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आम आज नमो नमो निम्मलदसणस्स
भाग
-पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नमःम
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
05
आगम - ०५ 'स्थान' मूलं एवं वृत्ति: [१]
आजम आजम मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब
अभिनव-संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
पूज्य शासनप्रभावक आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से
'वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था' पालिताणा
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ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
श्री आगम मंदिर
पालिताणा
Jad
OSNOSIOS
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आगम आगम
राजम
नमो नमो निम्मलदंसणस्स
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
मूल संशोधक
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य
श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज
आजम
आजम
आलाम
BUMUH
आजस
आप
अभिनव-संकलनकर्ता
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आगम
आगम
आगर
अनुज
● आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
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आगम
प्रत- प्राप्ति और पेज- सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855 / 9825306275
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ਸਮਾਗਮ ਕਰਨ ਦੀ ਬਹੁਤ ਸ
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वाचना शताब्दी वर्ष ।
ਗਲ ਕਥ ਨੂੰ ਸ ਸ ਸ ਸ ਨ
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ਬਾਸ ਨਕਸਲ ਕਰਵਕ
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[भाग-०५] श्री स्थानाङ्गसूत्रम् भाग-१
नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम:
"स्थान" मूलं एवं वृत्ति: मूलं एवं अभयदेवसूरि रचित वृत्तिः ]
स्थान- १ से ४
[आदय संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ]
(किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com. M.Ed., Ph.D.श्रुतमहर्षि)
28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५
'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-५
श्री आगमोद्धारक-वाचना-शताब्दी-वर्ष-निमित्त 'आगम-वृत्ति-मुद्रण-प्रोजेक्ट'
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सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र- मेधावी, समाधिमृत्यु प्राप्त, बहुमुखी प्रतिभाधारक पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब
* जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक् श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक अभ्यंतर-तप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फिर भी गुरुभक्ति बुद्धि से श्रद्धांजली स्वरुप एक मामुली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है |
* चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ़ कर्मों का प्रभाव मान अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज एकासणा तप के साथ : बारह किलोमिटर पैदल विहार भी किया । लेकिन अपने मंझिल पेडटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का प्राचीन लिपिओ का, व्याकरण-न्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए।
* एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े | देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर बिना किसी सहाय लिए हुए सिर्फ अकेले ही "जैन आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और निर्युक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया | फिर पालीताणामें आगम मंदिर बनवाकर आरस पत्थर के ऊपर ये सभी आगम साहित्य को कंडारा, सूरतमें ताम्रपत्र पर भी अंकित करवाए और “आगम मंजूषा " नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ |
* सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, निर्युक्ति, अव चूरी, संस्कृत छाया आदि का भी संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयों के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथों की रचना भी की । कितने ही ग्रंथों की प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक् श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की ।
* ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं को प्रतिबोध कर के और वाचनाओं द्वारा अपनी प्रवचन प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईंओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था |
• सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ७०० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये | ....ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी "....
.... मुनि दीपरत्नसागर... |
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संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र मार्ग-रागी, प्रवचन- पटु, सुपरिवार युक्त
पूज्य गच्छाधिपति आचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब
••• परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये । फ़िर क्या ! शिष्यो कि संख्या बढती चली, बढ़ते हुए पुन्य के साथ• साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापुन्य के कारण उन के उपदेश प्राप्त बहोत आत्माओने संयम मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था । आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्य परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे |
*** ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेलु दिखाए । एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवनमें देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी
भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष}दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि आराधना कभी नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही रटण बारबार चालु हो गया- " अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनुं शरण " इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना | मुनि दीपरत्नसागर...
श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था, पालिताणा
पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम संवत १९९९ मे महा वद ५ को हुई | आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक- आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य-सहाय की प्राप्ति हुई | शिल्प-स्थापत्य, शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर' है, जो शत्रुंजय· गिरिराज कि तलेटीमे स्थित है | वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और १ शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है। जहां ४० समवसरण की रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्णों के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस पत्थर से बना है, देवो द्वारा रचित समवसरण के शास्त्र वर्णन• अनुसार आगम मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है। ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है ।
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पूज्य
मुनि दीपरत्नसागर....
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'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ उद्धार कार्य प्रवृत्त, गुणानुरागी'
इस “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादा पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब
पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय के सुचारु संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये "सवृत्तिक- आगम-सुत्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण द्रव्यराशि प्राप्त हुई, उनका अत्यल्प परिचय यहां - करेंगे| समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीनअर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं समय मिलने पर शास्त्र| वांचनमें भी रुचि रखते है। समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर का वेतन चुकाना हो, ऐसे | छोटे-छोटे कार्यों के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के पुराने जिनालयों में १८ अभिषेक • की प्रेरणा की, उस वक्त लगभग सभी अभिषेक सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हुए अपनी मेधावी बुद्धि का परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से | पुजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन राशि प्रदान करवाई |
ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है |
मुनि दीपरत्नसागर [कात्रेज]पूना, शंखेश्वर, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यासु, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर सूरीश्वरजी महाराज साहेब (एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय- रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर सूरिजी महाराज साहेब इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ
मुनि दीपरत्नसागर
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दीपपृष्ठांक
438
151
OCE
मूलाइका: ७८३
स्थानाङ्ग सूत्रस्य विषयानुक्रम [भाग १+२] मूलांक: विषय: | पृष्ठांक | | मलांक: | विषय:
पृष्ठांक | मूलांक:
विषय: स्थान-१
०११ २४९ स्थान-४
३६८ ५९२ | स्थान-७ - एक स्थान आश्रित विविध
२४९ | -उद्देशक:
३६९
-सप्त स्थान-आश्रित विविध विषयस्य प्ररूपणा २९२ - उद्देशक: २
४२२
विषयस्य प्ररूपणा ३३३ | -उद्देशक: ३
४७८ ५७ स्थान-२ ૦૮૬ ३६२ | - उद्देशक: ४
स्थान-८ -- उद्देशक: १
-अष्ट स्थान-आश्रित विविध --उद्देशक: २१२४ ४२३ स्थान-५
विषयस्य प्ररूपणा --उद्देशक: ३
- उद्देशक: १९९ --उद्देशक: ४१८० ४५० -उद्देशक: २
स्थान-९ ४७९ | - उद्देशक: ३
-नव स्थान-आश्रित विविध१२७ स्थान-३ २१३
विषयस्य प्ररूपणा | -- उद्देशक: १
२१३ ५१८ स्थान-६ १६१ | --उद्देशक: २
२६२ -षड् स्थान-आश्रित विविध
स्थान-१० १८१ । | -- उद्देशक: ३
૨૮૩, विषयस्य प्ररूपणा
०१० । -दश स्थान-आश्रित विविध२०५ | -- उद्देशक: ४
३२३ -[उद्देशका: न अस्ति]
विषयस्य प्ररूपणा
१३४
४२३
રક |
८८८
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [३] "स्थान” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति
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[स्थान- मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “स्थानाङ्गसूत्र" के नामसे सन १९१८ (विक्रम संवत १९७५) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादकमहोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब |
इसी प्रत को फिर अपने नामसे 'जिनशासन आराधना ट्रस्ट' की तरफ से आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, ऊपर अपना नाम एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. यह स्पष्ट रूपसे एक प्रकारसे अदत्तादान ही है, ऐसी अनेक प्रतो के अगले दो पेज पलटकर या नए डालकर उन्होंने अपने नामसे छपवाई है, इस तरह वो अपने आपको बड़ा आगम संरक्षक साबित करनेकी अन्चित चेष्टा कर चुके है।
इसी स्थानांग सूत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से आचार्य श्री नयचंद्रसागरसूरिजीने भी छपवाया है, समुदाय की वफादारी निभाते हुए इस पूज्यश्रीने पूज्य सागरानंदसूरीश्वरजी महाराजश्री का नाम बड़ी इज्जत के साथ अपनी जगह पे ही रखा है, और खुदका नाम पुन: संपादक रूप से पेश किया है | अपनी प्रस्तावनामें नयचंद्रसागरसूरिजी ने भी मेरी तरह उक्त बात का उल्लेख किया है।
इसी स्थानांगसूत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से पूज्य जम्बूविजयजी महाराजजीने श्री मोतीलाल बनारसीदास की तरफसे प्रकाशित करवाई है, जो की पुस्तक रूपसे बाईंडेड है, और परिशिष्टमें पूज्य श्री पुन्यविजयजी संकलित शुद्धि-वृद्धि पत्रक दिया है।
हमारा ये प्रयास क्यों? +आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर अध्ययन-उद्देशक-मूलसूत्र- आदि के नंबर लिख दिए, ताकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, उद्देशक आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-| ऐसी दो लाइन खींची है| हर पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट लिखी है |
शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म.सा. की प्रेरणासे और श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालिताणा की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' भाग-५ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है ।
........मुनि दीपरत्नसागर.
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [-], उद्देशक [-], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
॥ अहम् ॥ नवागीटीकाकारश्रीमदभयदेवसूरिविरचितविवृत्तिसमेतं ।
श्रीस्थानाङ्गसूत्रम् ।
*%A5%255
अनुक्रम
श्रीवीरं जिननाथं नत्वा स्थानाङ्गकतिपयपदानाम् । प्रायोऽज्यशास्त्रदृष्टं करोम्यहं विवरणं किश्चित् ॥१॥ इह हि श्रमणस्य भगवतः श्रीमन्महावीरबर्द्धमानस्वामिन इक्ष्वाकुकुलनन्दनस्य प्रसिद्धसिद्धार्थराजसूनोमहाराजस्येव परमपुरुषकाराकान्तविक्रान्तरागादिशत्रोराज्ञाकरणदक्षक्ष्मापतिशतसततसेवितपादपद्मस्य सकलपदार्थसार्थसाक्षात्करणदक्षकेवलज्ञानदर्शनरूपप्रधानप्रणिध्यवबुद्धसर्व विषयग्रामस्वभावस्य सकलत्रिभुवनातिशायिपरमसाघाज्यस्य निखिलनीतिप्रवर्तकस्य परमगम्भीरान्महार्थादुपदेशानिपुणबुद्ध्यादिगुणगणमाणिक्यरोहणधरणीकल्पेन भाण्डागारनियुक्तेनेव गणधरेण पूर्वकाले चतुर्वर्णश्रीश्रमणसद्धाभट्टारकस्य तत्सन्तानस्येवोपकाराय निरूपितस्य विविधार्थरत्नसारस्य देवताधिष्ठि-|
१ उपयोगः. २ नस्य चोप- प्र. ३ वार्धरन. प्र.
वीर-प्रभो: वंदना एवं स्थानांग-विवरणस्य प्रतिज्ञा
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [-], उद्देशक [-], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
जसूत्र
फलादि
॥
१
॥
श्रीस्थाना-8 तस्य विद्याक्रियावलवताऽपि पूर्वपुरुषेण केनापि कुतोऽपि कारणादनुन्मुद्रितस्यात एव च केषाश्चिदनर्थभीरूणां मनो- स्थाना
| रथगोचरातिकान्तस्य महानिधानस्येव स्थानाङ्गस्य तथाविधविद्याबलविकलैरपि केवलधार्यप्रधानः स्वपरोपकारायार्थ-II ध्ययने वृत्तिः
| विनियोजनाभिलाषिभिरत एव चाविगणितस्वयोग्यतैनिपुणपूर्वपुरुषप्रयोगानुपश्रुत्य किञ्चित्स्वमत्योमेश्य तथाविधवर्त-13 मानजनानापृच्छच च तदुपायान् द्यूतादिमहाव्यसनोपेतैरिवास्माभिरुन्मुद्रणमिवानुयोगः प्रारभ्यते इति शास्त्रप्रस्ता
द्वाराणि बना ॥ तस्य चानुयोगस्य फलादिद्वारनिरूपणतः प्रवृत्तिः, यत उक्तम्-"तस्स फैलजोगमगलसमुदायत्था तहेव दारीई।।४ तम्भेयनिरुत्तिकमपयोयणाईच बच्चाई ॥१॥"ति, तन्त्र प्रेक्षावतां प्रवृत्तये फलमस्यावश्यं वाच्यम्, अन्यथा हि निष्प्रयोजनत्वमस्याशङ्कमानाः श्रोतारः कण्टकशाखामईन इव न प्रवरन्निति, तच्चानन्तरपरम्परभेदाद् द्विधा, तत्रानन्तरमर्थावगमः, तत्पूर्वकानुष्ठानतश्चापवर्गप्राप्तिर्या सा परम्परप्रयोजनमिति श तथा योगः-सम्बन्धः, स च यद्यपायोपेय-12 |भावलक्षणो यदुतानुयोग उपायोऽर्थावगमादि चोपेयमिति तदा स प्रयोजनाभिधानादेवाभिहित इत्यवसरलक्षण सम्बन्धोऽस्य वाच्यः, कोऽस्य दाने सम्बन्धोऽवसर इति भावः, योग्यो वा दाने अस्य क इति, तत्र भव्यस्य मोक्षमार्गाभिलापिणः स्थितगुरूपदेशस्य प्राणिनोऽष्टवर्षप्रमाणप्रव्रज्यापर्यायस्यैव सूत्रतोऽपि स्थानानं देयमित्ययमवसरः, योग्योऽपि
पहते रिव० प्र. २ तस्य (अनुयोगस ) फलयोगमङ्गलसमुदायास्तथैव द्वाराणि । तद् (अनुयोगद्वार) भेदनितिकमप्रयोजनाभि च वाच्यानि ॥१॥ (विशेषावश्यकपत्यभिप्रायेण प्रयोजनमिति भिन्नं द्वार तथा च द्वारप्रयोजनमित्यर्षः) ३प्रयोजन साधितत्वात, यदि च न तथा तययमपि साध्य एव,
2
9
अनुक्रम
-0-
8-0-96--१
स्थानांग-विवरणस्य प्रतिज्ञा, फलादिद्वारस्य निरूपणं
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [-], उद्देशक [-], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
*
चायमेवेति, यत उत्तम्-"तिवरसपरियागस्स उ आयारपकप्पनाममज्झयणं । चउपरिसस्स य सम्म सूयगडं नाम अंगति ॥१॥ दसकप्पब्बवहारा संवच्छरपणगदिक्खियरसेव । ठाणं समवाओऽवि य अंगे ते अह वासस्स ॥२॥ ति" अन्यथा दानेऽस्याज्ञाभङ्गादयो दोषा इति । तथा श्रेयोभूततयाऽस्य विघ्नसम्भवे तदुपहतशक्तयः शिष्या नैवात्र प्रवर्तेरनिति तदुपशमाय मङ्गलमुपदर्शनीयम् , उक्तश्च-"बहेविग्घाई सेयाई तेण कयमङ्गलोवयारेहिं । घेत्तव्यो सो सुमहानिहिव्व जह वा महाविज्जा ॥१॥” इति, मङ्गलं च शास्त्रस्यादिमध्यावसानेषु क्रमेण शास्त्रार्थस्याविघ्नेन परिसमाप्तये तस्यैव स्थैर्याय तस्यैवाव्यवच्छेदाय च भवतीति, तदुक्तम्-"तं मंगलमाईए मज्झे पज्जन्तए य सत्थस्स । पढम सत्वत्थाविग्धपारगमणाय निद्दिडं ॥१॥ तस्सेव य थिज्जत्थं मज्झिमयं अंतिमंपि तस्सेव । अब्बोच्छित्तिनिमित्तं सिस्सपसिस्साइवंसस्स ॥२॥"ति॥ तत्रादिमङ्गलं 'सुयं मे आउस ! तेणं भगवयेत्यादिसूत्रं, नन्द्यन्तर्भूतत्वात् श्रुतशब्दस्य, भगवद्बहुमानगर्भवाद्वा आयुष्मता भगवतेत्यस्य, नन्दीभगवद्बहुमानयोश्च मङ्गचते-अधिगम्यते वाञ्छितमनेनेति मङ्गलार्थस्य युज्यमानत्वादिति, मध्यमङ्गलं पञ्चमाध्ययनस्यादिसूत्रं 'पंच महब्बए इत्यादि, महाव्रतानां क्षायिकादिभावतया मङ्गलत्वाद्, भवति हि
१त्रिवर्षपर्यायस्य तु आचारप्रकल्पनामाध्ययनम् । चतुर्वर्षस्य च सम्पन सूत्रकृतं नामात्रमिति ॥१॥ दशाकल्पव्यवहाराः संवत्सरपक्षकदीक्षितस्दैन । स्थाना समवायोऽपि चाहे ते अध्वर्षस्य ॥ २॥ २ बहु विघ्नानि श्रेयांसि तेन कृतमासोपचारैः । प्रहीतव्यः स सुमहानिधिारव यथा वा महाविद्या ॥१॥ २ सन्मालमादी मध्ये पर्यन्ते च शाबस्स । प्रथम शाखा(ब्रस्था)विघ्नपारगमनाय निर्दिधम् ॥ १॥ तस्यैव च स्वैया मध्यममन्यमपि तस्वैष । अन्युग्छि। चिनिमितं शिष्यपशिष्यादिवंशे ॥२॥ ४ मालमादिसूत्रमिति योगः,
अनुक्रम
iwwjangala
फलादिद्वारस्य निरूपणं, मंगल-निरुपणं,
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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प्रत
श्रीस्थाना- लसूत्रवृत्तिः
१ स्थानाध्ययने फलादिद्वाराणि
सूत्रांक
॥२
॥
क्षायिकादिको भावो मङ्गलं, यत उक्तम्-'नोआर्गमओ भावो सुविसुद्धो खाइयाइओ" ति, अधवा षष्ठाध्ययनादिसूत्रं 'छहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरहई गणं धरित्तए' इत्यादि, अनगारस्य परमेष्ठिपञ्चकान्तर्गतत्वेन मङ्गलत्वात्, सूत्रा- भिधेयानां वा गणधरस्थानानां क्षायोपशमिकादिभावरूपतया मङ्गलत्वादिति, अन्तमङ्गलं तु दशमाध्ययनस्यान्तसूत्रं 'दसगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ते' तीहानन्तशब्दस्य वृद्धिशब्दवन्मङ्गलत्वादिति, सर्वमेव वा शाख मङ्गलं, नि-15 जेरार्थत्वात्, तपोवत्, मङ्गलभूतस्यापि शास्त्रस्य यो मङ्गलस्वानुवादः स शिष्यमतिमङ्गलत्वपरिग्रहार्थ, मङ्गलतया हि परिगृहीतं शाखें मङ्गल स्याद्, यथा साधुः, इत्यलं प्रसनेनेति, इह च शास्त्रस्य मङ्गलादि निरूपितमपि तदनुयोगस्य | द्रष्टव्यम्, तयोः कथञ्चिदभेदादिति । अथेदानी समुदायार्थश्चिन्त्यते-तत्र स्थानाङ्गमित्येतच्छास्त्रनाम, नाम च यथार्थादिभेदात् त्रिविधं, तद्यथा-यथार्थमयथार्थमर्थशून्यं च, तत्र यथार्थं प्रदीपादि, अयथार्थ पलाशादि, अर्थशून्यं | डित्यादि, तत्र यथार्थ शाखाभिधानमिष्यते, तत्रैव समुदायार्थपरिसमाप्तेः, यत एवमतस्तन्निरूप्यते-तत्र च स्थानमङ्गं चेति पदद्वयं निक्षेपणीयमिति, तत्र स्थानं नामस्थापनादिभेदात् पञ्चदशधा, यदाह-"नामंठवणादविएखेती उद्दु उर्वरती वसही । समपैरंगहजोहे" अचेलंगणणसंधणाभावे ॥१॥त्ति, तत्र स्थानमिति नामैव नामस्थानं, यस्य वा सचेतनस्याचेतनस्य वा स्थानमिति नाम क्रियते तद्वस्तु नाम्ना स्थान नामस्थानमित्युच्यते, तथा स्थाप्यत इति स्थापना-अक्षादिः, सा च स्थानाभिप्रायेण स्थाप्यमाना स्थानमप्यभिधीयते, ततः स्थापनैव स्थानं स्थापनास्थानं, तथा
१नोमागमतो भावः सुविशुद्धः क्षाविकादिकः । २ कथंचि दा.प्र.३ अपिना अभ्यव्यपदेशा अपि.
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अनुक्रम
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फलादिद्वारस्य निरूपणं, मंगल-निरुपणं, 'स्थान' एवं 'अंग' पदस्य निरुपणं
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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द्रव्य-सचित्ताचित्तमिश्रभेदं स्थानं गुणपर्यायाश्रयत्वात् , ततः कर्मधारय इति, तथा क्षेत्रम्-आकाशं, तच तत् स्थान | च द्रव्याणामाश्रयत्वात् क्षेत्रस्थानं, तथा अद्धा-कालः, स च स्थानं, यतो भवस्थितिः कायस्थितिश्च भवकालः कायकालश्चाभिधीयते, स्थितिश्च स्थानमेवेति, 'उह'त्ति ऊर्वतया स्थानम्-अवस्थानं पुरुषस्य ऊर्वस्थान-कायोत्सर्ग इति, इह स्थानशब्दः क्रियावचनः, एवं निषदनत्वग्वर्तनादिस्थानमपि द्रष्टव्यम्, ऊर्वशब्दस्योपलक्षणत्वादिति, तथा उपरतिः-विरतिः सैव स्थानं विविधगुणानामाश्रयत्वात् , विशेषार्थों वेह स्थानशब्दः, ततो विरतेः स्थान-विशेषो विरतिस्थानं, तच्च देशविरतिः सर्वविरतिर्वेति, तथा वसतिः स्थानमुच्यते, स्थीयते तस्मिन्नितिकृत्वेति, तथा संयमस्य स्थानं संयमस्थानम् , इह स्थानशब्दो भेदार्थः, संयमस्य शुद्धिप्रकर्षापकर्षकृतो विशेषः संयमस्थानं, तथा प्रगृह्यते-उपादीयते आदेयवचनत्वाधः स प्रग्रहो-ग्राह्यवाक्यो नायक इत्यर्थः, स च लौकिको लोकोत्तरश्चेति, तत्र लौकिको राजयुवराजमहत्तरामात्यकुमाररूपो, लोकोत्तरवाचार्योपाध्यायप्रवर्तकस्थविरगणावच्छेदकरूप इति, तस्य स्थान-पदं प्रग्रहस्थानमिति, तथा योधानां स्थानम्-आलीढप्रत्यालीढवैशाखमण्डलसमपादरूपं शरीरन्यास विशेषात्मक योधस्थान, तथा 'अचल'त्ति अचलतालक्षणो धर्मः सादिसपर्यवसितादिरूपः स्थानमचलतास्थानं, तथा 'गणण'त्ति गणनाविषयं । स्थानमेकड्यादिशीर्षप्रहेलिकापर्यन्तं गणनास्थानं, तथा सन्धानं द्रव्यतश्छिन्नस्य कशुकादेरच्छिन्नस्य तु पक्ष्मोत्पद्यमानतन्वादेरिति, भावतस्तु छिन्नस्य प्रशस्ताप्रशस्तभावस्य पुनः सन्धानमच्छिन्नस्य त्वपरापरोत्पद्यमानस्य प्रशस्ताप्रशस्तभावस्य सन्धानं तदेव स्थान-वस्तुनः संहतत्वेनावस्थानं सन्धानस्थानं, 'भावे'त्ति भावानाम्-औदयिकादीनां स्थानम्-अवस्थि
अनुक्रम
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'स्थान' एवं 'अंग' पदस्य निरुपणं,
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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श्रीस्थाना-तिरिति भावस्थानमिति । एवमिह स्थानशब्दोऽनेकार्थः, इह च वसतिस्थानेन गणनास्थानेन वाऽधिकार इति दर्शयि- १ स्थानानसूत्र
प्यते ॥ इदानीमङ्गनिक्षेप उच्यते, तत्र गाथा--"नामंग ठवणंगं दव्वंग चेव होइ भावंग । एसो खलु अंगस्सा निक्खेवोध्य यने वृत्तिः चउब्धिहो होइ ॥१॥" ति, तत्र नामस्थापने प्रसिद्धे, द्रव्याङ्गं पुनद्रव्यस्य-मद्यौषधादेरङ्ग-कारणमवयवो वेति द्रव्या स्थानान
भावस्य-क्षायोपशमिकादेरेवमेवाझं भावाङ्गामिति, ईह भावाङ्गेनाधिकार इत्यपि दर्शयिष्यते, तत्र तिष्ठन्त्यासते वसन्ति योनिक्षेपाः | यथावदभिधेयतयैकरवादिभिर्विशेषिता आत्मादयः पदार्था यस्मिंस्तत् स्थानम्, अथवा स्थानशब्देनेह कादिकः सञ्जया-का | भेदोऽभिधीयते, ततश्चात्मादिपदार्थगतानामेकादिदशान्तानां स्थानानामभिधायकत्वेन स्थानम्, आचाराभिधायकत्वा-| दाचारवदिति, स्थानश्च तत्प्रवचनपुरुषस्य क्षायोपशमिकभावरूपस्याङ्गमिवाझं चेति स्थानाङ्गमिति समुदायार्थः ।। तत्र च दशाध्ययनानि, तेषु प्रथममध्ययनमेकादित्वात् सङ्खचाया एकसख्योपेतात्मादिपदार्थप्रतिपादकत्वात् एकस्थानम् , तस्य च महापुरस्येव चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तद्यथा-उपक्रमो निक्षेपोऽनुगमो नयश्चेति, तत्र अनुयोजनमनुयोगः,-सूत्रस्यार्थेन सह सम्बन्धनम् , अथवा अनुरूपोऽनुकूलो वा यो योगो-व्यापारः सूत्रस्यार्थप्रतिपादनरूपः। सोऽनुयोग इति, आह च-"अणुजोजणमणुजोगो सुयस्स नियएण जमभिधेयेण । वावारो वा जोगो जो अणुरूवो|ऽणुकूलो वा ॥१॥” इति, अथवा अर्थापेक्षया अणोः-लपोः पश्चाज्जाततया वा अनुशब्दवाच्यस्य सूत्रस्य योऽभिधेये
१नामा स्थापना इयान चैव भवति भावानाम् । एष खछ भास्य निक्षेपश्चदर्विधो भवति ॥ १॥ २ इह व प्र. संबन्धः प्र. ४ अनुयोजनम-I ॥२॥ नुयोगः सूत्रस निजकेन यदभिधेयेन । व्यापारो वा योगो योऽनुरूपोऽनुकूतो वा ॥१॥ ५सूत्रानुयोगापेक्षया पुस्त्वं.
अनुक्रम
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'स्थान' एवं 'अंग' पदस्य निक्षेपाः,
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
योगो-व्यापारस्तेन सम्बन्धो वा सोऽणुयोगोऽनुयोगो बेति, आह च-"अहवा जमस्थओ थोवपच्छभावेहि सुयमणुं तस्स । अभिधेये वावारो जोगो तेणं च संबंधो ॥१॥" ति, तस्य द्वाराणीव द्वाराणि-तत्वेशमुखानि, एकस्थानका-18 ध्ययनपुरस्यार्थाधिगमोपाया इत्यर्थः, नगरदृष्टान्तश्चात्र, यथा हि अकृतद्वार नगरमनगरमेव भवति, कृतैकद्वारमपि दुर-| धिगम कार्यातिपत्तये च, चतुर्मूलद्वारं तु प्रतिद्वारानुगतं सुखाधिगम कार्यानतिपत्तये च, एवमेकस्थानकाध्ययनपुरम-1 प्याधिगमोपायद्वारशून्यमशक्याधिगमं भवति, एकद्वारानुगतमपि च दुरधिगर्म, सप्रभेदचतुारानुद्वारानुगतं तु सु. खाधिगममित्यतः फलवान् द्वारोपन्यास इति ५ । तानि च द्वित्रिद्विद्धिभेदानि क्रमेण भवन्तीति तद्भेदाः६ । निरुक्तिस्तु उपक्रमणमुपक्रम इति भावसाधना शास्त्रस्य न्यासदेशसमीपीकरणलक्षणः, उपक्रम्यते वाऽनेन गुरुवाग्योगेनेत्युपक्रम इति करणसाधना, उपक्रम्यतेऽस्मिन्निति वा शिष्यश्रवणभावे सतीत्युपक्रम इत्यधिकरणसाधना, उपक्रम्यतेऽस्मादिति वा विनीतविनेयविनयादित्युपक्रम इत्यपादान इति, एवं निक्षेपणं निक्षिप्यते वाऽनेनास्मिन्नस्मादिति वा निक्षेपो न्यासः स्थापनेति पर्यायाः, एवमनुगमनमनुगमः अनुगम्यतेऽनेनास्मिन्नस्मादिति वाऽनुगमः-सूत्रस्य न्यासानुकूल: परिच्छेदः, एवं नयनं नयः नीयतेऽनेनास्मिन्नस्मादिति वा नया-अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकांशपरिच्छेद इत्यर्थः ७ । अथैपामुपक्रमादिद्वाराणामित्थंक्रमे किं प्रयोजनमिति ?, अत्रोच्यते, न ह्यनुपक्रान्तं सदसमीपीभूतं निक्षिप्यते, नचानि
अनुक्रम
१ अथवा यदर्थतः लोकपवादावाभ्याः सूत्रमणु त । अभिधेये व्यापारी योगस्तेन वा संबन्धः ॥ १॥
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स्थान' एवं 'अंग' पदस्य निक्षेपा:, उपक्रम-आदि द्वाराणि
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीस्थाना- असूत्रवृत्तिः
क्षिप्त नामादिभिरर्थतोऽनुगम्यते, न चार्थतोऽननुगतं नयैर्विचार्यते इत्ययमेव क्रम इति, उक्त-"दारकमोऽयमेव स्थानाउ निक्खिप्पइ जेण नासमीवत्थं । अणुगम्मइ नानत्थं नाणुगमो नयमयविहूणो ॥१॥"त्ति ८॥ तदेवं फलादीन्युक्तानि। ध्ययने साम्प्रतमनुयोगद्वारभेदभणनपुरस्सरमिदमेवाध्ययनमनुचिन्त्यते-तत्रोपक्रमो द्विविधो-लौकिकः शास्त्रीयश्च, तत्र लौ-ICउपक्रमाकिकः षोडा-नामस्थापनाद्रब्यक्षेत्रकालभावभेदात् , तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्योपक्रमो द्वेधा-सचेतनाचेतनमिन- दीद्वाराणि द्विपदचतुष्पदापदरूपस्य द्रव्यस्य परिकर्म विनाशश्चेति, तत्र परिकर्म-गुणान्तरोत्सादनं विनाशः-प्रसिद्ध एव, एवं क्षे-18 त्रस्य-शालिक्षेत्रादेः कालस्य त्वपरिज्ञातस्वरूपस्य नाडिकादिभिः परिज्ञानं, भावस्य च-गुर्वादिचित्तलक्षणस्थानवगतस्येजितादिभिरवगम इति, शाखीयोऽपि पोद्वैव-आनुपूर्वीनामप्रमाणवक्तव्यताऽर्थाधिकारसमवतारभेदात्, तवानुपूर्वी दशधाऽन्यत्रोक्ता, तत्र चोत्कीर्तनगणनानुपूर्योरिदमवतरति, उत्कीर्तनश्च एकस्थानं द्विस्थानं त्रिस्थानमित्यादि, गणनं तु परिसङ्खधान-एकं दे त्रीणि इत्यादि, सा च गणनानुपूर्वी त्रिप्रकारा-पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वीनानुपूर्वी चेति, पूर्वानुपू
व्येदं प्रथम सद् व्याख्यायते पश्चानुपूा दशममनानुपूर्ध्या त्वनियतमिति, तथा नाम दशधा-एकादि दशान्तं, तत्र षड़४|नान्यस्यावतारः, तत्रापि क्षायोपशमिके भावे, क्षायोपशमिकभावस्वरूपत्वात् सकल श्रुतस्येति, उक्तश्च-"छबिहनामे भावे खओवसमिए सुर्य समोयरति । जं सुयणाणावरणक्खओवसमज तयं सव्यं ॥१॥"ति । तथा प्रमाणं द्रव्यादि-|
द्वारकमोऽयमेव तु निक्षिप्यते येन नासमीपस्थं । नान्यस्तमनुगम्यते नानुगमो नयमतविहीनः ॥१॥ २ पविधनानि भावे क्षायोपशमके श्रुतं समवतरति । यद् श्रुतदानावरणक्षयोपशम तकत् सर्वम् ॥१॥
अनुक्रम
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॥४॥
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उपक्रम-आदि द्वाराणि, 'स्थान' अध्ययनस्य अनुचिंतनम्
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
भेदाचतुर्षिध, तत्र क्षायोपशमिकभावरूपत्वादस्य भाचप्रमाणे अवतारो, यत आह-"दच्योदि चउम्भेयं पमीयते जेण| तं पमाणति । इणमझयणं भावोत्ति भावमाणे समोयरति ॥१॥"त्ति, भावप्रमाणं च गुणनयसङ्ख्याभेदतविधा, तत्रास्य गुणप्रमाणसङ्ख्याप्रमाणयोरेवावतारः, नयप्रमाणे तु न सम्पति, यदाह-"मूढनइयं सुर्य कालियं तु न नया समोयरंति इहं । अपुहुत्ते समोयारो नत्थि पुहुत्ते समोयारो ॥१॥"त्ति, गुणप्रमाणं तु द्विधा-जीवगुणप्रमाणमजीवगुणप्रमाणं च, तत्र अस्य जीवोपयोगरूपत्वात् जीवगुणप्रमाणेऽवतारः, तस्मिन्नपि ज्ञानदर्शनचारित्रभेदतख्यात्मके अस्य ज्ञानरूपतया ज्ञानप्रमाणे, तत्रापि प्रत्यक्षानुमानोपमानागमात्मके प्रकृताध्ययनस्याप्तोपदेशरूपत्वादागमप्रमाणे, तत्रापि लौकिकलोकोत्तरभेदे परमगुरुप्रणीतत्वेन लोकोत्तरे सूत्रार्थोभयात्मनि तथा चाह-जीवाणण्णत्तणओ जीवगुणे बोहभावओ णाणे । लोगुत्तरसुत्तत्थोभयागमे तस्स भावाओ ॥१॥" तत्राप्यात्मानन्तरपरम्परागमभेदतस्त्रिविधेऽर्थतस्तीर्थकरगणधरतदन्तेवासिनः सूत्रतस्तु गणधरतच्छिष्यतशिष्यानपेक्ष्य यथाक्रममात्मानन्तरपरम्परागमेष्ववतारः, सबधाप्रमाणमन्यत्र प्रपञ्चितं तत एवावधारणीयं, तत्र चास्य परिमाणसख्यायामवतारः, तत्रापि कालिकश्रुतदृष्टिवादश्रुतपरिमाणभेदतो द्विभेदायां कालिकश्रुतपरिमाणसङ्ग्यायो, कालिकश्रुतत्वादस्येति, तत्रापि शब्दापेक्षया सङ्ख्येयाक्षरपदाद्यात्मकतया सङ्ख्यातपरिमाणात्मिकायां पर्यायापेक्षया त्वनन्तपरिमाणात्मिकायां, अनन्तगमपर्यायत्वादागमस्य,
१व्यादि चतुर्भेदं प्रमीयते येन तरप्रमाणमिति । इदमभ्ययने भावो भावमाने समवतराते ॥१॥२ मूतनयिकं श्रुतं कालिकं तु न नयाः समवतरन्तीह । अपृथक्त्वे समवतारो नास्ति पृथक्त्वे समचतारः॥ १॥ ३ जीवानन्यत्वात् गोयगुणे बोधमाचात् शाने । लोकोत्तरसूत्रााँभयागमे तस्य भावात् ॥1॥
अनुक्रम
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उपक्रम-आदि द्वार अंतर्गत् 'प्रमाण' विषयक चर्चा,
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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श्रीस्थाना- तथा चाह–'अणंता गमा अणंता पजवा' इत्यादि । तथा वक्तव्यता स्वसमयेतरोभयवक्तव्यताभेदात् त्रिधा, तत्रेदं स्थाना
सूत्र- लावसमयवक्तव्यतायामेवावतरति, सर्वाध्ययनानां तद्रूपत्वात् , तदुक्तम्-"परसंमओ उभयं वा सम्मद्दिहिस्स समओ&ा ध्ययने बृत्तिः जेणं । ता सव्वल्झयणाई ससमयवत्तम्वनिययाई ॥१॥"ति तथा अर्थाधिकारो वक्तव्यताविशेष एव, स चैकत्वविशिष्टा- उपक्रमा
त्मादिपदार्थप्ररूपणलक्षण इति । तथा समवतार:-प्रतिद्वारमधिकृताध्ययनसमवतारणलक्षणः, स चानुपूर्यादिषु लापवा-18| दीनि ॥५ ॥
र्थमुक्त एवेति न पुनरुच्यते, तथाहि-"अहुणा य समोयारो जेण समोयारियं पइद्दारं । एगहाणमणुगओ सो लाघवओ ण पुण बच्चो ॥१॥" निक्षेपस्त्रिधा-ओघनामसूत्रालापकनिष्पन्नभेदात् , आह च-"भण्णइ घेप्पड य सुई निक्खे वपयाणुसारओ सत्थं । ओहो नाम सुत्तं निखेत्तव्यं तओवरसं ॥१॥" तत्रौधा--सामान्यमध्ययनादि नाम, उक्तश्च"ओहो जं सामन्नं सुयाभिहाणं चउब्विहं तं च । अज्झयणं अज्झीणं आओ झवणा य पत्तेयं ॥१॥ नामादि चउन्भेयं वन्नेऊणं सुआणुसारेणं । ऐगहाणं जोज चउसुंपि कमेण भावेसुं ॥२॥" तत्राध्यात्म-मनस्तत्र शुभे अयन-गमनं अथादात्मनो भवति यस्मादध्यात्मशब्दवाच्यस्य वा मनसः शुभस्य आनयनमात्मनि यतो भवति बोधादीना वाधि
परसमय उभयं वा सम्यग्दोः खसगयो येन । ततः सांण्यध्ययनानि खसमययकव्यतानिवतानि ॥१॥ २ अधुना च समवतारो येन समयतारित प्रतिद्वारम् । एकस्थानेऽनुगतः स लापवतो न पुनर्वाच्य इति ॥१॥(सामइवं सोऽणुगओ कापवओ णो पुणो वचो वि. भा.) ३ मण्यते गाते च सुखं निक्षेपप| दानुसारतः शास्त्रम् । ओधो नाम सूत्रं निक्षेप्तव्यं ततोऽवश्यम् ॥ १॥ ४ ओधो यत्सामान्य सूत्राभिधानं चतुर्विध तच । अध्ययनमक्षीणमायः क्षपणा च प्रत्येकम् ॥५॥
नामादि चतुर्भदं वर्णयित्वा श्रुतानुसारेण । एकस्थानमायोज्यं चतुष्यपि कमेण भावेषु ॥ २॥ ५ सामाइयमा०वि० भा०
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अनुक्रम
उपक्रम-आदि द्वार अंतर्गत् 'प्रमाण' विषयक चर्चा, निक्षेपस्य भेदा:
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आगम
(०३)
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सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम [-]
[भाग-5] "स्थान" अंगसूत्र- ३ - स्थान [१], उद्देशक [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ]
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Education intemational
कमयनं यतो भवति तदज्झयणंति प्राकृतशैल्या भवतीति, आह च - "जेणं सुहृत्पज्झयणं अज्झष्पाणयणमहियमयणं वा । बोहस्स संजमस्स व मोक्खस्स व तो तमज्झयणं ॥ १ ॥” ति, अधीयते वा पठ्यते आधिक्येन स्मर्यते गम्यते वा तदित्यध्ययनमिति, तथा यद्दीयमानं न क्षीयते स्म तदक्षीणं, तथा ज्ञानादीनामायहेतुत्वादायः, तथा पापानां कर्मणां क्षपणहेतुत्वात् क्षपणेति, आह च-' -"अज्झीणं दिज्जंतं अच्वोच्छित्तिनयतो अलोगोच्छ । आओ नाणाईणं झवणा पावाण खवर्णति (कम्माणं ) ॥ १ ॥” नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे अस्यैकस्थानकमिति नाम, तत एकशब्दस्य स्थानशब्दस्य च निक्षेपो वाच्यः, तत्र एकस्य नामादिः सप्तधा, तदुक्तम्- "नामं १ ठवणा २ दचिए ३ माउयपय ४ संगहेकए चैव ५ । पज्जव ६ भावे व ७ तहा सत्तेते एकगा होंति ॥ १ ॥” तत्र नामैको यस्यैक इति नाम, स्थापनैकः पुस्तकादिन्यस्तैककाङ्कः, द्रव्यैकः सचित्तादिस्त्रिधा मातृकापदैकस्तु 'उप्पन्ने इ वा विगमे इ वा धुवे इ वा इत्येष मातृकावत्सकलवायमूलतया अवस्थितानामन्यतरद्विवक्षितम् अकाराद्यक्षरात्मिकाया वा मातृकाया एकतरोऽकारादिः, संग्रहको येनैकेनापि ध्वनिना बहवः सङ्गृह्यन्ते, यथा जातिप्राधान्येन त्रीहिरिति, पर्यायैकः शित्रकादिरेकः पर्यायो, भावैक औदयिकादिभावानामन्यतमो भाव इति, इह भावैकेन अधिकारो यतो गणनालक्षणस्थानविषयोऽयमेको गणना च सङ्ख्या सङ्ख्या च गुणो गुणश्च भाव इति, स्थानस्य तु निक्षेप उक्त एव, तत्र च गणनास्थानेनेहाधिकारः, ततः एकलक्षणं स्थानं-संख्याभेद
१ येन शुभाध्यात्मानयनमध्यात्मानयनमधिकमयनं वा । बोधस्य संयमस्य या मोक्षस्य वा ततस्तद् अध्ययनम् ॥ १ ॥ २ अक्षीणं दीयमानमव्युच्छित्तिनयतोलोक इव आयो ज्ञानादीनां क्षपणा पापानां क्षपणमिति ॥ १ ॥ ३ नामस्थापनादम्बे मातृकापदसंभव पर्ययभावे च तथा सप्तैवे एकका भवन्ति ॥१॥
I
अध्ययन शब्दस्य अर्थः, 'एक' शब्दस्य सप्त निक्षेपाः
( मूलं + वृत्तिः)
For Personal & Pre Only
मूलं [-] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
~ 21~
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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वृत्तिः
सूत्रांक
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श्रीस्थाना- एकस्थानं तद्विशिष्टजीवाद्यर्थप्रतिपादनपरमध्ययनमध्येकस्थानमिति, उक्तावोघनिष्पन्ननामनिष्पन्ननिक्षेपी, सम्पति सूत्रा- १ स्थानाझसूत्र- लापकनिष्पन्ननिक्षेपः प्राप्तावसरः, तत्स्वरूपं चेदम्-सूत्रालापकानां-सूत्रपदानां 'श्रुतं मे आयुष्मनि'त्यादीनां निक्षेपो- ध्ययने
नामादिन्यासः, स च अवसरप्राप्तोऽपि नोच्यते, सति सूत्रे तस्य संभवात्, सूत्रं च सूत्रानुगमे, स चानुगमभेद एवेत्य-15ओघादिनुगम एव तावदुपवर्ण्यते-द्विविधोऽनुगमो-निर्युक्त्यनुगमः सूत्रानुगमश्च, तत्र आद्यो निक्षेपनियुक्त्युपोद्घातनियुक्तिसू
| निक्षेपाः त्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमविधानतस्त्रिविधः, तत्र च निक्षेपनियुक्त्यनुगमः स्थानागाध्ययनाघेकशब्दानां निक्षेपप्रतिपादना- प्रस्तावना दनुगत एवेति, उपोद्घातनियुक्त्यनुगमस्तु-'उद्देसे निद्देसे य निग्गमे' इत्यादिगाथाद्वयादवसेय इति, सूत्रस्पर्शिकनियु-3सू० (१) क्त्यनुगमस्तु संहितादौ पड़िधे व्याख्यालक्षणे पदार्थपदविग्रहचालनाप्रत्यवस्थानलक्षणव्याख्यानभेदचतुष्टयस्वरूपः, सच
सूत्रानुगमे संहितापदलक्षणव्याख्यानभेदद्वयलक्षणे सति भवतीत्यतः सूत्रानुगम एवोच्यते, तत्र च अल्पग्रन्थमहार्थादि-IN 18 सूत्रलक्षणोपेतं स्खलितादिदोपवर्जितं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्
सुयं मे आउस ! तेणं भगवता एवमक्खायं (सू० १) अस्य च व्याख्या संहितादिक्रमेणेति, आह च भाष्यकार:-"सुतं १ पर्य २ पयत्थो ३ संभवतो विग्गहो ४ वियारो य ५[चालनेत्यर्थः]। दूसियसिद्धी ६नयमयविसेसओ नेयमणुसुत्तं ॥१॥” तत्र सूत्रमिति संहिता, सा चानुगतव,IX॥६॥
१हि असी सम्भवति प्र. २ सूत्रं पदं पदार्थः संभवतो विग्रहो विचारय । एपितसिद्धि यमतविशेषतो नेवमनुमूत्रम् ॥१॥
अत्र मूल-सूत्रस्य आरम्भः वर्तते,
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
वं
दीप
सूत्रानुगमस्य तद्रूपत्वादिति, आह च-"होई कयस्थो वो सपयच्छेयं सुर्य सुयाणुगमो"त्ति, सूत्रे चास्खलितादिगुणो-13
ते उच्चारिते केचिदा अवगताः प्राज्ञानां भवन्त्यतः संहिता व्याख्याभेदो भवति, अनधिगतार्थाधिगमाय च पदादयो| व्याख्याभेदाः प्रवर्त्तन्त इति, तत्र पदानि-'श्रुतं मया आयुष्मन्! तेन भगवता एवमाख्यात'मिति, एवं पदेषु व्यवस्थापितेषु सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपावसरः, तत्र चेयं व्यवस्था-"जत्थ उ जं जाणेज्जा निक्खेवं निक्खिवे निरवसेस । जत्थवि 8
यण जाणेज्जा चउकयं निक्खिवे तत्थ ॥१॥"त्ति, तत्र नाम श्रुतं स्थापनाश्रुतं च प्रतीतं, द्रव्यश्रुतमधीयानस्यानुप-16 कायुक्तस्य पत्रकपुस्तकन्यस्तं वा, भावश्रुतं तु श्रुतोपयुक्तस्येति, इह च भाव श्रुतेन श्रोत्रेन्द्रियोपयोगलक्षणेनाधिकारः, तथा
'आउसंति आयुः-जीवितं, तन्नामादिभेदतो दशधा, तद्यथा-"नामं १ ठवणा २ दविए ३ आहे ४ भव ५ तम्भवे य भोगे य ७ । संजम ८ जस ९ कित्ती १० जीवियं च तं भण्णती दसहा ॥१॥" तत्र नामस्थापने क्षुण्णे 'दविएत्ति द्रव्यमेव सचेतनादिभेदं जीवितव्यहेतुत्वाज्जीवितं द्रव्यजीवितं, ओघजीवितं नारकाद्यविशेषितायुर्द्रव्यमानं सामान्यजीवितं भवति, नारकादिभवविशिष्टं जीवितं भवजीवितं नारकजीवितमित्यादि, 'तन्भवे यत्ति तस्यैव-पूर्वभवस्य 8 समानजातीयतया सम्बन्धि जीवितं तद्भवजीवितं, यथा मनुष्यस्य सतो मानुषत्वेनोत्पन्नस्येति, भोगजीवितं चक्रवादीनां, संयमजीवितं साधूनां, यशोजीवितं कीर्तिजीवितं च यथा महावीरस्येति, जीवितं चौयुरेवेति, इह च संयमा
१भवति च कृतार्थ उक्त्वा सपदच्छेदं सूर्य सूत्रानुगम इति. २ यत्र तु यं जानीयात् निक्षेप निक्षिपेत् निरखशेषम् । वत्रापि च न जानीयात् चतुष्ककं निक्षिपेत्तत्र ॥१॥ वाक्यनिक्षेपप्रताचे भाषानिक्षेपयन्त्र आयुम्नलाये जीवितनिक्षेप इसथा,
अनुक्रम
'श्रुत' एवं 'आउस' शब्दस्य निक्षेपाः,
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना
सूत्रवृत्तिः
सूत्रांक
SEX
दीप
युवा यश कीायुषा चाधिकार इति, एवं शेषपदाना यथासम्भवं निक्षेपो वाच्य इति ॥ उक्त सूत्रालापकनिष्पानि- १ स्थानाक्षेपः, पदार्थः पुनरेवम्-इह किल सुधर्मस्वामी पञ्चमो गणधरदेवो जम्बूनामानं स्वशिष्यं प्रति प्रतिपादयाञ्चकार-श्रु- ध्ययन तम्-आकणितं 'मे' मया 'आउसंति आयु:-जीवितं तत्संयमप्रधानतया प्रशस्त प्रभूतं वा विद्यते बस्यासावायु- आयुनिक्षमांस्तस्यामन्त्रणं हे आयुष्मन् !-शिष्य ! 'तेणं' ति यः सन्निहितव्यवहितसूक्ष्मवादरवाह्याध्यात्मिकसकलपदार्थेष्वव्याह-जापान तवचनतयाऽऽतत्वेन जगति प्रतीतः अथवा पूर्वभवोपात्ततीर्थकरनामकर्मादिलक्षणपरमपुण्यप्राग्भारो विलीनानादिकालालीनमिथ्यादर्शनादिवासनः परिहतमहाराज्यो दिव्याधुपसर्गवर्गसंसर्गाविचलितशुभध्यानमार्गों भास्कर इव घनघातिकर्मघनाघनपटलविघटनोलसितविमलकेवलभानुमण्डलो विबुधपतिषट्पदपटलजुष्टपादपद्मो मध्यमाभिधानपुरीप्रथमप्रवर्तितप्रवचनो जिनो महावीरस्तेन 'भगवता' अष्टमहापातिहार्यरूपसमग्रेश्वर्यादियुक्तेन 'एवं मित्यमुना वक्ष्यमाणेनैकत्वादिना प्रकारेण 'आख्यात'मिति आ-मर्यादया जीवाजीवलक्षणासङ्कीर्णतारूपया अभिविधिना वा-समस्तवस्तुवि-| स्तारव्यापनलक्षणेन ख्यातं-कथितं आख्यातमात्मादि वस्तुजातमिति गम्यते, अत्र च 'श्रुत'मित्यनेनावधारणाभिधायिना स्वयमवधारितमेवान्यस्मै प्रतिपादनीयमित्याह, अन्यथाऽभिधाने प्रत्युतापायसम्भवात्, उक्तश्च-"किं एत्तो पावयरं? सम्म अणहिगयधम्मसन्भावो । अन्नं कुदेसणाए कट्ठयरागंमि पाडेइ ॥१॥"त्ति, 'भये'त्यननोपक्रमद्वाराभिहितभावप्रमाणद्वारगतात्मानन्तरपरम्परभेदभिन्नागेमेऽयं वक्ष्यमाणो ग्रन्थोऽर्थतोऽनन्तरागमः सूत्रतस्त्वात्मागम
॥ ७ ॥ १ किमेतस्मात् कष्टकर ! सम्यग् अनधिगतसमयसद्भावः। अन्यं कुदेशनया कष्टतरागसि पातयति ॥ १॥ २ भिन्नागमोऽयं प्र.
अनुक्रम
'आउस' शब्दस्य निक्षेपाः, 'भगवत' आदि शब्दस्य अर्था:
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
IPI
माइत्याह, 'आयुष्मन्नि'त्यनेन तु कोमलवचोभिः शिष्यमनःप्रल्हादयताऽऽचार्येणोपदेशो देय इत्याह. उक्तश-धम्म-IA
मइपहिं अइसुंदरेहि कारणगुणोवणीएहिं । पल्हायंतो व मणं सीस चोपइ आयरिओ ॥१॥"त्ति । आयुष्मस्वाभि-12 धानं चात्यन्तमाहादक, प्राणिनामायुषोऽत्यन्ताभीष्टत्वाद्, यत उच्यते-सव्वे पाणा पियाउया अप्पियवहा सुहा
साया दुक्खपडिकूला सव्वे जीविउकामा सम्वेसिं जीवियं पियं"ति, तथा-"तृणायापि न मन्यन्ते, पुत्रदारार्थसम्पदः। जजीविताथै नरास्तेन, तेषामायुरतिप्रियम् ॥ १॥” इति, अथवा 'आयुष्मन्नित्यनेन ग्रहणधारणादिगुणवते शिष्याय | 2
शास्त्रार्थो देय इति ज्ञापनार्थ सकलगुणाधारभूतत्वेनाशेषगुणोपलक्षणेन चिरायुर्लक्षणगुणेन शिष्यामन्त्रणमकारि, यत *उक्तम्-"बुद्धेऽवि दोणमेहे न कण्हभूमाउ लोहए उदयं । गहणधरणासमत्थे इय देयमछित्तिकारिंमि ॥१॥" विपर्यये*
तु दोष इति, आह च--"आयरिए सुत्तम्मि य परिवाओ सुत्तअथपलिमंथो । अन्नेसिपि य हाणी पुछावि न दुखदा। वंझा ॥१॥” इति, तथा 'तेने'त्यनेन त्वाप्तवादिगुणप्रसिद्धताऽभिधायकेन प्रस्तुताध्ययनप्रामाण्यमाह, वक्तृगुणापेक्षत्वाचनप्रामाण्यस्येति, 'भगवते त्यनेन तु प्रस्तुताध्ययनस्योपादेयतामाह, अतिशयवान् किलोपादेया, तद्वचनमपि तथेति, अथवा 'तेणं'ति अनेनोपोद्घातनिर्युक्त्यन्तर्गतं निर्गमद्वारमाह, यो हि मिथ्यात्वतमम्प्रभृतिभ्यो दोषेभ्यो निर्ग
दीप
अनुक्रम
धर्ममयैरतिमुन्दरैः कारणगुणोपनीतैः । प्रहादयच मनः शिष्यं नोदयखाचार्यः ॥ १॥ २ सर्वे प्राणाः प्रियायुधोऽप्रियवधाः सुखावादाः प्रतिकूलदुःखाः सर्वे जीवितुकामाः सर्वेषां जीवितं प्रियम् . ३ वृष्टेऽपि दोणमेघे न कृष्णभूमालुठति उदकं । प्रहणधारणसमर्थे एवं देयमच्छित्तिकारिणि ।। १॥ ४ भाचार्वे सूत्रे Pाच परिवादः सूत्राविधः । अन्येषामपि च हानिः स्पृष्यापि न दुग्धदा पन्ध्या ॥१॥
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[3]
दीप
अनुक्रम [3]
श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः
॥ ८ ॥
[भाग - 5] "स्थान" अंगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः)
स्थान [१], उद्देशक [-1. मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
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-
तस्ततो निर्गतमिदमध्ययनं क्षेत्रतोऽपापायां कालतो वैशाखशुद्धैकादश्या पूर्वाह्णे भावे क्षायिके वर्त्तमानादिति, एवं च गुरुपर्वक्रमलक्षणः सम्बन्धोऽस्य प्रदर्शितो भवति, तथा तथाविधेन भगवता यदुक्तं तत् सप्रयोजनमेव भवतीति सामान्यतः सप्रयोजनता चास्योक्ता, न हि पुरुषार्थानुपयोगि भगवन्तो भाषन्ते, भगवत्त्वहानेः, अत एव चास्योपायो| पेयभावलक्षणः सम्बन्धोऽपि दर्शितः, इदं हि भगवदाख्यातं ग्रन्थरूपापन्नमुपायः, पुरुषार्थस्तूपेय इति, अत एव चात्र श्रोतारः श्रवणे प्रवर्त्तिताः, यतः -' :- "सिद्धार्थ सिद्धसम्बन्धं श्रोतुं श्रोता प्रवर्त्तते । शास्त्रादौ तेन वक्तव्यः, सम्बन्धः सप्रयोजनः ॥ १ ॥” इति 'एव' मित्यनेन तु भगवद्वचनादात्मवचनस्यानुत्तीर्णतामाह, अत एव स्ववचनस्य प्रामाण्यं, | सर्वज्ञवचनानुवादमात्रत्वादस्येति, अथवा 'एवमित्येकत्वादिः प्रकारोऽभिधेयतया निर्दिष्टः, निरभिधेयताऽऽशङ्कया श्रोतृणां काकदन्तपरीक्षायामिवाप्रवृत्तिरत्र मा भूदिति, 'आख्यातमित्यनेन तु नापौरुषेयवचनरूपमिदं, तस्यासम्भवादित्याह यत उक्तम्- “वेयंवयणं न माणं अपोरुसेयंति' निम्मियं [तम्मयं ] जेण । इदमञ्चतविरुद्धं वयणं च अपोरुसेयं च ॥ १ ॥ जं बुच्चइत्ति वयणं पुरिसाभावे उ नेयमेवंति । ता तस्सेवाभावो नियमेण अपोरुसेयत्ते ॥ २ ॥ इति, अथवा आख्यातं भगवतेदं न कुड्यादिनिःसृतं यथा कैश्चिदभ्युपगम्यते - “ तस्मिन् ध्यानसमापन्ने, चिन्तारत्नवदास्थिते । निःसरन्ति यथाकामं कुव्यादिभ्योऽपि देशनाः ॥ १ ॥" इत्यस्यानेनानभ्युपगममाह, यतः - ' - 'कुण्यादिनिः
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१ वेदवचनं न मानमपौरुषेयमिति निर्मितं येन (तन्मतं येन ) इदमन्यविरुद्धं वचनं चापश्येयं च ॥ १ ॥ यदुच्यते इति वचनं पुरुषाभावे तु नैतदेवमिति । वत् तत्रैवाभावो नियमेनापत्ये ॥ २ ॥ २ निम्मियं प्र.
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१ स्थानाध्ययने
१ सूत्रं
॥ ८ ॥
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[१]
दीप अनुक्रम [3]
[ भाग - 5] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
सृतानां तु न स्यादाष्ठोपदिष्टता । विश्वासश्च न तासु स्यात्केनेमा कीर्त्तिता इति ? ॥ १ ॥" समस्तपदसमुदायेन त्वामौद्धत्यपरिहारेण गुरुगुणप्रभावनापरैरेव विनेयेभ्यो देशना विधेयेत्याह एवं हि तेषु भक्तिपरता स्यात्, तया च वियादेरपि सफलता स्यादिति, यदुक्तम्- "भक्तीऍ जिणवराणं खिज्जंती पुब्वसंचिया कम्मा। आयरियनमोक्कारेण विज्जा | मंता य सिज्यंति ॥ १ ॥”त्ति, नमस्कारश्च भक्तिरेवेति, अथवा 'आउसंतेणं'ति भगवद्विशेषणं, आयुष्मता भगवता, चिरजीविनेत्यर्थः, अनेन भगवद्बहुमानगर्भेण मङ्गलमभिहितं भगवद्बहुमानस्य मङ्गलत्वादिति चोकमेव यद्वा 'आयुष्मते 'ति परार्थप्रवृत्त्यादिना प्रशस्तमायुर्धारयता नतु मुक्तिमवाप्यापि तीर्धनिकारादिदर्शनात् पुनरिहायातेनाभिमानादिभावतोऽप्रशस्तं यथोच्यते कैश्चित् - "ज्ञानिनो धर्म्मतीर्थस्य कर्त्तारः परमं पदम् । गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि भचं तीर्थनिकारतः ॥ १ ॥ " [ यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम् ॥ २ ॥ ] एवं ह्यनुन्मूलितरागादिदोषत्यात् तद्वचसोऽप्रामाण्यमेव स्यात्, निःशेषोन्मूलने हि रागादीनां कुतः पुनरिहागमनसम्भव इति ?, अथवा 'आयुष्मता' प्राणधारणधर्मवता न तु सदा संशुद्धेन तस्याकरणत्वेनाख्यातृत्वासम्भवादिति, यदिवा- 'आवसंतेणं'ति मयेत्यस्य विशेषणं, तत आङिति गुरुदर्शितमर्यादया वसता, अनेन तत्त्वतो गुरुमर्यादावर्त्तिस्वरूपत्वात् गुरुकुलवासस्य तद्विधानमर्थत उक्तं, ज्ञानादिहेतुत्वात्तस्य, उक्तञ्च - "णाणस्स होइ भागी
१ भक्तया जिनवराणां क्षीयन्ते पूर्वसंचितानि कर्माणि । आचार्यनमस्कारेण विद्या मन्त्राथ सिध्यन्ति ॥ १ ॥ २ अशरीरत्वेन ३ ज्ञानस्व भवति भागी स्थिरतरो दर्शने चारित्रे च धन्या यावत्कथं गुरुकुलवासं न मुवन्ति ॥ १ ॥ गीतावासो रतिर्धमें अनायतनवर्जनम्। नियइब कषायाणामेतत् धीराणां शासनम् ॥२॥
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गुरुकुलवासस्य वर्णनं,
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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सूत्रांक
दीप अनुक्रम
श्रीस्थाना-थिरयरओ दंसणे चरित्ते य । धन्ना आवकहाए गुरुकुलवासं न मुंचंति ॥१॥ गीयावासो रती धम्मे, अणाययणवजाणं स्थाना
निग्गहो य कसायाण, एवं धीराण सासणं ॥२॥"ति, अथवा 'आमुसंतेणं'ति आमृशता भगवत्पादारविन्द भक्तितः क- ध्ययने वृत्तिः रतलयुगलादिना स्पृशता, अनेनैतदाह-अधिगतसकलशास्त्रेणापि गुरुविश्रामणादि विनयकृत्यं न मोक्तव्यम्, उक्तं हिगुरुकुल
-"जहाऽऽहिअग्गी जलणं णमंसे, णाणाहुतीमंतपयाभिसित्तं । एवायरीयं उवचिट्ठएज्जा, अणतणाणोवगओऽवि सं- वासासू०१ ॥९॥
तो ॥१॥"त्ति, यद्वा 'आउसंतेण'ति आजुषमाणेन-श्रवणविधिमर्यादया गुरूनासेवमानेन, अनेनाप्येतदाह-विधिनैवोचितदेशस्थेन गुरुसकाशाच्छ्रोतव्यम्, न तु यथाकथञ्चित्, यत आह-"निदोविगहापरिवज्जिएहिं गुत्तेहिं पंजलिङडेहिं । भत्तिबहुभाणपुच्वं उवउत्तेहिं सुणेयव्वं ॥१॥" इत्यादि, एवमुक्तः पदार्थः, पदविग्रहस्तु सामासिकपदविषयः, स चाख्यातमित्यादिषु दर्शित इति । इदानीं चालनाप्रत्यवस्थाने, ते च शब्दतोऽर्थतश्च, तत्र शब्दतः ननु 'मे' इत्यस्य मम मह्यं चेति व्याख्यानमुचितं, षष्ठीचतुर्योरेवैकवचनान्तस्यास्मत्सदस्य मे इत्यादेशादिति, अत्रोच्यते, मे इत्ययं विभक्तिप्रतिरूपकोऽव्ययशब्दस्तृतीयैकवचनान्तोऽस्मच्छब्दार्थे वर्तत इति न दोषः । अर्थतस्तु चालना-ननु वस्तु नित्यं वा स्थादनित्यं वा', नित्यं चेत्तर्हि नित्यस्याप्रच्युतानुत्पन्न स्थिरैकस्वरूपत्वाद्यो भगवतः सकाशे श्रोतृत्वस्वभावः स एव च कथं शिष्योपदेशकत्वस्वभाव इति', किश्व-शिष्योपदेशकत्वं त्वस्य पूर्वस्वभावत्यागे स्यादत्यागे वा?, यदि त्यागे हन्त हतं
१ यथाऽहितापिचलनं नमस्व वि नानातिमन्नपदाभिषिक्तम् । एतमाचार्यमुपतिशेत अनन्तज्ञानोपमतोऽपि सन् ॥१॥ १परिवर्जितनिद्राविकचेगुप्तःला प्रालिपुटैः । भकिबहुमानपूर्वमुपयुक्तः श्रोतव्यम् ॥१॥
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गुरुकुलवासस्य वर्णनं,
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आगम
(०३)
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सूत्रांक
[१]
दीप अनुक्रम
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३ ]
वस्तुनो नित्यत्वं वस्तुनः स्वभावाव्यतिरिक्तत्वेन तत्क्षये तत्क्षतेरिति, अपरित्याग इति चेत्, न, विरुद्धयोः स्वभावयोर्युगपदसम्भवादिति, अथचानित्यमिति पक्षस्तदपि न, निरन्वयनाशे हि श्रोतुः श्रवणकाल एव विनष्टत्वात् कथनावसरेऽन्यस्यैवोत्पन्नत्वादकथनप्रसङ्गः, यज्ञदत्तश्रुतस्य देवदत्ताकथनवदिति, अत्र समाधिर्नयमतेनेति नयद्वारमवतरति, तत्र नैगमसङ्ग्रहव्यवहारर्जु सूत्रशब्दसमभिरूढैवम्भूता नयाः, तत्र चाद्यास्त्रयो द्रव्यमेवार्थोऽस्तीतिवादितया द्रव्यार्थिकेऽवतरन्ति, इतरे तु पर्याय एवार्थोऽस्तीतिवादितया पर्यायार्थिकनये, तदेवमुभयमताश्रयणे द्रव्यार्थितया नित्यं वस्तु पर्या यार्थितया त्वनित्यमिति नित्यानित्यं वस्त्विति प्रत्येकपक्षोक्तदोषाभावो गुडनागरादिवदिति, एवमेव च सकलव्यवहारप्रवृत्तिरिति, उक्त - "सेव्वं चिय पइसमयं उप्पार नासए य निघं च । एवं चैव य सुहदुक्खबंध मोक्खादिसब्भावो ॥ १ ॥” ति । उक्तः सूत्रस्पर्शिक नियुक्त्यनुगमः, तदेवमधिकृतसूत्रमाश्रित्य सूत्रानुगमसूत्रालापकनिक्षेपसूत्रस्प शिंकनियुक्त्यनुगमनया उपदर्शिताः, आराधितच क्रमं भाष्यकारवचनं तद्यथा-"सुत्तं सुत्ताणुगमो सुत्तालावगकओ य निक्खेवो । सुत्तष्फासियनिज्जुत्ति नया य समगं तु वच्चंति ॥ १ ॥” त्ति, एतेषां चायं विषय उक्को भाष्यका रेण "होड़ें कयत्थो वोतुं सपयच्छेयं सुअं सुयाणुगमो । सुत्तालाबगनासो नामा इन्नासविनियोगं १ ॥ सुत्तफासियनि
१ ताश्रये ॥ सर्वमेव प्रतिसमयमुत्पद्यते नश्यति च निखं च एवमेव च मुखदुःखवन्धमोक्षादिसद्भावः ॥ १ ॥ ३ सूत्रे सूत्रानुगमः सूत्रालापककृतथ | निक्षेपः । सूत्रस्पर्शिक निर्बुर्नियाथ समकमेव ब्रजन्ति ॥ १ ॥ ४ भवति कृतार्थ उतना सपदच्छेदं सूत्रं सूत्रानुगमः । सूत्रालापकन्यासो नामादिन्यासविनियो यम् ॥ १ ॥ सूत्रस्पर्शिकनिकिनियोगः शेषकः पदार्थादिः प्रायः स एव नैगमनयादिमतगोचरो भवति ॥ २ ॥
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मूलं [१] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
स्थानाध्ययने एकानेकात्मितासिद्धिः सू०२
श्रीस्थाना- ज्जुत्तिनिओगो सेसओ पयस्थाई । पायं सो चिय नेगमनयाइमयगोयरो होइ ॥ २॥"त्ति, एवं प्रतिसूत्र स्वयमनुस- गसूत्र-दरणीयं, वयं तु संक्षेपार्थ क्वचित्किञ्चिदेव भणियाम इति ॥ यदाख्यातं भगवता तदधुनोच्यते-तत्र सकलपदार्थानां स- वृत्तिः म्यग्मिध्याज्ञानश्रद्धानानुष्ठानविषयीकरणेनोपयोगनयनादात्मनः सर्वपदार्थप्राधाम्यमतस्तद्विचारं तावदादावाह
एगे आया (सू०२) ॥१०॥
_एको न ब्यादिरूप आत्मा--जीवः, कथश्चिदिति गम्यते, तत्र अतति-सततमवगच्छति 'अत सातत्यगमन' इति बच- नादतो धातोर्गत्यर्थस्वाद्गत्यर्थानां च ज्ञानार्थत्वादनवरतं जानातीति निपातनादात्मा-जीवः, उपयोगलक्षणत्वादस्य सि.
संसार्यवस्थाद्वयेऽप्युपयोगभावेन सततावबोधभावात् , सततावबोधाभावे चाजीवत्वप्रसङ्गात्, अजीवस्य च सतः पुनर्जीवत्वाभावात् , भावे चाकाशादीनामपि तथात्वप्रसङ्गात् , एवञ्च जीवानादित्वाभ्युपगमाभावप्रसङ्ग इति, अथवा माअतति-सततं गच्छति स्वकीयान् ज्ञानादिपर्यायानित्यात्मा, नम्वेवमाकाशादीनामध्यात्मशब्दव्यपदेशप्रसङ्गः, तेषामपि |
स्वपर्यायेषु सततगमनाद् , अन्यथा अपरिणामित्वेनावस्तुत्वप्रसङ्गादिति, नैव, व्युत्पत्तिमात्रनिमित्तत्वादस्य, उपयोगदास्यैव च प्रवृत्तिनिमित्तस्वाद्, जीव एव आत्मा नाकाशादिरिति, यद्वा संसार्यपेक्षया नानागतिषु सततगमनात् मुक्काअपेक्षया च भूततावत्वादात्मेति, तस्य चैकत्वं कथञ्चिदेव, तथाहि-द्रव्यार्थतयैकत्वमेकद्रव्यत्वादात्मनः, प्रदेशाधेतया त्व-
I हानेकत्वमसङ्ख्येयप्रदेशात्मकत्वात् तस्येति, तत्र द्रव्यं च तदर्थश्चेति द्रव्यार्थस्तस्य भावो द्रव्यार्थता-प्रदेशगुणपर्यायाधा
"पदार्थज्ञानप्रा.प्र.
n
आत्मा- अर्थ, व्युत्पत्ति, आत्मन: एकत्वं,
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
दीप अनुक्रम
रता अवयविद्रव्यतेतियावत्, तथा प्रकृष्टो देशः प्रदेशो-निरवययोऽशः स चासावर्थश्चेति प्रदेशार्थः तस्य भावः प्रदे-131 | शार्थता-गुणपर्यायाधारा (रता अ) वयवलक्षणार्थतेतियावत्, नन्ववयवि द्रव्यमेव नास्ति, विकल्पदयेन तस्यायुज्यमानत्वात् , खरविषाणवत्, तथाहि-अवयविद्रव्यमवयवेभ्यो भिन्नमभिन्नं वा स्याद्?, न तावदभिन्नमभेदे हि अवयवि-12 द्रव्यवदवयवानामेकत्वं स्याद् , अवयववद्वाऽवयविद्रव्यस्याप्यनेकत्वं स्यात् , अन्यथा भेद एव स्यात्, विरुद्धधर्माध्या| सस्य भेदनिवन्धनत्वादिति, भिन्नं चेत् तत्तेभ्यस्तदा किमवयविद्रव्यं प्रत्येकमवयवेषु सर्वात्मना समवैति देशतो वेति ?,
यदि सर्वात्मना तदाऽवयवसङ्ख्यमवयविद्रव्यं स्यात् कथमेकत्वं तस्य ?, अथ देशैः समवैति ततो यैर्देशैरवयवेषु तद्वBार्तते तेष्वपि देशेषु तत्कथं प्रवर्तते देशतः सर्वतो वेति ?, सर्वतश्चेत्तदेव दूषणं, देशतश्चेत् तेष्वपि देशेषु कथमित्यादि-16
रनवस्था स्यादिति, अनोच्यते, यदुक्तम्-'विकल्पद्वयेन तस्यायुज्यमानत्वादिति तदयुक्तम् , एकान्तेन भेदाभेदयोरन-14 | भ्युपगमात् , अवयवा एव हि तथाविधैकपरिणामितया अवयविद्रव्यतया व्यपदिश्यन्ते, त एव च तथाविधविचित्रपरिणामापेक्षया अवयवा इति, अवयविद्रव्याभावे तु एते घटावयवा एते च पटावयवा इत्येवमसङ्कीर्णावयवव्यवस्था न5 स्थात् , तथा च प्रतिनियतकार्यार्थिनां प्रतिनियतवस्तूपादानं न स्यात्, तथा च सर्वमसमञ्जसमापनीपोत, सन्निवेशवि-16 शेषाद् घटाद्यवयवानां प्रतिनियतता भविष्यतीति चेत्, सत्यं, केवलं स एव सन्निवेशविशेषोऽवयविद्रव्यमिति, यच्चोच्यते-बिरुद्धधर्माध्यासो भेदनिबन्धनमिति, तदपि न सूक्तं, प्रत्यक्षसंवेदनस्य परमार्थापेक्षया भ्रान्तत्वेन संव्यवहारा-16 पेक्षया त्वभ्रान्तत्वेनाभ्युपगमादिति, यदि नाम भ्रान्तमभ्रान्तं कथमित्येवमत्रापि वक्तुं शक्यत्वादिति । किञ्च-विद्यते |
ForParamasPrvammoni
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आत्मन: सिध्धि:
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
इसूत्रवृत्तिः
सूत्रांक
॥११॥
SCRIKOKAR
दीप अनुक्रम
अवयविद्रव्यम्, अव्यभिचारितया तथैव प्रतिभासमानत्वाद् अवयववन्नीलयद्वा, न चायमसिद्धो हेतुः, तथाप्रतिभास- १ स्थानास्थानुभूयमानत्वात् , नाप्यनैकान्तिकत्वविरुद्धत्वे, सर्ववस्तुव्यवस्थायाः प्रतिभासाधीनत्वाद्, अन्यथा न किश्चनापि वस्तु ध्ययने | सिध्येदिति । भवतु नामावयविद्रव्य केवलमात्मा न विद्यते, तस्य प्रत्यक्षादिभिरनुपलभ्यमानत्वादिति, तथाहि-न प्रत्य- आत्मसिक्षग्राह्योऽसावतीन्द्रियत्वात्, नाप्यनुमानग्राह्यः, अनुमानस्य लिङ्गालिङ्गिनोः साक्षात्सम्बन्धदर्शनेन प्रवृत्तेरिति, आगम-1द्विः सू०२ गम्योऽपि नासौ, आगमानामन्योऽन्यं विसंवादादिति, अत्रोच्यते, केयमनुपलभ्यमानता, किमेकपुरुषाश्रिता सकलपुरुषाश्रिता वा ?, योकपुरुषाश्रिता न तयाऽऽत्माभावः सिध्यति, सत्यपि वस्तुनि तस्याः सम्भवात्, न हि कस्यचित् | पुरुषविशेषस्य घटाद्यर्थग्राहकं प्रमाणं न प्रवृत्तमिति सर्वत्र सर्वदा तदभावो निर्णेतुं शक्य इति, न हि प्रमाणनिवृत्तौ प्र-] मेयं विनिवर्त्तते, प्रमेयकार्यत्वात् प्रमाणस्य, न च कार्याभावे कारणाभावो दृष्ट इत्यनैकान्तिकताऽनुपलम्भहेतोः, सकलपुरुषाश्रितानुपलम्भस्त्वसिद्ध इत्यसिद्धो हेतुः, न ह्यसर्वज्ञेन सर्वे पुरुषाः सर्वदा सर्वत्रात्मानं न पश्यन्तीति वक्तुं शक्यमिति, किश्च-विद्यते आरमा, प्रत्यक्षादिभिरुपलभ्यमानत्वात्, घटवदिति, न चायमसिद्धो हेतुः, यतोऽस्मदादिप्रत्यक्षेणाच्यात्मा ताबद्गम्यत एव, आत्मा हि ज्ञानादनन्यः, आत्मधर्मत्वात् ज्ञानस्य, तस्य च स्वसंविदितरूपत्वात्, स्वसंविदितत्वञ्च ज्ञानस्य नीलज्ञानमुत्पन्नमासीदित्यादिस्मृतिदर्शनात्, न ह्यस्वसंविदिते ज्ञाने स्मृतिप्रभवो युज्यते, प्रमात्रन्तरज्ञानस्यापि स्मृतिगोचरत्वप्रसङ्गादिति, तदेवं तदव्यतिरिक्तज्ञानगुणप्रत्यक्षत्वे आत्मा गुणी प्रत्यक्ष एव, रूपगुणप्रत्यक्षत्वे घटगुणिप्रत्यक्षत्ववदिति, उक्तब-"गुणपञ्चक्खत्तणओ गुणी वि जीवो घडोव पञ्चक्यो । घडओव्य धिप्पइ गुणी ॥११॥
१ गुणप्रत्यक्षावात् गुम्यपि जीयो घट इन प्रलाक्षः । पट इव गाते गुणी गुणमात्रमहणात्, यस्सात् ॥१॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
रहन
सूत्राक
गुणमित्तग्गहणओ जम्हा ॥१॥" तथा "अण्णोऽणन्नो व गुणी होज गुणेहिं !, जइ णाम सोऽणनो । णाणगुणमितगहणे घिप्पइ जीवो गुणी सक्ख ॥ १॥ अह अन्नो तो एवं गुणिणो न घडादयो वि पच्चक्खा । गुणमित्तग्गहणाओ जीवम्मि कुतो विआरोऽयं? ॥ २ ॥" ति, ये तु सकलपदार्थसार्थस्वरूपाविर्भावनसमर्थज्ञानवन्तस्तेषां सर्वात्मनैव प्रत्यक्ष इति । तथाऽनुमानगम्योऽप्यात्मा, तथाहि-विद्यमानकर्तृकमिदं शरीरं भोग्यत्वाद् , ओदनादिवत्, व्योमकुसुमं विपक्षः, स च कर्ता जीव इति, नन्वोदनकर्तृवन्मूर्त आत्मा सिध्यतीति साध्यविरुद्धो हेतुरिति, नैवं, संसारिणो मूर्त्तत्वेनाप्यभ्युपगमाद्, आह च-"जो कत्तादि स जीवो सज्झविरुद्धत्ति ते मई हुज्जा । मुत्ताइपसंगाओ तं नो संसारिणो दोसो ॥१॥" त्ति, न चायमेकान्तो, यदुत-लिङ्ग्यविनाभूतलिङ्गोपलम्भव्यतिरेकेणानुमानस्यैव एकान्ततोऽप्रवृत्तिरिति, हसितादिलिङ्गविशेषस्य ग्रहाख्यलिङ्गायविनाभावग्रहणमन्तरेणापि ग्रहगमकत्वदर्शनात्, न च देह एव ग्रहो येनान्यदेहेऽदर्शनमविनाभावग्रहणनियामकं भवतीति, उक्तश्च-“सोऽणेगंतो जम्हा लिंगेहि सम अदिठ्ठपुब्बोवि । गहलिंगदरिसणातो गहोऽणुमेयो सरीरंमि ॥१॥" इति, आगमगम्यत्वं त्वात्मनः 'एगे आया' अत एव बचनात्, नचास्थागमान्तरैविसंवादः संभावनीयः, सुनिश्चिताप्तप्रणीतत्वादस्येति, बहु वक्तव्यमत्र तच स्थानान्तरादवसेयमिति । किञ्च
दीप अनुक्रम
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१ अन्योऽनन्यो वा गुणी भवेत् गुणेभ्यः, यदि नाम सोऽनन्यः । ज्ञानमात्रगुणग्रहणे मुद्यते जीवो गुणी साक्षात् ॥ १॥ अथान्यसदैवं गुगिनी न घटादयोऽपि सक्षाः । गुणमात्रग्रहणात् जीवे कुतो विचारोऽयम् ॥ ३॥ २ यः कादिः स जीवः साध्याविरुद्ध इति ते मविर्भवेत् । मूर्तत्वादिप्रसङ्गात् तन्त्र संसारिणो दोषः au१॥ ३ सोऽनेकान्तो यस्मात् लिी सममापूर्वोऽपि । प्रहलिङ्गदर्शनात् अहोऽनुमेयः पारीरे ॥१॥
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आत्मन: सिध्धि:
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आगम
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना- आत्माभावे जातिस्मरणादयस्तथा प्रेतीभूतपितृपितामहादिकृतावनुग्रहोपघातौ च न प्राप्नुयुरिति । आत्मनस्तु सप्रदेश- १ स्थाना
सूत्र- शत्वमवश्यमभ्युपगन्तव्य, निरवयवत्वे तु हस्ताद्यवयवानामेकत्वप्रसङ्गः प्रत्यक्यवं स्पर्शाउनुपलब्धिप्रसङ्गश्चेति सप्रदेश | ध्ययने वृत्तिः | आत्मा प्रत्यवयवं चैतन्यलक्षणतद्गुणोपलम्भात्, प्रतिग्रीवाद्यषयवमुपलभ्यमानरूपगुणघटवदिति स्थापितमेतत् 'द्र- आत्मसि
| व्यार्थतया एक आत्मेति, अथवा एक आत्मा कथचिदिति, प्रतिक्षणं सम्भवदपरापरकालकृतकुमारतरुणनरनारक- द्धिः सू०२ ॥१२॥
| स्वादिपर्यायैरुत्पादविनाशयोगेऽपि द्रव्यार्थतयैकत्वादस्य, यद्यपि हि कालकृतपर्यायैरुत्पद्यते नश्यति च वस्तु तथापि स्व-1 परपर्यायरूपानन्तधर्मात्मकत्वात् तस्य न सर्वथा नाशो युक्त इति, आह च-"न हि सव्वहा विणासो अद्धापज्जाय | मित्तनासंमि । सपरपज्जायाणतधम्मुणो वत्थुणो जुत्तो ॥१॥" त्ति, किञ्च–प्रतिक्षणं क्षयिणो भावा' इत्येतस्माद् वचनात् प्रतिपाद्यस्य यत्क्षणभङ्गविज्ञानमुपजायते तदसख्यातसमयैरेव वाक्यार्थग्रहणपरिणामाज्जायते, न तु प्रतिपत्तः। प्रतिसमयं विनाशे सति, यत एकैकमप्यक्षरं पदसत्कं सङ्ख्यातीतसमयसम्भूतं, सङ्ख्यातानि चाक्षराणि पदं, सङ्ख्या -18 तपदं च वाक्यं, तदर्थग्रहणपरिणामाच्च सर्व क्षणभङ्गरमिति विज्ञानं भवेत् , तच्चायुक्तं समयनष्टस्येति, आह च-"कह |वा सव्वं खणियं विनायं ?, जई मई सुयाओत्ति । तदसंखसमयसुत्तत्थगहणपरिणामओ जुत्तं ॥१॥ नउ पइसमयवि-12
GANA-C4000
॥ १२ ॥
नैव सर्वथा विनाशोऽद्वापारमात्रनाशे । खपरपर्यायानन्तवमस्य वस्तुनो युक्तः ॥ १॥ २ कथं या सर्व क्षणिक विज्ञातं । यदि मतिः-श्रुतादिति । | तदसख्यसमयसूत्रार्थग्रहणपरिणामतोऽयुक्तम् ॥ १॥ नैव प्रतिसमय मिनाशे यनकै कमक्षरमपि पदस्य । संख्यातीतसामयिक संख्येयानि पदं तानि ॥ २ ॥ संख्येय-18 पद वाक्यं तदर्थमहणपरिणामतो भवेत् । सर्वक्षणभराने तययुफ समयमध्य ॥१॥
An ElumiNama
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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सूत्राक
दीप अनुक्रम
णासे जेणेक्केकक्खरंपि य पयस्स । संखाईयसमइयं संखेजाई पयं ताई ॥२॥ संखेजपयं वकं तदत्थगहणपरिणामओ होजा। सब्बखणभंगनाणं तदजुत्तं समयनहस्स ॥३॥" इति, तथा सर्वथोच्छेदे तृप्त्यादयो न घटन्ते, पूर्वसंस्कारानुवृत्तावेव तेषां युज्यमानत्वाद् , आह च-"तित्ती समो किलामो सारिक्खविधक्खपच्चयाईणि । अज्झयणं झाणं भावणा य का सव्वनासंमि?॥ १ ॥"त्ति, तत्र तृप्तिः-प्राणिः श्रमः-अध्वादिखेदः कुमो-लानिः सादृश्य-साधये विपक्षो-वैधऱ्या प्रत्ययः-अवबोधः, शेषपदानि प्रतीतानि, इत्यादि बहु वक्तव्यं तत्तु स्थानान्तरादवसेयमिति । तदेवमात्मा स्थितिभवनभङ्गरूपः स्थिररूपापेक्षया नित्यो नित्यत्वाच्चैका भवनभङ्गरूपापेक्षया त्वनित्यः अनित्यत्वाचानेक इति, आह च-"जमणंतपज्जयमयं वत्थु भवणं च चित्तपरिणाम । ठिइविभवभङ्गरूवं णिञ्चाणिच्चाइ तोऽभिमयं ॥१॥" |ति, एवं च-"सुहृदुक्खबंधमोक्खा उभयनयमयाणुवत्तिणो जुत्ता । एगयरपरिबाए सब्वब्यवहारवुच्छित्ति ॥२॥"त्ति, अथवा-एक आत्मा कथञ्चिदेवेति, यतो जैनानां न हि सर्वथा किञ्चिद्वस्तु एकमने वाऽस्ति, सामान्यविशेषरूपत्वादस्तुनः, अथ श्रूयातू-विशेषरूपमेव वस्तु, सामान्यस्य विशेषेभ्यो भेदाभेदाभ्यां चिन्त्यमानस्थायोगात्, तथाहि-सामान्यं विशेषेभ्यो भिन्नमभिन्नं वा स्यात् ?, न भिन्नमुपलम्भाभावाद्, न चानुपलभ्यमानमपि सत्तया व्यवहर्तुं शक्यं, खरविषाणस्यापि तथाप्रसङ्गात्, अधाभिन्नमिति पक्षः, तथा च सामान्यमानं वा स्याद्विशेषमानं वेति, न ह्येकस्मिन्
प्तिः श्रमः क्रमः साश्यनिपक्षप्रलयादयः । अध्ययनध्याने भावना च का सर्वनाशे ॥१॥२ यदनन्तपर्ययमयं मत भवनं च चित्रपरिणामम् । ४ स्थितिविभवभारूपं निल्लावियादि ततोऽभिमतम् ॥१॥ मुखदुःसबन्धमोक्षा उभयनयमनामुवर्तिनो युकाः । एकतरपरित्यागे सर्वव्यवहारज्युरिछतिः ॥ २॥
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mEautatani
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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सूत्रांक
दीप अनुक्रम
श्रीस्थाना- सामान्यमेक विशेषास्त्वनेकरूपा इत्यसङ्कीर्णवस्तुव्यवस्था स्यादिति, अत्रोच्यते, न ह्यस्माभिः सामान्यविशेषयोरेकान्तेन | स्थानासूत्र- | भेदोऽभेदो वाऽभ्युपगम्यते, अपि तु विशेषा एवं प्रधानीकृतातुल्यरूपा उपसर्जेनीकृततुल्यरूपा विषमतया प्रज्ञायमाना|
ध्ययने वृत्तिः विशेषा व्यपदिश्यन्ते, त एव च विशेषा उपसर्जनीकृतातुल्यरूपाः प्रधानीकृततुल्यरूपाः समतया प्रज्ञायमानाः सामा- एकात्मनि
न्यमिति व्यपदिश्यन्त इति, आह च-"निर्विशेष गृहीताश्च, भेदार सामान्यमुच्यते । ततो विशेषात्सामान्यविशिष्टत्वं सामान्यन युज्यते ॥१॥ वैषम्यसमभावेन, ज्ञायमाना इमे किल । प्रकल्पयन्ति सामान्य विशेषस्थितिमात्मनि ॥२॥” इति, विशेषवादः तदेवं सामान्यरूपेणात्मा एको विशेषरूपेण त्वनेकः, न चात्मनां तुल्यरूपं नास्ति, एकात्मव्यतिरेकेण शेषात्मनामनात्मत्वप्रसङ्गादिति, तुल्यं च सरूपमुपयोगः 'उपयोगलक्षणो जीव' इति वचनात्, तदेवमुपयोगरूपैकलक्षणत्वात् सर्वे एवात्मान एकरूपाः, एवं चैकलक्षणत्वादेक आत्मेति, अथवा जन्ममरणसुखदुःखादिसंवेदनेष्वसहायत्वादेक आत्मेति भावनीयमिति । इह च सर्वसूत्रेषु कथञ्चिदित्यनुस्मरणीय, कथञ्चिद्वादस्याविरोधेन सर्ववस्तुव्यवस्थानिवन्धनत्वात् , उक्तश--"स्थाद्वादाय 'नमस्तस्मै, यं विना सकलाः क्रियाः। लोकद्वितयभाविन्यो, नैव साङ्गत्यमियूति ॥ १ ॥" तथा "नयास्तव स्यात्सदसत्त्वलाञ्छिता, रसोपविद्धा इव लोहधातवः। भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो, भवन्तमार्याः प्रणता हि
तैषिणः ॥ १॥” इति । आत्मन एकत्वमुक्तन्यायतोऽभ्युपगच्छभिरपि कैश्चिनिष्क्रियत्वं तस्याभ्युपगतमतस्तन्निराकरणाय ट्रातस्य क्रियावत्त्वमभिधित्सुः क्रियायाः कारणभूतं (त)दण्डस्वरूपं प्रथम तावदभिधातुमाह
Cl॥१३॥ एगे दंडे (सू०३) एगा किरिया (सू०४) एगे लोए (सू० ५) एगे अलोए (सू०६)
ABERucatunintimatel
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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सूत्रांक
[३-६]
दीप अनुक्रम [३-६]
'एगे दंडे एकोऽविवक्षितविशेषत्वात् दण्क्यते-ज्ञानाद्यैश्वर्यापहारतोऽसारीक्रियते आत्माऽनेनेति दण्डः, स च । द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यतो यष्टिर्भावतो दुष्पयुक्तं मनःप्रभृति ॥ तेन चारमा क्रियां करोतीति तामाह-एगा किरिया' एका-अविवक्षितविशेषतया करणमात्रविवक्षणात् करणं क्रिया-कापिक्यादिकेति, अधवा 'एगे दंडे एगा किरिय'त्ति सूत्रद्वयेनारमनोऽक्रियत्वनिरासेन सक्रियत्वमाह, यतो दण्डकियाशब्दाभ्यां प्रयोदश क्रियास्थानानि | प्रतिपादितानि, तत्रार्थदण्डानर्थदण्डहिंसादण्डाकस्माद्दण्डदृष्टिविपर्यासदण्डरूपः पञ्चविधो दण्डः परमाणापहरणलक्षणो दण्डशब्देन गृहीतः, तस्य चैकत्वं बधसामान्यादिति, क्रियाशब्देन तु मृषाप्रत्यया अदत्तादानप्रत्यया आध्यात्मिकी मानप्रत्यया मित्रद्वेषप्रत्यया मायाप्रत्यया लोभप्रत्यया ऐयापथिकीत्यष्टविधा क्रियोक्ता, तदेकत्वञ्च करणमात्रसामान्यादिति, दण्डक्रिययोश्च स्वरूपविशेषमुपरिष्टात् स्वस्थान एव वक्ष्याम इति । अकियावत्त्वनिरासश्चात्मन एवं, यैः किलाक्रियावत्त्वमभ्युपगतमात्मनस्तैोक्तृत्वमप्यभ्युपगतमतो भुजिक्रियानिवर्त्तनसामथ्र्ये सति भोक्तृत्वमुपपद्यते तदेव च क्रिया-| वत्वं नामेति, अथ प्रकृतिः करोति पुरुषस्तु भुले प्रतिबिम्बन्यायेनेति, तवयुक्तम्, कथश्चित् सक्रियत्वमन्तरेण प्रकृत्युपधानयोगेऽपि प्रतिविम्बभावानुपपत्तेः, रूपान्तरपरिणमनरूपत्वात् प्रतिबिम्बस्येति, अथ प्रकृतिविकाररूपाया बुद्धेरेव सुखाद्यर्थप्रतिविम्बनं नात्मनः, तर्हि नास्य भोगः, तदवस्थत्वात्तस्येति, अत्रापि बहु वक्तव्यं ततु स्थानान्तरादवसेयमिति ॥ उक्तस्वरूपस्यात्मन आधारस्वरूपनिरूपणायाह-'एगे लोए' एकोऽविवक्षितासङ्ख्यप्रदेशाधस्तिर्यगादिदिग्भेदतया लोक्यते-दृश्यते केवलालोकेनेति लोकः-धर्मास्तिकायादिद्रव्याधारभूत आकाशविशेषः, तदुक्तम्-"धर्मादीनां वृत्ति
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दंड, क्रिया, लोक, अलोक शब्दस्य व्याख्या
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आगम
(०३)
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सूत्रांक
[३-६]
दीप
अनुक्रम [3-ε]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [−], मूलं [६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थाना
ङ्गसूत्र
यालोकालोकाः
॥ १४ ॥
३-४-५-६
व्याणां भवति यत्र तत् क्षेत्रम् । तैर्द्रव्यैः सह लोकस्तद्विपरीतं ह्यलोकाख्यम् ॥ १ ॥” इति, अथवा लोको नामादिर|ष्टधा, आह च - "नामं ठवणादविए खित्ते काले भवे य भावे य । पज्जवलोए य तहा अडविहो लोयनिक्खवो ॥१॥” त्ति, वृत्तिः ॐ नामस्थापने सुज्ञाने, द्रव्यलोको जीवाजीवद्रव्यरूपः, क्षेत्रलोक आकाशमात्रमनन्तप्रदेशात्मकं, काललोकः समयावलि- १ दण्डक्रि५ कादिः, भवलोको नारकादयः स्वस्मिन् २ भवे वर्त्तमाना यथा मनुष्यलोको देवलोक इति, भावलोकः पडौदयिकादयो भावाः, पर्यवलोकस्तु द्रव्याणां पर्यायमात्ररूप इति एतेषां चैकत्वं केवलज्ञानालोकनीयत्वसामान्यादिति ॥ लोकव्यवस्था | ह्यलोके तद्विपक्षभूते सति भवतीति तमाह-'एगे अलोए' एकोऽनन्तप्रदेशात्मकत्वेऽप्यविवक्षितभेदत्वादलोको लोकब्युदासात् नत्वनालोकनीयतया, केवलालोकेन तस्याप्यालोक्यमानत्वादिति, ननु लोकैकदेशस्य प्रत्यक्षत्वात् तदेशान्तरमपि बाधकप्रमाणाभावात् सम्भावयामो योऽयं पुनरलोकोऽस्य देशतोऽप्यप्रत्यक्षत्वात् कथमसावस्तीत्यध्यवसातुं शक्यो ? 4 येनैकत्वेन प्ररूप्यत इति, उच्यते, अनुमानादिति, तच्चेदं विद्यमानविपक्षो लोको, व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदाभिधेयत्वाद्, इह यव्युत्पत्तिमता शुद्धशब्देनाभिधीयते तस्य विपक्षोऽस्तीति द्रष्टव्यं यथा घटस्याघटः, व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदवाच्यश्च लोकस्तस्मात् सविपक्ष इति, यश्च लोकस्य विपक्षः सोऽलोकस्तस्मादस्त्यलोक इति, अथ न लोकोऽलोक इति घटादीनामेवान्यतमो भविष्यति किमिह वस्त्वन्तरकल्पनयेति ?, नैवं, यतो निषेधसद्भावान्निषेध्यस्यैवानुरूपेण भवितव्यं निषेध्यश्च लोकः स चाकाशविशेषो जीवादिद्रव्यभाजनमतः खल्वलोकेनाप्याकाशविशेषेणैव भवितव्यम्, यथेहापण्डित इत्युक्ते
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लोक, अलोक शब्दस्य व्याख्या
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१ स्थाना
ध्ययने
॥ १४ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३-६]
दीप अनुक्रम [३-६]
दि विशिष्टज्ञानविकलश्चेतन एव गम्यते न घटादिरचेतनसद्वदलोकेनापि लोकानुरूपेणेति, आह च-"लोगस्सऽस्थि विवाद
क्खो सुद्धत्तणो घडस्स अघडोव्य । [प्रेरकः] स घडादी व मती [गुरुः] न निसेहाओ तदणुरूवो ॥१॥"त्ति 10 लोकालोकयोश्च विभागकरणं धर्मास्तिकायोऽतस्तरस्वरूपमाह
एगे धम्मे (सू० ७) एगे अधम्मे (सू०८) एगे बंधे (सू०९) एगे मोक्खे (सू०१०) एगे पुण्णे (सू०११) एगे पावे (सू० १२) एगे आसवे (सू० १३) एगे संवरे (सू०१४) एगा वेयणा (सू०१५) एगा निजरा
(सू०१६)॥१॥ एका प्रदेशार्थतयाऽसङ्ख्यातप्रदेशात्मकत्वेऽपि द्रव्यार्थतया तस्यैकत्वात् , जीवपुद्गलानां स्वाभाविके क्रियावत्त्वे सति गतिपरिणतानां तत्स्वभावधारणाद् धम्में, स चास्तीना-प्रदेशानां सङ्घातात्मकत्वात् कायोऽस्तिकाय इति ॥ धर्मस्यापि|2 | विपक्षस्वरूपमाह-एगे अधम्म' एको द्रव्यत एव न धम्मोऽधर्मः अधर्मास्तिकाय इत्यर्थः, धर्मो हि जीवपुद्गलानां | गत्युपष्टम्भकारी, अयं तु तद्विपरीतत्वात् स्थित्युपष्टम्भकारीति, ननु धर्मास्तिकायाधर्मास्तिकाययोः कथमस्तित्वाव
गमः, प्रमाणादिति ब्रूमः, तच्चेदम्-इह गतिः स्थितिश्च सकललोकप्रसिद्धं कार्य, कार्यं च परिणाम्यपेक्षाकारणायत्तात्महालाभं वर्तते, घटादिकार्येषु तथादर्शनात्, तथा च मृत्पिण्डभावेऽपि दिग्देशकालाकाशप्रकाशाद्यपेक्षाकारणमन्तरेण न दोघटो भवति यदि स्यात् मृपिण्डमात्रादेव स्यात् न च भवति, गतिस्थिती अपि जीवपुद्रलाख्यपरिणामिकारणभावेऽपि
१लोकस्याखि विपक्षः शब(पद) लात घटस्माषट इव । स पादिरेव मतिः न निषेधात् तदनुरूपा ॥१॥
RRBERIEaturmitthal
"धर्म, अधर्म, बन्ध, मोक्ष, पुन्य, पाप, आश्रव, संवर, वेदना, निर्जरा" शब्दानाम व्याख्या
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक -1, मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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श्रीस्थाना- असूत्रवृत्तिः
सूत्रांक
[७-१६]
॥१५॥
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नापेक्षाकारणमन्तरेण भवितुमर्हतः दृश्यते च तद्भावोऽतस्तत्सत्ता गम्यते यच्चापेक्षाकारणं स धर्मोऽधर्मश्चेति भा- १ स्थानावार्थः, गतिपरिणामपरिणतानां जीवपुद्गलानां गत्युपष्टम्भको धर्मास्तिकायो, मत्स्यानामिव जलं, तथा स्थितिपरिणाम-21 | ध्ययने परिणतानां स्थित्युपष्टम्भकोऽधर्मास्तिकायो, मत्स्यादीनामिव मेदिनी, विवक्षया जलं वा, प्रयोगश्च-गतिस्थिती अपे- धर्मास्तिक्षाकारणवत्यौ, कार्यत्वात् , घटवत्, विपक्षखैलोक्यशुषिरमभावो वेति, किञ्च-अलोकाभ्युपगमे सति धमाधम्माभ्यां | कायाद्या लोकपरिमाणकारिभ्यामवश्यं भवितव्यम्, अन्यथाऽऽकाशसाम्ये सति लोकोऽलोको वेति विशेषो न स्यात्, तथा 5I निर्जराचाविशिष्ट एवाकाशे गतिमतामात्मनां पुन्नलानाञ्च प्रतिघाताभावादनवस्थानम्, अतः सम्बन्धाभावात् सुखदुःखब-| न्धादिसंव्यवहारो न स्यादिति, उक्तश्च-"तम्हा धम्माधम्मा लोगपरिच्छेयकारिणो जुत्ता । इहराऽऽगासे तुल्ले लोगो- ७-१६ ऽलोगोत्ति को भेओ। ॥ १ ॥ लोगविभागाभावे पडिघाताभावोऽणवत्थाओ । संववहाराभावो संबंधाभावओ होजा ॥२॥" इति । आत्मा च लोकवृत्तिधर्माधर्मास्तिकायोपगृहीतः सदण्डः सक्रियश्च कर्मणा बध्यत इति बन्धनिरूपणायाह-'एगे बंधे बन्धनं बन्धः, सकषायत्वात् जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलान् आवृत्ते यत् स बन्ध इति भावः, स च प्रकृतिस्थितिप्रदेशानुभावविभेदात् चतुर्विधोऽपि बन्धसामान्यादेका, मुक्तस्य सतः पुनर्वन्धाभावाद्वा एको बन्ध इति, अथवा द्रव्यतो बन्धो निगडादिभिर्भावतः कर्मणा तयोश्च बन्धनसामान्यादेको बन्ध इति, ननु बन्धो जीवकर्मणोः
तस्मात् धर्माधर्मों लोकपरिच्छेदकारिणी गुती । इतरथाऽऽकाशे तुल्ये लोकोऽलोक इति को भेदः ॥१॥लोकविभागाभाचे प्रतिपाताभावतोऽनवस्थानात् । सेव्यवहाराभावः संवन्धाभावतो भवेत् ॥ २॥ २ सदण्डाद्यपेक्षया.
FREERS
दीप अनुक्रम [७-१६]
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"धर्म, अधर्म, बन्ध, मोक्ष, पुन्य, पाप, आश्रव, संवर, वेदना, निर्जरा" शब्दानाम व्याख्या
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आगम
(०३)
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सूत्रांक
[७-१६]
दीप
अनुक्रम [७-१६]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-],
मूलं [१६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र - [ ०३ ], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
Educato
संयोगोऽभिप्रेतः, स खल्वादिमानादिरहितो वा स्यादिति कल्पनाद्वयं तत्र यद्यादिमानिति पक्षस्तदा किं पूर्वमात्मा पश्चात् कर्म्म अथ पूर्व कर्म्म पश्चादात्मा उत युगपत्कर्मात्मानौ संप्रसूयेतामिति त्रयो विकल्पाः, तत्र न तावत् पूर्वमात्मसंभूतिः सम्भाव्यते, निर्हेतुकत्वात्, खरविषाणवत्, अकारणप्रसूतस्य च अकारणत एवोपरमः स्याद्, अथानादिरेव आत्मा तथाप्यकारणत्वान्नास्य कर्मणा योग उपपद्यते नेभोवत्, अथाकारणोऽपि कर्मणा योगः स्यात् तर्हि स मुक्तस्यापि स्यादिति, अथासावात्मा नित्यमुक्त एव तर्हि किं मोक्षजिज्ञासया ?, बन्धाभावे च मुक्तव्यपदेशाभाव एव, आकाशवदिति, नापि कर्मणः प्राक् प्रसूतिरिति द्वितीयो विकल्पः सङ्गच्छते, कर्त्तुरभावात्, न चाक्रियमाणस्य कर्मव्यपदेशोऽभिमतः, अकारणप्रसूतेश्चाकारणत एवोपरमः स्यादिति, युगपदुत्पत्तिलक्षणस्तृतीयपक्षोऽपि न क्षमः, अकारणत्वादेव, न च युगपदुत्पत्तौ सत्यामयं कर्त्ता कम्मेदमिति व्यपदेशो युक्तरूपः सव्येतरगोविषाणवदिति, अधादिरहितो जीवकर्मयोग इति पक्षः, ततश्चानादित्वादेव नात्मकर्मवियोगः स्यात्, आत्माऽऽकाशसंयोगवदिति, अत्रोच्यते, आदिमत्संयोगपक्षदोषा अनभ्युपगमादेव निरस्ताः यच्चादिरहितजीवकर्मयोगेऽभिधीयते 'अनादित्वान्नात्मकर्म्मवियोग' इति, तदयुक्तम्, अनादित्वेऽपि संयोगस्य वियोगोपलब्धेः काञ्चनोपलयोरिवेति यदाह - "जैह वह कंचणोवलसंजोगोऽणाइतइगओऽवि । वोच्छिज्जइ सोवायं तह जोगो जीवकम्माणं ॥ १ ॥”ति, तथा अनादेरपि सन्तानस्य विनाशो
१ नभोऽङ्गिरोमनुषां वेति संज्ञाविषयं छन्दोविषयं वा भाग्यप्रदीपेऽत एवोकं उपसंख्यानान्येतानि छन्दोविषयाणीत्याहुरिति २ यथा वे कावनोपयो गोऽनादिसंततिगतोऽपि व्युच्छियते सोपावं तथा योगो जीवकर्मणोः ॥ १ ॥
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"बन्ध, मोक्ष, पुन्य, पाप, आश्रव, संवर, वेदना, निर्जरा" शब्दानाम व्याख्या
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-1, मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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सूत्रांक
[७-१६]
दीप अनुक्रम [७-१६]
श्रीस्थाना- दृष्टो बीजाचुरसन्तानवत् , आह च-"अनंतरमणिब्वत्तियकर्ज वीर्यकुराण जं विहयं । तत्थ हओ संताणो कुकृडिय- १ स्थाना
सूत्र- डाइयाणं च ॥१॥" त्ति । अनादिबन्धसद्भावेऽपि भव्यात्मनः कस्यचिन्मोक्षो भवतीति मोक्षस्वरूपमाह-एगे मोक्खेंगदाध्ययने वृत्तिः मोचनं कर्मपाशवियोजनमात्मनो मोक्षः, आह च-कृत्साकर्मक्षयान्मोक्षः स चैको ज्ञानावरणादिकर्मापेक्षयाऽष्टविधोऽपिबन्धमोक्षौ
मोचनसामान्यात् मुक्तस्य वा पुनर्मोक्षाभावात् ईषत्प्रारभाराख्यक्षेत्रलक्षणो वा द्रन्यार्थतयैका, अथवा द्रव्यतो मोक्षो निगडादितो भावतः कर्मतस्तयोश्च मोचनसामान्यादेको मोक्ष इति, नन्वपर्यवसानो जीवकर्मसंयोगोऽनादित्वाजीवाकाशसंयोगवदिति कथं मोक्षसम्भवः, कर्मवियोगरूपत्वादस्य, अत्रोच्यते, अनादित्वादित्यनैकान्तिको हेतुः, धातुकावनसंयोगो ह्यनादिः, स च सपर्यवसानो दृष्टः, क्रियाविशेषाद् , एवमयमपि जीवकर्मयोगः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैः | |सपर्यवसानो भविष्यति, जीवकर्मवियोगश्च मोक्ष उच्यते इति, ननु नारकादिपर्यायस्वभावः संसारो नान्यः, तेभ्यश्च नारकरवादिपर्यायेभ्यो भिन्नो नाम न कश्चिज्जीवो, नारकादय एव पर्याया जीवः, तदनन्तरत्वादिति संसाराभावे जीवाभाव एव नारकादिपर्यायस्वरूपवदित्यसत्पदार्थो मोक्ष इति, आह -"जं नारगोदिभावो संसारो नारगाइभिन्नो य । को जीवो तं मनसि ? तन्नासे जीवनासोत्ति ॥१॥" अब प्रतिविधीयते यदुक्तम् 'नारकादिपर्यायसंसाराभावे सर्वथा जीवाभाव एवानर्थान्तरत्वानारकादिपर्यायस्वरूपवदिति, अयमनैकान्तिको हेतुः, हेस्रो मुद्रिकायाधानान्तअभ्यतरत अनिर्मितकार्य बीजाकरयोर्यविहतम् । तत्र हतः संतानः कुपवण्यादिकानां ॥
१ १ पत्रारकाविभावः संसारो नारकाविभावभिनव ॥ १५ ४को बीचः ! (इति) वं मन्यसे, (यतः) तमाशे जीवनास इति (स्वास्)
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"मोक्ष, पुन्य, पाप, आश्रव, संवर, वेदना, निर्जरा" शब्दानाम व्याख्या
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आगम
(०३)
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सूत्रांक [७-१६]
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अनुक्रम [७-१६]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-],
मूलं [१६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र - [ ०३ ], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
Education
रत्वं सिद्धं न च मुद्रिकाकारविनाशे हेमविनाश इति, तद्वन्नारकादिपर्यायमात्रनाशे सर्वथा जीवनाशो न भविष्यतीति, आह चने हि नारगादिपज्जायमेत्तनासंमि सव्वहां नासो जीवद्दव्वस्स मओ मुद्दानासेव्य हेमस्स ॥ १ ॥” ति, अपि च- "कम्मकओ संसारो तन्नासे तस्स जुज्जए नासो जीवत्तमकम्मकर्यं तन्नासे तस्स को नासो ? ॥ २ ॥” ति मोक्षश्च पुण्यपापक्षयाद्भवतीति पुण्यपापयोः स्वरूपं वाच्यं तत्रापि मोक्षस्य पुण्यस्य च शुभस्वरूपसाधम्र्म्यात् पुण्यं तात्रदाह- 'एगे पुण्णे' 'पुण शुभे' इति वचनात् पुणति-शुभीकरोति पुनाति वा पवित्रीकरोत्यात्मानमिति पुण्यं - शुभकर्म, सद्वेयादि द्विचत्वारिंशद्विधम्, यथोक्तम्- “सायं १ उच्चागोयं २ नरतिरिदेवाङ ५ नाम एयाउ । मणुयदुर्ग ७ देवदुगं ९ पंचेंद्रियजाति १० तणुपणगं १५ ॥ १ ॥ अंगोवंगतियंपिय १८ संघयणं वारिसहनाराय १९ । पढमंचिय संठाणं २० वनाइचरक सुपसत्थं २४ ॥ २ ॥ अगुरुलहु २५ पराघा २६ उस्सानं २७ आयवं च २८ उजोयं २९ । सुपसत्था विहयगई १० तसाइदसगं च ४० णिम्माणं ४१ ॥ ३ ॥ तित्थयरेणं सहिया बायाला पुण्णपगईओ " ति ॥ एवं द्विचत्वारिंशद्विधमपि अथवा पुण्यानुबन्धिपापानुबन्धिभेदेन द्विविधमपि अथवा प्रतिप्राणि विचित्रत्वादनन्तभेदमपि पुण्य| सामान्यादेकमिति । अथ कर्मैव न विद्यते प्रमाणगोचरातिक्रान्तत्वात् शशविषाणवदिति कुतः पुण्यकर्मसत्तेति ?, असत्यमेतत् यतोऽनुमानसिद्धं कर्म्म, तथाहि सुखदुःखानुभूतेर्हेतुरस्ति कार्यत्वादङ्कुरस्येव वीजं, यश्च हेतुरस्यास्तत्कर्म्म
१ नैव नरकादिपर्यायमानाशे सर्वथा नाशः । जीवद्रव्यस्य मतो मुद्रानाशे इव क्षेत्रः ॥ १२ कर्मकृतः संखारखाने वस्य युज्यते नाथः जीवश्वमकर्मकृतं तमासे तस्य को नाशः ॥ २ ॥ इति
“मोक्ष, पुन्य, पाप, आश्रव, संवर, वेदना, निर्जरा" शब्दानाम व्याख्या
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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श्रीस्थाना- ङ्गसूत्रवृत्तिः ॥१७॥
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0-50-
दीप अनुक्रम [७-१६]
तस्मादस्ति कर्मेति, स्यान्मतिः-सुखदुःखानुभूतेईष्ट एव हेतुरिष्टानिष्टविषयप्राप्तिमयो भविष्यति, किमिह कर्मपरिक- स्थानाल्पनया!, न हि दृष्टं निमित्तमपास्य निमित्तान्तरान्वेषणं युक्तरूपमिति, नैवं, व्यभिचारात्, इह यो हि द्वयोरिष्टश-I&ध्ययने ब्दादिविषयसुखसाधनसमेतयोरेकस्य तत्फले विशेषो-दुःखानुभूतिमयो यश्चानिष्टसाधनसमेतयोरेकस्य तत्फले विशेषःपुण्यसत्ता सुखानुभूतिमयो नासौ हेतुमन्तरेण सम्भाव्यते, न च तद्धेतुक एवासौ युक्तः, साधनानां विपर्यासादिति पारिशेष्याद्विसूखानुभूतिमा शिष्टहेतुमानसी, कार्यत्वात् , घटवत् , यश्च समानसाधनसमेतयोस्तत्फलविशेषहेतुस्तत् कर्म, तस्मादस्ति कर्मेति, आह | च-"जो तुलसाहणाणं फले विसेसो न सो विणा हे । कज्जत्तणओ गोयम! घडो व हेऊ य से कम्मं ॥१॥" ति, [किञ्च-अन्यदेहपूर्वकमिदं बालशरीरं, इन्द्रियादिमत्त्वात् , यदिहेन्द्रियादिमत्तदन्यदेहपूर्वकं दृष्टं, यथा बालदेहपूर्वक युवशरीरम् , इन्द्रियादिमञ्चेदं बालशरीरकं तस्मादन्यशरीरपूर्वक, यच्छरीरपूर्वकं चेदं वालकशरीरं तत्कर्म, तस्मादस्ति | कम्मॆति, आह च-"बालसरीरं देहतरपुवं इंदियाइमत्ताओ। जह बालदेहपुग्यो जुबदेहो पुन्वमिह कम्मं ॥१॥" ति, ननु कर्मसनावेऽपि पापमेबैकं विद्यते पदार्थो न पुण्यं नामास्ति, यत्तु पुण्यफलं सुखमुच्यते तत्यापस्यैव तरतमयोगा|दपकृष्टस्य फलं, यतः पापस्य परमोत्कर्षेऽत्यन्ताधमफलता, तस्यैव च तरतमयोगापकर्षभिन्नस्य मात्रापरिवृद्धिहान्या | यावत् प्रकृष्टोऽपकर्षस्तत्र या काचिसापमात्रा अवतिष्ठते तस्यामत्यन्तं शुभफलता पापापकर्षात् , तस्यैव च पापस्य सर्वोयस्तुल्यसाधनयोः फले विशेषः स न बिना हेतुम् । कार्यत्वात् गौतम ! घट इव हेतुब तस्य कर्म ॥१॥ २ बालशरीर देहान्तरपूर्व इन्द्रियादिमत्त्वात् ।।
॥ १७ यथा बालदेहपूर्यो युवदेहः पूर्वमिह कर्म ॥१॥
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"पुन्य, पाप, आश्रव, संवर, वेदना, निर्जरा" शब्दानाम व्याख्या
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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सूत्रांक
[७-१६]
दीप अनुक्रम [७-१६]
मना क्षयो मोक्षः, यथाऽत्यन्तापथ्याहारसेवनादनारोग्यम्, तस्यैवापथ्यस्य किश्चित्किञ्चिदपकर्षात् यावत् स्तोकापथ्याहारत्वमारोग्यकरं, सर्वाहारपरित्यागाच प्राणमोक्ष इति, आह च-"पावुकरिसेऽधमया तरतमजोगाऽवकरिसओ सुभया । तस्सेव खए मोक्खो अपत्थभत्तोक्माणाओ ॥१॥" त्ति, अत्रोच्यते, यदुक्तम्-'अत्यन्तापचितात् पापात् सुखप्रकर्ष' इति, तदयुक्तम् , यतो येयं सुखप्रकर्षानुभूतिः सा स्वानुरूपकर्मप्रकर्षजनिता,प्रकर्षानुभूतित्वात् , दुःखप्रकर्षानुभूतिवत्, यथा हिर दुःखप्रकर्षानुभूतिः स्वानुरूपपापकर्मप्रकर्षजनितेति त्वयाऽभ्युपगम्यते तथेयमपि सुखप्रकर्षानुभूतिः (प्रकर्षानुभूतिरिति)स्वानुरूपपुण्यकर्मप्रकर्षजनिता भविष्यतीति प्रमाणफलमिति । पुण्यप्रतिपक्षभूतं पापमिति तत्स्वरूपमाह-एगे पावें'पाशयतिगुण्डयत्यात्मानं पातयति चात्मन आनन्दरसं शोषयति क्षपयतीति पापम् , तच्च ज्ञानावरणादि ब्यशीतिभेदम् , यदाऽऽह"नाणंतरायदसगं १०दसण णव १९ मोहणीयछच्चीसं ४५ । अस्सायं ४६ निरयाऊ४७ नीयागोएण अडयाला ४८॥१॥ निरयदुर्ग २ तिरियदुर्ग ४ जाइचाउकं च ८ पंच संघयणा १३ । संठाणाविय पंच उ १८ बनाइ चउकमपसत्थं २२ ॥२॥ उबघाय २३ कुविहयगई २४ थावरदसगेण होति चोत्तीसं २४ । सव्वाओ मिलिआओ बासीती पावपगईओ ८२॥३॥" तदेवं यशीतिभेदमपि पुण्यानुबन्धिपापानुबन्धिभेदाद् द्विविधमपि वा अनन्तसत्त्वाश्रितत्वादनन्तमपि वाऽशुभसामान्यादेकमिति । मनु कर्मसत्त्वेऽपि पुण्यमेवैकं कर्म न तत्प्रतिपक्षभूतं पापं कर्मास्ति, शुभाशुभफलानां पुण्यादेव सिद्धेरिति, तथाहि-यत्परमप्रकृष्टं शुभफलमेतत् पुण्योत्कर्षस्य कार्य, यत्पुनस्तस्मादवकृष्टमवकृष्टतरमवकृष्टतमं च तत्पु
पापोत्कऽधमसा तरतमयोगाद् अपकर्षतः शुभता । तस्यैव क्षये मोक्षः अपभ्यभकोपमानात् ॥५॥
"पुन्य, पाप, आश्रव, संवर, वेदना, निर्जरा" शब्दानाम व्याख्या
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[७-१६]
दीप अनुक्रम [७-१६]
श्रीस्थाना-तण्यस्यैव तरतमयोगापकर्षभिन्नस्य यावत्परमप्रकर्षहानिः, परमप्रकर्षहीनस्य च पुण्यस्य परमावकृष्टतमं शुभफलं-या १ स्थाना
काचित् शुभमात्रेत्यर्थः-दुःखप्रकर्ष इति तात्पर्य, तस्यैव च परमावकृष्टपुण्यस्य सर्वात्मना क्षये पुण्यात्मकबन्धाभावा- ध्ययने वृत्तिः न्मोक्ष इति, यथा अत्यन्तपथ्याहारसेवनात् पुंसः परमारोग्यसुखं, तस्यैव च किश्चितश्पथ्याहारविवर्जनादपथ्याहारपरि-13/पापसत्ता ॥१८॥
दवृद्धेरारोग्यसुखहानिः, सर्वथैवाहारपरिवर्जनात् प्राणमोक्ष इति, पथ्याहारोपमानं चेह पुण्यमिति, अत्रोच्यते, येयं दुःखप्रकर्षानुभूतिः सा स्वानुरूपकर्मप्रकर्षप्रभवा, प्रकर्षानुभूतित्वात् , सौख्यप्रकर्षानुभूतिवत् , यथा हि सौख्यप्रकर्षानुभूतिः स्वानुरूपपुण्यकर्मप्रकर्षजनितेति त्वयाऽभ्युपगम्यते तथेयमपि दुःखप्रकर्षानुभूतिः (प्रकर्षानुभूतित्वात्) स्वानुरूपपापकर्ममकर्षज-13 निता भविष्यतीति प्रमाणफलमिति, आह च-"कम्मष्पगरिसजणियं तदवस पगरिसाणुभूइओ । सोक्खप्पगरिसभूई जह पुण्णप्पगरिसप्पभवा ॥१॥” इति, 'तदिति दुःखमिति । इदानीमनन्तरोक्कयोः पुण्यपापकर्मणोर्बन्धकारणनिरूपणायाह-'एगे आसवे' आश्रवन्ति-प्रविशन्ति येन काण्यात्मनीत्याश्रवः, कर्मबन्धहेतुरिति भावः, स चेन्द्रियकषायात्रतक्रियायोगरूपः कमेण पश्चचतुःपञ्चपञ्चविंशतिनिभेदः, उक्तञ्च-"इंदिय ५ कसाय ४ अब्बय ५ किरिया २५ पणचउरपंचपणुवीसा ।। जोगा तिनेव भवे आसवभेया उ बायाला ॥१॥" इति, तदेवमयं द्विचत्वारिंशद्विधोऽथवा द्विविधो द्रव्यभावभेदात्, तत्र द्रव्याश्रवो यजलान्तर्गतनावादी तथाविधच्छिद्रैजलप्रवेशनं भावानवस्तु यजीवनावीन्द्रियादिच्छिद्रुतः कर्मजल| सञ्चय इति, स चाश्रवसामान्यादेक एवेति ॥अथाश्रवप्रतिपक्षभूतसंवरस्वरूपमाह-'एगे संवरे' संब्रियते-कर्मकारणं प्राणा- ॥१८॥
१ कर्मप्रकर्षजनित पद (दुःख) अवश्यं प्रकर्षानुभूतेः । सौख्यप्रकर्षानुभूतियथा पुण्यप्रकर्षप्रभवा ॥ १॥ २ तथाविधपरिणामेन जि.
MERucatunintimall
"पुन्य, पाप, आश्रव, संवर, वेदना, निर्जरा" शब्दानाम व्याख्या
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[७-१६]
4SARCH
दीप अनुक्रम [७-१६]
तिपातादि निरुध्यते येन परिणामेन स संवरः, आश्रवनिरोध इत्यर्थः, स च समितिगुप्तिधर्मानुप्रेक्षापरीषह(जय)चारित्ररूपः18 क्रमेण पञ्चत्रिदशद्वादशद्वाविंशतिपश्चभेदः, आह च-“समिई ५ गुत्ती ३ धम्मो १० अणुपेह १२ परीसहा २२ चरित्तं च ५। सत्तावन्नं भेया पणतिगभेयाई संवरणे ॥१॥" त्ति, अथवाऽयं द्विविधो द्रव्यतो भावतच, तत्र द्रव्यतो जलमध्य-12 गतनावादेरनवरतप्रविशजलानां छिद्राणां तथाविधद्रव्येण स्थगनं संवरः, भावतस्तु जीवद्रोण्यामाश्रयत्कर्मजलानामि-18 न्द्रियादिच्छिद्राणां समित्यादिना निरोधनं संवर इति, स च द्विविधोऽपि संवरसामान्यादेक इति ।। संवरविशेषे चायोग्यवस्थारूपे कर्मणां वेदनैव भवति न बन्ध इति वेदनास्वरूपमाह-एगा बेयणा' वेदनं वेदना-स्वभावेनोदीरणाकरणेन वोदयावलिकाप्रविष्टस्य कर्मणोऽनुभवनमिति भावः, सा च ज्ञानावरणीयादिकम्र्मापेक्षया अष्टविधाऽपि विपाकोदयप्रदेशोदयापेक्षया द्विविधाऽपि आभ्युपगमिकी-शिरोलोचादिका औपक्रमिकी-रोगादिजनितेत्येवं द्विविधाऽपि वेदनासामान्यादेकैवेति ॥ अनुभूतरसं कर्म प्रदेशेभ्यः परिशटतीति वेदनानन्तरं कर्मपरिशटनरूपां निर्जरां निरूपयनाह-एगा निजरा' निर्जरणं निर्जरा विशरणं परिशटनमित्यर्थः, सा चाष्टविधकम्मापेक्षयाऽष्टविधाऽपि द्वादश-8 विधतपोजन्यत्वेन द्वादशविधाऽपि अकामक्षुत्सिपासाशीतातपदंशमशकमलसहनब्रह्मचर्यधारणाद्यनेकविध कारणजनितत्वेनानेकविधाऽपि द्रव्यतो वस्त्रादेर्भावतः कर्मणामेवं द्विविधाऽपि वा निर्जरासामान्यादेकैवेति । ननु निर्जरामोक्षयोः ।
का प्रतिविशेषः, उच्यते, देशतः कर्मक्षयो निर्जरा सर्वतस्तु मोक्ष इति ॥ इह च जीवो विशिष्टनिर्जराभाजन ही प्रत्येकशरीरावस्थायामेव भवति न साधारणशरीरावस्थायामतः प्रत्येकशरीरावस्थस्य जीवस्य स्वरूपनिरूपणायाह-एगे
CANCY
स्था०४
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"पुन्य, पाप, आश्रव, संवर, वेदना, निर्जरा" शब्दानाम व्याख्या
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[७-१६]
दीप
अनुक्रम [6-14]
[भाग-5] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः)
स्थान [१], उद्देशक [-1, मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३ ]
श्रीस्थाना
ङ्गसूत्रवृत्ति:
॥ १९ ॥
Education
-
जीवे' इत्यादि, अथवा उक्ताः सामान्यतः प्रस्तुतशास्त्रव्युत्पादनीया जीवादयो नव पदार्थाः, साम्प्रतं जीवपदार्थ विशे
पेण प्ररूपयन्नाह -
एगे जीने पाटिकरणं सरीरएणं ( सू० १७) एगा जीवाणं अपरिभाइत्ता विगुब्वणा (सू० १८) एगे मणे (सू०१९) एगा वई (सू०२०) एगे कायवायामे ( सू० २१ ) एगा उप्पा ( सु० २२) एगा वियती ( सू० २३) एगा वि. यचा ( सू० २४ ) एगा गती ( सू० २५) एगा आगती ( सू० २६) एंगे चयणे ( सू २७) एगे उनवाए (सू० २८) एगा तथा (सू० २९) एगा सन्ना ( सू० ३०) एगा मन्ना (सू० ३१) एगा विनू (सू० ३२ ) एगा वेयणा (सू० ३३) एगा छेयणा (सू० ३४) एगा भेषणा (सू० ३५) एगे मरणे अंतिमसारीरियाणं ( सू० ३६) एंगे संअहाए पत्ते (सू० ३७) एगदुक्खे जीवाणं एगभूए (सू० ३८) एगा अहम्मपडिमा जं से आया परिकिले सति ( सू० ३९) एगा धम्मपडिमा जं से आया पजबजाए (सू० ४०) एगे मणे देवासुरमनुयाणं वंसि तंसि समयंसि ( सू० ४१ ) एगे उडाणकम्मबळवीरियपुरिसकारपरकमे देवासुरमणुयाणं तंसि २ समयसि ( सू० ४२ ) एगे नाणे एगे दंसणे एगे चरिते (सू० ४३ )
'एगे जीवे पाडिक्कएणं सरीरएणं' एकः केवलो जीवितवान् जीवति जीविष्यति चेति जीवः प्राणधारणधर्मा आत्मेत्यर्थः, एक जीवं प्रति गतं यच्छरीरं प्रत्येकशरीरनामकर्मोदयात् तत्प्रत्येकं तदेव प्रत्येककं, दीर्घत्वादि प्राकृतत्वात्, तेन प्रत्येककेन शीर्यत इति शरीरं देहः तदेवानुकम्पितादिधर्मोपेतं शरीरकं तेन लक्षितः तदाश्रित एको जीव इत्यर्थः,
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"स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
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१ स्थाना ध्ययने जीवपदा
थें विशेषाः
॥ १९ ॥
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आगम
(०३)
प्रत सूत्रांक
[१७-४३]
दीप
अनुक्रम [१७-४३]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [४३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
Educato
अथवा कारौ वाक्यालङ्कारार्थों, तत एको जीवः प्रत्येकके शरीरे वर्त्तत इति वाक्यार्थः स्यादिति, इह च 'पडिक्खएर्ण'ति क्वचित्पाठो दृश्यते, स च न व्याख्यातः, अनवबोधाद् इह च वाचनानामनियतत्वात् सर्वासां व्याख्यातुमशक्यत्वात् काञ्चिदेव वाचनां व्याख्यास्याम इति ॥ इह बन्धमोक्षादय आत्मधर्म्मा अनन्तरमुक्तास्ततस्तदधिकारादेवातः परमात्मधर्म्मान 'एगा जीवाणं इत्यादिना एगे चरिते' इत्येतदन्तेन ग्रन्थेनाह— 'एगा जीवाणं अपरियाइत्ता दिगुव्वणा' 'एगा जीवाणं' ति प्रतीतं 'अपरियाइत'त्ति अपर्यादाय परितः समन्तादगृहीत्वा वैक्रियसमुद्घातेन बाह्यान् पुद्गलान् या विकुर्वणा भवधारणीयवैक्रियशरीररचनालक्षणा स्वस्मिन् २ उत्पत्तिस्थाने जीवैः क्रियते सा एकैव, प्रत्येकमेकत्वावधारणीयस्येति, सकलवैक्रियशरीरा[र्था]पेक्षया वा भवधारणीयस्यैकलक्षणत्वात् कथञ्चिदिति, या पुनर्बाह्यपुङ्गलपर्यादानपूर्विका सोत्तरवैकियरचनालक्षणा, सा च विचित्राभिप्रायपूर्वकत्वाद् वैक्रियलब्धिमतस्तथाविधशक्तिमत्त्वाच्चैकजीवस्याप्यनेकापि स्यादिति पर्यवसितम्, अथ बाह्यपुद्गलोपादान एवोत्तरवक्रियं भवतीति कुतोऽवसीयते ?, येनेह सूत्रे 'अपरियाइत्ता' इत्यनेन तद्विकुर्वणा व्यवच्छिद्यते इति चेत्, उच्यते, भगवतीवचनात्, तथाहि - "देवे णं भंते! महिडिए जाव महाणुभागे बाहिरए पोग्गलए अपरियाइत्ता पभू एगवन्नं एगरूवं विउब्वित्तए ?, गोयमा ! नो इण्डे समडे, देवे णं भंते! बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू ?, हंता पभ्रं"त्ति, इह हि उत्तरबैकियं बाह्यपुद्गलादानाद् भवतीति विवक्षितमिति ॥ 'एगे मणेति मननं मनः - औदारिकादिशरीर व्यापाराहृतमनोद्रव्यसमूहसाचिव्याज्जीवच्यापारो, मनोयोग इति भावः मन्यते वाऽनेनेति मनो-मनोद्रव्यमात्रमेवेति तच्च सत्यादिभेदादनेकमपि संज्ञिनां वा अ
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१७-४३]
दीप अनुक्रम [१७-४३]
श्रीस्थाना-8 सङ्ख्यातत्वादसड्यातभेदमप्येक मननलक्षणत्वेन सर्वमनसामेकत्वादिति ॥ 'एगा वहति वचनं वाक्-औदारिकवै-16१ स्थानाजासूत्र
क्रियाहारकशरीरव्यापाराहृतवागद्रव्यसमूहसाचिव्याज्जीवव्यापारो, वाग्योग इति भावः, इयं च सत्यादिभेदादनेकाs-12 ध्ययने वृत्तिः प्येकैव, सर्ववाचां वचनसामान्येऽन्तर्भावादिति ॥ 'एगे कायवायामेति चीयत इति काय:-शरीरं तस्य व्यायामो- एकयोगता
व्यापारः कायव्यायामः औदारिकादिशरीरयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणतिविशेष इति भावः, स पुनरीदारिकादिभेदेन स- ॥ २०॥
प्सप्रकारोऽपि जीवानन्तत्वेनानन्तभेदोऽपि वा एक एव, कायव्यायामसामान्यादिति, यच्चैकस्यैकदा मनप्रभृतीनामे-12 कत्वं तत् सूत्र एवं विशेषेण वक्ष्यति, 'एगे मणे देवासुरे'त्यादिनेति सामान्याश्रयमेवेहकत्वं व्याख्यातमिति ॥ 'उप्पत्ति प्राकृतत्वादुत्पादः, स चैक एकसमये एकपर्यायापेक्षया, न हि तस्य युगपदुत्पादद्वयादिरस्ति, अनपेक्षिततद्विशेषकपदार्थतया चैकोऽसाविति ॥ 'विय'त्ति विगतिविंगमः, सा चैकोत्पादवदिति विकृतिर्विगतिरित्यादिव्याख्यान्तरमप्यु-10 चितमायोज्यम्, अस्माभिस्तु उत्पादसूत्रानुगुण्यतो व्याख्यातमिति । 'वियच्च'त्ति विगतेः प्रागुक्तत्वादिह विगतस्य वि-5 8 गमवतो जीवस्य मृतस्येत्यर्थः अर्चा-शरीरं बिगतार्चा, प्राकृतत्वादिति, विवर्चा वा-विशिष्टोपपत्तिपद्धतिर्विशिष्टभूपा दीवा, सा चैका सामान्यादिति ॥ 'गई'त्ति मरणानन्तरं मनुजत्वादेः सकाशानारकत्वादी जीवस्य गमनं गतिः, सा चेक-12
देकस्यैकैव ऋज्वादिका नरकगत्यादिका था, पुद्गलस्य वा, स्थितिलक्षण्यमात्रतया वैकरूपा सर्वजीवपुद्गलानामिति ॥ 'आगह'त्ति आगमनमागतिः-नारकत्वादेरेव प्रतिनिवृत्तिः, तदेकत्वं गतेरिवेति ॥'चपणे'ति च्युतिः च्यवनम्-वैमा-14
॥२०॥ निकज्योतिष्काणां मरणं, तदेकमेकजीवापेक्षया नानाजीवापेक्षया च पूर्ववदिति ॥ 'उववाएं'त्ति, उपपतनमुपपातो
DAREucanाज
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[१७-४३]
दीप
अनुक्रम [१७-४३]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [४३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
Educator
देवनारकाणां जन्म, सं चैकश्यवनवदिति ॥ 'तक'ति तर्कणं तर्क-विमर्शः अवायात् पूर्वा इहाया उत्तरा प्रायः शिरःकण्डूयनादयः पुरुषधर्म्मा इह घटन्त इतिसम्प्रत्ययरूपा, इह चैकत्वं प्रागिवेति ॥
'सन्न'ति संज्ञानं संज्ञा व्यञ्जनावग्रहोत्तरकालभावी मतिविशेषः आहारभयाद्युपाधिका वा चेतना संज्ञा, अभिधानं वा संज्ञेति ॥ 'मन्न'सि प्राकृतत्वान्मननं मतिः- कथञ्चिदर्थपरिच्छित्तावपि सूक्ष्मधर्मालोचनरूपा बुद्धिरितियावत्, आलोचनमिति केचित् अथवा मन्ता मन्नियव्वं (मनितव्यं) अभ्युपगम इत्यर्थः, सूत्रद्वयेऽपि सामान्यत एकत्वमिति ॥ 'एगा | विनु ेति विद्वान् विज्ञो वा तुल्यबोधत्वादेक इति, स्त्रीलिङ्गत्वं च प्राकृतत्वात् उत्पाद (स्य) उप्पावत्, लुप्तभावप्रत्ययत्वाद्वा एका विद्वत्सा विज्ञता वेत्यर्थः ॥ 'वेयण'त्ति प्राग्वेदना सामान्यकर्मानुभवलक्षणोका इह तु पीडालक्षणैव सा च सामान्यत एकैवेति ॥ अस्या एव कारणविशेषनिरूपणायाह- 'छेयणे 'ति छेदनं शरीरस्यान्यस्य वा खड्गादिनेति ॥ 'भेयणे'ति, भेदनं कुन्तादिना, अथवा छेदनं कर्मणः स्थितिघातः भेदनं तु रसघात इति, एकता च विशेषाविवक्षणादिति । वेदनादिभ्यश्च मरणमतस्तद्विशेषमाह - 'एंगे मरणे इत्यादि, मृतिर्मरणं अन्ते भवमन्तिमं चरमं तच तच्छरीरं चेत्यन्तिमशरीरं तत्र भवा अन्तिमशारीरिकी उत्तरपदवृद्धिः, तद्वा तेषामस्तीति अन्तिमशारीरिका दीर्घत्वश्च प्राकृतशैल्या, तेषां चरमदेहानां मरणैकता च सिद्धत्वे पुनर्भरणाभावादिति । अन्तिमशरीरश्च स्नातको भूत्वा म्रियते अतस्तमाह- 'एगे संसुद्धे' इत्यादि, एकः संशुद्धः - अशवलचरणः अकषायत्वात् 'यथाभूतः' तात्विकः ('पत्ते'त्ति) पात्रमिव पात्रमतिशयवद्ज्ञानादिगुणरलानां प्राप्तो वा गुणप्रकर्षमिति गम्यते । 'एगेदुक्खे' एकमेवान्तिमभवग्रहणसम्भवं दुःखं यस्य स एकदुःखः
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-1, मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
वृत्तिः
।
सूत्रांक
[१७-४३]
दीप अनुक्रम [१७-४३]
श्रीस्थाना- एगहक्खे'त्ति पाठान्तरे त्वेकधैवाख्या-संशुद्धादिळपदेशो यस्य, न स्वसंशुद्धसंशुद्धासंशुद्ध इत्यादिकोऽपि, व्यपदे-17 स्थानासूत्र- ४ शान्तरनिमित्तस्य कषायादेरभावादिति स भवत्येकधाख्यः, एकधा अक्षो वा-जीवो यस्य स तथेति, जीवाना-प्राणि-13 ध्ययने
नामेकभूतः-एक एव-आत्मोपम इत्यर्थः, एकान्तहितवृत्तित्वाद् , एकत्वं चास्य बहूनामपि समस्वभावत्वादिति, अथवा एकयोगता ॥२१॥
'पत्ते' इत्यादि सूत्रान्तरं उक्तरूपसंशुद्धादन्येषां स्वरूपप्रतिपादनपरं, तत्र प्राकृतत्वात् प्रत्येकमेकं दुःखं प्रत्येकैकदुःखं | जीवानां स्वकृतकर्मफलभोगित्वात् , किंभूतं तदित्याह-एकभूतमनन्यतया व्यवस्थित प्राणिषु, न साङ्ख्यानामिव बाह्यमिति ॥ दुःखं पुनरधर्माभिनिवेशादिति तत्स्वरूपमाह
'एगा अहम्मे त्यादि, धारयति दुर्गतौ प्रपततो जीवान् धारयति-सुगतौ था तान् स्थापयतीति धर्मः, उक्तश्च-"तु-18 गेतिप्रसृतान् जन्तून , यस्माद्धारयते ततः । धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद्धर्म इति स्मृतः॥१॥" स च श्रुतचारित्रलक्षणः, तत्प्रतिपक्षस्स्वधर्मस्तद्विषया प्रतिमा-प्रतिज्ञा अधर्मप्रधानं शरीरं वा अधर्मप्रतिमा, सा चैका, सर्वस्याः परिक्लेशकारणतयैकरूपत्वाद्, अत एवाह-'जं से' इत्यादि, 'यत्' यस्मात् 'से' तस्याः स्वाम्यात्मा-जीवो अथवा 'से'त्ति सोऽधर्मप्रतिमावानात्मा परिक्तिश्यते-रागादिभिर्वाध्यते संक्तिश्यत इत्यर्थः, 'जंसी'ति पाठान्तरं वा, ततश्च | प्राकृतत्वेन लिङ्गव्यत्ययात् यस्यामधर्मप्रतिमायां सत्यामात्मा परिक्तिश्यते सा च एकैवेति । एतद्विपर्ययमाह-'एगा।
॥२१॥ धम्म त्यादि, प्राग्वन्नवरं पर्यवाः-ज्ञानादिविशेषा जाता यस्य स पर्यवजातो भवतीति शेषः, विशुध्यतीत्यर्थः, आहितान्या-18
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक -1, मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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सूत्रांक
[१७-४३]
दीप अनुक्रम [१७-४३]
|दित्वाच्च जातशब्दस्योत्तरपदत्वमिति, अथवा पर्यवान् पर्यवेषु वा यातः-प्राप्तः पर्यषयातोऽथवा पर्यवः-परिरक्षा परिज्ञान
वा शेष तथैवेति ॥ धर्माधर्मप्रतिमे च योगत्रयाद्भवत इति तत्स्वरूपमाह___ 'एगे मणे' इत्यादि सूत्रत्रय, तत्र मन इति मनोयोगः, तच्च यस्मिन् २ समये विचार्यते तस्मिन् २ 'समये' कालविशेष एकमेव, वीप्सानिर्देशेन न कचनापि समये तद् ब्यादिसंख्यं सम्भवतीत्याह, एकत्वं च तस्यैकोपयोगत्वात् जीवानां, स्यादेतत्-नैकोपयोगो जीवो, युगपच्छीतोष्णस्पर्शविषयसंवेदनद्वयदर्शनात्, तथाविधभिन्नविषयोपयोगपुरुषद्वयवत् , अत्रोच्यते, यदिदं शीतोष्णोपयोगद्वयं तत्स्वरूपेण भिन्नकालमपि समयमनसोरतिसूक्ष्मतया युगपदिव प्रतीयते, न पुनस्तद्युगपदेवेति, आह च-"समयातिसुहुमयाओ मनसि जुगवं च भिन्नकालंपि । उप्पलदलसयवेहं व जह व तम-| लायचकति ॥ १ ॥" यदि पुनरेकत्रोपयुक्तं मनोऽर्थान्तरमपि संवेदयति तदा किमन्यत्रगतचेताः पुरोऽवस्थितं हस्तिनमपि न विषयीकरोतीति, आह च-"अन्नविणिउत्तमन्नं विणिओगं लहइ जइ मणो तेणं । हत्यिपि ठियं पुरओ किमन्नचित्तो न लक्खेइ ॥१॥"त्ति इह च बहुवक्तव्यमस्ति तत् स्थानान्तरादवसेयमिति, अथवा सत्यासत्योभयस्वभावानुभयरूपाणां चतुर्णी मनोयोगानामन्यतर एव भवत्येकदा, यादीनां विरोधेनासम्भवादिति, केषामित्याह-'देवासुरमणुयाणं'ति तत्र दीव्यन्ति इति देवा-वैमानिकज्योतिष्कास्ते च न सुरा असुरा:-भवनपतिव्यन्तरास्ते च मनो
समयातिसौषम्यात् मन्यसे युगपञ्च भिन्नकालमपि । उत्पलदलशतवेध इच यथा वा तदलातचकमिति ॥१॥ २ अन्य विनियुफमम्य विनियोग लभते यदि मनस्तेन । हस्तिनमपि स्थितं पुरतः किमन्यचित्तो न लक्षयति॥१॥
CONCR
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक -1, मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना-
सूत्र- वृत्तिः ।
सूत्रांक
[१७-४३]
॥२२॥
दीप अनुक्रम [१७-४३]
बंता मनुजा-मनुष्यास्ते च देवासुरमनुजास्तेषां, तथा 'वागि'ति वाग्योगः, स चैषामेकदा एक एव, तथाविधमनोयोगपूर्व-18 स्थानाकत्वात् तथाविधवाग्योगस्य, सत्यादीनामन्यतरभावाद्वा, वक्ष्यति च--"छहिं ठाणेहिं णत्थि जीवाणं इही इ वा जाव ध्ययने परक्कमे इ वा, तंजहा-जीव वा अजीवं करणयाए १, अजीवं वा जीवं करणयाए २, एगसमएणं दो भासाओ भासित्तए" एकोगता इति । तथा कायव्यायामः-काययोगः, स चैषामेकदा एक एव, सप्तानां काययोगानामेकदा एकतरस्यैव भावात् , ननु यदाहारकायोक्ता भवति तदौदारिकस्यावस्थितस्य श्रूयमाणत्वात् कथमेकदा न काययोगद्वयमिति ?, अत्रोच्यते, सतो-18 |ऽप्यौदारिकस्य व्यायामाभावादाहारकस्यैव च तत्र व्याप्रियमाणत्वाद् , अप्यौदारिकमपि तदा व्याप्रियते तहि मिश्रयोगता है
भविष्यति, केवलिसमुद्घाते सप्तमषष्ठद्वितीयसमयेष्वौदारिकमिश्रवत्, तथा चाहारकप्रयोक्ता न लभ्येत, एवं च सप्तवि|धकाययोगप्रतिपादनमनर्थकं स्यादित्येक एव कायव्यायाम इति, एवं कृतवैकियशरीरस्य चकवादेरप्यौदारिक निव्यापारमेव, व्यापारवञ्चेत् उभयस्य व्यापारवत्त्वे केवलिसमुद्घातबन्मियोगतेत्येवमप्येकयोगत्वमव्याहतमेवेति, तथा काययोगस्याप्यौदारिकतया वैक्रियतया च क्रमेण व्याप्रियमाणत्वे आशुवृत्तितया मनोयोगवद्यदि यौगपद्यभ्रान्तिः स्यात् तदा को दोष इति, एवञ्च काययोगैकत्वे सत्यौदारिकादिकाययोगाहृतमनोद्रव्यवाग्द्रव्यसाचिच्यजातजीवव्यापाररूपत्वात् । मनोयोगवाग्योगयोरेककाययोगपूर्वकतयाऽपि प्रागुक्तमेकत्वमवसेयमिति, अथवेदमेव वचनमत्र प्रमाणम् , आज्ञा-131
॥२२॥ १पतिः स्थानास्ति जीवानां ऋद्धिा गावत्पराक्रम इति वा, तद्यथा-जीव चाजीवकरणता अजीब या जीवकरणताचे एकसमयेन वै भाषे भाषितुं.
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[१७-४३]
दीप
अनुक्रम
[१७-४३]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [४३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
ग्राह्यत्वात् अस्य, यतः - "आणागेझो अत्थो आणाए चैव सो कहेयच्यो । दिता दिनंतिअ कहणविहिविराहणा इह ॥ १ ॥” इति दृष्टान्ताद्दान्तिकोऽर्थ इत्यर्थः । ननु सामान्याश्रयैकरथेनैव सूत्रं गमकं भविष्यतीति किमनेन विशेषव्याख्यानेनेति ?, उच्यते नैवं सामान्यैकत्वस्य पूर्वसूत्रैरेवाभिहितत्वादस्य पुनरुक्तत्वप्रसङ्गाद् देवादिग्रहणसमयग्रहणयोश्च वैयर्थ्यप्रसङ्गाच्चेति । इह च देवादिग्रहणं विशिष्टवैक्रियलब्धिसम्पन्नतयैषामनेकशरीररचने सत्येकदा मनोयोगादीनामनेकत्वं शरीरवद् भविष्यतीति प्रतिपत्तिनिरासार्थं, न तु तिर्यग्नारकाणां व्यवच्छेदार्थे, ननु तिर्यग्नारका अपि वैक्रियलब्धिमन्तस्तेषामपि विक्रियायां शरीरानेकत्वेन मनःप्रभृतीनामनेकत्वप्रतिपत्तिः सम्भाव्यत एवेति तग्रहणमपि न्याय्यमिति, सत्यम्, किन्तु देवादीनां विशिष्टतरलब्धितया शरीराणामत्यन्तानेतेति तग्रहणं, तथा 'प्रधानग्रहण इतरग्रहणं भवतीति न्यायाददोषो, नारकादिभ्यश्च देवादीनां प्रधानत्वं प्रतीतमेवेति एतेषां च मनःप्रभृतीनां यथाप्राधान्यकृतः क्रमः प्रधानत्वं च बल्पाल्पतरकर्मक्षयोपशमप्रभवलाभ कृतमिति ॥ कायव्यायामस्यैव भेदानामेकतामाह - 'एगे उडाणे त्यादि, उत्थानं च चेष्टाविशेषः कर्म्म च-भ्रमणादिक्रिया बलं च शरीरसामर्थ्यं वीर्य च जीवप्रभवं पुरुषकारश्च-अभिमानविशेषः पराक्रमश्च- पुरुषकार एव निष्पादितस्वविषय इति विग्रहे द्वन्द्वैकवद्भावः, एते च वीर्यान्तराय[ क्षय ] क्षयोपशमसमुत्था जीवपरिणामविशेषाः, एतेषु प्रत्येकमेकशब्दो योजनीयो, वीर्यान्तर [क्षय ]क्षयोपशमवैचित्र्यतः प्रत्येकं जघन्यादि भेदैरनेकत्वेऽप्येषामेकजीवस्यैकदा [क्षय ]क्षयोपशममात्राया एकविधत्वादेक एव ज
१ आज्ञामाश्योऽर्थं आइमैन स कथयितव्यः । दृष्टान्ताद्दाष्टन्तिकः कथनविधेरितरथा विराधना ॥ १ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना-I गसूत्रवृत्तिः
सूत्रांक
5-456754
निरूपणा
[१७-४३]
॥२३॥
+
दीप अनुक्रम [१७-४३]
धन्यादिरेतद्विशेषो भवति कारणमात्राधीनत्वात् कार्यमात्राया इति सूत्रभावार्थः, शेष प्राग्वदिति ॥ पराक्रमादेश्च ज्ञा- १ स्थानानादिमोक्षमार्गोऽवाप्यते, यत आह-"अब्भुटाणे विणये परक्कमे साहुसेवणाए य । सम्मइसणलंभो विरयाविरइए वि- ध्ययने रइए ॥१॥” इति, अतो ज्ञानादीनां निरूपणायाह-'एगे नाणे इत्यादि, अथवा धर्मप्रतिमा प्रागुदिता सा च ज्ञा-12ज्ञानादिनादिस्वभावेति ज्ञानादीन् निरूपयन्नाह
ज्ञायन्ते-परिच्छिद्यन्तेऽर्था अनेनास्मिन्नस्माद्वेति ज्ञान-ज्ञानदर्शनावरणयोः क्षयः क्षयोपशमो वा ज्ञातिर्वा ज्ञानम्-18 आवरणद्वयक्षयाद्याविर्भूत आत्मपर्यवविशेषः सामान्य विशेषात्मके वस्तुनि विशेषांशग्रहणप्रवणः सामान्यांशग्राहकश्च ज्ञानपञ्चकाज्ञानत्रयदर्शनचतुष्टयरूपः, तच्चानेकमध्यवबोधसामान्यादेकमुपयोगापेक्षया वा, तथाहि-लन्धितो बहूनां वोधविशेषाणामेकदा सम्भवेऽप्युपयोगत एक एव सम्भवति, एकोपयोगत्वाज्जीवानामिति, ननु दर्शनस्य ज्ञानव्यपदेशत्वमयुक्तं, विषयभेदाद् , उक्तब-"ज सामन्नग्गहणं दसणमेयं विसेसियं नाणं"ति, अत्रोच्यते, ईहावग्रही हि दर्शन, सामान्यग्राहकत्वाद् , अपायधारणे च ज्ञानं, विशेषग्राहकत्वाद् , अथचोभयमपि ज्ञानग्रहणेन गृहीतमागमे "आभिनियो-| | हियनाणे अठ्ठावीसं हवंति पयडीउ"त्ति वचनात् , तस्मादवबोधसामान्याद्दर्शनस्यापि ज्ञानव्यपदेश्यत्वमविरुद्धमिति, |
ननु दर्शनं पृथगेवोपात्तमुत्तरसूत्रे तत्किमिह ज्ञानशब्देन दर्शनमपि व्यपदिष्टमिति ?, अत्रोच्यते, तत्र हि दर्शनं श्रद्धानं | १अभ्युत्थाने विनये पराक्रमे साधुनेवनायो । सम्पदर्शनलाभो विरताविरतेविरतेश्च ॥ १॥ २ यत् सामान्याहणं दर्शनमेतत् विशेषितं ज्ञानम.131॥२६॥ ३ आभिनियोपिकज्ञाने अष्टाविंशतिर्भवन्ति प्रकृतयः,
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
23-450
[१७-४३]
| विवक्षितं, ज्ञानादित्रयस्थ सम्यक्शब्दलाग्छितत्वे सति मोक्षमार्गत्वेन विवक्षितत्वात् , मोक्षमार्गभूतं चैतनयं श्रद्धानपपर्यायेणैव दर्शनेन सहेति । 'एगे दंसणे'त्ति, दृश्यन्ते-श्रद्धीयन्ते पदार्था अनेनास्मादस्मिन् वेति दर्शन-दर्शनमोहनीयस्य 8 अक्षयः क्षयोपशमो वा, दृष्टिया दर्शन-दर्शनमोहनीयक्षयाद्याविभूतस्तत्त्वश्रद्धानरूप आत्मपरिणामः, तचोपाधिभेदादने
कविधमपि श्रद्धानसाम्यादेकम् , एकजीवस्य वैकदा एकस्यैव भावादिति, नन्ववबोधसामान्याग्ज्ञानसम्यक्त्त्वयोः कः| प्रतिविशेषः?, उच्यते, रुचिः सम्यक्त्वं रुचिकारणं तु ज्ञानं, यथोक्तम्-"नाणमवायधिईओ दसणमिई जहोग्गहेहाओ। तह तत्तराई सम्म रोइज्जइ जेण तं नाणं ॥१॥"ति, 'चरित्तेत्ति चर्यते-मुमुक्षुभिरासेव्यते तदिति चर्यते वा गम्यते | अनेन निर्वृताविति चरित्रं अथवा चयस्य कर्मणां रिक्तीकरणाचरित्रं निरुतन्यायादिति-चारित्रमोहनीयक्षयाद्याविर्भूत |आत्मनो विरतिरूपः परिणाम इति, तदेवं वक्ष्यमाणानां सामायिकादितझेदानां विरतिसामान्यान्तर्भावादेकस्यैवैकदा भावाद्वेति, एतेषां च ज्ञानादीनामयमेव कमो, यतो नाज्ञातं श्रद्धीयते नानद्धत्तं सम्यगनुष्ठीयत इति । ज्ञानादीनि घु-| त्पत्तिविगतिस्थितिमन्ति, स्थितिश्च समयादिकेति समयं प्ररूपयन्नाह- एगे समए (सू०४४) एगे पाएसे एगे परमाणू (सू०४५) एगा सिद्धी । एगे सिद्धे । एगे परिनिवाणे । एगे
परिनिब्बुए (सू०४६) 'एगे समए' समयः-परमनिरुद्धकाल उत्पलपत्रशतव्यतिभेददृष्टान्ताजरपट्टसाटिकापाटनदृष्टान्ताद्वा समयप्रसिद्धा१ज्ञानमायभूमी दर्शनमिष्टं यथाऽवमहेहे । तथा तत्वचिः सम्पत्वं रोच्यते येन तत् शानम् ॥ १॥
दीप अनुक्रम [१७-४३]
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थानाअसूत्र
वृत्तिः
सूत्रांक
[४४-४६]
॥२४॥
दीप अनुक्रम [४४-४६]
Gादवबोद्धव्यः स चैक एव वर्तमानस्वरूपः, अतीतानागतयोविनष्टानुत्पन्नत्वेनाभावात् , अथवा असावेकः स्वरूपेण नि-दा१ स्थानारंशत्वादिति । निरंशवस्त्वधिकारादेवेदं सूत्रद्वयमाह-एगे पएसे एगे परमाणू प्रकृष्टो-निरंशो धमाधाका- ध्यबने शजीवानां देशः-अवयवविशेषः प्रदेशः स चैका स्वरूपतः सद्वितीयवादी देशव्यपदेशत्वेन प्रदेशत्वाभावप्रसङ्गादिति । सिद्धिलों'परमाणु'त्ति परमश्चासावात्यन्तिकोऽणुश्च सूक्ष्मः परमाणुः-व्यणुकादिस्कन्धानां कारणभूतः, आह च-"कारण-काग्रमितिअमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरसवर्णगन्धो द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च ॥ १।" इति, स च स्वरूपतः साधनं
एक एवान्यथा परमाणुरेवासौ न स्यादिति । अथवा समयादीनां प्रत्येकमनन्तानामपि तुल्यरूपापेक्षयैकत्वमिति । यथा | परमाणोस्तथाविधैकत्वपरिणामविशेषादेकत्वं भवति तथा तत एवानन्ताणुमयस्कन्धस्यापि स्यादिति दर्शयन् सकलबादरस्कन्धप्रधानभूतमीपत्यारभाराभिधानं पृथिवीस्कन्धं प्ररूपयन्नाह-एगा सिद्धी सिध्यन्ति-कृतार्था भवन्ति यस्यां सा सिद्धिः, सा च यद्यपि लोकाग्रं, यत आह-"इहं बुदि चइत्ताणं, तत्थ गंतूण सिज्झइ"त्ति, तथापि तत्सत्यासत्त्येपत्याग्भाराऽपि तथा व्यपदिश्यते, आह -"बारसंहिंजोयणेहिं सिद्धी सब्बडसिद्धाउ"त्ति, यदि च लोकाप्रमेव सिद्धिः स्यात् तदा कथमेतदनन्तरमुक्तम्-"निम्मैलदगरयवण्णा तुसारगोक्खीरहारसरिवन्ने'त्यादि तत्स्वरूपवर्णनं घटते ?,
लोकाग्रस्यामूर्त्तत्वादिति, तस्मादीपत्याग्भारा सिद्धिरिहोच्यते, सा चैका, द्रव्यार्थतया पश्चचत्वारिंशद्योजनलक्षप्रमाणदास्कम्धस्यकपरिणामस्वात्, पर्यायार्थतया त्खनन्ता, अथवा कृतकृत्यत्वं लोकाममणिमादिका वा सिद्धिः, एकत्वं च
१६ह तनुं वक्तवा तत्र गत्वा सिध्यन्ति. २ द्वादशमियोजनः निधिः सर्वार्थ सिद्धात्, निर्मलदकरजोषणां तुषारगोक्षीरहारसरशवा.
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SINEaicatanimlmannal
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [४६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४४-४६]
सामान्यत इति । सिद्धरनन्तरं सिद्धिमन्तमाह-एगे सिद्धे' सिद्यति स्म-कृतकृत्योऽभवत् सेधति स्म वा-अगच्छत् ।
अपुनरावृत्या लोकाग्रमिति सिद्धा, सितं बा-बद्धं कर्म ध्मातं-दग्धं यस्य स निरुक्तात् सिद्धः-कर्मप्रपञ्चनिर्मुक्तः, स &ाच एको द्रव्यार्थतया, पयोयाथेंतस्त्वनन्तपोय इति, अथवा सिद्धानां अनन्तत्वेऽपि तत्सामान्यादेकत्वम्, अथवा
कर्मशिल्पविद्यामयोगागर्मार्थयात्राबुद्धितपःकर्मक्षयभेदेनानेकत्वेऽप्यस्यैकत्त्वं सिद्धशब्दाभिधेयत्वसाम्यादिति । कर्मभयसिद्धस्य च परिनिर्वाणं धर्मो भवतीति तदाह-एगे परिनिब्वाणे परि-समन्तानिर्वाणं-सकलकर्मकृतविकारनिराकरणतः स्वस्थीभवनं परिनिर्वाणं तदेकम् , एकदा तस्य सम्भवे पुनरभावादिति । परिनिर्वाणधर्मयोगात् स एव कर्मक्षयसिद्धः परिनिर्वृत उच्यते इति तदर्शनायाह-'एगे परिनिब्बुए' परिनिर्वृतः सर्वतः शारीरमानसास्वास्थ्यविरहित इति भावः, तदेकत्वं सिद्धस्येव भावनीयमिति । तदेतावता अन्धेनैते प्रायो जीवधर्मा एकतया निरूपिताः, इदानीं
|जीवोपग्राहकत्वात् पुद्गलानां तल्लक्षणाजीवधा 'एगे सद्दे' इत्यादिना जाव लुक्खें' इत्येतदन्तेन अन्धेनैकतयैव दर्श्यन्ते, IPIपुगलादीनां तु सत्ता केषाश्चिदनुमानतोऽवसीयते घटादिकार्योपलब्धेः केषाश्चित्सांव्यवहारिकप्रत्यक्षत इति ॥
एगे सदे। एगे रुवे । एगे गंधे।। एगे रसे। एगे फासे । एगे सुब्भिसदे। एगे दुम्भिसदे। एगे मुरूो। एगे दुरूवे । एगे दीहे । एगे हस्से । एगे बढे । एगे तंसे । एगे चउरंसे । एगे पिङले । एगे परिमंडले । एगे किणरे । एगे णीले।
एग लोहिए । एगे हलिदे। एगे सुबिले । एगे सुभिगधे । एगे दुभिगंधे । एगे तिते । एगे कडुए । एगे कसाए । एगे स्था०५
अंबिले । एगे महुरे । एगे कक्खड़े जाव लुक्खे (सू०४७)
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दीप अनुक्रम [४४-४६]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-1, मूलं [४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थानासूत्र
प्रत सूत्रांक
वृत्तिः
[४७]
॥२५॥
दीप अनुक्रम
तत्र शब्दादिसूत्राणि सुगमानि, नवरं शब्दचते-अभिधीयते अनेनेति शब्दो-ध्वनिः श्रोत्रेन्द्रियविषयः, रूप्यते-अब
१स्थानालोक्यत इति रूपम्-आकारश्चक्षुर्विषयः, प्रायते-सिक्यते इति गन्धो-प्राणविषयः, रस्यते-आस्वाद्यते इति रसः-रस-12
ध्ययने नेन्द्रियविषयः, स्पृश्यते-छुप्यत इति स्पर्शः-स्पर्शनकरणविषयः, शब्दानां चैकत्वं सामान्यतः सजातीयविजातीयव्या
अजीबबृत्तरूपापेक्षया वा भावनीयं । शब्दभेदावाह-'मुभिसद्दित्ति शुभशब्दा मनोज्ञा इत्यर्थः, 'दुन्भि'ति अशुभो मनोज्ञो|
धर्मा | यो न भवतीति, एवं च शब्दान्तरमत्रान्तर्भूतमवसेयम् , एवं रूपव्याख्यानेऽपि, सुरुपादयश्चतुर्दश शुक्लान्ता रूपभेदाः तत्र सुरूपं-मनोज्ञरूपमितरहरूपमिति। दीर्घम्-आयततरं इस्वं-तदितर, वृत्तादयः पञ्च स्कन्धसंस्थानभेदाः, तत्र वृत्तसं-1 स्थानं मोदकवत् , तच्च प्रतरधनभेदात् द्विधा, पुनः प्रत्येकं समविषमप्रदेशावगाढमिति चतुर्की, एवं च शेषाण्यपि, 'तं-1 से'त्ति तिस्रोऽनयः-कोटयो यस्मिंस्तत् व्यत्रं-त्रिकोणम्, 'चतुरंसे सि चतस्रोऽस्रयो यस्य तत्तथा-चतुष्कोणमित्यर्थः, तथा 'पिटुले'त्ति पृथुलं-विस्तीर्णम् , अन्यत्र पुनरिह स्थाने आयतमभिधीयते, तदेव चेह दीर्घहस्वपृथुलशब्दैविभज्योकम् , आयतधर्मस्वादेषा, सञ्चायतं प्रतरघनश्रेणिभेदात् निधा, पुनरेकैकं समविषमप्रदेशमिति पोढा, यचायतभेदयोरपि इस्वदीर्घयोरादावभिधानं तद्वत्तादिषु संस्थानेष्वायतस्य प्रायो वृत्तिदर्शनार्थ, तथाहि-दीर्घायतः स्तंभो वृत्तस्यनः चतु| रसश्चेत्यादि भावनीयम् , विचित्रत्वाद्वा सूत्रगतेरेवमुपन्यास इति, 'परिमंडले'त्ति परिमण्डलसंस्थानं वलयाकारं प्रत
रघनभेदात् द्विविधमिति, रूपभेदो वर्णः, स च कृष्णादिः पञ्चधा प्रतीत एव, नवरं हारिद्रः-पीतः, कपिशादयस्तु संसर्गजा| ॥२५ | इति न तेषामुपन्यासः, गन्धो द्वेधा-सुरभिर्दुरभिश्च, तत्र सौमुख्यकृत्सुरभिर्वमुख्यकृत् दुरभिः, साधारणपरिणामोऽसष्टो
AKACANCE
[४७]
ACEBSC
DAREucatamania
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[ ४७ ]
दीप
अनुक्रम [86]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र -
३
Education
उद्देशक [-],
मूलं [ ४७ ]
स्थान [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
( मूलं + वृत्ति:)
| दुर्ग्रह इति संसर्गजत्वादेव नोक इति, रसः पञ्चधा, तत्र श्लेष्मनाशकृत् तिक्तः १ वैशद्यच्छेदनकृत्कटुकः २ अन्नरुचिस्त| म्भूनकृत्कषायः ३ आश्रवणक्केदनकृदम्लः ४ ह्लादनवृंहणकृन्मधुरः ५ संसर्गजो लवण इति नोक्त इति, स्पर्शोऽष्टविधः, तत्र | कर्कशः कठिनोऽनमनलक्षणः १ यावत्करणात् मृद्वादयः पडन्ये, तत्र मृदुः सन्नतिलक्षणः २ गुरुरधोगमनहेतुः ३ लघुः प्रायस्तिर्यगूर्ध्वगमनहेतुः ४ शीतो वैशद्यकृत् स्तम्भनस्वभावः ५ उष्णो मार्दवपाककृत् ६ स्निग्धः संयोगे सति संयोगिनां बन्धकारणं ७ रूक्षस्तथैवायन्धकारणमिति । उक्ता पुद्गलधर्माणामेकता, इदानीं पुद्गलालिङ्गितजीवाप्रशस्तधर्माणामष्टादशानां पापस्थानकाभिधानानां 'एंगे पाणाइवाएं' । इत्यादिना ग्रन्थेन 'दंसणसले' इत्येतदन्तेन तामेवाह
एगे पाणातिवाद जाव एगे परिगाहे । एगे कोथे जाव लोभे । एगे पेजे एगे दोसे जाव एगे परपरिवाए । एगा अरतिरती । एगे मायामोसे। एगे मिच्छादंसणसले । (सू० ४८ ) । एगे पाणाइवायवेरमण जाय परि०वेरमणे । एगे कोहविवेगे जाव मिच्छादंसणसहचिवेगे ( सू० ४९ )
तंत्र प्राणाः- उच्छासादयस्तेषामतिपातनं प्राणवता सह वियोजनं प्राणातिपातो हिंसेत्यर्थः, उक्तञ्च - " पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छासनिःश्वासमथान्यदायुः । प्राणा दशैते भगवद्भिरुतास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥ १ ॥” इति, स च प्राणातिपातो द्रव्यभावभेदात् द्विविधो, विनाशपरितापसङ्केशभेदात् त्रिविधो वा, आह च - "तपज्जायवि णासो दुक्खुरपाओ य संकिलेसो य । एस वहो जिणभणिओ वज्जेयब्बो पयत्तेणं ॥१॥"ति, अथवा मनोवाक्कायैःकरण
१] तरविनाशो दुःखोत्पादव संक्लेशन एष वो जिनैर्भगितो वर्जवित्तव्यः प्रयत्नेन ॥ १ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक -1, मूलं [४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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सूत्रांक
[४८-४९]
दीप अनुक्रम [४८-४९]
श्रीस्थानाकारणानुमतिभेदान्नवधा, पुनः स क्रोधादिभेदात् पत्रिंशद्विधो वेति १, तथा मृषा-मिथ्या वदनं वादो मृषावादः, स च ४
१ स्थाना
| ध्यचने इसूत्र
द्रव्यभावभेदात् द्विधा, अभूतोद्भावनादिभिश्चतुर्धा वा, तथाहि-अभूतोद्भावनं यथा सर्वगत आत्मा, भूतनिहवो नास्त्यात्मा, वस्त्वन्तरन्यासो यधा गौरपि सन्नश्वोऽयमिति, निन्दा च यथा कुष्ठी त्वमसीति २, तथा अदत्तस्य-स्वामि
पापस्थाजीवतीर्थंकरगुरुभिरवितीर्णस्याननुज्ञातस्य सचित्ताचित्तमिश्रभेदस्य वस्तुनः आदान-ग्रहणमदत्तादानं, चौर्यमित्यर्थः,
|नानि त॥२६॥ तच्च विविधोपाधिवशादनेकविधमिति, तथा मिथुनस्य-स्त्रीपुंसलक्षणस्य कर्म मैथुनम्-अब्रह्म, तत् मनोवाकायानां कृत-12
| द्विरतिश्च कारितानुमतिभिरौदारिकवैक्रियशरीरविषयाभिरष्टादशधा विविधोपाधितो बहुविधतरं वेति ४, तथा परिगृह्यते-स्वीक्रियत इति परिग्रहः, बाह्याभ्यन्तरभेदात् द्विधा, तत्र चाह्यो धर्मसाधनव्यतिरेकेण धनधान्यादिरनेकधा, अ(आ)भ्यन्तरस्तु मिथ्यात्वाविरतिकषायप्रमादादिरनेकधा, परिग्रहणं वा परिग्रहो मूच्छेत्यर्थः ५, तथा क्रोधमानमायालोभाः कषायमोहनीयकर्मपुद्गलोदयसम्पाद्या जीवपरिणामा इति, एते चानन्तानुवन्ध्यादिभेदतोऽसङ्खचाताध्यवसायस्थानभेदतो वा बहुविधाः, तथा 'पेजेत्ति प्रियस्य भावः कर्म या प्रेम, तच्चानभिव्यक्तमायालोभलक्षणभेदस्वभावमभिष्वङ्गमात्रमिति १०
तथा-'दोसे'त्ति द्वेषणं द्वेषः, दूषणं वा दोषः, स चानभिव्यक्तक्रोधमानलक्षणभेदस्वभावोऽप्रीतिमात्रमिति ११, 'जा-| साब'त्ति 'कलहे अम्भक्खाणे पेसुण्णे' इत्यर्थः, तत्र कलहो-राटी १२ अभ्याख्यान-प्रकटमसद्दोषारोपणं १३ पैशून्य-पिशुन-15 कर्म प्रच्छन्नं सदसदोषाविर्भावनं १४, परेषां परिवादः परपरिवादो विकस्थनमित्यर्थः १५, अरतिश्च सन्मोहनीयोदयज- ॥२६॥ श्चित्तविकार उद्वेगलक्षणो रतिश्च तथाविधानन्दरूपा अरतिरति इत्येकमेव विवक्षितं, यतः वचन विषये या रतिस्तामेव
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[४८-४९]
दीप
अनुक्रम
[४८-४९]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [४९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
विषयान्तरापेक्षया अरतिं व्यपदिशन्त्येवमरतिमेव रतिमित्यौपचारिकमेकत्वमनयोरस्तीति १६ तथा 'मायामोस' ति माया च निकृतिर्मृपा च मृषावादो मायया वा सह मृषा मायामृषा प्राकृतत्त्वान्मायामोस, दोषद्वययोगः, इदं च मा नमृषादिसंयोगदोषोपलक्षणं, वेषान्तरकरणेन लोकप्रतारणमित्यन्ये, प्रेमादीनि च बहुविधानि विषयभेदेन अध्यवसायस्थानभेदतो वा १७, मिथ्यादर्शनं विपर्यस्ता दृष्टिः, तदेव तोमरादिशल्यमित्र शल्यं दुःखहेतुत्वात् मिथ्यादर्शनशल्यमिति, | मिथ्यादर्शनञ्च पञ्चधा - अभिग्रहिकानभिग्रहिकाभिनिवेशिकानाभोगिकसांशयिकभेदाद् उपाधिभेदतो बहुतरभेदं वेति १८ ॥ एतेषां च प्राणातिपातादीनां उक्तक्रमेणानेकविधत्वेऽपि वधादिसाम्यादेकत्वमवगन्तव्यमिति । उक्तान्यष्टादश पापस्थानानि, इदानीं तद्विपक्षाणामेव 'एगे पाणा इवायवेरमणे' इत्यादिभिरष्टादशभिः सूत्रैरेकतामाह, सुगमानि चै तानि, नवरं विरमणं विरतिः, तथा विवेकस्त्याग इति ॥ उक्तं सपुद्गलजीवद्रव्यधर्माणामेकत्वमिदानीं कालस्य स्थितिरुपत्वेन तद्धर्मत्वात् तद्विशेषाणां 'एगा ओसप्पिणी त्यादिना 'सुसमसुसमे' त्येतदन्तेनैतदेवाह-
एगा ओसपिणी । एगा सुसनसुसमा जाव एगा दूसमसमा । एगा उत्सप्पिणी एगा दुस्समदुस्समा जाव एगा सुसमसुसमा (सू० ५० )
अथ काल एव कथमवसीयत इति चेत् ?, उच्यते, बकुलचम्पकाशोकादिपुष्पप्रदानस्य नियमेन दर्शनान्नियामकश्च काल इति, तत्र 'ओसप्पिणीति अवसर्पति हीयमानारकतया अवसर्पयति वाऽऽयुष्कशरीरादिभावान् हापयतीत्यवसर्पिणी सागरोपमकोटी कोटीदशकप्रमाणः कालविशेषः सुष्ठु समा सुषमा अत्यन्तं सुषमा सुषमसुषमा अत्यन्तसुखस्वरू
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक -1, मूलं [१०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०]
HI
दीप अनुक्रम
श्रीस्थाना- पस्तस्या एव प्रथमारक इति, एकत्वं चावसर्पिण्याः स्वरूपेणैकत्वादेवं सर्वत्र, यावदिति सीमोपदर्शनार्थः, ततश्च सुषम- १ स्थानाजासूत्र- सुपमेत्यादि सूत्रं स्थानान्तरप्रसिद्धं तावदध्येयमिह यावद् 'दूसमदूसमें ति पदमित्यतिदेशः, अयं च सूत्रलाघवार्थमिति, ध्ययने वृत्तिः एवं च सर्वत्र यावदिति व्याख्येयम् , अतिदेशलब्धानि च पदान्येकशब्दोपपदान्येतानि-एगा सुसमा एगा सुसमदूसमा|
अवसर्पिएगा दूसमसुसमा एगा दूसमे'ति, आसां स्वरूपं शब्दानुसारतो ज्ञेयं, प्रमाणं पुनराद्यानां तिसृणां समानां क्रमेण साग-18
ण्याद्याः ॥ २७॥
ॐारोपमकोटीकोव्यश्चतुखिद्विसङ्ख्याः, चतुर्थ्यास्त्वका द्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रोना, अन्त्ययोस्तु प्रत्येक वर्षसहस्राण्येकविंश
तिरिति । तथा उत्सप्पति-वर्द्धतेऽरकापेक्षया उत्सर्पयति वा भावानायुष्कादीन् वर्द्धयतीति उत्सर्पिणी अवसर्पिणीप्रमाणा दुष्ठु समा दुष्पमा-दुःखरूपा अत्यन्त दुषमा दुप्पमदुष्पमा, यावत्करणाद् 'एगा दूसमा एगा दूसमसुसमा एगा सुसमदूसमा एगा सुसमेति दृश्य, एतत्प्रमाणं च पूर्वोक्तमेव नवरं विपर्यासादिति । कृता जीवपुद्गलकाललक्षणद्रव्यविविधधर्मविशेषाणामेकत्वप्ररूपणा, अधुना संसारिमुक्तजीवपुद्गलद्रव्यविशेषाणां नारकपरमाण्यादीनां समुदायल-14 क्षणधर्मस्य 'एगा नेरइयाणं वग्गणेत्यादिना 'एगा अजहण्णुकोसगुणलुक्खाणं पोग्गलाणं वग्गणेत्येतदन्तेन ग्रन्थेन तामेवाहएगा नेरइयाणं वग्गणा एगा असुरकुमाराणं वग्गणा चउवीसदंडओ जाव वेमाणियाणं वग्गणा । एगा भवसिद्धीयाणं
॥२७॥ वग्गणा एगा अभवसिद्धीयाणं वग्गणा एगा भवसिद्धिनेरइयाणं वग्गणा एगा अभवसिद्धियाणं रतियाणं वगणा, एवं जाव एगा भवसिद्रियाणं वेमाणियाणं वग्गणा एगा अभवसिद्धियाणं वेमाणियाणं वाणा । एगा सम्मदिवियाणं व
[५०]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-1, मूलं [५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
0-42-2344
सूत्रांक
[५१]
दीप अनुक्रम [५१]
गणा एगा मिच्छदिवियाणं वगणा एगा सम्मामिच्छदिट्ठियाणं वग्गणा । एगा सम्मदितियाण णेरइयाणं वग्गणा एगा मिच्छदिट्ठियाणं णेरइयाणं वग्गणा एगा सम्ममिच्छद्दिहियाणं णेरइयाणं वग्गणा, एवं जाव थणियकुमाराणं वगणा । एगा मिच्छादिडियाणं पुढविकाइयाणं वग्गणा एवं जाव वणस्लइकाइयाणं । एगा सम्मदिवियाणं बेइंदियाणं वग्गणा एगा मिकछदिवियाण बेइंदियाणं वगणा, एवं तेइंदियाणंपि चउरिदियाणवि । सेसा जहा नेरइया जाव एगा सम्ममिच्छरिद्वियाणं बेमाणियाणं वग्गणा ॥ एगा कण्हपक्सिवाणं वग्गणा, एगा सुपक्खियाणं वग्गणा, एगा कण्हपक्खियाणं णेरइयाणं वग्गणा, एगा मुक्कपक्खियाणं णेरइयाणं वग्गणा, एवं चवीसदंडओ भाणियब्यो । एगा कण्हलेसाणं वग्गणा एगा नीललेसाणं वग्गणा एवं जाव सुकलेसाणं वग्गणा, एगा कण्हलेसाणं नेरइयाणं वग्गणा जाव काउलेसाणं णेश्याण वग्गणा एवं जस्स जइ लेसाओ, भवणवइयाणमंतरपुढविआउवणस्सइकाइयाणं च चत्तारि लेसाओ तेउवाउबेइंदियतिइंदिभपउरिदियाणं तिनि लेसाओ, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाण मणुस्साणं छलेसाओ, जोतिसियाणं एगा तेउलेसा, वेमाणियाण तिन्नि उवरिमलेसाओ । एगा कण्हलेसाणं भवसिद्धियाणं वग्गणा, एवं छवि लेसासु दो दो पयाणि भाणियब्वाणि । एगा कण्हलेसाणं भवसिद्धियाणं नेरयाणं वग्गणा एगा कण्हलेसाणं अभवसिद्धिआणं णेरइयाणं वगणा एवं जस्स अति लेसाओ तस्स तति भाणियवाओ जाव बेमाणिवाणं । एगा कण्हलेसाणं सम्मदिद्विआणं वग्गणा, एगा कण्हलेसाणं मिच्छदिडिवाणं वग्गणा, एगा कण्हलेसाणं सम्मामिच्छद्दिहियाणं वग्गणा, एवं छमुवि लेसासु जाव वेमाणियाणं जेसि जदि विट्ठीओ। एगा कण्हलेसाणं कण्हपक्खियाणं वगणा, एगा कण्हलेसाणं सुकपक्खियाणं वग्गणा, जाव वेमाणियाण
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक -1, मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना
ज्ञसूत्र
प्रत सूत्रांक
वृत्तिः
[५१]
॥२८॥
दीप अनुक्रम [५१]
जस्स जति लेसाओ एए अह चउवीसदंडया ॥ एगा तित्थसिद्धाणं वाणा, एवं जाव एगा एकसिद्धाणं वग्गणा एगा
स्थानाअणिकासिद्धार्थ बम्गणा एगा पढ़मसमयसिद्धाणं वग्गणा एवं जाव अणंतसमयसिद्धाणं वग्गणा ।। एगा परमाणुपोम्गलार्ण
| ध्ययने वग्गणा एवं जाव एगा अणंतपएसियाणं खंधाणं वग्गणा । एगा एगपएसोगाढाणं पोग्गलाणं वग्गणा जाब एगा असं
भव्यदृष्टिखेजपएसोगाढाणं पोग्गलाणं वग्गणा । एगा एगसमयठितियाणं पोग्गलाणं वग्गणा जाव असंखेजसमयठितियाणं पोग्ग
पक्षलेश्यालाणं वगणा । एगा एगगुणकालगाणं पोग्गलाणं वग्गणा, जाव एगा असंखेज एगा अणतगुणकालगाणं पोग्गलाणं व
| सिद्धपरग्गणा । एवं वण्णा गंधा रसा फासा भाणियबा जाव एगा अणंतगुणलुक्खाणं पोग्गलाणं धगणा । एगा जहन्नपएसि
माणवः याणं संधाणं वगणा एगा उसस्सपएसियाणं खंधाणं वग्गणा एगा अजहनुकस्सपएसियाणं बंधाणं वग्गणा एवं जहनोगाहणयाणं उक्कोसोगाहणगाणं अजहब्रुकोसोगाहणगाणं जहन्नठितियाणं उचास्सठितीयाणं अजहषोसठितियाणं जहनगुणकालगाणं उकस्सगुणकालपाणं अजहन्नुकस्सगुणकालगाणं एवं वणगंधरसफासाणं वग्गणा भाणियरुवा, जाव एगा
अजहन्नुकस्सगुणलुक्याणं पोग्गलाणं वगणा ।। (सू० ५१) | तत्र 'नेरइयाण ति निर्गतम्-अविद्यमानभयम्-इष्टफलं कर्म येभ्यस्ते निरयास्तेषु भवा नैरयिकाः-क्लिष्टसत्त्ववि-18 |शेषाः, ते च पृथिवीप्रस्तटनरकावासस्थितिभव्यत्वादिभेदादनेकविधास्तेषां सर्वेषां वर्गणा वर्गः समुदायः, तस्याश्चैकत्वं सर्वत्र नारकत्वादिपर्यायसाम्यादिति । तथा असुराश्च ते नवयौवनतया कुमारा इव कुमाराश्चेत्यसुरकुमारास्तेषामेका व-1 ॥२८॥ गणेति, 'चवीसदंड'त्ति चतुर्विंशतिपदप्रतिबद्धो दण्डको वाक्यपद्धतिश्चतुर्विंशतिदण्डकः, स इह वाच्य इति शेषः, स
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चतुर्विंशति दंडकः, तस्य भेदाः
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
S2494
प्रत
सूत्रांक
[५१]
चार्य नरेश्या १ असुरादी १० पुढवाइ ५ बेइंदियादयो चेव ४ । नर १ वंतर १ जोतिसिय १ वेमाणी १ दंडओ एवं ॥१॥" भवनपतयो दशधा-"असुरा नाग सुवण्णा विजू अग्गी य दीव उदही य । दिसि पवणधणियनामा दसहा | एए भवणवासि ॥२॥" ति, एतदनुसारेण सूत्राणि वाच्यानि, यावच्चतुर्विंशतितमं 'एगा चेमाणियाणं वग्गण'त्ति, एष सामान्यदण्डकः शननु नारकसत्तैव दुरुपपादा आस्तां तद्धर्मभूताया वर्गणाया एकत्वमनेकत्वं वेति, तथाहि-न सन्ति नारकाः, तत्साधकप्रमाणाभावात्, व्योमकुसुमवत् , अत्रोच्यते, प्रमाणाभावादित्यसिद्धो हेतुः, तत्साधकानुमानसद्भा-| वात् , तथाहि-विद्यमानभोक्तृकं प्रकृष्टपापकर्मफलं, कर्मफलत्वात् , पुण्यकर्मफलवत्, न च तियेंडनरा एवं प्रकृष्ट-दा पापफलभुजा, तस्यौदारिकशरीरवता वेदयितुमशक्यत्वात् , विशिष्टसुरजन्मनिवन्धनप्रकृष्टपुण्यफलवत्, आह च"पावफलस्स पगिहस्स भोइणो कम्मओऽवसेसब्ब । संति धुवं तेऽभिमया नेरइया अह मई होजा ॥१॥ अञ्चत्वदु-18 |क्खिया जे तिरियनरा नारगत्ति तेऽभिमया । तं न जओ सुरसोक्खप्पगरिससरिसं न तं दुक्खं ॥२॥" ति, 'अवसेस-16 व्व'त्ति यथा नारकेभ्योऽन्ये तिर्यड्नरा इत्यर्थः, अथ सुराणामपि विवादास्पदीभूतत्वात् विशिष्टसुरजन्मनिवन्धनप्रकृष्ट-12
दीप अनुक्रम [५१]
25%
१ नैरयिका असुरादयः पृथ्व्यादयो द्वीनियादयषैव । नरा व्यन्ारा ज्योतिका वैमानिका दण्डाकबैवं ॥१॥१ असुरा नागाः सुपर्णा विद्युतः अनयच द्वीपा उधयक्ष । विशः पचनाः सनितमामानः दाया एते भवनवासिनः ॥१॥३पापफलस्व प्रकटस भोगिनः कर्मखान, अवशेषा (प्रकृश्पुष्यफका देवा) दक्ष । रान्ति | भुवं तेऽभिगता नैयिकाः, अथ मतिर्भवेत् ॥ १॥ अत्यन्तदुःखिता ये तियनरा नारका इति तेऽभिगताः । तत्र यतः मुरसौण्यप्रकर्षसयां न तदुःखम् ॥ २॥ ४ सन्चस्व प्र.
