 'छ सयातीसा' पट्शतानि त्रिंशानि त्रिंशदधिकानि पट्शतानि सप्तपष्टिभागत्रिंशद्भागानां सीमा विष्कम्भः प्रोक्त. १ 'तं व उच्चारेयव्वं तदेव उच्चारयितव्य पूर्वोक्तमेव सर्व प्रश्नरूपेण सूत्रमत्रवाच्यम् कियत्पर्यन्त मित्याह-'जाव' इत्यादि यावत् 'ता एएसि णं' तावत् एतेषां खलु 'छप्पण्णाए णवखत्ताणं' षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये 'कयरे णक्खत्ता' कतराणि नक्षत्राणि कानि नक्षत्राणि एतादृशानि सन्ति 'जेसि णं' येपां खलु नक्षत्राणां 'तिसहस्सं पंचदसत्तर त्रिसह पञ्चदशोत्तरं (३०१५) 'सत्तट्ठिभागतीसइभागाणं' सप्तषष्टिभागत्रिंशद्भागानां 'सीमावक्खिंभो' सीमाविष्कम्भः प्रोक्तः ? एवं गौतमेन पृष्टे भगवान् 'तत्प्रश्नान् समाधत्ते 'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् ‘एएसिणं' एतेषां खलु 'छप्पण्णाए णक्खत्ताणं' षट्पञ्चा Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કારત चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे v 'गतो नक्षत्राणां मध्ये 'तत्थ' तत्र 'जे ते णक्खत्ता' यानि तानि नक्षत्राणि सन्ति 'जेसि णं' येषां 'खल 'छसया तीसा' पट्शतानि त्रिगानि त्रिंशदधिकानि पट् शतानि 'सत्तद्विभागती सहभागाणं' सप्तपष्टिभागत्रिंशद्भागानां 'सीमाविक्खभो' सीमाविष्कम्भः प्रोक्तः तेषां मध्ये 'ते णं दो' तौ द्दौ अभिजितौ ते द्वे अभिजिन्नक्षत्रे स्तः । तत् कथमित्याह इह एकैकस्याभिजितो नक्षत्र - स्य सप्तर्पष्ट खण्डीकृतस्याहोरात्रगम्यस्य क्षेत्रस्य सम्वन्धिन एकविंशतिर्भागाश्चन्द्रयोगयोग्यः सन्ति एकैकस्मिभागे त्रिशद्भाग परिकल्पनादेकविंगतिस्त्रिगता गुण्यते, जातानि पट् शतानि त्रिंशदधिकानि (६३० | तथा - ' तत्थ' तत्र अष्टाविंशतिनक्षत्रेषु मध्ये 'जे ते णक्खत्ता' यानि तानि नक्षत्राणि सन्ति 'जेसि णं' येषां खल 'सहस्सं पंचुत्तरं सहस्रं पश्चोत्तरं पञ्चाधिकमेकं सहस्रं ( १००५) 'सत्तहि भागती सहभागाणं' सप्तपष्टिभाग त्रिंशद्वागानां 'सीमाविवखभो' सीमाविष्कम्भोऽस्ति “ते णं' तानि खलु 'वासर' द्वादश 'तं जहा ' तद्यथा - तानि यथा - ' - 'दो सयभिसया' द्वौ शतभिपजी 'जाव' यावत् 'दो जेट्ठा' ' द्वे ज्येष्ठे । अत्र यावत्पदेन 'दो भरपीओ, दो अदाओ, दो अस्सेसाओ, दो साईओ' द्वे भरण्यौ, द्वे आहे द्वे अलेपे, द्वे स्वाती, इत्येषां संग्रहः । एतेषां हृदशानामपि नक्षत्राणामर्द्धक्षेत्रत्वात् प्रत्येकं सप्तषष्टि खण्डी - कृतस्याहोरात्रगम्यस्य क्षेत्रस्य सम्वन्धिनः सार्द्धात्रयस्त्रिंशद्भागाः, (३३॥ ) चन्द्रयोगयोग्याः, त्रिशता गुण्यन्ते जातं पञ्चोत्तरं सहस्रम् (२००५) तथा 'तस्थ' तत्र तेषु अष्टाविंशति नक्षत्रेषु 'जे ते णक्खत्ता' यानि तानि नक्षत्राणि सन्ति 'जेसि णं' येषां खलु 'दो सहस्सा दसुत्तरा' - द्वे सहने दशोत्तर दशाधिकसहस्रद्वयम् (२०१०) 'सत्तद्विभागती सहभागाणं' सप्तपष्टि - भाग त्रिगद्भाभागाना 'सीमाचिक्खभो' सीमाविष्कम्भो भवति 'तेणं तीसं' तानि खलु त्रिंशत्, 'तं जहा ' तद्यथा 'दो सवण ' द्वौ श्रवणी, 'जाव' यावत् 'दो पुव्वासाठा' द्वे पूर्वापाढे, यावत्पदसग्राह्याणि नक्षत्राणि - 'दो निद्रा' 'दो पुव्वा मढवया दो रेवई, दो अस्सिणी, दो कत्तिया, दो मिगसिरा' दो पुस्सा, दो मघा, दो पुव्त्राफग्गुणीओ, दो हत्था, दो चित्ता, दो अणुराहा, दो मूला' इति, त्रिजन्नक्षत्राणि यथा - द्वौ श्रवणी २, द्वे घनिष्ठ ४, द्वे पूर्वाभाद्रपदे ६, हे रेवत्यौ, 'द्दे अश्विन्यौ १०, द्वे कृत्तिके १२, द्वे मृगशिरसी १४, ही पुण्यौ १६, द्वे मधे १८, हे पूर्वा फाल्गुन्यौ २०, हो हस्तौ २२, द्वे चित्रे २४ हे अनुराधे २६, हे मूले २८ द्वे पूर्वापाढे ३० इति एतानि त्रिगन्नक्षत्राणि ममक्षेत्राणि, तत एषां सप्तर्पष्ट खण्डीकृतस्याहोरात्रगम्यस्य क्षेत्रस्य सम्ब न्धिन परिपूर्णा सप्तपरिभागाः (६७) प्रत्येक चन्द्रयोगयोग्याः तेन सप्तपष्टिखिगता गुण्यते, जाते यथोक्ते दशोत्तर हूं सहस्रे (२०१०) । तथा - 'तत्थ' तत्राष्टाविंशतिनक्षत्रेषु 'जे ते णक्खत्ता' यानि तानि नक्षत्राणि सन्ति 'जेसि णं' येषां खलु प्रत्येकं 'तिष्णिसहस्सा पण्णर मुत्तरा' त्रीणि सहस्राणि पंचदशोत्तराणि - पञ्चदशाधिकं सहस्रत्रयम् (३०१५) 'सत्तट्टिभागती सहभागाणं' मतष्टिभागािद्भागानां 'सीमाविवखभो' सीमाविष्कम्मो भवति 'ते णं' तानि Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा १० प्रा. प्रा. २२ सू. ३ सीमाविष्कम्भनिरूपणम् ४२९ खल नक्षत्राणि 'वारस' द्वादश सन्ति, 'तं जहा ' तथथा - ' -'दो उत्तरापोट्ठवया २, हे उत्तराप्रोष्ठपदे २, 'जाव' यावत् ' दो उत्तरासाढा' द्वे उत्तरापाढे १२, अत्र यावत्पदसंग्राह्याणोमानि नक्षत्राणि - 'दो रोहिणी, दो पुणव्वस, दो उत्तर फग्गुणी, दो विसाहा' हे रोहिण्यौ ४, द्वौ पुनर्वम् ६ द्वे उत्तराफाल्गुन्यो, द्वे विशाम्बे १०, इति, हे उत्तरापाढे १२, इति प्रोक्त मेवेति द्वादश । एतानि नक्षत्राणि वार्धक्षेत्राणि, ततः सप्तपष्टि खण्ड कृत्तस्याहोरात्रगम्यस्य क्षेत्रस्य ह्यर्द्रत्वेन तत्सम्बन्धिनश्चन्द्रयोगयोग्याभागाः शतमेकमद्वै च (१००) प्रत्येकं भवन्ति, एतेषां (१००|) त्रिशता गुणने जातानि पञ्चदशाधिकानि त्रीणि सहस्राणि (३०१५ ) इति ॥सूत्र २ || अथाष्टाविशतिनक्षत्राणां प्रात सायमिति क्रमेण चन्द्रेण सह योगकरणं प्रदर्श्यते - 'एएसिणं' इत्यादि । मूलम् एएसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ता णं किं सया पाओ चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ ?? एएसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं किं सया सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोइ ? । एएसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं किं सया दुहओ पविसिय २ चंदेण सद्धिं जोयं जोए ? । ता एएसि णं छप्पण्णाए णखत्ताणं न किंपि तं जं सया पाओ चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, नो सया सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएड, नो सया दुहओ पविसिय २ चंदेण सद्धिं जोयं जोड़, पण्णत्थ दोहिं अभीइहि । ता एएणं दो अभीई । पायंचियश्चोत्तालीसं २ अमावासं जोएंति, नो चेत्र णं पुण्ण मासिणिं ।। सू० ३ ॥ 2 छाया - पतेषां खलु पट् पञ्चाशतो नक्षत्राणां किं सदा प्रात. चन्द्रेण सार्द्ध योगं युनक्ति ? । तेषां खलु पट्ट् पञ्चाशती नक्षत्राणां किं सदा सायं चन्द्रेण सर्द्ध योग युनक्ति ? । एतेषां खलु पट्ट् पञ्चाशतो नक्षत्राणां कि सदा द्विधातः प्रविश्य २ चन्द्रेण सार्द्ध योग युनक्ति । तावत् एतेषां खलु पद् पञ्चाशतो नक्षत्राणां न किमपि तत् यत् सदा प्रातः चन्द्रेण सार्द्ध युनगित, नो सदा सायं चन्द्रेण सार्द्ध योगं युनक्ति, नो सदा द्विधातः प्रविश्य २ चन्द्रेण सार्द्ध योग युनक्ति, नान्यत्र द्वाभ्याम भिजियाम् । तावत् एतौ खलु द्दौ अभिजित प्रातरेव २ चतुश्चत्वारिंशां २ अमावास्यां युक्तः 'नैव खलु पूर्णमासीम् ॥ सूत्र ॥३॥ व्याख्या : - गौतमः पृच्छति 'एएसिणं' एतेषां खलु द्विद्वित्वेन स्थितानां 'छप्पण्णाए णक्खत्ताणं' पट् पञ्चागतो नक्षत्राणां मध्ये 'किं' किंनामकं नक्षत्रं यत् 'सया' सदा निरन्तरं 'पाओ' प्रातः प्रभातसमये 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएट्' चन्द्रेण सार्द्ध योगं युनक्ति ? | तथा 'एएसि णं' एतेषां खलु 'छप्पण्णाए णक्खत्ताणं' पट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये 'किं' कि नामकं नक्षत्रं यत् 'सया' सदा ' सायं' सायं सन्ध्याकाले 'चंदेण सद्धिं जोयं जोए ' चन्द्रेण सार्धं योगं युनक्ति : तथा 'एएसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं' एतेषां खलु षट्पञ्चा शतो नक्षत्राणां मध्ये 'कि' किं नामकं नक्षत्रं यत् 'सया' सदा 'दुहओ' द्विधातः प्रातः सायं Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रनप्तिसूत्रे च 'पविसिय २' प्रविश्य २ चन्द्रमण्डले समाविश्य २ 'चंदेण सद्धि जोयं जोएइ' चन्द्रेण सार्द्ध योग युनक्ति ? । एवं गौतमेन प्रश्न कृते भगवानाह-'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् श्रूयताम्-'एएसिणं छप्पण्णाए णखत्ताणं' एतेषां खलु पटू पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये 'न किंपि त' न किमपि तन्नक्षत्रं 'ज' यत् नक्षत्रं 'सया' सदा निरन्तरं प्रतिदिनमित्यर्थः 'पाओ' प्रातः प्रभातसमये सूर्योदयवलायां 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ' चन्द्रेण साधू योगं युनक्ति, तथा 'नो' न किमपि तन्नक्षत्रं यत् 'सया' सदा 'सायं' सायं सन्ध्याकाले सूर्यास्तसमये 'चंदेण सद्धिं जोयं जोएई' चन्द्रेण साधं योगं युनक्ति । तथा 'नो' न किमपि तन्नक्षत्रं यत् 'सया' सदा 'दुहओ' द्विधान प्रातः सायं वा 'पविसिय २' प्रविश्य २ चन्द्रमण्डले समाविश्य २ 'चंदेण सद्धि जोय जोएइ चन्द्रेण साध योगं युनक्ति । किं सर्वथा न किमपि नक्षत्र सदा प्रातरादिसमये चन्द्रेण सह योगं युनक्ति ? नैवम्, तत आह-'नन्नत्थ' नान्यत्र 'दोहिं अभिई हि' द्वाभ्यामभिजिद्याम् , द्वौ अभिजितौ मुक्त्वाऽन्यत् किमपि नक्षत्र सदा प्रातरादि समये चन्द्रेण सह योग न युनक्तीति भाव । तत्रापि 'ता' तावत् 'एतेणं' एते खल 'दो अभिई' द्वौ अभिजिती मपि युगेयुगे 'पायचिय २' प्रातरेव प्रातरेव चोत्तालीसं २' चतुश्चत्वारिंशां २ चतुश्चत्वारिंशतमां चतुश्चत्वारिंशत्तमा 'अमावासं अमावास्यामेव चन्द्रेण सह योगं 'जोएंति' युक्तः कुरुतः, चतुश्चत्वारिंशत्तमाममावास्यामेव परिसमापयत इति भावः, किन्तु 'नो चेव णं' नैव खल 'पुण्णमासिणि' पौर्णमासीम्, परिसमापयत इति । ___अथ कथमेतद् ज्ञायते यत् प्रति युगमभिजिन्नक्षत्र सदैव प्रातः काले चतुश्चत्वारिंशत्तमांचतुश्चत्वारिंशत्तमाममावास्यां चन्द्रेण सह योगं युक्त्वा परिसमापयतीति । तत्राह-पूर्वाचार्योपदर्शितकरणवशात ज्ञायते, तदेवाह-प्रथमं तिथ्यानयनाथ करणगाथेयम् "तिहिरासिमेव बवहिभाइया सेसमेगसद्विगुणणं च । पावट्टीए विभत्तं, सेसा अंसा तिहि समत्ती ॥१॥ छाया-तिथि रागिरव द्वापष्टिभाजितः शेपमेकपष्टि गुणनं च । द्वापरया विमक, शेपा अंशा तिथि समाप्तिः ॥१॥ इति अस्याः संक्षेपार्थ. -'तिहिरासिमेव' तिथिराशि रेवेति युगमध्ये ये चन्द्रमासा अतिक्रान्तास्ते तिथिराम्यानयनाथै त्रिंगता गुण्यन्ते, गुणिते यस्तिथिराशिर्जातः स एवेत्यर्थः 'वावद्विभाटया' द्वापप्टिभाजित , तस्य तिथि राशपष्टया भागो हियते, हृते च भागे 'सेस' यदवशिष्टं तस्य 'एगसट्टिगुणणं' एकपष्टिगुणनम् एकपष्टया गुणकार• क्रियते गुणकारं कृत्वा 'वात्रडीएविभत्त' द्वापष्टया विमक्तं द्वापष्टया भागो हरणोय , हृते च भागे ये 'सेसा अंसा' शेपा मंत्रा, ये अंशा उद्धन्ति तत्परिमिता सा विवझिने दिने 'तिहिसमती' तिथिसमाप्तिः विवक्षिततिथिसमाप्तिरवसेयेनि करणगाथार्थः ॥१॥ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ चन्द्रप्राप्तिप्रकाशिक टीका प्रा० १० प्रा. प्रा. २२ सू०३ नक्षत्राणां चन्द्रेण सह योगकरणम् ४५१ ततश्चतुश्चत्वारिंशत्तमामावास्यायाश्चिन्तायां त्रिचत्वारिंशत् (४३) चन्द्रमासाः, एक च चन्द्रमासस्य पर्वलभ्यते, ततत्रिचत्वारिंशत् त्रिशता गुण्यन्ते, जातानि नवत्यधिकानि द्वादशशतानि (१२९०), तत उपरितनमेकं पर्व, चन्द्रमासस्य पर्वद्वयं भवतीत्यकपर्वगताः पञ्चदश प्रक्षिप्यन्ते, जातानि पञ्चाधिकानि त्रयोदशगतानि (१३०५), एषां द्वापष्टया भागे हृते लब्धा एकविंशतिः (२१), मा त्यज्यते, शेषास्तिष्ठन्ति त्रयः ते एकपष्टच्या गुण्यन्ते जातं त्र्यशीत्यधिकमेकं शतम् (१८३), तस्य द्वापष्टया भागो हियते लब्धी द्वौ, तौ त्यक्ती, शेपास्तिष्ठत्येकोनपष्टिः (५९), तदेव मागता-एकोनपटिटा पष्टिभाग प्रमिता तस्मिन् दिनेऽमावास्येति । अमावास्यासु पौर्णमासीपु च नक्षत्रानयनार्थ प्रागुक्तमेव करण गृह्यते । तत्र ध्रुवराशि:-पट्पष्टिर्मुहर्ताः, एकस्य च मुइतस्य पञ्च द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तपष्टिभागः (६६- १)। ६२/६७ तत्र चतुश्चत्वारिंशना गुण्यते, जातानि चतुरुत्तगणि एकोनत्रिंशच्छतानि (२९०४) मुहूर्तानाम् , एकस्य च मुहूर्त्तस्य द्वापष्टि भागाना विशत्यधिके । शते (२३०) एकस्य च द्वापष्टि भागस्य चतुश्चत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागाः (१४) तदेवं सर्वाङ्कितः - मु...- २२०४४ ) तत्र पुनर्वसु प्रभृतिकमुत्तरापाढापर्यन्तं मुहर्तानां द्विचत्वारिंशदधिकानि चत्वारिशतानि, एकस्य च मुहूर्तस्य पट्चत्वारिंगट्टापष्टिभागा. (४४२-४६) इत्येवं प्रमाणं शोध्यते, जातानि मुह नां द्वापष्टयाधिकानि चतुर्विशतिशतानि (२४६२), एकस्य च मुहूर्तस्य चतुः सप्तत्यधिकमेकं शत द्वापष्टिभागानाम् (२७)। ततोऽभिजिदादि सकलनक्षत्रमण्डलशोधनकम् एकोनविंशत्यधिकानि अष्टौ शतानि, एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्वि शतिपिष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पहपष्टिः सप्तपष्टिः भागाः (८१९-२४३६) इस्येवं प्रमाणं यावत्संभवं शोधनीयम् । तत्र त्रिगुणमपि शुद्धिमासादयतीति त्रिगुणं कृत्वा शोध्यते, स्थिता पश्चात् षड्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूनस्य सप्तत्रिंशद् द्वापप्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः(६-३०/४०) । तत आगतं यत् चतुश्चत्वारिंशत्तमाममावास्यामभिजिन्नक्षत्रं पट्सु मुहूर्तेषु, ६।६७ 'सप्तमस्य च मुहूर्नस्य सप्तत्रिंगति द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्त चत्वारिंशति सप्त षष्टि भागेषु गतेपु सत्सु परिसमापयतीति ॥ सूत्र ३॥ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे साम्प्रतममावास्या-पौर्णमासी प्रसङ्गमाश्रित्य पौर्णमास्यऽमावास्यावक्तव्यतामाह- --'तत्थखलु इमाओ' इत्यादि । मूलम्-तत्थ खलु इमाओ वावडिं पुण्णमासिणीओ, वावद्विअमावासाओ पण्णत्ताओं। ता एएसि णं पंचण्डं संवच्छराणं पढमं पुण्णमासिणि चंदे कंसि देसंसि जोयं जोएइ ? । ता सि णं देसंसि चंदे चरिमं वावहिं पुण्णमासिणि जोएइ ताओ णं पुण्णमासिणिट्ठाणाओ मंडलं चउवीसेणं एएणं छेत्ता दुत्तीयं भागे उवाडणावित्ता एत्थ णं चंदे पढम पुण्णमासिणिं जोएइ । ता एएसिणं पंचण्हं सबच्छराणं दोच्चं पुण्णमासिणि चंदे कंसि देसंसि जोयं जोएइ ? ता जसिणं देससि चंदे पढमं पुण्णमासिणि जोएइ ताओ णं पुण्णमासिणिट्टाणाओ मंडलं चउच्चीसेणं सए णं छेत्ता, दुत्तीसं भागे उवाइणावित्ता, एत्थ णं से चंदे दोच्चं पुण्णमसिणिं जोएड । ता एएसि णं पंचण्डं संबच्छराणं तच्चं पुण्णमासिणि चंदे कंसि देसंसि जोयं जाएइ ? । ता जसि ण देसंसि चंदे दोच्चं पुण्ण मासिणि जोएड ताओ णं पुण्णमासिणिट्ठाणाओ मंडलं चउब्बीसेणं सएणं छेत्ता, दुत्तीसं भागे उवाइणावित्ता, एत्थ णं से चंदे तच्च पुण्णमासिणि जोएड ! ता एएसि णं पंचण्ई संवच्छगणं दुवालसमं पुण्णमासिणि चंदे कंसि देससि जोएइ ? ता जसि देसंसि चंदे तच्चं पुण्णमासिणि जोएइ ताओ णं पुण्णमासिणिहाणाओ मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता दोण्णि अहासीए भागसए उवाइणावित्ता एत्थणं से चंदे दुवालसमं पुण्णमासिणि जोएइ। एवं खल एएणं उवाएणं ताओ ताओ पुण्णमासिणिहाणाओ मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता तीसं २ भागे उवाइणावित्ता तंसि तंसि देससितं तं पुण्णमासिणि चंदे जोएइ । ता एएसि णं पंचण्डं संवच्छराण,चरमं वावटि पुण्णमासिणि चंदे कंसि देसराि जोएइ ?, ता जवुद्दीवस्स णं दीवस्स पाईण पडीणाययाए उदीणदाहिणाययाए जीवाए मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता दाहिणिल्लंसि चउभागमंडलंसि सत्तावीसं चउठमागे उवाइणावित्ता अट्ठावीसइ भागं वीसहा छेत्ता अट्ठारसभागे उवाइणाविना तिहि भागेहिं दोहि य कलाहिं पच्चत्थिमिल्लं चउभागमंडलं असंपत्ते एत्थ णं चंदे चरिमं चावहि पुण्णमासिणि जोएइ ॥सूत्र ४॥ छाया-तत्र खलु इमा द्वापष्टिः पौर्णमास्यः, द्वापष्टिरमावास्यः प्राप्ताः । तावत् पतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां प्रथमां पौर्णमासी चन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्ति ? तावत्यस्मिन् खलु देशे चन्द्र चरमां द्वापष्ठि पोर्णमासी युनक्ति तस्मात् खलु पौर्णमासी स्थानात् मण्डल चतुविशेन शतेन छित्वा द्वात्रिंशतं भागान् 'उवाइणित्ता' उपादाय अत्र खलु स चन्द्रः प्रथमां पोर्णमामी युनक्ति तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणं द्वितीयां पौर्णमासी चन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्ति ? नावत् यस्मिन् खलु देशे चन्द्रः प्रथमां पौर्णमासी युनक्ति तस्मात् बलु पौर्णमासी स्थानात् मण्डल चतुर्विंशेन शतेन छित्वा द्वात्रिंशतं भागान् उपादाय, अत्र सलु स चन्द्रः द्वितीयां पौर्णमासी युनक्ति । नावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा प्रा. २२ सू. ४ पौर्णमास्यऽमावास्यानिरूपणम् ४३३ तृतीयां पौर्णमासी चन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्ति ? तावत् यस्मिन् देशे चन्द्रः द्वितीयां पौर्णमासी युनक्ति तस्मात् खलु पौर्णमाली स्थानात् मण्डलं चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा द्वात्रिंशतं भागान् उपादाय, अत्र खलु तृतीयां पौर्णमासी चन्द्रः युनक्ति। तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां द्वादशां पौर्णमासी चन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्ति ? तावत् यस्मिन् खलु देशे चन्द्रः तृतीयां पौर्णमासी युनक्ति तस्मात् पौर्णमासी स्थानात् मण्डलं चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा द्वे अष्टाशीते भागशते उपादाय , अत्र खलु स चन्द्रः द्वादशां पौर्णमासी युनक्ति । एवं खलु एतेन उपायेन तस्मात् तस्मात् पौर्णमासी स्थानात् मण्डलं चतुर्विंशेन शतेन छित्त्वा द्वात्रिंशत२ भागान् उपादाय तस्मिन् तस्मिन् देशे तां तां पौर्णमासी चन्द्रः युनक्ति । तावत् पतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां चरमां द्वापष्टि पौर्णमासी चन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्ति ? तावत् जम्बूद्वीपस्य खलु द्वीपस्य प्राची प्रतीच्यायतया उदीची-दक्षिणायतया जीवया मण्डलं चतुर्विशेन शतेन ठित्वा दाक्षिणात्ये चतुर्भागमण्डले सप्तविंशतिचतुर्भागान् उपादाय अष्टाविंशतिभागं विशतिधा छित्त्वा अष्टादश भागान् उपादाय विभि भांगै द्वाभ्यां च कलाभ्यां पाश्चात्यं चतुर्भागमण्डलम् असम्प्राप्तः, अत्र खलु चन्द्र चरमां द्वापष्टिं पौर्णमासी युनक्ति ॥ सूत्र ॥४॥ ___ व्याख्या- भगवानाह-'तत्थ खलु' तत्र युगे खलु 'इमाओ' इमाः वक्ष्यमाणस्वरूपाः 'वावटिं' द्वापष्टि 'पुण्णमासिणीओ'पौर्णमास्यः तथा 'वावहि द्वापष्टिरेव 'अमावासाओ' अमावास्याः 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः । भगवता एवं प्रोक्त गीतमः प्रश्नयति 'ता एएसिणं पंचण्हं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेपां चन्द्रादीनां खलु 'पंचण्हं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'पढमं प्रथमां 'पुण्णमासिणि' पौर्णमासी 'चंदे' चन्द्रः 'कंसि देसंसि' कस्मिन् देशे 'जोएड' युनक्ति परिसमापयतीति प्रश्नः । उत्तरमाह 'ता' तावत् 'जसिणं देसंसि' यस्मिन् खलु देशे 'चंदे' चन्द्रः 'चरिमं चरमामन्तिमां पाश्चात्ययुगपर्यन्तवर्तिनी 'वासर्टि' द्वापष्टिं द्वापष्टितमां 'पुण्णमा सिणी' पौर्णमासी 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति 'ताओ णं' तस्मात् खलु 'पुण्णमासिणिट्टीणाओ, पौर्णमासी स्थानात् चरम द्वापष्टितमपौर्णमासी परिसमाप्तिस्थानात् परतः 'मंडलं' 'चउन्चीसेणं सएण' चतुर्वि शेन शतेन चतुर्विशत्यधिकेन शतेन (१२४) 'छित्ता' छित्वा विभज्य 'बत्तीसं भागे' द्वात्रिंशतं भागान द्वात्रिंगसंख्यकानू भागान् 'उवाइणाचित्ता' उपादाय गृहीत्वा द्वात्रिंशद्भागग्रहणानन्तरं 'एत्थ णं' अत्र खल द्वात्रिंशद्भागरूपे देशे से चंदे स चन्द्रः 'पद पुण्णमासिणि' प्रथमां पौर्णमासी 'जोएइ' युनक्ति तां पौर्णमासी परिसमापयतीति । पुनः प्रश्नयति-'ता' तावत् 'एएसि गं' एतेपां खलु पूर्वोक्तानां 'पंचण्डं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणंमध्ये 'दोच्चं 'पुण्णमासिणि' द्वितीयां पौर्णमासी 'चंदे' चन्द्रः 'कंसि देसंसि' कस्मिन् देशे 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति ? उत्तरमाह-जंसि णं देसंसि' यस्मिन् खलु देशे 'चंदे' चन्द्रः 'पढमं 'पुण्णामसिणि' प्रथमां पौर्णमासी 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति 'ताओ " तस्मात् खेल पुण्णमासिणिहाणाओ' पौर्णमासीस्थानात् प्रथम पौर्णमासीपरिसमाप्तिस्थानात् परतः 'मंडलं' Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्र प्रज्ञप्तिसूत्रे ४३४ 1 मण्डलं 'चउव्वीसेणं सरणं' चतुर्विगेन शतेन चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन 'छित्ता' छित्त्वा तद्गतान् 'दुत्तीसं भागे' द्वात्रिंगतं भागान्, द्वत्रिंशत्संख्यकान् भागान् 'उवाइणावित्ता' उपादाय 'एत्थ' अत्र द्वात्रिंशद्भागरूपे देशे 'से चंदे' स चन्द्रः 'दोच्चं पुण्णमासिणि' द्वितीयां पूर्णमासीं 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति । पुनः पृच्छति - 'ता' तावत् 'एएसिं णं' एतेपां खलु पूर्वोदितानां 'पंचहं संवच्छराणं' पश्ञ्चनां सवत्सराणां ‘तच्च पुण्णामासिणि' तृतीयां पौर्णमासीं 'चंदे' चन्द्र: 'कंसि देसंसि' कस्मिन् देशे ‘जोएइ’ युनक्ति परिसमापयति । उत्तरयति - ता तावत् 'जंसि णं देसंसि ' यस्मिन् स्खलु देशे 'चंदे' चन्द्रः 'दोच्चं पुण्णमासिणि' द्वितीयां पौर्णमासीं 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति 'ताओ णं' तस्मात् खल 'पुण्णमा सिणिट्टाणाओ' पौर्णमासीस्थानात् 'मंडल' मण्डलं 'चउव्वीसेणं सरणं' चतुर्विशेन शतेन 'छित्ता' छित्त्वा 'वत्तीसं भागे' द्वात्रिंगत भागान् द्वात्रिंशत्संख्यकान् भागान् 'उवाइणाविचा' उपादय, 'एत्थ णं' अत्र द्वात्रिंशद्वागरूपे देशे 'तच्चं पुण्णमासिणि' तृतीयां पौर्णमासीं 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति । एवमेव चतुर्थी पौर्णमासीत आरभ्य एकादशतम पौर्णमासीपर्यन्तं सूत्राणि स्वयमूहनीयानि । अथ तृतीयामेव पौर्णमासीं लक्षी कृत्य द्वादशी पौर्णमासीविषयं सूत्रमाह - 'ता एएसिणं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'एएणं' एतेन प्रकारेण खलु ‘पंचण्डं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'दुवालसमं पुण्णमासिणि' द्वादशीं पौर्णमासीं 'चंदे' चन्द्रः 'कंसि देसंसि' कस्मिन् देशे 'जोएड़' युनक्ति ? | उत्तरमाह - ता तावत् 'जंसि णं देसंसि' यस्मिन् खलु देशे 'चंदे' चन्द्रः ' तच्चं पुण्णमासिणिं' तृतीयां पौणमासी 'जोए ' युनक्ति 'ताओ णं' तस्मात् खलु 'पुण्णमा सिणिट्टाणाओ' पौर्णमासीस्थानात् तृतीय पौर्णमासीं परिसमाप्तिस्थानात् 'मडलं' मण्डलं 'चउच्ची सेणं सएण' चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन 'छित्ता' छित्त्वा विभज्य 'दोणि अट्ठासीए भागसप' हे अष्टाशीते भागशते अष्टाशीत्यधिके द्वे भागशते (२८८), अत्र तृतीयस्या. परतः किल द्वादशी पौर्णमासी नवमी भवति, ततो द्वात्रिंशतो भागानां नवभिर्गुणने अष्टाशीत्याधिके द्वे शते भगानां ( २८८) भवत इत्यैतावत्प्रमाणान् भागान् 'उवाइणावित्ता' उपादाय गृहीत्वा 'एत्थ णं' अत्र खलु अष्टाशीत्यधिकशतद्वयभागरूपे देशे 'से चंदे' स चन्द्रः 'दुवालसमं पुण्णमासिणि' हृदशीं पौर्णमासीं 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति । अथा ग्रेऽतिदेशेनाह - ' एवं खलु' इत्यादि 'एवं' एवम् अनेन प्रकारेण खल- निश्चितम् 'एएणं' एतेन पूर्वप्रदर्शितेन 'उवाएणं' उपायेन विधिना 'ताओ ताओ' यां यां पौर्णमासीं यत्र यत्र देशे परिसमापयति तस्यास्तस्याः पौर्णमास्यास्ततोऽनन्तरां पौर्णमासीं तस्मात्तस्मात् 'पुण्णमासिगिट्टाणाओ' पौर्णमासीस्थानात् पाश्चात्य पौर्णमासी परिसर्माप्तिस्थानात् 'मंडल' मण्डलं 'चउन्नीसेणं सरणं' चतुर्विशेन चतुर्वि गत्यधिकेन शतेन 'छित्ता' छित्त्वा परतस्तद्गतान् 'दुत्तीसं २ भागे' द्वात्रिंशतं भागान् 'उवाडणाचित्ता' उपादाय 'तंसि तंसि देसंसि' तस्मिन् तस्मित् देशे 'तं तं पुण्णमासिणि' तां ता पौर्णमासी 'चंदे' चन्द्र: 'जोएड़' युनक्ति - परिसमा · Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १० प्रा प्रा. २२ सू ४. पौर्णमास्यऽमावास्यानिरूपणम् ४३५ पयति । सचैवं परिसमापयन् तावद् वेदितव्यः यावद् भूयोऽपि चरमां द्वापष्टिं पौर्णमासी यस्मिन् देशे पाश्चात्ये युगे चरमां द्वापष्टिं पौर्णमासी परिसमापितवान् तस्मिन् देशे परिसमापयति कथं मेतदिति चेदत्र गणितक्रमं प्रदर्शयति-पाश्चात्ययुग चरमद्वापष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिस्था. नात् परतो मण्डलम्य चतुर्विशत्यधितशतविभक्तस्य सम्बन्धिनां द्वात्रिंशतो भागाना मतिक्रमे तस्यास्तस्याः पोर्णमास्याः परिसमाप्तिर्भवति । युगे सर्वसंख्यया पौर्णमास्यो द्वापष्टिर्भवन्ति, ततो द्वात्रिंशद् भागाद्वापष्टया गुण्यन्ते जातानि चतुरशीत्यधिकानि एकोनविशतिशतानि (१९८४) । एषां चतुर्विशत्यधिकेन गतेन (१२१) भागो हियते, लब्धाः पोडश सकलमण्डलपरावर्ताः (१६) समस्तत्यापिच राशनिलेपी भवनादागताया यस्मिन् देशे पाश्चात्ययुगसम्बन्धि चरमद्वापष्टितम पौर्णमासी परिसमाप्तिर्भवति सा । अथ चरमद्वापटितग परिसमाप्तिदेशविषयकं सूत्रमाह-'ता एएसिणं' इत्यादि । 'ता' तावत् युगे 'एएसि णं' एतेषां खलु 'पंचण्डं संवच्छराणं पञ्चानां संव-सराणां मध्ये 'चरमं' चरमां युगपर्यन्तवर्तिनीं 'वावर्हि पुण्णमासिणि' द्वापष्टिं पौर्णमासी 'चंदे' चन्द्रः 'कंसि देसंसि' कस्मिन् देशे 'जोएई' युनक्ति-परिसमापयति ? इति गौतमेन पृष्टे भगवानाह-'ता जंबुढीवस्त गं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जवुद्दीवस्स णं दीवस्स' जम्बूद्वीपस्य खल द्वीपस्योपरि 'पाईणपडीणाययाए' प्राचीप्रतीच्यायतया, अत्र प्राची ग्रहणेन उत्तरपूर्वा गृह्यते प्रतीची ग्रहणेन दक्षिणापरा गृह्यते तेनायमर्थः-पूर्वोत्तरदक्षिणापरायतया, 'इति एवम् 'उदीणदाहिणाययाए' उदीची दक्षिणायतया, उदीची शब्देनापरोत्तरायतया, दक्षिण शब्देन पूर्वदक्षिणायतया च, अयं भाव -एका जीवा उत्तरतो निस्सृत्य पूर्वायां प्रविष्टा १, द्वितीया दक्षिणतो निस्सृत्य प्रतीच्यां प्रविष्टा २, तृतीया प्रतीचीनो निस्सृत्योत्तरस्यां प्रविष्टा ३, चतुर्थी पूर्वातो निस्सृत्य दक्षिणस्यां प्रविष्टा ४. इत्येवंरूपया जीवाए' जीवया प्रत्यञ्चा सशत्वा त्प्रत्यञ्चया दवरिकयेत्यर्थः 'मंडल मण्डलं' 'चउव्वीसेणं सएणं चतुर्वित्यधिकेन शतेन 'छित्ता' छित्वा विभज्य भूयश्चतुर्भिविभज्यते, ततः 'दाहिणिल्लंसि' दक्षिणात्ये 'चउभागमंडलंसि' चतुर्भागमण्डले एकत्रिंशद्भागप्रमाणे 'सत्तावीसं चउभागे' सप्तविं-. शतिं चतुर्भागान् 'उवाइणाचित्ता' उपादाय 'अट्ठावीसइभागं' अष्टाविशतितमं भागं 'वीसहा छेत्ता' विंशतिधा छित्वा तग्दतान् 'अद्वारसभागे' अष्टादशभागान् 'उवाइणावित्ता' उपादाय शेपैः 'तिहि भागेहिं त्रिभि गैः, चतुर्थस्य भागरय च दोहियकलाहि' द्वाभ्यां च कलाभ्यां 'पच्चस्थिमिल्लं' पाश्चात्य 'चउभागमंडलं' चतुर्भागमण्डलम् 'असंपत्ते' असम्प्राप्तः, 'एत्थ णं' अत्र खलु अस्मिन प्रदेशे 'चंदे' चन्द्रः 'चरिमं' चरमा सन्तिमा 'वावर्टि' द्वाषष्टिं द्वाषष्टितमां 'पुण्णमासिणि' पौर्णमासी 'जोएइ युनक्ति--परिसमापयतीति । सूत्र ॥४॥ पूर्व चन्द्रस्य पौर्णमासी परिसमाप्तिदेशः प्रोक्तः, साम्प्रतं सूर्यस्य पौर्णमासी परिसमाप्तिदेश प्रतिपादयन् तद्विपयकं सूत्रमाह-'ता एएसिणं' इत्यादि । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे मूलम-ता एएसि णं पंचण्डं संवच्छराणं पढमं पुण्णसासिणि सूरे कसि देसंसिजोएइ ? । ता जंसिणं देसंसि सरिए चरिमं वावडिं पुण्णमासिणि जोइए ताओ पुण्णमासिणि हाणाओ मंडलं चउब्चीसेणं सएणं छेत्ता चउणवइंभागे उवाइणावित्ता एस्थ णं से सरिए पढमं पुण्णमासिणि जोएइ । ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्च पुण्णमासिणि सरिए कंसि देसंसि जोएइ ? | ता जंसि णं देसंसि सरिए पढ़मं पुण्णमसिणि जोएइ ताओ पुण्णमासिणिहाणाओ मंडलं चउबीसेणं सएणं छेत्ता चउणवइमागे उवाइणावित्ता एत्थ णं से सुरिए दोच्चं पुण्णमासिणि जोएइ । ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चं पुण्णमासिणि सरिए कसि देसंसि जोएइ ? ता जसिणं देसंसि सरिए दोच्चं पुण्णमासिणि जोएइ ताओ पुण्णमासिणिट्टाणाओ मंडलं चउन्चीसेणं सएणं छेत्ता चउणवइभागे उवाइणा वित्ता, एत्थ णं से सुरिए तच्चं पुण्णमासिणि जोएइ । ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दुवालसं पुण्णमासिणि सरिए कंसि देसंसि जोएइ ? ता जंसिणं देससि सरिए तच्चं पुण्णमसिणि जोएइ ताओ पुण्णमासिणिहाणाओ मंडलं चउच्चीसेणं सएणं छेत्ता अट्ठछत्ताले भागसए उवाइणावित्ता, एत्थ णं से सुरिए दुवालसमं पुण्णमासिणि जोएइ । एवं खलु एएण उवाएणं ताओ ताओ पुण्णमासिणिहाणाओ मंडलं चउन्धीसेणं सएणं छेत्ता चउणवई चउणवई भागे उवादणावित्ता तसि तसिणं देसंसि तं तं पुण्णमासिणि सुरिए जोएइ । ता एएसिणं पचण्डं संवच्छराणं चरिमं वावडिं पुण्णमासिणि सरिए कसि देसंसि जोएइ ? । ताजंबुद्दीवस्स णं दीवस्स पाईणपडीणाययाए उदीणदाहिणाययाए जीवाए मंडलं चउन्बीसेणं सएणं छेत्ता पुरथिमिल्लसि चउभागमंडलंसि सत्तावीसं भागे उवाइणावित्ता अट्ठावीसहभाग वीसहा छेत्ता अट्ठारसं भाग उवाइणायित्ता तिहिं भागेहिं दोहि य कलाहिं दाहिणिल्लं चउन्भागमंडलं असंपत्ते, एन्थ णं सुरिए छावहिं पुण्णमासिणि जोएइ । ॥सूत्र॥५॥ छाया-तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां प्रथमां पोर्णसी सूर्यः कस्मिन् देो युनक्ति ? तावत् यस्मिन् खलु देशे सूर्यः चरमां द्वापष्टिं पौर्णमासी युनक्ति तस्मात् पौण मासीस्थानात् मण्डलं चतुर्विशेन शतेन छित्ता चतुर्नवति भागान् उपादाय, अत्र स्खलु स सूर्यः प्रथमां पौर्णमासी गुनक्ति । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां द्वितीयां पौर्णमासी सूर्यः कस्मिन् देशे युनस्ति ? तावत् यस्मिन् खलु देशे सूर्यः प्रथमां पौर्णमासी युनक्ति तस्मात् पौर्णमासो स्थानात् मण्डल चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा चतुर्नवति भागान् उपादाय, अत्र खलु स सूर्यः द्वितीयां पौर्णमासी युनक्ति । तावत् खलु पञ्चानां संवत्सराणां एतीर्या पौर्णमासी सूर्यः कस्मिन् देगे युनक्ति ' तावत् यस्पिन् स्खलु देशे सूर्यः द्वितीयां पौर्णमासी युनक्ति तस्मात् पौर्णमासी स्थानान् मण्डलं चतुर्विगेन शतेन छिरखा चतुर्नवति मागान् उपादाय अत्र बलु स सूर्यः तृतीयां पौणमासी युनक्ति । नाचत एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां द्वादशी पौर्णमासी सूर्यः कम्मिन् देशे युनक्ति ? तावत् यस्मिन् खलु देशे Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेन्द्र प्रकाशिका टीका प्रा १० प्रा. प्रा. २२ सू. ५. सूर्यस्य पौर्णमासीपरिसमप्तिदेशः ४३७ W तृतीय पौर्णमासीं सूर्यः युनक्ति तस्मात् पौर्णमासीत्थानात् मण्डलं चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा अट पट्चत्वारिंशानि भागशतानि उपादाय, अत्र खलु स सूर्यः द्वादशी पौर्णमासीं युनक्ति । पवं खलु तेन उपायेन तस्मात् तस्मात् पौर्णमासोस्थानात् मण्डलं चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा चतुर्नवर्ति चतुर्नवर्ति भागान् उपादाय तस्मिन् तस्मिन् खलु देशे तो तां पौर्णमासीं सूर्यः युनक्ति । तावत् तेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां चरमां द्वापष्टि पौर्णमासीं सूर्यः कस्मिन् देशे युनक्ति ? तावत् जम्बूद्वीपस्य खलु द्वीपस्य प्राची प्रतीच्यायतया, उदोची दक्षिणाय - तथा जीवया मण्डलं चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा पौरस्त्ये चतुर्भागमण्डले सप्तविंशति भागान् उपादाय प्राविशतिं भागं विशतिधा छत्वा अष्टादशं भागं उपादाय त्रिभिर्भागैः द्वाभ्यां चकलाभ्यां दाक्षिणात्यं चतुर्भागमण्डलम् असम्प्राप्तः, अत्र खलु सूर्यः चरमां द्वापष्टि पौर्णमासीं युनक्ति | सूत्र ||५|| व्याख्या- 'ता एएसि णं' इति तत्र युगे 'एएसि णं' एतेषां पूर्वोक्तानां पंचहे संचच्छराणं' पञ्चाना चन्द्रादिसंवत्सराणां मन्ये 'पढमं पुण्णमासिणि' प्रथमां पौर्णमासी 'सूरिए' सूर्यः 'कंसि देससि' कस्मिन् देठो स्थित. सन् 'जोएड' युनक्ति परिसमापयति ? एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह— 'ता जंसि णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'जंसि णं देसंसि' यस्मिन् खलु देशे स्थितः सन् 'सूरिए ' सूर्यः ‘चरिमं' चरमां पाश्चात्ययुगपर्यन्तवत्तिनीं 'वावडिं' द्वापष्टिं द्वापष्टितमां 'पुण्णमा सिणि' पौर्णमासीं 'जोएड' युनक्ति परिसमापयति 'ताओ ' तस्मात् 'पुण्णमा सिद्धाणाओ' पौर्णमासीस्थानात् चरमद्वापष्टितम पौर्णमासी परिसमाप्तिकारण भूतात् स्थानात् परतः 'मंडल' मण्डल 'चउन्चीसेणं सएणं' चतुर्विशेन शतेन चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन (१२४) 'छित्ता' छित्त्वा विभज्य तग्दतान् 'चउनवाई भागे' चतुर्नवतिं भागान् 'उचाइणावित्ता' उपादाय 'एत्थ णं' अत्र खल ' से सुरिए' स सूर्यः 'पढ' प्रथमां 'पुण्णमा सिणि' पौर्णमासीं 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति । किमत्र कारणमितिचेदाह -इह परिपूर्णेषु त्रिंगदोरात्रेषु परिसमाप्तेषु सत्सु स एव सूर्यस्तस्मिन्नेव देशे वर्तमानः प्राप्यते, नतु कतिपयभागन्य्नेषु । पौर्णमासीं च चन्द्रमासपर्यन्त पारसमाप्तिमुपयति, चन्द्रमासस्य च परिमाण मेकोनत्रिंशढहोरात्राः, एकस्य चाहोरात्रस्य द्वात्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः (२९-३२ ततत्रिंशत्तमेऽहोरात्रे ६६ द्वात्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु गतेषु सत्सु सूर्यश्चरमद्वापष्टितमात् पौर्णमासी परिसमाप्तिकरणभूतात् स्थानान् चतुर्नवतौ चतुर्विंशत्यधिकगतभागेषु समतिक्रान्तेषु सत्सु प्रथमां पौर्णमासीं परिसमापयन् प्राप्यते । यतोहि गिता भागैस्तमेव देशमसप्राप्तः सन्नवाप्यने इति, त्रिशतो द्वापष्टि भागानामहोरात्र सम्बन्निनामद्यापि स्थितत्वादिति । पुनर्गोतमो द्वितीय पौर्णमासीविषये पृच्छति - 'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एए सिग' एतेषां खलु 'पंचण्डं संवच्छराणं' पञ्चाना सवत्सराणां मध्ये 'दोच्च' द्वितीयां 'पुण्णमा सिणि' पौर्णमासीं 'सूरिए' सूर्यः 'कंसि देसंसि' कस्मिन् देशे स्थितः सन् 'जोए ' युनक्ति परिसमापयति ? भगवानाह - 'ता' तावत् 'जैसि णं देसंसि' यस्मिन् Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे खलु देशे स्थितः सन् 'सूरिए सूर्यः ‘पढम' प्रथमां युगादौ प्रथमप्राप्तां 'पुण्णमासिणि' पौर्णमासी 'जोएई' युनक्ति 'ताओं' तस्मात् 'पुण्णमासिणिहाणाओ' पौर्णमासी स्थानात् युगादिप्रथम पौर्णमासी परिसमप्तिनिबन्धस्थानात् परतःमण्डलं 'चउव्वीसेणंसएणं' चतुर्विशत्यधिकेन शतेन 'छित्ता' छित्वा विभज्य तग्दतान् ‘चउणवइभागे' चतुर्नवति भागान् 'उबाइणावित्ता' उपादाय, 'एत्य णं' अत्र खलु अस्मिन् देशे स्थितः सन् ‘से सूरिए' स सूर्यः 'दोच्च पुण्णमासिणि' द्वितीयां पौर्णमासी 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति । अथ तृतीयपौर्णमासीविपये पृच्छति-'ता' तावत् 'एसिणं पंचण्ड सवच्छराणं' एतेषां खलु पञ्चानां सवत्सराणां मध्ये 'तच्च पुण्णमासिणि' तृतीयां पौर्णमासी 'मूरिए' मूर्यः 'कंसि देसंसि जोएइ' कस्मिन् देशे स्थितः सन् युनक्ति तृतीयपौर्णमासी समापयति । भगवानाह-'ता' तावत् 'जसि णं देससी' यस्मिन् खलु देशे स्थितः सन् 'सूरिए' सूर्यः 'दोच्च पुण्णमासिणि' द्वितीयां पौर्णमासी 'जोएइ' युनक्ति 'ताओ पुण्णमासिणिट्टाणाओ' तस्मात पौर्णमासी स्थानात् परतःमण्डलं 'चउन्बी सेणं सएणं' चतुर्विशत्यधिकेन अतेन 'छित्ता' छित्त्वा विभज्य तन्दतान् 'चउणवइभागे' चतुर्नवति भागान 'उवाइणावित्ता' उपादाय, 'एत्थ णं, अत्र खलु देशे 'से सूरिए' स सूर्यः 'तच्चं पुण्णमा सिणी' तृतीयां पौर्णमासी 'जोएइ' युनक्ति । एवमेव चतुर्थी पौर्णमासीत आरभ्य एकादशी पौणमासी पर्यन्तं स्वयमूहनीयम् । अथ तृतीयामधीकृत्य द्वादशी पौर्णमासी पृच्छति--- एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां खलु 'पंचण्डं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'दुवालसं पुण्णमासिणि' द्वादशी पौर्णमासी 'सूरिए' सूर्यः 'कंसि देसंसि' करिमन देशे स्थितः सन् 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति । भगवानाह-'ता' तावत् 'जसि णं देससि' यस्मिन् खलु देशे स्थित सन 'सरिए' सूर्यः 'तच्चं पुण्णमासिणि' तृतीयां पौर्णमासीं 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति 'ताओ पुण्णमासिणिहाणाओ' तस्मात् पौर्णमासीस्थानात् परतः 'मंडलं' मण्डलं 'चउवधीसेणंसएणं' चतु विंशत्यधिकेन शतेन 'छित्ता' छिन्वा विभज्य 'अछत्ताले भागसए' अष्ट पट्चत्वारिंशानि भागगतानि पट्चत्वारिंशदधिकानि अष्टगतानि भागानां, तृतीयस्याः पौर्णमास्याः परतो द्वादशी पौर्णमासीनवमी भवति, ततश्चतुर्नवतिर्नवभिर्गुण्यते, जायन्ते अष्टौ शतानि पट्चत्वारिंशदधिकानि (८.४६) एतावतो भागान् ‘उवाइणावित्ता' उपादाय, 'एत्थ णं' अत्रास्मिन् खलु देदो 'से सुरिए' स सूर्य. 'दुवालसम' पुण्णमासिणि' द्वादशी पौणमासी 'जोएइ' युनक्ति अथाऽनिदेशमाह-'एवं खलु' इत्यादि । ‘एवं' एवम् अनेनैव प्रकारेण खलु 'एसणं' एतेन पूर्वोक्तेन 'उवाएणं' उपायेन विधिना 'ताओ ताओ' तस्मात् तस्मात् विवक्षितात् 'पुण्णमासिणिहाणाओ' पौर्णमासी स्थानात णश्चात्यपाश्चात्यपौर्णमासीपरिसमाप्तिस्थानात 'मंडलं' मण्डलं 'चउन्धीसेणं' मएणं चतुर्वि शत्यधिकेन शतेन 'छित्ता' छित्त्वा परतस्तद्गतान् 'चउणवई चउणवई भागे' चतुर्नवनिं चतुर्नवति मागान् 'उवाइणावित्ता' उपादाय 'तंसि तंसि णं देसंसि' तस्मिन तस्मिन् Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिका टोका प्रा १० प्रा. प्रा. २२ सू.५ सूर्यस्य पौर्णमासीपरिसमाप्तिदेशः ४३९ खलु देशे स्थितः सन् 'तं तं पुण्णमासिणि' तां तां विवक्षितां पौर्णमासी 'सरिए सूर्यः 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति । एवं तावद ज्ञातव्यं यावत् भूयोऽपि चरमां द्वापष्टितमां पोर्णमासी सूर्यः परिसमापयतीति । एतच्च गणितक्रमवशाद् ज्ञायते, तथाहि-पाश्चात्ययुगचरमद्वापष्टितम पौर्णमासी परिसमाप्तिसम्बन्धिस्थानात् परतो मण्डलस्य चतुर्विशत्यधिकशतविभक्तस्य सम्बन्धिनां चतुर्नवतिचतुर्नवति भागेपु समतिकान्तेपु तत्यास्तस्याः पौर्णमास्याः परिसमाप्तिर्भवतीति ततश्चतुर्नवति पिष्टया गुण्यते जातानि अष्टाविंशत्यधिकानि अष्टपञ्चाशच्छतानि-(५८२८) एपां चतुविंशत्यधिकेन शतेन भागे हृते लब्धाःसप्तचत्वारिशत् सकलमण्डलपरावर्ताः (४७) किन्तु न च तैः प्रयोजनम् केवलं राशनिर्लेपी भवनादागतम्-यस्मिन् देशे स्थितः सन् सूर्यः पाश्चात्ययुगसम्बन्धि चरमद्वापष्टितमपौर्णमासीपरिसमापकस्तस्मिन्नेव देशे विवक्षितस्यापि युगस्य चरमां द्वापष्टितमां पौर्णमासी परिसमापयतीति । अथ चरमद्वापटितम पोर्णमासी परिसमाप्तिसम्बन्धि देश पृच्छति-'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेपां खल 'पंचण्हं संवच्छराणं' पञ्चानां सवत्सराणां मन्ये 'चरिम' चरमां युगपर्यन्तवत्तिनीं 'यावट्टि द्वापष्टितमा 'पुण्णमा. सिणि' पौर्णमासी 'सूरिए' सूर्य 'कंसि देसंसि' कस्मिन् देशे स्थितः सन् 'जोइए' युनक्ति परिसमापयति ।। एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह 'ता जंबुद्दीवस्स णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स' जम्बूढीपस्य खलु द्वीपस्य 'पाइणपडीणाययाए' प्राची प्रतीच्यायतया, अत्रापि प्राचीग्रहणेन उत्तरपूर्वादिक् प्रतीचो ग्रहणेन च दक्षिणापरा गृह्यते, ततः-उत्तर पूर्वायतया दक्षिणापरायतया चेति । एवं 'उदीणदाहिणाययाए' उदीचीदक्षिणायतया, तत उदीचीग्रहणेन-अवरोत्तरा दक्षिणग्रहणेन पूर्वदक्षिणा गृह्यते, ततोऽयमर्थः अपरोत्तरायतया, पूर्वदक्षिणायतया च 'जीवाए' जीवया प्रत्यञ्चया दवरिकयेत्यर्थः 'मंडलं' मण्डलं 'चउव्वीसेणं सएणं' चतुर्वि गत्यधिकेन शतेन 'छित्ता' छित्त्वा विभज्य पुनश्चतुभिर्भक्त्वा 'पुरथिमिल्लं' पौरस्त्ये पूर्वदिग्वर्तिनि 'चउभागमंडलंसि' चतुर्भागमण्डले एकत्रिंशद्भागप्रमाणे तद्गतान् 'सत्तावीसं भागे' सप्तविंशति भागान् 'अट्ठावीसइभार्ग' अष्टाविंशतितमं भागं 'वीसहा छित्ता' विंशतिधा छित्त्वा तद्तान् ‘अट्ठारसमागे' अष्टादशभागान् ‘उवाइणा वित्ता' उपादाय 'तिहिं भागेहि' शेपै स्त्रिभिर्भागः, चतुर्थस्य च भागस्य 'दोहियकलोहि' द्वाभ्या च कलाभ्यां विंशतितमाभ्यां-दाहिणिल्लं' दाक्षिणात्य दक्षिणदिग्वर्त्तिनं च 'चउभागमंडलं' चतुर्भागमण्डलं 'असंपत्ते' असम्प्राप्तः सन् 'एत्थणं' अत्र खलु देशे 'सूरिए' सूर्यः 'चरिमं' चरमां युगान्तिमा 'वावदि द्वाषष्टितमां 'पुण्णमासिणिं' पौर्णमासीं 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयतीति ।। सू० ५॥ अथ चन्द्रसूर्ययोरेवाऽमावास्यापरिसमाप्तिदेशं प्रतिपादयन् प्रथमं चन्द्रविषये सूत्रमाह-- 'ता एएसि ण' इत्यादि । Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे मृलम्-ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढम अमावासं चंदे कंसि देसंसि जोएइ ? । ता जंसि णं देससि चंदे चरिमं वावडिं अमावासं जोएइ तो अमावासट्टाणाओ मंडलं चउच्चीसेणं सएणं छित्ता बत्तीसे भागे उवाइणावित्ता एत्थ ण चंढे पढम अमावासं जोएइ । एवं जेणेव अभिलावेणं चंदस्स पुण्णमासिणीओ भणियाओ तेणेव अभिलावेण अमावासाओ भाणियव्याओ तंजहा-विइया तइया दुवालसमी, एव खलु एएणं उवाएणं ताओ ताओ अमावासाठाणाओ मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छित्ता दुत्तीसं भागे उवाइणावित्ता तंसि तंसि देसंसि तं तं अमावासं चंदे जोएड । ता एएसि ण पंचण्हं संवच्छराणं चरम वावडिं अमावासं चंदे चरिमं वावडिं पुण्णमासिणिं जोएइ ताओ पुय्णमासि णिहाणाओ मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छित्ता सोलसभागे उक्कोवइत्ता एत्थ णं से चंदे चरिमं वावहि अमावासं जोएई ।। सूत्र ६॥ छाया- तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां प्रथमाम् अमावास्यां चन्द्रः कस्मिस् देशे युनक्ति ? । तावत् यस्मिन् खलु देशे चन्द्रः चरमां द्वापष्टिम् अमावास्यां युनक्ति तस्मात् अमावास्यास्थानात् मण्डलं चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा द्वात्रिंशतं भागान् उपादाय अत्र खलु स चन्द्रः प्रथमाम् अमावास्यां युनक्ति । एवं येनैव अभिलापेन चन्द्रस्य पौर्णमास्यो भणितास्तेनव अभिलापेन आमावास्याः भणितव्याः तद्यथा-द्वितीया, तृतीया, द्वादशी । एवं खलु ग्तेन उपायेन तस्मात् तस्मान् अमावास्या स्थानात् मण्डलं चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा द्वात्रिंशतं द्वात्रिंशतं भागान् उपादाय तस्मिन् तस्मिन् देशे तां ताम् अमावास्यां चन्द्रः युनक्ति । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सरानां चरमां द्वापष्टिम् अमावास्यां चन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्ति ? तावत् यस्मिन् खलु देशे चन्द्रः चरमां द्वापष्टि पौर्णमासी युनक्ति तस्मात् पौर्णमानी स्थानात् मण्डलं चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा पोडश भागान् अवप्नप्पय अत्र खलु स चन्द्र चरमां द्वापष्टिम् अमावास्यां युनक्ति ॥ सूत्र ६ ॥ व्याख्या --'ता एएसिणं' इति, 'ता' तत्र युगे 'एएसिणं' एतेषा मनन्तरोदिताना 'पंचण्हं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'पढम अमावासं प्रथमाममावास्यां 'चंदे चन्द्रः 'कंसि देमंसि' कस्मिन् देशेस्थितः सन 'जोएई' युनक्ति ? । एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह 'ता' तावत् 'जंसि णं देसंसि' यास्मिन् खलु देशे स्थितः 'चंडे' चन्द्रः 'चरिम' चरमा 'वावडिं' द्वापष्टितमां 'अमावासं' अमावास्या 'जोएइ' युनक्ति परिममापयति 'ताओ अमावासाठाणाओ' तस्मात् अमावास्यास्थानात अमावास्यापरिसमाप्तिस्थानात परत. 'मंडलं' 'चउब्बीसेणं सएणं' चतुर्विशेन शतेन 'छित्ता' छित्त्वा तद्गतान 'वत्तीस भागे' द्वात्रिंशतं भागान् 'उवाइणावित्ता' उपादाय 'एत्य णं' अत्र खलु देश 'से चंदे स चन्द्रः 'पढम अमावासं' प्रथमाममावास्यां 'जोएह' युनक्ति परिसमापयति । अथाऽतिदेगेनाह-'एवं' इत्यिादि 'एव' एवम्-अनेनानुपदमुकेन प्रकारेण 'जेणेव' येनैव यादृशेनैव 'अभिलावेणं' अमिलापेन अभिलापक्रमेण 'चंदस्स पुण्णमासिणीओ भणियाओं' चन्द्रस्य पौर्णमास्यो भणिताः 'तेणेव अभिलावण' तेनैव Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा १० प्रा प्रा. २२सू ६. चन्द्रस्याऽमावस्यापरिसमप्तिदेशनिरूपणम् ४४१ तादृशेनैव अभिलापेन 'अमावासाओ भाणियच्चाओ' अमावास्या भणितव्या: । प्रथमा तु सूत्र एव कथिता, द्वितीयाद्या आह- 'तं जहा ' तद्यथा ता यथा- ' - 'विइया, तइया, दुवालसमी' द्वितीया, तृतीया, द्वादशी तदालापप्रकारथेत्थम् "एएसिणं पंचण्डं दोच्चं अमावासं चंदे कंसि देसंसि जोएइ ता जसिणं देसंसि चंदे पढमं अमावासं जोएइ ताओ णं अमावासट्टाणाओ मंडलं चउन्चीसेणं सरणं छेत्ता दुत्तीसं भागे उवाइणावित्ता एत्थ णं से चंदे दोच्चं अमावासं जोएइ । ता एसए सिणं पंच संचच्छराणं तच्चं अमावासं चंदे कंसि देसंसि जोइए । ता जंसि णं देसंसि चंढे दोच्च अमावासं जोइए ताओ अमावासहाणाओ मंडलं चउव्वीसेणं सरणंछित्ता दुत्तीसं भागे उवाइणावित्ता एत्थ णं से चंदे तच्चं अमावासं जोएइ । ता एएसिणं पंचहं संवच्चराणं चंदे कंसि देसंसि जोए । ता जंसिणं देसंसि चंदे तच्चं अमावासं जोएड तओणं अमावासद्वाणाओ मंडलं चउव्वीसेणं सरण छित्ता दोन्नि अट्ठासीइए भागसए उवाइणावित्ता एत्थणं चंदे दुवालसमं अमावासं जोएइ । इति । छाया - तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां द्वितीयाममावास्यां चन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्ति ? तावत् यस्मिन् खलु देशे चन्द्रः प्रथमाममावस्यां युनक्ति तस्मात् खलु अमावस्या स्थानात् मण्डलं चतुर्विशेन तेन टित्वा द्वात्रिंगतं भागान् उपादाय, अत्र खलु स चन्द्रः द्वितीयाममावास्यां युनक्ति तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां तृतीयाममावास्यां चन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्ति ? ! तावत् यस्मिन् खलु देशे चन्द्रःद्वितीयाममावास्यां युनक्ति तस्मात् अमावस्या स्थानात् मण्डलं चतुर्विशेन शतेन छित्वा द्वात्रिंशतं भागान् उपादाय, अत्र खलु स चन्द्रः तृतीयाममावास्यां युनक्ति तावत एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां द्वादशीममावास्यां चन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्ति ! तावत् यस्मिन् खलु देशे चन्द्रः तृतीयाममावास्यां युनक्ति तस्मात् खलु अमावास्या स्थानात् मण्डलं चतुर्विशेन शतेन छित्वा अष्टशी भागशते उपादाय अत्र खलु चन्द्रः द्वादशीममावास्यां युनक्ति " इति । व्याख्या सुगमा, नवरम् तृतीयस्या अमावास्याः परतो द्वादशी किलामावास्या नवमी भवतीति द्वात्रिशत् नवभिर्गुण्यते जायेते द्वेगते अष्टाशीत्यधिके ( २८८ ) तत एवोक्तम् ' दोन्नि अट्ठासी भागस' द्वे अष्टाशीत्यधिके भागगते इति शेषं स्पष्टम् ! अथ शेषामावास्य विषयेऽतिदेशमाह–‘एवं खलु' इत्यादि, ' एवं ' एवम् अनेनैव प्रकारेण खलु 'एएणं' एतेन पूर्वोक्तेन ‘उवाएणं’ उपायेन विधिना ‘ताओ ताओ अमावासद्वाणाओ' तस्मात् तस्मात् अमावास्यास्थानात् 'मंडलं चउव्वीसेणं सरणं छित्ता' मण्डलं चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा 'दुत्तीसं दुत्तीसं भागे' ५६ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे द्वात्रिंशतं द्वात्रिंशतं भागान् 'उवइणावित्ता' उपाढाय 'तंसि तंसि देसंसि' तस्मिन् तस्मिन् विवक्षिते देशे 'तं तं अमावासं' तां ताममावास्यां 'चदे जोएइ' चन्द्रो युनक्ति-परिसमापयतीति । अथ चरमाममावास्या सूत्रामाह 'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषां चन्द्रादि संवत्सरत्वेन प्रसिद्धानां 'पंचण्डं संवच्छराण' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'चरम' चरमा युगपर्यन्त वर्तिनीं 'वावडिं' द्वापष्टिं द्वापष्टितमा 'अमावासं' अमावास्यां 'चंदे' चन्द्रः 'कंसि देससि' कस्मिन् देशे 'जोएई' युनक्ति परिसमापयति ? भगवानाह-'ता जंसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जंसिणंदेसंसि' यस्मिन् खलु देशे स्थितः सन् 'चंदे' चन्द्र 'चरिमं वावडिं पुण्णमासिणि' चरमां द्वापष्टिं पौर्णमासीं 'जोएई' युनक्ति 'ताओ पुण्णमासिणिटाणाओ' तस्मात् पौर्णमासी स्थानात् पौर्णमासी परिसमाप्तिस्थानात् 'मंडलं' मण्डलं 'चउव्वीसेणं सएणं' चतुर्विशेन शतेन 'छित्त्वा' विभज्य पूर्व 'सोलसभागे' पोडशभागान् 'उक्कोवइत्ता' अवप्वप्वय पश्चात्कृत्वा परिपूर्ण द्वात्रिंशद्भागानां मध्यात् पूर्वार्धभागं पोडशभागात्मकमतिक्रम्येत्यर्थः अत्रायं भावः-चरम द्वापष्टितमाममावास्याः चरमद्वापष्टितम पौर्णमास्याः पक्षेण पश्चात्पक्षेण च विवक्षितप्रदेशात् चन्द्रः मासेन द्वात्रिंशता भागैः परतो वर्तमानः लभ्यतेऽतः पोडशभिश्चतुर्विशत्यधिकशतभागैः परतश्चन्द्रः प्ररूप्यते, तत एव पोडशभागान् पूर्व मवप्वक्येत्युक्तम्, 'एत्य णं' अत्र खलु प्रदेशे स्थित सन् 'चंदे' चन्द्रः 'चरिम' चरा 'वावहिं द्वापष्टितमा 'अमावास' अमावास्यां 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयतीति |सूत्र ६॥ पूर्व चन्द्रस्यामावास्या परिसमाप्तिदेशः, प्ररूपितः, अथाग्रे सूर्यस्यापरिसमाप्तिदेशं प्रतिपादयन्नाह-'ता एएसिणं' इत्यादि, मूलम् ता एएसिणं पंचण्डं संवच्छराणं पढमं अमावासं सुरिए कंसि देसंसि जोएइ ? । ता मि णं देससि सुरिए चरिमं वावटि अमावासं जोएइ ताओ अमावासाठाणाओ मंडलं चउव्वीसेणं सरणं छित्ता चउणवई भागे उवाडणावित्ता एत्थ णं से सुरिए पढम अमावासं जोएइ । एवं जेणेव अभिलावणं सूरियस्स पुण्णमासिणीओ भणिया तेणेव अभिलावेणं अमावासाओवि भाणियवाओ, तं जहा विइया तइया, दुवालसमी। एवं खल गएणं उबाएणं ताओ २ अमावासाठाणाओ मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छित्ता चउणवई २ भागे उवाइणाबित्ता तमि तंसि देसंसि तं तं अमावासं सुरिए जोएइ । ता एएमिणं पंचण्डं संवच्छराणं चरिमं चावहिं अमावासं सूगिए कंसि देसंसि जोएड ! को सिणं देसयि मूरिए चरिमं चावहिं पुण्णमासिणि जोएट तायो पुण्णमासिणिट्राणारी मंडलं चउबीगणं सरणं छित्ता सत्तालीमं भागे उक्कोवडत्ता एत्य णं से सुरिए चग्मिं यावहि अमावासं जोण्इ सूत्र ७॥ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१०मा प्रा २२सू ७ सूर्यस्याऽमावास्यापरिसमाप्तिदेशनिरूपणम् ४४३ छाया-तावत् एतेपां खलु पञ्चानां संवत्सराणां प्रथमाममावस्यां सूर्यः कस्मिन् देशे युनक्ति ?। तावत् यस्मिन् खलु देशे सूर्यः चरमां द्वापष्टि अमावस्यां युनक्ति तस्मात् अमावस्यास्थानात् मण्डलं चतुर्वि शेन शतेन छित्त्वा चतुर्नवतिभागान् उपादाय, अत्र खलु ससूर्यः प्रथमाममावास्यां युनक्ति । एवं येनैवामिलापेन सूर्यस्य पौर्णमास्यो भणिताः तेनेवामिलापेन अमावस्या अपि भणितव्याः, तद्यथा-द्वितीया तृतीया द्वादशी । एवं खलु एतेनोपायेन तस्मात् तस्मात् अमावास्यास्थानात् मण्डलं चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा चतुर्नवतिर भागान् उपादाय तस्मिन् तस्मिन् देशे तां ताममावास्यां सूर्यः युनक्ति । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां चरमां द्वापष्टिममावास्यां सूर्यः कस्मिन् देशे युनक्ति ? तावत् यस्मिन् खलु देशे सूर्यः चरमा हापष्टिं पौर्णमासी युनक्ति तस्मात् पौर्णमासीस्थानात् मण्डलं चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा सप्तचत्वारिंशतं भागान् अवष्वक्य, अत्र खलु स सूर्यः चरमां द्वापष्टिममावास्यां युनक्ति । सूत्र ॥ ७ ॥ __ व्याख्या-'ता एएसि णं' इति 'ता' तावत 'एएसिणं' एतेषां खल्ल 'पंचण्हं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'पंढमं अमावासं प्रथमाममावास्यां 'सूरिए' सूर्यः 'कंसि देससि जोएइ' कस्मिन् देशे युनक्ति ? । भगवानाह-'ता'तावत् 'जसि णं देसंसि' यस्मिन् खलु देशे 'सरिए' सूर्यः 'चरिमं चरमा पाश्चात्य युगपर्यन्तवर्तिनी 'वावहि द्वापष्टिं द्वापष्टितमा 'अमावासं' अमावास्यां 'जोएई' युनक्ति 'ताऔ' तस्मात् 'अमावासट्ठाणाओ' अमावास्यास्थानात् 'मंडलं' मण्डलं 'चउव्वीसेणं सएणं' चतुर्विशेन शतेन 'छित्ता' छित्त्वा 'चउणवई भागे' चतुर्नवति भागान् उवाडणावित्ता' उपादाय 'एत्थ णं' अत्र खलु 'से सरिए' स सूर्यः 'पढम अमावासं' प्रथमाममावास्यां 'जोएइ' युनक्ति । अथाग्रेऽतिदेशमाह-एवं' इत्यादि ‘एवं' एतम्-अनेनैव प्रकारेण 'जेणेव अभिलावेण' येनैव यत्प्रकारकेणामिलापेन पूर्वं 'सूरियस्स' सूर्यस्य 'पुण्णमासिणीओ भणियाओ। पौर्णमास्यो भणिताः कथिताः 'तेणेव अभिलावणं' तेनैव तादृशेनैवाभिलापेन सूर्ययोगयुक्ताः 'अमावासाओवि' अमावास्या अपि 'भाणियव्याओ' भणितव्या वाच्याः, 'तं जहा' तद्यथा 'विइया, तइया दुवालसमी' द्वितीया, तृतीया द्वादशी। तदालापकाश्चत्थम् एएसि ण पंचण्हं संवच्छगणं दोच्चं अमावास सुरिए कंसि देसंसि जोएइ ? ताजसिणं देसंसि सूरिए पढमं अमावासं जोइए. ताओ अमावासटाणाओ मंडलं चउव्वीसेणं,सएणं छित्ता चउणवई भागे उवाइणावित्ता एत्थ णं से सरिए दोच्चं अमावासं जोएइ । ता एएसि णपंचण्डं संवच्छराणं तच्च अमावासं सूरिए कंसि देसंसि जोएइ १ ता जसिणं देससि दोच्चं अमावासं जोएइ ताओ अमावासटाणाओ मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छिता चउणवई भागे उवाइणावित्ता एत्थ णं से मूरिए तच्चं अमावासं जोएड । ता-एपसिपंचण्हं संवच्छराणं दुवालसमं अमावासं सरिए कंसि देसंसि जोएइ । ता जंसिणं देसंसि Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्र सरिए तच्च अमावास जोएइ ताओ अमावासद्वाणाओ मंडल चउव्वीसेण सएणं छित्ता अट्टचत्ताले भागसए उवाइणावित्ता एत्थ णं से सरिए दुवालसमं अमावासं जोएइ" छाया- एतेषां खल पंचानां संवत्सराणां द्वितीयाममावास्यां सूर्यः कस्मिन् देशे युनक्ति ? तावत् यस्मिन् खलु देशे सूर्यः प्रथमाममावास्यां युनक्ति तस्मात् अमावस्यास्थानातू मंडलं चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा चतुर्नवति भागान् उपादाय अत्र खलु स सूर्यः द्वितीयाममावास्यां युनक्ति ? तावत् एतेषां खल पञ्चाना संवत्सराणां तृतीयाममावस्यां सूर्यः कस्मिन् खलु देशे युनक्ति तावत् यस्मिन् खलु देशे द्वितीयाममावास्यां युनक्ति तस्मात् अमावास्यास्थानात् मण्डलं चतुर्वि शतेन शतेन. छित्त्वा चतुर्नवति भागान् उपादाय अत्र खलु स सूर्यः तृतीयाममावस्यां युनक्ति । तावत् एतेषां: खलु पञ्चानां संवत्सराणां द्वादशीममावास्यां सूर्यः कस्मिन् देशे युनक्ति ८ तावत् यस्मिन् खल देशे सूर्यः तृतीयाममावास्यां युनक्ति तस्मात् अमावास्यास्थानात् मण्डल चतुर्विशेन शतेन छित्त्वा अष्ट पट्चत्वारिंशद्भागशतानि उपादाय अत्र खलु स सूर्यः द्वादशीममावास्यां युनक्ति, इति । व्याख्या-पूर्ववदेव नवरम्-द्वादशीअमावास्या खल तृतीयस्या अमावास्यायाः परतो नवमी भवतीति चतुर्नवतिभागा नवभिर्गुण्यन्ते जातानि-पट् चत्वारिशदधिकानि अष्टशतानि (८४६) भागानामित्यतः प्रोक्तम्-'अट्ठचत्ताले भागसए' इति । शेष सुगमम् । अथ शेपा अमावास्या अतिशेनाह-एवं खलु' इत्यादि, ‘एवं' एवम्-अनेन प्रकारेण खल-निश्चित 'एएणं' एतेन पूर्वीक्तेन 'उवाएण' उपायेन विधिना 'ताओ ताओ अमावासाहाणाओ' तरमात् तस्मात् पूर्व पूर्व गतात् अमावास्यास्थानात् अमावास्यापरिसमाप्तिनिवन्धनात् देशात् 'मंडलं' मण्डल 'चउन्चीसेणं सएणं' चतुर्विशेन शतेन 'छित्ता' छित्त्वा 'चउणवई २ भागे' चतुर्नवितिं चतुर्नवति भागान् 'उवाइणावित्ता' उपादाय 'तसि तसि देसंसि' तस्मिन् तस्मिन् देशे त तं अमावासं' तां ताममावास्यां 'सूरिए' सूर्यः 'जोएड' युनक्ति अथ चरमां द्वापष्टितमाममावास्यामाह 'ता एएसिण' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं' एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'चरिमं चरमा युगपर्यन्तवर्तिनी 'चावहि अमावासं' द्वापष्टिं द्वापष्टितमाममावास्यां 'मुरिए' सूर्यः कसि देससि जोएइ' कस्मिन् देशे युनक्ति ? भगवानाह-'ता' तावन् 'जसिणं देसंसि' यस्मिन् खलु देशे 'सूरिए' सूर्यः 'चरिमं वावडिं' चरमां द्वापष्टिं 'पुण्णमासिणि जोएइ' पौर्णमासी युनक्ति 'ताओ पुण्णमासिणिहाणाओ, तस्मात् पौर्णमासीस्थानात् 'मंडलं' मण्डलं 'चउन्बीसेणं सएणं' चतुर्विशैन शतेन 'छित्ता' छित्त्वा-विभञ्यार्वाक् 'सत्तालीसं भागे' सप्तचत्वारिंशतं भागान् 'उक्कोवडत्ता' अवप्वप्क्य पश्चाढाटाय 'एत्थ णं अत्र खल 'से सरिए' स सूर्यः 'चरिम' चरमा 'वावडिं' द्वापष्टिं द्वापष्टितमा 'अमावासं' अमावास्यां 'जोएई' युनक्ति परिसमापयति ॥ सूत्रम् ||७|| Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रातिप्रकाशिक टीक प्रा०१०प्रा.प्रा.२२ सू०७चन्द्रसूर्योवाकेननक्षत्रेणपौर्णमासीसमापयतीति४४५ N अथ का पौर्णमासी चन्द्रः सूर्यो वा केन नक्षत्रेण युक्तः सन् परिसमापयतीति प्रतिपादयन्नाह'ता एएसिणं' इत्यादि । मूलम् -'ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं पुण्णमासिणिं चंदे केण णक्खत्तेणं जोएइ ? ता धणिहाहि, धणिट्ठाणं तिण्णि मुहुत्ता एग्णवीसं च वावद्विभागा मुहुत्तस्स, वावद्विभागं च सत्तट्टिहा छित्ता पण्णट्टी चुणियाभागा सेसा, तं समयं च णं सुरिए केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ता पुन्याफग्गुणीणं अट्ठावीस मुहुत्ता अट्टतीस वावट्ठीभागा मुहुतस्स, वावहिभागं च सत्तट्टिहा छित्ता दुत्तीसं चुणिया भागा सेसा । ता एएसि णं पंचण्डं संवच्छराणं दोच्चं पुण्णमासिणि चंदे कणं णक्खत्तेण जोएइ ? ता उत्तरापोवयाहिं, उत्तरापोहचयाणं सत्तावीसं मुहुत्ता, चोइस य वावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, वावद्विभागं च सत्तहिहा छित्ता चउसट्ठी चुण्णिया भागा सेसा तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएड ? ता-उत्तराफग्गुणीहि, उत्तराफरगुणीणं सत्त मुहुत्ता तेत्तीसं च वावट्ठीभागा मुहुत्तस्स, वावद्विभागं च सत्तहिहा छित्ता एक्कतीस चुण्णिया भागा सेसा । ता एएसिण पंचण्हं संवच्छराणं तच्चं पुण्णमासिणि चंदे केणं णक्खत्तेण जोएइ ?, ता अस्सीणीहिं, अस्सीणीणं एक्कवीस मुहुत्ता णव य वावद्विभागा मुहुत्तस्स, वावट्ठिभागं च सत्तढिहा छित्ता तेवढी चुण्णियाभागा सेसा, तं समयं च णं सूरिए केण णक्खत्तेण जोएइ ?, ना चित्ताए, चित्ताए एक्को मुहुत्तो, अट्ठावीस च चावट्ठी भागा मुहुत्तस्स, वावट्ठिभागं च सत्तट्ठिहा छित्ता तीसं चुणियाभागा सेसा । ता एएसिणं पंचण्डं संवच्छराण दुवालसम पुण्णमासिणि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ?, ता उत्तरासाढाहिं, उत्तरासाढाणं छब्बीस मुहुत्ता छब्बीस च वावट्ठीभागा मुहुत्तस्स, वावद्विभागं च सत्तट्टिहा छित्ता चउप्पण्णं चुण्णिया भागा सेसा तं समयं च ण सूरिए के णं णक्खत्तेणं जोएइ ?, ता पुणव्वसुस्स सोलसमुहुत्ता, अट्टय वावद्विभागा मुहुत्तस्स, वावद्विभागं च सत्तहिहा छित्ता वीसं चुणिया भागा सेसा । ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं चरमं वावहि पुण्णमासिणिं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएड ? उत्तरासाढाहिं उत्तरासाढाणं चरमसमए, तं समयं च णं सरिए केण णक्खत्तण जोएइ ?, ता पुस्सेणं, पुस्सस्स एगूणवीसं मुहुत्ता, तेतालीसं च वावहीभागा मुहत्तस्स वावठिभागं च सत्तहिा छित्ता तेत्तीस चुणियाभागा सेसा । सूत्र ॥८॥ छाया तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां प्रथमां पौर्णमासी चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति १ तावत् धनिष्ठाभिः, धनिष्ठानां च त्रयो मुहूर्ताः, एकोनविंशतिश्च द्वा. पष्टिभागा मूहूर्तस्य, द्वापष्टिभाग च सप्तषष्टिधा छित्त्वा पञ्चषष्टि प्रचूर्णिका भागाः शेषाः। तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति १ तावत् पूर्वाफल्गुनीभ्यां पूर्वाफाल्गुन्योः अष्टाविंशति मुहूर्ताः , अत्रिंशच्च द्वाषष्टि र्भागा मुहर्त्तस्य, द्वाषष्टिभागं च सप्तषष्टिधा Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ww w . . . . . . . . - चन्द्रप्राप्तिसूत्र छित्त्वा द्वात्रिंशत् चूर्णिकाभागाः शेपाः । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां द्वितीयां पौणमासी चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्तिी, तावत् उत्तराप्रोष्ठपदाभ्याम् उत्तराप्रोष्ठपदयोः सप्तविशति मुहूर्ताः, चतुर्दश च द्वापण्टिभागाः मुहत्तस्य, द्वापष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा द्वापष्टि चणिका भागाः शेपाः, तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति तावत् उत्तराफालगुनीभ्यो, उत्तराफाल्गुन्योः सप्तमुहूर्ताः त्रयस्त्रिशच्च द्वापष्टि', भागा मुहर्तस्य, द्वापष्टिभागं च सप्तपष्टिधा छिया एकत्रिशर्णिका भागाशेपाः। तावत् पतेपी खलु पञ्चानां संवत्सराणां तृतीयां पौर्णमासी चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् अश्विनीभि., अश्विनीनां च एकविंशतिर्मुहर्ताः, नव च द्वापष्ट्रिभागा मुहूर्तस्य, द्वापटिंभार्ग च सप्तपष्टिधा छित्त्वा त्रिपष्टिश्चूर्णिका भागाः शेषाः, तस्मिन् समये च खलु सूर्यः, केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् चित्रायाः चित्रायाश्च एको मुहर्तः, अष्टाविशतिश्च द्वापष्टिभागा मुहर्तस्य, द्वापष्टिभागं च सप्तपष्टिधा छित्त्वा त्रिंशत् चूर्णिका भागा. शेषाः तावत्, एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां द्वादशी पौर्णमासी चन्द्रकेन नक्षत्रेण युक्ति ? तावत् उत्तरा पाढाभ्यां, उत्तगपाढयो पड् विंशति मुहर्ताः षड्विंशतिश्च द्वाष्टिभागा मुहूर्तस्य, द्वापष्टिभागं च सप्तपष्टिधा छित्त्वा चतुष्पञ्चाशत् चूर्णिकाभागाः शेषाः तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति ?, तावत् पुनर्वसुना, पुनर्वसोः षोडश मुहर्ताः अष्ट च द्वापष्टिभागा मुहर्तस्य, द्वापष्टिभागं च सप्तपष्टिधा छित्त्वा विंशतिश्चूर्णिका भागाः शेपाः तावत् पतेपां खलु पञ्चानां संवत्सराणां चरमां द्वषष्टिः पौर्णमासी चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? उत्तरापाढयो चरमसमये, तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् पुग्येण, पुष्यस्य पकोनविंशति मुहर्ता त्रिचत्वारिंशच्च द्वापष्टिभागा मुहर्तस्य, द्वापष्टिभागं च सप्तपष्टिधा छित्त्वा स्त्रिशत् चूर्णिकाभागाः शेषाः ॥८॥ व्याख्या-'ता एएसिणं' इति, 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषां खलु पूर्वोक्तानां 'पंचण्ह' पञ्चानां 'संवच्छराणं' चन्द्रादिसवत्सराणां मध्ये 'पढमं पुण्णमासिणि' प्रथमां पौर्णमासी युगस्यादि भाविनी पौर्णमासी 'चंदे' चन्द्रः उपलक्षणात्सूर्यो वा 'केण णक्खत्तण' केन फिनामकेन नक्षत्रेणसह योगमुपागतः सन् 'जोएई' युनक्ति-परिसमापयति । भगवानाह-'ता धणिवाहि' इत्यादि, 'ता' इति तत्र युगे 'धणिहाहि धनिष्टाभिः तेषां पञ्चाना संवत्सराणां मध्ये प्रथम पौर्णमासी चन्द्रः धनिष्ठाभिः परिसमापयति । धनिष्ठा नक्षत्रस्य पञ्चतारकत्वाद्बहुवचनम् तदेव विशदयति'धनिहाणं' धनिष्ठाना धनिष्ठा नक्षत्रस्येत्यर्थः 'तिण्णि मुहुत्ता' त्रयो मुहर्ताः 'एगृणवीसं च वावटिभागा मुहत्तस्स' एकोनविंशतिश्च द्वापष्टि भागा मुहूर्तस्य, तथा 'वावद्विभागं च' एक द्वापष्टि भाग च 'सत्तट्टिहा' सप्तपष्टिधा सप्तपष्टिभागैः 'छित्ता' छित्वा विभज्य, एकस्य द्वापष्टिभागस्य सप्तपष्टि विभागान् कृत्वेत्यर्थः तेभ्यः ‘पण्णट्ठी' पञ्चपष्टिः 'चुण्णियामागा' चूर्णिका भागाः (३ ५५) शेपा, भवेयुस्तदा चन्द्रः प्रथमां पौर्णमासी समापयतीतिभावः । कथमेतदिल्याह-पौर्णमासी विषयक चन्द्रनक्षत्रयोगस्य परिज्ञानार्थं कारणं प्रागुक्तमेव, तत्र पट्पष्टि-मुहूर्ताः, ए दर ६७ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रातिप्रकाशिकाटीकाप्रा.१०प्रा०प्रा.२२सू.चन्द्रसूर्योवाकेननक्षत्रेणपौर्णमासींपरिसमापयति४४७ एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च द्वापष्टिभागाः, एकः सप्तपष्टि भागः (६६-५ ।।) एप ध्रुवराशि ६२६७ र्धियते, धृत्वा च प्रथमायां पौर्णमास्यां चन्द्रनक्षत्रयोगं ज्ञातुमिच्छतीति एकेन गुण्यते, एकेन, गुणितो राशिः स एव स्थित तावानेव जातः, एतस्माद् राशेरभिजिन्नक्षत्रस्य नव मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशति पिष्टिभागा. एकस्य च द्वापष्टि भागस्य पट्पष्टि सप्तपष्टिभागाः (९-२४ । ६६ ) ६२ ६७ इत्येतत्परिमितं शोधनकं शोध्यते, तत्र प्रथमं पट्पष्टि मुहुर्तेभ्यो (६६) नव मुहूर्ताः शोध्यन्ते स्थिताः शेषाः सप्तपञ्चाशत् (५७) एभ्य एक मुहूर्त गृहीत्वा तस्य द्वापष्टिभागाः क्रियन्ते, ते च द्वापष्टि भागा अपि पञ्चकरूपे द्वापष्टि भागराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जाताः सप्तपष्टि , द्वापष्टि भागाः (9) तेभ्यश्चतुर्विशतिः शोप्यते, स्थिताः पश्चात् त्रिचत्वारिंशत् (४३) तस्माद् एक रूपं गृहीत्वा तस्य सप्तपष्टि भगा क्रियन्ते, ते च सप्तपष्टिभागा अपि एकक रूपे सप्तपष्टिभागे प्रक्षिप्यन्ते जाता अष्टपष्टिः सप्तपष्टिभागाः (१) तेभ्यः पट्पष्टिः शोध्यते, स्थितौ शेपौ द्वौ सप्तपप्टि ६२ ६७ भागौ (५६ । १३+२), ततलिंशता मुहूर्तेः श्रवणः शोच्यते, स्थिताः पश्चात् षड्विंशति र्मुहूर्ताः शेषा अंकास्पटवेति (२६-४३, २। धनिष्टानक्षत्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् त्रिंशन्मुहूत्र्ते भ्यः पूर्वोक्तो राशिः शोध्यते तत मागतम् धनिष्ठानक्षत्रस्य त्रिपु मुहूर्तेपु, एकस्य च मुइत्तस्य एकोन विंशतिसंख्यकेषु सप्तपष्टिभागेषु' (३-१९। ६५) शेपेषु प्रथमा 'पौर्णमासी परिसमाप्तिमेति ॥१॥ ' साम्प्रतं सूर्यनक्षत्रयोगमाह-'त समयं चणं' इत्यादि 'तं समय चण' तस्मिन् समये खलु, अत्र सप्तम्यर्थे 'द्वितीया, 'प्राकृतत्वात् यस्मिन् समये धनिष्ठानक्षत्रं यथोक्तशेष चन्द्रेण युक्तं परिसमापयति तस्मिन्क्षणे 'सरिए' सूर्यः 'केणं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण युक्तः सन् तां प्रथमां पौर्णमासी “जोएइ' युनक्ति परिसमापयति ? एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह-'ता 'पुव्वाफग्गुणीहिं' 'ता' तदा 'पुव्वाफग्गुणीहिं' पूर्वाफाल्गुनीभ्याम् पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्रस्य द्वितारकत्वाद्विवचनम्, प्राकृते च'द्विवचनाभावाद बहुचनम्, तयोश्च 'पुव्वाफग्गुणीणं' पूर्वाफाल्गुन्यो स्तदानीं 'अट्ठावीसं मुहुत्ता' अष्टाविंशतिर्मुहूर्ताः, 'अद्वतीसं च वावद्विभागा मुहुत्तस्स' अष्टात्रिंशच्च द्वाषष्टि भागा मुहूर्तस्य, तथा 'वावद्विभागं च' एकंच द्वाषष्टिभागं 'सत्तढिहा छित्ता' सप्तषष्टिधा छित्वा, एकस्य द्वाषष्टि Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रशतिसूत्रे ३८ ३२ २८ ६२ ६७ भागस्य सप्तपष्टि भागान् विधाय तेभ्य' 'दुत्तीसं चुण्णियाभागा' द्वात्रिशत् चूर्णिकाभागः 'सेसा' शेपास्तिष्ठन्ति तदा सूर्यः प्रथमां पौर्णमासीं समापयतीतिभावः । तदेव दर्शयति-अत्रापि स एव पूर्वोक्तो ध्रुवराशि:- षट्षष्टिमुहूर्त्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च द्वाषष्टिभागाः, एकस्य सप्तषष्टिभागस्य एकः सप्तषष्टि भागः (६६2142 ) इत्येवं रूपो प्रियते ७ ४४८ - ६७ शृवा चास्याः पौर्णमास्याः प्रथमस्वाद, एकेन गुण्यते, जातं तदेव (६६-६३ - ततस्तस्मात् पुप्यशोधनकम् एकोनविंशतिमुहूर्त्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रिचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत् सप्तपष्टिभागाः, (१९-४३ ३३) इत्येवं प्रमाणं शोध्यते अथास्य पुष्य ६३/६७ शोधनकस्य कथमुत्पत्तिः 'अत्रोच्यते अत्र पूर्वं युगपरिमाप्तिसमये पुष्पस्य त्रयोविंशतिः सप्तषष्टिभागाः (२३) परिपूर्णाः परिसमाप्ति गताः शेषाश्चतुश्चत्वारिंशद्भागाः (४४) अवतिष्ठन्ति, ततः शेषीभूताश्चतुश्चत्वारिंशत् सप्तपष्ठिभागाः (४४) मुहूर्त्तानयनार्थं त्रिंशता गुण्यते, जातानि विंशत्यधिकानि त्रयोदशशतानि (१३२० ) अस्य राशेसप्तपष्ट्या भागो हियते, लब्धा एकोनविंशति मुहूर्त्ताः (१९), तिष्ठन्ति शेषाः सप्तचत्वारिंशत् (४७) एते च द्वाषष्टिभागानयनार्थं द्वाषष्ट्या गुण्यन्ते, जातानि चतुर्दशाधिकानि एकोनत्रिंशच्छतानि (२९१४) । एपां सप्तपष्ट्या भागो ह्रियते लब्धात्रिचत्वारिंशद् द्वापष्टिभागाः ( स्थिताः शेपास्त्रयस्त्रिंशत् (३३), ते च सप्तषष्टिभागाः, तदेवमागतं पुष्प६२ ४३. शोधनकम्–एकोनविंशतिर्मुहूर्त्ताः एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रिचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाः एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः ' (१९४३ ३३) इति एष राशिर्ध्रुवराशेः (६६।५।१ ७ शोध्यते । तत्र पट्पष्टे मुहूर्त्तेभ्य एकोनविंशतिर्मुहूर्त्ताः शुद्धाः स्थिताः पश्चात्सप्तचत्वारिंशत् (४७) एभ्य एको मुहूत्तों गृह्यते तदा स्थिताः पश्चात् पट्चत्वारिंशत (४६) गृहीतस्यैकस्य मुहूर्त्तस्य द्वापष्टि भागाः कर्त्तव्याः, ते च पश्र्वकरूपे द्वाषष्टिभागराशौ प्रक्षिप्यन्ते जाताः सप्तषष्टिर्द्वापष्टिभागा', तेभ्यविचत्वारिंशत् शोध्यन्ते स्थिताः पश्चाच्चतुर्विंशतिः (२४), एभ्य एक रूपमुपादीयते जाता त्रयोविंशतिः, गृहीतस्य एकस्य सप्तषष्टिभागाः क्रियन्ते ते च एककरूपे सप्तपष्टिभागे प्रक्षिप्यन्ते, जाता अष्टषष्टिः सप्तपष्टिभागा. एभ्यस्त्रयस्त्रिंशत् शुद्धाः, स्थिताः पश्च 1 Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीकाप्रा.१०प्रा०प्रा.२२सू ८ च.सू. वा केन न पौर्णमासी समापयति ४४९ ' २३३५). ૨le ૭ त्रिंशत् सप्तपष्टिभागाः, (४६- ) तत एभ्य. षट्चत्वारिंशन्मुहूर्तेभ्यः (४६) पञ्चदशमुहर्ता अश्लेपायाः, त्रिंशन्महूर्त्ताश्च मघाया इति मिलित्वा पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्ताः (४५) शोध्यन्ते, स्थित पश्चादेको मुहूर्न. (१) शेपा अट्टास्त एव, तथाहि-एको मुहूर्तः परिपूर्णः एकस्य मुहूर्तस्य च त्रयोविंशतिषष्टिभागा', एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चत्रिशत् मप्त्पष्टि भागाः (१ इति पूर्वफाल्गुनी नक्षत्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् एप पूर्वोक्तो राशिस्त्रिंशन्मुहर्तभ्यः शोध्यते । तत आगतम् पूर्वाफाल्गुनोनक्षत्रस्याप्टाविंशती मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्तस्याष्टात्रिंशति द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च हापष्टिभागस्य द्वात्रिशति सप्तपप्टिभागेपु (२८-३८-३२) शेपेपु सूर्यः प्रथमां पौर्णमासी परिसमापति । एते च सूर्यमुहर्ताःसन्ति, एवम्भूतैश्च सूर्यमुहूत्र्तस्त्रिंशसंख्यकैः संमिलितैनयोदशरात्रिन्दिवानि, तदुपरि एकस्य च रात्रिन्दिवस्य द्वादश व्यावहारिका मुहूर्ता भवन्ति, तत एतदनुसारेण गतेकदिवसभागगणना भवति, शपस्थितदिवसगणना च पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्रस्य स्वयं कर्त्तव्या एवमग्रे उत्तरसूत्रेष्वपि सूर्यनक्षत्रयोगे भावना कर्तव्येति । द्वितीयायाः पौर्णमास्याश्चन्द्रयोगं पृच्छति-'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता तावत् 'एएसिणं एतेषां पूर्वोक्तानां 'पंचण्हं संवच्छराण' पञ्चानां सवत्सराणां मन्ये 'दोच्चं पुण्णमासिणिं' द्वितीयां पौर्णमासी 'चंदे चन्द्रः 'केणं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण सह युक्तः सन् 'जोएइ' युनक्ति ? । एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह-'ता' तावत् 'उत्तरापोवयाहिं' उत्तराप्रोष्ठपदाभ्याम् , अत्रापि उत्तराप्रोष्ठपदानक्षत्रस्य द्वितारकत्वाद् द्विवचनम् , तयोश्च 'उत्तरापोवयाणं' उत्तराप्रोष्ठपदयोः उत्तराभाद्रपदा नक्षत्रस्य 'सत्तावीसं मुहुत्ता' सप्तविंशतिर्मुहूर्ताः 'चोडस य वावद्विभागा मुहत्तस्स' चतुर्दशच द्वापष्टिभागा एकस्य मुहूर्तस्य, तथा 'वावद्विभागं च सत्तहिहा छित्ता' द्वापष्टितमं भागं च सप्तपप्टिवा छित्त्वा एकस्य द्वापष्टिभागस्य च सप्तपष्टिभागान् कृत्वा तत्सम्बन्धिनः 'चउसट्टी चुणियाभागा' चतुष्पष्ठिश्चूर्णिका भागा• शेपास्तिष्ठन्ति तदा द्वितीयां पौर्णमासी चन्द्रः परिसमापयति । कथमित्यत्राह-स एव ध्रुवराशि:-६६।५।१। द्वितीय पौर्णमासीपृच्छायां द्वाभ्यां गुण्यते, जातं द्वात्रिंशदुत्तरं शतं (१३२) मुहूर्तानाम् , एकस्य च मुहूर्तस्य दश द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वौ सप्तपष्टिभागौ (१३२.१.२)। ततः पूर्वक्रमेणाभिजिन्नक्षत्रस्य नवमुहूर्ताः एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशति-पष्टिभागाः एकस्य च द्वापष्टिभा गस्य सम्बन्धिनः षट्षष्टिः सप्तपष्टिभागाः (९-२४।६६) शोध्यन्ते, स्थिता शेपा द्वाविंशत्यधिकशतसख्यकाः (१२२) मुहूर्ताः, ५७ दश६७ श६७ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० -- - - -- -- - ..... - ६२६७ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तचत्वारिंशद् द्वापष्ठिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयः सप्तषष्टि भागा. (१२२-१-३) । ततोऽस्माद्राशेः त्रिंशन्मुहूर्ताः श्रवणस्य (३०), त्रिंशन्मुहूर्त्ता धनिप्ठायाः (३०), पञ्चदशमुहूर्ताः शतभिपजः (१५) त्रिंशन्मुहूर्ता. (३०) पूर्वभाद्रपटायाश्चेति सर्वे पञ्चोत्तरशत (१०५) मुहर्ता अनन्तरोदित द्वाविंशत्यधिकशत (१२२) मुहर्तेभ्यः शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चातू सप्तदश मुहूर्ताः (१७) शेपा अङ्कास्त एवेति स्थिताः (१७-४७१ ३), तत ६२।६७ उत्तराभाद्रपदानक्षत्रस्य पञ्च चत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् उत्तराभाद्रपदनक्षत्रस्य सप्तविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुर्तस्य चतुर्दगलु, द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुप्पष्टौ सप्तषष्टिभागेषु (२७-१९६४) शेपेषु द्वितीयां पौर्णमासी चन्द्रः परिसमापयति । __अथास्यामेव पौर्णमास्यां सूर्यनक्षत्रयोगमाह-'तं समय च णं' इत्यादि. 'तं समयं च णं' तस्मिन् समये च खलु यस्मिन् समये चन्द्रो द्वितीयां पौर्णमासी समापयति तस्मिन् समये 'सरिए' सूर्यः 'के ग णक्खचेणं' केन नक्षत्रेण सह युक्तः सन् द्वितीयां पौर्णमासीं 'जोएइ' युनक्ति समापयति ? एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह-'ता उत्तराफग्गुणीहिं' इत्यादि 'ता' तावत् 'उत्तराफग्गुणीहिं' उत्तराफाल्गुनीभ्यां सह सूर्यों योगं युनक्ति, तत्र द्वितीय पौर्णमासी परिसमापयति समये 'उत्तराफग्गुणीण' उत्तरफाल्गुन्योः उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रस्य, अत्राप्यस्य द्वितारकत्वाद्विवचनम्, 'सत्त मुद्दुत्ता' सप्तमुहूर्ताः, तेतीसं च वावहिभागमुद्दुत्तस्स' त्रयस्त्रिंशच्च द्वापष्टिभागा मुहूर्त्तत्य, तथा 'वासट्ठिभागं च सत्तट्टिहा छित्ता' द्वापष्टिभागं च मप्तपष्टिया छित्त्वा विभज्य तेषु 'एक्कतीसं चुण्णिया भागा' एकत्रिंशश्चूर्णिका भागाः शेषा यदा तिष्ठन्ति उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रस्य तदा सूर्य स्तामेव द्वितीयां पौर्णमासी परिसमापयतीति भावः । कथमेतदित्याह-अत्रापि स एव पूर्वोक्तो ध्रुवराशिम्रियते यथाङ्कतः (६६।५।१। धृत्वा चात्र द्वितीय पौर्णमासीविषयक प्रश्न इति ध्रुवराशिभ्यां गुण्यते जाता द्वात्रिंशदधिकशतमुहर्ताः, एकस्य च मुहत्तस्य दशद्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापप्टिभागस्य द्वौ सप्तपष्टिभागौ(१३२-१० ६२/६७ तत एतस्माद् रागे पुष्यशोवनकम् एकोनविंशति मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वागिन् सप्तपष्टिभागा, एकम्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत् सप्तपष्टिभागाः (१९-४२२२) इत्येताव परिमाणं पूर्वरीत्या शोध्यते, स्थितं पश्चात् शतमेकं द्वादशोत्तरं (११२) ६२०६७ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीकाप्रा. १०प्रा. प्रा. २२ सू८ च सू. वा केन न. पौर्णमासीं समापयति ४५१ मुहूर्त्तानाम्, एकस्य च मुहर्त्तस्याष्टाविंशति पष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्त्रिंशत् सप्तपष्टिभागाः (११२ - २८ २६) एतस्मादराशेः पञ्चदश मुहूर्ता अश्लेपायाः त्रिंशन्मुहूर्त्ता ६२ ६७ मधायाः, त्रिंशन्मुहुर्त्ताश्च पूर्वाफाल्गुन्यः गोध्या:, इति सर्वे पञ्चसप्ततिर्मुहूर्त्ताः शोध्यन्ते ततः तत उत्तर ६७ स्थिता. पश्चात् सप्तत्रिंशम्मुहुर्त्ताः, शेषा भागास्त एव, यथा (३७-३६ ३ ३ फल्गुनी नक्षत्रस्य पञ्चचत्वारिशन्मुहूर्त्ता-मकत्वात् उत्तरफल्गुनीनक्षत्र सूर्येण युक्तं सत् स्वस्य सप्तसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुर्त्तस्य त्रयस्त्रिंशति द्वापयेागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकत्रिंश सप्तषष्टिभागेषु (७. ६२६७५ द्वितीयां पोर्णमासी परिसमापयतीति |२| अथ-तृतीयपौर्णमासी विपयं चन्द्रनक्षत्रयोगसूत्रमाह - ' ता एएसि णं' इत्यादि । गौतमः पृच्छति - 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषां खल 'पंचहं संवछराण' पञ्चानां सवत्सराणां मध्ये 'तच्च पुण्णमासिणि' तृतीयां पौर्णमासी 'चंदे' चन्द्र 'केण णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण 'जोए ' युनक्ति ? भगवानाह - 'ता अस्सिणीहिं' इत्यादि 'ता' तावत् । ' अस्मिणिहि' अश्विनीभिः अश्विनीनक्षत्रस्य त्रितारकत्वाद्बहुवचनम्, तृतीयपौर्णमासी परिसमाप्तिसमये 'अस्सिनीणं' अश्विनीना मिति अश्विनीनक्षत्रस्य 'एक्कवीसं मुहुत्ता' एकविशतिर्मुहूर्त्ताः, 'नवय वावद्विभागा मुहुत्तस्स' च द्वापष्टिभागा मुहूर्त्तस्य, 'वावट्टिभागं च सत्तट्ठिहा छित्ता' द्वाषष्टिभाग च सप्तषष्टिधा छित्वा विभज्य तत्सम्बन्धिनः 'तेवढी चुण्णिया भागा त्रिषष्टि चूर्णिकाः भागाः नव ( २१- यदा 'सेसा' शेषा अवशिष्टास्तिष्ठेयुस्तदा चन्द्रः तृतीयां पौर्णमासीं परिसमापय ९ ६२/६७ तीति भावः । तथाहि—अत्रापि स एव (६६ | ५ | १ | ) ध्रुवराशिः अत्र तृतीय पौर्णमासी प्रष्टुरिष्टेति ध्रुवराशिस्त्रिभिर्गुण्यते, जातमष्टानवत्यधिकमेकं शतं मुहूर्त्तानाम्, एकस्य च मुहूर्त्तस्य प १५/ द्वाषष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयः सप्तषष्टिभागाः ( १९८ - ) ततः 'उगुणड' ६२/६७ पोटूचया' इति करणगाथा वचनात् पूर्वोक्तराशे एकोनपष्टयधिकशतमुहूर्त्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशतिश्व द्वषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टि भागा ( १५९ - २४/६६) अभिजित आरभ्योत्तरभाद्रपदा पर्यन्तानां षण्णां नक्षत्राणां शोध्याः शोधिते च ६२ ६७ पश्चादवतिष्ठन्ते—अष्टत्रिंशन्मुहूर्त्ताः एकस्य च मुहूर्त्तस्य द्विपञ्चाशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च " Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे ४५२ द्वापष्टिभागस्य चत्वारः सप्तपष्टि भागाः (३८---) । अस्माद्राशेस्त्रिंशन्मुहर्ता रेवतीनक्षत्रस्य ७' शोध्यन्त, स्थिताः पश्चात् अष्टौ मुहूर्ताः, शेपं तदेव, तथा चाङ्कतः-(८. । आगतमूअश्विनीनक्षत्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात्तस्य-एकविंशतौ मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्तस्य नवसु द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिपष्टौ सप्तपष्टिभागेपु (२१+९+६३) शेषेषु चन्द्रस्तृतीयां' पौर्णमासी समापयतीति। माम्प्रतमभ्यामेव तृतीयस्यां पौर्णमास्यां सूर्यनक्षत्रयोगमाह-'नं समयं च णं' इत्यादि गौतम. पृछति-'तं समयं च णं' तस्मिन् समये च खलु यस्मिन् समये चन्द्रस्तृतीयां पौर्णमासीमश्विनीनक्षत्रस्य कतिपयभागशेपे समापयति तस्मिन् समये इत्यर्थः 'मूरिए' सूर्यः 'केणंणक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण सह युक्तः सन् तृतीयां पौर्णमासी 'जोएइ' युनक्ति समापयति ? । गौनमेन एव पृष्टे भगवानाह-'ता चित्ताए' इत्यादि, 'ता' तावत् 'चित्ताए' चित्रया, चित्रानक्षत्रस्य एकतारकत्वादेकवचनम् चित्रानक्षत्रेण युक्तः सन् सूर्यस्तृतीयां पौर्णमासी समापयतीति भावः । तदेव स्पष्टयति-'चित्ताएं इत्यादि, 'चित्ताए' चित्रायाः चित्रानक्षत्रस्य 'एक्को मुहुत्तो' एको मुहत्त. 'अद्रावीसं च वावहिमागा मुहत्तस्स' अष्टाविशतिश्च द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य, तथा 'वाद्विभागंच' द्वापष्टिभाग च 'सत्तहिहा छित्ता सप्तपष्टिघा छित्त्वा विभज्य तत्सत्काः 'तीसंचुणिया भागा' त्रिंगच्चूर्णिका भागाः (१ ) 'सेसा' शेषा अवशिष्टा यदा भवेयुस्तदा सूर्यस्तृतोया पौर्णमासी परिसमापयतीति । कथमित्याह-स एव ध्रुवराशिः ६६।५।११. अत्र तृतीय पौर्णमासी चिन्त्यतेऽत एष ध्रुराशिस्त्रिभिर्गुण्यते, जाता अष्टनवत्यधिकशतमुहूर्ताः, एकस्य च मुहर्तस्य पञ्चदश द्वापप्टिभागाः, एकस्य द्वापष्टिभागस्य त्रयः सप्तपष्टिभागाः (१९८ तत एतग्माद्वारा पुष्यशोधनकम्-एकोनविंशतिर्मुहर्ताः, एकस्य मुहूर्त्तम्य च त्रिचत्वारिंशद् द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत् सप्तपष्टिभागाः (१९-४२१३३), एतत्परिमितं पूर्वप्रकारण गोध्यते स्थितं पश्चान्मुहूर्तानामष्टसप्तत्यधिक शतम् , एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयस्त्रिंशद् द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तत्रिंशत् सप्तपष्टिभागाः (१७८ ૬૨૩૬૭ २८३० ३३३७ - - - । तत Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीकाप्रा.१०मा प्रा २२सू ८ च सू. वा केन न. पौर्णमासीपरिसमापयति ४५३ एतस्माद्राशेः अश्लेपादि हस्त पर्यन्ताना पञ्चानां नक्षत्राणां पञ्चाशदधिकशत मुहर्ताः (१५०) शोव्यन्ते, पञ्चाशदधिकशतमुहर लेपादिपञ्चनक्षत्राणि शुद्धचन्तीति भावः, शोधिते च शेपास्तिष्ठन्ति अष्टाविंशतिर्मुहर्ताः, शेषं तथैव. यथा (२८-३३३) ततश्चित्रानक्षस्य त्रिंशन्मुहू ६२६७ त्मिकत्वातस्यै कस्मिन् मुहूर्त, एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टाविशतौ द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिशति सप्तपष्टिभागेपु (१।२८।३०) शेपेषु सूर्यस्तृतीयां पौर्णमामी परिसमापयतीति । अथ द्वादशी पौर्णमासी विषयं चन्द्रनक्षत्रयोगसूत्रमाह-'ता एएसिणं' इत्यादि, गौतमः पृच्छनि-'ता' नावत् 'एएसिणं' एतेषां खलु 'पंचाहं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणं मध्ये 'दुवालसमं पुण्णमासिणि' द्वादशी पौर्णमासी 'चंदे' चन्द्रः 'केणं नक्खत्तण' केन नक्षत्रेण 'जोएइ' युनक्ति-परिसमापयति ? भगवानाह-'ता उत्तरासाढाहि' इत्यादि, 'ता' तावत् 'उत्तरासादाहि उत्तरापाढाभिः, उत्तरापाढानक्षत्रस्य चतुस्तारकत्वाद् वहुवचनम्. उत्तरापाढानक्षत्रेण सह योगं युजन् चन्द्रो द्वादशी पौर्णमासी समापयतीति भावः । तदेव रपष्टयति-'उत्तरासाढाणं' उत्तरापाढानाम-उत्तरापाढानक्षत्रस्य 'छन्चीसं मुहुत्ता'पविशतिर्मुहर्ताः, 'छब्बीसं च वावद्विभागा मुहत्तस्स' पविंगतिश्च द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य, 'वावहिभागं च' द्वापप्टिभागं च 'सत्तदिशा छित्ता' सप्तपष्टिया छित्त्वा-विभज्य तत्सम्बन्धिन. 'चउप्पण्णचुणिया भागा,' चतुष्पञ्चाशर्णिका भागाः (२६-) 'सेसा' शेपा यदा भवेयुस्तदा चन्द्रो द्वादशी पोर्णमासीं परिसमापयतोति भावः । कथमवसीयते इत्याह-स एव ध्रुवराशिः ६६।५।१। द्वादशी पौर्णमास्या विचार्यमाणत्वादेव ध्रुवराशि दशभिर्गुण्यते, जातानि द्विनवत्यधेिकानि सप्तशतानि मुहूर्तानाम् , एकस्य च मुहर्तस्य पष्टिापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य च द्वादशसप्तपष्टिभागाः ( ७९२- ) ततः 'मूले सत्तेव वायाला' मूले सप्तैव द्विचत्वारिशाः द्विचत्वारिंशदधिकानि सप्तशतानि मूलपर्यन्तनक्षत्रमुहूर्तानाम् , इति करणगाथावचनात् सप्तभिर्द्विचत्वारिंशदशिकमहत्तशतैः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पद पष्टया सप्तपष्टिभाग. (७४२- २) अभिजित आरभ्य मूलपर्यन्तानि नक्षत्राणि शोध्यानि, ६२६७ ततो द्वात्रिंशता मुहूर्तः पूर्वापाढा शोध्यते, तिष्ठन्ति शेपम् अष्टादश मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चत्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयोदश सप्तषष्ठिभागाः Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 चन्द्र प्रज्ञप्तिसूत्रे तत उत्तरापाढानक्षत्रस्य पञ्च चत्वारिंशन्महूर्त्तात्मकत्वा दुत्तराषाढा नक्षत्रस्य षड्विंगतौ मुहूर्त्तेपु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य पविगतौ द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वाष्टभागस्य चतुष्पञ्चाशति सप्तषष्टि२६/५४. भागेषु (२६ - ) २) पेपु चन्द्रो द्वादशीं पौर्णमासीं परिसमापयतीति । साम्प्रतमस्यामेव ६ २६ द्वादश्यां पौर्णमास्यां सूर्य नक्षत्रयोगमाह 'तं समयं च णं' इत्यादि, गौतमः पृच्छति - 'तं समयं च णं' तस्मिन् समये चन्द्रयोगसमय च खलु 'सूरिए' सूर्यः 'केणं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण सह योगं कुर्वन्द्वादश पोर्णमासी 'जोएड' युनक्ति परिसमापयति 'भगवानाह - 'ता पुणव्वसुणा' इत्यादि, 'ता' तावत् 'पुणच्चखुणा' पुनर्वसुना सह योगं युञ्जन् सूर्यो द्वादशीं पोर्णमासीं परिसमापयति तदेव स्पष्टयनिपुणन्त्रमुरूप' इत्यादि, 'पुगव्य मुस्स' पुनर्वसोः पुनर्वमुनक्षत्रस्य 'सोलसमुहुत्ता' पोडामुहर्त्ताः, 'अटू य वावट्टिभागा मुहुत्तस्स' अष्ट च द्वापष्टिभागा मुहूर्त्तस्य, 'वावद्विभागं च सत्तट्टा छित्ता' द्वापष्टिभागं च सप्तपष्टिधा छित्त्वा विभज्य 'वीसं चुण्णिया भागा' सप्तषष्टिभाग ८/२०. ६२।६७ सम्बन्धिनो विंगतिश्चूर्णिकाभागाः (१६ - 6) यदा 'सेसा' शेपा-शेपी भूतास्तिष्ठन्ति तदा सूर्यो द्वादश पौर्णमासीं परिसमापयतीति भावः तथाहि स एव ६६ | ५ |१| ध्रुवराशिर्द्वादश पौर्णमासी चिन्तायां द्वादशभिर्गुण्यते जातानि द्विनवत्यधिकानि सप्तशतानि मुहूर्त्तानाम्, एकस्य च मुहूर्त्त - स्य पष्टिषष्टि भागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वादशसप्तपष्टिभागाः (७९२- ६० १२ -- 1 । तत६२ ६७ एतस्माद् राशे पुष्यशोधनकम् - एकोनविंशतिर्मुहूर्त्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रिचत्वारिंशद् द्वाप - ष्टिभागा', एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत् सप्तपष्टिभागाः (१९४३ ३३ 1 एतावत्परि GRA ६२ ६७ मितं पूर्वोक्तप्रकारेण शोध्यते, स्थितानि पश्चात् त्रिसप्तत्यधिकानि सप्तशतानिं, मुहूर्त्तानाम्, एकस्य च मुहर्तम्य पोडा द्वापष्टिभागाः, एकस्यच द्वापष्टिभागस्य पट् चत्वारिंशत् सप्तपष्टि नागा. ka 1 ६२ मुहूर्तस्य चतुर्विगन्या द्वापष्टिमांगे, -200) Mas ४६ । तत एतस्माद् रागे:- चतुश्चत्वारिशदधिकसप्तशत मुहूर्त्तेः, एकस्य च ६७ एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पट्पष्टत्रा सप्तपष्टिभाग *) अपात आरभ्य आर्द्रापर्यन्तानि नक्षत्राणि शोध्यानि, पश्चादवतिष्ठन्ते (७२४- २४ ६६, ર્ ६७ अष्टाविंशतिर्मुहूर्ता, एकस्य च नुहत्तस्य त्रिपञ्चाशद् द्वापष्टिभागा, एकस्य च द्वापष्टिभाग Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीकामा १०प्रा प्रा २२सू.८ च.सू. वा केन न. पौर्णमासीपरिसमापयति ४५५ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwww wwwwwwwww स्य सप्तचत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागाः (२८-१३।१७) ततः पुनर्वसुनक्षत्रस्य पञ्चचत्वारिंशन्मु हुर्तात्वमकत्वात्पुनर्वसु नक्षत्रस्य पोडासु मुहूर्तेपु, एकस्य च मुर्तस्याष्टसु द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य विंशतौ सप्तपष्टिभागेपु ( १६-०) शेपेषु सूर्यों द्वादशी ६२१६७ पौर्णमासी परिसमापयतीति । अथ युगस्य पर्यन्तवत्तिन्यां चरमायां द्वापष्टितमायां पौर्णमास्यां चन्द्रनक्षत्रयोगमाह-'ता 'एएसि णं' इत्यादि, गौतमः पृच्छति 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषां खलु 'पंचण्डं संवच्छराण' पञ्चानां संवत्सराणं मध्ये 'चरम' 'चरमां' युगपर्यन्तवर्तिनीं 'वावर्टि' द्वापष्टि-द्वापष्टितमां 'पुण्णमासिणि' पौर्णमासी 'चंदे' चन्द्रः 'केणं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेणायुक्तः सन् 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति ? भगवानाह-'उत्तरासादाहि' उत्तरापाढा याम् अत्राप्यत्य द्वितारकत्वाद् द्विवचनम् उत्तरापाढानक्षत्रेण सह योग युञ्जन् चन्द्रः चरमां द्वापष्टितमां पौर्णमासी समापयतीति भावः । तदेव स्पष्टयति 'उत्तरासाढाणं उत्तरापाढयोः उत्तरापाढानक्षत्रस्य 'चरमसमए' चरम समये सर्वान्तिमवेलायां चन्द्रश्चरमां द्वापष्टितमां द्वापष्टितमां पौर्णमासी परिसमापयतीति तदेव दर्शयति-स एव ध्रुवराशिः ६६।५।१ । चरमद्वापष्टितमपौर्णमास्या श्चिन्त्यमानत्वात् द्वापष्टया गुण्यते, जाता द्विनवत्यधिकचत्वारिंशच्छतमुहूर्ता., एकस्य च मुहूर्तस्य दशोत्तरत्रिशतसंख्यका द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टि भागस्य द्वापष्टिः सप्तपष्टिभागाः (१०९२-३१० । ६२) ६२ ६७ तत एतस्माद् 'अट्ठसयउगुणवीसा, सोहणगं उत्तराणसाढाणं । चउवीसं खलु भागा छावट्ठी चुण्णियाओ य ॥१॥ अष्टशतानि एकोनविंशानि । एकोनविंशत्यधिकाष्टशतानि (८१९) शोधनकम् उत्तराणामापाढानाम् चतुर्विशतिः खलु भागाः, पट्पष्टि चूर्णिकाश्च ॥ इतिच्छाया । तत्र एकोनविंशत्यधिकाष्टशतमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशति द्वापिष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पद पष्टिः सप्तपष्टिभागाः (१९-७ । १५ । इत्येवं प्रमाणमेकं सकल नक्षत्र ६२६७ पर्यायशोधनकं पञ्चामे गुणयित्वा शोध्यते, पूर्वोक्तप्रकारेण शोध्यमानं च तत् परिपूर्ण शुद्धिमपैतीति न किञ्चिदवशिष्यते तत आगतम्-उत्तरापाढानक्षत्रं परिपूर्ण चन्द्रेण सह योगं युञ्जन् चरमसमये चरमां द्वापष्टितमा पौर्णमासी परिसमापयतीति । । साम्प्रतमस्यामेव चरमायां द्वाषष्टितमायां पौर्णमास्यां सूर्यनक्षत्रयोगमाह-'तं समयं च णं' इत्यादि, गौतमः पृच्छति-यस्मिन् समये चन्द्रश्चरमद्वाषष्टितमपौर्णमासी परिसमापयति 'तं स . Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ चन्द्रप्रशतिसूत्रे 2 च णं' नस्मिन् समये च खल 'सूरिए' सूर्य: 'केणं णक्खत्तेणे' केन नक्षत्रेण सह युक्तः सन् चरमद्वापष्टितमां पौर्णमासी परिसमापयति ? भगवानाह - 'ता पुस्सेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् ' पुस्सेण' पुष्येण पुष्यनक्षत्रेण सह योगं युञ्जन् सूर्यश्वरमा द्वापष्टितमां पौर्णमासीं परिसमापयती ति भावः । तदेत्र स्पष्टयति - ' पुस्सस्स ' पुण्यस्य पुष्यनक्षत्रस्य 'एगूणवीसं मुहुत्ता' एकोन विंगतिर्मुहर्त्ताः, 'तेतालीस च वावद्विभागा मुहुत्तस्स' त्रिचत्वारिंगण्च द्वापष्टिभागा मुहूर्त्तस्य, 'वावद्विभागं च ' द्वापष्टिभागं च 'सत्तट्ठिहा छित्ता' सप्तषष्टिधा छित्वां विभज्य ' तेत्तीस - ४३ चुणिया भागा' त्रयस्त्रिंशच्चूर्णिका भागाः (१९ – 1 ३३) ६२ ६७ T युम्तदा सूर्यश्चग्मां द्वापष्टितमां पौर्णमासी परिसमापयतीति भाव' । कथमेतदवसीयते ? इत्याह-स एव ध्रुवरागि ६६ । ५ । १ । द्वापष्टि पौर्णमासी चिन्तायां द्वापष्ट्या गुण्यते जातानि द्विनवत्यधिकानि चत्वारिंशच्छतानि मुहूर्त्तानाम्, एकस्य च मुहूर्त्तस्य दशोत्तराणि त्रीणि शतानि द्वषष्टि ६२) । भत्र पुष्यस्य भागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वापष्टिः सप्तपष्टिभागाः (४०९२-३१० I ६२ ६७ त्रिजन्मुहूर्त्तात्मकत्वा दानु मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टादशसु द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशति सप्तषष्टिभागेपु १० । १८ । ३४ । अतिक्रान्तेषु पाश्चात्ययुगं परिसमाप्तिमेति, तदनन्तरमन्यद् युग प्रवर्त्तते । पुष्यस्यापि च तावन्मात्रादतिक्रान्तात् परतो यावद् भूयोऽपि तावन्मात्रस्य पुष्यस्यातिक्रमो भवेत्तावप्रमाण एकः परिपूर्णो नक्षत्रपर्यायो जायते, तस्य च प्रमाणम् - एकोनविंशत्यधिकानि अष्टौ शतानि मुहूर्त्तानाम्, एकस्य च मुह्त्तस्य चतुर्विंशति द्वष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पट्ट्षष्टिः सप्तपष्टिभागाः (८१९ २४ । ६६) । एतच्च पञ्चभिर्गुणयित्वा 1 ६२ ६७ प्रागुक्तात् ध्रुवगशे: ( ६६ । ५ । १ । ) द्वापष्टिगुणितात् (४०९२ । ३१० । ६२) शोध्यते, तच्च परिपूर्ण शुद्धयति, पश्चान्च गगि निर्लेपो जायते, ततः पुण्यस्य त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकत्वात्तस्य सूर्येण युक्तस्य दशमु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टादशसु द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्लिगते सप्तषष्टिभागेषु अनिक्रान्तेषु (१० - १८ । ३४), तथा एकोनविंशतौ च मुहूर्त्तेषु ६२ ६७ एकस्य च मुहूर्तम्यविचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तष्टि भागेषु ( १९१८ R 1 ९) । 'सेसा' शेपा अवशिष्टास्तिष्ठे ३३ ) शेपेषु चरमा द्वाषष्टितमां पौर्णमासीं परिसमाप्ति प्राप्तवानिति | सूत्र ||८|| ૭ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीकाप्रा. १० प्रा० प्रा. २२.९ सू.च. योरमावास्यापरिसमाप्तिनिरूपणम् ४५७ नदेवमुक्त; पौर्णमासींविषय चन्द्रनक्षत्रयोगः सूर्यनक्षत्रयोगश्च । साम्प्रत ममावास्याविषयं चन्द्रनक्षत्रयोग सूर्यनक्षत्रयोगं च प्रतिपादयन् प्रथमं प्रथमाममावास्याविपयं सूत्रमाह - 'एएसि गं' इत्यादि । मूलम् - ता एएसि णं पंचं संवच्छरणं पढसं अमावासं चंदे केणं णक्खत्तेण जोइए ? ता अस्सेसाहिं अस्सेसाणं एको मुहुत्तो चत्तालीसं च वाद्विभागा मुहुत्तस्स, बावद्विभागं चट्टा छावही चुणियाभागा सेसा । तं समयं च णं सूरिए केणं णक्खत्तेणं जोइए ? ता अस्साहि चैव, अस्सेसाणं एक्को मुहुत्तो, चत्तालीसं च चावद्विभागा मुहुत्तस्स, बाव द्विभागं च सत्ता छित्ता छाबट्टी चुण्णियाभागा सेसा । ता एएसि ण पंचहं संवच्छरणं दोच्चं अमावासं चढ़े केण णक्खत्तेण जोइए ? ता उत्तराफग्गुणीहिं, उत्तराफग्गुणीणं चत्तालीस सुहुत्ता, पणतीस वावद्विभागा मुहुत्तस्स, बावद्विभागं च सत्तद्विहा छित्ता पण्णी चुणिया भागा सेसा । तं समयं च णं सूरिए केणं णक्ख तेण जोएइ ? ता उत्तराफग्गुणीहिं, चेच उत्तराफग्गुणीणं जहेव चंदस्स । ता एएसिणं पंचन्हं संवच्छरणं तच्चं अमावास चंदे केण णक्खत्तेण जोएइ ? ता हत्थेहि, हत्थाणं चत्तारि मुहुत्ता तीसं च वावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, वावद्विभागं च सत्तट्टा छित्ता बावट्ठी चुण्णिया भागा सेसा । तं समयं चणं सूरिए केणं णक्खणं जोएइ ? ता हत्थेहिं चैव हत्थाणं जहा चंदस्स । ता एएसिणं पंचण्ं संवच्छराणं दुवालसमं अमावासं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? अद्दाए, अद्दाए चत्ता - रिमुहुत्ता, दसय वाद्विभागा मुहुत्तस्स, वावद्विभागं च सत्तद्विद्दा छित्ता चउपणं चुण्णिया भागा सेसा । तं समयं च णं सूरिए केणं णक्खत्तेण जीएइ ? ता अद्दाए चेव, अद्दाए जहा चंदस्स । ता एएसिणं पंचहे संवच्छराणं चरमं वावट्ठि अमावासं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ता पुणव्यस्रुर्हि, पुण्णव्वसूणं वावीस मुहुत्ता छायालीस च वावट्टिभागा मुहुत्तस्स सेसा । तं समयं च णं सूरिए केण णक्खत्तेण जोएइ ? ता पुणव्वसुहिं चेव पुण्णव्वसूणं जहा चंदस्स सू० ९ ॥ छाया - तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां प्रथमाममावास्यां चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् अश्लेलाभिः, अश्लेषाणामेको मुहूर्त्तः चतुश्चत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य, द्वापष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा षट्षष्टि चूर्णिका भागाः शेषाः । तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् अश्लेषाभिरेव, अश्लेषाणां च एको मुहूर्तः, चतुश्चत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागा मुहर्त्तस्य, द्वार्षाष्टभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा षट्षष्टिश्चूर्णिका भागाः शेषाः । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां द्वितीयाममावास्यां चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति । तावत् उत्तराफाल्गुनीभ्याम्, उत्तराफाल्गुन्यो चतुश्चत्वा ५८ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ चन्द्रप्रज्ञप्तिस्त्रे रिशन्मत्तः, पञ्चत्रिंशद् द्वापष्टिभागा मुहर्तस्य, द्वापष्टिभागं च सप्तपष्टिधा छित्त्वा पञ्चपटिएचूणिका भागाः शेपाः तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नत्रत्रेण युनक्ति ? तावत् उत्तराफल्गुनी यामेव, उत्तराफाल्गुन्योः यथैव चन्द्रस्य । तावत् पतेपां खलु पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये तृतीयाममावास्यां चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति १, तावत् हस्तैः, हस्तानां चत्वारो मुहाः, त्रिंशच्च द्वापष्टि भागा मुहूर्तस्य द्वापष्टिभागं च सप्तपष्टिधा छित्त्वा द्वापष्टिाचूणिका भागाः शेपाः । तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् हस्तैरेव, हस्तानां यथा चन्द्रस्य । तावत् :पतेपां स्खलु पञ्चानां संवत्सराणां द्वादशीममावास्यां चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? आद्रया, आायाश्चत्वारो मुहूर्ताः, दश च द्वापष्टिभागा मुहर्तस्य, द्वापष्टिभागं च सप्तपष्टिधा छित्त्वा चतुष्पञ्चाशत्चर्णिका भागाः शेपाः । तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् आयव आर्द्राया यथा चन्द्रस्य तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां चरमां द्वापटिममावास्यां चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् पुनर्वसुभिः पुनर्वसूनां द्वाविंशति मुहर्ताः, पट्चत्वारिंशत्र द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य शेपाः । तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति ?, तावत् पुनर्वसुभिरेव, पुनर्वसूनां खलु यथा चन्द्रस्य । सूत्र ॥९॥ व्याख्या--'ता एएसिणं' इति, गौतमः पृच्छति-'ता' तावत् एएसिणं' एतेषां खलु 'पंचण्डं संवच्छराण' पञ्चानां संवत्सराणां-मध्ये 'पढम' प्रथमां युगस्यादिसमयवर्तिनीम् 'अमावासं' अमावास्यां 'चंदे' चन्द्रः 'केणं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण युक्तः 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति ? भगवानाह-'ता अस्सेसाहि' तावत् अश्लेपाभिः सह युक्तश्चन्द्रः प्रथमाममावास्यां परिसमापयतीति भावः ! 'अस्सेसाहि' इति-अश्लेपानक्षत्रस्य पट्तारकत्वात्तदपेक्षया बहुवचनम् ! प्रथमाममावास्या परिसमाप्तिसमये 'अस्सेसाणं' अश्लेपानाम्-अश्लेपानक्षत्रस्य 'एक्कोमुहत्तो' एको मुहूर्तः 'चत्तालीसं च वावद्रिभागा मुहत्तस्स' चत्वारिंशच्च द्वापष्ठिभागा मुहर्तस्य, 'वावद्विभागं च सत्तहिहा छित्ता' द्वापष्टिभागं च सप्तपष्टिधा छित्वा विभज्य 'छावष्टि' पदपष्टिः 'चुणिया भागा' चूर्णिकाभागाः (१-२०६६) 'सेसा' शेषा अवशिष्टा भवेयुस्तदा चन्द्रः प्रथमाममावास्यां परिसमापयतीतिभावः । तत्कथमित्याह सएव ध्रुवराशिः ६६ । ५। १ अत्र प्रथमामावास्या चिन्त्येतेऽतो सौ एकेन गुण्यते, एकेन गुणितं तदेव ६६ । ५ । १ भवतीति, ततएतस्मात्-'बावीसं च मुद्दुत्ता, छायालीसं विसहिभागा य एयं पुणन्यमुस्स य, सोहेयव्वं हवइ पुणं' ॥ १ ॥ छाया-"द्वाविंशति मुहर्ता, पट्चत्वारिंशद् द्विपष्टिभागाश्च । एतत् पुनर्वमोश्च शोधयित्वा भवति पूर्णम्" इति वचनाद द्वाविंशति मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य पढ्चग्वारिंशद् द्वापष्टि भागाः ( २२-१६ ) इत्येतत्प्रमाणं पुनर्वसोः शोधनकं शोध्यते, तत्र पद દર Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीकाप्रा.१०मा प्रा २२सू.९ सू.च. योरमावास्यापरिसमाप्तिनिरूपणम् ४५९ षष्टे मुहूर्तेभ्यो द्वाविंशति मुहर्ताः शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चाच्चतुश्चत्वारिंशत् (४४) तेभ्य एक मुहर्त गृहीत्वा तस्य हापष्टिभागाः क्रियन्ते, ते च द्वापष्टिभागराशौ पञ्चकरूपे प्रक्षिप्यन्ते. जाताः सप्तषष्टिः (६७) एतेभ्य पट्चत्वारिशत् शोध्यन्ते, तिष्ठन्ति शेषा एकविंशतिः, तृतीयो राशिः स एव एककरूपः (४३-२१-१), अत्र त्रिचत्वारिंशन्मुहूर्तेभ्याखशन्मुहूर्ताः पुष्यस्य शोध्याः, स्थिता पश्चात् त्रयोदशमुहूर्ताः, अश्लेपानक्षत्र'चार्धक्षेत्रत्वात् पञ्चदशमुहूर्तात्मकम्, तत आगतम्अश्लेषानक्षत्रस्य एकस्मिन् मुहूर्ते, एकस्य च मुहूर्तस्य चत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेपु, एकं च द्वापप्टिभागं सप्तपष्टिधा छित्त्वा तत्सम्बन्धिषु षट्षष्टिभागेपु शेपेषु चन्द्रः प्रथमाममावास्यां परिसमापयतीति । अथामावास्यया सह सूर्यनक्षत्रयोगमाह-'तं समयं च णं' इत्यादि, 'तं समयं च णं' तस्मिन् समये च खलु यदा चन्द्रः प्रथमाममावास्यां परिसमापयति तदेत्यर्थः, 'सरिए' सूर्यः 'केणं णक्खत्तेण' केन नक्षत्रेण युक्तः सन् 'जोएई' युनक्ति-परिसमापयति ? भगवानाह–'ता अस्सेसाहि' इत्यादि, 'ता' तावत् 'अस्सेसाहि चेव' अश्लेषाभिरेव अश्लेषानक्षत्रणैव सह योगं कुर्वन् सूर्य : प्रश्रमाममावास्यां परिसमापयति । तदेव स्पष्टयति 'अस्सेसाणं' अश्लेपानाम्-अश्लेषानक्षत्रस्य 'एक्को मुहूत्तो' एको मुहूर्तः 'चत्तालीसं च वावद्विभागा मुहुत्तस्स' चत्वारिंशच्च द्वापष्टिभागा मुहूर्त्तस्य' 'चावटिभाग' द्वापष्टिभाग 'सत्तट्टिहा छित्ता' सप्तपष्टिधा छित्त्वा-विभज्य 'छावट्ठी चुण्णियाभागा' पट्पष्टिश्चूर्णिकाभागाः (१-४०६६ ) 'सेसा' शेषा अवशिष्टास्तिष्ठेयुस्तदा सूर्याऽपि प्रथमाममावास्यां परिसमापयति । ___ गौतमः पृच्छति--'ता एससिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् एएसिणं' एतेषां 'पंचण्हं संवच्छराणं' पश्चानां संवत्सराणां मध्ये 'दोच्च अमावासं द्वितीयाममावास्यां 'चंदे चन्द्रः 'केणं णक्खत्तेणं जोएइ केन नक्षत्रेण सह योगं कुर्वन् युनक्ति परिसमापयति ? भगवानाह-'ता उत्तराफग्गुणीहिं' इत्यादि 'ता 'तावत् उत्तराफाग्गुणीहि उत्तराफाल्गुनीभ्याम् सूत्रे प्राकृतत्वाद द्विवचनस्थाने बहुवचनम् उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रेण युक्तः सन् चन्द्रः द्वितीयाममावास्यां परिसमापयति । तदेव स्पष्टयति-उत्तराफग्गुणीणं' उत्तराफल्गुन्योंः 'चत्तालीसं मुहूत्ता' चत्वारिंशन्मुहूर्ताः, 'पणतीसं वावद्विभागा मुहुत्तस्स' पञ्चत्रिशद्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य, 'बावद्विभागं च' द्वापष्टिभागं च 'सत्तहिहा छित्ता' सप्तपष्टिधा छित्त्वा 'पण्णट्ठीचुणिया भागा' पञ्चषष्टिर्णिकाभागाः (४०-३५६५ 'सेसा' शेषाः अवशिष्टा भवेयुस्तदा चन्द्रो द्वितीयामावास्यां परिसमापयतीति ६२६७ भावः तथाहि–स एव ध्रुवराशिः ६६ । ५। १ । द्वितयाममावास्याश्चिन्त्यमानत्वाद् द्वाभ्यां गुण्यते, जातं द्विगुणम्-द्वात्रिंशदधिकं मुहूर्तशतम् एकस्य च मुहूर्तस्य दश द्वापष्टिभागाः, ६२/६७ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० चन्द्रप्राप्तिसूत्र एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तपष्टिघा विभक्तस्य द्वौ चूर्णिकाभागौ ( १३२-१२ अस्मात् प्रथम पुनर्वसु शोधनकं शोध्यते, तथाहि दृत्रिंशदधिका मुहूर्तशतात् द्वाविंशतिर्मुहर्ताः शोध्यन्ते, स्थितं पश्चादृशोत्तरं शतधिकम्, अस्मात् एक रूपं गृहीत्वा तस्य द्वापष्टिभागाः क्रियन्ते, ते च द्वापष्टिभागाः दशकरूपे द्वापष्टिभागराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जाता द्विसप्ततिापष्टिभागाः, तेभ्यः पट्चत्वरिंशत् गोध्यन्ते, स्थिताः पश्चात पड्विशतिः, नवोत्तरात मुहूर्तशतात् त्रिंशन्मुहूर्ताः पुप्यस्य गोध्यन्ते, स्थिता पश्चादेकोनाशीतिः, अस्मादपि राशेः पञ्चदशमुहर्ता अलेपायाः शोध्यन्ते, स्थिता पश्चाच्चतुप्पष्टिः, ततोऽपि त्रिशन्मुहूर्ताः मधाया शोध्यन्ते स्थिता चतुत्रिंशत् पुनरपि ततस्त्रिंशन्मुहर्ताः पूर्वाफाल्गुन्याः, शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चाच्चत्वारो मुहूर्ताः । ४ । २६ । २ तत उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रं यचर्धक्षेत्रमिति पञ्चचत्वारिंशन्मुहुर्तात्मकम्,' तत इदमागतम्- उत्तराफल्गुनीनक्षत्र चन्द्रयोगयुक्तं स्वस्य चत्वारिशतिमुहूर्तपु, एकस्य च मुहूत्तस्य पञ्चत्रिंशतिपिष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टि भागस्य सप्तपष्टिधा विभक्तस्य पञ्चपष्टौ र्णिकाभागेपु ( ४०-३५६५ शेपेपु द्वितीयाममावास्यां परिसमापयतीति । - ૨૭ साम्प्रतमस्यामेव द्वितीयस्याममावास्याया सूर्यनक्षत्रयोगमाह-गौतमः पृच्छति-'तं समय च ण' इत्यादि, 'तं समयं च णं' तस्मिन् समये च खल द्वितीयाममावास्यायां चन्द्रयोगसमये 'सुरिए' सूर्यरतां द्वितीयाममावास्यां "केणं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण साधं भूत्वा 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति ।। भगवानाह-'उत्तराफग्गुणीहिं चेव' उत्तराफाल्गुनीभ्यामेव सह योगं कुर्वन् सूर्यो द्वितीयाममावान्यां परिसमापयतीति-उत्तराफरगुणीणं' उत्तराफल्गुन्योः 'जहेव चदम्स' यथैव चन्द्ररय यथा द्वितीयाममावास्यायामुत्तराफाल्गुनीनक्षत्रेण सह चन्द्रयोगविपये मुहूर्तादिकं प्रतिपादित नथैवात्रापि द्वितीयाममावास्यायां सूर्ययोगविपयेऽपि वक्तव्यम् यथा उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रस्य चन्वारिशन्गृहत्तां., एकस्य च मुहर्तस्य पञ्चपष्टिश्चूर्णिकाभागा (१०३५/६५) यदा शेषा भवेयुरतदा द्वितीयाममावास्यां सूर्योऽपि परिसमापयति । अत्रामावास्याप्रकरणे चन्द्रयोगसदृशमेव मृययोगविण्येऽपि सर्व वक्तव्यम् करणस्य समानत्वात्, एवमग्रेऽपि ज्ञातव्यमिति ।२। अथ नृतायाममावास्याविषयकं सूत्रमाह-'ता एएसिणं' इत्यादि, गौतमः पृच्छति- 'ता' । नायत 'एनिणं' एतयां खलु 'पंच संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'तच्चं अमावासं' ।। नृतीयाममावान्यां 'चंदे' चन्द्रः 'कणं णक्खत्तण' केन नक्षत्रेण युक्तः सन् 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयने । भगवानाह-'ता हत्येहिं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'हत्येहिं' हस्तः पञ्चतारकात्मकेन Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AM ६२०६७ चन्द्रशप्तिप्रकाशिकाटीकाप्रा.१०प्रा.प्रा २२सू ९ सू च योरमावास्यापरिमाप्तिनिरूपणम् ४६१ हस्तनक्षत्रेण सह युक्तश्चन्द्रस्तृतीयाममावास्यां परिसमापयति । तदेव स्पष्टयति--'हत्थस्स' इत्यादि 'इत्थस्स' हस्तनक्षत्रस्य 'चत्तारि मुहुत्ता' चत्वारो मुहूर्ताः 'तीसं च बावद्विभागा मुहुत्तस्स' त्रिंशच्च द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य, तथा 'वावद्विभागं च' द्वापष्टिभागं च 'सत्तहिहा छित्ता' सप्तपष्टिधा सप्तपष्टिभागः छित्त्वा विभज्य तत्सम्बन्धिनः 'बावट्टीचुण्णियाभागा' द्वापप्टिवर्णिकाभागाः (४-३०-२)यदा 'सेसा' शेषा अवशिष्टारिष्ठेयुस्तदा चन्द्र स्तृतीयाममावास्यां परिसमा पयति । तथाहि-स एव ध्रुवराशिः ६६।५।१। तृतीयाममावास्याऽ चिन्त्यतेऽतस्त्रि भिर्गुण्यते तदा जातम्--अष्टानवन्यधिकं मुहर्तशतम् . एकरय च मुहर्तस्य पञ्चदशद्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषप्टिभागस्य त्रयः सप्तपष्टिभागा' (१९८१५।३), एतरमाच्च राशेः द्विसप्तत्यधिकेन मुहूर्त्तशतेन, एकस्य च मुहूर्तस्य पटचत्वारिशता द्वापष्टिभाग (१७२ -४६) मालेपात आरभ्य उत्तराफाल्गुनी पर्यन्तानि चत्वारि नक्षत्राणि शोध्यन्ते, गोधिते च पश्चादवतिष्ठन्ते पञ्चविशतिर्मुहतो, एकस्य मुहूर्तस्य एकत्रिंगद् द्वापष्टिभागा', एकस्य च दापष्टिभागस्य त्रयः सप्तपष्टिभागाः (२५।३१।३) तत आगतम् हस्तनक्षत्रचन्द्रेण सह योग युजन् सत् स्वस्य त्रिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् चतुर्प मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिंशति द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुःपष्टौ सप्तपष्टिभागेषु शेपेषु (४।३०६४) तृतीयाममावास्यां परिसमापयतीति ।। ___ अथ सूर्येण सह नक्षत्र योगमाह--'तं समयं च णं' इत्यादि 'तं समयं च णं' तस्मिन् समये च खलु चन्द्रस्य तृतीयाममावास्या परिसमाप्तिवेलायां 'सरिए' सूर्यः 'केणं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण युक्तो भूत्वा तृतीयाममावास्यां 'जोएई' युनक्ति परिममापयति ? भगवानाह-- 'ता हत्थेणं चेव' तावत् हस्तेनैव, सूर्योऽपि चन्द्रवत् हस्तनक्षत्रेणैव युक्तो भूत्वा तृतीयाममावास्यां परिसमापयति । तदेवाह-'हत्थस्स' हस्तस्य हस्तनक्षत्रस्य इत्यादि सर्व 'जहा चंदस्स' यथा चन्द्रस्य कथितं तथैवात्राप्यवसेयमिति यत उभयोरपि चन्द्रसूर्ययोः करणस्यात्र समानार्थत्वमिति । अथ द्वादश्या अमावास्याया विपये चन्द्रसूर्यनभन्योगसूत्रमाह-'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसिणं एतेषां खलु पंचण्हं संवच्छराणं' पञ्चानां सवत्सराणां मध्ये 'दुवालसं' द्वादशीम् 'अमावासं अमावास्यां 'चंदे' चन्द्रः 'केणं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण युक्तः सन् 'जोएई' युनक्ति परिसमापयति ? भगवानाह--'अहा' आर्द्रया आनक्षत्रेण सह युक्तो भूत्वा चन्द्रो द्वादशीममवास्यां परिसमापयति । तदेव स्पष्टयति-'अदाए' आर्द्रायाः 'चत्तारि मुहुत्ता' चत्वारो मुहूर्ता, 'दसय वावद्विभागा मुहत्तस्स' दश च द्वापण्टिभागा मुहूर्तस्य 'वावद्विभागं च' द्वाषप्टिभाग च 'सत्तटिहा छित्ता' सप्तपष्टिधा छित्त्वा विभज्य तत्सम्बन्धिनः 'चउप्पण्णं चुणियाभागा' चतुष्पञ्चा शच्चूर्णिकाभागाः (४- यदा 'सेसा' शेषा अवशिष्टा भव्युस्तदा चन्द्रो द्वादशीममावा १०.५४ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દર चन्द्रप्राप्तिसूत्रे स्यां परिसमापयतीति भावः तथाहि--अत्रापि स एव ध्रुवराशि:-६६।५।१। द्वादश्यमावास्यायाश्चिन त्यमानत्वाद् द्वादशभिर्गुण्यते जातानि द्विनवत्यधिकानि मुहूर्तशतानि, एकस्य च मुहूर्तस्य द्वापष्टिभागा ( ७९२ )एतस्माद राशेः द्विचत्वारिंशदधिकानि चत्वारि मुहूर्तशतानि, एकस्य च ६२/६७ मुइतस्य पट्टचत्वारिंशद् द्वापष्टिभागाः (४४२-४६) अश्लषात आरभ्य उत्तराषाढ़ापर्यन्तानां त्रयोदशानां नक्षत्राणां शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चात् पञ्चाशदधिकानि त्रीणि मुहूर्तशतानि, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्दश द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वादश सप्तपष्टि भागाः (३५०।१४.१२) पुनरेतस्माद् राशेः नवोतराणित्रीणि मुहर्त्तशतानि, एकस्य मुहूर्तस्य चतुर्विंशति ६२६७ पिष्टि भागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पष्टिः सप्तष्टिभागाः (३०९/२४६६) अभिजित आरभ्य रोहिणी पर्यन्तानामेकादशानां नक्षत्राणां शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चात् चत्वारिंशन्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहर्तस्य एकपञ्चाशद् द्वाषष्टि भागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य अशोदश सप्तपष्टि भागाः (१०१११.३) एतस्मात् मृगशीर्षस्य त्रिंशन्मुहूर्ताः शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चाद् दश मुहूर्ताः शेपास्त एवेति (१०५११३ ) तत आर्द्रानक्षत्रस्य पञ्चदशमुहूर्तात्मकत्त्वात्तस्य चन्द्रेण सह युक्तस्य चतुर्पु मुहर्तपु, एकस्य च मुहूर्तस्य दशसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुष्पञ्चाशति सप्तपष्टि भागेपु (४२०५४) शेपेषु द्वदशी अमावास्या परिसमाप्तिमुपयातीति । ६२/६७/ ६७ __अथ सूर्यनक्षत्रयोगमाह-'तं समयं च णं' इत्यादि, तं समयं च णं' तस्मिन् समये च हादशामावास्या चन्द्रयोगसमये खल 'सुरिए' सूर्यः 'केणं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण युक्तः सन् दादशोममावास्याँ 'जोएई' युनक्ति परिसमापयति ? भवगवानाह'ता अदाए चेव' इत्यादि, 'ता' नावत् 'अहाए चेव' आयव सूर्योऽपि आर्द्रानक्षत्रेणैव युक्तो भूत्वा चन्द्रवत् द्वादशीममावास्यां परिसमापयनि । तदेवाह-'अदाए' आर्द्रायाः, इत्यादि सर्वं मुहर्तादि प्रमाण 'जहा' यथा येन प्रकाग्ण 'चंदस्स' चन्द्रस्य चन्द्रसूत्रे कथितं तथैवात्रापि विज्ञेय मिति । ___ अथ चरमद्वापष्टितमाममावास्याविषयं सूत्रमाह-'ता एएसिणं' इत्यादि, गौतमः पृच्छति 'ता' तावत् 'एएसिग' एतेषां खल 'पंचण्डं संवच्छाराण' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'चरिम' चरमा युगपर्यन्तवर्तिनी 'वावटि अमावास' द्वापष्टि द्वापष्टितमाममावास्यां 'चंदे चन्द्रः 'केण णक्स Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिकाटीकाप्रा. १० प्रा. प्रा.२२ सू.९ सू.व. योरमावास्यापरिसमाप्तिनिरूपणम् ४६३ चेणं' केन नक्षत्रेण युक्तो भूत्वा 'जोएइ' युनक्ति परिसमापयति ? भगवानाह - 'ता पुणव्वसुर्हि' इत्यादि, 'ता' तावत् 'पुणञ्चसुहिं' पुनर्वसुभिः पञ्चतारकत्वाद्बहुवचनम् पुनर्वसु नक्षत्रेण सह योगं कुर्वन् चन्द्रश्चरमां द्वाषष्टितमाममावास्यां परिसमापयति । तदेव स्पष्टयति- 'पुणव्वसूणं' इत्यादि, 'पुणव्वसूणं' पुनर्वसूनां पुनर्वसु नक्षत्रस्य ' बावीस मुहुत्ता' द्वाविंशतिर्मुहूर्त्ताः 'छायालीसं च वावविभागा मुहुत्तस्स' षट्चत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य (२२–३ 'सेसा' शेषा अवशिष्टा भवेयुस्तदा चन्द्रः पुनर्वसु नक्षत्रस्य पूर्वोक्त शेषभागयुक्तः सन् चरमां द्वाषष्टितमाममावास्यां परिसमापयति । तथा च स एव ध्रुवराशिः ६६।५ । १ । द्वाषष्टितमाऽमावास्याचिन्तायां द्वाष्टा गुण्यते, जातानि द्विनवत्यधिकानि चत्वारिंशन्मुहूर्त्तानि, एकस्य मुहूर्त्तस्य दशोत्तराणि त्रीणि शतानि द्वापष्टि भागानाम् एकस्य च द्वापष्टि भागस्य द्वाषष्टिः सप्तषष्टि भागाः (४०९२३१० ६२ ६२) । तत एतस्मात् चतुर्भिः शतैर्द्विचत्वारिंशदधिकैर्मुहूर्तानाम् एकस्य च मुहूर्त्तस्य षट्चत्वारिं ६७ शताद्वापष्टि भागैः (४४२–४६) प्रथमं शोधनकं शोध्यते, स्थितानि पञ्चाशदधिकानि षट्त्रिंशन्मु ६३ हूर्त्तशतानि, एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुष्षष्ट्यधिके द्वे शते द्वापष्टि भागानाम्, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वाषष्टिः सप्तषष्टिभागाः (३६५० २६४ (६२1 ) ततोऽभिजित आरम्योत्तराषाढापर्यन्त 1 ६२ ६७ सकलनक्षत्रपर्यायविषयं शोधनकम् एकोनविंशत्यधिकानि अष्ट मुहूर्त्तशतानि, एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशति द्वषिष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागाः (८१९ । २४ । ६६। ), इत्येवं प्रमाणं चतुर्भिर्गुणयित्वा शोध्यते, स्थितानि पश्चात् चतुः सप्तत्यधिकानि त्रीणि शतानि मुहूर्त्तानाम्, एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुष्षष्टयधिकमेकशतं द्वाषष्टिभागानाम्, एकस्य च द्वाष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागाः (३७४ । १६४ । ६६) ततो भूयोऽपि नवोत्त स्त्रिभिर्मुहूर्त्तशतैः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वाषष्टिभागैः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य २४/६६) अभिजित आरभ्य रोहिणी पर्यन्तान्येकादश नक्ष षट्पष्टचा सप्तषष्टिभागैः, (३०९। ६२ ६७ त्राणि शोध्यानि, स्थिताः पश्चात् सप्तषष्टि मुहूर्त्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य षोडश द्वाषष्टि भागाः, (६७) १६), तत त्रिंशन्मुहूर्त्ता मृगशिरसः, पञ्चदश च आर्द्राया इति पञ्चचत्वारिंशन्मुहर्त्ताः Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चाद् द्वाविंशतिर्मुहूर्ताः एकस्य च मुहूर्त्तस्य षोडश द्वापष्टि भागाः (२२। १६) । तत आगतम्-पुनर्वसुनक्षत्रं पञ्च चत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकं, ततस्तस्मात् द्वाविंशति मुहूर्तेषुतत्सम्बन्धिषु पोडशसु द्वापष्टिभागेषु (२२ । १६), व्यतिक्रान्तेषु, तथा द्वाविंशतौ मुहर्तेषु, एकस्य मुहूर्तस्य च पट्चत्वारिंशति द्वापष्टि भागेपु (२२। ४६ । शेपेषु पुनर्वसुनक्षत्रं चन्द्रेण युक्तं सत् चरमा द्वापष्टितमाममावास्यां परिसमापयतीति । एतदेव सूर्यविपयं सूत्रमाह-'तं समयं च णं' इत्यादि, गौतमः पृच्छति 'तं समयं च णं' तस्मिन् चन्द्रस्य द्वापष्टितमाऽमावास्यापरिसमाप्तिसमये च खलु 'सरिए' सूर्यः 'केणं णक्खत्तेण केन नक्षत्रेण सह युक्तो भूत्वा 'जोएई' युनक्ति परिसमापयति ? भगवानाह-'ता पुण्णवमुहि चेव' तावत् पुनर्वसु नक्षत्रेणैव युक्तो भूत्वा सूर्यो द्वापष्टितमा चरमाममावास्यां परिसमापयतीति मावः । कथमित्याह-'पुणबसूर्ण' पुनर्वसूनां . पुनर्वमुनक्षत्रस्य खलु, इत्यादि मुहूर्त्तादिकं सर्व 'जहा चंदस्स' यथा चन्द्रस्य शेपत्वेन प्रोक्तं तथैव वाच्य मिति । सूत्रम् ॥९॥ तदेवं चन्द्रसूर्ययोरमावास्या परिसमाप्तिविषयकं प्रकरणं प्रोक्तम्, साम्प्रतं यन्नक्षत्र तादृशनामकं, तदेव वा, तास्मिन्नेव देशेऽन्यस्मिन् वा देशे यावत्परिमितकालमाश्रित्य पुनश्चन्द्रेणसह योगं युनक्ति तावन्त कालं निर्दिगन्नाह-'ता जे णं अज्जनक्खत्तेणं' इत्यादि । मूलम्-ता जे णं अज्जणक्खत्तेण चंदे जोयं जोएइ, जंसि देसंसि से णं इमाणि अट्ठ एगृणवीसाई मुहुत्तसयाई, चउवीसं च बावठिभागे मुहुत्तस्स, वावद्विभागं च सत्तहिा छित्ता छाब िच चुणिया भागे उवाइणावित्ता पुणरवि से चंदे अण्णेणं सरिसएणं चेव णक्यतण जोयं जोएइ अण्णंसि देसंसि । ता जे ण अज्ज णक्खत्तेण चंदे जोयं जोएइ जसि देसंसि से ण इमाई सोलसअट्ठतीसाइं सुहृत्तसयाई अउणापण्णं च वावट्ठिभागे मुहुत्तस्स, वावटिमागं च सत्तहिहा छित्ता पण्णहिं चुण्णियामागे उवाइणावित्ता पुणरवि से णं चंदे ते णं चेव णक्खत्तेणं जोएइ अण्णंसि देसंसि । ता जे णं अज्जणक्खत्तण चंद जोयं जोएड जसि देसंसि से णं इमाई चउप्पण्णमुहुत्तसहस्साई णव य मुद्दत्त सयाई उवादणाविना पुणरवि से चंदे अण्णेणं तारिसएणं चेव णक्खत्तेण जोय जोएड तंसि टेममि । ना जेणं अज्ज णक्खत्तेण चंदे जोयं जोएड जंसि देसंसि से णं इमाई एग मुहुत्तमयसहस्स अट्टाणउडंच मुहत्तमयाई उवाडणावित्ता पुणरवि से चंदे ते णं चेव णवत्तंण जोयं जोएट तंसि देमंसि । ता जेणं अज्ज णक्खत्तेण सूरिए जोयं जोएइ जसि देसंमि से ण इमाई तिणि छाबट्टाई राउंदियसयाई उवाइणावित्ता पुणरवि से मूरिए अग्ण तारिसएणं चेव णखत्तण जोयं जोएइ तसि देससि । ता जे णं अज्ज नक्सत्तेणं सुरिण जोयं जोएड जंसि देसंसि से ण इमाई सत्त दुधीसाई राई Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीकाप्रा. १०प्रा मा २२सू. १० नक्षत्रेण सह योगकालनिरूपणम् ४६५ दिवसयाई उवाइणा वित्ता पुणरवि से सूरिए तेणं चेव णक्खत्तेणं जोय जोएइ तसि देसंसि । ता जेणं अज्ज णक्खत्तेण सूरिए जोयं जोएइ जंसि देसंसि से णं इमाई अहारसतीसाई राईदियसयाई उवाइणावित्ता पुणरवि सूरिए अण्णेणं तारिसएणं चैव णक्खत्तेण जोयं जोएड़ तंसि देसंसि । ता जेणं अज्ज णक्खत्तेणं सूरिए जोयं जोएइ जैसि देसंसि सेणं इमाई छत्तीसं सहाइ राईदियसयाई उवाइणावित्ता पुणरवि से : सूरिए तेणं णक्खत्तेणं जोयं जोएइ तंसि देसंसि सू० ॥ १०॥ छाया तावत् येन अद्य नक्षत्रेण चन्द्रः योगं युनक्ति यस्मिन् देशे स खलु इमानि अट एकोनविंशानि मुहर्त्तशतानि चतुर्विंशतिं च द्वापष्टिभागान् मुहर्त्तस्य, द्वापष्टिभा च सप्तधा छत्वा पष्टि चूर्णिकाभागान् उपादाय पुनरपि स चन्द्रः अन्येन सदृश hra नक्षत्रेण योगं युनक्ति अन्यस्मिन् देशे । तावत् येन अद्यनक्षत्रेण चन्द्रः योगं युनक्ति यस्मिन् देशे स खलु इमानि पोडश अप्रत्रिंशानि मुहत शतानि एकोनपञ्चा शापभागान् मुहर्त्तस्य, द्वापष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा पञ्चषष्टिं चूर्णिका भागान् उपादाय पुनरपि स खलु चन्द्रः तेनैव नक्षत्रेण योगं युनक्ति अन्यस्मिन् देशे । तावत् येन अद्यनक्षत्रेण चन्द्रः युनक्ति यस्मिन् देशे स खलु इमानि चतुष्पञ्चाशन्मुहूर्त्त - सहस्राणि नवे च मुहर्त्तशतानि उपादाय पुनरपि स चन्द्रः अन्येन तादृशेनैव नक्षत्रेण योगं युनक्ति तस्मिन् देशे । तावत् येन अद्यनक्षत्रेण चन्द्रः योगं युनक्ति तस्मिन् देशे स खलु इमानि एकं मुहर्त्तशतसहस्रम् अष्टानवतिं च मुहर्त्तशतानि उपादाय पुनरपि स चन्द्रः तेनैव नक्षत्रेण योगं युनक्ति तस्मिन् देशे तावत् येन अथ नक्षत्रेण सूर्य योगं युनक्ति यस्मिन्देशे स खलु इमानि त्रीणि पट्षष्ठानि रात्रिन्दिवशतानि उपादाय पुनरपि स सूर्यः अन्येन तादृशेनैव नक्षत्रेण योग युनक्ति तस्मिन् देशे ' । तावत् येन अद्यनक्षत्रेण सूर्यः योगं युनक्ति तस्मिन् देशे स खलु इमानि सप्तद्वाविंशानि रात्रि न्दिवशतानि उपादाय पुनरपि स सूर्यः तेनैव नक्षत्रेण योगं युनक्ति तस्मिन् देशे येन अयनक्षत्रेण सूर्यः योगं युनक्ति यस्मिन् देशे स खलु इमानि अष्टादश त्रिंशानि रात्रिन्दिवशतानि उपादय पुनरपि सूर्यः अन्येनैव नक्षत्रेण योगं युनक्ति तस्मिन् देशे । तावत् येन अद्य नक्षत्रेण सूर्यः योगं युनक्ति यस्मिन् देशे स खलु इमानि षट्त्रिंशत् पष्टानि रात्रिन्दिवशतानि उपादाय पुनरपि स सूर्यः तेनैव नक्षत्रेण योग युनक्ति तस्मिन् देशे ॥ सू० १०॥ ''। व्याख्या- 'ता जेणं' इति, 'ता' तावत् 'जे णं अज्ज णक्खत्तेणं' येन नक्षत्रेण अथ विवक्षिते दिने ‘चंदे' चन्द्रः 'जोयं जोएड़' योगं युनक्ति करोति 'जंसि देसंसि ' यस्मिन् देशे, 'से णं' स खलु चन्द्रः 'इमाई' इमानि वक्ष्यमाणसंख्यकानि कियत्संख्यकानीत्याह - अट्ठएगूणबीसाईं मृहुत्तसयाई' एकोनविंशत्यधिकानि अष्टौ मुहूर्त्तशतानि ' मुहुत्तस्स' एकस्य च मुहूर्त्तस्य 'चउवीसे 'वावद्विभागे' 'चतुर्विं गतिं द्वापष्टिभागन् 'वावद्विभागं च ' एकं द्वाषष्टिभागं च 'सत्ता छित्ता' सप्तषष्टिधा सप्तपष्टिविभागैः छित्त्वा - विभज्य तत्सम्बन्धिनः 'छावट्टि च चुण्णियाभागे' षष्टिच' 'चूर्णिकाभागान् सप्तषष्टिभागान् 'उवाइणा वित्ता' 'उपादाय गृहीत्वा 'अतिक्रम्येत्यर्थः ५९ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२/६७ ४६६ . चन्द्रप्राप्तिसूत्रे 'पुणरवि से चंदें पुनरपि स चन्द्रः 'अण्णेणं सरिसएणं चेव णक्खत्वेणं' अन्येन अपरेण सदृश केनैव सदृशनामकेन नक्षत्रेण 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति-करोति, कुत्रेत्याह 'अण्णंसि देसंसि अन्यस्मिन् देशे, न तु तत्रैवेति । अत्रेयं भावना-इह चन्द्र-सूर्य-नक्षत्राणां मध्ये नक्षत्राणि सर्व शीघ्रगतीनि, तेभ्यः सूर्या मन्दगतयः, तेभ्योऽपि चन्द्रामन्दगतयः, एतच्चाने सूत्रकारः स्वयमेव वक्षति षट् पञ्चाशन्नक्षत्राणि प्रतिनियतापान्तरालदेशस्थितानि चक्रवालमण्डलतया व्यवस्थितानि सदाकालमेकरूपतया परिभ्रमन्ति तत्राष्टाविंशतिनक्षत्रेषु किल युगस्यादौ चन्द्रोऽभिजिन्नक्षत्रेण सह योग प्राप्नोति स च चन्द्रोऽभिजिन्नक्षत्रयोगमुपागतः सन् शनैः शनैः पश्चादवप्वष्कते अपसरति तस्य नक्षत्रेभ्योऽतीवमन्दगतित्वात, ततो नवानां मुहूर्तानाम्, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशति द्वापष्टि भागानाम् एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पट्पष्टिसप्तपष्टिभागानाम् (९-१) अतिक्रमे पुरतः श्रवणेन सह योगमुपगच्छति ततस्ततोऽपि शनैः शनैः पश्चादवप्वष्कमान स्त्रिंशता मुहूर्तः श्रवणेन सह योग समाप्य पुरतो धनिष्ठया सह योगं करोति । एवं नक्षत्राणां स्वं स्वं मुहूर्त्तस्थितिकालमाचक्ष्य सर्वैरपि नक्षत्रैः सह योगकारणं वक्तव्यं यावत्--उत्तरापाढानक्षत्रेण सह योगं करोति । एतावता च क्रालेनाष्टौ शतानि एकोनविंशत्यधिकानि मुहूर्तानाम्, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशति द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागपट्पष्टिः सप्तपष्टिभागाः (८१९-४) भवन्ति, तथाहि ૬િ૨૬૭ तत्राष्टाविंशतिनक्षत्रेपु उत्तरा भाद्रपदा १, रोहिणि २, पुनर्वसुः ३, उत्तराफाल्गुनी ४, विशाखा ५, उत्तरापाढा ६ चेति पड् नक्षत्राणि पश्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकानीत्येते षट्, पश्चचत्वारिंशता गुण्यन्ते जाते सप्तत्यधिके द्वे शते (२७०), मुहूर्तानाम् , तथा शतभिषक् १, भरणो २, आर्द्रा ३, अश्लेषा ४, स्वातिः ५, ज्येष्टा ६ चेति पद नक्षत्राणि पश्चदशमुहूर्तात्मकानीति पद, पञ्चदशमिर्गुण्यन्ते जाता नवतिमुहूर्तानाम् (९०) । तथा-श्रवणः १, धनिष्ठा २, पूर्वभाद्रपदा ३, रेवती ४, अश्विनी ५, कृत्तिका ६, मृगशिरः ७, पुष्यः ८, मघा ९, पूर्वाफाल्गुनी १०, हस्तः ११, चित्रा ४२, अनुराधा १३, मूलम् १४, पूर्वाषाढा १५, चेति पश्चदशनक्षत्राणि त्रिंशन्मुहूर्तात्मकानीति पञ्चदश, त्रिंशता गुण्यन्ते जातानि पश्चाशदधिकानि चत्वारि शतानि (१५०) मुहर्तानाम् । तथा शेपमेकमभिजिन्नक्षत्रं, तच्च चतुर्विंशति द्वापष्टिभाग-पट् पष्टि सप्तपष्टिभाग युक्त नव मुहूर्तात्मकम् (९२३६६), तत एकस्यैतत्प्रमितेन गुणने जातं तदेव (९।२४।६६) . २४६६ एवं सर्वेषामष्टाविंशनिनक्षत्रमुहूर्तानामेकत्रमीलने यथोक्ता (८१९ ६६) मुहूर्तसंख्या । एप Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीकाप्रा.१०प्रा०प्रा.२२सू.१० नक्षत्रेण सह योगकालनिरूपणम् ४६७ एतावत्परिमितो नक्षत्रमासः । तत एतद् योगपरिसमाप्त्यनन्तरं यद् अभिजिन्नक्षत्रमतिक्रान्तं तदपरेण द्वितीयेनामिजिनक्षत्रेण सह नवमुहूर्तादिकालं चन्द्रो भोगमुपागच्छति ततः परमपरेण द्वितीयेनाष्टाविंशतिनक्षत्रसम्बन्धिना श्रवणनक्षत्रेण सह चन्द्रो योगमश्नुते, एवं पूर्ववदेव तावद् वाच्यं यावदुत्तरापादानक्षत्रम् । तदनन्तरं भूयः प्रथमेनवाभिजिन्नक्षत्रेण सह योगमुपागच्छति । ततः प्रागुक्तक्रमण श्रवणादिभिः एवं सकल कालमपि विजेयम् ततो विवक्षिते दिने यस्मित् देशे येन नक्षत्रेण सह चन्द्रो योगमगच्छत् , स यथोक्त-मुहूर्तसंख्यातिक्रमे पुनस्तादृशेनैवापरेण नक्षत्रेण सह अन्यस्मिन् देशे योगमश्नुते किन्तु न तेनैव नापि च तस्मिन् देशे इति पुनरप्याह-'ता जेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'अज्ज' अद्यविवक्षिते दिने 'जेणं णक्खत्तेणं' येन नक्षत्रेण सह 'चंदे' चन्द्रः 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति-करोति 'जंसि देससि' यस्मिन् देशे 'से गं' स खलु चन्द्रः 'इमाइ" इमानि वक्ष्यमाणानि, तान्येवाह-'सोलसअतिसाई मुहत्तसयाई' पोडश अष्टत्रिंशानि अष्टत्रिंशदधिकानि पोडश मुहत्तंगतानि 'अउणापण्णं च बावहिभागे मुहत्तस्स' एकोनपञ्चाशतं च द्वाषष्टिभागान् मुहूर्तस्य, तथा 'वाचट्ठिभागं च' एकं द्वापष्टिभागं च 'सत्तट्टिहा छित्ता' सप्तपष्टिघा छित्त्वाविभज्य तत्सम्बन्धिनः 'पण्णहिँ चुणिया भागे' पञ्चपष्टिं चूर्णिकाभागान् (१६३८-१९६५ ) ६२६७ 'उवाइणावित्ता' उपादाय गृहोत्वा अतिक्रम्येत्यर्थः 'पुनरवि' पुनरपि 'से णं चंदे स खलु चन्द्रः 'ते णं चेव णक्खत्तेणं' तेनैव नक्षत्रेण 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति, कुत्रेत्याह-'अण्णसिदेसंसि' अन्यस्मिन् देशो, किन्तु न तस्मिन्नेव देशे । कुतः ? इत्याह इह पुनस्तस्मिन्नेव तेनैव नक्षत्रेण सह योगो युगदृयकालातिक्रमे यथार्थः केवल वेदसा ज्योतिश्चक्रगते रुपलब्धः । जम्बूद्वीपे च पट्पञ्चाशदेव नक्षत्राणि, ततो विवक्षितनक्षत्रयोगे सति तत आरभ्य पट्पञ्चाशन्नक्षत्रातिक्रमे तेन नक्षत्रेण सह योगमश्नुते । पट्पश्चाशन्नक्षत्रातिक्रमश्च प्रागुक्ताष्टाविंशतिनक्षत्रमुहूर्तसंख्याद्विगुणसंख्यया भवति, भष्टाविंशति नक्षत्रमुहर्त्तसंख्या च एकोनविंशत्यधिकानि अष्टमुहूर्तशतानि, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशति-पष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पट् पष्टिः सप्तपष्टिभागाः ( ८१९-२४६६ ) इति प्राक्प्रदर्शितमेव, तद्विगुणा यथोक्ता संख्या भवति, तत उक्तम् 'सोलस अद्वतीसाई मुहुत्तसयाई' इत्यादि । तदेवं तादृशेन तेन वा-नक्षत्रेण सह अन्यस्मिन् यावता कालेण पुनरपि योगः समुपजायते तावान् कालविशेषः प्रतिपादितः, साम्प्रतं तस्मिन्नेव देशे तादृशे तेन वा नक्षत्रोण सह पुनरपि यावता कालेन योगो भवति तावन्तं कालविशेष प्रतिपादयन्नाह-'ता जेणं अज्ज णक्खतेण । ६२/ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रतिसूत्रे ૩૬૮ इत्यादि, 'ता' तावत् ‘जज्ज' अद्य विवक्षिते दिने 'जेणं णक्खत्तेणं' येन नक्षत्रेण 'चंदे' चन्द्रः 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति 'जसि देसंसि' यस्मिन् देशे 'से णं' स खलु चन्द्र: 'इमाई', इमानि वक्ष्यमाणसंख्यकानि, तान्येवाह - 'चउप्पण्णमुहुत्तसहस्साई' चतुष्पञ्चाशन्मुहूर्त्तसहस्राणि 'णवयमुहुत्तसया' नव च मुहूर्त्तशतानि (५४९००) 'उवाइणाविचा' उपादाय अतिक्रम्य 'पुनरवि' पुनरपि भूयोऽपि ' से चंदे' स चन्द्र 'अण्णेणं तारिसएणं चेच णक्खत्तेण' अन्येन तादृशेनैव, नक्षत्रेण 'जोयं जोएईं' योगं युनक्ति करोति, कुत्रेत्याह- 'तंसि देसंसि' तस्मिन्नैव देशे, इति । अत्र भावना 1 त्थम् - विवक्षिते युगे विवक्षितानामष्टाविंशति नक्षत्राणां मध्ये येन नक्षत्रेण सह यस्मिन् देशे यदा चन्द्रस्य योगो जातस्ततो भूयस्तस्मिन्नेव देशे तदैव तेनैव नक्षत्रेण सह योगो विवक्षितयुगादारभ्य - तृतीये युगे भवति, न तु द्वितीये, कुतः ? इत्याह--दह युगादित आरभ्य प्रथमे नक्षत्रमासे एकानि अष्टाविंशतिनक्षत्राणि समतिक्रान्तानि द्वितीयेन नक्षत्रमासेन तेम्योऽपराणि द्वितीयानि, ततो भूयस्तृतीयेन नक्षत्रमासेन तान्येव प्रथमान्यष्टाविंशतिं नक्षत्राणि, चतुर्थेन भूयस्तान्येव द्वितीयानि अष्टाविंशति नक्षत्राणि समतिक्रान्तानीति । एवं सकलकालम् | युगे च नक्षत्रमासाः सप्तषष्टिः । सा च सप्तषष्टिसंख्या विपमेति विवक्षितयुगपरिसमाप्तिकालेऽन्यस्य युगस्य प्रारम्भे यानि विवक्षितयुगस्यादौ भुक्तानि नक्षत्राणि सन्ति तेभ्योऽपरान्येव द्वितीयानि नक्षत्राणि भोगमुपयान्ति, किन्तु न तान्येव युगद्वये च चतुस्त्रिंशदधिकमेकं शतं (१३४) मासानां भवति । सा च चतुत्रिंशदधिकशतसंख्या नक्षत्रमासानां समेति द्वितीय युगपरिसमाप्तिकाले पट्पञ्चाशदपि नक्षत्राणि समाप्तिमुपगच्छन्ति, ततो विवक्षितयुगादारभ्य तृतीये युगे तेनैव नक्षत्रेण तस्मिन्नेव देशे तदा चन्द्रस्ययोगो भवति । युगे चाहोरात्राणामष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि (१८३०) एकैकस्मिश्चाहोरात्रे मुहूर्त्तास्त्रिगद् भवन्तीत्यतस्त्रिशदधिकानामष्टादशशतानां (१८३०) त्रिंशता गुणने भवति यथोक्ता - संख्या चतुष्पञ्चाशद् मुहर्त्तसहस्राणि नवगताधिकानि ( ५४९००), इति । यथोक्तमुहूर्त्त - संख्यातिक्रमे च तादृशेनैव अन्येन नक्षत्रेण सह चन्द्रस्य योगस्तस्मिन्नेव देशे भवति, किन्तु न तेन नक्षत्रेण नान्यस्मिन् वा देशे, इति । पुनरप्याह - 'ता जेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'अज्ज' अद्य 'जे णं णक्खत्तेणं' येन नक्षत्रेण 'चंदे' चन्द्र' 'जोयं जोएड़' योगं युनक्ति 'जंसि देसंसि ' यस्मिन् देशे ‘से णं' स खलु चन्द्रः 'इमाइ' इमानि वक्ष्यमाणसंख्यकानि, तान्येव ' प्रदइर्यन्ते'एगं मुहत्तसयस हस्तं ' एकं मुहूर्तातसहस्रम् 'अट्ठाणउड़ च मुहत्तसयाई' अष्टनवति च मुहूर्तशतानि, अर्थात् एकं लक्ष्य, नवसहस्राणि अष्ट गतानि मुहूर्तानाम् (१०९८००) 'उवाइणावित्ता' उपादाय - अतिक्रम्य, 'पुनरवि' पुनरपि 'से चंदे' स चन्द्र. 'ते णं णक्खततेणं' तेन नक्षत्रेण 'जोयं जोएड' योगं युनक्ति 'तंसि देसंसि' तस्मिन् देशे । भावनापूर्ववदेव, विशेषस्त्वेतावानेव -अत्र युगकाल. - पयधिक पशिन (३६६९ ) प्रमिताऽहोरात्राणामस्ति, तत एप राशिरेकैक - Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीकाप्रा.१०प्रा प्रा २२सू १० सू.च. नक्षत्रेण सह योगकालनिरूपणम् ४६९ स्मिन्नहोरात्रे त्रिंशन्मुहर्ता भवन्तीति त्रिंशता गुण्यते, गुणिते च जायन्ते यथोक्तम्-एक लक्षम् नवसहस्राणि, अष्ट च शतानि (१०९८००) मुहूर्तानामिति । एवं तादृशेन तेन वा नक्षत्रोण सह तस्मिन् देशे, अन्यस्मिन् वा देशे चन्द्रस्य योगकालप्रमाणमभिहितम्, साम्प्रतं सूर्यविपये तदेवाह-'ता जे णं' इत्यादि । 'ता जेणं' इति 'ता' तावत् 'अज्ज' अद्य विवक्षिते दिवसे 'जे णं णक्खत्तेणं' येन नक्षत्रोण सह 'सरिए सूर्य. 'जोयं जोएई' योगं युनक्ति 'जसि देसंसि' यस्मिन् देशे, 'से णं' स खल-स एव सूर्यः 'इमाई' इमानि वक्ष्यमाणसंख्यकानि रात्रिन्दिवानि तान्येवाह-'तिणि छावटाई राइंदियसयाई' त्रीणि पट्पष्टयधिकानि गत्रिदिवशतानि (३६६) पट्पष्टयधिक त्रिशत सख्यकाहोरात्राणि 'उवाइणावित्ता' उपादाय-अतिक्रम्य 'पुणरवि से मूरिए' पुनरपि स सूर्यः 'अण्णेण तारिसएणं चेव णक्खत्तंण' अन्येन तादृशेनैव तत्सदृशेणैव नक्षत्रेण सह 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति किन्तु न तेनैव पूर्वमुक्तेन नक्षत्रोण सह योगं युनक्ति, कुत्र देशे ? इत्याह'तंसि देसंसि' तस्मिन्नेव देशे, नान्यस्मिन् देशे इति भावः । कथमिति चेदाह इह चन्द्र एकेन नक्षत्रमासेनाष्टविंशति नक्षत्राणि भुक्ते, सूर्यस्तु पट्ट्पष्टयधिकैस्त्रिभिरहोरात्रशतैरष्टाविंशति नक्षत्राणि मुक्तेऽतः पट्पष्टयधिकत्रिशताहोरात्रप्रमित एकः सूर्यसंवत्सरो भवति, एवं पट्पष्टयधिकैत्रिभिरहोरात्रगतैरन्यान्यपि द्वितीयान्यष्टाविंशति नक्षत्राणि सूर्यः परिभुइक्ते । तत्पश्चाद् भूयोऽपि तान्येव प्रथमान्यष्टाविंशति नक्षत्राणि तावद्भिरेवाहोरात्रैः क्रमेण सूर्यो योगं युनक्ति, एवं षट्षट्यधिकै त्रिभिशतैरहोरात्रैरतिक्रान्तैः सूर्यस्य तस्मिन्नेव देशे तादृशेनैवापरेण नक्षत्रेण सह योगो भवति किन्तु न तेनैव नक्षत्रेणेति । 'ता जेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'अज्ज' अद्य विवक्षितदिने 'जेणं नक्खत्तेण' येन नक्षत्रेण सह 'सरिए' सूर्यः 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति 'तंसि देसंसि' तस्मिन् देशे से णं स खलु सूर्यः 'इमाई' इमानि वक्ष्यमाणानि, तान्येवाह-'सत्तदुत्तीसाइंराईदियसयाई' द्वात्रिंशदधिकानि सप्तरात्रिन्दिवशतानि (७३२) 'उवाइणावित्ता' उपादायअतिक्रम्य 'पुणरवि' पुनरपि भूयोऽपि 'से सरिए' स सूर्यः 'ते णं चेव णक्खत्तेण' तेनैव नक्षत्रेण सह 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति 'तंसि देसंसि तस्मिन् देशे । भावना प्राकृता, तदनुसारेणात्रापि कर्त्तव्येति । 'ता जेणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'अज्ज' अद्य विवक्षितदिने ' जेणखते येन नक्षत्रोण सह 'सूरिए' सूर्यः 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति कुत्रेत्याह-जंसि देसंसि' यस्मिन् देशे ‘से णं' स खल सूर्यः 'इमाई' इमानि-वक्ष्यमाणानि, कतिसंख्यानीत्याह-'अट्ठारसतीसाईराइंदियसयाई' त्रिंशदधिकानि अष्टादशरात्रिन्दिवशतानि त्रिंशदधिकाष्टादशशत (१८३०) संख्यकाहोगत्रान् ‘उवाइणावित्ता' उपादाय व्यतिक्रम्य पुणरवि पुनरपि भूयोऽपि 'से सरिए' स सूर्यः 'अण्णेणं तारिसेणं चेव णक्खत्तेण' अन्येन-अपरेण तादृशेनैव नक्षेत्रण 'जोयं जो', Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० चन्द्रप्राप्तिसूत्रे योगं युनक्ति न तु तेनैव, कुत्रेत्याह-'तंसि देसंसि' तस्मिन्नेव देशे यत्र देशे सूर्येण पूर्व योगो योजितस्तत्र योग युनक्तीत्यर्थः । कथमिति चे दुच्यते इह युगे त्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि सीत्रन्टिवानां भवन्ति, नत्र मूर्यो विविक्षितदिनादारभ्य तृतीयसंवत्सरे तस्मिन्नेवदेशे तस्मिन्नेव दिवसे तेनैव नक्षत्रेण सह योग युनक्ति । युगे च सूर्यवर्षाणि पञ्च भवन्ति, तत स्तृतीये पञ्चमे वा सूर्यसंवत्सरे मूर्यस्य तेनैव नक्षत्रेण तस्मिन्नेव काले योगो भवति, नतु युगातिक्रमे पष्ठे वर्षे, अत एवोक्तम् 'सूरे अण्णेणं चेव णक्खत्तेणं जोयं जोएइ' इति । 'ता जेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'अज्म' अद्य विवक्षितदिने 'जेणं णक्खत्तेणं येन नक्षत्रेण सह 'सूरिए' सूर्यः 'जोयं जोएइ' योग युनक्ति 'जसि देसंसि' यस्मिन् देशे से णं' स खलु सूर्य इमानि वक्ष्यमाणानि, तान्येवाह'छत्तीसं सहाई राइदियसयाई' पत्रिंशत् पष्टयधिकानि रात्रिन्दिवशतानि पष्टयधिक पत्रिंगच्छतानि (३६६०) रात्रिन्दिवानां भवन्तीति, तानि 'उवाइणाविता' उपादाय-अतिक्रम्य 'पुणरवि' पुनरपि भूयोऽपि 'से सुरिए' स सूर्यः 'तेणं चेव णक्खत्तेणं' तेनैव नक्षत्रेण सह 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति, कुत्रत्याह-'तसि देसंसि' तस्मिन्नेव देशे योगः समुत्पद्यते इति भावः । अयमाशयः-युगद्वये पष्टयधिकानि पत्रिंशच्छतानि रात्रिन्दिवानां भवन्ति, युगद्वये च दश सूर्यवर्षाणि भवन्ति तत एव युगद्वयातिक्रमे एकादशे वर्षे सूर्यस्य तेनैव नक्षत्रेण सह तस्मिन्नेवदेशे योगः समागच्छतीति ॥सूत्र १०॥ अयेह जम्बूद्वीपे द्वौ चन्द्रौ द्वौ सूर्यो, एकैकस्य चन्द्रस्य ग्रहादिपरिवारो भिन्न एव भवतीति श्रुत्वा कश्चिदेवमपि मन्यते यत् मण्डलेपु चन्द्रादीनां गतिर्भिन्नकालिकी भिन्नकालिकश्च तेपा नक्षत्रादिभिः सह योग भवितुमर्हेत् ? इति ततस्तदाशङ्कापनोदार्थमिदमाह-'ता जयाणं इमे चंदे' इत्यादि मूलम्-ता जया ण इमे चंदे गइसमावण्णए भवइ तया णं इयरेवि चंदे गइ समा चण्णए भवड । जया णं इयरेवि चंदे गइसमावण्णए भवइ तयाणं इमे वि चंदे गइ समावण्णए भवट । ता जया णं इमे सूरिए गइसमावण्णए भवइ तया णं इयरेवि सरिए गइ समावण्णए भवद । जया ण इयरे सूरिए गइ समावण्णए भवइ तया णं इमेवि सूरिए गह समावण्णए भवट । एवं गहावि, णवत्तावि । ता जया णं इमे चंदे जुत्त जोएणं भवइ तयाणं टयरेवि चंदे जुत्ते जोएणं भवड । जया ण इयरे चंदे जुत्ते जोएणं भवइ तयाणं इमेवि चंदे जुत्ते जोएणं भवः । एवं सूरेवि, गहावि णक्खुत्तावि । सयाविणं चंदा जुत्ता जोएहिं मयाविणं मूरिया जुत्ता जोएहिं, मयात्रि णं गहा जुत्ता जोएहिं, सयावि णं णक्यता जुत्ता जोएहिं, दुही वि णं सूरा जुना जोएहि दुहओ वि णं गहा जुत्ता जोएहि Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीकाप्रा. १०प्रा. प्रा. २२ सू. १ नक्षत्रक्षेत्र परिभाग निरूपणम् ४७१ दुओ वि णं णक्खत्ता जुत्ता जोएहिं । मंडल सयस हस्सेणं अट्ठाणउयाए सएहिं छित्ता इच्चेस णक्खत्त खेत्तपरिभागे णक्खत्तविजय पाहुडेत्ति आहिए तिमि || सूत्रम् ॥ ११॥ "दसमस्स पाहुडस्स बावीसइम पाहुडपाहुडं समत्तं " १०-२२ दसमं पाहुडं समत्तं ॥१०॥ छाया - तावत् यदा खलु अयं चन्द्रः गतिसमापन्नको भवति तदा खलु इतरोऽपि चन्द्रः गतिःसमापन्नको भवति । यदा खलु इतरोऽपि चन्द्रः गतिसमापन्नको भवति तदा खलु अयमपि चन्द्रः गतिसमापन्नको भवति । तावत् यथा खलु अयं सूर्यः गति समापन्न को भवति तदा खलु इतरोऽपि सूर्यः गतिसमापन्नको भवति । यदा खलुइतरः सूर्यः गतिसमापन्नको भवति तदा खलु अयमपि सूर्यः गतिसमापन्नको भवति । एवं ग्रहा अपि, नक्षत्राण्यपि । तावत् यदा खलु अयं चन्द्रः युक्तः योगेन भवति तदा खलु इतरोऽपि चन्द्रः युक्तः योगेन भवति । यदा खलु इतरः चन्द्रः युक्तः योगेन भवति तदा खलु अयमपि चन्द्रः युक्त. योगेन भवति । एवं सूयोऽपि ग्रहा अपि नक्षत्राण्यपि । सदाऽपि खलु चन्द्रौ युक्त योगे. सदापि खलु सूर्यो युक्तौ योगेः, सदापि खलु ग्रहाः युक्ता योगेः सदापि खलु नक्षत्राणि युक्तानि योगः, उभयतोऽपि खलु चन्द्रौ युक्तौ योगेः, उभयतोऽपि खलु सूर्यो' युक्तौ योगेः उभयतोपि खलु ग्रहाः युक्ताः योगः, उभयतोपि खलु नक्षत्राणि युक्तानि योगेः । मण्डलं शतसहस्रेण अप्रानवत्यशतैः छित्त्वा इत्येष नक्षत्रक्षेत्रपरिभागः नक्षत्र विवये प्राभृतमिति आख्यातः इति ब्रवीमि ॥ सूत्रम् ११॥ " दशमस्य प्राभृतस्य द्वाविंशतितमं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् दशमं प्रामृतं समाप्तम् | १०|| व्याख्या- 'ता जया णं' इति 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'इमे' अयं यस्मिन् काले यः प्रत्यक्षत उपलभ्यमानो भरतक्षेत्रप्रकाशको विवक्षितः 'चंदे' चन्द्रः विवक्षिते मण्डले 'गइसमावण्णए भवइ' गतिसमापन्नकः गतिमान् भवति 'तया णं' तदा खलु तस्मिन् काले 'इयरे वि चंदे' इतरोऽपिय ऐरवतक्षेत्रं प्रकाशयति स विवक्षितश्चन्द्रः 'गइसमावण्णए ' गति समापन्न को गति युक्तः 'भवइ' भवति । 'जया णं' यदा खल्ल 'इयरे वि चंदे' इतरोऽपि ऐरवत क्षेत्र प्रकाशकश्चन्द्रः तस्मिन्नेव विवक्षिते मण्डले 'गइसमावण्णए भवइ' गति समापन्नकः गतियुक्तो भवति 'तया णं' तदा 'खल 'इमे वि चंदे' अयमपि भरत क्षेत्र प्रकाशकश्चन्द्रोऽपि ' गइसमावण्णए भवइ' गतिसमापन्नको भवति भरतक्षेत्र प्रकाशकश्चन्द्रः ऐरवतक्षेत्रप्रकाश कश्चन्द्रश्चेत्युभावपि चन्द्रौ स्वस्वविवक्षितमण्डले समकालमेव गतियुक्तौ भवत इति भावः । अथ सूर्यविषये तदेवाह - 'ता जया णं इमे सरिए' इत्यादि 'ता' तावत् 'जया णं' यदा यस्मिन् काले खलु 'इमे' अयं भरतक्षेत्रप्रकाशक : 'सूरिए' सूर्य : ' गइसमावण्णए भवइ' गति समापन्नकः गतिमान् भवति 'तया णं' तदा तस्मिन्नेव काले खल 'इयरेवि सूरिए' इतरोऽपि Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे ऐरवतक्षेत्रप्रकाशकोऽपि सूर्यः 'गइसमावण्णए भवइ' गतिसमापन्नको गतियुक्तो भवति । 'जया णं' यदा खल 'इयरे सरिए' इतरः ऐरावतक्षेत्रप्रकाशकारी सूर्यः 'गइसमावण्णए भवई' गतिसमापन्नको गतियुक्तो भवति 'तया णं' तदा तस्मिन् काले खल विवक्षिते मण्डले 'इमे वि सुरिए' अयमपि भरतक्षेत्रप्रकाशकोऽपि सूर्यः 'गइसमावण्णए भवई' गतिसमापन्नकः गतिमान् भवति । भरतक्षेत्रसूर्य. ऐरवतक्षेत्रसूर्यश्चेत्युभावपि सूर्यो स्वस्व क्षेत्रे स्व स्व विवक्षितमण्डले समकालमेव चारं चरत इति भावः । एवं गहावि, एवम्-अनेनैव रीत्या ग्रहा अपि भरतक्षेत्रचारिणः ऐरखतक्षेत्र चारिणचे त्युभयेपि ग्रहाः परस्परं समकालमेव स्व स्व क्षेत्रे विवक्षितमण्डले चारं चरन्ति, इतिभावः । तथा एवमेव 'नक्खत्तावि' नक्षत्राण्यपि भरतक्षेत्रचारीणि ऐरवतक्षेत्रचारीणि चेत्युभयान्यपि नक्षत्राणि परस्परं स्व स्व विवक्षितमण्डले गतियुक्तानि भवन्ति, इति भावः । अथैतेषामेव योगविपये प्राह-'ता जया णं इमे चंदे जुत्ते जोगेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जया णं' यदा • यस्मिन्न काले खल 'इमे चंदे' अयं भरतक्षेत्रचारी चन्द्रः जुत्ते' जोगेणं' येन योगेन युक्तो भवति 'तया णं' तदा तस्मिन् काले खल 'इयरे वि चंदे' इतरोऽपि ऐरवतक्षेत्रस्थोऽपि चन्द्रः 'जुत्ते जोगेणं भवई' तेनैव योगेन युक्तो भवति । 'जया णं' यदा यस्मिन् काले खलु 'इयरे चंदे' इतरः ऐवतक्षेत्रस्थश्चन्द्रः 'जुत्ते जोगेणं भवई' येन योगेन युक्तो भवति 'तया णं' तटा तस्मिन् काले खलु 'इमे वि चंदे' अयमपि भरतक्षेत्रस्थश्चन्द्रः 'जुत्ते जोगेणं भवई' तेनैव योगेन युक्तो भवति । भरतक्षेत्रस्थश्चन्द्रः ऐरवतक्षेत्र स्थश्चन्द्रश्चेत्युभावपि चन्द्रौ समकालमेव स्वस्त्रक्षेत्रे स्व स्व मण्डले समयेसु युक्ती भवत इति भावः । ‘एवं' एवम्-अनेनैव रीत्या 'सूरे वि सृर्योऽपि 'गहावि' ग्रहा अपि 'णक्खत्तावि' नक्षत्राण्यपि सूर्यग्रहनक्षत्राण्यपि भरतैरवतक्षेत्रचारीणि परस्परं स्वक्षेत्रे स्त्र स्व मण्डले समकालं समानयोगयुक्तान्येव भवन्तीति तात्पर्यम् । अथोपसहरन मदाकालविषये प्राह-'सया विणं' इत्यादि, 'सया वि णे' सदापि सर्वकालेऽपि खल 'चंदा' चन्द्रौ भग्तैरवतक्षेत्रवत्तिनौ द्वावपि चन्द्रौ 'जुत्ता जोएहि' युक्तो योगैः समचार चारिणौ भवतः । एवं 'सया वि णं' सदापि खलु 'सूरिया' सूर्यो 'जुत्ता जोगेहिं योग युक्ती समरूपावेव भवतः । 'सयावि णं' सदापि खलु 'गहा ग्रहाः जुता जोगेहिं योगैर्युक्ता समरूपा एव भवन्ति । 'मयावि गं' सदापि खलु ‘णक्खत्ता' नक्षत्राणि 'जुत्ताजोगेहिं योगैर्युतानि समरूपाण्येव भवन्ति । अथ दिशमाश्रित्य प्राह-'दुहओ वि णं' इत्यादि, 'दुहयो वि णं' उभयनोऽपि दक्षिणोत्तरयो. पूर्वपश्चिमयोर्वा खल 'चंदा' चन्द्रौ 'जुत्ता जोगेहि योगैर्युक्तौ समरूपेणैव भवतः । एवम् 'दुडओ वि णं' उभयतोऽपि दक्षिणोत्तरयो पूर्वपश्चिमयोर्वा 'सूरिया' सूर्यो 'जुत्ता जोगहि' योगयुक्तौ समरूपेणव भवतः । 'दुहओ विण' उभयतोऽपि खलु 'गहा' ग्रहाः 'जुत्ताजोगेटिं' योगैर्युका समन्छपेगैव भवन्ति दुहओ विणं' उभयतोऽपि खलु 'णक्खत्ता' नक्ष Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रनप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१०प्रा.प्रा.२२ सू.११ नक्षत्रक्षेत्रपरिभागनिरूपणम् ४७३ त्राणि 'जुत्ता जोगेहि' योगैर्युक्तानि समरूपेणैव भवन्ति । अथ प्राभृतोपसंहारमाह-'मंडलं' इत्यादि 'णक्खत्तविचए' अस्मिन् नक्षत्रविचये नक्षत्रविचयनाम्नि दशमस्य प्राभृतस्य 'पाहुडेत्ति' द्वाविंशतितमे प्राभृतप्रामृते 'इच्चेस' इत्येषः पूर्व प्रतिपादितः ‘णक्खत्तखेत्तपरिभागे' नक्षत्रक्षेत्र परिभागः उपलक्षणात् चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रक्षेत्रपरिभागः 'आहिए' आख्यातः कथितः कथमित्याह'मंडलं' मण्डलं चन्द्रादिमण्डलं स्वेन स्वेन क्षेत्रद्वयसमिलितैः पट् पञ्चाशता नक्षत्रै र्यावन्मानं क्षेत्रं व्याप्यमानं संभाव्यते तावन्मात्रं क्षेत्रं वुद्धिपरिकल्पितं 'सयमहस्सेणं अद्राणउयाए सरहिं शत सहनेण-लक्षण-अष्टानवत्याच शतैः अष्टानवतिशताधिकेन लक्षण एकेन लक्षेण नव सहनैः अष्टशतैः नव सहस्राधिकाप्टागतोत्तरेणैकेन लभेणेत्यर्थः (१०९८००) 'छित्ता' छित्वा विभज्य व्याख्यातः, एप नक्षत्रक्षेत्रपरिभागः नक्षत्रवियचनामकं प्राभृतप्राभृतमस्नोति ख्यातमिति भावः । 'तिवेमि' इति ब्रवीमि, इति--एतदनन्तरोक्तं सर्व ब्रवीमि यथा भगवन्मुखान्छूतं तथैव कथयामोति सुधर्मस्वामिवचनमेतत् । अथवा शिष्याणां विश्वासदाढ!त्पादनार्थ कथयति-एतद् भवगद्वचनं ततः सर्व सत्यमेवेति व्रतीमि ततो भवद्भिः सर्व सत्यमिति प्रत्येतव्यमेवेति ॥ सूत्रम् ११॥ दशमस्य प्राभृतस्य द्वाविंशतितमं प्राभृत प्रामृतं समाप्तम् ॥१०॥२२॥ इति श्री-विश्वविख्यात--जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक पञ्चदशभापाकलितललितकलापालापक प्रविशुद्धगद्यपयनैकग्रन्थनिर्मापक-वादि-मानमर्दक-श्रीशाहच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त 'जैनशास्त्राचार्य' पदभूपित कोल्हापुरराजगुरु वालब्रह्मचारि-जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलाल व्रतिविरचितायां 'चन्द्रप्रज्ञप्ति' सूत्रस्य चन्द्राप्ति प्रकाशिकाख्यायां व्याख्यायाम् दशमं प्रामृतं समाप्तम् ॥१०॥ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "अथैकादश प्राभृतम् " गतं दशमं प्रामृतम्, तत्र चन्द्रसूर्यैः सह नक्षत्राणां योगः प्रोक्तः अधुनैकादशं प्राभृतं प्रारभ्यते, अत्र--पूर्व यत् 'कहं संवच्छराणामाई' कथं संवत्सराणामादि, इति प्रतिज्ञातं तदत्र वर्णयिष्यते इति सम्बन्धेनायातस्यास्यैकादशस्य प्रामृतस्येटमादिसूत्रम्-'ता कह ते संवच्छराणामाई' इत्यादि । मृलम्-ता कहं ते संवच्छराणामाई आहिएति वएज्जा। तत्थ खलु इमे पंच संवच्छरा पण्णत्ता,तं जहा-चंदे १, चंदे २, अभिवड्ढिए ३, चंदे ४, अभिवड्ढिए ५ । ता एएसि णं पंचण्डं संवच्छराणं पढमस्स चंदस्स संवच्छरस्स के आई आहिएति वएज्जा । ता जेणं पंचमस्स अभिवड्ढीयसंवच्छरस्स पज्जवसाणं से णं पढमस्स चंदसंवच्छरस्स आई अणंतरपुरक्खढे समए, ता से णं किं पज्जवसिए आहिए ति वएज्जा ? ता जे गं दोच्चस्स संवच्छरस्स आई सेणं पढमस्स चंदसंवच्छरस्स पज्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समए । तं समयं च णं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोयं जोएइ ? ता उत्तराहिं आसाढाहि, उत्तराणं आसाढाणं छच्चीसं मुहुत्ता, छब्बीस च वावद्विभागा मुद्दुत्तस्स वावद्विभागं च सत्तहिहा छित्ता चउप्पण्णं चुणिया भागा सेसा, तं समयं च णं सुरिए केणं णक्खत्तेणं जोयं जोएइ ? । ता पुणवमुणा, पुणव्यमुस्स सोलसमुहुत्ता, अट्ठ य बोवद्विभागा मुहुत्तस्स, वावहिभागं च सत्तट्टिहा छित्ता वीसं चुणिया भागा सेसा । ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चस्स चंदसंबच्छरस्स के आई आहिएति वएज्जा ? ता जेणं पढमस्स चंदसंवच्छरस्स पज्जवसाणे से णं दोच्चस्स चंदसंवच्छरस्स आई अणंतरपुरक्खडे समए, ता से णं किं पज्जवसिए आहिए ? ति वएज्जा । ता जेणं तच्चस्स अभिवड्ढिय संवच्छरस्स आई से णं दोच्चस्स चंद संवच्छरस्स पज्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समए तं समयं च णं चंदे केणं णक्खत्तेण जोयं जोइए ?, ता पुव्याहि आसाढाहिं, पुच्चाणं आसाढाणं सत्तमुहुत्ता, तेवण्णं च वावटिभागा मुहुत्तस्स वावट्ठिभागं च सत्तहिहा छित्ता इगताली संचुणियाभागा सेसा, तं समयं च णं सूरिए केणं णक्खत्तेणं जोयं जोएड ?, ना पुणब्वमुणा, पुणब्धमुस्स णं वायालीसं मुद्दुत्ता, पणतीसं च वावद्विभागामुहत्तस्स. बावहिभागं च सत्तट्टिहा छित्ता सत्तचुण्णियाभागा सेसा । ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छगणं तच्चस्स अभिवढियसंवच्छरस्स के आई आहिए ति वएज्जा, ता जेणं दोच्चम्स चंद संवच्छरस्स पज्जवसाणे सेणं तच्चस्स अभिवढियसंवच्छरस्स आई अणंतर पुरखढे समए, ता मेणं किं पज्जवसिए आहिएति वएज्जा ?, ता जेणं चउत्थस्स चंद संबच्छरम्स आई सणं तच्चस्स अभिवड्ढीय संवच्छरस्स पज्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समए, नं समयं च णं चंद केणं णक्खनेणं जायं जोइए ?, ता उत्तराहिं आसाहाहि उत्त Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा. ११ सू. १ संवत्सराणामादिस्वरूपनिरूपणम् ४७५ राणं आसाढाणं तेरस मुहुत्ता, तेरस य वावट्टिभागा मुहुत्तस्स, वावट्टिभागं च सत्तट्ठिहा छत्ता सत्तावीसं चुणिया भागा सेसा तं समयं च णं सूरिए केणं णक्खत्तेणं जोयं जोएइ ?, ता पुणव्वसुणा, पुणव्वसुस्स दो मुहुत्ता, छप्पण्णं च वावद्विभागा मुहुत्तस्स, वावट्टिभागं च सत्तsिहा छत्ता सही चुणिया भागा सेसा । ता एएसिणं पंचण्डं संवच्छराणं चउत्थस्त चंद संवच्छरस्स के आई आहिएति वएज्जा, ता जेणं तच्चस्स अभिवड्ढिय संवच्छ रस्स पज्ज - वसाणे सेणं चउन्थस्स चंदसंबच्छरस्स आई अणंतरपुरक्खढे समए, ता सेणं किं पज्जसिए आहिति वज्जा ? ता जे णं चरिमस्स अभिवढियसंवच्छरस्स आई सेणं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स पज्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समए, तं समयं च णं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोयं जोएइ ?, ता उत्तराहि आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं उणयालीसं मुहुत्ता, चालीसं च बावट्टिभागा मुहुत्तस्स, वावद्विभागं चं सत्तट्ठिहा छत्ता चउदस चुण्णियाभागा सेसा । तं समयं च णं सूरिए केणं णक्खत्तेणं जोयं जोएइ ? ता पुणव्वसुणा, पुणव्वमुस्स अउणतीसं मुहुत्ता, एक्कवीसं बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, वावद्विभागं च सत्तहिहा छित्ता सीयालीस चुण्णियाभागा सेसा । ता एएसि णं पंचन्हं संवच्छराणं पंचमस्स अभिवढिय संवच्छरस्स के आई आहिएति वएज्जा, ता जेणं चउत्थस्स चंद संवच्छरस्स पज्जवसाणे से णं पंचमस्स अभिवद्वियसंवच्छरस्स आई अणंतर पुरक्खडे समए, ता से णं किं पज्जवसिए आहिएति वएज्जा, ता जेणं पढमस्स चंदसंवच्छरस्स आई सेणं पंचमस्त अभिवद्रिय संवच्छरस्स पज्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समए, तं समयं चणं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोयं जोएइ ? ता उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं चरमसमए, तं समयं चणं सूरिए केणं णक्खत्तेणं जोय' जोएड ?, ता पुस्सेणं पुस्सस्स णं एगूणवीस मुहुत्ता तेयालीसं च वावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, वावट्टिभागं च सतट्ठिा छित्ता तेत्तीस चुणिया भागा सेसा ॥ सूत्रम् १ ॥ ॥ एक्कारसमं पाहुडं समंत ॥११॥ छाया - तावत् कथं ते संवत्सराणामादिः आख्यातः १ इति वदेत्, तत्र खलु इमे पञ्चसंवत्सराः प्रक्षप्ताः, तद्यथा - चान्द्रः १, चान्द्रः २, अभिवर्द्धितः ३, चान्द्रः ४, अभिवर्द्धितः ५ । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां प्रथमस्य चान्द्र संवत्सरस्य क आदि आख्यानः ? इति वदेत्, तावत् यत् खलु पञ्चमस्य अभिवर्द्धित संवत्सरस्य पर्यवसानं तत् खलु प्रथमस्य चान्द्रसंवत्सरस्य आदिः अनन्तर पुरस्कृतः समयः तावत् स खलु किं पर्यवसितः आख्यात इति वदेत् यः खलु द्वितीयस्य चान्द्र संवत्सरस्य आदिः स खलु प्रथमस्य चान्द्र संवत्सरस्य पर्यवसान अनन्तर पुरस्कृतसमयः तस्मिन् समये च खलु चन्द्रः केन नक्षत्रेण योगं युनक्ति ?, तावत् उत्तराभिराषाढाभिः उत्तराणामाषाढानां षड्विंशतिर्मुहूर्त्ताः षड्विंशतिश्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य, द्वाषष्टिभागं च छित्त्वा चत Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे प्पञ्चाशद् चर्णिका भागाः शेपाः । तस्मिन् समये च खलु सूर्य. केन नक्षत्रेण योग युनक्ति तावत् पुनर्वसुना, पुनर्वसोः पोडश मुहर्ताः अष्ठ च द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य, द्वापष्टिभाग च सप्तपटिधा छित्त्वा विंशतिश्चर्णिकाभागाः शेपाः । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां द्वितीयस्य चान्द्रसंवत्सरस्य क आदिः आख्यातः १ इति वदेत्, तावत् यत् खलु प्रथमस्य चान्द्रसंवत्सरस्य पर्यवसानं तत् खलु द्वितीयस्य चान्द्रसंवत्सरस्य आदिः अनन्तरपुरस्कृतसमयः, तावत् स खलु कि पर्यवसितः आख्यातः ? इति वदेत् । तावत् यः खलु तृतीयस्य अभिवतिसंवत्सरस्य आदिः स खलु द्वितीयस्य चान्द्रसंवत्सरस्य पर्यवसानम् अनन्तरपश्चारुतः समयः । तस्मिन् समये च खलु चन्द्रः केन नक्षत्रेण योगं युनक्ति १ तावन् पूर्वाभिरापाढाभिः पूर्वाणामापाढानां सप्तमुहर्ताः, त्रिपञ्चाशच्च द्वाषष्टि भागा मुहर्तस्य, द्वापष्टिभाग व सप्तपष्टिधा छित्त्वा एकचत्वारिंशत् चर्णिका भागाः शेषाः, तस्मिन् समये च खलु सूर्य केन नक्षत्रेण योग युनक्ति १ तावत् पुनर्वसुना, पुनर्वसो. खलु द्विचत्वारिंशद् मुहर्ताः, पञ्चत्रिंशच्च द्वापष्टिभागा मुहर्त्तस्य, द्वापष्टिभागं च सप्तपष्टिधा छित्त्वा सप्त चूणिकाभागाः शेपाः । तावत् एतेपां खलु पञ्चानां संवत्सराण तृतीयस्य अभिव. दितसंवत्सरस्य क आदिः आख्यातः ? इति वदेत्, तावत् यत् खलु द्वितीयस्य चान्द्र संवत्सस्य पर्यवसानम् तत् खलु तृतीयस्य अभिवद्धितसंवत्सरस्य आदिः अनन्तरपुरस्कृतः समयः, तावत् स खलु कि पर्यवसितः आख्यातः इति वदेत् तावत् । यः खलु चतुर्थस्य चान्द्रसंवत्सरस्य आदिः स खलु तृतीयस्य अभिवद्धितसंवत्सरस्य पर्यवसानम् अनन्तरपश्चामृतः समयः । तस्मिन् समये च खलु चन्द्रः केन नक्षत्रेण योग युनक्ति ? तावत् उत्तराभिरापाढाभिः । उत्तराणामापाढानाम् त्रयोदशमुहर्ताः, त्रयोदश च द्वापप्टिभागा मुहर्तस्य द्वापष्टिभागं च सप्तपष्टिधा छित्त्वा सप्तविंशतिश्चणिका भागाः शेपाः । तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण योगं युक्ति ? तावत् पुनर्वसुना, पुनर्वसोः द्वौ मुहत्तौ, पट्पञ्चा. शद् द्वापष्टिभागी मुहर्तस्य, द्वापष्टिभागं च सप्तपणिधा छित्त्वा पटिश्चर्णिकाभागाः शेषाः । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां चतुर्थस्य च चान्द्रसंवत्सरस्य क आदिराख्यातः ? इति वदेत्, तावत् यत् खलु तृतोयस्य अभिवद्धितसंवत्सरस्य पर्यवसान तत् खलु चतुर्थस्य चान्द्रसंवत्सरस्य आदिः अनन्तरपुरस्कृतः समयः । तावत् स खलु किं पर्यवसितः आख्यातः १ इति वदेत्, तावत् यः खलु चरमस्य अभिवद्धितसंवत्सरस्य आदिः स सलु चतुर्थस्य चान्द्रसंवत्सरस्य पर्यवसानम् अनन्तरपश्चात्कृतः समयः । तस्मिन् समये च खलु चन्द्रःकेन नक्षत्रेण योगं युनक्ति ? तावत् उत्तराभिरापाढाभिः उत्तराषाढानाम् पकोनचत्वारिंशद् मुहत्ताः, चन्वारिंशच्च द्वापष्टिभागा मुहर्तस्य, द्वापष्टिभागं च सप्तपशिधा छित्त्वा चतुर्दशर्णिका भागाः शेपा । तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण योग युनक्ति , तावत् पुनर्वसुना. पुनर्वसोः एकोनत्रिंशद् मुहर्ताः एकविंशतिपिष्टिभागा मुहर्तस्य, द्वापष्टिभागं च सप्तपष्टिधा छित्त्वा सप्तचत्वारिंशच्चूर्णिका भागाः शेपाः । तावत् पतेषां पल पञ्चानां संवत्सराणां पञ्चमस्य अभिवद्वितसंवत्सरस्य क आदिराख्यातः ? रति वदेत् तायत यत् बलु चतुर्थस्य चान्द्रसंवत्सरस्य पर्यवसान तत खलु पञ्चमस्य अभिवतिसंवत्सरस्य थादिः अनन्तरपुरस्कृतः समयः तावत् स ग्बलु कि पर्यवसितः पास्यातः इति वदत्, तावत् यः खलु प्रथमस्य चान्द्रसंवत्सरस्यादिः स खलुः पञ्चमम्य अभिवदितसंवत्सरस्य पर्यवसानम् अनन्तरपश्चात्यातः समयः । तस्मिन् Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीकाप्रा. ११ सू०१ सवत्सराणामादिस्वरूपनिरूपणम् ४७७ समये च खलु चन्द्रः केन नक्षत्रेण योगं युनक्ति ?, तावत् उत्तराभिरागढाभि उत्तराणामापादानां चरमसमये, तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण योगं युनक्ति, तावत् पुष्येण, पुण्यस्य खलु एकोनविंशतिर्मुहर्त्ताः, त्रिचत्वारिंशच्च द्वापप्रिभागाः मुहूर्त्तस्य, द्वापष्टिभाग सप्तपष्टिधा छित्त्वा त्रयस्त्रिंशच्चूर्णिकाभागा शेषाः ॥ ११॥ कादशं प्राभृतं समाप्तम् ॥ ११ ॥ व्याख्या -- 'ता कहते' इति 'ता' तावत् 'क' कथं केन प्रकारेण हे भगवन्' 'ते' त्वया 'सबच्छराणामाई' संवत्सराणामादि' 'आहिए' भाख्यातः ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु । भगवानाह - ' तत्थ खलु' इत्यादि, 'तत्थ खलु' तत्र संवत्सराणामादि विषये खलु–निश्चयेन ‘इमे' इमेऽग्रे वक्ष्यमाणाः 'पंच संवच्छरा' पञ्च संवत्सराः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ताः कथिताः ‘तं जहा' तद्यथा ते इमे यथा - 'चंदे' चान्द्रः चान्द्रः संवत्सर प्रथम' ' 'चंदे' चान्द्र. पुनरपि चान्द्रसंवत्मरो द्वितीयः २, 'अभिवढिए' अभिवद्धितः अभिवर्द्धित' संवत्सर - स्तृतीया. ३, 'चंढे' चान्द्रः पुनश्च चान्द्रः संवत्सश्चतुर्थ ४, 'अभिवइदिए' अभिवर्द्धितः अभिवर्द्धितसंवत्सरः पञ्चम' ५ एते पञ्चसंवत्सरा कथिताः । एतेषां स्वरूपं पूर्व प्रदर्शित मेवेति । अथ संवत्सराणामादि पृच्छति- 'ता एएसिंग' इत्यादि, 'ता' तावत 'एएसिणं' एतेषां पूर्वोक्तानां खलु ‘पंचण्हं संवच्छरणं' पञ्चानां संवत्सराणा मध्ये 'पढमस्स' प्रथमस्य 'चंद संवच्छ रस्स' चान्द्रसंवत्सरस्य चान्द्राभिधसवत्सरस्य ' के आई' क' आदिः 'आहिए' आख्यात' ?, 'तिवए' इति वदेत् कथयतु हे भगवन् ' भगवानाह - 'ता जेणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'जे णं' यत् स्वछ पाश्चात्ययुगवर्त्तिन पञ्चमस्याभिवद्धितसंवत्सरस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानम् अन्तिमसमयः 'से णं' स खलु समय: ' पढमस्स चंद संवच्छरस्स' प्रथमस्य चान्द्रसंवत्सरस्य 'आई' आदिरस्ति, स कीदृगः समयः ? इत्याह- 'अणंतर पुरक्खडे समए' अनन्तर पुरस्कृतः समयः पाश्चात्ययुगवर्तिपञ्चमाभिवर्द्धितः संवत्सरादन्नररहित आगामी यः समयः स इति । भयं प्रथमसंवत्सरस्यादिः कथितः, साम्प्रतं पर्यवसानसमयविषये प्रश्नोत्तरमाह - ' ता से णं' इत्यादि, 'ता सेणं' तावत् स खलु प्रथमश्चान्द्रसंवत्सरः किं पर्यवसितः कि पर्यवसानवान् 'आहिए' आख्यातः ' 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु । उत्तरमाह - ' ता जे णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जेणं' यः खलु' 'दोच्चस्स चंद संवच्छरस्स' द्वितीयस्य चान्द्र संवत्सरस्य 'आई' आदिः 'से णं' स खलु 'पढमस्स चंदसंवच्छरस्स' प्रथमस्य चान्द्र सवत्सरस्य 'पज्जवसाणे' पर्यव - सानम् अन्तिमसमयः कीदृश: 'अणतरपच्छाकडे समए' अनन्तरपश्चात्कृतः, अनन्तर अन्तररहितः य पश्चात्कृतः अतीतः समयः स इति । अथ तत्समये चन्द्रयोगं पृच्छति 'तं समयं च णं' इत्यादि, 'तं समयं च णं' तस्मिन् सवत्सरपर्यवसानभूते समये खलु चंदे चन्द्रः 'केणं णक्खणं जोयं जोएइ' केन नक्षत्रेण सह योगं युनक्ति योगं करोत् इति प्रश्नः । इह भমর Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रनप्तिसूत्रे द्वादशाभिः पौर्णमासीभिश्चान्द्रः संवत्सरो भवति, ततो यदेव प्राक् दशमप्रामृतस्य द्वाविंशनितम द्वादम्यां पार्णमास्यां चन्द्रनक्षत्रयोगपरिमाण सूर्यनक्षत्रयोगपरिमाणं च प्रोक्तं तदेव अन्यूनानिरिक्तं परिपूर्णमत्रापि ज्ञातव्यम्, गणिभावनाऽपि सैवकर्नव्या, तदेवाह सूत्रकारः 'ता उत्तराहि' हुन्यादि 'ता' तावत् 'उत्तराहि आसाढाहिं' उत्तराभिरापाढाभिः उत्तरापाढानक्षत्रस्य चतुस्तारकन्वाद बहुवचनम् उत्तगपाढानक्षत्रेण सह चन्द्रो योग युनक्ति, तत्रापि कति मुहर्त्तान् यावत् चन्द्रोयोग युक्ति : इत्यत्राह- 'उत्तराण' इत्यादि, 'उत्तराणं आसाढाणं' उत्तगणामापाढानां उत्तरापाढा नक्षत्रस्य 'छब्बीस मुहुत्ता' पद्धविंगतिर्मुहर्ताः, 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य च 'छब्बीस वावहिभागा' पड्विशनिटापष्टिभागा', 'वाद्विभागं च तं द्वापष्टिभागं च 'सत्तहिहा छित्ता' सप्तपष्टिधा विनय तेग्यः 'चउपणं' चतुप्पञ्चाशत 'चुणियाभागा' वृणिका भागाः (२६-२६५४ १६२६० 'सेसा' शेषाः अगिष्टा भवेयुः तावापर्यन्तं चन्द्र उत्तरापाढानक्षत्रेण सह योग युनक्तीति भावः । एवं शेपसवत्सरगतानामादि पर्यवसानसूत्राणां प्रामृतपरिसमाप्तिपर्यन्तं गणितभावना कर्त्तव्या, तथाहि-सा एव ध्रुवगगिः ६६।५।१।) एकस्य चान्द्रसंवत्सरस्य द्वादशपौर्णमास्यो भवन्तीति द्वादशभिर्गुण्यते जातानि सप्तशतानि हिनवत्यधिकानि मुहूर्तानाम् , एकस्य च मुहूर्तस्य पष्टिापष्टिभागाः, एकरय च द्वापष्टिमागस्य द्वादशसप्तपष्टिभागाः (७९२-३०) तत एतस्मात् "मृले सत्तेव चोयाला" इत्यादि करणगाथावचनात् चतुश्चत्वारिंशदधिकसप्तशतमुहर्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तम्य चतुविशति पिष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पट्पष्टिः सप्तपष्टिभागाः (७४४-२०१६६) अभिजित मारभ्य मलपर्यन्तनक्षत्राणां शोध्याः, तत स्त्रिंशन्मुहूर्ताः ६२०६७ एकस्य च मुर्तस्य पञ्चत्रिंशद् द्वापष्टिभागाः एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयोदशसप्तपष्टिभागाः (१८-३५२३) नत आगतं प्रथमचान्द्रसंवत्सरस्य पर्यवसानसमये उत्तरापाढानक्षत्रस्य पञ्चचत्वारि अन्मुहता-मकत्वात तिष्टन्ति शेषा. पदविंशतिर्मुहर्ताः पइविंगनिपिप्टिमागाः एकस्य च द्वापष्टिभागग्य चनु पञ्चागमतपष्टि चर्णिका भागाः (२ २२) अथ सूर्यस्य नक्षत्रयोगमाह-'तं समय चणं' न्याटि, 'तं समयं च णं तस्मिन् समये च खल्लू 'मूरिए' मूर्यः केणं णक्खतेणं जोयं जोपट' कन नक्षत्रेण सह योग युनक्ति ? उत्तरमाह-'ता पुणव्यसृणा' इत्यदि, 'ता' तावत् पुणस्वमुणा' पुनर्वगुना पुनर्वसुनक्षत्रेण मह सूर्यो योगं युनक्तोति भावः । पुनर्वसोः कनिमुहूर्चादिपु ६२४७ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटोकाप्रा.११सू०१० संवत्सराणामादिस्वरूपनिरूपणम् ४७९ शेषेषु सूर्यो योगं युनक्तीत्याह-'पुणव्वमुस्स' इत्यादि, पुणव्वमुस्स' पुनर्वसोर्नक्षत्रस्य 'सोलसमुहुत्ता' षोडशमुहूर्ताः एकस्य च मुहूर्तस्य 'अट्ठय वावद्विभागा मुहुत्तस्स' अष्ट च द्वाषष्टि भागा मुहूर्तस्य 'वावद्विभागं च द्वापष्टिभागं च 'सत्तहिहा छित्ता' सप्तषष्टिधा छित्वा तेषु 'वीस चुणियाभागा' विंशतिश्चूर्णिका भागाः (१६---) 'सेसा' शेषाः अवशिष्टा भवेयुस्त ६।६७ २०६७ ६२/६७ ६/६७ त्पर्यन्तं सूर्यः पुनर्वसुनक्षत्रेण सह योग युनक्ति । अत्रापि स एव ध्रुवराशिः ६६ । ५ । १ । द्वादशभिर्गुण्यते, जातानि द्विनवत्यधिकानि सप्तशतानि मुहर्तानाम्, एकस्य च मुहूर्त्तस्य पष्टिषष्टि भागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वादश सप्तपष्टि भागाः (७९२ ६०१२), एतस्मात् पुण्य शोधनकम्-एकोनविंशतिमुहूर्ताः, त्रिचत्वारिंशद् द्वापष्टिभागाः, त्रयस्त्रिंशच्च सप्तपष्टिभागाः (१९ ४३३३), इत्येतत्प्रमाणं पूर्वोत्तरील्या शोध्यन्ते, स्थितानि शेषाणि त्रिसप्तत्यधिकानि सप्तशतानि मुहूर्तानाम्, एकस्य च मुहूर्तस्य पोडश द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टि भागस्य षट्चत्त्वारिंशत् सप्तपष्टि भागाः (७७३ १६/१६) तत एतस्मादाशेश्चत्वारिंशदधिकसातशत मुहूर्ताः, एकस्य मुहूर्तस्य च चतुर्विशतिपष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तपष्टिभागः (७१४- २४/६६) अश्लेपात आरभ्य आर्द्रापर्यन्तानां नक्षत्राणां शुद्धाः, ततस्तिष्ठन्ति शेषाःअष्टाविंशति मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिपञ्चाशद् द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टि भागस्य सप्तचत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागाः (२८१३४७) पुनर्वसुनक्षत्रगताः । तत आगतं पुनवसुनक्षत्रस्य पञ्च चत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् तस्य पोडशसु मुहर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्याष्ट द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य विंशतौ सप्तषष्टिभागेषु (१६ - :) शेषेषु सूर्यः पुनर्वसु नक्षत्रेण सह योगं युनक्तीति । अथ द्वितीय चान्द्रसंवत्सरस्यादि पर्यवसानविषये प्राह'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां वक्ष्यमाणानां खलु 'पंचण्हं संवच्छराणं' पञ्चानां सवत्सराणं मध्ये 'दोच्चस्स चंदसंवच्छरस्स' द्वितीयस्य चान्द्रसंवत्सरस्य 'आई' आदिः 'के आहिए' कः आख्यातः कुत्र कथितः ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् । भगवानाह-'ता जे ण' इत्याद, 'ता' तावत् 'जे णं' यत्' खल 'पढमस्स चंदसंवच्छरस्स ६२/६७ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे ४८० प्रथमन्य चान्द्रसंवत्सरस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानम्-अन्तभाग. 'से णं' तत,खल 'दोच्चस्स चंदसंवच्छरस्स' द्वितीयस्य चान्द्रसवत्सरस्य 'आई' आदिराख्यातः, कीदृशः ? 'अणंतरपुरक्खडेसमए' अन्तरपुरस्कृतसमयः पूर्वसंवत्सराद् अन्तररहितः अनागत संवत्सरात्पूर्वभागस्थितः समय इति । अथ पर्यवसान समय माह-'तासेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'सेणं' स खलु समयः "किं पज्जवसिए' किं पर्यवसितः किं पर्यवसानवान् 'आहिए' आख्यात कथितः । 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु भगवन् । उत्तरमाह-'ता जे णं' इत्यादि 'ता' तावत् 'जेणं' यः खलु तच्चस्स' तृतीयस्य 'अभिवड्डियसंवच्छरस्स' अमिवद्धितसंवत्सरस्य 'आई' आदि समयः 'से णं' स खल 'दोच्चस्स संवच्छरस्स' द्वितीयस्य चान्द्राभिधानस्य संवत्सरस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानं भवति, तद्गतसमयः कीदृशः ? इत्याह 'अणंतरपच्चाकडे अनन्तर पश्चाकृतः द्वितीय चान्द्रवसवत्सरादन्तररहितः पश्चात्कृतः पश्चाद्भागः अतीतभागरूपः 'समए' समय इति । 'तं समयं च णं' तस्मिन् समये च खल 'चंदे' चन्द्रः 'केणं णक्खत्तणं जोयं जोएइ' केन नक्षत्रेण सह योगं युनक्ति ? उत्तरमाह-'ता पुन्वाहि आसानाहि' इत्यादि, 'ता' तावत् 'पुव्याहिं आसाढाहिं' पूर्वाभिरापाढाभिः पूर्वापाढानक्षत्रेणेत्यर्थः । तत्रापि कतिपु मुहूर्तेपु शेपेषु चन्द्रः पूर्वापाढानक्षत्रेण सह योग युनक्ति ? तदाह पुव्वाणं आसाढाणं' पूर्वांणामापाढानां पूर्वापाढानक्षत्रस्य चतुस्तारकत्वाद् बहुवचनम्, तत पूर्वापाढानक्षत्रस्य 'सत्तमुहुत्ता' सप्त मुहूर्ताः, 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य 'तेवण्णं च वावट्ठिभागा' त्रिपश्चाशच्च द्वापष्टि भागाः, तथा 'वायटिभागं च' एकं द्वापष्टिभागं च ‘सत्तढिहा छित्ता' सप्तपष्टिधा छित्त्वा विभव्य तद्गताः 'इगतालीसं' एकचत्वारिंशत् 'चुणियाभागा' चर्णिका भागाः सप्तपष्टिभागा इत्यर्थः (७-५२४) इत्येतावत्प्रमाणा मुहूर्त्ता पूर्वापाढा नक्षत्रस्य यदा 'सेसा' शेषाः ६२/६७ अवशिष्टास्तिप्टेयुस्तावत्परिमितं समयं यावत् चन्द्रः पूर्वापाढानक्षत्रेण सह योगं युनक्तीति भावः अथास्य गणितप्रकारः प्रदीते द्वितीय चान्द्रसंवत्सरपरिसमाप्तिश्चतुर्विशत्या पौर्णमासीभिर्भवतीति पूर्वोक्तः स एव (६६ । ५ । १) ध्रुवराशिश्चतुविशत्या गुण्यते, जातानि-चतुरशीत्यविकानि पञ्चदशगतानि मुहूर्तानां, तद्गता विंशत्युत्तरशतसख्यका द्वापष्टि भागाः एकस्य च द्वापष्टि भागस्य सम्बन्घिनश्चतुर्विशतिः सप्तपष्टिभागाः (१५८४.१२०२१) एतस्मात् राशः एकोनविंशत्यधिकाष्टशत मुहूर्ता. एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिर्दापष्टिभागाः, एकस्य च उपष्टिभागस्य पट्पष्टिभागाः (८१९-२४६६) एकस्य परिपूर्णनक्षत्रपर्यायस्य शोध्य ૬૨૬૭ न्ते तत पश्चात् स्थितानि मुहूर्तानां सप्तशतानि पञ्चषष्ट्यधिकानि, तद्गताः पञ्चनवति Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्द्रशतिप्रकाशिकाटीका प्रा.११ सू०१ संवत्सराणामादिस्वरूपनिरूपणम् ४८१ सप्तपष्टिभागः, (७६५ ९५/२५ ६२/६७ द्वषष्टिभागाः, एकस्य द्वापष्टिभागस्य पञ्चविंशतिः ततः 'मूले सत्तेव चोयाला' इत्यादि - करणवचनात् चतुश्चत्वारिंशदधिकसप्तश तमुहूर्त्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशति द्वाषष्टिभागाः एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पष्टिः सप्तषष्टिभागाः (७४४२ ६६) अभिजिदादि मूलपर्यन्तानां नक्षत्राणां शुद्धाः, ततः स्थिताः शेषा द्वाविंशतिर्मुहूर्त्ताः एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टौ द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य ं षर्विंशतिः सप्तषष्टिभागाः– (२२) गताः । तत आगतम् - द्वितीय चन्द्रसंवत्सरस्य पर्यवसानसमये पूर्वाषाढा नक्षत्रस्य त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकत्वात् तस्य सप्त मुहूर्त्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रिपञ्चाशद् द्वापष्टिभागाः, एकस्य द्वापष्टिभागस्य च एकचत्वारिंशत् सप्तपष्टि भागाः (७३), शेषास्तिष्ठन्ति, इत्येतत्प्रमाणेषु मुहूर्त्तादिषु शेषेषु सत्सु चन्द्रः |६२ पूर्वाषाढानक्षत्रेण सह योगं युनक्तोति । अथ सूर्येण सह नक्षत्रयोगमाह - ' तं समयं चणं सूरिए इत्याति, ‘तं समयं च णं' तस्मिन् चन्द्रस्य पूर्वाषाढा नक्षत्रयोगरूपे समये च खलु 'सूरिए' सूर्यः 'के णं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण सह 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति ? उत्तरमाह - ' वा पुणव्वसुणा' इत्यादि, 'ता' तावत् 'पुणव्वसुणा' पुनर्वसुना सह सूर्यः योगं युनक्ति । तत्रापि मुहूर्त्तादिकमाह-‘पुणच्चसुस्स णं' पुनर्वसोः पुनर्वसु नक्षत्रस्य खलु 'वायालीसं मुहुत्ता' द्वित्वारिंशन्मुहूर्त्ताः, 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्त्तस्य ' पणतीसं च वावद्विभागा' पवत्रिंशच्च द्वाषष्टि भागाः, 'बावद्विभागं च' तद्गतमेकं द्वाषष्टिभागं च 'सत्तद्विहा छित्ता' सप्तषष्टिधा छत्वा विभज्य तत्सम्बन्धिनः 'सत्त चुण्णिया भागा' सप्त चूर्णिकाभागाः सप्तषष्टि भागाः + (४३/३५ (७) 'सेसा' शेषाः अवशिष्टास्तिष्ठेयुस्तत्समये सूर्यः पुनर्वसु नक्षत्रेण सह योगं युनकौति १६२/६७ भावः । अस्य गणितप्रकारः प्रदर्शते - अत्रापि स एव ध्रुवराशि: ( ६ ६ | ५ |१| ) चतुर्विंशत्या गुण्यते, जातानि चतुरशीत्यधिकानि पञ्चदशशतानि मुहूर्त्तानाम्, तद्गताः विंशत्युत्तरशतसंख्यका द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्वि शतिः सप्तषष्टि भागाः (१५८४।१२०।२४ |, तत एतस्माद् राशेः एकोनविंशत्यधिकाष्टशतमुहूर्त्ताः एकस्य मुहूर्त्तस्य च चतुर्विंशति द्वषष्टि भागाः, एकस्व “च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टि भागाः (८१९ / २४ / ६६), एतावत्प्रमाणः परिपूर्णौ नक्षत्र | ६२६७ ६१ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૮૨ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे पर्यायः गोव्यते, तिष्ठन्ति पश्चात् पञ्चपष्टयधिकानि सप्तशतानि मुहूर्तानाम्, एक मुहूर्तसम्बन्धिनश्च, पञ्चनवतिषष्टिभागाः, एकस्य द्वापष्टिभगस्य च पञ्चविंशति सप्तपष्टिभागाः, (७६५/ -)। तत एतेभ्य एकोनविंशति मुंइतः, एकस्य च मुइतस्य त्रिचत्वारिंशद् ६२/६७ द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः (१९+४३।३३) पुष्यस्य शुद्धाः स्थितानि पश्चात् पट्टचत्वारिशदधिकानि सप्तशतानि मुहूर्तानाम् एकस्य च मुहर्तस्य एकपञ्चाशद् द्वापष्टिमागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकोनषष्टिः सप्तषष्टि भागाश्च (७४६।५१) । ततः ૨૯૭ पुनरपि एतस्माद् राशेः चतुश्चत्वारिंशदधिकसप्तशतमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशति पिष्टिमागा', एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पदपष्टि सप्तपष्टिभागाः (७४४२४६२) अश्लेषाथापियन्तानां नक्षत्राणां शोध्यन्ते, स्थितौ पश्चात् द्वौ मुहूत्तौ, एकस्य च मूहूर्त्तस्य षविंशति षिष्टि भागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पष्टिः सप्तपष्टि भागाः (२।२६।६०), एतावत्परिमितेषु मुहूर्ता 'दिपु 'पुनर्वमुनक्षत्रस्य पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकस्य गतेपु ' सत्यु, तथा द्विचत्वारिंशन्मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चत्रिंशति द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तसु सप्तपष्टिभागेषु (१२।३५/७१) शेपेषु सत्सु द्वितीयचान्द्रसंवत्सरस्य पर्यवसानसमये सूर्यः पुनर्वसुनक्षत्रेण 'सह योग युनतीति । अथ तृतीयाभिवर्द्धितसंवत्सरविषये प्राह-'ता एएसिणं' इत्यादि, "ता' तावत 'एएसिण' एतेषां पूर्वोक्तानां 'पचण्हं संवच्छराणं'. पञ्चानां चन्द्रादि संवत्सगणां मध्ये 'तच्चस्स अभिवढियसंवच्छरस्स' तृतीयस्याभिवतिसंवत्सरस्य के आई आहिए' क आदिराख्यातः ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु । भगवानाह-'ता जे णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जे णं' यत् खल 'दोच्चस्स चंदसंवच्छरस्स' द्वितीयस्य चान्द्रसंवत्सरस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानं 'से णं' तत् खल 'तच्चस्स अभिवढिय संवच्छरस्स' तृतीयस्याभिवतिसंवत्सरस्य 'आई' आदिर्भवति, कीदृशः १ इत्याह-'अणंतर पुरक्खढे समप' अनन्तरपुरस्कृतः समयः, अनन्तरः द्वितीयचान्द्रसंवत्सराद अन्तररहितः पुरस्कृत तृतीयाभिवदितसंवत्सरस्य पूर्वगतः समय इति । अथ पर्यवमानविषये आह-'ता से णं किं पज्जवसिए' इत्यादि, 'ता' तावत् ‘से णं' स पूर्वोक्त स्तृतयोऽभिवर्द्धितसवत्सरः 'किं पज्जवमिए' किं पर्यवमितः कोढक् पर्यवसानवान 'आहिए' आख्यातः ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् । भगवानाह-'ना जेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जे णं' यः खलु 'चउत्थस्स' चतुर्थस्य 'चंदसंबच्छाम्म' चान्द्रसंवरमरस्य 'आई' आदिः आदिसमयः ‘से णं' स खल समयः तच्चस्स Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.११ सू.१ संवत्सराणामादिस्वपनिरूपणम् ४८३' अभिवडूढिय संवच्छरस्स' तृतीयस्याभिवर्द्धितसंवत्सरस्य. 'पज्जवसाणे' पर्यवसानम्-अन्तः, स. कीदृशः समयः इत्याह-'अणंतरपच्छा कडे समए' अनन्तरपश्चात्कृतः-अन्तररहितो पश्चाद् भाग:रूपः समयः अथ चन्द्रयोगमाह-'तं समयं च णं' इत्यादि, 'तं समयं च णं' तस्मिन् तृतीयाभिवद्धिसंवत्सरस्य पर्यवसानरूपे समये च खलु 'चंदे' चन्द्रः 'केणं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण सह 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति ! । भगवानाह-'ता उत्तराहि' इत्यादि 'ता' तावत् 'उत्तराहि आसाढाहिं' उत्तराभिराषाढाभिः, उत्तरापाढानक्षत्रेण सह चन्द्रो योगं युनक्ति । तत्रापि मुहूर्तादि कमाह-'उत्तराणं' इत्यादि, 'उत्तराणं आसाढाणं' उत्तराणामापाढानाम् उत्तरापाढानक्षत्रस्य 'तेरस मुहुत्ता ।' त्रयोदश मुहूर्ताः 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य 'तेरस य वाद्विभागा' त्रयोदश, च द्वापष्टिभागाः, 'वावहिभागं च' द्वापष्टि भागं च 'सत्तहिहा छित्ता' सप्तपष्टिधा छित्त्वा विभज्य 'सत्तावीसं चुण्णिया भागा' सप्तविशतिश्चूर्णिका भागा (१३।१३।२७) 'सेसा' शेषा अवशिष्टाः तिष्ठेयुस्तदा चन्द्र उत्तराषाढानक्षत्रेण सह योगं युनक्तीति भावः । अस्य गणितप्रकारः प्रदीते.. तृतीयाभिवर्द्धितसंवत्सरस्य परिसमाप्तिः सप्तत्रिशता पौर्णमासी मिर्भवतीति स एव ध्रुवराशि (६६।५।१।) सप्तत्रिंशता गुणनीयः, ततो जातानि द्वाचत्वारिशदधिकानि चतुर्विंशतिमुहूर्तशतानि; एकस्य मुहूर्तस्य पञ्चाशीत्यधिकशतसंख्यका द्वापष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तत्रिंशत् सप्तपष्टिभागाः (२४४२।१८५/३७) । तत एतस्माद्राशेः एकोन विंशत्यधिकानि अष्टौ मुहर्तशतानि, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशति पिष्टि भागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टि भागाः (८१९।२४।६६) इति सकलनक्षत्रपर्यायपरिमाणं द्वाभ्यां गुणयित्वा शोध्यते; ततो द्वाभ्यां गुणितो जातो राशि:-अष्टत्रिंशदधिकानि षोडश शतानि मुहूर्तानाम् एकस्य मुहूर्तस्य एकोन पञ्चाशद् द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चपष्टिः सप्तपष्टिभागाः (१६३८ । ४९ । ६५)। एष राशिः पूर्वप्रदर्शितराशेः (२४४२११८५३७।।) शोध्यते, शोधिते च स्थितः पश्चाद् राशि:- चतुरधिकानि अष्टौ मुहूर्तशतानि, तत् सम्बन्धिन पञ्चत्रिंशदधिकमेकं शतं द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकोनचत्वारिंशतत्सप्त षष्टिभागाः (८०४।१३५/३९) एतावद्रूपः । तत एतस्माद्राशेः चतुः सप्तत्यधिकसप्तशतमुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशति-पष्टिभागाः एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टि भागाः (७७४।२४।६६) अभिजित आरभ्य पूर्वाषाढा पर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चाद्-एकत्रिंशन्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहर्तस्याष्टचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः (३१।४८१४०) तत आगतम्-तृतीयाभिवर्द्धितसवत्सर पर्यवसानसमये उत्तराषाढानक्षत्रस्य पञ्च चत्वारिशन्मुहूर्तात्मकत्वात्तस्य त्रयोदश मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोदश द्वाषष्टि भागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागाः (१३॥ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे १३।२७) इति । अथ सूर्येण सह नक्षत्रयोगमाह-'तं समयं च णं' इत्यादि, 'तं समयं च णं' तस्मिन् चन्द्रस्य पूर्वोक्तनक्षत्रयोगरूपे समये च खल 'सूरिए, सूर्यः 'केणं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण सह 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति ?"--भगवानाह-'ता पुणवमुणा' इत्यादि, 'ता' तावत् 'पुणव्वसुणा' पुनर्वसुना पुनर्वसुनक्षत्रेण सह योगं युनक्ति । अथ पुनर्वसोर्मुहर्तादिक प्रदर्शयति 'पुणव्वसुस्स' इत्यादि, 'पुणवमुस्स' पुनर्वसुनक्षत्रस्य 'दो मुहृत्ता' द्वौ मुहूत्तौ, 'छप्पण्णं च वावद्विभागा मुहूत्तस्स' पट् पञ्चाशच्च द्वाषष्टि भागाः मुहत्तस्य, तथा 'वावहिभागं च' द्वापष्टिभागं च 'सत्तहिहा छित्ता' सप्तषष्टिधा ळिवा-विभज्य तत्सम्बन्धिनः 'सही' पष्टिः 'चुण्णियाभागा' चूर्णिका भागाः सप्तपष्टि भागाः (२१५६६०) 'सेसा' शेषा अवशिष्टास्तिष्टन्ति तस्मिन् समये सूर्यः पुनर्वसुनक्षत्रेण सह योग युनक्तीति । कथमिति, गणितं प्रदर्श्यते-अत्रापि स एव ध्रुवराशिः (६६।५।१) पूर्ववदेव सप्तत्रिंशता गुण्यते, जातानि पूर्ववदेव द्वाचत्वारिंशदधिकचतुर्वि शतिशतमुहूर्ताः, पञ्चाशीत्यधिकशत द्वापष्टिभागाः, सप्तत्रिंशच्च सप्त पष्टिभागाः (२४४२।१८५/३७) । तत एतेभ्यः पूर्वोक्त चन्द्रनक्षत्रयोगवत् सकलनक्षत्रपर्यायपरिमाणं (८१९।२४।६६) द्विगुणं (१६३८। १९६५) कृत्वा शोध्यते, स्थितानि पश्चात् चन्द्रनक्षत्रयोगसदृशान्येव चतुरुत्तराणि अष्टौ मुहूर्त शतानि, तत्सम्बन्धिनः पञ्चत्रिंशदधिकं शतं द्वापण्टि भागाः, एकोनचत्वारिंशच्च सप्तपष्टिभागाः (८०४।१३५।३९)। तत एतेभ्यः पुनरपि एकोनविंशतिर्मुहूर्ताः, त्रिचत्वारिंशद द्वापष्टिभागाः, प्रयस्त्रिंशत् सप्तपष्टि भागाश्च (१९।४३३३३) पुण्यनक्षत्रस्य शुद्धा', स्थितानि पश्चात्-पञ्चाशीत्य धिकसप्तशतमुहर्ताः, एकस्य मुहर्तस्य च द्विनवति पण्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टि भागस्य पडू सप्तपष्टि भागाः (७८५।१२।६)। ततो भूयोऽप्येतेभ्यः चतुश्चत्वारिंशदधिकानि सप्त मुहूर्तशसानि, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिष्टि भागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पट्पष्टिः सप्तपष्टि भागाः (७४४।२४।६६) मलेपादीनां आर्द्रापर्यन्तानां नक्षत्राणां शुद्धाः, स्थिताः पश्चात्वाचवारिंशन्मुहर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चद्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्त सप्तपष्टिभागाः (१२।५।७) गताः तत अगतम् - तृतीयाभिवदितसंवत्सरपर्यवसानसमये सूर्यः पुनर्वसुनक्षत्रस्य पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकस्वात्तस्य द्वौ मुहत्तौ, एकस्य च मुहूर्तस्य षट् पञ्चाशद द्वापष्टि भागाः एकस्य च दापष्टिभागस्य पष्टिश्चूर्णिकाभागाः (२१५६६०), एतावत्परिमितेषु मुहर्तादिषु शेपेपु सत्सु सूर्यः पुनर्वसुनक्षत्रेण सह योगं करोतीति । अथ चतुर्थचान्द्रसवत्सर्गवपये प्राह- 'ता एएसिणं' इत्याटि 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां वौंकानां चन्द्रादीनां 'पंचण्डं संवच्छराणं' पञ्चाना संवत्सराणां मध्ये 'चउत्थस्स' चतुअस्य 'चंदसंबच्छरम्म' चन्द्रिसंवत्सरस्य 'के आई .आहिए' क मादिराख्यातः ? 'विवए Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहातप्रकाशिकाटोका प्रा.११ सू०१ संवत्सराणामादिस्वरूपनिरूपणम् ४८५ ज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवन् ! भगवानाह-'ता जेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जे णं' यत्खलु तच्चस्स अभिवइढियसंवच्छरस्स' तृतीयस्याभिवर्द्धितसंवत्सरस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानं 'से णं' तत्खलु 'चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स' चतुर्थस्य चान्द्रसंवत्सरस्य 'आई' आदिः कीहक् समयः? इत्याह- 'अणंतरपुरक्खडे समए' अनन्तरपुरस्कृतः पुरोभागरूपः समयः अनन्तरः अन्तररहितः पुरस्कृतः पुरोभागरूपः समयः । पर्यवसानसमयं पृच्छति- 'ता से ' इत्यादि, 'ता' तावत् 'से गं' स खलु चतुर्थश्चान्द्रसंवत्सरः 'किं पज्जवसिए' किं पर्यवसितः । कीदृक् पर्यवसानवान् 'आहिए' आख्यातः ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवान् ! भगवानाह-- 'ता जेणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'जे णं' यः खलु 'चरिमस्स' चरमस्य पञ्चमस्य 'अभिवढियसंवच्छरस्स' अभिवर्द्धितसंवत्सरस्य 'आई' आदिः 'सेणं' स खलु 'चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स' चतुर्थस्य चान्द्रसवत्सरस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानं भवति, स कोहक समयः ? इत्याह- 'अणंतरपच्छाकडे समए' अनन्तर श्चात्कृतः अनन्तरः अन्तररहितः पश्चात्कृतः चतुर्थसंवत्सरस्यान्तभागरूपः समयः। अथ चन्द्रस्य नक्षत्रयोगमाह-- 'तं समयच' इत्यादि, 'तं समयं च णं' तस्मिन् चतुर्थचान्द्रसंवत्सरपर्यवसानभूत समये च खल्लु 'वंदे चन्द्रः 'केणं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण सह 'जोयं' जोएइ' योगं युनक्ति ? भगवानाह-'ता उत्तराहि' इत्यादि, 'ता' तावत् 'उत्तराहिं आसाढाहिं' उत्तराभिरापाढाभिः उत्तरापादानक्षत्रेण सह योगं युनक्ति । अथास्य मुहूर्त्तादिकमाह-'उत्तराणं' इत्यादि, 'उत्तराणं आसाढाणं' उत्तराणामापाढानां नक्षत्रस्य 'उणयालीस मुहुत्ता' एकोनचत्वारिंशन्मुहर्ताः, 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य 'चत्तालीसं च वावद्विभागा' चत्वारिंशच्च द्वापष्टिभागाः, तद्गतं 'वावद्विभागं च' द्वापष्टिभागं च 'सत्तट्टिहा छित्ता' सप्तपष्टिधा छित्त्वा विभज्य तत्सम्बन्धिनः 'चउस' चतदेश 'चुण्णियाभागा' चूर्णिका भागाः सप्तषष्टि भागाः(३९।४।१४) 'सेसा' शेपा अवशिष्टास्तिष्ठेयुस्तदा चन्द्रः उत्तरापाढानक्षत्रेण सह योगं युनक्तीति । कथमिति गणितं प्रदर्श्यते-चतु चान्द्रसंवत्सरपर्यवसानमेकोनपञ्चाशत्तमपौर्णमासी:भिर्भवतीति स एव ध्रुवराशिः (६६।५।१) एकोनपञ्चाशता गुण्यते, जातानि चतुस्त्रिशदधिकानि द्वात्रिंशन्मुहर्तशतानि, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चचत्वारिंशदधिके द्वे शते द्वापष्टि भागानाम्, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकोनपञ्चाशत् सप्तषष्टिभागाः (३२३४।२४५/४९) तत एतस्मात् प्रागुक्तं सकलनक्षत्रपर्यायपरिमाणं (८१९।२४६६) त्रिभिर्गुणितम् (२४५७/७२।१९८) पूर्वस्माद्राशेः (३२३४।२४५/४९) शोधिते पश्चात् स्थितानि सप्तसप्तत्यधिकानि सप्तशतानि मुहूर्तानाम् , एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तत्यधिकमेकं शतं द्वाषष्टि भागानाम् , एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्विपञ्चाशत् सप्तषष्टिभागाः (७७७।१७०५२) एतस्माद राशेः चतुः सप्तत्यधिकसप्तशतमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशति षिष्टिभागाः, एकस्य Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । . . चन्द्रप्राप्तिसूत्रे च द्वापष्टिभागस्य पटूपष्टि. सप्तपष्टिभागाः (७७४।२४।६६) भूयोऽप्यभिजिदादि पाढापर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यन्ते स्थिताः पश्चात् पञ्च मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्या एकविंशतिपष्टिः भागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिपञ्चाशत्, सप्तपष्टि भागाः (५।२११५३)। गताः । तत आगतम्-~चतुर्थचान्द्रसंवत्सरपर्यवसानसमये उत्ताराषाढानक्षत्रस्य पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मक: भागस्य एकोन विंशतिः सप्तपप्टिभागाः (७५८।१२७११९) ततश्चतुश्चत्वारिंशदधिकसप्तशतमुहर्ताः एकस्य च मुहर्तस्य चतुर्वि गति पिष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टि भागस्य पट्षष्टिः सप्तपष्टिभागाः (७४४१२४६६) मालेपादीनामा पर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चात् पञ्चदशमुहर्ताः एकस्य च मुहूर्तस्य चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य विशतिः सप्तपष्टिभागाः (१५१४०।२०) पुनर्वसुनक्षत्रस्य गताः, तत मागतम् पुनवसोनक्षत्रस्य पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तात्मकत्वात्तस्य चतुर्थचान्द्रसवत्सरपर्यवसानसमये एकोन त्रिंशन्मुहूर्तेपु एकस्य च मुहूर्तस्य एकविंशतो द्वापष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टि भागस्य सप्तचत्वारिंशति सप्तपष्टि भागेषु (२९।२१।४७) शेषेष्ठ सूर्यः पुनर्वसुनक्षत्रेण सह योगं करोतीति सिद्धम् । अथ पञ्चमाभिवर्द्धितसंवत्सरविपये प्राह- 'ताएएसिणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां चन्द्रादीनां 'पंचण्हं संवच्छराणं' पञ्चाना सवत्सराणां मध्ये 'पंचमस्स अभिवड्डियसंवच्छरस्स' पञ्चमस्यामिवर्द्धितसंवत्सरस्य 'के आई क आदिः 'आहिए' आख्यातः कथितः ? तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवन् ! भगवानाह'ता जे णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जे णं' यत्खल 'चउत्थस्स चंदसंवच्छस्स' चतुर्थस्य चान्द्र सवत्मरस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवसानं 'से गं' तत्खलु 'पंचमस्स अभिवढियसंवच्छरस्स' पञ्चमस्याभिवद्धितसवत्सरस्य 'आई' आदिरस्ति स कीदृक् समयः ? इत्याह-'अणंतरपुरकखडे' अनन्तरपुरस्कृत अनन्तरः अन्तररहितः पुरस्कृतः पुरोवती भावी 'समए' समयः । अथ ,पर्यवसान माह--'ता से ण' इत्यादि 'ता' तावत् ‘से गं' स खलु पश्चमाभिर्द्धितसंवत्सरः 'किं पज्जवसिएँ' कि पर्यवसित कि पर्यवमानवान् 'आहिए' आख्यातः ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवन । भगवानाह- 'ता जेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जेणं' यः खलु-'पढमस्स',प्रथमस्य पुरोवर्ति युगस्य यः प्रथमस्तस्य 'चंदसंवच्छरस्स' चान्द्रसवत्सरस्य 'आई' आदिः 'से णं' स खलु 'पंचा मम्स' पनमस्य वर्तमानयुगसम्बन्धिनः 'अभिवइढियसंवच्छरस्स' अभिवद्धितसंवत्सरस्य 'पज्जवसाणे' पर्यवमानम्-अन्तिमः समयः, कीदृशः ? इत्याह-'अणंतर पच्छाकडे समए' अनन्तरपश्चान्कृतः समय. अनन्तरः अन्तररहितः पश्चात्कृतः अतीतः समयः । चन्द्रेण सह नक्षत्रयोगमाह-'तं समयं च णं' इस्यादि, 'तं समयं च णं' तस्मिन् समये पञ्चमाभिवर्द्धितसंवत्मापर्यवमानसमये च खल्ल 'चदे' चन्द्रः 'कणं णक्खत्तेणं जोयं जोएइ' केन नक्षत्रेण सह योगं युनक्ति : उत्तरमाह-'ता उत्तराहिं' इत्यादि, 'ता' तावत् "उत्तराहिं आसाढाहि' उत्तराभिगपादाभिः उत्तरापादानक्षत्रेण सह योग युनक्ति । तस्य मुइ टिकमाह-'उत्तराणं' इत्यादि Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.११ सू. १ संवत्सराणामादिस्वरूपनिरूपणम् ४८७ • उत्तराणं आसाढाण: उत्तराणामाषाढानां उत्तराषाढानक्षत्रस्य 'चरमसमए' चरमसमये । अन्तिम . भागे चन्द्र उत्तराषाढानक्षत्रेण सह योगं युनक्ति । अस्य गणितप्रकारः-प्रदर्श्यते पञ्चमाभिवर्द्धित • संवत्सरंपर्यवसान'द्वापष्टितमपौर्णमासीभिर्भवतीति स एव ध्रुवराशिः (६६।५।१) द्वापष्टया गुण्यते, जातानि द्विनवत्यधिकानि चत्वारिंशन्मुहूर्तशतानि, एकस्य च मुहूर्तस्य दशोत्तराणि त्रीणि शतानि द्वापष्टिभागाः; एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वापष्टिः सप्तषष्टिभागाः (४०९२।३१०९६२, तत एतस्मादाशेः 'अट्ठसय उगुणवीसा सोहणगं उत्तराणसाढाणं । चउवीसं खलु भागा, छावट्टी 'चुणियाओ य ॥१॥" इति वचनात् एकोनविंशत्यधिकानि अष्टमुहूर्त्तशतानि एकस्य मुहूर्त्तस्य चतुर्विशति द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्षष्टिश्चूर्णिका भागाः (८१९।२४।६६) 'इत्येतत्परिमितं सकलनक्षत्रपर्यायपरिमाणमत्र पञ्चभिर्गुण्यते, जातानि पञ्चनवत्यधिकानि चत्वारिंश'च्छतानि, विंशत्युत्तरं शतं द्वापष्टिभागाः, त्रिंशदुत्तराणि त्रीणि शतानि सप्तषष्टिभागाः (४९५।१२०॥ ३३०) एप राशिः शोध्यते, द्वयोः राश्योर्मुहूर्त्तादिकं कृत्वा पूर्वोक्तप्रकारेण शोधने जायते परिपूर्णो राशिः, न किञ्चित्तत्पश्चादवतिष्ठते तत आयाति–उत्तराषाढानक्षत्रचन्द्रयोगस्य चरमसमये द्वापतितमपौर्णमासी परिसमाप्तिकाले पञ्चमाभिवर्द्धितसंवत्सरस्य पर्यवसानं भवतीति । अथ सूर्य नक्षत्रयोगमाह-'तं समयं च णं' इत्यादि, 'तं समयं च णं' तस्मिन् उत्तराषाढानक्षत्रचरम समयचन्द्रयोगरूपे समये च खलु 'सरिए सूर्यः 'केणं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण सह 'जोयं जोएड' योगं युनक्ति ? भगवानाह-'ता पुस्सेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् पुस्सेणं' पुष्येण सह योगं युनक्ति । अस्य मुहूर्त्तादिकमाह-'पुस्सस्स णं इत्यादि, 'पुस्सस्स णं' पुष्यस्य पुष्यनक्षत्रस्य खलु 'एगूणवीस मुद्दुत्ता' एकोनविंशतिर्मुहूर्ताः 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य च 'तेयालीसं च वावटिभागा' त्रिचत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागाः, 'वावद्विभागं च सत्तद्विहा छित्ता' द्वाषष्टिभागं च सप्तपष्टिधा छित्त्वा 'तेत्तीस चुणिया भागा' त्रयस्त्रिंशत् चूर्णिकाभागाः सप्तषष्टिभागाः (१९१४३ ३३) 'सेसा' शेपाः अवशिष्टास्तिष्ठेयुस्तदा सूर्यः पुण्यनक्षत्रेण सह योग युनक्तीति । एतदेव गणितेन प्रदर्श्यते-अत्रापि स एव ध्रुवराशिः (६६।५।१) द्वाषष्टया गुण्यते, जातानि विनवत्यधिकानि चत्वारिंशन्मुहूर्तशतानि, एकस्य च मुहूर्तस्य दशोत्तराणि त्रीणि शतानि द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वाषष्टिः सप्तषष्टिभागाः (४०९२।३१०।६२) । अत्र च पाश्चात्ययुगस्य परिसमाप्तिः पुष्यस्य दशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्याष्टादशसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु.(१०।१८।३४) अतिक्रान्तेषु भवति, तदनन्तरमन्यद् वर्तमानं युगं प्रवर्त्तते, तत एतदपि युगं भूयोऽपि पुष्यस्य तावन्मात्रेष्वेव मुहूर्तादिष्वतिक्रान्तेषु परिसमाप्तिमेति तत एतावत्प्रमाण एकः परिपूर्णी नक्षत्रपर्यायो भवति स च-एकोनविंशत्यधिकानि अष्टौ मुहूर्तशतानि एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशति षिष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्त Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ . . . . . चन्द्रमशसियने पष्टिभागाः (८१९।२४।६६) एतोवत्परिमित एकः सकलनक्षत्रपर्यायो. भवतीति पूर्वमपि न प्रद र्शितः। तत एप सकलनक्षत्रपर्यायः पञ्चमिर्गुणयित्वा प्रागुक्तात् द्वापष्टि गुणिताद् ध्रुवराशेः शोभ्यते तथाहि-पञ्चभिर्गुणितः सकलनक्षत्रपर्यायो जायते-पञ्चनवत्यधिकानि चत्वारिंशन्मुइ-शतानि, एकस्य मुहूर्तस्य दशोत्तरमेकं शतं द्वापष्टिभागानाम् एकस्य द्वापष्टिभागस्य त्रिंशदधिकानि त्रीणि शतानि सप्तपष्टिभागाः (४०९।११०।३३०)। एष राशिः पूर्वप्रदर्शितात् द्वापष्टिगुणिताद् ध्रुवसशेः (१०९२।३१०१६२) पूर्वोक्तेन शोधनकप्रकरण शोध्यते च परिपूर्ण शुद्धयति, न किञ्चित्पश्चादवतिष्ठते स राशिनिलेपो जायते, तत अगतम्-पुष्यस्य दशसु मुहूर्तेषु, एकस्य मुहूर्तस्य चाष्टा दशमु द्वापष्टिभागेषु, एकस्य द्वापष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु (१९१४३३३३) पुण्यस्य त्रिंशन्मुहूर्तात्मकत्वा देतावत्सु शेपेपु द्वापष्टितम पौर्णमासी परिसमाप्तिसमये वर्तमान युग परिसमाप्ति समये च सूर्यः पुष्यनक्षत्रेण सह योगं युनक्तीति "ता कहं ते संवच्छराण आई आहिए" तावत् कथं ते संवत्सराणामादिराख्यातः, इति सूत्रम् १॥ . . __ इति श्रीजैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर घासीलाल व्रति विरचितायां . चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य ,चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाख्यायां , व्याख्यायां:-एकादशं प्रामृतं , ' । समाप्तम् ॥११॥ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सू.१ नक्षत्रादिसंवत्सरसंख्यादिकम् ४८९ । अथ द्वादशं प्राभृतम् । गतमेकादशं प्राभृतम्, तत्र संवत्सराणामादिः पर्यवसानं च प्रदर्शितम् । अथ द्वादशं प्राभृतं प्रारभ्यते, तत्र 'कइ संवच्छराआहिया' । कतिसंवत्सरा इति, संवत्सराः कति भवन्तीति नक्षत्रादि संवत्सरांणां संख्या, तेषां रात्रिन्दिवाः, मुहूर्ताप्राणि च प्रदर्शयिष्यते, इति सम्बन्धेनायातस्यास्य द्वादशस्य प्राभृतस्येदमादिसूत्रम्-'ता कइ णं संवच्छरा आहिया' इत्यादि । मूलम् -- ता कइणं संवच्छरा आहिया ? तिवएज्जा, तत्थ खल इमे पंच संवच्छरा पण्णत्ता, तं जहा-णक्खत्ते १ चंदे २, उ ऊ ३, आइच्चे ४, अभिवढिए ५। ता एएसिणं पंचण्डं संवच्छराणं पढमस्स णक्खत्तसंवच्छरस्स णक्खत्ते मासे तीसइ तीसइ मुहुत्तेणं अहोरत्तेणं गणिज्जमाणे केवइए राई दियग्गेणं आहिए ? निवएज्जा, ता सत्तावीसं राईदियाई एकवीसं च सत्तट्ठिभागा राइंदियस्स राइंदियग्गेणं आहिए तिवएज्जा । ता से णं केवइए मुहुत्तग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा, ता अढ सयाई एगूणवीसाई मुहुत्ताणं, सत्तावीसं च सत्तट्टि भागा मुहुत्तग्गेणं आहिए तिवएज्जा। ता एस णं अद्धा दुवालसक्खुत्तकडा णक्खत्ते संवच्छरे ता से णं केवइए राइंदियग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा, ता तिणि सत्तावीसाई राई दियसयाई अक्कावन्नं च सत्तद्विभागा राइंदियस्स राइदियग्गेणं आहिए तिवएज्जा । ता से णं केवइए मुहुत्तग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा, ता णव मुहुत्तसहस्सा, अट्ठय वत्तीसाई मुहत्तसयाई, छप्पन्नं च सत्तद्विभागा मुहुत्तस्स मुहत्तग्गेणं आहिए तिवएज्जा ? ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चस्स चदसंवच्छरस्स चंदे मासे तीसइ तीसइ मुहत्ते णं अहोरत्तेणं गणिज्जमाणे केवइए राइंदियग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा, ता एगणतीसं राइंदियाई, वत्तीसं वावटिभागा राइंदियस्स राइदिग्गेणं आहिए तिवएज्ज, ता से णं केवइए मुहुत्तग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा, ता अट्ठपंचासीयाई मुहुत्तसयाई तीसं च वावद्विभागा मुहुत्तस्स मुहुत्तग्गेणं आहिए ति वएज्जा, ता एस णं अद्धा दुवालसखुत्तकडा चंदे संवच्छरे, ता सेणं केवइए राई दियग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा, ता तिण्णिचउप्पन्नाई राइंदियसयाई दुवालस य वावद्विभागा राइंदियस्स राइं दियग्गेणं आहिए तिवएज्जा, ता से णं केवइए मुहुत्तग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा, ता दस मुहुत्तसहस्साई छच्च पणवीसाई मुहुत्तसयाइं पण्णासं च वावद्विभागा मुहुत्तस्स मुहुत्तग्गेणं आहिए ति वएज्जा । ता एससिणं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चस्स उउ संवच्छरस्स उऊमासे तीसइ तीसइ मुहुत्तेण अहोरत्तेणं गणिज्जमाणे केवइए राइ दियग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा, ता तीसं राईदियाणं राइंदियग्गेणं आहिए ति वएज्जा, ता से णं केवइए मुहुत्तग्गेणं आहिए ? ति वएज्जा, ता णव मुहत्त Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० चन्द्रप्राप्तिसूत्रे सयाई मुद्दत्तग्गेणं आहिए तिवएज्जा, ता एस अद्धा दुवालस खुत्तकडा उऊ संवच्छरे, ता से ण केवइए राई दियग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा, ता तिणि सहाई राइंदियसयाई राइंदियग्गेणं आहिए तिवएज्जा, ता से णं केवइए मुहुत्तग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा दस मुहुत्तसहस्साई अट्टय सयाई मुहुत्तग्गेणं आहिए तिवएज्जा ।। ता एएसिणं पंचई संवच्छराणं चउत्यस्स आइच्चे मासे तीसह तीसइ मुहुत्तणें अहोरत्तेणं गणिज्जमाणे केवइए राईदियग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा, ता तीसराइंदियाई अवड्ढभागं च राईदियस्स राइंदियग्गेणं आहिए तिवएवज्जा, ता से णं केवइए मुहत्तग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा, ता णव पण्णरसाई मुहत्तसयाई मुहत्तग्गेणं आहिए तिवएज्जा, ता एसणं अद्धा दुवालसखुत्तकडा आइच्चे संवच्छरे, ता से ण केवइए राइदियग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा, ता तिन्नि छावहाई राइंदियसयाई राइंदियग्गेणं आहिए तिवएज्जा, ता से णं केवइए मुहत्तग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा, वा दस मुहुत्तसहस्साई णव य असीयाई मुहत्तसयाई मुहुत्तग्गेणं आहिए तिवएज्जा ।। ता एएसिणं पंचण्डं संवच्छराणं पंचमस्स अभिवढियसंवच्छरस्स अभिवद्धिए मासे तीसइ तीसइ मुहुत्तणं अहोरत्तेणं गणिज्जमाणे केवइए राइंदियग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा, ता एकतीसं राइंदियाई, एगृणतीसं च मुहुत्ता, सत्तरस वावद्विभागा मुहुत्तस्स राइंदियग्गेणं आहिए तिवएज्जा, ता से णं केवडए मुहत्तग्गेणं आहिए ? तिवएज्जा ताणं णव एगृणसट्टाई मुहत्तसयाई, सत्तरस वावटिभागा मुहुत्तस्स मुहुत्तग्गेणं आहिए तिवएज्जा, ता एसणं अद्धा दुवालसखुत्तकडा अभिवढिए संवच्छरे, ता से णं केवइए राइंदियग्गेणं आहिए ? निवएज्जा ना तिणि तेसीयाई राइदियसयाई, एकतीसं च मुद्दुत्ता अट्ठारस वावद्विभागा मुद्दुत्तम्स रादियग्गेण आहिए तिवएज्जा, ता से णं केवइए मुद्दुत्तग्गेण आहिए ? तिवएज्जा ? ता एकारस. मुहत्तसहस्माई पंच य एक्कारसाइं मुहत्तसयाई, अहारस य बावहिभागामुहत्तम्स मुहत्तग्गेणं आहिए तिवएज्जा ॥ सूत्रम् ॥ छाया-नावत् कनि खलु संवत्सरा आख्याताः १ इनि वदेत् तत्र खलु इमे पञ्च संव. सगः प्राप्ताः, तद्यथा नाक्षत्रः १ चान्द्रः २, आत्तवः ३, आदित्यः ४ अभिवद्धितः ५। नाचन् एनेपां गलु पञ्चानां संवत्सराणां प्रथमम्य नाक्षत्रसंवत्सरस्य नाक्षत्रोमासः त्रिंशविशन्मार्त्तकेन अहोरात्रण गण्यमानः कियत्कः रात्रिदिवाण आख्यातः ? इति वदेत् तायत् सप्तविशतिः राघिन्दिवानि, एकविंशतिश्च सप्तपष्टिभागा राबिन्दिवस्य रात्रिन्दियाण बास्त्रात इति वदेन् । नायत् स खलु कियत्कः मुहर्ताग्रेण पाख्यातः ? इति वदेत् नायत् अष्ट शनानि एकोनविंशानि मुहनानाम् सप्तविंशतिश्च सप्तपष्टि भागा मुहत्तस्य मुन ग्रेण भाग्यात इति वदेत् । तावत् पपा सलु अद्धा हादशमृत्यः कृता नाभव संव मरः, नायत् म गलु कियकः रात्रिन्दिवाण आयातः ? इति वदेत्, तवात् त्रीणि सप्त विगनि गत्रिन्दियानानि, पत्र पञ्चाशच्च सप्तपष्टिभागा गत्रिन्दिवम्य रात्रिन्दिवाण भाग्यात इति वदेत्, तावत् स म्बद्ध कियत्कः मुहनिण पाण्यातः ? इति वदेत् तावत् Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा. १२ सू० १ नक्षत्रादिसंवत्सर संख्यादिकम् ४९१ नवमुहर्त्तसहस्राणि अष्ट च द्वात्रिंशानि मुत्तशतानि षट्पञ्चाशच्च सप्तषष्टिभागा मुहूर्त्त - स्य मुहर्त्ताग्रेण आख्यात इति वदेत् १ | तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां द्वितीयस्य चन्द्रसंवत्सरस्य चान्द्रो मासः त्रिंशत् त्रिंशन्मुहूर्त्तकेन अहोरात्रेण गण्यमानः कियत्कः रात्रिन्दिवाण आख्यातः ? इति वदेत् तावत् एकोनत्रिंशद् रात्रिन्दिवानि द्वात्रिंशच्च " " भागा रात्रन्दिवस्य रात्रिन्दिवात्रेण आख्यातः इति वदेत् तावत् स खलु कियत्कः मुहतणि आख्यातः ? इति वदेत् अष्टौ पञ्चाशीतानि मुहर्त्तशतानि, त्रिंशच्च द्वाषष्टिभागा मुहत्तस्य मुहर्त्ताग्रेण आख्यात इति वदेत् तावत् एषा खलु भद्धा द्वादश कृत्वः कृता चान्द्रः संवत्सरः, तावत् स खलु कियत्कः रात्रिन्दिवाग्रेण आख्यातः १ इति वदेत्, तावत् त्रोणि चतुष्पञ्चाशानि रात्रिन्दिवशतानि द्वादश च द्वापटिभागा रात्रिन्दिवस्य रात्रिन्दिवाग्रेण आख्यात इति वदेत्, तावत् स खलु कियत्क• मुहर्त्ताग्रेण आख्यातः । इति वदेत् नावत् दशमुहर्त्तसहस्राणि, पद् च पञ्चविंशानि मुहूर्त्तशतानि, पञ्चाशच्च द्वापष्टिभागा मुहर्त्तस्य मुहर्त्ताग्रेण आख्यात इति वदेत् |२| तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां तृतीयस्य आर्त्तवसंवत्सरस्य आर्त्तवो मासः त्रिंशत् त्रिंशन्मुहर्त्तकेन अहोरात्रेण गण्यमानः कियत्कः रात्रिन्दिवाग्रेण आख्यातः १ इति वदेत्, तावत् त्रिंशद् रात्रिन्दियानां रात्रिन्दिवाग्रेण आख्यात इति वदेत् तावत् स खलु कियत्कः मुहर्त्ताग्रेण आख्यात ? इति वदेत्, तावत् नव मुहूर्त्तशतानि मुहर्त्ताग्रेण आख्यातः इति वदेत् तावत् पपा खलु अद्धा हृदशकृत्वः कृत्वः कृता आर्त्तवः संवत्सरः, तावत् स खलु कियत्कः रात्रिद्विवाग्रेण आख्यातः १ इति वदेत् तावत् त्रीणि पप्रयधिकानि रात्रिन्दिवशतानि रात्रिन्दिवाग्रेण आख्यात इति वदेत्, तावत् स खलु कियत्कः मुहतत्रिण आख्यातः ? इति वदेत् तावत् दशमुहूर्त्तसहस्राणि, अष्ट च शतानि मुहूर्त्ताग्रेण आख्यातः इति वदेत् । ३ । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां चतुर्थस्य आदित्य संवत्सरस्य आदित्यो मासः त्रिंशत् त्रिंशन्मुहूर्त्तकेन अहोरात्रेण गण्यमानः कियत्कः रात्रिन्दिवाण आख्यानः ? इति वदेत्, तावत् त्रिंशद्ात्रिन्दिवानि अपार्द्धभागश्च रात्रिन्दिवस्य रात्रिन्दिवात्रेण आख्यातः इति वदेत्, तावत् स खलु कियत्कः मुहूर्त्ताश्रेिण आख्यातः ! इति वदेत्, तावत् नव पञ्चदशानि मुहूर्त्तशतानि मुहूर्त्ताग्रेण आख्यात इति वदेत्, तावत् एषा खलु अद्धा द्वादशकृत्वः कृता आदित्यः संवत्सरः तावत् स खलु कियत्कः रात्रिन्दिवात्रेण आख्यातः १ इति वदेत् तावत् त्रीणि षट्षष्टानि रात्रिन्दिवशतानि रात्रिन्दिवाग्रेण आख्यात इति वदेव तावत् स खलु कियत्कः मुहर्त्ताग्रेण आख्यात इति वदेत् |४| तावत् पतेपां खलु पञ्चानां संवत्सराणां पञ्चमस्य अभिवर्द्धित संवत्सरस्य अभिवर्द्धितो मासः त्रिंशत् त्रिंशन्मुहूर्त्तकेन अहोरात्रेण गण्यमानः कियत्कः रात्रिद्विवाग्रेण आख्यात ? इति वदेत् तावत् एकत्रिंशद् रात्रिन्दिवानि, एकोनत्रिंशच्च मुहूर्त्ताः सप्तदश द्वाषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य रात्रिन्दिवाग्रेण आख्यातः इति वदेत् तावत् स खलु कियत्क मुहर्त्ताग्रेण आख्यात ? इति वदेत्, तावत् नव एकोन षष्टानि मुहूर्त्तशतानि सप्तदशद्वाषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य मुहूर्त्ताग्रेण आख्यात इति वदेत् तावत् एषा खलु अद्धा द्वदशकृत्वः कृता अभिवर्द्धित संवत्सरः । तावत् स खलु कियत्कः रात्रिन्दिवाग्रेण आख्यातः ' १ इति वदेत् तावत् त्रीणि त्र्यशीतानि रात्रिन्दिवशतानि, एकविंशतिश्च मुहूर्त्ताः, अष्टादश द्वाषष्टिभागा, मुहर्त्तस्य रात्रिन्दिवाग्रेण आख्यात इति वदेत् तावत् स खलु कियत्कः " , 1 Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे मुहांग्रेण आख्यातः इति वदेत् , तावत् पकादश मुहर्तसहस्राणि, पञ्चएकादशानि मुह शतानि, अष्टादश च द्वापष्टिभागा मुहर्ताग्रेण आख्यात इति वदेत् ॥सू १॥ ___व्याख्या-गौतमः पृच्छति-'ता कइणं संवच्छरा इति, 'ता' तावत् 'कइणं' कति कियरसंख्यकाः खलु 'संबच्छरा' संवत्सराः, 'आहिया आख्याताः तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् ? गौतमेन एवं पृष्टे भगवानाह-'तत्थ खलु' इत्यादि, 'तत्थ खलु तत्र संवत्सरविपये खलु 'इमे' इमे-वक्ष्यमाणाः 'पंचसंवच्छरा पण्णत्ता' पञ्च संवत्सराः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-'णक्खत्ते नाक्षत्रः नक्षत्रचारसम्बन्धी 'संवच्छरे' सवत्सरः प्रथमः १, 'चंदे' चान्द्रः चन्द्रचारसम्बन्धी 'संवच्छरे' संवत्सगे द्वितीयः २, 'उऊ' आर्तवः ऋतु सम्बन्धी ऋतुजन्यः 'संवच्छरे' संवत्सरस्तृतीय ३, 'आइच्चे' आदित्यः-आदित्यचारजन्यः 'संवच्छरे' संवत्सरश्चतुर्थः ४, 'अभिवइढिए' अमिवद्धितः यत्र संवत्सरेऽधिको मासः स तादृशः अभिवद्धितः 'संवच्छरे' सवत्सरः पञ्चम. एते पञ्च सवत्सरा आख्याता इति । तत्र पञ्चानामपि संवत्सराणां मास मुहूर्त्तादिकमाह-'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत 'एएसिणं' एतेषां नाक्षत्रादीनां 'पंचण्डं' पश्चाना 'संवच्छराणं' संवत्सराणां मध्ये 'पढमस्स' प्रथमस्य 'णक्खत्त संवच्छरस्स' नाक्षत्र संवत्सरस्य संबंधो यो 'णक्खत्ते मासे' नाक्षत्रो मासः 'तीसह तीसइ मुहत्तेणं' त्रिंशत् त्रिंशन्मुहूर्त्तकेन त्रिंशत् त्रिंशन्मुहूर्तात्मकेन 'अहोरत्तेणं' अहोरात्रेण रात्रिन्दिवेन अहोरात्रस्य सर्वदा त्रिंगन्मुहूर्तात्मकत्वात् 'गणिज्जमाणे' गण्यमानः नक्षत्रमासः 'केवडए' कियत्कः कियत्सख्यकाहोरात्रकः क्रियदहोरात्रवान् एकस्मिन् नक्षत्रमासे कियन्तोऽहोरात्रा इत्यर्थः 'राइंदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाण रात्रिन्दिवपरिमाणेन अहोरात्रप्रमाणेन 'आहिए' आख्यातः ? 'तिवएज्जा' इति एतत्परिमाण वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् ? । एवं गौतमेन पृष्ट तत्प्रमाणं भगवानाह-'ता सत्तावीसं' इत्यादि, 'ता' तावत् ‘सत्तावीसं राईदियाई' सप्तविंशतिः रात्रिन्दिवानि 'राईदियस्स' एकस्य रात्रिन्दिवस्य 'एकवीसं च सत्तद्विभागा' ऐकविंशतिश्च सप्तपष्टिभागाः (२७-२१) 'राइंदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाण अहोरात्रपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः कथितो नक्षत्रमासः, 'तिवएजा' इति एवं वदतु कथयतु हे गौतम ! स्वशिप्येभ्यः इति । अथ नक्षत्रमासस्य रात्रिन्दिवपरिमाणे गणित प्रदर्श्यते-युगे हि नक्षत्रमासाः सप्तपप्टिरिति पूर्व प्रदर्शितमेव । युगे चाहोगत्राः-त्रिंगदाधिकानि अष्टादशशतानि (१८३०) तत एपा युगगत नक्षत्रमाससंख्यया सप्तपत्र्या भागो हियते, लब्धाः सप्तविंशतिरहोरात्राः एकस्य चाहोरात्रस्य एकविंशति समष्टि भागा. (२०२१) सूत्रोक्ता आगता इति । अथ नक्षत्रमासस्य मुहूत्तपरिमाणं पृच्छति'ता सेणं इत्यादि, 'ता' तावत् 'मे णं' स खल नक्षत्रमास केवटए' कियकः कियपरिमितः 'मुहुत्तग्गेणं' मुहूर्ताप्रेण मुहूर्तपरिमाणेन, एकस्य नक्षमासस्य कियन्तो Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्ति काशिकाटीका प्रा १२ सू. १ नक्षत्रादिसंवत्सरसंख्यादिकम् ४९३ मुहूर्त्ता इत्यर्थः 'आहिए' आख्यातः कथितः 'ति वएज्जा' इति वदेत् कथयतु हे भगवन् ! । भगवानाह-'ता असयाई' इत्यादि, 'ता' तावत् 'असयाई अष्टशतानि 'एग्रणवीसाई' एकोन विशानि एकोनविंशत्यधिकानि 'मुहुत्ताणं' मुहूर्तानाम्, एकोन विंशत्यधिकाष्टशतमुहूर्ताः, 'मुहुत्तस्स' एकस्य च मुहर्तस्य 'सत्तावीसं च सत्तद्विभागा' सप्तविंशतिश्च सप्तपष्टिभागाः (८१९२७) 'मुहत्तग्गेणं' मूहुर्तात्रेण मुहर्तपरिमाणेन नक्षत्रमा स. 'आहिए' आख्यातः कथितः 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु स्वशिष्येभ्य इति । तथाहि-नक्षत्रमासपरिमाणं सप्तविंशतिरहो रात्राः. एकस्य चाहोरात्रस्य एकविंशतिः सप्तपष्टि भागाः (२ इति पूर्व प्रदर्शितम् तत एते सप्तविंशतिरहोरात्राः सवर्णनार्थ सप्तपष्टया गुण्यन्ते, जातानि नवाधिकानि अष्टादशशतानि (१८०९), एपु चोपरितना एकविंशति सप्तपष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, जातानि त्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८३०) सप्तपष्टिभागाः, एते मुहूर्त्तानयनार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते जाताः चतुष्पञ्चाशत्सहस्राणि नवशतानि (५४९००) मुहर्तगतसप्तपष्टिभागाः, तत एतेषां सध्तपष्टया भागे हृतेलब्धानि-कोनविंशत्यधिकानि अष्टौ शतानि मुहूर्तानाम्, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशतिः सप्तपष्ठि भागाः (८१९२७) सूत्रोक्ता लभ्यन्ते इति । 'ता' तावत् ‘एस णं' एषा खलु 'अद्धा' अद्धाकाल एव 'दुवालसखुत्तकडा' द्वादश कृत्वः कृता अत्र संवत्सरमासानां द्वादशात्मकत्वाद् द्वादशवारं कृता सती अद्धा 'णक्खत्ते संवच्छरे' एको नाक्षत्रः सवत्सरो भवति । अस्य रात्रिन्दिवानि पृच्छति-'ता से णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'से णं' स खलु नक्षत्रसंवत्सरः 'केवइए' कियत्कः कियत्परिमितः 'राईदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाग्रेण रात्रिन्दिवपरिमाणेन अस्य नक्षत्रसंवत्सरस्य कियन्तिरात्रिन्दिवानि भवन्तीत्यर्थः 'आहिए' आख्यातः 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु | भगवानाहता 'तिण्णि सत्तावीसाइ राइंदियसयाई' त्रीणि सप्तविंशानि सप्तविंशत्यधिकानि रात्रिदिवश तानि, 'एक्कावन्नं च सत्तट्ठिभागा' एक पञ्चाशच्च सप्तपष्टि भागाः (३२७५१) 'राईदियस्स' एकस्य रात्रिन्दिवस्य, 'राइंदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाग्रेण 'आहिए' आख्यातः 'तिवएज्जा' इति वदेत् । अत्र नक्षत्रमासरात्रिन्दिवपरिमाणं द्वादशभिर्गुणितं यथोक्तम् (३२७१-) नक्षत्रमासस्य रात्रिन्दिवानां परिमाणं भवतीति । अथास्य मुहूर्तसख्यां पृच्छति-'ता से णं' इत्यादि, 'ता' तावत् सेणं' सः नक्षत्रसंवत्सरः खल 'केवइए' कियत्कः कियत्परिमितः 'मुहुत्तग्गेणं' मुहूर्ताग्रेण मुहूर्तपरिमा Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ चन्द्रप्रशप्तिसूत्रे णेन 'आहिए' आख्यातः नक्षत्रसवत्सरस्य कियन्तो मुहूर्त्ता भवन्तीतिभावः 'तिवएज्जा' इति वदेत्, उत्तरमाह-'ता' तावत् ‘णव मुहुत्तसहस्सा' नवमुहत्तसहस्राणि 'अट्ट य वत्तीसाइं मुहुत्तसयाई' अट च द्वात्रिंशानि द्वात्रिंशदधिकानि मुहूर्तशतानि, 'छप्पन्नं च सत्तद्विभागा' पदपच्चाशच्च सप्तषष्टि भागाः 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य (९.८३२।६) 'मुहत्तग्गेणं' मुहूर्ताप्रेण मुहूत्तपरिमाणेन 'आहिए' आख्यात 'तिवएज्जा' इति वदेत् । अत्र नक्षत्रमासमुहूर्तपरिमाणं द्वादशभिर्गुणितं यथो क्तम् (९८३ नक्षत्रमासस्य मुहूर्तपरिमाणं भवतीति । १ । अथ द्वितीयचान्द्रसंवत्सरविषये प्रश्ननिर्वचनसूत्राण्याह–'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषां नक्षत्रादीनां 'पंचण्डं संबच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'दोच्चस्स चंदसंवच्छरस्स' द्वितीयस्य चान्द्र संवत्सरस्य 'चंदे मासे' चान्द्रः चन्द्रसम्बन्धोमासः 'तीसइ तीसइमुहुत्तेणं' त्रिंशत् त्रिंशन्मुहूर्तकेन 'अहोरत्तेणं' एकैकाहोरात्रेण 'गणिज्जमाणे' गण्यमानः 'केवइए' कियत्कः कियत्परिमितः 'रादंदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाण रात्रिन्दिवपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः कथितः 'तिवएज्जा' इति वदेन् । उत्तरमाह --ता एगृणतीसं इत्यादि, 'ता' तावत् 'एगणतीसं राईदियाई' एकोनत्रिं शद् रात्रिन्दिवानि 'वत्तोसं च वावद्विभागा' द्वात्रिंगच्च द्वापष्टिभागाः 'राइंदियस्स' एकस्य रात्रिन्दिवस्य (२९।१२) 'राइंदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाग्रेण रात्रिन्दिवपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः कथित 'तिवएज्जा' इति वदेत् । तथाहि-युगे द्वापष्टिश्चन्द्रमासा भवन्तीति युगसम्बन्धिनां त्रिंगदाधिकाष्टादशशतानां द्वापष्टया भागो हरणोय., हृते च भागे लब्धा यथोक्ता एकोनत्रिंगदहोरात्राः, कम्य चाहोरात्रस्य द्वात्रिंत्राद् द्वापष्टिभागाः (२९।३२) इति । अथास्य मुहूर्तसख्यां पृच्छति'ता से ण' इत्यादि, 'ता' तावत् ‘से णं' खलु द्वितीयचन्द्रमासः 'केवइए, कियत्कः किय परिमिनः 'मुहुत्तग्गेणं' मुह ग्रेण मुहूर्तपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः कथितः ? 'ति वएज्जा' हनिवदेत् । उत्तरमाह- 'ता अपंचासीयाई' इत्यादि 'ता' तावत् 'अट्ठ पंचासीयाई मुहत्तसयाई अट, पंञ्चाशीनानि पञ्चाशीयधिकानि मुहूर्तशतानि 'तीसं च वावद्विभागा' त्रिंशच्च द्वापष्टिभागाः 'मुहृत्तम्स' एकस्य मुहर्तस्य (८८५२) 'मुहुत्तग्गेणं' मुहर्ताग्रेण मुहूर्त परिमागेन 'आहिए' आग्न्यातः कथित. 'तिवएज्जा' इतिवदेत् । तथाहि चन्द्रमासपरिमाणम्एकोनत्रिंगदहोगत्राः, एकस्य चाहोरात्रस्य द्वात्रिंशद् द्वापष्टिभागाः। ३२), तत्र सवर्णनार्थमे Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा १२ सू.१. नक्षत्रादिसंवत्सरसंख्यादिकम् ४९५ कोनत्रिंशदहोरात्रान् द्वापष्ट्या गुणयित्वा उपरितना द्वात्रिंशद्वाषष्टिभागास्तेषु प्रक्षेपणीयाः, जातानि त्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८३०) तत एतानि त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि - चतुप्पञ्चाशत् सहस्राणि, तदुपरि नव च शतानि मुहूर्त्तगत द्वापष्टिभागाः (५४९००) तत एतेषां द्वापष्ट्या भागे हृते लब्धानि यथोक्तानि अष्टौ शतानि पञ्चाशीत्यधिकानि मुहूर्तानाम्, एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रिशद द्वापष्टि भागाः (८८५ ३९) इत्येतत्परिमिता द्वितीयचन्द्रमासस्य ६२ मुहूर्त्तसंख्या भवतीति सिद्धम् । अथास्य चान्द्रसंवत्सरस्य कालमानमाह - ' ता एस णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एसणं' एपा खल 'अद्धा' अद्धा चान्द्रमासकालरूपा 'दुवालस खुत्तकडा' द्वादशकृत्वः द्वादशवारैः कृता 'चंदे संवच्छरे' एकश्चान्द्रः संवत्सरो भवति । अस्य रात्रिन्दिवानि पृच्छति 'ता से णं' तावत् स खलु चान्द्रः संवत्सरः 'केवइए' कियत्कः कि यत्परिमितः 'राईदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाग्रेण 'आहिए' आख्यातः कथितः ! 