DAREucatanimatlavat
चतुर्विंशति दंडकः, तस्य भेदाः
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीस्थानाझसूत्रवृत्तिः
[५१]
॥२९॥
पुण्यफलबत् इत्यसिद्धो दृष्टान्तः, अत्रोच्यते, देव इति सार्थकं पदं, व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदत्वान्, घटाभिधानवदिति, ततः१ स्थानासन्ति देवा इति प्रत्येतव्यम् , अथ मनुष्येण गुणद्धिसंपन्नेनार्थवद् भविष्यति देवपदमिति न विवक्षितदेवसिद्धिरिति, | ध्ययने अत्रोच्यते, यदिदं नरविशेषे देवत्वं तदौपचारिकम् , उपचारश्च तथ्यार्थसिद्धौ सत्यां भवति, यथा निरुपचरितसिंहसद्भावें नारकदेमाणवके सिंहोपचार इति, आह च-"देवत्तिसस्थयमिदं सुद्धत्तणओ घडाभिहाणं व । अह व मती मणुओ चिय देवो वसिद्धिः गुणरिद्धिसंपन्नो ॥१॥ तं न जओ तच्चरथे सिद्धे उवयारओ मया सिद्धी । तच्चस्थसीह सिद्धे माणव सीहोवयारोव्व | ॥२॥” इति, अपि च-"देवेसु न संदेहो जुत्तो जं जोइसा सपचक्खं । दीसंति तकयाविय उवधायाणुग्गहा जगओ॥१॥ आलयमत्तं च मई पुरं च तवासिणो तहवि सिद्धा । जे ते देवत्ति मया न य निलया निश्चपडिसुण्णा ॥२॥ को जाणइ व किमेयंति होज णिस्संसर्य विमाणाई । रयणमयनभोगमणादिह जह विजाहरादीणं ॥३॥" इति, तेषामसुरादिविशेषः । पुनराप्तवचनादवसेय इति । अथ पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायिकाः कथमिह जीवत्वेन प्रतिपत्तव्याः, उच्छासादिप्रा-1 णिधर्माणां तेष्वप्रतीयमानत्वाद्, अत्रोच्यते, आप्तवचनादनुमानतश्च, तत्राप्तवचनमिदमेव, अनुमानं विद-वनस्पतयो|
दीप अनुक्रम [५१]
१देव इति सार्थकमिदं शुद्ध(पद)त्वात् घडाभिधानमिव । अथ च मतिर्ममुजचैव देवो गुणद्विसंपन्नः ॥ १॥ तन यतस्तभ्या सिद्धे उपचारतो मता सिद्धिः । तथ्यार्थसिहे सिद्ध माणवके सिंहोपचारवत् ॥ २॥ २ देवेषु न संदेहो युको वत् ज्योतिष्याः खप्रत्यक्षेण । दृश्यन्ते तस्कृता अपि चोपपाताचपहा जगतः ॥१॥ आलयमानं च मतिः पुरमिव तद्वासिनः तथापि निद्धाः । ये रे देवा इति मता न च निलया नित्य प्रतिशून्याः ॥ २॥ को जामाति किमेतविति भवेत् ।, निस्संशय विमानादि । राजमयनभोगमनाविह यथा विधापरादीनाम् ॥ ३॥
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नारक-देव सिध्धि:
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[५१]
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[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [५१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
विद्रुमलवणोपलादयः स्वस्वाश्रये वर्त्तमानाः सात्मकाः, समानजातीयाङ्कुरसद्भावाद्, अशविकाराङ्कुरवत्, आह च "मंसंकुरो सामाणजाइरूवंकुरोवलंभाओ । तरुगणविद्दुमलवणोपलादयो सासयावस्था ॥१॥” इति इह समानजाति - हणं शृङ्गाङ्कुरव्यवच्छेदार्थे, स हि न समानजातीयो भवतीति, तथा सात्मकमम्भो भौमं भूमिखनने स्वाभाविक सम्भवाद्, दर्दुरवत्, अथवा सात्मकमन्तरिक्षोदकं स्वभावतो व्योमसम्भूतस्य पातात्, मत्स्यवत्, आह च - " भूमिक्खयसाभावि यसंभवओ दद्दुरोग्य जलमुतं" [सात्मकत्वेनेति ] | अहवा मच्छोत्र सहाववोमसंभूयपायाओ ॥ १ ॥” इति, तथा सात्मको वायुरपरप्रेरिततिर्यगनिय तदिग्गतित्वाद् गोवत्, चापरमेरितग्रहणेन वादिना व्यभिचारः परिहृतः, एवं तिर्यग्रहणेनोर्ध्वगतिना धूमेनानियमितग्रहणेन च नियमितगतिना परमाणुनेति तथा तेजः सात्मकमाहारोपादानात् तदुद्धिविशेषोपलब्धेस्तद्विकारदर्शनाच्च पुरुषवद्, आह च - "अपरेप्पेरियतिरिया नियमियदिग्गमण ओऽनिलो गोव्य । अनलो आहाराओ विद्धिविगारोवलंभाओ ॥ १ ॥ त्ति, अथवा पृथिव्यप्तेजोवायवो जीवशरीराणि, अभ्रादिविकारवर्जितमूर्त्तजातीयत्वात्, गवादिशरीरवदिति, अभ्रादिविकारा हि मूर्त्तजातीयत्वे सत्यपि न जीवतनवस्तेन तत्परिहारो हेतुविशेषणम्, आह च-- “तणओऽणग्भाइविगारमुत्तजाइतओऽनिताई [ भूतानीति प्रक्रमः ] सत्यासत्थहयाओ निजीव
[१] खा० प्र. २ अस्संकुर प्र. अशी (मांस) र इव समानजातीयरूपाङ्कुरोपलम्भात् तगण बिमलवणोपलादयः खाधवस्थाः ॥ १ ॥ ४ भूमिक्षतवाभाविक संभवात् दयत् जलमुक्तम् अथवा मत्स्यवत् खभावव्योमसंभूता ॥ १ ॥ ५ अपरप्रेरित तिर्यग नियमितदिगमनादनिलो गोवत्। अनल आहारात वृद्धिविकारोपलम्भाद ॥ १ ॥ ६ तनवोऽन्नादिविकारा मूर्तजातित्वात् अन्यानि । शस्त्रास्त्रतानि निजी वरूपाणि ॥ १ ॥
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पृथ्वी आदि पञ्च स्थावरानाम जिवत्वस्य सिध्धि:
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आगम
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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[१]
श्रीस्थाना- सजीवरुवाओ॥१॥"त्ति, वनस्पतीनां विशेषेण सचेतनत्वं भाष्यगाथाभिरभिधीयते-"जम्मजराजीवणमरणरोहणा- स्थाना नसूत्र- हारदोहलामयओ । रोगतिगिच्छाईहि य णारिब्ध सचेयणा तरवो ॥१॥ छिक्कप्परोझ्या छिक्कमित्तसंकोयओ कुलिं
IN ध्ययने वृत्तिः गिब्य । आसयसंचाराओ वियत्त! बल्ली वियाणाहि ॥२॥" ['वियत्तत्ति गणधरामन्त्रणमिति ] सम्मादयो व सावप्पचोह- स संकोयणादिओऽभिमया । बउलादयो य सद्दाइविसयकालोवलंभाओ ॥ ३॥ त्ति ['सम्मादजति शम्यादयः 'बिसय-18
जीवत्वं ॥३०॥
कालोवलंभाओ'त्ति विषयाणां-गीतसुरागण्डूषकामिनीचरणताडनादीनां कालो बसन्तादिरिति] १ 'एगा भवसिद्धिहायेत्यादि, भविष्यतीति भवा-भाविनी सा सिद्धिः-नितिर्येषां ते भवसिद्धिका-भब्याः, तद्विपरीतास्त्वभवसिद्धिका अ-10
भव्या इत्यर्थः । ननु जीवत्वे समाने सति को भव्याभव्ययोर्विशेषः?, उच्यते, स्वभावकृतो, द्रव्यत्वेन समानयोर्जीव-18 नभसोरिव, आह च-"देवाइत्ते तुल्ले जीवनभाणं सभावओ भेदो । जीवाजीवाइगओ जह तह भब्वेयरविसेसो॥१॥" त्ति, आभ्यां विशेषितोऽन्यो दण्डकः २। 'एगा सम्महिटियाण'मित्यादि, सम्यग्-अविपरीता दृष्टिः-दर्शनं रुचिस्तत्त्वानि प्रति येषां ते सम्यग्दृष्टिकाः, ते च मिथ्यात्वमोहनीयक्षयक्षयोपशमोपशमेभ्यो भवन्ति, तथा मिथ्या-विपर्यासवती जि-15 नाभिहितार्थसार्थाश्रद्धानवती दृष्टिः-दर्शनं श्रद्धानं येषां ते मिथ्यादृष्टिकाः-मिथ्यात्वमोहनीयकर्मोदयादरुचितजिनव
दीप अनुक्रम [५१]
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जन्मजराजीवनमरणरोहणाहारयोहदामयात् । रोगचिकित्साविनिश्च नारीय सचेतनास्तरवः ॥ १॥ स्पृष्टपरोदिका स्पमात्रात् संकोचतः कुलिभिवत् । आ- श्रयसंचारात व्यक्ती याविजानाहि (सचेतनाः) ॥२॥ २शम्पादयवसापावबोधसंकोचनादितोऽभिमताः । पकुलादयश्व शब्दादिावषयकालापलम्भात् ॥
१ DI ब्यादित्वे तुल्य जीवनभसोः खभावतो भेदः । जीवाजीयादिगतो यथा तथा भम्येतरनिशेषः ॥1॥
Educatana
पृथ्वी आदि पञ्च स्थावरानाम जिवत्वस्य सिध्धि:
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-1, मूलं [५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५१]
0-1605
दीप अनुक्रम [५१]
चना इति भावः, उक्तञ्च-"सूत्रोक्तस्यैकस्याप्यरोचनादक्षरस्य भवति नरः । मिथ्याष्टिः सूत्रं हि नः प्रमाण जिनाभि-18 |हितम् ॥१॥" इति । तथा सम्यक् मिथ्या च दृष्टियेषां ते सम्यग्मिथ्यादृष्टिका:-जिनोक्तभावान् प्रत्युदासीनाः, इह च गम्भीरभवोदधिमध्यविपरिवर्ती जन्तुरनाभोगनिवर्तितेन गिरिसरिदुपलघोलनाकल्पेन यथाप्रवृत्तिकरणेन संपादितान्तःसागरोपमकोटाकोटीस्थितिकस्य मिथ्यात्ववेदनीयस्य कर्मणः स्थितेरन्तर्मुहर्तमुदयक्षणादुपर्यतिक्रम्यापूर्वकरणानिवृत्तिकर-18 णसंज्ञिताभ्यां विशुद्भिविशेषाभ्यामन्तर्मुहर्त्तकालप्रमाणमन्तरकरणं करोति, तस्मिन् कृते तस्य कर्मणः स्थितिद्वयं भवति, अन्तरकरणादधस्तनी प्रथमस्थितिरन्तर्मुहूर्त्तमात्रा, तस्मादेवोपरितनी शेषा, तत्र प्रथमस्थिती मिथ्यात्वदलिकवेदनादसौ मिथ्याष्टिः, अन्तर्मुहतेन तु तस्यामपगतायामन्तरकरणप्रथमसमय एवौपशमिकसम्यक्त्वमामोति, मिथ्यात्वदलिकवेद-18| नाऽभावात् , यथा हि दवानलः पूर्वदग्धेन्धनमूपरं वा देशमवाप्य विध्यायति तथा मिथ्यात्ववेदनाग्निरन्तरकरणमवाप्य | विध्यायतीति, तदेवं सम्यक्त्वमौषधविशेषकल्पमासाद्य मदनकोद्रवस्थानीयं दर्शनमोहनीयमशुद्ध कर्म त्रिधा भवतिअशुद्धमविशुद्ध विशुद्ध चेति, त्रयाणां तेषां पुझाना मध्ये यदाऽर्द्ध विशुद्धः पुज उदेति तदा तदुदयवशादई विशुद्धमहद्दष्टतत्त्वश्रद्धानं भवति जीवस्य, तेन तदाऽसौ सम्यग्मिथ्यादृष्टिर्भवति अन्तर्मुहूर्त यावत्, तत ऊर्द्ध सम्यक्त्वपुजं मिथ्यात्वपुजं वा गच्छत्तीति, सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टिमिश्रविशेषितोऽन्यो दण्डकः, तत्र च नारकादिष्वेकादशसु पदेषु दर्शनत्रयमस्ति, अत उक्तम्-एवं जाव धणिए'त्यादि, पृथिव्यादीनां मिथ्यात्वमेव, तेन तेषां तेनैव व्यपदेशः, उक्तश्च-'चोइस तस सेसया मिच्छत्ति चतुर्दशगुणस्थानकवन्तखसा स्थावरास्तु मिथ्यादृष्टय एवेत्यर्थः।द्वीन्द्रियादीनां मित्रं नास्ति,
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करत
स्था०६
JanEairato
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक -1, मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्यादि
८
[१]
दीप अनुक्रम [५१]
श्रीस्थाना- संझिनामेव तद्भावात् , ततस्तेषु सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टितयैव व्यपदेशः, एवं 'तेइंदियाणवि चाउरिदियाणवित्ति द्वीन्द्रि- १ स्थानासूत्र- वयवद् व्यपदेशद्वयेन वर्गणैकत्वं वाच्यम् , पोन्द्रियतिर्यगादीनां दर्शनत्रयमप्यस्ति ततस्त्रिधाऽपि तद्यपदेशः, अत एवो-ला ध्ययने
क्तम्-'सेसा जहा नेरइय'त्ति, तथा वाच्या इति शेषः, दण्डकपर्यन्तसूत्रं पुनरिदम् 'एगा सम्मदिठियाणं वेमाणियाणं दृष्टिलेवग्गणा, एवं मिच्छद्दिडियाणं, एवं सम्मामिच्छादिडियाणं, एतत्पर्यन्तमाह-जाव एगा सम्मामिच्छेत्यादि । 'एगा कण्हपक्खियाणं इत्यादि, कृष्णपाक्षिकेतरयोर्लक्षणं-"जेसिमंवडो पोग्गलपरियट्टो सेसओ उ संसारो । ते सुकपक्खिया | खलु अहिए पुण किण्हपक्खीआ॥१॥” इति, एतद्विशेषितोऽन्यो दण्डका ४ ॥ 'एगा कण्हलेसाण'मित्यादि, लि| श्यते प्राणी कर्मणा यया सा लेश्या, यदाह-"श्लेप इव वर्णवन्धस्य कर्मबन्धस्थितिविधायः" तथा "कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात् , परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते ॥१॥" इति, इयं च शरीरनामकर्मपरिणतिरूपा योगपरिणतिरूपत्वात् , योगस्य च शरीरनामकर्मपरिणतिविशेषत्वात् , यत उक्तं प्रज्ञापनावृत्तिकृता-"योगपरिणामो लेश्या, कथं पुनर्योगपरिणामो लेश्या?, यस्मात् सयोगिकेवली शुक्ललेश्यापरिणामेन विहत्यान्तर्मुहर्ने शेषे योगनिरोधं करोति ततोऽयोगित्वमलेश्यत्वं च प्राप्नोति अतोऽवगम्यते 'योगपरिणामो लेश्येति, स पुनर्योगः शरीरना-18 मकर्मपरिणतिविशेषः, यस्मादुक्तम्-“कर्म हि कार्मणस्य कारणमन्येषां च शरीराणा"मिति," तस्मादौदारिकादिशरीरयुक्तस्थात्मनो वीर्यपरिणतिविशेषः काययोगः १, तथौदारिकवैक्रियाहारकदारीरव्यापाराहतवागद्रव्यसमूहसाचिच्यात् |
१ येषागपापुद्गलपरावतः शेषः संसारस्तु । ते शुलपाक्षिकाः स अधिके पुनः कृष्णपाक्षिका ॥१॥
॥३१॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक -1, मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५१]
जीवव्यापारो यः स वाग्योगः २, तथौदारिकादिशरीरव्यापाराहृतमनोद्रव्यसमूहसाचिव्यात् जीवव्यापारो यः स मनो-४
योग इति ३, ततो यथैव कायादिकरणयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणतियोंग उच्यते तथैव लेझ्यापीति, अन्ये तु व्याचक्षते MI-'कम्मनिस्यन्दो लेश्य'ति, सा च द्रव्यभावभेदात् द्विधा, तत्र द्रव्यलेश्या कृष्णादिद्रव्याण्येव, भावलेश्या तु तज्जन्योर
जीवपरिणाम इति, इयं च षट्पकारा जम्बूफलखादकपुरुषषदृष्टान्ताद् ग्रामघातकचौरपुरुषषदृष्टान्ताद्वा आगमनसिद्धादवसेयेति, तत्सूत्राणि सुगमानि, नवरं कृष्णवर्णद्रव्यसाचिव्यात् जाताऽशुभपरिणामरूपा कृष्णा सा लेश्या येषांक ते तथा, एवं शेषाण्यपि पदानि, नवरं नीला ईषत्सुन्दररूपैवमिति-अनेनैव क्रमेण यावत्करणात् 'एगा कावोयलेस्साण'मित्यादि सूत्रत्रयं दृश्य, तत्र कपोतस्य-पक्षिविशेषस्य वर्णेन तुल्यानि यानि द्रव्याणि धूम्राणि इत्यर्थः, तत्साहाय्याजाता कापोतलेश्या मनाक् शुभतरा सा लेश्या येषां ते तथा, तेजः-अग्निज्वाला तद्वर्णानि यानि द्रव्याणि लोहितानीत्यर्थः, तत्साचिव्याजाता तेजोलेश्या शुभस्वभावा, पद्मगर्भवर्णानि यानि द्रव्याणि पीतानीत्यर्थः तत्साचिव्याज्जाता पद्म-18 लेश्या शुभतरा, शुक्लवर्णद्रव्यजनिता शुक्ला, अत्यन्तशुभेति, एतासां च विशेषतः स्वरूपं लेश्याध्ययनादवसेयमिति, 'एवं जस्स जईत्ति नारकाणामिय यस्थासुरादेर्या यावत्यो लेश्यास्तदुद्देशेन तद्वर्गणैकत्वं वाच्यं, "भवणे'त्यादिना तल्लेश्यापरिमाणमाह, अत्र सत्रहणी-"काऊ नीला किण्हा लेसाओ तिन्नि होंति नरएसुं । तइयाए काउनीला [पृथिव्यामित्यर्थः] नीला किण्हा य रिडाए ॥१॥ [पञ्चम्यामित्यर्थः] किण्हा नीला काऊ तेऊलेसा य भवणयंतरिया । १ कापोता नीला कृष्णा लेपयास्तिस्रो भवन्ति नरकेषु। तृतीयायां कापोता नीला (ब) नीला कृष्णा च रिछायाम् ॥१॥ कृष्णानीलाकापोतातेजोलेश्याष भवनव्यन्तराः।
।
दीप अनुक्रम [५१]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
१ स्थाना
श्रीस्थाना-
सूत्रवृत्तिः
प्रत सूत्रांक
ध्ययने
| दृष्टिलेश्यादि
[५१]
॥३२॥
जोइससोहमीसाण तेउलेसा मुणेयच्चा ॥२॥ कप्पे सणंकुमारे माहिदे चेव भलोए य । एएसु पम्हलेसा तेण परं सुक्कलेसा उ॥३॥ पुढवी आउ वणस्सइ बायर पत्तेय लेस चत्तारि । गन्भयतिरियनरेसुं छलेसा तिन्नि सेसाणं ॥४॥" अयं सामान्यो लेश्यादण्डकः ५ । अयमेव भव्याभव्यविशेषणादन्यः, 'एगा कण्हलेसाणं भवसिद्धियाणं वग्गणे'त्यादि, 'एव'मिति कृष्णलेश्यायामिव 'छसुवित्ति कृष्णया सह पट्सु, अन्यथा अन्या पश्चैवातिदेश्या भवन्तीति, द्वे द्वे पदे प्रतिलेश्य भन्याभव्यलक्षणे वाच्ये, यथा 'एगा नीललेसाणं भवसिद्धियाणं वग्गणे त्यादि ६, लेश्यादण्डक एव दर्शनत्रयविशेषितोऽन्यः, 'एगा कण्हलेसाणं सम्मद्दिहियाण'मित्यादि, 'जेसिं जद विट्ठीओ'त्ति येषां नारकादीनां या यावत्यो दृष्टयः सम्यक्त्वाद्यास्तेपो ता वाच्या इति, तत्र एकेन्द्रियाणां मिथ्यात्वमेव, विकलेन्द्रियाणां सम्यक्त्वमिथ्यात्वे, शेषाणां तिम्रोऽपि दृष्टय इति ७, लेश्यादण्डक एव कृष्णशुक्लपक्षविशिष्टोऽन्यः, 'एगा कण्हलेसाणं कण्हपक्खियाण'मित्यादि, एते 'अ चउवीस दंडय'त्ति, एते चैवं-ओहो १ भव्याईहिं विसेसिओ २ दसणेहि ३ पक्खेहिं ४ । लेसाहिं ५ भन्न ६. दसण ७ पक्खेहिं ८ विसिट्ठ लेसाहिं ॥१॥ति ॥ इतः सिद्धवर्गणा अभिधीयते, तत्र सिद्धा द्विधा-अनन्तरसिद्धपर|म्परसिद्धभेदात् , तत्रानन्तरसिद्धाः पञ्चदशविधाः, तद्वर्गणैकत्वमाह-एगा तित्धेत्यादिना, तत्र तीयतेऽनेनेति तीर्थ,
दीप अनुक्रम [५१]
RECE
.॥२२॥
ज्योतिकसौधर्मेशानेषु च तेजोलेपया मुणितव्याः ॥२॥ कल्पे सनत्कुमारे मावेन्द्र चैव ब्रह्मलोके च । एतेषु पदयासतः परजलेश्यास्तु ॥ ३॥ पृथ्व्यवनस्पतिवादरप्रत्यकषुहेश्यावतनः । गर्भजतिरेषु पदया। तिसः शेषाणाम् ॥४॥२औधो भन्याभव्यारवान्या विशेषितः दर्शनः पक्षाभ्यां । लेश्याभिर्भ- व्यदर्शनपक्षविशिष्टाभिलेश्यामिः ॥ १ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक -1, मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५१]
दीप अनुक्रम [५१]
द्रव्यतो मद्यादीनां समोऽनपायश्च भूभागो भौतादिप्रवचनं वा, द्रव्यतीर्थता स्वस्थाप्रधानत्वाद्, अप्रधानत्वं च भावत-16 स्तरणीयस्य संसारसागरस्य तेन तरीतुमशक्यत्वात् , सावद्यत्वादस्येति, भावतीर्थं तु सहो, यतो ज्ञानादिभावेन तद्विपक्षा
दज्ञानादितो भवाच भावभूतात् तारयतीति, आह च-"जणाणदंसणचरित्तभावओ तब्रिवक्खभावाओ। भवभावओ ४य तारेइ तेण तं भावओ तित्थं ॥१॥" ति, त्रिषु वा-क्रोधाग्निदाहोपशमलोभतृष्णानिरासकर्ममलापनयनलक्षणेषु ज्ञा-15
नादिलक्षणेषु वा अर्थेषु तिष्ठतीति त्रिस्थं, प्राकृतत्वात् तित्थं, आह च-“दाहोवसमादिसु वा जं तिसु थियमहब दसपणाईसुं । तो तित्धं सो चिय उभयं च विसेसणविसेसं ॥१॥"ति, 'विशेषणविशेष्य मिति तीर्थ सङ्घ इति सद्यो वा ती
थमिति, त्रयो वा क्रोधाग्निदाहोपशमादयोऽर्थाः-फलानि यस्य तत् व्यर्थ, तित्थंति पूर्ववत्, आह च-कोहग्गिदाहसमणादओ व ते चेव तिन्नि जस्सऽस्था । होइ तियत्थं तित्थं तमत्थसहो फलत्थोऽयं ॥१॥" अथवा त्यो ज्ञानादयोऽर्थाःवस्तूनि यस्य तध्यर्थम् , आह च- अहवा सम्मईसणनाणचरित्ताई तिमि जस्सऽस्था । तं तिथं पुन्योदियमिहमत्थो वत्थुपज्जाओ॥१॥" चि॥ तत्र तीर्थे सति सिद्धाः-निवृतास्तीर्थसिद्धा ऋषभसेनगणधरादिवत् तेषां वर्गणेति १, तथा
१यत मानवनि चारित्रभावतसद्विपक्षभावात् । भवभाववव तारयति तेन सहायततीर्थम् ॥ १॥ २ दादोपचमादिषु वा यत्रिषु स्थितमधा दर्शनाविषु।। हातमी सह एषोमयं च विशेषणविशेष्यम् ॥1॥फोभामिदादशमनाइयो या वे भैव षयो यथार्थाः । भवति ध्यर्थ तीर्थ चन, अर्थशब्दः फलार्थोऽयम् ॥१॥ * अथवा सम्यग्दर्शन ज्ञानवारिभाणि त्रयो यस्यार्धाः । तत् तीथै पूर्वदितमिहामों वस्नुपर्यायः ॥ १॥
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना
प्रत सूत्रांक
वृत्तिः
१५
[५१]
॥ ३३॥
अतीर्थे-तीर्थान्तरे साधुव्यवच्छेदे जातिस्मरणादिना प्राप्तापवर्गमार्गा मरुदेवीवत् सिद्धा अतीर्थसिद्धास्तेषा २, एवंकर- १ स्थानाणात् 'एगा तिस्थगरसिद्धाणं वग्गणे'त्यादि दृश्य, तीर्थमुक्तलक्षणं तत्कुर्वन्त्यानुलोम्येन हेतुत्वेन तच्छीलतया वेति तीर्थ- ध्ययने कराः, आह च-"अणुलोमहेउतस्सीलयाय जे भावतित्वमेयं तु । कुव्यंति पगासंति उ ते तित्थगरा हियस्थकरा ॥१॥" सिद्धभेदाः इति, तीर्थकराः सन्तो ये सिद्धास्ते तीर्थकरसिद्धा ऋपभादिवत् तेषां ३, अतीर्थकरसिद्धाः सामान्यकेवलिनः सन्तो ये सिद्धा गौतमादिवत् तेषाम् ४, तथा स्वयम्-आत्मना बुद्धाः-तत्त्वं ज्ञातवन्तः स्वयम्बुद्धास्ते सन्तो ये सिद्धास्ते तथा तेषां ५, तथा प्रतीत्यैकं किञ्चित् वृषभादिकं अनित्यतादिभावनाकारणं वस्तु बुद्धाः-बुद्धवन्तः परमार्थमिति प्रत्येकबुद्धास्ते ४ सन्तो ये सिद्धास्ते तथा तेषां ६, स्वयम्बुद्धप्रत्येकबुद्धानां च बोध्युपधिश्रुतलिङ्गकृतो विशेषः, तथाहि-स्वयम्बुद्धानां बाह्यनिमित्तमन्तरेणैव बोधिः प्रत्येकबुद्धानां तु तदपेक्षया, करकण्ड्वादीनामिवेति, उपधिः स्वयम्बुद्धानां पात्रादिादशविधा, तद्यथा-पत्तं १ पत्ताबंधो २ पायठवणं ३ च पायकेसरिया ४ । पडलाइ ५ रयत्ताणं च ६ गोच्छओ७ पाय-14 निजोगो ॥१॥ तिन्नेव य पच्छागा १० रयहरणं ११ चेव होइ मुहपोति १२॥"त्ति, प्रत्येकबुद्धानां तु नवविधः प्रावरणवर्ज इति, स्वयम्बुद्धानां पूर्वाधीते श्रुते अनियमः प्रत्येकबुद्धानां तु नियमतो भवत्येव, लिङ्गप्रतिपत्तिः स्वयम्बुद्धा
दीप अनुक्रम [५१]
24-10
॥३३॥
अनादि तीर्थमिरवत्पनेऽपि तीर्थान्तरता अत एव विशिष्टता साधन्यवेखादिना.२ आवलोम्यदेवतच्छीलतया ये भावतीर्घमेतत्त । कुर्वन्ति प्रकाशयन्ति भावते तीर्थकरा हितार्थकराः॥१॥ पात्राणि पात्रमन्यः पात्रस्थापनं पात्रकेसरिका । पटलानि रजत्राणं च योछका पात्रानियोगः ॥1॥ त्रय एवं प्रच्छादका कारजोहरणमेव भवति मुखरनिका।
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आगम
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प्रत
सूत्रांक [५१]
दीप
अनुक्रम [५१]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [५१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
Education
नामाचार्यसन्निधावपि भवति प्रत्येकबुद्धानां तु देवता प्रयच्छतीति । बुद्धबोधिताः- आचार्यादिबोधिताः सन्तो ये सिद्धास्ते बुद्धबोधितसिद्धास्तेषां ७, एतेषामेव स्त्रीलिङ्गसिद्धानां ८ पुंलिङ्गसिद्धानां ९ नपुंसकलिङ्गसिद्धानां १० स्वलिङ्गसि द्धानां रजोहरणाद्यपेक्षया ११ अन्यलिङ्गसिद्धानां परिव्राजकादिलिङ्गसिद्धानां १२ गृहिलिङ्गसिद्धानां मरुदेवीप्रभृतीनां १३ एक सिद्धानामेकैकस्मिन् समये एकैकसिद्धानां १४ अनेकसिद्धानामेकसमये व्यादीनां अष्टशतान्तानां सिद्धानामेका वर्गणेति १५ । तत्रानेकसमयसिद्धानां प्ररूपणा गाथा- 'बत्तीसा अडयाला सही बावन्तरी य बोद्धन्वा । चुलसीई छन्नउई दुरहिय अट्ठोत्तर सयं च ॥ ॥” एतद्विवरण-यदा एकसमयेन एकादय उत्कर्षेण द्वात्रिंशत् सिध्यन्ति तदा द्वितीयेऽपि समये द्वात्रिंशद् एवं नैरन्तर्येण अष्टौ समयान् यावत् द्वात्रिंशत् सिध्यन्ति तत ऊर्ध्वमवश्यमेवान्तरं भवतीति यदा पुनस्त्रयस्त्रिंशद ( त आरभ्य अष्टचत्वारिंशदन्ताः एकसमयेन सिद्धयन्ति तदा निरन्तरं सप्त समयान् यावत् सिद्धयन्ति, ततोऽवश्यमेवान्तरं भवतीति, एवं यदा एकोनपञ्चाशतमादि कृत्वा यावत् पष्टिरेकसमयेन सिद्धयन्ति तदा निरन्तरं षट् समयान् सिद्धयन्ति, तदुपरि अन्तरं समयादिर्भवति, एवमन्यत्रापि योज्यम्, यावत् अष्टशतमेकसमयेन यदा सिद्ध्यति तदाऽवश्यमेव समयाद्यन्तरं भवतीति । अन्ये तु व्याचक्षते-अष्टौ समयान् यदा नैरन्तर्येण सिद्धिस्तदा प्रथमसमये जघन्येनैकः सिध्यत्युत्कृष्टतो द्वात्रिंशदिति, द्वितीयसमये जघन्येनैकः उत्कृष्टतोऽष्टचत्वारिंशत्, तदेवं सर्वत्र जघन्येनैकः समय उत्कृष्टतो गाथार्थोऽयं भावनीयः बत्तीसेत्यादि । एवमनन्तरसिद्धानां तीर्थादिना भूतभावेन प्रत्यासत्तिव्य|पदेश्यत्वेन पश्चदशविधानां वर्गणैकत्वमुक्तमिदानीं परम्परसिद्धानामुच्यते, तत्र 'अपढमसमयसिद्धाण' मित्यादित्रयो
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For Personal Private Only
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक -1, मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[५१]
दीप अनुक्रम [५१]
श्रीस्थाना- दशसूत्री, न प्रथमसमयसिद्धाः अप्रथमसमयसिद्धाः सिद्धत्वद्वितीयसमयवर्तिनः तेषामेवं 'जाव'त्तिकरणाद् 'दुसम-I स्थानाइसूत्र
यसिद्धाणं तिचउपंचछसत्तहनवदससंखेज्जासंखेजसमयसिद्धाण'मिति दृश्य, तत्र सिद्धत्वस्य तृतीयादिषु समयेषु द्विस-४ ध्ययने वृत्तिः मयसिद्धादयः प्रोच्यन्ते, यद्वा सामान्येनाप्रथमसमयाभिधानं विशेषतो द्विसमयाद्यभिधानमिति, अतस्तेषां वर्गणा,सिद्धभेदाः
कचित् 'पढमसमयसिद्धाणं'ति पाठः, तत्र अनन्तरपरम्परसमयसिद्धलक्षणं भेदमकृत्वा प्रथमसमयसिद्धा अनन्तरसिद्धा १५ ॥३४॥
एव व्याख्यातव्याः, ब्यादिसमयसिद्धास्तु यथाश्रुता एवेति ॥ इतो द्रव्यक्षेत्रकालभावानाश्रित्य पुद्गलवर्गणैकत्वं चि-15 म्त्यते-पूरणगलनधर्माणः पुद्गलाः, ते च स्कन्धा अपि स्युरिति विशेषयति-परमाणवो-निष्प्रदेशास्ते च पुद्गलाश्चेति में | विग्रहस्तेषां, एवंकरणात् 'दुपएसियाणं खंधाणं तिचउपंचछसत्तहनवदससंखेजपएसियाणं असंखेजपएसियाण'मिति ६ दृश्यमिति, कृता द्रव्यतः पुद्गलचिन्ता, अतः क्षेत्रतः क्रियते-'एगा एगपएसे'त्यादि, एकस्मिन् प्रदेशे क्षेत्रस्या-18
वगाढा:-अवस्थिता एकप्रदेशावगाढास्तेषां ते च परमाण्यादयोऽनन्तप्रादेशिकस्कन्धान्ताः स्युः, अचिन्त्यत्वात् द्र-18 व्यपरिणामस्य, यथा पारदस्यैकेन कण चारिताः सुवर्णस्य ते सप्ताप्येकीभवन्ति, पुनर्वामिताः प्रयोगतः सप्तैव त|2
इति, 'जाव एगा असंखेजपएसोगाढाण'ति, अनन्तप्रदेशावगाहित्वं तु नास्ति पुद्गलानां, लोकलक्षणस्यावगाहक्षेत्रस्था-[४ हायसवयेयप्रदेशत्वादिति, कालत आह-एगा एगसमए'त्यादि, एक समयं यावत् स्थिति: परमाणुत्वादिना एक
प्रदेशावगाढादित्वेन एकगुणकालादित्वेन वाऽवस्थानं येषां ते एकसमयस्थितिकास्तेषामिति, इह च अनन्तसमय-10 स्थितेः पुद्गलानामभावाद् असङ्ग्रेजसमयद्वितीयाणमित्युक्तमिति, भावतः पुद्गलानाह-एकेन गुणो-गुणनं ताडनं
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सिध्धानाम पंचदश-भेदा:
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
[५१]
दीप
अनुक्रम
[५१]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [५१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र - [ ०३ ], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
यस्य स एकगुणः, एकगुणः कालो वर्णो येषां ते एकगुणकालकाः, तारतम्येन कृष्णतरकृष्णतमादीनां येभ्य आरभ्य प्रथममुत्कर्षप्रवृत्तिर्भवतीति भावस्तेषाम् एवं सर्वाण्यपि भावसूत्राणि षष्ट्यधिकद्विशतप्रमाणानि वाच्यानि २६०, | विंशतेः कृष्णादिभावानां त्रयोदशभिर्गुणनादिति । साम्प्रतं भज्यन्तरेण द्रव्यादिविशेषितानां जघन्यादिभेदभिन्नानां स्कन्धानां वर्गणैकत्वमाह - 'एगा जहन्नप्पएसियाण' मित्यादि, जघन्याः - सर्वाल्पाः प्रदेशाः परमाणवस्ते सन्ति येषां ते जघन्यप्रदेशिकाः, व्यणुकादेय इत्यर्थः स्कन्धाः - अणुसमुदयास्तेषां उत्कर्षन्तीत्युत्कर्षा:- उत्कर्षवन्तः उत्कृष्टसङ्ख्याः | परमानन्ताः प्रदेशा:-अणवस्ते सन्ति येषां ते उत्कर्षप्रदेशिकाः तेषां जघन्याश्च उत्कर्षाश्च जघन्योत्कर्षाः न तथा ये ते अजघन्योत्कर्षाः, मध्यमा इत्यर्थः, ते प्रदेशाः सन्ति येषां ते अजघन्योत्कर्षप्रदेशिकास्तेषाम् एतेषां चानन्तवर्गणत्वेऽप्यजघन्योत्कर्षशब्दव्यपदेश्यत्वादेकवर्गणात्यमिति । 'जहन्नोगाहणगाणं' ति अवगाहन्ते - आसते यस्यां साऽवगाहना-शेप्रदेशरूपा सा जघन्या येषां ते स्वार्थिककप्रत्ययाज्जघन्यावगाहनकास्तेषाम्, एकप्रदेशावगाढानामित्यर्थः, उत्कर्षावगाहनकानामसङ्ख्यातप्रदेशावगाढानामित्यर्थः, अजघन्योत्कर्षावगाहनकानां सङ्ख्येयासज्येयप्रदेशावगाढानामित्यर्थः । जघन्या -जघन्यसङ्ख्या समयापेक्षया स्थितिर्येषां ते जघन्यस्थितिकाः, एकसमयस्थितिका इत्यर्थः तेषां उत्कर्षा- उत्कर्षवत्सङ्ख्या समयापेक्षया स्थितिर्येषां ते तथा तेपामसङ्ख्यातसमयस्थितिकानामित्यर्थः, तृतीयं कण्ठ्यं जघन्येन - जघन्यस| तथाविशेषेणैकेनेत्यर्थः गुणो-गुणनं ताडनं यस्य स तथा (तथा) विधः कालो वर्णो येषां ते जघन्यगुणकालकास्तेषाम् एवमुक्क१ एकस्मादारभ्य दशान्ताः संख्यावेयानन्तावेति त्रयोदश २ खखवर्गणायां जघन्यानां वर्गणानामनेकविधत्वात् कादय इति.
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सिध्धानाम पंचदश-भेदा:
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना
प्रत सूत्रांक
१ स्थानाध्ययने सिद्धभेदाः
वृत्तिः
॥३५॥
[५१]
गुणकालकानामनन्तगुणकालकानामित्यर्थः, तृतीयं कण्ठ्यं, एवं भावसूत्राण्यपि षष्टिर्भावनीयानीति ॥ सामान्यस्कन्ध|वर्गणैकत्वाधिकारादेवाजघन्योत्कर्षप्रदेशिकस्याजघन्योत्कर्षप्रदेशावगाढस्य स्कन्धविशेषस्यैकत्वमाह
एगे जंबूहीवे २ सव्वदीवसमुद्दाणं जाव अद्धंगुलगं च किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं (सू०५२) एगे' समणे भगवं महावीरे इमीसे ओसप्पिणीए पउख्वीसाए तित्थगराणं चरमतित्ययरे सिद्धे युद्धे मुते जाव सम्पदुक्खापहीणे (मू०५३) अणुत्तरोवबाइयाणं देवाणं एगा रयणी उहुंउच्चत्तेणं पन्नत्ता (सू०५४) अदाणक्खत्ते एगतारे पन्नते चित्ताणक्खत्ते एगतारे पं० सातीणक्खत्ते एगतारे ५० (सू० ५५) एगपदेसोगाढा पोग्गला अर्णता पन्नत्ता, एवमेगसमयठितिया एग
गुणकालगा पोग्गला अणता पन्नता, आव एगगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पन्नत्ता ॥ (सू०५६) एगहाणं समत्तं ।।। जम्ब्बा-वृक्षविशेषेणोपलक्षितो द्वीपः जम्बूद्वीपःद्वीप इति नाम सामान्यं यावग्रहणादेवं सूत्रं द्रष्टव्यम्-'सबभतरए सब्वखुड्डाए बट्टे तेलापूयसंठाणसंठिए एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिन्नि जोयणसयसहस्साई सोलससहस्साई दोन्नि सयाई सत्तावीसाई तिन्नि कोसा अहावीसं धणुसयं तेरस अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचिविसेसाहिए परि-1 क्खेवेण'ति, सुगममेतत्, उक्तविशेषणश्च जम्बूद्वीप एक एव, अन्यथा अनेकेऽपि ते सन्तीति । अनन्तर जम्बूद्वीप उक्त इति तत्परूपकस्य भगवतो महावीरस्यैकतामाह-एगे समणे इत्यादि, एकः-असहायः, अस्य च सिद्ध इत्यादिना सम्बन्धः, श्राम्यति-तपस्यतीति श्रमणः, भज्यत इति भगः-समप्रैश्वर्यादिलक्षणः, उक्तं च-"ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य | यशसः श्रियः। धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, षष्णां भग इतीङ्गना ॥१॥"इति, स विद्यते यस्येति भगवान् , तथा विशेषेणे
NCCACAMAC4
दीप अनुक्रम [५१]
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था॥ ३५॥
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SAMEDuraton
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.. न अत्र सिध्धानाम भेदा: वर्तते, यत् मूल सम्पादकेन शीर्षके लिखितम् तत् मुद्रण-अशुध्धिः वर्तते
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[५२-५६ ]
टीप
अनुक्रम
[५२-५६]
[भाग-5] "स्थान" अंगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [ ५६ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३]
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१ त्रिभुवनात महायशा नामतो महावीरः वा गच्छति च तेन वीरः स महान् वीरो महावीरः ॥ १ पत्रिंशदधिकैः पञ्चभिः शतैनमिस्तु सिद्धिं गतः ॥ १ ॥
॥
रयति-मोक्षं प्रति गच्छति गमयति वा प्राणिनः प्रेरयति वा कर्माणि निराकरोति वीरयति वा रागादिशत्रून् प्रति पराक्रमयति इति बीरः, निरुक्तितो वा वीरो यदाह - "विदारयति यत्कर्म्म, तपसा च विराजते । तपोवीर्येण युक्तश्च, तस्माद् वीर इति स्मृतः ॥ १ ॥ इतरवीरापेक्षया महांश्चासौ वीरश्चेति महावीरः भाप्योक्तं च-' - तिहुंयणविक्खायजसो महाजसो नामओ महावीरो । विकंतो य कसायाइसन्तुसेन्नप्पराजयओ ॥ १ ॥ ईरेह विसेसेण व खिबइ कम्माइँ गमयइ सिवं वा । गच्छइ अ तेण वीरो स महं वीरो महावीरो ॥ २ ॥” त्तिं ॥ अस्यामवसूपिण्यां चतुर्विंशतेस्तीर्थकराणां मध्ये चरमतीर्थकरः सिद्धः--कृतार्थो जातः बुद्ध:- केवलज्ञानेन बुद्धवान् बोध्यं मुक्तः- कर्म्मभिः यावत्करणात् 'अंतकडे' अन्तो भवस्य कृतो येन सोऽन्तकृतः 'परिनिब्बुडे' परिनिर्वृतः कर्म्मकृतविकारविरहात् स्वस्थीभूतः, किमुक्तं भवति ? - सन्दुक्खष्पहीणे - सर्वाणि शारीरादीनि दुःखानि प्रक्षीणानि प्रहीणानि वा यस्य स सर्वदुःखप्रक्षीणः सर्वदुःखप्रहीणो वा, सर्वत्र बहुव्रीहौ कान्तस्य यः परनिपातः स आहिताश्यादिदर्शनादिति, इह च तीर्थकरेष्वेतस्यैवैकत्वं मोक्षगमने, न तु ऋषभादीनां, दशसहस्रादिपरिवृतत्वेन तेषां सिद्धत्वाद् उक्तं च- " एंगो भगवं वीरो तेत्तीसाऍ सह निब्बुओ पासो । छत्तीसएहिं पंचहिं सएहिं नेमी उसिद्धि गओ ॥ १ ॥ इत्यादि ॥ एकाकी वीरो निर्वृत इत्युक्तं, निर्वृतिक्षेत्रासन्नानि चानुत्तरविमाना
"स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
विक्रान्तय कषायादिशत्रु सेन्यपराजयात् ॥ १ ॥ रयति विशेषेण वा क्षपयति कर्माती गमयति वि
२ एवं प्रकारेण तु भाष्यकमिति संवन्धः ३एको भगवान् वीरस्यत्रिशता सह निर्वृतः पार्श्वः ।
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[५२-५६ ]
दीप
अनुक्रम [५२-५६]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [ ५६ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थानाङ्गसूत्र
वृत्तिः
॥ ३६ ॥
वस्तुनो
| नीति तन्निवासि देवमानमाह- 'अनुत्तरे'त्यादि, अनुत्तरत्वादनुत्तराणि विजयादिविमानानि तेषु य उपपातो - जन्म स विद्यते येषां तेऽनुत्तरोपपातिकास्ते, शंकारौ वाक्यालङ्कारे, देवाः सुरा एकां रनिं-हस्तं यावत् 'क्रोशं कौटिल्येन नदी तिवदिह द्वितीया, 'उहुंउच्चत्तेणं' ति ह्यनेकधोत्वम्, स्थितस्यैकमपरं तिर्यक् स्थितस्यान्यत् गुणरूप तत्रेतरापोहेनोर्ध्वस्थितस्य यदुच्चत्वं तदृध्वोंच्चत्वमित्यागमे रूढमिति तेनोच्चत्वेन, अनुस्वारः प्राकृतत्वात् प्रज्ञताःप्ररूपिताः सर्वविद्भिरिति, अथवा अनुत्तरोपपातिकानां देवानामूर्ध्वोच्चत्वेन प्रमाणमिति शेषः, एका रलिः प्रज्ञतेति व्याख्येयमिति ॥ देवाधिकारादेव नक्षत्रदेवानां 'अदा नक्खसे' इत्यादिना कण्ठ्येन सूत्रत्रयेण तारकत्वमुक्तम्, तारा चज्योतिर्विमानरूपेति, कृत्तिकादिषु च नक्षत्रेष्विदं ताराप्रमाणम् - ६ पंच ५ तिन्निं ३ एंगं १ चे ४ तिर्ग २ स ६ वेर्य ४ जुयल २ जुयलं च २ । इंदिये ५ ग १ ए १ विसय ५३ समुह ४ वारस १२ ॥ १ ॥ चरो ४ तिये ३ तियं २ तिये ३ पंचे ५ सत्त ७ वे २ वें २ भवे तिया तिन्नि ३-३-३ रिक्खे तारपमाणं जइ तिहितुलं हयं क ॥ २ ॥” ति, इह चैकस्थानकानुरोधान्नक्षत्रत्रयस्य ताराप्रमाणमुक्तं, शेषनक्षत्राणां तु प्रायोऽप्रेतनाध्ययनेषु तद् वक्ष्यति, यस्तु कुचिद्विसंवादस्ताराप्रमाणस्य स तथाविधप्रयोजनेषु तिथिविशेषस्य नक्षत्रविशेषयुक्तस्याशुभत्वसूचनार्थत्वेनोकगाथयोमतान्तरभूतत्वान्न बाधक इति । तारा पुद्गलरूपेति पुद्गलस्वरूपमभिधातुमाह- 'एगप्पएसोगाढे' इत्यादि सुगमं, नवरमेकत्र प्रदेशे - क्षेत्रस्यांशविशेषे अवगाढा:-आश्रिता एकप्रदेशावगाढाः ते च परमाणुरूपाः स्कन्धरूपाश्चेति, एवं वर्ण ५गन्ध २ रस ५ स्पर्श ५ भेदविशिष्टाः पुद्गला वाच्याः, अत एवोक्तम्- 'जाब एगगुणलुक्खे' इत्यादि ॥ तदेवमनुगमोऽ[१] "वदेहमान मुदिते.
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*** न अत्र सिध्धानाम भेदाः वर्तते यत् मूल सम्पादकेन शीर्षके लिखितम् तत् मुद्रण-अशुध्धिः वर्तते
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१ स्थाना
ध्ययने सिद्धभेदाः १५
॥ ३६ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५२-५६]
दीप अनुक्रम [५२-५६]
भिहितः, अधुना कथञ्चित्नत्यवस्थानावसरे भणितमपि नयद्वारमनुयोगद्वारक्रमायातमिति पुनर्विशेषेणोच्यते-तत्र नैग-1 मादयः सप्त नयाः, ते च ज्ञाननये क्रियानये चान्तभवन्तीति ताभ्यामध्ययनमिदं विचार्यते-तत्र ज्ञानचरणात्मकेऽस्मि-18 मध्ययने ज्ञाननयो ज्ञानमेव प्रधानमिच्छति, ज्ञानाधीनत्वात् सकलपुरुषार्थसिद्धेः, यतः-"विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता । मिथ्याज्ञानात् प्रवृत्तस्य, फलप्राप्तेरसम्भवाद् ॥१॥" इत्यत ऐहिकामुष्मिकफलार्थिना ज्ञान एवं | यलो विधेय इति । क्रियानयस्तु क्रियामेवेच्छति, तस्या एव पुरुषार्थसिद्धावुपयुज्यमानत्वात् , तथा चोक्तम्-"क्रियेव|8|| फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात् सुखितो भवेत् ॥१॥" इत्यत ऐहिकामुष्मिकफलार्थिना कियैव कार्येति । जिनमते तु नानयोः प्रत्येक पुरुषार्थसाधनता, यत उक्तम्-"हयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नाणओ किया। पासंतो पंगुलो दहो, धावमाणो य अंधओ॥१॥"त्ति, संयोग एव चानयोः फलसाधकत्वं, यत उक्तम्-"संजोगसिद्धीइ फलं वयंति, नहु एगचकेण रहो पयाइ। अंधो य पंगू य वणे समिच्चा, ते संपउत्ता नगरं पविहा ॥१॥" इति ॥ भाष्यकृताऽप्युक्तम्-'नाणाहीणं सव्वं नाणणओ भणति किं च किरिवाए । किरियाए करणनओ तदुभयगाहो य सम्मत्तं ॥१॥" ति, अथवा सप्तापि नैगमादयः सामान्यनये विशेषनवे चान्तर्भवन्ति, तत्र सामान्यनयः प्रक्रान्ताध्ययनोकानामात्मादिपदार्थानामेकत्वमेवाभिमन्यते, सामान्यबादित्वात् तस्य, स हि ब्रूते-एक
हत पानं त्रियाहीनं हताजानतः किया । पश्यन् पडदग्धो धाधान्धः॥१॥ संयोगसिद्धेः फले पयन्ति, कचक्रेण रथः प्रयाति । अन्धव पहब बने। समेल ती संप्रयुक्ती नगर प्रविध ॥१॥जानाधीन सजाननयो भवति किंच कियया १ कियावा. करणनयखदुभयपक्ष सम्बरुवम् ॥१H
स्था०७
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः
सूत्रांक
[५२-५६]
॥३७॥
4
नित्यं निरवयव निष्क्रियं सर्वगं च सामान्यमेवास्ति, न विशेषो, निःसामान्यत्वात् , इह यन्निःसामान्य तन्नास्ति यथा खर- १ स्थानविषाणं, यचास्ति न तन्निःसामान्यं यथा घट इति, तथा सामान्यादन्येऽनन्ये वा विशेषाः प्रतिपद्येरन् ?, यद्यन्येकाध्ययने ननूक्तमसन्तस्ते निःसामान्यत्वात् खपुष्पवत्, अथानन्ये तदा सामान्यमात्रमेव, तत्र वा विशेषोपचारः, न चोपचा- ज्ञानक्रियारेणार्थतत्त्वं चिन्त्यत इति, आह च-"एक निच्चं निरवयवमकियं सवगं च सामन्नं । निस्सामन्नत्ताओ नस्थि विसेसो खपुष्पं व ॥१॥ तथा-सामनाओ बिसेसो अन्नोऽनन्नो व होज? जइ अन्नो । सो नस्थि खपुष्फ पिवणो &ा विशेषसामन्नमेव तयं ॥ २ ॥" ति, तदेवं सामान्यनयाभिप्रायेणात्मादीनामेकत्वमेव । विशेषनयमतेन तु तेषामनेकत्वमेव, स
वादा [हि ब्रूते-विशेषेभ्यः सामान्य भिन्नमभिन्नं वा स्यात् ?, न भिन्नमत्यन्तानुपलम्भात् खपुष्पवत् , तथा-न सामान्य विशे-18| पेभ्यो भिन्नमस्ति, दाहपाकस्नानपानावगाहवाहदोहादिसर्वसंव्यवहाराभावात् खरविषाणवत्, अथाभिन्नं तदा विशेषमात्रं घस्तु न नाम सामान्यमस्ति, तेषु वा सामान्यमात्रोपचार इति, न चोपचारेणार्थतत्त्वं चिन्त्यत इति, आह च-"न विसेसत्वंतरभूयमस्थि सामन्नमाह ववहारो। उवलंभव्यवहाराभावाओ खरविसाणं व ॥१॥” इति, तदेवमात्मादीनामनेकत्वमेवेति । ननु पक्षद्वयेऽपि युक्तिसम्भवात् किं तत्त्वं प्रतिपत्तव्यमिति ?, उच्यते, स्थादेकत्वं स्याद
दीप अनुक्रम [५२-५६]
१ एक नियं निरवयवमक्रिय सर्वगं च सामाभ्यम् । निस्सामान्यत्वात् नास्ति विशेषः खपुष्पवत् ॥ १॥ सामान्याद्विशेषः अन्योऽनन्यो वा भवेत् ? यबन्यः । स नाति सपुष्प मिव अनन्यः सामान्यमेव एकत् ॥१॥१न विशेषादन्तिरमतमस्ति सामान्यमा व्यवहारः । उपलम्भव्यवहाराभावात् बरनि- पाणमिय।।10
।
७ ।।
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [१], उद्देशक [-], मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
नेकत्वमिति, तथाहि-समविषयरूपत्वाद्वस्तुनः समरूपापेक्षया एकत्वं विषमरूपापेक्षया त्वनेकत्वमिति, उक्तञ्च-"वस्तुन एव समानः परिणामो यः स एव सामान्यम् । विपरीतास्तु विशेषा वस्त्वेकमनेकरूपं तद् ॥१॥" इति ॥
प्रत
सूत्रांक
[५२-५६]
इति श्रीमदभयदेवमूरिविरचिते स्थानाख्यतृतीयाङ्गाविवरणे प्रथममध्ययनमे
कस्थानकाभिधानं समाप्तमिति, (ग्रन्थाग्रं ११८७ ॥)
दीप अनुक्रम [५२-५६]
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अत्र प्रथम स्थानं (अध्ययन) परिसमाप्तं
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना
प्रत
सूत्रांक
वृत्तिः ॥३८॥
[५]
दीप अनुक्रम
अथ द्वितीयं द्विस्थानकाख्यमध्ययनं
२ स्थान
काध्ययने व्याख्यातमेकस्थानकाख्यं प्रथममध्ययनं, अतः सङ्ख्याक्रमसम्बद्धमेव द्विस्थानकाख्यं द्वितीयमध्ययनमारभ्यते, अस्य 8 चायं विशेषसम्बन्धः-इह जैनानां सामान्यविशेषात्मक वस्तु, तत्र सामान्यमाश्रित्य प्रथमाध्ययने आत्मादिवस्त्वेक-16
द्वैविध्यं त्वेन प्ररूपितमिह तु विशेषाश्रयणात् तदेव द्विविधत्वेन प्ररूप्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनु-12 योगद्वाराण्युपक्रमादीनि भवन्ति, तानि च प्रथमाध्ययनवत् द्रष्टव्यानि यस्तु विशेषः स स्वबुख्याऽवगन्तव्यः, केवलमस्य चतुरुदेशकात्मकस्थाध्ययनस्य सूत्रानुगमे प्रथमोद्देशकादिसूत्रमिदमुचारणीयम्
जदस्थि णं लोगे सं सर्व दुपओमारं, तंजहा-जीवशेष अजीवञ्चेव । तसे चेव थावरे व १, सजोणियच्चेव अजोणियव २, सायचेव अणायचेव ३, सइंदियञ्चेव, अणिदिए चेव ४, सवेवगा व अधेयगा चेष ५, सरूवि चेव भरूवि चेव ६, सपोग्गला चेव अपोग्गला चेव ७, संसारसमावनगा चेव असंसारसमावनगा व ८, सासया चेष असासया चेव ९, (सू० ५७) अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायं सम्बन्धः-पूर्व युक्तम् 'एकगुणरूक्षाः पुद्गलाः अनन्ताः' तत्र किमनेकगुणरूक्षा अपि पुद्गला भवन्ति येन ते एकगुणरूक्षतया विशिष्यन्त इति ?, उच्यते, भवन्त्येव, यतो 'जदत्थी'त्यादि, परम्परसूत्रसम्बन्धस्तु-श्रुतं 6 मयाऽऽयुष्मता भगवतैवमाख्यातमेक आत्मेत्यादि, तथेदमपरमाख्यातं 'जदत्थी'त्यादि, संहितादिचर्चः पूर्ववत्, 'घदू',
[५७]
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अब द्वितीयं स्थानं (अध्ययन) आरभ्यते, जीवानाम् वैविध्यं
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [१७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१७]
दीप अनुक्रम
जीवादिकं घस्तु 'अस्ति' विद्यते, णमितिवाक्यालङ्कारे, क्वचिसाठो 'जदत्थिं चणं ति, तत्रानुस्वार आगमिकश्चशब्दः पुनरर्थः एवं चास्य प्रयोग:-अस्त्यात्मादि वस्तु, पूर्वाध्ययनप्ररूपितस्वाद्, यच्चास्ति 'लोके' पश्चास्तिकावात्मके लोक्मते-प्रमीयत इति लोक इति व्युत्पत्त्या लोकालोकरूपे वा तत् 'सबै निरवशेष द्वयोः पदयोः-स्थानयोः पक्षयोर्विवक्षितवस्तुतद्विप-1 येयलक्षपायोरवतारो यस्य तद् द्विपदावतारमिति, 'दुपडोयाति कचित् पठ्यते, तत्र द्वयोः प्रत्यवतारो यस्य तत् द्विप्रत्यवतारमिति, स्वरूपवत् प्रतिपक्षवञ्चेत्यर्थः, 'तद्यथे'त्युदाहरणोपन्यासे, 'जीवञ्चेव अजीवचेव'त्ति, जीवाश्चैवाजीवाश्चैव, प्राकृतत्वात् संयुक्तपरत्वेन इवः, चकारी समुच्चयायौं, एवकाराववधारणे, तेन च राश्यन्तरापोहमाह, नोजीवाख्यं राश्यन्तरमस्तीति चेत्, नैवम्, सर्वनिषेधकत्वे नोशब्दस्य नोजीवशब्देनाजीव एव प्रतीयते, देशनिषेधकत्वे तु जीवदेश एव प्रतीयते, न च देशो देशिनोऽत्यन्तव्यतिरिक्त इति जीव एवासाविति, 'चेय' इति वा एवकारार्थः 'चिय चेय एवार्थ इति वचनात् , ततश्च जीवा एवेति विवक्षितवस्तु अजीवा एवेति च तत्प्रतिपक्ष इति, एवं सर्वत्र, अथवा 'यदस्ति' अस्तीति यत् सन्मात्रं यदित्यर्थः तद् द्विपदावतारं-द्विविधं, जीवाजीवभेदादिति, शेष तथैव । अथ त्रसेत्यादिकया नवसूच्या जी-10 वतत्त्वस्यैव भेदान् सप्रतिपक्षानुपदर्शयति-'तसे चेवे'त्यादि, तत्र असनामकर्मोदयतखस्यन्तीति प्रसाद्वीन्द्रियादयः स्थावरनामकर्मोदयात् तिष्ठन्तीत्येवंशीलाः स्थावरा:-पृथिव्यादयः, सह योन्या-उत्पत्तिस्थानेन सयोनिका:-संसारिणस्तद्विपर्यासभूताः अयोनिका:-सिद्धाः, सहायुषा वर्तन्त इति सायुषस्तदन्येऽनायुषः-सिद्धाः, एवं सेन्द्रिया:-संसारिणः,
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [१७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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श्रीस्थानाअसूत्रवृत्तिः
सूत्रांक [१७]
२ स्थानकाध्ययने अजीवनन्धादिकियाणां हैविध्यं
दीप अनुक्रम
अनिन्द्रियाः-सिद्धादयः, सवेदकाः-स्त्रीवेदाधुदयवन्तः, अवेदका:-सिद्धादयः, सह रूपेण-मूर्त्या वर्तन्त इति समा- सान्ते इन्प्रत्यये सति सरूपिणः-संस्थानवर्णादिमन्तः सशरीरा इत्यर्थः, न रूपिणोऽरूपिणो-मुक्ताः, सपुद्गलाः कम्मा- | दिपुद्गलवन्तो जीवाः, अपुद्गलाः-सिद्धाः, संसारं-भवं समापनका:-आश्रिताः संसारसमापन्नका:-संसारिणः, तदितरे सिद्धाः, शाश्वता:-सिद्धाः जन्ममरणादिरहितत्वाद्, अशाश्वताः-संसारिणस्ताक्तत्वादिति ॥ एवं जीवतत्त्वस्य द्विपदा- वतारं निरूप्याजीवतत्त्वस्य तं निरूपयन्नाह
आगासा व नोआगासा चेव । धम्मे चेव अधम्मे चेव । (सू०५८) बंधे चेव मोक्खे चेव १ पुग्ने चेव पावे व २ आसवे व संघरे चेष ३ वेयणा चेव निजरा चेव ४ (सू० ५९) दो किरियाओ पन्नचाओ, संजहा-जीवकिरिया चेच अजीवकिरिया चेव १, जीवकिरिया दुबिहा पन्नत्ता, संजहा--सम्मत्तकिरिया चेव, मिच्छत्तकिरिया घेच २, अजीवकिरिया दुविहा पन्नत्ता, सं०-इरियावहिया चेत्र संपराइगा चेव ३, दो किरियाओ पं० २०--काइया चेव अहिगरणिया व ४, काश्या किरिया दुविहा पन्नता -अणुवरयकायकिरिया चेव, हुप्पउत्तकायकिरिया चेव ५, अहिकर. णिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तं0-संजोयणाधिकरणिया चेव णिवत्तणाधिकरणिया चेव ६, दो किरियाओ पं०२०पाउसिया चेव पारियावणिया चेच ७, पाउसिया किरिया दुविहा पं० त०-जीवपाउसिया चेव अजीवपाउसिया चेव
८, पारियावणिया किरिया दुविहा पं० सं०-सहत्यपारियावणिया चेव परहत्यपारियावणिया चेव ९, दो किरियाओ १आदिना सयोगिकेषल्यादयः, तेषां क्षायोपशमिकभावाभावात् , क्षायोपशमिकाण चेन्द्रियाणि,
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[५७]
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॥३९॥
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आगम
(०३)
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टीप
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [२], उद्देशक [1]. मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३ ]
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क्रियानाम् द्वैविध्यं
पं० [सं० पाणातिवायकिरिया चैव अपचक्खाणकिरिया चैत्र १०, पाणातिवायकिरिया दुविधा पं० [सं० - सहस्थपाणातिवायकिरिया चैव परहृत्थपाणातिवायकिरिया चैव ११, अपचक्खाण किरिया दुविहा पं० नं० - जीवअपचक्खाणकिरिया चैव अजीव अपचक्खाणकिरिया चैव १२, दो किरियाओ पं० तं० – आरंभिया चैव परिग्गहिया चेव १३, आरं मिया किरिया दुबिहा पं० तं० - जीवआरंभिया चेत्र अजीवआरंभिया चेव १४, एवं परिग्गहियावि १५, दो किरयाओ पं० [सं० -- मायावत्तिआ चैव मिच्छादंसणबत्तिया चेव १६, मायावत्तिया किरिया दुबिहा पं० सं० आयभावकणता चैव परभावत्रकणता चेव १७, मिच्छादंसणवत्तिया किरिया दुविहा पं० तं० ऊणाइरित्तमिच्छादंसणवत्तिया चैव तवइरित्तमिच्छादंसणवत्तिया चैत्र १८, दो किरियाओ पं० नं० - दिट्टिया चैव पुट्टिया चेव १९, दिट्टिया किरिया दुविहा पं० तं० - जीवदिट्टिया चेव अजीवदिडिया चैव २०, एवं पुट्टियादि २१, दो किरियाओ पं० नं० - पाडुच्चिया चैत्र सामंतोत्रणिवाइया चैव २२, पाडुनिया किरिया दुबिहा पं० तं० - जीवपाडुच्चिया चेव अजीवपाडुचिया चेव २३, एवं सामंतोवणियाइयादि २४, दो किरियाओं पं० तं० साहित्विया चैव सत्थिया चैव २५, साहत्थियाकिरिया दुविहा पं० [सं० जीवसाहत्विया चैव अजीवसाहत्थिया चैव २६, एवं सत्थियादि २७, दो किरियाओ पं० तं० - आणवणिया चैव वेयारणिया चैव २८, जहेव सत्थियाओ २९-३०, दो किरियाओ पं० नं० - अणाभोगवत्तिया चेव अणवखवत्तिया चैत्र ३१, अणाभोगवत्तिया किरिया दुबिहा पं० नं० - अणाउस आइयणता चैव अणाउत्तपमञ्जणता चेव ३२, अणवकखवत्तिया किरिया दुबिहा पं० तं० - आयसरीरअणवकं खवत्तिया चेव परखरीरअणव
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"स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
1
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सूत्रांक
[५८-६०]
॥४
॥
दीप अनुक्रम [५८-६०]
श्रीस्थाना- कंखवत्तिया चेष ३३, दो किरियाओ पं० त०-पिजवत्तिया चेज दोसवत्तिया चेव ३४, पेजवत्तिया किरिया दुनिहा २ स्थानअसूत्र
पं० सं०-मायावत्तिया चेव लोभवत्तिया चेव ३५, दोसवत्तिया किरिया दुविहा पं० त०-कोहे चेक माणे पेप ३६, काध्ययने वृत्तिः (सू०६०)
*अजीवनआकाश-व्योम नोआकाशम् तदन्यद्धर्मास्तिकायादि, धर्म:-धर्मास्तिकायो गत्युपष्टम्भमुणः तदन्योऽधर्म:-अध- धादिक्रिमास्तिकायः स्थित्युपष्टम्भगुणः । सविपक्षबन्धादितत्त्वसूत्राणि चत्वारि प्राग्वदिति । बन्धादयश्च क्रियायां सत्यामात्मनोयाणा द्वैदाभवन्तीति क्रियानिरूपणायाह-दो किरिये'त्यादि सूत्राणि पत्रिंशत्, करणं क्रिया क्रियत इति वा क्रिया, ते च
विध्यं वे प्रज्ञप्ते-प्ररूपिते जिनः, तत्र जीवस्य क्रिया-व्यापारो जीवक्रिया, तथा अजीवस्य-पुद्गलसमुदायस्य यत्कर्मतया परिणमनं सा अजीवक्रियेति, इह चियशब्दस्य चैवशब्दस्य च पाठान्तरे प्राकृतत्वाद्विर्भाव इति, चैवेत्ययं च समुच्चयमात्र एव प्रतीयते, अपिचेत्यादिवदिति, 'जीवकिरियेत्यादि, सम्यक्त्वं-तत्त्वश्रद्धानं तदेव जीवव्यापारत्वात् क्रिया सम्यक्त्वक्रिया, एवं मिथ्यात्वक्रियाऽपि, नवरं मिथ्यात्वम्-अतत्त्वश्रद्धानं तदपि जीवव्यापार एवेति, अथवा सम्यग्दर्शनमिथ्यात्वयोः सतोर्वे भवतः ते सम्यक्त्वमिथ्यात्वक्रिये इति ॥ तन्त्र 'ईरियावहिय'ति-ईरणमीयर्या-गमनं तद्विशिष्टः पन्था ईपथस्तत्र भवा ऐर्वापत्रिकी, व्युत्पत्तिमात्रमिदं, प्रवृत्तिनिमित्तं तु यत्केवलबोगप्रत्यबघुपशाम्तमोहादि-15yen त्रयस्य सातवेदनीयकर्मतया अजीवस्य पुद्गलराशेर्भवनं सा ऐर्यापथिकी क्रिया, इह जीवव्यापारेऽप्यजीवप्रधानत्वविवक्ष
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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दीप अनुक्रम [५८-६०]
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याऽजीवक्रियेयमुक्ता, कर्मविशेषो वैर्यापथिकीक्रियोच्यते, यतोऽभिहितं-"इरियावहिया किरिया दुविहा-वज्झमाणा वेइज्जमाणा य, जा[व] पढमसमये बद्धा बीयसमये वेइया सा बद्धा पुट्ठा वेझ्या णिजिण्णा सेयकाले अकर्म बावि | भवतीति, तथा सम्परायाः-कषायास्तेषु भवा सांपरायिकी, सा ह्यजीवस्य पुगलराशेः कर्मतापरिणतिरूपा जीवव्यापारस्याविवक्षणादजीवक्रियेति, सा च सूक्ष्मसम्परायान्तानां गुणस्थानकवतां भवतीति ॥ पुनरन्यथा द्वे 'दो किरियेत्यादि, 'काइया चेव'त्ति कायेन निवृत्ता कायिकी-कायच्यापारः, तथा 'अहिगरणिया चेव'त्ति अधिक्रियते आत्मा नरकादिषु येन तदधिकरणम्-अनुष्ठानं बाह्यं वा वस्तु, इह च बाह्यं विवक्षितं खगादि, तत्र भवा आधिकरणिकीति ॥ कायिकी द्विधा-'अणुवरयकायकिरिया चेव'त्ति अनुपरतस्य--अविरतस्य सावद्यात् मिथ्यादृष्टेः सम्यग्दष्टेर्वा काय| क्रिया-उत्क्षेपादिलक्षणा कर्मबन्धनिवन्धनमनुपरतकायक्रिया, तथा 'दुप्पउत्तकायकिरिया चेच'त्ति दुष्पयुक्तस्यहै दुष्टप्रयोगवतो दुष्पणिहितस्येन्द्रियाण्याश्रित्येष्टानिष्टविषयप्राप्ती मनाक् संवेगनिर्वेदगमनेन तथा अनिन्द्रिवमाश्रित्या
शुभमनःसङ्कल्पद्वारेणापवर्गमार्ग प्रति दुर्व्यवस्थितस्य प्रमत्तसंयतस्येत्यर्थः कायक्रिया दुष्प्रयुक्तकावक्रियेति ५, आधिकरणिकी द्विधा, तत्र 'संजोयणाहिगरणिया चेव'त्ति वत्पूर्व निर्वार्तितयोः खङ्गतन्मुट्यादिकयोरर्थयोर संयोजन क्रियते सा संयोजनाऽधिकरणिकी, तथा 'णिवत्तणाहिकरणिया चेव'त्ति यच्चादितस्तयोनिवर्त्तनं सा निर्वर्त्तना
यापथिकी क्रिया द्विविधा बध्यमाना वेद्यमानाच, या प्रथमसमय बद्धा द्वितीयसमये पिता बद्धा स्पृष्टा वेदिता निर्माणी एण्यकाले अकर्म वापि भवति. ३ मुणस्थानानाबाध्या इष्ट इच्छाप्रतिवन्धेन इतरस्मिन् उद्वेगेन. २ संवेदनि.प्र.
CAMEducatinidhintanana
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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सूत्रांक
SAR
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दीप अनुक्रम [५८-६०]
श्रीस्थाना-11धिकरणिकीति । पुनरन्यथा द्वे-'पाउसिया चेव'त्ति प्रद्धेपो-मत्सरस्तेन निर्वृता प्राद्वेषिकी, तथा 'पारियावणिया|४२ स्थानअसूत्र- चेव'त्ति परितापन-ताडनादिदुःखविशेषलक्षणं तेन निवृत्ता पारितापनिकी, आद्या द्विधा-'जीवपाउसिया चेव'
त्तिकाध्ययने वृत्तिः जीवे प्रद्वेषाजीवप्राद्वेषिकी, तथा 'अजीवपाउसिया चेव'त्ति अजीवे-पाषाणादौ स्खलितस्य प्रद्वेषादजीवनाद्वेषिकीति, क्रियाणां
| द्वितीयाऽपि द्विविधा-सहत्वपारियावणिया चेव'त्ति स्वहस्तेन स्वदेहस्य परदेहस्य वा परितापनं कुर्वतः स्वहस्तपारि- द्वैविध्यं ॥४१॥
तापनिकी तथा 'परहत्वपारियावणिया चेव'त्ति परहस्तेन तथैव च तत्कारयतः परहस्तपारितापनिकीति ।। अन्यथा दे। "पाणाइवायकिरिया चेव'त्ति प्रतीता, तथा 'अपञ्चक्खाणकिरिया चेव'त्ति अप्रत्याख्यानम्-अविरतिस्तन्निमित्तः कर्मधन्धोऽप्रत्याख्यानक्रिया सा चाविरतानां भवतीति । आद्या द्वेधा-'सहस्थपाणाइवायकिरिया चेष'त्ति स्वहस्तेन स्वप्राणान् निर्वेदादिना परमाणान् वा क्रोधादिना अतिपातयतः स्वहस्तप्राणातिपातक्रिया, तथा 'परहत्थपाणाइवायकिरिया वत्ति परहस्तेनापि तथैव परहस्तप्राणातिपातक्रियेति । द्वितीयापि द्विधा, 'जीवअपचक्खाणकिरिया चेव'त्ति जीवविषये प्रत्याख्यानाभावेन यो बन्धादिापारः सा जीवाप्रत्याख्यानक्रिया, तथा 'अजीवअपचक्खाणकिरिया चेवत्ति यदजीवेषु-मद्यादिष्वप्रत्याख्यानात् कर्मबन्धनं सा अजीवाप्रत्याख्यानक्रियेति । पुनरन्यथा द्वे 'आरंभिया चेच'त्ति आरम्भणमारम्भः तत्र भवा आरम्भिकी, तथा 'परिग्गहिया चेव'त्ति 'जीवआ' परिग्रहे भवा पारिग्रहिकी ॥ आद्या द्वेधा 'जीवारम्भिया चेव'त्ति, यजीवानारभमाणस्य-उपमृगतः कर्मबन्धनं सा जीवारम्भिकी, तथा 'अजीवारं-18|॥४१॥ |भिया चेत्ति यश्चाजीवान् जीवकडेवराणि पिष्टादिमयजीवाकृतींश्च वस्त्रादीन् वा आरभमाणस्य सा अजीवारम्भि
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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कीति, एवं 'पारिग्गहिया चेव'त्ति आरम्भिकीवद् द्विविधेत्यर्थः, जीवाजीवपरिग्रहमभवत्वात् तस्या इति भावः। पुनरन्यथा द्वे 'मायावत्तिया चेव'त्ति माया-शाठ्यं प्रत्ययो-निमित्तं यस्याः कर्मबन्धक्रियाया व्यापारस्य वा सा तथा, 'मिच्छादंसणवतिया चेव'त्ति मिथ्यादर्शनं-मिथ्यात्वं प्रत्ययो यस्याः सा तथेति, आद्या द्वेधा-'आयभाववंकणया चेवत्ति आत्मभावस्याप्रशस्तस्य बनता-वक्रीकरण प्रशस्तत्वोपदर्शनता आत्मभाववङ्कनता, वनानां च बहुत्वविवक्षायां भावप्रत्ययो न विरुद्धः, सा च क्रिया व्यापारत्वात् , तथा 'परभाववंकणया चेव'त्ति परभावस्य बनता-पञ्चनता या कूटलेखकरणादिभिः सा परभाववङ्कनतेति, यतो वृद्धव्याख्येयं-"तं तं भावमायरइ जेण परो वंचिजह
कूडलेहकरणाईहि"ति, द्वितीयाऽपि द्वेधा-'ऊणाइरित्तमिच्छादसणवत्तिया चेय'त्ति ऊन-स्वप्रमाणाद्धीनमतिरिक्तछाततोऽधिकमास्मादि वस्तु तद्विषयं मिथ्यादर्शनमूनातिरिक्तमिथ्यादर्शनं तदेव प्रत्ययो यस्याः सा ऊनातिरिक्तमिथ्यादर्शन-13
प्रत्ययेति, तथाहि-कोऽपि मिथ्यादृष्टिरात्मानं शरीरव्यापकमपि अङ्गुष्ठपर्वमात्रं [यवमात्र] श्यामाकतन्दुलमानं वेति हीनतया वेत्ति तथाऽन्यः पञ्चधनुःशतिकं सर्वव्यापकं वेत्यधिकतयाऽभिमन्यते, तथा 'तब्वइरित्तमिच्छादसणवत्तिया चेव'त्ति तस्माद्-ऊनातिरिक्तमिथ्यादर्शनाद् व्यतिरिक्तं मिथ्यादर्शनं-नास्त्येवात्मेत्यादिमतरूपं प्रत्ययो यस्याः सा तथेति । पुनरन्यथा द्वे-दिडिया चेव'त्ति दृष्टेर्जाता दृष्टिजा अथवा दृष्ट-दर्शनं वस्तु वा निमित्ततया यस्यामस्ति सा दृष्टिकादर्शनार्थं या गतिक्रिया, दर्शनाद् वा यत्कर्मोदेति सा दृष्टिजा दृष्टिका वा, तथा 'पुट्ठिया चेव'त्ति पृष्टिः-पृच्छा ततो जाता पृष्टिजा-प्रश्नजनितो व्यापारः, अथवा पृष्ट-प्रक्षः वस्तु वा तदस्ति कारणत्वेन यस्यां सा पृष्टिकेति, अथवा स्पृष्टिः स्पर्शनं
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[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [६०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
॥ ४२ ॥
ततो जाता स्पृष्टिजा, तथैव स्पृष्टिकाऽपीति । आद्या द्वेधा - 'जीवदिट्टिया चेव'त्ति या अभ्वादिदर्शनार्थ गच्छतः, तथा 'अजीवदिडिया चैवत्ति अजीवानां चित्रकर्मादीनां दर्शनार्थं गच्छतो या सा अजीवदृष्टिकेति, एवं 'पुट्टिया चेव'त्ति 'एवमिति जीवाजीवभेदेन द्विधैव, तथाहि जीवमजीवं वा रागद्वेषाभ्यां पृच्छतः स्पृशतो वा या सा जीवपू|ष्टिका जीवस्पृष्टिका वा अजीवपृष्टिका अजीवस्पृष्टिका वेति । पुनरन्यथा द्वे - ' पाडुच्चिया चेव'त्ति बाह्यं वस्तु प्रतीत्य* आश्रित्य भवा प्रातीत्यिकी तथा 'सामन्तोवणिवाहया चेव'त्ति समन्तात् सर्वत उपनिपातो - जनमीलकस्तस्मिन् भवा सामन्तोपनिपातिकी आद्या द्वेधा- 'जीवपाडुचिया चेव'त्ति जीवं प्रतीत्य यः कर्मबन्धः सा तथा, तथा 'अजीपाडुचिया चेव'ति अजीवं प्रतीत्य यो रागद्वेषोद्भवस्तज्जो वा बन्धः सा अजीवप्रातीत्यिकीति । द्वितीयापि द्विधैवेत्यतिदिशन्नाह - 'एवं सामन्तोवणिवाइयावि'त्ति, तथाहि कस्यापि पण्डो रूपवानस्ति तं च जनो यथा यथा प्रलोकयति प्रशंसयति च तथा तथा तत्स्वामी हृष्यतीति जीवसामन्तोपनिपातिकी, तथा रथादौ तथैव हृष्यतोऽजीवसामन्तोपनिपातिकीति, अन्यथा वा द्वे 'साहस्थिया चैवत्ति स्वहस्तेन निर्वृत्ता स्वाहस्तिकी तथा 'नेसत्थिया चेव'ति, निसर्जनं निसृष्टं, क्षेपणमित्यर्थः, तत्र भवा तदेव वा नैसृष्टिकी, निसृजतो यः कर्म्मबन्ध इत्यर्थः, निसर्ग एव वेति, तत्र आद्या द्वेधा- 'जीवसाहत्थिया चेव'त्ति यत् स्वहस्तगृहीतेन जीवेन जीवं मारयति सा जीवस्वाहस्तिकी, तथा 'अजीव साहित्थिया चैवत्ति यच्च स्वहस्तगृहीतेनैवाजीवेन-खड्गादिना जीवं मारयति सा अजीवस्वाहस्तिकीर्ति, अथवा स्वहस्तेन जीवं ताडयत एका, अजीवं ताडयतोऽन्येति । द्वितीयाऽपि जीवाजीवभेदैवेत्यतिदिशन्नाह - 'एवं नेसत्थिया
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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दीप अनुक्रम [५८-६०]
चेवति, तथाहि-राजादिसमादेशाद्यदुदकस्य यन्त्रादिभिनिसर्जनं सा जीवनसृष्टिकीति, यत्तु काण्डादीनां धनुरादिभिः18 सा अजीवनसृष्टिकीति, अथवा गुर्बादी जीव-शिष्यं पुत्रं वा निसृजतो-ददत एका, अजीवं पुनरेषणीयभक्तपानादिकं निसृजतो-त्यजतोऽन्येति, पुनरन्यथा द्वे 'आणणिया चेव'त्ति आज्ञापनस्य-आदेशनस्येयमाज्ञापनमेव वेत्याज्ञापनी सैवाज्ञापनिका तजः कर्मवन्धः, आदेशनमेव वेति, आनायनं वा आनायनी, तथा 'वयारणिया चेव'ति विदारणं विचारणं वितारणं वा स्वार्थिकप्रत्ययोपादानाद् वैदारिणीत्यादि वाच्यमिति ॥ एते च द्वे अपि द्वेधा-जीवाजीवभेदादिति, तथाहि-जीवमाज्ञापयत आनाययतो वा परेण जीवाज्ञापनी जीवानायनी वा, एवमेवाजीवविषया अजीवाssज्ञापनी अजीवानायनी वेति ॥ तथा 'वेयारणिय'त्ति जीवमजीव वा विदारयति-स्फोटयतीति, अथवा जीवमजीवं वासमानभाषेषु विक्रीणति सप्ति द्वैभाषिको विचारयति परियैच्छावेइत्ति भणितं होति, अथवा जीव-पुरुषं वितारयति-प्रतारयति वञ्चयतीत्यर्थः, असद्गुणैरेतादृशः तादृशस्त्वमिति, पुरुषादि विप्रतारणबुद्धौव वाऽजीवं भणत्येतादृशमे-1 | तदिति यत्सा 'जीवषयारणिआऽजीवषेयारणिया वत्ति । एतत्सर्वमतिदेशेनाह-'जहेव नेसत्थिय'त्ति, अन्यथा वा द्वे|
अणाभोगवत्तिया चेवत्ति अनाभोगः-अज्ञानं प्रत्ययो-निमित्तं यस्याः सा तथा, 'अणवखवत्तिया चेव'त्ति अन-| वकासा-स्वशरीराधनपेक्षत्वं सैव प्रत्ययो यस्याः साऽनवकासाप्रत्ययेति, आद्या द्विधा-'अणाउत्तआइयणया चेव'त्ति अनायुक्तः-अनाभोगवाननुपयुक्त इत्यर्थः तस्याऽऽदानता-वस्त्रादिविषये ग्रहणता अनायुक्तादानता, तथा 'अणाउत्त
१ असमानभागेषु यो चिकौण्णाति द्वैभाषिको वि० २ वाऽयमानभावेषु प्र. ३ व्यवहारे द्वारीभवति (द्विलालः)
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[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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१ स्थान काध्ययने उद्देशः१
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गाँव
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विध्यं
पमज्जणया चेव'त्ति अनायुक्तस्यैव पात्रादिविषया प्रमार्जनता अनायुक्तप्रमार्जनता, इह च ताप्रत्ययः स्वार्थिकः प्राकृ- तत्वेन आदानादीनां भावविवक्षया वेति । द्वितीयाऽपि द्विविधा-'आयसरीरेत्यादि, तत्रात्मशरीरानवकाङ्कनमत्यया स्वशरीरक्षतिकारिकर्माणि कुर्वतः, तथा परशरीरक्षतिकराणि तु कुर्वतो द्वितीयेति । 'दो किरिये'त्यादि प्रीणि सूत्राणि,IA कण्ठ्यानि, नवरं प्रेम-रागो मायालोभलक्षणः द्वेषः क्रोधमानलक्षण इति, यदन न व्याख्यातं तत्सुगमत्वादिति ॥ एताथ | क्रियाः प्रायो गर्हणीया इति गर्हामाह
दुविहा गरिहा पं० त०-मणसा वेगे गरहति । वयसा वेगे गरहति । अहवा गरहा दुबिहा पं० सं०-दीदं वेगे अद्ध
गरहति, रहस्सं वेगे अद्धं गरहति । (सू०६१) 'विहा गरहे'त्यादि, विधानं विधा द्वे विधे-भेदौ यस्याः सा द्विविधा, गहणं गहरे-दुश्चरितं प्रति कुत्सा, साच स्वपरविषयत्वेन द्विविधा, साऽपि मिथ्यादृष्टेरनुपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेश्च द्रव्यगहो, अप्रधानगर्हेत्यर्थः, द्रव्यशब्दस्याप्रधा-1 नार्थत्वाद्, उक्तं च-अप्पाहन्नेऽवि इहं कत्थइ दिडो हुदवसहोत्ति । अंगारमद्दओ जह दवायरिओ सयाऽभन्यो ॥१॥"त्ति, सम्यग्दृष्टेस्तूपयुक्तस्य भावगहेति, चतुर्द्धा गर्हणीयभेदाबहुप्रकारा वा, सा चेह करणापेक्षया द्विविधोक्ता, तथा चाह-मणसा वेगे गरहइत्ति मनसा-चेतसा वाशब्दो विकल्पार्थो अवधारणाओं वा, ततो मनसैव न वाचेत्यर्थः, कायोत्सर्गस्थो दुर्मुखसुमुखाभिधानपुरुषद्वयनिन्दिताभिष्टुतस्तद्वचनोपलब्धसामन्तपरिभूतस्वतनयराजवार्तो मनसा
१ अप्राधान्येऽपि इह याचिरा एक हपशब्द इति । आहारमर्दको पथा द्रव्याचार्यः सदाऽभव्यः ॥ १॥
दीप अनुक्रम [५८-६०]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६१]
समारब्धपुत्रपरिभवकारिसामन्तसङ्घामो वैकल्पिकप्रहरणक्षये स्वशीर्षकग्रहणार्थव्यापारितहस्तसंस्पृष्टलुश्चितमस्तकस्ततः स-है। मुपजातपश्चात्तापानलज्वालाकलापदन्दह्यमानसकलकर्मेन्धनो राजर्पिप्रसन्नचन्द्र इव एकः कोऽपि साध्यादिर्गहते-जु-1 गुप्सते गीमिति गम्यते, तथा वचसा वा-याचा वा अथवा वचसैव न मनसा भावतो दुश्चरितादि उक्तस्वाज्जनरञ्जनार्थ || गहाँप्रवृत्ताकारमईकादिप्रायसाधुवत् एकोऽन्यो गहत इति, अथवा 'मणसाऽवेगे'त्ति इह अपिः, स च सम्भावने, तेन सम्भाव्यते अयमर्थ:-अपि मनसैको गर्हते अन्यो वचसेति, अथवा मनसाऽपि न केवलं वचसा एको गर्हते, तथा| वचसाऽपि न केवलं मनसा एक इति स एव गर्हते, उभयथाऽप्येक एव गर्हत इति भावः, अन्यथा गाद्वैविध्यमाह'अहवेत्यादि, अथवेति पूर्वोक्तद्वैविध्यप्रकारापेक्षो द्विविधा गहाँ प्रज्ञप्तेति प्रागिव, अपिः सम्भावने, तेन अपि दीर्घा-K
बृहती अद्धां-कालं यावदेकः कोऽपि गहेंते गहेणीयमाजन्मापीत्यर्थः, अन्यथा वा दीर्घत्वं विवक्षया भावनीयम्, आपे-12 दक्षिकत्वात् दीर्घहस्वयोरिति, एवमपि हस्वाम्-अल्पां यावदेकोऽन्य इति, अथवा दीर्घामेव यावत् इस्वामेव यावदिति
व्याख्येयमपेरवधारणार्थत्वादिति, एक एव वा द्विधा कालभेदेन गहेते भावभेदादिति, अथवा दीर्घ इस्वं वा कालमेव गहत इति ॥ अतीते गये कर्मणि गहाँ भवति भविष्यति तु प्रत्याख्यानम् , उक्तं च-“अईयं निंदामि पटुप्पन्नं संवरेमि अणागयं पञ्चक्खामी'ति प्रत्याख्यानमाह
दुविहे पमक्खाणे पं० त०-माणसा वेगे पचक्खाति वयसा वेगे पञ्चक्खाति, अहवा पञ्चक्खाणे दुविहे पं० सं०-दीहं अतीतं निन्दामि प्रत्युत्पन्नं संघृणोमि अनायतं प्रख्याध्यामि.
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दीप अनुक्रम [६१]
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प्रत्याख्यानस्य वैविध्यं
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६२-६३]
दीप अनुक्रम [६२-६३]]
श्रीस्थाना-I वेगे अद्धं पशक्खाति रहस्सं वेगे अद्धं पनक्खाति (सू० ६२) दोहिं ठाणेहिं अणगारे संपन्ने अणादीयं अणवयग्गं दीह- ता २ स्थानभद्धं चाउरंतसंसारकतारं वीतिवतेज्जा, तंजहा-विजाए चेव चरणेण येव (सू०६३)
काध्ययने वृत्तिः
18 'दुबिहे पचक्खाणे इत्यावि, प्रमादप्रातिकूल्येन मर्यादया ख्यान-कथनं प्रत्याख्यान, विधिनिषेधविषया प्रतिज्ञेत्यर्थः, उद्देशः १ ॥४४॥
तञ्च द्रव्यतो मिथ्यादृष्टेः सम्यग्दृष्टेवाऽनुपयुक्तस्य कृतचतुर्मासमांसप्रत्याख्यानायाः पारणकदिनमांसदानप्रवृत्ताया राजदु- प्रत्याख्याहितुरिवेति, भावप्रत्याख्यानमुपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेरिति, तच्च देशसर्वमूलगुणोत्तरगुणभेदादनेकविधमपि करणभेदाद् द्विविधम् , आह च-मनसा यैकः प्रत्याख्याति-वधादिकं निवृत्तिविषयीकरोति, शेषं प्रागिवेति । प्रकारान्तरेणापि तदाह हेतोश्च द्वै|-'अहवेत्यादि, सुगमं । ज्ञानपूर्वकं प्रत्याख्यानादि मोक्षफलमत आह-दोहिं ठाणेही त्यादि, द्वाभ्यां स्थानाभ्यां-टा विध्य गुणाभ्यां सम्पन्नो-युक्तो नास्यागारं-गेहमस्तीत्यनगार:-साधुः नास्त्यादिरस्येत्यनादिकं तत् अवदग्रं-पर्यन्तस्तन्नास्ति यस्य सामान्यजीवापेक्षया तदनवदनं तत् दीर्घा अद्धा-कालो यस्य तद् दीर्घाद्धं तत्, मकार आगमिकः, दी? वाऽध्या -मार्गो यसिंस्तदीर्घावं तच्चतुरन्त-चतुर्विभार्ग नरकादिगतिविभागेन, दीर्घत्वं प्रकटादित्वादिति, संसारकान्तार-भवारण्यं व्यतित्रजेद्-अतिक्रामेत् , तद्यथा 'विद्यया चैव' ज्ञानेन चैव 'चरणेन चैव' चारित्रेण चैवेति, इह च संसारका
न्तारव्यतिव्रजनं प्रति विद्याचरणयोयोगपद्येनैव कारणत्वमवगन्तव्यम् , एकैकशो विद्याक्रिययोरैहिकार्थेष्वप्यकारणत्विात् , नन्वनयोः कारणतया अविशेषाभिधानेऽपि प्रधानं ज्ञानमेव न चरणम् , अथवा ज्ञानमेवैकं कारणं न तु किया,
यतो ज्ञानफलमेवासी, किच-यधा क्रिया ज्ञानस्य फलं तथा शेषमपि यत् क्रियानन्तरमवाप्यते बोधकालेऽपि यज्ञ
प्रत्याख्यानस्य वैविध्यं
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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प्रत
सूत्रांक
[६२-६३]
दीप अनुक्रम [६२-६३]]
यपरिच्छेदात्मकं यच्च रागादिविनिग्रहमयमेषामविशेषेण ज्ञानं कारणं, यथा मृत्तिका घटस्य कारणं भवन्ती तदन्तरालवर्तिनां पिण्डशिवकस्थासकोशकुशूलादीनामपि कारणतामापद्यते तथेह ज्ञानमपि भवाभावस्य तदन्तरालवर्तिनां च तत्त्वपरिच्छेदसमाधानादीनां कारणमिति, यच्चानुस्मरणमात्रमन्त्रपूतविषभक्षणनभोगमनादिकमनेकविधं फलमुपलभ्यते साक्षात्तदपि क्रियाशून्यस्य ज्ञानस्य, यथा चैतद् दृष्टफलं तथा अदृष्टमप्यनुमीयतं इति, आह च-“आह पहाणे नाणं न चरितं नाणमेव वा सुद्धं । कारणमिह न उ किरिया साऽवि हु नाणत्फलं जम्हा ॥१॥जह सा नाणस्स फलं तह सेसपि तह बोहकालेवि । नेयपरिच्छेयमयं रागादिविणिग्गहो जो य॥२॥ जं च मणोचिंतियमंतपूयविसभक्खणादि बहुभेयं । फलमिह तं पञ्चखं किरियारहियस्स नाणस ॥३॥" ति, अत्रोच्यते, यत्तावदुक्तम्-'ज्ञानमेव प्रधान ज्ञानमेव चैक कारणं न क्रिया, यतो ज्ञानफलमेवासाविति, तदयुक्तम् , यतो यत एव ज्ञानात् क्रिया ततश्चेष्टफलप्राप्तिरत एवोभयमपि कारणमिष्यते, अन्यथा हि ज्ञानफलं क्रियेति क्रियापरिकल्पनमनर्थकं, ज्ञानमेव हि क्रियाविकलमपि प्रसाधयेत्, न च साधयति, क्रियाऽभ्युपगमात्, ज्ञानक्रियाप्रतिपत्तौ च ज्ञानं परम्परयोपकुरुते अनन्तरं च क्रिया यतस्तस्मात् क्रियैव प्रधानतरं युक्तं कारणं, नाप्रधानमकारणं चेति, अथ युगपदुपकुरुतस्तत उभयमपि युक्तं, न युक्तमप्राधान्य क्रियाया अकारणत्वं चेति, यः पुनरकारणत्वमेव क्रियायाः प्रतिपद्यते तं प्रतीदं विशेषेणोच्यते-क्रिया हि साक्षा
आह प्रधानं नं न चारित्रं ज्ञानमेव वा शुदं कारणमिह नैव किया सापि ज्ञानफले यस्मात् ॥१॥ यथा सा शानस फर्ड तथा शेषमपि बोधकाळेऽपि विपरिच्छेदमयं रागादिविनियहो यश्च ॥ ३॥ यथ मनश्चिन्तितमन्त्रस्त विषभक्षणादि बहुभेदं फल मिह तत् प्रत्यक्षं कियारहितस्य ज्ञानस्य ॥३॥
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना- लसूत्रवृत्तिः ॥ ४५ ॥
सूत्रांक
[६२-६३]
दीप अनुक्रम [६२-६३]]
LUCRACRORockCALCHANNEL
त्कारित्वात् कारणमन्त्य, ज्ञानं तु परम्परोपकारित्वादनन्त्यम्, अतः को हेतुर्यदन्त्यं विहायानन्त्यं कारणमिष्यते,
२ स्थानअथ सहचारिताऽङ्गीक्रियते अनयोः, अतोऽपि हि ज्ञानमेव कारणं न क्रियेत्यत्र न हेतुरस्तीति, यच्चोक्तम्-'बोधकाले-
काध्ययने
का ऽपी'त्यादि, तत्र ज्ञेयपरिच्छेदो ज्ञानमेवेति रागादिशमश्च संयमक्रियैव ज्ञानकारणा भवेदिति प्रतिपद्यामहे, किन्तु त-18
& उद्देशः१ त्फले भववियोगाख्येऽयं विचारो, यदुत-किं तत् ज्ञानस्य क्रियायास्तदुभयस्य वा फलमिति !, तत्र न ज्ञानस्यैव, क्रिया-II
ज्ञानक्रियात्फले भववियोगा फलत्वात् तस्य, नापि केवलक्रियायाः, क्रियामात्रत्वात् , उन्मत्तकक्रियावत् , ततः पारिशेष्याग्ज्ञानसहितक्रियाया इति, यच्चोक्तम्-'अनुस्मृतिज्ञानमात्रात् मन्त्रादीनां फलमुपलभ्यते' तत्र ब्रूमो-मन्त्रेष्वपि परिजपनादिक्रियायाः साधन-|
& मोक्षः भावो न मन्त्रज्ञानस्य, प्रत्यक्षविरुद्धमिदमिति चेद् यतो दृष्टं हि कचित् मन्त्रानुस्मृतिमात्रज्ञानादिष्टफलमिति, अत्रीच्यते, न मन्त्रज्ञानमात्रनिर्वत्यै तत्फलं, तज्ज्ञानस्याक्रियत्वात् , इह यदक्रियं न तत् कार्यस्य निर्वर्तकं दृष्टं, यथाऽऽका-| शकुसुम, यच्च निर्वर्तकं तदक्रियं न भवति, यथा कुलालः, न चेदं प्रत्यक्षविरुद्धं, न हि ज्ञानं साक्षात्फलमुपहरदुपल-14 श्यत इति, अथ यदि न मन्त्रज्ञानकृतं तत्फलं ततः कुतः पुनस्तदिति ?, तत्समयनिबद्धदेवताविशेपेभ्य इति ब्रूमः, तेषां हि सक्रियत्वेन क्रियानिर्वयमेतत् न मन्त्रज्ञानसाध्यमिति, आह च-"तो तं कत्तो? [आचार्यः] भण्णति, तस्समयनिबद्धदेवओवहियं । किरियाफलं चिय जओ न मंतणाणोवओगस्स ॥१॥"त्ति, ननु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्ष-14 मार्ग इति श्रूयते, इह तु ज्ञानक्रियाभ्यामसावुक्त इति कथं न विरोधः?, अथ द्विस्थानकानुरोधादेवं निर्देशेऽपि न वि
१ ततस्तत् कुतः भव्यते तरसमयनिक्ददेवतोपहितम् । कियाफलमेच यतो न मन्त्रज्ञानोपयोगस्य ॥१॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६२-६३]
दीप अनुक्रम [६२-६३]]
रोधो, नैवमवधारणगर्भत्वात् निर्देशस्येति, अत्रोच्यते, विद्याग्रहणेन दर्शनमप्यविरुद्धं द्रष्टव्यं, शानभेदत्वात् सम्यग्दर्श-४ नस्य, यथा हि अवयोधात्मकत्वे सति मतेरनाकारत्वादवग्रहेहे दर्शनं साकारत्वाच्चापायधारणे ज्ञानमुक्तमेवं व्यवसाया|त्मकत्वे सत्यवायस्य रूचिरूपोऽशः सम्यग्दर्शनमवगमरूपोऽशोऽवाय एवेति न विरोधः, अवधारणं तु ज्ञानादिव्यतिरेकेण नान्य उपायो भवव्यवच्छेदस्पेति दर्शनार्थमिति ।। विद्याचरणे च कथमात्मा न लभत इत्याह-'दो ठाणाइ'मित्यादि| सूत्राण्येकादश,
दोलाणाई अपरियाणिता आया णो केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज सवणयाए, तं०-आरंभे चेव परिगहे चेव १, दो ठाणाई अपरियादित्ता आया णो केवलं बोधि बुझेजा सं०-आरंभे चेव परिग्गहे चेव २, दो ठाणाई अपरियाइत्ता आया नो केवलं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पवइजा तं०-आरंभे चेव परिग्गहे चेव ३, एवं णो केवलं बंभचेरवासमाबसेजा ४, णो केवलेणं संजमेणं संजमेजा ५, नो केवलेणं संवरेणं संवरेजा ६, नो केवलमामिणियोहियणार्ण उप्पा
डेजा ७, एवं सुथनाणं ८ ओहिनाणं ९ मणपजवनायं १० केवलनाणं ११ । (सू०६४) 'द्वे स्थाने द्वे वस्तुनी 'अपरियाणित्त'सि अपरिज्ञाय ज्ञपरिज्ञया यथैतावारम्भपरिग्रहावनाय तथा अलं ममाभ्या-18 | मिति परिहाराभिमुख्यद्वारेण प्रत्याख्यानपरिज्ञया अप्रत्याख्याय च ब्रह्मदत्तवत्तयोरनिविण्ण इत्यर्थः, 'अपरियाइत्त'त्ति कचित्पाठः, तत्र स्वरूपतस्तावपर्यादायागृहीत्वेत्यर्थः, आरमा 'नो नैव केवलिप्रज्ञप्तं जिनोतं 'धम्म' श्रुतधर्मर लभेत 'श्रवणतया' श्रवणभावेन श्रोतुमित्यर्थः, तद्यथा-'आरम्भाः ' कृष्यादिद्वारेण पृथिव्याधुपमद्दस्तान् 'परिग्रहा
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आगम
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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सूत्रांक
[६४]
दीप अनुक्रम
श्रीस्थाना- धर्मसाधनव्यतिरेकेण धनधान्यादयस्तान , इह चैकवचनप्रक्रमेऽपि व्यक्त्यपेक्षं बहुवचनम् , अवधारणसमुच्चयो स्व-1 स्थानगसूत्र-18 बुद्ध्या ज्ञेयाविति, 'केवला' शुद्धां 'बोधि' दर्शनं सम्यक्त्वमित्यर्थो 'बुध्येत' अनुभवेत् , अथवा केवलया वोध्येति वि-18 काध्ययने वृत्तिः भक्तिपरिणामात् बोध्यं जीवादीति गम्यते 'बुध्येत' श्रद्दधीतेति ॥ मुण्डो द्रव्यतः शिरोलोचेन भावतः कषायाद्यपनय-1&ा उद्देशः १
नेन 'भूत्वा' संपद्य 'अगारादू' गेहानिष्कम्येति गम्यते, केवलामित्यस्येह सम्पन्धात् 'केवला' परिपूर्णी विशुद्धां वा- आरम्भप॥४६॥ नगारिता-प्रत्रज्यां 'प्रव्रजेत्' यायादिति, 'एच'मिति यथा प्राक् तथोत्तरवाक्येष्वपि 'दो ठाणाई' इत्यादि वाक्यं पठनी-
1रिग्रहात्यायमित्यर्थः, 'ब्रह्मचर्येण' अब्रह्मविरमणेन घासो-रात्रौ स्वापः तत्रैव वा वासो-निवासो ब्रह्मचर्यवासस्तमावसेत्-कुर्या-
पगेन धर्मदिति, 'संयमेन' पृथिव्याविरक्षणलक्षणेन संयमयेदात्मानमिति, 'संवरेण' आश्रवनिरोधलक्षणेन संवृणुयादाश्रवद्वारा- श्रवणादिदणीति गम्यते 'केवलं' परिपूर्ण सर्वस्वविषयग्राहकम् 'आभिणियोहियनाण'ति अर्थाभिमुखोऽविपर्ययरूपत्वानियतोऽसं- ज्ञानान्तं |शयस्वभावत्वात् बोधो-वेदनमभिनिबोधः स एवाभिनिबोधिकं तच्च तज्ज्ञानं चेत्याभिनिबोधिकज्ञानम्-इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तमोघतः सर्वद्रव्यासर्वपर्यायविषयं 'उप्पाडेज'त्ति उत्सादयेदिति, तथा 'एव'मित्यनेनोत्तरपदेषु 'नो केवलं उप्पाडेज'त्ति द्रष्टव्यम् , 'सुयनाणं'ति श्रूयते तदिति श्रुतं-शब्द एव स च भावभुतकारणत्वात् ज्ञानं श्रुतज्ञानं श्रुतम-18 न्थानुसारि ओघतः सर्वद्रव्यासर्वपर्यायविषयमक्षरश्रुतादिभेदमिति, तथा 'ओहिनाणति अवधीयतेऽनेनास्मादस्मिन् । वेत्यवधिः, अवधीयते-इत्यधोऽधो विस्तृत परिच्छिद्यते मर्यादया बेत्यवधि:-अवधिज्ञानावरणक्षयोपशम एव, तदुप-10 योगहेतुत्वादिति, अवधानं वाऽवधिविपयपरिच्छेदनमिति, अवधिश्वासी ज्ञानं चेत्यवधिज्ञान-इन्द्रियमनोनिरपेक्षमात्मनो
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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सूत्रांक [६४]
दीप अनुक्रम
KASCARROSS -2
SACROCAR
रूपिद्रव्यसाक्षात्करणमिति । तथा 'मणपज्जवनाणं'ति मनसि मनसो वा पर्यवः-परिच्छेदः स एव ज्ञानमथवा मनसः पर्यवाः पर्यायाः पर्यया बा-विशेषाः अवस्था मनःपर्यवादयस्तेषां तेषु वा ज्ञानं मनःपर्यवज्ञानमेवमितरत्रापि, समयक्षेत्रग-1 तसंज्ञिमन्यमानमनोद्रव्यसाक्षात्कारीति । 'केवलनाण'ति केवलम्-असहायं मत्यादिनिरपेक्षत्वादकलकं वा आवरणमलाभावात् सकलं वा-तत्प्रधमतवैवाशेषतदावरणाभावतः सम्पूर्णोत्पत्तेरसाधारणं वा-अनन्यसदृशत्वादनन्तं वा-ज्ञेयानन्तत्वात् तच तज्ज्ञानं च केवलज्ञानमिति ।। कथं पुनर्द्धर्मादीनि विद्याचरणस्वरूपाणि प्राप्नोतीत्याह-दो ठाणाई'मित्याद्येकादशसूत्री
दो ठाणाई परिवायित्ता आया केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज सवणयाए, त०-आरंभे चेव परिग्गरे घेव, एवं जाव केवलनाणमुप्पाडेजा (सू०६५)। दोहिं ठाणेहिं आया केवलिपन्न धम्म लभेज सवणयाए तं०-सोच व अभिसमेच व जावकेवलनाणं उप्पाडेजा (सू०६६)। सुगमा । धादिलाभ एव पुनः कारणान्तरद्वयमाह-'दोहीत्यादि सुगम, केवलं 'श्रवणतया' श्रवणभावेन, 'सो-| च चेव'त्ति इस्वत्वादि प्राकृतत्वादेव, श्रुत्वा-आकर्ण्य तस्यैवोपादेयतामिति गम्यते, 'अभिसमेत्य' समधिगम्य तामेवावबुध्येत्यर्थः, उक्तं च "सद्धर्मश्रवणादेव, नरो विगतकल्मपः । ज्ञाततत्त्वो महासत्त्वः, परं संवेगमागतः ॥ १॥ धर्मो| पादेयतां ज्ञात्वा, सजातेच्छोऽत्र भावतः । इदं स्वशक्तिमालोच्य, ग्रहणे संप्रवर्त्तते ॥२॥" इति, एवं रोहि बुझेज्जे| त्यादि यावत् केवलनाणं उप्पाडेज'त्ति । केवलज्ञानं च कालविशेषे भवतीति तमाह
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आगम
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सूत्रांक [६७-६९]
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[६७-६९]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [ ६७ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः
॥ ४७ ॥
दो समाओ पाओ, तं ओसप्पिणी समा चैव उस्सप्पिणी समा चैत्र (सू० ६७) दुबिछे उम्माए पं० तंजक्खावेसे चैव मोहणिज्जरस चैव कम्मस्स उदपणं, तत्थ णं जे से अक्खावेसे से णं सुहवेयतराए चेव सुहविमोयतराए देव, तत्थ णं जे से मोहणिस्स कम्मरस उदपणं से णं दुहवेयतराए चैव दुहविमोययराए चैव । (सू० ६८ ) दो दंडा पं० [सं० - अट्ठादंडे चैव अणद्वादंडे चैव, नेरइयागं दो दंडा पं० नं० - अट्ठावंडे य अण्डादंडे य, एवं चडवीसा दंडओ जात्र वैमाणियाणं (सू० ६९)
समा- कालविशेषः, शेषं सुगमम् ॥ केवलज्ञानं मोहनीयोन्मादक्षय एव भवत्यतः सामान्येनोन्मादं निरूपयन्नाह'दुविहे उम्माएं इत्यादि, उन्मादो ग्रहो बुद्धिविप्लव इत्यर्थः, यक्षावेशः- देवताधिष्ठितत्वं ततो यः स यक्षावेश एवेत्येको, | मोहनीयस्य दर्शनमोहनीयादेः कर्मण उदयेन यः सोऽन्य इति, 'तत्रे'ति तयोर्मध्ये योऽसौ यक्षावेशेन भवति स सुखवेद्यतरक एव - मोहजनितग्रहापेक्षयाऽकृच्छ्रानुभवनीयतर एव, अनैकान्तिकानात्यन्तिकभ्रमरूपत्वादस्येति, अतिशयेन | सुखं विमोच्यते- त्याज्यते यः स सुखविमोच्यतरकश्चैव, मन्त्रमूलादिमात्रसाध्यत्वादस्येति, अथवा अत्यन्तं सुखापेयःसुखापनेयः सुखापेयतरः, तथा अत्यन्तं सुखेनैव विमुञ्चति यो देहिनं स सुखविमोचतरक इति, मोहजस्तु तद्विपरीतः, ऐकान्तिकात्यन्तिकभ्रमस्वभावतयाऽत्यन्तानुचितप्रवृत्तिहेतुत्वेनानन्तभवकारणत्वात् तथाऽऽन्तर कारणजनितत्वेन मन्त्रा| द्यसाध्यत्वात् कर्मक्षयोपशमादिनैव साध्यत्वादिति, अत एवोक्तं- 'दुहवेयतराए चैव दुहविमोअतराए चेव त्ति, अतिशयेन दुःखवेद्य एव दुःखविमोच्य एव चासाविति ॥ उन्मादात् प्राणी प्राणातिपातादिरूपे दण्डे प्रवर्त्तते दण्डभाजनं
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२ स्थान
काध्ययने
उद्देशः १
समाजम्मा
ददण्डाः
॥ ४७ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [१९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
ॐ
प्रत
%
सूत्रांक
[६७-६९]
दीप अनुक्रम [६७-६९]
वा भवतीति दण्डं निरूपयन्नाह-दो दंडे'त्यादि, दण्डः-प्राणातिपातादिः, स चार्थाय-इन्द्रियादिप्रयोजनाय यः सो-IA |ऽर्धदण्डः, निष्प्रयोजनस्त्वनर्थदण्ड इति । उक्तरूपमेव दण्ड सर्वजीवेषु चतुर्विंशतिदण्डकेन निरूपयन्नाह–णेरइयाण'मित्यादि, 'एवं मिति नारकबदर्थदण्डानर्थदण्डाभिलापेन चतुर्विंशतिदण्डको ज्ञेयो, नवरं-नारकस्य स्वशरीररक्षार्थ पर|स्योपहननमर्थदण्डः प्रद्वेषमात्रादनर्थदण्डः, पृथिव्यादीनां रखनाभोगेनाप्याहारग्रहणे जीववधभावादर्थदण्डोऽन्यथा त्वनर्थदण्डः अथवोभयमपि भवान्तरार्थदण्डादिपरिणतेरिति । सम्यग्दर्शनादित्रयवतामेव च दण्डो नास्तीति त्रितयनिरूपणेच्छदर्शनं सामान्येन तावन्निरूपयति-तत्र
दुबिहे दसणे पन्नाचे तं०-सम्मइंसणे व गिरछादसणे चेव १, सम्मईसणे दुविहे पं० १०-णिसग्गसम्महसणे चेव अभिगमसम्मईसणे व २, णिसग्गसम्मईसणे दुबिहे पं० २०-पडिबाई चेव अपडिवाई चेव ३, अभिगमसम्मयंसणे दुबिहे पं० सं०-परिवाई चेव अप्पडिवाई चेव ४, मिच्छादसणे दुविहे पं० सं०-अभिमगहियमिच्छादसणे व अणभिगहियमिच्छादसणे चेव ५, अभिग्गहियमिच्छादसणे दुविहे पं० ०-सपजवसिते चेव अपमवसिते चेव ६,
एवमणभिगहितमिच्छादसणेऽवि ७ । (सू०७०) 'दुविहे दंसणे'इत्यादि सूत्राणि सप्त सुगमान्येव, नवरं, दृष्टिदर्शनम्-तत्त्वेषु रुचिः तच्च सम्बग-अविपरीतं जिनोक्तानुसारि, तथा मिथ्या-विपरीतमिति।'सम्मईसणे इत्यादि, निसर्गःस्वभावोऽनुपदेश इत्यनर्थान्तरं, अभिगमोऽधिगमो गुरूपदेशादिरिति, ताभ्यां यत्तत् तथा, क्रमेण मरुदेवीभरतबदिति, 'निसगें'त्यादि,प्रतिपतनशील प्रतिपाति सम्यग्दर्शनमौपशमिकं |
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
c6CCC
सूत्रांक [७०]
दीप अनुक्रम
श्रीस्थाना-14क्षायोपशमिकं च, अप्रतिपाति क्षायिक, तत्रैषां क्रमेण लक्षणं-दहीपशमिकी श्रेणीमनुप्रविष्टस्यानन्तानुबन्धिनां दर्शनमोह- २ स्थान
नीयत्रयस्य चोपशमादौपशमिकं भवति, यो वाऽनादिमिथ्यादृष्टिरकृतसम्यक्त्वमिथ्यात्वमिश्राभिधानशुद्धाशुद्धोभयरूपमि- काध्ययने वृत्तिः थ्यात्वपुद्गलत्रिपुञ्जीक एव अक्षीणमिथ्यादर्शनोऽक्षपक इत्यर्थः, सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते तस्यौपशमिकं भवतीति, कधं?-इह 31 उद्देशः१ यदस्य मिथ्यादर्शनमोहनीयमुदीर्ण तदनुभवेनैवोपक्षीणमन्यत्तु मन्दपरिणामतया नोदितमतस्तदन्तर्मुहूर्त्तमात्रमुपशान्तमास्ते,
सम्यग्मि॥४८॥
विष्कम्भितोदयमित्यर्थः, तावन्तं कालमस्यौपशमिकसम्यक्त्वलाभ इति, आह च-"उवसामगसेढिगयस्स होइ उवसामि च्यादर्शनं तु सम्मत्तं । जो वा अकयतिपुञ्जो अखवियमिच्छो लहइ सम्मं ॥१॥खीणम्मि उदिन्नंमी अणुदिजंते य सेसमिच्छत्ते। | अंतोमुत्तकालं उबसमसम्मं लहइ जीवो ॥२॥" ति। अन्तर्मुहुर्तमात्रकालत्वादेवास्य प्रतिपातित्वं, यच्चानन्तानुवन्ध्युदये औपशमिकसम्यक्त्वात् प्रतिपततः सास्वादनमुच्यते तदीपशमिकमेव, तदपि च प्रतिपात्येव, जघन्यतः समयमात्रत्वादुत्कृष्टतस्तु पडावलिकामानवादस्पेति, तथा इह यदस्य मिध्यादर्शनदलिकमुदीर्ण तदुपक्षीणं यच्चानुदीर्ण तदुप-1 शान्तम् , उपशान्तं नाम विष्कम्भितोदयमपनीतमिथ्यास्वभावं च, तदिह क्षयोपशमस्वभावमनुभूयमानं क्षायोपशमिक-| |मित्युच्यते, नन्वौपशमिकेऽपि क्षयश्चोपशमश्च तथेहापीति कोऽनयोर्विशेषः, उच्यते, अयमेव हि विशेषः-यदिह वेद्यते । दलिकं न तत्र, इह हि क्षायोपशमिके पूर्वशमितमनुसमयमुदेति घेद्यते क्षीयते च, औपशमिके तूदयविष्कम्भणमात्रमेव,
उपकामधेणिगतस्य भवति औपशामिर्क तु सम्बत्वम् । यो पातत्रिपुरोऽक्षपित मिथ्याथो सभने सम्बत्वम् ।।१॥क्षीणे उदीर्ण अनुवीण च शेषमिध्यारवे । अन्तर्मुहूर्त कालमापशमिकसम्मत्वं लभते जीवः ॥ ३॥
[७०]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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सूत्रांक [७०]
आह च-"मिठत्तं जमुइन्नं तं खीणं अणुइयं च उवसंतं । मीसीभावपरिणयं वेइजतं खओवसमं ॥१॥" ति, एतदपि जघन्यतोऽन्तर्मुहर्तस्थितिकत्वादुत्कर्षतः षट्षष्टिसागरोपमस्थितिकत्वाच्च प्रतिपातीति, यदपि च क्षपकस्य सम्यग्दर्शनदलिकचरमपुद्गलानुभवनरूपं वेदकमित्युच्यते तदपि क्षायोपशमिकभेदत्वात् प्रतिपात्येवेति, तथा मिथ्यात्वसम्यग्मिध्यास्वसम्यक्त्वमोहनीयक्षयात् क्षायिकमिति, आह च-"खीणे दंसणमोहे तिविहंमिवि भवनियाणभूयंमि । निष्पच्चवायम| उर्ल सम्मत्तं खाइयं होइ ॥१॥"त्ति, इदं तु क्षायिकत्वादेवाप्रतिपाति, अत एव सिद्धत्वेऽप्यनुवर्तत इति । 'मिच्छादसणे इत्यादि, अभिग्रहः-कुमतपरिग्रहः स यत्रास्ति तदाभिग्रहिकं तद्विपरीतम्-अनभिग्रहिकमिति । 'अभिग्गहिए' इत्यादि, अभिग्रहिकमिथ्यादर्शनं सपर्यवसितं-सपर्यवसानं सम्यक्त्वप्राप्ती, अपर्यवसितमभव्यस्य सम्यक्त्वाप्राप्तेः, तच मिथ्यात्वमात्रमप्यतीतकालनयानुवृत्त्याऽऽभिग्रहिकमिति व्यपदिश्यते, अनभिग्रहिकं भव्यस्य सपर्यवसित मितरस्यापर्यवसितमिति, अत एवाह-एवं अणभी'त्यादि । दर्शनमभिहितमथ ज्ञानमभिधीयते, तत्र 'दुविहे नाणे इत्यादीनि आवस्सगवइरित्ते दुविहे' इत्यादिसूत्रावसानानि त्रयोविंशतिः सूत्राणि ॥
दुविहे नाणे पं० त..पचक्खे चेव परोक्खे चेव १, पञ्चक्खे नाणे दुविहे पन्नत्ते त०-केवलनाणे व णोकेवलनाणे
व २, केवलणाणे दुविहे पं० २०--भवत्यफेवलनाणे चेव सिद्धकेवलणाणे चेव ३, भवत्य केवलणाणे दुबिहे पं०६०
मिथ्यात्वं यदीर्ण तत्क्षी अनदी चोपशान्तम् । मिधीभावपरिणतं वेबमानं क्षायोपवाभिकम् ॥ १॥ २क्षीणे दर्शनमोहे त्रिविषेऽपि भवनिदानभूते । स्था०९
दिनिधपायमतुलं सम्यक्त्व क्षायिक भवति ॥ १॥३जिनामे वाभिप्रहिकसंभवान् , तस्वस्थापयवसितवाभावात् अती तेयादि.
दीप अनुक्रम
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[७०]
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थानाअसूत्रवृत्तिः
२स्थानकाध्ययने उद्देशः १ प्रत्यक्षपरो
सूत्रांक [७१]
॥४९॥
क्षज्ञाने
दीप अनुक्रम
-सजोगिभवत्थकेवलणाणे चेब, अजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव ४, सजोगिभवत्थकेवलणाणे दुविहे पं० त०-पढमसमयसजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव अपढ़मसमयसजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव ५, अहवा परिमसमयसजोगिभवस्थकेवलणाणे व अचरिमसमयसजोगिभवत्थकेवलनाणे चेव ६, एवं अजोगिभवत्थकेवलनाणेऽवि ७-८, सिद्धकेवलणाणे दुबिहे पं० २० -अणंतरसिद्धकेवलणाणे व परंपरसिद्धकेवलनाणे चेव ९, अणंतरसिद्धकेवलनाणे दुविहे पं००-एकाणंतरसिद्धकेबलणाणे चेव अणेकाणंतरसिद्धकेवलणाणे व १०, परंपरसिद्धकेवलणाणे दुविद्दे पं० २०-एकपरंपरसिद्धकेवलणाणे चेव अणेकपरंपरसिद्धकेवलणाणे चेव ११, णोकेवलणाणे दुविहे पं०सं०-ओहिणाणे चेव मणपज्जवणाणे व १२, ओहिणाणे दुबिहे पं० सं०-भवपञ्चइए चेव खओवसमिए चेव १३, दोण्हं भवपञ्चइए पन्नत्ते, तं०-देवाणं चेव नेरइयाण घेव १४, दोण्हं खोवसमिए पं० ०–मणुस्साणं चैव पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं चेव १५, मणपज्जवणाणे दुविहे पं० त०-तञ्जुमति चेव विउलमति चेक १६, परोक्खे गाणे दुविहे पन्नते, तं० आमिणिबोहियणाणे चेव मुयनाणे चेव १७, आभिणिवोहियणाणे दुविहे पं० त०-सुवनिस्सिए चेव असुयनिस्सिए चेव १८, सुयनिस्सिए दुबिहे पं० तं०-अयोग्गहे पेव बंजणोग्गहे चेव १९, असुयनिस्सितेऽबि एमेव २०, सुयनाणे दुविहे पं० २०-अंगपबिट्टे चेव अंगबाहिरे चेव २१, अंगबाहिरे दुविहे पं० त०-आवस्सए चेव आवस्सयबइरित्ते चेव २२, आवस्सयवतिरिचे दुविहे
पं० त०-कालिए चेव उकालिए चेव २३ ॥ (सू०७१) सुगमानि, नवरं 'ज्ञान' विशेषावबोधः अनाति-भुङ्क्ते अश्नुते चा-व्यामोति ज्ञानेनार्थानित्यक्षः-आत्मा तं प्रति यद्
[७१]
॥४९॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[७१]
दीप अनुक्रम
वर्तते इन्द्रियमनोनिरपेक्षत्वेन तत्प्रत्यक्षम्-अव्यवहितत्वेनार्थसाक्षात्करणदक्षमिति, आह च-"अक्खो जीवो अत्थब्वावणभोयणगुणण्णिओ जेण । तं पइ घट्ट नाणं जं पञ्चक्खं तमिह तिविहं ॥१॥"ति, परेभ्या-अक्षापेक्षया पुद्गल-12 मयत्वेन द्रव्येन्द्रियमनोभ्योऽक्षस्य-जीवस्य यत्तसरोक्षं निरुक्तवशादिति, आह च-'अक्खैस्स पोग्गलकया ज दधिदियमणा परा तेण । तेहितो जं नाणं परोक्खमिह तमणुमाणं व ॥१॥"त्ति, अथवा परैरुक्षा-सम्बन्धनं जन्यजनक-1 |भावलक्षणमस्येति परोक्षम्-इन्द्रियमनोव्यवधानेनात्मनोऽर्थप्रत्यायकमसाक्षात्कारीत्यर्थः ।। 'पञ्चक्खे'त्यादि, केवलम्एकं ज्ञानं केवल ज्ञानं तदन्यन्नोकेवलज्ञानम्-अवधिमनःपर्यायलक्षणमिति । 'केवले'त्यादि, 'भवत्थकेवलनाणे चेवत्ति भवस्थस्य केवलज्ञानं यत्तत्तथा, एवमितरदपि, 'भवत्थेत्यादि, सह योगैः-कायव्यापारादिभिर्यः स सयोगी इनसमासान्तत्वात् स चासौ भवस्थश्च तस्य केवल ज्ञानमिति विग्रहः, न सन्ति योगा यस्य स न योगीति वा योऽसावयोगी-शैलेशीकरणव्यवस्थितः, शेषं तथैव, 'सयोगी'त्यादि, प्रथमः समयः सयोगित्वे यस्य स तथा, एवमप्रथमो-धादिसमयो| यस्य स तथा, शेषं तथैव, 'अथवेत्यादि, चरम:-अन्त्यः समयो यस्य सयोग्यवस्थायाः स तथा, शेष तथैव, 'एवं मिति |सयोगिसूत्रवत्प्रथमाप्रथमचरमाचरमविशेषणयुक्तमयोगिसूत्रमपि वाच्यमिति, 'सिद्धेत्यादि, अनन्तरसिद्धो यः सम्पति स-1 मये सिद्धः, स चैकोऽनेको वा, तथा परम्परसिद्धो यस्य ध्यादयः समयाः सिद्धस्य सोऽप्येकोऽनेको वेति, तेषां यत्के
१ अक्षो जीयोऽव्यापनभोजनगुणान्वितो येन । तं प्रति चर्त्तते ज्ञान यत् प्रत्यक्ष लविङ त्रिविधम् ॥१॥ २ अक्षान पुगलमयानि महम्मेन्द्रियमनांसि पराणि कान । तेभ्यो यत्, ज्ञानं परोक्षमिह तदनुमान मिय ॥१॥ ३ पोमगलमया प्र.
[७१]
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प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ज्ञानम्
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [७१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७१]
वृत्तिः
दीप अनुक्रम
श्रीस्थाना
दावलज्ञानं तत्तथा व्यपदिश्यत इति । 'ओहिनाणे इत्यादि, 'भवपच्चइए'त्ति क्षयोपशमनिमित्तत्वेऽप्यस्य क्षयोपशमस्यापि र स्थानसूत्र- भवप्रत्ययत्वेन तत्राधान्येन भव एवं प्रत्ययो यस्य तद्भवप्रत्ययमिति ब्यपदिश्यत इति, इदमेव भाष्यकारेण साक्षेपप- काध्ययने
|रिहारमुक्तं, तत्राक्षेपः-"ओही खओवसमिए भावे भणितो भवो तहोदइए । तो किह भवपञ्चइओ वोत्तुं जुत्तोऽवही|8| दोण्हं ॥१॥" (दोण्ह )ति देवनारकयोः, अत्र परिहारः-सोऽवि हु खओवसमिओ किन्तु स एव उ खओवसम- प्रत्यक्षपरोलाभो । तंमि सइ होइऽवस्सं भण्णइ भवपञ्चओ तो सो ॥१॥" यतः-"उदयक्खयखओवसमोवसमावि अजं च 3
क्षज्ञाने कम्मुणो भणिया। दव्वं खेत्तं कालं भवं च भावं च संपप ॥१॥"त्ति, तथा तदावरणस्य क्षयोपशमे भवं क्षायोप-टू |शमिकमिति । 'मणपज्जवेत्यादि, ऋञ्ची-सामान्यग्राहिणी मतिः ऋजुमतिः-घटोऽनेन चिन्तित इत्यध्यवसायनिवन्धन मनोद्रव्यपरिच्छित्तिरित्यर्थः, विपुला-विशेषग्राहिणी मतिर्विपुलमतिः-घटोऽनेन चिन्तितः स च सौवर्णः पाटलिपुत्रि-13 कोऽद्यतनो महानित्याद्यध्यवसायहेतुभूता मनोद्रव्यविज्ञप्तिरिति, आह च-"रिर्जु सामण्णं तम्मत्तगाहिणी रिजुमती मणोनाणं । पायं विसेसविमुहं घडमेत्तं चिंतितं मुणइ ॥१॥ विउलं वत्थुविसेसणमाणं तग्गाहिणी मती विउला। चिंतियमणुसरइ घर्ड पसंगओ पज्जयसएहिं ॥२॥" 'आभिणियोहिए'इत्यादि, श्रुतं कर्मतापन्नं निश्रितम्-आ-13
अवधिः झायोपशमके भावे भणितो भवसायौदयिके । ततः कथं भवप्रत्यधिको अक्तुं युजोऽवधियोः। ॥१॥ २ सोऽपि क्षायोपशामिकः किन्तु स एवंद तुक्षयोपशामलामः । तस्मिन् सति भवखवयं मप्यते भवप्रत्यविस्ततः ।।१॥३ उदयक्षपक्षयोपशमोपशमा यच्च कर्मगो भनिताः । द्रव्यं क्षेत्र काल भवं च भावंच ॥५०॥
वाय॥१॥४जु:सामान्यं तन्मात्राहिणी ऋजमतिमनोहानम् । प्रायो विशेष विमलंघटमात्र चिन्तितं जानाति ॥१॥विपुलं वस्तुविशेषणमान ताहिणीला मितिः विपुला । चिन्तितमनुस्मरति घटं प्रसारतः पर्यायशतः ॥ २॥
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प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ज्ञानम्
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [७१]
दीप अनुक्रम
ACCIA
श्रितं श्रुतं वा निश्रितमनेनेति श्रुतनिश्रितं, यत्पूर्वमेव श्रुतकृतोपकारस्येदानी पुनस्तदनपेक्षमेवानुप्रवर्त्तते तदवग्रहादिलक्षणं श्रुतनिश्रितमिति, यत्पुनः पूर्व तदपरिकर्मितमतेः क्षयोपशमपटीयस्त्वादौत्पत्तिक्यादिलक्षणमुपजायतेऽन्यद्वारे श्रोत्रादिप्रभवं तदश्रुतनिश्रितमिति, आह च-"पुवं सुयपरिकम्मियमतिस्स जं संपर्य सुयाईयं । [] सुयनिस्सियमियरं ५ पुण अणिस्सियं मइचउक(तं)॥१॥"ति 'सुए'त्यादि, 'अत्थोग्गहे'त्ति अर्यते-अधिगम्यतेऽयते वा अन्विष्यत इत्यर्थः, तस्य सामान्यरूपस्य अशेषविशेषनिरपेक्षानिर्देश्यस्य रूपादेरवग्रहण-प्रथमपरिच्छेदनमावग्रह इति, निर्विकल्पकं ज्ञानं दर्शनमिति यदुच्यते इत्यर्थः, स च नैश्चयिको यः स सामयिको यस्तु व्यावहारिकः शब्दोऽयमित्याधुलेखवान् स आन्तमौहर्तिक इति, अयं चेन्द्रियमनःसम्बन्धात् पोढा इति, तथा व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जन-तचोपकरणे|न्द्रियं शब्दादित्वपरिणतद्रव्यसङ्घातो वा, ततश्च व्यञ्जनेन-उपकरणेन्द्रियेण शब्दादित्वपरिणतद्रव्याणां व्यञ्जनानामवग्रहो व्यञ्जनावग्रह इति, अथवा व्यञ्जनम्-इन्द्रियशब्दादिद्रव्यसम्बन्धः इति, आह च-"वजिजइ जेणऽत्थो घडोव्व दीवेण वंजणं तो तं । उवगरणिदियसद्दादिपरिणयद्दब्यसंबंधो॥ १ ॥"त्ति, अयं च मनोनयनवर्जेन्द्रियाणां भवतीति चतुर्दा, नयनमनसोरप्राप्तार्थपरिच्छेदकत्वात् , इतरेषां पुनरन्यथेति, ननु व्यञ्जनावग्रहो ज्ञानमेव न भवति, इन्द्रियशब्दादिद्रव्यसम्बन्धकाले तदनुभवाभावात् , बधिरादीनामिवेति, नैवं, व्यञ्जनावग्रहान्ते तद्वस्तुग्रहणादेवोपलब्धिसद्भा
पूर्व भुतपरिकमितमतेवन, साम्प्रतं श्रुतातीतम् । तनिधितमियरत पुनरनिषितं मतिचतुष्क सत् ॥1॥ १व्यज्यते येनाथों पर इस दीपेग व्यानं साततत्तत् । उपकरणेन्द्रियशन्दादिपरिणतव्यसम्बन्धः ॥१॥
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प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ज्ञानम्
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७१]
२ स्थानकाध्ययने | उद्देशः१
क्षज्ञाने
दीप अनुक्रम
श्रीस्थाना-IN
वात् , इह यस्य ज्ञेयवस्तुग्रहणस्यान्ते तत एव ज्ञेयवस्तूपादानात् उपलब्धिर्भवति तत् ज्ञानं रई, यथाऽर्थावग्रहपर्यन्ते ङ्गसूत्र- तत एवार्थावग्रहग्राह्यवस्तुग्रहणादीहासद्भावात् अर्धावग्रहज्ञानमिति, आह च-"अन्नाणं सो बहिराइणं व तकालम- वृत्तिः णुवलंभाओ। [आचार्यः] न तदन्ते तत्तोच्चिय उवलंभाओ तयं नाणं ॥१॥"ति, किश्च-व्यञ्जनावग्रहकालेऽपि ज्ञा
नमस्त्येव, सूक्ष्माव्यक्तत्त्वात्तु नोपलभ्यते, सुप्ताव्यक्तविज्ञानवदिति, ईहादयोऽपि श्रुतनिश्रिता एव, न तूक्ताः, द्विस्था॥५१॥
नकानुरोधादिति । 'अस्सुयनिस्सिए वि एमेव त्ति अर्थावग्रहव्यञ्जनावग्रहभेदेनाश्रुतनिश्रितमपि द्विधैवेति, इदं च श्रोत्रादिप्रभवमेव, यत्तु औत्पत्तिक्याद्यश्रुतनिश्रितं तत्रावग्रहः सम्भवति, यदाह-"किहे पडिकुकुडहीणो जुझे किंवेण| उग्गहो ईहा । किं सुसिलिहमवाओ दप्पणसंकेत बिंबंति ॥१॥" न तु व्यञ्जनावग्रहः, तस्येन्द्रियाश्रितत्वात् , बुद्धीनां तु मानसत्वात् , ततो बुद्धिभ्योऽन्यत्र व्यञ्जनावग्रहो मन्तव्य इति । 'सुयणाणे'इत्यादि, प्रवचनपुरुषस्याङ्गानीवाङ्गानि तेषु प्रविष्ट-तदभ्यन्तरं तत्स्वरूपमित्यर्थः, तच्च गणधरकृतं 'उप्पन्ने इ वेत्यादिमातृकापदबयप्रभवं वा ध्रुव श्रुतं वा आचारादि, यत्पुनः स्थविरकृतं मातृकापदत्रयव्यतिरिक्तव्याकरणनिबद्धमध्रुवश्रुतं वोत्तराध्ययनादि तदङ्गाबाह्यमिति, आह च-"गणहर १ घेराइकतं २ आएसा मुकवागरणओ वा २। धुव १चलविसेसणाओ २ अंगाणंगेसु नाणत्तं ॥शा" ति, 'अंगवाही'त्यादि अवश्यं कर्त्तव्यमित्यावश्यक-सामायिकादि षविधम्, आह च-"समण सावरण य
१ अज्ञानं स बचिरादीनामिव तत्कालमनुपलम्भात् । न तदन्ते तत एकोपलम्भात्तकत् ज्ञानम् ॥1॥ २ कथं प्रतिकुकुटहीनो युपति विम्येनावग्रह ईहा कि मुसिष्टमवायो दर्पणकान्तं विम्बमिति ॥ १॥ ३ गणधरस्थविरादिकृतं आदेशात् गुचव्याकरणतो वा । धुवचल विशेषणाद्वा अमानस्योः नानात्वम् ॥१॥ [४ श्रमणेन बावकेश चापाय कर्तव्यं भवति यस्मात् । अन्तेऽदो निशध तसादावश्यकं नाम ॥१॥
[७१]
॥५१॥
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[७१]
दीप अनुक्रम
४ अवस्स कायव्वयं हवह जम्हा । अंतो अहो णिसस्स य तम्हा आवस्सयं नामं ॥१॥ ॥ आवश्यकाद् व्य
तिरिक्तं ततो यदन्यदिति । 'आवस्सगवतिरित्ते'इत्यादि, यदिह दिवसनिशाप्रथमपश्चिमपौरुषीद्वय एव पठ्यते तत्काली लेन निवृत्तं कालिकम्-उत्तराध्ययनादि, यत्पुनः कालवेलावर्ज पठ्यते तदूर्व कालिकादित्युत्कालिकं-दशकालिकादीति ।। उक्तं ज्ञानं, चारित्रं प्रस्तावयति
दुविहे धम्मे पं० सं०-सुयधम्मे चेव चरित्तधम्मे चेब, सुयधम्मे दुविहे पं०.०-सुत्तसुयधम्मे पेव अत्यमुयधम्मे घेव, परित्तधमो दुबिहे पं० सं०-अगारचरित्तधम्मे व अणगारचरित्तधम्मे पेव, दुविहे संजमे पं० सं०-सरागसंजमे चेव वीतरागसंजमे बेव, सरागसंजमे दुविहे पं० त०-मुहुमसंपरायसरागसंजमे चेष बादरसंपरायसरागसंजमे घेच, मुहुमसंपरायसरागसंजमे दुविहे पन्नसे, तं-पढमसमयसुहुमसंपरायसरागसंजमे चेव अपढ़मसमयमु०, अथवा चरमसमयसु० अचरिमसमयभु०, अहवा सुटुमसंपरायसरागसंजमे दुविहे पं० सं०-संकिलेसमाणए व विसुज्झमाणए चेव, वादरसंपरायसरागसंजमे दुबिहे पं० सं०-पढमसमयबादर अपढमसमयबादरसं०, आहवा चरिमसमय अचरिमसमय, आहवा वायरसंपरायसरागसंजमे दुविहे पं० सं०-पडिवाति चेव अपडिवाति चेव, वीयरागसंजने दुविहे पं० सं०उवसंतकसायवीयरागसंजमे चेव खीणकसायवीयरागसंजमे चेव, उवसंतकसायवीयरागसंजमे दुविहे पं००-पढमसमयउवसंतकसायवीतरागसंजमे चेव अपढमसमयउव०, अहवा चरिमसमय अचरिमसमय, खीणकसायवीतरागसंजमे दुविहे पं० सं०-छउमस्थखीणकसायवीयरागसंजमे चेव केवलिखीणकसायवीयरागसंजमे चेव, छतमत्वखीणकसायवी
[७१]
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धर्मानाम् द्विविधा: भेदा:, संयमानाम् द्विविधा: भेदा:,
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
K
प्रत सूत्रांक [७२]
श्रीस्थानाइसूत्रवृत्तिः
धर्मसंयमौ
॥ ५२ ।।
दीप अनुक्रम [७२]
यरागसंजमे दुविहे पं० सं०-सर्वबुद्धछउमत्थखीणकसाय० बुद्धबोहियछउमस्थ, सर्ययुगछउमस्थ दुविहे ५०० २ स्थान
-पढमसमय० अपढमसमय०, अहवा चरिमसमय अपरिमसमय, बुद्धबोहियछउमरथखीण. दुविहे पं० त०- काध्ययने पढमसमय अपढमसमय०, अहवा परिमसमय अचरिमसमय, केवलिखीणकसायवीतरागसंजमे दुविहे पं०
उद्देशः १ सजोगिकेवलिखीणकसाय अजोगिकेवलिखीणकसायवीयराग०, सजोगिकेवलिखीणकसायसंजमे दुविहे पं० सं०-पढ़मसमय अपढमसमय०, अहवा परिमसमय अचरिमसमय०, अजोगिकेवलिखीणकसाय. संजमे दुविहे पं० २०
पढमसमव० अपढमसमय अइवा चरिमसमय० अथरिमसमय० ॥ (सू०७२) दुर्गतौ प्रपततो जीवानं रुणद्धि सुगतौ च तान् धारयतीति धर्मः श्रुतं-द्वादशाङ्गं तदेव धर्मः श्रुतधर्मः, चर्यते-आसेव्यते। यत् तेन वा चर्यते-गम्बते मोक्ष इति चरित्रं-मूलोत्तरगुणकलापस्तदेव धर्मश्चारित्रधर्म इति । 'सुयधम्मे' इत्यादि, सूज्यन्ते सूच्यन्ते वाऽर्था अनेनेति सूत्रम्, सुस्थितत्वेन व्यापित्वेन च सुष्कृतत्वाद्वा सूक्तं, सुप्तमिव वा सुप्तम् , अव्याख्यानेनाप्रबुद्धावस्थत्वादिति, भाष्यवचनं त्वेवं-“सिञ्चति खरइ जमत्थं तम्हा सुत्तं निरुत्तविहिणा वा । सूएइ सवति सुबह सिब्वइ सरए व जेणऽत्थं ॥१॥ अविवरियं सुत्तपि व सुडियवावित्तओ सुवुत्त"त्ति ॥ अर्यतेऽधिगम्यतेऽर्थ्यते वा याच्यते बुभुत्सुभिरित्यर्थो-व्याख्यानमिति, आह च-"जो सुत्ताभिप्याओ सो अस्थो अजए य जम्हत्ति" 'चरित्तेत्यादि,
१ पतको रक्षति सुगतौ च धत्ते इति. २ सिश्चति क्षरति यस्मादर्थ तस्मात्सूत्र निरुतविधिना वा । सूचयति श्रवति भूयते तिच्यते स्मयते या वेनार्थः ॥१॥ अविकृतं सुप्तमिव मुस्थितन्यापित्वात् सूज मिति. ३ यः मूत्राभिप्रायः सोऽर्थोऽयते च यस्मादिति ।
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XII५२॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [७२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[७२]
दीप अनुक्रम [७२]
45-4585645-45
अगार-गृहं तद्योगादगारा:-गृहिणस्तेषां यश्चरित्रधर्म:-सम्यक्त्वमूलाणुव्रतादिपालनरूपः स तथा, एवमितरोऽपि, नवरमगारं नास्ति येषां तेऽनगाराः-साधव इति । चरित्रधर्मश्च संयमोऽतस्तमेवाह-'दुविहे त्यादि, सह रागेण-अभिष्वङ्गेण मायादिरूपेण यः स सरागः स चासी संयमश्च सरागस्य वा संयम इति वाक्यम् , चीतो-विगतो रागो यस्मात् स चासौ संयमश्च वीतरागस्य वा संयम इति वाक्यमिति । 'सरागे'त्यादि, सूक्ष्मः-असङ्ग्यातकिट्टिकावेदनतः सम्परायः-कषायः सम्परैति-संसरति संसारं जन्तुरनेनेति व्युत्पादनाद्, आह च-कोहाइ संपराओ तेण जुओ संपरीति संसार"ति, स च लोभकषायरूपः उपशमकस्य क्षपकस्य वा यस्य स सूक्ष्मसम्परायः साधुस्तस्य सरागसंयमः, वि-IN | शेषणसमासो वा भणनीय इति, बादराः-स्थूराः सम्परायाः-कषाया यस्य साधोः यस्मिन् वा संयमे स तथा-सूक्ष्म-151 | सम्परायप्राचीनगुणस्थानकेषु, शेष प्राग्वदिति । 'मुहुमें'त्यादिसूत्रद्वये प्रथमाप्रथमसमयादिविभागः केवलज्ञानवदिति ।। |'अहवेत्यादि, सतिश्यमानः संयमः उपशमश्रेण्याः प्रतिषततः, विशुद्धयमानस्तामुपशमश्रेणी वा समारोहत इति । | 'बादरे त्यादिसूत्रद्वयं, बादरसम्परायसरागसंयमस्य प्रथमाप्रथमसमयता संयमप्रतिपत्तिकालापेक्षया चरमाचरमसमयता
तु यदनन्तरं सूक्ष्मसम्परायता असंयतत्वं वा भविष्यति तदपेक्षयेति, 'अहवेत्यादि, प्रतिपाती उपशमकस्यान्यस्य या | अप्रतिपाती क्षपकस्येति । सरागसंयम उक्तोऽतो वीतरागसंयममाह-वीयरागे'त्यादि, उपशान्ताः-प्रदेशतोऽप्यवेद्यमानाः कषाया यस्य यस्मिन् वा स तथा साधुः संयमो वेति-एकादशगुणस्थानवतीति, क्षीणकषायो द्वादशगुणस्थान
१ षष्ठीलोपमपेक्ष्य. २ क्रोधाद्याः संपरायासौर्युतः संपरति संसारम् ।
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [७२]
दीप अनुक्रम
वत्तीति, 'उवसंते'त्यादि सूत्रद्वयं प्रागिव । 'खीणे त्यादि, छादयत्यात्मस्वरूपं यत्तच्छद्म-ज्ञानावरणादिधातिकर्म तत्र २ स्थानगसूत्र- तिष्ठतीति छद्मस्थ:-अकेवली, शेषं तथैव, केवलम्-उक्तस्वरूपं ज्ञानं च दर्शनं चास्यास्तीति केवलीति । 'छतमत्थे- काध्ययने वृत्तिः त्यादि, स्वयम्बुद्धादिस्वरूप प्रागिवेति, 'सयंवुद्धे'त्यादि नव सूत्राणि गतार्थान्येवेति । उक्तः संयमा, सच जीवाजीव- उद्देशः१ [ विषय इति पृथिव्यादिजीवस्वरूपमाह-'दुविहा पुढवी'त्यादिरष्टाविंशतिः सूत्राणि ॥
पृथन्यादी॥५३॥
दुविहा पुढविकाइया पं० सं०-सुटुमा चेव बायरा चेव १, एवं जाव दुविहा वणस्सइकाइया पं० सं०-मुहुमा चेव नां परिणाबायरा व ५, दुविहा पुढविकाइया पं० तं-पजतगा चेव अपज्जत्तगा व ९, एवं जाव वणस्सइकाइया १०,
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मेतरौ दुविहा पुढविकाइया पं० सं०-परिणया चेच अपरिणया चेव ११, एवं जाव वणस्सइकाइया १५, दुविहा दवा पं० तं०-परिणता चेव अपरिणता चेव १६, दुविहा पुढविकाझ्या पं० त०-तिसमावन्नगा व अगइसमावनगा चेव १७, एवं जाव वणस्सइकाइया २१, दुविहा दब्वा पं० २०-तिसमावन्नगा चेव अगतिसमावनगा चेव २२, दुविहा पुढविकाइया पं० सं०-अणतरोगाढा घेच परंपरोगाढा चेव २३, जाव दवा०२८ (सू०७३) तत्र पृथिव्येव कायो येषां ते पृथिवीकायिनः समासान्तविधौ एव स्वार्थिककप्रत्ययात् पृथिवीकायिकाः, पृथिव्येव वा कायः-शरीरं सोऽस्ति येषां ते पृथिवीकायिकास्ते सूक्ष्मनामकर्मोदयात् सूक्ष्माश्चैव ये सर्वलोकापन्नाः, बादरनामकर्मोदयवर्तिनो बादरा ये पृथिवीनगादिष्वेवेति, नैषामापेक्षिकं सूक्ष्मवादरत्वमिति, 'एव'मिति पृथिवीसूत्रवदप्तेजोवायूनां सू-४॥५३॥ त्राणि वाच्यानि यावद्धनस्पतिसूत्रम् , अत एवाह-'जावेत्यादि, 'बुविहे'त्यादि पञ्चसूत्री, तत्र पर्याप्तनामकर्मोदयव
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [७३]
दीप अनुक्रम [७३]
तिनः पर्याप्ताः, ये हि चतस्रः स्वपर्याप्तीः पूरयन्तीति, अपर्याप्तनामकमोंदयादपर्याप्तका ये स्वपर्याप्तीन पूरयन्तीति, इह च पर्याप्तिर्नाम शक्तिः सामर्थ्यविशेष इतियावत्, सा च पुद्गलद्रव्योपचयादुत्पद्यते, पडूभेदा चेय, तद्यथा-आहार १ सरीरि २ दिय ३ पजत्ती आणपाण ४ भास ५ मणे ६ । चत्तारि पंच छप्पिय एगिंदियविगलसन्नीणं ॥१॥"ति, तत्र एकेन्द्रियाणां चतम्रो विकलेन्द्रियाणां पञ्च संजिनां षट्, तत्र आहारपर्याप्तिर्नाम खलरसपरिणमनशक्तिः १, शरीरपर्याप्तिः सप्तधातुतया रसस्य परिणमनशक्तिः २, इन्द्रियपर्याप्तिः पञ्चानामिन्द्रियाणां योग्यान् पुद्गलान् गृहीत्वाऽनाभोगनिर्तितेन वीर्येण तद्भावनयनशक्तिः ३, आनप्राणपर्याप्तिः उच्छासनिश्वासयोग्यान् पुद्गलान् गृहीत्वा तथा परिणमय्याऽऽनप्राणतया निसर्जनशक्ति, ४ भाषापर्याप्तिर्वचोयोग्यान पुद्गलान् गृहीत्वा भाषास्वेन परिणमय्य वाग्योगतया निसर्जनशक्तिः ५, मनःपर्याप्तिर्मनोयोग्यान पुद्गलान् गृहीत्वा मनस्तया परिणमय्य मनोयोगतया निसर्जनशक्तिरिति ६, एताः पर्याप्तयः पर्याप्तनामकर्मोदयेन निर्वय॑न्ते, तद् येषामस्ति ते पर्याप्तकाः, अपर्याप्तनामकर्मोदयेनानिवृत्ताः येषा-3 मेताः सन्तीति तेऽपर्याप्तका इति, एताश्च युगपदारभ्यन्तेऽन्तर्मुहर्तेन च निर्वय॑न्ते, तत्र आहारपर्याप्तेर्निवृत्तिकाल: समय एव, कथम् ?, उच्यते, यस्मात् प्रज्ञापनायामुकं आहारपज्जत्तीए अपज्जत्तए णं भंते! जीवे किं आहारए अणाहारए ?, गोयमा! नो आहारए अणाहारए"त्ति, स च विद्महे आहारपर्याप्त्या अपर्याप्तको लभ्यते, यदि पुनरुपपातक्षेत्रप्राप्तोऽप्याहारपर्यायाऽपर्याप्तको भवेत्तदैवं व्याकरणं भवेद्-गोयमा! सिय आहारए सिय अणाहारए'त्ति, यथा
१ आहारपर्याप्त्याऽपर्याप्तो भवन्त ! जीवः किमाहारकोनाहारकः ? गौतम ! नो आहारकोऽनाहारकः । २ गौतम ! स्यादाहारकः स्यादनाहारकः,
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[७३]
दीप
अनुक्रम [62]
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः)
उद्देशक [1]. मूलं (७३)
स्थान [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थाना
ङ्गसूत्र
वृत्तिः
॥ ५४ ॥
शरीरादिपर्याप्तिषु 'सिय आहारए सिय अणाहारए'ति शेषाः पुनरसङ्ख्यातसमया अन्तर्मुहूर्त्तेन निर्वर्त्यन्त इति, अपर्याप्तकास्तु उच्छ्रासपर्याया अपर्याप्ता एव म्रियन्ते, न तु शरीरेन्द्रियपर्याप्तिभ्यां, यस्मादागामिभवायुष्कं बा त्रियन्ते तच शरीरेन्द्रियादिपर्याया पर्याप्तैरेव वध्यत इति । 'एवमिति पूर्ववदेवेति । 'दुविहा पुढवी' त्यादिषट्सूत्री, | परिणताः - स्वकाय पर काय शस्त्रादिना परिणामान्तरमापादिताः, अचित्तीभूता इत्यर्थः, तत्र द्रव्यतः क्षत्रीदिना मिश्रेण | द्रव्येण कालतः पौरुष्यादिना [मिश्रेण] कालेन भावतो वर्णगन्धरसस्पर्शान्यथात्वेन परिणताः क्षेत्रतस्तु 'जोयेंणसयं तु गंता अणहारेण तु भंडसंकंती | वायागणिधूमेण य विद्धत्थं होइ ठोणाइ ॥ १ ॥ हरियाल मणोसिल पिप्पली य खज्जूर | मुद्दिया अभया । आइनमणाइन्ना तेऽवि हु एमेव णायव्वा ॥ २ ॥ आरुहणे ओरुहणे णिसियण गोणाइणं च गाउम्हा । भूमाहारच्छेदे उवकमेणेव परिणामो ॥ ३ ॥” 'अणहारेणं' ति स्वदेशजाहाराभावेनेति, 'भंडसंकंती'ति भाजनाद् भाजनान्तरसङ्कान्त्या, खर्जूरादयोऽनाचरिताः अभयादयस्तु आचरिता इति परिणामान्तरेऽपि पृथिवीकायिका एव ते, केवलमचेतना इति कथमन्यथाऽचेतन पृथिवी कायपिण्डप्रयोजनाभिधानमिदं स्यात्, यथा--'घट्टगडगलगलेवो एमादि पयोयणं बहुहा' इति । 'एव' मित्यादि प्रागिव, तदेवं पञ्चैतानि सूत्राणि । द्रवन्ति गच्छन्ति विचित्रपर्यायानिति द्रव्याणि - जीवपुद्गलरूपाणि तानि च विवक्षितपरिणामत्यागेन परिणामान्तरापन्नानि परिणतानि विवक्षितपरिणामवन्त्येव, अप१ क्षेत्रादिना प्र. २ योजनातं तु गत्वाऽनाहारेण भण्डारा वृन्ताकधूमेन व विध्वस्तं भवति लवणादि ॥ १ ॥ हरितालमनःशिले पिप्पली च खजूरः मुद्रिकाऽभया । आचोणी अनावस्तेऽपि एवमेव ज्ञातव्याः ॥ २॥ आरोहेऽवरोहे निषीदनं गवादीनां च गात्रोमा भौमाहारव्यवच्छेदे उपक्रनेनैव परिणामः ॥३॥
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२ स्थान
काध्ययने उद्देशः १ पृथव्यादी
नां परिणामेतरी
॥ ५४ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [७३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [७३]
दीप अनुक्रम [७३]
४रिणतानीति द्रव्यसूत्रं षष्ठम् । 'दुविहें त्यादि षट्सूत्री, गतिर्गमनं तां समापन्नाः-प्राप्तास्तद्वन्तो गतिसमापनाः, ये हि दा पृथिवीकायिकाद्यायुष्कोदयात् पृथिवीकायिकादिव्यपदेशवन्तो विग्रहगत्या उत्पत्तिस्थानं प्रजन्ति, अगतिसमापन्नास्तु
स्थितिमन्तः, द्रव्यसूत्रे गतिर्गमनमात्रमेव, शेषं तथैवेति ॥ 'दुविहा पुढवी'त्यादि षट्सूत्री, अनन्तरं-सम्प्रत्येव समये
कचिदाकाशदेशे अवगाढा:-आश्रितास्त एवानन्तरावगाढकाः, येषां तु यादयः समया अवगाढानां ते परम्परावगाद ढकाः, अथवा विवक्षितं क्षेत्रं द्रव्यं वाऽपेक्ष्यानन्तरम्-अव्यवधानेनावगाढा अनन्तरावगाढा, इतरे तु परम्परावगाढा Pइति ॥ अनन्तरं द्रव्यस्वरूपमुक्तम् , अधुना द्रव्याधिकारादेव द्रव्यविशेषयोः कालाकाशयोर्द्धिसूत्र्या प्ररूपणामाह
दुविह काले पं० सं०-ओसप्पिणीकाले चेष उस्सप्पिणीकाले चेव, दुविहे आगासे पं० त०-लोगागासे व अलोगागासे चेव, (सू०७४) तत्र कल्यते-सङ्ग्यायतेऽसावनेन वा कलनं वा कलासमूहो वेति काल:-वर्तनापरापरत्वादिलक्षणः स चावसपिण्युत्स-13 प्पिणीरूपतया द्विविधो द्विस्थानकानुरोधादुक्तः अन्यथाऽवस्थितलक्षणो महाविदेहभोगभूमिसम्भवी तृतीयोऽप्यस्तीति । 'आगासे'त्ति सर्वद्रव्यस्वभावानाकाशयति-आदीपयति तेषां स्वभावलाभेऽवस्थानदानादित्याकाशम् , आङ् मर्यादा-1 भिविधिवाची, तत्र मर्यादायामाकाशे भवम्तोऽपि भावाः स्वात्मन्येवाऽऽसते नाकाशतां यान्तीत्येवं तेषामात्मसादकरणाद्, अभिविधौ तु सर्वभावव्यापनादाकाशमिति, तत्र लोको यत्राकाशदेशे धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां वृत्तिरस्ति स एवाकाश
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
काध्ययने
प्रत सूत्रांक [७४]
44
दीप अनुक्रम
श्रीस्थाना- लोकाकाशमिति, विपरीतमलोकाकाशमिति ॥ अनन्तरं लोकालोकभेदेनाकाशद्वैविध्यमुक्त, लोकश्च शरीरिशरीराणां सर्वत | 21
२स्थान|आश्रयस्वरूप इति नारकादिशरीरिदण्डकेन शरीरप्ररूपणायाहवृत्तिः गैरयाणं दो सरीरगा पं० त-अम्भतरगे चेव बाहिरगे चेब, अन्भंतरए कम्मए बाहिरए वेविए, एवं दे
उद्देशः१
कालाका॥५५॥
बाण माणियब, पुढविकाइयाणं दो सरीरगा पं० सं०-अभंतरगे चेव बाहिरगे व अभंतरणे कम्मए बाहिरगे ओरालियगे, जाव वणस्सइकाइयाणं, वेइंदियाणं दो सरीरा पं० त०-अभंतरण व बाहिरए चेक, अभंतरगे क
शशरीम्मए, अद्विमंससोणितबद्धे पाहिरण ओरालिए, जाव चरिंदियाणं, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं दो सरीरगा पं० त०अम्भतरगे चेन वाहिरगे चेव, अन्भतरगे कम्मए, अट्ठिमंससोणियाहारुछिराबद्धे बाहिरए ओरालिए, मणुस्साणवि एवंचेव । विग्गहगइसमावनगाणं नेरइयाणं दो सरीरंगा पं० ० तेयए चेव कम्मए चेव, निरन्तरं जाव वेमाणियाणं, नेरइयाणं दोहिं ठाणेहि सरीरुप्पत्ती सिया, तं०-रागेण चेव दोसेण चेव, जाव वेमाणियाणं, नेरइयाणं दुट्ठाणनिष्वतिए सरीरगे पं० त०-रागनिवत्तिए चेव, दोसनिबत्तिए चेव, जाव वेमाणियाणं, दो काया पं००--सकाए चेव था
वरकाए चेब, तसकाए दुविहे पं० २०-भवसिद्धिए चेव अभवसिद्धिए चेब, एवं थावरकाएऽचि (सू० ७५)
'णेरइयाण'मित्यादि, प्रायः कण्ठ्यं, नवरं शीर्यते-अनुक्षणं चयापचयाभ्यां विनश्यतीति शरीरं तदेव शटनादिधर्मत-200५५॥ दियाऽनुकम्पितत्वात् शरीरकं ते च । प्रज्ञप्ते जिनः, अभ्यन्त:-मध्ये भवमाभ्यन्तरं, आभ्यन्तरत्वं च तस्य जीवप्रदेशैः।
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[७५]
दीप अनुक्रम
सह क्षीरनीरन्यायेन लोलीभवनात् भवान्तरगतावपि च जीवस्यानुगतिप्रधानत्वादपवरकाद्यन्तम्प्रविष्टपुरुषवदनतिशयिनामप्रत्यक्षत्वाञ्चेति, तथा बहिर्भवं बाह्यं, बाह्यता चास्य जीवप्रदेशैः कस्यापि केषुचिदवयवेष्वव्याप्तेर्भवान्तराननुयायित्वान्निरतिशयानामपि प्रायः प्रत्यक्षत्वाच्चेति, तत्राभ्यन्तरं 'कम्मए'त्ति कार्मणशरीरनामकर्मोदयनिर्वय॑मशेषकर्मणां प्ररो-31 हभूमिराधारभूतं, तथा संसार्यात्मनां गत्यन्तरसङ्कमणे साधकतमं तत् कार्मणवर्गणास्वरूपं, कर्मव कर्मकमिति, कर्मकग्र-1 हणे च तैजसमपि गृहीतं द्रष्टव्यं, तयोरन्यभिचारित्वेनैकत्वस्य विवक्षितत्वादिति, 'एवं देवाणं भाणियब्वं'ति अयमों -यथा नैरयिकाणां शरीरद्वयं भणितमेवं देवानाम्-असुरादीनां वैमानिकान्तानां भणितव्यम्, कार्मणवैक्रिययोरेव तेषां भावात् , चतुर्विंशतिदण्डकस्य च विवक्षितत्वादिति । 'पुढवी त्यादि, पृथिव्यादीनां तु बाह्यमौदारिकमौदारिकशरीरनामकर्मोदयादुदारपुद्गलनिवृत्तमौदारिकं, केवलमेकेन्द्रियाणामस्थ्यादिविरहित, वायूनां वैक्रियं यत्तन्न विवक्षितं, प्रायिकत्वात् तस्येति ॥ 'बेईदियाण'मित्यादि, अस्थिमांसशोणितैर्बद्ध-नद्धं यत्तथा, द्वीन्द्रियादीनामौदारिकत्वेऽपि शरीरस्यायं विशेषः। 'पंचेंदिए'त्यादि, पवेन्द्रियतिर्यमनुष्याणां पुनरयं विशेषो यदस्थिमांसशोणितस्त्रायुशिरापद्धमिति, अस्थ्यादयस्तु| प्रतीता इति ।। प्रकारान्तरेण चतुर्विशतिदण्डकेन शरीरप्ररूपणामेवाह-'विग्गहे त्यादि, विग्रहगतिः-चक्रगतियदा वि-] श्रेणिव्यवस्थितमुत्पत्तिस्थानं गन्तव्यं भवति तदा या स्यात्तां समापन्ना विग्रहगतिसमापन्नास्तेषां द्वे शरीरे, इह तैजस-11 कार्मणयोर्भेदेन विवक्षेति, एवं दण्डकः ॥ शरीराधिकारात् शरीरोपत्ति दण्डकेन निरूपयन्नाह-निरइयाण'मित्यादि, कण्ठयं, किन्तु या रागद्वेषजनितकर्मणा शरीरोसत्तिः सा रागद्वेषाभ्यामेवेति व्यपदिश्यते, कार्य कारणोपचारादिति,12
[७५]
ForPPO
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना-
सूत्र- वृत्तिः
सूत्रांक
[७५]
॥५६॥
बुदिशे
दीप अनुक्रम
जाव वेमाणियाणंति दण्डकः सूचितः । शरीराधिकाराच्छरीरनिर्वर्तनसूत्र, तदप्येवं, नवरमुत्पत्तिः-आरम्भमात्र निर्व- स्थानतना तु निष्ठानयनमिति । शरीराधिकाराच्छरीरवतां राशिद्वयेन प्ररूपणामाह-दो कारत्यादि, सनामकर्मोदयात् काध्ययने त्रस्यन्तीति त्रसाः तेषां कायो-राशिस्त्रसकायः, स्थावरनामकर्मोदयात् तिष्ठन्तीत्येवंशीलाः स्थावरास्तेषां कायः स्थावर-18 उद्देशः१ काय इति । त्रसस्थावरकाययोरेव द्वैविध्यप्ररूपणार्थ 'तसकायें'त्यादि सूत्रद्वयं, सुगमं चेति । पूर्वसूत्रे भव्याः शरीरिणी प्रवज्यादि|उक्ता इतस्तद्विशेषाणामेव यद्यथा कत्तुमुचितं तत् तथा द्विस्थानकानुपातेनाह
दो दिसाओ अभिगिझ कप्पति णिग्गंधाण वा णिमांथीण वा पञ्चावित्तए--पाईणं चेव उदीर्ण चेच, एवं मुंडावित्तए सिक्खावित्तए उबहावित्तए संभुंजित्तए संवसित्तए सज्झायमुद्दिसितए सम्झायं समुहिसित्तए सज्झायमणुजाणित्तए आलो. इत्तए पडिकमित्तए निंदित्तए गरहित्तए विउट्टित्तए विसोहित्तए अकरणयाए अन्भुट्टित्तए आहारिहं पायच्छित्तं तवोकर्म पडिव जित्तए, दो दिसातो अभिगिजा कप्पति णिग्गंधाण वा णिग्गंधीण वा अपच्छिमारणंतियसलेहणाजूसणाजूसिया भत्तपाणपडियाइक्खिताणं पाओवगताणं कालं अणवकखमाणार्ण विहरित्तए, तंजहा–पाईणं चेव उदीण घेव ॥ (सू०
७६) विट्ठाणस्स पढमो उद्देसओ समत्तो २-१॥ 'दो दिसाओं' इत्यादि, द्वे दिशी-काष्ठे अभिगृह्य-अङ्गीकृत्य तदभिमुखीभूयेत्यर्थः कल्पते-युज्यते निर्गता ग्रन्थाद्धनादेरिति निर्मग्था:-साधवस्लेषां, निर्ग्रन्थ्यः-साव्यस्तासां प्रवाजयितुं रजोहरणादिदानेन, 'प्राचीनां प्राची पूर्वामि
[७५]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [७६]
दीप अनुक्रम [७६]
त्यर्थः, 'उदीचीनाम्' उदीचीमुत्तरामित्यर्थः, उक्तं च-"पुवामुहो उ उत्तरमुहो व देजाऽहवा पडिच्छेजा। जाए जिणा-है। दओ वा हवेज जिणचेइयाई वा ॥१॥” इति ॥ एवं मिति यथा प्रजाजनसूत्रं दिगद्वयाभिलापेनाधीतमेवं मुण्डनादिसूत्राण्यपि पोडशाध्येतव्यानीति, तत्र मुण्डयितुं शिरोलोचनेन १ शिक्षयितुं ग्रहणशिक्षापेक्षया सूत्राधी ग्राहयितुं आसेवनाशिक्षापेक्षया तु प्रत्युपेक्षणादि शिक्षयितुमिति २, उत्थापयितुं महाव्रतेषु व्यवस्थापयितुं ३ संभोजयितुं भोजनमण्डल्या निवेशयितुं ४ संवासयितुं संस्तारकमण्डल्या निवेशयितुं ५, सुष्ठु आ-मर्यादया अधीयत इति स्वाध्यायः-अलादिस्त मुद्देष्टं योगविधिक्रमेण सम्यग्योगेनाधीष्वेदमित्येवमुपदेष्टुमिति ६, समुद्देष्टुं योगसामाचार्यैव स्थिरपरिचितं कुर्विदमिति वक्तुमिति ७, अनुज्ञातुं तथैव सम्यगेतद् धारय अन्येषां च प्रवेदयेत्येवमभिधातुमिति ८, आलोचयितुं गुरवेऽपराधान्निवेदयितुमिति ९, प्रतिक्रमितुं-प्रतिक्रमणं कर्तुमिति १०, निन्दितुमतिचारान् स्वसमक्षं जुगुप्सितुं, आह च"सैचरित्तपच्छयावो निंद"त्ति ११, गर्हितुं गुरुसमक्ष तानेव जुगुपिसतुं, आह च-"गैरहावि तहाजातीयमेव नवरं परप्पयासणए"त्ति १२, 'विउहित्सएत्ति व्यतिवर्चयितुं वित्रोटयितुं विकुट्टयितुं वा, अतिचारानुबन्ध विच्छेदयितुमित्यर्थः |१३, विशोधयितुमतिचारपङ्कापेक्षयाऽऽत्मानं विमलीक मिति १४, अकरणतया-पुनर्न करिष्यामीत्येवमभ्युत्थातुम्अभ्युपगन्तुमिति १५, 'यथार्हम्' अतिचाराद्यपेक्षया यथोचितं पापच्छेदकत्वात् प्रायश्चित्तविशोधकत्वाद्वा प्रायश्चित्तं,
पूर्वमुखो बोत्तरमुखो वा दद्यादया प्रतीच्छेत् । यस्यां जिनादयो वा भवेबुर्जिनचैयानि वा ॥१॥ २खचरितपश्चात्तापो निन्दा, ३ गाँऽपि wilथाजातीयव नवरं परस्मै प्रकाशनम्,
MEucatunintinाधान
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [१], मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना-I
सूत्रांक
सूत्र
वृत्तिः
[७६]
॥ ५७॥
उक्तं च "पावं छिदइ जम्हा पायच्छित्तं तु भन्नए तेण । पाएण वावि चित्तं विसोहए तेण पच्चित्तं ॥१॥" ति, तपः- २ स्थानकर्म-निर्विकृतिकादिकं प्रतिपत्तुम्-अभ्युपगन्तुमिति १६, सप्तदर्श सूत्रं साक्षादेवाह-दो दिसेंत्यादि, पश्चिमैवामङ्गल- काध्ययने परिहारार्थमपश्चिमा सा चासौ मरणमेव योऽन्तस्तत्र भवा मारणान्तिकी च सा चासौ संलिख्यतेऽनया शरीरकषायादीति उद्देशः१ संलेखना-तपोविशेषः सा चेति अपश्चिममारणान्तिकसंलेखना तस्याः 'जूसण'त्ति जोषणा-सेवा तया तल्लक्षणधर्मेणे-प्रवज्यादित्यर्थः 'जूसियाण'न्ति सेवितानां, तद्युक्तानामित्यर्थः, तया वा 'झोषितानां क्षपितानां क्षपितदेहानामित्यर्थः, तथा घुदिशे भक्तपाने प्रत्याख्याते यैस्ते तथा तेषां, पादपवदुपगतानाम्-अचेष्टतया स्थितानामनशनविशेष प्रतिपन्नानामित्यर्थः, 'काल' मरणकालमनवकासतां-तत्रानुत्सुकानां विहर्नु-स्थातुमिति १७ । एवमेतानि दिक्सूत्राण्यादितोऽष्टादश । सर्वत्र यन्न व्याख्यातं, तरसुगमत्वादिति ॥ द्विस्थानकस्य प्रथमोद्देशको विवरणतः समाप्तः॥
दीप अनुक्रम [७६]
55555
इहानन्तरोदेशके जीवाजीवधर्मा द्वित्वविशिष्टा उक्काः, द्वितीयोद्देशके तु द्वित्वविशिष्टा एव जीवधर्मा उच्यन्ते, इत्य-1 * नेन सम्बन्धेन आयातस्यास्योद्देकशस्वेदमादिसूत्रम्जे देवा उडोवनगा कप्पोचवन्नगा विमाणोवपन्नगा चारोववनगा चारद्वितीया गतिरतिया गतिसमावनगा, तेसिणं देवाण
IN५७॥ १ पापं छिनति यस्मात् पापचिछत्तु भण्यते तस्मात् । प्रायेण वाऽपि चित्तं विशोधयति तेन प्रायश्चित्तं ॥ १ ॥
अत्र प्रथमो उद्देशकः समाप्तं, द्वितीयो उद्देशक: आरब्ध:
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [२], मूलं [७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [७७]
कलाकार
दीप अनुक्रम
सता समितं जे पावे कम्मे कजति तस्थगतावि एगतिया वेदणं वेदेति अन्नत्वगतावि एगतिया वेअणं वेदेति, रहयाणं सता समियं जे पावे कम्मे कन्जति तत्थगतावि एगतिया वेयर्ण वेदेति अन्नत्थगतावि एगतिआ वेयणं वेदेति, जाव पंचेदियतिरिक्खजोणियाणं मणुस्साणं सता समितं जे पावे कम्मे कजति इहगतावि एगतिता वेयणं वेयंति अन्नस्थगतावि
एगतिवा वेयणं वेयंति, मणुस्सबमा सेसा एकगमा ।। (सू०७७) 'जे देवे'त्यादि, अस्य चानन्तरसूत्रेण सहायमभिसम्बन्धः-प्रथमोद्देशकान्त्यसूत्रे पादपोपगमनमुक्तम् , तस्माच देवत्वं केषाञ्चिद्भवतीति देवविशेषभणनेन तत्कर्मबन्धवेदने प्रतिपादयन्नाह-'जे देवें'त्यादि, ये देवाः-सुराः वक्ष्यमाणविशेषणेभ्यो | वैमानिका अनशनादेरुपमः, किंभूता:-'उहत्ति ऊ लोकस्तत्रोपपन्नका-उपना ऊोपपन्नकास्ते च द्विधा-कल्पोपपन्नका:-सौधर्मादिदेवलोकोत्पन्नास्तथा विमानोपपन्नकाः-अवेयकानुत्तरलक्षणविमानोत्पन्नाः कल्यातीता इत्यर्थः, तथा परे 'चारोववन्नग'त्ति घरन्ति-धमन्ति ज्योतिष्कविमानानि यत्र स चारो-ज्योतिश्चकक्षेत्रं समस्तमेव, व्युत्पत्त्यर्थमात्रान-R पक्षणेन शब्दप्रवृत्तिनिमित्ताश्रयणात्, तत्रोपपन्नकाचारोपपन्नका:-ज्योतिष्काः, न च पादपोपगमनादेज्योतिष्कत्वं न भवति, परिणामविशेषादिति, तेऽपि च द्विधैव, तथाहि-चारे-ज्योतिश्चक्रक्षेत्रे स्थितिरेव येषां ते चारस्थितिकाः-समयक्षे-14
बहिवर्तिनो घण्टाकृतय इत्यर्थः, तथा गतौ रतिर्येषां ते गतिरतिकाः, समयक्षेत्रवत्तिन इत्यर्थः, गतिरतयश्चासततगतयो
ऽपि भवन्तीत्यत आह-गति-गमनं समिति-सन्ततमापन्नका:-प्राप्ता गतिसमापनकाः, अनुपरतगतय इत्यर्थे, तेषां 3 &ादेवानां द्विविधानां पुनर्द्वि विधानां सदा-नित्यं समित-सन्ततं यत्सापं कर्म-ज्ञानावरणादि, सततवन्धकत्वात् जीवानांपला
CCCCC
[७७]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [२], मूलं [७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
२ स्थानकाध्ययने उद्देशः। | तत्रान्यत्रकर्मवेदन
[៤២]
दीप अनुक्रम
श्रीस्थाना- क्रियते-वध्यते, कर्मकर्तृप्रयोगोऽयं, भवति सम्पद्यत इत्यर्थः, ते देवास्तस्य-कर्मणः अबाधाकालातिकमे सति 'तत्य
सूत्र-18 गयावित्ति अपिरेवकारार्थस्तस्य चैवं प्रयोगः-तत्रैव-देवभव एव कल्पातीतानां क्षेत्रान्तरादिगमनासम्भवादिह तत्रान्यवृत्तिः त्रिशब्दाभ्या भव एव विवक्षितः, न क्षेत्रशयनासनादीति, गताः-वर्तमाना 'एके केचन देवा वेदनाम्-उदयं विपाक
'वेदयन्ति' अनुभवन्ति, 'अन्नत्थगयावि'त्ति देवभवादन्यत्रैव भवान्तरे गता-उत्पन्ना वेदनामनुभवन्ति, केचित्तूभयत्रा॥५८॥
पि, अन्ये विपाकोदयापेक्षया नोभयत्रापीति, एतच्च विकल्पद्वयं सूत्रे नाश्रित, द्वित्वाधिकारादिति ॥ सूत्रोक्तमेव विकहैल्पद्वयं सर्वजीवेषु चतुर्विंशतिदण्डकेन प्ररूपयन्नाह–निरइयाण'मित्यादि, प्रायः सुगमम्, नवरं, "तत्थगयावि अन्नत्थ
गयावि" एवमभिलापेन दण्डको नेयो यावसञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चोऽत एवाह-'जावे'त्यादि, मनुष्येषु पुनरभिलापविशेषो दृश्यः, यथा 'इहगतावि एगइया' इति, सूत्रकारो हि मनुष्योऽतस्तत्रेत्येवंभूतं परोक्षानासन्ननिर्देशं विमुच्य मनुष्यसूत्रे इहेत्येवं निर्दिशति स्म, मनुष्यभवस्य स्वीकृतत्वेन प्रत्यक्षासन्नवाचिन इदंशब्दस्य विषयत्वादिति, अत एवाह-'मणुस्सवजा
सेसा एक्कगम'त्ति शेषाः-व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका एकगमा:-तुल्याभिलापाः, ननु प्रथमसूत्र एव ज्योतिष्कवैमानिकदेहवानां विवक्षितार्थस्याभिहितत्वात् किं पुनरिह तगणनेनेति', उच्यते, तत्रानुष्ठानफलदर्शनप्रसङ्गेन भेदतश्चोक्तत्वाद्, इह भातु दण्डककमेण सामान्यतश्चोक्तत्वादिति न दोषो, दृश्यते चेह तत्र तत्र विशेषोक्तावपि सामान्योक्तिरितरोक्तौ स्वि3 तरेति ॥ तत्रगता वेदनां वेदयन्तीत्युक्तमतो नारकादीनां गतिं तद्विपर्यस्तामागतिं च निरूपयन्नाह
नेरतिता दुगतिया दुयागतिया पं० सं०-नेरइए २ सु उववजमाणे मणुस्सेहितो वा पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो
[७७]
|॥५८॥
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[ ७८ ]
दीप
अनुक्रम [ ७८ ]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [२], मूलं [ ७८ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
वा उबवणेज्जा से चैव णं से नेरइए गरइयत्तं विप्पजह्माणे मणुस्सत्ताए वा पंचेंदियतिरिक्त्रजोगियत्ताए वा गा एवं असुरकुमारावि णवरं, से चेव णं से असुरकुमारे असुरकुमारतं विप्पजहमाणे मणुस्सत्ताए वा तिरिक्खजोयित्ताए वा गच्छा एवं सव्वदेवा, पुढविकाइया दुगतिया दुयागतिया पं० तं० पुढविकाइए पुढविकाइएस उववमाणे पुढविकाइएहिंतो वा णोपुढविकाइएदितो वा उबवजेचा से चैव णं से पुढविकाइए पुढविकाइयत्तं विप्पजहमाणे पुढविकाइयत्ताए वा गोपुढविकाइयत्ताए वा गच्छेजा, एवं जाव मणुस्सा ॥ ( सू० ७८ )
दण्डकः कण्ठ्यो, नवरं नैरयिका - नारका द्वयोः मनुष्यगतितिर्यग्गतिलक्षणयोर्गत्योरधिकरणभूतयोर्गतिर्येषां ते तथा, द्वाभ्यामेताभ्यामेवावधिभूताभ्यामागतिः - आगमनं येषां ते तथा, उदितनारकायुर्नारक एव व्यपदिश्यते, अत उच्यते 'णेरइए णेरइएसु'त्ति, नारकेषु मध्ये इत्यर्थः, इह चोदेशक्रमव्यत्ययात् प्रथमवाक्येनागतिरुक्ता, 'से चेव णं सेत्ति यो मानुषत्वादितो नरकं गतः स एवासौ नारको नान्यः, अनेनैकान्तानित्यत्वं निरस्तमिति, 'विष्पजहमाणे 'ति विप्रजहन्परित्यजन् इह च भूतभावतया नारकव्यपदेशः, अनेन वाक्येन गतिरुक्का, इत्थं च व्याख्यानं 'तेजस्कायिका व्यागतयस्तिर्यमनुष्यापेक्षया एकगतयस्तिर्यगपेक्षयेति वाक्यमुपजीव्येति, 'एवं असुरकुमारावित्ति, नारकवद्वक्तव्या इत्यर्थः, 'नवरं 'ति केवलमयं विशेष:- तिर्यक्षु न पञ्चेन्द्रियेष्वेवोसद्यन्ते पृथिव्यादिष्वपि तदुत्पत्तेरित्यतः सामान्यत आह- 'से चैव णं से इत्यादि जान तिरिक्खजोणियत्ताए वा गच्छेज'त्ति, 'एवं सव्वदेव'त्ति असुरवत् द्वादशापि दण्डकदेवपदानि वाच्यानि तेषामप्येकेन्द्रियेषूपत्तेरिति । 'णोपुढविकाइएहिंतो'त्ति अनेन पृथ्वीकायिकनिषेधद्वारेणाप्कायिका
For Personal & Private Use Only
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [२], मूलं [७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७८]
श्रीस्थाना-
सूत्रवृत्तिः
२ स्थानकाध्ययने उद्देशः २ | नारकाणां गल्यागती भव्यत्वादिच
॥ ५९॥
दीप अनुक्रम [७८]
दयः सर्वे गृहीता द्विस्थानकानुरोधादिति, तेभ्यो वा-नारकवर्जेभ्यः समुत्पद्यते, 'णोपुदविकाइयत्ताएत्ति, देवनारकव-
र्जाकायादितया गच्छेदिति, 'एवं जाव मणुस्स'त्ति, यथा पृथिवीकायिका 'दुगतिया' इत्यादिभिरभिलापरुक्ता एवमे- भिरेवाकायिकादयो मनुष्यावसानाः पृथिवीकायिकशब्दस्थानेऽप्कायादिव्यपदेशं कुर्वद्भिरभिधातव्या इति । व्यन्तरादयस्तु पूर्वमतिविष्टा एवेति । जीवाधिकारादेव भव्यादिविशेषणैः षोडशभिर्दण्डकारूपणायाह--
दुविहा नेरइया पन्नत्ता, तंजहा-भवसिद्धिया चेव अभवसिद्धिया चेव, जाव वेमाणिया १। दुविहा नेरइया पं०२०अर्णवरोववनगा चेव परंपरोववनगा चेक जाव वेमाणिया २। दुविहा णेरड्या पं० २०--गतिसमावन्नगा चेव अगतिसमा. वनगा चेव, जाव वेमाणिया ३ । दुविहा नेरइया पं० २०-पढमसमओवबन्नगा चेव अपढमसमभोववनगा चेव आव वेगाणिया ४। दुविहा नेरइया पं० ०-आहारगा चेष अणाहारगा चेव, एवं जाव वेमाणिया ५। दुविहा राया पं० सं०-उस्सासगा चेव णोउस्सासगा चेव, जाव वेमाणिया ६। दुविहा नेरड्या पं० सं०-सइंदिया चेव अणिदिया घेव, जाव वेमाणिवा ७। दुविहा नेरइया पं० २०-पजत्तगा चेव अपज्जत्तगा चेव, जाव वेमाणिआ ८। दुविहा नेरइया पं० २० -सन्नि चेव असन्नि चेव, एवं पंचेंदिया सब्वे विगलिंदियवजा, जाव वाणमंतरा (वेमाणिया) ९ । दुविहा नेरइया पं० तं०-भासगा चेव अभासगा घेव, एवमेगिदियवळ्या सव्वे १० । दुबिहा नेरइया पं० सं०-सम्मदिहीया चेव मिच्छरिहीया चेव, एगिवियवज्जा सव्वे ११ । दुविहा नेरइया ५००-परित्तसंसारिता चेव अणवसंसारिया चेव, जाव वेमाणिया १२ । दुविहा नेरझ्या पं० सं०-संखेजकालसमयद्वितीया चेव असंखेजकालसमयहितीया चेव, एवं पंचेंदिया
www.aniran
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [२], मूलं [७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
CCCO
प्रत
सूत्रांक [७९]
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दीप अनुक्रम
एगिवियविगलिंदियवजा जाव वाणमंतरा १३ । दुविहा नेरहया पं० सं०-सुलभबोधिया घेत्र दुलभयोधिया घेध, आव वेमाणिया १४ । दुविहा नेपया पं० सं०--कण्हपक्खिया चेव सुकपक्खिया घेव, जाव वेमाणिया १५ । दुविहा
नेरझ्या पं० २०-चरिमा चेव अचरिमा चेव, जाव वेमाणिया १६ (सू०४९) .. तत्र भव्यदण्डकः कण्ठया, अनन्तरदण्डके 'अणंतरत्ति एकस्मादनन्तरमुत्पना ये तेऽनन्तरोपपन्नकाः, तदन्यथा तु परम्परोपपन्नकाः, विवक्षितदेशापेक्षया बा येऽनन्तरतयोत्पन्नास्ते आद्याः, परम्परया वितरे इति २, गतिदण्डके गतिसमापनका-नरकं गच्छन्तः इतरे तु तत्र ये गताः, अथवा गतिसमापन्ना-नारकत्वं प्राप्ता इतरे तु द्रव्यनारकाः, अथवा चलस्थिरत्वापेक्षया ते ज्ञेया इति ३, प्रथमसमयदण्डके 'पढमें त्यादि, प्रथमः समय उपपन्नानां येषां ते प्रथमसमयोपपन्नकाः, तदन्ये अप्रथमसमयोपपन्नका इति ४, आहारकदण्डके आहारकाः सदैव, अनाहारकास्तु विग्रहगतावेक द्वौ वा समयौ, ये नाडीमध्ये मृत्वा तत्रैवोपद्यन्ते, ये त्वन्यथा ते त्रीनिति ५, उच्छासदण्डके उच्छुसन्तीत्युच्चासकास्तपर्याप्ति (त्या) पर्याप्तकाः, तदन्ये तु नोच्छासकाः ६, इन्द्रियदण्डके सेन्द्रियाः-इन्द्रियपर्याप्त्या पर्याप्ताः, तदपर्याप्तास्तु अनिन्द्रियाः ७, पर्याप्तदण्ड के पर्याप्ताः पर्याप्तनामकर्मोदयादितरे वितरोदयादिति ८, संज्ञिदण्डके संज्ञिनो-मनःपर्याप्त्या पर्याप्तकाः तथा अपर्याप्तकास्तु ये (न तथा) ते असंज्ञिन इति, 'एवं पंचिंदिए'त्यादि-अस्यायमर्थः-यथा नारकाः संज्यसंज्ञिभेदेनोकाः 'एवं विगले दियवज्जत्ति, विकलानि-अपरिपूर्णानि सङ्ख्ययेन्द्रियाणि येषां ते विकलेन्द्रियाः, तान् पृथिव्यादीन
१ सामान्य जीवापेक्षया, तेन यदि गाडीबहिःस्वचसानां तनोखादाभाषः करणापर्याप्तिकालेऽपर्याप्तनामकौश्यस्याभाषश्च तदापि न क्षतिः,
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [२], मूलं [७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७९]
॥६.IN
भव्यत्वादि
दीप अनुक्रम
श्रीस्थाना- द्वित्रिचतुरिन्द्रियांश्च वर्जयित्वा येऽन्ये चतुर्विंशतिदण्डके पञ्चेन्द्रिया असुरादयो भवन्ति ते सर्वेऽपि संज्यसंज्ञितया २ स्थानअसूत्र- वाच्याः, दण्डकावसानमाह-जाव वेमाणिय'त्ति वैमानिकपर्यवसाना अप्येवं वाच्या इति, क्वचिद् 'जाव वाणवंत- काध्ययने वृत्तिः रिय'त्ति पाठस्तत्रायमर्थो-येऽसंज्ञिभ्यो नारकादितयोसद्यन्ते तेऽसंज्ञिन एवोच्यन्ते, असंज्ञिनश्च नारकादिषु व्यन्तरा-13 उद्देशः२
वसानेषूत्पद्यन्ते न ज्योतिष्कवैमानिकेविति तेषामसंज्ञित्वाभावादिहाग्रहणमिति ९, भाषादण्डके भाषका-भाषापर्यो यु- नारकाणा दये, अभापकास्तदपर्याप्तकावस्थायामिति, एकेन्द्रियाणां भाषापर्याप्तिर्नास्तीत्यत आह-'एव'मित्यादि १०, सम्यग्दृष्टि
दण्डके सम्यक्त्वमेकेन्द्रियाणां नास्ति, द्वीन्द्रियादीनां तु सास्वादनं स्यादपीत्युक्तम्-'एगिंदियवजा सब्वेत्ति ११,5 द संसारदण्डके परीत्तसंसारिका:-सजिप्तभवा इतरे वितरे १२, स्थितिदण्डके कालः कृष्णोऽपि स्यात् समय आचारोऽपि स्यादतः कालश्चासी समयश्चेति कालसमयः सङ्ख्येयो वर्षप्रमाणतः स यस्यां सा समयेयकालसमया सा स्थितिः-अवस्थानं ।
येषां ते साधेयकालसमयस्थितिकाः, दशवर्षसहस्रादिस्थितय इत्यर्थः, इतरे तु पल्योपमासयेयभागादिस्थितयः, 'सं-15 दाखिज्जकालठियत्ति कचिसाठः, स च सुगम एवेति, 'एवं मिति नारकवद् द्विविधस्थितिका दण्डकोक्ताः, किं सर्वेऽपि?,IG भनेत्याह-पञ्चेन्द्रियाः असुरादयः, किमुक्तं भवति?–एकेन्द्रियविकलेन्द्रियवर्जाः, एतेषां हि द्वाविंशतिवर्षसहस्रादिका स-IN वयातैव स्थितिः, पञ्चेन्द्रिया अपि किं सर्वे ?, नेत्याह-यावद् व्यन्तराः व्यस्तरान्ताः, एते हि उभयस्वभावा भवन्ति,131
॥६० ज्योतिष्कवैमानिकास्तु असङ्ग्यातकालस्थितय एवेति १३, बोधिदण्डके बोधिः-जिनधर्मः (प्राप्ति) सा सुलभा येषां ते सुलभवोधिकार, एवमितरेऽपि १४, पाक्षिकदण्डके शुक्लो विशुद्धत्वात् पक्षः-अभ्युपगमः शुक्लपक्षस्तेन चरन्तीति शुक्लपाक्षिकाः,
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [२], मूलं [७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [७९]
दीप अनुक्रम
शुक्लत्वं च क्रियावादित्येनेति, आह च-किरियावाई भब्वे णो अभब्वे सुकपक्खिए णो किण्हपख्खिए'ति, शुक्लानां वा। --आस्तिकत्वेन विशुद्धानां पक्षो-वर्गः शुक्लपक्षस्तत्र भवाः शुक्लपाक्षिकाः, तद्विपरीतास्तु कृष्णपाक्षिका इति १५, चरमदण्डके येषां स नारकादिभवश्वरमा, पुनस्तेनैव नोसत्स्यन्ते सिद्धिगमनात् ते चरमाः, अन्ये खचरमा इति १६, एवमेते | आदितोऽष्टादश दण्डकाः । प्राग्वैमानिकाचरमाचरमत्वेनोक्ताः, ते चावधिनाऽधोलोकादीन् विदन्त्यतस्तद्वेदने जीवस्य प्रकारद्वयमाह
दोहि ठाणेहिं आया अधोलोग जाणइ पासइ तं०-समोहतेणं चेव अप्पाणणं आया अहेलोर्ग जाणइ पासह असमोहतेणं
व अपाणेणं आया अहेलोग जाणइ पासइ, आधोहि समोहतासमोहतेणं चेव अपाणेणं आया आहेलोग जाणइ पासइ एवं तिरियलोग २ उडलोगं ३ केवलकप्पं लोग ४ । दोहिं ठाणेहिं आया अधोलोग जाणइ पासइ सं०-विउब्बितेण व अप्पाणेणं आता अधोलोग जाणइ पासह अविउव्बितेणं चेव अप्पाणेणं आया अधोलोग जाणइ पासइ आहोधि विउब्धियाविउन्वितेण चेव अप्पाणेणं आता अधोलोग जाणइ(पासइ) १, एवं तिरियलोग०४ । दोहिं ठाणेहिं आया सहाई सुणेइ, तं.---ऐसेणबि आया सदाई सुणेइ सम्मेणयि आया सद्दाइं सुणेति, एवं रूवाई पासह, गंधाई अग्धाति, रसाई आसादेति, फासाई पडिसंवेदेति ५। दोहिं ठाणेहिं आया ओभासइ, तं-देसेणवि आया ओभासइ सवेणवि आया ओभासति, एवं पभासति विकुय्वति परियारेति भासं भासति आहारेति परिणामेति वेदेति निारेति ९। दोहिं ठाणेहिं देवे सहाई १क्रियावादी भन्यो नो अभन्यः शुलपाक्षिको नो कृष्णपाक्षिकः.