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु । भगवानाह - ' ता तिन्नि' इत्यादि 'ता' तावत् 'तिन्नि चउप्पन्नाई राईदियसयाई' त्रीणि चतुष्पञ्चाशानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि रात्रिन्दिवशतानि 'राईदियस्स' एकस्य रात्रिन्दिवस्य 'दुवालसय' द्वादश च 'ववडिभागा' द्वाषष्टिभागाः (३५४ १२) 'राईदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाग्रेण रात्रिन्दिवपरिमाणेन 'आहिए' अख्यातः कथितः ६२ 'तिवएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्य | चन्द्रमासस्य रात्रिन्दिवपरिमाणं द्वादशभिर्गुणितं यथोक्तं चन्द्रसंवत्सररात्रिन्दिवपरिमाणं भवतीति भावः । अथास्य मुहूर्त्त संख्यां पृच्छति - ता से णं' इत्यादि, 'ता' तावत् ' से णं' स खलु चन्द्रसंवत्सरः 'केवइए' कियत्कः कियत्परिमितः 'मुहुत्तग्गेणं' मुहूर्त्ताप्रेण मुहूर्त्तपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः १ 'तिवएज्जा' इतिवदेत् वदतु । भगवानाह—'ता दस' इत्यादि, 'ता' तावत् 'दसमुहुत्तसहस्साई' दशमुहूर्त्तस्राणि 'पणवीसं च मुहुत्तसयं' पञ्चविंशत्यधिकं मुहूर्त्तगतम् 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूतस्य 'पण्णासं च वावट्टिभागा' पञ्चाशच्च द्वापष्टिभागाः ( १०१२५ ५९) 'मुहुत्तग्गेणं' मुहूर्ता ६२ ग्रेण मुहूर्त्तपरिमाणेन ‘आहिए' आख्यातः कथितः 'तिवएज्जा' इतिवदेत् कथयेत् स्वशिष्येभ्यः । अत्र चन्द्रमासमुहूर्त्तपरिमाणं द्वादशभिर्गुणितं यथोक्तं चान्द्रसवत्सरमुहूर्त्तपरिमाणं भवतीति २ । अथ तृतीयस्य ऋतु संवत्सरस्य विषये प्रश्ननिर्वचनसूत्राण्याह 'ता एएसिणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'एएस ' एतेषां नक्षत्रादीनां खलु 'पचन्हं संवच्छरणं' पच्चानां सवत्सराणां मध्ये 'तच्चस्स' तृतीयस्य 'उउसंवच्छरस्स' ऋतुसवत्सरस्य 'उऊमासे' आर्त्तवः ऋतु सम्बन्धी मासः 'तीसइ तीस मुहुत्तेणं' त्रिंशत् त्रिंशन्मुहूर्त्तकेन 'राईदिएणं' रात्रिन्दिवेन Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे 'गणिज्जमाणे' गण्यमानः 'केवइए' कियत्कः कियत्परिमितः 'राइंदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाण गत्रिन्दिवपरिमाणेन. 'माहिए' अख्यातः 'ता तीसं' इत्यादि 'ता तावत् 'तीस' त्रिंशत् 'राईदियाणं' रात्रिन्दिवानां 'राइदियग्गेणं रात्रिन्दिवाग्रेण रात्रिन्दिवपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः त्रिंशदानिन्दिवप्रमाणो ऋतुमासो भवतीति कथितः । 'तिवएज्जा' इतिः वदेत् स्वशिष्येभ्य इति । तथाहि ऋतु मासा युगे एकपष्टि भवन्ति ततो युगगतानां त्रिंशदधिकाष्टादशशतानाम् अहोरात्राणाम ( १८३० ) एकपष्टया भागो हियते, लब्धास्त्रिंशदहोरात्रा यथोक्ता इति । अथ ऋतुमासस्य मुहर्तसंख्यां पृच्छति 'ता से णं' इत्याति, 'ता' तावत् 'से णं' स खलु ऋतुमासः 'वइए' कियत्कः कियत्परिमितः 'मुहत्तग्गेणं' मुहूर्ताप्रेण मुहूर्तपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः कथितः 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवान्-'ता णव' इत्यादि 'ता' तावत् 'णव मुहृत्तसयाई' नवमुहर्तशतानि 'मुहुत्तग्गेण' मुहूर्ताप्रेण 'आहिए' आख्यातः कथितः 'ति वएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्याय । तथाहि-त्रिंशन्मुहूर्तात्मकं रात्रिद्विवम्, त्रिंशद्रानिन्दिवात्मकचकतुमास इति त्रिंशत् त्रिंशता गुण्यते जातानि यथोक्तानि नव मुहूर्तशतानीति । 'ता' तावत् 'एस गं' पपा खल 'श्रद्धा' अद्धा त्रिंगद्रात्रिन्दिवात्मकः नवशत मुहूर्तात्मकश्च कालः 'दुवालस खुत्तकडा' द्वादशकृत्वः कृता द्वादशभिर्गुणिता 'उ उसंवच्छरे' आर्तवः ऋतु सम्बन्धी सवत्सरो भवतीति । अथास्य ऋतु सवत्सरस्य रात्रिन्दिवपरिमाणं पृच्छति-'ता से णं' इत्यादि. 'ता' नवत् 'से गं' स खछु ऋतुसंवत्सरः 'केवइए' कियत्कः 'राइंदियग्गेणं' रात्रिद्विवाग्रेण रात्रिन्दिवपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः ऋतुसंवत्सरस्य कति रात्रिन्दिवानि कथितानि ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु । भगवानाह-'ता तिण्णि' इत्यादि, 'ता' तावत् 'तिण्णि सहाई राइंदियसयाई' त्रीणि पष्टानि पष्टयधिकानि रत्रिन्टिवशतानि ( ३६० ) 'राइंदियग्गेणं' रत्रिन्दिवाण 'आहिए' आख्यातः 'तिवएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः । तथाहि-एकस्मिन् ऋतुमासे त्रिंशद् रात्रिन्दिवानि ते च मासा एकस्मिन् ऋतुसंवत्सरे द्वादशेति त्रिंशतो द्वादशभिर्गणने भवन्ति यथोक्तानि पष्टयधिकानि त्रीणि शतानि गनिन्दिवानीति । अथास्य मुहूर्तसंख्यां पृच्छति- 'ता से ण' दत्यादिना, 'ता' तावत् ‘से णं' स खल ऋतुसंवत्सरः 'केवइए' क्रियत्कः क्रियत्परिमितः 'मुहुनग्गे आट्यातः कथितः एकस्य ऋतुसंवत्सरस्य कति मुहूर्त्ता भवन्ति ? 'ति वएज्जा' इति वदेत वदतु-हे भगवान् ! भगवानाह'ता दस' इत्यादि 'ता' तावत् 'दसमुहुत्तसहस्साई' दशमुहूर्तसहप्राणि 'अट्ट य सयाई' अष्ट च शनानि (१०८००) 'मुहुनग्गेणं' मुहूर्ताप्रेण 'आहिए' आल्यातः कथितः 'नि वएज्जा' इति वदेत् स्वगिप्येभ्यः | तथाहि-एकस्य ऋतुमासस्य नवमुहर्त्तशतानिभवतीति तानि हादभिमामि गुणने भवति यथोक्ता संख्येति ३ । अथ चतुर्थादित्यसवत्सरविपये प्रश्ननिर्वचनमृत्राण्याद-'ता एए मि गं' इन्यादि, 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषां नाक्षत्रादीनां बाद 'पंचण्इं गंवच्छगणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'चउत्थस्स' चतुर्थस्य 'आइच्चसंवच्छ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रातिप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सू. १ नक्षत्रादिसंवत्सरसंख्यादिकम् ४९७ रस्स' आदित्य संवत्सरस्य 'आइच्चे मासे' आदित्यः आदित्यसम्बन्धी मासः 'तीसइ तीसइ मुहुत्तेणं' त्रिंशत् त्रिंशन्मुहूर्तकेन 'अहोरत्तेणे' अहोरात्रेण 'गणिज्जमाणे' गण्यमानः 'केवइए' कियत्कः कियत्परिमितः 'राइंदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाण रात्रिन्दिवपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः कथितः 'तिवएन्ज' इति वदेत् वदतु हे भगवान्-'ता तीसं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'तीसं' त्रिंशद् 'राईदियाई रात्रिन्दिवानि 'राइदियस्स' एकस्य रात्रिन्दिवस्य 'अवड्ढभागो य' अपार्धभागश्च, अपगतः अर्द्धः अपार्द्धः, सचासौ भागश्च अपार्द्धभागः अर्द्धभागः पञ्चदश- मुहूर्तात्मकः साईत्रिंश द्रात्रिन्दिवात्मकः आदित्यो मासो भवतीति सार्द्धत्रिंशदात्रिद्भिवानि 'राइंदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाग्रेण रात्रिन्दिवपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः कथितः 'ति वएज्जा' इति वदतु । तथाहि-सूर्यमासा युगे पष्टिः. ततो युगसम्बन्धिनां त्रिंगदधिकाष्टादश शतसंख्यानामहोरात्राणां पष्टयभागे हते लभ्यन्ते सास्त्रिंशदहोरात्रा इति । अथास्य मुहूर्तान् पृच्छति'ता से णं' इत्यादि 'ता' तावत् 'से णं' सः आदित्यो मासः खलु 'केवइए' कियत्कः कियत्परिमितः 'मुहत्तग्गेणं' मुहूर्ताप्रेण मुहूर्तपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः कथितः 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवन् ! भगवानाह-'ता णव' इत्यादि 'ता' तावत् 'णव पण्णरसाई मुहुत्तसयाई' नव पञ्चदशानि पञ्चदशाधिकानि नव मुहूर्तशतानि (९१५) 'मुहुत्ताग्गेणं' मुहूर्तपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः कथितः 'तिवएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः । तथाहि-सूर्यमासे परिमाणं साईत्रिंशदहोरात्रकम्, तच्चाहोरात्रस्य त्रिशन्मुहूर्तात्म कत्वात् त्रिंशता गुण्यते, जायन्ते पञ्चदशाधिकानि नव मुहूर्तशतानीति । अथादित्यसंवत्सरस्य सर्वाद्धां प्रदर्शयति-'ता एस गं' इत्यादि. 'ता' तावत् 'एस गं' एषा सर्वरात्रिन्दिवरूपा सर्वमुहूर्तरूपा च 'अद्धा' अद्धा-कालः 'दुवालसखुत्तकडा' द्वादशकृत्वः द्वादशवारैर्गुणिता 'आईच्चे संवच्छरे' एक आदित्यः संवत्सरो जायते । अथास्य रात्रिन्दिवानि पृच्छति-'ता सेणं' इत्यादि. 'ता' तावत् 'से गं' स खलु आदित्यः संवत्सरः 'केवइए' कियत्कः कियत्परिमितः 'राइंदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाण रात्रिन्दिवपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवान् ! । भगवानाह-'ता तिन्नि' इत्यादि, 'ता' तावत् 'तिन्नि छावदाई राइंदियसयाई' त्रीणि षट्षष्टानि षषष्टयधिकानि रात्रिन्दिवशतानि (३६६ ) 'राइंदिय ग्गेणं' रात्रिन्दिवाग्रेण रात्रिन्दिवपरिमाणेन 'आहिए आख्यातः कथितः 'ति वएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः । तथाहि-आदित्यो मासः साईत्रिंशदानिन्दिवात्मकः- ते च मासा एकस्मिन् संवत्सरे द्वादशेति साईत्रिंशद्वादशभिर्गुण्यन्ते जाता यथोक्ता संख्या एकस्यादित्यसंवत्सरस्य रात्रिन्दिवानामिति । अथास्य मुहूर्तसंख्या पृच्छति 'ता से गं' इत्यादि. 'ता' तावत् 'सेणं' Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे स खलु आदित्यः सवत्सरः 'केवइए' कियत्कः कियत्परिमितः 'मुहत्तग्गेणं' मुहर्ताग्रेण मुहर्त परिमाणेन 'आहिए' आख्यातः कथितः एकस्यादित्यसंवत्सरस्य कति मुहर्ता भवन्ति ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवान् ? भगवानाह 'ता दस' इत्यादि, 'ता' तावत् 'दसमुहुत्तसहस्साई' दशमुहर्त्तसहस्राणि 'नवअसीयाई मुहुत्तसयाई' नव अशीतानि मशीत्यधिकानि नव मुहूर्तशतानि (१०९८०) 'मुहुत्तग्गेणं' मुहूर्ताग्रेण मुहूर्तपरिमाणेन 'आहिए' अख्यातः कथितः 'तिवएज्जा' इति वदेत् कथयतु स्वशिष्येभ्यः । तथाहि-एकस्यादित्यमासस्य पञ्चदशाधिकानि नवमुहूर्तशतानि (९१५) भवन्ति एकस्यादित्यसंवत्सरस्य द्वादश मासा भवन्तीति पञ्चदशाधिकनवशतमुहूर्ता द्वादशभिर्गुण्यन्ते जाता यथोक्ता मुहूर्तसंख्येति ।४। अथ पञ्चमामिवर्द्धितसंवत्सरविषये प्राह-'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् ‘एएसिणं' एतेषां खल नाक्षत्रादीनां 'पंचण्डं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये पंचमस्स अभिवढियसंवच्छरस्स' पञ्चमस्याभिवतिसंवत्सरस्य 'अभिवढिए मासे' अभिवड़ितो मासः 'तीसइतीसइ मुहुचेणं' त्रिंगलिंगन्मुहुर्तकेन 'गणिज्जमाणे' गण्यमानः 'केवइए' कियत्कः कियत्परिमितः 'राइंदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाग्रेण रात्रिन्दिवपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः कथितः 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवन् । भगवानाह-'ता एक्कतीसं राईदियाई एकत्रिंशदरात्रिन्दिवानि, 'एगृणतीसं च मुद्दुत्ता' एकोनत्रिंशच्च मुहूर्ताः, 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य 'सत्तरसवावटिभागा' सप्तदश द्वापष्टि भागाः (रा. मु.१७) 'राइंदिग्गेणं' रात्रिन्दिवाग्रेण " ३१२९६२' रात्रिन्दिवपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः कथितः 'ति वएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः । तथाहिअभिवतिसंवत्सरश्च त्रयोदशभिश्चान्द्रमासैभवति, चान्द्रमासपरिमाणम् एकोनत्रिंशद् रात्रिद्भिवानि एकस्य च रात्रिद्भिवस्य द्वात्रिंशद् द्वापष्टिभागा (२९३२) एप राशिरभिवर्द्धितसंवत्सरस्य त्रयोदशमासात्मकत्वात् त्रयोदश भिर्गुण्यते, ततो यथासंभवं द्वापष्टिभागै रात्रिन्दिवेपु जातेपु जातमिदम त्र्यशीन्यधिकानि त्रीण्यहोरात्रशतानि, एकस्याहोरात्रस्य च चतुश्चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागाः (३८३। ११) अभिवद्धितसंवत्सग्परिमाणम्। तन एतस्य रागे ादशभिर्भागो हियते, तत्र प्रथम त्र्यशीत्य एकस्य विकत्रिंशताहोरात्राणां द्वादयभिर्भागो हियते लब्धा एकत्रिंशटहोरात्राः (३१), शेपा स्तिष्ठन्तिएकादश, ते च मुह नयनाथ त्रिंगला गुण्यन्ते जातानि त्रिंशदधिकानि त्रीणि शतानि (३३०) येऽपिनोपन्तिनाश्चत्वारिंशद द्वापष्टि भागा गत्रिन्टिवस्य, तेऽपि मुहर्तानयनाथ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि विंशत्यधिकानि त्रयोदय शतानि (१३२०) पपां द्वापष्टया मागो हियते, लब्धा एकविंशति Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सू.१.. नक्षत्रादिसंवत्सरसंख्यादिकम् ४९९ मुहर्ताः, शेषास्तिष्ठन्त्येकादश, तत्रैकविशति मुहूर्ताः पूर्वोक्ते त्रिशदधिक त्रिशतरूपे ( ३३०) मुहूतराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातास्ते एक पञ्चाशदधिकत्रिशतमुहूर्ताः (३५१), एषां द्वादशभिर्भागे हूते लब्धा एकोनत्रिशन्मुहूर्ताः (२९), शेपा स्तिष्ठन्ति त्रयः, ते च द्वापष्टिभागानयनार्थ द्वापष्टया गुण्यन्ते, जातं षडशीत्यधिकमेकं शतम् (१८६) अस्मिन् राशौ ये प्रागुक्ताः शेषीभूता मुहूर्तस्याष्टादशद्वाषष्टि भागास्ते प्रक्षिप्यन्ते जाते चतुरुत्तरे द्वे शते (२०४) अस्य राशे दशभिर्भागो हियते लब्धा एकस्य मुहूत्तस्य सप्तदश द्वापष्टि भागाः (१७) तत आगतं यथोक्तमभिवर्द्धितमासस्य रात्रिन्दिवपरिमाणम् ( रा. मु. १-१) इति । अथास्य मुहूर्तान पृच्छति'ता से णं' इत्यादि, 'ता' तावत् “से णं' स - ३१२९/६२ खलु अभिवद्धितमास. 'केवइए' कियत्क. कियत्परिमितः 'मुहुत्तग्गेणं' मुहूर्ताग्रेण मुहूर्त परिमाणेन 'आहिए' आख्यातः कथितः 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवन् । भगवानाह 'ता णव' इत्यादि 'ता' तावत् ‘णव एगूणसट्ठाई मुहुत्तसयाई' नव एकोनपष्टानि एकोन षष्टयधिकानि मुहूर्तगतानि 'सत्तरसवावद्विभागा' सप्तदशद्वापष्टिभागाः 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहर्तस्य 'मुहुत्तग्गेणं' मुहूर्ताग्रेण मुहूर्तपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः 'तिवएज्जा' इति वेदत् स्वशिष्येभ्यः । तथाहि-अभिवर्द्धितमासस्य रात्रिन्दिवपरिमाणम् (रा. मु. १७) एकस्य रात्रिन्दिवस्य त्रिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् त्रिशता गुण्यते, तत्र पूर्वमेकत्रिंशद् रात्रिन्दिवानि त्रिंशता गुण्यते जातानि त्रिंशदधिकानि नवशतानि (९३०) मुहूर्तानाम् , अत्रोपरितना ये एकोनत्रिंशन्मुहूर्तास्ते प्रक्षिप्यन्ते जाता एकोनपष्टयधिकनवशतमुहूर्ताः (९५९), ये उपरितनाः सप्तदश सप्तषष्टिभागाः (१७) ते तथैव स्थिता इति समागताऽभिवर्द्धितमासस्य यथोक्ता (९५९१) मुहूर्त्तसंख्येति । अथाभिवर्द्धितसवत्सरस्य कालमानमाह-'ता एस णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एस णं' एपा खल रात्रिन्दिवरूपा मुहूर्तरूपा च 'अद्धा' अद्धा कालः 'दुवालसखुत्तकडा' द्वादशकृत्वः कृता द्वादशवारैर्गुणिता 'अभिवढिए संवच्छरे' एकः अभिवर्द्धितः अभिवर्द्धिताभिधः संवत्सरो भवतीति । अथास्य रात्रिन्दिवानि पृच्छति-'ता सेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'से णं' स खल अभिवर्द्धितसंवत्सरः 'केवइए' कियत्कः कियत्परिमितः 'राइंदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाण रात्रिन्दिवपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः कथितः 'तिवएज्ज्ग' इति वदेत् वदतु हे भगवन् ! भगवानाह- 'ता तिण्णि' इत्यादि, 'ता' तावत् 'तिणि तेसीयाई राई Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रशप्तिसूत्रे ५०० दियसयाई त्रीणि त्र्यशीतानि त्र्यशीत्यधिकानित्रीणि रत्रिन्दिवशतानि, 'एक्कवीसं च मुहुत्ता' एक विंशतिश्च मुहूर्ताः, 'अद्वारसवावद्विभागा' अष्टादशद्वापष्टिभागाः 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य ( रा. मु./१८) 'राईदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाग्रेण रात्रिन्दिवपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः ' ३८३।२१६२ 'तिवएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः । तथाहि-अभिवर्द्धितमासस्य परिमाणं (३१।२९।१७) सवत्सरस्य द्वादशसौरमासात्मकत्वाद् द्वादशभिर्गुण्यते, तत्र प्रथममेकत्रिंशदहोरात्रा द्वादशभिर्गुण्यन्ते जातानि द्विसप्तत्यधिकानि त्रीणि शतानि (३७२) अहोरात्राणाम्, तत एकोनत्रिंशन्मुहुर्ता द्वादशभिर्गुण्यन्ते, जातानि अष्टचत्वारिंशदधिकानि त्रीणि शतानि (३४८) मुहूर्तानाम्, तत एकस्याहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तात्मकत्वा दहोरात्रानयनार्थमेषां त्रिंशता भागो हियते, लब्धा एकादश अहोरात्राः एते पूर्वोक्तायाम् (३७२) अहोरात्रसख्यायां प्रक्षिप्यन्ते जातं त्र्यशीत्यधिकं शतत्रयमहोरात्राणाम् (३८३), पूर्व त्रिंशता भागे हृते शेपाः स्थिता अष्टादश मुहूर्ताः, अथ च ये सप्तदश द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य, तेऽपि द्वादशभिर्गुण्यते, जाते चतुरुत्तरे द्वे शते (२०४), एतस्य राशे षिट्या भागो हरणीयः, हृते च भागे लन्धास्त्रयो मुहूर्ताः, ते प्राक्तनेषु शेषत्वेन स्थितेषु अष्टादशसु प्रक्षिप्यन्ते, तेन जाता एकविंशतिर्मुहूर्ताः (२१), द्वापष्टया भागे हृते ये शेषा अष्टादश ते (१८) एकस्य मुहूर्तस्य द्वापष्टिभागाः सन्ति, तत आगता यथोक्ता (३८३।२११८) अभिवद्धितसवत्सरस्य रात्रिन्दिवानां संख्येति । अथास्य मुहूर्तान् पृच्छति 'ता से णं' इत्यादि 'ता' तावत् 'से णं' स खलु अभिर्द्धितसवत्सरः 'केवइए' कियत्कः कियत्परिमितः 'मुहुत्तग्गेणं' मुहूर्ताग्रेण मुहर्तपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातः । 'तिवएज्जा इति वदेत् वदतु हे भगवन् ? । भगवानाह-'ता एक्कारस' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एक्कारस मुहुत्तसहस्साई' एकादश मुहूर्त सहस्राणि, 'पंच य एक्कारसाइं मुहुत्तसयाई पञ्च च एकादशानि एकादशाधिकानि पञ्च मुहूर्तशतानि, 'अट्टारसवावद्विभागा' अष्टादश द्वापष्टि भागाः 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्त्तस्य(११५११५८) 'मुद्दत्तग्गेण' मुहुर्ताप्रेण 'आहिए' आख्यातः कथितः 'तिवएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः । नथाहि-अभिवदिनसंवत्सरस्याहोरात्रादिपरिमाणम् (३८३।२१। 5) एकस्याहोरात्रस्य त्रिंश महत्तान्मकत्वात् त्र्यशीत्यधिकं शतत्रयं त्रिंगता गुण्यते गुणयित्वा चोपरितना एकविंशति मुहर्ता स्तत्र प्रक्षिप्यन्ते, ततो जायते यथोक्ता (११५१११६) मुहूर्तसंख्येति ॥ सूत्रम् १ ॥ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सू. २ पञ्चसंवताराणां संमेलने रात्रिदिवपरिमाणम् ५०१ तदेव मुक्तं नाक्षत्रादिपञ्चसंवत्सरसत्कानां रात्रिन्दिवानां मुहूर्तानां च परिमाणम् , साम्प्रतम्-एते पञ्च संवत्सरा एकत्र समिलिता यावत्प्रमाणा रात्रिन्दिवपरिमाणेन भवन्ति तावतो निर्दिशन्नाह-'ता केवइयं ते नोजुगे' इत्यादि । मूलम्–ता केवई ते नोजुगे राइंदियग्गेणं आहिए ? ति वएज्जा, ता सत्तरस एकाणउयाई राइंदियसयाई एगूणवीसं च मुहुत्ता, सत्तावणं च वावद्विभागा मुहुत्तस्स, वावहिभागं च सत्तढिहा छित्ता पणपणं चुणिया भागा राइंदियग्गेणं आहिया ति वएज्जा ता से णं केवइए मुहुत्तग्गेणं आहिए ? ति वएज्जा, ता तेपणं मुहुत्तसहस्साई, सत्त य एगूणपन्नाई मुहुत्तसयाई सत्तावण्णं च वावद्विभागा मुहुत्तस्स, वाव द्विभागं च सत्तहिहा छित्ता पणपण्णं चुणियाभागा मुहत्तग्गेणं आहिया ति चएज्जा । ता केवइए ण ते जुगप्पत्तेराईदियग्गेण आहिए? ति वएज्जा।ता अट्टतीसं राईदियाई दस य मुहुत्ता चत्तारि य वावद्विभागा मुहुत्तस्स; वावद्विभागं च सत्तहिदा छित्ता दुवालसचुणिया भागा राइंदियग्गेणं आहिया ति वएज्जा । ता से णं केवइए मुहुत्तग्गेणं आहिए ? ति वएज्जा, ता एक्कारस पण्णासाई मुहत्तसयाई चत्तारिय वावद्विभागा मुहुत्तस्स, वावद्विभागं च सहिहा छित्ता वालसचुण्णियाभागा मुहुत्तग्गेणं आहिया ति वएज्जा । ता केवइए जुगे राइंदियग्गेणं आहिए ? ति वएज्जा, ता चउपण्णं मुहुत्तसहस्साई णव य मुहुत्तसयाई मुहुत्तग्गेणं आहिए ? ति वएज्जा, ता चउत्तीस सयसहस्सयाई अमृतीस च वावद्विभागमुहत्तसयाई वावद्विभागमुहुत्तग्गेणं आहिए ति वएज्जा ॥ सूत्रम् २॥ छाया- तावत् कियत्कं ते नोयुगं रात्रिन्दिवाण पाण्यातम् ? इति वदेत्, नावत सप्तदश एकनवतानि रात्रिन्दिवशतानि, एकोनविंशतिश्च मुहूर्ताः सप्तपञ्चाशद द्वापष्टिभागाः, मुहर्तस्य,दापष्टिभागं च सप्तपष्टिधा छित्त्वा पञ्चपञ्चाशच्चूणिका भागा रात्रिन्दिवाण आख्यातम्, इति वदेत् । तावत् तत् खलु कियत्कं मुहनिण आख्यातम ? इति वदेत, तावत् त्रिपञ्चाशद् मुहूर्त्तसहस्राणि सप्तच एकोनपञ्चाशानि मुहर्त्तशतानि सप्तपञ्चाशद् द्वापटिभागा मुहर्तस्य, द्वादष्टिभागं च सप्तचष्टिधा छित्त्वा पञ्च पञ्चाश. च्चूर्णिका भागा मुहूर्ताओण आख्यातम् इति वदेत् । तावत् कियत्कं खलु तद् युगप्राप्त रात्रिन्दिवान अख्यातम् ? इति वदेत् तावत् अष्टात्रिंशद् रात्रिन्दिवानि दश च मुहर्ताः चत्वारश्च द्वापष्टिभागा मुहर्त्तस्य, द्वापष्टिभागं च सप्तपणिधा छित्वा द्वादश चूर्णिका भागा रोत्रिन्दिवाण आख्यातम् इति वदेत् । तावत् तत् खलु कियत्कं मुह ग्रेण आख्यातम् । इति वदेत् तावत् एकादश पञ्चाशतानि मुहर्त शतानि, चत्वारश्च डापष्टिभागा मुहास्य द्वापष्टिभागं च सप्तपष्टिधा छित्त्वा द्वादश चर्णिका भागा मुहूर्ताग्रेण अख्यातम् । तावत् कियत्कं युगं रात्रिन्दिवाण आख्यातम? इति वदेत । तावत् अष्टादश त्रिशानि सानान्दवशतानि रात्रिदिवाण आख्यातम इति वदेत । तावत् तत् खलु कियत्क मुहूत्ताग्रण आण्यातम् । इति वदेत, तावत चतस्बिशात शतशहस्राणि अप्पत्रिशच्च द्वाषाष्टभाग मुहत्तशतानि द्वाषष्टिभागमहर्ताग्रेण अख्यातमिति वदेत् ॥ सूत्र २॥ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे व्याग्व्या-'ता केवड ते नो जुगे' इति 'ता' तावत् 'केवइए' कियत्कं कियत्प्रमाण 'ते' त्वया 'नोजुगे' नोयुगमिति,-नो शब्दोऽत्र देशतो निषेधवाचक इति किञ्चिन्न्यूनं युगमित्यर्थ 'राइंटियग्गेणं' रात्रिन्दिवाण अहोरात्रप्रमाणेन 'आहियं' आख्यातम् ! नो युगस्य कियन्ति रात्रिन्टिवानि भवन्ति ? इति भावः । 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन । भगवानाह-'ता सत्तरस' इत्यादि, 'ता' तावत् 'सत्तरस एकाणउयाई राइदियसयाई' सप्तदश कनवतानि एकनवत्यधिकानि-रात्रिन्दिवशतानि 'एगूणवीसं च मुहुत्ता' एकोन विंगतिश्च मुहूर्ताः 'मुहत्तस्स' एकस्य च मुहर्तस्य 'सत्तावण्णं वावद्विभागा' सप्तपञ्चाशद् द्वापष्टिभागा' तथा 'वावद्विभागं च सत्तढिहा छित्ता' द्वापष्टिभागं च सप्तपरिधा छित्त्वा विभन्य तन्मन्यात् 'पणपण्णं' पञ्च पञ्चाशत् 'चुणिया भागा' चूर्णिका भागा गत्रिन्दि. | मु.२०२५'राईदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाग्रेण अहोरात्रप्रमाणेन 'आहियं' आख्यातम् १७९१ १९६२६७ 'ति वएग्जा' इति वदेत् । नो युगं हि नाक्षत्रादि पञ्चसंवत्सरानधिकृत्य नाक्षत्रादि पञ्च संवत्सर गतरात्रिन्दिवपरिमाणानामेकत्रमीलने यथोक्ता नोयुगस्य रात्रिन्दिवसंख्या जायते, तथाहि नाक्षत्रादिपञ्चसवत्सराणा परिमाणम् तत्र-नाक्षत्रसंवत्सरस्य - परिमाणम्-सप्तविंशत्यधिकानि त्रीणि रात्रिन्दिवातानि, एकस्य च रात्रिन्दिवस्य एकपञ्चाशत् सप्तपष्टिभागाः ( ३२७/- (१) चान्द्रसवत्सरस्य चतुष्पञ्चाशदधिकानि त्रीणि रात्रिन्दिवशतानि, द्वादश च द्वापष्टिभागा एकस्य गनिन्दिवस्य (३५४२) (२) ऋतुसवत्सरस्य-पष्टयधिकानि त्रीणि रात्रिन्दिवशतानि (३६०) ।३। मूर्यसंवत्सरस्य-पट्पष्टयधिकानि त्रीणि रात्रिन्दिवशतानि (३६६) ।४। पञ्चमस्याभिवतिसवत्सरस्य-त्र्यशीन्यधिकानि त्रीणि शतानि रात्रिन्दिवानाम् एकविंशतिश्च मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्याप्टादश द्वापष्टिभागा. (गा. मु. १८), तत्र सर्वपा रात्रिन्दिवानामेकत्र संमीलने ३८३।२१।६२ जानानि नवत्यधिकानि सप्तदशशतानि ( १७९० ) । ये च एकस्य रात्रिन्दिवस्य एकपञ्चागत् सप्तपष्टिभागास्ते मुहूर्तकरणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि त्रिंशदधिकानि पञ्चदागनानि (१५३०) तेषां सप्तपष्टया भागे हृते लब्धा द्वाविंशति मुहूर्ताः, एकम्य न मुहुर्तग्य पट्पञ्चाशत् सप्तपष्टिभागाः (२२ ६) । लब्धाः, ये द्वाविंशति Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सू.२ पञ्चसंवत्सराणां संमेलने रात्रिदिवपरिमाणम् ५०३ मुहूर्तास्तेऽभिवद्धितसंवत्सरसम्बन्धिषु एकविंशतौ मुहूर्तेषु प्रक्षिप्यन्ते, प्रक्षिप्तेषु च एकविंशतिमुहूर्तेषु जातास्त्रिचत्वारिंशन्मुहर्ताः (४३) अत्र त्रिंशता मुहतरेकोऽहोरात्रो लब्धः, स पूर्वोक्तेष्वहोरात्रेषु प्रक्षिप्यते जातानि एकनवत्यधिकानि सप्तदश शतानि (१७९१), शेषाः ये स्थितात्रयोदश मुहूर्ताः (१३) येऽपि चाहोरात्रस्य द्वदश द्वाषष्टि भागाः (१) तेऽपि मुहूर्तानयनाथ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि षष्टयधिकानि त्रीणि शतानि (३६०), एषां द्वाषष्टया भागे हुते लब्धाः पञ्च मुहूर्तास्ते प्रागुक्तेपु त्रयोदशसु मुहूर्तेपु प्रक्षिप्यन्ते, जाता अष्टादश मुहूर्ताः, शेषास्तिठन्ति मुहत्तस्य पञ्चाशद् द्वापष्टि भागाः (१), ततो येऽपि च मुहूर्तस्य षट् पञ्चाशत् सप्त षष्ठि भागाः (-) ते त्रैराशिकगणितेन द्वाषष्टिभागाः क्रियन्ते, तथाहि यदि सप्तषष्टया सप्तपष्टिभागै षिष्टि पिष्टि भागा लभ्यन्ते तदा पट् पञ्चाशता सप्तषष्टिभागै षिष्टिभागाः कियन्तो लभ्यन्ते, अत्र राशित्रयस्थापना क्रियते, ६७६२।५६। अत्रान्तिमराशिना मध्यराशिगुण्यते, जातानि चतुस्त्रिंशच्छतानि द्वासप्तत्यधिकानि (३४७२) एषामादिराशिना सप्तपष्टिरूपेण भागो हियते, लब्धा एक पञ्चाशद् द्वापष्टिभागाः (५१) ते च पूर्वोक्तेषु शेषी भूतेषु पञ्चाशति द्वापष्टि भागेषु प्रक्षिप्यन्ते, जातमेकोत्तरं शतम् (१०१), ततस्तन्मध्येsभिवर्द्धितसंवत्सरसम्बन्धिन उपरितना अष्टादश द्वापटि भागाः प्रक्षिप्यन्ते जातं शतमेक मेकोनविंशत्यधिकम् (११९) द्वापष्टि भागानाम्, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्च पञ्चाशत् सप्तपष्टिभागाः (५५) पूर्वोक्तेषु एकोनविंशत्यधिकशत (११९) संख्यकेपु द्वापष्टिभागेषु द्वाषष्टया द्वापष्टिभागैरेको मुहूर्तो लभ्यते स च प्रागुक्तेष्वष्टादशसु मुहूर्तेषु प्रक्षिप्यते, जातास्ते एकोनविंशति मुहूर्ताः (१९) शेषास्तिष्टन्ति सप्त पञ्चाशद् द्वापष्टि भागाः (५७) तत आगतं यथोक्तं नो युगस्य रात्रिन्दिवपरिमाणम् ( रात्रि निवामु. ५७/५५, १७९१ १९६२/६७ ___ अथ नोयुगस्य मुहूर्त्तान पृच्छति-'ता से णं' इत्यादि, 'ता' तावत् ‘से णं' तत् खलु नोयुगं 'केवइए' कियत्कं कियत्परिमितं 'मुहुत्तग्गेण' मुहूर्ताप्रेण 'आहिय' आख्यातम् ? 'ति वएज्जा, इति वदेत् वदतु हे भगवन् ! भगवानाह-'ता तेवणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'तेवणं मुहत्तसहस्साई त्रिपञ्चाशद् मुहूर्त्तसहस्त्राणि 'सत्त य अउणापन्नाइं मुहुत्तसयाई सप्त च एकोन पञ्चाशानि एकोन पञ्चाशदधिकानि मुहूर्तशतानि, 'सत्तावणं वाद्विभागा' सप्तपश्चाशद् द्वाषष्टि Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ चन्द्रप्रशप्तिस्त्रे भागाः 'मुहुत्तस्य' एकस्य मुहर्तस्य, तथा 'वावद्विभागं च सत्तहिहा छित्ता' द्वाषष्टि भागं चं सप्तष्टिधा छित्त्वा विभज्य 'पणपण्णंचुणिया भागा' पञ्चपञ्चाशत् चूर्णिका भागाः सप्तपष्टिभागाः (५३७४९ ५.५) 'मुहुत्तग्गेणं' मुहूर्ताग्रेण 'आहियं आख्यातम् 'ति वएज्जा' इति वदेत् ६२६७ स्वशिष्येभ्य इति । तथाहि अत्र पूर्वोक्तं रात्रिन्दिवपरिमाण (१७९१) एकस्य रात्रिन्दिवस्य त्रिगन्मुहूर्तात्मकत्वात् त्रिंशता गुणयित्वा तस्मिन् तदुपरिस्थाः शेपमुहूर्ता एकोनविंशतिः (१९) प्रक्षिप्यन्ते, शेषाः द्वापष्टि भागाः (9) सप्तपष्टिभागाश्च (१) ते एव स्थापनीयास्तत आगच्छति ६२६७ यथोक्तं युगस्य मुहुर्तपरिमाणम् (५३७४९ : अथ परिपूर्णयुगविपये पृच्छति-'ता केवइएणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'केवइएणं' कियत्कं खलु 'ते' ते तव मते 'जुगप्पत्ते' युगप्राप्तं परिपूर्ण युगं 'राइंदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाप्रेण रात्रिन्दिवपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातं कथितम् ? कियद्रात्रिन्दिवप्रक्षेपणेन तदेव नो युगं परिपूर्ण, युगं भवतीति भाव. 'ति वएज्जा' इति वदेत् , इति कथयतु हे भगवन् ! भगवानाह- 'ताअद्वतीसं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'अद्वतीसं राईदियाई' अष्टत्रिंशद् रात्रिन्दिवानि 'दस य मुहुत्ता' दश च मुहर्ताः 'मुहत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य चत्तारिय वावद्विभागा' चत्वारश्च द्वापष्टिभागाः तथा 'बायद्विभागं च' एकं द्वापष्टिभाग च 'सत्तट्टिहा छित्ता' सप्तषष्टिधा छित्त्वा विभज्य तत्सम्बन्धिनः 'दुवालसचुण्णिया भागा' द्वादशचूर्णिका भागाः सप्तपष्टिभागाः ( रात्र ११२) 'राईदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाग्रेण एतावद् रात्रिन्दिवानां संमेलनेन 'आहिए' - ३८१०६२/६७ अख्यातम् पूर्वोक्ते नो युगपरिमाणे एतावद्रात्रिन्दिवादिप्रक्षेपणेन परिपूर्ण त्रिंशदधिकाष्टादशशतरात्रिन्दिवात्मकं (१८३०) युगं भवतीति भावः 'ति वएज्जा' इति वदेत् कथयेत् स्व शिष्येभ्य इति । अथ नो युगे कियत्परिमित मुहूर्तप्रक्षेपणेन परिपूर्ण युगं मुहूर्तपरिमाणेन भवति ? इति पृष्ठति-'ता से णं' इत्यादि 'ता' तावत् 'से णं' तत् खल परिपूर्ण युगं 'केवइए' कियत्क क्रियापरिमितं 'मुहत्तग्गेणं' मुहर्ताग्रेण 'आहिए' आख्यातम् ? परिपूर्णयुगस्य कियन्तो मुहूर्ता भवन्ति : 'नि वएज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवन् ! भगवानाह-'ता एक्कारस' इत्यादि, "ता' तावत् 'एककारसपण्णासाई मुहत्तसयाई' एकादश पञ्चाशानि पञ्चाशदधिकानि एकादश मुहूर्नशतानि (११५०) 'चत्ताग्यि वायटिभागा' चत्वारश्च द्वापष्टिभागाः ( मुहुत्तम्स' एकस्य Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सू.२ पञ्चसंवत्सराणांसंमेलनेरात्रिंदिवपरिमाणम् ५०५ मुहूर्तस्य, तथा 'वावट्ठिभागं च सत्तट्टिहा छित्ता' एकं च द्वाषष्टिभागं सप्तपष्टिधा छित्त्वाविभज्य तत्सत्काः 'दुवालस चुणिया भागा' द्वादश चूर्णिका भागाः (१) सप्तषष्टिभागाः (११५० ४१२) 'मुहत्तग्गेण' मुहूर्ताप्रेण प्रक्षेप्य मुहूर्तपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातंकथितम् नो युगमुहूर्त्तादिषु एतावन्मुहूर्त्तादि प्रक्षेपणेन परिपूर्ण युग मुहूर्तपरिमाणेन भवति । तथाहि-नोयुगप्रक्षेप्याणामष्टात्रिशतो रात्रिन्दिवानां रात्रिन्दिवस्य त्रिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् त्रिशता गुणने शेषमुहूत्तदिप्रक्षेपे च यथोक्तं (११५० १७) नोयुगम् प्रक्षेप्य मुहूत्तदिपरिमाण भवति । एतेषां (११५०५४।१२) नोयुगमुहूत्र्तादिपरिमाणे (५३७४९ ५७५४) प्रक्षेपणेन परिपूर्ण युगस्य मुहूर्तस्य परिमाणं नवशताधिकानि चतुष्पञ्चाशत्सहस्राणि (५४९००) मुहूर्तानां भवति । एपामेकस्य रात्रिन्दिवस्य त्रिशन्मुहूर्तात्मकत्वात् त्रिंशता भागहरणे यथोक्तं परिपूर्णयुगरात्रिन्दिवपरिमाणं (१८३०) नायते, इति । तदेव सूत्रकारः प्रदर्शयति- 'ता केवइयं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'केवइयं कियत्कं कियत्परिमितं 'जुगे' युगं परिपूर्ण युगं 'राईदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाग्रेण रात्रिन्दिव परिमाणेन 'आहिए' आख्यातम् 'ति वएज्जा' इति वदेत् कथयतु हे भगधन् ? । भगवानाह-'ता अट्ठारस' इत्यादि 'ता' तावत् 'अट्ठारसतीसाई राईदियसयाई भष्टादश त्रिंशानि त्रिशदधिकानि अष्टादश रात्रिन्दिवशतानि (१८३०) 'राइंदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाण परिपूर्ण युगं 'आहिए' आख्यात कथितम् 'ति वएज्जा' इति वदेत् कथयेत् वशिष्येभ्य इति । अथ परिपूर्णयुगस्य मुहूर्तपरिमाणविषयकं प्रश्ननिर्वचनसूत्रमाह-'ता से णं केवइए' इत्यादि, 'ता' तावत् ‘से गं' तत्खलु परिपूर्ण युगं 'केवइए' कियत्कं कियत्परिमितं 'मुहत्तग्गेणं' मुहूर्ताग्रेण 'आहिय आख्यातं 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवन ! भगवानाह- 'ता चउप्पण्णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'चउप्पण्णं मुहुत्तसहस्साई' चतुष्पञ्चाशन्मुहूर्त्तसहस्राणि 'णवयमुहत्तसयाई' नव च मुहूर्तशतानि (५४९००) 'मुहुत्तग्गेणं' मुहूर्ताप्रेण 'आहिए' आख्यातम् 'ति वएज्जा इति वदेत् स्वशिष्येभ्य इति । ६४ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे | युगनाम नोयुगे एतत्कोष्ठकम्- . | रात्रिन्दियमुहर्तादि परिमाणम् । मुहर्तपरिमाणम् रात्रिन्दिवानि मुहूर्ताः भागा | ५३७४९ ५३७४९ ६२६७ युगे ४ |१२ परिपूर्ण नो युगे प्रक्षेप्याः रात्रिन्दिवादिभागा नोयुगमुहूर्तेषु प्रक्षेप्यमुहूतादि रात्रिः मु०१२ ११५० ३८ १०७२।६७ ૬૨૬૭ मम्पूर्णानि रात्रिन्दिवानि सम्पूर्णा मुहूर्ता १८३० ५४९०० साम्प्रतं परिपूर्णयुगविपयकमेव मुहूर्तगत द्वापष्टिभागपरिमाणपरिज्ञानविषयकं सूत्रमाह'ता से णं केवइए' इत्यादि, 'ता' तावत् ‘से णं' तत्खलु परिपूर्ण युगं 'केवइए' कियत्कं 'वावहिभागमुहुत्तग्गेणं' द्वापष्टिभागमुहू ग्रेण मुहूर्तगतद्वापष्टिभागपरिमाणेन 'आहिए' आख्यातम् ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् कथयतु हे भगवन् ! भगवानाह- 'ता चउत्तीस' इत्यादि 'ता' तावत् 'चउतीसं सयसहस्साई' चतुस्त्रिंशच्छतसहस्राणि चतुस्त्रिंशल्लक्षाणि 'अट्टतीसं च वावटिमागमुहुत्तसयाई' अष्टत्रिशच द्वापष्टिभागमुहूर्तशतानि त्रीणि सहस्राणि अष्टशतानि चेत्यर्थः (३४३८००) 'वावद्विभागमुहुत्तग्गेणं' द्वापष्टिभागमुहूर्ताग्रेण 'आहिए' आख्यातम् 'ति वएज्जा' इति वदतु स्वशिष्येभ्यः । अयं भावः-नवशताधिक चतुष्पश्चाशन्मुहूर्तसहस्राणाम् (५४९००) द्वापष्टया गुणने भवति यथोक्ता परिपूर्णयुगस्य द्वापष्टिभागसंख्येति ॥सूत्रम् २॥ पूर्व नोयुगस्य परिपूर्ण युगस्य च रात्रिन्दिवादिपरिमाणं प्रदर्शितम्, साम्प्रतमादित्यचन्द्रादिसंवत्सराः कदा समादिकाः समपर्यवसानाश्च भवन्ति ? इति प्रदर्शयन्नाह-'ता कयाणं एए' इत्यादि । मूलम् -- ता कया णं एए आउच्चचंदसंवच्छरा समादिया समपज्जवसिया आहिया ? ति वएज्जा । ना सही एए आइच्चमामा वावट्ठी एए चंदमासा, एस णं अद्धा छखुत्तकडा. दुवालमभटया तीसं एए आइच्चसंवच्छरा, एक्कतीसं एए चंदसंबच्छरा समादिया समपज्जवमिया आहिया तिवणज्जा । ता कयाणं एए आइच्च उउचंदणक्खत्ता संबच्छरा समादिया समपज्जवसिया आहिया । ति वएज्जा, ना सही एए आइच्चमासा, एगट्टी एए उउमासा, वावहि एए चंदमासा सचट्ठी एए नक्खत्तमासा एम णं अद्धा दुवालमखुत्नकडा दुवालगभइया सहि एए आइच्चा संवच्छरा, एगढी एए उउसंवच्छरा, बापट्टी पर चंदा संबन्छरा, सत्तही एए नक्सत्ता संवच्च्छरा, तया णं, एए आउच्च उउचंद नरसचंसवन्द्ररा समादिया समपज्जवसिया आहिया ति वएज्जा । Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सू०२ संवत्सराणाम् समादिसमपर्यवसानम् ५०७ ता कयाणं एए अभिवड्डियआइञ्च-उउ-चंद-णक्खत्तसंवच्छरा समादिया समपज्जवसिया अहिया ? ति वएज्जा । ता सत्तावणं मासा सत्तय अहोरत्ता, एक्कारस य मुहुत्ता, तेवीसं बावद्विभागा मुहुत्तस्स (५७।७।११/२ एए अभिवढियमासा सही एए आदिच्चमासा, एगट्ठी एए उउमासा, वावट्ठी एए चंदमासा, सत्तट्ठी एए नक्खत्तमासा, एस णं अद्धा छप्पण्णतयखुत्तकडा दुवालसभइया सत्तसया चोयाला, एएणं अभिवड्ढिय संबच्छरा, सत्तसया असीया, एएणं आइच्च संवच्छरा, सत्तसया ते णउया एएणं उउसंवच्छरा, अट्टसया छलुत्तरा, एएणं चंदसंबच्छरा, एगसत्तरी अट्ठसया, एएणं नक्खत्तसंबच्छरा, तयाणं एए अभिवड्ढिय-आइच्च-उउ-चंदनक्खत्तसंवच्छरा समादिया समपज्जवसिया आहिया ति वएज्जा । ता णयट्टयाए णं चंदे संवच्छरे तिण्णिचउप्पण्णाइंदियसयाई दुवालस य वावद्विभागा राइंदियस्स आहिया ति वएज्जा ता अहातच्चेणं चंदे सवच्छरे तिण्णि चउप्पणाई दियसयाई पंच य मुहुत्ता, पण्णासंच वावद्विभागा मुहुत्तस्स आहिया तिवएज्जा ॥ सू० ३॥ छाया-तावत् कदा खलु एते गदित्यचन्द्रसंवत्सराः समादिकाः समपर्यवसिता आख्याताः ? इति वदेत् । तावत् पष्टिः एते आदित्यमासाः, द्वाषष्टिः एते चन्द्रमासाः, प्पा खलु अद्धा षट्कृत्वः कृता द्वादशभक्ताः प्रिंशद् एते आदित्यसंवच्छराः एकत्रिंशद एते चन्द्रसंवच्छरा, तदा खलु पते आदित्यचन्द्रसंवच्छरा समादिकाः समपर्यवसिता आख्याता इति वदेत् । तावत् कदा खलु पते आदित्य ऋतु चन्द्रनक्षत्रसंवत्सराः समादिकाः समपर्यवसिता आख्याताः' इति वदेत् । तावत् पष्टिः एते आदित्यमासा., एकषष्टिः एते ऋतुमासाः, द्वापष्टिः एते चन्द्रमासाः, सप्तषष्टिः एते नक्षत्रमासाः, एषा खलु अद्धा द्वादशकृत्वः कृता द्वादशभक्ताः पष्टिः आदित्या. संवत्सराः, एकषष्टिः एते ऋतु संवत्सराः, द्वापष्टिः पते चान्द्राः संवत्सराः सप्तपष्टिः एते नाक्षत्राः संवत्सराः, तदा खलु एते आदित्य ऋतु चन्द्र नक्षत्रसंवत्सराः समादिकाः समपर्यवसिता इति वदेत् । तावत् कदा खलु एते अभिवद्धिता-ऽऽदित्य-ऋतु-चन्द्र नक्षत्रसंवत्सराः समादिकाः समपर्यवसिता आख्याताः ? इति चदेत् तावत् सप्तपञ्चाशद् मासाः, सप्त च अहोरात्राः, एकादश च मुहूर्ताः, त्रयोविशति पिष्टिभागा मुहूतस्य, पते अभिवद्धितमासाः पष्टिः, पते आदित्यमासा, एकपष्टिः, पते ऋतुमासाः, द्वापष्टिः, एते चन्द्रमासाः, सप्तषष्टिः एते नक्षत्रमासाः, एषा खलु अद्धा पट् पञ्चा शछनरुत्वः कृता द्वादशभक्ता सप्तशतानि चतुश्चत्वारिंशानि, एते खलु अभिवद्धितर्सव. त्सराः, सप्तशतानि त्रिनवतानि, एते खलु ऋतु संवत्सराः, अष्ट शतानि पडत्तराणि, एते खलु चन्द्रसंवत्सराः एकसप्ततानि अटशतानि, पते खलु नक्षत्रसंवत्सरा तदा खलु एते अभिवद्धिता-ऽऽदित्य-ऋतु-चन्द्र-नक्षत्रसंवत्सराः समादिकाः समपर्यवसिता आख्याता इति वयेत् । तावत् नयार्थतया खलु चान्द्रः संवत्सरः त्रीणि चतुष्पञ्चाशानि रात्रिन्दिव Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे ५०८ शतानि, द्वादश द्वापष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य आख्याता इति वदेत् । तावत् याथातथ्येन चान्द्रः संवत्सरः त्रीणि चतुष्पञ्चाशानि रात्रिन्दिवशतानि, पञ्चच मुहर्ताः, पञ्चाशच्च द्वापष्टिभागा मुहर्तस्य आख्याता इति वदेत् ॥ सूत्रम् ॥ __व्याख्या-'ता कया णं एए' इति 'ता' तावत् 'कया णं' कदा कस्मिन् काले खलु 'आइच्चचंदसंवच्छरा' आदित्यचन्दसंवत्सरा 'समादिया' समादिकाः समप्रारम्भाः 'समपज्जवसिया' समपर्यवसिताः समानपर्यवसानवन्तः 'आहिया' आख्याताः कथिताः ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् ? भगवनाह --'ता सट्ठी' इत्यादि 'ता' तावत् 'सही' पष्टिः, 'एए' एते पूर्वोक्ताः घष्टि संख्यका एक युगान्तर्वर्तिनः 'आइच्चमासा' आदित्यमासाः भवन्ति, तथा 'वावट्ठी' द्वाषष्टिः, 'एए' एते पूर्वोक्ताः द्वाषष्टिसंख्यका एक युगान्तर्वर्तिनः 'चंदमासा' चन्द्रमासा भवन्ति । ततः 'एस गं' एषा खलु प्रत्येकं 'अद्धा' अद्धा-काल. 'छखुत्तकडा' पकृत्वः कृता पड्वारं कृता मत्र पण्णां युगाना विवक्षा, इह पड्सु युगेपु समानपर्यसानसद्भावात् , अतः षभिर्गुणिता ततः 'दुवालसभइया' द्वादशभक्ता द्वादशभागहृता द्वादशभिर्भागे हृते 'तीसं एए' त्रिंशदेते (३०) 'आइच्च संवच्छरा' आदित्य संवत्सरा भवन्ति 'एक्कतीसं एए' एकत्रिंशच्च (३१) एते 'चंद संवच्छरा' चन्द्र सवत्सरा भवन्ति । सूर्यस्य त्रिंशत्संवत्सरपरिपूर्णकाले चन्द्रस्य एकत्रिंशत् संवत्सराः परिपूर्णा भवन्तीत्यतआह-'तया णं' इत्यादि 'ता' तावत् 'तया णं' तदा तस्मिन् एतावतिकालेऽतिक्रान्ते खलु 'एए' एते 'आइच्चचंदसंवच्छरा' आदित्यचन्द्रसंवत्सराः 'समादिया' समादिकाः समं समानः आदिः प्रारम्भो येषां ते समादिकाः समानादिमन्तः तथा 'समपज्जवसिया' समपर्यवसिताः समपर्यवसानवन्तो भवन्ति । अयं भावः-एते आदित्यचन्द्रसंवत्सरा विवक्षितस्य युगस्यादौ समप्रारम्भ प्रारब्धा सन्तस्तत आरभ्य पष्ठयुगपर्यवसाने समपर्यवसानवन्तो भवन्ति । तथाहि-एकस्मिन् युगे त्रयश्चन्द्रसंवत्सराः, द्वौ चाभिवद्धितसंवत्सरौ, तौ च प्रत्येकं त्रयोदश मासात्मको, ततः प्रथमयुगे पश्च चन्द्रसंवत्सराः, द्वौ च चन्द्रमासौ, द्वतीये युगे दशचन्द्रसंवत्सराः, चत्वारश्च चन्द्रमासाः, एवं प्रतियुगं मास द्विकवृद्धया पष्ठे युगे द्वादशमासात्मक एकः संवत्सरो वर्धने तेन पष्ठयुगपर्यन्ते परिपूर्णा एकत्रिंशच्चन्द्रसंवत्सरा लभ्यन्ते । तथाहि-एकस्मिन् युगे आदित्यमासाः पष्टिः प्रोकाः तेषां पड्भिर्गुणने जातानि षष्टयविकानि त्रीणि अतानि (३६०) मासानाम् । एपा द्वादशमामैक. संवत्सरो भवतीति, द्वादशभिर्भागे हृते त्रिंशत् सवत्सरा लभ्यन्ते । नन एकस्यादित्यसंवत्मरस्य पट्पष्टयधिकानि त्रीणि शतानि (३६६) दिनानि भवन्तीत्यत एपां शिना गुणने जायन्ते दशसहस्राणि अशीयधिकानि नवशतानि (१०९८०) दिनानामिति । तथा चन्द्रमामा द्वापष्टि (६२), एते पभिर्गुण्यन्ने जाता द्वासप्त-यधिक अनत्रयमासा. (३७२) पणा संवत्सगनयनार्थ द्वादशभिर्भागो हियते लब्धा एकत्रिंशत् (३१) संवत्सराः । एकस्य Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सू. ३ संवत्सराणाम् समादिसमपर्यवसानम् ५०९ चन्द्र संवत्सरस्य दिनानि चतुप्पञ्चाशदधिकानि त्रिशतानि एकस्य दिनस्य द्वादश द्वाषष्टिभागा (३५४।३ ) एपामेकत्रिंशता गुणने जायन्ते दशसहस्राणि अशीत्यधिकानि नवशतानि दिना ६२ नाम् (१०९८०) एवं जाता आदित्यचन्द्रसंवत्सरयोदिवसानां समानता । इयत्सु दिवसेषु व्यतिक्रान्तेपु द्विप्रकाराणां संवत्सराणां पर्यवसानं भवतीति ते समपर्यवसिता भवन्तीति । अथादित्यनातु चन्द्रनक्षत्रेति संवत्सरचतुष्टयविपये पृच्छति-'ता कयाणं एए आइच्च' इत्यादि 'ता' तावत् 'कयाण' कटा खलु 'एए' एते वक्ष्यमाणा• 'आइच्च-उउ-चंद-णक्खत्तसंवच्छरा' आदित्य ऋतुचन्द्रनक्षत्रसवत्सराः चत्वारोऽपि 'समादिया' समादिकाः समानादिमन्तः 'समपज्जवसिया' समपर्यवसिताः समानपर्यवसानवन्त 'आहिया' आख्याताः ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु हे भगवन् ! । भगवानाह-'ता सहि' इत्यादि, 'ता' तावत् 'सही' पष्टिः (६०) 'एए' एते एकयुगान्तवेर्तिन 'आउच्चमासा' आदित्यमासाः । 'एगट्टि' एकषष्टिः (६१) 'एए एते एकयुगान्तवर्तिनः 'उउमासा' ऋतुमासाः । 'वावट्ठी' द्वापष्टिः (६२) एते एकयुगान्तर्वर्तिनः 'चंदमासा' चन्द्रमासाः 'सत्तहि सप्तपष्टिः (६७) ६०-पष्टिरादित्यमामा.। ६१-एकपष्टि ऋतुमासाः। ६२-द्वापष्टिश्चन्द्रमासाः। ६७-सप्तपप्टिनक्षत्रमासाः। 'एए' एते एकयुगान्तर्वतिन 'नक्खत्तमासा' नक्षत्रमासाः 'एसणं' एपा प्रत्येकं खल अद्धाकालरूपा 'दुवालसखुत्तकडा' द्वादशकृत्वः कृता अत्र द्वादशभिर्युग. समानपर्यवसानसद्भावात् द्वादशभिर्गणितेत्यर्थः, ततश्च 'दुवालसभइया' द्वादशभक्ता द्वादशभागहता 'सट्ठी' षष्टिः पष्टिसख्यकाः 'एए' एते द्वादशयुगसम्बन्धिनः 'आइच्च संवच्छरा' आदित्यसंवत्सराः । एवं 'एगाट' एकषष्टिः 'एए' एते 'उउसंवच्छरा' ऋतुसंवत्सराः । एवं 'वावट्ठी' द्वापष्टिः 'एए' एते 'चंदसंवच्छरा' चन्द्रसंवच्छरा. । 'सत्तट्ठी' सप्तपष्टिः 'एए' एते 'नक्खत्तसंवच्छरा' नक्षत्रसंवत्सराः एपा सवत्सरसख्या प्रत्येकं द्वादशयुगातिक्रमे भवतीत्यर्थः । अयं भावः-एते चत्वारोऽपि सवत्सराः विवक्षित युगस्यादौ समादिकाः समारब्धप्रारम्भाः सन्तस्तत आरभ्य द्वादशयुगपर्यन्ते समपर्यवासाना भवन्ति, द्वादशयुगेभ्योऽर्वाक् एषां चतुर्णा सवत्सराणां मध्यादन्यतमस्य कतिपयमासानामधिक तयाऽवश्यम्भावेन सर्वेषां युगपत् समपर्यवसानत्वासंभवात् । अथैषां प्रत्येक दिनसमानता गणितेन प्रदर्श्यते -पूर्व चतुर्णा सवत्सराणामेक युगान्तर्वतिमाससंख्याप्रदर्शिता एपा प्रत्येकमाससंख्या द्वादशभिर्गुणिता पुनश्च द्वादभिर्विभक्ता क्रियते तत. संवत्सरा आयान्ति, तत्र द्वादशसु युगेपु पतिरादित्य संवत्सराः (६०), एकपष्टि ऋतुसंवत्सराः (६१), द्वापष्टिश्चन्द्रसंवत्सगः (६२) सप्तपष्टिश्चनक्षत्रसवत्सराः (६७) लभ्यन्ते । तत्रैकस्मिन् युगे आदित्यमासाः षष्टिः (६०), एपा द्वादशभिर्गुणने विंशत्यधिकानि सप्तशतानि (७२०), एषां द्वादशभिर्भागे हत्ते द्वादशसु युगेपु पण्टिरादित्यसवत्सराः (६०) लब्धाः । तत एकस्यादित्यसवत्सरस्य षट्पष्टयधिकानि त्रीणि Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे यातानि (३६६) दिनानां भवन्ति, एते द्वादशयुगसम्बन्धिनः पण्टिरादित्यसंवत्सरा इति पष्ट्या गुण्यन्ते, गुणिते च लभ्यन्ते-एकविशतिः सहस्राणि, नवशतानि, पट्यधिकानि (२१९६०) आदित्यसंवत्सरदिनानीति । एवं द्वादशसु युगेषु ऋतु संवत्सरा एकपष्टिः, एकस्य सतुसंवत्सरस्य पष्टयधिर्कान त्रीणि शतानि (३६०) दिनानि भवन्ति, एपामेक पष्टया - (६१) गुणने कृते लभ्यन्ते तान्येव (२१९६०) ऋतुसवत्सरदिनानीति एवं द्वादशसु युगेषु चन्द्रसंव-भग द्वापष्टि (६२), करय चन्द्रसवत्सरस्य चतुप्पञ्चाशदधिकानि त्रीणि शतानि दिनानि, कम्य दिनस्य च द्वादश द्वापष्टि भागाः ( ३५४।१२ ), एषां द्वाषष्टया गुणने लभ्यन्ते पूर्वोक्त तुन्यानि (२१९६०) चन्द्रसंवत्तरदिनानीति । एवं द्वादशसु युगेपु सप्तपण्टि (६५) नक्षत्रसंवत्सगः, एकस्य नक्षत्रसवत्सरस्य सप्तविंशत्यधिकानि त्रीणि शतानि दिनानाम् एकम्य च दिनस्य एकपञ्चाशत् सप्तपष्टि भागाः (३२७/- ), एपा सप्तपष्टया गुणने जाय न्ते तान्येव (२१९६०) नक्षत्रसंवत्सरदिनानीति । इयत्सु समानेषु दिवसेषु व्यतिक्रान्तेपु चतुर्णामपि संवत्सराणां समानत्वेन पर्यवसानं भवतीति । अथाभिवद्वितादि पञ्चसंवत्सरविषये गौतमः पृच्छति-'ता कयाणं' इत्यादि 'ता' तावत 'कया णं' कटा खल 'एए' गते पञ्च वक्ष्यमाणाः 'अभिवढिय आउच्च-चंद-णक्खत्तसंवच्छग' अभिवदितादित्य-ऋतु--चन्द्र-नक्षत्रसंवत्सरा. 'समादिया' समादिकाः समानादिमन्त. 'समपज्जासिया' समपर्यवसिताः समानपर्यवसानवन्तः 'आहिया' आख्याताः कथिताः ? 'तिवणज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन ! । एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह-'ता'सत्तावणं' इत्यादि, 'ता' नावन् 'सत्तावणं मासा' मप्तपञ्चाशत् मासाः 'सत्त य अहोरत्ता' सप्तचाहोगत्रा , 'एक्कारम य मुद्दुत्ता' एकादश च मुहूर्ता. 'तेवीसं वावद्विभागा मुहुत्तस्स' एकस्यमुहर्तस्य त्रयोविंगनि पिष्टिभागाः ( ५७।७।११। २) 'एए' एते अनुपदं प्रदर्शिताः 'अभिवढियमामा' अभिवतिमामा एक युगान्तर्वनिन. सन्नि । 'सट्टी' पष्टि पष्टि सख्यका (60) 'एप' एते 'प्राइच्चभामा' आदित्यमामा' | 'पगट्टि' एकपष्टि. (६१) 'एए' एते 'उउमामा' मनुमासाः । 'बावट्ठी' द्वापष्टिः (६२) 'पए' ते 'चंद्रमासा' चन्द्रमासाः । 'मत्तही' मतपट (६७) 'एए' ते 'णवत्तमासा' नक्षत्रमासाः एते एक युगान्तर्वनिनोविदिनादित्य ऋतुचन्दनक्षत्रमामा. प्रत्येक प्रोकाः, माम्प्रतमेपां प्रत्येक ममादिसमपर्यवमान सबसगनयनविधि प्रदर्शयनि-'एम णं' इत्यादि, 'एस णं' एषा पूर्वप्रदगिना 'अदा' अदा प्रत्येकम्य एक युगान्तर्वत्तिमासरूपः कालः प्रत्येकस्य मासा Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सू ३ संवत्सराणां समादिसमपर्यवसानम् ५११ इत्यर्थः 'छपण्णसयखुत्तकडा' पट्पश्चाशच्छतकृत्त्वः कृता पट्पञ्चाशच्छतगुणिता 'दुवालसभइया' द्वादशभिर्हतभागा, पट्पञ्चाशदधिकशतेन गुणितानामभिवद्धितादिमासानां द्वादशभिर्भागे हते या या संख्या लभ्यते सा सा संख्या अभिवद्धितादिसंवत्सराणां प्रत्येकस्य संख्या भवति । तामेव संख्यां प्रदर्शयति-'सत्तसया चोयाला' सप्तशतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि संवत्सराणाम्, 'एएणं' एते (७४४) खल 'अभिवढियसंवच्छरा' अभिवतिसंवत्सरा भवन्तीति । आदित्य सवत्सरानाह-'सत्तसया असीया' सप्तशतानि अशीत्यधिकानि (७८०) 'एएणं' एते खल 'आदच्चसंवच्छरा' आदित्य संवत्सरा भवन्ति । ऋतुसंवत्सरानाह--'सत्तसया तेणउया' सप्तशतानि त्रिनवत्यधिकानि (७९३), 'एए णं' एते खलु 'उउसंवच्छरा' ऋतुसंवत्सरा भवन्ति । चन्द्रसंवत्सगनाह-'अट्ठसया छलुत्तरा' अष्टशनानि पडत्तराणि (८०६) 'एएणं' एते खलु 'चंदसवच्छरा' चन्द्रसंवत्सरा भवन्ति । नक्षत्रसंवत्सरानाह-'एगसत्तरीअट्ठसया' एकसप्तत्यधिकानि अष्टशतानि - (८७२) 'एए णं' एते खल 'नक्खत्तसंवच्छरा' नक्षत्रसंवत्सरा भवन्ति । एते पञ्चापि संवत्सराः स्वस्व प्रमाणमाश्रित्य यदा परिपूर्णा भवेयुः, 'तया णं तदा खलु 'एए' एते 'अभिवढिय-आइच्च-उउचंद-णक्खत्तसंवच्छरा' अभिवर्द्धितादित्य ऋतुचन्द्रनक्षत्रसवत्सराः 'समादिया-समपज्जवसाणा' समादिकाः समपर्यवसानाः एक कालिकादिपर्यवसानवन्त? 'आहिया' आख्याताः एते कालसाम्यमाश्रित्य षट्पञ्चाशदधिकशत (१५६) संख्यकेषु युगेषु परिपूर्णेषु सत्सु परिपूर्णा भवन्तोति विवेकः । 'तिवएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्य इति एपां पञ्चानां सवत्सराणां मध्यात् एकैकयुगसम्बन्धिनो मासान् सूत्रोक्तविधिना पट्पञ्चाशदधिकशतेन गुणयित्वा द्वादशभिर्भागे हते पट्टपञ्चाशदधिकशतसंख्यकयुगसम्बन्धिन प्रत्येकस्य सवत्सरा सायान्ति । षट्पञ्चाशदधिकशतसंख्यकै युगैरव पूर्वोक्ताभिवड़ितादिसंवत्सराणां समादि समपर्यवसानसद्भावादिति । अथैषां संवत्सर संख्या गणितेन प्रदर्श्यते तद्विधिर्यथा एकयुगवर्त्तिनोऽभिवर्द्धितमासाः सूत्रोक्ताः सप्तपञ्चाशत्-अहोरात्राः, एकादश मुहूर्ताः, त्रयोविंशतिश्च द्वापष्टि भागाः (५७-७-११-२३) । एते षट्पञ्चाशदधिकशतेन (१५६) गुणनोया भवन्ति, तत्र-प्रथम सप्तपञ्चाशत् पट्पञ्चाशदधिकेन शतेन गुन्यन्ते, जायन्ते-अष्टसहस्राणिअष्टशतानि विनवत्यधिकानि-८८९२ एते मासा जाताः । ततः सप्तमहोरात्राः षट्पञ्चाशदधिक शतेन गुण्यन्ते, जातानि द्विनवत्यधिकानि दश शतानि-१०९२, एतेऽहोरात्रा जाताः । तत एकादश मुहूर्ताः पट्पञ्चाशदधिकशतेन गुण्यन्ते जातानि-पोडशाधिकानि सप्तदश-शतानि-१७१६ एते, मुहूर्ता जाताः । ततः त्रयोविंशतिः द्वापष्टिभागाः षट्पश्चाशदधिक: शतेन गुण्यन्ते, जातानि Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे मासा । पञ्चत्रिंशच्छानि भष्टाशीत्यधिकानि-३५८८, एते द्वापष्टिभागाः जाता:-यथा--- ८८९२ अहोरात्रा. मुहर्ता:हापष्टिभागाः प्रथमं द्वापष्टि भागानां (३५८८) मुह नयनाथै द्वापष्टया १०९२ १७१६।३५८८ । भागो हियते, लब्धाः सप्तपञ्चाशत् (५७), एते मुहूर्तराशी (१७१६) प्रक्षिप्यन्ते जाता मुहूर्ताः सप्तदशगतानि त्रिसप्तत्यधिकानि (१७७३) मुहूर्ताः भवन्ति, शेपा ये चतुष्पञ्चाशत् (५४) तेऽधुना स्थाप्या । एषां मुहर्तानां (१७७३) महो रात्रानयनाथ त्रिंगता (३०) भागो हियते लब्धाः एकोनपष्टिः (५९) अहोरात्राः, एतेऽहोरात्रसंख्यायां (१०९२) प्रक्षिप्यन्ते जातानि-एकादश शतानि एक पञ्चाशदधिकानि (११५१) अहोरात्राः, शेषीभूता ये त्रयास्ते एकत्रस्थाप्याः । एषां मासानयनार्थम्-अभिवर्द्धितमासा द्वात्रिंशदिवसात्मको भवति ततो द्वात्रिंशता भागो हियते, लब्धाः पञ्चत्रिंशत् (३५ । एषां स्थापना-(- उ. दाः) । वस्तुतोऽभिवर्द्धितमासस्य दिवसाः एकत्रिंशत् सार्दा पष्टिश्च द्वापष्टिभागाः (३१-६०॥ भवन्ति । अथवा--एकत्रिंशदिनानि-एकविंशत्य्धिकशत भागाचतुर्विशत्यधिकशत भागानाम् (३११२१) एपाऽपि संख्या भवति-अभिवद्धितमासस्य दिवसानाम् । पूर्वमहोरात्राणां द्वात्रिंशता भागो हुत. अतः प्रतिमासं साईंको भागो निष्कास्यते, ततः पञ्चत्रिंशन्मासानां प्रत्येकं सार्दै कस्मिन् भागे निष्काशिते निष्काशिता भागा लभ्यन्ते-सार्धा द्विपञ्चाशद्भागाः (५२) एकत्य दिनस्य । ततो मुहूर्तानां त्रिंगता भागे हृते ये शेषा स्त्रयः स्थापिता स्तेपां द्वापष्टिभागकरणार्थ ते द्वापष्टया गुण्यन्त, जातं पडशीत्यधिकं शतम् (१८६) । तनश्चतुप्पञ्चाशद् (५४) द्वापष्टि भागा ये पूर्वे शेषाः स्थितास्तेऽत्र पडशीत्यधिके शते प्रक्षिप्यन्ते जाते चत्वारिंशदधिक वे गते (२४०) गते एकस्य मुहूर्तस्य द्वापष्टि भागाः सन्ति नत पां त्रिंशता भागो हियते, लब्धा अष्टौ (८) एते दिवसस्य द्वापष्टि भागाः सन्ति । तत एते (८) उपरि ये पञ्चत्रिंगन्मासेभ्यः प्रत्येक साकभागे निष्कासिते ये लब्धा निष्कासिता भागाः सार्दादिपञ्चाशत् (५२॥) "यु तेऽष्टौ भागाः प्रक्षिप्यन्ते जाता सार्दापष्टि (६०) एकस्य दिनस्य । ततो ये एकत्रिंशदिवसाः (३१) शेपी मृता आसन तैः सह संयोज्यन्ते ततो जाना कस्यामिवदिनमामन्य दिवसाः (३१ ६०") हय डिवसात्मक कोऽभिवद्धितमामः (१) एप एको मामः उपर्युरूपु पन्चत्रिंशमासेषु प्रक्षिप्यते जाताः पत्रिंशन्मासाः (३६) एते एकस्य युगस्य Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सू३ संवत्सराणां समादि समपर्यवसानम् ५१३ सप्तपञ्चाशद् मासाः पदपञ्चाशदधिकशतेन गुणिताः ये अष्ट सहस्राणि अष्टशतानि द्विनवत्यधिकानि (८८९२) मासानां जातास्तेपु प्रक्षिप्यन्ते जायन्ते अष्टसहस्त्राणि नव शतानि अष्टाविंशत्यधिकानि (८९२८) द्वादशभिर्भागे हुते जायन्ते, सूत्रोक्ताः 'सत्तसया चोयाला' चतुश्चत्वारिंशदधिकानि सप्तशतानि (७४४) अभिवर्द्धितसंवत्सरा षट्पञ्चाशदधिकशतसंख्यकेपु (१५६) युगेषु इति । अथवाऽन्यत्र-एक युगवर्तिनोऽभिवर्द्धितमासाः सप्तपञ्चाशत् एकस्य च मासस्य त्रयस्त्रयोदशभागाः (५७ । एतावत्प्रमाणं लभ्यते, तथाहि-“सत्तावण मासा मासस्स य तिन्नि तेरसभागा" इति । तत एतदनुसारेणापि गणितं प्रदर्श्यते, तथाहि-सप्तपञ्चाशन्मासाः, त्रयस्त्रयोदशभागाः (५७)। एते पट्पञ्चाशदधिकशतेन गुण्यन्ते, तत्र पूर्व सप्तपञ्चाशत् पट्पञ्चाशदधिकशतेन गुण्यन्ते, जातानि-अष्ट सहस्राणि अष्टशतानि विनवत्यधिकानि (८८९२) ततस्त्रयस्त्रयोदशभागाः पट्पञ्चाशदधिकशतेन गुण्यन्ते, जातानि चत्वारि शतानि अष्टपष्टयधिकानि (४६८), एषां मासानयनार्थ त्रयोदशभिर्भागो हियते, लभ्यन्ते पत्रिंशन्मासाः (३६), एते पूर्वोक्तमासराशौ (८८९२) प्रक्षिप्यन्ते जातानि-अष्टसहस्राणि नवशतानि अष्टाविंशत्यधिकानि (८९२८)। एपा द्वादशभिर्भागो हियते लभ्यन्ते यथोकाश्चतुश्चत्वारिंशदधिकसप्तसंख्यकाः (७४४) संवत्सराः षट्पञ्चाशदधिकशत (१५६) युगानाम् । अथादित्यसंवत्सराः प्रदान्ते-एकस्य युगस्यादित्यमासाः षष्टिः (६०) एते षट्पञ्चाशदधिकशतेन गुण्यन्ते-जातानि नव सहस्राणि त्रीणि शतानि षष्टयधिकानि (९३६०) एषां द्वादशभिर्भागे हते लभ्यन्ते-सूत्रोक्ताः 'सत्तसया असीया' अशीत्यधिकानि सप्तशतानि (७८०) षट्पञ्चाशच्छतयुगेषु मादित्यसवत्सरा इति । ऋतुसंवत्सराः प्रदर्श्यन्ते-एकयुगान्तर्वर्तिन ऋतुमासाः एकषष्टिः (६१) एते पटूपञ्चाशदधिकेन शतेन गुण्यन्ते, जातानि नवसहस्रणि पञ्चशतानि पोडशाधिकानि (९५१६) । एषां द्वादशभिर्भागे हृते लभ्यन्ते सूत्रोकाः, 'सत्तसया तेणउया' सप्तशतानि त्रिनवत्यधिकानि (७९३) ऋतुसवत्सरा इति । चन्द्रसंवत्सरानाह-एकयुगान्तर्वर्तिनश्चन्द्रमासाः द्वाषष्टिः (६२), एते षट्पञ्चाशदधिकशतेन गुण्यन्ते, जातानि-नवसहस्राणि षट्शतानि द्वासप्तत्यधिकानि (९६७२), एषां द्वादशभिर्भागे हते लभ्यन्ते सूत्रोक्ताः 'अट्ठसया छलुत्तरा' अष्टशतानि षड्डत्तराणि (८०६) चन्द्रसंवत्सरा इति । नक्षत्रसंवत्सरानाह-एकस्मिन् युगे नक्षत्रमासाः सप्तष्टिः (६७), एते षट्पञ्चाशदधिकशतेन गुण्यन्ते, जातानि दशसहस्राणि, चत्वारि शतानि Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर - - . चन्द्रप्राप्तिसूत्रे द्विपञ्चाशदधिकानि (१०४५२), एपा द्वादशभिर्भागे हते लभ्यन्ते सूत्रोक्ताः 'एगसत्तरी अट्ठसया' कि मप्नत्यधिकानि अष्टशतानि (८७१) नक्षत्रसंवत्सग इति । ऐतेऽभिवद्धितादयः संवत्सराः पटप चांगदधिकशतेषु युगेषु समादिका. 'समपर्यवमाना भवन्तीति । अथैतेपामभिवर्द्धितादि संवमरणा दिनानि समानत्वेन प्रदर्श्यन्ते ६२ कन्याभिवतिसंवत्सरस्य त्र्यशीत्यधिकानि त्रीणि शतानि दिनानाम्, एकरय च दिनस्य एकविंशतिहत्ता.. एकरय च मुहूर्तस्य अष्टादश द्वापष्टिभागाः (३८३।२१।१० ) । एप गयिः चतुश्चत्वारिंशदधिक सप्तगत: (७४४) गुणन जातानि अभिवदितसंवत्सराणां दिनानि लो, पञ्चाशीनिः सहस्राणि, चारि शतानि अशीयधिकानि (२८५४८०) (१) एवमादित्य संबदमरा: अंगीन्यधिक सप्तशतसंव्यका (७८०) तत्रैकस्यादित्यसवत्सरस्य षट् पष्टयधिकानि त्रीणि गतानि (३६६) दिनानां भवन्ति, एपामगीत्यविकसप्तशतैर्गुणने जायन्ते यथोक्तानि (२८५४८०) दिनानि । एवं त्रिनवत्यधिकानि सप्तशतानि तुसवत्सराणां (७९३) भवन्ति । पकवच ऋतुसवत्सग्रय पट्यवित्रिशनगंख्यकानि (३६०) दिनानि भवन्ति, एषां त्रिनबल्यधिकसप्तगत गुणने जायन्ते यथोक्तानि (२८५४८०) दिनानि (३) एवं चन्द्रसंवत्सराः पद्धतगष्टशनसंख्यका (८०६) भवन्ति, एकस्य चन्द्रमंवत्सरस्य चतुष्पञ्चाशदधिकानि त्रीणिशतानि दिनानाम्, एक्रस्य च दिनस्य द्वादश द्वापष्टि भागाः (३५४।१२ ) पपा पडुत्तराष्टशन(६) सत्यया गुणने जायन्ने यथोक्ता (२८५४८०) संख्या दिनानामिति (४) एवं नक्षत्रमेमर्ग: एक सप्तत्याचकारशतमयका (८७१) एकरय च नक्षत्रसंवत्सरस्य सप्तविंशत्यशिलातत्यासंख्यका दिवमा , एकपञ्चाशच्च सप्तष्टि भागा' (३२७११) एपामेकसप्तत्याधकांगत-८७१) गुणन कृने लम्यन्ते नक्षत्रसव-मरदिनानि यथोक्तानि (२८५४८०) दति (५)गमा पञ्चानामपि मवसगगामिय परिमितेषु (२८५५८०) समानेषु दिवसेषु व्यतिक्रान्तेषु नमादिः समपर्यवमानं च भवतीनि । । अयं पर्व, कमे चन्द्र बन्मापरिमाण गणितमेट राश्रित्य प्रकारद्वयेन प्रदर्शयति 'ना' नबट्याएण' न्यादि, "ना नावन 'नयठ्याप' नयार्थनया अन्यनयापेक्षया, परनीर्थिकभगमन चिन्मयः 'चंदगो . संव-मर तिणि चपणा गदियसयाई त्रीणि बरनामानि ननुपञ्चागदधिमानि त्रीणि गत्रिन्टिवगनानि, 'गाईदियम्स' एकस्य रात्रिन्दिवस्य Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सूट ऋतुवक्तव्यता प्रतिपादनम् ५११ 'दुवाललस य वासहिभागा' द्वादश च द्वापष्टिभागाः(३५ ७/१२एतत्परिमितः ‘आहिए' आन ख्यातः 'तिवएजा' इति वदेत् स्वशिप्येभ्य । अथ भगवान् भापामाश्रित्य यथार्थतां प्रदर्शयति 'ता अहातच्चे णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'अहातच्चेण', याथातथ्येन यथार्थतयां आगम.. भाषया 'चंदे संवच्छरे' चान्द्रः संवत्सरः 'तिण्णि चउप्पण्णाईराइंदियसयाई त्रीणि चतुष्पञ्चा, शानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि त्रीणि रात्रिन्दिवशतानि, 'पंच य मुंहुत्ता पञ्च च मुहूर्ताः 'पण्णासंच वास द्विभागा मुहुत्तस्स' पञ्चाशच्च द्वापष्टिभागा एकस्य नमुहूर्तस्य ( एला - ३५४ ५६२ . वत्परिमितश्चन्द्रसवत्सरः 'आहिए' आख्यातः आगमगाया 'कथितः "तिवएज्जा' इति-- एवं वदेत् कथयेत् स्वशिष्येभ्यः इति । यद्यपि चन्द्रसंवत्सरस्य द्वयमपि परिमणि समानमेव . तथापि भाषाभेदोऽत्र प्रदर्शितः । प्रथम परिमाणमन्यतीर्थिकभापया वर्तते, इदै परिमाणे तु. आगमभापया विज्ञेयमिति । तथाहि-अहोरात्रपरिमाणं चतुष्पञ्चाशदधिकशतत्रयरूपं (३५४). तु तावदेकरूपमेव, ये तूपरितना द्वादशहापष्टि भागास्तै एकस्याहोरात्रस्य कथिता । तेपी मुहूर्ता अहोरात्रस्य क्रियन्ते तदा मुहूर्त्तानयनार्थ द्वादश त्रिशता 'गुण्यन्ते जायन्ते "पष्टयधिकानि त्रीणि शतानि (३६०), पपां मुहर्तकरणार्थ द्वाषष्ट्या भागो हियते, लब्धाः 'पंञ्च मुहूर्ता (५) शेषास्तिन्नि मुहूर्तरय पञ्चाशद् (५०) द्वापष्टिभागाः (३५४।५५)। एवमुभयोः समा ६२ - त्वमेव सिद्धयतीति । मू०३ ॥ 11 : .." पूर्वमुक्ता सप्रपञ्चं सवत्सरवक्तव्यता, अथ ऋतुवक्तव्यतामाह—'तत्थ खलु ईमै छ उ ऊ' इत्यादि । मूलग्- तत्स्थ खलु इमे छ उऊ पण्णत्ता, 'तं जहा-पाउसे १, वरिसार २, सरए ३, हेमंते ४, वसंते ५, गिम्हे ६. । ता सव्वे विणं एए, चंदउऊदुवे २ मासा तिचउप्पण्णेण २, आदाणेणं गणिज्जमाणा साइरेगाई। एगूणसंही. २, राईदियाई राई दियग्गेणं आहिए ति वएज्जा । तत्थ ग्बल इमे छ ओमरत्ता पण्णत्ता, तं जहा-तइए पव्वे १ सत्तमे पव्वे २, एक्कारसमे पव्वे ३, पणणरसमे पञ्चे ४, 'एगूणवीसइमे पव्वे ५, तेवी सइमे पव्वे ६, तत्थ खल इमे छ अतिरता पण्णत्ता'त 'जहा-चउत्थे पव्वे १, अट्टमे पव्वे २, वारसये पव्वे ३, सोलसये पव्वे ::, वीसइमे पववे।५,चउवीसइमे पव्वे ६, वाहा-" छच्चेव य अइरत्ता, आइच्चाओ. हवंति जाणाहिः। छच्चेव ओमरत्ता, हवंति जाणाहि" ॥१॥ सूत्रम् ॥४॥ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रशप्तिस्त्रे छाया-तत्र खलु पते पड प्रतवः प्राशताः, तद्यथा-प्रावृट् १, वरात्रः२, शरत् ३, हेमन्तः ४, वसन्तः ५, प्रीष्मः ६, । तावत् सर्वेऽपि खलु एते चन्द्र ऋतवः द्वौ हौ मासी त्रिचतुष्पञ्चाशता २ आदानेन गण्यमानौ सातिरेकणि एकोनषष्टिः २ रात्रिन्दिवानि रात्रिन्दिवाण आख्यातौ इति वदेत् । तत्र खलु इमे पड़ अवमरात्राः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-तृतीये पर्वणि १, सप्तमे पर्वणि २, एकादशे पर्वणि ३, पञ्चदशे पर्वणि ४, पकोन विंशतितमे पर्वणि ५, त्रयो विशतितमे पर्वणि ६, तत्र खलु इमे पड तिरात्राः प्राप्ताः, तद्यथा-चतुर्थे पर्वणि १, अष्टमे पर्वणि द्वादशे पर्वणि ३, षोडशे पर्वणि ४, विशतितमे पर्वणि ५, चतुर्विशतितमे पर्वणि ६ । गाथा.-"पडेय च अतिरात्राः आदित्यादि भवन्ति नानीहि । पदेव अवमरात्राः चन्द्राद् भवन्ति जानीहि , ॥१॥ सूत्र ॥४॥ व्याख्या-'तत्य खल्ल' इति, 'तत्य तत्रेति अस्मिन् मनुष्यलोके प्रति सूर्यायनं प्रतिचन्द्रायनं चाश्रित्य खलु 'इमे' इमे वक्ष्यमाणाः 'छ उऊ पण्णत्ता' पड् ऋतवः प्रज्ञप्ताः, 'तं जहा' तद्यथा-ते यथा- 'पाउसे' प्रावृट् १, 'परिसारत्ते' वरात्रः २, “सरए' शरत् ३, 'हेमंते' हेमन्तः ४, 'वसंते' वसन्तः ५, 'गिम्हे' ग्रीष्म ऋतुरिति ६, । लोके तु अन्यथाभिधाना ऋतवः प्रसिद्धाः, तथाहि--प्रावृट् १, शरद् २, हेमन्त ३, शिशिरः ४, वसन्तः ५, ग्रीष्मश्चेति ६, । छोकोचरे जिनमते तु यथोक्ताभिधाना एव ऋतवः उक्तञ्च--- _ 'पाउसवासारते, सरभो हेमंत वसंत गिम्हो य । एए खलु छप्पि उऊ जिणवरदिट्ठायए सिहा ॥१॥" छाया-प्रावृट् वरात्रः शरद् हेमन्तः वसन्तः ग्रीष्मश्च । ___एते खल पडपि ऋतवः, जिनवरदृष्टा मया शिष्टाः कथिताः ॥१॥ इति । ऋतवो हि द्विधा-सूर्यर्तवश्चन्द्रविश्व । तत्र प्रथमं सूर्यवक्तव्यता प्रस्तृयते-तत्र एकैकस्य सूर्यचोंः परिमाणं सूर्यमासस्य साईत्रिंशदहोरात्रात्मकत्वात् द्वौ सूर्यमासौ एक षष्ठ्यहोरात्रात्मको उका "वे आइच्च मासा, एगही ते भवंतहोरत्ता । एयं उ उ परिमाणं, अवगयमाणा जिणा विति" ॥१॥ छाया-दौ आदित्यो मासौ, एक पप्टिस्ते भवन्त्यहोरात्राः । पतद् ऋतु परिमाणं, अवगतमाना जिना वदन्ति ॥१॥ इति इहेप्सितसूर्यावानयने वृद्धोक्ता कग्ण गाथाः प्रदश्यन्ते "सर उउस्साणयणे, पच्वं पण्णरससंगुणं नियमा । तहि संखित्तं संत, वावट्ठी भाग परिहीणं ॥१॥ दुगणेगट्ठीहजुयं, बावीससएण भाइए नियमा-- Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१२सू. ४ ऋतुवक्तव्यता प्रतिपादनम् ५१७ जं लद्धं तस्स पुणो, छहि हिय सेस उऊ होइ ॥२॥ सेसाणं अंसाणं, बहिउ भागेहि तेसिं जं लद्धं । ते दिवसा नायबा, होति पवत्तरस अयणस्स ॥३॥" छाया-सूर्यत्तौरानयने पर्व पञ्चदश संगुणं नियमात् । तत्र संक्षिप्तं सत द्वाषष्टि भागपरिहीनम् ॥१॥ द्विगुणम् एकपष्टियुतं, द्वाविंशशतेन भाजिते नियमात् । यल्लब्धं तस्य पुनः पइभिट्टते शेष ऋतुर्भवति ॥२॥ शेषाणा मंशानां द्वाभ्यां तु भागाभ्यां तेषां यल्लब्धम् । ते दिवसा ज्ञातव्या., भवन्ति प्रवृत्तस्यायनस्य ॥३॥ इति । आसां व्याख्या क्रियते---'सूरउउस्सा.' इत्यादि, 'सूरउउस्साणयणे' सूर्यत्तोंः सूर्यसम्बन्धिन ऋतोरानयने 'पव्वं सर्व-पर्व संख्यान 'नियमा' नियमात् 'पण्णग्सं गुणं' पञ्चदशसंगुणं पञ्चदशभिर्गुणितं कर्त्तव्यम् पर्वाणां पञ्चदशतिथ्यात्मकत्वात् । अत्रेय भावना----यद्यपि ऋतव आपाहादि प्रभवास्तथापि युगं श्रावण-कृष्णपक्ष प्रतिपदात आरभ्य प्रवर्त्तते ततो युगादितः प्रवृत्तानि यानि पर्वाणि भवन्ति तेषां संख्याऽत्र गृह्यते, सा सख्याऽत्र पञ्चदशभिर्गुण्यते इति । तां संख्यां गुणयित्वा च पर्वाणामुपरि विवक्षितं दिनममिव्याप्य या तिथयस्ताः 'तहि संखित्तं तत्रपञ्चदशभिर्गुणिते राशौ संक्षिप्यन्ते इत्यर्थ. तदेवाह-संखित्तं संतं' सक्षिप्तं सत् 'वावहिभागपरिहीणं' द्वापष्टिभागपरिहीनं कर्तव्यम् । अयं भावः-प्रत्यहोरात्रमेकैकेन द्वापण्टिभागेन पम्हिीयमाणे चे निष्पन्ना अवमरात्रा न्यूनदिवस रात्रिरूपास्तेऽप्युपचाराद् द्वापष्टिभागाः कथ्यन्ते, तैः परिहीनं पर्वसख्यानं कर्त्तव्यमिति ॥१॥ 'दुगुणे' इत्यादि, 'दुगुणेगहीए जुयं' द्विगुणमेकपष्ट्यायुत पूर्वोक्तं द्वापष्टिभागपरिहीनं संख्यानं द्विगुणित कृत्वा एकपष्टया युक्तं क्रियते ततः 'वावीससएण भाइए' द्वाविंशशतेन द्वाविंशत्यधिकेन. शतेन भाजिते सति 'नियमा' नियमात् 'जं लद्ध' यल्लब्ध 'तस्स पुणी छहि हिय' तस्य पुनः षड्भिर्टते पभिर्भागे हृते 'सेस' यच्छेषं सः अनन्तरातीतः 'उऊहोइ' ऋतुर्भवति ॥२॥ 'सेसाणं' इत्यादि 'सेसाणं अंसाणं' येऽपिचागाः शेषा उद्घारितास्तेषां 'हिउभागेहिं' द्वाभ्यां भागो हृते 'तेसिं जलद्ध, तेषां तत्सम्बन्धिनां यल्लब्धं, 'ते दिवसा नायव्वा होति' त दिवसा ज्ञातव्या भवन्ति, कस्येत्याह'पवत्तस्स अयणस्स' प्रवृत्तस्य प्रवर्त्तमानस्य अयनस्य ऋतोर्ज्ञातव्या इति ।।३।। एष करणगाथा त्रयस्याक्षरार्थः । सम्प्रत्यासां भावना क्रियते-तस्मिन् युगे प्रथमे दीपोत्सवे केनापि पृष्टम्-अघतोऽनन्तरं गतकाले कः सूर्यतुरतीतः १ को वा साम्प्रतं वर्तते ? इति प्रश्न यत् क्रियते तदाह-तत्र युगादितः सप्त पर्वाणि व्यतीतानीति सप्त स्थाप्यन्ते, तानि 'पण्णरसगुणं' Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८.......... ... ' चन्द्रप्रश्नप्तिसूत्रे इनिश्चनान् पञ्चदभिर्गुणचन्ते. जातं पञ्चोत्तरं शतम् (१०५) एतावतिकाले च 'तइए पन्चे सत्तने ये' इत्यादि वदयमाणसूत्रवचनात् द्वाक्त्रमरात्री उपचाराद् द्वापष्टिभागौ द्वौ अमूनामिनि 'यावहीभागा पनिहीणं' इति वचनात् हौ तस्माद्राशेः पात्येते स्थितं पश्चात् त्र्युत्तरं अनम् (१०३) नत 'दुगुणं' इति द्वान्या गुण्यते जाते पडुत्तरे दे॒ गते (२०६) ततः 'महीयं' एकपट्या युन मिति नत्रैकपष्टिः प्रक्षिप्यते जात द्वे शते सप्त-पष्टयधिके (२६७) तन एपा 'बावीयमाण भाइए' इति वचनात् द्वाविशत्यधिकेन गतन भागो हियते लब्धौ ai 'लिहियो' इनि वचनात् ऋतुनां पडात्मकत्वाद यदि पड्भिरधिका संख्याभवेत्तदा पडाममिव्यते, टमी हौ तु पभिर्भाग न सहेते इति न तयोः पइभिर्मागहारः प्रसच्यते ततो दृविचमी उन ग्थिना पुत्र मांग हृते ये शंपास्त्रयोविंगतिरंगा उद्धृतास्तेषां 'सेसाणंअंसाणं हिउमाहिति वचनात द्वाभ्यां मागे हते तपामढे कृते जाना मार्दा एकादश (११) 'नेमि जमाद्धं ने दिवसा नायचा' इत्यादि वचनात् ते प्रवर्तमानस्य ऋनो दिवसा ज्ञातव्या दुनि. सूर्यतु आयाटाटिकातन आगनम्- द्वौ मन अतिक्रान्ती, तृतीयश्च ऋतुः, सम्प्रति वर्तते, नम्य च प्रवत्तमानस्य मनो एकादश दिवसाः परिपर्णा व्यतिक्रान्ताः, तदुपरि यदर्थं तेन द्वादशी दिवमा वर्तत इति ॥2॥ अथ अंग प्रथमाया मक्षयतृतीयायां केनापि पृष्टम्-अद्य प्रमृति के ऋतवः पूर्वमतिकान्ताः ? को वा मप्रति वर्गन ? पनि प्रश्न प्रन्याह-तत्र प्रथमाया अक्षयतृतीयायाः प्राक् युगस्यादित आरभ्य एकोनवि-तिः पाणि व्यनिक्रान्तानि तत एकोनविशति स्थापयित्वा सा पूर्वोक्तरीत्या प्रञ्चदमाम नयने, जाने पन्चाभीत्यधिक वे शते (२८५) अक्षयतृतीयायां किल पृष्टगिति पर्वणी मुपरि उपचार द्वापाटभागसंजत्वेन कथिता स्तिस्त्ररितथय प्रक्षिप्यन्ते जाते अष्टाशीत्यधिके द्वे आते (२८८), एनानि काल एकोनविनिपर्वरूपं 'ताए पञ्चे' इत्यारभ्य 'एगूणवीसइमे पव्वें' दुन्गादि, वस्यगणन्त्रवचनात् अवमगत्राः पञ्च भवन्तीत्यतः 'यावही भागपरिहीणं' इनि वजनान नाद गगे. ५ञ्च पात्यन्नं जाते त्र्यशीत्यधिके द्वे शते (२८३) ने 'दुगुणं' इति वचनान हान्यां गुण्येने, नानानि पद पष्टयधिकानि पञ्च शनानि (५६६). 'तानि 'एनडीग जुय' टनि बननात एकपष्टि महिनानि क्रियन्ते जातानि सप्तविंशत्यधिकानि गह नानानि (१२) तपां 'वावीमयएण भाटए' इति वचनात् हाविशत्यधिकेन अतेन (१२) मांगी हियने न्याः पञ्च, न च ऋतूनां पटात्मकत्वात् 'छहिहिय' । इति वमान इनिभागहरणं प्राप्यने, नाचते, न सहन्त इति न तेषां पङ्गभिर्मागहाग्रततः पञ्चैव लिना न पन 'उस होट' टनि मुनवो व्यतिक्रान्ता नि सिद्वम् । 'सेमाणं अंसाणं चेहि उभागरि, इन वाला पाणां ममदगानामंगानां द्वाभ्यां मागे हने तेपामई कृने इत्यर्थः Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्प्रतिप्रकाशिकाटीका प्रा. १२ सू. ४ ऋतु वक्तव्यताप्रतिपादनम् ५१९ 71 'तेसिं जं लद्धं' इति तेभ्यो ये लब्धाः सार्द्धा अष्टौ (८ II), तत आगतम् - पञ्चऋतवोऽतिक्रान्ताः। षष्टस्य च ऋतोः प्रवर्त्तमानस्याष्टौ दिवसा गताः, तदुपरि अर्द्धत्वेन नवमो दिवसो वर्त्तते इति |२| अथ युगे द्वितीये दीपोत्सवे केनापि पृष्टम् - कियन्त ऋतवोऽतिक्रान्ताः को वा संप्रति वर्त्तते १ तत्राह्-एतावतिकाले एकत्रिंशत् पर्वाण्यतिक्रान्तानि तानि ध्रियते पञ्चदशभिर्गुण्यते, जातानि पञ्चषष्ट्यधिकानिं चत्वारि शतानि (४६५) । अवमरात्राचैतावतिकालेऽष्टौ व्यतिक्रान्तास्ततोऽष्टौ तेभ्यः पात्यन्ते, स्थितानि शेपाणि सप्तपञ्चाशदधिकानि चत्वारि शतानि (४५७), तानि द्विगुणितानि जातानि चतुर्दशोत्तराणि नवशतानि ( ९१४) । एषु एकपष्टिभागप्रक्षेपे जातानि पञ्चसप्तत्यधिकानि नव शतानि ( ९७५) । एषां द्वाविंशत्यधिकेन गतेन भागे हते लब्धाः सप्त ऋतवः, उपरिष्टादंशा एकविंशत्यधिकशतसंख्यका ( १२१) उदरन्ति, एषां द्वाभ्यां आगे हृते अर्द्धे कृते इत्यर्थः लब्धा सार्धापष्टि (६० ।। ), सप्तानां च ऋतूनां पभिर्यागो हियते, लब्ध एकः, अवशिष्ट उपरिष्टादेकस्तिष्ठति, तत आगतम् एकः संवत्सरो व्यतिक्रान्तः सवत्सर ऋतून पडात्मकत्वात्, एकस्य च संवत्सरस्योपरि एक इति प्रथमऋतुः प्रावृड् नाम व्यतीतः, द्वितीयस्य चं ऋतोः पष्टिर्दिनानि व्यतिक्रान्तानि, तदुपरि अर्द्धमिति एकपष्टितमं दिनं वर्त्तते इति |३| 17 एवमन्यत्रापि भावना भावनीयेति । अथैतेषां ऋतूनां मध्ये क ऋतुः कस्या तिथौ समाप्तिमेतीति ? परस्य प्रश्नावकाशमाशङ्कय तत्परिज्ञानाय वृद्धैः करणगाथा प्रतिपादिता, सा चेयम् - 'इच्छा उ ऊ विगुणिओ' रूवूणो विगुणिओ उ पव्वाणि । तस्सद्धं होइ तिही, जत्थ समत्ता उऊ तीसं ॥ १ ॥ " - इच्छर्तुः द्विगुणितः रूपोनो, द्विगुणितस्तु पर्वाणि । - तस्यार्द्धं भवति तिथिः यत्र समाप्ता ऋतव त्रिंशत् ॥ १॥ इतिच्छाया | 11 }" } " T. ; 'अस्या व्याख्या--' इच्छा उऊ' इच्छत्र्तुः यस्मिन् ऋतो ज्ञातुमिच्छा वर्त्तते स ऋतु 'विगुणिओ' द्विगुणितः क्रियते द्वाभ्यां गुण्यते द्विगुणितः सन् 'रूबूणो' रूपोनः एक ऊन: ततः पुनरपि सः 'विगुणिओउ' द्विगुणितस्तु द्वाभ्यां गुण्यते, गुणयित्वा च प्रतिराश्यते, गुणितश्च सन्" यावत्परिमितो भवति तावन्ति 'पव्वाणि' पर्वाणि विज्ञेयानि । 'तस्स' तस्य द्विगुणीकृतस्य प्रतिराशितस्य यत्' 'अर्धं'। अर्द्ध यावत्परिमितं भवति तावत्परिमिता ः 'तिही' तिथयो ज्ञातव्याः 'त्य' यत्र यासु तिथिषु 'ती' त्रिंशत् युगभाविन त्रिंशदपि 'उऊ समत्ता' ऋतवः समाप्ताः समाति प्राप्नुयुः ॥ १ ॥ इति कारण गाथा ऽक्षरार्थः । साम्प्रतं भावना क्रियते - अथ कोऽपि युगस्य प्रथममृतुं ज्ञातुमिच्छेत् यथा युगे. कस्यां 1 G FIL 2 Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे तिथौ प्रथमः प्रावृड् लक्षण ऋतुः समाप्तिमेति ? इति, तत्र तस्य इच्छा रेक इति एकः स्थाप्यते, स 'विगुणिओ' द्विगुणितः क्रियते जाते द्वे रूपे, ते द्वे 'रूवूणो' इति रूपोने एकेन रूपेण ऊने क्रियते जात एककः स एव च पुनरपि 'विगुणिओ' द्विगुणितः क्रियते द्वाभ्यां गुण्यते जाते द्वे रूपे, ते द्वे प्रतिराश्यते तत्प्रति रूपे द्वे पुनः क्रियते. हे द्वे रूपे द्विवारं स्थाप्यते इत्यर्थः (२-२) तयोरेकं द्विकं 'पव्याणि' पर्वसंख्यानं भवति (२) 'तस्सद्ध' तयो एकस्य द्विकस्याई क्रियते जात मेकं रूपम् । तत्संख्यका 'तिही होइ' तिथिर्भवति । तत मागतम्-युगादौ वे पर्वणी अतिक्रम्य प्रथमायां तिथौ प्रतिपदि प्रथम ऋतुः प्रावृड नामा समाप्तिमगमदिति । तथा द्वितीये ऋतौ ज्ञातु मिच्छेत् तदा द्वौ स्थाप्यते, तयो भ्यां गुणने जायन्ते चत्वारः, ते रूपोनाः क्रियन्ते जातात्रयः, ते पुनरपि द्वाभ्यां गुण्यन्ते जातः षट् ते प्रतिराश्यन्ते-षट्कं षट्कम् इति स्थानद्वये स्थाप्यते तयो द्वितीयस्य प्रतिराशितस्य पट्कस्या? क्रियते जातात्रयः, तत आगतम्-युगादितः षट् पर्वाण्यतिक्रम्य तृतीया तिथिरिति तृतीयायां तीथौ द्वितीय ऋतु समाप्तिमगमत् ॥ एवं यदि तृतीये ऋतौ ज्ञातु मिच्छेत्तदा त्रयः स्थाप्यन्ते, ते द्वाभ्यां गुण्यन्ते जाताः पट् ६, ते रूपोनाः क्रियन्ते जाता दश ते प्रतिराश्यन्ते द्विधा स्थाप्यन्ते दश दशेति । तत्रैकस्य द्वितीयस्य दशकस्याई पञ्च भवन्ति, तत मागतम्-युगादितो दशसु पर्वसु व्यतिक्रान्तेषु पञ्चम्यां तिथौ तृतीय ऋतुः समाप्तिमगच्छत् । तथा यदि षष्टे ऋतौ ज्ञातु मिच्छा भवेत्तदा षड् प्रियन्ते, ते द्वाभ्यां गुण्यन्ते जाता द्वादश, ते रूपोनकरणा ज्जाता एकादश, ते द्वाभ्यां गुणने जाता द्वाविंशतिः सा प्रतिराश्यते स्थानद्वये स्थाप्यते तत्रैकस्याः प्रतिराशीताया अर्द्ध क्रियते जाता एकादश तत आगतम् युगादित आरभ्य द्वाविंशति पतिक्रमे एकादश्यां तिथौ षष्ठ ऋतु समाप्तं प्राप । तथा नवमे ऋतौ ज्ञातु मिच्छेत्तदा नव प्रियन्ते, ते द्वाभ्यां गुणयित्वा रूपोनाः क्रियन्ते जाताः सप्तदश, ते भूयोऽपि द्वाभ्यों गुणने जाताश्चतुस्त्रिशत् ते प्रतिराश्यन्ते, प्रतिराश्य चैकस्याई क्रियते जाता सप्तदश तत आगतम्- युगादितोऽचप्रमृति चतुस्त्रिंशत् पर्वाण्यतिगतानि सप्तदश्यां तिथौ इति द्वितीये सवत्सरे पौषमासे शुक्लपक्षे द्वितीयां तिथौ नवम ऋतुः परिममाप्ति मियाय । त्रिंगत्तमे ऋतौ जिज्ञासा भवेत्तदा त्रिंशत् स्थाप्यन्ते, ते द्वाभ्यां गुण्यन्ते जाताः पष्टि., सा रूपोना क्रियते जाता एकोनपष्टिः (५९) तस्या भूयोऽपि द्वाभ्यां गुणने कृते जायतेऽटादशोत्तरं शतम् (११०), तत् प्रतिराश्यते (११८-१९८), प्रतिराश्य चैकस्य प्रतिराशितस्याई क्रियते जातेकोनषष्टिः, तत आगतम्-युगादितोऽष्टादशोत्तरं पर्वशतमतिक्रम्य एकोन पष्टितमायां तिथौ त्रिंशत्तमझतुर्व्यतिक्रान्तोऽभवत् । अयमाशयः-पञ्चमे संवत्सरे प्रथमे आषाढ मासे शुलपमे चतुर्दम्यां नियौ त्रिंशत्तम ऋतुः समाप्तिं गतः, व्यवहारतः प्रथमापाढपर्यन्ते इत्यर्थः एनस्यैवार्थस्य मुखप्रतिपत्त्यर्थमियं वृद्धोक्ता गाथा प्रदर्श्यते Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रनप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सू.४ ऋतु वक्तव्यताप्रतिपादनम् ५२१.. एक्कंतरियामासा, तिहीय जासु ता उऊ समप्पंति । आसाढाईमासा, भद्दवयाई तिही नेया ॥१॥ छाया-एकान्तरिताः मासाः तिथयश्च यासु ते ऋतवः समाप्नुवन्ति । आषाढादयो मासाः, भाद्रपदादिकास्तिथयो ज्ञेयाः ॥१०॥" इति अस्या व्याख्या-इह सूर्यर्तुचिन्तायां मासा माषाढादयो विज्ञेयाः, आपाढमासादारभ्य ऋतूनां प्रथमतः प्रवर्त्तमानत्वात् । तिथयः सर्वा अपि भाद्रपदाद्याः भाद्रपदादिषु मासेषु प्रथमादीनामृतूनां परिसमाप्तत्वात् । तत्र येषु मासेषु यासु च तिथिषु ऋतवः प्रावृडादयः सूर्यसम्बन्धिनः परिसमाप्नुवन्ति ते आपाढादयो मासाः, ताश्च तिथयो भाद्रपदाद्याः भाद्रपदादिमासानुगताः सर्वा अप्येकान्तरिता ज्ञातव्याः, तथाहि-प्रथम ऋतुर्भाद्रपदमासे समाप्तिमेति, तत एकं मासमश्वयुग् लक्षणमवान्तरीले मुक्त्वा कर्तिके मासे द्वितीय ऋतुः परिसमाप्तिमेनि । एवं तृतीयः पौषमासे, चतुर्थः फाल्गुने मासे, पञ्चमो वैशाखे मासे, पष्ट पाढे मासे । एवं शेपा अपि ऋतव एष्वेव षट्सु मासेषु एकान्तरितेपु व्यवहारतः परिसमाप्तिमाप्नुवन्ति, न शेषेषु मासेपु । तथा तिथिमधिकृत्य प्रथमऋतुः प्रतिपदिसमाप्तिमेति, द्वितीयस्तृतीयायाम्, तृतीयः पञ्चम्याम्, चतुर्थः सप्तम्याम् पञ्चमी नवम्याम्, पेष्ठ एकादश्याम, सप्तमस्त्रयोदश्याम् अष्टमः पञ्चदश्याम् एते सर्वेऽपि तवो बहुलपक्ष। ततो नवम ऋतुः शुक्लपक्षे द्वितीयायाम् , दशमश्चतुर्थ्याम् , एकादशः पष्ठ्याम्, द्वादश्योऽष्टम्याम् त्रयोदशो दशम्याम् चतुर्दशो द्वादश्याम् पञ्चदशश्चतुर्दश्याम् । एते सप्तऋतवः शुक्लपक्षे । एते कृष्णशुक्लपक्षभाविनः पञ्चदशापि ऋतवो युगस्या भवन्ति । तत उक्तक्रमेणैव शेषा अपि पञ्चदश ऋतको द्वितीये युगाड़े भवन्ति, तथाहि-पोडशऋतुर्वहुलपक्षे प्रतिपदि, सप्तदशस्तृतीयायाम् , अष्टादश पञ्चम्याम् एकोनविंशतितमः सप्तम्यास् विंशतितमो नवम्यामू एकविंशतितम एकादश्याम द्वाविंशतितमस्त्रयोदश्यास् , त्रयोविंशतितमः पञ्चदश्याम् । एते षोडशादयस्त्रयोविंशति पर्यन्ता अष्टौ बहुलपक्षे ततश्चतुर्विशतितमः शुक्लपक्षे द्वितीयायाम् , पञ्चविंशतितमश्चतुर्थ्याम् षड् विंशतितमः षष्ठ्याम् सप्तविंशतमो द्वादश्याम् , त्रिंशत्तमश्चतुर्दश्याम् । तदेवमेते सर्वेऽपि ऋतवो युगे मासेष्वेकान्तरितेषु एवं तिथिष्वपि चैकान्तासु समाप्ता भवन्ति । एतेषां च ऋतूनां चन्द्रनक्षत्रयोगपरिज्ञानार्थ सूर्यनक्षत्रयोगपरिज्ञानार्थं च वृद्धः करणगाथात्रयं प्रोक्तं तत् प्रदर्श्यते "तिन्नि सया पंचहिगा, अंसा छेओ सयं च चोत्तीसंएगाइविउत्तरगुणो धुवरासी होइ नायव्यो ॥१॥ सत्तट्ठी अद्धखिचे दुगतिगगुणिया समे वियढखेत्ते । अट्ठासीई पुस्से, सोम अभिइम्मि वायाला ॥२॥ एयाणि सोहइचा, जं सेसं तं तु होइ नक्खतं । रवि सोमाणं नियमा तीसाबि उउ समत्तीस ॥३॥ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ चन्द्रशतिसूत्रे आसां छाया - त्रीणि शतानि पञ्चाधिकानि अंशाः, छेदः शतं च चतुस्त्रिंशम् । एकादि द्वयुत्तरगुणो ध्रुवराशिर्भवति ज्ञातव्यः ॥ २॥ सप्तपष्टिर्द्धक्षेत्रे, द्वित्रिक गुणिता समे द्वयर्धक्षेत्रे । अष्टाशीतिः पुष्ये शोध्या अभिजित् द्विचत्वारिंशत् ॥२॥ एतानि शोधयित्वा यत्शेषं तत्तु भवति नक्षत्रम् । रविसोमयोर्नियमात् त्रिशर्त्यापि ऋतुसमाप्तिषु ॥ ३॥ - आसां व्याख्या – 'तिन्नि सया पंचहिगा अंसा' त्रीणि शतानि पञ्चोत्तराणि (३०५ ) 'असा' अंगाः विभागाः एते किं रूपच्छेदकृताः ? इति चेदाह - 'छेओ सयंच चोत्तीस' छेदः शतं च चतुस्त्रिंशम् । छेदोऽत्र चतुस्त्रिंशदधिकशतरूपः, तेन छिन्नं यदहोरात्रं तत्सम्बन्धीनि पञ्चोत्तराणि त्रीणि शतानि (३०५) अंगानामिति । अयमत्र ध्रुवराशिः स्थाप्यः एष ध्रुवराशि: 'एगाइ विउत्तरगुणो ध्रुवरासीहोइ नायव्यो' एकादिद्वयुत्तर गुण. - ईप्सितेन ऋतुना एकादिना त्रिंशत्पर्यन्तेन द्व्युत्तरेण एकस्मादारम्य तत ऊर्ध्वं द्वयुत्तरवृद्धेन गुणः गुणितः क्रियते गुण्यते इत्यर्थः । एष ध्रुवरात्रिर्ज्ञातव्यो भवति ॥ १ ॥ तत एतस्मात् द्वयुत्तरवृद्धेन गुणितात् शोधनकानि शोधयितव्यानीति शोधनक प्रतिपादिकां द्वितीयां गाथामाह - 'सत्तट्ठी' इत्यादि 'सत्तट्ठी अद्धखेत्ते' यन्नक्षत्रमर्द्धक्षेत्रं पञ्चदशमुहूर्त्तात्मकं तत्र सप्तपष्टिः गोधनकं भवतीति सप्तषष्ठ्या शोध्यते, 'दुगतिगगुणिया समेवियहढखेते' द्विकत्रिकगुणिता समें चर्धक्षेत्रे, तत्र यन्नक्षत्रं समक्षेत्रं त्रिंशन्मुहूर्तात्मकं तद्विगुणितयासप्तषष्ट्या चतुस्त्रिटोन वातेनेत्यर्थः शोध्यते यत्पुनर्नक्षत्र द्वयर्धक्षेत्रं पञ्चचत्वारिंशन्मुहुर्त्तात्मकं तत् त्रिगुणितया सप्तपष्ट्या एकोत्तरशतद्वयेनेत्यर्थः गोध्यते । इह सूर्यस्य पुष्यादीनि नक्षत्राणि शोध्यानि चन्द्रस्यामि जिदादीनि तत्रैषां शोधनकान्याह - 'अट्ठासीई पुस्से' अष्टागीतिः पुष्ये सूर्यनक्षत्रयोगचिन्तायां पुष्ये पुप्यनक्षत्रविषयाष्टाशीतिः 'सोज्झा' शोच्या । तथा 'अभिइम्मि बायाला' अभिजिति द्वाचत्वारिंशत् - चन्द्रनक्षत्रयोग चिन्तायाम् अभिजिन्नक्षत्रे द्वाचत्वारिंशत् शोत्या. ॥२॥ ततः किमिनि तृतीगगाथया प्रदर्श्यते - 'एयाणि' इत्यादि, 'एयाणि' एतानि शोधनकानि असमय ईक्षेत्र विषयाणि 'मोहइत्ता' शोधयित्वा उक्तप्रकारेण शोधिते सति 'जं मेमं' यन्नक्षत्रं शेषं सख्यामविकृत्य भवति न सर्वात्मना शुद्धिमश्नुते 'तं तु होड़ नक्खत्तं ' तन्नक्षत्रं 'रविसोमाणं नियमा ' रविमोमयोः सूर्यस्य चन्द्रस्य च नियमात् भवति कुत्रेत्याह'तीस उउममनी' त्रिंशत्यपि तु समामिषु युगस्य त्रिंशतोऽपि ऋतूनां समाप्तौ ||३|| इति करणगाथा | सम्प्रन्यासां भावना क्रियते - अथात्र कोऽपि पृच्छति - प्रथमऋतु कस्मिन् चन्द्रनन सगामिमियर्त्ति इति जिज्ञासाया पूर्वप्रदर्शितो ध्रुवरात्रिः पञ्चोत्तर त्रिशतात्मको नियम कन गुण्यने 'एकन गुणिनं तदेव भवति' इति तावानेव ध्रुवराशिः (३०५) जातः । ܐ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रक्षप्तिप्रकाटीका प्रा.१२ सू.४ ऋतु वक्तव्यताप्रतिपादनम् ५२३ तत्र 'सोज्झा अभिइम्मि वायाला' इति वचनात् अभिजितो द्वाचत्वारिंशत् शोध्यते, शोधिते च स्थिते पश्चात् त्रिषटयधिके द्वेशते (२६३) ततश्चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन (१३४) श्रवणः शोध्यते, स्थितं शेषमेकोन त्रिंशदधिकं शतम् (१२९) एभ्यश्च धनिष्ठा न शुद्धयति ततः 'छेओ सयं च चोत्तीसं' इति वचनात् चतुस्त्रिंशदधिकशत (१३४) भागना मेकोनत्रिंशं शतं धनिष्ठासत्कमवगाह्य चन्द्रः प्रथमं सूर्यत्तुं परिसमापयति, चतुस्त्रिंशदधिकशतभागेषु धनिष्ठा नक्षत्रस्य एकोनत्रिंशदधिकशतभागातिक्रमणानन्तरं चन्द्रःप्रथमसूर्य परिसमापको भवतीति भावः । यदि द्वितीय सूर्यर्तुजिज्ञासा भवेत्तदा स एव पञ्चोत्तर शतत्रयप्रमाणो ध्रुवराशिस्त्रिभिर्गुण्यते मयं भावः'एगाइविउत्तरगुणो इति वचनात् एकआरभ्य तत उर्व द्वयुत्तरवृद्धया, इति प्रथमसूर्यतु प्रकररणे एकेन ध्रुवराशिःर्गुणितः अत्र द्वितीयसूर्यर्तुजिज्ञासायामुत्तरोत्तरद्विकवृद्धया ध्रुवराशिस्त्रिभिर्गुण्यते इति । त्रिभिर्गुणितो ध्रुवराशिजायते पञ्चदशोत्तरनवशतसंख्यकः (९१५) तत्राभिनितो द्वाचत्वारिंशच्छुद्धया स्थितानि शेषाणि-अष्टौ शतानि त्रिसप्तत्यधिकानि (८७३) ततश्चतुस्त्रिशेन शतेन श्रवणे शोधिते स्थितानि शेषाणि एकोनचत्वारिंशदधिकानि सप्तशतानि (७३९), अत्र धनिष्ठा शुद्धयते इति तस्माद् राशेधनिष्ठानक्षत्रस्य चतुस्त्रिशधिकशतसंख्यका भागाः शोध्यन्ते स्थितानि-शेषाणि पश्चोत्तराणि षट् शतानि (६०५) एतस्माद्राशेरपि सप्तषष्टिः शत भिषनः शोध्यते, स्थितानि अष्टात्रिंशदधिकानि पञ्च शतानि (५३८), एभ्योऽपि चतुस्त्रिशेदधिकं शतं (१३४) पूर्वभाद्रपदायाः शोध्यते, स्थितानि चतुरधिकानि चत्वारिशतानि (४०४), एभ्योऽपि एकोत्तरशतद्वयेन (२०१) उत्तरभाद्रपदा शोध्यते, स्थिते शेषे त्र्युत्तरे है. शते (२०३), एतस्मादाशेश्चतुनिशदधिकं शतं (१३४) रेवत्याः शोध्यते, स्थिता पश्चादेकोनसप्ततिः (६९) । तत आगतम्- अश्विनीनक्षत्रस्येकोनसप्तति भागान् चतुस्त्रिशदधिकशत भागानामवगाह्य चन्द्रो द्वितीयं सूर्या परिसमापयतीति एवं : शेषेष्वपि ऋतुषु भावना कार्येति । अथान्तिमत्रिंशत्तमसूर्यत जिज्ञासायां स एव ध्रुवराशिः (३०५) एकोनपष्टया गुण्यते, जातानि 'सप्तदश सहस्राणि, पञ्चनवत्यधिकानि नवशतानि (१७९९५), तत्र षष्टयधिकैः षट् त्रिशच्छतैः (३६६०) एको नक्षत्रपर्यायः शुद्धयति, ततः षष्टयधिकानि पत्रिंशच्छतानि चतुर्भिर्गुणयित्वा तत शोध्यन्ते, एष नक्षत्रपर्यायश्चतुर्भिगुणने जायन्ते-चतुर्दश सहस्राणि चत्वारिशदधिकानि षट शलानि च (१४६४०) तत एकोनषष्टया गुणिताया धुवराशि संख्यायाः (१७९९५) चतुभिंगुणितोनक्षत्रपर्यायः (१४४६०४) शोध्यते स्थितानि पश्चात् पञ्च पञ्चाशदधिकानि त्रयस्त्रिंशच्छतानि (३३५५) । एभ्यः पञ्चविंशत्यधिकैात्रिंशच्छतैः (३२२५) अभिजिदादीनि मूलपर्यन्तानि नक्षत्राणि शोध्यन्ते, स्थितं पश्चात् त्रिंशदधिकमेकं शतम् (१३०) तेन च पूर्वाषाढा न शुद्धयति, तत आगतम्-त्रिंशदधिक शतं चतुस्त्रिंशदधिकशतभागानां पूर्वाषाढासत्कमवगाह्य चन्द्रस्त्रिंशत्तमं सूर्यतुं परिसमापयतीति । Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ चन्द्रप्रशप्तिसूत्रे साम्प्रतं सूर्यनक्षत्रयोग भावना क्रियते स एव ध्रुवराशिः पञ्चोतरशतत्रयंप्रमाणः (३०५) प्रथम सूर्यर्तुजिज्ञासाया मेकेन गुण्यते जातस्तावानेव ततः 'अट्ठासीई पुस्सो' इति वचनात् तस्मात् मष्टाशीतिः (पुप्यभागाः) शोध्यन्ते, स्थिते शेपे सप्तदशोत्तरे द्वे शते (२१७) ततः सप्तषष्टिः (६७ अश्लेषायाः शोध्यते स्थितं शेपं सार्द्धशतम् (१५०) ततः चतुस्त्रिंशदधिकं शतं (१३४) मधायाः गोध्यते, स्थिता. पश्चात् पोडश (१६), तत आगतम्- पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रस्य चतुस्त्रिंशदधिकशतसल्कान् पोडश भागानवगाह्य सूर्य प्रथमं स्वकीयमृतुं परिसमापयति । एवं द्वितीय सूर्यर्तु जिज्ञासायामपि स एवं पञ्चोत्तरशतत्रयप्रमाणो ध्रवरागिः यत्तरवृद्धयाऽत्र त्रिभिर्गण्यते, जातानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि (९१५) ततोऽष्टाशीतौ पुष्यस्य शोधितायां स्थितानि पश्चात् सप्तविंशत्यधिकानि अष्टौ शनानि (८२७), एभ्यः सप्तपष्टिर पायाः शोध्यते, स्थितानि शेपाणि पष्टयधिकानि सप्तगतानि (७६०) एभ्यश्चतुस्त्रिंशदधिकं गतं मघायाः शोध्यते, स्थितानि शेषाणि पड विंशत्यधिकानि पट् शतानि, (६२६), एभ्यश्चतुस्त्रिशदधिकं शतं पूर्वफाल्गुन्याः शोध्यते, स्थितानि शेपाणि द्विनवत्यविकानि चत्वारि गतानि (४९२), एभ्योऽपि एकोत्तरं गतद्वय (२०१) मुत्तरफाल्गुन्याः गोव्यते स्थिते शेपे एकनवत्यधिके द्वे गते (२९१) पुनरप्येभ्य. श्चतुस्त्रिंशदधिकं शतं (१३४) हस्तस्य शोध्यते, स्थितं सप्तपञ्चाशदधिकं शतम् (१५७), एभ्योऽपि चतुसिंगदधिकं शतं (१३४) चित्रायाः शोध्यते, स्थिताः शेपास्त्रयोविंशतिर्भागाः (२३) तत मागतम् चतुस्त्रिंशदधिकशतभागानां स्वातेस्त्रयोविंशति सप्तपष्टि भागानवगाह्य सूर्यो द्वितीयः स्वकीयमृतुंपरिसमापयत्तीति एवं शेपेष्वपि तृतीय सूर्यर्तुं मारभ्य एकोनत्रिगत्तम मूर्यर्तुपर्यन्तेपु भावना कर्तव्या। अथान्तिमत्रिंशत्तम सूर्यििजज्ञासायामाह-अत्रापि स एव पञ्चोत्तरशतत्रयप्रमाणो ध्रुवराशि युत्तर वृद्धिक्रमेण त्रिंशत्तमे सूर्यत्तौं एकोनपष्टया गुण्यते, जातानि सप्तदशसहस्राणि नवशतानि तदुपरि पञ्चनवतिश्च (१७९९५)। एभ्यश्चतुर्देशसहस्राणि, पट् शतानि चत्वारिंशदधिकानि (१४६४०) एतावत्परिमिते शोधनकश्चत्वारः परिपूर्णा युगस्य सवत्सरचतुष्कसम्बन्धि चतुर्विशति सूर्यर्ते सत्का नक्षत्रपर्यायाः शोध्यन्ते स्थितानि पश्चात् पञ्च पञ्चाशदधिकानि त्रयस्त्रिंशष्छतानि (३३५५), अथ युगस्य पञ्चसंवत्सरसत्कानि पञ्चविंशतितमसूर्यत्तुत आरभ्य त्रिंशत्तम सूर्यत्तेपर्यन्तकानि शोधनकान्याह ततस्तेभ्यः पूर्वोक्तेभ्यः (३३५५) अष्टागीतिः पुष्यस्य शोध्यते, स्थितानि पश्चात् समपष्टयधिकानि द्वात्रिंशच्छतानि (३२६७) एभ्योऽटपञ्चाशदधिकानि द्वात्रिंशच्छतानि (३२५८) मल्लेपातो मृगशीर्षपर्यन्तानां नक्षत्राणां योध्यन्ते, स्थिता.शेपा नव (९) एभिरार्दा न शुद्धयति, तत आगतम नवचतुस्विंगदधिकशतभागान् आ सत्कानवगाह्य सूर्यस्त्रिंशत्तमं स्वकीय मृतुं परिसमाफ्यतीति । इति सूर्यवः समाप्ताः । साम्प्रतं चन्द्रप्न प्रतिपादयति-तत्र चन्द्रानां चत्वारिझनानि युत्तगणि (४०२) भवन्ति, तथाहि- एकस्मिन्नक्षत्रपर्याये चन्द्रस्य पड़ ऋतवो भवन्ति, चन्द्रस्य नक्षत्रपायाच एकस्मिन, युगे समपष्टि संख्यका भवन्तीनिसप्तपष्टिः पड्भिर्गुण्यते, Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१२ सू.४ ऋतु वक्तव्यताप्रतिपादनम् ५२५ जायन्ते चत्वारि शतानि द्वयुत्तराणीति (४०२) एतावन्तो युगे चन्द्रस्य ऋतवो भवन्ति, उक्तञ्च "चत्तारि उउ सयाइं वि उत्तराई जुगम्मि चंदस्स" इति । एकैकस्य चन्द्रौः परिमाणं परिपूर्णाचत्वारोऽहोरात्रा, पञ्चमस्याहोरात्रस्य सप्तत्रिशत् मप्तपष्टि भागाः, उक्तञ्च चंदस्सु उ परिमाणं, चत्तारि य केवला अहोरत्ता । सत्त त्तीस अंसा सत्त टिकरण डेएण"॥१॥ चन्द्रस्य ऋतु परिमाणं चत्वारश्च केवला अहोरात्राः । सप्तत्रिंशद् अंशाः, सप्तपष्टि कृतेन छेदेन ।।१।। इतिच्छाया । कथमेतदित्याह-इहकस्मिन् नक्षत्रपर्याये षड् ऋतव इति प्रागेवोक्तम् चन्द्रविषयक नक्षत्रपर्यायस्य परिमाणं सप्तविंशतिरहोरात्रा., एकस्य चाहोरात्रस्य एकविंशतिः सप्तपष्टि भागाः, तत्राहोरात्रीणां पर्भािगो ह्यिते लब्धाश्चात्वारोऽहोरात्राः शेपास्तिष्ठन्ति त्रयः, ते सप्तषष्टि भागकरणार्थ सप्तपष्टया गुण्यन्ते जाते एकोत्तरे द्वे शते (२०१) तत उपरितना एकविंशतिः सप्तपष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते जाते द्वाविशत्यधिके द्वे गते (२२२), तेषां पभिर्भागे इते लब्धाः सप्तविंशत् सप्तपष्टिभागा इति (४-३५ )। तेषां चन्द्रानयनार्थमत्र वृद्धोक्ते द्वे गाथे तथाहि "चंद उउ आणयणे, पच्चं पण्णरससंगुणं नियमा । तिहि संखितं संतं, वावट्ठी भागपरिहीणम् ॥१॥ चोत्तीससंयाभिहयं, पंचुत्तरतिसयसंजुयं विभए । छहिं उ दसुत्तरेहिय, सएहिं लद्धा उऊ होइ ॥२॥" छाया--चन्द्रवा॑नयने पर्व पञ्चदशसंगुणं नियमात् । तिथि संक्षिप्तं सत्, द्वापष्टिभागपरिहीनम् ॥१॥ चतुस्त्रिशच्छताभिहतं, पञ्चोत्तरत्रिशतसंयुतं विभजेद् । पभिस्तु दशोत्तरैश्च शत. लब्धा ऋतवो भवन्ति ॥२॥ अनयोख्यिा - 'चंद उउ आणयणे' इति विवक्षितस्य चन्द्रौशनयने कर्तव्ये 'पव्वं' युगादितों यत् पर्व पर्वसख्यानमतिसक्रान्तं तत् 'पण्णरससंगुणं नियमा' पञ्चदशभिर्गुणितं नियमात् कर्तव्यम्, तत स्तत् 'तिहिसखित्तं संत' तिथिसंक्षिप्त सदिति यास्तिथयः पर्वाणामुपरि विवक्षिता दिनात् प्रागतिक्रान्तास्तास्तत्र सक्षिप्यन्ते पात्यन्ते इति भावः, ततस्तत् 'वावद्विभागपरिहीणं' द्वाषष्टिभागपरिहीनं कुर्यात् द्वापष्टिभागः, द्वापष्टिभागनिष्पन्ना अवमरात्रा उपचाराद् द्वाषष्टिभाग शब्देन कथ्यन्ते, ततस्तैपिष्टिभाग संज्ञकैरवमरात्रैः परिहीनं कर्त्तव्यम् तत एवम्भूतं तत् 'चोत्ती Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ . चन्द्रप्रप्तिसूत्रे ससयाभिहयं चतुस्त्रिंशदधिकशतेनाभिहतं-गुणितं तत् 'पंचुत्तरतिसयसंजुयं' पञ्चोत्तरत्रिशत सयुतं कृत्वा 'विभए' विभजेत् तस्य भागं हरेत् , कैर्भागं हरेदित्याह-'छर्हि उ दसुत्तरेहिय सरहिं' दशोत्तर. पभिःशते (६१०) इति । हूते च भागे 'लद्धा' ये लब्धा अड्कास्ते 'उऊहोइ' ऋतवो भवन्ति ऋतवो ज्ञानव्या इत्यर्थः ।।२।। एप करणगाथा द्वयार्थः । साम्प्रतमनयो र्भावना भाव्यते-अथ कोऽपि पृञ्छेत्-यत् युगादितः प्रथमे पर्वणि पञ्चम्यां कश्चन्द्र वर्तते । इति । तत्राह-तत्रेकमपि पर्वपरिपूर्णमिह नाद्याप्यभूदिति युगादितो दिवमा रूपोनाः स्थाप्यन्ते, ते च चत्वारः, ततस्ते चतुस्विंगदधिकेन गतेन गुण्यन्ते, जातानि पत्रिंशदधिकानि पञ्चशतानि (५३६), ततो भृयः पञ्चोत्तराणि त्रीणि शतानि-प्रक्षिप्यन्ते, जातानि एकचत्वारिंशदधिकानि अष्टौ शतानि (८४१ तेषां 'विभए छहिं उ दसुत्तरेहिस सएहि' इति वचनात दशोत्तर पडूभिः शतैः (६१०) भागो वियते, लब्धः प्रथम ऋतुः अंशा उद्धरन्ति एकत्रिंशदधिके द्वेशते (२३१), तेषां चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन (१३४) भागो हियते, लब्ध एकः, उद्धताः शेषा अंशाः सप्तनवतिः (९७) । चतुस्त्रिंगदधिकेन शतेन भागे हुते येऽड्का लभ्यन्ते ते दिवसा ज्ञातव्याः, अत्र तु लब्ध एक-इति एको दिवसः । ततः शेपी भूताः सप्तनवतिरंशास्तेषां द्विकेनापवर्नना क्रियते, अपवर्तिते च चत्वारिंशत् लब्धाः सार्दा अष्ट चत्वारिंशत् (" ) सप्तपष्टिभागाः । तत आगतम्-युगादित. पच्चम्यां प्रथमः ऋतुः प्रावृड्लक्षणोऽतिक्रान्तः, द्वितीयस्य ऋतोरेको दिवसो गतः ऋ. दि. भा. द्वितीयस्य च दिवसस्य सार्द्धा अष्टचत्वारिंशत् सप्तपष्टि भागाः ( १११४८॥ ) इति । अथ कोऽपि पृच्छेत्-युगादितो द्वितीये पर्वणि एकादश्यां कश्चन्द्रर्तुः ? इति । तत्रैकं पर्व मतिकान्तमित्येको ध्रियते तस्मिन् पञ्चदशभिर्गुणिते जाताः पञ्चदश । एकादश्यां पृष्टमिति तस्याः पाश्चात्या दग ये दिवमास्ते प्रक्षिप्यन्ते जाताः पञ्चविंशतिर्दिवसाः, ते चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन गुण्यन्ते, जातानि पनागदधिकानि त्रयस्त्रिान्छतानि (३३५०) तेषु पञ्चोत्तराणि त्रीणि शतानि प्रक्षिप्यन्ते, जानानि पञ्च पञ्चाशदधिकानि पत्रिंगच्छतानि (३६५५), तेषां दशोत्तरैः पभिः, शतैः (६१०) मागे इन लब्धाः पञ्च (५), शेषातिप्ठन्त्यंशाः पञ्चोत्तर पातसंख्यकाः, (६०५), तेषां चतुखिगदाधिकेन गर्तन भागो हियने लब्धाश्चत्वारो दिवसा. (४), उद्धृता शेषा अंशा एकोन मप्तनि (६९), तग्य टिकनापवर्तनाया कृतायां लब्धाः सार्दाश्चतुत्रिंशत् (३४॥) सप्तपष्टि भागाः । तत आगतम्-पञ्च सतवोऽतिक्रान्ताः, पष्टस्य च मृतोश्चत्वारो दिवसाः, पञ्चमस्य दिव Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रतिप्रकाशिका टीका प्रा.१२ सू.४ ऋतु वक्तव्यताप्रतिपादनम् ५२७ भा. ऋ. दि.. सस्यं सार्द्धाश्चतुस्त्रिंशत् सप्तषष्टि भागा ( ५18 | 280) एव मन्यस्मिन्नपि दिवसे चन्द्रर्चुरव ५१४/ |३४||) 7- 1 ०६७ सेयः । साम्प्रतं चन्द्रपरिसमाप्ति दिवसानयनार्थं यद् वृद्धैः करणमुक्तं तदभिधीयते"पुपि धुवरासी, गुणिए भइए सगेण छेएणं । जं लद्धं सो दिवसो, सोमस्स उउसमत्तीए ॥१॥ छाया -- पूर्व मिव ध्रुवराशौ गुणिते भक्ते स्वकेन छेदेन । यल्लब्धं स दिवसः सोमस्य ऋतुसमाप्तौ ॥१॥ इति | अस्य व्याख्या - इह यः पूर्वं सूर्यर्त्तुप्रतिपादने ध्रुवराशिः पञ्चोत्तर शतत्रयरूपोऽभिहितश्चतुस्त्रिंशदधिकशतभागानाम्, तस्मिन् पूर्व मिव गुणिते, तत्किमित्याह - ईप्सितेन एकादिना द्वयुत्तर चतुःशततम (४०२) पर्यन्तेन द्वयुत्तरवृद्धेन, एकस्मादारभ्य तत ऊर्ध्वं द्वयुत्तरवृद्धया प्रवर्द्धमानेन गुणिते 'भइए सगेण छेएणं' इति वचनात् स्वकीयेन छेदेन चतुस्त्रिंशदधिकशतरूपेण भक्ते सति यल्लब्धं स सोमस्य चन्द्रस्य ऋतोः समाप्तौ ज्ञातव्यः ॥ १ ॥ इति करणगाथाक्षरार्थः । यथा केनापि पृच्छयते यत् चन्द्रस्य प्रथमः ऋतुः कस्यां तिथौ समाप्तिमेति ? इति तत्र पूर्वोक्तो ध्रुवराशि : ( ३०५ ) धियते, अत्र प्रथमतः प्रश्नत्वादेकेन गुण्यते जातस्ता -- वानेव (३०५) ध्रुवराशि, तस्य स्वकीयेन चतुस्त्रिंशदधिकशतप्रमाणेन छेदेन भागे हृते लब्धौ द्वौ शेषास्तिष्ठन्ति सप्तत्रिंशत् (३७) एषां द्विकेनापवर्त्तनायां जाताः सार्द्धा अष्टादश (१८॥ ) सप्तषष्टिभागाः । तत आगतम् - युगादितो द्वौ दिवसौ, तृतीयस्य च दिवसस्य सार्द्धान् अष्टादश सप्तषष्टिभागानतिक्रम्य प्रथमश्चन्द्रर्त्तः परिसमाप्तिमेति द्वितीयचन्द्र जिज्ञासायां स एव ध्रुवराशिः (३०५) द्व्युत्तरवृद्विक्रमेण त्रिभिर्गुण्यते, जायन्ते पञ्चदशोत्तराणि नवशतानि (९१५), एषां चतुस्त्रिंशदधिकशतेन भागे हृते लब्धाः षट् । उद्धरति शेषमेकादशोत्तारं शतम्, (१११), तस्य द्विकेनापवर्त्तनायां लब्धाः सार्द्धाः पञ्च पञ्चाशत् ( ५५ | | ) सप्तषष्टिभागाः । तं आगतम् - युगादितः षदिवसा अतिक्रान्ताः, सप्तमस्य दिवसस्य च सार्द्धेषु पञ्चपञ्चाशत्संख्यकेपुः सप्तषष्टि भागेषु गतेषु द्वितीयश्चन्द्रत्तुः समाप्नोतीति । अथान्तिम द्वयुत्तर चतुः शततमर्त्तुः जिज्ञासायां स एव ध्रुवराशिः पञ्चोत्तरेशतत्रयप्रमाण: (३०५ ) द्वयुत्तर द्वयुत्तर वृद्धि - क्रमेण द्वयुत्तरचतुः शततमे ऋतौ त्र्युत्तराष्टशतप्रमाण: (८०३) एव राशिर्भवतीति त्र्युत्तरैरष्टभिः शतैः (८०३) गुण्यते । तथाहि यस्य एकस्मादूर्ध्वं द्वयुत्तरवृद्धया राशिश्चिन्त्यते : न तस्य द्विगुणो रूपोनो भवति, यथा-द्विकस्य त्रीणि, त्रिकस्य पञ्च, चतुष्कस्य सप्त, पञ्चकस्य नर्व,एवं क्रमेऽणात्रापि द्व्युत्तरचतुःशतप्रमाणस्य राशे द्वर्युत्तर द्वयुत्तर वृद्धया राशिश्चिन्त्यते तदा">युत्त संणि' अष्टौशतानि (८०३) भवन्तीति, एवं भूतेन च राशिना (८०३) ध्रुवराशेः Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रशामिले (३०५) गुणने कृते नायन्ते द्वे लक्षे, चतुश्चत्वारिंशत् सहस्राणि, पञ्चदशोत्तराणि नवशतानि (२४४९१५) । एषां चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन (१३४) भागो , हियते, लब्धानि सप्तविंशत्यधिकान्यष्टादशशतानि (१८२७) । शेपास्तिष्ठत्यंशाः सप्तनवतिः (९७) अस्या द्विकेनापवर्तनायां जाताः सार्धा अष्टचत्वारिंशत् (४८) सप्तपष्टिभागाः(४) । तत आगतम्-युगादितः सप्तविंशत्यधिकेपु अष्टादशसु शतेषु (१८२७) दिवसानामतिकान्तेषु, ततः परस्य अष्टाविंशत्यधिकाटादशशततमस्य (१८२८) दिवसस्य साईवष्टचत्वारिंशत्संख्यकेपु (१८) सप्तपष्टिभागेपु गतेषु सत्सु द्वचत्तरचतुःशततमस्य (४०२) चन्द्रोंः परिसमाप्तिर्भवतीति एतेषु च चन्द्रद्धेषु चन्द्रः नक्षत्रयोगपरिज्ञानार्थ वृद्धः करणगाथा प्रोक्ता, तश्चहि. "सो चेव धुवो रासि, गुणरासोवि य हवंति ते चेव । । नक्खत्त सोहणाणि य, परिजाणिसु पुचभणियाणि ॥१॥ • छाया - म एव ध्रुवो रागिः गुणरागयोऽपि च भवति ते एव । नक्षत्रशोधनानि, परिजानीहि पूर्वभणितानि ॥१॥ इति ! अस्या व्याख्या-चन्द्रत्तूनां चन्द्रनक्षत्रयोगार्थ 'सो चेव धुवोरासी' इति स एव पञ्चोक त्तरंगतत्रयप्रमाणो ध्रुवगगिर्जातव्यः । तथा 'गुणगसीवि हवंति ते चेव' गुणराशयोऽपि गुणकार राशयोऽपि एकादिका व्युत्तर वृद्धास्ते एव भवन्ति ये पूर्वप्रदर्शिताः, 'नक्खत्त सोहणामि' नक्षत्रशोधनकान्यपि 'पुव्यमणियाणि' पूर्वभणितानि 'अभिइम्मि चायाला' इत्यादिवचनाद् द्वाबरवाशिप्रभृतीनि 'परिजाणसु' परिजानीहि । एवं कृते विवक्षिते चन्द्रा नियतो नक्षत्रयोगः सनागटनीमि करणगाथाक्षगर्थ. । अथात्रकोऽपि पृच्छेत् यत् प्रथमे चन्द्र कश्चन्द्रनक्षत्रयोगः । इति, तत्र स एव ध्रुवराशि पञ्चोत्तरशतत्रयप्रमाणः (३०५) स्थाप्यते, स एव प्रथमचन्द्रोंः पृष्टवाद एकेन गुण्यते जातस्तावानेव (३०.) ततः 'अभिइम्मि वायाला' इति वचनात् अभिजितो द्वाचत्वारिंशत् शोच्यते, गेपे तिष्टतः त्रिपष्ठ्यधिक हे शते (२६३) ततश्चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन (१३४) श्रवण शुद्धः, स्थितं पश्चादेकोनत्रिशटविकं शतम् (१२९), तस्य द्विकेनापवर्तना क्रियते जाताः साचितुः पष्टिः (६४) सप्तपष्टिभागाः । तत आगतम्-अभिजितः श्रवणस्य च परिमोगानन्तरं धनिष्ठायाः साईचतुष्पष्टिसंख्यकान् सप्तपष्टिभागानवगाद्य चन्द्रः स्वकीयमृतुं परिसमा. पयतीति । द्वितीयचन्दतु जिज्ञामायां स एव ध्रुवराभिः (३०५) चत्तरवृद्धिक्रमेण त्रिभिमुग्मते जायन्ते पञ्चदशोत्तगणि नवरातानि (९१५), तत्रामिजितो द्विचत्वारिंशत् शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चात् विससाधकानि अटो शतानि (८७३), ततश्चतु त्रिंशदधिकं शतं (१३४)श्रवणस्य शोध्यते स्थितानि पश्चात् एकोनचत्वाग्गिदधिकानि मतगनानि (७३९) एतस्मात् चतुस्त्रिगटधिकं शतं (१३५) भनिष्ठाया. गायने, जातानि पन्चोत्तराणि षट् शतानि (६०५) एतस्मादपि सप्तपष्टि शतभिषन: Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा १२ सू ४ ऋतुवक्तव्यताप्रतिपादनम् ५२९ शोध्यते स्थित नि पश्चात् अष्टत्रिंशदधिकानि पञ्चशतानि, (५३८), एतेभ्योऽपि चतुस्त्रिंशदधिक शतं (१३४) पूर्वभाद्रपदाया शोध्यते, स्थितानि पश्चात् चतुरधिकानि चत्वारि शतानि (४०४)एतेभ्योऽपि एकोत्तरं शतद्वयं (०१) उत्तराभाद्रपदाया: शोध्यते, स्थितं त्र्युत्तरं शतद्वयम् (२०३) अस्मादपि चतुस्त्रिंशदधिकं शतं (१३४) रेवत्याः शोभ्यते, स्थिता पश्चादेकोनसप्ततिः (६९) तत आगतम्-अश्विनीनक्षत्रम्यैकोनसप्ततिभागान् (६९) चतुस्त्रिंशदधिकशत भागा सत्कान् अवगाह्य चन्द्रो द्वितीयं स्वकीयमृत परिसमापयतीति । अथान्तिमद्वयुत्तरचतुःशततम (४०२) चन्द्र विषयप्रश्नेऽपि स एव पञ्चोत्तरशतत्रयप्रमाणो ध्रुवराशिः स्थाप्यते, ततः प्रत्येकचन्द्रौ ट्यत्तरद्वयुत्तरवृद्धिक्रमेण द्वयुत्तरचतुःगततमे चन्द्र” त्र्युत्तराणि अष्टौगतानि (८०३) समायान्ति तत रुयुत्तरैरष्टभि शतैः (८०३) घ्रवराशिर्गुण्यते, जातानि द्वे लक्षे, चतुश्चत्वारिंशत् सहस्राणि, नवशतानि पञ्चदशोत्तराणि (२४४९१५), मत्र एकनक्षत्रपर्यायपरिमाणं-पष्टयधिकानि पत्रिंशच्छतानि (३६६०), एतावत्प्रमाणं भवति, तदेव प्रदीते-पट्सु अर्द्धक्षेत्रेषु प्रत्येकं सप्तषष्टिरंशाः (६७), षट्सु द्वधः क्षेत्रेषु प्रत्येक मेकोत्तरं शतद्वयम् २०१) अंशानाम्, शेपेषु पञ्चदशः समक्षेत्रेषु नक्षत्रेषु प्रत्येक चतस्त्रिंशदधिकं शतम् (१३४) इति । तत्र पड अर्द्धक्षेत्राणि नक्षत्राणीति तेषां प्रत्येकं सप्तषष्टयांशात्मकत्वात् पट् सप्तपष्टया गुण्यन्ते जातानि द्वयुत्तराणि चत्वारिंशतानि (४०२) एते षण्णां समक्षेत्राणामंशाः । तथा षट्र द्वचर्द्धक्षेत्राणि नक्षत्राणीति तेषां प्रत्येकमेकोत्तरद्विशतांशात्मकत्वात् पह एकोत्तरशतद्वयेन (२०१) गुण्यन्ते, जातानि पडुत्तराणि द्वादश शतानि (१२०६) एते पएणां द्वयर्धक्षेत्रनक्षत्राणामंशाः । तथा शेषाणि पञ्चदश नक्षत्राणि समक्षेत्राणीति तेषां प्रत्येकं चतुत्रिंशदधिकशतांशात्मकत्वात् पञ्चदश चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन (१३४) गुण्यन्ते जातानि दशोत्तराणि विंशतिशतानि (२०१०), एते पञ्चदशानां समक्षेत्रनक्षत्राणामंशा इति । एते त्रयोऽपि राशय एकत्र मील्यन्ते, जातानि अष्टादशाधिकानि पटू त्रिंशच्छतानि (३६१८), एषु शेषस्याष्टाविंशतितमस्याभिजिन्नक्षत्रस्य द्विचत्वारिंशत् (४२) प्रक्षिप्यन्ते, जातानि-पष्टयधिकानि पत्रिशच्छतानि (३६६०) इति . अंशानां कोष्ठकम् एतावता-एकेन नक्षत्रपर्यायपरिमाणेन पूर्व षण्णामर्धक्षेत्राणामंशाः-४०२ राशेः (२४४९१५) भागो हियते, लब्धा षट्षष्टिः षण्णांद्वयर्धक्षेत्राणामंशाः-१२०६ (६६) नक्षत्रपर्यायाः, पश्चादवतिष्ठन्ते-पञ्च पञ्चापञ्चदशानां समक्षेत्राणामंशाः-२०१० शदधिकानि त्रयस्त्रिंशच्छतानि (३३५५)। एभ्योऽभिअभिजिन्नक्षत्रस्यांशाः-४२ जितो द्वाचत्वारिंशत् शोध्यते, स्थितानि शेषाणि त्रयो· सर्व योग -३६६० दशाधिकानि त्रयस्त्रिंशच्छतानि (३३१३), एभ्यो द्वय Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० चन्द्रप्राप्तिसून शीत्यधिकानि त्रिंशच्छतानि (३०८२) श्रवणत आरम्यानुराधापर्यन्तानां त्रयोविंशतिनक्षत्राणां गोधनकानि गोध्यत स्थिते-एकत्रिंगदधिके द्वे शते (२३१) एभ्यः सप्तषष्टि (६७) ज्येष्ठाया: गोध्यते, स्थित चतुष्पष्टयधिकं शतम् (१६४), अस्मात् चतुस्लिंगदधिकं शंत (१३४) मूलनक्षत्रस्य योन्यते, स्थिताः पश्चात् त्रिंशत् (३०), तत आगतम–पूर्वाषाढानक्षत्रस्य त्रिंशतं चतुस्लिंशदधिकशतभागानामन्यादवगाह्य चन्द्रो द्वयुत्तरचतुःशततमं (४०२) स्वकीयमृतुं परिसमापयतीति । तदेवं सूर्यर्तुपरिमाणं चन्द्रर्तुपरिमाणं च प्रोक्तम्, साम्प्रतं सूत्रमनुसरामः, तत्र लोक रूढचा यावत्क्रमेकैकस्य चन्द्रौः परिमाणं भवति तावत्कं परिमाणं प्रदर्शयति-'ता सव्वेंविणं' इत्यादि । 'ता सम्बे विणं' इति 'ता' तावत् 'सचे विणं' सर्वेऽपि पटसंख्याकाः प्रावृडादाय ऋतुवः 'एए' पते पूर्वोक्ता. 'चंदउऊ' चन्द्रर्तवः 'दुवेरमासा' द्वौ द्वौ मासौ प्रत्येकं द्वि द्वि मासप्रमाणाः सन्ति । तत्र 'ति चउप्पण्णेणर' इति त्रीणि- शतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि रात्रिन्दिवानाम, तथा एकस्य रात्रिन्दिवस्य द्वादश च द्वापष्टि भागाः ( ३५४-५), इति चन्द्रसंवसरगत्रिन्दिवप्रमाणम्, इत्येव रूपेण 'आदाणेणं' आदानेन इत्येवंरूपसंवत्सरप्रमाणग्रहणेन 'गणिज्जमाणा' गण्यमानी मासौ 'साइरेगाई एगृणसही२ राइंदियाई एकोनपष्टिरेकोनषष्टिः गनिन्दिवानि सातिरेकाणि किश्चिदाधिकचयुक्तानि 'राईदियग्गेणं' रात्रिन्दिवाण रात्रिन्दिव परिमाणेन 'आहिया' आख्यातो, चन्द्र सत्कं मासद्वयं किश्चिदधिकैकोनपटिरात्रिन्दिवपरि परिमितं भवनि 'तिबएज्जा' इति वदेसू कथयेत् स्वशिष्येभ्यः । तथाहि-द्वि द्वि मासप्रमाणाः पइतब इति चतुष्पश्चाशदधिकानां त्रयाणां रात्रिन्दिवशतानां ( ३५४ ) पभिर्भागे हुते लब्धा एकोनपष्टिरहोरात्रा., द्वादशानां द्वापष्टिभागानां पड्मिगि हूते लब्धौ द्वौ द्वापष्टिभागी इतितयोः सातिकत्वमिति । एवं च सति कर्ममासापेक्षया एकैकस्मिन् ऋतौ लौकिकमेकैकं चन्द्रर्तुम्अधिकृन्य व्यवहारन एकैकोऽवमग त्रो भवति, एवं सकले कर्मसंवत्मरे पड्भवमरात्रा भवन्ति, नदेव मृत्रकारः प्रदर्शयनि-तत्थ खलु' इत्यादि, 'तत्थ' तत्र तस्मिन् कर्मसंवत्सरे चन्द्रसंवत्सग्मानिन्य व्यवहारतः 'खलु' निश्चयेन 'इमे' वन्यमाणाः 'छ योमरत्ता पण्णत्ता' पड्अवमरागः प्रजप्ताः 'तं जहा' तद्यथा--'तडए पव्वे' तृतीये पर्वणि प्रथमः १ । 'सप्तमे पव्वे सप्तमे पर्वणि दिनीयः २ । 'एक्कारसमे पञ्चे' एकादशे पर्वणि तृतीयः ३ । 'पण्णरसमे पन्चे' पश्चददी पर्वणि चतुर्थ ४ । 'पगृणवीसहमे पव्वे' एकोनविंशतितमे पर्वणि पञ्चमः ५। 'नीसमे परे' प्रयोविद्यानिनमे पर्वणि पाठः । एते षट् अवमगत्राः प्रज्ञमा चन्द्रसंवत्सरे दृति । यमन भावना-रह कालम्य मृयादि क्रियोपनिनस्यानादिप्रवाहपनित प्रति नियत स्त्रमावस्य Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सू.४ ऋतुवक्तव्यताप्रतिपादनम् ५३१ न स्वरूपतः काऽपि हानिः, नापि च कश्चित् स्वरूपे उपचयः यत्त्विदं चन्द्रर्तुमाश्रित्यावमरात्रप्रतिपादनं, सूर्यर्त्तमाश्रित्यातिरात्रप्रतिपादनं तत् सूर्यचन्द्रयोः परस्परं मासचिन्ता पेक्षयाऽवगन्तन्यम् । तथाहि-कर्ममा समपेक्ष्य चन्द्रमासश्चिन्त्यते तदाऽवमरात्रसम्भवः, अयं परस्परमासचिन्तायां मेदः, तथा चोक्तम् - "कालस्स नेवहाणी, नविवुड्ढीवा अवटियो कालो । जायइ वड्ढोवइढी, मासाणं-एक्कमेकाओ ॥१॥ छाया--कालस्य नैवहानिः, नाभि वृद्धि ( किन्तु) अवस्थितः कालः । जायेते ( यत् ) वृद्धयपवृद्धी (ते ) मासयोरे कैकस्मात् ॥ १ ॥ इति ॥ सूर्यचन्द्रमासयोरेकैका पेक्षयेत्यर्थः । तत्रावमरात्रभावना करणार्थ वृद्धोक्ते इमे वेगाथे प्रदश्येते "चंद उ उ मासाणां, अंसा जे दिस्सए विसेसम्मि । ते ओमरत्त भागा, भवंति मासस्स नायव्वा ॥१॥ वावटि भाग मेग, दिवसे संजाए ओमरत्तस्स । वावटीए दिवसेहि, ओमरत्तं ताओ हवइ ॥२॥ छाया-चन्द्रर्तमासयोः मंशा ये दृश्यन्ते विश्लेषे । ते अवमरात्रभागाः भवन्ति मासस्य ज्ञातव्याः । द्वापष्टि भाग एकः दिवसे संजायते अवमरात्रस्य । द्वाषष्टया दिवसः, अवमरात्रस्ततो-भवति ॥२॥ इति अनयोरर्थः - कर्ममासः परिपूर्णत्रिंशदहोरात्रप्रमाणः, चन्द्रमासः - एकोनत्रिंशदहोरात्राः, एकस्य चाहोरात्रस्य द्वात्रिंशद् द्वापष्टिभागाः (२९३२) एतावत्परिमितो भवती ति 'चंदउउमासाणं चन्द्रर्तुमासयोः चन्द्रमासपरिमाणस्य ऋतुमासपरिमाणस्येति कर्ममासपरिमाणस्य कर्ममासपरिमाणस्य च, अनयोर्द्वयोः 'विसेसम्मि' विश्लेषे कृते सति 'जे अंसा' ये अंशा उद्धताः 'दिस्सए' दृश्यन्ते त्रिंशत्द्वाषष्टिभागरूपाः 'ते ओमरत्तभागा' ते अवमरात्रस्य भागाः 'मासस्स' एकस्य मासस्य भवन्तीति 'नायव्बा' ज्ञातव्याः, सोऽवमरात्रश्च मासदयस्य पर्यन्ते परिपूर्णो भवति ततस्तस्य सम्बन्धिनस्ते भागा मासस्यावसाने द्रष्टव्या इति भावः । तदेव गणितेन प्रदाते यदि त्रिंशति दिवसेषु त्रिंशद् द्वापष्टिभागा अवमरात्रस्य लभ्यन्ते तदा एकस्मिन् दिवसे कति भागा लभ्यते ? इति राशित्रयं स्थाप्यते-३०१३०११। अत्र गणितक्रममधिकृत्यान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यमो राशि स्त्रिंशल्लक्षणो गुण्यते, जातस्तावानेव (३०), अस्य राशे रादिराशिना त्रिंशद्रूपेण भागो हियते, लब्ध एकः परिपूर्णोऽङ्कः, न किञ्चिदवशिष्टम् , तत आगतम्-प्रति Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे दिवसमेकको द्वापष्टि भागो लभ्यते तत आह 'वावद्विभागमेगं दिवसं' इति द्वापष्टि भाग एकैको दिवसे दिवसे 'संजाई' सजायते कस्येत्याह-'ओमरत्तस्स' अवमरात्रस्य जायते । गाथायामेक शब्दो दिवसशब्दश्चागृहीतवोप्सोऽपि व्याख्यानसामर्थ्याद् वीप्सां प्रापयति, 'वावद्विभागमेग इत्यत्र नपुंसकनिर्देशश्च प्राकृतत्वात् । तदेवं यदा एकैकस्मिन् दिवसे एकैको द्वापष्ठिभागोऽवमरात्रसम्बन्धी लभ्यते तदा द्वापष्ट्या दिवसैरेकः परिपूर्णोऽत्रमरात्रो भवति । कथमित्याह-दिवसे दिवसे ऽत्रमरात्रसत्कैककद्वापष्टिभागवृद्धया संजायमान द्वापष्ठिततमो भागो द्वापटितदिवसे प्रारम्भत एव त्रिषष्टितमा तिथिः प्रवर्तते, इति, एवं च सति य एकपष्टितमोऽहोरात्रो भवति तस्मिन्नहोरात्रे एकपष्टितमा द्वापष्टितमा च तिथिनिधनमुपगतेति लोके द्वापष्टितमा तिथिः पतितेति व्यवहियते, उक्तम्च "एक्कंसि अहोरत्ते, दो वि तिही जत्थ निहणमेज्जानु । मोऽत्य निही परिहायइ" एकस्मिन्नहोरात्रे द्वे आप तिथी अत्र निधनमियास्ताम साऽत्र तिथिः परिहीयते, इतिच्छाया, एवं वर्षाकालस्य चतुर्मासप्रमाणस्य श्रावणादेस्तृतीये पर्वणि सति प्रथमोऽवमरात्रो भवतीति । एवं तस्यैव वर्षाकालस्य सम्बन्धिनि सप्तमे पर्वणि सति द्वितीयोऽवमरात्रो भवति २। तथा गीतकालस्य तृतीये पर्वणि मूलत एकादशे पर्वणि तृतयोऽवमरात्रो भवति । तस्यैव शीतकालस्य सप्तमे पर्वणि, मूलतः पश्चदशे पर्वणि चतुर्थोऽवमरात्रः | तदनन्तरं ग्रीष्मकालस्य तृतीये पर्वणि, मूलत एकोनविंशतितमे पर्वणि पञ्चमोऽवमरात्र: ५। तस्यैव ग्रीष्मकालस्य सप्तमे पर्वणि मूलतत्रयोविंशतितमे पर्वणि पष्ठोऽवमरात्रः ६। उक्तञ्च"तटयम्मि ओमरतं. कायव्वं सत्तमम्मि पन्चम्मि । वाम-हिम-गिम्ह-काले, चाउम्मासे विधीयते ॥१॥ तृतीये अवमरात्रं कर्त्तव्यं मप्तमे पर्वणि । (तनं क्रमेण) वर्षा हिम-ग्रीष्मकाले चातुर्मासे विधीयन्ते ॥१॥ इतिछाया । . दृहापाढाधानवी लोके प्रमिति प्राप्ता., ततो लौकिकव्यवहारापेक्षया आपाढादारभ्य प्रति दिवममेकक जाष्टिभागहाव्या वर्षाकालादि गतेषु तृतीयादिपु पसु पर्वसु यथोक्ताः पड़ अवमगाः प्रतिपाद्यन्ने. वस्तुतः पुन. श्रावण बहुलपक्षप्रतिपल्लक्षणात् युगादित आरभ्य चतुश्रुतुः पर्वानिममेऽवमगत्रा वैदिनव्या । अथ युगादितः कति पर्वातिकमे कस्यामवमरात्रीभूतायां तिथो तया मद का नियः परिगम पनि । उनि चिन्नाया वृद्धाक्ता. प्रभनिवेचनगर्मितास्तिनो गाथाः प्रदर्म्यन्त - Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा १२ सू४. ऋतुवक्तव्यता प्रतिपादनम् ५६३ "पाडिवय ओमरत्ते, कइया विइया समप्पिहीइतिही । ' विइया एवा तइया, तइया-एवा चउत्थीउ ॥