[७९]
FrParamatiPrammOM
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [२], मूलं [८०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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प्रत
सूत्रांक
[८०]
दीप
श्रीस्थाना- सुणेइ, तं०-देसेणवि देवे सहाई सुणेति सम्बेणवि देवे सदाई सुणेइ, आव निजरेति १४ । मरुया देवा दुबिहा० ५०० २स्थानसूत्र
.......एगसरीरे चेव विसरीरे चेब, एवं किनरा किंपुरिसा गंधवा णागकुमारा सुवनकुमारा अग्गिकुमारा वायुकुमारा ८, काध्ययने वृत्तिः देवा दुविहा पं० सं०-एगसरीरे चेव निसरीरे चेव । (सू०८०) पिट्ठाणस्स बीजो उसओ समत्तो २-१।
उद्देशः२ ॥६१॥
'दोहीत्यादि सूत्रचतुष्टयं, द्वाभ्यां 'स्थानाभ्यां प्रकाराभ्यामात्मगताभ्यामात्मा-जीवोऽधोलोकं जानात्यवधिज्ञानेन | समुद्धात पश्यत्यवधिदर्शनेन 'समवहतेन' वैक्रियसमुद्घातगतेनात्मना-स्वभावेन, समुद्घातान्तरगतेन वा, असमवहतेन विक्रियेतरवन्यथेति, एतदेव व्याख्याति-आहोही'त्यादि यसकारोऽवधिरस्येति यथावधिः, आदिदीर्घत्वं प्राकृतत्वात्, परमा-लातोऽवधिः वाऽधोवय॑वधिर्यस्य सोऽधोऽवधिरात्मा-नियतक्षेत्रविषयावधिज्ञानी स कदाचित् समवहतेन कदाचिदन्यथेति सम- देशसर्वतः
वहतासमवहतेनेति, "एवं'मित्यादि, 'एवं मिति यथाऽधोलोकः समवहतासमवहतप्रकाराभ्यामवधेविषयतयोक्त एवं शब्दाद्याः &ातियग्लोकादयोऽपीति, सुगमानि च तिर्यग्लोकोर्द्धलोककेवलकल्पसूत्राणि, नवरं केवला-परिपूर्णः स चासी वका
येसामथ्यात् कल्पश्च केवलज्ञानमिव वा परिपूर्णतयेति केवलकल्पः, अथवा केवलकल्पः समयभाषया परिपूर्णस्तं 'लोकं चतुर्दशरज्ज्वात्मकमिति ॥ वैक्रियसमुद्घातानन्तरं वैक्रियं शरीरं भवतीति वैक्रियशरीरमाश्रित्याधोलोकादिज्ञाने प्रका-18
रद्वयमाह–'दोही त्यादि सूत्रचतुष्टयं कण्ठयम् , नवरं 'विउब्धिएणं'ति कृतवैक्रियशरीरेणेति । ज्ञानाधिकार एवेदकामपरमाह-दोहीत्यादि पञ्चसूत्री, द्वाभ्यां 'स्थानाभ्यां प्रकाराभ्यां 'देसेणवित्ति देशेन च शृणोत्येकेन श्रोत्रेणक-12
श्रोत्रोपघाते सति, सर्वेण याऽनुपहतश्रोत्रेन्द्रियो, यो वा सम्भिन्नश्रोतोऽभिधानलब्धियुक्तः स सर्वेरिन्द्रियैः शृणो
अनुक्रम
[८०]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [२], मूलं [८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८०]
तीति सर्वेणेति व्यपदिश्यते, 'एवं मिति यथा शब्दान् देशसर्वाभ्यां एवं रूपादीनपि, नवरं जिह्वादेशस्य प्रमुत्यादि
नोपघाताद्देशेनास्वादयतीत्यवसेयमिति । शब्दश्रवणादयो जीवपरिणामा उक्ताः, तत्प्रस्तावात् तत्परिणामान्तराण्याह 8-'दोहीत्यादि, नव सूत्राणि सुगमानि, नवरम् , अवभासते-द्योतते देशेन खद्योतकवत्, सर्वतः प्रदीपवत्, अथवा
अवभासते-जानाति स च देशतः फडकावधिज्ञानी सर्वतोऽभ्यन्तरावधिरिति १, 'एवं मिति देशसर्वाभ्यां प्रभासते-प्रकभण द्योतते २, विकरोति देशेन हस्तादिवैक्रियकरणेन, सर्वेण सर्वस्यैव कायस्येति ३, 'परियारेइ'त्ति मैथुन सेवते दे
शेन मनोयोगादीनामन्यतमेन, सर्वेण योगत्रयेणापि ४, भाषां भापते देशेन जिह्वाग्रादिना सर्वेण समस्ततावादिस्थानः५,
आहारयति देशेन मुखमात्रेण सर्वेण ओजआहारापेक्षया ६, आहारमेव परिणमयति-परिणाम नयति खलरसविभागेभनेति भक्काशयदेशस्य प्लीहादिना रुद्धत्वाद् देशतः अन्यथा तु सर्वतः ७, वेदयति-अनुभवति, देशेन हस्तादिना अवय-12
वेन सर्वेण सर्वावयवैराहारसत्कान् परिणमितपुद्गलान् इष्टानिष्टपरिणामतः ८, निर्जरयति-त्यजत्याहारितान् परिणामितान् वेदितान् आहारपुद्गलान् देशेनापानादिना सर्वेण सर्वशरीरेणैव प्रस्वेदवदिति ९, अथवैतानि चतुर्दशापि सूत्राणि विव| क्षितविषयवस्त्वपेक्षया नेयानि, तत्र देशसर्वयोजना यथा 'देशेनापी'ति देशतोऽपि शृणोति विवक्षितशब्दानां मध्ये कांश्चिच्छृणोतीति, 'सर्वेणापी ति सर्वतश्च सामस्त्येन, सर्वानेवेत्यर्थः, एवं रूपादीनपि, तथा विवक्षितस्य देशं सर्वं वा विवक्षितमवभासयत्येवं प्रभासयति एवं विकुक्षणीयं विकुरुते परिचारणीयं स्त्रीशरीरादि परिचारयति भाषणीयापेक्षया देशतो भाषां भाषते सर्वतो वेति अभ्यवहार्यमाहारयति आहृतं परिणमयति वेद्यं कर्म घेदयति देशतः सर्वतो वा, एवं
रुहरुसकर
अनुक्रम
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [२], मूलं [८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [८०]
श्रीस्थाना-निर्जरयत्यपि । देशसर्वाभ्यां सामान्यतः श्रवणायुक्त विशेषविवक्षायां प्रधानत्वाद् देवाना तानाश्रित्य तदाह-'दोही-||२ स्थानगसूत्र- त्यादि, एतदपि विवक्षितशब्दादिविषयापेक्षया सूत्रचतुर्दशकं नेयमिति, देशतः सर्वतो वा । एतेऽनन्तरोता भावाःकाध्ययने वृत्तिः ।शरीर एवं सति सम्भवन्तीति देवाना च प्रधानत्वात् तेषामेव व्यक्तितः शरीरनिरूपणायाह-'मरुए'त्यादि सूत्राष्टक ॥ १२॥ कण्यम्।
कण्ठ्यम् , नवरं, मरुतो देवा लोकान्तिकदेवविशेषाः, यत उक्तम्-"सारस्वता १ दित्य २ वलय ३ रुण ४ गईतोय ५-1 समुद्धात तुषिताऽ व्यावाघ ७ मरुतो ८ऽरिष्ठा ९श्चेति' (तत्त्वा अ०४ सू० २६) ते चैकशरीरिणो विग्रहे कार्मणशरीरत्वात, वैक्रियेतरतदनन्तरं वैक्रियभावाद् द्विशरीरिणः, द्वयोः शरीरयोः समाहारो द्विशरीरं तदस्ति येषां ते तथा, अथवा भवधारणीय- तोऽवधिः मेव यदा तदैकशरीरः यदा तूत्तरवैक्रियमपि तदा द्विशरीराः, किन्नराधास्त्रयो व्यन्तराः, शेषा भवनपतय इति.IC देशसर्वतः परिगणितभेदग्रहणं च भेदान्तरोपलक्षणम्, न तु व्यवच्छेदाध, सर्वजीवानामपि विग्रहे एकशरीरत्वस्यान्यदा द्विश- शब्दाद्याः रीरत्वस्य चोपपद्यमानत्वादिति ८, अत एव सामान्यत आह–'देवा दुबिहे'त्यादि कण्ठयम् , द्विस्थानकस्य द्वितीय ४॥ उद्देशको विवरणतः समाप्तः॥
--- - - - उक्तो द्वितीयोदेशकः, अध तृतीय आरभ्यते, अस्य चानन्तरेण सहायमभिसंबन्धः-अनन्तरोदेशके जीवपदार्थोनेकधोक्तः, अत्र तु तदुपग्राहकपुद्गलजीवधर्मक्षेत्रद्रव्यलक्षणपदार्थप्ररूपणोच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्वेदमादिमसूत्राष्टकम्
दुविहे सरे पं० सं०-भासासदे चेव णोभासासद्दे चेब, भासासहे दुविद पं० २०-अक्सरसंबद्ध चेव नोअक्सरसंबद्धेव, णोभासासदे दुविहे पन्नते तं०-आउजसदेव णोआउज्जसदेचेव, आउजसद्दे दुविहे पं० २०-तते व
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[८०]
॥
२
॥
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अत्र द्वितीयो उद्देशकः समाप्तं, तृतीयो उद्देशक: आरब्ध:
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८१]
वितते चैव, तते दुविहे पं० सं०-धणे व झुसिरे चेव, एवं विततेऽवि, णोभाउजसदे दुविहे पं० सं०-भूसणसदे
व नोभूसणसरे घेव, णोभूसणसरे दुविहे पं० सं०-तालसद्दे चेव लत्तिआसरे घेव, दोहि ठाणेहिं सदुप्पाते सिया, तंजहा-साहन्नताण घेव पुग्गलाणं सहुप्पाए सिया भिजताण चेव पोम्गलाणं सदुप्पाए सिया (सू० ८५) अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशकान्त्यसूत्रे देवानां शरीरं निरूपितं तद्वांश्च शब्दादिग्राहको भवतीत्यत्र शब्दस्तावन्निरूप्यते, इत्येवंसम्बम्धस्यास्य व्याख्या, सा च सुकरैव, नवरं भाषाशब्दो भाषापर्याप्तिनाम-IA कर्मोदयापादितो जीवशब्दः, इतरस्तु नोभाषाशब्दः १, अक्षरसम्बद्धो-वर्णव्यक्तिमान् नोअक्षरसम्बद्धस्वितर इति २, आतोय-पटहादि तस्य यः शब्दः स तथा, नोआतोद्यशब्दो वंशस्फोटादिरवः ३, ततं यत्तन्त्रीवर्धादिषद्धमातो, तच्च किचिद् धनं यथा पिञ्जनिकादि किञ्चिच्छुपिरं यथा वीणापटहादिकं तजनितः शब्दस्ततो धनः शुपिरति ब्यप| दिश्यते ५, विततं ततविलक्षणं तन्त्र्यादिरहितं तदपि घनं भाणकवत् शुपिरं काहलादिवत् तज्जः शब्दो विततो धनः शुषिरश्चेति, चतुःस्थानके पुनरिदमेवं भणिष्यते-ततं वीणादिकं ज्ञेयं, विततं पटहादिकम् । पनं तु काश्यतालादि, बंशादि शुपिरं मतम् ॥ १ ॥ इति, विवक्षाप्राधान्याच न विरोधो मन्तव्य इति ६, भूपणं नुपूरादि नोभूषणं भूपणाद-1* न्यत् ७, तालो-हस्ततालः, 'लत्तिय'त्ति कंसिकाः, ता हि आतोद्यत्वेन न विवक्षिता इति, अथवा 'लत्तियासः'त्ति पा-18 |णिप्रहारशब्दः ८॥ उक्ताः शब्दभेदाः, इतस्तत्कारणनिरूपणायाह-'दोही'त्यादि, द्वाभ्यां 'स्थानाभ्यां' कारणाभ्यां शब्दोसादः स्याद्-भवेत् ८, 'संहन्यमानानां च सवातमापद्यमानानां सतां कार्यभूतः शब्दोसादः स्यात्, पञ्चम्यर्थे वा
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना नसूत्रवृत्तिः
प्रत सूत्रांक [८१]
काध्ययने उद्देशः ३ | भाषाशब्दादिम्पुद्गलभेदादिः
दीप
षष्ठीति सहन्यमानेभ्य इत्यर्थः, पुद्गलानां बादरपरिणामाना यथा घण्टालालयोः, एवं भिद्यमानानां-वियोज्यमानानां च यथा वंशदलानामिति । पुद्गलसङ्गातभेदयोरेव कारणनिरूपणायाह
दोहि ठाणेहि पोग्गला साहणंति, तं०-सई वा पोमाला साहनंति परेण वा पोग्गला साहन्नंति १। दोहिं ठाणेहिं पोग्गला। भिजति २०-सई वा पोग्गला मित्रंति परेण वा पोग्गाला भिजति सदोहिं ठाणेहिं पोग्गला परिसडंति, सं०-सई या पोग्गला परिसदंति परेण वा पोग्गला परिसाडिजंति ३ एवं परिवति ४ विद्धंसति ५। दुविहा पोग्गला पं० सं०-भिन्ना चेव अभिन्ना चेव १, दुबिहा पोग्गला पं० त०-भेउरधम्मा चेव नोभेडरधम्मा चेक २, दुविहा पोग्गला पं० सं०--परमाणुपोग्गला चेव नोपरमाणुपोग्गला चेव ३, दुविहा पोग्गला पं० ०-हुमा चेष बायरा चेव ४, दुविहा पोमाला पं० २०
-पद्धपासपुट्ठा व नोबद्धपासपुट्ठा चेव ५, दुविहा पोग्गला पन्नत्ता, तं०-परियादितचेव अपरियादिवञ्चेव ६, दुविहा पोगगला पनत्ता तं०-अत्ता चेव अणत्ता चेव ७, दुबिहा पोग्गला पं० २०-इहा चेव अणिहा व८, एवं केता ९पिया १०मगुन्ना ११ मणामा १२, (सू०८२)। दुविहा सद्दा पन्नत्ता तं०-अत्ता चेव अणत्ता चेव, १ एवमिट्ठा जाव मणामा ६। दुविहा । रूवा पं० २० अत्ता चेव अणत्ता चेव, जाव मणामा, एवं गंधा रसा फासा, एवमिकिके छ आलावगा भाणियच्या (सू० ८३). 'दोहीत्यादि सूत्रपञ्चकं कण्ठ्यम् , नवरं 'खयं वेति स्वभावेन वा अभ्रादिष्विव पुद्गलाः संहन्यन्ते-सम्बध्यन्ते, कर्मकर्तृप्रयोगोऽयं, परेण वा-पुरुषादिना वा संहन्यन्ते-संहताः क्रियन्ते, कर्मप्रयोगोऽयमेवं भिद्यन्ते-विघटन्ते, तथा परिपतन्ति पर्वतशिखरादेरिवेति, परिशटन्ति कुष्ठादेनिमित्तादगुल्यादिवत् विध्वस्यन्ते-विनश्यन्ति धनपटलवदिति ५॥ पुद्गलानेव
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[८१]
॥
३॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८३]
दीप
द्वादशसूच्या निरूपयन्नाह 'दुविहे'त्यादि, भिन्नाः-विचटिता इतरे स्वभिन्नाः १ स्वयमेव भिद्यत इति भिदुर भिदुरत्वं | धर्मो येषां ते भिदुरधर्माणः अन्तर्भूतभावप्रत्ययोऽयं, प्रतिपक्षः प्रतीत एवेति २ परमाश्च ते अणवश्चेति परमाणवः नोपरमाणवः-स्कन्धाः, सूक्ष्माः येषां सूक्ष्मपरिणामः शीतोष्णस्निग्धरूक्षलक्षणाश्चत्वार एव च स्पर्शास्ते च भाषादयः, बादरास्तु येषां बादरः परिणामः पश्चादयश्च पास्ते चौदारिकादयः ४ पार्थेन स्पृष्टा देहत्वचा छुप्ता रेणुवसाचस्पृष्टास्ततो बद्धाः-गाढतरं श्लिष्टाः तनौ तोयवत् पार्श्वस्पृष्टाश्च ते बद्धाश्चेति राजदन्तादित्वाद् बद्धपार्श्वस्पृष्टाः, आह च -'पुई रेणुं च तणुंमि बद्धमप्पीकयं पएसेहिंति, एते च प्राणेन्द्रियादिग्रहणगोचराः, तथा नो बद्धाः किन्तु पार्श्वस्पृष्टा इत्येकपदप्रतिषेधः श्रोत्रेन्द्रियग्रहणगोचराः, यत उक्तम्-"पुढे सुणेइ सई रूवं पुण पासई अपुहं तु । गंधं रसं च फासं च बद्धपुह वियागरे ॥१॥"त्ति, उभयपदनिषेधे श्रोत्राद्यविषयाश्चक्षुर्विषयाश्चेति, इयमिन्द्रियापेक्षया बद्धपार्श्वस्पृष्टता पुद्गलानां व्याख्याता, एवं जीवप्रदेशापेक्षया परस्परापेक्षया च व्याख्येयेति ५ 'परियाइयत्ति विवक्षितं पर्यायमतीताः पर्यायातीताः पर्यात्ता वा-सामस्त्यगृहीताः कर्मपुद्गलवत्, प्रतिषेधः सुज्ञानः ६ आत्ता:-गृहीताः स्वीकृता जीवेन परिग्रहमाबतया शरीरादितया चा ७ इष्यन्ते स्म अर्थक्रियार्थिभिरितीष्टाः ८ कान्ताः-कमनीया विशिष्टवर्णादियुक्ताः९ प्रियाः-प्रीतिकराः इन्द्रियाहादकाः १० मनसा ज्ञायन्ते शोभना एत इत्येवं विकल्पमुखादयन्तः शोभनत्वप्रकर्षाये ते मनोज्ञाः ११ मनसो मता-बालभाः सर्वस्याप्युपभोक्तुः सर्वदा च शोभनत्वप्रकर्षादेव निरुक्तविधिना मणामा १२ इति, व्याख्यानान्तरं त्वेव
र रेणपतनी बक्षमात्मीकृतं प्रदेशः, पूष्मणोति शब्द रूप पुनः परबत्यस्पृष्टं तु । गन्ध रस व स्पर्श च पदस्पतं व्यारणीयात् ॥ ५ ॥
अनुक्रम [८३]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना
सूत्र
प्रत सूत्रांक [८३]
वृत्तिः
२ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३ | ज्ञानाद्या
चाराः प्रतिमा सा|मायिक च
॥६४॥
दीप अनुक्रम [८३]
इष्टा:-बालभाः सदैव जीवानां सामान्येन, कान्ताः-कमनीयाः सदैव तझावेन, प्रियाः-अद्वेष्याः सर्वेषामेव, मनोज्ञाः- मनोरमाः कथयापि, मनआमा-मनःप्रियाश्चिन्तयाऽपीति, विपक्षः सुज्ञानः सर्वत्रेति ॥ पुद्गलाधिकारादेव तद्धर्मान शब्दादीन् अनन्तरोक्तसविपर्ययात्सादिविशेषणषटुविशिष्टान् 'दुविहा सद्दे'त्यादिसूत्रत्रिंशताऽऽह-'दुविहे'त्यादि, कण्ठ्या चेयमिति । उक्ताः पुद्गलधर्माः, सम्प्रति धर्माधिकाराज्जीवधर्मानाह
दुविहे आयारे पं० २०-गाणायारे चेव नोनाणायारे व १, णोनाणायारे दुविहे पं० २०-ईसणायारे चेव नोदंसणायारे व २, नोदंसणायारे दुबिहे पंतं०-चरित्तायारे चेव नोचरित्तायारे चेव ३, णोचरित्तावारे दुविहे पं० सं०---तबाथारे चेव बीरियायारे व ४दो पडिमाओ पं० सं०-समाहिपडिमा चेव उवहाणपडिमा चेव १, दो पडिमाओ पं० २०-विवे. गपडिमा चेव विउसगपडिमा चेव २, दो पडिमाओ पं० तंजहा-भद्दा चेव सुभद्दा चेव ३, दो पडिमाओ पं० ----महाभद्दा चेव सवतोभदा चेव ४, दो पदिमाओ पं० २०-खुडिबा चेव मोयपडिमा महलिया पेव मोयपडिमा ५, दो पडिमाओ पं० त०-जवमज्जो चेव चंदपडिमा वइरमझे चेव चंदपडिमा ६, दुविहे सामाइए पं० २०-अगारसामाइए
चेव अणगारसामाइए चेव (सू०८४)। 'दुविहे आयारे'इत्यादि सूत्रचतुष्टयं कण्ठ्यं, नवरं आचरणमाचारो-व्यवहारो ज्ञान-श्रुतज्ञानं तद्विषय आचारः कालादिरष्टविधो ज्ञानाचारः, आह च-"काले विणए बहुमाणे उवहाणे चेव तहय निण्हवणे । वंजणमत्थ तदुभए अढविहो
१ कालो बिनयो बहुमान उपधानं चैव तथैवानिहलनम् । व्यानं अर्थस्तदुभयमष्टविधी
JA
।
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [८४]
दीप अनुक्रम [८४]
नाणमायारो॥१॥"त्ति, नोज्ञानाचारः-एतद्विलक्षणो दर्शनाद्याचार इति, दर्शन-सम्यक्त्वं, तदाचारो निःशहितादि-1 रष्टविध एव, आह च-"णिस्संकिय १ निकंखिय २ निन्वितिगिच्छा ३ अमूढदिही ४ य । उबवूह ५ धिरीकरणे ६५ वच्छल ७ पभावणे ८ अट्ठ ॥२॥" त्ति, नोदर्शनाचारश्चारित्रादिरिति, चारित्राचारः समितिगुप्तिरूपोऽष्टधा, आह च"पणिहाणजोगजुत्तो पंचहि समिईहिं तीहिं गुत्तीहिं । एस चरित्तायारो अवविहो होइ नायवो ॥३॥"त्ति, नोचारित्राचारस्तपआचारप्रभृतिः, तत्र तपआचारो द्वादशधा, उक्तं च-"बारसविहंमिवि तवे सम्भितरबाहिरे कुसलदिढे । अगि
लाइ अणाजीवी नायब्चो सो तवायारो ॥४॥"त्ति, वीर्याचारस्तु ज्ञानादिष्वेव शक्तेरगोपनं तदनतिक्रमश्चेति, उक्त एच-"अणिगृहियबलविरिओ परकमइ जो जहुत्तमाउत्तो । जुंजइ य जहाथामं नायच्यो वीरियायारो ॥५॥" त्ति
अथ वीर्याचारस्यैव विशेषाभिधानाय षट्सूत्रीमाह-दो पडिमें'त्यादि, प्रतिमा प्रतिपत्तिः प्रतिज्ञेतियावत्, समाधान समाधिः-प्रशस्तभावलक्षणः तस्य प्रतिमा समाधिप्रतिमा दशाश्रुतस्कन्धोक्ता द्विभेदा-श्रुतसमाधिप्रतिमा सामायिकादिचारित्रसमाधिप्रतिमा च, उपधानं-तपस्तत्प्रतिमोपधानप्रतिमा द्वादश भिक्षुप्रतिमा एकादशोपासकप्रतिमाश्चेत्येवरूपेति । विवेचनं विवेकः-त्यागः, स चान्तराणां कषायादीनां बाह्यानां गणशरीरभक्तपानादीनामनुचितानां तत्प्रतिपत्तिविवेकप्र
१शानाचारः ॥ १॥ २ निशदितो निष्कासितो निर्विचिकित्सोऽमूडदृष्टिश्च । उपहा स्थिरीकरणं यात्सल्यं प्रभावना अष्ट ॥२॥ ३ प्रणिधानयोगयुक्तः | पञ्चसु समितिषु तिमधु गुति। एष चारित्राचारोऽधविधो भवति ज्ञातव्यः ॥७॥ ४ द्वादशविषेऽपि तपसि साभ्यन्तरवावे कुशलहरे । अग्लान्याइनाजीची शातिव्यः स तपआचारः ॥१॥ ५ अनिहितबलवीयः पराकमते यो यथोक्तमायुक्तः । युनक्ति च यथास्थाम ज्ञातव्यो बीयांचारः ॥ १॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
दीप अनुक्रम [८४]
श्रीस्थाना- तिमा, व्युत्सर्गप्रतिमा-कायोत्सर्गकरणमेवेति, भद्रा-पूर्वादिदिक्चतुष्टये प्रत्येक प्रहरचतुष्टयकायोत्सर्गकरणरूपा अहो- २ स्थानमसूत्र- लिरात्रद्वयमानेति, सुभद्राऽप्येवंप्रकारैव सम्भाव्यते, अदृष्टत्वेन तु नोक्तेति, महाभद्रापि तथैव, नवरमहोरात्रकायोत्सर्गरूपालकाध्ययने वृत्तिः अहोरात्रचतुष्टयमाना, सर्वतोभद्रा तु दशसु दिक्षु प्रत्येकमहोरात्रकायोत्सर्गरूपा अहोरात्रदशकप्रमाणेति, मोकप्रतिमा-12 उद्देशः ३
प्रस्रवणप्रतिमा, सा च कालभेदेन क्षुद्रिका महती च भवतीति, यत उक्तं व्यवहारे-"खुड्डियं णं मोयपडिमं पडिव- ज्ञानाद्याण्णसे"त्यादि, इयं च द्रव्यतः प्रस्रवणविषया क्षेत्रतो ग्रामादेर्बहिः कालतः शरदि निदाघे वा प्रतिपद्यते, भुक्त्वा चेत् चाराः प्रप्रतिपद्यते चतुर्दशभक्केन समाप्यते, अभुक्त्वा तु षोडशभक्तेन, भावतस्तु दिव्याधुपसर्गसहनमिति, एवं महत्यपि, नवरं तिमा सा
भुक्त्वा चेत् प्रतिपद्यते षोडशभक्तेन समाप्यते, अन्यथा त्वष्टादशभक्तेनेति, यवस्येव मध्यं यस्याः सा यवमध्या, चन्द्रमायिकं च लाइव कलावृद्धिहानिभ्यां या प्रतिमा सा चन्द्रप्रतिमा, तथाहि-शुक्लप्रतिपदि एक कवलमभ्यवहत्य ततः प्रतिदिनं कवल-10
वृद्ध्या पञ्चदश पौर्णमास्यां कृष्णप्रतिपदि च पञ्चदश भुक्त्वा प्रतिदिनमेकैकहान्याऽमावास्यायामेकमेव यस्यां भुते सा यव-12 मध्या चन्द्रप्रतिमेति, यस्यां तु कृष्णप्रतिपदि पञ्चदश भुक्त्वा एकैकहान्याऽमावास्यायामेकं शुक्लमतिपदि चैकमेव ततः13 पुनरेकैकवृया पूर्णिमायां पश्चदश भुते सा वज्रस्येव मध्यं यस्यां तन्वित्यर्थः सा बज्रमध्या चन्द्रप्रतिमेति, एवं भिक्षादावपि वाच्यमिति ॥ प्रतिमाश्च सामायिकवतामेव भवन्तीति सामायिकमाह-'दुविहे इत्यादि, समाना-ज्ञानादीना-1 ॥५॥ मायो-लाभः समायः स एव सामायिकमिति, तद् द्विविधम्-अगारवदनगारस्वामिभेदाद् , देशसर्वविरती इत्यर्थः ॥ जी- घधर्माधिकार एवं तद्धर्मान्तराणि 'दोहं उववाए' इत्यादिभिश्चतुर्विशत्या सूत्रराह
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
दीप अनुक्रम [८५]
ॐॐॐॐॐॐकास
दोण्हं उववाए पं० तं०-देवाण चेव नेरइयाण चेव १ दोण्हं उब्वट्टणा पं० ०-णेरइयाण चेव भषणवासीण व २ दोहं चयणे पं० सं०-जोइसियाण चेव वेमाणियाण चेव ३ दोण्हं गम्भवकंती पं०सं०-मणुस्साण चेव पंचेवियतिरिक्खजोणियाण चेव ४ दोहं गम्भत्थाणं आहारे पं० सं०-मणुस्साण चेव पंचेंदियतिरिक्खजोणियाण चेव ५ दोण्हं गम्भत्थाणं जुड़ी पं० सं०-गणुस्साण चेव पंचेंदिवतिरिक्खजोणियाण चेव ६ एवं निम्बुड़ी ७ विगुज्वणा ८ गतिपरियाए ९ समुग्धाते १० कालसंजोगे ११ आयाती १२ मरणे १३ दोण्हं छविपब्वा पं० त०-मणुस्साण चेत्र पंचिंदियतिरिक्तजोणियाण व ४ दो सुकसोणितसंभवा पं० त०-मणुस्सा चेव पंचिदियतिरिक्खजोणिया चेष १५ दुविहा ठिती पं० सं०-कायद्विती व भवद्रुिती चेव १६ दोण्हं कावहिती पं० सं०-मणुस्साणं चेव पंचिंदियतिरिक्खजोणियाण चेव १७ दोहं भवद्रुिती पं० २०-देवाण चेव नेरइयाण चेव १८ दुविहे आउए पं० तं-भद्धाउए व भवाडए चेव १९ दोहं भद्धाउए पं० सं०-गणुस्साण चेव पंचेंदियतिरिक्ख जोणियाण चेव २० दोण्हं भवाउए पं० त०देवाण चेव णेरझ्याण व २१ दुविहे फम्मे पं० २०-पदेसकम्मे चेव अणुभावकम्मे चेत्र २२ दो अहाउयं पालेंति तं. देवमेव नेरइयव २३ दोहे आउयसंवट्टए पं० सं०-मणुस्साण चेव पंचेवियतिरिक्खजोणियाण चेष २४ (सू० ८५) सुगमानि चैतानि नवरं 'दोण्हति द्वयोजींवस्थानकयोरुपपतनमुपपातो-गर्भसंमूर्छनलक्षणजन्मप्रकारद्वयविलक्षणो जन्मविशेष इति, दीव्यन्ति इति देवाः-चतुर्निकायाः सुरा नैरयिकाः प्राग्वत्तेपाम् १, उद्वर्तनमुद्वर्तना तत्कायान्निर्गमो मरणमित्यर्थः, तच्च नैरयिकभवनवासिनामेवैवं व्यपदिश्यते, अन्येषां तु मरणमेवेति, नैरयिकाणां-नारकाणां तथा
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीस्थाना- इसूत्रवृत्तिः
दीप अनुक्रम [८५]
भवनेषु-अधोलोकदेवावासविशेषेषु वस्तुं शीलमेषामिति भवनवासिनस्तेषाम् २, च्युतिश्चयवनं मरणमित्यर्थः, तच ज्यो- २ स्थान: तिष्कवैमानिकानामेव व्यपदिश्यते, ज्योतिष्षु-नक्षत्रेषु भवाः ज्योतिष्काः, शब्दव्युत्पत्तिरेवेयं, प्रवृत्तिनिमित्ताश्रयणातुकाध्ययन चन्द्रादयो ज्योतिष्का इति, विमानेषु-ऊर्द्धलोकवत्तिषु भवाः वैमानिका:-सौधर्मादिवासिनस्तेषां ३, गर्भ-गर्भाशये का उद्दशः। व्युत्कान्तिः-उत्पत्तिर्गर्भव्युत्क्रान्तिः, मनोरपत्यानि मनुष्यास्तेषां, तिरोऽयन्ति-गच्छन्तीति तिर्यश्चस्तेषां सम्बन्धिनीरा उपपातीयोनि: उत्पत्तिस्थानं येषां ते तिर्यग्योनिकाः, ते चैकेन्द्रियादयोऽपि भवन्तीति विशिष्यन्ते-पथेन्द्रियाश्च ते तिर्यग्यो- दत्तननिकाश्चेति पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकास्तेषाम् ४, तथा द्वयोरेव गर्भस्थयोराहारोऽन्येषां गर्भस्यैवाभावादिति ५, वृद्धिः-15 च्यवनादिः शरीरोपचयः ६, निवृद्धिस्तद्धानिर्वातपित्तादिभिः, निशब्दस्याभावार्थत्वात्, निवरा कन्योत्यादिवत् ७, वैक्रियलब्धिमतां विकुर्वणा ८, गतिपर्यायः-चलन मृत्वा वा गत्यन्तरगमनलक्षणः, यच्च वैक्रियलब्धिमान् गर्भान्निर्गत्य प्रदेशतो बहिः | सङ्घामयति स वा मतिपर्यायः, उक्तं च भगवत्यां-"जीवे णं भंते! गभगए समाणे णेरइएसु उववजेजा?, | गोतमा!, अत्थेगइए उववजेज्जा अत्थेगइए नो उबवजेजा, से केणडेणं०१, गोतमा! से णं सन्नी पंचिंदिए सन्चाहिं| पज्जत्तीहिं पज्जत्तए वीरियलद्धीए विउचिअलद्धीए पराणीयं आगतं सोचा णिसम्म पएसे निच्छुन्भइ २ वेउब्वियसमुग्धाएणं
जीनो भवन्त ! गर्भगतः सन् नैरषिकेषुत्पद्येत?, गौतम ! अस्स्येकक उत्पयेत अत्येकको नोत्पद्येत, तत्केनान-१, गौतम! स संज्ञी पोन्दियः सर्वाभिः | पर्याप्तिभिः पर्याप्तको वीर्यलबध्या किवलम्या परानीकमागतं श्रुत्वा निशम्य प्रदेशान् निष्काशयति वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्ति १ चतुरक्षिणी सेनां विकुर्वति २ चतुरहिया सेनया परानीकेन साध संग्राम संग्रामयति.
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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सूत्रांक
दीप अनुक्रम [८५]
समोहन्नइ २ चाउरंगिणिं सेणं विजब्बइ २ चाउरंगिणीए सेणाए पराणीएणं सद्धिं संगामं संगामेई"त्यादि ९, समुद्घातो मारणान्तिकादि: १०, कालसंयोगः-कालकृतावस्था ११, आयाति:-गर्भानिर्गमो १२, मरणं-प्राणत्यागः १३, 'दोण्हं| छविपत्ति द्वयानां-उभयेषां 'छवि'त्ति मतुब्लोपाच्छविमन्ति-स्वग्बन्ति 'पव्य'त्ति पर्वाणि सन्धिबन्धनानि छविपर्वाणि कचित् 'छवियत्त'त्ति पाठः तत्र छवियोगाच्छविः स एव छविकः स चासौ 'अत्तत्ति आत्मा च-शरीरं छविकात्मेति, 'विपत्त'त्ति पाठान्तरे छविः प्राप्ता जातेत्यर्थः, गर्भस्थानामिति सर्वत्र सम्बन्धनीयम् १४, 'दो सुक्के'त्यादि, द्वयोः शुक्र-रेतः शोणितम्-आर्त्तवं ताभ्यां सम्भवो येषां ते तथा १५, 'कायहिति'त्ति काये-निकाये पृधिव्यादिसामान्यरू-101 पेण स्थितिः कायस्थितिः असङ्ख्योत्सपिण्यादिका, भवे भवरूपा वा स्थितिः भवस्थितिर्भवकाल इत्यर्थः १६, 'दोण्हति दयानामुभयेषामित्यर्थः, कायस्थितिः सप्ताष्टभवग्रहणरूपा, पृथिव्यादीनामपि साऽस्ति, न चानेन तव्यवच्छेदः, अयो
गव्यवच्छेदपरत्वात् सूत्राणामिति १७, 'दोण्हें त्यादि, देवनारकाणां भवस्थितिरेव, देवादेः पुनर्देवादित्येनानुसत्तेरिति ४१८, 'दुविहे'इत्यादि अद्धा-कालः ततप्रधानमायु:-कर्मविशेषोऽद्धायुः, भवात्ययेऽपि कालान्तरानुगामीत्यर्थो, यथा मनु
ध्यायुः, कस्यापि भवात्यय एव नापगच्छत्यपि तु सप्ताष्टभवमानं कालमुत्कर्षतोऽनुवर्तत इति, तथा भवप्रधानमायुर्भवायुः, यद्भवात्यये अपगच्छत्येव न कालान्तरमनुयाति, यथा देवायुरिति, १९, 'दोण्ह'मित्यादि सूत्रद्वयं भावितार्थमेव २१,'दुविहे कम्मे इत्यादि, प्रदेशा एव-पुद्गला एवं यस्य वेद्यन्ते न यथा बद्धो रसस्तत्प्रदेशमात्रतया वेद्य कर्म प्रदेशकर्म, यस्य स्वनुभावो यथाबद्धरसो वेद्यते तदनुभावतो वेद्यं कर्मानुभावकर्मेति २२, 'दो' इत्यादि, यथावद्धमायुर्यथायुः पाल
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
दीप अनुक्रम [८५]
श्रीस्थाना-
नयन्ति-अनुभवन्ति नोपक्रम्यते तदितियावदिति,-'देवा नेरइयावि य असंखवासाउया य तिरिमणुया । उत्तमपुरिसा यार स्थानसूत्र- तहा चरमसरीरा य निरुवकमा ॥१॥ इति वचने सत्यपि देवनारकयोरेवेह भणनं द्विस्थानकानुरोधादिति । 'दोहा काध्ययने वृत्तिः मित्यादि, संवर्तनमपवर्त्तनं संवर्तः स एव संवर्तकः, उपक्रम इत्यर्थः, आयुषः संवर्तकः आयुःसंवर्तक इति २३ । पर्या- उद्देशः ३
याधिकारादेव नियतक्षेत्राश्रितत्वात् क्षेत्रव्यपदेश्यान् पुद्गलपर्यायानभिधित्सुः 'जंबुद्दी।' इत्यादिना क्षेत्रप्रकरणमाह- भरतादि
जंबूहीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स उत्तरदाहिणेणं दो वासा [पं० २०-बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता अन्नमन्नं णातिष- क्षेत्रस्व० ट्रॅति आयामविक्खंभसंठाणपरिणाहेणं तं०-भरहे चेव एरवए चेव, एवमेएणमहिलावेणं हिमवए चेव हेरनवते चेव, हरिवासे पेव रम्मयवासे चेव, जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पन्वयस्स पुरच्छिमपञ्चस्टिमेणं दो खित्ता [पं० सं०-बहुसमतुल्ला अविसेस जाव पुरुषविदेहे चेव अवरविदेहे चेव, जंबूमंदरस्स पञ्चयस्स उत्तरदाहिणेणं दो कुराओ [पं० सं०-पशुसमतुलामो जाव देवकुरा व उत्तरकुरा चेव, तत्व णं दो महतिमहालया महादुमा [पं० सं०-बासमतुला अविसेसमणाणत्ता अन्नमन णाश्वट्ठति आयामविक्संभुचत्तोबेहसंठाणपरिणाहेणं तं०-कूडसामली चेव जंबू चेव मुदसणा । सत्य णं दो देवा महिदिया जाव महासोक्खा पलिओवमद्वितीया परिवसन्ति, त०-रुले चेव वेणुदेवे अणाढिते व जंचूड़ीवाहिवती (सू०८६) सुगमं चैतत् , नवरमिह जम्बूद्वीपप्रकरणं परिपूर्णचन्द्रमण्डलाकारं जम्बूद्वीपं तन्मध्ये मेलं उत्तरदक्षिणतः क्रमेण
मा॥६७॥ १ देवा नैरयिका अपि च असंख्यवर्षायुष्काच तिच्यनुष्याः । उत्तमपुरुषाय तथा चरमपारीराच निरुपमाः ॥१॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
दीप अनुक्रम [८६]
वर्षाणि च स्थापयित्वा, तद्यथा,भरह हेमवयंति य हरिवासंति य महाविदेहति । रम्मय एरन्नवयं एरवयं चेव || वासाई ॥१॥ ति, तथा वर्षान्तरेषु वर्षधरपर्वतान् कल्पयित्वा, तद्यथा-'हिमवंत १ महाहिमवंत २ पब्वया निसढ ३] नीलवंता य ४ रुप्पी ५ सिहरी ६ एए वासहरगिरी मुणेयव्वा ॥१॥ इति सर्वमवबोद्धव्यमिति । मन्दरस्यमेरोः उत्तरा च दक्षिणा च उत्तरदक्षिणे तयोरुत्तरदक्षिणयोरिति वाक्ये उत्तरदक्षिणेनेति स्याद्, एनप्रत्ययविधानादिति, हे वर्षे-क्षेत्रे प्रज्ञप्ते जिनैः, समतुल्यशब्दः सदृशार्थः अत्यन्तं समतुल्ये बहुसमतुल्ये प्रमाणतः अविशेषे-अविलक्षणे
नगनगरनद्यादिकृतविशेषरहिते अनानात्वे-अवसर्पिण्यादिकृतायुरादिभावभेदवर्जिते, किमुक्तं भवतीत्याह-'अन्योMान्य परस्पर नातिवत्तेंते, इतरेतरं न लयत इत्यर्थः, कैरित्याह-'आयामेन' दैर्येण 'विष्कम्भेन' पृथुत्वेन 'संस्थानेन' आरोपितज्याधनुराकारेण 'परिणाहेन' परिधिनेति, इह च द्वन्द्वैकवद्भावः कार्य इति, अथवा बहुसमतुल्ये आयामतः, तथाहि-भरतपर्यन्तश्रेणीयं 'चोइस य सहस्साई सयाइँ चत्तारि एगसयराई । भरहजुत्तरजीवा छा य कला ऊणिया किंचि ॥१॥ कला च योजनस्यैकोनविंशतितमो भाग इति १४४७१, एरवतेऽप्येवं । तथा अविशेषे विष्कम्भतः, तथाहि-पंच सए छब्बीसे छच्च कला विस्थडं भरहवासंति, ५२६, अयमेव चैरवतस्यापीति, अनानात्वे | संस्थानतः अन्योऽभ्यं नातिवर्तेते, परिणाहतः परिणाहश्च ज्याधनुःपृष्ठयोर्यतामाणं, तत्र ज्याप्रमाणमुक्त, धनु:
भरतं हेमवत हरिवर्ष महाविदेह मिति च । रम्यगैरण्यवर्त ऐवतं चैव वर्षाणि ॥१॥ हिमवादाक्षा वर्षधरगिरय एते १ चतुर्दश सहखाणि चत्वारि शतानि | एकसप्तभिकानि भरतात्तिरजीचा षड् कला ऊनाः किंचित् ॥1॥३पंच शतानि पविशत्यधिकानि पठ्ठला विसर भरतवर्ष. ५२६-६-पिसारा.
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थानानसूत्रवृत्तिः
सूत्रांक
दीप अनुक्रम [८६]
पृष्ठप्रमाणं विदम्-'चोइस य सहस्साई पंचेव सयाई अहंधीसाई । एगारस य कलाओ धणुपुढं उत्तरद्धस्स ॥१॥ २ स्थान१४५२८ । यथा च भरतस्यैरवतस्यापि तथैवेति । एकाथिकानि वैतानि पदानि, भृशार्थत्वाचन पुनरुक्ततेति, उक्तं च काध्ययने -"अनुवादादरवीप्साभृशार्थविनियोगहेत्वसूयासु । ईषत्सम्भ्रमविस्मयगणनास्मरणेष्वपुनरुक्तम् ॥ १॥" इति, तद्यथा, 'भरहे चेवेत्यादि, 'उत्तरदाहिणेणं'त्येतस्य पाठस्य यथासमयन्यायानाश्रयणाद् यथासत्तिन्यायाश्रयणाच जम्बूद्वीपस्या दक्षिणे भागे भरतमाहिमवतः, तस्यैवोत्तरे भागे ऐरवतं शिखरिणः परत इति, 'एच'मिति भरतैरवतवत् 'एतेनाभिला-18
| क्षेत्रस्व० पेन 'जंबूहीवे दीवे मंदरस्से'त्यादिना उच्चारणेनापरं सूत्रद्वयं वाच्यं, तयोश्चायं विशेषः-हेमवए चेवे'त्यादि, तत्र हैमवतं दक्षिणतो हिमवन्महाहिमवतोर्मध्ये हिरण्यवतमुत्तरतः रुक्मिशिखरिणोरन्तः हरिवर्षे दक्षिणतो महाहिमवन्निषधयोरन्तः रम्यकवर्ष चोत्तरतो नीलरुक्मिणोरन्तरिति, 'जंबूद्दीवे इत्यादि, 'पुरच्छिमपचत्थिमेणं'ति पुरस्तात्-पूर्वस्यां | | दिशि पश्चात्-पश्चिमायामित्यर्थः, यथाक्रम, पूर्वश्चासौ विदेहश्चेति पूर्वविदेहः, एवमपरविदेह इति, एतेषां चायामादि | ग्रन्थान्तरादवसेयमिति । 'जंबू'इत्यादि, दक्षिणेन देवकुरवः उत्तरेण उत्तरकुरवः, तत्र आद्या विद्युत्मभसौमनसाभिधा-| नवक्षस्कारपर्वताभ्यां गजदन्ताकाराभ्यामावृताः, इतरे तु गन्धमादनमाल्यवयामावृताः, उभये चामी अर्द्धचन्द्राकाराः दक्षिणोत्तरतो विस्तृताः, तत्प्रमाणं चेदम्-'अट्ठसया बायाला एकारस सहस दो कलाओ य । विक्खंभो य कुरूणं तेचतुरंधा सहस्राणि पचय पातानि भष्टाविंशत्यधिकानि एकादश च कला धनुःपृष्ठ उत्तराईस. १४५२८-११ धनुःपूर्ष१ एकादश सहस्राणि अट शतानि
॥ ८॥ PI विचत्वारिपादधिकानिकले व विष्कम्भस्तु देवकुरूणां त्रिपंचाशत्सहस्राणि जीवाऽनयोः ॥१॥१२८४१-२ विफम्भः ५२००० जीवा.
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
दीप अनुक्रम [८६]
वन्नसहस्स जीवा सिं ॥१॥" पूर्वापरायामाश्चैता इति, 'महइमहालय'त्ति महान्तौ गुरू 'अतीति अत्यन्तं महसातेजसा महानां वा-उत्सवानामालयौ-आश्रयौ महातिमहआलयौ महातिमहालयौ वा समयभाषया महान्तावित्यर्थः, महाद्रुमौ प्रशस्ततया आयामो-दैy विष्कम्भो-विस्तारः उच्चत्वम्-उच्छ्रयः उद्वेधो-भुवि प्रवेशः संस्थानम्-आकारः परिणाहः-परिधिरिति, तत्रानयोः प्रमाणम्-रैयणमया पुष्फफला विक्खंभो अह अह उच्चत्तं । जोयणमडुबेहो खंधो दोजोयणुब्बिद्धो ॥१॥ दो कोसे विच्छिन्नो विडिमा छज्जोयणाणि जंबूए । चाउदिसिपि साला पुचिल्ले तत्थ सालमि || ॥२॥ भवणं कोसपमाणं सयणिज्ज तत्थऽणाढियसुरस्स । तिसु पासाया सालेसु तेसु सीहासणा रम्मा ॥३॥” इति, शाल्मल्यामप्येवमेवेति, कूटाकारा-शिखराकारा शाल्मली कूटशाल्मलीति संज्ञा, सुठु दर्शनमस्या इति सुदर्शनेतीयमपि
संज्ञेति, 'तस्थति तयोर्महादुमयोः 'महे'त्यादि महती ऋद्धिः-आवासपरिवाररलादिका ययोस्तौ महर्जिकी यावग्रह-13 Kणात् 'महज्जुश्या महाणुभागा महायसा महावल'त्ति, तत्र युतिः-शरीराभरणदीप्तिः अनुभाग:-अचिन्त्या शक्ति-| M बैंक्रियकरणादिका यश:-क्ष्यातिः बल-सामर्थ्य शरीरस्य सौख्यम्-आनन्दात्मकं, 'महेसक्खा' इति कचित्पाठः, म-IN
हेशी-महेश्वरावित्याख्या ययोस्ती मेहशाख्याविति, पल्योपमं यावत् स्थितिः-आयुर्ययोस्तौ तथा । गरुडः-सुपर्ण-13 KIकुमारजातीयः वेणुदेवो नाम्ना, अणाढिउत्ति नाम्ना ॥
रत्नमयानि पुष्पकलानि भष्ट विष्कम्भोऽट उदात्वं अर्खयोजनमुढेधा स्कन्धो द्वियोजनोद्वेषः ॥ १॥ कोशदूयं विस्तीर्णो विटपो जम्बाः शाखा षट् योजनाः चतुर्दियामपि शालाः पीरस्या तत्र शालायां ॥ ५॥ भवनं कोशप्रमाणं शयनीयं तत्रानाहतासुरस्य तिमषु प्रासादाः मालासु तानु सिंहासनानि रम्याणि ॥३॥
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना-|| गसूत्रवृत्तिः
सूत्रांक
२स्थानकाध्ययने उद्देशः ३ वर्षेधरादिस्व०
॥६९॥
दीप अनुक्रम [८७]
जंबूमंदरस्स पब्वयस्स य उत्तरदाहिणेणं दो वासहरपव्वया [पं० ०-] बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणता अन्नमन्नं णातिवटुंति आयामविक्वंभुचत्तोब्वेहसंठाणपरिणाहेणं, तंजहा-चुलाहिमवंते व सिहरिचेव, एवं महाहिमवंते व रुप्पिथेव, एवं णिसढे चेव णीलवंते चेव, जंवूमदरस्स पव्ययस्स उत्तरदाहिणेणं हेमवंतेरण्णवतेसु वासेसु दो बहवेतड़पव्वता [पं० तं०-] बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता जाव सहावाती चेव वियडावाती चेब, तस्थ णं दो देवा महिडिया जाव पलिओवमट्टितीया परिवसंति तं०-साती चेव पभासे चेव, जंबूमंदरस्स उत्तरदाहिणणं हरियासरम्मतेसु वासेसु दो बट्टवेयपष्षया [पं० त०] बहुसम० जाच गंधावाती चेव मालवंतपरियाए चेव, तत्व णं दो देवा महिडिया चेष जाव पलिओवमद्वितीया परिवसंति, तं0--अरुणे चेव पउमे चेव, जंबूमंदरस्स पब्वयस्स दाहिणेणं देवकुराए पुवावरे पासे एत्य गं आसक्संधगसरिसा अद्धचंदसंठाणसंठिया दो वक्खारपव्वया पं० २०-बहुसमा जाप सोमणसे चेव विशुप्पमे चेव, जंवूमंदर, उत्तरेणं उत्तरकुराए पुलबाबरे पासे एत्य णं आसक्खंधगसरिसा अडचंदसंठाणसंठिया दो वक्वारपव्यया पं० २०-बहु० जाब गंधमायणे चेव मालवंते चेव, जंवूमंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं दो दीहवेयपध्वया पं० तं०-बहुसमतुल्ला जाव भारहे चेव दीहवेयड़े एरावते व दीहवेयडे, भारहए णं दीहवेयड़े दो गुहाओ पं००बहुसमतुल्लाओ अविसेसमणाणत्ताओ अन्नमन्नं णातिवट्ठति आयामविक्खंभुञ्चत्तसंठाणपरिणाहेणं, तं०-तिमिसगुहा चेव खंडगप्पवायगुहा चेव, तत्थ णं दो देवा महिडिया जाव पलिओवमहितीया परिवसंति, २०-यमालए धेव भट्टमालए चेव, एरावयए णं दीहवेयड़े दो गुहाओ पं० २०-जाव कयमालए चेव नट्टमालए चेव । जंबूमंदरस्स पथ्व
६९॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
दीप अनुक्रम [८७]
यस्स दाहिणणे चुहिमवते वासहरपब्वए दो कूडा पं० २०-बहुसमतुल्ला जाब विक्वंभुगत्तसंठाणपरिणाहेणं, तं०
-युलहिमवंतकूडे चेव वेसमणकूछे चेव, जंबूमंदरदाहिणेणं महाहिमवंते वासहरपब्धए दो कूडा पं० २०-बहुसम जाव महाहिमवन्तकूडे चेव बेरुलियकूडे घेव, एवं निसढे वासहरपबए दो कूडा पं० सं०-बहुसमा० जाब निसढको घेव रुयगप्पभे चेव । जंयूमंदर० उत्तरेणं नीलवंते वासहरपब्वए दो कूडा पं० त०-बहुसम० जाव तं०-नीलवंतकूड़े व उवदसणकूडे घेव, एवं रुप्पिमि वासहरपव्वए दो कूडा पं० बहुसम० जान तं०-कप्पिकूडे घेव मणिकंधणकूड़े
चेव, एवं सिहरिगि वासहरपब्बते दो कूडा पं० त०-बहुसम० जाव तं०-सिहरिकूडे चेव तिर्गिछिकूडे पेव (सू०८७) 'जंबू' इत्यादि, वर्ष-क्षेत्रविशेष धारयतो-व्यवस्थापयत इति वर्षधरौ 'चुल्लो त्ति महदपेक्षया लघुहिमवान् चुल्लहिमवान् भरतानन्तरः, शिखरी पुनर्यत्परमैरवतम् , तौ च पूर्यापरतो लवणसमुद्रावबद्धावायामतश्च 'चउवीस |
सहस्साई णव य सए जोयणाण वत्तीसे । चुलहिमवंतजीवा आयामेणं कलद्धं च ॥१॥ २४९३२ एवं शिख४ारिणोऽपि, तथा भरतद्विगुणविस्तारौ योजनशतोच्छ्रायौ पञ्चविंशतियोजनावगाडी आयतचतुरनसंस्थानसंस्थिती, परि-| Gणाहस्तु तयोः पणयालीस सहस्सा सयमेगं नव य बारस कलाओ । अद्धं कलाएँ हिमवंतपरिरओ सिहरिणो चेव ॥१॥ ति,४५१०९एवं मिति यथा हिमवच्छिखरिणी 'जंबुद्दी'त्यादिनाऽभिलापेनोक्तो एवं महाहिमवदादयोऽपीति, तत्र
चनुर्विशतिः सहस्त्राणि नव व शतानि द्वात्रिंशब योजनाना चाहिमगंधीवाऽऽयामेन कलाई च. २४९३२३ हि जीवा. २ पंचचत्वारिंशत्सहस्राणि एक शतं नवाधिकं द्वादया व कलाः । कलाया अर्दै च हिमवत्परिरयः शिखरिणथैव ॥ १॥ हि• परि० ४५१०९-१३ 2.
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना- असूत्रवृत्तिः
प्रत सूत्रांक
॥७०॥
दीप अनुक्रम [८७]
महाहिमवाँल्लध्वपेक्षया, स च दक्षिणतः रुक्मी चोत्तरतः, एवमेष निषधनीलवन्तौ, नवरं एतेषामायामादयो विशेषतः २ स्थानक्षेत्रसमासाद् अवसेयाः, किश्चित्तु तद्गाथाभिरेवोच्यते-पंचसए छब्बीसे छच्च कला वित्थडं भरहवास । दससय बा- काध्ययने वन्नऽहिया वारस य कलाओ हिमवंते ॥१॥ हेमवए पंचहिया इगवीससया उ पंच य कलाओ। दसहियवायालसया दस य
| उद्देशः३ कलाओ महाहिमवे ॥२॥ हरिवासे इगवीसा चुलसीइ सया कला य एका य । सोलससहस्स अ य बायाला दो कला वर्षधराणिसढे ॥३॥ तेत्तीसं च सहस्सा छच्च सया जोयणाण चुलसीया। चउरो य कला सकला महाविदेहस्स विक्खंभो ॥४॥ दिव० जोयणसयमुग्विद्धा कणगमया सिहरिचुल्लहिमवंता । रुप्पिमहाहिमवंता दुसउच्चा रुप्पकणगमया ॥ ५॥ चत्तारि जोयणसए उन्विद्धा णिसढणीलवन्ता य । णिसहो तवणिजमओ वेरुलिओ नीलवंतगिरी ॥६॥ उस्सेहचउम्भागो ओगाहो पायसो नगवराणं । वट्टपरिही उ तिउणो किंचूणछभायजुत्तो य ॥ ७॥ त्ति, चतुरस्रपरिधिस्तु आयामविष्कम्भद्विगुण इति । 'जंबू' इत्यादि 'दो वट्टवेयड्डपब्बयत्ति, द्वौ वृत्ती पल्याकारत्वाद् वैताड्यौ नामतः तौ च तौ पर्वतौ चेति वि
षड्विंशसधिकानि पंच शतानि षट् च कला शिस्तूतं भरतक्षेत्र । द्विपंचाशदधिकानि दश शतानि द्वादश च कला हिमवतः ॥१॥ हैमवते पंचाधिकान्येकविंशतिशतानि पंच च कलाः । दशाधिकानि द्विचत्वारिंशपछत्तानि दश च कलाः महाहिमवति ॥ २॥ हरिवर्षे एकविंशत्यधिकानि चतुरशीतिः शतानि कला का षोडासहस्रामि अशताधिकानि द्विचत्वारिंशत् द्वे च कड़े निषधे ॥३॥ त्रयस्त्रिंशत्सहझाशि षट्चातानि चतुरशीखपिकानि योजनानां । बत्तखश्च कलाः सकलाः महाविदेहस्य विष्कम्भः ॥ ४ ॥ यातयोजनोचौ कनकमयी शिखरिचाहहिमवन्ती । रुक्मिमहाहिमवन्तो द्विशतोचौ रूप्यकनकमयौ ॥ ५ ॥ योजनचतुःशतोचौ | IDI७०॥ | निषधनीलवन्ती निषधस्तपनीयमयो बैंहयों नीलवान् गिरिः ॥६॥ इत्सेधचतुर्भागोऽवगाहः प्रायशो नगवराणां । वृत्तपरिरयस्त्रिगुणः किंचिवूनषड्भागयुक्त इति ॥७॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८७]
दीप
ग्रहः, सर्वतः सहस्रपरिमाणौ रजतमयौ, तत्र हैमवते शब्दापाती, उत्तरतस्तु ऐरण्यवते विकटापातीति, 'तत्य'त्ति तयोहा वृत्तवतान्ययोः कमेण स्वातिप्रभासी देवी वसता, तद्भवनभावादिति । एवं हरिवर्षे गन्धापाती रम्यगूवर्षे माल्यवत्-III पर्यायो देवौ च क्रमेणैवेति ॥ 'जंबू' इत्यादि 'पुष्वावरे पासे'त्ति, पार्श्वशब्दस्य प्रत्येक सम्बन्धात् पूर्वपार्थेऽपरपा च, किंभूते-'एल्थ'त्ति प्रज्ञापकेनोपदयमाने क्रमेण सौमनसविद्युमभी प्रज्ञप्ती, किम्भूतौ ?-अश्वस्कन्धसदृशावादी निम्नौ पर्यवसान उन्नती, यतो निषधसमीपे चतुःशतोच्छ्रिती मेरुसमीपे तु पञ्चशतोच्छ्रिताविति, आह च-"वासहरगिरितणं रुंदा पंचेच जोयणसयाई । चत्तारिसउम्बिद्धा ओगाढा जोयणाण सयं ॥ १॥ पंचसए उम्बिद्धा ओगाढा पंच
गाउयसयाई । अंगुलअसंखभागो विच्छिन्ना मंदरतेणं ॥२॥ वैक्खारपब्वयाणं आयामो तीस जोयणसहस्सा । दोन्नि | तय सया णवाहिया छच्च कलाओ चउण्हं पि ॥३॥"त्ति, 'अवरचंद'त्ति अपकृष्टमर्द्ध चन्द्रस्यापार्द्धचन्द्रस्तस्य यत्सं
स्थानम्-आकारो गजदन्ताकृतिरित्यर्थः, तेन संस्थितावपार्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थिती, अर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थिताविति कचिसाठः, तत्र अर्द्धशब्देन विभागमानं विवक्ष्यते, नतु समप्रविभागतेति, ताभ्यां चाईचन्द्राकारा देवकुरवः कृता, अत एव | | वक्षाराकारक्षेत्रकारिणी पर्वतो वक्षारपर्वताविति । 'जंबू' इत्यादि तथैव, नवरं अपरपार्षे गन्धमादनः पूर्वपार्चे माल्यवानिति । 'दो दीहवेय'त्ति, वृत्तवैतादयव्यवच्छेदार्थ दीर्घग्रहण, वैताब्यौ विजयादयी वेति संस्कारः, तौ च भरतैरा
पंधरगिर्यन्ते विस्तृताः पंचैव गोअनशतानि चतुःशतीचाः योजनानां शतमवगादाः॥१॥२ पंचशतोवाः पंचशतगव्यूतावगाडाः । अंगुलासंख्यभागलिस्तीर्णा मन्दरसमीपे. ॥१॥ वक्षस्कारपर्वतानामायामनियोजनसहस्राणि वे शते नवाधिक ष कला चतुर्णामपि ॥३॥
अनुक्रम
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
दीप अनुक्रम [८७]
श्रीस्थाना- वतयोर्मध्यभागे पूर्वापरतो लवणोदधिं स्पृष्टवन्तौ पञ्चविंशतियोजनोच्छ्रिती तत्पादावगाढी पञ्चाशद्विस्तृतौ आयतस- २ स्थानअसूत्र
स्थिती सर्वराजतावुभयतो बहिः काञ्चनमण्डनाङ्काविति, आह च-"पणुवीसं उविद्धो पन्नासं जोयणाण विच्छिन्नो काध्ययने वृत्तिः
वेयहो रययमओ भारहखेत्तस्स मज्झम्मि ॥१॥"त्ति, "भारहए ण'मित्यादि, वैतादयेऽपरतस्तमिश्रागुहा गिरिविस्ता- | उद्देशः ३ रायामा द्वादशयोजनविस्ताराऽष्टयोजनोच्छ्रया आयतचतुरस्रसंस्थाना विजयद्वारप्रमाणद्वारा वज्रकपाटपिहिता बहुमध्ये
वर्षधरा॥७१॥ द्वियोजनान्तराभ्यां त्रियोजनविस्ताराभ्यामुन्मग्नजलानिमग्नजलाभिधानाभ्यां नदीभ्यां युक्ता, तद्वत् पूर्वतः खण्डप्रपाता
दिस्व० गुहेति । 'तत्थ णति तयोः तमिस्रायां गुहायां कृतमाल्यक इतरस्यां नृत्तमालक इति । 'एरावए'इत्यादि तथैव । 'जंबू' इत्यादि, हिमवद्वर्षधरपर्वते ।कादश कूटानि सिद्धायतन १ क्षुल्लहिमवत् २ भरत ३ इला ४ गङ्गा ५ श्री ६ रोहितांशा: ७ सिन्धु ८ सुरा ९ हैमवत १० वैश्रमण ११ कूटाभिधानानि भवन्ति, पूर्वदिशि सिद्धायतनकूटं ततः क्रमेणापरतोन्यानि सवरलमयानि स्वनामदेवतास्थानानि पञ्चयोजनशतोच्छ्याणि तावदेव मूले विस्तृतानि उपरि तदर्धविस्तृतानि, आये सिद्धायतनं पञ्चाशद्योजनायाम तदर्द्धविष्कम्भ षट्त्रिंशदुचं अष्टयोजनायामश्चतुर्योजनविष्कम्भप्रवेशैत्रिभिारैरुपेतं जिनप्रतिमाष्टोत्तरशतसमन्वितं, शेषेषु प्रासादाः सार्द्धद्विषष्टियोजनोच्चास्तदर्द्धविस्तृतास्तन्निवासिदेवतासिंहासनवन्त
इति । इह तु प्रकृतनगनायकनिवासभूतत्वाद्देवनिवासभूतानां तेषां मध्ये आद्यत्वाच्च हिमवत्कूटं गृहीतं सर्वान्तिमत्वाच्च है वश्रवणकूटं द्विस्थानकानुरोधेनेति, आह च-"कत्थइ देसग्गहणं कत्थइ घेप्पंति निरवसेसाई। उक्कमकमजुत्ताई कार- ला॥७१॥
पंचविशतिरद्वेधः पंचाशयोजनानां विस्तीर्णः । वैताब्यो रजतमयो भरतक्षेत्रस्य मध्ये ॥१॥२कुत्रचिद्देशमहर्ण कापि गृह्यन्ते निरवशेषाणि । उक्रमकमआयुक्तानि कारणयपातो नियुकानि ॥१॥
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[C]
दीप
अनुक्रम
[co]
[भाग-5] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः)
स्थान [२], उद्देशक [3]. मूलं (८७) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३ ]
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पावसओ निजताई ॥ १ ॥” ति कूटसङ्ग्रहश्चायं - "वेयड ९ मालवंते ९ विज्जुप्पह ९ निसह ९ णीलवंते य ९ । णव णव कूडा भणिया एकारस सिहरि ११ हिमवंते ११ ॥ १ ॥ रुप्पि ८ महाहिमवंते ८ सोमणसे ७ गंधमायणनगे व ७ । अ| इऽड सत्त सत्त य वक्खारगिरीसु चत्तारि ॥ २ ॥" ति । 'जंबू' इत्यादि, महाहिमवति ह्यष्टौ कूटानि, सिद्ध १ महाहिभवत् २ हैमवत् ३ रोहिता ४ ही ५ हरिकान्ता ६ हरि ७ वैडूर्य ८ कूटाभिधानानि, द्वयग्रहणे च कारणमुक्तमिति । 'एव'मित्यादि, एवंकरणात् 'जंबू' इत्यादिरभिलापो दृश्यः, निषधवर्षधरपर्वते हि सिद्ध १ निषेध २ हरिवर्ष ३ प्राविदेह ४ हरि ५ धृति ६ शीतोदा ७ अपरविदेह ८ रुचकाख्यानि ९ स्वनामदेवतानि नव कूटानि, इहापि द्वितीयान्त्ययोर्ग्रहणं प्राग्वद् व्याख्येयमिति । 'जंबू इत्यादि, नीलवर्षधरपर्वते हि सिद्ध १ नील २ पूर्वविदेह र शीता ४ कीर्त्ति ५ नारीकान्ता६ sपरविदेह ७ रम्यक ८ उपदर्शना ९ ख्यानि नव कूटानि, इहापि द्वितीयान्त्यग्रहणं प्राग्वदिति । 'एवमित्यादि, रुक्मिवर्षधरे हि सिद्ध १ रुक्मि २ रम्यक ३ नरकान्ता ४ बुद्धि ५ रौप्यकूला ६ हैरण्यवत् ७ मणिकाञ्चनकूटा ८ ख्यानि अष्ट कूटानि, द्वयाभिधानं च प्राग्वदिति । 'एवमित्यादि शिखरिणि हि वर्षधरे सिद्ध १ शिखरि २ हैरण्यवत सुरा देवी ४ रक्ता ५ लक्ष्मी ६ सुवर्णकूला ७ रक्तोदा ८ गन्धापाति ९ ऐरावती १० तिगिच्छिकूटा ११ ख्यानि एकादश कूटानि, इहापि द्वयोर्ग्रहणं तथैवेति ॥
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१ वैताढ्ये मान्यवति । विद्युत्प्रभे निषधे नीलवति च नव नव कूटानि भणितानि एकादश शिखरि हिमयति ॥ 1 ॥ रुक्मिमहाहिमवतोः सौमनसगन्धमादननगयोः अष्टाष्ट सप्त सप्त व वक्षस्कारगिरिषु चत्वारि ॥ २ ॥
"स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीस्थाना
सूत्रवृत्तिः
२ स्थानकाध्ययने उद्देशः३ दादिस्व०
॥७२॥
दीप
जंबूमंदर० उत्तरदाहिणेणं चुलहिमवंतसिहरीसु वासहरपव्वयेसु दो महदहा पं० २०-बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता अण्णमण्णं णातिवदृति, आयामविक्खंभउब्वेहसंठाणपरिणाहेणं, ३०-पउमदहे चेव पुंडरीयदहे चेव, तस्थ णं दो देवयाओ महड़ियाओ जाव पलिओवमद्वितीयाओ परिवसति, सं०-सिरी चेव लच्छी घेव, एवं महाहिमवंतरुप्पीमु वासहरपन्नएसु दो महदहा पं० २०-बहुसम० जाव तं -महापउमरहे चेव महापौडरीयरहे चेव, देवताओ हिरिशेव बुद्विमेव, एवं निसढनीलवंतेमु तिगिछिदहे चेव केसरिबहे चेव, देवताओ धिती चेव कित्तिवेव, जंबूमंदर दाहिणेणं महाहिमवंताओ वासहरपब्ववाओ महापउमदहाओ दहाओ दो महाणईओ पवहंति, तं०-रोहियचेव हरिकंतव, एवं निसढाओ वासहरसवताओ तिगिछिदहाओ दो म० त०-इरिव सीओअश्व, जंघूमंदर० उत्तरेणं भीलवंताओ वासहरपब्वताओ केसरिदहाभो दो महानईओ पवहंति, तं०-सीता चेव नारिकता चेब, एवं रुप्पीओ वासहरपव्वताओ महापोंडरीयदहाओ दो महानईओ पवहं ति, तं०-णरकता चेव रुप्पकूला चेव, जंबूमंदरदाहिणेणं भरहे वासे दो पवायदहा पं० सं०- बहुसम० सं०-गप्पवातदहे चेव सिंधुप्पवायदहे चेव । एवं हिमवए वासे दो पवायदहा पं० २०
-बहु० सं०-रोहियप्पवातहहे चेव रोहियंसपवातहहे चेव, जंबूमंदरदाहिणेणं हरिवासे वासे दो पवायदहा पं० बहुसम० त०-हरिपवातद्दहे चेव हरिकंतपवातहहे चेव, जंवूमंदरउत्तरदाहिणणं भहाविदेहवासे दो पवायहहा ५० बहुसम० जाव सीअपवातहदे चेव सीतोदष्पवायदहे चेव, जंबूर्मदरस्स उत्तरेणं रम्मए वासे दो पवायदहा पं०२०-बहु० जाब नरकंतपवायदहे जेवणारीकतप्पवायदहे चेव, एवं हेरन्नवते वासे दो पवायदहा पं० सं०-..-बहु० सुवन्नकूलप्पवायदहे
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
दीप
चेष रुपकूलपवायदे पेव, जंबूमंदर उत्तरेणं एरवए वासे दो पवायदहा पं० बहु० जाव रत्तप्पवायदहे घेव रत्तावइपवायरहे चेच, जंबूमंदरदाहिणेणं भरहे वासे दो महानईओ पं. बहु० जाब गंगा चेव सिंधू घेव, एवं जया पथातदहा
एवं गईओ भाणियब्बाओ, जाव एरवए वासे दो महानईओ पं०-बहुसमतुझाओ आव रत्ता चेव रत्तवती चेवा(सू०८८) NI 'जंबू'इत्यादि, इह च हिमवदादिषु षट्सु वर्षधरेषु क्रमेणते पद्मादयः पठेव इदाः, तद्यथा-"पउमे य१ महापउमे २
तिगिंछी ३ केसरी ४ दहे चेव । हरए महपुंडरिए ५ पुंडरीए चेव य ६ दहाओ ॥१॥" हिमवत उपरि बहुमध्यभागे । *पद्मद इति पद्महदनामा इदः, एवं शिखरिण: पीण्डरीकः, तौ च पूर्वापरायती सहस्रं पञ्चशतविस्तृतौ चतुष्कोभी
दशयोजनावगाढी रजतकूली बज्रमयपाषाणी तपनीयतलौ सुवर्णमध्यरजतमणिवालुको चतुर्दशमणिसोपानी शुभा-1
वतारी तोरणध्वजच्छत्रादिविभूषिती नीलोपलपुण्डरीकादिचिती विचित्रशकुनिमत्स्यविचरिती षट्पदपटलोपभोग्या-12 पाविति । 'तस्थ णं'ति, तयोः-महाहूदयोद्धे देवते परिवसतः, पद्महदे श्रीः पौण्डरीके लक्ष्मीः , ते च भवनपतिनिका
याभ्यन्तरभूते, पल्योपमस्थितिकत्वाद्, व्यन्तरदेवीनां हि पल्योपमा मेवायुरुत्कर्षतोऽपि भवति, भवनपतिदेवीनां सूत्कपतोऽर्द्धपश्चमपस्योपमान्यायुर्भवतीति, आह च--"अडुड अद्धपंचम पलिओवम असुरजुयलदेवीणं । सेस
१पयो महापाच विगिच्छी केशरी हदथैव । हदो महापुण्डरीकः पुण्डरीकश्चैव च हृदाः ॥ १॥ शिखरिपर्वतस्योपरि बहुमध्यभागे हवः प्र. अधिकम् ।। MI- निर्गलकेवलालोकालोकितत्रिभुवनश्रीजिनराजपरिभाषितानि आ. प्र. अधिकम्, २ सार्थत्रयार्थपंचमपल्यौपमानि असुरयुगलदेवीनां घोषाणां
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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२ स्थानकाध्ययने उद्देशः३ इदनद्यादिस्वरूपं
दीप
श्रीस्थाना-1जावणदेवयाणं देसूर्ण अद्धपलियमुक्कोसं ॥१॥" ति, तयोश्च महाह्रदयोर्मध्ये योजनमाने पद्मे अर्धयोजनवाहल्ये दशा- झासूत्र- वगाहे जलान्ताद् द्विकोशोच्छ्रये वज्र १ रिष्ठ २ वैडूर्य ३ मूल १ कन्द २ नाले वैडूर्य १ जाम्बूनद २मयबाह्या- वृत्तिः भ्यन्तररपत्रे कनककर्णिके तपनीयकेसरे, तयोः कर्णिके अर्द्धयोजनमाने तदर्धवाहल्ये तदुपरि देव्योर्भवने इति । एवं'
मित्यादि, महाहिमवति महापद्मो रुक्मिणि तु महापौण्डरीकः, तौ च द्विसहस्रायामी तदईविष्कम्भौ द्वियोजनमा-1 ॥ ७३ ।।
नपद्मव्यासवन्ती, तयोर्दैवते परिवसतो महापदो हीमहापुण्डरीके बुद्धिरिति । 'एवं'मित्यादि, निषधे तिगिंछहदे प्रति- देवता नीलवति केसरिहदे कीर्तिर्देवता, तौ च हूदी चतुर्द्विसहस्रायामविष्कम्भाविति, भवति चात्र गाथा-"एएसु सुरवहूओ बसंति पलिओवमद्वितीयाओ। सिरिहिरिधितिकित्तीओ बुद्धीलच्छीसनामाओ ॥१॥" ति। 'जंबू इत्यादि, तत्र रोहिनदी महापद्महदाद्दक्षिणतोरणेन निर्गत्य षोडश पश्चोत्तराणि योजनशतानि सातिरेकाणि दक्षिणतो गिरिणा गब्बा हाराकारधारिणा सातिरेकयोजन द्विशतिकेन प्रपातेन मकरमुखप्रणालेन महाहिमवतो रोहिदभिधानकुण्डे निपतति, मकरमुखजिह्वा योजनमायामेन अर्द्धत्रयोदशयोजनानि विष्कम्भेन कोशं वाहल्येन, रोहित्प्रपातकुण्डाच दक्षिणतोरणेन निर्गत्य हैमवतवर्षमध्यभागवतिनं शब्दापातिवृत्तवैताम्यमर्द्धयोजनेनाप्राप्याष्टाविंशत्या नदीसहस्त्रैः संयुज्याधो जगतीं विदार्य पूर्वतो लवणसमुद्रमतिगच्छतीति, रोहिनदी हि प्रबाहेऽर्द्धत्रयोदशयोजनविष्कम्भा कोशोद्वेधा ततः क्रमेण वर्द्धमाना मुखे पञ्चविंशत्यधिकयोजनशतविष्कम्भा सार्द्धद्वियोजनोद्वेधा, उभयतो वेदिकाभ्यां वनखण्डाभ्यां च युक्ता, एवं|
पवनदेवतामा देखोनमल्यमुक्तः ॥ १॥ २ एतेष (हदेषु) सुरवथ्वो बसन्ति पल्योपमस्थितिका: । धीही तिकीर्तियुद्धिलक्ष्मीसनाच्यः ॥ १ ॥
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॥७३॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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दीप
सर्वा महानद्यः पर्वताः कूटानि च वेदिकादियुक्तानीति, हरिकान्ता तु महापद्मइदादेवोत्तरतोरणेन निर्गत्य पश्चोत्तराणि षोडश शतानि सातिरेकाणि उत्तराभिमुखी पर्वतेन गत्वा सातिरेकयोजनशतद्वयप्रमाणेन प्रपातेन हरिकान्ताकुण्डे तथैव प्रपतति, मकरमुखजिहिकाप्रमाणं पूर्वोक्तद्विगुणं, ततः प्रपातकुण्डादुत्तरतोरणेन निर्गत्य हरिवर्षमध्यभागवतिनं गन्धापातिवृत्तवैताव्यं योजनेनासम्याप्ता पश्चिमाभिमुखीभूता षट्पश्चाशता सरित्सहनैः समग्रा समुद्रमभिगच्छति, इयं च हरिकान्ता प्रमाणतो रोहिनदीतो द्विगुणेति । एवं मित्यावि, एवमिति 'जंबूही'त्याद्यभिलापसूचनार्थः। हरिन्महानदी तिगिछिहदस्य दक्षिणतोरणेन निर्गत्य सप्त योजनसहस्राणि चत्वारि चैकविंशत्यधिकानि योजनशतानि सातिरेकाणि दक्षिणाभिमुखी पर्वतेन गत्वा सातिरेकचतुर्योजनशतिकेन प्रपातेन हरिकुण्डे निपत्य पूर्वसमुद्रे प्रपतति, शेपं हरिकान्ता-| समानमिति । शीतोदामहानदी तिगिंछिदस्योत्तरतोरणेन निर्गत्य तावन्त्येव योजनसहस्राणि गिरिणा उत्तराभिमुखी गत्वा सातिरेकचतुर्योजनशतिकेन प्रपातेन शीतोदाकुण्डे निपत्ततीति, जिलिका मकरमुखस्य चत्वारि योजनानि आयामेन पश्चाशद्विष्कम्भेण योजनं बाहल्येन, कुण्डादुत्तरतोरणेन निर्गत्य देवकुरुन् विभजन्ती चित्रविचित्रकूटौ पर्वतौ निषधहदादींश्च पञ्च ह्रदान् द्विधा कुर्वती चतुरशीत्या नदीसहस्ररापूर्यमाणा भद्रशालवनमध्येन मेरुं योजनद्वयेनाप्राप्ता प्रत्यसुखी आवर्तमाना अधो विद्युत्नभं वक्षारपर्वतं दारयित्वा मेरोरपरतोऽपरविदेहमध्यभागेन एकैकस्माद् विजयादष्टाविंशत्या अष्टाविंशत्या नदीसहस्रैरापूर्यमाणा अधो जयन्तद्वारस्य अपरसमुद्रं प्रविशतीति, शीतोदा हि प्रवाहे पञ्चाशयोजनविष्कम्भा योजनोद्वेधा ततो मात्रया परिवर्द्धमाना मुखे पञ्चयोजनशतविष्कम्भा दशयोजनोद्वेषेति । 'जंबू' इत्यादि,
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आगम (०३)
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स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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दीप
श्रीस्थाना- शीता महानदी केसरिहदस्य दक्षिणतोरणेन विनिर्गत्य कुण्डे पतित्वा मेरोः पूर्वतः पूर्व विदेहमध्येन विजयद्वारस्याधः पूर्व- २ स्थान
समुद्रं शीतोदासमानशेषवक्तव्या प्रविशतीति । नारीकान्ता तु उत्तरतोरणेन निर्गत्य रम्यकवर्ष विभजन्ती हरिन्महानदी- काध्ययने वृत्तिः समानवक्तव्या रम्यकवर्षमध्येनापरसमुद्रं प्रविशतीति । एव'मित्यादि, नरकान्ता महापुण्डरीकहदादक्षिणतोरणेन विनि- उद्देशः३
गत्य रम्यकवर्ष विभजन्ती हरिकान्तातुल्यवक्तव्या पूर्वसमुद्रमधिगता । रूप्यकूला तु तस्यैवोत्तरतोरणेन विनिर्गत्य ऐर॥७४॥
हदनद्याण्यवद्वर्ष विभजन्ती रोहिनदीतुल्यवक्तव्या अपरसमुद्रं गच्छतीति । 'जंबू' इत्यादि, 'पवायदह'त्ति प्रपतनं प्रपातस्तदु-ना |दिस्वरूपं पलक्षिती हूदी प्रपातहदी, इह यत्र हिमवदादेनेगात् गङ्गादिका महानदी प्रणालेनाधो निपतति स प्रपातहद इति, प्रपा-3
तकुण्डमित्यर्थः, 'गंगापवायदहे चेवत्ति हिमवद्वर्षधरपर्वतोपरिवर्तिपद्मइदस्य पूर्वतोरणेन निर्गत्य पूर्वाभिमुखी पञ्च | नयोजनशतानि गत्वा गडावर्तनकूटे आवृत्ता सती पञ्च त्रयोविंशत्यधिकानि योजनशतानि साधिकानि दक्षिणाभिमुखी
पर्वतेन गत्वा गङ्गामहानदी अर्द्धयोजनायामया सक्रोशषड्योजनविष्कम्भयाऽर्धक्रोशवाहल्यया जिहिकया युक्तेन विवृतमहामकरमुखप्रणालेन सातिरेकयोजनशति केन च मुक्तावलीकल्पेन प्रपातेन यत्र प्रपतति यश्च पष्टियोजनायामवि-1 कम्भः किश्चिन्यूननवत्युत्तरशतपरिक्षेपो दायोजनोद्वेधो नानामणिनिबद्धः यस्य च पूर्वापरदक्षिणासु त्रयस्त्रिसोपानप्रतिरूपकाः सविचित्रतोरणाः मध्यभागे च गङ्गादेवीद्वीपोऽष्टयोजनायामविष्कम्भः सातिरेकपश्चविंशतिपरिक्षेपः जलान्ताद् द्विकोशोच्छितो बज्रमयो गङ्गादेवीभवनेन कोशायामेन तदर्द्धविष्कम्भेन किश्चिदूनकोशोचेनानेकस्तम्भशतसन्नि
॥ ७४॥ |विष्टेनालङ्गातोपरितनभागः, यतश्च दक्षिणतोरणेन विनिर्गत्य प्रवाहे सक्रोशषड़योजनविष्कम्भाऽर्द्धकोशोद्वेधा गङ्गा उत्त
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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रभरता विभजन्ती सप्तभिः नदीसहस्ररापूर्यमाणा अधः पूर्वतः खण्डप्रपातगुहाया वैताठ्यपर्वतं विदार्य दक्षिणाईभरतं । विभजन्ती तन्मध्यभागेन गत्वा पूर्वाभिमुखी आवृत्ता सती चतुर्दशभिनंदीसहस्रः समग्रा मुखे साद्विषष्टियोजनवि-1 कम्भा सक्रोशयोजनोवेधा जगती विदार्य पूर्वलवणसमुद्रं प्रविशति स गङ्गाप्रपातहदा, एतदनुसारेण सिन्धुप्रपातहूदोऽपि व्याख्यातव्यः, अत एव एती बहुसमादिविशेषणावायामविष्कम्भोद्वेधपरिणाहैभोवनीयाविति, सर्व एव प्रपातहूदा दशयोजनोद्वेधा वक्तव्या इति । यच्छह वर्षधरनद्यधिकारे गङ्गासिन्धुरोहितांशानां तथा सुवर्णकूलारक्तारक्तवतीनामन|भिधानं तद् द्विस्थानकानुरोधात् , तासां हि एकैकस्मात् पर्वतात् त्रयं वयं प्रवहतीति द्विस्थानके नावतार इति । 'एव'-16 मित्यादि, एवमिति प्राग्वत् 'रोहियप्पवायहहे चेवत्ति रोहिद्-उक्तस्वरूपा यत्र प्रपतति यश्च सविंशतिक योजनशतमा-I यामविष्कम्भाभ्यां किञ्चिन्यूनाशीत्यधिकानि त्रीणि शतानि परिक्षेपेण यस्य च मध्यभागे रोहिद्द्वीपः षोडशयोजनाया-10 मविष्कम्भः सातिरेकपश्चाशयोजनपरिक्षेपः जलान्ताद् द्विकोशोच्छ्रितो यश्च रोहिदेवताभवनेन गङ्गादेवताभवनस-18 मानेन विभूषितोपरितनभागः स रोहिलापातहद इति । 'रोहियंसप्पवायदहे चेव'त्ति हिमवर्षधरपर्वतोपरिवर्तिपद्मदोत्तरतोरणेन निर्गत्य रोहिताशा महानदी द्वे षट्सप्तत्युत्तरे योजनशते सातिरेकं उत्तराभिमुखी पर्वतेन गत्वा योजना-2
यामया अर्द्धत्रयोदशयोजनविष्कम्भया क्रोशवाहल्यया जिहिकया विवृतमकरमुखप्रणालेन हाराकारेण च सातिरेकयो-18 द जनशतिकेन प्रपातेन यत्र प्रपतति यश्च रोहित्प्रपातकुण्डसमानमानः तस्य मध्ये रोहितांशद्वीपो रोहिद्वीपसमानमान:
रोहितांशाभयनेन प्रागुक्तमानेनालङ्कतः, यतश्च रोहितांशानदी रोहिनदीसमानमाना उत्तरतोरणेन निर्गत्य पश्चिमसमुद्रं |
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[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [८८]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थाना
ङ्गसूत्र
वृत्तिः
11 64 11
प्रविशति स रोहितांशाप्रपातह्रद इति । 'जंबू' इत्यादि, 'हरिप्पवायदहे चेव त्ति हरिनदी प्रागुक्तलक्षणा यत्र निपतति यश्च द्वे शते चत्वारिंशदधिके आयामविष्कम्भाभ्यां सप्त शतानि एकोनषष्ट्यधिकानि परिक्षेषेण यस्य च मध्यभागे हरिदेवताद्वीपः द्वात्रिंशद्योजनायामविष्कम्भः एकोत्तरशतपरिक्षेपः जलान्ताद् द्विकोशोच्छ्रितो हरिदेवताभवनभूषितोपरितनभागोऽसौ हरिप्रपातहद इति । 'हरिकंतप्पवायद्दहे वेव'त्ति हरिकान्तोक्तरूपा महानदी यत्र निपतति यश्च हरित्कुण्डसमानो हरिद्वीपसमानेन हरिकान्तादेवीद्वीपेन सभवनेन भूषितमध्यभागः स हरिकान्तामपातहद इति । 'जंबू' इत्यादि, 'सीयप्पवायद्दहे चेव'त्ति यत्र नीलवतः शीता निपतति यश्च चत्वार्यशीत्यधिकानि योजनशतानि आयामविष्कम्भाभ्यां पञ्चदशाष्टादशोत्तराणि विशेषन्यूनानि परिक्षेपेण यस्य च मध्ये शीताद्विीपश्ञ्चतुःषष्टियोजनायामविष्कम्भो व्युत्तरयोजनशतद्वयपरिक्षेषः जलान्ताद् द्विकोशोच्छ्रितः शीतादेवीभवनेन विभूषितोपरितनभागः स शीताप्रपातहृद इति, 'सीतोदप्पवायदद्दे चेव'त्ति यत्र निषेधाच्छीतोदा निपतति स शीतोदाप्रपातहृदः शीताम्रपात हदसमानः स शीतादेवीद्वीपभवन| समान शीतोदादेवीद्वीपभवनश्चेति । 'जंबू' इत्यादि, नरकान्तानारीकान्ताप्रपातदौ च हरिकान्ताहरिव्यपात हदसमानौ | स्वसमाननामद्वीपदेविकाविति । 'एवमित्यादि, सुवर्णकूला रूप्यकूलाप्रपातहूदी रोहितांशारो हिमपात हदसमानवक्तव्यौ, विशेषस्तूह्य इति । 'जंबू' इत्यादि रक्तारक्तवतीप्रपातहूदौ गङ्गासिन्धुप्रपात हदसमानवक्तव्यौ, नवरं रक्ता पूर्वोदधिगामिनी रक्तवती तु पश्चिमोदधिगामिनीति | 'जंबू' इत्यादि 'जंबुद्दीये २ मंदरस्स दाहिणेणं भरहे वासे दो महानदीओ' इत्यादि, 'एव मिति अनन्तरक्रमेण 'जह'त्ति यथा पूर्व वर्षे २ द्वौ द्वौ प्रपातइदावुक्तौ एवं नद्यो वाच्याः,
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२ स्थानकाध्ययने उद्देश: ३ हृदनद्या
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[भाग-5] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [२], उद्देशक [3]. मूलं [C] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३ ]
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ताश्चैवं "गंगा १ सिंधू २ तह रोहियंस ३ रोहीणदी य ४ हरिकंता ५। हरिसलिला ६ सीयोया ७ सत्तेया होंति दाहिणओ ॥ १ ॥ सीया व १ नारिकांता २ नरकांता चेव १ रुप्पकूला ४ य । सलिला सुबण्णकूला ५ रत्तवती रत्त ७ उत्तरओ ॥ २ ॥” इति । जम्बूद्वीपाधिकारात् क्षेत्रव्यपदेश्यपुद्गलधर्माधिकाराच्च जम्बूद्वीपसम्बन्धि भरतादि सत्क का ललक्षणपर्यायधर्माननेकधाऽष्टादशसूत्र्याऽऽह
जंबूदरीवे २ भरवसु वासेसु तीताए उस्सप्पिणीए सुसमदू समाए समाए दो सागरोवमकोडाकोडीओ फाले होत्या १, एवमिमी से ओसप्पिणीए जाव पन्नत्ते २ एवं आगमिस्साए उस्सप्पिणीए जाव भविस्सति ३, जंबूदीवे दीवे भरहेवसु वासेसु तीताए उस्सप्पिणीए सुसमाए समाए मणुया दो गाउयाई उ उचत्तेनं होत्था ४, दोन्नि य पलिओचमाई परमा पालइत्था ५, एवमिमीसे ओसप्पिणीए जाव पालयित्था ६, एवमागमेरसाते उस्सप्पिणीए जाव पालिस्संति ७, जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेस एगसमये एगजुगे दो अरिहंतवंसा उप्पविंसु वा उप्पज्जेति वा उप्पज्जिस्तंति वा ८, एवं चक्कवट्टिबंसा ९, दसारवंसा १०, जंबूभरहेरवस्तु एगसमते दो अरहंता उपसुि वा उप्पज्जेति वा उप्पज्जिस्संति वा ११ एवं क्वट्टिणो १२, एवं वलदेवा एवं वासुदेवा ( दसारखंसा) जाव उप्पलिंसु वा उत्पति वा उपज्जिस्संति वा १३, जंबू० दोसु कुरासु मणुआ सया सुसमसुसममुतनिड्डि पत्ता पचणुभवमाणा विहरंति, तं० देवकुराए चैव उत्तर१ गंगासिन्धू तथा रोहितांशा रोहिनदी व हरिकान्ता। हरिसडिला शीतोदा सप्ता भवन्ति दक्षिणस्यां ॥१॥ क्षीता च नारीकान्ता नरकान्ता चैव रूप्यकूला च सलिला सुवर्णकुला रफनती रक्ता चोत्तरस्यां ॥ २ ॥
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"स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[८९]
दीप
अनुक्रम [८]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [३],
मूलं [८९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थाना
झसूत्रवृत्तिः
॥ ७६ ॥
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कुराए चैत्र १४, जंबुरीवे दीवे दोसु वासेसु मणुया सया सुसमुत्तमं इद्धिं पत्ता पञ्चणुभवमाणा विहरंति तं
हरिवासे
चैव रम्मगवासे व १५, जंबू० दोसु वासेसु मणुया सया सुसममुत्तममिडि पत्ता पचणुब्भवमाणा विहति तं० - हेमचए चैत्र एरन्नवए चैव १६, जंबुद्दीवे दीवे दोसु खित्तेसु मणुया सया दूसमसुसममुत्तममिट्टि पत्ता पचणुब्भवमाणा वि रंति, सं०—पुण्वविदेहे चैव अवरविदेहे चैव १७, जंबूदीवे दीवे दोनु वासेसु मणुया छबिपि कालं पचणुभवमाणा विहरति, वं० भरहे चैव एरवते चैव १८, (सू० ८९)
सुगमानि चैतानि, नवरं 'तीताए'त्ति अतीता या उत्सर्पिणी प्राग्वत् तस्यां तस्या वा सुषमदुष्पमायाः- बहुसुषमायाः समाया:- कालविभागस्य चतुर्धारकलक्षणस्य 'कालो'त्ति स्थितिः प्रमाणं वा 'होत्य'त्ति बभूवेति । 'एवमिति जंबुद्दीवे २ इत्यादि उच्चारणीयम् णवरं 'इमीसे' त्ति अस्यां प्रत्यक्षायां वर्त्तमानायामित्यर्थः, अवसर्पिण्यां-उक्तार्थायां, 'जावत्ति सुसमदुसमाए समाए - तृतीयारक इत्यर्थः, 'दो सागरोवमकोडाको डीओ काले' 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्ते इति पूर्वसूत्राद्विशेषः, पूर्वसूत्रे हि होत्यत्ति भणितमिति । 'एवमित्यादि, 'आगमिस्साए 'ति आगमिष्यन्त्या मुत्सर्पिण्यामिति भविष्यतीति पूर्वसूत्राद्विशेषः, 'जम्बू' इत्यादि सुषमायां पञ्चमारके 'होत्थ'त्ति बभूवुः, 'पालयित्थ'त्ति पालितवन्तः पूर्वसूत्राद्विशेषः । 'जंबु' इत्यादि, 'एगजुगे'त्ति पचादिकः कालविशेषो युर्ग तत्रैकस्मिन् तस्याप्येकस्मिन् समये 'एसमए एगजुगे' इत्येवं पाठेऽपि व्याख्योतक्रमेणैव, इत्थमेवार्थसम्बन्धादन्यथा वा भावनीयेति । द्वावर्हतां वंश - प्रवाहावेको भरतप्रभवोऽन्य | ऐरवतप्रभव इति । 'दसार'ति दसारा:- समयभाषया वासुदेवाः । 'जंबू' इत्यादि, सदा-सर्वदा 'सुसम सुसमं ति
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२ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३ सुषमादुःपमादिस्व०
॥ ७६ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [२], मूलं [८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
दीप अनुक्रम [८९]
प्रथमारकानुभाग: सुषमसुषमा तस्याः सम्बन्धिनी या सा सुषमसुषमैव तां उत्तमद्धि-प्रधानविभूति उच्चस्त्वायुःकल्पवृक्षदत्तभोगोपभोगादिकां प्राप्ताः सन्तस्तामेव प्रत्यनुभवन्तो-वेदयन्तो न सत्तामात्रेणेत्यर्थः, अथवा सुषमसुषमां-कालविशेष प्राप्ताः-अधिगता उत्तमामृद्धिं प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति-आसत इति, अभिधीयते च-"दोसुवि कुरासु मणुया तिपल्लपरमाउणो तिकोसुच्चा । पिडिकरंडसयाई दो छप्पन्नाई(तु) मणुयाणं ॥ १॥सुसमसुसमाणुभावं अणुभवमाणाणऽवचगोवणया । अउणापन्नदिणाई अहमभसस्स आहारो॥२॥" इति । देवकुरवो दक्षिणाः उत्तरकुरव उत्तरास्तेष्विति । 'जंबू' इत्यादि, 'मुसमति सुषमा द्वितीयारकानुभागः, शेषं तथैव, पठ्यते च-"हेरिवासरंमएसु आउपमाणं सरीरउस्सेहो । पलिओवमाणि दोन्नि उ दोन्नि य कोसा समा भणिया ॥ १॥ छहस्स य आहारो चउसहिदिणाणुपालणा तेसिं । पिडिकरंडाण सयं अट्ठावीसं मुणेयच ॥ २॥" इति । 'जंबू' इत्यादि, 'सुसमदुस्समीति सुषमदुष्पमा-तृतीयार-14 कानुभागस्तस्या या सा सुषमदुष्षमा ऋद्धिः, शेषं तथैव, उच्यते च-"गाउयमुच्चा पलिओवमाउणो वजारसहसंघयणा ।। हेमवएरनवए अहमिंदणरा मिहुणवासी ॥१॥ चउसही पिठिकरंडयाण मणुयाण तेसिमाहारो । भत्तस्स चउत्थस्स य5/ उणसीतिदिणाणुपालणया ॥२॥" इति । 'जंबू' इत्यादि, दूसमसुसमीति दुष्पमसुषमा चतुर्थारकप्रतिभागस्तत्सम्ब-]
योरपि कुषामनुष्यानिपल्यपरमायुषस्त्रिकोशोचा । पृष्ठकरण्डानि पाते षट्पंचाशदधिक मनुजानां ॥१॥ भुषममुषमानुभावमनुभवतामपालगोपनता ।। | एकोनपंचाशदिनानि अष्ठमभकेन आहारः ॥ १॥ २ हरिचर्षरम्यकयोरायुषः प्रमाण शरीरसोच्छ्रपः । द्वे पल्योपमे च द्वी कोशौ च समौ भणिती ॥१॥ षष्ठेन आहारचतुःषशिदिनाभ्यनुपालना तेषां पृश्नकरण्डानां अष्टाविंशत्यधिकं शतं हातव्यं ॥२॥ ३ ग.प. १ वज. ६४ पृष्ठ. दि. आ. १९ पालना
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[८]
दीप
अनुक्रम [८९]
[भाग-5] "स्थान" अंगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः)
स्थान [२], उद्देशक [3]. मूलं [८९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३ ]
श्रीस्थाना
ङ्गसूत्रवृत्तिः
॥ ७७ ॥
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न्धिनी ऋद्धिर्दुष्पमसुषमैव, शेषं तथैव, अधीयते च "मैणुयाण पुण्यकोडी आउं पंचुस्सिया धणुसयाई । दूसमसुस| माणुभावं अणुहोति णरा निययकालं ॥ १ ॥” इति । 'जंबूद्दीवे' इत्यादि, 'छव्विपिति सुषममुपमादिकं उत्सर्पिण्यविसर्पिणीरूपमिति । अनन्तरं जम्बूद्वीपे काललक्षणद्रव्यपर्यायविशेषा उक्ताः, अधुना तु जम्बूद्वीप एव कालपदार्थव्यञ्जकानां ज्योतिषां द्विस्थानकानुपातेन प्ररूपणामाह-
36 २७
जंबुद्दीवे दीवे दो चंदा पभासिंधु वा पभासंति वा पभासिस्संति वा, दो सूरिआ तर्विसु वा तवंति वा तविस्संति वा, दो कत्तिया, दो रोहिणीओ, दो नगसिराओ, दो अदाओ एवं भाणियव्वं, “कत्तिये रोहिणि मंगसिर अँदा य पुणेवसू अ सोय । तत्तोऽवि अस्सलेसा मही य दो फैर्गुणीओ य ॥ १ ॥ यो चित्ती "साई, विसोहा तहय होति अराहा । जेठ्ठी' "मूलो पुव्वा य आसाढा उत्तेरी चेव ॥ २ ॥ अभिसंधी सयभिसंया दो य होंति भयो । रेवति अस्सिणि भैरणी नेतव्या आणुपुब्बीए || ३ || एवं गाहानुसारेणं गेयब्वं जाव दो भरणीओ दो अग्गी दो प यावती दो सोमा दो रुदा दो अदिती दो बहस्सती दो सप्पी दो पीती दो भगा दो अज्जमा दो सविता दो तहा दो बाऊ दो इंदग्गी दो मित्ता दो इंदा दो निरती दो आऊ दो विस्सा दो बम्हा दो विष्णु दो वसू दो वरुणा दो अवा दो विविद्धी दो पुस्ता दो अस्सा दो यमा । दो इंगालगा दो चियालगा दो लोहितक्खा दो सणिचरा दो आहुनिया दो पाहुणिया दो कणा दो कणगा दो कणकणगा दो कणनविताणगा दो कणगसंताणगा दो सोमा दो सहिया दो आसासणा दो १ मनुजानां पूर्वको पंचधनुः वातोच्छ्रितानि दुण्यमुपमानुभावमनुभवति नरा नियतकाले ॥ १ ॥
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"स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
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२ स्थान. काध्ययने
उद्देशः ३ चन्द्रादित्य
नक्षत्रादिस्वरूपं
॥ ७७ ॥
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [९०,गाथा-३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९०]
गाथांक
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*SHAH
कजोवगा दो कब्बडगा दो अयकरगा दो दुंदुभगा दो संखा दो संखवन्ना दो संखवन्नाभा दो कंसा दो कंसवन्ना दो कंसवन्नाभा दो रुप्पी दो रुपाभासा दो णीला दो णीलोभासा दो भासा दो भासरासी दो तिला दो तिलपुष्फवण्णा दो दगा दो दगपंचवन्ना दो काका दो ककंधा दो इंदग्गीवा दो धूमकेऊ दो हरी दो पिंगला दो बुद्धा दो सुफा दो बहस्सती दो राहू दो अगत्थी दो माणवगा दो कासा दो फासा दो धुरा दो पमुहा दो वियडा दो विसंधी दो नियल्ला दो पल्ला दो जडियाइलगा दो अरुणा दो अग्गिल्ला दो काला दो महाकालगा दो सोस्थिया दो सोवस्थिया दो बदमाणगा दो पेससमाणगा दो अंकुसा दो पलंवा दो निचालोगा दो णिनुजोता दो सयंपमा दो ओभासा दो सेयंकरा दो सेमंकरा दो आभंकरा दो पभंकरा दो अपराजिता दो अरया दो असोगा दो विगतसोगा दो विमला दो वितत्ता दो वितत्था दो विसाला दो साला दो सुन्वता दो अणियट्टा दो एगजडी दो दुजड़ी दो करकरिगा दो रायग्गला दो पुरुफकेतू दो भाव
केऊ । (सू० ९.) 'जंबुद्दीवे' इत्यादि सूत्रद्वयं, 'पभासिंसु वत्ति प्रभासितवन्तौ वा प्रकाशनीयमेवं प्रभासयतः प्रभासयिष्यतः, चन्द्र-14 योश्च सौम्यदीप्तिकत्वात् प्रभासनमात्रमुक्तम् , आदित्ययोश्च खररश्मित्वात्तापितवन्तौ वा एवं तापयतस्तापयिष्यत इति | वस्तुनस्तापनमुक्तम् , अनेन कालत्रयप्रकाशनभणनेन सर्वकालं चन्द्रादीनां भावानामस्तित्वमुक्तम् , अत एव चोच्यते'न कदाचिदनीदृशं जगदिति, न वा विद्यमानस्य जगतः को कल्पयितुं युक्तः, अप्रमाणकत्वात् , अथ यत्सन्निवे.
१ नंगे संख्यया तदर्शकपाठेन च संवदत इति नाइनीवे.
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दीप अनुक्रम [९०-९४]
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [९०,गाथा-३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९०] गाथांक
स्वरूप
श्रीस्थाना- शविशेषवत् तदुद्धिमत्कारणपूर्वकं दृष्ट, यथा घटः, सन्निवेशविशेषवन्तश्च भूभूधरादयः, यश्च बुद्धिमानसावीश्वरो जगत्क- २ स्थानइसूत्र- ति, नैवम्, सन्निवेशविशेषवत्यपि घल्मीके बुद्धिमत्कारणत्वस्यादर्शनादित्यत्र बहु वक्तव्यं तच स्थानान्तरादवसेयमितिकाध्ययने वृत्तिः द्विसद्धयत्वाञ्चन्द्रयोस्तत्परिवारस्यापि द्वित्वमाह-दो कत्तिए'त्यादिना 'दो भावकेऊ' इत्येतदवसानेन अन्धेन, सुगम-18| उद्देशः३
पश्चायं, नवरं वे कृत्तिके नक्षत्रापेक्षया, न तु तारिकापेक्षयेत्येवं सर्वत्रेति, 'कत्तिएत्यादिगाथात्रयेण नक्षत्रसूत्रसचन्हः चन्द्रादित्य ॥७ ॥
कृत्तिकादीनामष्टाविंशतिनक्षत्राणां क्रमेणाझ्यादयोऽष्टाविंशतिरेव देवता भवन्ति, आह च-द्वावनी १ एवं प्रजापती २| नक्षत्रादिसोमौ ३ रुद्रौ ४ अदिती ५ बृहस्पती ६ सप्पा ७ पितरौ ८ भगौ ९ अर्थमणौ १० सवितारी ११ त्वष्टारी १२ वायू १३ | इन्द्रानी १४ मित्रौ १५ इन्द्रौ १६ निती १७ आपः १८ विश्वौ १९ ब्रह्माणी २० विष्णू २१ वसू २२ वरुणौ २३
अजी २४ विवृद्धी २५ प्रन्धान्तरे अहिर्बुनाबुक्ती, पूषणी २६ अश्विनौ २७, यमाविति २८, ग्रन्थान्तरे पुनरश्विनीत हाआरभ्यता एवमुक्ताः, “अश्वियमदहनकमलजशशिशूलभृददितिजीवफणिपितरः योन्यर्यमदिनकृत्यष्ट्रपवनशक्राग्निमि
बाख्याः॥१॥ ऐन्द्रो नितिस्तोयं विश्वो ब्रह्मा हरिर्वसुर्वरुणः । अजपादोऽहिवुनः पूषा चेतीश्वरा भानाम् ॥२॥"| | अङ्गारकादयोऽष्टाशीतिर्ग्रहाः सूत्रसिद्धाः, केवलमस्मदृष्ट पुस्तकेषु केचिदेव यधोकसङ्ख्या संवदतीति सूर्यप्रज्ञप्त्यनुसारेणासाविह संवादनीया, तथाहि तत्सूत्रम्-"तत्थ खलु इमे अट्ठासीई महागहा पन्नत्ता, संजहा-इंगालए १ वियालए २ लोहियक्खे ३ सणिच्छरे ४ आहुणिए ५ पाहुणिए ६ कणे ७ कणए ८ कणकणए ९ कणवियाणए १० कणसंताणए| ११ सोमे १२ सहिए १३ अस्सासणे १४ कज्जोयए १५ कब्बडए १६ अयकरए १७ दुंदुभए १८ संखे १९ संखवण्ये
दीप अनुक्रम [९०-९४]
॥ ७८॥
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [९०,गाथा-३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९०]
गाथांक
5--
0
२० संखवन्नाभे २१ कसे २२ कंसवण्णे २३ कंसवन्नाभे २४ णीले २५ णीलोभासे २६ रुप्पी २७ रुप्पोभासे २८ भासे
२९ भासरासी ३० तिले ३१ तिलपुष्फवण्णे ३२ दगे ३३ दगपंचवण्णे ३४ काए ३५ काकंधे ३६ इंदग्गी ३७ धूमकेऊ है ३८ हरी ३९ पिंगले ४० बुहे ४१ सुक्के ४२ बहस्सई ४३ राहू ४४ अगत्थी ४५ माणवगे ४६ कासे ४७ फासे ४८ धुरे
४९ पमुहे ५० वियडे ५१ विसंधी ५२ नियल्ले ५३ पयल्ले ५४ जडियाइलए ५५ अरुणे ५६ अग्गिलए ५७ काले ५८ महाकाले ५९ सोथिए ५० सोवत्थिए ६१ वद्धमाणगे ६२ पलंबे ६३ णिचालोए ६४ निच्नुज्जोए ६५ सयंपभे ६६ ओभासे ६७ सेयंकरे ६८ खेमकरे ६९ आभंकरे ७० पभंकरे ७१ अपराजिए ७२ अरए ७३ असोगे ७४ चीयसोगे ७५ विमले ७६ वियत्ते ७७ वितत्थे ७८ विसाले ७९ साले ८० सुब्बए ८१ अनियट्टी ८२ एगजडी ८३ दुजडी ८४ करक|रिए ८५ रायग्गले ८६ पुष्फ ८७ भावकेऊ८८, इदं तत्रैव संग्रहणीगाथाभिनियन्त्रितं, तथाहि-"इंगालए १
बियालए २, लोहियक्खे ३ सणिच्छरे चेव ४ । आहुणिए ५ पाहुणिए ६ कणगसनामा उ पंचेच ११ ॥१॥ सोमे १ स. दहिए २ आसासणे य ३ कजोवए य ४ कब्बडए ५। अयकरए ६ दुंदुहए ७ संखसनामाओ तिन्नेव १०(२१)॥२॥
तिन्नेय कंसनामा ३णीला ५ रुप्पीय होति चत्तारि। भास ९तिलपुष्फवन्ने ११ [दगे य] दगपण[पंच]वण्णे य १३ काय का४ कंधे १५ ॥ (३६) ॥३॥ इंदग्गि १ धूमकेऊ २ हरि ३ पिंगलए ४ बुहे य ५ सुक्के य ६ । वहस्सइ ७ राहु ८ अगत्थी
९ माणवए १० कास ११ फासे य १२ (४८)॥ ४ ॥ धूरे १ पमुहे २ वियडे ३ विसंधिणियले ५ तहा पयल्ले य ६। स्था०१५
जडियाइलए ७ अरुणे ८ अग्गिल ९ काले १० महाकाले ११ (५९) ॥५॥ सोस्थिय १ सोवस्थिय २ वद्धमाणगे ।
दीप
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अनुक्रम [९०-९४]
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[१०]
गाथांक
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अनुक्रम [९०-९४]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [२], उद्देशक [3]). मूलं [ ९०, गाथा-३) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३]
श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः
॥ ७९ ॥
तहा पलंबे य ४ । निच्चालोए ५ णिच्जोए ६ सयंपभे ७ चैव ओभासे ८ ( ६७ ) ॥ ६ ॥ सेयंकर १ खेमंकर २ आ भंकर ३ पभंकरे य ४ बोद्धव्ये । अरए ५ विरए य ६ तहा असोग ७ तह वीयसोगे य ८ (७५) ।। ७ ।। विमल १ वि तत्त २ वितत्थे ३ विसाल ४ तह साल ५ सुच्चए ६ चेव । अनियट्टी ७ एगजडी ८ य होइ बिजडी य ९ बोद्धव्ये (८४ ) ॥ ८ ॥ करकरए १ रायग्गल २ बोद्धव्वे पुष्फ ३ भावकेऊ य ४ । अट्ठासीई गहा खलु णेयच्या आणुपुब्बीए ॥ ९ ॥” इति । जम्बूद्वीपाधिकारादेवेदमपरमाह
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जंबुद्दीवरस णं दीवस बेइआ दो गाउयाई उद्धं उच्चतेणं पन्नत्ता । लवणे णं समुद्दे दो जोयणसयसहस्साइं चक्रवालवि क्खंभेणं पन्नत्ते । लवणस्स णं समुदस्स बेतिया दो गाउयाइ उद्धं उच्चत्तेगं पन्नता (सूत्रं ९१ ) धायइसंडे दीवे पुरचिमणं मंदरस पव्यरस उत्तरदाहिणं दो वासा पन्नत्ता बहुसमतुला जाव भरहे चेव एरवए चेव, एवं जहा जंबुवे तथा एत्थवि भाणियन्त्रं जाव दोसु वासेसु मणुया छन्विपि कालं पथणुभवमाणा विहरंति तं० भरहे चेव एरवते चेव, णवरं कूडसामली चैव धायइरुक्खे चेव, देवा गरुले चेव वेणुदेवे सुदंसणे चैत्र, धाततीसंडदीवपञ्चच्छिम णं मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं दो वासा पन्नत्ता बहु० जाब भरहे चैव एखए चेन जाव छन्निपि कालं पचणुभवमाणा विहरति भर चेव एरवाए चेव, णवरं कूडसामली चैव महाधायतीरुक्खे चैव देवा गुरुले चेव वेणुदेवे पिवदंसणे चेव, धायइसंडे णं दीवे दो भरहाई दो एरवथाई दो हेमबयाई दो हेरन्नक्याई दो हरिवासाई दो रम्भगवासाई दो पुब्वविदेहाई दो अवरविदेहाई दो देवकुराओ दो देवकुरुमहदुमा दो देवकुरुमहदुमवासी देवा दो उत्तरकुराओ दो उत्तरकुरुमहद्दुमा दो
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काध्ययने उद्देशः २
।। ७९ ।।
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सूचांक [१२]
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[भाग-5] "स्थान" अंगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः)
स्थान [२], उद्देशक [3]. मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३ ]
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उत्तरकुरुमहद्दुमवासी देवा दो चुल्लहिमवंता दो महाहिमवंता दो निसहा दो नीलवंता दो रुप्पी दो सिहरी दो सहावाती दो सहावातवासी साती देवा दो चिवडावाती दो वियडावातिवासी पभासा देवा दो गंधावाती दो गंधावातिवासी अरुणा देवा दो मालवं परियागा दो मालवंतपरियागावासी पडमा देवा दो मालवंता दो चित्तकूड़ा दो पम्हकूड़ा दो नलिणकूडा दो एगसेला दो तिकूडा दो वेसमणकूडा दो अंजणा दो मातंजणा दो सोमणसा दो विक्षुप्पभा दो अंकावती दो पहाती दो आसीदिसा दो सुहावहा दो चंदपब्बता दो सूरपव्वता दो णागपव्वता दो देवपव्वया दो गंधमायणा दो उगारण्या, दो हिमवंतकूडा दो वेसमणकूडा दो महाहिमवंतकूडा दो वेरुलियकूडा दो निसहकूडा दो रुयगकूडा दो नीलवंतकूडा दो उवदंसणकूडा दो रुप्पिकूडा वो मणिकंचणकूडा दो सिहरिकूडा दो तिगिच्छिकूडा दो पमदहा दो पउमद्दहवासिणीओ सिरीदेवीओ दो महापउमदहा दो महापउमदवासिणीओ हिरीतो देवीओ एवं जाब दो पुंडरीयदहा दो पोंडरीयद्दहवासिणीओ लच्छीदेवीओ, दो गंगापवायदा जाब दो रत्तवतिपवातद्दहा दो रोहियाओ जाब दो रुपकुलातो दो गाइवसीओ दो दहवतीओ दो पंकवतीओ दो तत्तजलाओ दो मतजलाओ दो उम्मत्तजलाओ दो खीरोयाओ दो सीहसोताओ दो अंतोवाहिणीओ दो उम्मिमाहिणीओ दो फेणमालिणीओ दो गंभीरमालिणीओ दो कच्छा दो सुकच्छा दो महाकच्छा दो कच्छगावती दो आवत्ता दो मंगलावत्ता दो पुक्खला दो पुक्खलावई दो बच्छा दो सुबच्छा दो महावच्छा दो बच्छगावती दो रम्मा दो रम्भगा दो रमणिज्जा दो मंगलावती दो पन्हा दो सुपम्हा दो मद्दपन्हा दो पम्छगावती दो संखा दो गरिणा दो कुमुया दो स (ण) लिला (णा) वती दो बप्पा दो सुबप्पा दो महावप्पा दो वप्पगावती दो वम्मू दो
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"स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना
२ स्थान
सूत्र
काध्ययने
वृत्तिः
उद्देश ३
प्रत सूत्रांक [१२]
॥
o
॥
दीप
सुबग्गू दो गंधिला दो गंधिलावती ३२ दो खेमाओ दो खेमपुरीओ दो रिहाओ दो रिट्ठपुरीओ दो खग्गीतो दो मंजुसानो दो ओसधीजो दो पोंडरिगिणीओ दो सुसीमाओ दो कुंडलाओ दो अपराजियाओ दो पभंकराओ दो अंकावईओ दो पम्हावईओ दो सुभाओ दो रयणसंचयाओ दो आसपुराओ दो सीहपुराओ दो महापुराओ दो विजयपुराओ दो अपराजिताओ दो अवराओ दो असोयाओ दो विगयसोगाओ दो विजयातो दो वेजयंतीओ दो जयंतीओ दो अपराजियाओ दो चकापुराणो दो खग्गपुरानी दो अवज्झामो दो अउज्झाओ ३२ दो भहसालवणा दो गंदणवणा दो सोमणसवणा दो पंडगवणाई दो पंदुकंबलसिलाओ दो अतिपंडुकंबलसिलाओ दो रत्तकंबलसिलामो दो अइरत्तकंपलसिलाओ दो मंदरा दो मंदरचूलिताओ, चायतिसंडस्स णं दीवस्स बेदिया दो गाउयाई उद्धमुथचेणं पन्नत्ता। (सूत्रं ९२) कालोदस्स णं समुहस्स वेश्या दो गाउयाई उई उच्चत्तेणं पन्नत्ता । पुक्खरवरदीवदृपुरच्छिमद्धेणं मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं दो वासा पं० बहुसमतुला जाव भरहे चेव एरवए चेव तहेव जाव दो कुराओ पं० देवपुरा चेव उत्तरकुरा चेत्र, तत्थ गं दो महतिमहालता महमा पं० २०-कूडसामली चेव पउमरुक्खे चेब, देवा गरुले व वेणुदेवे परमे चेव, जाव छबिहंपि कालं पञ्चणुभवमाणा विहरति । पुक्खरवरदीवड्डपञ्चच्छिमद्धे णं मंदरस्स पञ्चयस्स उत्तरदाहिणेणं दो बासा पं० तं०-सहेब णाणत्तं फूडसामली चेव महापउमरुक्खे चेव, देवा गरुले चेव वेणुदेवे पुंडरीए चेव, पुक्खरघरदीवड़े ण दीवे दो भरहाई दो एषयाई जाव दो मंदरा दो मंदरचूलियाओ, पुक्खरवरस्स णं दीवस्स वेइया दो गाउयाई खट्टमुपत्तेणं पन्नता, सम्बेसिपि ण दीवसमुदाणं वेदियाओ दो गाउयाई उद्दमुच्चत्तेणं पण्णताओ (सू० ९३)
SC+4
अनुक्रम [९६]
M८०॥
ब
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [९३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
-%81
[९३]
'जंन्' इत्यादि कंठयं, नवरं, वनमय्याः अष्टयोजनोच्छ्रायायाश्चतुर्दादशोपर्यधोविस्तृताया जम्बूद्वीपनगरमाकारकल्पाया | जगत्या द्विगन्यूतोच्छूितेन पञ्चधनु शतविस्तृतेन नानारत्नमयेन जालकटकेन परिक्षिप्ताया उपरि वेदिकेति पद्मवरवेदिकेत्यर्थः, पञ्चधनुःशतविस्तीर्णा गवाक्षहेमकिङ्किणीघण्टायुक्ता देवानामासनशयनमोहनविविधक्रीडास्थानमुभयतो वनखण्डवतीति ।। जम्बूद्वीपवक्तव्यतानन्तरं तदनन्तरत्वादेव लवणसमुद्रवक्तव्यतामाह-लवणे 'मित्यादि कण्ठ्यम् , नवरम्, चक्रवा- लस्य-मण्डलस्य विष्कम्भ:-पृथुत्वं चक्रवालविष्कम्भस्तेनेति, समुद्रवेदिकासूत्रं जम्बूद्वीपवेदिकासूत्रवद्वाच्यमिति । क्षेत्र-IN प्रस्तावालवणसमुद्रवक्तव्यतानन्तरं धातकीखण्डवक्तव्यतां 'धायइ संडे दीवे' इत्यादिना वेदिकासूत्रान्तेन ग्रन्थेनाह-कण्ठय-| श्वायम्, नवरं धातकीखण्डप्रकरणमपि जम्बूद्वीपलवणसमुद्रमध्यं वलयाकृति घातकीखण्डमालिख्य हिमवदादिवर्षधरान जम्बूद्वीपानुसारेणैवोभयतः पूर्वापरविभागेन भरतहैमवतादिवर्षाणि च व्यवस्थाप्य पूर्वापरदिशोर्वलयविष्कम्भमध्ये मेरुं| |च कल्पयित्वाऽवबोद्धव्यम् । अनेनैव च क्रमेण पुष्करवरद्वीपार्द्धप्रकरणमपीति । तत्र धातकीनां-पृक्षविशेषाणां खण्डो वनसमूह इत्यर्थो धातकीखण्डस्तयुक्तो यो द्वीपः स धातकीखण्ड एवोच्यते, यथा दण्डयोगाद्दण्ड इति, धातकीखण्डश्चासौ द्वीपश्चेति धातकीखण्डद्वीपस्तस्य 'पुरच्छिमति पौरस्त्यं पूर्वमित्य? यदर्द्ध-विभागस्तद्धातकीखण्डद्वीपपौरस्त्याई, पूर्वापरार्द्धता च लवणसमुद्रवेदिकातो दक्षिणत उत्तरतश्च धातकीखण्डवेदिका यावद् गताभ्यामिषुकारपर्वताभ्यां धातकीखण्डस्य विभक्तत्वादिति, उकं च-"पंचसयजोयणुच्चा सहस्समेगं च होति विच्छिन्ना । कालोययलवणजले
पंचशतयोजनोचौ सहस्सने के च भवतो विस्तीणीं। कालोदकलपणअले
दीप
4560
अनुक्रम [९७]
SAMEducatu
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना- जसूत्रवृत्तिः
प्रत
सूत्रांक
॥८१॥
पुडा ते दाहिणुत्तरओ ॥ १ ॥दो इसुयारनगवरा धायइसंडस्स मज्झयारठिया । तेहि दुहा णिदिस्सइ पुग्वद्धं पच्छि- २ स्थानमद्धं च ॥२॥" इति, तत्र णमिति वाक्यालङ्कारे, 'मन्दरस्य' मेरोरित्येवं धातकीखण्डपूर्वार्द्धपश्चिमा प्रकरणे प्रत्येक- काध्ययने मेकोनसप्ततिसूत्रप्रमाणे जम्बूद्वीपप्रकरणवदध्येतव्ये व्याख्येये च, अत एवाह-एवं जहा जंबुद्दीवे तहे'त्यादि, नवरं वर्ष-12 उद्देशः ३ धरादिस्वरूपमायामादिसमता चैवं भावनीया-"पुर्बद्धस्स य मज्झे मेरू तस्स पुण दाहिणुत्तरओ । वासाई तिन्नि तिनिवि विदेहवासं च मझमि ॥१॥ अरविवरसंठियाई चउरो लक्खाई ताई खेत्ताई (दीर्घतया)। अंतो संखिचाई रुंदतराई कमेण पुणो ॥२॥ भरहे मुहविक्खंभो छावद्विसयाई चोद्दसहियाई । अउणत्तीसं च सयं बारसहियदुसयभागाणं ॥३॥ ६६१४१॥ । अट्टारस य सहस्सा पंचेव सया हवंति सीयाला । पणपण्णं अंससयं बाहिरओ भरहविक्खंभो| ॥४॥ १८५४७३५५ । चउगुणिय भरहवासो [व्यास इत्यर्थः] हेमवए तं चउग्गुणं तइयं [हरिवर्पमित्यर्थः] । हरिवास चउगुणितं महाविदेहस्स विक्खंभो ॥५॥जह विक्खंभा दाहिणदिसाए तह उत्तरेऽवि वासतिए । जह पुब्बद्धे सत्त उ
[९३]
1355 45
दीप अनुक्रम
[९७]
१ स्पृष्टी तो दक्षिणोत्तरयोः ॥ १॥ दी इछुकारी नगवरी धातकीखंडस मध्ये स्थितौ । ताभ्यां द्विधा निर्दिश्यते पूर्वार्धे पश्चिमाधं च ॥ २ ॥२ पूर्वाधस्य च मध्ये मेहः पुनस्तस्य दक्षिणोत्तरतः । वर्षाणि त्रीणि त्रीणि विदेहवर्ष च मध्यभागे ॥१॥ अरविवरसंस्थितानि चत्वारो लक्षा क्षेत्राणि तानि (दयण)। अन्तः संक्षिप्तानि ४ विस्तृतानि कमेण पुनः ॥२॥ भरते मुखाविष्कंभः षट्पष्टिशतानि चतुर्दशाधिकाचि । एकोनत्रिंशच शतं द्वादशाधिकद्विशतभागानां ।। ३ ॥ अष्टादश सहस्राणि पंचेच
च शतानि भवंति सप्तचत्वारिंशदधिकानि । पंचपंचाशदधि अंशशतं बाह्यतो भरतविष्कम्भः ॥ ४ ॥ चतुर्गुनितो भरतव्यायो हेमवति तचतुणं तृतीयं । हरिवर्षहाचतुर्गुणो महाविदेहस्य विष्कम्भः ॥ ५॥ यथा विष्कम्भा दक्षिणस्यां दिशि तयोत्तरस्थापि वर्षत्रिके । यथा पूर्वाद सप्तव
॥८
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[९३]
CROCRACACCCCCX
तह अवरद्धेऽवि वासाई ॥६॥ सत्ताणउई सहस्सा सत्ताणउयाई अट्ठ य सयाई । तिन्नेव य लक्खाई कुरूण भागा य | बाणउई ।। ७॥ [विष्कम्भ इति] ३९७८९७४ अडवण्णसयं तेवीस सहस्सा दो य लक्ख जीवाओ। दोण्ह गिरीणा
यामो संखित्तो तं धणू कुरूणं ॥ ८ ॥धासहरगिरी १२ वक्खारपब्वया ३२ पुवपच्छिमद्धेसु । जंबुद्दीवगदुगुणा धिट्रस्थरओ उस्सए तुला ॥ ९ ॥ कंचणगजमगसुरकुरुनगा य यह चट्टदीहा य । विक्खंभोव्येहसमुस्सएण जह जंबुदी-|
विच्चा ॥१०॥ लक्खाई तिन्नि दीहा विज्जुप्पभगंधमादणा दो वि । छप्पन्नं च सहस्सा दोन्नि सया सत्तवीसा य ॥११॥ अउणहा दोनि सया उणसत्तरि सहस्स पंचलक्खा य । सोमणस मालवंता दीहा रुंदा दस सयाई ॥१२॥ सव्वाओऽवि णईओ विक्खंभोब्बेहदुगुणमाणाओ। सीयासीयोयाणं वणाणि दुगुणाणि विक्खंभो ॥ १३ ॥"[विस्त-14 रतो वनमुखानीत्यर्थः] "वासहरकुरुसु दहा [वर्षधरेषु कुरुषु च ये हूदा इत्यर्थः] नदीण कुंडाई तेसु जे दीवा । उब्वेहुस्सयतुल्ला विक्खंभायामओ दुगुणा ॥ १४ ॥" [जम्बूद्वीपकापेक्षयेति] कियदूरं जम्बूद्वीपप्रकरणं धातकीखण्डपूर्वार्धा
तथाऽपराऽपि वाणि ॥ ६॥ सप्तनवतिः सहस्राणि सप्तनवाधिकारशतानि । त्रय एव च लक्षाः कुवाविष्कम्भो द्विनवतिश्च भागाः ॥ ७ ॥ अष्टपंचरसदधिक पातं प्रयोविंशतिसहस्राणि हे लक्षे जीवा तुहियोगियोरयामः कुरूणां तत्संक्षिप्तं धनुः ॥ ८॥ वर्षधरगिरिवक्षस्कारपर्वताः पूर्वापधिमार्ययोः । अंडीपत्रिगुणा (विसरत उपायेन तुल्याः ॥९॥ कांचनयमकदेवकुरुनगाव रत्तदीर्घबतायाश्च । विष्फभोद्वेधसमुच्मर्यथा अंदीपगताः ॥ १० ॥ लक्षाम् दीर्घा जीन विद्युत्प्रभागधमादनी द्वावपि । षट्पंचाशत्साहक्षाणि सप्तविंशत्यधिके पाते ॥११॥ एकोनपष्टयधिके । शते एकोनसप्ततिः सहस्राणि पंच लक्षाथ । श्रीमानसमास्यतो दोषी कंदी दश शवानि ॥ १२॥ सर्वा अपि गयो विश्नोपद्विगुणमानाः । सीतासीतोक्योः बनमुखानि द्विगुणानि विस्तरतः॥१३॥ वर्षधरकुराहदा नदीना कुंडादि तेषु ये द्वीपाः । उद्वेषोच्छ्याभ्यां तुल्याः विष्कमायामतो द्विमुणाः ॥ १४ ॥
दीप अनुक्रम
[९७]
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [९३]
श्रीस्थाना-भिलापेन वाच्यमित्याह-'जाव दोसु वासेसु मणुए'त्यादि, एतस्माद्धि सूत्रात् परतो जम्बूद्वीपप्रकरणे चन्द्रादिज्योतिषां २ स्थानसूत्र- सूत्राण्यधीतानि तानि च धातकीखण्डपुष्करार्द्धपूर्वार्द्धादिप्रकरणेषु न सम्भवन्ति, द्विस्थानकत्वाद् अस्याध्ययनस्य,81
काध्ययने वृत्तिः धातकीखण्डादौ च चन्द्रादीनां बहुत्वादिति, आह च-“दो चंदा इह दीवे चत्तारि य सायरे लवणतोए । धायइसंडे उद्देशः ३
दीवे वारस चंदा य सूरा य ॥१॥" इति चन्द्राणामद्वित्वेन नक्षत्रादीनामपि द्वित्त्वं न स्यात् ततो द्विस्थानकेऽनवतार इति । जम्बूद्वीपप्रकरणादस्य विशेष दर्शयन्नाह-णवरमित्यादि, नवरं केवलमयं विशेष इत्यर्थः, कुरुसूत्रानन्तरं तत्र 'कूडसामली चेव जंबू चेव सुदंसणे ति उक्तमिह तु जम्बूस्थाने 'धायहरुक्खे चेव'त्ति वक्तव्यम् , प्रमाणं च तयोर्जम्बूद्वीपकशाल्मल्यादिवत् , तयोरेव देवसूत्रे 'अणाढिए चेव जंबुद्दीवाहिवई'त्यत्र वक्तव्ये 'सुदंसणे चेव'तीह वक्तव्यमिति। 'घायइसंडे दीवे इत्यादि पश्चिमा प्रकरणं पूर्वार्द्धवदनुसतव्यम् , अत एवाह-जाव छब्विहंपिकालमित्यादि, विशेषमाह-णवरं कूडसामली'त्यादि, धातकीखण्डपूर्वाद्धोत्तरकुरुषु धातकीवृक्ष उक्त इह तु महाधातकीवृक्षोऽध्येतव्यः, देवसूत्रे द्वितीयः सुदर्शनस्तत्राधीतः इह तु प्रियदर्शनोऽध्येतव्य इति, पूवार्द्धपश्चिमा मीलनेन धातकीखण्डद्वीपं सम्पू-12 र्णमाश्रित्य द्विस्थानकं 'धायइसंडे 'मित्यादिनाह-द्वे भरते पूर्वार्द्धपश्चार्द्धयोर्यद्दक्षिणदिग्भागे तयोर्भावादित्येवं सर्वत्र, भरतादीनां स्वरूप प्रागुक्तम् , 'दो देवकुरुमहादुर्मति द्वौ कूटशाल्मलीवृक्षावित्यर्थः द्वौ तद्वासिदेवौ वेणुदेवावित्यर्थः, 'दो उत्तरकुरुमहर्मेति धातकीवृक्षमहाधातकीवृक्षाविति, तद्देवी सुदर्शनप्रियदर्शनाविति, चुलहिमवदादयः पड़ वर्ष-15
पदी मंदाविद द्वीपे चत्वारथ सागरे लवणतोये धातकीसंदे द्वीपे द्वादश भाव सूर्याश्च ॥ १॥
56-05-545-45-45E5%
94%5
दीप
अनुक्रम [९७]
W८२॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[९३]
|धरपर्वताः शब्दापातिविकटापातिगन्धापातिमालवत्पर्यायाख्यवृत्तैवताच्याश्च तन्निवासिस्वातिप्रभासारुणपद्मनाभदेवानां | द्वयेन द्वयेन सहिताः क्रमेण द्वौ द्वावुक्ती, 'दो मालवंत'त्ति मालवन्तावुत्तरकुरुतः पूर्वदिग्वत्तिनौ गजदन्तको स्तः, ततो भद्रशालवनतद्वेदिकाविजयेभ्यः परी शीतोत्तरकुलवर्तिनी दक्षिणोत्तरायती चित्रकूटौ वक्षस्कारपर्वतो, ततो विजयेना-1 न्तरनद्या विजयेन चान्तरितावन्यौ तथैवान्यौ पुनस्तथैवान्याविति पुनः पूर्ववनमुखवेदिकाविजयाभ्यामर्वाक् शीतादक्षिणकूलवत्तींनि तथैव त्रिकूटादीनां चत्वारि द्वयानि, ततः सौमनसी देवकुरुपूर्वदिग्वर्त्तिनौ गजदन्तको, ततो गजदन्त| कावेव देवकुरुपत्यग्भागवर्तिनी विद्युत्मभौ, ततो भद्रशालबनतद्वेदिकाविजयेभ्यः परतः तथैवाङ्कावत्यादीनां चत्वारि द्वयानि शीतोदादक्षिणकूलवर्तीनि, पुनरन्यानि पश्चिमवनमुखवेदिकान्त्यविजयाभ्यां पूर्वतः क्रमेण तथैव चन्द्रपर्वतादीनां चत्वारि द्वयानि, ततो गन्धमादनावुत्तरकुरुपश्चिमभागवत्तिनौ गजदन्तकाविति, एते धातकीखण्डस्य पूवाढ़ें पश्चिमाढ़ें च भवन्तीति द्वी द्वायुकाविति, इपुकारी दक्षिणोत्तरयोर्दिशोधोंतकीखण्डविभागकारिणाविति, 'दो चुल्लहिमवंतकूडा इत्यादि, हिमवदादयः पड़ वर्षधरपर्वताः तेषु ये द्वे द्वे कूटे जम्बूद्वीपप्रकरणे अभिहिते ते पर्वतानां द्विगुणत्वाद् एकैकशो वे द्वे स्यातामिति, वर्षधराणां द्विगुणत्वात् पद्मादिहूदा अपि द्विगुणास्तद्देव्योऽप्येवमिति । चतुर्दशानां गङ्गादि-18 महानदीनां पूर्वपश्चिमार्द्धापेक्षया द्विगुणत्वात् तत्प्रपातइदा अपि द्वौ द्वौ स्युरित्याह-दो गंगापवायदहे'त्यादि, दो रोहियाओ' इत्यादौ नद्यधिकारे गङ्गादीनां सदपि द्वित्त्वं नोक, जम्बूद्वीपप्रकरणोक्तस्य-"महाहिमवंताओ वासहरपब्वयाओ महापउमद्दहाओ दो महानदीओ पवहंती"त्यादिसूत्रक्रमस्याश्रयणात् , तत्र हि रोहिदादय एवाष्टी श्रूयन्त इति,
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आगम
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
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श्रीस्थाना- चित्रकटपद्मकटवक्षस्कारपर्वतयोरन्तरे नीलवर्षधरपर्यतनितम्बव्यवस्थिताद् ग्राहवतीकुण्डाद्दक्षिणतोरणविनिर्गताऽष्टा-181 स्थान
सूत्र- विंशतिनदीसहस्रपरिवारा शीताभिगामिनी सुकच्छमहाकच्छविजययोविभागकारिणी ग्राहवती नदी, एवं यथायोग द्वयो- काध्ययने वृत्ति काईयोः सवक्षस्कारपर्वतयोर्विजययोरन्तरे क्रमेण प्रदक्षिणया द्वादशाप्यन्तरनयो योज्याः, तद्वित्वं च पूर्ववदिति, पचव-12 उद्देशः ३ ॥८३॥
तीत्यत्र घेगवतीति ग्रन्थान्तरे दृश्यते, क्षारोदेत्यत्र क्षीरोदेत्यन्यत्र, सिंहश्रोता इत्यत्र सीतश्रोता इत्यपरत्र, फेनमालिनी|| गम्भीरमालिनी चेतीह व्यत्ययश्च दृश्यते इति, माल्यवद्गजदन्तकभद्रशालवनाभ्यामारभ्य कच्छादीनि द्वात्रिंशद्विजय-| क्षेत्रयुगलानि प्रदक्षिणतोऽवगन्तव्यानीति, तथा कच्छादिषु क्रमेण क्षेमादिपुरीणां युगलानि द्वात्रिंशदवगन्तव्यानीति, भद्रशालादीनि मेरौ चत्वारि बनानि-भूमीए भद्दसालं मेहलजुयलंमि दोन्नि रम्माई । नंदणसोमणसाई पंडगपरि| मंडियं सिहरं ॥१॥” इति वचनात् , मेवाद्धित्वे च वनाना द्वित्वमिति, शिलाश्चतस्रो मेरौ पण्डकवनमध्ये चूलिकायाः क्रमेण पूर्वादिषु, अत्र गाथे-"पंडेगवणमि चउरो सिलाउ चउसुवि दिसासु चूलाए । चउजोयणउस्सियाओ सबजुणकंचणमयाओ॥१॥ पंचसयायामाओ मज्झे दीहत्तणऽद्धरुंदाओ। चंदद्धसंठियाओ कुमुओयरहारगोराओ ॥२॥" इति, मन्दरे-मेरी मेरुचूलिका-शिखरविशेषः, स्वरूपमस्याः-"मेरुसे उवरि चूला जिणभवणविहसिया तुवी(५०)सुच्चा ।।
दीप
अनुक्रम [९७]
भूमी भाशाल मेसलायुगले द्वे रम्ये गन्दनसीमनसे पाण्डकपरिमण्डित शिखरम् ॥१॥ २ पाण्डुकाने बतषः शिलाधतामपि विधु चूलायाः । यत-18॥८३ जनोचिताः सार्जुनकायनमध्यः ॥1॥ पधशतायामा मध्ये दीर्घत्वाधुलाः । अपचन्द्रसंस्थिताः फमुदोदरहारगौराः ॥ २॥ ३ कुम्मो । ममोप०, ४ मेरोपरि चूला जिनभवनभूषिता चत्वारिंशत् उचा।
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आगम
(०३)
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अनुक्रम [९७]
[भाग-5] "स्थान" अंगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [3]. मूलं [१३]
स्थान [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
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बारस अड य चउरो मूले मज्झुवरि रुंदा य ॥ १ ॥ इति, वेदिकासूत्रं जम्बूद्वीपवत्, धातकीखण्डानन्तरं कालोदसमुद्रो भवतीति तद्वक्तव्यतामाह - 'कालोदे'त्यादि कण्ठ्यम्, कालोदानन्तरमनन्तरत्वादेव पुष्करवरद्वीपस्य पूवार्द्धपश्चार्द्धतदुभयप्रकरणान्याह -- ' पुक्खरे' त्यादि, त्रीण्यप्यतिदेशप्रधानानि, अतिदेशलभ्यश्चार्थः सुगम एव, नवरं पूर्वार्द्धा परार्द्धता धातकी खण्डवदिषुकाराभ्यामवगन्तव्या भरतादीनां चायामादिसमतैवं भावनीया - “इगुयालीस सहस्सा पंचैव सया हवंति उणसीया । तेवत्तरमंससयं मुहविक्खंभो भरहवासे ॥ १ ॥ ४१५७९१५३ पन्नट्ठि सहस्साई चत्तारि सया हवंति छा याला तेरस चैव य अंसा बाहिरो भरहविक्खंभो ॥ २ ॥ ६५४४६ । चउगुणिय भरहवासो [विस्तर इत्यर्थः ] हेमवए तं चउग्गुणं तइयं [ हरिवर्षमित्यर्थः] । हरिवासं चउगुणियं महाविदेहस्स विक्खंभो ॥ ३ ॥ एवमैरवतादीनि मन्तव्यानि "सतत्तरिं सयाई चोट्स अहियाई सत्तरस लक्खा । होइ कुरूविक्लंभो अड य भागा अपरिसेसा ॥ ४ ॥ १७०७७१४२ "चत्तारि लक्ख छत्तीस सहस्सा नव सया य सोलहिया । [एषा कुरुजीवा ] । ४३६९१६ दोन्ह गिरीणायामो संखित्तो तं धणू कुरूणं ॥ ५ ॥ सोमणसमालवंता दीहा वीसं भवे सयसहस्सा । तेयालीस सहस्सा अउणावीसा य दोन्नि सया ॥ ६ ॥
१ द्वादशाष्ट] चत्वारि मूठे मध्य उपरि विस्तीर्णा ॥ १ ॥ २ एकचत्वारिंशत्सहस्राणि पंचैव शतानि भवन्त्येोनाशीत्यधिकानि त्रिसप्तत्यधिकशतमंशान मुख विष्कंभो भरतवर्षे ॥ १ ॥ पंचषष्टिसहस्राणि चत्वारि शतानि भवंति षत्वारिंशदधिकानि त्रयोदश एवांशा वाह्यो भरतविष्कम्भः ॥ १ ॥ चतुर्गुणिदभरतब्बासी हैमवते तचतुर्गुणं तृतीयं हरिवर्षे चतुर्गुण महाविदेहस्य विष्कम्भः ॥ ३ ॥ सप्तसप्ततिः शतानि चतुर्दशाधिकानि सप्तदश लक्षा भवति विष्कम्भः अझै च भादा अपरिशेषाः ॥ ४ ॥ चतुर्लक्षपत्रिंशत्सहस्रपोडशाधिकनवशतानि द्वयोगियोंरायामः तददुः कुरूणां संक्षिप्तं ॥ ५ ॥ सीमनसमालती दो विशतिः पातसहस्राणि त्रिचत्वारिंशत्सहस्राणि एकोनविंशाधिके द्वे शते ॥ ६ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[९३]
श्रीस्थाना- २०४३२१९ । “सोलहियं सयमेगं छब्बीससहस्स सोलस य लक्खा । विज्जुप्पभो नगो गंधमायणा चेव दी- २ स्थानझसूत्र- हाओ ।। ७॥" १६२६११६, महाद्रुमा जंबूद्वीपकमहाद्रुमतुल्याः, तथा-"धायइवरंमि दीवे जो विक्खंभोउ होइ उ काध्ययने वृत्तिःणगाणं । सो दुगुणो णायन्बो पुक्खरद्धे णगाणं तु॥८॥ वासहरा वक्खारा दहनकुंडा वणा य सीयाई । दीवे दीवे उद्देशः ३
| दुगुणा वित्थरओ उस्सए तुल्ला ॥ ९ ॥ उसुयार जमगचण चित्तविचित्ता य वट्टवेयड्डा । दीवे दीवे तुल्ला दुमेहलाई ॥८४॥
जे य यहा ॥ १०॥" इति । पुष्करवरद्वीपवेदिकामरूपणानन्तरं शेषद्वीपसमुद्रवेदिकाप्ररूपणामाह-'सब्वेसिपि ण'मित्यादि कण्ठ्यं । एते च द्वीपसमुद्रा इन्द्राणामुत्पातपर्वताश्रया इतीन्द्रवक्तव्यतामाह
दो असुरकुमारिंदा पन्नत्ता, त०-चमरे चेव बली चेव, दो णागकुमारिंदा पण्णत्ता, तं०-धरणे चेव भूयाणंदे चेव २, दो सुवनकुमारिंदा पं० सं०----वेणुदेवे येव वेणुदाली चेव, दो बिजुकुमारिंदा पं० त०-हरिचेव हरिस्सहे चेव, दो अग्गिकुमारिंदा पन्नता तं०-अग्गिसिहे चेव अगिमाणवे चेव, दो दीवकुमारिंदा पं० तं-पुन्ने चेव विसिट्टे चेव, दो उददिकुमारिया पं०२०-जलकते चेव जलप्पभे चेब, दो दिसाकुमारिदा ५००-अमियगती चेव अमितवाहणे वेव, दो वातकुमा
दीप अनुक्रम
[९७]
॥८४॥
१ षोडशाधिकं शतं षड्रिंशतिसहस्राणि षोडश च लक्षा विद्युत्नमो नमो गन्धमादनश्चैव दीयौं ॥ ७॥ २ धातकीवरे द्वीपे यो विष्कम्भस्तु भवति तु नगानां | स द्विगुणो ज्ञातव्यः पुष्करा गगानान्तु ॥ ८ ॥ वपंधरा वक्षस्काराः हदनदीकुंडानि वनानि च सीतादयःद्वीपे द्वीपे द्विगुणा विस्तरत उपछ्येण तुल्या ॥९॥18
कारयमककाचनचित्रविचित्राश्च वृत्तसैताच्या द्वीपे द्वौपे तुल्या हिमेसला ये च पैतान्याः ॥१०॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [९४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [९४]
SARKARRACKERS5
रिंदा पं० सं०-लंबे चेव पभंजणे चेव, दो थणियकुमारिंदा पण्णत्ता, तं०-पोसे चेव महाघोसे चेव, दो पिसाइंदा पन्नत्ता-तं०-काले चेव महाकाले चेव, दो भूइंदा पं० १०-सुरूवे चेव पडिरूवे चेव, दो अक्खिदा पन्नत्ता, तं०पुनम चेव माणिभरे चेव, दो रक्खसिंदा पन्नता, तं०-भीमे चेव महाभीमे चेव, दो किन्नरिंदा पन्नत्ता, सं०-किन्नरे चेव किंपुरिसे चेव, दो किंपुरिसिंदा पं० सं०-सप्पुरिसे चेव महापुरिसे चेव, दो महोरगिंदा पं० २० प्रतिकार व महाकाए चेव, दो गंधबिदा पं०,०गीतरती चेव गीयजसे चेव, दो अणपनिंदा पं०,०-संनिहिए चेष सामणे चेव, दो पणपनिंदा पं०, २०-बाए चेव विहाए चेव, दो इसिवाईदा पं०, ०-इसिव इसिवालए चेव, दो भूतवाइंदा पन्नत्ता, सं०-इस्सरे व महिस्सरे चेव, दो कंदिदा पं० सं०-सुवच्छे चेव विसाले घेव, दो महाकदिंदा पन्नत्ता, तं०-हस्से चेव हस्सरती चेव, दो कुभंडिंदा पं० २०-सेए चेव महासेए चेव, दो पतइंदा पं० सं०-पतए चेव पत्तयवई चेव, जोइसियाणं देवाणं दो इंदा पन्नत्ता, तं०-चंदे चेव सूरे चेव, सोहम्मीसाणेसु णं कप्पेसु दो इंदा पं०, तं०-सके व ईसाणे घेव, एवं सर्णकुमारमाहिदेसु कप्पेसु दो इंदा पं०, तं०-सर्णकुमारे चेव माहिदे चेष, घंभलो. गलंतएसु णं कषेसु दो इंदा पं०, तं०-भे चैव लंतए चेक, महासुकसहस्सारेसु णं कप्पेसु दो इंदा पनत्ता, तं०महामुके घेष सहस्सारे चेब, आणयपाणवारणचुतेसु णं कप्पे दो इंदा पं० सं०-पाणते चेव अभृते चेष, महासुकासहस्सारेसु णं कप्पेसु बिमाणा दुवण्णा पं०, ०-हालिदा व सुकिला चेव, गेविनगाणं देवा णं दो रयणीओ
मुचत्तेणं पन्नत्ता (सू० ९४ ) द्वितीयस्थाने तृतीयोद्देशकः समाप्तः । २-३ ।
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दीप अनुक्रम
[९८]
स्था०१५
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [९४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीस्थाना- नसूत्रवृत्तिः
[९४]
॥८५॥
दीप अनुक्रम
असुरावाना दाना
असुरादीनां दशानां भवनपत्तिनिकायानां मेवपेक्षया दक्षिणोसरदिगव्याश्रितत्वेन द्विविधत्वाद् विंशतिरिन्द्राः, तत्र २ स्थानचमरो दाक्षिणात्यो बली त्वौदीच्य इत्येवं सर्वत्र, एवं व्यन्तराणामष्टनिकायानां बिगुणत्वात् षोडशेन्द्राः तथा अणप-14 काध्ययने पिणकादीनामप्यष्टानामेव व्यन्तरषिशेषरूपमिकायानां विगुणत्वात् षोडशेति ज्योतिष्कानां स्वसङ्गयातचन्द्रसूर्यत्वेऽपि उद्देशः३ जातिमात्राश्रयणाद् द्वावेव चन्द्रसूर्याख्याबिन्द्राबुक्की सौधर्मादिकल्पानां तु वशेन्द्रा इत्येवं सर्वेऽपि चतुःषष्टिरिति ।। देवाधिकारात् तमिवासभूसविमानवक्तव्यतामाह-'महासुोत्यादि कण्ठ्यं, नवरं हारिद्राणि-पीलानि, कमश्चायं सौधर्मादिषिमानवर्णविषयो यथा-सौधर्मेशानयोः पञ्चवर्णानि ततो दूयोरकृष्णाणि पुनाईयोस्कृष्णलीलानि ततो द्वयोः शुक्रसहस्राराभिधानयोः पीतशुक्लानि ततः शुक्लान्येवेति, आह च-"सोहम्मे पंचबन्ना एकगहाणी उ जा सहस्सारो। दो दो तुला कप्पा तेण परं पुंडरीयाई ॥१॥” इति । देवाधिकारादेष द्विस्थानकानुपासिनीं तदवगाहमामाह-गेवेजगाण'मित्यादि, पूर्वपद् व्याख्येयमिति । द्विस्थानकस्य तृतीयोदेशका समाप्तः ॥
उक्तस्तृतीयोदेशकः, साम्पतं चतुर्थः समारभ्यते-अस्य च जीवाजीववक्तव्यताप्रतिबद्धस्य पूर्वेण सहायं सम्बन्धः-पूर्वस्मिन् हि पुद्गलजीवधर्मा उक्ताः इह तु सर्वं जीवाजीवात्मकमिति वाच्यम्, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्येमानि पञ्चविंशतिरादिसूत्राणि समयेत्यादीनि,
॥८५॥ समयाति वा आवलियाति वा जीवाति या अजीवाति या पवुमति १, आणापाणूति वा थोवेति वा जीवाति या अजीवासि या
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अत्र तृतीयो उद्देशक: समाप्तं, चतुर्थ: उद्देशक: आरब्ध:
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[९५]
दीप
अनुक्रम [१९]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः)
-
स्थान [२], उद्देशक [४]. मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३ ]
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पचति २, खणाति वा लवाति वा जीवाति या अजीवाति या पचति ३, एवं मुहुत्ताति वा भहोरताति वा ४, पक्खाति वा मासाति वा ५, उति वा अयणाति वा ६, संगच्छराति वा जुगाति वा ७, वासस्याति वा वाससहस्साइ वा ८, वाससतसहस्लाइ वा बासकोटी या ९, पुब्बंगाति वा पुनाति वा १०, तुडियंगाति वा तुडियाति वा ११, अडडंगालि वा अडडाति चा १२, अववंगाति वा अववाति वा १३, हूहूअंगाति वा ह्याति वा १४, उप्पलंगाति वा उप्पलाति वा १५, पडमंगाइ वा पउमाति वा १६, णलिणंगाति वा णलिणाति वा १७, अच्छणिकुरंगाति वा अच्छणिवराति बा १८, अगाति वा अउआति वा १९, णउअंगाति वा णडआति वा २०, पडतंगाति वा पडतात वा २१, चूलि तंगाति वा चूलिवाति वा २२, सीसपहेलियंगाति वा सीसपहेलियाति वा २३, पलिओवमाति वा सागरोवमाति वा २४, उस्सप्पिणीति वा ओसप्पिणीति वा जीवाति या अजीवाति या पचति २५, गामाति वा थराराति वा निगमाति वा रायहाणीति वा खेडाति वा कव्वढाति वा महंबाति वा दोणमुहाति वा पट्टणाति वा आगराति वा आसमाति वा संवाहात वा संनिवेसाइ वा घोसाइ वा आरामाइ वा उज्जाणाति वा वणाति वा वणसंडाति वा वावीइ वा पुक्खरणीति वा सराति वा सरपंतीति वा अगडाति वा तलागादि वा दहाति वा णदीति वा पुढवीति वा उददीति वा वातसंधाति वा उवासंतराति वा वलताति वा पिगहाति वा दीवाति वा समुदाइ वा बेलाति वा वेतिताति वा दाराति वा तोरणाति वा णेरतिवाति वा णैरतितावासाति वा जाव वैमाणियाइ वा बेमाणियावासाति वा कप्पाति वा कप्पविमाणावासाति वा वासाति वा वासधरपव्वताति वा कूडाति वा कूढगाराति वा विजयाति वा रायहाणीइ वा जीवाति या अजी
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"स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [९५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
॥
८
॥
[१५]
दीप अनुक्रम [९९]
श्रीस्थाना- वाति या पवुचति ४७॥ छाताति वा आतवाति वा दोसिणाति वा अंधगाराति वा ओमाणाति वा उम्माणाति वा अतिता
२स्थानप्रसूत्रणगिहाति वा उजाणगिहाति वा अवलिंबाति वा सणिप्पवाताति वा जीवाति या अजीवाति या पबुधद । दो रासी पं०
काध्ययने वृत्तिः तं-जीवरासी चेव अजीवरासी चेव (स्त्रं ९५)
उद्देशः४ एषां चानन्तरसूत्रेणायमभिसम्बन्धः-पूर्वत्र जीवविशेषाणामुच्चत्वलक्षणो धर्मोऽभिहितः, इह तु धर्माधिकारादेव समयादिस्थितिलक्षणो धर्मो जीवाजीवसम्बन्धी जीवाजीवतयैव धर्मधर्मिणोरभेदेनोच्यत इति, तत्र सर्वेषा कालप्रमाणानामाद्यः परमसूक्ष्मोऽभेद्यो निरवयव उत्सलपत्रशतव्यतिभेदाधुदाहरणोपलक्षितः समयः, तस्य चातीतादिविवक्षया बहुत्वाद् बहुवचनमित्याह-समयाइ वा' इत्यादि, इतिशब्द उपप्रदर्शने, वाशब्दो विकल्पे, तथा असङ्ख्यातसमयसमुदयात्मिका आव-| |लिका क्षुलकभवग्रहणकालस्य षट्पञ्चाशदुत्तरद्विशततमभागभूता इति, तत्र समया इति वा आवलिका इति वा यत्काल-| वस्तु तदविगानेन जीवा इति च, जीवपर्यायत्वात्, पर्यायपर्यायिणोश्च कथश्विदभेदात्, तथा अजीवानां-पुद्गलादीनां | पर्यायत्वादजीवा इति च, चकारी समुच्चयाथों, दीर्घता च प्राकृतत्वात् , प्रोच्यते-अभिधीयत इति, न जीवादिव्यतिरेकिणः समयादयः, तथाहि-जीवाजीचानां सादिसपर्यवसानादिभेदा या स्थितिस्तद्भेदाः समयादयः सा च तद्धर्मो धर्मश्च धर्मिणो|
नात्यन्तं भेदवान् , अत्यन्तभेदे हि विप्रकृष्टधर्ममात्रोपलब्धौ प्रतिनियतधर्मिविषय एव संशयो न स्यात्, तदन्येभ्योऽपि प्रातस्य भेदाविशेषात् , दश्यते च यदा कश्चिद्धरिततरुतरुणशाखाविसरविवरान्तरतः किमपि शुक्लं पश्यति तदा फिमियं प-16
ताका किं वा बलाकेत्येवं प्रतिनियतधर्मिविषयः संशय इति, अभेदेऽपि सर्वधा संशयानुसत्तिरेव, गुणग्रहणत एव तस्यापि
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आगम
(०३)
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सूत्रांक
[९५]
दीप
अनुक्रम [१९]
[भाग-5] "स्थान" अंगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः)
उद्देशक [४]. मूलं [१५]
स्थान [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
गृहीतत्वादिति, इह त्वभेदनयाश्रयणाज्जीबाई येत्याद्युक्तम्, इह च समयावलिकालक्षणार्थद्वयस्य जीवादिद्वयात्मकतया भणनाद् द्विस्थानकावतारो दृश्यः, एवमुत्तरसूत्राण्यपि नेयानि, विशेषं तु वक्ष्याम इति, 'आणापाणू' इत्यादि, 'आनप्राणाविति उच्च्छासनिःश्वासकालः सङ्ख्यातावलिकाप्रमाणाः, आह च- — “हरेस अणवगलस्स, निरुव किडस्स जंतुणो । एगे ऊसासनीसासे, एस पाणुत्ति वुच्चई ॥ १ ॥” तथा स्तोकाः सप्तोच्छ्रासनिःश्वासप्रमाणाः, क्षणाः सङ्ख्यातानप्राणलक्षणाः, सप्तस्तोकप्रमाणा लवाः, 'एव' मिति यथा प्राकने सूत्रत्रये जीवा इति च अजीवा इति च प्रोच्यते इत्यधीतमेवं सर्वेषूत्तरसूत्रेध्वित्यर्थः, मुहूर्त्ता:- सप्तसप्ततिलवप्रमाणाः, उक्तथ - "सत्ते पाणूणि से धोबे, सत्त धोवाणि से लवे। लवाणं सत्तहत्तरीए, एस मुहुत्ते वियाहिए ॥ १ ॥ तिण्णि सहस्सा सत्त य सयाणि तेवतरिं च ऊसासा । एस मुहुत्तो भणिओ सब्धेहिं अनंतनाणीहिं ॥ २ ॥” इति, अहोरात्राः त्रिंशन्मुहुर्त्तप्रमाणाः, पक्षाः पञ्चदशाहोरात्रप्रमाणाः, मासा द्विपक्षाः, ऋतवो द्विमासमानाः वसन्ताद्याः, अयनानि ऋतुत्रयमानानि संवत्सरा अयनद्वयमानाः, युगानि पञ्चसंवत्सराणि वर्षशतादीनि प्रतीतानि, पूर्वाङ्गानि चतुरशीतिपूर्वाणि पूर्वादेव रामान परिमाणं सर्वारिं खलु होंति कोडिलक्खाओ । छप्पन्नं च सहस्सा बोद्धव्त्रा वासकोडीणं ॥ १ ॥” इति, ७०५६००००००
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१ हृष्टस्थानवग्लानस्य निरुपकृष्टस्य जन्तोः एक उच्छ्वासनिःश्वासः एष प्राण इति उच्यते ॥ १ ॥ सबैः एष मुहूर्त इति व्याख्यातः ॥ १ ॥ त्रीणि सहस्राणि सप्त च शतानि विसप्ततियोच्छ्वासा एष परिमाणं सप्ततिः स भवन्ति कोटीक्षाः । पचाशत्कोठी सहस्राणि च वर्षाणां योद्धव्यानि ॥ १॥
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२ सप्त प्राणाः स खोकः सप्त खोकाः लवः सप्तसप्तत्या मणिः सर्वैरनन्तज्ञानिभिः ॥ २ ॥ ३ पूर्वस्य तु
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना-
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वृत्तिः
सूत्रांक
॥८७॥
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दीप अनुक्रम [९९]
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००००, पूर्वाणि चतुरशीतिलक्षगुणितानि त्रुटिताङ्गानि भवन्ति, एवं पूर्वस्य पूर्वस्य चतुरशीतिलक्षगुणनेनोचरमुत्तरं २ स्थानसङ्ख्यानं भवति यावच्छीर्षप्रहेलिकेति, तस्यां चतुर्नवत्यधिकमकस्थानशतं भवति, अत्र करणगाथा-"इच्छियठाणेण गुणं काध्ययने पणसुन्नं चउरसीतिगुणितं च । काऊणं तइवारे पुग्वंगाईण मुण संखं ॥१॥" शीर्षप्रहेलिकान्तः सांव्यवहारिकः सङ्ख्या- उद्देशः४ तकालः, तेन च प्रथमपृथिवीनारकाणां भवनपतिव्यन्तराणां भरतैरवतेषु सुषमदुष्षमायाः पश्चिमे भागे नरतिरश्वां चायु-| मीयत इति, किञ्च-शीर्षप्रहेलिकायाः परतोऽप्यस्ति सङ्ख्यातः कालः, स चानतिशायिनां न व्यवहारविषय इतिकृत्वौपम्ये प्रक्षिप्तः, अत एव शीर्षप्रहेलिकायाः परतः पल्योपमाद्युपन्यासः, तत्र पल्येनोपमा येषु तानि पल्योपमानि-असङ्ख्यातवर्षकोटीकोटीप्रमाणानि वक्ष्यमाणलक्षणानि, सागरेणोपमा येषु तानि सागरोपमाणि-पल्योपमकोटीकोटीदशकमा-1 नानीति, दशसागरोपमकोटीकोव्य उत्सर्पिणी, एवमेवावसप्पिणीति । कालविशेषवत् प्रामादिवस्तुविशेषा अपि जीवाजीवा एवेति द्विपदैः सप्तचत्वारिंशता सूत्रैराह-गामे'त्यादि, इह च प्रत्येक जीवाइ येत्यादिरालापोऽध्येतव्यो, ग्रामादीनां च जीवाजीवता प्रतीतैव, तत्र करादिगम्या ग्रामाः, नैतेषु करोऽस्तीति नकराणि १, निगमा:-बणिग्निवासाः राजधान्यो-यासु राजानोऽभिषिच्यन्ते २ खेटानि-धूलिपाकारोपेतानि कर्बटानि-कुनगराणि ३, मडम्बानि सर्वतोऽर्द्धयोजनात् परतोऽवस्थितप्रामाणि द्रोणमुखानि येषां जलस्थलपथावुभावपि स्तः ४, पत्तनानि येषु जलस्थलपथयोरन्यतरेण पर्याहारमशः, आकरा-लोहाद्युत्पत्तिभूमयः ५, आश्रमाः-तीर्थस्थानानि संवाहा:-समभूमी कृषि कृत्वा येषु दु-12८७॥
१ इश्चितस्थानेन गुण्यं शून्यपंचक चतुरशीतिगुणित च । पूर्वांगादीनां संख्यां ततिवारान् कृत्वा आमीहि ॥१॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [९५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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सूत्रांक [९५]
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भूमिभूतेषु धान्यानि कृषीवलाः संवहन्ति रक्षार्थमिति ६, सन्निवेशाः सार्थकटकादेः घोषा-गोष्ठानि ७, आरामा-विविधवृक्षलतोपशोभिताः कदल्यादिप्रच्छन्नगृहेषु स्त्रीसहितानां पुंसां रमणस्थानभूता इसि, उद्यानानि पत्रपुष्पफलच्छा-14 योपगादिवृक्षोपशोभितानि बहुजनस्य विविधवेषस्योन्नतमानस्य भोजनार्थं यानं-गमनं येष्विति ८, बनानीत्येकजातीय| वृक्षाणि वनखण्डा:-अनेकजातीयोत्तमवृक्षाः ९, वापी चतुरना पुष्करिणी वृत्ता पुष्करवती वेति १०, सरांसि-जलाशय-| विशेषाः सरःपतयः-सरसा पद्धतयः ११, 'अगह'त्ति अवटा:-कृपाः, तडागादीनि प्रतीतानि १२, पृथिवी-रलप्रभादिका उदधिः-तदधो घनोदधिः १४, वालस्कन्धा-पनवाततनुबाता इतरे वा अवकाशान्तराणि-वातस्कन्धानामधस्तादाका-17 शानि, जीवता चैषां सूक्ष्मपृथिवीकाधिकादिजीवव्याप्तत्वात् १५, बलयानि-पृथिवीनां बेष्टनानि घनोदधिधनवाततनुवातलक्षणानीति विग्रहा-लोकनाडीवक्राणि, जीवता पैषां पूर्ववत् १६, द्वीपाः समुद्राश्च प्रतीताः १७, बेला-समुद्रजलवृद्धिः, वेदिकाः प्रतीता: १८, द्वाराणि-विजयादीनि तोरणानि तेष्वेवेति १९, नैरयिका:-क्लिष्टसत्त्वविशेषास्तेषां चाजीवता कर्मपुद्गलाद्यपेक्षया तदुत्पत्तिभूमयो नैरयिकावासास्तेषां च जीवता पृथिवीकायिकाद्यपेक्षया, इत्येवं चतुर्विशतिदण्डकोऽभिधेयः ४३ अत एवाह-यावदित्यादि, कल्पा:-देवलोकास्तदंशाः कल्पविमानाबासाः ४४, वर्षाणि-भरतादिक्षेत्राणि वर्षधरपर्वता:-हिमवदादयः ४५, कूटानि-हिमवत्कूटादीनि कूटागाराणि-तेष्वेव देवभवनानि ४६, विजयाः-चक्रवत्तिविजेतव्यानि कच्छादीनि क्षेत्रखण्डानि, राजधान्या-क्षेमादिकाः, 'जीवेत्यादि इहोक्तं सर्वत्र सम्बन्धनीयमिति ४७ । येऽपि पुद्गलधर्मास्तेऽपि तथैवेत्याह-छाये'त्यादि सूत्रपञ्चकं गतार्थम् , नवरं छाया वृक्षादीनामातपः
दीप अनुक्रम [९९]
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-8
ॐ
55
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीस्थाना- असूत्रवृत्तिः
[१५]
दीप अनुक्रम [९९]
आदित्यस्य, 'दोसिणाति वत्ति ज्योत्स्ना अन्धकाराणि-तमांसि, अवमानानि-क्षेत्रादीनां प्रमाणानि हस्तादीनि उ-19२ स्थानन्मानानि-तुलायाः कर्षादीनि, अतियानगृहाणि-नगरादिप्रवेशे यानि गृहाणि, उद्यानगृहाणि प्रतीतानि, अवलिंबा सणिप-18 काध्ययने वाया य रूढितोऽवसेया इति, किमेतत् सर्वमित्याह-जीवा इति च, जीवव्याप्तत्वात् तदानितत्वाद्धा, 'अजीवा इति उद्देशः४ च' पुद्गलाद्यजीवरूपत्वात् तदाश्रितत्वाद्वेति, प्रोच्यते-जिनः प्ररूप्यत इति । इह च जीवाइ येत्यादि सूत्रपञ्चकेऽपि प्रत्येकमध्येतव्यमिति । अथ समयादिवस्तु जीवाजीवरूपमेव कस्मादभिधीयते ?, उच्यते, तद्विलक्षणराश्यन्तराभावाद्, अत एवाह-दो रासी'त्यादि कण्ठ्यम् । जीवराशिश्च द्विधा-बद्धमुक्तभेदात्, तत्र बद्धानां बन्धनिरूपणायाह
दुविहे बंधे पं०, ०-पेशाधे चेव दोसबंधे चेव, जीवाणं दोहिं ठाणेहिं पावं कम्मं बंधति, सं०-रागेण व दोसेण चेच, जीवा णं दोहिं ठाणेहिं पावं कम्म उदीरेंति, सं०-अभोवगमिवाते चेव वेतणाते उवकमिताते चव वेवणाते, एवं वेदेति एवं णिरति-अन्भोषगमिताते चेव वेयणाते उनकमिताते चेव वेयणाते (सूत्र ९६) प्रेम-रागो मायालोभकषायलक्षणः, द्वेषस्तु क्रोधमानकषायलक्षणः, यदाह-"माया लोभकषायश्चेत्येतद् रागसंज्ञितं| द्वन्द्वम् । क्रोधो मानश्च पुन?ष इति समासनिर्दिष्टः॥१॥" इति, प्रेम्णः-प्रेमलक्षणचित्तविकारसम्पादकमोहनीयकमपुद्गलराशेर्वन्धन-जीवप्रदेशेषु योगप्रत्ययतः प्रकृतिरूपतया प्रदेशरूपतया च सम्बन्धनम् तथा कषायप्रत्ययतः स्थि-| त्यनुभागविशेषापादनं च प्रेमबन्धः, एवं द्वेषमोहनीयस्य बन्धो द्वेषवन्ध इति, रक्तं हि,-"जोगा पयडिपदेसं ठिति-1311८८॥
१ योगेभ्यः प्रकृतिप्रदेशबन्धं कषायेभ्यः स्थित्यनुभागबंधं करोति ।।
951561623
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [९६]
दीप अनुक्रम [१००]
अणुभार्ग कसायओ कुणइ"त्ति, प्रेमद्वेषलक्षणाभ्यां कर्मभ्यामुदयगताभ्यां जीवानामशुभकर्मबन्धो भवतीत्याह-'जी-| वाण'मित्यादि, अधवा पूर्वसूत्रमन्यथा व्याख्याय सम्बन्धान्तरमस्य क्रियते-सामान्येन बन्धो द्वेधा-प्रेमतो द्वेषतश्चेति,8 स चानिवृत्तिसूक्ष्मसम्परायान्तान् गुणस्थानिनः प्रतीत्य द्रष्टव्यः, यस्तूपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिनां स योगप्रत्यय एव, स तु वन्धत्वेन न विवक्षितो, बन्धस्यापि तस्य शेषकर्मबन्धविलक्षणतयाऽबन्धकल्पत्वात्, यस्य हि कर्मणोऽसौ तदल्पस्थितिकादिविशेषणम् , उकं च-"अप्पं वायर मउयं बहुं च रुक्खं च सुकिलं चेव । मंदं महन्वयं तिय सायावहुलं |च तं कम्मं ॥१॥" इति, अल्पं स्थित्या बादरं परिणामतः मृदनुभावतः बहु प्रदेशैः मन्दं लेपतो बालुकावत्, महाव्ययं सर्वोपगमात् । एतदेव दर्शयन्नाह-'जीचा णमित्यादि, जीवाः-सत्त्वाःणं वाक्यालकारे द्वाभ्यां 'स्थानाभ्यां कार|णाभ्यां पापम्-अशुभमशुभभवनिबन्धनत्वात्, न तु निरनुबन्धं द्विसमयस्थितिकमत्यन्तं शुभं, तस्य केवल योगप्रत्ययत्वादिति, वनन्ति-स्पृष्टाद्यवस्थां कुर्वन्ति, रागेण चैव द्वेषेण चैव, कषायैरित्यर्थः, ननु मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगा बन्धहेतवः तत्कथं कषाया एव इहोक्ता इति ?, उच्यते, कपायाणां पापकर्मबन्ध प्रति प्राधान्यख्यापनार्थ, प्राधान्य च स्थित्यनुभागप्रकर्षकारणत्वात् तेषामिति, अथवा अत्यन्तमनर्थकारित्वाद्, उक्तञ्च-"को दुक्ख पावेज्जा कस्स व सो
खेहिं विम्हओ होजा? । को वा न लहेज मोक्खं ? रागदोसा जइ न होजा ॥१॥” इति, अथवा बन्धहेतुदेशग्राहक| मेवेदं सूत्रं द्विस्थानकानुरोधादिति न दोषः । उक्तस्थानद्वयवद्धपापकर्मणश्च यथोदीरणवेदननिर्जराः कुर्वन्ति देहिन
तसयोगिकर्म बल्यं बादरं मृचु बहु रूक्षं शुभ्र चैग मंदै महाव्ययं साताबहुलमिति ॥1॥ २ को दुःखं प्राप्नुयात् कस्य वा मुविस्मयो भूयात को न xसभेत मोक्षं रागद्वेषा बदिन भवेतां ॥१॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [९६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना-
सूत्र
वृत्तिः
सूत्रांक [९६]
स्तथा सूत्रत्रयेणाह-'जीवेत्यादि गतार्थम् , नवरं उदीरयन्ति-अप्राप्तावसरं सदुदये प्रवेशयन्ति, अभ्युपगमेन-अङ्गी- २ स्थानकरणेन निर्वृत्ता तत्र वा भवा आभ्युपगमिकी तया-शिरोलोचतपश्चरणादिकया वेदनया-पीडया उपक्रमेण-कर्मोदीर-15 काध्ययने णकारणेन निवृत्ता तत्र वा भवा औपक्रमिकी तया-ज्वरातीसारादिजन्यया, 'एव'मिति उक्तप्रकारत एव वेदयन्ति' उद्देश ४ | विपाकतोऽनुभवन्त्युदीरितं सदिति, 'निर्जरयन्ति' प्रदेशेभ्यः शाटयन्तीति । निर्जरणे च कर्मणो देशतः सर्वथा वा भ-| वान्तरे सिद्धौ वा गच्छतः शरीरान्निर्याणं भवतीति सूत्रपञ्चकेन तदाह
दोहिं ठाणेहि आता सरीर फुसित्ताणं णिज्जाति , तं०-देसेणवि आता सरीर फुसित्ताणं णिज्जाति सम्वेणवि आया
सरीरगं फुसित्ताणं णिजाति, एवं फुरित्ताणं एवं फुडित्ता एवं संवट्टतिचा एवं निबट्टतित्ता (सूत्र ९७) - 'दोही'त्यादिकं कण्ठ्यं, नवरं द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां 'देसेणवित्ति देशेनापिन्कतिपयप्रदेशलक्षणेन केषाश्चिादेशानामिलिकागत्योत्पादस्थानं गच्छता जीवेन शरीरादहिः क्षिप्तत्वात् , 'आत्मा' जीवः, 'शरीरं देहं 'स्पृष्ट्वा' श्लिष्ट्रा 'नियोति' शरीरान्मरणकाले निःसरतीति, 'सब्वेणवित्ति सर्वेण-सर्वात्मना सजीवप्रदेशैः कन्दुकगत्योत्पादस्थानं गच्छता शरीराद् बहिः प्रदेशानामप्रक्षिप्तत्वादिति, अथवा देशेनापि-देशतोऽप्यपिशब्दः सर्वेणापीत्यपेक्षः, आत्मा, शरीरं, कोऽर्थः - शरीरदेशं पादादिकं स्पृष्ट्वाऽवयवान्तरेभ्यः प्रदेशसंहारानियोति, स च संसारी, 'सर्वेणापि' सर्वतयाऽपि, अपिदेशेनापीत्यपेक्षः, सर्वमपि शरीरं स्पृष्ट्वा निर्यातीति भावः, स च सिद्धो, वक्ष्यति च-"पायणिजाणा णिरएसु४
॥८९॥ “उववजंती"त्यादि, यावत् “सब्बंगणिजाणा सिद्धेसु"त्ति । आत्मना शरीरस्य स्पर्शने सति स्फुरणं भवतीत्यत उच्यते |
दीप अनुक्रम [१००]
4-%
5-515
JanEairatoY
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [९७]
-एवमित्यादि, एवं मिति 'दोहि ठाणेही त्याद्यभिलापसंसूचनार्थः, तत्र देशेनापि कियशिरप्यारमप्रदेशैरिलिकागतिकाले 'सब्वेणवित्ति सब्बैरपि गेन्दुकगतिकाले शरीरं 'फुरित्ताणं ति स्फोरयित्वा सस्पन्दं कृत्वा निर्याति, अथवा शरीरक देशतः शरीरदेशमित्यर्थः स्फोरयित्वा पादादिनिर्याणकाले, सर्वतः-सर्व शरीर स्फोरयित्वा सर्वाङ्गनिर्याणावसर इति । स्फोरणाश्च सात्मकत्वं स्फुटं भवतीत्याह-'एव'मित्यादि, 'एवं मिति तथैव देशेन-आत्मदेशेन शरीरक 'फुडित्ताण ति सचेतनतया स्फुरणलिङ्गतः स्फुटं कृत्वा इलिकागतौ सर्वेण-सर्वात्मना स्फुटं कृत्वा गेन्दुकगताविति, अथवा शरीरक देशतः-सात्मकतया स्फुटं कृत्वा पादादिना निर्याणकाले सर्वतः-सर्वाङ्गनिर्याणप्रस्ताव इति, अथवा फुडित्ता|स्फोटयित्वा विशीर्ण कृत्वा, तत्र देशतोऽक्ष्यादिविघातेन सर्वतः सर्वविशरणेन देवदीपादिजीववदिति । शरीरं सात्मकतया स्फुटीकुर्वस्तत्संवर्तनमपि कश्चित्करोतीत्याह-एव'मित्यादि, 'एवं मिति तथैव 'संवदइत्ताण'त्ति संवर्त्य-सङ्कोच्य शरीरकं देशेनेलिकागती शरीरस्थितप्रदेशैः सर्वेण-सर्वात्मना गेन्दुकगती सर्वात्मप्रदेशानां शरीरस्थितत्वान्निर्यातीति, अथवा शरीरक-शरीरिणमुपचाराद्दण्डयोगाद्दण्डपुरुषवत्, तत्र देशतः संवनं संसारिणो बियमाणस्य पादादिगतजीवप्रदेशसंहारात् सर्वतस्तु निर्वाणं गन्तुरिति, अथवा शरीरकं देशतः संवर्ल्स-हस्तादिसङ्कोचनेन सर्वतः-सर्वशरीरसकोचनेन पिपीलिकादिवदिति । आत्मनश्च संवर्सनं कुर्वन शरीरस्य निवर्सनं करोतीत्याह-एवं 'निब्बयित्ताण'ति, तथैव निवर्त्य-जीवप्रदेशेभ्यः शरीरकं पृथकृत्येत्यर्थः, तत्र देशेनेलिकागती सर्वेण गेन्दुकगती, अथवा देशतः शरीर निर्वपात्मनः पादादिनिर्याणवान् सर्वतः सर्वाङ्गनिर्याणवानिति, अथवा पञ्चविधशरीरसमुदायापेक्षया देशतः शरीरम्
दीप
अनुक्रम [१०१]
~189~
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[७]
दीप
अनुक्रम [१०१]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [९७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थाना
ङ्गसूत्र
वृत्तिः
॥ ९० ॥
औदारिकादि निवर्त्य तेजसकार्मणे स्वादायैव, तथा सर्वेण - सर्व शरीरसमुदायं निवर्त्य निर्याति, सिध्यतीत्यर्थः । अनन्तरं सर्वनिर्याणमुक्तम्, तच्च परम्परया धर्मश्रवणलाभादिषु ते च यथा स्युस्तथा दर्शयन्नाह
दोहिं ठाणेहिं आता केवळिपन्नत्तं धम्मं लभेज्जा सवणताते, वं० खतेण चैव उवसमेण चैव, एवं जाब मणपजवनाणं उप्पाडेजा [सं० खतेण चेव उवसमेण चैव ( सूत्रं ९८ )
'दोही त्यादि कण्ठ्यं, नवरं 'खएण चेव'त्ति ज्ञानावरणीयस्य दर्शनमोहनीयस्य च कर्मणः उदयप्राप्तस्य क्षयेण - निर्जरणेन अनुदितस्य चोपशमेन - विपाकाननुभवेन, क्षयोपशमेनेत्युक्तं भवति यावत्करणात् केवलं बोहिं बुज्झेजा मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वज्जा केवलं वंभचेरवासमावसेज्जा, केवलेणं संजमेणं संजमिज्जा, केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, | केवलं आभिणिबोहियनाणमुप्पाडेजा इत्यादि दृश्यम् एवं यावन्मनः पर्यवज्ञानमुखादयेदिति, केवलज्ञानं तु क्षयादेव भवतीति तन्नोक्तम् । इह च यद्यपि बोध्यादयः सम्यक्त्वचारित्ररूपत्वात् केवलेन क्षयेण उपशमेन च भवन्ति तथाऽप्येते क्षयोपशमेनापि भवन्ति, श्रवणाभिनिबोधिकादीनि तु क्षयोपशमेनैव भवन्तीति सर्वसाधारणः क्षयोपशम उक्तः पदद्वयेनातः स एव व्याख्यात इति । बोध्याभिनिवोधिक श्रुतावधिज्ञानानि च षट्षष्टिसागरोपमस्थितिकान्युत्कर्षतो भवन्ति, सागरोपमाणि च पत्योपमाश्रितानीति तद्वितयप्ररूपणामाह
दुवि अद्धोमिए पत्ते तं पलिओ मे चैव सागरोवमे चैव से किं तं पलिओयमे ?, पलिओ मेजं जोयणविच्छिन्नं, पएगाहियप्पाणं होऊन निरंतरणिचितं भरितं वाग्गकोडी ॥ १ ॥ वाससए वाससए एकेके अवडंमि
Education Infamational
For Personal & Prany
~190~
२ स्थान
काध्ययने उद्देशः ४
॥ ९० ॥
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक [ ९९ ]
गाथांक
॥१-३||
दीप
अनुक्रम
[१०३
-१०६]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [ ९९ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
स्था० १६
Educato
जो कालो । सो कालो बोद्धव्यो, उबमा एगस्स पहस्स ॥ २ ॥ एएसिं पहाणं कोडाकोडी हवेल दसगुणिता । तं सागरोमस्स उ एगस्स भवे परीमाणं ॥ ३ ॥ ( सू० ९९ )
उपमा-औपम्यं, तथा निर्वृत्तमीपमिकं अद्धा कालस्तद्विषयमौपमिकमद्धौपमिकम्, उपमानमन्तरेण यत्कालप्रमाणमनतिशयिना ग्रहीतुं न शक्यते तदद्धीपमिकमिति भावः तच द्विधा-पल्योपमं चैव सागरोपमं चैव तत्र पल्यवत्पल्यस्तेनोपमा यस्मिंस्तवल्योपमम्, तथा सागरेणोपमा यस्मिंस्तत्सागरोपमं, सागरवन्महापरिमाणमित्यर्थः, इदं च पल्योपमसागरोपमरूपमौपमिकं सामान्यत उद्धाराजाक्षेत्रभेदात् त्रिधा, पुनरेकैकं संव्यवहारसूक्ष्मभेदात् द्विधा, तत्र संव्यवहारपल्योपमं नाम यावता कालेन योजनायामविष्कम्भोचत्वः पत्यो मुण्डनानन्तरमेकादि सप्तान्ताहोरात्रप्ररूढानां वालाग्राणां भृतः प्रतिसमयं वालामोद्धारे सति निर्लेपो भवति स कालो व्यावहारिकमुद्धारपल्योपममुच्यते, तेषां दशभिः कोटीकोटीभिः व्यावहारिकमुद्धारसागरोपममुच्यते, तेषामेव वालाग्राणां दृष्टिगोचरातिसूक्ष्मद्रव्यासङ्ख्येयभागमात्र सूक्ष्मपनकावगाहनाऽसङ्ख्यातगुणरूपखण्डीकृतानां भृतः पल्यो येन कालेन निर्लेपो भवति तथैवोद्धारे तत्सूक्ष्ममुद्धारपल्योपमं तथैव च सूक्ष्ममुद्धारसागरोपमम्, अनेन च द्वीपसमुद्राः परिसङ्ख्यायन्ते, आह च-"उद्धा रसागराणं अड्डाइज्जाण जतिया समया । दुगुणाद्गुणपवित्थर दीवोदहि रज्जु एवइया ॥ १ ॥” इति, अद्धापल्योपमसागरोपमे अपि सूक्ष्मवादरभेदे एवमेव, नवरं वर्षशते २ वालस्य वालासयेयखण्डस्य चोद्धार इति, अनेन नारकादिस्थि१ उद्धारसागरोपमयोः सार्द्वद्वययोः यावन्तः समयाः एतावन्तो द्वीपोदधयो द्विगुणद्विगुणप्रविस्तरा रजुः ॥ १ ॥
For Parnal&Pre Only
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[ ९९ ]
गाथांक
॥१-३||
दीप
अनुक्रम [१०३
-१०६]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [ ९९ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
२ स्थान
उद्देशः ४ पल्योपमादिस्व०
॥ ९१ ॥
सू० ९९
तयो मीयन्ते, क्षेत्रतोऽपि ते द्विविधे एवमेव, नवरं प्रतिसमयमेकैकाकाशप्रदेशापहारे यावता कालेन वालाग्रस्पृष्टा एव प्रदेशा उद्रियन्ते स कालो व्यावहारिक इति यावता च वालाग्रासङ्ख्यातखण्डैः स्पृष्टा अस्पृष्टाश्चोद्रियन्ते स कालः सू- ४ काध्ययने क्ष्म इति, एते च प्ररूपणामात्रविषये एव, आभ्यां च दृष्टिवादे स्पृष्टास्पृष्टप्रदेशविभागेन द्रव्यमाने प्रयोजनमिति श्रूयते, बादरे च त्रिविधे अपि प्ररूपणामात्रविषये एवेति, तदेवमिह प्रक्रमे उद्धारक्षेत्रीपमिकयोर्निरुपयोगित्वादद्धौपमिकस्यैव ५. चोपयोगित्वाद् अद्धेतिविशेषणं सूत्रे उपात्तमिति, अत एवाद्धापल्योपमलक्षणाभिधित्सयाऽऽह सूत्रकारः - 'से किं तमित्यादि, अथ किं तत् पल्योपमं ?, यदद्धौपमिकतया निर्दिष्टमिति प्रश्न निर्वचनमेतदनुवादेनाह- 'पलिओ में'त्ति, पल्योपममेवं भवतीति वाक्यशेषः, 'जं' गाहा, किल यद्योजनविस्तीर्णमित्युपलक्षणत्वात्सर्वतो यद्योजनप्रमाणं पल्यंधान्यस्थानविशेषः एकाह एव ऐकाहिकस्तेन प्ररूढानां - वृद्धानां मुण्डिते शिरसि एकेनाहा यावत्यो भवन्तीत्यर्थः, | एतस्य चोपलक्षणत्वादुत्कर्पतः सप्ताहप्ररूढानां वालाग्राणां कोट्यो -विभागाः सूक्ष्मपल्योपमापेक्षयाऽसंख्येयखण्डानि वादरपल्योपमापेक्षया तु कोटयः - सङ्ख्याविशेषाः तासां किं भवेत् ? - 'भरितं' भृतं कथमित्याह - 'निरन्तरं' निचितं निविउतया निचयवत्कृतमिति । 'वास' गाहा, एतस्मासल्याद्वर्षशते वर्षशतेऽतिकान्ते सति प्रतिवर्षशतमित्यर्थः, एकैकस्मिन् वालाग्रे असयेयखण्डे चापहृते-उद्धृते सति 'यः कालो' यावती अद्धा भवति प्रमाणतः स तावान् कालो बोद्धव्यः, किमित्याह - 'उपमा' उपमेयः, कस्येत्याह-एकस्य पल्यस्य, इदमुक्तं भवति-स काल एक पल्योपमं सूक्ष्मं व्यावहारिकं चोच्यत इति । 'एएसिं' गाहा, एतेषाम् उक्तरूपाणां सूक्ष्मवादराणां 'पल्याना' पल्योपमानां कोटीकोटी भवेद् दश
श्रीस्थाना
ङ्गसूत्र
वृत्तिः
For Personal & Pra Use Only
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॥ ९१ ॥
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आगम
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [९९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१००-१०१] गाथांक ||१-३||
सगुणिता यदिति गम्यते, दश कोटीकोव्य इत्यर्थः, तदेकस्य सूक्ष्मरूपस्य बादररूपस्य वा सागरोपमस्यैव भवेत्परिमाण-1 यामिति ॥ एतैश्च येषां क्रोधादीनां फलभूतकर्मस्थितिनिरूप्यते तरस्वरूपनिरूपणायाह
दुविहे कोहे पन्नत्ते तं०-आवपइट्टिते चेव परपइट्ठिए चेव, एवं नेरझ्याणं जाव वेमाणियाणं, एवं जाव मिच्छादसणसले (सू.१००)। दुविहा संसारसमावन्नगा जीवा पं० सं०-तसा चेव थावरा चेव, दुविहा सव्वजीवा पं० सं०सिद्धा चेव असिद्धा चेव, दुविहा सव्यजीवा पण्णत्ता तं०-सइंदिया चेव अणिदिया चेव, एवं एसा गाहा फासेतम्या जाव ससरीरी चेव असरीरी चेव-सिद्धसइंदियकाए जोगे वेए कसाय लेसा य । णाणुवओगाहारे भासग चरिमे य ससरीरी ॥१॥' (सू० १०१) आत्मापराधादैहिकापायदर्शनादात्मनि प्रतिष्ठितः-आत्मविषयो जातः आत्मना वा परत्राक्रोशादिना प्रतिष्ठितो-जनित आत्मप्रतिष्ठितः, परेणाक्रोशादिना प्रतिष्ठितः-उदीरितः परस्मिन् वा प्रतिष्ठितो-जातः परप्रतिष्ठित इति । एवं मिति | यथा सामान्यतो द्वेधा क्रोध उक्त एवं नारकादीनां चतुर्विशतेर्वाच्यः, नवरं पृथिव्यादीनामसंज्ञिनामुक्तलक्षणमात्मप्रतिष्ठितत्वादि पूर्वभवसंस्कारात् क्रोधगतमवगन्तव्यमिति । एवं मानादीनि मिथ्यात्वान्तानि पापस्थानकान्यात्मपरप्रति
ष्ठितविशेषणानि सामान्यपदपूर्वकं चतुर्विंशतिदण्डकेनाध्येतव्यानि, अत एवाह-एवं जाव मिच्छादसणसल्लेत्ति, &ाएतेषां च मानादीनां स्वविकल्पजातपरजनितत्वाभ्यां स्वात्मवर्तिपरात्मवर्तिभ्यां वा स्वपरप्रतिष्ठितत्वमवसेयम् । एवमेते
पापस्थानाधितात्रयोदश दण्डका इति ॥ उक्तविशेषणानि च पापस्थानानि संसारिणामेव भवन्तीति तान् भेदत आह
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [१०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थानाझसूत्रवृत्तिः
प्रत सूत्रांक [१००-१०१] गाथांक ||१-३||
॥९२।।
-'दुविहे'त्यादि कण्ठ्यमिति ॥ ननु संसारिण एव जीवा उतान्येऽपि सन्ति ?, सन्त्येवेति प्राय उभवदर्शनाय त्रयोदश- २ स्थानसूत्रीमाह--'दुविहा सव्वेत्यादिक, कण्ठया चेयं, नवरं सेन्द्रियाः-संसारिणोऽनिन्द्रियाः-अपर्याप्तककेवलिसिद्धाः २ 'एवं काध्ययने एसत्ति, 'एवं' सिद्धादिसूत्रोक्तक्रमेण 'दुविहा सब्बजी'त्यादिलक्षणेन एषा-वक्ष्यमाणा प्रस्तुतसूत्रसद्धगाथा स्पर्श- उद्देशः ४ नीया-अनुसरणीया, एतदनुसारेण त्रयोदशापि सूत्राण्यध्येतव्यानीत्यर्थः, अत एवाह-'जाव ससरीरी चेव अस- क्रोधादेरीरी चेव'त्ति । 'सिद्ध'गाहा, सिद्धाः सेन्द्रियाश्च सेतरा उक्ताः, एवं 'काए'त्ति, कायाः पृथिव्यादयस्तानाश्रित्य सर्वे रात्मस्थजीवाः सविपर्यया घाच्या, एवं सर्वाणि व्याख्येयानि, वाचना चैवं-सकायचेव अकायचेव' 'सकायाः पृथि-18 तादिसिव्यादिषविधकायविशिष्टाः संसारिणः, अकायास्तविलक्षणाः सिद्धाः ३, सयोगाः-संसारिणः अयोगा-अयोगिनः सि- त्वादि द्धाश्च ४, वेदेत्ति सवेदाः-संसारिणः अवेदा:-अनिवृत्तिबादरसम्परायविशेषादयः षट् सिद्धाश्च ५, 'कसाय'त्ति, सकषायाः
सू०१०सूक्ष्मसम्परायान्ताः अकषायाः-उपशान्तमोहादयश्चत्वारः सिद्धाश्च ६, 'लेसा यत्ति सलेण्या-सयोग्यन्ताः संसारिणः अलेश्या:-अयोगिनः सिद्धाश्च ७, 'नाणे'त्ति ज्ञानिनः-सम्यग्दृष्टयोऽज्ञानिनो-मिथ्यादृष्टयः, आह च-"अविसेसिया। मइ च्चिय सम्मद्दिहिस्स सा महन्नाणं । मइअन्नाणं मिच्छादिहिस्स सुयंपि एमेव ॥ १॥" इति, अज्ञानता च मिथ्यादृष्टिबोधस्य सदसतोरविशेषणात्, तथाहि-सन्त्यर्थाः, इह तत्सत्त्वं कथश्चिदिति विशेपिसव्यं भवति, स्वरूपेणेत्यर्थः, मिथ्यादृष्टिस्तु मन्यते-सन्त एवेति, ततश्च पररूपेणापि तेषां सत्त्वप्रसङ्गः, तथा न सन्त्यर्थाः, इह तदसत्त्वं कथञ्चि- M ॥ ९२॥
१ अविशेषिता मतिरेख सम्यग्दृष्टेः सा मविज्ञान मिथ्यादृष्टेमपक्षानं श्रुतम येवमेव ॥१॥
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आगम
(०३)
प्रत सूत्रांक
[१००
-१०१] गाथांक
॥१-३॥
दीप
अनुक्रम
[१०८
-१०९]
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [१०१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
| दिति विशेषिव्यं भवति, पररूपेणेत्यर्थः, स तु न सन्त्येवेति मन्यते, तथा च तत्प्रतिषेधकवचनस्याप्यभावः प्रसजतीति, अथवा शशविषाणादयो न सन्तीत्येतत्कथञ्चिदिति विशेषणीयं यत्तस्ते शशमस्तकादिसमवेततयैव न सन्ति न तु शशश्च विषाणं च शशस्य वा विषाणं शृङ्गिपूर्वभवग्रहणापेक्षया शशविषाणं तद्रूपतयाऽपि (वा) न सन्तीति, तदेवं सदसतोः कथथिदित्येतस्य विशेषणस्थानभ्युपगमात् तस्य ज्ञानमप्ययथार्थत्वेन कुत्सितत्वादज्ञानमेव, आह च - "जह दुब्वयणमवयणं | कुच्छियसीलं असीलमसतीए । भण्णइ तह णाणंपि हु मिच्छद्दिडिस्स अन्नाणं ॥ १ ॥” इति, तथा मिथ्यादृष्टेरध्यव सायो न ज्ञानं भवहेतुत्वात्, मिथ्यात्वादिवत्, तथा यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत्, तथा ज्ञानफलस्य सत्क्रियालक्षणस्याभावात् अन्धस्य स्वहस्तगतदीपप्रकाशवदिति, आह् च - " सदसदविसेसणाओ भवहेउजइच्छिओवलंभाओ । णाणफलाभावाओ मिच्छादिडिस्स अन्नाणं ॥ १ ॥” इति ८, 'उबओगि'त्ति, सागारोवउत्ते चैव अणगारोवउत्ते चैव त्ति सहाकारेण - विशेषांशग्रहणशक्तिलक्षणेन वर्त्तते य उपयोगः स साकारो, ज्ञानोपयोग इत्यर्थः तेनोपयुक्ताः साकारोपयुक्ताः, अनाकारस्तु तद्विलक्षणो दर्शनोपयोग इत्यर्थः, अभिधीयते च "जं सामन्नरगहण भावाणं नेय कट्टु आगारं । अविसेसिण अत्थे दंसणमिति वच्चए समए ॥ १ ॥ "त्ति, तेनोपयुक्ता अनाकारोपयुक्ता इति ९, 'आहारे'त्ति, आहारका
१ यथा दुर्वचनमवचनं कुरिसतं शीलमशीलं असल्याः । भण्पते यथा तथा शनमपि मिभ्यादृष्टेरज्ञानमेव ॥ १॥ २ सदसदविशेषणा द्रवहेतुतो यादृच्छिकोपलंभात् । ज्ञानफलाभावाच मिथ्याज्ञानं ॥१॥ ३ यत्सामान्यग्रहणं पदार्थानां नैयाकारं कृत्वाऽविशिष्यार्थान् दर्शनमित्युच्यते
समये ॥ १ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [१०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
वृत्तिः
प्रत सूत्रांक [१००-१०१] गाथांक ||१-३||
श्रीस्थाना- ओजोलोमकवलभेदभिन्नाहारविशेषग्राहिणः, आह च-"ओयाहारा जीवा सब्वे अपज्जत्तगा मुणेयब्वा । पजत्तगा य २ स्थानअसूत्र
लोमे पक्खेवे होति भइयव्वा ॥ १ ॥ एगिंदिय देवाणं णेरझ्याणं च नत्थि पक्खेवो । सेसाणं जीवाणं संसारत्थाण काध्ययने पक्खेवो ॥२॥" इति, अनाहारकास्तु “विग्गहगइमावण्णा १ केवलिणो समोहया २ अजोगी य३ । सिद्धा य ४ उद्देशः४ अणाहारा सेसा आहारगा जीवा ॥ ३ ॥” इति, १० । 'भास'त्ति भाषकाः-भाषापर्याप्तिपर्याप्ताः अभाषकाः तदप- प्रशस्तानप्तिका अयोगिसिद्धाश्च ११ । 'चरमत्ति चरमा येषां चरमो भवो भविष्यति, अचरमास्तु येषां भव्यत्वे सत्यपि चरमो
| शस्तानि भवो न भविष्यति, न निर्वास्यन्तीत्यर्थः १२। 'ससरीरित्ति सह यथासम्भवं पञ्चविधशरीरेण ये ते इन्समासान्तविधेःमरणानि लासशरीरिणः-संसारिणो अशरीरिणस्तु-शरीरमेषामस्तीति शरीरिणस्तन्निषेधादशरीरिण:-सिद्धाः १३॥ एते च संसारिणःलासू०१०२ सिद्धाश्च मरणामरणधर्मकाः, अप्रशस्तप्रशस्तमरणतश्चैते भवन्तीति प्रशस्ताप्रशस्तमरणनिरूपणाय नवसूत्रीमाह
दो मरणाई समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंधाणं णो णिचं वनियाई णो णिचं कित्तियाई णो णिचं पूइयाई णो णिचं पसत्थाई णो णिचं अन्भणुन्नायाई भवति, तंजहा-बलायमरणे चेव बसट्टमरणे चेव १ एवं णियाणमरणे व तब्भवमरणे व २ गिरिपडणे चेव तरुपडणे चेव ३ जलप्पवेसे चेव जलणप्पवेसे चेव ४ विसभक्षणे घेव सत्थोबाडणे चेव ५ दो मरणाई जाच णो णिचं अन्भणुनायाई भवंति, कारणेण पुण अप्पडिकुट्ठाई तं०-बेहाणसे चेव गिद्धपढे चेव ६
१ ओजआहाराः सर्वे अपर्याप्तका जीवा हातव्याः पर्याप्तकाश्च लोन्नि प्रक्षेपे भवन्दि भक्तव्याः ॥1॥ एकेन्द्रियाणां देवानां नैरयिकाणां च नास्ति प्रक्षेपः४॥९३॥ शेषाण संसारस्थानां जीवानां प्रक्षेपः ॥१॥विग्रहगतिमापत्राः केवलिनः समवहता अयोगिनः सिद्धावानाहाराः शेषा आहारका जीवाः ॥१॥
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[१०२]
दीप
अनुक्रम [११०]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [१०२ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
दो मरणाई समणं भगवया महावीरेणं समणाणं निग्गंथाणं णिचं वन्नियाई जाव अन्भणुन्नाताई भवति, तं० पाओणीहारिमे चैव अनीहारिमे चैव नियम अपडिक ८
नियमं सपदिकमे ९ ( सू० १०२ )
are a reverखाणे चैव ७ पाओवगमणे दुविहे पं० तं० भत्तपञ्चक्खाणे दुविहे पं० सं० णीहारिमे चैव अणीहारिमे चैव 'दो मरणाई' मित्यादि, कण्ठ्या चेयम्, नवरं द्वे मरणे श्रमणेन भगवता महावीरेण श्राम्यन्ति तपस्यन्तीति श्रमणास्तेषां ते च शाक्यादयोऽपि स्युः, यथोक्तम्- “णिग्गंथे १ क २ तावस र गेरुय ४ आजीव ५ पंचहा समणा” इति तद्व्यवच्छेदार्थमाह-निर्गता ग्रन्थाद्- बाह्याभ्यन्तरादिति निर्ग्रन्थाः साधवस्तेषां नो 'नित्यं' सदा 'वर्णिते' तां स्तयोः प्रवर्त्तयितुमुपादेयफलतया नाभिहिते कीर्त्तिते- नामतः संशब्दिते उपादेयधिया 'बुझ्याई'ति व्यक्तवाचा उत्ते उपादेयस्वरूपतः पाठान्तरेण 'पूजिते वा' तत्कारिपूजनतः 'प्रशस्ते' प्रशंसिते श्लाघिते, 'शंसु स्तुता'विति वचनात्, 'अभ्यनुज्ञाते' अनुमते यथा कुरुतेति, 'वलायमरणं'ति वलतां - संयमान्निवर्त्तमानानां परीपहादिबाधितत्वात् मरणं वलन्मरणं, 'समरणं'ति इन्द्रियाणां वशम् - अधीनतामृतानां गतानां स्निग्धदीपकलिकावलोकनाकुलितपतङ्गादीनामिव मरणं वशार्त्तमरणमिति, आह च - " संजमजोगविसन्ना मरंति जे तं वलायमरणं तु । इंदियविसयत्र सगया मरंति जे तं वसई तु ॥ १ ॥” इति एवं 'णियाणे'त्यादि, 'एव'मिति दो मरणाई समणेणमित्याद्यभिलापस्योत्तर१] निर्धन्याः शाक्यास्तापसा गैरिका आजीवकाः पंचधा श्रमणाः ॥ २ संयमयोगविषण्णा त्रियन्ते तन्मरणं तु इन्द्रियविषय वशगता त्रियन्ते ये तद्वशात्तमरणं ॥ १ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [१०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना-
सूत्रवृत्तिः ॥ १४ ॥
सूत्रांक [१०२]
दीप
सूत्रेष्वपि सूचनार्थः, ऋद्धिभोगादिप्रार्थना निदानं तत्पूर्वकं मरणं निदानमरणं, यस्मिन् भवे वर्तते जन्तुस्तद्भवयोग्य- २ स्थानमेवायुर्वद्धा पुनर्वियमाणस्य मरणं तद्भवमरणम् , एतच्च सङ्ख्यातायुष्कनरतिरश्चामेव, तेषामेव हि तद्भवायुर्वन्धो काध्ययने भवतीति, उक्तं च-"मोत्तुं अकम्मभूमगनरतिरिए सुरगणे य रइए । सेसाणं जीवाणं तम्भवमरणं तु केसिंचि ॥" | उद्देशः४ इति, 'सत्थोबाडणे'त्ति शखेण-क्षुरिकादिना अवपाटन-विदारणं स्वशरीरस्य यस्मिंस्तच्छखावपाटनम्, 'कारणे पुणे- प्रशस्ताप्रत्यादि, शीलभङ्गरक्षणादी पाठान्तरे तु कारणेन 'अप्रतिष्ठे अनिवारिते भगवता, वृक्षशाखादावुद्धत्वाद् विहा-18| शस्तानियसि-नभसि भवं चैहायसं प्राकृतत्वेन तु वेहाणसमित्युक्तमिति, गृधः स्पृष्टं-स्पर्शनं यस्मिंस्तद् गृध्रस्पृष्टम्, यदिचा हा
मरणानि गृध्राणां भक्ष्य पृष्ठमुपलक्षणत्वादुदरादि च तद्भक्ष्यकरिकरभादिशरीरानुप्रवेशेन महासत्त्वस्य मुमूर्पोयस्तित् गृपृष्ठ-1 सू०१०२ मिति, गाथाऽत्र-“गद्धादिभक्खणं गद्धपमुबंधणादि वेहासं । एते दोनिवि मरणा कारणजाए अणुमाया ॥१॥"181 इति । अप्रशस्तमरणानन्तरं ताशस्तं भव्याचां भवतीति तदाह-दो मरणाईइत्यादि, पादपो-वृक्षा, तस्येव छिन-1 पतितस्योपगमनम्-अत्यन्तनिश्चेष्टतयाऽवस्थानं यस्मिंस्तसादपोपगमनं भक्त-भोजनं तस्यैव न चेष्टाया अपि पादपो-| पगमन इव प्रत्याख्यानं-वर्जनं यस्मिंस्तगतप्रत्याख्यानमिति, 'णीहारिमं ति यदसतेरेकदेशे विधीयते तत्ततः शरी-18 रस्य निर्हरणात्-निस्सारणानिॉरिमं, यत्पुनर्गिरिकन्दरादौ तदनिर्हरणादनिहारिमं । 'णियमति विभक्तिपरिणामा
अकर्मभूमिकनरतिरो मुक्ला सुरगणारविकांच शेषाणां जीवानां केषांनिदेव तद्भवमरणं ॥ १॥ २ ग्रादिभक्षणं गद्रष्टष्ट उन्धनादि वैहायसं । एते मरणे कारणजाते अनुहाते अपि ॥१॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [१०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१०]
नियमादप्रतिकर्म-शरीरप्रतिक्रियावर्ज पादपोपगमनमिति, भवति चात्र गाथा-"सीहाइसु अभिभूओ पायवगमणं करेइ थिरचित्तो । आउंमि पहुप्पंते वियाणिउं नवरि गीयत्थो ॥१॥" इति, इदमस्य व्याघातवदुच्यते, नियाघातं तु यत्सूत्रार्थनिष्ठितः उत्सर्गतो द्वादश समाः कृतपरिकर्मा सन् काल एव करोतीति, तद्विधिश्चायम्-"चत्तारि विचिताई विगतीनिज्जूहियाई चत्तारि । संवच्छरे य दोन्नि उ एगंतरियं च आयामं ॥ २ ॥णाइविगिठ्ठो य तयो छम्मासे परिमियं च आयाम । अन्नेऽवि य छम्मासे होइ विगिई तवोकम्मं ॥ ३ ॥ वासं कोडीसहियं आयाम काउ आणुपुव्वीए । संघयणादणुरूवं एत्तो अद्धाइ नियमेणं ॥४॥ यतः-देहम्मि असंलिहिए सहसा धाऊहिं खिज्जमाणेहिं । जायइ अट्टल्झाणं सरीरिणो चरमकालम्मि ॥ ५ ॥ किश्व-भावमवि संलिहेइ जिणप्पणीएण झाणजोगेण । भूयत्वभावणाहि य परिवहद घोहिमूलाई ॥ ६ ॥ भावेइ भावियप्पा विसेसओ नवरि तंमि कालम्मि । पयईय निग्गुणतं संसारमहासमुदस्स ॥ ७ ॥ जम्मजरामरणजलो अणाइमं वसणसावयाइण्णो । जीवाण दुक्खहेऊ कई रोद्दो भवसमुद्दो ॥ ८ ॥
सिंहादिनाभिभूतः पादपोषममनं करोति स्थिरचित्तः । आयुषि प्रभवति विज्ञाय पर गीतार्थः ॥१॥ (१) बहुप्पते प्र. १ चत्वारि विचित्राणि विकृतिरहितानि चत्वारि । संवत्सरे च । एकान्तरितं आचामाम्लमेव ॥ २॥ नाति विकष्टं च तपः षण्मासी परिमिते चाचाम्लं । अन्यानपि षण्मासान् भवति विकृष्टं तपःकर्म ॥ ३ ॥ वर्षे कोटिसदितमाचामाम्लं कृत्वानुपूर्यो । संहननाद्यनुरूपमेतत्कालादि नियमेन ॥ ४॥ देहेऽसलिखिते सहसा धातुभिः क्षीयमाणैः । जायते आर्तव्यानं शरीरिणच. रमकाले ॥५॥ भावमपि संलेखयति जिनप्रणीतेन ध्यानयोगेन । भूतार्थभावनानिष परिवर्धते बोधिमूलानि ॥६॥ भावयति भावितारमा विशेषतः परं | तस्मिन् काले । प्रकृया निर्गुणवं संसारमहासमुद्रस्य ॥ ७॥ जन्मजरामरणालोऽनाविमान् व्यसनश्वापदाकीर्गः । जीवानां दुःखहेतुः कष्टो दो भवसमुद्रः ॥ ८॥
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SERICASSESAKAL
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [१०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना-
सूबवृत्तिः
सूत्रांक
[१०२]
॥९५॥
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धन्नोऽहं जेणमए अणोरपारम्मि नवरमेयंमि । भवसयसहस्सदुलह लद्धं सद्धम्मजाणंति ॥ ९ ॥ एयस्स पभावेण स्थानपालिज्जतस्स सइ पयत्तेणं । जम्मतरेऽवि जीचा पावंति न दुक्खदोगचं ॥ १० ॥ चिंतामणी अजब्यो एयमपुग्यो य काध्ययने कप्परुक्खोत्ति । एयं परमो मंतो एवं परमामयं एत्थं ॥ ११ ॥ त्वं वेयावडियं गुरुमाईणं महाणुभावाणं । जेसिउद्देशः४ पभावेणेयं पतं तह पालियं चेव ॥ १२ ॥ तेसिं नमो तेसिं नमो भावेण पुणोवि तेसिं चेव णमो । अणुवकयपरहि
मान अणुवकयपराह- प्रशस्ताप्रयरया जे एवं देति जीवाणं ॥१३॥” इत्यादि, "संलिहिऊणऽप्पाणं एवं पञ्चप्पिणेत्तु फलगाई। गुरुमाइए य सम्म खमा- शस्तानि वि भावसुद्धीए ॥ १४ ॥ उववूहिऊण सेसे पडिबद्धे तम्मि तह विसेसेणं । धम्मे उज्जमियच्वं संजोगा इह विओ-1 | मरणानि गंता ॥ १५ ॥ अह बंदिऊण देवे जहाविहिं सेसए य गुरुमाई । पञ्चक्खाइत्तु तओ तयंतिए सब्वमाहारं ॥ १६ ॥ सम- सू०१०२ |भावमि ठियप्पा सम्म सिद्धंतभणितमग्गेणं । गिरिकंदरंमि गंतुं पायवगमणं अह करेइ ॥ १७ ॥ सवस्थापडिवतो
१ धन्योऽहं येन मयाउनर्वापारे परमेतस्मिन् । भवशतसइसबुर्लभं लब्धं सद्धर्मयानमिति ॥ ९॥ (२) भवसमुद्दम्मि प्र. एतस्य प्रभावेन पाल्यमानस्य सकरप्रयत्नेन । जन्मान्तरेऽपि जीवाः प्राप्नुवन्ति न दुःखदार्गखं ॥१०॥ चिन्तामणिरपूर्वः एषोऽपूर्वच कल्परक्ष इति । एषः परमो मंत्र एतरपरममृतमप्त ॥ ११॥ (१) एस अपुच्चो प्र. गाथावृत्ती. (४) इच्छं गाथावृत्ती. अत्र यावृय गुर्वादीनां महानुभावानां । येषां प्रभावीत प्राप्त तथा पालित चैव ॥ १२॥ तेभ्यो नमस्तेभ्यो नमो भावेन पुनरपि तेभ्यथैव । नमः अनुपकृतपरहितरता ये एनं ददति जीवानां ।। १३ । संलेख यित्वात्मानमेवं प्रत्यय फलकावि गुरुमादिकांच सम्बक्क्षामयित्वा भावशुया ॥ १४ ॥ उपमित्वा शेषान् प्रतिबंधास्तस्मिन् तथा विशेषेण । धमें उद्यतितव्यं संयोगा इह वियोगान्ता ॥९५॥ इति ॥ १५॥ अथ वंदित्वा देवान् यथाविधि शेषांध गुरूंदीच । प्रत्याश्याय ततः तदन्तिके सर्वमाहारं ॥ १९॥ समभावे स्थितारमा सम्पक्सिद्धान्तमनितमार्येण । गिरिवंदरायां गत्वा पादपोपगमनमय करोति ।। १७ ॥ सर्वत्राप्रतिबद्धो
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [१०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१०]
दीप
दंडाययमाइ ठाणमिह ठाउं । जावज्जीव चिहइ णिच्चेहो पायवसमाणो ॥ १८ ॥ पढमिल्लयसंघयणे महाणुभावा करेंति | एवमिणं । पार्य सुहभावधिय णिच्चलपयकारणं परमं ॥ १९ ॥ भत्तपरिन्नाणसणं तिचउचिहाहारचायणिप्फन्नं ।। | सप्पडिकम्मं नियमा जहासमाही विणिद्दिछ । २०॥"ति, इङ्गितमरणं त्विह नोकं, द्विस्थानकानुरोधात्, तल्लक्षणं चेदम्
-"इंगियदेसंमि सयं चउचिहाहारचायनिष्फनं । उच्चत्तणाइजुत्तं नऽण्णेण उ इंगिणीमरणं ॥१॥" इति । इदं च है |मरणादिस्वरूपं भगवता लोके प्ररूपितमिति लोकस्वरूपप्ररूपणाय प्रश्नं कारयन्नाह
के अयं लोगे ?, जीवशेष अजीवघेव, के अर्णता लोए ?, जीवचेव अजीवशेव, के सासया लोगे?, जीवशेष अजीवचेव (सू० १०३)। दुविहा बोधी पं० सं०-णाणवोधी चेव दसणबोधी चेव, दुविहा सुद्धा पं० २०-णाणबुद्धा व दं
सणबुद्धा चेक, एवं मोहे, मूढा (सू० १०४) 'क' इति प्रश्नार्थः, 'अय मिति देशतः प्रत्यक्ष आसन्नश्च यत्र भगवता मरणादि प्रशस्ता प्रशस्तसमस्तवस्तुस्तो-४ मतत्त्वमभ्यधायि, लोक्यत इति लोक इति प्रश्नः, अस्य निर्वचनं-जीवाश्चाजीवाश्चेति, पश्चास्तिकायमयत्वाल्लोकस्य, तेषां च जीवाजीवरूपत्वादिति, उक्तं च-"पंचस्थिकायमइयं लोगमणाइणिहणं जिणक्खाय"ति । लोकस्वरूपभूतानां
१ दंडायतमादि स्थान मिह स्थित्वा । यावनी विधति निवेष्टः पादपसमानः ॥ १८॥ प्रथमसंहनना महानुभावाः कुर्वन्येतदिदं प्रायेण शुभभाया एवं निश्चलपदकारणं परमं ॥ १९ ॥ भक्तपरिक्षानशन त्रिचतुर्विधाहारलागनिष्पन्न । सप्रतिकम्मै नियमात् यथासमाधि विनिर्दिष्टम् ॥ २०॥ इंगित देशे खयं चतुर्वि| पाहारखागनिष्पानं उद्वर्तनादियुकं नान्येन विगितमरणं ॥१॥ २ पंचासिकायमयो लोकोऽनादिनिधनो जिनाययातः ।।
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [१०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१०४]
दीप अनुक्रम [११२]
श्रीस्थाना
दाच जीवाजीवानां स्वरूपं प्रश्नपूर्वकेण सूत्रद्वयेनाह-'के अणते त्यादि, के अनन्ताः लोके? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरं-18||२ स्थानसूत्र- जीवा अजीवाश्चेति, एत एव च शाश्वता द्रव्यातयेति ॥ ये चैतेऽनन्ताः शाश्वताश्च जीवास्ते बोधिमोहलक्षणधर्मयो- काध्ययने वृत्तिः गाढुद्धा मूढाश्च भवन्तीतिदर्शनाय द्विस्थानकानुपातेन सूत्रचतुष्टयमाह-दुविहे'त्यादि, बोधनं घोधिः-जिनधर्मलाभः उद्देशः४
ज्ञानबोधिः-ज्ञानावरणक्षयोपशमसम्भूता ज्ञानप्राप्तिः, दर्शनबोधिः-दर्शनमोहनीयक्षयोपशमादिसम्पन्नः श्रद्धानलाभ लोकाद्या॥ ९६ ॥
इति, एतद्वन्तो द्विविधा बुद्धाः, एते च धर्मत एव भिन्ना न धर्मितया, ज्ञानदर्शनयोरन्योऽम्याविनाभूतत्वादिति, एवं बोध्या|'मोहे मूढ'त्ति, यथा बोधिबुद्धाश्च द्विधोका तथा मोहो मूढाश्च वाच्या इति, तथाहि-'मोहे दुविहे पन्नत्ते सं०-गाणमोहे | द्याश्च चिव दंसणमोहे चेष ज्ञानं मोहयति-आच्छादयतीति ज्ञानमोहो-ज्ञानावरणोदयः, एवं 'दंसणमोहे चेव' सम्यग्दर्शनमो- सू०१०३
होदय इति, दुविहा-मूढा पं०-०-णाणमूढा चेव', 'ज्ञानमूढा' उदितज्ञानावरणाः 'दसणमूढा चेव दर्शनमूढा-मिथ्या- १०४ 8रष्टय इति। द्विविधोऽप्ययं मोहो ज्ञानावरणादिकर्मनिबन्धनमिति सम्बन्धेन ज्ञानावरणादिकर्मणामष्टाभिः सूत्रैविध्यमाह
णाणावरणिजे कम्मे दुविहे पं० त०-देसनाणावरणिजे चेव सव्वणाणावरणिजे चेव, दरिसणावरणिजे कम्मे एवं बोध वेयणिको कम्मे दुविहे पं० ८०-सातावेयणिजे येव असातावेयणिजे चेव, मोहणिजे कम्मे दुविहे पं० त०-सामोहणिजे व चरित्तमोहणिजे चेय, आउए कम्मे दुविहे पं० तं०-अद्धाउए चेष भवाउए चेव, णामे कम्मे दुविद्दे पर अत्ते तं०-मुभणामे चेव असुभणामे देव, गोत्ते कम्मे दुविहे पं० त०-उच्चागोते चेव णीयागोते चेप, अंतराइए की
॥९६॥ दुविहे पं० २०-पडुप्पन्नविणासिए चेव पिहितआगामिपहं (सू० १०५)
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१०५]
दीप
'माणे त्यादि, सुगमानि चैतानि, नवरं ज्ञानमावृणोतीति ज्ञानावरणीयम् , आह च–“सरजग्गयससिनिम्मलयरस्स४ जीवस्स छायणं जमिह । णाणावरणं कम पडोवर्म होइ एवं तु ॥१॥" देश-ज्ञानस्थाऽऽभिनिबोधिकादिमावृणोतीति देशज्ञानावरणीयम् , सर्वं ज्ञानं केवलाख्यमावृणोतीति सर्वज्ञानावरणीयं, केवलावरणं हि आदित्यकल्पस्य केवलज्ञान-12 रूपस्य जीवस्याच्छादकतया सान्द्रमेघवृन्दकल्पमिति तत्सर्वज्ञानावरणं, मत्याद्यावरणं तु धनातिच्छादितादित्वेषप्रभाक-8 ल्पस्य केवलज्ञानदेशस्य कटकुट्यादिरूपावरणतुल्यमिति देशावरणमिति, पठ्यते च-“केवलणाणावरणं १दसण छक च मोहबारसगं । [अनन्तानुबन्ध्यादीत्यर्थः] ता सम्बधाइसन्ना भवंति मिच्छत्तवीसइमं ॥१॥"ति, अथवा देशोपघातिसौंपघातिफडकापेक्षया देशसर्वावरणत्वमस्य, यदाह-"मैतिसुयणाणावरणं दसणमोहं च तदुवघाईणि । तप्फ-1 डुगाई दुविहाई देससब्बोवघाईणि ॥ १ ॥ सब्वेसु सव्वघाइसु हएसु देसोवघाइयाणं च । भागेहिं मुच्चमाणो समए । समए अणंतेहिं ॥२॥ पढम लहइ नगारं एकेक बन्नमेवमन्नपि । कमसो विसुज्झमाणो लहइ समत्तं नमोकारं ॥३॥" इति, तथा दर्शन-सामान्यार्थबोधरूपमावृणोतीति दर्शनावरणीयं, उक्तं च "दसणसीले जीवे दसणघायं करेइ जं|
शरगतशशिनिर्भलतरस्य जीवस्यापछादनं यदिह । ज्ञानावरणं कर्म पटोपनं भवत्येवमेव ॥ १॥२ केवलज्ञानापरणं दर्शनषठं च मोहद्वादशक । ताः सर्वपातिसंहाः भवंति मिथ्यात्वं विधातिसमं ॥१॥ ३ मतिश्रुतज्ञानावरण दर्शनमोहच तदुपधातीनि । तत्रूपकानि विविधानि देशसर्वोपघातीनि ॥१॥ सर्वेषु सर्वचातिपुरतेषु देशोपचातिनां च । भागमुव्यमानः समये समयेऽनन्तैः ॥ १॥ प्रथमं लभते नकार एकै वर्णमेवमन्यमपि । कमशो विशुज्यमानो समते संपूर्ण । नमस्कार ॥१॥ ४ दर्शनशीले जीवे दर्शनधासं करोति
अनुक्रम [११३]
स्था०१७
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
२ स्थानकाध्ययने उद्देशः४ सू०१०५
सूत्रांक
[१०५]
दीप
श्रीस्थाना- कम्मं । तं पडिहारसमाणं दसणवरणं भवे जीवे ॥ १ ॥” इति, 'एवं चेव'त्ति देशदर्शनावरणीयं चक्षुरचक्षुरवधिदर्श- सूत्र- नावरणीयम्, सर्वदर्शनावरणीयं तु निद्रापश्चकं केवलदर्शनावरणीयं चेत्यर्थः, भावना तु पूर्ववदिति, तथा वेद्यते-अनु-
भूयत इति वेदनीयं, सात-सुखं तद्रूपतया वेद्यते यत्तत्तथा, दीर्घत्वं प्राकृतत्वात्, इतरत्-एतद्विपरीतम् , आह च ॥९७॥
-"महेलित्तनिसियकरवालधार जीहाएँ जारिस लिहणं । तारिसयं वेयणियं सुहदुहउप्पायर्ग मुणह ॥१॥" इति, मोह- यतीति मोहनीयं, तथाहि-"जहै मज्जपाणमूढो लोए पुरिसो परव्वसो होइ । तह मोहेणवि मूढो जीबो उ परव्वसो होइ ॥१॥" इति, दर्शनं मोहयतीति दर्शनमोहनीयं-मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वभेदं, चारित्र-सामायिकादि मोहयति यत्कपाय १६ नोकषाय ९ भेदं तत्तथा, एति च याति चेत्यायुः एतद्रूपं च "र्दुक्खं न देइ आउँ नविय सुहं देइ चउसुवि गईसुं । दुक्खसुहाणाहारं धरेइ देहडियं जीयं ॥ १ ॥” इति । अद्धायु:-कायस्थितिरूपं, भावना तु प्राग्वत्, भवायुर्भ- वस्थितिरिति, विचित्रपर्यायैनमयति-परिणमयति यजीव तन्नाम, एतत्स्वरूपं च 'जैह चित्तयरो निजणो अणेगरूवाई कुणइ रुवाई । सोहणमसोहणाई चोक्खमचोक्खेहिं वण्णेहिं ॥१॥ तह नामंपिहु कर्म अणेगरूवाई कुणइ जीवस्स ।।
१ यत्कम्म । तत्प्रतीहारसमानं दर्शनावरणं भवेनीचे ॥१॥२ मधुलिप्तनिशितकरवालधाराया जिया यादर्श लिइन । तादृशं वेदनीयं सुखदुःखोत्पादक। जानीत ॥१॥ ३ यथा मद्यपानमूढो लोके पुरुषः परवशो भवति । तथा मोहेनापि मूढो जीवन परवशो भवति ॥1॥ ४ दुःख न ददायुः नापि च मुखं
ददाति चतसष्यपि गतिषु । दुःखसुखयोराधारं धारयति देहस्थितं जीवं ॥१॥ ५ यथा चित्रकारो निपुणोऽनेकरूपाणि करोति रूपाणि । शोभनान्यचोभनानि लचोक्षायचोक्षाणि वर्णैः ॥१॥ तथा नामाप्येव कर्मानेकानि रूपानि करोति जीवस्य ।
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक [१०५ ]
दीप
अनुक्रम
[११]
[भाग - 5] "स्थान" अंगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [१०१]
स्थान [२], उद्देशक [४]. पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
- -
सोहणमसोहणाई इडाणिद्वाई लोयस्स ॥ ३ ॥ इति, शुभं तीर्थंकरादि अशुभम् - अनादेयत्वादीति, पूज्योऽयमित्यादि| व्यपदेशरूपां गां वाचं त्रायत इति गोत्रं स्वरूपं चास्येदम्-- "जहें कुंभारो भंडाई कुणई पुजेयराई लोयस्स । इय गोयं कुणइ जियं लोए पुज्जेयरावस्थं ॥ १ ॥” इति, उच्चैर्गोत्रं पूज्यत्वनिबन्धनमितरत्तद्विपरीतं, जीवं चार्थसाधनं चान्तरा एति - पततीत्यन्तरायम् इदं चैवं – “जह राया दाणाई ण कुणई भंडारिए विकूलंमि । एवं जेणं जीवो कम्मं तं अंतरायंति ॥ १॥" 'पपन्नविणासिए चेव त्ति प्रत्युत्पन्नं वर्त्तमानलब्धं वस्त्वित्यर्थी विनाशितम् उपहतं येन तत्तथा, पाठान्तरेण प्रत्युत्पन्नं विनाशयतीत्येवंशीलं प्रत्युत्सन्न विनाशि चैवः समुच्चये, इत्येकम्, अन्यञ्च पिधत्ते च-निरुणद्धि च आगामिनो- लब्धव्यस्य वस्तुनः पन्था आगामिपथस्तमिति क्वचिदागामिपथानिति दृश्यते, कचिच्च आगमपहंति, तत्र च लाभमार्गमित्यर्थः । इदं चाष्टविधं कर्म मूर्च्छाजन्यमिति मूर्च्छास्वरूपमाह
दुविहा मुच्छा पं० [सं० पेज्जवत्तिता चैव दोसवत्तिता चेव, पेजवचिया मुच्छा दुविहा पं० सं०माए चैव लोने चेव दोसवत्तिया मुच्छा दुविहा पं० तं० – कोहे चेत्र माणे चेव (सू० १०६) दुविहा आराहणा पं० तं धम्मि ताराहणा चेव केवलिआराहणा चेव, धम्मियाराहणा दुविहा पं० तं० सुगधम्माराहणा चैव वरित्तधम्माराहणा चेव, केवलिराद्दणा दुविधा पं० तं० अंतकिरिया चैव कष्पविमाणोववत्तिआ चैत्र ( सू० १०७) दो तित्थगरा नी
"
१ शोभनाम्यशोभनानीष्टान्यनिष्ठानि लोके ॥ १ ॥ २ यथा कुम्भकारो भांडानि करोति पूज्येतराणि लोकस्य एवं गोत्रं करोति जीवं लोके पूज्येतरावस्थं ३ यथा राजा दानादि न करोति भांडागारिके विकूले। एवं येन जीवः कर्म तदन्तरायमिति ॥ १ ॥
॥ १ ॥
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आगम
(०३)
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सूत्रांक
[१०८]
दीप
अनुक्रम
[११६]
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [१०८ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३ ]
श्रीस्थानानसूत्र
वृत्तिः
॥ ९८ ॥
लुप्पलसमा वनेणं पं० [सं० गुणिसुब्बए चैव अरिट्ठनेमी चेन, दो तित्थवरा पियंगुसामा बत्रेणं पं० [सं० मही चेक पासे चेन दो सित्ययरा पउमगोरा वजेणं पं० [सं० पटमप्प चैव वासुपूज्ने चेष, दो तित्थगरा चंदगोरा वनेणं पं० नं० - चंदप्पमे चैव पुष्पदंते चेव ( सू० १०८ ) 'बिहे' त्यादि सूत्रत्रयं कण्ठ्यं, नवरं मूर्च्छा-मोहः सदसद्विवेकनाशः प्रेम-रागो वृत्तिः वर्त्तनं रूपं प्रत्ययो वा हेतुर्यस्याः सा प्रेमवृत्तिका प्रेमप्रत्यया का, एवं द्वेषवृत्तिका द्वेषप्रत्यया बेति ॥ मूर्च्छापातकर्मणश्च क्षय आराधनयेति तां सूत्रत्रयेणाह -- 'दुविहे 'त्यादि, सूत्रत्रयं कण्ठ्यम्, नवरं आराधनमाराधना - ज्ञानादिवस्तुनोऽनुकूलवर्तित्वं निरतिचारज्ञानाद्यासेवेतियावत् धर्मेण श्रुतचारित्ररूपेण चरन्तीति धार्मिकाः- साधवस्तेषामियं धार्मिकी सा चासावाराधना धार्मिकाराधना, केवलिनां श्रुतावधिमनःपर्यायकेवलज्ञानिनामियं केवलिकी सा चासावाराधना चेति केवढिकाराधनेति । 'सुपधम्मे' त्यादौ विषयभेदेनाराधनाभेद उक्तः, 'केवलि आराहणे'त्यादी तु फलभेदेनेति, तत्र अन्तो भवान्तस्तस्य क्रिया अन्तक्रिया, भवच्छेद इत्यर्थः, तद्धेतुर्याऽऽराधना शैलेशीरूपा साऽन्तक्रियेति, उपचारात् एषा च | क्षायिकज्ञाने केवलिनामेव भवति । तथा 'कल्पेषु' देवलोकेषु, न तु ज्योतिश्चारे, विमानानि देवावासविशेषाः अथवा कल्पाश्च-सौधर्मादयो विमानानि च तदुपरिवर्त्तित्रैवेयकादीनि कल्पविमानानि तेषूपपत्तिः- उपपातो जन्म यस्याः सकाशात् सा कल्पविमानोपपत्तिका ज्ञानाद्याराधना, एषा च श्रुतकेवल्यादीनां भवतीति, एवंफला चेयमनन्तरफलद्वारेणोछा परम्परया तु भवान्तक्रियाऽनुपातिन्येवेति । ज्ञानाद्याराधनाऽनन्तरमुक्ता, तत्फलभूताश्च तीर्थकरास्तैर्वा सा
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"स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
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२ स्थान
काध्ययने उद्देशः ४ सू० १०८
॥ ९८ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [१०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०९]
सम्यक्कृता देशिसा वेति तीर्थकरान् द्विस्थानकानुपातेनाह–'दो तित्थयरे'त्यादि सूत्रचतुष्टयं कण्ठ्यम् , नवरं पद्मरकोत्पलं तद्वद् गौरी पनगौरी, रकावित्यर्थः, तथा चन्द्रगौरी चन्द्रशुक्लावित्यर्थः, गाथाऽत्र---"पउमाभवासुपुजा रत्ता ससिपुष्पदंत ससिगोरा । सुन्वयनेमी काला पासो मल्ली पियंगाभा ॥१॥” इति । तीर्थकरस्वरूपमनन्तरमुक्तम्, तीर्थकर्तृत्वाच तीर्थकरा, तीर्थ च प्रवचनमतः प्रवचनैकदेशस्य पूर्व विशेषस्य द्विस्थानकावतारायाह
सञ्चप्पवाथपुष्परसण दुवे वस्थू पं०, (सू० १०९) पुष्वाभवयाणक्खत्ते दुतारे पन्नते, उत्तरभरपयाणक्सत्ते दुतारे पण्णते, एवं पुल्वफग्गुणी उत्तराफागुणी (सू० ११०) अंतो ण मणुस्सखेत्तस्स यो समुद्दा पं० २०-लपणे घेब कालोदे चेष (सू० १११) दो चकवट्टी अपरिचत्तकामभोगा कालमासे कालं किया अहेसत्तमाए पुढवीए अपतिद्वाणे णरण
नेरइत्तत्ताए उववन्ना तं०-सुभूमे व बंभदत्ते चेव (सू० ११२) 'सबप्पवाय'त्यादि, सन्नचो-जीवेभ्यो हितः सत्यः-संयमः सत्यवचनं वा स यत्र सभेदः सप्रतिपक्षश्च प्रकर्षणो-11 द्यते-अभिधीयते तत्सत्यप्रवादं तच्च तत्पूर्वं च सकलश्रुतात्पूर्व क्रियमाणत्वादिति सत्यप्रवादपूर्व, तच्च षष्ठं, तत्परिमाणं च एका पदकोटी षट्पदाधिका, तस्य द्वे वस्तुनी, वस्तु च-तविभागविशेषोऽध्ययनादिवदिति । अनन्तरं षष्ठ| पूर्वस्वरूपमुक्तमधुना पूर्वशब्दसाम्यात् पूर्वभाद्रपदनक्षत्रस्वरूपमाह-पुन्वे'त्यादि कण्ठ्यम् । नक्षत्रप्रस्तावान्नक्षत्रान्तर
१ पाप्रभवापूची रजी चालविधी शशिगौरौ । सुनतनेमी कृष्णी पावमाणी प्रियंग्लामी ॥१॥
दीप अनुक्रम [११७]
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [११२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११२]
दीप अनुक्रम [१२०]
श्रीस्थाना-M स्वरूपं सूत्रत्रयेणाह–'उत्तरेत्यादि कण्ठ्यम् । नक्षत्रवन्तश्च द्वीपाः समुद्राश्चेति समुद्रद्विस्थानकमाह-'अंतो 'मि-18 असूत्र- त्यादि, अन्त:-मध्ये 'मनुष्यक्षेत्रस्य' मनुष्योत्पत्त्यादिविशिष्टाकाशखण्डस्य पञ्चचत्वारिंशद्योजनलक्षप्रमाणस्य, शेष
काध्ययने वृत्तिः कण्ठ्यमिति । मनुष्यक्षेत्रप्रस्तावादरतक्षेत्रोत्पन्नोत्तमपुरुषाणां नरकगामितया द्विस्थानकावतारमाह-दो चक्कवही त्यादि,
उद्देशः४ द्वौ चक्रेण-रत्नभूतपहरणविशेषेण वर्तितुं शीलं ययोस्ती चक्रवर्तिनी, 'कामभोग'त्ति कामौ च-शब्दरूपे भोगाश्च
|सू०११३गन्धरसस्पर्शाः कामभोगाः, अथवा काम्यन्त इति कामा मनोज्ञा इत्यर्थः ते च ते भुज्यन्त इति भोगाश्च-शब्दादय इति कामभोगा न परित्यक्तास्ते यकाभ्यां तौ तथा 'कालमासे'त्ति कालस्य-मरणस्य मासः उपलक्षणं चैतसक्षाहोरात्रादेस्ततश्च कालमासे, मरणावसर इति भावः, 'कालं मरणं कृत्वा अधःसप्तम्यां पृथिव्यां, तमस्तमायामित्यर्थः अधोग्रहणं विना सप्तमी उपरिष्टाच्चिन्त्यमाना रत्नप्रभाऽपि स्यादित्यधोग्रहणं, अप्रतिष्ठाने नरके पञ्चानां मध्यमे नैरयिकत्वे
नोत्पन्नौ, सुभूमोऽष्टमो ब्रह्मदत्तश्च द्वादशः, तत्र च तयोस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितिरिति । नारकाणां चासल्येय-12 *कालाऽपि स्थितिर्भवतीति भवनपत्यादीनामपि तां दर्शयन् पञ्चसूत्रीमाह
असुरिंदवजियाणं भवणवासीणं देवाणं देसूणाई दो पलिओवमाई ठिती पन्नत्ता, सोहम्मे कप्पे देवाणं उकोसेणं दो सागरोबमाई ठिती पन्नता, ईसाणे कप्पे देवाणं उकोसेणं सातिरेगाई दो सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता, सणंकुमारे कप्पे देवाणं जहन्नेणं दो सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता, माहिदे कप्पे देवाणं जहन्नेणं साइरेगाई दो सागरोवमाई ठिती पन्नचा । (सू० ११३) दोसु कप्पेसु कप्पत्थियाओ पन्नत्ताओ, तं०-सोहम्मे चेव ईसाणे चेव । (सू०११४) दोसु कप्पेसु देवा तेउ
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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सूत्रांक
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लेस्सा पन्नत्ता, तं०-सोहम्मे चेव ईसाणे चेव (सू० ११५) दोसु कप्पेसु देवा कायपरियारगा पं० त०-सोहम्मे चेव ईसाणे चेव, दोसु कप्पेसु देवा फासपरियारगा पं० सं०-सणकुमारे चेव माहिदे चेव, दोसु कप्पेसु देवा रूवपरियारगा पं० सं०-भलोगे व लंतगे घेव, दोसु कप्पेसु देवा सहपरियारगा पं० २०-महामुके घेव सहस्सारे चेक, दो इंदा मणपरियारगा पं० तं०-पाणए चेव अशुए चेव (सू० ११६) जीवा णं दुद्वाणणिव्यत्तिए पोग्गले पावकम्मताए चिणिसु वा चिर्णति वा चिणिस्सति वा, ०–तसकायनिव्वत्तिए चेव थावरकायनिव्वत्तिए चेव, एवं वचिणिंसु वा उबचिणति वा उवचिणिस्संति वा, वर्षिसु वा बंधति वा बंधिस्संति वा, उदीरिंसु वा उदीरेंति वा उदीरिस्संति वा, बेसु वा वेदेति वा वेदिस्संति वा, गिजारिंसु वा णिजरिति वा णिजरिस्संति वा (सू० ११७) दुपएसिता खंधा अशंता पन्नत्ता दुपदेसोगाढा पोग्गला अणंता पन्नत्ता एवं जाव दुगुणलुक्खा पोग्गला अर्णता पन्नत्ता (सू० ११८) उहे ।।
शकः ४॥ दुहाणं समत्तं ।। 'असुरे'त्यादि, असुरेन्द्री-चमरवली तद्वर्जितानां [तत्सामानिकवर्जितानां च, सूत्रे इन्द्रग्रहणेन सामानिकानामपि ग्रहणाद् , अन्यथा सामानिकत्वमेव तेषां न स्यादिति, शेषाणां त्रायस्त्रिंशादीनामसुराणां तदन्येषां चे] भवनवासिना | देवानामुत्कषतो दे पल्योपमे किश्चिदूने स्थितिः प्रज्ञप्ता, उक्तच-"चमर १ बलि २ सार ३ महियं ४ सेसाण सुराण
१चमरवली तर्जितानामन्येषा भवनवासिनां देवानां अनुरेन्वनर्णनात् नागकुमारादीन्द्राणामित्यर्थः उत्कर्षलो वे प्र. भवनेषु दक्षिणार्धापतीनामिसादिवचनात सम्बगेषोऽपि पाठा, २ समाने विभवायुषि भवा सामानिका इत्युक्तेष्टीपितमेतत् चमरचलिनोः सागरमधिक व शेषाणां सुराणां
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दीप अनुक्रम [१२१-१२६]
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक [११३
-११८]
दीप अनुक्रम [१२१
-१२६]
[भाग-5] "स्थान" अंगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः)
उद्देशक [४].