१॥ सेसासु चेवका हिट, तिहिम ववहार गणियदिहासु । सुहुमेण परिल्लतिही, संजायइकम्मि पन्चम्मि ॥२॥ रूवहिगा उ ओया विगुणा पन्ना हवंति कायव्या । एमेव हवइ जुम्मे, एक्कतीसा जुया पव्वा ॥३॥. छाया-प्रतिपदि अवमरात्रे कदा द्वितीया समापयति तिथिः । द्वितीयायां वा तृतीया, तृतीयायां वा चतुर्थी तु ॥१॥ शेपासु चैव करिष्यति तिथिपु व्यवहारेगणितदृष्टासु । सूक्ष्मेण पर तिथिः, संजायते कस्मिन् पर्वणि ॥२॥ रूपाधिकास्तु औजस्यः, द्विगुणानि पर्वाणि भवन्ति कर्त्तव्यानि । एव मेव भवति युग्मायाम् एकत्रिंशयुता पर्वाणि ॥३॥ इति ! व्याख्या चैषाम्-'पाडिवयओमरत्ते' प्रातिपदि प्रतिपत् सम्बन्धिनि अवमरात्रे इति अवमरात्रीभूतायां प्रतिपदायां सत्यां 'कइया' कदा कस्मिन् पर्वणि पक्षे 'विइया समप्पिही तिही' द्वितीया तिथिः समाप्स्यति 2 प्रतिपद्दया सह द्वितीया तिथिरेकस्मिन्नहोरात्रे कदा समाप्तिमेष्यति? इति प्रश्नः । एवम्-'विइया एवा तदया' द्वितीयायामवमरात्रीभूतायां वा तृतीया तिथिः कदाकस्मिन् पर्वणि ' 'तइयाए चउत्थीउ, तृतीयायामवरात्रीभूतायां चतुर्थी तिथिः कस्मिन् पर्वणि समास्यति ८ ॥१॥ एवम्-'सेसासु चेव कहिइ तिहीसु ववहारगणियदिहासु' व्यवहारगणितदृष्टास लोकप्रसिद्धगणितेन परिभवितासु शेषासु चतुर्थ्यादितिथिषु अवमरात्री भूतासु पञ्चम्यादितिथयः कस्मिन् कम्मिन् पर्वणिं समप्तिमेष्यतीति प्रश्नं शिष्यः 'काहिई' इति करिष्यति, तथाहि-चतुर्यो पञ्चमी, पञ्चम्यां षष्टी, पष्ठयां सप्तमी, सप्तम्यामष्टमी, अष्टम्यां नवमी, नवम्यां दशमी, दशम्यामेकादशो, एकादश्यां द्वादशी द्वादश्यां त्रयोदशी, त्रयोदश्यां चतुर्दशी चतुर्दश्यां-पञ्चदशी पञ्चदश्यामवमरात्रीभूनायां प्रतिपदा तिथिः कस्मिन् पर्वणि समाप्स्यतोति शिष्यः प्रश्नं करिष्यतीतिभावः । यथा-'सुहुमेण' सूक्ष्मेण श्लक्ष्णेन प्रतिदिवसमेकैकद्वापष्टिभागरूपेण भागेन परिहीयमानायां तिथौ 'परिल्लतिही' पूर्वस्या अवमरात्री भूतायास्तिथे ख्यवहिततया परा परातिथिः, 'संजायइ कम्मि पव्वम्मि' कस्मिन् पर्वणि समाप्ता संजायते । इति प्रश्नस्वरूपम् ॥२॥ अत्राचार्य आह-रूवाहिगाउ' इत्यादि, 'रूवाहिगाउ' रूपाधिकास्तु-इह यास्तिथयः पृष्टास्ता द्विविधा भवन्ति-ओजो रूपा., युग्मरूपाश्च,-तत्र ओज इति विषमं, युग्ममिति समम् । तत्र यास्तिथयः 'ओया' औजस्यः ओजोरूपा विषमा इत्यर्थः Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे ता प्रथमं रूपाधिकाः क्रियन्ते, ओजोरूपामु तिथिषु एकं रूपं प्रक्षिप्यते इति भावः, ता रूपाविका ओजोरूपास्तिथय. 'विगुणा कायचा' द्विगुणाः कर्तव्या. एवं करणे तस्यास्तस्यास्तिथेः 'पन्या चंति' पर्वाणि युग्मपर्वाणि भवन्ति, तावत्परिमितानि पर्वाणि समागतानीति परिभावनीयमित्युत्तरम् । 'एमेवहवइ जुम्मे' एवमेव अनेनैव प्रकारेण एकरूपक्षेपणरूपेण युग्मरूपासु तिथिप्वपि विज्ञेयम्, तथाहि-युग्मरूपासु तिथिषु एकं रूपं प्रक्षिप्य तास्तिथयो द्विगुणी क्रियन्ते, विशेषस्वयम्-द्विगुणीकृता एतास्तिथयः 'एक्कतीसाजुया' एकत्रिंशद्युत्ताः कर्त्तव्याः, आसु एकत्रिंशत् प्रक्षिप्यन्ते, तदनन्तरं या संख्या समायाति तत्परिमितानि 'पन्या' पर्वाणि-भवन्तीत्युत्तरं युग्ममितिथिविषयकमिति ॥३॥ इति गाथात्रयस्य व्याख्या । अथात्र भावना क्रियते-अत्रायं प्रश्नःयत् कस्मिन् पर्वणि-अवमरात्रीभूतायां प्रतिपदायां द्वितीया समामोतीति, अत्र किल प्रतिपदुद्दिष्टा, सा च प्रथमानिथिरित्येकः स्थाप्यते, अस्या ओजोरूपत्वादेको रूपाधिकः क्रियते 'ख्वाहिया उ ओया" इति वचनात्, रूपाधिके कृते जाते हे, ते अपि 'विगुणा कायचा' इति वचनात् द्विगुणी क्रियते, जाताश्चत्वारः 'पन्चा हवंति' इति वचनात आगतानि चत्वारि पर्वाणि ततोऽयमर्थः-युगादितश्चतुर्थे पर्वणि प्रतिपदायामवरात्रीभूतायां द्वितीया तिथिः समाप्तिमेनीनि । युक्ति युक्तमेतत्, तथाहि-प्रतिपदायामुद्दिष्टायां चत्वारि पर्वाणि समागतानि, पर्व च पञ्चदशनिथ्यात्मकं मवति ततः पञ्चदशानां चतुर्मिगुणने जायते पष्टिः (६०) प्रतिपदायां द्विनीया ममाप्नोतीति द्वे रूपे तत्राधिके प्रक्षेप्तव्ये ततो जाता द्वापष्टिः, सा च द्वाप-- ध्या भव्यमाना निपभागा भवति न किमपि शेषमवतिष्ठते, लब्धाश्चैककः, इत्यागतः प्रथमोऽवमरात्र इत्यविसंवादिकरणमिति । अथ कोऽपि पृच्छेत् कस्मिन् पर्वणि द्वितीयायामवमरात्रीभूनायां तृतीया समाप्तिमेति ? इति तदा द्वितीयाया उद्दिष्टत्वेन द्विकः स्थाप्यते, ततश्च'एमेव हवर जुम्मे' इति वचनात् अस्य दिकस्य रूपाधिककरणे जातानि त्रीणि रूपाणि, तानि द्विगुणी क्रियते जाताः पद, द्वितीयातिथिश्च समेति 'एक्कतीसजुया पन्चा' इति वचनात् ते पदएकत्रिंशद् युताः क्रियन्ते जाताः सप्तत्रिंशत् ( ३७), तत् मागतानि सप्तत्रिंशत् पर्वाणि ततो युगादिनः समत्रिंगत्तमे पर्वणि गते द्वितीयायामवमरात्रीभूतायां तृतीयातिथिः समाप्तिमेतीति, इदमपि करणमविसवादि, नथाहि-पर्वकिल पञ्चदश सप्तत्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि पञ्च पश्चाशदधिकानि पनातानि (५५५) द्वितीयाऽवमरात्रिरिति द्वितीया नष्टा तृतीया जातेति त्रीणि रूपाणि ना प्रशि-यन्ते जानानि अष्टपञ्चाशदपिकानि पञ्चशतानि, (५५८ ) पूर्ववदेपोऽपि राशिषिघ्या भग्यमानो निरंदातां प्राप्नोति, लब्धाश्च नत्र ! ततमागतो नवमोऽमरात्र इति युग्मतिथिविषयकमपि करणं ममीचीनमिनि । एवमग्रेऽपि सर्वास्वपि तिथिषु करणभावना, करणसमीचीनता अवमगधि संख्या च म्बयमहनीयेनि । मत्रानेननानां पर्वणां निर्देशमात्र क्रियते, तथाहि-तृतीयायां Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिप्रकाटोका प्रा.१२ २.४ ऋतुवक्तव्यता प्रतिपादनम् ५३५ चतुर्थी समाप्नोति अष्टमे पर्वणि गते, चतुर्थ्यो पञ्चमी एकचत्वारिंशत्तमे पर्वणि गते समाप्नोतिपञ्चम्यां षष्टी द्वादशे पर्वणि गते, षष्ठयां सप्तमी पञ्चचत्वारिंशत्तमे पर्वणि गते, एवं सप्तम्यामष्टमी षोडशे, अष्टम्यां नवमी एकोनपश्चाशत्तमे, नवम्यां दशमी विंशतितमे, दशम्यामेकादशी त्रिपञ्चाशत्तमे, एकादश्यां द्वादशी चतुर्विंशतितमे, द्वादश्यां त्रयोदशी सप्तपञ्चाशत्तमे, त्रयोदश्यां चतुर्दशी अष्टाविंशतितमे, चतुर्दश्यां पञ्चदशी एकषष्टितमे, पञ्चदश्यां प्रतिपदा द्वात्रिंशत्तमे पर्वणि गते समामोतीति । एवमेतायुगस्य पूर्वार्द्ध विज्ञेयाः एवं युगस्य उत्तरार्द्धऽपि स्वयमहनीयाः । : - तदेवमवमरात्राः प्रोक्ताः साम्प्रतमतिरात्रान् प्रदर्शयति 'तत्थ खलु' इत्यादि, 'तत्थ खलु' तत्र एकैकस्मिन् संवत्सरे खलु 'इमे' इमे-वक्ष्यमाणाः 'छ अइरत्ता पण्णत्ता' षड् अतिरात्राः तिथि वृद्धिरूपाः कथिता. 'तं जहा' तद्यथा-ते यथा-'चउत्थे पव्वे' इत्यादि, 'चउत्थे पव्वे' चतुर्थे पर्वणि गते एकः प्रथमोऽहोरात्रोऽधिको भवति । इह कर्ममासापेक्षया सूर्यमासा चिन्तायामेकैकसूर्यत्तपरिसमाप्तौ एकैकोहोरात्रो लभ्यते तथाहि-त्रिंशदहोरात्रैरेकः कर्ममासो भवनि, सार्द्ध त्रिंशदहोरात्रैश्चैकः सूर्यमासो भवति, ऋतुश्च मास द्वयात्मकस्तत एकस्य सूर्यतॊः परिसमाप्तौ कर्ममासद्वयापेक्षया एकोऽधिकोऽहोरात्रो लभ्यते । सूर्यर्तुश्च आषाढादिकः, तत आषाढादारभ्य चतुर्थे पर्वणि गते एकोऽधिको ऽहोरात्रो भवतीत्यतः प्रोक्तम्-'चउत्थे पव्वे' इति द्वितोयादिकोऽतिरात्रः कियति कियति पर्वणि गते भवतीत्युच्यते-'अट्टमे पव्वे' इत्यादि, 'अट्टमे पव्वे' अष्टमे पर्वणि गते द्वितीयः, 'वारसमे पव्वे' द्वादशे पर्वणि गते तृतीयः, 'सोलसमे पव्वे' षोडशे पर्वणि गते चतुर्थः, 'वीसइमे पव्वे' विंशतितमे पर्वणि गते पञ्चमः, 'चउवीसइमे पव्वे' चतुर्विशतितमे पर्वणि गते पष्टोऽतिरात्रो भवतीति षड् अतिरात्रा भवन्तीति । एतदेव सूत्रकारो गाथया प्रदर्शयति'छच्चेव य'इत्यादि 'छच्चेवय अइरत्ता आइच्चाउ हवंति' एते षड् अतिरात्रा आदित्यात् भवन्ति, आदित्यमधिकृत्य प्रति कर्ममासद्वयेऽतिरात्रो भवति, एकस्मिन् कर्ममासे च पर्वद्वयं भवतीति प्रतिचतुर्थे पर्वणि अतिरात्रो लभ्यते ततः प्रतिवर्ष षड् अतिरात्रा भवन्तीति 'माणाहि' जानी हि । तथा एवम् 'छच्चेव ओमरचा' षडेव अवमरात्राः 'चंदा उ हवंति' चन्द्राद् भवन्ति चन्द्र'मासानधिकृत्य कर्ममासचिन्तायां प्रति संवत्सरं षड् अवमरात्रा भवन्ति, तथाहि-कर्ममास त्रिंशदहोरात्रात्मकः, चन्द्रमासस्तु द्वात्रिंशद् द्वाषष्टि भागा युक्त एकोनत्रिंशदिनात्मकः (२९।२२) स्थूलतया सार्दुकोनत्रिंशदहोरात्रात्मक इति प्रतिमासमर्दोऽहोरात्रः कर्ममासाच्चन्द्रमास न्यून आयाति ततो मासद्वये चतुः पर्वात्मके एकोऽहोरात्रोऽवमरात्रतया भवति, तेन प्रत्येकस्मिन् वर्षे पडू अवमरात्रा भवन्तीत्यत उक्तम्-'छ ओमरत्ता पण्णत्ता' इति 'माणाहि' जानीहि, इति गाथार्थः ॥१॥ सू० ॥४॥ . Page #564 --------------------------------------------------------------------------  Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्नप्रातिप्रकाशिका टोका प्रा. १२ सू. ५ सूर्यचन्द्रयोः आवृत्तिस्वरूपम् ५३७' तदेव यत् प्रथमायाम् २ । एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां तृतीयां वर्षिकी आवृत्ति चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति तावत् विशाखाभिः विशाखानां त्रयोदशमुहूर्ताः चतुष्पञ्चाशच्च द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य द्वापष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्वा चत्वारिंशत् चर्णिकाभागाः शेषाः तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति तावत् पुष्येण, पुष्यस्य. तदेव ३ । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां चतुर्थी वार्षिकी आवृत्ति चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् रेवतीभिः, रेवतोनां पञ्चविंशति मुहर्ताः, द्वात्रिंशच्च द्वापष्टि भागाः मुहूर्तस्य, द्वापष्टिभागं च सप्तपष्टिधा छित्वा पर्विशति प्रचूर्णिकाभागाः शेषाः । तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति १ तावत् पुष्येण, पुण्यस्य तदेव ४ । तावद एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां पञ्चमी वार्षिकीम् आवृत्ति चन्द्र. केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् पूर्वाफाल्गुनीभिः पूर्वाफाल्गुनीनां द्वादश मूहर्ताः, सप्तचत्वारिंशच्च द्वापष्टिभागा मुहर्सस्य, द्वापष्टिभागं च सप्तपष्टिधा छित्वा त्रयोदशचर्णिका भागाः शेपाः । तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति १ ता पुष्येण पुण्यस्य तदेव सू० ५। व्याख्या-'तत्थ खलु' इति 'तत्थ' तत्र युगे खलु 'इमाओ' इमा वक्ष्यमाणलक्षणाः 'पंचेति' पश्चसंख्यकाः 'वासिक्कीओ' वापिक्यः वर्षाकालभाविन्यः, तथा 'पंचेति पञ्चसंख्यकाः हेमंताओ' हैमन्त्यः शीतकालभाविन्यः एवं सर्वसंकलनया दश 'आउट्टीओ' आवृत्तयः पुनः पुनर्दक्षिणोत्तरगमनरूपाः दक्षिणादुत्तरे, उत्तराद्दक्षिणे गमनरूपाः सूर्यस्य 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः कथिता इति । अत्रेयं भावना-ताश्चावृत्तयः सूर्यस्य चन्द्रस्येति द्विविधाः भवन्ति । तत्रैकस्मिन् युगे सूर्यस्यावृत्तयो दश भवन्ति एकस्मिन् वर्षे दक्षिणोत्तरायणभेदेन द्विद्वित्वस्य भावात् । चन्द्रस्य चैकस्मिन् युगे चतुस्त्रिंशदधिकशतसंख्यका (१३४) आवृत्तयो भवन्ति । उक्तं च सूरस्स य अयणसमा, आउट्ठीओ जुगम्मि दस होति । चंदस्स य आउट्टी, सयं च चोत्तीसयं चेव ॥१॥ छाया---सूर्यस्य च अयनसमा आवृत्तयो युगे दश भवन्ति । चन्द्रस्य च आवृत्तयः शतं च चतुस्त्रिशम् ॥१॥ इति । मथ सूर्यस्यावृत्तयो युगे दश, चन्द्रस्य च चतुस्त्रिंशदधिकं शतमिति कथं ज्ञायते ? इति गणितेन प्रदर्श्यते आवृत्तयो नाम पुनः पुनर्दक्षिणोत्तरगमनरूपा इति तु पूर्व प्रदर्शितमेव । यस्य यावन्ति अयनानि भवन्ति तस्य तावत्य आवृत्तयो भवन्ति । प्रथमं सूर्यस्य दशआवृत्तयो भवन्तीति तास्त्रैराशिकगणितेन प्रदर्श्यन्ते सूर्यमासस्य सार्वत्रिंशदहोरात्रात्मकत्वेन एकस्य संवत्सरस्य षट्पष्टयधिकानि त्रीणि, शतानि (३६६) अहोरात्राणां लभ्यन्ते, तेन एकस्मिन् युगे पञ्चसंवत्सरात्मके त्रिंशदधिकानि अष्टादश शतानि (१८३०) अहोरात्राणां भवन्ति, एकस्मिन्नयने षण्मासात्मके त्र्यशीत्यधिकं शतम् (१८३) अहोरात्राणां लभ्यते । ततस्त्रैराशिकगणितं, ६८ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियते; तथाहि-यदि त्र्यशीत्यधिकशतसंख्यकैर्दिवसैरेकमयनं भवति तदा त्रिंशदधिकाष्टादशशतसंख्यकैदिवसैः कति अयनानि लभ्यन्ते ? इति राशित्रयस्थापना-१८३।१।१८३० । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेरेककस्य गुणनं क्रियते जातानि तान्येवं त्रिंगदधिकानि अष्टादशशतानि (१८३०)। एषामायेन राशिना त्र्यशीत्यधिकशतप्रमाणेन भागो हियते हृते च भागे लभ्यन्ते परिपूर्णा दश, तत आगतम्-युगस्य मध्ये सूर्यस्य दशमयनानीत्यावृत्तयोऽपि दशेति । अथ चन्द्रस्यावृत्तयः प्रदर्श्यन्ते-चन्द्रस्यायनं त्रयोदशभिर्दिवसः, एकस्य च दिवसस्य चतुश्चत्वारिंशत्सप्तष्टिभागः (१३॥१) भवति ततो यदि चतुश्चत्वारिंशत्सप्तपष्टि भागयुतैस्त्रयोदशभिर्दिवसैरेकं. चन्द्रस्यायनं भवति तदा त्रिंशदधिकैरष्टादशशतैः (१८३०) दिवसैः कति चन्द्रायनानि लभ्यन्ते ! राशित्रयस्थापना-१३।१।१८३०। तत्र सवर्णनाकरणार्थमाद्यन्तरूपं राशिद्वयमपि ४४ सप्तषष्टया गुण्यते, तत्र प्रथमं त्रशोदशदिनानि सप्तपष्टया गुण्यन्ते जातानि एकसप्तत्यधिकानि अष्टाशतानि (८७१), एषु ये उपरितनाश्चतुश्चत्वारिंशत् (४४) सप्तपष्टिभागास्ते प्रक्षिप्यन्ते, जातानि पञ्चदशाधिकानि नवशतानि (९१५)। ततो यानि त्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८३०) तान्यपि सवर्णनाथ सप्तपष्टया गुण्यन्ते, जातानि एकं लक्षम् , द्वाविंशतिसहस्राणि षट्शतानि दशोत्तराणि (१२२६१०) एष राशिमध्यमकेन राशिना एककरूपेण गुण्यते, एकेन गुणने च जातस्तावानेव राशिः (१२२६१०) मस्य आयेन राशिना पञ्चदशाधिकनवशतरूपेण (९१५) भागो हियते लब्धं चतुस्त्रिंशदधिकमेकं शतम् (१३४), तत आगतम्-एकस्मिन् युगे चतुस्त्रिशदधिकशतसंख्यकानि (१३४) चन्द्रायणानि भवन्ति, तत एतावत्यश्चन्द्रस्य आवृत्तयो जायन्ते इति प्रतिपादिताः सूर्यचन्द्रयोरावृत्तयः । साम्प्रतं 'का सूर्यस्यावृत्तिः कस्यां तिथौ भवतीति' जिज्ञासायां वृद्धोक्तकरणगाथाद्वयमत्र प्रदर्श्यते-- - 'आउट्ठीहिं एगणियाहि गुणियं सयं तु तेसीयं । .. जेणा गुणं तं तिगुणं, स्वहियं पक्खिवे तत्थ ॥१॥ । । पण्णरसभाइयम्मि उ, जं लद्धं तं तइसु होइ पव्वेसु । जे अंसा ते दिवसा, आउट्टी तत्थ वोद्धव्या ॥२॥ छाया--आवृत्तिभिरेकोनिकाभिः, गुणितं शतं तु त्र्यशीतम् । ... येन गुणितं तत् त्रिगुणं रूपाधिकं प्रक्षिपेत् तत्र ॥१॥ पञ्चदशमानिते तु यद्लब्धं तत् तावत्सु भवति पर्वसु । ये अशाः ते दिवसाः, आवृत्तिस्तत्र बोद्धव्या ॥२॥ इति । ... Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१२ सू. ५. सूर्यचन्द्रयोः आवृत्तिस्वरूपम् ५३९ --- अनयोख्यिा -'आउट्टीहि एगूणियाहि आवृत्तिभिरेकोनिकाभिरिति-यामावृत्तिं विशिष्टेतिथियुक्ताज्ञातुमिच्छेत् तस्याः संख्या एकेन हीना क्रियते, ततस्तत्संख्यया 'गुणियं सयं तु तेसीयं' त्र्यशीत्यकं शतं गुणितं कुर्यात् गुणयेदित्यर्थः, ततः पश्चात् 'जेण गुणं' यया संख्यया त्र्यशीत्यधिकं शतं गुणितं 'तं तिगुणं' तदङ्कस्थानं त्रिगुणं त्रिगुणितं कृत्वा तत् 'तत्थ' तस्मिन् पूर्वराशौ 'पक्खिवे'प्रक्षिपेत् ॥१॥ ततो यः प्रक्षिप्तोराशिस्तस्मिन् 'पण्णरसभाइयम्मि उ' 'पञ्चदशभिर्भाजिते सति 'जं लाई' यल्लब्धं 'तइसु पव्वेसु तावत्सु तावत्संख्यकेपु पर्वसु अतिक्रान्तेषु सत्सु 'होइ' भवति विवक्षिता आवृत्तिरिति । अथ च 'जे अंसा' ये अंशाः भागे हृते उद्धरिताः 'ते दिवसा' ते दिवसा विज्ञेयाः । 'तत्थ' तत्र तेषु दिवसेपु तन्मध्ये चरमदिवसे इत्यर्थः 'आउट्टी' आवृत्तिः 'वोद्धव्वा' बोद्धव्या ज्ञातव्या, इति करणगाथा द्वयस्यार्थः । आवृत्तिश्च युगे श्रावणमासे माघमासे च भवति ततः प्रथमा आवृत्तिः श्रावणे मासे, द्वितीया च माघमासे भवति तृतीया पुनः श्रावणमासे चतुर्थी माघमासे, भूयोऽपि पञ्चमी श्रावणमासे पष्ठी माघमासे, इति कृत्वा पञ्चवर्षात्मके युगे सूर्यस्य दश आवृत्तयो भवन्तीति । अत्र कोऽपि पृच्छेत् यत् प्रथमा किलं सूर्यस्यावृत्तिः कस्यां तिथौ भवतीति, तदा प्रथमवृत्तः प्रभवादन एकोऽङ्कः स्थाप्यते, सच 'एगृणियाहिं' इति वचनात् रूपोनः क्रियते तदा पश्चात् न किमपि रूपं लभ्यते ततः पश्चात्य युगभाविनी या दशमी आवृत्तिस्तत्सख्यादशकरूपा गृह्यते, तेन दशकेन च 'गुणियं सयं तु तेसीयं इतिवचनात् त्र्यशीत्यधिकं शतं (१८३) गुण्यते, जातानि त्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८३०) ततः 'जेण गुणं तं तिगुणं' इति वचनात् दशकेन गुणितमिति ते दशत्रिगुणी क्रियन्ते जातास्त्रिंशत् (३०) ते 'रूवहियं' इति वचनात् रूपाधिकं कुर्यात् जाता एकत्रिंशत् (३१) ततः 'पक्खिये तत्थ' इति वचनात् ते पूर्वराशौ प्रक्षिष्यन्ते, जातानि एक षष्टयधिकानि अष्टादशशतानि (१८६१) ततः 'पण्णरसभाइयम्मि' इति वचनात् पञ्चदशभिरेष राशिविभज्यते, हते च भागे लब्धं चतुर्विशत्यधिकं शतम् (१२४) तिष्ठति शेषमेकं रूपम् , तत आगतम्-चतुर्विशत्यधिकपर्व शतात्मके पाश्चात्ये युगे व्यतिक्रान्तेऽभिनवे •युगे प्रवर्त्तमाने प्रथमा आवृत्तिः प्रथमायां तिथौ प्रतिपदि भवतीति । एपा प्रथमा आवृत्तिः श्रावणमासभाविनी समायाताश ___ अथ च द्वितीया माघमासमाविनी आवृत्तिः कस्यां तिथौ भवतीति प्रश्तेऽत्र द्विकं ध्रियते, तद्रूपोनं कृतमिति जातमेककम् तेन त्र्यशीत्यधिकं शतं गुण्यते जातं तदेव त्र्यशीत्यधिक शतम् (१८३) । अत्र एकेन गुणितमिति एककं त्रिगुणं क्रियते जातं त्रिकम् तद्रूपाधिकं करणीयमिति जातं चतष्कम् (४), तत् पूर्वराशौ त्र्यशीत्यधिकशतरूपे प्रक्षिप्यते, जातं सप्ताशीत्यधिकं शतम् (१८७) तस्य पञ्चदशभिर्भागे हते लब्धा द्वादश (१२) तिष्ठन्ति शेषाः सप्त (७) तत आगतम्-युगे द्वादशसु पर्वसु गतेषु माघमासे बहुलपक्षे सप्तभ्यां तिथौ द्वितीया माघमास भाविनीना च मध्ये प्रथमा मावृत्तिर्भवतीति २। एवं तृतीया आवृत्तिः श्रावणमास भाविनी कस्यां Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिस्त्र ५४० तिथौ भवतीति प्रश्ने त्रिकं ध्रियते, तस्मिन् रूपोने कृते जातं द्विकम् , तेन त्र्यशीत्यधिकं शतं गुण्यते, 'जातानि पट्पष्टयधिकानि त्रीणि शतानि (३६६) अत्र द्विकेन त्र्यशीत्यधिकं शतं गुणित मिति द्विकं त्रिभिर्गुणनीयं जाताः पद, ते रूपाधिकाः क्रियन्ते जाताः सप्त ते पूर्वराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातानि त्रिसप्तत्यधिकानि त्रीणि शतानि (३७३), एपां पञ्चदशभिर्भागे हते लब्धा चतुर्विशतिः (२४) शेपास्तिष्ठन्ति त्रयोदश । तत आगतम्-युगे तृतीया आवृत्तिः श्रावणमास भाविनीनां मध्ये तु द्वितीया चतुर्वि शति पर्वात्मके प्रथमे सवत्सरे व्यतिक्रान्ते श्रावणमासे बहुलपके त्रयोदश्यां तिथौ भवतीति ३।एव मग्रेऽपि अन्यासु आवृत्तिषु करणवशाद् विवक्षितास्तिथय आनेतव्याः । ताश्चमा:-युगे चतुर्थी माघमासमाविनीनां मध्ये तु द्वितीया माघमासे शुक्लपक्षे चतुझं तिथौ भवति ४। पञ्चमी श्रावणमासभाविनीनां मध्ये तु तृतीया श्रावणमासे शुक्ल पक्षे दशम्यां तिथौ ५। पष्ठीमाघमासभाविनीनां मध्ये तु तृतीया माघमासे बहुलपक्षे प्रतिपदि । सप्तमी श्रावणमासभाविनीनां मध्ये तु चतुर्थीश्रावणमासे बहुलसप्तम्यां तिथौ ७, अष्टमी माघमासभाविनीनां मध्ये तु चतुर्थी माघमासे बहुलपक्षे त्रयोदश्यां तिथौ ८, नवमी श्रावणमास भाविनीनां मध्ये तु पञ्चमी श्रावणमासे शुक्लपक्षे चतुर्थी तिथौ ९, दशमीचावृत्तिः श्रावणमास भाविनीनां मध्ये तु पञ्चमी माघमासे शुक्लपक्षे दशम्यां तिथौ भवतीति १०। एताश्चतुर्थात आरभ्य दशमी पर्यन्ता आवृत्तयः संग्रहरूपे प्रदर्शिताः । अथतेषां पञ्चानां श्रावणमासभाविनीनां, पञ्चाना तु माघमासभाविनीनामावृत्तीनां तिथयश्चतसृभिर्गाथाभिः प्रदर्श्यन्ते "पढमा बहुलपडिवए १, विइया बहुलस्स तेरसी दिवसे २, । सुद्धस्स य दसमीए ३, वहुलस्स य सत्तमीए ४ उ ॥१॥ • “सुद्धस्स चउत्थोए' पवत्तए पंचमी उ आउट्टी ५। एया आउट्टीओ सन्याओ सावणे मासे ॥२॥ वहुलस्स सत्तमीए १, पढमा सुद्धस्स तो चउत्थीए २, बहुलस्स य पाडिवए३, बहुलस्स य तेरसीदिवसे ४ ॥३॥ मुहस्स य दसमीए, पवत्तए पंचमी उ.आउट्टी ५। एया आउट्टीओ, सन्चाओ माहमासम्मि ॥४॥ छायाः-प्रथमा बहुलप्रतिपदि, द्वितीया बहुलस्य त्रयोदशी दिवसे २। शुद्धस्य दशम्यां ३, बहुलस्य च सप्तम्यां तु ४ ॥१॥ शुद्धस्य चतु. ५, प्रवत्तेते पञ्चमी तु आवृत्तिः । एता आवृत्तयः सर्वा श्रावणे मासे ॥२॥ बहुलस्य सप्तम्यां प्रथमा १, शुद्धस्य ततश्चतुर्थ्याम् २। , बहुलस्य च प्रतिपदि ३, बहुलस्य च त्रयोदशी दिवसे ॥शा Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१२ सू. ५ सूर्यचन्द्रयोः आवृत्तिस्वरूपम् ५४१ ' शुद्धस्य च दशम्यां, प्रवर्तते पञ्चमी तु आवृत्तिः ५। . एता आवृत्तयः, सर्वा माघमासे ॥४॥ पूर्व सूर्यस्य दश आवृत्तयः प्रदर्शिताः, अथैतासु दशसु सूर्यावृत्तिषु प्रथमायां वार्षिक्यामा वृत्तौ चन्द्रनक्षत्रयोगं प्रदर्शयन् सूत्रमाह-'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसोणं' एतेषां खलु 'पंचण्हं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'पढमं वासिक्किं' प्रथमां वार्षिकी वर्षाकाल सम्बन्धिनी श्रावणमासभाविनीमित्यर्थः 'आउहि' आवृत्ति सूर्यावृत्तिं 'चंदे' चन्द्रः 'केण णवखत्तेण' २ केन नक्षत्रेण सह स्थितः सन् 'जोएइ' युनक्ति प्रथमायां वार्षिक्यामावृत्तिं प्रवर्तयतीत्यर्थः ! इति गौतमेन पृष्टे भगवानाह--'ता' तावत् 'अभिइणा' अभिजिता अभिजिन्नक्षत्रेण सह स्थितः सन् युनक्तीति भावः । तत्कि परिपूर्णे अभिजिति न्यूने वा योगं युनक्तीति विशिनष्टि'अभिइस्स, इत्यादि 'अभिइस्स, अभिजिन्नक्षत्रस्य 'पढमसमएणं' प्रथमसमये 'ण' इति वाक्यालकारे । एतत् कथमवसीयते ? इति चन्द्रनक्षत्रयोगपरिज्ञानार्थं वृद्धोक्ताः सप्त करणगाथाः प्रदर्श्यन्ते "पंचसया पडिपुण्णा, तिसत्तरा नियमसो मुहुत्ताणं । छत्तोस विसटिभागा, छच्चेव य चुण्णिया भागा ॥१॥ आउट्ठीहि एगणियाहिं गुणिओ हविज्ज धुवरासी । एयं मुहुत्तगणिय, एत्तो वोच्छामि सोहणणं ॥२॥ अभिइस्स नव मुहुत्ता, विसट्ठिभागा य होंति चउवीस । छावट्ठीय समग्गा,भागा सत्तहि छेयकया ॥३॥ उगुणटुं पोट्टवया, तिसु चेव नवुत्तरेसु रोहिणिया । तिसु नवनउइएसु, भवे पुणव्वस्त्तरा फग्गू ॥४॥ पंचेव अउणपन्ना, समाइंउगुणत्तराई छच्चेव सोज्झाहि विसाहामुं, मूले सत्तेव चोयाला ॥५॥ अट्ठसयमुगुणवीसा,सोहणगं उत्तरा असाढाणं । . चउवीसं खलु भागा, छावट्ठी चुण्णीया भागा ॥६॥ एयाई सोहइत्ता, ज सेसं तं हवेज नक्खत्तं । - चंदेण समाउत्त, आउहीए उ बोद्धन्वं ॥७॥"इति । - छाया -पंचशतानि परिपूर्णानि त्रिसप्ततानि नियमशो मुहूर्तानाम् । .: पत्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः, षडेव च र्णिका भागाः ॥१॥ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रालि र गुणनो भवेन् प्रकाशिः । - नवनाम धनकम ॥२॥ मना, गिटभागाश्च भवन्ति चतुर्विंशतिः । .:: नम: मनपाट वेदनाः ॥३॥ " T यात्रा गहिणिका । 2 - भान ना उनग फगुः ॥२॥ मानमामि एकोनसाननानि पडेव । : :माना, गले मना नत्यचाम्गिानि ॥५॥ ranti भाधनजमुनरागादानाम । git भागः , पदमष्टि वर्णिका मागाः ॥६॥ -:: : ., य नर भवन नक्षत्रम् । ", आपो न चोरन्यम् ॥७॥ इति । Ram RT रया' याद । पंचगया पडिपुण्णा निसनरा मुहुनाणं, विसमत्युत्त .. .य गहनाय च छत्तीमविमद्विभागा' पत्रिंशत् द्वापष्टिभागाः इन Fire 'सन्चंबय गिया भागा' पट च चूर्णिका भागाः सप्तपष्टिभागाः ५ नि. भुगनिधियते । भग्य ध्रुवरागः कथमुत्पत्तिः ? इति प्रथमं ध्रुव minist: गायने गमपरिवारापर्याया लम्यन्त तदा एकेन सूर्यासनेन An: । गाँजाय मायने, नयादि-2016011 मतान्त्येन राशिना studingो मान. नावानेन समष्टिः (६७), अस्य दशभिर्माग ते लया य, प. १६ion : erer (1) जानमुह परिमागमग्याधिगत 45. RE, परिमापष्टिभागाः पहन सम यष्टिभागाः . yr TER REAT शिकाणनं प्रदर्गत....... ..."., , run a य कवियन गरमपष्ट्रिभागा राजे ... ... ... . • ... ! - i t . : १.२७-13) मगन गाँमा ए. . . . . . .., Thindi ferratणिः, नेर Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्द्रतिप्रकाशिकाटीकाप्रा. १२ सु. ५ सूर्यचन्द्रयोः आवृत्तिस्वरूपम् ५४३ पूर्वं सप्तविंशतिर्गुण्यतेऽन्त्यराशिना सप्तकेन, जातं नवाशीत्यधिकमेकं शतम् (१८९) तस्याधेन राशिना दशकलक्षणेन भागो ह्रियते लब्धा अष्टादश दिवसाः एकस्य दिवसस्य त्रिंशन्मुहूर्त्ता भवन्तीति मुहूर्त्तानयनार्थं अष्टादशत्रिशता गुण्यन्ते, जातानि चत्वारिंशदधिकानि पञ्चशतानि (५४०) दशभिर्भागे हृते स्थिताः शेषा ये नव तेऽपि मुहूर्त्तकरणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जाते सप्तत्यधिके द्वे शते (२७०), ततो दशभिर्भागे हृते लब्धाः परिपूर्णाः सप्तविंशतिर्मुहूर्त्ताः (२७), एते पूर्वमागते चत्वारिंशदधिकपञ्चशतसंख्यके (५४०) मुहूर्त्तराशौ प्रक्षिप्यन्ते प्रक्षिप्ते च जातानि सप्तषष्ट - 'धिकानि पञ्चशतानि (५६७) । एते मुहूर्त्ताः स्थाप्याः । ततो येऽपि च एकविंशतिः सप्तषष्टिभागा मध्यराशिगतास्तेऽपि मुहूर्त्त भागानयनार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि त्रिंशदधिकानि पट्ातानि (६३०) एतानि अन्त्यराशिना सप्तकेन गुण्यन्ते, नातानि दशोत्तराणि चतुश्चत्वारिंशच्छतानि (४४१०), एषामाद्यराशिना दशकेन भागो हरणीयः, हूते च भागे लब्धानि - एकचत्वारिंशदधिकानि चत्वारि शतानि (४४१), एते जाताः सप्तषष्टिभागा इति मुहूर्त्तानयनार्थं सप्तषष्ट्या भागो हियते, उब्धाः षड्मुहूर्त्ताः ते पूर्वस्थापित मुहूर्त्तराशौ सप्तपंष्टयधिक पञ्चशतरूपे (५६७) प्रक्षिप्यन्ते, जातानि सर्वसंख्यया त्रिसप्तत्यधिक पञ्चशतसंख्यका (५७३) मुहूर्त्ताः । तत एकचत्वारिंशदधिकचतुःशतानां सप्तषष्टचा भागे हृते ये उद्धरिता एकोनचत्वारिंशत् (३९) तेऽपि द्वाषष्ट्या गुण्यन्ते जातानि अष्टादशाधिकानि चतुर्विंशतिः शतानि (२४१८) एषामपि सप्तषष्टचा भागो हियते लब्धाः षट्त्रिंशत् ( ३६ ) द्वाषष्टिभागाः, शेषास्तिष्ठन्ति षट्, तेज एकस्य द्वाषष्ठि भांगस्य सम्बन्धिनः सप्तषष्टिभागाः चूर्णिका भागा इत्यर्थः, एतेऽपि श्लक्ष्णरूपत्वेन चूर्णिकाभागा इति कथ्यन्ते । तत आगतम्, त्रि सप्तत्यधिकानि पञ्चशतानि मुहूर्त्तानाम् एकस्य च मुहूर्त्तस्य षट् त्रिंशदद्वाषष्टिभागा', एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट् सप्तषष्टिभागाः (५७३ ३६ ६ एष ध्रुवराशिर्निष्पन्नः ॥ १ ॥ एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशति द्वष्टषिभागाः, एकस्य द्वाषष्टिभागस्य समप्राः परिपूर्णाः षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागाः (९-३३/६७), एतत्परिमितमभिजिन्नक्षत्रस्य शोधनकं भवंति । एतस्य कथमुत्पत्तिः ? इति चेदुच्यते - इहाभिजिन्नक्षत्रस्य अहोरात्रसम्बन्धिनः एक विंशतिं सप्तषष्टिभागान् यावत् चन्द्रेण सह योगो भवति, एकस्मिन्नहोरात्रे च त्रिंशन्मुहूर्ता भवन्तीति मुहूर्त्तभागानयनार्थमेंकविंशति स्त्रिंशता गुण्यते, जातानि षट् शतानि त्रिंशदधिकानि (६३०) एषां सप्तषष्ट्या भागो ह्रियते लब्धा नवमुहूर्त्ता (९) शेषाः स्थिताः सप्तविंशतिः, ते द्वाषष्टिभागकरणार्थं द्वाषष्ट्या गुण्यन्ते जातानि चतुःसप्तत्यधिकानि षोड़शशतानि (१६७४), एषां 3 " Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'चन्द्रप्रतिस् 'सप्तपट्या भागो हियते, लब्धा चतुर्विंशतिर्द्वापष्टिभागाः (28) शेर्पाास्तिष्ठन्ति' पटष्टि: 'ते ६.२ ५४४ एकस्य ं द्वार्षाष्टभागस्य सप्तषष्टिभागाः (१६) तत आगतं यथोक्तमभिजिन्नक्षेत्रस्य शोधनक $1 'o' ') 你 प्रमाणम् ( ९-२४ (६६) इति तृतीयगाथार्थः ॥३॥ ६२ ६७ } साम्प्रतं शेषनक्षत्राणां शोधनकानि प्रदर्श्यन्ते - 'उगुण' इत्यादि गाथात्रयेण | 'उगुण हूं' एकोनषष्ठम् एकोनपष्टयधिकं शतं (१५९) 'पोहवया' प्रोष्ठपदा उत्तरभाद्रपदा एकोनषष्टच धिकं शतं मुहर्त्तानामभिजित आरम्य उत्तरभाद्रपदा पर्यन्तानां नक्षत्राणां शोधनकमिति भावः । तथाहि--नवमुहूर्त्ता अभिजिन्नक्षत्रस्य ? त्रिंशन्मुहूर्त्ताः श्रवणस्य ३०, त्रिंशद् धनिष्ठायाः ३०, पञ्चदशे शतभिषजः १५, त्रिंशत् पूर्वभाद्रपदायाः ३०, पञ्चचत्वारिंशद, उत्तरभाद्रपदायाः - ४५, सर्वसंकलनया जातम् - एकोनषष्ट्यधिकं शतं (१५९) मुहूर्त्तानामभिजितः आरम्योत्तरभाद्रपदा नक्षत्रपर्यन्तं शोधनकमिति । तथा 'तिसु चेव नवोत्तरेसु रोहिणिया' त्रिपु. चैव नवोतरेषु शतेपु रोहिणिका रोहिणी पर्यन्तमित्यर्थः शुद्धयति, अयं भावः - त्रिभिः शतैर्नवोत्तरैः (३०९) रेवतीत आरभ्य रोहिणी पर्यन्तानि नक्षत्राणि शोध्यन्ते - तथाहि - रेवत्यास्त्रिंशत् ३०, अश्विन्यास्त्रिशत् ३०,भरण्याः पञ्चदश १५, कृत्तिकायास्त्रिंशत् ३०, रोहिण्याः पञ्चचत्वारिंशत् ४५ । सर्वसंकलनया जातं पञ्चाशदधिकं गतम् (१५०), पु पूर्वोक्तस्य एकोनषष्ट्यधिकशतस्य (१५९ समेलने भवन्ति नवोत्तराणि त्रीणि शतानि (३०९) अभिजित आरम्य रोहिणी पर्यन्तानां नक्षत्राणां शोधनकानीति । ततः 'तिसु नवनउइमु भवे पुणव्त्रसू' त्रिपु नवनवत्यधिकेषु तेषु (३९९) पुनर्वसुः 'पुनर्वसु पर्यन्त मित्यर्थः । अत्रायं भावः - रोहिण्या अनन्तरं प्राप्तस्य मृगशिरस - त्रिंशत् ३०, आर्द्रायाः पञ्चदश १५, पुनर्वसोः पञ्चचत्वारिंशत् ४५, नाता सर्वसकलनया नवतिः - (९०) एषा संख्या पूर्वोक्तसंख्यायां नवोत्तर त्रिशतरूपायां संमेल्यते, जायन्ते नव नवत्यधिकानि श्रीणि शतानि (३९९), एतानि अभिजित आरम्य पुनर्वसु पर्यन्तानां नक्षत्राणां शोधनकानि 'नातानि । ततः 'उत्तराफग्गू - पंचेव अउणपम्ना' उत्तराफाल्गुनी पञ्चैव एकोनपञ्चाशानि शतानि, एकोन पञ्चाशदधिकानि पञ्चशतानि (५४९) पुण्यत आरभ्य उत्तराफाल्गुनी पर्यन्तानां नक्षत्राणां शोधनकानि, मयं भावः पुष्यस्य त्रिंशत् ३०, अश्लेपायाः पञ्चदश १५, मघायात्रिंशत् “३०, पूर्वाफाल्गुन्या त्रिंशत् ३०, उत्तराफाल्गुन्याः पञ्च चत्वारिंशत् ४५ । जातं सर्वसंकलनया पञ्चाशदधिकं शतम् (१५०), एतत् पुण्यत आरम्योत्तराफाल्गुनीपर्यन्तानां नक्षत्राणां शोधनकम् । एषा संख्या पूर्वसंख्यायां नवनवत्यधिकत्रिशतरूपायां (३९९) संमेल्यते, नायन्ते एकोन पञ्चाशदधिकानि पञ्चशतानि मुहूर्त्तानामभिजित आरभ्य उत्तराफाल्गुनी पर्यन्तानां नक्षत्राणां Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा १२ सू. ५ सूर्यचन्द्रयोः आवृत्तिस्वरूपम् ५४५ शोधनकानि (५४९)। ततः 'समाई उगुणुत्तराई छच्चेवय सोज्झाहि विसाहासु' समानि. समग्राणि एकोनसप्तत्याधिकानि षट्शतानि विशाखासु विशाखापर्यन्तेषु नक्षत्रेषु गोधय, हस्तनक्षत्रादारभ्य विशाखा पर्यन्तानां नक्षत्राणां शोधनकसंमेलनेन-एकोनसप्तत्यधिकानि पट्शतानि (६६९) गोधनकानि भवन्ति । तथाहि-हस्तस्य त्रिंशत् ३०, चित्रायास्त्रिशत् ३०, स्वातेः पञ्चदश १५ विशाखाया पञ्चचत्वारिंशत् ४५, सर्वसकलनया जातं विंशत्यधिकं शतम् (१२०) एतत् पूर्वोक्तसंख्यायामेकोनपञ्चाशदधिकपञ्चशतरूपायां (५४९) प्रक्षिप्यते तत आयान्ति शोधनकानि यथोक्तानि-एकोनसप्तन्यधिकानि पट्शतानि (६६९) ततः 'मूले सत्तेव वोयाला' मूले मूलनक्षत्रे मूलनक्षत्रपर्यन्तमित्यर्थः चतुश्चत्वारिशदधिकानि सप्तगतानि (७४४) । अयं भावः-विशाग्वाया अनन्तरमनुराधेतिः, अनुराधाया स्त्रिंशत् ३०, ज्येष्ठाया' पञ्चदश १५, मूलस्य त्रिंशत् ३०, जाता पञ्चसप्ततिः ७५, अस्याः पूर्वरागी एकोनसप्तत्यधिकषट्शतरूपे (६६९) संमेलनेन भवन्ति यथोक्तानि चतुश्चत्वारिशदधिकानि सप्तशतानि (७४४) अभिजित आरभ्य मूलनक्षत्रपर्यन्तानां नक्षत्राणां शोधनकानीति । 'सोहणगं उत्तरा आस ढाणं' उत्तराषाढानाम् उत्तरापाढापर्यन्ताना नक्षत्राणां शोधनकम् , तथाहि-'अट्ठसयमुगुणवीसा' अष्टोशतानि एकोनविंशत्यधिकानि (८१९) इति । अयं भावः मूलनक्षत्रादनन्तरं पूर्वाषाढेति पूर्वाषाढानक्षत्रस्य त्रिंशत् ३० उत्तरापाढानक्षत्रस्य पञ्चचत्वारिंशत् ४५ इति जाता पञ्चसप्ततिः ७५, एष राशि. ७५ अभिजित आरभ्य मूलपर्यन्तशोधनकेषु चतुश्चत्वारिंशदधिक सप्तशतरूपेषु (७४४) समेल्यते, जायन्ते यथोक्तानि-एकोनविंशत्यधिकानि अष्टगतानि (८१९) एतानि गोधनकानि अभिजित आरभ्य उत्तरापाढा पर्यन्तानां नक्षत्राणामिति । तत एतेषां सर्वेपामपि शोधनकानामुपरि अभिजिन्नक्षत्रस्य नवमुहूर्तोपरि ये भागास्तान् दर्शयति 'चउवीसं' इत्यादि, चउवीसं खलु भागाछावट्ठी चुण्णिया भागा' चतुर्विशतिः खलु भागाः। द्वापष्टिभागाः, षट्पष्टिश्चूर्णिकाभागाः सप्तपष्टिभागाः ( २४१६६ ), एते अभिजित्सम्बन्धिनो भागाः पूर्वोक्तसर्वसंख्योपरि विज्ञेया ६२६७ इति । तत आगतम् – अभिजित आरभ्य उत्तराषाढापर्यन्तस्य अष्टाविंशति नक्षत्रगर्मितस्य परिपूर्णनक्षत्रपर्यायस्य एकोनविंशत्यधिकानि अप्टशतानि मुहूर्तानाम्, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिपष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पष्टिः सप्तषष्टि भागाः ( ८१९-४६६) एतावत्परिमिताः सर्वे मुहूर्ता भवन्ति, एते शोधनकानीत्युच्यते । इति षष्ठ गाथार्थः ॥ ६ ॥ ततः किम् ? इत्याह-'एयाई' इत्यादि, ‘एयाई' एतानि पूर्वप्रदर्शितानि Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ,, चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे ५४६ शोधनकानि यथासंभवं 'सोहइत्ता' शोधयित्वा तदनन्तरं 'जं सेसं' 'यत् शेषमुद्धरति 'तं नक्खत्तं हवेज्ज आउट्टीए समाउत्तं' तन्नक्षत्रं भवेत् विवक्षितायामावृत्तौ तु चन्द्रेण समायुक्त भवति तदा विवक्षितावृत्तौ तेन नक्षत्रेण सह चन्द्रो योगं युनक्तीति 'वोद्धव्वं' बोद्धव्यं ज्ञातव्यं गणितज्ञैरिति गाथासप्तकार्थः ॥ ७ ॥ अथ भावना क्रियते-कोऽपि पृच्छेत्-प्रथमायामावृत्तौ प्रथमतः प्रवर्तमानाया चन्द्रः केननक्षत्रेण सह योगं युनक्ति ? इति जिज्ञासायामत्र प्रथमावृत्तिविषयकः प्रश्न इति एकको ध्रियते, स रूपोनः क्रियते, एकस्मिन् रूपे एकोने कृते न किमपि रूपं पश्चादवतिष्ठते, ततः पाश्चात्य युगभाविनीनामावृत्तीनां मध्ये या चरमा दशमी आवृत्तिस्तत्संख्या दशकरूपाऽत्र ध्रियते, एतेन दशकेन प्राचीनः समग्रोऽपि ध्रुवराशिः 'पंचसया पडिपुण्णा' इत्यादि प्रथमगाथोक्तः--त्रिसप्तत्यधिकानि पञ्चशतानि (५७३) मुहूर्तानाम्, एकस्य च मुहूर्तस्य षट्त्रिंशत् (३६) द्वापष्टिभागाः एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पट् (६) सप्तषष्टिभागाः चर्णिका भागाः (५७३३६ ६ ) एतावत्परिमितो गुण्यते, तत्र पूर्व मुहूर्तराशिर्दशकेन गुण्यते, जातानि त्रिंशदधिकानि सप्तपञ्चाशच्छतानि (५७३०), तत्पश्चात् ये षट्त्रिंशद् द्वाषष्टि भागास्तेऽपि दशकेन गुण्यते, जातानि षष्टयधिकानि त्रीणी शतानि (३६०), एषां मुहूर्तकरणार्थ द्वाषष्टया भागो हियते, लब्धा पञ्च मुहूर्ताः (५) एते पूर्वस्थिते मुहूर्तराशौ (५७३०) प्रक्षिप्यन्ते, जातः पूर्वराशिः पञ्चत्रिंशदधिकसप्तपञ्चाशच्छत' संख्यकः (५७३५), भागे हृते तिष्ठन्ति पञ्चाशद् द्वाषष्टि भागाः (५०) तदन्तरं ये घट् चूर्णिका भागा आसन् तेऽपि दशकेन गुणिता जाता पष्टिः, एते चर्णिका भागाः सन्ति, अङ्कतः ( ५७३५ १६) इति । एतस्माद्राशे शोधनक्रानि शोध्यन्ते, तत्राभिजित आरम्योत्तराषाढा ६२/६७ पर्यन्तानामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां शोधनकम्-एकोनविंशत्यधिकानि अष्टौ शतानि (८१९), एतानि किल यथोक्तराशी सप्तकृत्वः शुद्धि प्राप्नुवन्तीति सप्तभिर्गुण्यन्ते, जातानि-त्रयस्त्रिंशदधिकानि सप्त पञ्चाशन्छतानि (५७३३), तानि पञ्चत्रिंशदधिकेभ्यः सप्तपञ्चाशच्छतेभ्यः शोध्यन्ते. स्थितौ पश्चात् द्वौ मुहत्तौ, तौ द्वापष्टि भागानयनार्थ द्वापष्टया गुण्येते, जातं चतुर्विशत्यधिकमेक शतम् (१२४) एते द्वापष्टिभागाः सन्ति, एते प्राक्तने पञ्चाशति द्वाषष्टि भागराशौ प्रक्षिप्यन्ते जातं चतुः सप्तत्यधिकं शतम् (१७४) द्वापष्टि भागानाम् । तथा ततो येऽभिजित्सम्बन्धिनश्चतुविंशतिषष्टिभागा. शोच्या. सन्ति तेऽपि 'सप्तकृत्वः शुद्धिमाप्नुवन्ति इति न्यायात् सप्तभिर्गुण्यन्ते जानमष्टपष्टयविकं शतम् (१६८) एतत् चतु सप्तत्यधिकात् शतात् (१७४) शोध्यते, स्थिता• पद द्वापष्टि भागाः, ते पूर्णिका भागानयनाथ सप्तपष्टया गुण्यन्ते जातानि द्वयधि Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा. १२ सू. ५ सूर्यचन्द्रयोः आवृत्तिस्वरूपम् ५४७ कानि चत्वारिशतानि (४०२), ततो ये प्राक्तनाः पष्टिः सप्तपष्टि भागास्तेऽत्र प्रक्षिप्यन्ते, जातानि द्वापष्टयधिकानि चत्वारिशतानि ( ४६२ ) ततो येऽभिजितः सम्बन्धिनः षट् षष्टिश्चूर्णिका भागा शोध्याः सन्ति तेऽपि पूर्वोक्तन्यायेन सप्तभिर्गुणयित्वा शोध्या भवन्तीति सप्तभिर्गुण्यन्ते, जातानि द्वापष्टयधिकानि चत्वारिंशतानि (४६२) एतानि अनन्तरोदितराशेर्द्वापष्टयधिक चतुःशत (४६२ ) रूपात् शोध्यन्ते, द्वयोः राश्योः समानत्वान्न किञ्चिदवशिष्यते, स्थितं पश्चात् शून्यम्, तत आगतम् —— उत्तरापाढानक्षत्रे परिपूर्णे चन्द्रेण भुक्ते सति तदनन्तरं युगेऽभिजितो नक्षत्रस्य प्रथम समये प्रथमा आवृत्तिः प्रवर्त्तते, अत एवोक्तं सूत्रकारेण 'अभिस्स ढमसमएणं' इति । C अथ चन्द्रनक्षत्रयोगसमये सूर्यनक्षत्रयोगं प्रदर्शयति- 'तं समयं च णं' इत्यादि । 'तं समयं च णं' तस्मिन् समये चन्द्रयोगसमये च खलु 'सूरिए' सूर्यः 'केण नक्खत्तेण जोएइ' केन नक्षत्रेण युनक्ति योगं करोति ? केन नक्षत्रेन सह योगयुक्तो भूत्वा युगस्य प्रथमामावृत्तिं प्रवर्तयतीति प्रश्नः । भगवानाह - 'ता पूसेणं' तावत् पुण्येण पुष्यनक्षत्रेण सह योगमुपागतः सन् सूर्य. प्रथमामावृत्ति प्रवर्तयतीति सामान्येन प्रोक्तम्, अथ विशेष माह'पूसस्स' इत्यादि, 'पूसस्स' पुष्यस्य पुष्य नक्षत्रस्य ' एगुणवीस मुहुचा' एकोनविंशति मुहूर्त्ताः 'तेत्तालीस च वावट्ठीभागा' त्रिचत्वारिंशच्च द्वापष्टिभागा 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्त्तस्य, तथा ' बावट्टिभागं च सत्ता छित्ता' द्वापष्टिभागं च सप्तपष्टिधा छित्वा -- विभज्य तत्सम्बन्धिनः 'तेत्तीस चुण्णिया भागा' त्रयस्त्रिंशत् चूर्णिकाभागाः सप्तषष्टिभागा इत्यर्थः ( १९ - ३) एतावन्तो भागाः पुष्यप्य 'सेसा' इति शेषा अवशिष्टास्तिच्छेयुस्तदा, तथा पुण्यस्य त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकत्वात् दशमुहूर्त्ताः अष्टदश द्वाषष्टिभागाः, चतुस्त्रिंशच्च सप्तषष्टिभागाः ( १०- १८/३४) अतिक्रान्ता भवेयुस्तदा सूर्यो युगे प्रथमा मावृत्ति प्रवर्त्तयतीति भावः । ६२ ६७ ६२/६ एतन्मुहूर्त्तादिकं कथं ज्ञायते ! इति तद् गणितेन प्रदर्श्यते - अत्रापि त्रैराशिकं कर्त्तव्यम्, तथाहि-यदि दशभिः सूर्यायनैः सूर्यकृता पञ्च नक्षत्र पर्याया लभ्यन्ते तदा एकेनायनेन कति सूर्यकृतनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते ! राशित्रयस्थापना - १०|५|२| अत्रान्त्येन राशिना एकक - रूपेण मध्यराशिः पञ्चकरूपो गुण्यते जातास्त एवेति पञ्चैव तेषामाद्यराशिना दशकरूपेण भागो हियते लब्धम नक्षत्र पर्यायस्य । तत्र परिपूर्णो नक्षत्रपर्यायस्त्रिंशदधिकाष्टादश शत (१८३०) सप्तषष्टिभागरूपो भवतीति तदर्थ पञ्चदशाधिक नवशत रूपः (९१५) पूर्वोक्तानां (१८३०) सप्तषष्टिभागानामर्द्धः सप्तषष्टिभागरूपो नक्षत्रपर्यायो भवति । तत्कथमिति प्रथमं त्रिंशदधिकाष्टादशशतरूपः परिपूर्णः सप्तषष्टिभागरूपो नक्षत्रपर्यायः प्रदर्श्यते--षड् नक्षत्राणि , Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे 1 शतभिपक् प्रभृतीनि अर्द्धक्षेत्राणि ततस्तेषां मध्ये एकैकस्य नक्षत्रस्य सार्द्धाम्नयस्त्रिशत् त्रयस्त्रिंशत् (३३||) सप्तषष्टिभागा भवन्ति सप्तपष्टेरर्धकरणात्, ततस्ते सार्द्धात्रयस्त्रिंशत् ( ३३॥ भागाः पभिर्गुण्यन्ते जाते एकोत्तरे द्वे शते (२०१) । पड् नक्षत्राणि उत्तरभाद्रपदादीनि च क्षेत्राणि, तानमानि-उत्तरभाद्रपदा १, रोहिणी २, पुनर्वसुः, ३, उत्तरफाल्गुनी ४, विशाखा ५, उत्तराषाढा ६, एतानि पड्नक्षत्राणि पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तात्मकत्वाद् द्वयर्थक्षेत्राणीति । ततस्तेषां मध्ये प्रत्येकस्य च सप्तपष्टिभागस्यार्द्धम् (१००|) सप्तषष्टे वर्धेन ( १ | | ) गुणनात्, एतत् पभिर्गुण्यते, जातानि त्र्युत्तराणि षट् शतानि (६०३) । शेषाणि एतद्व्यतिरिक्तानि पञ्चदश नक्षत्राणि श्रवणादीनि त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकत्वात् समक्षेत्राणि तेषां प्रत्येकस्य सप्तषष्टिभागा एव, ततः सप्तषष्टिः पञ्चदशभिर्गुण्यते, जातं पञ्चोत्तरं सहस्रम् (१००५) ततोऽभिनित एकविंशतिः (२१) सप्तषष्टिभागाः, एतेषां सर्वेषाम् - (२०१ = ६०३ = १००५ = २१) मीलने भवन्ति सप्तषष्टि भागानाम् — त्रिंगदधिकानि अष्टादश शतानि (१८३० ) । एष परिपूर्णः सप्तषष्टि भागात्मको नक्षत्रपर्यायः एतस्यार्थे कृते भवन्ति यथोक्तानि पञ्चदशोत्तराणि नवशतानि (९१५) | एभ्योऽभिजित. सम्बन्धिनी एकविंशतिः शोभ्यते, तिष्ठन्ति शेपाणि- अष्टौ शतानि चतुर्नवत्यधिकानि (८९४ ) । एषां सप्तपष्टचा भागो हियते, लब्धास्त्रयोदश (१३), शेषास्तिष्ठन्ति त्रयोविंशतिर्भागाः (२३) त्रयोदशभिश्च पुनर्वसु पर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्वानि, ये च त्रयोविंशति र्भागाः शेषीभूतास्तिष्ठन्ति ते मुहूर्त्तकरणार्थ गिता गुण्यन्ते, जातानि नवत्यधिकानि षट् शतानि (६९०), तेषां सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धाः दश मूहर्त्ताः (१०), शेपातिष्ठन्ति विंशतिः, सा द्वापष्टि भागकरणार्थ द्वापष्ट्या गुण्यते जातानि चत्वारिंशदधिकानि द्वादशशतानि (१२४०), एपां सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धा अष्टादश द्वापष्टि भागाः, शेषास्तिष्ठन्ति चतुस्त्रिंशत् ते च एकस्य द्वाषष्टिभागस्य चतुखिंगत् सप्तपष्टिभागाः, तत आगतम् - पुष्यस्य दशसु मुहूर्त्तेपु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य अष्टादशसु द्वाषष्टिभागेपु, एकस्य च द्वापष्टि भागस्य चतुस्त्रिंशति सप्तषष्टिभागेपु ( १० १८|३४ > गतेपु, तथा पुष्यस्य त्रिशन्मुहूर्त्तात्मकत्वात् - एकोनविंशतौ मुहूर्त्तेपु एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रिचत्वा - विंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु ( १९४३ |३३ > इति । ६२ ६७ ६२/६७ सूत्रोक्तेषु शेपेषु प्रथमा श्रावणमास भाविनी सूर्यावृत्तिः प्रवर्त्तते, अथ द्वितीया श्रावणमास भाविनीमावृत्ति प्रदर्शयति- 'ता एएसि णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसि णं' "नेमा ग्रमिद्धानां 'पंचण्ड' पञ्चाना 'संवच्छगणं' चान्द्रादिसवत्सराणां मन्ये 'दोच्च' द्वितीयां 'वासिक्कि' वार्षिक वर्षाकालभाविनीम् 'आउट्टि' आवृत्ति सूर्यावृत्ति ५४८ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीकाप्रा १२ सू. ५ सूर्यचन्द्रयोः आवृत्तिस्वरूपम् ५४९ 'चंदे' चन्द्रः 'केणं णक्खतेणं' केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतः सन् 'जोयं जोएई' योगं युनक्ति प्रवर्तयतीत्यर्थः । भगवानाह-'संठाणाहिं' सस्थानाभिः, संस्थानशब्देनात्र मृगशिरानक्षत्रं गृह्यते प्रवचने तथा प्रसिद्धत्वात् , बहुवचनं च त्रितारकत्वात् , ततो मृगशिरसा मृगशिरो नक्षत्रेण सह योगमुपागतश्चन्द्रो द्वितीयामावृत्ति प्रवर्त्तयति । मृगशिरसः कियपरिमितेषु मुहर्तादिपु शेपेपु गतेषु वेति प्रश्न प्राह-'संठाणाणं' इत्यादि, सस्थानानां मृगशिरो नक्षत्रस्य 'एक्कारस मुहुत्ता' एकादशमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य 'ऊणतालीसं च वावद्विभागा' एकोनचत्वारिंशद् द्वापष्टिभागाः, एकं 'वावद्विभागं च' द्वापष्टिभागं च, 'सत्तहिहा छेत्ता' सप्तपष्टिधा छित्त्वा विभज्य एकस्य द्वापष्टिभागस्य सप्तपष्टिभागान् कृत्वा तद्गताः 'तेवण्णं चुणिया भागा' त्रिपञ्चाशत् चूर्णिका भागा इति । सप्तपष्टिभागाः (११३९५३) यदा 'सेसा' शेषा ५३ ६२/६७ - अवशिष्टा मृगशिरा नक्षत्रस्य भवेयुस्तदा, तथा अस्य त्रिशन्मुहूर्तात्मकत्वात् अष्टादश मुहूर्ताः एकस्य मुहर्तस्य द्वाविंशतिश्च द्वापष्टि भागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्दश सप्तषष्टि भागाः ( १८२९१४ ) अतिक्रान्ता भवेयुस्तदा चन्द्रो द्वितीयां वार्षिकीमावृत्ति प्रवर्तयतीति । तत्कथमवसीयते ? गणितबलात् , इति गणितं प्रदर्श्यते-- इह या द्वितीया श्रावणमासभाविनो आवृत्तिरस्ति सा पूर्वप्रदर्शितक्रमापेक्षया तृतीया भवति ततस्तत्स्थाने त्रिकं स्थाप्यते, तद्रूपोनं क्रियते, जातं द्विकं, तेन प्राक्तनो ध्रुवराशि पत्रिंशत्सख्यकद्वापष्टिभाग-पट् सख्यकसप्तपष्टिभागयुक्तः त्रिसप्तत्यधिक पञ्चशतरूपः ( ५७३३६६ ) गुण्यते, जातानि-एकादश शतानि षट् चत्वारिंशदधिकानि मुहूर्तानाम् , एकस्य मुहूर्तस्य च द्वासप्ततिषिष्टि भागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वादश सप्तषष्टिभागा ( ११४६५२१२ ) तत एतेभ्य एकोनविशत्यधिकाष्टशतसख्यका मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशति पिष्टि भागाः एकस्य च द्वापष्टि भागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागाः, । १९२४६६ ) परिपूर्णनक्षत्रपर्यायस्य शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चात्-सप्तविंशत्यधिकानि त्रीणि शतानि मुहूर्तानाम् , एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तचत्वारिंशद् द्वापष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य त्रयोदश सप्तषष्टिभागाः ( ३२७७१३.) तत एतेभ्यः 'तिसुचेव नवुत्तरेसु ६।६७ ६२६७ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० चन्द्रप्रश्नप्तिसूत्रे रोहिणिया' इति चतुर्थकरणगाथावचनात् नवोत्तराणि त्रीणि मुहूर्तशतानि, एकस्य च मुहर्तस्य चतुर्विशति पिष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पट्पष्टिः सप्तपष्टिभागा. ( ३०९२१६६ ) अभिजित आरभ्य रोहिणी पर्यन्ताना नक्षत्राणां गोध्यन्ते, स्थिताः ६२६७ पश्चात् अष्टादश मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य द्वाविंशति पिष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्दशसप्तपष्टिभागाः (१८२३१४) । एतावता मृगशिरो न शुद्धयति, तत एतावन्तो मुहर्तादिका मृगशिरो नक्षत्रस्यातिक्रान्तास्ततो मृगशिरो नक्षत्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् नरय एकादशसु मुहूर्तेपु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकोनचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिपञ्चाशति सप्तपष्टि भागेषु ( ११- २ ) सूत्रोक्तेषु शेपेषु ६२/६७ द्वितीयां श्रावणमासभाविनीमावृत्तिं चन्द्रः प्रवर्त्तयतीति २।। साम्प्रतं चन्द्रनक्षत्रयोगसमयभाविनं सूर्यनक्षत्रयोगमाह-'तं समयं च ण' इत्यादि 'तं समयं च णं' तस्मिन् समये चन्द्रनक्षत्रयोगकाले च खलु 'सूरिए' सूर्यः 'केणं णक्खत्तणं' केन नक्षत्रेण सहगतः सन् द्वितीयां श्रावणमासभाविनीमावृत्ति 'जोएई' युनक्ति प्रवर्तयतीत्यर्थ । भगवानाह-'ता पूसेणं' इत्यादि 'ता पूसेणं' तावत् पुण्येण पुण्यनक्षत्रेण सहगतो भूत्वा द्वितीया श्राविणीमावृत्ति प्रवर्त्तयति । तत्र-विशेपमाह-'पूसस्स णं' इत्यादि, 'पूसस्स णं' पुण्यस्य खलु 'तं चेव जं पढ़माए' तदेव यत् प्रथमायाम् , अत्र तदेव वक्तव्यं यत्प्रथमायां श्रावणमासभाविन्यामावृत्तौ प्रोक्तम् तथाहि-पुष्यस्य एकोनविंशतिर्मुहर्ताः, एकस्य चमुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशद् द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत् चूर्णिका भागाः (१९४३३३ ) शेषा अवतिष्ठेयुस्तदा सूर्यो द्वितीयां श्राविणीमावृत्ति प्रवर्तयतीति भावः । ६२६७१ इह सूर्यस्य दशभिरयनैः पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते, द्वाभ्यामयनाभ्यां चैको नक्षत्रपर्यायो लभ्यते, तत्र सूर्य उत्तरायण कुर्वन् सर्वदैव अभिजिन्नक्षत्रेण सहगतो भूत्वा योगमुपागच्छति दक्षिणायनं कुर्वश्च पुष्येण सहगतः सन् युनक्ति उक्तञ्च अभिप्राहि नितो, आइच्चो पुस्सजोगमुवगयस्स । सव्या आउट्टीओ, करेइ सो सावणे मासे ॥१॥ छाया-आभ्यन्तगभ्यः (आवृत्तिभ्यः) नयन् बाह्या आवृत्तीः प्राप्नुवन् आदित्यः पुष्ययोगमुपगतः । Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा. १२ सू. ५ सर्वा आवृत्ती: करोति तस्य ( युगस्य ) श्रावणे मासे ॥ १॥ इति अत एव सूत्रकारेण ' पुस्सेणं' इत्याद्युक्तम् २ | सूर्यन्द्रयोः आवृत्तिस्वरूपम् ५५१ अथ तृतीयां श्रावणमासभाविनीमावृत्ति प्रदर्शयति - 'ता एएसि णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषां खलु 'पंचण्डं संवच्छरणं' पञ्चानां सवत्सराणां मध्ये 'तच्च ' तृतीयां 'वासिक्कि' वार्षिकीं वर्षाकालभाविनीं श्रावणमासभाविनी मित्यर्थः ' आउट्टि ' आवृत्ति 'चंदे' चन्द्र' 'केणं नक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतः सन 'जोए ' युनक्ति प्रवर्त्त - यति ? भगवानाह - 'ता विसाहाहिं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'विसाहाहिं' विशाखाभिः पञ्चतारकत्वाद् बहुवचनम्, विशाखा नक्षत्रेण सह योगं कृत्वा चन्द्रस्तृतीयां श्राविणीमावृत्ति प्रवर्त्तयति । विशाखानक्षत्रस्य मुहूर्त्तादिकमाह - 'विसाहाणं' इत्यादि, 'विसाहाणं' विशाखानां विशाखानक्षत्रस्य 'तेरसमुहुत्ता' त्रयोदश मुहूर्त्ताः, 'चउप्पण्णं च वावद्वभागा' चतुष्पञ्चाशच द्वाषष्टिभागा 'मुत्तस्स एकस्य मुहूर्त्तस्य, तथा 'वावट्टिभागं च ' द्वाषष्टिभागं च मुहूर्त्तस्य 'सट्टा छित्ता सप्तषष्टिधा छित्त्वा विभज्य एकस्य द्वापष्टिभागस्य, सप्तषष्टिभागान् कृत्वा तेभ्यः ' चत्तालीसं चुणिया भागा' चत्वारिंशत् चूर्णिका' अतिश्लक्ष्णत्वेन चूर्णिका इव चूर्णिका भागाः सप्तषष्टि भागा (१३. 2) यदि 'सेसा' शेषा अवशिष्टा भवेयुस्तदा, तथा अस्य पञ्चचत्वारिंशन्मु६२ ६७ हर्त्तात्मकत्वात् एकत्रिंशन्मुहूर्त्ताः एकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तद्वापष्टि भागाः, एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य सप्तविशति सप्तपष्टिभागाः (३१-७ - २७) यदा अतिक्रान्ता भवेयुस्तत्समये चन्द्रस्तृतोयामावृत्ति प्रवर्त्तयतीति । तदेव प्रदर्श्यते इयं तृतीया आवृत्तिः पूर्वप्रदर्शितक्रमापेक्षया पञ्चमी भवति ततस्तत्स्थाने पञ्चकं ध्रियते तद् रूपोनं क्रियते जातं चतुष्कम् तेन प्राक्तनो ध्रुवराशि: " 1 (५७३ ३६ –६) गुण्यते, जातानि द्विनवत्यधिकानि द्वाविंशतिः शतानि मुहूर्त्तानाम्, एकस्य ६२‍ सप्तपष्टिभागाः (२२९२ च मुहूर्त्तस्य चतुश्चत्वारिंशदधिकं गतं द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्विंशति १४४/२४ तत एतेभ्यः अष्टात्रिंशदधिकानि षोडश मुहूर्त्तशतानि (2293/820/2.8) ६२६७ एकस्य च मुहूर्त्तस्य अष्टचत्वारिशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वात्रिंशदधिकं शतं सप्तषष्टिभागाः (१६३८४८/१३२) परिपूर्णनक्षत्रपर्यायद्वयस्य शोध्यन्ते, स्थितानि १६२ ६७ पश्चात् चतुष्पञ्चाशदधिकानि पड् मुहूर्त्तशतानि, एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्नवतिद्वाषष्टिभागाः, Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्र प्रज्ञप्तिसूत्रे एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य विंति सप्तषष्टिभागाः (६५०/६०३२ (३७), तत एभ्य एकोन पञ्चाशदधिकानि पञ्चमुहूर्त्तगतानि, एकस्य च मुहूर्त्तस्य विंगतिर्द्वापष्टि भागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टि भागा' (५४९/२०६६) अभिजित आरम्य उत्तरफाल्गुनी ५५२ पर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यन्ते, स्थितं पश्चान पञ्चोत्तरं मुहूर्त्तशतं, एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकोन सप्तति र्द्वार्षष्टि भागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तविंगति. सप्तषष्टिभागाः (१०५/15/2 ६२/६७ अत्र स्थितेभ्य एकोनपष्टि द्वापष्टिभागेभ्यो द्वापष्ट्या द्वाषष्टिभागैरेको मुहूर्तो लभ्यते, स च पूर्वस्थिते पञ्चोत्तरशतरूपे मुहूर्त्तराशौ प्रक्षिप्यते, जातः स मुहूर्त्तराशिः पडुत्तरं शतम्, स्थिता पश्चात् सप्तद्वाषष्टिभागाः, तेन जात एप राशिः षडुत्तर मुहूर्त्तशतम् एकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तद्वापष्टि भागा·, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तविंशतिः सप्तपष्टिभागाः (१०६) । तत एतेभ्यो मुहत्तॆभ्यः पञ्चसप्ततिर्मुहूर्त्ताः (७५) हस्तादि स्वातिपर्यन्तानां त्रयाणा नक्षत्राणां शोध्या., स्थिताः शेषा एकत्रिंशन्मुहूर्त्ताः सप्त द्वापष्टिभागाः सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागाः (३१ _७५२७), एतेषु मुहूर्त्तादिषु विशाखा नक्षत्रस्यातिक्रान्तेषु ततो विशाखा नक्षत्रस्य पञ्चचत्वारिं ६२'६७ و शन्मुहूर्त्तात्मकत्वात्तस्य त्रयोदशसु मुहूर्त्तेपु, चतुष्पञ्चाशतिद्वापष्टिभागेषु चत्वारिंशति सप्तषष्टि भागेषु (१३।५४।४० ) शेपेषु चन्द्रस्तृतोयां श्राविणीमावृत्ति प्रवर्त्तयतीति ३ | साम्प्रतं तत्समयगत सूर्यनक्षत्रयोगं प्रदर्शयति 'तं समयं च णं' इत्यादि, 'तं समयं च णं' तस्मिन् समये चन्द्रनक्षत्रयोगकाले च खलु 'सुरिए' सूर्य: 'केणं नक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण सह गतः सन् ‘जोएड' युनक्ति तृतीयां श्राविणीमावृत्ति प्रवर्त्तयति । भगवानाह 'ता पूसेणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'पूसेणं' पुण्येण सहगतः सन् तृतीयां श्रावणीमावृत्ति प्रवर्त्तयति तस्य मुहूर्त्तादिकमाह्–'प्सस्स' पुष्यस्य 'तं चेव' तदेव प्रथमावृत्तिप्रदर्शितवदेव मुहूर्त्तादिकं विज्ञेयम्, तथाहि-पुष्यस्य एकोनविंशतिर्मुहुर्त्ताः, त्रिचत्वारिंशद् द्वापष्टिभागाः, त्रयस्त्रिंशत् सप्तषष्टि भागाः (१९१३३३) गेषास्तिष्ठेयुस्तदा सूर्य: पुप्येण सहगनो भूत्वा तृतीया श्राविणीमावृत्तिं प्रवर्त्तय ६२ ६१ तीति भावः । Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा १२ सू. ५ सूर्यचन्द्रयोः आवृत्तिस्वरूपम् १६३ अथ चतुर्थीमावृत्ति प्रदर्शयति--'ता. एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां खलु 'पंचण्हं संवच्छराणं' पश्चानां संवत्सराणां मध्ये 'चउत्थि' चतुर्थी 'वासिक्कि' वार्पिकी वर्षाकालभाविनीं श्रावणमासभाविनीमित्यर्थः 'आउटिं' आवृत्ति 'चंदे' चन्द्रः 'केणं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण योगमुपागतः सन् 'जोएई' युनक्ति प्रवर्तयति ? भगवानाह'रेवई हिं' रेवतीभिः अस्या द्वात्रिंशत्तारकात्मकत्वाद् बहुवचनम् , रेवतीनक्षत्रेण सह युक्तश्चन्द्रश्चतुर्थी श्रावणीमावृत्तिं प्रवर्तयति । अस्या मुहूर्तादिकमाह- 'रेवईणं' इत्यादि, रेवईणं' रेवतीनां रेवतीनक्षत्रस्य 'पणवीसं मुहुत्ता' पञ्चविंशतिर्मुहूर्ताः 'वत्तीसं च वावद्विभागा' द्वात्रिंशच्च द्वापष्टिभागा 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य, तथा 'वावट्ठिभागं च' एकं द्वापप्टिभागं चं 'सत्तट्ठिा छित्ता' सप्तपष्टिधा छित्वा एकस्य द्वापष्टि भागस्य सप्तपष्टि भागान् कृत्वा तन्मध्यात् 'छब्बीसं चुण्णिया भागा' पडू विंशतिश्चूर्णिका भागाः सप्तपष्टि भागाः ( २५२२६) यदि ६२/६७) यदि शेषास्तिष्ठेयुस्तदा चन्द्रश्चतुर्थी श्राविणीमावृत्ति प्रवर्तयतीति । तत्कथं भवेदित्याह-प्राक् प्रदर्शित क्रमापेक्षया श्रावणमासभाविनी चतुर्थी आवृत्तिः सप्तमी भवति ततः सप्तकोऽको ध्रियते, तस्मिन् रूपोने कृते जातः पट्कः, तेन प्राक्तनो ध्रुवराशिः (५७३-३६६) गुण्यते जातानि अष्टात्रिंशदधिकानि चतुस्त्रिंशच्छतानि (३४३८) मुहूर्तानाम् एकस्य च मुहूर्तस्य षोडशोत्तरे द्वे शते (२१६ द्वापष्टिभागानाम् , एकस्य च द्वापष्टि भागस्य पद त्रिंशत् (३६) सप्तषष्टिभागाः ( ३४३८२१६३६ ) तत एतेभ्यः षट् सप्तत्यधिकद्वात्रिंशच्छतमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य २०६२६७ पण्णवति दृषिष्टि भागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुष्षष्टयधिकद्विशतसंख्यकाः सप्तपष्टि भागाः ( ३२७६।१६।२६४ ) चतुर्णा नक्षत्रपर्यायाणां शोध्यन्ते, स्थितं पश्चाद् द्वाषष्टयधिक मुहूर्तस्य शतम् , एकस्य च मुहूर्त्तस्य षोडशाधिकं द्वापष्टिभागशतम् , एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य चत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः ( १६२/११६४०), तत एतेभ्यः एकोनषष्टयधिक मुहूर्तशतम् एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्वि शति द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षष्टिः सप्तष्टि भागाः (१५९६६) अभिजिदादीनामुत्तरभाद्रपदा पर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यन्ते, . स्थिताः पश्चात् त्रयोमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य एकनवति षिष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टि ६२६७ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ चन्द्रप्राप्तिस्त्रे ६६६ भागस्य एकचत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः (३/१४१), तत्र एकनवति द्वापष्टिभागेभ्यो द्वापष्टया द्वापष्टिभागैरेको मुहूर्तों लब्धः स च पूर्वस्थिते त्रिकरूपे मुहूर्तराशौ क्षिप्यते, जातास्ते चत्वारो मुहूर्ताः, शेषाः स्थिताः एकोनत्रिंशद् द्वापष्टिभागाः, ततो जायन्ते चत्वारो मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनत्रिंशद् द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकचत्वारिंशत् सप्तपष्टि भागाः (--) एते च मुहूर्तादिकाः रेवती नक्षत्रस्यातिक्रान्तास्तत मागतम्-रेवती नक्षत्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् तस्य पञ्चविंशतौ मुहूर्तेषु द्वात्रिंशति द्वापष्टिभागेषु षड्विंशतौ सप्तषष्टिभागेषु ( २५३२२६ ) सूत्रोक्तेषु शेषेषु सत्सु चन्द्रश्चतुर्थी श्राविणीमावृत्ति प्रवर्त्तयतीति सिद्धम् ४ । . सम्प्रति तत्समयगतं सूर्यनक्षत्रयोग प्रदर्शयति-'तं समयं च णं' इत्यादि, 'तं समयं च णं' तस्मिन् चन्द्रनक्षत्रयोगरूपे समये च खलु 'सरिए' सूर्यः 'केणं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण सह गतः सन् चतुर्थी श्रावणीमावृत्ति 'जोएइ' 'युनक्ति प्रवर्त्तयति ? भगवानाह'ता पूसेण' तावत् पुण्येण सहगतो भूत्वा प्रवर्त्तयति । अत्र विशेषमाह-पूसस्स' पुष्यस्य पुष्यनक्षत्रस्य 'तं चेव' इति तदेव प्रथमावृत्ति प्रकरणोक्तवदेव विज्ञेयम्-पुण्यस्य एकोनविंशति मुहर्ताः, त्रिचत्वारिंशद् द्वाषष्टि भागाः, त्रयस्त्रिंशत् चूर्णिका भागाः ( १९४३३३ ) यदि शेषा भवेयुस्तदा सूर्यश्चतुर्थी श्राविणीमावृत्ति प्रवर्त्तयतीति भावः ॥४॥ अधुना पञ्चमीमावृत्ति प्रदर्शयति-'ता एएसि णं' इत्यादि, 'ता तावत् 'एएसिणं' एतेषां खलु 'पंचण्हं संवच्छराणं' पश्चानां संवत्सराणां मध्ये 'पंचम' पश्चमी 'वासिक्कि' वार्षिकी वर्षाकालभाविनीम् 'आउर्टि' भावृत्ति 'चंदे' चन्द्रः 'केणं णक्खत्तेणं' केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतः सन् ‘जोएई' युनक्ति-प्रवर्त्तयतीति प्रश्नः । भगवानाह-'ता पुव्वाहि' इत्यादि, 'ता' तावत् 'पुव्वाहि फग्गुणीहिं' पूर्वाभ्यां फाल्गुनीभ्याम् द्वितारकत्वाद् द्विवचनं कृतं, प्राकृते द्विवचनाभावात् सूत्रे बहुवचनम्, पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्रेण योगं कुर्वन् चन्द्रः पञ्चमी वार्षिकीमावृत्तिं प्रवर्तयतीति भावः अथास्य मुहूर्त्तादिकं प्रदर्शयति-'पुच्चाफग्गुणीणं' पूर्वाफाल्गुन्योः पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्रस्येत्यर्थः 'बारसमुहुत्ता' द्वादशमुहूर्ताः, 'सत्तालीसं च वावद्विभागा' सप्तचत्वारिंशच्च द्वापष्टिभागाः, 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य, तथा 'वावद्विभागं सत्तद्विहा छित्ता' द्वाषष्टिभागं च सप्तपष्टिधा छित्त्वा विभज्य एकं द्वाषष्टिभागं सप्तषष्टिधा कृत्वा तत्सम्बन्धिन. 'तेरसचुणिया भागा' त्रयोदश चूर्णिका Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा. १२ सू. ५ सूर्यचन्द्रयोः आवृत्तिस्वरूपम् ५५५ _४७/१३ ६२/६७ १३) यदा 'सेसा' शेषा अवशिष्टास्तिष्ठेयुस्तदा चन्द्रः पञ्चमीं वार्षिकी मातृ 1 भागाः (१२-१ त्तिं श्रावणमासभाविनीं प्रवर्त्तयतीति । तथाहि पञ्चमी श्रावणी आवृत्तिः प्राक् प्रदर्शितकमा- " पेक्षया नवमी भवति ततोऽत्र नवकोऽङ्को म्रियते, तस्मिन् रूपोने कृते जाता अष्ट, एभिरष्टभिश्च - प्रागुक्तो ध्रुवराशिः-५७३२६ ६) गुण्यते, जाताश्चतुरशीत्यधिकानि पञ्चचत्वारिंशच्छतानि ६२] (४५८४) मुहूर्त्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य अष्टाशीत्यधिके द्वे द्वाषष्टि भागशते (२८८), एकस्य च द्वार्षाष्टभागस्य अष्टचत्वारिंशद् (४८) सप्तषष्टिभागाः (४५८४/२८८/१८) । तत एभ्यश्चत्वारिं ६२६७ शन्मुहूर्त्तशतानि पञ्चनवत्यधिकानि, एकस्य च मुहूर्तस्य विंशत्यधिकं शतं द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिंशदधिकानि त्रीणि शतानि सप्तषष्टिभागाः ४०९५ ३३०. २) पञ्चनक्षत्र - १२० पर्यायाणां शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चात् चत्वारि मुहूर्त्तशतानि एकोननवत्यधिकानि, एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रिषष्ट्यधिकं शतं द्वाष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिपञ्चाशत् सप्तषष्टि भागाः (४८९ १६३/५३) पुनरेतेभ्यो नवत्यधिकानि त्रीणि मुहूर्त्तशतानि, एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशति ६२ ६७ द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागाः (३९० अभि|६२/६७ : जित आरभ्य पुनर्वसु पर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चात् नवतिमुर्त्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य अष्ट त्रिंशदधिकं शतं द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुष्पञ्चाशद् सप्तषष्टिभागाः (९० १३८|५४) । ततोऽष्टत्रिंशदधिकशतद्वाषष्टि भागेभ्यश्चतुर्विंशत्यधिकशत द्वार्षाष्ट' ६२ ६७ भागे है मुहूर्त्तो लब्धौ तौ च पश्चात्स्थिते नवति रूपे मुहूर्त्तराशौ प्रक्षिप्येते, जाता द्विव मुहूर्त्ताः (९२), स्थिताः शेषा ये चतुर्दश, ते चतुर्दश द्वाषष्टिभागाः, तत आगताः - द्विनवतिर्मुहूर्त्ताः एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्दश द्वाषष्टि भागा, एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य चतुष्पञ्चाशत् सप्तषष्टि भागाः (९२, १४/५४)। तत एतद्गत मुहूर्त्तराशेः पञ्चसप्ततिः (७५) मुहूर्त्ताः पुष्यादिमधा पर्य ६२१६७ न्तानां नक्षत्राणां शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चात् सप्तदश मुहूर्त्ताः (१७), शेषा द्वाषष्टि भागाः सप्त Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२/६७ १६२६७ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे पष्टिभागाश्च ते एव १४५४), एतावता राशिना पूर्व फाल्गुनी न शुद्धयति, ततो ज्ञातव्यम् पूर्वफाल्गुनी नक्षत्रस्य सप्तदशमुहूर्ताः, चतुर्दश द्वापष्टिभागाः, चतुष्पञ्चाशत् सप्तपष्टिभागाः (१७१४५४) अतिक्रान्ताः, ततोऽस्य त्रिंशन्मुहर्तात्मकत्वात् पूर्वफाल्गुनी नक्षत्रस्य द्वादशसु मुहू ६२६७ “पु सप्तचत्वारिंशति द्वापष्टि भागेपु त्रयोदशसु सप्तपप्टिभागेपु (१२/२0१५-२) सूत्रोक्तेषु शेपेषु सत्सु चन्द्रः पञ्चमीश्राविणीमावृत्ति प्रवर्तयतीति सिद्धम् ॥५॥ ___'अथ सूर्यनक्षत्रविषयं प्रश्नोत्तरमाह-'तं संमयं च णं इत्यादि, 'तं समयं च णं तस्मिन् चन्द्रनक्षत्रयोगरूपे समये च खलु 'सरिए सूर्य 'केणं णक्खत्तेण' केन नक्षत्रेण युक्तः सन् पञ्चमी श्राविणीमावृत्ति प्रवर्त्तयति । भगवानाह -'ता पूसेण' इत्यादि, 'ता' तावत् 'पूसेण' पुष्येण सहगतः सूर्यः पञ्चमीमावृत्ति प्रवर्तयति'। 'पूसस्स' पुष्यस्य "तं चेच' तदेव प्रथमश्रावण्यावृत्ति प्रकरणोक्त मुहूर्त्तादिपरिमाणवदेव विज्ञेयम् , तथाहि-पुष्यस्य एकोनविंशति मुहूर्तेपु त्रिचत्वारिंशद्वापष्टिभागेपु त्रयस्त्रिंशच्चर्णिका भागेषु (१९।४३।३३) शेपेषु सूर्यः पञ्चमी श्रावणमासभाविनीमावृत्ति प्रवर्त्तयतीति भावः ।सूत्रम् ॥५॥ तदेवं प्रोक्ताश्चन्द्रनक्षत्रयोगविपयाः सूर्यनक्षत्रयोगविपयाश्च वाधिक्यः पञ्च आवृत्तयः, साम्प्रतं हैमन्तीरावृत्तीः प्रतिपादयन्नाह-'ता एएसिणं इत्यादि । मूलम्-ता एएसि णं पंचण्डं संबच्छराणं पढमं हेमंति आउहि चंदे केणं णक्खतेणं जोएइ ? ता हत्थेणं, हत्थस्स णं पंचमुहुत्ता, पण्णासं च वावहिभागा मुहुत्तस्स, वावद्विभागं च सत्तहिहा छित्ता सट्ठीचुणिया भागा' सेसा । तं समयं च णं सुरिए केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ता उत्तराहि आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं चरमसमए । ता एएसिणं पंचण्डं संबच्छराणं दोच्चं हेमंत आउटिं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ?, ता सयभिसयाणं दुन्नि मुहुत्ता, अट्ठावीसं च वावद्विभागा मुहुत्तस्स, वावद्विभागं च सत्तट्ठिहा छित्ता छत्तालीसं चुणिया भागा सेसा। तं समयं च णं सूरिए केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ता उत्तराहिं आसाढाहि, उत्तराणं आसाहाणं चरमसमए २॥ ता एएसिणं पंचण्डं संवच्छराणं तच्चं हेमंति आउहि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ता पूसेणं, पूसस्स एगृणवीसं मुहुत्ता तेतालीसं च वावहिभागा मुहुत्तरस, वावहिभागं च सत्तट्टिहा छित्ता तेत्तीसं चुपिणयाभागा सेसा तं समयं च णं रिए केणं णवखत्तेणं जोएइ ? ता उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं चरम समए ३। Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ww - चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीकाप्रा. १२ सू. ६ सूर्यचन्द्रयोः हेमन्तोमावृत्तिस्वरूपम् ५५७ ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं चउत्थि हेमंति आउटिं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ता मूलेणं, मूलस्स छ मुहुत्ता, अट्टायन्नं च वावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, वावहिभागं च सत्तट्टिहा छित्ता वीस चुणिया भागा सेसा । तं समयं च णं सरिए केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ता उत्तराहि असादाहिं उत्तराणं आसाढाणं चरमसमए ४ । ता एएसिणं पंचण्डं संवच्छराणं पंचमं हेमंतिं आउहि चंदे वेणं णवखत्तणं जोएइ ? कत्तियाहिं, कत्तियाणं अट्ठारसमुहुत्ता, सहिहा छित्ता छ चुणिया भागा सेसा । तं समयं च णं सरिए केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ता उत्तराहि आसाढाहिं उत्तराणं आसाढ़ाणं चरमसमए ॥ सूत्रम् ॥ ६ ॥ छाया-तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणा प्रथमां हैमन्तीम् आवृत्ति चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति १ तावत् हस्तेन, हस्तस्य खलु पञ्चमुहर्ताः पञ्चाशच्च द्वापष्टिभागा मुहत्तस्य, द्वापष्टि भागं च सप्तपष्टिधा छित्त्वा पष्टिः चूर्णिका भागाः शेषाः तस्मिन् समये च खलु सूर्य केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् उत्तराभिरापाढाभिः, उत्त राणामापाढानां-चरमसमये १ । तावत् एतेषां खल्लु पञ्चानां संवत्सराणां द्वितीयां है मन्तोम् आवृत्ति चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् शतभिपग्भिः, शतभिपजां द्वौ मुहुत्ता अष्टाविंशतिश्च द्वापष्टि भागा मुहर्तस्थ, द्वापटिभागं च सप्तपष्टिधा छित्त्वा पट् चत्वारिंशत् चूर्णिका भागाः शेपाः । तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् उत्तराभिरापाढाभिः, उत्तराणामापाढानां चरमसमये २ । तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां तृतीयां हेमन्तीम् आवृत्ति चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् पुण्येण, पुष्यस्य एकोनविंशतिमुहर्ताः त्रिचत्वारिंशच्च द्वापष्टि भागा मुहत्तस्थ, द्वाषष्टिभागं च सप्तपष्टिधा छित्त्वा त्रयस्त्रिंशत् चूर्णिका भागाः शेपाः । तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति ! तावत् उत्तराभिरापाढाभिः, उत्तराणामापाढानां चरमसमये ३ । तावत् पतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां चतुर्थी हेमन्तीमावृत्ति चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति १ तावत् मूलेन, भूलस्य पड्मुहर्ता, अष्ट पञ्चाशच्च । द्वापष्टि भागा मुहूर्तस्य, द्वापष्टिभाग च सप्तपष्टिधा छित्त्वा विरातिश्चूणिका भागाः शेपाः । तस्मिन् समये सूर्य: केन नक्षत्रेण योगं युनक्ति ? तावत् उत्तराभिरापाढाभिः, उत्तराणामापाढानां चरमसमये ४। तावत् एतेषां खलु पञ्चानां संवत्सराणां पञ्चमी हेमन्तीम् आवृत्ति चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनप्ति ? तावत् कृत्तिकाभिः, कृत्तिकाणाम् अष्टादशमुहूर्ताः, पट्त्रिंशच्च द्वा. पष्टिभागा मुहूर्तस्य, द्वापष्टिभाग च मुहर्तस्य सप्तष्टिधा छित्त्वा पट् चर्णिका भागाः शेपाः । तस्मिन् समये च खलु सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् उत्तराभिरापाढाभिः, उत्तराणामापाढानां चरमसमये । सूत्रम् ॥ ६ ॥ व्याख्या--'ता एएसि णं इति, 'ता तावत् 'एएसिणं' एतेषां खलु 'पंचण्हं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां चन्द्रादीनां मध्ये 'पढम' प्रथमां 'हेमंति' हैमन्ती शीतकालभाविनी माघमासभाविनीमित्यर्थः 'भाउहि आकृति 'चंदे' चन्द्रः 'केण णक्खत्तणं जोएई' केन नक्षत्रेण सह योग Page #586 --------------------------------------------------------------------------  Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १२ सू. ६ सूर्यचन्द्रयोः हेमन्तीमावृत्तिस्वरूपम् ५५९ अन्त्येन राशिना एककलक्षणेन गुणिता मध्यराशिः पञ्च तेन जाताः पञ्चैव, तेषां दशभिर्भागेडूते लभ्यते अर्द्ध पर्यायस्य, त्रिंशदधिकाष्टादशशत (१८३०) परिमितपरिपूर्णपर्यायस्याई भवति पञ्चदशोत्तर शतनवकम् (९१५), तत्र ये विंशतिः सप्तषष्टिभागाः पाश्चात्येऽयने पुष्यस्य गताः, शेषा ये स्थिताश्चतुश्चत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागास्ते साम्प्रतमस्माद् राशेः शोध्यन्ते, स्थितानि शेषाणि एकसप्तत्यधिकानि भष्टौशतानि (८७१) तेषां सप्तपष्टया भागो हियते लब्धास्त्रयोदश, पश्चान्न किमपि तिष्ठति । एभित्रयोदशभिश्चाश्लेषादीनि उत्तराषाढापर्यन्तानि नक्षत्राणि शोध्यन्ते तत आगतम्-अभिजिन्नक्षत्रस्य प्रथमसमये हैमन्ती प्रथमा अवृत्तिः प्रवर्तते । उत्तराषाढानक्षत्रस्य परिपूर्ण उपभोगो जातस्तत उक्तम्-'उत्तरापाढानक्षत्रस्य चरमसमये' इति । एवं सर्वा अपि हेमन्तकालसम्बन्धिनो माधमासमाविन्यः सर्वाः अपि आवृत्तयः सूर्यनक्षत्रमाश्रित्य उत्तराषाढानक्षत्रे परिणे भुक्ते सति अभिजिन्नक्षत्रस्य प्रथमसमये प्रवृत्ता भवन्तीति ज्ञातव्यम् । उक्तञ्च-~ "बाहिरओ पविसंतो, आइच्चो अभिइजोगमुवगम्म । सव्वा आउट्टीओ, करेइ सो माघमासम्मि" ॥१॥ छाया--बाह्यतः बाह्यमण्डलात्-अन्तः प्रविशन् आदित्यः अभिजिद् योगमुपगम्य । सर्वा आवृत्तीः करोति स माघमासे ।। इति अथ द्वितीय हैमन्त्यावृत्तिविषयकं सूत्रमाह-'ता एएसि णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां प्रसिद्धानां खल 'पंचण्डं संवच्छराणं' पञ्चानां सवत्सराणां मध्ये 'दोच्चं हेमंति' द्वितीयां हैमन्तीम्-हेमन्तर्तुव्यापिनी माघमासभाविनीम् 'आउट्टि' आवृत्ति 'चंदे' चन्द्रः 'केणं नक्खत्तण' केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतः सन् 'जोएइ' युनक्ति प्रवर्तयति । भगवानाह-'ता सयभिसयाहिं' इत्यादि 'ता' तावत् 'सयभिसयाहि शतभिपग्भिः शतभिपगूनक्षत्रेण युक्तः सन् द्वितीयां हैमन्तीमावृत्ति प्रवर्त्तयति किं प्रमाणे मुहर्तादिभिः शेषैः प्रवर्त्तयति ? इति प्रदर्शयति-'सयभिसयाणं' इत्यादि, 'सयभिसयाणं' शतभिषजा शतभिग्नक्षत्रस्य 'दुन्निमुहुत्ता' द्वौ मुहूतौ, अट्ठावोसं च बावट्टि भागामुहुत्तस्स' एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टाविंशति षष्टिभागाः 'वावद्विभागं च' द्वाषष्टिभागं च 'सत्तहिहा छित्ता' सप्तपष्टिधा छित्वा विभज्य तद्गताः 'छत्तालीसं' षट्चत्वारिंशत् 'चुण्णिया भागा' चुणिका भागाः सप्तपष्टिभागाः 'सेसा' शेषा अवशिष्टास्तिष्ठेयुस्तदा चन्द्रः द्वितीयां हैमन्तीमावृत्ति प्रवर्तयतीति । तदेव गणितेन स्पष्टयति-प्रागुपदर्शितक्रमापेक्षया द्वितीया माघमास भाविनी आवृत्तिश्चतुर्थी भवतीति चतुष्कोऽकोध्रियते, रूपोने कृते नातस्त्रिकः, अनेन प्राक्तनो ध्रुवराशिः (५७३।३६।६) गुण्यते, जातानि सप्तदश शतानि एकोनविंशत्यधिकानि मुहर्तानाम् , Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० चन्द्रप्राप्तिसूत्रे एकस्य च मुहूर्तस्याप्टोत्तरं शतापष्टिभागाः एकस्य च द्वापष्टिभागस्य अष्टादश सप्तपष्टिभागाः (१७१९०१)। तत एभ्यः अष्टात्रिंशदधिकानि पोडशशतानि मुहूर्तानाम् , एकस्य च मुहूर्तस्याप्टचत्वारिंबाद् द्वापाष्टभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वात्रिंशदधिकं शतं सप्तपष्टिभागानाम् ) योर्नक्षत्रपर्याययोः शोध्यन्ते स्थिताः पश्चात्-एकाशीतिर्मुहर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टपञ्चाशद् द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य विंशतिः सप्तपष्टिभागाः (८१३) । अस्मादाशेर्भूयोऽपि नव मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशति द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पढ्पष्टि सप्तपष्टिभागाः, (९२१६६) अभिजिनक्षत्रस्य शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चात् द्वासप्ततिर्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयस्त्रिंशद् द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकविंशतिः सप्तपष्टिभागाः (७ । पुनरेतस्मात् [९६७ त्रिंशन्मुहर्ता श्रवणस्य पुननिंगद् धनिष्ठायाः गोध्याः, अवतिष्ठन्ते पश्चात् द्वादश मुहूर्ताः एते द्वादश मुहूर्ता गतमिजो व्यतिक्रान्ताः नतः शतभिपग्नक्षत्रं चार्द्धनक्षत्रम् पञ्चदशमुहूर्तात्मकत्वात् , तत भागतम्-शतभिपग्नक्षत्रस्य द्वयोमहत्तयोः शेषयोः सतोः, तथा एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टाविंशति हापष्टिमागेपु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पट्चत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेपु (२२८४६) शेपेषु चन्द्रो द्वितीयां हेमन्तीमावृति प्रवर्त्तयतोति सिद्वम् । अथ सूर्यनक्षत्रयोगमाह-'तं समयं च णं' इत्यादि, 'तं समयं च णं' तस्मिन् समये च खलु 'मरिए' सूर्यः 'कणं नक्सत्तेणं जोएड' केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतो द्वितीया हेमन्तीमावृत्ति प्रवर्तयतोति प्रश्नः । भगवानाह'उत्तराहि साहार्हि' इत्याद्युत्तरम्, तथाहि-उत्तरापाढानक्षत्रेण, तस्योत्तरापाढानक्षत्रस्य चरम समये अभिजितः प्रथम समये, इति पूर्व प्रदगिंतमेव. सूर्यस्य सर्वत्राभिजितः प्रथम समय एव हमन्यावृत्तीनां प्रवकत्त्वात् । अथ तनीय हेमन्यावृत्तिविषयं मूत्रमाह-'ता एएसि ' इत्याटि, 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषां खलु 'पंचण्ई संवच्छगणं' पञ्चानां सवत्सराणां मध्ये 'तच्चं हेमंति' तृतीयां हेमन्ती माघमामभाविनीम् 'आउटिं' आवृत्तिं 'चंदें' चन्द्रः 'कणं णखत्तेण जोएई' केन नक्षत्रेण सह युक्तो मृत्वा युनक्ति ? प्रवर्त्तयति ? भगवानाह-'ता पूसेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा १२ सू. ६ सूर्यचन्द्रयाः हैमन्तोमावृत्तिस्वरूपम् ५६३.. 'पूसेणं' पुष्येण पुष्यनक्षत्रेण सह योगयुपागतः सन् तृतीयां हैमन्ती आवृत्तिं प्रवर्त्तयति । अस्य मुहूर्तादीनाह-'पूसस्स' इत्यादि, 'पूसस्स' पुण्यस्य पुष्यनक्षत्रस्य, 'एगूणवीसं मुहुत्ता' एकोनविंशतिर्मुहूर्ताः 'तालीसं च वावद्विभागा मुहत्तस्स' त्रिचत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागा एकस्य मुहूर्तस्य, 'वाद्विभागं च' द्वापष्टिभागं च 'सत्तहिहा छित्ता' सप्तषष्टिधा छित्वा विभज्य तद्गताः 'तेत्तीसं चुणिया भागा' त्रयस्त्रिंशत् चूर्णिकाभागाः सप्तषष्टिभागाः (१९-४३३३ ) 'सेसा' शेषा अवशिष्टास्तिष्ठन्ति तदा चन्द्रस्तृतीया हैमन्तीमावृत्ति प्रवर्तयति । तत्कथमिति प्रदर्श्यते-एषा तृतीयाऽऽवृत्तिः पूर्वप्रदर्शितक्रमापेक्षया षष्ठीभवति ततस्तस्याः स्थाने षट्कोऽकोधियते, स रूपोनः क्रियते जातः पञ्चकः, अनेन प्राक्तनो ध्रुवराशि' (५७३।३६) गुण्यते जातानि पञ्चपष्टयधिकानि भष्टाविंशति मुहूर्तशतानि, एकस्य च मुहूर्तस्य अशोत्यधिक शतं द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिंशत् सप्तपष्टिभागाः (२८६५१८०३० ) तत एभ्यः सप्त पञ्चाशदधिकानि चतुर्विंशति मुहूर्तशतानि, एकस्य मुहूर्तस्य च द्विसप्ततिषिष्टिभागाः एकस्य च द्वापष्टिभागस्याष्टानवत्यधिकं शतं सप्तपष्टि भागाः (२४५ ५६७ ९८) त्रयाणां ६२/६७ नक्षत्रपोयाणां शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चात् अष्टोत्तराणि चत्वारि मुहूर्तशतानि, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चोत्तरं शत द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत् सप्तपष्टिभागाः ३) तत एभ्यः नवनवत्यधिकानि त्रीणि मुहूर्तशतानि, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशति षिष्टिभागा, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागाः (३९९२३६६ ) अभिजित आरभ्य पुनर्वसु पर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चात् नवमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य अशीति षिष्टि भागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः अत्र द्वाषष्टया द्वाषष्टिभागैरेको मुहूत्तों लब्धः, तस्य मुहूर्तराशौ नवकरूपे प्रक्षेपणात् जाता दश मुहूर्ताः, स्थिताः पश्चाद् अष्टादशद्वाषष्टि भागाः (१०।१८।३४) एते पुष्यस्य मुहूर्ताः व्यतिक्रान्ताः, तत आगतम्-पुष्यस्य त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकत्वात्तस्य एकोनविंशतौ मुहर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तषष्टि भागेषु (१९।४३३३३) सूत्रोक्तेषु शेषेषु सत्सु चन्द्रस्तृतीयां हैमन्तीमावृत्ति प्रवर्तयतीति सिद्धम् । ७१ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ चन्द्रप्राप्तिसत्रे सूर्यनक्षत्रयोगमाह-~~'तं समयं च णं' इत्यादि, 'तं समयं च णं' तस्मिन् समये चन्द्रनक्षत्रयोगसमये च खल 'सरिए' सूर्यः 'केणं णक्खत्वण जोएई केन नक्षत्रेण सहगतो मृत्वा तृतीयां हेमन्तीमावृत्ति युनक्ति प्रवर्तयति ? भगवानाह-~-'उत्तराहि आसाढाहि उत्तराभिरापाढामिः उतरापाढानक्षत्रस्य चरमसमये अभिनितः प्रथमसमये तृतीयां हैमन्तीमावृत्ति प्रवर्तयति ३ । अथ चतुर्थ्यावृत्ति विषये पृच्छति-'ता एएसिणं' इत्यादि 'ता' तावत् एएसिण' एतेषां खलु 'पंचण्डं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये 'चउत्थि हेमंति आउटिं' चतुर्थी हैमन्तीमावृत्ति 'चंदे' चन्द्रः 'केणं णक्खत्तेणं जोएई' केन नक्षत्रेण सहयोग प्राप्तः सन् युनक्ति प्रवर्त्तयति ? भगवानाह-'ता भूलेणं' इत्यादि "ता' तावत् 'मूलेणं' मूलेन मूलनक्षत्रेण सहगतः प्रवर्त्तयति । अस्य मुहर्तादीन् प्रदर्शयति---'मूलस्स' इत्यादि 'मूलस्स' मूलस्य 'छ मुद्दत्ता' पडूमुहूर्ता 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य 'अट्ठावन्नं च वावद्विभागा' अष्टपञ्चाशच द्वापष्टिभागाः तेषु 'वावद्विभागं च' एकं द्वापष्टिभागं च 'सत्तहिहा छित्ता' सप्तपष्टिधा छित्त्वा विभज्य तद्गताः 'वीसं चुणिया भागा' विंशतिरणिकाभागाः(६८) सेसा' शेषा अवशिष्टास्तिप्टेयुस्तदा चन्द्रश्चतुर्थी हैमन्तीमावृत्ति प्रवनयतीति । तदेव गणितेन स्पष्टयति--- इयं चतुर्थी हेमन्ती मावृत्तिः पूर्वप्रदर्शितक्रमापेक्षया अष्टमीति तस्याः स्थानेऽष्टकोऽको ध्रियते स रूपोनः क्रियते जातः सप्तकः, अनेन स प्राक्तनो ध्रुवराशिः (५७३३३६।६) गुण्यते, जातानि एकादशोत्तराणि चत्वारिंशच्छतानि मुहूर्तानाम् , एकस्य च मुहूर्तस्य द्विपञ्चाशदधिके द्वेशते द्वापष्टिभागानाम् एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्विचत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागाः (१०११।२५४२) । तत एतेभ्यः पट्सप्तत्यधिकानि द्वात्रिंशच्छतानि, मुहूर्तानाम् , एकस्य च ६२६७ मुहूर्तस्य पण्णवतिपष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य अष्टपष्टयधिके द्वे शते सप्तपष्टिभागानाम् (३२७६१९६।२६७), एते मुहूर्तादिकाश्चतुर्णा नक्षत्रपर्यायाणां शोध्यन्ते स्थितानि पश्चात् पञ्चत्रिंशदधिकानि सप्तमुर्तगतानि, एकस्य च मुहर्तस्य द्विपञ्चाशदधिकं शतं द्वापष्टिभागानाम् , एकस्य च द्वापष्टिमागस्य पट्चत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागाः (७३५१५२४)। तत ६२/६७ एभ्यः पुनः एकोन सप्तत्यधिकानि पदमुहर्तशतानि, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशति पिष्टि भागाः एकस्य च द्राष्टिभागम्य षट् पष्टिः सप्तपष्टिभागाः (६६९२६६) अभिजि ६।६७ ६४६७ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१२ सू.६ सूर्यचन्द्रयोः हेमन्तीमावृत्तिस्वरूपम् ५६५ दादि विशाखापर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चात षट्पष्टिर्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशत्यधिकशतसंख्यका द्वाषष्टिभागाः एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागाः (६६।१२७४७), एतद्गत सप्तविंशत्यधिकशत द्वाषष्टिभागेभ्यः (१२७) चतुर्विशत्यधिकशतद्वाषष्टिभागैः (१२४) द्वौ मुहूर्तो लब्धौ तौ पूर्वस्थितमुहूर्तराशौ प्रक्षिप्येते जाता अष्टपप्टिमुहूर्ताः शेषास्तिष्ठन्ति त्रयो द्वापष्टिभागाः, ततो जातोऽयं राशिः अष्टषष्टि मुहूर्ताः त्रयो द्वापष्टिभागाः, सप्तचत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागाः (६८।३।४७)। इत्येवं रूपः । ततोस्माद् राशेः पञ्चचत्वारिंशन्मुहर्ताः (४५) अनुराधाज्येष्ठानक्षत्रयोः शोध्यन्ते, शोधितेषु तेषु स्थिताः पश्चात् त्रयोविंशतिमुईदिकाः (२३।३।४७)। मूलनक्षत्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तेभ्यो व्यतिक्रान्ताः, तत आगतम्-मूलनक्षत्रस्य घट्सु मुहूर्तेषु अष्टपञ्चाशति द्वापष्टिभागेषु विंशतौ सप्तपष्टिभागेपु शेपेषु (६।५८।२०) चन्द्रश्चतुर्थी हैमन्तीमावृत्तिं प्रवर्त्तयतीति सूत्रोक्तं सिद्धम् ॥ सूर्यनक्षत्रयोगमाह-'तं समयं च णं' इत्यादि स्पष्टमेव उत्तरापाढा नक्षत्रस्य चरम समये, अभिजिन्नक्षत्रस्य प्रथमसमये चतुर्थी हैमन्तीमावृत्ति सूर्यः प्रवर्त्तयतीति भावः ४ । अथ पञ्चमी हैमन्तीमावृत्तिमाह- 'ता एएसिणं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां प्रसिद्धानां खल 'पंचण्डं संवच्छराणं' पञ्चाना चन्द्रादिसंवत्सराणां मध्ये 'पंचमि हेमंत पञ्चमी हैमन्ती माघमास भाविनीं 'आउहि आवृत्ति 'चंदे' चन्द्रः 'केणं णक्खत्तेणं' केत नक्षत्रेण सह योगमुपागतः सन् 'जोएइ' युनक्ति प्रवर्त्तयति ? भगवानाह--'कत्तियाहिं' कृत्तिकाभिः कृत्तिकानक्षत्रेण । कृत्तिकानां कतिषु मुहूर्तादिषु शेपेपु युनक्ति ? इत्यत्राह- 'कत्तियाणं' इत्यादि 'कत्तियाणं' कृत्तिकानां कृत्तिकानक्षत्रस्य 'अट्ठारस मुहुत्ता' अष्टादश मुहूर्ताः, 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य 'छत्तीसं च वावट्टिभागा' पत्रिंशच्च द्वापष्टिभागाः, 'वावहिभागं च' एकं द्वापष्टि भागं च 'सत्तट्टिहा छित्ता' सप्तपष्टिधा छित्त्वा विभज्य सप्तपष्टि भागीकृत्य तद्गताः 'छ चुण्णियाभागा' षट् चूर्णिकाभागाः सप्तपष्टिभागाः ( १८१३६ ६ ) 'सेसा' शेषाः त्रिंशन्मुहूर्तेभ्यः अवशिष्टास्तिष्ठेयुस्तदा चन्द्रो हैमन्तीं माघमासभाविनीमावृत्ति प्रवर्त्तयतीति भावः । तदेव प्रदर्शयति-पञ्चमी हैमन्त्यावृत्तिश्च प्रागुक्तक्रमापेक्षया दशमोन्यत्र दशकोऽको ध्रियते, स रूपोनः क्रियते जातो नवकः, तेन प्राक्तनो ध्रवराशिः (५७३।३६६) गुण्यते जातानि सप्त पञ्चाशदधिकानि एकपञ्चाशन्मुहूर्त्तशतानि एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्यधिकानि त्रीणि द्वाषष्टिभागशतानि एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुष्पञ्चाशत् सप्तषष्टिभागाः (५१५७३२४५४) तत एभ्यः चतुर्दशाधिकानि एकोन पञ्चा Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ६२६७ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे शन्मुहूर्तगतानि, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुश्चत्वारिंशदधिकशतसंख्यका द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पण्णवत्यधिकानि त्रीणि सप्तपष्टिभागशतानि (४९१४१४४३९६ ) षण्णां नक्षत्रपर्यायाणां शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चात् त्रिचत्वारिंशदधिक द्विशतसंख्यका मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुःसप्तत्यधिकशतसख्यका द्वापष्टिभागाः एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पष्टिः सप्तपष्टिभागाः ( २४३१७४६ ) तत एतेभ्यः एकोनपण्टयधिक मुहूर्त्तशतम् एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विशति पिप्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पट्पष्टिः सप्तपष्टिभागाः (१५९/२४६६ ) अभिजित आरभ्योत्तरभाद्रपदापर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यन्ते स्थिताः ६२६७ पश्चात् चतुरशीतिर्मुहर्ताः एकस्य च मुहूर्तस्य ‘एकोनपञ्चाशदधिकशतसंख्यका ६ापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टि भागस्य एकपष्टिः सप्तपष्टिभागाः ( ८४१४९६१ ) तत एतद्गतद्वाषष्टिभागेभ्यः (१४९) चतुर्विशत्यधिकेन शतेन द्वौ मुहूर्तों लब्धौ, तौ च पूर्वस्थितमुहूर्तराशौ प्रक्षिप्यते जाता पडशीतिर्मुहर्ताः स्थिताः पश्चात् पञ्चविंशति पिष्टिभागा, तथाहि पडशीतिमुहर्ताः पञ्चविंशतिपष्टिभागाः, एकपष्टिः सप्तपष्टिभागाः (८६१) तत एभ्यः रेवत्यास्त्रिंशन्मुहूर्ताः (३०) अश्विन्यास्त्रिंशन्मुहर्ताः (३०) भरण्याः पञ्चदशमुहर्ता (१५), एवं पञ्च सप्ततिर्मुहर्ता (७५) रेवत्यश्विनी भरणोनां शोथ्यन्ते स्थिताः पश्चादेकादश मुहर्ताः शेपास्ते एव तथाहि---एकादशमुहूर्ताः, पञ्चविंशति पिष्टिभागाः, एकपष्टिः सप्तपष्टिभागाः (१११२५६१) एते मुहर्तादिकाः कृत्तिका नक्षत्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तेभ्योऽतिक्रान्ताः तत आगतम्-कृत्तिका ६२०६७ ६२.६७ ६२/६७ नक्षत्रस्याष्टादशमु मुहर्तपु, पत्रिंशति पिष्टि भागेपु पट्सु सप्तपष्ठि भागेपु (१८/२६६ ) ६२६७ शेपेषु चन्द्र. पञ्चमी हेमन्तीमावृत्ति प्रवर्त्तयतीति सूत्रोक्तं सिद्धम् ५ । सूर्यनक्षत्रयोगमाह-- 'तं समयं च णं' इत्यादि पूर्व प्रदर्शितमेव, तथाहि-चन्द्रनक्षत्रयोगसमये सूर्य उत्तरापाढानक्षत्रस्य चरमसमये अभिजित प्रथमसमये पञ्चमी हैमन्तीमावृत्ति प्रवर्तयतीति भावः । तदेवमुक्ताश्चन्द्रसूर्यनक्षत्रयोगमधिकृत्य सूर्यस्य दशाप्यावृत्तयः, साम्प्रतं सूर्यावृतिप्रसङ्गाच्चन्द्रस्याप्यावृत्तयो वक्तव्याः, ताः कति ? इति पूर्व करणगाथायामुक्तम्-"चंदस्स य आउट्टी सयं Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा १२ सू.६. सूयचन्द्रयोः हैममन्तीमावृत्ति स्वरूपम् ५६७ च चोत्तीसयं चेव" चन्द्रस्य चावृत्तयः गतं च चतुस्निगकं चैवेतिच्छाया, चन्द्रस्यावृत्तय एकस्मिन् युगे चतुस्त्रिंशदधिकशत (१३४) सख्यका भवन्ति । तत्र यस्मिन्नेव नक्षत्रे वर्तमानः सूर्यो दक्षिणा उत्तरा वा आवृत्तिः करोति तस्मिन्नेव नक्षत्रे वर्तमानश्चन्द्रोऽपि दक्षिणा उत्तराश्चावृत्तीः करोति, ततो या उत्तराभिमुखा आवृत्तयो युगे चन्द्रस्य दृष्टास्ताः सर्वा अपि नियतमभिजिता नक्षत्रेण सह योगे द्रष्टव्याः, याश्च दक्षिणाभिमुखा आवृत्तयस्ताः सर्वाः पुण्यक्षत्रेण सहयोगे द्रष्टव्याः । उक्तञ्च-- "चंदस्स वि नायव्या, आउट्ठीओ जुगम्मि ज़ा दिहा। ' अभिएणं पुस्सेण य, नियमं नक्खत्त सेसे णं" ॥१॥ छायाः-चन्द्रस्यापि ज्ञातव्याः, आवृत्तयो युगे या दृष्टाः । अभिजिता पुष्येण च नियमं नक्षत्रशेषेण ॥१॥ इति ।। अत्र 'नक्खत्तसेसेणं' इति नक्षत्रार्द्धमासेनेति, शेपं सुगमत्वान्न व्याख्यायते । तत्र यदुक्तं पूर्व चन्द्रस्य उत्तराभिमुखाः सर्वा अप्यावृत्तयोऽभिजिन्नक्षत्रयोगे भवन्तीति पूर्व ता उत्तराभिमुखा आवृत्तयोऽत्र भाव्यन्ते-यदि चन्द्रस्य चतुस्त्रिंशदधिकेनायनशतेन सप्तपष्टिनक्षत्र पर्याया लभ्यन्ते तदा प्रथमेऽयने कि लभ्यते ? राशित्रयस्थापना-( १३४१६७।१ ) अत्रापि पूर्वोतैव रीतिः, यथा अन्त्येन राशिना मध्यराशि गुणयित्वा आयेन राशिना भागो हियते, एषा त्रैराशिक गणितरीतिः, ततोऽन्त्यराशिना एकेन गुणितो मध्यराशिः सप्तपष्टि रूपस्तावानेव जातः सप्तपष्ठिः (६७) अस्याः सप्तपप्टे रायेन चतुस्त्रिंशदधिकगतरूपेण राशिना भागो हियते, लब्धं पर्यायस्य एकमर्द्धम् । तस्मिंश्च पर्यायाः पञ्चदशोत्तराणि नवशतानि (९१५) सप्तषष्टि भागानाम् परिपूर्णनक्षत्रपर्यायस्य त्रिंशदधिकाष्टादशशत (१८३०) सप्तपष्ठि भागात्मकत्वात् , तत्र पुष्यनक्षत्रस्य त्रयोविंशतो (२३)सप्तषष्टिभागेपु मुक्तेपु सत्सु चन्द्रो दक्षिणायनं कृतवान् ततः शेषाश्चतु श्चत्वारिंशत् सप्तषष्टि भागाः (४४) स्थितास्ते अनन्तरोदितराशेः पञ्चदशोत्तरे नव शत (९१५) रूपान् शोध्यन्ते स्थितानि शेषाणि एकसप्तत्यधिकानि अष्टौ शतानि (८७१) एषां सप्तषष्टया भागो हरणीयः । इह कानिचिनक्षत्राणि अर्द्ध क्षेत्राणि (पञ्चदश मुहूर्तात्मकानि) तानि अर्ध क्षेत्रात्म कत्वेन सप्तपष्टे रट्टैकृते सार्द्धत्रयस्त्रिंशत्सप्तपष्टिभागप्रमाणानि (३३॥), कानिचित् समक्षेत्राणि ( परिपूर्ण त्रिंशन्मुहूर्तात्मकानि), तानि परिपूर्णक्षेत्रात्मकत्वेन परिपूर्णसप्तषष्टिभागप्रमाणानि (६७) कानिचिच्च दर्धक्षेत्राणि (पञ्चचत्वारिगन्मुहूर्तात्मकानि ) तानि परिपूर्णमेकं (६७) द्वितीयं चाई (३३) मिति सार्दू कक्षेत्रात्मकत्वेन अद्वैभागाधिकशतसंख्यक सप्तपष्टिभागप्रमाणानि (१००) । गात्रं (८७१) त्वधिकृत्य सप्तषष्टया शुद्धयन्तीति सप्तपष्टयाऽत्र भागहरणं कर्तव्यम्, सप्तषष्टया भागे हुते लब्धास्त्रयोदश, शेषं नैव किञ्चिदवतिष्ठते. तत उपरितनो राशि Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ .. चन्द्रप्रचप्तिसूत्रे निर्लेपतः शुद्धः । तैश्च त्रयोदश भिरश्लेपात आरभ्य उत्तरापाढा पर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि तत आगतम् चन्द्र उत्तरापाढानक्षत्रं परिणमुपभुज्य अभिजिन्नक्षत्रस्य प्रथमसमये उत्तरायणं करोति । एवं सर्वाण्यपि चन्द्रस्योत्तरायणानि वेदितव्यानि । उक्तञ्च'पण्णरसे उ मुहुत्ते, जोइत्ता उत्तरा आसाढाओ । TE: एक्कं च अहोरत्तं, पविसइ अभंतरे चंदो ॥१॥ छायाः-पञ्चदश तु मुहूर्तान् युक्त्वा उत्तराषाढातः । एकं चाहोरात्रं प्रविशति अभ्यन्तरे चन्द्रः ॥ इति । एकाहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्ताः, तदुपरि पञ्चदशेति जात. पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्ताः, उत्तरापाढा नक्षत्रं पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तात्मक मिति परिपूर्ण युक्तं भवतीति भावः । साम्प्रतं चन्द्रस्य दक्षिणा आवृत्तयः प्रदश्यन्ते, तथाहि यदि चतुनिशदधिकेनायनशतेन (१३४) सप्तपष्टिश्चन्द्रस्य पर्याया लभ्यन्ते तत एकेनायनेन किं लभ्यते ? इति त्रैराशिकं क्रियते । राशित्रयस्थापना यथा-१३४।६७।१। मथापि पूर्वोक्तक्रमेण अन्त्येन एककेन मध्यो राशिः सप्तपष्टिरूपो गुण्यते जातस्तावानेव सप्तपष्टिरूप. । तस्यायेन राशिना भागहरणं कर्त्तव्यम् हते च भागे लब्धं पूर्ववदेवार्द्ध मेकपर्यायस्य, तच्चाई पञ्चदशोत्तर नवशतसप्तपष्टिभागरूपं भवति (९१५) अस्मात् अभिजित्सम्बन्धिन एकविंशतिः सप्तपष्टि भागाः शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चात् चतुर्नवत्यधिकानि अष्टौ शतानि (८९४) एपां सप्तपष्टया भागे हूते लब्धास्त्रयोदश, अवशिष्टाः स्थिताः पश्चात् त्रयोविंशतिः (२३) सप्तपष्टिभागा एकस्याहोरात्रस्य, ततो मुहूर्त भागकरणार्थ त्रयोविशतिः त्रिंशता गुण्यते, गुणिते, च जायन्ते नवत्यधिकानि पट् शतानि (६९०) एपां सप्तपष्टया भागो हियते लब्धा दश मुहूर्ताः, विशतिश्च सप्तपष्टि भागाः शेषत्वेन स्थिताः (१०२२) तत आगतम्-पुनर्वसु नक्षत्रं परिपूर्णमुपभुज्य चन्द्रः पुप्यस्य दशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहर्त्तस्य विंशतौ सप्तपष्टि भागेषु (१०२०) भुक्तेषु तदनन्तरं सर्वाभ्यन्तरमण्डला द्वहिनिष्क्रामति । एवमेव सर्वाण्यपि दक्षिणायनानि विचारणीयानि | उक्तञ्च "दसय मुहुत्ते सगळे मुहुत्तभागे य वोसई चेव । पुस्स विसयमभिगओ, पहिया अभिनिवखमइ चंदो ॥१॥ छाया-दश च मुहर्त्तान् सकलान (परिपूर्णान् ) मुहुर्तभागाश्च विंशति चैव । पुप्यविषयान अभिगतः (प्राप्त.) सन् बहिरमिनिाक्रमति चन्द्रः ॥ १ ॥ अर्थस्तु स्पष्ट एव । मू. ६ ॥ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिप्रकाटोका प्रा.१२ सू. ७ छनातिच्छत्रयोगे चन्द्रयोगनिरूपणम् ५६९ पूर्व नक्षत्रयोगमाश्रित्य सूर्यचन्द्रयो।वृत्तयः प्रोक्ताः, साम्प्रतं योगानां दश नामानि प्ररूप्य तन्मध्यात् छत्रातिछत्रं योग कस्मिन् देशे चन्द्रो युनक्तीति प्रदर्शयति 'तत्थ खलु' इत्यादि । - मूलम्-तत्थ खलु इमे दसविहे जोए पण्णते, तं जहा-सभाणुजाए १, वेणुयागुजाए २, मंचे ३, मंचाइमंचे ४, छेत्त ५, छत्ताइच्छत्ते ६, जुयणद्धे, ७, घणसंमद्दे ८, पीणिए ९, मंड्यषुए णामं दसमे १० । एएसिणं भंते पंचण्हं संवच्छराणं छत्ताइछत्तं जोगं चंदे कंसि देसंसि जोएइ ?, ता जंबुद्दीवस्स दीवस्स पाईण पडिणीयाययाए उदीणदाहिणाययाए जीवाए मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छित्ता, दाहिणपुरथिमिल्लंसि चउम्भागमंडलं सत्तावीसं भागे उवाइणा वित्ता अट्ठावीसइमं भागं वीप्तहा छित्ता अट्ठारसभागे उवाइणा वित्ता तीहि भागेहिं दोहिं कलाहिं दाहिणपुरथिमिल्लं चउभागमंडलं अपसंपत्ते, एत्थ ण से चंदे छत्ताइछत्तं जोयं जोएइ, तं जहा उप्पिचंदो मज्ज्ञे णक्खत्तं हेटा आइच्चो । तं समयं च णं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ता चित्ताए चित्ताए चरम समये ॥१०॥ चंदयन्नत्तीए वारसमं पाहुडं समत्तं ॥ १२ ॥ - छाया-तत्र खलु अयं दशविधा योगःप्रशप्तः, तद्यथा-वृषभानुयोगः १,वेणुकानुयोगः २,मञ्चः ३, मञ्चातिमञ्चः ४, छत्र ५, छत्रातिछत्रम् ६, युगनद्धः ७, धनसंमदः ८, प्रीणि त: ९, माण्डूकप्लुतः, नाम दशमः १० । एतेषां खलु भदन्त । पञ्चानां संवत्सराणां छत्रातिच्छत्र योगं चन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्ति १ तावत् जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य प्राचीनतिच्यायतया उदीचि दक्षिणायतया जीवया मण्डलं चतुर्वि शेन शतेन छित्त्वा दक्षिणपौरस्त्ये चतुर्भागमण्डले सप्तविंशति भागान् उपादाय अष्टाविंशतितम भागविंशतिधा छित्त्वा अपादशभागान् उपादाय त्रिभिर्भागः द्वाभ्यां कलाभ्यां दक्षिणपौरस्त्यं चतुर्भागमण्डलं असंप्राप्तः, अत्र खलु स चन्द्रः छत्रातिछत्रं योग युनक्ति, तद्यथा-उपरि चन्द्रः, मध्ये नक्षत्रं, अधः आदित्यः । तस्मिन् -समये च खलु चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति ? तावत् चित्रया, चित्रायाश्चरमसमये । सू० ॥ ७॥ ॥ चन्द्रप्रज्ञप्त्यां द्वादश प्रोभृतं समाप्तम् ॥ १२॥ - व्याख्या-'तत्थ खलु' इति 'तत्थ' तत्र युगे खल्लु 'इमे' अयं वक्ष्यमाणः 'दसविहे जोए' पण्णत्ते' ' दशविधो योगः प्रज्ञप्तः 'तं जहा' तद्यथा, तानेव दर्शयति-'वसभाणुजाए' इत्यादि, 'वसभाणुजाए' वृषभानुजातः, अत्र अणुजातशब्दः सदृशार्थकः, तेन वृषभानुजातः वृपभसदृशः, यस्मिन् योगे चन्द्रसूर्यनक्षत्राणि वृषभाकारेण तिष्ठन्ति स वृषभानुजातो योगः कथ्यते ? एवं सर्वत्रापि विज्ञेयम् । 'वेणुयाणुजाए' वेणुकानुजातः वेणु वंशस्तत्सदृशस्तदाकारी यो योगः स वेणुकानुजातः कथ्यते २ । 'मंचे' मञ्चः लोकप्रसिद्धः यो भूमिभागादुपरि निर्माप्यते सः, मञ्चसदृशो योगो मञ्च इति कथ्यते २,। मंचाइमंचे' मञ्चातिमञ्चः-मञ्चात् लोकप्रसिद्धात् एकस्मात्' मञ्चात् द्वित्रादि भूमिकात्वेनातिशायी मञ्चो मञ्चातिमञ्चः, तत्सदृशो. योगोऽपि मञ्चातिमञ्चयोगः कथ्यते । ४ । Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे. 'छत्ते' छत्रं लोकप्रसिद्धं तदाकारो योगोऽपि छत्रशब्देन कथ्यते ५ । 'छत्ताइछत्ते ' छत्रातिछत्रम् - छत्रात् एकस्माच्छत्रात् सामान्यरूपात् उपरि अन्यान्य छत्रभावतोऽतिशायिछत्रं छत्रातिच्छत्रं, तदाकारो योगोऽपि छत्रातिच्छत्रयोगः कथ्यते ६ । ' जुयणद्धे' युगनद्धः, यो युगमिव नद्वः बद्धः, यथा वृषभस्कन्धयोरारोपितं युगं वर्त्तते तत्सदृशो योगोऽपि युगनद्ध योगः कथ्यते ७ । 'घणसंमद्दे' घनसमर्दः घनत्वेन समर्दः परस्परं संमिलितः, यस्मिन् योगे चन्द्रः सूर्यो वा ग्रहस्य नक्षत्रस्य वा मध्ये गच्छति स घनसंमर्दयोगः कथ्यते ८ । 'पीणिए ' प्रोणितः पुष्टः उपचयं नीतः यः प्रथमं चन्द्रसूर्ययोरेकतरस्य ग्रहेण नक्षत्रेण एकतरेण उपस्थितः, तदनन्तरं द्वितीयेन चन्द्रेण सूर्येण ग्रहेण नक्षत्रेण वा सहोपचयं नीतः स प्रीणितयोगः कथ्यते ९ । 'महूयपुर' माण्डूकप्लुतो नाम दशमः, यो मण्डूकप्लुत्या मण्डूक कूर्दनाकारेण यो जातो योगः स मण्डूकप्लुतयोगः कथ्यते, अयं च केवलं ग्रहेणैव सह जायते, अन्यस्य मण्डूकप्लुतिगमनासभवात् । उक्तंचात्रविषये—''चन्द्रसूर्यनक्षत्राणि प्रतिनियतगतानि, ग्रहास्त्वनियतगतयः" इति १० । युगे च छत्रातिच्छत्रयोगवर्जा नवापि योगाः प्रायो बहुशो बहुषु च देशेषु भवन्ति, किन्त्वेष छत्रातिच्छत्रयोगः कदाचित् कस्मिश्चिदेव देशे भवति ततस्तद्विषयं सूत्रमाह - ' ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसि णं' एतेषां प्रसिद्धानां स्खल 'भंते' हे भदन्त ! 'पंच संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये - 'छत्ताइछत्तं जोगं' छत्रातिच्छत्रं योगं 'चंदे' चन्द्रः 'कंसि देसंसि ' कस्मिन् देशे 'जोएइ' युनक्ति - छत्रातिच्छत्रयोगेन सह चन्द्रः कस्मिन् देशे स्थितः सन् योगं करोति ? भगवानाह - 'ता' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जंबुद्दीचस्स दीवस्स' जम्बूद्वीपस्य होपस्योपरि 'पाईण पडीणाययाए' प्राची प्रतीच्यायतया पूर्व पश्चिम विस्तृतया, 'उदीण दाहिणाययाए' उदीचीदक्षिणायतया उत्तरदक्षिणविस्तृतया च, चशब्दोऽत्रानुक्तोऽपि द्रष्टव्यः 'जीवाए' जीवया, जीवा प्रत्यञ्चा तत्सदृशत्वाज्जीवया दवरिकया 'मंडल' मण्डलं 'चउव्वीसेणं सरणं' चतुर्विशेन चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन (१२४) 'छित्ता' हित्वा विभज्य मण्डलस्य चतुर्विंशत्यधिकशतभागान् कृत्वा, इयमत्र भावना - एकया दवरिकया बुद्ध्या कल्पितया पूर्वापरायतया एकया च दक्षिणोत्तरायतया मण्डलं समकालं विभज्यते, विभक्तं च सत् चतुर्भागतया जातम्, तद्यथा - एको भाग उत्तरपूर्वस्याम्, एको भागो दक्षिणपूर्वस्याम् एको भागो दक्षिणापरस्याम् एको भागः पश्चिमोत्तरस्यामिति चतुवि - शत्यधिकगतराशेचतुर्भिर्भक्ते एको भाग एकत्रिंशद्भागप्रमाणो जायते, तत एकत्रिंशत्प्रमाणान् चतुरो भागान् कृत्वा 'दाहिणपुरथिमिल्लंसि' दक्षिणपौरस्त्ये- दक्षिणपूर्वे दक्षिणपूर्व सम्बन्धिनि 'चउभाग मंडलसि' चतुर्भागमण्डले मण्डलस्यैकस्मिन् एकत्रिंशद्भागरूपे एकत्रिंशद्भागेभ्य इत्यर्थः, 'सत्तावीसं भागे' सप्तगिति भागान् 'उवाइणावित्ता' उपादाय गृहीत्वा आक्रम्येत्यर्थः तदतनं 'अट्ठावीसइमं भागं' अष्टाविंशतितमं भागं 'वीसहा छित्ता' विंशतिधा छित्त्वा अष्टाविंशति ५७० Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा.२ सू. ७. छत्रातिच्छत्रयोगे चन्द्रयोगनिरूपणम् १६९ तमस्य भागस्य विशतिभागान् कृत्वा तन्मध्यात् 'अट्ठारसभागे' अष्टादशभागान् 'उवाइणावित्ता' उपादाय आक्रम्य 'तिहिं भगेहि' एकत्रिंशद्भागस्य सप्तविंशतिभागाक्रमणानन्तरं शेषीभूतैत्रिभिरेकत्रिंशद्भागसम्बन्धिभिर्भागः, 'दोहिं कलाहि' द्वाभ्यां च कलाभ्याम् , एकस्य एकत्रिंशत्सम्बन्धिनो भागस्य सम्बन्धिभ्यां अष्टाविंशतितमभागस्य विशतिधा विभक्तस्याष्टादशभागग्रहणा नन्तरं शेपीभूताभ्यां कलारूपाभ्यां भागाभ्यां 'दाहिणपुरथिमिल्लं' दक्षिणपौरस्त्यं दक्षिण पश्चिमस्थितं 'चउभागमंडलं' चतुर्भागमण्डलं चतुर्वि शतिशतस्य चतुर्थभागरूपं मण्डलम् 'असंपत्ते असप्राप्तः दक्षिणपश्चिमस्थितं मण्डलचतुर्भागमसंप्राप्यैव, 'एत्थ णं' अत्र अस्मिन् देशे खलु 'चंदे' चन्द्रः 'छत्ताइछत्तं जोयं' छत्रातिच्छत्रं योगं 'जोएइ' युनक्ति छत्रातिच्छत्रयोगं करोति । एनमेव प्रदर्शयति-तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा 'उप्पि चंदो' उपरि चन्द्रः 'मज्झे णक्खत्ते' मध्ये नक्षत्रम् 'हेटा आइच्चे' अध आदित्यः । इत्येवं छत्रातिच्छत्राकारको योगस्तदा भवति । इह मध्ये नक्षत्रमित्युक्तत्वेन नक्षत्रस्य विशेष प्रतिपत्त्यर्थं प्रश्न निर्वचनसूत्रमाह-'तं समयं च गं' इत्यादि, 'तं समयं च णं' तस्मिन् छत्रातिच्छत्रयोगसमये च खलु 'चंदे' चन्द्रः 'केणं णक्खत्तेणं' केन किं नामकेन मध्यस्थितेन नक्षत्रेण 'जोएइ' युनक्ति योगं करोति ? भगवानाह- 'चित्ताए' चित्रया चित्रानक्षत्रेण, चित्राया एकतारकत्वादेकवचनम् तत्रापि विशेषमाह'चित्ताए चरमसमए' चित्रायाः चित्रानक्षत्रस्य चरमसमये अन्तिमसमये चित्रानक्षत्रस्योपभोगान्तिम काले चन्द्रश्चित्रानक्षत्रेण सह योगं युनक्तीति भावः । सू० ॥७॥ इति जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलाल व्रति विरचितायां चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकायां व्याख्यायां द्वादशं प्राभृतं समाप्तम् ॥ १२ ॥ ७२ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ त्रयोदशं प्राभृतम् ॥ 9 तदेवमुक्तं द्वादशं प्राभृतम् । तत्र पञ्चसंवत्सराणाम् तेषां मासदिनमुहूर्त्तानाम्, युगगतचन्द्रसूर्यर्त्तनाम् सूर्यनक्षत्रयोगसंमेलनस्य, वृषभानुजातादि दशविधयोगानाम्, तद्गतछत्रातिच्छत्रयोगस्य च विवरणं कृतम्, साम्प्रतं त्रयोदगे प्रामृते 'कहूं चंदमसो बुड्ढी' इति पूर्वप्रतिज्ञातं चन्द्रमसो वृद्ध्यपवृद्धिप्रकरणं प्रस्तूयते 'ता कहते चंदमसो वड्ढो बड्डी' इत्यादि । मूलम् - ता कहं ते चंदमसो वढोवढी आहिए ति वएज्जा, ता अट्ठपंचासीयाई मुहुत्तसयाई, तीसंच चावद्विभागे मुहुत्तस्स जाव आहिएति वएज्जा ता दोसिणा पक्खओ अंधकारपक्खमयमाणे चंदे चत्तारि बायालाई मुहुत्तसयाई छत्तालीसं च वावद्विभागे मुहुत्तस्य जाव, जाउं चंदे रज्जड तं जहा- पढमाए पढमं भागं, विइयाए विडयं भागंजाव पण्णरसीए पण्णरसमं भागं, चरिमसमए चंदे रत्ते भवइ अवसेसे समए चंदे रत्तेयविरत्तेय भवड, उण्णं अमावासा, एत्थ णं पढमे पव्वे अमावासे । ता अंधयारपक्खाओणं दोसिणापक्खं अयमाणे चंदे चत्तारि वायालाई मुहुत्तसयाई छत्तालीसं च वावद्विमागे मुहुत्तस्स जाव, जाई चंढे विरज्जइ, तं जहा - पढमाए पढमं भागं, विश्याए fast भागं जाव पण्णरसीए पण्णरसमं भागं, चरिमे समए चंढे विरत्ते भवइ, अवसेसे समए चंदे उत्ते य विरते य भवइ इयण्णं पुण्णमासिणी, एत्थ णं दोच्चे पव्वे पुण्णमासिणी ॥ सूत्र ॥ १ ॥ छाया - नावत् कथं ते चन्द्रमसो वृद्ध्यपवृद्धी आख्याते ? इति वदेत् तावत् अष्ट पञ्चाशीतानि मुहर्नशतानि त्रिंशच्च द्वापप्रिभागान् मुहर्त्तस्य यावत् आख्याते इति वदेत् । तावत् ज्योत्स्ना पक्षात् अन्धकारपक्षमयन् चन्द्रः चत्वारि द्विचत्वारिंशतानि पट् चत्वारिशतं च द्वापष्टिभागान् मुहर्त्तस्य यावत् यानि चन्द्रो रज्यते, तद्यथा - प्रथमायां प्रथमं भागम्, द्वितीयायां द्वितीयं भागम्, यावत् पञ्चदश्यां पञ्चदशं भागम्, चरमसमये चन्द्रः रक्तो भवति अवसेसे समये चन्द्रः रक्तश्च विरक्तश्च भवति, इयं खलु अमावास्या अत्र तु प्रथमं पर्व अमावास्या । ततः अन्धकारपक्षात् खलु ज्योत्स्ना पक्षमयन् चन्द्र चत्वारि हिचत्वारिंशानि मुहर्त्तशतानि, पट् चत्वारिंशतं च द्वापष्टिभागान् मुहस्य यावत्, यानि चन्द्रः विरज्यते, तद्यथा - प्रथमायां प्रथमं भागं द्वितीयायां द्वितीयं भागम्, यावत् पञ्चदश्यां पञ्चदर्श भागम्, चरमे समये चन्द्रः विरक्तो भवति अवशेपे समये चन्द्रः रक्तच विरक्तश्च भवति, इयं खलु पूर्णमासी, अत्र खलु द्वितीयं पर्व पूर्णमासी 1170 112 11 व्याख्या- 'ता कहते' इति 'ता' तावत् 'ते' त्वया हे भगवन् 'क' कथं केन प्रकारेण 'चंद्रमसो' चन्द्रमस चन्द्रस्य 'वड्डोबड्डी' वृचपवृद्धी वृद्विश्व हानि 'आहिए' आल्याते कथितं ' 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु | चन्द्ररय कियत्कालं यावत् Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा. १३ सू. १ चन्द्रमसोवृद्धयपवृद्धि निरूपणम् ५७१ वृद्धिः कियत्कालं यावत् अपवृद्धिस्त्वया कथिते ? इति प्रतिपादयतु इति भावः । एवं गौतमेन पृष्टे भगवनाह – 'ता अट्ठ' इत्यादि 'ता' तावत् 'अट्ठपंचासीयाई सुहुत्तसयाई' अष्ट पञ्चाशीतानि, मुहूर्त्तशतानि पञ्चाशीत्यधिकानि अष्टौ मुहूर्त्तशतानि, 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्स 'तीसं च वावद्विभागे जाव' त्रिगञ्च द्वाषष्टिभागान् यावत् मुहूर्त्तस्य त्रिशद् द्वाषष्टिभागपर्यन्तं ( ८८५ ८८ ) वृद्धयपवृद्धी 'आहिए' आख्याते 'तिवएज्जा' इति वदेत् कथयेत् स्वशिष्येभ्यः । तथाहि — एकस्य चन्द्रमासस्य मध्ये एकस्मिन् पक्षे शुक्लपक्षे वृद्धिः, एकस्मिश्चपक्षे कृष्णपक्षे अपवृद्धिर्भवति । चन्द्रमासस्य परिमाणम् एकोनत्रिंशदहोरात्राः एकस्य चाहोरात्रस्य द्वात्रिंशद् द्वापष्टिभागाः ( २९ ९२) अहोरात्राणां त्रिशन्मुहूर्त्तकरणार्थं एकोनत्रिंशत् 3 १६२ त्रिगता गुण्यन्ते, जातानि - सप्तत्यधिकानि अष्टौ शतानि (८७०) मुहूर्त्तानाम् येऽपि चोपरितना द्वात्रिशद् द्वापष्टिभागास्तेऽपि मुहूर्त्तसत्कभागकरणार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते जातानि षष्ट्यधिक नवशतानि (९६०) द्वाषष्टिभागानाम् एषां मुहूर्त्तानयनार्थं द्वापष्ट्या भागो हियते, लब्धा पञ्चदामुहूर्त्ताः (१५), ते मुहूर्त्तराशौ सप्तत्यधिकाष्टशतरूपे प्रक्षिप्यन्ते, जातानि पञ्चाशीत्यधिकानि अष्टौ शतानि (८८५) शेषा येऽवतिष्ठन्ते त्रिशत्, ते च त्रिशत् एकस्य मुहूर्त्तस्य द्वापष्टिभागाः ( ८८५ ) एतदेव सूत्रकारः प्रतिविशेपावबोधार्थं पृथक् पृथक्त्वेन स्पष्टयति'ता जोसिणापक्खाओ' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जोसिणापक्खाओ' ज्योत्स्नापक्षात् - ज्योत्स्ना चन्द्रिका, तत्प्रधानः पक्षः ज्योत्स्ना पक्ष: शुक्लपक्ष इत्यर्थः तस्मात् ' अंधकार पक्खमयमाणे ' अन्धकारपक्षम् —— अन्धकारप्रधानः पक्षः अन्धकारपक्षः कृष्णपक्ष इत्यर्थः, तम् अयन् प्राप्नुवन् अन्धकारपक्षे गञ्छन् 'चंदे' चन्द्रः 'चत्तारि वायालाई मुहुत्तसयाई' चत्वारि द्विचत्वा - रिशानि द्विचत्वारिशदधिकानि मुहूर्त्तशतानि (४४२) 'छत्तालीसं च वावद्विभागे जाव' षट् चत्वारिशत च द्वाषष्टिभागान् एकस्य मुहूर्त्तस्य यावत् एतावत्कालपर्यन्तम् अपवृद्धि प्राम (८८५ (३०) यावत् 'चंदे' चन्द्रः 'रज्जइ' रज्यते राहुविमानप्रभया रक्तो भवति । कथमित्याह -- ' तं जहा ' इत्यादि, 'तं जहा ' तद्यथा - ' पढमाए' प्रथमायां कृष्णपक्ष प्रतिपल्लक्षणायां तिथौ तत्परिसमाप्ति - समये 'पढमं भागं' प्रथमं भागं परिपूर्ण पञ्चदशं भागं यावद् राज्यते ' विइयाए' द्वितीयायां . तिथौ परिसमाप्ति प्राप्नुवत्यां सत्यां 'विइयं भागं' द्वितीयं पञ्चदशं भागं यावत् रज्यते । भावः । 'जाई' यानि यथोक्तसंख्यकानि द्वाषष्टभागसहितसुद्दशा Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे 'जाव' यावत्-यावत्पदेन तृतीयायां तृतीयं पञ्चदशं भागम् ३, चतुर्थ्यां चतुर्थ पञ्चदशं भागम् ४, पञ्चम्यां पञ्चम पञ्चदशं भागम् ५, षष्टयां पष्ठं पञ्चदश भागम् ६, सप्तम्यां सप्तमें पञ्चदशं भागम् ७, भष्टम्यामष्टमें पञ्चदश भागम् ८, नवम्यां नवर्म पञ्चदशं भागम् ९, दशम्यां दशमें पञ्चदशं भागम् १०, एकादश्यामेकादशं पञ्चदशं भागम् ११, द्वादश्यां द्वादशं पञ्चदशं भागम् १२, त्रयोदश्यां त्रयोदशं पञ्चदशं भागम् १३, चतुर्दश्यां चतुर्दशं पञ्चदशं भागम् १४, अग्रे सूत्रकार एवाह-~-'पण्णरसीए' इत्यादि, ‘पण्णरसीए' पञ्चदश्याम्अमावास्यायां समाप्नुवत्या मित्यर्थः 'पण्णरस भागं' पञ्चदशं परिपूर्ण पञ्चदशं भार्ग यावत् चन्द्रो रज्यते । तस्याश्च पञ्चदश्या अमावास्यारूपायास्तिथेः 'चरिमसमए' चरमसमये 'चंदे' चन्द्रः 'रत्ते भवई' राहुविमानप्रभया सर्वात्मना परिपूर्णभावेन रक्तो भवति, किञ्चिन्मात्रोऽपि भागश्चन्द्रस्य न दृश्यते चन्द्रस्तिरोहितो भवतीति तात्पर्यार्थः । पोडगो भागो यो द्वापष्टिभागद्वयात्मक. सदाऽनावृत्तस्तिष्ठति स स्तोकत्वेना दृश्यत्वान्न गण्यते । 