मूलं [११८]
स्थान [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थाना#सूत्रवृत्तिः
॥ १०० ॥
आह
आउयं वोच्छं । दाहिणदिवपलियं दो देखूणुत्तरिहाणं ॥ १ ॥”ति, उत्कर्षत एवैतत् जघन्यतस्तु दशवर्षसहस्राणीति, च--"दर्स भवणवणयराणं वाससहस्सा ठिई जहन्नेणं । पलिओवममुकोसं अंतरियाणं वियाणिज्जा ॥ १ ॥” इति शेषं सुगमम्, नवरं सौधर्मादिष्वियं स्थितिः- “दो १ सौहि २ सच ३ साही ४ दस ५ चोदस ६ सत्तरे व ७ अयराई। सोहम्मा जासुको तदुवरि एकेकमारोवे ॥ २ ॥” इति इयमुत्कृष्टा, जघन्या तु "पॅलियं १ अहियं २ दो सार ३ साहिया ४ सत्त ५ दस य ६ चोद्दस य ७ । सत्तरस सहस्सारे ८ तदुवरि एकेकमारोवे ॥ ३ ॥” इति । देवलोकप्रस्तावात् ख्यादिद्वारेण देवलोकद्विस्थान कावतारं सप्तसूत्र्याऽऽह - 'दोस्रु' इत्यादि, कल्पयोः - देवलोकयोः खियः कल्पस्त्रियो- देव्यः, परतो न सन्ति शेषं कण्ठ्यमिति १, नवरं 'तेउलेस'त्ति तेजोरूपा लेश्या येषां ते तेजोलेश्याः, ते च सौधर्मेशानयोरेव न परतः, तयोस्तेजोलेश्या एव, नेतरे, आह च---' --" किन्हौ नीला काऊ तेऊलेसा य भवणवंतरिया । जोइस सोहम्मीसाण तेऊलेसा मुणेयव्वा ॥ १ ॥” इति, 'कायपरियारग'त्ति परिचरन्ति सेवन्ते स्त्रियमिति परिचारकाः कायतः परिचारकाः कायपरिचारकाः, एवमुत्तरत्रापि, नवरं स्पर्शादिपरिचारकाः स्पर्शादेरेवोपशान्तवेदोपतापा भव
-
१ आयुः वक्ष्ये दाक्षिणात्यानां सार्वपत्यं देशोने द्वे उत्तराणां ॥ १ ॥ २ भवनव्यन्तरयोदश वर्षसहस्राणि जघन्येन स्थितिः पत्योपममुत्कृष्टं व्यन्तराणां विजानीयात् ॥ १ ॥ २ द्वे साधिके सप्त साधिकानि यश चतुर्दश सप्तदश सागरोपमाणि सौधर्मायावच्छुकः तदुपर्येकैकमारोपयेत् ॥ १ ॥ ४ पश्यं अधिकं द्वे साधिके सागरे सप्त दश च चतुर्दश च सप्तदश सहस्रारे तदुपके कमारोपयेत् ॥ १ ॥ ५ कृष्णनीलकापोतते जोश्याच मवनव्यन्तराः । ज्योतिषखोधर्मेशानेषु तेजोलेश्या ज्ञातव्याः ॥ १ ॥
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देवानाम् परिचार- विषयक चर्चा:
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२ स्थानकाध्ययने उद्देशः ४ सू० ११८
॥ १०० ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [११८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११३
-११८]
न्तीत्यभिप्रायः, आनतादिषु चतुर्यु कल्पेषु मनःपरिचारका देवा भवन्तीति वक्तव्ये द्विस्थानकानुरोधाद् 'दो इंदा' इत्युक्त, आनतादिषु हि द्वाविन्द्राविति, गाथाऽत्र-"दो कायप्पवियारा कप्पा फरिसेण दोनि दो रूवे । सद्दे दो चउर मणे उवरिं परियारणा नत्थि ॥१॥" इयं च परिचारणा कर्मतः, कर्म च जीवाः स्वहेतुभिः कालत्रयेऽपि चिताद्यवस्थं कुर्वन्तीत्याह-'जीवाण'मित्यादि, सूत्राणि षट् सुगमानि, नवर, जीवा-जन्तवो, णं वाक्यालङ्कारे, द्वयोः स्थानयोः-आश्रययोस्त्रसस्थावरकायलक्षणयोः समाहारो बिस्थानम्, तत्र मिथ्यात्वादिभिर्ये निवर्तिताः-सामान्येनोपार्जिताः वक्ष्यमाणावस्थाषटुयोग्यीकृताः द्वयोर्वा स्थानयोः निवृत्तिर्येषां ते द्विस्थाननिवृत्तिकास्तान् पुद्गलान् कार्मणान् पापकर्म-धातिकर्म | सर्वमेव वा ज्ञानावरणादि तद्भावस्तत्ता तया पापकर्मतया तद्रूपतयेत्यर्थः, चितवन्तो वा अतीतकाले चिन्वन्ति वा | सम्प्रति चेष्यन्ति वा अनागतकाले केचिदिति गम्बते, चयनं च कषायादिपरिणतस्य कर्मपुद्गलोपादानमात्र, उपचयनं तु चितस्थाबाधाकालं मुक्त्वा ज्ञानावरणीयादितया निषेका, स चैवं-प्रथमस्थिती बहुतरं कर्मदलिक निषिञ्चति ततो द्वितीयायां विशेषहीनमेवं "जाबुकोसियाए विसेसहीणं णिसिंचई" इति, बन्धनं तु तस्यैव ज्ञानावरणादितया निषिक्तस्य पुनरपि कषायपरिणतिविशेषानिकाचनमिति, उदीरणं त्खनुदयप्राप्तस्य करणेनाकृष्योदये क्षेपणमिति, वेदनम्-अनुभवः, निर्जरा-कर्मणोऽकर्मताभवनमिति । कर्म च पुद्गलात्मकमिति पुद्गलान् द्रव्यक्षेत्रकालभावर्द्विस्थानकावतारेण निरूपयन्नाह -'दुपएसी'त्यादि सूत्राणि त्रयोविंशतिः, सुगमा चेयं, नवरं यावत्करणात् 'दुसमयहिदए'त्यादि सूत्राण्येकविंशतिर्वा
ही कायप्रविचारी कल्पौ स्पर्शन द्वौ द्वौ रूपेण । द्वौ शब्देन चत्वारो मनसोपरि परिचारणा नास्ति ॥ १॥
दीप
अनुक्रम
[१२१
-१२६]
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देवानाम् परिचार-विषयक चर्चा:
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [४], मूलं [११८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीस्थानालसूत्रवृत्तिः ॥१०॥
545615
च्यानि, कालं पञ्चद्विपश्चाष्टभेदान् वर्णगन्धरसस्पर्शीश्चाश्रित्येति, वाचना चैवं-'दुसमयडिईया पोग्गले'त्यादि ॥ द्विस्था-A२ स्थाननकस्य चतुर्थ उद्देशकः समाप्तः । तत्समाप्तौ च श्रीमदभयदेवसूरिविरचिते स्थानाख्यतृतीयाङ्गविवरणे द्वितीयमध्ययन काध्ययने द्विस्थानकाभिधानं समाप्तमिति ॥
उद्देशः४ सू० ११८
[११३
ऊ545
-११८]
ACCAR
दीप
।
इति श्रीस्थानाङ्गाख्ये तृतीयेऽङ्गे द्विस्थानकाख्यं द्वितीयमध्ययनं समाप्त ।
अनुक्रम
सह
[१२१
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-१२६]
॥१.१
॥
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अत्र 'द्वितीयं स्थानं' परिसमाप्तं
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[११९]
दीप
अनुक्रम [१२७]
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [११९]
पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
द्विस्थानकानन्तरं त्रिस्थानकमेव भवति सङ्ख्याक्रमप्रामाण्यादित्यनेन सम्बन्धेनायातस्य चतुरनुयोगद्वारस्य चतुरुद्देशकस्यास्य तत्रापि द्वितीयाध्ययनान्त्योद्देशके जीवादिपर्याया उक्ता अस्याप्यध्ययनस्य प्रथमोद्देशके त एवाभिधीयन्त इत्ये| वंसम्बन्धस्यैतत्प्रथमोद्देशकस्य तत्राप्यनन्तरोदेशकान्त्यसूत्रे पुद्गलधर्मा उक्ता एतत्प्रथमसूत्रे तु जीवधर्मा उच्यन्त इत्येवंसम्बन्धस्यैतदादिसूत्रस्य -
तओ इंदा पण्णत्ता सं०—णामिंदे ठवर्णिदे दुब्बिंदे, तओ इंदा पं० तं० णाणिदे दंसगिंदे चरित्तिदे, तओ इंदा पं० तं० देविंदे असुरिंदे मणुसिदे ( सू० ११९ )
'तओ इंदे' त्यादेर्व्याख्या, सा च सुकरैव, नवरमिन्दनाद्-ऐश्वर्याद् इन्द्रः नाम -संज्ञा तदेव यथार्थमिन्द्रेत्यक्षरात्मकमिन्द्रो नामेन्द्रः, अथवा सचेतनस्याचेतनस्य वा यस्येन्द्र इत्ययथार्थे नाम क्रियते स नामनामवतोरभेदोपचारान्नाम चासाविन्द्रश्चेति नामेन्द्रः, अथवा नानैवेन्द्र इन्द्रार्थशून्यत्वान्नामेन्द्र इति, नामलक्षणं पुनरिदम्- “यद्वस्तुनोऽभिधानं स्थितमन्यार्थे तदर्थनिरपेक्षम् । पर्यायानभिधेयञ्च नाम यादृच्छिकं च तथा ॥ १ ॥” इति, अयमर्थ:--यद्वस्त्वित्यादिना यथार्थमिन्द्र इत्यायुक्तं स्थितमित्यादिना त्वयथार्थं गोपालादाविन्द्रेत्यादि, यादृच्छिकमनर्थकं डित्थादीति ३, अथवा यदिन्दनाद्यर्थनिरपेक्षं गोपालादिवस्तुन इन्द्र इत्यादिकमभिधानं यथार्थतया शक्रादावन्यत्रार्थे स्थितं तचामेति, इन्द्रादिव| स्तुनो वा अभिधानमिन्दनाद्यर्थनिरपेक्षं सद् गोपालादावन्यत्रार्थे स्थितं नामेति । तथा इन्द्राद्यभिप्रायेण स्थाप्यत इति स्थापना - लेप्यादिकर्म सैवेन्द्रः स्थापनेन्द्रः, इन्द्रप्रतिमा साकारस्थापनेन्द्रः अक्षादिन्यासस्त्वितर इति, स्थापनालक्ष
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अत्र 'तृतीयं स्थानं' आरभ्यते, इंद्र शब्दस्य व्याख्या एवं निक्षेपाः
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [११९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
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[११९]
श्रीस्थाना- णमिदम्-"यत्तु तदर्थवियुक्तं तदभिप्रायेण यच्च तत्करणिः । लेप्यादिकर्म तत् स्थापनेति क्रियतेऽल्पकालच ॥१॥"|३ स्थान
सूत्र- इति, तथा, "लेप्पगहत्थी हस्थित्ति एस सन्भाविया भवे ठवणा । होइ असम्भावे पुण हस्थित्ति निरागिई अक्खो ॥१॥" काध्ययने वृत्तिः इति, तथा द्रवति-गच्छति तांस्तान् पर्यायान् द्रूयते वा तैस्तैः पर्यायोर्वा-सत्ताया अवयवो विकारो वा वर्णादिगु-18 उद्देशः१
णानां वा दावा-समूह इति द्रव्यं, तच्च भूतभावं भाविभावं चेति, आह च-"देवए १ दुयए २ दोरवयवो विगारो ३ सू०११९ ॥१०२॥
गुणाण संदावो ४। दव्वं भवं भावस्स भूयभावं च ज जोगं ॥१॥" ति, इति । तथा “भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि | कारणं तु यल्लोके । तद् द्रव्यं तत्त्वज्ञैः सचेतनाचेतनं गदितम् ॥१॥" तथा 'अनुपयोगो द्रव्यमप्रधानं चेति, तत्र द्रव्यं चासाविन्द्रश्चेति द्रव्येन्द्रः, स च द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्र आगमतः-खल्वागममधिकृत्य ज्ञानापेक्षयेत्यर्थः, नोआगमतस्तु तद्विपर्ययमाश्रित्य, तत्रागमत इन्द्रशब्दाध्येताऽनुपयुक्तो द्रव्येन्द्रः 'अनुपयोगो द्रव्य मिति वचनात्, अयमेवार्थो मङ्गलमाश्रित्य भाष्य उक्तः, तथाहि-"आगमओऽणुवउत्तो मंगलसदाणुवासिओ वत्ता । तन्नाणलद्भिजुत्तोवि णोवउत्तोत्ति तो दवं ॥१॥” इति, तथा नोआगमतस्खिविधो द्रव्येन्द्रः, तद्यथा-ज्ञशरीरद्रव्येन्द्रो भव्यशरीरद्रव्येन्द्रो ज्ञशरीरभव्यशरीरन्यतिरिक्तद्रव्येन्द्रश्चेति, तत्र ज्ञस्य शरीरं ज्ञशरीरं ज्ञशरीरमेव द्रव्येन्द्रः ज्ञशरीरद्रव्येन्द्रः,
लेप्यहस्ती हस्तीति एषा सद्भाविका स्थापना भवेत् । भवत्यसद्भावे पुनईस्तीति निराकृतिरक्षः ॥ १॥ २ अति दूपते वा दोः (सत्तायाः) अवयबो विकारो ४ वा गुणानां संद्रावो (भाजन) ताबं भव्यभावस्य भूतभावस्य च यद् योग्यमिति ॥ १॥ ३ आगमतोऽनुपयुत्तो मंगलशब्दानुवासित (आत्मा) वका । तज्ज्ञानल
भियुक्तोऽप्यनुपयुक्त इति ततो द्रव्यं ॥ १॥
G401
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अनुक्रम [१२७]
इंद्र शब्दस्य व्याख्या एवं निक्षेपा:
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[११९]
दीप
अनुक्रम
[१२७]
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [११९]
पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
*6*5646
एतदुक्तं भवति - इन्द्रपदार्थज्ञस्य यच्छरीरमात्मरहितं तदतीतकालानुभूततद्भावानुवृत्त्या सिद्धशिलातलादिगतमपि घृतघटादिन्यायेन नोआगमतो द्रव्येन्द्र इति, इन्द्रकारणत्वात् इन्द्रज्ञानशून्यत्वाच्च तस्य, इह सर्वनिषेध एव नोशब्दः, तथा भन्यो-योग्य इन्द्रशब्दार्थं ज्ञास्यति यो न तावद्विजानाति स भव्य इति तस्य शरीरं भव्यशरीरं तदेव द्रव्येन्द्रो भव्यशरीरद्रव्येन्द्रः, अयमन्त्र भावार्थो भाविनीं वृत्तिमङ्गीकृत्य इन्द्रोपयोगाधारत्वात् मधुघटादिन्यायेनैव तद्वालादिशरीरं भव्यशरीरद्रव्येन्द्र इति, नोशब्दः पूर्ववत् उक्तञ्च मङ्गलमधिकृत्य – “मंगलपयत्थ जाणयदेहो भव्यस्स वा से जीवोवि। णोआगमओ दव्वं आगमरहिओत्ति जं भणितं ॥ १ ॥” इति ज्ञशरीर भव्यशरीरव्यतिरिकद्रव्येन्द्रो भावेन्द्रकार्येष्वव्यापृतः, आगमतोऽनुपयुक्तद्रव्येन्द्रयत्, तथा यच्छरीरमात्मद्रव्यं वाऽतीतभावेन्द्रपरिणामं तचोभयातिरिक्तद्रव्येन्द्रो, ज्ञशरीरद्रव्येन्द्रवत्, तथा यो भावीन्द्रपर्यायशरीरयोग्यः पुद्गलराशिर्यच्च भावीन्द्रपर्यायमात्मद्रव्यं तदप्युभयातिरिक्तो द्रव्येन्द्रः, भव्यशरीरद्रव्येन्द्रवत् स चावस्थाभेदेन त्रिविधः, तद्यथा-एकभविको वृद्धायुष्कोऽभिमुखनाम गोत्रश्चेति तत्र एकस्मिन् भवे तस्मिन्नेवातिकान्ते भावी एकभविको योऽनन्तर एव भवे इन्द्रतयोत्पत्स्यत इति स चोत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि भवन्ति, देवकुर्वादिमिथुनकस्य भवनपत्यादीन्द्रतयोत्पत्तिसम्भवादिति, तथा स एवेन्द्रायुर्वन्धानन्तरं बद्धमायुरनेनेति व द्वायुरुच्यते स चोत्कर्षतः पूर्वकोटी त्रिभागं यावद्, अस्मात्सरतः आयुष्कबन्धाभावात्, तथा अभिमुखे-संमुखे जघ - न्योत्कर्षाभ्यां समयान्तर्मुहर्त्तानन्तरभावितया नामगोत्रे इन्द्रसबन्धिनी यस्य स तथा, तथा भावैश्वर्ययुक्ततीर्थकरा दि १ मंगलपाशादेो भव्य वा सजीवोsपि (देह) । नो आगमतो द्रव्यं आगमरहित इति यद्भणितं ॥ १ ॥ २ सजीवोति
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इंद्र शब्दस्य व्याख्या एवं निक्षेपा
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [११९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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वृत्तिः
सूत्रांक
%
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XNXRA
%
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श्रीस्थाना-बाभावेन्द्रापेक्षया अप्रधानत्वाच्छादिरपि द्रव्येन्द्र एव, द्रव्यशब्दस्याप्रधानार्थेऽपि प्रवृत्तेरिति, भावेन्द्रस्त्विह त्रिस्थान-१३ स्थानसूत्र- कामुरोधान्नोक्का, तलक्षणं चेदम्-भावम्-इन्दनक्रियानुभवनलक्षणपरिणाममाश्रित्येन्द्र इन्दनपरिणामेन वा भवतीति | काध्ययने
भावः स चासाविन्द्रश्चेति भावेन्द्रः, यदाह-भावो विवक्षितक्रियाऽनुभूतियुक्तो हि वै समाख्यातः । सर्वरिन्द्रादिवदि- उद्देशः१ हेन्दनादिक्रियानुभवात् ॥१॥" स च द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्र आगमत इन्द्रज्ञानोपयुक्तो जीवो भावेन्द्रः,
सू०११९ ॥१०३॥
कथमिन्द्रोपयोगमात्रात् तन्मयताऽवगम्यते १, न ह्यग्निज्ञानोपयुक्तो माणवकोऽग्निरेव, दहनपचनप्रकाशनाद्यर्थक्रियाप्रसाधकत्वाभावादिति चेत्, न, अभिप्रायापरिज्ञानात्, संवित् ज्ञानमवगमो भाव इत्यनान्तरम् , तत्र 'अर्थाभिधानप्रत्ययास्तुल्पनामधेया' इति सर्ववादिनामविसंवादस्थानं, यथा कोऽयं, घटः, किमयमाह?, घटशब्द, किमस्य ज्ञानं ?, घट इति, अग्निरिति च यत् ज्ञानं तदव्यतिरिको ज्ञाता तलक्षणो गृह्यते, अन्यथा तज्ज्ञाने सत्यपि नोपलभेत, अतन्मयत्वात् , प्रदीपहस्तान्धवत् पुरुषान्तरवद्वा, न चानाकारं तत्, पदार्थान्तरवद्विवक्षितपदार्थापरिच्छेदप्रसङ्गात्, बन्धाद्यभावश्च ज्ञानाज्ञानसुखदुःखपरिणामान्यत्वाद् , आकाशवत्, न चानलः सर्व एव दहनाधर्थक्रियाप्रसाधको, भस्मच्छन्नाग्निना व्यभिचारादिति कृतं प्रसङ्गेन, नोआगमतो भावेन्द्र इन्द्रनामगोत्रे कर्मणी वेदयन् परमैश्वर्यभाजनं, सर्वनिषेधवचनत्वान्नोशब्दस्य, यतस्तत्र नेन्द्रपदार्धज्ञानमिन्द्रव्यपदेशनिबन्धनतया विवक्षितं इन्दनक्रियाया एव च विव|क्षितत्वात् , अथवा तथाविधज्ञानक्रियारूपो यः परिणामः स नागम एवं केवलो न चानागम इत्यतो मिश्रवचनत्वात् नोशब्दस्य नोआगमत इत्याख्यायत इति । ननु नामस्थापनाद्रव्येष्विन्द्राभिधानं विवक्षितभावशून्यत्वाद् द्रव्यत्वं च
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इंद्र शब्दस्य व्याख्या एवं निक्षेपा:
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [११९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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समानं वर्तते, ततश्च क एषां विशेषः?, आह च-"अभिहाणं दबत्तं तदत्थसुन्नत्तणं च तुलाई । को भाववजियाण। नामाईणं पइविसेसो ॥१॥” इति, अत्रोच्यते, यथा हि स्थापनेन्द्रे खल्विन्द्राकारो लक्ष्यते तथा कर्नुः सद्भूतेन्द्राभिप्रायो भवति तथा द्रष्टुस्तदाकारदर्शनादिन्द्रप्रत्ययस्तथा प्रणतिकृतधियश्च फलार्थिनः स्तोतुं प्रवर्तन्ते फलं च प्राप्नुवन्ति केचिद्देवतानुग्रहात् न तथा नामद्रव्येन्द्रयोरिति, तस्मात् स्थापनायास्तावदित्वं भेद इति, आह च-"आगारोऽभिप्पाओ बुद्धी किरियाफलं च पाएणं । जह दीसइ ठवणिंदे न तहा नामे न दविंदे ॥१॥” इति, यथा च द्रव्येन्द्रो भावेन्द्रकारणतां प्रतिपद्यते तथोपयोगापेक्षायामपि तदुपयोगतामासादयत्यवाप्तवांश्च न तथा नामस्थापनेन्द्रावित्ययं विशेष इति, आह च-"भावस्स कारणं जह दवं भावो य तस्स पज्जाओ । उवओगपरिणतिमओ न तहा नाम न वा ठवणा ॥१॥" इति ॥ उक्ता नामस्थापनाद्रव्येन्द्राः, इदानीं भावेन्द्रं त्रिस्थानकावतारेणाह-'तओ इंदे'त्यादि कण्ठ्य, नवरं ज्ञानेन ज्ञानस्य ज्ञाने वा इन्द्रः-परमेश्वरो ज्ञानेन्द्रः-अतिशयवच्छ्रुताद्यन्यतरज्ञानवशविवेचितवस्तुविस्तरः केवली | वा, एवं दर्शनेन्द्र:-क्षायिकसम्यग्दर्शनी, चरित्रेन्द्रो-यथाऽऽख्यातचारित्रः, एतेषां च भावेन-सकलभावप्रधानक्षायिकलक्षणेन विवक्षितक्षायोपशमिकलक्षणेन वा भावतः-परमार्थतो वेन्द्रत्वात्-सकलसंसार्यप्राप्तपूर्वगुणलक्ष्मीलक्षणपरमैश्वर्य
१ अभिधानं द्रव्यत्वं तदर्धशून्यत्वं च तुल्यानि को भावर्जितानां नामादीनां प्रतिविशेषः ॥१॥ (येन भेदात्रयस्ते)। २ आकारोऽभिप्रायो बुद्धिः क्रियाफलं च यथा प्रायः स्थापनेन्ने रश्यते न तथा बामेन्टेन द्रव्येदे ॥१॥ ३"तपूर्वश्च प्र. ४ भाबस्य कारणं यथा द्रव्यं भावश्च तस्य पर्यायः उपयोगपरिणतिमसो काम तथा नाम न वा स्थापनेति ॥१॥
अनुक्रम [१२७]
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इंद्र शब्दस्य व्याख्या एवं निक्षेपा:
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [११९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना- झसूत्रवृत्तिः
DAR
सूत्रांक
॥१०४॥
[११९]
दीप
युक्तत्वाद् भावेन्द्रताऽवसेयेति । उक्तमाध्यात्मिकैश्वर्यापेक्षया भावेन्द्रत्रैविध्यमथ बाह्येश्वर्यापेक्षया तदेवाह-तओ स्थानइंद'त्यादि, भाविताथै, नवरं देवा-वैमानिका ज्योतिष्कवैमानिका वा रूढः असुरा:-भवनपतिविशेषा भवनपतिभ्यन्तरा काध्ययने वा सुरपयुदासात्, मनुजेन्द्रः-चक्रवत्यादिरिति ॥ त्रयाणामप्येषां वैक्रियकरणादिशक्तियुक्ततयेन्द्रत्वमिति विकुर्वणा-8|उद्देशः१ | निरूपणायाह
सू०१२१ तिविहा विष्वणा पं० २०-माहिरते पोग्गलए परियातित्ता एगा विकुल्वणा बाहिरए पोमाले अपरियादित्ता एगा विकुब्वणा बाहिरए पोग्गले परियादित्तावि अप्परियादित्तावि एगा विकुचणा, तिचिहा विगुब्वणा पं० १०-अभंतरए पोग्गले परियाइत्ता एगा विकुल्वणा अन्भंतरे पोगले अपरियादित्ता एगा विकुब्वणा अभंतरए पोगले परियातित्तावि अपरितादित्तावि एगा विकुब्बणा, तिविदा विकुव्वणा पं० २०-बाहिरभंतरण पोग्गले परिवाइचा एगा विकुव्वणा बाहिरमंतरए पोग्गले अपरियाइत्ता एगा विगुब्वणा बाहिरभंतरए पोमा परियाइत्तावि अपरियाइत्तावि एगा विउवणा । (सू० १२०) तिबिहा नेरइया पन्नत्ता सं०-कतिसंचिता अकतिसंचिता अवत्तव्वगसंचिता, एवमेगिदियवज्जा जाव
वेमाणिया (सू० १२१) 'तिविहे'त्यादि सूत्रत्रयी कण्ठ्या, नवरं बाह्यान् पुद्गलान्-भवधारणीयशरीरानवगाढक्षेत्रप्रदेशवतिनो वैक्रियसमुद्घातेन पर्यादाय-गृहीत्वैका विकुर्वणा क्रियते इति शेषः, तानपर्यादाय, या तु भवधारणीयरूपैव साऽन्या, यत्पुनर्भवधा-ICI॥१४॥ रणीयस्यैव किञ्चिद्विशेषापादनं सा पर्यादायापि अपर्यादायापि इति तृतीया व्यपदिश्यते, अथवा विकुर्वणा-भूषाकरणं,
COM
अनुक्रम [१२७]
ForParamasPrvammoni
इंद्र शब्दस्य व्याख्या एवं निक्षेपा:, 'विकुर्वणा' शब्दस्य अर्थ:
~218~
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२०
-१२१]
तत्र बाह्यपुद्गलानादायाभरणादीन् अपर्यादाय केशनखसमारचनादिना उभयतस्तूभयथेति, अथवाऽपर्यादायेति ककलाससपोदीनां रक्तत्वफणादिकरणलक्षणेति । एवं द्वितीयसूत्रमपि, नवरमभ्यन्तरपुद्गला भवधारणीयेनौदारिकेण वा शरीरेण ये क्षेत्रप्रदेशा अवगाढास्तेष्वेव ये वर्तन्ते तेऽवसेयाः, विभूषापक्षे तु निष्ठीवनादयोऽभ्यन्तरपुद्गला इति । तृतीयं | तु बाह्याभ्यन्तरपुद्गलयोगेन वाच्यमिति, तथाहि-उभयेषामुपादानाद् भवधारणीयनिष्पादनं तदनन्तरं तस्यैव केशादिरचनं च, अनादानाचिरविकुर्वितस्यैव मुखादिविकारकरणं, उभयतस्तु वाह्याभ्यन्तराणामनभिमतानामादानतोऽन्येषांचानादानतोऽनिष्टरूपभवधारणीयेतररचनमिति ॥ अनन्तरं विकुर्वणोक्ता, साच नारकाणामप्यस्तीति नारकान्निरूपयन्नाह'तिविहे त्यादि, कण्ठ्यम्, नवरं 'कतीत्यनेन सझ्यावाचिना व्यादयः सङ्ख्यावन्तोऽभिधीयन्ते, अयं चान्यत्र प्रश्नविशिष्टसङ्ख्यावाचकतया रूढोऽपीह सङ्ख्यामात्रे द्रष्टव्यः, तत्र नारकाः कति-कतिसङ्ख्याताः सङ्ख्याता एकैकसमये ये उत्पन्नाः सन्तः सञ्चिताः-कत्युत्पत्तिसाधादू बुग्या राशीकृतास्ते कतिसञ्चिताः, तथा न कतिज सहयाता इत्यकति-असङ्ख्याता अनन्ता वा, तत्र ये अकति-अकतिसङ्ख्याताः असङ्ख्याता एकैकसमये उत्पन्ना सन्तस्तथैव सञ्चितास्ते अकतिसथिताः, तथा यः परिमाणविशेषो न कति नाप्यकतीति शक्यते वक्तुं सोऽवक्तव्यकः स चैक इति तत्सश्चिता अवक्तव्यकसञ्चिताः, समये समये एकतयोत्सना इत्यर्थः, उत्पद्यन्ते हि नारका एकसमये एकादयोऽसखयेयान्ताः, उक्तं च-"ऐगो व दो व तिन्नि व संखमसंखा व एगसमएणं । उववजतेवइया उब्बईता वि एमेव ॥१॥" इति, एतद्देवपरिमाणमेतदेव नार
१एको वा द्वी पानयो या समयाता भराया वैकरामयेन उत्पयन्ते एतापन्तः शान्तेयेयमेव (देवाः)॥१॥
दीप अनुक्रम [१२८-१२९]
wwwwjanmalay
'विकुर्वणा' शब्दस्य अर्थ:, नारकाणाम् निरुपणं
~219~
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
40-
प्रत सूत्रांक [१२०-१२१]
वृत्तिः
4-45
दीप अनुक्रम [१२८
श्रीस्थाना- काणामपि, यत उक्तम्-"संखा पुण सुरवरतुल्ल"त्ति, कतिसञ्चितादिकमर्थमसुरादीना दण्डकोक्तानामतिदिशमाह
३ स्थान'एवं मित्यादि, 'एव'मिति नारकवच्छेपाश्चतुर्विशतिदण्डकोक्का वाच्या एकेन्द्रियवर्जाः, यतस्तेषु प्रतिसमयमसङ्ख्याता
काध्ययने अनन्ता वा अकतिशब्दवाच्या एवोत्पद्यन्ते, न त्वेकः सङ्ख्याता वा इति, आह च-"अणुसमयमसंखेज्जा संखेज्जाऊय-3
उद्देशः१ तिरियमणुया य । एगिदिएसु गच्छे आरा ईसाणदेवा य ॥ १ ॥ एगो असंखभागो वट्टा उबट्टणोववायमि । एगनि
|सू०१२२ गोए निच्चं एवं सेसेमुवि स एव ॥२॥" इति । अनन्तरसूत्रे कतिसंचितादिको धर्मो वैमानिकानां देवानामुक्तः, अधुना | देवानां सामान्येन परिचारणाधर्मनिरूपणायाह
तिविहा परियारणा पं० सं०-एगे देवे अन्ने देवे अन्नेसिं देवाणं देवीओ अ अभिमुंजिय २ परियारेति, अप्पणिजिमाओ देवीओ अनि जिव २ परियारेति, अप्पाणमेव अप्पणा विउब्विय २ परियारेति १, एगे देवे णो अरे देवा णो अण्णेसि देवाणं देवीभो अभिमुंजिय २ परियारेति अत्तणिजिआओ देवीओ अमिजुंजिय २ परियारेट अप्पाणमेव अप्पणा विडविय २ परियारेति २, एगे देवे णो अन्ने देवा णो अण्णेसि देवाणं देवीओ अभिजुंजिय २ परितारेति णो अप्पणिजिताओ देवीओ अभिमुंजिय २ परितारेति अप्पाणमेव अप्पाणं विउविव २ परितारेति३, (सू० १२२) । तिविहे मेहुणे पं० २०
१सया पुनः सुरक्रतुल्या (नारकाणा). २ अनुसमयमसपाता: सवेयायुषस्तु तिर्यो मनुष्याच एकेनिद्रयेषु गच्छेयुः आरादीशानादेवाय ॥१॥ ॥१०५॥ काएकोऽसभागो वर्तते उगर्लनोपपाते एकस्मिनिगोदे नित्यं एवं शेषेप्यपि स एव ॥ २ ॥
-१२९]
ॐ
~220~
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
S
सूत्रांक
[१२३]
दीप अनुक्रम [१३१]
655555
-दिव्ये माणुरसते तिरिक्खजोणीते, तओ मेहुणं गच्छंति ०-देवा मणुस्सा तिरिक्खजोणिता, ततो मेहुणं सेवंति
०-इत्थी पुरिसा णपुंसगा (सू० १२३) 'तिथिहा परी'त्यादि, कण्ठ्यम् , नवरं परिचारणा-देवमैथुनसेवेति, एकः कश्चिद्देवो न सर्वोऽप्येवमिति, फिम्'अण्णे देवेत्ति अन्यान् देवान्-अल्पर्धिकान् तथाऽन्येषां देवीनां सत्का देवीश्चाभियुज्याभियुज्य-आश्लिष्याश्लिष्य वशीकृत्य वा परिचारयति-परिभुते वेदबाधोपशमायेति, न च न सम्भवति देवस्य देवसेवा पुंस्त्वेनेत्याशङ्कनीयम् , मनुष्येष्वपि तथा श्रवणात्, न चात्राथै नरामरयोः प्रायो विशेषोऽस्तीति, एक एवायं प्रकारो देवदेवीनामन्यत्वसामान्यादत एव द्वयोरपि पदयोरेका क्रियाभिसम्बन्ध इति, एवमात्मीया देवीः परिचारयतीति द्वितीयः, तथाऽऽत्मानमेव परिचारयति, कथं ?-आत्मना विकृत्य विकृत्य परिचारणायोग्य विधायेति तृतीयं, एवं प्रकारत्रयरूपाप्येकेयं परिचारणा, प्रभविष्णूत्कटकामैकपरिचारकवशादिति, अथान्यो देव आद्यप्रकारपरिहारेणान्त्यप्रकारद्वयेन परिचारयतीति द्वितीयेयमप्रभविष्णूचितकामपरिचारकदेवविशेषात्, तथाऽन्यो देव आद्यप्रकारद्वयवर्जनेनाम्त्यप्रकारेण परिचारयतीति तृतीयाऽनुत्कटकामाल्पद्धिकदेवविशेषस्वामिकत्वादिति ॥ परिचारणेति मैथुनविशेष उक्तोऽधुना तदेव मैथुनं सामान्यतः प्ररूपयन्नाह-'तिविहे मेहुणे' इत्यादि कण्ठवं, मवरं मिथुनं-स्त्रीपुंसयुग्मं तत्कर्म मैथुन, नारकाणां तन सम्भवति द्रव्यत इति चतुर्थं मास्त्येवेति नोक्तम् ॥ मिथुनकर्मण एव कारकानाह-'तो' इत्यादि कण्ठ, तेषामेव भेदानाह'तओ मेहुण'मित्यादि, कण्ठ्यं, नवरं सयादिलक्षणमिदमाचक्षते विचक्षणा:-"योनि १ सुंदुत्व २ मस्थैर्य ३, मुग्धवं ४
AREucatunintimatel
wwwjangalray
~221~
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना-
प्रत
३ स्थानकाध्ययने
सूत्रांक
वृत्तिः ॥१०॥
सू०१२४
[१२३]
दीप अनुक्रम [१३१]
क्लीयता ५ स्तनौ ६ । पुंस्कामितेति ७ लिङ्गानि, सप्त स्त्रीत्वे प्रचक्षते ॥१॥ मेहनं १ खरता २ दाय ३, शौण्डीर्य ४ श्मनु ५ धृष्टता ६ । स्त्रीकामिते ७ ति लिङ्गानि, सप्त पुंस्वे प्रचक्षते ॥२॥ स्तनादिश्मश्रुकेशादिभावाभावसमन्वितम् । नपुंसकं बुधाः प्राहुर्मोहानलसुदीपितम् ॥ ३॥" तथाऽन्यत्राप्युक्तम्-"स्तनकेशवती स्त्री स्याद् , रोमशः पुरुषः स्मृतः। उभयोरन्तरं यच्च, तदभावे नपुंसकम् ॥१॥” इत्यादि । एते च योगवन्तो भवन्तीति योगप्ररूपणायाह
तिविहे जोगे पं० त०-मणजोगे वतिजोगे कायजोगे, एवं रविवाणं विगलिंदियवजाणं जाव वेमाणियाणं, तिविहे पओगे ५००-मणपओगे बतिपओगे कायपओगे, जहा जोगो विगलिंदियवजाणं तधा पओगोऽवि, तिविहे करणे ५०, तं.--मणकरणे वतिकरणे कायकरणे, एवं विगलिंदियवजं जाव वेमाणियाणं, तिविहे करणे पं० २०-आरंभकरणे
संरंभकरणे समारंभकरणे, निरंतरं जाव वेमाणियाण (सू. १२४) तिविहे जोए' इत्यादि, इह वीर्यान्तरायक्षयक्षयोपशमसमुत्थलब्धिविशेषप्रत्ययमभिसन्ध्यनभिसन्धिपूर्वमात्मनो वीर्य योगः, आह च-"जोगो वीरियं धामो उच्छाह परकमो तहा चेढा । सत्ती सामत्थंति य जोगस्स हवंति पज्जाया ॥१॥" इति, स च द्विधा-सकरणोऽकरणश्च, तत्रालेश्यस्य केवलिनः कृत्स्नयो यदृश्ययोरर्थयोः केवलं ज्ञानं दर्शनं चोपयुजानस्य योऽसावपरिस्पन्दोऽप्रतिघो वीर्यविशेषः सोऽकरणः, स च नेहाधिक्रियते, सकरणस्यैव त्रिस्थानकावतारित्वाद्, अतस्तत्रैव व्युत्पत्तिस्तमेव चाश्रित्य सूत्रव्याख्या, युज्यते जीवः कर्मभिर्येन कैम्म जोगनिमित्तं चाईत्ति वचनात् युङ्क्ते
१ गोगो वीर्य स्थाम उत्साहः पराक्रमस्वथा चेष्टा । शतिः सामन्यमिति च योगस्य भवन्ति पर्यायाः ॥1॥ २ फर्म योगनिमित्तं बध्यवे
॥१०६॥
~222~
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२४]
प्रयुड़े ये पर्यायं स योगो-वीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितो जीवपरिणामविशेष इति, आह च---"मणेसा वयसा कारण वावि जुत्तस्स विरियपरिणामो । जीवस्स अप्पणिजो स जोगसन्नो जिणक्खाओ॥ १ ॥ तेओजोगेण जहा रत्तत्ताई घडस्स परिणामो । जीवकरणप्पओए विरियमवि तहप्पपरिणामो॥ २ ॥” इति, मनसा करणेन युक्तस्य जीवस्य | योगो-वीर्यपर्यायो दुर्बलस्य यष्टिकाद्रव्यवदुपष्टम्भकरो मनोयोग इति, स च चतुर्विधः-सत्यमनोयोगो मृषामनोयोगः सत्यमृषामनोयोगो असल्यामृषामनोयोगश्चेति, मनसो वा योगः-करणकारणानुमतिरूपो व्यापारी मनोयोगः, एवं वाग्योगोऽपि, एवं काययोगोऽपि, नवरं स सप्तविधः-औदारिको १ दारिकमिश्र २ बैंक्रिय ३ विक्रियमिश्रा ४ हारका ५ हारकमिश्र ६ कार्मणकाययोग ७ भेदादिति, तत्रौदारिकादयः शुद्धाः सुबोधाः, औदारिकमिश्रस्तु औदारिक एवापरिपूर्णो मिश्र उच्यते, यथा गुडमिश्र दधि न गुडतया नापि दधितया व्यपदिश्यते तत्ताभ्यामपरिपूर्णत्वात् , एवमौदारिक मिश्र कार्मणेन नौदारिकतया नापि कार्मणतया व्यपदेष्टुं शक्यम् अपरिपूर्णत्वादिति तस्यौदारिकमिश्रव्यपदेशः, एवं वैकियाहारकमिश्रावपीति शतकटीकालेशः, प्रज्ञापनाव्याख्यानांशस्त्वेवम्-औदारिकाद्याः शुद्धास्तत्पर्याप्तकस्य मिश्रास्त्वपर्याप्तकस्येति, तत्रोत्पत्ताबौदारिककायः कार्मणेन औदारिकशरीरिणश्च वैक्रियाहारककरणकाले वैक्रियाहारकाभ्यां मिश्री भवति इत्येवमौदारिकमिश्रः, तथा वैकियमिश्रो देवाद्युत्पत्ती कार्मणेन कृतवैक्रियस्य चौदारिकप्रवेशाद्धायामौदारि
मनसा वचसा कायेन नापि युक्तस्य वी परिणामः जीवस्यात्मीयः स योगसंज्ञो जिनाख्यातः ॥ १॥ तेजोयोगेन यथा रकाबादिर्घटस्ख परिणाम जीवकरणप्रयोगे वीयमपि तथाऽऽस्मपरिणामः ॥२॥
दीप अनुक्रम [१३२]
ForPPO
योगस्य व्याख्या एवं भेद-प्रभेदा:
~2234
Page #224
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[१२४]
दीप
अनुक्रम [१३२]
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१२४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थानाजसूत्रवृत्तिः
॥ १०७ ॥
केण, आहारकमिश्रस्तु साधिताहारक कायप्रयोजनः पुनरौदारिकप्रवेशे औदारिकेणेति, कार्मणस्तु विग्रहे केवलिसमुद्घाते वेति, सर्व एवायं योगः पञ्चदशधेति, सङ्ग्रहोऽस्य- "सचं १ मोसं २ मीसं ३ असक्षमोसं ४ मणो वती चेवं ८ । काओ उराठ १ चिकिय २ आहारग ३ मीस ६ कम्मइगो ७ ॥ १ ॥” इति ॥ सामान्येन योगं प्ररूप्य विशेषतो नारकादिषु चतुर्विंशतौ पदेषु तमतिदिशन्नाह— 'एवमित्यादि, कण्ठ्यं, नवरमतिप्रसङ्गपरिहारायेदमुक्त – “विगलिंदिय वजाणं"ति तत्र विकलेन्द्रियाः- अपञ्चेन्द्रियाः, तेषां ह्येकेन्द्रियाणां काययोग एव द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां तु काययोगवाग्योगाविति ॥ मनःप्रभृतिसम्बन्धेनैवेदमाह-'तिविहे पओगे' इत्यादि, कण्ठ्यं, नवरं मनःप्रभृतीनां व्याप्रियमाणानां जीवन हेतुकर्तृभूतेन यद् व्यापारणं प्रयोजनं स प्रयोगः मनसः प्रयोगो मनःप्रयोगः, एवमितरावपि, ' जहे' त्याद्यतिदेशसूत्रं पूर्ववद्भावनीयमिति । मनःप्रभृतिसम्बन्धेनैवेदमपरमाह- 'तिविहे करणे' इत्यादि कण्ठ्यं, नवरं कियते येन तरकरणं-मननादिक्रियासु प्रवर्त्तमानस्यात्मन उपकरणभूतस्तथा तथापरिणामवत्पुद्गलसङ्गात इति भावः तत्र मन एव करणं मनःकरणमेवम् इतरे अपि, 'एच' मित्याद्यतिदेशसूत्रं पूर्ववदेव भावनीयमिति, अथवा योगप्रयोगकरणशब्दानां मनःप्रभृतिकमभिधेयतया योगप्रयोगकरणसूत्रेष्यभिहितमिति नार्थभेदोऽम्बेषणीयः, त्रयाणामप्येषामेकार्थतया आगमे बहुशः प्रवृत्तिदर्शमात्, तथाहि -योगः पञ्चदशविधः शतकादिषु व्याख्यातः, प्रज्ञापनायां त्वेवमेवायं प्रयोगशब्देनोक्तः, तथाहि - "कतिविहे णं भंते! पओगे पन्नत्ते, गोतमा ! पनरसविहे" इत्यादि, तथा आवश्यकेऽयमेव करणतयोक्तः, तथाहि १] सत्यं षा मित्र असल्याषा मनो वचोऽपि चैवं काय औदारिकवैकियाहारकमिश्राः कार्मण इति ॥ १॥
Education intamannal
योगस्य व्याख्या एवं भेद-प्रभेदाः
For Personal & Prahe Only
~ 224~
३ स्थान
काध्ययने
उद्देशः १
सू० १२४
॥ १०७ ॥
www.scary.
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२४]
दीप अनुक्रम [१३२]
-"जुजणकरणं तिविहं मणवतिकाए य मणसि सञ्चाइ । सहाणे तेसि भेओ चर चउहा सत्तहा चेव ॥१॥" इति ॥ प्रकारान्तरेण करणवैविध्यमाह-'तिविहे' इत्यादि, आरम्भणमारम्भः-पृथिव्याधुपमईनं तस्य कृति:-करणं स एव वा करणमित्यारम्भकरणमेवमितरे अपि वाच्ये, नवरमयं विशेषः-संरम्भकरणं पृथिव्यादिविषयमेव मनःसइक्लेशकरणं, समारम्भकरणं-तेषामेव सन्तापकरणमिति, आह च--"संकैप्पो संरंभो परितावकरो भवे समारंभो । आरंभो सह- वओ सुद्धनयाणं तु सव्धेसि ॥ १॥" इति ॥ इदमारम्भादिकरणत्रयं नारकादीनां वैमानिकान्तानां भवतीत्यतिदिशमाह-निरन्तर मित्यादि, सुगम, केवलं संरम्भकरणमसंज्ञिनां पूर्वभवसंस्कारानुवृत्तिमात्रतया भावनीयमिति ॥ आरम्भादिकरणस्य क्रियान्तरस्य च फलमुपदर्शयन्नाह
तिहिं ठाणेहिं जीवा अप्पाउअत्ताते कम पगरिति, तं०-पाणे अतिवातित्ता भवति मुसं वइचा भवइ तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुगणं असणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलामित्ता भवइ, इचेतेहि तिहि ठाणेहि जीवा अ. पाउअत्ताते फम्म पगरेति । तिहिं ठाणेहिं जीवा दीहाउअत्ताते कम्म पगरेंति, तं०-णो पाणे अतिपातिता भवद णो मुसं वतित्ता भवति तथारूवं समर्ण वा माहणं वा फासुएसणिजेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेत्ता भवद, इथे तेहिं तिहिं ठाणेहिं जीवा दीहाउयत्ताए कम्म पगरेंति । तिहिं ठाणेहिं जीवा असुभदीहाध्यत्ताए कम पगरेंति, संजधा
१युशनकरगं विविध मनोवाक्कायेषु मनति सत्यादि सास्थाने तेषां भेदः चतुओं चतुओं कायः सप्तधा चैत्र ॥१॥ २ संकल्पः संरभः परितापकरो भवेत्समारंभः । आरंभ उपद्रवतः शुद्धनवानान्तु सर्वेषां ॥१॥
ACTOR
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
AGAR
काध्ययने
सूत्रांक
सू०१२५
[१२५]
दीप
श्रीस्थाना- पाणे अतिवातित्ता भवद मुसं बहत्ता भवद तहारूवं समणं वा माहणं वा हीलेत्ता णिविता खिसेत्ता गरहित्ता अवमाणित्ता
३ स्थानअसूत्र
अन्नयरेणं अमणुनेणं अपीतिकारतेणं असण. पडिलाभेत्ता भवइ, इचेतेहिं तिहिं ठाणेहिं जीवा असुभदीहाउअचाए फम्म पगरेंति । तिहिं ठाणेहिं जीवा सुभदीहाउअचाते कम्मं पगरेंति, सं०-जो पाणे अतिवातिचा भवइ णो मुसं ववित्ता भ
उद्देशः १ यह तहारूवं समणं चा माहणं वा चंबित्ता नमंसित्ता सकारिता समाणेत्ता कल्लाणं मंगल देवतं चेतितं पजुवासेत्ता मणु॥१०८॥
श्रेणं पीतिकारएणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभित्ता भवइ, इचेतेहिं तिहिं ठाणेहिं जीवा सुहदीहाउतत्ताते कम
पगति । (सू० १२५) 'तिहिं ठाणहि इत्यादि, त्रिभिः 'स्थानैः' कारणैः 'जीवाः' प्राणिनः 'अप्पाउयत्ताएत्ति अल्पं-स्तोकमायु:-जी-18 वितं यस्य सोऽल्पायुस्तद्भावस्तत्ता तस्यै अल्पायुष्टाय तदर्थं तन्निबन्धनमित्यर्थः, कर्म-आयुष्कादि, अथवा अल्पमायु:|जीवितं यत आयुषस्तदल्पायुः तद्भावस्तत्ता तया कर्म-आयुर्लक्षणं 'प्रकुर्वन्ति' बनन्तीत्यर्थः, तद्यथा-प्राणान्' प्राणेनोऽऽतिपातयितेति 'शीलार्थतन्नन्त'मिति कर्मणि द्वितीयेति, प्राणिनां विनाशनशील इत्यर्थः, एवंभूतो यो भवति,18 एवं मृषावादं वक्ता यश्च भवति, तथा-ताकारं रूपं-स्वभावो नेपथ्यादि वा यस्य स तथारूपः दानोचित इत्यर्थः, |तं श्राम्यति-तपस्यतीति श्रमणः-तपोयुक्तस्तं मा हन इत्याचष्टे यः परं प्रति स्वयं हनननिवृत्तः सन्निति स माहनो-मू-की दालगुणधरस्तं, वाशब्दी विशेषणसमुच्चयाओं, प्रगता असवः-असुमन्तः प्राणिनो यस्मात् तमासुकं तनिषेधादप्रासुकं 51
सचेतनमित्यर्थः तेन, एष्यते-गवेष्यते उद्गमादिदोषविकलतया साधुभिर्यत्तदेषणीयं-कल्प्यं तनिषेधादनेषणीयं तेन,
अनुक्रम [१३३]
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जीव, कर्म, प्राण, रूप, श्रमण, अप्रास्क, अनेषणीय आदि शब्दानाम् व्याख्या
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [03], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२५]
दीप अनुक्रम [१३३]
हा अश्यते-भुज्यते इत्यशन च-ओदनादि पीयत इति पानं च-सौवीरकादि खादनं खादस्तेन निवृत्तं खादनार्थं तस्य निर्व-12
यमानत्यादिति खादिम च-भक्तीदि स्वादन स्वादः तेन निर्वृत्तं स्वादिम दन्तपवनादीति समाहारद्वन्दस्तेन, गा-13 थावान-"असणं ओदणसत्तुगमुग्गजगाराइ खजगविही य । खीराइ सूरणादी मंडगपभिती य विनेयं ॥१॥पाणं | सोवीरजयोदगाइ चित्तं सुराइयं चैव । आउक्काओ सब्बो ककडगजलाइयं च तहा ॥ २॥ भत्तोस दंताई खजूरं नालिकेरदक्खाई। ककडिगंवगफणसादि बहुविहं खाइमं नेयं ॥३॥ देतवर्ण तंबोलं चित्तं अजगकुहेडगाई य । महपिप्पलि| संठादी अणेगहा साइम होइ॥४॥” इति, प्रतिलम्भयिता-लाभवन्तं करोतीत्येवंशीलो यश्च भवति, ते अल्पायुष्कतया | कर्म कर्वन्तीति प्रक्रमः, 'इथेएहिंति इत्येतेः प्राणातिपातादिभिरुक्तप्रकारखिभिः स्थान: जीवा अल्पायुष्टया कर्म प्रकु
वन्तीति निगमनमिति । इह च प्राणातिपातयित्रादिपुरुषनिर्देशेऽपि प्राणातिपातादीनामेवाल्पायुर्वन्धनिवन्धनत्वेन तस्काभारणत्वमुक्तं द्रष्टव्यमिति, इयं चास्य सूत्रस्य भावना-अध्यवसायविशेषेणैतनयं यथोक्तफलं भवतीति, अथवा यो हि जीवो जिनादिगुणपक्षपातितया तत्पूजाद्यर्थं पृथिव्याघारम्भेण न्यासापहारादिना च प्राणातिपातादिषु वर्तते तस्य सरागसंयमनिरवद्यदाननिमित्तायुष्कापेक्षयेयमल्पायुष्टा समवसेया, अथ नैतदेवं, निर्विशेषणत्वात् सूत्रस्य, अल्पायुष्कस्य क्षुलकभ
वग्रहणरूपस्यापि प्राणातिपातादिहेतुतो युज्यमानत्वाद् , अतः कथमभिधीयते-सविशेषणप्राणातिपातादिवती जीव आकाक्षिकी चाल्पायुष्कतेति ?, उच्यते, अविशेषणत्वेऽपि सूत्रस्य प्राणातिपातादेविशेषणमवश्यं वाच्यं, यत इतस्तृतीयसूत्रे
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'अशन, पान, खादिम, स्वादिम' शब्दस्य व्याख्या, प्राणातिपातादित्वात् अल्पायुर्निबन्धन्त्वं
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
वृत्तिः
प्रत सूत्रांक [१२५]
दीप अनुक्रम [१३३]
श्रीस्थाना- प्राणातिपातादित एव अशुभदीर्घायुष्टां वक्ष्यति, न हि समानहेतोः कार्यवैषम्यं प्रयुज्यते, सर्वत्रानाश्वासप्रसङ्गात, तथा स्थानसूत्र- ल'समणोवासगस्स णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिजेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडि-४ काध्ययने
लाभेमाणस्स किं कज्जइ?, गोयमा!, बहुतरिया से निजरा कजइ, अप्पतराए से पावे कम्मे कजईत्ति भगवतीवच- उद्देशः १
नश्रवणादवसीयते-नैवेयं क्षुल्लकभवग्रहणरूपाऽल्पायुष्टा, न हि स्वल्पपापवहुनिर्जरानिवन्धनस्थानुष्ठानस्य क्षुल्लकभवन- सू०१२५ ॥१०९॥
हणनिमित्तता सम्भाव्यते, जिनपूजनाद्यनुष्ठानस्यापि तथाप्रसङ्गात् , अथाप्रासुकदानस्य भवतूक्ताऽल्पायुष्टा, प्राणातिपातमृपावादयोस्तु क्षुल्लकभवग्रहणमेव फलमिति, नैतदेवम् , एकयोगप्रवृत्तत्वाद् अविरुद्धत्वाञ्चेति, अथ मिथ्यादृष्टिश्रमणब्राह्मणानां यदप्रामुकदानं ततो निरुपचरितैबाल्पायुष्टा युज्यते, इतराभ्यां तु को विचार इति?, नैवम्, अप्रासुकेनेति
तत्र विशेषणस्यानर्थकत्वात् , प्रासुकदानस्यापि अल्पायुष्कफलत्वाविरोधाद्, उक्तं च भगवत्याम्-"समणोवासयस्स | शाण भंते ! तहारूवं असंजतअविरयअपडिहयअपञ्चक्खायपावकम्मै फासुएण वा अफासुएण वा एसणिजेण वा अणेसणिजेण वा असण ४ पडिलाभेमाणस्स किं कजइ, गोयमा, एगंतसो पाचेकम्मे कज्जइ, नो से कार निजरा कज्ज-IN "त्ति, यच्च पापकर्मण एव कारणं तेदल्पायुष्टाया अपि कारणमिति, नन्वेवं प्राणातिपातमृषावादावमासुकदानं च कर्त्त
१ बुज्यते. २ श्रमणोपासकेन भदन्त ! तथारू भ्रमण वा माहनं वापासुकेनानेषणीवेनाशनपानसाबिमखादिमेन प्रतिकाभवता कि क्रियते !, गौतम || बहुतरा तेन निर्जरा कियतेऽल्पतरं तेन पापकर्म कियते ३ श्रमणोपासकेन भदन्त। तधारूर असंयताविरताप्रतिहताप्रसाख्वातपापकर्माण प्रामुकेन वाऽप्रामुकेन ॥१० ॥ या एषणीयेनानेषणीयेन वा अनादिना प्रविलम्भयता कि क्रियते?, गौतम! एकान्तवः पापकर्म कियते न तेन काचिनिर्जरा कियते ॥ ४ बहुनिर्जरासाधनस्वेऽपि अल्पस. ५ सरागसंथमनिर्वबंदीशुभायुष्यापेक्षया. ६ अप्रासुकादिवानं.
SAKACREAK
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प्राणातिपातादित्वात् अल्पार्निबन्धन्त्वं
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२५]
दीप अनुक्रम [१३३]
व्यमापनमिति ?, उच्यते, आपद्यतां नाम भूमिकापेक्षया को दोषः?, यतः-"अधिकारिवशाच्छाने, धर्मसाधनसंस्थितिः।। व्याधिप्रतिक्रियातुल्या, विज्ञेया गुणदोषयोः॥१॥" तथा च गृहिणं प्रति जिनभवनकारणफलमुक्तम्-"एतदिह भावयज्ञः सद्गृहिणो जन्मफलमिदं परमम् । अभ्युदयाच्युच्छित्त्या नियमादपवर्गबीजमिति ॥१॥" तथा "भण्णा जिणपू- याए कायवहो जाति होइ उ कहिंचि । तहवि तई परिसुद्धा गिहीण कूवाहरणजोगा ॥१॥ असदारंभपवत्ता जंच गिही तेण तेसिं विनेया। तन्निवित्तिफलच्चिय एसा परिभावणीयमिदं ॥२॥” इति, दानाधिकारे तु श्रूयते द्विविधाः] श्रमणोपासका:-संविग्नभाविता लुब्धकदृष्टान्तभाविताश्चेति, यथोक्तम्-"संविग्गंभावियाणं लोद्धयदिइंतभावियाणं च। मोत्तूण खेसकाले भावं च कहिंति सुद्धन्छ । १॥” इति, तत्र लुब्धकदृष्टान्तभाविता यथाकथञ्चिद्ददति, संविग्नभावि-1 तास्वीचित्येनेति, तच्चेदम्,-"संथरणंमि असुद्धं दोण्हवि गेण्हन्तदेंतयाणऽहियं । आउरदिहतेणं तं चेव हितं असंथ-11 रणे ॥१॥" इति, तथा "णायागयाणं कप्पणिजाणं अन्नपाणाईणं दवाणं देसकालसद्धासकारकमजुयं" इत्यादि, कचित् “पाणे अतिवायित्ता मुसं वयित्ते"त्येवं भवतिशब्दवर्जा वाचना, तत्रापि स एवार्थः, क्वाप्रत्ययान्तता वा ब्या-18
मायते जिनपूजायो यपि कथंचित्कायनधो भवति तथापि सा परिशुद्धा गृहिणां कूपोदाहरणदास्तात् ॥१॥ असदारंभप्रवृत्ता बच गृहिणरतेन तेषां विज्ञेया समितिफलैब एषा परिभावनीयमेतत् ॥ २॥ २ संबिमभाषितानां मुन्धकरणान्तभाविताना र क्षेत्रकाली भाचे च मुक्वा शुखमुञ्छ कथयन्ति (देशयन्ति) ॥१॥३ संस्करणे योरपि गृहणदतोरहितमाळ भातुरष्टान्तेन तदेवासस्तरणे हितं । (देशादिभेदात्) ॥१॥ ४ न्यायागतानां कल्पनीयानां अभपानादीनां द्रव्याणां देशकालघासत्कारकमयुतं (दान).
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प्राणातिपातादित्वात् अल्पार्निबन्धन्त्वं
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
सपना जवना मातलम-
इस्थान
प्रत
सूत्रवृत्तिः
सूत्रांक
॥११
॥
[१२५]
ख्येया, प्राणानतिपात्य मृषोक्त्वा श्रमणं पातेलम्भ्य अल्पायुष्टया कर्म वनन्तीति प्रक्रमः, शेष तथैव, अथवा प्रतिलम्भ-18| नस्थानकस्यैवेतरे विशेषणे, तथाहि-प्राणानतिपात्याधाकर्मादिकरणतो मृषोक्त्वा यथा--अहो साधो! स्वार्थसिद्धमिदं भ- काध्ययने कादि कल्पनीयं वो न शङ्कर कार्येत्यादि, ततः प्रतिलम्भ्य तथा कर्म कुर्वन्तीति प्रक्रमा, इह च द्वयस्य विशेषणत्वेन
उद्देशः१ एकस्य विशेष्यत्वेन त्रिस्थानकत्वमवगन्तव्यम्, गम्भीराथे चेदं सूत्रमतोऽन्यथाऽपि भावनीयमिति ॥ अल्पायुष्कताका-15
आप भावनायामात ।। अल्पायुष्कताका-15सू०१२५ रणान्युक्तान्यधुनैतद्विपर्ययस्यैतान्येव विपर्यस्ततया कारणान्याह-'तिही'त्यादि प्राग्वदवसेयम् , नवरं 'दीहाउयत्तापत्ति शुभदीर्घायुष्टायै शुभदीर्घायुष्टया वेति प्रतिपत्तव्यं, प्राणातिपातविरल्यादीनां दीर्घायुषः शुभस्यैव निमित्तस्वाद, उक्त। च-"महब्वय अणुब्बएहि य बालतवोऽकामनिज्जराए य । देवाउयं निबंधइ सम्मदिही य जो जीवो ॥१॥" तथा, "पयईएँ तणुकसाओ दाणरओ सीलसंजमविहूणो । मझिमगुणेहिं जुत्तो मणुयाउं बंधए जीवो ॥२॥" देवमनुष्यायुषी च शुभे इति । तथा भगवत्यां दानमुद्दिश्योक्तं-"समणोवासयस्स णं भंते! तहारूवं समर्ण वा २ फासुएसणिज्जेणं असण ४ पडिलामेमाणस्स किं कजइ, गोयमा!, एगंतसो निज्जरा कज्जा, णो से केइ पावे कम्मे कजइ२” इति, यच निर्जराकारणं तच्छुभदीपोंयुःकारणतया न विरुद्धं, महाव्रतबदिति । अनन्तरमायुपो दीर्घताकारणान्यु
१ महानतरणुनतेध बालतपोऽकामनिर्जया च देवायुर्निवशाति सम्यग्दृधिश्च यो जीनः ॥ १॥ प्रकृत्या तनुपायो दागरतिः कीलयमविहीनः मध्यमगुणयुको मनुजायुर्वनाति जीवः ॥ १॥ २ श्रमणोपासकेन भदन्त ! तयारूपं धमणं वा माहनं वा प्रासुकैपणीयेनाशनादिना ४ प्रतिलम्भयता कि कियते ।, गौतम ।।
| |११०॥ एकान्ततो निर्जरा कियते न तेन किंचिदपि पापकर्म क्रियते ॥
दीप अनुक्रम [१३३]
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
तानि, तव शुभाशुभमिति तत्रादौ तावदशुभायुदीर्घताकारणान्याह-तिहीं'त्यादि प्राग्वत्, नवरं अशुभदीर्घायुष्टाये इति नारकायुष्कायेति भावः, तथाहि-अशुभं च तत्पापप्रकृतिरूपत्वात् दीर्घ च तस्य जघन्यतोऽपि दशवर्षसहनस्थि-| तिकत्वादुत्कृष्टतस्तु चयखिंशत्सागरोपमरूपत्वादशुभदीर्घ, तदेवंभूतमायुः जीवितं यस्मात्कर्मणस्तदशुभदीर्घायुस्तद्भाव-| स्तत्ता तस्यै तया वेति, प्राणान्-प्राणिन इत्यर्थोऽतिपातयिता भवति मृषावाद वक्ता भवति तथा श्रमणमशनादिना हीलनादि कृत्वा प्रतिलम्भयिता भवतीत्यक्षरघटना, हीलना तु जात्याधुघट्टनतो निन्दनं मनसा खिंसनं जनसमक्षं गर्हणं | तत्समक्षं अपमाननमनभ्युत्थानादिभिः, 'अन्यतरेण' बहूनां मध्ये एकतरेण, कचित्त्वन्यतरेणेति न दृश्यते, 'अमनोज्ञेन' स्वरूपतोऽशोभनेन कदन्नादिनाऽत एवाप्रीतिकारकेण, भक्तिमतस्त्वमनोज्ञमपि मनोज्ञमेव, तत्फलत्वाद्, आर्यचन्दनाया इव, आर्यचन्दनया हि कुल्मापाः सूर्पकोणकृता भगवते महावीराय पञ्चदिनोनपाण्मासिकक्षपणपारणके दत्ताः, तदैव च तस्या लोहनिगडानि हेममयनूपुरी सम्पन्नी केशाः पूर्ववदेव जाताः पञ्चवर्णविविधरजराशिभिहं भृतं सेन्द्रदेवदानवनरनायकैरभिनन्दिता कालेनावाप्तचारित्रा च सिद्धिसौधशिखरमुपगतेति, इह च सूत्रेऽशनादि प्रासुकापासुकत्वादिना न विशेषितं, हीलनादिकर्तुःप्रासुकादिविशेषणस्य फलविशेष प्रत्यकारणत्वात् , मत्सरजनितहीलनादिविशेषणानामेव प्रधानतया तत्कारणत्वादिति । प्राणातिपातमृपावादयो नविशेषणपक्षव्याख्यानमपि घटत एव, अवज्ञादानेऽपि प्राणातिपातादेदृश्यमानस्वादिति, भवति च प्राणातिपातादेनरकायुः, यदाह-"मिच्छादिही महारंभपरिग्गहो तिब्व
१भिभ्यामिहारंभपरिग्रहस्तोत्र
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[१२५]
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दीप अनुक्रम [१३३]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना- सूत्र
प्रत सूत्रांक [१२५]
MEAKELAMEA6A
दीप अनुक्रम [१३३]
लोहनिस्सीलो । नरयाउयं निबंधइ पावमती रोहपरिणामो॥१॥” इति ॥ उक्तविपर्ययेणाधुनेतरदाह-तिहिं ठाणेही
N३ स्थानत्यादि पूर्ववत्, नवरं 'वन्दित्वा' स्तुत्वा 'नमस्थित्त्वा' प्रणम्य सत्कारयित्वा वस्त्रादिना सन्मानयित्वा प्रतिपत्तिविशेषेण |
काध्ययने कल्याण-समृद्धिः तद्धेतुत्वात् साधुरपि कल्याणमेवं मंगलं विघ्नक्षयस्तद्योगान्मङ्गलं दैवतमिव [देवतेव] दैवतं चैत्यमिव
उद्देशः१ जिनादिप्रतिमेव चैत्यं श्रमणं 'पर्युपास्य' उपसेव्येति, इहापि प्रासुकाप्रासुकतया दानं न विशेषितं, पूर्वसूत्रविपर्य- सू० १२६ यत्वादस्य, पूर्वसूत्रस्य चाविशेषणतया प्रवृत्तत्वादिति, न च प्रासुकाप्रासुकदानयोः फलं प्रेति न विशेषोऽस्ति, पूर्वसूत्रयोस्तस्य प्रतिपादितत्वात्, तस्मादिह प्रासुकैषणीयस्य कल्पप्राप्तावितरस्य चेदं फलमवसेयं, अथवा भावप्रकर्षविशेषादनेपणीयस्यापीदं फलं न विरुध्यते, अचिन्त्यत्वाच्चित्तपरिणतः, सा हि बाह्यस्यानुगुणतयैव न फलानि साधयति, भरतादी-1 नामिवेति, इह च प्रथममल्यायुःसूत्रं द्वितीयं तद्विपक्षः तृतीयमशुभदीर्घायुःसूत्रं चतुर्थं तद्विपक्ष इति न पुनरुक्ततेति ॥ प्राणानतिपातनादि च गुप्तिसद्भावे भवतीति गुप्तीराह
ततो गुत्तीतो पन्नत्ताओ, तं०-मणगुत्ती वतिगुची कायगुत्ती, संजयमणुस्साणं रातो गुत्तीओ पं० २०-मण, वइ० काय, तो अगुत्तीओ पं० सं०-मणअगुत्ती वदभगुत्ती कायअगुत्ती, एवं नेरहताणं जाव थणियकुमाराणं, पंचिंदिय
१ लोभानिशीलः । निरयायुर्निबध्नाति पापमती रुद्धपरिणामः ॥१॥२ प्रति वि.प्र. ३ यथाभदकापेक्षया प्रवृत्तौ मनुष्यापेक्षया स्वात्तत् , चतुर्थे तुला ॥१११॥ मा परिणतापेक्षया अत एव सरकारयित्वेवादि, तथा देवानुष्कायपेक्षमेतत्.
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१२६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२६]
तिरिषखजोणियाणं असंजतगणुस्साणं वाणमंतराणं जोइसियाणं वेमाणियाणं । ततो दंडा पं० सं०-मणदंडे वयदंडे काय- .
दंडे, नेरदयाणं तओ दंडा पण्णत्ता, सं०-मणदंडे वइदंडे कायदंडे, विगलिं दियवज जाव वेमाणियाणं (सू० १२६) का तओ' इत्यादि कण्ठ्यं, नवरं गोपनं गुप्ति:-मनःप्रभृतीनां कुशलानां प्रवर्तनमकुशलानां च निवर्त्तनमिति, आह च। 181-"मणगुत्तिमाइयाओ गुत्तीओ तिन्नि समयकेहिं । पवियारेयररूवा णिद्दिडाओ जओ भणियं ॥१॥समिओ णि-13
यमा गुत्तो गुत्तो समियत्तणमि भइयब्बो । कुसलवइमुईरतो जं वइगुत्तोऽवि समिओऽवि ॥२॥ इति, एताश्चतुर्विंशतिदण्डके चिन्त्यमाना मनुष्याणामेव, तत्रापि संयतानां, न तु नारकादीनामित्यत आह-'संजयमणुस्साण'मित्यादि, कण्ठ्यम् ।। उक्ता गुप्तयस्तद्विपर्ययभूता अथागुप्तीराह-'तओं इत्यादि कण्ठ्यं, विशेषतश्चतुर्विंशतिदण्डके एता अतिदिशन्नाह–एच'मित्यादि, 'एवं मिति सामान्यसूत्रवन्नारकादीनां तिम्रोऽगुप्तयो वाच्या, शेष कण्ठ्यं, नवरमिहकेन्द्रियविकलेन्द्रिया नोक्ताः, वाङानसोस्तेषां यथायोगमसम्भवात् , संयतमनुष्या अपि नोक्काः, तेषां गुप्तिप्रतिपादनादिति ॥ अगुप्तयश्चात्मनः परेषां च दण्डनानि भवन्तीति दण्डान्निरूपयन्नाह-तओदण्डे त्यादि, कण्ठ्यं, नवरं मनसा दण्डनमात्मनः परेषां चेति मनोदण्डः, अथवा दण्ड्यते अनेनेति दण्डो मन एव दण्डो मनोदण्ड इति, एवमितरावपि, विशेषचिन्तायां चतुर्विंशतिदण्डके 'नेरइयाणं तओ दंडा' इत्यादि यावद्वैमानिकानामिति सूत्रं वाच्यं, नवरं 'विगलिंदियवजति
१ मनोगत्यादिका गुप्तयस्तिस्रः समयकेतुभिः प्रविचारेतररूपा निधि यतो भगित ॥ 1 ॥ समिती नियमाद् गुप्तौ गुप्तः समितत्त्वे भक्तयः कुशलवाचमुदीरयन् वद्वारगुतोऽपि समितोऽपि ॥१॥
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दीप अनुक्रम [१३४]
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आगम
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प्रत
सूत्रांक [१२६]
दीप
अनुक्रम
[१३४]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ (मूलं+वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१२६] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३]
श्रीस्थाना
ङ्गसूत्र
वृत्तिः
॥ ११२ ॥
एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियान् वर्जयित्वेत्यर्थः तेषां हि दण्डत्रयं न सम्भवति, यथायोगं वाङ्मनसोरभावादिति ॥ दण्डश्च गई णीयो भवतीति गही सूत्राभ्यामाह
तिविहा गरड़ा पं० [सं० मणसा वेगे गरहति, वयसा बेगे गरहति, कायसा वेगे गरइति पावाणं कम्माणं अकरणयाए, अथवा गरा तिविद्दा, पं० तं० - दीहंगे अद्धं गरहृति, रहस्संयेगे अर्द्ध गरहति, कार्यपेगे पडिसाहरति पावाणं कम्माण अकरणयाए, तिविहे पञ्चकखाणे पं० तं मणसा वेगे पञ्चस्याति वयसा वेगे पञ्चकखाति कायसा वेगे पचखाइ, एवं जहा गरहा तहा पञ्चक्खाणेवि दो आलावगा भाणियव्वा (सू० १२७ )
'तिविहे 'त्यादि सूत्रद्वयं गतार्थं, नवरं, गर्हते - जुगुप्सते दण्डं स्वकीयं परकीयं आत्मानं वा 'कायसावित्ति सकार| स्यागमिकत्वात् कायेनाप्येकः, कथमित्याह-पापानां कर्म्मणामकरणतया हेतुभूतया, हिंसाद्यकरणेनेत्यर्थः, कायगह हि पापकर्माप्रवृत्यैव भवतीति भावः, उक्तं च - "पापजुगुप्सा तु तथा सम्यक्परिशुद्धचेतसा सततम् । पापोद्वेगोऽकरणं तदचिन्ता चेत्यनुक्रमसः ॥ १ ॥” इति अथवा पापकर्मणामकरणतायै - तदकरणार्थं त्रिधाऽपि गर्हते, अथवा चतुर्थ्यर्थे षष्ठी ततः पापेभ्यः कर्म्मभ्यो गर्हते तानि जुगुप्सत इत्यर्थः किमर्थम् ?--अकरणतायै मा कार्षमहमेतानीति, 'दीडपेगे अर्द्ध'ति दीर्घ कालं यावत्, तथा कायमप्येकः प्रतिसंहरति-निरुणद्धि, कया ? - पापानां कर्म्मणामकरणतया हेतुभूतया तदकरणेन तदकरणतायै वा तेभ्यो वा गर्हते, कार्य वा प्रतिसंहरति तेभ्यः, अकरणतायै तेषामेवेति ॥ अतीते दण्डे गर्दा भवति सा चोक्का, भविष्यति च प्रत्याख्यानमिति सूत्रद्वयेन तदाह — 'तिविहे 'त्यादि गतार्थ, नवरं 'गरि
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'गर्हा' शब्दस्य व्याख्या:
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"स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
~234~
३ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ सू० १२७
॥ ११२ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
SANS-SECRED
सूत्रांक
[१२७]
दीप अनुक्रम [१३५]
हत्ति गर्हायां, आलापकी चेमा 'मणसे त्यादि, 'कायसा वेगे पञ्चक्खाइ पावाणं कम्माणं अकरणयाए' इत्येतदन्त । एकः, 'अहवा' पच्चक्खाणे तिविहे पं०-१०-दीहंपेगे अद्धं पञ्चक्खाइ रहस्संपेगे अद्धं पञ्चक्खाइ कार्यपेगे पडिसा-8 हरइ पावाणं कम्माणं अकरणयाए इति द्वितीयः, तत्र कायमप्येकः प्रतिसंहरति पापकर्माकरणाय अथवा कार्य प्रतिसंहरति पापकर्मभ्योऽकरणाय तेषामेवेति ॥ पापकर्मप्रत्याख्यातारश्च परोपकारिणो भवन्तीति तदुपदर्शनाय दृष्टान्त-11 | भूतवृक्षाणां तद्दान्तिकानां च पुरुषाणां प्ररूपणार्थमाह
ततो रुक्खा पं० त०-पत्तोवते फलोवते पुप्फोवते १ एषामेव तओ पुरिसजाता पं० सं०-पत्तोवारुक्खसामाणा पुफोवारुक्खसामाणा फलोवारुखसामाणा २, ततो पुरिसज्जाया पं० -नामपुरिसे ठवणपुरिसे दब्बपुरिसे ३, तो पुरिसजाया पं०, ०-नाणपुरिसे दसणपुरिसे चरित्तपुरिसे ४, तओ पुरिसज्जाया पं० सं०-वेदपुरिसे चिंधपुरिसे अभिलावपुरिसे ५, तिविहा पुरिसजाया पं० २०-उत्तमपुरिसा मज्झिमपुरिसा जहन्नपुरिसा ६, उत्तमपुरिसा तिविद्या पं० सं०-धम्मपुरिसा भोगपुरिसा कम्मपुरिसा, धम्मपुरिसा अरिहंता भोगपुरिसा चकवट्ठी कम्मपुरिसा वासुदेवा, महिमपुरिमा तिविहा पं० तं-उम्गा भोगा रायन्ना ८, जहन्नपुरिसा विविहा पं० सं०-दोसा भयगा
भातिलगा ९ (सू० १२८) 'तओ रुक्खे'त्यादि सूत्रद्वयं, पत्राण्युपगच्छति-प्रामोति पत्रोपगः, एवमितरी, 'एवमेवेति दान्तिकोपनयनार्थः,12 पुरुषजातानि-पुरुषप्रकारा यथा पत्रादियुक्तत्वेनोपकारमात्र विशिष्टविशिष्टतरोपकारकारिणोऽर्थिषु वृक्षाः तथा लोकोत्तर-18
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
३ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ सू०१२८
[१२८]
श्रीस्थाना- पुरुषाः सूत्रार्थाभयदानादिना यथोत्तरमुपकारविशेषकारित्वात् तत्समाना मन्तव्याः, एवं लौकिका अपीति, इह च 'पत्तो- हुसूत्र- वर्ग' इत्यादिवाच्ये पत्तोवा इत्यादिकं प्राकृतलक्षणवशादुक्तं, 'समाणे' इत्यत्रापि च 'सामाणे' इति ॥ अथ पुरुषप्रस्ता- वृत्तिः
वात् पुरुषान् सप्तसूच्या निरूपयन्नाह–'तओ' इत्यादि कण्ठ्यं, नवरं नामपुरुषः पुरुष इति नामैव, स्थापनापुरुषः पुरु-
षप्रतिमादि, द्रव्यपुरुषः पुरुषत्वेन य उत्पत्स्यते उत्पन्नपूर्वो वेति, विशेषोऽनेन्द्रसूत्राद् द्रष्टव्यो भवति, अत्र भाष्य- ॥११३॥
गाथा--"आगमओऽणुवउत्तो इयरो दवपुरिसो तिहा तइओ । एगभवियाइ तिविहो मूलुत्तरनिम्मिओ वावि ॥१॥" मूलगुणनिर्मितः पुरुषप्रायोग्याणि द्रव्याणि, उत्तरगुणनिर्मितस्तु तदाकारवन्ति तान्येवेति, भावपुरुषभेदाः पुनर्ज्ञानपुर-11 पादयः । ज्ञानलक्षणभावप्रधानपुरुषो ज्ञानपुरुषः एवमितरावपि । वेदः पुरुषवेदः तदनुभवनप्रधानः पुरुषो वेदपुरुषः, स च स्त्रीपुनपुंसकसम्बन्धिषु त्रिष्वपि लिङ्गेषु भवतीति, तथा पुरुषचिह्नः-३मश्रुमभृतिभिरुपलक्षितः पुरुषश्चिहपुरुषो, यथा
नपुंसकं श्मश्रुचिह्नमिति, पुरुषवेदो वा चिहपुरुषस्तेन चिह्नयते पुरुष इतिकृत्वेति, पुरुषवेषधारी वा स्यादिरिति, अभिलिप्यतेऽनेनेति अभिलाप-शब्दः स एव पुरुषः पुंलिङ्गतया अभिधानात् यथा घटः कुटो वेति, आह च-"अभिलावो
पुंलिंगाभिहाणमेत्तं घडो व चिंधे उ । पुरिसाकिई नपुंसो वेओ वा पुरिसवेसो वा ॥ २॥ वेयपुरिसो तिलिंगोऽवि पुरिसो वेदाणुभूइकालम्मि" ॥ इति, 'धम्मपुरिसत्ति-धर्मः क्षायिकचारित्रादिस्तदर्जनपराः पुरुषाः धर्मपुरुषाः, उक्तं च
१ आगमतोऽनुपयुक्त नोमागमतो हव्य पुरुषविधा तृतीयः । एकमविकादिविविधः मूलोत्तरनिर्मितो वाऽपि ( गोग्गानि व्याणि आकारयन्ति वा) मा &ामिलापः धुलिकाभिधानमा पट व चिहेतु । पुरुषाकतिर्नपुंसको वेदो या पुरुषवेषो वा ॥ २॥ पेदपुरुषत्रिलिंगोऽपि पुरुषवेदानुभूतिकाले।
दीप अनुक्रम [१३६]
454
॥११३॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१२८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
CHAR
प्रत सूत्रांक
[१२८]
दीप अनुक्रम [१३६]
KHERS
"धम्मपुरिसो तयज्जणवावारपरो जह सुसाह" इति, भोगा:-मनोज्ञाः शब्दादयस्तत्पराः पुरुषा भोगपुरुषाः १, आह च
"भोगपुरिसो समज्जियविसयसुहो चकवट्टिब्ब" इति, कर्माणि-महारम्भादिसम्पाद्यानि नरकायुष्कादीनीति, उग्रा-भग&ावतो नाभेयस्य राज्यकाले ये आरक्षका आसन्, भोगास्तत्रैव गुरवः, राजन्यास्तत्रैव वयस्याः, तदुक्तम्-"उग्गा भोगा करायन्न खत्तिया संगहो भये चउहा । आरक्खि गुरु वयंसा सेसा जे खत्तिया ते उ ॥१॥” इति, तद्वंशजा अपि तत्त
व्यपदेशा इति, एषां च मध्यमत्वमनुस्कृष्टत्वाजघन्यत्वाभ्यामिति, दासा-दासीपुत्रादयः भृतकाः-मूल्यतः कर्मकराः |'भाइल्ग'त्ति भागो विद्यते येषां ते भागवन्तः शुद्धचातुर्थिकादय इति ॥ उक्तं मनुष्यपुरुषाणां त्रैविध्यमधुना सामान्यतस्तिरश्चां जलचरस्थलचरखचरविशेषाणां, 'तिविहा मच्छे'त्यादि सूत्रदिशभिस्तदाह
तिविहा माछा पं० २०-अंडया पोअया संमुच्छिमा १, अंडगा मच्छा तिविहा पं० सं०-इत्थी पुरिसा णपुंसगा २, पोतया मच्छा तिविहा पं० त०-इत्थी पुरिसा णपुंसगा ३, तिविहा पक्षी पं० त०-अश्या पोमया समुच्छिमा १, अंध्या पक्खी तिविहा पं० त०-इत्थी पुरिसा णपुंसगा २, पोतजा पक्खी तिबिहा पं० सं०-इत्यी पुरिसा णपुंसगाई, एवमेतेणं अमिलावेणं उरपरिसप्पावि भाणियव्वा, भुजपरिसप्पाविभाणियचा ९(सू० १२९) एवं चेव तिविहा इत्थीओ पं० सं०-तिरिक्खजोणित्थीओ मणुस्सित्थीओ देविस्थीओ १, तिरिक्खजोणीओ इत्थीओ विवि
धर्मपुरुषसदर्जनब्यापारपरो यथा मुसाधुरिति ॥ २ भोगपुरुषः समर्जितविषय मुखवकवत्ताव । ३व्या भोगा राजन्याः बाविया संग्रहो भवेचातुर्धा ॥ मा-1 | रक्षकगुरुवयस्याः शेषा ये क्षत्रियास्ते तु ॥१॥
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[१२९
१३१]
दीप
अनुक्रम [१३७
१३९]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१३१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३]
श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः
॥ ११४ ॥
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हाओ पं० [सं० --- जलचरीओ थलचरीओ खहचरीओ २, मणुस्सित्थीओ तिविहाओ, पं० तं० कम्मभूमिआओ अकम्मभूमियाओ अंतरदीविगाओ ३, तिविहा पुरिसा पं० तं०तिरिक्कजोणीपुरिसा मणुस्सपुरिसा देवपुरिसा १, तिरिक्खजोणिपुरिसा तिविहा पं० तं० - जलचरा थलचरा खेचरा २, मणुस्सपुरिसा तिविहा पं० तं कम्म भूमिगा अकम्मभूमिगा अंतरदीवगा है, तिविहा नपुंसंगा पं० तं०रतियनपुंसगा तिरिक्खजोणियनपुंसगा मणुस्सनपुंगा १, तिरिक्खजोणियनपुंसगा तिविहा पं० [सं० जलयरा थलवरा खरा २, मणुस्सनपुंसंगा तिविधा पं० तं०—कम्मभूमिगा अकम्मभूमिगा अंतरदीवगा है । ( सू० १३०) तिथिहा तिरिक्खजोणिया पं० तंव – इत्थी पुरिसा नपुंसगा (सू० १३१ )
सुगमानि चैतानि, नवरं अण्डाज्जाता अण्डजाः, पोतं वस्त्रं तद्वज्जरायुर्वर्जितत्वाज्जाताः, पोतादिव वा वोहित्थाज्जाताः पोतजाः, सम्मूच्छिमा अगर्भजा इत्यर्थः, सम्मूच्छिमानां ख्यादिभेदो नास्ति नपुंसकत्वात्तेषामिति स सूत्रे न | दर्शित इति । पक्षिणोऽण्डजाः हंसादयः, पोतजा वल्गुलीप्रभृतयः, सम्मूच्छिमाः खञ्जनकादयः, उद्भिज्जत्वेऽपि तेषां सम्मूर्छजत्वव्यपदेशो भवत्येव, उद्भिज्जादीनां सम्मूर्च्छनज विशेषत्वादिति, 'एव' मिति पक्षिवत्, एतेन प्रत्यक्षेणाभिलापेन 'तिविहा उरपरिसप्पे' त्यादिसूत्रत्रयलक्षणेन, उरसा-वक्षसा परिसर्पन्तीति उरः परिसर्पाः सर्व्वादयस्तेऽपि भणितव्याः, तथा भुजाभ्यां त्राहुभ्यां परिसर्पन्ति ये ते तथा नकुलादयस्तेऽपि भणितव्याः, 'एवं चेव'त्ति, एवमेव यथा पक्षिणस्तथैवेत्यर्थः, इहापि सूत्रत्रयमध्येतव्यमिति भावः ॥ उक्तं तिर्यग्विशेषाणां त्रैविध्यमिदानीं स्त्रीपुरुषनपुंसकानां तदाह
"स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
For Personal & Pran Only
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३ स्थानकाध्ययने
उद्देशः १ सू० १३१
॥ ११४ ॥
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२९१३१]
कातिविहे'त्यादि नवसूत्री सुगमा, नवरं 'खहंति प्राकृतत्वेन खम्-आकाशमिति, कृष्यादिकर्मप्रधाना भूमिः कर्मभूमिः-18
भरतादिका पञ्चदशधा तत्र जाताः कर्मभूमिजा, एवमकर्मभूमिजाः, नवरमकर्मभूमिः भोगभूमिरित्यर्थः देवकुर्यादिकाद है त्रिंश द्विधा, अन्तरे-मध्ये समुद्रस्य दीपा ये ते तथा तेषु जाता आन्तरद्वीपास्त एवान्तरद्वीपिकाः ।। विशेष(तः)वैविध्यमु-17
क्त्वा सामान्यतस्तिरश्चां तदाह-'तिविहे त्यादि, कण्ठयम् ॥ रूयादिपरिणतिश्च जीवानां लेश्यावशतो भवतीति तन्निबन्धनकर्मकारणत्वात् तासामिति नारकादिपदेषु लेश्याः त्रिस्थानकावतारेण निरूपयशाह
नेरइयाण तमो लेसामो पं० त०-कण्हलेसा नीललेसा काउलेसा १, असुरकुमाराणं तओ लेसाओ संफिलिहाओ पं०, तं०-फण्हलेसा नीललेसा काउलेसा २, एवं जाव थणियकुमाराणं ११, एवं पुढविकाइयाणं १२ आठवणस्सतिकाइयाणवि १३-१४ तेषकाइयाणं १५ वाजकाइयाणं १६ वेंदियाणं १७ तेंदियाणं १८ चउरिदिआणवि १९ सो लेस्सा जहा नेरइयाणं, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं तमो लेसाओ संकिलिट्ठाओ पं० २०-कण्हलेसा नीललेसा काउलेसा २०, पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं तओ लेसाओ असंकिलिहाओ पं० २० तेउलेसा पम्हलेसा सुकलेसा २१, एवं मणुस्साणवि २२, वाणमंतराणं जहा असुरकुमाराणं २३, बेमाणियाणं तओ लेस्साओ पं० सं०-तेउलेसा पम्हलेसा सुकलेसा २४ ।
(सू० १३२) निरयाणमित्यादिदण्डकसूत्रं कण्ठ्यं, नवरं 'नेरइयाणं तओ लेस्साओ'त्ति एतासामेव तिसृणां सद्भावादविशे-18 पणो निर्देशः, असुरकुमाराणां तु चतसृणां भावात् सकिष्टा इति विशेषितं, चतुर्थी हि तेषां तेजोलेश्याऽस्ति, किन्तु है।
दीप अनुक्रम
ARDCOREGAON
[१३७१३९]
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[१३२]
प
अनुक्रम [१४०]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१३२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [ ०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थानाङ्गसूत्र
वृत्तिः
॥ ११५ ॥
३ स्थान
सा न संक्लिष्टेति, पृथिव्यादिष्वसुरकुमारसूत्रार्थमतिदिशन्नाह - 'एवं पुडवी' त्यादि, पृथिव्यन्यनस्पतिषु देवोत्यादसम्भवाच्चतुर्थी तेजोलेश्याऽस्तीति सविशेषणो लेश्यानिर्देशोऽतिदिष्टः, तेजोवायुद्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु तु देवानुत्पत्त्या तद- ४ काध्ययने भावान्निर्विशेषण इत्यत एवाह-'तओ' इत्यादि, पञ्चेन्द्रियतिरश्चां मनुष्याणां च पडपीति संक्लिष्टासंक्लिष्ट विशेषणतचतुःसूत्री, नवरं मनुष्यसूत्रे अतिदेशेनोके इति व्यन्तरसूत्रे संक्लिष्टा वाच्याः, अत एवोकं 'वाणमंतरे त्यादि, वैमानिकसूत्रं निर्विशेषणमेव, असंक्लिष्टस्यैव त्रयस्य सद्भावात्, व्यवच्छेद्याभावेन विशेषणायोगादिति । ज्योतिष्कसूत्रं नोकं, तेषां तेजोलेश्याया एव भावेन त्रिस्थानकानवतारादिति ॥ अनन्तरं वैमानिकानां लेश्याद्वारेणेहावतार उक्तो, ज्योतिष्काणां तु तथा तदसम्भवाच्चलनधर्मेण तमाह
उद्देशः १ सू० १३३
तिर्हि ठाणेहिं तारारू चलिया तं० विकुव्यमाणे वा परिवारेमाणे वा ठाणाओ वा ठाणं संकममाणे तारारूवे चलेजा, तिर्हि ठाणेहिं देवे विज्जुतारं करेज्जा तं० - विकुन्त्रमाणे वा परियारेमाणे वा तद्दारुवस्स समणस्स वा माहणरस वा इट्ट जुति जसं बलं वीरियं पुरिसकारपरक उबसेमाणे देवे विज्जुतारं करेजा । तिहिं ठाणेहिं देवे धणियस करेजा तं०विकुवमाणे, एवं जहा विज्जुतारं तहेब धणियसपि ( सू० १३३ )
'तारारूवेत्ति तारकमात्रं 'चलेला' स्वस्थानं त्यजेत्, वैक्रियं कुर्वद्वा परिचारयमाणं वा, मैथुनार्थं संरम्भयुक्तमित्यर्थः, स्थानाद्वैकस्मात् स्थानान्तरं सङ्क्रामत् गच्छदित्यर्थः, यथा धातकीखण्डादिमेरुं परिहरेदिति, अथवा क्वचिन्मह
Education Intemational
For Personal & Pre Only
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।। ११५ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
4%25845%-45-45%
सूत्रांक
[१३३]
दीप अनुक्रम [१४१]
चिके देवादी चमरवद्वैकियादि कुर्वति सति तन्मार्गदानार्थ चलेदिति, उक्तं च-तत्थ णं जे से वाघाइए अंतरे से ४ जहन्नेणं दोन्नि छावढे जोयणसए, उकोसेणं चारस जोयणसहस्साई ति, तत्र व्याघातिकमन्तरं महर्द्धिकदेवस्य मार्गदा-1
नादिति ॥ अनन्तरं तारकदेवचलनक्रियाकारणान्युक्तान्यथ देवस्यैव विद्युत्स्तनितक्रिययोः कारणानि सूत्रद्वयेनाह-ति-18 ही'त्यादि, कण्ठयं, नवरं 'विजुयारंति विद्युत्-तडित्सैव क्रियत इति कार:-कार्य विद्युतो वा करणं कारः-किया वि-IN द्युत्कारस्तं, विद्युतं कुर्यादित्यर्थः, वैक्रियकरणादीनि हि सदर्पस्य भवन्ति, तत्प्रवृत्तस्य च दोल्लासवतश्चलनविद्युद्ग-2 जनादीन्यपि भवन्तीति चलनविद्युत्कारादीनां वैक्रियादिकं कारणतयोक्तमिति, 'ऋद्धि' विमानपरिवारादिकां द्युति-शरीराभरणादीनां 'यश' प्रख्याति बलं शारीरं वीर्य-जीवप्रभवं पुरुषकारश्च-अभिमानविशेषः स एव निष्पादितस्वविषयः पराक्रमश्चेति पुरुषकारपराक्रमं समाहारद्वन्द्वः, तदेतत्सर्वमुपदर्शयमान इति । तथा स्तनितशब्दो मेघगर्जितं 'एव'मित्यादि बचनं 'परियारेमाणे वा तहारूवस्से'त्याद्यालापकसूचनार्थमिति ॥ विद्युत्कारस्तनितशब्दावुत्पातरूपावनन्तरमुक्तावथोल्पातरूपाण्येव लोकान्धकारादीनि पञ्चदशसूच्या 'तिहिं ठाणेही त्यादिकया पाह
तिदि ठाणेहिं लोगंधयारे सिया तं-अरिहंतेहिं वोच्छिज्जमाणेहि अरिहंतपन्नत्ते धमे बोच्छिजमाणे पुन्धगते पोच्छि
तन व्यापातिकं यदिदमन्तरं तमपन्येन द्विवाधिक देशते योजनानां उत्कृष्ट तु द्वादश सहनानि उत्पातोऽत्राभूतभावार्थोऽनिष्टताच, यतोऽप्रायामि श्रीणि मूत्राप्य निधायंसूचकान्यपराणि तु दशेष्ठायशंसानि, संगता चोत्पत्तिवतुत्पातस्थाप्युद्भक्तार्थता। १ मेपेक्षयेति संग्रहणीत्तिः, कादाक्तिमन्तरं तु लक्षयोजनान्यपि यमराद्यागम इस
25A4%250-45-15
wwwwjanalaya
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३४]
दीप अनुक्रम [१४२]
श्रीस्थानाजमाणे १, तिहिं ठाणेहि लोगुजोते सिया २०-अरहंतेहिं जायमाणेहिं अरहतेस पनयमाणेम भरहताणं णाणप्पाय
३ स्थानमहिमासु २, तिहिं ठाणेहिं देवंधकारे सिया तं०-अरहंतेहिं बोच्छिजमाणेहिं अरहंतपन्नत्ते धम्मे वोच्छिजमाणे पुच. काध्ययने वृत्तिः
गते वोच्छिजमाणे ३, तिहिं ठाणेहिं देवुजोते सिया २०-अरहतेहिं जायमाणेहिं अरहंतेहिं पन्वयमाणेहि अरहवाणं णा- | उद्देशः १
गुप्पायमहिमामु ४, तिहिं ठाणेहि, देवसंनिवाए सिया तं०-अरिहंतेहिं जायमाणेहिं अरिहंतेहिं पब्वयमाणेहिं अरिहंताणं ॥११६॥
सू०१३४ नाणुप्पायमहिमासु ५, एवं देवुकलिया ६ देवकहकहए ७ । तिहिं ठाणेहिं देविंदा माणुसं लोग हव्वमागच्छति तं०अरहंतेहिं जायमाणेहिं अरहंतेहिं पव्वयमाणेहिं अरहताणं णाणुप्पायमहिमामु ८, एवं सामाणिया ९ तायत्तीसगा १० लोगपाला देवा ११ अगमहिसीनो देवीओ १२ परिसोववन्नगा देवा १३ अणियाहिवई देवा १४ आयरक्खा देवा १५ माणुसं लोग हवमागच्छति। तिहिं ठाणेहिं देवा अन्मुद्विमा, तं०-अरहंतेहिं जायमाणेहिं जाव तं चेव १, एवमासणाई चलेजा २, सीहणात करेजा ३, चेलक्खेवं करेजा ४, तिहिं ठाणेहिं देवाणं चेयरुक्खा चलेजा २०--अरईतेहिं. संच ५ । तिहिं ठाणेहिं लोगंतिया देवा माणुसं लोग इवमागच्छिज्जा, तं०-अरहंतेहिं जायमाणेहिं अरहंतेहिं
पच्चयमाणेहिं अरहताणं गाणुप्पायमहिमासु (सू० १३४)
कण्ठ्या चेय, नवरं, 'लोके' क्षेत्रलोकेऽन्धकार-तमो लोकान्धकार स्याद्-भवेत् द्रव्यतो लोकानुभावादावतो वा प्रकादशकस्वभावज्ञानाभावादिति, तयथा-अर्हन्ति अशोकाद्यष्टप्रकारां परमभक्तिपरसुरासुरविसरविरचितां जन्मान्तरमहा
लवालविरूढानवद्यवासनाजलाभिषिक्तपुण्यमहातरुकल्याणफलकल्पां महाप्रातिहार्यरूपां पूजां निखिलपतिपन्धिप्रक्षयात्री
CAMERICANCES
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३४]
दीप अनुक्रम [१४२]
सिद्धिसौधशिखरारोहणं चेत्यर्हन्तः, उक्त च-"अरिहंति वंदणनमंसणाणि अरिहंति पूयसकारं । सिद्धिगमणं च अरिहा है। अरिहंता तेण चुचंति ॥१॥"त्ति, तेषु 'व्यवच्छिद्यमानेषु' निर्वाणं गच्छत्सु, तथाईप्रज्ञप्ते धर्मे व्यवच्छिद्यमाने तीर्थ-| व्यवच्छेदकाले, तथा 'पूर्वाणि' दृष्टिवादाङ्गभागभूतानि तेषु गतं-प्रविष्टं तदभ्यन्तरीभूतं तत्स्वरूपं यच्छ्रतं तत्पूर्वगतं तत्र व्यवच्छिद्यमाने, इह च राजमरणदेशनगरभङ्गादावपि दृश्यते दिशामन्धकारमात्रं रजस्वलतयेति, यत्पुनर्भगवत्स्वहंदादिषु | निखिलभुवनजनानवद्यनयनसमानेषु विगच्छत्सु लोकान्धकारं भवति तरिकमद्भुतमिति ? । लोकोद्योतो लोकानुभावान्मनुष्यलोके देवागमाद्वा, 'नाणुप्पायमहिमामु' केवलज्ञानोत्पादे देवकृतमहोत्सवेष्विति, देवानां भवनादिष्वन्धकार देवान्धकार लोकानुभावादेवेति, लोकान्धकारे उक्तेऽपि यद्देवान्धकारमुक्तं, तत्सर्वत्रान्धकारसदावप्रतिपादनार्थमिति ।। एवं देवोद्योतोऽपि, देवसन्निपातो-भुवि तत्समवतारो, देवोत्कलिका-तत्समवायविशेषः, 'एवं'मिति त्रिभिरेव स्थानः, 'देवकहकहे ति देवकृतः प्रमोदकलकलस्त्रिभिरेवेति, 'हब्बन्ति शीघ्रं 'सामाणिय'त्ति इन्द्रसमानर्द्धयः, 'तायत्तीस-18 गत्ति महत्तरकल्पाः पूज्याः 'लोकपाला' सोमादयो दिग्नियुक्तकाः 'अग्रमहिष्यः प्रधानभार्याः 'परिषत् परिवारस्तत्रोपपन्नका ये ते तथा 'अनीकाधिपतयों' गजादिसैन्यप्रधाना ऐरावतादयः 'आत्मरक्षा' अङ्गरक्षा राज्ञामिवेति,
'माणुस्सं लोयं हब्बमागच्छन्तीति प्रतिपदं सम्बन्धनीयं १५ ॥ मनुष्यलोकागमने देवानां यानि कारणान्युक्तानि दतान्येव देवाभ्युत्थानादीनां कारणतया सूत्रपञ्चकेनाह-तिहिं' इत्यादि कण्ठ्यं, नवरं 'अन्भुहिज'त्ति सिंहासना
१ चन्दननभनान्यति पूजासत्कारावईन्ति सिद्धिगमनं चाईन्ति देनाईन्च उच्यन्ते ॥१॥
NAGRA
ACCIAAAAAESSA
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३४]
श्रीस्थाना-मदभ्युत्तिष्ठेयुरिति, 'आसनानि' शकादीनां सिंहासनानि, तञ्चलनं लोकानुभावादेवेति, सिंहनादचेलोरक्षेपौ प्रमोदकायौं स्थान
सूत्र- जनप्रतीती, चैत्यक्षा ये सुधर्मादिसभानां प्रतिद्वार पुरतो मुखमण्डपप्रेक्षामण्डपचैत्यस्तूपचैत्यवृक्षमहाध्वजाविकमतः12 काध्ययने वृत्तिः भूयन्ते, लोकान्तिकानां प्रधानतरत्वेन भेदेन मनुष्यक्षेत्रागमनकारणान्याह-तिहीं'त्यादि कण्ठयं, नवरं लोकस्य-व-18 उद्देशः१ ॥११७॥
झलोकस्यान्ता-समीपं कृष्णराजीलक्षणं क्षेत्रं निवासो येषां ते लोकान्ते वा-औदयिकभावलोकावसाने भवा अनन्तर-1 सू०१३५ |भवे मुक्तिगमनादिति लोकान्तिकाः-सारस्वतादयोऽष्टधा वक्ष्यमाणरूपा इति ॥ अथ किमर्थ भदन्त ! ते इहागच्छ-12 न्तीति । उच्यते, आहेतां धर्माचार्यतया महोपकारित्वात् पूजाद्यर्थम् , अशक्यप्रत्युपकाराश्च भगवन्तो धर्माचार्योः, यतः-18
तिण्डं दुष्पडियार समणाउसो! तं०-अम्मापिठणो १ भट्टिस्स २ धम्मायरियस्स ३, संपातोऽवि व णं केइ पुरिसे अम्मापियर सयपागसहस्सपागेहिं तिलहिं अभंगेसा सुरभिणा गंधट्टएणं उम्बट्टित्ता तिहिं उदगेहिं मजावित्ता सव्यालंकारविभूसियं करेत्ता मणुनं थालीपागसुद्धं अट्ठारसर्वजणाउलं भोवणं भोयावेत्ता जावजी पिडिवडेंसियाए परिवहेजा, तेणावि तस्स अम्मापिउस्स दुप्पडियार भवइ, अहे णं से तं अम्मापियरं केवलिपन्नत्ते धम्मे आपवइत्ता पन्नवित्ता परूवित्ता ठावित्ता भवति, तेणामेव तस्स अम्मापिउस्स मुष्पडितारं भवति समणाउसो! १, केइ महचे दरिदं समुक्तसेज्जा, तए णं से दरिद समुकिहे समाणे पच्छा पुरं च णं विज्लभोगसमितिसमन्नागते यादि विहरेजा, तए णं से महणे अन्नया कयाइ दरिदीहूए समाणे तस्स दरिदस्स अंतिए हब्वमागच्छेज्जा, तए णं से दरिदे तस्स भट्टिस्स सव्वस्समवि दलयमाणे तेणावि तस्स दुष्पडियार भवति, अहे णं से तं माहि केवलिपन्नत्ते धम्मे आपवइत्ता पन्नवदत्ता परूबइत्ता ठावदत्ता भवति,
॥११७॥
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दीप अनुक्रम [१४२]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३५]
दीप अनुक्रम [१४३]
तेणामेव तस्स भट्टिस्स सुप्पलियारं भवति २, केति तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स या अंतिए एगमवि आयरियं धम्मियं सुवयणं सोचा निसम्म कालमासे कालं किचा अन्नयरेसु देवलोएम देवत्ताए उववने, तए णं से देवे तं धम्मायरियं दुभिक्खातो वा देसातो सुभिक्वं देसं साहरेजा, कंताराओ वा णिकतार करेजा, दीहकालिएणं वा रोगासंकेणं अमिभूतं समाणं विमोएला, तेणावि तस्स धम्मायरियस्स दुप्पडियारं भवति, अधेणं से तं धम्मायरियं केलिपन्नत्ताओ धम्माओ भई समाणं भुगोवि केवलिपन्नत्ते धम्मे आषतिचा जाव ठावतिता भवति, तेणामेव तस्स धम्मायरियरस सुप्पडियारं भवति ३ (सू० १३५) 'तिण्ह' त्रयाणां दुःखेन-कृच्छ्रेण प्रतिक्रियते-कृतोपकारेण पुंसा प्रत्युपक्रियत इति खलूप्रत्यये सति दुष्पतिकरं प्रत्युपक मशक्यमितियावत्, हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! समस्तनिर्देशो वा हे श्रमणायुष्मन्निति भगवता शिष्यः सम्बोधितः,
अम्बया-मात्रा सह पिता-जनकः अम्बापिता तस्येत्येकं स्थानं, जनकत्वेनैकत्वविवक्षणात्, तथा 'भहिस्स'त्ति भर्नु:लापोषकस्य स्वामिन इत्यर्थ इति द्वितीय, धर्मदाता आचार्यों धर्माचार्यः तस्येति तृतीयम् , आह च-“दुष्पतिकारी
मातापितरी स्वामी गुरुश्च लोकेऽस्मिन् । तत्र गुरुरिहामुत्र च सुदुष्करतरप्रतीकारः॥१॥” इति, तत्र जनकदुष्प्रति-15 कार्यतामाह-संपाओ'ति प्रात:-प्रभातं तेन समं सम्प्रातः सम्पातरपि च-प्रभातसमकालमपि च, यदैव प्रातः संवृत्त | | तदैवेत्यर्थः, अनेन कार्यान्तराव्यग्रतां दर्शयति, संशब्दस्यातिशयार्थत्वाद्वा अतिप्रभाते, प्रतिशब्दार्थत्वाद्वाऽस्य प्रतिप्रभा-1 तमित्यर्थः, 'कश्चिदिति कुलीन एव, न तु सर्वोऽपि 'पुरुषों मानवो देवतिरश्चोरेवंविधव्यतिकरासम्भवात्, शतं पा
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१३५]
दीप अनुक्रम [१४३]
श्रीस्थाना- कानाम्-मओषधिक्काथानां पाके यस्य १ ओषधिशतेन वा सह पच्यते यत् २ शतकृत्वो वा पाको यस्य ३ शतेन वा ३ स्थानसूत्र- रूपकाणां मूल्यतः पच्यते ४ यत्तच्छतपाकम्, एवं सहस्रपाकमपि, ताभ्यां तैलाभ्याम् , 'अभंगेत्ता' अभ्यङ्गं कृत्वा काध्ययने
'गन्धट्टएण'ति गन्धाट्टकेन-गन्धद्रव्यक्षोदेन 'उद्वर्त्य उद्वलनं कृत्वा त्रिभिरुदकैः-गन्धोदकोष्णोदकशीतोदकः 'मज्ज- उद्देशः १ ॥११॥दायित्वा' स्ना(न)पयित्वा मनोज-कलमौदनादि 'स्थाली पिठरी तस्यां पाको यस्य तत्तथा, अन्यत्र हि पक्कमपक्कं वा न सू०१३५
तथाविधं स्यादितीदं विशेषणमिति 'शद्ध' भक्तदोषवर्जितं स्थालीपार्क च तच्छुद्धं च स्थालीपाकेन वा शुद्धमिति विग्रहः,13 | अष्टादशभिलोकप्रतीतैर्व्यञ्जनैः-शालनकैस्तकादिभिर्वा आकुलं-सङ्कीर्ण यत्तत्तथा, अथवाऽष्टादशभेदं च तद् व्यञ्जनाकुलं दाचेति, अत्र भेदपदलोपेन समासः, भोजनं भोजयित्वा, एते चाष्टादश भेदाः-सूओ १ दणो २ जवन ३ तिन्नि यम-lt
साई ६ गोरसो ७ जूसो८ । भक्खा ९ गुललावणिया १० मूलफला ११ हरियगं १२ सागो १३ ॥१॥ होइ रसालू |य तहा १४ पाणं १५ पाणीय १६ पाणगं चेव १७ । अहारसमो सागो १८ निरुवहओ लोइओ पिंडो ॥२॥ मांसत्रयं जलजादिसत्कं जूषो-मुद्गतन्दुलजीरककटुभाण्डादिरसः, भक्ष्याणि-खण्डखाद्यादीनि गुललावणिका-गुडपर्पटिका लोकप्रसिद्धा गुडधाना वा मूलफलान्येक एव पदं, हरितक-जीरकादि शाको वस्तुलादिभर्जिका, रसालू-मजिका, तल्लक्ष
सूप ओदनो यवान्नं त्रीणि च मांसानि गोरसो मुगादिरसो । भक्ष्याणि गुलपर्पटिका मूलफलानि जीरकादि वत्धुलाविः ॥ १॥ भवति मज्जिका च तथा ॥११८॥ मुरादि कर्कटिजलं सौवीरादि वैव । अष्टादशः शाको निरूपहतो लीफिकः पिण्डः ॥1॥
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भोजनस्य अष्टादश भेदा:
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३५]
4450X400-500-5%
85%
शणमिदम् –'दो घयपला महुपलं दहिस्स अद्धादयं मिरिय वीसा । दस खण्डगुलपलाई एस रसालू णिवइजोग्गो ॥१॥ति,
पान-सुरादि, पानीयं-जलं, पानकं-द्राक्षापानकादि, शाक:-तक्रसिद्ध इति, यावान् जीवो यावज्जीव-यावत्प्राणधारणं पृष्ठेस्कन्धे अवतंस इवावतंसः-शेखरस्तस्य करणमवतंसिका पृष्ठ्यवतंसिका तया पृष्ठ्यवतंसिक्या परिवहेत् , पृष्ठ्यारोपितमित्यर्थः, तेनापि परिवाहकेन परिवहनेन वा तस्य-अम्बापितुर्दुष्प्रतीकारम् , अशक्यः प्रतीकार इत्यर्थः, अनुभूतोपकारतया तस्य प्रत्युपकारकारित्वाद्, आह च-"कयज्वयारो जो होइ सज्जणो होइ को गुणो तस्स ! । उवयारबाहिरा जे हवति ते सुंदरा सुयणा ॥१॥" इति, 'अहे णं से'त्ति अथ चेत् णमित्यलङ्कारे स पुरुषस्तम्-अम्बापितरं धर्मे 'स्थापयिता' स्थापनशीलो भवति, अनुष्ठानतः स्थापयतीत्यर्थः, किं कृत्वेत्याह-आघवइत्ता' धर्ममाख्याय 'प्रज्ञाप्य' बोधयित्वा | 'प्ररूप्य' प्रभेदत इति, अथवा आख्याय सामान्यतो यथा कार्यो धर्मः, प्रज्ञाप्य विशेषतो यथाऽसावहिंसादिलक्षणः, प्ररूप्य प्रभेदतो यथा (अष्टादश) शीलाङ्गसहस्ररूप इति, शीलार्थतन्नन्तानि वैतानीति, 'तेणामेव'त्ति ततस्तेनैव धर्मस्थापनेनैव
न परिवहनेन अथवा तेनैव धर्मस्थापकपुरुषेण न परिवाहिना 'तस्य' प्रत्युपकरणीयस्याम्बापितुः 'सुप्पडियाति सुखेन ६ प्रतिक्रियते-प्रत्युपक्रियत इति सुप्रतिकारं, भावसाधनोऽयं, तद्भवति-प्रत्युपकारः कृतो भवतीत्यर्थः, धर्मस्थापनस्य महोपकारत्वाद् , आह च-"संमत्तदायगाणं दुप्पडियारं भवेसु बहुएK। सव्वगुणमेलियाहिवि उपगारसहस्सकोडीहिं ॥१॥"
हे पतपले मधुपर्ल दभोोडक मरीया विशतिः । दश गुइसयोः पलानि एष रसाछपतियोग्यः ॥१॥२कतोपकारो गो भवति सजनो भवति को गुणलाय ? । उपकारवाया ये भवन्ति ते सुन्दराः सजनाः ॥१॥ ३ सम्यक्पदायकानां दुष्प्रतिकारं भवेषु बहुचपि । सर्वगुणनीलिताभिरपि उपकारसहलकोटीभिः ॥१॥
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दीप अनुक्रम [१४३]
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना-
CSC
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वृत्तिः
सूत्रांक
॥११९॥
[१३५]
दीप अनुक्रम [१४३]
इति १॥ अथ भर्सः दुष्पतिकार्यतामाह-केइ महचे'त्ति कश्चित्-कोऽपि महती ऐश्वर्यलक्षणाऽर्चा-ज्वाला पूजा वा यस्य
३ स्थानअथवा महांश्चासावर्थपतितया अय॑श्च-पूज्य इति महाच्चों महायों वा माहत्य-महत्त्वं तद्योगान्माहत्यो वा, ईश्वर इ-18काध्ययने त्यर्थः, दरिद्रम्-अनीश्वर कञ्चन पुरुषमतिदुःस्थं 'समुत्कर्षयेत् धनदानादिनोत्कृष्टं कुर्यात्, 'ततः समुत्कर्षणानन्तरं स दरिद्रः समुत्कृष्टो धनादिभिः 'समाणे ति सन् 'पच्छत्ति पश्चात्काले 'पुरं च गति पूर्वकाले च समुत्कर्षणकाल एवे-1
|सू० १३५ | त्यर्थः अथवा पश्चाद्-भर्तुरसमक्षं पुरश्च-भर्नुः समक्षं च विपुल्या 'भोगसमित्या' भोगसमुदयेन 'समन्वागतो' युक्तो|
यः स तथा स चापि 'विहरेत्' वर्त्तत, ततोऽनन्तरं 'स'महाच्चों भी 'अन्यदा' लाभान्तरायोदये 'कदाचिदू' तथा| विधायामसह्यायामापदि दरिद्रीभूतः सन् 'तस्य' पूर्वसमुत्कृष्टस्य 'अन्तिके पार्षे 'हवं'ति अनन्यत्राणतया शीघं त्रा|णस्य तत्र शक्यस्याभिसन्धेः आगच्छेत् तदा स पूर्वावस्थया दरिद्रः पूपिकारिणे भā 'सध्वस्सति सर्वं च तत् स्वं 12 च-द्रव्यं चेति सर्वस्वं तदपि, आस्तामल्पमिति, 'दलयमाणे'त्ति ददत् न कृतप्रत्युपकारो भवेदिति शेषः, अतस्तेनापिसर्वस्वदानेन सर्वस्वदायकेनापि वा दुष्पतिकारमेवेति २ ॥ अथ धर्माचार्यदुष्प्रतिकार्यतामाह-'के'त्यादि, 'आपरियति | पापकर्मभ्य आराद्यातमित्यार्यमत एवं धार्मिकमत एव सुवचनं श्रुत्वा श्रोत्रेण 'निशम्य' मनसाऽवधार्य अन्यतरेषु देवलोकेष्वन्यतरदेवानां मध्ये इत्यर्थों देवत्वेनोत्पन्न इति, दुर्लभा भिक्षा यस्मिन् देशे स दुर्भिक्षस्तस्मात् 'संहरेत्' नयेत्, कान्तारम्-अरण्यं निर्गतः कान्तारान्निष्कान्तारस्तनिष्क्रमितारं वा, दीर्घः कालो विद्यते यस्य स दीर्घकालिकस्तेन रोगःकालसहर कुठादिरातमा:-कृच्छ्रजीवितकारी सद्योधातीत्यर्थः शूलादिरनयोर्द्वन्द्वकत्वे रोगात तेनेति, धर्मस्थापनेन तु
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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सूत्रांक
[१३५]
दीप अनुक्रम [१४३]
ॐॐॐॐ
भवति कृतोपकारो, यदाह-"जो जेण जंमि ठाणम्मि ठाविओ दंसणे व चरणे था। सो तं तओ चुर्य तंमि चेव का भवे निरिणो ॥१॥" त्ति, शेष सुगमरवान्न स्पृष्टमिति । धर्मस्थापनेन चास्य भवच्छेदलक्षणः प्रत्युपकारः कृतः स्यादिति | धर्मस्य स्थानत्रयावतारणेन भवच्छेदकारणतामाह
तिहिं ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अणादीय अणवदरगं दीहमळू चाउरतं संसारकतारं वीईवएज्जा, तं०-अणिदाणयाए दिहिसंपन्नयाए जोगवाहियाए (सू० १३६) तिविहा ओसप्पिणी पं० २०-उकोसा मज्झिमा जहन्ना १, एवं छप्पि समाओ भाणियन्याओ, जाय दूसमदूसमा ७, तिविहा उस्सप्पिणी पं० त०-ओसा मज्झिमा जहन्ना ८ एवं छप्पि समाओ भाणियब्बाओ, जाव मुसगसुसमा १४ (सू० १३७) तिहिं ठाणेहिं अच्छिन्ने पोमाले चलेजातं.--आहारिजमाणे वा पोमाले चलेजा विकुब्वमाणे वा पोग्गले चलेना ठाणातो वा ठाणं संकामिजमाणे पोग्गले चलेजा, तिविहे उषधी पं० तं०-कम्मोवही सरीरोवही बाहिरभंतमत्तोवही, एवं असुरकुमाराणं भाणियन्वं, एवं एगिदियनेरहयवज जाव वेमाणियाणं १, महवा तिविहे उवधी पं० सं०-सचित्ते अचित्ते मीसए, एवं रहाणं निरंतर आव वेमाणियाणं, तिविहे परिग्गहे पं० २०-कम्मपरिगहे सरीरपरिग्गहे बाहिरभंडमतपरिग्गहे, एवं असुरकुमाराणं, एवं एगिदियनेरतियवजं आव वेमाणियाणं ३, अहवा तिविहे परिगहे प० त०-सचिसे अचित्ते मीसए, एवं नेरतियाणं निरंतरं जाव वेमाणियाणं ४ (सू०॥ १३८॥) यो येन यस्मिन् स्थाने स्थापितो दर्शने या वरणे वा । स तं ततश्रुतं तसिप कृत्वा भवेशिर्षणः॥१॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना झसूत्रवृत्तिः
प्रत सूत्रांक [१३८]
दीप अनुक्रम [१४६]
'तिही'त्यादि कण्ठ्यं, नवरं अनादिकम्-आदिरहितमनवदग्रम्-अनन्तं दीर्घाध्वं-दीर्घमार्ग चत्वारोऽन्ता-विभागा। ३ स्थाननरकगत्यादयो यस्य तच्चतुरन्तं, दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् , संसार एवं कान्तारम्-अरण्यं संसारकान्तारं तद् 'व्य-14 काध्ययने तिव्रजेत् व्यतिक्रामेदिति, अनादिकत्वादीनि विशेषणानि कान्तारपक्षेऽपि विवक्षया योजनीयानि, तथाहि-अना-1 उद्देशः१ घनन्तमरण्यमतिमहत्त्वाच्चतुरन्तं दिग्भेदादिति, निदान-भोगद्धिप्रार्थनास्वभावमार्त्तध्यानं तद्विवर्जितता अनिदानता
| सू०१३८ तया 'दृष्टिसम्पन्नता' सम्यग्दृष्टिता तया 'योगवाहिता' श्रुतोपधानकारित्वं समाधिस्थायिता वा तयेति । भवव्यतिव्रजनं च कालविशेष एव स्यादिति कालविशेषनिरूपणायाह-'तिविहे'स्यादिसूत्राणि चतुर्दश कण्ठ्यानि, नवरम् | अवसर्पिणीप्रथमेऽरके उत्कृष्टा, चतुर्यु मध्यमा, पश्चिमे जघन्या, एवं सुषमसुषमादिषु प्रत्येकं अयं त्रयं कल्पनीयम् , तथा उत्सर्पिण्याः दुष्पमदुष्पमादि सझेदानां चोक्तविपर्ययेणोत्कृष्टत्वं प्राग्वद्योज्यमिति ॥ काललक्षणा अचेतनद्रव्यधा* अनन्तरमुक्तास्तत्साधात्पुद्गलधान्निरूपयन् सूत्राणि पश चतुरश्च दण्डकानाह-तिही'त्यादि, छिन्नः खङ्गादिना पुद्गलः समुदायाच्चलत्येवेत्यत आह-'अच्छिन्नपुद्गल' इति, "आहारेजमाणे'त्ति आहारतया जीवेन गृह्यमाणः स्वस्थानाचलति, जीवेनाकर्षणात्, एवं वैक्रियमाणो वैक्रियकरणवशवर्तितयेति, स्थानात्स्थानान्तरं सङ्कम्यमाणो हस्ताविनेति । उपधीयते-पोष्यते जीवोऽनेनेत्युपधिः, कम्मैवोपधिः कम्मोपधिः, एवं शरीरोपधिः, वाघ:शरीरबाहिर्वती भाण्डानि च-भाजनानि मृन्मयानि मात्राणि च-मात्रायुक्तानि कांस्यादिभाजनानि भाजनोपकर-1 णमित्यर्थः, भाण्डमात्राणि तान्येवोपधिः भाण्डमानोपधिः, अथवा भाण्डे-वस्त्राभरणादि तदेव मात्रा-परिच्छदः[च्छेदः)|
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[१३८]
दीप
अनुक्रम
[१४६]
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१३८ ]
पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
सैवोपधिरिति, ततो बाह्यशब्दस्य कर्म्मधारय इति, चतुर्विंशतिदण्डक चिन्तायामसुरादीनां त्रयोऽपि वाच्याः, नारकै केन्द्रियवर्जा:, तेषामुपकरणस्याभावाद्, द्वीन्द्रियादीनां तूपकरणं दृश्यते एवं केषाञ्चिदित्यत एवाह - 'एव 'मित्यादि, 'अहवे त्यादि, सचित्तोपधिर्यथा शैलं भाजनम्, अचित्तो वस्त्रादिः, मिश्रः- परिणतप्रायं शैलभाजनमेवेति, दण्डकचिन्ता सुगमा, नवरं सचित्तोपधिर्नारकाणां शरीरं अचेतनः - उत्पत्तिस्थानं मिश्रः- शरीरमेवोच्छ्रासादि पुलयुक्तं तेषां सचेतनाचेतनत्वेन मिश्रत्वस्य विवक्षणादिति एवमेव शेषाणामध्ययमूह्य इति । 'तिविहे परिग्गहे' इत्यादि सूत्राणि उपधिवन्नेयानि, नवरं परिगृह्यते - स्वीक्रियते इति परिग्रहो-मूच्छविषय इति इह च एषामयमिति व्यपदेशभागेव ग्राह्यः, स च नारकै केन्द्रियाणां कर्मादिरेव सम्भवति, न भाण्डादिरिति ॥ पुलधर्माणां त्रित्वं निरूप्य जीवधर्माणां 'तिविहे' इत्यादिभिस्त्रिभिः सदण्डकैः सूत्रैस्तदाह
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तिविहे पणिहाणे पं० सं०मणपणिहाणे वयपणिहाणे कायपणिहाणे, एवं पंचिदियाणं जाव वैमाणियाणं, तिविहे सुप्पपिहाणे पं० तं०—मणसुप्पणिहाणे वयसुप्पणिहाणे कायसुप्पणिहाणे, संजयमणुस्साणं तिविहे सुप्पणिहाणे पन्नत्ते तं०मणसुप्पणिदाणे वसुप्पणिद्दाणे कायसुप्पणिहाणे, तिविद्धे दुप्पणिहाणे पं० [सं० मणदुष्पगिहाणे वदुप्पणिहाणे कायदुप्पणिहाणे, एवं पंचिंदियाणं जाव वैमाणियाणं ( सू० १३९ ) तिविद्या जोणी पं० तं० सीता उसिणा सीओसिणा, एवं एगिंदियाणं विगलिदियाणं तेडकाइयबयाणं संमुच्छिमपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं संमुद्धिममणुस्साण य। तिविहा जोणी पं० वं०-- सचिचा अविता मीसिया, एवं एगिंदियाणं विगलिंदियाणं संमुच्छिमपंचिदियतिरिक्खओणियाणं सं
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४०
दीप अनुक्रम [१४८]
श्रीस्थाना- मुच्छिममणुस्साण य । तिविधा जोणी पं० २०-संबुडा वियडा संवुडविवढा । तिविहा जोणी पं० त०-कुम्मुन्नया
P३ स्थानसूत्र
संखावत्ता वसीपत्तिया, कुम्मुन्नवा णं जोणी उन्तमपुरिसमाऊणं, कुमुन्नयाते णं जोणीए तिचिहा उत्तमपुरिसा गम्भं वक- | काध्ययने वृत्तिः
मंति, तं०-अरईता चकवट्ठी बलदेववासुदेवा, संखावत्ता जोणी इत्थीरयणस्स, संखावत्ताए ण जोणीए बहचे जीवा | उद्देशः १
व पोग्गला य वकर्मति विजकर्मति चयंति उववर्जति नो चेव णं निष्फजंति, वंसीपत्तिता णं जोणी पिद्दजणस्स, सीप॥१२१॥
सू०१४० तिताए णं जोणीए बहवे पिहजणे गभं वकर्मति (मू० १४०) कण्ठ्यानि चैतानि, नवरं प्रणिहितिः प्रणिधानम्-एकाग्रता, तच्च मनाप्रभृतिसम्बन्धिभेदानिधेति, तत्र मनसः प्रणिधानं | मनःप्रणिधानमेवमितरे, तच्च चतुर्विंशतिदण्डके सर्वेषांपञ्चेन्द्रियाणां भवति, तदन्येषां तु नास्ति, योगानां सामस्त्येनाभावामादित्यत एवोक्तम्-‘एवं पदिये'त्यादीति । प्रणिधानं हि शुभाशुभभेदमथ शुभमाह-'तिविहे इत्यादि सामान्यसूत्रं १, विशे-12 पषमाश्रित्य तु चतुर्विंशतिदण्डकचिन्तायां मनुष्याणामेव तत्रापि संयतानामेवेदं भवति, चारित्रपरिणामरूपत्वादस्येति, अत४ | एवाह-संजयेत्यादि २, (दुष्ट) प्रणिधानं दुष्पणिधानम्-अशुभमनःप्रवृत्त्यादिरूपं सामान्यप्रणिधानवत् व्याख्येयमिति ।
जीवपर्यायाधिकारात् 'तिविहेत्यादिना गम्भं वक्कमंती'त्येतदन्तेन ग्रन्थेन योनिस्वरूपमाह, तत्र युवन्ति-तैजसकार्मणशरी| रवन्तः सन्त औदारिकादिशरीरेण मिनीभवन्त्यस्यामिति योनिः-जीवस्योत्पत्तिस्थानं शीतादिस्पर्शवदिति, 'एवं ति यथा ॥१२१ ॥ | सामान्यतस्त्रिविधा तथा चतुर्थिशतिदण्डकचिन्तायामेकेन्द्रियविकलेन्द्रियाणां तेजोवर्जाना, तेजसामुष्णयोनित्वात् , पञ्चे-121
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४०
न्द्रियतिर्यपदे मनुष्यपदे च सम्मूर्छनजानां त्रिविधा, शेषाणां वन्यथेति, यत आह-"सीओसिणजोणीया सब्वे देवा य गम्भवती । उसिणा य तेउकाए दुह णिरए तिविह सेसाणं ॥१॥” इति ॥ अन्यथा योनित्रैविध्यमाह-'तिविहे'त्यादि कण्ठ्यं, नवरं दण्डकचिन्तायामेकेन्द्रियादीनां सचित्तादित्रिविधा योनिरन्येषां स्वन्यथा, यत उक्तम्-"अचित्ता खलु जोणी नेरइयाणं तहेब देवाणं । मीसा य गम्भवसही तिविहा जोणी य सेसाणं ॥१॥” इति, पुनरन्यथा तामाह-'तिविहे त्यादि, संवृता-सङ्कटा घटिकालयवत् विवृता-विपरीता संवृतविवृता तूभयरूपति, एतद्विभागोऽयं -"एगिंदियनेरइया संवुडजोणी हवंति देवा य। विगलिंदियाण विगडा संवुडवियडा य गम्भमि ॥शा त्ति' 'कुम्मुन्नयेत्यादि कण्ठ्यं, नवरं कूम्मे:-कच्छपः तद्वदुन्नता कूम्र्मोन्नता, शङ्खस्येवावों यस्यां सा शङ्खावा, वंश्या-वंशजाल्या: पत्रकमिव या सा वंशीपत्रिका, 'गभं वक्कमंति'त्ति गर्ने उत्पद्यन्ते, बलदेववासुदेवानां सहचरत्वेनैकत्वविवक्षयोत्तमपुरुपत्रैविध्यमिति, 'बहवें'इत्यादि, योनित्वाजीवाः पुद्गलाश्च तद्रहणप्रायोग्याः, किं?-व्युत्क्रामन्ति' उत्पद्यन्ते, 'व्यवक्रामन्ति' विनश्यन्ति, एतदेव व्याख्याति-विउक्कमंतीति, कोऽर्थः ?-च्यवन्ते, 'चकमंति'त्ति, किमुक्तं भवति ?-उत्पद्यन्ते इति, "पिहजणस्स'त्ति पृथग्जनस्य-सामान्यजनस्योत्पत्तिकारणं भवतीति । अनन्तरं योनितो मनुष्याः प्ररूपिताः, अधुना मनुष्यस्य सधर्मणो बादरवनस्पतिकायिकान् प्ररूपयन्नाहशीतोष्णयोनिकाः सर्वे देवाश्च गर्भयुकान्तिका। ष्णा व तेजस्काये विभा नरके त्रिविधा शेषागाम् ॥१॥ १ अपित्तन योनि रयिकाणी तथैव देवानाम् ।
शेषाणाम् ॥1॥ एकेन्द्रियनरयिकाः संपृवयोनयो भवन्ति देवाथ। विकलेन्द्रियाणां विभूता संवृत वियूता च गर्ने ।।१।।
दीप अनुक्रम [१४८]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१४२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
काध्ययने
सूत्रांक
॥१२२॥
[१४२]
दीप अनुक्रम [१५०
श्रीस्थानातिविहा तणवणस्सइकाइया पं० सं०-संखेजजीविता असंखेजजीविता अणंतजीविया (सू० १४१) जंबुरीवे दीवे भा
३ स्थानझसूत्र--
रहे वासे तो तित्था पं० त०-मागहे वरदामे पभासे, एवं एरवएवि, जंयुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे एगमेगे चवृत्तिः
कवट्टिविजये ततो तित्था पं० सं०-मागहे वरदामे पभासे ३, एवं धायइसंडे दीवे पुरच्छिमद्धेवि ६, पचत्यिमद्धेवि ९, उद्देशः१ पुक्खरवरदीवळपुरच्छिमद्धेवि १२ पञ्चस्थिमद्धेवि १५ (सू० १४२)
लसू०.१४२ 'तिविहे'त्यादि, तृणवनस्पतयो बादरा इत्यर्थः, सङ्ख्यातजीविकाः-सङ्ख्यातजीवाः, यथा नालिकाबद्धकुसुमानि जात्या-1 दीनीत्यर्थः, असझ्यातजीविका यथा निम्बाम्रादीनां मूलकन्दस्कन्धत्वक् छाखाप्रबालाः, अनन्तजीविका-पनकादय इति,18 इह प्रज्ञापनासूत्राण्यपीथं-"जे केऽवि नालियावद्धा, पुष्फा संखेजजीविया । णीहुआ अणंतजीवा, जे यावन्ने तहा-टू विहा ॥१॥ पउमुप्पलनलिणाणं, सुभगसोगंधियाण य । अरविंदकोंकणाणं, सयवत्तसहस्सवत्ताणं ॥२॥ विट बाहि
रपत्ता य कनिया चेव एगजीवस्स । अभितरगा पत्ता पत्तेयं केसरं मिजा ॥३॥” इति । तथा-लिंबवजंबुकोसंब६ साल अंकुलपीलुसलूया । सलइमोयइमालु मोत्यय बउलपलासे करंजे य॥४॥" इत्यादि, “एएसिं मूलावि असंखे
यानि कान्यपि नालिकाबद्धानि पुष्पाणि संख्येयजीविकानि । निरनम्तीवा ये चाप्यन्ये तथाविधाः ॥१॥ पोललमलिनाना भगसौगन्धिकयोष।। अरविन्दकोकनदयोः शतपत्रसहमपत्रयोः ॥ १॥ कृतं बापत्राणि काका एकजीवस्य । अभ्यन्तरागि पत्राणि प्रत्येक फेशराणि मित्राय ॥३॥ विम्बाप्रजम्यूकोयाम्बशालाकोपीलशालूकाः । सहकीमोचकोमाछका पकुलपलापाकराय ॥४॥ एतेषां मूलान्यप्यसंम् येय गीविकानि कन्दान्यपि स्कन्धा अपि त्वमपि G॥१२२ ॥ वाला अपि प्रवाखा अपि, पत्राणि प्रत्येकजीविकानि पुष्पाप्यनेकगीविकानि फलान्येकास्थि कानि.
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१४२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
।
प्रत
सूत्रांक
456-545%
84%9569
[१४२]
दीप अनुक्रम [१५०
जजीविया कंदावि खंधावि तयावि सालावि पवालावि, पत्ता पत्तेयजीविया, पुष्फा अणेगजीविया, फला एगठिया" इति
अनन्तरं वनस्पतय उक्तास्ते च जलाश्रया बहवो भवन्तीतिसम्बन्धाजलाश्रयाणां तीर्धानां निरूपणायाह-जंबुद्दीवे ६ इत्यादि पञ्चदशसूत्री साक्षादतिदेशतश्च, सुगमा च, केवलं तीर्धानि-चक्रवर्तिनः समुद्रशीतादिमहानद्यवतारलक्षणानि
तन्नामकदेवनिवासभूतानि, तत्र भरतैरावतयोस्तानि पूर्वदक्षिणापरसमुद्रेषु क्रमेणेति, विजयेषु तु शीताशीतोदामहानद्योः |पूर्वादिक्रमेणैवेति ॥ जम्बूद्वीपादौ मनुष्यक्षेत्रे सन्ति तीर्थानि प्ररूपितानि, अधुना तत्रैव सन्त कालं त्रिस्थानोपयोगिनं । सूत्रपश्चदशकेन साक्षादतिदेशाभ्यां निरूपयन्नाह
जंबुद्दीचे २ भरहेरखएम बासेसु तीताए उस्सपिणीते सुसमाए समाए तिन्नि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो हुस्था १, एवं ओसप्पिणीए नवरं पन्नते २, आगमिस्साते उस्सप्पिणीए भविस्सति ३, एवं धायइसंडे पुरच्छिमद्धे पचत्थिमद्धेवि ९, एवं पुक्खरखरदीबद्धपुरछिमद्धे पचत्थिमद्धेवि कालो भाणियब्यो १५। जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु सीताते उस्सप्पिणीते सुसमसुसमाते समाए मणुया तिण्णि गाउयाई उद्धं उच्चत्तेणं तिन्नि पलिओवमाई परमाउँ पालइत्था १, एवं इमीसे ओसप्पिणीते २ आगमिस्साए पस्सप्पिणीए ३, अंबुद्दीवे दीवे देवकुरुउत्तरकुरासु मणुया तिष्णि गाउमाई उई उचचेर्ण पं०, तिन्नि पलिओवमाई परमाउं पालयंति ४, एवं जाव पुक्खरखरदीवद्धपचत्थिमद्धे २०। जंबुद्दीवे दीवे भरहेरखएसुवासेसु एगमेगाते ओसप्पिणिउस्सप्पिणीए तो बंसाओ उपजिसु वा उपजंति वा उप्पजिस्सति वा ०-अरहंतवसे चकवहिवंसे दसारवंसे २१, एवं जाव पुक्खरवरदीवद्धपञ्चस्थिमद्धे २५। जंबूदीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु एगमेगाए ओसप्पिणीउस्सण्णिीए तभी
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थानाजसूत्र
CACAN
प्रत
सूत्रांक
*
॥१२३॥
[१४३]
4544-9
दीप अनुक्रम [१५१]
उत्तमपुरिसा उपजिसु वा उपजंति वा उप्पजिस्संति वा तं०-अरहंता चकवट्टी वलदेववासुदेवा २६, एवं जाब पुक्खर- |३ स्थानवरदीवद्धपञ्चस्थिमजे ३०, तो अहाउयं पालयति तं०-अरहंता चकवट्ठी बलदेवयासुदेवा ३१, सो मनिममाज्यं काध्ययने पालयति, तं०-अरहता चकवट्टी बलदेववासुदेवा ३२ (सू० १४३),
उद्देशः१ 'जंबूद्दीवे' इत्यादि सुवोध, किंतु, पन्नत्ते इति अवसर्पिणीकालस्य वर्तमानत्वेनातीतोत्सर्पिणीवत् 'होत्थ'त्ति न व्यपदेशःाटा सू०१४६ कार्यः अपि तु पन्नत्तेत्ति कार्य इत्यर्थः, 'जंवूद्दीवेत्यादिना वासुदेवे'त्येतदन्तेन ग्रन्थेन कालधानेवाह-सुगमश्चार्य, | किन्तु 'अहाउयं पालयंति'त्ति निरुपक्रमायुष्कत्वात् , मध्यमायुः पालयन्ति वृद्धत्वाभावात् । आयुष्काधिकारादिदं | सूत्रद्वयमाह
थायरतेउकाइयाणं उकोसेर्ण तिन्नि राईदियाई ठिती पन्नत्ता । बायरवाउकाइयाणं उकोसेणं तिनि वाससहस्साई ठिती पं० । (सू.१४४)। अह भंते! साली वीहीर्ण गोधूमाणं जवाणं अवजवाणं एतेसि णं धन्नाणं कोढाउत्ताणं पाहाउत्ताणं मंचाउत्तार्ण मालाउत्ताणं ओलिताणं लित्ताणं लंछियाणं मुदियाणं पिहिताणं केवइयं कालं जोणी संचिट्ठति ?, गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिणि संवच्छराई, तेण परं जोणी पमिलायति, तेण परं जोणी पविद्धंसति, तेण परं जोणी विद्धंसति, तेण परं बीए अबीए भवति, तेण परं जोणीवोच्छेदो पं० (सू०१४५)। दोचाए णं सकरप्पभाए पुढवीए णेरइयार्ण उकोसेणं तिणि सागरोवमाई ठिती पं० १, तच्चाए ण वालुयप्पभाए पुडबीए जहन्नेणं णेरड्याण तिन्नि सागरोवमाई
७ ॥१२३॥ ठिती पण्णचा २ (सू०१४६)
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४६]
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दीप अनुक्रम [१५४]
स्पष्टम् ॥ स्थित्यधिकारादेवेदमपरमाह-अहे त्यादि, 'अह भंते'त्ति 'अर्थ'परिप्रश्नार्थः, "भदन्ते'ति भदन्त:-कल्या-18 &ाणस्य सुखस्य च हेतुत्वात् कल्याणः सुखश्चेति, आह च-"भदिकलाणसुहत्थो धाऊ तस्स य भंदतसद्दोऽयं । स भदंतो।
कल्लाणं सुहो य कलं किलारोग्गं ॥१॥" इत्यादि, अथवा भजते-सेवते सिद्धान् सिद्धिमार्ग वा अथवा भज्यते-सेव्यते | शिवा सिद्ध्यर्थिभिरिति भजन्तः, आह च-"अहंवा भज सेवाए तस्स भयंतोत्ति सेवए जम्हा । सिवगइणो सिवमग्गं सेम्बो य जओ तदस्थीर्ण ॥१॥" अथवा भाति-दीप्यतेधाजते वा-दीप्यते वा दीप्यते एव ज्ञानतपोगुणदीप्त्येति भान्तो भ्राजन्तो बेति, आह च-"अहेवा भा भाजो वा दित्तीए होइ तस्स भंतोत्ति । भाजतो वाऽऽयरिओ सो णाणतवोगुणजुईए ॥१॥" इति, अथवा भ्रान्तः- अपेतो मिथ्यात्वादेः, तत्रानवस्थित इत्यर्थः, इति भ्रान्तः, अथवा भगवान्ऐश्वर्ययुक्त इति, आह च-"अबा भंतोऽपेओ जं मिच्छत्ताइबंधहेऊओ । अहवेसरियाइ भगो विजइ सो तेण भगवंतो॥१॥" इति, भवस्य वा-संसारस्य भयस्य वा-बासस्यान्तहेतुत्वात्-नाशकारणत्वाद् भवान्तो भयान्तो वेति, उक्तं च-"नेरेझ्याइभवरस व अंतो जं तेण सो भवंतोत्ति। अहवा भयस्स अंतो होइ भव(य)तो भयं तासो ॥१॥"त्ति,
भदिः कल्याणसुखार्थों धातुस्तस्य च भवंतशब्दोऽयं । स भवतः कल्याणं सुखध कार्य किलारोग्यम् ॥१॥२अथवा भज सेवायो तस्य भजत इति सेवते यसाच्छिागामिनः शिवमार्ग सेव्यश्च यत्तस्तदर्षिभिः ॥१॥ अथवा भा भ्राजो या दीप्तौ तस्स भवति भान्त इति । भाजन्तो वाऽऽनायः स झानतपोगुपशुखा१॥ ४ अथवा प्रान्तोऽतो यन्मिध्यावाविवन्धदेवतः । अवैश्वर्यादिः भगो विद्यते तस्य तेन भगवान् ॥१॥ ५ नैरयिकादिभवला पान्तो यत्तेन स | भवान्त इति । अथवा भयस्यान्तो भवति भयान्तः भयं त्रासः ॥१॥
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'भते' शब्दस्य विभिन्न व्याख्या:
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(०३)
प्रत
सूत्रांक
[१४६]
दीप
अनुक्रम
[१५४]
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः)
स्थान [३], उद्देशक [1].
मूलं [१४६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थाना
ङ्गसूत्रवृत्तिः
।। १२४ ।।
| इह च भदन्तादीनां शब्दानां स्थाने प्राकृतत्वादामन्त्रणार्थं मंतेति पदं साधनीयमिति, अतो 'भंते'त्ति महावीरमामन्त्रयन्त्रुतवान् गौतमादिः 'शालीनां' कल्मादिकानामिति विशेषः, शेषाणां व्रीहीणामिति सामान्यं, 'यवयवा' यवविशेषा एव, 'एतेषाम्' अभिहितत्वेन प्रत्यक्षाणां कोठे-कुशूले आगुप्तानि प्रक्षेपणेन संरक्षितानि कोष्ठागुप्तानि तेषामेवं सर्वत्र, नवरं पल्यं वंशकटकादिकृतो धान्याधारविशेषः, मञ्चः-स्थूणानामुपरि स्थापितवंशकटकादिमयो जनप्रतीतः मालको-गृहस्योपरितनभागः, अभिहितं च "अकुड्डो होइ मंचो मालो य घरोवरिं होइ"ति, 'ओलिताणं' ति द्वारदेशे पिधानेन सह गोमयादिना अवलिप्तानां 'लित्ताणं' ति सर्वतः 'लंछियाणं'ति रेखादिभिः कृतलान्छनानां 'मुद्दियाणं'ति मृत्ति कादिमुद्रावतां 'पिहियाणं'ति स्थगितानां, 'केवतियंति कियन्तं कालं योनिर्यस्यामङ्कर उत्पद्यते ?, ततः परं योनिः प्र म्लायति-वर्णादिना हीयते प्रविध्वस्यते-विध्वंसाभिमुखा भवति 'विध्वस्यते' क्षीयते, एवं च तद्वीजमवीजं भवतिउप्तमपि नाकुरमुत्पादयति, किमुक्तं भवति ? - ततः परं योनिव्यवच्छेदः प्रज्ञप्तो मयाऽन्यैश्च केवलिभिरिति शेषं स्पष्टम् ॥ स्थित्यधिकारादेवेदमपरं सूत्रद्वयमाह - 'दोचे 'त्यादि स्फुटं, नवरं द्वितीयायां पृथिव्यां किंनामिकायामित्याह शर्कराम भायामित्येवं योजनीयं, सर्वपृथिवीषु चेयं स्थितिः-- "सागरमेगं तिय सत्त दस य सत्तरस तह य बावीसा । तेत्तीसं जाव ठिई सत्तसु पुढवीसु उक्कोसा ॥ १ ॥ जा पढमाए जेट्ठा सा विइयाए कणिडिया भणिया तरतमजोगो एसो दसवाससहस्स रयणाए ॥ २ ॥” इति ॥ नरकपृथिव्यधिकारान्नर कनारक विशेष स्वरूपप्ररूपणाय सूत्रत्रयमाह -
1
१ अकुस्यो भवति मंचो मालव] गृहोपरि भवति. २ एकं सागरं त्रीणि सप्तदश च सप्तदश तथा च द्वाविंशतिः त्रयत्रिंशद्यावत् स्थितिः सप्त पृथ्वीत्कृष्ठ १२ थमा ज्येष्ठः सा द्वितीयायां कनिष्टिका भविता वरवमयोग एवं दशवर्षसहस्राणि रजावां ॥१॥
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३ स्थान
काध्ययने उद्देशः १
सू० १४६
॥ १२४ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४६]
दीप अनुक्रम [१५४]
पंचमाए णं धूमप्पभाए पुढवीए तिन्नि निरयावाससयसहस्सा ५०, तिमु णं पुढवीसु गेरइयाणं उसिणवेयणा पन्नत्ता सं०पढमाए दोबाए तचाए, तिमुणं पुढवीसु णेरहवा उसिगवेयणं पञ्चणुभवमाणा विहरंति-पढमाए दोचाए तचाए (सू० १४७) ततो लोगे सभा सपक्सि सपडिदिसि पं० सं०- अप्पइटाणे णरए जंबुरी दीवे सम्बटूसिग्ने महाविमाणे, तओ लोगे समा सपक्खि सपडिदिसिं पं००-सीमंतए ण णरए समयक्खेत्ते ईसीपब्भारा पुढवी (सू०१४८) तो समुदा पगईए उद्गरसेणं पं० २०-कालोदे पुक्खरोदे सयंभुरमणे ३, तओ समुदा बहुमच्छकच्छभाइण्णा पं.