'अवसेसे समए' अवशेपे पञ्चदश्यास्तिथेश्चरमसमयातिरिक्त समये अन्धकारपक्षस्य प्रथमसमयादारभ्य शेपेपु पञ्चदशीतिथेश्चरमसमयात्पूर्वं पूर्व ये समयास्तेषु सर्वेषु समयेषु 'चंदें चन्द्रः 'रत्ते य विरत्तेय भवइ' रक्तश्च विरक्तश्च भवति कियदंशानां राहुणा आवृतत्वात कियदंशानां चानावृतत्वात् । अन्धकार पक्षवक्तव्यताया उपसंहार-'इयण्णं' इत्यादि, 'इयण्णं' इयं खल इयम् अन्धकारपक्षे या पञ्चदशीतिथिः खल 'अमावासा' अमावास्या कथ्यते । 'एत्थ णं' अत्र युगे खलु 'पढमे पव्वे अमावासा' प्रथमं पर्व अमावस्या, इयममावास्या, युगस्य प्रथम पर्वसमस्ति मुख्यत्वेन अमावास्या पौर्णमास्योरेव पर्वशब्देनाभिधीयमानत्वात् । अथ कथं द्विचत्वारिंशदधिकानि चत्वारि मुहूर्तशतानि, एकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशद् द्वापष्टि भागाः १ अत्रोच्यते-इह शुक्ल पक्षः कृष्णपश्च चन्द्रमासस्यार्द्धमर्द्धम् , चन्द्रमास्य द्वात्रिंशद् द्वापष्टिभाग युक्तैकोन त्रिंशद्रात्रिन्दिवात्मकत्वातस्य चन्द्रमासार्द्धस्य पक्षरूपस्य प्रमाणं-चतुर्दशरात्रिन्दिवानि, एकस्य च रात्रिन्दिवस्य सप्तचत्वारिंशद् द्वापष्टिभागाः (१४ ) इत्येवं रूपं भवति, एक रात्रिन्दिवं त्रिंशन्मुहूर्तात्मकमिति चतुर्दशत्रिंशता गुण्यते, जातानि विंशत्यधिकानि चत्वारि मुहूर्तशतानि (४२०) येऽपि चोपरितनाः सप्तचत्वारिंशद् द्वापष्टिभागाः (४७) तेऽपि मुहूर्तभागकरणार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि दशोत्तराणि चतुर्दशगतानि (१४१०) एषां द्वापष्टया भागो हियते लब्धा द्वाविंशति मुहूर्ताः, ते मुहर्तराशौ विंशत्यधिक चतुःगतरूपे (४२०) प्रक्षिप्यन्ते, जातानि द्विचत्वारिंशदधिकानि चत्वारि मुहूर्तशतानि (४४२), शेपास्तिष्ठन्ति मुहर्तस्य पट्चत्वारिंशद् (४६) द्वापष्टिभागाः । तदेवमागतं सूत्रोक्तं प्रमाणम् (४४२] 25 ) इति । Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिका टीका प्रा १३ सू.१. चन्द्रमसो वृद्धयपवृद्धि निरूपणम् ५७३ तदेवं चन्द्रस्यापवृद्धिः प्रदर्शिता, साम्प्रतं तस्य वृद्धिमभिधित्सुराह-'ता अंधकारपक्खाओणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'अंधकारपक्खाओणं' अन्धकारपक्षात् कृष्णपक्षात् खलु 'जोसिणा पक्खं' ज्योत्स्नापक्षं शुक्लपक्षम् 'अयमाणे' अयन् गच्छन् 'चंदे' चन्द्रः 'चत्तारि वा लाई मुहुत्तसयाई' चत्वारि द्विचत्वारिंशानि द्विचत्वारिंशदधिकानि मुहूर्त्तशतानि 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य 'छयालीस वावठिभागे जाव' पटूचत्वारिंशतं द्वापष्टिभागान् यावत् ( ४४२/४६ ) वृद्धिमुपगच्छतीति भावः । 'जाइं, यानि यथोक्तसंख्यकानि द्वापष्टिभागसहितमुहर्तशतानि यावत् 'चंदे' चन्द्रः 'विरज्जइ' विरज्यते विरक्तो भवति राहुविमानप्रभया शनैः शनैरनावृतो भवति । तत्प्रकारमाह-' तं जहा' इत्यादि 'तं जहा' तद्यथा-'पढमाए पढमं भागं प्रथमाया शुक्लपक्ष प्रतिपल्लक्षणायां तिथौ प्रथम पञ्चदशं भागं यावत् चन्द्रो विरक्को भवति १ । 'विइयाए विइयं भागं' द्वितीयायां तिथौ द्वितीयं पञ्चदशं भागं यावत् विरक्तो भवति २। 'जाच' यावत् यावत्पदेनात्रापि अन्धकारपक्षगतरक्त प्रकरणवद् विरक्त प्रकारणोऽपि तृतीयातिथित आरभ्य चतुर्दश्यां तिथौ चतुर्दश पञ्चदशं भागं यावत् , इत्येतत्पर्यन्तं सर्व वाच्यम् । पच्चदशी विषयं सूत्रकार एवाह-'पण्णरसीए' इत्यादि 'पण्णरसीए' पञ्चदश्यां तिथौ पूर्णिमायां तिथौ 'पण्णरसमं' पञ्चदशं-पञ्चदशं भागं यावत् चन्द्रो विरक्तो भवतीति । 'चरिमे समए' चरमे समये पञ्पदश्याश्चरमसमये 'चंदे' चन्द्रः 'विरत्ते भवई' विरक्तो भवति सर्वात्मना राहु प्रभयाऽनावृत्तो भवति. अत्र चन्द्रस्य सर्वे भागा दृश्यन्ते यश्च पोडशो भागाः स तु सर्वदाऽनावृत एवावतिष्टतेऽतो नास्य चर्चा कृता । 'अवसेसे समए' अवशेपे पञ्चदश्याश्चरमसमयातिरिक्त समये शुक्लपक्षप्रथमसमयादारभ्य पञ्चदश्याश्चरमसमयात् पूर्वं पूर्वं ये समयास्तेपु सर्वेपु 'चंदे' चन्द्रः 'रत्ते य विरत्ते य भवइ' रक्तश्च विरक्तश्च भवति कियदंशानां राहुणाऽऽवृतत्वात्, कियदंशानां चानावृत त्वात् । मुहूर्तसख्याभावना च कृष्णपक्षप्रकरणप्रदर्शितवदेवात्रापि कर्त्तव्या । अथ शुक्लपक्ष वक्तव्यताया उपसंहारमाह-'इयण्णं' इत्यादि, 'इयणं' इयम् अनन्तरोक्का पञ्चदशी खलु तिथिः 'पुण्ण मासिणी' पौर्णमासी कथ्यते । 'एत्थ णं' अत्र युगे खलु 'दोच्चे पव्वे' द्वितीयं पर्व 'पुण्णमासिणी' पौर्णमासी भवति, अमावास्यापौर्णमास्योरेव पर्वत्वेन प्रसिद्धत्वात् । सू० । १ ॥ पूर्व चन्द्रस्य वृद्धयपवृद्धी अधिकृत्य अमावास्या पौर्णमासी च प्रदर्शिता, साम्प्रतम्-एतादृश्योऽमावास्याः पौर्णमास्यश्च एकस्मिन् युगे कियन्त्यः कियन्त्यो भवन्ति ? इति तासां सर्व सख्यामाह-'तत्थ खलु इमाओ' इत्यादि । Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र मृलमू- तत्थ खलु इमाओ वावट्ठी पुण्णमासिणीओ वावट्ठी अमावासाओ पण्णत्तामओ । वात्रट्ठी एए कसिणा रागा बावट्टी एए कसिणा विरागा । एए चउच्ची से पत्रसए एए चउबीसे कसिणरागविरागसए । जावइयाणं पंचण्हं संवच्छराणं समया एगेणं चवी सेणं समयसएण ऊणगा एवइया परित्ता असंखेज्जा देस राग विरागसया भवतीति मक्खायं । ता अमावासाओ णं पुण्णमासिणी चत्तारिवायालाई मुहुत्तसयाई छत्तालीसं वाढिमागे मुहत्तस्स आहिए तिवएज्जा । ता पुण्णमासिणी ओणं अमावासा चत्तारि वयालाई मुहत्तसयाई छत्तालीसं वाट्ट भागे मुहत्तस्स आहिए तिवएज्जा । ता पुण्णमासिणीओणं पुण्णमासिणी अह पंचासीयाई मुहत्तसयाई आहिएतिवएज्जा, एस णं एवडए चंदे मासे, एसणं एवइए सगले जुगे ।सु० २।। छाया-तत्र खलु डमा द्वापष्टिः पौर्णमास्यः, द्वापष्टिरमावास्याः प्रनताः । द्वाप टिरेते कृत्स्ना रागाः, द्वापष्टिरेते कृत्स्ना विरागाः । पते चर्तुविश पर्वशतम् । एते चर्तुविश कृत्स्नं रागविरागशतम् । यावत्काः पञ्चानां संवत्सराणां समयाः पनन चतुर्वि शेन समयशतेन ऊनकाः, एतावत्काः परीता असंख्येया देशराग विरागसमया भवन्तीति आयातम् । तावत अमावास्यातः खलु पौर्णमासी चत्वारि द्विचत्वारिानि मुहत शतानि, पट्चत्वारिशत द्वापष्टिभागान मुहत्तस्य आख्यातम् नि वदेत् । तावत् पौर्णमासीत खलु अमावास्या चत्वारि द्विचत्वारिंशानि मुहत्तशतानि, पट्चत्वारिंशतं द्वापटिभागान् मूहर्तस्य आरयाना इति-घदेत । तावत् अमावास्यातः खलु अमावास्या अष्ट पञ्चाशीतानि मुहसंशतानि, त्रिंगतं च डाष्टिभागान् मुहर्तस्य आख्यानम् इति वदेत् । तावत् पौर्णमासीनः खलु पौर्णमासी अष्ट पञ्चाशीतानि मुहशिनानि, त्रिंशत चहापष्टिभागान मुहत्तरय आरयाता इति वदेत् । पप खलु एतावत्कः चान्द्रः मासः । पप खलु एतावत्कं शकल युगम् । सू०-२॥ व्याख्या-'तस्थ खलु' इति, 'तत्थ खलु' नत्रकस्मिन् पञ्च संवत्सरात्मक युगे ग्यल 'इमाओ' इगा. वोक्ता एवं स्वरूपा 'बावट्टी पुण्णमासिणीओ द्वापष्टिः पौर्णमारयः तथा 'बावट्टी अमावासाओ' द्वापप्टिग्मावास्या 'पण्णत्ताओ' प्रजप्ताः कथिता । तथा युगे चन्द्रमस 'एए' ऐते पूर्वोक्तस्वरूण 'बावट्ठी' द्वापष्टि 'कसिणा रागा' कृत्स्ना परिपूर्णाः रागा , अमावस्यानां युगे द्वापष्टिमल्यकन्वान् नामु पौर्णमासीवेव च चन्द्रस्य परिपूर्णरागसभवात् । 'एए' ऐते 'बावट्ठी हापाष्ट 'कसिणा' कृत्स्ना परिपूर्णा 'विरागा' विरागा सपूर्णत्वेन रागाभावाः, युगे पौर्णमासीनां द्वापटिसंख्यकत्वात तास्वेव आमावाम्यामु च चन्द्रस्य परिपूर्णविगगसभवात । 'ए' पनानि 'उव्वीगे पव्यसए' चतुर्विशं चतुर्विशत्यधिक पर्वगतं (१२४) भवति । अमावाग्या पौर्णमासीनामेन पर्व सज्ञा वर्त्तत्ते, ताश्च पृथक् २ द्वापष्टि-द्वापष्टि सन्यका भवन्तीति तेपा समौटने चतुविशत्यधिकशतसख्यासद्भागात । एवमेव 'एए चरबीसे कसिणराग Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिका टोका प्रा १३ सू. २ एकस्मिन्युगे कियन्त्योऽमावास्या पौर्णमास्यश्च ५७५ विरागसए' एतत् चतुर्विशत्यधिक कृत्स्न रागविरागशतम् युगमध्ये कृत्स्नरागविरागयो पण्टि द्वापण्टि संख्यकत्वात् तयोः सम्मेलने भवति चतुर्विशत्यधिकं कृत्स्नरागविरागशतमिति । 'जावइयाणं' यावत्का-यावत्परिमिताः पंचण्डं संवच्छराणं' पञ्चानां संवत्सराणां 'समया' समया भवन्ति ते 'एगेणं चउबोसेणं सएणं' एकेन चतुर्विशत्यधिकेन शतेन 'ऊणगा' ऊनका. न्यूनाः चतुर्विशत्यधिकेन शतेन ऊनी कृते यावन्तः समया भवन्ति 'एवइया' एतावत्का इयन्तः 'परित्ता' परीताः परिमिताः असंखेज्जा' असंख्येया 'देसरागविरागसमया' देशरागविरागसमया भवन्ति, एतेषु सर्वेष्वपि समयेपु चन्द्रस्य देशनो रागविरागसद्भावात् । अत्र यत 'चतुर्विशत्यधिकेन शतेन ऊना समया' इति कथितं तत् 'चतुर्विशत्यधिकशत समयानां मध्ये द्वापष्टि समयेषु पौर्णमासी सत्केपु कृत्स्नो विरागो भवतीत्यतस्त दर्जनमधिकृत्य ऊना', प्रोक्तम् । 'तिमक्खाय' इति आख्यातं-भगवतेति । माम्प्रतम् अमावास्यातोऽनन्तरं पौर्णमासी, पौर्णमासीतोऽनन्तरं चामावास्या कियत्सु मुहूर्तेपु गतेपु मत्सु समायाति ? इत्यादि निरूपयन्नाह-'ता अमावासाओणं' इत्यादि सर्व मूलसूत्रगम्यम्, तथाहि-'अमावास्यातोऽनन्तरं पोर्णमासो पद चत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागयुक्तद्विचत्वारिशदधिकचतुः मुइर्लान् (४४२। व्यतिक्रम्यायाति, एतावत एव मुइतन् व्यतिक्रम्य पौर्णमासतोऽमावास्याऽऽयातीति भावः । अथामावास्यातोऽमावास्या, पौर्णमासीतः पौर्णमासी क्रियन्मुहूर्तानन्तरऽमायातीति प्रदर्शयति-'ता अमावासाओणं' इत्यादि, एतदपि सुगमम् । अय भावः-अमावास्यातोऽनन्तरं चन्द्रमासस्यार्द्धन पौर्णमासी समागच्छति, पौर्णमासीतोऽनन्तरमर्दैन चन्द्रमासेन अमावास्या समागच्छति । अमावास्यातोऽमावास्या, पौर्णमासीतश्च पौर्णमासीत्येदद्वयं परिपूर्णेन चन्द्रमासेन भवतोति अमावास्यातोऽमावास्या, पौर्णमासीचेत्येतद् द्वयमपि त्रिंशद्वापष्टिभागयुक्त पञ्चाशीत्युत्तराष्टशतमुहर्त्तानन्तरम् (८८५।२०) परस्पर मेका मावास्यातो हितोयाडमास्या, एक पौर्णमासीतो द्वितीया पौर्णमासी समायातीति । एतत्कथमित्याह-चन्द्रमासस्य एकोनत्रिंशदिनानि द्वात्रिंशच्च द्वाषष्टि भागाः (२९।३२।) भवन्ति । एकस्याहोरात्रस्य त्रिशन्मुहूर्ता इति पूर्वोक्तराशे स्त्रिंशता गुणने समायति एकपूर्णिमातो द्वितीयपूर्णिमापर्यन्तकालस्य यथोक्ता · मुहूर्त्तसंख्या (८८५।२१) इति । उपसंहारमाह-'एसणं' इत्यादि 'एसणं' एषः खलु पश्चाशीत्यधिकानि अष्टौ मुहूर्तशतानि, एकस्य मुहूर्तस्य त्रिशच्च द्वाषष्टिभागाः, इत्येतावान् ‘एवइए' एतावत्कः एतावन्मुहूर्तप्रमाणकः 'चंदे मासे' चाद्रो मासो Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे भवति । 'एस णं' एतत् प्रसिद्ध 'एवइए' एतावत्प्रमाणकं खलु 'सगले जुगे' शकलं खण्डरूपं युगं चन्द्रमासप्रमितं युगशकलमेतदित्यर्थः । अयं भावः चन्द्रमासप्रमितमिति द्वाष्टचन्द्रमासात्मकम्, अतएव चतुर्विंशत्यधिकशतपर्वात्मकं खण्डरूपं युगं भवतीति ॥ सू० २॥ साम्प्रतं चन्द्रो यावत्सु मण्डलेषु चन्द्रार्धमासेन चारं चरति तन्निरूपयन्नाह - - 'ता 'देणं' इत्यादि । मूलम् - ता चंदेणं अद्धमासेणं चंदे कइ मंडलाई चरइ ? चोदस चउन्भागमंडलाई चरइ एगंच चउन्चीस सयभागं मंडलस्स । ता आइच्चेणं अद्धमासेणं चंदे कइ मंडलाई चरइ ? ता सोलस मंडलाई चरइ, सोलस मंडलचारीतया अवराई खलु दुने अट्टगाई चंदे के असामण्णगाई सयमेव पविसिता २ चारं चरइ । कयराई खल्ल दुवे अट्ठगाई जाई चंदे के असामण्णगाईं सयमेव पविसित्ता २ चारं चरइ ? इमाई खलु ते दुवे अट्टगाई जाई चंदे के असामण्णगाइ सयमेव पविसित्ता २ चारं चर, तं जहा निक्खमाणे चेव अमावासं तेणं पविसमाणे चेव पुण्णमासिं तेणं, एयाइ खलु दुवे अगाई जाई चंदे के असामण्णगाईं सयमेव पविसित्ता २ चारं चरइ । ता पढमा - यणगए चंदे दाहिणाए भागाए पविसमाणे सत्त अद्ध मंडलाई जाई चंदे दाहिणाए भागाए पविसमाणे चारं चरइ । कयराई खलु ताई सत्त अद्धमंडलाई जाई चंदे दाहिणाr भागाए पचिसमाणे चारं चरइ । १ इमाई खलु ताई सत्त अद्धमंडलाई जाई चंदे दाहिणाए भागाए पविसमाणे चारं चरइ, तंजहा - वितिए अद्धमंडळे चउत्थे अद्ध मंडले २ हे अद्धमंडले ३ अट्टमे अद्धमंडले ४ दसमे अद्धमंडले, ५ वारसमे अद्ध मंडले, ६ चउदसमे अद्धमंडळे७ । एमाई खलु ताईं सत्त अद्धमंडलाई जाई चंदे दाहिणाए भागाए पविसमाणे चारं चरइ । ता पढमायणगए चंदे उत्तराए भागाए पविसमाणे छ अद्धमंडलाई, तेरस य सतहिभागाई श्रद्धमंलस्स जाईं चंदे उत्तराए भागाए पविसमाणे चारं चरइ । कयराई खलु ताईं छ अद्धमंडलाई, तेरस य सत्तट्टिभागाईं अद्धमंडलस्स जाईं चंदे उत्तराए भागाए पचिसमरणे चारं चरइ ? इमाई खलु ताईं छ अद्धमंलाई, तेरसय सत्तट्टिभागाईअमडलस्स जाई चंदे उत्तराए भागाए पविसमाणे चारं चरइ तं जहा - तइए अद्धमंडळे, १ पंचमे अद्धमंडळे, २ सत्तमे अद्धमंडले, ३ नवमे अद्धमंडळे, ४ एकारसमे अद्धमंडळे, ५ तेरसमे अद्धमंडले, ६ पन्नरसमंडलस्स तेरस सत्तद्विभागाई, एयाई स्खलु ताई छ अमण्डला, तेरसय सत्तद्वि भागाईं, अद्धमंडलस्स, जाईं चंदे उत्तराए भागाए पचिसमाणे चारं चरड़ । एयावया च पढमे चंदायणे समत्ते भवइ । ता णक्खत्ते ' Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिकाटीका प्रा. १३ सू. ३ मण्डलेषु चन्द्रार्द्धमासचारनिरूपणम् ५७७ अद्धमासे नो चंदे अद्धमासे, ता चंदे अद्धमासे णो णक्खत्ते अद्धमासे । ता नक्खताओ अद्धमासाओ से चंदे चंदेण अद्धमासेणं किमधियं चरइ ? ता एगं अद्धमंडलं चत्तारिय सत्तट्टिभागाईं अद्धमंडलस्स, सत्तद्विभागं एकतीसाए छेत्ता णवभागाई । ता दोच्चायणगए चंदे पुरस्थमिल्लाए भागाए णिक्खममाणे सत्त चउप्पण्णाई जाई चंदे परस्स चिणं पडिचरइ सत्त तेरसगाई जाई चंदे अप्पणा चिण्णं चरइ ता दोच्चायणगए चंदे पच्चत्थिमाए भागाए निक्खममाणे छ चउप्पण्णाई जाई चंदे परस्स चिण्णं पडिचरइ छ तेरसगाईं चंदे अप्पणो चिण्णं पडिचर, अवरगाई खलु दुवे तेरसगाई जाई चंदे के असामन्नगाई सयमेव पविसित्ता २ चारं चरइ । कयगई खलु ताई दुवे तेरसगाई जाई चंदे केणइ असामण्णगाई सयमेव पविसित्ता २ चारं चरइ ? इमाई खलु ताईं दुवे तेरसगाई जाईं चंदे केणइ असामण्णगाई सयमेव पविसित्ता २ चारं चरइ तं जहा - सव्वमंतरे चैव मंडले, सन्धवाहिरे चेव मंडले । सव्व एयाई खलु ताईं दुवे तेरसगाई जाई चंदे केणइ जाव चारं चरड़ । एयावया दोच्चे चंदायणे समत्ते भवइ । ताणक्खते मासे नो चंदे मासे, चंदे मासे नो णक्खते मासे । ता णक्खत्ताओ मासाओ चंदे चंदेणं मासेणं किमधियं चरs ? ता दोअमंडलाई चरइ, अट्ठ य सत्तट्टिभागाईं अद्धमंडलस्स, सत्तद्विभागं च एक्कतीसहा छेत्ता अद्वारसभागाई । ता तच्चायणगए चंदे पच्चत्थिमाए भागाए पविसमाणे वाहिराणंतरस्स पच्चत्थिमिल्लस्स अद्धमंडलस्स इगतालीस सत्तद्विभागाई जाई चंदे अप्पणो परस्स य चिण्णं पडियर, तेरससहि भागाईं जाई चंदे परस्स चिण्णं पडिचरड़, तेरस सत्तद्विभागाईं जाई चंदे अप्पणी - परस्स चिण्णं पडिचरइ । एयावया च वाहिराणंतरे पच्चत्थिमिल्ले अद्धमंडले समत्ते भवइ । ता तच्चायणगए चंदे पुरत्थिमाए भागाए पविसमाणे बाहिरतच्चस्स पुरस्थि - मिल्लस्स अद्धमंडलस्स इगतालीस सत्तट्ठि भागाईं जाई चंदे अप्पणी परस्स चिण्णं पडिचरइ, तेरस सत्तद्विभागाई जाई चंदे परस्स चिण्णं पडिचरइ, तेरस सत्तट्ठि भागाई जाई चंदे अप्पणी परस्स य चिण्णं पडिचरइ, एतावताव वाहिरतच्चे पुरत्थिमिल्ले अद्धमंडले समत्ते भवइ । ता तच्चायणगए चंदे पच्चत्थिमाए भागाए पविसमाणे बाहिर चउत्थस्स पच्चत्थिमिल्लस्स अद्धमंडलस्स अहसतद्विभागाई सत्तद्विभागं च एक्कतीसहा छित्ता अट्ठार भागाईं जाईं चंदे अप्पणी परस्स य चिण्णं पडिचरइ । एतावता व वाहिर उत्थ पच्चत्थिमिल्ले अद्धमंडळे समत्ते भवइ । एवं खलु चंदेणं मासेणं चंदे तेरस चउप्पण्णगाईं दुवे तेरसगाई जाई चंदे परस्स चिण्णं पडिचरड़, तेरस तेरसगाईं जाई चंदे अपणो चिणं पडिचर, दुवे इगतालीसगाई अट्ठ सतहभागाई, सत्तद्विभागं च एक्कतीसा छत्ता अट्ठारसभागाई जाई चंदे अप्पणो परस्स य चिण्णं पडिचरइ, अवराई ७३ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmanna खलु दुवे तेरंसगाई जाई चंदे केणई असामन्नगाई संयमेव पविसित्ता २ चारं चरई । इच्चेसा चंदमसो अभिगमणणिक्खमण-बुड्ढि-निवुढि अणेवहि य संठाणा संठिईविउवणगिढिपत्ते ख्वी 'चंदे देवे, चंदे देवे' आहिएति वएज्जा । सूत्र ॥३॥ छाया-तावत् चान्द्रेण अर्द्धमासेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति ? तावत् चतुदेश सचतुर्भागमण्डलानि चरति, एकं च चतुर्दिशं शतभाग मण्डस्य । तावत् आदित्यन अर्द्धमासेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति ? तावत् पोडश मण्डलानि चरति पोडशमण्डलचारी तदा अपरे खलु हे अष्टके ये चन्द्रः केनापि असामान्यके स्वयमेव प्रविश्य प्रविश्य चारं चरति । कतरे खलु द्वे अष्टके ये चन्द्रः केनापि असामान्यके स्वयमेव प्रविश्य चार घरति ? इमे खलु ते द्वे अष्टके ये चन्द्रः केनापि असामान्यके स्वयमेव प्रविश्य २ चारं चरति, तद्यथा निष्क्रामन् चैव अमावास्यान्तेन, प्रविशन् चैव पौर्णमास्यान्तेन, एते खलु हे अटके ये चन्द्रः केनापि असामान्यके स्वयमेव प्रविश्य २ चारं चरति । तावत् प्रथमायनगतश्चन्द्रो दक्षिणस्माद् भागात् प्रविशति, सप्त अर्द्ध मण्डलानि, यानि चन्द्रः दक्षिणस्माद् भागात् प्रविशन् चारं चरति । कतराणि खलु तॉनि सप्तअर्द्धमण्डलानि यानि चन्द्र. दक्षिणस्माद् भागात् प्रविशन् चारं चरति ? ईमानि खलु तानि सप्त अर्द्ध मण्डलानि यानि चन्द्रः दक्षिणस्माद् भागात् प्रविशन् चारं चरति, तद्यथा-द्वितीयमर्द्धमण्डलम् १, चतुर्थमर्द्धमण्डलम् २, पटमद्धमण्डलम् ३, अष्टममर्द्धमण्डलम् ४, दशममण्डलम् ५, द्वादशमद्धमण्डलम् ६, चतुर्दशमद्धमण्डलम् ७, एतानि खलु तानि सप्त अर्द्धमण्डलानि यानि चन्द्रः दक्षिणेन भागेन प्रविशन् चारं चरति । तावत् प्रथमायनगतः चन्द्र उत्तरेण भागेन प्रविशन् पड् अर्द्धमण्डलानि त्रयोदश सप्तपष्टिभागान् अद्धमण्डलस्य यानि चन्द्र उत्तरेण भागेन प्रविशन् चार चरति । कतराणि खलु तोनि षड् अर्द्धमण्डलानि प्रयोदर्शच सप्तष्टिभागा अर्द्धमण्डलस्य, यानि चन्द्र उत्तरस्माद् भागात् प्रविशन् चारं चरति ? इमांनि खलु तानि पड् अद्धमण्डलानि त्रयोदश च सप्तपष्टिभागा अर्द्धमण्डलरय यानि चन्द्र उत्तरस्माद् भागात् प्रविशन् चारं चरति, तद्यथा-तृतीयमधमण्डलम् २ पञ्चममधमण्डलम् २, सप्तममधमण्डलम् ३, नवममधमण्डलम् ४, एकादशमधमण्डलस् ५, त्रयोदशमर्धमण्डलम् ६, पञ्चदशमण्डलस्य त्रयोदशसप्तपष्टिभागाः । एतानि सलु तानि पड अधमण्डलानि प्रयोदश च सप्तपष्टि भागाः अर्धमण्डलस्य यानि चन्द्र उत्तस्माद भागात् प्रविशन् चार चरति । पतावताच प्रथम चान्द्रायणं समाप्त भवति । तावत् नाक्षत्रोऽर्धमासः नो चन्द्रोऽधमास', तावत् चन्द्रोऽधमासः नो नाक्षत्रोऽर्धमासः । तावत् नाक्षत्रात् अर्धमासात् स चन्द्रः चान्द्रेण अर्धमासेन किमधिकं चरनि, तावत् एकमर्द्धमण्डलं चरति, चतुरश्च सप्तपष्टिभागान् अर्धमण्डलस्य सप्तपप्टिभाग एकत्रिशना छित्वा नवभागान् । तावत दिनीयायनगनः चन्द्रः पौरस्त्यात् भागात् निष्क्रामन् सप्तचतुप्पञ्चाशत्कानि यानि चन्द्रः परस्य चीर्णानि प्रतिचरति सप्तत्रयोदशकानि यानि चन्द्रे आत्मना चीर्णानि चरति । तावत् द्वितीशयनगनश्चन्द्रः पाश्चात्यात् भागान् निष्क्रामन् पट् चतुष्पञ्चाशत्कानि यानि चन्द्रः परस्य चीन प्र'नचरति, पद त्रयोदशकानि चन्द्र आत्मनो चीर्णानि प्रतिचरति, अपरे मलते प्रयोदशक ये चन्द्रः केनापि असामान्यके स्वयमेव प्रविश्य २ चार चरति? Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रकाशिका टीका प्रा. १३ सु. ३ मण्डलेषु चन्द्रार्द्धमासचार निरूपणम् ५७९ कतरे खलु ते द्वे त्रयोदश के ये चन्द्रः केनापि असामान्य के स्वयमेव प्रविश्य चारं चरति 1 इमे ते द्वे यदशके ये चन्द्रः केनापि असामान्यके स्वयमेव प्रविश्य २ चारं चरति, तद्यथा - सर्वाभ्यन्तरं चैव मण्डलं, सर्वबाह्यं चैव मण्डलम् । पते खलु ते द्वे त्रयोदशके ये चन्द्रः केनापि यावत् चारं चरति । एतावता द्वितीयं चन्द्रायणं समाप्तं भवति तावत् नाक्षत्रो मासोनो चान्द्रो मासः, चान्द्रो मासो नो नाक्षत्रो मासः । तावत् नाक्षत्रात् मासात् चन्द्रः चान्द्रेण मासेन किमधिकं भवति ? तावन हे अर्धमण्डले चरति अष्ट च सप्तषष्टि भागान् अर्द्ध मण्डलस्य, सप्तपष्टिभागं च एकत्रिशद्धा छित्वा अष्टादश भागान् । तावत् तृतीया - यनगतः चन्द्र पाश्चात्येन भागेन प्रविशन् वाह्यानन्तरस्य पाश्चात्यस्य अर्द्ध मण्डलस्य एक चत्वारिंशतं सप्तषष्टिभागान् यान् चन्द्र आत्मन' परस्य चीर्णान् प्रतिचरति, त्रयोदश सप्तषष्टिभागान् यान् चन्द्र परस्य चिर्णान् प्रतिचरति, त्रयोदश सप्तषष्टि भागान् यान् चन्द्रः आत्मनः परस्य चीर्णान् प्रतिचरति । एतावता वाह्यान्तरं पाश्चात्यम् अर्द्ध मण्डलं समाप्तं भवति । तावत् तृतीयायनगतः चन्द्र पौरस्त्येन भागेन प्रविशन् बाह्य तृतीयस्य पौरस्त्यस्य अर्धमण्डलस्य एकचत्वारिंशतं सप्तपष्टिभागान् यानि चन्द्रः आत्मनः परस्य चीर्णान् प्रतिचरति, त्रयोदश द्वाषष्टिभागान् यान् चन्द्रः परस्य चीर्णान् प्रतिचरति, त्रयोदशसप्तपष्ठिभागान् यान् चन्द्रः आत्मन परस्य च चीर्णान् प्रतिचरति । पावता बाह्यतृतीयं पौरस्त्यम् अर्द्धमण्डल समाप्त भवति । तावत् तृतीयायनगतः चन्द्रः पाश्चात्येन भागेन प्रविशन् बाह्यचतुर्थस्य पाश्चात्यस्य अर्द्धमण्डलस्य अष्ट सप्तषष्टिभागान्, सप्तपण्टी भागच एकत्रिंशद्धा छित्वा अष्टादश भागान् यान् चन्द्रः आत्मनः परस्यच चीर्णान् प्रतिचरति । एतावता वाह्यचतुर्थपाश्चात्यम् अर्द्धमण्डलं समाप्त भवति । एवं खलु चान्द्रेण मासेन चन्द्रः त्रयोदश चतुष्पञ्चाशत्कानि द्वे त्रयोदशके यान् चन्द्रः परस्य चीर्णान् प्रतिचरति त्रयोदश त्रयोदशकान् यान् चन्द्रः आत्मनः चीर्णान् प्रतिचरति द्वे एकचत्वारिंशत्के अष्टसप्तषष्टिभागान्, सप्तषष्टिभागं च एकत्रिंशद्धा छित्त्वा अष्टादशभागान् यान् चन्द्रः आत्मनः परस्य च चीर्णान् प्रतिचरति, अपरे खलु द्वे त्रयोदशके ये चन्द्रः केनापि असामान्यके स्वयमेव प्रविश्य २ चारं चरति । इत्येषा चन्द्रमसः अभिनिष्क्रमण वृद्धि निवृद्धयनवस्थितसंस्थाना संस्थितिः विकुर्वणक ऋद्धि प्राप्तः रूपी चन्द्रो देवः, चन्द्रो देवः आख्यातः, इति वदेत् । सु०३|| ॥ त्रयोदश प्राभृतं समाप्तम् ॥१३॥ व्याख्या --- 'ता चंदेणं अद्धमासेणं' इति, 'ता' तावत् 'चंदेणं अद्धमासेणं' चान्द्रेण अर्द्धमासेन चन्द्रसम्बन्धिमासार्डेन 'चंदे' चन्द्रः 'कई मंडलाई' कतिमण्डलानि 'चरई' चरति ? | एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह - 'ता चोदस' इत्यादि, 'ता' तावत् 'चोदस सचउन्भाग मंडलाई' चतुर्दश सचतुर्भागमण्डलानि पञ्चदशस्य मण्डलस्य चतुर्भागसहितानि चतुर्दशमण्डलानि 'चरइ' चरति 'मंडलस्स' एकस्य च मण्डलस्य 'चडव्विस सयभागं' चतुर्विंशत्यधिकं शतभागम् एकं मण्डलं चतुर्विंशत्यधिकशत भागपरिमितं ( १२४ ) भवतीतिभावः, अग्रमा'शयः --- परिपूर्णानि चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्डलस्य चतुर्भागं चतुर्विंशत्यक्षिक Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे शतसत्त्वैकत्रिंशद्भागप्रमाणं (३१) भवति एकं च चतुर्विशत्यधिकं शतभाग मण्डलस्य प्रमाणं भवति चतुर्भागात्किञ्चिदधिकचरणात् सर्वसंख्यया द्वात्रिंशतं पञ्चदशस्य मण्डलस्य चतुविशत्यधिकशतभागान् चरतीति सिद्धयति । कथमेतदिति त्रैराशिकबलात्, तथाहि--एकस्मिन् युगे चन्द्र. अष्ट पट्यधिकानि सप्तदश मण्डलशतानि (१७६८) चरति । युगे च--परिपूर्णाश्चन्द्रमासा द्वापष्टि. (६२) ते द्विगुणिताः चन्द्रार्धमासा पूर्वरूपाश्चतुर्वि शत्यधिकशतसंख्यका (१२४) भवन्ति ततो यदि चतुर्वि शत्यधिकेन पर्वगतेन-अष्टपष्टयधिकानि सप्तदश मण्डलशतानि लभ्यन्ते तदा एकेन पर्वणा किं लभ्यते ? राशित्रयस्थापना-१२४ । १७६ । १ । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनात् जातस्तावानेव (१७६८) अत्रायेन राशिना (१२४) भागो हियते लन्धाश्चतुर्दश, शेपास्तिष्ठन्ति द्वात्रिंशन्चतुर्वि शत्यधिकशतभागाः (१४॥ तत्र छेध छेदक राश्योः द्वात्रिंशतश्चतुर्विशत्यधिकशतस्य चेति द्वयोदिकेनापवर्त्तना क्रियते तत इदमायाति-चतुर्दश मण्डलानि, पञ्चदशस्य मण्डलस्य पोडश द्वापष्टिभागाः। १४।१६। उक्तंचान्यत्रापि "चोहस मंडलाई, विसद्विभागाय सोलस हविज्जा । मासद्धेण उडुबई एत्तियमित्तं चरइ खितं ॥१॥ चतुर्दश च मण्डलानि द्विपष्टि भागाश्च पोडश भवेयुः । मासार्डेन उडुपतिः, एतावन्मानं चरति क्षेत्रम् । इतिच्छाया । इत्येवं चान्द्रेण अर्द्वमासेन चन्द्रस्य चारः प्रदर्शितः, सम्प्रति मादित्येन अर्द्धमासेन चन्द्रस्य चार प्रदर्शयति-"ता आइच्चेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् आइच्चेणं अद्धमासेणं' आदित्येन आदित्यसम्बन्धिना अर्द्धमासेन 'चंदे' चान्द्रः 'कइ मंडलाई चरइ' कति, मण्डलानि चरति ? भगवानाह-'ता सोलस' इत्यादि, 'ता' तावत् 'सोलस मंडलाइं चरइ' पोडश मण्लानि चरति परिपूर्णानि पञ्चदश मण्डलानि चरित्वा पोडशे मण्डले चरतीतिभावः 'मोलसमंडलचारी' पोडशमण्डलचारो पोडशमण्डलचरणशीलश्च, अत्र पोडश मण्डलचारी-पञ्चदश मण्डलानि पूर्णानि चरित्वा पोडशे मण्डले समागतस्ततः पोडश मण्डल चरन् इत्यर्थः न तु परिपूर्ण पोडा मण्डल चारीति । अयं भावः-एकस्मिन् युगे सूर्यमण्डलानि त्रिंशदधिकानि अष्टादशानानि (१८३०) भवन्ति, सूर्यामामाश्च विंशत्यधिकशतसख्यका (१२०) भवन्ति युगम्य पष्टि मूर्यमासात्मकत्वात् ततलिंगदधिकाष्टादशशतराशेः (१८३०) विंशत्यधिकशतेन (१२०) भागो हियते लब्धानि पञ्चदश मण्डलानि परिपूर्णानि, तदुपरि त्रिंशच्च विंशत्यधिकशत Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा. १३ सू. ३ मण्डलेपुश्चन्द्राद्धमासचारनिरूपणम् ५८१ भागाः (१५-- ) तत आगतम्-चन्द्रः पञ्चदश मण्डानि परिपूर्णानि चरित्वा षोडश मण्डले १२० त्रिंशतं त्रिंशत्यधिकशतभागान् आक्रम्य चारं चरति तत उक्तम्-पोडशमण्डलचारीति षोडशे मण्डले चारं चरन् चन्द्रः 'तया' तदा पोडशमण्डलचारसमये 'अवराई खलु' अपरे अन्ये खलु 'दुवे अढगाई द्वे अष्टके युगगतचन्द्रार्धमास चतुर्विशत्याधिकशत सत्कभागाष्टकप्रमाणे 'जाडचंदे ये द्वे चन्द्र. 'केणाइ असामण्णगाई' केनापि सूर्येण चन्द्रेण वा असामान्यके अनाचीर्णपूर्वे तत्र 'सयमेव' स्वयमेव 'पविसित्ता' प्रविश्य 'चारं चरइ' चारं चरति । तदेव पृच्छति 'कयराई' इत्यादि, 'कयराई' कतरे के खलु 'दुवे अट्टगाई द्वे अष्टके 'जाई चंदे' ये चन्द्रः 'केणाइ असामण्णगाइ' केनापि असामान्यके अनाचीर्णपूर्वे तत्र चन्द्रः 'सयमेव' स्वयमेव 'पवि सित्ता' प्रविश्य २ 'चारं चरई' चारं चरति ? तदेव भगवान् दर्शयति-'इमाइं खलु' इत्यादि 'इमाई' इमे वभ्यमाणे 'ते दुवे अगाई' ते द्वे अष्टके जाइं चदे' ये चन्द्रः 'केणइअसामण्णगाई' केनापि असामान्यके अनाचीणे तत्र 'पविसित्ता' प्रविश्य २, 'चारं चरई' चारं चरति, 'तं जहा' तद्यथा-'निक्खममाणे चेच' निष्क्रामन्नेव सर्वाभ्यन्तरमण्डलादहिर्निस्सरन्नेव 'अमावासंतेण' अमावास्यान्ते, 'पविसमाणे चेव पुण्णमासि तेणं' प्रविशन् सर्वबाह्यमण्डलात् सर्वाभ्यन्तरमण्डलं गच्छन् पौर्णमास्यन्ते, अयं भावः सर्वाभ्यन्तरमण्डलाहिर्निस्सरन् अमावास्याश्चरमभागे एकमष्टकं केनाप्यनाचीर्णं चन्द्रः प्रविश्य चारं चरति ? सर्वबाह्यमण्डलात्सर्वाभ्यन्तरमण्डल प्रविशन्नेव पूर्णिमायाश्चरमभागे द्वितीयमष्टकं प्रविश्य चन्द्रश्चारं चरतीति । उपसंहरति-'इमाई' इत्यादि 'इमाई' इमे अनुपदं प्रदशिते खलु 'दुवे अट्ठगे' द्वे अष्टकेस्त 'जाई चंदे ये द्वे अष्टके चन्द्रः 'केणइ असामण्णगाई' केनापि असामान्यके 'सयमेव' स्वयमेव 'पविसित्ता' प्रविश्य २, 'चारं चरइ' चारं चरतीति । अत्रायं विवेकः अत्र वस्तुतो द्वौ चन्द्रौ एकेन चान्द्रेणार्द्धमासेन चतुर्दश मण्डलानि, पञ्चदशस्य च मण्डलस्य द्वात्रिंशतं चतुर्विशत्यधिकशतभागान् स्व स्वगत्या भ्रमणेन पूयतः किन्तु लोकरूढ्या व्यक्तिभेदमनादृत्य केवलं जातिमेवाश्रिन्य चन्द्रश्चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य च मडलस्य द्वात्रिंशतं चतुर्विशत्यधिकशतभागान् चरतीत्युक्तम् । साम्प्रतमेकश्चन्द्र एकस्मिन्नयने कति अर्द्धमण्डलानि दक्षिणभागे कति चोत्तरभागे भ्रमणेन प्रयतीति भगवान् प्रतिपादयितुमाह-'ता पढमायणगए चंदे' इत्यादि, 'ता' तावत् 'पढमायणगए चंदे' प्रथमायनगतः प्रथमायनस्थितः चन्द्रः 'दाहिणाए भागाए' दक्षिणस्माद् भागात् 'पविसमाणे' प्रविशन् सर्वाभ्यन्तरमण्डले प्रवेशं कुर्वन्निति 'सत्तअद्धमंडलाई' सप्त अर्द्धमण्डलानि भवन्ति 'जाई' यानि मण्डलानि 'चंदे' चन्द्रः 'दाहिणाए भागाए' दक्षिणस्माद् भागात् अभ्यन्तरं मण्डलं 'पविसमाणे' प्रविशन् आक्रम्य 'चारं चरइ' चारंचरति । अत्र पुनः पृच्छति 'कयराई' इत्यादि 'केयराइं Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्र कतगणि कानि खलु 'ताई' तानि पूर्वोक्तानि 'सत्तअद्धमंडलाई' सप्त अर्द्धमण्डलानि 'जाई' यानि 'चंदे' चन्द्रः 'दाहिणाए भागाए पविसमाणे' दक्षिणस्माद् भागात् प्रविशन् 'चारं चरइ' चारचरति ? भगवानाह -'इमाई खलु' इत्यादि, 'इमाई' इमानि अग्रे वक्ष्यमाणानि खलु 'ताई' तानि 'सत्त अमंडलाई' सप्त अर्द्धमण्डलानि सन्ति 'जाई' यानि 'चंदे' चन्द्रः 'दाहिणाए भागाए' दक्षिणस्मात भागात् 'पविसमाणे' प्रविशन् 'चारं चरइ' चारं चरति, 'तं जहा' तद्यथा'वितिएअद्धमंउले' द्वितोयममण्डलम् १, 'चउत्थे अद्धमंडले' चतुर्थमर्द्धमण्डलम् २, 'छठे अद्धमंडले' षष्ठमीमण्डलम् ३, 'अट्ठमे अद्धमंडले' अष्टममर्द्धमण्डलम् ४, 'दसमे अद्धमंडाले' दशममीमण्डलम् ५, 'बारममे अद्धमंडले' द्वादशमईमण्डलम् ६, 'चउद्दसमे अद्धमंडले' चतुर्दअमर्द्वमण्डलम् ७ । उपसंहरति-'एयाई' इत्यादि, 'एयाई एतानि पूर्वोक्तानि खलु 'ताई तानि सत्तअद्धमंडलाई' सप्तमर्द्धमण्डलानि जाई चंदे' यानि चन्द्रः 'दाहिणाए भागाए' दक्षिमस्माद् भागात् 'पविसमाणे' प्रविशन 'चारं चरइ' चारं चरति । तदेवं दक्षिणभागादभ्यन्तरप्रवेशे सप्त अर्द्धमण्डलानि प्रोक्तानि, साम्प्रतम् उत्तर भागादभ्यन्तरप्रवेशे यावन्ति अर्द्वमण्डलानि भवन्ति तावन्ति प्रदर्शयति-'ता पढमायणगए' इत्यादि, 'ता' तावत् 'पढमाणगए चंदे' प्रथमायनगतश्चन्द्रः 'उत्तराए भागाए' उत्तरस्माद भागात् 'पविसमाणे' प्रविशन् 'छ अद्धमलाई' षड् अर्द्ध 'मण्डलानि 'तेरस य सत्तविभागाई' त्रयोदश च सप्तपप्टिमागान् 'अद्धमंडलस्स' एकस्यार्द्धमण्डलस्येति 'जाई 'चंदे' यानि चन्द्रः 'उत्तराए भागाए' उत्तरस्माद भागात् 'पविसमाणे' प्रविशन् चन्द्रः 'चारं चरई' चारं चरति । तान्येव पृच्छति-'कयराई' इत्यादि, 'फयराइं खलु' कतराणि कानि खल 'ताई' तानि 'अद्धमंडलाइ' पड् अई मण्डलानि 'तेरस य सत्तहि भागाई' त्रयोदश च सप्तषष्टिभागाः 'अद्धमंडलरस' एकस्याईमण्डलस्य, 'जाई' यानि 'चंदे' चन्द्रः 'उत्तराए भागाए' उत्तरस्माद् भागात् 'पविसमाणे' प्रविशन् 'चारं चरइ' चारं चरति ? तन्येव प्रदर्शयति-'इमाई' इत्यादि 'इमाई खलु' इमानि वक्ष्यमाणानि खल 'ताई तानि यानि पूर्व कथितानि 'छ अद्धमंडलाई' पइ अर्द्रमण्डलानि 'अद्धमंडलस्स' एकस्यार्द्धमण्डलस्य च 'तेरस य सत्तद्विभागाई' त्रयोदश च सप्तपष्टि भागाः 'जाई चंदे' यानि चन्द्रः 'उत्तराए भागाए' उत्तरस्माद् भागात् 'पविसमाणे' प्रविशन् 'चारं चरइ' चारं चरति 'तं जहा' तद्यथा-'तइए अद्धमंडले' तृतीयमर्द्धमंडलम १, 'पंचमे अद्धमंडले' पश्चमममण्डलम् २, 'सचमे अद्धमंडले' सप्तममर्द्धमण्लम् ३, 'नवमे अद्धमंडले' नवममईमण्डलम् ४, 'एक्कारसमे अद्धमंडले' एकादशमर्द्धमण्डलम् ५, 'तेरसमे अद्धमंडले त्रयोदशमर्द्धमण्डलम् ६, 'पारस मंडलस्स' पञ्चदशमण्डलस्य 'तेरस सनहिभागाई' त्रयोदशसप्तपष्टिभागाश्च, ४, उपसहरति-'एयाई' इत्यादि 'एयाई एतानि Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीकाप्रा. १३. सू. ३ मण्डलेपु चन्द्राद्धमासचारनिरूपम् ५८३' mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmoon पूर्वेक्तानि खलु 'ताई' तानि 'छ अद्धमंडलाई षड्भर्द्धमण्डलानि 'अद्धमंडलस्स' एकस्य चार्द्ध मण्डलस्य 'तेरसत्तद्विभागाई' प्रयोदश सप्तषष्टिभागाः, 'जाई चंदे' यानि चन्द्रः 'उत्तराए भागाए' उत्तरस्माद् भागात् 'पविसमाणे' प्रविशन् 'चारं चरइ' चारं चरति । दक्षिणभागादभ्यन्तरप्रवेशे, एवमुत्तरभागादभ्यन्तरप्रवेशे च यानि अर्द्धमण्डलानि प्रदर्शितानि तद्विषयाभावना चेत्थम् सर्ववाह्ये पञ्चदशे मण्डले परिभ्रमणेन पूरणमधिकृत्य परिपूर्णे पाश्चात्य युगपरिसमाप्ति र्भवत्तिं ततोऽपरयुगप्रथमायनप्रवृत्तौ प्रथमेऽहोरात्रे एकश्चन्द्रो दक्षिणभागादभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयमण्डलमाक्रम्य चारं चरति, स च पाश्चात्य युगपरिसमाप्तिदिवसे उत्तरस्यां दिशि चारं चरितवान् सोऽत्र वेदितव्यः । ततः एतस्मात् द्वितीयात् मण्डलात् शनैः शनैरभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयेऽहोरात्र उत्तरस्यां दिशि सर्व बाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरं तृतीयमर्द्धमण्डलमाक्रम्य चारं चरति । तृतीयेऽहोरात्रे दक्षिणस्यां दिशि चतुर्थमर्द्धमण्डलम् , चतुर्थेऽहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि पञ्चममर्द्धमण्डलम् , पञ्चमेऽहो रात्रे दक्षिणायां दिशि षष्ठमर्द्धमण्डलम् पप्टेऽहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि सप्तममर्द्धमण्डलम्, सप्तमेऽहोरात्रे दक्षिणस्यां दिशि अष्टममर्द्धमण्डलम् , अष्टमेऽहोराने उत्तरस्यां दिशि नवममर्द्धमण्डलम्, नवमेऽहोरात्रे दक्षिणस्यां दिशि एकादशमर्द्धमण्डलम् , एकादशेऽहोरात्रे दक्षिणस्यों दिशि द्वादशमर्द्धमण्डलम् , द्वादशेऽहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि त्रयोदशमर्द्धमण्डलम् त्रयोदशेऽहोलाने दक्षिणस्यादिशि चतुर्दशमईमण्डलम् , चतुर्दशेऽहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि पञ्चदशस्यार्द्धमण्डलस्य त्रयोदश सप्तपष्टिभागानाक्रम्य चार चरति । ततः किमित्याह सूत्रकार:-'एयावया' इत्यादि, 'एयावयाच' एतावता च कालेन 'पढमे चंदायणे समत्ते भवइ' प्रथमं चन्द्रायणं समाप्तं भवति । चन्द्रायणं हि नक्षत्रार्द्धमासप्रमाणं भवति, ततश्च नाक्षत्रेण अर्द्ध मासेन चन्द्रचारे त्रयोदशमण्डलानि, चतुर्दशस्य च मण्डलस्य त्रयोदश सप्तपष्टिभागा. (१३-१३) भवन्ति । तत्कथं लभ्यते ? त्रैराशिकगणितेन लभ्यते तथाहि-एकस्मिन् युगे चन्द्रमण्डलानि अष्ट षष्टयधिकानि सप्तदशगतानि (१७६८) भवन्ति, चन्दायणानि च चतुस्त्रिंशदधिकशतसंख्यकानि (१३४) भवन्ति ततो यदि चतुस्त्रिंशदधिकेन अयनशतेन (१३४) सप्तदशशतानि अष्ट षष्टयधिकानि(६३६८) मण्डलानि लभ्यन्ते तत एकेन अयनेन किं लभ्यते ? राशित्रयस्थापना-१३४।१७६८। १॥ ततोऽन्त्येनं राशिना मध्यरागौ गुणिते सति जातस्तावानेव (१७६८) ततस्तस्यायेन राशिना ११३४) भार्गो हियते, लब्धास्त्रयोदश (१३) शेषास्तिष्ठन्ति षड्विंशति. (२६)ततश्छेद्यछेदक Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ' चन्द्रप्राप्तिसूत्रे रायोदिकेनापवर्तनायां लब्धास्त्रयोदश सप्तपष्टिः क्तञ्च ६७ "तेरसय मंडलाणिय, तेरस सत्तहि चेव भागाय। । । अगणेण चरइ सोमो; नक्खत्तेणऽद्धमासेणं ॥१॥ छाया-त्रयोदश च मण्डलानि च, त्रयोदश सप्तपष्टिश्चैव भागाश्च । अयनेन (एकेन) चरति सोमः, नक्षत्रेणार्द्धमासेन ॥ इति । एतच्च सामान्येन प्रोक्तं, विशेषविचारणायां तु एकस्य चन्द्रस्य , युगगते प्रथमेऽयने पूर्वोक्तेन प्रकारेण दक्षिणभागादभ्यन्तरं प्रवेशे द्वितीयादीनि एकान्तरितानि चतुर्दशपर्यन्तानि सप्तमर्द्धमण्डलानि प्राप्यन्ते, एवम्-उत्तरभागादभ्यन्तरप्रवेशे, च तृतीयादीनि एकान्तरितानि त्रयोदशपर्यन्तानि पडूमण्डलानि परिपूर्णानि अर्द्धमण्डलानि, सप्तमस्य तु, पञ्चदश मण्डलगतस्य अर्द्धमण्डलस्य त्रयोदश सप्तपष्टिभागाः (१३।१-३) भवन्तीति सर्वं पूर्व सविस्तर प्रदर्शितमेवेति । यथा प्रथमे चन्द्रायणे एकस्य चन्द्रस्य यावन्ति दक्षिणभागाद् उत्तरभागाच्च अभ्यन्तर प्रवेशेऽर्द्धमण्डलानि साक्षात् प्रदर्शितानि तदनुसारेणैव द्वितीयस्यापि चन्द्रस्य तस्मिन्नेव प्रथमे चन्द्रायणेऽर्द्धमण्डलानि भवन्ति तथाहि-सपाश्चात्य युगपरिसमाप्तिचरमदिवसे दक्षिणदिग्भागे सर्ववाह्यमण्डले चारं चरित्वा भभिनवस्य युगस्य प्रथमेऽयने प्रथमेऽहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि द्वितोयमर्द्धमण्डलं प्रविश्य चार चरति, द्वितीयेऽहोरात्रे दक्षिणस्यां दिशि सर्वबाह्यात् मण्डलात् तृतीयमर्द्ध मण्डलं प्रविश्य चारं चरति, तृतीयेऽहोगत्रे उत्तरस्या दिशि चतुर्थमर्द्धमण्डलं प्रविश्य चारं चरति, इत्यादि प्रागुक्तानुसारेणैव सकलमपि वक्तव्यम् । पूर्ववदस्यापि द्वितीयस्य चन्द्रस्य प्रथमेऽयने उत्तरभागादभ्यन्तरप्रवेशे द्वितीयादीनि एकान्तरितानि चतुर्दशपर्यन्तानि सप्त अर्द्धमण्डलानि भवन्ति, एवं दक्षिणभागादभ्यन्तरप्रवेशे च तृतीयादीनि एकान्तरितानि त्रयोदश पर्यन्तानि पदममण्डलानि, तदुपरि पञ्चदशस्य चार्द्धमण्डलस्य त्रयोदश सप्तपष्टिभागा भवन्ति, तत आगतम्-त्रयोदशमण्डलानि परिपूर्णानि, चतुर्दशस्येति पञ्चदशस्य मण्डलस्य त्रयोदश सप्त पष्टिभागाः (१३१३ ) इति । एवं च सनि च चन्द्रार्द्धमास-नाक्षत्रार्द्धमासयोर्न समानत्वमिति सूत्रकार. प्रदर्शयति'ता णयग्यत्त' इत्यादि, 'ता' तावत् 'नक्खत्ते अद्धमासे' यः नाक्षत्रोऽर्द्रमासः 'नो चंदे अद्धमासे' नो चान्द्रोऽर्द्रमासो भवति । अत्र कश्चित् शहते-नाक्षत्रोऽर्धमासश्चान्द्रोऽर्धमासो न भवति, इति मन्ये किन्तु यश्चान्द्रोऽर्धमासः सतु कटाचितू नाक्षत्रोऽप्यर्धमासो भवितुमर्हति Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा. १३सू. ३ मण्डलेषु चन्द्रार्द्धमासचारनिरूपणम् ५८५ यथा “परमाणुप्रदेशः" इति कथने परमाणुरप्रदेश एव, यस्तु अप्रदेशः स. परमाणुरपि भवति अपरमाणुरपि भवति क्षेत्रप्रदेशादिः इत्याशङ्कायामाह सूत्रकारः 'ता चंदें इत्यादि, 'ता चंदे अद्धमासे, नो नक्खत्ते अद्धमासे' यथा नाक्षत्रोऽर्द्धमासश्चान्द्रोऽर्द्धमासो न भवति तथैव चान्द्रोऽर्द्धमासोऽपि नाक्षत्रोऽर्द्धमासो न भवति, यतो नाक्षत्रार्द्धमासरूपे. एकस्मिन्नयने सामान्यतश्चन्द्रस्य त्रयोदश मण्डलानि चतुर्दशस्य च मण्डलस्य त्रयोदश सप्तपष्टिभागाः ( १३।१३) भवन्ति, चान्द्रेऽर्द्धमासे च चतुदर्श मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्डलस्य चतुर्विशत्यधिक शतभागसत्का द्वात्रिंद्भागाः (१४। ३२ ) भवन्ति ततो नाक्षत्रार्द्धमास-चान्द्रार्द्धमासयोः परस्परं न साम्यमिति । पुनर्गीतमः पृच्छति 'ता' तावत् 'नक्खत्ताओ अद्धमासाओ' नाक्षत्राद् अर्द्धमासात् ‘से चंदे स चन्द्रः 'चंदेणं अद्धमासेणं' चान्द्रेण अर्द्धमासेन 'किमधियं चरइ' किमधिकं कियत्परिमितमधिकं चरति ? भगवानाह--'ता एगं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एग अद्धमंडलं' एकमर्द्धमण्डलं 'चरई' चरति, 'अद्धमंडलस्स' द्वितोयस्य चार्द्धमण्डलस्य 'चत्तारि य सत्तहिभागाई' चतुरः सप्तपष्टिभागान् पुनश्च 'सत्तट्टिभाग' एक सप्तपष्टिभागं 'एगतीसाए छित्ता' एकत्रिंशता छित्त्वा एकस्य सप्तपष्टिभागस्य एकत्रिंशतं भागान् कृत्वा तन्मध्यात् 'नवभागाई नवभागान् नव एकत्रिंशद्भागान् (१ -- ) । एतावत्परिमितं चन्द्रः नाक्षत्रार्द्धमासात् ६७३१ चान्द्रेण अर्द्धमासेन अधिकं चरतीति भावः । कथमेदिति प्रदर्य अत्रापि त्रैराशिकं कर्त्तव्यम् तथाहि--यदि चतुर्वि शत्यधिकेन पर्वशतेन अष्टषष्टयधिकानि सप्तदश मण्डलशतानि लभ्यन्ते तर्हि एकेन पवणा किं लभ्यते ! राशित्रयस्थापना-(१२४।१७६८३१) अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणानात् जातस्तावानेन ( १७६९ ) तत आधेन राशिना (१२४ ) भागो हरणीयः, ततः छेद्यछेदकराश्योश्चतुष्केन अपवर्त्तना क्रियते, कथम् ? अत्र छेद्यराशिः अष्टषष्टयधिकानि सप्तदशशतानि (१७६८) अस्य चतुष्केन अपवर्त्तनेति चतुर्भिर्भागो हियते लब्धानि द्विचत्वारिंशदधिकानि चत्वारिशतानि (४४२) ततश्छेदकराशेश्चतुर्विशत्यधिकशतरूपस्य (१२४) चतुष्केन अपवर्त्तनेति चतुर्भिभागो हियते लब्धानि एकत्रिंशत् (३१) । ततोऽपवर्तितस्य छेघराशे चित्वारिंशदधिक चतुः शतरूपस्य (४४२) अपवर्त्तितेन छेदकराशिना एकत्रिंशपेण (३१) भागो हियते लब्धाश्चतुर्दश (१४) मण्डलानि, शेषास्तिष्ठन्ति अष्ट, ते चाष्ट एक त्रिंशद्भागाः (१४८ )। तत एतस्माद् राशेर्नाक्षत्रार्द्धमासगम्यं क्षेत्रम्-त्रयोदश मण्डलानि, एकस्य च ।। १ । । Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे मण्डलस्य त्रयोदश सप्तपष्टिभागा ( १३/१३ ) इत्येवं प्रमाणं शोध्यते, तत्र चतुर्दशेभ्यस्त्रयोदश मण्डलानि शुद्धानि स्थितं शेपमेकम् (१), ततः अष्टभ्य एकत्रिंशद्भागेभ्यस्त्रयोदश सप्तपष्टिभागाः शोध्याः तथाहि-सप्तपष्टिग्टमिर्गुण्यते, जातानि षट्त्रिंशदधिकानि पञ्चशतानि (५३६), प्रयोदश च एकत्रिंशता गुण्यन्ते जातानि त्र्युत्तराणि चत्वारिशतानि (४०३) एतानि अष्ट सप्तपष्टि गुणन प्राप्तेभ्यः पत्रिंशदधिकपञ्चशतेभ्यः (५३६) शोध्यन्ते, स्थितं शेषं त्रयस्त्रिशदधिकं गतम् (१३३), तत एतत् सप्तपष्टि भागानयनाथ सप्तपष्टया गुण्यते, जातानिएकादशाधिकानि नवाशीति शतानि (८९११) एप छेद्यराशिः, मौलश्छेदक राशिरेकत्रिंशत् स सप्तपष्टया गुण्यते जाते सप्त सप्तत्यधिके द्वे सहने (२०७७) एप छेदकराशिः, ततश्छेद्यच्छेकराश्योः सप्तपष्टयाऽपवर्तना 'क्रियते सप्तपष्टया कृतायामपवर्तनायामागत छेधराशिस्त्रयास्त्रिशदधिकमेकं शतम् (१३३), छेदकराशिश्चागत एकत्रिंशत् (३१) ततोऽनेन छेदकराशिना छेघराशेः (१३३ ) भागो हियते लब्धाश्चत्वारः सप्तपप्टिभागाः, शेषास्तिष्ठन्ति-नवेति ,एक त्रिंगच्छेदकृता नव एकत्रिंशदभागाश्चूर्णिकाभागा ( १ 1) तत आगतम् - एकमर्द्धमण्डलम्, द्वितीयस्य चार्द्धमण्डलस्य चत्वारः सप्तपष्टिभागाः, एकस्य च सप्तपष्टिभागस्य नव एक त्रिंशदागाः। एतावत्परिमितं क्षेत्रं नाक्षत्राईमासात् चन्द्रश्चान्द्रेणार्द्धमासेन अधिकं चरतीति सिद्धम् । उक्तन्च "एगं च मंडलं मंडलस्स सत्तद्विभागा चत्तारि । नव चेव चुण्णियाओ, इगतीसकरण छेएण ॥१॥" छाया--एक च मण्डलं (अर्द्ध मण्डलम् ) मण्डलस्य (एकस्य चान्द्रमण्डस्य) सप्तपष्टिमागाश्चचारः। नव चैत्र चूर्णिकाः (भागाः) एकत्रिंशत् कृतेन छेदेन ॥इति । अत्र गणितप्रकरणे 'मण्डलं मण्डलं' इति कथितं तत्र सर्वत्र मण्डलशब्देन अर्द्ध मण्डलमिति वाच्यम् अत्रार्द्धमण्डलानामेव प्रकृतत्वादिनि । तदेवमेकस्य चन्द्रायणस्य वक्तव्यता प्रोक्ता, साम्प्रतं द्वितीयचन्द्रायणवक्तव्यता प्रस्तूयते, तत्र यश्चन्द्रः प्रथम चन्द्रायणे दक्षिणभागाटभ्यन्तरं प्रविशन् मप्ताधमण्डलानि, उत्तरभागादभ्यन्तरं प्रविशन् पङ् अर्द्धमण्डलानि, सप्तमस्य चादितः पञ्चदशरूपस्याईमण्डलस्य त्रयोदश समपष्टि मागान् चरितवान्, तमधिकृत्य द्वितीयायनभावना करिष्यते, तत्रायनस्य मण्डलक्षेत्रपरिमाणं प्रयोदग अनुमण्डलानि, चतुर्दशस्य चार्द्धमण्डलस्य त्रयोदश सप्तपष्टिभागा इति । तत्र ७३१ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीकाप्रा. १३. सू. ३ मण्डलेषु चन्द्राद्धमासचारनिरूपम् ५८७ 'प्राक्तनमयनमुत्तरस्यां दिशि सर्वाभ्यन्तरे मण्डले प्रयोदश सप्तषष्टिभागपर्यन्ते परिसमाप्तं भवति, तदनन्तरं द्वितीयायनप्रवेशे चतुः पञ्चाशता , सप्तपष्टिभागैः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं परिसमाप्य ततो द्वितीये मण्डले चारं चरति । तत्र त्रयोदशभागपर्यन्ते एकम मण्डलं द्वितयस्यायनस्य परिसमाप्त भवति । द्वितीयमर्द्धमण्डलमुरस्यां सर्वाभ्यन्तरात्तृतीयेऽर्द्धमण्डले त्रयोदशभागपर्यन्ते, तृतीयमर्द्धमण्डलं दक्षिणस्यां दिशि चतुर्थेऽर्द्धमण्डले, चतुर्थमर्द्धमण्डलमुत्तस्यां दिशि पञ्चमेऽर्द्धमण्डले, पञ्चममर्द्ध'मण्डलं दक्षिणस्यां दिशि पष्ठेऽर्द्धमण्डले, पष्ठमर्द्धमण्डलमुत्तरस्यां दिशि सप्तमेऽर्द्धमण्डले, 'सप्तममर्द्धमण्डलं दक्षिणस्यां दिशि अष्टमेऽर्द्धमण्डले, अष्टममर्द्धमण्डलमुत्तस्यां दिशि नवमेऽर्द्धमण्डले, नवममर्द्धमण्डलं दिक्षिणस्यां दिशि दशमेऽर्द्धमण्डले, दशममर्द्धमण्डलमुत्तस्यां दिशि एकादशेऽर्द्धमण्डले, "एकादशमर्द्धमण्डलं, दक्षिणस्यां दिशि द्वादशेऽर्द्धमण्डले, द्वादशममर्द्धमण्डलमुत्तरस्यां दिशि त्रयोदशेऽमण्डले, त्रयोदशमर्द्धमण्डलं दक्षिणस्यां दिशि चतुर्दशेऽर्द्धमण्डले, चतुर्दशमद्धमण्डलं. तच्च पञ्चदशस्यार्द्धमण्डलस्य त्रयोदशभागवर्यन्ते परिसमाप्तम् । तदनन्तरं त्रयोदश सप्तषष्टिभागान् अन्यान् पञ्चदशमण्डलसत्कान् चरति । एतावता द्वितीयमयनं परिसमाप्तं भवति । चतुर्दशे च - मण्डले संक्रान्तः सन् चन्द्रः प्रथमक्षणादूचं सर्ववाह्यमण्डलाभिमुखं चारं चरति, ततः परमार्थतः • कतिपयभागातिक्रमे पञ्चदशे एव सर्ववाह्यमण्डले चन्द्रो वेदितव्यः। तदेकस्मिन्नयने पूर्वभागेन - द्वितीयादीनि एकान्तरितानि चतुर्दशपर्यन्तानि सप्तममण्डानि चीर्णानि, पश्चिमभागे च तृतीया दीनि एकान्तरितानि त्रयोदश पर्यन्तानि षड् अर्द्धमण्डलानि, तत्र पूर्वभागे पश्चिमभागे वा यत् प्रतिमण्डलं स्वयं चीर्णमचीर्णं वा मण्डलं चरति तत्प्रदर्शयति-'ता दोच्चायणगए' इत्यादि 'ता' तावत् 'दोच्चायणगए चंदे' द्वितीयायनगतश्चन्द्रः 'पुरस्थिमाए भागाए' पौरस्त्याद् भागात् 'निक्खममाणे निष्क्रामन् 'सत्तचउप्पण्णाई' सप्तचतुष्पञ्चाशत्कानि सप्तपष्टि भागसत्कानि त्रयोदश भागाश्च प्रथमायने चीर्णत्वात् 'जाई' यानि 'चंदे' चन्दः 'परस्स चिन्न' परस्य अत्र तृतीयार्थे षष्टीति परेण चिर्णानि मूले आर्षत्वादेकवचनम् 'पडिचरइ' प्रतिचरति 'सत्ततेरस गाई' सप्तत्रयोदशकानि सप्तपष्टिभाग सत्कानि 'जाइं चंदे' यानि चन्द्रः 'अप्पणा चिण्ण' आत्मना चीर्णानि 'चरइ' चरति । अत्रेयं भावना-मेरोः पूर्वस्यां दिशि यो भागः स पूर्व भागः, यश्चापरस्यां दिशि भागः स पश्चिमभागः कथ्यते । तत्र पूर्वभागे सप्तस्वपि द्वितीयादिषु एकान्तरितेषु चतुर्दशपर्यन्तेषु सप्तपष्टिभागप्रविभक्तेषु अर्द्धमण्डलेषु प्रत्येकं चतुष्पञ्चाशतं चतुष्पञ्चाशतं सप्तषष्टिभागान् चन्द्रः परेण सूर्यादिना चीर्णानि प्रतिचरति, तत्रैव द्वितीययुगे गतश्चन्द्रः सप्त च त्रयोदशत्रयोदश सप्तषष्टिभागान् स्वयं चीर्णान् चरतीति । 'ता दोच्चायणगए' इत्यादि, 'ता' इति, ततः 'दोच्चायणगए चंदे' द्वितीयायनगतश्चन्द्रः 'पच्चत्थिमाए भागाए' पाश्चात्याद् भागात् 'निक्खममाणे' निष्क्रामन् पश्चिमभागान्निष्क्रमण Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. चन्द्रप्राप्तिसूत्रे समये 'छ चउप्पण्णाई पट् चतुष्पञ्चाशत्कानि जाई चंदे' यानि चन्द्रः 'परस्स-चिण्णं' परेण सूर्याटिना चीर्णानि 'पडिचरइ' प्रतिचरति, 'छतेरसगाई' षटू त्रयोदशकानिः 'चंदे चन्द्रः 'अप्पणो चिणं' आत्मना चीर्णानि 'पडिचरइ' प्रतिचरति । अत्रेयं भावना-पश्चिमे भोगे पट्स्वपि तृतीयादिपु एकान्तरितेपु त्रयोदशपर्यन्तेषु अर्द्धमण्डलेषु सप्तपष्टिभागप्रविभक्तेषु प्रत्येक • चतुष्पञ्चाशकं सप्तपष्टिभागसत्कं सप्तपष्टिभागानित्यर्थः चरति, षट् च त्रयोदश सप्तपष्टि भागान् स्वयं चीर्णान् चरतीति । पुनश्च एकान्तरितत्वेन पञ्चदशस्य मण्डलस्य 'अवरगाई' अपरके तदतिरिक्त अन्ये 'दुवे तेरसगाईद्वे त्रयोदशके 'जाइ चंदे' ये चन्द्रः 'केणइ' केनापि सूर्यादिना 'असामण्णगाई' असामान्यके अनाचीर्णपूर्वे 'सयमेव' स्वयमेव 'पविसित्ता'२ प्रविश्य २ 'चारं चरई' चारं चरति । अत्र पृच्छति-'कयराइ' खलु इत्यादि, कयराई' कतरे के खलु 'ताई दुवे तेरसगाई" ते द्वे त्रयोदशके 'जाई चंदे' ये चन्द्रः 'केणइ असामण्णगाई' केनापिं असामान्यके अनाचीर्णपूर्व 'सयमेव पविसियत्ता २' चारं चरइ' स्वयमेव प्रविष्य २, चारं चरति ? । अत्रोत्तरमाह-'इमाई' खल्लु' इत्यादि 'इमाइंखल्लु' इमानि वन्यमाणानि खलु 'ताई दुवे तेरसगाई ते द्वे त्रयोदशके 'जाई चंदे केणइ असामण्णगाई सयमेव पविसित्ता २ चारं चरई' ये चन्द्रः केनापि असामान्यके स्वयमेव प्रविश्य २ चारं चरति । ते एव दर्शयति-तं जहा': इत्यादि 'तं जहा' तद्यथा ते यथा-'सबभतरे - चेव मंडले ? सव्ववाहिरे चेव मंडले, सर्वाभ्यन्तरे चैव मण्डले सर्वबाह्ये चैव मण्डले २ • उपसंहारमाह--'एयाणि' इत्यादि, 'एयाणि' एते अनुपदं प्रदर्शिते खलु 'वाणिः , दुवे तेरसगाई' ते द्वे त्रयोदशके 'जाई चंदे' ये चन्द्रः 'केणइ जाव चारं चरई' केनापि" असामान्यके स्वयमेव प्रविश्य २, चारं चरति । अत्र यत् द्वे त्रयोदशके कथिते तत्रैवं विज्ञेयम् तत्र यदेकं त्रयोदशकं सर्वाभ्यन्तरे मण्डले तत् पाश्चात्यायनगतं पञ्चदशार्द्धमण्डलसत्कं वेदितव्यम् , नस्यैव सभवास्पदत्वात् द्वितीयं त्रयोदशकं सर्वबाह्ये मण्डले चरिष्यमाणं पर्यन्तवतिप्रतिपत्तव्यमिति । एपा एकं चन्द्रमधिकृन्य द्वितीयायनवक्तव्यता प्रोक्ता, ततो द्वितीयं चन्द्रमधिकृत्य द्वितीयायनवक्तव्यता एतदनुसारेणैव भावनीया । अत्रायं विशेषः तत्र प्रथमचन्द्रमाश्रित्य द्वितीयायने चन्द्रम्य प्रथम पूर्वभागान्निष्क्रमणं प्रोक्तम् अत्र द्वितीयचन्द्रमाश्रित्य द्वितीयायने प्रथमपश्चिमभागात् ततः पूर्वभागात् एवं वैपरीत्येन चन्द्रस्य निष्क्रमणं वाच्यम् तत्र पूर्व भागे पद चतुष्पञ्चाशत्कानि परिचीर्णानि, पट् त्रयोदशकानि च स्वयं चीर्णानि चरतीति वकन्यम् 1 छोप गर्व पूर्ववदेव ज्ञातव्यमिति । अथ द्वितीयायनपरिसमाप्तिमाह--'एयावया' इत्यादि, 'एयावया' एतावता एतावत्कालेन चन्द्र द्वयचरणरूपेण समयेन 'दोच्चे चंदायणे' Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१३ सू. ३...मण्डलेषु चन्द्रार्द्धमासचार निरूपणम् (५८९ . द्वितीयं चन्द्रायणं 'समत्ते भवई' समाप्तं भवतीति ।२। यद्येवं द्वितीयमप्ययनमेतावत्प्रमाणं •-भवति ततो नाक्षत्रमासस्य चान्द्रमासस्य च किं साम्यमस्ति ? नेत्याह-'ताणक्खत्ते' इत्यादि 'ता' तावत् 'नक्खत्ते मासे' नाक्षत्रो मासः 'नो चंदे मासे' नो चान्द्रो; मासो भवति एवं 'चंदे मासे' चान्द्रो मासः 'णो णक्खत्ते मासे' नो नाक्षत्रो मासः चान्द्रो मासो नाक्षत्रो मासो न भवतीत्यर्थः । एवं श्रुत्वा गौतमः पृच्छति-'ता णक्खत्ताओ'. इत्यादि - 'ता' तावत् ‘णक्खत्ताओ' नाक्षत्रात् मासात् 'चंदे' चंद्रः 'चदेणं मासेणं' चान्द्रेन मासेन 'किमधियं चरई' किम् कियत्प्रमाणम् अधिकं चरति ? । एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह-- , 'ता दो अद्धमडलाई' इत्यादि, 'ता' तावत् 'दो अद्धमंडलाई चरइ' द्वे अर्द्धमण्डले चरति, 'अट्ठयसत्तद्विभागाई' अष्ट च सप्तपष्टिभागान् 'अद्धमंडलस्स' तृतीयस्याई-मण्डलस्य, तथा 'सत्तहिभाग' च एकं च सप्तपष्टिभागं 'एक्कतोसधा छित्ता' एकत्रिंशद्धा छित्त्वा. एकस्य . सप्तपष्टिभागस्य एकत्रिंशद् भागान् कृत्वा तन्मध्यात् 'अट्ठारसभागाइं! अष्टादश भागान् चरति-(२ ) एतावत्परिमितं द्वितीये चन्द्रायणे चन्द्रश्चान्द्रेण मासेनाधिकं चरतीति भावः एतच्च प्रथमचन्द्रायणगताधिक्यात् द्विगुणं कृत्वा परिभावनीयम् । ... : ___अथ यावता कालेन चान्द्रो मासः परिपूर्णो भवति तावन्मात्र तृतीयायनवक्तव्यतामाह- 'ता तच्चायणगए चंदे' इत्यादि, अत्र पूर्वसम्बन्धः परिभावनीयः-इह द्वितीयायनंपर्यन्ते चतुदेशेऽर्द्धमण्डले पड्विंशति सख्यक सप्तष्टि भागमात्रमाक्रान्तम् , तच्च ‘परमार्थतः- पंञ्च‘दशमर्द्धमण्डलं वेदितव्यम् , तदभिमुखं बहुगतत्वात् , तदनन्तरं नीलवत्पर्वतप्रदेशे साक्षात् पञ्च - दशमर्द्धमण्डलं प्रविष्टो भवति, तत्र प्रविष्टश्च प्रथमक्षणादूर्ध्व सर्व बाह्यमण्डलानन्तरार्वाक्तनं (समी- ' पस्थ) द्वितीयमण्डलाभिमुख चरति, ततस्तस्मिन्नेव सर्वबाह्यमण्डलान्तरे अक्तिने द्वितीय मण्डले चारं चरतश्चन्द्रस्यात्र विवक्षा वर्तते, ततोऽस्याधिकृतसूत्रत्रयस्य सम्बन्धो जायते' 'ता' तावत् 'तच्चायणगए चंदे' तृतीयायनगतश्चन्द्रः' 'पच्चत्थिमाए भागाए, 'पाश्चात्याद् - भागात् 'पविसमाणे' प्रविशन् 'वाहिराणतरस्स' बाह्यानन्तरस्यार्वाग् भागवर्तिनः 'पच्चत्थिi मिल्लस्स अद्धमंडलस्स' पाश्चात्यस्यार्द्धमण्डलस्य 'इगतालीसं सत्तद्विभागाई' एकचत्वारिंशत - सप्तषष्टिभागान् , सप्तपष्टिसंख्यकभागानां मध्यात् षड् विंशति संख्यकसप्तषष्टिभागानां द्वितीया यनपर्यन्ते चतुर्दशेऽर्द्धमण्डले समाक्रान्तपूर्वत्वात् शेषान् एकचत्वारिंशतं, सप्तषष्टिभागानिति भावः, 'जाई चंदे' यान् चन्द्रः 'अप्पणो परस्स य चिण्णं पडिचरइ' आत्मनाः परेण वा - सूर्यादिना चीर्णात् स्वपरभुक्तभागान् प्रतिचरति, 'तेरस सत्तट्टि भागाई त्रयोदश सप्तषष्टि भागास्ते 'जाई चंदे, यान् चन्द्रः-'परस्स चिण्णं पडिचरइ, परेण सूर्यादिना चीर्णान् प्रति - Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: .. चन्द्रप्राप्तिसूत्रे 'चरति 'तेरस सत्तट्टि भागाई' अन्ये त्रयोदश सप्तपष्टिभागास्ते 'जाई' यान् 'चंदे चन्द्रः 'अप्पणो परस्स य चिणं' आत्मना परेण च चीर्णान् 'पडिचरई' प्रतिचरति । 'एयावया' एतावता परिभ्रमणेन 'वाहिराणंतरे' बाह्यानन्तरमक्तिनं 'पच्चस्थिमिल्ले अद्धमंडले' पाश्चा'त्यमर्द्धमण्डलं 'समत्ते भवई' समाप्तं भवति । अथ · पौरस्त्यार्द्धभागमाश्रित्याह- 'ता तच्चायणगए चंदे' तावत् तृतीयायनगतश्चन्द्रः 'पुरस्थिमिल्लाए भागाए। पौरस्त्याद् भागात् 'पविसमाणे' प्रविशन् 'वाहिर तच्चस्स' बाह्यतृतीयस्य सर्वबाह्यादाक्तनस्य 'पुरस्थि मिल्लस्स अद्धमंडलस्स' पौरस्त्यस्यार्द्धमण्डलस्य 'इगतालीसं सत्तविभागाई' एकचत्वारिंगतं सप्तपष्टिभागान् 'जाई चंदो' यान् चन्द्रः 'अप्पणो परस्सय चिंणं' आत्मना परेण च चीर्णान् 'पडिचरइ' प्रतिचरति ततः परं परचीर्ण त्रयोदशभाग-स्वपर चीर्णत्रयोदश भागे ति पइ विंशति भागान् पुनश्चरतीति प्रदर्श्यते-'तेरस सत्तहि भागार्ड' अन्ये ते त्रयोदश सप्तषष्टि भागाः सन्ति 'जाई चंदे' यान् चन्द्रः 'परस्स चिणं पडिचरई' परेण चीर्णान् प्रतिचरति, पुनरन्ये च ते–'तेरस सत्तट्टि भागाई' त्रयोदश सप्तपष्टिभागा सन्ति 'जाई चंदे' यान् चन्द्रः 'अप्पणो परस्सय चिण्णं पडिचरई' आत्मना परेण च चोर्णान् ‘प्रतिचरति 'एयावया' एतावता 'वाहिरतच्चे' बाह्य तृतीयं सर्व बाह्यान्मण्डलादस्तिनं तृतीयं 'पुरथिमिल्ले अद्धमंडले' पौरस्त्यमर्द्धमण्डलं 'समत्ते भवइ' समाप्तं भवति । सप्तपण्टे भगानां परिपूर्णजातत्वात् । अथ पाश्चात्यभागमाश्रित्य चन्द्रचारमाह-'ता तच्चायणगए' इत्यादि, 'ता' तावत् 'तच्चायणगए चंदे' तस्मिन्नेव तृतीयायने गतश्चन्द्रः 'पच्चत्थिमाए भागाए' पाश्चात्याद् भागात् 'पविसमाणे' प्रविशन् 'वाहिर चउत्थस्स' सर्व बाह्यान्मण्डलादर्वाक्तनस्य 'पच्चरिथमिल्लस्स अद्धमंडलस्स' पाश्चात्यस्यार्द्धमण्डलस्य 'अद्धसत्तट्ठिभागाई' अर्द्ध सप्तपष्टिभागान् तथा 'सत्तहिमागंच' एकं च सप्तपष्टिभागं 'एक्कतीसधा छित्ता' एकत्रिंशद्धा छित्वा एकस्य सप्तपष्टिभागस्य एकत्रिंशतं भागान् कृत्वा तन्मध्यात् ते 'अट्टारसभागाई' अष्टादशभागाः - 'जाई.चंदे' यान् चन्द्रः 'अप्पणो परस्स य चिण्ण' अत्मना परेण च चीर्णान् 'पडिचरई' प्रतिचरति । 'एयावया' एतावता परिभ्रमणेन 'वाहिरचउत्थे' वाह्यचतुर्थं सर्वबाह्यान्मण्डलादर्वाक्तनचतुर्थ 'पच्चथिमिल्ले अद्धमंडले' पाश्चात्यमर्द्धमण्डलं 'समत्ते भवइ' समाप्तं भवति । एवं च तत्परिसमाप्तो चान्द्रो मासः परिपूणों जात इति । साम्प्रतं पूर्वोक्तमेव सर्व प्रदर्शयन् चन्द्रमासगतमुपसंहारमाह-एवं खलु' इत्यादि एवं खलु' एवमुक्तेन प्रकारेण खलु निश्चितं 'चंदेणं मासेणं' चान्द्रेण मासेन चंदे चन्द्रः 'तेरस चउप्पण्णगाई' त्रयोदश-त्रयोदश संख्यकानि, चतुष्पञ्चाशत्कानि चतुप्पञ्चाशदाशिरूपाणि 'दुवे तेरसगाई द्वे त्रयोदशके के ते इत्यमाह'जाई चंदें ये चन्द्रः 'परस्स चिण्णं' परण चीर्णे 'पढिचरइ' प्रतिचरति, वर्तमानकालनिर्देशः Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१३ सू. ३ मण्डलेषु चन्द्रार्द्धमासचारनिरूपणम् १९१.. सकलकालयुगस्य प्रथमे चान्द्रे मासे एवमेव चारसद्भावात् अत्रेयं भावना तत्र त्रयोदशापि चतु-- प्पञ्चाशत्कानि द्वितीयेऽयने, तत्रापि सप्त चतुष्पञ्चाशत्कानि, पूर्वभागे षट् च पाश्चात्ये भांगे, एवं त्रयोदश भवन्ति, ये च द्वे त्रयोदशके ते द्वितीयायनस्योपरि चान्द्रमासावधेराक् द्रष्टव्यम्, तत्र द्वयोस्त्रयोदशकयोर्मध्ये एकं त्रयोदशकं. सर्वबाह्यादाक्तने द्वितीये पाश्चात्येऽर्द्धमण्डले, द्वितीय त्रयोदशकं च पौरस्त्ये तृतीयेऽर्द्धमण्डले विज्ञेयमिति । पुनश्च-'तेरस २ गाई' इत्यादि, 'तेरस तेरसगाई' त्रयोदश त्रयोदशकानि 'जाई चंदे' यानि चन्द्रः 'अप्पणो चिण्णं पडिचरइ' आत्मना चीर्णानि प्रतिचरति । एतानि च सर्वाण्यपि द्वितीयेऽयने वेदितव्यानि, तत्रापि सप्त त्रयोदशकानि पूर्वभागे, पट् च पश्चिमभागे इति विज्ञेयम् । तथा 'दुवे इगतालीसगाई' वे एक चत्वारिंशत्के 'अट्ट सत्तट्टि भागाई' अष्टौ सप्तपष्टिभागाः, 'सत्तद्विभागं च' एकं च सप्तपष्टि भागं 'एक्कतीसधा छित्ता' एकत्रिंशदा छित्वा एकस्य सप्तपष्टिभागस्य एकत्रिंशदभागान् कृत्वा तन्मध्यात् 'अट्ठारस भागाई भष्टादशभागान् 'जाई' यान् तान् 'चंदे' चन्द्रः 'अप्पणो' परस्स य चिण्णं' आत्मना परेण च चीर्णान्-'पडिचरइ' प्रतिचरति । 'अवराई खल अपरे अन्ये खलु 'दुवे तेरसगाइ' द्वे त्रयोदशके 'जाई चंदे ये वे ते चन्द्रः 'केणड असामण्ण गाई' केनापि असामान्यके अनाचीर्णपूर्वे 'सयमेव' स्वयमेव 'पविसित्तार' प्रविश्य प्रविश्य 'चारं चरइ' चारं चरति । तत्र-एकम् एकचत्वारिंशत्कम्, एक च त्रयोदशक द्वितीयायनोपरि सर्ववाह्यात् मण्डलात् अक्तिने द्वितीये पाश्चात्येऽर्द्धमण्डले, तथा-द्वितीयम् एकचत्वारिशत्कम्, द्वितीयंच त्रयोदशक सर्व बाह्यान्मण्डलादर्वाक्तने तृतीये पौरस्त्ये विज्ञेयम् शेषाः ये अष्टपष्टि,मागाः तत्सम्बन्धिनः अष्टादश एकत्रिंशद्भागा ३चूर्णिकाभागाः, एकस्य सप्तषष्टिभागस्य एकत्रिंशद्भागान् कृत्वा तन्मध्याद ये अष्टादश भागास्ते चूर्णिका भागाः कथ्यन्ते, ते पाश्चात्ये सर्वबाह्यादवाक्तिने चतुर्थेऽर्द्धमण्डले विज्ञेयाः । अथोपसंहरति-'इच्चेसा' इत्यादि, 'इच्चेसा' इत्येपा पूर्वोक्तस्वरूपा 'चंदमसो' चन्द्रमसः चन्द्रस्य संस्थिति रित्यग्रेण सम्बन्धः । कीदृशी सा! इत्याह 'अभिगमणणिवखमणवुढि-णिवुढिअणवट्टियसंठाणा' अभिगमन-निष्क्रमणवृद्धि-निर्वृद्धयनवस्थितसंस्थाना, तत्र-अभिगमनम्-सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरं प्रवेशनम्, निष्क्रमणम्-सर्वाभ्यन्तरान्मण्डला द्वहिर्गमनम्, वृद्धिः-कलावृद्धिः चन्द्रस्य प्राकटयोपचयः, निर्वृद्धिःकलाहानिः चन्द्रस्य प्राकटयापचयः एभिः प्रकारै. अनवस्थितम्-अवस्थितिरहितं समयमनेकधा दृश्यमानत्वात् एतादृशं सस्थानम् तत्र-अभिगमनं निष्क्रमणं चाधिकृत्यावस्थानं वृद्धी निर्वृद्धी अधिकृत्यं च संस्थानम् आकारो यस्याः सा तथाभूता 'संठिई' संस्थितिरस्ति । तथा विउव्वणगिढिपत्ते' विकुर्वणक ऋद्धिप्राप्तः स्पी.. अतिशयरूपवान् 'चंदे देवे चंदें देवे' चन्द्रो देवः पूर्वोक्त विशेषणविशिष्ट श्चन्द्रों - देवों वर्तते, नतु परिदृश्यमान विमानमात्रश्चन्द्रः किन्तु }}s: . . . . . . . ! Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ : ' , चन्द्रप्राप्ति तादृश विमानचारी चन्द्राभिधों देवोऽस्तीति 'आहिए' आख्यातो मया 'तिवएज्जा' इति वदेत् कथयेत् स्व शिष्येभ्यः ।। सू० ।।३।। इति श्री जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासी. लालं वृतिविरचितायां चद्रन्प्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाख्यायां ' व्यख्यायां त्रयोदशं प्रामृतं - समाप्तम् ।।१३।। श्री रस्तु । ॥ चतुर्दशं प्रामृतम् ॥ __ . गतं त्रयोदशं प्रामृतम्, तत्र चन्द्रस्य वृद्धिरपवृद्धिश्च प्रतिवादिता, साम्प्रतं तत्प्रसङ्गात् 'कया ते दोसिणा यह कदा ते ज्योत्स्नाबहुः, इति पूर्वमादौ संग्रहगाथायां प्रोक्तं तदनुसारेण इह : चतुर्दशे, 'प्रामृते. ज्योत्स्नाया बहुत्वं प्रतिपादयिष्यते, इति सम्बन्धेनायातस्यास्य चतुर्दशस्य प्रामृतस्येदं सूत्रम्-'ता कया ते दोसिणा बहू' इत्यादि । । • मूलम्-ता कया ते दोसिणावहू आहिए ? ति वएज्जा, ता दोसिणा पक्खेण दोसिणा बहु आहिए ति वएज्जा । ता कहं ते दोसिणा पक्खे दोसिणा वह आहिए ति वएज्जा ताअधयारपक्खाओ णं दोसिणपक्खे दोसिणा बहू आहिए ति वएज्जा ता कहं ते अंधयार पक्खाओण दोसिणा पक्खे दोसिणा वह आहिए ति वएज्जा ? ता अंधयारपक्खाओ णं दोसिणापक्खं अयमाणे चंदे चत्तारि वायालाई मुद्दत्तसयाई, छत्तालीसं च बावट्ठिभागे मुहुत्तस्स जाइ चंदे विरज्जइ, तं जहा-पढमाए पढम भाग, वितिआए वितियं भाग जाब पण्णरसीए पण्णरसं भाग, एवं खलु अंधयारपरखाओ दोसिणा पक्खे दोसिणा वह आहिए-तिवएज्जा । ता केवइया णं दोसिणा पक्खे दोसिणा वह आहिए । ति ता परिचा असंखेज्जा भागा। ता कया ते अंधयारे बहू आहिए ? ति वएज्जा ता अंधयारपक्खे णं अंधयारे बहू आहिए ति वएज्जा । ता कई ते बंधयारपक्खे अंधयारे यह आहिए । ति वएज्जा; वा दोसिणा पक्खाओ अंधयारपक्खे अंघयार बहू आहिए ति वएज्जा । ता कहं ते दोसिणा पक्खाओ अंधयार पक्खे अंधयारे वह आहिए ति वएज्जा, तादासिणा पक्खाओ णं अंधयारपक्खं अयमाणे चंदे चत्वारि वायालाई मुहुत्तसयांई छायालीसं च वावहिभागे मुहुत्तस्स, जाई चंदे रज्जइ, तं जहा-पढमाए पढमभाग, वितियाए वितियं भाग जाव पण्णरसीए पण्णरसमं भागं । एवं खल्ल दोसिणा पक्खायो अंधयारपक्खे अंधयारे बहू माहिएति वएज्जा । ता केवइएणं अंधयारपरसें अंध्यारे बह आदिए ? निवएज्जा परिचा असंखेज्जा भागा ॥ सू०१॥ चोदसमं पाहुडं समत्तम् ॥१४॥ Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा.१४ सू. १४ ज्योत्स्नाधिक्य निरूपणम् ५९३ - छाया--तावत् कदा ते ज्योत्स्ना वह राख्याता ? इति वदेत् तावतू ज्योत्स्नापक्षे खलु ज्योत्स्ना वह राख्याता ? इति वदेत् तावत् कथं ते ज्योत्स्ना पक्षे ज्योत्ला बहु आख्याता ? इति वदेत् तावत् अन्धकारपक्षात् खलु ज्योत्स्ना पक्षे ज्योत्स्ना बहराख्याता इति घदेत् । तावत् कथं ते अन्धकारपक्षात् ज्योत्स्ना पक्षे ज्योत्स्नाना बहुजाता? इति वदेत् तावत् अन्धकारपक्षात् खलु ज्योत्स्नापक्षम् अयन् चन्द्र चत्वारि निचत्वारिंशानि मुहूर्तशतानि पट्चत्वारिंशतं च द्वापष्टि भोगान् मुहर्तस्य यान् चन्द्र: वियते तद्यथा-प्रथमायां प्रथम भागम्', द्वितीयायां द्वितीयं भागम्, यावत् पञ्चदश्यां पञ्चदशंभागम् । एवं खलु अन्धकारपक्षात् ज्योत्स्नापक्षे ज्योत्स्ना बहुराख्याता, इतिवदेत। तावत कियत्का खलु ज्योत्स्ना पक्षे ज्योत्स्ना बहुराख्याता, १ इति वदेत, तावत् परीता असंख्येया भागाः तावत् कदा ते अन्धकारः बहुराख्यातः इति वदेत् , तावत् अन्धकारपक्षे खल अन्धकारो वहुराख्यात इतिवदेत् । तावत् कथं ते अन्धकारपक्षे अन्धकारो वहः आख्यातः १ इतिवदेत् तावत् ज्योत्नापक्षात् अधकारणपक्षे अंधकारो वह राख्यात तिवदेत् । तावत् कथं ते ज्योत्स्नापक्षात् अन्धकारपक्षे अन्धकारो वहुराख्यात इतिवदेत नावत ज्योत्स्ना पक्षात् खलु अन्धकारपक्षमयन् चन्द्रः चत्वारि द्विचत्वारिशानि मुहूर्तशतानि, पट चत्वारिंशतं च द्वापष्ठि भागान् मुहूर्तस्य यान् चन्द्रो रज्यते तद्यथा-प्रथमायां प्रथम भगम् द्वितीयायां, द्वितीय भागम्, यावत् पञ्च दश्यां पच्चदर्श भागम् । एवं खल ज्योत्स्ना पक्षात् अन्धकार पक्षे अन्धकारो बहुराख्यातः इति वदेत् । तावत कियत्कः खल अ. कारपक्षे अन्धकारो वहु राख्यातः? इति वदेत, परीता असंख्येया भागाः सु० ॥१४॥ ॥ चतुर्देश प्राभृतं समाप्तम् ॥ व्याख्या--'ता कया ते' इति 'ता' तावत् 'कया' कदा कस्मिन् काले हे भगवन् 'ते' त्वया तवमते वा 'दोसिणा' ज्योत्स्ना 'बहू' बहुः प्रभृता 'आहिया' आख्याता ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु भगवानाह-'ता दोसिणा पक्खे' इत्यादि ता दोसिणा पक्क्षण' ज्योत्स्ना पक्षे शुक्लपक्षे खल 'दोसिणा' ज्योत्स्ना चन्द्रिका 'बहू' बहुः प्रभृता 'आहिया' आख्यता 'तिवएज्जा' इति वदेत् कथयेत् स्वशिष्येभ्यः । पुनः पृच्छति-'ता कहते' इत्यादिना 'ता' तावत 'कह' कथं कस्मात् 'ते' तवमते 'दोसिणा पक्खे' ज्योत्स्ना पक्षे शुक्लपक्षे 'दोसिणा' ज्योत्स्ना चन्द्रिका 'वह' बहुः 'आहिया' आख्याता ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु । भगवानाह-'ता' तावत् 'अंधयारपक्खाओ णं' अन्धकारपक्षात् कृष्णपक्षमधिकृत्य खल्ल कृष्ण पक्षापेझयेत्यर्थः 'दोसिणा' ज्योत्स्ना 'बहू' बहुः 'आहिया' आख्याता 'तिवएज्जा' इति वदेत् कथयेत् । पुनः पृच्छति- 'ता कहते इत्यादि' 'ता' तावत् 'कह' कथं कस्मात्कारणात् 'ते' तवमते 'अंधयारपक्खाओ' अन्धकारपक्षात् अन्धकारपक्षापेक्षया 'दोसिणापक्खे' ज्योत्स्नापक्षे शुक्लपक्षे 'दोसिणा बहू आहिया' ज्योत्स्ना बहुराख्याता ? 'तिवएज्जा' इति वदतु । भगवान् तदेव दर्शयति 'ता अंधयारपक्खाओ' इत्यादि, 'ता' तावत् 'अंधयार Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रतिस्ले पक्खाओ णं' अन्धकारपक्षात् खलु 'दोसिणा पक्खं ज्योत्स्नापक्षम् 'अयमाणे' अयन प्राप्नुवन 'चंदे चन्द्र 'चत्तारि वायालाई मुहुत्तसयाई, चत्वारि द्वाचत्वारिंशानि द्वाचत्वारिंशदधिकानि मुहर्तगतानि द्वाचत्वारिंशदधिकानि चतुर्मुहर्तशतानि, “मुहुत्तस्स' एकस्य मुहूर्तस्य व 'छत्तालीसं च वावहिमागे' पट्चत्वारिंशतं द्वाषष्टि भागान् यावत् ज्योत्स्ना निरन्तरं प्रवर्द्धते कानित्याह-'जाई' यान् भागान् यावत् 'चन्दे' चन्द्रः 'विरज्जइ' विरज्यते विरक्तो भवति. राहु विमानेनानावृतो भवति पट्चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागसहितद्विचत्वारिंशदधिकचतुःशतभाग(४४२-४२) पर्यन्तं ज्योत्स्ना वर्द्धते इति भावः । एतावत्कालपर्यन्तं चन्द्रः शनैः शनैः राहु विमानेनानावृतस्वरूपो भवन्नास्ते । मुहूर्त्तसंख्यागणितभावना पूर्व प्रदर्शितैव तद्वत् कर्तव्या । चन्द्रो राहुविमानेन कथमनावृतो भवतीत्याह-'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' - 'तद्यथा-'पढमाए पढमं भागं' प्रथमायां प्रश्रमतिथौ प्रतिपदीत्यर्थः प्रथमं पञ्चदशं द्वापष्टिभाग मम्बन्यि भागचतुष्टयप्रमाणं भागं यावदनावृतो भवति ? 'विइयाए विइयं भाग' द्वितीयायां नियो द्वितीय भाग पूर्वाक्तलक्षणं यावत् अनावृतो भवति, एवं 'जाव' यावत्-यावत्पदेन तृतीयायां तृतीयं भागम् ३, चतुर्थ्या चतुर्थ भाग, पञ्चम्यां पञ्चमं भागम् पष्ठयां पष्ठं भागम् ६, सप्तम्यां मप्तम भागम् ७, अष्टम्यामष्ठमं भागम् ८, नवम्यां नवम भागम् ९, दशम्यां दशम भागम् १०, एकादश्यामेकादशं भागम् ११, द्वादश्यां द्वादशं भागम् १२, त्रयोदइयां त्रयोदशं भागम् १३, चतुर्दश्यां चतुर्दशं भागम् १४, इत्येतत् संग्राह्यम्, अग्रे सूत्रकार एवाह-'पण्णरसीए पण्णरमं भाग' पञ्चदश्यां पूर्णिमायामित्यर्थः पञ्चदशं भागं यावद् अनावृनो भवति, तदा सर्वात्मना चन्द्रो राहु विमानेनानावृतो भवतीति भावः । । । अथोपसंहरति 'एवं खलु' इत्यादि ‘एवं' एवम् पूर्वोक्तरीत्या खलु 'अंधयारपक्खाओ' अन्धकारपलात् 'दोसिणा पक्खे' ज्योत्स्ना पक्षे शुक्लपक्षे 'दोसिणा वह आहिया' ज्योत्स्ना बहराख्याता 'तिवएग्जा' इति वदेत् कथयेत् । अथात्र भावना' क्रियते-इह शुक्लपक्षे यथा प्रतिपप्रथमक्षणादारभ्य प्रति मुहर्त यावन्मात्रं शनैः २ चन्द्र. प्रकटो भवति तथैव अन्धकार पो प्रनिपप्रथमक्षणादारम्य प्रतिमुहूत्तै तावन्मानं शनं शनैश्चन्द्र आवृतो जायते, तत एवं सति यावत्येवान्यकार पक्षे व्योत्स्ना भवनि तावत्येव शुक्लपक्षेऽपि ज्योत्स्ना प्राप्यते, किन्तु शक्लरले या पूर्णिमायां व्योत्स्ना भवति सा अन्धकारपक्षादधिका भवतीत्यतः अन्धकार पक्षात शुक्लपक्षे ज्योत्स्ना बहु. कथितेनि । ___ अयनन्धमागविपये पृन्टनि-'ता केवडया' इत्यादि 'ता' तावत् 'केवडया' कियत्का कियत्परिमिता 'ण' गट 'दोमिणापरखे' व्योत्स्ना पक्षे 'बाह' बहुः प्रमृता शुक्रपक्षे 'दोसिणा' ज्योत्स्ना चन्द्रिका Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१४ सू. ३ ज्योत्स्नाधिक्यनिरूपणम् ५९६ 'आहिया' आख्याता - तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् ! भगवानाह-'ता परित्ता' इत्यादि, 'ता' तावत् 'परित्ता' परीताश्च 'असंखेज्जा भागा' असंख्येया भागाः निर्विभागा इति । अथान्धकारविषये पृच्छति–'ता कया ते' इत्यादि 'ता' तावत् 'कया' कदा कस्मिन् काले 'ते' तवमते 'अंधयारे वहू आहिए' अन्धकारो बहूराख्यातः ? ति वएज्जा' इति वदतु कथयतु । भगवानाह-'ता अंधयार पक्खे णं' इत्यादि, 'ता' तावत् , 'अंधयारपक्खणं' अन्धकारपक्षे खल 'अंधयारे' अन्धकारः 'वह आहिए' बहुराख्यातः 'तिवएज्जा' इति वदेत् कथयेत् स्वशिष्येभ्यः । पुनः पृच्छति-'ता कहते' इत्यादि, 'ता' तावत् 'कथं' कस्मात् 'ते' तवमते 'अंधयारपक्खे' अन्धकारपक्षे 'अंधयारे' अन्धकारः 'बहू आहिए' बहुराख्यातः ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् कथयतु । भगवानाह-'ता दोसिणा पक्खाओ' इत्यादि 'ता' तावत् 'दोसिणा पक्खाओ' ज्योत्स्नापक्षात् शुक्लपक्षापेक्षयेत्यर्थः 'अंधयारपक्खे' अन्धकारपक्षे–'अंधयारे अन्धकारः 'वह आहिए' बहु आख्यातः 'तिवएज्जा' इति वदेत् । पुनर्गौतमः पृच्छति'ता कहं ते' इत्यादि, 'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण 'ते' तवमते 'दोसिणा पक्खाओ' ज्योत्स्नापक्षात् शुक्लपक्षात् 'अंधयारपक्खे' अन्धकारपक्षे 'अंधयारे बहुआहिए' अन्धकारो बहुराख्यातः ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु । भगवानाह-'ता' तावत् 'दोसिणा पक्खाओणं' ज्योत्स्नापक्षात खलु शुक्लपक्ष मुक्त्वेत्यर्थः 'अंधयारपक्खं अयमाणे' अन्धकारपक्षमयन् प्राप्नुवन् अन्धकारपक्षे प्रविशन्नित्यर्थः 'चंदे' चन्द्रः 'चत्तारियवालाई मुहूत्तसयाई' चत्वारि द्विचत्वारिंशदविकानि मुहूर्तशतानि, 'छायालिसंच वायट्ठिभागे' पट्चत्वारिंशतंच द्वाषष्टि भागान् 'मुहुत्तस्स' एकस्य मुर्तस्य (४४२४६) कानित्याह-'जाई' यान् यावत् 'चंदे'चन्द्रः 'रज्जइ' रज्यते रक्तो भवति राहु विमानेनाऽऽवृतो भवति, 'तं जहा' तद्यथा-'पढमाए' प्रथमायां कृष्णप्रतिपल्लक्षणायां 'पढमं भागं' प्रथमं भागम् , 'वितियाए' द्वितीयायां वितिय' द्वितीयंभागम्, 'जाव' यावत् तृतयीयां तृतीय भागम् , एवं क्रमेण चतुर्दश्यां चतुर्दशं भागं 'पण्णरसीए पञ्चदश्याममावास्यायां 'पण्णरसमं भागं' यावत् चन्द्रो राहुविमानेन आवृतो भवति सर्वात्मना अदृश्यों भवतीति भावः । उपसंहारमाह-एवं खलु' इत्यादि, ‘एवं' एवम् अनेन पूर्वोक्तप्रकारेण खल 'दोसिणा पक्खाओ' ज्योत्स्नापक्षापेक्षया 'अंधयारपक्खे' अन्धकारपक्षे कृष्णपक्षे 'अंधयारे अन्धकारः 'वहू आहिए' बहुः-अधिक आख्यातः । अयं भावः अन्धकारपक्षेऽमावास्यायां योऽन्धकारः स ज्योत्स्नापक्षादधिको भगवतीत्यतः ज्योत्स्ना पक्षादन्धकारपक्षेऽन्धकार प्रमूत' आख्यात. 'तिवएज्जा' इति वदेत्-कथयेत् स्वशिष्येभ्यः पुनौतमस्तदाधिक्य विषये पृच्छति-'ता केवइएणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'केवइएणं' कियत्कः कियत्परिमितः खलु 'अंध-.. Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्ति यारपक्खे' अन्धकारपक्षे 'अंधयारे' अन्धकारः 'वहुआहिए' बहुराख्यातः ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवान् ! भगवानाह-'परित्ता' इत्यादि, 'परित्ता' परिताः परिमिता 'असंखेजा भागा' असंख्येया भागाः, सोऽन्धकारः परिमितः संख्येयभागपरिमितोऽधिको भवतीति भावः ॥सू० १॥ इति श्री जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलाल वतिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रप्रज्ञप्तिप्रकाशिकाख्यायां व्याख्यायां चतुर्दशं प्राभृतं समाप्तम् ॥१॥ ॥ अथ पञ्चदशं प्राभृतम् ॥ व्याख्यातं चतुर्दशं प्राभूतम् साम्प्रतं पञ्चदशं प्रभृतं व्याख्यायते, अस्य पूर्व प्रामृतेनायं सम्बन्धः चतुर्दशे प्राभृते ज्योत्स्नाऽन्धकारयोः परस्परमाधिक्यं प्रतिपादितम् , तत्प्रसङ्गादत्रायमधिकारः-पूर्वमादौ विषयसंगृहप्रकरणे 'केय सिग्धगई कुत्त' कः शीघ्रगतिरुक्तः, इति प्रोक्तमित्यत्र चन्द्रसूर्य ग्रहगणनक्षत्र नारारूपाणां मध्ये कः कस्मात् शीघ्रगतिरिति प्रतिपादयिपुः प्रथमं सूत्रमाह-'ता कहते सिग्धगई' इत्यादि । मूलम्-'ता कहं ते सिग्धगई वत्थू आहियं ! तिवएज्जा, ता एएसिणं चंदिम मरिय गह गण णक्खत्त ताराख्वाणं चंदेहितो सूरिया सिग्धगई, सारिएहिंतो गहा सिग्धगई गहेहितो णक्खत्ता सिग्धगई, णक्खत्तेहिंतो तारा सिग्धगई । सन्चप्पगई चंदा, सव्वसिग्ध गई तारा । ता एग मेगेणं मुहुत्तेणं चंदे केवइयाई भागसयाइ गच्छइ ! ता जं जं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरइ तस्स तस्स मंडलपरिक्खेवस्स सत्तरस अहसट्टि भागसयाई गच्छइ, मंडलं सयसहस्सेणं अट्ठाणउइ सरहिं छेत्ता । ता एगमेगेणं मुहत्तेणंसूरिए केवडयाई भागसयाई गच्छइ । ता जं णं मंडळ उपसंकमित्ता चारं चरइ तस्स तस्स मंडलपरिक्खेवस्स अट्टारसतीसाई भागासयाई गच्छइ मंडलं सयसहस्सेणं अट्टागउइसरहि छेत्ता । ता एगमेगेग मुहुनेणं णक्खत्ते केवड्याइं मंडलसयाई गच्छइ । ताजं जं मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरइ नस्सः तस्स मंडलपरिक्खेवस्स अट्ठारस पणनीसाई भागसयाई गच्छइ, मंडलं सयसहस्सेणं अट्ठाणउड़ सएहिं छेत्ता ॥सू०१ ! छाया-तावत् क ते शीघ्रगतिवस्तु आयातम् १ इति वदेत् । तावत् एतेषां बलु चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रनाराम्पाणां चन्द्रभ्य सूर्या शीनगतयः, सूर्येभ्यो ग्रहा शीघ्रगतयः, प्रदेभ्यो नमाणि शीघ्रगतोनि, नक्षत्रेभ्यस्ताराः शीघ्रगतयः, सल्पगतयश्चन्द्राः, सर्व शीवगतयस्तारा तावत् एकैकेन मुहत्तन चन्द्रः कियन्ति भागशतानि गच्छति ?! Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका प्रा १५ सू. १ ज्योतिष्काणां शीघ्रगति निरूपणम् ५९७ तावत् यद् यद् मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तस्य तस्य मण्डलपरिक्षेपस्य सप्तदश अष्ट षष्ठानि भागशतानि गच्छति, मण्डल शतसहस्रेण अष्टानवति शतैश्छित्वा । तावत् पकैकेन मुहूर्त्तेन सूर्यः कियन्ति भागशतानि गच्छति ? तावत् यद् यद् मण्डलम् उपसंक्रम्य चारं चरति तस्य तस्य मण्डलपरिक्षेपस्य अष्टादश त्रिशानि भागशतानि गच्छति मण्डलं शतसहस्रेण अष्टानवति शतैछित्त्वा । तावत् एकैकेन मुहर्त्तेन नक्षत्र कियन्ति भागशतानि गच्छति ? तावत् यद् यद् मण्डलमुपसंक्रभ्य चारं चरति तस्य तस्य मण्डलपरि क्षेपस्य अष्टादश पञ्च त्रिशानि भागशतानि गच्छति मण्डलं शतसहस्रेण अष्टानवतिशतैमिळवा | सूत्र १ व्याख्या – 'ता कहंते' इति, 'ता' तावत् 'कहं कथं केन प्रकारेण हे भगवन् 'ते' त्वया 'वत्थु ' चन्द्रसूर्यादिवस्तु 'सिग्घगइ आहिये' शीघ्रगति आख्यातम् ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु । भगवानाह - 'ता एएसिणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एएसिणं' एतेषां वक्ष्यमाणानां खल 'चंद सूरियगहगणन क्खत्ततारारूवाणं' चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां पञ्चानां ज्योतिष्काणा मध्ये 'चंदेर्हितो सूरिया सिग्घगई' चन्द्रेभ्यः चन्द्रापेक्षया सूर्याः शीघ्रगतयः सन्ति, 'रिए हितो गहा सिग्घगई' सूर्येभ्यो ग्रहाः शीघ्रगतयः सन्ति, 'गहेहिंतो णक्खत्ता सिग्घगई ' ग्रहेभ्यो नक्षत्राणि शीघ्रगतीनि सान्त, 'नक्खत्ते हितो तारा सिग्घगई' नक्षत्रेभ्यस्ताराःशीघ्रगतयः सन्ति । एतेषां पञ्चानां ज्योतिष्काणां मध्ये केषा सर्वाल्पा गतिः केषां च सर्व शीघ्रा गतिः ? इत्याह-'सव्वष्पगई' इत्यादि, 'सव्वष्पगई चंदा' सर्वाल्पगतयश्चन्द्राः सान्त, 'सव्वसिग्घगई तारा' सर्वशाघ्रगतयस्तारा इति । एतमेवार्थ स्पष्टीकरणार्थ पृच्छति - ' ता एगमेगेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एगमेगेणं मुहुत्ते।' एकेकेन मुहूर्त्तेन 'चंदे' चन्द्रः 'केवइयाई भाग सयाई' कियन्ति भागशतानि मण्डलस्य 'गच्छइ' गच्छति : भगवानाह - 'ता जं जं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जं जं मंडल' यद् यद् मण्डलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसक्रम्य चारं चरति 'तस्स तस्स तस्य तस्य 'मंडल परिक्खेवस्स' मण्डलसम्बन्धिनः पारक्षेपस्य परिधेः 'सत्तरस असहि भागसयाई' सप्तदश अष्टषष्टधान अष्टषष्ट्यधिकानि भागशतानि अष्टषष्ट्यधिकानि सप्तदश शतानि (१७६८) भागाना 'गच्छइ' गच्छात, 'मंडलं' मण्डलं मण्डलपारक्षेपं च 'सयसहस्सें' शतसहस्रेण एकेन लक्षण 'अट्ठाण उइस एहि ' अष्टनवतिशतैः अष्टनवतशताधिकेन लक्षण (१०९८००) 'छेत्ता' छित्त्वा विभज्येति । यास्मन् मण्डले चन्द्रश्चार चरति तस्य मण्डलस्य भष्टानवतिशताधिकंकलक्ष - (१०९८००) भागान् कृत्वा तन्मध्यात् अष्टषष्ट्यधिक सप्तदशशतभागान् (१७६८) अभिव्याप्य चन्द्रश्चारं चरतीति भावः । अत्रेयं भावना— इह प्रथमं चन्द्रस्य मण्डलकालो निरूपणीयः तत्पश्चात् तदनुसारेण मुहूर्त्त - गतिपरिमाणं पारभावनीयम् तत्र पूर्वं चन्द्रस्य मण्डलकाल: परिभाव्यते - एकस्मिन् युगे चन्द्रः Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९८ चन्द्रप्राप्तिस्त्रे... कति मण्डलानि चरति ? इति प्रदश्यते-एकस्मिन्युगे त्रिंशदधिकानि अष्टादश शतानि (१८३०) अहोरात्राणां भवन्ति एपा मुहर्तकरणार्थ मेते एकस्याहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तात्मकत्वात् त्रिंशता गुण्यन्ते जातानि चतुप्पञ्चाशत्सहस्राणि नवशतानि च (५४९००), एप राशिः अष्टषष्टयधिक सप्तदशशतैः (१७६८) सकलयुगवईमण्डलै गुण्यते जाता:-नव कोटयः, सप्तति लक्षाणि, त्रिपप्टिसहन्नाणि, दे गते च (९७०६३२००) एतावन्तो भागाः, एपाम् अष्टनवति शताधिकेन लक्षेण (१०९८००) पूर्वप्रदर्शितेन मण्डलपरिक्षेपच्छेदकराशिना भागो हियते, लब्धानि 'चतुरगोत्यधिकानि अष्टौ शतानि चद्रमण्डलानि भवन्ति एतानि मण्डलानि द्वौ चन्द्रौ संमील्य एकस्मिन् युगे चारं चरत. । एपामर्द्धमण्डलानि द्विगुणानि जायन्ते अष्टपष्टयधिकानि सप्तदशशतानि (१७ ६८) ततो मण्डलकालानयनार्थ त्रैराशिकं क्रियते, तथाहि-यदि अष्टपष्टयधिकैः सप्तदशभिः शतै सकल युगवर्तिभिरर्द्धमण्डलैरप्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि अहोरात्राणां लभ्यन्ते - राशित्रयस्थापता(१७६८।१८३०१२) त्रैराशिकगणितरीत्याऽन्त्येन राशिना द्विकरूपेण मध्यो राशिस्त्रिंशदधि-- काष्टादशातरूपो गुण्यते, जातानि पष्टयधिकानि पत्रिंशत्सहस्राणि (३६६०) एपामायेन राशिना' अष्टपष्टयधिकसप्तदशशतरूपेण भागो हियते, लब्धौ द्वौ अहोरात्रो, शेपं. तिष्ठति चतुर्विशत्यधिक शतम् (१२४) । एप शेपभागः एकस्याहोरात्रस्य त्रिंगन्मुहूर्तात्मकत्वात् त्रिंशता गुण्यते; जातानि विंगत्यधिकानि सप्तत्रिंशच्छतानि (३७२०), एपामष्टपष्टयधिकसप्तदशशतरूपेण भाजकराशिना (१७६८) भागो हियते, लब्धो द्वौ मुहूत्र्ती, शेपं तिष्ठति चतुरशीत्यधिकं शतम् (१८४), ततः शेपीभृतस्य छेदगशेः (१७४), छेदकगशेश्च (१७६८) अष्टकेनापवर्त्तना क्रियते,..जात; छेयो राशिम्नयोविंशतिः (२३) छेटकराशिश्च एकविंशत्यधिके द्वे शते (२२१) तत आग-. तम् द्वौ अहोरात्री एकस्य चाहोरात्रस्य द्वौ मुहूर्तों, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशति रेकविंशत्यविकद्विशतभागाः (२।२।२२) । एतावता कालेन चन्द्रो द्वे अर्द्रमण्डले परिपूर्णे इतिएक परिपूर्ण मण्डलं चरतीति । इत्येव मण्डलकालपरिज्ञानं कृतम् , साम्प्रतमेतदनुसारण मुहर्तगतिपरिमाणं विचार्यते तत्र मण्डलकाले यो द्वौ अहोरात्री ती मुहूर्तकरणार्थ त्रिंशता गुण्येते, जाता: पष्टि मुहत्ताः (६०) तन "पु यो उपरितनी द्वा मूहूर्तों तौ प्रक्षिप्येते जाता द्वापष्टिः (६२) मुहर्ताः । एते सवर्णनार्थमेकविंगत्यधिकाम्यां द्वाभ्यां शताभ्यां (२२१), गुण्यन्ते, जानानि द्वयुत्तरसप्तशनाधिकानि त्रयोदश सहन्नाणि (१३७०२), एपु चोपरितनास्त्रयोविगनिभागा. प्रक्षिप्यन्ते, जानानि पञ्चविंशत्युत्तरसप्तशताधिकानि त्रयोदश सहस्राणि (१३ ७२५) । तत् एकमण्डलकालगतमुहर्तसककविंशतिशतद्वयभागानां परिमाणम् । ततस्त्रराशिफगगितासमर. प्रातः तथाहि-यदि पञ्चविंशत्युत्तर सप्त शताधिकैस्त्रयोदशभिः सहन:-एक Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा. १५. सू. १ ज्योतिष्काणां शीघ्रगतिनिरूपणम् ५९९ विंशत्यधिकशतद्वयभागानां मण्डलभागाः अष्टनवति शताधिकैकलक्षप्रमिता लभ्यन्ते तदा एकेन मुहूर्तेन ते कति लभ्यन्ते ? राशि त्रयस्थापना-११३७२५।१०९८००।१॥ इह आयो राशि मुहुर्तगतकविंशत्यधिकशतद्वयभागरूपः (२२१) ततः सवर्णनार्थमन्त्यो राशि रेककरूप एकविंशत्यधिकशतद्वयेन (२२१) गुण्यते जातास्तावानेव एकविंशत्यधिके द्वेशते (२२१) ताभ्यां मध्यो राशिगुण्यते, जाते वे कोट्यौ, द्विचत्वारिंशल्लक्षाः, पञ्चषष्टिः सहस्राणि, अष्टौ शतानि (२४२६५८००) तेषामाघेन राशिना पञ्चविंशत्युत्तर सप्तशताधिक त्रयोदश,सहलरूपेण (१३७२५) भागो हियते, लब्धानि सप्तदशशतानि अष्टषष्टयधिकानि (१७६८), एतावतो भागान् यत्र तत्र वा मण्डले चन्द्र एकेन मुहूर्तेन गच्छति । एतत् मन्डलकालानुसारेण मुहूर्तगति परिमाणं जातमिति ।। ' अथ सूर्यग तिसूत्रमाह-'ता एगमेगेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एगमेगेणं मुहुत्तेणं' एकैकेन मुहूर्तेन प्रतिमुहूर्तेन 'सरिए' सूर्यः 'केवइयाई' कियन्ति 'भागसयाई' भागशतानि 'गच्छइ' गच्छति ? भगवानाइ-'ता' जं जं' इत्यादि 'ता' तावत् सूर्यः जं जं मंडल' यद् यद् मण्डलं 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' उपसंक्रम्य चारं चरति 'तस्स तस्स' तस्य तस्य 'मंडलपरिक्खेवस्स' तत्तन्मण्डलसम्बन्धिनः परिक्षेपस्य परिधेः 'अट्ठारसतीसाई भागसयाई त्रिंशदधिकानि अष्टादश भागशतानि (१८३०) 'गच्छइ' गच्छति, तानि च 'मंडल' एक मण्डलं 'सयसहस्सेणं अट्ठाणउइसएहि' शतसहस्रेण लक्षण अष्टानवतिशतैः (१०९८००) अष्टानवति शताधिकेन एकेन लक्षणेत्यर्थः । 'छेत्ता' छित्वा विभज्य तत्सम्बन्धीनि विज्ञेयानि मण्डलस्य अष्टानवति शताधिकैकलक्षभागान् कृत्वा तन्मध्यात् त्रिंशदधिकानि अष्टादश शतानि (१८३०) भागानां सूर्यो गच्छतीति भावः । तदेव गणितेन प्रदाते, तथाहिअत्रापि त्रैराशिकं कर्त्तव्यम् सूर्यश्चन्द्राभ्यां द्वे अर्द्धमण्डले इति एकं परिपूर्णमण्डलं गच्छति, ततो योनियोः षष्टि मुहूर्ता भवन्तीति यदि षष्टि मुहूत्र्तेः अष्टानवति शताधिकैकलक्षमण्डल भागां लभ्यन्ते तदा एकेन मुहूर्तेन कति भागा लभ्यन्ते ? राशित्रय स्थापना-६०।१०८००।१। अंबान्त्येन राशिना मध्य राशि गुण्यते जातस्तावानेव (१०९८००)। ततस्तस्यायेन राशिना पष्टि लक्षणेन भागो हियते, लब्धानि त्रिंशदर्घिकानि अष्टादश शतानि (१८३०) एतावतो भागान् मण्डलस्य सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति ।। " अथ नक्षत्रगति सूत्रमाह-'ता एगमेगेणं इत्यादि, 'ता' तावत् 'एगमेगेणं मुहत्तेणं' एकैकेन मुहूर्तेन ‘णक्खत्ते' नक्षत्रं 'केवइयाइं भागसयाइं गच्छइ' कियन्ति भागशतानि गच्छति ! भंगवानाह -'ता जं जं इत्यादि, 'ता तावत् 'जं जं मंडलं' यद् यद् मण्डलं 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य नक्षत्रं 'चारं चरइ' चारं चरति 'तस्स तस्स मंडलपरिक्खेवस्स' Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० चन्द्रप्राप्तिस्त्रे तत्तन्मण्डलसम्वन्धिनः परिक्षेपस्य परिधेः 'अट्ठारसपणतीसाइं 'भागसयाई' पञ्चत्रिंशदधिकानि अष्टादश भागशतानि (१८३५) 'गच्छइ' गच्छति, कथम् ? 'मंडलं' एक मण्डलं 'सयसहस्सेणं अट्ठाणउइसएहिं' शतसहस्रेण अष्टानवतिशतैः 'छित्ता' छित्त्वा विभज्य तन्मध्यात् पूर्वोकानि भागशतानि नक्षत्रं गच्छति, । अत्रापि प्रथमं मण्डलकालो निरूपणोयो भवेत् येन तदनुसारेणव मुहर्तगतिगरिमाणभावना क्रियते । तत्र मण्डलकालप्रमाणविचारणायां त्रैराशिकं क्रियते, तथाहि-यदि पञ्चत्रिशदधिकाष्टादशशतैः सकल युगमाविभिरर्द्धमण्डलैः त्रिंगदविकानि अष्टादश रात्रिन्दिवशतानि सकल युगसम्बन्धीनि लभ्यते, तदा द्वाभ्यामर्द्ध मण्डलाभ्यामिति एकैकेन परिपूर्णेन मण्डलेन कति रात्रिन्दिवानि लभ्यते ? तदा राशित्रयस्थापना ११८३५।१८३०१२। अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणने जायन्ते पष्टयधिकानि पत्रिंश छनानि (३६६०), तत आयेन राशिना (१८३५) भागो हियते, लब्ध मेकं रात्रिन्दिवम् (१) । तिष्ठन्ति शेषाणि पञ्चविंशत्यधिकानि अष्टादशशतानि (१८२५), ततो मुहूर्तकरणार्थ मेतानि त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि पञ्चाशदुत्तर सप्तशताधिकानि चतुष्पञ्चाशत्सहवाणि (५४७४०), तेषां पुनस्तेनैव राशिना पञ्चत्रिंदांधकाष्टादशशतरूपेण भागो हियते, लब्धा एकोनत्रिशन्मुहर्ताः (२९), ततः शेपच्छेद्यराशेः छेदकराशेश्च पञ्चकेनापवर्त्तना क्रियते जात उपरितनो राशिः सप्तोत्तराणि त्रीणि शतानि (३०७), छेदक राशिरधस्तनः सप्तपष्टयधिकानि त्रीणि शतानि (३६७) तत आगतम् एकं रात्रिन्दिवम्, एकस्य च रात्रिन्दिवस्य एको त्रिंशन्मुहर्ता, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तोत्तराणि त्रीणि शतानि सप्तपटयधिकत्रिंशत् भागानाम् (१।२९।२०) । एतत् मण्डलकालप्रमाणं जातम् । अथैतदनुसारेणैव मुहूर्त गति परिमाणं परिभाव्यते-मण्डलकालपरिमाणस्य यो राशिरायातस्तत्र एकस्य दिनस्य त्रिंशन्मुहुर्ताः करणीयाः, तेषु ये उपरिनना एकोनत्रिंशन्मुहूर्तास्ते प्रक्षिप्यन्ते जाता एकोनपष्टिर्मुहर्ताः (५९) ततस्ते सवर्णनार्थमधः स्थितैः सप्तपष्टयधिक त्रिभिः शतैः र्गुण्यते, जातानि एकविंशति सहस्राणि त्रिपञ्चाशदधिकानि पट्शतानि (२१६५३), एषु चोपरितनानि सप्तोत्तराणि त्रीणि शतानि (३०७) प्रक्षिप्यन्ते, जातानि-एकविंशतिसहस्राणि पष्टयधिकानि नवशतानि (२१९६०) । ततस्त्रैराशिकं क्रियते यदि मुहर्तगत मतपष्टयधिक त्रिशत भागा नामेकविंशनि सहन्नै पष्टयधिकर्नवभिः अतैरकमष्टानवति शताधिक शतसहस्र मण्डलमागानां लभ्यते तदा एकेन मुहर्नेन कति भागा लभ्यते ? राशित्रयस्थापना (२१९६०।१०९८००। मनायो गशिर्मुहर्तगतमतपष्टयधिकत्रिशतभागंर्गुणनेन निष्पन्नस्ततोऽन्त्यस्य राशिरपिएभिर्गुगनं प्राप्यते ततः मतपष्टयधिक खिभिः गतैः (३६७), अन्न्यो राशि रेककरूपो गुण्यते जानानि तान्येव सप्तपष्ट यघिकानि त्रीणि गतानि (३६७), अथ एभिः सप्तपष्टयधिक स्त्रिमिः शतः २द Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका. प्रा १५ स. १ ज्योतिष्काणां शीघ्रगतिनिरूपणम् ६०२ मध्यो राशिः (१०९८००) गुण्यते जाताश्चतस्रः कोट्यः, द्वे लक्षे, षण्णवतिः सहस्राणि, षट् शतानि (४०२९६६००), एपामाघेन राशिना षष्टयुत्तर नवशताधिकैकविंशति सहस्ररूपेण, । (२१९६०) भागो हियते, लब्धानि यथोक्तानि अष्टादश शतानि पञ्च त्रिंशदधिकानि (१८३५) • एतावतो भागानक्षत्रं प्रतिमुहूर्त गच्छतीति ' सिद्धम् । तदेवमागतम्-चन्द्रो यत्र तत्र वा मंडले 'एकैकेन मुहूर्तन मण्डलपरिक्षेपस्य अष्टषष्टयधिकानि सप्तदशशतानि (१७६८) भागानां गच्छति, सूर्य त्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८३०) भागानां गच्छति, नक्षत्रं च पञ्चत्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८३५) भागानां गच्छति ततएव सूत्रे प्रोक्तम्-चन्द्रेभ्यः सूर्याः शीघ्रगतयः, सूर्येभ्यो नक्षत्राणि शीघ्रगतीनि । ग्रहास्तु वक्रत्वातिचारत्वमार्गित्वकारणैरनियत 'गति प्रस्थानस्ततो न तेषामुक्तप्रकारेण गतिप्रमाणप्ररूपणा कृता । ग्रहा यदि मार्गिणो भूत्वा गच्छन्ति तदा साधारणगत्या सूर्येभ्यः शीघ्रगतय एव भवन्ति सूत्रवाक्यप्रामाण्यात् । नक्षत्रेभ्यस्ताराः शीघ्रगतय इत्यपि सूत्रप्रामाण्याद् बोध्यम् । उक्तञ्च चन्द्रसूर्यनक्षत्रगतिविषये "चंदेहि सिग्धयरा सूरा सुरेहिं होति नक्खत्ता । अणियय गइय पत्थाणा हवंतिा सेसा गहा सव्वे ॥१॥ अट्ठारस, पणतीसे भागसए गच्छइ मुहुत्तेण । नक्खत्तं चंदो पुण, सत्तरस सए उ अडसट्टे ॥२॥ अट्ठारस भागसए, तीसे गच्छइ रची मुहुत्तेणं । नक्खत्त सीम छेदो, सो चेव इहंपि नायव्चो ॥३॥ छाया-चन्द्रेभ्यः शीघ्रतरा सूर्याः सूर्येभ्यो भवन्ति नक्षत्राणि । अनियतगतिप्रस्थानाः भवन्ति शेषा ग्रहाः सर्वे ॥१॥ अष्टादश पञ्चत्रिंशानि भागशतानि गच्छति मुहर्तेन । नक्षत्रं चन्द्रः पुनः सप्तदशशतानि तु अष्टषष्टानि ॥२।। अष्टादशभागशतानि त्रिंशानि गच्छति रविर्मुहर्तेन । नक्षत्रसीमाछेदः सएव इहापि ज्ञातव्यः ॥३॥ इति । अत्र पूर्व नक्षत्रप्ररूपणा -कृताऽतो नक्षत्रगतिपरिणामे यः सीमा छेदः अष्टानवति शताधिक शतसहस्ररूपः कथितः स एव इहापि चन्द्र सूर्यगति परिमाणेऽपि ज्ञातव्यः, पूर्वोक्तच्छेदराशिना चन्द्र सूर्यगति भागा अपि प्रविभक्ता इति भावार्थः । सू० ॥१॥ Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ चन्द्रप्राप्तिस्त्रे मण्डलकाल परिमाण-मुहूर्तगतिपरिमाणकोष्टकम् १०९८०० एकस्मिनू युगे चन्द्रादयः, एक स्मिन् | एकस्मिन् परिपूर्णे मडले नामानि एपा भागाना मध्यात् कति मण्डलानि परि | युगेअर्द्ध | अर्थात् अर्द्ध मण्डल चन्द्राढय कति भागान् | पूरयन्ति परिपूर्णानि | मण्डलानि । द्वये चन्द्रादीना कति गच्छन्ति कति भवन्ति | समया भवन्ति, १७६८ | दिनानि मुहुर्ताः मु. भा. कुर्वति, ८८४ १७६८ - - सूर्य | १८३० १ ५' | १८३० | २ | १ | २२१ नक्षत्रम् | १८३५ । १७॥ | १८३५ | १ | २५ । ३०७ - तदेवं पूर्व चन्द्रादीनां गति रुक्ता, साम्प्रतमुक्तस्वरूपमेव चन्द्रसूर्यनक्षत्राणां परस्परं मण्डलभागविपयं विशेष निर्धारयति-'ता जयाणं चंदे' इत्यादि । मूलम्-जयाणं चंदं गइ समावणं सूरे गइ समावण्णे भवइ से णं गइ मायाए केवइयं विसेसेइ ? वावद्विभागे विसेसेइ। ता जयाणं चंदं गइ समावण्णं णक्खत्ते गइ समावण्णे भवइ से णं गइमायाए केवइयं विसेंसेइ ? ता सत्तहि भागे विसेसेइ । ता जया णं सूरं गद समावण्णं णक्खत्ते गइसमावण्णे भवड से णं गडमायाए केवइयं विसेसेइ । ता पंचभागे विसेसेइ । ता जयाणं चंदं गइसमावणं अभीईणखत्ते गइसमावण्णे पुरस्थिमाए भागाए समासाएइ पुरस्थिमाए भागाए समासाइत्ता णव मुहुत्ते सत्तावोस च सत्तटिभागे मुहुत्तस्स चंदेण सद्धि जोयं जोएइ जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियहिता विप्पजहड, विगय जोई यावि भवइ । ता जयाणं चंदं गइसमावण्णं सवणे णखत्ते गइसमावण्णे पुरथिमाए भागाए समासाएइ, पुर० समासाइत्ता तीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ जोयं जोइत्ता अणुपरियट्टड अणुपरियट्टित्ता विप्पजहइ विगयजोई भवइ । एवं एपण अभिलावेणं णेयव्यं पण्णरसमुहुत्ताई, तीसं मुहुत्ताइं, पणयाली समुहत्ताई [जम्स जाई मुहत्ताई तस्स ताई] भाणियव्वाइं जाव उत्तरासाढा । ता जयाणं चंदं गइ समावणं गहे गहसमावण्णे पुरस्थिमाए भागाए समासाएट, पुर० समासाइत्ता नदेण सद्धि जोयं जोएइ, जोइत्ता.जोयंअणुपरियट्टइ, अणुपरियट्टित्ता विप्पजहड, विगयजोई यावि भवड । ता जयाणं मूरियं गइसमावण्ण अभीईणक्खत्ते गइसमावण्णे पुरथिमाए भागाए समामाएइ, समासाइत्ता चत्तारि अहोरत्ते छन्च मुहुत्ते मूरिगण सद्धिं जोयं जोएइ जोयं जाटत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, अणुपरियट्टित्ता विप्पजहर विगय जोई यावि भवइ । Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटोका प्रा.१५. स.२ चन्द्रसूर्यनक्षत्राणां परस्परं मण्डलभागनिरूपणम् ६०३ एवं अहोरत्ता छ एक्कवीसं मुहुत्ता य, तेरस अहोरत्ता वारस मुहुत्ताय वीस अहोरत्ता,तिण्णि मुहुत्ता य सव्वे [जस्सजे तस्स ते] भणियव्वा जाव जयाणं सूरियं गइसमावणं उत्तरा साढाणक्खत्त गइसमावणे पुरत्थिमाए भागाए समासाएंइ समासाईत्ता वीसं अहोरत्ते तिण्णि य मुहुत्ते सूरिएण सद्धि जोयं जोएइ जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, अणुपरियट्टित्ता विप्पजहइ विगयजोई यावि भवइ । ता जयाण सरियं गइसमावण्णं. गहे गइसमविणे पुरत्थिमाए भागाए समासाएइ, समासाइत्ता सूरिएण सद्धिं जोयं जोएइ, जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियटिइ, अणुपरियट्टित्ता विप्पजहइ विगयजोई यावि भवइ ॥ सूत्र ॥२॥ ... छाया-तावत् यदा खलु चन्द्र गतिसमापन्नं सूर्यः गतिसमापन्नो भवति स खल गतिमात्रया कियत्कं विशेषयति ' द्वापष्टि भागान् विशेषयति । तावत् यदा खलु चन्द्र गतिसमापन्नं नक्षत्रं गतिसमापन्नं भवति तत् खलु गतिमात्रया कियत्कं विशेषयति ? तावत् सप्तपष्टिभागान् विशेपयति । तावत् यदा खलु सूर्य गतिसमापन्नं नक्षत्र गतिसमापन्नं भवति स खलु गतिमात्रया कियत्कं विशेपयति ? तावत् पञ्च भागान् विशेषयति। तावत् यदा खलु चन्द्रं गतिसमापन्न अर्भािजन्नक्षत्रं गतिसमापन्नं पौरस्त्याद् भागात् समासादर्यात, पौरस्त्याद् भागात् समासाद्य नवमुहान् सप्तविंशतिं च सप्तर्षाप्टभागान् मुहर्तस्य चन्द्रेण सार्द्ध योग युनक्ति, योगं युक्त्वा योग परिवत्तयति, योग परिवर्त्य विप्रजहाति विगतयोगी चापि भवति । तावत् यदा खलु चन्द्रं गतिसमापन्नं श्रवणो नक्षत्र गतिसमापन्न पौरस्त्याद भागात् समासादयति पौर० समासाद्य त्रिशतं मुहर्तान् चन्द्रेण साई योग युनक्ति, योग युक्त्या अनुपरिवर्तयति, अनुपरिवर्त्य विप्रजहाति विगतयोगी चापि भति । एवम् पतेनाभिलापेन ज्ञातव्यं पञ्चदश मुहर्तान् त्रिशतं मुहूर्तान् पञ्चचत्वारिशन्महत्तान् [यस्य ये मुहर्ता तस्यते] भणितव्याः यावत् उत्तरापाढा तावत् यदा खल चन्द्रं गतिसमापन ग्रहः गतिसमापन्नः पौरस्त्याद् भागात् समासादयति, पौर० समासाद्य चन्द्रेण सार्द्ध योगं युनक्ति, युक्वा योगम् अनुपरिवर्तयति अनुपरिवर्त्य विप्रजहाति, विगत योगी चापि भवति । तावत् यदा खलु सूर्य गतिसमापन्नम् अभिजिन्नक्षत्रं गतिसमापन्नं पौरस्त्याद् भागात् समासादयत, समासाद्य चतुरः अहोरात्रान् पट् च मुहर्तान् सूर्येण सार्द्ध योग युनक्ति, योगं युक्त्वा योगम् अनुपरिवर्तयति, अनुपरिवर्त्य विप्रजहाति विगतयोगी चापि भवति । एवम् अहोरात्रान् षट् एकविंशतिं मुहूर्त्ताश्च, त्रयोदर्श अहोरात्रान् द्वादश मुहर्ताश्च विशतिम् अहोरात्रान् त्रीन् मुहर्ताश्च सर्वे [यस्य ये तस्य ते] भणितव्याः यावत् यदा खलु सूर्यं गतिसमापन्नम् उत्तराषाढानक्षत्रं गतिसमापन्नं पौरस्त्याद् भागात् समा. सादयति, समासाद्य विंशतिमहोरात्रान् त्रीश्चमुहूर्तान् सूर्येण साद्धं योग युनक्ति, युफ्त्वा योगमनुपग्विर्त्तयति, अनुपरिवर्त्य विप्रजहाति विगतयोगी चापि भवति.। तावत् यदा खलु सूर्य गतिसमापन्न ग्रहः गति समापन्नः पौरस्त्याद् भागात् समासादयति, समासाद्य सूर्येण सार्द्ध योग युनक्ति, योग युक्त्वा योगमनुपरिवर्तयति, अनुपरिवर्त्य विप्रजहाति विगतयोगी चापि भवति । सूत्र ॥२ । । व्याख्या- 'ता जया गं' इति ता' तावत् 'जयाणं' यदा खलु 'चंद गइसमावण्णः चन्द्रं गतिसमापन्नं गतिप्राप्तमपेक्ष्य 'सूरिए' सूर्यः 'गइसमावण्णे भवइ' गतिसमापन्नो भवति Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ चन्द्रप्राप्तिस्त्रे विवक्षितगतिप्राप्तो भवति-प्रतिमुहूर्त चन्द्रगतिमपेक्ष्य यदा सूर्यगतिश्चिन्त्यते इति भावः तथा 'सेणं' स खलु सूर्य 'गइमायाए' गतिमात्रया एक मुहूर्तगतिपरिमाणेन 'केवइय' कियत्कं कियतो भागान् 'विसेसेइ' विशेषयति १ अयं भावः-एकेन मुहर्तेन चन्द्राक्रान्तेभ्यो भागेभ्यः कियतोऽधिकान् भागान् सूर्य आक्रामतीति प्रश्नः । भगवानाह-वावद्विभागे विसेसेइ द्वापष्टिभागान् विशेषयति, कथमित्याह-चन्द्र एकेन मुहूर्तेन अष्टपष्टयधिकानि सप्तदश भागशतानि (१७६८) गच्छति, सूर्यश्च त्रिंशदधिकानि अष्टदशशतानि (१८३०) गच्छति ततो भवति चन्द्रात् सूर्यस्य द्वापष्टिभागप्रमितो गतिविपयो विशेष इति । - __अथ चन्द्रमपेक्ष्य नक्षत्रगतिविपयं सूत्रमाह 'ता जया गं' इत्यादि 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'चंद गइसमावण्ण' चन्द्र गति समापन्नमपेक्ष्य 'नक्खत्ते नक्षत्रं 'गइसमावण्णे भवई' गतिसमापन्नं भवति प्रतिमुहूर्त चन्द्रगतिमपेक्ष्य यदा नक्षत्रगतिर्विचार्यते तदा से थे' तत् खल नक्षत्रं 'ग.मायाए' गतिमात्रया गतिप्रमाणेन 'केवइयं विसेसेइ' कियत्कं कियतो भागान् विशेषयति चन्द्रगतिपरिमाणान् नक्षत्रगति कियती विशेषाधिका भवतीतिभावः गगवानाह-'ता' तावत् 'सत्तट्टि भागे विसेसेइ' सप्तपष्टिभागान् विशेषयति-चन्द्राक्रन्तगतिभागपरिमाणात् नक्षत्रगतिभागपरिमाण सप्तपष्टिभागप्रमितमधिकं भवतोति भावः । तथाहि-नक्षत्रं यद् एकेन मुहूर्तेन पञ्च त्रिंशदधिकानि अष्टादशभागशतानि (१८३५) गच्छति, चन्द्ररतु अष्टपष्टयधिकानि सप्तदशभागशतान्येव (१७६८) गच्छतीति, ततः संपधते चन्द्रनक्षत्रयोः सप्तपष्टिभागकृतो विशेष इति । अथ सूर्यमपेक्ष्य नक्षत्रगतिपरिमाणं चिन्त्यते-'ता जया णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सरियं गइसमावणं' सूर्य गतिसमापन्नमपेक्ष्य 'णक्खत्ते गइ समाण्णे मवई' नक्षत्रं गतिसमापन्नं भवति 'से णं' ततः खलु नक्षत्रं 'गइमायाए' गतिमात्रया गति - परिमाणेन 'केवइयं क्रियत्कं कियतो भागान् 'विसेसेइ' विशेषयति सूर्यगतिभागानपेक्ष्य नक्षत्रगतिभागाः किंयन्तोऽधिका भवन्तीति भावः ? भगवानाह-'ता' पंचभागे विसेसेइ तावत् पञ्चभागान् विशेपयति सूर्याक्रान्तगतिभागेभ्यो नक्षत्राकान्तगतिभागाः पञ्च अधिका भवन्तीनि भावः । कमित्याह सूर्य एकेन मुहूर्तेन त्रिंशदधिकानि अष्टादशभागशतानि (१८३०) गच्छति, नक्षत्रं च पञ्चत्रिंशदधिकानि अष्टादशभागशतानि (१८३५) गच्छ'तीति भवति तयोः परस्परं पञ्चभागात्मको विशेष इति । अथ चन्द्रेण सहामिजिन्नक्षत्रस्य योगमाह-'ता जया णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खल 'चदं गइसमावण्ण' चन्द्रं गतिसमापन्नमपेश्य 'अभिई णक्खत्ते' अभिजिन्नक्षत्रं 'गडयमावण्णे' गनिममापन्नं भवति तदा 'पुरस्थिमाए भागाए' पौरस्त्याद् भागात्, प्रथमतोऽभिनिन्नक्षत्रं चन्द्रं 'समासाएई' समासादयनि, 'समासाइत्ता' समासाः च 'णव Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा १५ सू.२ चन्द्रसूर्यनक्षात्रणां परस्परं मण्डलभाग निरूपणम् ६०५ मुहुत्ते' नवमुहूर्तान् 'मुहत्तस्स' एकस्य च मुहूर्तस्य 'सत्तावीसं च सत्तद्विभागे' सप्तविंशति च सप्तपष्टिभागान् यावत् 'चंदेण सद्धिं' चन्द्रेण सार्द्ध 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति-करोति । अस्य भावना प्रागेव कृता । एतावत्कालं 'जोयं जोयत्ता' योगं युक्त्वा योगं कृत्वा पर्यन्तसमये 'जोयं अणुपरियट्टई' योगमनुपरिवर्तयति ततो निवर्त्य श्रवण नक्षत्रस्य योगं समर्पयतीति भावः । 'जोय अणुपरियट्टित्ता' योगमनुपरिवर्त्य 'विप्पजहाई' विप्रजहाति स्वेन सह योगं परित्यजति, एतावदेव 'न किन्तु 'विगयजोई यावि भवइ' विगतयोगि चापि भवति तदा अभिजिन्नक्षत्रं चन्द्रयोगरहितं भवतीतिभावः 'ता जयाणं' इत्यादिना श्रवणेन सह चन्द्रस्य योगमाह-'ता' तावत् 'जयाणं' यदा खल 'चंदं गइ समावण्णं' चन्द्रं गतिसमापन्नमपेक्ष्य 'सवणे णक्खत्ते' श्रवणनक्षत्रं 'गइ समावण्णे' गतिसमापन्न गतिप्राप्तं सत् प्रथमतः 'पुरथिमाए भागाए' पौरस्त्याद् पूर्वभागेन चन्द्रं 'समासाएइ' समासादयति प्राप्नोति 'समासाएत्ता' चन्द्र समासाद्य तत्र चन्द्रेण सह तीसं महत्ते' त्रिंशतं मुहूर्तान् श्रवणस्य समक्षेत्रत्वेन त्रिंशन्मुहूर्तात्मिकत्वात् त्रिंशन्मुहूर्तपर्यन्तं'चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ' चन्द्रेण सार्द्ध योगं युनक्ति-करोति 'जोयं जोइत्ता' त्रिंशन्मुहूर्तान् यावत् योगं कृत्वा 'जोयं अणुपरियट्टई' योगमनुपरिवर्तयति श्रवणनक्षत्रं चन्द्रात्परावर्तते 'जोयं अणु परियट्टित्ता' योगमनुपरिवयं श्रवणनक्षत्रं चन्द्रेण सह योगं विमुच्य 'विप्पजहाइ' विप्रजहति चन्द्रं त्यजति, एतावदेव न तदा श्रवणनक्षत्रं 'विगयजोई यावि भवइ' विगतयोगि-चन्द्रयोगरहितं चापि भवति धनिष्ठानक्षत्ररय चन्द्रयोगं समर्पयतीतिभावः । अथाग्रेऽतिदेशमाह 'एवं' इत्यादि, ‘एवं' एवम् पूर्वप्रदर्शितविधिवत् 'एएणं अभिलावेणं' एतेन पूर्वप्रदर्शितेन अभिलापेन सूत्रालापकेन 'णेयव्वं' ज्ञातव्यम् । नक्षत्राणि मुहूर्तानाश्रित्य त्रिप्रकारकाणि सन्तीति यानि नक्षत्राणि यावन्मुहूर्तात्मकानि तेपा तावन्मुहूर्तात्मको योगो वाच्यः, तथाहि-'पण्णरस मुहुत्ताई' पञ्चदशमुहूर्त्तात्मकानि शतभिषग-भरण्याद्री-ऽश्लेषा स्वाति-ज्येष्ठाख्यानि पड़ नक्षत्राणि, एपां पञ्चदशमुहूत्तत्मिको योगश्चन्द्रेण सह वाच्यः । 'तीसइ मुहुत्ताई' यानि च त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकानि-श्रवण-धनिष्ठा-पूर्वभाद्रपदा-रेवत्याश्विनि कृत्तिका-मृगशीर्ष-पुष्य मघा-पूर्वफाल्गुनी-हस्त-चित्रा-ऽनुराधा-मूल-पूर्वाषाढाख्यानि पञ्चदश नक्षत्राणि, तेषां त्रिशन्मुहूर्तात्मको योगश्चन्द्रेण, सह वाच्यः । तथा 'पणयालीसमुहुत्ताई' पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकानि-उत्तराभाद्रपदा-रोहिणि-पुनर्वसू-त्तराफाल्गुनी -विशाखो-त्तराषाढाख्यानि षड् नक्षत्राणि एषां पञ्च चत्वारिंशन्मुहूर्तात्मको योगश्चन्द्रण सह वाच्यः । तत्राभिजिच्छ्वणयोर्योगमुहूर्ताः पूर्व सूत्रे एव प्रदर्शिताः । एवं सर्वाण्यपि नक्षत्राणि क्रमेण 'भाणियब्वाई' Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे भणितव्यानि, आलापकप्रकारस्तु सुगमत्वात् स्वयमूहनीय इति । कियत्पर्यन्तमित्याह 'जाव उत्तरासाढा' यावत् उत्तराषाढानक्षत्रं तावद् भणितव्यानीति ।। ___ अथ ग्रहमधिकृत्य योगविचारः क्रियते- 'ता' 'जया णं' इत्यादि 'ता' तावत्, 'जया णं' यदा खलु 'चंद गइसमावणं' चन्द्रं गतिसमापन्नमपेक्ष्य 'गहे' ग्रहः 'गइ समावण्णे' गतिसमापन्नो भवति तदा स ग्रहः 'पुरस्थिमाए भागाए' पौरस्त्याद् भागात् पूर्वभागेन प्रथमतश्चन्द्रं 'समासाएइ' समासादयति 'समासाइत्ता' समासाद्य च 'चंदेणं सद्धिं' चन्द्रण साई जोयं जोएइ' यथा सम्भवं योगं युनक्ति 'जोय जोइत्ता' योगं युक्त्वा 'जोयं अणुपरियट्टई' योगमनुपरिवर्तयति चन्द्रयोगात् परावर्त्तते 'अणुपरियहित्ता' अनुपरिवर्त्य 'विप्पजहाई' विप्रजहाति स्वेन सह योगं परित्यजति, किंबहुना 'विगय जोई यावि भवइ' विगतयोगी योगरहितश्चापि भवति २ । अथ सूर्यमधिकृत्य नक्षत्रयोगो विचार्यते –'ता जयाणं सूरियं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जयाणं' यदा खलु 'सूरियं' सूर्य 'गइसमावणं' गतिममापन्नमपेक्ष्य 'अभीईणक्खत्ते' अभिजिन्नक्षत्रं 'गइसमावण्णे' गतिसमापन्नं भवति तदा तदाभिजिन्नक्षत्र प्रथमतः 'पुरस्थिमाएभागाए' पौरस्त्याद् भागात् पूर्वभागतः सूर्य 'समासाएई' समासादयति प्राप्नोति 'समासाइत्ता' समासाद्य 'चत्तारि अहोरत्ते' चतुरः परिपूर्णान् अहोरात्रान् पश्चमस्य चाहोरात्रस्य 'छच्चमुहुत्ते पट् मुहर्त्तान् यावत् 'मूरिएण सद्धि' सूर्येण साथै 'जोयं जोएइ' योगं युनक्ति एतावत्प्रमाणकालपर्यन्तं सूर्येण सार्द्धमभिजिन्नक्षत्रं चारं चरतीतिभावः 'जोयं जोइत्ता' योगं युक्त्वा पण्मुहूर्ताधिकचतुरहोरात्रपर्यन्तं सूर्येण साई स्थित्वाऽन्तिमसमये 'जोयं अणुपरियट्टइ' योगमनुपरिवर्त्तयति सूर्ययोगात् परावर्त्तते 'जोयं अणुपरियट्टित्ता' योगमनुपरिवर्त्य श्रवणनक्षत्रस्य योगं समर्प्य 'विप्पजहाद' विप्रजहाति स्वेन सह योगं परित्यजति, एतावदेव न 'विगयजोईयावि भवई' विगतयोगि योगरहित चापि भवति । ‘एवं' एवम् अनेन प्रकारेण यस्य यावन्तोऽहोरात्रादिकास्तावन्तोऽत्र वाच्याः तथाहि-'अहोरत्ता छ एक्कवीसं मुहुत्ताय' अहोरात्राः षट् एक विंशतिश्च मुहूर्ता चन्द्रयोगमपेक्ष्य पञ्चदशमुहर्त्तात्मकानां शतभिपग-भरण्याः ऽश्लेपा स्वातिज्येष्ठात्यानां पण्णां नक्षत्राणां वाच्याः 'तेरस अहोरत्ता वारसमुहुत्ताय' त्रयोदशाहोरात्रा द्वादशमुहर्ताश्च त्रिंशन्मुहुर्तात्मकानां श्रवण-धनिष्ठा-पूर्वभाद्रपदा-रेवत्यश्विनी-कृत्तिका-मृगशीर्ष-पुष्यमघा-पूर्व फाल्गुनी-हस्त-चित्रा-ऽनुराधा-मूल-पूर्वापाढाख्यानां पञ्चदशानां नक्षत्राणा वाच्याः । 'वीम अहोरत्ता निण्णिमुहुनाय' विंशतिरहोरात्राः त्रयो मुहूर्ताश्च पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तात्मकानाम् - उत्तराभाद्रपदा-रोहिणी-पुनर्वसू-त्तराफाल्गुनी विशाखोत्तराषाढाख्याना पण्णां नक्षत्राणां वाच्याः । अभिजितस्तु अहोगात्रादिकाः पूर्वसूत्रे एव कथिताः । एवं 'सव्वे भाणियव्या' सर्वाणि नक्षत्राणि सूर्ययोगमाश्रित्य क्रमेण भणितत्र्यानि 'जाव' यावत् यावत्पदेन उत्तरापाढापर्यन्तानि । तत्रोत्तरा Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१५ सू.२ चन्द्रसूर्यनक्षत्राणां परस्परं मण्डलभाग निरूपणम् ६०७ पाढानक्षत्राभिलापं सूत्रकारः साक्षात् प्रदर्शयति - 'ता जयाणं सूरिय' इत्यादि 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'सूरियं' सूर्य 'गइ समावण्णा गतिसमापन्नमपेक्ष्य 'उत्तरासाढाणक्खत्ते उत्तरापाढानक्षत्रं 'गइसमावण्णे' गतिसमापन्नं भवति तदा 'पुरत्थिमाए भागाए' पौरस्त्याद् भागात् उत्तराषाढानक्षत्रं चन्द्रं 'समासाएइ' समासादयति, 'समासाइत्ता' समासाद्य 'वीसं अहोरत्ते' विंशतिमहोरात्रान् एकविंशतितमस्य चाहोरात्रस्य 'तिण्णियमुहुत्ते' त्रीन् मुहूर्तान् यावत् 'मरिएण सद्धिं जोयं जोएइ' सूर्येण सार्द्ध योगं युनक्ति, 'जोयं जोइत्ता' योगं युक्त्वा 'जोयं अणुपरियट्टई योगमनुपरिवर्त्तयति 'जोयं अणुपरियहित्ता' योगमनुपरिवर्त्य 'विप्पजहाई' विप्रजहाति सूर्य परित्यजति, किंबहुना 'विगयजोई यावि भवइ' विगतयोगि चापि भवति योगरहितं भवति । अथ सूर्येण सह ग्रहयोगविचारः क्रियते-'ता जया णं' इत्यादि 'ता' तावत् 'जया ण' यदा खलु 'सरियं गइसमावणं' सूर्य गति समापन्नमपेक्ष्य 'गहे गईसमावण्णे' ग्रहो गति समापन्नो भवति तदा' पुरत्थिमाए भागाए समासाएइ' पौरस्त्याद् भागात् सूर्य समासादयति, समासाद्य योगं युक्त्वाऽनुपरिवर्त्य च विप्रजहाति सूर्य त्यजति विगतयोगी चापि भवतीति स्पष्टम् । सू० ॥ २ ॥ पूर्वं चन्द्रसूर्याभ्यां सह नक्षत्रग्रहयोगोऽभिहितः साम्प्रतं चन्द्रादयो नाक्षत्रमासेन कति - कति मण्डलानि चरन्तीति प्रतिपादयितुमाह- 'ता णक्खत्तेण मासेणं इत्यादि । • मूलम्-'ता णक्खत्तेणं मासेण चंदे कइ मंडलाई चरइ ? ता तेरस मण्डलाई . चरइ, तेरस य सत्तद्विभागे मंडलस्स । ता णक्खत्तेण मासेणं सरिए कइ मंडलाई चरइ ? {ता तेरस मंडलाई चरइ, चोयालीसं च सत्तद्विभागे मंडलस्स । ता णक्खत्तेणं मासेणं ‘णक्खत्ते कईमंडलाई चरइ ? ता तेरस मंडलाई चरइ, अद्ध छीयालीसं च सत्तद्विभागे मंडलस्स । ता चंदेणं मासेण चंदे कइ मंडलाई चरइ ! ता चोइस चउभागाइं मंडलाई चरइ एगं च चउव्वीससयभागं मंडलस्स । ता चंदेणं सुरिए कइ मंडलाई चरइ ? ता . पण्णरसचउभागूणाई मंडलाइं चरइ, एगं चउव्वीस सयभाग मंडलस्स । ता चंदेणं -मासेणं णक्खत्ते कइ मंडलाइं चरइ ! ता पण्णरस चउब्भागूणाई मंडलाइं चरइ छच्च 'चउच्चीससयभागे मंडलस्स । ता उउणा मासेणं चंदेकइमंडलाइं चरइ ! ता चोइस मंडलाई चरइ, तीसं च एगट्टि भागे मंडलस्स । ता उउणा मासेणं सुरिए कइमंडलाई चरइ ! ता पण्णरस मंडलाई चरइ । ता उउणा मासेणं णक्खत्ते कइ मंडलाई चरइ ! ता पण्णरसमंडलाइं चरइ, पंचय वावीससयभागे मंडलस्स । ता आइच्चेणं मासेणं चंदे कइ मंडलाई चरइ । ता चोइस मंडलाई चरइ, एक्कारस पण्णरस य भागे मंडलस्स । Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०८ . चन्द्रप्राप्ति ता आडच्चेणं मासेणं सुरिए कइ मंडलाई चरइ । ता पण्णरस चउव्भागाहियाई मंडलाई चरइ । ता आइच्चेणं मासेणं णक्खत्ते कइ मंडलाई चरइ । ता पण्णरस चउभागाहियाई मंडलाई पंच य वीससयभागे मंडलस्स चरइ । ता अभिवड्ढिएणं मासेणं सुरिए कई मंडलाई चरइ । ना मोलाप मंडलाई चरई, 'तिहि भागेहिं ऊणगाई दोहि अडयालेहि सएहि मंडलं छिता । ता अभिवढिएणं मासेणं णक्खत्ते कड मंडलाई चरइ । ता सोलस मंडलाई चरइ सीतालोसेहि भागेहिं अहियाई चोदसहि अट्ठासीएहि मंडलं छेत्ता । सु० ॥३॥ छाग-तावत् नाक्षत्रेण मासेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति ? तावत् त्रयोदश मण्डलानि चरति त्रयोदश सप्तपष्टिभागान् मण्डलस्य । तावत् नाक्षत्रेण मासेन सूर्यः फति मण्डलानि चरति ? तावत् त्रयोदश मण्डलानि चरति, चतुश्चत्वारिंशतं च सप्तपष्टिभागान् मण्डलस्य । तावत् नाक्षत्रेण मासेन नक्षत्र कति मण्डलानि चरति ? तावत् त्रयोदश मण्डलानि चरति, अर्द्ध पद चत्वारिंशतं च सप्तपष्टिभागान् मण्डलस्य । तावत् चा. न्द्रेण मासेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति ? चतुर्दश चतुर्भागानि मण्डलानि चरति एक च चतुर्विशशतभागं मण्डलस्य । तावत् चान्द्रेण मासेण सूर्य. कति मण्डलानि चरति? तावत् पञ्चदश चतुर्भागोनानि चरति, एकंच चतुर्विशशतभागं मण्डलस्य । तावत् चान्टेण मासेन नक्षत्र कति मण्डलानि चरति १ तावत् पञ्चदश चतुर्भागोनानि मण्डलानि चरति पद च चतुर्विशशतभागान् मण्डलस्य । तावत् ऋतुना मासेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति १ तावत् चतुर्दश मण्डलानि चरति, त्रिशतं च एकषष्टि भागान् मण्डलस्य तावत् ऋतुना मासेन सूर्यः कति मण्डलानि चरति १. तावत् पञ्चदश मण्डलानि चरति । नावत् ऋतुना मासेन नक्षत्र कति मण्डलानि चरति ? तावत् पञ्चदश मण्डलानि चरति पञ्च च द्वाविंशति भागान् मण्डलस्य । तावत् आदित्येन मासेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति ? तापत् चतुर्दश मण्डलानि चरति, एकादश च पञ्चदशभागान् मण्डलस्य । तावत् आदित्येन मासेन सूर्यः कति मण्डलानि चरति ? तावत् पञ्चदश चतुर्भागाधिकानि मण्डलानि चरति । तावत् आदित्येन मासेन नक्षत्रं कति मण्डलानि चरति ? तावत् पञ्चदश चतुर्भागाधिकानि मण्डलानि पञ्च च विशशतभागान् मण्डलस्य चरति । तावत् अभिवद्धितेन मासेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति ? तावत् पत्रदश मण्डलानि यशीति पडशोतिशतभागान् मण्डलस्य चरति । तावत् अभिवद्धितेन मासेन सूर्यः कति मण्डलानि चरति ? तावत् पोडश मण्डलानि चरति त्रिमिांगरूनकानि द्वाभ्याम् अष्ट चत्वारिंशाभ्यां शताभ्यां मण्डलं छित्त्वा । तावत् अभिवद्धितेन मासेन नक्षत्र कति मण्डलानि चरति १ तावन् पोडश मण्डलानि चरति, सप्तचत्वारिंशता भागैरधिकानि चतुर्दशभिः अधाशीतैः शतेर्मण्डलं छित्त्वा ॥ सूत्र ॥३॥ । व्याख्या- 'ता णक्खत्तेणं' इति 'ता' तावत् 'णक्खत्तेणं 'मासेणं नक्षत्रेण नक्षत्रमम्बन्धिना मासेन 'चंदे' चन्द्रः 'कड मंडलाई चरह' कति मण्डलानि चरति कति मण्डलेषु चारं चरति । भगवानाह- 'ता तेरस' इत्यादि, 'ता' तावत् 'तरसमंडलाई' त्रयोदश मण्ड Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका. प्रा.१५ स. ३ चन्द्रादीनां नाक्षत्रमास चरणनिरूपणम् “६९ लानि तथा 'मंडलस्स' चतुर्दशस्य मण्डलस्य 'तेरस य सत्तद्विभागे' त्रयोदश च सप्तषष्टि' भोगान् (१३१३) 'चरइ' चरति एतत् कथमवसीयते ? तत्राह एकस्मिन् युगे सप्तषष्टि नक्षत्रमासा भवन्ति, चन्द्रस्य च चतुरशीत्यधिकानि अष्टशतानि (८८४) मण्डलानि भवन्तिततो यावतां मासानां मण्डलानि ज्ञातुमिच्छेत् तावद्भिर्मासैश्चतुरशीत्यधिकानि अष्टशतानि गुणयित्वा सप्तषष्टया भांगो हियते, भागहरणेन यल्लभ्यते तत् मण्डलपरिमाणमायाति । 'अत्रतुं' प्रथममासस्य मण्डलानि ज्ञातुमिच्छा, ततएककमाश्रित्य त्रैराशिकं क्रियते, तथाहि-येदि सप्तषष्ट्या नक्षत्र मासैश्चतुरशोत्यधिकानि अष्टौ शतानि मण्डलानि लभ्यन्ते, तदा एकेन नक्षत्रमार्सेन. कति मण्डलानि लभ्यन्ते, राशित्रय स्थापना १६७४८८४।१। ततोऽन्त्येन राशिना एककरूपेण:मध्यराशिर्गुण्यते जातस्तावानेव (८८४) अस्य सप्तपष्टया भागो हरणीयः, हृते च भागे', लब्धानि त्रयोदश मण्डलानि, शेषास्त्रयोदश स्थिताः, ते च सप्तषष्टिभागाः, तत आगतम्त्रयोदशमण्डलानि, चतुर्दशस्य मण्डलस्य त्रयोदश सप्तपष्टि भागाः (१३१२) अथ गौतमः सूर्यविपये प्रश्नं करोति- 'ता णक्खत्तण' इत्यादि, 'ता' तावत् ‘णक्खत्तण मासेणं' एकेनं नाक्षेत्रेण मासेन 'मूरिए' सूर्यः 'कई मंडलाई चरइ' कति मण्डलानि चरति ? एवं गौतमेन पृष्ठे-" भगवानाह- 'तो तेरस' इत्यादि, 'ता' तावत् 'तेरस मंडलाई' त्रयोदश मण्डलानि 'मंडलस्स'.', चतुर्दशस्य मण्डलस्य 'चोयालीसं 'चं सत्तटिभीगे' चतुश्चत्वारिंशतं च सप्तपष्टिभागानं . (' १३१४ ) 'चरइ' चरति । एतदपि गणितेन लभ्यते, तथाहि-एकस्मिन् युगे नक्षत्रमासाः सप्तर्षष्टिरिति पूर्वमुक्तमेव । एकस्मिन् युगे सूर्यस्य पञ्चदशोत्तराणि नवशतानि मण्डलानि भवन्ति, सूर्य एतावत्सु मण्डलेषु युगे चारं चरति, अत्रापि त्रैराशिकं क्रियते तथाहि-यदिसप्तषष्ट्या नाक्षत्र मासैः पञ्चदशोत्तराणि नवशतानि मण्डलानि लभ्यन्ते तदा एकेनं नाक्षत्रमासेन कति मण्डलानि लभ्यन्ते ? ततस्वैराशिकं स्थाप्यते-६७।९१५।१। क्षेत्रापि पूर्वोक्त एवं विधिः क्रियतें अन्त्येन राशिना मध्यो शशिर्गुणितो जातस्तावनेव (९१५) ततः सप्तषष्टया भागो हियतें, लब्धानि त्रयोदश मण्डलानि शेषाश्चतुश्चत्वारिंशतस्थिताः, ते च सप्तषष्टिभांगा इत्यागतम्-त्रयोदश मण्डलानि, चतुर्दशस्य मण्डलस्य च चतुश्चत्वारिंशतसप्तषष्टि भागाः (१३/४४) इति । .. . अथ नक्षत्रमासे नक्षत्रस्य मण्डलानि पृच्छति-'ता णक्खत्तेणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'णवत्तण मासेणं' एकेन नाक्षत्रेण मासेन 'णक्खने' नक्षत्रं 'कइ मंडलाई चरई' कति: . '६७ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिरले मण्डलानि चरति ? भगवानाह-'ता तेरस' इत्यादि 'ता' तावत् 'तेरस मंडलाई त्रयोदश मण्डलानि 'अद्ध छीयालीसं च सत्तविभागे मंडलस्स' चतुर्दशस्य अर्द्धन सहितान् षट्चत्वारिंशतं सप्तपष्टिभागान् (१३६१) 'चरइ' चरति । कथमिति प्रदर्श्यते- नक्षत्रमासा युग सम्बन्धि नः सप्तपष्टिरेव, नक्षत्रमण्डलानि चैस्मिन् युगे अर्द्धन सहितानि सप्तदशोत्तराणि नव शतानि (९१७॥) भवन्ति ततस्त्रैराशिक क्रियते यदि सप्तषष्टया नाक्षात्रमासैः सार्दानि सप्तदशोत्तराणि नवशतानि (९१७॥) नक्षत्रमण्डलानां लभ्यन्ते तदा एकेन नाक्षत्रमासेन कति मण्डलानि लम्यन्ते ? राशि त्रयस्थापना ((६७।९१७||-१) अत्राप्यन्त्येन राशिना मध्ये राशौ गुणिते' नातस्तावानेव (९१७||) ततः सप्तपष्टया भागहरणं क्रियते, लब्धानि त्रयोदश मण्डलानि शेपाः स्थिता सार्धाः पट् चत्वारिंशत् , ते च सप्तषष्टिभागास्तत आगतम्- त्रयोदश मण्डलानिचतुर्दशस्य मण्डलस्य सार्दा षट् चत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागाः (१३-४६) इति । अथ चन्द्रमास मधिकृत्य चन्द्रादीनां मण्डलानि प्रदर्श्यते-'ता चंदेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'चंदेणं मासेगं' चान्द्रेण मासेन 'चंदे' चन्द्रः 'कइ मंडलाई चरइ' कति मण्डलानि चरति । भगवानाह-'ता चोदस' इत्यादि, 'ता' तावत् 'चोइस' चउभागाइं मंडलाई चतुर्दश , चतुर्भागानि चतुर्थभागेन एकत्रिंगद्रूपेण सहितानि मण्डलानि, 'मंडलस्स' एकस्य मण्डलस्य-,' 'पगं च चउवीससयभाग' एकं चतुर्विशतभागम्, अयं भावः-परिपूर्णानि चतुर्दश मण्डलानि :पञ्चदशस्य च मण्डलस्य चतुर्भाग-चतुर्वि शत्यधिकशत सत्कमेक त्रिंशद्भागप्रमाणम् , एक च, चतुर्विशत्यधिकशतस्य भागं द्वात्रिंशतं पञ्चदशस्य मण्डलस्य चतुर्विंशत्यधिकशतभागान् 'चरइ' चरति, कथमित्याह-एकस्मिन् युगे द्वापटिश्चन्द्रमासा भवन्ति, एकस्मिन् मासे पर्वद्वयमिति चतु" विंशत्यधिकं गतं (१२४) पर्वगामेकस्मिन् युगे भवति । चन्द्रमण्डलानि च चतुरशीत्यधिकानि र अष्टौ शतानि (८८४) भवन्ति पर्वद्वयविषया चात्र पृच्छा ततस्त्रैराशिकं क्रियते, तथाहि-यदि : चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वगतेन चतुरशीत्यधिकानि भष्टौ शतानि मण्डलानि लभ्यन्ते तत. पर्वद्वयेन कति मण्डलानि लभ्यन्ते ! गशित्रयस्थापना-१२४१८८४ा। मत्रान्त्येन द्विकलक्षणेन राशिना मच्यो राशि. (८८४) गुण्यते, जातानि अष्टपष्टयधिकानि सप्तदशशतानि (१७६८), एपामा-' पराशिना चतुर्विशत्यधिकशत-(१२४) रूपेण भागो ह्यिते, लब्धानि चतुर्दश मण्डलानि, .. शेषा द्वात्रिंगदिति पञ्चदशस्य मण्डलस्य द्वात्रिंशत् चतुर्विशत्यधिक शतभागा (१४३९.) इति । अथ चन्द्रमामेन सूर्यचारमाह 'ता चंदेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'चंदेणं मासेणं' .. एकेन चान्ण मासैण 'सरिए' सूर्यः 'कद मंडलाई चरई' कति मण्डलानि चरति ? भगवानाह Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा १५सू.३ चन्द्रादीनांनाक्षत्रमास चरणनिरूपणम् ६११ 'ता' तावत् पण्णरस चउभागृणाई मंडलाई' चतुर्भागोनानि पञ्चदश मण्डलानि चरति । अयं भावः-एकस्य मण्डलस्य चतुर्विशत्यधिकशतभागरूपस्य चतुर्थो भाग एकत्रिंशद्रूपस्तेन' उनानि पञ्चदश मण्डलानि, परिपूर्णानि चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य मण्डलस्य च त्रयोभागधतुर्विंशत्यधिकशतसत्काः त्रिनवतिरूपाः (१४.९३ ) एतत्प्रमितान् , पुनश्च, ‘एगं च चउ-, वीससयभार्ग' एकं च चतुर्विंशतिशतभागं चतुर्दशतमध्याद 'एगं भाग' एकं भाग चेति चतुर्नवति भागसहितानि चतुर्दशमण्डलानि ( १४ १४. ) 'चरह' चरति तथाहिएकस्मिन् युगे चर्तु विंशत्यधिक पर्वशतं भवति सूर्यमण्डलानि च पञ्चदशाधिकानि नवशतानि (९१५) भवन्ति पर्वद्वयविषया च पृच्छा ततस्त्रैराशिकं क्रियते यदि चर्तुविंशत्यधिकेन पर्वशतेन पञ्चदशोत्तरनवशतमण्डलानि लभ्यन्ते तदा द्वाभ्यां पर्वभ्यां कति मण्डलानि लभ्यन्ते ? राशित्रयस्थापना १२४ । ९१५ । २ । अत्रापि पूर्वोक्त एव विधिः क्रियते-अन्त्येन राशिना मध्यराशि गुणयित्वा आधराशिना भागहरणं कर्तव्यम्, तेन लभ्यन्ते चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्डलस्य चतुर्नवतिश्चतुर्विशत्यधिकशतभागाः (१४४.) इति । - अथ चन्द्रमासेन नक्षत्रचारः प्रदर्श्यते-'ता चंदेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'चंदेणं मासेणं' चान्द्रेण मासेन 'णक्खत्ते' नक्षत्रं 'कइमंडलाई चरइ' कतिमण्डलानि चरति ? भगवानाह-'ता' तावत् 'पण्णरस चउभागूणाई मंडलाई' पश्चदर्श चतुर्भागोनानि मण्ड- .. लानि मण्डलस्य चतुर्थभागेन एकत्रिंशद्भागरूपेण न्यूनानि पञ्चदश मण्डलानि, अयं भावः-, परिपूर्णानि चतुर्दशमण्डानि तथा पञ्चदशस्य च मण्डलस्य चतुर्विंशत्यधिकशतभागसत्कभाग- . त्रयं त्रिनवति भागरूपंच (१४-१३. तथा 'छच्च चठवीससयभागे' षट् चतुर्विशतिशत ९ : सत्कभागान् चतुर्विंशतिशतभागेषु षट् भागान् ‘मंडलस्स' एकस्य मण्डलस्य (१४-९९ :, १२४ 'चरई' चरति । तहाहि-एकस्मिन् युगे चन्द्रमासा द्वापष्टि रिति चतुर्विशत्यधिकशतं पर्वणां भवति, नक्षत्रमण्डलानि च एकस्मिन् युगे सार्द्ध सप्तदशाधिकानि नवशतसंख्यकानि (९१७ ॥ )भवन्ति तेषामर्द्धमण्डलानि पञ्चत्रिंशदधिकानि अष्टादश शतानि (१८३५)भवन्ति पर्वद्वयविषया पृच्छेति त्रैराशिकं क्रियते-यदि । चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन पञ्चत्रिंशदधिकानि Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દર चन्द्रशतिसूत्रे अष्टादश शतानि अर्द्वमण्डलानां लभ्यन्ते तदा द्वाभ्यां पर्वभ्यां कति मण्डलानि लभ्यन्ते !” राशित्रयस्थापना १२४ । १९३५ । २ । ततोऽन्त्येन राशिना द्विकरूपेण मध्यराशेर्गुणनें जायन्ते, सप्तत्यधिकानि षट् त्रिगच्छतानि (३६७० ) एषामाद्य राशिना चतुर्विंशत्यधिकशतरूपेण भागे हृते लब्धा एकोनत्रिंशत् (२९) शेषास्तिष्ठन्ति चतुरसप्तति भागाः (७४) । इदं चा गर्तमर्द्ध मण्डलानां परिमाणम्, द्वाभ्यामर्द्ध मण्डलाभ्यामेकं परिपूर्ण मण्डलं नायते ततोऽनयोर्लब्धशेषरूपयोः : राश्यो द्वाभ्यां भागो हरणीयः अथवाऽनयोरर्द्ध क्रियते द्वयमपि समान फलं भवति, तथाहि एकोनत्रिंशतो. द्वाभ्यां भागे हृते धानि चतुर्दश मण्डलानि शेषमेकमित्यस्य चतुर्वि-शत्यधिक भागकरणार्थं चतुर्विंशत्यधिकशतेन एककं गुण्यते जातं चतुर्विंशत्यधिकं शतम् (१२४) तच्च पूर्वं शेषी भूतचतुः सप्ततौ प्रक्षिप्यन्ते जातम् अष्टनवत्यधिकं शतम्, (१९८) अस्य द्वाभ्यां : भागो ह्रियते लब्धा नव नवतिः (९९) तत आगतम् परिपूर्णानि चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य, -- च· मण्डलस्य नवनवति चतुर्विंशत्यधिकशतभागाः (१४ १२४) इति । - अथ ऋतुमासमधिकृत्य चन्द्रादीनां मण्डलनिरूपणा क्रियते 'उउणा मासेणं' इत्यादि 'उउणा मासेणं' ऋतुसम्बन्धिना मासेन कर्ममासेनेत्यर्थः 'चंदे' चन्द्रः 'कइमंडलाई चरई', कति मण्डलानि चरति ? भगवानाह - 'ता चोदस' इत्यादि 'ता' तावत् चोदसमंडलाई' चतुदेश मण्डलानि परिपूर्णानि 'मंडलस्स' पञ्चदशस्य च मण्डलस्य 'तीसं च एगद्विभागे' त्रिशतं yo ३० Ps च एकषष्टि भागान् ( १४ ) 'चरइ' चरति । कथमित्याह - एकस्मिन् युगे एक षष्टिः । ६१ ऋतुमासा इति कर्ममासा भवन्ति, चन्द्रश्चैकस्मिन् युगे चतुरशीत्यधिकाष्टशतमण्डानि चरतीति रागिकं क्रियते, तथाहि यदि एक पष्ट्या कर्ममासैश्चतुरशीत्यधिकानि अष्टमण्डलशतानि लभ्यन्ते तदा एकेन कर्ममासेन कति मण्डलानि लभ्यन्ते ? राशित्रयस्थापना - ६१।८८४|१| तत्रान्त्येन राशिना मध्यरात्रिर्गुणितो जानस्तावानेव (८८४ ) तत आधेन राशिना एकपष्टिरूपेण भागो हियते, धानि परिपूर्णानि चतुर्दश मण्डलाणि पञ्चदशस्य च मण्डलस्य त्रिंशदेकपष्टि|ર્ भागा ( १४ ) इति । ६ १ अथ ऋतुमासेन सूर्यचारमाह - 'ता उडणा' इत्यादि, 'ता' तावत् उउणा मासेणं? - ऋतुना ऋतुसम्बन्धिना मासेन 'सुरिए' सूर्यः 'कई मंडलाई चरई' कति मण्डानि चरति ! भगवानाह - 'ता' तावत् 'पण्णरस मंडलाई चर' पञ्चदश मण्डलानि चरति तथाहि - एकपष्टिः ऋतुमासाः पञ्चदशाधिकानि नव मण्डलशतानि सूर्यस्य भवन्ति ततो यदि एकपट्या Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T बद्रनप्तिप्रकाशिका टोका प्रा.१५ सू.३ चन्द्रादीनां नाक्षत्रमास चरणनिरूपणम् ६१३. ऋतुमासैः पञ्चदशोत्तगणि नवशतानि सूर्यमण्डलानि लभ्यन्ते तदा एकेन ऋतुमासेन कति सूर्यमण्डलानि लभ्यन्ते ? राशित्रयस्थापना ६११९१५।१ अत्रापि अन्त्येन राशिना मध्यम राशि पञ्चदशाधिकनवशतरूपं 'गुणयित्वा आधराशिना एकषष्टिरूपेण भागो हियते, लभ्यन्ते' परिपूर्णानि पञ्चदश मण्डलानि । . अथ ऋतुमासेन नक्षत्रचारमाह-'ता. उउणा' इत्यादि 'ता' तावत् उउणा मासेणं' ऋतुना ऋतुसम्बन्धिना मासेन 'नक्खत्ते नक्षत्रं 'कइमंडलाई चरइ' कतिमण्डलानि चरति ! भगवानाह-'ता' तावत् 'पण्णरस, मंडलोई, पञ्चदशौं मण्डलानि तथा 'मंडलस्स' षोडशस्य मण्डलस्य ‘पंचय वाचीस सयभागे': पञ्चचद्राविंशति शतभागान् (१५.९. ) 'चरइ' चरति । कथमित्याह-एकस्मिन् : युगे। एकाष्टिः ऋतुमासा (६१) नक्षत्रमण्डलानि सार्द्ध-" सप्तदशाधिकानि नव मण्डलशतानि :(९१७॥) ततस्त्रैराशिकं क्रियते तथाहि-यदि एकषष्टिमासैः सार्द्ध समदशाधिकानि नव शतानि नक्षत्रमण्डलानां लभ्यन्ते तदा एकेन ऋतुमासेन कति मण्डलानि लभ्यन्ते ? राशित्रयस्थापना (६१।९१७१) अत्रापि अन्त्यराशिना मध्यराशि गुणयित्वा आधराशिना भागे हृते लभ्यन्ते पञ्चदश (१५) मण्डलानि शेषं साढ़े द्वे (२) मस्यः सार्द्धद्विकस्य द्वाविंशत्यधिकशतमागकरणार्थ सार्द्ध द्विकं द्वाविंशत्यधिकशतेन गुण्यतेगा जातानि पञ्चोत्तराणि त्रीणि शतानि (३०५) तत एकषष्टया भागो हियते लब्धाः पञ्च द्वाविंशत्यधिकशत भागाः ( १५.५५ ) इति । सम्प्रतं सूर्यमासमधिकृत्य चन्द्रादीनां मण्डलानि प्रदर्शयति-ताआइच्चेणं' इत्यादि, 'ता" तावत् 'आइच्चेणं मासेणं'. आदित्येन मासेन 'चंदे' चन्द्रः 'कइमंडलाई चरइ' कतिमण्ड-' लानि चरति ? भगवानाह-'ता', तावत् 'चौद्दस मंडलाई' चतुर्दश मण्डलानि, तदुपरि च 'मंडलस्स' पञ्चदशस्य मण्डलस्य 'एक्कारस पंचदसभागे' एकादश पञ्चदशभागान् (१४.) 'चरई'. चरति । कथमित्याह-एकस्मिन् युगे : आदित्य मासाः षष्टिः (६०), चन्द्रमण्डलानि चतुरशीत्यधिकानि अष्टौ शतानि (८८४), ततस्त्रैराशिकं क्रियते, तथाहि-यदि षष्टया आदित्यमासैः 'चतुरशीत्यधिकानि अष्टौ मण्डलशतानि चन्द्रस्य लभ्यन्ते तदा एकेन आदित्यमासेन कति मण्डलानि लभ्यन्ते ? राशित्रयस्थापना-६०८८४।१। अत्रान्त्येन राशिना मध्यो राशि र्गुणितो जातस्तावानेव (८८४), अस्याधराशिना भागो हियते लब्धानि चतुर्दश मण्डलानि, तिष्ठन्ति शेषाचतुश्चत्वारिंशत् (४४) ततोऽस्य छेधराशेश्चतुश्चत्वारिंशद्रूपस्य छेदकराशेः षष्टिरूपस्य च Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..चन्द्रप्राप्तिसूत्रे चतुष्केनापवर्त्तना क्रियते चतुष्केन भागहरणेनापहारः क्रियते इत्यर्थः, ततश्चतु श्चत्वारि-- गतश्छेघराशेरपवर्तनायां लभ्यन्ते एकादश ११, षष्टिरूपस्य छेदकराशेरपवर्तनायां लभ्यन्ते. पञ्चदशेति समागतम् -चतुर्दश मण्डलानि परिपूर्णानि पश्चदशस्य मण्डलस्य चैकादश पञ्चदश. भागाः (१४) . अथादित्यमासेन सूर्यचारमाह-'ता आइच्चेण'. इत्यादि, 'ता' तावत् 'आइच्चेण , मासेणं' आदित्येन मासेन 'सरिए सूर्यः 'कइ मंडलाइं चरई' कतिमण्डलानि चरति । भगवानाह-'ता पण्णरस' इत्यादि, 'ता' तावत् 'पण्णरस मंडलाई' पञ्चदश मण्डलानि 'चउभागाहियाई चतुर्भागाधिकानि चतुर्थ भागेन पोडशस्य च मण्डलस्य : पष्टिभागा विभक्तस्य' पञ्चदशभागात्मकेन अधिकानि । (१५/८2) 'चरइ' चरति । तथाहि-यदि युगसम्बन्धिभिः षष्टि - सूर्यमासैः पञ्चदशाधिकानि नव ' मण्डलशतानि सूर्यस्य लभ्यन्ते । तदा । एकेन मासेन कति मण्डलानि लभ्यन्ते राशित्रयस्थापना -६०९१५।१ । राशिना मध्यराशिं गुणयित्वा षष्टया भागो हियते लब्धानि परिपूर्णानि पञ्चदश मण्डलानि, पोडशस्य मण्डलस्य च पञ्चदश षष्टिभागाः.. -) सपाद पञ्चदश मण्डलानि चरतीति भावः । अथादित्यमासेन नक्षत्रचारमाह-ता आइच्चेणं' इत्यादि, ''ता' तावत् 'आइच्चेणं मासेणं' आदित्येन मासेन , 'णक्खत्ते', नक्षत्रं 'कइ मंडलाइं चरइ' कति मण्डलानि चरति ? भगवानाह-'ता' तावत् 'पण्णरस चउभागाहियाइं मंडलाई' पञ्चदश चतुर्भागाधिकानि मण्डलानि पोडश मण्डलसम्बन्धि चतुर्थ भागेनाधिकानि मण्डलानि सपाद पञ्चदश मण्डलानीत्यर्थः पुनश्च 'पंचय वीससयभागे मंडलस्स' पञ्च च विंशशतभागान् मण्डलस्य एकस्य मण्डलस्य पञ्च च विंशत्यधिक शत भागान् (१५१६.) 'चरइ' चरति । किमुक्त.. भवति-पञ्चदशपरिपूर्णानि मण्डलानि १५, पोडशस्य च मण्डलस्य चतुर्थो भागः विंशत्यधिकशतमागसत्कस्विंगत्प्रमित., पञ्च चान्ये सूत्रोक्ता विंशत्यधिक शत भागाः इति मिलित्वा जायन्ते पञ्चत्रिशविंशत्यधिकशतभागाः (१५-१६.) इति । कथ-: मित्याह एफम्मिन युगे आदित्यमामा पष्टिः (६०), नक्षत्र मण्डलानि च साई सप्तदशाधिकानि नवशतानि (९१७॥) इनि गशिकं क्रियते-यदि पष्टया सूर्यमासैः सार्द्धसप्तदशाधिकानि Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा.१५. सू.३ चन्द्रादीनांनाक्षत्रमास चरणनिरूपणम् ६१५ नवमण्डलशतानि नक्षत्रस्य लभ्यन्ते तदा एकेन' सूर्यमासेन कति मण्डलानि लभ्यन्ते ! राशित्रयस्थापना-६०।९१७॥ । १) अत्रान्त्येन ' राशिना मध्यराशिर्गुणितो जातस्तावानेव (९१७॥) अस्य आद्यराशिना पष्टिरूपेण भागो हियते लब्धानि पञ्चदश मण्डलानि शेषास्तिष्ठन्ति साः सप्तदश (१७॥) एते विंशत्यधिकशतभागकरणार्थ विंशत्यधिकेन गुण्यन्ते जातानि एकविंशतिः शतानि (२१००), एषां षष्टया भागो हियते लब्धाः पञ्चत्रिंशद् विंशत्यधिक शतभागाः, तत आगतम् पञ्चदश मण्डलानि परिपूर्णानि, षोडशस्य च मण्डलस्य पञ्चत्रिंशद विंशत्यधिक शतभागाः (१५/३६.) इति । ..... . १२० : . , .. ' ': , अथाभिवतिमा समधिकृत्य चन्द्रादिमण्डलानि, प्ररूपयति-ता अभिवढिएणं'. इत्यादि । 'ता'. तावत् 'अभिवड्ढीएणं मासेणं'.. अभिवर्धितेन मासेन 'चंदे' चन्द्रः 'कइ मंडलाई चरइ' कति मण्डलानि चरेति ? भगवानाह-'ता' तावत् 'पण्णरंस मंडलाई पञ्चदश मण्डलानि 'मंडलस्त' षोडशस्य, मण्डलस्य च 'तेसीइं छलसीइसयभागे' त्र्य: शीतिं पडशीतिशतभागान् (१५/८३.) 'चरइ' चरति । कथमेतदवसीयते ? इत्यत्राह-एक... . . १८६, स्मिन् युगेऽभिवर्द्धितमासाः सप्तपञ्चाशत् अयश्च त्रयोदश भागाः (५७३ ) भवन्ति, ततो ऽस्य राशेः त्रयोदशभागाः कर्त्तव्याः, ततस्त्रयोदशः भागकरणार्थ सप्तपञ्चाशत् त्रयो.. दशभिर्गुण्यन्ते (५७४१३)जातानि एकचत्वारिंशदधिकानि सप्तशतानि (७४१) एषु ये उपरितनास्त्रयस्त्रयोदशभागास्ते क्षिप्यन्ते (७४१+३) जातानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि शप्त- " शतानि (७४४) अभिवर्द्धितमास सत्क त्रयोदश। भागानाम् । ततो यावन्मासानां मण्ड-: लानि ज्ञातु मिच्छेत् तावन्तो मासा अपि त्रयोदशभिर्गुण्यन्ते ततोऽत्रैकमासगतमण्डल जिज्ञासा- 1 वर्तते तत - एकोऽङ्कनयो दशभिर्गुण्यन्ते जातात्रयोदशैव, ततस्त्रैराशिकं क्रियते तथाहि- . ' 'यदि-चतुश्चत्वारिंशदधिक सप्तशतैरभिवर्द्धितमाससत्कैस्त्रयोदशभागैः (७४४) चतुरशी-'-. त्यधिकानि अष्टशतानि (८८४) चन्द्रमण्डलानां ' लभ्यन्ते तदा एकाभिवर्द्धितमाससत्क-" स्त्रयोदयभागैः कति मण्डलानि लभ्यन्ते, 'राशित्रयस्थापना- ७४४ । ८८४ । १३ । अत्रा-' न्त्येन राशिना त्रयोदशरूपेण' ' मध्यो राशिः चतुरशीत्यधिकाष्टशतरूपो गुण्यते जायन्ते-एकादश सहस्राणि चत्वारिशतानि विनवत्येधिकानि (११४९२) ततोऽस्य॑ राशेः आधराशिना चतु-" . श्चत्वारिंशदधिकसप्तशतरूपेण 'भागो हियते; लभ्यन्ते' पञ्चदश मण्डलानि तिष्ठन्ति पश्चात् । द्वात्रिंशदधिकानि । त्रीणिशतानि (३३२), 'एष राशिः" 'षडशीत्यधिकशतभागकरणार्थ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .....................चन्द्रप्रालियर पडशोत्यधिकेन शतेन (१८६) गुण्यते जातानि-एक पष्टिः सहस्राणि सप्तशतानि द्विपञ्चाशदधिकानि (६१७५२), अस्य राशेरपि : चतुश्चत्वारिंशदधिकसप्तशतराशिना (७४४),, भागो हियते लब्धास्त्र्यशीतिर्भागाः (८३) तत...आगतम्-पञ्चदश मण्डलानि परिपूर्णानि पोडशस्य च मण्डलस्य 'त्र्यशीतिः । पिडशीतिशतभागाः (१५.२.) एकेनाभिवर्द्धितमा-- । ', ' १.०१. । ... सेन चन्द्रमण्डलानां लभ्यन्ते, इति । ..., .' - - अथाभिवतिमासेन सूर्यमण्डविचारमाह-'ता, अभिवईदिएणं' . इत्यादि, 'ता'. तावत् अभिवइदिएणं मासे गं' एकेन अभिवर्द्धितेन मासेन 'वैरिएं' सूर्यः 'कइमंडलाई चरइ कृति मण्डलानि, चरति ? , भगवानाह. --सोलसमंडलाई पोडशमण्डलानि 'तिहिं भाोहिं ऊणगाई त्रिसिर्भागैर्मण्डलसत्क: ऊनक्राति न्यूनानि, किथमित्याह-'दोहि अडयाठेहि माहि मंडलं छित्ता' द्वाभ्यां शताभ्याम् अष्टचत्वारिंशंदधिकाभ्यो (२४४) मण्डले , छित्वा ,एकस्य मण्डलस्य अष्टचत्वारिंशदधिके वैशर्ते भागीनां कृत्वा तन्मध्यात् त्रिभिभोगे । न्यूँनानि पोडशमण्डलानि ।, क्रिमुक्तं भवति-परिपूर्णानि पञ्चदर्शमपंडलानि, षोडशस्यच मण्डलस्य.. अष्टचत्वारिंशदधिक द्विशतभागसत्कभागत्रयन्यूनान्-इति पञ्चचत्वारिंशदधिकद्विशतमागान् (१५२४५) 'चरइ' चरति । कथमित्याह एकस्मिन् युगे पूर्वप्रदर्शितरीत्याऽभिवद्धित-" मासस्य चतुश्चत्वारिंशदधिकानि सप्तशतानि (४४) त्रयोदशभागाः' भवन्ति, सूर्येश्चैकस्मिन - युगे पञ्चदशाधिकानि नव मण्डलशतात्ति (६१५) चरति, 'अत्रैकस्य मासस्य पृच्छा तत एक त्रयोदशभिर्गुणयित्वा त्रयोदश मागाः क्रियते ततस्त्रैराशिक क्रियते; तथाहि-यदि-चतु: श्वत्वारिंशदधिकसप्तशतभागैः पञ्चदशाधिकानिः नवशतानि · सूर्यमण्डलानी लभ्यन्ते तदा एकाभिवदितमामसल्कत्रयोदशभागः. कंति मनुलानि लभ्यन्ते राशियस्थापना (७४४ । ९१५ । १३) अवान्त्येन राशिना योदशलक्षणेन · मन्यो राशिः पञ्चदशोधिक नवशतरूपों गुण्यते जातानि, एकादश सहस्राणि अष्टौ शतानि पञ्चनवत्यधिकानि (११८९५) अस्याधेन राशिना चतुश्चत्वारिंशदधिक सप्तश्तरूपेण (५४४) भागो, हियते, लब्धानि पञ्चदश-- मण्डलानि शेषाणि तिष्ठन्ति पञ्चत्रिंशदधिकानि सप्तशतानि : (७३५) एतानि मष्टचत्वारि-- शषिक द्विशनभागकरणार्थ मष्ट चत्वारिंशदधिकाम्या, द्वाभ्यां शताभ्यां गुण्यन्ते जातानिपकं, लक्ष, यशीतिः सहस्राणि, देशते मशीत्यधिके, (१८२२८०) अस्य, राशेरपि चतुथस्वारिंशदधिक सप्तमिशते; (७,४४): भागो, हियते, लन्धे.. पञ्चचत्वारिंशदधिके देशते , (२९५), तत मागतम् परिपूर्णानि पञ्चदशमण्डलस्य पञ्च . चत्वारिंशदधिकद्विशतसंक्ष्यका , Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिकाटोका प्रा.१५. सू.३ . चन्द्रादीनां नाक्षत्रमास चरणनिरूपणम् ६१७ अष्ट चत्वारिंशदधिक द्विशतभागाः (१५ २,१५.) इति । । . अथाभिवर्षितमासेन । नक्षत्रमण्डलान्याह-'ता..,अभिवड्ढयएणं'. इत्यादि 'ता तावत् 'अभिवढयएणं मासेण' अभिवद्धितेन मासेन ‘णक्खत्ते' नक्षत्रं 'कइ मंडलाई चरइ' कति मण्डलानि चरतिः । १ । भगवानाह- "ता' तावत् - 'सोलस मंडलाई' षोडश मण्डलानि 'सीयालीसेहि भागेहिं अहियाई । सप्त, चत्वारिंशता भागैरधिकानि 'चोदसहिं अट्ठा सीएहिं सएहिं' अष्टाशोत्यधिकैश्चतुर्दशभिः शतैः (१४८८) 'मंडलं छित्ता' मण्डलं छित्त्वा । परिपूर्णानि षोडश मण्डलानि' सप्तदशस्य च अष्टाशोत्यधिकचतुर्दशशतभागान् कृत्वा तन्मध्यात् सप्तचत्वारिंशतो भागान् . (१६ ) 'चरइ' चरति । तथाहिएकस्मिन् युगे अभिर्द्धितमासस्य चतुश्चत्वारिंशदधिकानि सप्त शतानि (७४४) त्रयोदश भागा भवन्ति । नक्षत्र मण्डलानि सार्द्धसप्तदशाधिकानि नवशतानि (९१७॥) भवन्ति, ततोऽयमपि राशिस्त्रयोदशभि-र्गुण्यते जातानि-एकादश सहस्राणि नवशतानि सार्द्धसप्तविंशत्यधिकानि (११९२७) । ततस्त्रैराशिकं क्रियते-यदि चतुश्चत्वारिंशदधिकैः सप्तभिः शतैः अभिवर्द्धितमाससत्कत्रयोदशभागैः सार्द्रसप्तविंशत्यधिकनवशेतोत्तरीणि एकादश सहस्राणि (११९२७॥) नक्षत्रमण्डलानां त्रयोदश भागा लभ्यन्ते तदा एकेन अभिवर्द्धिनमासेन कति मण्डलानि लभ्यन्ते ? राभित्रयस्थापना-(७४४ । ११९२७॥-१) अत्रान्त्येन रागिना एकक लक्षणेन मध्योराशिगेंण्यते जातस्तावानेव (११९२७॥) ततोऽस्य राशेः आयेन राशिना चतुश्चत्वारिंशदधिक सप्तशतरूपेण भागो हियते। लब्धानि षोडश ' मण्डलानि (१६) शेषातिष्ठति सार्दा त्रयोविंशतिः (२३), अस्या अष्टाशीत्यधिक चतुर्दशगतभागकरणार्थम् अष्टाशीत्यधिक चतुर्दशशतै (१४८८) र्गुण्येते, जातानि चतुस्त्रिंशत् ., सहस्राणि 'नवशतानि अष्टपष्टयधिकानि (३४९६८), अस्य राशेरपि चतुश्चत्वारिंशदधिक सप्तशतैः (७४४), भागो हियते, हृते च भागे लभ्यन्ते सप्तचत्वारिंशत् (४७) तत आगतम्-नक्षत्रं परिपूर्णानि पोडश मण्डलानि, सप्तदशस्य मण्डलस्य च सप्तचत्वारिंशतम् अष्टाशीत्यधिकचतुर्दशशतभागान् ' ..(१ _)' एकेनाभिवर्द्धितमासेन १४८८ चरति चन्द्रसूर्यनक्षत्रमण्डलानयनविधिरयम् -अत्र एकस्य मामस्य त्रयोदश भागा गृहीताः, एपु यावतां भागानां . मण्डलजिज्ञासा. भवेत् ,"तावद्भिर्भागैश्चन्द्र-सूर्य-नक्षत्रमण्डलानि गुणयित्वा चतुश्चत्वारिंशदधिकसप्तशतैः ; (७४४): भागो , हरणीयः - भागे हृते यावन्ति 'लभ्यन्ते तानि मण्डलानि ज्ञातव्यानि । एव करणेन अभिवर्धितमासस्य प्रथमे एकस्मिन् भागे चन्द्रः ७८ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे एकं मण्डलम् पञ्चविंशातं च पडशीत्यधिकशतभागान्–(१/३५.) चरति । एवं सूर्यः-एक । । तथा T मण्डलम् सप्तपञ्चाशतं च अष्टचत्वारिंशदधिकद्विशत नक्षत्रम् एकं मण्डलम् सप्त चत्वारिंशदधिकत्रिंशत्संख्यकान् अष्टाशीत्यधिक चतुर्दश, शतभागान् (१३३९७ ) चरति । यदि यस्य कस्यचित् परिपूर्णस्य एकस्य मासस्य मण्डलानि ज्ञातुमिच्छेत् तदा तत्सम्बन्धिनमत्रोक्तराशि त्रयोदशभिर्गुणयेत् तदा सभागानि भविष्यन्ति चन्द्रादीनां तत्तन्मासगतमण्डलानीति । अत्राभिवर्द्धितमाससत्कचन्द्रमण्डलानामुदाहरणं प्रदर्यते, तथाहि-चन्द्रस्याभिवद्धितमाससत्कैकभागभुक्तमेकं मण्डल पञ्चत्रिंशञ्च षडशीत्यधिकशतभागाः (१३५.) त्रयोदशभिर्गुण्यन्ते, तत्र प्रथममेकं मण्डलं त्रयोदश मिर्गुण्यते; जातात्रयोदश (१३) तत उपरितनाः पञ्चत्रिंशत् त्रयोदशभि गुण्यते, जातानि पञ्च पञ्चागदधिकानि चत्वारिंशतानि (१५५) ततोऽस्य मण्डलानयनाथ पडशीत्यधिकशतेन भागो हियते लब्धे द्वे, ते च मण्डलसंख्यायां क्षिप्येते, जातानि पञ्चदश मण्डलानि, शेषास्त्र्य शीति पडशीत्यविकातभागाः, ततागतो यथोक्तो राशिः (१५ एवं सूर्यमण्डल नक्षत्रमण्डलविषयेऽपि विज्ञेयमिति सू० ॥ ३ ॥ माम्प्रतमहोरात्राचाश्रिय चन्द्रादीनां प्रत्येक मण्डलचारमाह-ता एगमेगेणं अहो रत्तेण चंदे' इत्यादि । . मृलम्- ना एगमेगेणं अहोरत्तणं चंदे कई मंडलाइं चरइ १ ता एगं अद्धमंडलं चरड, एक्कतीसाए भागेहिं ऊणं नवहिं पण्णरसेहिं सएहि अद्धमंडलम् छेत्ता । ता एगमेगेणं अहोरण सरिए कइ मंडलाई चरइ ? ता एगं अद्धमंडलं चरइ । ता एगमेगेणं अहोरत्तेणं धरिए कइ मंडलाई चरइ ? ता एगं अद्धमंडलं चरइ । ता एगमंगेणं अहोरत्तणं णक्खत्ते कइ मंडलाई चरइ ? ता एग अद्ध मंडलं चरइ दोहिं भागेहि अहियं सनहि बत्तीसेहिं सरहिं अद्धमंडलं छेत्ता । ता एगमेगं मंडलं चंदे कहि अहोरत्तेहिं चरइ ? ता दोहि अहोरत्तेहि चरइ एकतीसाए भागेहि अहिएहिं चउर्हि वायाहिं सरहिं राइंदियं छेत्ता । ता एगमेगं मंडलं मूरिए कहिं अहोरत्तहि चरइ ? वा दोहि अहारत्तहि चरइ । ता पगमेग मंडलं णक्खत्ते कहिं अहोरचेहिं चरइ ? ता Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा.१५ सू.४ अहोरात्राद्याश्रित्य चन्द्रादीनां मण्डलचारम् ६१९" दोहि अहोर तेहिं चरइ दोहिं भागेहि ऊणेहिं तिहिं सत्तसडेहिं सएहिं राइदियं छेत्ता। . ता जुगेण चंदे कइ मंडलाइं चरइ । ता अट्ट चुलसीयाई मंडलसयाइं चरइ । ता जुगेणं. सरिए कइ मंडलाई चरइ ? ता णव पण्णरस मंडलसयाई चरइ । ता जुगेणं णक्खत्ते कइ मंडलाइं चरइ ? ता अट्ठारस पणतीसाई दुभागमंडलसयाई चरइ । इच्चेसा मुहुत्त गई रिक्खाइ मासराइंदिय जुग मंडल पविभत्ती सिग्ध गइ वत्थु आहिएत्तिवेमि।। सू ० ४॥ . पण्णरस्सम पाहुडं समत्तं ॥१५॥ छाया-तावत् पकैकेन अहोरात्रेण चन्द्रः कति मण्डलानि चरति ? तावत्' पकम् अर्द्धमण्डलं चरति एकत्रिंशता भागैः ऊनम् नवभिः पञ्चदशैः शतैः अर्द्धमण्डलं छित्त्वा । तावत् एकैकेन अहोरात्रेण सूर्यः कति मण्डलानि चरति ? तावत् एकम् अर्द्ध मण्डलं चरति । तावत् एकैकेन अहोरात्रेण नक्षत्र कति मण्डलानि चरति ? तावत् एक मण्डलं चरति द्वाभ्यां भागाभ्यामधिकम् सप्तभिः द्वात्रिशैः शतैः अर्द्धमण्डलं छित्त्वा । तावत् एकैकं मण्डलं चन्द्रः कतिभिरहोरात्रैः चरनि ? तावत् द्वाभ्याम् अहोरात्राभ्यां चरति एफत्रिशता भारोरधिकाभ्यां चतुर्भिः द्विचत्वारिंशः शतैः रात्रिन्दिवं छित्त्वा । तावत् एकैकं मण्डलं सूर्यः कतिभिरहोरात्रैः चरति १ तावत् द्वाभ्याम्, अहोरात्राभ्यां चरति । तावत् एकैकं मण्डलं नक्षत्रं कतिभिरहोरात्रैः चरति ? तावत् द्वाभ्यामहोरात्रा भ्यां चरति, द्वाभ्यां भागाभ्यामूनाभ्याम् त्रिभिः सप्तषष्टिःशतैः रात्रिन्दिवं छित्त्वा । तावत् युगेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति ? तावत् अष्ट चतुरशीतानि मण्डलशतानि चरति । तावत् युगेन सूर्यः कति मण्डलानि चरति : तावत् नव पञ्चदशानि मण्डलश: तानि चरति । तावत् युगेन नक्षत्रं कति मण्डलानि चरति ? तावत् अष्टादश पञ्चत्रिशा नि द्विभाग मण्डलशतानि चाति । इत्योमुहर्त गतिः ऋक्षादिमास रात्रिन्दिव युग मण्डल प्रविभक्ति शोघ्रगतिवस्तु आख्यातम् इतिव्रवीमि ।। सूत्र | ॥ पञ्चदशं प्राभृतं समाप्तम् ॥१५॥ व्याख्या ... 'ता एगमेगेणं' इति 'ता' तावत् 'एगमेगेणं अहोरत्तेणं' एकैकेन अहोरात्रेण 'चंदे' चन्द्रः 'कइमंडलाइं चरइ' 'कतिमण्डलानि चरति ? भगवानाह 'ता' तावत् 'एग-, अद्धमंडल' एकमर्द्धमण्डलं, तच्च 'एक्कतीसाए भागेहिं ऊणं' एकत्रिंशता भागैरून होनम् कथम्-'णवहिं -पण्णरसेहिं सएंहि' पञ्च दशाधिकैनवभिः शतैः (९१५) 'अद्धमंडलं छित्ता' अर्द्वमण्डलं छित्वा-एकस्यार्द्धमण्डलस्य पञ्चदशाधिकनवशतभागान् कृत्वा - तन्मध्यात् एकत्रिंशद्भागैर्युनमर्द्धमण्डलम् 'चरई' चरति । तदेव दर्यते-एकस्मिन् युगे , त्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि (१८३०) अहोरात्राणां भवन्ति चन्द्र मण्डलानि परिपूर्णानि चतुरशोत्यधिकाानअष्टशतानि (८८४) भवन्ति तेषामर्द्ध मण्डलानि अष्ट षष्टयधिकानि सप्तदशशतानि (१७६८) जायन्ते तत त्रैराशिकं क्रियते-यदि त्रिंशदधिकाष्टादश शतरात्रिन्दिवैः अष्टषष्टयधिकानि सप्तदश , शतानि चन्द्रस्यार्द्धमण्डलानां लभ्यन्ते तदा एकेन रात्रिन्दिवेन कति मण्डलानि लभ्यन्ते Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे राशित्रयस्थापना-(१८३०।१७६८1१। अत्रान्त्येन राशिना- मध्यराशिर्गुणितस्तावानेह (१७६८. अस्याद्यगशिना त्रिंशदधिकाष्टादशशतरूपेण भागो हरणीयः, ततो भाजकराशे र्भाध्य राशिन्यून इति भाग न लभते ततो भाज्यभानकराश्यो दिकेनापवर्त्तना करणे लभ्यन्ते, चतुरशोत्यघिकानि अष्टशतानि (८८४) पञ्चोत्तर नवशत भाग सत्कानि (८८४) तत आगतम्-चन्द्र एकेना . ९१५, .. होरात्रेण एकस्यार्द्धमण्डलस्य पञ्चदशोत्तरनवशतभागेभ्य श्चतुरंशीत्यधिक्राष्टशतभागान् चरतीति । अथ सूर्य विषयकं सूत्रमाह-'ता एगमेगेणं' इत्यादि "ता' तावत् एगमेगेणं अहोरत्तेणं एकैकेनाहोरात्रेण 'सुरिए' सूर्यः 'कड मंडलाई 'चरई कति मण्डलानि चरति ?' भगवानाह 'ता' तावत्-'एगं अद्धमंडलं चरई' एक' मर्द्वमण्डलं' चरति ।' ' ' ", नक्षत्रसूत्रमाह 'ताएगमेगेणं' इत्यादि -'ता'-तावत् 'एगमेगेणं अहोरत्तेण' एकैके, नाहोरात्रेण 'णक्खत्ते' नक्षत्र 'कइ मंडलाई चरह' कति मण्डलानि चरति, १ भगवानाह 'ता'TE तावत् 'एग मंडलं' एक मण्डलम् 'दोहि भागेहि अहियं द्वाभ्यां भागाभ्यामधिकम् 'सत्तहिंवत्तीसेहिं सएहिं' सप्तभिः द्वात्रिंशैः द्वात्रिंशदधिकः ,शत. (७३२) 'अद्ध' मंडलं' छेत्तार मर्द्धमण्डलं छित्वा एकस्याद्रमण्डलस्य द्वात्रिंशदधिकानि सप्त शतानि भागानां कृत्वा तन्म मध्याद् द्वौ भागौ 'चरइ' चरति । तथाहि-एकस्मिन्- युगे - त्रिंशदधिकानि अष्टादशाहोरात्र.. शतानि (१८३० ) भवन्ति नक्षत्रमण्डलानि · सार्द्धसप्तदशाधिकानि · नवशतानि (९१७॥) ) भवन्ति एपामर्द्धमण्डलानि द्विगुणानि पञ्चत्रिंशदधिकानि अष्टादश शतानि (१८३५) जायन्ते . तत राशिकं क्रियते यदि त्रिंशदधिकाष्टादशशतै'. रहोरात्रः पञ्चत्रिशदधिकाष्टादशशतानि । नक्षत्रमण्डलानि लभ्यन्ते तदा एकेनाहोरात्रेण, कृति- मण्डलानि लभ्यन्ते ? राशित्रयस्थापना- ., १८३०।१८३५।१ अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशि र्गुणितो जात स्तावानेव पञ्चत्रिंशदधिकाप्टादश शतरूपः (१८३५) अस्य आयेन राशिना त्रिंशदधिकाप्टादशशत रूपेणं (१८३०) भागो हियते लन्ध मेकम मण्डलम् शेषा स्तिष्ठन्ति पञ्च, 'ततः छेवराशेः (५) छेदकराशेश्च (१८३०) अर्द्ध तृतीयैः २॥ अपवर्तना क्रियते जाते है द्वात्रिंशदधिकसप्तशत भागे (२). - ७३२ । साम्प्रतम्-एकैकं परिपूर्ण मण्डलं चन्द्रादयः प्रत्येकं कतिभिरहोरात्रेश्चरन्ति । इत्येतन्नि रूपयति,-तत्र प्रथमं चन्द्रचारमाह-'ता एगोगं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एगमेगं मंडलं' एक परिपूर्ण मण्डलं. 'चंदे चन्द्र 'कड हिं अहोरत्तेहिं चरइ' कतिभिरहोरात्रैश्चरति ? भगवानाह-'ता' तावत् 'दोहिं अहोरत्तेहिं' द्वाभ्याम डोगत्राभ्याम् 'एक्कतीसाए भागेहि अहिएहि' एकत्रिंगता भागेरधिकाभ्याम् , 'चउहि वायाळेहि सएर्हि' चतुभिद्रि चत्वारिंशः द्विचत्वारिशदधिकः शतैः रात्रिन्दिव 'छत्ता' ठित्वा । एकस्याहोरात्रस्य द्विचत्वारिशदधिकचतुः शतभागान् Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा.१५ सू.४ अहोरात्राद्याश्रित्य चन्द्रादीनां मण्डलचारम् ६२१. कृत्वा तन्मध्यात् एकत्रिंशतं भागान् ‘चरइ' चरति । त्रैराशिकं क्रियते, तथाहि-यदि चतुरशीत्यधिकाष्टाशतैश्चन्द्रमण्डलैः (८८४) त्रिंशदधिकाष्टादशशताहोरात्राणि (१८३०) लभ्यन्ते तदा एकेन मण्डलेन कति अहोरात्राणि लभ्यन्ते ? राशित्रयस्थापना-८८४११८३०११। अत्रापि अन्त्येन राशिना मध्यं राशिं गुणयित्वा आयेन राशिना भागो हरणीयः, हृतेच भागे लब्धौ द्वावहो छेद्याछेदक रात्रौ (२), शेषास्तिष्ठन्ति' द्वषिष्टिः (६२) ततश्छेद्यछेदकराश्योः ( ) द्विकेनापवर्तना क्रियते, 'लभ्यन्ते एकत्रिशद भागीः द्विचत्वारिंशदधिकचतुः शतभागसम्बन्धिनः (३१६ ) । तत आगतम्-चन्द्र एकैकं मण्डलं द्विचत्वारिंशदधिकचतुःशतभागसत्कैकत्रिंशद्भागसहिताभ्यां द्वाभ्यामहोरात्राभ्यां चरतीति । , अथ मण्डलविपयां सूर्यचागहोरात्रसंख्यामाह- 'ता एगमेग' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एगमेगं मंडलं' एकैकं मण्डलं 'मूरिए' सूर्यः 'कइहि अहोरत्तेईि चरई' कतिभिरहोरात्रैश्चरति !, भगवानाह-'दोहिं अहोरत्तेहि' द्वाभ्यामहोरात्राभ्यां 'चरई' चरति । यतो हि एकस्य युगस्य . अहोरात्राणि त्रिंशदधिकाष्टादशशतानि (१८३०) सूर्य मण्डलानि च पञ्चदशोत्तर नव शतानि (९१५) इति युगाहोरात्रेभ्यः सूर्य मण्डला नामर्द्धत्वात् द्वाभ्यामहोरात्राभ्यामेकं मण्डलं चरतीति । .. अथ नक्षत्रस्य - - मण्डलविषयामहोरात्रसंख्यामाह- 'ता एगमेगं' इत्यादि 'ता' तावत् 'एगमेगं मंडलं' एकैकं मण्डलं 'णक्खत्ते' नक्षत्रं 'कइहिं अहोरत्तेहिं चरइ'. कतिभिरहोरात्रैश्चरति ? भगवानाह-'ता' तावत् 'दोहि अहोरत्तेहिं द्वाभ्यामहोरात्राभ्याम् ? 'दोहिं भागेहिं ऊणेहि' द्वाभ्यां भागाभ्यां ऊनाभ्याम् , 'तिहि सत्त सहेहिं सएहिं राइंदियं छेत्ता' सप्तषष्टयधिकैस्त्रिभिः शतैः (३६७) रात्रिन्दिवं छित्त्वा, एकस्य रात्रिन्दिवस्य सप्तषष्टयधिकशतत्रयभागान् कृत्वा तन्मध्याद् द्वाभ्यां भागाभ्यां होनाभ्यां द्वाभ्यामहोरात्राभ्यां (१२६५) 'चरइ' चरति । तथाहि-एकस्मिन् युगे नक्षत्रमण्डलानि सार्द्धसप्तदशाधिकानि नव शतानि (९१७), एपामर्द्धमण्डलकरणार्थं तानि द्वाभ्यां गुण्यन्ते जातानि पञ्चत्रिंशदधिकानि-अष्टादश शतानि (१८३५),, ततो युगाहोरात्राण्यपि द्वाभ्यां गुण्यन्ते, जातानि षष्टयधिकानि - षट् त्रिंशच्छतानि (३६,६०) ततस्त्रैराशिकं क्रियते, तथाहि-यदि पञ्चत्रिंशदधिकाष्टा... दश शतैर्नक्षत्रमण्डलैः १ष्टयधिक षट् त्रिंशच्छतानि रात्रिन्दिवानी लभ्यन्ते तदा एकेन मण्डलेन कति रात्रिन्दिवानि लभ्यन्ते ? राशित्रयस्थापना-१८३५।३६६०११। अत्रान्येन राशिना मध्यराशिगुणितो जातस्तावानेव (३६६०), अस्य आयेन राशिना (१८३५) भागो हियते, लब्धमेकं रात्रिन्दिवम् , शेषाणि स्थितानि पञ्चविंशत्यधिकानि अष्टादशशतानि (१८२५) ततोऽयं Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દરર चन्द्रश राशिः सप्त पष्ट्यधिकत्रिशत भागकरणार्थ सप्तषष्ट्यधिकैस्त्रिभिः शतैः (३६७) गुण्यते जातानि -- पड् लक्षाणि, एकोनसप्ततिः सहस्राणि, सप्तशतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि ( ६ ६ ९७७५), ततश्छेदकरागिना पञ्चत्रिंशदधिकाष्टादशशतरूपेण (१८३५) भागो ह्रियते, लभ्यन्ते पञ्च॑ षष्ट्यधिकानि त्रोणि शतानि (३६५) अथवा छेद्यछेदकराश्योः पञ्चभिरपवर्त्तना क्रियते, तत्र छेद्यराशेः (१८२५) पञ्चभिरपवर्त्तना करणे लधानि पञ्चषष्ट्यधिकानि त्रीणि शतानि (३६५), छेदकराशेः (१८३५) पञ्चभिरपवर्त्तनाकरणे लब्धानि सप्तषष्ट्यधिकानि त्रीणि शतानि (३६७), तत आगतम् एकेन परिपूर्णेन रात्रिन्दिवेन द्वितीयस्य रात्रिन्दिवस्य च सप्तषष्ट्यधिकः त्रिंशतभागविभक्तस्य मध्यात् द्वाभ्यां - भागाभ्यामूनाभ्याम् इति पञ्चषष्ट्यधिकत्रिशतं भागे , ११३६५, Tit 1) नक्षत्र मेकं मण्डलं चरतीति । ३६७ ST साम्प्रतं चन्द्रादीनां युगविषयकं मण्डलंचारमाह-तत्र प्रथमं चन्द्रस्य मण्डलचार मांह- 'ता जुगेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जुगेणं' एकेन युगेन एकं युगमधिकृत्य एकस्मिन् युगे इत्यर्थः ' चंदे' चन्द्रः 'कई मण्डलाई चरइ' कति मण्डलानि चरति ? भगवानाह - 'ता' नाव 'अट्टचुलसीयाई मंडलसयाई' अष्ट चतुरशीतानि चतुरशीत्यधिकानि' मण्डलशतानि चतुरशीत्यधिकानि अष्टशतानि (८८४) मण्डलानां 'चरइ' चरति । तथाहि-चन्द्रः अष्टानवतियताधिकेन एकन शतसहस्रेण (१०९८०० ) प्रविभक्तस्य मण्डलस्य अष्टषष्ट्यधिकसप्तदशशतसंख्यकान् ( १७६८) भागान् एकेन मुहूर्त्तेन गच्छति त्रिंशदधिकाष्ठादशशत (१८३०) दिवसात्मके युगे च दिवसस्य त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकत्वेन मुहूर्त्ताः सर्व सख्यया नवशताविकानि चतुष्पञ्चाशत्सहस्राणि (५४९००) भवन्ति, ततः अष्टपष्टयधिकानि सप्तदश शतानि (१७६८) नवगताधिकैश्चतुः पञ्चाशत्सहस्रः ( ५४९००) गुण्यन्ते जायन्ते - नव कोटयः, सप्ततिर्लक्षा, त्रिपष्टिः सहस्राणि, द्वेशते (९७०६६२००), ततोऽस्य राशेः अष्टा - नवति शताधिकेन एकेन शतसहस्रेण (१०९८००) मण्डलानयनाथै भागो हियते, लब्धानि चतुरशीत्यधिकानि अष्ट मण्डलशतानि (८८४) इति । अथ सूर्यस्य मण्डलचारमाह- 'वा जुगेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जुगेणं' 'एकेनं युगेन 'सूरिए' सूर्य: ' s मंडलाई चरs' कति मण्डलानि चरति । भगवानाह - 'तो' तावत णव पण्णरसमंडलमया' नव पञ्चदशाधिकानि मण्डलगतानि ( ९१५) चर' चरति । तथाहि - यदि हाम्यामहोरात्राभ्यामेकं सूर्यमण्डलं लभ्यते तदा सकल युग भाविभिर्खिदधि कति मण्डलानि लभ्यन्ते ? गणित्रयस्थापना - २।१।१८३०| अत्रान्त्येन राशिना मध्योगशिर्गुणिनो जातग्तावानेव (१८३०), अग्याद्येन राशिना हिकरूपेण भागे हते लभ्यन्ते पञ्चदशाधिकानि नवशतानि ( ९१५) । हो } Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका. प्रा.१५ सू. ४ अहोरात्राद्याश्रित्य चन्द्रादीनां मण्डलचारम् ६२३ साम्प्रतं नक्षत्रस्य मण्डलचारमाह-'ता जुगेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जुगेण' एकेन युगेन ‘णक्खत्ते' नक्षत्रं 'कइमंडालाई चरइ' कति मण्डलानि चरति ? भगवानाह 'ता' तावत् 'अट्ठारस पणतीसाई दुभाग मंडलसयाई अष्टादशपञ्चत्रिंशदधिकानि द्विभागमण्डलशतानि-द्वितीयभागमण्डलशतानि-एकस्य मण्डलस्य द्वौ भागौ अर्द्धार्द्ररूपो कर्तव्यो तयोर्मध्यात् एकमर्द्धभागं त्यक्त्वा द्वितीयोर्द्धभागोऽत्र गृह्यते ततो द्विभागमण्डलशतानीतिअर्द्धमण्डलशतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि अष्टादश शतानि अर्द्धमण्डलानां (१८३५) 'चरई चरति । तोहि-नक्षत्र मष्टानवतिशताधिकेन एकेन शतसहत्रेण (१०९८००) प्रवि भक्तस्य मण्डलस्य सम्बन्धिनः पञ्चत्रिंशदधिकाष्टादशशतसख्यकान् (१८३५) भागान् एकेन मूहूर्तेन गच्छति, युगे च मुहूर्ताः सर्व संख्यया नवशताधिकानि चतुष्पञ्चाशत् सहस्राणि (५४९००) भवन्ति, तत एतैर्नवशताधिकैश्चतुष्पञ्चाशत्सहस्त्रैः (५४९००) पञ्च त्रिंशदधिकाष्टादशशतानि (१८३५) गुण्यन्ते, जायन्ते-दश कोटयः सप्तलक्षाः एकचत्वारिंशत्सहस्राणि पञ्चशतानि (१००७४१५००) इह चार्द्ध मण्डलानि ज्ञातुमिष्टानि ततः अष्टा नवतिशताधिकस्य एकस्य शतसहस्रस्य (१०९८००) अर्द्ध कृते यानि नबशताधिकानि चतुष्पञ्चाशत्सहस्राणि (५४९००) भवन्ति तैर्भागो हियते, हृते च भागे लभ्यन्ते-पञ्चत्रिंश'दधिकानि-अष्टादशशतानि (१८३५) यथोक्तानि अर्द्ध मण्डलानीति । • साम्प्रतं सकल प्रामृतमुपसंहरन्नाह-'इच्चेसा मुहुत्तगई' इत्यादि 'इच्चेसा' इत्येषा'इति-एवमुक्तेन प्रकारेण एषा-मनन्तरोदिता 'मुहुत्तगई' मुहूर्तगतिः प्रतिमुहूर्त चन्द्र सूर्य नक्षत्राणां गतिपरिमाणं, तथा 'रिक्खाइमासराइंदिय जुगमंडलपविभत्ता' ऋक्षादिमास रात्रिन्दिवयुगमण्डलपविभक्का, तत्र ऋक्षादिमासान्-नक्षत्र-चन्द्र सूर्याभिवद्धितमासान्, तथा रात्रिन्दिवानि, तथा युगं चाधिकृत्य मण्डलाना प्रविभक्तिः पृथक् पृथकत्वेन • मण्डलसंख्या प्ररूपणा रूपः प्रविभागः, तथा 'सिग्धगईवत्थू' शीव्र गतिरूपं वस्तु च इत्येतत् पञ्चदशें प्राभृते 'आहियं' आख्यातम् 'तिवेमि' इति ब्रवीमि, यथा भगवन्मुखात् श्रुतं तथा ब्रवीमि. कथयामि, इति सुधर्मस्वामिवचनम् । इदं च भगवद्वचनमतः पूर्वोक्तं सर्व सम्यक्तया श्रद्धेयमिति भावः ॥ सू०४॥ इति श्री जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्रीघासीलालबतिविरचितायां. श्री चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकायां व्याख्यायां पञ्च- दशं प्रामृतं समाप्तम्।। १५ ।। । श्री रस्तु । Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --------mmar rror - "चन्द्रप्राप्तिस्त्रे ।पोडशं प्राभंतम । ।" व्याख्यात पञ्चदशं प्रामृतम्, तत्र चन्द्रादीनां गति परिमाणं नक्षत्रादिमासान् रात्रिन्दिवं युगं चाधिकृत्य मण्डलसंख्या शीघ्रगतिरूपं च वस्तु "प्ररूपितम्,' अथ घोडा प्रामृतं व्याख्यायने, अत्रायमर्थाधिकारः-पूर्व द्वारगाथायां 'कि ते दोसिणलक्खणं' किं ते 'ज्योत्स्नो लक्षणम्-इति कथितं तदेवात्र प्रतिपादयिष्यते ततस्तत्स्वरूपमेवेदं ' सूत्रमाह-'तो'कह ते दोसिणा लक्खणं' इत्यादि । म्लम-ता कहं ते दोसिणलक्खणं आहियं ? तिवएज्जा, ता चंद लेस्साइ य दोसिणाइय, दोसाणाइय चंद, लेस्साइय के अहे किं लक्खणे '? 'ता एगढे एगलक्षणे । ता सरियलेस्साइय आयवेइ य' आयवेइय 'सूरियलेस्साइय के अटे किं लक्खणे ? ता एगढे एगलक्खणे। ता अधयारेइंयछायाइय, छायाइय अंधयारइय के अटे कि लक्खणे ? ता एगढे एगलक्खणे ॥ १॥ ॥सोलसमं पाहई संमत्तं M1,' ... ' ' छाया - तावत् कथं ते ज्योत्स्ना लक्षणम् आख्यातम् ? इति वदेत् तावत् चन्द्रलेश्या इति च ज्योत्स्ना इति च, ज्योत्स्ना इति च चन्द्रलेश्या इति च कोऽर्थः किं लक्षणः? तावत् पकार्थः एफलक्षणः । तावत् सूर्यलेश्या इति च आतप इति च, आतप इति च सूर्यलेश्या इति च कोऽर्थः किं लक्षणः ' तावत् एकार्थः, एकलक्षणः। तावत् अन्धकार इति च छाया इति च छाया इति च अन्धकार इति कोऽर्थः किं लक्षणः १. एकार्थः एकलक्षणः ॥ सू० १॥ पोडश प्राभूत समाप्तम १६ । । , व्याख्या -'ता कहं ते इति, 'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण हे भगवन् 'ते' त्वया 'दोसिणलक्खणं' ज्योत्स्सा लक्षणं ज्योत्स्नायाः । चन्द्रप्रकाशरूपाया। लक्षण 'आहिय' आख्यातम् ज्योत्स्ना किलक्षणा भवता प्रतिपादितेति भावः' 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतुं । एवं सामान्यतः प्रश्नं कृत्वा विशेषतः पृच्छति-'ता चंदलेस्सा इ य' इत्यादि, 'ता तावत् 'चंदलेस्सा इ य' चन्द्रलेश्या इति च एवं 'दोसिणा इ.य' ज्योत्स्ना इति च, अनयो याः पदयोः तथा 'दोसिणा ई य चंदळेस्सा इ य । ज्योत्स्ना इति च चन्द्रलेश्या इति च, मनयो योश्च पदयोः, अत्राक्षराणामानुपूर्वी मेदो लोके दृष्टः, यथों 'भागमो देवः इति, एवं पदानामपि चानुपूर्वी भेददर्शनादर्थमेदो दृश्यने, यथा शिष्यस्य गुरुः, गुरोः शिष्य इति एवमत्रापि कदाचिदानुपूर्वी भेदतोऽयमेटो भवेत् ? इत्याशङ्कामाश्रित्य 'चन्द्रलेल्या इति ज्यो स्ना' हयुम्वा ज्योत्स्ना इति चन्द्रलंभ्या ! इनि प्रश्नः कृत इति । चन्द्रलेश्या ज्योत्स्ना पति दो पदो बानुपा अनानुपयां वा यदि व्यवस्थिती भवेतां तदाऽनयो के अठे' Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा.१६. सू.१ चन्द्रस्य ज्योत्स्नालक्षणादिनिरूपणम् ६२५ कोऽर्थः किं परस्परं भिन्नोऽर्थः उताभिन्नः १, स चार्थः "किलक्खणे' किं 'लक्षणः किं स्वरूपोऽस्ति ! लक्ष्यते तदन्यव्यवच्छेदेन ज्ञायते येनः तत् ' लक्षणम् असाधारणं स्वरूपं किं लक्षणं यस्य स कि लक्षणः कीडगुलझणवान् कि स्वरूपोऽयमर्थः ? इति प्रश्नः । भगवानाह-'ता एगहे एगलक्खणे' तावत् - एकार्थः एकलक्षणः . चन्दलेश्या इति ज्योत्स्ना इति पदद्वयमपि एकार्थकम् एकलक्षणम् अस्ति, अनयोयोः पदयोः आनुपाऽनानुपूर्व्या वा यथा कथश्चिदपि व्यवस्थितयोरेकः एव अभिन्न एवं अर्थो भवेत्। न तु 'भिन्नः, चन्द्रलेश्या इति कथयतु, अथवा ज्योत्स्ना इति वा कथयतु नात्र कोऽपि भेद इति भावः । अथ सूर्य विषयं प्रश्नमाह-'ता सूरियलेस्सा इ य' इत्यादि, 'ता' तावत् 'सरियलेस्सा इ य आयवे इ य, आयवे इ य सरियस्लेसा ई य' सूर्यलेश्या- इति च ,आतप इति च आतप इति च सूर्यलेश्या इति च, मनयोरपि चन्द्रलेश्या ज्योत्स्ना पदयोरिव एकोऽर्थः एक लक्षणं चेत्युत्तरम् । एवं छायाऽन्धकाररूपयोः 'पदयोरपि एकार्थत्वमेकलक्षणत्वमपि भावनीयमिति स्पष्टार्थत्वान्न व्याख्यायते इति सू० ॥१॥ . ' . . इति श्री जैनाचार्य जनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलाल व्रतिविरचितायां , ... चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकायां व्याख्यायां पोडशं प्रामृतं समाप्तम् ॥१६॥ . । अथ सप्तदशं प्राभृतम् । । । व्याख्यातं पोडगं प्रामृतम् तत्र चन्द्रलेश्याज्योत्स्नायाश्च सूर्यस्य आतपस्य च अन्ध, कारस्य छायायाश्च परस्परमभेदः प्रतिपादितः । अथ सप्तदशं प्राभृतं, व्याख्यायते,.. अस्य चायमर्थाधिकारः पूर्वं द्वारगाथासु 'चवणोववाए. इति च्यवनोपपातौ वक्तव्यौ , इति कथितं तद्विषयकं पञ्चविंशतिप्रतिपत्याद्यात्मकं, सूत्रमाह- 'ता कहं ते चवणोववाया' इत्यादि । मूलम् - ता कई,ते ,चवणोचवाया, आहिया। ति वएज्जा, तत्थ खलु इमाओ पणवीसं पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ । तं जड़ा-तत्थेगे एवमासु ता अणुसमयमेव चदिम सरिया अण्णे चयंति अण्णे उववज्जति . एगे एवमाहंसु १ एगे पुण एवमाहंसु ता अणुमुहुत्तमेव चंदिम सरिया अण्णे चयति अण्णे उववज्जति एगे एवमाहंसु २। एवं जहेव हेहा तहेव जाव-ता एगे पुण. , एवमाहंसु-ता अणुओसप्पिणी उस्सप्पिणीमेव चंदिमसूरिया अण्णे चयंति अण्णे. उववज्जति एगे एव माइंसु २५। वयं पुण एवं चयामो-ता चंदिमसूरियाणं देवा महिइढिया महाजुइया महाबला महाजसा महा , ९ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ૬૬ चन्द्रशतिसूत्रे सोक्खा महाणुभावा वरवत्थधरा वरमल्लधरा वर गंधधरा वराभरणधरा अवोच्छित्ति नयट्टयाए काले अण्णे चयंति अण्णे उववज्र्ज्जति । सू. १ सत्तरसमं पाहुडे समतं ॥ १७॥ "¿' ि छाया - तावत् कथं ते च्यवनोपपातौ आख्यातौ ? इति वदेत् तत्र खलु इमाः पञ्चविशतिः प्रतिपत्तयः प्रशप्ताः, तद्यथा तत्र एके पवमाहुः तावत् समयमेवचन्द्र सूर्या अन्ये च्यवन्ते अन्ये उपपद्यन्ते, एके पवमाहुः १। एके पुनरेवमाहुः तावत् अनुमुहूर्त्तमेव चन्द्रसूर्या अन्ये च्यवन्ते अन्ये उपपद्यन्ते, एके पवमाहुः २ । पवं यथैव अधस्तात् तथैव यावत् तावत् पके' पुनरेवमाहु अन्ववसर्पिणीमेव चन्द्रसूर्या अन्ये च्यवन्ते अन्ये उपपद्यन्ते पवमाहुः २५ वयं पुनरेवं वदामः तावत् चन्द्र सूर्याः खलु देवा महद्धिका महाद्युतिकी; महाबला महयशसः महासौख्या महानुभावा वरवस्त्रधरा वरमाल्यधरा वरगन्धधरा वराभरणधरा अव्युच्छिन्तिनयार्थतया काले अन्ये उपपद्यन्ते ॥ सूत्र ॥१॥ सप्तद् प्राभृतं समाप्तम् ॥१७॥ • ܢ ܘܪܐ "} I व्याख्या- 'ता कहं ते चवणोववाया' इति 'ता' तावत् 'क' कथं केन प्रकारेण, हे भगवान् ‘ते’ त्वया चन्द्रसूर्याणां 'चवणोववाया' च्यवनोपपाती - 'आहिया' आख्यातौ 'तिवएज्जा' ' इति वदेत् वदतु कथयतु | भगवानाह - ' तत्थ खलु' तत्र चन्द्रसूर्यच्यवनोपपात विषये खलु 'इमाओ' इमाः वक्ष्यमाणाः 'पणवीसं' पञ्चविंशति 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः परतीर्थिकमतरूपाः 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः कथिताः तं जहा' तद्यथा ता यथा - 'तत्थ' तत्र पञ्चविंशतिप्रतिपत्तिवादिषु 'एगे' एके प्रथमप्रतिपत्तिवादिनः 'एवमाहंसु' एवमाहुः वक्ष्यमाणप्रकारेण कथयन्ति । तदेव दर्शयति - 'ता अणुसमयमेव' इत्यादि 'ता'' तावत् 'गणुसमयमेव' अनुममयमेव प्रतिसमयं - समये - समये ' चंदिमसूरिया' चन्द्रसूर्याः बहुवचनमत्रं चन्द्र सूर्याणां जम्बूद्वीपे द्विद्वि भावेन चतुः संख्यकत्वात् 'अण्णे' अन्ये पूर्वोपपन्नाः 'चयंति" च्यवन्ते स्वस्व ' विमानात् च्युता भवन्ति पूर्वोत्पन्नानां च्यवन भवतीत्यर्थः ' ' तदनन्तर 'अण्णे" अन्ये अपूर्वा 'उववज्र्ज्जति' उपपद्यन्ते उत्पन्ना भवन्ति अन्येषामपूर्वाणां तत्रोपपाता' भवतीत्यर्थः उपसंहारमाह- 'एगे' इत्यादि, एगे' एके पूर्वोका प्रथमप्रतिपत्तिवादिनः ' एवं ' एवं पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहंमृ' आहुः कंथयन्ति । एषा प्रथमा प्रतिपत्ति 123 द्वितीयामाह - 'एंगे पु इत्यादि, 'एगे पुण' एके केचन द्वितीयप्रतिपत्तिवादिन. पुनः 'एवमाह एवमाहुः "वक्ष्य माणप्रकारेण कथयन्ति - 'ता' तावत 'अणुमुहुत्तमेव' अनुमुहूर्त्तमेव प्रतिमुहूर्त्त मुहर्त्ते मुहर्त्त नवनुमनयम् 'दिमसूरिया' चन्द्रसूर्याः 'अण्णे चयंति 'अण्णे उववज्जति' अन्ये पूर्वो च्यवन्ते अन्येऽपूव उपपयन्ते, उपसंहरति- 'एगे एवमासु एक पूर्वताः एवं' पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः कथयन्ति । इति द्वितीया प्रतिपत्ति |२| अथ तृतीयप्रतिपत्तित आग्भ्य ननुर्विशनिप्रतपत्तिपर्यन्त पष् प्रावृतातिदर्शनाह - ' एवं जहेच' इत्यादि, 'एवं' एवम् 7 पन्ना Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा १७ सू.१ चन्द्रसूर्याणां च्यवनोपपातनिरूपणम् ६२७ अनयैव रीत्या उक्तालापक रूपया 'जहेव हेहा' यथैव अधस्तात्-षष्टे प्राभृते ओज' संस्थिति प्रकरणे चिन्त्यमाणे पञ्चविशति प्रतिपत्तयः अनुसमयमित्यारभ्य ,अनुसागरोपमशतसहस्रम्' इति पर्यन्तं चतुर्विंशति प्रतिपत्तयस्तत्र प्रोक्ताः 'तहेव' तथैव तेनैव रूपेण अत्र च्यवनो पपातविषयेऽपि वक्तव्या । कियत्पर्यन्तमित्याह-'जाव' यावत् पञ्चविंशतितमा प्रतिपत्तिरायाति तावत् वक्तव्याः । पञ्चविंशतितमा प्रतिपत्तिं सूत्रकारः स्वयमेवाह-'ता' एगे पुण' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एगे पुण' के पश्चविंशतितम प्रतिपत्तिवादिनः पुनः 'एवं' एवम् वक्ष्यमाण प्रकारेण 'आहंग' आहुः कथयन्ति-'ता' तावत् 'अणुओसप्पिणी उस्सप्पिणीमेव' अन्ववसर्पिण्युत्मर्पिणी 'चंदिमसरिया चन्द्रसूर्याः 'अण्णे' चयति अन्ये च्यवन्ते 'अण्णे उववज्जंति' अन्ये उपद्यन्त उपसहारमाह-'एगे' एवम् पूर्वोक्ता अन्तिमपञ्चविंशतितमप्रतिपत्तिवादिनः एवं' एवम् - सर्वप्रदर्शितप्रकारेण 'आहेसु' आहुः कथयन्तीति पञ्चविंशतितमा प्रतिपत्तिः ॥२५|| अत्र प्रथमा द्वितीया पञ्चविंशतितमा च प्रतिपत्तिः सूत्रे एवं प्रदर्शिता मध्यमा तृतीया प्रतिपत्तित आग्भ्य चतुर्विं गति प्रतिपत्तिपर्यन्तं द्वाविंशतिः २२ प्रतिपत्तयो यावच्छन्द गाह्या पष्ठ प्राभृतस्थितौजः सस्थिति प्रकरणगताश्च संक्षेपेण प्रदश्यन्ते, तथाहि-तृतीया प्रति पत्तिवादिन 'अणुराइंदियमेव' इति ३। चतुर्थाः 'अणुपक्खमेव' 'इति ४।' पञ्चमाः 'अणुमासमेव' ५। 'पष्ठा 'अणुउउमेव' इति' सप्तमा 'अणुअयणमेव' इति ७ अष्टमाः 'अणुसंवच्छरमेव' इति ८ नवमाः 'अणुजुगमेव' इति ९। दशमाः 'अणुवाससयमेव' इति १०॥ एकादशाः 'अणुवाससहस्समेव' इति ११॥ द्वादशा: 'अणुवाससयसहस्समेवः इति १२॥ त्रयोदशा. 'अणुपुव्वमेव' इति १३ । चतुर्दशाः 'अणुपुव्वसयमेव' इति १४ । पञ्चदशाः 'अणुपुव्वसहस्समेव' इति १५ । पोडशाः 'अणुपुन्वसयसहस्समेव' इति १६ । सप्तदशाः 'अणुपलिओवममेव' इति १७ । अष्टादशाः 'अणुपलिओवमसयमेव' इति १८ एकोनविंशाः 'अणुपलिओवमसहस्समेव' इति १९ । विंशतितमाः 'अणुपलिओवमसयसहस्समेव' इति २० एकविंशतितमाः 'अणुसागरोवममेव' इति २१ । द्वाविंशतितमाः 'अणुसागरोवमसयमेव' इति २२ । त्रयोविंशतितमाः 'अणुसागरोवमसहस्समेव' इति २३ । चतुर्विशति तमाः 'अणुसाग रोवम सयसहस्समेवय' इति २४ एतास्तृतीयप्रतिपत्तित आरभ्य चतुर्विंशतितम प्रतिपत्तिपर्यन्ता द्वाविंशति प्रतिपतयो यावच्छब्दग्राह्या अत्रावसेयाः । आसां सर्वासामालापकप्रकारः स्वयमूहनीयइति । इत्येवं प्रोक्ता अन्यतीर्थिकमतरूपाः पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः, सर्वा अपि मिथ्या रूपा एव ततो भगवान् स्वमतं प्रदर्शयति-'वयं पुण' इत्यादि, 'वयं पुण' वयं पुनः वयं तु 'एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामो' वदाम कथयामः 'ता' तावत् 'चंदिममरिया गं देवा' चन्द्रः सूर्या खलु देवाः महिढिया महद्धिका विमानपरिवारादि संपन्नाः, 'महाजुइया' Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे महाद्युतिकाः शरीराभरणादि कान्तिमन्तः, 'महावला' महाबलाः बलं शरीरसामर्थं तद्वन्तः, 'महानसा' महायशसः जगद्विस्तृतश्लाघा सम्पन्नाः, अत एव 'महासोक्खा' महासौख्याः भवनपतिव्यन्तरसुखेभ्यो विपुवसौख्यशालिनः 'महानुभावा' महानुभावाः-महान् अनुभाव प्रभावो क्रियकरणादि विषयकोऽचिन्त्य शक्ति विशेपो येषां ते तथा वैक्रियकरणादिविशिष्ट शक्ति सम्पन्नाः, 'वरवत्थधरा' वरवस्त्रधराः दिव्यवस्त्रधारिणः 'वरमल्लधरा' वरमाल्यधराः-दिव्य पुष्पमाला धारिणः, 'वरगंधधरा' वर गन्धधराः-घाण सुखद दिव्यगन्धधारिणः, 'वराभरणधरा' । वराभरणधरा-श्रेष्ठदिव्य कटक कुण्डल केयूरायाभूपणधारिणः, एतादृशास्ते चन्द्रसूर्याः 'अव्वोच्छित्तिनयट्टयाए' अव्युच्छित्तिनयार्थतया द्रव्यार्थिकनयमतेन 'काले' काले वक्ष्यमाण स्व वायुः क्षये 'अण्णे' अन्ये पूर्वोत्पन्नाः पूर्व ये तत्रावस्थितास्ते 'चयंति' च्यवन्ते स्वस्व विमानाच्च्युता भवन्ति, तथा 'अण्णे' अन्ये तदितरे तथा जगत्स्वाभाव्यात् जघन्येन एक समयम् उत्कृष्टेन पण्मासावधि विरहकालसद्भावः इति षष्मासादारतो नियमात् 'उववज्जति' उपपद्यन्ते, इत्यस्माकं केवलालोकेन दृष्टिगोचरीकृतं मतमिति । सू० १॥ ॥ इति श्री जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलाल व्रति विरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्ति प्रकाशिकाख्यायां व्याख्यायां सप्तदशं प्रामृतं समाप्तम् ॥१७॥ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका० प्रा. १८सू.१ भूमितः सूर्यचन्द्रयोरूच्चत्वनिरूपणम् ६२९ ॥ अथाष्टादशं प्राभृतम् ॥ गतं सप्तदशं प्राभृतम्, तत्र चन्द्रसूर्याणां च्यवनोपपातौ प्रदर्शितौ । अथाष्टादशं प्राभृतं व्याख्यायते, अत्रायमर्थाधिकारः-पूर्वद्वारगाथाया 'उच्चत्त' इति, भूमितऊर्ध्वमुञ्चत्व प्रमाणं वक्तव्यमिति तद्विषयकं सूत्रमाह-'ता कहते उच्चत्ते' इत्यादि । मूलम् - ता कहं ते उच्चत्ते आहिए ? तिवएज्जा तत्थ खलु इमाओ पणवीसं पडिवी त्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-तत्थ एगे एवमाहंसु ता एगं जोयणसहस्सं सूरिए 'उड्ढे उच्चत्तेणं, दिवइदं चंदे एगे एवमासु १। एगे पुण एवमासु ता दो जोयणं सहस्साई सरिए, उड्डे उच्चत्तेणं, अड्ढाइज्जाई चंदे, एगे एवमासु २। एवं. एएणं अभिलावणं णेयव्वं तिन्नि जोयणसहस्साई सूरिए अट्ठाइं चंदे ३, चत्तारि जोयण सहस्साई सूरिए, अपचमाई चंदे ४, पंच जोयणसहस्साई सूरिए, अद्धछट्ठा चंदें ५, छ जोयणसहस्साई सूरिए अद्धसत्तमाई चंदे ६, सत्तजायण सहस्साई सूरिए अट्ठमाइं चंदे ७, अट्ठजोयण सहस्साई सूरिए अद्धनवमाई चंदे ८, नव जायणस: हस्साई सूरिए, अद्धदसमाइं चंदे ९ दस जोयण सहस्साई सरिए अद्धएक्कारस, चंदे १०। एक्कारस जोयण सहस्साई सूरिए अद्ध वारस० चंदे ११ । वारस० मरिए अद्ध तेरस० चंदे १२ । तेरस० सरिए अद्ध चोदस० चंदे १३ । चोदस० सूरे अद्ध पण्णरस० चंदे १४ । पण्णरस० सूरे अद्ध सोलस० चंदे १५ । सोलस० सरिए, अद्ध सत्तरस० चंदे १६ । सत्तरस० सूरिए अद्ध अट्ठारस० चंदे १७ । अट्ठारस० मूरिए अद्ध एगृणवीसं० चंदे १९ । वीसं सूरिए अद्ध एक्कवीसं० चंदे २० । एक्कावीसंग सरिए अद्ध वावोस चंदे २१ । वावीसं० सुरिए अद्धतेवीसं० चंदे २२ । तेवीस सरिए अद्ध चउवीसं० चंदे २३ । चउवीसं० सूरिए अद्धपणवीसं० चंदे, एगे एवं मासु २४ । एगे एव माइंसु पणवोसं जोयणसहस्साई मूरिए उइदं उच्चत्तेणं, अद्ध छन्वीसं० चदे, एगे एवमाहंसु २५ । वयं पुण एवं वयामो ता इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए वहु समरमणिज्जाभो भूमिभागाओ सत्तणउयाई उड्ढं अवाहाए हेडिल्ले' तारा रूवे चारं चरइ, अट्ठयोजणसयाई उड्डे अवाहाए सूरियविमाणे चारं चरइ,, अट्टअसीयाई जोएणसयाई उड्ई अवाहाए उवरिल्ले तारा रूवे चारं चरइ, । हेहि ल्लाओ तारा रूवाओ दस जोयणाई उड्ढं अवाहाए सूरियविमाणे चारं चरइ, नउई. जोयणाई उड्ढं अवाहाए चंदविमाणे चारं चरइ, दसोत्तरं जोयणसयं उड्ढं अबीहाएं' उवरिल्ले तारा रूबे चारं चरइ । ता सूरियविमाणाओ असीई जोयणाई उड्ढे अबाहाए चंदविमाणे चारं चरइ । जोयणसयं उडई अवाहाए उवरिल्ले तारा रूबे चारं चरइ Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .६३० चन्द्रप्राप्तिसूत्रे ता चंदविमाणाओ णं वीसं जोयंगार्ड उड्ढे अवाहाए उवरिल्ले तारा रूबे चारं चरड़, एवामेव सपुन्नावरेणं दमुत्तर जायणसय बाहल्ले तिरियमसंखेन्जे जोइसविसए जोइस चारं चरs आहिए विएज्जा | ० ||१| .. {" छाया - तावत् कथं ते उच्चत्वं आख्यातम् ? ' इति वदेत्, तत्र खलु इमाः पञ्च विंशतिः प्रतिपत्तयः प्रनप्ताः तद्यथा नत्र के एवमाहुः तावत् एकं योजनसहस्रं सूर्य ऊर्ध्वमुत्रत्वेन पई चन्द्रः, एके एवमाहुः १ । पके - पुनरेवमाहुः तावत् हे योजन सहस्रे सूर्य ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, अर्द्ध तृतीयानि० चन्द्रः एके एवमाहुः २ । एवम् एतेन अभिलापेन ज्ञातयम् त्रीणि योजन सहस्राणि सूर्यः, साईचतुर्थानि चन्द्रः ३ । चत्वारि योजन सहस्राणि सूर्यः अद्वेपञ्चमानि चन्द्रः ४ । पञ्च योजनसहस्राणि सूर्यः श्र षष्ठानि चन्द्र: ५। पद् योजन सहस्राणि सूर्यः अपण्ठानि चन्द्र. ५। पह योजना सहस्त्राणि सूर्यः अर्द्ध सप्तमानि चन्द्रः ६ । सप्त याजन सहस्राणि सूर्यः, अष्टमानि चन्द्रः ७ | अष्ट योजन सहस्राणि सूर्यः, अर्द्ध नवमानि चन्द्रः ८ | नव योजनसहस्राणि सूर्य, अर्द्ध दशमानि चन्द्रः ९ । दश याजन सहस्राणि सूर्यः, अर्द्धकादशानि चन्द्रः १० | एका दश योजन सहस्राणि सूर्यः, अर्द्ध द्वादशानि चन्द्र. ११ । द्वादशः सूर्यः, अर्द्ध त्रयोदश चन्द्रः १२| त्रयोदश० सूर्यः, अर्द्ध चतुर्दश० चन्द्रः १३ | चतुर्दश सूर्यः अर्द्ध, पञ्चदश० चन्द्रः १४ । पञ्चदश० सूर्यः, अर्द्धपाडश० चन्द्रः १५ | पोडश० सूर्यः, अर्द्ध सप्तदश० चन्द्रः १६ | सप्तदश० सूर्यः अप्रादश० चन्द्रः १७ | अष्टादशः सूर्यः, अर्द्धकोनविंश० चन्द्रः १८ । एकोनविशनि• खुर्यः, अर्द्धविश० १९ । विशनि० सूर्यः अद्वैकविंश० चन्द्रः २० । पविशति सूर्यः, अ द्वाविश० चन्द्र २१ । द्वाविंशतिः सूर्यः, अर्द्ध त्रयोविंशे० चन्द्रः २२ | त्रयोविंशनि० सूर्यः अड चतुर्विश० चन्द्रः । २ः । चतुर्वि शति० सूर्यः, अर्द्धपञ्चशि० चन्द्रः पगे एवमाहुः २५ । एके पुनरेवमाहुः - पञ्चविंशतियोजन सहस्राणि सूर्य उध्व मुच्चन, अपविशति चन्द्र के माहुः २५ वयं पुनरेवं वदामः - नावत् अस्या रत्नप्रभायाः प्रथिव्याः बहु समरमणीयाद् भूमिभागात् सप्तनवतानि योजन शतानि ऊर्ध्वम् अवाधया अधस्तनं ताग रूपं चारं चरति, अष्ट योजन शतानि ऊर्ध्वमबाधया सूर्य विमानं चारं चरति, अष्ट अशीतानि योजन शतानि ऊर्ध्वमवाधया चन्द्र विमानं चार चरति, नव योजन शतानि ऊर्ध्वमवाध्या उपरेतून तारारूपं चारं चरति, अत्रस्तनात् तारारूपान् दश योजनानि ऊध्र्वमबाधया सूर्यविमानं चारं चरति, नवति योजना नि ऊध्वंमवाधया चन्द्रविमानं वारं चरति, दशोत्तरं योजनशनं ऊर्ध्वमबाधया उपरितन तारा रूपं चारं चति । तावत् सूर्य विमानात् अशोति योजनानि ऊर्ध्वमवाधया चन्द्रविमानं चारं चर्गत योजनशतम् ऊर्ध्वमवाध्या उपरितनं, तारारूपं चारं चरति ।" तावन् चन्द्रविमानात् तु विशति योजनानि ऊर्ध्वमयाचया उपरितनं तारास्पं चारं चरति । पवमेव सपूर्वापरेण दशात्तरयोजनशतवाहल्य तिर्यग असंख्येये ज्योतिर्विषये ज्यातिषं बारं चरति, आरयानमिनि बदेन् । सु०॥१॥ 4 व्याख्या--'ता कहने' इति 'ता' तावन 'कह' कथं केन प्रकारेण हे भगवन् ! ते त्वया 'उच्चत्ते' उच्चव भूमिनऊवं चन्द्रादांना मुरचत्वं 'आहिये' आख्यातम् : 'विवएज्जा' इति Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका० प्रा० १८ सू.१ भूमितः सूर्यचन्द्रयोरुच्चत्व निरूपणम् ६३४ वदेत् वदतु कथयतु । एवं गोतमेनं पृप्टे भगवान्-एतद्विपये परतीथि कानां प्रतिपत्तयों यावत्यः सन्ति ताः प्रदर्शयति-तत्थ' इत्यादि, 'तत्थ' तत्र खलु चन्द्रादीनामुच्चत्वविषये 'ईमाओ' इमाः वक्ष्यमाणा.' 'पणवीस पञ्चविंशतिः “पडिवत्तीओ' प्रतिपत्तयः परतीर्थिकमत रूपाः' 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ताः कथिता 'तं जहा' तद्यथा-ता यथा-'तत्थ' इत्यादि 'तत्थ तत्र पञ्च' विशति प्रतिपत्तिवादिपु मध्ये : 'एगे' ' एके' प्रथमाः' प्रतिपत्तिवादिनः 'एवं' एवम् वक्ष्य माणप्रकारेण 'आइंसु' आहुः कथयन्ति 'ता' तावत् 'एगं जोयणसहस्स' एक योजन सहस्रम् 'सरिए' सूर्य 'उड्दउच्चत्तण' 'ऊर्ध्वम् भूमित उपरि' उच्चत्वेन' उच्चत्वमाश्रित्य चारं चरतीति योगः, तथा 'दिवड्डे' द्वयुद्ध' सार्धक योजनसहस्रम् 'चंदे' 'चन्द्रश्वारं चरति, उपसंहारेमाह-'एगे' एके प्रथमाः 'एवं' एवं पूर्वोक्त प्रकारेण आईसु' आहुः कथयन्तीति प्रथमा प्रतिपत्तिः १ । 'एगे पुण' एके द्वितीयाः पुन, ‘एवमाहंसु' एवं वक्ष्यमाण प्रकारेण आह: कान्ति' 'दो जोयणसहस्साई ' सरिए' द्वे ' योजनसहस्र 'उड् भूमेरूर्व 'उच्चत्तेण उच्चत्वमाश्रित्य 'सूरिए' सूर्यश्चार चरति, 'अड्ढाइज्जाई अतृतीयानि साढ़े द्वे योजन सहस्रे इत्यर्थः 'चंदे' चन्द्रश्चारं चरति । 'एगे' ऐके द्वितीयाः 'एत्रमाइंसु' एवं पूर्वोक्त प्रकारेण आहुः कथयन्तीति द्वितीया प्रतिपत्तिः २ । 'एवं' पूर्वोक्तरूपेण 'एए णं' एतेन पूर्वप्रदर्शितेन 'अभिलावेणं' अभिलापेन' 'आलापकप्रकारेण 'णेयन्वं' ज्ञातव्यम् इतोऽग्रेऽपि सर्वासु प्रतिपत्तिषु एतत्सदृशा एव आलापकाः कर्तव्याः केवल मुच्चत्वपरिमाणं पृथक् सूत्रोक्तानु सारेण विज्ञातव्यम् । नदेव दर्शयति-'तिन्नि' इत्यादि "तिन्नि जोयण सहस्साई सरिए' त्रीणि योजनसहाणि सूर्यः, 'अट्ठाई चंदे' अर्द्ध चतुर्थानि मर्दैन चतुर्थेन सहितानि, सानि त्रीणीत्यर्थः योजन सहस्राणि चन्द्रः ।३। 'चत्तारि जोयणसहस्साई मरिए'' चत्वारि 'योजन सहस्राणि सूर्यः 'अद्धपञ्चमाई चंदे' अर्द्ध पञ्चमानि पञ्चममई यत्र तानि सोद्धानि 'चत्वारि' योजनसहस्राणि 'चन्द्रः ४ । 'पंचज़ोयणसहस्साई सूरिए' पंञ्च योजन सहस्राणि' सूर्यः; 'अद्धछट्ठाई चदे' अर्द्ध षष्ठानि अर्द्ध षष्ठं यत्र तानि सार्द्धानि पञ्च योजन सहस्राणि चन्द्रः ५। 'छ जोयणसहस्साई सूरिए' पड़ योजनसहस्राणि सूर्यः, 'श्रद्धसत्तमाई चंदे' अर्द्ध सप्तमानि अर्द्ध सप्तमं यत्र तानि सानि षड् योजनसहस्राणि चन्द्रः ६ । 'सत्तजोयणसहस्साई मरिए' सप्त' योजनेसहस्राणि सूर्यः, 'अट्ठमाई' अर्धाटमानि, 'अर्द्ध अष्टमं यत्र तानि साञणि 'चंदे' चन्द्रः । ७ । 'अट्ठजोयणसहस्साई सूरिए'। अष्ट ,योजनसहस्राणि सूर्यः, . 'अद्धनवंमाई'. अर्द्धनवमानि । अर्द्ध नवमं यत्र तानि सार्धाणि अष्ट- योजन सहस्राणि . 'चदे' चन्द्रः ८ : 'नवजोयणसहस्साई सूरिए'. नवयोजनसहस्राणि' सूर्य का अद्धदसमाई' अर्द्धदशमानि भर्दै दशम, यत्र तानि नवयोजसहस्राणि 'चंदे' चन्द्रः ९ 1. Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रातिस्ले 'दसजोयणसहस्साई सूरिए' दश योजनसहवाणि सूर्यः, 'अढएक्कारसे.' अर्थैकादश० इति अर्द्धमेकादशं यत्र तानि सार्दानि दश योजन सहस्राणि 'चंदे' चन्द्रः १० । 'एक्का. रस जोयण सहस्साई सूरिए' एकादश योजनसहत्राणि सूर्यः, 'अद्धवारस' मई द्वादशइति मदै द्वादशं यत्र तानि सानि एकादश योजनसहस्राणि चंदे' चन्द्रः, ११ । एवम् 'वारस मरिए' द्वादश-द्वादश योजन सहस्राणि सूर्यः, अत्र योजन सहस्राणीनि पदं योजनीयम् एवमग्रेऽपि सर्वत्र योग्यम् 'अद्ध तेरसे' अर्द्ध त्रयोदशानि अर्द्ध त्रयोदशं यत्र तानि सानि द्वादश योनन सहस्राणि 'चंदे' चन्द्रः १२ । 'तेरस सूरिए' त्रयोदश योजन सहस्राणि सूर्यः, 'अद्ध चोहसे० अर्द्ध चतुर्दशइति अर्द्ध चतुर्दशं यत्र तानि सार्द्धानि त्रयोदशयोजन सहस्राणि 'चंदे' चन्द्रः १३ । 'चोदस० सूरिय' चतुर्दश योजन सहस्राणि सूर्यः, 'अद पण्णरस.' अर्द्ध पञ्चदश०इति पञ्चदशं यत्र तानि सार्द्धानि चतुर्दश योजन सहस्राणि 'चंदे' चन्द्रः १४ । 'पण्णरस० सूरे', पञ्चदश योजन सहस्राणि सूर्यः 'अद्धसोलस० चंदे' अर्द्ध षोडश० इति अर्द्ध षोडशं यत्र तानि सार्द्धानि पञ्चदश योजन सहस्राणि चन्द्र १५। 'सोलस० सूरिए' षोडश योजन सहस्राणि सूर्यः, -- 'अद्धसत्तरसचंदे' अर्द्धसप्तदशइति अर्द्ध सप्तदशं यत्र तानि सार्दानि षोडशयोजनसहस्राणिचन्द्र. १६। 'सत्तरस० सुरिए'-सप्तदश योजनसहनाणि सूर्यः, 'अद्धअद्वारस० चंदे' म॰ष्टादश० इति अर्द्धमष्टादशं यत्र तानि सार्दानि सप्तदश योजनसहस्राणि चन्द्रः १७/ 'अट्ठारस. सुरिए' अट्टादश योजनसहस्राणि सूर्यः, 'अद्धएगृणवीस चंदे' अद्वै कोनविंशइति अर्द्धम् एको. नविशं यत्र तानि मा नि अष्टादश योजनसहस्राणि चन्द्रः १८। एगणवीस० सरिए' एकोनविंशति योजनसहस्राणि सूर्यः, 'अद्धवीसं० चंदे' अर्द्धविंशानि इति भट्टै विशं यत्र तानि सार्द्धानि एकोनविंशति योजनसहस्राणि चन्द्रः १९। 'वोसं० सुरिए' विंशति योजनसहस्राणि सूर्यः, 'अद्धएकवीसं० चंदे' अद्वैकविंशानि अम् एकविंशं यत्र तानि सानि विंशति योजनसहस्राणि चन्द्रः २०। 'एक्कवीसं० मूरिए' एकविंशति योजन सहस्राणिसूर्यः 'अद्धवावीसं चंदे मर्दै द्वाविंशानि अर्द्ध द्वाविंशं यत्र तानि सार्दानि एकविंशतियोजनसहवाणि चन्द्रः २१॥ 'बावीसं० सुरिए' द्वाविंशति योजनमहत्राणि सूर्यः, 'अद्धतेवीसं० चंदे' अर्द्धत्रयोविंशानि, अदै प्रयोविंशं यत्र तानि मानि द्वाविंशति-योजनसहस्राणि चन्द्रः २२। 'तेवीसं० सुरिए' त्रयोविंशनि योजनसहस्राणि सूर्यः ‘अद्धचउवीस चंदे' अईचतुर्विशानि मईचतुर्वि शं यत्र तानि सानि त्रयोविंशति योजनसहस्राणि चन्द्रः २३। 'चउवीसं० सुरिए' चतुर्विशति योजनसहवाणि सूर्यः, 'अद्धपणवीस चंदे' अर्द्धपञ्चविंशानि अर्द्ध पञ्चविंशं यत्र तानि सानि चतुर्विशति योजनसहनागि चन्द्र , उपसंहारमाह-एगे एवमाहंमृ' एके चतुर्विंशतितमप्रतिपत्तिवादिनः, Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका० प्रा० १८ सू.१ भूमितः सूर्यचन्द्रयोरुच्चत्व निरूपणम् ६३३ एवं पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः ।२४। अथ पञ्चविंशतितमा प्रतिपत्तिं सूत्रकार एव साक्षादाह-'एगे पुण' इत्यादि-एके पञ्चविंशतितमप्रतिपत्तिवादिन, पुनः 'एवमाहंसु' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आहुः-कथयन्ति-'पणवीसं जोयणसहस्साई' पञ्चविंशति योजनसहस्राणि 'सरिए सूर्यः 'उड्डे' ऊर्ध्वं भूमिभागात् 'उच्चत्तेणं' उच्चत्वेन उच्चत्वमाश्रित्य चारं चरति, 'अद्धछब्बीसं चंदे'. अर्द्धपड्विंशानि अर्द्ध पड्विंशं यत्र 'तानि सार्दानि पञ्चविंशति योजनसहस्राणि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन चन्द्रश्चारं चरति । उपसंहारमाह-एगे' एके पञ्चविंशतितमप्रतिपत्तिवादिनः ‘एवं' एवम्-पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहंसु' आहु कथयन्ति २५। तदेवमुक्ताः पञ्चविंशतिः परतीर्थिकप्रतिपत्तयः । साम्प्रतं भगवान् स्वमतं प्रदर्शयति-'वयं पुण' इत्यादि, वयं पुनः वयं तु "एवं' एवं वक्ष्यमाण प्रकारेण 'वयामो' वदामः कथयामः । तदेवाह-'ता इमीसे' इत्यादि, 'ता' तावत् 'इमीसे' अस्याः प्रसिद्धायाः 'रयणप्पभाए पुढवीए' रत्नप्रभायाः पृथिव्याः 'बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ' बहुसमरमणीयात्-समतलरूपात् भूमिभागात् 'सत्तणउयाई जोयणसयाई सप्तनवतानि योजनशतानि नवत्यधिकानि सप्तशतानि (७९०) योजनानाम् 'उडूढ' उर्व भूमि भागात् 'अवाहाए अवाधया अन्तरेण व्यवधानेन 'हेडिल्ले तारारूवे' अधस्तनं तारा रूपं ज्योतिश्चक्रं 'चारं चरई' चारं चरति मण्डलगत्या परिभ्रमणं करोति । पूर्वोक्त भूमिभागोत् नवत्यधिकसप्तशत (९७०) योजनानि ऊवं गत्वाऽत्रत एव ज्योतिश्चक्रं प्रारभते इति बोध्यम् । तथा-'अट्ठजोयणसए' अष्टौयोजनशतानि (८००) भूमिभागात् ऊर्ध्वमुत्प्लुत्य अधस्तनतारारूप ज्योतिश्चक्राद् दशयोजनानि गत्वेत्यर्थः 'अवाहाए' अबाधया व्यवधानेन 'सरियविमाणे चारं चरइ' सूर्यविमानं चारं चरति । तथा अस्या एव रत्नप्रभापृथिव्या बहुसमरमणीयभूमिभागात् 'अट्ट असीयाई जोयसयाई' अष्ट अशीतोनि योजनशतानि अशीत्यधिकानि अष्टौ योजनशतानि (८८०) 'उड्ढ' ऊर्ध्वं सूर्यविमानात् अशीतियोजनानि गत्वेत्यर्थः 'अवाहाए' अवाधया अन्तरेण 'चंदविमाणे चारं चरइ' चन्द्रविमानं चारं चरति । तथा 'णवजोयणसयाई नव योजनशतानि परिपूर्णानि नवशतयोजनानि 'उड्ढ' ऊर्ध्वमुत्प्लुत्य चन्द्रविमानात् विंशतियोजनानि गत्वेत्यर्थ. 'अवाहाए' अबाधया 'उवरिल्ले - तारारूवे' उपरितनं तारारूपं ज्योतिश्चक्रं चारं चरति । तत्र-चन्द्रविमानादूर्ध्वं चत्वारि योजनानि गत्वाऽत्र नक्षत्र विमानानि सन्ति ४, अत्रतोऽग्रे चत्वारि योजनानि गत्वाऽत्र बुधग्रहो वर्त्तते, ८ तत्रत ऊर्ध्वं त्रीणि योजनानि गत्वाऽत्र शुक्रग्रहो वर्त्तते ११, तत्रतस्त्रीणि योजनानि, ऊर्ध्वं गत्वाऽत्र बृहस्पतिग्रहो वर्तते १४, तत्रतस्त्रीणि योजनानि ऊर्ध्वं गत्वाऽत्र मङ्गल ग्रहो वर्त्तते १७, तत्रतस्त्रीणि योजनानि गत्वाऽत्र शनैश्चर ग्रहो; वर्त्तते २०, इत्येवं चन्द्रविमानाद् विंशति योजनपरिमिते क्षेत्रे बाहल्येन उपरितनं तारारूपं Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रशतिसूत्रे ६३४ ज्योतिश्चकं चारं चरनि, इत्येवं भूमिभागान्नवशतयोजनपर्यन्तक्षेत्रे परिपूर्ण ज्योतिश्चक्रं परिभ्रमति । ततः सर्वं ज्योतिश्चक्रं दशोत्तर शतयोजनप्रमाणकं बाहल्येन जातम् नवत्यधिकसप्तशत योजनत आरम्य नवशतयोजनपर्यन्त दशोत्तरशतयोजनभावात् । एतच्चाग्रे सूत्रे एव प्रदर्शयिष्यते । पुनश्च - 'हेट्टिल्लाओ तारारूवाओ' अधस्तनात् तारारूपात् ज्योतिश्चात् 'उइट' उर्ध्व 'अवाहाए' अवाधया अन्तरेण 'दस जोयणाई' दशयोजनान्येव उपरिगत्वा अत्रान्तरे 'सूरियविमाणं चारं चरइ' सूर्यविमानं चारं चति । तस्मादेवाधनस्तनात् तारारूपात् ज्योतिश्चक्रात् 'उड्ढ अवाहाए' ऊर्ध्वमत्राच्या 'णउई जोयणाई' नवति योजनान्येवगत्वा 'चंदविमाणे चारं चरह' चन्द्रविमानं चारं चरति । एतस्मादेवाधस्तनात्तारारूपात् 'दसोत्तरं जोयणसयं' दशोत्तरं योजनगतं (११०) 'उड्दु' ऊर्ध्वम् 'अवाहाए' अबाधया अन्तरं कृत्वा 'उचरिल्ले तारा रूत्रे' उपरितनं तारा रूपं ज्योतिश्चक्रं 'चारं चरई' चारं चरति । अथ सूर्यत्रमानात् प्राह-'ता' तावत् 'रियविमाणाओ' सूर्यविमानात् 'असीइ जोयणाई' अशोति योजनानि (८०) 'उड्ढ अवाहाए ऊर्ध्वमबाधया 'चंदविमाणे चारं चरइ' चन्द्रविमानं चारं चरति । 'जोयणसयं' तस्मादेव सूर्यविमानात् योजनशतम् एकशतसंख्यक - योजनानि गत्वा 'उड्ढ' अवाहाए' ऊर्ध्वमवाधया 'उवरिल्ले तारारूवे' उपरितनं तारा रूपं - ज्योतिश्चक्रं 'चारं चरड़' चारं चरति । अथ चन्द्रविमानात् प्राह-ता चंद विमाणाओ' इत्यादि, 'ता' तावत् चंद विमाणाओ णं' चन्द्रविमानात् खलु 'वीसं जोयणाई' विंशतिं योजनानि 'उन्हढ ं अवाहाए' ऊर्ध्वमवाध्या 'उवरिल्ले तारारूवे' उपरितनं सर्वोपरितनं तारारूपं ज्योति - चक्रं 'चारं चरड़' चारं चरति । अथोपसंहरति- 'एवामेव' इत्यादि, 'एवामेव' एवमेव उक्तेनैव प्रकारेण 'सपुव्यावरेणं' मपूर्वापरेण पूर्वेण अपरेण च सह पूर्वापरमीलनेनेत्यर्थः 'दसुत्तरजोयणसयवाहल्ले' दशोत्तर योजनगत बाहुल्ये दशाधिक शत सख्यकयोजन परिमिते वाहल्ये विस्तारे, तथाहि सर्वाधस्तनात्तागरूपात् ज्योतिश्चक्रात् ऊर्ध्वं दशमियजनैरूर्ध्वं गत्वा सूर्यविमानम्, ततोऽग्रे मशीतियोजनै गत्वा चन्द्रविमानम्, ततोऽग्रे विंशत्या योजनैरूर्ध्व गत्वा सर्वोपरितनं तारा रूपं ज्योतिश्चक्रम्-(१०=८० = २० + ११० ) इति सर्वसंमेलनेन ज्योतिचक्रचार विषयस्य भवति दशोत्तरं शतं योजनानां चाहल्यम्, तस्मिन् दशोत्तरयोजनगतबाहुल्ये, कीदृशे तस्मिन् ? इत्याह- 'तिरियमसंखेज्जे' तिर्यगसंख्येये तिर्यक्त्वमाश्रित्य असंख्येय कोटी कोटो योजनपरिमिते 'जोइस विसए' ज्योतिर्विषये ज्योतिश्चक्रविपयभूते क्षेत्रे 'जोडर्स' ज्योतिपं मनुप्यक्षेत्रविषयं ज्योति 'चारं चर' चोरं चरति मनुष्य क्षेत्राद्वहि ज्योतिषिकाणां पुनः स्थिरत्वम् । 'आहिये' आख्यातम्, 'तिवएज्जा' इति वदेत् प्रतिपादयेत् स्वगिप्येभ्य इति ॥ सू० १ || ताराचिमानाधिष्ठातृणां चन्द्रसूर्यापेक्षया विभवादिकमकृत्याणुत्व तुल्यत्वमाह - 'ता अस्थिणं इत्यादि । अथ Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१८. सू.२ . ताराविमानाधिष्ठातॄणां अणुत्वतुल्यत्वम् ६३५ मूलम्-ता अत्थिण चंदिमसरिया णं देवाणं हिट्ठ पि तारा रूवा अणुंपि तुल्लावि ? समंपि तारारूबा अणुपि तुल्लावि ? उप्पिंपि ताराख्वा अणुंपि तुल्लावि ? ता अस्थि । ता कहं ते चंदिमसरियाणं देवाणं हिटंपि तारारूवा अ[पि तुल्लावि समपि तारारूवा अणुंपि तुल्लावि, उपिपि ताराख्वा अणुपि तुल्लावि ? ता जहा जहाणं तेसिणं देवाणं ताव णियम वंभचेराई उस्सियाई भनि तहा तहाणं तेसि देवाणं एवं भवइ, तं जहा-अणुत्ते वा तुल्लत्ते वा । ता एवं खल चंदिम सूरियाणं देवाणं हि टुंपि ताराख्वा अणुंपि तुल्लावि तहेव जाव उपिपि तारा रूवा अणुंपि तुल्लावि । सू० २ । __ छायग-तावत् सन्ति खलु चन्द्रसूर्याणां देवानाम् अधस्तना अपि तारारूपाः अणवो ऽपि तुल्या अपि ? समा अपि तारारूपा अणवोऽपि तुल्या अपि ? उपरितना अपि तारारूपा अणवोऽपि तुल्या अपि? । तावत् सन्ति । तावत् कथं ते चन्द्रसूर्याणां देवानामधस्तना अपि तारारूपा अणवोऽपि तुल्या अपि । समा अपि तारारूपा अणवोऽपि तल्या अपि । उपरितना अपि तारारूपा अणवोऽपि तुल्या अपि ! तावत् यथा यथा खलु तेषां देवानां तपो नियमब्रह्मचर्याणि उच्छूितानि भवन्ति तथा तथा खलु तेषां देवानां एवं भवति, तद्यथा-अणुत्व वा तुल्यत्वं वा । तावत् एव खलु चन्द्रसूर्याणां देवानाम् अधस्तना अपि तारोरूपाः, अणवोऽपि तुल्या अपि तथैव यावत् उपरितना अपि तारा रूपा अणवोऽपि तुल्या अपि । सू०-२॥ व्याख्या-'ता अत्थिणं' इति, तावत् 'अस्थि ण' सन्ति खलु हे भगवन् 'चंदिमसूरियाणं देवाणं' चन्द्रसूर्याणां देवानां 'हिटंपि' अधस्तना अपि क्षेत्रापेक्षया चन्द्रसूर्याणां देवानामधश्चारिणोऽपि 'तारारूवा' तारारूपाः तारारूपविमानाधिष्ठातारो देवाः 'अणुपि' अणवोऽपि द्युतिविभवलेश्याद्यपेक्षया लघवोऽपि हीना अपि भवन्ति किम् ? तथा 'तुल्लावि' तुल्या अपि केचित् समानधुतिविभवादियुक्ता अपि भवन्ति किम् १ तथा 'समंपि' समा अपि क्षेत्रापेक्षया चन्द्रसूविमानानां समश्रेण्या व्यवस्थिता अपि 'तारारूवा' तारारूपाः तारा रूप विमानवासिनो देवाः 'अणुपि तुल्लावि' अणवोऽपि तुल्या अपि भवन्ति किम् ? । तथा 'उपिपि' उपरितना अपि चन्द्र सूर्य विमानानामुपरि व्यवस्थिता देवा अपि 'अणुवितुल्लावि' अणवोऽपि तुल्या अपि भवन्ति किम् । भगवानाह 'ता अत्थि' तावत् भवन्ति अणवोऽपि तुल्या अपि, इत्यादि हे गौतम ! यथा त्वया पृष्टं तत्तथैवास्ति । पुन गौतमः पृच्छति-'ता कहते' इत्यादि, 'ता' तावत् 'कह' कथं कस्नात्कारणात् 'ते' तवमते 'चंदिम सूरियाणं देवाणं' चन्द्रसूर्याणा देवानां 'हिटुंपि' अधस्तना अपि 'तारारूवा' तारारूपाः ताराविमानस्थिता देवाः 'अणु वि, अणवोऽपि 'तुल्लंपि' तुल्या अपि सन्ति । तथा 'समंपि' समश्रेणि व्यवस्थिता अपि 'तारारूवा' तारारूपाः 'अणुपि' अणवोऽपि 'तुल्लावि' तुल्या अपि सन्ति । एवं 'उप्पिपि' उपरितना अपि 'ताराख्वा' तारारूपाः 'अणुंपि' Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे सामादिक वाह्याभ्यन्तनी तवणियमान है गौतम ! 'जावल अणवोऽपि 'तुल्लावि' तुल्या अपि सन्ति । हे भगवान् ! किं कारणमत्र यत् चन्द्रसूर्याणामधस्तनव्यवस्थिताः, समश्रेणि व्यवस्थिताः उपरिव्यस्थितास्त्रिविधा अपि तारारूपविमानाधिष्ठातारो देवाः अणवोऽपि युत्यादिना लघवोऽपि तुल्या अपि समान युत्यादिमन्तः ? इति कथयतु इति गौतमेन प्रश्ने कृते भगवान् गौतमाय अणुत्वतुल्यत्वविषयकं कारणं प्रदर्शयति-'ता जह-जह' इत्यादि 'ता' तावत् हे गौतम ! 'जहा-जहाणं' यथा यथा खल 'देवाणं' तेषां देवानां तवणियमवंभचेराई तपोनियमब्रह्मचर्याभिप्राग्भवे तपः पष्ठाटमादिकं वाह्याभ्यन्तरमेदभिन्नं द्वादशविधं वा नियमः-अभिग्रहादिरूपः, ब्रह्मचर्यम् अनन्मत्यागः, देशतः सर्वनोवा 'उस्सियाई' उच्छूितानि उत्कटानि उपलक्षणात् अनुत्कटानि वा येषां यादृशानि चारितानि आचरितानि पालितानि त्रिकरणत्रियोगादि प्रकारमाश्रित्य भवन्ति 'तहा तहाणं' तथा तथा तत्तत्प्रकारेण तपोनियमादिपालनानुसारेण खल हे गौतम ! 'तेसि देवाणं' तपां देवानाम् ‘एवं भवई' एवम् अनेन प्रकारेण अल्पद्यत्यादिक 'तुल्यद्यत्यादिकं च 'भवः' भवति । तदेवाह-'तं जहा' तद्यथा-'अणुत्तेवा तुल्लत्तेवा' अणुत्वं-वा तुल्यत्वं वेति, अयं भावः-यैः पूर्वभवे तपोनियमब्रह्मचर्याणि पालितानि त्ववच्यमेव तेन कारणेन देवत्वं प्राप्त किन्तु तानि तैश्चन्द्रसूर्यापेक्षया मन्दानि पालितानि ततस्तै तारारूप विमानाधिष्ठातारो देवो भूत्वा चन्द्रसूर्यदेवानां द्युतिविभवाद्यपेक्षया होना जाताः । यैस्तु भावन्तरे तपो नियमनामचर्याणि चन्द्रसूर्याणां प्रायः सदृशान्युत्कटानि पालितानि ततस्ते तारारूप विमानाविष्टातारो भूत्वा चन्द्रसूर्याणां धुतिविभवादिना तुल्या जाताः । उचितमेवैतत् दृश्यन्ते हि मनुष्यलोकेऽपि केचित्पूर्वभवसञ्चित पुण्यप्राग्भारा जना राजत्वं नापि प्राप्तास्तथापि राज्ञा सह तुल्य धूतिविभवा भवन्तीति । 'ता' तस्मात् कारणात् एवं णं एवं खल 'चंदिमसरियाणं देवाणं' चन्द्रसूर्याणां देवानां 'हिडंपि ताराख्वा अणुपि तुल्लावि' अधस्तना अपि तारारूपाः अणवोऽपि तुल्या अपि 'तहेव' तथैव पूर्वोक्त वदेवात्र वाच्यम्, कियत्पर्यन्तमित्याह-'जाव' इत्यादि, 'जाव' यावत् 'उप्पिपि ताराख्वा अणुपि तुल्लावि' उपरितना अपि तारारूपा अणवोऽपि तुल्या अपि । यावत्पदेन 'समंपि ताराख्या अणुपि तुल्लावि' समश्रेणि व्यवस्थिता अपि तारारूपा अणवोऽपि नुन्या अपि सन्ति, इति, संग्राह्यम् ॥सू०२।। अथ चन्द्रस्य परिवार, मन्दरपर्वतात् लोकान्ताच्च क्रियदन्तरेण ज्योतिश्चक्रं चार चरतानि च प्रदर्शयनि-'ता एगमेगम्स णं' इत्यादि । मृलम -- ता गगमेगम्म णं चंदम्स देवस्स केवया गहा परिवारो पण्णत्तो ? केवइया णक्खना परित्रागे पग्णनो ? केवडया तारा परिवारो पण्णत्तो, ? एगमेगस्त णं चंदस्स Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काशिकाका०प्रा १८सू. ३मन्दर लोकान्त पर्वतात्चन्द्रस्य परिवारंज्योतिश्चकचारम् ६३७ देवस्स अट्ठासी गहा परिवारो पण्णत्तो, अट्ठावीसं णक्खत्ता परिवारो पण्णत्तो, गाहा "छावद्विसहस्साईं, णवचेव सयाई, पंचुत्तराई पंचसयराई एगससी परिवारो, तारा गण कोडि कोडी |१| परिवारो पण्णत्तो ॥ ३॥ छाया -- तावत् एकैकस्य खलु चन्द्रस्य देवस्य कियन्तो ग्रहाः परिवारः प्रज्ञप्तः ? कियन्ति नक्षत्राणि परिवारः प्रज्ञप्तः ? कियन्त्यस्ताराः परिवारः प्रज्ञप्तः ? । तावत् एकैकस्य खलु चन्द्रस्य देवस्य अष्टाशीतिर्ग्रहाः परिवारः प्रज्ञप्तः, अष्टाविंशतिर्नक्षत्राणि परिचारः प्रज्ञप्तः, गाथा-पट् पष्टिः सहस्राणि नव चैव शतानि पञ्चोत्तराणि (६६९०५) । एकशशि परिवारः, तारा गण कोटिकोटिनाम् ||१|| परिवारः प्रज्ञप्त ॥ सू० ३|| व्याख्या- 'ता एगमेगस्स णं' इत्यादि चन्द्रपरिवार प्रतिपादकं सूत्रं सुगम मिति न व्याख्यायते, नवरं चन्द्रस्य तारापरिवारपरिमाणं - पश्चोत्तर नवशताधिकपट्षष्टि सहस्रकोटीकोटी संख्यक मिति ॥ सू० ३ ॥ अथ मन्दरपर्वतात् ज्योनिश्चक्रस्यान्तरमाह - ता 'मंदरस्य णं' इत्यादि, मूलम् - ता मंदरस्स णं पव्वयस्स केवइयं अवाहाए जोइसे चारं चरइ ? ता एक्कारस एक्कवीसाई जोयणसयाई अवाहाए जोइसे चारं चरइ । ता लोयंताओ णं केवइयं अवाहाए जोइसे पण्णत्ते ? ता एक्कारस एक्कादपई जोयणस्याद् - अवाहाए जोइसे पण्णत्ते ॥ सू० ४ ॥ छाया -- तावत् मन्दरस्य खलु पर्वतस्य कियत्या अवाधया ज्यौतिपं चारं चरति ? तावत् एकादश एकविंशानि योजनशतानि अवाधया ज्यौतिषं चारं चरति । तावत् लोकान्तात् खलु कियत्या अवाधया ज्यौतिपं प्रज्ञप्तम् ? तावत् एकादश एकादशानि योजनशतानि भवाध्या ज्यौतिषं प्रज्ञप्तम् ॥० ||४|| व्याख्या – 'ता मंदरस्त णं' इत्यादि मन्दरपर्वतविषयक ज्यौतिश्चक्रान्तरसूत्रमपि सुगममेव, नवर ं ज्योतिश्चक्रं मेराः सर्व नः सर्वदिक्षु एकविंशत्यधिकानि एकादश योजनशतानि मुक्त्वा तदनन्तर चक्रवालतया ज्योतिश्चकं चारं चरति । अथ लोकान्तात्तदेव प्रदर्श्यते 'ता लोयंताओ' इत्यादि 'ता' तावत् 'लोयंताओ' लोकान्तात् अर्वाक् लोकान्तात्पूर्वं मित्यर्थः इत्यादि प्रश्नसूत्र - सुगमम् । भगवानाह 'ता एकारस' इत्यादि, 'ता' तावत् 'एक्कारस एक्का - राई जोयणसयाई' एकादश एकादशानि योजनशतानि एकादशाधिकानि एकादश योजनशतानि (११११) योजनानां- 'अवाहाए' अबाधया - लोकान्तात्पूर्वमन्तरेण - लोकान्तभागात् लोकाभिमुख एकादशाधिकैकादशशतयोजनानि आगत्यात्रान्तरे ' जोइसे' ज्योतिषं ज्योतिश्चक्रं 'पण्णत्ते'प्रज्ञप्त भगवतेति । सू० ॥ ४ ॥ अथाग्रे 'जीवाभिगमस्यातिदेशमाह - ' एवं जहा जोवाभिगमे' इत्यादि । Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮ चन्द्रप्राप्तिसूत्र मूलम्-एवं जहेब जीवाभिगमे तहेव णेयवं-सव्वभितरिल्लं चारं, संठाणं, पमाण, वहंति, सीहगई, इड्ढी तारंतरं, अग्गमहिसीओ, ठिई, अप्पा बहुयं जाव तारायो संखेन्ज गुणा ॥सू०॥५॥ छाया--यथैव जीवाभिगमे तथैव ज्ञातव्यम्-सर्वाभ्यन्तरकश्चारः, संस्थानम्, प्रमाणम्, वहंति, शीव्रगतिः, ऋद्धिः, तारान्तरम्, अग्रमहिण्यः, स्थितिः, अल्पवहुत्वम् यावत् ताराः संख्येयगुणाः ॥ सू०-५ ।। व्याख्या-'जहेच जीवाभिगमे' इति, 'जहेव' यथैव येन प्रकारेण 'जीवाभिगमे जीवाभिगमसूत्रे कथितं 'तहेव' तथैव तेनैव प्रकारेण तत्रोक्तानुसारेण 'णेयव्यं' ज्ञातव्यम् । अवगन्तव्य पठितव्यमित्यर्थः । किं किं ज्ञातव्यमित्याह-सव्वभितरए' इत्यादि, 'सव्यभितरए चार' सर्वा यन्तरकश्चारः-नक्षत्राणां सर्वाभ्यन्तरचारप्रभृतिका वक्तव्यता वाच्या। तथा 'संठाणे' सस्थानम् चन्द्रादि विमानाना सस्थानम्-आकृाते रूपं वक्तव्यम् । तदनन्तरं प्रमाणं चन्द्रादि विमानानामेव आयामादि प्रमाणं प्रतिपादयितव्यम् । तदनन्तरं 'वहंति' इति यावन्तः सिंहाद्या कृतयो देवा यं विमानं वहन्ति तद्विपया वक्तव्यता वाच्या । ततः 'सीहगई' शात्रगतिरिति कः कस्मात् शीघ्रगतिरिति वाच्यम् । तत्पश्चात् 'इड्ढी' ऋद्रिश्चन्द्रादीनां देवानां वक्तव्या । तदनन्तरं .'तारंतरं' तारान्तरम् ताराणां जघन्यत उत्कृष्टतश्चान्तरं कियत्कियत्परिमितमिति प्रतिवाच्यम् । तत्पश्चात् 'अग्गम हिसीओ' अग्रमहिष्यः चन्द्रादीना मनमहिप्यो वक्तव्याः । ततः 'ठिई' स्थितिस्तेपामेव चन्द्रादीनां वाच्या । तदनन्तरम् 'अप्पा. बहुयं' अल्पबहुत्वं वक्तव्यम् तत् कियत्पर्यन्त मित्याह-'जाव' इत्यादि, 'नाव' यावत् "तारा संखेज्जगुणा" पूर्वोन, परिमाणात् तारा. संख्येय गुणा; इति पर्यन्तं सर्वमत्र वक्तव्यं यावत् अष्टादशतमप्रामृतपरिसमाप्तिमिति भावः ।।सू०५॥ __तदेवं पूर्व जीवाभिगमस्यातिदेश. प्रोत, साम्प्रतं तदतिदेशप्रदर्शितानि सूत्राणि साक्षात् प्रदर्शयन् प्रथमे सर्वाभ्यन्तरादि चारसूत्रमाह--'ताजंबुद्दीवेणं' इत्यादि, मूलम्ता जंबुद्दीवेणं दीवे भंते कयरे णक्खत्ता सम्बन्भंतरिल्लं चारं चरति ? कयरे णक्सत्ता सव्यवाहिरिल्लं चारं चरति ? कयरे णस्वत्ता सव्वुवरिल्लं चार चरंति ? कयरे णवत्ता हिडिल्लं चारं चरनि ? ता अभोई णक्खत्ते सव्व भितरिल्लं चारं चरइ, मृले णऋग्वत्ते सव्य बाहिरिल्लं चार चरइ साई णक्खत्ते सव्वुवरिल्लं चार चरइ भरणी णक्खत्ते सन्न हेडिल्ल चार चरइ । मू.. ॥६॥ छाया--नावत् जम्बू दीप नलु डीपे भदन्त ! कतमत् नक्षत्र सर्वाभ्यन्तरकं चारं चरति ? कनमन नक्षत्र मयंयाधक चारं चरति ? कतमत् नक्षत्रं सर्वोपरितनं चार चरति ? फनमन नक्षयं गांधम्ननं चार चरति ? । अभिजिन्नक्षत्र सर्वाभ्यन्तरं चार परति, भूल नक्षत्रं नवाहर चार चानि स्वातिनक्षत्रं सर्वोपरितन चार चरति, मरणोनक्षत्र सवाधिस्तनं चार चरति ॥ सू० ६॥ Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका० प्रा. १८सू.६ ___ सर्वाभ्यन्तरादिचारसूत्रनिरूपणम् ६३९ व्यख्या-'ता जंबुद्दीवेणं दोवे' इत्यादि । प्रश्नसूत्रे जम्बूद्वीपे द्वीपे अष्टाविंशति नक्षत्राणां मध्यात् सर्वाभ्यन्तर सर्वबाह्यसर्वोपरि सर्वाधश्चारीणि कानि कानि नक्षत्राणि सन्ती ति पृच्छा सूत्रं सुगमम् भगवानाह-'ता' तावत् 'अभिईणक्खत्ते' अभिजिन्नक्षत्र सर्वाभ्यन्तरकं चार चरति, एवं मूलनक्षत्रं सर्ववाह्य चार चरति, स्वातिनक्षत्रं सर्वोपरितनं चार चरति भरणी नक्षत्रं सर्वाधस्तनं चारं चरती त्युत्तरम् । सू०॥६॥ मूलम् -ता चंदविमाणेणं भंते ? किं संठिए पण्णत्ते ? ता अद्ध कविसंठाणसंठिए सव्व फालियामए अन्भुग्गय मूसिय पहासिए विविहमणिरयणभत्तिचित्ते वाउद्ध्य विजयवेजयंती पडागछत्ताइछत्तकालेए, तुंगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे जालं तररयणपंजरमिलियच मणिकणगथूभियागे चियसियपत्तपुंडरीय तिलगरयणद्धचंद चित्ते अंतो वहिं सण्हे तणिज्ज वालुया पत्थडे सुहफासे सस्सिरीयरूवे पासाईए दरिसणिज्जे अभिरुवे पडिरूवे । एवं सूरियविमाणे, गहविमाणे, णक्खत्तविमाणे, तारा विमाणे ॥सू० ७॥ छाया-तावत् चन्द्रविमानं खलु भदन्त ? किं संस्थित प्रज्ञप्तम ? तावत् अर्द्ध कपित्थक संस्थान संस्थितं सर्व स्फटिकमयं अभ्युद्गनोनिनप्रहसितं विविधमणिरत्न भक्ति चित्रं वातोद्भुन विजय वैजयन्ती पताका छत्रातिच्छत्रकलित तुझं गगनतलमनुलिखच्छि खरं जालान्तररत्नपजामिलितवन्मणिकनकस्तू पिकाकं विकसित पत्र पुण्डरीक तिलक रत्नार्द्धचन्द्रचित्रं अन्ती बहिश्लक्ष्णं तपनीयवालुकाप्रस्तट सुखस्पर्श संश्रीकरूपं प्रसादीय दर्शनीय अभिरूपं प्रतिरूपम् । एवं सूर्यविमानम् गृहविमानम्, नक्षत्रविमानम्, तारा विमानम् । सू० ॥७॥ ___ व्याख्या-'ता चंद विमाणेण' इत्यादि प्रश्नमूत्रं सुगमम् । भगवानाह-'अद्ध कविटे' इत्यादि 'अद्ध कविसंठाणसंठिए अर्द्धकपित्थसंस्थानसस्थितम् -उत्तानीकृतमईमात्रं यत् कपित्थं कंपित्थाभिधं फलं तस्येव यत् संस्थानं । उत्तानीकृताईकांपत्थसदृशं सस्थान तेन संस्थितं तत्सदृशसंस्थानसंस्थितं चन्द्रविमानं भवति ? अत्राह-यदि चन्द्रविमान मुत्तानीकृतार्द्धमात्रकपित्थफलसंस्थानकमस्ति तदा उदयास्तकाले, अथवा तिर्यक् परिभ्रमच्च तंत् कथमर्द्ध कपित्थफलाकारं नोपलभ्यते, तत्त शिरस उपरिवर्तमानं वर्तलाकारमुपलभ्यते, अर्द्धकपित्थस्य उपरि दूरमवस्थापितस्य पर भागदर्शनतो वर्तुलाकारतया दृश्यमानत्वात् अत्रोच्यते-इहार्द्धकपित्थफलाकारं चन्द्रविमानं सामस्त्येन ज्ञातव्यम् किन्तु चन्द्रविमानस्य यत् पीठं तद् अर्द्धकपित्थसंस्थानसंस्थितं वर्तते तस्य च पीठस्योपरि चन्द्र देवस्य प्रासादः, स च प्रासादस्तथा कथञ्चनापि व्यवस्थितो यथा पीठेन सह भूयान वर्तुलाकारो भवति, सच दूरभावादेकान्ततः समगोलाकारत्वेनात्रतो जनानां प्रतिभासते ऽतो नं कश्चिद्दोषः उक्तञ्च । Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे "अद्ध कविठ्ठागारा उदयत्थमाणम्मि कहं न दीसंति ? ससिसूराण विमाणा, तिरियक्खेत्ता ट्ठियाणंच ॥१॥ उत्ताणविट्ठागारे पीढं तदुवरि च पासाओ। . , चट्टालेखेण तओ समवर्ट दूर भावाओ ॥२॥, .. छाया- अर्द्धकपित्थाकाराणि उदयास्तमने , कथं न दृश्यन्ते ? . . शशिसूराणां विमानानि, तिर्यक् । क्षेत्रस्थितानां च ॥१॥. उत्तानाईकपित्थाकार पीठं तदुपरि च प्रासादः । वृत्तालेखेन ततः समवृत्तं दूर भावात् ॥२॥ इति तत् चन्द्रविमानं च किं प्रकारकमिति तद् विगिनष्टि-'सव्व फालियामए' इत्यादि, 'सब फालियामए' सर्वस्फटिकमयं सर्वात्मना स्फटिकाभिधमणिस्वरूपम् । 'विजयवेजयंती पडागा छत्ताइ छत्तकलिए' वातोद्भूतविजयवैजयन्ती पताका छत्राति छत्रकलितम् तत्र वातोद्भूता वायुना कम्पिता विजयवैजयन्ती पताका विजयसूचिका वैजयन्त्यभि धाना या पताका, अथवा विजया इति वैजयन्तीनां पार्श्वकर्णिकाः कथ्यन्ते तत्प्रधाना वैजयन्यो विजयवैजयन्त्यः पताकाः ता एव विजयवर्जिता वैजयन्त्यः पताका उच्यन्ते, तथा छत्रातिछात्राणि-उपर्युपरिस्थितछत्राणि, ततः विजयवैजयन्तीभिः, पताकामिः, छत्रातिच्छत्रैश्च कलितं युक्तं तत्तथा, 'तुगे' तुगम् उच्चम्, अत एव 'गगणतलमणुलिहंतसिहरे' गगन तलमनु लिवन्छिवरम्-गगननलम् अनुलिखत् अभिलइयत् शिखरम् उपरिभागः यस्य तत्तादृशम् 'जालंतररयण' जालान्तररत्नम्-जालकानि भवनभित्तिषु छिद्रसमूहरूपाणि लोके प्रमिद्धानि, तदन्तरेषु तेषां मध्य मध्य भागेषु रत्नानि विशिष्टशोभा) सन्ति यत्र तत् सूत्रे प्रथमैकवचनलोप आपत्वात् तथा 'पंजरमिलियन' पञ्जरमिलितमिव पञ्जरा दुन्मीलितमिव चिरकालाद बाहिष्कृतमिव नूतनत्वात्, यथाहि किमपि वस्तु सपुटक निवेशि नं धूच्यादिना असंसृष्टत्वेन नूतनवदेव तिष्ठति, तद् वस्तु यदि संपुटकाद्वहि निष्का स्यते नदा नूतनमिव प्रनिभासते, नथैव तद्विमानं नूतनम् अत्यन्ताविनष्टच्छविकत्वात् तथैव शोभने इति भावः, 'मणिकणगथूभियागे, वियसियसयपत्त पुंडरीयतिलयरयणद्धचंदचित्ते' मणिकनकस्तूपिकाकं विकसितगतपत्रपुण्डरीकतिलकरत्नाचन्द्रचित्र मिति तत्र 'मणि कनकस्तू पिकाई' इनि पृथक् पदम् मणिजटितकनकमयशिखरम्, विकसितानि प्रम्लितानि यानि गनपत्राणि, पुण्डरीकाणि च द्वागदौ प्रतिकृतित्वेन स्थितानि, तिलाश्च भित्यादिषु पुद्राणि, रत्नमयायानन्द्रा धारादिपु तश्चित्रमिति । 'अतीवहिं सण्हे' अन्तर्बहिः लक्षणम्चिगम 'नवाणिज्ज वालुया पत्थडे' तपनीयवाटका प्रस्तटम्-तपनीयं-सुवर्ण तन्मयी गा बालका--मिकता, तम्याः प्रस्तटः प्रतरः तल भागो यस्य तत्तथा, 'मुहफासे'सुख Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका० प्रा० १८ स. ८ विमानपरिमाणनिरूपणम् ६४१ स्पर्श स्पर्शे सुखोत्पादकम्, 'सस्सिरीयरूवे' सश्रीकरूपम्-संश्रीकाणि शोभायुक्तानि रूपाणि नर युग्मादीनि यत्र तत् तथा 'पासाईए' प्रासादिकं मनः प्रसन्नता जनकम्, अत एव 'दंसणिज्जे' दर्शनीयं द्रष्टु योग्यम् तदर्शने तृप्त्यसंभवात्, 'अभिरूवे' अभिरूपम्-सुन्दरम् 'पडिरूवे' प्रतिरूपम्-प्रतिविशिष्टम्-असाधारणं रूपं यस्य तत्तथा । एतादृशं चन्द्रविमानं वर्तते, इति । 'एवं सूरियविमाणं पि' एवम्-एतादृशमेव चन्द्रविमानसदृशमेव सूर्यविमानमपि विज्ञेयम् । एवमेव 'गहविमाणे' णक्खत्तविमाणे ताराविमाणे' ग्रह विमानमपि नक्षत्रविमानमपि ताराविमानमपि ज्ञातव्यमिति । सू० ७॥ . __ अथ विमानपरिमाणमाह-- मूलम्--चंद विमाणेणं भंते केवइयं आयामविखंभेणं ? केवइयं परिक्खेवेणं ? 'केवइयं वाहल्लेणं पण्णत्ते ? ता छप्पण्ण एगठिमागे जोयणस्स आयामविक्खंभेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिरयेणं, अट्ठावीसं एगट्टि भागे जोयणस्स वाहल्लेणं पण्णत्ते । ता मरिय विमाणेणं केवई आयामविक्खंभेणं पुच्छा ? ता अडयालीसं एगट्ठिभागे जोयणस्स आयामविक्खंभेणं, तं तिगुणं मविसेसं परिरएणं, चउव्वीसं एगद्विभागे जोयणस्स बाहल्लेणं पण्णत्ते । ता गहविमाणेणं केवइयं पुच्छा ता अद्ध जोयणं आयामविक्खंभेणं तं ति गुणं सविसेसं परिरएणं, कोसं वाहल्लेणं पण्णत्ते । ता णक्खत्तविमाणे णं केवइयं पुच्छी ? ता कोसं आयामविक्खभेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिरएणं, अद्धकोसं वाहल्लेणं पण्णत्ते । तारा विमाणेणं केवइयं पुच्छा ।, ता अद्धकोसं आयामविक्खंभेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिरएणं पंच धणुसयाई वाहल्लेणं पण्णत्ते ॥ ८॥ छाया-तावत् चन्द्रविमानं खलु भदन्त ! कियत्कं आयामविष्कम्मेण १ कियक परिक्षेपेण, ? कियक वाहल्येन प्रजप्तम्.? तावत् षट्पञ्चाशतमेकषष्टिभागान् योजनस्य आयामविष्कम्मेण, तत्रिगुणं सविशेष परिरयेण, अष्टाविंशति मेकषष्टिभागान् योजनस्य बाहल्येन प्रक्षप्तम् । तावत् सूर्यविमान खलु कियत्कमायांमविष्कम्मेण, पृच्छा तावत् अष्टचत्वारिंशतमेकषष्टिभागान् योजनस्य आयामविष्कम्मेण, तत् त्रिगुण सविशेष परिरयेण चतुर्विशतिमेकषष्टिभागान योजनस्य वाहल्येन प्रज्ञप्तम् । तावत् ग्रहविमानं खलु कियत्कं पृच्छा, तावत् अर्द्ध योजनमायमविष्कम्मेण, तत् त्रिगुण सविशेष परिरयेण क्रोशं वाहल्येन प्रक्षतम् । तावत् नक्षत्र विमान खलु कियत्कं पृच्छा, तारत् अर्द्धकोश बाहल्येन प्रक्षप्तम् । तांबत् ताराविमान खलु कियत्कं पृच्छा, तावत् अर्द्धक्रोशम् आयामविष्कम्भेण तत् 'त्रिगुण सविशेष परिरयेण, पञ्च धनुः शतानि वाहल्येन प्रज्ञप्तम् ॥सू० ८॥ . व्याख्या--अत्र चन्द्रादिविमानानां परिमाणावेषये गौतमस्य प्रश्नः--तत् चन्द्रविमानं कियत्परिमितम्-आयामविष्कम्भेण, परिधिना, बाहल्येनेति प्रश्नसूत्रं सुगमम् । भगवा Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ चन्द्रप्राप्तिस्त्रे नाह -'ता' तावत् 'छप्पण्णं एगहिभागे जोयणस्स' इति एकस्य योजनस्य पद पञ्चाशद् एकपष्टिभागपरिमितमायामविष्कम्भाभ्यां चन्द्रविमानम् । 'त तिगुणं सविसेसं परिरयेणं' परिधिना चन्द्रविमानमायामविष्कम्भपरिमाणात् त्रिगुणं किञ्चिदधिकं विज्ञेयम् । 'अट्ठावीस एगढिमागे जोयणस्स वाहल्लेणं' बाहल्येन स्थूलत्वेन चन्द्रविमानम् एकस्य योजनस्य अष्टाविंशत्येकपष्टिभागपरिमित प्रज्ञप्तम् सूर्यविमानपृच्छासूत्रं वाच्यम् भगवानाह-'अडयालीस एगसटिमागे जोयणस्स' योजनस्य अष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागमायामविष्कम्भाभ्याम् परिधि परिमाणां पूर्ववदेवायामविष्कम्भपरिमाणात् किञ्चिदधिकं त्रिगुणम् । सूर्यविमानस्य बाहल्यम् 'चउव्वीस एगद्विभागे जोयणस्स' एकस्य योजनस्य चतुर्विशत्येकषष्टिभागपरिमितं प्रज्ञप्तम् । प्रहविमानं पृच्छा 'ता अद्धजोयणं आयामविक्ख भेणं, ग्रह विमानं अर्द्धयोजनपरिमितमायामविष्कम्मेण 'तं तिगुणं सविसेसं परिरएणं' आयामविष्कम्भपरिमाणात् किञ्चिद्विशेषाधिक त्रिगुण 'परिएणं' परिधिना, 'कोसं बाहल्लेणं' एकं क्रोशं बाहल्येन प्रज्ञतम् नक्षत्रविमानं पृच्छा-'ता कोमं आयामविक्खंभेणं' नक्षत्रविमानम् आयामविष्कम्भाभ्यां क्रोशपरिमितम् पूर्ववदेवायामविष्कम्भपरिमाणात् सावशेष त्रिगुणा परिधिर्विज्ञेया । बाहल्येनार्द्धक्रोशं प्रज्ञप्तम् । ताराविमानं पृच्छा-'ता अद्ध कोसं आयामविनष भेणं' तारा विमानमर्दकोशमायामविष्कम्माभ्याम् । परिधिना पूर्ववदेव सविशेषं त्रिगुणम् । बाहल्येन 'पंचधणुसयाई' पञ्चधनुः-शन परिमित ताराविमानं प्रज्ञप्तम् ॥सू०८॥ अथ चन्द्रादिविमानवाहकदेवाना संख्या रूपाणि च प्रदर्शयति 'ता चंदविमाणेणं' इत्यादि मृलम् - ता चंदविमाणे गं भंते कड देवसाहस्सीओ परिवहंति,! सोलस.देव माहम्मीओ परिवहंति, तं जहा-पुरस्थिमेणं सीहरुखधारीणं चत्तारि देवसाहस्सीओ परि , वहति दाहिणेणं गयख्वधारीणं चत्तारि देवसाहस्सीओ परिवहंति, पच्चत्थिमेणं वस भस्वधारीणं चत्तारि देवमाहस्सीओ परीवहंति, उत्तरेणं तुरगरुषधारीणं चत्तारि देव साहस्सीओ परिवहति एवं मूरियविमाणपि । ता गहविमाणेणं भते कइ देवसाहस्सी. ओ परिवहति ? ता अट्टदेवसाहस्सीओ परिवहंति, त जहा-पुरथिमेणं सिंहस्वधारीणं देवाणं दो देवसाहम्सीओ परिवहंति, एवं जाय उत्तरेण तुरगरुषधारीणं देवाण दो देव माहस्वीत्री परिवहनि ? ता नक्खत्तविमाणेणं भंते कह देवसाहस्सीओ परिवहति ? ता रत्तारि देव साहम्सीओ परिवहति, तं जहा-पुरस्थिमेणं सीहत्वधारीणं देवाणं एक्का देवसाइम्सी परिवहन एवं जाव उत्तरेणं तुरगस्वधारीणं देवाणं. एक्का देवसाहममी पग्बिाइ । ता नागरिमाणेणं मंने कह देवमाहस्सोओ परिवहति । ता दो देव साहम्मोत्री परिवहति तं जहा पुरथिमेणं सोहरूपधारोणं पंच देवसया परिवहंति, एवं जाय उगरेणं तुग्गरुषधारीणं देवाणं पंच देवसया परिवहति ॥९०९॥ Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका. प्रा.१८ सू.९ चन्द्रविमानवाहक देवानां संख्या ६४३ छाया-तावत् चन्द्रविमानं खलु भदन्त ! कति देवसाहस्व्यः परिवहन्ति ? षोडश देवसाहत्यः परिवहन्ति, तद्यथा पौरस्त्ये खलु सिंहरूपधारिणां चतस्रो देवसाहस्यः परिवहन्ति, दक्षिणे खलु गजरूपधारिणां चतस्रो देवसाहत्यः परिवहन्ति, पाश्चात्ये खलु वृपभरूपधारिणां चतस्रो देवसाहव्यः परिवहन्ति, उत्तरे सलु तुरग रूपधारिणां चतस्रो देवसाहस्यः परिवहन्ति । एवं सूर्यविमानमपि । तावत् ग्रह विमानं खलु भदन्त ? कति देवसाहस्त्र्यः परिवहन्ति ? तावत् अष्ट देवसाहस्यः परिवहन्ति, तं जहा-पौरस्त्ये खलु सिंहरूपधारिणां द्वे देवसाहत्यौ परिवहतः, एवं यावत् उत्तरे खलु तुरगरूपधारिणां द्वे देवसाहस्यौ परिवहतः । तावत् नक्षत्रविमानं खलु भदन्त । कति देवसाहस्यः परिवहन्ति ? तावत् चतस्रो देवसाहत्यः परिवहन्ति, तद्यथा-पौरस्त्ये खलु सिंहरूपधारिणाम् एका देवसाहव्यः परिवहति, एवं जाव उत्तरे खलु तुरगरूपधारिणां एका देवसाहस्री परिवहति । तावत् ताराविमानं खलु भदन्त ! कति देवसाहस्त्यः परिवहन्ति ? तावत् द्वे देवसाहस्त्र्यौ परिवहतः तद्यथा-पौरस्त्ये खलु सिंहरूपधारिणां देवानां पञ्च शतानि परिवहन्ति, एवं यावत् उत्तरे खलु तुरग रूपधारिणां देवानां पञ्च शतानि परिवहन्ति ॥ सू० ९॥ । व्याख्या-'चंदविमाणे णं भंते' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम् । भगवानाह 'सोलसदेव- .. साहस्सीओ परिवहंति' चन्द्रविमानं षोडशसहस्रदेवा परिवहन्ति चतुर्दिक्षु तदेवाह 'तं. जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'पुरस्थिमेणं सीहरूपधारीणं चत्तारि देवसाहस्सीओ परिवहंति' पूर्वभागे चतुः सहस्रदेवाः सिंहरूपधारिणः परिवहन्ति । एवं दक्षिणे गजरूप . धारिणश्चतुःसहस्रदेवाः, पश्चिमे वृषभरूपधारिणश्चतुःसहस्रदेवाः, उत्तरे तुरंगरूधारिणः श्चतु सहस्रदेवाः, एवं षोडश सहस्रदेवाश्चन्द्रविमानं परिवहन्तीति । ‘एवं सूरियविमाणंपि' चन्द्रविमानवदेव सूर्यविमानमपि तेनैव रूपेण तादृश रूपधारिण एव पोडशहस्र देवाश्चतु-. दिक्षु परिवहन्ति । ग्रहविमानं पृच्छा-'ता अद्विसाहस्सीओ परिवहंति' ग्रहविमानमष्ट सहस्त्रदेवाः, प्रत्येकं दिशि द्विद्विसहस्त्रसंख्यकाः पूर्वोक्तसदृशरूपधारिणः परिवहन्ति । नक्षत्र विमानं पृच्छा-'ता चत्तारि देवसाहस्सीओ' नक्षत्रविमानं प्रत्येकं दिशि एकैकसहस्त्रत्वेन चतुः सहस्त्रदेवाः पूर्वोक्तरूपधारिणः पूर्वप्रदर्शितरीत्यैव परिवहन्ति । ताराविमान पृच्छा-'ता दो देवसाहस्सीओ' ताराविमानं प्रत्येकं दिशि पञ्चशतपञ्चशतत्वेन द्विसहस्रदेवाः पूर्ववदेव परिवहन्ति । चन्द्रादि विमानवाहकदेवानां संख्या प्रतिपादिके इमे द्वे गाथे जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे प्रोक्ते "सोलसदेव सहस्सा वहंति चंदेसु चेव सुरेसु । अट्ठव सहस्साई, एक्केक्कमि गहविमाणे ॥१॥ चत्तारि सहस्साई, नक्खत्तमि य हवंति एक्कक्के । दो चेव सहस्साई, तारारूवेक्कमेक्कमि ॥२॥ इति Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- ६४४ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे छाया-पोडश सहस्राणि वहन्ति चन्द्रयोश्चैव सूर्ययोः । अष्टैव सहस्राणि एकैकस्मिन् ग्रहविमाने ॥१॥ चत्वारि सहस्राणि, नक्षत्रे च , वहन्ति एकैकस्मिन् । द्वे चैव सहले, तारारूपे एकैकस्मिन् ॥२॥ इति । सू० ॥९॥ अथ चन्द्रादीनां शीव्रगति मन्दगति विषयं सूत्रमाह 'एए सिण' इत्यादि मूलम्– एएसि ॥ चंदिमवरियगहगणणखत्ततारारूवाणं भंते कयरे कयरेहितो सिग्धगई वा मंद गईवा ? ता चंदेहितो सूरा सिग्धगई सूरेहितो गहा सिग्धगई गहेहितो णक्खत्ता सिग्धगई। णक्खत्तेहितो तारा सिग्धगई ! सव्वापगई चंदा, सव्वसिग्धगई तारा ॥१०॥ छाया एतेपां खलु भदन्त ! चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारारूपाणां कतमे कतमेभ्यः शीघ्रगतयो वा मन्दगतयो वा? 'तावत् चन्द्राभ्यां सूयाँ शीघ्रगती, सूर्याभ्यां ग्रहाः शीघ्रगतयः, अहेभ्यो नक्षत्राणि शीघ्र ,गतीनि, नक्षत्रेभ्यः तारारूपाणि शिघ्रगतीनि । सर्वाल्पगती चन्द्रौ, सर्व शीघ्र गतयस्तारा ॥सू०१०॥ व्याख्या-'एएसिणं' इति एतेषां चन्द्रादीनां मध्ये के केभ्यः शीघ्रगतयो मन्दगतयश्च सन्तीति ' प्रश्नसूत्रं सुगमम् । भगवानाह-'ता चंदेहितो' 'इत्यादि, चन्द्राभ्यां सूर्यो, शीघ्रगती, सूर्याभ्यां ग्रहाः शीघ्रगतयः, ग्रहेभ्यो नक्षत्राणि शीघ्रगतीनि, नक्षत्रेभ्यस्ताराः शीघ्रगतयः । एषु सभ्योऽल्पगतिमन्तश्चन्द्राः, सर्वेभ्यः शीघ्रगतिमत्यस्ताराः । एतत् सूत्रं पूर्वमप्युक्तं परं विमान वहनप्रसङ्गात् पुनरप्यत्रोक्तमित्यदोषः ॥सू०१०॥' ' . अथ चन्द्रादीनाम् ऋद्धिसूत्रमाह-'ता. एएसिण', इत्यादि । मूलम्-ता एएसि णं चंदिमसरियगहगणणक्खत्तताराख्वाण भते ! कयरे कयरेहितो ! अग्यिड्ढिया वा महिड्डियावा । ताराहिता णक्खत्ता महिड्ढिया णक्खत्तेहितो गहा महिड्डिया, गहेहितो सूरिया महिड्ढिया, सूरिएहितो चंदा महिड्ढिया। सयप्पिड्ढिया तारा, सध्यमहिइंढियां चंदा"।सू०११॥ ' ' छाया-तावत् एतेषां खलु चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रंतारारूपाणां भदन्त ! कतमे कतमेभ्यः अल्पद्धिका वा महद्धिका वा १ ताराग्यो नक्षत्राणि महाद्धिकानि, नक्षत्रेभ्यो प्रहा महद्धिकाः, ग्रहेभ्यः सूर्या महद्धिका सूर्येभ्यः चन्द्रा महर्द्धिकाः सर्वाल्पद्धिकास्ताराः, सर्वमहद्धिको चन्द्रौ सू० ११॥ Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा.१८. सू.१२ ताराणां परस्परमन्तरनिरूपणम् ६४५'.. व्याख्या-'ता एएसि णं' इति ' एतेषां चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रताराणां मध्ये के पर्द्धयः के महर्द्धय इति 'प्रश्नसूत्रं सुगमम्' । भगवानाह 'ता ताराहितो' इत्यादि, ताराभ्यः । ताराविमानस्थितदेवेभ्यः तारादेवानामपेक्षया नक्षत्राणि नक्षत्रविमानस्थिता देवा महर्द्धिकाः । नक्षत्रेभ्यो ग्रहा महर्दिकाः । ग्रहेभ्य. सूर्या महद्धिकाः सूर्येभ्यश्चन्द्रा महर्द्धिकाः । सर्वेभ्योऽल्पर्द्धिकास्ताराः । सर्वेभ्यो महर्द्धिकाश्चन्द्रा इति ॥१० ११॥ ' अथ ताराणां परस्परमन्तरविषयं सूत्रमाह 'ता जबुद्दीवेणं' इत्यादि मूलम्-ता जंबुद्दीवेणं दीवे भंते तारा स्वस्स य एस णं केवइए अवाहाए अंतरे पण्णत्ते? दुविहे अंतरे पण्णत्ते, तं जहा-वाघाइमे य । निवाघाइमेय तत्थ णं जे से वाघाइमे से णं जहण्णेणं दोण्णि छावट्ठाइ जोयणसयाई उक्कोसेणं वारस जोयण सहस्साई दोण्णि वायालाई जोयणसयाई ताराबस्स य तारास्वस्स य अवाहाए अंतरे पण्णत्ते । तत्थ - णं जे से णिवाघाइमे से जहण्णेणं पंच धणुसयाई, उक्कोसेणं अद्ध जोगणं तारा रुवस्स य ताराख्वस्स य अवाहाए अंतरे पण्णत्ते ॥सू०१२॥ छाया-तावत् जम्बूद्वीपे खलु द्वीपे भदन्त ! तारारूपस्य च एतत् खलु कियत्कम् अवाघया अन्तरं प्रशप्तम् ? द्विविधमन्तरं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-व्याघातिमं च निर्व्याघातिमं च । तत्र खलु यत्तद् व्याघातिमं तत् जघन्येन द्वे पट् पष्ठे (पट्पट्यधिक) योजनशते, उत्कर्पण द्वादश योजन सहस्राणि द्वे द्विचत्वारिंशे (द्विचत्वारिंशदधिक) योजनशते' तारा रूपस्य तारा रूपस्य च अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् । तत्र खलु यत्तद् निर्व्याधातिम तत् जघन्येन पञ्चधनुः शतानि उत्कर्पण अर्द्धयोजनं तारारूपस्य तारारूपस्य च अचाधया' अन्तरं प्रशप्तम् ॥सू० १२॥ व्याख्या-'ता जम्बूद्दीवेणं' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम्, अत्र मध्यजम्बूद्वीपे ताराणामन्तरं कियत्कं अबधया प्रज्ञप्तम् भगवानाह-'दुविहे अंतरे पण्णत्ते' अन्तरं द्विविधं प्रज्ञप्तम् व्याघातिम निर्व्याघातिमं चेति । तत्र यद् व्याघातिममन्तरं तत् जघन्येन 'दोन्नि छावट्ठाई जोयणसयाई' पटपष्टयधिके द्वे योजनशते षट्पष्ट्यधिकद्विशतयोजनपरिमितमन्तरमबाधया अव्यवहितेन प्रोक्तम्।' उत्कर्षण व 'वारस जोयणसहस्साई दोण्णि वायालाई जोयणसयाई द्वादश योजनसहस्राणि द्वे योजनशते द्विचत्वारिंशदधिके (१२२४२) तत्परिमितमन्तरमुत्कृष्टेन एकस्मात्तारारूपाद् द्वितीयस्य । तारारूपस्य अबाधया व्यवधानेनान्तरं 'प्रोक्तम् । 'तत्थ णं' इत्यादि, तत्र खलु यद् निर्व्याधातिममन्तरं तत् 'जहण्णेणं पंचधणुसयाई जघन्येन 'पञ्चशतधनूंषि पञ्चशतधनुःपरिमितम् । 'उक्कोंसेणं । अद्धजोयणं' उत्कर्षेण अर्द्धयोजनपरिमितमन्तरं तारारूपस्य तारारूपस्य च एक द्वितीययोः । परस्परमन्तरमबाधया प्रज्ञप्तम् ॥ अत्रेयं भावना-व्याघातिमनिर्व्याघातिमयोरयमर्थः व्याहनन । Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे व्याघातः-पर्वतादिस्खलनं तेन निर्वृत्तं व्यावातिममुच्यते । व्याघातरहितं यत् स्वभाविकं तदन्तरं निर्व्याधातिमं प्रोच्यते । मत्र जघन्येन यत् पट् पट्यधिके द्वे योजनशते अन्तरं प्रोक्तं तत् निषधकूटाटिकमपेक्ष्य वेदितव्यम् । तथाहि-निषधपर्वतः स्वभावतोऽपि चत्वारि योजन शतानि उच्चत्वेन वर्तते, तस्य चोपरि पञ्चायोजनोच्चानि कूटानि सन्ति, तानि च मूले पञ्च योजनशतानि आयामविष्कम्भाभ्याम्, मध्ये पश्च सप्तत्यधिकानि त्रीणि योजनशतानि, उपरि च साढ़े द्वे योजनशते, तेषां चोपरितनभागसमश्रेणिप्रदेशे तथाविध जगत्स्त्रा भाव्याद् अष्टावष्टी योजनान्युभयतोऽवाधया कृत्वा तत्र ताराविमानानि परिभ्रमन्ति, ततो जघन्येन व्याधातिममन्तरं (२५०=८=८+२६६) पट्पष्टयधिके द्वे योजनशते भवतः । उत्कपेण हिचत्वारिंशदधिकद्विशतोत्तराणि द्वादशयोजनसहस्राणि (१२२४२) यद् व्याघातिममन्तरं प्रोक्तं तद् मेरुमपेठ्य ज्ञातव्यम्, तथाहि-मेरो दश योजन सहस्राणि (१००००), मेरोश्चोभयतोऽवाधया एकादशैकादश योजनशतानि एक विंशत्येकविंशत्यधिकानि (२२४२), इत्येवं सर्व संकलनया जायन्त द्वादश योजनसहस्राणि द्वे च शते द्विचत्वारिंशदधिके (१२२४२) इत्येव-'। मुत्कृष्टतो व्याधातिममन्तर मायातीति । निर्याघातिममन्तरं तु सूत्रे स्पष्टं प्रोक्तमेवेति ।। सू०१२॥ अथ चन्द्रसूर्याणामग्रमहिपीविषयं सूत्रमाह-'ता चंदस्स णं' इत्यादि, । मूलम्-ता चंदरत मंते जोइसिंदस्स जोइसरण्णो कइअग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ? तो. चत्तारि अग्ग महिमीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-चंदप्पभा १, दोसिणाभा २, अच्चि .. माली ३, पमंकरा ४। नत्य णं एगमेगाए देवीए चत्तारि चत्तारि देवी साहस्सीओ परिवारो ; पण्णत्तो । पभू णं ताओं एगमेग देवी अण्णाई चत्तारि २ देवी सहस्साई परिवार विउन्धि- - त्तए । एवामेव सपुव्यावरेणं सोलम देवी सहस्साई, सेत्तं तुडिए । ता पभूणं चंदे जोइ । सिंदे जोइसराया चंदवडिंसंए विमाणे समाए मुहम्माए तुडिएणं सद्धिं दिवाई भोगभोगाई झुंजमाणे विहरित्तए ? णो इण? संम? । ता कह ते णो पभू चंदे जोइसिंदे जोड सराया चंदवडिसए विमाणे ममाए मुहम्माए तुडिएणं सद्धि दिवाइं भोगभोगाई; मुंजमाण विहरित्तए? ता चदम्स णं जोइसिंदस्स जोइसरण्णो चंदवडिसए विमाणे सभाए मुहम्माए माणवएमु चेडय खंभेमु वयरामएसु गोल चट्टसमुग्गासु वहजिण सकहा संणि- - विवत्ता चिटुंति, ताओ ण चंदस्स जोडसिंदस्स जोइसरण्णो, अण्णेसिं चहणं जोइसियाणं देवाणय देवीण य अच्चणिज्जाओ वंदणिज्जाओ पूयणिज्जाओसक्कारणिन्जाओ सम्माण-. णिज्जाओ कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासणिज्जाओ, एवं खलु णो पभू चंदे जोइसिंदे जोइसराया चंढवडिसए विमाणे समाए मुहम्माए तुडिएण सद्धिं दिव्याइ भोग भोगाई .. भुनमाणे विद्वरिनए । पभूणं चंदे जोइसिटे जोइसराया चंदवडिसए विमाणे सभाए Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका० प्रा. १८ सू.