६०-लवणे कालोदे सयंभुरमणे (सू० १४९) ___ 'पंचमाए इत्यादि, सुबोध केवलं 'उसिणवेयणत्ति तिसृणामुष्णस्वभावत्वात्, तिसृषु नारका उष्णवेदना इत्युक्वापि यदुच्यते-नैरयिका उष्णवेदना प्रत्यनुभवन्तो विहरन्तीति तत्तद्वेदनासातत्यप्रदर्शनार्थम् ॥ नरकपृथिवीनां क्षेत्रस्वभावानां प्रागस्वरूपमुक्तमथ क्षेत्राधिकारात् क्षेत्र विशेषस्वरूपस्य त्रिस्थानकावतारिणो निरूपणाय सूत्रचतुष्टयमाह-तओं इत्यादि, त्रीणि लोके समानि-तुल्यानि योजनलक्षप्रमाणत्वात् न च प्रमाणत एवात्र समत्वमपि तु औत्तराधर्यव्यवस्थिततया समश्रेणितयाऽपीत्यत आह-सपक्खि'मित्यादि, पक्षाणां-दक्षिणवामादिपार्थानां सदृशता-समता सपक्षमित्य-14 व्ययीभावस्तेन समपार्वतया समानीत्यर्थः, इकारस्तु प्राकृतत्वात्, तथा प्रतिदिशां-विदिशां सदृशता सप्रतिदिक् तेन ।
समप्रतिदिक्तयेत्यर्थः, अप्रतिष्ठानः सप्तम्यां पञ्चानां नरकावासानां मध्यमः, तथा जम्बूद्वीपः सकलद्वीपमध्यमः, सर्वार्थ-13 द्र सिद्ध विमानं पञ्चानामनुचराणां मध्यममिति । सीमन्तकः प्रथमपृथिव्यां प्रथमप्रस्तटे नरकेन्द्रकः पञ्चचत्वारिंशद्योजन
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना- गसूत्रवृत्तिः
सूत्रांक
॥१२५॥
[१४९]
दीप अनुक्रम [१५७]
लक्षाणि, समयः कालः तत्सत्तोपलक्षितं क्षेत्र समयक्षेत्रं मनुष्यलोक इत्यर्थः, ईषद्-अल्पो योजनाष्टकवाहल्यपञ्चचत्वा- स्थानरिंशल्लक्षविष्कम्भात् प्राग्भार:-पुद्गलनिचयो यस्याः-सेपत्प्रारभाराऽष्टमपृथिवी, शेषपृथिव्यो हि रलप्रभाद्या महापा-4 काध्ययने ग्भाराः, अशीत्यादिसहस्राधिकयोजनलक्षवाहल्यत्वात् , तथाहि-"पढमाऽसीइसहस्सा वत्सीसा अट्टवीसवीसा य। अहार उद्देशः१ सोलस य अह सहस्स लक्खोवरि कुजा ॥१॥" इति, विष्कम्भस्तु तासां कमेणकाद्याः सप्तान्ता रजव इति, अथवेष-| सू०१५२ साम्भारा मनागवनतत्वादिति ॥ प्रकृत्या-स्वभावेनोदकरसेन युक्ता इति, क्रमेण चैते द्वितीयतृतीयान्तिमाः । प्रथमद्वितीयान्तिमाः समुद्रा बहुजलचराः अन्ये त्वल्पजलचरा इति, उक्तं च-"लवणे उदगरसेसु य महोरया मच्छकच्छहा | भणिया । अप्पा सेसेसु भवे न य ते णिम्मच्छया भणिया ॥१॥" अन्यच्च-"लवणे कालसमुदे सयंभुरमणे य होंति मच्छा उ । अवसेस समुद्देसुं न हुंति मच्छा न मयरा वा ॥२॥ नस्थिति पउरभाव पडुच्च न उ सब्बमच्छपडिसेहो। अप्पा सेसेसु भवे नय ते निम्मच्छया भणिया ॥३॥” इति ॥ क्षेत्राधिकारादेवाप्रतिष्ठाने नरकक्षेत्रे ये उत्पद्यन्ते तानाह
तओ लोगे णिस्सीला णिव्यता णिगुणा निम्मेरा णिप्पञ्चक्खाणपोसहोबवासा कालमासे कालं किन्चा अहे सत्तमाए पुढवीए अप्पतिवाणे णरए णेरइयत्ताए उबवजंति, तं०-रायाणो मंडलीया जे य महारंभा कोधुंधी । तभी लोए मुसीला १ प्रथमाऽशीतिः सहस्राणि द्वात्रियादधविधातिविशतिश्चाष्टादया षोडश बाट सहस्राणि लक्षोपरि कुर्यात् ॥1॥२ लवणे उदकरसेषु च महोरगा मास्सक-1
॥१२५॥ रछपा भणिताः । अल्पाव शेषेषु भवेयुन च ते निमत्स्यका भनिताः॥१॥ ३ लवणे कामसमरे सबभूरमणे च भवति मत्स्याः । अषशेषसमुदेषु न भवति मरमा वामकरावा॥1॥ नसन्तीति प्रपुरमा प्रवीखनेव सर्वधा मरस्याप्रतिषेधः । अल्पाः शेषेषु भयुनेव वे निमत्साकाः भगिताः॥१॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
5*
प्रत
सूत्रांक
5-25
[१५२]
दीप अनुक्रम [१६०]
सुव्वया सग्गुणा समेरा सपचक्याणपोसहोववासा कालमासे कालं किचा सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे देवताए उववत्तारो भवंति, सं०-राषाणो परिचत्तकामभोगा सेणावती पसत्थारो । (सु० १५०) भलोगलतएसु गं कप्पेसु विमाणा तिवण्णा पं० सं०-किण्हा नीला लोहिया, आणयपाणयारणचुतेसु णं कप्पेसु देवाणं भवधारणिजासरीरा कोसेणं तिषिण रयणीभो उद्धं उपतेणं पण्णता (सू० १५१) तओ पन्नतीओ कालेणं अहिज्जंति, तं०-चंदपन्नत्ती सूरपन्नत्ती दीवसागरपन्नत्ती (सू० १५२) तिहाणस्स पढ़मो उदेसो समत्तो । 'तओं' इत्यादि, 'निःशीला' निर्गतशुभस्वभावाः दुःशीला इत्यर्थः, एतदेव प्रपक्रयते-'निव्रताः' अविरताः प्राणातिपातादिभ्यो 'निर्गुणा' उत्तरगुणाभावात् 'निम्मेर'त्ति निर्मर्यादा प्रतिपन्नापरिपालनादिना, तथा प्रत्याख्यानं चनमस्कारसहितादि पौषधः-पर्वदिनमष्टम्यादि तत्रोपवास:-अभक्कार्थकरणं स च तो निर्गतौ येषां ते निष्प्रत्याख्यानपौषधोपवासाः 'कालमासें' मरणमासे 'कालं' मरणमिति, 'रइयत्ताएत्ति पृथिव्यादित्वव्यवच्छेदार्थ, तत्र धेकेन्द्रियतया तदन्येऽप्युत्पद्यन्त इति, तत्र राजानः-चक्रवत्तिवासुदेवाः माण्डलिका:-दशेषा राजानः, ये च महारम्भाः-पञ्चेन्द्रियादिव्यपरोपणप्रधानकर्मकारिणः कुटुम्बिन इति, शेष कण्ठ्यम् ॥ अप्रतिष्ठानस्य स्थित्यादिभिः समाने सर्वार्थे ये उपद्यन्ते तानाह-तओं' इत्यादि सुगम, केवलं राजानः-प्रतीताः परित्यक्तकामभोगाः-सर्वविरताः, एतच्चोत्तरपदयोरपि सम्बन्धनीयं, सेनापतयः-सैन्यनायकाः प्रशास्तारो-लेखाचार्यादयः, धर्मशास्त्रपाठका इति क्वचित् ।। अनन्तरोकसर्वार्थसिद्धविमानसाधाद्विमानान्तरनिरूपणायाह-'भेत्यादि, इह च "किण्हा नीला लोहिय"त्ति, पुस्तकेष्वेवं वैविध्यं दृश्यते,
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [१], मूलं [१५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना
सूत्रवृत्तिः
सूत्रांक
॥१२६॥
[१५२]
दीप अनुक्रम [१६०]
स्थानान्तरे च लोहितपीतशुक्लस्वेनेति, यत उक्तम्-'सोहम्मे पंचवना एकगहाणी य जा सहस्सारो । दो दो तुल्ला ३ स्थानकप्पा तेण परं पुंडरीयाई ॥१॥" इति, अनन्तरं विमानान्युक्तानि तानि च देवशरीराश्रया इति देवशरीरमानं त्रिस्था-1 काध्ययने नकानुपात्याह-'आणयेत्यादि, भव-जन्मापि यावद्धार्यन्ते भवं वा-देवगतिलक्षणं धारयन्तीति भवधारणीयानि तानिदेशः१-२ च तानि शरीराणि चेति भवधारणीयशरीराणीति, उत्तरक्रियव्यवच्छेदार्थ चेदं, तस्य लक्षप्रमाणत्वात् , 'उकोसेणं तिहासू०१५३ उत्कर्षेण, न तु जघन्यत्वादिना, जघन्येन तस्योत्पत्तिसमयेऽन्लासवयेयभागमात्रत्वादिति, शेषं कण्ठ्यमिति । अनन्तरं देवशरीराश्रयवक्तव्यतोक्ता तत्प्रतिवद्धाश्च प्रायत्रयो ग्रन्था इति तत्स्वरूपाभिधानायाह-'तओं' इत्यादि, कालेन-प्र-181 थमपश्चिमपौरुषीलक्षणेन हेतुभूतेनाधीयन्ते, व्याख्याप्रज्ञप्तिर्जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिश्च न विवक्षिता, त्रिस्थानकानुरोधादिति, शेषं | स्पष्टम् ॥ इति त्रिस्थानकस्य प्रथम उद्देशको विवरणतः समाप्तः ॥
व्याख्यातः प्रथम उद्देशकः, तदनन्तरं द्वितीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, प्रथमोदेशके जीवधर्माः प्राय | उक्ताः, इहापि प्रायस्त एवेतीत्थंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्
तिविहे लोगे पं० सं०-णामलोगे ठवणलोगे दवलोगे, विविध लोगे पं० त०–णाणलोगे दसणलोगे चरित्तलोगे, तिविहे लोगे पं० सं०-उद्धलोगे अहोलोगे तिरियलोगे (सू० १५३)
G १२६॥ सीधी पंचवर्णानि एक कहानिय यावरसहारः । वी वी काली हल्वी ततः परं पुण्डरीकाणि ॥1॥
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अत्र तृतीय-स्थानस्य प्रथम-उद्देशकः समाप्त:, अथ द्वितीय-उद्देशक: आरभ्यते
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५३]
अस्य चायमभिसम्बन्धः-अनन्तरसूत्रेण चन्द्रप्रज्ञत्यादिग्रन्थस्वरूपमुक्तमिह तु चन्द्रादीनामेवार्थानामाधारभूतस्य लो-13 कस्य स्वरूपमभिधीयत इत्येवंसम्बन्धवतोऽस्य सूत्रस्य व्याख्या-लोक्यते-अवलोक्यते केवलावलोकेनेति लोको, नाम-16 स्थापने इन्द्रसूत्रवत्, द्रव्यलोकोऽपि तथैव, नवरं ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यलोको धर्मास्तिकायादीनि जीवाजी-IN वरूपाणि रूप्यरूपीणि सप्रदेशाप्रदेशानि द्रव्याण्येव, द्रव्याणि च तानि लोकश्चेति विग्रहः, उक्तं च-"जीवमजीवे रूव-13 मरूवी सपएसअप्पएसे य । जाणाहि दवलोयं णिच्चमणिच्चं च जं दब्वं ॥१॥" इति, भावलोकं त्रिधाऽऽह-'तिवि
हे'इत्यादि, भावलोको द्विविधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमतो लोकपर्यालोचनोपयोगः तदुपयोगानन्यत्वात् | 8| पुरुषो वा, नोआगमतस्तु सूत्रोक्तो ज्ञानादिः, नोशब्दस्य मिश्रवचनत्वाद्, इदं हि त्रयं प्रत्येकमितरेतरसव्यपेक्षं नागम एव|५
केवलो नायनागम इति, तत्र ज्ञानं चासौ लोकश्चेति ज्ञानलोकः, भावलोकता चास्य क्षायिकक्षायोपशमिकभावरूपत्वात्, क्षायिकादिभावानां च भावलोकत्वेनाभिहितत्वाद्, उक्कं च-"ओदइय उवसमिए य खइए य तहा खओवसमिए य । परिणाम सन्निवाए य छविहो भावलोगो उ ॥१॥"त्ति, एवं दर्शनचारित्रलोकावपीति ।। अथ क्षेत्रलोकं विधाऽऽह'तिविहे' इत्यादि, इह च बहुसमभूमिभागे रत्नप्रभाभागे मेरुमध्ये अष्टप्रदेशो रुचको भवति, तस्योपरितनप्रतरस्योपरिधान्नव योजनशतानि यावज्योतिश्चक्रस्योपरितलस्तावत् तिर्यग्लोकस्ततः परत ऊर्जभागस्थितत्वात् ऊ लोको देशोनसप्त-|
जीजा अजीवा रूपिणोऽपिणः सप्रदेशाभप्रदेवाय । जानीहि द्रव्यलोकं निलम निसंच माय ॥१॥ १औदविक जीपशमिकः क्षायिका क्षायोपश-1 सामिकक्ष तथा परिणामः सत्रिपातश्च पदवियो भारलोक इति ॥१॥
दीप अनुक्रम [१६१]
5-259650-584%4%
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'लोक' शब्दस्य व्याख्या एवं निक्षेपा:
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना- असूत्रवृत्तिः
प्रत
सूत्रांक
॥१२७॥
[१५३]
RANSGE
दीप अनुक्रम [१६१]
रजुप्रमाणो रुचकस्याधस्तनप्रतरस्याधो नव योजनशतानि यावत्तावत्तिर्यग्लोकः, ततः परतोऽधोभागस्थितत्वादधोलोकः ३ स्थानसातिरेकसप्तरजुप्रमाण, अधोलोको लोकयोर्मध्ये अष्टादशयोजनशतप्रमाणस्तिर्यग्भागस्थितत्वात् तिर्यग्लोक इति, प्र- काध्ययने
कारान्तरेण चायं गाथाभियाख्यायते-"अहवा अहपरिणामो खेत्तणुभावेण जेण ओसनं । अहो अहोत्ति भणिओशा कादम्वाणं तेणऽहोलोगो ॥१॥ उई उवरिं जं ठिय सुहखेत्तं खेत्तओ य दब्वगुणा । उप्पजति सुभा वा तेण तओ उह-A
लोगोत्ति ॥२॥ मज्झणुभावं खेत्तं तं तिरियति वयणपजवओ । भण्णइ तिरिय विसालं अओ यतं तिरियलोगोत्ति ॥३॥" लोकस्वरूपनिरूपणानन्तरं तदाधेयानां चमरादीनां 'चमरस्सेत्यादिना अचुपलोगवालाण'मित्येतदन्तेन ग्रन्धेन पर्षदो निरूपयति
चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररत्नो ततो परिसातो पं० ०–समिता चंडा जाया, अभितरिता समिता मज्झिमता चंडा बाहिरता जाया, चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररनो सामाणिताण देवाणं ततो परिसातो पं० सं०समिता जाहेव चमरस्स, एवं वायत्तीसगाणवि, लोगपालाणं तुंबा तुडिया पक्ष्या, एवं अम्गमहिसीणवि, बलिस्सवि एवं चेव, जाव अम्गमहिसीणं, धरणस्स य सामाणिवतायत्तीसगाणं च समिता चंडा जाता, लोगपालाणं अग्गमहिसीर्ण ईसा तुडिया दढरहा, जहा धरणस्स तहा सेसाणं भवणवासीणं, कालस्स णं पिसाइंदस्स पिसायरण्णो तओ परि
१ अथका अधः परिणामः क्षेत्रानुभावेन येन प्रायेण अशुभोऽध इति भणितो व्याणां तेनाधोलोकः ॥ १॥ अर्वमुपरि यस्थितं शुभक्षेत्र क्षेत्रतश्च शुभा ॥१२७ ।। वा द्रव्यगुणा उत्पयन्ते तेन स अबलोक इति ॥१॥ मध्यमानुभावं क्षेत्रं यत्तत्तिर्यगिति वचनपर्यायतः । भव्यते तिथंग्विशालं अतच तत्तिर्यग्लोक इति ॥१॥
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***अत्र मूल संपादने एक स्थूल मुद्रणदोष: वर्तते (मूल प्रतमें ऊपर दायीं तरफ उद्देश: ३ लिखा है, परन्तु यहाँ दूसरा उद्देशक चल रहा है) 'लोक' शब्दस्य व्याख्या एवं निक्षेपा:
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१५४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५४]
साओ पं००-ईसा तुडिया दढरहा, एवं सामाणियअग्गमहिसीणं, एवं जाव गीयरतिगीयजसाणं, चंदस्स णं जोतिर्सिदस्स जोतिसरसो ततो परिसातो पं०, सं०-तुंबा तुडिया पठ्या, एवं सामाणियअगमहिसीर्ण, एवं सूरस्सधि, सकस्स णं देविंदस्स देवरो ततो परिसाओ पं० सं०-समिता चंडा जाया, एवं जहा पमरस्स जाव अग्गमहिसीणं,
एवं जाव अधुतस्स लोगपालाण (सू० १५४) सगमश्चार्य, नवरं 'अमरिंदरसे त्यादौ इन्द्र ऐश्वर्ययोगात् राजा तु राजनादिति 'परिषत' परिवार, सा च त्रिधार प्रत्यासत्तिभेदेन, तत्र ये परिवारभूता देवा देव्यश्चातिगौरव्यत्वात् प्रयोजनेष्वप्याहूता एवागच्छन्ति सा अभ्यन्तरा| परिषत् ये स्वाहता अनाहूताश्चागच्छन्ति सा मध्यमा ये त्वनाहता अप्यागच्छन्ति सा बाह्येति, तथा यया सह प्रयोजन पर्यालोचयति साऽऽद्या यया तु तदेव पोलोचितं सत् प्रपश्चयति सा द्वितीया यस्यास्तु ततावर्णयति साऽम्त्येति ॥ | अनन्तरं परिषदुत्पन्नदेवाः प्ररूपिताः, देवत्वं च कुतोऽपि धर्मात्, तत्प्रतिपत्तिश्च कालविशेषे भवतीति कालविशेपनिरूपणपूर्व तत्रैव धर्मविशेषाणां प्रतिपत्तीराह
ततो जामा पं० सं०-पढमे जामे मसिमे जामे पच्छिमे जामे, तिहिं जामेहिं आता केवलिपन्न धर्म लभेज सवणताते-पढ़ने जामे मज्झिमे जामे पच्छिमे जामे, एवं जाव केवलनाणं उप्पाडेजा पढमे जामे मजिसमे जामे पच्छिमे जामे । ततो क्या पं०२०-पढमे वते मज्झिमे वते पच्छिमे वए, तिहिं बतेहिं आया केवलिपन्न धर्म लभेज सवणयाए, तं0-पढमे वते मझिमे बते परिछमे बते, एसो चेव गमो यन्यो, जान केवलनाणंति (सू० १५५)
दीप अनुक्रम [१६२]
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आगम
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना
सूत्रवृत्तिः
सूत्रांक
॥१२८॥
[१५५]
दीप अनुक्रम [१६३]
'तओ जामे'त्यादि स्पष्टं, केवलं यामो-रात्रेर्दिनस्य च चतुर्थभागो यद्यपि प्रसिद्धस्तथाऽपीह विभाग एवं विवक्षितः||३ स्थानपूर्वरात्रमध्यरात्रापररावलक्षणो यमाश्रित्य रात्रिखियामेत्युच्यते, एवं दिनस्यापि, अथवा चतुर्थभाग एव सः, किन्त्विह काध्ययने चतुर्थो न विवक्षितः, त्रिस्थानकानुरोधादित्येवमपि त्रयो यामा इत्यभिहितम्, एवं 'जाव'त्तिकरणादिदं दृश्य-केवलं'Bउद्देशः ३ बोहिं बुज्झज्जा मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वएजा, केवलं बंभचेरवासमावसेज्जा, एवं संजमेणं संजमेजा, संवरेणं | सू० १५७ संवरेजा, आभिणिबोहियनाणं उप्पाडेजे'त्यादि । यथा कालविशेषे धर्मप्रतिपत्तिरेवं वयोविशेषेऽपीति तन्निरूपणतस्तत्र धर्मविशेषप्रतिपत्तीराह–'तओ वयेत्यादि स्फुटं, किन्तु प्राणिनां कालकृतावस्था वय उच्यते, तत् विधा-बालमध्यमवृद्धत्वभेदादिति, वयोलक्षणं चेदम्-"आषोडशावेदालो, यावरक्षीरान्नवर्तकः । मध्यमः सप्ततिं यावत्, परतो वृद्ध उच्यते ॥ १ ॥" शेषं प्राग्वत् ॥ उक्तानेव धर्मविशेषांत्रिधा बोधिशब्दाभिधेयान् १ बोधिमतो २ बोधिविपक्षभूतं मोहं ३ तद्वतश्च ४ सूत्रचतुष्टयेनाह
तिविधा बोधी पं० २०-णाणबोधी दंसबोधी चरित्तबोधी १ तिबिहा बुद्धा पं० सं०-णाणबुद्धा दसणबुद्धा चरित्तबुद्धा २ एवं मोहे ३ मूढा ४ (सू० १५६) तिविहा पब्वजा, पं० त०-दहलोगपडिबद्धा परलोगपडिवता दुहतोपटिवद्धा, तिविहा पध्वजा, पं० २०-पुरतो पडिबढा मग्गतो पडिबद्धा दुहओ पटिवद्धा, तिविदा पवजा, पं० त०-तुयाव
॥१२८॥ इत्ता पुयावइत्ता बुआवइत्ता, तिथिहा पवजा पं० त०-उवातपयजा अक्खातपयजा संगारपब्बजा (सू० १५७)
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..अत्र मूल संपादने एक स्थूल मुद्रणदोषः वर्तते (मूल प्रतमें ऊपर दायीं तरफ उद्देश: ३ लिखा है, परन्तु यहाँ दूसरा उद्देशक चल रहा है)
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१५७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
+
+S
प्रत
सूत्रांक
[१५७]
दीप अनुक्रम [१६५]
सुबोध, किन्तु बोधिः-सम्यग्बोधः, इह च चारित्रं बोधिफलत्वात् बोधिरुच्यते, जीवोपयोगरूपत्वाद्वा, बोधिविशिष्टाः। पुरुषाखिधा ज्ञानबुद्धादय इति, 'एवं मोहे मूढ'त्ति चोधिवद्वद्धवच मोहो मूढाश्च त्रिविधा वाच्याः, तथाहि-'तिविहे मोहे पण्णत्ते, तंजहा-नाणमोहे' इत्यादि, 'तिविहा मूढा पन्नत्ता, तंजहा-णाणमूढेइत्यादि ॥ चारित्रबुद्धाः प्रागभिहिताः, ते च प्रव्रज्यायां सत्यामतस्ता भेदतो निरूपयन्नाह-तिविहे'त्यादि, सूत्रचतुष्टयं सुगम, केवलं प्रव्रजनंगमनं पापाचरणव्यापारेप्विति प्रत्रया, एतच्च चरणयोगगमनं मोक्षगमनमेव, कारणे कार्योपचारात्, तन्दुलान् वर्षति पर्जन्य इत्यादिवदिति, उक्तं च-"पवयणं पञ्चज्जा पावाओ सुद्धचरणजोगेसु । इय मोक्खं पइ गमणं कारण कजोवयाराओ॥ १ ॥" इति, इहलोकप्रतिबद्धा-ऐहलौकिकभोजनादिकार्यार्थिनां परलोकप्रतिबद्धा-जन्मान्तरकामाद्यर्थिनां द्विधाप्रतिबद्धा-इहलोकपरलोकप्रतिबद्धा सा चोभयार्थिनामिति, पुरतः-अग्रत्तः प्रतिबद्धा प्रवज्यापर्यायभाविषु शिष्यादिष्याशंसनतः प्रतिबन्धात् मार्गतः-पृष्ठतः स्वजनादिषु स्नेहाच्छेदात् तृतीया द्विधाऽपीति । 'तुयावइत्त'त्ति 'तुद व्यधने' इति वचनात् तोदयित्या-तोदं कृत्वा व्यथामुत्पाद्य या प्रव्रज्या दीयते मुनिचन्द्रपुत्रस्य सागरचन्द्रेणेव सा तथोच्यते, 'पुयावहत्त'त्ति, 'प्लुङ्गताविति वचनात् प्लावयित्वा-अन्यत्र नीत्वा आर्यरक्षितवद् या दीयते सा तथेति, 'बुयावइत्ता' संभाष्य गौतमेन कर्षकवदिति । अवपात:-सेवा सद्गुरूणां ततो या सा अवपातपत्रज्या, तथा आख्यातेन-धर्मदेशनेन आख्यातस्य वा-प्रवजेत्यभिहितस्य गुरुभिर्या साऽऽख्यातप्रव्रज्या फल्गुरक्षितस्येवेति, 'संगा
१ प्रजमं प्राज्या पापाशुद्धचरणयोगेषु । एवं मोक्ष प्रति गमन (प्रवज्या) कारण कार्योपचारात् ॥ १॥
प्रव्रज्या- व्याख्या एवं भेदा:
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१५७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५७]
श्रीस्थाना-बारसि सङ्केतस्तस्माद् या सा सङ्गारप्रवज्या मेतार्यादीनामिवेति, अथवा यदि त्वं प्रव्रजसि तदा मया प्राजितव्यमित्येवं स्थानजासूत्र- Pाया सा तथा ॥ उक्तपत्रज्यावन्तो निर्ग्रन्था भवन्तीति निर्मथस्वरूपं सूत्रद्वयेनाह
काध्ययने वृत्तिः
तभो णियंठा णोसंण्णोवलत्ता पं० ०-पुलाए णियंठे सिणाए । ततो णियंठा सन्नणोसंण्णोवउत्ता पं० २०-उसे उद्देशः३ पडिसेवणाकुसीले कसायकुसीले । २ (सू० १५८) तओ सेहभूमीओ पं० २०-उकोसा मज्झिमा जना, उकोसा
सू०१५९ छम्मासा, मज्झिमा चउमासा, जहन्ना सत्तराईदिया । ततो थेरभूमीओ पं० तं०-जाइयेरे सुत्तथैरे परियायथेरे, सहिवासजाए सगणे जिग्गंधे जातिधेरे, ठाणंगसमवायघरे णं समणे णिग्गंधे सुयधेरे, पीसवासपरिवाए ण समणे णिग्गंधे
परियायधेरे (सू० १५९) 'सओ' इत्यादि, निर्गता अन्थात् सबाह्याभ्यन्तरादिति निर्मन्था:-संयता 'नों नैव संज्ञायाम्-आहाराघभिलापरू-10 पायां पूर्वानुभूतस्मरणानागतचिन्ताद्वारेणोपयुक्ता ये ते नोसंज्ञोपयुक्ताः, तत्र पुलाको-लब्ध्युपजीवनादिना संयमासारताकारको वक्ष्यमाणलक्षणः, निम्रन्थ:-उपशान्तमोहः क्षीणमोहो वेति, स्नातको-पातिकर्ममलक्षालनावाप्तशुद्धज्ञानस्वरूपः ।। तथा वय एव संज्ञोपयुक्ता नोसंज्ञोपयुक्ताश्चेति सङ्कीर्णस्वरूपाः, तथास्वरूपत्वात् , तथा चाह-"सन्ननोसन्नो
वउत्त"त्ति, संज्ञा च-आहारादिविषया नोसंज्ञा च-तदभाषलक्षणा संज्ञानोसंज्ञे तयोरुपयुक्ता इति विग्रहः, पूर्वइस्वता * प्राकृतत्वादिति, तत्र बकुशः-शरीरोपकरणविभूषादिना शबलचारित्रपटः प्रतिषेवणया मूलगुणादिविषयया, कुत्सितं
१२९॥ शीलं यस्य स तथा, एवं कषायकुशील इति ॥ निर्ग्रन्थाश्चारोपितम्रताः केचित् भवन्तीति व्रतारोपणकालविशेषानाह
CCCCCCCA
दीप अनुक्रम [१६५]
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.. अब मूल संपादने एक स्थूल मुद्रणदोष: वर्तते (मूल प्रतमें ऊपर दायीं तरफ उद्देश: ३ लिखा है, परन्तु यहाँ दूसरा उद्देशक चल रहा है) पुलाक, निर्यन्थ, स्नातक, बकुश, कुशील शब्दानाम् व्याख्या
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५९]
'तओ सेहे'त्यादि सुगम, किन्तु 'सेहेति 'षिधू संराद्धाविति वचनात् सेध्यते-निष्पाद्यते यः स सेधः शिक्षा वा-18 लाधीत इति शैक्षः तस्य भूमयो-महावतारोपणकाललक्षणाः अवस्थापदव्य इति सेधभूमयः शैक्षभूमयो वेति, अयमभि-IX
प्रायः-उत्कृष्टतः पद्भिर्मासैरुत्थाप्यते न तानतिकाम्यते, जघन्यतः सप्तभिरेव रात्रिन्दिवहीतशिक्षत्वादिति, उक्तंच"सेहस्स तिन्नि भूमी जहन्न तह मज्झिमा य उक्कोसा । राईदिसत्त चउमासिगा य छम्मासिआ चेव ॥१॥" इति, आसु चार्य व्यवहारोक्तो विभागः-"पुब्बोवतपुराणे करणजयहा जहनिया भूमी । उकोसा दुम्मेहं पडुच अस्सदहाणं च ॥१॥ एमेव य मज्झिमगा अणहिजते असद्दहते य । भावियमेहाविस्सवि, करणजयट्ठा य मज्झिमगा॥ २॥"
इति ॥ शैक्षस्य च विपर्यस्तः स्थविरो भवतीति तद्भमिनिरूपणायाह-"तओ थेरे" इत्यादि कपठ्य, नवरं स्थविरो-वृकाद्धस्तस्य भूमयः-पदव्यः स्थविरभूमय इति, जातिः-जन्म श्रुतम्-आगमः पर्यायः-प्रनण्या तैः स्थविरा-वृद्धा ये ते त
थोक्ता इति, इह च भूमिकाभूमिकावतोरभेदादेवमुपन्यासः, अन्यथा भूमिका उद्दिष्टा इति ता एव वाच्याः स्युरिति, एतेषां च त्रयाणां क्रमेणानुकम्पापूजावन्दनानि विधेयानि, यत उक्त व्यवहारे-"औहारे उवही सेजा, संथारे खेत्तसंकमे।
शैक्षस्व तिनो भूमयो जघन्या तथा मध्यमा बोत्कृष्टा । रात्रिंदिवसप्त चतुर्मासिका पारमासिका चैत्र ॥१॥ २ पूर्वोपस्थे पुराणे करणयार्थे जपच्या भूमिः । उत्कृष्टा दुर्मेधर्म प्रतीलाश्रयानं च ॥1॥ एवमेव च मध्यमा अनधीवाने चाबधाने च । भाषितमेपापिनोऽपि करणजया च मध्यमा ॥१॥ आहारे उपचौ शय्यायां संसारे क्षेत्रसंगमे।
दीप अनुक्रम [१६७]
%
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना-
प्रत
4560
सूत्रांक
वृत्तिः
[१५९]
॥१३०॥
दीप अनुक्रम [१६७]]
किइच्छदाणुवत्तीहिं, अणुकंपा थेरगं ॥१॥ उहाणासणदाणाई, जोगाहारप्पसंसणा । नीयसेज्जाइ निद्देसवत्तित्ते३ स्थानपूयए सुवै ॥ २ ॥ उठाणं बंदणं चेव, गहणं दंडगस्स य । अगुरुणोऽविय णिद्देसे, तईयाए पवत्तए ॥१॥” इति ॥8 काध्ययने स्थविरा इति पुरुषप्रकारा उक्ताः, तदधिकारात् पुरुषप्रकारानेवाह
उद्देशः३ ततो पुरिसजाया पं० २०-सुमणे दुम्मणे णोसुमणेणोदुम्गणे १ ततो पुरिसजाया पं० सं०-ता णामेगे सुमणे भवति,
सू०१६१ गंता णामेगे दुम्मणे भवति, गंता णामेगे जोसुमगेणोदुम्मणे भवति २, तओ पुरिसजाया पं० त०-जामीतेगे सुमणे भवति, जामीतेगे दुम्मणे भवति, जामीतेगे गोमुमणेणोदुम्भणे भवति ३, एवं जाइस्सामीतेगे सुमणे भवति ३४, ततो पुरिसजाया पं० २०-अगंता णामेगे सुमणे भवति ३५, ततो पुरिसजाता पं० २०-ण जामि एगे सुमणे भवति ३६, ततो पुरिसजाया पं० २०---ण जाइस्सामि एगे सुमणे भवति, ३७, एवं आगंता णामेगे मुमणे भवति ३८, एमितेगे सु०३ एस्सामीति एगे सुमणे भवति ३ एवं एएणं अभिलावेर्ण-गंता व अगता(य)१ आगंता खलु तथा अणागंता २। चिहितमचिद्वित्ता ३, णिसितिचा चेव नो चेव४॥१॥ ता य अहंता य ५छिदित्ता खलुतहा अधिदित्ता ६ । पूतित्ता अवृतित्ता ७ भासित्ता व णो व८॥२॥ दचा य अदचा य ९ भुंजित्ता खलु सधा अभुंजित्ता १० । लंभित्ता अलंभित्ता ११ पिइत्ता व नो चेव १२ ॥ ३॥ सुतित्ता असुतित्ता १३ जुज्झित्ता खलु वहा अजुमिता १४ ॥ ज
तिच्छन्दोऽनुत्तिभिरनुकंपते स्थविर ॥१॥ उत्थानासनदानयोः योग्याहारशंसनायो । नीःशय्यादी निशवसिवे पूज्यते श्रुतं ॥३॥ अत्यानं पन्दन ॥१०॥ व भणं ददकस्य च । अगुरोरपि च निदेशे तदा प्रवर्तते तस्य तृतीयस ॥१॥
ABERucatunintamanna
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...अब मूल संपादने एक स्थूल मुद्रणदोष: वर्तते (मूल प्रतमें ऊपर दायीं तरफ उद्देश: ३ लिखा है, परन्तु यहाँ दूसरा उद्देशक चल रहा है)
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१६१]+गाथा १-५ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१६०
25645625%2562
-१६१]
तिता अजयित्ता य १५ पराजिणिता य [पेच नो चेव १६ ॥४॥ सहा १७ रुवा १८ गंधा १९ रसा य २० फासा २१ (२१४६-१२६-१-१२७) तहेव ठाणा य । निस्सीलस्स गरहिता पसस्था पुण सीलवंतस्स || ५॥ एवमिकेके तिमि उ तिमि उ आलावगा भाणियव्वा, सदं सुणेत्ता णामेगे सुमणे भवति ३ एवं सुणेमीति ३ मुणिस्सामीति ३, एवं असुणेत्ता णामेगे मुमणे भवति ३ न सुणेमीति ३ण सुणिस्सामीति ३, एवं रुवाई गंधाई रसाई फासाई, एकेके छ छ आलावगा भाणियब्बा १२७ आलावगा भवंति (सू० १६०) तो ठाणा णिस्सीलस्स निव्वयस्स णिग्गुणस्स जिम्मेरस्स णिप्पचक्याणपोसहोववासस्स गरहिता भवंति त०-अस्सि लोगे गरहिते भवइ उपवाते गरहिए भवइ आयाती गरहिता भवति, ततो ठाणा सुसीलस्स सुब्वयस्स सगुणस्स सुमेरस सपञ्चक्खाणपोसहोववासस्स पसत्था
भवंति, सं०-अस्सि लोगे पसत्ये भवति उववाए पसत्थे भवति आजाती पसस्था भवति (सू० १६१) 'तो पुरिसे त्यादि, पुरुषजातानि-पुरुषप्रकाराः सुष्ठु मनो यस्यासौ सुमना:-हर्षवान् रक्त इत्यर्थः, एवं दुर्मना-दैन्यादिमान् द्विष्ट इत्यर्थः, नोसुमनानोदुम्मनाः-मध्यस्थः, सामायिकवानित्यर्थः । सामान्यतः पुरुषप्रकारा उक्ताः, एतानेव विशेषतो गत्यादिक्रियापेक्षया तओ इत्यादिभिः सूत्रैराह-तत्र 'गवा' यात्वा कचिद्विहारक्षेत्रादौ नामेति सम्भावनायामेकः कश्चित् सुमना भवति-हष्यति, तथैवान्यो दुर्मना:-शोचति, अन्यः सम एवेति, अतीतकालसूत्रमिव | वर्तमानभविष्यत्कालसूत्रे, नवरं 'जामीतेगे इत्यादिषु इतिशब्दो हेत्वर्थः । 'एवमगते'त्यादिप्रतिषेधसूत्राणि आगमनसूत्राणि च सुगमानि, 'एवम् एतेनानन्तरोक्तेनाभिलापेन शेषसूत्राण्यपि वक्तव्यानि । अथोक्तान्यनुक्कानि च सूत्राणि
दीप अनुक्रम [१६८-१७४]
%94%25%
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आगम
(०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१६०-१६१]
श्रीस्थाना-18 संगृहन् गाथापचकमाह-'गते'त्यादि, गंता अगंता आगन्तेत्युक्तम् , अणागंतत्ति-अणागता नामेगे सुमणे भवइ,४३ स्थान
सूत्र- अणागंता नामेगे दुम्मणे भवइ, अणागता नामेगे नोसुमणेनोदुम्मणे भवइ ३, एवं न आगच्छामीति २, एवं न काध्ययने वृत्ति आगमिस्सामीति ३, 'चिद्वित्त'त्ति स्थित्वा उर्द्धस्थानेन सुमना दुर्मना अनुभयं च भवति, एवं-चिट्ठामीति, चि
उद्देशः३ हिस्सामीति अचिट्ठित्ता' इहापि कालतः सूत्रत्रयम् , एवं सर्वत्र नवरं 'निषा' उपविश्य नो चेवत्ति-अनिषद्य-अ-2 ॥१३१॥
सू० १११ नुपविश्य ३, हत्वा-विनाश्य किश्चित् ३, अहत्वा-अविनाश्य ३, छित्त्वा-द्विधा कृत्वा ३, अच्छित्त्वा-प्रतीतं ३, 'बु-13 इत्त'त्ति उक्त्वा-भणित्वा पदवाक्यादिकं ३, 'अवुइत्त'त्ति अनुक्त्वा ३, "भासित्तेति भाषित्वा संभाष्य कञ्चन स-1 म्भाषणीयं ३, 'नो चेव'त्ति अभासित्ता असंभाष्य कञ्चन ३, 'दच'त्ति दत्त्वा ३ अदत्वा ३ भुक्त्वा ३ अभुक्त्वा ३४ लब्ध्वा ३ अलब्ध्वा ३ पीत्वा ३ 'नो चेव'त्ति अपीत्वा ३ सुस्त्वा ३ असुप्त्वा ३ युद्धा ३ अयुवा ३ 'जइत्ति जित्वा परं ३ अजित्वा परमेव ३ 'पराजिणित्ता' भृशं जित्वा ३ परिभङ्ग वा प्राप्य सुमना भवति, वर्जनकभाविमहावित्तव्ययविनिर्मुक्तत्वात् , पराजितान्-प्रतिवादिनः, सम्भावितानर्थविनिर्मुक्तत्वाद्वा, 'नो चेव'त्ति अपराजित्य ३ । सद्देत्यादि गाथा सूत्रत एव बोद्धव्या, अपश्चितत्वात् तत्रैवास्या इति । 'एवमिके'इत्यादि, 'एवं'मिति गत्वादिसूत्रोक्तक्रमेण एकैकस्मिन् शब्दादौ विषये विधिप्रतिषेधाभ्यां प्रत्येकं त्रयस्खय आलापका-सूत्राणि कालविशेषाश्रयाः सुमनाः दुर्मना नोसुमनानोदुर्माना इत्येतत्सदत्रयवन्तो भणितव्याः, एतदेव दर्शयन्नाह-समित्यादि, भावितार्थम् , 'एवं रुवाई गं- || धाई' इत्यादि, यथा शब्दे विधिनिषेधाभ्यां त्रयस्त्रय आलापका भणिता एवं 'रूवाई पासित्ते'त्यादयः त्रयस्खय एवं
दीप अनुक्रम [१६८-१७४]
ForParamasPrvammoni
*अत्र मूल संपादने एक स्थूल मुद्रणदोषः वर्तते (मूल प्रतमें ऊपर दायीं तरफ उद्देश: ३ लिखा है, परन्तु यहाँ दूसरा उद्देशक चल रहा है)
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आगम
(०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१६१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१६०-१६१]
15555
दर्शनीयाः, एवञ्च यद्भवति तदाह-'एक्के इत्यादि, एकैकस्मिन् विषये षडालापका भणितव्या भवन्तीति, तत्र शब्दे दशिता एव, रूपादिषु पुनरेवं-रूपाणि दृष्ट्वा सुमना दुर्मना अनुभयं १ एवं पश्यामीति २ एवं द्रक्ष्यामीति ३ एवं अ-18 दृष्ट्वा ४ न पश्यामीति ५न द्रक्ष्यामीति ६ षट्, एवं गन्धान प्रात्वा ६ रसानास्वाध ६ स्पर्शान् स्पृष्टदेति ६ ।'तहेव | ठाणा यत्ति यत्सङ्ग्रहगाथायामुक्तं तद् भावयन्नाह-तओ ठाणा इत्यादि, त्रीणि स्थानानि निःशीलस्य-सामान्येन | शुभस्वभाववर्जितस्य विशेषतः पुनः निर्वतस्य-प्राणातिपाताद्यनिवृत्तस्य निर्गुणस्योत्तरगुणापेक्षया निर्मयोंदस्य लोककुलाद्यपेक्षया निष्पत्याख्यानपौषधोपवासस्य-पौरुष्यादिनियमपर्वोपवासरहितस्य गर्हितानि-जुगुप्सितानि भवन्ति, तद्यथा
-'अस्सि'ति विभक्तिपरिणामादयं लोका-इदं जन्म गहिंतो भवति, पापप्रवृत्त्या विद्वज्जनजुगुप्सितत्वात्, तथा उपपात:-अकामनिर्जरादिजनितः किल्विषिकादिदेवभवो नारकभवो वा, 'उपपातो देवनारकाणा'मिति (नारकदेवानामुपपातः तत्त्वा० अ०२ सू०३५) वचनात्, स गहितो भवति किस्विपिकाभियोग्यादिरूपतयेति, आजातिः-तस्माच्युतस्योद्वृत्तस्य वा कुमानुषत्वतिर्यक्त्वरूपा गर्हिता, कुमानुपादित्यादेवेति । उक्तविपर्ययमाह-'तो' इत्यावि, निगदसिद्धम् ॥ एतानि च गर्हितप्रशस्तस्थानानि संसारिणामेव भवन्तीति संसारिजीवनिरूपणायाह
तिविधा संसारसमावनगा जीवा पं००-इत्थी पुरिसा नपुंसगा, तिविहा सम्बजीवा पं० सं०-सम्मट्ठिी मिच्छाविट्ठी सम्मामिच्छदिही य, अहवा तिविहा सव्वजीवा पं० त०-पजत्तगा अपजत्तगा णोपजत्तगाणोऽपजत्तगा । एवंसम्मदिविपरित्तापजत्तग सुहुमसन्निभविया य (सू० १६२)
दीप अनुक्रम [१६८-१७४]
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
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दीप
श्रीस्थाना- 'तिविहे'त्यादि सूत्रसिद्धं ॥ जीवाधिकारात् सर्वजीवांत्रिस्थानकावतारेण पद्धिः सूत्रराह-तिविहे'त्यादि, सुबोध, ३ स्थानझसूब
नवर 'नोपज्जत'त्ति नोपर्याप्तकानोअपर्याप्तकाः-सिद्धाः, एवं'मिति पूर्वक्रमेण सम्मचिट्ठीत्यादिगाधा मुक्तानुक्तसूत्रस- | काध्ययने वृत्तिः ग्रहार्थमिति । 'तिविहा सयजीवा पं० सं०-परित्ता १ अपरित्ता २ नोपरित्तानोअपरित्ता ३' तत्र परीत्ता:-प्रत्येकशरीराः उद्देश:३
अपरीत्ताः-साधारणशरीराः, परीत्तशब्दस्य छन्दोऽर्थ व्यत्यय इति, 'सुहमत्ति तिविहा सबजीवा पं० त०-सुहुमा ॥ १३२॥
सू०१६३ बायरा नोसुहुमानोबायरा, एवं संझिनो भव्याश्च भावनीयाः, सर्वत्र च तृतीयपदे सिद्धा वाच्या इति ॥ सर्व एव चैते लोके व्यवस्थिता इति लोकस्थितिनिरूपणायाह
तिविधा लोगठिती पं० त०-आगासपइट्ठिए वाते वातपतिहिए उदही उदहिपतिविया पुढबी, तओ दिसाभो पं० सं०उद्धा पहा तिरिया१, तिहिं दिसाहिं जीवाणं गती पवत्तति, उड़ाए अहाते तिरियाते २, एवं आगती३ वकंती ४ आहारे ५ बुड़ी ६ णिबुड़ी ७ गतिपरियाते ८ समुग्धाने ९ कालसंजोगे १० दंसणाभिगमे ११,णाणाभिगमे १२,जीवाभिगमे १३,तिहिं दिसाहि जी
पाणं अजीवाभिगमे पं० त०-उड़ाते अहाते तिरियाते १४, एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं, एवं मणुस्साणवि (सू०१६३) 'तिविहे 'त्यादि कण्ठ्यं, किन्तु लोकस्थिति:-लोकव्यवस्था आकाश-व्योम तत्र प्रतिष्ठितो-व्यवस्थित आकाशप्रतिष्ठितो. वातो-धनवाततनुवातलक्षणः सर्वद्रव्याणामाकाशप्रतिष्ठितत्वात् उदधिः-घनोदधिः पृथिवी-तमस्तमम्प्रभादिकेति ॥ उक्तदास्थितिके च लोके जीवानां दिशोऽधिकृत्य गत्यादि भवतीति दिग्निरूपणपूर्वक तासु गत्यादि निरूपयन् 'तओ दिसे त्यादि 6 ॥१३२॥ VIसूत्राणि चतुर्दशाह-सुगमानि च, नवरं दिश्यते-व्यपदिश्यते पूर्वादितया बस्वनयेति दिक, सा च नामादिभेदेन सप्तधा,
अनुक्रम [१७५]
ForParamasPrvammoni
...अत्र मूल संपादने एक स्थूल मुद्रणदोष: वर्तते (मूल प्रतमें ऊपर दायीं तरफ उद्देश: ३ लिखा है, परन्तु यहाँ दूसरा उद्देशक चल रहा है)
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१६३]
आह च-"नाम १ठवणा २ दविए ३ खेत्तदिसा ४ तावखेत्त ५ पन्नवए ६ । सत्तमिया भावदिसा७ सा होअहारसविहाउ | ॥१॥" तत्र द्रव्यस्य-पुद्गलस्कन्धादेर्दिक् द्रव्यदिक्, क्षेत्रस्य-आकाशस्य दिक् क्षेत्रदिक्, सा चैवं-"अपएसो रुयगो तिरियलोयरस मज्झयारंमि। एस पभवो दिसाणं एसेव भवे अणुदिसाणं ॥१॥" तत्र पूर्वाद्या महादिशश्चतस्रोऽपि द्विप्रदेशादिका युत्तराः, अनुदिशस्तु एकप्रदेशा अनुत्तराः, ऊर्ध्वाधोदिशौ तु चतुरादी अनुत्तरे, यतोऽवाचि-"दुपएसादि दुरुत्तर ४ एगपएसा अणुत्तरा चेव । चउरो ४ चउरो य दिसा चउरादि अणुत्तरा दुन्नि २॥१॥ संगडुद्धिसंठिआओ महादिसाओ हवंति |चत्तारि। मुत्तावलीउ चउरो दो चेव य हुति रुयगनिभा ॥२॥" नामानि चासाम्---"इंदे १ ग्गेयी २ जम्मा य ३ नेरई ४ वारुणी य ५ वायब्वा ६ । सोमा ७ ईसाणावि य ८ विमला य ९ तमा १० य बोद्धव्वा ॥१॥" तापः-सविता तदुपल-| क्षिता क्षेत्रदिक् तापक्षेत्रदिक्, सा च अनियता, यत उक्तम्-"जेसि जत्तो सूरो उदेइ तेसिं तई हवइ पुन्वा । तावखेतदिसाओ पयाहिणं सेसियाओ सिं ॥१॥" तथा प्रज्ञापकस्य-आचार्यादेर्दिक प्रज्ञापकदिक्, सा चैवम् –“ पन्नवओ जयभिमुहो सा पुब्वा सेसिया पयाहिणओ । तस्सेवऽणुगंतब्वा अग्गेयाई दिसा नियमा ॥१॥" भावदिक
१ नाम स्थापना व्यक्षेत्रदिशः तापोनप्रशापकाः । सप्तमीका भावदिक् सा भवत्यष्टादश विधा एवं ॥१॥ २भप्रदेशो रुथको मध्ये तिर्यग्लोकस्य एष प्रभवो | दिशामेष एवानुदियामपि ॥१॥ सुसरा विप्रथेषादिका अनुत्तरेकप्रदेशा चैव । चतस्रश्वतखश्च दिशा चतुरादी मनुत्तरे है ॥१॥ ४ शकठोदिगंस्थिता महाधिशो
| भवति चतक्षः । मुक्तावलीव चतसोहे एव च भवतो रुचकनिभे ॥१॥ ५ऐन्दी आनेवी यमा च नैतिर्वारुणी च पायच्या । सोमा ईशानी अपि च बिमला च Xतमा च बोडण्या ॥१॥ येषां यतः सूर्य उदयते ते सा भवति पूर्वा । तापक्षेत्रविक् प्रदक्षिणं शेषा असाः ॥१॥ ७ प्रशापको यदभिमुन्नतिष्ठति सा
पूर्वा प्रदक्षिणतः शेषाः । तस्या एवानुगंतव्याः आग्नेय्याद्या दिशो नियमाव ॥१॥
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दीप अनुक्रम [१७६]
AKASGANGACAS
4
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[१६३]
दीप
अनुक्रम [१७६]
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [२],
मूलं [ १६३ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३ ]
श्रीस्थाना
झसूत्र
वृत्तिः
॥ १३३ ॥
३ स्थान
३
उद्देशः २
सू० १६४
चाष्टादशविधा --" पुंढवि१जल २जलण श्वाया४मूला ५६७पोरबीया य ८ । बि९ति१० उ११ पंचिंदियतिरिय १२ नारगा १३ देवसंघाया १४ ॥ १ ॥ संमुच्छिम १५ कम्मा १६ कम्मभूमगनरा १७ तहंतरद्दीचा १८ । ७ काध्ययने भावदिसा दिस्सइ जं संसारी निययमेवाहिं ॥ २ ॥” इति, इह च क्षेत्रतापप्रज्ञापकदिग्भिरेवाधिकारः, तत्र च तिर्यग्ग्रहणेन पूर्वाद्याश्चतस्र एव दिशो गृह्यन्ते, विदिक्षु जीवानामनुश्रेणिगामितया वक्ष्यमाणगत्यागतिव्युत्क्रान्तीनामयुज्यमानत्वात् शेषपदेषु च विदिशामविवक्षितत्वात्, यतोऽत्रैव वक्ष्यति, "छहिं दिसाहिं जीवाणं गई पवसईत्यादि, तथा ग्रन्थान्तरेऽप्याहारमाश्रित्योक्तम् — "निव्वाघाएण नियमा छद्दिसिंति" तत्र 'तिहिं दिसाहिंति सप्तमी तृतीया पञ्चमी वा यथायोगं व्याख्येयेति, गतिः - प्रज्ञापकस्थानापेक्षया मृत्वाऽन्यत्र गमनम् 'एव' मिति पूर्वोक्ताभिठापसूच ॐ नार्थः आगतिः- प्रज्ञापक प्रत्यासन्नस्थाने आगमन मिति, व्युत्क्रान्तिः उत्पत्तिः, आहारः प्रतीतः, वृद्धि:- शरीरस्य वर्द्धनं, निवृद्धिः - शरीरस्यैव हानिः, गतिपर्यायश्चलनं जीवत एव समुद्घातो - वेदनादिलक्षणः, काल संयोगो-वर्त्तनादिकाल लक्षणानुभूतिः मरणयोगो वा, दर्शनेन - अवध्यादिना प्रत्यक्षप्रमाणभूतेनाभिगमो- बोधो दर्शनाभिगमः, एवं ज्ञानाभिगमः, जीवानां ज्ञेयानां अवध्यादिनैवाभिगमो जीवाभिगम इति । ' तिहिं दिसाहिं जीवाणं अजीवाभिगमे पन्नत्ते, तं०-बढाए ३' एवं सर्वत्राभितपनीयमिति दर्शनार्थे परिपूर्णान्त्यसूत्राभिधानमिति । एतान्यपि जीवाभिगमान्तानि सामान्यजीवसूत्राणि
|
१ पृथ्वीगलज्वलनवाता मूरूस्कंधापर्ववीजा द्वित्रिचतुः पंचेंद्रिय तिर्यभारका देवसंपाताः ॥ १ ॥ मूछिमकर्माकर्म भूमिगन रातधान्तरद्वीपगाः भावविशो व्यपदिश्यते यत्संसारी नियतमेतानिः ॥ १ ॥
Education Intamational
"स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
For Personal & Prat Use Only
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॥ १३३ ॥
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आगम
(०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
55%
सूत्रांक
[१६३]
दीप अनुक्रम [१७६]
CER**
चविंशतिदण्डकचिन्तायां तुनारकादिषदेषु दिनये गत्यादीना त्रयोदशानामपि पदाना सामस्त्येनासम्भवात् पञ्चेन्द्रि| यतिर्यक्षु मनुष्येषु च तत्सम्भवात् तदतिदेशमाह-एवं'मित्यादि, यथा सामान्यसूत्रेषु गत्यादीनि प्रयोदश पदानि विनये अभिहितान्येवं पञ्चेन्द्रियतिर्यमनुष्येष्विति भावः, एवं चैतानि पईिंशतिः सूत्राणि भवन्तीति । अथैषां नारकादिषु कथमसम्भव इति ?, उच्यते, नारकादीनां द्वाविंशतेजीवविशेषाणां नारकदेवेषुत्पादाभावादूर्वाधोदिशोर्विवक्षया गत्यागत्योरभावः, तथा दर्शनज्ञानजीवाजीवाभिगमा गुणप्रत्यया अवध्यादिप्रत्यक्षरूपा दिक्त्रये न सन्त्येव, भवप्रत्ययावधिपक्षे तु नारकज्योतिष्कास्तिर्यगवधयो भवनपतिव्यन्तरा ऊर्वावधयः वैमानिका अधोऽवधय एकेन्द्रियविकलेन्द्रियाणां स्ववधिनास्त्येवेति । यथोक्कानि च गत्यादिपदानि बसानामेव सम्भवन्तीति सम्बन्धात्रसानिरूपयन्नाह
तिथिहा तसा पं० सं०-तेउकाइया बाउकाइया उराला तसा पाणा, तिविधा थावरा, पं० सं०-पुतविकाइया
आउकाइया वणस्सइकाइया (सू० १६४) 'तिबिहे'त्यादि स्पष्ट, किन्तु प्रस्सन्तीति त्रसाः-चलनधर्माणः, तत्र तेजोवायवो गतियोगात् प्रसार, उदारा-रधूलाः 'त्रसा' इति वसनामकर्मोदयवर्तित्वात् , 'प्राणा' इति व्यकोच्छासादिप्राणयोगात् द्वीन्द्रियादयस्तेऽपि गतियोगादेव त्रसा
इति । उक्कानसाः, तद्विपर्ययमाह-'तिविहे त्यादि, स्थानशीलत्वात् स्थावरनामकर्मोदयाच्च स्थावरा, शेष व्यक्तमेवेति ।। है इह च पृथिव्यादयः प्रायोऽङ्गुलासवेयभागमात्रावगाहनत्वात् अच्छेद्यादिस्वभावा व्यवहारतो भवन्तीति सत्प्रस्तावानिश्चयाच्छेद्यादीनष्टभिः सूत्रैराह
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१६५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना
सूत्रवृत्तिः
सूत्रांक
CASSAKC
[१६५]
॥१३४॥
दीप अनुक्रम [१७८]
ततो अकछेजा पं० २०-समये पदेसे परमाणू १, एवमभेजा २ अउज्झा ३ अगिज्मा ४ अणड़ा ५ अमज्झा ६ अप
३ स्थानएसा ७ ततो अविभातिमा पं० २०-समते पएसे परमाणू ८ (सू० १६५) अजोति समणे भगवं महावीरे गोत- काध्ययने मादी समणे णिग्गंथे आमंतेत्ता एवं बयासी-किंभया पाणा? समणाउसो', गोयमाती समणा णिग्गंधा समणं भगवं उद्देशः २ महावीर उवसंकर्मति उवसंकमित्ता वदंति नमसंति बंदित्ता नमंसित्ता एवं पयासी-जो खलु वयं देवाणप्पिया! एयम
सू०१६६ जाणामो वा पासामो वा, तंजदि णं देवाणुपिया एयमई णो गिलायति परिकहित्तते तमिच्छामो ण देवाणुप्पियाणं - तिए एवमह जाणित्तए, अज्जोत्ति समणे भगवं महावीरे गोयमाती समणे निरगंथे आमंतेचा एवं वयासी-दुक्खभया
पाणा समणाउसो!, से णं भंते! दुक्खे केण कडे, जीवेणं कडे पमादेण २, से णं भंते ! दुक्खे कई वेइज्जति ?, अप्प___ मारणं ३ (सू० १६६) 'तओ अच्छेजे त्यादि, छेनुमशक्या बुद्ध्या क्षुरिकादिशस्त्रेण वेत्यच्छेद्याः, छेयत्वे समयादित्वायोगादिति, समयः-1 कालविशेषः प्रदेशो-धर्माधर्माकाशजीवपुद्गलानां निरवयवोर्डवाः परमाणु:-अस्कन्धः पुद्गल इति, उक्तं च-सत्येण सुतिक्खेणवि छेत्तुं भेनुं च जं किर न सका । तं परमाणु सिद्धा वयंति आई पमाणाणं ॥१॥"ति, 'एच'मिति पूर्वसूत्राभिलापसूचनार्थ इति, अभेद्याः सूच्यादिना अदाह्या अग्निक्षारादिना अग्राह्या हस्तादिना न विद्यतेऽ येषामित्यनौं। विभागद्वयाभावात् , अमध्या विभागत्रयाभावात् , अत एवाह-'अप्रदेशा' निरवयवाः, अत एवाविभाज्या-विभक्तुमश-II
१३४॥ १वतीक्ष्णेनापि शस्त्रेण छेत्तुं भत्तुं च यः किस न शक्यते तं वदन्ति परमाणु शानसिद्धाः प्रमाणानामादि ॥१॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१६६]
क्याः, अथवा विभागेन निवृत्ता विभागिमास्तन्निषेधादविभागिमाः। एते च पूर्वतरसूत्रोक्ताः सस्थावराख्याः प्राणिनो है दुःखभीरव इत्येतत् संविधानकद्वारेणाह-'अञ्जों' इत्यादि, सुगम, केवलम् 'अजोत्ति'त्ति आरात् पापकर्मभ्यो याता आर्यास्तदामन्त्रणं हे आर्या! 'इतिः' एवमभिलापेनामध्येतिसम्बन्धः, श्रमणो भगवान् महावीर गौतमादीन् श्रमणान्
निर्ग्रन्धानेव-वक्ष्यमाणन्यायेनावादीदिति, कस्माद् भयं येषां ते किंभयाः, कुतो विभ्यतीत्यर्थः, 'प्राणाः प्राणिनः 'सIMमणाउसो'त्ति हे श्रमणाः! हे आयुष्मन्त इति गौतमादीनामेवामन्त्रणमिति, अयं च भगवतः प्रश्नः शिष्याणां व्युसाद-1
नार्थ एव, अनेन चापृच्छतोऽपि शिष्यस्य हिताय तत्त्वमाख्येयमिति ज्ञापयति, उच्यते चकत्थह पुच्छइ सीसो कहिंचऽपुहा ययंति आयरिया। सीसाणं तु हियहा विउलतरागं तु पुच्छाए ॥१॥" इति, ततश्च 'उवसंकमंति'त्ति उपसङ्कामन्ति-उपसङ्गच्छन्ति तस्य समीपवर्तिनो भवन्ति, इह च तत्कालापेक्षया क्रियाया वर्तमानत्वमिति वर्तमान-13 निर्देशो न दुष्टः, उपसङ्कम्य वन्दन्ते स्तुत्या नमस्यन्ति प्रणामतः, 'एवम् अनेन प्रकारेण 'वयासि'त्ति छान्दसत्वात् | बहुवचनार्थे एकवचनमिति अवादिषुः उक्तवन्तो नो जानीमो विशेषतः नो पश्यामः सामान्यतो, वाशब्दो विकल्पार्थों, | "तदिति तस्मादेतमर्थ-किंभयाः प्राणा इत्येवलक्षणं, 'नो गिलायंति'त्ति न ग्लायन्ति-न श्राम्यन्ति परिकथयितुं | परिकथनेन 'तंति ततः, 'दुक्खभय'त्ति दुःखात्-मरणादिरूपात् भयमेषामिति दुःखभयाः, 'से णं'ति तद् दुःखं 'जीवेणं कडेत्ति दुःख कारणकर्मकरणात् जीवेन कृतमित्युच्यते, कथमित्याह-'पमाएण'ति प्रमादेनाज्ञानादिना
कचित्पति शिष्यः क्वचिचापृष्टा बदन्त्याचार्याः । शिष्याणां हितायैव विपुलतर तु पृच्छायां ॥५॥
दीप
अनुक्रम [१७९]
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आगम
(०३)
प्रत
मूचांक
[१६६ ]
टीप
अनुक्रम [१७९]
[भाग - 5] "स्थान" अंगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [१६६]
उद्देशक [२].
स्थान [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थाना
सूत्रवृत्तिः
॥ १३५ ॥
- -
बन्धहेतुना करणभूतेनेति, उक्तं च- "पैमाओ य मुणिंदेहिं, भणिओ अहभेयओ । अन्नाणं संसओ चेव, मिच्छाणाणं तहेव य ॥ १ ॥ रागो दोसो मइब्भंसो, धम्मंसि य अणायरो । जोगाणं दुष्पणीहाणं, अउहा वज्जियव्वओ ॥ २ ॥” इति । तच्च वेद्यते- क्षिप्यते अप्रमादेन, बन्धहेतुप्रतिपक्षभूतत्वादिति । अस्य च सूत्रस्य कुश्खभया पाणा १ जीवेणं कडे दुक्खे पमाएणं २ अपमाएणं बेइज्जई र त्येवंरूपप्रश्नोत्तरत्रयोपेतत्वात् त्रिस्थानकावतारो द्रष्टन्य इति । जीवेन कृतं दुःखमित्युक्तमधुना परमतं निरस्यैतदेव समर्थयज्ञाह
अन्नउत्थिता णं भंते! एवं आतिक्वंति एवं भासति एवं पनवेति एवं परूवंति कहनं समणाणं निग्गंधाणं किरिया कजति ?, तस्थ जा सा कडा कजइ नो तं पुच्छंति, तत्थ जा सा कडा नो कमति, नो तं पुच्छंति, तत्थ जा सा अकडा नो कज्जति नो तं पुच्छंति, तत्थ जा सा अकडा कज्जति तं पुच्छंति से एवं बत्तव्वं सिता ? – अकिचं दुक्खं अफुसं दुक्खं अकज्जमाणकडे दुक्त्रं अकट्टु अकट्टु पाणा भूया जीवा सत्ता वेयणं वेदेतित्ति वत्तब्बं, जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमामु, अहं पुण एबमाइक्खामि एवं भासामि एवं पनवेमि एवं परूवेमि दुक्खं कट्टु २ पाणा भूया जीवा सत्ता वेयणं वैयंतित्ति बन्तव्वं सिया ( सू० समचो ॥ 'अन्नत्थी' त्यादि प्रायः स्पष्टं, किन्तु अभ्ययूथिकाः - अन्यतीर्थिका इह तापसा विभङ्गज्ञानवन्तः, 'एवं' वक्ष्य१ प्रमाद मुनीन्द्रैणितोऽष्टभेदः। अज्ञानं संशयबैव मिथ्याज्ञानं तथैव च। रागो द्वेषो मतिभ्रंशो धर्मे वानादरः रोगानां दुष्प्रणिधानं अष्टधा वर्जयितव्यः ॥१॥
किवं दुक्खं फुस्सं दुक्खं कज्माणक १६७) तइयठाणस्स बीओ उद्देस
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३ स्थान
काध्ययने उद्देशः २
सू० १६७
।। १३५ ॥
www.january or
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आगम
(०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१६७]
दीप अनुक्रम [१८०]
REENSEENEWS
माणप्रकारमाख्यान्ति सामान्यतो भाषन्ते विशेषतः क्रमेणैतदेव प्रज्ञापयन्ति प्ररूपयन्तीति पर्यायरूपपदद्वयेन उक्तमिति, अथवा आख्यान्ति ईषद् भाषन्ते व्यक्तवाचा प्रज्ञापयन्ति उपपत्तिभिबोधयन्ति प्ररूपयन्ति प्रभेदादिकथनत इति, किं तदि-14 त्याह-'क' केन प्रकारेण 'श्रमणानां निम्रन्थानां मते इति शेषः क्रियते इति क्रिया-कर्म सा क्रियते भवति दुःखायेति विवक्षयेति प्रश्नः, इह तु चत्वारो भङ्गाः, तद्यथा-कृता क्रियते-विहितं सत्कर्म दुःखाय भवतीत्यर्थः १, एवं कृतान क्रियते २| | अकृता कियते ३ अकृता न कियते ४ इति, एतेष्वनेन प्रश्नेन यो भङ्गः प्रष्टुमिष्टस्तं शेषभङ्गनिराकरणपूर्वकमभिधातुमाह'तस्थ'त्ति तेषु चतुएं भड़केषु मध्ये प्रथम द्वितीयं चतुर्थ च न पृच्छन्ति, एतत्रयस्यात्यन्तं रुचेरविषयतया तत्पश्नस्याप्यप्रवृत्तेरिति, तथाहि-'याऽसौ कृता क्रियते' यत्तत्कर्म कृतं सद्भवति नो तत्ते पृच्छन्ति, पूर्वकालकृतत्वस्याप्रत्यक्षतया असत्त्वेन निम्रन्थमतत्वेन चासमतत्वादिति, 'तत्र याऽसौ कृता नो क्रियते' इति तेधु-भङ्गकेषु मध्ये यत्तत्कर्म कृतं न भवति नो तत्पृच्छन्ति, अत्यन्तविरोधेनासम्भवात् , तथाहि-कृतं चेत् कर्म कथं न भवतीत्युच्यते?, न भवति चेत् कथं कृतं तदिति, कृतस्य कर्मणोऽभवनाभावात्, 'तत्र' तेषु 'याऽसावकृतां यत्तदकृतं कर्म 'नो क्रियते' न भवति नो तां पृच्छन्ति, अकृतस्यासतश्च कर्मणः स्वरविषाणकल्पत्वादिति, अमुमेव च भङ्गकत्रयनिषेधमाश्रित्यास्य सू-1 त्रस्य त्रिस्थानकावतार इति सम्भाव्यते, तृतीयभङ्गकस्तु तत्संमत इति तं पृच्छन्ति, अत एवाह-तत्र 'याऽसावकृता क्रियते' यत्तदकृत-पूर्वमविहितं कर्म भवति-दुःखाय सम्पद्यते तां पृच्छन्ति, पूर्वकालकृतत्वस्याप्रत्यक्षतया असत्त्वेन दुःखानुभूतेश्च प्रत्यक्षतया सत्त्वेनाकृतकर्मभवनपक्षस्य सम्मतत्वादिति, पृच्छतां चायमभिप्रायो-यदि निर्ग्रन्था अपि
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
वृत्तिः
।
[१६७]
दीप अनुक्रम [१८०]
श्रीस्थाना- अकृतमेव कर्म दुःखाय देहिनां भवतीति प्रतिपद्यन्ते ततः सुष्टु-शोभनं अस्मरसमानबोधत्वादिति शेषानपृच्छन्तः तृ-10३ स्थानसूत्र-15 तीयमेव पृच्छन्तीति भावः, 'से'त्ति अथ तेषामकृतकाभ्युपगमवतामेवं-वक्ष्यमाणप्रकारं वक्तव्यम्-उल्लापः स्यात् , त| काध्ययने
एव वा एवमाख्यान्ति परान प्रति, यदुत-अधैवं वक्तव्यं-प्ररूपणीयं तत्त्ववादिनां स्यात्-भवेद्, अकृते सति कर्मणि उद्देशः२
दुखभावात् अकृत्यम्-अकरणीयमवन्धनीयम्-अमाप्तव्यमनागते काले जीवानामित्यर्थः, किं?-दुक्खं' दुःखहेतुत्वात् 121 सू०१६७ ॥१३६॥
४ कर्म, 'अफुस्सं'ति अस्पृश्यं कर्म अकृतत्वादेव, तथा क्रियमाणं च-वर्तमानकाले बध्यमानं कृतं चातीतकाले बद्धं किय
माणकृतं द्वन्द्वैकत्वं कर्मधारयो वा न क्रियमाणकृतमक्रियमाणकृतं, किं तत्!-दुःख-कर्म 'अकिचं दुक्ख'मित्या| दिपदत्रयं, 'तत्व जा सा अकडा कजइ तं पुच्छंत्यन्यतीर्थिकमताश्रितं कालत्रयालम्बनमाश्रित्य त्रिस्थानकावतारो-10 | इस्य द्रष्टव्यः, किमुक्तं भवतीत्याह-अकृत्वा अकृत्वा कर्म प्राणा-द्वीन्द्रियादयः भूताः-तरवो जीवा:-पवेन्द्रियाः |सत्त्वाः-पृथिव्यादयो, यथोक्तम्-"प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ता, भूतास्तु तरवः स्मृताः । जीवाः पश्येन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्त्वाः प्रकीर्तिताः ॥१॥” इति, वेदना-पीडां बेदयन्तीति वक्तव्यमित्ययं तेषामुल्लापः, एतद्वा ते अज्ञानोपहतबुद्धयो भाषन्ते परान् प्रति, यदुत-एवं वक्तव्यं स्यादिति प्रक्रमः ॥ एवमन्यतीर्थिकमतमुपदये निराकुर्वन्नाह-'जे ते' इत्यादि। |य एते अभ्यतीर्थिका एवम्-उक्तप्रकारमाहंसुत्ति-उक्तवन्तः 'मिथ्या' असम्यक् ते अन्यतीथिका एवमुक्तवन्तः, 'आहे
सुत्ति उक्तयन्ता, अकृतायाः क्रियात्वानुपपत्तेः, क्रियत इति हि क्रिया, यस्यास्तु कथचनापि करणं नास्ति सा कथं कि-1022 द्वायेति, अकृतकमांनुभवने हि बद्धमुकमुखितदु:खितादिनियतव्यवहाराभावप्रसा इति, स्वमतमाविष्कुर्वन्नाह-'अहमि-18
1॥१३६॥
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[१६७]
दीप
अनुक्रम [१८०]
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [२], मूलं [१६७]
पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
त्यादि 'अहं'ति अहमेव नान्यतीर्थिकाः, पुनःशब्दो विशेषणार्थः स च पूर्ववाक्यादुत्तरवाक्यार्थस्य विलक्षणतामाह, 'एवमा इक्खामीत्यादि पूर्ववत् कृत्यं करणीयमनागतकाले दुःखं, तद्धेतुकत्वात् कर्म, स्पृश्यं स्पृष्टलक्षणवन्धावस्थायोग्यं क्रियमाणं वर्त्तमानकाले कृतमतीते, अकरणं नास्ति कर्म्मणः कथञ्चनापीति भावः, स्वमत सर्वस्वमाह- कृत्वा कृत्या कम्र्मेति गम्यते, प्राणादयो वेदनां कर्म्मकृतशुभाशुभानुभूतिं वेदयन्ति - अनुभवन्तीति वक्तव्यं स्यात् सम्यग्वादिनामिति । त्रिस्थानकस्य द्वितीय उद्देशको विवरणतः समाप्तः ॥
उक्त द्वितीयोदेशकः, साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरोद्देशके विचित्रा जीवधर्माः प्ररूपिताः इहापि त एव प्ररूप्यन्त इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देश कस्यादिसूत्रत्रयम् -
तिहिं ठाणेहिं माथी मायं कट्टु णो आलोतेजा णो पढिसमेजा णो निंदिना णो गरहिजा णो विउट्टेना णो विसोहेला णो अकरणात अभुजा णो अद्दारिहं पायच्छितं तवोकम्मं पडिवज्जेज्जा, सं० अकरिंसु बाऽहं करेमि वाऽहं करिस्सामि बाऽहं १ । तिहिं ठाणेहिं मायी मायं कट्ट णो आलोतेजा णो पडिकमिया जाव णो पडिवलेला किती वा मे सिता अवण्णे वा मे सिया अविणते वा मे सिता २ । तिहिं ठाणेहिं मायी मायं कट्टु णो आलोएना जाव नो पडिवज्जेशा सं०
किती वा मे परिहातिस्सति जसो वा मे परिहातिस्सति पूयासकारे वा मे परिहातिस्वति ३ । तिहिं ठाणेहिं मायी मायं कटु आलोएना पडिकमेजा जाव पडिवलेला तं० - मायिस्स णं अस्सि लोगे गरहिते भवति उबवाए गरहिए भवति आयाती गरहिया भवति ४ । विहिं ठाणेहिं मायी मायं कटु आलोएजा जाव पडिवोज्जा तं० – अमायिस्स णं
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अत्र तृतीय स्थानस्य द्वितीय - उद्देशकः समाप्तः, अथ तृतीय- उद्देशक: आरभ्यते
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[१६८ ]
दीप
अनुक्रम [१८१]
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१६८ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३ ]
श्रीस्थानानसूत्र
वृत्तिः
॥ १३७ ॥
असि लोगे पस्थे भवति उबवाते पसत्वे भवइ आयाई पसत्था भवति ५ । तिहिं ठाणेहिं मायी मायं कटु आलोएजा जाब पडिवजेज्जा, सं० णाणताते दंसणट्टयाते चरितयाते ६ ( सू० १६८ )
'तिहिं ठाणेही त्यादि, अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायं सम्बन्धः - पूर्वसूत्रे मिथ्यादर्शनयतामसमअसतो का, इह तु कषायवतां तामाहेत्येवं सम्बन्धस्यास्य व्याख्या- 'मायी' मायावान् 'माया' मायाविषयं गोपनीयं प्रच्छन्नमकार्य कृत्वा नो आलोचयेत् मायामेवेति शेषं सुगमं, नवरं आलोचनं-गुरुनिवेदनं प्रतिक्रमणं - मिथ्यादुष्कृतंदानं निन्दा - आत्मसाक्षिका गर्दा* गुरुसाक्षिका वित्रोटनं तदध्यवसायविच्छेदनं विशोधनम् - आत्मनः चारित्रस्य वा अती चारमलक्षालनं अकरणताभ्युत्थानंपुननैतत् करिष्यामीत्यभ्युपगमः 'अहारिहं' यथोचितं 'पायच्छिन्तं' ति पापच्छेदकं प्रायश्चित्तविशोधकं वा तपःकर्म्म-निर्वि कृतिकादि प्रतिपद्येत, तद्यथा - अकार्षमहमिदमतः कथं निन्द्यमित्यालोचयिष्यामि स्वमाहात्म्यहानिप्राप्तेरित्येवमभिमानात् १ तथा करोमि चाहमिदानीमेव कथमसाध्विति भणामि २ करिष्यामीति चाहमेतदकृत्यमनागतकालेऽपि कथं प्रायश्चित्तं प्रतिपद्य इति । कीर्तिः एकदिग्गामिनी प्रसिद्धिः सर्वदिग्गामिनी सैव वर्णों यशःपर्यायत्वादस्य अथवा दानपुण्यफला कीर्त्तिः पराक्रमकृतं यशः, तच्च वर्ण इति तयोः प्रतिषेधोऽकीर्तिः अवर्णश्चेति, अविनयः साधुकृतो मे स्यादिति इदं च सूत्रमप्राप्रसिद्धिपुरुषापेक्षं, 'मायं कटु'त्ति मायां कृत्वा मायां पुरस्कृत्य माययेत्यर्थः, 'परिहास्यति' हीना भविष्यति । पूजा पुष्पादिभिः सत्कारो वस्त्रादिभिः, इदमेकमेव विवक्षितमेकरूपत्वादिति इदं तु प्राप्तप्रसिद्धिपुरुषापेक्षं, शेषं सुगमम् ॥ उक्तविपर्ययमाह – 'तिही' त्यादि सूत्रत्रयं स्पष्टं, किन्तु 'मायी मायं कटु आलोएज्ज'त्ति इह मायी अकृत्यकर
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"स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
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३ स्थान
काध्ययने उद्देशः २ सू० १६८
॥ १३७ ॥
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आगम
(०३)
प्रत
सूचांक
[१६८ ]
दीप
अनुक्रम
[१८१]
[भाग-5] "स्थान"
- अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [3]. मूलं [१६८ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
स्थान [३],
णकाल एव आलोचनादिकाले स्वमाय्येव आलोचनाद्यन्यथानुपपत्तेरिति, 'अस्सि'ति अयं यतो मायिन इहलोकाद्या गर्हिता भवन्ति यतश्चामाचिन इहलोकाद्याः प्रशस्ता भवन्ति यतश्चामायिन आलोचनादिना निरतिचारीभूतस्य ज्ञानादीनि स्वस्वभावं लभन्ते अतोऽहममायी भूत्वाऽऽलोचनादि करोमीति भावना ॥ अनन्तरं शुद्धिरुक्ता, इदानीं तत्का रिणोऽभ्यन्तरसम्पदा त्रिधा कुर्वशाह
ततो पुरिसजाया पं० [सं० मुत्तधरे अत्यधरे तदुभयधरे ( सू० १६९) कप्पति णिगंधाण वा णिग्गंधीण वा ततो वत्थाई धारितए वा परिहरिचते वा, तं० जंगिते भंगिते खोमिते १ कप्पइ णिगंधाण वा णिमगंधीण वा २ ततो पा याई धारितते वा परिहरित्तते वा, तं० छाउयपादे वा दारुपादे वा मट्टियापादे वा (सू० १७०) विहिं ठाणेहि वत्थं धरेज्जा, सं० हरिपत्तितं दुगुंडापत्तियं परीसहवत्तियं ( सू० १७१) तभी आयरक्खा पं० [सं० धम्मियाते पडिचोयणाते पडिचोएता भवति तुसिणीतो वा सिता उता वा आताते एर्गतमंतमवकमेज्जा णिग्गंधस्स पं गिलायमाणरस कप्पंति ततो विवडदत्तीओ पडिग्गाहित्तते, तं०-उकोसा मज्झिमा जहन्ना ( सू० १७२ )
'तओ पुरी' त्यादि सुबोधं, नवरमेते यथोत्तरं प्रधाना इति । तेषामेव बाह्यं सम्पदं सूत्रद्वयेनाह - 'कप्पती 'ति 'कल्पते' युज्यते युक्तमित्यर्थः, 'धारित 'त्ति धनुं परिग्रहे 'परिहर्त्तु' परिभोक्तुमिति, अथवा 'वारणया उबभोगो, परिहरणे होइ परिभोग'त्ति । 'जंगियं' जंगमजमौर्णिकादि 'भंगियं' अतसीमयं 'खोमियं' कार्पासिकमिति । अलाबुपात्रकं-तु
१ धारणदोपभोगः परिहरणं भवति परिभोगः,
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[१७२]
दीप
अनुक्रम [१८५]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१७२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३ ]
॥ १३८ ॥
श्रीस्थानाम्बकं, दारुपात्रं - काष्ठमयं मृत्तिकापात्रं - मृन्मयं शराववार्घटिकादि, शेषं सुगमं । वस्त्रग्रहणकारणान्याह - 'तिहीं' त्यादि, ङ्गसूत्र- * ही खज्जा संयमो वा प्रत्ययो - निमित्तं यस्य धारणस्य तत्तथा, जुगुप्सा-प्रवचनखिंसा विकृताङ्गदर्शनेन मा भूदित्येवं प्रवृत्तिः त्ययो यत्र तत्तथा, एवं परीपहा:- शीतोष्णदंशमशकादयः प्रत्ययो यत्र तत्तथा, आह च "वेडेब्वि वाउडे वाइए य हीरिखद्धपजणणे चैव । एसिं अणुग्गहडा लिंगुदयहा य पट्टो उ || १|| ” ('वेडव्वित्ति विकृते तथा 'अप्रावृते' वस्त्राभावे सति 'वातिके' च उच्छूनत्वभाजने हियां सत्यां 'ख' बृहत्प्रमाणे 'प्रजनने' मेहने 'लिङ्गोदय'त्ति स्त्रीदर्शने लिङ्गोदयरक्षार्थ४ मित्यर्थः) तथा, "तंणगहणानलसेवानिवारणा धम्मसुकझाणट्टा । दिहं कप्पग्गहणं गिलाणमरणडया चैव ॥ १ ॥” इति, वस्त्रस्य ग्रहणकारणप्रसङ्गात् पात्रस्यापि तान्याख्यायन्ते, "अंतरंतबालबुडा सेहाऽऽदेसा गुरू असहुवग्गो । साहारणोमहालद्धिकारणा पायगहणं तु ॥ १॥" ( अतरंतत्ति ग्लाना आदेशाः प्राघूर्णकाः, 'असद्दु'ति सुकुमारो राजपुत्रादिप्रत्रजितः 'साधारणावग्रहात् सामान्योपष्टम्भार्थं अलब्धिकार्थं चेति ) । निर्गन्थप्रस्तावान्निर्मन्थानेवानुष्ठानतः सप्तसूव्याऽऽह 'तओ आए'त्यादि सुगमा, नवरम् आत्मानं रागद्वेषादेरकृत्याद् भवकूपाद्वा रक्षन्तीत्यात्मरक्षाः 'धम्मियाए पडिचोयणाए त्ति धार्मिकेणोपदेशेन नेदं भवादृशां विधातुमुचितमित्यादिना प्रेरयिता-उपदेष्टा भवति अनुकूलेतरोपसर्गकारिणः, ततोऽसावुपसर्गकरणान्निवर्त्तते ततोऽकृत्यासेवा न भवतीत्यतः आत्मा रक्षितो भवतीति, तूष्णीको वा वाचंयम
१ विकृतेऽप्राकृते उच्छ्रिते वादिके व हीः महम्मेहने चैव एषां चानुग्रहार्थं लिंगोरा पहः ॥ १ ॥ २ तृणमणानलसेवा निवारणाय धर्मशुक्रध्यानाय ग्लानाय मरणार्या चैव दृष्टं कल्प ॥१॥ ३ ग्लाना वृद्धानुपस्थापितप्राघूर्णकाचार्य राजपुत्रादीनां साधारणोपपदार्थ अधिकाच पात्रग्रहणम् ॥१॥
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"स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
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३ स्थान
काध्ययने उद्देशः ३
सू० १७२
॥ १३८ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१७२]
444%25000
दीप
उपेक्षक इत्यर्थः स्यादिति २, प्रेरणाया अविपये उपेक्षणासामर्थे च ततः स्थानावुत्थाय 'आय( आए )त्ति आत्मना एकान्त-विजन अन्त-भूविभागमवक्रामेत्-गच्छेत् । निर्गन्धस्य म्लायतः-अशक्नुवतः, तुड़वेदनादिना अभिभूयमानस्येत्यर्थः, आहारग्रहणं हि वेदनादिभिरेव कारणैरनुज्ञातं । 'तओंत्ति तिम्रः 'वियड'त्ति पानकाहारः, तस्य दत्तयः-एकप्रक्षेपप्रदानरूपाः प्रतिग्रहीतुम्-आश्रयितुं वेदनोपशमायेति, उत्कर्ष:-प्रकर्षः तद्योगादुत्कर्षा उत्कर्षतीति वोत्कर्षा उत्कृष्टत्यर्थः, प्रचुरपानकलक्षणा, यया दिनमपि यापयति, मध्यमा ततो हीना, जघन्या यया सकृदेव वितृष्णो भवति यापनामात्र वा लभते, अथवा पानकविशेषादुत्कृष्टाद्या वाच्याः, तथाहि-कलमकालिकावश्रावणादेः द्राक्षापानकादेवों प्रथमा १ षष्ठिकादि]कालिकादेमध्यमा २ तृणधान्यकालिकादेरुष्णोदकस्य वा जघन्येति, देशकालस्वरुचिविशपाद्वोत्कर्षादि नेयमिति।
तिहिं ठाणेहिं समणे निग्गंधे साहम्मियं संभोगियं विसंभोगियं करेमाणे णातिकमति, तं०-सतं वा दहूं, सङ्घस्स वा निसम्म, तलं मोसं आउति चउत्थं नो भाउट्टति (सू० १७३) तिविधा अणुना पं० त०-आयरिवत्ताए अवझायत्ताए गणि
साते । तिविधा समणुना पं० सं०-आयरियत्ताते उवज्झायत्ताते गणित्ताते, एवं उपसंपया, एवं विजहणा (सू० १७४) 'साहमियं ति समानेन धर्मेण चरतीति साधर्मिकस्तं सम्-एकत्र भोगो-भोजन सम्भोगः-साधूना समानसामा-13 चारीकतया परस्परमुपध्यादिदानग्रहणसंव्यवहारलक्षणः स विद्यते यस्य स साम्भोगिक तं घिसम्भोगो-दानादिभिरसं-1 व्यवहारः स यस्यास्ति स विसम्भोगिकस्तं कुर्वन् नातिकामति-न लइयत्याज्ञां सामायिक वा विहितकारित्वादिति, स्वयमात्मना साक्षात् दृष्ट्वा सम्भोगिकेन क्रियमाणामसंभोगिकदानग्रहणादिकामसमाचारी, तथा 'सड्डस्स'ति श्रद्धा
अनुक्रम [१८५]
SC-SE
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना-
सूत्रवृत्तिः
सूत्रांक
[१७४]
॥१३९॥
सू०१७४
दीप अनुक्रम [१८७]]
श्रद्धानं यस्मिन् अस्ति स श्राद्धः-श्रद्धेयवचनः कोऽप्यन्यः साधुस्तस्य वचन मिति गम्यते 'निशम्य' अवधार्य, तथा तिचे ति एक द्वितीयं यावत् तृतीयं 'मोसंति मृषायादं अकल्पग्रहणयावस्थदानादिना सावद्यविषयप्रतिज्ञाभङ्गलक्ष
णमाश्रित्येति गम्यते, 'आवर्तते' निवर्तते तमालोचयतीत्यर्थः, अनाभोगतस्तस्य भावात् प्रायश्चित्तं चास्योचितं दीयते, का चतुर्थं त्वाश्रित्य प्रायो नो आवर्तते-तं नालोचयति, तस्य दर्पत एवं भावादिति, आलोचनेऽपि प्रायश्चित्तस्यादानमस्येति, अतश्चतुर्थासम्भोगकारणकारिणं विसम्भोगिकं कुर्वनातिकामतीति प्रकृतम् , उक्तं च "एगं व दो व तिन्नि ब आउदृतस्स होइ पच्छित्तं । आउदृतेऽवि तो परिणे तिण्हं विसंभोगो ॥१॥” इति, एतचूर्णिः-से संभोइओ असुद्धं गिण्हतो चोइओ भणइ-संता पडिचोयणा, मिच्छामि दुकडं, ण पुणो एवं करिस्सामो, एवमाउट्टो जमावन्नो तं पायच्छितं दाऊं संभोगो । एवं बीयवाराएवि, एवं तइयवाराएवि, तइयवाराओ परओ चउत्थवाराए तमेवाइ
यारं सेविऊण आउदृतस्सवि विसंभोगों' इति, इह चाचं स्थानद्वयं गुरुतरदोषाश्रर्य, यतस्तत्र ज्ञातमात्रे श्रुतमात्रे च ४ा विसंभोगः क्रियते, तृतीयं त्वल्पतरदोषाश्रयं, तत्र हि चतुर्थवेलायां स विधीयत इति । 'अणुन्न'त्ति, अनुज्ञानमनुज्ञाअधिकारदानं, आचर्यते-मर्यादावृत्तितया सेव्यत इत्याचार्यः, आचारे वा पञ्चप्रकारे साधुरित्याचार्यः, आह च
१ एकशो वा द्वित्वविकृत्लो वा आवर्तमानस्य भवति प्रायविसं आवर्तमानस्यापि ततस्त्रयाणा परतः विसंभोगः ॥१॥ २ स यांभोगिकोई गण्ड-। धोवित्तो भणति सती प्रतिचोदना मिथ्या में दुष्कृतं न पुनरेवं करिष्यामि, एवमावृत्ते यदापनसत् प्रायवित दया संभोगः । एवं द्वितीयवारायामपि, एवं तृती-1 शवारायामपि, तृतीयवारायाः परतश्चनुवारायां तमेवातिचार सेवयित्वा आवर्तमानस्यापि विसभोगः.
॥१३९॥ ""
आचार्य शब्दस्य व्याख्या
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१७४]
दीप
"पंचविहं आयारं आयरमाणा तहा पयासंता। आयारं दंसेन्ता आयरिया तेण वुच्चंति ॥१॥" तथा "सुत्तत्थविऊ लक्खणजुत्तो गच्छस्स मेटिभूओ य । गणतत्तिविष्पमुको अत्थं वाएइ आयरिओ॥२॥" तनावस्तत्ता तया, उत्तरत्र गणाचार्यग्रहणादनुयोगाचार्यतयेत्यर्थः, तथा उपेत्याधीयतेऽस्मादित्युपाध्यायः, आह च-"संमत्तनाणदसणजुत्तो सुत्तत्थतदुभयविहिनू । आयरियठाणजोगो सुत्तं वाएइ उवझाउ ॥१॥” इति । तद्भाव उपाध्यायता तया, तथा गणः-साधुसमुदायो यस्यास्ति स्वस्वामिसम्बन्धेनासी गणी-गणाचार्यस्तद्भावस्तत्ता तया, गणनायकतयेति भाव इति, तथा समितिसङ्गता औत्सर्गिकगुणयुक्तत्वेनोचिता आचार्यादितया अनुज्ञा समनुज्ञा, तथाहि-अनुयोगाचार्यस्यौत्सर्गिकगुणाः "तैम्हा वयसंपन्ना कालोचियगहियसयलसुत्तत्था । अणुजोगाणुण्णाए जोगा भणिया जिणिदेहिं ॥१॥ इहपर(रहा)मोसावाओ पवयणखिंसा य होइ लोयंमि । सेसाणवि गुणहाणी तित्थुच्छेओ य भावेणं ॥२॥” इति, गणाचार्योऽप्योत्सर्गिक एवं"सुत्तत्थे निम्माओ पियदधम्मोऽणुबत्तणाकुसलो । जाईकुलसंपन्नो गंभीरो लद्धिमंतो य॥१॥ संगहुबग्गहनिरओ कयकरणो पवयणाणुरागी य ॥ एवंविहो उ भणिओ गणसामी जिणवरिंदेहिं ॥२॥" अथैवंविधगुणाभावे अनुज्ञाया
पंचविधमाचार आचरन्तस्तथा प्रकाशयन्तः आचार दर्शयन्त आचास्तेिम उच्यन्ते ॥ १॥ सूत्रार्थ विलक्षणयुक्तो गच्छस्वाधारभूतष । गणवाप्तित्येप्रमुक्तोऽथ वाचवल्याचार्यः ॥ २॥ २ सम्यक्त्वज्ञानदर्शनयुक्तः सूत्रार्थतदुभयविधिज्ञः । आचार्यस्थानयोग्यः सूर्य पाचवत्युपाध्यायः ॥ १॥ ३ तस्मादत्तसंपन्नाः ग
हीतकालोचितसकलसूत्राः । अनुशेगानुशाया योग्या भगिता जिनेन्द्रः ॥ १॥ इतरथा तु मधाबादः प्रवचननिन्दा च भवति लोके । शेषाणामपि गुणहानिउसीधाच्छेदपावश्यतया ॥२॥ ४ सूत्रार्थयोनिमाता प्रियवधर्मानुवर्तमाकुपालः । जातिकुलसपनो गंभीरो सन्धिमाष ।।१॥ संमहोपप्रहनिरतः कृतकरणः
प्रवचनानुरागी च । एवंविध एव भणितो गणसामी जिननरेन्द्रः ॥२॥
अनुक्रम [१८७]]
आचार्य, उपाध्याय, गणी आदि शब्दस्य व्याख्या
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[१७४]
दीप
अनुक्रम [१८७]
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१७४]
पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थाना
ङ्गसूत्र
वृत्तिः
॥ १४० ॥
अप्यभावात् कथमन्या समनुज्ञा भविष्यतीतिः, अत्रोच्यते, उक्तगुणाना मध्यात् अन्यतमगुणाभावेऽपि कारणविशेषात् सम्भवत्येवासी, कथमन्यथाऽभिधीयते— “जे यावि मंदित्ति गुरुं विइत्ता, डहरे इमे अप्पसुपत्ति नच्चा | ही ंति मिच्छे पडिवजमाणा, करेंति आसायण ते गुरूणं ॥ १ ॥” इति, अतः केषाञ्चित् गुणानामभावेऽप्यनुज्ञा समग्रगुणभावे तु समनुज्ञेति स्थितम्, अथवा स्वस्य मनोज्ञाः समानसामाचारीकतया अभिरुचिताः स्वमनोज्ञाः सह वा मनोज्ञैर्ज्ञानादिभि| रिति समनोज्ञा:- एकसाम्भोगिकाः साधवः, कथं त्रिविधा इत्याह-- 'आचार्य तये' त्यादि, भिक्षुक्षुल्लकादिभेदाः सन्तोऽपि न विवक्षिताः, त्रिस्थानकाधिकारादिति । एवं उबसंपय'त्ति, 'एवमित्याचार्यत्वादिभिस्त्रिधा समनुज्ञावत् । उपसंपत्तिरुपसंपत्-ज्ञानाद्यर्थं भवदीयोऽहमित्यभ्युपगमः, तथाहि कश्चित् स्वाचार्यादिसन्दिष्टः सम्यक् श्रुतमन्धानां दर्शनप्रभावकशास्त्राणां वा सूत्रार्थयोर्ग्रह्ण स्थिरीकरण विस्मृतसन्धानार्थं तथा चारित्रविशेषभूताय वैयावृत्त्याय क्षपणाय वा सन्दि|ष्टमाचार्यान्तरं यदुपसम्पद्यते, उक्तं च- "जैवसंपया य तिविहा णाणे तह दंसणे चरिते य । दंसणणाणे तिविहा दु| विहा य चरित्त अढाए ॥ १ ॥” इति, सेयमाचार्योपसम्पद् एवमुपाध्यायगणिनोरपीति, 'एवं विजहण'ति 'एवमित्याचार्यत्वादिभेदेन त्रिधैव विहानं परित्यागः, तच्च आचार्यादेः स्वकीयस्य प्रमाददोषमाश्रित्य वैयावृत्त्यक्षपणार्थमाचार्यान्तरोपसम्पत्त्या भवतीति, आह च - "नियैगच्छादन्नंमि उ सीयणदोसाइणा होइ"त्ति, अथवा आचार्यो ज्ञानाद्यर्थमुपस
१ ये चापि गुरुं मंद इति विदित्वा बालोऽसावल्पत इति वाला मिध्यात्वं प्रतिपद्यमाना हीलयंति ते गुरूणामाशातनां कुर्वन्ति ॥ १ ॥ त्रिविधा ज्ञाने तथा दर्शने चात्रे च दर्शनाने त्रिविधा द्विविधा च चारित्रार्थं ॥ १३ निजगच्छादन्यत्र सीदनदोषादिनैव भवति
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उपसंपय
३ स्थान
काध्ययने उद्देशः ३ सू० १७४
॥ १४० ॥
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१७५]
दीप
KAXXSEKASARA
सम्पन्न यति तमर्थमननुतिष्ठन्तं सिद्धप्रयोजनं वा परित्यजति यत् साऽऽचार्यविहानिः उक्तं च वसंपन्नोज कारण त
तं कारणं अपूरितो । अहवा समाणियमी सारणया वा विसग्गो वा ॥१॥" इति, एवमुपाध्यायगणिनोरपीति ।। इयमनन्तरं विशिष्टा साधुकायचेष्टा त्रिस्थानकेऽवतारिता, अधुना तु वचनमनसी तत्पर्युदासी च तत्रावतारयन्नाह
तिविहे वयणे पं० सं०-सध्ययणे तदनवयणे णोअवयणे, तिविहे अवयणे पं० सं०.णोतव्ययणे णो तदनवयणे अवयणे । तिविहे मणे ५० सं०-सम्मणे तयन्नमणे णोअमणे, तिविहे अमणे पं० ०–णोतंमणे णोतयन्नमणे,
अमणे (सू. १७५) सूत्रचतुष्टयम्, अस्य गमनिका-तस्य-विवक्षितार्थस्य घटादेर्वचन-भणनं तद्वचनं, घटार्थापेक्षया घटवचनवत्, तस्माद-विवक्षितघटादेरन्य:-पटादिस्तस्य वचनं तदन्यवचनम् , घटापेक्षया पटवचनवत्, नोअवचनम्-अभणननिवृत्ति-|
चनमा डित्यादिवदिति, अथवा सा-शब्दव्युसत्तिनिमित्तधर्मविशिष्टोऽर्थोऽनेनोच्यत इति तद्वचनं यथार्थनामेत्यर्थः, ज्वलनतपनादिवत्, तथा तस्मात्-शब्दव्युत्पत्तिनिमित्तधर्मविशिष्टादन्यः-शब्दप्रवृत्तिनिमित्तधर्मविशिष्टोऽर्थ उच्यते अनेनेति तदन्यवचनमयथार्थमित्यर्थः, मण्डपादिवत्, उभयव्यतिरिक्तं नोअवचनं, निरर्थकमित्यर्थों, डित्यादिवत् , अ. थवा तस्य-आचार्यादेर्यचनं तद्वचनं तद्व्यतिरिक्तवचनं तदन्यवचनं-अविवक्षितप्रणेतृविशेष नोअवचनं वचनमात्र| मित्यर्थः, त्रिविधवचनप्रतिषेधस्त्ववचनं, तथाहि-नोतद्वचनं घटापेक्षया पटवचनवत्, नोतदन्यवचनं घटे घटवचन
यत्कारणमाभिल्योपस पत्रलात्कारणमपूरयन् अथवा समानित (संपूर्णे) सारणता च विसगी वा ॥१॥
944
अनुक्रम [१८८]
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आगम
(०३)
प्रत
सूचांक
[१७५]
टीप
अनुक्रम [१८८]
[भाग - 5] "स्थान" अंगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः)
स्थान [३], उद्देशक (0). मूलं [ १७५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३]
श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः
॥ १४१ ॥
- •
वत्, अवचनं वचनविवृत्तिमात्रमिति, एवं व्याख्यान्तरापेक्षयाऽपि नेयम्, तस्य देवदत्तादेस्तस्मिन् वा घटादौ मनस्तन्मनः ततो देवदत्ताद् अन्यस्य यज्ञदत्तादेर्घटापेक्षया पटादौ वा मनस्तदन्यमनः, अविवक्षितसम्बन्धिविशेषं तु मनोमात्रं नोअमन इति एतदनुसारेणामनोऽप्यूह्यमिति ॥ अनन्तरं संयतमनुष्यादिव्यापारा उक्ताः, इदानीं तु प्रायो देवव्यापारान् 'तिही त्यादिभिरष्टाभिः सूत्रैराह
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तिहि ठाणेहिं अपट्टीकाते सिता, तं० तस्सि च णं देसंसि वा पदेसंसि वा णो बहुवे उदगजोणिया जीवा व पोगला थ उद्गत्ताते वकमंति विकर्मति चयंति उववअंति, देवा जागा जक्खा भूता णो सम्ममाराहिता भवति, तत्य समुद्वियं उदगपोग्गलं परिणतं वासितुकामं अन्नं देतं सादरंति अन्भवद्दगं च णं समुट्ठितं परिणतं वासितुकामं वाउकाए विधुणति, इचेतेहिं तिहिं ठाणेहिं अप्पबुद्धिगाते सिवा १ । तिहिं ठाणेहिं महावुट्टीकाते सिता, तंजहा- तंसि च णं देसंसि वा पतेसंसि वा बहने उद्गजोणिता जीवा य पोग्गला य उद्गत्ताते वकमंति विउकमंति चयंति उववज्जंति, देवा जक्खा नागा भूता सम्ममाराहिता भवति, अन्नत्थ समुट्ठितं उद्गपोमालं परिणयं वासिकामं तं देसं साहरंति अब्भबद्दलचणं समुट्ठितं परिणयं वासितुकामं णो वाढतो विधुणति, इवेतेहिं तिहिं ठाणेहिं मदावुट्टिकाए सिआ २ । ( सू० १७६)
सुगमानि चैतानि, किन्तु 'अप्पबुट्टिकाए'ति, अल्पः स्तोकः अविद्यमानो वा वर्षणं वृष्टि:- अधः पतनं वृष्टिप्रधानः कायो- जीवनिकायो व्योमनिपतदष्काय इत्यर्थः वर्षणधर्म्मयुक्तं बोदकं वृष्टिः, तस्याः कायो - राशिर्वृष्टिकायः, अल्प
"स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
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३ स्थान काध्ययने उद्देशः ३
सू० १७६
॥ १४१ ॥
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१७६]
BHASHAR
दीप
चासौ वृष्टिकायश्च अल्पवृष्टिकायः स 'स्याद् भवेत् तस्मिंस्तत्र-मगधादौ, चशब्दोऽल्पवृष्टिताकारणान्तरसमुच्चयार्थः, लोणमित्यलारे, 'देशे' जनपदे प्रदेशे-तस्यैवैकदेशरूपे, वाशब्दो विकल्पाचौं, उदकस्य योनयः-परिणामकारणभूता उद-14
कयोनयस्त एवोदकयोनिका-उदकजननस्वभावा 'व्युत्क्रामन्ति' उत्पद्यन्ते 'व्यपक्रामन्ति' च्यवन्ते, एतदेव यथायोग पर्यायत आचष्टे-च्यवन्ते उपद्यन्ते क्षेत्रस्वभावादित्येक, तथा 'देवा'वैमानिकज्योतिष्काः 'नागा'नागकुमारा भवनपत्युपलक्षणमेतत् , यक्षा भूता इति व्यन्तरोपलक्षणम्, अथवा देवा इति सामान्य नागादयस्तु विशेषः, एतब्रहणं च प्राय पामेवंविधे कर्मणि प्रवृत्तिरिति ज्ञापनाय, विचित्रत्वाद्वा सूत्रगतेरिति, नोसम्यगाराधिता भवन्ति अविनयकरणाजनपदैरिति गम्यते, ततश्च तत्र-मगधादौ देशे प्रदेशे वा तस्यैव समुस्थितम्-उत्पन्नं उदकप्रधानं पौद्गलं-पुद्गलसमूहो मेघ इत्यर्थः उदकपौद्गलं, तथा 'परिणतं उदकदायकावस्थाप्राप्तम् , अत एव विद्युदादिकरणाद्वर्षितुकामं सदन्यं देशमङ्गादिकं संहरन्ति-नयन्तीति द्वितीय, अभ्राणि-मेघास्तै लक-दुर्दिनं अचवईलक 'वाउआए'त्ति वाउकायः प्रचण्डवातो 'विधुनाति' विध्वंसयतीति तृतीयम् 'इचे'इत्यादि निगमनमिति, एतद्विपयोसादनन्तरसूत्रम् ।।
तिहिं ठाणेहिं अहुणोवबन्ने देवे देवलोगेसु इच्छेन माणुस्सं लोग हन्क्मागच्छित्तते, णो घेव ण संचातेति हथ्यमागपिछत्तए, तं०-अहुणोषवन्ने देवे देवलोमेसु दिग्बेसु कामभोगेसु मुपिछते गिद्धे गढिते अज्झोववने से णं माणुस्सते कामभोगे णो आढाति णो परियाणाति णो अटुं बंधति णो नियाणं पगरेति णो ठिइपकप्पं पकरेति, अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु दिव्बेसु कामभोगेसु मुग्छिते गिद्धे गढिते अज्झोववन्ने तस्स णं माणुस्सए पेम्मे थोच्छिष्णे दिव्वे संकते
अनुक्रम [१८९]
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना-
II मसूत्रवृत्तिः
सूत्रांक
३स्थानकाध्ययने उद्देशः३ सू०१७७
[१७७]
॥१४२॥
दीप
भवति, अहुणोवबन्ने देवे देवलोगेसु दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते जाव अझोवबन्ने तस्स णं एवं भवति-इयणि न गई मुटुत्तं गमछ, तेणं कालेणमप्पाच्या मणुस्सा कालधम्मुणा संजुत्ता भवंति, इतेहिं विदि ठाणेहिं अहुणोषयने देवे देवलोगेसु इच्छेजा माणुसं लोग हबमागच्छित्तए णो चेव णं संचातेति हव्वमागच्छित्तते ३ । तिहिं ठाणेहिं देवे अहुणोक्याने देवलोगेसु इच्छेज्जा माणूसं लोग हव्वमागच्छित्तए, संचातेइ हब्वमागच्छित्तते-अहुणोक्वन्ने देवे देवलोगेसु दिब्वेसु कामभोगेसु अमुक्छिते अगिद्धे अगढिते अणझोवबन्ने तस्स अमेवं भवति-अस्थि णं मम माणुस्सते भवे आयरितेति वा उपज्झातेति वा पबत्तीति वा थेरेति वा गणीति वा गणधरेति वा गणावच्छेदेति वा, जेसिं पभावेणं मते इमा एतारूवा दिव्वा देबिडी दिव्वा देवजुती दिब्वे देवाणुभावे लद्धे पत्ते अभिसमन्नागते तं गच्छामि गं ते भगवंते वंदामि णमंसामि सकारेमि सम्मामि कलाणं मंगलं देवयं चेइयं पञ्जुवासामि, अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु दिम्बेसु कामभो. गेसु अमुक्छिए जाव अणझोववन्ने तस्स णं एवं भवति-एस णं माणुस्सते भवे णाणीति वा तवस्सीति वा अतिद्धकरदु. करकारगे तं गच्छामि णं भगवतं वदामि णमंसामि जाव पजवासामि, अहुणोबबन्ने देवे देवलोगेस जाव अणझोववन्ने, तस्स णमेवं भवति-अस्थि णं मम माणुस्सते भवे माताति वा जाव सुण्डाति वा तं गच्छामि वेसिमंतिथं पाउन्भवामि पासंतु ता मे इमं एतारूवं दिव्यं देविडिं दिव्वं देवजुर्ति दिवं देवाणुभावं लद्धं पर्च अभिसमन्त्रागर्य, इतेहिं तिहिं ठाणेहिं अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु इच्छेज माणूस लोग हन्वमागच्छित्तते संचातेति हवमागच्छित्तते, ४(सू० १७७)
RECAUSAMPOORNAMEND
अनुक्रम [१९०]
॥१४२॥
कर
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[१७७]
दीप
अनुक्रम [१९०]
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१७७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
अधुनोपपन्नो देवः, त्याह-देवलोकेध्विति, इह च बहुवचनमेकस्यैकदा अनेकेषूत्पादासम्भवादेकार्थे दृदयं वचनव्यत्ययाद्देवलोकानेकत्वोपदर्शनार्थं वा अथवा देवलोकेषु मध्ये क्वचिद्देवलोक इति, 'इच्छेद्' अभिलषेत्, पूर्वसङ्गतिक-, दर्शनाद्यर्थं मानुषाणामयं मानुषस्तं 'हवं' शीघ्रं 'संचापइति शक्नोति, दिवि देवलोके भवा दिव्यास्तेषु कामौ च-शब्दरूपलक्षणौ भोगाश्च - गन्धरसस्पर्शाः कामभोगास्तेषु, अथवा काम्यन्त इति कामाः - मनोज्ञास्ते च ते भुज्यन्त इति भोगाः शब्दादयस्ते च कामभोगास्तेषु मूच्छित इव मूच्छितो- मूढः, तत्स्वरूपस्यानित्यत्वादेर्विबोधाक्षमत्वात्, गृद्धः - तदाकाङ्क्षावान् अतृप्त इत्यर्थः, प्रथित इव प्रथितस्तद्विषयस्ते हरज्जूभिः सन्दर्भित इत्यर्थः, अध्युपपन्नः- आधिक्येनासक्तोऽत्यन्ततन्मना इत्यर्थः, 'नो आद्रियते' न तेष्वादरवान् भवति 'नो परिजानाति' एतेऽपि वस्तुभूता इत्येवं न मन्यते, तथा तेष्विति गम्यते, नो अर्थ बध्नाति एतैरिदं प्रयोजनमिति न निश्चयं करोति, तथा तेषु नो निदानं प्रकरोति एते मे भूयासुरित्येवमिति, तथा तेष्वेव नो स्थितिप्रकल्पम् - अवस्थानविकल्पनमेतेष्वहं तिष्ठेयमिति एते वा मम तिष्ठन्तुस्थिरीभवत्वित्येवंरूपं स्थित्या वा मर्यादया विशिष्टः प्रकल्पः- आचार आसेवेत्यर्थस्तं 'प्रकरोति' कर्तुमारभते, प्रशव्दस्यादिकर्मार्थत्वादिति, एवं दिव्यविषयप्रसक्तिरित्येकं कारणं १, तथा यतोऽसावधुनोपपन्नो देवो दिव्येषु कामभोगेषु मूर्च्छितादिविशेषणो भवति ततस्तस्य मानुष्यकं - मनुष्यविषयं प्रेम-स्नेहो येन मनुष्यलोके आगम्यते तद् व्यवच्छिन्नं दिवि भवं दिव्यं स्वर्गगतवस्तुविषयं सङ्क्रान्तं तत्र देवे प्रविष्टं भवतीति दिव्यप्रेमसङ्क्रान्तिरिति द्वितीयम् २, तथाऽसौ देवो यतो दिव्यकामभोगेषु मूर्च्छितादिविशेषणो भवति ततस्तत्प्रतिबन्धात् 'तस्स नं'ति तस्य देवस्य 'एवं 'ति एवंप्रकारं
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[१७७]
दीप
अनुक्रम [१९०]
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१७७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३ ]
श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः
॥ १४३ ॥
चित्तं भवति, यथा 'इयपिंहति इत इदानीं न गच्छामि, 'मुहुर्त्त'ति मुहर्त्तेन गच्छामि कृत्यसमाप्तावित्यर्थः, 'तेणं कालेणं'ति येन तस्कृत्यं समाप्यते स च कृतकृत्यत्वादागमनशक्तो भवति तेन कालेन गतेनेति शेषः तस्मिन् वा काले गते, शब्दो वाक्यालङ्कारार्थः, अल्पायुषः स्वभावादेव मनुष्या मात्रादयो यद्दर्शनार्थमाजिगमिषति ते कालधम्र्मेण - मरणेन संयुक्ता भवन्ति, कस्यासौ दर्शनार्थमागच्छत्विति असमाप्तकर्त्तव्यता नाम तृतीयमिति ३, 'इचेएही 'त्यादिनिगमनं ३ ॥ देवकामेषु कश्चिदमूर्च्छितादिविशेषणो भवति, तस्य च मन इति गम्यते, एवंभूतं भवति - 'आचार्यः' प्रतिबोधकप्रज्ञाजकादिः अनुयोगाचार्यो वा 'इति' एवंप्रकारार्थो वाशब्दो विकल्पार्थः प्रयोगस्त्वेवं मनुष्यभवे ममाचार्योऽ| स्तीति वा, उपाध्यायः-सूत्रदाता सोऽस्तीति वा, एवं सर्वत्र, नवरं प्रवर्त्तयति साधूनाचार्योपदिष्टेषु वैयावृत्त्यादिष्विति प्रवर्ती, उक्तं च- "तैवसंजमजोगेसुं जो जोगो तत्थ तं पयट्टेइ । असहुं च नियतेई गणतत्तिलो पवसी उ ॥ १ ॥” इति, प्रवर्त्तिव्यापारितान् साधून संयमयोगेषु सीदतः स्थिरीकरोति इति स्थविरः उक्तं च--" थिरकरणा पुण थेरो पवत्तिवावारिपसु अस्थेसु । जो जत्थ सीयइ जई संतबलो तं थिरं कुणइ ॥ १ ॥” इति गणोऽस्यास्तीति गणी - गणाचार्यः, गणधरो - जिनशिष्यविशेषः आर्यिकाप्रतिजागरको वा साधुविशेषः, उक्तं च – “पियैधम्मे दधम्मे संविग्गो उज्जुओ य तेयंसी। संगहुवग्गहकुसलो सुत्तत्थविक गणाहिवई ॥ १ ॥” गणस्यावच्छेदो विभागोऽंशोऽस्यास्तीति, यो हि गणांश
१ तपः संयमयोगेषु यो योग्यस्तत्र तं प्रवर्तयति । असई व निवर्तयति गणतप्तिकरः प्रवर्त्ती तु ॥ १ ॥ २ स्थिरकरणापुनः स्थविरः प्रवर्तक व्यापारिशेष्यर्येषु यो यत्र सीदति यतिस्सलतं स्थिरं करोति ॥ १ ॥ धर्माधर्मादिकक्ष तेजखी संग्रहोपमहकुशलः सूत्रार्थविद् गणाधिपतिः ॥ १ ॥
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"स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, गणी, गणावच्छेदक आदि शब्दस्य व्याख्या
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३ स्थानकाध्ययने उद्देशः ३ सू० १७७
॥ १४३ ॥
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१७७]
दीप
गृहीत्वा गच्छोपष्टम्भायैवोपधिमार्गणादिनिमित्त विहरति स गणावच्छेदकः, आह च-"उद्धा (भा) वणापहावणखेत्तोवहिमग्गणासु अविसाई । सुत्तत्वतदुभयविऊ गणवच्छो एरिसो होइ ॥१॥" इति, 'इम'त्ति इयं प्रत्यक्षासन्ना एतदेव रूपं यस्या न कालान्तरे रूपान्तरभाक् सा एतद्रूपा दिव्या-स्वर्गसम्भवा प्रधाना वा देवानां-सुराणामृद्धि:-श्रीविमानरत्नादिसम्पद्देवद्धिः, एवं सर्वत्र, नवरं द्युतिः-दीप्तिः शरीराभरणादिसम्भवा युतिर्वा-युक्तिरिष्टपरिवारादिसंयोगलक्षणाऽनुभागः-अचिन्त्या वैक्रियकरणादिका शक्तिः लब्धः-उपार्जितो जन्मान्तरे प्राप्तः-इदानीमुपनतः अभिसमन्वागतो-भोग्यतां गतः, 'तदिति तस्मात्तान् भगवतः-पूज्यान् वन्दे स्तुतिभिर्नमस्यामि प्रणामेन सत्करोम्यादरकरणेन वस्त्रादिना वा सन्मानयाम्युचितप्रतिपत्त्या कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यमितिबुद्ध्या 'पर्युपासे सेवे इत्येकं, 'एस गति 'एषः' अवध्यादिप्रत्यक्षीकृतः मानुष्यके भवे वर्तमान इति शेषो, मनुष्य इत्यर्थः, ज्ञानीति वा कृत्वा तपस्वीति वा कृत्वा, किमिति । -दुष्कराणां-सिंहगुहाकायोत्सर्गकरणादीनां मध्ये दुष्करमनुरक्तपूर्वोपभुक्तप्रार्थनापरतरुणीमन्दिरवासाप्रकम्पब्रह्मचर्यानुपालनादिकं करोतीति अतिदुष्करदुष्करकारकः, स्थूलभद्रवत्, 'तत् तस्माद्गच्छामित्ति-पूर्वमेकवचननिर्देशेडपीह पूज्यविवक्षया बहुवचनमिति, तान् दुष्करदुष्करकारकान् भगवतो वन्द इति द्वितीयं, तथा 'माया इ वा पिया इ वा भज्जा इ वा भाया इ वा भगिणी इ वा पुत्ता इ वा धूया इ वेत्ति यावच्छब्दाक्षेपः स्नुषा-पुत्रभार्या, 'तदिति तस्मात् | तेषामन्तिके-समीपे 'प्रादुर्भवामि' प्रकटीभवामि, 'ता में'त्ति तावत् मे-ममेति तृतीयं ॥
१ उद्भावनप्रधावनक्षेत्रोपधिमार्गणाखविषादी। सूत्रातदुभय विद्गणावग्छेदक ईशः ॥ १॥
अनुक्रम [१९०]
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थानालसूत्रवृत्तिः
सूत्रांक
३ स्थानकाध्ययने उद्देशः३ सू० १८०
[१७८]
॥१४४॥
दीप अनुक्रम [१९१]
55565
ततो ठाणाई देवे पीहेजा तं०-माणुस भवं १ आरिते खेत्ते जम्म २ सुकुलपणायाति ३,५। तिहिं ठाणेहिं देवे परितप्पेजा, सं०-अहो णं मते संते बले संते वीरिए संते पुरिसकारपरकमे खेमंसि सुभिक्खंसि आयरियजवज्झातेहिं विजमाणेहिं काहसरीरेणं णो बहुते सुते अहीते १, अहो णं मते इहलोगपडिबद्धेणं परलोगपरमुरेणं विसयतिसितेणं णो दोहे सामनपरिताते अणुपालिते २, अहो णं मते इडिरससायगरुएर्ण भोगामिसगिद्धेणं णो विसुद्धे चरिते फासिते ३, इथेतेहिं०६। (सू० १७८ ) तिहिं ठाणेहि देवे चतिस्सामित्ति जाणाइ, तंज़हा-विमाणाभरणाई णिष्पभाई पासित्ता कप्परुक्सगं मिलायमाणं पासित्ता अप्पणो तेयलेस्सं परिहायमाणि जाणित्ता, इचेएहिं ३, ७ । तिहिं ठाणेहिं देवे उग्वेगमागपठेना, तं०-अहो गं भए इमातो एतारूवातो दिव्वातो देविडीओ दिव्याओ देवजुतीतो दिव्याओ देवाणुभावाओ पतातो लद्धातो अभिसमण्णागतातो चतियव्वं भविस्सति १, अहो णं मते माउओयं पिउसुकं तं तदुभयसंसट्ठ वप्पढमयाते आहारो आहारेयल्वो भविस्सति २, अहो णं मते कलमलजंबालाते असुतीते उव्वेयणिताते भीमाते गम्भवसहीते बसियनं भविस्सइ, इएहिं तिहिं ३, ८(सू० १७९) तिसंठिया विमाणा पं० २० वट्टा तसा चउरंसा ३, तत्थ ण जे ते बट्टा विभाणा ते णं पुक्खरकन्नियासंठाणसंठिता सब्वओ समंता पागारपरिक्खित्ता एगदुवारा पन्नचा, तस्थ णं जे ते तसा विमाणा ते णं सिंघाडगसंठाणसंठिता दुहतो पागारपरिक्खित्ता, एगतो वेसिता परिक्खिता तिदुवारा पन्नता, तत्थ णं जे ते चउरंसविमाणा ते णं अक्खाडगसंठाणसंठिता, सवतो समंता वेतितापरिक्खित्ता, चउदुवारा पं०। वि
॥१४४॥
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१८०
दीप अनुक्रम [१९३]
पतिविया विमाणा पं० सं०-पणोदधिपतिहिता घणवातपइष्टिया ओवासंतरपइद्विता, तिविधा विमाणा पं० सं०--
अवहिता वेउविता परिजाणिता । (सू० १८०) HI पीहेजत्ति स्पृष्ठयेद-अभिलपेदार्यक्षेत्रम्-अर्बपड़िशतिजनपदानामन्यतरत् मगधादि सुकुले-इक्ष्वाकादी देवलो-1*
कात् प्रतिनिवृत्तस्याजाति:-जन्म आयातिर्वा-आगतिः सुकुलप्रत्याजातिः सुकुलप्रत्यायातिर्वा तामिति । 'परितप्पेज्ज'त्ति पश्चात्तापं करोति, अहो विस्मये 'सति विद्यमाने बले शारीरे वीर्ये जीवाश्रिते पुरुषकारे अभिमानविशेषे पराक्रमे अभिमान एव च निष्पादितस्वविषये इत्यर्थः, 'क्षेमें उपद्रवाभावे सति 'सुभिः सुकाले सति 'कल्यशरीरेण' नीरोगदेहेनेति सामग्रीसद्भावेऽपि नो बहुश्रुतमधीतमित्येकं, 'विसयतिसिएणं'ति विषयतृषितत्वादिहलोकप्रतिबन्धादिना दीर्घश्रामण्यपर्यायापालनं इति द्वितीय, तथा ऋद्धिः-आचार्यत्वादी नरेन्द्रादिपूजा रसा-मधुरादयो मनोज्ञाः सातसुखमेतानि गुरूणि-आदरविषया यस्य सोऽयमृद्धिरससातगुरुकस्तेन अथवा एभिगुरुकस्तेषां प्राप्तावभिमानतोऽमाप्तौ च प्रार्थनातोऽशुभभावोपात्तकर्मभारतयाऽलघुकस्तेन भोगेषु-कामेषु आशंसा च-अप्राप्तप्रार्थनं गृखं च-प्राप्तातृप्तिर्यस्य स|8 | भोगाशंसागृद्धः, इह चानुस्वारलोपहस्वत्वे प्राकृततयेति, पाठान्तरेण भोगामिषगृद्धेनेति, नो विशुद्धम्-अनतिचारं चरित्रं स्पृष्टमिति तृतीयम् , इत्येतैरित्यादि निगमनम्। विमानाभरणानां निष्प्रभत्वमौसातिकं तचक्षुर्विभ्रमरूपं वा, 'कल्परुक्खगति चैत्यवृक्ष, तेयलेस्सति शरीरदीप्तिं सुखासिकां वा, 'इचेतेही त्यादिनिगमनं, भवन्ति चैवंविधानि लिङ्गानि देवानां च्यवनकाले, उक्तं च-"माल्यम्लानिः कल्पवृक्षप्रकम्पः, श्रीहीनाशो वाससा चोपरागः । दैन्यं तन्द्रा कामरा
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
वृत्तिः
[१८०]
दीप अनुक्रम [१९३]
श्रीस्थाना-|गाङ्गभङ्गी, दृष्टिचान्तिर्वेपथुश्चारतिश्च ॥१॥" इति, 'उब्वेग'ति उद्वेग-शोक मयेतश्यवनीय भविष्यतीत्येकं, तथा स्थानसूत्र- मातुरोज:-आर्तवं पितुः शुक्रं तत्तथाविधं किमपि विलीनानामतिविलीनं तयोः-ओजःशुकयोरुभयं-द्वयं तदुभयं तच्चकाध्ययन तत्संसृष्टं च, संश्लिष्टं चेति या, परस्परमेकीभूतमित्यर्थः, तदुभयसंसृष्टं तदुभयसंश्लिष्टं वा एवंलक्षणो य आहारस्तस्य
उद्देशः३ गर्भवासकालस्य प्रथमता तत्प्रथमता तस्यां, प्रथमसमय एवेत्यर्थः, स आहर्त्तव्यः-अभ्यवहार्यो भविष्यतीति द्वितीयं, सू०१८० हैं तथा कलमलो-जठरद्रव्यसमूहः स एव जम्बाला-कईमो यस्यां सा तथा तस्याम् अत एवाशुचिकायां उद्वेजनीयायां-18
उद्वेगकारियां भीमायो-भयानिकायां गर्भ एव वसतिर्गर्भवसतिस्तस्यां वस्तव्यमिति तृतीयः, अत्र गाथे भवतः-"देवावि देवलोए दिव्वाभरणाणुरंजियसरीरा । जे परिवडंति तत्तो तं दुक्खं दारुणं तेसिं ॥१॥तं सुरविमाणविभवं चिंतिय च यणं च देवलोगाओ। अइवलियं चिय जं नवि फुइ सयसक्करं हिययं ॥२॥” इति, 'इचेएही'त्यादि निगमनम् ॥ अथ देववक्तव्यतानन्तरं तदाश्रय विमानवक्तव्यतामाह-'तिसंठिए'त्यादि, सूत्रत्रयं स्फुटमेव, केवलं त्रीणि संस्थितानिसंस्थानानि येषां तानि त्रिभिर्वा प्रकारैः संस्थितानि त्रिसंस्थितानि, 'तत्य गति तेषु मध्ये 'पुक्खरकपिणए'ति पुष्करकर्णिका-पद्ममध्यभागः, सा हि वृत्ता समोपरिभागा च भवति, 'सर्चत इति दिक्षु 'समन्तादिति विदिक्षु 'सिंघाडगंति त्रिकोणो जलजफलविशेषः 'एकत' एकस्यां दिशि यस्यां वृत्तविमानमित्यर्थः 'अक्खाडगों चतुरस्रः
का॥१४५ देवा अपि देवलोके दिव्याभरणानुरश्तिशरीराः । यत्परिपतन्ति ततसदुःखं दायर्ग तेषाम् ॥ १॥ तं सुरविमान विभयं वितयित्वा च्यवनं च देवलोकात् । अतिबलिधं चैव हृदयं यच्छतशर्कर न स्फुटति.
XOCALYADCACADAM
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
AAPALPALMALA
[१८०
दीप अनुक्रम [१९३]
प्रतीत एव, वेदिका-मुण्डाकारलक्षणा, एतानि चैवंकमाण्येवावलिकाप्रविष्टानि भवन्ति, पुष्पावकीर्णानि त्वन्यथापीति, भवन्ति चात्र गाथा:-"सब्बेसु पत्थडेसु मज्झे वर्ल्ड अणतरे तंसं । एयंतरचतुरंसं पुणोवि व पुणो तंसं ॥१॥ बट्टै वहस्सुवरिं तसं तंसस्स उपरि होइ । चउरंसे चउरंसं उहुं तु विमाणसेढीओ ॥२॥ चट्ट च वलयगंपि व तंसं सिंघाडगंपिव विमाणं । चउरंसविमाणपि य अक्खाडगसंठियं भणियं ॥३॥ सब्बे वट्टविमाणा एगदुवारा हवंति विन्नेया। | तिन्नि य सिविमाणे चत्तारि य होंति चउरसे ॥ ४॥ पागारपरिक्खित्ता वट्टविमाणा हवंति सब्वेवि । चरसविमाणाणं चउद्दिसि वेइया होइ ॥५॥ जत्तो वट्टविमाणं तत्तो. तंसस्स वेड्या होइ। पागारो बोद्धब्बो अबसेसेहिं तु पासेहिं ॥६॥ आवलियासु विमाणा बट्टा तसा तहेव चउरंसा । पुष्फावगिन्नया पुण अणेगविहरूवसंठाणा ॥७॥” इति । प्रतिष्ठानसूत्रस्येयं विभजना-“घणउदहिपइहाणा सुरभवणा होति दोसु कप्पेसु । तिसु वाउपइडाणा तदुभयसुपइडिया तीसु ॥१॥ तेण परं उबरिमगा आगासंतरपइडिया सब्वे"त्ति । अवस्थितानि-शाश्वतानि वैक्रियाणि-भोगाद्यर्थ निष्पादितानि,
१ सर्वेषु प्रसाटेषु मध्ये मृतं अनन्तरं यत्रं । एतदनन्तरं चतुरसं पुनरपि प्रतं पुनरुयलं ॥१॥ वृत्तं वृत्तस्योपरि ज्यौ अक्षयोपरि भवति । चतुरखा र चतुरसं ऊर्द्धन्तु विमानणयः ॥ २ ॥ तं च वलयमिव त्र्यनं गारकमिव विमानं । चतुरसविमानमपि चाक्षाटकमस्थित भणितं ॥ ३ ॥ सर्वाणि वृत्तविमानाम्येकद्वाराणि भवन्ति विशेषानि । श्रीणि चवसविमाने चावारि च भवन्ति चतुरसे ॥४॥ प्राकारपरिक्षितानि तलिमानानि भवति सोप्यपि। चतुरक्षालमानाना चतमधु दिक्षु वेदिका भवति ॥ ५॥ यतो प्रतविमाने ततध्यक्षस वेदिका भवति । प्राकारो बोयोऽवशेषेषु तु पाओंषु ॥६॥ आवलिकामु विमानानि वृत्तानि यस्राणि तथैव चतुरस्त्राणि । पुष्पावकीर्णकानि पुनरनेकविधरूपसंस्थानानि ॥ ७॥ २ धनोदधिप्रतिष्ठानानि सुरभवनानि भवंति द्वयोः कल्पयोः । त्रियु वायुप्रतिष्ठानानि तदुभयप्रतिष्टितानि त्रिपु ॥१॥ ततः परमुपरितनानि आकाशान्तरपतिहितानि सर्वाणि ।।
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थानाकसूत्रवृत्तिः
सूत्रांक
[१८०]
॥१४६॥
दीप अनुक्रम [१९३]
यतोऽभिहितं भगवत्यां-"जाहे णं भंते ! सके देविदे देवराया दिब्वाई भोगभोगाई भुजिउकामे भवइ से कहमियाणि ३ स्थानपकरेति !, गोयमा! ताहे घेवणं से सक्के देविंदे देवराया एगं महं नेमिपडिरूवर्ग विडम्बइ [नेमिरिति चक्रधारा
काध्ययने तद्वद्वत्तविमानमित्यर्थः> एग जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं इत्यादि यावत् “पासायवडिसए सयणिजे, तत्थ४ उद्देशः ३ णं से सक्के देविंदे देवराया अहहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं दोहि य अणिएहिं गट्टाणीएण य गंधवाणीएण यह
सू० १८१ सद्धिं महया नट्ट जाव दिवाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरद"त्ति, परियान-तिर्यग्लोकावतरणादि तत्प्रयोजनं येषां तानि पारियानिकानि-पालकपुष्पकादीनि वक्ष्यमाणानीति ॥ पूर्वतरसूत्रेषु देवा उक्ताः, अधुना वैक्रियादिसाधान्नार-18 कान्निरूपयन्नाह
तिविधा नेरइया पं० २०-सम्मादिही मिच्छादिवी सम्मामिच्छादिट्टी, एवं विगलिंदियवजं जाव बेमाणियाण २७ । ततो दुग्गतीतो पं० सं०-णेरडयदुग्गती तिरिक्खजोणीयदुग्गती मणुयदुग्गती १, ततो सुगतीतो पं० सं०-सिद्धिसोगती देवसोगती मणुस्ससोगती २ । ततो दुग्गता ५००-ओरतितदुग्गता तिरिक्खजोणितदुग्गया मणुस्सदुग्गता ३, ततो सुगता पं० ०-सिद्धसोगता देवसोग्गता मणुस्ससुग्गता ४ (सू० १८१)
१ यदा भदन्त । शको देवेन्द्रो देवराजो विब्यान, भोगभोगान् भोकामो भवति स कथमिदानी प्रकरोति । गीतमतदेव च पाको देवेन्दो पेपराज एकं12 महने मिप्रतिरूप विकुर्वति, एक योजनशतसहस्रं आयामविष्कभाभ्यां. १ प्रासादावतंसकः शयनीय, तत्र स को देवेन्द्रो देवराजः शाभिरममहीषिभिः सपनि-G ॥१४६॥ | वाराभिद्वाभ्यामनीकाभ्यां नृत्यानीफेन च साई महता नृत्य यावदिव्यान् भोगभोगान भुगन्, विहरति ।
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[१८१]
दीप
अनुक्रम [१९४]
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८१]
पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
'तिविधेत्यादि स्पष्टं नारका दर्शनतो निरूपिताः, शेषा अपि जीवा एवंविधा एवेत्यतिदेशतः शेषानाह-'एव'मित्यादि गतार्थे, नवरं 'विगलेदियय'ति नारकवत् दण्डकस्त्रिधा वाच्यः एकेन्द्रियविकलेन्द्रियान् विना, यतः पृधिष्यादीनां मिथ्यात्वमेव द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां तु न मिश्रमिति । त्रिविधदर्शनाश्च दुर्गतिसुगतियोगात् दुर्गताः सुगताश्च भवन्तीति दुर्गत्यादिदर्शनाय सूत्रचतुष्टयमाह-'तओ' इत्यादि, व्यक्तं परं दुष्टा गतिर्दुर्गतिर्मनुष्याणां दुर्गतिर्विवक्षयैव, तत्सुगतेरप्यभिधास्यमानत्वादिति, दुर्गताः दुःस्थाः सुगताः- सुस्थाः । सिद्धादिसुगतास्तु [श्च] तपस्विनः सन्तो भवन्तीति | तत्कर्त्तव्य परिहर्त्तव्यविशेषमाह
Education Intemarional
are णं भिक्खुरस कप्पंति तओ पाणगाई पडिगाहित्तए, तं० उस्सेतिमे संसेतिमे चाउलघोषणे १, छमतितस्स णं भिक्खु कप्पंति तओ पाणगाई पडिगाहित्तए तं० - तिलोदर तुसोदए जबोदए २, अट्टमभचियस्स णं भिक्खुस कप्पंति ततो पाणगाई पडिगाहित्तए, तं० आयामते सोवीरते सुद्धविवडे ३, तिविद्दे उबडे पं० [सं० फलिओबढ्डे सुद्धोबडे संसट्टोवहडे ४, तिविहे उग्गहिते पं० तं०-जं च ओगिण्हति जं च साहरति जंच आसगंसि पक्खिवति तिविधा ओमोयरिया पं० [सं० उधगरणोमोयरिया भत्तपाणोमोदरिता भावोमोदरिता ६, उवगरणोमोदरिता तिविद्दा पं० तंएगे बत्थे एंगे पाते चियत्तोवहिसातिजणता ७, ततो ठाणा णिग्गंथाण वा निधीण वा अहियात असुभाते अक्खमाते अणिस्सेयसाए अणाणुगामियत्ता भवति, तंञणता ककरणता अवज्झाणता ८, ततो ठाणा निम्गंधाण वा णिग्गंधीण वा हिताते सुहाते समाते जिस्सेयसाते आणुगामिअत्ताते भवंति, वं० अकूअणता
For Personal & Pre Only
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना
प्रत
सूत्रांक [१८२]
॥१४७॥
दीप अनुक्रम [१९५]
अकारणता अणवज्झाणया ९, ततो सल्ला पं० त०-मायासल्ले णियाणसल्ले मिच्छादसणसले १०, तिहिं ठाणेहि समणे ३ स्थान णिगंथे संखित्तविउलतेउलेस्से भवति, तं०-आयावणवाते १ खंतिखमाते २ अपाणगेणं तवो कम्मेणं ३, ११ ।
काध्ययने तिमासितं जे मिक्खूपढिम पडिवनस्स अणगारस्स कप्पंति ततो दत्तीओ भोअणस्स पडिगाहेराए ततो पाणगस्स १२, उद्देशः३ एगरातिय भिक्खुपडि सम्म अणणुपालेमाणरस अणगारस्स इमे ततो ठाणा अहिताते असुभाते असमाते अणिस्सेयसाते सू०१८२ अणाणुगामित्ताते भवंति, तं०-जम्मायं वा लमिज्जा १ दीहकालियं वा रोगायक पाउणेजा २ केवलिपन्नत्तातो वा धम्मातो भंसेजा ३, १३, एगरातिय भिक्खुपडिम सम्म अणुपालेमाणस्स अणगारस्स ततो ठाणा हिताते सुभाते खमाते हिस्सेसाते आणुगामितताए भवंति, तं०-ओहिणाणे वा से समुष्पजेजा १ मणपजवनाणे वा से समुप्पजेजा २
केवलणाणे वा से समुष्पजेजा ३, १४ । (सू० १८२) 'चउत्थे'त्यादि सूत्राणि चतुर्दश व्यक्तानि, केवलं एक पूर्वदिने द्वे उपवासदिने चतुर्थं पारणकदिने भक्त-भोजनं परिहरति यत्र तपसि तत् चतुर्थभक्तं तद्यस्यास्ति स चतुर्थभक्तिकस्तस्य, एवमन्यत्रापि, शब्दव्युत्पत्तिमात्रमेतत्, प्रवृत्तिस्तु चतुर्थभक्तादिशब्दानामेकाद्युपवासादिष्विति, भिक्षणं शीलं धर्मः तत्साधुकारिता वा यस्य स भिक्षुभिनत्ति वा क्षुधमिति भिक्षुस्तस्य पानकानि-पानाहाराः, उत्स्वेदेन निवृत्तमुत्स्वेदिम-येन ब्रीह्यादिपिष्टं सुरायर्थ उरस्वेचते, तथा 81 संसेकेन निवृत्तमिति संसेकिम-अरणिकादिपनशाकमुत्काल्य येन शीतलजलेन संसिच्यते तदिति, तन्दुलधावनं
I ॥१४७॥ प्रतीतमेव, तिलोदकादि तत्समक्षालनजलं, नवरं तुषोदकं-बीादकम् २, आयामकम्-अवश्रावणं सौवीरक
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
3-
[१८२]
4- 5
४ काञ्जिकं शुद्धविकटम्-उष्णोदकं ३, उपहृतमुपहितम् , भोजनस्थाने ढौकितं भक्तमिति भावः, फलिक-प्रहेणकादि,
तच्च तदुपहृतं चेति फलिकोपहृतं अवगृहीताभिधानपञ्चमपिण्डैषणाविषयभूतमिति, यदाह व्यवहारभाष्ये-"फैलिया पहेणगाई वंजणभक्खेहिं वाऽविरहियं जं । भोत्तुमणस्सोवहियं पंचमपिंडेसणा एस ॥१॥” इति, तथा शुद्धम्-अलेपकृतं शुद्धोदनं च, तच्च तदुपहृतं चेति शुद्धोपहृतं, एतच्चाल्पलेपाभिधानचतुर्थेपणाविषयभूतमिति, तथा संसृष्टं नाम-भोक्तुकामेन गृहीतकूरादौ क्षिप्तो हस्तः क्षिप्तो न तावत् मुखे क्षिपति तच्च लेपालेपकरणस्वभावमिति, तदेवंभूतमुपहृतं संसृष्टोपहृतं, इदं चतुर्थेषणात्वेन भजनीयं, लेपालेपकृतादिरूपत्वादस्येति, अत्र गाथा-"सुद्धं च अलेवकडं अहव ण सुद्धो
दणो भवे सुद्धं । संसर्ल्ड आउत्तं [भोक्तुमारब्धमित्यर्थः > लेवाडमलेवर्ड वावि ॥१॥" इति, इह च त्रये एकद्वित्रिसं&ायोगैः सप्ताभिग्रहवन्तः साधवो भवन्तीति । अवगृहीतं-नाम केनचित् प्रकारेण दायकेनात्तं भक्तादि 'यदिति भक्तम् ,
चकाराः समुच्चयार्थाः अवगृह्णाति-आदत्ते हस्तेन दायकस्तदवगृहीतम्, एतच्च षष्ठी पिण्डेषणेति, एवं च वृद्धव्याख्यापरिवेषकः पिढिकायाः कूरं गृहीत्वा यस्मै दातुकामस्तदाजने क्षेप्तुमुपस्थितस्तेन च भणितं-मा देहि, अत्रावसरे प्राप्तेन साधुना धर्मलाभितं, ततः परिवेपको भणति-प्रसारय साधो! पात्रं, ततः साधुना प्रसारिते पात्रे क्षिप्तमोदनम् , इह च संयतप्रयोजने गृहस्थेन हस्त एवं परिवर्तितो नान्यत् गमनादि कृतमिति जघन्यमाहतजातमिति, इह च व्यवहार
१ फलिक प्रहेणकादि यद् व्यबनभौर्वाविरहितं । भोक्तुमनस उपकृतं पंचमी पिंपणेषा ॥१॥ २ शुद्ध चालेपकृतं अथवा शुद्धोदनः शुद्धं भवेत्सम आबुकं (भोक्तुमारब्धं) लेपकृतमलेपकृतं दापि ॥१॥
दीप अनुक्रम [१९५]
4-5
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना-
सूत्र
सूत्रांक
वृत्तिः
[१८२]]
॥१४८॥
दीप अनुक्रम [१९५]
भाष्यश्लोकः- जमाणस्स उक्खितं, पडिसिद्धं तं च तेण उ। जहन्नोवहडं तं तु, हस्थस्स परियत्तणा ॥१॥" इति,IP३ स्थानतथा यच्च परिवेषका स्थानादविचलन् संहरति-भक्तभाजनात् भोजनभाजनेषु क्षिपति तच्चावगृहीतमिति प्रक्रमः,81 काध्ययने श्लोकोऽत्र-“अह साहीरमाणं तु, वहृतो [परिवेषयन्नित्यर्थः> जो उ दायओ । दलेजाविचलिओ तत्तो, छही एसाविले उद्देशः३ एसणा ॥१॥” इति, तथा यच्च भक्तमास्यके-पिठरादिमुखे क्षिपति तच्चावगृहीतमिति, एवं चात्र वृद्धव्याख्या-कूरम- सू०१८२ वहादननिमित्तं कलिंजादिभाजने विशालोत्तानरूपे क्षिप्वं ततो भाक्तिकेभ्यो दत्तं ततो भुक्तशेष यद्भूयः पिठरके प्रकाशमुखे क्षिपन्ती दद्यात् परिवेषयन्ती वा प्रकाशमुखे भाजने तत् तृतीयमवगृहीतं, श्लोकोऽत्र-"भुत्तसेसं तु जंभूओ, छुम्भंती पिठरे दये । संवदृती व अन्नस्स, आसगंमि पगासए ॥१॥" इति, ननु आस्थे-मुखे यत् प्रक्षिपतीति मुख्यार्थे सति किं पिठरकादिमुखे इति व्याख्यायत इति !, उच्यते आस्यप्रक्षेपव्याख्यानमयुक्तं, जुगुप्साभावादिति, आह च"पैक्खेवए दुगुंछा, आएसो कुडमुहाईसु"न्ति ५। अवमम्-ऊनमुदरं-जठरं यस्य सोऽवमोदरः, अवमं वोदरं अवमोदरं| तद्भावोऽवमोदरता प्राकृतत्वादोमोयरियत्ति, अवमोदरस्य वा करणभवमोदरिका, व्युत्पत्तिरेवेयमस्य, प्रवृत्तिस्तून-15 तामात्रे, तत्र प्रथमा जिनकल्पिकादीनामेव न पुनरन्येषां, शास्त्रीयोपध्यभावे हि सममसंयमाभावादिति, अतिरिक्कान
१ मुंजमानस्य उत्क्षिप्त प्रतिषिदं तच तेन तु । जघन्योपहृतं तत्तु हस्तस्य परिवर्तनात् ॥ १॥ २ अथ संहियमानमेव बेषकः यो वेषयन् दद्यादचालितन्ततः पायेषाऽप्येषणा ॥ 1 ॥ ३ भुक्तशेषन्तु यद् भूयः क्षिपन्ती पिठरे दद्यात् । परिवेषयन्ती वान्यस्य आत्ये प्रकाशे ॥१॥(मुखे) प्रक्षेपे जुगुप्सा पिठरादिमुखे- १४८॥ वादेशः (जुगुप्सायाः अभावात् )....
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आगम
(०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
STCASS-N
[१८२]
हणतो योनीदरतेति, उक्तं च-"ज वट्टइ उवगारे उपकरणं तं सि(तेसि) होइ उवगरणं । अइरेग अहिगरणं अजओ अ-II जयं परिहरंतो ॥१॥" [अयतश्च यत्तत् भुञ्जानो भवतीत्यर्थः> भक्तपानावमोदरता पुनरात्मीयाहारमानपरित्यागतो वेदितच्या, उक्तं च-"बत्तीस किर कवला आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ । पुरिसस्स महिलियाए अट्ठावीसं भवे कवला ॥१॥ कयलाण य परिमाणं कुकुडिअंडगपमाणमेतं तु । जो वा अविगियवयणो वयणमि छुहेज वीसत्थो ॥२॥ इति, इयं चाष्ट १ द्वादश २ षोडश ३ चतुर्विशत्ये ४ कत्रिंशदन्तैः कवलैः ५ क्रमेणाल्पाहारादिसंज्ञिता पञ्चधा भवति, उक्तं च-"अप्पाहार १ अबड्डा २ दुभाग ३ पत्ता ४ तहेव किंचूणा ५ । अड १ दुवालस २ सोलस ३ चवीस ४ तहेक्कतीसा य ५॥१॥" इति, 'एवम्' अनेनानुसारेण पानेऽपि वाच्या, भगवत्यामप्युक्तम्-"बेत्तीस कुकुडिअंडगप|माणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे पमाणपत्तेत्ति वत्तव्यं सिया, एत्तो एक्केणवि कवलेण ऊणगं आहारमाहारेमाणे समणे णिग्गंधे नो पगामरसभोइत्ति बत्तव्वं सिय"त्ति, भावोनोदरता पुनः क्रोधादित्यागः, उक्तं च-“कोहाईणमणुदिणं चाओ जिणययणभावणाओ उ । भावेणोमोदरिया पन्नत्ता वीयरागेहिं ॥१॥" उपकरणावमोदरिकाया भेदानाह१यदर्तत उपकारे सत्तेपां उपकरण भपति उपकरण । मतिरेकमधिकरणमयतोऽयतं धारयन् ॥ १॥ १किल द्वात्रिंशत्कयला आहारः कृक्षिपूरको भषितः ।
भवेयः कवलाः ॥१॥ कबलानां परिमाण कमबंडकप्रमाणमा । यो बाइविकृतवदनः पदने क्षिपेदिवसः ॥२॥३अल्पाहारापार्धा | द्विभागा प्राप्ता वय किंचिपूना अटदायशयोदशचतुविशश्यकत्रिंशकवलस्तथा ॥१४ द्वात्रिंशत्ते कुकृत्यण्ट कपमाणमात्राकवलानादारत्वनाहारयन् प्रमाणप्राप्त इति पचव्यः खादित एकनापि पवनोन माहारमाहारयन् श्रमणो निर्मन्यो नो प्रकामरसभोजीति वकन्यः स्यात् ॥ ५ोधादीनामा दिन जागो जिनवचनमावनाष भावेनावमोदरता प्राप्ता वीतरागैः ॥1॥
दीप अनुक्रम [१९५]
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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श्रीस्थाना
नसूत्र
सूत्रांक
वृत्ति
[१८२]
॥१४९॥
दीप अनुक्रम [१९५]
'उवकरणे'त्यादि, एक वस्त्रं जिनकल्पिकादेरेव, एवं पात्रमपि, 'एगं पायं जिणकप्पियाण'मिति वचनादिति, तथा 'चिय-1४३ स्थानतेणं' संयमोपकारकोऽयमिति प्रीत्या मलिनादावप्रीत्यकरणेन वा 'चियत्तस्स वा' संयमिनां संमतस्य उपधेः-रजोहर-IM काध्ययने णादिकस्य 'साइजणय'त्ति सेवा 'चियत्तोवहिसाइजणय'त्ति ७।'चियत्तेणे'ति प्रागुक्तमेतद्विपर्ययभेदान् सकलानाह
उद्देशः३ 'तओ' इत्यादि स्पष्टं, किन्तु अहिताय-अपथ्याय असुखाय-दुःखाय अक्षमाय-अयुक्तरवाय अनिःश्रेयसाय-अमोक्षाय सू०१८२ अनानुगामिकत्वाय-न शुभानुबन्धायेति, कूजनता-आर्तस्वरकरणं कर्करणता-शय्योपध्यादिदोषोदावनगौं प्रलपनं अपध्यानता-आरौद्रध्यायित्वमिति ८, उक्तविपर्ययसूत्रं व्यक्त ९, निर्ग्रन्थानामेव परिहर्त्तव्यं त्रयमाह-तओं' इत्यादि, शल्यते-बाध्यते अनेनेति शल्यं, द्रव्यतस्तोमरादि भावतस्तु इदं त्रिविधं-माया-निकृतिः सैव शल्यं मायाशल्यं १, एवं सर्वत्र, नवरं नितरां दीयते-लूयते मोक्षफलमनिन्द्यब्रह्मचर्यादिसाध्यं कुशलकर्मकल्पतरुवनमनेन देवादिप्रार्थनपरि-| णामनिशितासिनेति निदान मिथ्या-विपरीतं दर्शनं मिथ्यादर्शनमिति १० । निर्ग्रन्थानामेव लब्धिविशेषस्य कारणत्रयमाह-'तिही त्यादि, सद्भिता-लघूकृता विपुलापि-विस्तीर्णाऽपि सती अन्यथाऽऽदित्यबिम्बवत् दुर्दर्शः स्यादिति तेजोलेश्या-तपोविभूतिजं तेजस्वित्वं तैजसशरीरपरिणतिरूपं महाज्वालाकल्पं येन स सहितविपुलतेजोलेश्यः आतापनानाशीतादिभिः शरीरस्य सन्तापनानां भाव आतापनता शीतातपादिसहनमित्यर्थस्तया 'क्षान्त्या' क्रोधनिग्रहेण क्षमा-म-12
R ॥१४९॥ षणं न त्वशक्कतयेति क्षान्तिक्षमा तया, अपानकेन पारणककालादन्यत्र 'तपःकर्मणा षष्ठादिनेति, अभिधीयते च
१ एक पात्रं जिनकल्पिकानाम्,
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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सूत्रांक
[१८२]
दीप अनुक्रम [१९५]
भगवत्याम्-"जेणं गोसाला! एगाए सनहाए कुम्मासपिडियाए एगेण य वियडासणेणं छह छटेणं अणिक्खितेणं तवोक-IN म्मेणं उर्दु बाहाओ पगिग्झिय २ सूराभिमुहे यावणभूमीए आयावेमाणे विहरइ से णं अंतो छह मासाणं संखित्तविपुलतेयलेस्से भवई"त्ति ११, 'तेमासिय मित्यादि, भिक्षुप्रतिमाः-साधोरभिग्रहविशेषाः, ताश्च द्वादश, तत्रैकमासिक्यादयो मासोत्तराः सप्त तिम्रः सप्तरात्रिन्दिवप्रमाणाः प्रत्येक एका अहोरात्रिकी एका एकरात्रिकीति, उक्तं च-"मासाई सत्ता ७ पढमा १ बिइ २ तइय ३ सत्त राइदिणा १० । अहराइ ११ एगराई १२ भिक्खूपडिमाण वारसगं ॥१॥"ति, अयमत्र भावार्थ:-"पडिवजइ एयाओ संघयणधिइजुओ महासत्तो । पडिमाओ भावियप्पा सम्म गुरुणा अणुन्नाओ ॥१॥" गच्छे च्चिय निम्माओ जा पुच्या दस भवे असंपुन्ना । नवमस्त तइयवत्थू होइ जहन्नो सुयाभिगमो ॥२॥ वोसट्टचत्तदेहो उबसग्गसहो जहेब जिणकप्पी । एसण अभिग्गहीया भत्तं च अलेबई तस्स ॥३॥ गच्छा विणिक्खमित्ता पडिवज्जइ मासियं महापडिमं । दत्तेग भोयणस्सा पाणरसवि एग जा मासं ॥ ४ ॥ पच्छा गच्छमुवेती एव दुमासी तिमासि जा सत्त । नवरं दत्तिविवही जा सत्त उ सत्तमासीए॥५॥ तत्तो अ अहमी खलु हवद इहं पढमसत्तराईदी।
मासायाः सप्तमासान्ताः सप्त प्रथमा द्वितीया तृतीया सप्तारात्रिदिवा । अहोरात्रा एकरात्रा मिथुप्रतिमानां द्वादश॥4॥ प्रतिपयत एताः संहननभतियुतो महासत्ता प्रतिमा भावितारमा सम्यगुरुणाऽनुहातः ॥१॥म निर्मात एव यावत्पूर्वाणि दश भवेयुरसपूर्णानि । नवमा कृतीयपस्तु भवति अपभ्यः श्रुतानिगमः ॥२॥ म्युरराष्ट लय तदेह उपसर्गसहो अथैर जिनकल्पी । एषणाऽभिगृहीता भरी चालेपकृत्तस्य ॥ ३॥ गच्छाद्विनिष्कम्य प्रतिपद्यते मासिकी महाप्रतिमा । दत्येका भोजनस्य पानस्याप्येका यावन्मास ॥४॥ पश्चाद्रग्छमत्येति एवं द्विमासिकी निमासिकी याबस्सप्तमानिकी । परं दत्तिविद्धियावत् सप्त सप्तमासिक्या ॥५॥ ततधाशमीद भपति प्रथमा सप्तरात्रिदिन । तस्यां चतुर्थ चतुनापानकेनाय विशेषः ॥ ६॥
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भिक्षुप्रतिमा-वर्णनं
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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स्थानकाध्ययने उद्देशः३ सू०१८२
सूत्रांक
[१८२]
दीप अनुक्रम [१९५]
श्रीस्थाना- तीए चउत्थएणं अपाणएणं अह विसेसो ॥ ६ ॥ तथा चागमः-"पढमसत्तराईदियं णं भिक्खुपडिम पडिवनस्स अ-18 इसूत्र
णगारस्स कप्पड से चउत्थेणं भत्तेणं अपाणएणं बहिया गामस्स वे"त्यादि, "उत्ताणगपासल्ली नेसजी वावि ठाण ठा- वृत्तिः इत्ता । अह उबसग्गे घोरे दिब्बाई सहइ अविकंपो ॥१॥ दोच्चा वि एरिसि च्चिय बहिया गामादियाण नवरं तु । उकु-
डुलगंडसाई डंडायतिउब ठाइत्ता ॥२॥ तच्चाएवी एवं नवरं ठाणं तु तस्स गोदोही । वीरासणमवावी ठाएज व अं॥१५०॥
वखुज्जो य ॥३॥ एमेव अहोराई छई भत्तं अपाणगं नवरं । गामनगराण बहिया वग्धारियपाणिए ठाणं ॥ ४॥ एमेव एगराई अठमभत्तेण ठाण बाहिरओ। ईसि पन्भारगए अणि मिसणयोगदिवीउ ॥५॥ सौहट्टु दोन्नि पाए वम्घारियपाणि
ठायई ठाणं । वग्धारिलंबियभुओ सेस दसासुं जहा भणियं ॥ ६ ॥” इति, तत्र त्रिमासिकी तृतीया तां प्रतिपन्नस्यPआश्रितस्य 'दत्ति' सकृत्प्रक्षेपलक्षणेति १२, एकरात्रिकी द्वादशी तां सम्यगननुपालयतः उन्मादः-चित्तविभ्रमो, रोगः18|कुष्ठादिरातङ्क:-शूलविशूचिकादिः सद्योघाती, स च स चेति रोगातङ्क, 'पाउणेज्जेति प्राप्नुयात् 'धर्मात्'-श्रुतचारित्रल-13 क्षणात् चश्येत् , सम्यक्त्वस्यापि हाम्येति, उन्मादरोगधर्मभ्रंशाः प्रतिमायाः सम्यगननुपालनाजन्या 'अहितार्था'
प्रथमां सतरानिदियां भिक्षुप्रतिमा प्रतिपत्रस्य अनगारस्य कल्पने चतुर्थेन भक्केनापान केन प्रामस्य बहिः॥ २ उत्तानकः पार्थतीनो नैषधी वापि स्थान स्थित्या । अयोपसगान पोरान विव्यादीन् सहतेऽसिकंपः ॥1॥ द्वितीयाऽपि इायेव प्रामादौना बहिः परन्तरकटुकलकुटशामीडायत इचबा स्थित्वा ॥२॥ तृतीयायामध्ये | परं तस्य स्थानं गोदोहिकैव । वीरासनं अथवा तिष्ठेत् वापि मानकुन्जय ॥३॥ एवमेवाहोरात्रिकी परं षष्ठ भक्तमपान प्रामनगरात् बहिरवलंबितपाणिना स्थानं ॥४॥
C Kाएपमेवेकरात्रिकी अष्टगभत्तेन स्थानं बहिः । ईपरप्रारभारगतः अनिमेषनयनैकष्टिः ॥ ५॥ संहत्य द्वायपि पादी अवलंबितपाणिः विष्टदि स्थानं । अवलंबितभुजः *शेष दशासु यथा भणितं ॥ ६॥
CARSAAS
॥१५०॥
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[१८२]
दीप
अनुक्रम [१९५]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८२ ]
पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
दुःखार्था भवन्तीति हृदयम् १३, विपर्ययसूत्रमेतदनुसारतो बोद्धव्यमिति १४ ॥ उक्तरूपाणि च साध्वनुष्ठानानि कर्मभूमिष्वेव भवन्तीति तन्निरूपणायाह
जंबुरी २ ततो कम्मभूमीओ पं० तं० भरहे एरवते महाविदेहे, एवं धायइसंडे दीवे पुरच्छिमद्धे जाव पुक्खरवरदीवडपञ्चत्थिमद्धे ५ । (सू० १८३ ) तिविहे दंसणे पं० तं० सम्महंसणे मिच्छहंसणे सम्मामिच्छदंसणे १, तिविधा रुती पं० [सं० सम्मरुती मिच्छरुती सम्मामिच्छरुई २, तिविधे पओगे पं० सं० सम्मपओगे मिच्छपओगे सम्मामिच्छपओगे ३ (सू० १८४ ) तिविहे वबसाए पं० तं० धम्मिते ववसाते अधम्मिए ववसाते धम्मियाधम्मिए ववसाते ४, अथवा तिविधे ववसाते, पं० तं० पञ्चक्खे पचतिते आणुगामिए ५, अहवा विविधे ववसाते पं० तं० इइलोइए परलोइए इहलोगितपरलो गिते ६, इहलोगिते ववसाते तिविहे पं० सं० लोगिते वेतिते सामतिते ७, लोगिते ववसाते तिविधे पं० [सं० अत्ये धम्मे कामे ८, बेतिगे वबसाते तिविधे पं० नं० - रिउब्वेदे जब्वेदे सामवेदे ९, सामइते
ववसाते तिविधे पं० वं० माणे दंसणे चरिचे १०, तिविधा अत्थजोणी पं० [सं० सामे दंडे भेदे ११ (सू० १८५) 'जंबुद्दीवे' त्यादि सूत्राणि साक्षादतिदेशाभ्यां पञ्च सुगमानि चेति । उक्ताः कर्मभूमयः, अथ तद्गतजनधर्मनिरूपणायाह - 'तिविहे 'त्यादि सूत्राण्येकादश कण्ठ्यानि, किन्तु त्रिविधं दर्शनं - शुद्धाशुद्धमिश्रपुञ्जत्रयरूपं मिथ्यात्वमोहनीयं, तथाविश्वदर्शन हेतुत्वादिति १, रुचिस्तु तदुदयसम्पार्थं तत्त्वानां श्रद्धानं, 'प्रयोगः' सम्यक्त्वादिपूर्वी मनःप्रभृतिव्यापार दति अथवा सम्यगादिप्रयोगः- उचितानुचितोभयात्मक औषधादिव्यापार इति है, 'व्यवसायो' वस्तुनिर्णयः पुरुषार्थ
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
*
प्रत
सूत्रांक
[१८५]
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दीप अनुक्रम [१९८]
श्रीस्थाना- सिद्ध्यर्थमनुष्ठानं वा, स च व्यवसायिनां 'धार्मिकाधार्मिमकरधार्मिकाधार्मिकाणां' संयतासंयतदेशसंयतलक्षणानां ३ स्थानलसूत्र- से सम्बन्धित्वादभेदेनोच्यमानस्त्रिधा भवतीति, संयमासंयमदेशसंयमलक्षणविषयभेदाद्वा ४, व्यवसायो-निश्चयः, सचकाध्ययने पृत्तिः प्रत्यक्षोऽवधिमनःपर्यायकेवलाख्यः, प्रत्ययात्-इन्द्रियानिन्द्रियलक्षणानिमित्ताजातःप्रात्ययिकः साध्यम्-अग्न्यादिकम- उद्देशः ३
नुगच्छति साध्याभावे न भवति यो धूमादिहेतुः सोऽनुगामी ततो जातमानुगामिकम्-अनुमानं तद्रूपो व्यवसाय आनु- सू०१८५ ॥१५१॥
गामिक एवेति, अथवा प्रत्यक्षः-स्वयंदर्शनलक्षणःप्रात्ययिकः-आप्तवचनप्रभवः, तृतीयस्तथैवेति ५, इहलोके भव ऐहलौकिको-य इह भवे वर्तमानस्य निश्चयोऽनुष्ठानं वा स पेहलौकिको व्यवसाय इति भावः, यस्तु परलोके भविष्यति स पारलौकिका, यस्त्विह परत्र च स ऐहलौकिकपारलौकिक इति ६, लौकिका सामान्यलोकाश्रयो निश्चयोऽनुष्ठानं वा, वेदा-13 श्रितो वैदिकः, समयः-साङ्यादीनां सिद्धान्तस्तदाश्रितस्तु सामयिका, लौकिकादयो व्यवसायाः प्रत्येक त्रिविधास्ते च प्रतीता एव, नवरं अर्थधर्मकामविषयो निर्णयो यथा-"अर्थस्य मूलं निकृतिः क्षमा च, धर्मस्य दानं च दया दमश्च । कामस्य वित्तं च वपुर्वयश्च, मोक्षस्य सर्वोपरमः क्रियासु ॥१॥" इत्यादिरूपः तदर्थमनुष्ठानं वा अर्थादिरेव व्यवसाय | उच्यते इति ८, ऋग्वेदायाहितो निर्णयो व्यापारो वा ऋग्वेदादिरेवेति ९, ज्ञानादीनि सामा(म)यिको व्यवसायः, तत्र ज्ञानं व्यवसाय एव, पर्यायशब्दत्वात् , दर्शनमपि श्रद्धानलक्षणं व्यवसायो, व्यवसायांशत्वात्तस्येति प्रतिपादितमेव, चारित्रमपि समभावलक्षणो व्यवसाय एव, बोधस्वभावस्यात्मनः परिणतिविशेषत्वात् , यचोच्यते, “संचरणमणुद्वाण ॥१५१॥
तत्र विधिप्रतिषेधानुगमनुपानं सचारित्र
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१८५]
दीप अनुक्रम [१९८]
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विहिपडिसेहाणुगं तत्थ"त्ति तत्र तद्बाह्यचारित्रापेक्षमवगन्तव्यमिति, अथवा ज्ञानादौ विषये यो व्यवसायो-बोधोऽनुष्ठान ४वा स विषयभेदात् त्रिविध इति, सामा(म)यिकता चास्य सम्बग्मिथ्याशब्दलाञ्छितस्य ज्ञानादित्रयस्य सर्वसमयेष्वपि
भावादिति १०, अर्थस्य-राजलक्ष्म्यादेोनिः-उपायोऽर्थयोनिः साम-प्रियवचनादि दण्डो-वधादिरूपः परनिग्रहः भेदोजिगीषितशत्रुपरिवर्गस्य स्वाम्यादिस्नेहापनयनादिः, कचित्तु दण्डपदत्यागेन प्रदानेन सह तिम्रोऽर्थयोनयः पठ्यन्ते, भ
बन्ति चात्र श्लोका:-"परस्परोपकाराणां, दर्शनं १ गुणकीर्तनम् २ । सम्बन्धस्य समाख्यानश्मायत्याः संप्रकाशनम् ४ | है॥१॥” अस्मिन्नेवं कृते इदमावयोभविष्यतीत्याशाजननमायतिसंप्रकाशन मिति, "वाचा पेशलया साधु तवाहमिति
चार्पणम् ५। इति सामप्रयोगः , साम पञ्चविधं स्मृतम् ॥१॥" वधश्चैव १ परिक्लेशो २, धनस्य हरणं तथा ३ । इति दण्डविधान र्दण्डोऽपि त्रिविधः स्मृतः ॥२॥ स्नेहरागापनयनं १, संहर्षोत्पादनं तदा २ । सन्तर्जनं च ३ भेदर्भेदस्तु | त्रिविधः स्मृतः॥३॥" संहर्षः-स्सी सन्तर्जनं च-अस्यास्मन्मित्रविग्रहस्य परित्राणं मत्तो भविष्यतीत्यादिकरूपमिति, प्रदानलक्षणमिदम्-"यः सम्प्राप्तो धनोत्सर्गः, उत्तमाधममध्यमः । प्रतिदानं तथा तस्य, गृहीतस्यानुमोदनम् ॥१॥ द्रव्यदानमपूर्व च ३, स्वयंग्राहप्रवर्त्तनम् ४ । देयस्य प्रतिमोक्षश्च ५, दानं पञ्चविधं स्मृतम् ॥ १॥ धनोत्सर्गो-धनसम्पत् स्वयं ग्राहप्रवर्तनम्-परस्वेषु देयप्रतिमोक्ष-ऋणमोक्ष इति, प्रयोगश्चासामेवम्-"उत्तम प्रणिपातेन, शूरं भेदेन योजयेत् । नीचमल्पप्रदानेन, समं तुल्यपराक्रमैः ॥१॥" इति । अनन्तरं जीवा धर्मतः प्ररूपिताः, इदानी पुद्गलां-14 स्तथैव प्ररूपयन्नाह
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आगम
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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श्रीस्थानाइसूत्रवृत्तिः
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॥१५२॥
दीप अनुक्रम [१९९]
SAGAR
तिविहा पोग्गला ५००-पोगपरिणता मीसापरिणता वीससापरिणता, तिपतिहिया णरगा पं० त०-पुढविपति
३ स्थानद्विता आगासपतिहिता आयपइद्विभा, णेगमसंगहववहाराणं पुढविपइडिया उजुसुतस्स आगासपतिविया तिहं सरण
काध्ययने ताणं आयपतिढ़िया ।। (सू०१८६)
उद्देशः ३ प्रयोगपरिणताः-जीवव्यापारेण तथाविधपरिणतिमुपनीताः, यथा पटादिषु कम्मोदिषु वा, 'मीस'त्ति प्रयोगविन-
दिस०१८ साभ्यां परिणताः, यथा पटपुद्गला एव प्रयोगेण पटतया विनसापरिणामेन चाभोगेऽपि पुराणतयेति, विस्रसा-स्वभावः तत्परिणता अनेन्द्रधनुरादिवदिति । पुद्गलप्रस्तावाद्विसापरिणतपुद्गलरूपाणां नरकावासानां प्रतिष्ठाननिरूपणायाह'तिपइढिए'त्यादि, स्फुट, केवलं नरका-नारकावासा आत्मप्रतिष्ठिताः-स्वरूपप्रतिष्ठिताः। तत्प्रतिष्ठान नवैराह'णेगमे त्यादि, नैकेन-सामान्यविशेषग्राहकत्वात् तस्यानेकेन ज्ञानेन मिनोति-परिच्छिनत्तीति नैकमः, अथवा निगमा:निश्चितार्थबोधास्तेषु कुशलो भवो वा नैगमः, अथवा नैको गमः-अर्थमार्गो यस्य स प्राकृतत्वेन नैगमः १, संग्रहणं भेदानां सङ्गृह्णाति वा तान् संगृह्यन्ते वा ते येन स साहो-महासामान्यमात्राभ्युपगमपर इति २, व्यवहरणं व्यवहियते वा स व्यवहियते वा तेन विशेषेण वा सामान्यमवहियते-निराक्रियतेऽनेनेति लोकव्यवहारपरो वा व्यवहारोविशेषमात्राभ्युपगमपरः ३, एतेषां नयानां मतेनेति गम्यं, ऋजु-अवक्रमभिमुखं श्रुतं-श्रुतज्ञानं यस्येति ऋजुश्रुतः, ऋजु वा-अतीतानागतवक्रपरित्यागाद्वर्तमानं वस्तु सूत्रयति-गमयतीति ऋजुसूत्रा-स्वकीयं साम्प्रतं च वस्तु नान्यदित्यभ्यु
x ॥१५२॥ पगमपर, शब्धते-अभिधीयतेऽभिधेयमनेनेति शब्दो-वाचको ध्वनिः, नयन्ति-परिच्छिन्दन्त्यनेकधमात्मकं सबस्तु |
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [१८६]]
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सा(अन)वधारणतयकेन धर्मेणेति नयाः शब्दप्रधाना नयाः शब्दनया, ते च त्रयः-शब्दसमभिरूदैवंभूताख्याः , तत्र शब्दनमभिधानं शब्द्यते वा यः शब्द्यते वा येन वस्तु स शब्दः, तदभिधेयविमर्शपरो नयोऽपि शब्द एवेति, सच भावनिक्षेपरूपं वर्तमानमभिन्नलिङ्गवाचकं बहुपर्यायमपि च वस्त्वभ्युपगच्छतीति, वाचकं वाचकं प्रति वाच्यभेदं समभिरोहयति 4-आश्रयति यः स समभिरूढः, स ह्यनन्तरोक्तविशेषणस्यापि वस्तुनः शक्रपुरन्दरादिवाचकभेदेन भेदमभ्युपगच्छति घट
पटादिवदिति, यथा शब्दार्थो घटते-चेष्टत इति घट इत्यादिलक्षणः 'एव'मिति तथाभूतः सत्यो घटादिरों नान्यथेत्वेवमभ्युपगमपर एवंभूतो नयः, अयं हि भावनिक्षेपादिविशेषणोपेतं व्युत्पत्त्यर्थाविष्टमेवार्थमिच्छति, जलाहरणादिचेष्टावन्तं घटमिवेति ७, तत्रायत्रयस्थाशुद्धत्वात् प्रायो लोकव्यवहारपरत्वाच्च पृथिवीप्रतिष्ठितत्वं नरकाणामिति मतं, चतुर्थस्य शुद्धत्वात् आकाशस्य च गच्छतां तिष्ठतां वा सर्वभावानामैकान्तिकाधारत्वात् भुवोऽनैकान्तिकत्वाचाकाशप्रतिष्ठितत्वB/मिति, त्रयाणां तु शुद्धतरत्वात् सर्वभावानां स्वभावलक्षणाधिकरणस्थान्तरङ्गत्वादब्यभिचारित्वाच्च आत्मप्रतिष्ठितत्वमिति, न हि स्वस्वभावं विहाय परस्वभावाधिकरणा भावाः कदाचनापि भवन्तीति, यत आह-"वत्थु वसइ सहावे सत्ताओ
चेयणव्व जीवम्मि । न विलक्षणतणाओ भिन्ने [अन्यत्र> छायातवे चेव ॥१॥" इति, नरकेषु च मिथ्यात्वाद् 18 गतिर्जन्तूनां भवतीति अथवा नया मिथ्यादृश इति सम्बन्धान्मिथ्यात्वस्वरूपमाह
विविध मिच्छन्ते पं० त०-अकिरिता अविणते अन्नाणे १, अकिरिया तिविधा, पं० त०-पओगकिरिया समुदाणकिरिया १जीये चेतनेच वस्तु स्वभाचे वसति सत्त्वात् छायातपाविवा लक्षण्यादन्यत्र न.
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दीप अनुक्रम [१९९]
CAMES
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१८७]
1980
३ स्थानकाध्ययने उद्देशः३ सू०१८७
दीप अनुक्रम [२००]
श्रीस्थाना- अन्नाणकिरिया २, पभोगकिरिया विविधा, पं० त०-मणपओगकिरिया वइपओगकिरिया कायपओगकिरिया ३, समुदाणसूत्र
किरिया तिविधा पं० सं०-अणंतरसमुदाणकिरिया परंपरसमुदाणकिरिया तदुभयसमुदाणकिरिता ४, अन्नाणकिरिता वृत्तिः
तिविधा पं० २०-मतिअन्नाणकिरिया सुतअन्नाणकिरिया विभंगअन्नाणकिरिया ५, अविणते तिविहे पं० २०-देसश्चाती
निरालवणता नाणापेजदोसे ६, अन्नाणे तिविधे पं० सं०-देसण्णाणे सव्वण्णाणे भावनाणे ७ (सू० १८७) ॥१५३॥
'तिविधे मिच्छत्ते इत्यादि, सूत्राणि सप्त सुगमानि, नवरं मिथ्याखं विपर्यस्तश्रद्धानमिह न विवक्षितं, प्रयोगक्रिया-2 दादीनां वक्ष्यमाणतभेदानां असम्बद्यमानत्वात् , ततोऽत्र मिथ्यात्वं क्रियादीनामसम्यग्रूपता मिथ्यादर्शनानाभोगादिज-४ नितो विपर्यासो दुष्टत्वमशोभनत्वमिति भावः, 'अकिरिय'त्ति नजिह दुःशब्दार्थो यथा अशीला दुःशीलेत्यर्थः, ततशाक्रिया-दुष्टक्रिया मिथ्यात्वाद्युपहतस्यामोक्षसाधकमनुष्ठानं, यथा मिथ्यादृष्टेज्ञानमप्यज्ञानमिति, एवमविनयोऽपि, अज्ञानम्-असम्यग्ज्ञानमिति, अक्रिया हि अशोभना क्रियैवातोऽक्रिया त्रिविधेत्यभिधायापि प्रयोगेत्यादिना क्रियैवोकेति, तत्र वीर्यान्तरायक्षयोपशमाविर्भूतवीर्येणात्मना प्रयुज्यते-व्यापार्यत इति प्रयोगो-मनोवाकायलक्षणस्तस्य किया-करणं । व्यापृतिरिति प्रयोगक्रिया, अथवा प्रयोगैः-मनःप्रभृतिभिः क्रियते-बध्यत इति प्रयोगक्रिया कर्मेत्यर्थः, सा च दुष्टत्वादक्रिया, अक्रिया च मिथ्यात्वमिति सर्वत्र प्रक्रमः, 'समुदाणंति प्रयोगक्रिययैकरूपतया गृहीतानां कर्मवर्गणानां समिति-सम्यक प्रकृतिबन्धादिभेदेन देशसर्वोपघातिरूपतया च आदान-स्वीकरणं समुदान निपातनात्तदेव क्रिया-क-I मेंति समुदानक्रियेति, अज्ञानात् वा चेष्टा कर्म वा सा अज्ञानक्रियेति २, प्रयोगक्रिया त्रिविधा व्याख्यातार्थी ३,
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॥१५३ ।।
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१८७]
दीप अनुक्रम [२००]
BANSAR
नास्त्यन्तरं-व्यवधानं यस्याः साऽनन्तरा सा चासौ समुदानक्रिया चेति विग्रहः, प्रथमसमयवर्तिनीत्यर्थः, द्वितीयादि-४ समयवर्तिनी तु परम्परसमुदानक्रियेति, प्रथमाप्रथमसमयापेक्षया तु तदुभयसमुदानक्रियेति, 'मइअन्नाणकिरिय'त्ति "अविसेसिया मइच्चिय सम्मद्दिहिस्स सा मइन्नाणं । मइअन्नाणं मिच्छादिहिस्स सुयंपि एमेव ॥१॥त्ति [अविशे-| पिता मतिरेव सम्यग्दृष्टेः सा मतिज्ञानम् । मत्यज्ञानं मिथ्यादृष्टेः श्रुतमप्येवमेव ॥१॥ मत्यज्ञानात् क्रिया-अनुष्ठान मत्यज्ञानक्रिया, एवमितरे अपि, नवरं विभङ्गो-मिथ्यादृष्टेरवधिः स एवाज्ञानं विभाज्ञानमिति । व्याख्यातम-& क्रियामिथ्यात्वं, अविनयमिथ्यात्वव्याख्यानायाह-अविणयेत्यादि, विशिष्टो नयो विनयः-प्रतिपत्तिविशेषः तत्प्रतिषे-12 धादविनयः, देशस्य-जन्मक्षेत्रादेस्त्यागो देशत्यागः स यस्मिन्नविनये प्रभुगालीपदानादावस्ति स देशत्यागी, निर्गत आलम्बनाद्-आश्रयणीयात् गच्छकुटुम्बकादेरिति निरालम्बनस्तद्भावो निरालम्बनता-आश्रयणीयानपेक्षत्वमिति भावः, पुष्टालम्बनाभावेन वोचितप्रतिपत्तिभ्रंशः, प्रेम च द्वेषश्च प्रेमद्वेष नानाप्रकारं प्रेमद्वेष नानाप्रेमद्वेषमविनयः, इयमत्र भावना-आराध्यविषयमाराध्यसंमतविषयं वा प्रेम तथाऽऽराध्यासम्मतविषयो द्वेष इत्येवं नियतावेतौ विनयः स्यात्, उक्तं च-"सरुषि नतिः स्तुतिवचनं, तदभिमते प्रेम तविपि द्वेषः । दानमुपकारकीर्तनममन्त्रमूलं वशीकरणम् ॥१॥" इति, नानाप्रकारौ च तावाराध्यतत्संमतेतरलक्षणविशेषानपेक्षत्वेनानियतविषयादविनय इति, अज्ञानमिथ्यात्वमित उच्यते | -'अन्नाणे त्यादि, ज्ञानं हि द्रव्यपर्यायविषयो बोधस्तन्निषेधोऽज्ञानं तत्र विवक्षितद्रव्यं देशतो यदा न जानाति तदा देशाज्ञानमकारप्रश्लेषात्, यदा च सर्वतस्तदा सर्वाज्ञानं, यदा विवक्षितपर्यायतो न जानाति तदा भावाज्ञानमिति, अ-|
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(०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१८७]
दीप अनुक्रम [२००]
श्रीस्थाना- थवा देशादिज्ञानमपि मिथ्यात्वविशिष्टमज्ञानमेवेति अकारप्रश्लेषं विनापि न दोष इति । उक्तं मिथ्यात्वं, तयाधर्म इति |स्थानअसूत्र- तद्विपर्ययमधुना धर्ममाह
काध्ययने वृत्तिः तिविहे धम्मे पं० - सुयधम्म चरितधम्मे अथिकायधम्मे, तिविधे उवकामे पं००-धन्मिते उवणमे अधम्मिते
उद्देश उवयमे धम्मिताधम्मिते उनकमे १, आह्वा तिविधे उचकमे पं० सं०-आओवक्कमे परोक्कमे तदुभयोवकमे २, एवं ॥१५४॥
सू०१८ वेयावचे ३, अणुग्गहे ४, अणुसट्ठी ५, उवालंभ ६, एवमेकेके तिन्नि २ आलावगा जहेव उवकमे (सू०१८८) 'तिविहे धम्मे'इत्यादि श्रुतमेव धर्मः श्रुतधर्मः स्वाध्यायः, एवं चरित्रधर्म:-क्षान्त्यादिश्रमणधर्मः, अयं च द्विविधोऽपि-द्रव्यभावभेदे धर्मे भावधर्म उक्तः,यदाह-"दुविहो उ भावधम्मो सुयधम्मो खलुचरित्तधम्मो या सुयधम्मो समाओ
चरित्तधम्मो समणधम्मो॥१॥"इति, अस्तिशब्देन प्रदेशा उच्यन्ते तेषां कायो-राशिरस्तिकायः स चासौ संज्ञया धर्मश्चे-18 दात्यस्तिकायधम्मों, गत्युपष्टम्भलक्षणो धम्मास्तिकाय इत्यर्थः, अयं च द्रव्यधर्म इति । अनन्तरं श्रुतधर्माचारित्रधा
बुक्ती अधुना तद्विशेषानाह-तिविहे उवक्कमे इत्यादि, सूत्राणि अष्टौ सुगमानि, परं उपक्रमणमुपक्रमा-पायपूर्वक | आरम्भः, धर्मे-श्रुतचारित्रात्मके भवः स वा प्रयोजनमस्येति धार्मिक, श्रुतचारित्रार्थ आरम्भ इत्यर्थः, तथा न धार्मिकः अधार्मिक:-असंयमार्थः, तथा धार्मिकश्चासौ देशतः संयमरूपत्वात् अधार्मिकश्च तथैवासंयमरूपत्वात् धार्मिकाधामिका, देशविरत्यारम्भ इत्यर्थः, अथवा नामस्थापनाद्रब्यक्षेत्रकालभावभेदात् पविध उपक्रमा, तब मामस्थापने सुशाने, द्रष्यो-15
॥१५४॥ १ द्विविधस्तु भावधर्मः श्रुतधर्मः खल चारित्रधर्म । श्रुतधर्मः खाध्यायश्चारिप्रथमः श्रमणधर्मः ॥ १॥
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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सूत्रांक
[१८८]
C
दीप अनुक्रम [२०१]
पक्रमस्तु ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तस्त्रिधा-सचित्ताचित्तमिश्रद्रव्यभेदात् , तत्र सचित्तद्रव्योपक्रमो द्विपदपतुष्पदापदभेदभिन्नः, पुनरेकैको द्विविधः-परिकर्मणि वस्तुविनाशे च, तत्र परिकर्मणि-द्रव्यस्य गुणविशेषकरणं तस्मिन् सति, तद्यथा-घृतायुपयोगेन पुरुषस्य वर्णादिकरणम्, एवं शुकसारिकादीनां शिक्षागुणविशेषकरणं, तथा चतुष्पदानां हस्त्यादीनामपदानां च वृक्षादीनां वृक्षायुर्वेदोपदेशाद्वार्द्धक्यादिगुणापादनमिति, तथा वस्तुविनाशे च पुरुषादीनां खङ्गादिभिर्विनाश एवोपक्रम इति, एवमचित्तद्रव्योपक्रमः पद्मरागादिमणेः क्षारमृत्पुटपाकादिना वैमल्यापादनं विनाशश्चेति, मिश्रद्रव्योपक्रमस्तु कटकादिविभूषितपुरुषादिद्रव्यस्यैवेति, तथा क्षेत्रस्य-शालिक्षेत्रादेः परिकर्म विनाशो वा क्षेत्रोपक्रमः, तथा कालस्य-चन्द्रोपरागादिलक्षणस्योपक्रम:--उपायेन परिज्ञानं कालोपक्रमः, तथा भावस्य प्रशस्ताप्रशस्तरूपस्योपायतः
परिज्ञानमेव भावोपक्रमः, स चाप्रशस्तो डोड्डिनीगणिकाऽमात्यदृष्टान्तावसेयः, प्रशस्तश्च श्रुतादिनिमित्तमाचार्यादिभावोदापक्रम इति, एवं च धार्मिकस्य-संयतस्य यश्चारित्राद्यर्थ द्रव्यक्षेत्रकालभावानामुपकम उक्तस्वरूपः स धार्मिक एवोप
क्रमः, तथा अधार्मिकस्य-असंयतस्यासंयमार्थ यः सोऽधार्मिक एव, तथा धाम्मिकाधार्मिकस्य-देशविरतस्य यः स धार्मिकाधामिक इति, अथ स्वाम्यन्तरभेदेनोपक्रममेव त्रिधाऽऽह-तत्रात्मनोऽनुकूलोपसर्गादी शीलरक्षणनिमित्तमुपक्रमो-बैहानसादिना विनाशः परिकर्म वा आत्मार्थ वा उपक्रमोऽन्यस्य वस्तुनः आत्मोपक्रम इति, तथा परस्य परार्थ वोपक्रमः परोपक्रम इति, तदुभयस्य-आत्मपरलक्षणस्य तदुभयाथै वोपक्रमस्तदुभयोपक्रम इति, 'एवं'मिति अपकमसूत्रवत् | आत्मपरोभयभेदेन वैयावृत्त्यादयो याच्याः, व्यावृत्तस्य भावः कर्म वा वैयावृत्स्य-भक्कादिभिरुपष्टम्भः, तत्रात्मवैया
+
C
+oe
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१८८]
श्रीस्थाना- वृत्त्यं गच्छनिर्गतस्यैव, परवैयावृत्त्यं ग्लानादिप्रतिजागरकस्य, तदुभयवैयावृत्त्यं गच्छवासिन इति, अनुग्रहो-ज्ञानाद्युप-18 स्थानजसूत्र- & कारः, तत्र आत्माऽनुग्रहोऽध्ययनादिप्रवृत्तस्य परानुग्रहो वाचनादिप्रवृत्तस्य तदुभयानुग्रहः शाखव्याख्यानशिष्यसकहा- काभ्ययने वृत्तिः दिप्रवृत्तस्येति, अनुशिष्टिः-अनुशासनम्, तत्र आत्मनो यथा-"वायालीसेसणसंकडंमि गहणंमि जीव! न हु छलिओ उद्देशः
इण्डिं जह न छलिजसि भुंजतो रागदोसेहिं ॥१॥" इति, (तथा विधेयमिति शेष इति), परानुशिष्टियथा-"ता तंसि भा-18सू०१८ ॥१५५॥
ववेज्जो भवदुक्खनिपीडिया तुहं एते । हंदि सरणं पवना मोएयध्वा पयत्तेणं ॥२॥” इति, तदुभयानुशिष्टियथा “केहकहऽवि माणुसत्ताइ पावियं चरण पवररयणं च । ता भो एत्थ पमाओ कइयावि न जुए अम्हं ॥१॥" इति, उपा-1 लम्भः-इयमेवानौचित्यप्रवृत्तिप्रतिपादनगर्भा, स चात्मनो यथा-"चोलैंगदिलुतेणं दुलहंलहिऊण माणुसं जम्मं । जं४ न कुणसि जिणधम्म अप्पा किं वेरिओ तुझ? ॥१॥" इति, परोपालम्भो यथा-"उत्तमकुलसंभूओ उत्तमगुरुदिक्खिओ तुम वच्छ! । उत्तमनाणगुणड्डो कह सहसा ववसिओ एवं? ॥१॥” इति, तदुभयोपालम्भो यथा-एंगस्स कए नियजीवियस्स बहुयाओ जीवकोडीओ। दुक्खे ठवंति जे केवि ताण किं सासयं जीयं ॥२॥" ति, 'एच'मित्यादिना
द्विचत्वारिंशदेषणासकटे बहने जीव ! नैव छलितः । इदानी यथा न छल्पसे मुंजानो रागद्वेषाभ्याम् ॥ १॥ २ तत्वं तेषां भाववैद्यो(सि) भवदुःखनिपीदिता एते खो शरणं प्रपना मोचयितव्या (दुःखात्) प्रयत्नेन ॥२॥ ३ कर्य कथमपि मनुष्यत्वादि प्राप्तं प्रारं पारिचरनं च तत् भो अत्र प्रमादो न कदापि युआतऽस्माकम् ॥३॥ भोजनादिष्टान्तसभ मावर्ष जन्म लब्ध्वा यजिनधर्म न करोषिकि आत्मस्वमेवरी तव ।।१।। ५वत्स। वंशा ॥१५५॥ | उत्तमकुलसंभूत उत्तमगुरुदीक्षित उत्तमज्ञानगुणाया कममे सहसा व्यवसितोऽसि ॥२॥ एक निजजीवितख ते बहुका जीवकोटीः दुःखे स्थापयति ये केचित् तेषां कि शाश्वतं जीमितं ॥ ३ ॥
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दीप अनुक्रम
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[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१८८]
दीप
पूर्वोक्तोऽतिदेशो व्याख्यातः, एवं चात्राक्षरघटना-यथैवोपक्रमे आत्मपरतदुभयैस्त्रय आलापका उक्ताः एवमेकैकस्मिन् |वैयावृत्त्यादिसूत्रे ते त्रयस्त्रयो वाच्या इति । अथ श्रुतधर्मभेदा उच्यन्ते
तिविहा कहा, पं० सं०-अस्थकहा धम्मकहा कामकहा ७, तिविहे विणिच्छते पं० त०-अत्यविणिच्छते धम्मविणि
छते कामविणिच्छते ८, (सू० १८९) अर्थस्य-लक्ष्म्याः कथा-उपायप्रतिपादनपरो वाक्यप्रबन्धोऽर्थकथा, उक्तं च-“सामादिधातुवादादिकृष्यादिप्रतिपादिका | अर्थोपादानपरमा, कथाऽर्थस्य प्रकीर्तिता ॥१॥" तथा-"अर्थाख्यः पुरुषार्थोऽयं, प्रधानः प्रतिभासते। तृणादपि लघु लोके, घिगर्थरहितं नरम् ॥ १॥” इति, इयं च कामन्दकादिशास्त्ररूपा, एवं धर्मोपायकथा धर्मकथा, उक्तं च-"दयादानक्षमायेषु, धर्माङ्गेषु प्रतिष्ठिता । धर्मोपादेयतागर्भा, बुधैर्घर्मकथोच्यते ॥१॥" तथा-"धर्माख्यः पुरुषार्थोऽयं, प्रधान इति गीयते । पापसक्तं पशोस्तुल्यं, धिग्धर्मरहितं नरम् ॥ २॥” इति, इयं चोत्तराध्ययनादिरूपाऽवसेयेति, एवं कामकथाऽपि, यदाह--"कामोपादानगर्भा च, वयोदाक्षिण्यसूचिका । अनुरागेगिताद्युत्था, कथा कामस्य वर्णिता ॥१॥" तथा "स्मितं न लक्षेण वचो न कोटिभिर्न कोटिलः सविलासमीक्षितम् । अवाप्यतेऽन्यहृदयोपगृहनं, न कोटिकोव्याऽपि तदस्ति कामिनाम् ॥ १॥" इति, इयमपि वात्स्यायनादिरूपाऽबसेयेति, प्रकीर्णा वा तत्तदर्था वचनपद्धतिः कथा चरित्रवर्णनरूपा वा, अर्थादिविनिश्चयाः-अर्थादिस्वरूपपरिज्ञानानि, तानि च-"अर्थानामर्जने दुःखमर्जितानां च रक्षणे । नाशे दुःखं व्यये दुःखं, घिगर्थे दुःखकारणम् ॥१॥" तथा "धनदो धनार्थिनां धर्मः,
अनुक्रम २०१]
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थानाअसूत्रवृत्तिः
प्रत सूत्रांक [१८९]
३ स्थानकाध्ययने उद्देशा३ सु०१९०
॥१५६॥
दीप अनुक्रम [२०२]
कामदः सर्वकामिनाम् । धर्म एवापवर्गस्य, पारम्पर्येण साधकः ॥ २॥" तथा "शल्यं कामा विष कामाः, कामा आशीविषोपमाः। कामानभिलषन्तोऽपि, निष्कामा यान्ति दुर्गतिम् ॥ ३॥" इत्यादीनि ॥ अनन्तरमादिविनिश्चय उक्त इति तत्कारणफलपरम्परां त्रिस्थानकानवतारिणीमपि प्रसङ्गतो भगवत्प्रश्नद्वारेण निरूपयन्नाह
तहारूवं ण भंते ! समणं वा माहणं वा पञ्जवासमाणस्स किंफला पञ्जुवासणवा?, सवणफला, से णं भंते ! सवणे किंफले?, णाणफले, से णं भंते ! णाणे किंफले?, विण्णाणफले, एवमेतेणं अभिलावेणं इमा गाधा अणुगंतव्वा-सवणे णाणे य विनाणे पञ्चक्खाणे य संजमे । अणण्हते तवे चेव बोदाणे अकिरिव निव्वाणे ॥१॥ जाव से णं भंते! अकिरिया किंफला ?, निव्याणफला, से णं भंते ! निवाणे किंफले १, सिद्धिगइगमणपजवसाणफले पन्नत्ते, समणाउसो! ॥ (सू० १९०)
तृतीयस्य तृतीय उद्देशकः॥ 'तहासवेत्यादि पाठसिद्धं, केवलं पर्युपासना-सेवा, श्रवणं फलं यस्याः सा तथा, साधवो हि धर्मकथादिकं स्वाध्यायं कुर्वन्तीति श्रवणं तत्सेवायां भवतीति, ज्ञान-श्रुतज्ञान, विज्ञानम्-अर्थादीनां हेयोपादेयत्वविनिश्चयः, 'एवं'मिति पूर्वोक्तेनाभिलापेन 'से णं भंते! विनाणे किंफले?, पञ्चक्खाणफले' इत्यादिना, इयं गाथा अनुगन्तव्या-अनुसरणीया, एतद्गाथोक्तानि पदान्यध्येतव्यानीत्यर्थः, 'सवणे इत्यादि, भावितार्था, नवरम् प्रत्याख्यान-निवृत्तिद्वारेण प्रतिज्ञाकरणं संयमा-पाणातिपाताधकरणम् , उक्तं च-“पञ्चाश्रवाद्विरमणं पथेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः । दण्डत्रयविरतिश्चेति संयमः
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [३], मूलं [१९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
सप्तदशभेदः ॥१॥” इति, अनानवो-नवकर्मानुपादानम् , अनाश्रवणालघुकर्मत्वेन तपोऽनशनादिभेदं भवति,13 व्यवदान-पूर्वकृतकर्मवनलवनं 'दाप लवने इति वचनात् कर्मकचवर शोधन वा 'दैप शोधन' इति वचनादिति, अक्रिया-योगनिरोधः, निर्वाणं-कर्मकृतविकाररहितत्वं सिक्ष्यन्ति-कृतार्था भवन्ति यस्यां सा सिद्धिः-लोकायं सैव गम्यमानत्वाद् गतिस्तस्यां गमनं तदेव पर्यवसानफलं-सर्वान्तिमप्रयोजनं यस्य निर्वाणस्य तत्सिद्धिगतिगमनपर्यवसानफलं प्रज्ञप्तं 8 मया अन्यैश्च केवलिभिः, हे श्रमणायुष्मन्निति गौतमादिकं शिष्यं भगवानामन्त्रयन्निदमुवाचेति । त्रिस्थानकस्य तृतीयोदेशको विवरणतः समाप्तः ॥
[१९०] गाथांक ||१||
HGACAS
दीप
व्याख्यातः तृतीय उद्देशकः, अधुना चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-पूर्वस्मिन् उद्देशके पुद्गलजीवधर्माखित्वेनोक्ता इहापि त एव तथैवोच्यन्त इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्येदमादिसूत्रषट् 'पडिमें'त्यादि, अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायमभिसम्बन्धः-पूर्वसूत्रे श्रमणमाहनस्य पर्युपासनायाः फलपरम्परोक्ता इह तु तद्विशेषस्य कल्पविधिरुच्यत इत्येवंसम्बन्धितस्यास्य व्याख्या
पतिमापडिबन्नस्स अणगारस्स कप्पति तओ उपस्सया पडिलेहित्तए, तं०-अहे आगमणगिर्हसि वा अहे वियदगिर्हसि वा अहे रुक्खमूलगिहंसि वा, एवमणुनवित्तते, उवातिणित्तते, पडिमापडिवनरस अणगाररस कप्पति तभो संधारगा परिलेहित्तते, तं०-पुढविसिला कट्ठसिला अहासंघङमेव, एवं अणुण्णवित्तए उबाइणित्तए (सू० १९१)
अनुक्रम [२०३-२०४]
*
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4:4
अत्र तृतीय-स्थानस्य तृतीय-उद्देशक: परिसमाप्तं. अथ तृतीय-स्थानस्य चतुर्थ-उद्देशक: आरब्ध:
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [१९१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१९१]
दीप
श्रीस्थाना- 'प्रतिमा मासिक्यादिका भिक्षुप्रतिज्ञाविशेषलक्षणां प्रतिपन्न:-अभ्युपगतवान् यः स तथा तस्यानगारस्य 'कल्पन्' ३ स्थानअसूत्र- & युज्यन्ते त्रय उपाश्रीयन्ते-भज्यन्ते शीतादित्राणार्थ ये ते उपाश्रयाः-वसतयः प्रत्युपेक्षितुम्-अवस्थानार्थ निरीक्षितु- काध्ययने वृत्तिः मिति, 'अहे'त्ति अथार्थः, अथशब्दश्चेह पदत्रयेऽपि त्रयाणामप्याश्रयाणां प्रतिमाप्रतिपन्नस्य साधोः कल्पनीयतया उद्देशः४
तुल्यताप्रतिपादनार्थों, वा विकल्पार्थः, पथिकादीनामागमनेनोपेतं तदर्थं वा गृहमागमनगृह-सभाप्रपादि,यदाह॥१५७॥
|सू०१९१ |"आगन्तु गारथजणो जहिं तु, संठाइ जं वाऽऽगमणमि तेसिं । तं आगमो किं तु विदू वयंति, सभापवादेउलमाइयं [] च॥१॥" इति, तस्मिन् उपाश्रयः-तदेकदेशभूतः प्रत्युपेक्षितुं कल्पत इति प्रक्रम इति, तथा 'वियर्ड'ति विवृतम्अनावृतं, तच द्वेधा-अध की च, तत्र पार्वत एकादिदिक्षु अनावृतमधोविवृतं अनाच्छादितममालगृहं चोर्द्ध-12 विवृतं तदेव गृहं चितृतगृहम् , उक्कं च-“वाउडं जं तु चउद्दिर्सिपि, दिसामहो तिन्नि दुवे य एका । अहे भवे तं || वियर्ड गिहं तु, उहुं अमालं च अतिच्छदं च ॥१॥" ति, तस्मिन् वा, तथा वृक्षस्य-करीरादेनिंगलस्य मूलम्-अधोभागस्तदेव गृहं वृक्षमूलगृहं तस्मिन् वेति । प्रत्युपेक्षया चोपाश्रये शुद्धे गृहस्थं प्रति तदनुज्ञापनं भवतीत्यनुज्ञापनासूत्रम्'एव'मिति, एतदेव 'पडिमापडिवन्ने'त्याधुधारणीयं, नवरं प्रत्युपेक्षणास्थाने अनुज्ञापनं वाच्यमिति । अनुज्ञाते च गृहिणा तस्योपादानमित्युपादानसूत्र, तदप्येवमेवेति, 'ओवाइणित्तरति उपादातुं ग्रहीतुं प्रवेष्टुमित्यर्थः, एवं संस्तारकसूत्रत्रयगृहस्थजन आगा यत्र तु तिष्ठते यद्वागमने वेषां तदागन्तुकागारं विद्वांसो बदन्ति सभाप्रपादेवकुलादिकम् ॥१॥ २भप्रावर्त यत्तु चतमधु
॥१५७॥ INIदिशु अथवा तिस्पु दिक्षु दयोः पाश्वयोरषद सदमोविवृतं अच्छादितममानं चोई पिवतं ॥१॥
अनुक्रम [२०५]
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[१९१]
दीप
अनुक्रम [२०५]
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [१९१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
मपि, नवरं पृथिवीशिला उगो [उवद्वगो ]त्ति यः प्रसिद्धः, काष्ठं चासौ शिलेवायतिविस्तराभ्यां शिला [सा] चेति काष्ठशिला 'यथासंस्तृतमेवेति यत्तृणादि यथोपभोगार्हं भवति तथैव यलभ्यत इति । प्रतिमाश्च नियतकाला भवन्तीति | कालं त्रिधाऽऽह
तीतययणे पप्पन्नववणे अणागयवयणे (सू० १९३ )
तिविहे काले पण्णसे तं० तीए पडुप्पण्णे अणागए, तिविहे समए पं० वं० तीते पडुप्पने अणागए, एवं आवलिया आणापाणू धोवेलवे अोरते जाव बाससत्तसहस्से पुवंगे पुब्बे जाब ओसप्पिणी, तिविधे पोमालपरियट्टे पं० सं० तीते पडुप्पन्ने अणागते ( सू० १९२) तिविहे वयणे पं० [सं० एगवयणे दुवयणे बहुवयणे, अड्वा तिविहे वयणे पं० तं इत्थवणे पुंवणे नपुंसगवयणे, अहवा तिविहे वयणे पं० सं० अति-अतिशयेनेतो- गतोऽतीतः, पिधानवदकारलोपे तीतो, वर्त्तमानत्वमतिक्रान्त इत्यर्थः, साम्प्रतमुत्यन्नः प्रत्युत्सन्नो वर्त्तमान इत्यर्थः, न आगतोऽनागतो वर्त्तमानत्वमप्राप्तो, भविष्यन्नित्यर्थः, उक्तं च-- "भवति स नामातीतः प्राप्तो यो नाम वर्त्तमानत्वम् । एष्यंश्च नाम स भवति यः प्राप्स्यति वर्त्तमानत्वम् ॥ १ ॥” इति । कालसामान्यं त्रिधा विभज्य तद्विशेषांस्त्रिधा विभजयन्नाह - 'तिविहे समये' इत्यादि कालसूत्राणि, समयादयो द्विस्थानकाद्योद्देशकवत् व्याख्येयाः, नवरं 'पोग्गलपरियहे'त्ति पुगलानां रूपिद्रव्याणामाहारकवर्जितानां औदारिकादिप्रकारेण ग्रहणतः एकजीवापेक्षया परिवर्त्तनं - सामस्त्येन स्पर्शः पुनलपरिवर्त्तः, स च यावता कालेन भवति स कालोऽपि पुलपरिवर्त्तः, स चानन्तोत्सर्पि
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [१९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
प्रतिः
सूत्रांक
॥१५॥
[१९३]
श्रीस्थाना-
1ण्यवसर्पिणीरूप इति, स चेत्थं भगवत्यामुक्ता-“कतिविहे णं भंते ! पोग्गलपरियट्टे पन्नत्ते?, गोयमा! सत्तविहे पन्नते, ३ स्थान सूत्र- तंजहा-ओरालियपोग्गलपरियट्टे वेउब्बियपोग्गलपरियट्टे एवं तेयाकम्मामणवइआणापाणूपोग्गलपरियट्टे" तथा 'से- काध्ययने
केणद्वेणं भंते एवं बुबह-ओरालियपोग्गलपरियट्टे २१, गोयमा! जेणं जीवेणं ओरालियसरीरे वहमाणेणं ओरालियसरी-18/ उद्देशः ४ रपाउग्गाई दवाई ओरालियसरीरत्ताए गहियाई जाव णिसवाई भवंति, से तेणऽढेणं गोयमा! एवं बुचइ-ओरालिय- सू० १९३ पोग्गलपरियट्टे ओ०२"। एवं शेषा अपि वाच्याः, तथा “ओरोलियपोग्गलपरियट्टे णं भंते ! केवइकालस्स णिचट्टिजइ?, गोयमा! अर्णताहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं"ति, एवं शेषा अपीति, अन्यत्र स्वेवमुच्यते-"ओरल १ विउव्या २ तेय ३ कम्म ४ भासा ५ ऽऽणुपाणु ६ मणगेहिं ७ । फासेवि सब्बपोग्गल मुक्का अह बायरपरहो ॥१॥ दब्बे सुहुमपरट्टो जाहे एगेण अह सरीरेणं । लोगंमि सब्बपोग्गल परिणामेऊण तो मुक्का ॥१॥” इति, द्रव्यपुद्गलपरिवर्तसदृशा येऽन्ये क्षेत्रकालभावपरिवर्त्तास्तेऽन्यतोऽबसेया इति । एते च समयादयः पुद्गलपरिवन्तिाः स्वरूपेण बहवोऽपि तत्सामान्यलक्षण
कतिविधो भदन्त । पुनलपरावतः प्रातः 1, गीतमा सप्तविधः प्रहप्तः, तद्यथा-औदारिकषुद्रसपरिवर्सः क्रियतपरिवर्तः एवं तेजःकर्ममनोवागानप्राणपुद्गलपरावतः ॥ अथ केगान भवन्त । एवमुच्यते मौदारिकपुरलपरावतः २१, गौतम | येन जीवेन औदारिकपारीरे वर्तमानीदारिकषायोग्याणि हव्यामि। औदारिकशरीरतया गृहीतानि यावनिमयानि भवन्ति, अब तेनान गौतमैवमुच्यते औदारिक पुद्गलपरावतः१।।श्रीदारिकपुनलपरावतः भदन्त । किवता कालेन निर्वस्यते, गौतमानताभिमत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिः ॥ीदारिकपैफियतेजःकर्मभाषान प्राणमनोभिः सर्वे पुला संस्ष्टश्य मुक्का अथासी बादरपरिवत्ते ॥१५८।। ये सूक्ष्मपरापत्तों गदैकेन शारीरेणाथ लोके सर्वे पुनलाः परिणमय्य मुकाः स्युसदा ॥१॥
दीप
अनुक्रम [२०७]]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [१९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१९३]
| मेकं अर्थमाश्रित्येकवचनान्ततयोकाः, भवन्ति चैकादिध्वर्थेष्वेकवचनादीनीत्येकवचनादिप्ररूपणायाह-'तिविहें इत्यादि एकोऽर्थ उच्यतेऽनेनोक्तिवेंति वचनमेकस्यार्थस्य वचनमेकवचनमेवमितरे अपि, अत्र क्रमेणोदाहरणानि-देवो देवी देवाः।। वचनाधिकारे अहवेत्यादि सूत्रद्वयं सुबोधम् , उदाहरणानि तु खीवचनादीनां नदी नदः कुण्डं, तीतादीनां कृतवान् करोति करिष्यति । वचनं हि जीवपर्यायस्तदधिकारात् तसर्यायान्तराणि त्रिस्थानकेऽवतारयन्नाह
तिविहा पनवणा पं०सं०-णाणपन्नवणा देसणपत्रवणा चरित्तपन्नवणा १, तिविधेसम्मे पं०१०-नाणसम्मे सणसम्मे परित्तसम्मे २, तिविधे उवधाते पं० २०-जग्गमोवघाते उप्पायणोषघाते एसणोवघाते ३, एवं विसोही ४ (सू० १९४) तिविहा आराहणा पं० सं०-णाणाराहणा दसणाराणा चरिताराहणा ५, णाणाराहणा तिविहा पं० सं०-कोसा मज्झिमा जहना ६, एवं ईसणाराहणावि ७, परित्ताराहणावि ८, सिविधे संकिलेसे पं०२०-नाणसंफिलेसे दंसणसंकिलेसे परित्तसंकिलेसे ९, एवं असंकिलेसेवि १०, एवमतिकमेऽवि ११, वइकमेऽवि १२, अइयारेऽवि १३, अणायारेवि १४ । तिहमतिकमाणं आलोएज्जा पटिकमेना निदिजा गरहिजा आव पडिजिजा, सं०--णाणातिकमस्स दंसणातिकमस्स चरित्तातिकमस्स १५, एवं वइकमाणवि १६, अतिचाराणं १७, अणावाराणं १८ (सू० १९५) तिविधे
पायच्छित्ते पं० ते-आलोयणारिहे पडिकमणारिहे तदुभवारिहे १९ (सू० १९६) 'तिविहे'त्यादि सूत्राणामेकोनविंशतिः, स्पष्टा चेयं, परं प्रज्ञापना-भेदाद्यभिधानं, तत्र ज्ञानप्रज्ञापना-आभिनियो । |धिकादि पञ्चधा ज्ञानम्, एवं दर्शनं क्षायिकादि त्रिधा, चारित्रं सामायिकादि पश्चति, समश्चतीति सम्यक्-अविपरीतं |
दीप
अनुक्रम [२०७]]
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [१९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना-
सूत्रवृत्तिः
प्रत
॥१५९॥
सू० १९६
सूत्रांक [१९६]
दीप अनुक्रम [२१०]
मोक्षसिद्धिं प्रतीत्यानुगुणमित्यर्थः, तश्च ज्ञानादीनि, उपहननमुपधातः, पिण्डशय्यादेरकल्प्यतेत्यर्थः, तत्र उद्गमनमुद्गमः
&३ स्थानपिण्डादेः प्रभव इत्यर्थः, तस्य चाधाकादयः षोडश दोषाः, उक्तं च-"तत्थुग्गमो पसूई पभवो एमादि होंति एगट्ठा ।
काध्ययने सो पिंडस्सिह पगओ तस्स य दोसा इमे होति ॥१॥आहाकम्मु १ देसिय २ पूइकम्मे य ३ मीसजाए य ४ । ठवणा उद्देशः४ ५ पाहुडियाए ६ पाओयर ७ कीय ८ पामिचे ९॥२॥ परियट्टिए १० अभिहडे ११ उब्भिन्ने १२ मालोहडे इय १३ ।। अच्छेजे १४ अनिसढे १५ अज्झोयरए य १६ सोलसमे ॥३॥" इति, इह चाभेदविवक्षया उद्गमदोषा एवोगमा अतस्तेनोद्गमेनोपघात:-पिण्डादेरकल्पनीयताकरणं चरणस्य वा शबलीकरणमुद्गमोपघाता, उद्गमस्य वा-पिण्डादिप्रसूतेरुप-४ घात:-आधाकर्मत्वादिभिर्दुष्टता उद्गमोपघातः, एवमितरावपि, केवलमुत्सादना-सम्पादनं गृहस्थापिण्डादेरुपार्जनमित्यर्थः, तदोषा धात्रीत्यादयः षोडश, यदाह-उप्पायण संपायण णिवत्तणमो य होंति एगट्ठा । आहारस्सिह पगया तीय य दोसा इमे होति ॥१॥धाई १ दूइ २ निमित्ते ३ आजीव ४ वणीमगे ५ तिगिच्छा य । कोहे ७ माणे ८ माया ९ लोभे य १० हवंति दस एए ॥२॥ पुब्बिं पच्छा संथव ११ विजा १२ मते य १३ चुल १४ जोगे य १५॥ उपायणाय दोसा सोलसमे मूलकम्मे य॥३॥इति, तथा एषणा-गृहिणा दीयमानपिण्डादेर्ग्रहणं तदोषाः शङ्किता
तनोगमः प्रसूतिः प्रभव इत्यादीन्येकार्थानि भवन्ति स पिंटस्येह प्रकृतः तस्य च दोषा इमे भवन्ति ॥१॥आपाकर्म औदेशिक पूतिकर्म व मिश्रजातब स्थापना प्रातिका प्रादुष्कृतं की प्राभियं ॥२॥ परिवर्तितः अभ्याइतः उद्भिवः मालाइतः आच्छेयः मनिस्टः अध्यवपूरकर षोडशः ॥३॥२ उत्पादना सम्पादना निवर्तना च भवति एकार्यानि आहारस्येह प्रकृता तसाच दोषा इसे भवन्ति ॥१॥धात्री इती निमित्त आजीविका बनीपक चिकित्सा व कोषः मानः । माया सोमव भवंति दौते ॥१॥पू पवाद्वा संस्खवः विद्या मत्रच चूर्णयोगक्ष । उत्पादभाया दोषा। षोडशो मूलकी च ॥३॥
॥१५९॥
आधाकर्मादय: दोषा:
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [१९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१९६]
दियो दशेति, आहप-"एसणगवेसणन्नेसणा य गहणं च होति एगवा । आहारस्सिह पगया तीय य दोसा इमे होति KI॥१॥ संकिय १ मक्खिय २ निक्खित्त ३ पिहिय ४ साहरिय ५ दायगु ६ म्मीसे ७। अपरिणय ८ लित्त छड्डिय १०
एसणदोसा दस हवंति ॥ २॥" इह च 'सोर्लेस उग्गमदोसा गिहियाओ समुढिए वियाणाहि । उप्यावणाय दोसा साहओ समुडिए जाण ॥३॥ एषणादोषास्तूभयसमुत्था इति, एवमुद्गमादिभिदोषरविद्यमानतया वा विशुद्धिा-पिण्डचरणादीनां निषता सा उद्गमादिविशुद्धिरुद्गमादीनां वा विशुद्धिर्या सा तथेति, इदमेबातिदिशन्नाह एवं विसोहीं। ज्ञानस्य-श्रुतस्याराधना-कालाध्ययनादिवष्टस्वाचारेषु प्रवृत्त्या निरतिचारपरिपालना ज्ञानाराधना, एवं दर्शनस्य निःशङ्कितादिषु चारित्रस्य समितिगुप्तिषु, सा चोत्कृष्टादिभेदा भावभेदात् कालभेदाति, ज्ञानादिप्रतिपतनलक्षणः सडिकश्यमानपरिणामनिवन्धनो ज्ञानादिसइक्केशः, ज्ञानादिशुद्धिलक्षणो विशुज्यमानपरिणामहेतु कस्तदसक्लेशः। 'एवंमिति, ज्ञानादिविषया एवातिकमादयश्चत्वारः, तत्राधाकर्माश्रित्य चतुर्णामपि निदर्शनम्-"आहाकम्मामंतण पडिसुणमाणे अइकमो होइ १। पयभेयादि वइक्कम २ गहिए तइश्एयरो गिलिए ॥१॥” इति, इत्थमेवोत्तरगुणरूपचारित्रस्य चत्वारोऽपि, एतदुद्देशेन ज्ञानदर्शनयोस्तदुपग्रहकारिद्रव्याणां च पुस्तकचैत्यादीनामुपघाताय मिथ्याशामुपबृंहणार्थ
एषणा गवेषणाऽन्वेषणा चपर्ण च भवन्त्येकार्थानि आहारस्येह प्रकृता तस्यां च दोषा इसे भवन्ति ॥१॥शक्तिः अक्षितः निक्षिप्तः पिहितः संहतः | दायक उन्मिनः । अपरिणतः लिप्तः छर्दितः एषणादोषा दश भवन्ति ॥ २ ॥ २ षोडशोद्रमदोषान् गृहिणः समुत्थितान् विजानीहि । उत्पादनाया दोषान् साधोः समुस्थितान् जानीहि ॥३॥ ३ आषाकर्मामंत्रणप्रतिषवणे अतिकमो भवति । पदभेदादी व्यतिकमो गृहीते तृतीय इतरो गिलिते ॥१॥
दीप अनुक्रम [२१०]
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आधाकर्मादय: दोषा:
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [१९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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३ स्थानकाध्ययने उद्देशः४. सू०१९७
सूत्रांक
[१९६]
श्रीस्थाना- वा निमन्त्रणप्रतिश्रवणादिभिर्ज्ञानदर्शनातिक्रमादयोऽप्यायोज्या इति । 'तिहं अइकमाणं ति पछया द्वितीयार्थत्वात्
सूत्र- त्रीनतिक्रमानालोचयेत्-गुरवे निवेदयेदित्यादि प्राग्वत्, नवरं यावत्करणात् 'विसोहेज्जा विउडेजा अकरणयाए अन्भु- वृत्तिः डेजा अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्त'मित्यध्येतव्यमिति, पापच्छेदकत्वात् प्रायश्चित्तविशोधकत्वाद्वा प्राकृते पायच्छित्त
मिति शुद्धिरुच्यते तद्विषयः शोधनीयातिचारोऽपि प्रायश्चित्तमिति, तब विधा, दशविधत्वेऽपि तस्य त्रिस्थानकानुरोधादिति, तत्रालोचनमालोचना-गुरवे निवेदनं तां शुद्धिभूतामहति तयैव शुद्ध्यति यदतिचारजातं भिक्षाचर्यादि तदालोचनाहमिति, एवं प्रतिक्रमणं-मिथ्यादुष्कृतं तदह सहसा असमितत्वमगुप्तत्वं चेति, उभयम्-आलोचनाप्रतिक्रमणलक्षणमर्हति यत्तत्तथा, मनसा रागद्वेषगमनादि, सार्द्धगाथेह-"भिक्खायरियाइ सुज्झइ अइयारो कोवि वियडणाए ऊ। बीओ य असमिओमित्ति कीस सहसा अगुत्तो वा ॥१॥ सदाइएसु रागं दोसं च मणो गओ तइयगंमि"त्ति। एते च प्रज्ञापनादयो धर्माः प्रायो मनुष्यक्षेत्र एव स्युरिति तद्वक्तव्यतामाह
जंबूरीवे २ मंदरस्स परुपयस्स दाहिणेणं ततो अकम्मभूमिओ पं० त०-हेमवते हरिवासे देवकुरा, जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पवयस्स उत्तरेण तो अकम्मभूमीओ पं० सं०-उत्तरकुरा रम्मगवासे एरण्णवए, जंवूमंदरस्स दाहिणेणं ततो वासा पं० तं०-भरहे हेमवए हरिवासे, जंचूमंदरस्स उत्तरेणं ततो वासा पं० सं०-रम्मगवासे हरभवते एरवए, जंबूमंदरवाहि
मिक्षाचर्यायां कोऽपि भतिचारः स विकटनया शुधति । कथं सहसाऽसमितोऽगुप्तो वाऽसीति द्वितीयः१ ॥१॥(प्रतिक्रमण) शब्दादिकेषु मनो राग ४ वर्ष वा गतं तृतीयं (मिश्र).
ॐॐ45
दीप अनुक्रम [२१०]
१०
आधाकर्मादय: दोषा:
~330~
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१९७]
दीप अनुक्रम [२११]
गणं ततो वासहरपवता पं० सं०-चुहिमवंते महाहिमवंते जिसढे, जंबूमंदरउत्तरेणं तओ वासहरपव्यता पं० सं०णीलवते रूपी सिहरी, अंबूभदरदाहिणेणं तओ महादहा पं० त०-पउमदहे महापउमदहे तिगिंछदहे, तत्थ णं ततो देवताओ महिडियातो जाव पलिओवमट्रितीताओ परिवसंति, तं०-सिरी हिरी धिती, एवं उत्तरेणवि, गवर-केसरिदहे महापोंडरीयदहे पोंडरीयदहे, देवतातो किची बुद्धी लच्छी, जंवूमंदरदाहिणेणं चुलहिमवंतातो वासघरपव्वतावो परमदहाभो महादहातो ततो महाणतीओ पवहंति, तांगा सिंधू रोहितंसा, जंबूमंदरउत्तरेणं सिहरीओ वासहरपब्वतातो पोंडरीयदहाओ महादहाओ तओ महानदीओ पबहंति, तं०-सुवनकूला रत्ता रत्तवती, जंबूमंदरपुरच्छिमेणं सीताए महाणतीते उत्तरेणं ततो अंतरणतीतो पं० त०-गाहावती दहवती पंकवती, जंबूमंदरपुरच्छिमेणं सीताते महाणतीते वाहिणणं ततो अंतरणतीवो पं० सं०-तत्तजला मत्तजला उम्मचजला, जंबूमंदरपञ्चत्थिमेणं सीओदाते महाणईए दाविणेणं ततो अंतरणतीतो पं० सं०-वीरोदा सीतसोता अंतोवाहिणी, जंबूमंदरपचत्थिमेणं सीतोदाए महाणदीए उत्तरेणं तो अंतरणदीतो पं० सं०- उम्मिमालिणी फेणमालिणी गंभीरमालिनी । एवं धावसंडे दीवे पुरच्छिमद्धेवि अकम्मभूमीतो आढवेत्ता
आव अंतरनदीओत्ति गिरवसेसं भाणियच्वं, जाव पुक्खरवरदीवडपच्चत्थिमड़े तहेव निरवसेसं भाणियध्वं (सू० १९७) - 'जंबूद्दीचे इत्यादि, इदं च प्रकरणं द्विस्थानकानुसारेण जम्बूद्वीपपटानुसारेण चावसेयमिति, नवरमन्तरनदीनां विष्कम्भः पञ्चविंशत्यधिक योजनशतमिति । अनन्तरं मनुष्यक्षेत्रलक्षणक्षितिखण्डवक्तव्यतोकेत्यधुना भगवन्तरेण सामान्यपृथ्वीदेशवक्तव्यतामाह
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आगम
(०३)
प्रत
सूचांक
[१९७]
दीप
अनुक्रम [२११]
[भाग - 5] "स्थान" अंगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः)
स्थान [३], उद्देशक [४]. मूलं [१९८ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३]
श्रीस्थानाङ्गसूत्र
वृत्तिः
॥ १६१ ॥
- -
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सिहि ठाणेहिं देसे पुढवीए चलेजा, तं० अथे णमिमीसे रयणप्पभाते युढवीते उराला पोराला निवतेज्बा, तते णं ते उराला पोग्गला नियतमाणा देसं पुढवीए चलेना १, महोरते वा महिड्डीए जाव महेसक्खे इमीसे रयणप्पभावे पुढवीते अहे उम्मणिमज्जियं करेमाणे दे पुढवीते चलेया २, णागसुवन्नाण वा संगामंसि वट्टमाणंसि देस पुढवीते चलेजा २, इश्वेतेहिं तिहिं० । तिहिं ठाणेहिं केवलकप्पा पुढवी चलेना, तं० अधे णं इमीसे रवणप्पभाते पुढवीते घणवाते गुप्पेजा, वए णं से घणवाते गुविते समाणे घणोदद्दिमेएज्जा, तए णं से घणोदही एइए समाणे केवलकप्पं पुढविं चालेज्जा, देवे वा महिङ्किते जाव मद्देसक्त्रे तदारूवस्स समणस्स माद्दणस्स वा इड्डि जुर्ति जसं बलं वीरितं पुरिसक्कारपरकमं उवदंसेमाणे केवलकप्पं पुढविं चालिज्जा, देवासुरसंगामंसि वा वट्टमाणंसि केवलकप्पा पुढवी चलेजा, इथेतेहिं तिहिं० । ( सू० १९८ ) 'तिही 'त्यादि स्पष्टं केवलं देश इति भागः, पृथिव्याः - रक्षप्रभाभिधानाया इति, 'अहे'सि अधः 'ओरालि'त्ति उदारा-बादरा निपतेयुः - विासापरिणामात् ततो विचटेयुरम्यतो वाऽऽगत्य तत्र लगेयुर्वन्त्रमुक्तमहोपलवत्, 'लए णं'ति ततस्ते निपतन्तो देशं पृथिव्याञ्चलयेयुरिति पृथिवीदेशश्च लेदिति, महोरगो-व्यन्तरविशेषः, 'महिडिए' परिवारादिना याव त्करणात् 'महज्जुइए' शरीरादिदीत्या 'महाबले' प्राणतः 'महाणुभागे' वैक्रियादिकरणतः 'महेसक्खे' महेश इत्याख्या यस्येति, उन्मननिमद्मिकाम्-उत्पतनिपतां कुतोऽपि दर्पादेः कारणात् कुर्वन् देशं पृथिव्याश्चखयेत् स च चलेदिति, नागकुमाराणां सुपर्णकुमाराणां च भवनपतिविशेषाणां परस्परं सङ्ग्रामे वर्त्तमाने - जायमाने सति 'देस'ति देशश्चलेदिति, 'इथेर्हि'ति निगमनमिति । पृथिव्या देशतश्चलनमुक्तम्, अधुना समस्तापास्तदाह- 'तिहीं स्यादि, स्पष्टं, किन्तु केवलैव केवल
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"स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
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३ स्थान
काध्ययने उद्देशः ४ सू० १९८
॥ १६१ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [१९८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१९८]
|कल्पा, ईपक्षनता चेह न विवक्ष्यते, अतः परिपूर्णेस्यर्थः परिपूर्णप्राया बेति, पृथिवी-भूः, 'अहे'त्ति अधो धनवातः-1 तथाविधपरिणामो वातविशेषो 'गुप्त' व्याकुलो भवेत् क्षुभ्येदित्यर्थः ततः स गुप्तः सन् धनोदधि-तथाविधपरिणामजलसमूहलक्षणमेजयेत्-कम्पयेत्, 'तए णं'ति ततोऽनन्तरं स घनोदधिरेजित:-कम्पितः सम् केवलकल्पां पृथिवीं चालयेत्, सा च चलेदिति, देवो वा ऋद्धि-परिवारादिरूपां द्युतिं शरीरादेः यश:-पराक्रमकृतां ख्याति बलं-शारीरं वीर्य-जीवप्रभवं पुरुषकार-साभिमान व्यवसायं निष्पन्नफलं तमेव पराक्रममिति, बलबीर्याद्युपदर्शनं हि पृथिव्यादिच लनं विना न भवतीति तदर्शयंस्तां चलयेदिति, देवाश्च-वैमानिका असुरा:-भवनपतयस्तेषां भवप्रत्ययं वैरं भवति, अभिधीयते च भगवत्याम्-"किं पत्तियण्णं भंते! असुरकुमारा देवा सोहम्मं कप्पं गया य गमिस्संति य?, गोयमा! तेसि क देवाणं भवपञ्चइए वेराणुबंधे"त्ति, ततश्च सत्रामः स्यात् , तत्र वर्तमाने पृथिवी चले, तत्र तेषां महाव्यायामत उत्सातनिपातसम्भवादिति 'इचेएही'त्यादि, निगमनमिति । देवासुराः सझामकारितयाऽनन्तरमुक्ताः, ते च दशविधाः 'इन्द्रसामानिकत्रायविंशपार्षद्यात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्णकाभियोग्यकिल्पिषिकाश्चैकश' (तत्त्वा० अ०४ सू०४) इति वचनात्, इति तन्मध्यवर्तिनः त्रिस्थानकावतारित्वात् किल्बिषिकानभिधातुमाह
तिविधा देवकिब्धिसिया पं० सं०-तिपलिभोवमद्वितीता तिसागरोवमहितीता २ तेरससागरोयमद्वितीया ३, कहि ण भंते ! लिपलितोवमहितीता देवफिबिसिया परिवसंति?, अपि जोइसियाणं हिहिं सोहम्मीसाणेसु कप्पेमु एवणं लिपलिभोवद्वितीया देवा किब्धिसिया परिवसति १, कहि णं भंसे ! तिसागरोवमहितीप्ता देवा किब्बिसिया परिवसंति',
दीप अनुक्रम [२१२]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [१९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना
सूत्र
३ स्थान
प्रत
काध्ययने
ति
सूत्रांक
उद्देशः४ सू०२०१
॥१२॥
[१९९]
-
उपि सोहंमीसाणाणं कप्पाणं होहि सणकुमारमाहिदे कप्पे एत्थ ण तिसागरोवमद्वितीया देवकिदिवसिया परिवसंति २, कहिणं भंते! तेरससागरोक्महितीचा देवकिल्बिसिता परिवति', उप्पि बंभलोगस्स कप्पस्स हिहिलंतगे कप्पे एत्थ गं तेरससागरोवमद्वितीता देवकिञ्चिसिया परिवसंति ३ (सू० १९९) सकस्स णं देविंदस्स देवरण्णो बाहिरपरिसाते देवाणं तिन्नि पलिभोषमाई ठिई पन्नत्ता, सकस्स णं देविंदस्स देवरनो अभितरपरिसाते देवीर्ण तिनि पलिओक्माई ठिती पं०, ईसाणसणं देविंदस्स देवरनो बाहिरपरिसाते देवीणं तिन्नि पलिओवमाई ठिती पं० (सू० २००) तिविहे पायपिछत्ते पं० सं०-णाणपायच्छिते दसणपायच्छित्ते चरितपायच्छिते, ततो अणुग्धातिमा पं० सं०-हत्वकम्म करेमाणे मेहुर्ण सेवेमाणे राईभोयर्ण मुंजमाणे, तओ पारंचिता पं० २०-दुपारंचिते पमत्तपारंचिते अन्नमन करेमाणे पारंचिते, ततो अणवढप्पा पं० सं०-साइमियाणं तेणं करेमाणे अन्नधम्मियाणं तेणं करेमाणे हत्यातालं
दलबमाणे (सू० २०१) 'तिविहे त्यादि स्फुटं, केवलं, किब्बिसियत्ति-"नाणस्स केवलीणं धम्मायरियस्स संघसाहूणं । माई अवन्नवाई किबिसियं भावणं कुणइ ॥१॥"त्ति एवंविधभावनोपात्तं किल्बिर्ष-पापं उदये विद्यते येषां ते किल्बिपिका देवानां मध्ये किविषिका:-पापा अथवा देवाश्च ते किल्बिपिकाश्चेति देवकिल्बिषिका:-मनुष्ये चण्डाला इवास्पृश्याः, 'उपि' उपरि 'हिडिं। अधस्तात् 'सोहम्मीसाणेसुत्ति षष्ठ्यर्थे सप्तमी। देवाधिकारायात 'सके'त्यादि सूत्रत्रयं सुगममिति । देवीनामनन्तरं स्थिति-|
१ज्ञामस्म केवलिनी धर्माचार्यस्य सवसाधूनां । अवर्णवादी मावी किरियषिका भावनां करोति ॥१॥
दीप अनुक्रम [२१३]
-+
++
+601
१६२॥
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आगम
(०३)
प्रत सूत्रांक
[२०१]
दीप
अनुक्रम
[२१५]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२०१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
रुक्ता, देवीत्वं च पूर्वभवे सप्रायश्चित्तानुष्ठानाद्भवतीति प्रायश्चित्तस्य तद्वतां च प्ररूपणायाह - 'तिविहे 'त्यादि सूत्रचतुष्टयं सुगमं, केवलं 'नाणे'त्यादि, ज्ञानाद्यतिचारशुद्ध्यर्थं यदालोचनादि ज्ञानादीनां वा योऽतिचारस्तत् ज्ञानप्रायश्चित्तादि, तत्राकालाविनयाध्ययनादयोऽष्टावतिचारा ज्ञानस्य शङ्कितादयोऽष्टौ दर्शनस्य मूलगुणोत्तरगुणविराधनारूपा विचित्रा: चारित्रस्येति । 'अणुग्धाइम'त्ति उद्घातो-भागपातस्तेन निर्वृत्तमुद्धातिमं, लध्वित्यर्थः, यत उक्तम्- "अद्वेण छिन्न सेसं पुब्बद्धेणं तु संजुयं कार्ड देणाहि लहुयदाणं गुरुदाणं तत्तियं चैव ॥१॥” इति, भावना - मासोऽर्द्धेन छिनो जातानि पञ्चदश दिनानि, ततो मासापेक्षया पूर्वं तपः पञ्चविंशतितमं तदर्द्ध सार्द्धद्वादशकं तेन संयुतं मासार्द्ध, जातानि सप्तविंशतिर्दिनानि सार्द्धानीत्येवं कृत्वा यद् दीयते तलघुमासदानम्, एवमन्यान्यपि एतन्निषेधादनुद्घातिमं तपो, गुध्वित्यर्थः, तद्योगात्साधवोsपि वा तथोच्यन्ते, 'हस्तकर्म्म' हस्तेन शुक्रपुद्गल निघातनक्रिया आगमप्रसिद्धं तत्कुर्वन्, सप्तमी चेयं पष्ठचर्था, तेन कुर्वत इति व्याख्येयम्, एतेषां च हस्तकर्मादीनां यत्र विशेषे योऽनुद्धातिमविशेषो दीयते स कल्पादितोऽवसेयः, 'पारंचिय'त्ति पारं-तीरं तपसा अपराधस्याञ्चति-गच्छति ततो दीक्ष्यते यः स पाराश्री स एव पाराचिकः तस्य यद|नुष्ठानं तच्च पाराचिकमिति दशमं प्रायश्चित्तं, लिङ्गक्षेत्रकालतपोभिर्बहिःकरणमिति भावः इह च सूत्रे कल्पभाष्य | इदमभिधीयते - "आसायण पडिसेबी दुविहो पारंचिओ समासेणं । एक्केकंमि य भयणा सचरिते चेव अचरित्ते ॥ १ ॥ लघुकदानं दद्या गुरुदानं तावदेव ॥ १ ॥ २ समासेन पाराशिको द्विविधः आशातनायां प्रतिसेनायां च ।
१ अर्धेन छिने शेषं पूर्वतपोऽन संयुकं कृत्वा एकैकस्मिन् भजनाच सचारित्रे अच्चारित्रे एवं ॥ १
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अणुग्घाईमं आदि प्रायश्चित्तस्य वर्णनं
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना- मसूत्रवृत्तिः
प्रत
३ स्थानकाध्ययने उद्देशः४ सू०२०१
सूत्रांक
॥१६३॥
[२०१]
1560
सब्वचरितं भस्सइ केणवि पडिसेविएण उ पएणं । कत्थइ चिट्ठद देसो परिणामवराहमासज्ज ॥२॥ तुलमिवि अवराहे परिणामवसेण होइ नाणत्तं । करथइ परिणामंमिवि तुले अवराहनाणत्तं ॥३॥" तत्र आशातकपाराश्चिक:-'तित्थयर- पवयणसुए आयरिए गणहरे महिहीए । एते आसायंते पच्छित्ते मग्गणा होइ ॥१॥"त्ति तत्र-"सब्वे आसायंते पावति पारंचियं ठाणं"ति, इह च सूत्रे प्रतिसेवकपाराश्चिक एव त्रिविध उक्तः, तदुक्तम्-"परिसंवणपारंची तिविहो सो होइ आणुपुबीए । दुढे य पमत्ते या नायब्बो अन्नमन्ने य॥१॥" तत्र दुष्टो-दोषवान् कषायतो विषयतश्च, पुनरेंकैको द्वेधा, सपक्षविपक्षभेदात्, उक्तं च-"दैविहो य होइ दुट्ठो कसायदुवो य विसयदुवो य । दुविहो कसायदुद्दो सपक्सपरपक्व चउभंगो ॥१॥" तत्र स्वपक्षे कषायदुष्टो यथा सर्पपनालिकाभिधानशाकभर्जिकाग्रहणकुपितो मृताचार्यदन्तभञ्जकः साधुः, विषयदुष्टस्तु साध्वीकामुकः, तत्र चोक्तम्-"लिंगेण लिंगिणीए संपत्तिं जो णिगच्छई पायो । सब्बजिणाणउजाओ संघो वाऽऽसाइतो तेणं ॥१॥ पावाणं पावयरो दिद्विप्फासेवि सो न कप्पति तु | जो जिणपुंगवमुदं नमिऊण
१ सय चारित्रं प्रत्यति केनापि प्रतिषेवितेन पदेन कुत्रचित्तिष्ठति देशः परिणामापराधाबासाथ ॥ २ ॥ तुल्येऽप्यपराधे परिणामब शेन भवति नानात्वम् । कुत्रचित् परिणामे तुल्येऽपि अपराधनानात्वम् ॥३॥ २ तीर्थकरप्रवचनश्रुतानि भाचार्यान् गणधरान् महर्द्धिकान् । एतानाशातयति प्रायधिसे मार्गणा भवति ॥१॥ ३ सानाशातयन् प्रामोति पारावि स्थानम्। ४ प्रतिषेवणाचारापिकस्विविधः स आनुपूा दुश्व प्रमत्तथ कालव्योऽम्पोऽपय ॥१॥ ५ द्विविधष भवति । | दुष्टः कायदुश्व विषयदुष्टय । द्विविधः कषायदुष्टः सपक्षपरपक्षयोः चतुर्भः॥१॥ ६लिंगेन लिगिन्याः संप्राप्ति यो गच्छति पापः । सर्वजिनानामार्या संघयाशातितस्तेन ॥ १॥ पापामां पापतरो दृष्टिपर्योऽपि कर्तुं तव नैव कल्पते यो जिनवर मुद्रा नस्या
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दीप
अनुक्रम [२१५]
॥१६३
Enton
अणुग्घाईमं आदि प्रायश्चित्तस्य वर्णनं
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [२०१]
तमेव धरिसेइ ॥२॥" ति, "संसारमणवयग्गं जाइजरामरणवेयणापउरं। पावमलपडलछन्ना भमंति मुद्दाधरिसणेण॥३॥" इति, परपक्षकषायदुष्टस्तु राजवधको द्वितीयो राजानमहिष्यधिगन्तेति, उक्तं च-"जो य सलिंगे दुट्ठो कसाय विसएहिं रायवहगो य । रायग्गमहिसिपरिसेवओ य बहुसो पयासो य ॥१॥" प्रमत्तः-पश्चमनिद्राप्रमादवान्, मांसाशिप्रनजि-| तसाधयदिति, अयं च सद्गुणोऽपि त्याज्य इति, आह च-"अवि केवलमुप्पाडे णय लिंग देइ अणइसेसी से । देसब-II यदंसणं वा गेण्ह अणिच्छे पलायंति ॥१॥" तथा, अन्योऽन्य-परस्परं मुखपायुप्रयोगतो मैथुनं कुर्वन् , पुरुषयुगमिति शेषः, उच्यते च--"आसयपोसयसेवी केवि मणूसा दुवेयगा होति । तेसिं लिंगविवेगो"त्ति, आसेवितातिचारविशेषः। सन्ननाचरिततपोविशेषस्तद्दोषोपरतोऽपि महाव्रतेषु नावस्थाप्यते-नाधिक्रियते इत्यनवस्थाप्यः तदतिचारजातं तच्छु|द्धिरपि वाऽनवस्थाप्यमुच्यत इति नवमं प्रायश्चित्तमिति, तत्र साधर्मिकाः-साधवस्तेषां सत्कस्योत्कृष्टोपधि(धेः)शिष्यादेवी बहुशो वा प्रद्विष्टचित्तो वा, 'तेणं ति स्तेयं-चौर्य कुर्वन् , तथा अन्यधामिकाः-शाक्यादयो गृहस्था वा तेषां सत्कस्योपध्यादेः स्तेयं कुर्वनिति १ तथा हस्तेनाऽऽताडनं हस्ततालस्तं 'दलमाणे ददत्, यष्टिमुष्टिलकुटादिभिर्मरणादिनिरपेक्ष
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अनुक्रम [२१५]
१ तामेव वर्षयति ॥२॥ संसारमनवदनं जन्ममरगजरावेदनाप्रचुरं । पापमलपरलच्छन्ना श्राम्यन्ति मुद्राधर्षणेन ॥३॥१वन खलिंगे कषायविषयैर्दुष्टः | | राजधकम राजानमहिषीपरिषेचकश्च बहुशः प्रकाशश्च ॥॥ ३ अपि केवलमुत्पादयेन व लिंग तस्थानतिशयी वदाति । देशवतं सम्यक्त्वं या यहाण अनि-1 रछति पलायन्ते ॥1॥ ४ पासपोप्यसेविनः केऽपि मनुष्याः द्विवेदा भवन्ति तेषा लिंगविवेकः ॥
अणुग्घाईमं आदि प्रायश्चित्तस्य वर्णनं
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आगम
(०३)
प्रत
सूचांक
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दीप
अनुक्रम [२१५]
[भाग-5] "स्थान" अंगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः)
उद्देशक [४].
मूलं [२०१]
स्थान [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः
॥ १६४ ॥
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आत्मनः परस्य वा प्रहरन्निति भावः उक्तं च- "कोसं बहुसो वा पदुइचित्तो व तेणियं कुणइ । पहरइ जो य स|पक्खे निरवेक्खो घोरपरिणामो ॥ १ ॥” अथवा 'अत्थायाणं दलमाणोति पाठस्तत्र अर्थादानं द्वव्योपादानकारणमष्टाङ्गनिमित्तं तद्ददत् प्रयुञ्जान इत्यर्थः, अथवा 'हत्थालंचं दलमाणे 'ति पाठः तत्र हस्तालम्ब इव हस्तालम्बस्तं हस्तालम्बं ददद्, अशिवपुररोधादौ तत्प्रशमनार्थमभिचारकमन्त्रविद्यादि प्रयुञ्जान इत्यर्थः । पूर्वोक्तप्रायश्चित्तं प्रत्राजनादियुक्तस्य भवति, तानि चायोग्यनिरासेन योग्यानां विधेयानीति तदयोग्यान्निरूपयन् सूत्रषटुमाह
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ततो णो कप्पंति पञ्चात्तए, सं० पंढए वातिते की १, एवं मुंडावित्तए २, सिक्खावित्तए ३, उवद्वावित्तए ४, संभुंजित्तते ५, संवासित ६, ( सू २०२ )
'तओ' इत्यादि कण्ठ्यं, किन्तु 'पण्डकं' नपुंसकं तच लक्षणादिना विज्ञाय परिहर्त्तव्यं, उक्षणानि चास्य -' "महिलासहावो सरवनभेओ, मेंढं महंतं मउई य वाया । ससद्दगं मुत्तमफेणगं च, एयाणि उप्पंडगलक्खणाणि ॥ १ ॥” चि तथा वातोऽस्यास्तीति वातिकः, यदा स्वनिमित्ततोऽन्यथा वा मेहनं कपायितं भवति तदा न शक्नोति यो वेदं धारयितुं यावन्न प्रतिसेवा कृता स वातिक इति, अयं च निरुद्धवेदो नपुंसकतया परिणमति, कचित्तु 'वाहिय'त्ति पाठः, तत्र व्याधितो रोगीत्यर्थः, तथा क्लीव:- असमर्थः, स च चतुर्द्धा दृष्टिकीवशब्दक्लीवादिग्धक्लीवनिमन्त्रणक्कीबभेदात्, तत्र य
उत्कृष्टं बहु वा प्रद्विष्टचित्त सैन्यं करोति प्रदरति यः खपक्षे निरपेक्षः पोरपरिणामः ॥ १ ॥ २ महिला सभायः खरवर्णभेदः मेहनं महन्द्र च वाणी सशब्दकं मूत्रमफेनं च एतानि षट् पंडकलक्षणानि ॥ १ ॥
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३ स्थान
काध्ययने उद्देशः ४
सू० २०२
।। १६४ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२०२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२०२]
स्यानुरागतो विवस्त्राद्यवस्थं विपक्षं पश्यतो मेहनं गलति स दृष्टिक्लीवः, यस्य तु सुरतादिशब्दं शृण्वतः स द्वितीयो, यस्तु विपक्षेणावगूढो निमनितो वा व्रतं रक्षितुं न शक्नोति स आदिग्धक्कोबो निमन्त्रितक्लीवश्चेति, चतुर्विघोऽप्ययं निरोधे नपुंसकतया परिणमतीति, पातिकक्कीचयोस्तु परिज्ञानं तयोस्तन्मित्रादीनां वा कथनादेरिति, विस्तरश्चात्र कल्पादवसेयः, एते चोत्कटवेदतया प्रतपालनासहिष्णव इति न कल्पन्ते प्रवाजयितुं, प्रव्राजकस्याप्याज्ञाभङ्गेन दोषप्रसङ्गादिति, उक्तं
च-"जिणवयणे पडिकुडं जो पब्बाबेइ लोभदोसेणं । चरणडिओ तबस्सी लोवेइ तमेव उ चरितं ॥१॥” इति, इह | टू त्रयोऽप्रवाज्या उक्ताः त्रिस्थानकानुरोधाद्, अन्यथा अन्येऽपि ते सन्ति, यदाह-"बाले बुद्धे नपुंसे य, जड्डे कीवे य|
वाहिए । तेणे रायावगारी य, उम्मत्ते य अदंसणे॥१॥दासे दुढे (य) मूढे (य), अणत्ते जुंगिए श्य। ओवद्धए य भयए, | सेहनिएफेडिया इय ॥२॥ गुन्विणी बालवच्छा य, पञ्चावे न कप्पई"त्ति, अदसणो-अन्धः अणत्तो-ऋणपीडितः |
जुगिओ-जात्यहीनः ओबद्धओ-विद्यादायकादिप्रतिजागरकः सेहणिप्फेडिआ-अपहत इति, 'एच'मित्यादि, यथैते प्रवाजयितुं न कल्पन्ते एवमेत एव कथञ्चिच्छलितेन प्रत्राजिता अपि सन्तो मुण्डयितुं शिरोलोचेन न कल्पन्ते, उक्तं च -"पथ्याविओ सियत्ति, [यः स्यादित्यर्थः > मुंडावेजे अणायरणजोगो। अहवा मुंडाविन्ते दोसा अणिवारिया पुरिमा || ॥१॥” इति, एवं शिक्षयितुं-प्रत्युपेक्षणादिसामाचारी प्राहयितुं, तथा उपस्थापयितुं-महानतेषु व्यवस्थापयितुं, तथा
जिनपचने प्रतिकष्ट या प्रमाणयति लोभदोषेण । चरमस्थितस्तपखी लोपयति तदेव पारि ॥१॥ २ माली पदो नपुंसक जब लीवश्च व्यापितः । हस्तेनो राजापकारी व उन्मत्तधादर्शनः ॥ १॥ दासो दुष्टच मूडव नणात मुंगित इति अक्बद्धको भूतकः शिष्यनिष्फे टिकेति ॥ २॥ गर्भिणी बालवल्सा व प्रमाजनायितुं न कल्पते ॥३सारप्रनाजितः मुंडयितुं अनाचरणयोग्यः अथवा मुंबिते परिस्सा दोषा अनिवारिताः॥१॥
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अनुक्रम [२१६]]
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(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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सूत्रवात्तः
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सूत्रांक
॥१६५॥
सू०२०३
[२०२]
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सम्भोक्तुम्-उपध्यादिना, एवमनाभोगात् संभुक्ताश्च संवासयितुम्-आत्मसमीपे आसयितुं न कल्पन्त इति प्रक्रम इति । कथञ्चित् संवासिता अपि वाचनाया अयोग्या:-न वाचनीया इति, तानाह
काध्ययने ततो अवायणिजा पं० सं०-भविणीए विगतीपडिवद्धे अविओसितपाहुडे, तओ कष्पति पातित्तते, तं०-विणीए अचि
उद्देशः४ गतीपडिबद्धे विउसियपाहुदे । तो दुसन्नप्पा पं०२०-दुढे मूढे बुग्गाहिते, तओ सुसन्नप्पा पं० सं०-अदुढे अमूढे
अचुग्गाहिते (सू. २०३) 'तओं इत्यादि सुगम, नवरं न वाचनीयाः-सूत्र न पाठनीयाः, अत एवार्थमष्यश्रावणीयाः, सूत्रादर्थस्य गुरुत्वात्, तत्राविनीतः सूत्रार्थदातुर्वन्दनादिविनयरहितः, तद्वाचने हि दोषः, यत उक्तम्-"इहरहवि ताव थम्भइ अविणीओ शालंभिओ किमु सुएणं ? । मा णहो नासिहिई खएव खारोवसेगो उ ॥१॥गोजूहस्स पडागा सयं पलायस्स वद्धह य वेगं ।
दोसोदए य समर्ण न होइ न नियाणतुलं च ॥२॥" निदानतुल्यमेव भवतीत्यर्थः, "विणेयाहीया विजा देइ फलं इह कापरे य लोयंमि । न फलंतऽविणयगहिया सस्साणिव तोयहीणाई॥३॥" इति, तथा विकृतिप्रतिबद्धो-गृतादिरसविशेषगृद्धः अनुपधानकारीति भावः, इहापि दोष एव, यदाह-"अतेवो न होइ जोगो न य फलए इच्छियं फलं विजा।। इतरथाऽपि तावत् सानाति अविनीतो मितः किं तेन मा नश्वनाशयिष्यति सते क्षारापसेकाविव ॥१॥गोयधस्स पताका खयं पलायमानसा बयति ।
॥१६५॥ & वेग दोषोदये च शमनं न भवति न च निदानतुल्यं ॥२॥ २ बिनयाधीता विधा इह परसिाब लोके ददाति फलं न फलन्यविनषाहीताः पास्मानीव तोयही-x कानाले ॥१॥ ३ अतपो न भवति योगो न च
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अनुक्रम [२१६]]
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(०३)
प्रत सूत्रांक
[२०३]
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अनुक्रम [२१७]
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२०३] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३]
अवि फलति विलमगुणं साहणहीणा जहा विज्जा ॥ १ ॥” इति, अव्यवसितम् - अनुपशान्तं प्राभृतमिव प्राभृतं नरकपालकौशलिकं परमक्रोधो यस्य सोऽव्यवसितप्राभृतः, उक्तं च- "अंप्पेवि पारमाणिं अवराहे वयइ खामियं तं च । बहुसो उदीरयंतो अविओसियपाहुडो स खलु ॥ १ ॥” इति, 'पारमाणि' परमक्रोधसमुद्घातं व्रजतीति भावः, एतस्य वाचने इहलोकतस्त्यागोऽस्य प्रेरणायां कलहनात् प्रान्तदेवताछलनाच्च परलोकतोऽपि त्यागः, तत्र श्रुतस्य दत्तस्य निष्फलत्वात्, ऊपरक्षिप्तबीजवदिति, आह च - "देविहो उ परिचाओ इह चोयण कलह १ देवयाछलणं २ । परलोगंमि अ अकलं खित्तंपि व ऊसरे वीयं ॥ १ ॥” इति एतद्विपर्ययसूत्रं सुगमं । श्रुतदानस्यायोग्या उक्ताः, इदानीं सम्यक्स्वस्याप्ययोग्यानाह—'तओ' इत्यादि कण्ठ्यं, किन्तु दुःखेन-कृच्छ्रेण संज्ञाप्यन्ते प्रज्ञाप्यन्ते बोध्यन्त इति दुःसंज्ञाप्याः, तत्र दुष्टो - द्विष्टः तत्त्वं प्रज्ञापकं वा प्रति, स चाप्रज्ञापनीयो, द्वेषेणोपदेशाप्रतिपत्तेः, एवं मूढो-गुणदोषानभिज्ञः, व्युद्याहितः - कुप्रज्ञापकदृढीकृतविपर्यासः, सोऽप्युपदेशं न प्रतिपद्यते, उक्तं च “पुब्वं कुग्गाहिया केई, वाला पंडियमाणिणो । नेच्छंति कारणं सोउं, दीवजाए जहा गरे ॥ १ ॥” इति एतेषां स्वरूपं कल्पात् कथाकोशाच्चावसेयमिति । एतद्वि
१] फलतीच्छितं फलं विद्या विपुलमगुणं साधनहीना फलति यथा विद्या ॥ १ ॥ २ अल्पेऽपि अपराधे को विप्राभूतः सह ॥ १ ॥ ३ द्विविधस्तु परित्यागः इह चोदने कलहः देवतानं । परलोके चाफलं ऊपरे क्षेत्रे द्वाला: पंडितमानिनः । नेच्छन्ति कारणं श्रोतुं द्वीपजाता यथा नराः ॥ १ ॥ ( बुग्गाहियेति गाथावृत्तिः ).
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"स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
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व्रजति क्षामितं च बहु उदीरयति सोऽव्युबोजमिव ॥ १ ॥ ४ पूर्व कुमाहिताः केचि
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२०३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना
सूत्र
प्रत
वृत्तिः
सूत्रांक
॥१६॥
[२०३]
दीप अनुक्रम [२१७]
SUCCESS
पर्यस्तान् सुसंज्ञाप्यतयाऽऽह-तओं' इत्यादि, स्फुटमिति, उक्ताः प्रज्ञापनाहीः पुरुषाः, अधुना तत्प्रज्ञापनीयवस्तूनि ||
३ स्थानत्रिस्थानकावतारीण्याहरातो मंडलिया पव्वता पं० सं०-माणुसुत्तरे कुंडलवरे रुअगवरे (सू० २०४) ततो महतिमहालया पं० सं०
| उद्देशः ४ जंबुद्दीवे मंदरे मंदरेसु सयंभुरमणे समुद्दे समुद्देसु बंभलोए कप्पे कप्पेसु (सू० २०५)
सू०२०५ 'तओ मंडलिए त्यादि, मण्डल-चक्रवालं तदस्ति येषां ते मण्डलिकाः-प्राकारवलयवदवस्थिता मानुषेभ्यो मानुष|क्षेत्राद्वोत्तरः-परतोवती मानुषोत्तर इति, तत्स्वरूपं चेदम्-"पुक्खरवरदीवई परिखिवइ माणुमुत्तरो सेलो । पायारसरिसरूवो विभयंतो माणुसं लोग ॥१॥ सत्तरस एगवीसाइ जोयणसयाइ सो समुब्बिद्धो । चत्तारि य तीसाई मूले कोसं च ओगाढो॥२॥ दस बावीसाइ अहे विच्छिन्नो होइ जोयणसयाई । सत्त य तेवीसाई विच्छिन्नो होइ8 मामि ॥३॥ चत्तारि य चउबीसे वित्थारो होइ उवरि सेलस्स । अहाइजे दीवे दो य समुदे अणुपरीइ ॥४॥” इति । तथा-'जबूद्दीवो धार्यह पुक्खरदीवो य वारुणिवरो य । खीरवरोऽवि यदीवो घयवरदीयो 'य खोर्यवरो॥५॥1)
पुष्करवरद्वीपाई परिक्षिपति मानुषोत्तरः शैलः प्राकारसदृशरूपः विभजन् मानुष लोकं ॥ १ ॥ एकविंश अधिकसप्तदशयोजनशतानि स समुञ्चः त्रिंशद[विकचतुःशतानि कोशं चावगाढः ॥२॥ द्वाविंशवधिकदशयोजनशतानि अधो लिखीभवति अयोविंशवधिकसप्तशतानि मध्ये मिस्त्री! भवति ॥ ३ ॥ चतुर्विशत्यधिकचतुःशातानि शैलस्सोपरि विस्तारो भवति सायद्वीपान् द्वौ समुद्रावनुपाति ॥ ४ ॥ २ जंबूद्वीपो धातकी पुष्करद्वीपश्च वारुणीवरख क्षीरवरोऽपि च ॥१६६ द्वीपो घुतवरद्वीपब क्षोदवरः ॥ ५॥
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(०३)
प्रत
सूचांक
[२०५]
दीप
अनुक्रम [२१९]
[भाग-5] "स्थान" अंगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [४], मूलं [२०१]
स्थान [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
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नंदीसरो 'थे अरुणो अरुणोवओ य कुंडलवरो य । तह संखे अंग भुजेवर कुसे कुंवरो तओ दीवो ॥ ६ ॥” इति क्रमापेक्षया एकादशे कुण्डलवराख्ये द्वीपे प्राकारकुण्डलाकृतिः कुण्डलवर इति तद्रूपमिदम्"कुंडलवरस्स मज्झे णगुत्तमो होति कुण्डलो सेलो । पागारसरिसरूवो विभयंतो कुण्डलं दीवं ॥ १ ॥ बायालीससहस्से उब्बिद्धो कुंडलो हवइ सेलो एवं चेव सहस्सं धरणियलमहे समोगाढो ॥ २ ॥ दस चैव जोयणसए बावीसे वि त्थडो य मूलंमि । सत्तेव जोयणसए बावीसे वित्थडो मज्झे ॥ ३ ॥ चत्तारि जोयणसए चडवीसे वित्थडो उ सिहरतले"त्ति, तथा त्रयोदशे रुचकवराख्ये द्वीपे कुण्डलाकृती रुचक इति एतस्य त्विदं स्वरूपं - "रैयगवरस्स उमज्झे नगुत्तमो होति पब्चओ रुअगो । पागारसरिसरुवो रुअगं दीवं विभयमाणो ॥ १ ॥ रुयगस्स उ उस्सेहो चउरासीतिं भवे सहस्साईं । एवं चैव सहस्सं धरणियलमहे समोगाढो ॥ २ ॥ दस चेव सहस्सा खलु बावीसा जोयणाण बोद्धव्या । मूलंमि उ विक्खंभो साहीओ रुयगसेलस्स || ३ ||" तथा मध्यविस्तारोऽस्य सघ सहस्राणि द्वाविंशत्यधिकानि, शिरोविस्तारस्तु
१] नंदीश्वराणोऽरुणपात कुंडलवर तथा शंखः रुचकः भुजवरः कुशः कयवरच ततो द्वीपः ॥ ६ ॥ २ कुंडलवरस्य मध्ये नगोत्तमो भवति कुंडलः शैलः प्राकारसदृशरूपो विभजन् कुंडलं द्वीपं ॥ १ ॥ द्विचत्वारिंशत्सहस्राण्युद्विद्धः कुंडलो भवति शैलः अधो धरणीतले एकमेव सहस्रं समवगाढः ॥ २ ॥ दशयो जनशतानि द्वाविंशस्याधिकानि मूले विस्तृतो द्वाविंशत्यधिकसप्रयोजनशतानि मध्ये विस्तृतः ॥ ३ ॥ चतुर्विंशत्यधिक चतुर्योजनशतानि शिखरतले विस्तृतः ॥ ४ ॥ ३ रुचकवरस्य मध्ये नगोत्तमो भवति पर्वतो रुचकः प्राकारसदृशरूपः रुचर्क द्वीपं विभजन् ॥ १ ॥ रुचकस्योत्येवः चतुरशीतिर्भवेत् सहस्राणि धरणितले एकमेव सहस्रमधः समयगादः ॥ २ ॥ द्वाविंशत्यधिकदशसहस्रयोजनानि बोद्धव्यः मूळे तु विष्कम्भः साधिकः ॥ ३ ॥
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(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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दीप अनुक्रम २१९]
श्रीस्थाना- चत्वारि सहस्राणि चतुर्विशत्यधिकानीति । मानुषोत्तरादयो महान्त उक्ता इति महदधिकारादतिमहत आह-तओ३ स्थानजन्सूत्र- महईत्यादि व्यक्तं, केवलमतिमहान्तश्च ते आलयाश्च-आश्रयाः अतिमहालया महान्तश्च तेऽतिमहालयाश्चेति महाति- काध्ययने
महालयाः, अथवा लय इत्येतस्य स्वार्थिकत्वात् महातिमहान्त इत्यर्थः, द्विरुच्चारणं च महच्छब्दस्य मन्दरादीनां सर्व-का उद्देशा ४
गुरुत्वख्यापनार्थम्, अव्युसनो वाऽयमतिमहदर्थे वर्त्तत इति, "मंदरसुत्ति मेरूणां मध्ये जम्बूद्वीपकस्य सातिरेकल- सू० २०६ ॥१६७॥
क्षयोजनप्रमाणत्वाच्छेपाणां चतुर्णी सातिरेकपञ्चाशीतियोजनसहस्रप्रमाणत्वादिति, स्वयम्भूरमणो महान् सुमेरोरारभ्य तस्य शेषसर्वद्वीपसमुद्रेभ्यः समधिकप्रमाणत्वात् , तेषां तस्य च क्रमेण किश्चिन्यूनाधिकरजुपादप्रमाणत्वादिति, ब्रह्मलो|कस्तु महान् , तदेशे पञ्चरजुप्रमाणत्वात् लोकविस्तरस्य, तत्प्रमाणतया च विवक्षितत्वात् ब्रह्मलोकस्येति । अनन्तरं | ब्रह्मलोककल्प उक्त इति कल्पशब्दसाधात् कल्पस्थितिं त्रिधाऽऽह
तिविधा कप्पठिती पं०, तं-सामाइयकप्पठिती छेदोषट्ठावणियकप्पद्विती निव्विसमाणकप्पद्विती ३, अहवा तिविहा कप्पट्टिती पं० २०-णिविट्ठकप्पद्विती जिणकप्पठिती थेरकप्पठिती ३ (सू० २०६)
सूत्रद्वयं व्यक्तं, केवलं समानि-ज्ञानादीनि तेषामायो-लाभः समायः स एव सामायिक-संयमविशेषस्तस्य तदेव वा Pा कल्प:-करणमाचारः, यथोक्तम्-“सामध्ये वर्णनायां च, करणे छेदने तथा । औपम्ये चाधिवासे च, कल्पशब्दं विदु-का
INi॥१६७॥ | बुंधाः॥१॥” इति सामायिककल्पः, स च प्रथमचरमतीर्थयोः साधूनामल्पकालः, छेदोपस्थापनीयस्य सद्भावात् , मध्यतीर्थेषु महाविदेहेषु च यावत्कथिका, छेदोपस्थापनीयाभावात् , तदेवं तस्य तत्र वा स्थितिः-पर्यादा सामायिककल्प-15
कल्प-मर्यादाया: वर्णन
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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[२०६]
दीप अनुक्रम [२२०]
स्थितिः, सा च शय्यातरपिण्डपरिहारे चतुर्यामपालने पुरुषज्येष्ठत्वे बृहत्पर्यायस्येतरेण बन्दनकदाने च नियमलक्षणा शुक्प्रमाणोपेतवस्त्रापेक्षया यदचेलत्वं तत्र १ तथा आधाकम्भिकभक्ताद्यग्रहणे २ राजपिण्डाग्रहणे २ प्रतिक्रमणकरणे ४ मासकल्पकरणे ५ पर्युषणकल्पकरणे ६ चानियमलक्षणा चेति, अत्रोक्तम्-"सिजायरपिंडे या १ चाउज्जामे य २ पुरिसजेडे य २। किइकम्मस्स य करणे ४ चत्तारि अवडिया कप्पा ॥१॥ आचेलु १ कुद्दे सिय २ सपडिकमणे य ३ रायपिंडे य ४ । मासं ५ पज्जोसवणा ६ छप्पेअणवडिया कप्पा ॥२॥" तत्राचेलकत्वमेवम्-"दुविहो होइ अचेलो असंतचेलो य संतचेलो य । तत्थ असंतेहिं जिणा संताऽचेला भवे सेसा ॥१॥ सीसावेढियपोतं नइउत्तरणमि नग्गयं बेति । जुनेहिं नग्गियम्हि तुर सालिय ! देहि मे पोति ॥ २॥ जुन्नेहिं खंडिएहिं असम्वतणुयाउएहिं ण य णिच्चं । संतेहिवि णिग्गंधा अचेलया होति चेलेहिं ॥३॥” इत्यादि, तथा पूर्वपर्यायच्छेदेनोपस्थापनीयम्-आरोपणीयं छेदोपस्थापनीय, व्यक्तितो महाब्रतारोपणमित्यर्थः, तच्च प्रथमपश्चिमतीर्थयोरेवेति, शेषा व्युत्पत्तिस्तथैव, तरिस्थतिश्चोक्तलक्षणेष्वेव द|शसु स्थानकेष्ववश्यपालनलक्षणेति, तथाहि-"देसठाणठिओ कप्पो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । एसो धुयरय
सध्यातरपिंडव चतुर्यामश्च पुरुषज्येष कृतिकर्मणक्ष करणे चत्वारोऽवस्थिताः कल्पाः ॥ १॥ आचेलक्यमाद्देशिकं सप्रतिफमणव राजर्पिशन मासः पर्युYषणा पदप्येतेऽनवस्थिताः कल्पाः ॥२॥२विविधो भवत्वचेलोऽसलक्ष सचेलच तत्रासम्म जिना अचेलाः शेषाः सत्खपि चेलेषु ॥1॥ शीर्षावहितपोतं नघुत्तकारणे मार सुवन्ति जीर्णेषु नमामि शालिका वर मे पोतं देहि ॥ २ ॥ जीर्णेषु खंबितेषु जसवंतनुप्रारसेषु नच निस्सं लेषु सत्यापि गिन्या अचेलका भवन्ति SI॥३॥ दशस्थानस्थितः कल्पः पूर्वस्य पश्चिमस्य च मिनस्य एष धूतरजाः--
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कल्प-मर्यादाया: वर्णन
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आगम
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अनुक्रम [२२०]
[भाग - 5] "स्थान" अंगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [ २०६ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः
।। १६८ ।।
कंप्पो दसठाणपट्टिओ होइ ॥ १ ॥” इति, "आचेल १ कुद्देसिय २ सिज्जावर ३ रायपिंड ४ किइकम्मे ५ । वय ६ जेठ ७ पडिकमणे ८ मासं ९ पज्जोसवणकप्पे १० ॥ २ ॥” इति निर्विशमाना ये परिहारविशुद्धितपोऽनुचरन्ति परिहारिका इत्यर्थः तेषां कल्पे स्थितिर्यथा - ग्रीष्मशीतवर्षाकालेषु क्रमेण तपो जघन्यं चतुर्थषष्ठाष्टमानि मध्यमं पष्ठादीनि उत्कृष्टमष्टमादीनीति, पारणं चायाममेव, पिण्डेषणासठ के चाद्ययोरभिग्रह एव पञ्चसु पुनरेकया भक्तमेकया च पानकमित्येवं द्वयोरभिग्रह इति उक्तं च- "वारस १ दस २ अड ३ दस १ २ छ र अडेव १ छ २ चउरो य २ । उकोसमज्झिमजहन्नगा उ वासासिसिरगिम्हे ॥ १ ॥ पारणगे आयामं पंचसु गहो दोसऽभिग्गहो भिक्खे”ति, निब्र्विष्टा - आसेवितविवक्षितचारित्रा अनुपरिहारिका इत्यर्थः, तत्कल्पस्थितिर्यथा प्रतिदिनमायाममात्रं तपो भिक्षा तथैवेति, उक्तं च - "कॅप्पडियावि पइदिण करेंति एमेव चायामं "ति, एते च निर्विशमानका निर्विष्टाश्च परिहारविशुद्धिका उध्यन्ते, तेषां च नवको गणो भवति, ते च एवंविधाः-- "सैब्वे चरित्तवंतो उ, दंसणे परिनिडिया । नवपुब्विया जहनेणं, उकोसा दसपुब्विया ॥ १ ॥ पंचविहे ववहारे, कप्पंमि दुविहंमि य । दसविहे य पच्छिते, सच्चे ते परिनिडिया ॥ २ ॥
-
१ कल्पः दशस्थानप्रतिष्ठितो भवति ॥ १ ॥ २ गाचेलक्यमौदेशिकं राज्यातरपिंडः राजपिंडः कृतिकर्म प्रतानि ज्येष्ठः प्रतिक्रमणं मासः पर्युषणाकल्पः ॥ १ ॥ ३ द्वादशमं दशमं अष्टमं दशमं अष्टमं पर्छ । अष्टमं षष्ठं चतुर्थेोत्कृष्टमध्यम जघन्यतो वर्षा शिशिरमेषु ॥ १ ॥ पारपके भावानाम् पंचसु ग्रहो यो रमित्रहो मिक्षायां ॥ ४ कल्पस्थिता अपि प्रतिदिनमेवमेवाचाम्लं कुर्वन्ति ॥ ५ सर्वे चारित्रवन्त एव दर्शने परिनिष्ठिताः जपन्येन नवपूर्विष उत्कृष्टतो दशपूर्विणः ॥ पंचविधे व्यवहारे द्विविधे कल्पे च दशविधे च प्रायविते सर्व एते परिनिष्ठिताः ॥ २ ॥
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कल्प मर्यादायाः वर्णनं
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स्थानकाध्ययने
उद्देशः ४ सू० २०६
।। १६८ ।।
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२०६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२०६]
दीप अनुक्रम [२२०]
इत्यादि, जिना-गच्छनिर्गतसाधुविशेषास्तेषां कल्पस्थितिर्जिनकल्पस्थितिः, सा चैवम्-जिनकल्प हि प्रतिपद्यते जघन्यतोऽपि नवमपूर्वस्य तृतीयवस्तुनि सति उत्कृष्टतस्तु दशसु भिन्नेषु प्रथमे संहनने, दिव्याद्युपसर्ग रोगवेदनाश्चासौ सहते, एकाक्येव भवति, दशगुणोपेतस्थण्डिल एवोच्चारादि जीर्णवस्त्राणि च त्यजति, वसतिः सर्वोपाधिविशुद्धास्य, भिक्षाचर्या तृतीयपौरुष्या, पिण्डैषणोत्तरासां पञ्चानामेकतरैव, विहारो मासकल्पेन, तस्यामेव वीथ्यां षष्ठदिने भिक्षाटनमिति, एवंप्रकारा चेयं 'सुयसंघयणे'त्यादिकाद् गाथासमूहात् कल्पोक्तादवगन्तव्येति, भणितं च-"गच्छमि य निम्माया धीरा जाहे य गहियपरमत्था । अग्गहि जोग अभिग्गहि, उति जिणकप्पियचरितं ॥१॥" अग्रहे आधयोरभिग्रहे-पञ्चानां पिण्डै|पणानां द्वयोर्योगे-द्वयोर्मध्ये एकतरस्या गृहीतपरमार्थाः, “धिईबलिया तवसूरा निंती गच्छाउ ते पुरिससीहा। बलवीरियसं-151 घयणा उवसम्गसहा अभीरुया ॥१॥" इति, स्थविरा:-आचार्यादयो गच्छप्रतिबद्धास्तेषां कल्पस्थितिः स्थविरकल्प-ICI स्थितिः, सा च "पैवजा सिक्खायमधंगहणं च अनियओ वासो । निष्फत्ती य विहारो सामायारी ठिई चेव ॥१॥"
इत्यादिकेति, इह च सामायिके सति छेदोपस्थापनीयं तत्र च परिहारविशुद्धिकभेदरूपं निचिशमानक तदनन्तरं निर्विष्टकासायिकं तदनन्तरं जिनकल्पः स्थविरकल्पो वा भवतीति सामायिककल्पस्थित्यादिकः सूत्रयोः क्रमोपन्यास इति । उक्तकल्पस्थितिव्यतिक्रामिणो नारकादिशरीरिणो भवन्तीति तच्छरीरनिरूपणायाह
- १ गच्छे च निर्माता धीरा यदा गृहीतपरमार्थाः समायाभिग्रहयोगे चोपचंति जिनकल्पिकचरित्रं ॥१॥२ भूतिबलिकाः तपःशूरास्ते पुरुषसिंहा गच्छामिर्गच्छवि बलवीर्यचंदननयुता उपत्सबर्गसहा अभीरवः ॥१॥३प्रत्रज्या शिक्षा नतानि अर्थप्रहर्णवानियतोवासः शिष्याणां निष्पत्तिव बिहार: सामाचारी स्थितिष ॥१॥
कल्प-मर्यादाया: वर्णन
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२०७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थानाझसूत्रवृत्तिः
सूत्रांक
[२०७]
॥१६९॥
दीप
नेरइयाणं ततो सरीरगा पं००-वेउन्विते तेयए कम्मए, असुरकुमाराणं ततो सरीरगा पं००-एवं चेव, एवं
३ स्थानसम्बेसि देवाणं, पुढविकाइयाणं ततो सरीरंगा पं० त०-ओरालिते तेयए कम्मते, एवं वाउकाइयवजाणं जाव चरि
काध्ययने दियाण (सू० २०७) गुरुं पडुच ततो पडिणीता पं० त०-आयरियपडिणीते उवज्झायपडिणीते थैरपतिणीते १, गति उद्देशः४ पडुन ततो पडिणीया पं० त०-इहलोगपडिणीए परलोगपडिणीए दुहभो लोगपडिणीए २, समूह पदुच ततो पति
प्रत्यनीकाः णीता पं० सं०-कुलपडिणीए गणपतिणीए संघपडिणीते ३, अणुकंपं पडुश्च ततो पडिणीया पं० २०-तवस्सिपडि
सू०२०७जीए गिलाणपडिणीए सेहपडिणीए ४, भावं पडुच्च ततो पडिणीता पं० तं०-णाणपडिणीए दसणपडिणीए परित्तप
२०८ दिणीए ५, सुर्य पहुच ततो पडिणीता पं० २०-सुत्तपरिणीते अत्थपडिणीते तदुभयपडिणीए ६ (सू० २०८) निरहयाणमित्यादि, दण्डकः कण्ठया, किन्तु एवं सब्वदेवाणं ति यथा असुराणां त्रीणि शरीराणि एवं नाग-I४ कुमारादिभवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानाम् , एवं 'वाउकाइयवज्जाणं'ति, वायूनां हि आहारकवर्जानि च-18 त्वारि शरीराणीति तर्जनमेवं पवेन्द्रियतिरश्चामपि चत्वारि मनुष्याणां तु पश्चापीति त इह न दर्शिताः । कल्पस्थिति-IN व्यतिकामिणश्च प्रत्यनीका अपि भवन्तीति तानाह-गुरुमित्यादि सूत्राणि पद् व्यक्तानि, किन्तु गृणाति-अभिधत्ते| तत्त्वमिति गुरुस्तं प्रतीत्य-आश्रित्य प्रत्यनीका:-प्रतिकूलाः, स्थविरो जात्यादिभिः, एतत्प्रत्यनीकता चैवम्-"जच्चाईहि अवलं विभासद बट्टा नयावि उववाए । अहिओ छिद्दप्पेही पगासवादी अणणुलोमो ॥१॥" अहवावि वए एवं
१ जावादिभिरवर्ग विभाषते नोपपातेऽपि वर्तते अहितः छिरप्रेक्षी प्रकटवादी अननुलोमः ॥ १॥ २ अथवाऽपि वदेदेवं
अनुक्रम २२१]
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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प्रत
सूत्रांक
[२०८]
दीप अनुक्रम રિરર
उवएस परस्स देति एवं तु । दसविवेयावच्चे कायञ्च सयं न कुवंति ॥२॥” इति, गतिः-मानुषत्वादिका तत्रेह|लोकस्य-प्रत्यक्षस्थ मानुषत्वलक्षणपर्यायस्य प्रत्यनीक इन्द्रियार्थप्रतिकूलकारित्वात् पञ्चाग्नितपस्विवदिहलोकप्रत्यनीकः, परलोको-जन्मान्तरं तत्प्रत्यनीकः इन्द्रियार्थतत्परो, द्विधालोकप्रत्यनीकश्चौर्यादिभिरिन्द्रियार्थसाधनपरः, यद्वा इहलोकप्रत्यनीक इहलोकोपकारिणां भोगसाधनादीनामुपद्रवकारीहलोकप्रत्यनीकः, एवं ज्ञानादीनामुपद्रवकारी परलोक-13 प्रत्यनीका, उभयेषां तु द्विधालोकप्रत्यनीक इति, अथवेहलोको-मनुष्यलोकः परलोको-नारकादिरुभयमेतदेव द्वितयं, प्रत्यनीकता तु तद्वितथप्ररूपणेति, कुलं चान्द्रादिकं तत्समूहो गणः कोटिकादिस्तत्समूहः सह इति, प्रत्यनीकता| चैतेषां अवर्णवादादिभिरिति, कुलादिलक्षणं चेदम्-'एत्थ कुलं विन्नेयं एगायरियस्स संतई जा उ । तिण्ह कुलाण मिहो पुण सावेक्खाणं गणो होइ ॥१॥ सव्वोऽवि नाणदसणचरणगुणविभूसियाण समणाणं । समुदायो पुण संघो गुणसमुदाओत्तिकाऊणं ॥२॥' अनुकम्पाम्-उपष्टम्भं प्रतीत्य-आश्रित्य तपस्वी-क्षपका, ग्लानो-रोगादिभिरसमर्थः, शैक्षः-अभिनवप्रवजितः, एते ह्यनुकम्पनीया भवन्ति, तदकरणाकारणाभ्यां च प्रत्यनीकतेति, भावः-पर्याय:, सच जीवाजीवगतः, तब जीवस्य प्रशस्तो प्रशस्तश्च, तत्र प्रशस्तः क्षायिकादिः, अप्रशस्तो विवक्षयौदयिका, क्षायिकादिश्चर ज्ञानादिरूपः, ततो भाव-ज्ञानादि प्रतीत्य प्रत्यनीकस्तेषां वितथप्ररूपणतो दूषणतो वा, यथा-"पाययसुत्तनिवद्धं को
१परस्त्रोपदेश ददति एवमेव दशविध यावत्यं कर्तव्यं परं सर्व न कुर्वन्ति ॥ २ ॥ ९ अत्र कुलं विझे यगेकाचार्य स्व या तु संततिः। त्रयाणां कुलानां मिथः सापेक्षाणां गणो भवति ॥१॥ सर्वोऽपि ज्ञानदर्शनधरणगुणविभूषितानां श्रमणानां । समुदायः पुनः संघः गुणसमुदाय इतिकृत्वा ॥२॥ ३ प्राकृतभाषानिबद्धमेतकुतं को
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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सूत्रांक
२०८]
दीप अनुक्रम રિરર
श्रीस्थाना
वो जाणइ पणीय केणेयं । किं वा चरणेणं तू दाणेण विणा उकिं हवा ॥१॥” इति, सूत्र-व्याख्येयमर्थः-तद्दा स्थानसूत्र- व्याख्यानं नियुक्त्यादिस्तदुभयं-द्वितयमिति तत्पत्यनीकता-"काया वया य ते चिय ते चेव पमाय अप्पमाया या
काध्ययने वृत्तिः मोक्खाहिगारियाणं जोइसजोणीहि किं कजं ॥१॥" इत्यादिदूषणोद्भावनमिति । उक्ता कल्पस्थितिर्गर्भजमनुजाना-18 उद्देशः४ दामेव तच्छरीरं च मातापितृहेतुकमिति तयोस्तदङ्गेषु हेतुत्वे विभागमाह
मातापि॥१७०॥
ततो पितियंगा पं० सं०-अट्ठी अद्विमिंजा केसमंसुरोमनहे । तओ माउयंगा पं० त०-मंसे सोणिते मत्थुलिंगे अङ्गानि (सू०२०९)
सू० २०९ सूत्रद्वयं कण्ठ्यं, केवलं पितुः-जनकस्याङ्गानि-अवयवाः पित्रङ्गानि प्रायः शुक्रपरिणतिरूपाणीत्यर्थः, अस्थि प्रतीतं १] अस्थिमिजा-अस्थिमध्यरसः २ केशाश्च-शिरोजाः श्मश्नु च-कूर्चः रोमाणि च-कक्षादिजातानि नखाश्च-प्रतीताः केशश्मश्रुरोमनखमित्येकमेव प्रायः समानत्वादिति । मात्रङ्गानि आर्त्तवपरिणतिप्रायाणीत्यर्थः, मांसं प्रतीतं, शोणित-रक्त, मस्तुलिङ्ग-शेष मेदाफिफिसादि, कपालमध्यवर्ति भेजकमित्येके । पूर्वोक्कस्थविरकल्पस्थितिप्रतिपन्नस्य विशिष्ट-IGH निर्जराकारणान्यभिधातुमाह
तिहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे महानिबरे महापज्जवसाणे भवति, तं-कया णं अई अप्पं वा बहुयं का सुर्य अहि जि
१वा जानाति केनेदं प्रणीतं ! । किंचा दानेन विना चारित्रेण भवति इति ॥1॥२काया प्रतानि च तान्येव प्रमादा अप्रमादाध त एन । मोक्षा- R ॥१७॥ विकारिणां ज्योतियोनिभिः किं कार्यम् ॥२॥
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२१०]
दीप अनुक्रम [२२४]
स्सामि, फया णमहमेकल्लविहारपडिम उपसंपज्जिता गं विहरिस्सामि, कया पमहमपच्छिममारणंतितसंलेहणालसणासूसिते भत्तपाणपडियाइक्खिते पाओवगते कालं अणवकखमाणे विहरिस्सामि, एवं स मणसा स पयसा स कायसा पागडेमाणे (पहारेमाणे) निग्गथे महानिजरे महापजवसाणे भवति । तिहिं ठाणेहिं समणोवासते महानिजरे महापजवसाणे भवति, तं०-कया णमहमप्पं वा बहुयं वा परिग्गहं परिचइस्सामि १ कया णं अहं मुंडे भवित्ता आगारातो अणगारितं पब्वइस्सामि २ कया णं अहं अपच्छिममारणंतियसलेहणालसणामसिते भत्तपाणपडियातिरसते पाओवगते कालं अणवकंखमाणे विद्दरिस्सामि ३, एवं स मणसा स वयसा स कायसा पागडेमाणे [जागरमाणे ] समणोवासते महानिजरे महापजबसाणे भवति (सू०२१०) 'तिहीं'त्यादि सुगम, नवरं महती निर्जरा-कर्मक्षपणा यस्य स तथा महत्-प्रशस्तमात्यन्तिकं वा पर्यवसानं-पर्यन्त समाधिमरणतोऽपुनर्मरणतो वा जीवितस्य यस्य स तथा, अत्यन्तं शुभाशयत्वादिति, 'एवं समणस'त्ति एवमुक्तलक्षणं त्रयं, स इति-साधुः 'मणस'त्ति मनसा इस्वत्वं प्राकृतत्वात्, एवं स वयसत्ति वचसा स 'कायसत्ति कायेने| त्यर्थः, सकारागमः प्राकृतत्वादेव, विभिरपि करणैरित्यर्थः, अथवा स्वमनसेत्यादि, प्रधारयन्-पर्यालोचयन कचित्तु | पागडेमाणेत्ति पाठस्तत्र प्रकटयन् व्यक्तीकुर्वन्नित्यर्थः । यथा श्रमणस्य तथा श्रमणोपासकस्यापि श्रीणि निर्जेरादिकारणानीति दर्शयन्नाह-'तिही'त्यादि, कण्ठ्यं । अनन्तरं कर्मनिर्जरोक्का, सा च पुनलपरिणामविशेषरूपेतिपुद्गलपरिणामविशेषमभिधातुमाह
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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RA
प्रपत्र
सूत्रांक
२११]
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दीप अनुक्रम [२२५]
श्रीस्थानातिविहे पोग्गलपडिधाते, पं० सं०-परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलं पप्प पडिह निजा लुक्सत्ताते या पविहणिजा
३ स्थानलोगते वा पडिहमिजा (सू० २११) तिविहे, चक्खू पं० तं—एगचक्खू विचक्यू तिचक्खू, छतमस्थे ण मणुस्से
काध्ययने एगचक्खू देवे विचक्र, सहारूचे समणे वा माहणे वा उप्पन्ननाणदसणधरे से णं तिचक्पत्ति वत्तव्यं सिता (सू० २१२) उद्देशः४ तिविधे अभिसमागमे पं००-उर्दू अई तिरिय, जया णं तहारूवस्स समणस्स वा माणस्स वा अतिसेसे नाण
श्रमणश्रादसणे समुपजति से गं तप्पढमताते उडुममिसमेति ततो तिरितं ततो पच्छा अहे, अहोलोगे ण दुरभिगमे पन्नत्ते वकमनोसमणाउसो ! (सू० २१३)
रथाः 'तिविहे' इत्यादि, पुद्गलानाम्-अण्वादीनां प्रतिघातो-गतिस्खलनं पुद्गलप्रतिघातः, परमाणुश्चासौ पुद्गलश्च परमाणु-लासू०२१० MIपुद्गलः स तदन्तरं प्राप्य प्रतिहन्येत-गतेः प्रतिघातमापयेत, रूक्षतया वा तथाविधपरिणामान्तरात् गतितः प्रति-12
२११ हन्येत, लोकान्ते वा, परतो धर्मास्तिकायाभावादिति । पुद्गलप्रतिघातं च सचक्षुरेव जानातीति तन्निरूपणायाह'तिविहे'इत्यादि, प्रायः कण्ठयं, चक्षुः-लोचनं तद् द्रव्यतोऽक्षि भावतो ज्ञानं तद्यस्यास्ति स तद्योगाच्चक्षुरेव, चक्षुष्मा-जापू०२.
सू०२१२
२१३ & नित्यर्थः, स च त्रिविधः-चक्षुःसङ्ख्याभेदात्, तत्रैकं चक्षुरस्खेत्येकचक्षुरेवमितरावपि, छादयतीति छद्म-ज्ञानावरणादि
तत्र तिष्ठतीति छास्थः, स च यद्यप्यनुत्पन्नकेवलज्ञानः सर्व एवोच्यते तथापीहातिशयवत्भुतज्ञानादिवर्जितो विवक्षित इति एकचक्षुः चक्षुरिन्द्रियापेक्षया, देवो द्विचक्षुः चक्षुरिन्द्रियावधिभ्याम्, उत्पन्नमावरणक्षयोपशमेन ज्ञानं च-श्रुता-11॥१७१ ॥ वधिरूपं दर्शनं च-अवधिदर्शनरूपं यो धारयति-बहति स तथा य एवंभूतः स त्रिचक्षुः, चक्षुरिन्द्रियपरमश्रुतावधिभि
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[२१३]
दीप
अनुक्रम [२२७]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२१३]
पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०३] अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
रिति वक्तव्यं स्थात्, स हि साक्षादिवावलोकयति हेयोपादेयानि समस्तवस्तूनि, केवली विह न व्याख्यातः, केवल| ज्ञानदर्शनलक्षणचक्षुर्द्वय कल्पनासम्भवेऽपि चक्षुरिन्द्रियलक्षणचक्षुप उपयोगाभावेनासत्कल्पतया तस्य चक्षुखयं न विद्यत इतिकृत्वेति द्रव्येन्द्रियापेक्षया तु सोऽपि न विरुध्यत इति । चक्षुष्माननन्तरमुक्तः, तस्य चाभिसमागमो भवतीति तं दिग्भेदेन विभजयन्नाह - 'तिविहे' इत्यादि, अभीत्यर्थाभिमुख्येन न तु विपयोंसरूपतया समिति - सम्यकू न संशयतया तथा आ-मर्यादया गमनमभिसमागमो वस्तुपरिच्छेदः । इहैव ज्ञानभेदमाह - 'जया ण'मित्यादि, 'अइ| सेस'ति शेषाणि छद्मस्थज्ञानान्यतिक्रान्तमतिशेषं ज्ञानदर्शनं तच्च परमावधिरूपमिति संभाव्यते, केवलस्य न क्रमेणो|पयोगो येन तत्प्रथमतयेत्यादि सूत्रमनवद्यं स्यादिति, तस्य-ज्ञानादेरुत्पादस्य प्रथमता तत्प्रथमता तस्यां 'उहृति' ऊर्ध्व| लोकमभिसमेति-समवगच्छति जानाति ततस्तिर्यगिति तिर्यग्लोकं ततस्तृतीये स्थानेऽध इत्यधोलोकमभिसमेति, एवं च सामर्थ्यात् प्राप्तमधोलोको दुरभिगमः क्रमेण पर्यन्ताधिगम्यत्वादिति, हे श्रमणायुष्मन्निति शिष्यामन्त्रणमिति | अनन्तरमभिसमागम उक्तः, स च ज्ञानं तचद्धिं रिहव वक्ष्यमाणत्वादिति ऋद्धिसाधर्म्यात् तद्भेदानाह
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तिविधा इट्टी पं० [सं० देविट्टी राइडी गणिट्टी १, देविट्टी तिविहा पं० तं० विमाणिट्टी बिगुब्वणिट्टी परिवारणिड्डी २, पं० तं० नो अतियाणिडी रन्नो निजसचित्ता अचित्ता भीसिता ५, गणिड़ी तिविहा सचित्ता अचित्ता मीसिया ७, (सू० २१४)
अहवा देविड्डी तिबिहा पं० तं० सचित्ता अचित्ता मीसिता ३, राइट्टी तिविधा जिड़ी रण्णो वलवाणकोसकोट्ठागारिडी ४, अहवा राविडी तिविहा पं० तं० पं० [सं० णाणिड़ी दंसणिट्टी चरित्तिड्डी, अह्वा गणिट्टी तिविहा पं० तं०
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
२१४]
दीप अनुक्रम [૨૨૮]
श्रीस्थाना- 'तिविहा इड्डी इत्यादि, सूत्राणि सप्त सुगमानि, नवरं देवस्य-इन्द्रादेद्धिः ऐश्वर्य देवर्द्धिरेवं राज्ञः-चक्रवर्त्यादेर्ग- ३ स्थान
8णिनो-गणाधिपतेराचार्यस्येति १ । विमानानां विमानलक्षणा वा ऋद्धिः-समृद्धिः, द्वात्रिंशलक्षादिकं बाहुल्यं महत्त्वं रत्ना-18 काध्ययने वृत्तिः kilदिरमणीयत्वं चेति विमानर्द्धिः, भवति च द्वाविंशलक्षादिक सौधर्मादिषु विमानबाहुल्यम्, यथोक्तम्- बत्तीस अड-1|| उद्देशः ४
18| देवराजवीसा पारस अह चउरो सयसहस्सा । आरेण बंभलोगा विमाणसंखा भवे एसा ॥ १॥ पंचास चत्त छच्चेव सहस्सा ॥१७२ ॥ लंतसुक्कसहसारे । सयचउरो आणयपाणएसु तिन्नारणबुयए ॥२॥ एक्कारसुत्तर हेडिमेसु सत्तुत्तरं च मज्झिमए ।
गणिऋद्धिा ९ सयमेगं उवरिमए पंचेव अणुत्तरविमाणा ॥३॥” इति, उपलक्षणं चैतत् भवननगराणामिति, वैक्रियकरणलक्षणा सू०२१४
ऋद्धिक्रियर्द्धिः, वैक्रियशरीरहिं जम्बूदीपद्वयमसङ्ख्यातान् वा द्वीपसमुद्रान पूरयन्तीति, उक्तं च भगवत्याम्-"चमेरे ४ाणं भंते ! केमहिड्डिए जाव केवतियं च णं पभू विउवित्तए १, गोयमा ! चमरे णं जाव पभू णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवंद्र है वहहिं असुरकुमारेहिं देवेहि य देवीहि य आइन्नं जाव करेत्तए, अदुत्तरं च णं गोयमा! पभू चमरे जाव तिरियमPा संखेजे दीवसमुदे बहूहिं असुरकुमारेहिं आइन्ने जाव करित्तए, एस णं गोयमा ! चमरस्स ३ अयमेयारूवे विसयमेत्ते
द्वात्रिंशदष्टाविशतिद्वादशाट च चत्वारि शतसहस्राणि । आराब्रह्मलोकात् विमानसंख्यया भवेत् ॥ १॥ पंचायञ्चत्वारिंशत् षट् सहमाथि लान्तकशुकराहनारेषु दाबलारि शतान्यानतप्राणतयोखीण्यारणाश्युतयो। ॥२॥ अवतने एकादशाधिकं मध्यमे सप्तोत्तर शतं उपरिखने एक पातं अनुत्तरविमानानि पंचेच ॥ ३॥ १ चमरो भाभदन्त ! कीशो महर्दिको यावस्कियद्विवयितुं प्रभुः गीतम! चमरो यावत्समर्थः केवळकल्प ही पहुभिरखरकुमारनिकायः देवः देवीमिव आकीर्ण यावद
॥१७२॥ कर्नु, अथ ब गौतम! प्रभुषमरो बावत्तिर्वयसंख्येबद्वीपसमुहान बहुभिरमुरकुमारनिकायराशीन यावाकां. एष गौतम ! चमरस एतादृशखरूपः विषयमात्र उकः
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(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
२१४]
दीप अनुक्रम [૨૨૮]
|बुइए, नो चेव णं संपत्तीए विउब्बिसु ३, एवं सक्केऽवि दो केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीये जाव आइने करेज"त्ति, परिचारणा-कामासेवा तदृद्धिः अन्यान् देवानन्यसत्का देवीः स्वकीया देवीरभियुज्यात्मानं च विकृत्य परिचारयतीत्येवमुक्तलक्षणेति २। सचित्ता-स्वशरीराममहिष्यादिसचेतनवस्तुसम्पत् अचेतना-वस्खाभरणादिविषया मिश्रा-अलङ्कृतदेव्यादिरूपा । अतियानं-नगरप्रवेशः, तत्र ऋद्धि-तोरणहट्टशोभाजनसम्मद्दादिलक्षणा निर्यान-नगरान्निर्गमः तत्र | ऋद्धिः-हस्तिकल्पनसामन्तपरिवारादिका बलं-चतुरज चाहनानि-वेगसरादीनि कोशो-भाण्डागारं कोष्ठा-धान्यभाजनानि तेषामगारं-गेहं कोष्ठागारं धान्यगृहमित्यर्थः तेषां तान्येव वा ऋद्धि- सा तथा ४ । सचित्तादिका पूर्ववद् भावनीयेति ५। ज्ञानद्धिर्विशिष्टश्रुतसम्पत् , दर्शनर्द्धि-प्रवचने निःशवितादित्वं प्रवचनप्रभावकशाखसम्पद्धा चारिबर्द्धिनिरतिचारता । सचित्ता शिष्यादिका अचित्ता वस्त्रादिका मिश्रा तथैवेति । इह च विकुर्वणादिजियोऽन्येषा-1 मपि भवन्ति, केवलं देवादीनां विशेषवत्यस्ता इति तेषामेवोका इति । ऋद्धिसद्भावे च गौरवं भवतीति त दानाह
ततो गारवा पं० सं०-डीगारवे रसगारवे सातागारवे (सू० २१५) तिविधे करणे पं० सं०-धम्मिते करणे अधम्मिए करणे धम्मिताधम्मिए करणे (सू० २१६)तिविहे भगवता धम्मे पं००-मुअधिज्झिते सुज्झातिते सुतवस्सिते, जया मुअधिज्झितं भवति तदा सुज्झातियं भवति जया सुज्झातियं भवति तदा सुतवस्सियं भवति,
से सुअधिज्जिाते सुजातिते सुतवस्सिते सुतक्खाते णं भगवता धम्मे पण्णत्ते (सू० २१७) १न चैव संपल्या व्यकार्षात् विकरोति विकरिष्यति । एवं शकोऽपि झौ केवलकापी जंबूद्वीपी द्वीपी आकीणों यावर तात् ।।
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(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना
प्रत
सूत्रांक
लसूत्रवृत्तिः
२१७]
'तओ गारवेत्यादि व्यक्तं, परं गुरोर्भावः कर्म वेति गौरव, तच्च द्वेधा-द्रव्यतो बज्रादेर्भावतोऽभिमानलोभलक्षणा- ३ स्थानशुभभाववत आत्मनः, तत्र भावगौरवं विधा, तत्र ऋड्या-नरेन्द्रादिपूजालक्षणया आचार्यत्वादिलक्षणया वा अभि- लाकाध्ययने मानादिद्वारेण गौरवं ऋद्धिगौरवं, ऋद्धिप्रात्यभिमानाप्राप्तप्रार्थनाद्वारेणात्मनोऽशुभभावो भावगौरवमित्यर्थः, एवमन्य- | उद्देशः४
वापि, नवरं रसो-रसनेन्द्रियाओं मधुरादिः सात-सुखमिति, अथवा ऋयादिषु गौरवमादर इति । अनन्तरं चारित्र- सू०२१५४ार्द्धिरुक्ता, चारित्रं च करणमिति त दानाह-'तिविहे इत्यादि, कृतिः करणमनुष्ठानं, तच धाम्मिकादिस्वामिभेदेन २१६त्रिविधं, तत्र धाम्मिकस्य-संयतस्येदं धार्मिकमेवमितरे, नवरमधार्मिकः-असंयतस्तृतीयो देशसंयता, अथवा धर्मे २१७ भवं धर्मो वा प्रयोजनमस्येति धार्मिक, विपर्यस्तमितरत् , एवं तृतीयमपीति । धार्मिककरणमनन्तरमुक्तं, तच्च धर्म एवेति तनेदानाह-तिविहे'इत्यादि सष्टं, केवलं भगवता महावीरेणेत्येवं जगाद सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं प्रतीति, सुष्टु-कालविनयाचाराधनेनाधीतं-गुरुसकाशात् सूत्रतः पठितं स्वधीतं, तथा सुष्टु-विधिना तत एव व्याख्यानेनार्थतः श्रुत्वा ध्यातम्-अनुप्रेक्षित, श्रुतमिति गम्यं सुध्यातम्, अनुप्रेक्षणाऽभावे तत्वानवगमेनाध्ययनश्रवणयोः प्रायोऽकृतार्थत्वादिति, अनेन भेदद्वयेन श्रुतधर्म उक्तः, तथा सुषु-इहलोकाद्याशंसारहितत्वेन तपस्थितं-तपस्यानुष्ठान, सुतपस्थितमिति च चारित्रधर्म उक्त इति, त्रयाणामप्येषामुत्तरोत्तरतोऽविनाभावं दर्शयति-'जया इत्यादि व्यक्तं, परं निर्दोषा-13 ध्ययनं विना श्रुतार्थाप्रतीतेः सुध्यातं न भवति तदभावे ज्ञानविकलतया सुतपस्थितं न भवतीति भावः, यदेतत्-स्वधीतादित्रयं भगवता वर्द्धमानस्वामिना धर्मः प्रज्ञप्तः 'सेति स स्वाख्यातः-सुक्तः सम्यग्ज्ञानक्रियारूपत्वात् , तयोश्चैका
हकहकर
दीप अनुक्रम [२३१]
॥१७
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२१७]
दीप अनुक्रम [२३१]
न्तिकात्यन्तिकसुखावन्ध्योपायत्वेन निरुपचरितधर्मत्वात् , सुगतिधारणाद्धि धर्म इति, उक्तं च-"नाणं पयासयं सोहओ तवो संजमो य गुत्तिकरो। तिण्हंपि समाओगे मोक्खो जिणसासणे भणिओ ॥१॥" इति, [ज्ञानं प्रकाशक शोधक तपः संयमस्तु गुप्तिकरः । त्रयाणामपि समायोगो मोक्षो जिनशासने भणितः॥१॥] णमिति वाक्यालङ्कारे । सुतपस्थि-| तमिति चारित्रमुक्तं, तञ्च प्राणातिपातादिविनिवृत्तिस्वरूपमिति तस्या भेदानाह
तिविधा वावती पं० सं०-जाणू अजाणू वितिगिच्छा, एवमझोववज्जणा परियावजणा (सू० २१८) तिविधे अंते पं००लोगते यंते समयंते (सू०२१९) ततो जिणा पं० -ओहिणाणजिणे मणपजवणाणजिणे केवलणाणजिणे १, ततो फेवली पं० ०-ओहिनाणकेवली मणपजवनाणकेवली केवळनाणकेवली २, तो अरहा, पं० २०-ओहिनाणभरहा मणपजवनाणअरहा केवलनाणभरहा ३ (सू० २२०) 'तिचिहे'त्यादि, व्यावर्तनं व्यावृत्तिः, कुतोऽपि हिंसाद्यवधेर्निवृत्तिरित्यर्थः, सा च या ज्ञस्य-हिंसादेहेतुस्वरूपफलविदुषो ज्ञानपूर्विका व्यावृत्तिः, सा तदभेदात् जाणुत्ति गदिता, या त्वज्ञस्याज्ञानात् सा अजाणू इत्यभिहिता, या तु विचिकित्सातः-संशयात् सा निमित्तनिमित्तिनोरभेदाद्विचिकित्सेत्यभिहिता । व्यावृत्तिरित्यनेनानन्तरं चारित्रमुक्त तद्विपक्षश्चाशुभाध्यवसायानुष्ठाने इति तयोरधुना भेदानतिदेशत आह-एवं'मित्यादि सूत्रे, 'एवं'मिति व्यावृत्तिरिव | त्रिधा 'अज्झोववज्जण'त्ति अध्युपपादनं कचिदिन्द्रियार्थे अध्युपपत्तिरभिष्वङ्ग इत्यर्थः तत्र जानतो विषयजन्यमन)
wwwwjanmalay
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना-
प्रत
सूत्रांक
[२२०]
॥१७४॥
दीप अनुक्रम [२३४]
या तत्राध्युपपत्तिः सा जाणू या त्वजानतः सा अजाणू या तु संशयवतः सा विचिकित्सेति, 'परियावजण'त्ति पर्यापदनं पर्यापत्तिरासेवेतियावत् , साऽप्येवमेवेति । 'जाणु'त्ति ज्ञः, स च ज्ञानात् स्यादित्युक्तं, ज्ञानं चातीन्द्रियार्थेषुकाध्ययने प्रायः शास्त्रादिति शास्त्रभेदेन तझेदानाह-तिविहे अंते'इत्यादि, अमनमधिगमनमन्तः-परिच्छेदः, तत्र लोको-लो-13 उद्देशः४ कशास्त्रं तत्कृतत्वात् तदध्येयत्वाचार्थशास्त्रादिः तस्मादन्तो-निर्णयस्तस्य वा परमरहस्य पर्यन्तो वेति लोकान्तः, एव- सू०२१८मितरावपि, नवरं वेदा ऋगादयः ४ समया जैनादिसिद्धान्ता इति । अनन्तरं समयान्त उक्तः, समयश्च जिनकेवल्य- २१९ इच्छब्दवाच्यैरुतः सम्यग्भवतीति जिनादिशब्दवाच्यभेदानभिधातुं त्रिसूत्रीमाह-'तओ जिणे'त्यादि, सुगमा, नवर| अवधिरागद्वेषमोहान् जयन्तीति जिनाः-सर्वज्ञाः, उक्तं च-"रागो द्वेषस्तथा मोहो, जितो येन जिनो ह्यसौ । अस्त्रीशस्त्रा
जिनाद्याः क्षमालत्वादहनेवानुमीयते ॥१॥” इति, तथा जिना इव ये वर्तन्ते निश्चयप्रत्यक्षज्ञानतया तेऽपि जिनास्तत्रावधिज्ञान
सू०२२० प्रधानो जिनोऽवधिजिनः एवमितरावपि, नवरमाथावुपचरितावितरो निरुपचारः, उपचारकारणं तु प्रत्यक्षज्ञानिस्वमिति, केवलम्-एकमनन्तं पूर्ण वा ज्ञानादि येषामस्ति से केवलिनः, उक्तं च-"कसिणं केवलकप्पं लोग जाणंति तह य पासंति । केवलचरित्तणाणी तम्हा ते केवली होति ॥१॥” इति, इहापि जिनवद् व्याख्या, अर्हन्ति देवादिकृतां पूजामित्यर्हेन्तः, अथवा नास्ति रहा-प्रच्छन्ने किञ्चिदपि येषां प्रत्यक्षज्ञानिवाते अरहसा, शेष प्राग्वत् । एते च सलेश्या अपि भवन्तीति लेश्याप्रकरणमाह
॥१७४॥ कृत्स्नं केवलकल्पं लोकं जानाति पश्यति च । केबलचारित्रज्ञानी तस्मात्स केपली भवति ॥१॥
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(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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सूत्रांक
[२२१]
दीप अनुक्रम [२३५]
ततो लेसाओ दुब्भिगंधाओ पं० २०-कण्हलेसा णीललेसा काउलेसा १, तओ लेसाओ सुम्भिगंधातोपं० २०-तेऊ० पम्ह० सुकलेसा २ एवं दोग्गतिगामिणीओ ३ सोगतिगामिणीओ ४ संकिलिहाओ ५ असंकिलिट्ठाओ ६ अमणुआओ ७ मणुनाओ ८ अविमुद्धाओ ९ विसुद्धाओ १० अप्पसत्थाओ ११ पसत्याओ १२ सीतलुक्खाओ १३ णिवहाओ १४ (सू० २२१)तिविहे मरणे पं० सं०-बालमरणे पंडियमरणे बालपंडियमरणे, बालमरणे तिविहे पं० सं०-ठितलेसे संकिलिटुलेसे पजवजातलेसे, पंडियमरणे तिबिहे पं००-ठितलेसे असंकिलिट्रलेसे पजवजातलेसे
३, बालपंडितमरणे तिविधे पं० २०-ठितलेस्से असंकिलिट्ठलेसे अपज्जवजातलेसे ४ (सू० २२२) 'तओं'इत्यादि सुगम, नवरं 'दुन्भिगंधाओ'त्ति दुरभिगन्धा दुर्गन्धाः, दुरभिगन्धत्वं च तासां पुद्गलात्मकत्वात् , पुद्गलानां च गन्धादीनां अवश्यंभावादिति, आह च-"जह गोमडस्स गंधो सुणगमडस्स व जहा अहिमडस्स । एत्तोवि अणंतगुणो लेसाणं अप्पसत्याणं ॥१॥" इति, नामानुसारी चासां वर्णः, कपोतवर्णा लेश्या कपोतलेश्या, धूम्रवर्णेत्यर्थः, 'सुम्भिगंधाओं त्ति सुरभिगन्धयः, आह घ-"जह सुरभिकुसुमगंधो गंधो वासाण पिस्समाणाणं । एसोवि अणंतगुणो पसत्थलेसाण तिण्हपि ॥१॥" इति, तेजो-वह्निस्तद्वर्णा लेश्या लोहितवर्णेत्यर्थः, तेजोलेश्यति, पद्मगर्भ
१ यथा गोशवस्य गन्धो श्वशवस्याहिशचस्प वा गन्धः इतोऽप्यनन्तगुणोऽप्रशस्तानां श्यानां गन्धः ॥1॥ यथा सुरभिकुसुमगन्धो गन्धो वासानां मापिष्यमाणानां । इतोऽप्यनन्तगुणः प्रशस्तानां लिसणामपि लेश्यानाम् ॥१॥
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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श्रीस्थानाइसूत्रवृत्तिः
सूत्रांक
॥ १७५॥
[२२२]
दीप अनुक्रम [२३६]
वर्णा लेश्या पीतवर्णेत्यर्थः पालेश्या, शुक्ला प्रतीता, एवंकरणात्प्रथमसूत्रवत् । 'तओं' इत्याद्यभिलापेन शेषसूत्राण्यध्येया-4 स्थाननीति, तत्र दुर्गति-नरकतिर्यमूपां गमयन्ति प्राणिनमिति दुर्गतिगामिन्यः, सुगतिः-मनुष्यदेवगतिरूपा, सरिकष्टाः सङ्- काध्ययने क्लेशहेतुत्वादिति, विपर्ययः सर्वत्र सुज्ञानः, अमनोज्ञाः अमनोज्ञरसोपेतपुद्गलमयत्वात्, अविशुद्धा वर्णतः, अप्रशस्ता:- उद्देशः ४ अश्रेयस्योऽनादेया इत्यर्थः, शीतरूक्षाः स्पर्शतः आद्याः, द्वितीयास्तु स्निग्धोष्णाः सर्शत एवेति । अनन्तरं लेश्या उक्ता, लेश्यामरणे अधुना तद्विशेपितमरणनिरूपणायाह-'तिविहें' इत्यादि सूत्रचतुष्टयं, बाल:-अज्ञस्तद्वद् यो वर्त्तते विरतिसाधकविवे
सू०२२१कविकलत्वात् स बाला-असंयतस्तस्य मरणं बालमरणम् , एवमितरे, केवल-पडिधातोर्गत्यर्थत्वेन ज्ञानार्थत्वाद्विरतिफ-1 २२२ लेन फलवद्विज्ञानसंयुक्तत्वात् पण्डितो-बुद्धतत्त्वः संयत इत्यर्थः, तथा अविरतत्वेन बालत्वाद्विरतत्वेन च पण्डितत्वाद् बालपण्डितः-संयतासंयत इति, स्थिता-अवस्थिता अविशुध्यन्त्यसनिकश्यमाना च लेश्या कृष्णादिर्यस्मिन् तत्स्थितलेश्यः, सक्लिष्टा-सतिश्यमाना सकेशमागच्छन्तीत्यर्थः, सा लेश्या यस्मिंस्तत्तथा, तथा पर्यवा:-पारिशेष्याद्विशुद्धिविशेषाः प्रतिसमयं जाता यस्यां सा तथा, विशुया वर्द्धमानेत्यर्थः, सा लेश्या यस्मिंस्तत्तथेति, अत्र प्रथम कृष्णादिलेश्यः सन् यदा कृष्णादिलेश्येष्वेव नारकादिपूत्पद्यते तदा प्रथमं भवति, यदा तु नीलादिलेश्यः सन् कृष्णादिलेश्येपू. पद्यते तदा द्वितीयं, यदा पुनः कृष्णलेश्यादिः सन् नीलकापोतलेश्येषूपद्यते तदा तृतीयम्, उक्तं चान्त्यायसंवादि भगवत्याम् यदुत-से णूणं भंते ! कण्हलेसे नीललेसे जाव मुक्कलेसे भवित्ता काउलेसेसु नेरइएसु उववज्जइ, हंता,
का॥१७५॥ १ अथ नून भदन्त ! कृष्णलेइयो नीललेश्यो गावमलेश्यो भूत्या कापोतलेपयेषु नरषिकेषत्पयते
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२२२]
दीप अनुक्रम [२३६]
गोयमा, से केण्डेणं भंते ! एवं वुच्चइ ?, गोयमा! लेसाठाणेसु संकिलिस्समाणेसु वा विसुज्झमाणेसु वा काउलेस परि-18 णमइ २ काउलेसेसु नेरइएसु उवक्जई"त्ति, एतदनुसारेणोत्तरसूत्रयोरपि स्थितलेश्यादिविभागो नेय इति । पण्डितमरणे सक्लिश्यमानता लेश्याया नास्ति संयतत्वादेवेत्ययं बालमरणाद्विशेषः, बालपण्डितमरणे तु सकिश्यमानता विशुग्य|मानता च लेश्याया नास्ति, मिश्रत्वादेवेत्ययं विशेष इति । एवं च पण्डितमरणं वस्तुतो द्विविधमेव, सक्तिश्यमानलेश्यानिषेधे अवस्थितवर्द्धमानलेश्यत्वात् तस्य, त्रिविधत्वं तु व्यपदेशमात्रादेव, बालपण्डितमरणं त्वेकविधमेव, सङ्क्लिश्यमानपर्यवजातलेश्यानिषेधे अवस्थितलेश्यत्वात् तस्येति, त्रैविध्यं त्वस्येतरव्यावृत्तितो व्यपदेशत्रयप्रवृत्तेरिति । मरणमनन्तरमुक्तं, मृतस्य तु जन्मान्तरे यथाविधस्य यद्वस्तुत्रयं यस्मै सम्पद्यते तस्य तत्तस्मै दर्शयितुमाह
ततो ठाणा अव्ववसितस्स अहिताते असुभाते अखमाते अणिस्सेसाते अण्णाणुगामिवत्ताते भवंति, सं०-से णं मुंडे भविता अगारातो अणगारियं पव्वतिते णिगंथे पावयणे संकिते कखिते वितिगिच्छिते भेदसमावन्ने कलुससमावने निर्गथं पावयणं जो सरहति णो पत्तियति णो रोएति तं परिस्सहा अमिजुंजिय र अभिभवंति, णो से परिस्सहे अभिमुंजिय २ अभिभवद १, से णं मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारितं पव्वतिते पंचहि महव्वएहि संकिते जाच कलुससमावने पंच महन्यताई नो सरहति जाच णो से परिस्महे अभिमुंजिय २ अभिभवति, से गं मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारियं पव्वतिते छदि
गौतमैन, अब केनार्थेन भदन्तवमुच्यते गौतम! लेश्यास्थानेषु संक्लिश्यमानेषु विशुन्यमानेषु चा कापोतलैश्यां परिणमते परिणम्य च कापोतलेश्येषु मानेरपिकेधूत्पद्यते.
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आगम
(०३)
प्रत
सूचांक
[२२३]
टीप
अनुक्रम [२३७]
[भाग - 5] "स्थान" अंगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः)
उद्देशक [४].
मूलं [ २२३]
स्थान [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थाना
सूत्रवृत्तिः
॥ १७६ ॥
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जीवनका जाव अभिभवइ ३ । ततो ठाणा वषसियरस हिताते जाव आणुगामितचाते भवंति, वं० से णं मुंडे भविता अगारातो अणगारियं पव्वतिते णिग्गंये पावयणे निस्संकिते किंखिते जाव नो कल्लुससमावन्ने जिम्थं पावयणं सद्दहति पत्तियति रोतेति से परिस्सहे अभिजुंजिय २ अभिभवति, मो तं परिस्सहा अभिजुंजिय २ अभिभवंति १, से णं मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारियं पव्वतिते समाणे पंचहिं महत्वएहिं निस्सकिए णिकखिए जाव परिस्सहे अभिजुजिय २ अभिभवइ, नो तं परिस्सहा अभिजुंजिय २ अभिभवंति २, से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्बइए छहिं जीवनिकाहिं णिस्संकिते जाव परिस्सहे अमिजुंजिय २ अभिभवति, नो तं परिस्सहा अमिजुंजिन २ अभिभ वंति ३ ( सू० २२३)
'तओ ठाणे'त्यादि, त्रीणि स्थानानि - प्रवचनमहाव्रतजीवनिकायलक्षणानि अव्यवसितस्य - अनिश्चयवतोऽपराक्रमवतो वाऽहिताय-अपथ्यायासुखाय - दुःखाय अक्षमाय- असङ्गतत्वाय अनिःश्रेयसाय - अमोक्षायाननुगामिकत्वाय-अशुभानुव न्धाय भवन्ति, 'से णं'ति यस्य त्रीणि स्थानान्यहितादित्वाय भवन्ति स शङ्कितो- देशतः सर्वतो वा संशयवान्, कातिस्तथैव मतान्तरस्यापि साधुखेन मन्ता विश्चिकित्सितः फलं प्रति शङ्कोपेतः अत एव भेदसमापन्नो द्वैधीभावमापन्नः - एवमिदं न चैवमितिमतिकः कलुषसमापन्नो नैतदेवमितिप्रतिपत्तिकः, ततश्च निर्ग्रन्थानामिदं नैर्ग्रन्थं प्रशस्तं प्रगतं प्रथमं वा वचनमिति प्रवचनम् - आगमो दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् न श्रद्धत्ते सामान्यतो न प्रत्येति न प्रीतिविषयी करोति नो रोचयति न चिकीर्षाविषयीकरोति 'तमिति य एवंभूतस्तं प्रब्रजिताभासं परिसह्यन्त इति परीषदाः - क्षुदादयः अ
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३ स्थानकाध्ययने
उद्देशः ४ शङ्कित
रत्वाद्यहि
तादिक
स्वाय सू० २२३
॥ १७६ ॥
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२२३]
दीप
भियुण्य २-सम्बन्धमुपगत्य प्रतिस्पर्ध वा अभिभवन्ति-न्यकुर्वन्तीति, शेष सुगमम् । उक्तविपर्ययसूत्र माग्वत् , किन्तु | हितम्-अदोषकरमिह परत्र चात्मनः परेषां च पथ्यान्नभोजनवत्, सुखम्-आनन्दस्तृषितस्य शीतलजलपान इब क्षमम्-उचितं तथाविधव्याधिच्याघातकौषधपानमिव निःश्रेयस-निश्चितं श्रेयः-प्रशस्य भावतः पञ्चनमस्कारकरणमिव अनुगामिकम्-अनुगमनशीलं भास्वरद्रव्यजनितच्छायेवेति । अयं चैवंविधः साधुरिहैव पृथिव्यां भवतीत्यर्थेन सम्बन्धेन पृथिवीस्वरूपमाह
एगमेगा ण पुढवी तिहिं वलएहिं सवओ समता संपरिक्खित्ता, तं०-धणोदधिवलएणं घणवातवलएणं तणुलायवलतेणं
(सू० २२४) गेरइया णं उकोसेणं तिसमतितेणं विग्गहेणं उववज्जति, पगिदियवजं जाव वेमाणियाणं (सू० २२५) al 'एगमेगे'त्यादि, एकैका पृथ्वी रक्षप्रभादिका सर्चत:, किमुक्तं भवति -समन्तादथवा दिक्षु विदिक्षु चेत्यर्थः 'सम्प-18
रिक्षिसा' वेष्टिता आभ्यन्तरं घनोदधिवलयं ततः क्रमेणेतरे, तत्र धनः-स्त्यानो हिमशिलावत् उदधिः-जलनिचयः स चासौ स चेति घनोदधिः स एव वलयमिव वलयं-कटक घनोदधिवलयं तेन, एवमितरे अपि, नवरं घनश्चासौ वातश्च तथाविधपरिणामोपेतो धनवातः, एवं तनुवातोऽपि तथाविधपरिणाम एवेति, भवन्त्यत्र गाथा:-नवि अ फुसंति | अलोगं चउरॉपि दिसासु सब्बपुढवीओ। संगहिया वलएहिं विक्खंभ तेसि वोच्छामि ॥१॥छच्चेव १ अपंचम २
नैव च प्रशंति असो वतयणपि विधु सर्वाः पृथ्व्यः संगृहीता बलयैर्विष्कम शेषां पक्ष्ये ॥ १॥ पद् पैपाईपचमानि ॥
अनुक्रम [२३७]
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना-
सूत्रवृत्तिः
सूत्रांक
॥१७७॥
२२५]
52%25%25
दीप अनुक्रम [२३९]
जोयण सद्धं च ३ होह रयणाए । खदही १ घण २ तणवाया ३ जाहासंखेण निद्दिड्डा ॥२॥ तिभागो १(योजनस्य || स्थानगाउयं चेव २ तिभागो गाउयस्स य ३। आइधुवे पक्खेवो अहो अहो जाव सत्तमिरं ॥ ३ ॥” इति, एतासु च पृथि- काध्ययने वीषु नारका एव उत्पद्यन्त इति तदुसत्तिविधिमभिधातुमाह-'नेरइया 'मित्यादि, त्रयः समयारिखसमयं तद्यत्रास्ति स उद्देशः ४ त्रिसमयिकस्तेन विग्रहेण-वक्रगमनेन, 'उकोसेणं'ति बसानां हि सनाच्यन्तरुत्पादात् बक्रद्वयं भवति, तत्र च त्रयघनोदध्याएव समयाः, तथाहि-आग्नेयदिशो नैर्ऋतदिशमेकेन समयेन गच्छति, ततो द्वितीयेन समश्रेण्याऽधस्ततस्तृतीयेन वायव्य दिवलयादिशि समश्रेण्यैवेति, सानामेव त्रसोसत्तावेवविध उत्कर्षेण विग्रह इत्याह-'एगेंदियेत्यादि, एकेन्द्रियास्वेकेन्द्रियेषु पञ्च- |नि विग्रसामयिकेनाप्युत्पद्यन्ते, यतस्ते बहिस्तात् बसनाडीतो बहिरप्युत्पद्यन्ते, तथाहि-"विविसाउ दिसं पढमे पीए पइसरह होत्पादः लोयनाडीए । तइए उप्पिं धावइ चउत्थए नीइ बाहिं तु ॥१॥ पंचमए विदिसीए गंतुं उप्पजए उ एगिंदि"त्ति स- सू०२२४म्भव एवार्य, भवति तु चतुःसामयिक एव, भगवत्यां तधोकत्वादिति, तथाहि-"अपज्जत्तगहुमपुढविकाइए णं| २२५ भंते! अहेलोगखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहए समोहणित्ता जे भविए उडलोयखेत्तनालीए बाहिरिले खेत्ते अपजत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! कतिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा!, गो! तिसमइएण वा चउसम
१ योजनं साई व भगति रमायां उदधिधनतनुवाता यथासकोन निर्दिष्टाः ॥२॥ योजनविभागः गव्यूत गम्यूतविभागय भाविभुवे प्रक्षेपः अधः अधः यावत्सप्तम्याम् ॥३॥२ विदियो दिशि प्रथमे द्वितीये प्रविशति लोकनायो तृतीये उपरि धावति चतुर्थे नाया बहिनिगच्छति ॥१॥ विदिशि पंचमे गत्वा उत्पद्यते एकेन्द्रियत्वेन। अपर्याप्त सक्षमपूचीकायिको भदन्ताधोलोकक्षेत्रनामा बातो क्षेत्रे समवहतः समबहस यो भव्य ऊर्यलोकक्षेषनाच्या बाहो सेग्रेड-। मा॥१७७॥ पोप्तसूपमध्वीकायतया उत्पतुं स भदन्त । कतिसामयिकेन विग्रहेण उत्पयेत !, बीतम | निसामयिकेन वा चतुःसाम,
%
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आगम
(०३)
प्रत
मूचांक
[२२५]
दीप
अनुक्रम [२३९]
[भाग - 5] "स्थान" अंगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [३], उद्देशक [४]. मूलं [ २२५ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
- -
इण वा विग्गहेण उववज्जेज्जा" इत्यादि, विशेषणवत्यामप्युक्तम्- “सुत्ते चउसमयाओ नत्थि गई उपरा विणिदिट्ठा । जुज्जइ य पंचसमया जीवस्स इमा गई ठोए ॥ १ ॥ जो तमतमविदिसाए समोहओ बंभलोगविदिसाए । उववज्जई गईए सो नियमा पंचसमयाए ॥ २ ॥ उववायाभावाओ न पंचसमयाहवा न संतावि । भणिया जह चउसमया महहबंधे न सन्तावि ॥ ३ ॥” इति, अत उक्तम्- 'एगिंदियवज्जं 'ति यावद्वैमानिकानामिति वैमानिकान्तानां जीवानां त्रिसामयिक उत्कर्षेण विग्रहो भवतीति भावः । मोहवतां त्रिस्थानकमभिधायाधुना क्षीणमोहस्य तदाह
.
खीणमोहस्स णं अरहओ ततो कम्मंसा जुगवं खिनंति, तं० नाणावरणिचं दंसणावरणिज्जं अंतरातियं ( सू० २२६ ) अभितीणक्खचेतितारे पं० १ एवं सवणो २ अस्सिणी ३ भरणी ४ मगसिरे ५ पूसे ६ जेट्ठा ७ (सू० २२७ ) घ मातो णं अरहाओ संती अरहा तिहिं सागरोबमेहिं तिचभागपलिओ मऊणएहिं वीतिकंतेहिं समुप्पन्ने ( सू० २२८) समणस्स णं भगवओ महावीरस्स जाव तथाओ पुरिसजुगाओ जुगंतकरभूमी, मही णं अरहा तिहिं पुरिससएहिं सद्धि मुंडे भविता जाव पवति, एवं पासेवि ( सू० २२९) समणस्स णं भगवतो महावीरस्स तिन्नि सया चउदसपु bati अजिणाणं णिसंकासाणं सव्वक्खरसन्निवातीणं जिण इव अवितहवागरमाणाणं उक्कोसिया चउद्दसपुब्विसंपया हुथा (सू० २३०) तओ तित्धयरा चकवट्टी होत्या तं० संती कुंथू अरो ३ ( सू० २३१)
१ विकेन वापि विद्वेणोत्पद्यते ॥ २ सूत्रे चतुःसमयाया गयाः परा गतिनं निर्दिश युज्यते च पंचसया जीवस्यैषा गतिलोंके ॥१॥ यस्तमस्तमोषिदिशि समवहतो ब्रह्मलोकविदिशि उत्पद्यते स नियमात् पंचसमयया गत्या ॥ २ ॥ उत्पादाभावान्न पंचसमया अथवा सत्यपि न भीता यथा चतुःसमया महत्प्रबन्धे सत्यपि ॥ ३ ॥
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना
मसूत्र
३ स्थानकाभ्ययने उद्देशः४ सू०२२६
सूत्रांक
वृत्तिः
२३१]
॥१७८॥
दीप अनुक्रम [२४५]
6464568436
'खीणे त्यादि क्षीणमोहस्य क्षीणमोहनीयकर्मणोऽहतो-जिनस्य त्रयः कौशाः-कम्मेप्रकृतय इति, उक्तं च- चरमे नाणावरणं पंचविहं दसणं चउविगपं । पंचविहमंतराय खवइत्ता केवली होइ ॥१॥” इति, शेष कण्ठ्यम् । अनन्तरमशाश्वतानां त्रिस्थानकमुक्तम् , अधुना शाश्वतानां तदाह-'अभी त्यादि सूत्राणि सप्त कण्ठ्यानीति । परम्परसूत्रे क्षीणमोहस्य त्रिस्थानकमुक्तमधुना तद्विशेषाणां तीर्थकृतां तदाह-'धम्म'त्यादि प्रकरणं, 'तिचउन्भाग'त्ति |विभिश्चतुर्भाग:-पादैः पल्योपमस्य सत्कैरूनानि त्रिचतुर्भागपल्योपमोनानि तैय॑तिकान्तैरिति, उक्तं च-"धम्मजिणाओ |संती तिहि उ तिचउभागपलियऊणेहिं । अयरेहिं समुप्पन्नो"त्ति । 'समणस्से'त्यादि, युगानि पश्चवर्षमानानि कालविशेषा लोकप्रसिद्धानि वा कृतयुगादीनि तानि च क्रमव्यवस्थितानि ततश्च पुरुषा गुरुशिष्यकमिणः पितापुत्रक्रमवन्तो वा यु. गानीव पुरुषयुगानि, पुरुषसिंहवत्समासः, ततश्च पञ्चम्या द्वितीयार्थत्वात् तृतीयं पुरुषयुगं यावत्, जम्बूस्वामिनं यावदित्यर्थः, 'युग'त्ति पुरुषयुगं तदपेक्षयाऽन्तकराणां-भवान्तकारिणां निर्वाणगामिनामित्यर्थः, भूमि:-कालो युगान्तकरभूमिः, इदमुक्तं भवति-भगवतो वर्द्धमानस्वामिनस्तीर्थे तस्मादेवावधेस्तृतीयं पुरुषं जम्बूस्वामिनं यावनिर्वाणमभूत् , तत उत्तरं तद्व्यवच्छेद इति । 'मल्ली'त्यादि सूत्रतयं, तत्र संवाद:-"एगो भगवं वीरो पासो मली य तिहिं तिहिं सएहिं"ति मलिजिनः स्त्रीशतैरपि त्रिभिः। 'समणेत्यादि, 'अजिणाणं'ति असर्वज्ञत्वेन जिनसंकाशानां सकलसंशयच्छेद
चरमसमरे पंचविध मानापरणं भर्विकल्प दर्शनावरण अंतराय पंचविध क्षपयित्वा केवली भवति ॥ १॥२ धर्मजिनाच्छान्तिः चतुर्भागोनपश्यनिमिः |पल्यैः त्रिभिरतरैः समुत्पन्नः ।।
॥१७८ ॥
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
+
+
सूत्रांक [२३१]
दीप अनुक्रम [२४५]
ABC+
SAKIST
कत्वेन सबै-सकला अक्षरसन्निपाता:-अकारादिसंयोगा विद्यन्ते येषां ते तथा स्वार्थिकेन्प्रत्ययोपादानात् तेषा, विदि-51 तसकलवापयानामित्यर्थः, 'वागरमाणाण'न्ति ब्यागृणतां व्याकुर्वतामित्यर्थः । 'तओ' इत्यादि, अत्रोक्तम्-'संती कुंथू अ अरो अरहंता चेव चकवट्टी य । अवसेसा तित्थयरा मंडलिआ आसि रायाणो ॥ १॥” इति । तीर्थकराश्चैते विमानेभ्योऽवतीर्णा इति विमानविस्थानकमाह
ततो गेविजाषिमाणपत्थचा पन्नत्ता तं०-हिद्विमगेविजबिमाणपत्थडे मज्झिमगेविजबिमाणपत्थडे उपरिमगेविज विमाणपत्थडे, हिडिमगेविजविमाणपत्थडे तिविहे पं०२०-देहिम २ गेविजविमाणपस्थडे हेडिममझिमगेविजविमाणपत्थडे हेड्रिमउपरिमगेविजविमाणपत्थडे, मज्झिमगेविजविमाणपस्थडे तिविहे पं० त०-मझिमहेद्विमगेवेजविमाणपत्थडे भझिम २गेविज मझिमपवरिमगेविज०, उपरिमगेविजविमाणपत्थडे तिविहे पं० त०-वरिमद्विमगेविज उपरिममझिमगेविजः सवरिम २ गेविजविमाणपत्थडे (सू० २३२) जीवाणं तिद्वाणणिग्वतिते पोग्गले पावकम्मचाते चिणिसु वा चिणिति वा चिणिस्संति वा, तं०-इथिणिव्वतिते पुरिसनिन्वत्तिए णपुंसगनिध्वसिते, एवं चिणवचिणधदीरवेद तह णिज्जरा चेव (सू०२३३) तिपतेसिता खंधा अर्णता पण्णत्ता, एवं जाब तिगुणलुक्खा पोग्गला भणता पन्नत्ता । (सू०२३४) तिहाणं समत्तं ततियं अजायणं समर्श ।।
१ यान्तिः शुन्धारण महन्तवय चकवत्तिनब । अवशेषातीर्थकरा मांडलिकराजा आसन् ॥1॥
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[२३४]
दीप
अनुक्रम [२४८]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः)
स्थान [३], उद्देशक [४], मूलं [२३४] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०३] अंग सूत्र [०३]
श्रीस्थाना
सूत्र
वृत्तिः
॥ १७९ ॥
*
'तओ' इत्यादि, लोकपुरुषस्य ग्रीवास्थाने भवानि मैवेयकानि तानि च तानि विमानानि च तेषां प्रस्तटा-रचनाविशेपवन्तः समूहाः । इयं च ग्रैवेयकादिविमानवासिता कर्म्मणः सकाशात् भवतीति कर्म्मणः त्रिस्थानकमाह - 'जीवाणमित्यादि, सूत्राणि पटू, तत्र त्रिभिः स्थानैः स्त्रीवेदादिभिर्निर्वर्त्तितान्-अर्जितान् पुद्गलान् पापकर्म्मतया अशुभकर्म्मखेनोत्तरोत्तरानुभाध्यवसायतश्चितवन्तः - आसंकलनत एवमुपचितवन्तः - परिपोषणत एव बद्धवन्तो निर्मापणतः उदीरितवन्तः - अध्यवसायवशेनानुदीर्णोदयप्रवेशनतः वेदितवन्तः अनुभवनतः निर्जरितवन्तः प्रदेशपरिशाटनतः, सङ्ग्रहणीगाथार्द्धमत्र - एवं चिणउवचिणबंधउदीरखेय तह निजरा चेव'त्ति 'एवमिति यथैकं कालत्रयाभिलापेनोक्तं तथा सर्वाण्यपीति । कर्म्म च पुनात्मकमिति पुद्गलस्कन्धान् प्रति त्रिस्थानकमाह - 'तिपएसिए' त्यादि, स्पष्टमिति, | सर्वसूत्रेषु व्याख्यातशेषं कण्ठ्यमिति ॥ त्रिस्थानकस्य चतुर्थोदेशकः समाप्तः ॥ तत्समाप्तौ च श्रीमदभयदेवसूरिविरचितस्थानाङ्गविवरणे तृतीयं त्रिस्थानकाख्यमध्ययनं समाप्तमिति । समाप्तं तृतीयमध्ययनम् ॥
॥ इति श्रीमदभयदेवसूरिवरविहितविवरणयुतं त्रिस्थानकाख्यं तृतीयमध्ययनं समाप्तम् ॥
व्याख्यातं तृतीयमध्ययनम् अधुना सङ्ख्याक्रमसंबद्धमेव चतुःस्थानकाख्यं चतुर्थमारभ्यते, अस्य चायं पूर्वेण सह
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अत्र तृतीय स्थानं परिसमाप्तं अथ चतुर्थ स्थानं आरभ्यते
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"स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
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३ स्थानकाध्ययने
उद्देशः ४ [सू० २३२
२३४
॥ १७९ ॥
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आगम
(०३)
प्रत
सूचांक
[२३४]
दीप
अनुक्रम [२४८]
[भाग-5] "स्थान" अंगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः)
स्थान [ ४ ], उद्देशक [1]. मूलं [ २३४ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
- -
विशेष सम्बन्धः - अनन्तराध्ययने विचित्रा जीवाजीवद्रव्यपर्याया उक्ता इहापि त एवोच्यन्ते इत्यनेन सम्बन्धेनायातयोगद्वार स्वानुदेशकादिमे
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चारि अंतकिरियातो पं० तं तत्थ खलु पढमा इमा अंतकिरिया - अप्पकम्मपचायाते यावि भवति, से णं मुंडे भविता अगारातो अणगारियं पव्वतिते संजमबहुले संवरबहुले समाहिबहुले हे तीरट्टी उवहाणवं दुक्खक्सवे तवस्सी तस्स णं णो तप्पगारे तवे भवति णो तहृप्पगारा वेयणा भवति तप्पगारे पुरिसज्जाते दीहेणं परितावेणं सिज्झति बुज्झति मुञ्चति परिणिब्वाति सम्वदुक्खाणमंत करेद, जहा से भरहे राया चाउरंतचकवट्टी, पडमा अंतकिरिया १, . अहावरा दोबा अंतकिरिया, महाकम्मे पञ्चाजाते यावि भवति, से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्बतिते, संजमबहुले संवरबहुले जाव उवहाणवं दुक्खक्खवे तवस्सी, तस्स णं तपगारे तवे भवति तत्पगारा वेवणा भवति, तहपगारे पुरिसजाते निरुद्धेणं परिता तेणं सिज्झति जाव अंतं करेति जहा से गतस्माले अणगारे, दोचा अंतकिरिया २, अहावरा तथा अंतकिरिया, महाकम्मे पचायाते यावि भवति, से णं मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारियं पव्वतिते, जहा दोघा, नवरं दीहेणं परितातेणं सिज्झति जाब सव्वदुक्खाणमंत करेति, जहा से सर्णकुमारे राया चारंतचकवट्टी तथा अंतकिरिया ३, अहावरा चउत्था अंतकिरिया अप्पकम्मपचायाते यावि भवति, से णं मुंडे भवित्ता जाव पव्वतिवे
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२३५]
श्रीस्थानागसूत्रवृत्तिः
अन्त
दीप अनुक्रम [२४९]
संजमबहुले जाव तस्स णं णो तहप्पगारे तवे भवति णो तहप्पगारा बेयणा भवति, तहप्पगारे पुरिसजाए णिरुद्रेण
३ स्थानपरितातेण सिज्झति जाव सम्वदुक्खाणमंतं करेति, जहा सा मरुदेवा भगवती, चउत्था अंतकिरिया ४ (सू० २३५)
काध्ययने अस्य चायमभिसम्बन्धः-अनन्तरोद्देशकस्योपान्त्यसूत्रे कर्मणश्चयायुक्तमिह तु कर्मणस्तकार्यस्य वा भवस्यान्तक्रियो- उद्देश:१ च्यत इति, अथवा श्रुतं मयाऽऽयुष्मता भगवतैवमाख्यातमित्यभिधाय यत्तदाख्यातं तदभिहितं तथेदमपरं तेनैवाख्यातं | यत्तदुच्यत इत्येवंसम्बन्धस्यास्य व्याख्या-अन्तक्रिया-भवस्यान्तकरणम् तत्र यस्य न तथाविधं तपो नापि परीपहादिज-II क्रिया: निता तथाविधा वेदना दीर्घेण च प्रत्रज्यापर्यायेण सिद्धिर्भवति तस्यैका १ यस्य तु तथाविधे तपोवेदने अल्पेनैव च ग्रनज्यापर्यायेण सिद्धिः स्यात् तस्य द्वितीया २ यस्य च प्रकृष्टे तपोवेदने दीपेण च पर्यायेण सिद्धिस्तस्य तृतीया ३ यस्य | पुनरविद्यमानतथाविधतपोवेदनस्य इस्वपर्यायेण सिद्धिस्तस्य चतुर्थीति, अन्तक्रियाया एकस्वरूपत्वेऽपि सामग्रीभेदात् चातुर्विध्यमिति समुदायार्थः, अवयवार्थस्त्वयं-चतम्रोऽन्तक्रिया प्रज्ञप्ता भगवतेति गम्यते, 'तत्रेति सप्तमी निर्धारणे तासु चतसृषु मध्ये इत्यर्थः, खलुक्यालङ्कारे, इयमनन्तरं वक्ष्यमाणत्वेन प्रत्यक्षासन्ना प्रथमा, इतरापेक्षया आद्या अन्तक्रिया, इह कश्चित्पुरुषः देवलोकादौ यात्वा ततोऽल्पैः-स्तोकैः कर्मभिः करणभूतैः प्रत्यायातः-प्रत्यागतो मानुषत्वं इति अल्पकर्मप्रत्यायातो य इति गम्यते, अथवा एकत्र जनित्वा ततोऽल्पकर्मा सन् यः प्रत्यायातः स तथा, लघुकर्मतयोत्पन्न इत्यर्थः, चकारो वक्ष्यमाणमहाकर्मापेक्षया समुच्चयार्थः, अपि सम्भावने, सम्भाव्यतेऽयमपि पक्ष इत्यर्थः, F॥१८॥ भवति-स्यात् , स इति असौ, णं वाक्यालङ्कारे, मुण्डो भूत्वा द्रव्यतः शिरोलोचेन भावतो रागाद्यपनयनेन अगारावू
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अंतक्रियाया: वर्णनं
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
*
प्रत
सूत्रांक [२३५]
दीप अनुक्रम [२४९]
द्रव्यतो गेहाद्भावतः संसाराभिनन्दिदेहिनामावासभूतादविवेकगेहान्निष्क्रम्येति गम्यते अनगारिता-अगारी-गृही असं-18 यतः तत्प्रतिषेधादनगारी-संयतस्तभावस्तत्ता तां साधुतामित्यर्थः, प्रत्रजितः-प्रगतः प्राप्त इत्यर्थः, अथवा विभक्तिपरि-| णामादनगारितया-निर्ग्रन्थतया 'प्रवजितः' प्रत्रज्यां प्रतिपन्नः, किंभूत इत्याह-संजमबहुले'त्ति संयमेन पृथिव्यादिसंरक्षणलक्षणेन बहुल:-प्रचुरो यः स तथा, संयमो वा बहुलो यस्य स तथा, एवं संवरबहुलोऽपि, नवरमाश्रवनि-18 रोधः संवरः, अथवा इन्द्रियकपायनिग्रहादिभेदः, एवं च संयमबहुलग्रहणं प्राणातिपातविरतेः प्राधान्यख्यापनार्थ, यतः-"एक चिय एत्थ वयं निदिई जिणवरेहिं सब्वेहिं । पाणाइवायविरमणमवसेसा तस्स रक्खडा ॥१॥" इति, पतञ्च द्वितयमपि रागाद्युपशमयुक्तचित्तवृत्तेर्भवति, अत आह-समाधिबहुलः, समाधिस्तु-प्रशमवाहिता ज्ञानादिर्वा, समाधिः पुननिःस्नेहस्यैव भवतीत्याह-'लूहे'रुक्षः-शरीरे मनसि च द्रव्यभावस्नेहवर्जितत्वेन परुषः, लूषयति वा कर्मम-1 लमपनयतीति लूपः, कथमसावेवं संवृत्त इत्याह-यतः "तीरट्ठी" तीरं-पारं भवार्णवस्यार्थयत इत्येवंशीलस्तीराथीं तीर| स्थायी वा तीरस्थितिरिति वा प्राकृतत्वात् तीरद्वेत्ति, अत एव 'उवहाण'ति उपधीयते-उपष्टभ्यते श्रुतमनेनेति उपधानं श्रुतविषयस्तपउपचार इत्यर्थः तद्वान् , अत एव-दुक्खक्ख'त्ति दुःखम्-असुखं तत्कारणत्वाद्वा कम्में तत् क्षपयतीति दुःखक्षपः, कर्मक्षपणं च तपोहेतुकमित्यत आह-'तवस्सी'ति तपोऽभ्यन्तरं कर्मेन्धनदहनज्वलनकल्पमनवरतशुभध्यानलक्षणमस्ति यस्य स तपस्वी, 'तस्स गति यश्चैवविधस्तस्य ण वाक्यालङ्कारे नो तथाप्रकारम्-अत्यन्तघोरं
१ अत्र-एकमेवान मत सबैजिनवरैनिर्दिष्टं । प्राणातिपातविरमणमवशेषाणि तस रक्षार्थ ॥१॥
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अंतक्रियाया: वर्णनं
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२३५]
पिपया-
सू०२३५
दीप अनुक्रम [२४९]
श्रीस्थाना- बर्द्धमानजिनस्येव तपा-अनशनादि भवति, तथा नो तथाप्रकारा-अतिधोरैवोपसर्गादिसम्पाद्या वेदना-दुःखासिका मसूत्र
भवति, अल्पकर्मप्रत्यायातत्वादिति, ततश्च तत्तथाप्रकारमल्पकर्मप्रत्यायातादिविशेषणकलापोपेतं पुरुषजात-पुरुषप्र- काध्ययने वृत्तिः कारो 'दीर्पण' बहुकालेन 'पर्यायेण' प्रव्रज्यालक्षणेन करणभूतेन सिद्धपति-अणिमादियोगेन निष्ठितार्थों वा विशेषतः &उद्देशः१
सिद्धिगमनयोग्यो वा भवति, सकलकर्मानायकमोहनीयघातात्, ततो घातिचतुष्टयघातेन बुज्यते केवलज्ञानभावात् | ॥१८१॥
HT अन्तसमस्तवस्तूनि, ततो मुच्यते भवोपग्राहिकर्मभिः, ततः परिनिर्वाति-सकलकर्मकृतविकारव्यतिकरनिराकरणेन शीती-18 क्रिया:
भवतीति, किमुक्तं भवतीत्याह-सर्वदुःखानामन्तं करोति, शारीरमानसानामित्यर्थः, अतथाविधतपोवेदनो दीर्घेणापि पर्यासायेण किं कोऽपि सिद्धः इति शङ्कापनोदार्थमाह-'जहा से इत्यादि, यथाऽसौ यः प्रथमजिनप्रथमनन्दनो नन्दनशता-12
मजन्मा भरतो राजा चत्वारोऽन्ताः-पर्यन्ताः पूर्वदक्षिणपश्चिमसमुद्रहिमवलक्षणा यस्याः पृथिव्याः सा चतुरन्ता तस्या अयं स्वामित्वेनेति चातुरन्तः स चासौ चक्रवत्ती चेति स तथा, स हि प्राग्भवे लघूकृतका सर्वार्थसिद्धविमानाच्युत्वा
चक्रवर्तितयोत्पद्य राज्यावस्थ एव केवलमुत्पाद्य कृतपूर्वलक्षप्रव्रज्यः अतथाविधतपोवेदन एव सिद्धिमुपगत इति प्रथमा४न्तक्रियेति १, 'अहावरे'ति 'अथ' अनन्तरमपरा पूर्वापेक्षयाऽन्या द्वितीयस्थानेऽभिधानात् द्वितीया महाकर्मभिः-गुरु
कम्मेभिर्महाकर्मा सन् प्रत्यायातः प्रत्याजातो वा यः स तथा, 'तस्स 'मिति, तस्य-महाकर्मप्रत्यायातत्वेन तत्क्षपणाय तथाप्रकारं पोरं तपो भवति, एवं वेदनाऽपि, कर्मोदयसम्पाद्यत्वादुपसर्गादीनामिति, 'निरुडेनेति अल्पेन यथाऽसौ |
॥१८१॥ गजसुकुमारो विष्णुलघुभ्राता, स हि भगवतोऽरिष्टनेमिजिननाथस्थान्तिके प्रव्रज्यां प्रतिपद्य श्मशाने कृतकायोत्सर्ग
CALCCASSAGES
अंतक्रियाया: वर्णनं
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [२३५]
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लक्षणमहातपाः शिरोनिहितजाज्वल्यमानाङ्गारजनितात्यन्तवेदनोऽल्पेनैव पर्यायेण सिद्धवानिति, शेष कण्ठ्यम् २, 'अहावरेत्यादि कण्ठ्यं, यथाऽसौ सनत्कुमार इति चतुर्थचक्रवर्ती, स हि महातपा महावेदनश्च सरोगत्वात् दीर्घतरपर्या-III येण सिद्धर, तद्भवे सियभावेन भवान्तरे सेत्स्यमानत्वादिति ३, 'अहावरेत्यादि कण्ठ्यं, यथाऽसौ मरुदेवी प्रथमजिनजननी, सा हि स्थावरत्वेऽपि क्षीणप्रायकर्मत्वेनाल्पकर्मा अविद्यमानतपोवेदना च सिद्धा, गजवरारूढाया एवायुःस-1 माती सिद्धत्वादिति ४, एतेषां च दृष्टान्तदाटोन्तिकानामर्थानां न सर्वथा साधर्म्यमन्वेषणीयम् , देशदृष्टान्तत्वादेषां, यतो| मरुदेव्या 'मुण्डे भवित्ते'त्यादिविशेषणानि कानिचिन्न घटन्ते, अथवा फलतः सर्वसाधर्म्यमपि मुण्डनादिकार्यस्य सिद्धस्य | सिद्धत्वादिति । पुरुषविशेषाणामन्तक्रियोक्ता, अधुना तेषामेव स्वरूपनिरूपणाय दृष्टान्तदान्त्रिकसूत्राणि पड़िशतिमाह
चत्तारि रुक्खा पं० सं०-उन्नए नामेगे उन्नए १ उन्नते नाममेगे पणते २ पणते नाममेगे उन्नते ३ पणते नाममेगे पणते ४, १। एवामेव पत्तारि पुरिसजावा पं००-उन्नते नामेगे उन्नते, सहेच जाव पणते नामेगे पणते २ । चत्तारि रुक्खा पं० २०-उन्नते नाममेगे उन्नतपरिणए १ उण्णए नाममेगे पणतपरिणते २ पणते णाममेगे उन्नतपरिणते ३ पणए नाममेगे पणयपरिणए ४,३ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-पन्नते नाममेगे उन्नयपरिणते चउभंगो ४, ४ । चत्तारि रुक्खा पं० २०.--उन्नते नामेगे उन्नतरूवे तहेव चउभंगो ४,५। एवामेव पचारि पुरिसजाया पं० तं० -उन्नए नामं०४,६। चत्वारि पुरिसजाया पं००-उन्नते नाममेगे उन्नतमणे उन्न०४.७एवं संकप्पे ८ पन्ने
दीप अनुक्रम [२४९]
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अंतक्रियाया: वर्णन
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
४स्थानकाध्ययने उद्देशः१ उन्नतादि सू०२३६
[२३५]
दीप अनुक्रम [२५०]
श्रीस्थाना- ९ दिट्ठी १० सीलायारे ११ ववहारे १२ परकमे १३ एगे पुरिसजाए पडिवक्सो नत्ति । चत्तारि रुक्खा पं० त०इसूत्र
उनामगेगे उज्जू उज्जू नाममेगे बंके, चउभंगो ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पं० सं०-उनाभमेगे ४, एवं जहा वृत्तिः
उन्नतपणतेहिं गमो तहा उजुर्वकेहिवि भाणियब्वो, जाव परकमे । २६ (सू० २३६)
कण्ठ्यं, किन्तु वृश्चयन्ते-छिद्यन्ते इति वृक्षाः, ते विवक्षया चत्वारः प्रज्ञप्ता भगवता, तत्र उन्नतः-उच्चो द्रव्यतया ॥१८२॥
'नामेति सम्भावने चाक्यालङ्कारे वा 'एका कश्चिद्क्षविशेषः, स एव पुनरुन्नतो-जात्यादिभावतोऽशोकादिरित्येको| भङ्गः, उन्नतो नाम द्रव्यत एव एका अन्यः प्रणतो-जात्यादिभावहींनो निम्बादिरित्यर्थः इति द्वितीयः प्रणतो नामको द्रव्यतः खर्ब इत्यर्थः स एव उन्नतो जात्यादिना भावेनाशोकादिरिति तृतीयः, प्रणतो द्रव्यत एव खर्वः स एव प्रणतो जात्यादिहीनो निम्बादिरिति चतुर्थः, अथवा पूर्वमुन्नतः-तुङ्गः अधुनाऽप्युन्नतस्तुङ्ग एवेत्येवं कालापेक्षया चतुर्भङ्गीति १,
'एव'मित्यादि, एवमेव वृक्षवञ्चत्वारि पुरुषजातानि-पुरुषप्रकारा अनगारा अगारिणो वा, उन्नतः पुरुषः कुलेश्वोदिदाभिलोंकिकगुणैः शरीरेण वा गृहस्थपर्याये पुनरुन्नतो लोकोत्तरैज्ञानादिभिः प्रत्रज्यापर्याये अथवा उन्नत उत्तमभवत्वेन
पुनरुन्नतः शुभगतित्वेन कामदेवादिवदित्येकः 'तहेव'त्ति वृक्षसूत्रमिवेदं, 'जावति यावत् 'पणए नाम एगे पणए'त्ति
चतुर्थभङ्गकस्तावन् वाच्यं, तत्र उन्नतस्तथैव प्रणतस्तु ज्ञानविहारादिहीनतया दुर्गतिगमनाद्वा शिथिलत्वे शैलकराजहैार्षिवत् ब्रह्मदत्तवद्वेति द्वितीयः, तृतीयः पुनरागतसंवेगः शैलकवत् मेतार्यवद्वा, चतुर्थ उदायिनृपमारकवत्काल-|
शौकरिकवद्वेति २, एवं दृष्टान्तदाान्तिकसूत्रे सामान्यतोऽभिधाय तद्विशेषसूत्राण्याह-उन्नतः तुणतया एको वृक्षः
१८२॥
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२३६]
दीप
उन्नतपरिणतः अशुभरसादिरूपमनुन्नतत्वमपहाय शुभरसादिरूपोन्नततया परिणत इत्येका, द्वितीये भने प्रणतपरिण-1 त उक्तलक्षणोन्नतत्वत्यागात्, एतदनुसारेण तृतीयचतुर्थों वाच्यौ, विशेषसूत्रता चास्य पूर्वमुन्नतत्वप्रणतत्वे सामान्येना-1 भिहिते इह तु पूर्वावस्थातोऽवस्थान्तरगमनेन विशेषिते इति, एवं दान्तिकेऽपि परिणतसूत्रमवगन्तव्यमिति ४, परिणामश्चाकारबोधक्रियाभेदात् विधा, तत्राकारमाश्रित्य रूपसूत्रं, तत्र उन्नतरूपः संस्थानावयवादिसौन्दयात् ५, गृहस्थपुरुषोऽप्येवं, प्रनजितस्तु संविग्नसाधुनेपथ्यधारीति ६, बोधपरिणामापेक्षाणि चत्वारि सूत्राणि, तत्र उन्नतो जात्यादिगुणरुचतया वा उन्नतमना:-प्रकृत्या औदार्यादियुक्तमनाः, एवमन्येऽपि त्रयः, 'एवं मिति सङ्कल्पादिसूत्रेषु चतुर्भगि-18 कातिदेशोऽकारि लाघवार्थ, सङ्कल्पो-विकल्पो मनोविशेष एव विमर्श इत्यर्थः, उन्नतत्वं चास्यौदार्यादियुक्ततया सदर्थविषयतया वा ८, प्रकृष्टं ज्ञानं प्रज्ञा, सूक्ष्मार्थविवेचकत्वमित्यर्थः, तस्याश्चोन्नतत्वमविसंवादितया ९, तथा दर्शनं दृष्टि:चक्षुर्ज्ञानं नयमतं वा, तदुन्नतत्वमप्यसंवादितयैवेति १०, क्रियापरिणामापेक्षमतः सूत्रत्रयम्, तत्र शीलाचारः, शीलं-| समाधिस्तत्प्रधानस्तस्य वाऽऽचारः-अनुष्ठानं शीलेन वा-स्वभावेनाचार इति, उन्नतत्वं चास्यादूषणतया, वाचनान्तरे तु शीलसूत्रमाचारसूत्रं च भेदेनाधीयत इति ११, व्यवहारः-अन्योऽन्यदानग्रहणादिर्विवादो वा, उन्नतत्वमस्य श्लाध्यत्वेनेति |१३, पराक्रमः-पुरुषकारविशेषः परेषां वा-शत्रूणामाक्रमणं, तस्योन्नतत्वमप्रतिहतत्वेन शोभनविषयत्वेन चेति१२, उन्नतविपर्ययः सर्वत्र प्रणतत्वं भावनीयमिति, 'एगे पुरी'त्यादि, एतेषु मनप्रभृतिषु सप्तसु चतुर्भनिकासूत्रेषु एक एव पुरुषजाता-| लापकोऽध्येतव्यः, प्रतिपक्षो-द्वितीयपक्षो दृष्टान्तभूतः वृक्षसूत्रं नास्ति, नाध्येतव्यमितियावत् , इह मनःप्रभृतीनां दार्टी
अनुक्रम [२५०]
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[२३६ ]
दीप
अनुक्रम [२५०]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [ ४ ], उद्देशक [१], मूलं [२३६ ] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३]
श्रीस्थानान्तिकपुरुषधर्माणां दृष्टान्तभूतवृक्षेष्वसम्भवादिति । 'उज्जुत्ति ऋजुः - अवको नामेति पूर्ववदेकः कश्चिद्वृक्षः तथा ऋजुः अविपरीतस्वभाव औचित्येन फलादिसम्पादनादित्येकः, द्वितीये द्वितीयं पदं वङ्क इति वक्रः, फलादौ विपरीतः, तृतीये प्रथमपदं वक्रः- कुटिलः चतुर्थः सुज्ञानः, अथवा पूर्व ऋजुरवक्रः, पश्चादपि ऋजुः--अवक्रोऽथवा मूले ऋजुरन्ते च ऋजुरित्येवं चतुभङ्गी कार्येत्येष दृष्टान्तः १, पुरुषस्तु ऋजुः - अवको बहिस्तात् शरीरगतिवाक् चेष्टादिभिस्तथा ऋजुरन्तनिर्मायत्वेन सुसाधुवदित्येकः, तथा ऋजुस्तथैव 'वङ्क' इति तु वक्रः अन्तर्मायित्वेन कारणवशप्रयुक्तार्जवभावदुःसाधुवदिति द्वितीयः, तृतीयस्तु कारणवशादर्शितबहिरनार्जवोऽन्तर्निर्माय इति प्रवचनगुतिरक्षाप्रवृत्तसाधुवदिति, चतुर्थ उभयतो वक्रः, तथाविधशठवदिति, कालभेदेन वा व्याख्येयम् २ । अथ ऋजु ऋजुपरिणत इत्यादिका एकादश चतुर्भङ्गिका लाघवार्थमतिदेशेनाह— 'एव' मित्यनेन ऋजुर्नाम ऋजुरित्यादिनोपदर्शितक्रमभङ्गकक्रमेण 'येथे'ति येन | प्रकारेण परिणतरूपादिविशेषणनवकविशेषिततयेत्यर्थः, उन्नतप्रणताभ्यां परस्परं प्रतिपक्षभूताभ्यां गमः- सदृशपाठः कृतः, 'तथा' तेन प्रकारेण परिणतरूपादिविशेषिताभ्यामित्यर्थः, ऋजुवाभ्यामपि भणितव्यः, कियान् स इत्याह- 'जाव परक्कमेत्ति, ऋजुवक्रवृक्षसूत्रात्रयोदशसूत्रं यावदित्यर्थः, तत्र च ऋजु २ ऋजुपरिणत २ ऋजुरूप २ लक्षणानि षट् सूत्राणि वृक्षदृष्टान्तपुरुषदार्शन्तिकस्वरूपाणि, शेषाणि तु मनःप्रभृतीनि सप्त अदृष्टान्तानीति १३ । पुरुषविचार एवेदमाह
पडिमा पडिवन्नस्स णमणगारस्त कप्पंति चत्तारि भासातो भासित्तए, तं० - जायणी पुच्छणी अणुनवणी पुटुस्स वागरणी (सू० २३७) चत्तारि भासाजाता पं० तं० सचमेगं भासज्जायं दीयं मोसं तइयं समोसं चत्थं असचमोसं ४
ङ्गसूत्रवृत्तिः
॥ १८३ ॥
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"स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
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२
४ स्थान
काध्ययने
उद्देशः १ उन्नतादि
सू० २२६
॥ १८३ ॥
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२३९]
दीप
(सू०२३८) चत्तारि वत्था, पं० २०...-सुद्धे णाम एगे सुद्धे १ सुद्धे णामं एगे असुद्धे २ असुद्धे णाम एगे सुद्धे ३ असुदे णाम एगे असुद्धे ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पं० ०-सुद्धे णाम एगे सुद्धे चउभंगो ४, एवं परिणतरूवे वस्था सपडिवक्ता, चत्तारि पुरिसजाता पं० २०-सुद्धे णामं एगे सुद्धमणे चउभंगो ४, एवं संकप्पे आव पर
कमे (सू० २३९) स्फुटं, परं प्रतिमा-भिक्षुप्रतिमा द्वादश समयप्रसिद्धास्ताः प्रतिपन्नः-अभ्युपगतवान् यस्तस्य, याच्यतेऽनयेति याचनी पानकादेः दाहिसि मे एत्तो अन्नतरं पाणगजायमित्यादिसमयप्रसिद्धक्रमेण, तथा प्रच्छनी मार्गादेः कथश्चित्सूत्रार्थयोर्वा,
तथा अनुज्ञापनी अवग्रहस्य तथा पृष्टस्य केनाप्यर्थादेाकरणी-प्रतिपादनीति ॥ भाषाप्रस्तावादापाभेदानाह-चत्तारि दोभासे'त्यादि, जातम्-उत्पत्तिधर्मकं तच्च व्यक्तिवस्तु, अतो भाषाया जातानि-व्यक्तिवस्तूनि भेदा:-प्रकाराः भाषाजा
तानि, तत्र सन्तो मुनयो गुणाः पदार्था वा तेभ्यो हितं सत्यमेकं-प्रथम सूत्रक्रमापेक्षया भाष्यते सा तया वा भाषणं वा भाषा-काययोगगृहीतवाग्योगनिसृष्टभाषाद्रव्यसंहतिः तस्या जात-प्रकारो भाषाजातं अस्त्यात्मेत्यादिवत्, द्वितीय सूत्रक्रमादेव 'मोसं'ति प्राकृतत्वान्मृषा-अनृतं नास्त्यात्मेत्यादिवत्, तृतीयं सत्यमृषा-तदुभयस्वभावं आत्माऽस्त्य
कर्तेत्यादिवत्, चतुर्थमसत्यामूषा-अनुभयस्वभावं देहीत्यादिवदिति, भवतश्चात्र गाथे-"सचा हिया सतामिह संतो समुणओ गुणा पयत्था वा । तन्निवरीया मोसा मीसा जा तदुभयसहावा ॥१॥ अणहिगया जा तीसुवि सद्दो चिय
१ सया हिता सतामिह सन्तो मुनयो गुणाः पदार्था चा । तद्विपरीता मृषा मिश्रा सा या तदुभयसभावा ॥१॥ या तिसयपि अनधिकता
अनुक्रम [२५३]
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[२३९]
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अनुक्रम
[२५३]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [ ४ ], उद्देशक [१], मूलं [२३९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
तः पान
श्रीस्थाना- केवलो असच्चमुसा । एया सभेयलक्खण सोदाहरणा जहा सुत्ते ॥ २ ॥” इति पुरुषभेदनिरूपणायैवेयं त्रयोदशसूत्री'चत्तारि वत्थे'त्यादि, स्पष्टा, नवरं शुद्धं वस्त्रं निर्मलतन्त्वादिकारणारब्धत्वात् पुनः शुद्धमागन्तुकमलाभावादिति, अथवा पूर्व शुद्धमासीदिदानीमपि शुद्धमेव, विपक्षी सुज्ञानावेवेति, अथ दार्शन्तिकयोजना 'एवमेवेत्यादि, शुद्धो जात्यादिना पुनः शुद्धो निर्मलज्ञानादिगुणतया कालापेक्षया वेति 'चभंगो'त्ति चत्वारो भङ्गाः समाहृताः चतुर्भङ्गी चतुर्भङ्गं वा, पुंलिङ्गता चात्र प्राकृतत्वात्, तदयमर्थो वस्त्रवच्चत्वारो भङ्गाः पुरुषेऽपि वाच्या इति । 'एव' मिति यथा शुद्धात् शुद्धपदे परे चतुर्भङ्गं सदान्तिकं वखमुक्तमेवं शुद्धपदप्राकूपदे परिणतपदे रूपपदे च चतुर्भङ्गानि वस्त्राणि 'सपडि वक्खति सप्रतिपक्षाणि सदान्तिकानि वाच्यानीति, तथाहि चत्तारि वत्था पन्नत्ता, तंजहा मुद्धे नाम एगे सुद्धपषाः शुद्धादिः रिणए चतुर्भङ्गी, 'एवमेवेत्यादि पुरुषजातसूत्रचतुर्भङ्गी, एवं सुद्धे नाम एगे सुद्धरूवे चतुर्भङ्गी, एवं पुरुषेणापि, व्याख्या तु पूर्ववत् । 'चन्तारी'त्यादि, शुद्धो बहिः शुद्धमना अन्तः एवं शुद्धसङ्कल्पः शुद्धप्रज्ञः शुद्धदृष्टिः शुद्धशीलाचारः शुद्ध- + सू० २३७व्यवहारः शुद्धपराक्रम इति बखवर्णाः पुरुषा एव चतुर्भङ्गवन्तो वाच्याः, व्याख्या च प्रागिवेति, अत एवाह-एव| मित्यादि । पुरुषभेदाधिकार एवेदमाह
कानि भा
चतारि सुता पं० [सं० अविजाते अणुजाते अवजावे कुलिंगाले ( सू० २४०) चचारि पुरिसजाता पं० तं० सचे नाम एगे सधे, सधे नाम एगे असचे ४ एवं परिणते जाव परकमे, चत्तारि वत्था पं० [सं० सुतीनामं एगे सुती, १ केवलः शब्द एवं साऽसत्यसृषा । एताः सभेदलक्षणाः खोदादरणा यथा सूत्रे ॥ २ ॥
ङ्गसूत्र
वृत्तिः ॥ १८४ ॥
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४ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ प्रतिभाव
२३८२३९
॥ १८४ ॥
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आगम
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
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दीप
सईनाम एगे असुई, चउभंगो ४, एचामेव चत्तारि पुरिसजाता, पं० सं०-मुतीणाम एगे सुती, परभंगो, एवं जहेव मुरेणं वत्येणं भणितं तहेव सुतिणावि, जाव परकमे (सू० २४१) चत्तारि कोरवा पं० त०-अषपलबकोरवे वालपलबकोरवे बलिपलंगकोरवे मेंदविसाणकोरवे, एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पं० सं०-अंबपलंगकोरवसमाणे तालपलं.
बकोरवसमाणे बलिपलबकोरवसमाणे मेंढविसाणकोरवसमाणे (सू० २४२) सुताः-पुत्राः 'अइजाए'त्ति पितुः सम्पदमतिलाय जात:-संवृत्तोऽतिक्रम्य वा तां यातः-प्राप्तो विशिष्टतरसम्पदं समृद्धतर इत्यर्थः इत्यतिजातोऽतियातो वा, ऋषभवत्, तथा 'अणुजाए'त्ति अनुरूपः, सम्पदा पितुस्तुल्यो जातोऽनुजातः अनुगतो वा पितृविभूत्याऽनुयातः, पितृसम इत्यर्थः, महायशोवत्, आदित्ययशसा पित्रा तुल्यत्वात्तस्य, तथा 'अवजाए'त्ति अप इत्यपसदो हीनः पितुः सम्पदो जातोऽपजातः पितुः सकाशादीपद्धीनगुण इत्यर्थः, आदित्ययशोवत्, भरतापेक्षया तस्य हीनत्वात्, तथा 'कुलिङ्गाले'त्ति कुलस्य-खगोत्रस्याङ्गार इवाझारो दूषकत्वादुपतापकत्वाद्धेति | कण्डरीकवत्, एवं शिष्यचातुर्विध्यमप्यवसेयं, सुतशब्दस्य शिष्येष्वपि प्रवृत्तिदर्शनात् तत्रातिजातः सिंहगिर्यपेक्षया वैरखामिवत् , अनुजातः शय्यंभवापेक्षया यशोभद्रवत् , अपजातो भद्रबाहुस्खाम्यपेक्षया स्थूलभद्रवत्, कुलाङ्गारः कूलवालकवदुदायिनृपमारकवद्वेति । तथा 'चत्तारीत्यादि, सत्यो यथावद्वस्तुभणनाद् यथाप्रतिज्ञातकरणाच, पुनः सत्यः संयमित्वेन सो हितत्वाद्, अथवा पूर्व सत्य आसीदिदानीमपि सत्य एवेति चतुर्भङ्गी । एवंप्रकारसूत्राण्यतिदिशन्नाह -'एवं'मित्यादि, व्यक्तं, नवरमेवं सूत्राणि-चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-सच्चे नाम एगे सञ्चपरिणए ४, एवं सच्च
अनुक्रम [२५५]
*ASAOSESASEAMS
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२४२]
दीप अनुक्रम [२५६]
श्रीस्थाना- रुवे ४ सच्चमणे ४ सच्चसंकप्पे ४ सच्चपन्ने ४ सच्चदिही ४ सच्चसीलायारे ४ सञ्चववहारे ४ सञ्चपरकमेत्ति ४, पुरुषा-15 ४ स्थान
लसूत्र-लाधिकार एवेदमपरमाह-चत्तारि वत्थेत्यादि शुचि-पवित्रं स्वभावेन पुनः शुचि संस्कारेण कालभेदेन चेति, पुरुषचतु- काध्ययने 'वृत्तिः भाभङ्गयां शुचिः पुरुषोऽपूतिशरीरतया पुनः शुचिः स्वभावेनेति, सुइपरिणए सुइरुवे इत्येतत्सूत्रद्वयं दृष्टान्तदान्तिकोपे- उद्देशः१
सतम्, 'सुइमणे इत्यादि च पुरुषमात्राश्रितमेव सूत्रसप्तकमतिदिशन्नाह-एवं'मित्यादि कण्ठ्यं । पुरुषाधिकार एवेदमपर-| | अतिजा॥१८५॥
माह-चत्तारि कोरवे'इत्यादि, तत्र आधः-चूतः तस्य प्रलम्बः-फलं तस्य कोरक-तनिष्पादकं मुकुलं आम्रपलम्ब-1 लातादिः सकोरकम् , एवमन्येऽपि, नवरम्-तालो वृक्षविशेषा, वल्ली-कालिजबादिका, मेंढविषाणा-मेषशङसमानफला वनस्पति
त्यादिः जातिः, आउलिविशेष इत्यर्थः, तस्याः कोरकमिति विग्रहा, एतान्येव चत्वारि दृष्टान्ततयोपात्तानीति चत्वारीत्युक्तम्, कारकाः &ान तु चत्वार्येव लोके कोरकाणि, बहुतरोपालम्भादिति, 'एवेत्यादि सुगम, नवरमुपनय एवं-यः पुरुषः सेव्यमान उचि
पासू०२४०तकाले उचितमुपकारफलं जनयत्यसावामप्रलम्बकोरकसमानः, यस्त्वतिचिरेण सेवकस्य कष्टेन महदुपकारफलं करोति २४१
स तालप्रलम्बकोरकसमानः, यस्तु अनाचिरेण च ददाति स वल्लीप्रलम्बकोरकसमाना, यस्तु सेव्यमानोऽपि शोभ-| ४२४२ दानवचनान्येव ब्रूते उपकारं तु न कञ्चन करोति स मेण्ढविषाणकोरकसमानः, तत्कोरकस्य सुवर्णवर्णत्वादखायफलदायकत्वाञ्चेति ॥ पुरुषाधिकार पव घुणसूत्रं
चत्तारि धुणा पं० त०-तयक्खाते छल्लिक्खाते कढक्खाते सारक्खाते, एवामेव चत्तारि मिक्खागा पं० ०-तयक्यायसमाणे जाव सारक्खायसमाणे, तयक्खातसमाणस्स गं भिक्खागस्स सारक्खातसमाणे तवे पण्णते, सारक्सायसमा
*5%
॥१८५॥
%
%
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२४३]
दीप अनुक्रम [२५७]
56-595%2525-0520
णस्स णं भिक्खागस्स तयक्खातसमाणे तवे पण्णत्ते, छल्लिक्खायसमाणस्स णं भिक्खागस्स कहक्खायसमाणे तवे पण्णत्ते,
कहक्खायसमाणस्स णे मिक्खागस्स छल्लिक्खायसमाणे तवे पण्णत्ते (सू० २४३) त्वचं-बाह्यवल्कं खादतीति वक्खादः, एवं शेषा अपि, नवरं 'छल्लि'त्ति अभ्यन्तरं वल्क काष्ठ-प्रतीतं सारः-काष्ठ-14 मध्यमिति दृष्टान्तः, 'एवमेवे त्याद्युपनयसूत्रं, भिक्षणशीला भिक्षणधर्माणो भिक्षणे साधवो वा भिक्षाकाः, त्वक्खादेन धुणेन समानोऽत्यन्तं सन्तोपितया आयामाम्लादिप्रान्ताहारभक्षकत्वात् त्वक्खादसमानः, एवं छालीखादसमानोऽलेपाहारकत्वात् काष्ठखादसमानो निर्विकृतिकाहारतया सारखादसमानः सर्वकामगुणाहारत्वादिति, एतेषां चतुर्णामपि भिक्षाकाणां तपोविशेषाभिधानसूत्र 'तयक्खाये'त्यादि, सुगम, केवलमयं भावार्थ:-स्वकल्पासाराहाराभ्यवह निरभिष्वङ्गत्वात् कर्मभेदमङ्गीकृत्य वज्रसारं तपो भवतीत्यतोऽपदिश्यते–'सारक्खायसमाणे तत्ति, सारखादघुणस्य सारखादत्वादेव समर्थत्वात् वज्रतुण्डत्वाच्चोते, सारखादसमानस्योक्तलक्षणस्य साभिष्वङ्गतया त्वक्खादसमानं कर्मसारभेदं प्रत्यसमर्थं तपः स्यात्, त्वक्खादकघुणस्य हि तत्त्वादेव सारभेदनं प्रत्यसमर्थत्वादिति, तथा छल्लीखादघुणसमानस्य भिक्षाकस्य स्वक्खादघुणसमानापेक्षया किचिद्विशिष्टभोजित्वेन किञ्चित्साभिष्वङ्गत्वात् सारखादकाष्ठखादघुणसमानापेक्षया त्वसारभोजित्वेन निरभिष्वजित्वाच्च कर्मभेदं प्रति काष्ठखादघुणसमानं तपः प्रज्ञप्तं, नातितीव्र, सारखादघुणवत्, नाप्यतिमन्दादि, त्वक्छल्लीखादधुणवदिति भावः, तथा काष्ठखादघुणसमानस्य साधोः सारखादधुणसमानापेक्षया असारभो|जित्वेन निरभिष्वङ्गत्वात् त्वक्छलीखादघुणसमानापेक्षया सारतरभोजित्वेन साभिष्वगत्वाच छल्लीखादघुणसमानं तपः
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना-
सूत्रवृत्तिः
प्रत सूत्रांक [२४३]
॥१८६॥
दीप
प्रज्ञप्तं, कर्मभेदं प्रति न सारखादकाष्ठखादधुणवदतिसमर्थादि नापि त्वक्खादघुणवदतिमन्दमिति भावः, प्रथमविकल्पे ४ स्थानप्रधानतरं तपो द्वितीयेऽप्रधानतरं, तृतीये प्रधान, चतुर्थेऽप्रधानमिति ॥ अनन्तरं बनस्पत्यवयवखादका घुणाः प्ररू
काध्ययन पिता इति वनसतिमेव प्ररूपयन्नाह
उद्देशः१ चबिहा तणवणस्सतिकातिता पं० तं०-अग्गबीया मूलबीवा पोरबीया खंधवीया (सू०२४४) चाहिं ठाणेहि अ
वक्खाहुणोक्षण्णे गेरइए णेरइयलोगसि इच्छेजा माणुसं लोगं हवमागछित्तते, णो चेव णं संचातेध हव्वमागच्छित्तते, अहुणो- | दादिः अववष्णे नेरइए णिरयलोगसि समुन्भूयं वेयणं बेयमाणे इच्छेजा माणुसं लोग हव्वमागच्छित्तते णो चेव णं संचातेति
ग्रवीजाइन्वमागच्छित्तते १, अहुणोवपन्ने णेरइए निरतलोगंसि गिरयपालेहिं भुज्जो २ अहिद्विजमाणे इच्छेजा माणुसं लोग हम्ब- | दिः नारमागच्छित्तते, णो चेवणं संचातेति हनमागच्छित्तते २, अहुणोववन्ने णेरइए णिरतवेयणिज्जसि कम्मंसि अक्खीणसि
कागमः अवेतितंसि अणिजिन्नसि इच्छेजा, नो चेवणं संचाएइ ३, एवं गिरयाउअसि कम्मंसि अक्खीणंसि जाव णो वर्ण संघाव्यः संचातेति हन्बमागच्छित्तते ४, इथेतेहिं चउहि ठाणेहिं अहुणोववन्ने नेरतिते जाव नो चेवणं संचातेति हवमागच्छि
सू०२४३त्तए ४ (सू० २४५) कर्णति णिग्गंथीणं चत्वारि संघाडीओ धारितप वा परिहरितते वा, तं०-एग दुहत्यविस्थारं,
२४६ दो तिहत्यविस्थारा एगं चउहत्यवित्यारं (सू० २४६) 'चउब्विहे'त्यादि, वनस्पतिः प्रतीतः स एव काय:-शरीरं येषां ते वनस्पतिकायाः त एव वनस्पतिकायिकाः, तृण-18 प्रकारा बनसतिकायिकास्तुणवनस्पतिकायिका बादरा इत्यर्थः, अगं बीजं येषां ते अपनीजा:-कोरिण्टकादयः, अग्रे वा
अनुक्रम [२५७]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२४६]
बीज येषां तेऽयबीजा:-ब्रीह्यादयः, मूलमेव बीजं येषां ते मूलचीजा:-उत्सलकन्दादयः, एवं पर्वबीजा-इक्ष्वादयः, स्क-18 न्धवीजा:-सल्लक्यादयः, स्कन्धः धुडमिति, एतानि च सूत्राणि नान्यव्यवच्छेदनपराणि, तेन बीजरुहसम्मूच्र्छनजादीनां नाभावो मन्तव्यः, सूत्रान्तरविरोधादिति । अनन्तरं वनस्पतिजीवानां चतुःस्थानकमुक्तम् , अधुना जीवसाधानार
कजीवानानित्य तदाह-'चउहीं'त्यादि सुगम, केवलं 'ठाणेहि ति कारणैः 'अहुणोववन्ने'त्ति अधुनोपपन्न:-अचितारोपपन्ना, निर्गतमयं-शुभमस्मादिति निरयो-नरकस्तत्र भवो नैरयिकः, तस्य चानन्योत्पत्तिस्थानतां दर्शयितुमाह-निर
यलोके, तस्मादिच्छेन्मानुपाणामयं मानुपस्तं लोक-क्षेत्रविशेष 'हवं' शीघ्रमागन्तुं, 'नो चेव'त्ति नैव, णं वाक्यालङ्कारे, |'संचाएई' सम्यक् शक्रोति आगन्तुं, 'समुन्भूयंति समुद्भूताम्-अतिप्रबलतयोत्पन्नां पाठान्तरेण 'सम्मुखभूताम्'
एकहेलोत्पन्नां पाठान्तरेणामहतो महतो भवनं महद्भूतम् तेन सह या सा समता तां सुमहतां वा वेदनां-दुःख-| | रूपां वेदयमानः-अनुभवन् इच्छेदिति मनुष्यलोकागमनेच्छायाः कारणम् १, एतदेव चाशकनस्य, तीनवेदनाभिभूतो हि || न शक्क आगन्तुमिति, तथा निरयपालैः-अम्बादिभिः भूयो भूयः-पुनः पुनरधिष्ठीयमानः-समाक्रम्यमाणः आगन्तुमि-13
च्छेदित्यागमनेच्छाकारणमेतदेव चागमनाशक्तिकारणं, तैरत्यन्ताकान्तस्यागन्तुमशक्तत्वादिति २, तथा निरये वेद्यतेद अनुभूयते यत् निरययोग्यं वा यद्धेदनीयं तन्निरयवेदनीय-अत्यन्ताशुभनामकादि असातवेदनीयं वा तत्र कर्मणि
अक्षीणे स्थित्या अवेदिते अननुभूतानुभागतया अनिर्जीणे-जीवप्रदेशेभ्योऽपरिशटिते इच्छेत् मानुष लोकमागन्तुं न च | ४ाशनोति, अवश्यवेधकर्मनिगडनियन्त्रितत्वादित्यागमनाशकन एव कारणमिति ३, तथा 'एच'मिति 'अहणोवचने' इत्याद्य
दीप
अनुक्रम [२६०]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
4
प्रत सूत्रांक [२४६]
स्थानकाध्ययने उद्देशः१ ध्यानानि सू०२४७
E
-
दीप
श्रीस्थाना- मिलापसंसूचनार्थं निरयायुष्के कर्मणि अक्षीणे यावत्करणात् अवेइए इत्यादि दृश्यमिति ४, निगमयन्नाह–इचेएहिति, लसूत्र
इति एवंप्रकारैरेतैः-प्रत्यक्षरनन्तरोक्तत्वादिति । अनन्तरं नारकस्वरूपमुक्तं, ते चासंयमोपष्टम्भकपरिग्रहादुत्पद्यन्त इति त- वृत्तिः द्विपक्षभूतं परिग्रहविशेष चतुःस्थानकेऽवतारयन्नाह-कप्पंती'त्यादि, कल्पन्ते-युज्यन्ते निर्गता ग्रन्थाद्-बन्धहेतोहिर-
ठाण्यादेमिथ्यात्वादेश्चेति निर्ग्रन्थ्यः-साध्व्यस्तासां सङ्घाव्या-उत्तरीयविशेषरूपा धारयितुं वा परिग्रहे परिहर्तुं वा परिभोक्तु- ॥१८७॥
मिति, द्वौ हस्तौ विस्तार:-पृथुत्वं यस्याः सा तथा, कल्पन्त इति क्रियापेक्षया कर्तृत्वात् संघाटीना, 'एग दुहत्यवित्थारं, एगं चउहत्यविस्थाति प्रथमा स्यात्तदर्थे च प्राकृतत्वात् द्वितीयोक्ता, धारयन्ति परिभुञ्जते चेति, प्रत्ययपरिणामेन वेति (वा) |क्रियानुस्मृतेः द्वितीयैव, तत्र प्रथमा उपाश्रये भोग्या त्रिहस्तविस्तारयोरेका भिक्षागमने द्वितीया विचारभूमिगमने चतुर्थी समवसरणे, उक्तं च-"संघाडीओ चउरो तत्थ दुहत्था उवसयंमि ॥ दुन्नि तिहत्थायामा भिक्खडा एग एग उच्चारे।
ओसरणे चउहत्था निसन्नपच्छायणी मसिणा ॥१॥" इति नारकत्वं ध्यानविशेषाद्, ध्यानविशेपार्थमेव च संघाव्यादिअपरिग्रह इति ध्यानं प्रकरणत आह
चत्तारि साणा पं० सं०-अहे नाणे रोदे झाणे धम्मे झाणे सुके झाणे, अट्टे शाणे परिवहे पं० २०-अमणुनसंपभोगसंपउत्ते तस्स वियोगसतिसमण्णागते यावि भवति १. मणुनसंपयोगसंपडते तस्स अविष्णमोगसतिसमण्णागते यावि भवति २ आकसंपओगसंपत्ते तस्स विपओगसतिसमण्णागए यावि भवति ३, परिजुसितकामभोगसंपओगसंपउत्ते १ संघाव्यश्वतत्रतत्र द्विपल्ला उपाश्रये ॥ द्वे प्रिहस्सायाम निक्षायै एका उच्चारे का अवसरणे चतुर्हस्ता निषण्णप्रच्छादनी मयणा ॥१॥
%
अनुक्रम [२६०]
%
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।।१८७॥
*
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक [२४७]
दीप
अनुक्रम [२६१]
[भाग - 5] "स्थान" अंगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः)
स्थान [ ४ ], उद्देशक [1]. मूलं [ २४७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
Education intonal
-
सुगमं चैतन्नवरं ध्यातयो ध्यानानि अन्तर्मुहूर्त्तमात्रं कालं चित्तस्थिरतालक्षणानि, उक्तं च--" अंतोमुहुत्तमित्तं चित्तावत्थाणमेगवत्थुम्मि । छडमस्थाणं झाणं जोगनिरोहो जिणाणं तु ॥ १ ॥” इति तत्र ऋतं दुःखं तस्य निमित्तं
१] अन्तर्मुहूर्तमात्रं एकत्र वस्तुनि मनोऽवस्थानं ध्यानं छपस्थानां जिनानां तु योगनिरोधः ॥ १ ॥
चत्वार: ध्यानस्य वर्णनं
-
तरस अविष्पओगसतिसमण्णागते यावि भवइ ४, अट्ठस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पं०, वं०—कंदणता सोतणत सिप्पणता परिदेवणता । रोदे झाणे चउन्विहे पं० नं० - हिंसाणुबंधि मोसाणुबंधि तेणाणुर्वधि सारक्खणाणुबंधि, रुदस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पं० तं० ओसण्णदोसे बहुदोसे अन्नापदोसे आमरणंतदोसे । धम्मे झाणे चउविहे चउप्पडोयारे पं० [सं० आणाविजते अवायविजते विवागविजते संठाणविजते, धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पं० तं० - आणारुई णिसग्गरुई सुत्तरुई ओगाढरुती, धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पं० [सं० त्रायणा पडिपुच्छणा परियट्टणा अणुष्पा, धम्मस्स णं माणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पं० तं०एगाणुप्पेहा अणिचाणुप्पेद्दा असरणाणुप्पेहा संसाराणुप्पेहा, सुके झाणे चउब्विद्दे चप्पडोआरे पं० [सं० पुहुत्तवित के सवियारी १, एगत्तवितके अविचारी २, सुमकिरिते अणियट्टी ३, समुच्छिन्नकिरिए अप्पडिवाती ४, सुकस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पं० [सं० अब असम्मोहे विवेगे विउस्सगे, सुकस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पं० तं० खंती मुत्ती मद्दवे अजवे, भुवस्स णं झाणस्स चचारि अणुप्पेहाओ पं० नं० -अणंतवत्तियाणुप्पेहा विष्परिणामाणुप्पेहा असुभाणुपेहा अवायाणुप्पेहा (सू० २४७ )
For Personal & Pre Use Only
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[२४७]
दीप
अनुक्रम [२६१]
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [ ४ ],
उद्देशक [१], मूलं [२४७]
पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थाना
ङ्गसूत्र
वृत्तिः
१८८ ॥
तत्र वा भवं ऋते वा पीडिते भवमार्त्त ध्यानं दृढोऽध्यवसायः हिंसाद्यतिक्रौर्यानुगतं रौद्रं श्रुतचरणधर्मादनपेतं धर्म्य शोधयत्यष्टप्रकारं कर्म्ममलं शुचं वा लमयतीति शुक्लं, 'चडब्बिहे'त्ति चतस्रो विधा-भेदा यस्य तत्तथा, अमनोज्ञस्य-अनिष्टस्य, असमणुनस्सति पाठान्तरे अस्वमनोज्ञस्य - अनात्मप्रियस्य शब्दादिविषयस्य तत्साधनवस्तुनो वा सम्प्रयोगः- सम्बन्धस्तेन सम्प्रयुक्तः सम्बद्धः अमनोज्ञसम्प्रयोगसम्प्रयुक्तो अस्वमनोज्ञसम्प्रयोगसम्प्रयुक्तो वा य इति गम्यते 'तस्येति अमनोज्ञशब्दादेविप्रयोगाय- विप्रयोगार्थं स्मृतिः- चिन्ता तां समन्यागतः - समनुप्राप्तो भवति यः प्राणी सोडभेदोपचारादार्त्तमिति, चापीतिशब्द उत्तरविकल्पापेक्षया समुच्चयार्थः, अथवा अमनोज्ञसम्प्रयोगसम्प्रयुक्तो यः प्राणी तस्य प्राणिनः विप्रयोगे - प्रक्रमादमनोज्ञशब्दादिवस्तूनां वियोजने स्मृतिः - चिन्तनं तस्याः समन्वागतं समागमनं समन्याहारो विप्रयोगस्मृतिसमन्वागतं, चापीति तथैव भवति आर्त्तध्यानमिति प्रक्रमः, अथवा अमनोज्ञसम्प्रयोगसम्प्रयुक्ते प्राणिनि 'तस्ये'ति अमनोज्ञशब्दादेर्विप्रयोगस्मृतिसमन्वागतमार्त्तध्यानमिति, उक्तं च - " आर्त्तममनोज्ञानां सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्याहारः " ( तत्त्वार्थ० अ० ९ सू० ३१ ) इति प्रथममेवमुत्तरत्रापि, नवरं मनो वलभं धनधान्यादि अविप्रयोगः- अवियोग इति द्वितीयमार्त्तमिति, तथा आतङ्को--रोग इति तृतीयं, तथा 'परिजुसिय'त्ति निषेविताः ये कामाः - कमनीयाः भोगाः - शब्दादयोऽथवा कामौ - शब्दरूपे भोगाः - गन्धरसस्पर्शाः कामभोगाः कामानां वा-शब्दादीनां यो भोगस्तैस्तेन वा सम्प्रयुक्तः, पाठान्तरे तु तेषां तस्य वा सम्प्रयोगस्तेन सम्प्रयुक्तो यः स तथा, अथवा 'परिशुसिय'ति परिक्षीणो जरादिना स चासौ कामभोगसम्प्रयुक्तश्च यस्तस्य तेषामेवाविप्रयोग
Education intemational
चत्वार: ध्यानस्य वर्णनं
For Personal & Private Use Only
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४ स्थानकाध्ययने
उद्देशः १ ध्यानानि
सू० २४७
॥ १८८ ॥
www.scary.