१३ चन्द्रसूर्याणामग्रमहिण्य कथनम् ६४७ सुहम्माए चंदसि सीहासणंसि चउहि सामाणियसाहस्सोहिं, चउहि अग्गमहिसीहिं - सपरिवाराहिं तिहिं परिसाहि, सत्तर्हि अणीयाहिं सत्तहिं अणिगहिवइहिं सोल सहि आयरक्खदेवसाहस्सीहिं, अण्णेहि य वहहिं जोइसिहिं देवेहिं देवीहि य सद्धि संपरिबुडे महयाहयणट्टगोयवाइयतंतीतलतालतुडियषणमुइंगपडुप्पबाइयरवेणं दिव्वाई भोग'भोगाई भुंजमाणे विहरित्तए केवलं परियारणिड्ढिए, णोचेव ण मेहु णवत्तियाए । ता सरस्स णं जोइसिंदस्स जोइसरण्णो कइ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ । ता चत्तारि अग्ग महिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-वरप्पभा १, आतवा २, अच्चिमाला ३, पभंकरा-४, सेसं जहा चंदस्स, णवरं सूरवडिसए विमाणे जाव णो चेव णं मेहुणवत्तियाए ॥सू०१३॥ छाया-तावत् चन्द्रस्य खलु भदन्त १ ज्योतिपेन्द्रस्य जौतिपराजस्य कति अग्र महिप्यः प्रनप्ताः १ तावत् चतस्रः अग्रमहियः प्रज्ञप्ताः । तथथा-चन्द्रप्रभा १, ज्योत्स्नाभा अचिर्मालिः ३ प्रभंकरा ४ तत्र खलु एकैकस्या देव्याः चतस्रश्चतस्रो देवी साहस्यः परिपारः प्रज्ञप्तः । प्रभवः खलु ताः एकैका देवी अन्यानि चत्वारि चत्वारि देवी सहनाणि परिवार विकुर्वि तुम् । । एवमेव सपूर्वापरेण पोडश देवी सहस्राणि, तदेतत् त्रुटिकम् । तावत् प्रभुः खलु भदन्त । चन्द्र जौतिपेन्द्रः ज्योतिषराजः:-चन्द्रावतंसके विमाणे सभायां सुधर्मायां त्रुटिकेन साद्धदिव्यान् भोगभोगान् भुजानो विहर्तुम् ? नायमर्थः समर्थः । तावत् कथं भदन्त ! स नो प्रभुः जोतिपेन्द्रो ज्यौतिपराजः चन्द्रावतंसके विमाने सभायां सुधर्मायां त्रुटिकेन साद्ध दिव्यान् भोगभोगान् भुजानो विहतम् १ तावत् चन्द्रस्य खलु ज्यौतिपेन्द्रस्य जौतिपराजस्य चन्द्रावतंसके विमाने सभायां सुधर्मायां माणवकेपु चैत्यस्तम्मेषु पनमयेपु गोलवृत्तसमुद्गकेपु वहनि जिनसक्थीनि (जिनास्थिनि) संनिक्षिप्तानि तिष्ठन्ति, तानि खलु चन्द्रस्य जोतिषेन्द्रस्य ज्यौतिषराजस्य, अन्येषां च बहूनां ज्यौतिषिकाणां देवानां च देवीनां च अर्चनीयानि वन्दनोयानि सत्करणीयानि सम्माननीयानि कल्याणानि मागल्यानि देवतानि चैत्यानि पर्युपासनीयोनि, एवं खलु नो प्रभुश्चन्द्रः ज्यौतिषेन्द्रः ज्यौतिपराजः चन्द्रावतंसके विमाने सभायां सुधर्मायां त्रुटिकेन सार्द्ध दिव्यान् भोगभोगान् भुजानो विहर्तुम् ॥ प्रभुः खलु चन्द्रः ज्योतिषेन्द्रः ज्योतिषरत्जः चन्द्रावतंसके विमाने सभायां सुधर्मायां चान्द्रे सिंहासने चतसृभि सामानिकसाहस्रीभिः चतसृभिः अग्रमहिषीभिः सपरिवाराभिः, तिसृभि पर्पद्भि, सप्तभि अनिकैः, सप्तभिः, अनीकाधिपतिभिः. पोडशिकाभि आत्मरक्षक देवसाहस्रोभिः, अन्यैश्च बहुभिः ज्योतिषिकैः देवैः देवीभिश्च साद्ध संपरिवृतः महताहत नाट्यगीतवादित्र तन्त्रो तलतालत्रुटितधनमृदङ्गपटुप्रवादितरवेण दिव्यान् भोगभोगान् भुजानो विहर्तुम् केवलं परीचारणऋद्धया, नो चैव मैथुनवृत्त्या । तावत् सूर्यस्य खलु भदन्त ! ज्यौतिषेन्द्रस्य ज्यौतिषराजस्य कति अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः ? तावत् चतस्रः अग्रमहिण्यः प्राप्ताः, तद्यथा-सूर्यप्रभा १, आतपा २, अचिर्मालिः ३, प्रभंवरा, शेष, यथा चन्द्रस्य नवरं सूर्यावतंसकें विमाने यावत् नो चैव खलु मैथुन वृत्त्या सू०१३॥ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ चन्द्रप्राप्तिस्त्रे । व्याख्या:-'ता चंदस्सणं' इत्यादि, । प्रश्नसूत्रं सुगमम् । भगवानाह-चन्द्रस्य खलु ज्योति पेन्द्रस्य ज्यौतिषराजस्य चतस्रोऽप्रमहिण्यः प्रज्ञताः । ता इमा:-चन्द्रप्रभा १ व्योत्स्नाभा २, मर्चिमाली, प्रभंकरा ४ इति । सुगम सर्वमेतत्सूत्रं तथापि भाव रूपेण व्याख्यायते-'तत्थ णं एगमेगाए' इत्यादि, तत्र खल तासु चतसृषु अग्रमहिषु एकैकस्या अग्रमहिण्याश्चत्वारिचत्वारि देवी सहवाणि परिवारइति परिवारत्वेन प्रज्ञप्तः । 'पभूण ताओ' इत्यादि प्रभवः समर्था खलु ताः सर्वा परिवार 'भूताः षोडश सहन देव्यः प्रत्येकम् एकैका देवी अपि अन्याः चतनश्चतम्रो देवीः विकुर्वितुम् समर्थाऽस्ति । एवं परिवारभूतानां देवीनां सर्वासां पूर्वापरसंमेलनेन स्वाभाविकानि पोडश देवी सहस्राणि भवन्तीति । पोंडश देवी सहवात्मकः समूहः त्रुटिक मिति कथ्यते । त्रुटिकमित्यन्तः पूरम् । ततः त्रुटिकेन सह चन्द्रावतंसके विमाने सुधर्मसभायां चन्द्रस्य दिव्यभोगभोगानां भोगसामर्थे गौतमस्य प्रश्न । भगवतो निषेधात्मकमुत्तरम्-'नायमढे समढे' इति नायमर्थः समर्थः चन्द्रदेवस्य त्रुटिकेन सार्द्ध दिव्यभोगानां भोगे सामर्थ्य नास्तीति भावः । कथं न सामर्थ्यम् । इति गौतमस्य प्रश्नः । भगवानाह-'ता चंदस्सणं, इत्यादि, चन्द्रस्य चन्द्रावतंसके विमाने सुधमायां सभायां माणवकनाम्नि चैन्यस्तम्भे स्थितेपु बज्रमयसिक्केषु वज्रमया गोलाकाराः समुद्काः सन्ति तेषु जिनसक्थीनि तिष्ठन्ति, तानि च ज्यौतिषिकाणं देवानां च अर्चनवन्दन संस्कार सम्मानयोग्यानि तथा कल्याणं मङ्गल्यं दैवतं चैत्यमिति कृत्वा पर्युपासनियानि इति ते देवा मन्यन्ते अतस्तत्र चन्द्रदेवस्त्रुटिकेन सार्द्ध दिव्यभोगमोगान् : भोक्तुं न समर्थः । किन्तु से 'ज्यौतिषेन्द्रो ज्यौषिराजश्चन्द्र देव चन्द्रावतंसके विमाने सभायां सुधर्मायां चान्द्रे सिंहासने चतुर्मि १ सामानिक देवसहस्रैः चनसृभिः सपरिवाराभिरग्रमहिषोभिः,' तिसृभिः पर्षद्गिः, सप्तभिरनीकै सन्य, सप्तभिरनीकाधिपतिभिः षोडशभिरात्मरक्षकदेवसहिने, अन्यैश्च बहुभिः ज्योतिषिक देवैः 'देवीभिश्च साई संपरिवृतो भूत्वा, महताहतनाटयगीतवादिवतन्त्रोतलताल त्रुटित घन मृदङ्ग पटुप्रवादितरवेण, तत्र महता रवेण इत्यग्रेण सम्बन्धः अथवा महत्त्वेन आहतानि अव्याहतानि नाटयगीतवादिवाणि, तथा तन्त्री-वीणा, ‘तलतालाः हस्तताला त्रुटितानि तूर्याणि, तथाधनि साधात् धनाकारो मृदङ्गः, स च पटुपुरुपेण प्रवादितः, एतेषां पदानां द्वन्द्वः, तेषां यो रवः 'शब्दस्तेन . तच्छब्दपूर्वक मित्यर्थः 'दिव्यान् ' भोगयोग्यान् भोगान् शब्दश्रवणमात्रान् मुजन् अनुभवन् विहर्त्त प्रमुः समर्थो भवति तत्तु 'परियारणिड्ढीए, परिचारण ऋद्धयैव नो चेव णं मेहुणवत्तियाए' न तु मैथुनवृत्तितया मैथुनवृत्त्या मैथुनबुद्धया भोक्तुं न समर्थ इति । अथ सूर्याप्रमहिषी विषय प्रश्नः ।। मंगवानाह-सूर्यस्यापि चतस्रोऽयमहिण्यः, तद्यथा सूरप्पभा' इत्यादि सूर्यप्रभा १ आतपा २ अचिर्माली ३ प्रभंकरा ४' इति । सेस जहा चंदस्स'शेषं सर्वं यथा चन्द्रस्य तथाऽवसेयम् नवरं विशेषः केवल मेतावानेव अत्र 'सूर्यावतंसकें Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटोका. प्रा.१८ सू. १४ ज्योतिष्कदेवदेवीनां स्थितिनिरूपणम् ६४९ विमाने' इति पठनीयम् । शेपं जाव' यावत् ? नो चेव णं मेहुणवत्तियाए' इति पर्यन्तिं सर्व चन्द्रदेववर्णनवदेव वाच्यमिति ॥ सू०१३।। ज्यौतिष्क देवदेवीनां स्थितिविषयं सूत्रमाह 'ता जोइसियाणं' इत्यादि । .. मूलम्-ता जोइसियाणं भंते देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता । जहण्णेणं अअह भाग पलिओवमं, उक्कोसेणं पलिओवमं, वाससयसहस्समब्भहियं । ता जोइ सिणीणं भंते ! देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ! ता जहण्णेणं अट्ठ भागपलिओचम, उक्कोसेणं अद्ध पलिओवमं, पण्णासाए वाससहस्से हिं अभडियं । ता चंद विमाणे णं भंते देवाणं केवडयं कालं ठिई पण्णता । जहण्णेणं चउभागपलिओवमं, उक्कोसेणं पलिओवमं वास सयसहस्समन्महियं । ता चंदविमाणेणं भंते ! देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णता ? जहण्णे णं चउभागपलिओवमं उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं , पण्णासाए वाससहस्सेहि अन्भहियं । ता सूर विमाणेणं भंते देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता । जहण्णेणं चउभाग पलिओचम, उक्कोसेणं पलिभोरमं वाससहस्समभहियं । ता सूरविमाणेणं भंते ! देवोणं केवडय कालं ठिई पण्णत्ता । जहण्णेणं चउभागपलिओवम, उक्को सेणं अद्धपलिओवमं पंचर्हि वाससएहि अभहियं । ता गहविमाणेणं भंते ! देवाण केवई कालं ठिई पण्णत्ता । जहण्णेण चउभागपलिओवमं उक्कोसेणं पलिभोवमं । ता गहविमाणेणं भंते ! देवीण कवायं कालं ठिई पण्णत्ता ! जहण्णेण चउभागपलिओवम, उक्कोसेणं अद्ध पलिओवमं । ता णक्खत्तविमाणेणं भते देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? जहण्णेणं चउभागपलिओवर्मा, उक्कोसेण अद्धपलिओवमं । ता णक्खत्तविमाणेणं भंते ! देवीणं स्वइयं कालं ठिई पण्णता? जहण्णेणं अट्ठभागपलिओवमं उकोसेणं चउभाग पलिओवमं ता ताराविमाणे ण भंते ! देवाणं पुच्छा, जहण्णे णं अट्ठभागपलिओवमं, उक्कोसेणं चउन्भागपलिओवमं । ता ताराविमाणेणं भंते ! देवीण पुच्छा, जहण्णेण अट्ठभाग पलिओवमं उक्कोसेण साइरेग अट्ठभागपलिओवमं ॥९०१४॥ छाया-तावत् ज्योतिषिकाणां भदन्त ! देवानां कियत्कं कार्ल स्थितिः प्रज्ञता! जघन्येन अष्ट भागपल्योपमम्, उत्कर्पण पल्योपमम् वर्षशतसहस्राभ्यधिकम् । तावत् ज्योतिषिकीणां भदन्त ! देवोनां कियत्कं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ! जघन्येन अष्ट भाग पल्यो पमम् उत्कर्षण अई पल्योपमम्. पञ्चाशता वर्ष सहस्रैरभ्यधिकम् । तावत् चन्द्रविमाने खलु भदन्त । देवानां क्रियत्क कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता जघन्येत चतुर्भाग पल्योपमम् उत्कर्षण पल्योपमम् वर्षशतसहस्राभ्यधिकम् तावत् चन्द्रविमाने खलु भदन्त ! देवीनां कियत्कं कालं स्थितिः प्रशता ? जघन्येन चतुर्भागपल्योपमम् उत्कर्षेण अर्द्धपल्योपमं पञ्चाशता Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० चन्द्रप्राप्तिसूत्रे घर्पसहस्ररभ्यधिकम् । तावत् सूर्यविमाने खलु भदन्त ! देवानां कियत्कं कालं स्थितिः प्रनता ? जघन्येन चतुर्भागपल्योपमम्, उत्कर्षेण पल्योपम वर्पसहस्राभ्यधिकम् तावत् सूर्यविमाने खलु भदन्त ! देवोनां कियत्कं काल स्थितिः प्रश्नप्ता जघन्येन चतुर्भाग पल्योपमम्, उत्कर्पण अर्द्धपल्योपमं पञ्चभिर्वशतैरभ्यधिकम् तावत् गृहविमाने खलु भदन्त ! देवानां कियत्कं कालं स्थितिः प्रशता ? जघन्येन चतुर्भागपल्योपमम् उत्कर्पण पल्योपमम् तावत् गृहविमाने खलु भदन्त ! देवीनां कियत्कं कालं स्थितिः प्रज्ञता ? जघन्येन चतुर्भागपल्योपमम्, उत्कर्षेण अर्द्धपल्योपमम् । तावत् नक्षत्र विमाने खलु भदन्त । देवानां किय कं कालं स्थितिः प्रशता ? जघन्येन चतुर्भागपल्योपमम्. उत्कर्षेण पल्योपमम् तावत् नक्षत्रविमाने खलु भदन्त ! देवीनां कियत्कं कालं स्थितिः प्रनप्ता ? जघन्येन अष्ट भागपल्योपमम् उत्कर्षेण चतुर्भागपल्योपमम् तावत् ताराविमाने खलु भदन्त ! देवानां पृच्छा जघन्येन अष्ट भागपल्योपमम् उत्कषण चतुर्भागपल्योपमम् । तावत् तारा विमाने खलु भदन्त । देवीनां कियत्कं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता तावत् जघन्येन अष्ट भागपल्योपमम्, उत्कर्पण सातिरेकाष्टभागपल्योपमम् ॥४॥ व्याख्या-अत्र ज्यौतिष्फदेवदेवीनां स्थितिकथनं वर्त्तते, तद्विषयकोऽत्र प्रश्नः-'ता जोइसियाणं' इत्यादि, सामान्य ज्योतिष्कविषये पृच्छति भगवानाह-'जहण्णेणं, इत्यादि, ज्यौतिष्काणां स्थितिः जघन्येन अष्टभागपल्योपमा, पल्योपमस्याष्टमभागपरिमिता उत्कर्षेण शतसहस्रवाधिकपल्योपमप्रमाणा लक्ष वर्षाधिकमेकं पल्योपमं स्थितिः । ज्यौतिष्कदेवीनां स्थितिः जधन्येन पूर्वोक्तंव अष्टभागपल्योपमा पल्योपमस्याष्टमभागपरिमिता, उत्कर्षेण पञ्चाशद्वर्षसहरधिकाऽर्द्धपल्योपमा। चन्द्रविमानस्थितदेवानां स्थितिर्जघन्येन चतुर्भागपल्योपमा पल्योपमस्य चतुर्थभागपरिमिता, उत्कर्पण शतसहस्रवरधिका पल्योपमप्रमाणा लक्षवर्षाधिक पल्योपमं स्थितिः । चन्द्र विमानगतदेवीनां च स्थिति जघन्येन चतुर्भागपल्योपमा, ऊत्कर्षण पञ्चाशदर्पसहरधिकाऽपल्योपमा । 'ता सूरविमाणेणं' इत्यादि, सूर्यविमानगत देवानां स्थिति धन्येन चतुर्भागपल्योपमा, उत्कर्षेण सहस्रवर्षाधिक पल्योपमप्रमाणा । तद्गत देवीनां स्थिति धन्येन चतुर्भागपल्योपमा, उत्कर्षेण पञ्चशत वर्षैरधिकाऽपल्योपमप्रमाणा । 'ता गहविमाणेण' इत्यादि, ग्रहविमानगतदेवानां स्थितिर्जघन्येन चतुर्भागपल्योपमा, उत्कर्षण 'पल्योपमपरिमिता । ग्रहविमानगतदेवानां स्थितिर्जघन्येन चतुर्माग पल्योपमा, उत्कर्षेणार्द्ध पल्योपमप्रमाणा। 'ता णक्खनविमाणेणं' इत्यादि, नक्षत्रविमानगतदेवानां स्थितिर्जघन्येन चर्तुभागपल्योपमा उत्कर्षेण अर्द्ध पल्योपमप्रमाणा, देवीनां अष्टभागपत्र्योपमा, पल्योपमस्याष्टमो भागः, उत्कर्येण चतुर्भागपल्योपमप्रमाणा पल्योपमस्य चतुर्थभागः । 'ता तारा विमाणेणं' इत्यादि, तारा विमानगतदेवानां स्थिति धन्येन अष्टभागपल्योपमा, उत्कर्पण चतुर्भागपल्योपमप्रमाणा । तद्गतदेवीनां स्थिनिर्जघन्येन अष्टभागपल्योपमा, उत्कर्षेण सातिरेकेति किञ्चिदधिकाष्टभागपन्योपमग्रमाणेति ।मूत्र १४ ॥ Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका० प्रा. १८ सू.१५ चन्द्रादीनामल्पवहुत्वनिरूपणम् ६५१ अथ चन्द्रादीनामल्पबहुत्वविषयं सूत्रमाह-'ता एएसिणं' इत्यादि । मूलम्-ता एएसि णं चंदिमसरियगहगणणक्खततारारूवाणं भाते ! कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्लावा विसेसाहिया वा । ता चंदाय सूराय एसणं दो वि तुल्ला सव्वत्थोवा, णक्खत्ता संखिज्ज गुणा, गहा संखिष्न गुणा तारा संखिज्ज गुणा, ॥सू० १५॥ अट्टरसमं पाहुडं समत् ॥१८॥ छाया तावत् एतेषां खलु चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां कतमे कतमेभ्यः अल्पा वा बहुका वा तुल्या चा विशेषाधिका वा १ तावत् चन्द्राश्च स्याश्च पते खलु द्वयेऽपि तुल्याः सर्वस्तोकाः, नक्षत्राणि संख्येय गुणानि, ग्रहाः संख्येयगुणाः, ताराः संख्येय गुणा ॥ सू० ॥१५॥ अष्टादशं प्राभृत समाप्तम् ॥१८॥ व्याख्या-चन्द्रादीनामल्पबहुत्वविषयः प्रश्नः । भगवानाह-'चंदाय सूराय' इत्यादि, चन्द्राश्च सूर्याश्च, एते उभयेऽपि परस्परं तुल्याः सर्वस्तोकाः, सर्वस्तोकत्वेन तुल्याः । नक्षत्राणि संख्येयगुणानि चन्द्र सूर्येभ्योऽधिकानि, ग्रहाः नक्षत्रेभ्यः संख्येयगुणा अधिकाः, ताराः संख्येयगुणा आहेभ्योऽधिका इति ॥१५॥ ॥ इति श्री जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलालतिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्ति प्रकाशिकाख्यायां व्याख्याया मष्टादशं प्राभृतं समाप्तम् ॥ १८ ॥ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ एकोनविंशतितमं प्राभृतम् ॥ व्याख्यातमष्टादशं प्राभृतम्, तत्र चन्द्रसूर्यादीनामुच्चत्वप्रतिपादनपूर्वकं तेषां परस्परमणुत्वतुल्यत्व- विमानसस्थानतत्प्रमाण- विमानवाहक देव - शीघ्रगतिमन्दगति-तद्वि-तारान्तराग्रमहिपी-स्थिति-तदल्प बहुत्वानि प्ररूपितानि । अथैकोनविशतितमं प्रामृतं व्याख्यायते, अत्रायमर्थाधिकारः- पूर्वं द्वारगाथायामुक्तम् - "सूरिया कइ आहिए" सूर्याः कति भाख्यातां इत्यत्र जम्बूद्वीपधातकी खण्डादौ चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां संख्यां प्रतिपादयन्निदमादिमं सूत्रमाह - 'ता कणं चंदिमसूरिया' इत्यादि । मूलम् - ता करणं चंदिमसूरिया सव्वलोयं ओभासंति उज्जोवेंति तवेंति पभासेंति आहिएति वएज्जा, तत्थ खलु इमाओ दुवाल पडिवत्तीओ पण्णत्ताओतत्थेगे एवमाहंसु-ता एगे चंदे एगे सूरे सन्च लोयंसि ओमासे १ उज्जोवेह २' तवेइ ३, पभासेइ ४, एगे एवमाहं १ । एगे पुण एवमाहंणु-ता तिष्णि चंदा तिणि सूरा सव्वलोयंसि ओभार्सेति ४, एगे एवमाहंसु २ । एगे पुण एवमाहंसु-ता आउट्ठि चंदा आउट्ठि सूरा सव्वलोयंसि ओभार्सेति ४, एगे एव माहंसु ३ | एवं एएणं अभिलावेणं जहा तइए पाहुडे दीव समुद्दाणं दुवालस पडिवत्तीओ ताओ चैव इहंपि चंदिमसूरियाण यव्वा जाव वावतरं चंदसहस्से वावतरं सूरसहस्सं सव्वलोयं ओभार्सेति ४, I " t सत्तचंदा सत्त सूरा ४| दसचंदा दससूरा ५ वारसचंदा वारससूरा ६ वायालीस चंदा बाबालीसं सूरा ७ वावरिं चंदा बावन्तरिं सूरा ८। चायालोस चंदसर्य बयालीस सुरसय ९ | वावन्त्तरं चंदसय बावन्तरं सूरसय १०१ वायालीस चंदसहस्सं वायालीसं सूरसहस्सं १९१ पगे पुण एवमाहंसु वावन्तरं चंदसहस्सं वावत्तरं सूरसह सं सव्वलोयंसि ओभार्सेति उज्जोवेति तवेंति पभार्सेति, पगे पवमाहंसु १२ ) वयं पुण एवं वयामो - ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ते ता जंबुद्दीवे दीवे दो चंदा पभा वा पभासेति वा पभासिस्संति वा, जहा जीवाभिगमे जाव ताराओ, · दो सूरिया तविसु वा तर्वेति वा तविस्संतिवा | छप्पण्णं णक्खता जोयं जोड सु वा जोपंति वा जोइस्संतिवा । छावन्तरि गहसय चारं चरिंसु वा चरेइ चरिस्सहवा । पगं सयसहस्सं, तेत्तीस सहस्सा, णव सया पण्णासा तारागण कोडीकोडीणं सोभं सोभि वा सोभति वा सोभिस्सति वा । गाहाओ - "दो चंदा दो सूरा णक्खत्ता खलु हवंति छप्पण्णा | बावन्तरं गहसयं जंबुद्दीवे वियारीण, ॥१॥ एगं च सयसहस्सं, तेत्तीसं खलु भवे सहरलाइ । णव य सया पण्णासा, तारागणा कोडिकोडीणं ॥२॥ ता जंबुद्दीवेणं दीवे लवणे नामं समुद्दे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए सव्वओ समता संपरिक्खित्ताणं चिहड़ । ता लवणेणं भंते समुद्दे किं समचक्कवालसंठाणसंठिए विसमचकवालसंठाणसंठिए ? ता लवणेणं समुढे समचक्कवालसंठाणसंठिए नो विसमचक Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका० प्रा०१९ सू.१ चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां संख्यादिकम् ६५३ बालसंठाणसंठिए । ता लवणे णं समुद्दे केवईए चक्कवालविक्खंभेण ? केवइए परिक्खेवेणं आहिए ? ति वएज्जा ? ता दो जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं, पण्णरस जोयणसयसहस्साई एक्कासीई च सहस्साई सयं च उणयालं किंचि विसेसूर्ण परिक्खवेणं आहिएति वएज्जा । ता लवणेणं समुद्दे केवइया चंदा पमासिसुवा ३ एवं पुच्छा जाव केवइयाओ तारागण कोडि कोडीओ सोभं सोभिंसुवा ३ ? ता लवणेणं समुद्दे चत्तारि चंदा पभासिसुवा ३ जहा जावाभिगमे जाव ताराओ चत्तारि सूरिया तसुिवा ३ वारस णक्खत्तसय जोयं जोइंसुवा ३, तिण्णिवा घण्णा महागहसया चारं चरिंसुचा : दो सयम्सा सहि च सहस्सा णव य सया तारा गण कोडि कोडोणं सोभं लोभिसु वा गाहाओ--पण्णरस सय सहस्सा एक्कासीयं सय चऊताल । किंचि विसेसेगृणा लवणोदहिणोपरि पखेचा ॥१॥ चत्तारि चेव चंदा, चत्तारि य सूरिया लवणतोये । वारस पक्खत्तसय, गहाण तिण्णेव वा चण्णा ॥२॥ दो चेव सयसहस्सा, सन्तष्ठिं खलु भवे सहस्त्राई। णव य सया लावण जले, तारागणकोडि कोडीणं ॥३॥" ता लवणसमुहं धायर्ड संडे णामं दीवे पट्टे वलयागारसंठाणसंठिए सचओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्टइ । ता धायई संडेणं दीवे किं समचक्कवालसंठिए विसमचक्कवालसंठिए ? ता समचकवालसंठिए णो विसमचकवालसंठिए । ता धायई सडे दीवे केवदए चकवालविक्खंभेणं, एवं विक्खंभो परिक्खेवो जोइसं जहा जीवाभिगमे जाव ताराओ केवडए परिक्खेणं आहिए तिवपज्जा ? ता चत्तारि जोयण सयसहस्साई चक्कवाल विक्खंमेणं उगतालीसं जोयण सयसहस्साई दस य सहस्साई णव य पगठे जोयण सए किचि विसेसूणे परिक्खेवेण आहिए तिचपज्जा । धायई सडेणं दीवे केवइया चंदा पभासिसु वा ३ पुच्छा तहेव, धायई संडेण दोवे वारस चंदा पभासिसु वा ३ वारस सूरिया तवेंसु वा ३, तिण्णि छत्तीसा णक्खत सया जोयं जोइंसु वा ३ पगं छप्पण महग्गहसहस्सं चारं चरिसु वा ३, अट्ठमय सहस्सा तिण्ण सहस्साई सत्त य सयाई तारागण कोडि कोडीणं सोभं सोभिसु वा ३ गाहाओ--"धायइसंडपरिरओ ईताल दसुत्तरा सय सहस्सा । णव य सया एगट्ठा, किचि विसेसेण परिहीणा ॥१॥ चउवीस ससिरविणो, णक्खत्त सया य तिषिण छत्तीसा पगं च गहसहस्स, छप्पण्ण धायई संडे ॥२॥ अटठेव सयसहस्सा, तिणि सहस्साई सत्तय सयाई । धायइसंडे दीवे तारागण कोडि कोडोण ॥३॥ ता धायइसंडं णं दीवं कालोएणं णामं समुद्दे पट्टे वलयागारसंठाणसंठिए सव्वी समता संपरिक्खित्ता णं चिट्ठइ । ता कालोए णं समुद्दे कि समचक्कवाल संठिए विसमचक्कवाल संठिए ? समचक्कवालसंठिए णो विसमचक्कवालसंठिए । एवं विक्खंभो परिक्खेवो जोइसं च जहा जीवाभिगमे तहा भाणियव्वं जाव ताराओ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे ता कालोपण समुद्दे केवइप चक्कवालविक्खमेणं ? केवइप परिक्खेवेणं आहिएतिवपज्जा ' ता कालोपणं समुद्दे अट्ठ जोयणसय सहम्साई चक्कवालविक्संमेणं पण्णत्ते, एक्काणउई जोयणसयस हस्लाई, सत्ता च सहस्साई, छच्च पंचुत्तरे जोयणसर किंचि विसेसाहिए परिकखेवेणं आहिए-ति वपज्जा । ता कालोपणं समुद्दे केवडया चंदा पभासिंसु वा ३ पुच्छा, ता कालोपणं समुद्दे वायालीसं चंदा पभासिसु वा ३ वायालीसं सूरिया तfर्वसु ३, एक्कारस छावत्तरा णक्खत्तसया जोयं जाइ सु वा ३, तिन्नि सहस्सा छच्च छण्णउया महग्गगहसया चारं चरिंसु वा ३ अट्ठावीसं च सगसहस्साई वारस सहस्साई नव य सयाई पण्णासा तारागण कीडो कोडीओ सोभ सोभिनु वा सोभति वा सोभिस्सति वा, गाहाओ - "पक्काणउईसन्तराई सहस्साई परिरओ तस्स | अहियाई छच्च पंचुत्तरा कालोदहिवरस्स ||१|| वायालीस चंद्रा, वायालीसं च दिणयरा दित्ता । कालोद. हिम्मिए, चरंति संवडलेसागा ||२|| णक्वत्तसहस्से एगमेव छावत्तरं न सयमणं । छत्रसया छण्णउया, महग्गहा तिपेण य सहस्सा ||३|| अट्ठावीस कालोदहिम्मि वारस य सहरलाई । णव य सया पण्णासा तारागण कोडि कोडीणं ||४|| " ६५४ तां कालो यं णं समुई पुत्रखरवरे णामं दिवे व वलयागारसठाणसंठिए सच्चओ समता संपरिक्खित्ताणं चिह्न । ता पुक्खरवरेणं दीवे किं समचक्कवाल संठिए विसमचकवालसंठिए ? ता समचक्कवालसंठिए नो विसमचकवाचसंठिए । एवं विक्खंभो परिक्खेवो जोइस जहा जीवाभिगमे जाव ताराओ ॥ ता पुक्खरचरेण दीवे केवइण समचक्कवाल विक्खमेण ! केवड परिक्खेवेणं ? ता सोलस जोयण सयसहस्साइ चक्कवालचिक्खमेणं, पगा जोयण कोडी वाणउ च सयसहस्साई अउणावन्नं च सहस्साई अट्ठचउ णउयाई जोयणसयाइ परिक्खेवेणं आहिप्रतिवपज्जा । ता पुक्खरवरेणं दीवे केवइया चंदा पभासिंसु वा ३, पुच्छा तहेव । ता चोयाल चंदसय पभासेंसु वा ३, चोयाल सूरियाणं सयं तविसु वा ३ चत्तारि सहस्साइ बत्तीसं च णक्खन्ता जोयं जोइसु वा ३, वारस सहस्साइ छच्च बोवत्तरा महग्गहसया चारं चरिंसु वा ३, छण्णउइ सय सहस्साई चोयालीसं सहस्साई चत्तारि य सयाइ तारागण कोडि कोडोओ सोभ सोर्भिसु वा ३ । गाहाओ - " कोडीवाणई खलु अउणाणउ भवे सहस्साइ । अट्ठसया चरणाउया य परिरओ पोक्खरवरस्स ||१|| चोत्ताल चंदसयं, चोत्ताल चैव सूरियाण सयं । पोक्खरवर दीवस्मि च चरति एए पभासंता ॥२॥ चचारि सहस्साइ, छत्तीसं चेव हुति णक्खत्ता । छच्छसया चावत्तर, महग्गहा चारह सहस्सा ||३|| छण्ण्उड सय सहस्सा, चोत्तालीस खलु भवे सहस्साइं । चत्तारि य सया खलु, तारागण कोडि कोडी ||४|| + ता पुक्खरवरस्स णं दीवस्स बहुमज्झदेसभाए चलयागारसंठाणसंठिए, जेणं पुक्खरवरदीवं दुहा विभयमाणे जहा - अभितरपुक्खरद्धं च वाहिरपुक्खरर्द्धच । ता समचक्रवालसंठिए विसमचक्रवालसंठिए ? ता समचक्कवाल संठिए । एवं विक्खंभो परिक्खेवो जोइस जाव ताराओ माणुसुत्तरे णामं पव्चए विभयमाणे चिह्न, तं अभितरपुक्खरदेणं किं संठिए णो विसमचक्कवाल - Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिका टीका प्रा.१९. सू.१ चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्र तारारूपाणांसंख्यादिकम् ६५५ aamanamamaraanwar mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm ता अभितरपुक्खरद्धणं केवइप चकवालवियखंभेणं १ केवइए परिक्खेवेणं आहिए तिवपज्जा । ता अ जोयण सयसहस्साई चक्कवालविक्खसेण, "एक्का जोयण कोडो, वायालोस च सयसहस्साई । तीसं च सहस्साई दो अउणापण्णे जोयणसए ॥१॥ परिक्खेवेणं आहिप तिवएज्जा । ता अभितरपुक्खरद्धेण केवइया चर पभासिंसु वा ३, केवइया सूरा तर्विसु वा ३ पुच्छा, बावत्तरि चंदा पभासिंसु वा ३, बावत्तरि सूरिया तर्विसु वा ३, दोणि सोला नक्खत्त सहस्सा जोय जोई उ वा ३, छा महग्गह लहस्सा तिन्नि य छत्तीसा चार चरिसुवा ३ अडयालीस सय सहस्सा वावोस च सहस्सा दोणिय सया तारागण कोडि कोडीओ सोभं सोभिंसु वा 3) ता मणुस्सखेत्तेणं केवइए आयामविखंभेणं ? एवं विखंभो, परिरभो जोइसं, ताराओ जाव एगससीपरिवारो तारागण कोडि कोडीण गा०४०॥ केवइए परिक्षेवेणं आहिए तिथएज्जा ? ता पणयालीसं जोयणसयसहस्लाई आयामविस्खभेणं एका जोयण कोडो,' वायालोसं च सयसहस्साई । दोष्णिय अउपणा पपणे, जोयणसए, परिक्खेवेणं आहिपति वपज्जा ।ता मणुस्सखेत्तेण केवइया चंदा पभा. सिसवा ३ पुच्छा तहेव, ता बत्तीसं चंदसयं पसिसु वा ३ वत्तोसं सूरियाण सयं तवइंसु वा ३. तिणि सहस्सा छच्च छपणउया णक्खत्तसया जोयं जोई उवा ३ पकारससहस्सा उच्च सोलस महग्गदसया चारं चरिसुवा ३. अट्ठासोई सयसहस्साई चत्तालीस च सहस्सा सत्त य लया तारागण कोडि कोडीओ सोभ सोभिंसु वा ३ गाहाओ-अहेव सय सहस्सा अभितर पुक्खरवरस्स विक्खंभो । पणयाल सयसहस्सा, माणुसखेत्तस्स विक्खभो ॥१॥ कोडीवायालोस सहस्स दुसया य अउण पण्णासा। माणुसखेत्त परिरओ, एमेव य पुक्खर द्धस्स ॥२॥ वावतरं च चंदा, चावत्तरिमेय दियरा दिता । पुक्खर दीवड्ढे, चरति एए पभासंता ॥३॥ तिण्णिसया छत्तीसा, छच्च सहस्सा महग्गहाणं तु । णवत्ताणं तु भवे सोलाई दुवे सहस्साई ॥अडयाल सयसहस्सा, बावीसं खलु भवे सहस्साई । दो य सय पुक्खरखे, तारागण कोडि कोडोण ५ वत्तीसं चंदसयं. वत्तीसं चेव सूरियाण सया सयलं माणुसलोयं चरंति पते पभासेता ६ पकारस य सहस्सा छप्पियसोला महग्गहाणं त।छच्च सया छण्णउया, णस्खत्ता तिणि य सहस्सा ७ अट्टसीइचत्ताई सयसहस्साई मणयलोयमि । सत्तय सया अणूणा तारागण कोडि कोडोण ८ एसो तारापिंडो, सव्व समासेण मणुयलोयमि । वहिया पण ताराओ, जिणेहि भणिया असंखेज्जा ९ पवयं तारगं, जे भणियं माणुस मि लोयम्भि। चारं कलंया पुप्फठियं जोइस चरइ १० रवि ससि गहणक्खत्ता, पवइया आहिया मणुयलोए जेसि णामा गोत्तं न पागया पण्णवेहिति ११ छावद्विपिडगाई, चंदाइच्चाण मणुयलोयस्मि । दो चंदा दो सूरा हुंति पक्केकर पिडए ।।१२।। छावटि पिडगाई, णक्खत्ताणं तु मणुयलोयंमि । छप्पणं णक्खत्ता, हुति एक्केकर पिडए ॥१३॥ छावढि पिडगाई, महागहाणं तु मणुयलीयमि । छावत्तरं गहसंय' होई एकेक्कए पिडण् ॥१४॥ चत्तारिय पंतोओ, चंदाइच्चाण मणुयलोय मि । छावहिं च होइ एक्किया पंती ॥१५॥ छप्पण्णं पंतीओ णक्खत्ताण मणुयलोयंमि' छावठि छावडिं हवंति पक्किक्किया पती ॥१६॥ छावत्तरंगहाण, पंतिसयं हवइ मणुयलोयम्मि छावष्टि छावहिवह य पक्किकिया पंती • ॥१७॥ ते मेरुमणुचरंता, पयाहिणा वत्तमंडला सब्वे । अणवठि य जोपहि, चदा सूरा Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे गहगणाय ॥१८॥ णक्खत्त तारगाणं, अवठिया मंडला मुणेयव्वा । तेऽविय पयाहिण वत्तमेव मेरु अणु चरति ॥१९॥ रयणियरदिणयराण, उड्ढेच अहेय संकमो नत्थि । मंडलसंकमण पुण, सभितर वाहिरंतिरिए ॥२०॥ ग्यणियरदिणयराण णक्खत्ताण मह गहाण च, चारविसेसेण भवे, सुहदुक्ख विही मणुस्साणं ॥२१॥ तेसि पविसंताणं तावक्खेत्त तु वडूढए णियय । तेणेच कमेण पुणो, परिहायड निक्खम ताण ॥२२॥ तेसिं कलंवुया पुष्फसंठिया हुँति तावस्खेत्त पहा अंतो य सकुडा वाहि चिथडा चंदसराणं ॥२३॥ केणं वह चंदो, परिहाणो केण होइ चंदस्स । कालो वा जोण्हो वा, केणणुभावेण चंदस्स ! ॥२४॥ किण्ह राहुविमाणं निच्च च देण होइ अविरहिय, चउरंगुलमसंपत्तं, हिच्चा चदस्स तं चरइ ॥२५॥ वावठिं वावर्हि दिवसे दिवसे उ सुक्कपक्खस्स । ज परिवडूढइ चदो खवेइ तं चेव कालेणं ॥२६॥ पण्णरसहभागेण य, चदं पण्णरसमेव तं वरइ पण्णर सभागेणय पुणो वितं चेव वक्कमइ ॥२७॥ एवं वड्ढह चंदो परिहाणी एव होइ चदस्स कालो जुण्हो वा, पवणुभावेण चंदस्स ॥२८॥ अते मणुस्स खेत्ते हवंति चारोवगा उ उववण्णा । पंचविहा जोइसिया, चंदा सूरा गहगणाय ॥२९॥ तेण परं जे सेसा, चंदाइच्च गह तारणक्खत्ता'। नत्थि गईणवि चारो, अवट्टिया ते मुणेयवा ॥३०॥ एवं जंबुद्दीवे, दुगुणा लवणे चउग्गुणा होंति लवणा य ति गुणिया, ससिसूरा धायई संडे ॥३१॥ दो चंदा इह दीवे, चत्तारि य सायरे लवण तोए । धायइसंडे दीवे वारस चंदा य सूरा य ॥३२। घायइसंडप्पभिइसु, उद्दिद्या तिगुणिया भवे चंदा । आइल्ल चदा सहिया, अणंतराणंतरे खेत्ते ॥३३॥ रिक्खग्गह तारग्गं, दीवसमुद्दे जइच्छसिणा उ। तस्स सीहि तगुणिय, रिक्वरगह तारग्गं तु ॥३४ा वहिया उमाणुसनगरमचंद सूराण वट्टिया जोण्हा । चंदा अभिई नुत्ता, सूरा पुण हुँति पुस्सेहि ॥३५॥ चंदाओ सूरस्स य, सूरा चंदस्स अतरं होइ। पण्णास सहस्साई' तु जोयणाणं अणूणाई ॥३६॥ सूरस्स य सूरस्स य ससिणो य अतरं होइ । वाहि तु माणुसनगरस जोयणाण सयसहस्सं ॥३७॥ सुरंतरिया चंदा, चंदतरिया य दिणयरा दित्ता । चित्तरलेसागा, सुहलेसा मंदलेसा य ॥३८॥ अट्टासीई च गहा, अट्ठावीस च हुति नक्षत्ता । एगसलो परिवारो, एतो ताराण चोच्छामि ॥३९॥ छावटि सहस्साई णवचेव सयाई पंच सनराई । एगससी परिवारो तारागण कोडि कोडीण ॥३०॥ सू०१॥ (जम्बूद्वीपा दारभ्य पुष्करार्द्ध द्वीप पर्यन्त ज्यौतिश्चक्रप्रतिपादकं प्रथमसूत्र मूलम् ।।) छाया-तावत् कति खलु चन्द्र सूर्याः सर्वलोके अवभासयन्ति उद्योतयन्ति, तापयन्ति, प्रभासयन्ति ? आख्यातमिती वदेत् । तत्र खलु इमा द्वादश प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ता, तत्रैके एवमाहुः तावत् एकश्चन्द्र एक सूर्यः सर्वलोकम् अवभासते १ उद्योतयति २, तापयति ३. प्रभासयति ४, एके एवमाहुः ॥२॥ एके पुनरेव माहुः-तावत् त्रयश्चन्द्राः त्रयः सूर्याः सर्वलोके अवभासन्ते ४, एके पवमाहुः ॥२॥ एके पुनरेव माहुः-तावत् अर्द्धचतुर्थाश्चन्द्राः अर्द्धचतुर्थाः सूर्याः सर्व लोकं अवमानन्ते ४, एके एवमाहुः । एवम् एतेन अभिलापेन यथा तृतीये प्रामृते द्वीपसमुद्राणां द्वादश प्रतिप्रत्तयस्ता एव इहापि चन्द्रसूर्याणां ज्ञातव्या: यावत् द्वासप्ततं चन्द्रसहस्त्र द्वासप्ततं सूर्यसहस्र सर्वलोकम् अवभासन्ते ४ सप्त चन्द्राः सप्त सूर्याः ।। दश चन्द्राः दश सूर्याः ५ द्वादश चन्द्राः द्वादश सूर्याः ।। द्विचत्वारिंश चन्द्राः द्विचत्वारिंशत् सूर्याः ॥७॥ द्वोसप्ततिश्चन्द्राः द्वासप्तति सूर्या ॥८॥ द्वि चत्वारिंशक्र . Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Nishana - - - - - चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका० प्रा०१९ सू.१ चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां संख्यादिकम् ६५७ चन्द्रशतं द्विवत्वारिंशत्कं सूर्यशतम् ॥९॥ हासप्ततं चन्द्रशत्कं द्वासप्तकं सूर्यशतम् १० द्विचत्वारिंश चन्द्रसहनं द्विचत्वारिश सूर्यसहस्त्रम् ।११। पके पुनरेव माहुः द्वा सप्ततं चन्द्र सहन द्वा सप्ततं सूर्यसहस्रं सर्वलोकम् अवमानन्ति उद्योतयन्ति तापयन्ति प्रभासयन्ति, एके एवमाहुः वयं पुनरेवं वदामः-तावत् अयं खलु जम्बूद्धोपो यावत् परिक्षेपेण प्रशप्तः। तावत्जम्बू द्वीपे द्वीपे द्वौ चन्द्रो प्रभासयतां वा, प्रभालयतो वा, प्रभासयिप्यतो वा यथा जीवाभिगमे यावत् ताराः द्वौ सूर्यो अतापयतां वा, तापयतोबा तायियतोचा। पट् पञ्चाशत् नक्षत्राणि योगम् अयुञ्जन्या. युञ्जन्ति वा. चोक्षन्तिवा पट्र लप्तति गृहशत चारमचरत् वा चरीतवा, चरिात वा एकं शतसहस्त्र, प्रयस्त्रिशत् सहमाणि, नवशतानि पञ्चाशानि तारागण कोटी कोटीनां शोभामशोभन्तवा, शोभन्ते वा, शोमिप्यन्ते वा । गाथे-दौ चन्द्रौ द्वौ सूर्यो नक्षत्राणि खलु भवन्ति पटू पञ्चाशत् द्वा सप्ततिकं गृहशत, जम्बूद्वीपे विचारिणाम् ॥१॥ एकं च शतसहन. त्रयस्त्रिंशत् स्वलु भवन्नि सहस्राणि । नव च शतानि पञ्चाशानि, तारागण कोटी कोटीनाम् ॥ तावत् जम्वृद्धीप खलु छीपं लवणो नाम समुद्रः वृत्तः वलयाकारसंस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्य खलु तिष्ठति। तावत् लवणः खलु भदन्त | समुद्रः किं समचक्रवालसंस्थानसंस्थितः विषमचक्रवालसंस्थानसंस्थितः ? तावत् लवणः खलु समुद्रः समचक्रवालसंस्थानसंस्थितः नो विपमचक्रवालसंस्थानसंस्थित. तावत् लवणः खलु समुद्रः कियत्कः चक्रवालविष्कम्भेण ? कियत्कः परिक्षेपेण, आख्यातः ? इति वदेत् । तावत् योजनशतसहस्त्रे चक्रचालविष्कम्मेण. पञ्चदश योजनशत सहस्राणि एकाशीतिं च सहस्राणि शतं च एकोनचत्वारिंशं किञ्चद्विशेपोनं परिक्षेपेण आख्यात इति वदेत् । तावत् लवणे खलु समुढे कियत्काश्चन्द्राः प्रभासयन् वा ३ एवं पृच्छा यावत् कियत्यः तारागण कोटी कोटयः शोभा मशोभन्तवा३ तावत् लवणे खलु समुद्रे चत्वार श्चन्द्राः प्रभासयन्ति वा३ यथा जीवाभिगमे यावत् ताराः चत्वारः सूर्याः आतापयन् वा३'हादशकं नक्षत्रशतं योगम अयुङ्क्तवा३ त्रीणि द्वा पञ्चाशानि महाग्रहशतानि चारम् अचरन वा द्वे शतसहने सप्तपष्टिश्च सहस्त्राणि नवच शतानि तारागण कोटी कोटीनां शोभाम् अशोभन्तवा ३ गाथा:-पञ्चदश शत सहस्राणि, एकाशीतिः शतानि च एकोनचत्वारिंशानि किञ्चिहिशेषोनानि लवणोदधे. परिक्षेपः ॥१॥ चत्वार प्रवैव चन्द्राः, चत्वारश्च सूर्या लवणतोये । द्वादशकं नक्षत्रशतं ग्रहाणां श्रीन्येव द्वा पञ्चाशानि ॥२। द्वे चैव शतसहने, सप्तषष्टिः खलु भवन्ति सहस्राणि । नव च शतानि लवणजले, तारागणकोटीकोटीनाम् ॥३॥ .. तावत् लवणसमुद्रं धातकीपण्डो नाम द्वीपो वृत्तो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्य खलु तिष्ठति । तावत् धातकीषण्डः खलु द्वीपः किं सम चक्रवालसंस्थितः विषमचक्रवालसंस्थितः १ तावत् समचक्रवालसंस्थितः नो विषमचक्रवाल Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रनप्तिस्त्रे संस्थितः । तावत् धातकीपण्डः खलु छोपः कियत्कः चक्रवालविष्कम्मेण ? एवं विष्कभः परिक्षेपः ज्योतिपं यथा जोवाभिगमे यावत् ताराः कियत्कः परिक्षेपेण आख्यातः ? इति वदेत् । तावत् चत्वारि योजनशतसहस्राणि चक्रवालविष्कम्मेण एकचत्वारिंशत योजनशतसहस्राणि, दश च सहस्राणि, नव च एक पल्टानि योजन शतानि किञ्चिद्विशेषोनानि परिक्षेपेण आख्यात इति वदेत् । धातकी पण्डे खलु डीपे कियत्का श्चन्द्राः प्रभासयन् वा ३ पृच्छा तथैव धातकीपण्डे खलु द्वीपे द्वादश चन्द्राः प्रभासयन् वा ३, द्वादश सूर्याः अतापयन् वा ३, त्रीणि पटू त्रिशानि नक्षत्रशतानि योगमयुञ्जन् वा ३ एकक षट् पञ्चाशं महाग्रहसहस्र चारमचरन् वा ३, अष्ट शतसहस्राणि, त्रीणि सहस्राणि, सप्तच शतानि तारागणकोटीकोटीनां शोभामशोभन्त वा ३ । गाथा:-"घातकीपण्डपरिरयः एक चत्वारिंशद् दशोत्तराणि शतसहस्राणि । नव च शतानि एक षष्टानि किञ्चिद्विशेपेण परिहीनानि ॥१॥ चतुर्विशति शशिरवयः, नक्षत्र शतानि च त्रीणि षट् त्रिशानि । एकं च शतसहस्र, षटू पञ्चाशत् धातकी पण्डे ॥२॥ अष्टैव शतसहस्राणि, त्रीणि सहस्राणि, सप्त च शतानि घातकी षण्डे द्वोपे, तारा गण कोटि कोटीताम् ॥३॥ तावत् धातकीषण्डं खलु द्वीप कालोदः खलु समुद्रो वृत्तो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्य तिष्ठति । तावत् कालोदः खलु समुद्रः किं समच वालसंस्थितः विषमचक्रवालसंस्थितः ? समचक्रवालसंस्थितः नो विषमचक्रवाल संस्थितः एवं विष्कम्भः परिक्षेपः ज्यौतिषं च यथा यथा जीवाभिगमे तथा भणितव्यं यावत्ताराः ।। (तावत् कालोदः खलु समुद्रः कियत्का चक्रवालविष्कम्भेण ? कियत्कः परिक्षेपेण आख्यात १ इति वदेत् तावत् कालोद खलु समुद्रः अष्ट योजनशतसहस्राणि चक्रवाल विष्कम्मेण प्रज्ञप्तः, एकनवति योजनशतसहस्राणि, सप्ततिश्च सहस्राणि षट् पञ्चो त्तराणि योजनशतानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण आख्यात इति वदेत् । तावत् कालोदे खलु समुद्रे कियन्तः चन्द्राः प्राभासयन् वा इति पृच्छा, तावत् कालोदे खलु समुद्रे द्विचत्वारिंशत् चन्द्राः प्राभासयन् ३ द्विचत्वारिंशत् सूर्याः अतापयन् वा ३ एकादश पट् सप्ततानि नक्षत्रशतानि योगमयुअन् ३, त्रीणि सहस्राणि षट् षण्णव तानि चारमचरन् वा ३, अष्टाविंशतिश्च शतसहस्राणि, द्वादश सहस्राणि, नववशतानि पञ्चाशत् तारागण कोटीकोट्यः शोभामशोभन् वा शोभन्ते वा शोभिष्यन्ति वा । गाथा:"एकानवतिः सप्ततानि सहस्राणि परिरयस्तस्य। अधिकानि षट् पञ्चोत्तराणि कालोदधि वरस्य ॥१॥ द्विचत्वारिंशच्चन्द्रा, द्विचत्वारिंशञ्च दिनकरा दीप्ताः ।' कालोदधौ एते, चरन्ति संवद्धलेश्याकाः ॥२॥ नक्षत्रसहस्रमेकमेव षट् सप्ततं च शतमन्यत् । षट्च शतानि पण्णवतानि महाग्रहाः त्रीणि च सहस्राणि ॥३॥ अष्टाविंशतिः कालोदधौ द्वादश च सहस्राणि नव च शतानि पञ्चाशतानि तारागण कोटि कोटीनाम् ॥४॥ तावत् कालोदं खलु समुद्र पुष्करवरो नाम द्वीपो वृत्तो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्य तिष्ठति । तावत् पुष्करवरः खलु द्वीपः किं समचक्रवालसंस्थित. ? विपमचक्रवालसंस्थितः ? तावत् समचक्रवालसंस्थितः नो विपम चक्रवालसंस्थितः । एवं विष्कम्भः, परिक्षेपः, ज्यौतिपं यथा जोवाभिगमे यावत्ताराः। Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटोका० प्रा १९ सू. १ चन्द्रसूर्यग्रहनाणनक्षतारारूपाणां संख्यादिकम् ६५९ तावत् पुष्करवरः खलु द्वीपः कियान् समचक्रवालविष्कम्भेण १ कियान परिक्षेपेण ? तावत् पोडश योजनशतसहस्राणि चक्रवालविष्कम्भेण, एका योजन कोटी द्वानवतिश्व शतसहस्राणि, एकोनपञ्चाशच सहस्राणि अ चतुर्नवतानि योजनशतानि परिक्षेपेण आख्यात इति वदेत् । तावत् पुष्करवरे खलु दीपे क्रियन्तश्चन्द्राः प्राभासयन् वा ३, पृच्छा तथैव तावत् चतुश्चत्वारिंशं चन्द्रशतं प्राभासयन् वा ३, चतुश्चत्वारिंश सूर्यशतमतापयत् वा ३, चत्वारि सहस्राणि द्वात्रिंशच्च नक्षत्रानि योगमयुञ्जन् वा ३, द्वादश सहस्राणि षट् च द्वासप्ततानि महाग्रहशतानि चारमचरन् वा ३, पण्णवतिः शतसहस्राणि चतुश्चत्वारिंशत् सहस्राणि चत्वारि च शतानि तारागण कोटिकोट्यः शोभामशोभन्त वा ३, । गाथाः - " कोटीहानवतिः खलु एकोनपञ्चाशत् भवन्ति सहस्राणि, अष्ट शतानि चतुर्नवतानि च परिरयः पुष्करवरस्य ॥१॥ चतुश्चत्वारिंशं चन्द्रशतं चतुश्चत्वारिंशं च सूर्याणां शतम् । पुष्करवरद्वीपे च चरन्ति एते प्रभासयन्तः ||२|| चत्वारि सहस्राणि पट् त्रिंशच्चैव भवन्ति नक्षत्राणि । पट् च शतानि द्वा सप्ततानि, महाग्रहा द्वादशसहस्त्राणि ||३|| पण्णवनिः शतसहस्राणि चतुश्चत्वारिंशद् भवन्ति सहस्राणि । चत्वारि च शतानि खलु तारागण कोटिकोटीनाम् ||४|| तावत् पुष्करवरस्य खलु द्वीपस्य बहुमध्यदेशभागे मानुषोत्तरो नाम पर्वतः वलयाकार संस्थानसंस्थितः यः खलु पुष्करवरद्वीपं द्विधा विभजन् २ तिष्ठति, तद्यथाअभ्यन्तरपुष्करार्द्ध च बाह्यपुष्करार्द्ध च । तावत् आभ्यन्तरपुष्करार्द्ध खलु किं समचक्रवालसंस्थितं विषमचक्रवालसंस्थितम् १ तावत् समचक्रवालसंस्थितं नो विषमचक्रवाल संस्थितम् । एवं विष्कम्भः, परिक्षेपः ज्यौतिषं यावत् ताराः । ( तावत् आभ्यन्तरपुष्करार्द्ध खलु कियत् चक्रवालविष्कम्भेण ? कियत् परिक्षेपेण आख्यातम् ? इतिवदेत् । तावत् अष्ट योजनशतसहस्राणि चक्रवालविष्कम्भेण, एका योजन कोटी, द्विचत्वारिंशच्च शतसहस्राणि त्रिंशच्च सहस्राणि द्वे एकोनपञ्चाशे योजनशते ||१|| परिक्षेपेण आख्यात इति वदेत् । तावत् आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध खलु कियन्तश्चन्द्राः प्राभासयन् वा ३, कियन्तः सूर्या अतापयन् वा ३, १ पृच्छा, द्वासप्ततिश्चन्द्राः प्रभासयन् चा ३, द्वासप्ततिः सूर्या अतापयन् वा ३, द्वे पोडशे नक्षत्रसहस्रे योगमयुञ्जातां वा ३, षडू महाग्रह सहस्राणि त्रीणि च पत्रिंशानि चारमचरन् वा, ३, अष्ट चत्वारिंशत् शत सहस्राणि द्वात्रिंशच्च सहस्राणि, द्वे च शते तारागणकोटिकोट्यः शोभामशोभन्त वा ३) तावत् मनुष्यक्षेत्रं खलु कियत् आयामविष्कम्मेण ? एवं विष्कम्भः परिरयः, ज्यौतिषं, ताराः - जाव एकशशिपरिवारः तारागण कोटि कोटीनाम् ॥ गा०४० ॥ (कियत् परिक्षेपेण आख्यातम् ? इति वदेत्, पञ्च चत्वारिंशत् योजनशतसहस्राणि आयामचिष्कम्भेण एका योजन कोटी द्विचत्वारिंशच्च शत सहस्राणि, द्वे च एकोनपञ्चाशे योजन शते ॥१॥ परिक्षेपेण भाख्यातम् इति वदेत् । तावत् मनुष्यक्षेत्रे खलु कियन्तश्चन्द्राः प्राभासयन् वा ३, पृच्छा तथैव तावत् द्वात्रिंशत्कं चन्द्रशतं प्राभासयन् वा ३, द्वात्रिशत्कं सूर्याणां शतमतापयत् वा ३ त्रीणि सहस्राणि षट् षण्णवतानि नक्षत्रशतानि योगमयुञ्जन् वा ३, एकादश सहस्राणि पट् च पोडशानि महाग्रहशतानि चारमचरन् वा ३, अष्टाशीतिः शतसहस्राणि चत्वारिंशच्च सहस्राणि सप्त च शतानि तारागण कोटिकोट्यः Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० चन्द्रप्रशतिसूत्रे 1 शोभाम शोभन्त वा ३ । गाथा: - " अष्टेव शतसहस्राणि आभ्यन्तर पुष्करवरस्य विष्कम्भः । पञ्चाशत् शतसहस्राणि मानुषक्षेत्रस्य विष्कम्भः ||२॥ कोटिः द्विचत्वारिंशत्सहस्राणि देशते च कोनपञ्चाशे । मानुपक्षेत्रपरिरयः, पवमेव व पुष्करार्द्धस्य ||२|| द्वासप्ततिश्च चन्द्राः, द्वासप्ततिरेव दिनकरा दीताः । पुष्करचरद्रीपाद्धे चरन्ति पते प्रभासयन्त ॥ ३॥ त्रीणि शतानि षट् त्रिशत् पद् सहस्राणि महाग्रहाणां तु नक्षत्राणां तु भवन्ति पोडशे द्वे सहसे | ४ || अष्टचत्वारिंशत् शतसहस्राणि द्वाविंशतिः खलु भवन्ति सहस्त्राणि, द्वे शते पुष्क राई, तारागण कोटि कोटोनाम् ॥ १॥ द्वात्रिंशत्कं चन्द्रशतं द्वात्रिंशत्कं चैव सूर्याणां शतम् । सकलं मनुपलोक, चरन्ति एते प्रभासयन्तः ||६|| एकादश च सहस्राणि, पडपि च पोडशानि महाग्रहाणां तु । पट् शतानि पण्णवतानि, नक्षत्राणि त्रीणि च सहस्राणि ||७|| अष्टाशीतिः चत्वारिंशानि शतसहस्राणि मनुजलोके । सप्त च शतानि अन्यूनानि, तारागण कोटिकोटीनाम् ॥ ८॥ पप तारा पिण्डः सर्वसमासेन मनुजलोके । वहिः पुनस्ताराः, जिनैर्भणिता असंख्येयाः ||९|| इयत्कं तारायं, यद् भणितं मानुषे लोके । चार कलrangry संस्थितं ज्यौतिपं चरति ||१०|| रवि शशि ग्रहनक्षत्राणि, इयन्ति आख्यातानि मनुजलोके । येषां नाम गोत्रं न प्राकृताः प्रज्ञपविष्यन्ति ॥ ११॥ पटू पणिः पिटकानि, चन्द्रादित्यानां मनुजलोके । द्वौ चन्द्रो द्वौ सुर्यौ च भवत एकैकस्मिन् पिटके | १२|| पट् षष्टि पिटकानि, नक्षत्राणां तु मनुजलोके । पद् पञ्चाशद् नक्षत्राणि भवन्ति एकैकस्मिन् पिटके ||१३|| पट्ट पष्टिः पिटकानि, महाग्रहाणां तु मनुजलोके । पद् सप्ततं ग्रहशतं भवति पकै. कस्मिन् पिटके ||१४|| चतम्नश्च पङ्क्तयः चन्द्रादित्यानां मनुजलोके । पट् पष्टिः षष्टिश्च भवन्ति एकैकस्यां पंक्तौ ||१५|| पट् पञ्चाशत् पंक्तयः, नक्षत्राणां तु मनुजलोके । पट् षनिः पत्र पःि भवन्ति एकैकस्यां पक्तौ ॥१६॥ प सप्ततं ग्रहाणां परतिशत भवति मनुजलोके । पद् पष्टिः पद् पतिः भवन्ति एकैकस्यां पक्तौ ॥१७॥ ते मेरु मनुचरन्तः प्रदक्षिणावर्त्त मण्डलाः सर्वे । अनवस्थितयोगे, चन्द्राः सूर्याः ग्रहगणाश्च ||१८|| नक्षत्र तारकाणाम्, अवस्थितानि मण्डलानि ज्ञातव्यानि । ते अपि च प्रदक्षिणावर्त्तमेव मेरुमनुचरन्ति ॥ १२९ ॥ रजनीकर दिनकराणां, ऊर्ध्वमधश्च संक्रमो नास्ति । मण्डलसंक्रमण पुनः, साभ्यन्तर बाह्य तिर्यक् ||२०|| रजनीकर दिनकराणां, नक्षत्राणां महाग्रहाणां च । चारविशेषेण भवेत् सुख दुःख विधिर्मनुन्याणाम् ||२१|| तेषां प्रविशतां तापक्षेत्रं तु वर्द्धते नियतम् । तेनैव क्रमेण पुनः परिहीयते निष्क्रमताम् ||२|| तेषां कलम्बुक ( कदम्बक) पुष्पसंस्थिता भवन्ति तापक्षेत्र पथाः । अन्तश्च संकुचिता वहिविस्तृता चन्द्रसूर्याणाम् ||२३|| केन वर्द्धते चन्द्र परिहानिः केन भवति चन्द्रस्य । कालो वा ज्योत्स्ना वा, केनानुभावेन चन्द्रस्य ||२४|| कृष्णं राहु विमानं नित्यं चन्द्रेण भवति अविरहितम् । चतुरङ्गुलमसंप्राप्तं हित्वा चन्द्रस्य तत् चरनि ||२५|| द्वाप द्वापष्टि दिवसे दिवसे तु शुक्लपक्षस्य । यत् परिवर्द्धते चन्द्रः क्षपयति तेनैव कालेन ||२६|| पञ्चदश भागेन च चन्द्र पञ्चदशमेव तत् वृणुते | पञ्चदश भागेन च पुनरपि तदेव अपकाम्यति ॥२७॥ पचै चर्द्धते चन्द्रः, परिहानिरेव भवत चन्द्रस्य । कालो वा ज्योत्स्ना वा) एवमनुभावेन चन्द्रस्य ||२८|| अन्तर्मनुष्यक्षेत्रे, भवन्ति चारोगास्तु उपपन्ना | पञ्चविधा ज्योतिष्काः चन्द्राः सूर्या ग्रहगणाञ्च ॥ २९॥ तेन परं यानि शेषाणि चन्द्रादित्य ग्रहतारानक्षत्राणि । नास्ति गतिर्नापि चारः, अवस्थितानि 1 , Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिका टोका प्रा.१९.सू.१ चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्र तारारूपाणां संख्यादिकम् ६६१ तानि ज्ञातव्यानि ॥३०॥ एवं जम्बूद्वोपे, द्विगुणा लवणे चतुर्गुणा भवन्ति । लवणाच्च त्रिगुणिताः शशि सूर्या धातकी पण्डे । ३१॥ द्वौ चन्द्रौ इह द्वीपे, चत्वारश्च सागरे लवणतोये । धातकीपण्डे द्वीपे द्वादश चन्द्राश्च सूर्याश्च ॥३२॥ धातकी पण्ड प्रभृतिपु, उद्दिष्टास्त्रि गुणिता भवन्ति चन्द्राः । आधचन्द्रसहिता. अनन्तरानन्तरे क्षेत्रे ॥३३॥ ऋक्ष्य ग्रहतारा, द्वीपसमुद्रे यदीच्छसि ज्ञातुम् । तन्छशिभिस्तद् गुणितं ऋश्नग्रहतारकाग्रे तु ॥३॥ पहिस्तु मानुपनगस्य चन्द्रसूर्याणामस्थिता ज्योत्स्ना । चन्द्रा अभिजिद् युक्ताः सूर्याः पुनर्भवन्ति पुण्यैः ॥३५॥ चन्द्रात् सूर्यस्य च सूर्यात् चन्द्रस्य अन्तरं भवति । पञ्चाशत्सहनाणि तु योजनानामन्यूनानि ॥३६॥ सूर्यस्य च सूर्यस्य च शशिनः शशिनश्च अन्तरं भवति । वहिस्तु मानुपनगस्य, योजनानां शतसहस्रम् ॥३७॥ सूर्यान्तरिताश्चन्द्राः, चन्द्रान्तरिताश्च दिनकरा दीप्ताः। चित्रान्तरलेश्याकाः, शुभलेश्या मन्दलेग्याश्च ॥३८|| अष्टाशीतिश्चग्रहा. अष्टाविंशतिश्च भवन्ति नक्षत्राणि । एक शशि परिवारः इतस्ताराणां वक्ष्यामि ॥३९॥ षट्पष्टिः सहस्राणि, नव चैव शतानि पञ्च सप्ततानि एक शशि परिवारः, तारा गणकीटि कोटोनाम्॥४०॥सू० १॥ । व्याख्या--'ता कइ णं' इत्यादि । 'ता' तावत् 'कइणं' कति खल 'चंदिमसरिया" चन्द्रसूर्याः 'सबलोयं सर्वलोकम् 'ओभाति उज्जोति' तवेति पभासेंति' अव भासयन्ति, उद्योतयन्ति, तापयन्ति-प्रकाशयन्ति, प्रभासयन्ति, एतद्विषये भवता किम् 'आहियं' आख्यातम् ! कथितम् ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु'कथयतु हे भगवन् । एवं गौतमेन पृष्टे भगवान् एतद्विषये या द्वादश प्रतिपत्तयः भवन्ति ताः प्रदर्शयति-तत्थ खल' इत्यादि, 'तत्थ' तत्र चन्द्र सूर्य संख्याविषये खलु 'इमाओ' इमाः वक्ष्यमाणस्वरूपाः 'वारस पडिवत्तीओ' द्वादश प्रतिपतयः परतीर्थिकमतरूपाः 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः । ता एवाह-'तत्थेगे' इत्यादि, 'तत्थ तत्र द्वादश प्रतिपत्तिवादिनां मध्ये 'एगे' एके केचन परमतवादिनः 'एवं' एवम्-वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आइंसु' आहु कथयन्ति, किमाहुरित्याह- 'ता एगे' इत्यादि, 'ता' तावत् ‘एगे चंदे एगे सुरे सबलोयं' एकश्चन्द्रः एकः सूर्यः सर्वलोकम् 'ओभासेई' इत्यादि, अवभासयति, उद्योतयति तापयति प्रभासयति, उपसहारमाह-एगे' एके प्रथमप्रतिपत्तिवादिनः 'एवं' एवम्-पूर्वोक्त प्रकारेण 'आइंसु आहुः कथयन्ति ।१। द्वितीयप्रत्तिमाह-'एगे पुण' एके द्वितीयाः पुनः 'एवमाहसु' एवमाहुः 'ता' तावत् 'तिणि चंदा तिष्णि मुरा सव्वलोयं ओभासंति ३ त्रयश्चन्द्राः त्रयः सूर्याः सर्वलोकम् अवभासयन्ति उदद्योतयन्ति तापयन्ति प्रभासयन्ति 'एगे' एवमाहंसु एके एवमाहुः ॥२। तृतीयां प्रतिपत्तिमाह- 'एगे पुण एमाहंसु' एके तृतीया एवमाहुः-'ता' तावत् 'आउटिं चंदा आउहि सूरा' अर्द्ध चतुर्थाःसास्त्रियश्चन्द्राः अर्द्ध चतुर्था सार्द्धात्रयः' सूर्याः 'बोभासंति ४' अवभासयन्ति ४, ‘एंगे एवमाहंसु' एके एवमाहुः ।३। अथाग्रेऽतिदेशमाह Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ चन्द्रप्राप्तिस्त्रे 'एवं एएणं' इत्यादि, ‘एवं' एवम् एवमेव अनेनैव प्रकारेण एएणं' एतेन पूर्वोक्त प्रतिपत्तित्रयोक्त सदृशेन 'अभिलावेणं' अभिलापेत आलापकेन 'जहा तइए पाहुडे' यथा तृतीये प्राभृते 'दीवसमुदाणं दुवालसपडिवत्तोओ' द्वीपसमुद्राणां द्वादश प्रतिपत्तयः प्रोक्ताः 'ताओ चेव इहंपि' ता एव इहापि एकोनविंशतितमे प्रामृते 'चंदिमसूराणं' चन्द्रसूर्याणाम् ‘णेयव्या' ज्ञातव्याः कियत्पर्यन्त. मित्याह-'जाव' इत्यादि, 'जाव' यावत् 'वायत्तरं चंदसहस्सं वावत्तरं सरसहस्सं' द्वासप्ततिः चन्द्रसहस्त्राणि द्वासप्ततिः सूर्यसहस्राणि 'ओभार्सेति ३' अवभासयन्ति - । तथाहि तत्पाठः ___ 'सत्तचंदा' इत्यादि, चतुर्थाः चतुर्थप्रतिपत्तिवादिनः-सप्तचन्द्रा सप्तसूर्या इति कथयन्ति ॥४॥ एव पञ्चमप्रतिपत्तिवादिनः दश चन्द्राः दश सूर्या इति ॥५॥ षष्ठ प्रतिपत्तिवादिनः द्वादश चन्द्राः द्वादश 'सूर्याः ।६। सप्तमप्रतिपत्तिवादिनः द्विचत्वारिंशच्चन्द्राः द्विचत्वारिंशत् सूर्याः ॥७॥ अष्टम प्रतिपत्तिवादिनः द्वासप्ततिश्चन्द्राः द्वासप्ततिः सूर्याः ॥८॥ नवमीं प्रतिपत्तिमाह द्विचत्वारिंशं द्विचत्वारिंशदधिकं चन्द्रशतं द्विचत्वारिंश द्विचत्वारिंशदधिकं सूर्य शतम् ।९। दशमी माह द्विसप्तति द्विसप्तत्यधिक चन्द्रशतं द्विसप्ततिं द्विसप्तत्यधिकं सूर्यशतम् ।१०। एकादशीमाह द्विचत्वारिंशं चन्द्रसहस्रं द्विचत्वारिंशं सूर्यसहस्रमिति कथयन्ति ।११। द्वादशी प्रतिपत्ति माह- 'एगे पुण' इत्यादि, ‘एगे पुण' एके द्वादश प्रतिपत्तिवादिनः पुनः 'एवमाइंसु' एवमाहुः-'ता' तावत् 'वावत्तरं चंदसहस्सं वायत्तरं सरसहस्सं' द्वासप्ततं-द्वासप्तत्यधिकं चन्द्रसहस्र द्वासप्ततं सूर्यसहस्रम् 'सव्वलोयं' सर्वलोकम् 'ओभार्सेति' ४। अवभासयन्ति, उद्योतयन्ति तापयन्ति प्रभासयन्ति, उपसहारमाह-'एगे' एके द्वादश प्रतिपत्तिवादिनः 'एवं' एवम्पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहेसु" आहुः कथयन्ति ।१२। एता द्वादश्योऽपि प्रतिपत्तयः सर्वथा मिथ्या० अतो भगवान् एताभ्यः सर्वाभ्यः पृथग्भूतं स्वमतं प्रदर्शयति-वयं पुण' इत्यादि 'वयं पुण' वयं तु एवं एवम्-वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामां' वदामः कथयामः । तदेव प्रदर्शते-'ता अयण्णं' इत्यादिना 'ता' तावत् 'अयण्णं' अयं खल शास्त्रप्रसिद्धः जवुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपो द्वीपः मध्यजम्बूद्वीपः 'जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ते' यावत् परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः, यावत् पदेन नम्बूढीपवर्णनं सर्वमत्र वाच्यम्, अस्य व्याख्यानमपि तत्रोक्तवदेव कर्तव्यम् । भगवानाह-'ता' तावत् जंबूद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'दो चंदा पभासेंसु वा पभासेंति वा पभासिस्संति वा' द्वौ चन्द्रौ प्राभासयतां वा प्रभासयतो वा प्रभासयिष्यतो वा, अथ जीवाभिगमस्यातिदेशमाह 'जहा' इत्यादि, 'जहा जीवाभिगमे' यथा जीवाभिगमे जम्बूद्वीपगत चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रताराणां सख्या प्रोक्ता तथैव इहापि वाच्या, कियत्पर्यन्त मित्याह-'जाव' इत्यादि 'जाव ताराओ' यावत् ताराः सूर्य संख्यात आरभ्य यावत् ताराणां सख्या प्रोक्ता तावत्पर्यन्तमिति भावः । तथाहि तत्पाठः 'दो सूरिया' इत्यादि, दो सूरिया तर्विसुवा ३' जम्बूद्वीपे द्वौ सूर्यौ अतापयताम् तापयतोवा तापयिष्यतो वा 'छप्पण्णं णक्खत्ता जोयं जोइंसु वा' षट् पञ्चाशत् Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका०प्रा.१९ सू.१ चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूणाणां संख्यादिकम् ६६३ जम्बूद्वीपे-एकैकस्य चन्द्रस्य अष्टाविंशतिरष्टाविंशति नक्षत्राणि परिवार इति मिलित्वा नक्षत्राणि चन्द्र सूर्याभ्यां सह योगमयुञ्जन् वा, युञ्जन्ति वा योक्ष्यन्ति वा । 'छावत्तरि गहसयं' षट् सप्ततं ग्रहशतं षट् सप्तत्यधिकमेकं शतं ग्रहाणाम्, एकैकस्य चन्द्रस्याष्टाशीतिरष्टाशीतिम्रहाः परिवार इति चन्द्रस्य परिवारमिलने पट् सप्तत्यधिकशतसंख्यका ग्रहाः 'चारं चरिंसु वा ३' चारेमचरन् वा चरन्ति वा चरिष्यन्तिवा । 'एग सयसहस्सं' इत्यादि तारा संख्या, तथाहि-एक लक्षम् त्रयस्त्रिंशच्च सहस्राणि, नव शतानि पश्चादशधिकानि (१३३९५०) 'तारा गण कोडीकोडीओ' तारागण कोटीकोट्यः 'सोभं सोभिंसु वा३' शोभाम् अशोभन्तवेति अकुर्वन् वा कुर्वन्ति वा करिष्यन्ति वा। अत्र जम्बूद्वीपे एकैकस्य चन्द्रस्य कोटी कोटीनाम् षट् षष्टि सहस्राणि, पञ्च सप्तत्यधिकानि नव शतानि (६६९७५) तारा परिवार इति द्वयोश्चन्द्रयोस्तारा परिवारः-एकं लक्षं त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि नव शतानि पश्चाशदधिकानि कोटी कोटीनाम् (१३३९५०), एतत्परिमितो जायते । अत्र पूर्वोक्त जम्बूद्वीपगत चन्द्रादिसंख्या प्रतिपादिके द्वे संग्रहगाये प्रदर्येते-'दो चंदा दो सरा' इत्यादि, अनयोरर्थः पूर्व मागत इति न पुनर्व्याख्यायते ॥२॥ इति । नवरं-'जंबुद्दीवे वियारीणं' इति 'वियारीणं' इत्यत्र 'णं वाक्यालङ्कारे 'वियारी' विचारि, अत्र लिङ्ग विपरिणामेन नपुंसलिङ्गं वाच्यम् , तेन द्वासप्ततिकं ग्रहशत विचारि चन्द्रसूर्यैः सह विचरणशीलं वर्तते इति व्याख्येयम् । इति जीवाभिगमोक्त पाठव्याख्या । इमं जम्बूद्वीपं को नाम समुद्रः परिवेष्टय स्थितः इति सूत्रकार आह-ता जंबु दीवं णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जंबुद्दीवं णं दी' जम्बूद्वीपं द्वीपं 'लवणे नामं समुद्दे लवणो नाम समुद्रः 'वढे वलयागारसंठाणसंठिए' वृत्तः गोलाकारः वृत्तस्तु मध्य पूर्णोऽपि स्यात् यथा पूर्णिमायां चन्द्रमण्डलम् अतोऽत्र प्रश्नः स्यात्-किशो वृत्तः ? इत्याहवलयाकारसंस्थानसंस्थितः वलये यथा अन्तः शुषिरः वहिर्गोलाकारः, तत्सदृशाकारक यत्संस्थानं, तेन संस्थितः वलयाकारसंस्थानयुक्तः सः 'सव्वभो समंता' सर्वतः समन्तात् सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च 'संपरिक्खित्ताणं' संपरिक्षिप्य सम्यक्तया परिवेष्टय खल 'चिट तिष्ठति-वर्तते इति एवं भगवता प्रतिपादिते श्रीगौतमो पुन लवणसमुद्रविषये पृच्छति-ता लवणेणं' समुद्दे' इत्यादि 'ता' तावत् 'भंते' हे भदन्त ! 'लवणे णं समुद्दे लवणः खलु समुद्रः 'किं समचकवालसंठाणसंठिए' कि समचक्रवालसंस्थानसंस्थितः समत्वेन चक्रवालसंस्थानयुक्तः, अथवा किम् 'विसमचक्वालसंठाणसंठिए' विषमचक्रवालसंस्थानसंस्थितः विषमत्वेन न्यूनाधिकत्वेन चक्रवालसंस्थानयुक्तो वर्त्तते ! एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह-'ता लवणसमुद्दे' इत्यादि, 'ता' तावत् 'लवणसमुद्दे' लवण समुद्रः 'समचक्कवालसंठाणसंठिए' समचक्र; वालसंस्थानसंस्थितः किन्तु 'नो विसमचक्कवालसंठाणसंठिए' नो विषमचक्रवालसंस्थानसं Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. .. चन्द्रप्राप्तिसूत्रे awwwmmmmmmmmmm स्थितः । पुनर्गों तमः पृच्छति–ता लवणसमुद्दे' इत्यादि स लवणसमुद्गश्चक्रवालविष्कम्भेण परिक्षेपण च कियत्परिमितोऽस्ति । इति प्रश्नः । भगवानाह- 'ता दो जोयणसयसहस्साई' इत्यादि, 'ता' तावत् 'दो जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं' स लवणसमुद्रः चक्रवाल विष्कम्भपरिमाणेन लक्ष द्वययोजनपरिमितो वर्त्तते, परिक्षेपेण च 'पण्णरस' इत्यादि, पञ्चदश योजनलक्षाणि एकाऽशीतिश्च सहस्राणि एकोनचत्वारिंशदधिकं शतं च (१५८११३९) किञ्चिद्विशेषोनं किञ्चिन्न्यूनम्, एतावत्परिमितो वर्त्तते । तथाहि-लवणसमुद्रस्य चक्रवालविष्कम्भः एकतोऽपरतश्चेति द्विधातो हि द्वियोजन लक्षपरिमित इति जातानि चत्वारि लक्षाणि, पुनश्च तस्य सर्वमध्ये जम्बूद्वीपो वर्तते, स लक्षयोजनपरिमित इति सर्वसंमेलने जातानि पञ्च लक्षाणि (५०००००), एतेषां वर्गे कृते जायन्ते पञ्च विंशतिस्तदुपरि च दश शून्यानि (२५०००००० ०००००), अस्य राशे र्दशभिर्गुणने जातानि । पञ्चविंशते-रूपरि-एकादश शून्यानि (२५०००००००००००), एतस्य राशेर्वर्गमूलानयने लभ्यन्ते-पञ्चदश लक्षाणि, एकाशीति) सहस्राणि, अष्टात्रिंशदधिकमेकं शतं च (१५८११३८) शेषमुद्धरति-पड विंशतिर्लक्षाणि, चतुर्विशतिः सहस्राणि, पट् पञ्चाशदधिकानि नव शतानि (२६२४९५६) छेदराशिरेकत्रिंशल्लक्षाणि, द्वाषष्टिः सहस्राणि, पट् सप्तत्यधिके द्वे शते (३१६२२.७६), एतदपेक्षया योजनमेकमूनं लभ्यते तत उक्तम् : 'मयं च उणयालं किंचि विसेसणं' इति चन्द्रादीनां विषये गौतमः पृच्छति-ता लवणेण' इत्यादि, लवणसमुद्रे कति चन्द्राः प्राभासयन् ३, कति सूर्या अतापयन् ३, कति नक्षत्राणि योगमयुजन् ३, कति ग्रहाश्चारमचरन् ३, कति ताराः शोभाम् अशोभन्त ३, इति प्रश्नः । भगवानाह-'ता लवणे णं' इत्यादि 'ता' तावत् 'लवणेणं समुद्दे' लवणे खलु समुद्रे 'चत्तारि' चंदा' चत्वारश्चन्द्राःप्राभासयन् वा ३, एवं चत्वारः सूर्या अतापयन् वा ३, द्वादशकं नक्षत्रशतं योगमयुडू वा ३, त्रीणि शतानि द्विपञ्चाशदधिकानि ग्रहाश्चारमचरन् वा ३, द्वे लक्षे, सप्तपष्टिः सहस्राणि, नव शतानि तारागण कोटी कोट्यः शोभामशोभन्त वा ३, । तथाहि-नक्षत्राणि अष्टाविंशति रेकैकस्य चन्द्रस्य परिवारत्वेन सन्ति, लवणे चत्वारश्चन्द्रा' इति अष्टाविंशति श्चतुर्भिर्गुण्यते जातानि द्वादशोत्तर शत , संख्यकानि (११२) नक्षत्राणि ।' ग्रहा अष्टाशीतिरिति चतुर्भिगुणने द्विपञ्चाशदधिकानि त्रीणि शतानि (३५२) ग्रंहाणां भवन्ति । तारा गण कोटी कोटीनां पट् पष्टिः सहस्राणि, नव शतानि पञ्च सप्तत्यधिकानि (६६९७५) चतुर्भिर्गुणने जायते यथोक्तं ताराप्रमाणम् । अत्र लवणसमुद्रस्य :विक्षेपस्य चन्द्रदीनां च प्रमाणप्रतिपादिकास्तिस्रों गाथाः सुगमा इति न व्याख्यायन्ते, इति जीवभिगमोक्त पाठव्याख्या ।'. ' अथ लवणसमुद्र को द्वीपः परिवेष्टय तिष्ठतोत्याह –'ता लवणसमुद्द' इत्यादि 'ता' तावत् 'लवणसमुई' लवणसमुद्रं धातकीपण्डो नाम द्वीपो ‘वृत्तो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात् परिक्षिप्य परिवेष्ट्य तिष्ठति अस्य संस्थानविषये गौतमः पृच्छति'ता धायईसंडेणं दीवे' Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीका० प्रा०१९ सू१ चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां संख्यादिकम् ६६५ इत्यादि, सुगमम् । भगवानाह समचक्रवालसस्थानसंस्थितः न तु विषमचक्रवालसंस्थानसंस्थितः अथ विष्कम्भपरिधिविपये गौतमस्य प्रश्नः-'ता धायईसंडेणं दीवे' इत्यादि 'ता' तावत् 'धायईसडेणं दीवे' धातकी पण्डः खलु द्वीपः 'केवइए चकवालविक्खंभेणं' कियान् चक्रवालविष्कम्भेण 'एव विक्खंभो परिक्खेवो जोइस' एवम्-अनेन प्रकारेण धातकोपण्डस्य विष्कम्भःपरिक्षेप ज्यौनिपं ज्योतिश्चक्रम् इतिसर्व 'जहा जीवाभिगमे जाव ताराओ' यथा जीवाभिगमे तथा तारा पर्यन्तं वाच्यम् । तथाहि तत्पाठः 'केवइए परिक्खेवेणं'-इत्यादि, सुगमम् । भगवानाह–'ता चत्तारि' इत्यादि धातकी पण्डस्य चक्रवालविष्कम्भश्चतुर्लक्षयोजनपरिमितः परिधिमाह-'इगतालीसं' इत्यादि एकचत्वारिंशद् योजनलक्षाणि दश च सहस्राणि एक पष्टयधिकानि नव योजनशतानि (४११०९६१) किचिद्विशेपोनानि, एतावत्परिमितः परिक्षेपो धातकी पण्डस्येति । परिधिभावना यथा जम्बूद्वीपविष्कम्भो लक्षयोजनपरिमितः, लवणसमुद्रस्य उभय पार्श्वतो द्वे द्वे योजनलक्षे इति तानि चत्वारि लक्षाणि धातकी पण्डस्योभयतश्चत्वारि चत्वारि लक्षाणि मिलितानि भवन्ति-अष्टौ, तत एकं, चत्वारि, अष्टौ चेनि मिलित्वा सर्वसख्यया जातानि त्रयोदश लक्षाणि (१३०००००) ततोऽस्य राशर्वर्गे कृते जातो राशि:-एककः पट्को नवक', तदुपरि च दश शून्यानि (१६९००००००००००) पुनरपि दशभिरेश राशि गुण्यते जातानि पूर्वोक्ताङ्कानामुपरि एकादश शून्या नि (१६९०००००००००००) एतेषां वर्गमूलानयने लब्धानि एकचत्वारिंशल्लक्षाणि, दश सहस्राणि नवशतानि एकपष्टयधिकानि (४११०९६१) यथोक्तानि योजनानामिति । अथ धातकीपण्डगत चन्द्रादिविषये गौतमस्य प्रश्नः-'ताधायईसंडेणं दीवे' इत्यादि सुगमम् भगवानाह 'धायईसंडणं दीवे' धातकोपण्डे खलु द्वीपे 'वारस चंदा' द्वादशचन्द्राः प्राभासयन् वा ३ । द्वादशैव सूर्या अतपयन् वा ३ । अत्र नक्षत्राणि षट्त्रिंशदधिकानि त्रीणि शतानि (३३६) योगमयुञ्जन् वा ३ । महाग्रहाः षट् पञ्चाशदधिकैकसहस्रसंख्यका (१०५६) श्चारमचरन् वा । ताराश्च-अष्टौ लक्षाणि, त्रीणि सहस्राणि सप्तच शतानि (८३०७००) कोटी कोटीनां शोभाम् अशोभन्त-अकुर्वन् वा ३. तत्कथमिति प्रदर्श्यते अत्र चन्द्रा द्वादशेति नक्षत्रसंख्या अष्टाविंशति दशभि गुण्यते जायन्ते पत्रिंशदधिकानि त्रीणि शतानि यथोक्तानि । एवमेकस्य चन्द्रस्य यो यो ग्रहपरिवारस्तारापरिवार श्चास्ति तस्य द्वादश भिर्गुणने यथोक्ता सख्या समागच्छतीति स्वयमवगन्तव्यम् अत्र परिधेः चन्द्रादीनां च प्रमाणप्रतिपादिका स्तिस्रो गाथाः सन्ति, ताश्च सुगमाः । इति जीवाभिगमपाठव्याख्या । अयं धातकी षण्डः केन समुद्रेण परिवेष्ठितः ? इत्याह-'ता धायईसंडेणं' इत्यादि घातकीपण्ड द्वोपं कालोदः समुद्रः परिक्षिप्य परिवेष्टय तिष्ठति । अस्य संस्थानविषये गौतमस्य ८४ Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ चन्द्र सूत्रे पृच्छा । भगवानाह - - ' ता धायईसंडेणं' इत्यादि तावद् धातकी पण्डो द्वीप समचक्र - वालसंस्थानसंस्थितः, नो विपमचक्रवालसंस्थानसंस्थितः । ' एवं चिक्खभो परिक्खेवो' जोड़संच' अनेन प्रकारेण कालोदसमुद्रस्य विष्कम्भ, परिक्षेपः, ज्यौतिपंच 'जहा जीवाभिगमे तहा भाणियचं' यथा जीवाभिगमे प्रोक्तं तथा भणितव्यम् । कियत्पर्यन्तमित्याह 'जाव' इत्यादि, 'जाव ताराओ' यावत् ताराः, तारा प्रमाणपर्यन्तं पठितव्यम् तथाहि तत्पाट - 'ता कालोएणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'कालोएणं समुढे' कोलोदः खलु समुद्रः कियान् चक्रवालविष्कम्भेण कियान् परिक्षेपेण आख्यातः ? इति प्रश्नः । भगवानाह - 'ता कालोएणं' इत्यादि 'ता' तावत 'कालोएणं समुद्दे' कालोदः खलु समुद्रः अष्टलक्षयोजन परिमितश्चक्रवालविष्कम्भेण प्रज्ञप्तः । अस्य परिक्षेपः - एकनवतिर्लक्षाणि, सप्ततिः सहस्राणि, पञ्चोत्तराणि पट् शतानि च (९१७०६०५) योजनानाम्, एतावत्परिमितः किञ्चिद्विशेषाधिकः प्रोक्तः । अथ चन्द्रादिविषये प्रश्नः - 'ता कालोएणं समुद्दे केवइया चंदा' इत्यादि पृच्छा । भगवानाह - 'ता कालोएणं' इत्यादि, 'ता तावत् 'कालोएणं समुढे' कालोदे खलु समुद्रे 'वायालीस चंदा' द्वाचत्वारिंशत् चन्द्राः प्राभासयन् वा ३, द्वाचत्वारिंशत् सूर्या अतापयन् वा ३, द्वासप्तत्यधिकानि एकादश नक्षत्रशतानि (१९७२) योगमयुञ्जन् वा ३, त्रीणि सहस्राणि पण्णवत्यधिकानि पट् शतानि ( ३६९६ ) महाग्रहाणां चारमचरन् वा ३, अष्टाविंशतिशत सहस्राणि लक्षाणि, द्वादश सहस्राणि पञ्चाशद धिकानि नवशतानि (२८१२९५०) कोटी कोट्यस्ताराः शोभामशोभन्त वा ३ | शोभन्ते वा शोभिप्यन्ते वा ॥ परिक्षेपस्य गणितभावना यथा कालोदसमुद्रस्य एकतोऽपरतथेति द्वयोः प्रत्येकमष्टावष्टौ योजन लक्षाणीति जायन्ते पोडश लक्षाणि, धातकीपण्डस्य उभयतश्चत्वारि लक्षाणि मिलित्वाऽष्टौ लक्षाणि, एवं लवणसमुद्रस्य उभयतो हि द्विलक्षसद्भावाच्चत्वारि लक्षाणि, तथा जम्बूद्दीपस्य एकं लक्षम् (१६=८=४=१।) इति मिलित्वा सर्वसख्यया एकोनत्रिंशल्लक्षाणि (२९०००००) जातानि, एतेषां वर्गे कृते जायन्ते अष्टकः, चतुष्कः, एककः, तदुपरि दशशून्यानि (८४१००० ०००००००) ततो दशभिर्गुणने पूर्वोक्ताकोपरि जायन्ते एकादश शून्यानि (८४१०००००० ०००००) एपां वर्गमूलानयने लब्धं यथोक्तम् – (९१७०६०५) शेषं-त्रिको नवकस्त्रिकस्त्रको नवकः सप्तक' पञ्चकः (३९३३९७५) इति यदवतिष्ठते तदपेक्षया विशेषाधिकत्वमुक्तम् । नक्षत्रादीनां भावना तु नक्षत्रग्रहताराणां स्व स्व संख्यायाश्चन्द्रसूर्याणां द्वाचत्वारिंशत्वेन द्वाचत्वारिंशता गुणने स्वस्व संख्या समागमिष्यतीति स्वयं परिभावनीयम् । अत्र पूर्वोक्तसंख्याप्रतिपादिकाश्चतस्रो गाथाः सन्ति, ताः सुगमाः । इति जीवाभिगमपाठव्याख्या | कालोदः समुद्रः केन वेष्टित ? इत्यत्राह - 'ता कालोयं णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'कालोयं ण समुहं' कालोदं खलु समुद्रम् 'पुत्रखरवरे णामं दीवे' पुष्करवरो नाम द्वीपो वृत्तो वलया Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा०१९ सू १ चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां संख्यादिकम् ६६७ कारसंस्थानसस्थितः सर्वतः समन्तात् परिक्षिप्य परिवेष्टय तिष्ठति । अथ पुष्करवरस्य सस्थानविषये पृच्छा-'ता पुक्खरवरेणं दोवे' इत्यादि, सुगमम् । भगवानाह-'ता समचक्कवालसंठाण संठिए' इत्यादि, स पुष्करवरद्वीपः समचक्रवालसंस्थानसंस्थितः, न तु विषमचक्रवालसस्थान संस्थितः इत्युत्तरम् । 'एवं विक्खंभो परिक्खेवो जोइस जहा जीवाभिगमे जाव ताराओ' इति पुष्करवरद्वीपस्य विष्कम्भादिकं तारापर्यन्तं सर्व जीवाभिगमोक्तवदेव विज्ञेय मितिभावः । तथाहि तत्पाठः 'ता पुक्खरवरेणं' इत्यादि, संस्थानविषयकः प्रश्नः सुगमः । भगवानाह-'ता सोलस' इत्यादि, अस्य समचक्रवालविष्कम्भः षोडश लक्षयोजनपरिमितो वत्तते, 'एगा जोयणकोडी' इत्यादि. असौ एका योजनकोटी, द्विनवतिर्लक्षाणि, एकोनपश्चाशत् सहस्राणि, चतुर्नवत्यधिकानि अष्ट योजनशतानि च-(१९२४९८९४) परिक्षेपेण आख्यातः । 'ति वएज्जा' इति वदेतू स्वशिष्येभ्यः । अथ चन्द्रादीनां विषये गौतमः पृच्छति 'ता पुक्खरवरेणं दीवे' 'ता' तावत् पुष्करवरे खलु द्वीपे कियन्तश्चन्द्राः प्राभासयन् वा ३, 'पुच्छा तहेच' पृच्छा तथैव पूर्ववदेव । भगवानाह- 'ता चोयाल चंदसयं' चतुश्चत्वारिंशं चन्द्रशतं चतुश्चत्वारिंशदधिकशतसंख्यकाः (१४४) चन्द्राः प्राभासयन् वा ३, एतावन्त एव (१४४) सूर्या अतापयन् वा ३, । 'चत्तारि सहस्साई' चत्वारि सहस्राणि 'बत्तीसं च द्वात्रिंशच्च द्वात्रिंशदधिकानि चत्वारि सहस्राणि(४०३२) नक्षत्राणि योगमयुजन् वा । 'वारस' इत्यादि, द्वादशसहस्राणि द्वात्रिंशदधिकानि षड् महाग्रहशतानि (१२६३२) चारमचरन् वा ३, । 'छण्णउई' इत्यादि, पण्णवतिर्लक्षाणि, चतुश्चत्वारिंशत् सहस्राणि चत्वारि च शतानि (९६४४४००) तारागणकोटीकोट्यः शोभामशोभन्त वा ३॥ पुष्करवरद्वीपस्य परिधेर्गणितभावना त्वियम्-पुष्करवरद्वीपस्य पूर्वापरतः पोडश पोडश लक्षाणीति जातानि द्वात्रिंशत् लक्षाणि (३२) कालोदधेः पूर्वापरतोऽष्टावष्टौ इति षोडशलक्षाणि १६, धातकी पण्डस्य पूर्वापरतश्चत्वारि चत्वारि लक्षाणीति जायन्तेऽष्टी लक्षाणि ८, लवणसमुद्रस्य पूर्वापरतो द्वे वे लक्षे इति चत्वारि लक्षाणि ४, जम्बूद्वीपस्य चैकं लक्षम्-(३२-१६-८४=१+६१) एवं सर्वसंकलनया जातानि-एक षष्टिर्लक्षाणि (६१०००००) एतस्य राशेव कृते जातानि त्रिकः, सप्तकः, द्विकः, एककः, तदुपरि च दश शून्यानि (३७२१००००००००००), अस्य राशेदेशभिर्गुणने जातानि पूर्वोक्ताड्कोपरि एकादश शून्यानि (३७२१०००००००००००) एतेषां वर्गमूलानयने लभ्यते यथोक्तं परिधिपरिमाणम् (१९२४९८९४) इति । नक्षत्रादिपरिमाणं च एकस्य चन्द्रस्य यावान् नक्षत्रपरिवारः यावान् ग्रहपरिवार' यावांश्च तारापरिवारः स स्व स्व परिवारोऽत्रत्यचन्द्रसूर्यसंख्यया चतुश्चत्वारिंशदधिकशत (१४४) रूपया गुण्यते ततः समायाति नक्षत्रादीना स्व स्व परिवारसंख्येति स्वयं करणीयमिति । अत्र परिधि चन्द्रसूर्यादि परिमाणप्रतिपादिकाश्चतस्रो गाथाः, सन्ति, तासां व्याख्या पूर्व सूत्रोक्तानुसारेण स्वयमूहनीयेति (जीवाभिगमपाठ व्याख्या) Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे अथ 2 पुष्करवरस्य विभागद्वयं प्रदर्शयति 'ता पुक्खरवरस्स णं' इत्यादि । 'ता, तावत् ' पुक्खरवरस्स णं दीवस्स' पुष्करवरस्य पूर्वप्रदर्शितस्वरूपस्य खलु द्वीपस्य ' बहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेशभागे वहुमध्यः अत्यन्त मध्यो यो देशः क्षेत्रं तस्य भागे तत्स्थाने 'माणुसोत्तरे णामं पव्चर' मानुपोत्तरो नाम पर्वतः, किं संस्थानकः ' इत्यत्राह - 'वलयागारसंठाण संठिए' वलयवदन्तः शुपिरो बहिर्गोलाकारः, एतादृशं संस्थानम् आकृतिर्यस्य स तादृशो वर्त्तते, ततः किम् ± ‘जे णं' इत्यादि यः खलु मानुपोत्तर पर्वतः 'पुक्खरवरं दीर्घ' पुष्करवरं द्वीपम् 'दुहा विभयमाणे २ चिट्ट' द्विधा विभजमानः विभजमान स्तिष्ठति स्थितोऽस्ति, 'तं जहा ' तद्यथा'अभितरपुक्खरद्धं च वाहिरपुक्खरद्धं च ' आभ्यन्तरपुष्करार्द्ध च बाह्यपुष्करा च मानुषोतरपर्वतमाश्रित्य पुष्करवरद्वीपस्य द्वौ विभागौ आभ्यन्तरबाह्यरूपौ जाती मानुपोत्तरपर्वता दर्वाक् यत् पुष्करार्द्ध तद् आभ्यन्तरपुष्करार्द्धम्, यन्मानुषोत्तर पर्वतात्परतस्तद् वाहा पुष्करार्द्धम्, इति भावः तत्र आभ्यन्तरपुष्करार्द्धस्य संस्थानादिविपये श्रीगोतम' पृच्छति - 'ता अभितरपुक्खरण' इत्यादि, हे भगवान् ? आभ्यन्तरपुष्करार्द्धद्वीपः किं समचक्रवालसंस्थानसंस्थितः विपमचक्रवालसंस्थानसंस्थितो वर्त्तते । श्रीभगवानाह - 'ता समचक्कवालसंठाणसंठिए' इत्यादि, तावत् म ममचक्रवालसस्थानसंस्थितोऽस्ति न तु विषमचक्रवालसंस्थानसंस्थितः । सम्प्रति विष्कम्भपरिधिविषये गौतमस्य प्रश्नः - 'ता अभितरपुक्खरद्धेणं' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम् भगवानाह - ' ता अट्ठ जोयणसयसहस्साई ' इत्यादि, तावत् आभ्यन्तरपुष्करार्द्धमष्ट लक्ष योजनपारंमितं चक्रवालविष्कम्भेण तथा 'एगा जोयणकोडी' इत्यादि, एका योजनकोटी, द्वि चत्वारिंशच्च लक्षाणि, त्रिंशच्च सहस्राणि, एकोनपञ्चाशदधिके द्वे योजनशते (१४२,३०,२४०), एतावत्परिमितं परिक्षेपेण परिधिना वर्तते । अथ तद्गतचन्द्रादि विपये पृच्छा सुगमा । भगवानाह - 'ता वाचत्तरिं चंदा ' इत्यादि, आभ्यन्तरपुष्करार्द्धे द्वा सप्ततिश्चन्द्राः प्राभासयन् वा ३ द्वा सप्ततिरेव सूर्या अतापयन् वा ३, पोडशाधिकद्वि सहस्रसंख्यकानि (२०१६) नक्षत्राणि योगमयुञ्जन् वा ३, महाग्रहा पट् सहस्राणि पत्रिंशदधिकानि त्रीणि शतानि च (६३३६) चारमचरन् वा, तथा - ताराश्च कोटी कोटीनामष्ट चत्वारिंगल्लाणि, द्वाविंशतिः सहस्राणि, द्वे गते च (४८२२२००) एतावत्यः शोभामशोभन्त वा ३, अथ मनुष्यक्षेत्रस्य विष्कम्भादि विषये पृच्छति - 'ता मणुस्सखेत्तेणं' इत्यादि 'ता' तावत् मनुष्यक्षेत्रं खलु अस्य समयक्षेत्रमित्यपि नाम, अत्राहोरात्रादि समय सद्भावात्, 'केवई आयाम विक्खभेणं' कियत्परिमितमायामविष्कम्भेण अत्र जीवाभिगमस्यातिदेशमाह् - 'एच' इत्यादि एवं जीवाभिगमोक्त वदेवात्र - 'विक्खंभो परिरओ, जोइस ताराओ' विष्कम्भः विष्कम्भुपरिमाणं, परिस्यः परिधिपरिमाणं, ज्यौतिपं ज्यौतिश्चक्रं चन्द्रसूर्यनक्षत्रग्रहगण रूपं, ताराथेति सर्वमत्र पठनीयम्, कियत्पर्यन्तं तारापाठः ' इत्याह ," 2 ६६८ Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिकाटीका० प्रा० १९ सू. १ चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां संख्यादिकम् ६६९ - ' जाव' इत्यादि, यावत् 'एग ससी परिवारो तारा गण कोडी कोडीणं' एक शशिपरिवारः तारागण कोटी कोटीनाम् इत्येतत्पर्यन्तं चत्वारिंशत्तम गाथावधिकं पठनीयमिति । " अस्य- आयामविष्कम्भप्रश्नः सूत्रे एव भगतः, परिक्षेप प्रश्नादारभ्य जीवाभिगमोक्तः पाठः प्रदर्श्यते- 'केवईए परिक्खेवेणं' इत्यादि, 'केवड़ए परिक्खेवेणं आहिए' कियत्कं परिक्षेपेण आख्यातम् ? 'तिवएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् ! एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह 'ता पणयालीसं' इत्यादि, इदं मनुष्यक्षेत्रं पञ्चचत्वारिंशल्लक्षयोजनपरिमित मायामविष्क्रम्भेण (४५०००००) आख्यातम्, तथा परिधिमाह - 'एगा जोयण कोडी' इत्यादि, एका योजन कोटी, द्विचत्वारिंगल्लक्षाणि ऐकोन पञ्चाशदधिके योजनशते - (१४२००२४९) एतावत्परिमितं ननुण्यक्षेत्रं परिक्षेपेण आख्यातमिति । अस्यायामविष्कम्भपरिमाणं पञ्च चत्वारिंगल्लक्षाणि यथा एकं लक्षं जम्बूद्वीपे ? ततो लवण समुद्रे पूर्वापरतो द्वे द्वे लक्षे इति व लक्षाणि, धातकी पण्डे एकतोऽपरतश्च चत्वारि चत्वारि लक्षाणीति अष्टौ लक्षाणि, कालोंदसमुद्रे एकतोऽपरतश्च अष्टौ अष्टौ लक्षाणीति षोडश लक्षाणि आभ्यन्तर पुष्करा र्द्धेऽपि एकतोऽपरतश्च अष्टौ अष्टौ लक्षाणीति पोडश लक्षाणि (१.४-८ = १६-१६ - ४५ ) इति सर्वसख्या संमेलनेन जायन्ते पश्चचत्वारिंशल्लक्षाणि (४५००००० ) । परिधिगणितभावना तु 'विक्खभवग्ह गुणः' इत्यादि करणवशात् स्वयं कर्त्तव्या । अथ चन्द्रादिविषये गौतमः पृच्छति - 'ता मणुस्सखेत्तेणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'मणुस्स खेत्तेणं' मनुष्यक्षेत्रे खलु 'केवइया चंदा पभासिसुवा ३ 'कियन्तश्चन्द्राः प्रभासयन् वा ३, 'पृच्छा तहेव' पृच्छा तथैव तथाहि कियन्तः सूर्या अतापयन् वा ३ कियन्ति नक्षत्राणि योगमयुञ्जन् वा ३ कियन्तो महाग्रहाश्चारमचरन् वा, कियत्यस्तारा शोभामगोभन्तवा ३ ? इति प्रश्न; भगवानाह 'ता बत्तीसं चंदसयं' इत्यादि, तावत् द्वात्रिंशदधिकशत सख्यकाश्चन्द्राः प्राभासयन् वा ३ द्वा त्रिर्शदधिकशतसंख्यका एव सूर्या अतापयन् वा ३ । नक्षत्राणि - ' तिण्णि सहस्सा' इति पण्णवत्यधिक पट्ातोत्तरसहस्रत्रय (३६९६) संख्यकानि योगमयुञ्जन् वा ३ । महाग्रहाः–‘एक्कारस सहस्सा' इति - षोडशोत्तर षट्शताधिकैकादशसहस्र (११६१६) संख्यका श्वारमचरन् वा ३, तारापरिमाणमाह - 'अट्ठासी इं' इत्यादि, अष्टाशीतिः लक्षाणि चत्वारिंशच्च सहस्राणि सप्त च शतानि (८८४०७००) तारागण कोटोकोट्य. शोभामशोभन्त वा ३ । नक्षत्रादीना संख्या भावना - नक्षत्रगृहताराणां स्वस्व परिवार संख्याया अत्रत्य चन्द्रसंख्यया द्वात्रिंशदधिकशत ( १३२ ) रूपया गुणने नक्षत्रादीनां संख्या समायातीति स्वयं करणीयम् । अत्र आभ्यन्तरपुष्करार्द्धमनुष्यक्षेत्रयोरेतयोर्द्वयोरपि आयामविष्कम्भ - परिधिप्रमाण-चन्द्रादिसख्या प्रतिपादिका' 'अहेव सयसहस्सा' इति गाथात आरभ्य "सत्त यसया अणूणा तारागण कोडिकोडीणं' इति पर्यन्तमष्टौ गाथाः सन्ति, आसामर्थः, Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे ६७० सूत्रोक्तवदेवेति । अथ सकलमनुष्यलोकस्थित तारागणस्यैवोपसहारमाह-‘एसो' इत्यादि, एषःअनन्तरमनुपदगाथोक्तसंख्यकः 'तारापिंडो' तारापिण्डः ताराणां सर्वाग्ररूपः 'सव्व समासेण' सर्वसंख्यया 'मणुयलोयंमि' मनुजलोके वर्तते । वहिया पुण' बेहिः पुनर्मनुष्यलोकादहिस्तात् मनुष्यलोकादर्भािगे मानुषोत्तर पर्वतादनन्तरक्षेत्रे इत्यर्थः 'ताराओ' ताराः असंखेज्जाओ' असख्येयाः 'जिणेहिं जिनैः अतीतवर्तमानकालतीर्थकरैः 'भणिया' भणिताः कथिताः द्वीप समुद्राणामसंख्यातत्वात् प्रतिद्वीपसमुद्रं यथा-योगं संख्येयानामसंख्येयानां च ताराणां सद्भावात् ॥९॥ साम्प्रतं मनुष्यलोकगतज्यौतिश्चक्रस्य संस्थानमाह-'एवइयं' इत्यादि, ‘एवइयं एतावत्क यदन्तरभणितमेतावत्संख्यकम् 'तारग्गं' तारामं तारापरिमाणं 'माणुसम्मि लोयम्मि' मनुष्ये लोके 'जोइसं' जोतिषं ज्योतिश्चक्र चन्द्रसूर्यनक्षत्रग्रहगणतारारूपात्मकं ज्योतिष्कदेवविमानरूपं तत् 'कलंवुया पुप्फसंठियं कदम्बपुष्पसस्थितं कदम्बपुष्पवत् अधः सड्कुचितमुपरि विस्तृतम्-उत्तानोकृताईकपित्थसस्थानसंस्थितमित्यर्थः 'चारं चरइ' चारं चरति परिभ्रमति तथाविधलोकस्वभावात् । गाथायां ताराग्रहणं चोपलक्षणं तेन चन्द्रसूर्यादयाऽपि यथोक्त संख्यका मनुष्यलोके तथाविधलोकस्वाभाव्याच्चारं चरन्तीति द्रष्टव्यम् ॥१० साम्प्रत मेतद्गतमेवोपसंहारमाह-'रवि ससि' इत्यादि, 'रविससिगहणक्खत्ता' रविशशिग्रहनक्षत्राणि उपलक्षणात्तारकाणि च 'एवइया' एतावत्कानि 'मणुयलोए' मनुजलोके 'आहिया' आख्यातानि कथितानि सर्वज्ञः । 'जेसि' येषां चन्द्रसूर्यादीनां मनुष्यलोकचारिणां यथोक्त संख्यकानां चन्द्रसूर्यनक्षत्रग्रहगणतारारूपाणां प्रत्येकम् 'नामगोय' नाम गोत्राणि, इहान्वर्थयुक्तं नामसिद्धान्त परिभाषया नामगोत्रमित्युच्यते, ततोऽयमर्थ' नामगोत्राणि अन्वर्थ युक्तानि नामानि, अथवा नामानि च गोत्राणि चेति नामगोत्राणि 'पागया' प्राकृताः सामान्यानतिशयिनः पुरुषाः कदाचिदपि 'न पण्णवेहिति' न प्रज्ञापयिष्यन्ति भविष्यति काले, किन्तु यदा तदापि प्रज्ञापयिप्यन्ति चेत् सर्वज्ञा एवं प्रज्ञापयिष्यन्ति नेतरे, तस्मात्कारणात् इदं चन्द्रसूर्यादिसंख्यापरिमाणं प्राकृत पुरुषाऽगम्यं सर्वज्ञोपदिष्टं वर्तते, इति सम्यक् श्रद्वेयमेवेति ॥११॥ साम्प्रतं चन्द्रसूर्यनक्षत्रग्रहाणां पिटकानि पतिश्च प्रदर्शयति यद्गतसख्या ज्ञानेन मनुष्यलोकगतचन्द्रादीनां संख्याज्ञानं भवतिषट्पष्टिः पिटकानि 'चंदाइच्चाणमणुयलोयम्मि' मनुष्यलोके चन्द्रादित्यानां सन्ति, अत्र द्विचन्द्रद्विसूर्यात्मकं पिटकं भवति, इत्थम्भूतानि च चन्द्रादित्यानां सर्वसख्यया मनुष्यलोके षट्पष्टिः पिटकानि वर्तन्ते, अतः षट् पष्टे भ्यां गुणने लभ्यते द्वात्रिंशदधिकमेकं शतम् (१३२) प्रत्येकं चन्द्रसूर्याणां सख्यानामस्मिन् मनुष्यक्षेत्रे । तदेव स्पष्टयति-'दो चंदा दो सूरा' इति एकैकस्मिन् पिटके द्वौ चन्द्रौ दो सूर्यौ भवत. ततः किमित्याह-द्वौ चन्द्रौ द्वौ सू? इत्येतावत्प्रमाणकमेकैकं पिटकं चन्द्रादित्यानामिति, एवं प्रमाणकं च पिटकं जम्बूद्वीपे एकम्, अत्र द्वयोरेव चन्द्रसर्दियोरेव च सूर्ययो सद्भावात् ।१। वे पिटके लवणसमुद्रे तत्र चतुर्णा चन्द्रसूर्याणां सद्भावात् ।२। Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका० प्रा०१९ सू१ चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां संख्यादिकम् ६७१ एवं धातको पण्डे पद पिटकानि, तत्र द्वादश द्वादश चन्द्रसूर्याणां सद्भावात् ।६॥ एकविशतिः पिटकानि कालोदे समुद्रे, तत्र द्विचत्वारिंशद् द्विचत्वारिंशच्चन्द्रसूर्याणां मनावात् ।२१। पटू त्रिंशत् पिटकानि आभ्यन्तरपुष्कराः, तत्र द्वासप्ततेः द्वासाततेः चन्द्रसूर्याणां सद्भावात् ।३६। एवम् –(१=२=६=२१=३६८६६) सर्व संकलनया चन्द्रादित्यानां पदषष्टिः पिटकानीति मनुष्यक्षेत्रे द्वात्रिशदधिकं शतमेकम् (१३२) प्रत्येकं चन्द्रसूर्याणां संख्या समायाति एकैकस्य द्विपिटकस्य हि चन्द्रसूर्यात्मकत्वादिति ॥१२॥ साम्प्रतं नक्षत्राणां पिटकान्याह-'छावहि पिडगाई णक्खत्ताण' इत्यादि, नक्षत्राणामपि पट्टपष्टिरेव पिटकानि सर्वसख्यया मनुष्यलोके सन्ति, किन्तु अत्र नक्षत्रसम्बन्धीनि 'एनकेक्कए पिडए' एकैकस्मिन् पिटके 'छप्पण्णं नक्खत्ता इंति' पद पञ्चाशत् पह पञ्चागन्नक्षत्राणि भवन्ति । किमुक्तं भवति !-पट् पञ्चाशत्संख्यात्मकमेकैकं नक्षत्रपिटकमिति पटूपष्टि भावना चेत्थम् जम्बूद्वीपे एकम् ।१। लवणसमुढे हे ।२। धातकीपण्डे पट् ।६। कालोदे एकविंशतिः ।२१। आभ्यन्तर पुष्कराद्धे पत्रिंशत् १३६ (१=२६%२१=३६+६६) एवं पूर्ववदेवात्रापि पट्पष्टिः पिटकानि भवन्ति, अतएव सर्वस्मिन् मनुष्यक्षेत्रे त्रीणि सहस्राणि पण्णवत्यधिक पटूशतोत्तराणि (३६९६) नक्षत्राणां भवन्ति षट्पष्टेः पहू पञ्चाशता गुणनादेतावत्प्रमाणलाभात् ॥१३॥ अथ महाग्रहाणां पिटकानि प्रदर्शयति-'छावहिं पिडगाई महागहाणं' इत्यादि, महाग्रहाणामपि मनुष्यक्षेत्रे पटूपटिरेव पिटकानि सन्ति, अत्रैकस्मिन् पिटके 'छावत्तर गहसयं' पट्टसप्तत्यधिकमेकं शतं महाग्रहाणां वर्तते । पिटकानां षट्पष्टि संख्या भावना पूर्ववदेव कर्तव्या । अत्र ग्रहा अष्टाशीतिर्भवन्ति ततो द्वयोश्चन्द्रयो पह सप्तत्यधिकं शतं ग्रहाणां परिवारो जायते ततः पट् षष्टिः पटू सप्तत्यधिकशतेन गुण्यते जायन्ते सर्वस्मिन् मनुष्यक्षेत्रे एकादश सहस्राणि पहू शतानि पोडशाधिकानि (११६१६) महाग्रहाणामिति ॥१४॥ साम्प्रतं चन्द्रादित्यानां पङ्क्तिः प्रदर्शयति-'चत्तारि य पंतीओ' इत्यादि, इह मनुष्य क्षेत्रे चन्द्रादित्यानां 'चत्तारि य पंतीओ' चतस्रः पक्तयो भवन्ति यथा-वे पड़ती चन्द्राणां. द्वे च सूर्याणाम् एकैका च पक्ति· 'छावहिं छावहि' इति षट्षष्टि सूर्यादिसंख्यात्मका भवति, कथमिति तद्भावना चेत्थम्-एकः किल सूर्यो जम्बू द्वीपे मेरौ दक्षिणभागे चारं चरन वर्त्तते, एक उत्तर भागे, एवमेकश्चन्द्रो मेरोः पूर्वभागे, तत्र यो मेरोदक्षिणभागे सूर्यश्चार चरन् वर्तते तत्समश्रेणिस्थिती द्वौ सूर्यो दक्षिणभागे लवणसमुद्रे २, षड् धातको षण्डे ६. एकविंशतिः कालोदे २१, पत्रिशद् आभ्यन्तरपुष्करा॰ वर्तते । अस्यापि समश्रेणिव्यवस्थितौ द्वौ सूर्यो उत्तरभागे लवणसमुद्रे २, धातकीखण्डे षड् ६, कालोदे एकविंशतिः २१. आभ्यन्तरपुष्कराः पत्रिंशत्, ३६, इत्यस्यामपि द्वितीयायां पक्तौ सर्वसंख्यया षट्षष्टिः सूर्या जाताः ।२। तथा यो मेरोः पूर्वभागे चन्द्रश्चारं चरन् वर्तते तत् समश्रेणिव्यवस्थितौ HIGHIMHEHRIRH iiHTTERTHA Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ હ૭૨ चन्द्राप्तिसूत्रे दौ चन्द्रौ पूर्वभागे लवणसमुद्रे २, पड् चन्द्राः धातकोखण्डे, एकविंशतिः चन्द्राः कालोदे, पत्रिंशादाभ्यन्तरपुष्करा॰, इत्यस्यां प्रथमायां चन्द्रपक्तौ सर्वसंख्यया द्वा पष्टिश्चन्द्राः ।। एवं यो मेरोरपरभागे चन्द्रस्तत्सम्बन्धिन्या मपि द्वितीयायां चन्द्रपक्तौ पद पष्टिश्चन्द्राः पूर्वोक्तरीत्यैत्र ज्ञातव्याः २। ॥१५॥ साम्प्रतं नक्षत्राणां पड़ती राह -'छप्पन्नं पंतीओ' इत्यादि, इह मनुष्यलोके नक्षत्राणां पहपञ्चाशत् पङ्क्तयः सन्ति । ताश्च-'छावट्टि २, हवंति एक्किक्का' पस् पष्ठि पट्पष्टि नक्षत्रप्रमाणा एकैका पतित भवति, तथा च तद्भावना-अस्मिन् किल जम्बूद्वीपे दक्षिणतोऽर्द्रभागे एकस्य चन्द्रस्य परिवारभूतानि अभिजिदादीनि अष्टाविंशतिर्नक्षत्राणि क्रमेण व्यवस्थितानि चारं चरन्ति, एवमुत्तरतोऽभागे द्वितीयस्य चन्द्रस्य परिवारभूतानि अन्यानि अष्टाविंशति नक्षत्राणि अभिजिदादीन्येव क्रमेण व्यवस्थितानि योगं युञ्जन्ति । तत्र दक्षिणतोऽर्द्धभागे यद् अभिजिन्नक्षत्रं वर्त्तते तत्समश्रेणि व्यवस्थिते द्वे अभिजिन्नक्षत्रे लवणसमुद्रे २ पड़ धातकी खण्डे,६ एकविंशतिः कालोदे२१, पटू त्रिंशादाभ्यन्तरपुष्करार्द्ध ३६ इति सर्वसंख्यया पट्ट पष्टिरभिजिन्नक्षत्राणि पइत्या व्यवस्थितानि योगं युञ्जन्ति । एवं श्रवणादीन्यपि दक्षिणतोऽभागे पतया व्यवस्थितानि पटू पष्टि सख्यकानि स्वयं भावनीयानि । उत्तरतोऽप्यर्द्धभागे यदभिजिन्नक्षत्रं वर्तते तत्समश्रेणिव्यवस्थिते उत्तरभागे एव द्वे अभिजिन्नक्षत्रे लवणसमुद्रे षड् धातकीखण्डे६, एक विंशतिः कालोदे२१, पत्रिंशत् आभ्यन्तरपुष्करा₹३६, एवं पट्पष्टिसंख्यकानि अभिजिन्नक्षत्राणि ज्ञातव्यानि । एवं श्रवणादि पक्तयोऽपि प्रत्येकं पट्पष्टि संख्यका अवसेया इति सर्वसंख्यया पट् पञ्चाशत् पक्तयो नक्षत्राणां भवन्ति, एकैका च पक्तिः पट् पष्टि संख्येति ॥१६॥ साम्प्रतं ग्रहाणां पक्तीराह-'छावत्तरं गहाणं' इत्यादि, इह मनुष्यलोके ग्रहाणामङ्गारकादीनां सर्वसंख्यया पद सप्तत्यधिकशतसख्यका १६७ पड्क्तयो भवन्ति । तासु 'एक्किक्किया पंतो' एकैका पङ्क्तिः 'छावटि २,' षट् षष्टि-पट् पष्टि संख्याका भवति । भावना चेत्थम्-इह जम्बूद्रोपे दक्षिणतोऽर्द्धभागे एकस्य चन्द्रस्य परिवारभूता अङ्गारकादयोऽटाशीतिम्रहाः सन्ति १। उत्तरतोऽभागे द्वितीयस्य चन्द्रस्य परिवारभूता अङ्गारकादयोऽष्टाशीतिरेव, तत्र दक्षिणतोऽर्द्धमागे योऽङ्गारको ग्रहश्चारं चरन् वर्त्तते तत्समश्रेणिव्यवस्थितो दक्षिणभागे एव द्वावङ्गारको लवणसमुद्रे २, पड़ धातकी खण्डे६, एकविंशतिरङ्गारकाः कालोदे२१, पट् त्रिंशदाभ्यन्तरपुष्करार्दु३६ इति षट्षष्टिः एवं शेषा अपि सप्ताशीतिम्रहाः पत्त्या व्यवस्थिताः प्रत्येकं पट्पष्टि रगारका रवसेया । एवमुत्तरतोऽप्यर्द्ध भागे अङ्गारकादीनामष्टाशोनेर्ग्रहाणां पतयः प्रत्येकं घट्पष्टिसंख्याकाः परिभावनीया इति जायते सर्व संख्यया ग्रहाणां पट्सप्तत्यधिकं पति शतम् (१७६) एकैका च पड्क्ति पद पष्टि संख्याकेति ॥१७॥ एते चन्द्रादयः ग्रहाः कुत्र चारं चरन्तीत्याह-'ते मेरु Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिकाटीका० प्रा० १९ सू. १ चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां संख्यादिकम् ६७३ मणुचरंता' इत्यादि, 'ते' इति ते मनुष्यलोकवर्त्तिनः 'चंदा सूरागह गणाय' सर्वे चन्द्राः सर्वे सूर्याः सर्वे ग्रहगणाश्च " अणवद्वियजोगेर्हि' अनवस्थितयोगैः यथायोगमन्यान्यैर्नक्षत्रेण सह योगै र्युक्ताः सन्तः 'पयाहिणावत्तमंडला' प्रदक्षिणावर्त्तमण्डला प्र प्रकर्षेण सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च परिभ्रमतां चन्द्रादिग्रहाणां दक्षिणे मेरुर्भवति यस्मिन् आवर्त्तने मण्डलपरिभ्रमणरूपे सप्रदक्षिणाः, प्रदक्षिण भवतों येषां मण्डलानां तानि प्रदक्षिणावर्त्तानि एतादृशानि मण्डलानि येषां ते प्रदक्षिणावर्त्तमण्डलाः 'मेरुमणुचरंता' मेरुमनुलक्षीकृत्य - चरन्तीति भावः । अनेनैतदुक्तं भवति सूर्यादयः समस्ता अपि मनुष्यलोकचारिणः प्रदक्षिणावर्त्तमण्डलगत्या परिभ्रमन्तीति न । इह चन्द्रादित्यप्रहाणां मण्डलानि अनवस्थितानि, नत्ववस्थितानि एकरूपेण न तिष्ठन्ति यथा योगमन्यस्मिन्नन्यस्मिन् मण्डले तेषां सञ्चरण शीलत्वात् अतएवोक्तम् ' अणवद्विय जोगेहिं चंदा सूरा गहगणाय" इति ॥ १८ ॥ नक्षत्राणां ताराणां तु मण्डलानि अवस्थितान्येव सन्ति तदेव प्रदर्शयति- 'णक्खत्ततारगाणं' इत्यादि । 'णक्खत्ततारगाणं' नक्षत्राणां तारकाणां च 'मंडला' मण्डलानि 'अवद्विया' अवस्थितानि एक'त्रैवस्थितानि 'मुणेयव्वा' ज्ञातव्यानि । अयं भावः नक्षत्राणां तारकाणां चैकैकं प्रत्येकं मण्डलम् 'आकालमिति सकलकालाविधि' प्रतिनियतमेव भवति । अत्र अवस्थित मण्डलत्वकथने एवं न ज्ञातव्यं यदेतेषां गतिरेव न भवति, किन्तु गतिस्तु भवत्येवेत्यतः सूत्रकार आह'ते विय' इत्यादि ' ते विय' तान्यपि नक्षत्राणि तारकाणि च 'पयाहिणावत्तमेव मेरुं - अणुचरंति' चन्द्रसूर्यग्रहवदेव प्रदक्षिणावर्त्तमेव प्रदक्षिणावर्त्तगत्यैव मेरुमनुचरन्ति मेरुमनुलक्षकृत्यैव परिभ्रमन्ति ॥ १९॥ अथ चन्द्रादित्यानां संक्रमणं किमूर्ध्वमधस्तिर्यग् वा भवतीत्या शङ्कायामाह-'रयणियरदिणयराणं' इत्यादि, 'श्यणियरदिणयराणं' रजनीकर दिनकराणां चन्द्रादित्यानाम् 'उड्नुं च अहे य संकमो नत्थि' संक्रमो नोर्ध्वं नाप्यधः संभवति ' तिरिए' तिर्यग् भवति । तेषाम् 'मंडलसंकमणं पुण' मण्डलसंक्रमणं पुनः 'सभितर बाहिरं' साम्यन्तरबाह्यम् अभ्यन्तरेण बाह्येन च सहितं साभ्यन्तरबाह्यम् सर्वाभ्यन्तरमण्डलात् सर्वबाह्यमण्डलम्, सर्वबाह्यान्मण्डलात्सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं यावत् तिर्यक्त्वेन यातायातरूपं संक्रमणं भवति । अयं भावः - सर्वाभ्यन्तरमण्डलात्परतस्तावन्मण्डलेषु संक्रमणं स्यात् यावत्सर्वबाह्यमण्डलं परिपूर्ण चरितं भवेत् सर्वबाह्यमण्डलपर्यन्तं चारं चरतीत्यर्थः एवं सर्व बाह्यमण्डलादर्वाक् तावन्मण्डलेषु संक्रमणं स्यात् यावत् सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं परिपूं चरितं भवेत् । चन्द्रादित्यानां सर्वाभ्यन्तरमण्डलात्सर्व बाह्यमण्डलम्, सर्व बाह्यमण्डलात्सर्वाभ्यन्तर मण्डलमितीतस्तत एव संक्रमणं तिर्यक्त्वेन भवति तथाविधजगत्स्वाभाव्यादिति ॥२०॥ साम्प्रतं चन्द्रादित्यादीनां चारप्रभावेण मनुष्याणां सुखं दुःखं च भवतीत्याह - रयणियरदि ८५ Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --- ir a nानापनपलमा साममा विपाक ६७४ . . . . . . . .is.. चन्द्रप्राप्तिसने णयराण'. ' इत्यादि, । 'रणियरदिणयराणं रजनीकरदिनकराणा चन्द्रादित्यानाम्, तथा 'नक्खताणं महग्गहाणं च' नक्षत्राणां महाग्रहाणं च । चारविसेसेण'। चारविशेषेण गतिमाश्रित्येत्यर्थः 'मणुस्साणं मुहदुक्खविहोमवे': सनुष्याणां सुखदुःखविधिरिह मनुष्यलोके भवेत् । तथाहि मनुष्याणां कर्माणि द्विविधानि भवन्ति यथा-शुभवेद्यानि अशुभवेद्यानि च । कर्मणां विपाकहेतवस्तु सामान्यतः • पञ्च' भवन्ति यथा द्रव्यं, क्षेत्र, कालो, भावो, भवश्चेति, उक्तञ्च- 1 • ht, o " ।। • "उदयक्खय खओवंसमोवसमा जय कम्मुणों भणिंया । दव्वं च खेत काल भवं भावं च संपप्प ॥११॥' • . ।' उदयक्षयक्षयोपशमोपशमाः यच्च कर्मणों, भणिताः ।" I.. ' " . द्रव्यं च क्षेत्र काल भव'चे भावं च सम्प्राप्यं ॥१॥ इतिच्छाया । "शुभकर्मणां प्रायः शुभवेद्यानों कर्मणा शुभद्रव्यक्षेत्रकालभावभवरूपा सामग्री विपाक हेतुर्भवति, अशुभकर्मणाम् । अशुभवेद्यानां कर्मणाम[भव्यक्षेत्रकालभावभवरूपा सामग्री विपाकहेतुर्भवति ततो यदा येषां कृते चन्द्रादित्यादीनां चारो जन्म नक्षत्रादि विरोधी भवेत्तदो तेषांप्रायो यान्यशुभवेद्यानि कर्माणि भवन्ति तानि ता. तथाविधां विपार्कसामग्री संप्राप्य उदयं प्राप्नुयुः, उदयप्राप्तानि कर्माणि शरीररोगोत्पादनेन धनहानिकरणतो, 'वा, 'इष्टवियोगानिष्टसंयोगचारो जन्मनक्षत्रायनुकूलः स्यात्तदा तेषां प्रायो यानि शुभवेद्यानि कर्माणि उदयप्राप्तानि भवन्ति तानि संपादनतोऽन्यप्रकारतो. वा दुखमुत्पादयन्ति । यदा. च एषां चन्द्रादित्यादीनां तथाविधां विपाकसामग्री सप्राप्य शरीर नोरोगता संपादनतो धनादि वृद्धिकरणतो वा' वैरोपशमनंतः इष्ट सयोगानिष्टविप्रयोगसपादनती वा, प्रारब्धाभीष्टप्रयोजनसिद्धिकरणतोऽन्यप्रकारतो वा सुखं संपादयन्ति अतएव विवेकिनो जना अल्पमपि प्रयोजन शुभतिथिनक्षत्रादि विलोक्यैव समारभन्ते न तु यथा कथञ्चन, अत एव प्रजाजनादि कार्यमधिकृत्य परमविवेकिभिः शुभक्षेत्रे' शुभा 'दिशमभिमुखी कृत्य शुभे तिथिनक्षत्रमुहूर्तादौ प्रवाजनवतारोपणादि कार्य कर्त्तव्यं नान्यथा, 'उक्तञ्च तद्विषयकान्थे। एसा, जिणाण माणा, खिलाईयाय कम्पुणे भणिया। , ... उदयाइ कारणं जा तम्हा सव्वत्थ जइयव्वं ॥१॥"::. : .. . एपा. जिनाना माज्ञा क्षेत्रादिकाश्च कर्मणो भणिताः । उदयादि कारणं, यतू, तस्मात् सर्वत्र यतितव्यम् ॥१॥ इतिछाया । . अस्याः संक्षेपतो व्याख्या-'एसा', इत्यादि, क्षेत्रादयोऽपि.कर्मण उदयादौ कारणो भूताः 'भणिया' भणिताः कथिता जिनेश्वरैः, तस्मात् , 'सव्वत्थ', सर्वत्र , प्रव्राजनवतारोपणादौ शुभ तिथिन्क्षत्रमुहूर्ताद्यालोकने 'जइयवं' यतितव्यं यत्नो विधेयः 'एसा जिणाणमाणा' एषा . . . CIT .. . ग Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका० प्रा०१९ सूर चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां संख्यादिकम् ६७५ जिनानाम्-अतीतानागतवर्तमानकालभाविनां सर्वेषां जिनानामाज्ञाऽस्तीति भावनीयमिति । यद्येवं न कुर्यात् तदा अशुभद्रव्य क्षेत्रादि सामग्री प्राप्य कदाचिद शुभवेद्यानि कर्माणि, विपाकमवलम्ब्य उदयमासादयेयुः, तढदये च सती गृहीतवतेषु तद्भङ्गादि दोष प्रसङ्गः स्यात् । शुभ तिथिनक्षत्रमुह दिबलेन च शुभद्रव्यक्षेत्रादि सामग्रीलाभो भवेत् तेन तथाविधसामय्यां तु प्रायोऽशुभ कर्मविपाकस्य न संभव इति प्रवज्यादि ग्राहकस्य , निविघ्नं सामायिकपरिपालनादि भवेत्तस्माद् अवश्यं छमस्येन सर्वत्र शुभक्षेत्रादौ शुभतिथिनक्षत्रमुहूर्तादि ग्रहणाय यतितव्य मिति गाथा भावार्थः अत्र केचिदाशमन्ते-यद्येवं तहिं यदर्हन्तो भगवन्तः ,शुभतिथिनक्षत्रमुहूर्तादिकमनपेक्ष्येव व्रतानि गृहन्ति कथं तेषां व्रतादिपालनं भवति ? तथा न च तेषां समीपे प्रव्रज्याथै समुपस्थितेषु ते भगवन्तो जगत्स्वामिनः शुभतिथिनक्षत्रमुहर्तादि निरीक्षणं कृतवन्तः प्रत्युत कथितवन्तः, 'जहासुई देवाणुप्पिया मा पडिवंचं करेह' यथासुखं देवानुप्रिय मा प्रतिबन्धं कुरु, इति श्रूयते ? अत्राहते तु भगवन्तोऽर्हन्तोऽतिशयिनो भवेयुस्ततस्ते, स्वातिशयवलादेव सविध्नं निर्विघ्नं वा समधिगच्छन्ति, न ते स्व प्रव्रज्या, ममुपस्थितानां प्रव्रज्यादाने , च शुभ तिथिनक्षत्रमुहूदिक मपेक्षन्ते तेषां तथाविधातिशयसामर्थ्यवत्त्वात् , इति न तन्मार्गानुसरणं छवास्थानां न्याय्यम् । ये चैवं शन्ते ते परममुनिपर्युपासितवचनविडम्बका अपरिमथितजिनशासना गुरुपरम्परागतनिरवद्यविशद-, कालोचितसमाचारी परिपन्थिन. स्वच्छन्दमतिपरिकल्पितसामाचारीका विज्ञेयाः, तेषां यत्कथनम्'प्रवाजनादि धार्मिकशुभकार्येषु न शुभतिथिनक्षत्रमुहर्तादि किमपि निरीक्षणीयम्, 'यदा विरज्येत तदा प्रव्रज्येत' यदा वैराग्य समुत्यद्यते तदैव प्रव्रज्यां गृह्णीयात् इर्ति, तदसत्, मिथ्यात्वविजृम्भितं च तथाविजिनाज्ञासद्भावात् 'आणाधम्मो' इति जिनशासनस्य मौलिकनियमसद्भावाच्चेति ॥२१॥ साम्प्रतं सूर्यचन्द्राणां तापक्षेत्रमाह-'तेसिं पविसंताणं' इत्यादि, 'तेसिं' तेषां सूर्यचन्द्राणां 'पविसंताणं' प्रविशतां सर्वबाह्यमण्डलातू सर्वाभ्यन्तरमन्डले प्रवेशं कुर्वतां तदभिमुखं गच्छतामित्यर्थः 'तावक्खेत्तं तु' तापक्षेत्रं सूर्यस्य, प्रकाशक्षेत्रं च चन्द्रस्य 'निययं नियत मायामतः प्रतिदिन 'वड्ढए' वर्द्धते । 'तेणेव कमेण' तेनैव वर्द्धनक्रमेण 'निक्खमंताणं' निष्क्रमतां सर्वाभ्यन्तर मण्डलात् सर्वबाह्यमण्डलाभिमुख गच्छतां पुनः 'परिहायइ' प्रतिहीयते प्रतिदिनं परि क्षीयते तापक्षेत्रं प्रकाशक्षेत्रं चाल्पमल्पं भवतीत्यर्थः । तथाहि-सर्वेबाह्ये मण्डले चारं चरतां सूर्या चन्द्रमसां प्रत्येकं जम्बूद्वीपचक्रवालस्य -दशधा विभक्तस्य द्वौ दो भागो तापक्षेत्रं भवति, सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलं प्रति गच्छतः प्रतिमण्डलं पष्टयधिकषट्त्रिंशच्छतप्रविभक्तस्य द्वौ द्वौ भागो तापक्षेत्रस्य वर्द्धते, चन्द्रस्य तु मण्डलेपु, प्रत्येकं पौर्णमासी सभवे । क्रमेण प्रतिमण्डलं पइविंशतिः पइविंशति र्भागाः , परिपूर्णाः सप्तविंशतितमस्य च एकः सप्त भाग इति वर्द्धते. एवं च क्रमेण प्रतिमण्डलमभिवृद्धी, यदा सर्वाभ्यन्तरे, मण्डले चार चरतस्तदा प्रत्येकं जम्बू द्वीपचक्रवालस्य त्रयः परिपूर्णा दश भागास्तापक्षेत्रं भवति, ततः-पुनरपि सर्वाभ्यन्तरान्मण्डला(हि. Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ चन्द्रप्रनप्तिसूत्रे निष्क्रमणे सूर्यस्य प्रतिमण्डलं षष्टयधिक षट्त्रिंशच्छतप्रविभक्तस्य जम्बूद्वोपचक्रवालस्य द्वौ द्वौ भागौ परिहीयेते । चन्द्रस्य तु मण्डलेपु प्रत्येकं पौर्णमासी संभवे क्रमेण प्रतिमण्डलं पड् विंशतिः पइविंशतिर्भागाः परिपूर्णाः सप्तविंशतितमस्य च भागस्य एकः सप्तभागः परिहीयन्ते इति ॥२२॥ साम्प्रतं तेषां तापक्षेत्रस्य संस्थानमाह-'तेर्सि' इत्यादि, 'तेसिं चंदसराणं' तेषां चन्द्रसूर्यादीनाम् 'तावक्खेत्तपहा' तापक्षेत्रपथाः तापक्षेत्रमार्गाः 'कलंयुया पुष्फसंठिया हुंति' कदम्बकपुष्पसंस्थिताः नालिका पुष्पाकाराः 'हुंति' भवन्ति' तदेव विशिनष्टि 'अंतो य संकुडा' अन्तश्च संकुचिता: 'अन्तः' इति मेरुदिशि, 'वहिं वित्थडा' बहिर्विस्तृताः । अस्य भावना चतुर्थे प्रामृते प्रागेव कृतेति तत्र विलोकनीयम् ॥२३॥ साम्प्रतं गौतमश्चन्द्रस्य वृद्धयपवृद्धिविषये पृच्छति-'केणं वड्ढइ चंदो' इत्यादि 'केणं' केन कारणेन हे भगवन् 'वड्ढइ चंदो' चन्द्रो वर्धते ! इत्यादि प्रश्नसूत्रगाथा स्पष्टा, तथाहि-केन कारणेन चन्द्रः शुक्लपक्षे वर्द्धते कृष्णपक्षे च तस्य हानिर्भवति ? केन प्रभावेण चन्द्रस्य एक पक्ष काल:-कृष्णः, तथा एकः पक्षश्च 'जोण्हो' ज्योत्स्नः शुक्ल: ? इति प्रश्नः ॥२४॥ भगवान स्योत्तरमाह-'किण्इं राहु विमाणं' इत्यादि इह राहुढिविधः प्रोक्तः-पर्वराहुनित्यराहुश्च, तत्र - पर्वराहुः सः यः कदाचित्पूर्णिमायां समागत्य चन्द्रविमानं निनविमानेनाऽन्तरितं करोति, अन्तरिते कृते च लोके ग्रहणमिति प्रसिद्धिः किन्तु चन्द्रो न गृह्यते । यस्तु नित्यराहुः, तस्य विमानं कृष्णं भवति तदेवाह-'कण्हं राहुविमाणं' कृष्णं राहुविमानमिति, तच्च तथाविधजगत्स्वाभाव्यात् 'निच्चं चंदेण होइ अविरहियं' नित्यं सर्वकालं चन्द्रेण सह अविरहितं विरहरहितं चरति, तच्चाविरहितं किंचन्द्रेण संयुज्य चरति ? तत्राह-नहि, तद् राहु विमानं 'चंदस्स चउरंगुलमसंपत्तं चतुर्भिरडगुलेरसंप्राप्तं सत् चन्द्रविमानादाधश्चतुरड्गुलक्षेत्रं दूरतश्चरति परिभ्रमति ॥२५॥ 'वावर्हि' इत्यादि, 'बावहिं बावर्टि' द्वाषष्टिं द्वाषष्टिम् ।। अयं भावः-इह चन्द्रमण्डलं द्वापष्टि भागात्मकं भवति, पक्षस्य दिवसाः पञ्चदशेति द्वापष्टेः पञ्चदशभिर्भागो हियते लब्धाश्चत्वारः, शेषो भागौ नित्यं राहुणाऽनावृतावेव तिष्ठतस्तत हौ भागौ उपरितनौ यो पञ्चदशभिर्भागे हृते शेषी भूतौ तौ न गण्येते, तान् पञ्चदशभिर्भागहरणालब्धान् चतुरश्चतुरो भागान् चन्द्रमण्डलस्य पञ्चदश भागरूपान् शुक्लप्रतिपदात आरभ्य दिवसे दिवसे राहुः प्रतिविमुञ्चति तस्मात् कारणात् 'परिवडूढइ चंदो' परिवर्द्धते चन्द्रः । एवं क्रमेण पञ्चदशे' दिवसे पूर्णिमायां सर्वभागानामनावृतत्वाच्चन्द्रः परिपूर्णप्रकाशवान् भवति । ततः कृष्णपक्षे प्रति पदात् आरम्य चन्द्रमण्डलस्य पूर्वक्रमेणैन चतुरश्चतुरो भागान् प्रतिदिनं राहुरावृणोति, एवं क्रमेण 'तं चेव कालेणं' तेनैव पञ्चदशदिवसात्मकेन कालेन 'चंदो खवेई' चन्द्रः क्षीयते ततः पञ्चदशे दिवसेऽमावास्यायां अनावृतभागद्वयस्याल्पत्वात् सकलमपि चन्द्रमण्डलं कृष्णं भवत्यतो Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा०१९ सू १ चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां संख्यादिकम् ६७७ न दृश्यते । सूत्रे 'वावटि वावडिं' इति प्रोक्तं तेन 'द्वाषष्टि भागसत्कान् चतुरश्चतुरो भागान इत्यर्थो बोध्यः । शास्त्रभाषया सर्वत्र 'वावर्द्वि बावर्टि' इति लभ्यते, उक्तञ्च समवायाङ्गेऽपि "सुक्कपक्खस्स दिवसे दिवसे चंदो वावर्टि भागे परिवइडई" इति, व्याख्यानं तु सर्वत्र पूर्ववदेव, एतस्यैव सङ्गतत्वात्, अत्रेतादृशस्यैव भगवद्धावस्य गर्मितत्वाच्चेति ॥२६॥ तदेव सूत्रकारो व्याचष्टे - 'पण्णरसभागेण' इत्यादि, कृष्णपक्षे राहुः 'पण्णरसभागेण य' पञ्चदशभागेन राहुविमानस्य पष्टिभागात्मकत्वेन स्वस्य विमानस्य पञ्चदशेन भागेन चतुभार्गात्मकेन 'चंदं पण्णरस मेव' चान्द्र पञ्चदशं भागमेव चन्द्रसम्बन्धिनं पञ्चदशमेव भागं चतुर्भागात्मकम् 'वरई' वृणुतेआच्छादयति । एवं शुल्कपक्षे च 'पुणोवि' पुनरपि 'पण्णरसभागेण य' स्वकीयविमानस्य पञ्चदशेन भागेन वा 'पुणोवि' पुनरपि 'तं चेव' नव वर्द्धनक्रममाश्रिन्य प्रतिदिवस पञ्चदशं भाग चतुर्भागरूपं आत्मीयेन पञ्चदशेन भागेन चतुर्भागरूपेण 'वक्कमई अपक्रामति-पृथग्भवति मुञ्चतीत्यर्थः । अयं भावः कृष्णपक्षे प्रतिपदात आरभ्यात्मीयेन पञ्चदशेन भागेन चतुर्भागरूपेण प्रतिदिवसमेकैकं पञ्चदशं भागं चतुर्भागरूपमुपरितनभागादारभ्याच्छादयति । एवं शुल्कपक्षे प्रतिपदात मारभ्य तेनैव क्रमेण प्रतिदिवसं चन्द्रमण्डलस्य चतुर्भागरूपं पंचदशं भागं प्रकटीकरोति तेन जगति चन्द्रमण्डलस्य वृद्धि हानिश्च प्रतिभासते किन्तु स्वरूपतः पुनश्चन्द्रमण्डलस्य न वृद्धिर्न हानिः, तत्तु यथावस्थितमेव भवति ॥२७॥ अथास्योपसंहारमाह 'एव वड्इ चंदो' इत्यादि, 'एवम् अनेन प्रकारेण नित्यराहुविमानेन प्रतिदिवसमनावृतरूपेण प्रकारेण 'बड्ढा चंदो' शुल्कपक्षे चन्द्रो वद्धते वर्द्धमानः प्रतिभासते । एवमेव राहुविमानेन प्रतिदिवसं क्रमेणा ssवरणकरणनः कृष्णपक्षे 'परिहाणी होई चदस्स' चन्द्रस्य परिहानिर्भवतीति भासते । 'एवणुभावेण' एवम् एतेनानुभावेन कारणेन 'चंदस्स' चन्द्रस्य पक्षः 'कालो वा जुण्होवा' कालोवा ज्योत्स्नोवा भवति एकः पक्ष काल:-कृष्णो भवति एकश्च ज्योत्स्नः ज्योत्स्नावान् शुल्क इत्यर्थः भवति ॥२८॥ अत्र मनुष्यक्षेत्रे चन्द्रादयश्चारिणः सन्ति, नतु स्थिरा इत्याह 'अंतो मणुस्स खेते' इत्यादि. 'अंतो मणुस्स खेत्ते' मनुष्य क्षेत्रस्य मध्ये 'पंचविहा जोइसिया' पञ्चविधा ज्योतिप्काः के ते इत्याह 'चंदा सूरा गहगणाय' चन्द्राः सूर्या ग्रहगणाः च शब्दात् नक्षत्राणि तारकाश्च 'हवंति' भवन्ति । एते सर्वे चतुर्विधा अपि ज्योतिष्काः अत्र 'चारोवगा' चारोपकाः चारं चरन्तः 'उववन्ना' उपपन्नाः लब्धाः चारचारिणो लभ्यन्ते इति भावः ॥२९॥ मनुष्य क्षेत्रा दहियोतिषका अवस्थिता सन्तीत्याह-'तेण परं' इत्यादि, 'तेण परं' तेन परं ततः मनुष्य क्षेत्रात् परम्-अग्रे 'जे सेसा' यानि शेषाणि-बाह्य पुष्कारदीनि क्षेत्राणि सन्ति तत्र 'चंदाइच्च' गहगणतारणक्खत्ता' चन्द्रादित्यग्रहगणतारकनक्षत्राणि, इत्येते सर्वे पञ्चविधा ज्योतिका ये सन्ति तेषाम् 'नथि गई। नास्ति गतिः स्वस्मात्स्थानाच्चलनम्, तथा 'न विचारो' नापि तेषां चारः मण्डलगत्या परिभ्रमणम् । तर्हि किमित्याह-'अवट्ठिया ते' अवस्थितास्ते 'मुणेयवार Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे ६७८ ' 1 3 ' ज्ञातव्याः ॥३०॥ साम्प्रतं तेषां प्रतिद्वीपसम्बन्धिन संख्यां प्रदर्शयति- 'एंवं जंबुद्दीवे' इत्यादि एवं सति 'जंबुद्दीवे दुगुणा ' जम्बूद्वीपे द्विगुणौ एकश्चन्द्र एक, सूर्यः प्रतिखण्डमाश्रित्य द्विगु णौ भवतः द्वौ चन्द्रौ द्वौ सूर्य इत्यर्थः । 'लवणे चउग्गुणा हुंति' लवणे लवणसमुद्रे चन्द्रसूर्यौ चतुर्गुणौ भवतः चत्वारश्चन्द्राः चत्वार एव सूर्या लवणसमुद्रे सन्तीति । 'लावणगा य तिगुणिया लावणकाः लवणसमुद्रगता चन्द्रा सूर्याश्च चतुश्चतुः संख्यकाः सन्ति ते त्रिगुणता यावन्तो भवन्ति, तावन्त' द्वादश द्वादशेत्यर्थः ' धायई संडे' धातकीषण्डे भवन्ति ॥ ३१ ॥ तानेव पृथक् प्रदर्शयति- 'दो चंदा' इत्यादि सुगमम्, एतदर्थं एकत्रिंशत्तमगाथायामनुपद पूर्वमेव गतः ||३२|| साम्प्रतं धातकीपण्डाग्रेतन गत चन्द्रसूर्याणां संख्याकरणविधिमाह - ' धायइसंडप्प. भिइसु' इत्यादि ' धायइसंडप्पभि सु' धातंकीषण्डप्रभृतिषु धातकीषण्डप्रभृतिः आदियेषां ते धातकीपण्डप्रभृतय, तेषु धात कोषण्डप्रमृतिषु धातकीपण्डात् परात्परस्थितेषु द्वीपे समुद्रेषु च 'उद्दिट्ठा' उद्दिष्टाः कथिता द्वादशादयः, यथा घातकीपण्डे द्वादश चंन्द्रा उपलक्षणात्सूर्याश्च, एवममेऽपि च द्रश देन चन्द्रा सूर्याश्चेति उभयेऽपि ग्राह्या' ते 'विगुणिया' त्रिगुणिताः त्रिभिर्गुणिताः सन्तः 'आइल्लचंद सहिया' - आदिमाः पूर्वगत तत्तद्वीपसमुद्रगता जम्बूद्वीपादारभ्य ये चन्द्राः सूर्याश्च भवन्ति तैः सहिताः सन्तो यावन्त चन्द्राः सूर्याश्च भवन्ति तावत् प्रमाणाश्चन्द्राः सूर्याश्च 'अणं नराणंतरे खेत्ते' अनन्तरानन्तरे तत्तद्वीपसमुद्रा दs ये समुद्रा कालोदादयो द्वीपाश्च सन्ति तत्तत्क्षेत्रे भवन्तोनि गाथाया अक्षरगमनिका भावना चेत्थम् - यथा घातकीपण्डे उद्दिष्टा - चन्द्रा द्वादश ते त्रिभिर्गुणिता जाता षट्विगत्, ततः 'आइल्ल चंदसहिया' आदिमचन्द्रः सहिताः कार्या इति आदिमा चन्द्राः पट् यथा द्वौ चन्द्रौ जम्बूद्वीपे, चत्वारो लवणसमुद्रे इति षट् तैरादिमैः पभिश्चन्द्रैः सहिताः जायन्ते द्वाचत्वारिंशत् इति कालोदे समुद्रे द्वाचत्वारिंश चन्द्रा, एतावन्त एव सूर्याश्च भवन्ति एवं कालोदे समुद्रे उद्दिष्टाश्चन्द्रा द्विचत्वारिंशत् ते त्रिभिर्गुणिताः जायन्ते षड्विंशत्यधिकं शतं चन्द्राणाम्, अत्रादिमचन्द्रा - अष्टादश तथाहि द्वौ जम्बूद्वीपे, चत्वारो वलवणसमुद्रे, द्वादश धातकीपण्डे, इति जाता अष्टादश, एतै रादिमचन्द्र सहितं पविंग, शतं जातं चतुश्चत्वारिंशं शतम् (१४४), एतावन्तः पुष्करवर द्वीपे चन्द्रास्तत्साहचर्यात्सूर्जाश्च भवन्ति । एवमग्रे दोपसमुद्रेषु अनेनैव विधिना चन्द्र सख्या . सूर्यसख्या च वेदितव्या ॥ ३३॥ साम्प्रतं प्रतिद्वीप प्रतिसमुद्रस्थितानां, नक्षत्र ग्रह ताराणां परिमाणपरिज्ञानविधि प्रदर्शयति- 'रिक्खग्गहताररंग' इत्यादि 'रिक्खग्गहतारगं' ऋक्षग्रहताराणाम् अग्रपरिमाणम् अग्रशब्दोऽत्र परिमाणवाचकः, 'दीवसमुद्दे' द्वीपसमुद्रे द्वीपे समुद्रे च स्थितानाम् ‘जइच्छसी णाउं' यदि ज्ञातुमिच्छति तदा 'तस्स सिहि' तत्तद्वीपसमुद्र सम्बन्धिभिः शनिभि चन्द्रैः एव सर्वैश्च 'तग्गुणियरिखग्गहतारगगं' तद्गुणितं नत्एकस्य चन्द्रस्य परिवारभूतं नक्षत्रपरिमाणं ग्रहपरिमाणं तारापरिमाणं च यत् पूर्वं प्रदर्शितं " 1 5 , T Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका० प्रा०१९ सू.१ चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां संख्यादिकम् ६७९ तद् गुणितं तत्तद्वोपसमुद्रस्थित चन्द्रपरिमाणेन गुणनं कर्त्तव्यम्, गुणनेन यावन्ति नक्षत्राणि यावन्तो ग्रहाः यावत्यश्च तारा लभ्यन्ते तावत्प्रमाणा नक्षत्रादयस्तत्र तत्र द्वापे समुझे वा विज्ञातव्याः । तथाहि-यथा लवणसमुद्रे नक्षत्रादि परिमाणं ज्ञातुमिष्टं, लवणसमुद्रे च चत्वार श्चन्दा., तत एकस्य चन्द्रस्य परिवारभूतानि यान्यष्टाविंशतिनक्षत्राणि तानि चतुर्भिर्गुण्यन्ते जातं द्वादशोत्तरं शतम् (११२) एतान्ति लवणसमुद्रे नक्षत्राणि भवन्ति । एवं ग्रहा अष्टाशीतिरेकस्य शशिनः परिवारभूतास्ततस्ते चतुर्मि र्गुणिता जायन्ते द्वि पञ्चाशदधिकानि त्रीणि शतानि (३५२), एतावन्तो लवणसमुद्रे ग्रहा भवन्ति । एवमेव एकस्य शशिनः परिवारभूता स्ताराः कोटी कोटीनां पट्पष्टिः सहस्राणि नवशतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि (६६९७५) सन्ति, तानि चतुर्भिर्गुणिते-जातानि-कोटी कोटीना द्वे लक्षे, सप्तपष्टि- सहस्राणि, नव शतानि (२, ६७, ९००, ०००००००, ०००००००) एतावत्यो लवणसमुद्रे तारागणा कोटी कोट्यः, एवं रूपा च नक्षत्रादीनां संख्या प्राक् प्रोक्तैव । अनयैव रीत्या सर्वेष्वपि द्वीपसमुद्रेषु नक्षत्रादि संख्यापरिभावनीयेति ॥३४॥ साम्प्रतं मनुष्यक्षेत्रवहिर्गतानां चन्द्रादीनां वक्तव्यतामाह'पहिया ३' इत्यादि, 'माणुसनगरस वहिया ३' मानुपनगस्य मानुषोत्तरपर्वतस्य बहिस्तु 'चंदसराणं जोहा' चन्द्रसूर्याणां ज्योत्स्ना तेजः 'अवट्टिया' अवस्थिता सदाकाले समाना भवति न तु न्यूनाधिकत्वं तस्याः । अयं. भावः-सूर्यास्तत्र सदैवाऽनत्युष्णतेजसस्तिष्ठन्ति मनुध्यलोके . सूर्या यथा ग्रीष्मकालेऽत्युप्णतेजसो भवन्ति न तथा तत्र जातुचिदपि अत्युष्णतेज सो भवन्ति । चन्द्रा अपि सदैवानतिशोतलेश्याकाः, यथा मनुष्यक्षेत्रे शिशिरकाले चन्द्रा अतिशीतप्रकाशा भवन्ति न तथा तत्र कदाचिदपि अतिशीतप्रकाशा भवन्ति किन्तु सर्वदा समान स्थितिका एव निष्ठन्ति अत्र नक्षत्रयोगमाह-'चंदा अभोईजुत्ता' इत्यादि, तत्र मनुष्यक्षेत्रा द्वहिः-सर्वेऽपि चन्द्रा' सर्वदैव 'अभीईजुत्ता'. अभिजिदयुक्ताः अभिजिन्नक्षत्रेण योग युञ्जाना एव तिष्ठन्ति । 'सुरा पुण हुति पुस्सेहि' सूर्याः पुन भवन्ति पुष्यैः, तत्र सूर्याश्च सर्वे सर्वदैव पुष्यनक्षत्रैरव युक्तास्तिष्ठन्ति, न तु तत्र तेषां कदाचनापि मण्डलगत्या भ्रमणं भवति, ते सदाऽवस्थिता एव तिष्ठन्तोति ॥३५॥ साम्प्रतं चन्द्रसूर्ययोः परस्परमन्तरमाह 'चंदाओ' इत्यादि 'चंदाओ सूरस्स य' चन्द्रात् सूर्यस्य, एव सूर्याच्चन्द्रस्य चान्तरम् 'पण्णास सहस्साइंतु जोयणाणं अणणाइ' पञ्चाशत्सहस्राणि (५००००) योज़नानि अन्यूनानि परिपूर्णानि योजनानां परिपूर्ण पञ्चाशत्सहस्रयोजनपरिमितं चन्द्रसूर्योः परस्परमन्तरम् ' 'होइ' भवतीति ॥३६॥ अथ सूर्य सूर्ययो श्चन्द्रचन्द्रयो श्चान्तरमाह-'सूरस्स य सूरस्स य' इत्यादि 'वहि तु माणुसनगस्स' मानु पोत्तरपर्वतस्य वहिः "सूरस्स य सूरस्स य ससिणो ससिणो य' सूर्यस्य सूर्यस्य परस्परं चन्द्रस्य चन्द्रस्य च परस्परमन्तरम्। 'जोयणाणं सयसहस्सं' योजनानां शतसहस्र-लक्षयोजनपरिमित मन्तरं भवतीत्यर्थः । तथाहि-तत्र चन्द्रान्तरिताः सूर्याः सूर्यान्तरिताश्चन्द्राः व्यवस्थिताः, द्वयोश्चन्द्र Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिसूत्रे योर्मध्ये एकः सूर्यो वर्त्तते, द्वयोः सूर्ययोर्मध्ये एक श्चन्द्रो वर्तते ततश्चन्द्रसूर्ययोः परस्परमन्तरं पञ्चाशद् योजनसहस्राणि ततश्चन्द्रस्य चन्द्रस्य सूर्यस्य सूर्यस्य परस्परं लक्षयोजनपरिमित मन्तरं भवति, एकस्मात् सूर्यात् द्वितीयः सूर्यो लक्षयोजनव्यवधानेन व्यवस्थितः, एवमेकस्मा चन्द्राद् द्वितीयश्चन्द्रोऽपि लक्षयोजनव्यवघानेन व्यवस्थित इति ॥३७॥ तदेवाह-सूत्रकार 'सूरतरिया चंदा' इत्यादि स्पष्टम् पूर्व व्याख्यातत्त्वात्, नवर कथम्भूतास्ते चन्द्रसूर्याः १ तबाह 'चित्तरलेसागा' चित्रान्तरलेश्याकाः चन्द्रसूर्याः परस्परमन्तरिताः सन्तः चित्रलेश्याकाः भिन्नभिन्नलेश्यावन्तः चन्द्राणां शीतरश्मिकत्वात् सूर्याणां चोष्णरश्मिकत्वात् । लेश्याविशेष प्रदर्शयन्नाह- 'मुहलेस्सा मंदळेस्साय' सुखलेश्यामन्दलेश्याश्च, तत्र चन्द्राः सुखलेश्याः सुखदलेश्यावन्तः न हि मनुष्यक्षेत्रस्थितचन्द्रवत् शीतकालेऽत्यन्तशीतरश्मयः सन्ति, एवं सूर्याः मन्दलेश्याः, न हि मनुप्यक्षेत्रस्थितसूर्यवत् ग्रोप्मकाले एकान्तोष्णरश्मयः किन्तु साधारण तेजसः सन्ति ॥३८॥ इह पूर्वमुक्तम्-यत्र द्वीपे समुद्रवा ग्रहादिपरिमाणं ज्ञातुमिच्छेत् तदा एकशशिपरिवारभूत ग्रहादि परिमाणं तत्तद्वीपममुद्रगतसख्यया गुणयितव्यमिति, तत एकशशिपरिवारभूतानां ग्रहादीना संख्यामाह-'अट्ठासीईगहा' इत्यादि गाथाद्वयं पाठसिद्ध तथापि स्पष्टीक्रियते--- एकस्य शशिनः परिवारभूता ग्रहा अष्टाशीति (८८), नक्षत्राणि अष्टा विंशतिः (२८) ताराश्च कोटी कोटीनां पट् पष्टिः सहस्राणि, नवशानि पञ्चसप्तप्रत्यधिकानि (६६९७५) एतावान्'एगससीपरिवारो तारागण कोडिकोड़ीण' एकशशिपरिवारः पूर्व प्रदर्शित-संख्यकः तारागणकोटीकोटीनां प्रोक्तः ॥३९॥४०॥ इत्येतत्पर्यन्तं जीवाभिगमातिदेशेन प्रोकस्य यावच्छब्दग्राह्यस्य पाठस्य व्याख्या ।।सु०॥१॥ इहान्यान्यपि सूत्राणि प्रविरलपुस्तकेषु दृश्यन्ते, न सर्वेषु पुस्तकेषु तत स्तान्यपि उपयोगित्वाद विनेयजनानुग्रहाय प्रदान्ते 'अंतो मणुस्सखेत्ते' इत्यादि । मूलम्-तामणुस्सखेते जे चंदिमसरिय गहगण णक्खत्तताराख्वा तेणं देवा कि उड्ढोववन्नगा कप्पोववन्नगा विमाणोववण्णगा चारोववण्णगा, चारहिइया गइसमावण्णगा । ता ते ण देवा णो उड्ढोववण्णगा, नो कप्पोववण्णगां, विमाणोववण्णगा,, चारोववण्णगा, नो चारहिइया, गइरइया गइसमावण्णगा, उड्ढमुहकलंघुयपुप्पसंठाणसंठिएहिं जोयण साहस्सिएहि तावक्खेत्तेहिं साहस्सियाहि वाहिराहिय वेउन्चियाहिं परिसाहिं महयाहय णट्टगीयवाइयत्तीतलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पवाइ य रवेणं महया उक्किठिसीहनाद बोलकलकलरवेणं अच्छं पव्वयरायं पयाहिणावत्तमंडलचारं मेरुं अणुपरियति । ता तेसि णं देवाणं जाहे इंदे चयइ से कहमियाणि पकरेंति ? ता चत्तारि पंच सामाणिय देवा तं ठाणं उपसंपज्जिताणं विहरंति . जाव : अण्णे इत्थ इंदे उववण्णे- भवइ । ता Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका० प्रा०१९ सू २ मनुण्यक्षेत्रस्थित चन्द्रादिदेवानां उत्पत्तिक्षेत्रम् ६८१ 'इंदट्ठाणे णं केवइएणं कालेणं विरहिए पण्णत्ते ? ता जहण्णेणं इक्कं समयं उक्कोसेणं छम्मासे ॥ ता पहियाणं मणुस्सखेत्ते जे चंदिममरियगहगणणक्खत्तताराख्वा ते णं देवा कि उड्ढोववण्णगा कप्पोववण्णगा विमाणोववण्णगा चारहिइया गइरइया गइसमान: पणगा । ता ते णं देवा णो उड्ढोववण्णगा नो कप्पोववण्णगा, विमाणोववण्णगा, णो. चारोबवण्णगा चारहिइया नो गइरइया, नो गइसमावण्णगा पक्किट्ठगसंठाणसंठिएहिं जोयणसयसाहस्सिएहिं तावक्खेत्तेहि, सयसाहस्सिएहिं वाहिरियाहिं वेउब्वियाहिं परिसाहिं महयाहयनदृगोय वाइय जाव रवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई झुंजमाणा विहरंति मुहलेस्सा मंदलेस्सा मंदायलेस्सा चित्तंतरलेस्सा अण्णोण्णसमोगाढाहिं लेस्साहिं कूडा. इव ठाणाटिया ते पएसे सन्चओ समंता ओभासें ति उज्जोवेंति तवेंति पभासे ति । ता तेसिणं देवाणं जाहे इंदे चयइसे कहमियाणि पकरेंति । ता चत्तारि पंच सामाणियदेवा तं ठाणं उवसंपज्जित्ताणं विहरंति जाव अण्णे इत्थ इंदे उववण्णे भवइ । वा इंदहाणे णं केवइएणं कालेणं विरहिए पण्णत्ते ता जहण्णेणं एक्कं समयं उकोसेणं छम्मासे । सू० २॥ छाया-अतमनुष्यक्षेत्रे ये चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाः ते खलु देवाः किम्जोपपन्नकाः १ कल्पोपपन्नकाः ? विमानोपपन्नकाः ? चारोपपन्नकाः ? चारस्थितिका? गतिरतिकाः १ गतिसमापन्नकाः ? तावत् ते खलु देवा नो ऊोपपन्नकाः, नो कल्पोपपम्नकाः, विमानोपपन्नकाः, चारोपपन्नकाः नो चारस्थितिकाः, गतिरतिकार, गतिसमा. पन्नकाः ऊर्ध्वमुखकदम्बकपुष्पसंस्थानसंस्थितैः योजनसाहनिकैः तापक्षेत्रः, साहस्रिकाभिर्वाह्याभिश्च वैकुर्विकाभिः पर्पद्भिः महताहतनाटयगोतवादिवतन्त्रोतलताल त्रुटितघनमृदङ्ग पटुवादितरवेण महता उत्कृष्टि सिंहनाद-चोलकलकलरवेण अच्छं पर्वतराज प्रदक्षिणावर्त मण्डलचारं मेरु मणुपर्यटन्ति । तावत् तेषां खलु देवानां यदा इन्द्रप्रच्यवते अथ कर्मिदानी प्रकुर्वन्ति ? तावत् चत्वारः पञ्च सामानिकदेवाः तत् स्थानमुपसंपद्य खलु विहरति यावत् अन्योऽत्र इन्द्र उपपन्नो भवति । तावत् इन्द्रस्थानं खलु कियता कालेन विरहितं प्रवासम् १ तावत् जघन्येन एकं समयम् उत्कर्षेण षण्मासान् ॥ तावत् बहिः खलु मनुष्य क्षेत्रे ये चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाः ते खलु देवाः किम्-उधोपपन्नकाः कल्पोपपन्नकाः, विमानोपपन्नकाः ? चारस्थितिकाः ? गतिरतिकाः ? गतिसमापन्नगाः १ तावत ते खलु देवाः नो ऊोपपन्नकाः नो कल्पोपपन्नकाः, विमानोपपन्नकाः, नो चारोपपन्नका पारस्थितिकाः, नो गतिरतिकाः, नो गतिसमापन्नकाः, पक्वेष्टिका संस्थानसंस्थितः योजनशतसाहनिकै तापक्षेत्रः शतसाहनिकाभिर्वाह्यवैकुर्विकाभि पर्षद्भिः महताहतनाट्यगीतवादित्र यावद् रवेण दिव्यान् भोगभोगान् भुजाना विहरन्ति, सुखलेश्याः, मन्दलेश्या, मन्दातपलेश्याः, चित्रान्तरलेश्याः अन्योन्य समवगाढाभिलेश्याभिः कूटा श्व Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . चन्द्रप्राप्तिस्त्र स्थानस्थिताः तान् प्रदेशान् सर्वतः समन्ताद् अवभासयन्ति, उद्योतयन्ति, तापयन्ति, प्रभासयन्ति । तावत् तेषां खलु देवानां यदा इन्द्रः च्यवते अथ कथमिदानी प्रकुर्वन्तिी तावत् चत्वारः'पञ्च सामानिकदेवा तत् स्थानमुपसंपद्य खलु विहरन्ति यावद् अन्योऽत्र इन्द्रः उपपन्नो भवति । तावत् इन्द्रस्थान खलु कियता कालेन विरहितं प्राप्तम् ? तावद जघन्येन एक समयम् उत्कृष्टेन पण्मासान् (सू०२)। '. • व्याख्या-'अंतो मणुस्स खेते' इति, मनुष्यक्षेत्रमध्ये ये चन्द्रादयो देवास्ते किम् 'उड्ढोववन्नगा' इत्यादि, ऊोपपन्नकाः उचं सौधर्मादि द्वादशकल्पेभ्य उपरि उपपन्नाः '? कि कल्पोपपन्नकाः सौधर्मादिकल्पेषु उपपन्नाः ! किं विमानोपपन्नाः सामान्यविमानेपु उपपनाः किं चारोपपन्नकाः, चारो मण्डलगत्या परिभ्रमणं, तमुपपन्नाः तमाश्रिताः ? किं चारस्थितिका:-चारस्य स्थितिरभावो येषां ते तथा चारवर्जिताः ? गतिरतिकाः गतौ रतिरासक्तिर्येषां ते तथा गतिप्रिया: 'अत्रं गतौ रतिमात्रेमुक्तम्, साम्प्रतं साक्षाद् गतिविषयं प्रश्नं करोति, 'किं गइ समांपन्नगा' किं गतिसमापन्नकाः गतियुक्ताः ? भगवानाह-'ता ते णं देवा' इत्यादि, तावत् ते चन्द्रसूर्यादयों देवों नो ऊोपपन्नकाः नापि कल्पोपपन्नकाः किन्तु विमानोपपन्नकाः विमानेष्वेव ज्योंतिष्कविमानेष्वेव तेषामुत्पत्तिसद्भावात्, तथा चारोपपन्नकाः परिभ्रमणशीलाः किन्तु नो चारस्थितिका चाररहिता नेत्यर्थः, गतिरतिकाः स्वभावतोऽपि गतिप्रियास्ते देवाः, एतावदेव न किन्तु गतिसमापन्नकाः . गतियुक्ता अपि सन्ति मनुष्यक्षेत्रान्तर्वर्तिनश्चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपा अहेवा, इति । साम्प्रतमेपां तापक्षेत्रादिवक्तव्यतामाह-'उड्दमुह' इत्यादि, ऊर्ध्वमुखीकृतकदः नकपुष्पवत् संस्थानम् अन्तः संकुचितबहिर्विस्तृतत्वात्तादृशं संस्थानं तेन संस्थितैः तदाकारैः योजनसहिनिकैः अनेकसहस्रयोजनप्रमाणैस्तापक्षेत्रैः, साहनिकाभिः अनेक सहस्रसंख्याभिर्वा याभिः, अत्र 'बहुवचनं व्यक्तय पेक्षया, वैकुर्विकाभिः विकुर्वितनानारूपधारिणीभिः पर्पद्धिः' 'महयाहय इत्यादि तत्र महताहतानि महता रवेणेत्यग्रेण सम्बन्धः, अहतानि अक्षतानि असवलि तानि यानि नाट्यानि गीतानि वादित्राणि च, याश्च तन्त्र्यो-वीणाः ये च तलतालाः हस्ततालाः, यानि च त्रुटितानि-शेषाणि तूर्याणि, ये च घनाः-घनाकाराः ध्वनिसाधात् पटुना-निपुणपुरुषेण प्रवादिता मृदङ्गाः, तेषां महता रवेण, तथा 'महयाउक्किद्विसीहनादकलकलरवेणं' उत्कृष्टितः स्वभाः बतो गतिरतिकबाह्यपरिषदन्तर्गतर्देवैर्वेगेन गच्छत्सु विमानेषु उत्कर्षवशात् ये मुच्यन्ते सिंहनादाः : सिंहगर्जनरूपाः शब्दाः, यश्च क्रियमाणो बोलः, बोलो नाम यत् मुखे हस्तं दत्त्वा महताशब्देन प्रतिक्रयतेः सः, यश्च कलकलो व्याकुलः शब्दसमूहः, तद्रवेण, एतादृश शब्दपूर्वक मित्यर्थः 'अच्छं' "अंतीवं स्वच्छम् अतिनिर्मलजाम्बूनदरत्नबहुलत्वात् पर्वतराजं पर्वतेन्द्रं 'पयाहिणावत्तमंडलचार' प्रदक्षिणावर्त्तमण्डलगत्या प्र-प्रकर्षण दिक्षु विदिक्षु च परिभ्रमतां चन्द्रादीनां मेरुदक्षिण एवं भवति यस्मिन्नावर्ते मण्डलपरिभ्रमणरूपे स प्रदक्षिणः, एतादृशः, प्रदक्षिण भावत्तों येषां ।। । Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका प्रा०६९ सू. २ मनुष्यक्षेत्रस्थितचन्द्रादिदेवानां उत्पत्तिक्षेत्रम् ६३ मण्डलानां तानि तथा प्रदक्षिणावर्त्तानि मण्डलानि तेषां गत्या चारः परिभ्रमणं यत्र स तथा, तं तादृशं मेरुम् 'अणुपरियति' मेरुमनुलक्षीकृत्य पर्यटन्ति परिभ्रमन्ति । साम्प्रतं तत्रत्येन्द्रस्यव्यवने ते किं कुर्वन्तोति पृच्छति-'ता तेसिणंदेवाणं' इत्यादि, प्रश्नसूत्रं सुगमम्-तेषां देवानां यदा इन्द्रमध्यवते तदा ते तदानीं किं प्रकुर्वन्तीतिभावः। भगवानाह-'ता चत्तारि' इत्यादि, तेपामिन्द्रो यदा च्यवते तदा चत्वारः पञ्च वा सामानिकदेवा मिलित्वा तदिन्द्रस्थानमुपसंपद्यमधिकृत्य विहरन्ति तत्स्थानं परिपालयन्तीत्यर्थः, कियदवधि ? इत्याह- 'जाव अण्णे' इत्यादि, यावदन्यइन्द्रः अत्र इन्द्ररथाने इन्द्रत्वेन उपपन्नो भवति तावदिति । अथ-इन्द्रस्थानस्य विरहकालं पृच्छति-'ता इंदहाणेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् तदिन्द्रस्थानं कियता कालेन कियत्कालपर्यन्तम् 'विरहियं विरहितम्-इन्दरहितं प्रज्ञप्तम् ? इति प्रश्नः भगवानाह-'ता जहण्णेणं एक्कं समय इत्यादि, तदिन्द्रस्थानं जघन्येन एकं समयं यावत्. उत्कर्षेण षण्मासान् यावत् इन्द्रस्थानमिन्द्रेण रहितं तिष्ठति ततो नाधिकं कालम्, षण्मासान्ते तु तत्रेन्द्रस्यावश्यमुपपातसद्भावादिति । इति मनुष्यक्षेत्रवक्तव्यता । ___अथ मनुष्यक्षेत्राद्वहिर्वतिनां चन्द्रादीनां वक्तव्यतामाह -'ता वहियाणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'पहियाणं माणुस्सखेत्तस्स' मनुष्यक्षेत्रस्य बहिः, इत्यादि प्रश्नसूत्रं मनुष्यक्षेत्र वदेव । उत्तरमपि तद्वदेव, नवरमत्र गतिविषये १, तापक्षेत्रसंस्थानप्रमाणविषये २, बाह्यपर्पत्संख्याविषये ३, दिव्यभोगविपये च ४, नानात्वं वर्त्तते, तथाहि-मनुष्यक्षेत्र वर्तिनश्चन्द्रादयः चारोपपन्नकाः न तु चारस्थितिकाः गतिरतिकाः गतिसमापन्नकाः प्रोक्ताः, अत्रत्या मनुष्यक्षेत्रबहिर्वतिनश्चन्द्रादयस्तु नो चारोपपन्नकाः किन्तु चारेस्थितिका:-चाररहिताः, नो गतिरतिकाः नो गतिसमापन्नकाः नो गतियुक्ता वर्तन्ते इत्येवं गतिविषयकं नानात्वम मनुष्यक्षेत्रवर्तिनां तापक्षेत्रमूर्वीकृतकदम्बकपुष्पसंस्थानसंस्थितं योजनसाहस्निकं तापक्षेत्र मुक्तम् , 'मत्र मनुष्यक्षेत्राहिः पक्वेष्टकासंस्थानसस्थितं योजनशतसाहनिकं तापक्षेत्रम् , यथा • पका इष्टका आयामतो दीर्घा विस्तरतस्तु स्तोका चतुरस्रा च तथा तेषामपि मनुष्यक्षेत्रा दहियंवस्थितानां चन्द्रसूर्याणामातपक्षेत्राण्यपि आयामतोऽनेकयोजनशतसहस्रप्रमाणानि, विस्तरत एक योजनशतसहस्राणि चतुरस्राणि चेति तापक्षेत्रसंस्थानप्रमाणविषयकं नानात्वम् । अन्तर्मनुष्यक्षेत्रे चन्द्रसूर्यादयः अनेकसहस्रसंख्याभिः कुर्विकबाह्यपर्पद्भिः साढै नाट्यगीतवादित्रादिरवेण उत्कृष्टसिंहनादवोलकलकलरवेण प्रदक्षिणावर्त्तमण्डलचारं मेरुमनुलक्षीकृत्य पर्यटन्ति, अत्र मनुण्यक्षेत्र बहि'वर्तिनश्चन्द्रादयस्तु अनेकशतसहस्रप्रमिताभिवै कुविकबाह्यपर्पद्भिः साई नाट्यगीतवादिनादिरवेण दिव्यान् भोगभोगान् भुनाना विहरन्तीति पर्पद विषयकं दिव्यभोगभोगविषयनानात्वम् ॥ . ' . 'कथम्भूतास्ते मनुष्यक्षेत्रबहिर्वर्त्तिनश्चन्द्रसूर्याः ? इत्याह-'मुहलेस्सा' सुखलेश्याः एतद्विशेषण Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्ति चन्द्राणां तेन तत्रत्याश्चन्द्राः नातिशीतप्रकाशाः किन्तु सुखोत्पादकहेतुपरमलेश्या युक्ताः सन्ति । मंदलेश्याः-एतद्विशेषणं सूर्याणाम् तेन तत्रत्याः सूर्याः नात्युष्णतेजसः, एतदेव व्याचष्टेमंदातवलेस्सा' मन्दातपलेश्याः, मन्दा मनत्युप्ण स्वभावा मातपरूपा लेश्या रश्मिसमूहो येषां ते तथा । पुनः कीदृशाश्चन्द्रादित्याः ? इत्याह-'चित्तंतरलेस्सा' चित्रान्तरलेश्याः चित्र विचित्रम् अन्तरम्-अन्तरालं परस्परव्यवधानरूपं लेश्या च येषां ते, तथा, ते इत्थम्भूताश्चन्द्रादित्याः 'अण्णोण्णसमोगाढाहिं लेस्साहि' अन्योन्यसमवगाढाभिः परस्परसंमिलिताभिः लेश्याभिः प्रभाभिः, तथाहि-चन्द्राणां सूर्याणां च प्रत्येकं लेश्या योजनशतसहस्रप्रमाणविस्ताराः, सूचि पकचा व्यवस्थितानां च तेषां चन्द्रसूर्याणां परस्परमन्तरं पश्चाशत् पश्चाशद् योजनसहस्राणि, ततश्चन्द्रप्रभासंमिश्राः सूर्यप्रभाः, सूर्यप्रभासमिश्राश्च चन्द्रप्रभा इति, इत्थं परस्पर समवगाढा. भिर्लेश्याभिः 'कूडाइव ठाणहिया' कूटानोव पर्वतोपरिव्यवस्थितशिखराणीव स्थानस्थिताः स्थाने स्वस्थाने एव सदाकालं स्थिताः सन्तः 'ते परसे' तान् स्वस्व प्रत्यासन्नान प्रदेशान् 'सबओ समंता' सर्वतः समन्तात् दिक्षु-विदिक्षु 'ओभासंति' अवभासयन्तिप्रकाशयन्ति, 'उज्जोति' उद्योतयन्ति दीप्ति युक्तानि कुर्वन्ति, 'ताति' तापयन्ति सुखदतापयुकानि कुर्वन्ति "पभासेंति' प्रभासयन्ति भासमानानि कुर्वन्ति । अन्यत्सर्वं मनुष्यक्षेत्रकथितवदेव व्याख्येयम्, तथाहि-इन्द्रच्यवने चतुः पञ्च सामानिकदेवद्वारा इन्द्रस्थानपरिरक्षणम्-तत्र-इन्द्रविरहकालो जघन्येन एक समयं यावत् , उत्कृष्टेन पण्मासान् यावद् भवतीति भावः ॥सू० २॥ . 'गता पुष्करवरद्वीपवक्तव्यता, साम्प्रतं तदने स्थितानां द्वीपसमुद्राणां वक्तव्यतां प्रति पादयन् प्रथमं पुष्करवरद्वीपं पुष्करोदः समुद्रः संपरिवेष्टय तिष्ठतीति तद्वक्तव्यतामाह-'ता पुक्खरवरं णं दीव' इत्यादि । ... मूलम्-ता पुक्खरवरं णं दीवं पुक्खरोदे णामं समुद्दे बट्टे वलयागारसंठाणसंठिए नाव चिहइ, एवं विक्खभो, परिक्खेवो जोइस च भाणियव्यं जहा जीवाभिगमे जाव सयंभूरमणे ॥१० ३॥ .. छाया-तावत् पुष्कारवर खलु द्वीपं पुकारोदो नाम समुद्रः वृत्तः वलयाकार संस्थानसंस्थितः यावत् तिष्ठति, एवं विष्कम्भा, परिक्षेप, ज्योतिष्कंच भणितव्यं यथा नीवाभिगमे यावत् स्वयम्भूरमण । सू० ३॥ . . व्याख्या-'ता पुक्खरवरं णं दीवं' इति 'ता' तावत् 'पुक्खरवरं णं दीव' पुष्कर वरं : खल द्वीपम् . 'पुक्खरोदे णामं समुद्दे' पुष्करोदो नाम समुद्रः, कीदृशः ? इत्याह-'वट्टे' इत्यादि, 'वट्टे' वृत्तः गोलाकारः, गोलाकारस्तु घनरूपेणापि स्यादत आह-'वलयागारसंठाण संठिए' वलयाकारम् अन्तः शुषिरत्वात्, तद्रूपं सस्थान माकारः, तेन संस्थितः वलयाकृति Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका० प्रा०६९ सू. ३ पुष्करवरद्वीपसबन्धीवक्तव्यता ६८५ युक इत्यर्थः 'जाव' यावत् अत्र यावत् पदेन 'सव्यो समंता संपरिक्खित्ता गं' इति संग्राह्यम् । स पुष्करोदः समुद्रः पुष्करवरं द्वीपं सर्वतः समन्तात् दिक्षु विदिक्षु च संपरिक्षिप्य परिवेष्टय तिष्ठतीति । अथाऽतिदेशमाह-एवं' इत्यादि, एवम् अनेन प्रकारेण तस्य पुष्करोदसमु द्रस्य 'विक्खंभो' विष्कम्भः, दैर्यविस्ताररूपः 'परिक्खेवो' परिक्षेपः परिधिः, 'जोइसं' ज्योतिकं ज्योतिश्चक्रं चन्द्रसूर्यनक्षत्रग्रहगणतारारूपं च 'भाणियव्वं' भणितव्यं वक्तव्यम् । कथ: मित्याह-'जहा जीवाभिगमे' यथा येन प्रकारेण जीवाभिगमसूत्रे कथितं तथैवात्रापि वाच्यम् । कियत्पर्यन्त मित्याह-'जाव सयंभूरमणे' यावत्स्वयम्भूरमणसमुद्रः पुष्करोदसमुद्रादारभ्य मध्यगतद्वीपसमुद्रान् सगृह्य स्वयम्भूरमणसमुद्रपर्यन्तं वक्तव्यता सर्वाऽत्र पठनीयेति ॥सू०३॥ सम्प्रतं जीवाभिगमसूत्रातिदेशेन प्रोक्तः पाठः प्रदर्श्यते-'ता पुक्खरोदे णं समुद्दे इत्यादि । __मूलम्-ता पुक्खरोदेणं समुद्दे किं समचक्कवालसंठिए जाव णो विसमचक्कवाल संठिए । ता पुक्खरोदे णं समुद्दे केवइए चक्कवालविक्खंभेणं ? केवइए परिक्खेवेणं आहिए ? तिवएज्जा, ता संखेज्जाई जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं, संखेज्जाई जोयपसहस्साई परिक्खेवेणं आहिए तिवएज्जा । ता पुवखरोदे णं समुद्दे केवइया चंदा पभा: सिंह ३ पुच्छा तहेव । ता पुक्खरोदे णं समुद्दे संखेज्जा चंदा पभासिंस 3 जाव संखेज्जाओ तारागणकोडाकोडीओ सोमं सोभिंसुवा ३। एएणं अभिलावेणं वरुणवरे दीवे वरुणोदे समुद्दे ४, खीरवरे दीवे खीरोदे समुद्दे ५, घयवरे दीवे घयोदे समुद्दे ६, खोयवरे दीवे खोयोदे समुद्दे ७, गंदिस्सरवरे दीवे णंदिस्सरवरे समुद्दे ८, अरुणे. दीवे अरुणोदे समुद्दे ९, अरुणवरे दीवे अरुणवरे समुद्दे १० अरुणवरोभासे दीवे अरुणवरोभासे समुद्दे ११, कुंडलदीवे कुंडलोदे समुद्दे १२, कुंडलवरे दीवे कुंडलवरोदे समुद्दे १३, कुंडलवरोभासे दीवे कुंडलवरोभासे समुद्दे १४१, सव्वेसि विक्खंभपरिक्खेवो जोइसाई पुक्खरोदसागरसरिसाई ॥सू ॥४॥ छाया-तावत् पुष्करवरोदः खलु समुद्र किं समचक्रवालसंस्थितः यावत नो विषमचक्रवालसंस्थितः । तावत् पुष्करोदः खलु समुद्रः कियान् चक्रवालविष्कम्मेण ! कियान परिक्षेपेण आख्यातः ? इति वदेत् । तावत् ॥२० ये यानि योजनसहस्राणि आयामविष्कम्मेण, संख्येयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण आख्यात इति वदेत् । तावत प्रक रोदे खलु समुद्र कियन्त चन्द्राः प्राभासयन् वा ३ पृच्छा तथैव । तावत् पुष्करोदेखने समुद्रे संख्येयाश्चन्द्राः प्राभासयन् वा ३ यावत् संख्येयास्तारागणकोटोकोटयः, शोभा मशोमन्त वा ३॥ एतेनाभिलापेन-चरुणवरो द्वीपः, वरुणोदः समुद्रः ४, क्षीरवरो द्वीपः क्षीरोदः समुद्रः ५, धृतवरो द्वीप. घृतोदः समुद्रः ६, क्षोदवरो द्वीप. खोदोदः समुद्र नन्दीश्वरवरो द्वीपः नन्दीश्वरवरः समुद्रः ८, अरुणो द्वीपः अरुणोदः समुद्रः ९, अरुणवर्स . Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ चन्द्रप्रप्तिसूत्रे द्वीपः अरुणवरः समुद्रः १०, अरुणवरावभासो द्वीपः अरुणवरावभासः समुद्रः ११, कुण्डलो द्वीपः, कुण्डलोदः समुद्रः १२ कुण्डलवरो द्वीपः कुण्डलवरोदः समुद्रः १३, कुण्डलवरावभासो द्वीपः कुण्डलवरावभासः समुद्रः १४, सर्वेषां विष्कम्भः परिक्षेपः ज्योतिष्काणि पुष्करोदसागरसदृशानि |||||| व्याख्या- 'ता पुक्खरोदे णं समुद्दे' इत्यादि, 'ता' तावत् ' पुक्खरोदे णं समुद्दे' पुष्करोदः खल्लु समुद्रः यः पुष्करवर द्वीपं सर्वतः समन्तात् परिवेष्टय स्थितः स समुद्रः 'कि समचक्कवालसंठिए' किं समचक्रवालसंस्थितः ? ' जाव' यावत् यावत्पदेन किं विषमचक्रवालसंस्थितः ? इति प्रश्नः, पुष्करवरोदः समुद्रोऽपि पूर्वोक्तान्यसमुद्रवत् समचक्रवालसंस्थितः किन्तु 'नो विसमचक्कवालसंठिए' विषमचक्रवालसंस्थितो न । तस्य चक्रवालविष्कम्भपरिक्षेप विष यकप्रश्नसूत्रं सुगमम् । उत्तरमाह - 'ता संखेज्जाई जोयणसहस्साई' संख्येय सहस्रयोजन - परिमितस्तस्यायामविष्कम्भः, संख्येयसहस्रयोजनपरिमितएकपरिधिरित्युत्तरम् । एवं ज्योतिष्कदेवानां चन्द्रसूर्यनक्षत्रप्रहगणतारा अपि संख्येया एव व्याख्येयाः । प्रश्नसूत्राणि उत्तरसूत्राणि च 'संख्येया' इति पदमधिकृत्य व्याख्येयानि यथा - 'ता पुक्खरोदे णं समुद्दे केवइया चंदा पभासिनु वा ३, इति प्रश्नसूत्रमुक्त्वा 'ता पुक्खरोदेणं समुद्दे संखेज्जा चंदा पभासिसु वा, ३, एवमुत्तरसूत्रं वाच्यम् । एवमेव सूर्यनक्षत्रग्रहगणताराणामपि प्रश्नसूत्राणि उत्तरसूत्राणि च स्वयम्हनीयानि । अथाप्रेतनं चतुर्थे वरुणवरद्वीपमारभ्य चतुर्दश कुण्डलवरावभाससमुद्रपर्यन्तानां द्वीपानां समुद्राणाम् आयामविष्कम्भः परिधिज्योतिष्कं च सर्वमपि संख्यात योजनसहस्रत्वेनैव व्याख्येयम् । सर्वेऽपि द्वीपा समुद्राश्च समचक्रवालसंस्थिता एव न तु विषमचक्रवालसंस्थिताः, इत्येवमधिकारमाश्रित्य चतुर्दशानां द्वीपानां चतुर्दशानां समुद्राणां चातिदेशेन नामान्याह-'एएणं अभिलावेणं' इत्यादि, 'एएणं अभिलावेणं' एतेन पुष्करवरद्वीपपुष्करोदसमुद्रसदृशेनैव अभिलापेन 'वरुणवरे दीवे वरुणोदे समुद्दे' वरुणवरो द्वीपः वरुणोद समुद्रः इत्येवं चतुर्थद्वीपसमुद्रादारभ्य चतुर्दश द्वीपसमुद्रपर्यन्तं सर्वे सुगमं तत्सूत्रपाठादेबाबगन्तव्यम् । तदेवाह सूत्रकारः - 'सव्वेसिं' इत्यादि, 'सव्वेसि विक्खभपरिक्खेवो जोइसाई पुक्खरोदसागरसरिसाई' सर्वेषामेषां चतुर्थाद्वीपसमुद्राच्चतुदर्श द्वीपसमुद्रपर्यन्तानां विष्कम्भ 'परिक्षेपः, ज्योतिष्काणि सर्वाणि पुष्करोदसमुद्रसदृशानि व्याख्येयानि । तथा हि-संख्येयसहस्र- : योजनो विष्कम्भः संख्येयसहस्रयोजनः परिक्षेपः, संख्येया एव प्रत्येकं चन्द्रसूर्यनक्षत्रग्रहगणतारा 'वाच्या इति । साम्प्रतं द्वीपसमुद्रगतदेवानां समुद्रगतजलानां च भावना क्रियते 1 , पुष्करोदे च समुद्रे नलमतिस्वच्छं पथ्यं जात्यं तथ्यपरिणामं स्फटिकवर्णनिभं प्रकृत्या .. उदकरसम् । तत्र श्रीधरः श्रीप्रभश्चेति नामानौ द्वौ देवो आधिपत्यं परिपालयतः, तत्र श्रीधरः पुभ्करोदसमुद्रस्य पूर्वार्द्धाधिपतिः श्रीप्रभश्चापरार्द्धाधिपतिरिति । अस्य पुष्करोदसमुद्रस्यायॉमो· , 1 Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बतिप्रकाशिका टीका०प्रा. १९ सू.४ पुष्करवद्वीपसंबन्धीवक्तव्यता ६८७ विष्कम्भः ज्योतिश्चक्रं चेत्येषां व्याख्या सुगमा अथातिदेशमाह - 'एएणं अभिलावेणं' इत्यादि, 'एएणं' एतेन पुष्करोदसमुद्रमं तेन अभिलापेन आलापकप्रकारेण 'अरुणवरे दीवे' इत्यादि. अरुणवरो द्वीपो वक्तव्यः, तदनन्तरं वरुणोदः समुद्रः ततः क्षीरवरो द्वीपः क्षीरोदः समुद्रः, इत्यादि, चतुर्दश द्वीपसमुदपर्यन्तं वाच्यम् । तत्र वरुणवरे द्वीपे च वरुणवरुणप्रभौ द्वौ देवौ तत्स्वामिनौ, तयोराद्येो वरुणदेवः पूर्वार्द्धाधिपतिः, द्वितीयो वरुणप्रभश्चापरार्द्धाघिपतिः । एवमग्रेऽपि सर्वत्र भावनीयम् । वरुणोदे समुद्रे परम सुजातमृद्वो का निष्पन्नरसादपीष्टतराऽऽस्वादयुक्तं जलं विद्यते । तत्र वारुणि- वारुणिप्रभौ देवौ ४ । क्षीरवरे द्वीपे पण्डरसुप्रदन्तौ द्वौ देवौ, क्षीरोदे समुद्रे जात्य पुण्ड्रेक्षुचारिणीनां गवां यत् क्षीरं, तदन्याभ्यो गोभ्यो दीयते, तासामपि क्षीरमन्याभ्यः, तासामप्यन्याभ्यः, एवं चतुर्थस्थान पर्यवसितस्य क्षीरस्य प्रयत्नतो मन्दाग्निना क्वथितस्य नात्येन खन्डेन मत्स्यण्डिकया सम्मिश्रस्य यादृशो रसो भवति तस्माद पीष्टतरस्वादं तत्कालविकसितश्वेत कर्णिकारपुष्पवर्णाभं च जलं वर्त्तते । विमल- विमलप्रभौच तत्र देवौ ५ । घृतवरे द्वीपे कनक - कनकप्रभौ देवौ, घृतोदे समुद्रे सद्यो विस्यन्दित गो घृतास्वादं तत्कालविकसितश्वेत कर्णिकार पुष्पवर्णाभं च नलं वर्त्तते । कान्तसुकान्त नामानौ तत्र देवौ ६ । क्षोदवरे द्वीपे क्षोदः - इक्षुः, सुप्रभमहाप्रभौ देवौ, क्षोदोदे जात्यवर पुण्ड्राणामिक्षूणामपनीतमूलोपरि त्रिभागानां विशिष्टगन्धद्रव्यपरिवासितानां यो रसः श्लक्ष्ण वस्त्रपरिपूतो यादृशास्वादयुक्तो भवेत्तस्मादपीष्टतरास्वाद बहुलं नलं वर्त्तते । पूर्ण- पूर्णप्रभौ च तत्र देवौ |७| नन्दीश्वरे द्वीपे कैलास - हस्तिवाहनौ देवौ, नन्दीश्वरे समुद्रे इक्षुरसास्वादं जलं, सुमनः सौमनसौ देवौ ८, एते अष्टावपि जम्बूद्वी पादारभ्य नन्दीश्वरद्वीपनन्दीश्वरसमुद्र पर्यन्ता द्वीपाः, समुद्राश्च एकप्रत्यवतारा एकैकरूपा यन्नामको द्वीपः तन्नामक एवं समुद्रः, एवं रूपेण एकैकरूपा इत्यर्थः अत ऊर्ध्वतु ये षड् द्वीपा ये षट् समुद्राश्च ते त्रिप्रत्यवताराः त्रयस्त्रयः संदृशनामानः, तथाहि – अरुणः, अरुणवरः अरुणावभासः, कुण्डलः कुण्डलवरः, कुण्डलावभासः, एते षड्द्दीपाः, एतन्नामान एव पट् समुद्रा इति । एवं जातानि द्वीपसमुद्राणां चतुर्दश युग्मानीति १४ । तत्र पट्सु द्वीपसमुद्रयुग्मेषु अरुणे द्वीपे अशोकवीतशोकौ देवौ, अरुणोदे समुद्रे सुभद्र- मनोभद्रौ देवौ ? अरुणवरे द्वीपे अरुणवरभद्रा - ऽरुणवरमहाभद्रौ अरुणवरे समुद्रे - अरुण वरभद्रा - रुणवरमहाभद्रौ अरुणवरावभासे द्वीपे अरुणवरावभासभद्रा - ऽरुणवरावभासमहाभदौ, अरुणवरावभासे समुद्र - अरुणवरावभासवरा - Sरुणवरावभास महावरौ १९, कुण्डले द्वीपे कुण्डल- कुण्डलभद्रौ देवौ, कुण्डलसमुद्रे चक्षुः शुभ-चक्षुः कान्तौ १२, कुण्डलवरे द्वीपे कुण्डलवरभद्र-कुण्डलवरमहाभद्रौ, कुण्डलवरे समुद्र कुण्डलवर - कुण्डलमहावरौ १३, कुण्डलवरावभासे द्वीपे कुण्डलवरावभासभद्र - कुण्डलवरावभासमहाभदौ, कुण्डलवरावभासे समुदे कुण्डलवरावभासेवर - कुण्डलवरावभासमहावरौ द्वौ देवौ स्तः, तत्र एकः पूर्वार्द्धाधिपतिरपरोऽपरार्द्धाधिपतिरस्तीति 1 "" १०१ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .६८८.. .. .. . , , चन्द्रप्राप्तिस्ले १४ एवं चतुर्दश द्वीपाश्चतुर्दशैव समुद्राश्च तथा तेपामधिपतयो देवाश्च प्रतिपादिताः सूत्रोपात्ता 'एते सर्वे संख्यातसहस्रयोजनप्रमाणविष्कम्भपरिक्षेपसंख्येयज्योतिष्फवन्तश्च सन्तीति ॥४॥ । पूर्व पुष्करोदसमुद्रादारभ्य कुण्डलवरावभाससमुद्रपर्यन्ताश्चतुर्दश द्वीपाश्चतुर्दश समुद्राः संख्यातसहस्रयोजनप्रमाणविष्कम्भपरिक्षेपवन्तः संख्याताश्चन्द्रादयश्च प्रोक्ताः, साम्प्रतं ये असंयातयोजनसहस्रप्रमाणविष्कम्भपरिक्षेपवन्तः असंख्यातचन्द्रादिमन्तो द्वीपाः समुद्राश्च सन्ति तान् सूत्रकारः साक्षादेव प्रदर्शयति, तत्र प्रथमं यः कुण्डलवरावभासः समुद्रो वर्णितस्तं को द्वीपो परिवेष्टय तिष्ठति ? इत्यादि स्वयम्भूरमणद्वीपसमुद्रपर्यन्तानां द्वीपसमुद्राणां वक्तव्यता माह-'ता कुंडलवरोभासणं समुई' इत्यादि । । 1, मूलम्-ता कुण्डलवरोभासणं समुदं रुयए दीवे वट्ट वलयागारसंठाणसंठिए सबमो समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठइ । ता रुयएणं दीवे किं समचक्कवालसंठिए विसमचक्कवालसंठिए.? । ता समचक्कवालसंठिए नो विसमचक्कवालसंठिए । ता रुयएणं दीवे केवडए विक्खंभेणं ? केवइए परिक्खेवेणं आहिए ? ति वएज्जा । ता असंक्खेज्जाई जोगणसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं, असंक्खेज्जाइं जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं आहिए ति वएज्जा.। ता रुयएणं दीवे केवइया चंदा पभासिसुवा पुच्छा ता रुयगेणं दीवे असंखेज्जा चंदा पभासिंह। वा ३, नाव 'असंखेज्जो तारागणकोडिकोडीओ सोमं . सोभिंसुवाः३। एवं रुयगोदे समुद्दे, रुयगवरे 'दीवे रुयगवरोदे 'समुद्दे रुयगवरोभासे दीवे रुयगवरोभासे समुद्दे । एवं 'तिपडोयारा 'णेयव्वा जाव सूरे दीवे सरोदे , समुद्दे, सूरवरे.दीवे सूरवरोदे समुद्दे सरवरोभासे दीवे सूरवरोभासोदे समुद्दे । सव्वेसि विक्खंभपरिक्खेवजोइसाई, रुयगदीव 'सरिसाई । ता सूरवरोभासोदणं 'समुई देवे : णाम दीवे पट्टे वलयागारसंठाणसंठिए सम्बओ दोवे समंता संपरिक्खित्ताण चिटइ। जाव णो विसमचक्कवालसंठिए । ता देवेणं - केवइए चक्कवालविक्खंभेणं ? केवइए परिक्खेवेणं आहिए ।' तिवएज्जा । ता असंखेज्जाई जोयणसहस्साई चक्कवालविक्खभेणं, असंखेज्जाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं आहिए ति वएज्जा । ता देवेणं दीवे- केवइया चंदा पभासिसुवा ३, । पुच्छा तहेव । ता देवेणं दीवे असंखेज्जा चंदा पभासिसुवा ३, जाव असखेज्जाओ तारांगण कोडिकोडीओ सोभं सोभिंमुवा ३ एवं देवोदे समुद्दे, णागे दीवे णागोदे समुद्दे जक्खे दीवे जक्खोदे समुद्दे, भूते दीवे भूतोदे समुहे सयंभूरमणे दीवे सयंभूरमणे समुद्दे सव्वे देव दीवसरिसा ॥सू० ५॥ । ' . ॥ एगूणवीसइमं पाडुडं समत्तं ॥१९॥ । ।। छाया तावत् कुण्डलवरावभासं खलु समुद्र रुचको द्वीपो वृत्तो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात् सपरिक्षिप्य खलु तिष्ठति । तावत् रुचकः खलु द्वीप: Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका० प्रा०१९ सू.४ चन्द्रादिमन्तरद्वीपसमुद्रनिरूपणम् ६८९. किं समचक्रवालसंस्थितः नो. विपमचक्रवालसंस्थितः ? । तावत् समचक्रवालसस्थितः नो विपमचक्रचालसंस्थितः । तावत् रुचकः खलु द्वीपः कियान् विष्कम्मेण ? कियान्परिक्षेपेण आख्यानः । इति वदेत् । तावत् असंख्येयानि योजनसहस्राणि चक्रवाल विष्कम्मेण, असंख्येयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण आख्यात इति वदेत् । तावत् रुचके खलु द्वीपे कियन्तश्चन्द्राः प्राभासयन् वा ३ पृच्छा। तावत् रुचके खलु द्वोपे असं व्येया श्चन्द्राः प्राभासयन् वा ३ यावत् असंख्येया स्तारागण कोटीकोटयः शोभामशोभन्त वा 31 पर्व रुचकोदः समुद्रः रुचकवरो द्वीपः रुचकवरोदः समुद्रः रुचकवरावभासो द्वीपो रुचकवरावभासः समुद्रः । पवं त्रिप्रत्यवतारा ज्ञातव्याः, यावत् सूर्यो द्वीपः सूर्योदः समुद्रः सूर्यवरो द्वीपः सूर्यवरोदः समुद्रः सूर्यवरावभासो द्वीपः सूर्यवरावभासोदः समुद्रः। सर्वेषां विष्कम्भपरिक्षेप-ज्योतिप्काणि रुचकद्वीपसद्रशानि । तावत् सूर्यवरावभासोदं खलु समुद्रं देवो नाम द्वीपो वृत्तो वलयाकारसंस्थानसस्थितः सर्वतः समन्तात् संपरि क्षिप्य खलु तिष्ठति यावत् नो विषमचक्रवालसंस्थितः । तावत् देवः खलु द्वीपः कियान् चक्रचालविष्कम्मेण ? कियान् परिक्षेपेण आख्यातः १ इति वदेत् । तावत् असं. ख्येयानि योजनसहस्राणि चकवालविष्कम्मेण असंख्येयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपे ण आख्यात इति वदेत् । तावत् देवे खलु द्वीपे कियन्तश्चन्द्राः प्राभासयन् वा ३ पृच्छा तथैव । तावत् देवे खलु द्वीपे असंख्येयाश्चन्द्रा प्राभासयन् वा ३, यावत् असंख्येयास्तारागणकोटो कोटयः शोभामशोभन्त वा ३। पवं देवोदः, समुद्रः, नागो द्वीपो नागोदः समुद्रः, यक्षो द्वीपः यक्षोदः समुद्रः, भूतो द्वीपः भूतोदः समुद्रः, स्वयम्भूरमणो द्वीपः स्वयम्भूरमणः समुद्रः, सर्वे देवद्वीपसदृशाः ॥सू०॥४॥ __ एकोनविंशतितमं प्राभृतं समाप्तम् ॥१९॥ व्याख्या-'कुंडलवरोभासणं समुई' इति 'कुंडलवरोभासणं समुद्द' कुण्डलवरावभास खलु समुद्रं रुचको द्वीपो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्यपरिवेष्टय खलु तिष्ठति, इत्यादि सुगमम् तथाहि-रुचको द्वीपः समचक्रवालसंस्थितः किन्तु विषमचक्रवालसंस्थितो न । अस्य विष्कम्भः परिक्षेपश्च असंख्येययोजनसहस्रप्रमाणः । अत्र चन्द्रसूर्यनक्षत्रग्रहगणतारा असंख्येया वर्तन्ते । 'एवं रुचगोदे समुद्दे' इत्यादि एवम्अनेनैव प्रकारेण रुचकः समुद्रः, रुचकवरो द्वीपः, रुचकवरोदः समुद्रः रुचकवरावभासो द्वीपः रुचकवरावभासः समुद्रः ‘एवं' इत्यादि, एवमनेन प्रकारेणैव तिपडोयारा' त्रिप्रत्यवताराः, त्रयः प्रत्यवताराः सदृशनामरूपा येषु येषां वा ते त्रिप्रत्यवतारा ज्ञातव्याः कियत्पर्यन्तमित्याह'जाव' इत्यादि 'जाव' यावत् 'सूरे दीवे' इत्यादि, सूर्यसूर्यवरसूर्यावभासा द्वीपाः; एतन्नामान एव समुद्राश्च प्रत्येकद्वीपस्याने ज्ञातव्याः एते सर्वे त्रिप्रत्यवतारा वर्तन्ते । 'सव्वेर्सि' इत्यादि, सर्वेषामेतेषां रुचकसमुद्रप्रभृतीनो सूर्यवरावभाससमुद्रपर्यन्तानां विष्कम्भः, परिक्षेपः ज्योतिष्काणि च 'रुयगदोवसरिसाई' रुचकद्वीपसदृशानि तथाच-असंख्येययोजनसहनप्रमाणो विष्कम्भः परिक्षेपश्च Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे प्रत्येकमसख्येयानि चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्राणि असंख्येयास्तारागणकोटोकोट्य इति । अत ऊर्च देवादयः पञ्च पञ्चद्वीपाः समुद्राश्च एक प्रत्यवताराः इति उक्तञ्च जीवाभिगमसूत्रे "देवे नागे जक्खे, भूयेय सयंभूरमणे य, एक्केक्के चेव भाणियब्वे तिपडोयारं नत्थि" इति । ते एव प्रदर्श्यन्ते- 'सूरवरोभासोदण्णं' इत्यादि अत्र पूर्वोक्तमन्तिमं सूर्यवरावभासोदं समुद्रम् 'देवे णामं दोवे' देवो नाम द्वीपः वृत्तो वलयाकारसंस्थिन. सर्वतः ममन्तात् संपरिक्षिप्य तिष्ठिति । अयं देवो द्वीपः समचक्रवालसंस्थितः किन्तु नो विपमचक्रवाल संस्थितः अस्य विष्कम्भः परिक्षेपश्च असंख्येययोजनसहनप्रमाणः चन्द्रादयश्चासंख्येया व्याख्येयाः ‘एवं देवोदे' इत्यादि, देवोदः समुद्रः १ नागो द्वीपो नागोदः समुद्रः २, यक्षो द्वीपो यक्षोदः समुद्रः ३, भूतो बीएो भूतोदः समुद्रः ४, स्वयम्भूरमणो द्वीपः स्वयम्भूरमणः समुद्रः । 'सव्वे' इति सर्वे एते देवोदः समुद्रः, नागादयो द्वोपाः, नागोदादयः समुद्राश्रेति सर्वे 'देवदीवसरिसा' देवद्वीपसदृशाः, अतो देवद्वीपवदेव व्याख्येयाः । देवादि द्वीपसमुद्रगतं देवानां भावना चेत्थम् देवे द्वीपे देवभद्र-देवमहाभद्री पूर्वापरार्द्ध भागस्वामिनी स्तः, एवं देवे समुद्रे-देववर-देवमहावरो, नागद्वीपे नागभद्र-नागमहाभद्रौ, नागे समुद्रे नागवर-नागमहावरौ, यक्षे द्वीपे यक्षभद्र-यक्षमहाभद्रौ, यक्षे समुद्रे यक्षवर-यक्षमहावरी, भूते द्वीपे भूतभद्र भूत महाभद्रौ भूते समुदे भूतवर-भूतमहावरौ-स्वयम्भूरमणे समुद्रे स्वयम्भूवरस्वयम्भूमहावरी देवौ स्वामित्वेन तिष्ठत इति । इह नन्दीश्वरादयः सर्वे समुद्राः भूतसमुद्रपर्यवसाना इक्षरसोद (क्षोदोद) समुद्रसदृशोदकाः प्रतिपत्तव्याः । स्वरम्भूरमणसमुद्रस्य .तु उदकं पुष्करोदसमुद्रोदकसदृशं ज्ञातव्यम् । तथा जम्बूद्वीप इति नामानोऽसंख्येया द्वीपाः लवण इति नामानोऽसंख्येयाः समुद्राः, एवं तावद् वाच्यं यावत् सूर्यवरावभासइति नाम्ना असंख्येया समुद्राः । ये तु पञ्चदेवादयो द्वीपाः, पञ्च देवोदादयः समुद्रास्ते एकैका एवावसेया न तु त्रिप्रत्यवताराः, उक्तञ्च जीवाभिगमे"केवइया णं भंते ! जंबूद्दीवा दीया पन्नत्ता ! । गोयमा ! असंखेज्जा पन्नत्ता । केवइयाणं भंते ! देवदीवा पन्नत्ता ! गोयमा ! एगे देवदीवे पण्णत्ते । दसवि एगागारा" इति छायाकियन्तः खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपाः द्वीपा प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! असख्येयाः प्रज्ञप्ताः । कियन्तः खल भदन्त । देवद्वीपाः प्रज्ञप्ताः ! गौतम ! एको देव द्वोपः प्रज्ञप्तः । दशापि एकाकाराः ॥इति । 'दशापि' इति दश-देव-नाग-यक्ष-भूत-स्वयम्भरमणे तिनामानः पञ्च द्वीपाः, एतन्नामान एव पञ्चसमुद्रा इति दश एते दश एकाकाराः एकप्रत्यवताराः सन्तीति । सू० ४ ।। इति श्री जैनाचार्यजैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलालवति। विरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाख्यायां व्याख्यायामेकोनविंशतितमं प्राभृतं समाप्तम् ॥ १९ ॥ Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका० प्रा०२० सु. १ | अथ विंशतितमं प्राभृतम् । तदेव मुक्तमेकोनविंशतितमं प्राभृतम्, तत्र जम्बूद्वीपादारभ्य स्वयम्भूरमणसमुद्रपर्य - न्तानां द्वीपसमुद्राणां संस्थानविष्कम्भ-परिधिज्योतिश्चक्राणां वक्तव्यता प्रोक्ता । अथ विंशतितम प्राभृतं व्याख्यायते, अत्रायमर्थाधिकारः - पूर्वमधिकारसंग्रह गाथायामुक्तम्- 'अणुभावे केरिसे - वुत्ते' अनुभावः कीदृश उक्त इति, अनेन सम्बन्धेनास्मिन् प्राभृते चन्द्रसूर्याणामनुभावः प्रदर्शयिप्यते इति तद्विषयं प्रथमं सूत्रमाह- 'ता कहं ते अणुभावे' इत्यादि । चन्द्रसूर्याणामनुभावनिरूपणम् ६९१ मूलम् - ता कहं ते अणुभावे आदिए ? ति वएज्जा । तत्थ खलु इमाओ दो पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ तं जहा तत्थेगे एवमाहंसु-ता चंदिमसूरियाणं णो जीवा, अजीवा, णो घणा, सिरा, णो वादरवोंदिधरा, कलेवरा, नत्थि णं तेर्सि उट्ठाणे वा, कम्मे या, बले वा, वीरिए इ वा, पुरिसक्कारपरक्कमे इ चा, ते णोविज्जुं लवंति, णो असणि लवंति, णो यणियं लवंति, अहेय णं वायरे वाउकार संमुच्छ, अहेय णं वायरे वाउकाए समुच्छित्ता विज्जपि, लवंति असर्णिपि लवंति, थणियंपि लवंति, एगे एव माह-ता चंदिमसूरियाणं जीवा, णो भजीवा, घणा, नो झुसिरा, वायरवोंदिधरा, नो कलेवरा, अस्थि णं तेसिं उट्ठाणे इ वा, कम्मे इवा, वले इ वा, वीरिए इ वा, पुरिसक्कार परक्कमे इवा, ते विज्जुंपि लवंति, असणिपि लवंति, थणियंपि लवंति, एगे एवमाह ॥ २ ॥ चयं पुण एवं वयामो-ता चंदिमसूरियाणं देवा महिड्डूढिया महाजुइया महाबला महाजसा महासोक्खा महाणुभावा वरवत्थधरा वरमल्लधरा वराभरणधारी अव्वच्छित्तिणयद्वयाए अण्णे चयंति अण्णे उववज्जति । सू० १ । छाया - तावत् कथं ते अनुभावः आख्यातः ? इति वदेत् तत्र खलु इमे द्वे प्रतिपत्ती प्रज्ञप्ते, तद्यथा-तत्रैके एवमाहुः - तावत् चन्द्रसूर्याः खलु नो जीवाः, अजीवा नो घनाः, शुपिरा. नो वादोंदिधराः, कलेवराः, नास्ति खलु तेषाम् उत्थानमितिवा, कर्मेतिवा, बलमिति वा वीर्यमिति वा पुरुषकारपराक्रम इतिवा, ते नो विद्युतं प्रवर्त्तयन्ति, नो अशनिं प्रवर्त्तयन्ति, नो स्तनितं प्रवर्त्तयन्ति, अधश्च खलु वादरो वायुकायः संमूर्च्छति, अधश्च खलु वादरो वायुकायः संमूर्छार्य विद्युतमपि प्रवर्तयन्ति, अशनिमपि प्रवर्त्तयन्ति, स्तनितमपि प्रवर्त्तयन्ति एके एवमाहुः ॥१॥ एके पुनरेवमाहुः - तावत् चन्द्रसूर्याः खलु जीवाः, नो अजीवा, घना, नो शुपिराः, बादरवदिधराः नो कलेवरा, अस्ति खलु तेषाम् उत्थानमितिवा, कर्मेतिवा, बलमितिवा, वीर्यमितिवा पुरुषकारपराक्रम इतिवा, ते विद्युतमपि प्रवर्त्तयन्ति, अशनिमपि प्रवर्त्तयन्ति स्तनितमपि प्रवर्त्तयन्ति एके पवमाहुः ||२|| वयं पुनरेवं वदामः तावत् चन्द्रसूर्याः खलु देवाः महर्द्धिकाः महाद्युतिकाः महाबला- महायशसः महा सौख्याः, महानुभावाः वरवस्त्रधराः वरमाल्यधराः, वराभरणधारिणः अव्युच्छित्तिनयार्थतया अन्ये च्यवन्ते अन्ये उपपद्यन्ते ॥ ० ॥ १ ॥ Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रनन्तिसूत्रे 1 व्याख्या - 'ता कहते' इति 'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण 'ते' त्वया 'अणुभावे ' अनुभावः चन्द्रसूर्याणां स्वरूपविशेषः 'आहिए' आख्यातः कथितः ? ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् ! इति गौतमेन पृष्टे भगवानाह - ' तत्थ खलु' इत्यादि, 'तत्थ णं' तत्र चन्द्रसूर्यानुभावविषये खल 'इमाओ' इमे वक्ष्यमाणे 'दो पडिवत्तीओ' हे प्रति पत्ती 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ते, 'तं जहा ' तद्यथा ते द्वे यथा - 'तत्थ' तत्र द्वयोर्मध्ये 'एगे' एके प्रथमप्रतिपत्तिवादिनः ' एवं ' अनेन वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहंसु' आहुः कथयन्ति । किं कथयन्ति ? इत्याह- 'ता चंदिमसूरियाणं' इत्यादि, 'ता' तावत् चंदिमसूरियाणं' चन्द्रसूर्याः चन्द्रमसः सूर्याश्च खलु 'णो जीवा' नो जीवाः जीवरूपा न, किन्तु 'अजीवा' अजीवाः जीववर्जिताः सन्ति, तथा 'णो घणा' नो घनाः निविडप्रदेशोपचया न, किन्तु 'झुसिरा' शुषिराः वलयवद् अन्तः प्रदेशरहिताः सन्ति, तथा 'णो वादरवदिधरा' नो बादरवोन्दिधराः, स्थूलशरीरधारकाः प्रधानसजीव सुव्यक्तावयवशरीरोपेता न, किन्तु ' कलेवरा' कलेवराः प्राण, रहित केवलशरीररूपाः, तथा 'नत्थि णं तेसिं' नास्ति खलु तेषां चन्द्रसूर्याणाम् 'उडाणे इवा' उत्थानमिति वा, उत्थानम् - ऊर्ध्वभवनरूपम् 'इति' उपदर्शने 'वा' समुच्चये 'वि' विकल्पे वा, 'कम्मे इ वा' कर्मेति वा कर्म - उत्क्षेपणावक्षेपणरूपं कर्मापि तेपां नास्ति तथा 'बलेइवा' बलमिति वा बलं शरीरसमुद्भवप्राणरूपं तदपि तेषां नास्ति तथा 'वीरिए इवा' वीर्य मितिवा, वीर्यम् - आन्तरोत्साहरूपं तदपि तेषां न तथा ' पुरिसक्कार परक्कमे इवा' पुरुषकारपराक्रममिति वा, तत्र पुरुषकार: ' पुरुषत्व समुद्भूतगौरवरूपः साघितस्वाभिमतप्रयोजनरूपः स एव एतौ द्वावपि तेषां नस्तः, अत एव ते न काञ्चन क्रियामपि कुर्वन्तीति प्रदर्शयति 'ते णो' इत्यादि, ते चन्द्रसूर्याः 'णो विज्जुं लवंति' नो विद्युतं प्रवर्त्तयन्ति कुर्वन्ति, 'वृतुवर्त्तने' इत्यस्य प्राकृते लबादेशसंभवात् प्रवर्त्तयन्तीति रूपम् । 'नो असणि लवंति" नो अशनिं प्रवर्त्तयन्ति, अशनिमिति विशिष्टप्रकारा अतिविकटगर्जन् सहिता विद्युदेव, 'नो थणियं लवंति' 'नो स्तनितं गर्जनं प्रवर्त्तयन्ति । तर्हि किमित्याह-'अहेय' इत्यादि, 'अहेय' अश्व तेषां चन्द्रसूर्याणां 'वायरे वाउकाए' बादरः स्थूलो वायुकायः 'संमुच्छइ' संमूर्च्छते तथाविध भावाद् एवं समुद्भवति, 'अहेय णं बायरे वाउकाए' मधश्व खलु स बादरों वायुकायः 'समुच्छित्ता' संमूर्व्य संमूर्च्छितो भूत्वा 'विज्जुं पि लवंति' इत्यादि, विद्युतमशनिं स्तनितं च प्रवर्त्तयन्तीति उपसंहारमाह- 'एगे पुण' इत्यादि, 'एगे' एके पूर्वोक्ताः प्रथमप्रतिपत्तिवादिनः ' एवं ' एवम् अनेन पूर्वोक्तप्रकारेण 'आह'सु' आहुः कथयन्तीति 'प्रथमा प्रतिपत्तिः ।१। अथ द्वितीयामाह - एगे पुण ' इत्यादि', 'एगे' एके द्वितीय प्रतिपत्तिवादिनः 'एवं' एवम् ं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आई सुं' आहुः कथयन्ति । किमित्याह - ' ता चंदि - पराक्रमः " I ६९२ Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्द्राप्तिप्रकाशिका टोका प्रा.२०.सू.१ चन्द्रसूर्याणामनुभावनिरूपणम् ६९३ मसरियाण' इत्यादि, 'ता' तावत् 'चंदिमसूरियाण' चन्द्रसूर्याः खल न पूर्वोक्तस्वरूपाः किन्तु ते 'जीवा' जीवाजीवरूपाः सन्ति किन्तु 'णो अजीवा' अजीव रूपा न । एवं ते घनाः सन्ति किन्तु शुपिरा न, बादरबोन्दिधराः सन्ति न तु कलेवर मात्रा, अस्ति तेषाम् उत्थानं कर्म, वलं, वीर्य, पुरुपकारः पराक्रमश्च, तेन ते विद्युतम् , अशनिम्, स्तनितं चापि प्रवर्तयन्ति । उपसंहारमाह-एगे' इत्यादि 'एगे' एके इमे द्वितीयप्रतिपत्तिवादिनः एवं पूर्वोक्तप्रकारेण कथयन्तीति द्वितीया प्रतिपत्तिः ।२। एते द्वे अपि प्रतिपत्तीमिथ्यात्वरूपे, अतो भगवान् स्वमतं प्रदर्शयति-'वयं पुण' इत्यादि 'वयं पुण' वयं तु 'एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयामो' वदामः कथयामः तदेवाह-'ता चंदिमसूरियाणं इत्यादि 'ता' तावत् 'चंदिममरियाण' चन्द्रसूर्याः खलु 'देवा' देवा देवरूपाः सन्ति न तु सामान्यतो जीवमात्राः, ते पुनर्देवाः कीदृशाः ? इत्याह-'महिड्डिया' इत्यादि, 'महिदृढिया' महर्द्धिका विमानादिऋद्धिमन्तः 'महज्जुइया' महाद्युतिकाः शरीराभरणधुतिमन्तः 'महावला' महाबलाः शरीरवलसंपन्नाः 'महाजसा' महायशसः-महाख्यातिमन्तः 'महासोक्खा' ? महासौख्याः देव्यादि परिवारवत्त्वात् महासुखसंपन्नाः, 'महाणुभावा' विशिष्टवैक्रियकरणाद्यचिन्त्यशक्तिमत्त्वान्महाप्रभावशालिनः 'वरवत्थधरा' वरवस्त्रधराः विशिष्ट वर्णोपेतसुकुमालवस्त्रधारिणः 'वरमल्लधरा' वरमाल्यधराः श्रेष्ठमालाधारिणः 'वराभरणधरा' वराभरणधराः श्रेष्ठकटककेयूरादिभूपणधारिणः 'अव्वुच्छित्तिनयट्टयाए' अव्युच्छित्तिनयार्थतया द्रव्यार्थिकनयमतेन 'अण्णे चयंति' अन्ये पूर्वोत्पन्ना. स्वायुभवस्थितिक्षये च्यवन्ते, ततस्तत्र 'अण्णे' अन्ये तादृश देवायुर्वन्धकास्तत्र जघन्यतोऽन्तर्मुहूत्र्तकालेन- उत्कृष्टनः षण्मासकालव्यवधानेन 'उववज्जति' उत्पद्यन्ते ॥२०॥ पूर्व चन्द्रसूर्याणामनुभावः प्रोक्तः, साम्प्रतं चन्द्रसूर्यप्रसङ्गाद् राहु वक्तव्यतामाह-'ता कहं ते राहुकम्मे' इत्यादि । मूलम्-ता कहं ते राहुकम्मे आहिए ? तिवएज्जा, तत्थ खल इमाओ दो पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ तं जहा-तत्थेगे एवमाहंसु-अस्थिणं से राहुदेवे जेणं चंदं वा सूरं वा गिण्डइ, एगे एवमाइंसु ।१। एगे पुण एवमाहंसु-नस्थि णं से राहुदेवे जे ण चंद वा सरं वा गिण्हइ ।२। तत्थ जे ते एवमाइंसु ता अस्थिणं से राहुदेवे जे ण चंदं वा सरं वा गिण्हइ ते एवमाहंसु-ता राहणं देवे चंद वा सूरं वा गेण्हमाणे बुद्धतेणं गिण्डित्ता बुद्धं तेणं मुयइ २, मुद्धतेणं गिण्हित्ता बुद्धतेणं मुयइ ३, मुद्धतेणं गिण्डित्ता मुद्धतेणं मुयइ ४, वामभुयंतेणं गिण्हिता वामभुयंतेणं मुयइ ५, वामभुयंतेणं , गिण्हिता दाहिणभुयंतेणं मुयइ ६, दाहिणभुयंतेणं गिणिहत्ता वामभुयंतेणं, मुयइ ७, दाहिणभुयंतेणं, गिण्हिता . दाहिणभुयंतेणं मुयइ ८,, ले ने remix Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रसू ६९४ ता नत्थि णं से राहु देवे जेणं चंदं वा खरं वा गेण्डड़ ते एवमाहंसु तत्थ णं इमे पण्णरस कसिणपोग्गला पण्णत्ता तं जहा - सिंवाडए १' जडिलए २, खरए ३, खतए ४, अंजणे ५, खंजणे ६, सीयले ७, हिमसीयले ८, केलासे ९, अरुणाभे १०, पजणे ११, णभसूरए १२, कविलिए १३, पिंगलिए १४, राहू १५ | ता जया णं एते पण्णरस कसिणा पोग्गला सया चंदस्स चा रस्स वा लेसाणुवद्ध चारिणो भवंति तया णं माणुसलोयंसि माणुसा एवं वदंति - एवं खलु राहू चंद वा सूरं वा गेव्हइ एवं खलु राहू चंदं वा सूरं वा गेण्हह । ता जयाणं एए पण्णरस कसिणा पोग्गला णो सया चंदस्स वा सूरस्त वा लेसाणुवद्धचारिणो भवंति तया मणुसलोगम्मि मणुस्सा एवं वयंति - एवं खलु राहू चंदं वा सूरं वा नो गेण्डर, एते एवमाहं |२| वयं पुण एवं वयामो ता राहूणं देवे महिढिए जाव महाणुभावे वरवत्थधरे वरमल्लधरे वराभरणधारी | राहूस्स णं देवस्स णवनामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा - सिंघाडए १, जडिलए २, खरए ३, खत्तए ४' दद्दरे ५, मगरे ६, मच्छे ७, कच्छभे ८ कण्हसप्पे ९ | ता राहुस्स णं देवस्स विमाना पंचवण्णा पण्णत्ता तं जहा - किडा १, नीला २, लोहिया ३, हालिया ४, सुकिल्ला ५। अस्थि काल राहुविमाणे खंजणवण्णामे पण्णत्ते १, अस्थि नीलए राहुविमाणे अलाउय वण्णाभे, पण्णत्ते २, अस्थि लोहिए राहुविमाणे मंजिद्वावण्णा पण्णत्ते ३, अस्थि हालिए राहुविमाणे हलिदा वण्णाभे पण्णत्ते ४, अस्थि सुकिल्लए राहुविमाणे भासरासि वण्णाभे पण्णत्ते ५ ता जयाणं राहु देवेआगच्छमाणे वा, गच्छमाणे वा, विउव्वेमाणे वा, परियारेमाणे वा चंदस्स वा सूरस्स वा लेस्सं पुरत्थमेणं आवरित्ता पच्चत्थिमेणं बीईवयह, तया णं पुरत्थिमेणं चंदे वा सूरे वा उवदंसेइ पच्चत्थिमेणं राहू १ । जया णं राहुदेवे आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा चिउच्चमाणे वा परियारेमाणेवा चंदस्स वा सूरस्स वा लेस्सं दाहिणेणं आवरित्ता उत्तरेणं वीईचय तया णं दाहिणेणं चंदे वा सूरे वा. उवदंसेइ उत्तरेणं राहू २, एतेणं अभिलावेणं पञ्च्चत्थिमेणं आवरिता पुरत्थिमेणं वीईवयइ, उत्तरेणं आवरित्ता दाहिणेणं वीfers | जया णं राहूदेवे आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउव्यमाणे वा परियारे माणे वा चंदस्स वा सूरस्स वा लेस्सं दाहिणपुरस्थिमेणं आवरित्ता उत्तर पच्चत्थिमेणं atters तया णं दाहिणपुरस्थिमेणं चंदे वा सूरे वा उबदंसेइ, उत्तरपच्चत्थिमेणं राहू । जया णं राहूदेवे आगच्छमाणे वा गच्छेमाणे वा विउच्चमाणे वा परियारेमाणे वा चंदस्स वा सुरस वा लेस्सं दाहिणपच्चत्थिमेणं आवरित्ता उत्तरपुरत्थिमेणं बीईवयइ तथा णं दाहिणपच्चत्थिमेण चंदे वा सूरे वा उवदंसेइ उत्तरपुरित्थिमेणं राहू | Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिकाटीका. प्रा. २० सू० २ राहुवक्तव्यता ६९५ एएणं अभिलावेणं उत्तरपच्चत्थिमेणं आवरेत्ता दाहिणपुरस्थिमेणं वीईवयई उत्तर पुरस्थिमेणं आवरेत्ता दाहिणपच्चत्थिमेणं चीईवयइ । ता जया णं राहूदेवे आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउव्वेमाणे चा परियारेमाणे वा चंदस्स वा सरस्स वा लेस्सं आवरेत्ता वीईचयइ तया णं मणुस्सलोए मणुस्सा वयंति राहुणा चंदे सुरेवा गाहिए। ता जया णं राहु देवे आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउव्वेमाणे वा परियारेमाणे वा चंदस्स वा सूरस्स वा लेस्सं आवरित्ता पासेणं वीईबयइ तया णं मणुस्सलोयम्मि मणुस्सा वयंति-चंदेण वा सुरेण वा राहुस्स कुच्छी भिण्णा । ता जयाणं राहूदेवे आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउव्वेमाणे वा परियारेमाणे वा चंदस्स वा सूरस्स वा लेस्सं आवरेत्ता पच्चोसक्कइ तया णं मणुस्सलोए मणुस्सा एवं वयंति-राहुणा चंदेवा सूरे वा वंते राहुणा० २ । ता जया णं राहुदेवे आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउव्वेमाणे वा परियारे माणे वा चंदस्स वा सरस्स वा लेस्सं आवरेत्ता मज्झं-मज्झेणं वीईवयइ तया णं मणुस्सलोयसि मणुस्सा वयंति-राहुणा चंदे वा सूरे वा विइयरिए, राहुणा २ । ता जया णं राहू देवे आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउव्वेमाणे वा परियारेमाणेवा चंदस्स चा सूरस्स वा लेस्सं आवरित्ता अहे सपक्खि सपडिदिसि चिट्टइ तया णं मणुस्सलोयंसि मणुस्सा वयंति-राहुणा चंदे वा सरे वा घत्थे राहणा०२ । कइविहे गं राहू पण्णत्ते ? दुविहे पण्णत्ते तं जहा-धुवराहू य पन्चराहू य, तत्थ णं जे से धुवराहू से गं बहुलपक्खस्स पडिवए पण्णरसइ भागेणं भाग चंदस्स लेस्सं आवरेमाणे आवरेमाणे चिट्ठइ, तं जहा-पढमाए पढम भागं जाव पण्णरसमं भागं चरमे समए चंदे रत्ते भवई, अवसेसे समए चंदे रत्तेय विरत्तेय भवइ । तमेव मुक्कपक्खे उवदंसेमाणे उवदंसेमाणे चिट्टइ, तं जहा-पढमाए पढमं भाग जाव चंदे विरत्ते य भवइ, अवसेसे समए चंदे रत्ते य विरत्ते य भवइ । तत्थ णं जे ते पच्चराहू से जहण्णेणं छण्डं मासाणं, उक्कोसेणं वायालीसाए मासाणं चंदस्स, अडयालीसाए संवच्छराणं सूरस्स स० २॥ छाया-तावत् कथं ते राहुकर्म आख्यातम् १ इति वदेत्, तत्र खल्लु इसे द्वे प्रत्तीपत्ती प्रक्षप्ते, तद्यथा-तत्र एके एवमाहुः-अस्ति खलुस राहुर्देवः यः खलु चन्द्र वा सूर्य वागृहाति एके एवमाहुः (१) एके पुनरेव माहुः नास्ति खलु राहुदेवः य; खलु चन्द्र सूर्य वा गलाति ॥२॥ तत्र ये ते एवमाहुः-तावत् अस्ति खलु स राहुर्दैवः यः खलु चन्द्रं वा सूर्यवा गृह्णाति ते एवमाहुः तावत् राहुः खलु देवः चन्द्रं वा सूर्य वा गृडन बुध्नान्तेन गृहीत्वा वुध्नान्तेन मुञ्चति-१, बुधनान्तेन गृहीत्वा मूर्धान्तेन मुञ्चति २, मूर्द्धान्तेन गृहीत्वा वुध्नान्तेन मुञ्चति ३, मूर्धान्तेन गृहीत्वा मूर्द्धान्तेन मुञ्चति ४, वामभुजान्तेन गृहीत्वा वामभुजान्तेन मुञ्चति ५, वामभुजान्तेन गृहीत्वा दक्षिणभुजान्तेन पणभुजान्तेन गृहीत्वा Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्तिस्त्रे वामभुजान्तेन मुञ्चति, ७, दक्षिणभुजान्तेन गृहीत्वा दक्षिणभुनान्तेन मुञ्चति ८, १२ तत्र ये ते एवमाहुः--तावत् नास्ति' खलु स राहुदेवः यः खलु चन्द्रं वा सूर्य वा गृहाति ते एवमाहुः-तत्र खलु इमे पञ्चदश कृष्णाः पुद्गलाः प्रज्ञताः, तद्यथा-शृङ्गाटकः १, जटिलकः २, खरकः ३, क्षतक, ४, अञ्जनः ५, खञ्जनः, ६, शीतल. ७, हिमशीतलः, ८, कैलाशः ९, अरुणाभः १०, प्रभञ्जनः ११, नभः सूरकः १२, कापिलिकः १३, पिङ्गलका १४, राहुः १५, तावत् यदा खलु पते पञ्चदश कृष्णाः पुद्गलाः सदा चन्द्रस्य वा सूर्यस्य वा लेश्यानुवद्धचारिणो भवन्ति तदा खलु मानुपलोके मनुष्या एवं वदन्ति एवं खलु राहुश्चन्द्रं वा सुर्य वा गृह्णाति एवं खलु. २३ तावत् यदा खलु पते पञ्चदश रुष्णाः पुद्गला नो सदा चन्द्रस्य वा सूर्यस्य वा लेश्यानुबद्धचारिणो भवन्ति तदा मनुपलोके मनुष्या एवं वदन्ति-एवं खलु राहुश्चन्द्रं वा सूर्य वा नो गृह्णाति पते एवमाहुः ॥२॥ वयं पुनरेवं वदामः-तावत् राहुः खलु देवो महद्धिको यावत् महानुभावः वरवस्त्र. घर: वरमाल्यधरो घराभरणधारी । राहोः खलु देवस्य नव नामधेयानि प्रशप्तानि, तद्यथाशृङ्गाटकः १, जटिलकः २, खरक ३ क्षतका ४, दर्दुरः ५, मकरः ६, मत्स्यः ७, कच्छप: ८, कृष्णसर्पः ९ । तावत् राहोः खलु देवस्य विमानानि पञ्चवर्णानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथाकृष्णानि १, नीलानि २, लोहितानि ३, हारिद्राणि ४, शुक्लानि ५। अस्ति कालकं राहुविमानं खजनवर्णाभं प्रज्ञप्तम् १, अस्ति नोलकं राहुविमानम् अलावुकवर्णाभं प्रशप्तम् २, अस्ति लोहितं राहुविमानं मजिष्ठावर्णाभ प्रज्ञप्तम् ३, अस्ति हारिद्रं राहुविमान हरिद्रावर्णाम प्राप्तम् ४, अस्ति शुक्लं राहुविमानं भस्मराशिवर्णाभं प्राप्तम् ५, तावत् यदा खलु राहुर्दैवः आगच्छन् वा गच्छन् वा विकुर्वन् वा परिचारयन् वा चन्द्रस्य वा सूर्यस्य घा लेश्यां पौरस्त्येन आवृत्य पाश्चात्येन व्यतिव्रजति तदा खलु पौरस्त्येन चन्द्रो वा सूर्यो घा उपदर्शयति पाश्चात्येन राहुः १। यदा खलु राहुर्दैव आगच्छन् वा गच्छन् वा विकुर्वन् घा परिचारयन् वा चन्द्रस्य वा सूर्यस्य वा लेश्या दक्षिणात्येन आवृत्य उत्तरेण व्यतिः घ्रजति तदा खलु दक्षिणात्येन चन्द्रोवा सूर्योवा (आत्मानं) उपदर्शयति, उत्तरेण राहुः । पतेन अभिलापेन पाश्चात्येन आवृत्य पौरस्त्येन व्यतिव्रजति 'उत्तरेण आवृत्य दाक्षिणात्येन व्यतिव्रजति यदा खलु राहुर्देव आगच्छन् वा गच्छत्, वा विकुर्वन् वा परिचारयन् वा चन्द्रस्य वा सूर्यस्य चा लेश्यां दक्षिणपौरस्त्येन आवृत्य उत्तरपाश्चात्येन व्यतित्रजति तदा खलु दक्षिणपौरस्त्येन चन्द्रो वा सूर्योवा उपदर्शयति, उत्तरपाश्चात्येन राहुः । यदा खलु राहुर्दैव आगच्छन् वा गच्छन् वा विकुर्वन् वा परिचारयन् वा चन्द्रस्य वा सूर्यस्य घा लेश्यां दक्षिणपाश्चात्येन आवृत्य उत्तरपौरस्त्येन तिव्रजति तदा खलु दक्षिण पाश्चात्येन चन्द्रो वा सूर्यो वा उपदर्शयति उत्तरपौरस्त्येन राहुः। एतेन अभिलापेन उत्तर पाश्चात्येन आवृत्य दक्षिणपौरस्त्येन व्यतित्रजति, उत्तरपौरस्त्येन · आवृत्य दक्षिणपाश्चात्येन व्यति ब्रजति । तावत् यदा स्खलु राहुर्देव आगच्छन् वा ४, चन्द्रस्य वा सूर्यस्य वा लेश्याम् आवृत्य व्यतिव्रजति तदा खलु मनुष्यलोके मनुष्या पदन्ति राहुणा चन्द्रो, वा सूर्यो वा गृहीतः। राहुणा०२ तावत् यदा खलु राहुर्दैव आगच्छन् वा०४ चन्द्रस्य वा सूर्यस्य वा लेश्याम् आवृत्य पार्वेण व्यतिवजोत तदा स्खलु मनुष्यलोके मनुष्या वदन्ति-चन्द्रण वा सूर्येण वा Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका० प्रा०२० सू २ राहुवक्तव्यता ६९७ राहोः कुक्षिः भिन्ना । तावत् यदा खलु राहुर्देष आगच्छन् वा० ४ चन्द्रस्य वा सूर्यस्य या लेश्याम् आवृत्य प्रत्यववष्कते तदा खलु मनुष्यलोके मनुण्या एवं वदन्ति-राहुणा चन्द्रो वा सूर्योवा वान्तः, राहुणा० २। तावत् यदा खलु राहुर्दव आगच्छन् वा०४ चन्द्रस्य वा सूर्यस्य वा लेश्याम् आवृत्य मध्यमध्येन व्यतिव्रजति तदा खलु मनुष्यलोकेमनुष्या वदन्ति-राहुणा चन्द्रो वा सूर्यो वा व्यतिचरितः राहुणा० २ तावत् यदा खलु राहुर्देव आगच्छन् वा ४ चन्द्रस्य वा सूर्यस्य वा लेश्याम् आवृत्य अधः सपक्ष सप्रतिदिशं तिष्ठति तदा खलु मनुष्यलोके मनुष्या वदन्ति-राहुणा चन्द्रो वा सूर्यो वा ग्रस्तः, राहुणा० २। कतिविधः स्खलु राहुः प्रज्ञप्तः १ द्विविधो राहुः प्रशप्तः, तद्यथा-ध्रुवराहुश्च पर्वराश्च । तत्र खलु यः स खलु बहुलपक्षस्य प्रतिपदि पञ्चदशभागेन भागं चन्द्रस्य लेश्याम् आवृण्वन् २ तिष्ठति, तद्यथा-प्रथमायां प्रथम भागम् , यावत् पञ्चदश भागम्। चरमे समये चन्द्रो रक्तो भवति, अवशेपे समये चन्द्रो रक्तश्च विरक्तश्च भवति, तमेव शुक्लपक्षे उपदर्शयन् २ तिष्ठति, तद्यथा-प्रथमायां प्रथम भागं यावत् चन्द्रो विरक्तश्च भवति अवशेपे समये चन्द्रो रक्तो विरक्तश्च भवति । तत्र खलु यः स पर्वराहुः स जघन्येन पण्णां मासानाम् (उपरि) उत्कण द्विचत्वारिंशतो मासानां चन्द्रस्य, अष्टचत्वारिशतः संवत्सराणां सूर्यस्य ॥ सू० ॥ २ ॥ व्याख्या--'ता कहं ते' इति, 'ता' तावत् 'कई कथं-केन प्रकारेण 'ते' तवमते त्वया वा 'राहुकम्मे' राहुकर्म राहुक्रिया 'आहिए' भाख्यातं-कथितम् ? 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु हे भगवन् ! भगवानाह-'तत्थ खलु' इत्यादि, 'तत्थ' तत्र राहुकर्म विपये खलु 'इमाओ' इमे वक्ष्यमाणे 'दो' द्वे 'पडिवत्तीओ' प्रतिपत्ती 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ते कथिते, 'तं जहा' तद्यथा-'तत्थ' तत्र द्वयोर्मध्ये 'एगे' एके प्रथमप्रतिपत्तिवादिनः 'एवं' एवं वक्ष्यामाणप्रकारेण 'आइंस' आहुः कथयन्ति । किं कथयन्ति ? इत्याह-'अस्थि णं' इत्यादि, 'अस्थि णं' अस्ति खलु ‘से राहुदेवे' स राहुर्देवः 'जे णं' यः खलु 'चंदं वासरं वा' चन्द्रं वा सूर्य वा 'गिण्हति' गृह्णाति प्रसति । उपसंहारमाह-एगे' एके प्रथमा एवं . पूर्वोकप्रकारेण आहेसु' आहुः कथयन्ति ।१। द्वितीयां प्रतिपत्तीमाह-'एगे पुण' इत्यादि, 'एगे पुण' एके केचन द्वितीयाः-प्रतिपत्तिवादिनः 'एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आइंस' आहुः कथयन्ति । किं कथयन्तीत्याह-नित्थिणं' इत्यादि, 'नेस्थि णं' नास्ति खल्ल 'से' स एतादृशः 'राहुदेवे' राहुर्देवः 'जे णं यः खल 'चंदं वा सूरं वा' चन्द्रं वा सूर्य वा 'गिण्हइ' गृह्णाति ।। तदेवं द्वे प्रतिपत्ती प्रदय भगवान् तयो र्भावनां प्रदर्शयति-तत्थजे ते' इत्यादि, 'तत्थ' तत्र एतयो द्वयोः प्रतिपत्तिवादिनोर्मध्ये 'जे ते एव माइंसु ये ते प्रथमप्रतिपत्तिवादिनः एवम् 'अस्थि णं से राहूदेवे' इत्यादिरूपेण आहुः कथयन्ति तथाहि-'ता अस्थि णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'अस्थि णं' अस्ति खल राहुर्देवश्चन्द्रं वा सूर्य ८८ Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .: : चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रे वा गृह्णातीति कथयन्ति ते "एवं' एवम् वक्ष्यमाणप्रकारमाश्रित्य 'आईसु' कथयन्ति, तमेव प्रकारमाह-'ता राहूण' इत्यादि, 'ता' तावत् 'राहणं देवे' राहुः खलु देवः चन्द्र वा सूर्य वा गृह्णन् कदाचित् 'बुद्धतेणं' बुध्नान्तेन अधोभागेन गृहीत्वा 'बुद्धतेण मुयई' वुन्नान्तेनैव मुञ्चति, बुधनान्तेनेति अधो भागेन ।१। कदाचित् 'बुद्धं तेणं - गिण्डित्ता मुद्धतेण मुयइ' बुध्नान्तेन-अधो भागेन गृहीत्वा मूर्द्धान्तेन उपरि भागेन मुञ्चति स कदाचित् मुर्दान्तेन गृहीत्वा वुध्नान्तेन मुञ्चति ।३। कदाचित् 'मुद्धतेणे गिण्हित्ता मुद्धंतेणं मुयइ' मूर्द्धान्तेन उपरि भागेन गृहीत्त्वा उपरि भागेनैव मुञ्चति ४। कदाचित्-'वामभुयंतेणं' इत्यादि, वामभुजान्तेन वामपार्वेन गृहीत्वा वामभुजान्तेनैव मुञ्चति ५। कदाचित्-'बामभुयंतेणं गिण्हित्ता दाहिणभुयंतेणं मुयइ' वामभुजान्तेन गृहीत्वा दक्षिणभुजान्तेन दक्षिणपावेंन मुञ्चति ।६। एवं कदाचित् दक्षिणभुजान्तेन गृहीत्वा · वामभुजान्तेन मुञ्चति ७ कदाचित्-दक्षिणभुजान्तेन गृहोत्वा दक्षिणभुजान्तेनैव मुञ्चति ८। इयं प्रथमप्रतिपत्तिभावना समाप्ता ।१। अथ द्वितीयप्रतिपत्तिभावना प्रदयने-'तत्थं जे ते' इत्यादि, 'तत्थ' तत्र प्रतिपत्तिद्वयमध्ये 'जे ते' ये ते द्वितीयप्रति पत्तिवादिनः 'नस्थि णं' इत्यादि प्रतिपादकाः एवमाहुः, तथाहि-ता नस्थि ण' इत्यादि, तावद् नास्ति खल स राहुर्देवो. यः खलु चन्द्र वा सूर्यं वा गृहातीति 'ते एवमासु' ते एवं वक्ष्यमाणप्रकारमाश्रित्य आहुः कथयन्ति, तदेवाह-'तत्थ णं' इत्यादि, 'तस्थ पं' तत्र राहुकर्मविषये खलु एवमस्ति, यथा-'इमे पण्णरस कसिणा पोग्गला' इमे-वक्ष्यमाणाः पञ्च दश कृष्णा पुद्गलाः कृष्णवर्णाः पुद्गलाः प्रज्ञप्ताः, तयथा ते यथा-'सिंघाडए' इत्यादि,-शृङ्गाटकः १, जटिलकः २, खरकः ३, “क्षतकः ४, अञ्जनः ५, खञ्जनः ६, शीतलः ७, हिमशीतलः ८, कैलाशः १९,." अरुणाभः १०, प्रभजनः ११, नमः सूरकः १२, कापिलकः १३, पिङ्गलकः १४, राहुः १५॥ ततः किम् ? इत्यादि-'ता- जया णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जया गं' यदा खलु , 'एए'- एते अनन्तरोदिताः ‘पण्णरस कसिणा पोग्गला' पञ्चदश कृष्णाः कृष्णवर्णाः पुद्गलाः सया' सदा सातत्येन चन्द्रस्य वा सूर्यस्य वा 'लेसाणुबद्धचारिणो' लेश्यानुवद्धचारिणः “चन्द्रसूर्यबिम्बगतप्रभासम्वन्धेनानुचारिणः पश्चाद गामिनो भवन्ति, 'तया णं' तदा' खलु -'माणुसलोयंसि' मनुष्यलोके मनुष्या एवं वदन्ति एवं खल राहुश्चन्द्रं वा सूर्य वा गृह्णाति चन्द्र वाः सूर्य वा गृसतीति । 'ता जया णं' इत्यादि, यदा खल एने पञ्चदश कृष्णाः पुद्गला नोः सदार चन्द्रस्य वा सूर्यस्य वा लेश्यानुबद्धचारिणो भवन्ति तदा मनुष्यलोके' मनुष्या एवं वदन्ति एवं खल राहुश्चन्द्रं वा सूर्य वा नो गृह्णाति । एवद्विपये भगवानुपसंहारमाह-'एए' एवमासु' एते. प्रथमद्वितीयप्रतिपत्तिवादिनः एव-पूर्वोक्त प्रकारेण आहुः कथयन्तीति २१ ; इदं लोकिकं वाक्यं प्रतिपत्तव्यं, किन्तु न. वस्तुतो राहुश्चन्द्र वा सूर्य वा गृह्णातीति द्वितीयप्रतिपतिवादिभावना दर्शिता ।२। एते द्वे अपि प्रति .. Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशतिप्रकाशिका टीका० प्रा०२० सू. २ राहुवक्तव्यता ६९९ पत्ती मिध्यारूपे, तन्निराकरणार्थ भगवान् स्वमतं प्रदर्शयति-'वयं 'पुण' इत्यादि । 'वयं पुण' वयं तु 'एवं क्यामो' एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण वदामः-कथयामः । तदेव श्रीवीतराग भगवन्स्वमतं प्रदर्श्यते 'ता राहणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'राहू णं' राहुः खलु न प्रथमप्रतिपत्तिवादिप्रदर्शित स्वरूपो देवः, न च द्वितीयप्रतिपत्तिवादिप्रदर्शितं कृष्णपुद्गलमात्रम्। किन्तु 'देवे' स देवोऽस्ति वन्यमाणस्वरूपः, तत्स्वरूपमाह-'महिड्ढिए" इत्यादि, 'महिढिए' महर्द्धिकः 'जाव महाणुभावे' इति महायुतिकः महायशाः महाबलः, महासौख्यः महानुभावश्च, अर्थः पूर्वमेव गतः पुनश्चः-'वरवत्थधरे' इत्यादि, वरवस्त्रधरः, वरमाल्यधरः, वराभरणधारी, अर्थः पूर्ववदेव राहुरेतादृशो देवो वर्तते । अस्य नामान्याह--'राहुस्स गं' इत्यादि, 'राहुस्स णं देवस्स' राहोः खलु देवस्य राहुदेवस्य 'णव णामधेज्जा' नव नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा 'सिंघाडए' इत्यादि, शृङ्गाटकः १, जटिलकः २, खरकः ३, क्षतकः ४, दर्दुरः ५, मकरः ६, मत्स्यः ७, कच्छपः ८, कृष्णसर्पः ९, इति । अस्य विमानानां' वर्णमाह-'ता राहुरसणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'राहुस्स णं देवस्स' राहु देवस्य खलु विमानानि पञ्च भवन्ति, तानि पृथक् पृथग् वर्णयुक्तानि सन्ति, तदेवाह-'विमाणा पंचवण्ण' पञ्च विमानानि पञ्च वर्णानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-'किण्हा' इत्यादि, कृष्णानि १, नीलानि २, लोहितानि ३, हारिद्राणि ४, शुक्लानि ५। विमानानां कालादिवर्णा किं प्रकारका' भवन्तीति प्रदर्शयति 'अस्थि कालाए' इत्यादि, कालकं राहुविमानम् 'खंजणवण्णाभे' स्वञ्जनवर्णाभम्, खञ्जनं-दीपमल्लिकामलः, शकटाक्षमलश्च, तत्सदृशं कालवणे विमानम् १, नीलं राहुविमानम् 'अलाउयवण्णाभ' अलाबु -आईतुम्बं तत्सदृशवर्णयुक्तम् २, 'लोहितं' राहुविमानं 'मंजिट्ठावण्णाभं' मंजिष्ठावर्णाभं मंजिष्ठा-औपषिविशेषः तद्वद्रक्तवर्णयुक्तम् ३, हारिद्रपीतवर्ण-राहुविमान 'हरिदावण्णाभे' हरिद्रावर्णाभं हरिद्रावर्णवत् पीतवर्णम् ४, शुक्कं राहुविमानं भासरासिवण्णाभे' भस्मराशिवर्णाभं रक्षा पुजवत् श्वेतवर्णयुक्तम् ५। चन्द्रसूर्ययोः । राहुंकृतावरण ‘तन्मोचनविषयक-दिग्विभागान् प्रदर्शति-ता जया णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'जया णं' यदा खलु 'राहुदेवे'. राहुदेवः 'आगच्छमाणेवा' कुतश्चित्स्थानादागच्छन् वा 'गच्छमाणे वा' कापि' स्थाने गच्छन् वा, 'विकुव्वेमाणेवा' स्वेच्छया तां तां विकुर्वणां।' 'कुर्वन्। वा 'परियारेमाणे वा' परिचारण बुद्धया इतस्ततो गच्छन् वा चन्द्रस्य वा सूर्यस्य वा ''लेस्सं लेश्यां विमानगतधवलिमारूपाम' 'पुरथिमेणं आवरित्ता' पौरस्त्येन' पूर्वदिग्भागेन अग्रभागेनेत्यर्थः, आहृत्य पच्चत्थिमेणं' पाश्चात्येन पश्चिमदिग्भागेन पश्चाद्भागेनेत्यर्थः 'वीईवेयइ' व्यतिव्रजति-व्यतिक्रामति 'तया ण' तदा तस्मिन् समये खल 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वभागेन चन्द्रो वा सूर्यों वा स्वात्मानम् 'उवदंसेइ' उपदर्शयति चन्द्रः सूर्योवा · प्रकटो भवतीति भावः 'पच्चत्थिमेणं राहू' पाश्चात्येन पश्चिमभागेन राहु रुपलब्धो भवति, अयं भावः तस्मिन् समथे-मोक्षकाले चन्द्रः Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Soo चन्द्रप्रतिसूत्रे · सूर्यो वा पूर्वदिग्भागे प्रकटीभूत उपलभ्यते पश्चिमभागे अधस्ताच्च राहुरुपलभ्यते, इति १ । एवं 'जया णं' यदा खलु राहुर्देव आगच्छत्वा ४ चन्द्रसूर्ययोर्लेश्यां दक्षिणभागेन आवृत्य उत्तरभागेन व्यतिव्रजति तदा दक्षिणभागे चन्द्रसूर्यौ आत्मानमुपदर्शयतः उत्तरभागे च राहूरिति २ । 'एएणं अभिलावेणं' एतेन पूर्वोक्तेन अभिलापेन राहुदेवः पाश्चात्येन चन्द्रसूर्यलेयामाहत्य पूर्वभागेन व्यतिव्रजति ३, उत्तरभागेन, आवर्त्य च दक्षिणभागेन व्यतित्रजति २ इत्यपि सूत्रद्वयं भावनीयम् ४ । अथ विदिशा विपयकं राहुचारमाह - 'जया णं' इत्यादि, 'जया णं' यदा खलु राहुर्देवः आगच्छन् वा ४ चन्द्रसूर्यलेश्याम् ' दाहिणपुर स्थिमेणं' दक्षिपौरस्त्येन - आग्नेयकोणेन चन्द्रसूर्यले श्यामावृत्य 'उत्तरपच्चत्थिमेणं वीईवयइ' उत्तरपाश्चात्येन वायव्यकोणेन व्यति व्रजति तदा खलु 'दाहिणपुरत्थिमेणं' दक्षिणपौरस्त्येन आग्नेयकोणेन चन्द्रः सूर्योवाऽत्मानमुपदर्शयति 'उत्तरपच्चत्थिमेणं राहू' उत्तरपाश्चात्येन वायव्यकोणेन राहुरूपलभ्यते |१| यदा खल्लु राहुर्देवः ‘आगच्छमाणे वा ४' आगच्छन् वा ४ चन्द्रसूर्यलेश्याम् ' दाहिणपच्चत्थि मेणं' दक्षिणपाश्चात्येन नैऋतकोणेन आवृत्य 'उत्तरपुरत्थिमेणं वीईवयइ' उत्तरपौरस्त्येन ईशानकोणेन व्यतित्रजति तदा खलु ' दाहिणपच्चत्थिमेणं' दक्षिणपाश्चात्येन चन्द्रः सूर्यो वा उपदृश्यते 'उत्तरपुरत्थिमेणं राहू' उत्तरपौरस्त्येन ईशानकोणेन राहुर्दृश्यते |२| 'एएणं अभिलावेणं'. एतेन अभिलापेन यदा राहु: 'उत्तरपच्चत्थिमेणं' उत्तरपाश्चात्येन वायव्यकोणेन चन्द्रसूर्यले श्यामावृत्य ' दाहिणपुर स्थिमेणं वीईवयइ' दक्षिणपौरस्त्येन आग्नेयकोणेन चन्द्रः. सूर्योवा दृश्यते दक्षिणपौरस्त्येन आग्नेयकोणेन च राहुः । ३ । एवं 'उत्तरपुरत्थिमेणं' उत्तर पौरस्त्येन ईशानकोणेन चन्द्रसूर्यलेश्यामावृत्य 'दाहिणपच्चत्थिमेण वीईवयह' दक्षिणपाश्चात्येन नैऋतकोणेन व्यतिव्रजति तदा उत्तरपौरस्त्येन चन्द्रः सूर्योवा दृश्यते दक्षिणपाश्चात्येन च रहुरिति ४ । एवं स्थितौ मनुष्यलोके मनुष्याः किं वदन्ति !- इति प्रदर्श्यते- 'ता जया णं' इत्यादि, 'ता' तावत् यदा: खल, राहुर्देवः, आगच्छमाणे वा ४ आगच्छन् वा ४ चन्द्रस्य सूर्यस्य वा लेश्यामावृत्य · व्यतिव्रजति : राहुः स्थितो भवतीत्यर्थः तदा मनुष्यलोके मनुष्या वदन्ति 'राहुणा चंदे सरे वा गहिए' राहुणा चन्द्रः सूर्योवा गृहीत इति । 'जया णं' इत्यादि, यदा खल राहुर्देवः आगच्छन्वा ४ चन्द्रस्य सूर्यस्य वा श्यामा नृत्य 'पासेपां वीईवयइ', पार्श्वेन पार्श्वभागेण व्यतिव्रजति · तदा मनुष्या वदन्ति - 'चं देण वा सरेण वा चन्द्रेणवा सूर्येणवा 'राहुस्स कुच्छीभिण्णा' राहोः कुक्षिर्भिन्नेति राहोः कुक्षिं भित्त्वा चन्द्रः सूर्योवा, निर्गत इति । 'ता जया णं' इत्यादि, यदा राहु . देव, आगच्छन् वा ० ४ चन्द्रस्य वा लेश्यामावृत्य पच्चीसकर ' प्रत्यवण्वकते - पश्चादपसर्पति तदा मनुष्या, एवं वदन्ति 'राहुणाः चंदे वा बरेवा नंते' राहुणा चन्द्रोवा, सूर्योत्रा वान्तः राहुणा ग्रस्तश्चन्द्रः सूर्यो वा पुनर्निष्कासित इति । 'ता जयाणं' इत्यादि, यदा राहुर्देव आगच्छन् वा ०४ चन्द्रस्यः सूर्यस्य वा लेश्यामावृत्य 'मज्झं मज्झेण वीईवयइ' मध्यमध्येन बहुमध्यदेशभागेन व्यतित्रजति तदा 7 ' . 2 4 Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ refereाशिका टोका०प्रा. २० सु. २ राहुवक्तव्यता ७०१ मनुष्याः कथयन्ति-राहुणा चंदे वा सूरे वा बिइयरिए' राहुणा चन्द्रः सूर्यो वा व्यतिचरितः--- मध्यभागे विभिन्न विधाकृत इति । 'ता जया णं' इत्यादि, यदा राहुर्देव आगच्छन् वा ० ४ चन्द्र स्य वा सूर्यस्य वा श्यामावृत्य 'अहे सपक्खि सपडिदिसं चिट्ट' 'सपक्खि' इति सपक्ष पक्षः सह सर्वेषु तथा 'सपडिदिसिं' सप्रतिदिशमिति प्रतिदिग्भिः सह सप्रतिदिक् सर्वासु विदिक्षु तिष्ठतिः लेश्यामावृत्याधस्तिष्ठति तदा मनुष्या वदन्ति - 'राहुणा चंदे वा सूरेवा घत्थे' राहुणा चन्द्रो वा " सूर्यो वा प्रस्तः सर्वात्मना गृहीतः सर्वग्रासं प्रसति इति । अत्रास्य वाक्यस्य द्विधा कथनं तंद्र ५ बहूनां मनुष्याणां कथनापेक्षयाऽवगन्तव्यम् । अत्राह - चन्द्रविमानं पञ्चैक षष्टिभाग- ( :) न्यून > योजनप्रमाणं, राहुविमानं च ग्रहविमानत्वेन अर्द्वयोजनप्रमाणं शास्त्रे प्रोक्तं तर्हि कथं चन्द्रविमा -" नस्य राहु विमानेन सर्वात्मनाऽऽवरणसंभवः ? अत्रोच्यते - राहुविमानस्य महान् वहलस्त मिस्ररश्मिसमूहो वर्त्तते तेन लघियसाऽपि राहुविमानेन महता बहन तमिस्ररश्मिजालेन प्रसरतां प्राप्तेन * सकलमपि चन्द्रमण्डलमावृतं भवति इति न कश्विदोषः ॥ साम्प्रत कतिविधराहारति जिज्ञासाया' गौतमः प्रश्नयति-- 'ता कइ विहेणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'कविदेणं' कतिविधः खलु 'राहू पण्णत्ते'' राहुः प्रज्ञप्तः ? भगवानाह - 'दुविहे पण्णत्ते' द्विविधः द्विप्रकारको राहुः प्रज्ञप्तः 'तं जहा ' तद्यथा-'ध्रुवराहू य पव्वराहू य' ध्रुवराहुश्च पर्वराहुश्च । तत्र यः सदैव चन्द्रविमानस्य चतुरङ्गुल ' संप्राप्तः सन्नधस्तात् संचरति स ध्रुवराहुः, यस्तु पर्वणि पौर्णमास्यां चन्द्रस्योपरागं करोति पर्व राहुः कथ्यते । ‘तत्थ णं' तत्र द्वयोर्मध्ये खलु 'जे से धुवराहू' यः स ध्रुवराहुः 'से णं' स खलु 'बहुल पक्खस्स' बहुलपक्षस्य 'पाडियए' प्रतिपदि 'पण्णरसइभागेणं' पञ्चदशेन भागेन - चन्द्र-२ मण्डलस्य द्वाषष्टिभागात्मकत्वाच्चतुर्भागरूपेण 'भागं ' भागं प्रथमं भागं चतुर्भागरूपं पञ्चदशं भागं प्रतितिथि चन्द्रस्य लेश्याम् 'आवरेमाणे २' आवृण्वन् आवृण्वन् 'चिट्ठा' तिष्ठति 'तं जहा ' तद्यथा - 'पढमाए पढमं भागं' प्रथमायां तिथौ प्रतिपद्रूपायां प्रथमं पञ्चदशं भागं चतुर्भागरूप मावृणुते, एवम् 'जाव पण्णरसमं भागं' यावत् पञ्चदशं भागम् अत्र यावत्पदेन द्वितीयायां द्वितीयं २, तृतीयायां तृतीयं ३, चतुर्थ्यां चतुर्थं ४, पञ्चम्यां पञ्चमं ५, षष्टयां पष्ठं ६, सप्तम्यां सप्तमम् ७ अष्टम्यामष्टमं ८ नवम्यां नवमं ९, दशम्यां दशमम् १०, एकादश्यामेकादशं ११, द्वादश्यां द्वादशं १२, त्रयोदश्यां त्रयोदशं १३, चतुर्दश्यां चतुर्दशम् १४ इत्येवं ग्राम, ततः पञ्चदश्याम् — अमावास्या रूपायां पञ्चदशं भागं चन्द्रमण्डलस्य राहुरावृणुते, ततः 'चरमे समये * पञ्चदश्याश्चरमे समये पञ्चदश्या अन्तिमे भागे 'चंदे रत्ते. भवइ' चन्द्रो रक्तः' राहुविमानेन उपरक्तः ` सर्वात्मनाऽऽच्छादितो भवति । 'अवसेसे समए' अवशेषे कृष्णप्रतिपदात आरभ्य पञ्चदशीचरम समयात्पूर्वपूर्वकाले 'चंदे रत्ते य. चिरते य भवइ' चन्द्रो रक्तश्च विरक्तश्च राहुविमानेन क्रमश Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे आच्छादितो देशेन चानाच्छादितो भवति । 'सुक्ल पक्खे शुक्लपक्षे तमेव क्रममाश्रित्य प्रथमायां शुक्लप्रतिपल्लक्षाणां तिथौ 'उवदंसे माणे २' उपदर्शयन् उपदर्शयन् चन्द्रलेश्यां विमुञ्चन् विमुञ्चन् । तिष्ठति-वर्त्तते । 'तं जहा' पद्यथा-'पढमाए पढमं भाग' प्रथमायां शुक्लप्रतिपत्तिथौ प्रथमं पञ्चदशभागं चतुर्भागरूपं.विमुञ्चति एवं क्रमेण 'जाव' यावत् द्वितीयात आरभ्य पञ्चदश्यां तिथौ पूर्णिमायांपञ्चदशं पञ्चदशभागं राहुर्विमुञ्चति ततः पूर्णिमायाश्चरमे समये 'चंदे चिरत्ते भवइ' चन्द्रो विरक्त राहुर्लेश्याया सर्वात्मना विरक्तः अनाच्छादितो भवति सर्वात्मना प्रकटितो भवतीत्यर्थः राहुविमानेन ' सर्वथाऽनाच्छादितत्वात् । अत्राह कश्चित्-शुक्लपक्षे कृष्णपक्षे च कतिपयान् दिवसान् यावत् राहुविमानं वृत्तमुपलभ्यते यथा ग्रहणकाले पर्वराहुः, कतिपयाँश्च दिवसान् यावत् न वृतमुपलभ्यते तत्र किं कारणम् ? इति अत्रोच्यते इह येषु दिवसेपु शशी तमसाऽतिशयेनाभिभूयते तेषु दिवसेषु तद् विमानं वृत्तमाभाति, चन्द्रप्रभाया बाहुल्येन प्रसराभावात् राहुविमानस्य च यथापस्थिततयोपलम्भात् । येषु.दिवसेषु पुनश्चन्द्र आधिक्येन प्रकटो भवति तेषु दिवसेषु चन्द्रप्रभा राहुविमानेन नाभिभूयते किन्तु चन्द्रप्रभाया बाहुल्येन चन्द्रप्रभयैव राहुविमानप्रभाऽभिभूयते ततस्तदा न राहुविमानं वृत्ततयोपलभ्यते । पर्वराहुविमानं च ध्रुवराहुविमानादतीव तमो बहुलं भवति ततस्तस्य स्तोकस्यापि चन्द्रप्रभयाऽभिभवो न भवतीति तस्य स्तोकरूपस्यापि वृत्तत्वेनोपलब्धिर्भवति । तथा चाह "घट्टच्छेओ कइवय दिवसे धुवराहुणो विमाणस्स । : दीसइ परं न दीसइ जह गहणे पवराहुस्स ॥१॥". .. । छाया-वृत्तच्छेदः कतिपयदिवसे ध्रुवराहो विमानस्य । दृश्यते, पर न दृश्यते यथा ग्रहणे. पर्वराहोः १ ॥१॥ . : .। . इति. शिष्यपृच्छा आचार्य उत्तरमाह- . "अच्चत्थं नहि तमसाऽभिभूयते, जे ससी.,विमुंचंतो। : . . . .: तेणं वच्छेओ गहणे उ तमो तमो वहुलो ॥२॥ . . . . ! छाया-अत्यर्थ नहि तमसाऽभिभूयते यत् शशी विमुच्यमानः । . ।। . तेन वृत्तच्छेदः, ग्रहणे तु तमाः (राहुः) तमो बहुलः ना२॥ - । इति । साम्प्रतं पर्वराहुः कियता कियता कालेन चन्द्रस्य सूर्यस्य वा उपरागै करोति ? इति प्रदर्शयति-तत्य णं जे से पचराहू इत्यादि, 'तत्थ णं' तत्र चन्द्रसूर्ययोरुपरागविषये 'जे से पच राहू' यः स पर्वराहु भवति 'से णं' स खल पर्वराहुः 'जहण्णेणं छहं मासाणं' जघन्येन पण्णां मासा-' नामुपरि चन्द्रस्य सूर्यस्य चोपरागं करोति न ततः पूर्वम् । 'उको सेणं उत्कर्षेण 'वायालीसाए मासाणं' द्विचत्वारिंशतो मासानामुपरि 'चंदस्स' चन्द्रस्योपरागं करोति तथा 'अंडयालीसाए Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रशेप्तिप्रकाशि काटीका प्रा०२० सु.३ चन्द्रस्यशशी सूर्यस्य 'आदित्य' नामकरणम् ७०३ संबच्छराणं' भष्टाचत्वारिंशतः सवत्सराणामुपरि 'सूरस्स' सूर्यस्योपरागं करोतीति भावः ॥ सू२ ॥ • साम्प्रतं चन्द्रस्य लोके 'ससी' इति सूर्यस्य सूर्य आदित्य इति च कथं नाम जातं, का तस्योऽन्वर्थ ता ? इति स प्रश्नं प्रदर्शयति सूत्रकारः- 'ता कहते चंदे ससी' इत्यादि । 'मूलम् :-ता कहं ते चंदे ससी चंदे ससी आहिए ? ति वएज्जा, ता चंदस्स णं जोडसिंदस्स गोडसरपणो मियंके विमाणे कंता देवा, कंताओ देवीओ, कंताई आसण सयणसंमभडमत्तोवगरणाई अप्पणावि णं चंदे देवे जोइसिंदे जोइसराया सोम्मे कंते सुभगे पियदसणे सुरूवे ता एवं खलु चंदे ससी चंदे ससी आहिएति वएज्जा ॥ता कहं ते सूरे आइच्चे आहिए ? तिवएज्जा, ता सूराईया समयाइवा आवलियाइवा आणा पाइ वा थोवेइवा जाव उस्सप्पिणी ओसप्पिणी इवा, एवं खलु सूरे आइच्चे २ आहिए तिवएज्जा ॥स० ३॥ छाया-तावत् कथं ते-त्वया चन्द्र. शशी चन्द्रः शशी आख्यातः १ इति वदेव, तावत् चन्द्रस्य खलु ज्योतिपेन्द्रस्य ज्योतिषराजस्य मृगाई विमानं, कान्ता देवाः, कान्ता देव्यः कान्तानि-आसनशयनस्तम्भभाण्डामत्रोपकरणानि आत्मनाऽपि खलु चन्द्रो देवः ज्योतिपेन्द्रः ज्योतिपराजः सौम्यः कान्तः सुभगः प्रियदर्शनः सुरूपः तावत् एवं बलु चन्द्रः शशीचन्द्रः शशीआख्यातः इति वदेत् । तावत् कथं ते (त्वया) सूर्य आदित्यः सूर्य आदित्यः आख्यातः ? इति वदेत् । तावत् सूर्यादिकाः समया इति वा आवलिका इति घा आनप्राणा इति. या स्तोक इति वा यावत् उत्सर्पिण्यवसर्पिणीति वा, एवं खलु सूर्य आदित्यः सूर्य आदित्य आख्यातः इति वदेत् ॥सू०॥ ३ ॥ ___ व्याख्या-'ता कहते चंदे' इति 'ता' तावत् 'कह' कथं केन प्रकारेण 'ते' त्वया चंदे ससी'. चन्द्रः शशी इति-'आहिए' आख्यात इति गौतमस्वामिन पृच्छा, हे भगवन् ! 'ति वएज्जा' इति वदेत् वदतु कथयतु । श्रीभगवानाह-'ता चंदस्स णं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'चंदस्त णं' चन्द्रस्य खल:ज्यौतिपेन्द्रस्य ज्येतिषराजस्य 'मियंके विमाणे' मृगाड्के मृगचिन्हे . चन्द्रविमाने 'कंता.देवा' कान्ताः कमनीयरूपा देवाः तथा 'कंताओ देवीओ' कान्ताः कमनीया - देव्यश्च सन्ति । तथा 'कंताई कान्तानि-आसनशयनस्तम्भभाण्डामत्रोपकरणानि चन्द्रविमाने आसनानि शयनानि स्तम्भाः भाण्डाद्युपकरणानि च सर्वाणि सुन्दराकाराणि-सन्ति, एतावदेव न किन्तु 'अप्पणावि पां' आत्मनाऽपि स्वयमपि खलु : चन्द्रो देवो ज्योतिषेन्द्रो ज्यौतिषराजः 'सोम्मे' सौम्यः सौम्याकारः अरौद्राकारत्वात्, कान्तः कन्तिमान् , सुभगः सौभाग्यशाली जनवल्लभल्वात्, 'पियदंसणे प्रियदर्शनः जनमनआह्लादकत्वात् 'मुरूने-सूरूपः अङ्गप्रत्यङ्गावयवानां शुभसंनिवेशवत्त्वात् 'ता' तावत् एवम् अनेन कारणेन खल चन्द्रः शशी चन्द्रः शशीति 'आहिए' माझ्यावः तिवएज्जा' इति एवं वदेत् कथयतुं स्व शिष्येभ्यः । अयं भावः-यत् सर्वात्मना सुन्दरत्वलक्षणमन्वर्थमधिकृत्य चन्द्रः शशोति व्यपदिश्यते । कया व्युत्पत्याऽस्यान्वर्थता : उच्यते-इह. 'शश । Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ . क्रान्तौ' इति धातुरदन्तश्चौगदिको वर्त्तते, चुरादयोहि धातवोऽपरिमिताः सन्ति, न तु तेषामियत्ता, केवलं यथा लक्ष्यमनुसर्त्तव्याः अत एव चुरादिगणस्यापरिमिततया परमार्थतो यथा लक्ष्यमनुसरण मवगम्य द्विवानेव चुरादि धातून् पठितवान् , न भूयसः, · ततोणिअन्तस्य-'शशनं शशः' इति घञ् प्रत्यये कृते शश इति सिद्धम् शशोऽस्यास्तीति शशी स्वविमानवास्तव्य देवदेवी शयनासनादिभिः सह कमनीयकान्तिकलितः, अनेनान्वर्थेन चन्द्रः शशीति व्यपदिश्यते । यहा 'ससी' 'इत्यस्य 'सश्रीः' इति सस्कृतं भवति, ततः सह श्रिया वर्तते इति सश्री. । श्रिया शोभया सह चर्त्तित्वेनान्वर्थेन 'ससो' इति कथ्यते । साम्प्रतं सूर्यविषयकं सूत्रमाह - 'ता कहं ते' इत्यादि प्रश्न सूत्रं सुगमम् । भगवानाह-'ता सराईया' इत्यादि 'ता' तावत् हे गौतम ! 'सराइया समया तिवा' लोके-'समयाइवा' समया इति सर्वे समया अहोरात्रादिकालस्य निर्विभागा सूर्यादिकाः सूर्य आदिर्येषां ते सूर्यादिकाः सूर्यकारणाः सूर्यमाश्रित्यैव समयाः प्रवर्तन्ते यथा-सूर्योदयमवधि कृत्वाऽहोरात्रारम्भकसमयो गण्यते नान्यथेति । एवम् 'आवलियाइवा' आवलिका इति वा, पावलिका-असख्येयसमयसमुदायात्मिकाऽऽवलिका - भवति । आणापाणूति वा' मानप्राण 'इति वा-असंख्येयाऽऽवलिका समुदाय एक आनप्राणो भवति । द्विपञ्चाशदधिक त्रिचत्वारिंशच्छत सख्यकावलिकात्मकः (४३५२) एक आनप्राण इति वृद्धाः । उक्तञ्च . "एगो आणा पाणू तेयालीसं सय उ बावन्ना । ix आवलियपमाणेणं, अणंतनाणीहि निहिहो" ॥१॥ एक आनप्राणः त्रिचत्वारिंशच्छतानि तु द्विपञ्चाशानि ।। i) आवलिका प्रमाणेन, अनन्तज्ञानिभिनिदिष्टः ॥१॥ इतिच्छाया । "थोवेइवा' स्तोक इति वा सप्तानप्राणप्रमाण 'एकः स्तोको 'भवति, 'जाव' इति यावत् यावत्पदेन उत्सर्पिण्या अर्वाक् स्तोकादूर्व मुहूर्ताहोरात्रपक्षमासवर्षयुगादयो दृष्टव्याः उत्सपिण्यवसर्पिणी पर्यन्तम् तदेवाह-'उस्सप्पिणियोसप्पिणी इवा' उत्सर्पिण्यवसर्पिणीति वा । "एवं खलु इत्यादि, एवम् अनेन प्रकारेण खलु निश्चयेन सूर्य आदित्य , सूर्य आदित्यः आदौ भव आदित्यः 'बहुलवचनात् त्यप्रत्ययः सर्वेषां समयादिनामादिकारणत्वात् सूर्य आदित्यः कथ्यते, मत एव सूर्य आदित्य आख्यातः । 'तिवएज्जा' इति वदेत् स्वशिष्येभ्य इति ।।सू० ३॥ f, 'साम्प्रतं चन्द्र प्रस्तावाच्चन्द्राग्रमहिषीणां सूर्याप्रमहिषीणां च सख्यादि वर्णनं, ताभिः सह कामभोगसुखवर्णनं चाह-'ता चंदस्स णं' इत्यादि . - 'मूलम्--ता चंदस्स णं जोइसिंदस्स जोहसरण्णो कइ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ'?' तान्यदस्सरणं जोइसिंदस्स जोइसरण्णो चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णन्ताओ, तं जहा चंद. पान, दोसिणाभा २, अच्चिमाली ३ पभेकरा ४, जहा हा तं चेव जाव णो चेव मेहुणवत्तियाए । एवं पुरस्सविणेयचं । ता चंदिमवरियाणं जोइसिंदा जोइसरायाणो Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका० प्रा०२० सू. ४ चन्द्रसूर्ययोरग्रमहिषोणां सख्यादिवर्णनम् ७०५ केरिसए कामभोगे पच्चणुभवमाणा विहरंति ? ता से जहा नामए केई पुरिसे पढम जोवणुढाणवलसमत्थे पढमजोव्वणुट्टाणवलसमत्थाए भारियाए सद्धिं अचिरवत्त विवाहे अत्थत्थी अत्थगवेसणयाए सोलसवासविप्पसिए, से णं तओ लढे कयकज्जे अणह समग्गे पुणरवि णियगधरं हव्यमागए हाए कयवलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते मुद्धप्पा वेसाई मंगल्लाई वत्थाई पचरपरिहिए अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरे मणुण्णं थाली पागसुद्धं अट्ठारसवंजणाउलं भोयणं भुत्ते समाणे तेसिं तारिसगंसी वासघरंसि अंतो सचित्तकम्मे वाहिरओ दुमियधमटे विचित्त उल्लोय चिल्लियतले बहुसमसुविभत्त भूमिभाए मणिकिरणपणासियंधयारे कालागुरुपवरकुदुरक्क तुरुक्क धूवमघमघतगंधुद्धयाभिरामे सुगंधवरगंधिए गंधवट्टिभूए, तंसि तारिसगंसि सर्याणज्जसि दुहओ उण्णए मज्झे णयगंभिरे सालिंगणवट्ठिए पण्णत्तगंडविव्वोयणसुरम्मे गंगापुलिणवालुया उद्दालसालिसए मुविरइयरयत्ताणे ओयवियखोमियखोमदुगूलपट्टपडिच्छायणे रत्तंसुयसंवुडे सुरम्मे आईणगख्यवूरणवणीय तूलफासे सुगंधवरकुसुमचुण्णसयणोवयारकलिए ताए तारिसाए भारियाए सर्द्धि सिंगारागारचारुवेसाए संगयगयहप्तियभणियचिट्ठियसलावविलासणि उणजुत्तोवयारकुसलाए अणुरत्ता विरत्ताए मणोणुकूलाए एगंतरइपसत्थे अण्णत्थ कत्थइ मणं अकुव्वमाणे इहे सदफरिसरसरूवगंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुव्भवमाणे विहरिज्जा, ता से णं पुरिसे विउसमणकालसमयंसि केरिसयं साया सोक्खं पच्चणुभवमाणे विहरइ ? उरालं समणाउसो !। ता तस्स णं पुरिसस्स कामभोगेहिंतो एत्तो अणंतगुणविसिहतराए चेव वाणमंतराणं देवाणं कामभोगा । वाणमंतराणं देवाणं कामभोगेहितो अणंतगुणविसिहतराए चेव असुरिंदवज्जियाणं भवणवासीणं देवाणं कामभोगा । अमरिंदवज्जियाणं देवाणं काम मोगेहिंतो एत्तो अणंतगुणविसिट्टतराए चेव असुरकुमाराणं इंदभूयाणं देवाणं कामभोगा । असुरकुमाराणं इंदभूयाणं कामभोगेहिंतो अणंतगुण विसिहतराए चेव गहगणणक्खत्तंताराख्वाणं कामभोगा । गहगणणक्खत्तताराख्वाणं कामभोगेहितो अणंतगुणविसिट्टतराए चेव चंदिमसरियाणं देवाणं कामभोगा । ता एरिसएणं चंदिमसरिया जोइसिंदा जोइसरायाणो कामभोगे पच्चणुभवमाणा विहरंति ॥९०४॥ छाया तावत् चन्द्रस्य खलु ज्यौतिषेन्द्रस्य ज्योतिषराजस्य कति अग्रमहिष्यः प्रक्षप्ताः ? तावत् चन्द्रस्य खलु ज्योतिषेन्द्रस्य ज्यौतिषराजस्य चतस्रः अग्रमहिष्यः प्राप्ताः तद्यथा-चन्द्रप्रभा १, ज्योत्स्नाभा २, अचिर्मालिः ३, प्रभङ्करा ४ । यथाऽधस्तात् तदेव यावत् नो चैव खलु मैथुनवृत्त्या । एवं सूर्यस्यापि शातव्यम् । तावत् चन्द्रसूर्याः खलु ज्यौतिषेन्द्रा ज्यौतिषराजाः कीदृशान् कामभोगान् प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति?, तावत् Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ चन्द्रप्रनप्तिसूत्रे स यथानामकः कोऽपि पुरुपः प्रथमयौवनोत्थानवलसमर्थः प्रथमयौवनोत्थानवलसमर्थया भार्यया सार्द्धम् अचिरवृत्तविवाहः अर्थार्थी अर्थगवेषणतायै पोडशवर्पविप्रोपितः, स खलु ततः लब्धार्थः कृतकार्यः अनघ समनः पुनरपि निजकगृहं हन्यमागतः स्नातः कृतबलिकर्मा कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तः शुद्धप्रवेश्यानि मङ्गल्यानि वस्त्राणि प्रघरपरिहितः अल्पमहार्धाभरणालङकृतशरीरः मनोनः स्थालीपाकशुद्धम् अष्टादशव्यञ्जनाकुलं भोजन भुक्तः सन् तस्मिन् तादृशे वासगृहे अन्तः सचित्रकर्मणि बाह्यतो दुमितवृष्टष्टे विधिघोल्लोचचिल्लिनतले बहुसमसुविभक्तभूमिभागे मणिकिरणप्रणाशितान्धकारेकालागुरु प्रवरशन्दुरुष्क तुरुष्क धूपमघमघायमानगन्धोद्धताभिरामे सुगन्धवरगन्धिते गन्धवर्तीभूते, तस्मिन् तादृशे शयनीये उभयत उन्नते मध्ये नतगम्भीरे सालिङ्गलवर्तिके प्रज्ञाप्त गण्ड वियोयणसुरम्ये गङ्गापुलिनवालुकोदालसदृशके सुविरचितरजस्त्राणे ओविय क्षौमिकामदुकूलपट्टप्रतिच्छादने रक्तांशुकसंवृते सुरम्ये आजिनकरूनवूरनवनीततूलस्पर्श सुगन्धवरकुसुमर्णशयनोपचारकलिते तया तादृश्या भार्यया साद्ध शृङ्गारागारचारवेषया संगतहसितमणिनस्थितसंलापविलासनिपुणयुक्तोपचारकुशलया अनुरक्ता विरकया मनोऽनुकृलया एकान्तरतिप्रसक्तः अन्यत्र कुत्रापि मनोऽकुर्वन् इष्टान् शब्दस्पर्श रसरूपगन्धान पञ्च वधान् मानुष्कान् कामभोगान् प्रत्यनुभवन् विहरेत् , तदा स खलु पुरुषः व्युपशमनकालसमये कीदृशं शातासौख्यं प्रत्यनुभवन् विहरति ?, उदार श्रमणायुष्मन् ! तावत् तस्य खलु पुरुषस्य कामभोगेभ्यः पभ्यः अनन्तगुणविशिष्टतरा पव वानव्यन्तराणां देवानां कामभोगाः । वानव्यन्तराणां देवानां कामभोगेभ्यः अनन्तगुणविशिष्टतरा एव असुरेन्द्रजिताना भवनवासिनां देवानां कामभोगाः । असुरेन्द्रवर्जितानां देवानां काममोगेभ्यः पथ्यः अनन्तगुणविशिष्टतरा एव असुरकुमाराणामिन्द्रभूतानां देवानां कामभोगाः। असुरकुमाराणामिन्द्रभूतानां देवानां कामभोगेभ्यः एभ्यः अनन्त गुणविशिष्टतरा एव ग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां कामभोगाः ग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां कामभोगेभ्यः अनन्तगुणविशिष्टतरा एव चन्द्रसूर्याणां देवानां कामभोगाः । तावत् ईशान् खलु चन्द्रसूर्या ज्योतिपेन्द्राः ज्योतिप रानाः कामभोगान् प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति ॥सू० ४ . व्याख्या-'ता चंदस्स णं' इति, 'ना' तावद् 'चंदस्स णं' चन्द्रस्य खलु ज्यौतिपेन्द्रस्य ज्यौतिपराजत्य 'कइ' कति कियत्यः 'अग्गमहिसीओ' अग्रमहिण्यः पट्टराश्यः प्रज्ञप्ताः ? भगवानाह-'ता चदस्सणं' इत्यादि, 'ता' तावत् 'चंदस्स णं, चन्द्रस्य खल ज्यौतिपेन्द्रस्य ज्योतिपराजस्य 'चत्तारि अग्गमहिमीओ' चतस्रः अग्रमहिण्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-ता इमाः'चंदप्पमा' इत्यादि, चन्द्रप्रभा १, ज्योत्स्नाभा २, अचिर्मालिः ३, प्रभङ्करा ४ इति 'जहा हेवा तं चेव यथा अधस्तात् इतः पूर्वमष्टादशे प्रामृते पञ्चमे सूत्र प्रतिपादितं तदेवनादेवात्रापि सर्व वाच्यम् । क्रियत्पर्यन्त मित्याह-'जावणोचेव णं मेहुणवत्तियाए' यावत् यावस्पदेन अप्रमहिपीपरिवागादिवर्णन गीतनृत्यादिकं च वाच्यम् नैव स्खल मैयुनवृत्त्येति । 'एवं सूरम्स वि यन्त्र एवम्-अनेनैव प्रकारण सूर्यस्यापि सर्वा पठनीया विमानादि ऋद्धिः, भेदस्तावंदनावानेव यत् मूर्यस्य चतस्रोऽप्रमहिष्य इमा वाच्याः , तथाहि-सूर्यप्रभा १, आतपा २, Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीकाप्रा.२० सु४ चन्द्रसूर्ययोरग्रमहिषीणां संख्यादि वर्णनम् ७०७ अर्चिालि ३, प्रभङ्करा ४ इति । विमानं च सूर्यस्य सूर्यावतंसकमवसेयम् । अन्यत् सर्व निरवशेषं चन्द्रवदेव पठनीयं, नान्यः कोऽपि भेदः । कथितस्यापि पुनरत्रकथनं चन्द्रसूर्यप्रसङ्गवशादिति न कश्चिद्दोप इति । साम्प्रतं चन्द्रसूर्याणां कामभोगानां शातासुखं कीदृशमिति प्रतिपादयति-'ता चंदिमसरियाणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'चंदिममूरियाणं' चन्द्रसूर्याः खलु ज्यौतिपेन्द्रा ज्योतिपराजा कीदृशान् कामभोगान् प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति-तिष्ठन्ति ? । एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह-'ता से जहानामए' इत्यादि, 'ता' तावत् सः यथा नामकः अनिर्दिष्टनामा 'कई पुरिसे' कोऽपि पुरुषः कीदृशः ? इत्याह 'पढम' इत्यादि पढमजोवणुट्ठाणवलसमत्त्ये' प्रथमयौवनोत्थानबलसमर्थः प्रथमयौवनोत्थाने प्रथमयौवनोद्गमे यदलं शरीरसामर्थ्य तेन समर्थः प्रथमेत्यादि तादृश्याः एव भार्यया साईमित्यग्रेणान्वयः 'अचिरवत्तवीवाहे' अचिरवृत्तविवाहः तत्कालकृतपाणिग्रहः सन् 'अत्थत्थी' अर्थार्थी घनार्थी अतएव 'अत्थगवेसणयाए' अर्थगवेपणतायै धनोपार्जनार्थम् 'सोलसवासविप्पचसिए' पोडश वर्षविप्रोषितः पोडशवर्षानि यावत् कृतदेशान्तरप्रवासः 'से णं' स खलु पुरुष 'तो' ततः देशान्तरात् 'लढे' लब्धार्थः प्रातः प्रभूतार्थः, अतएव 'कयकज्जे' कृतकार्यः कृतं सपादितं कार्य: धानोपार्जनरूपं येन स तथाभूतः, 'अणहसमग्गे अनध समग्रः अनधम-अक्षतं न पुनरन्तराले केनापि चोरादिना लुण्टितं समग्रं-द्रव्यभाण्डोपकरणादि यस्य स तथा, एतादृशः सन् पुनरपि 'णियगघरं हव्वमागए' निजकगृहं स्वगृहं हव्यं-शीघ्र मार्गे कुत्रापि निवासमकुर्वन् आगतः-समागतः । सच 'पहाए' स्नातः कृतस्नानः 'कयवलिकम्मे' कृतबलिकर्मा कृतं बलिकर्म पशुपक्षिभ्योऽन्नप्रदानादि रूपं येन स तथा भूतः, कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तः-कृतं कौतुकं मषीतिलकादिक मङ्गलं मगलकारकं दध्यक्षतादिधारणं प्रायश्चितं दुःस्वप्नादि फलनिवारणार्थ देवगुरुनमस्काररूपं येन स तथाभूतः 'सुद्धप्पावेसाई' शुद्धानि पवित्राणि स्वच्छानि वा प्रावेश्यानि सभादि प्रवेशयोग्यानि यद्वा 'सुद्धप्पा' इति पृथक् पदं तस्यायमर्थः शुद्धात्मा कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तत्वेन शुद्धान्तःकरणः 'वेसाई' वेष्यानिवेपयोग्यानि 'मंगल्लाई' माङ्गल्यानि मङ्गलसूचकानि न तु शोकसूचक कालवर्णादि युक्तानि एतादृशानि 'वत्थाई' वस्त्राणि 'पवरपरिहिए' प्रवरतया यथास्थान परिहितानि येन स प्रवरपरिहितः, पुनश्च 'अप्पमहग्धाभरणालंकियसरीरे' अल्पानि भारापेक्षयाऽल्पभारयुक्तानि महा_णि महामूल्यानि यानि आभरणानि, तैरलड्कृतं शरीरं यस्य स तथाभूतः सन् 'मण्णुण्णं' मनोज्ञं कलमोदनादि 'थालीपागसुद्ध' स्थालोपाकशुद्धं स्थाली-पिठरी तस्यां पाको यस्य अन्यत्राहि पक्कमोदनादि न सु पक्कं भवति तत इदं स्थालीपाकेति विशेषणम्, अत एव शुद्धम् अपक्कादिदोपवर्जितं भक्तदोषवर्जितं वा 'अट्ठारसवंजणाउलं' अष्टादशव्यञ्जना कुलम् अष्टादशभिर्लोकप्रसिद्धैर्व्यञ्जनैः शालनकतक्रावलेहनिकादिभिराकुलं युक्तम्, एतादृशं Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्राप्तिसूत्रे ७०८ 'भोयणं' भोजनम् 'भुत्ते समाणे' भुक्तः सन् 'तंसि तारिसगसि' तस्मिन् तादृशके वन्यमाणविशेषणविशिष्टे 'वासघरंसि' वासगृहे शयनगृहे, अस्य विशेषणान्याह 'अंतो सचितकम्मे' अन्तः सचित्रकर्मणि अन्तः अभ्यन्तरे चित्र कर्मणि-सिंहशरभमृगादि चित्राणि, तैः सहित 'वाहिरओ दूमियघट्ठमट्टे' बाह्यतो बहिर्भागे दूमिते सुधापविधवलिते घृष्टे चिक्कण पाषाणादिना धर्षिते ततो मृष्टे चिक्कणी कृते, · 'विचित्तउल्लोयचिल्लियतले' विचित्रेण नानाविधचित्रयुक्तेन उल्लोचेन चन्द्रोदयेन 'चंद्रोवा' इति प्रसिद्धेन 'चिल्लितं' इति दीप्यमानं तलं वासगृहमध्यभागे उपरितनं तलं यस्य तत्तथा तस्मिन्, तथा 'बहुसमसुविभत्तभूमिभाए' बहुसमसुविभक्तभूमिभागे तत्र बहुसमः अत्यन्तसमः निम्नोन्नत वर्जितत्वात्, सुविभक्तः सुविच्छित्तिकः रेखादि न्यासप्रकारयुक्तो भूमिभागो भूमितलभागो यत्र तस्मिन् तथा 'मणिकिरणपणासियंधयारे' मणिकिरणप्रणाशितान्धकारे मणिकिरणैः प्रणाशितः दूरीकृतः अन्धकारो यत्र तस्मिन् चाकचिक्यमानमणिकिरणप्रकाशयुक्त 'कालागुरुकुदुरुक्कतुरुक्कधूवमधमतगंधुझ्याभिरामे' कालागुरु प्रभृतिगन्धद्रव्यमम्पादितस्य धूपस्य दह्यमानस्य मधमघायमानः अतिशयेन प्रसर्यमाणः यो गन्ध., तेन उद्भूतम् सर्वतो व्यातम् अत एव अभिरामं तत्रस्थितजनमनोह्लादकं तस्मिन् एतावदेव न 'सुगंधवरगंधिए' सुगंधवरगन्धिते पुष्पनिर्यासादेः 'अत्तर' इति प्रसिद्धस्य श्रेष्ठसुगन्धेन गन्धिते-सुगन्धिते 'गंधवटिभूए' गन्धवर्तीभूते गन्धद्रव्यगुटिकासहशे, एतादृशे वासगृहे । अथ तद्गतशयनीयं वर्ण्यते 'सि' इत्यादि, तत्र पुनः 'तंसि तारिसगंसि' तस्मिन् तादृशे 'सयणिज्जसि' शयनीये, कि विशिष्टे ! इत्याह-'दुहओ' इत्यादि, 'दुहओ उन्नए' उभयतः उभयोः पार्श्वयो रुन्नते 'मझे णयगंभीरे' मध्ये मध्यभागे नते नम्म्रीभूते अतएव गम्भीरे 'सालिंगणवट्टिए' आलिंगनवा शरीरप्रमाणोपधानेन सहिते ‘पण्णत्तगंडविव्वोयणे सुरम्गे प्रज्ञाप्तगण्डविब्वोयणसुरम्ये प्रज्ञया विशिष्टकर्मविषयबुद्ध्या आप्ते-प्राप्ते-अतीव सुष्टु परिकर्मिते इत्यर्थः 'विब्बोयणे' उभयतो गण्डोपधानके ताभ्यां सुरम्ये 'गंगापुलिणवालुया उद्दालसालिसए' गङ्गापुलिनवालुका-गङ्गातटगताया वालुका तस्या उद्दालः-अबदलनं पादादिन्यासेऽधोगमनं तेन सदृशे 'मुविरइयरयत्ताणे' सुविरचितरजस्त्राणे सुविरचितं सुष्टुतया निवेशितं रजनाणं रजो निवारकवस्त्रं यत्र तस्मिन् 'ओयवियखोमियखोमदगुल्लपट्टपडिच्छायणे' ओयविय सौमदुकूलपट्टप्रतिच्छादने, तत्र ओयवियं-सुपरिकर्मितं क्षौमिक क्षौमवस्त्रं क्षौमिति 'रेशम' इति प्रसिद्धं तद्वस्त्रं दुकूलं काासिकमतसीमयं वा वस्त्रं तस्य पट्टः-युगल रूपः पट्टशाटकः स प्रतिच्छादनम्-आच्छादनं यस्य तत्तथा तस्मिन् रत्तसयसंवुढे रक्तांशुकसंवृते रक्तांशुकेन रक्तवस्त्रनिर्मितमशकगृहाभिधानेन 'मच्छरधानी' इति प्रसिद्वेन संवृते सम्यक्तया समन्ततः परिवेष्टिते 'आईणगरूयवूरण वणीय तूलफासे' आजिनकरूतबूरनवनीततूलस्पर्शे, तत्र Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशि काटीका प्रा०२० सु.४ चन्द्रसूर्ययोरग्रमहिपीणां संख्योदि वर्णनम् ७०९ भाजिनकं चिक्कणचर्ममयो वस्त्रविशेषः स्वभावतोऽतिकोमलत्वात् , रूतं-कार्पसपक्ष्म, बूरः सुकुमालवनस्पतिविशेषः, नवनीतम् 'मक्खन' इति प्रसिद्धं, तुलः अर्कनूलः एषां स्पर्श इव स्पर्शों यस्य स तथाभूते, 'सुगंधवर कुसुमचुण्णसयणोवयारकलिए' सुगन्धवर कुसुमचूर्ण शयनोप चारकलिते, नत्र सुगन्धानि सुष्टुगन्धयुक्तानि यानि वरकुसुमानि पाटलचम्पकादि श्रेष्ठपुष्पाणि, तथा ये च सुगन्धाश्चूर्णाः कोष्ठपुटादि सुगन्धद्रव्य सम्पादिताः, तथा एतदतिरिक्तास्तथा विधाः शयनोपचाराः तैः कलिते युक्ते, एतादृशे शयनीये 'ताए तारिसाए भारियाए' तया तादृश्या वक्तुमशक्यरूपतया पुण्यशालिनां योग्यया भार्यया 'सद्धि' सार्द्धम्, किं विशिष्टया ? इत्याह-'सिंगारागारचारवेसाए' शृङ्गारागारचारूवेपया शृङ्गारस्य अगारं गृह शृङ्गाररसपोषकत्वात् तथाभूतः चारुः सुन्दरो वेपः वस्त्रधारणविन्यासरूपो यस्याः सा तथा तया यद्वा 'शृङ्गाराकारचारुवेपया' इति च्छाया, ततोऽयमर्थः-शृङ्गारः शृङ्गाररसपोपक' आकारःसन्निवेशविशेषः यस्य स शृङ्गाराकारः इत्थम्भृतश्चारुः शोभनो वेपो यस्या सा तथाभूता तया, 'संगयहसियभणियचिट्ठियसलाव विलासणिउणजुत्तोवयारकुमलाए' सगतहसितभणित चेष्टित संलापविलासनिपुणयुक्तोपचारकुशलया, तत्र सगतं हंसगतिवद् गमनं सविलास चकमण हसितं सप्रमोदं कपोलसूचितं मन्दं मन्दं हसनं, भणितं-कामोद्दीपकं विचित्रं वचनम् , चेष्टितं सकाममङ्गप्रत्यङ्गावयवप्रदर्शनपुरस्सरं प्रियस्य पुरतोऽवस्थानरूपं चेष्टाकरणम् , संलाप.-प्रियेण सह सप्रमोदं सकामं परस्परं कामकथाकरणम् , एतेषां विलासेन शुभलीलया यो निपुणः सूक्ष्मवुद्धिगम्योऽत्यन्त कामविषयपरमनैपुण्योपेतः, युक्तः-देशकालोचितः उपचारः तदाकार व्यवस्थारूपः तेन तत्र वा कुशला तया 'अणुरत्ताविरत्ताए' अनुरक्ता विरक्तया-अनुरक्तया कदाचिदप्यविरक्कया, अतएव 'मणोणुकूलाए' मनोऽनुक्लया पत्युर्मनसोऽनुकूलवर्तिन्या एतादृश्या भार्यया सार्द्धमिति पूर्वेण सम्बन्धः स पुरुषः कीदृशः ? इत्याह--'एगंतरइपसत्ते' एकान्तरतिप्रसक्तः अतिशयेन तयासह रमणासक्तः गृहकार्यादौ अन्यस्त्रियां वा मनो न कुर्वन् अन्यत्र 'अण्णत्थकत्थइ मणं अकुव्वमाणे' अन्यत्र कुत्रापि मनोऽकुर्वन् अन्यत्र मनः करणे हि न यथावस्थिताभिष्टभार्यासमुत्पन्नं कामसुखमनुभूयते, एतादृशः सन् 'इडे'-इष्टान्-मनोवाञ्छितान् 'सद्दफरिसरसरूवगंधे शब्दस्पर्शरसरूपगन्धरूपान् 'पंचविहे' पञ्चविधान् 'माणुस्सए' मानुष्कान् मनुष्यभवसम्बन्धिनः 'कामभोगे' कामभोगान् 'पच्चणुब्भवमाणे प्रत्यनुभवन् प्रति-आभिमुख्येन तदनुभवं कुर्वन् 'विहरेज्जा' विहरेत् अवतिष्ठेत् । एवं कथयित्वा भगवान् तत्समयगतकामभोगसुखविषये गौतमं पृच्छति- 'ता से णं' इत्यादि, 'ता' तावत् तावच्छब्दः क्रमार्थः, तेन-आस्तां तावदन्यदतनंवक्तव्यं किन्तु तावदिदं कथ्यताम्-से णं पुरिसे' स खलु पुरुषः 'विउसमणकालसमयंसि' ब्युपशमनकालसमये, व्युपशमनं-कामभोगावसानं तस्य काल समये-तथाविधकालेनोपलक्षिते समयेऽवसरे 'केरिसय सायासोक्ख' कीदृशं तत्कामभोग Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे जन्यं शातरूपम् आह्लादरूपं सौख्यं 'पच्चणुभवमाणे विहरइ' प्रत्यनुभवन् विहरति तिष्ठति ? एवं भगवता पृष्टो गौतमः प्राह-'ओरालं समणाउसो' हे श्रमण आयुष्मन् ? उदारम्-अत्यद्भुतं शातसौख्यं प्रत्यनुभवन् स विहरति । भगवान् एतद् दृष्टान्तेन व्यन्तरादीनां कामभोग सुखोपमाप्रदर्शनपूर्वकं चन्द्रसूर्यदेवाना कामभोगसुखानि प्रदर्शयति-'ता तस्स णं' इत्यादि 'ता' तावत् 'एत्तो' एतेभ्यः 'तस्स णं पुरिसस्स' तस्यानन्तरोदितस्य खलु पुरुषभ्य सम्बन्धिभ्यः 'कामभोगेहितो' कामभोगेभ्यः 'अणंतगुणविसिट्टतराए चेच' अनन्तगुणविशिष्टतरा एवं अनन्तगुणतयाऽत्यन्त विशिष्टा एव 'चाणमंतराणं देवाणं कामभोगा' वानव्यन्तराणां देवानां कामभोगाः । एवं वानव्यन्तरदेवानां कामभोगेभ्यः असुरेन्द्रवर्जितानां भवनवासिदेवाना कामभोगा अनन्तगुणविशिष्टतराः । असुरेन्द्रवर्जितभवनवासिदेवानां कामभोगेभ्योऽसुरकुमारा णामिन्द्रभूतानां देवानां कामभोगा अनन्तगुणविशिष्टतराः । इन्द्रभूतानामंसुरकुमाराणां देवानां कामभोगेभ्यः ग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां कामभोगाः अनन्त गुणविशिष्टतरा भवन्ति । 'गहगणणक्खत्तताराख्वाणं' ग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणा कामभोगेभ्यः 'अणंतगुणविसिहतराए चेव' अनन्तगुणविशिष्टाः 'चंदिमसूरियाणं देवाणं कामभोगा' चन्द्रसूर्याणां देवाना कामभोगाः भवन्ति । उपसहारमाह-'ता एरिसएणं' इत्यादि 'ता' तावत् 'एरिसएणं' एतादृशान् खलु 'कामभोगे' कामभोगान् 'चंदिमसूरिया' चन्द्रसूर्याः 'जोइसिंदा जोइसरायाणो' ज्यौतिपेन्द्राः ज्यौतिपराजाः 'पच्चणुब्भवमाणा' प्रत्यनुभवन्तः 'विहरंति' तिष्ठन्तीति सूत्रार्थः । सू०४ ॥ ___साम्प्रतं पूर्व यदष्टाशोतिर्ग्रहा उक्तास्तान् नामग्राह मुपदर्शयन्नाह—'तत्थ खलु इमे इत्यादि । मूलम्-तत्थ खलु इमे अट्ठासीई महग्गहा पण्णना तं जहा इंगालए १, वियालए २, लोहियंके ३, सणिच्छरे ४, आहुणिए ५, पाहुणिए ६, कणो ७, कर्णए ८, कणकणए ९, कणवियाणए १०, कणगसंताणे ११, सोमे १२, सहिए १३, अस्सासणे १४, कज्जोवए १५, कब्बरए १६, अयकरए १७, दुंदुभए १८, संखे १९, संखणामे २०, संखवण्णाभे २१, कंसे २२, कंसणामे २३, कंसवण्णाभे २४, णीले २५, णीलोभासे २६, रुप्पी २७, रुप्पोभासे २८, भासे २९, भासरासी ३०, तिले ३१, तिलपुप्फवण्णे ३२, दगे ३३, दगवण्णे ३४, काले ३५, वंधे ३६, इंदग्गी ३७, धूमकेऊ ३८, हरी ३९, पिंगलए ४०, बुहे ४१, सुक्के ४२, वहप्फई ४३, राहू ४४, अगत्थी ४५, माणवए ४६, कामफासे ४७, धुरए ४८, पमुहे ४९, वियडे ५०, विसंधिकप्पे ५१, पयल्ले ५२, जडियालए ५३, अरुणे ५४, अग्गिन्लए ५५, काले ५६, महाकाले ५७, सोथिए ५८, सोवस्थिए ५९, बद्धमाणगे ६०, पलंवे ६१, णिच्चालोए ६२, णिच्चुज्जोए ६३, सयंपभे ६४, ओभासे ६५,, सेयंकरे ६६, खेमंकरे ६७, Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिका टीका० प्रा०२० सू. ५ अष्टाशीतिग्रहनामानि ७११ आमंकरे ६८, पभंकरे ६९, अरए ७०, विरए ७१, असोगे, वोय सोगेय ७२, विमले ७३, विपते ७४, विभत्थे ७५, विसाले ७६, साले ७७, सुब्बए ७८, अणियहो ७९ एगजडी ८०, विजडी ८१, करे ८१, करिए ८३, राए ८', अग्गले ८५. पुप्फे ८२, सावे ८७. केऊ ८८ ॥ सू५॥ छाया-तत्र खलु इमे अष्टाशीतिः महाग्रहाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - अङ्गारकः १, विकालका २, लोहिताः ३, शनैश्चरः ४, आधुनिकः ५, प्राधुनिक ६, कर्णः ७, कणकः ८ कणकणकः ९, कणवितानकः १०, कणसन्तानकः १२, सोमः १२, सहितः १३, आश्वासनः १४, कार्योपगः १५ कर्वरकः १६, अजकरकः १७, दुन्दुभकः १८, शङ्खः १९, शङ्खनाभः २०, शदखवर्णाभः २१, कंस २२, कंसनाभः २३, कंसवर्णाभः २४, नीलः २५, नीलावभासः २६, रूप्पी २७, रूप्यवभासः २८, भस्म २९. भस्मराशिः ३०, तिलः ३१, तिलपुष्पवर्णक ३२, दकः ३३, दकवर्णः ३४, कालः ३. वन्ध्यः ३६, इन्द्राग्निः ३७, धूमकेतु ३८, हरि. ३९, पिङ्गलक. ४०, बुध ४१, शुक्रः ४२, बृहस्पतिः ४३, राहु ४४, अगस्तिः ४५, माणवकः, ४६ कामस्पर्शः ४७, धुरका ४८, प्रमुखः ४९, विकटः ५०, विसंधिकल्पः ५१, प्रकल्पः ५२, जटालक ५३, अरुण. ५४, अग्नि. ५५, कालः ५६, महाकालः ५७, स्वस्तिक ५८ सौवस्तिका ५९, वर्षमानकः ६०, प्रलम्व. ६१, नित्यालोकः ६२, नित्योद्योतः ६३, स्वयंप्रभः ६४, अवभासः ६५, श्रेयस्करः ६६, क्षेमकरः ६७, आभकर. ६८, प्रभङ्करः ६९, अरजाः ७०, विरजा ७१, अशोकः ७२, वीतशोकः ७३, विमलः (ववत्त. ७४, विवस्त्रः ७५, विशाल: ७६, शाल ७७, सुव्रतः ७८, अनिवृत्तिः ७९, एकजटी ८०, द्विजटी ८१, कर: ८२, करिक: ८३, राजः ८४, अर्गलः ८५, पुष्पः ८६, भाव ८७, केतुः ८८, ॥ सूत्र ॥५॥ व्याख्या- 'तत्थ खलु' इति, 'तत्थ' तत्र चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपेषु मध्ये 'इमे' इमे ये पूर्वमष्टाशीतिम्रहाः प्रज्ञप्ता• 'तं जहा' तद्यथा ते इमे 'इंगालए' इत्यादि सुगमम्अष्टाशीतिम्रहाणा नामानि सूत्रनोऽवगन्तव्यानि । एतेषां नाम्नां संग्राहिका नवगाथा सुखप्रतिपत्यर्थ मत्र प्रदर्श्यन्ते "इंगाल-वियालो य, लोहियंके सणिच्छरे चेव । आहुणिए पाहुणिए कणग-सनामावि पंचेव ॥१॥ सोमे सहिए अस्सासणे य कज्जोवए य कब्बरए । अयकर दुंदुभए वि य, संख-सनामावि तिन्नेव ॥२॥ तिन्नेव कंसनामा, नीले रुप्पी य हुति चत्तारि । भास तिल पुप्फवण्णे दगवण्णे कायबंधेय ॥३॥ इंदग्गिषुप्फकेऊ, हरि पिंगलए बुधे य मुक्के य । वहस्सइ राहु अगत्थी, माणवगे कामफासे य ॥४॥ धुरए पमुहे वियडे, विसंधिकप्पे तहा पइल्ले य । Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रक्षप्तिसूत्रे /७१२ जडियालए य अरुणे अग्गिलकाले महाकाले ॥५॥ सोत्थिय सोवत्थियए, वद्धमाणग तहा पलंवे य । णिच्चालोए णिच्चुज्जोए, सयंपभे चेव ओभासे ॥६॥ सेयंकर खेमंकर, आभंकरपभंकरे य बोद्धव्वे । अरए विरए य तहा, असोगवह वीयसोगे य ॥७॥ विमले वितत विवत्थे, विसाल तह साल सुब्बए चेव । अणियही एगजडी य होय वियडीय बोद्धव्वे ॥८॥ करकरिए रायग्गल, वोद्धव्वे पुप्फभावे केऊय । अट्ठासीइ गहा खल, नायव्या आणुपुबीए ॥९॥ एतेऽङ्गारकादयोऽष्टाशीतिम्रहाः सर्वेऽपि प्रत्येकं चतुर्णा सामानिकसहस्राणां चतसृणामग्रमहिषीणां सपरिवाराणां, तिसृणां पर्षदां, मप्तानामनीकानां, सप्तानामनीकाधिपतीनां पोडशानामात्मरक्षकदेवमहत्राणाम् अन्येषां च स्वविमानवास्तव्यानां देवानां देवीनां चाधिपत्यमनुभवन्तीति । सू० ॥५॥ अथ सकलशास्त्रोपसंहारमाह-'इय एस' इत्यादि, मूलम्--इय एस पागडत्था, अभव्वजणहियय दुल्लहाइ णमो । उक्कित्तिया भगवया जोइसरायस्स पण्णत्ती ॥१॥ एस गहिया वि संता, थद्धेगार वियमाणि पडिणीए । अवहुस्सुए ण देया, तबिवरीए भवे देया ॥२॥ सद्धाधिइउठाणुच्छाह कम्मवलवीरिय पुरिसकारेहिं । जो सिक्खिओ वि संतो, अभायणे परि कहेज्जाहि ॥३॥ सो पवयणकुलगणसंघवाहिरो णाणविणय परिहीणो । अरहंतोरगणहरमेरं किर होइ वोलीणो ॥४॥ तम्हा धिइउहाणुच्छाह कम्मवलचीरियसिक्खियं नाणं । धारेयव्वं णियमा, णय अविणएसु दायव्वं ॥५॥ वीरवरस्स भगवओ, जरमरणकिलेसदोसरहियस्स । वंदामि विणयपणओ सोक्खुप्पाए सया पाए ॥६॥ सू०६ वीसइमं पाहुडं समत्तं ॥२०॥ चंदपन्नत्ती समत्ता छाया-इति पपा प्रकटार्था, अभव्यजन हृदयदुर्लभा इयम् । उत्कीर्तिता भगवता, ज्यौतिषराजस्य प्रक्षप्ति ॥१॥ Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्तिप्रकाशिका टीका० प्रा०२० सू ५ · अष्टाशीतिग्रह्नामानि १३ पा गृहीतापिसती, स्तब्धाय गारवित मानि - प्रत्यनीकाय ।' अबहुश्रुताय न देया, तद्विपरीताय भवेद्देया ॥२॥ श्रद्धा धृत्युत्थानोत्साहकर्म वल वीर्यपुरुपकारैः । यः शिक्षितोऽपि सन् अभाजने परिकथयेत् ॥३॥ स प्रवचनकुलगणसंघवाह्यो ज्ञानविनयपरिहोनः । अर्हत्स्थवीरगणधर मर्यादा किल भवति व्यतिक्रान्तः ||४|| तस्मात् धृत्युत्थानोत्साह कर्मबलवीर्य शिक्षितं ज्ञानम् । धर्तव्य नियमात् न च अविनयेषु दातव्यम् ॥५॥ वीरवरस्य भगवतो जरामरणवलेशदोपरहितस्य । वन्दे विनयप्रणतः, सौख्योत्पादौ सदा पादौ ॥६॥ ०६ ॥ विंशतितमं प्राभृतं समाप्तम् ॥२० चन्द्रप्राप्तिः समाप्ता. । व्याख्या-- - 'इयएस' इति - एवम् उक्तेन प्रकारेण 'एस' एषा - अनन्तरोदितस्वरूपा 'पागडत्था' प्रकटार्था - जिनवचनतत्त्ववेदिनां स्पष्टार्था 'इणमो' इयं चेत्थं प्रकटार्थापि सती 'अभव्वजणहिययदुल्हा' अभव्यजनहृदयदुर्लभा, अभव्यजनानां कृते हृदयेन - पारमार्थिकाभिप्रायेण दुर्लभा भावार्थमाश्रित्य ज्ञातुमशक्या, अभव्यत्वादेव तेपां जिनवचनस्य सम्यक्तया परिणतेरभावात् । ' उक्कित्तिया' उत्कीर्तिता कथिता, केनेत्याह- 'भगवया' भगवता ज्ञानेश्वर्यादिसंपन्नेन श्रीवर्द्धमानस्वामिना 'जोइसरायस्स पण्णत्ती' ज्योतिषराजस्य - चन्द्रस्य प्रज्ञप्तिः ॥१॥ 'एस' इत्यादि, 'एस' एपा, गहियावि' गृहीताऽपि ग्रहणविपयीकृताऽपि थद्धे' स्तब्धाय स्वभावत एव मानप्रकृत्या विनयरहिताय 'थद्धे' इत्यत्र “व्यत्ययोऽप्यासाम्" इति वचनात् चतुर्थ्यर्थे सप्तमी, एवमग्रेऽपि बोध्यम् । 'गारविय - माणि पडिणीए' गारवितमाणि प्रत्यनीकाय गारवितश्च मानी च प्रत्यनीकचेति समाहारे गारवितमानिकप्रत्यनीकम्, तस्मै तत्र गौरवम् ऋद्धिग्सशातरूपं गौरवत्रयं, तत् संजातमस्येति गारवितस्तस्मै, ऋद्धयांदि मदोपेतो हि अचिन्त्य चिन्तामणिकल्पमपीदं चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र माचार्यादिकं च तद्वेत्तारमवज्ञया पश्यति, अवज्ञाच दुरन्तनरकादिप्रपातहेतुरतस्तस्मै दाननिषेधस्तदुपकारायैव जायते । तथा मानिने जात्यादि - मदोपेताय प्रत्यनीकाय - दूरभव्यत्वेन अभव्यत्वेन वा सिद्धान्तवचनानादर कारिणे । पूर्वोका -'भावनाऽत्रापि मानिप्रत्यनीकविषयेऽपि भावनोया । ' तथा 'अवहुस्सुए' अबहुश्रुताय अवगा - 'दास्तोकशास्त्राय, सहि जिनवचनेषु असंम्यग्भावितत्वात् शब्दार्थ पर्यालोचनायामसमर्थत्वाच्च यथार्थता कथ्यमानमपि न सभ्यक्तया रुचि विषयी करोति - अतएव पूर्वोक्तेभ्यः 'ण देया' नया न शिक्षयितव्या । तर्हि कस्मै देया ? इत्याह- ' तव्विवरी ए' तद्विपरीताय पूर्वोक्तदोष'वर्जिताय 'भवे देया' देया भवेत् दातव्या भवेत् । अत्र भवेदितिं क्रियापदस्य सामर्थ्य ९० ה 1 Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . चन्द्रप्राप्तिसूत्रे ७१४ लब्धावप्युपादानं दातव्यताया अवधारणाथै तेन तद्विपरीतायावश्यं दातव्यैव, सर्वथा न दातव्येति नावधारणीयम् अन्यथा सर्वथा तहानाभावे शास्त्रव्यवच्छेदेन तीर्थव्यवच्छेदः प्रसज्यते ॥२॥ एतदेव व्यक्ती कुर्वन्नाह-'सद्धे' त्यादि गाथाद्वयम्-'सदाधिइउहाणुच्छाहकम्मबालवीरियपुरिसकारेहि' श्रद्धाधृत्युत्थानोत्साहकर्मबलवीर्यपुरुपकारैः तत्र श्रद्धा श्रवणं प्रतिरुचिः, धृतिः अत्र कथ्यमानं जिनवचनं सत्यमेव "तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहि पवेइयं' इति बुद्धचा मनसो दाढर्यम्, उत्थान-श्रवणार्थ गुरुं प्रत्यभिमुखगमनम्, उत्साहः श्रवणविषये मनस औत्सुक्यं यदि मे पुण्यप्रकर्षात् सामग्री संपद्यते शृणोमि च ततः शोभनं भवतीति परिणामः सजायते, कर्मचन्दनबहुमानादिरूपम् बलम्-शारीरकस्तद्वचनादि विषयः प्राणः वोर्यम् अनुप्रेक्षायां सूक्ष्माति सूक्ष्मार्थोद्भावनशक्तिः, पुरुषकारः साधिताभिमतप्रयोजनं वीर्यमेव, एतैःकारणैः यः स्वयं 'सिक्खिओ वि संतो'शिक्षितोऽपि गृहीतचन्द्रप्रज्ञप्तिः सूत्रार्थतदुभयोऽपि सन् यो यदि दाक्षिण्यादिना 'अभायणे' अभाजने अयोग्ये ‘स्वान्तेवासिनि शिष्ये इति निजान्तेवासिने शिष्याय 'परिकहेज्जाहि' परिकथयेत् सूत्रतोऽर्थत उभयतो वा प्रतिपातयेत् तदा सो सः 'पवयणकुलगणसंघबाहिरो' प्रवचनकुलगणसद्धबाह्यः तत्र प्रवचन-भगवादाज्ञा, कुलम्-एकगुरुसमुदायः गणः एकसामाचारि समुदायः साधुसाध्वीश्राविकारूपश्चतुर्विधः, एभ्य सर्वेभ्य स बाह्यः बहिर्भूतो विज्ञेयः । तथा न ‘णाणविणयपरिहीणो' ज्ञानविनयपरिहीनः पुनश्च सः 'अरहंतथेरगणहरमेरं' अर्हत्स्थवीरगणधरमर्यादां किल निश्चयेन 'वोलिणो' व्यतिक्रान्तः 'होइ' भवति, अत्र किलेति पदमाप्तवादसचकस्, तेन इत्थमाप्तवचनं व्यवस्थितं यथा स किल-निश्चयेन भगवदर्हदादिव्यवस्थामतिक्रान्त इत्यर्थः, तदतिक्रमे च दीर्घ संसारिता भवतीति तृतीयचतुर्थगाथार्थः ।३।४। ततः किमित्याह-'तम्हा' इत्यादि, 'तम्हा' तस्मात् कारणात् 'धि उत्थाणुच्छाह कम्मवलवीरियसिक्खियं णाणं' धृत्युत्थानोत्साहकर्मबलवीयैः स्वयं मुमुक्षुणा सता यत् शिक्षितं ज्ञान-चन्द्रप्रज्ञाप्त्यादि समुत्थं तत् 'नियमा' नियमादात्मन्येव 'धारेयन्वं' धारयितव्यं स्वयमेव तस्य ज्ञानस्य हृदये धारणा कर्तव्या किन्तु कदाचिदपि 'अविणएसु' अविनयेषु विनयहीनेषु शिष्यादिषु ण य दायच्वं' न च दातव्यं नैव देयम्, अविनयेभ्यो दाने आत्मपरयोर्दीर्घसंसारिता प्रसक्तेः । इयंच चन्द्रप्रज्ञप्तिरर्थतो भगवता श्री वर्द्धमानस्वामिना मिथिलायां नगर्या साक्षादुक्ता, भगवाँश्चास्य वर्तमानस्य तीर्थस्याधिपतिः तदर्थप्रणेतृत्वात् वर्तमानतीर्थाधिपतिस्वाच्च शास्त्रसमाप्तो मङ्गलाथै तन्नमस्कारमाह-'वीरवरस्स' इत्यादि, 'वीरवरस्स' वीरवरस्य, वोरयतिस्मेति वोरः, वीरेषु वरः-प्रधानो वोरवरः वर्धमानस्वामी, तस्य भगवतः-अनुपमैश्वर्यादि युक्तस्य, वरग्रहणलब्धमेव वीरत्वं स्पष्टयति-कीदृशस्य वोरवरस्य ? इत्याह-'जरमरण' इत्या Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्राप्तिप्रकाशिकाटीका. प्रा. 20 सू० 5 अधाशीतिग्रहनामानि 715 दि, 'जरमरणकिलेसदोसरहियस्स' जरामरणक्लेशदोपरहितस्य, तत्र जरा-वयोहानिरूपा, मरणं-प्राणत्यागरूपं. क्लेशाः-शरीरमानसोद्भवाः वाधारूपाः, दोषाः-रागादयः, तैः रहितस्य जरादि विप्रमुक्तस्य "पाए' पादौ-चरणौ, कथम्भूतौ ? 'सोक्खुप्पाए' सौख्योत्पादको तो 'विणयपणओ' विनय प्रणतः-विनयेन नम्रीभूतो न तु स्तब्धी भूतः एतादृशः सन्नहम् 'सया' सदा निरन्तरम् 'वंदामि' वन्दे नमस्करोमि // 6 // सू०६॥ ॥इति विंशतितमं प्राभृतं समाप्तम् // चन्द्र प्रज्ञप्ति सूत्रे जिनवरकथितं भावमाश्रित्य सम्यम्, चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशा सरलमतिमतां हेतवे निर्मितेयम् / घासीलालेन बुद्धवा निजतनुमतिना यत्र तत्र प्रदेशे, जातं चेन्मानवीयं स्खलन मिह च यत् क्षम्यतां तद्धितज्ञैः // 1 // इति श्री विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ प्रसिद्धवाचक पञ्चदश भाषाकलितललित कलापाऽऽलापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमनमर्दक-श्रीशाहू छपति कोल्हापुरराजप्रदत्त-"जैन शास्त्राचार्य" पदभूषित-कोल्हा पुरराजगुरु-बालब्रह्मचारी-जैनाचार्य-जैनधर्म दिवाकरपूण्य श्री घासीलालवति-विरचिता चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य चन्द्रज्ञप्तिप्रकाशिता टीका समाप्ता // || शुभं भूयात् // श्री रस्तु //