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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प्रत
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सूत्रांक [२४७]
पद स्मृतेः समन्वागत-समन्वाहारः, तदपि भवत्यार्तध्यानमिति चतुर्थ, द्वितीयं बलभधनादिविषयं चतुर्थ तत्सम्पाधश
ब्दादिभोगविषयमिति भेदोऽनयोर्भावनीयः, शास्त्रान्तरे तु द्वितीयचतुर्थयोरेकत्वेन तृतीयत्वम् , चतुर्धे तु तत्र निदानमुक्त, उक्तं च--"अमणुन्नाणं सद्दाइविसयवत्थूण दोसमइलरस । (वस्तूनि-शब्दादिसाधनानि दोसोत्ति द्वेषः) धणियं वियोगचिंतणमसंपोगाणुसरणं च ॥१॥ तह सूलसीसरोगाइवेयणाए विओगपणिहाणं । तयसंपओगचिंता तप्पडियाराउलमणस्स ॥२॥ इहाणं विसयाईण वेयणाए य रागरत्तस्स । अविओगज्झवसाणं तह संजोगाभिलासो य ॥३॥ देविंदचकवट्टित्तणाइगुणरिद्धिपस्थणामइ । अहम नियाणचिंतणमन्नाणाणुगयमचंतं ॥४॥" इति, आतंध्यानलक्षणान्याह-लक्ष्यते--निणर्णीयते परोक्षमपि चित्तवृत्तिरूपत्वादार्तध्यानमेभिरिति लक्षणानि, तत्र कन्दनता-महता शब्देन विरवणं शोचनता-दीनता तेपनता-तिपेःक्षरणार्थत्वादश्रुविमोचन परिदेवनता-पुनः पुनः क्लिष्टभाषणमिति,एतानि चेष्टवियोगानिष्टसंयोगरोगवेदनाजनितशोकरूपस्यैवार्तस्य लक्षणानि, यत आह-"तस्सकंदणसोयणपरिदेवणताडणाई लिंगाई । इडाणिद्ववियोगावियोगवियणानिमित्ताई ॥१॥" इति, निदानस्यान्येषां च लक्षणान्तरमस्ति, आह च
शब्दादिविषयसाधनानामनोशानां देषमलिगस्य वियोगक्तिनं बाई असंप्रयोगानुस्मरणं च ॥१॥ तथा शूलंशिरोरोगादिवेदनाया पियोगप्रणिपानं त| दसम्प्रयोगचिन्ता तत्प्रतीकाराकुलमनसः ॥२॥ इष्टानां विषवादीनामनुभवे रागरवस्थावियोगाम्यवसानं तभा संयोगाभिलाषच ॥३॥ देवेन्दचक्रवति । स्वादिगुणदिप्रार्थनामयं अधर्म निदानचिन्तनमशानानुगतमसन्तम् ॥ ४॥ २ तपादनशोचनपरिदेवनसाधनानि सिंगानि । दष्टानिष्टवियोगालियोच वेदनानिमित्तानि ॥१॥
दीप
अनुक्रम [२६१]
चत्वार: ध्यानस्य वर्णनं
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना- हसूत्रवृत्तिः ॥ १८९॥
४ स्थानकाध्ययने उद्देशः१ ध्यानानि सू०२४७
सूत्रांक
[२४७]
दीप
SAX
"निदइ निययकयाई पसंसइ सविम्हओ विभूईओ। पत्थेइ तासु रजइ तयजणपरायणो होइ ॥१॥" इति ॥ अथ रौद्र- ध्यानभेदा उच्यन्ते, हिंसा-सत्त्यानां वधबन्धनादिभिः प्रकारः पीडामनुवनाति-सततप्रवृत्तं करोतीत्येवंशीलं याणिधानं| हिंसानुबन्धो वा यत्रास्ति तद्धिंसानुबन्धि रौद्रध्यानं इति प्रक्रम इति, उक्तं च-"सत्तवहवेहबंधणडहर्णकणमारणाइपणिहाणं । अइकोहग्गहगत्थं णिग्घिणमणसोऽहमविवागं ॥१॥” इति, तथा मृषा-असत्यं तदनुबध्नाति पिशुनाऽसभ्या- सद्भूतादिभिर्वचनभेदैस्तन्मृषानुबन्धि, आह च-"पिसुणाऽसम्भासम्भूयभूयछायाइवयणपणिहाणं । मायाविणोऽतिसं- धणपरस्स पच्छन्नपाधस्स ॥१॥" इति, तथा स्तेनस्य-चौरस्य कर्म स्तेयं तीवक्रोधाद्याकुलतया तदनुबन्धवत् स्यानुवन्धि, आह च-तह तिब्वकोहलोहाउलस्त भूतोवघायणमणजं । परदब्वहरणचित्तं परलोगावायनिरवेक्खं ॥१॥" इति, संरक्षणे-सोंपायैः परित्राणे विषयसाधनधनस्यानुबन्धो यत्र तत्संरक्षणानुबन्धि, यदाह-"सेदाइविसयसाहणधणसंरक्षणपरायणमणिहं। सब्वाहिसंकणपरोवघायकलुसाउलं चितं ॥१॥” इति । अथैतल्लक्षणान्युच्यन्ते-ओसन्नदोसे'त्ति हिंसादीनामन्यतरस्मिन् ओसन्नं-प्रवृत्तेः प्राचुर्य बाहुल्यं यत्स एवं दोषः अथवा 'ओसन्नति बाहुल्ये
निन्दति निजकृतानि प्रशंसति सरिसगो विभतीः प्रायति तासु राज्यति तदर्जनपरायणो भवति ॥1॥१ समवयवेवबंधनवहन कनमारणाविप्र४ा गिधानमतिकोधग्रहासां निणमनसोऽयमविपार्क ॥१॥ ३ पिशुनाराभ्यासतभूतपातादिवचनप्रणिपानं । मायाविनोऽतिसंधानपरस्प प्रश्नपापस्य ॥१॥
४ तथा तीनकोचलोभाकुलस्य भूतोपपातनमनार्य पराव्यहरणपितं परकोकापायानरपेक्ष ॥१॥ ५शब्दादिविषयसाधनधनसंरक्षणपरायणमनिटं । सर्याभि-I नपरोपघातकलपाकुलं वित्तं ॥१॥
अनुक्रम [२६१]
॥१८९॥
म
चत्वार: ध्यानस्य वर्णनं
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [२४७]
नानुपरतत्वेन दोषो हिंसादीनां चतुर्णामन्यतर ओसन्नदोषः, तथा बहुष्वपि-सर्वेष्वपि हिंसादिषु दोषः-प्रवृत्तिलक्षणो बहुदोषः, बहुा-बहुविधो हिंसानृतादिरिति बहुदोषः, तथा अज्ञानात्-कुंशास्त्रसंस्कारात् हिंसादिष्वधर्मस्वरूपेषु नरकादिकारणेषु धर्मबुख्याऽभ्युदयार्थ या प्रवृत्तिस्तल्लक्षणो दोषोऽज्ञानदोषः, अथवा उक्तलक्षणमज्ञानमेव दोषोऽज्ञानदोष इति, अन्यत्र नानाविधदोष इति पाठस्तत्र नानाविधेषु तु-उक्तलक्षणादिषु हिंसाद्युपायेषु दोषोऽसकृत्प्रवृत्तिरिति नानाविधदोष इति, तथा भरणमेवान्तो मरणान्तः आमरणान्तादामरणान्तम् असञ्जातानुतापस्य कालसौकरिकादेरिव या का हिंसादिषु प्रवृत्तिः सैव दोष आमरणान्तदोषः । अथ धय चतुर्विधमिति स्वरूपेण चतुषु पदेषु-स्वरूपलक्षणालम्बना
नुप्रेक्षालक्षणेष्ववतारो विचारणीयत्वेन यस्य तञ्चतुष्पदावतारं चतुर्विधस्यैव पर्यायो वाऽयमिति, कचित् 'चउप्पडोयार'मिति पाठस्तत्र चतुषु पदेषु प्रत्यवतारो यस्येति विग्रह इति, 'आणाविजए'त्ति आ-अभिविधिना शायन्तेऽर्था यया साऽऽज्ञा-प्रवचनं सा विचीयते-निणीयते पर्यालोच्यते वा यस्मिंस्तदाज्ञाविचर्य धर्मध्यानमिति, प्राकृतत्वेन विजय| मिति, आज्ञा या विजीयते अधिगमद्वारेण परिचिता क्रियते यस्मिन्नित्याज्ञाविजयं, एवं शेपाण्यपि, नवरं अपाया
रागादिजनिताः प्राणिनामैहिकामुष्मिका अनर्थाः, विपाका-फलं कर्मणां ज्ञानाद्यावारकत्वादि संस्थानानि लोकद्वी-| पसमुद्रजीवादीनामिति, आह च-"आप्तवचनं प्रवचनमाज्ञा विचयस्तदर्थनिर्णयनम् । आश्रवविकथागौरवपरीषहाथै-| पायस्तु ॥ १॥ अशुभशुभकर्मपाकानुचिन्तनार्थो विषाकविचयः स्यात् । द्रव्यक्षेत्राकृत्यनुगमनं संस्थानविचयस्स्वि | ॥२॥" ति, एतल्लक्षणान्याह-आणारुइ'त्ति आज्ञा-सूत्रव्याख्यानं नियुक्त्यादि तत्र तया वा रुचिः-श्रद्धानं आ-14
दीप
अनुक्रम [२६१]
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चत्वारः ध्यानस्य वर्णनं
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना-
सूत्रवृत्तिः
प्रत
उद्देशः १
सूत्रांक
॥१९
॥
[२४७]
दीप
ज्ञारुचिः, एवमन्यत्रापि, नवरं निसर्गः-स्वभावोऽनुपदेशस्तेन, तथा सूत्रम्-आगमः तत्र तस्माद्वा, तथा अवगाहनमव-
I ४ स्थानगाढम्-द्वादशाङ्गावगाहो विस्तराधिगम इति सम्भाव्यते तेन रुचिः अथवा ओगाढत्ति साधुप्रत्यासन्नीभूतस्तस्य साधू-18 काध्ययने पदेशाद्रुचिः, उक्तं च-"आगमउवएसेणं निसग्गओ जं जिणप्पणीयाणं । भावार्ण सदहणं धम्मज्झाणस्स तं लिंग ॥१॥" इति, तत्वार्थश्रद्धानरूपं सम्यक्त्वं धर्मस्य लिङ्गमिति हृदयं, धर्मस्यालम्बनान्युच्यन्ते-धर्मध्यानसौधारोहणा- ध्यानानि र्थमालम्ब्यन्त इत्यालम्बनानि वाचनं वाचना-विनेयाय निर्जरायै सूत्रदानादि, तथा शङ्किते सूत्रादौ शङ्कापनोदाय गुरोः | सू०२४७ प्रच्छनं प्रतिप्रच्छना, प्रतिशब्दस्य धात्वर्धमात्रार्थत्वादिति, तथा पूर्वाधीतस्यैव सूत्रादेरविस्मरणनिर्जरार्थमभ्यासः परिवर्त्तनेति, अनुप्रेक्षणमनुप्रेक्षा-सूत्रार्थानुस्मरणमिति । अथानुत्प्रेक्षा उच्यन्ते-अन्विति-ध्यानस्य पश्चात्प्रेक्षणानि-पर्यालोचनान्यनुप्रेक्षाः, तत्र एकोऽहं न च मे कश्चिन्नाहमन्यस्य कस्यचित् । न तं पश्यामि यस्याहं, नासौ भावीति यो मम ॥१॥" इत्येवमात्मन एकस्य-एकाकिनो असहायस्यानुप्रेक्षा-भावना एकानुप्रेक्षा, तथा-"कायः सन्निहितापायः, सम्पदः पदमा-| पदाम् । समागमाः सापगमाः, सर्वमुत्पादि भङ्गरम् ॥१॥" इत्येवं जीवितादेरनित्यस्यानुप्रेक्षा अनित्यानुप्रेक्षेति, तथा "जन्मजरामरणभरभिडते व्याधिवेदनाग्रस्ते । जिनवरवचनादन्यत्र नास्ति शरणं कचिलोके ॥१॥" एवमशरणस्य| अत्राणस्यात्मनोऽनुप्रेक्षा अशरणानुप्रेक्षेति, तथा-"माता भूत्वा दुहिता भगिनी भार्या च भवति संसारे । ब्रजति सुतः | पितृतां भ्रातृतां पुनः शत्रुताश्चैव ॥ १॥" इत्येवं संसारस्य-चतसृषु गतिषु सर्वावस्थासु संसरणलक्षणस्यानुप्रेक्षा संसा-15॥१९॥
मागमोपदेशेन निसर्गतो यजिनप्रणीतानां भावानां श्रद्धधानं तवमच्यानिनो लिंग ॥१॥
अनुक्रम [२६१]
चत्वार: ध्यानस्य वर्णनं
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [२४७]
रानुप्रेक्षेति । अथ शुकमाह-पुहुत्तवितकेत्ति पृथक्त्वेन-एकद्रव्याश्रितानामुत्पादादिपर्यायाणां भेदेन पृथुत्वेन या विस्तीर्णभावेनेत्यन्ये वितर्को-विकल्पः पूर्वगतश्रुतालम्बनो नानानयानुसरणलक्षणो यस्मिंस्तत्तथा, पूज्यैस्तु वितर्कः श्रुतालम्बनतया श्रुतमित्युपचारादधीत इति, तथा विचरणम्-अर्थाद् व्यञ्जने व्यञ्जनादर्थे तथा मनःप्रभृतीना योगानामन्यतरस्मादन्यतरस्मिन्निति विचारो 'विचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसङ्क्रान्ति'रिति (तत्त्वा० अ०९ सू०४६) वचनात्, सह विचारेण सविचारि, सर्वधनादित्वादिन्समासान्तः, उक्तं च-"उप्पायठितिभंगाई पजयाणं जमेगदग्बंमि । नाणानयाणुसरणं पुन्वगयसुयाणुसारेणं ॥१॥ सवियारमस्थर्वजणजोगंतरओ तयं पढमसुकं । होति पुहुत्तवियर्क सवियारमरागभावस्स ॥२॥" इत्येको भेदः, तथा 'एगत्तवियकत्ति एकत्वेन-अभेदेनोसादादिपर्यायाणामन्यतमैकपर्यायालन्बनतयेत्यर्थो वितर्क:-पूर्वगतश्रुताश्रयो व्यञ्जनरूपोऽर्थरूपो वा यस्य तदेकत्ववितकम्, तथा न विद्यते विचारोऽर्थव्यञ्जनयोरितरस्मादितरत्र तथा मनप्रभृतीनामन्यतरस्मादन्यत्र सञ्चरणलक्षणो निर्वातगृहगतप्रदीपस्येव यस्य तदबिचारीति पूर्ववदिति, उक्तं च- पुण सुनिष्पक निवायसरणप्पईवमिव चित्तं । उपायठिइभंगाइयाणमेगमि पज्जाए ॥१॥ अवियारमत्थर्वजणजोगंतरओ तय बिइयसुकं । पुधगयसुयालंबणमेगत्तवियकमवियारं ॥२॥” इति द्वितीयः, तथा
१ उत्पादस्थितिभंगादिपर्यवानां यदेकस्मिन् अम्बे नानानपैरनुसरणं पूर्वगतश्रुतानुसारेण ॥ १॥ सविचारमननयोगान्तरतस्तत् प्रथमचक्रम् भवति | पृथक्त्ववितर्क सपिचारमरागभावस ॥२॥२ यत्पुनः मुनिष्प्रकप निवातस्थानप्रदीपभिव पित्त उत्पादस्थितिभंगादीनामेकस्मिन् पर्याये ॥1॥ अविचारमर्थबननयोगान्तरतखत द्वितीय शलम् । पूर्वगतधुतालम्बनमेकत्वनितमविचारम् ॥ २॥
SARESCAX
दीप
अनुक्रम [२६१]
AnEautatunIOमाधान
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चत्वार: ध्यानस्य वर्णनं
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आगम
(०३)
प्रत
सूचांक
[२४७]
दीप
अनुक्रम [२६१]
[भाग - 5] "स्थान" अंगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [1]. मूलं [ २४७]
स्थान [ ४ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थाना
ङ्गसूत्रवृत्तिः
॥ १९१ ॥
'सुमकिरिए 'त्ति निर्वाणगमनकाले केवलिनो निरुद्धमनोवाग्योग स्थार्द्ध निरुद्ध काययोगस्यैतद्, अतः सूक्ष्मा क्रिया का विकी उच्छासादिका यस्मिंस्तत्तथा न निवर्त्तते न व्यावर्त्तत इत्येवंशीलमनिवर्त्ति प्रवर्द्धमानतर परिणामादिति, भणितं च - "निवाणगमणकाले केवलिणो दरनिरुद्धजोगस्स । सुहुमकिरियाऽनियहिं तइयं तणुकायकिरियस्स ॥ १ ॥” इति तृतीयः, तथा, 'समुच्छिन्नकिरिए ति समुच्छिन्ना क्षीणा क्रिया- कायिक्यादिका शैलेशीकरणे निरुद्धयोगत्वेन यस्मिंस्तत्तथा, 'अप्पडिवाए'त्ति अनुपरतिस्वभावमिति चतुर्थः, आह हि -"तस्सेव य सेलेसीगयस्स सेलोव्व निष्पकँपस्स । वोच्छिन्नकिरियामप्पडिवाई झाणं परमसुक्कं ॥ १ ॥” इति इह चान्त्ये शुकुभेदद्वये अयं क्रमः केवली किलान्तर्मुहूर्त्त भाविनि परमपदे भवोपग्राहिकर्म्मसु च वेदनीयादिषु समुद्घाततो निसर्गेण वा समस्थितिषु सत्सु योगनिरोधं करोति, तत्र च - 'वैज्जत्तमेत्तसन्निस्स जत्तियाई जहन्न जोगिस्स । होंति मणोदव्वाई तव्वावारो य जम्मेत्तो ॥ १ ॥ तदसंखगुणविहीणे समए समए निरंभमाणो सो । मणसो सव्वनिरोहं कुणइ असंखेजसमएहिं ॥ २ ॥ पज्जत्तमेत्तबिंदिय जहन्नवइजोगपज्जया जे उ । तदसंखगुणविहीणे समए समए निरंतो ॥ ३ ॥ सव्ववइजोगरोहं संखाती एहिं कुणइ समएहिं ।
- -
१ निर्वाणगमन कालेऽगि योगस्य केवलिनः सूक्ष्मक्रियानिवृत्ति तृतीयं सूक्ष्मकाय क्रियस्य ॥ १ ॥ २ तस्यैव च शैलेशीगतस्य शैल द्रव निष्प्रकंपस्य । व्युच्छिशक्रियमप्रतिपाति ध्यानं परमशु ॥ १ ॥ संज्ञिनः पर्याप्तमात्रस्य यावन्ति जन्ययोगिनः भवति मनोद्रव्याणि तद्व्यापारथ यावन्मात्रः ॥ १ ॥ गुणविहीनानि समये समये निरुन्धन् सः । मनसः सर्वनिरोधं करोत्ययातसमयैः ॥ २ ॥ पर्याप्तमात्राद्रियस्स जघन्यवारयोगपर्यया ये तु तदसगुणविहीनान् समये समये निधन ॥ ३ ॥ सर्ववायोरोधं सयातीतः करोति समयैः ।
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चत्वारः ध्यानस्य वर्णनं
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४ स्थानकाध्ययने
उद्देशः १
ध्यानानि
सू० २४७
॥ १९१ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
ॐॐॐॐ15-
1
COMA
सूत्रांक [२४७]
तत्तो अ सुहमपणगस्स पढमसमओववन्नस्स ॥४॥जो किर जहन्नजोगो तदसंखेजगुणहीणमेकेके । समए निरुंभमाणो
देहतिभागं च मुंचतो ॥५॥ रुंभइ स काययोगं संखाईतेहिं चेव समएहिं । तो कयजोगनिरोहो सेलेसीभावणामेइ M॥६॥' शैलेशस्येव-मेरोरिव या स्थिरता सा शैलेशीति, 'हस्सक्खराई मझेण जेण कालेण पंच भन्नति । अच्छइ से-14
लेसिगओ तत्तियमेत्तं तओ कालं ॥ १॥ तणुरोहारंभाओ झायइ सुहुमकिरियाणियदि सो । चोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाई सेलेसिकालंमि ॥२॥” इति । अथ शुक्लध्यानलक्षणान्युच्यन्ते-अवहे'त्ति देवादिकृतोपसर्गादिजनितं भयं चलनं वा व्यथा तस्या अभावो अव्यथम् , तथा देवादिकृतमायाजनितस्य सूक्ष्मपदार्थविषयस्य च संमोहस्य-मूढताया निषेधादसम्मोहः, तथा देहादात्मन आत्मनो वा सर्वसंयोगानां विवेचनं-बुया पृथकरणं विवेकः, तथा निःसङ्गतया देहोपधित्यागो व्युत्सर्ग इति । अत्र विवरणगाथा-"चालिजइ बीहेइ व धीरो न परीसहोवसग्गेहिं । सुहुमेसु न संमुझइ | भावेसु न देवमायासु २॥१॥ देहविवित्तं पेच्छइ अपाणं तय सम्बसंजोगे ३ । देहोवहिवुस्सगं निस्संगो सम्वहा कुणइ ॥२॥" इति, आलंघनसूत्र व्यक्तं, तत्र गाथा-"अह खंतिमद्दवज्जवमुत्तीओ जिणमयप्पहाणाओ । आलंवणाई।
ततच सूक्ष्मपनकस्य प्रथमसमयोत्पनस्य ॥ ४॥ यः किल जघन्ययोगस्तदरायगुणहीनमेकै कस्मिन् समये निधन बेहविभागं च मुंचन ॥ ५ ॥स काययोग सञ्जयातीतक्षेत्र समय रुगदि ततः कृतयोगनिरोधः शैलेशीभावना एति ॥ ६॥ वैन मम्वेन कालेन पंच स्वाक्षराणि भष्यन्ते । तावन्मानं कालं ततः शैिलिशीगततिप्रति ॥१॥ सनरोधारम्भात् भ्यायति सक्षमकियानिवृत्ति सः । व्यच्छिमकियमप्रतिपाति शैलेशीकाले ॥ ३ ॥२ चाल्पते बिति या धीरोन परिवहीपस: सूक्ष्मेपपि भायेषु न संमुख्यति न ब देसमायासु॥१॥ आत्मानं देह विवि प्रेक्षते तथा सखयोगांच देहोपषिपुत्सर्ग निस्संगः सर्वथा क ३ अथ क्षान्तिमादेवावमुख्यः आलंबनानि
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अनुक्रम [२६१]
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चत्वार: ध्यानस्य वर्णनं
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना
सूत्रवृत्तिः
प्रत
|४ स्थान| काध्ययने | उद्देशः१ | ध्यानानि सू०२४७
सूत्रांक
| जेहि उ सुकल्झाणं समारुहइ ॥१॥” इति, अथ तदनुप्रेक्षा उच्यन्ते–'अणंतवत्तियाणुप्पेह'त्ति अनन्ता-अत्यन्त | प्रभूता वृत्तिः-वर्तनं यस्यासावनन्तवृत्तिः अनन्ततया वा वर्तत इत्यनन्तवत्ती तद्भावस्तत्ता, भवसन्तानस्येति गम्यते, तस्या अनुप्रेक्षा अनन्तवृत्तितानुप्रेक्षा अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा वेति, यथा-"एस अणाइ जीवो संसारो सागरोन्य दुत्तारो। नारयतिरियनरामरभवेसु परिहिंडए जीवो ॥१॥" इति, एवमुत्तरत्रापि समासः, नवरं 'विपरिणाम त्ति विविधेन प्रकारेण परिणमनं विपरिणामो वस्तूनामिति गम्यते, यथा-"सब्बट्ठाणाई असासयाई इह चेव देवलोगे य । सुरअसुरनराईणं रिद्धिविसेसा सुहाई च ॥१॥" 'असुभेत्ति अशुभत्वं संसारस्येति गम्यते, यथा-"धी संसारो जैमि(मी)जुयाणओ परमरूवगब्बियो । मरिऊण जायइ किमी तत्थेव कडेवरे नियए ॥१॥" तथा अपाया आश्रयाणामिति गम्यते, यथा-"कोहो य माणो य अणिग्गहीया, माया य लोभो य पवहमाणा । चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति| मूलाई पुणग्भवस्स ॥१॥" इह गाथा-"आसवदारावाए तह संसारासुहाणुभावं च । भवसंताणमणतं वत्थूणं विप[रिणामं च ॥१॥” इति । ध्यानाद् देवत्वमपि स्यादतो देवस्थितिसूत्र
[२४७]
दीप
अनुक्रम [२६१]
IA
१जिनमतप्रधानाः यस्तु सध्यान समारोहति ॥ १॥ १ एष जीवोऽनादिः सागर इव संसारो दुरुत्तारः । जीको नारकतिर्थपरागरभवेषु परिहिंडते ॥१॥
देवलोके च सर्वाणि स्थानाभ्यशावतान्येच मुरासुरनरादीनां ऋद्धिविशेषाः मुखानि च ॥ १॥ ४ विक् संसार यस्मिन् युषा परमरूपगर्वितः मृत्वा कृमिर्जायते ||2 तत्रैव निजे कलेवरे ॥1॥ ५ कोधो मानधामिगृहीती माया व लोभव विषधमानी चत्वार एते कृतमाः कषायाः पुनर्भवस्य मूलानि सिञ्चन्ति ॥१॥ भानवद्वारापायान् तथा संसाराभानुभावं अनन्तं भवसन्तानं वस्तूनां परिणामं च ॥1॥
॥१९२
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चत्वार: ध्यानस्य वर्णनं
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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सूत्रांक
[२४८]
दीप
चलठियहा देवाण ठिती पं० सं०-देवे णाममेगे १ देवसिणाते नाममेगे २ देवपुरोहिते नाममेगे ३ देवपज्जलणे नाममेगे ४, चउम्विधे संवासे पं० त०-देचे णाममेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छेज्जा, देवे णाममेगे छवीते सहि संवासं गच्छेला, छवी णाममेगे देवीए सहिं संवासं गच्छेजा, छवी णाममेगे छवीते सद्धिं संवासं गकछेजा (सू० २४८) पत्तारि कसाया पं० २०-कोहकसाए माणकसाए मायाकसाए लोभकसाए, एवं रझ्याण जाव वेमाणियाणं २४, चउपतिद्विते कोहे पं००-आतपइद्विते परपतिटिए तदुभयपइढ़िते अपतिहिए, एवं रइयाणं जाप माणियाण २४, एवं जाच लोभे, माणियाण २४, चउहि ठाणेहिं कोधुष्पत्ती सिता, तं०-खेत्तं पबुचा बरथु पहुचा सरीर पडुच्चा उवहिं पडचा, एवं रझ्याणं जाव बेमाणियाणं २४, एवं जाव लोभ० वेमाणियाणं २४, चतबिधे कोहे पं० २०अर्णताणुबंधिकोहे अपचक्खाणकोहे पञ्चक्खाणावरणे कोहे संजलणे कोहे, एवं नेरइयाणं जाव बेमाणियाण २४, एवं जाव लोभे वैमाणियाण २४, चउबिहे कोहे पं० त०-आभोगणिन्वत्तिए अणाभोगणिन्वत्तिते जबसते अणुवसंते, एवं
नेरदयार्ण जाव धेमाणियाणं २४, एवं जाव लोभे जाव वेमाणियाणं २४ (सू० २४९) स्थिति:-क्रमो मर्यादा राजामात्यादिमनुष्यस्थितिवदेव, देवः सामान्यो नामेति वाक्यालङ्कारे एकः कश्चित् स्नातकःप्रधानः, देव एव देवानां वा स्नातक इति विग्रहः, एवमुत्तरत्रापि, नवरं पुरोहितः-शान्तिकर्मकारी 'पज्जलणे'त्ति
प्रज्वलयति-दीपयति वर्णवादकरणेन मागधवदिति प्रज्वलन इति । देवस्थितिप्रस्तावात् तद्विशेषभूतसंवाससूत्रम् , ए-1 सातच व्यकं, किन्तु संवासो-मैथुनार्थ संवसनं, 'छवि'त्ति त्वक्तद्योगादौदारिकशरीरं तद्वती नारी तिरश्ची वा तद्वान्नर
अनुक्रम [२६२]
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आगम
(०३)
प्रत
सूचांक
[२४९ ]
दीप
अनुक्रम [२६३]
- अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः )
[भाग-5] "स्थान" स्थान [ ४ ], उद्देशक [1]. मूलं [ २४९ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३]
श्रीस्थानानसूत्र
वृत्तिः
॥ १९३ ॥
स्तिर्यग्वा छविरित्युच्यते । अनन्तरं संवास उक्तः, सच 'वेदलक्षणमोहोदयादिति मोहविशेष भूतकषायप्रकरणमाह'चत्तारि कसाये' त्यादि, तत्र कृषन्ति-विलिखन्ति कर्म्मक्षेत्रं सुखदुःखफलयोग्यं कुर्व्वन्ति कलुषयन्ति वा जीवमिति निरुक्तिविधिना कपायाः, उक्तं च - " - "सुहदुक्खबहुसईयं कम्म खेत्तं कसंति ते जम्हा । कलुसंति जं च जीवं तेण कसायत्ति धुच्चति ॥ १ ॥" अथवा कषति - हिनस्ति देहिन इति कर्ष-कर्म भवो वा तस्याया लाभ हेतुत्वात् कर्षं वा आययन्ति - गमयन्ति देहिन इति कषायाः उक्तं च- "कम्मं कसं भवो वा कसमाओ सिं जओ कसायातो । कसमाययंति व जओ गमयंति कसं कसायति ॥ १ ॥” इति, तत्र क्रोधनं क्रुध्यति वा येन स क्रोधः- क्रोधमोहनीयोदयसम्पायो जीवस्य परिणतिविशेषः क्रोधमोहनीय कर्मैव वेति, एवमन्यत्रापि, नवरं जात्यादिगुणवानहमेवेत्येवं मननम्-अवगमनं मन्यते वाऽनेनेति मानः, तथा मानं हिंसनं वञ्चनमित्यथों मीयते वाऽनयेति माया, तथा लोभनम् - अभिकाङ्क्षणं लुभ्यते वाऽनेनेति लोभः । 'एव'मिति यथा सामान्यतश्चत्वारः कषायास्तथा विशेषतो नारकाणामसुराणां यावच्चतुर्विंशतितमे पदे वैमानिकानामिति । 'चउप्पइट्ठिए' ति चतुर्षु - आत्मपरोभयतदभावेषु प्रतिष्ठितः चतुःप्रतिष्ठितः, तत्र 'आयपट्ठिएति आत्मापराधेनैहिकामुष्मिक पायदर्शनादात्मविषय आत्मप्रतिष्ठितः परेणाक्रोशादिनोदीरितः परविषयो वा परप्रतिष्ठितः आत्मपरविषय उभयप्रतिष्ठितः आक्रोशादिकारणनिरपेक्षः केवलं क्रोधवेदनीयोदयाद् यो भवति सोऽप्र
१ सुखदुःखमशस्यं कर्मक्षेत्रं कर्षन्ति ते यस्मात् यच जीवं कल्पयन्ति तेन कषाया इति उच्यन्ते ॥ १ ॥ २ यद्वा कपः कर्म भयो वा कम्रः अनयोरायो यतः कषायात् कषमाययंति वा यतो गमयन्ति वा कर्ष कषाया इति ॥ १ ॥
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'कषाय' अर्थ एवं वर्णनं
"स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
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४ स्थाना०
उद्देशः १ संवासः सू० २४८ कषायाः सू० २४९
॥ १९३ ॥
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[२४९ ]
दीप
अनुक्रम
[२६३]
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [ ४ ], उद्देशक [१], मूलं [२४९] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
तिष्ठित', उक्तं च-- "सापेक्षाणि च निरपेक्षाणि च कर्माणि फलविपाकेषु । सोपक्रमच निरुपक्रमं च दृष्टं यथाऽऽयुकम् ॥ १ ॥” इति, अयं च चतुर्थभेदो जीवप्रतिष्ठितोऽपि आत्मादिविषयेऽनुत्पन्नत्वादप्रतिष्ठित उक्तो, न तु सर्वथा अप्रतिष्ठितः, चतुःप्रतिष्ठितत्वस्याभावप्रसङ्गादिति । एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियाणां कोपस्यात्मादिप्रतिष्ठितत्वं पूर्वभवे तल|रिणामपरिणतमरणेनोत्पन्नानामिति, एवं मानमायालो भैर्दण्डक त्रयमपरमध्येतव्यमिति, क्षेत्रं नारकादीनां ४ स्वं स्वमुखत्तिस्थानं प्रतीत्य-आश्रित्य एवं वस्तु सचेतनादि ३ वास्तु वा गृहम् शरीरं दुःसंस्थितं विरूपं वा उपधिर्यद्यस्योपकरणं, एकेन्द्रियादीनां भवान्तरापेक्षयेति, एवं मानादिभिरपि दण्डकत्रयं, अनन्तं भवमनुबध्नाति - अविच्छिन्नं करोतीत्येवंशीलोऽनम्तानुबन्धी अनन्तो वाऽनुबन्धोऽस्येत्यनन्तानुबन्धी- सम्यग्दर्शनसहभाविक्षमादिस्वरूपोपशमादिचरणलवविबन्धी, चारित्रमोहनीयत्वात् तस्य, न चोपशमादिभिरेव चारित्री अल्पत्वाद्यथाऽमनस्को न संज्ञी किन्तु महता मूलगुणादिरुपेण चारित्रेण चारित्री, मनःसंज्ञया संज्ञिवद्, अत एव त्रिविधं दर्शनमोहनीयं पञ्चविंशतिविधं चारित्रमोहनीयमिति, ननु 'पढमिल्लयाण उदए नियमेत्यादि बिरुध्यते, चारित्रावारकस्य सम्यक्त्वावारकत्वानुपपत्तेः, अत एव सप्तविधं दर्शनमोहनीयमेकविंशतिविधं चारित्रमोहनीयमिति मतं सङ्गतमाभातीति, अत्रोच्यते, 'पढमेल्लयाणे त्यादि यदुक्तं तदनन्तानुबन्धिनां न सम्यक्त्वावारकतया किन्तु सम्यक्त्वसहभाव्युपशमाद्यावारकतया, अन्यथाऽनन्तानुबन्धिभिरेव सम्यक्त्व | स्यावृत्तस्वात् किमपरेण मिथ्यात्वेन प्रयोजनं ?, आवृतस्याप्यावरणेऽनवस्थाप्रसङ्गात्, तस्माद्यथा “केवलियनाणलंभो
१] कषायाणां क्षयादन्यत्र न केवलज्ञानभः ॥
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'कषाय' अर्थ एवं वर्णनं
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[२४९ ]
दीप
अनुक्रम
[२६३]
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [ ४ ],
उद्देशक [१], मूलं [२४९]
पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थानाङ्गसूत्र
वृत्तिः
॥ १९४ ॥
नन्नत्थ खए कसायाणं" ति इह कषायाणां केवलज्ञानस्यानावारकत्वेऽपि कषायक्षयः केवलज्ञानकारणतयोक्तः, तस्मिन्नेव तस्य भावाद् एवमनन्तानुबन्धिक्षयोपशम एवं सम्यक्त्वलाभ उच्यते, तस्मिन् सति तस्य भावाद्, यतो नानन्तानुवन्धिषूदितेषु मिथ्यात्वं क्षयोपशममुपयाति, तदभावाच्च न सम्यक्त्वमिति यच्च सप्तविधं सम्यग्दर्शन मोहनीयमिति मताअन्तरं तत्सम्यक्त्वसहचरितत्वेनोपशमादिगुणानां सम्यक्त्वोपचारादिति मन्यामह इति, न विद्यते प्रत्याख्यानम् - अणुत्रतादिरूपं यस्मिन् सोऽप्रत्याख्यानो- देशविरत्यावारकः, प्रत्याख्यानम् आमर्यादया सर्वविरतिरूपमेवेत्यर्थी वृणोतीति प्रत्याख्यानावरणः सवलयति - दीपयति सर्वसावद्यविरतिमपीन्द्रियार्थसम्पाते वा सवलति - दीप्यत इति सज्वलनःयथाख्यात चारित्रावारकः, एवं मानमायालो भेष्वप्यनन्तानुबन्ध्यादिभेदचतुष्टयमध्येतव्यमिति, एषां निरुक्तिः पूज्यैरिय| मुक्ता- "अनन्तान्यनुवन्नन्ति, यतो जन्मानि भूतये । अतोऽनन्तानुबन्ध्याख्या, क्रोधाद्याऽऽद्येषु दर्शिता ॥ १ ॥ नाल्पमप्युत्सहेद्येषां प्रत्याख्यानमिहोदयात् । अप्रत्याख्यानसंज्ञाऽतो, द्वितीयेषु निवेशिता ॥ २ ॥ सर्वसावद्यविरतिः, प्र[त्याख्यानमुदाहृतम् । तदावरणसंज्ञाऽतस्तृतीयेषु निवेशिता ॥ ३ ॥ शब्दादीन् विषयान् प्राप्य, सबछन्ति यतो मुहुः । अतः सञ्जवलनाहानं, चतुर्थानामिहोच्यते ॥ ४ ॥” इति, एवं मानादिभिरपि दण्डकत्रयम् । 'आभोगणिव्वत्तिए'त्ति आभोगो-ज्ञानं तेन निर्वर्त्तितो यजानन् कोपविपाकादि रुष्यति, इतरस्तु यदजानन्निति, उपशान्तः- अनुदयावस्थः, तातिपक्षोऽनुपशान्तः, एकेन्द्रियादीनामाभोगनिर्वर्त्तितः संज्ञिपूर्वभवापेक्षया, अनाभोगनिर्वर्त्तितस्तु तद्भवापेक्षयाऽपि, उप
'कषाय' अर्थ एवं वर्णनं
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४ स्थाना०
उद्देशः १ संवासः सू० २४८ कषायाः
सू० २४९
॥ १९४ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२४९]
दीप
शान्तो नारकादीनां विशिष्टोदयाभावात् अनुपशान्तो निर्विचार एवेति, एवं मानादिभिरपि दण्डकत्रयम् । इदानी | कषायाणामेव कालवयवर्तिनः फलविशेपा उच्यन्ते
जीवा णं चलाहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिंसु, त०-कोहेणं माणेणं माथाए लोभेणं, एवं जाव घेमाणियाणं २४, एवं चिणति एस पंडो, एवं चिणिस्संति एस दंडओ, एवमेतेणं तिन्नि दंडगा, एवं उवचिणिसु उबविणति उवचिणिस्संति, बंधिमु ३ उदीरिंसु ३ वेसु ३ निजरेसु णिज्जरेंति निजरिस्संति, जाव वेमाणियाणं, एवमेवोके पदे तिन्नि २ दंगा भाणियब्वा, जाब निजरिस्संति (सू० २५०) चत्तारि पडिमाओ पं० २०-समाहिपडिमा उवहाणपडिमा विवेगपडिमा विउस्सगपडिमा, चचारि पडिमाओ पं० सं०-भद्दा सुभद्दा महाभदा सव्वतोभदा, पत्तारि पडिमातो
पं० २०-बुडिया मोयपडिमा महल्लिया मोयपडिमा जवमझा बहरमज्झा (सू० २५१) 'जीवा ण मित्यादि गतार्थ, नवरम् चयनं-कषायपरिणतस्य कर्मपुद्गलोपादानमात्रं उपचयन-चितस्याबाधाकालं मुक्त्वा ज्ञानावरणीयादितया निषेका, स चैव-प्रथमस्थितौ बहुतरं कर्मदलिक निषिञ्चति, ततो द्वितीयायां विशेषहीनं, एवं यावदुस्कृष्टायां विशेषहीनं निषिञ्चति, उक्तं च-"मोत्तूण सगमवाहं पढमाइ ठिई' बहुतरं दवं। सेसे विसेसहीणं जावुक्कोसंति सब्वेसिं॥१॥" इति, बन्धन-तस्यैव ज्ञानावरणीयादितया निषिक्तस्य पुनरपि कषायपरिणतिविशेषानिकाचनमिति, उदीरणम्अनुदयप्राप्तस्य करणेनाकृष्योदये प्रक्षेपणमिति, वेदन-स्थितिक्षयादुदयप्राप्तस्य कर्मण उदीरणाकरणेन घोदयभावमुप
१खकमबाधाकालं मुक्त्वा (निषेके) प्रथमस्थितौ बहुतरं द्रव्यं शेषायां विशेषहीनं यावतुक्कटायो सर्वासा ॥१॥
अनुक्रम [२६३]
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२५१]
दीप अनुक्रम [२६५]
श्रीस्थाना- नीतस्यामुभवनमिति, निर्जरा कर्मणोऽकर्मस्वभवनमिति, इह च देशनिर्जरैव ग्राण्या, सर्वनिर्जरायाश्चतुर्विंशतिदण्डके स्थाना०
का उद्देशः१ IMSसम्भवात्, क्रोधादीनां च तदकारणत्वात्, क्रोधादिक्षयस्यैक तस्कारणत्वादिति, इह प्रज्ञापनाधीता सनहाथाः- उई वृत्तिः “आयपइडिय १ खेत्तं पडुच्च २ गंताणुबंधिः ३ आभोगे ४ । चिणउवचिणबंध उदीर वेय तह निजरा चेयः॥१॥ कर्मच
इति । अनन्तरं निर्जरोक्का, सा च विशिष्टा प्रतिमाद्यनुष्ठानाद्भवतीति, प्रतिमासूत्रत्रयं, तद् द्विस्थानकाधीतमपीहाधीयते, लसू०२५० ॥१९५॥ चतुःस्थानकानुरोधादिति, व्याख्याऽप्यस्य पूर्ववदनुसर्सव्या, किन्तु स्मरणाय किञ्चिदुच्यते-समाधिः-श्रुतं चारित्रं च
प्रतिमा तद्विषया प्रतिमा-प्रतिज्ञा अभिग्रहः समाधिप्रतिमा द्रव्यसमाधिर्वा प्रसिद्धस्तद्विषया प्रतिमा-अभिग्रहः समाधिप्रतिमा
सू०२५१ एवमन्या अपि, नवरमुपधान-तपः विवेकः-अशुद्धातिरिक्तभक्तपानवस्त्र शरीरतन्मलादित्यागः 'विउस्सग्गेत्ति कायोसर्गः । तथा पूर्वादिदिक्चतुष्टयाभिमुखस्य प्रत्येक प्रहरचतुष्टयमानः कायोत्सर्गो. भद्रेति, अहोरात्रद्वयेन चास्याः समा-2 प्तिरिति, सुभद्राऽप्येवंभूतैव सम्भाव्यते, न च दृष्टेति न लिखितेति, एवमेव चाहोरात्रप्रमाणः कायोत्सर्गो महाभद्रा, चतुर्भिश्चाहोरात्रैरियं समाप्यते, यस्तु दिग्दशकाभिमुखस्याहोरात्रप्रमाणः कायोत्सर्गः सा सर्वतोभद्रा, सा च दशभिर-1 होरात्रः समाष्यत इति । मोयप्रतिमा-प्रश्रवणप्रतिज्ञा सा च क्षुल्लिका या षोडशभक्तेन समाप्यते महती तु याऽष्टादशभक्तेनेति, यवमध्या या यववद्दत्तिकवलादिभिराद्यन्तयोहीना मध्ये च वृद्धेति, वज्रमध्या तु याऽधन्तवृद्धा. मध्ये हीना चेति । प्रतिमाश्च जीवास्तिकाये एवेति तद्विपर्ययस्वरूपाजीवास्तिकायसूत्र
M ॥१९५॥ आत्मप्रतिष्ठितः क्षेत्रं प्रतीक्ष्य अनन्तानुषन्धी आभोगः चिनाति उपचिनाति बभाति उदारयति वेदयति निर्जरयति ॥१॥
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[२५२]
दीप
अनुक्रम [२६६]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [ ४ ], उद्देशक [१], मूलं [२५२] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
चार अधिकाया अजीवकाया पं० [सं० धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए पोग्गलत्विकाए, चत्तारि अत्थिकाया अरुविकाया पं० सं०---धम्मत्थिकाए अधम्मत्विकाए आगासत्थिकाए जीवस्थिकाए (सू० २५२ ) च. तारिफला पं० [सं० आमे णामं एगे आममहुरे १ आमे णाममेगे पकमहुरे २ पके णाममेगे आममहुरे ३ पके णाममेगे पकमहुरे ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पं० तं० आमे णाममेगे आममहुरफलसमाणे, ४ (सू० २५३) चउ विहे सधे पं० [सं० काउजुयथा भासुकुवया भावुज्नुयया अविसंवाथणाजोगे, चउब्विहे मोसे पं० तं० कायअणुज्जुवया भाज्या भावअनुयया विसंवादणाजोगे, चउब्विहे पणिहाणे पं० वं०-मणपणिहाणे वइपणिहाणे कायपणिहाणे उवकरणपणिधाणे, एवं रइयाणं पंचिदियाणं जाव वैमाणियाणं २४, चब्बिहे सुप्पणिहाणे पं० तं०मणपणिहाणे जाव उवगरणमुप्पणिहाणे, एवं संजयमणुस्साणवि, घडब्बिहे दुप्पणिहाणे, पं० तं मणदुष्पणिहाणे जाव उवकरणदुप्प णिहाणे, एवं पंचिदिवाणं जाव वैमाणियाणं २४ ( सू० २५४ )
'अस्थिकाय'त्ति, अस्तीत्ययं त्रिकालवचनो निपातः, अभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति चेति भावना, अतोऽस्ति च ते प्रदेशानां कायाश्च राशय इति, अस्तिशब्देन प्रदेशाः कचिदुच्यन्ते, ततश्च तेषां वा कायाः अस्तिकायाः, ते चाजीवकायाः अचेतनत्वात् । अस्तिकाया मूर्त्तामूर्त्ता भवन्तीत्यमूर्त्तप्रतिपादनायारूप्यस्तिकायसूत्रं रूपं मूर्त्तिर्वर्णादिमत्त्वं तदस्ति येषां ते रूपिणस्तपर्युदासादरूपिणः-अमूर्त्ता इति । अनन्तरं जीवास्तिकाय उक्तः, तद्विशेषभूतपुरुष निरूपणाय फलसूत्रं, आमम्-अपक्कं सत् आममिव मधुरम् आममधुरमीषन्मधुरमित्यर्थः, तथा आमं सत् पक्कमिव मधुरमत्यन्तमधु
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२५४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२५४]
दीप अनुक्रम २६८]
श्रीस्थाना- रमित्यर्थः, तथा पक्कं सत् आममधुरं प्राग्वत् , तथा पक्कं सत् पक्कमधुरं प्राग्वदेवेति, पुरुषस्तु आमो वयाश्रुताभ्याम- स्थाना० गसूत्र- व्यक्तः आममधुरफलसमानः, उपशमादिलक्षणस्य माधुर्यस्याल्पस्यैव भावात् , तथा आम एवं पक्कमधुरफलसमान:- | उद्देशः१ वृत्तिः पक्कफलवन्मधुरस्वभावः, प्रधानोपशमादिगुणयुक्तत्वादिति, तथा पकोऽन्यो वयःश्रुताभ्या परिणतः आममधुरफलस- अजीवा.
मानः, उपशमादिमाधुर्यस्याल्पत्वात् , तथा पक्कस्तथैव, पकमधुरफलसमानोऽपि तथैवेति । अनन्तरं पक्कमधुर उक्तः, स स्तिकायाः ॥१९६॥
||च सत्यगुणयोगात् भवतीति सत्यं तद्विपर्ययं च मृषा तथा सत्यासत्यनिमित्तं प्रणिधानं प्रतिपिपादयिषुः सूत्राण्याह- सू०२५२ 'चउन्चिहे सचे' इत्यादीनि गतार्थानि, नवरमृजुकस्य-अमायिनो भावः कर्म वा ऋजुकता कायस्थ ऋजुकता का- आमादि यर्जुकता, एवमितरे अपि, नवरं भावो-मन इति, कायर्जुकतादयश्च शरीरवाउपनसां यथावस्थितार्थप्रत्यायनार्धाः प्रवृ-15
सू०२५३ त्तियः, तथा अनाभोगादिना गवादिकमवादिकं यद्वदति कस्मैचित् किञ्चिदभ्युपगम्य वा यन्न करोति सा विसंवादना त
सत्यप्रणिद्विपक्षेण योगः-सम्बन्धोऽविसंवादनायोग इति, 'मोसे'त्ति मृषाऽसत्यं कायस्थानृजुकतेत्यादि वाक्यम् । प्रणिधिः प्रणि-x धाने धान-प्रयोगः, तत्र मनसः प्रणिधानम्-आर्तरौद्रधर्मादिरूपतया प्रयोगो मनःप्रणिधानम् , एवं वाकाययोरपि, उप-13 सू० २५४ करणस्य-लौकिकलोकोत्तररूपस्य वस्त्रपात्रादेः संयमासंयमोपकाराय प्रणिधानं-प्रयोग उपकरणप्रणिधानं । 'एवं'मिति यथा सामान्यतस्तथा नैरयिकाणामिति, तथा चतुर्विंशतिदण्डकपठितानां मध्ये ये पञ्चेन्द्रियास्तेषामपि वैमानिकान्ताना-II मेवमेवेति, एकेन्द्रियादीनां मनःप्रभृतीनामसम्भवेन प्रणिधानासम्भवादिति । प्रणिधानविशेषः सुप्रणिधानं दुष्पणि- ॥१९६॥ पानश्चेति तरसूत्राणि, शोभनं संयमार्थत्वात् प्रणिधानं-मनःप्रभृतीनां प्रयोजनं सुप्रणिधानमिति । इदं च सुप्रणिधानं
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२५४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२५४]
चतुर्विशतिदण्डकनिरूपणायां मनुष्याणां तत्रापि संयतानामेव भवति, चारित्रपरिणतिरूपत्वात् सुप्रणिधानस्येत्याहएवं संजयेत्यादि, दुष्प्रणिधानसूत्र सामान्यसूत्रवत् नवरं दुष्पणिधानम्-असंयमा मनःप्रभृतीनां प्रयोग इति । पुरुषा-14 धिकारादेवापरथा पुरुषसूत्राणि चतुर्दश
चत्तारि पुरिसजाता ५००-आवातभरते णाममेगे णो संवासभहते १, संवासभदए णाममेगे णो आवातभदए २, एगे भावातभदतेवि संवासभइतेवि ३ एगे णो, आवायभहते नो वा संवासभरए ४, १, पत्तारि पुरिसजाया पं० तं०अपणो नाममेगे वजं पासति णो परस्स, परस्स णाममेगे वजं पासति ४, २, चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-भप्पणो णाममेगे बजं खदीरेइ णो परस्स ४, ३, अप्पणो नाममेगे वज उवसामेति णो परस्स ४, ४, चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-अभुढेइ नाममेगे णो अब्भुहावेति, ५, एवं चंदति णाममेगे णो बंदावेइ ६, एवं सकारेइ ७ सम्माणेति ८ पूएइ ९ वाएइ १० पडिपुक्छति ११ पुच्छइ १२ वागरेति, १३, सुत्तधरे णाममेगे णो अत्यधरे अस्थधरे नाममेगे णो
सुत्तधरे १४ (सू०२५५) सुगमानि, नवरमापतनमापात:-प्रथममीलकः तत्र भद्रको-भद्रकारी दर्शनालापादिना सुखकरत्वात् , संवासः-चिरं | सहवासस्तस्मिन्न भद्रको हिंसकत्वात् संसारकारणनियोजकत्वाद्वेति, संवासभद्रका सह संवसतामत्यन्तोपकारितया नो|
आपातभद्रकः अनालापकठोरालापादिना, एवं द्वावन्यौ । 'चजति वर्ग्यत इति वय॑म् अवद्यं वा अकारलोपात्, वनवज्रं वा गुरुत्वाधिंसाऽनृतादि पापं कर्म तदात्मनः सम्बन्धि कलहादौ पश्यति, पश्चात्तापान्वितत्वात् , न परस्य, तं
दीप
अनुक्रम [२६८]
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना-
सूत्रवृत्तिः
प्रत
स्थाना० उद्देशः १ आपातभद्रकादि सू०२५५
सूत्रांक
॥१९७॥
[२५५]
दीप अनुक्रम [२६९]
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प्रत्युदासीनत्वात् , अन्यस्तु परस्य नात्मनः, साभिमानत्वात् , इतर उभयोः, निरनुशयत्वेन यथावद्वस्तुबोधात्, अप- रस्तु नोभयोविमूढत्वात् इति । दृष्ट्वा चैक आत्मनः सम्बन्धि अवद्यमुदीरयति-भणति यदुत मया कृतमेतदिति, उप- शान्तं वा पुनः प्रवर्तयत्यथवा वज्र-कर्म तदुदीरयति-पीडोत्पादनेन उदये प्रवेशयतीति, एवमुपशमयति-निवर्त्तयति पापं कर्म वा । 'अन्भुढेईत्ति अभ्युत्थानं करोति न कारयति परेण, संविग्नपाक्षिको लघुपर्यायो वा, कारयत्येव गुरुः, उभयवृत्तिवृषभादिः, अनुभयवृत्तिजिनकल्पिकोऽविनीतो वेति । एवं वन्दनादिसूत्रेष्वपि, नवरं वन्दते द्वादशावादिना, सत्करोति वखादिदानेन, सन्मानयति स्तुत्यादिगुणोन्नतिकरणेन, पूजयति उचितपूजाद्रव्यैरिति, वाचयति-पाठयति, 'नो वायावेई' आत्मानमन्येनेति उपाध्यायादिः, द्वितीये शैक्षकः, तृतीये कचित् ग्रन्थान्तरेऽनधीती, चतुर्थे जिनकल्पिकः। एवं सर्वत्रोदाहरणं स्वबुद्ध्या योजनीयम्, प्रतीच्छतीति सूत्राओं गृह्णाति, पृच्छति-प्रश्नयति सूत्रादि व्याकरोति-ब्रूते तदेवेति सूत्रधर:-पाठका, अथैधरो बोद्धा, अन्यस्तूभयधरः, चतुर्थस्तु जड इति।
बमरस णं असुरिदस्स अमुरकुमाररनो चत्तारि लोगपाला पं० २०-सोमे जमे वरुणे वेसमणे, एवं बलिस्सवि सोमे जमे वेसमणे वरुणे, धरणस्स कालपाले कोलपाले सेलपाले संखपाले, एवं भूयाणदस्स चत्तारि कालपाले कोलपाले संखपाले सेलपाले, बेणुदेवस्स चित्ते विचित्ते चित्तपक्खे विचित्तपक्खे वेणुदालिस्स चित्ते विचित्ते विचित्तपक्खे चित्तपक्खे हरिकतस्स पभे सुप्पमे पभकते सुप्पभकते हरिस्सहस्स पभे सुप्पभे सुप्पभकते पभकते अग्गिसिहस्स तेऊ तेउ. सिहे तेउकते तेउप्पमे अग्गिमाणवस्स तेऊ तेउसिहे तेउपमे तेवकते पुनस्स रूए रूयंसे रूबते रूदप्पो, एवं विसिटुस्स
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॥१९७॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
SSSSSSC
सूत्रांक [२५६]
रूते सतसे रूतप्पमे रुवकते, जलकंतरस जले जलइते जलकते जलप्पमे जलप्पहस्स जले जलरते जलप्पहे जलकते, अमितगतिस्स तुरियगती खिप्पगती सीहगती सीह विकमगती अमितवाहणस्स तुरियगती खिप्पगती सीहविकमगती सीहगती वेलबस्स काले महाकाले अंजणे रिहे पभंजणस्स काले महाकाले रिहे अंजणे, घोसस्स आवत्ते विधावसे णंदियावत्ते महाणंदियावत्ते महायोसस्स आवत्ते चियावत्ते महाणंदियावत्ते दियावत्ते २०, सकस्स सोमे जमे वरुणे बेसमणे, ईसाणस सोमे जमे बेसमणे वरुणे, एवं एगंतरिता जावतस्स, चउन्विहा वाजकुमारा. पं०२०-काले महाकाले लंबे पभंजणे (सू० २५६) चउन्विहा देवा पं० २०-भवणवासी वाणमंतरा जोइसिया विमाणवासी (सू० २५७) चउब्विहे पमाणे पं० सं०--दव्यप्पमाणे खेत्तप्पमाणे कालप्पमाणे भावप्पमाणे (सू० २५८) पुरुषाधिकारादेव देवविशेषपुरुषनिरूपणपराणि लोकपालादिसूत्राणि कण्ठ्यानि, नवरं इन्द्रः परमैश्वर्पयोगात् प्रभुर्म-16 हान् वा गजेन्द्रवत्, राजा तु राजनाद् दीपनात् शोभावत्वादित्यर्थः आराध्यत्वाद्वा, एकाओं वैताविति, दाक्षिणात्येषु यो नामतस्तृतीयो लोकपालः स औदीच्येषु चतुर्थश्चतुर्धस्त्वितर इति, एवं 'एकतरिय'त्ति, यन्नामानः शक्रस्य तन्नामान एव सनत्कुमारब्रह्मलोकशुक्रपाणतेन्द्राणां तथा यज्ञामान ईशानस्य तन्नामान एव माहेन्द्रलान्तकसहस्राराच्युतेन्द्राणामिति । कालादयः पातालकलशस्वामिन इति । चतुर्विधा देवा इत्युक्तम्, एतच्च सङ्ख्याप्रमाणमिति प्रमाणप्ररूपणसूत्रं, तत्र प्रमिति प्रमीयते वा-परिच्छिद्यते येनार्थस्तत् प्रमाण, तत्र द्रव्यमेव प्रमाण दण्डादिद्रव्येण वा धनुरादिना शरीरादेव्यैर्वा दण्डहस्ताङ्गलादिभिः द्रव्यस्य वा जीवादेः द्रव्याणां बा जीवधर्माधर्मादीनां द्रव्ये वा परमाण्यादौ पर्या
दीप
अनुक्रम [२७०]
R
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[२५८]
दीप
अनुक्रम
[२७२]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [१], मूलं [२५८]
स्थान [ ४ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः
॥ १९८ ॥
याणां द्रव्येषु वा तेष्वेव तेषामेव प्रमाणं द्रव्यप्रमाणं, एवं यथायोगं सर्वत्र विग्रहः कार्यः, तत्र द्रव्यप्रमाणं द्विधा-प्रदेशनिष्पन्नं विभागनिष्पन्नं च तत्र आद्यं परमाण्वाद्यनन्तप्रदेशिकान्तं, विभागनिष्पन्नं पञ्चधा-मानादि, तत्र मानं धान्यमानं सेतिकादि रसमानं कर्षादि १ उन्मानं तुलाकर्षादि २ अवमानं हस्तादि ३ गणितमेकादि ४ प्रतिमानं गुञ्जाबलादीति ५ क्षेत्रम् - आकाशं तस्य प्रमाणं द्विधा - प्रदेश निष्पन्नादि, तत्र प्रदेशनिष्पन्नमेकप्रदेशावगाढादि असङ्ख्य प्रदे शावगाढान्तं, विभागनिष्पन्नमङ्गुल्यादि, कालः समयस्तन्मानं द्विधा प्रदेशनिष्पन्नमेकसमयस्थित्यादि असङ्ख्येयसमयस्थित्यन्तं विभागनिष्पन्नं समयावलिकेत्यादि, क्षेत्रकालयोर्द्रव्यत्वे सत्यपि भेदनिर्देशो जीवादिद्रव्यविशेषकत्वेनानयोस्तत्पर्यायताऽपीति द्रव्याद्विशिष्टताख्यापनार्थः, भाव एव भावानां वा प्रमाणं भावप्रमाणं गुणनयसङ्ख्याभेदभिन्नं, तत्र गुणा-जीवस्य ज्ञानदर्शनचारित्राणि, तत्र ज्ञानं प्रत्यक्षानुमानोपमानागमरूपं प्रमाणमिति, नया-नैगमादयः, सङ्ख्याएकादिकेति । देवाधिकारे एवेदं सूत्रचतुष्टयं-
चत्तारि दिसाकुमारि महत्तरियाओ पं० वं०रूया रूयंसा सुरूवा रूयावती, चचारि बिज्जुकुमारिमद्दत्तरियाओ पं० तं० - वित्ता चित्तकणगा सतेरा सोतामणी ( सू० २५९ ) सकस्स णं देविंदस्स देवरन्नो मज्झिमपरिसाते देवाणं चत्तारि पलिओ माई ठिती पं० ईसाणस्स देविंदस्स देवरन्नो मज्झिमपरिसाए देवीणं चत्तारि पलिओ माई ठिई पं० (सू० २६०) चउब्विहे संसारे पं० नं०दव्वसंसारे खेत्तसंसारे काळसंसारे भावसंसारे ( सू० २६१ ) 'तारि दिसा' इत्यादि सुगमं, नवरं दिकुमार्यश्च ता महत्तरिकाश्च प्रधानतमास्तासां वा महत्तरिका दिकुमारीमह
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४ स्थानां०
उद्देशः १ लोकपालाः सु० २५६ देवाः सू० २५७ प्रमाणं
सू० २५८
॥ १९८ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२६१]
सातरिकाः, एता मध्यरुचकवास्तव्या अर्हतो जातमात्रस्य नालकल्पनादि कुर्वन्तीति, विद्युत्कुमारीमहत्तरिकास्तु विदिग:-51
चकवास्तव्याः, एताश्च भगवतो जातमात्रस्य चतसृष्वपि दिक्षु स्थिता दीपिकाहस्ता गायन्तीति । एते च देवाः संसा|रिण इति संसारसूत्र, तत्र संसरणम्-इतश्चेतश्च परिभ्रमणं संसारः, तत्र संसारशब्दार्थज्ञस्तत्रानुपयुक्तो द्रव्याणां वा18 जीवपुद्गललक्षणानां यथायोगं भ्रमणं द्रव्यसंसारः, तेषामेव क्षेत्रे-चतुर्दशरज्वात्मके यत्संसरणं स क्षेत्रसंसारः, यत्र वा
क्षेत्रे संसारो व्याख्यायते तदेव क्षेत्रमभेदोपचारात् संसारो यथा रसवती गुणनिकेत्यादि, कालस्य-दिवसपक्षमासवयनसंवत्सरादिलक्षणस्य संसरणं-चक्रन्यायेन भ्रमणं पल्योपमादिकालविशेषविशेषितं वा यत्कस्यापि जीवस्य नरकादिषु। स कालसंसारः, यस्मिन् वा काले-पौरुष्यादिके संसारो व्याख्यायते स कालोऽपि संसार उच्यते अभेदाचथा प्रत्युपेक्षणाकरणात् कालोऽपि प्रत्युपेक्षणेति, तथा संसारशब्दार्थज्ञः तत्रोपयुक्तो जीवपुद्गलयोवा संसरणमात्रमुपसर्जनीकृतसम्बन्धिद्रव्यं भावानां वौदयिकादीनां वर्णादीनां वा संसरणपरिणामो भावसंसार इति । अयश्च द्रव्यादिसंसारोऽनेकनयैदृष्टिवादे विचार्यते इति दृष्टिवादसूत्र
चबिहे दिद्विवाए पं० २०-परिफम्म सुत्ताई पुब्वगए अणुजोगे (सू०२६२) पबिहे पायच्छित्ते पं० २०णाणपायच्छिचे सणपायपिछले परितपायच्छिते चियत्तकिच्चपायच्छिते, १ चवविहे पायच्छिते पं० २०-परिसेवणा
पायच्छित्ते संजोयणापायच्छित्ते आरोअणापायच्छित्ते पलि उंचणापायच्छिते २।(सू० २६३) 'चउब्धिहे दिहिवाए' इत्यादि, तत्र दृष्टयो दर्शनानि-नया उद्यन्ते-अभिधीयन्ते पतन्ति वा-अवतरन्ति यस्मि
दीप अनुक्रम [२७५]
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना- नसूत्रवृत्तिः
सूत्रांक
[२६३]
॥ १९९॥
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दीप
नसौ दृष्टिवादो दृष्टिपातो वा-द्वादशमङ्गम् , तत्र सूत्रादिग्रहणयोग्यतासंपादनसमर्थ परिकर्म गणितपरिकर्मवत्, तच्च स्थाना. सिद्धसेनिकादि, सूत्राणीति ऋजुसूत्रादीनि द्वाविंशतिर्भवन्ति, इह सर्वद्रव्यपर्यायनयाद्यर्थसूचनात् सूत्राणीति, समस्तश्रुउद्देशः१ तात्पूर्व करणात् पूर्वाणि, तानि चोसादपूर्वादीनि चतुर्दशेति, एतेषां चैवं नामप्रमाणानि, तद्यथा-"उपाय १ अग्गेणीयं दृष्टिवादः २ वीरियं ३ अत्थिनत्थि उ पवायं ४ । णाणपवार्य ५ सयं ६ आयपवायं च ७ कम्मं च ८॥१॥ पुव्वं पञ्चक्खाणं सू० २६२ ९ विजणुवायं १० अर्वझ ११ पाणार्ड १२ । किरियाविसालपुवं १३ चोदसमं बिंदुसारं तु १४ ॥२॥ उप्पाये पय- प्रायश्चित्तं कोडी १ अग्गेणीयंमि छन्नउइलक्खा २ । विरियम्भि सयरिलक्खा ३ सद्विलक्खा उ अस्थिणथिम्मि ४॥ ३ ॥ एगा सू० २६३ पउणा कोडी णाणपवायंमि होइ पुवंमि ५ । एगा पयाण कोडी छच्च पया सच्चवायंमि ॥४॥ छब्बीस कोडीओ आयपवायमि होइ पयसंखा ७ । कम्मपवाए कोडी असीती लक्खेहिं अभहिआ ८॥५॥ चुलसीइ सयसहस्सा पञ्चक्खाणंमि वन्निया पुच्चे । एका पयाण कोडी दससहसहिया य अणुवाए १०॥६॥ छब्बीस कोडीओ पयाण पुब्वे अवंझणाममि ११ । पाणाउम्मि य कोडी छप्पणलक्खेहि अन्भहिया १२ ॥७॥ नवकोडीओ संखा किरियविसालंमि
उत्पादं जमायणीयं वीर्य अस्तिनास्तिप्रवाद ज्ञानप्रवाद सख्खप्रचादमात्मप्रचादं च कनप्रवाई प॥1॥ प्रयाख्यानं पूर्व विद्यानुवा भवन्य प्राणायुः कियाविशाल पूर्व चतुर्दशं बिन्दुसार तु ॥२॥ उत्पादे पदकोटी अप्रायणीचे षण्णावतिलक्षाः बी सप्ततिलक्षाः असिनास्तिपूर्व पष्टिलक्षाः ॥३॥ पादोनैका कोटी ज्ञानप्रवादे भवति पू सत्यवादे षडधिकका पदकोटी ॥ ४ ॥ आत्मप्रवाद पदिशतिः कोव्यः पदसझाया भवंति अशीया लक्षैरधिका पदकोटी कर्मप्रवादे ॥५॥ ॥१९९॥ प्रस्याख्यानपूर्व चतुरीतिसहस्राणि वर्णितानि विद्यानुवादे दशसहस्राधिका कोठी पदानां ॥ ६॥ अवन्ध्यनाग्नि पूर्व षद्विशतिः कोब्धः पदानां प्राणायुषि व पद्|पंचामलक्षाधिका कोटी ॥ ७॥ गुरुणा किवाविषाले ना कोयो
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अनुक्रम [२७७]
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चतुर्दश-पूर्वस्य नामानि एवं श्लोक प्रमाणं
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [२६३]
वन्निया गुरुणा १३ । अद्धत्तेरसलक्खा पयसंखा बिंदुसारम्मि ॥ ८॥" इति, तेषु गतं-प्रविष्टं यत् श्रुतं तत्पूर्वगतं-पूर्वाण्येव, अजमविष्टमङ्गानि यथेति, योजनं योगः अनुरूपोऽनुकूलो वा सूत्रस्य निजेनाभिधेयेन सह योग इत्यनुयोगः, स| चैकस्तीर्थकराणां प्रथमसम्यक्त्वावाप्तिपूर्वभवादिगोचरो यः स मूलप्रथमानुयोगोऽभिधीयते, यस्तु कुलकरादिवक्तव्यता गोचरः स गण्डिकानुयोग इति । पूर्वगतमनन्तरमुक्तं, तत्र च प्रायश्चित्तप्ररूपणाऽऽसीदिति प्रायश्चित्तसूत्रद्वयं, तत्र
ज्ञानमेव प्रायश्चित्तं, यतस्तदेव पापं छिनत्ति प्रायः चित्तं वा शोधयतीति निरुक्तिवशात् ज्ञानप्रायश्चित्तमिति, एवमन्य-] Xबापि, 'वियत्तकिच्चे'त्ति व्यक्तस्य-भावतो गीतार्थस्य कृत्यं-करणीय व्यक्तकृत्यं प्रायश्चित्तमिति, गीतार्थो हि गुरुलाघ
वपर्यालोचनेन यत् किचन करोति तत्सर्व पापविशोधकमेव भवतीति, अथवा ज्ञानाद्यतिचारविशुद्धये यानि प्रायश्चित्तान्यालोचनादीनि विशेषतोऽभिहितानि तानि तथा व्यपदिश्यन्ते, (यद्वा) वियत्तेति विशेषेण-अवस्थाद्यौचित्येन विशेषानभिहितमपि दत्त-वितीर्णमभ्यनुज्ञासमित्यर्थः, यत्किशिन्मध्यस्थगीतार्थेन कृत्यम्-अनुष्ठानं तद् विदत्तकृत्यं प्रायश्चित्तमेव, |'चियत्तकित्ति पाठान्तरतस्तु प्रीतिकृत्यं वैयावृत्त्यादीति, प्रतिपेवणम्-आसेवनमकृत्यस्येति प्रतिषेवणा, सा च | द्विधा-परिणामभेदात् प्रतिषेवणीयभेदादा, तत्र परिणामभेदात् “पैडिसेवणा उ भावो सो पुण कुसलोय होजऽकुसलो वा । कुसलेण होइ कप्पो अकुसलपरिणामओ दप्पो ॥१॥" प्रतिषेवणीयभेदातु "भूलगुणउत्तरगुणे दुविहा
वर्णिता पदसषया अत्रयोदश लक्षा बिन्दुसारे पदसलमाया ॥॥२ भायः प्रतिषेवना सः पुनः फुशलो वा भवेदकुशलो वा । मुगलेन भवति | कल्पः अकुशलपरिणामादपः ॥१॥ ३ मूलगुणोत्तरगुणेषु द्विविधा
दीप
अनुक्रम [२७७]
चतुर्दश-पूर्वस्य नामानि एवं श्लोक प्रमाणं, प्रायश्चित-वर्णनं.
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना-
प्रत
वृत्तिः
सूत्रांक
॥२०
॥
[२६३]
दीप
पंडिसेवणा समासेणं १ । मूलगुणे पंचविहा पिंडविसोहाइगी इयरा ॥१॥" तस्यां प्रायश्चित्तमालोचनादि, तच्चेदम्-15 स्थाना. "आलोयण १ पडिक्कमणे २ मीस ३ विवेगे ४ तहा विउस्सग्गे ५। तव ६ छेय ७ मूल ८ अणवहया य ९ पारंचिए उद्देशः१ १० चेव ॥१॥" इति प्रतिषेवणाप्रायश्चित्तं १, संयोजनम्-एकजातीयातिचारमीलन संयोजना यथा शय्यातरपिण्डो प्रायश्चित्तं गृहीतः सोऽप्युदकाहस्तादिना सोऽप्यभ्याहृतः सोऽप्याधाकम्मिकस्तत्र यत् प्रायश्चित्तं तत् संयोजनाप्रायश्चित्तम् , सू० २६३ तथा आरोपणमेकापराधप्रायश्चित्ते पुनः पुनरासेवनेन विजातीयप्रायश्चित्ताध्यारोपणमारोपणा, यथा पञ्चरात्रिन्दिवप्रायश्चित्तमापन्नः पुनस्तत्सेवने दशरात्रिन्दिवं पुनः पञ्चदशरात्रिन्दिवमेवं यावत्षण्मासात् ततस्तस्याधिक तपो देयं न भ-16 वति अपि तु शेषतपांसि तत्रैवान्तर्भावनीयानि, इह तीर्थे षण्मासान्तत्वात् तपस इति, उक्तं च "पंचाईयारोवण नेयच्या जाव होति छम्मासा । तेण पर मासियाणं छण्हुवरि जोसणं कुज्जा ॥१॥" इति, आरोपणया प्रायश्चित्तमारोपणाप्रायश्चित्तमिति, तथा परिकुञ्चनम्-अपराधस्य द्रव्यक्षेत्रकालभावानां गोपायनमन्यथा सतामन्यथा भणन परिकुञ्चना परिवञ्चना वा, उक्कं च-"दव्वे खेत्ते काले भावे पलिउंचणा चउवियप्प"त्ति, तथाहि-सच्चित्ते अञ्चित्तं १ जणवयपडिसेवियं च अद्धाणे २। सुभिक्खे य दुभिक्खे ३ हटेण तहा गिलाणेणं ॥१॥" इति, तस्याः प्रायश्चित्तं परिकुश-| नाप्रायश्चित्तं, विशेषोऽत्र व्यवहारपीठादवसेय इति । प्रायश्चित्तं च कालापेक्षया दीयत इति कालनिरूपणासूत्रैम्-. १ प्रतिषेपणा समासेन । मूलगुणेषु पंचविधा पिछवियोम्यादिका इतरा ॥1॥ आलोचनं प्रतिकम मि विवेकसया प्युत्सर्गः । तपाछेदो मूलमनव
Kel२००॥ स्था पाराचितं चैव ॥१॥ ३ पंचादिकारोपणा ज्ञातव्या यावद्भवन्ति षण्मासाततः परं मासादीनां षण्णामुपरि बोषणं कुर्यात् ॥1॥ ४ सचित्तमचित्तं जनपदप्रतिषिर्त चावनि मुभिक्षे दुर्भिक्षे च हष्टेन तथा म्लानेन ॥१॥
अनुक्रम [२७७]
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प्रायश्चित-वर्णनं. प्रायश्चित्तस्य दश-भेदा:
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२६४]
चवविहे काले पं० २०-पमाणकाले अहाजयनिव्वत्तिकाले मरणकाले अद्धाकाले (सू० २६४) पबिहे पोग्गलपरिणामे पनते तं०-वनपरिणामे गंधपरिणामे रसपरिणामे फासपरिणामे (सू० २६५) भरहेरवएसु णं वासेसु पुरिमपच्छिमवजा मज्झिमगा बावीसं अरहता भगवंता चाउज्जामं धम्मं पण्णवेति, त०-सम्बातो पाणातिवायाओ वेरमणं, एवं मुसावाथाओ वेरमणं, सव्वातो अदिनादाणाओ वेरमणं सवाओ बहिद्धादाणा [परिमाहा ]ो वेरमणं १, सन्वेसु णं महाविदेहेसु अरहता भगवंतो चाउजामं धर्म पण्णवयंति, तं०-सव्वातो पाणातिवायाओ वेरमणं, जाव सव्वादो
बहिद्धादाणाओ वेरमणं (सू०२६६) तत्र प्रमीयते-परिच्छिद्यते येन वर्षशतपल्योपमादि तत्प्रमाणं तदेव कालः प्रमाणकालः, स च अद्धाकालविशेष एव | दिवसादिलक्षणो मनुष्यक्षेत्रान्तर्वतीति, उक्तं च-"दुविहो पमाणकालो दिवसपमाणं च होइ.राई य । चउपोरिसिओ| दिवसो राई चउपोरिसी चेव ॥१॥" इति, यथा-यप्रकारं नारकादिभेदेनायु:-कर्मविशेषो यथायुस्तस्य रौद्रादिध्या
नादिना निवृति:-बन्धनं तस्याः सकाशाद्यः कालो-नारकादित्वेन स्थितिर्जीवानां स यथायुनिवृतिकाला, अथवा यथाalsऽयुषो निर्वृतिस्तथा यः कालो-नारकादिभवेऽवस्थानं स तथेति, अयमप्यदाकाल एवायुष्ककर्मानुभवविशिष्टः, सर्वसंसारिजीवानां वर्तनादिरूप इति, उक्तं च-"आउयमेत्तविसिट्ठो स एव जीवाण वत्तणादिमओ । भन्नइ अहाउकालो
१ द्विविधः प्रमाणकालः दिवसप्रमाणो भवति रात्रिप्रमाणव चतुष्पौरुषीको दिवसो रात्रिरपि चतुःपीस्थी एवं ॥1॥ २ायुभत्रिविविष्टः स एव जीवाना वर्तनादिमयः । मन्यते यथाऽऽयुष्ककालो
दीप
अनुक्रम [२७८]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [२६६]
स्थाना० उद्देशः१ प्रमाणकालादिः परिणामः यामा सू०२६४
RESS
श्रीस्थाना- वत्तइ जो जचिरं जेणं ॥१॥” इति, मरणस्य-मृत्योः कालः-समयो' मरणकाला, अयमप्यद्धासमयविशेष एव, मरण- लसूत्र- विशिष्टो मरणमेव वा कालो, मरणपर्यायत्वादिति, उक्तं च-"कालोत्ति मयं मरणं जहेह मरणं गओत्ति कालगओ।
तम्हा स कालकालो जो जस्स मओ मरणकालो॥१॥" इति, तथा अद्धैव कालः अद्धाकालः, कालशब्दो हि वर्ण॥२०१॥
प्रमाणकालादिष्वपि वर्तते, ततोऽद्धाशब्देन विशिष्यत इति, अयं च सूर्यक्रियाविशिष्टो मनुप्यक्षेत्रान्तर्वती समयादि
रूपोऽवसेयः, उक्तं च-"सूरकिरियाविसिट्ठो गोदोहाइकिरियासु निरवेक्खो । अद्धाकालो भन्नइ समयक्खेतमि समयाइ M॥१॥ समयावलियमुहुत्ता दिवसमहोरत्तपक्खमासा य । संवच्छरजुगपलिया सागरओसप्पिपरियट्टा ॥२॥” इति ।
द्रव्यपर्यायभूतस्य कालस्य चतुःस्थानकमुक्तम् , इदानी पर्यायाधिकारात् पुद्गलानां पर्यायभूतस्य परिणामस्य तदाहकाचविहे' इत्यादि, परिणामः-अवस्थातोऽवस्थान्तरगमनम्, उक्तं च-"परिणामो ह्यान्तरगमनं न तु सर्वथा व्यव
स्थानम् । न च सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः॥१॥” इति, तत्र वर्णस्य-कालादेः परिणामः-अन्यथा भवन वर्णेन वा कालादिनेतरत्यागेन पुद्गलस्य परिणामो वर्णपरिणामः, एवमन्येऽपि । अजीवद्रव्यपरिणाम उक्तोऽधुना तु
जीवद्रव्यस्य परिणामा विचित्रा सूत्रप्रपश्येनाभिधीयन्ते-तत्र च "भरते त्यादिसूत्रद्वयं व्यक्तमेव, किन्तु पूर्वपश्चिमवजों, ४ा वर्तते यो यचिर येन ॥१॥ काल इति मतं मरणं यथेह मरणं गत इति कालगतः । तस्मात्, स कालकालो यो यस मती गरणकालः ॥२॥
सूर्यकियाविशिष्टो गोदोहादिक्रिया निरपेक्षः । अहाकालो भण्यते समयादिः समवक्षेत्रे ॥१॥ समय आवतिका मुहूर्तः दिवसोऽहोरात्रः पक्षः मासः संवत्सरं युगं पल्यः सागरः उत्सर्पिणी परावतः ॥२॥
दीप
२६६
अनुक्रम [२८०]
|॥२०१॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
स
प्रत
सूत्रांक [२६६]
किमुक्तं भवति ?-मध्यमका इति, ते चाष्टादयोऽपि भवन्तीत्युच्यते-द्वाविंशतिरिति, चत्वारो यमा एव यामा निवृत्तयो| यस्मिन् स तथा 'बहिद्धादाणाओं'त्ति बहिर्वा-मैथुनं परिग्रहविशेषः आदानं च-परिग्रहस्तयोर्द्वन्द्वैकत्वमथवा आदीयत इत्यादानं-परिग्राह्य वस्तु तच्च धर्मोपकरणमपि भवतीत्यत आह-बहिस्तात्-धर्मोपकरणाद् वहियेदिति, इह च मैथुनं परिग्रहेऽन्तर्भवति, न ह्मपरिगृहीता योषिद् भुज्यत इति प्रत्याख्येयस्य माणातिपातादेश्चतुर्विधत्वात् चतुर्यामता
धर्मस्येति, इयं चेह भावना-मध्यमतीर्थकराणां विदेहकानां च चतुर्यामधर्मस्य पूर्वपश्चिमतीर्थकरयोश्च पश्चयामधशर्मस्य प्ररूपणा शिष्यापेक्षा, परमार्थतस्तु पश्चयामस्यैवोभयेषामध्यसौ, यतः प्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थसाधव ऋजुजड़ा
वक्रजडाश्चेति, तत्त्वादेव परिग्रहो वर्जनीय इत्युपदिष्टे मैथुनवर्जनमवयोर्बु पालयितुं च न क्षमाः, मध्यमविदेहजतीर्थ
करतीर्थसाधवस्तु ऋजुप्रज्ञरवात् तद्बोद्धं वर्जयितुं च क्षमा इति, भवतश्चात्र श्लोको-"पुरिमा उज्जुजड्डा उ, वकजड्डा| काय पच्छिमा । मज्झिमा उजुपमा उ, तेण धम्मे दुहा कए ॥१॥ पुरिमाणं दुब्बिसोझो उ, चरिमाणं दुरणुपालए ।
कप्पो मज्झिमगाणं तु, सुविसुज्झे सुपालए ॥२॥" इति । अनन्तरोकेभ्यः प्राणातिपातादिभ्योऽनुपरतोपरतानां दुर्ग-| तिसुगती भवतः, तदन्तश्च ते दुग्गंतेतरा भवन्तीति दुर्गतिसुगत्यात्मकपरिणामयोर्दुर्गतसुगतानां च भेदान् सूत्रच|तुष्टयेनाह
प्रथमे जुजाः वाजवाव पाधायाः मध्यमास्तु अनुप्रज्ञास्तेन धर्मों द्विधा कृतः ॥१॥ पूर्वाणां दुविंशोभ्यस्तु चरमाणां दुरमुपाल्यः कल्पः मध्यमानान्तु मुविसोध्यः सनुपाल्पच ॥ २ ॥
दीप
अनुक्रम [२८०]
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
गती
[२६७]
दीप
४ स्थाना० श्रीस्थानाचत्तारि दुग्गतीतो पं० सं०-गरदयदुग्गती तिरिक्खजोणियदुग्गती मणुस्सदुग्गती देवदुग्गई १, चत्तारि सोग्गईओ
उद्देशः १ लसूत्र
पं००-सिद्धोगती देवसोग्गती मणुयसोग्गती सुकुलपञ्चायाति २, चत्तारि दुग्गता पं० सं०-मेरदयदुग्गया तिरिवृत्तिः
दुर्गतिसु. क्खजोणियदुग्गता मणुयदुग्गता देवदुग्गता ३, चत्तारि सुग्गता पं००-सिद्धसुगता जाव सुकुलपचायाया ४ (सू०२६७)
पढमसमयजिणसणं चत्तारि कम्मंसा खीणा भवंति–णाणावरणिज दसणावरणिज्ज मोहणिज्नं अंतरातितं १, उप्पन्नना॥२०२॥ णसणधरे णं अरहा जिणे केवली चत्तारि कम्मसे वेदेति, सं०-वेदणिज आउयं णाम गोतं २, पढमसमयसिद्धस्स णं
सू०२६७
केवल्याचत्तारि कम्मंसा जुगर्व खिर्जति सं०-वेयणिनं आउयं णामं गोतं ३ (सू० २६८)
हादिकर्मक्षयौ 'चत्तारी'त्यादि गतार्थम्, नयरं मनुष्यदुर्गतिः निन्दितमनुष्यापेक्षया देवदुर्गतिः किल्बिषिकाद्यपेक्षयेति, 'सुकुलपचायाइ'त्ति देवलोकादी गत्वा सुकुले-इक्ष्वाकादी प्रत्यायातिः-प्रत्यागमनं प्रत्याजाति-प्रतिजन्मेति, इयश तीर्थक-15 रादीनामेवेति मनुष्यसुगते गभूमिजादिमनुजत्वरूपाया भिद्यते, दुर्गतिरेपामस्तीत्यचि प्रत्यये दुर्गता दुःस्था वा दुर्गताः
एवं सुगताः । अनन्तरं सिद्धसुगता उक्काः ते चाष्टकर्मक्षयात् भवन्त्यतः क्षयपरिणामस्य क्रममाह-पढमें'त्यादि सूत्रत्रयं | द व्यक्तं, परं प्रथमः समयो यस्य स तथा स चासौ जिनश्च-सयोगिकेवली प्रथमसमयजिनस्तस्य कर्मणः-सामान्यस्यांशाः HI-ज्ञानावरणीयादयो भेदा इति, उत्पन्ने-आवरणक्षयाजाते ज्ञानदर्शने-विशेषसामान्यबोधरूपे धारयतीत्युत्पन्नज्ञानदर्श
नधरोऽनेनानादिसिद्धकेवलज्ञानवतः सदाशिवस्यासद्भावं दर्शयति, न विद्यते रहा-एकान्तो गोप्यमस्य सकलसन्निहितव्यवहितस्थूलसूक्ष्मपदार्थसाथैसाक्षात्कारित्वादित्यरहा देवादिपूजाऽहत्वेनार्हन्या रागादिजेतृत्वाजिनः केवलानि-परिपू-181
अनुक्रम [२८१]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२६८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [२६८]
हानि ज्ञानादीनि यस्य सन्ति स केवलीति, सिद्धत्वस्य कर्मक्षपणस्य च एकसमये सम्भवात् प्रथमसमयसिद्धस्येत्यादि व्यपदिश्यते। असिद्धानां तु हास्यादयो विकारा भवन्तीति हास्य तावच्चतुःस्थानकावतारित्वादाह
चरहिं ठाणेहिं हासुप्पत्ती सिता ०-पासित्ता भासेत्ता सुणेत्ता संभरेत्ता (सू. २६९) पबिहे अंतरे ५० तं०
-कढतरे पम्हतरे लोहंतरे पत्थरंतरे, एवामेव इस्थिए वा पुरिसस्स वा चउबिहे अंतरे पं०२०-कहतरसमाणे पम्हतरसमाणे लोहंतरसमाणे पत्थरंतरसमाणे (सू०२७०) चत्तारि भयगा पं० सं०-दिवसभयते जत्ताभयते उचत्तभयते कच्चालभयते (सू० २७१) चत्तारि पुरिसजाता पं० सं०-संपागढपडिसेवी णामेगे जो पच्छन्नपडिसेयी पच्छनपडिसेवी णामेगे णो संपागडपडिसेवी एगे संपागडपडिसेवीवि पच्छन्नपटिसेवीवि एगे नो संपागापटिसेवी णो
पच्छन्नपडिसेवी (सू० २७२) 'चउही'त्यादि, हसनं हास:-हासमोहोदयजनितो विकारस्तस्योपत्तिः-उत्पादः हासोत्पत्तिः 'पासित्त'त्ति दृष्ट्वा विदूषकादिचेष्टां चक्षुपा, तथा भाषित्वा वाचा किचिचसूरिवचनं तथा श्रुत्वा श्रोत्रेण परोकं तथाविधवाक्यं तथा तथाविधमेव चेष्टावाक्यादिकं स्मृत्वा हसतीति शेषः, एवं दर्शनादीनि हासकरणानि भवन्तीति। असिद्धानामेव धर्मान्तरनिरूपणाय दृष्टान्तदाान्तिकार्थवत्सूत्रद्वयम्, 'चउब्धिहें' इत्यादि, काष्ठस्य च काष्ठस्य चेति काष्ठयोरन्तरं-विशेषो रूपनिर्माणादिभिरिति काठान्तरमेवं पक्ष्म-कर्पासरूतादि पक्ष्मणोरन्तरं विशिष्टसौकुमार्यादिभिः लोहान्तरं अत्यन्तच्छेदकत्वादिभिः प्रस्तरान्तरं-पापाणान्तरं चिन्तितार्थप्रापणादिभिरिति, 'एवमेव' काष्ठाद्यन्तरवत्, स्त्रिया वा ख्यन्तरापेक्षया पुरुषस्य
दीप अनुक्रम [२८२]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
R
श्रीस्थाना- लसूत्रवृत्तिः
प्रत सूत्रांक [२७२]
॥२०३॥
-55
दीप
वा पुरुषान्तरापेक्षया, वाशब्दौ स्त्रीपुंसयोश्चातुर्विध्य प्रति निर्विशेषताण्यापनाौँ, काष्ठान्तरेण समान-तुल्यमन्तर- ४ स्थाना० विशेषो विशिष्टपदवीयोग्यत्वादिना पक्ष्मान्तरसमानं वचनसुकुमारतयैव लोहांतरसमानं स्नेहच्छेदेन परीपहादी निर्भङ्ग-2 | उद्देशः १ स्वादिभिश्च प्रस्तरान्तरसमानं चिन्तातिकान्तमनोरथपूरकत्वेन विशिष्टगुणवद्वन्द्यपदवीयोग्यत्वादिना चेति । अनन्त- हासः अरमन्तरमुक्तमिति पुरुषविशेषान्तरनिरूपणाय भृतकसूत्र, तत्र भियते-पोच्यते स्मेति भृतः स एवानुकम्पितो भृतका
न्तरं भृ
|तकाः प्र. कर्मकर इत्यर्थः, प्रतिदिवसं नियतमूल्येन कर्मकरणाथै यो गृह्यते स दिवसभृतकः १ यात्रा-देशान्तरगमनं तस्यां :
तिसेविनः सहाय इति नियते यः स यात्राभृतकः २ मूल्यकालनियमं कृत्वा यो नियतं यथावसरं कर्म कार्यते स उच्चताभृतकः,
सू०२६९कब्बाडभृतकः-क्षितिखानकः ओडादिः, यस्य स्वं कार्यते द्विहस्ता त्रिहस्ता वा खया भूमिः खनितव्यैतावते धनं दास्यामीत्येवं नियम्येति, इह गाधे-"दिवसभयओ उ घेप्पइ छिन्नेण धणेण दिवसदेवसियं । जत्ता उ होइ गमणं उ-10
२७१भयं वा [आगमनं चेत्यर्थः] एत्तियधणेणं ॥१॥ कब्बाल ओडमाई हत्थमियं कम्म एत्तियधणेणं । एचिरकालुच्चत्ते कायब्वं कम्म जं बेति ॥२॥" उक्तं लौकिकस्य पुरुषविशेषस्यान्तरमधुना लोकोत्तरस्य तस्यान्तरप्रतिपादनाय प्रतिषेविसूत्र, तत्र सम्प्रकटम्-अगीतार्थसमक्षमकल्प्यभक्तादि प्रतिषेवितुं शीलं यस्य स सम्प्रकटप्रतिसेवीत्येवं सर्वत्र, नवरं प्र
सा॥२०३॥ छिन धनेन दिवसे दिवसे दिवसभूतकस्तु गृहाते मात्रा तु भवति गमनं गमनागमने या इयता धनेन ॥१॥ ओडादिः कम्बद्धभतको नियम्प यता भनेन हस्तमितं कर्म कार्यते उचताभृतक इयत्कालं कर्म कर्त्तव्यं यद् नवीति (भवति ) ॥२॥
२७२
अनुक्रम [२८६]
-552525
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [२७२]
355%%%%A5%
दीप अनुक्रम [२८६]
च्छन्नमगीतार्थासमक्ष, अत्र चाये भङ्गकत्रये पुष्टालम्बनो बकुशादिः निरालम्बनो वा पार्श्वस्थादिष्टव्यः, चतुर्थे तु निम्रन्थः स्नातको वेति, अन्तराधिकारादेव देवपुरुषाणां स्वीकृतमन्तरं प्रतिपादयनाह
चमरस्स णं असुरिंदरस असुरकुमाररनो सोमस्स महारनो चत्तारि अगमहिसीओ पं० २०--कणगा कणगलता चित्तगुत्ता वसुंधरा, एवं जमस्स वरुणस्स वेसमणस्स, बलिस्स णं वतिरोयणिदस्स वतिरोयणरनो सोमस्स महारो चत्वारि अग्गमहिसीओ पं० २०--मित्तगा मुभदा विजुत्ता असणी, एवं जमस्स वेसमणस्स वरुणस्स, धरणस्स णं नागकुमारिंदरस णागकुमाररमो कालवालस्स महारो चत्तारि अगमहिसीओ पं० २०-असोगा विमला मुप्पभा मुदंसणा, एवं जान संखवालस्स, भूताणंदस्स णं णागकुमारिंदस्स णागकुमाररनो कालवालस्स महारो चत्तारि अग० ५००मुणंदा सुभदा सुजाता सुमणा, एवं जाब सेलवालस्स जहा धरणस्स, एवं सब्वेसि दाहिणिलोगपालाणं जाव घोसस्स जहा भूताणंदरस एवं जाव महापोसस्स लोगपालाणं, कालस्स णं पिसाईदस्स पिसायरनो चत्तारि अगमहिसीओ पं. तं०-कमला कमलप्पभा उप्पला मुदसणा, एवं महाकालस्सवि, सुरुवस्स णं भूतिंदस्स भूतरन्नो चत्तारि अग्रामहिसीओ पं० सं०-रूववती बहुरूवा सुरूवा सुभगा, एवं पडिरूवस्सवि, पुष्णभदस्स णं जक्सिंदस्स जक्खरनो चत्तारि अगमहिसीओ पं० सं०-पुत्ता बहुपुत्तिता उत्तमा तारगा, एवं माणिभहस्सवि, भीमस्स णं रक्ससिदस्स रक्खसरनो पत्तारि अगामहिसीभी पं००-पटमा वसुमती कणगा रक्षणप्पमा, एवं महाभीमस्सवि, किंनरस्स णं किनरिंदस्स चत्तारि अग्ग० ५००-वडेंसा केतुमती रतिसेणा रतिप्पभा, एवं किंपुरिसस्सवि, सप्पुरिसस्स णं किंपुरि सिंदस्स०
ForParamasPrvammoni
चमर आदि असुरकमारस्स अग्रमहिष्य:
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थानागसूत्रवृत्तिः
प्रत सूत्रांक [२७३]
४ स्थाना० उद्देशः१ अग्रमहिध्यः विकृतयः कूटागाराः सू०२७३२७४
॥ २०४॥
45-
चत्वारि अग्गमहिसीओ पं० २०-रोहिणी णवमिता हिरी पुष्फवती, एवं महापुरिसस्सवि, अतिकायस्स णं महोरगिंदस्स चत्तारि अग्गमहिसीओ पं० त०-भुयगा भुयगवती महाकच्छा फुडा, एवं महाकायस्सवि, गीतरतिस्स णं गंधबिदस्स चत्तारि अग्ग० ५००-सुधोसा विमला सुस्सरा सरस्सती, एवं गीयजसस्सवि, चंदस्स णं जोतिसिंदस्स जोतिसरनो चत्तारि अम्गमहिसीओ पं० सं०-चंदप्पभा दोसिणाभा अचिमाली पभंकरा, एवं सूरस्सवि, णवरं सूरप्पमा दोसिणाभा अश्चिमाली पभंकरा, इंगालस्स गं महागहस्स चत्तारि अगमहिसीओ पं० ०-विजया बेजयंती जयंती अपराजिया, एवं सब्बेसि माँगहाणं जाव भावकेउस्स, सकस्स णं देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारो चत्तारि अग० ५००-रोहिणी मयणा चित्ता सोमा, एवं आव वेसमणस्स, ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरनो सोमस्स महारस्रो चत्तारि अम० ५० त०-पुढवी राती रयणी विजू, एवं जाव वरुणस (सू० २७३) चत्तारि गोरसविगतीओ पं० सं०-खीर दहिं सप्पि णवणीतं, चत्वारि सिणेहविगइतीओ पं० २०–तेलं घयं बसा णवणीतं, चत्तारि महाविगतीओ पं० सं०-महूं मंसं मजं णवणीतं (सू०२७४) चत्तारि कूडागारा ५००-गुत्ते णाम एगे गुत्ते गुत्ते णामं एगे अगुत्ते अगुत्ते णामं एगे गुत्ते अगुत्ते णाम एगे अगुत्ते, एषामेव पत्तारि पुरिसजाता पं० त०-गुत्ते णाममेगे गुत्ते ४, चत्तारि कूडागारसालाओ पं० सं०-गुत्ता णाममेगा गुत्तदुवारा गुत्ताणाममेगा अगुतदुवाग अगुत्ता णाममेगा गुत्तदुवारा अगुत्ता णाममेगा अगुत्तदुवारा, एवामेव पचारित्थीओ पं० सं०-गुत्ता नाममेगा गुनिंदिता गुत्ता णाममेगा अगुतिदिआ [४] ४ (सू० २७५) चउविहा ओगाहणा पं० २०-व्योगाहणा खे.
दीप अनुक्रम [२८७]
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चमर आदि असुरकुमारस्स अग्रमहिण्यः
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक [२७६ ]
दीप
अनुक्रम [२९०]
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [ ४ ], उद्देशक [१], मूलं [२७६ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
तोगाहणा कालोगाहणा भावोगाहणा (सू० २७६) चत्तारि पत्तीओ अंगबाहिरियातो पं० तं० चंदपन्नची सूरपन्नत्ती जंबुवपन्नत्ती दीवसागरपन्नत्ती ( सू० २७७ ) || चउद्वाणस्स पढमो उद्देसओ ॥ १ ॥
'मरस्से'त्यादिकमग्रमहिषीसूत्रप्रपञ्चमाह, कण्ठ्यश्चायम्, नवरं 'महारन्नो'त्ति लोकपालस्याप्रभूताः - प्रधाना महिष्यो -राजभार्या अग्रमहिष्य इति, वइरोयणत्ति-विविधैः प्रकारै रोच्यन्ते-दीप्यन्त इति विरोचनास्त एवं वैरोचना:- उत्त रदिग्वासिनोऽसुराः तेषामिन्द्रः, धरणसूत्रे 'एव' मिति कालवालस्येव कोलपालशैलपालशङ्खपालानामेतन्नामिका एव चतचतस्रो भार्याः, एतदेवाह - 'जाव संखवालस्स'ति, भूतानन्दसूत्रे 'एव' मिति यथा कालवालस्य तथान्येषामपि, नवरं तृतीयस्थाने चतुर्थी वाच्यः, धरणस्य दक्षिणनागकुमारनिकायेन्द्रस्य लोकपालानामग्रमहिष्यो यथा यन्नामिकास्तथा तन्नामिका एव सर्वेषां दाक्षिणात्यानां शेषाणामष्टानां वेणुदेव हरिकान्तअग्निशिखपूर्णजलकान्त अमितगतिवेलम्बधो|पाख्यानामिन्द्राणां ये लोकपालाः सूत्रे दर्शितास्तेषां सर्वेषामिति, यथा च भूतानन्दस्योदीच्य नागराजस्य तथा शेषाणामष्टानामौदीच्येन्द्राणां वेणुदा लिहरिस्सहाग्निमानवविशिष्टजलप्रभामितवाहनप्रभञ्जनमहाघोषाख्यानां ये लोकपालास्तेपामपीति, एतदेवाह - 'जहा धरणस्से' त्यादि । उक्तं सचेतनानामन्तरमथान्तराधिकारादेवा चेतनविशेषाणां विकृतीनां गोरसस्नेह मत्त्वलक्षणमन्तरं सूत्रत्रयेणाह - 'चत्तारी' त्यादि, गवां रसो गोरसः, व्युत्पत्तिरेवेयं गोरसशब्दस्य प्रवृत्तिस्तु महिष्यादीनामपि दुग्धादिरूपे रसे, विकृतयः शरीरमनसोः प्रायो विकारहेतुत्वादिति शेषं प्रकटम्, नवरं सर्पिः घृतम्, नवनीतं-काक्षणं, स्नेहरूपा विकृतयः स्नेहविकृतयो वसा-अस्थिमध्यरसः, महाविकृतयो - महारसत्वेन महाविकारकारित्वात्,
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [१], मूलं [२७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना-
सूत्रवृत्तिः
****
सूत्रांक
॥२०५॥
[२७७]
दीप अनुक्रम [२९१]
*****
महतः सत्त्वोपघातस्य कारणत्वाञ्चेति, इह विकृतिप्रस्तावाद् विकृतयो वृद्धगाथाभिः प्ररूप्यन्ते-खीरं ५ दहि ४ णक- ४ स्थाना० णीयं ४ घयं ४ तहा तेलमेव ४ गुड २ मज २ । महु ३ मंसं ३ व तहा ओगाहिमगं च दसमी उ॥१॥ गो- उद्देशः १ महिसुट्टिपसूर्ण एलगखीराणि पंच चत्तारि । दहिमाइयाई जम्हा उट्टीणं ताणि णो हुँति ॥२॥ चत्तारि होति तेल्ला अग्रमहितिलअयसिकुसुंभसरिसवाणं च । विगईओ सेसाई डोलाईणं न विगईओ ॥३॥ दवगुलपिंडगुला दो मज पुण कड- पीप्रकरपिछनिष्फन । मच्छियकोत्तियभामरभेयं च तिहा महुँ होइ ॥ ४ ॥ जलथलखहयरमंसं चम्मं वस सोणियं तिहेयपि । आइल्ल तिन्नि चलचल ओगाहिमगं च विगईओ ॥ ५॥ आदिमानि त्रीणि चलचलेत्येवं पक्कानि विकृतिरित्यर्थः "सेसा तयः कून होति विगई अ जोगवाहीण ते उ कप्पती । परिभुजंति न पायं जं निच्छयओ न नजति ॥१॥ एगेण चेव तवओटाकाराणि पूरिजति पूयएण जो ताओ । बीओवि स पुण कप्पइ निविगई लेवडो नवरं ॥२॥" इत्यादि । अचेतनान्तराधिकारा-14 अवगाहदेव गृहविशेषान्तरं दृष्टान्ततयाऽभिधित्सुः पुरुषस्त्रियोश्चान्तरं दार्शन्तिकतया अभिधातुकामः सूत्रचतुष्टयमाह- |नाः प्रज्ञ'चत्तारि कूडे'त्यादि, कूटानि शिखराणि स्तूपिकास्तद्वन्त्यगाराणि-गेहानि-अथवा कूट-सत्त्वबन्धनस्थानं तद्वदगाराणि तयः क्षीर दधि नवनीतं तं तथा तैकमेव गुडो मयं मधु मांस चैव तथाऽवगा हिमं च दशमी तु॥१॥ गोमहिप्युष्टीपानामेबकस्य धीराणि पश्च दध्या
सू०२७३. दीनि चतुधी यस्माद्दष्ट्रीणां तानि म भवन्ति ॥२॥ चत्वारि भवन्ति तैलानि तिलातसौकुसुभसर्षपाणां च विकृतयः शेषाणि टोलियादीनां न विकृतयः ॥३॥ २७७ दलगुडपिटगुटी द्वौ मर्य पुनः काष्ठपिष्ट निष्प* माक्षिककोतिकभ्रामरभेदेन मधु त्रिधा भवति ॥४॥ जलस्थलबचरमांसानि वर्म पता शोणितं त्रिधैतदपि | ॥२०५॥ |भादिम पक्कामवयं अवगाहिमं च विकृतिस्तु ॥ ५॥ शेषा निकृतयो न भवति ते योगवाहिनां कल्पन्ते प्रायः परिभुनते न सनिश्चयतो न ज्ञायते ॥ १॥ एके। नापूपेन कटाव या पूर्यते ततः द्वितीयोऽपि स पुनः कल्पते निकितिको पकृत्परम् ॥ १॥
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[२७७]
दीप
अनुक्रम [२९१]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [१], मूलं [२७७]
स्थान [ ४ ], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
कूटागाराणि तत्र गुप्तं प्राकारादिवृतं भूमिगृहादि वा पुनर्गुष्ठं स्थगितद्वारतया पूर्वकालापरकालापेक्षया वेति, एवमन्येऽपि त्रयो भङ्गा बोद्धव्याः, पुरुषस्तु गुप्तो नेपथ्यादिनाऽन्तर्हितत्वेन पुनर्गुप्तो गुप्तेन्द्रियत्वेन, अथवा गुप्तः पूर्वं पुनर्गुसोऽधुनापीति, विपर्यय कह्यः, तथा कूटस्येव आकारो यस्याः शालाया - गृहविशेषस्य सा तथा, अयं च स्त्रीलिङ्गदृष्टान्तः, | स्त्रीलक्षणदार्शन्तिकार्थसाधर्म्यवशात्, तत्र गुप्ता-परिवारावृता गृहान्तर्गता वस्त्राच्छादिताङ्गा गूढस्वभावा वा गुप्तेन्द्रि यास्तु निगृहीतानौचित्यप्रवृत्तेन्द्रियाः, एवं शेषभङ्गा ऊह्याः । अनन्तरं गुप्तेन्द्रियत्वमुक्तमिन्द्रियाणि चावगाहनाश्रयाणीत्यवगाहनानिरूपणसूत्रं, अवगाहन्ते - आसते यस्यां आश्रयन्ति वा यां जीवाः साऽवगाहना - शरीरं द्रव्यतोऽवगाहना द्रव्यावगाहना, एवं सर्वत्र तत्र द्रव्यतोऽनन्तद्रव्या क्षेत्रतोऽसवेयप्रदेशावगाढा, कालतोऽसत्येय समयस्थितिका, भावतो वर्णाद्यनन्तगुणेति, अथवाऽवगाहना विवक्षितद्रव्यस्याधारभूता आकाशप्रदेशाः, तत्र द्रव्याणामवगाहना द्रव्यावगाहना, | क्षेत्रमेवावगाहना क्षेत्रावगाहना, कालस्यावगाहना समयक्षेत्रलक्षणा कालावगाहना, भाववतां द्रव्याणामवगाहना भावावगाहना, भावप्राधान्यादिति, आश्रयणमात्रं वा अवगाहना, तत्र द्रव्यस्य पर्यायैरवगाहना-आश्रयणं द्रव्यावगाहना, एवं क्षेत्रस्य कालस्य, भावानां द्रव्येणेति, अभ्यथा वोपयुज्य व्याख्येयमिति । अवगाहनायाश्च प्ररूपणा प्रज्ञप्तिष्विति तच्चतुःस्थानकसूत्रम्, तत्र प्रज्ञाप्यन्ते प्रकर्षेण बोध्यन्ते अर्था यासु ताः प्रज्ञप्तयः, अङ्गानि आचारादीनि तेभ्यो वाह्याः अङ्गवाद्याः, यथार्थाभिधानाश्चैताः कालिक श्रुतरूपाः, तत्र सूरप्रज्ञप्तिजम्बूद्वीपप्रज्ञप्ती पञ्चमषष्ठाङ्गयोरुपाङ्गभूते, इतरे तु प्रकीर्णकरूपे इति, व्याख्याप्रज्ञप्तिरस्ति पञ्चमी केवलं साऽङ्गप्रविष्टेत्येताश्चतस्र उक्ता इति ॥ चतुःस्थानकस्य प्रथमोद्देशकः समाप्त इति ।
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अथ चतुर्थ स्थानस्य प्रथमो उद्देशकः परिसमाप्तः |
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थानामसूत्रवृत्तिः
अथ चतुर्थस्थानके द्वितीय उद्देशः।
प्रत
सूत्रांक
॥२०६॥
4545
४ स्थाना० | उद्देशः२ प्रतिसंलीनतादिः सू०२७८ दीनादिप्रकारा सू०२७९
[२७८]
दीप
व्याख्यातश्चतुःस्थानकस्य प्रथमोद्देशकोऽधुना द्वितीय आरभ्यते, अस्य चार्य पूर्वेण सहाभिसम्बन्धः-अनन्तरोद्देशके जीवादिद्रव्यपर्यायाणां चतुःस्थानकमुक्तमिहापि तेषामेव तदेवोच्यत इत्येवंसम्बन्धस्यास्योद्देशकस्येदमादिसूत्रचतुष्टयम्
पत्तारि पटिसलीणा पं० त०-कोहपडिसलीणे माणपडिसलीणे मायापडिसंलीणे लोभपडिसलीणे, चचारि अपडिसंलीणा पं० सं०-कोहलपडिसलीणे जाव लोभअपडिसंलीणे, चत्तारि पहिसंलीणा पं० २०-मणपडिसंलीणे पतिपडिसलीणे कायपडिसलीणे इंदियपडिसलीणे, चत्तारि अपडिसलीणा पं० सं०-मणअपढिसलीणे जाच ईवियअपडिसंलीणे ४ (सू०२७८) बचारि पुरिसजाता पं००-दीणे णाममेगे वीणे दीणे णाममेगे अदीणे अदीणे णाममेगे दीणे अदीणे णाममेगे अदीणे १, चत्तारि पुरिसजाता पं०८०-दीणे णाममेगे दीणपरिणते दीणे णाम एगे अदीणपरिणते अदीणे णाम एगे दीणपरिणते अदीणे णाममेगे अदीणपरिणते २, चत्तारि पुरिसजाता पं० २०-दीणे णाममेगे दीणरूवे छ (४) ३, एवं दीणमणे ४-४, दीणसंकप्पे ४-५, दीणपन्ने ४-६, दीणदिही ४-७, दीणसीलाचारे ४-८, दीणववहारे ४-९, चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-दीणे णाममेगे दीणपरकमे, दीणे णाममेगे अदीण ह (४) १०, एवं सन्वेसि चउभंगो भाणियब्वो, चत्तारि पुरिसजाता पं० सं०-वीणे णाममेगे दीणवित्ती ४-११, एवं दीणजाती १२,
अनुक्रम [२९२]
अथ चतुर्थ-स्थानस्य द्वितीय-उद्देशक: आरभ्यते।
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
-%AY
सूत्रांक
[२७९]
दीप
दीणभासी १३, वीणोभासी १४, चत्तारि पुरिसजाता पं० सं०-दीणे णाममेगे दीणसेवी र (४) १५, एवं दीणे
णाममेगे दीणपरिवाए १६, दीणे णाममेगे दीणपरियाले हू (१) १७, सम्वत्थ चउभंगो (सू० २७९) 'चत्तारि पडिसंलीणे'त्यादि, अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायमभिसम्बन्धः-अनन्तरसूत्रे प्रज्ञप्तय उक्ताः, ताश्च प्रतिसं-1 लीनरेव बुध्यन्त इति प्रतिसंलीनाः सेतराः अनेनाभिधीयन्त इत्येवंसम्बद्धमिदं सुगम, नवरं, क्रोधादिक वस्तु वस्तु प्रति सम्यग्लीना-निरोधवन्तः प्रतिसंलीनाः, तत्र क्रोधं प्रति उदयनिरोधेनोदयप्राप्तविफलीकरणेन च प्रतिसंलीनः को-1 धप्रतिसलीनः, उक्तं च-"उदयस्सेव निरोहो उदयप्पत्ताण वाऽफलीकरणं । जं एत्थ कसायाणं कसायसंलीणया एसा ॥१॥" कुशलमनउदीरणेनाकुशलमनोनिरोधेन च मनः प्रतिसंलीनं यस्य स मनसा वा प्रतिसंलीनो मनःप्रतिसंलीनः, एवं वाकायेन्द्रियेष्वपि, नवरं शब्दादिषु मनोज्ञामनोज्ञेषु रागद्वेषपरिहारी इन्द्रियप्रतिसंलीन इति, अत्र गाथा
-"अपसत्वाण निरोहो जोगाणमुदीरणं च कुसलाणं । कमि य विही गमणं जोगे संलीणया भणिया ॥॥" सहेसु य भद्दयपावपसु सोयविसमुवगएसु । तुडेण व रुहेण व समणेण सया न होयव्वं ॥१॥" एवं शेषेन्द्रियेष्वपि वक्तव्या, इत्येवं मनःप्रभृतिभिरसंलीनो भवति विपर्ययादिति । असंलीनमेव प्रकारान्तरेण सप्तदशभिश्चतुर्भङ्गीरूपैदींनसूत्रैराह-| दीनो-दैन्यवान् क्षीणोर्जितवृत्तिः पूर्वं पश्चादपि दीन एव अथवा दीनो बहिर्वृत्त्या पुनींनोऽन्तत्त्येित्यादिश्चतुर्भङ्गी,
उदयस्यैव निरोध उदयप्राप्ताना वाकलीकरणं थन कषायाणां एषा कषायसंलीनता ॥१॥ २अप्रमताना योगानां निरोधः कुशलानामुदीरण च फायै च विधिना गमनं एषा योगे सलीनतोला ॥१॥ शब्देषु भद्रकपापकेषु श्रोत्रविषयमुपगतेषु बोन पा सुदन था सदा श्रमगेन न भवितव्यं ॥1॥
अनुक्रम [२९३]
'प्रतिसंलिनता' विषयक विवरण
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२७९]
दीप
श्रीस्थाना- तथा दीनो बहिर्वृत्त्या म्लानवदनत्वादिगुणयुक्तशरीरेणेत्यर्थः, एवं प्रज्ञासूत्रं यावदादिपदं व्याख्येय, दीनपरिणतः अ- ४ स्थाना० सूत्रदीनः सन् दीनतया परिणतोऽन्तर्वृत्त्येत्यादि चतुर्भङ्गी २, तथा दीनरूपो मलिनजीर्णवस्त्रादिनेपथ्यापेक्षया ३, तथा
उद्देशः२ वृत्तिः दीनमनाः स्वभावत एवानुन्नतचेताः ४, दीनसङ्कल्प उन्नतचित्तस्वाभाव्येऽपि कथञ्चिद्धीनविमर्शः ५, तथा दीनप्रज्ञः हीन
प्रतिसंलीसूक्ष्मालोचनः ६, तथा दीनश्चित्तादिभिरेवमुत्तरत्राप्यादिपदं, तथा दीनदृष्टिर्विच्छायचक्षुः ७, तथा दीनशीलसमाचारः
नतादिः ।२०७॥
हीनधर्मानुष्ठानः ८, तथा दीनव्यवहारो दीनान्योऽन्यदानप्रतिदानादिक्रियः हीनविवादो वा ९, तथा दीनपराक्रमोसू०२७८ हीनपुरुषकार इति १०, तथा दीनस्येव वृत्तिः-वर्त्तनं जीविका यस्य स दीनवृत्तिः ११, तथा दीन-दैन्यवन्तं पुरुषं दैन्य- दीनादिवद्वा यथा भवति तथा याचत इत्येवंशीलो दीनयाची, दीनं वा यातीति दीनयायी, दीना वा-हीना जातिरस्येति । प्रकाराः
दीनजातिः १२, तथा दीनवदीनं वा भाषते दीनभाषी १३, दीनवदवभासते-प्रतिभाति अवभाषते वा-याचत इत्येवं- सू०२७९ M शीलो दीनावभासी दीनावभाषी वा १४, तथा दीनं नायक सेवत इति दीनसेवी १५, तथा दीनस्येव पर्यायः-अवस्था प्रव्रज्यादिलक्षणा यस्य स दीनपर्यायः १६, 'दीनपरियाले'त्ति दीनः परिवारो यस्य स तथा १७, 'सब्वत्थ चउभंगो'त्ति सर्वसूत्रेषु चत्वारो भङ्गा द्रष्टव्या इति । पुरुषजाताधिकारवत्येवेयमष्टादशसूत्री
पत्तारि पुरिसजाता पं०२०-अजे णाममेगे अजे ४,१। चत्तारि पुरिसजाता पं० सं०-अजे णाममेगे अजपरिणए ४,२। एवं अजरूवे ३ | अजमणे ४ । अज्जसंकप्पे ५ । अजपन्ने ६ । अजदिट्ठी ७ । अज्जसीलाचारे ८ । अजवक
॥ २०७॥ हारे ९ । अजपरकमे १० । अजवित्ती ११ । अनजाती १२ । अजभासी १३ । अजओभासी १४ । अजसेषी १५।
अनुक्रम [२९३]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२८०]
एवं अजपरिवाए १६ । अजपरियाले १७, एवं सत्तर आलावगा १७, जहा दीणेणं भणिया तहा अजेणवि भाणियव्या, चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-अजे णाममेगे अजमावे अजे नाममेगे अणजभावे अणजे नाममेगे अजभावे अणजे नाममेगे अणजभावे १८ (सू० २८०) चत्तारि उसभा पं० २०-जातिसंपन्ने कुलसंपन्ने पलसंपन्ने रूवसंपन्ने, एवामेव, पत्तारि पुरिसजाता पं० त०-जातिसंपन्ने जाब रूवसंपन्ने १, चत्तारि उसभा पं० सं०-आतिसंपन्ने णाम एगे नो कुलसंपण्णे, कुलसंपण्णे नाम एगे नो जाइसंपण्णे, एगे जातिसंपण्णेवि कुलसंपण्णेचि, एगे नो जातिसंपण्णे नो कुलसंपन्ने, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-जातिसंपन्ने नाममेगे ४, २, पत्तारि खसभा पन्नत्ता -जातिसंपन्ने नाम एगे नो बलसंपने, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-जातिसंपन्ने ४, ३, चत्तारि उसभा पं० सं०--जाइसंपन्ने नाम एगे नो स्वसंपन्ने ४, एषामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० २०-आतिसंपन्ने नाम एगे नो रूवसंपले, रूपसंपन्ने णाममेगे
४,४, पत्तारि उसमा पं० ०-कुलसंपन्ने नाम एगे नो बलसंपन्ने ह ४ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०कुलसंपन्ने नाममेगे नो बलसंपन्ने ह४, ५, चत्तारि सभा पं० त०-कुलसंपन्ने णाममेगे णो रूवसंपने, ४, एबामेव पत्तारि पुरिसजाना पं०-कुल ४, ६, चत्तारि उसभा पं००लसंपने णार्म एगेनो रुवसंपण्णे ४४ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता तं०-बलसंपण्णे नाममेगे ५,७॥ चत्तारि हत्थी पं०२०-भरे मंदे मिते संकिन्ने, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-भरे मंदे मिते संकिन्ने, चत्तारि हत्थी पं० २०-भरे णाममेगे भरमणे, भरे णाममेगे मंदमणे, भरे णामभेगे मियमणे, भरे नाममेगे संकिनमणे, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया ५००-भरे णाम
दीप
अनुक्रम [२९४]
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आगम
(०३)
प्रत
सूचांक
[ २८१]
दीप
अनुक्रम [ ३००]
[भाग-5] "स्थान" अंगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः)
स्थान [ ४ ], उद्देशक [२] मूलं [ २८१] + गाथा १-५ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थाना#सूत्रवृत्तिः
॥ २०८ ॥
-
मेगे भद्दमणे भद्दे णाममेगे मंदमणे भद्दे णाममेगे नियमणे भद्दे णाममेगे संकिनमणे, पत्तारि इत्थी पं० वं० मंदे णाममेगे भद्दमणे मंदे नाममेगे मंदमणे मंदे णामभेगे मियमणे मंदे णाममेगे संकिन्नमणे, एवामेव चत्तारि पुरिसजाता, पं० [सं० मंदे णाममेगे भद्दमणे तं चैव चत्तारि हत्थी पं० [सं० गिते णाममेगे भमणे मिते णाममेगे मंदमणे मिते णाममेगे मियमणे मिते णाममेगे संकिन्नमणे, एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पं० तं०मिते णाममेगे भमणे तं चैव चत्तारि हत्थी पं० तं० संकिण्णे नाममेगे भद्दमणे संकिले नाममेगे मंदमणे संकिन्ने नाममेगे मियमणे सकिने णामगेगे संकिन्नमणे, एवामेव चन्तारि पुरिसजाया पं० तं० संकिन्ने नाममेगे भद्दमणे तं चैव जाय किन्ने नाममेगे संकिन्नमणे, मधुगुलियपिंगलक्खो अणुपुब्वमुआयदीहणंगूलो पुरओ उदग्गधीरो सवंगसमाधितो महो ॥ १ ॥ चलबलविसमचम्मो थूलसिरो धूलएण पेएण धूलणहदंतवालो हरिपिंगललोयणो मंदो ॥ २ ॥ तणुओ तणुतग्गीवो तणुयततो तणुयवंतणवालो । भीरू तत्थुब्बिग्गो तासी व भवे मिते णामं ॥ ३ ॥ एतेसिं इत्थीणं घोषं थोवं तु जो हरति हत्थी । रुवेण व सीलेण व सो संकिनोत्ति नायव्व ॥ ४ ॥ भद्दो मनइ सरए मंदो उण मज्जते वसंतंमि मिच मज्जति हेमंते संकिनो सव्वकालंमि ॥ ५ ॥ ( सू० २८१ )
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गतार्था, नवरं, आर्यो नवधा, यदाह-खेत्ते जाई कुल कम्म सिप्प भासाइ नाणचरणे य। दंसणआरिय णवहा मिच्छा सगजवणखसमाइ ॥ १ ॥ इति, तत्र आर्यः क्षेत्रतः पुनरार्यः पापकर्मबहिर्भूतत्वेनापाप इत्यर्थः एवं सप्तदश १ क्षेत्रे जातिकुलकम्मैशिल्पभाषाभ्यः ज्ञान चरणाभ्यां दर्शनाचार्या नवधा शकयवनखसादयो म्लेच्छाः ॥ १ ॥
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४ स्थाना०
उद्देशः २ आर्यादि
प्रकाराः
वृषभहस्ति
दृष्टान्ताः
सू० २८०२८१
॥ २०८ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२८१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [२८१]
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सूत्राणि नेयानि, तथा आर्यभावः क्षायिकादिज्ञानादियुक्तः अनार्यभावः कोधादिमानेति । पुरुषजातप्रकरणमेव हष्टान्तदान्तिकार्थोपेतमा विकथासूत्रादभिधीयते, पाठसिद्धं चैतत्, नवरं ऋषभा-बलीवोः जाति:-गुणवन्मातृकत्वं कुलं-गुणवपितृकत्वं बलं-भारबहनादिसामर्थ्य रूप-शरीरसौन्दर्यमिति, पुरुषास्तु स्वयं भावयितव्याः, २, अनन्तरदृष्टान्तसूत्राणि तु सपुरुषदाान्तिकानि जात्यादीनि चत्वारि पदानि भुवि विन्यस्य षण्णां द्विकसंयोगानां 'जाइसंपन्ने नो कुलसंपन्ने' इत्यादिना स्थानभङ्गकक्रमेण परेव चतुर्भशिकाः कृत्वा समवसेयानि । हस्तिसूत्रे भद्रादयो हस्तिविशेषा वक्ष्यमाणलक्षणा वनादिविशेषिताश्च, यदाह- भद्रो मन्दो मृगश्चेति, विज्ञेयास्त्रिविधा गजाः । वनप्रचार १ सारूप्य २, सत्त्वभेदोपलक्षिताः३॥१॥” इति, तन्त्र भद्रो हस्ती भद्र एव धीरत्वादिगुणयुक्तत्वात् , मन्दो मन्द एवं धैर्यवेगा| दिगुणेषु मन्दत्वात् , मृगो मृग एव तनुत्वभीरुत्वादिना, सङ्कीर्णः किश्चिद् भद्रादिगुणयुक्तत्वात् सङ्कीर्ण एवेति, पुरुषो|ऽप्येवं भावनीयः, उत्तरसूत्राणि तु चत्वारि सदान्तिकानि, भद्रादिपदानि चत्वारि तदधः क्रमेण चत्वार्येव भद्रमनःप्रभृतीनि च विन्यस्य "भद्दे नाम एगे भद्दमणे" इत्यादिना क्रमेण समयसेयानि, तत्र भद्रो भा में । म । से जात्याकाराभ्यां प्रशस्तस्तथा भद्रं मनो यस्याथवा भद्रस्येव मनो यस्य स तथा धीर इत्यर्थः,...भ । में । म । में मन्दं मन्दस्येव वा मनो यस्य स तथा, 'नात्यन्तधीरः, एवं मृगमना भीरुरित्यर्थः, सङ्कीर्णमना भद्रादिचित्रलक्षणोपेत-| मना विचित्रचित्त इत्यर्थः, पुरुषास्तु वक्ष्यमाणभद्रादिलक्षणानुसारेण प्रशस्ताप्रशस्तस्वरूपा मन्तव्या इति, भद्रादिलक्षणमिदम्-'महु'गाथा, मधुगुटिकेव-क्षौद्रवटिकेव पिङ्गाले-पिङ्गे अक्षिणी-लोचने यस्य स तथा, अनुपूर्वेण-परिपाट्या
दीप
अनुक्रम [३००
45%-569
wwwjangala
~427~
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थानाअसूखवृत्तिः
सूत्रांक
स्थाना उद्देशः २ | आर्यादि| प्रकाराः वृषभहस्तिदृष्टान्ताः सू०२८०२८१
॥२०९॥
[२८१]
सुष्ठ जातः-उत्पन्नो यः सोऽनुपूर्वसुजातः, स्वजात्युचितकालक्रमजातो हि बलरूपादिगुणयुक्तो भवति स चासौ दीर्घलाङ्ग लश्व-दीर्घपुच्छ इति स तथा, अनुपूर्वेण वा स्थूलसूक्ष्मसूक्ष्मतरलक्षणेन सुजातं दीर्घ लाङ्गलं यस्य स तथेति, पुरतः- अग्रभागे उदमा-उन्नतः तथा धीरः-अक्षोभः तथा सर्वाण्यङ्गानि सम्यक्-प्रमाणलक्षणोपेतत्वेन आहितानि-व्यवस्थितानि यस्य स सर्वाङ्गसमाहितो भद्रो नाम गजविशेषो भवतीति, 'चल'गाहा, चलं-लथं वहलं-स्थूलं विषम-पलियुक्तं चर्म यस्य स तथा, स्थूलशिराः, स्थूलकेन 'पेएण'त्ति पेचकेन पुच्छमूलेन युक्तः स्थूलनखदन्तवालो, हरिपिङ्गाललोचनः-सिंहवत् पिङ्गाक्षो मन्दो गजविशेषो भवतीति, 'तणुगाहा, तनुक:-कृशः तनुग्रीवः तनुत्वक्--तनुचा तनुकदम्तनखवालः, भीरुः-भयशील स्वभावतखस्तो भयकारणवशात् स्तब्धकर्णकरणादिलक्षणोपेतो भीत एव उद्विग्नः कष्टविहारादाबुद्धेग-1 वान् स्वयं त्रस्तः परानपि त्रासयतीति त्रासी च भवेन्मृगो नाम गजभेद इति, 'एएसिं गाहा' 'भद्दो गाहा' कण्ठ्ये, तथा “दंतेहिं हणइ भद्दो मंदो हत्थेण आहणइ हत्थी । गत्ताधरेहि य मिओ, संकिन्नो सबओ हणइ ॥१॥” इति, अनन्तरं संकीर्णः सङ्कीर्णमना इत्यत्र मनःस्वरूपमुक्तमथ वाचःस्वरूपभणनाय विकथाकथाप्रकरणमाह
पत्तारि विकहातो पं०, ०--इथिकहा भत्तकहा देसकहा रायकहा, इस्थिकहा चउध्विहा पं० सं०-इस्थीण जाइकहा इत्थीण कुलकहा इस्थीणं रूवकहा इत्थीणं णेवत्थकहा, भत्तकहा चउब्विहा पं० २०-भत्तस्स आवावकहा भ. तस्स णिन्वावकहा भत्तस्स आरंभकहा भत्तस्स निढाणकहा, देसकहा चउन्विहा पं० ०-देसविहिकहा देसविक१ भदौ दन्तैईन्ति मन्दो हस्तेनाइति हस्ती गात्राधराभ्यां व मृगः संकीर्णः सर्वेईन्ति ॥१॥
दीप
अनुक्रम [३००
२०९
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
54545%*
प्रत सूत्रांक [२८२]
प्पकहा देसच्छंदकहा देसनेवस्थकहा, रायकहा चउठिवहा पं० सं०-रत्नो अतिताणकहा रनो निजाणकहा रस्रो बलवाहणकहा रनो कोसकोट्ठागारकहा, पउब्विहा धम्मकहा पं० सं०-अक्वणी विक्खेवणी संवेयणी निवेगणी, अक्खेवणी कहा चलम्बिहापं० त०-आयारअक्खेवणी ववहारअक्खेवणी पन्नत्तिअक्खेवणी विहिवातअक्सेवणी, विक्खेवणी कहा चउबिहा पं० २०-ससमयं कहेइ, ससमय कहित्ता परसमयं कहेइ १, परसमयं कहेत्ता ससमयं ठाबतित्ता भवति २, सम्भावातं कहेइ सम्मावातं कहेत्ता मिल्छावात कोइ ३ मिच्छावात कहेत्ता सम्मावातं ठावतित्ता भवति ४, संवेगणी कथा चउबिहा पं० सं०-दहलोगसंवेगणी परलोगसंवेगणी आतसरीरसंवेगणी परसरीरसंवेगणी, णिब्वेगणीकहा चम्विहा पं० सं०-इहलोगे दुचिन्ना कम्मा इहलोगे दुहफलविवागसंजुत्ता भवंति १, इहलोगे टुचिन्ना कम्मा परलोगे दुहफलविवागसंजुत्ता भवंति २, परलोगे दुचिन्ना कम्मा इहलोगे दुहफलविवागसंजुत्ता भवंति ३, परलोगे दुचिन्ना कम्मा परलोये दुरफलविवागसंजुत्ता भवंति ४, इहलोगे सुचित्रा कम्मा इद्दलोगे मुहफल विवागसं
जुत्ता भवंति १, इहलोगे सुचिन्ना कम्मा परलोगे सुहफलविवागसंजुत्ता भवंति २ एवं चतभंगो ४ (सू० २८२) सुगमम् , नवरं, विरुद्धा संयमबाधकत्वेन कथा-वचनपद्धतिर्विकथा, ततः स्त्रीणां स्त्रीषु वा कथा खीकथा, इयं च कथेत्युक्तापि स्त्रीविषयत्वेन संयमविरुद्धत्वाद्विकथेति भावनीयेति, एवं भक्तस-भोजनस्य, देशस्व-जनपदस्य, राज्ञो
नृपस्येति, ब्राह्मणीप्रभृतीनामन्यतमाया या प्रशंसा निन्दा वा सा जात्या जातेर्वा कथेति जातिकथा, यथा-'धिग्बाजामणीवाभावे, या जीवन्ति मृता इव । धन्या मन्ये जने शूद्रीः, पतिलक्षेऽप्यनिन्दिताः॥१॥ इति, एवं उग्रादिकुलो
दीप अनुक्रम [३०१]
960-96-956
'विकथा' सम्बन्धी दीर्घचर्चा
~429~
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थानागसूत्रवृत्तिः
प्रत सूत्रांक [२८२]
॥ २१०॥
CRACKALACESCISCE
दीप
खन्नानामन्यतमाया यत् प्रशंसादि सा कुलकथा, यथा-'अहो चौलुक्यपुत्रीणां, साहसं जगतोऽधिकम् । पत्युर्मृत्यौ स्थाना० विशन्त्यग्नो, याः प्रेमरहिता अपि ॥१॥ इति, तथा अन्ध्रीप्रभृतीनामन्यतमाया रूपस्य यत्प्रशंसादि सा रूपकथा, उद्देशः २ यथा-चन्द्रवका सरोजाक्षी, सद्गीः पीनघनस्तनी । किं लाटी नो मता साऽस्य, देवानामपि दुर्लभा? ॥१॥” इति, कथाः तासामेव अभ्यतमायाः कच्छाबन्धादिनेपथ्यस्य यासादि नेपथ्यकथेति, यथा-'धिग्नारीरौदीच्या बहुवसनाच्छा- सू० २८२ दिताङ्गलतिकत्वात् । यद्यौवनं न यूनां चक्षुर्मोदाय भवति सदा ॥१॥" इति, स्त्रीकथायां चैते दोषाः- आयपरमोहुदीरणं उड्डाहो सुत्तमाइपरिहाणी । बंभवयस्स अगुत्ती पसंगदोसा य गमणादी ॥१॥" उन्निष्क्रमणादय इत्यर्थः, तथा शाकघृतादीन्येतावन्ति तस्यां रसवत्यामुपयुज्यन्त इत्येवंरूपा कथा आचापकथा, एतावन्तस्तत्र पक्कापक्वान्नभेदात व्यञ्जनभेदा वेति निर्वापकथेति, तित्तिरादीनामियतां तत्रोपयोग इत्यारम्भकथा, एतावत् द्रविणं तत्रोपयुज्यत इति || निष्ठानकथेति, उक्तञ्च-"सागघयादावादो पकापको य होइ निब्वावो। आरंभ तित्तिराई णिहाणं जा सयसहस्सं ॥१॥"|| इति, इह चामी दोषाः-"आहारमन्तरेणवि गेहीओ जायए सइंगालं । अजिईदिय ओदरियावाओ उ अणुन्नदोसा य ॥२॥” इति, तथा देशे मगधादौ विधिः-विरचना भोजनमणिभूमिकादीनां भुज्यते वा यद्यत्र प्रथमतयेति देशविधिस्त-17 || कथा देशविधिकथा, एवमन्यत्रापि, नवरं, विकल्पः-सस्यनिष्पत्तिः, वप्रकूपादिदेवकुलभवनादिविशेषश्चेति, छन्दो
आत्मपरयोमोसोदीरणा जादः सूत्राविपरिहानिः ब्रह्मनतस्यागुप्तिः प्रसंगदोषा उभिष्कमणं च ॥१॥ २ शाककृतादिरावापः पापकर भवति निर्वापः। ॥२१॥ तित्तिरायारंभः यावश्यतसहस्त्रादि निष्ठानं ॥ १॥३आहारमन्तरेणापि गुब्बा सांगारं जायते भजितेन्द्रियता भीद रिकवादस्तु अनुज्ञादोषश्च ॥१॥
अनुक्रम [३०१]
'विकथा' सम्बन्धी दीर्घचर्चा
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
*
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प्रत सूत्रांक [२८२]
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गम्यागम्यविभागो यथा लाटदेशे मातुलभगिनी गम्या अन्यत्रागम्येति, नेपथ्यं-स्त्रीपुरुषाणां वेषः स्वाभाविको विभूषाप्रत्ययश्चेति, इह दोषा:-"रागद्दोसुप्पत्ती सपक्खपरपक्खओ य अहिगरणं । बहुगुण इमोत्ति देसो सोउं गमणं च अनेसि ॥१॥" इति, तथा अतियानं-नगरादौ प्रवेशस्तरकथा अतियानकथा, यथा-"सियसिंधुरखंधगओ सियचमरो सेयछत्तछन्नणहो । जणणयणकिरणसेओ एसो पविसइ पुरे राया ॥ १॥” इति, एवं सर्वत्र, नवरं निर्याण-निर्गमः,8 तत्कथा यथा-"जताउज्जममंदबंदिसई मिलंतसामतं । संखुद्धसेन्नमुदुयचिंधं नयरा निवो नियइ ॥१॥" बलं-1 हस्त्यादि वाहन-बेगसरादि, तत्कथा यथा-"हेसंतहयं गजंतमयगलं घणघणंतरहलक्खं । कस्सऽन्नस्सवि सेन्नं णिन्ना| सियसत्तुसिन्नं भो। ॥१॥" कोशो-भाण्डागारं कोष्ठागार-धान्यागारमिति, तत्कथा यथा-पुरिसपरंपरपत्तेण भरि-18 यविस्संभरण कोसेणं । णिजियवेसमणेणं तेण समो को निको अन्नो ॥१॥" इति, इह चैते दोषा:-"चारिय चोरा
भिमरे २ हिय १ मारिय २ संक काउकामा बा । भुत्ताभुत्तोहाणे करेज बा आससपओगं ॥१॥" भुक्तभोगोभुक्तभोगो वा अवधावनं कुर्यादित्यर्थः । आक्षिप्यते-मोहात् तत्त्वं प्रत्याकृष्यते श्रोताऽनयेत्याक्षेपणी, तथा विक्षिप्यते
१ रागद्वेषोत्पत्तिः सपक्षपरपक्षाभ्यामधिकरणी च एष बहुगुणो देश इति श्रुत्वाऽन्येषां गमनं च ॥१॥ २ सित सिन्धुरस्कन्धयतः सित चामरः सितछपच्छन्ननभाः जननयनकिरणश्वेत एष प्रविशति पुरे राजा ॥१॥३वायमानायुध अमंदबंदिशब्द मीलसामन्तं संधुन्धसैन्यं उबूतचि नगराभूपो निर्गछति ॥१॥
हेषद्धय गर्जन घनघनावमानस्थलक्षं कस्यान्यस्यापि सैन्य निर्वाशितशत्रुसैन्यं भोः ॥१॥४ पुषपरम्परया प्राप्तेन भूतसमाविश्वेन कोशागारेण । निर्मितवेकाश्रमणेन तेन समोऽन्यः को नृपः ॥1॥५चारिकचौराभिमरतया हते मारिते शका कर्तुकामा पा । भुक्कामुयोरवधावनं कुर्यावाशंसाप्रयोग वा ॥1॥
%
दीप अनुक्रम [३०१]
56-%
5-
'विकथा' सम्बन्धी दीर्घचर्चा
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[ २८२]
दीप
अनुक्रम [३०१]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [ ४ ], उद्देशक [२], मूलं [ २८२ ] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थाना- ५ सन्मार्गात् कुमार्गे कुमार्गाद्वा सन्मार्गे श्रोताऽनयेति विक्षेपणी, संवेगयति संवेगं करोतीति संवेद्यते वा संबोध्यते सं४. वेज्यते वा संवेगं ग्राह्यते श्रोताऽनयेति संवेदनी संवेजनी वेति निर्विद्यते संसारादेर्निर्विण्णः क्रियते अनयेति निर्वेद* नीति, आचारो-लोथास्नानादिस्तत्प्रकाशनेन आक्षेपणी आचाराक्षेपणीति, एवमन्यत्रापि, नवरं व्यवहारः-कथञ्चिदाप नदोषव्यपोहाय प्रायश्चित्तलक्षणः, प्रज्ञप्तिः संशयापन्नस्य श्रोतुर्मधुरवचनैः प्रज्ञापनं, दृष्टिवादः - श्रोत्रपेक्षया नयानुसा | रेण सूक्ष्मजीवादिभावकथम्, अन्ये त्वभिदधति-आचारादयो ग्रन्था एव परिगृह्यन्ते, आचाराद्यभिधानादिति, अस्थाश्वायं रसः "विजाचरणं च तयो पुरिसक्कारो य समिइगुतीओ । उवइस्सर खलु जं सो कहाऍ अक्खेवणीइ रसो ॥ १ ॥” इति, स्वसमयं स्वसिद्धान्तं कथयति, तद्गुणानुद्दीपयति पूर्व, ततस्तं कथयित्वा परसमयं कथयति, तद्दोषान दर्शयतीत्येका, एवं परसमयकथनपूर्वकं स्वसमयं स्थापयिता- स्वसमयगुणानां स्थापको भवतीति द्वितीया, 'सम्माचायमित्यादि, अस्यायमर्थः- परसमयेष्वपि घुणाक्षरन्यायेन यो यावान् जिनागमतत्त्वत्वादसदृशतया सम्यग्-अविपरीततश्वानां वादः सम्यग्वादः तं कथयति तं कथयित्वा तेष्वेव यो जिनप्रणीततत्त्वात् विरुद्धत्वान्मिथ्यावादस्तं दोष| दर्शनतः कथयतीति तृतीया, परसमयेष्वेव मिथ्यावादं कथयित्वा सम्यग्वादं स्थापयिता भवतीति चतुर्थी, अथवा सम्यग्वादः - अस्तित्वं, मिथ्यावादो- नास्तित्वं तत्र आस्तिकवादिदृष्टीरुक्त्वा नास्तिकवादिदृष्टीर्भणतीति तृतीया, एतद्विपर्यया चतुर्थीति, इहलोको - मनुष्यजन्म तत्स्वरूपकथनेन संवेगनी इहलोकसंवेगनी, सर्वमिदं मानुषत्वमसारमध्रुवं कद१] विद्याचरणं च तपः पुरुषकारच समिति गुप्तयः । उपदिश्यते स यत् स कथाया आक्षेपण्या रसः ॥ १ ॥
सूत्र
वृत्तिः
॥ २११ ॥
Education Intemational
'विकथा' सम्बन्धी दीर्घचर्चा
For Personal Pryse Only
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४
४ स्थाना०
उद्देशः २ कथाभेदाः
सू० २८२
॥ २११ ॥
www.scary.
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२८२]
&ालीस्तम्भसमानमित्यादिरूपा, एवं परलोकसंवेदनी देवादिभवस्वभावकथनरूपा-देवा अपीयाविषादभयवियोगादिदुःखैमारभिभूताः, किं पुनतिर्थगादय इति, आत्मशरीरसंवेगनी यदेतदस्मदीयं शरीरमेतदशुचि अशुचिकारणजातमशुचिद्वार| विनिर्गतमिति न प्रतिबन्धस्थानमित्यादिकथनरूपा, एवं परशरीरसंवेगनी, अथवा परशरीरं-मृतकशरीरमिति, इहलोके दक्षीर्णानि-चौर्यादीनि कर्माणि-क्रिया इहलोके दुःखमेव कर्मदुमजन्यत्वात् फलं दुःखफलं तस्य विपाक:-अनु-18 भवो दुःखफलविपाकस्तेन संयुक्तानि दुःखफलविपाकसंयुक्तानि भवन्ति चौरादीनामिवेत्येका, एवं नारकाणामिवेति द्वितीया, आ गर्भात् व्याधिदारिद्याभिभूतानामिवेति तृतीया, प्राक्कृताशुभकर्मोत्पन्नानां नरकप्रायोग्य बनता काकगृध्रादीनामिव चतुर्थीति, 'इहलोए सुचिन्नेत्यादि चतुर्भङ्गी तीर्थकरदानदातृ १ सुसाधु २ तीर्थकर ३ देवभवस्थतीथकरादीना ४ मिव भावनीयेति ॥ उक्तो वाग्विशेषोऽधुना पुरुषजातप्रधानतया कायविशेषमाह• तहेब बचारि पुरिसजाया पं० त०-किसे णाममेगे किसे किसे णाममेगे दृढे दढे णाममेगे किसे बढे णाममेगे दढे,
चत्तारि पुरिसजाया पं० ०-किसे णाममेगे किससरीरे किसे णाममेगे दुढसरीरे दढे णाममेगे किससरीरे दढे णाममेगे दढसरीरे ४ ॥ चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-किससरीरस्स नाममेगस्स णाणदसणे समुप्पचति णो दढसरीरस्स दढसरीरस्स णाम एगस्स णाणदसणे समुप्पज्जति णो किससरीरस्स एगस्स किससरीरस्सवि णाणदसणे समुपज्जति दढसरीरस्सवि एगस्स नो किससरीरस्स गाणदंसणे समुप्पजति णो दडसरीरस्स (सू० २८३) चउहि ठाणेहिं निगंधाण वा निग्गंधीण वा अस्सि समयंसि अतिसेसे नाणसणे समुपजिसकामेवि न समुप्पोजा, तं०
दीप अनुक्रम [३०१]
ॐॐERESH
'विकथा' सम्बन्धी दीर्घचर्चा
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आगम
(०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२८४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
॥२१२॥
[२८४]
श्रीस्थाना
-अमिक्खणं अमिक्खणमिस्थिकह भत्तकह देसकहं रायकहं कहेत्ता भवति १, विवेगेण वितस्सग्गेणं णो सम्ममप्पाणं . *४ स्थाना ब्रसूत्रभाविता भवति २ पुष्वरत्तावरत्तकालसमयंसि णो धम्मजागरितं जागरतिता भवति ३, फासुयस्स एसणिजस्स उंछस्स
दाउद्देश:२ वृत्तिः सामुदाणियस्स णो सम्मं गवेसिता भवति ४, इन्तेहिं चउहि ठाणेहिं निगंथाण या निग्गंधीण वा जाव नो समुप्प
सू०२८३जेजा । चलहिं ठाणेहिं निग्गंधाण वा निग्गंधीण वा अतिसेसे पाणदंसणे समुप्पजिउकामे समुष्पज्जेज्जा, तं०-इत्थीकहं
२८४ भत्तकई देसकहं रायकह नो कहेत्ता भवति, विवेगेण विउसमोणं सम्ममप्पाणं भावेता भवति, पुन्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरतिता भवति, फासुयस्स एसणिज्जस्स उंछस्स सामुदाणियरस सम्मं गवेसिया भवति, एहि चाहिं ठाणेहिं निग्गंथाण या निग्गंथीण वा जाव समुप्पजेजा (सू० २८४)
'चत्तारि पुरिसे त्यादि कण्ठयं, नवरं कृधः-तनुशरीरः पूर्व पश्चादपि कृश एव अथवा कृशो भावेन हीनसत्वा8|दित्वात् पुनः कृशः शरीरादिभिरेवं दृढोऽपि विपर्ययादिति, पूर्वसूत्रार्थविशेषाश्रितमेव द्वितीयं सूत्र, तत्र कृशो भावतः, द शेषं सुगर्म । कृशस्यैव चतुर्भझ्या ज्ञानोसादमाह-चत्तारी'त्यादि व्यक्तं, किन्तु कृशशरीरस्य विचित्रतपसा भावितस्य
शुभपरिणामसम्भवेन तदाधरणक्षयोपशमादिभावात् ज्ञानञ्च दर्शनश्च ज्ञानदर्शनं ज्ञानेन वा सह दर्शनं ज्ञानदर्शनं छा-| अस्थिकं कैवलिक वा तत्समुत्पद्यते, न दृढशरीरस्य, तस्य हि उपचितत्वेन बहुमोहतया तथाविधशुभपरिणामाभावेन क्षयोपशमाद्यभावादित्येकः, तथाऽमन्दसंहननस्याल्पमोहस्य दृढशरीरस्यैव ज्ञानदर्शनमुखद्यते, स्वस्थ शरीरतया मनःस्वास्थ्येन शुभपरिणामभावतः क्षयोपशमादिभावात् न कृशशरीरस्यास्वास्थ्यादिति द्वितीयः, तथा कृशस्य रहस्य वा तदु-1
दीप
अनुक्रम [३०३]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२८४]
दीप
पद्यते विशिष्ट संहननस्याल्पमोहस्योभयथापि शुभपरिणामभावात् कृशस्वदृढत्वे नापेक्षत इति तृतीयः, चतुर्थः सुज्ञानः ।। ज्ञानदर्शनयोरुत्पादः उक्तोऽधुना तव्याघात उच्यते, तत्र-चउहीं'त्यादि सूत्रं स्फुटं, परं निर्घन्धीग्रहणात् स्त्रिया अपि केवलमुलद्यत इत्याह, 'अस्मिन्निति अस्मिन् प्रत्यक्ष इवानन्तरप्रत्यासने समये 'अहसेसे'त्ति शेषाणि-मत्यादिचक्षुर्द-18 नादीनि अतिक्रान्तं सर्वाववोधादिगुणैर्यत्तदतिशेषमतिशयवत्केवलमित्यर्थः समुत्पत्तुकाममपीतीहैवार्थों द्रष्टव्यः, ज्ञानादेरभिलाषाभावात् , कथयितेति शीलार्थिकस्तृन् तेन द्वितीया न विरुद्धेति, 'विवेकेने ति अशुद्धादित्यागेन 'विउस्सग्गेणंति कायव्युत्सर्गेण पूर्वरात्रश्च-रात्रे पूर्वो भागो अपररात्रश्च-रात्रेरपरो भागः तावेव कालः स एव समय:-अवसरो जागरिकायाः पूर्वरात्रापररात्रकालसमयस्तस्मिन् कुटुम्बजागरिकाव्यवच्छेदेन धर्मप्रधाना जागरिका-निद्राक्षयेण बोधो । धर्मजागरिका, भावप्रत्युपेक्षेत्यर्थो, यथा-"किं कय किंवा सेसं किं करणिज तवं च न करेमि । पुब्वावरत्तकाले जाग-1 |रओ भावपडिलेहा ॥१॥" इति, अथवा-"को मम कालो? किमेयस्स उचिय? असारा विसया नियमगामिणो विर| सावसाणा भीसणो मचू ॥१॥" इत्यादिरूपा विभक्तिपरिणामात् तया जागरिता-जागरको भवति, अथवा धर्मजागरिकां
जागरिता-कतेति द्रष्टव्यमिति, तथा प्रगता असवः-उच्छासादयः प्राणा यस्मात् स प्रासुको-निजींवस्तस्य एष्यते| गवेष्यते उद्गमादिदोषरहिततयेत्येषणीयः-कल्प्यस्तस्य उन्छचते-अल्पाल्पतया गृह्यत इत्युच्छो-भक्तपानादिस्तस्य समु
कि कृतं किंवा शेषं कि करणीयं च तपश्च न करोमि पूर्वापररात्रकाले जामतो भावप्रति लेसदा ॥१॥ २ को बा मम कालः किमेतयोचितं ! असारा विषया नियमयामिनो विरसायसानाः भीषणो मृत्युः ॥१॥
अनुक्रम [३०३]
JERBERIESEUninthimaal
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना- सूत्र
43434
उद्देशः२
प्रत
वृत्तिः
सूत्रांक २८४]
॥२१३॥
महाप्रतिला पदः सू०२८५२८६
२८७
दीप अनुक्रम [३०३]
दाने-भिक्षणे याच्आया भवः सामुदानिकः तस्य नो सम्यग्गवेषयिता-अन्वेष्टा भवति, इत्येवंप्रकार:-एतैरनन्तरोदितैरित्यादि निगमनम्, एतद्विपर्ययसूत्रं कण्ठ्यं । निग्रन्थप्रस्तावात्तदकृत्यनिषेधाय सूत्रे
नो कप्पति निग्गंधाण वा निगगंधीण वा चाहिं महापाडिवएहि सज्झायं करेत्तए, तं०-भासाहपाडिवए इंदमहपाडिवए कत्तियपाटिवए सुगिम्हपाडिवए १, णो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंधीण या चाहिं संझाहि सज्झायं करेत्तए, तं०पढमाते पच्छिमाते माहे अडरते २॥ कापड निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा चाउकालं सज्झायं करेत्तए, सं०-पुन्वण्हे, अबरण्हे पोसे पसे (सू०२८५) चउबिहा लोगहिती पं० २०-आगासपतिहिए बाते वावपतिहिए उदधी उदधिपतिट्ठिया पुढवी पुढविपइद्विया तसा थावरा पाणा ४ (सू० २८६) चत्तारि पुरिसजाता पं० त०-तहे नाममेगे नोतहे नाममेगे सोपत्थी नाममेगे पधाणे नाममेगे ४, चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-आयंतकरे नाममेगे णो परंतकरे १ परंतकरे णाममेगे णो आतंतकरे २ एगे आतंतकरेवि परंतकरेवि ३ एगे जो आतंतकरे णो परंतकरे ४, २, पत्तारि पुरिसजाता पं० २०-आतंतमे नाममेगे नो परंतमे परंतमे नो (ब) ४, ३, चत्वारि पुरिसजाया पं० तं०-आयंदमे नाममेगे णो परंदमे ४, ४, (सू० २८७) चउन्विधा गरहा पं० त०-वसंपज्जामित्तेगा गरहा वितिगिच्छामिलेगा गरहा जंकिंचिमिच्छामीत्तेगा गरहा एवंपि पन्नत्तेगा गरहा (सू० २८८) 'नो कप्पईत्यादिके कण्ठ्ये, केवलं महोत्सवानन्तरवृत्तित्वेनोत्सवानुवृत्या शेषप्रतिपद्धर्मविलक्षणतया महाप्रतिपदस्तासु, इह च देशविशेषरूळ्या पाडिवएहिंति निर्देशः, स्वाध्यायो-नन्द्यादिसूत्रविषयो वाचनादिः, अनुप्रेक्षा तु नं निषि
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| ॥२१
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'अस्वाध्याय'-दिवस सम्बन्धी कथनं
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२८८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२८८]
BIHAR
ध्यते, आषाढस्य पौर्णमास्या अनन्तरा प्रतिपदापाढप्रतिपदेवमन्यत्रापि, नवरमिन्द्रमहा-अश्वयुपौर्णमासी, सुग्रीष्मःचैत्रपौर्णमासीति, इह च यत्र विषये यतो दिवसान्महामहाः प्रवर्तन्ते तत्र तद्दिवसात् स्वाध्यायो न विधीयते महस-IN माप्तिदिनं यावत् , तच्च पौर्णमास्येव, प्रतिपदस्तु क्षणानुवृत्तिसम्भवेन वय॑न्त इति, उक्तं च-"आसाढी इंदमहो कत्तिय सुगिम्हए य बोद्धव्वो । एए महामहा खलु सम्वेसि जाव पाडिवया ॥१॥" इति, अकालस्वाध्याये चामी दोषाः
-"सुयणाणंमि अभत्ती लोगविरुद्धं पमत्तछलणा य । विज्जासाहणवेगुन्नधम्मया एव मा कुणसु ॥१॥" इति, विद्यासाधनवैगुण्यसाधम्र्येणैवेत्यर्थः, प्रथमा सन्ध्या अनुदिते सूर्ये पश्चिमा-अस्समयसमये । उक्तविपर्ययसूत्रं कण्ठ्यं, किन्तु | 'पुब्वण्हे अवरपहेत्ति दिनस्याधचरमप्रहरयोः 'पओसे पचूसेति रात्रेरिति । स्वाध्यायप्रवृत्तस्य च लोकस्थितिपरिज्ञानं भवतीति तामेव प्रतिपादयन्नाह-'चउबिहे'त्यादि, लोकस्य-क्षेत्रलक्षणस्य स्थितिः-व्यवस्था लोकस्थितिः, आकाशप्रतिष्ठितो वातो-धनवाततनुवातलक्षणः, उदधिः-घनोदधिः, पृथिवी-रत्नप्रभादिका, असा-द्वीन्द्रियादयस्ते पुनर्ये रलप्रभादिपृथ्वीप्यप्रतिष्ठितास्तेऽपि विमानपर्वतादिपृथिवीपतिष्ठितत्वात् पृथिवीप्रतिष्ठिता एव, विमानपृथिवीनां चाकाशादिप्रतिष्ठितत्वं यथासम्भवमवसेयम् , अविवक्षा बेह विमानादिगतदेवादित्रसानामिति, स्थावरास्त्विह बादरवनस्सत्यादयो प्रायाः, सूक्ष्माणां सकललोकप्रतिष्ठितत्वात् , शेष सुगममिति । अनन्तरं त्रसाः प्राणा उक्ताः, अधुना समा
१ आषाढी इन्द्रमहः कार्तिक पीने बोडव्याः एते महामहाः खलु सर्वेषां यावत्प्रतिपदः ॥ १॥ २ श्रुतज्ञानेऽभक्तिः लोकविरुद्धता प्रमत्तछलना च & विद्यासाधनवैगुण्यवर्मता इति मा कुरु ॥१॥
दीप अनुक्रम [३०७]
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'अस्वाध्याय'-दिवस सम्बन्धी कथनं
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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प्रत
सूत्रांक
२८८]
श्रीस्थाना-ठाणविशेषस्य 'चत्तारी'त्यादिभिश्चतुर्भिश्चतुर्भङ्गीसूत्रः स्वरूपं दर्शयति, कण्ठ्यानि चैतानि, केवलं 'तह'त्ति सेवकः सन् स्थाना
सूत्र- यथैवादिश्यते तथैव यः प्रवर्तते स तथा, अन्यस्तु नो तथैवान्यथापीत्यर्थ इति नोतथः, तथा स्वस्तीत्याह चरति वा[5] उद्देशः२ वृत्तिः सौवस्तिकः प्राकृतत्वात् ककारलोपे दीर्घत्वे च सोवस्थी-मालिकाभिधायी मागधादिरन्यः, एतेषामेवाराध्यतया प्र- | महाप्रति॥२१४॥
धाना-प्रभुरन्य इति । 'आयंतकरे'त्ति आत्मनोऽन्तम्-अवसानं भवस्य करोतीत्यात्मान्तकरः, नो परख भवान्तकरो, धर्मदेशनानासेवकः प्रत्येकबुद्धादिः १, तथा परस्य भवान्तं करोति मार्गप्रवर्तनेन परान्तकरो नात्मान्तकरोऽचरम-16 शरीर आचार्यादिः २, तृतीयस्तु तीर्थकरोऽन्यो वा३, चतुर्थों दुष्षमाचार्यादि.४, अथवाऽऽत्मनोऽन्त-मरणं करोतीति है २८६आत्मान्तकरः, एवं परान्तकरोऽपि, इह प्रथम आत्मवधको द्वितीयः परवधकः तृतीय उभयहन्ता चतुर्थस्त्ववधक इति, २८७अथवाऽऽत्मतन्त्रः सन् कार्याणि करोतीत्यात्मतन्त्रकरः, एवं परतन्त्रकरोऽपि, इह तु प्रथमो जिनो, द्वितीयो भिक्षुः, २८८
तृतीय आचार्यादिः, चतुर्थः कार्यविशेषापेक्षया शठ इति, अथवा आत्मतन्त्रं-आत्मायत्तं धनगच्छादि करोतीत्यात्मतछानकर एवमितरापि भङ्गयोजना स्वयमूह्येति । तथा आत्मानं तमयति-खेदयतीत्यात्मतम:-आचार्यादिः, परं-शिष्यादिका मातमयतीति परतमः, सर्वत्र प्राकृतत्वादनुस्वारः, अथवा आत्मनि तमः-अज्ञानं कोधो वा यस्य स आत्मतमा, एवमि-|
तरेऽपि, तथा आत्मानं दमयति-शमवन्तं करोति शिक्षयति वेत्यात्मदमः आचार्योऽश्वदमकादिर्वा, एवमितरेऽपि, नवरं |
पर:-शिष्योऽश्वादिवो ॥ दमश्च गीगातः स्यादिति गर्हासूत्र, तत्र गुरुसाक्षिका आत्मनो निन्दा गहों, तत्र उपसंपधे- ॥२१॥ द आश्रयामि गुरु स्वदोषनिवेदनार्थ अभ्युपगच्छामि वोचितं प्रायश्चित्तं इतीत्येवंप्रकारः परिणाम एका गर्हेति, गोत्वं|
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दीप
अनुक्रम [३०७]
अत्र सम्पादन-कार्ये अथवा 'प्रूफ-रिडींग' अवसरे किचित स्खलना जाता: (यहाँ प्रत में शीर्षक स्थाने जो महाप्रतिपदः लिखा है वो गलतीसे रह गया दीखता है, क्योंकि वो विषय पिछले पृष्ठ पर पूर्ण हो गया है.) अत्र आत्मनोकर: एवं परान्तकर: विषय वर्तते.
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२८८]
SEARCRACCX
चास्योक्तपरिणामस्य गर्हायाः कारणत्वेन कारणे कार्योपचाराद् गाँसमानफलत्वाश द्रष्टव्यमिति, अभिधीयते हि भग-1 बत्याम्-"निग्गथे णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए [पिण्डलाभप्रतिज्ञयेत्यर्थः>, पविठेणं अन्नयरे अकिच्चट्ठाणे पडि-18 | सेविए, तस्स णं एवं भवइ-इहेब ताव अहं एयरस ठाणस्स आलोएमि पडिकमामि निंदामि जाव पडिवजामि, तओ। |पच्छा थेराणं अंतियं आलोइस्सामि से य संपहिए असंपत्ते अप्पणा य पुध्वमेव कालं करेजा से पण भंते ! किं आरा-1
हए विराहए, गोयमा! आराहए नो विराहए"त्ति, तथा वितिगिच्छामित्ति वीति-विशेषेण विविधप्रकारैर्वा चिकि|त्सामि-प्रतिकरोमि निराकरोमि गहणीयान् दोषान इतीत्येवं विकल्पात्मिका एकाउन्या गहाँ, तत एवेति, तथा 'ज
किंचिमिच्छामीति'त्ति यत्किश्शनानुचितं तन्मिथ्या-विपरीतं दुष्ठ मे-मम इत्येवंवासनागर्भवचनरूपा एकाऽन्या गर्दा,। द एवंस्वरूपत्वादेव गर्हायाः, तथा 'एवमपीति अनेनापि-स्वदोषगहणप्रकारेणापि प्रज्ञता-अभिहिता जिनैर्दोषशुद्धिरिति
प्रतिपत्तिरेका गर्हा, एवंविधप्रतिपत्तेहीकारणत्वादिति, 'एवंपि पन्नत्तेगा गरहे'ति पाठे व्याख्यानमिदम्, 'एवंपि पनत्ते एगा' इति पाठे विदं-यत्किश्शनावचं तन्मिथ्येत्येवं प्रतिपत्तव्यमित्येवमपि प्रज्ञप्ते-प्ररूपिते सत्येका गहीं भवति, एवंविधप्ररूपणायाः प्रज्ञापनीयस्य गहाँकारणत्वात् , अथवा उपसंपद्ये-प्रतिषेधाम्यहमतिचारानित्येवं स्वदोषप्रतिपत्तिरेका
१ निम्रन्यो गृहपतिकुल पिडादानप्रतिक्षया प्रविष्टोऽन्यतरत् अवस्था प्रतिनितं, तस्यैवं भवति-दहव तावदहमेतस्य स्थानस्यालोचयामि प्रतिकाम्यामि निन्दामि यावत्प्रतिपये ततः पवारस्थ विराणामन्तिके आलोचयिष्यामि,सच संप्रस्थितोऽसंप्राप्त आत्मना च पूर्वमेव कालं कुर्यात् स भदन्त ! किमाराधको विराधकः, गौतम | आराधको न पिराधकः ।।
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
२८८]
श्रीस्थाना- गर्दा, तथा विचिकिप्सामि-शङ्क अशङ्कनीयानपि जिनभाषितभावान गुर्वादीन् वा दोषवत्तयेत्येवंप्रकारा अपि गर्दा स्व-३४ स्थाना० असूत्र- दोषप्रतिपत्तिरूपत्वादेवेति, तथा यत्किञ्चन साधूनामनुचितं तदिच्छामि-साक्षादकरणेऽपि मनसाऽभिलपामि, इह मकार उद्देशः २ वृत्तिः । आगमिकः प्राकृतत्वादिति, अथवा यत्किञ्चन साधुकृत्यमाश्रित्य मिथ्या--विपर्यस्तोऽस्मि-भवामि मिध्याकरोमि वा मि- पुरुषाणा
साथ्ययामीति, 'मिच्छामि'म्लेच्छवदाचरामि वा म्लेच्छामीति मिच्छामि, शेषं पूर्ववत् , तथा असदनुष्ठानप्रवृत्तः सन् प्रेरितःगमलमस्त्वा॥ २१५॥
सन् केनापि स्वकीयचित्तसमाधानार्थ वा स्वकीयासदनुष्ठानसमर्थनाय क्लिष्टचित्ततयैवं प्ररूपयामि भावयामि वा, यदुत-13/दिचतुर्भगी एवमपि प्रज्ञप्तिः-प्ररूपणाऽस्ति जिनागमे, पाठान्तरे त्वेवमपि प्रज्ञप्तोऽयं भाव इत्यस्थानाभिनिवेशी उत्सूत्रप्ररूपको वाहमित्येका गो, एवं स्वदोषप्रतिपत्तिरूपा गहरे सर्वत्रेति ॥ गर्दा च दोषवर्जकस्यैव सम्यग् भवति नेतरस्येति दोषवर्जकजीवस्वरूपनिरूपणाय सप्तदश चतुर्भङ्गी सूत्राणि
चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-अप्पणो नाममेगे अलमंथू भवति णो परस्स परस्स नाममेगे अलमंथू भवति णो अप्पणो एगे अप्पणोवि अलमंथू भवति परस्सवि एगे नो अपणो अलमंथू भवति णो परस्स १ । चत्तारि मग्गा पं० तं०--उज्जू नाममेगे उज्जू उज्जू नाममेगे, बंके बंके नाममेगे उजू के नाममेगे 4के २ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०---उजू नाममेगे उज्जू ४, ३ । चत्तारि मग्गा पं० त०-खेमे नाममेगे खेमे खेमे णाममेगे अखेमे हू (४), ४ । एवामेव चचारि पुरिसजाता पं० २०-खेमे णाममेगे खेमे, ह (४), ५ । चत्तारि मग्गा पं० सं०
M॥२१५॥ खेमे णाममेगे खेमरूवे, खेमे णाममेगे अखेमरूवे ४, ६ । एवामेव चचारि पुरिसजाया पं० सं०-खेमे नाममेगे खे
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२८९]
मरूवे ४, ७ । चत्तारि संयुका पं० त०-वामे नाममेगे वामावत्ते वामे नाममेगे दाहिणावते दाहिणे नाममेगे वामावत्ते दाहिणे नाममेगे दाहिणावते ८ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० ०-वामे नाममेगे वामावत्ते, र (४) ९। चत्तारि धूमसिहाओ पं० सं०-वामा नाममेगा वामावत्ता ४,१०। एवामेव चत्तारित्वीओ पं० सं०-यामा णाममेगा वामावत्ता ४,११ । चत्तारि अम्गिसिहाओ पं००-वामा णाममेगा वामावत्ता, (ह)४,१२ | एवामेव पचारित्थीले पं० २०-वामा णा (6)४, १३ । चत्तारि वायमंडलिया पं०२०-वामा णाममेगा वामावचा ४, १४, एवामेव चत्तारित्थीओ पं० २०-वामा गाममेगा वामावत्ता ४, १५ । चत्तारि बणसंडा पं०२०-वामे नाम
मेगे वामावत्ते ४, १६, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-वामे णाममेगे वामावते, ४, १७ । (सू० २८९) व्यक्तानि, केवलं अलमस्तु-निषेधो भवतु य एवमाह सोऽलमस्त्वित्युच्यते, निषेधक इत्यर्थः, स चात्मनो दुर्णयेषु प्रवर्त्तमानस्यैको निषेधकः, अथवा 'अलमंधु'त्ति समयभाषया समर्थोऽभिधीयते, ततः आत्मनो निग्रहे समर्थः कश्चिदिति, एको मार्ग ऋजुरादावन्तेऽपि ऋजुः अथवा ऋजुः प्रतिभाति तत्त्वतोऽपि ऋजुरेवेति, पुरुषस्तु ऋजुः पूर्वापरकालापेक्षया, अन्तस्तत्त्ववाहिस्तत्त्वापेक्षया वेति, कचित् 'उज्जूनाम एगे उज्जूमणेत्ति पाठा, सोऽपि बहिस्तत्त्वान्तस्तत्त्वापेक्षया व्याख्येयः, क्षेमो नामैको मार्ग आदौ निरुपद्रवतया पुनः क्षेमोऽन्ते तथैव, प्रसिद्धितत्त्वाभ्यां वा, एवं पुरुषोऽपि क्रोधाद्युपद्रवरहिततया क्षेम इति, क्षेमो भावतोऽनुपद्रवत्वेन क्षेमरूप आकारेण मार्गः, पुरुषस्तु प्रथमो भावद्रव्यलिङ्ग| युक्तः साधुः, द्वितीयः कारणिको द्रव्यलिङ्गवर्जितः साधुरेव, तृतीयो निह्नवः, चतुर्थोऽन्यतीर्थिको गृहस्थो वेति, ७,
दीप अनुक्रम [३०८]
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[२८९]
दीप
अनुक्रम
[३०८]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
उद्देशक [२],
मूलं [ २८९]
स्थान [ ४ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थाना
सूत्रवृत्तिः
॥ २१६ ॥
शम्बूकाः-शङ्खाः वामो वामपार्श्वव्यवस्थितत्वात् प्रतिकूलगुणत्वाद्वा, वामावर्त्तः प्रतीतः, एवं दक्षिणावर्त्तोऽपि दक्षिणो दक्षिणपार्श्वनियुक्तत्वादनुकूलगुणत्वाद्वेति, पुरुषस्तु वामः प्रतिकूल स्वभावतया वाम एवावर्त्तते प्रवर्त्तत इति वामावर्त्तो विपरीतप्रवृत्तेरेकः अन्यो वाम एव स्वरूपेण कारणवशाद् दक्षिणावर्त्तः - अनुकूलवृत्तिः, अन्यस्तु दक्षिणोऽनुकूलस्वभावतथा कारणवशात् वामावर्त्तः - अननुकूलवृत्तिरित्येवं चतुर्थोऽपीति, धूमशिखा वामा वामपार्श्ववर्त्तितया अननुकूलस्वभाबतया वा वामत एवावर्त्तते या तथावलनात् सः वामावर्त्ता, स्त्री पुरुषवद् व्याख्येया, कम्बुदृष्टान्ते सत्यपि धूमशिखादिदृष्टान्तानां खीदान्तिके शब्दसाधर्म्येणोपपन्नतरत्वाद् भेदेनोपादानमिति ११ एवमग्निशिखापि १३, वातमण्डलिका-मण्डलेनोप्रवृत्तो वायुरिति, इह च स्त्रियो मालिन्योपतापचापल्यस्वभावा भवन्तीत्यभिप्रायेण तासु धूमशिखादिदृष्टान्तत्रयोपन्यास इति, उक्तख -“चवला मइलणसीला सिणेहपरिपूरियावि तावेइ । दीवयसिहन्न महिला लद्धप्पसरा भयं देइ ॥ १ ॥ इति, १५, वनखण्डस्तु शिखावत्, नवरं वामावर्त्तो वामवलनेन जातत्वाद् वायुना वा तथा धूयमानस्वादिति १६, पुरुषस्तु पूर्ववदिति १७ ॥ अनुकूलस्वभावोऽनुकूलप्रवृत्तिश्चानन्तरं पुरुष उक्तः, एवंभूतश्च निर्ग्रन्थः | सामान्येनानुचितप्रवृत्तावपि न स्वाचारमतिक्रामतीति दर्शयन्नाह
ठाणेहिं जिथे णिग्गंधि आलवमाणे वा संलवमाणे वा णातिकमति तं० पंथं पुच्छमाणे वा १ पंथ देसमाणे वा २ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दलेमाणे वा ३ दलावेमाणे वा ३ ( सू० २९० ) तमुकायस्स णं चत्तारि १ चपला मलिनताकरणशीला परिपूरितापि तापयति दीपकशिखेव महिला लब्धप्रसरा भयं ददाति ॥ १ ॥
Education Intimation
For Personal & Pre Only
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१४ स्थाना० उद्देशः २ निर्ग्रन्थ्या सहालापादि सू० २९० तमस्कायः सू० २९१
॥ २१६ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२९१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [२९१]
दीप अनुक्रम
नामधेजा पं० सं०-तमिति वा तमुकातेति वा अंधकारेति वा महंधकारेति वा। तमुकायस्स ण पत्तारि णामधेजा पं० सं०-लोगंधगारेति वा लोगतमसेति वा देवंधगारेति वा देवतमसेति वा । तमुक्कायस्स चत्तारि नामधेना पं० त०-भातफलिहेति या बातफलिहखोभेति वा देवरन्नेति वा देववूडेति वा । तमुकाते णं चत्तारि कप्पे आवरिता चिट्ठति त०-सोधम्मीसाणं सर्णकुमारमाहिदं (सू० २९१) 'चउहीत्यादि, स्फुट, किन्त्वालपन्-ईषत्प्रथमतया वा जल्पन् संलपन् मिथो भाषणेन नातिकामति-न लवयति निर्ग्रन्धाचारं, "एगो एगिस्थिए सद्धिं नेव चिड़े न संलवे" विशेषतः साध्व्या इत्येवंरूपं, मार्गप्रक्षादीनां पुष्टालम्बनत्वादिति, तत्र मार्ग पृच्छन्, प्रश्नीयसाधम्मिकगृहस्थपुरुषादीनामभावे-हे आयें ! कोऽस्माकमितो गच्छतां मार्ग इत्यादिना क्रमेण मार्ग वा तस्या देशयन्-धर्मशीले! अयं मार्गस्ते इत्यादिना क्रमेण, अशनादि वा ददद्-धर्मशीले! गृहाणेदमशनादीत्येवं, तथा अशनादि दापयन, आर्ये! दापयाम्येतत्तुभ्यं आगच्छेह गृहादावित्यादिविधिनेति । तथा तमस्कार्य तम| इत्यादिभिः शब्दैः व्याहरन्नातिक्रमति भाषाचारं यथार्थत्वादिति तानाह-'तमुक्काये'त्यादि सूत्रत्रयं सुगर्म, नवरं तमसः-अकायपरिणामरूपस्यान्धकारस्य कायः-प्रचयस्तमस्कायो, यो सङ्ख्याततमस्यारुणवराभिधानद्वीपस्य बाह्यवेदिकान्तादरुणोदाख्यं समुद्रं द्विचत्वारिंशद्योजनसहस्राण्यवगाह्योपरितनाजलान्तादेकप्रदेशिकया श्रेण्या समुस्थितः सप्तदशैकविंशत्यधिकानि योजनशतानि ऊर्द्धमुत्पत्य ततः तिर्यक् प्रविस्तृणन् सीधादीश्चतुरो देवलोकानावृत्यो मपि
१ एकाकी एकाग्रिन्या स्त्रिया सार्थ नैव विधुत् नैव संलपेत् ।
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२९१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना- नसूत्रवृत्तिः
प्रत
स्थाना. | उद्देश:२ तमस्कायः सू०२९१
सूत्रांक
॥२१७॥
[२९१]
च ब्रह्मलोकस्य रिष्ठं विमानप्रस्तदं सम्प्राप्तः, तस्य नामान्येव नामधेयानि, 'तम' इति तमोरूपत्वादितिरुपप्रदर्शने वा विकल्पे तमोमात्ररूपताभिधायकान्याद्यानि चत्वारि नामधेयानि, तथाऽपराणि चत्वार्येवात्यन्तिकतमोरूपताभिधायकानीति, लोके अयमेवान्धकारो नान्योऽस्तीदृश इति लोकान्धकारः, देवानामप्यन्धकारोऽसौ, तच्छरीरप्रभाया अपि तत्राप्रभवनादिति देवान्धकारः, अत एव ते बलवतो भयेन तत्र नश्यन्तीति श्रुतिरिति, तथाऽन्यानि चत्वारि कार्या- श्रयाणि वातस्य परिहननात् परिघः-अर्गला, परिघ इव परिघः, वातस्य परिघो वातपरिघः, तथा वातं परिघवत् क्षोभयति हतमार्ग करोतीति-वातपरिपक्षोभः, वात एव वा परिषस्तं क्षोभयति यः स तथा, पाठान्तरेण वातपरिक्षोभ इति, कचिद्देवपरिघो देवपरिक्षोभ इति चाद्यपदद्वयस्थाने पठ्यते, देवानामरण्यमिव बलवद्भयेन नाशनस्थानत्वाद् यः स देवारण्यमिति, देवानां ब्यूहः सागरादिसाङ्कामिकव्यूह इव यो दुरधिगम्यत्वात् स देवव्यूह इति, तमस्कायस्वरूपप्रतिपादनायैव 'तमुकाये 'मित्यादि सूत्रं गतार्थम्, किन्तु सौधर्मादीनावृणोत्यसी कुकुटपञ्जरसंस्थानसंस्थितस्य तस्य प्रतिपादनाद्, उक्तं च-"तमुकाए णं भंते ! सिटिए पन्नत्ते?, गोयमा! अहे मल्लगमूलसंठिए उप्पिं कुकुडपंजरसंठिए पन्नत्ते" ति ॥ अनन्तरं तमस्कायो बचनपर्यायैरुक्तोऽधुना अर्थपर्यायैः पुरुषं निरूपयता पश्चसूत्री गदिता
चत्तारि पुरिसजाता पं००-संपागडपडिसेवी णाममेगे पच्छन्नपडिसेवी णाममेगे पडुप्पन्ननंदी नाममेगे णिस्सरणगंदी णाममेगे १ । चत्तारि सेणाओ पं० २० जतित्ता णाममेगे णो पराजिणित्ता पराजिणित्ता णाममेगे णो जतित्ता १ तमस्कायो भदन्त ! किसस्थितः प्रजातो, गौतम ! अधो माकमूलसस्थितः उपरि कुकुटपंजरसस्थितः ॥
दीप
अनुक्रम
॥२१७॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२९२]
दीप
एगा जतित्तावि पराजिणित्तावि एगा नो जतित्ता नो पराजिणित्ता २। एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पं० सं०-जतिचा नाममेगे नो पराजिणित्ता ४,३ । चत्तारि सेणाओ पं००-जतित्ता णामं एगा जयई आइत्ता णाममेगा पराजिणति पराजिणित्ता णाममेगा जयति पराजिणिता नाममेगा पराजिणति ४ । एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पं० तं०-जइत्ता नाममेगे जयति ४, ५ । (सू० २९२) सुगमा च, नवरं कश्चित्साधुर्गच्छवासी सम्प्रकटमेव-अगीतार्थप्रत्यक्षमेव प्रतिसेवते मूलगुणानुत्तरगुणान् वा दर्पतः| कल्पेन वेति सम्प्रकटप्रतिसेवीत्येकः, एवमन्यः प्रच्छन्नं प्रतिसेवत इति प्रच्छन्नप्रतिसेवी, अन्यस्तु प्रत्युसन-लब्धेन वस्त्रशिष्यादिना प्रत्युत्पन्नो वा-जातः सन् शिष्याचार्यादिरूपेण नन्दति यः स प्रत्युत्पन्ननन्दी, अथवा नन्दनं नन्दिःआनन्दः, प्रत्युत्पन्नेन नन्दिर्यस्य स प्रत्युत्पन्ननन्दिः, तथा माघूर्णकशिष्यादीनामात्मनो वा निःसरणेन-गच्छादेनिर्गमेन नन्दति यो नन्दिा यस्य स तथा, पाठान्तरे तु प्रत्युत्पन्न-यथालब्धं सेवते-भजते नानुचितं विवेचयतीति प्रत्युत्पन्नसेवीति । 'जइत्त'त्ति जेत्री जयति रिपुबलमेका न पराजेत्री-न पराजयते-रिपुबलान भज्यते द्वितीया तु पराजेत्री-परेभ्यो भङ्गभाक्, अत एव नो जेत्रीति, तृतीया कारणवशादुभयस्वभावेति, चतुर्थी त्वविजिगीषुत्वादनुभयरूपेति, पुरुषः -साधुः स जेता परीषहाणां न तेभ्यः पराजेता-उद्विजते इत्यर्थो महावीरवदित्येको, द्वितीयः कण्डरीकवत्, तृतीयस्तु कदाचिजेता कदाचित्कर्मवशात् पराजेता शैलकराजर्षिवत्, चतुर्धस्त्वनुत्पन्नपरीषहः । जित्वा एकदा रिपुबलं पुनरपि जयतीत्येका अन्या जित्वा पराजयते-भज्यते अन्या पराजित्य-परिभज्य पुनर्जयति चतुर्थी तु पराजित्य-परिभज्यैकदा
अनुक्रम [३११]
Lama
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आगम
(०३)
प्रत
सूचांक
[२१२]
दीप
अनुक्रम
[३११]
[भाग-5] "स्थान" अंगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः) - स्थान [ ४ ], उद्देशक [२]. मूलं [ २९२ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३]
श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः
॥ २१८ ॥
पुनः पराजयते, पुरुषस्तु परीषादिष्वेवं चिन्तनीय इति ॥ जेतव्याश्चेह तत्वतः कपाया एवेति तत्स्वरूपं दर्शयितुकामः क्रोधस्योत्तरत्रोपदर्शयिष्यमाणत्वान्मायादिकषायत्रयप्रकरणमाह
चत्तारि केतणा पं० तं० वंसीमूलकेतणते मेंढविसाणकेतणते गोमुत्तिकेतणते अवलेहणितकेतणते, एवामेव चढविधामाया पं० तं० सीमूलकेतणासमाणा जाव अवलेहणितासमाणा, वसीमूलकेतणासमाणं भायं अणुपविट्टे जीवे कालं करेति रrry उज्जति, मेंढविसाणकेतणासभाणं भायमणुष्पविट्टे जीवे कालं करेति तिरिक्खजोणितेसु उववज्जति, गोमुत्ति० जाव कालं करेति मणुस्सेसु उववज्जति, अवलेहणिता जाव देवेसु उववज्जति । चत्तारि थंभा पं० [सं० सेलयं अद्विथंभे दारुथंभ तिथिसतार्थमे, एवामेव चउव्विधे माणे पं० [सं० सेथंभसमाणे जाव तिमिसलतार्थभसमाणे, सेलथंभसमाणं माणं अणुपविट्टे जीवे कालं करेति नेरतिएस उववज्जति, एवं जाब तिणिसलतायंभसमाणं माणं अणुपविट्टे जीवे कालं करेति देवेसु उववज्जति । चत्तारि वत्था पं० [सं० किमिरागरचे कद्दमरागरते खंजणरागरचे इलिद्दरागरत्ते, एवामेव चविधे लोभे पं० [सं० किमिरागरत्तवत्यसमाणे कद्दमरागरत्तवत्समाणे खंजणरागरचबस्थसमाणे हल्दिरागरत्तवत्यसमाणे, किमिरागरत्तवत्थसमाणं लोभमणुपविट्टे जीवे कालं करेइ नेरइए उबवज्जद - हेव जाव इलिद्दरागरतवत्यसमाणं लोभमणुपविद्वे जीवे कालं करेइ देवेसु उवज्जति (सू० २९३ ) 'चत्तारी'त्यादि प्रकटं, किन्तु केतनं सामान्येन वक्रं वस्तु पुष्पकरण्डस्य वा सम्बन्धि मुष्टिग्रहणस्थानं वंशादिदलकं, तच्च वक्रं भवति, केवलमिह सामान्येन वक्रं वस्तु केवनं गृह्यते, तत्र वंशीमूलं च तत्केतनं च वंशीमूलकेतनमेवं
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"स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
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४ स्थाना० उद्देशः २ प्रकटसे
व्यादि केतनादि
सू० २९२२९३
।। २१८ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [२९३]
दीप
सर्वत्र, नवरं मेण्डविषाणं-मेषशृङ्ख, गोमूत्रिका प्रतीता, 'अवलेहणियत्ति अवलिख्यमानस्य वंशशलाकादेर्या प्रतन्धी त्वक् साऽवलेखनिकेति, बंशीमूलकेतनकादिसमता तु मायायास्तद्वतामनार्जवभेदात्, तथाहि-यथा वंशीमूलमतिगुपि-1
लवक्रमेवं कस्यचिन्मायाऽपीत्येवमल्पाल्पतराल्पतमानार्जवत्वेनान्याऽपि भावनीयेति, इयं चानन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रपत्याख्यानावरणसवलनरूपा क्रमेण ज्ञेया, प्रत्येकमित्यन्ये, तेनैवानन्तानुबन्धिया उदयेऽपि देवत्वादि न विरुध्यते, एवं
मानादयोऽपि, वाचनान्तरे तु पूर्व क्रोधमानसूत्राणि ततो मायासूत्राणि, तत्र क्रोधसूत्राणि 'चत्तारि राइजो पन्नताओ ४०-पब्बयराई पुढविराई रेणुराई जलराई, एवामेव चउबिहे कोहे' इत्यादि मायासूत्राणीवाधीतानीति, फलसूत्रे | अनुप्रविष्टः-तदुदयवर्तीति, शिलाविकारः शैलः स चासौ स्तम्भश्च-स्थाणुः शैलस्तम्भः, एवमन्येऽपि, नवरं, अस्थि दारु
च प्रतीतं, तिनिशो-वृक्षविशेषस्तस्य लता-कम्बा तिनिशलता, सा चात्यन्तमृद्वीति, मानस्यापि शैलस्तम्भादिसमानता ४ तद्वतो नमनाभावविशेषात् ज्ञेयेति, मानोऽप्यनन्तानुबन्ध्यादिरूपः क्रमेण दृश्यः, तत्फलसूत्र व्यक्तं, कृमिरागे वृद्धसदाम्प्रदायोऽयं-मनुष्यादीनां रुधिरं गृहीत्वा केनापि योगेन युक्तं भाजने स्थाप्यते, ततस्तत्र कृमय उत्पद्यन्ते, ते च वाताभिलाषिणः छिद्रनिर्गता आसन्ना भ्रमन्तो निहरिलाला मुञ्चन्ति ताः कृमिसूत्रं भव्यते, तच्च स्वपरिणामरागरञ्जितमेव भवति, अन्ये भणन्ति-ये रुधिरे कृमय उत्पद्यन्ते तान् तत्रैव मृदित्वा कचवरमुत्तार्य तद्रसे कश्चिद् योग प्रक्षिप्य पट्टसूत्रं रञ्जयन्ति, स च रसः कृमिरागो भण्यते अनुत्तारीति, तत्र कृमीणां रागो-रखकरसः कृमिरागस्तेन रक्तं कृमिरागरक्तम्, एवं सर्वत्र, नवरं कई मो-गोवाटादीनां खञ्जनं-दीपादीनां हरिद्रा प्रतीतैवेति, कृमिरागादिरक्तवस्त्रसमानता
अनुक्रम [३१२]
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आगम
(०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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वृत्तिः
प्रत सूत्रांक [२९३]
श्रीस्थाना- च लोभस्य अनन्तानुबन्ध्यादित दवतां जीवानां क्रमेण दृढहीनहीनतरहीनतमानुवन्धत्वात् , तथाहि-कृमिरागरतला स्थाना असूत्र- वस्त्रं दग्धमपि न रागानुबन्ध मुश्चति, तद्भस्मनोऽपि रक्तत्वाद्, एवं यो मृतोऽपि लोभानुबन्धं न मुञ्चति तस्याभिधी
| उद्देश:२ यते लोभः कृमिरागरक्तवस्त्रसमानोऽनन्तानुबन्धी चेति, एवं सर्वत्र भावना कार्येति, फलसूत्र स्पष्टम् , इह कषायमरू-13 संसारादि
पणागाथा:-"जलरेणुपुढविपब्वयराईसरिसो चउब्बिहो कोहो । तिणिसलयाकट्टडियसेलत्थंभोवमो माणो ॥१॥ ॥२१९॥
सू०२९४ मायाऽवलेहिगोमुत्तिमेंढसिंगघणवंसिमूलसमा । लोभो हलिदखंजणकद्दमकिमिरागसारिच्छो ॥२॥ पक्खचउमासवच्छरजावज्जीवाणुगामिणो कमसो। देवनरतिरियनारयगइसाहणहेयवो भणिया ॥३॥” इति ॥ अनन्तरं कषायाः प्ररूपिताः, २९५ कषायैश्च संसारो भवतीति संसारस्वरूपमाह
चउविहे संसारे ५० त०-णेरतियसंसारे जाव देवसंसारे । चउबिहे आउते पं० सं०-णेरतिआउते जाव देवाउते । चबिहे भवे पं० त०-रतियभवे जाव देवभवे (सू० २९४) चउव्यिहे आहारे पं० सं०-असणे पाणे खाइमे
साइमे । चउबिहे आहारे पं० २०--उबक्खरसंपन्ने उवक्खडसंपन्ने सभावसंपन्ने परिजुसियसंपन्ने (सू० २९५) 'चउब्बिहे' इत्यादि व्यक्तं, किन्तु संसरणं संसार:-मनुष्यादिपर्यायान्नारकादिपर्यायगमनमिति, नैरयिकप्रायोग्येष्वा-14
||२१९ जसरेणुपृथ्वीपर्वतराजीसरशचतुर्विधः क्रोधः तिनिघालताकालास्थिकौलस्तम्भोपमो भानः ॥1॥ मायावलेखिकागोमूत्रैडम्यापनशमूलसमा लोभो । DIहरिदाखंजनवादमनिरागसरशः ॥२॥ पक्षचतुर्माससंवत्सरवावज्जीवानुगामिनः क्रमशः देवनरतिर्यभारकगतिसाधनबेतवी भषिताः ॥३॥
CONCTC+S+
दीप
अनुक्रम [३१२]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२९५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
+CTEST
प्रत सूत्रांक [२९५]
+
C+
युर्नामगोवादिषु कर्मसूदयगतेषु जीवो नैरयिक इति व्यपदिश्यते, उक्तं च-"नेरइए णं भंते! नेरइपसु उपवजा अ-13 नेरइए नेरइएसु उववजह, गोयमा, नेरइए नेरइएसु उववजह नो अनेरइए नेरइएसु स्ववजइ" इति, ततो नैर-ट्रा यिकस्य संसरणम्-उत्पत्तिदेशगमनमपरापरावस्थागमनं वा नैरयिकसंसारः, अथवा संसरन्ति जीवा यस्मिन्नसौ संसारो | -गतिचतुष्टयं, तत्र नैरयिकस्यानुभूयमानगतिलक्षणः परम्परया चतुर्गतिको वा संसारो नैरयिकसंसार, एवमन्येऽपि ॥ उक्तरूपश्च संसार आयुषि सति भवतीति आयुःसूत्र, तत्र एति च याति चेत्यायु:-कर्मविशेष इति, तत्र येन निरयभवे प्राणी ध्रियते तन्निरयायुरेवमन्यान्यपि, उक्तरूपं चायुर्भवे स्थिति कारयतीति भवसूत्रं, कण्ठ्यं, केवलं भवनं भवः-उत्पत्तिनिरये भवो निरयभवो मनुष्येषु मनुष्याणां वा भवो मनुष्यभवः, एवमन्यावपि । भवेषु च सर्वेष्वाहारका जीवाः इत्याहारसूत्रे, तत्राहियत इत्याहारः अश्यत इत्यशनम्-ओदनादि पीयत इति पानं-सौवीरादि खादः प्रयोजनमस्येति | खादिम-फलवर्गादि स्वादः प्रयोजनमस्येति स्वादिम-ताम्बूलादि, उपस्क्रियतेऽनेनेत्युपस्करो-हिडपवादिस्तेन सम्पन्नोयुक्त उपस्करसम्पन्नः, तथा उपस्करणमुपस्कृतं-पाक इत्यर्थस्तेन सम्पन्न ओदनमण्डकादिः उपस्कृतसम्पन्नः पाठान्तरेण नो उपस्करसम्पन्नो-हिङ्गादिभिरसंस्कृत ओदनादिः, स्वभावेन-पाकं विना सम्पन्न:-सिद्धः द्राक्षादिः स्वभावसम्पन्नः, 'परिजसिय'त्ति पर्युषित-रात्रिपरिवसनं तेन सम्पन्नः पर्युषितसम्पन्न इड्डरिकादिः, यतस्ताः पर्युषितकलनीकृताः अम्ल
१ नैरयिको भवन्त । नैरमिकपूपयते अरयिको नैरपिके पूरपद्यते !, गौतम 1 नरविको नैरयिकेपूत्पद्यते न अमरविको नरयिकैपद्यते ॥
दीप अनुक्रम [३१४]
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२९५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
STA+
वृत्तिः
४ स्थाना. उद्देशः२ प्रकृतिव| धादि सू० २९६
सूत्रांक [२९५]
श्रीस्थाना-रसा भवन्ति, आरनालस्थितायफलादिति ।। अनन्तरोदिताः संसारादयो भावाः कर्मवतां भवन्तीति 'चउन्विहे बंधे सूत्र- ४ इत्यादि कर्मप्रकरणमारादेककसूत्रात्
चाउठिवहे बंधे पं० सं०-पगतिबंधे ठितीबंधे अणुभावबंधे पदेसबंधे । चउबिहे उक्कमे पं० सं०-बंधणोवक्कमे उदीरणो
वकमे उवसमणोवषमे विष्परिणामणोवकमे । बंधणोवकमे चउबिहे पं० २०-पगतिबंधणोवफमे वितिबंधणोक्कमे अणु॥२२॥
भाववंधणीवकामे पदेसबंधणोचकमे । उदीरणोवको चउब्विहे पं० २०-पगतीउदीरणोषकमे ठितीउदीरणोक्कमे अणुभावउदीरणोक्कमे पदेसउदीरणोवक्रमे । उवसमणोधकामे चउविहे पं० २०-पगतिउवसामणोक्कमे ठिति. अणु पतेसुवसामणोवधामे । विपरिणामणोक्कमे चउन्विहे पं० ०-पगति ठिती० अणुछ पतेसविप० । चविहे अप्पाबहुए पं. तं०-पगतिअप्पाबहुए ठिति. अणु० पतेसप्पाबहुते । चउब्विहे संकमे पं० सं०-पगतिसंकमे ठिती. अणु० पएससंकमे । चउबिहे णिवत्ते पं० २०-पगतिणिधत्ते ठिती० अणु० पएसणिधत्ते । चउब्बिहे णिकायिते पं० त०-पगतिणिकायिते ठिति० अणु० पएसणिकायिते (सू० २९६) प्रकटं चैतत् , नवरं सकषायत्वात् जीवस्य कर्मणो योग्यानां पुद्गलानां बन्धनम्-आदान बन्धः, तत्र कर्मणः प्रकृतयः-अंशा भेदा ज्ञानावरणीयादयोऽष्टौ तासां प्रकृतेवा-अविशेषितस्य कर्मणो बन्धः प्रकृतिवन्धः, तथा स्थितिःतासामेवावस्थानं जपन्यादिभेदभिन्नं तस्या बन्धो-निर्वर्तनं स्थितिबन्धः, तथा अनुभावो-विपाकः तीब्रादिभेदो रस इत्यर्थस्सस्य बन्धोऽनुभावबन्धः, तथा जीवप्रदेशेषु कर्मप्रदेशानामनन्तानन्तानां प्रतिप्रकृति प्रतिनियतपरिमाणानां
NGAL
दीप
अनुक्रम [३१४]
'बन्ध' शब्दस्य अर्थ एवं भेदा:
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२९६]
बधा-सम्बन्धनं प्रदेशबन्धः, परिमितपरिमाणगुडादिमोदकबन्धवदिति, एवञ्च मोदकदृष्टान्तं वर्णयन्ति वृद्धाः-यथा किल मोदकः कणिकागुडघृतकटुभाण्डादिद्रव्यबद्धः सन् कोऽपि वातहरः कोऽपि पित्तहरः कोऽपि कफहरः कोऽपि मारकः कोऽपि बुद्धिकरः कोऽपि व्यामोहकरः, एवं कर्मप्रकृतिः काचिज्ज्ञानमावृणोति काचिद्दर्शनं काचित् सुखदुः
खादिवेदनमुखादयतीति, तथा तस्यैव मोदकस्य यधाऽविनाशभावेन कालनियमरूपा स्थितिर्भवति, एवश्च कर्मणोऽपि ४ तद्भावेन नियतकालावस्थान स्थितिवन्धः, तथा तस्यैव मोदकस्य यथा स्निग्धमधुरादिरेकगुणद्विगुणादिभावेन रसो भ
वति, एवं कर्मणोऽपि देशसर्वघातिशुभाशुभतीजमन्दादिरनुभागबन्धः, तथा तस्यैव मोदकस्य यथा कणिकादिद्रव्याणां परिमाणवत्त्वं एवं कर्मणोऽपि पुद्गलानां प्रतिनियतप्रमाणता प्रदेशबन्ध इति । उपक्रम्यते-क्रियतेऽनेनेत्युपक्रमा-कर्मणो बद्धत्वोदीरितत्वादिना परिणमनहेतु वस्य शक्तिविशेषो योऽन्यत्र करणमिति रूढः, उपक्रमणं वोपक्रमो-बन्धनादीनामारम्भः, 'स्यादारम्भ उपक्रम' इति वचनादिति, तत्र बन्धनं-कर्मापुद्गलानां जीवप्रदेशानां च परस्परं सम्बन्धन, इदं च सूत्रमात्रबद्धलोहशलाकासम्बन्धोपममवगन्तव्यं तस्योपक्रमः-उतार्थों बन्धनोपक्रमः, आसकलितावस्थस्य वा कर्मणो बद्धावस्थीकरणं बन्धनं तदेवोपकमो-वस्तुपरिकर्मरूपो बन्धनोपक्रमो, वस्तुपरिकर्मवस्तुविनाशरूपस्याप्युपकमस्याभिहितत्वादिति, एवमन्यत्रापि, नवरमप्राप्तकालफलानां कर्मणामुदये प्रवेशनमुदीरणा, उक्कं च-"ज करणेणोकहिय उदए दिज्ज उदीरणा एसा । पगईठिइअणुभागप्पएसमूलुत्तरविभागा ॥१॥" तथा उदयोदीरणानिधत्तनि
१ गत्करणेनाकृष्योदये दीयत एषोदीरणा प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशमूलोत्तरविभागाः ॥ १॥
दीप
CHABAR
अनुक्रम [३१५]
wwwjaingana
'बन्ध' शब्दस्य अर्थ एवं भेदा:
~451~
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
स्थाना० उद्देशः२ प्रकृतिका न्धादि सू० २९६
सूत्रांक [२९६]
दीप
श्रीस्थाना
काचनाकरणानामयोग्यत्वेन कर्मणोऽवस्थापनमुपशमनेति, उक्तं च-"ओवट्टणउववट्टण संकमणाईच तिन्नि कर- टणाई" इति, उपशमनायां सन्तीति प्रक्रमः, तथा विविधैः प्रकारैः कर्मणां सत्तोदयक्षयक्षयोपशमोद्वर्तनापवर्तनादिभिरे- वृत्तिः तद्रूपतयेत्यर्थः, गिरिसरिदुपलन्यायेन द्रव्यक्षेत्रादिभिर्वा करणविशेषेण वाऽवस्थान्तरापादनं विपरिणामना, इह च विप-
रिणामना बन्धनादिषु तदन्येष्वप्युदयादिष्वस्तीति सामान्यरूपत्वाद् भेदेनोति । बन्धनोपक्रमो-बन्धनकरणं चतुर्दा, ॥२२१॥
तत्र प्रकृतिबन्धनस्योपक्रमो जीवपरिणामो योगरूपः, तस्य प्रकृतिबन्धहेतुत्वादिति, स्थितिबन्धनस्थापि स एव, नवरं, कषायरूपः, स्थितेः कषायहेतुकत्वादिति, अनुभागबन्धनोपक्रमोऽपि परिणाम एव, नवरं कषायरूपा, प्रदेशबन्धनोपक्र-1 मस्तु स एव योगरूप इति, यत उक्तम्-"जोगा पयडिपएस ठिइअणुभार्ग कसायओ कुण" इति, प्रकृत्यादिवन्ध
नानामारम्भा वा उपक्रमा इति, एवमन्यत्रापि । यन्मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां वा दलिकं वीर्यविशेषेणाकृष्योदये दीयते Pासा प्रकृत्युदीरणेति, वीर्यादेव चाप्राप्तोदयया स्थित्या सहाप्राप्तोरया स्थितिरनुभूयते सा स्थित्युदीरणेति, तथैव प्राप्तो
दयेन रसेन सहाप्राप्तोदयो रसो यो वेद्यते साऽनुभागोदीरणेति, तथा प्राप्तोदयैर्नियतपरिमाणकर्मप्रदेशैः सहाप्राप्तोददयानां नियतपरिमाणानां कर्मप्रदेशानां यवेदनं सा प्रदेशोदीरणेति, इहापि कषाययोगरूपः परिणाम आरम्भो वोपक्र
मार्थः, प्रकृत्युपशमनोपक्रमादयश्चत्वारोऽपि सामान्योपशमनोपक्रमानुसारेणावगन्तव्याः, प्रकृतिविपरिणामनोपक्रमादप्रयोऽपि सामान्यविपरिणामनोपक्रमलक्षणानुसारेणावबोद्धव्याः, उपक्रमस्तु प्रकृत्यादित्वेन पुद्गलानां परिणमनसमर्थ जी
१ उद्वर्तनापवर्तनसंकमणरूपाणि च श्रीणि करणानि ( देशोपशमनायां ). २ येणात् प्रकृतिप्रदेशी (स्वलनुभावो कषायतः करोति ।
अनुक्रम [३१५]
॥२२१
बन्ध, उदय, उदिरणा, उपशमन, उद्वर्तन, प्रकृति-स्थिति आदि विषयस्य व्याख्या
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२९६]
दीप
ववीर्यमिति । 'अप्पाबहुए'त्ति अल्पं च-स्तोकं बहु च-प्रभूतमल्पबहु तदावोऽल्पवहुत्वं, दीर्घत्वासंयुक्तत्वे च प्राकृतत्वादिति, प्रकृतिविषयमल्पबहुत्वं बन्धाद्यपेक्षया, यथा सर्वस्तोकप्रकृतिबन्धक उपशान्तमोहादिः, एकविधवन्धकत्वाद्, बहुतरबन्धक उपशमकादिसूक्ष्मसम्परायः, षडिधबन्धकत्वात् , बहुतरवन्धकः सप्तविधवन्धकस्ततोऽष्टविधवन्धक इति, स्थितिविषयमल्पबहुत्वं यथा-"सब्वत्थोवो संजयस्स जहन्नओ ठिइबंधो, एगेंदियवायरपज्जत्तगस्स जहन्नओ ठिइबंधो असंखेजगुणो" इत्यादि, अनुभागं प्रत्यल्पबहुत्वं यथा,-"सैव्वत्थोवाई अणंतगुणवुहिठाणाणि असंखेजगुणवुहिठाणाणि असंखेजगुणाणि जाव अणंतभागवुहिठाणाणि असंखेजगुणाणि" प्रदेशाल्पबहुत्वं यथा-"अहविहवंधगस्स आउयभागो थोवो नामगोयाणं तुलो विसेसाहिओ नाणदंसणावरणंतरायाणं तुल्लो विसेसाहिओ मोहस्स विसेसाहिओ चेयणीयस्स बिसेसाहिओ" इति, यो प्रकृति बनाति जीवः तदनुभावेन प्रकृत्यन्तरस्थं दलिक वीर्यविशेषेण यत्परिणमयति स सङ्कमः, उक्त च-"सो संकमोत्ति भन्नइ जब्बंधणपरिणओ पओगेणं । पययंतररथदलिय परिणामइ तवणुभावे जं ॥१॥” इति, तत्र प्रकृतिसङ्कमा सामान्यलक्षणावगम्य एवेति, मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां वा स्थितेर्यदुत्कर्षणं अपकर्षणं
संयतस्य जपन्यः स्थितिबन्धः सर्वलोक: एफेन्द्रियबादरपर्याप्तकस्य जपन्यः स्थितिबन्धः अस्यातगुणः २ अनन्तगुणवृद्धिस्थामानि सबैसोकानि असोयगुणद्धिस्थानान्यसोयगुणानि यावदनन्तभागवृद्धिस्थानान्यसाधेयागानि ३ अष्टविधवंभकला भायुभीगः लोको नामगोत्रयोखल्यो विशेषाधिको ज्ञानदर्शनावरणान्तरायाणां तुल्यो विशेषाधिको मोहस्थ विशेषाधिको वेदनीयस्य विशेषाधिकः ४ यवन्धनपरिणतः प्रयोगेन तदनुभावं प्रकृलान्तरस्थं दलिक परिणमयति यत् स संकम इति भव्यते ॥१॥
5555555
अनुक्रम [३१५]
बन्ध, उदय, उदिरणा, उपशमन, उद्वर्तन, प्रकृति-स्थिति आदि विषयस्य व्याख्या
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२९६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२९६]
श्रीस्थाना- वा प्रकृत्यन्तरस्थितौ वा नयनं स स्थितिसङ्कम इति, उक्तं च-"ठिईसंकमोत्ति बुचइ मूलुत्तरपगईओ उ जा हि ठिई। स्थाना. झासूत्र- उचट्टिया व ओवट्टिया व पगई णिया वऽनं ॥१॥” इति, अनुभागसंक्रमोऽप्येवमेव, यदाह-"तत्थङ्कपर्य उज्वटिया उद्देशः२ वृत्तिः भाव ओवट्टिया व अविभागा । अणुभागसंकमो एस अन्नपगई णिया वावि ॥१॥" इति, अकृपयंति-अनुभागसमस्व-13 प्रकृतिव
रूपनिर्धारण, 'अविभाग'त्ति अनुभागाः 'निय'त्ति नीता इति । यत्कर्मद्रव्यमन्यप्रकृतिस्वभावेन परिणाम्यते स प्रदेश- न्धादि ॥ २२२॥ सङ्क्रमः, उक्तथ्य-जं दलियमनपगई णिजइ सो संकमो पएसस्स"इति, निधानं निहितं वा निधत्तं, भावे कर्मणि वा
मापकम्माण वासू० २९६ क्तप्रत्यये निपातनात् , उद्वर्तनापवर्तनावर्जिताना शेषकरणानामयोग्यत्वेन कर्मणोऽवस्थापनमुच्यते, नितरां काचनं-बहन्धन निकाचितं-कर्मणः सर्वकरणानामयोग्यत्वेनावस्थापन, उक्तञ्चोभयसंवादि-"संकमणपि निहत्ती' णस्थि सेसाणि |
वत्ति इयरस्स" इति, निकाचनाकरणस्येति, अथवा पूर्वबद्धस्य कर्मणस्तप्तसमीलितलोहशलाकासम्बन्धसमानं निधत्तं, तप्त| मिलितसंकुट्टितलोहशलाकासम्बन्धसमानं निकाचितमिति, प्रकृत्यादिविशेषस्तूभयत्रापि सामान्यलक्षणानुसारेण नेय इति, दाविशेषतो बन्धादिस्वरूपजिज्ञासुना कर्मप्रकृतिसङ्ग्रहणिरनुसरणीयेति ॥ इहानन्तरमल्पबहुत्वमुक्तं, तत्रात्यन्तमल्पमेकं| शेष त्वपेक्षया बहु इत्यल्पबहुत्वाभिधायिन एककतिसर्वशब्दान् चतुःस्थानकेऽवतारयन् 'चत्तारीत्यादि सूत्रत्रयमाह,
१मूलोत्तरप्रकृतीनां वा स्थितिलस्वा अकर्षणमपकर्षणं प्रकृत्यन्तरस्थितावयनं वा स्थितिसंकम इत्युच्यते ॥१॥ २ तत्रापद (सरूप) उर्तिता या xअपवर्तिता वा अविभागाः । अनुभागसंकम एषः अन्यप्रकृति नीता लाऽपि ॥१॥ ३ यद्दलिकमग्य प्रकृती नीयते स प्रदेशस्य ४ निधत्तवे संक्रमगमपि नास्ति
|॥२२२ निकायनस्य शेषाम्यपि ॥
दीप
अनुक्रम [३१५]
बन्ध, उदय, उदिरणा, उपशमन, उद्वर्तन, प्रकृति-स्थिति आदि विषयस्य व्याख्या
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२९७]
चत्तारि एका पं० सं०-दविए एकते माउ उकते पजते इकते संगहे इकते (सू०२९७) चचारि कती 40दवितकती माउयकती पजयकती संगहकती (सू० २९८) चत्तारि सब्बा पं०२०-नामसम्बए ठवणसम्बए आएससव्वते मिरवसेससब्बते (सू० २९९) एकसयोपेतानि द्रव्यादीनि स्वार्थिककप्रत्ययोपादानादेककानि, तत्र द्रव्यमेवैकक द्रव्यैककं सचित्तादिभेदात् त्रिवि-1 धमिति, 'माउपएकए'त्ति मातृकापदैककम्-एक मातृकापदं, तद्यथा-उप्पन्ने इ वेत्यादि, इह प्रवचने दृष्टिवादे समस्तनयवादबीजभूतानि मातृकापदानि भवन्ति, तद्यथा-उप्पन्ने इ वा विगए इ वा धुवे इ वत्ति, अमूनि च मातृकापदानीव अ आ इत्येवमादीनि सकलशब्दशाखार्थव्यापारव्यापकत्वान्मातृकापदानीति, पर्यायैकक-एकः पर्यायः, पर्यायो विशेषो धर्म इत्यनर्थान्तरं, स चानादिष्टो वर्णादिरादिष्टः कृष्णादिरिति, सहकका शालिरिति, अयमर्थः-सह-समुदायस्तमाश्रित्यैकवचनगर्भशब्दप्रवृत्तिः, तथा चैकोऽपि शालिः शालिरित्युच्यते, बहवोऽपि शालयः शालिरिति, लोके तथादर्शनादिति, कचित्पाठः 'दविए एकए' इत्यादि, तत्र द्रव्ये विषयभूते एकक इत्यादि व्याख्येयमिति । कतीति प्रश्नगर्भापरिच्छेदवत्-| सङ्ख्यावचनो बहुवचनान्तः, तत्र द्रव्याणि च तानि कति च द्रव्यकति कति द्रव्याणीत्यर्थः, द्रव्यविषयो वा कतिशब्दो द्रव्यकतिः, एवं मातृकापदादिष्वपि, नवरं सङ्ग्रहाः शालियवगोधूमा इत्यादि । नाम च तत्सर्वं च नामसर्व सचेतनादेर्वाका वस्तुनो यस्य समिति नाम तन्नामसर्व नाना सर्व सर्व इति वा नाम यस्येति विग्रहाद्-नामशब्दस्य च पूर्वनिपातः, तथा स्थापनया-सर्वमेतदितिकल्पनया अक्षादि द्रव्यं सर्व स्थापनासर्व स्थापनैव वा अक्षादिद्रव्यरूपा सर्व स्थापना
दीप
अनुक्रम [३१६]]
ARERucatunintimall
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [२९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२९९]
दीप
श्रीस्थाना-शासव, आदेशनमादेशः-उपचारो व्यवहारः स च बहुतरे प्रधाने वा आदिश्यते देशेऽपि यथा विवक्षितं घृतमभिस- ४ स्थाना०
सूत्र- मीक्ष्य बहुतरे भुके तोके च शेपे उपचारः क्रियते-सर्व घृतं भुक्तं, प्रधानेऽप्युपचारः यथा प्रामप्रधानेषु गतेषु पुरु- उद्देशः २ वृत्तिः पेषु सबों ग्रामो गत इति व्यपदिश्यते इति, अत आदेशतः सर्वमादेशसर्वं उपचारसर्वमित्यर्थः, तथा निरवशेषतया मानुषोत्त
-अपरिशेषव्यक्तिसमाश्रयेण सर्व निरवशेषसर्च, यथा-अनिमिषाः सर्वे देवाः, न हि देवव्यक्तिरनिमिषत्वं काचिद्र कूटाः दु॥२२३॥
व्यभिचरतीत्यर्थः, सर्वत्र ककारः स्वार्थिको द्रष्टव्यः । अनन्तरं सर्वं प्ररूपितं तत्प्रस्तावात् सर्वमनुष्यक्षेत्रपर्यन्तव-18 प्पमसुषतिनि पर्वते सर्वासु तिर्यग्दिक्षु कूटानि प्ररूपयन्नाह
मावर्षादि माणुसुत्तरसणं पव्वयस्स चउदिसि चत्तारि कूडा पं० त०-रयणे रतणुञ्चते सञ्चरयणे रतणसंचये (सू० ३००) जंबडीवे २ भरहेरवतेसु वासेसु तीताते उस्सप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो हुत्था जंधूदीये २ भरहेरवते इमीसे ओसप्पिणीए दूसमसुसमाए समाए जहण्यापए णं चचारि सागरोनमकोडाकोडीओ कालो हुत्था, जंबुद्दीवे २ भरहेरवएसु वासेसु आगमेस्साते उस्सप्पिणीते सुसमसुसमाते समाए चत्तारि सागरोवमकोडाकोटीओ कालो भविस्सइ (सू० ३०१) जंबूरीवे २ देवकुरुउत्तरकुरुवजाओ चत्तारि अकम्मभूमीओ पं० सं०-हेमवते हेरनवते हरिथस्से रम्मगवासे, चत्तारि बट्टवेयडपब्बता पं० सं०-सहावई वियडावई गंधावई मालवंतपरिताते, तत्थ णं चत्तारि देवा महि
1॥२२३॥ द्वितीया जाव पलिओवमद्वितीता परिवसंति, ०-साती पभासे अरुणे पउमे, जंबूहीवे २ महाविदेहे वासे चबिहे पं००-पुनविदेहे अवरविदेहे देवकुरा उत्तरकुरा, सब्वेऽवि णं णिसढणीलवंतवासहरपब्बता चत्तारि जोषणसयाई उड़े
अनुक्रम [३१८]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०२] + गाथा-१ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३०२]
असणं चत्तारि गाउयसयाई जव्वेहेणं पं०, जंवूहीवे २ मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमेणं सीताए महानदीए उत्तरे कूले पत्तारि वक्खारपव्यया पं० त०-चित्तकूडे पम्हकूडे णलिणकूडे एगसेले, जंबू० मंदर० पुर० सीताए महानदीए दाहिणफूले चत्तारि वक्खारपव्वया पं० २०-तिकूडे वेसमणकूडे अंजणे मातंजणे, जंबू० मंदर. पञ्चस्थिमेणं सीओदाए महानतीए दाहिणकूले चत्वारि वक्खारपब्बता पं० २०-अंकावती पम्हावती आसीबिसे सुहावहे, जंबू० मंदर पर० सीओदाए महाणतीते उत्तरकूले पत्तारि वक्खारपब्वया पं० तं--चंदपव्वते सूरपन्यते देवपबते णागपन्वते, जंबू मदरस्स पध्वयरस पसु विदिसासु चत्तारि बक्खारपब्वया पं००--सोमणसे विजप्पभे गंधमायणे मालवंते, जंबूरीये २ महाविदेहे वासे जहन्नपते चत्तारि अरहंता चत्तारि चकवट्टी चत्तारि बलदेवा चत्वारि वासुदेवा उप्पजिस वा उप्पजति वा उपजिस्संति वा, जंबूरीवे २ मंदरपवते चत्तारि वणा पं००-भरसालवणे नंदणवणे सोमणसवणे पंडगवणे, गंधू० मन्दरे पव्वए पंडगवणे चत्तारि अभिसेगसिलाओ पं० सं०-पंडर्फबलसिला अइपंडुकबलसिला रत्तकंबलसिला अतिरत्तकवलसिला, मंदरचूलिया णं उवरिं चत्तारि ओयणाई विक्वंभेणं पन्नता, एवं धायइसंदीवपुररिछमद्धेवि कालं आदि करेना जाव मंदरचूलियत्ति, एवं जाव पुक्खरवरदीवपञ्चस्छिमद्धे जाप मंदरचूलि
यत्ति-जंबूरीवगावस्सगं तु कालाओ चूलिया जाव । धावइसंडे पुक्खरवरे य पुरवावरे पासे ॥१॥ (सू० ३०२) 'माणुसुत्तरस्से'त्यादि स्फुटं, किन्तु 'चउदिसिन्ति चतसृणां दिशां समाहारश्चतुर्दिक तस्मिंश्चतुर्दिशि, अनुस्वारः प्राकृतत्वादिति, कूटानि-शिखराणि, इह प दिग्ग्रहणेऽपि विदिश्विति द्रष्टव्य, तत्र दक्षिणपूर्वस्यां दिशि रत्नकूट, गरु
दीप
अनुक्रम [३२२]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना-
सूत्रबृत्तिः
प्रत सूत्रांक [३०२]
॥२२४॥
ACTRICALC
डस्य चेणुदेवस्य निवासभूतं, तथा दक्षिणापरस्यां दिशि रत्नोञ्चयकूटं वेलम्बसुखदमित्यपरनामक वेलम्बस्य वायुकुमारेन्द्रस्य स्थाना सम्वन्धि, तथा पूर्वोत्तरस्यां दिशि सर्वरत्नकूट वेणुदालिसुपर्णकुमारेन्द्रस्य, तथा अपरोत्तरस्यां रजसञ्चयकूटं प्रभञ्जना-1 उद्देशः२ | परनामकं प्रभञ्जनवायुकुमारेन्द्रस्येति, एवं चैतद् व्याख्यायते द्वीपसागरप्रज्ञप्तिसङ्ग्रहण्यनुसारेण, यतस्तत्रोक्तम्-15 मानुषोत्त| "दक्षिणपुब्वेण रयणकूडं गरुलस्स वेणुदेवस्स । सब्बरयणं च पुन्बुत्तरेण तं वेणुदालिस्स ॥१॥ रयणस्स अवरपासे है रकूटाःदुतिनिवि समइच्छिऊण कूडाई । कूड वेलबस्स उ विलंबसुयं सया होइ ॥२॥ सबरयणस्स अवरेण तिन्नि समइच्छि- षमसुषऊण कूडाई। कूडं पभंजणरस उ पभजणं आढियं होई ॥३॥" इति, इह चतुःस्थानकानुरोधेन चत्वार्युक्तानि, अ-18मावर्षादि न्यथा अन्यान्यपि द्वादश सन्ति, पूर्वदक्षिणापरोत्तरासु त्रीणि त्रीणि, द्वादशापि चैकैकदेवाधिष्ठितानीति, उकंच- | "पुन्वेण तिन्नि कूडा दाहिणओ तिणि तिण्णि अवरेणं । उत्तरओ तिन्नि भवे चउद्दिसिं माणुसनगस्स ॥१॥” इति । अनन्तरं मानुषोत्तरे कूटद्रव्याणि प्ररूपितानि, अधुना तेनावृतक्षेत्रद्रयाणां चतुःस्थानकावतारं 'जंबूद्दीवेत्यादिना चत्तारि8| मंदरचूलियाओं एतदन्तेन ग्रन्थेनाह-व्यक्तश्चार्य, नवरं, चित्रकूटादीनां वक्षारपळतानां षोडशानामिदं स्वरूपम्"पंचसए बाणउए सोलस य सहस्स दो कलाओ य । विजया १ वक्खारं २ तरनईण ३ तह वणमुहायामो ५॥१॥"
.१ दक्षिणपूर्वस्या रत्नकूटं गदस्य वेणुदेवस्य सर्वरनं च पूर्वोत्तरस्यां तद्वेषुदालिनः ॥ १॥ जल्यापरपा प्रीयपि समतिकम्य कूडानि कूट बेलबस्य तु] निलंबसुखद् सदा भवति ॥२॥ सर्वरनवापरस्यों त्रीणि कूढानि समतिक्रम्य प्रभंजनस्य प्रभंजनं कुट आयं भवति ॥३॥२पूर्वसां त्रीगि हानि दक्षिणमा त्रीणि अपरस्यां त्रीणि उत्तरस्यां त्रीगि भवेयुक्त विद्यमानुषनगस्य ॥१॥ विनवलधिकपंचशतानि पोखश सहखाणिवेच कळे विजया वक्षस्कारा ||२२४।। अन्तर्नयः तथा वनमुखाने बायामेन ॥१॥
| सू०३०२
दीप
अनुक्रम [३२२]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३०२]
माइति, सथा- जचो वासहरगिरी तत्तो जोयणसयं समवगाढा । चत्तारि जोयणसए उब्धिद्धा सम्वरयणमया।
॥१॥जसो पुण सलिलाओ तत्तो पंचसयगाउउबेहो । पंचेव जोयणसए उचिद्धा आसखंधणिभा ॥२॥" इति, विष्कम्भश्चैषामेवम्-"विजयाणं विक्खंभो बावीससयाई तेरसहियाई। पंचसए बक्लारा पणुवीससयं च सलिलाओ
१॥" इति ।। पद्यते-गम्यते इति पद-सजयास्थानं तच्चानेकषेति जघन्य-सबहीनं पदं जघन्यपदं तत्र विचार्ये सत्यवश्यंभावेन चत्वारोऽहंदादय इति । भूम्यां भद्रशालवनं मेखलायुगले च नन्दनसौमनसे शिखरे पण्डकवनमिति, अत्र गाथा:-धाबीससहस्साई पुब्बावरमेरुभद्दसालवणं । अड्डाइजसया उण दाहिणपासे य उत्तरओ ॥१॥ पंचेव | जोयणसए उहुं गंतूण पंचसयपिहुलं । नंदणवणं सुमेरुं परिक्खिवित्ता ठियं रम्मं ॥ २॥ वासहिसहस्साई पंचेव सयाई नंदणवणाओ । उहुं गंतूण वर्ण सोमणसं नंदणसरिच्छं ॥३॥ सोमणसाओ तीसं उच्च सहस्से बिलग्गिऊण गिरिं । विमलजलकुंडगहणं हवइ वर्ण पंडगं सिहरे ॥४॥ चत्तारि जोयणसया चउणउया चकवालओ रुदै । इगतीस जोयणसया बावट्ठी परिरओ तस्स ।। ५॥” इति, तीर्थकराणामभिषेकार्थाः शिला अभिषेकशिलाः चूलिकायाः पूर्वदक्षिणा
१यतो वर्षधरगिरिखतो योजनात समागादा चतुर्योजनशतान्युद्विवाः सर्वरजममाः ॥१॥ यतः पुनः सलिला: ततः पंचशतगव्यूतान्युट्टेधः पंचव योजनपाताम्युद्विद्धा अश्वस्कन्धनिभाः ॥ २ ॥ ३ विजवानां विष्कम्भो त्रयोदशाधिकानि द्वाविंशतिशतानि वक्षस्काराणां पंचशतानि सलिलाना पंचविंशत्यधिक शर्त ॥१॥ २३ मेरोः पूर्वापरयोहाविशतिः सहस्राणि भवशालगने दक्षिणोत्तरपार्थयोरखनवीयशतानि पुनः॥१॥ पंचैव योजनशतान्पूर्ण गला पंचयोजनशतपृथुसं नंदनं सुमेर
परिक्षिप्य स्थितं रम्यं ॥१॥ मन्दनवनापूर्ण द्वाध्यिातिः सहसागि पंचव शतानि गत्वा नन्दनवनसरक्ष सीमनर्स वने ॥३॥ सोमनसास्पदशिसहखाणि गत्वा Iागिरी विमलजलांडगहन पाण्डकपनं भवति शिसरे ॥४॥चतुर्नवाधिकचतुःशतानि चकपालतया विस्तीर्ण द्विपश्यधिकत्रिशरछतानि तथा परिरबः ॥ ५॥
दीप
अनुक्रम [३२२]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना-
सूत्रवृत्तिः
सूत्रांक
॥२२५॥
[३०२]
३०४
दीप
परोत्तरासु दिक्षु क्रमेणावगम्या इति, 'उबरिति अग्रे 'विक्खंभेणं ति विस्तरेणेति यथा 'जंबूहीवे दीवे भरहेरव-ट्रा स्थाना० एसु वासेसु' इत्यादिभिः सूत्रः कालादयश्चलिकान्ता अभिहिताः एवं धातकीखण्डस्य पूवार्डे पश्चिमा पुष्करार्द्ध- उद्देशः२ स्यापि पूर्वाद्धे पश्चिमाढ़े च वाच्याः, एकमेरुसम्बद्धवक्तव्यतायाः चतुर्वप्यन्येषु समानत्वाद्, एतदेवाह-एवं'मि-81
द्वीपद्वात्यादि, अमुमेवातिदेशं सहगाथया आह-जंबूहीवेत्यादि, जंबुद्वीपस्येदं जम्बूद्वीपर्क तं वा गच्छतीति जम्बूद्वीपग,
राणि अजम्बूद्वीपे यदिति क्वचित्साठः, अवश्यंभावित्वाद् वाच्यत्वाद्वाऽऽवश्यकं जम्बूद्वीपकावश्यकं जम्बूद्वीपगावश्यकं वा वस्तुजातं, तुः पूरणे, किमादि किमन्तं चेत्याह-कालात् सुषमसुषमालक्षणादारभ्य चूलिका-मंदरचूलिका यावत् यत्तदिति गम्यते धातकीखण्डे पुष्करवरे च द्वीपे यो पूर्वोपरी पाचौं प्रत्येकं पूवार्द्धमपरार्द्ध च तयोः पूर्वापरेषु वर्षेषु वा-क्षेत्रेवन्यू-1 नाधिकं द्रष्टव्यमिति शेष इति ॥
अंबहीवस्स गं दीवस्स चत्तारि दारा पं०२०-विजये वेजयंते जयंते अपराजिते, ते णं दारा पत्तारि जोयणाई विक्वंभण तावतितं चेव पवेसेणं पं०, तत्थ णं चत्तारि देवा महिडीया जाव पलिओवमद्वितीता परिवसंति विजते वेजयंते जयंते अपराजिते (सू०३०३) जंवूहीवे २ मंदरस्स पव्यवस्स दाहिणेणं चुहिमवंतस्स वासहरपव्ययस्स चउसु विदिसासु लवणसमुदं तिनि २ जोयणसयाई ओगाहिता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पं० तं०-एगूरूयदीवे आभासियदीवे वेसाणि
॥२२५॥ तदीवे गंगोलियदीवे, तेसुणं दीवेसु चडब्विहा मणुस्सा परिवसंति, तं०-एगूरूता आभासिता वेसाणिता गंगोलिया, तेसिणं दीवाणं पसु विदिसासु लवणसमुदं चत्तारि २ जोयणसयाई ओगाहेत्ता एल्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पं० तं०
अनुक्रम [३२२]
ForPPO
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
*
सूत्रांक
[३०४]
-दयकन्नदीवे गवकनदीचे गोकन्नदीवे संकुलिकन्नदीवे, तेसु णं दीवेसु चउविधा मणुस्सा परिवसति तं०-यकन्ना गयकन्ना गोकना संकुलिकन्ना, तेसि णं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमुई पंच २ जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ ण चत्तारि अंतरदीवा पं० २०-आयंसमुहदीवे मेंडमुहदीवे अओमुहदीये गोमुहदीवे, तेसु णं दीवेसु चउचिहा मगुस्सा भाणियब्वा, नेसि णं दीवाणं चउसु विदिसामु लवणसमुदंछ छ जोयणसयाई ओगाहेत्ता एत्य णं चत्तारि अंतरदीवा पं० सं०आसमुहदीचे हत्यिमुहदीवे सीहमुहदीवे बग्घमुहदीवे, तेसु गं दीघेसु मणुस्सा भाणियत्वा, तेसि णं दीवाणं चउसु विदिसामु लवणसमुदं सत्त सत्त जोयणसयाई ओगाहेत्ता एस्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पं० सं०-आसकन्नदीवे हस्थिकन्नदीये अकन्नदीवे कनपाउरणदीवे, तेमु णं दीवेसु मणुया भाणियब्बा, तेसि णं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमुई अट्ठ जोयणसयाई ओगाहेत्ता एत्य णं चत्तारि अंतरदीवा पं० सं०-उकामुहदीवे मेहमुहदीवे विजुमुददीवे विशुदतवीये, तेसु णं दीयेसु मणुस्सा भाणिवग्या, तेसि णं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमुदं णव णव जोयणसयाई ओगाहेत्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पं० ०-घणदंसदीये लट्ठदंतदीवे गूढदंतदीवे, मुदतदीये, तेसु णं दीयेसु पाउन्धिहा मणुस्सा परिवसंति, तं०-घणदता छहदंता गूढर्दता सुद्धदंता, जंबूहीवे २ मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं सिहरिस्स वासहरपन्चयस्स चङसु विदिसासु लवणसमुदं तिन्नि २ जोयणसयाई ओगाहेत्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पं० सं०-एगूरूबदीचे सेसं तदेव निरवसेसं भाणियध्वं जान सुद्धदंता (सू०३०४) जंबूदीवस्स णं दीवस्स बाहिरिल्लाओ बेतितंताओ चदिसिं लवणसमुदं पंचाणउद जोवणसहस्साई ओगाहेत्ता एत्य णे महतिमहालता महालंजरसंठाणसंठिता चत्तारि महापायाला
दीप
अनुक्रम [३२४]
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना-IN इसूत्रवृत्तिः
सूत्रांक
४ स्थाना० उद्देशः २ पातालकलशाः धातकीविकभादि सू०३०५.
॥२२६॥
[३०५]
दीप
पं० सं०-बलतामुळे केउते जूबए ईसरे, एल्व णं चत्वारि देवा महिड्रिया जाव पलिओवमहितीता परिवसंति, तं०काले महाकाले वेलंये पभंजणे, जंबूदीवस्स णं दीवस्स बाहिरिलाओ वेतितंताओ चउदिसि लवणसमुई बायालीसं २ जोयणसहस्साई ओगाहेत्ता एत्य णं चउण्हं वेलंधरनागराईणं चत्तारि आवासपब्वता पं० २०-गोथूभे उदयभासे संखे दगसीमे, तत्थ णं बचारि देवा महिडिया जाव पलिओक्मद्रितीता परिवसंति ०-गोथूभे सिवए संखे मणोसिलाते, अंदीवरस णं दीवस्स बाहिरिलायो वेइयंताओ चउसु चिदिसासु लवणसमुई बायालीसं २ जोयणसहस्साई ओगाहेत्ता एत्थ ण चउण्डं अणुवेळधरणागरातीणं चचारि आवासपव्वता पं० सं०-कोडए विजुष्पभे केलासे अरुणप्पभे, तत्व णं चत्तारि देवा महिड्डीया जाव पलिओवमट्टितीता परिवसंति, सं०-ककोडए कदमए केलासे अरुणप्पभे, लवणे पं समुदणं चत्तारि चंदा पभासिसु वा पभासंति वा पभासिस्संति वा, चत्तारि सूरिता तर्विसु चा त
ति वा तपिस्संति वा, चत्तारि कत्तियाओ जाव चत्तारि भरणीओ, चत्तारि अग्गी जाव चत्तारि जमा, चत्तारि - गारा जाव चत्तारि भावकेऊ, लवणस्स णं समुदस्स चत्वारि दारा पं० ०-विजए विजयंते जयंते अपराजिते, ते णं दारा णं चत्तारि जोयणाई विक्वंभेणं तावतितं चेव पवेसेणं पं०, तस्थ णं चत्तारि देवा महिडिया जाव पलिओवमद्वितिया परिवसंति-विजये वेजयंते जयंते अपराजिए (सू० ३०५) धायइसंडे दीवे चत्तारि जोषणसयसहस्साई चकवालविक्वंभेणं पं०, जंबूरीवस्स णं दीवस्स बहिया चत्तारि भरहाई चत्तारि एरवयाई, एवं जद्दा सहुदेसते तहेव निरवसेस भाणियव्वं जाव चत्तारि मंदरा चत्तारि मन्दरचूलिआओ (मू०३०६)
अनुक्रम [३२५]
||२२६॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३०६]
विजयादीनि क्रमेण पूर्वादिदिक्षु विष्कम्भो-द्वारशाखयोरन्तरं प्रवेश:-कुब्यस्थूलत्वमष्ट योजनान्युच्चमिति, उक्तं च“चउजोयणविच्छिन्ना अहेव य जोयणाणि उबिद्धा । उभओवि कोसकोसं कुड्डा बाहलओ तेसिं ॥१॥” इति, कोशं| | शाखाबाहल्यमित्यर्थः, “पलिओवमहिईया सुरगणपरिवारिया सदेवीया । एएसु दारनामा वसंति देवा महिहीया ॥२॥" इति, 'चुल्लहिमवंतस्स'त्ति महाहिमवदपेक्षया लघोहिमवतः, तस्य हि प्राग्भागापरभागयोः प्रत्येक शाखाद्वयमस्तीत्युच्यते 'चउसु विदिसासु' विदिक्षु पूर्वोत्तराद्यासु लवणसमुद्रं त्रीणि त्रीणि योजनशतान्यवगाह्य-उलय ये शाखावि| भागा वर्तन्ते 'एत्यत्ति एतेषु शाखाविभागेषु अन्तरे-मध्ये समुद्रस्य द्वीपाः, अथवा अन्तरं-परस्परविभागस्तप्रधाना शाद्वीपा अन्तरद्वीपाः, तत्र पूर्वोत्तरायामकोरु[चकाभिधानो योजनशतत्रयायामविष्कम्भो द्वीपः, एवमाभाषिकवैषाणिहकलाङ्गलिकद्वीपा अपि क्रमेणाग्नेयीनैऋतीवायव्यास्विति, चतुर्विधा इति समुदायापेक्षया न त्वेककस्मिन्निति, अतः
क्रमेणैते योज्याः, द्वीपनामतः पुरुषाणां नामान्येव, ते तु सर्वाङ्गोपाङ्गसुन्दरा दर्शने मनोरमाः स्वरूपतो, नैकोरुचकादय एवेति, तथा एतेभ्य एव चत्वारि योजनशतान्यवगाह्य प्रतिविदिक चतुर्योजनशतायामविष्कम्भा द्वितीयाश्चत्वार, एव, एवं येषां यावदन्तरं तेषां तावदेवायामविष्कम्भप्रमाणं यावत्सप्तमानां नवशतान्यन्तरं तावदेव च तामाणमिति, सर्वेऽप्यष्टाविंशतिरेते, एतम्मनुष्यास्तु युग्मप्रसवाः पल्योपमासङ्खयेयभागायुषोऽष्टधनुशतोचा, तथैरावतक्षेत्रविभाग__१ योजनचतुष्क विस्तीर्णा अध्योजनोद्वेधा उभयतोऽपि कोशकोशे कुाया बाहल्यतस्तयोः ॥ १॥ पल्योपस्थितिकाः सुरगणपरिचताः सदेवीकाः एतेषु । द्वारनामानो वसन्ति देवा महर्दिकाः ॥३॥
दीप
CHCRACOCOCCCCCC
SCSCkck
अनुक्रम [३२६]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना-
नसूत्र
प्रत
वृत्तिः
सूत्रांक
॥२२७॥
[३०६]
CHAR
कारिणः शिखरिणोऽप्येवमेव पूर्वोत्तरादिविदिक्षु क्रमेणैतन्नामिकैवान्तरद्वीपानामष्टाविंशतिरिति, अन्तरद्वीपप्रकरणार्थस- स्थाना० बहगाथा:-"चुलहिमवंत पुण्यावरण विदिसासु सागरं तिसए । गंतूर्णतरदीवा तिन्नि सए होति विच्छिन्ना ॥१॥ अप- उद्देशः२ णावन्ननवसए किंचूणे परिहि तेसिमे नामा। एगुरुगाभासिय घेसाणी चेव नंगूली ॥२॥ एएसिं दीवाणं परओ पातालकचत्तारि जोयणसयाई । ओगाहिऊण लवणं सपडिदिसिं चउसयपमाणा ॥३॥ चत्तारंतरदीवा हयगयगोकन्नसंकुली-मोलशाः धाकण्णा । एवं पंचसयाई छसत्तअढेच नव चेव ॥ ४॥ ओगाहिऊण लवणं विक्खंभोगाहसरिसया भणिया । चउरो चढ़ातकीविउरो दीवा इमेहिं णामेहिं णेयब्वा ॥५॥ आयंसगमेंढमुहा अओमुहा गोमुहा य चउरेते । अस्समुहा हत्थिमुहा सीह- कंभादि मुहा चेव बग्घमुहा ॥ ६॥ तत्तो अ अस्सकन्ना हस्थियकन्ना अकन्नपाउरणा । उक्कामुहमेहमुहा विजुमुहा विजुदंता य सू० ३०६ ॥७॥ घणदंत लट्ठदंता निगूढदंता य सुद्धदंता य । वासहरे सिहरंमिवि एवं चिय अहवीसावि ॥८॥ अंतरदीवेसु नरा धणुसयअट्ठसिया सया मुइया । पालिंति मिहुणधर्म पालस्स असंखभागाऊ ॥ ९ ॥ चउसडि पिढिकरंडयाणि
महिमवत्पूर्वापरयोविपितु त्रिशती सागर गया द्वीपाखिशतचित्तीर्णा भवन्ति ॥१॥ एकोनपंचाशदपि नवमतं किंचिवून परिधिः तेषाभिमानि, नामानि एकोक आभाषिको विषाणी लांगुली और ॥२॥ एतेषां द्वीपानां परतश्चत्वारि योजनशतानि अवगाह्य लवणं सप्रतिदिशि चतुःशतप्रमाणाः ॥३॥ DIचत्वारोऽन्तदीपा हयगजगोकर्णशकुलीकः एते पंचरातानि पदसताट नव चैव ॥४॥ लपणमवगाहा विष्कम्भावगाहसरशाः भगिताः पत्यारवत्वारो द्वीपा 12 इमैनीमाभिविन्याः ॥ ५॥ आदीक मेंटमुखायोमुखा गोनुखव चत्वार एते अश्वभुखो इसिगुलः सिंहमुखवैध व्याप्रमुखः ॥ ६॥ ततथाधकर्णः इस्तिक-15
॥२२७॥ गोकर्णकर्णप्रापरणाः उल्कामुखः मेपमुसः विद्युन्मुखो विद्युइन्तश्च ॥ ७॥ धनवंतो सदन्तः निगूढदन्तक शुद्धदन्तश्च विखरिष्यपि वर्षधरे एवमेव अष्टाविशतिरपि ॥ ८॥ अन्तरपुि नराः धनुःशताष्टोच्छूिताः सदा मुदिताः पालयन्ति मिथुनकधर्म पल्यासमवभागायुषः ॥९॥ चतुःषष्टिः पृष्टकरण्डकानि
दीप
अनुक्रम [३२६]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
SAX
प्रत
सूत्रांक
[३०६]
मणुयाणऽवच्चपालणया । अउणासीई तु दिणा चउत्थभत्तेण आहारो॥१०॥” इति ॥ एत्य 'ति मध्यमेषु दशसु योजनसहस्रेषु महामहान्त इति वक्तव्ये समयभाषया 'महइमहालया' इत्युक्तम् , महच्च तदरञ्जरं च अरंजरं-उदकुम्भ इत्यर्थः महारजरं तस्य संस्थानेन संस्थिता ये ते तथा, तदाकारा इत्यर्थः, महान्तस्तदन्यालकव्यवच्छेदेन पातालमिमिवागाधत्वात् गम्भीरत्वासातालाः पातालव्यवस्थितत्वाद्वा पातालाः महान्तश्च ते पातालाश्चेति महापाताला, वड-IN वामुखः केतुको यूपक ईश्वरश्चेति, क्रमेण पूर्वादिदिश्चिति, एते च मुखे मूले च दश सहस्राणि योजनानां, मध्ये उच्चैस्त्वेन च लक्षमिति, एषामुपरितनभागे जलमेव मध्ये वायुजले मूले वायुरेवेति, एतन्निवासिनो देवाः वायुकुमाराः कालादय इति, इह गाथा:-"पणनउइ सहस्साई ओगाहित्ताण चउद्दिसिं लवणं । चउरोऽलंजरसंठाणसंठिया होंति | पायाला ॥१॥ वलयामुह केऊए जूयग तह इस्सरे य बोद्धव्वे । सथ्ववइरामयाणं कुड्डा एएसिं दससइया ॥२॥ जोयणसहस्सदसगं मूले उवरिंच होति विच्छिन्ना । मज्झे य सयसहस्सं तत्तियमेत्तं च ओगाढा ॥ ३॥ पलिओवमठिईया एएसिं अहिवई सुरा इणमो । काले य महाकाले वेलंक पभंजणे चेव ॥४॥ अन्नेवि य पायाला सुड्डालंजरगसंठिया
मनुष्याः एकोनाशीतिं यावदपस्यपालनादिनाचि आहारवतुर्थंभकेन ॥१०॥ २ चतुर्दिशि लवणं पंचनवति सहस्राम्यवसाय चत्वारोऽलंजरसंस्थान| संस्थिताः पाताला भवन्ति ॥१॥ वलपमुखः केतुकः यूपकस्तथा ईश्वरथ ओद्धन्याः सर्वे यन्नमयाः या एषां दशशतानि ॥ २॥ दशसहस्रयोजनानि मूले
परिच विस्तीर्णा भवन्ति मध्ये पातसहसं तापमानं चावगाडाः ॥ ३ ॥ पल्योपमस्थितिका एतेषामधिपतिमुरा एते कालथ महाफालः बैठयः प्रभंजनाश्चैव |॥४॥ अन्येऽपि च शुलकालंजरसस्थिता
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अनुक्रम [३२६]
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आगम
(०३)
प्रत
सूचांक
[ ३०६ ]
दीप
अनुक्रम
[३२६]
[भाग - 5] "स्थान" अंगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः)
उद्देशक [२].
मूलं [२०६]
स्थान [ ४ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थानाङ्गसूत्र
वृत्तिः
॥ २२८ ॥
लवणे । अहसया चुलसीया सत्त सहस्सा य सब्वेवि ॥ ५ ॥ जोयणसयविच्छिन्ना मूलुवरिं दस सयाणि मज्झमि । ओगाढा य सहस्सं दस जोयणिया य. सिं कुड्डा ॥ ६ ॥ पायालाण विभागा सव्वाणवि तिन्नि तिन्नि बोद्धव्या । हेट्ठिमभागे वाऊ मज्झे वाऊ य उदयं च ॥ ७ ॥ उवरिं उदगं भणियं पढमगबीएस वाढसंखुभिओ । वामे [वमतीत्यर्थः >, उदगं तेण य परिवहु जलनिही खुहिओ ॥ ८ ॥ परिसंठियंमि पवणे पुणरवि उदगं तमेव संठाणं । वच्चेइं तेण उदही परिहायइणुकमेणेवं ॥ ९ ॥” इति वेलां लवणसमुद्रशिखामन्तर्विशन्ती बहिर्वाऽऽयान्ती मग्रशिखां च धारयन्तीति संज्ञाखालंधरास्ते च ते नागराजाश्च - नागकुमारवराः वेलंधरनागराजास्तेषामावासपर्वताः पूर्वादिदिक्षु क्रमेण गोस्तूपादयः, विदिक्षु-पूर्वोत्तरादिषु वेलंधराणां पश्चात्तयो अनुनायकत्वेन नागराजा अनुवेलंधरनागराजाः, वेलंधरवतंव्यता| गाथा: " देसजोयणस्सहस्सा लवणसिहा चकवालओ रुंदा सोलससहस्वउच्चा सहस्यमेगं तु ओगाढा ॥ १ ॥ [ समाद् भूभागादिति भावः > देसूणमद्धजोयण लवणसिहोवरि दगं तु कालदुगे । [ दिवा रात्रौ चेत्यर्थः ]>,
-
[1] पातालाः सन्ति ते सर्वेऽपि सप्तसहस्राष्टशतचतुरशीतिमिताः ॥ ५ ॥ योजनशत विस्तीर्णा मूळे उपरि च दश शतानि मध्ये अपगाढा सद दश योजनानि (योजनमाना ) भित्तिः ॥ ६ ॥ सर्वेषामपि पातालानां प्रयनयो भागा मोदन्याः अपतनभागे वायुर्मध्ये वायुरुदकं च ॥ ७ ॥ उपरि उदकं भणितं प्रथमद्वितीययोः संशुभितो वायुरुदकं वमवि तेन भुमितो जलनिधिः परिवर्द्धते ॥ ८ ॥ पवने परिस्थिते पुनरप्युदकं तरसंस्थानमेव गच्छति तेनोदधिः परिड़ीयतेऽनुक्रमेणैवं ॥ ९ ॥ २ लवणशिखा दशयोजनसहस्रमाना चकवाचतो विखीणी पोडशसहस्रोच्या एकं सहस्रं त्ववगाडा ॥ १ ॥ दिवा रात्री व देशोनमदंयोजनं लवणशिखोपरि
Education Intimational
~
For Personal & Pre Only
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४ स्थाना०
उद्देशः २ पातालक
लशाः धातकीविकंभादि सू० १०६
॥ २२८ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३०६]
दाइरेग अइरेगं परिवहर हायए वावि ॥२॥ अम्भितरियं बलं धरेंति लवणोदहिस्स नागाणं पायालीससहस्सा [अन्त-14
विशन्तीमित्यर्थः> दुससरिसहस्स बाहिरिये ॥३॥" [बहिर्गच्छन्तीमित्यर्थः> सहि नागसहस्सा धरिति अग्गोदगं | शिखाग्रमित्यर्थः> समुदस्स । वेलंधरआवासा लवणे य चउद्दिसिं चउरो॥४॥ पुवाइ अणुकमसो गोधुभदग-1 भाससंखदगसीमा । गोधुभ सिबए संखे मणोसिले नागरायाणो ॥ ५॥ अणुवेलंधरवासा लवणे विदिसासु संठिया चउरो । ककोडे विजुप्पभे केलासऽरुणप्पभे चेव ॥६॥ ककोडय कद्दमए केलासऽरुणप्पभे य रायाणो । बायालीससहस्से गंतुं उदहिमि सब्वेवि ॥ ७॥ चत्तारि जोयणसए तीसे कोसं च उग्गया भूमि । सत्तरस जोयणसए इगवीसे
ऊसिया सवे ॥८॥ इति, 'पभासिंसुति चन्द्राणां सौम्यदीप्तिकत्वाद्वस्तुप्रभासनमुक्तमादित्यानां तु खररश्मित्वात् |'तवइंसुत्ति तापनमुक्तमिति । चतुःसङ्घयत्वाच्चन्द्राणां तसरिवारस्यापि नक्षत्रादेश्चतु:सङ्ख्यत्वमेवेत्याह-चतस्रः कृत्तिका नक्षत्रापेक्षया न तु तारकापेक्षयेति, एवमष्टाविंशतिरपि, अग्निरिति कृत्तिकानक्षत्रस्य देवता यावद्यम इति भरण्या दे-18
अतिरेकमतिरेक परिवर्धते हीयते पापि ॥२॥ अभ्यन्तरां बेला धारयति लवणोदधेः हामवारिंशन राइनमाना देवाः गायानां द्वासप्ततिसहसी बायां | ॥ ३ ॥ पटिनांगराहकी धारयंवनोदकं समुद्रस्य । वेलम्धराणामावासा लवणे च चतुर्दिशु चत्वारः ॥ ४ ॥ पूर्वानुक्रमतः गोरतूपदकभासशंखदफसीमास्या मोस्तूपशिवशंखमनःशिला नागराजानः ॥ ५॥ लवणे विदिक्ष चत्वारोऽनुवेलधरावासाः संस्थिताः कर्कोटकविद्युत्प्रमकैलासारणप्रभाव ॥॥ काँटका कईमका कैलासोऽरुणप्रभश्व राजानः द्वाचत्वारिंशत्सहस्राणि तस्सि दधी सर्वऽपि गत्वा ॥७॥ चत्वारि योजनशतानि त्रिंशतं कोश योद्गता भूमि । सप्तदशयोजनशती एकविंशविच्छूिताः सर्वे ॥८॥
दीप
अनुक्रम [३२६]
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३०६]
असूत्र
वृत्तिः ॥ २२९॥
स्थाना० उद्देशः२ | नन्दीश्व
राधिक सू० ३०७
वता, अङ्गारक आद्यो ग्रहः भावकेतुरित्यष्टाशीतितम इति, शेष यथा द्विस्थानके, समुद्रद्वारादि जम्बूद्वीपद्वारादिव- दिति, चक्रवालस्य-वलयस्य विष्कम्भो-विस्तरः जम्बूद्वीपादहिर्धातकीखण्डपुष्करार्द्धयोरित्यर्थः, शब्दोपलक्षित उद्देशकः शब्दोद्देशको द्विस्थानकस्य तृतीय इत्यर्थः, केवलं तत्र द्विस्थानानुरोधेन 'दो भरहाई' इत्याधुक्तमिह तु 'चत्तारी'त्यादि, उक्तं मनुष्यक्षेत्रवस्तूनां चतुःस्थानकमधुना क्षेत्रसाधयन्निन्दीश्वरद्वीपवस्तूनामासत्यसूत्राच्चतु:स्थानकं 'नंदीसरस्सेत्यादिना ग्रन्थेनाह
[अथ नन्दीश्वरविचारा] गंदीसरवरस्स णं दीवस्स चकवालविक्खभस्स बहुमज्झदेसभागे चउदिसि पत्तारि अंजणगपन्यता पं० सं०-पुरस्थिमिले अंजणगपब्बते दाहिणिले अंजणगपव्वए पचस्थिमिले अंजणगपन्वते उत्तरिले अंजणगपबते ४, ते ण अंजणगपव्वता चतरासीति जोयणसहस्साई उई उनसेणं एगे जोवणसहस्सं जल्वेहेणं मूले दस जोय
सहस्साई विक्षभेणं तदणंतरं च णं मायाए २ परिहातेमाणा २ उवरिमेगं जोयणसहस्सं विसंभेणं पण्णता मूले इकतीस जोयणसहस्साई छन तेवीसे जोयणसते परिक्खेवण उपरि तिन्नि २ जोयणसहस्साई एगं च छावट जोयणसतं परिक्खेवणं, मूले विच्छिन्ना मजो संखेत्ता, उपितणुया. गोपुच्छसंठाणसंठिता सम्पअंजणमया अच्छा सहा लहा घट्ठा मट्ठा मीरया निष्पंका निकंकडाछाया सप्पभा समिरीया सउजोया पासाईया दरिसणीया अभिरुवा पडिरूवा, तेसि णं अंजणगपतयाणं उवरि बहुसमरमणिजभूमिभागा पं०, तेसिणं बहुसमरमणिजभूमिभागाणं बहुमज्मदेसभागे चत्वारि सिद्धाययणा पण्णत्ता, सेणं सिद्धाययणा एगं जोयणसयं आयामेणं पण्णता पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं बाव
दीप
अनुक्रम [३२६]
॥२२९॥
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आगम
(०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३०७]
%
दीप
84%
तरि जोवणाई उर्नु उच्चत्तेणं, तेसि सिद्धाययणाणं चउदिसिं चत्तारि दारा पं०1०-देवदारे असुरदारे णागबारे सुवन्नबारे, तेसु णं वारेमु चउबिहा देवा परिवसंति, तं०-देवा असुरा नागा सुवण्णा, सेसि णं दाराणं पुरतो चत्तारि मुहर्मदवा पं०, तेसि णं मुहमंडवाणं पुरो पत्तारि पेच्छाघरमंडवा पं०, तेसिणं पेच्छाघरमंडवाणं बहुमझदेसभागे चत्तारि वइरामया अक्खाङगा पं०, तेसि णं वइराभयाणं अक्खाडगाणं बहुमज्झदेसभागे चत्तारि मणिपेढियातो पं०, तासि णं मणिपेढिताणं उरि चत्तारि सीहासणा पन्नत्ता, तेसि णं सीहासणाणं उपरि चत्तारि विजयदूसा पन्नत्ता, तेसिणं विजयदूसगार्ण बहुमज्झदेसभागे चत्तारि वइरामता अंकुसा पं०, तेसु णं वतिरामतेम अंकुसेमु चत्तारि कुंमिका मुत्तादामा ५०, ते णे कुंभिका मुत्तादामा पत्तेयं २ अन्नेहिं तददउच्चत्तपमाणमित्तेहिं चाहिं अनुकुंभिकेहि मुत्तादामेडिं, सवतो समंता संपरिक्षिता, सेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं पुरजो चत्तारि मणिपेढिताओ पण्णचाओ, तासि ण मणिपेढियाणं उबरि चत्तारि २ तितथूभा पण्णत्ता, तासि णं चेतितथूभाणं पत्तेर्व २ चउद्दिसि चत्तारि मणिपेढियातो पं०, तासि ण मणिपेदिसाणं वरि चत्तारि जिणपतिमाओ सन्वरयणामईतो संपलियंकणिसन्नाओ थूभाभिमुहाओ चिट्ठति, सं०-रिसभा पद्धमाणा चंदाणणा वारिसेणा, तेसि णं चेतितथूभाणं पुरतो चत्तारि मणिपेदिताओ पं०, तासि जे मणिपेदिताण उरि चत्तारि तिताक्खा पं०, तेसिणं चेतितरुक्खाणं पुरओ चचारि मणिपेद्वियाओ पं०. तासिण मणिपेढियाणं उबरि चत्तारि महिंदजाया पं०, तेसि णं महिंदज्झताणं पुरओ चत्तारि णदातो पुक्खरणीओ पं०, तासि णं पुक्खरिणीणं पत्तेयं २ पउदिसि पसारि वणसंडा पं० त०-पुरच्छिमेणं दाहिणेणं पञ्चस्थिमेणं उत्तरेणं-पुषेणं असोगवणं दाहि
अनुक्रम [३२७-३२९]
A5
%
wwwjagalan
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०७] + गाथा-१ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना
जसूत्र
सूत्रांक
वृत्तिः
४ स्थाना उद्देशः२ नन्दीश्वराधिक सू०३०७
[३०७]
॥२३०॥
AAMAC
दीप
णमो होह सत्तवण्णवणं । अपरेण चंपगवणं चूतषणं उत्तरे पासे ॥ १॥ तत्व ण जे से पुरच्छिमिले अंजणगपव्वते तस्स णं चारिसिं चत्तारि गंदाओ पुक्खरिणीतो पं० सं०-णंदुत्तरा गंदा आणंदा नंदिवद्धणा, ताओ गंदामो पुक्सरिणीओ एर्ग जोयणसयसहस्सं आयामेणं पन्नासं जोयणसहस्साई विक्वंभेणं दस जोयणसवाई उम्मेहेणं, तासि णं पुक्सरिणीणं पत्तेयं २ चहिसिं पत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा, तेसिणं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरतो पत्तारि तोरणा पं०, तं०
-पुरविक्रमेणं दाहिणेणं पञ्चस्थिमेणं उत्तरेणं, नासि णं पुक्खरणीणं पत्तेयं २ चउदिसि चत्तारि वणसंडा पं०, सं०पुरतो दाहिण पश्च० उत्तरेणं, पुवेणं असोगवर्ण जाव घूयवणं उत्तरे पासे, वासि णं पुक्खरिणीर्ण बहुममदेसभागे चचारि दधिमुहगपब्वया पं०, ते णं दधिमुद्दगपब्वया चउसहि जोयणसहस्साई उई उचत्तेणं एवं जोषणसहस्सं उन्हेणं सम्वत्य समा पल्लगसंठाणसंठिता दसजोयणसहस्साई विक्खंभेणं एकतीसं जोयणसहस्साई छप तेवीसे जोवणसते परिक्सवेणं, सब्बरवणामता अच्छा जाव पडिरूवा, तेसि णं दधिमुहगपचताणं उबरि बहुसमरमणिजा भूमिभागा पं०, सेसं जहेब अंजणगपञ्चताणं तहेव निरवसेसं भाणिय, जाप चूतवणं उत्तरे पासे, तत्व पंजे से पाहिणि अंजणगपञ्बते तस्स जे चदिसिं चत्तारि गदाओ पुक्खरणीओ पण्णचाओ, सं०-भरा विसाला कुमुया पोंडरिगिणी, तातो गंदासो पुक्खरणीतो एग जोयणसयसहस्सं सेसं तं चेव जाव दधिमुहगपठवता जाग बणसंढा, तस्थ गंजे से पचस्थिमिहे अंजणगपन्वते तस्स णं परिसिं चत्तारि गंदाओ पुक्खरणीओ पं०, तं०-दिसेणा अमोहा गोधूभा सुदसणा, सेस तं घेव, तहेब दधिमुहगपञ्चता तहेव सिद्धाययणा जाव वणसंदा, वस्य पंजे से उत्सरिले अंज
अनुक्रम [३२७-३२९]
॥२३०॥
~470~
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
CCCCTNA
सूत्रांक
[३०७]
दीप
णगपज्यते तरस ण परिसिं चत्तारि गंदाओ पुक्खरणीमो पं०, ०-विजया वेजयंती जयंती अपराजिता, तातो णं पुक्सरिणीओ एग जोयणसवसहस्सं तं चेव पमाणं तहेव दधिमुद्दगपब्बता तद्देव सिद्धाययणा जाव वणसंडा, गंदीसरवरस्स णं दीवस्स चकवालविक्वंभस्म बहुमज्झदेसभागे चउसु विदिसासु चत्तारि रतिकरगपवता पं०, ०-उत्तरपुरच्छिमिल्ले रतिकरगपब्बते दाहिणपुरच्छिमिल्ले रइकरगपञ्चए दाहिणपश्चस्थिमिले रतिकरगपन्वते उत्तरपत्थिमिल्ले रतिकरगपवए, ते णं रतिकरगपव्वता दस जोयणसयाई उडू उच्चत्तेणं दस गाउतसताई उव्वेहेणं सम्वत्थ समा झल्लरिसंठाणसंठिता दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं एकतीसं जोयणसहस्साई छच तेवीसे जोषणसते परिक्खेवण, सम्बरयणामता, अच्छा जाव पतिरूवा, सत्य णं जे से उत्तरपुरच्छिनिले रतिकरगपव्यते तस्स णं चउदिसि ईसाणस्स देविंदरस देवरनो चउण्डमग्गमहिसीणं जीवपमाणाओ चत्तारि रायहाणीओ पं० २०-णंदुत्तरा गंदा उत्तरकुरा देवकुरा, कपहाते कण्हरातीते रामाए रामरक्सियाते, तस्थ णं जे से दाहिणपुरच्छिमिल्ले रतिकरगपठवते, तस्स णं परिसिं सवारस देविंदस्स देवरत्नो चण्हमगामहिसीणं जंबूरीवपमाणातो चत्तारि रायहाणीओ पं०, ०-समणा सोमणसा अश्चिमाली मणोरमा पजमाते सिवाते सतीते अजूए, तत्थ पंजे से दाहिणपञ्चत्धिमिल्ले रतिकरगपबसे तत्थ ण चारिसिं सफस्स देविंदस्स देवरनो चउण्डमग्गमहिसीणं जंबूढीवपमाणमेत्तातो चनारि रायहाणीओ पं०, तं०-भूता भूतवडेंसा गोथूभा सुदसणा, अमलाते अच्छराते णवमिताते रोहिणीते, तस्थ णं जे से उत्तरपथस्थिमिले रतिकरगपवते तस्थ ण
अनुक्रम [३२७-३२९]
~471~
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना
सूत्रांक
वृत्तिः
[३०७]
॥२३१॥
दीप
45
चदिसिमिसाणस देविंदस्स देवरन्नो चण्डमगमहिसौणं जंबूद्दीवप्पमाणमित्तातो पत्तारि रायहाणीओ पं०, - I
४ स्थाना० रयणा रतणुचता सन्वरतणा रतणसंचया, वसूते वसुगुत्ताते वसुमित्ताते वसुंधराए (सू० ३०७)
उद्देशः२ सूत्रसिद्धश्चार्य, केवलं-जम्बू १ लवणे धायइ २ कालोए पुक्खराइ ३ जुयलाई । वारुणि ४ खीर ५ घय ६
| नन्दीश्वइक्खू ७ नंदीसर ८ अरुण ९ दीवुदही॥१॥ति गणनयाऽष्टभो नन्दीश्वरः स एव वरः २, अमनुष्यद्वीपापेक्षया
राधि० बहुतरजिनभवनादिसद्भावेन तस्य वरत्वादिति, तस्य चक्रवालविष्कम्भस्य प्रमाणं १६३८४०००००, उक्तं च-ला.
सू०३०७ "तेवई कोडिसयं चउरासीइं च सयसहस्साई । नंदीसरवरदीवे विक्खंभो चक्कवालेणं ॥१॥” इति, मध्यश्चासौ | देशभागश्च-देशावयवो मध्यदेशभागः, स च नात्यन्तिक इति बहुमध्यदेशभागो न प्रदेशादिपरिगणनया निष्टकित्तः, अपि तु प्राय इति, अथवा अत्यन्तं मध्यदेशभागो बहुमध्यदेशभाग इति, तत्र इहाञ्जनकाः मूले दश | योजनसहस्राणि विष्कम्भेणेत्युक्तम्, द्वीपसागरप्रज्ञप्तिसङ्ग्रहिण्यां तूक्तम्-"चुलसीति सहस्साई उबिद्धा ओगया | सहस्समहे । धरणितले विच्छिन्ना य ऊणगा ते दससहस्सा ॥१॥ नव चेव सहस्साई पंचेव य होति जोयण| सयाई । अंजणगपब्बयाणं मूलंमि उ होइ विखंभो ॥२॥" कंदस्वेत्यर्थः, “नव चेव सहस्साई चत्तारि य हौति |
१ त्रिषष्टिः कोटियातं चतुरशीतिश्च शतसहस्राणि नन्दीपरवरद्वीपे चकवालतो विष्कम्भः ॥१॥ २ चतुरशीतिः सहस्राणि उहिताः अधः सहस्र गताः किचिन्यूनदशसहस्राणि धरणीतले विस्तीर्णाः ॥१॥ नव चैव सहमाणि पंव भवन्ति योजनशतानि अंजनकपर्वतानां मूले भवति तु विकभः ॥ २॥ ३ नव चैव | सहस्राणि चत्वारि च भवंति शतानि
अनुक्रम [३२७-३२९]
+CRORSCLKATA
wwwjanmalay
नन्दीश्वरद्वीपस्य स्थान आदि अधिकारः
~472~
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३०७]
दीप
जोयणसयाई । अंजणगपब्बयाणं धरणियले होइ विक्खंभो ॥१॥” इति, तदिदं मतान्तरमित्यबसेयमेवमन्यत्रापि, मतान्तरवीजानि तु केवलिगम्यानीति, 'गोपुच्छसंठाण'त्ति गोपुच्छो वादी स्थूलोऽन्ते सूक्ष्मस्तद्वत्तेऽपीति, 'सव्वंज-1X णमय'त्ति अञ्जनं-कृष्णरत्नविशेषः तन्मयाः सर्व एवानन्यमयत्वेन सर्वथैवाञ्जनमयाः सर्वाङ्गनमया, परमकृष्णा इति भावः, उक्तं च-"भिंगंगरुइलकज्जलअंजणधाउसरिसा विरायति । गगणतलमणुलिहता अंजणगा पब्बया रम्मा ॥१॥" इति, अच्छाः आकाशस्फटिकवत् , सहा-लक्ष्णपरमाणुस्कन्धनिष्पन्नाः, श्लक्ष्णदलनिष्पन्नपटवत्, लण्हा-लक्ष्णा मसृणा इत्यर्थः, धुण्टितपटवत् , तथा धृष्टा इव घृष्टाः, खरशानया पाषाणप्रतिमावत्, मृष्टा इव मृष्टाः सुकुमारशानया पाषा| णप्रतिमेव शोधिता वा प्रमार्जनिकयेव अत एव नीरजसः रजोरहितत्वात् निर्मलाः कठिनमलाभावात् धौतवस्त्रबद्वा निष्पङ्का आर्द्रमलाभायात् अकलकत्वाद्वा 'निकंकडच्छाया' निष्कङ्कटा निष्कयचा निरावरणेत्यर्थः छाया-शोभा येषां ते तथा अकलशोभा वा सप्रभा देवानन्दकत्वादिप्रभावयुक्ताः अथवा स्वेन आत्मना प्रभान्ति न परत इति स्वप्रभाः यतः 'समिरीया' सह मरीचिभिः-किरणैये ते तथा, अत एव 'सउज्जोया' सहोद्योतेन-वस्तुप्रभासनेन वर्तन्ते ये ते तथा 'पासाईय'त्ति प्रासादीयाः-मनःप्रसादकराः दर्शनीयास्तांश्चक्षुपा पश्यन्नपि न श्रम गच्छतीत्यर्थः अभिरूपाःकमनीयाः प्रतिरूपाः द्रष्टारं द्रष्टारं प्रति रमणीया इति यावत्शब्दसङ्ग्रहः, बहुसमा:-अत्यन्तसमा रमणीयाश्च ये ते
योजनानामंजनकपर्वताना धरणीतले भवति विष्कम्भः ॥१॥ २ सँगारगवलकविरकबलांजनधातुसहशा बिराजन्ते गगनतलमनुलिवंत देवाननकाः पर्वता रम्याः ॥1॥
अनुक्रम [३२७-३२९]
CACARBK
dam
wwwjangalraya
नन्दीश्वरद्वीपस्य स्थान आदि अधिकारः
~473~
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना-
सूत्रवृत्तिः
सूत्रांक
[३०७]
11२३२॥
दीप अनुक्रम [३२७-३२९]
तथा सिद्धानि-शाश्वतानि सिद्धानांवा-शाश्वतीनामहत्प्रतिमानामायतनानि-स्थानानि सिद्धायतनानि, उक्तं च-"अंजण-SV स्थाना गपव्वयाणं सिहरतलेसुं हवंति पत्तेयं । अरहताययणाई सीहणिसायाई तुंगाई ॥१॥" मुखे-अग्रद्वारे आयतनस्य मण्डपा उद्देशः२ मुखमण्डपाः पट्टशालारूपाः प्रेक्षा-प्रेक्षणकं तदर्थं गृहरूपाः मण्डपाः प्रेक्षागृहमण्डपाः प्रसिद्धस्वरूपाः, वैरं-वर्ज रक्षविशेपस्तन्मयाः आखाटका:-प्रेक्षाकारिजनासनभूताः प्रतीता एव विजयदूष्याणि-वितानकरूपाणि वस्त्राणि तन्मध्यभाग राधिक एवाबुशाः अवलम्बननिमित्तं, कुम्भो मुक्ताफलानां परिमाणतया विद्यते येषु तानि कुम्भिकानि मुक्कादामानि-मुक्ताफलमालाः, कुम्भप्रमाणञ्च-"दो असतीओ पसती दो पसतीओ सेतिया चत्तारि सेतियाओ कुडवो चत्तारि कुडवा-IN | पत्थो चत्तारि पत्था आढयं चत्तारि आढया दोणो सही आढयाई जहन्नो कुंभो असीइ मज्झिमो सयमुकोसो" इति, 'तदद्धेति तेषामेव मुक्तादानामर्द्धमुच्चत्वस्य प्रमाणं येषां तानि तदोश्चत्वप्रमाणानि तान्येव तन्मात्राणि तैः 'अद्धकुंभिकेहिंति मुक्ताफलार्द्धकुम्भवद्भिः सर्वतः-सर्वासु दिक्षु, किमुक्तं भवति ?-समन्तादिति, चैत्यस्य सिद्धायतनस्य प्रत्या-14 सन्नाः स्तूपाः-प्रतीताश्चैत्यस्तूपाश्चित्ताल्हादकत्वाद्वा चैत्याः स्तूपाः चैत्यस्तूपाः संपर्यङ्कनिषण्णाः-पद्मासननिषण्णाः, एवं चैत्यवृक्षा अपि, महेन्द्रा इति-अतिमहान्तः समयभाषया ते च ते ध्वजाश्चेति, अथवा महेन्द्रस्येव-शकादेयजा महेन्द्रध्वजाः । शाश्वतपुष्करिण्यः सर्वा अपि सामान्येन नन्दा इस्युच्यन्ते, 'ससपन्नवणं'ति सप्तच्छदवनमिति, 'तिसोवाण
१ अंजनकपर्वताना शिवरतलेषु भवंति प्रत्येकं । बहदायतनानि सिंहनिषद्यानि तुंगानि ॥१॥२२ असती पसतिः वे पलती सेविका चततः सेतिकाः ॥२३२॥ करना चत्वार करना प्रस्थका चत्वारः प्रका: भादकः चत्वार भादकाः द्रोमः आवरुषका जघन्यः कुंभोऽशीमा मध्यमः पातेनोला।
नन्दीश्वरद्वीपस्य स्थान आदि अधिकारः
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३०७]
दीप
परिस्थति एकद्वार प्रति निर्गमप्रवेशाध त्रिदिगभिमुखास्तिम्रः सोपानपतयः, दधिवत् श्वेतं मुख-शिखर रज-15 तमयखात येषां ते तथा, उक्तंच-"संखदलविमलनिम्मलदहिषणगोखीरहारसंकासा । गगणतलमणलिहंता सोहंते। दहिमुहा रम्मा ॥१॥" इति, बहुमध्यदेशभागे-उक्तलक्षणे विदिक्षु-पूर्वोत्तराद्यासु रतिकरणाद्रतिकराः ४, राजधान्यः क्रमेण कृष्णादीनामिन्द्राणीनामिति, तत्र दक्षिणलोकार्बनायकत्वाच्छक्रस्य पूर्वदक्षिणदक्षिणापरविदिग्द्वयरतिकरयोस्तस्येन्द्राणीनां राजधान्य इतरयोरीशानस्योत्तरलोकार्डाधिपतित्वात् तस्येति, एवञ्च नन्दीश्वरे द्वीपे अञ्जनकदधिमुखेषु ४-१६ विंशतिर्जिनायतनानि भवन्ति, अत्र च देवाः चातुर्मासिकप्रतिपत्सु सांवत्सरिकेषु चान्येषु च बहुषु जिनजन्मादिषु देवकार्येषु समुदिता अष्टाह्निकामहिमाः कुर्वन्तः सुखसुखेन विहरन्तीत्युक्तं जीवाभिगमे, ततो यद्यन्यान्यपि तथाविधानि सन्ति सिद्धायतनानि तदा न विरोधा, सम्भवन्ति च तानि उक्तनगरीषु विजयनगर्यामिवेति, तथा दृश्यते च पञ्चदशस्थानोद्धारलेश:-"सोलसदहिमुहसेला कुंदामलसंखचंदसंकासा। कणयनिभा बत्तीस रइकरगिार बाहिरा तेसिं ॥१॥" द्वयोर्द्वयोर्चाप्योरन्तराले बहिःकोणयोः प्रत्यासत्तौ द्वौ द्वावित्यर्थः, "अंजणगाइगिरीणं णाणामणिपज्जलंतसिहरेसु । बावन्नं जिणणिलया मणिरयणसहस्स कूडवरा ॥१॥" इति, तत्त्वन्तु बहुश्रुता विदन्तीति । एतच पूर्वोक्तं सर्व सत्यं जिनोत्तत्वात् इति सत्यसम्बन्धेन सत्यसूत्रम्
१ शंखदलविमलनिमसदधिधनयोक्षीरमुकाहारसंकाशाः । गगनतलमनुलिखन्तः शोभन्ते दपिमुखा रम्याः ॥१॥ दधिमुखोला पोहशामलकुंदशंखचंद्र संकायाः। द्वात्रिंशदतिकराः कनकनिमाः तयोः (वायो) बहिः॥१॥२अंजनकादिगिरीणी नानामविप्रवच्छिखरेपु द्विपंचाशनिमहानिमगिरजमानिसहस्राणि कूटवराः।।१।।
अनुक्रम [३२७-३२९]
नन्दीश्वरद्वीपस्य स्थान आदि अधिकारः
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना
प्रत
वृत्तिः
सूत्रांक
॥२३३॥
दीप
पउबिहे सणे पं० सं०-णामसचे ठवणसच्चे दव्वसच्चे भावसच्चे (सू० ३०८) आजीवियाणं पउब्धिहे तवे पं०
४ स्थाना० तं०-उग्ातवे घोरतये रसणिजूहणता जिभिदियपडिसंलीणता (सू० ३०९) पबिहे संजमे पं० २०..--मणसं. उद्देशः २ जमे बतिसंजमे कायसंजमे उबगरणसंजमे । चउन्विधे चिताते पं० २०--मणचिताये बतिथियाते कायचियाते जब
नामस. वरणचियाते । चाउन्विहा अकिंचणता पं० २०--मणअकिंचणता बतिअकिंचणता कायअकिंचणता उवगरणअकिंचणता त्यादिआ(सू०३१०)।। इति द्वितीयोदेशकः सम्पूर्णः ।।
जीविकतनामस्थापनासत्ये सुज्ञाने, द्रव्यसत्यमनुपयुक्तस्य सत्यमपि भावसत्यं तु यत्स्वपरानुपरोधेनोपयुक्तस्येति ।। सत्यं चारित्र-IP विशेष इति चारित्रविशेषानुदेशकान्तं यावदाह-'आजीविएत्यादि, 'आजीविकानां गोशालकशिष्याणां उग्रतपः-15 अष्टमादि वचन 'उदार मिति पाठः तत्र उदार-शोभनं इहलोकाद्याशंसारहितत्वेनेति घोरं-आत्मनिरपेक्षं रसनितहणया'|| दि) घृतादिरसपरित्यागः जिहेन्द्रियप्रतिसलीनता-मनोज्ञामनोज्ञेष्वाहारेषु रागद्वेषपरिहार इति, आर्हतानां तु द्वादशसू०३०८धेति, मनोवाकायानामकुशलवेन निरोधाः कुशलत्वेन तूदीरणानि संयमाः, उपकरणसंयमो महामूल्यवस्त्रादिपरिहारः, पुस्तकवस्त्रतृणचर्मपश्चकपरिहारो वा, तत्र-गंडी कच्छवि मुट्ठी संपुडफलए तहा छिवाडीय । एयं पोत्ययपणगं | पन्नत्तं बीयरागेहिं ॥१॥ बाहलपुहत्तेहिं गंडी पोत्थोउ तुल्लओ दीहो । कच्छवि अंते तणुओ मझे पिहुलो मुणेयब्बो ॥२॥
सा॥२३३॥ गंडी कच्छपी मुष्टिः संपुढफलकतथा सपाटिका च एतापुस्तकपंच प्राप्त वीतरागैः ॥ १॥ बाहल्यपृषफ्लैग डीपुमाकं तु तुल्वं दीर्ष कच्छपी अंते। तनुका मध्ये पृथुल: शातव्यः ॥२॥
अनुक्रम [३३०]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३१०]
दीप अनुक्रम [३३२]
चिउरंगुलदीहो या वट्टागिति मुडिपोत्धओ अहषा । चउरंगुलदीहोच्चिय चउरंसो होइ विन्नेओ ॥३॥ संपुडगो
दगमाइ लगा वोच्छं छिवाडिताहे । तणुपत्तूसियरूवा होइ छिवाडी बुहा चेति ॥४॥ दीहो वा हस्सो वा जो| पिहलो होइ अपवाहल्लो । तं मुणियसमयसारा छिवाडिपोत्थं भणतीह ॥ ५॥" वस्त्रपञ्च द्विधा, अप्रत्युपेक्षितदुष्प-18 त्युपेक्षितभेदात्, तत्र-"अप्पडिलेहियदूसे तूलि उवहाणगं च नायव्वं । गंडुवहाणालिंगिणि मसूरए चेव पोत्तमए ॥१॥ पल्हवि कोयव पावार नवयए तह य दाढिगालीओ। दुष्पडिलेहियदूसे एवं बीयं भवे पणगं ॥२॥ पल्लवि हरथुधरणं तु कोयवो रूयपूरिओ पडओ । दढिगालि धोयपोत्ती सेस पसिद्धा भवे भेया ॥३॥ तणपणगं पुण भणियं जिणेहिं कम्मगंठिमहणेहिं । साली वीही कोदव रालग रन्ने तणाई च ॥४॥" चर्मपञ्चकमिदम्-"अयएलगावि महिसी मिगाण अजिणं तु पंचमं होइ । तलिया खलगवग्झो कोसग कत्ती य बीयं तु ॥५॥” इति, 'चियाए'त्ति त्यागो मन:
१ चतुरैगुलदीपों वा वृत्ताकृति मुष्टिपुस्तकमथवा । चतुरंगुलदीर्ष एवं चतुरस्रो भवति ज्ञातयः ॥ ३॥ फलकद्वयादिः संपुटकोऽय काये सूपाटिका तनुपत्रो. पिछतरूपां भवति सुपाटिको बुधा अबते ॥४॥ दीपों वा हसो वा योऽल्पाहल्या पृथुभवति। तंझातसमयसाराविधवाडीपुस्तकं भर्णतीह ॥ ५॥ २ अप्रतिले जितवृष्येषु तूलिकोपपानं च ज्ञातव्यं गंदोपधाममालिगिनी मसूरकचैव पोतमयः ॥१॥ प्रहत्तिः कुतुपः प्राचारो नवस्य तथा ५ दंष्ट्रामालिः । दुष्प्रतिखितदृष्ये एतद्वितीयं भवेत् पसकं ॥ २॥ प्रहत्तिहस्तातरण कुतुपको रूतपूरितः परः । खगालि(तपोतिका शेषाः प्रसिद्धा भेदा भवन्ति ॥३॥ तृणपय पुनर्भणितं जिनः अपकर्मयन्धिमथनैः । शाली मोहिः कोइवो राककोऽरपतृणानि च ॥४॥ ३ अजैकगोगहिषीणां मृगाणामजिनं तु पचर्म भवति । तलिका खलको वः कोशकः कतरिका (कृत्तिका) व द्वितीयं तु ॥ ५॥
ABERucatun international
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [२], मूलं [३१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
स्थाना
प्रत
सूत्रांक
| क्रोधः पविदृष्टान्तः
[३१०]
का ३१२
दीप
श्रीस्थाना-प्रभृतीनां प्रतीत एव, अधवा मनःप्रभृतिभिरशनादेः साधुभ्यो दानं त्यागः, एवमुपकरणेन पात्रादिना भक्कादेस्तस्य वा
त्याग उपकरणत्यागः, न विद्यते किञ्चन-द्रव्यजातमस्येत्यकिञ्चनस्तद्भावो अकिञ्चनता निष्परिग्रहतेत्यर्थः, सा च मनामवृत्तिः भृतिभिरुपकरणापेक्षया च भवतीति यथोक्तेति ॥ चतुःस्थानकस्य द्वितीयोद्देशकः समाप्तः॥ ॥२३४ ॥
व्याख्यातो द्वितीयोद्देशकः, अथ तृतीय आरभ्यते, अस्य चाय पूर्वेण सहाभिसम्बन्धः, पूर्वत्र जीवक्षेत्रपर्याया उक्ताः इह तु जीवपयांया उच्यन्ते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादि सूत्रद्वयं
चत्तारि राहीओ पं० २०-पव्ययराती पुढविराती वालुयराती उद्गराती, एवामेव चउबिहे कोहे पं०२०-पव्ययरातिसमाणे पुढविरातिसमाणे वालुयरातिसमाणे उदगरातिसमाणे, पव्ययरातिसमाणं कोई अणुपबिड़े जीये कालं करेइ णेरड़तेसु उववज्जति, पुढविरातिसमाणं कोहमणुप्पविढे तिरिक्खजोणितेसु उववजति, वालुयरातिसमार्ण कोहं अणुपविढे समाणे मणुस्सेसु उवयजति, उदगरातिसमाणं कोहमणुपविड़े समाणे देवेसु उववजति १ । यसारि उदगा पं०२०
-कदमोदए खंजणोदए वालुओदए सेलोदए, एवामेव चउबिहे भावे पं० ०-कदमोदयसमाणे खंजणोदगसमाणे बालुओदगसमाणे सेलोद्गसमाणे, कदमोदगसमाणं भावमणुपविढे जीवे कालं करेइ रइएसु उबवजति, एवं जाव सेलोदगसमाणं भावमणुपविटे जीवे कालं करेइ देवेमु उववजइ (सू० ३११) चत्तारि पक्खी पं० सं०-यसंपन्ने नाममेगे णो रूवसंपन्ने रुवसंपन्ने नाममेगे नो रतसंपन्ने एगे स्वसंपन्नेवि रुतसंपन्नेवि नो रुतसंपने णो रूवसंपन्ने,
SAKASKARGAON
अनुक्रम [३३२]
अथ चतुर्थ-स्थानस्य द्वितीय-उद्देशकः परिसमाप्त: अथ चतुर्थ-स्थानस्य तृतीय-उद्देशक: आरभ्यते
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३१२]
एवामेव बचारि पुरिसजाया पं० त० रुयसंपन्ने नाममेगे णो रूवसंपन्ने ४, चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-पत्तिय करेमीतेगे पत्तियं करेइ पत्तिय करेमीतेगे अपत्तितं करेति अप्पत्तियं करेमीतेगे पत्तितं करेइ अप्पत्तियं करेमीतेगे अप्पत्ति करेति, चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-अपणो णाममेगे पत्तितं करेति णो परस्स परस्स नाममेगे पत्तियं करेति णो अप्पणो (४) है, चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-पत्तियं पवेसामीतेगे पतितं पवेसेइ पत्तियं पवेसामीतेगे अप्पत्तितं पवे
सेति ४ । चत्तारि पुरिसजाता पं० त०-अप्पणो नाममेगे पत्तितं पवेसेइ णो परस्स परस्स ४ ह (सू० ३१२) 'चत्तारीत्यादि, अस्य चायमभिसम्बन्धः-पूर्व चारित्रमुक्तं, तत्प्रतिबन्धकश्च क्रोधादिभाव इति क्रोधस्वरूपप्ररूपणायेदमुच्यते, तदेवंसम्बन्धस्यास्य दृष्टान्तभूतादिसूत्रस्य व्याख्या--'राजी' रेखा, शेष कोधव्याख्यानं मायादिवत्,8 मायादिप्रकरणाच्चान्यत्र क्रोधविचारो विचित्रत्वात् सूत्रगतेरिति, द्वितीयं सुगममेव ॥ अयं च क्रोधो भावविशेष एवेति भावारूपणाय दृष्टान्तादिसूत्रद्वयमाह-चत्तारीत्यादि प्रसिद्धं, किन्तु कईमो यत्र प्रविष्टः पादादिनाक्रष्टुं शक्यते कष्टेन वा शक्यते, खञ्जनं दीपादिखञ्जनतुल्यः पादादिलेपकारी कईमविशेष एव, वालुका प्रतीता सा तु लग्नापि जलशोषे पादादेरल्पेनैव प्रयत्नेनापतीत्यल्पलेपकारिणी, शैलास्तु पाषाणाः श्लक्ष्णरूपास्ते पादादेः स्पर्शनेनैव किश्चिदुःखमुखादयन्ति, न तु तथाविधं लेपमुपजनयन्ति, कईमादिप्रधानान्युदकानि कई मोदकादीन्युच्यन्ते, भावो-जीवस्य रा
गादिपरिणामः तस्य कर्दमोदकादिसाम्यं तत्स्वरूपानुसारेण कम्मलेपमङ्गीकृत्य मन्तव्यमिति । अनन्तरं भाव उक्तोऽधुना 18 तद्वतः पुरुषान् सदृष्टान्तान् 'चत्तारि पक्खी'त्यादिना 'अत्यमियत्वमिये'त्येतदन्तेन अन्धेनाह-व्यक्तश्चार्य, नवरं ||*
दीप अनुक्रम [३३४]
किलो
NROERAK
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना
सूत्रवृत्तिः
सूत्रांक
॥२३५॥
[३१२]
% BE
|सू० ३१२
रुतं रूपं च सर्वेषामेव पक्षिणामस्त्यतस्ते विशिष्टे एवेह ग्राह्ये, ततो रुतं-मनोज्ञशब्दस्तेन सम्पन्नः एकः पक्षी न च रू- स्थाना पेण-मनोज्ञेनैव कोकिलवत्, रूपसम्पन्नो न रुतसम्पन्न, प्राकृतशुकवत् , उभवसम्पन्नो मयूरवत्, अनुभयस्वभावः| उडेशः३ काकवदिति, पुरुषोऽत्र यथायोग मनोज्ञशब्दः प्रशस्तरूपश्च प्रियवादित्वसद्वेषत्वाभ्यां साधुर्वा सिद्धसिद्धान्तप्रसिद्धशुद्धधर्मदेशनादिस्वाध्यायप्रवन्धवान् लोचविरलवालोत्तमाङ्गतातपस्तनुतनुस्खमलमलिनदेहताअल्पोपकरणतादिलक्षणसुवि- प्रीतिचहितसाधुरूपधारी वा योग्य इति । 'पसिय'ति प्रीतिरेव प्रीतिकं स्वार्षिककप्रत्ययोपादानेऽपि रूढेर्नपुंसकतेति, तत्क-IXI
तुर्भङ्गिकाः रोमि प्रत्ययं वा करोमीति परिणतः प्रीतिकमेव प्रत्ययमेव वा करोति, स्थिरपरिणामत्वात् उचितप्रतिपत्तिनिपुणत्वात् सौभाग्यवत्त्वाद्वेति, अन्यस्तु प्रीतिकरणे परिणतोऽप्रीतिं करोति उक्तवैपरीत्यादिति, अपरोऽधीतौ परिणतः प्रीतिमेव करोति, सञ्जातपूर्वभावनिवृत्तत्वात्, परस्य वा अप्रीतिहेतुतोऽपि प्रीत्युत्पत्तिस्वभावत्वादिति, चतुर्धः सुज्ञानः, आत्मन
एकः कश्चित् प्रीतिकम्-आनन्दं भोजनाच्छादनादिभिः करोति-उसादयति आत्मार्थप्रधानत्वान्न परस्य, अन्यः परस्य परासार्थप्रधानत्वान्नात्मनोऽपर उभयस्याप्युभयार्थप्रधानत्वादितरो नोभवस्थाप्युभयार्थशून्यत्वादिति, आत्मनःप्रत्ययं-प्रतीति
करोति न परस्येत्याद्यपि व्याख्येयमिति, 'पत्तियं पवेसेमिति प्रीतिकं प्रत्ययं वाऽयं करोतीत्येवं परस्य चित्ते विनिवेशयामीति परिणतस्तथैवैका प्रवेशयतीत्येक इति, सूत्रशेषोऽनन्तरसूत्रं च पूर्ववत् ।
चत्तारि रुक्खा पं० २०-पत्तोवए पुप्फोवए फलोवए छायोवए, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं०२०---पत्तोवारुMi क्वसमाणे पुप्फोवारुक्खसमाणे फलोवारुक्खसमाणे छातोवारुक्खसमाणे (सू० ३१३) भारण्णं वहमाणस्स चत्वारि
दीप अनुक्रम [३३४]
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३१४]
आसासा पन्नत्ता, संजहा--जस्थ गं अंसातो असं साहरइ नत्थविय से एगे आसासे पण्णचे १, जत्वविय णं उधार वा पासवर्ण वा परिद्वावेति तस्थथिय से एगे आसासे पण्णत्ते २, जत्थविय णं णागकुमारावासंसि वा सुवनकुमारावासंसि वा चासं उबेति तस्थविय से एगे आसासे पन्नते ३, जस्थविय णं आवकधाते चिट्ठति तत्वविय से एगे आसासे पन्नते ४, एवामेव समणोवासगस्स चत्तारि आसासा पं० २०-जत्थ णं सीलन्चतगुणवतवेरमणपशक्खाणपोसहोववासाई पविजेति तत्थविअ से एगे आसासे पण्णत्ते १, जत्थविय णं सामाइयं देसावगासियं सम्ममणुपालेइ तत्वविय से एगे आसासे पं० २, जत्थविय णं चाउद्दसमुद्दिट्टपुन्नमासिणीसु पडिपुन्नं पोसह सम्म अणुपालेइ तत्थवि य से एगे आसासे पण्णते ३, जस्थवि य णं अपच्छिममारणंतितसलेहणाजूसणाजूसिते भत्तपाणपडितातिक्खिते पाओवगते कालमणवकखमाणे विहरति तत्थविय से एगे आसासे पन्नते ४ (सू० ३१४) पत्राणि-पर्णान्युपगच्छतीति पत्रोपगो बलपत्र इत्यर्थः, एवं शेषा अपि, पत्रोपगादिवृक्षसमानता तु पुरुषाणां लोकोतराणां लौकिकानां चार्थिषु तथाविधोपकाराकरणेन स्वस्वभावलाभ एव पर्यवसितत्वात् १, सूत्रदानादिना उपकारकत्वात् २ अर्थदानादिना महोपकारकत्वात् ३ अनुवर्तनापायसंरक्षणादिना सततोपसेव्यत्वाच ४ क्रमेण द्रष्टव्येति । भारं -धान्यमुक्तोल्यादिकं वहमानस्य-देशाद्देशान्तरं नयतः पुरुषस्य आश्वासा-विश्रामाः, भेदश्च तेषामवसरभेदेनेति, यत्राव
सरे अंसाद्-एकस्मात् स्कन्धादंसमिति-स्कन्धान्तरं संहरति-नयति भारमिति प्रक्रमः तत्रावसरे अपिचेति उत्तराका श्वासापेक्षया समुच्चये 'से' तस्य वोदुरिति १, परिष्ठापयति-व्युत्सृजति २, नागकुमारावासादिकमुपलक्षणमतोऽन्यत्र
दीप
अनुक्रम [३३६]
ISRc
anERucatunintimational
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
मसूत्र
सूत्रांक
स्थाना० उद्देशः ३ पत्राद्युपगचतु० सू०३१३ आश्वासचतुष्क सू०३१४
[३१४]
श्रीस्थाना-पावाऽऽयतने वासमुपैतीति-रात्री वसति यावती-यसरिमाणा कथा-मनुष्योऽयं देवदत्तादिवोऽयमिति व्यपदेशलक्षणा
यावत्कथा तया यावज्जीवमित्यर्थः, तिष्ठति-वसति इत्ययं दृष्टान्तः ४, 'एवमेवे'त्यादि दार्शन्तिकः, श्रमणान्-साधू- वृत्तिः नुपास्ते इति श्रमणोपासक-श्रावकस्तस्य सावधव्यापारभाराकान्तस्य आश्वासा:-तद्विमोचनेन विनामा: चित्तस्याश्या
सनानि-स्वास्थ्यानि इदं मे परलोकभीतस्य त्राणमित्येवंरूपाणीति, स हि जिनागमसङ्गमावदातबुद्धितया आरम्भपरि॥२३६॥
ग्रही दुःखपरम्पराकारिसंसारकान्तारकारणभूततया परित्याज्यावित्याकलयन् करणभटवशतया तयोः प्रवर्त्तमानो महान्तं खेदसम्तापं भयं चोदहति, भावयति चैवं-"हियए जिणाण आणा चरियं मह परिसं अउन्नस्स । एवं आलप्पालं अब्वो दूर विसंवयइ ॥१॥ हयमम्हाणं नाणं हयमम्हाणं मणुस्समाहप्पं । जे किल लद्धविवेया विचेट्ठिमो वालबालब ॥२॥" ति, यत्रावसरे शीलानि-समाधानविशेषाः ब्रह्मचर्यविशेषा वा प्रतानि-स्थूलपाणातिपातविरमणा- दीनि, अन्यत्र तु शीलानि-अणुव्रतानि ब्रतानि-सप्त शिक्षात्रतानि तदिह न व्याख्यातं, गुणवतादीनां साक्षादेवोपादा-1 नादिति, गुणवते-दिग्वतोपभोगपरिभोगनतलक्षणे विरमणानि-अनर्थदण्डविरतिप्रकारा रागादिविरतयो वा प्रत्याख्यानानि-नमस्कारसहितादीनि पोषध:-पर्वदिनमष्टम्यादि तत्रोपवसनम्-अभक्तार्थः पोषधोपचासः, एतेषां इन्द्रस्तान् | प्रतिपद्यते-अभ्युपगच्छति तत्रापि च 'से' तस्यैक आश्वासः प्रज्ञप्तो १, यत्रापि च सामायिक-सावद्ययोगपरिवजेननिरव
१६पये जिनानामाशा ममापुष्पस्येां चरित्रं एवं आसप्यालं. आश्चर्य !, दूरं विसंवदति ॥ इतमस्माकं ज्ञानं दतमसमा मानुष्यमाहात्म्यं । यत्किल लग्यविधेका अपि क्षुधाला इन चेष्यामः ॥२॥
दीप अनुक्रम [३३६]
CAMAC.44-5
॥२६॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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प्रत
%94%
सूत्रांक
[३१४]
द्ययोगप्रतिसेवनलक्षणं यद्व्यवस्थितः श्राद्धः श्रमणभूतो भवति, तथा देशे-दिग्वतगृहीतस्य दिक्परिमाणस्थ विभागे अवकाश:-अवस्थानमवतारो विषयो यस्य तद्देशावकाशं तदेव देशावकाशिक-दिग्नतगृहीतस्य दिक्परिमाणस्य प्रतिदिनं सफ़ेपकरणलक्षणं सर्वत्रतसलेपकरणलक्षणं वा अनुपालयति-प्रतिपत्त्यनन्तरमखण्डमासेवत इति, तत्रापि च तस्यैक |
आश्वासः प्रज्ञप्त इति २, उद्दिष्टेत्यमावास्या परिपूर्णमिति-अहोरात्रं यावत् आहारशरीरसत्कारत्यागब्रह्मचर्याव्यापारलक्ष-| कणभेदोपेतमिति ३, यत्रापि च पश्चिमैवामङ्गलपरिहारार्थमपश्चिमा सा चासौ मरणमेवान्तो मरणान्तस्तत्र भवा मारणा
|न्तिकी सा चेत्यपश्चिममारणान्तिकी सा चासौ सङ्लिख्यतेऽनया शरीरकषायादीति सन्लेखना-तपोविशेषः सा चेति | | अपश्चिममारणान्तिकीसन्लेखना तस्याः 'जूसण'त्ति जोषणा सेवनालक्षणो यो धर्मस्तया 'जूसिय'त्ति जुष्टः सेवितः
अथवा क्षपितः-क्षपितदेहो यः स तथा, तथा भक्तपाने प्रत्याख्याते येन स तथा, पादपवत् उपगतो-निश्चेष्टतया स्थितः पादपोपगतः, अनशनविशेष प्रतिपन्न इत्यर्थः, कालं-मरणकालं अनवकाइन् तत्रानुत्सुक इत्यर्थः, विहरति तिष्ठति ।
पत्तारि पुरिसजाया पं० ०-उदितोदिते णाममेगे उदितत्थमिते गाममेगे अत्यमितोदिते णाममेगे अत्यमियत्थमिते णाममेगे, भरहे राया चाउरंतवकवट्टी ण उदितोदिते, बंभदत्ते णं राया चाउरतचकवडी उदिअस्थमिते, हरितेसबले णमणगारे णमत्थमिओदिते, काले गं सोयरिये अत्यमितत्यमिते (सू० ३१५) चत्वारि जुम्मा पं०२०-कबजुम्मे तेयोए दावरजुम्मे कलिओए, नेरतिताणं चत्तारि जुम्मा पं० सं०-कडजुम्मे तेओए दावरजुम्मे कलितोए, एवं असुरकुमाराणं जाब थणियकुमाराणं, एवं पुढविकाइयाणं आउ० तेउ० बाउ० वणस्सतिक विताणं दियाणं चउरिदि
दीप अनुक्रम [३३६]
61562-*-*
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[३१६]
दीप
अनुक्रम [३३८]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
उद्देशक [३], मूलं [ ३१६ ]
स्थान [ ४ ], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः
॥ २३७ ॥
याणं पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं मणुस्ताणं वाणमंतरजोइसियाणं वैमाणियाणं सव्येसिं जहा जेरइयाणं ( सू० ३१६ ) चत्तारि सूरा पं० [सं० खंतिसूरे तवसूरे दाणसूरे जुद्धसूरे, खंतिसूरा अरहंता तबसूरा अणगारा दाणसूरे बेसमणे जुसूरे वासुदेवे (सू० ३१७) चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० उबे णाममेगे उच्चच्छंदे उसे णाममेगे णीतच्छंदे णीते णाममेगे उचच्छेदे नीए णाममेगे णीयच्छंदे (सू० ३१८) असुरकुमाराणं चत्तारि लेखातो पं० तं० कण्हलेसा णीललेसा काउलेसा तेडलेसा, एवं जाव थणियकुमाराणं, एवं पुढविकाइयाणं आठवणस्सइकाइयाणं वाणमंतराणं सव्वेसिं जहा असुरकुमाराणं ( सू० ३१९ )
उदितश्चासौ उन्नतकुलबलसमृद्धि निरवद्यकर्म्मभिरभ्युदयवान् उदितश्च परमसुखसंदोहोदयेनेत्युदितोदितो यथा भरतः, उदितोदितत्वं चास्य प्रसिद्धं १, तथा उदितश्चासौ तथैव अस्तमितश्च भास्कर इव सर्वसमृद्धिभ्रष्टत्वात् दुर्गतिगतत्वाबेत्युदितास्तमितो ब्रह्मदत्तचक्रवर्त्तीव, स हि पूर्व्वमुदित उन्नतकुलोत्पन्नत्वादिना स्वभुजोपार्जित साम्राज्यत्वेन च पश्चादस्तमितः अतथाविधकारण कुपितब्राह्मणप्रयुक्त पशुपालधनुर्गोलिकाप्रक्षेपणोपायप्रस्फोटिताक्षिगोलकतया मरणानन्तराप्रतिष्ठानमहानरकमहावेदनाप्राप्ततया चेति २, तथा अस्तमितश्चासौ हीनकुलोत्पत्तिदुर्भगत्व दुर्गतत्वादिना उदितश्च समृद्धिकीर्त्तिसुगतिलाभादिनेति अस्तमितोदितो यथा हरिकेशवलाभिधानोऽनगारः, स हि जन्मान्तरोपात्तनीचैर्गोत्रकर्मवशावाष्ठहरिकेशाभिधानचाण्डाल कुलतया दुर्भगतथा दरिद्रतया च पूर्वमस्तमितादित्य इवानभ्युदयवत्त्वादस्तमित इति, पश्चात्तु प्रतिपन्नप्रत्रज्यो निष्प्रकम्पचरणगुणावर्जितदेव कृतसान्निध्यतया प्राप्तप्रसिद्धितया सुगतिगततया च उदित इति
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४ स्थाना०
उद्देशः ३
उदितोदि
तादिच०
युग्मच-शू
रचतुष्कं
उच्चादिच० लेश्या० सू० ३१५३१९
॥ २३७ ॥
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[३१९]
दीप
अनुक्रम
[ ३४१]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक [३], मूलं [ ३१९]
स्थान [ ४ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
३, तथा अस्तमितश्वासी सूर्य इव दुष्कुलतया दुष्कर्मकारितया च कीर्त्तिसमृद्धिलक्षण तेजोवर्जितत्वादस्तमितश्च दुर्गतिगमनादित्यस्तमितास्तमितः, यथा कालाभिधानः सौकरिकः, स हि सूकरेश्वरति-मृगयां करोतीति यथार्थः सौकरिक एवं दुष्कुलोत्पन्नः प्रतिदिनं महिषपञ्चशतीव्यापादक इति पूर्वमस्तमितः पश्चादपि मृत्वा सप्तमनरकपृथिवीं गत इति अस्तमित एवेति ४, भरहेत्यादि तु उदाहरणसूत्रं भावितार्थमेवेति । ये एवं विचित्रभावैश्चिन्त्यन्ते ते जीवाः सर्व एव चतुर्षु राशिष्ववतरन्तीति तान् दर्शयन्नाह - ' चत्तारि जुम्मेत्यादि, जुम्मत्ति - राशिविशेषः, यो हि राशिचतुष्कापहारेण अपह्रियमाणश्चतुःपर्यवसितो भवति स कृतयुग्म इत्युच्यते यस्तु त्रिपर्यवसितः स ज्योजः द्विपर्यवसितो द्वापरयुग्मः एकपर्यवसितः कल्योज इति, इह गणितपरिभाषायां समराशिर्युग्ममुच्यते विषमस्तु ओज इति, इयञ्च समयस्थितिः, लोके तु कृतयुगादीनि एवमुच्यन्ते - " द्वात्रिंशत्सहस्राणि, कलौ लक्षचतुष्टयम् । वर्षाणां द्वापरादौ स्यादेतद् द्वित्रिचतुर्गुणम् ॥ १ ॥” इति उक्तराशीन्नारकादिषु निरूपयन्नाह - 'नेरइए' स्यादि सुगमं, नवरं नारकादयश्चतुर्द्धाऽपि स्युः, जन्ममरणाभ्यां हीनाधिकत्वसंभवादिति, पुनर्जीवानेव भावैर्निरूपयन्नाह - 'चत्तारि सूरेत्यादि सूत्रद्वयं कण्ठ्यं, किन्तु शूरावीराः, क्षान्तिशूरा अर्हन्तो महावीरवत्, तपःशूरा अनगाराः दृढप्रहारिवत्, दानशूरो वैश्रमण उत्तराशालोकपाल| स्तीर्थकरादिजन्मपारणकादिरत्नवृष्टिपातनादिनेति, उक्तञ्च - "वेसमणवयण संचोइया उ तिरियजंभगा देवा । कोडिग्गसो हिरन्ना रयणाणि य तत्थ उवर्णेति ॥ १ ॥” त्ति, युद्धशूरो वासुदेवः कृष्णवत् तस्य षष्ट्यधिकेषु त्रिषु सङ्ग्रामशतेषु १ वैश्रमणवचनसंचोदितास्तु ते विग्भका देवाः कोशो हिरण्यरनानि च तत्रोपनयन्ति ॥ १ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना-
सूत्र
प्रत
वृत्तिः
सूत्रांक
॥ २३८॥
[३१९]
दीप अनुक्रम [३४१]
CASSASSACAR
लब्धजयत्वादिति, उच्चः पुरुषः शरीरकुलविभवादिभिः तथा उन्नतच्छन्दः-उच्चताभिप्रायः औदार्यादियुक्तत्वात् नीच- स्थाना च्छन्दस्तु-विपरीतो नीचोऽप्युचविपर्ययादिति । अनन्तरमुच्चेतराभिप्राय उक्तः, स च लेश्याविशेषाद् भवतीति लेश्या-II उद्देशः३ सूत्राणि, सुगमानि च, नवरं असुरादीनां चतस्रो लेश्या द्रव्याश्रयेण भावतस्तु षडपि सर्वदेवानां, मनुष्यपधेन्द्रियति-INयानयग्यरश्वां तु द्रव्यतो भावतश्च पडपीति, पृथिव्यवनस्पतीनां हि तेजोलेश्या भवति देवोत्सत्तेरिति तेषा चतन इति । उक्तले-| श्याविशेषेण च विचित्रपरिणामा मानवाः स्युरिति यानादिदृष्टान्तचतुर्भनिकाभिरन्यथा च पुरुषचतुर्भडिका यानसूत्रा-1 भृतिचतु. दिना श्रावकसूत्रावसानेन ग्रन्थेन दर्शयन्नाह
सू० ३२० चत्तारि जाणा पं० त०-जुत्ते णाममेगे जुत्ते जुत्ते णाममेगे अजुचे अजुत्ते णाममेगे जुत्ते अजुत्ते णाममेगे अनुत्ते, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-जुत्ते णाममेगे जुत्ते जुत्ते णाममेगे अजुत्ते ४, चत्तारि जाणा पं० सं०-जुत्ते णाममेगे जुत्तपरिणते जुत्ते णाममेगे अजुत्तपरिणते, एवामेव बचारि पुरिसजाया पं० २०-गुत्ते णाभमेगे जुतपरिणते ४, चत्तारि जाणा पं० २०-जुसे णाममेगे जुत्तरूवे जुत्ते णाममेगे अजुत्तरूवे अजुत्त णाममेगे जुत्तरूवे०४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-जुते णाममेगे जुत्तरूवे ४, बत्तारि जाणा पं० २०-जुत्ते णाममेगे जुत्तसोभे ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० २०-जुत्ते णाममेगे जुत्तसोमे । चत्तारि जुम्गा पं० २०-जुत्ते नाममेग जुत्ते, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं०२०-जुत्ते णाममेगे जुत्ते ४, एवं अधा जाणेण चत्तारि आलावगा तथा जुग्गेणवि, पढिपक्खो तहेच पुरिसजाता जाव सोमेति । चत्तारि सारही पं० सं०-जोयावइचा णाम एगे नो विजोयावदत्ता
AAKARA
॥२३८
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
25
[३२०
विजोयावश्ता नाम एगे नो जोवावइत्ता एगे जोयावइत्चावि विजोयावइचावि एगे नो जोयावइत्ता नो विजोयावइत्ता,
एवामेव चत्तारि हया पं० सं०-जुत्ते णामं एगे जुचे जुत्ते जाममेगे अजुत्ते ४ एषामेव चचारि पुरिसजाया पं. तं०-जुत्ते णाममेगे जुत्ते, एवं जुत्तपरिणते जुत्तरूवे जुत्तसोमे सब्वेसिं पडिवक्खो पुरिसजाता । चत्तारि गया पं० तं०-जुत्ते णाममेगे जुत्ते ४, एवामेव चत्वारि पुरिसजाया पं० त०-जुत्ते णाममेरो जुत्ते ४ एवं जहा हयाण तहा गयाणवि भाणियब्ध, पडिवक्खो सहेब पुरिसजाया। चत्तारि जुग्गारिता पं००-धजाती णाममेगे जो उपहजाती उप्पथजाती णाममेगे णो पंथजाती एगे पंचजातीवि उप्पजातीवि, एगे णो पंथजाती णो उप्पहजाती, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया । चत्तारि पुरफा पं० त०-रूवसंपन्ने नाममेगे जो गंधसंपन्ने गंधसंपन्ने णाममेगे नो रूवसंपन्ने एगे रूवसंपन्नेवि गंधसंपन्नेवि एवं णो रूवसंपन्ने णो गंधसंपन्ने, एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पं० सं०-रूवसंपन्ने गाममेगे णो सीलसंपन्ने ४, चत्तारि पुरिसजाया पं००-जातिसंपन्ने नाममेगे नो कुलसंपन्ने ४,१, चत्तारि पुरिसजाया पं० ०–जातिसंपण्णे नामं एगे णो बलसंपन्ने बलसंपन्ने नाम एगे णो जातिसंपन्ने ४, २, एवं जातीते स्वेण ४ पत्तारि आलावगा ३, एवं जातीते सुएण ४,४, एवं जातीते सीलेण ४, ५, एवं जातीते चरित्तेण ४, ६, एवं फुलण बलेण ४, ७, एवं कुलेण स्वेण ४, ८, कुलेण सुतेण ४, ९, कुलेण सीलेण ४, १०, कुलेण चरित्तेण ४, ११, चत्तारि पुरिसजाता पं० २०-बलसंपण्णे नाममेगे णो रूवसंपन्ने ४, १२, एवं बलेण सुतेण ४, १३, एवं बलेण सीलेण ४,१४, एवं बलेण चरित्तेण ४,१५, पत्तारि पुरिसजाया पं०२०-रूपसंपन्ने नाममेगे णो सुयसंपण्णे ४,
दीप
156452595%
अनुक्रम [३४२]
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थानामसूत्र
प्रत
सूत्रांक
स्थाना० | उद्देशः३ यानयुग्यसारथिमभृतिचतु.
॥३९॥
[३२०
सू०३२०
दीप
१६, एवं रूवेण सीलेण ४, १७, स्वेण चरित्तेण ४, १८, चत्तारि पुरिसजाता पं० सं०-सुयसंपन्ने नाममेगे णो सीलसंपन्ने ४, १९, एवं सुतेण चरित्तेण य ४, २०, चचारि पुरिसजाता पं० सं०-सीलसंपन्ने नाममेगे नो चरितसंपन्ने ४, २१, एते एकवीसं भंगा भाणितब्वा, चत्तारि फला पं० तं०-आमलगमहुरे मुदितामहुरे खीरमहुरे खंडमहुरे, एवामेव पत्तारि आयरिया पं००-आमलगमहुरफलसमाणे जाव खंडमहुरफलसमाणे, चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-आतवेतावच्चकरे नाममेगे नो परवेतावच्चकरे ४, चत्तारि पुरिसजाता पं० सं०-फरेति नाममेगे वेयावश्च णो पडिच्छइ पडिच्छइ नाममेगे वेयावञ्चं नो करेइ ४, चत्तारि पुरिसजाता पं००-अट्ठकरे णाममेगे णो माणकरे माणकरे णाममेगे णो अट्ठकरे एगे अट्ठकरेवि माणकरेवि एगे जो अट्ठकरे जो माणकरे, पत्तारि पुरिसजाता पं००-बाणटुकरे णाममेगे णो माणकरे ४, चत्तारि पुरिसजाता पं० सं०-गणसंग्गहकरे णाममेगे णो माणकरे ४, चत्तारि पुरिसजाया पं० २०माणसोभकरे णाम एगे णो माणकरे ४, चत्तारि पुरिसजाया पं० सं० -माणसोहिकरे जामगेगे नो माणकरे ४, बचारि पुरिसजाया पं० २०-रुवं नाममेगे जहति नो धम्म धर्म नाममेगे जहति नो रूवं एगे रूबंपि जहति धम्मपि जहाति एगे नो रूवं जहति नो धर्म, चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-धम्म नाममेगे जहति नो गणसंठिति ४, चत्वारि पुरिसजाया पं० सं०-पियधम्मे नाममेगे नो वढधम्मे दधम्मे नाममेगे नो पितधम्मे एगे पियधम्मेवि दहधम्मेवि एगे नो पियधम्मे नो दधम्मे, चत्तारि आयरिया पं० सं०-पब्बायणायरिते नाममेगे णो उबट्ठावणायरिते उवट्ठावणायरिए णाममेगे जो पबायणायरिए एगे पब्वाय
ॐ
अनुक्रम [३४२]
॥२३९॥
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३२०
णातरितेवि उवट्ठावणातरितेवि एगे नो पञ्चायणातरिते नो उट्ठावणातरिते धम्मायरिए, चत्तारि आयरिया पं० सं०-उदसणायरिए णाममैगे णो वायणायरिए ४ धम्मायरिए, चत्तारि अंतेवासी पं० तं०-पञ्चायणंतेवासी नाम एगे णो उवट्ठावणंतेवासी ४ धम्मंतेवासी, चत्तारि अंतेवासी पं० सं०-उद्देसणंतेवासी नाम एगे नो वायणंतेवासी १ [बायणंतेवासी] ४ धम्मंतेवासी, चत्तारि निग्गंथा पं० २०-रातिणिये समणे निम्नथे महाकम्मे महाकिरिए अणायावी असमिते धम्मस्स अणाराधते भवति १ राइणिते समणे निग्गंथे अप्पकम्मे अप्पकिरिते भातावी समिए धम्मस्स आराहते भवति २ ओमरातिणिते समणे निग्गंथे महाकम्मे महाकिरिते अणातावी असमिते धम्मस्स अणाराहते भवति ३, ओमरातिणिते समणे निग्गंधे अप्पकम्मे अप्पकिरिते आतावी समिते धम्मस्स आराहते भवति ४, पत्तारि जिग्गंधीओ पं००-रातिणिया समणी निग्गंधी एवं चेव ४, चत्तारि समणोबासगा पं० सं०--रायणिते समणोवासए महाकम्मे सहेब ४, चत्तारि समणोवासियाओ पं० तं०-रायणिता समणोवासिता महाकम्मा तहेब
चनारि गमा (सू० ३२०) 'चत्तारी'त्यादि कण्ठ्यश्चार्य, नवरं यान-शकटादि, तद्युक्तं बलीव दिभिः, पुनर्युक्त-सङ्गतं समग्रसामग्रीक वा पूर्वापरकालापेक्षया वा इत्येक अन्यत् युक्तं तथैवायुक्तं तुक्तविपरीतत्वादिति, एवमितरौ, पुरुषस्तु युक्तो धनादिभिः पुनयुक्त | उचितानुष्ठानैः समियों, पूर्वकाले वा युक्तो धनधर्मानुष्ठानादिभिः पश्चादपि तथैवेति चतुर्भङ्गी, अथवा युक्तो द्रव्यलिनेनर भावलिङ्गेन चेति प्रथमः साधुः, द्रव्यलिङ्गेन नेतरेणेति द्वितीयो निहवादिः, न द्रव्यलिङ्गेन भावलिनेन तु युक्त इति
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[३२०]
दीप
अनुक्रम [३४२]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
स्थान [ ४ ], उद्देशक [३], मूलं [ ३२० ] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थाना
जसूत्रवृत्तिः
॥ २४० ॥
तृतीयः प्रत्येकबुद्धादिः, उभयवियुक्तश्चतुर्थी गृहस्थादिरिति एवं सूत्रान्तराण्यपि, नवरं युक्तं गोभिः युक्तपरिणतं तु अयुक्तं सत्सामय्या युक्ततया परिणतमिति, पुरुषः पूर्ववत्, युक्तरूपं सङ्गतस्वभावं प्रशस्तं वा युक्तं युक्तरूपमिति, पुरुषपक्षे युक्तो धनादिना ज्ञानादिगुणैर्वा युक्तरूपः- उचितवेषः सुविहितनेपथ्यो वेति, तथा युक्तं तथैव युक्तं शोभते युक्तस्य वा शोभा यस्य तद्युक्तशोभमिति, पुरुषस्तु युक्तो गुणैस्तथा युक्ता - उचिता शोभा यस्य स तथेति, युग्यं - वाहनमश्वादि, अथवा गोलविषये जंपानं द्विहस्तप्रमाणं चतुरस्रं सवेदिकमुपशोभितं युग्यकमुच्यते तद्युक्तमारोहणसामग्र्या | पर्याणादिकया पुनर्युक्तं वेगादिभिरित्येवं यानवद् व्याख्येयम्, एतदेवाह एवं जहे' त्यादि, प्रतिपक्षी दान्तिकस्तथैव, कोऽसावित्याह- 'पुरिसजाय'त्ति पुरुषजातानीत्येवं परिणतरूपशोभ सूत्र चतुर्भङ्गिकाः सप्रतिपक्षा वाच्याः, यावच्छोभसूत्रचतुर्भङ्गी यथा अजुत्ते नामं एगे अजुत्तसोभे, एतदेवाह - 'जाव सोमे'त्ति, सारथिः - शाकटिकः, योजयिता | शकटे गवादीनां न वियोजयिता- मोका, अन्यस्तु वियोजिता न तु योजयितेति, एवं शेषावपि, नवरं चतुर्थः खेटयत्येवेति, अथवा योक्रयन्तं प्रयुङ्क्ते यः स योक्रापयिता वियोक्रयतः प्रयोक्ता तु वियोक्रापयितेति, लोकोत्तरपुरुषविवक्षायां तु सारथिरिव सारथियोंजयिता-संयमयोगेषु साधूनां प्रवर्त्तयिता, वियोजयिता तु तेषामेवानुचितानां निवर्त्तयितेति, यानसूत्रवत् हयगजसूत्राणीति, 'जुग्गारिय'त्ति युग्यस्य चर्या वहनं गमनमित्यर्थः, कचित्तु 'जुग्गायरिय'त्ति पाठः, तत्रापि युग्या चर्येति, पृथयायि एक युग्यं भवति नोत्यधयायीत्यादिश्चतुर्भङ्गी, इह च युग्यस्य चर्याद्वारेणैव निर्देशे चतुर्विधत्वेनोतत्वात् तच्चर्याया एवोद्देशेनोक्तं चातुर्विध्यमव सेयमिति, भावयुग्यपक्षे तु युभ्यमिव युग्यं-संयमयोगभरवोढा साधुः, स
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४ स्थाना०
उद्देशः श्
बानयुग्यसारधिप्र
भृतिचतु०
सू० ३२०
॥ २४० ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
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च पधियाय्यप्रमत्त उत्पथयायी लिहावशेषः उभययायी प्रमत्तः चतुर्थः सिद्धा, क्रमेण सदसदुभयानुभयानुष्ठानरूपत्वात्, अथवा पथ्युत्पथयोः स्वपरसमयरूपत्वाद् यायित्वस्य च गत्यर्थत्वेन बोधपर्यायत्वात् स्वसमयपरसमयबोधापेक्षयेयं चतुभङ्गी नेयेति, एकं पुष्पं रूपसम्पन्नं न गन्धसम्पन्नमाकुलीपुष्पवत् द्वितीयश्च बकुलस्येव तृतीयं जातेरिव चतुर्थ बदर्यादेरिवेति, पुरुषो रूपसम्पन्नो-रूपवान् सुविहितरूपयुक्तो वेति ७ जाति ६ कुल ५ बल ४ रूप ३ श्रुत २ शील १ चारित्रलक्षणेषु सप्तसु पदेषु एकविंशती द्विकसंयोगेषु एकविंशतिरेव चतुर्भङ्गिकाः कार्याः सुगमाश्चेति, आमलकमिव मधुरं यदन्यत् आमलकमेव वा मधुरमामलकमधुरं 'मुद्दिय'त्ति मृद्वीका-द्राक्षा तद्वत्सैव वा मधुरै मृद्धीकामधुरं क्षीरवत् खण्डवच मधुरमिति विग्रहः, यथैतानि क्रमेणेषद्बहुबहुतरबहुतममाधुर्यवन्ति तथा ये आचार्या ईपद्वहुबहुतरबहुतमोपशमादिगुणलक्षणमाधुर्यवन्तस्ते तत्समानतया व्यपदिश्यन्त इति, आत्मवैयावृत्त्यकरोऽलसो विसम्भोगिको वा परवैयावृत्यकरः स्वार्थनिरपेक्षः स्वपरवैयावृत्त्यकरः स्थविरकल्पिकः कोऽपि उभयनिवृत्तोऽनशनविशेषप्रतिपन्नकादिरिति, करोत्येवैको वैयावृत्त्य निःस्पृहत्वात् १ प्रतीच्छत्येवान्य आचार्यत्वग्लानत्वादिना २ अन्यः करोति प्रतीच्छति च स्थविरविशेषः ३
उभयनिवृत्तस्तु जिनकल्पिकादिरिति ४, 'अट्ठकरे'त्ति अर्थान्-हिताहितप्राप्तिपरिहारादीन् राजादीनां दिग्यात्रादौ है तथोपदेशतः करोतीत्यर्थकर:-मन्त्री नैमित्तिको बा, स चार्थकरो नामैको न मानकरः, कथममनभ्यर्थितः कथयिष्या-10 मीत्यवलेपवर्जितः, एवमितरे प्रया, अत्र च व्यवहारभाष्यगाथा-"पुट्टोपुट्ठो पढमो जत्ताइ हियाहियं परिकहेइ । तइओ
१ पृष्टोऽपृश्ये वा प्रथमो यात्रायां हिवाहित परिकथयति तृतीयः
दीप
अनुक्रम [३४२]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना- असूत्र
प्रत
वृत्तिः
सूत्रांक
॥२४१॥
[३२०
दीप
पुट्ठो सेसा उणिष्फला एव. गच्छेवि ॥१॥” इति, गणस्य-साधुसमुदायस्यार्थान्-प्रयोजनानि करोतीति गणार्थकर:-12 स्थाना. आहारादिभिरुपष्टम्भकः, न च मानकरोऽभ्यर्थेनानपेक्षत्वात् , एवं त्रयोऽन्ये, उक्कं च-"आहारविहिसयणाइएहिउद्देशः३ गच्छस्सुबग्गहं कुणइ । बीओ न जाइ माणं दोनिवि तइओ न उ चउत्थो ॥१॥" इति, अथवा 'नो माणकरो'त्ति | यानयुग्यगच्छार्थकरोऽहमिति न माद्यतीति । अनन्तरं गणस्यार्थ उक्तः, स च सनहोऽत आह-गणसंगहकरे'त्ति गणस्याहारादिना ज्ञानादिना च सञ्चहं करोतीति गणसङ्ग्रहकरः, शेषं तथैव, उक्कं च-"सो' पुण गच्छस्सऽट्टो उ संगहो तत्थ संगहो दुविहो। दवे भावे नियमाउ होंति आहारणाणादी ॥१॥" आहारोपधिशय्याज्ञानादीनीत्यर्थः, न माद्यति, गणस्यानवद्यसाधुसामाचारीप्रवर्त्तनेन वादिधर्मकथिनैमित्तिकविद्यासिद्धत्वादिना वा शोभाकरणशीलो गणशोभाकरो, नो मानकरोऽभ्यर्थनाऽनपेक्षितया मदाभावेन वा, गणस्य यथायोग प्रायश्चित्तदानादिना शोधि-शुद्धिं करोतीति गणशोधिकरः, अथवा शङ्किते भक्तादौ सति गृहिकुले गत्वाऽनभ्यर्थितो भक्तशुद्धिं करोति यः स प्रथमः, यस्तु मानान्न गच्छति स द्वितीयः, यस्त्वभ्यर्थितो गच्छति स तृतीयः, यस्तु नाभ्यर्थनापेक्षी नापि तत्र गन्ता स चतुर्थ इति, रूपं साधुनेपर्य जहाति-त्यजति कारणवशात् न धर्म-चारिवलक्षणं बोटिकमध्यस्थितमुनिवत्, अन्यस्तु धर्म न रूपं निलववत्, उभयमपि उन्मत्रजितवत्, नोभयं सुसाधुवत्, धर्मं त्यजत्येको जिनाज्ञारूपं न गणसंस्थिति-स्वगच्छकृतां मयोंदा, इह |
१पृष्टः दोषी तु निकली एवं गच्छेऽपि ॥१॥२ आहारोपधिशयनादिकैर्गच्छस्योपपई करोति द्वितीयो न मानं याति तृतीयो द्वावपि न तु चतुर्य । इति ॥1॥ ३ स गच्छस्पार्थः पुनः संग्रहस्तु तत्र संग्रहो द्विविधः द्रव्ये भावे नियमाद् भवन्ति आहारादयो ज्ञानादयश्च ॥ १॥
अनुक्रम [३४२]
॥२४१॥
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३२०
कैश्विदाचार्यैः तीर्थकरानुपदेशेन संस्थितिः कृता यथा-नास्माभिर्महाकल्पाद्यतिशयश्रुतमन्यगणसत्काय देयमिति, एवं Pाच योऽन्यगणसत्काय न तद्ददाविति स धम्मै त्यजति न गणस्थिति, जिनाज्ञाननुपालनात्, तीर्थकरोपदेशो ह्येव-सर्वेभ्यो
योग्येभ्यः श्रुतं दातव्यमिति प्रधमो, यस्तु ददाति स द्वितीयः, यस्त्वयोग्येश्यः तद्ददाति स तृतीयः, यस्तु श्रुताव्यव-IX
च्छेदार्थ तदव्यवच्छेदसमर्थस्य परशिष्यस्य स्वकीयदिग्बन्धं कृत्वा श्रुतं ददाति तेन न धर्मो नापि गणसंस्थितिस्त्यति मस चतुर्ध इति, उक्तं च-"सयमेव दिसाबंधं काउण पडिच्छगस्स जो देइ । उभयमवलंबमाणं कामं तु तयंपि पूएमो
॥१॥"त्ति, प्रियो धर्मों यस्य तत्र प्रीतिभावेन सुखेन च प्रतिपत्तेः स प्रियधर्मा न च रढो धर्मों वस्य, आपद्यपि | तत्परिणामाविचलनात्, अक्षोभत्वादित्यर्थः स दृढधम्र्मेति, उक्तं च-"देसविहवेयावच्चे अन्नतरे खिप्पमुजम कुणति ।। अच्चतमणेब्वाणि धिइविरियकिसो पढमभंगो॥१॥" अन्यस्तु दृढधर्मा अङ्गीकृतापरित्यागात् न तु प्रियधर्मा क-| प्टेन धर्मप्रतिपत्तेः, इतरौ सुज्ञानी, उक्तं च-"दुक्खेण उगाहिज्जइ बीओ गहियं तु नेइ जा तीरं। उभयं तो कल्लाणो तइओ चरिमो उ पडिकुट्टो ॥१॥" इति, आचार्यसूत्रचतुर्थभने यो न प्रत्राजनया न चोत्थापनयाचार्यः स क इत्याह |-धर्माचार्य इति, प्रतिबोधक इत्यर्थः, आह च-"धम्मो जेणुवइट्टो सो धम्मगुरू गिही व समणो वा । कोवि तिहिं |
खबमेव दिग्बंध कृत्वा प्रतीकाय यो ददाति (श्रुतं ) तमप्युभयगवलंबयंतं प्रकामं पूजयामः॥१॥ ३ दशभियावस्येपन्यतरस्मिन् क्षिप्रमुखम &करोति अत्यन्तमविश्रान्त प्रतिवीय कृशः प्रथमभंगः ॥ १॥ ३ दुःलेनोशावते द्वितीयो गृहीतं तु नयति पार तृतीय उभयमतः कल्याणधरमस्तु प्रति कुष्टः ॥१॥ P४ येन धर्म उपदिष्टः स धर्मगुरुः गृही धमणो वा कोऽपि त्रिभिः.
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अनुक्रम [३४२]
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३२०
दीप
श्रीस्थाना
संपउत्तो दोहिवि एकेकगेणेव ॥१॥" इति, त्रिभिरिति-प्रजाजनोत्थापनाधर्माचार्यत्वैरिति, उद्देशनम्-अङ्गादेः पठ- ४ स्थाना. सूत्र
नेऽधिकारित्वकरणं तत्र तेन वाऽऽचार्यों-गुरुः उद्देशनाचार्यः, उभयशून्यः को भवतीत्याह-धर्माचार्य इति, अन्ते- उद्देशः ३ वृत्तिः
गुरोः समीपे वस्तु शीलमस्यान्तेवासी-शिष्यः प्रजाजनया-दीक्षया अन्तेवासी प्रव्राजनान्तेवासी दीक्षित इत्यर्थः, उप-| यानयुग्य
स्थापनान्तेवासी महावतारोपणतः शिष्य इति, चतुर्थभनकस्थः क इत्याह-धर्मान्तेवासी धर्मप्रतिबोधनतः शिष्यः सारथिन॥२४२॥ धार्थितयोपसम्पन्नो वेत्यर्थः, यो नोद्देशनान्तेवासी न वाचनान्तेवासीति चतुर्थः, स क इत्याह-धर्मान्तेवासीति, भृतिचतु०
निर्गता बाह्याभ्यन्तरग्रन्धान्निर्ग्रन्थाः-साधवो, रत्नानि भावतो ज्ञानादीनि तैर्व्यवहरतीति रालिका पर्यायज्येष्ठ इत्यर्थः सू० ३२०
श्रमणो-निर्ग्रन्थो महान्ति-गुरूणि स्थित्यादिभिस्तथाविधप्रमादाद्यभिव्यजयानि कर्माणि यस्य स महाका, महती मातापि181 क्रिया-कायिक्यादिका कर्मबन्धहेतुर्यस्य स महाक्रियः, न आतापयति-आतापनां शीतादिसहनरूपां करोतीत्यनातापी शादिसमाः
मन्दश्रद्धत्वादिति, अत एवासमितः समितिभिः, स चैवंभूतो धर्मस्यानाराधको भवतीत्येका, अन्यस्तु पर्यायज्येष्ठ एवा- |श्रावकाः ल्पका-लघुकर्मा अल्पक्रिय इति द्वितीयः, अन्यस्तु अबमो-लघुः पर्यायेण रालिको अवमरालिकः, एवं निर्गन्धिकाश्र- सू० ३२१ मणोपासकश्रमणोपासिकासूत्राणि 'चत्तारि गम'त्ति त्रिष्वपि सूत्रेषु चत्वार आलापका भवन्तीति ॥
चत्तारि समणोवासमा ५० त०-अम्मापितिसमाणे भातिसमाणे मित्तसमाणे सवत्तिसमाणे, पत्तारि समणोबासगा पं० २०-अदागसमाणे पडागसमाणे खाणुसमाणे खरकटयसमाणे ४ (सू० ३२१) समणस्स णं भगवतो महावीरस्स
॥२४२॥ 1 संयुक्तः द्वाभ्यामेकैकेन वा (प्रमाजकादयः)॥१॥
अनुक्रम [३४२]
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आगम
(०३)
प्रत
सूचांक
[३२२]
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अनुक्रम
[३४४]
[भाग-5] "स्थान" अंगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [ ४ ], उद्देशक [3]. मूलं [ ३२२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
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समणोवासगाणं सोधम्मकप्पे अरुणाभे विमाणे चत्तारि पलिओोबमाई ठिती पन्नत्ता (सू० ३२२) चउहिं ठाणेहिं अटुगोववत्रे देवे देवलोगेस इच्छेला माणुसं लोगं इव्वमागच्छित्तते णो चैव णं संचातेति रुवमागच्छित्तते, तं०-अडगोवव देवे देवलोगे दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्धे गढिते अझोपवने से णं माणुस्सर कामभोगे नो मढाइ नो परियाणाति णो अठ्ठे बंधइ णो निताणं पगरेति णो ठितिपगप्पं पगरेति १, अदुणोववले देवे देवलोगे दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते ३ तरस णं माणुस्सते पेमे वोच्छिने दिव्वे संकंते भवति २, अरुणोववन्ने देवे देवलोपसु दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते ४ तस्स णं एवं भवति इदि गच्छं मुहुत्तेणं गच्छं तेणं कालेणमप्पाडया मणुस्सा कालधम्मुणा संजुत्ता भवंति ३, अहुणोववत्रे देवे देवलोपसु दिव्वे कामभोगेसु मुच्छिते ४ तस्स माणुस्सर गंधे पढिकूले पडिलोमे तावि भवति, उपिय णं माणुस्सए गंधे जाब चत्तारि पंच जोयणसताई इन्वमागच्छति ४, इथेतेहिं चाहें ठाणेहिं अणोववण्णे देवे देवलोपसु इच्छेना माणुसं लोगं हवमागच्छित्तए जो चैव णं संचातेति हम्बमागच्छित्तए । चि ठाणेहिं अगोवद देवे देवलोएस इच्छेला माणुसं लोगं हव्यभागच्छित्तते संचाएइ हव्वमागच्छित्तए तं० -- अहुणोव
देवे देवोगे दिव्वे कामभोगेसु अमुच्छिते जाव अणज्झोववने, तस्स णं एवं भवति - अस्थि खलु मम माणुस्सए भवे आयरितेति वा उवज्झाएति वा पवतीति वा थेरेति वा गणीति वा गणधरेति वा गणावच्छेएति वा जेसिं पभावेणं मए इमा एताख्वा दिव्या देवडी दिव्वा देवजुची लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया, तं गच्छामि णं ते भगवंते वंदामि जाव प वासामि १, अणोववने देवे देवलोएस जाव अणच्झोववन्ने तस्स णमेवं भवति - एस णं माणुस्सए भवे णाणीति
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः
सूत्रांक [३२३]
॥२४३॥
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दीप
वा तवस्मीति वा अइदुकर कारते, तं गच्छामि णं ते भगवंते बंदामि जाव पञ्जवासामि २, अतुणोववन्ने देथे देवलो- ला४ स्थाना एसु जाव अणज्झोववन्ने तस्स णमेवं भवति-अस्थि णं मम माणुस्सए भवे माताति वा जाव सुण्हाति बा, तं गच्छा
उद्देशः ३ मिणं तेसिमंतितं पाउम्भवामि पासंतु ता मे इममेतारूवं दिव्वं देबिडिंदिव्वं देवजुर्ति लद्धं पतं अमिसमन्नागतं ३, वीरश्रावअहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु जाव अणझोववन्ने तस्स णमेवं भवति-अत्थि णं मम माणुस्सए भवे मिति वा, सहीति कदेवत्वं वा सुहीति वा सहाएति वा संगएति वा, तेसिं च णं अम्हे अन्नमनस्त संगारे पडिसुते भवति, जो मे पुचि चयति से भासू०३२२ संबोहेतव्वे, इचेतेहिं जाव संचातेति हब्वमागच्छित्तते ४ । (सू० ३२३)
देवागमा'अम्मापिइसमाणे मातापितृसमानः, उपचारं विना साधुषु एकान्तेनैव वत्सलत्वात् , भ्रातृसमानः अल्पतरप्रेम- नागमकात्वात् तत्त्वविचारादौ निष्ठुरवचनादप्रीतेः तथाविधप्रयोजने त्वत्यन्तवत्सलत्वाच्चेति, मित्रसमानः सोपचारवचनादिना प्रीतिक्षतेर, तत्क्षतौ चापद्यप्युपेक्षकत्वादिति । समानः-साधारणः पतिरस्याः सपत्नी, यथा सा सपक्या ईर्ष्यावशा- सू० ३२३ दपराधान् वीक्षते एवं यः साधुषु दूषणदर्शनतत्परोऽनुपकारी च स सपलीसमानोऽभिधीयत इति, 'अदाग'त्ति आ-k दर्शसमानो यो हि साधुभिः प्रज्ञाप्यमानानुत्सर्गापवादादीनागमिकान् भावान् यथावत्प्रतिपद्यते सनिहितार्थानादर्शक-| वत् स आदर्शसमानः, यस्यानवस्थितो बोधो विचित्रदेशनावायुना सर्वतोऽपहियमाणत्वात् पताकेव स पताकासमान इति, यस्तु कुतोऽपि कदाग्रहान्न गीतार्थदेशनया चाल्यते सोऽनमनस्वभावबोधत्वेनाप्रज्ञापनीयः स्थाणुसमान इति,IKI | यस्तु प्रज्ञाप्यमानो न केवलं स्वाग्रहान्न चलति अपि तु प्रज्ञापक दुर्वचनकण्टकैविध्यति स खरकण्टकसमानः, खरा
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श्रावकस्य चतुर्विध स्वरूपं
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३२३]
निरन्तरा निधुरा वा कण्टा:-कण्टका यस्मिंस्तत् खरकण्ट-बुब्बूलादिडालं खरणमिति लोके यदुच्यते तच बिलग्नं चीवरं न केवलमविनाशितं न मुथत्यपि तु तद्विमोचकं पुरुषादिकं हस्तादिषु कण्टकैः विध्यतीति, अथवा खरण्टयति-लेपवन्त । करोति यत् तत्खरण्टम्-अशुच्यादि तत्समानो, यो हि कुवोधापनयनप्रवृत्तं संसर्गमात्रादेव दूषणवन्तं करोति, कुबोध-12 कुशीलतादुष्प्रसिद्धिजनकत्वेनोत्सूत्रप्ररूपकोऽयमित्यसद्दषणोद्भावकत्वेन वेति । श्रमणोपासकाधिकारादिदमाह-स-1
मणस्से'त्यादि कण्ठ्यं, नवरं, श्रमणोपासकानामानन्दादीनामुपासकदशाभिहितानामिति । देवाधिकारादेवेदमाहभा'चउही त्यादि, त्रिस्थानके तृतीयोद्देशके प्रायो व्याख्यातमेवेदं, तथापि किञ्चिदुच्यते, चउहि ठाणेहि नो संचाएइत्ति ४ा सम्बन्धः, तथा देवलोकेषु देवमध्ये इत्यर्थः, हव्व-शीघं, संचाएइत्ति-शक्नोति, कामभोगेषु-मनोज्ञशब्दादिषु मूञ्छित & इव मूच्छितो-मूढस्तत्स्वरूपस्यानित्यत्वादेविबोधाक्षमत्वात् गृद्धः-तदाकासावान् अतृप्त इत्यर्थः ग्रधित एवं प्रथितस्त-14 द्विषयोहरज्जुभिस्संदर्भित इत्यर्थः, अध्युपपन्नः अत्यन्तं तन्मना इत्यर्थः, नाद्रियते-न तेष्वादरवान् भवति, न परि-1 जानाति-एतेऽपि वस्तुभूता इत्येवं न मन्यते, तथा तेष्विति गम्यते नो अर्थ बनाति-एतैरिदं प्रयोजनमिति निश्चयं ४ करोति, तथा नो तेषु निदानं प्रकरोति-एते मे भूयासुरित्येवमिति, तथा नो तेषु स्थितिप्रकल्पम्-अवस्थानविकल्पनमेतेष्वहं तिष्ठामि एते वा मम तिष्ठन्तु-स्थिरा भवन्वित्येवंरूपं स्थित्या वा-मर्यादया प्रकृष्टः कल्पः-आचारः स्थितिप्रक-13
ल्पस्तं प्रकरोति-कर्जुमारभते, प्रशब्दस्यादिकर्मार्थत्वादिति, एवं दिव्यविषयप्रसक्तिरेकं कारणं, तथा यतोऽसावधुनोत्पन्नो IMIदेवः कामेषु मूच्छितादिविशेषणोऽतस्तस्य मानुष्यकमित्यादि इति दिव्यप्रेमसङ्कान्तिः द्वितीय, तथाऽसौ देवो यतो भो-|
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अनुक्रम [३४५]
श्रावकस्य चतुर्विध स्वरूप
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आगम
(०३)
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सूत्रांक
[३२३]
दीप
अनुक्रम [३४५]
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
उद्देशक [३], मूलं [ ३२३]
स्थान [ ४ ], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थानाज्ञसूत्रवृत्तिः
॥ २४४ ॥
गेषु मूच्छितादिविशेषणो भवति ततस्तत्प्रतिबन्धात् 'तस्स णमित्यादि इति देवकार्यायत्ततया मनुष्य कार्यानायत्तत्वं तृतीयम्, तथा दिव्यभोगमूर्च्छितादिविशेषणात्तस्य मनुष्याणामयं मानुष्यः स एव मानुष्यको गन्धः प्रतिकूलो- दिव्यगन्धविपरीतवृत्तिः प्रतिलोमश्चापि इन्द्रियमनसोरनाहादकत्वाद्, एकार्थी वैती अत्यन्तामनोज्ञताप्रतिपादनायोक्ताविति, यावदिति परिमाणार्थः, 'चत्तारि पंचेति विकल्पदर्शनार्थे कदाचित् भरतादिष्वेकान्तसुषमादौ चत्वार्येवान्यदा तु पञ्चापि, मनुष्यपश्चेन्द्रियतिरश्चां बहुत्वेनौदारिकशरीराणां तदवयवतन्मलानां च बहुत्वेन दुरभिगन्धप्राचुर्यादिति, आगच्छति मनुध्यक्षेत्रादाजिगमिषुं देवं प्रतीति इदं च मनुष्यक्षेत्रस्याशुभ स्वरूपत्वमेवोकं, न च देवोऽन्यो वा नवभ्यो योजनेभ्यः परतः आगतं गन्धं जानातीति, अथवा अत एव वचनात् यदिन्द्रियविषयप्रमाणमुक्कं तदौदारिकशरीरेन्द्रियापेक्षयैव सम्भाव्यते, कथमन्यथा विमानेषु योजनलक्षादिप्रमाणेषु दूरस्थिता देवा घण्टाशब्दं शृणुयुर्यदि परं प्रतिशब्दद्वारेणान्यथा | वेति नरभवाशुभत्वं चतुर्थमनागमनकारणमिति, शेषं निगमनम् आगमनकारणानि प्रायः प्राग्वत् तथापि किञ्चिदुच्यते, कामभोगेष्वमूच्छितादिविशेषणो यो देवस्तस्य 'एव'मिति एवंभूतं मनो भवति यदुत अस्ति मे, किन्तदित्याह - आचार्य इति वा आचार्य एतद्वास्ति इतिः - उपप्रदर्शने वा विकल्प एवमुत्तरत्रापि क्वचिदितिशब्दो न दृश्यते तत्र तु सूत्रं सुगममेवेति, इह च आचार्यः- प्रतिबोधकप्रब्राजकादिरनुयोगाचार्यो वा उपाध्यायः- सूत्रदाता प्रवर्त्तयति साधूनाचार्योपदिष्टेषु वैयावृत्त्यादिष्विति प्रवर्त्ती, प्रवर्त्तिव्यापारितान् साधून संयमयोगेषु सीदतः स्थिरीकरोति स्थविरो, गणोऽस्यास्तीति गणी - गणाचार्यः गणधरो - जिनशिष्यविशेषः आर्थिकाप्रतिजागरको वा साधुविशेषः समयप्रसिद्धः, गणस्या
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४ स्थाना०
उद्देशः ३
देवागमा
नागमका
रणानि
सू० ३२३
॥ २४४ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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सूत्रांक
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18वच्छेदो-देशोऽस्यास्तीति गणावच्छेदका, यो हितं गृहीत्वा गच्छावष्टम्भायैवोपधिमार्गणादिनिमित्त विहरत, 'इम'त्ति
इयं प्रत्यक्षासन्ना, एतदेव रूपं यस्या न कालान्तरादावपि रूपान्तरभाक् सा तथा, दिव्या-स्वर्गसम्भवा प्रधाना वाटू देवद्धिः-विमानरलादिका द्युतिः शरीरादिसम्भवा युतिर्वा-युक्तिरिष्टपरिवारादिसंयोगलक्षणा लब्धा-उपार्जिता जन्मान्तरे
प्राप्ता-इदानीमुपनता अभिसमन्वागता-भोग्यावस्थां गता, तंति तस्मात्तान् भगवतः पूज्यान वन्दे स्तुतिभिः, नम-15 द स्यामि प्रणामेन सत्करोमि आदरकरणेन वस्खादिना वा सन्मानयाम्युचितप्रतिपत्त्या कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यमिति
बुद्ध्या पर्युपासे-सेवामीत्येकम् , तथा ज्ञानी श्रुतज्ञानादिनेत्यादि द्वितीय, तथा 'भाया इ वा भजा इ वा भइणी इ वा | पुत्ता इ वा धूया इ वेति यावच्छब्दाक्षेपः, स्नुषा-पुत्रभार्या 'त' तस्मात्तेषामन्तिक-समीपं प्रादुर्भवामि-प्रकटीभवामि
'ता' तावत् 'में मम 'इमे' इति पाठान्तर इति तृतीय, तथा मित्रं-पश्चात्स्नेहवत् सखा-बालवयस्यः सुहृत्-सज्जनो हितैषी सहायः-सहचरस्तदेककार्यप्रवृत्तो वा सङ्गतं विद्यते यस्यासौ साङ्गतिका-परिचितस्तेषां, 'अम्हे'त्ति अस्माभिः 'अन्नमन्नस्सत्ति अन्योऽन्यं 'संगारे'त्ति सङ्केतः प्रतिश्रुतः-अभ्युपगतो भवति स्मेति, जे मो(मे)त्ति योऽस्माकं पूर्व च्यवते देवलोकात् स सम्बोधयितव्य इति चतुर्थ, इदश्च मनुष्यभवे कृतसङ्केतयोरेकस्य पूर्वलक्षादिजीविषु भवनपत्यादि-1 त्पद्य च्युत्वा च नरतयोत्पन्नस्यान्यः पूर्वलक्षादि जीवित्वा सौधर्मादिषूत्पद्य सम्बोधनार्थ यदेहागच्छति तदाऽबसेयमिति, इत्येतैरित्यादि निगमनमिति । अनन्तरं देवागम उक्तस्तत्र तत्कृतोद्योतो भवतीति तद्विपक्षमन्धकारं लोके आह
चहि ठाणेहिं लोगंधगारे सिया, ०-अरहतेहिं वोच्छिज्जमाणेहिं अरहंतपन्नते धम्मे वोच्छिज्जमाणे पुन्वगवे वोच्छि
दीप
अनुक्रम [३४५]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना
सूत्रवृत्तिः
***
प्रत
सूत्रांक
॥२४५॥
[३२४]
दीप
४ स्थाना जमाणे जायतेते वोच्छिजमाणे, चहि ठाणेहिं लोउज्जोते सिता, तं०-अरहंतेहिं जायमाणेहिं अरहतेहि पब्बतमाणेहि
उद्देशः३ अरहताणं गाणुणयमहिमासु अरहताणं परिनिव्वाणमहिमासु ४, एवं देवंधगारे देखुजोते देवसन्निवाते देखुकलिताते
लोकान्धदेवकहकहते, चलहिं ठाणेहिं देविंदा माणुस्सं लोग हल्वमागच्छंति एवं जहा तिठाणे जाव लोगंतिता देवा माणुस्स
कारादिः लोग हथ्वमागच्छेजा, तं०-अरहंतेहिं जायमाणेहिं जाव अरिहंताणं परिनिन्वाणमहिमासु (सू० ३२४)
सू० ३२४ 'चउही'त्यादि व्यक्तं, किन्तु लोकेऽन्धकार-तमिस्र द्रव्यतो भावतश्च यत्र यद् स्यात्, सम्भाव्यते ह्यहंदादिव्यवच्छेदे | द्रव्यतोऽन्धकार, उत्सातरूपत्वात् तस्य, छत्रभङ्गादौ रजउद्घातादिवदिति, वहिव्यवच्छेदेऽन्धकारं द्रव्यत एव, तधास्वभावात् दीपादेरभावाद्वा, भावतोऽपि वा, एकान्तदुष्पमादावागमादेरभावादिति । पूर्व देवागम उक्तः, अतो| देवाधिकारवन्तमादुःखशय्यासूत्रात् सूत्रप्रपश्चमाह-'चउहीं'त्यादि, सुगमश्चार्य, नवरं लोकोद्योतचतुर्वपि स्थानेषु देवागमात् , जन्मादित्रये तु स्वरूपेणापि, एवमिति यथा लोकान्धकार तथा देवान्धकारमपि चतुर्भिः स्थानैः, देवस्थानेप्वपि यहंदादिव्यवच्छेदकाले वस्तुमाहात्म्यात् क्षणमन्धकारं भवतीति, एवं देवोधोतोऽहतां जन्मादिष्विति, देवसशिपातोः-देवसमवाय एवमेव देवोत्कलिका-देवलहरिः, एवमेव देवकहकहेत्ति-देवप्रमोदकलकलः, एवमेव देवेन्द्रा मनुष्यलोकमागच्छेयुः अर्हता जन्मादिप्वेवेति यथा त्रिस्थानके प्रथमोद्देशके तथा देवेन्द्रागमनादीनि लोकान्तिकसूत्रा-ग वसानानि वाच्यानि, केवलमिह परिनिर्वाणमहिमास्विति चतुर्थमिति । पूर्वमहतां जन्मादिव्यतिकरेण देवागम उक्तः ॥२४५॥ अधुना अर्हतामेव प्रवचनार्थे दुःस्थितस्य साधोः दुःखशय्या इतरस्येतरा भवन्तीति सूत्रद्वयेनाह
अनुक्रम [३४६]
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [३२५]
चत्तारि दुसेजामो पं००-तत्थ खलुइमा पढमा दुहसेजा तं०-से णं मुंढे भवित्ता अगारातो अणगारियं प. ग्दतिते निगंथे पावणे संकिते कंखिते वितिगिच्छिते भेयसमावन्ने कलुससमावन्ने निग्गंथं पावयणं णो सदहति णो पत्तियति णो रोएइ, मिगंध पावयणं असदहमाणे अपतितमाणे अरोएमाणे मणं उच्चावतं नियच्छति विणिघातमावअति पढमा दुहसेज्जा १, अहावरा दोचा दुहसेज्जा से णं मुंडे भवित्ता अगारातो जाच पन्चतिते सएणं लाभेणं णो तुस्सति परस्स लाभमासाएति पीहेति पत्थेति अभिलसति परस्स लाभमासाएमाणे जाव अभिलसमाणे मणं उच्चापयं निवच्छ विणिघातमावजति दोचा दुहसेजा २, अहावरा तच्चा दुहसेजा-से णं मुंडे भवित्ता जाव पब्बइए दिम्बे माणुस्सए कामभोगे आसाएइ जाव अभिलसति दिव्वमाणुस्सए कामभोगे आसाएमाणे जाव अभिलसमाणे मणं उपावयं नियति विणिघातमावनति तथा दुहसेना ३, अहावरा चउत्था दुहसेज्जा-से णे मुंडे जाव पञ्चइए तस्स णमेवं भवति जया णं अहमगारवासमावसामि तदा णमहं संवाहणपरिमइणगातम्भंगगातुच्छोलणाई लभामि जप्पमिई च ण आई मुंडे जाव पन्चतिते तप्पमिइं च णं अहं संवाहण जाव गातुच्छोलणाई णो लभामि, से गं संवाहण जाव गातुच्छोलणाई आसाएति जाव अमिलसति से णं संचाइण जाव गातुच्छोलणाई आसाएमाणे जाव मणं उच्चावतं नियच्छति विणिधायमावज्जति चउत्था दुहसेजा ४ । चत्तारि सुहसेजाओ पं० २०–तत्व खलु इमा पढमा सुहसेजा, से णं मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारियं पवतिए निगंथे पावयणे निस्संकिते णिखिते निबितिगिच्छिए नो भेदसमा
दीप अनुक्रम [३४७]
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना
सूत्रवृत्तिः
प्रत सूत्रांक [३२५]
॥२४६॥
वने नो कलुससमावन्ने निर्णय पावयणं सरहद पत्तीयइ रोतेति निर्गवं पावयणं सरहमाणे पत्तितमाणे रोएमाणे नो मणं उच्चावतं नियच्छति णो विणिपातमावजति पढ़मा सुहसेना १, अहावरा दोचा सुहसेना, से गं मुंडे जाव पन्यतिते सतेणं डामेणं तुस्सति परस्स लाभ णो आसाएति णो पीहेति णो पत्येइ णो अभिलसति परस्स लाभमणासाएमाणे जाव अणमिलसमाणे नो मर्ण उच्चावतं णियच्छति णो विणिघातमावज्जति, दोचा सुहसेज्जा २, अहावरा तथा सुहसेज्जा-से ण मुंडे जाब पम्बाए दिल्बमाणुस्सए कामभोगे णो आसाएति जाच नो अभिलसति विश्वमाणुस्सए कामभोगे अणासाएमाणे जाव अणमिलसमाणे नो मणं उच्चावतं नियच्छति णो विणिधातमावजति तथा मुहसेजा ३, अहावरा चजत्था सुहसेज्जा-से णं मुंडे आव पन्चतिते तस्स णं एवं भवति-जइ साव भरहंता भगवंतो हट्ठा आरोग्गा बलिया कलसरीरा अन्नवराई ओरालाई कलाणाई विउलाई पयताई पग्गहिताई महाणुभागाई कम्मक्खयकारणाई सवोकम्माई पडिवजति किमंग पुण अई अम्भोवगमिओवकामियं वेवणं नो सम्मं सहामि खमामि तितिक्खेमि अहियासेमि ममं चणं अभोवगमिमीवधामिवं सम्ममसहमाणस्स अक्सममाणस्स अतितिक्खमाणस्स अणहियासेमाणस्स किं मन्ने कजति', एतसो मे पावे कम्मे कजति, ममं च गं अब्भोवगमिओ जान सम्म सहमाणस्स जाव अहिवासेमाणस्स किं मन्ने कजति', एगंतसो मे निजरा कजति, चउत्था सुहसेवा ४ । (सू. ३२५) चत्तारि अवायणिज्जा, पं० सं०अविणीए वीगईपडिबद्धे अविमोसवितपाहुढे माई । चत्तारि वातणिजा पं० त०-विणीते अविगतीपडिबद्धे वितोसवितपाहुडे अमाती (सू० ३२६)
४ स्थाना उद्देशः३ दुःखसुखशय्याः सू० ३२५ वाचनीयावाचनीयाः सू०३२६
दीप अनुक्रम [३४७]
॥२४६
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [३२६]
'चसारी'त्यादि, चतना-चतुःसया दुःखदाः शय्या दुःखशय्या:, ताश्च द्रव्यतोऽतथाविधखदादिरूपाः भावतस्तु दुःस्थचित्ततया दुःश्रमणतास्वभावाः प्रवचनाश्रद्धान १ परलाभप्रार्थन २ कामाशंसन ३ स्नानादिप्रार्थन ४ विशेषिताः। प्रज्ञप्ता, 'तत्रेति तासु मध्ये 'से' इति स कश्चित गुरुको अथार्थों वा अयं स च वाक्योपक्षेपे 'प्रवचने' शासने दीर्घत्वञ्च प्रकटादित्वादिति शङ्कितः-एकभावविषयसंशययुक्तः काशितो-मलान्तरमपि साध्वितिबुद्धिः विचिकित्सित:फलं प्रति शङ्कावान् भेदसमापन्नो-बुद्धिद्वैधीभावापन्न एवमिदं सर्व जिनशासनोक्तमन्यथा वेति कलुपसमापनो-नैतदेवमिति विपर्यस्त इति, न श्रद्धते-सामान्येनैवमिदमिति नो प्रत्येति-प्रतिपद्यते प्रीतिद्वारेण नो रोचयति-अभिला-2
पातिरेकेणासेवनाभिमुखतयेति, मना-चित्तमुच्चावचम्-असमञ्जसं निर्गच्छति-याति करोतीत्यर्थः, ततो विनिपात-धर्महावंश संसारं या आपद्यते, एवमसौ श्रामण्यशय्यायां दुःखमास्त इत्येका, तथा स्वकेन-स्वकीयेन लभ्यते लम्भनं वेति
लाभा-अन्नादे रखादेर्वा तेन आशां करोतीत्याशयति स नूनं मे दास्यतीत्येवमिति आस्वादयति वा लभते चेत् भुत एव स्पृहयति-वाछयति प्रार्थयति-याचते अभिलषति-लब्धेऽप्यधिकतरं वाञ्छतीत्यर्थः, शेषमुक्तार्थमेवमप्यसौ दुःखमास्त इति द्वितीया, तृतीया कण्ठ्या, अगारवासो-गृहवासस्तमावसामि-तत्र व सम्बाधनं-शरीरस्यास्थिसुखत्वादिना नैपुण्येन मर्दनविशेषः परिमर्दनं तु-पिष्टादेर्मलनमात्र परिशब्दस्य धात्वर्थमात्रवृत्तित्वात् गात्राभ्यङ्गः-तैलादिनाs
वक्षणं गात्रोत्क्षालनम्-अङ्गधावनमेतानि लभे न कश्चित् निषेधयतीति, शेषं कण्ठ्यमिति चतुर्थी ॥ दुःखशय्याविपरीताः सुखशय्याः प्रागिवावगम्याः, नवरं-'हहत्ति-शोकाभावेन हृष्टा इव हृष्टा अरोगा-ज्वरादिवर्जिताः बलिका:-प्राणवन्तः
दीप
अनुक्रम [३४८]
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[ ३२६ ]
दीप
अनुक्रम [३४८]
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
उद्देशक [३], मूलं [ ३२६ ]
स्थान [ ४ ], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थानाझसूत्र
॥ २४७ ॥
कल्पशरीरा:- पटुशरीरा अन्यतराणि-अनशनादीनां मध्ये एकतराणि उदाराणि - आशंसा दोषरहिततयोदारचित्तयुक्तानि कल्याणानि मङ्गलस्वरूपत्वात् विपुलानि बहुदिनत्वात् प्रयतानि प्रकृष्टसंयमयुक्तत्वात् प्रगृहीतानि आदरप्रतिपन्नत्वात् महावृत्तिः नुभागानि अचिन्त्यशक्तियुक्तत्वात् (समृद्धान) ऋद्धिविशेषकारणत्वात् कर्मक्षयकारणानि मोक्षसाधकत्वात् तपःकर्माणि२ तपः- क्रियाः प्रतिपद्यन्ते- आश्रयन्ति, 'किमंग पुणे'ति किं प्रश्ने अङ्गेत्यात्मामन्त्रणेऽलङ्कारे वा 'पुन' रिति पूर्वोक्तार्थवैलक्षण्यॐ दर्शने शिरोलोचब्रह्मचर्यादीनामभ्युपगमे भवा आभ्युपगमिकी उपक्रम्यतेऽनेनायुरित्युपक्रमो ज्वरातीसारादिस्तत्र भवा या सौंपक्रमिकी सा चासौ सा चेति आभ्युपगमिकौपक्रमिकी तां वेदनां दुःखं सहामि तदुत्पत्तावभिमुखतया अस्ति च सहिरवैमुख्यार्थे यथाऽसौ भटस्तं भटं सहते, तस्मान्न भव्यत इति भावः, क्षमे आत्मनि परे वाऽविकोपतया तितिक्षामि अदैन्यतया अध्यासयामि सौष्ठवातिरेकेण तत्रैव वेदनायामवस्थानं करोमीत्यर्थः, एकार्था वैते शब्दाः, किं 'मन्ने' त्ति मन्ये निपातो वितर्कार्थः क्रियते भवतीत्यर्थः, 'एगंतसो'त्ति एकान्तेन सर्वथेत्यर्थ इति । एते च दुःखसुखशय्यावन्तो निर्गुणसगुणा: अतस्तद्विशेषाणामेव वाचनीयावाचनीयत्वदर्शनाय सूत्रद्वयं कण्ठ्यं, नवरं 'बीय'त्ति विकृतिः-क्षीरादिका 'अव्यवशमितप्राभृत' इति प्राभृतम्-अधिकरणकारी कोप इति । अनन्तरं वाचनीयावाचनीयाः पुरुषा उक्ता इति पुरुषा धिकारात् तद्विशेषप्रतिपादनपरं चतुर्भङ्गिकाप्रतिवद्धं सूत्रप्रबन्धमाह
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चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० आतंभरे नाममेगे तो परंभरे परंभरे नाममेगे तो आतंभरे एगे आतंभरेवि परंभरेवि एगे नो आयंभरे तो परंभरे, चचारि पुरिसजाया पं० तं० दुग्गए नाममेगे दुग्गए दुग्गए नाममेगे सुग्गते सुग्गते
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४ स्थाना०
उद्देशः ३ दुःखसुखशय्याः
सू० ३२४ वाचनी यावाचनीयाः सू० ३२५३२६
॥ २४७ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३२७]
नामगेमे तुग्गए सुग्गए नाममेगे मुग्गए, चत्तारि पुरिसजाया पं० २०-दुग्गते नाममेगे दुवए दुग्गए नाममेगे मुब्बए सुग्गए नाममेगे दुब्बते सुग्गए नाममेगे सुखए ४, चत्तारि पुरिसजाया पं० २०-दुग्गते नाममेगे दुष्पडितागंदे दुग्गते नाममेगे मुष्पडिताणंदे ४, चत्तारि पुरिसजावा पं०२०-दुग्गते नाममेगे दुग्गतिगामी दुग्गए नाममेगे सुग्गतिगामी ४, चचारि पुरिसजाया पं० तं०-दुग्गते नागमेंगे दुग्गतिं गते दुग्गते नाममेगे सुगति गते ४, चत्तारि पुरिसजाता पं० सं०-तमे नाममेगे तमे तमे नाममेगे जोती जोती णाममेगे तमे जोती णाममेगे जोती ४, पारि पुरिसजाता पं० सं०-तमे नाममेगे तमबले तमे नाममेगे जोतिबले जोती नाममेगे तमबले जोती नाममेगे जोतीबले, चत्तारि पुरिसजाता पं० २०–तमे नाममेगे तमवलपलजणे तमे नामभेगे जोतीवलपलक्षणे ४, चत्वारि पुरिसजाना पं० २०-परिनायकम्मे नाममेगे नो परिन्नातसन्ने परिन्नातसन्ने णाममेगे णो परिन्नातकम्मे एगे परिन्नातकम्मेवि० ४, चत्तारि पुरिसजाता पं० २०-परिन्नायकम्मे णाममेगे नो परिजातनिहायासे परित्रायगिहावासे णाम एगे णो परिन्नातकम्मे ४, पत्तारि पुरिमजाता पं० सं०-परिण्णायसन्ने गाममेगे नो परिभातगिहावासे परिजातनिहावासे णामं एगे०४, पत्तारि पुरिसजाता पं० सं०-इहत्थे णाममेगे नो परत्थे परस्थे नाममेगे नो इहरये ४, चत्तारि पुरिसजाता पं० सं०-एगेणं णाममेगे बहुति एगेणं हायति एगेणं णाममेगे व दोहिं हायति दोहिं णाममेगे वडति ए. . गेणं हातति एगे दोहिं नाममेगे यति दोहिं हायति, चत्तारि कंथका ५००-आइने नाममेगे आइने आइन्ने नाममेगे खलुके खलुके नाममेगे आइन्ने खलुके नाममेगे खलुके ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजावा पं० २०-आइन्ने नाम
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थानासूत्र
प्रत
-वृत्तिः
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॥२४८॥
[३२७]
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मेगे आइन्ने चउभंगो, पत्तारि कथगा पं० त०-आतिन्ने नाममेगे आतिनताते विहरति आइन्ने नाममेगे खलंकत्ताए
४ स्थाना० विहरति ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पं० त०-आइन्ने नाममेगे आइन्नताए विहरइ, चउभंगो चत्तारि पकंथगा उद्देशः३ पं०२०-जातिसंपझे नाममेगे णो कुलसंपन्ने ४, एवामेव चत्वारि पुरिसजाता पं० सं०--जातिसंपन्ने नाममेगे चढ- | आत्मम्भभंगो, चत्तारि कंथगा पं० सं०-जातिसंपन्ने नाममेगे णो बलसंपन्ने ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पं०२०-जा- | रित्वादितिसंपन्ने नाममेगे णो बलसंपण्णे ४, चत्तारि कंथगा पं०२०-जातिसंपन्ने गाममेगे णो रूवसंपन्ने ४, एवामेव चत्तारि चतुर्भमा पुरिसजाता पं० सं०-जातिसंपन्ने नाममेगे णो रूवसंपण्णे ४ चत्तारि कंथगा पं० सं०-जाइसंपन्ने णाममेगे णो
सू०३२७ जयसंपण्णे ४ एवामेव पत्तारि पुरिसजाया पं० त०-जातिसंपन्ने ४, एवं कुलसंपन्नेण य बलसंपण्णेण त ४, कुलसंपन्नेण य रूबसंपण्णेण त ४ कुलसंपण्णेण त जयसंपन्नेण त ४ एवं बलसंपन्नेण त स्वसंपन्नेण त ४ बलसंपन्नेण त जयसंपण्णण त ४, सम्वत्थ पुरिसजाया पडिवक्खो, चत्तारि कंथगा पं० सं०-रूवसंपन्ने णाममेगे णो जयसंपन्ने ४ एवामेव पत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-रूबसन्ने नाममेगे णो जयसंपन्ने। चचारि पुरिसजाया पं० जहा-सीहत्ताते भाममेगे निक्खंते सीहत्ताते विहरइ सीहचाते नाममेगे निक्वंते सियालत्ताए बिहरइ सीयालत्ताए नाममेगे निक्खते
सीहत्ताए विहरड़ सीयालत्ताए नाममेगे निक्खंते सीयालत्ताए विहरइ (सू. ३२७) 'चत्तारी'त्यादि, आत्मानं विभर्ति-पुष्णातीत्यात्मम्भरिः प्राकृतत्वादायंभरे, तथा परं विभीति परम्भरिः, प्राकृत-I॥२४८॥ वासरंभरे इति, तत्र प्रथमभंगे स्वार्थकारक एव, स च जिनकल्पिको, द्वितीयः परार्थकारक एव, स च भगवानईन् ,
अनुक्रम [३४९]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३२७]
तस्य विवक्षया सकलस्वार्थसमाप्तेः वरप्रधानप्रयोजनमापणप्रवणमाणितत्वात्, तृतीये स्वपरार्थकारी, सच स्थविरकल्पिकः विहितानुष्ठानतः स्वार्थकरत्वाविधिवसिद्धान्तदेशनातश्च परार्थसम्पादकत्वात् , चतुर्थे तूभयानुपकारी, सच मुग्धमतिः कश्चिद् यथाच्छन्दो वेति, एवं लौकिकपुरुषोऽपि योजनीयः । उभयानुपकारी च दुर्गत एव स्यादिति दुर्ग-18 तसूत्र, दुर्गतो-दरिद्रः, पूर्व धनविहीनत्वात् ज्ञानादिरत्नविहीनत्वाद्वा पश्चादपि तथैव दुर्गत एवेति, अधवा दुर्गतो द्रव्यतः पुनर्दुगतो भावत इति प्रथमः, एवमन्ये त्रयो, नवरं सुगतो द्रव्यतो धनी भावतो ज्ञानादिगुणवानिति । दुर्गतः
कोऽपि व्रती स्यादिति दुर्बतसूत्र, दुर्गतो-दरिद्रः दुर्बत:-असम्यग्नतोऽथवा दुर्व्ययः-आयनिरपेक्षव्ययः कुस्थानव्ययो| है वेत्येकः, अन्यो दुर्गतः सन् सुव्रतो-निरतिचारनियमः, सुव्ययो वौचित्यप्रवृत्तेरिति, इतरौ प्रतीतौ । दुर्गतस्तथैव दुष्प्रत्यानन्दः-उपकृतेन कृतमुपकारं यो नाभिमन्यते, यस्तु मन्यते तं स सुप्रत्यानन्द इति । दुर्गतो-दरिद्रः सन् दुर्गतिं गमिष्यतीति दुर्गतिगामीत्येवमन्येऽपि, नवरं सुगतिं गमिष्यतीति सुगतिगामी, सुगतः-ईश्वर इत्यर्थः । दुर्गतस्तथैव दुर्गतिं गतः यात्राजनकुपिततन्मारणप्रवृत्तद्रमकवत्, एवमन्ये त्रयः । तम इव तमः पूर्वमज्ञानरूपत्वादप्रकाशत्वाद्वा पश्चादपि तम एवेत्येकः, अन्यस्तु तमः पूर्वं पश्चाज्योतिरिवज्योतिरुपार्जितज्ञानत्वात् प्रसिद्धिप्राप्तत्वाद्वा, शेषौ सुज्ञानौ। तमः-कुकर्मकारितया मलिनस्वभावस्तमः-अज्ञातं बलं-सामर्थ्य यस्य तमः- अन्धकारं वा तदेव तत्र वा बलं यस्य | स तथा, असदाचारवानज्ञानी रात्रिचरो वा चौरादिरित्येकः, तथा तमस्तथैव ज्योतिः-ज्ञानं बलं यस्य आदित्यादिनकाशो वा ज्योतिस्तदेव तत्र वा बलं यस्य स तथा, अयं चासदाचारो ज्ञानवान् दिनचारी वा चौरादिरिति द्वितीयो,
RANSACACASSES
दीप
अनुक्रम [३४९]
NA
wwwjaralaya
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[३२७]
दीप
अनुक्रम [ ३४९ ]
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
उद्देशक [३],
मूलं [ ३२७]
स्थान [ ४ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थाना
ङ्गसूत्र
वृत्तिः
॥ २४९ ॥
ज्योतिः - सत्कर्मकारितयोज्ज्वलस्वभावस्त मोगलस्तथैव, अयं च सदाचारवान् अज्ञानी कारणान्तराद्वा रात्रिचर इति तृतीयः, चतुर्थः सुज्ञानः, अयश्च सदाचारवान् ज्ञानी दिनचरो वेति । तथा तमस्तथैव 'तमबलपलजणे'त्ति तमो-मिथ्या ज्ञानं अन्धकारं वा तदेव बलं तत्र वा अथवा तमसि उक्तरूपे बले च सामर्थ्य प्ररज्यते - रतिं करोतीति तमोवलप्ररञ्जनः एवं ज्योतिर्बलप्ररञ्जनोऽपि, नवरं ज्योतिः - सम्यग्ज्ञानमादित्यादिप्रकाशो वेति, एवमितरावपि, इहापि त एव पूर्वसूत्रोक्ताः पुरुषविशेषाः प्ररञ्जनविशेषिताः द्रष्टव्याः, अथवा तमस्तथैवाप्रसिद्धो वा तमोवलेन अन्धकारबलेन सञ्चरन् प्रलज्जते इति तमोवलप्रलज्जनः - प्रकाशचारी, एवमितरेऽपि, नवरं द्वितीयोऽन्धकारचारी तृतीयः प्रकाशचारी चतुर्थः कुतोऽपि कारणादन्धकार चार्येवेति, 'पज्जलणे'त्ति क्वचित्पाठः तत्राज्ञानबलेनान्धकारबलेन वा ज्ञानबलेन प्रकाश लेन वा प्रज्वलति दर्पितो भवत्यवष्टम्भं करोति यः स तथेति । परिज्ञातानि ज्ञपरिज्ञया स्वरूपतोऽवगतानि प्रत्याख्यानप - रिज्ञया च परिहृतानि कर्माणि - कृष्यादीनि येन स परिज्ञातकर्मा नो-न च परिज्ञाताः संज्ञा-आहारसंज्ञाद्या येन स परिज्ञातसंज्ञः, अभावितावस्थः प्रत्रजितः श्रावको वेत्येकः, परिज्ञातसंज्ञः सद्भावनाभावितत्वात् न परिज्ञातकर्म्मा कृष्याद्यनिवृत्तेः श्रावक इति द्वितीयः, तृतीयः साधुञ्चतुर्थोऽसंयत इति । परिज्ञातकर्मा - सावधकरणकारणानुमतिनिवृत्तः कृप्यादिनिवृत्तो वा न परिज्ञातगृहावासोऽप्रव्रजित इत्येकः, अन्यस्तु परिज्ञातगृहावासो न त्यक्तारम्भो दुष्प्रत्रजित इति द्वितीयः तृतीयः साधुश्चतुर्थोऽसंयतः त्यक्तसंज्ञो विशिष्टगुणस्थानकत्वादत्यतगृहावासो गृहस्थत्वादेकः अन्यस्तु परिहृतगृहवासो यतित्वादभावितत्त्रान्न परिहृतसंज्ञः अन्य उभयथा अन्यो नोभयथेति । इहैव जन्मन्यर्थः - प्रयोजनं
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४ स्थाना०
उद्देशः ३
आत्मम्भ
रित्यादि
चतुर्भवः
सू० ३२७
॥ २४९ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३२७]
भोगसुखादि आस्था वा-इदमेव साध्विति बुद्धिर्यस्य स इहार्थ इहास्थो वा भोगपुरुष इहलोकप्रतिबद्धो वा, परत्रैव जम्मान्तरे अर्थ आस्था वा यस्य स परार्थः परास्थो वा साधुबालतपस्वी वा इह परत्र च यस्यार्थ आस्था वा| स सुश्रावक उभयप्रतिबद्धो वा उभयप्रतिषेधवान् कालशौकरिकादिमूढो वेति, अथवा इहैव विवक्षिते ग्रामादौ तिष्ठतीति इहस्थस्तत्प्रतिवन्धान परस्थो अन्यस्तु परत्र प्रतिबन्धात्परस्थः अन्यस्तूभयस्थः अन्यः सर्वाप्रतिवद्धत्वाद-15 नुभयस्थः साधुरिति । एकेनेति श्रुतेन एकः कश्चिद्वद्धते एकेनेति सम्यग्दर्शनेन हीयते, यधोक्तम्-"जह जह बहु-| स्सुओ संमओ य सीसगणसंपरिवुडो य । अविणिच्छिओ य समए तह तह सिद्धतपडिणीओ ॥१॥" इत्येक तथा एकेन श्रुतेनैवान्यो वर्द्धते द्वाभ्यां सम्यग्दर्शनविनयाभ्यां हीयते इति द्वितीयः, द्वाभ्यां श्रुतानुष्ठानाभ्यामन्यो वर्द्धते | एकेन सम्यग्दर्शनेन हीयते इति तृतीयः, द्वाभ्यां श्रुतानुष्ठानाभ्यां अन्यो वर्द्धते द्वाभ्यां सम्यग्दर्शनविनयाभ्यां हीयत | इति चतुर्थः, अथवा ज्ञानेन वर्द्धते रागेण हीयते इत्येका, अन्यो ज्ञानेन वर्धते रागद्वेषाभ्यां हीयते इति द्वितीयः, अन्यो ज्ञानसंयमाभ्यां वर्द्धते रागेण हीयते इति तृतीयः, अन्यो ज्ञानसंयमाभ्यां वर्द्धते रागद्वेषाभ्यां हीयत इति च-४ तुर्थः, अथवा क्रोधेन बर्द्धते मायया हीयते कोपेन वर्द्धते मायालोभाभ्यां हीयते क्रोधमानाभ्यां वर्द्धते मायया हीयते क्रोधमानाभ्यां वर्द्धते मायालोभाभ्यां हीयत इति । प्रकन्थकाः पाठान्तरतः कन्थका वा-अश्वविशेषाः, आकीणों-ज्याप्तो जवादिगुणैः पूर्व पश्चादपि तथैव, अन्यस्त्वाकीर्णः पूर्व पश्चात्खलुको-गलिरविनीत इति, अन्यः पूर्व
१ बथा यथा बधुतः संमतच विध्वगणसंपरितच अविनिश्चितो यदि समये तथा तथा सिद्धान्तप्रसनीकः ॥१॥
दीप
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अनुक्रम [३४९]
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[३२७]
दीप
अनुक्रम [ ३४९ ]
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
उद्देशक [३], मूलं [३२७]
स्थान [ ४ ], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थानाङ्गसूत्र
वृत्तिः
॥ २५० ॥
खलुङ्कः पश्चादाकीर्णो गुणवानिति चतुर्थः पूर्व पश्चादपि खलुक एवेति । आकीर्णो गुणवान् आकीर्णतया - गुणवत्तया विनयवेगादिभिरित्यर्थः वहति-प्रवर्त्तते विहरतीति पाठान्तरं आकीर्णोऽन्य आरोहदोषेण खलुङ्कतया - गलितया वहति, * अन्यस्तु खलुङ्कः आरोहकगुणात् आकीर्णगुणतया वहति, चतुर्थः प्रतीतः, सूत्रद्वयेऽपि पुरुषा दान्तिका योज्याः, सूत्रे तु कचिन्नोक्ताः, विचित्रत्वात् सूत्रगतेरिति, ५ जाति ४ कुल ३ बल २ रूप १ जयपदेषु दशभिर्द्धिकसंयोगैर्दशव प्रकन्थकदृष्टान्तचतुर्भङ्गी सूत्राणि, प्रत्येकं तान्येवानुसरन्ति सन्ति दश दार्शन्तिकपुरुषसूत्राणि भवन्तीति, नवरं जय:पराभिभव इति, सिंहतया ऊर्जवृत्या निष्क्रान्तो गृहवासात् तथैव च विहरति उद्यतविहारेणेति शृगालतया- दीनवृत्त्येति । पूर्वं पुरुषाणामश्वादिभिर्जात्यादिगुणेन समतोकाऽधुना अप्रतिष्ठानादीनां तामेव प्रमाणत आह
बजार लोगे समा पं० [सं० अपइद्वाणे नरए १ जंबुद्दीवे दीने २ पालते जाणविमाणे ३ सम्बद्धसिद्धे महाविमाणे ४, चार लोगे समा सपक्खि सपठिदास पं० तं० सीमंतर नरए समयक्खेत्ते उडुविमाणे ईसीपकभारा पुढवी, ( सू० ३२८ ) लोगे णं चत्तारि बिसरीरा पं० नं० पुढविकाइया आउ० areas० उराला तसा पाणा, अहो लोगे णं चत्तारि बिसरीरा पं० तं० एवं चेव, एवं तिरियलोएवि ४ ( सू० ३२९ ) 'वारी'त्यादि सूत्रद्वयं प्रायो व्याख्यातार्थं तथाप्युच्यते, अप्रतिष्ठानो नरकावासः सप्तम्यां नरकपृथिव्यां पञ्चानां कालादीनां नरकावासानां मध्यवर्त्ती, स च योजनलक्षं, पालकं पालकदेवनिर्मितं सौधर्मेन्द्रसम्बन्धि यानञ्च तद्विमानश्च यानाय वा गमनाय विमानं यानविमानं, नतु शाश्वतमिति, सर्वार्थसिद्धं पञ्चानामनुत्तरविमानानां मध्यममिति ।
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४ स्थाना० उद्देशः ३ लोके
समा०
सू० ३२८ द्विशरीराः सू० ३२९
॥ २५० ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [३२९]
CARE
चत्वारो लोके समा भवन्ति, कथमित्याह-'सपक्खि सपडिदिसं'ति समानाः पक्षा:-पार्था दिशो यस्मिन् तत्सपलं इहेकारः प्राकृतत्वेन तथा समानाः प्रतिदिशो-विदिशो यस्मिंस्तत्सप्रतिदिक् तद् यथा भवत्येवं समा भवन्तीति, सदृशाः
पक्षरिति सपक्षमित्यव्ययीभावो वेति, पृथुसङ्कीर्ण योहिं द्रव्ययोरधउपरिविभागेन स्थितयोस्तुल्यमानयोर्वा विषमताव्य-IN 3वस्थितयोर्न समा दिशो विदिशश्च भवन्तीत्यत्यन्तसमताख्यापनार्थमिदं विशेषणद्वयमिति, सीमन्तकः प्रथमपृथिव्यां15
प्रथमप्रस्तटे पश्चचत्वारिंशद्योजनलक्षप्रमाण इति, समयः-कालस्तदुपलक्षित क्षेत्रं समयक्षेत्र मनुष्यक्षेत्रमित्यर्थः, उड-14 विमानं सौधर्मे प्रथमप्रस्तट एवेति, ईषद्-अल्पो रत्नप्रभाद्यपेक्षया प्रारभार:-उच्छूयादिलक्षणो यस्यां सेषत्माग्भारा ।। का ईषयाग्भारा ऊर्वलोके भवतीति ऊध्र्वलोकप्रस्तावादिदमाह-'उहे'त्यादि, द्वे शरीरे येषां ते द्विशरीराः, एक पृथिवीका-1 यिकादिशरीरमेव द्वितीयं जन्मान्तरभावि मनुष्य शरीरं ततस्तृतीयं केषाश्चिन्न भवत्यनन्तरमेव सिद्धिगमनात् , 'ओ-| राला तसत्ति उदारा-स्थूला द्वीन्द्रियादयो न तु सूक्ष्मास्तेजोवायुलक्षणाः, तेषामनन्तरभवे मानुषत्वाप्राप्त्या सिद्धिर्न भवतीति शरीरान्तरसम्भवात्, तथोदारत्रसग्रहणेन द्वीन्द्रियादिप्रतिपादनेऽपीह द्विशरीरतया पञ्चेन्द्रिया एव8 ग्राह्या, विकलेन्द्रियाणामनन्तरभवे सिद्धेरभावाद्, उक्तञ्च-"विगला लभेज विरई ण हु किंचि लभेज सुहुमतसा" [विकला लभेरन् विरतिं नैव किञ्चिल्लभेरन् सूक्ष्मत्रसाः] इति । लोकसम्बन्धायाते अधोलोकतिर्यग्लोकयोरतिदेशसूत्रे, गतार्थे इति । तिर्यग्लोकाधिकारात् तदुद्भवं संयतादिपुरुष भेदैराह
चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-हिरिसत्ते हिरिमणसत्ते चलसत्ते थिरसत्ते (सू० ३३०) अत्तारि सिजपडिमाओ पं०,
दीप अनुक्रम [३५१]
SAMEDurau
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना
असूत्र
प्रत
दृत्तिः
सूत्रांक [३३१]
॥२५१॥
४ स्थाना० उद्देश ३ | सत्त्वप्रतिमाजीवस्पृष्टलोकस्मृ. टप्रदेशाप्रतुल्याः सू०३३०
Ci
पत्तारि पत्थपडिमाओ पं०, चत्तारि पायपडिमाओ पं०, चत्तारि ठाणपडिमाओ पं० (सू०३३१) पत्तारि सरीरगा जीवपुडा पं० सं०--वेउम्बिए आहारए तेयए कम्मए, चत्वारि सरीरमा कम्मुम्मीसगा पं० सं०-ओरालिए बेजबिए आहारते तेउते (सू० ३३२) चउहिं अस्थिकाएहिं लोगे फुडे पं० २०-धम्मस्थिकारणं अधम्मत्थिफाएणं जीवस्थिकारणं पुग्गलस्थिकारणं, चउहि बादरकातेहिं उववजमाणेहिं लोगे फुढे पं० त०-पुढविकाइएहिं आउ० वाउ० वणस्सइकाइएहिं (सू०३३३) चचारि पएसग्गेणं तुल्ला पं० सं०-धम्मत्तिकाए अधम्मस्थिकाए लोगागासे एग
जीवे (सू० ३३४) 'चत्तारीत्यादि, हिया-लज्जया सत्त्वं-परीषहादिसहने रणाङ्गणे वा अवष्टम्भो यस्य स हीसत्त्वः, तथा हिया-हसिप्यन्ति मामुत्तमकुलजातं जना इति लज्जया मनस्येव न काये रोमहर्षकम्पादिभयलिङ्गोपदर्शनात् सत्त्वं यस्य स हीमनःसत्त्वः, चलम्-अस्थिरं परीषहादिसम्पाते ध्वंसात् सत्त्वं यस्य स चलसत्त्वः, एतद्विपर्ययात् स्थिरसत्त्व इति । स्थिर-1 सत्त्वोऽनन्तरमुक्ता, स चाभिग्रहान् प्रतिपद्य पालयतीति तदर्शनाय सूत्रचतुष्टयमिदं-'चत्तारि सिज्जेत्यादि, सुगम, | नवरं शय्यते यस्यां सा शय्या-संस्तारकः तस्याः प्रतिमा-अभिग्रहाः शय्याप्रतिमाः, तत्रोद्दिष्ट फलकादीनामन्यतमत् ग्रहीध्यामि नेतरदित्येका, यदेव प्रागुद्दिष्टं तदेव यदि द्रक्ष्यामि तदा तदेव ग्रहीष्यामि नान्यदिति द्वितीया, तदपि यदि| तस्यैव शय्यातरस्य गृहे भवति ततो ग्रहीष्यामि नान्यत आनीय तत्र शयिष्य इति तृतीया, तदपि फलकादिकं यदि यथासंस्तृतमेवास्ते ततो ग्रहीष्यामि नान्यथेति चतुर्थी, आसु च प्रतिमास्वाद्ययोः प्रतिमयोर्गच्छनिर्गतानामग्रहः उत्तर
दीप
३३४
अनुक्रम [३५३]
॥२५१॥
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
*
सूत्रांक
[३३४]
*
योरन्यतरस्यामभिग्रहः, गच्छान्तरगतानां तु चतस्रोऽपि कल्पन्त इति, वस्त्रप्रतिमा-वस्त्रग्रहणविषये प्रतिज्ञाः, कार्पासिकादीत्येवमुद्दिष्टं वखं याचिध्ये इति प्रथमा, तथा प्रेक्षितं वस्खं याचिष्ये नापरमिति द्वितीया, तथाऽऽन्तरपरिभोगेनोत्तरीयपरिभोगेन वा शय्यातरेण परिभुक्तप्राय बखं ग्रहीष्यामीति तृतीया, तथा तदेवोत्सृष्टधर्मकं ग्रहीष्यामीति चतुर्थी, पात्रप्रतिमा उद्दिष्टं दारुपानादि याचिध्ये १, तथा प्रेक्षितं २ तथा दातुः स्वाङ्गिक परिभुक्तप्रायं द्वित्रेषु वा पात्रेषु पर्यायेण परिभुग्यमानं पात्रं याचिष्य इति तृतीया, उज्झितधर्मकमिति चतुर्थी, स्थान-कायोत्सर्गायर्थ आश्रयः तत्र प्रतिमाः स्थानप्रतिमाः, तत्र कस्यचिद् भिक्षोरेवंभूतोऽभिग्रहो भवति यथा-अहमचित्तं स्थानमुपाश्रयिष्यामि तत्र
चाकुश्चनप्रसारणादिकां क्रियां करिष्ये, तथा किञ्चिदचित्तं कुब्यादिकमवलम्बयिष्ये, तथा तत्रैव स्तोकपादविहरणं समा-* साधयिष्यामीति प्रथमा प्रतिमा, द्वितीया त्वाकुञ्चनप्रसारणादिक्रियामवलम्बनं च करिष्ये न पादविहरणमिति, तृतीया
स्वाकुञ्चनप्रसारणमेव नावलम्बनपादविहरणे इति, चतुथीं पुनर्यत्र त्रयमपि न विधत्ते । अनन्तरं शरीरचेष्टानिरोध उक्त #इति शरीरप्रस्तावादिदं सूत्रद्वयं-'चत्तारीत्यादि व्यक्तं, किन्तु जीवेन स्पृष्टानि-व्याप्तानि जीवस्पृष्टानि, जीवेन हि स्पृष्टा-1 शान्येव वैक्रियादीनि भवन्ति, न तु यथा औदारिकं जीवमुक्तमपि भवति मृतावस्थायां तथैतानीति, 'कम्मुम्मीसग'त्ति
कार्मणेन शरीरेणोन्मिश्रकाणि न केवलानि यधौदारिकादीनि त्रीणि वैक्रियादिभिरमिश्राग्यपि भवन्ति नैवं कार्मणेनेति भावः । शरीराणि कार्मणेनोन्मिश्राणीत्युक्तमुन्मिश्राणि च स्पृष्टान्येवेति स्पृष्टप्रस्तावात् सूत्रद्वयं-'चउही'त्यादि, गतार्थं, केवलं 'फुडे'त्ति स्पृष्टः प्रतिप्रदेश व्याप्तः, सूक्ष्माणां पञ्चानामपि सर्वलोकात् सर्वलोके उत्सादात् वादरतैजसानां
दीप अनुक्रम [३५६]
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आगम
(०३)
प्रत
सूचांक
[ ३३४]
दीप
अनुक्रम [ ३५६ ]
[भाग-5] "स्थान" अंगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः)
उद्देशक (0).
मूलं [२३४]
स्थान [ ४ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थाना
ङ्गसूत्रवृत्तिः
।। २५२ ।।
- -
तु सर्वलोकादुदृश्य मनुष्यक्षेत्रे ऋजुगत्या वक्रगत्या चोत्पद्यमानानां द्वयोरूकपाटयोरेव वादरतेजस्त्वव्यपदेशस्येष्ट[त्वाच्च'चउहिं बादरकाएहिं' इत्युक्तं, बादरा हि पृथिव्यम्बुवायुवनस्पतयः सर्वतो लोकादुदृत्य पृथिव्यादि घनोदध्यादि घनवातवलयादि घनोदध्यादिषु यथास्वमुखादस्थानेष्वन्यतरगत्योत्पद्यमाना अपर्याठकावस्थायामतिबहुत्वात् सर्वलोकं प्रत्येकं स्पृशन्ति, पर्याप्तास्त्वेते बादरतेजस्कायिकास्त्रसाश्च लोका सङ्ख्येयभागमेव स्पृशन्तीति, उक्तश्च प्रज्ञापनायाम्“एत्थ णं बादरपुढविकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता, उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे,” तथा “बादरपुढ विकाइयाणं अपजत्तगाणं ठाणा पत्ता, उचवाएणं सव्वलोए,” एवमब्वायुवनस्पतीनां तथा "वादरतेउकाइयाणं पज्जत्ताणं ठाणा मन्नत्ता, उववाएणं छोयस्स असंखेज्जइभागे" वादरतेडकाइयाणं अपजत्ताणं ठाणा पन्नत्ता, लोयस्स दोसु उकवाडेसुं तिरियलोयतद्वे य" त्ति द्वयोरूर्द्धकपाटयोरूर्ध्वकपाटस्थतिर्यग्लोके चेत्यर्थः, तिर्यग्लोकस्थालके चेत्यन्ये, तथा "केहिनं भंते! सुहुमपुढविकाइयाणं पजतगाणं अपजत्तगाण य ठाणा पन्नत्ता ?, गोयमा ! सुहुमपुढविकाइया जे पज्जत्तगा जे य अपज्जत्तगा ते सब्बे एगविहा अविसेसमणाणत्ता सब्बलोगपरियावन्नगा पन्नत्ता समणाउसो!" त्ति, एवमन्येऽपि,
१] अत्र वादपृथ्वीकायिकानां पर्याप्तकानां स्थानानि प्राप्तानि उपपातेन लोकस्यासंख्याततमो भागः, बादरपृथ्वीका विकानामपर्याप्तकानां स्थानानि प्रानि उपपातेन सर्वलोके, बादर तेजस्कायिकानां पर्याप्तानां स्थानानि प्रप्तानि उपपातेन लोकस्यासंस्ततमो भागः, बादरतेजस्कायिकानामपर्यासकानो स्थानान हप्तानि सोकस्य द्वरुकपाटयोतिर्यग्लोके च (स्थान) १ भदन्त सूक्ष्म पृथ्वी कायिकानामपर्याप्तकानां पर्यासकानां व स्थानानि प्रप्तानि गौतम! सूक्ष्मपृथ्वीकायिका ये पर्याप्ता ये चापर्याप्तिकारते सर्वे एकविधा अविशेषा अनानात्वाः सर्वलोकपर्यापनाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् !
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४ स्थाना०
उद्देशः ३ सत्त्वप्रति
माजीवस्पृष्टलोकस्पृ
ष्टप्रदेशा
प्रतुल्याः सू० ३३०३३४
।। २५२ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३३४]
S"एवं बेइंदियाण पजत्तापजत्ताणं ठाणा पन्नत्ता, उववाएणं लोयस्स असंखेजइभागो"त्ति, [द्वीन्द्रियाणां पर्याप्साकापर्या-1 |प्ताकानां स्थानानि प्रज्ञप्तानि उपपातेन लोकस्यासङ्ख्याततमो भागः] एवं शेषाणामपीति । चतुर्भिोंकः स्पृष्ट इत्युक्तमिति
लोकप्रस्तावात्तस्य धर्मास्तिकायादीनां चान्योऽन्यं प्रदेशतः समतामाह-'चत्तारी'त्यादि कण्ठ्यं, नवरं प्रदेशाग्रेण-प्रदे18| शपरिमाणेनेति तुल्या-समाः सर्वेषामेषामसङ्ग्यातप्रदेशत्वात्, 'लोयागासे'त्ति आकाशस्यानन्तप्रदेशत्वेन धर्मास्तिका-18
यादिभिः सहातुल्यताप्रसक्तेर्लोकग्रहणं, 'एगजी'त्ति सर्वजीवानामनन्तप्रदेशत्वाद्विवक्षिततुल्यताऽभावग्रसङ्गादेकग्रहण| मिति । पूर्व पृथिव्यादिभिः स्पृष्टो लोक इत्युक्तमिति पृधिब्यादिप्रस्तावादिदमाह
चवण्हमेगं सरीरं नो सुपस्सं भवइ, तं०-पुढविकाइयाणं आउ० तेउ० वणस्सइकाइयाणं (सू० ३३५) चत्तारि इंदियस्था पुट्ठा वेदेति, तं०-सोर्तिवियत्थे घाणिदियत्थे जिभिदियत्थे फासिंदियत्वे (सू० ३३६) चाहिं ठाणेहि जीवा य पोग्गला व णो संचातेति बहिया लोगता गमणताते, ३०-गतिअभावेणं णिरुवम्गहताते लुक्खताते लोगा
णुभावेणं (सू०३३७) 'चउण्हमित्यादि कण्ठ्यं, किन्तु 'नो पस्सं'ति चक्षुषा नो दृश्यमतिसूक्ष्मत्वात् , क्वचित् नो सुपस्संति पाठः, तत्र न सुखदृश्य-न चक्षुषः प्रत्यक्षदृश्यमनुमानादिभिस्तु दृश्यमपीत्यर्थः, बादरवायूनां तथा सूक्ष्माणां पञ्चानामपि तदेकमनेकं| वा अदृश्यमिति चतुर्णामित्युक्तं, वनस्पतय इह साधारणा एव ग्राह्याः, प्रत्येकशरीरस्यैकस्यापि दृश्यत्वादिति । पृथिव्यादीनां शरीरस्य चक्षुरिन्द्रियाविषयत्वमुक्कमितीन्द्रियविषयप्रस्तावादिदमाह-चत्तारि इंदियेत्यादि, स्पष्ट, किन्तु इन्द्रियै
दीप अनुक्रम [३५६]
~515~
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३३७]
दीप
श्रीस्थाना-
प र्यन्ते-अधिगम्यन्त इतीन्द्रियार्थाः-शब्दादयः, 'पुट्ठ'त्ति स्पृष्टाः-इन्द्रियसम्बद्धा 'वेएंति'त्ति वेद्यन्ते-आत्मना ज्ञा-1 स्थाना. असूत्र- यन्ते, नयनमनोवर्जानां श्रोत्रादीनां प्राप्तार्थपरिच्छेदस्वभावत्वादिति, उक्तं च-"पुढे सुणेइ सई रूपं पुण पासई अपुढे उद्देशः३ वृत्तिः तु । गंध रसं च फासं च बद्धपुढे वियागरे ॥१॥” इति [स्पृष्टं शृणोति शब्दं रूपं पुनः पश्यत्यस्पृष्टमेव गंधरसं च पृथ्व्यादिस्पर्श च बद्धस्पृष्टं व्याकुर्यात्॥१॥] अनन्तरं जीवपुद्गलयोरिन्द्रियद्वारेण ग्राहकग्राह्यभाव उक्तोऽधुना तयोर्गतिधर्म
शरीरासु॥२५३॥ चिन्तयनाह-'चउही'त्यादि, व्यक्तं, परमन्येषां गतिरेव नास्तीति 'जीवा य पुग्गला ये'त्युक्तम्, 'नो संचाऐंति' न शक्नुव
दृश्यता
स्पृष्टा इ. स्ति नालं 'बहिय'त्ति बहिस्ताल्लोकान्तात् अलोके इत्यर्थः, गमनतायै-ामनाय गन्तुमित्यर्थः, गत्यभावेन-लोकान्तात् ।
|न्द्रियार्थाः सापरतस्तेषां गतिलक्षणस्वभावाभावादधो दीपशिखावत्, तथा निरुपमहतया-धम्मास्तिकायाभावेन तजनितगत्युपष्टम्भा
भावात् गळ्यादिरहितपङ्गुवत् , तथा रूक्षतया सिकतामुष्टिवत्, लोकान्तेषु हि पुद्गला रूक्षतया तथा परिणमन्ति ४ यथा परतो गमनाय नार्ल, कर्मपुद्गलानां तथाभावे जीवा अपि, सिद्धास्तु निरुपमहतयैवेति, लोकानुभावेन-लोकमर्या- लोकेऽगमा दया विषयक्षेत्रादन्यत्र मार्तण्डमण्डलवदिति । अनन्तरोक्का अर्थी उक्तवन्निदर्शनतः प्रायः प्राणिनां प्रतीतिपथपातिनो सू०३३५भवन्तीति निदर्शनभेदप्रतिपादनाय पञ्चसूत्री
चलबिहे णावे पं० ० आहरणे आहरणतदेसे आहरणतहोसे उवन्नासोवणए १, आहरणे चविहे पं० सं०-अवाते उवाते ठवणाकम्मे पडुप्पन्नविणासी २, आहरणतसे चउब्विहे पं० त०-अणुसिट्टी उबालभे पुच्छा निस्साबयणे ३, IPL॥२५॥ आहरणतदोसे पबिहे पं००-अधम्मजुत्ते पडिलोमे अंतोवणीते दुरुवणीते ४, उवमासोषणए पबिहे पं०
ॐॐॐॐॐ
अनुक्रम [३५९]
wwwjangalray
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [३३८]
ACARECRUM
तं.---तम्वत्थुते तदन्नवत्थुते पडिनिभे हेतू हेऊ ५, चउबिहे-५००-जावते थावते बंसते लूसते, अथवा हेऊ चऊविहे पं० सं०-पशक्खे अणुमाणे ओवम्मे आगमे, अहवा हेऊ चउबिहे पं० सं०-अस्थित्तं अस्थि सो देऊ १,
अस्थित णस्थि सो हेऊ २, णस्थितं अस्थि सो हेऊ ३, पत्थित्तं णस्थि सो हेऊ ४ (सू० ३३८) तत्र ज्ञायते अस्मिन् सति दार्शन्तिकोऽर्थ इति अधिकरणे प्रत्ययोपादानात् ज्ञातं-दृष्टान्तः, साधनसद्भावे साध्य-| कास्यावश्यंभावः साध्याभावे वा साधनस्यावश्यमभाव इत्युपदर्शनलक्षणो, यदाह-"साध्येनानुगमो हेतो, साध्याभावे च*
नास्तिता । ख्याप्यते यत्र दृष्टान्तः, स साधम्र्वेतरो द्विधा ॥१॥” इति, तत्र साधर्म्यदृष्टान्तोऽग्निरत्र धूमाद्यथा महानस इति, वैधय॑दृष्टान्तस्तु अयभावे धूमो न भवति यथा जलाशये इति, अथवा आख्यानकरूपं ज्ञातं, तच्च चरितकल्पितभेदात् द्विधा, तत्र चरितं यथा निदानं दुःखाय ब्रह्मदत्तस्येव, कल्पितं यथा प्रमादवतामनित्यं यौवनादीति देशनीयं, यथा पाण्डुपत्रेण किशलयानां देशितं, तथाहि-"जह तुम्भे तह अम्हे तुम्भेऽविय होहिहा जहा अम्हे । | अप्पाहेइ पडतं पंडुयपत्तं किसलयाणं ॥१॥" [यथा यूयं तथा वयं यूयमपि भविष्यथ यथा वयं शिक्षयति पतत् | | पांडुपत्रं किशलयान् ॥१॥] इति, अथवोपमानमात्रं ज्ञातं सुकुमारः करः किशलयमिवेत्यादिवत्, अथवा ज्ञातम्उपपत्तिमात्रं ज्ञातहेतुस्वात् , कस्माद्यवाः क्रीयन्ते ? यस्मान्मुधा न लभ्यन्ते इत्यादिवदिति, एवमनेकधा साध्यप्रत्यायनस्वरूपं ज्ञातमुपाधिभेदात् चतुर्विध दर्शयति-तत्र आ-अभिविधिना हियते-प्रतीती नीयते अप्रतीतोऽर्थोऽनेनेत्याहरणं, यत्र समुदित एव दान्तिकोऽर्थः उपनीयते यथा पापं दुःखाय ब्रह्मदत्तस्यैवेति, तथा तस्य-आहरणार्थस्य देश-12
दीप
अनुक्रम [३६०]
आहरणस्य भेदा:
~517
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
KHE
[३३८]
दीप
श्रीस्थाना- स्तद्देशः स चासावुपचारादाहरणं चेति प्राकृतत्वादाहरणशब्दस्य पूर्वनिपाते आहरणतद्देश इति, भावार्थश्चात्र-यत्र दृष्टा- ४ स्थाना. असूत्र- न्तार्थदेशेनैव दान्तिकार्थस्योपनयनं क्रियते तत्तद्देशोदाहरणमिति, यथा चन्द्र इव मुखमस्या इति, इह हि चन्द्रे सौ-IPउद्देशः ३ वृत्तिः म्यत्वलक्षणेनैव देशेन मुखस्योपनयनं नानिष्टेन नयननासावर्जितत्वकलङ्कादिनेति, तथा तस्यैव-आहरणस्य सम्बन्धी|४|आहरण
साक्षाप्रसङ्गसम्पन्नो वा दोषस्तद्दोषः स चासौ धौ धमिणः उपचारादाहरणं चेति प्राकृतत्वेन पूर्वनिपातादाहरणत-MI भेदाः ॥२५४॥
दोष इति, अथवा तस्य-आहरणस्य दोषो यस्मिंस्तत्तथा, शेष तथैव, अयमत्र भावार्थः-यत्साध्यविकलत्वादिदोषदुष्टंसू०३३८ तद्दोषाहरणं, यथा नित्यः शब्दोऽमूर्त्तत्वात् घटवत्, इह साध्यसाधनवैकल्यं नाम दृष्टान्तदोषो, यच्चासभ्यादिवचनरूपं तदपि तद्दोषाहरणं, यथा सर्वथाऽहमसत्यं परिहरामि गुरुमस्तककर्तनवदिति, यद्वा साध्यसिद्धिं कुर्वदपि दोपान्तरमुपनयति तदपि तदेव, यथा सत्यं धर्ममिच्छन्ति लौकिकमुनयोऽपि--"वरं कूपशताद्वापी, बरं वापीशताक्रतुः। | वरं क्रतुशतात्पुत्रः, सत्यं पुत्रशताद्वरम् ॥१॥" इति वचनवक्तृनारदवदिति, अनेन च श्रोतुः पुत्रक्रतुप्रभृतिषु प्रायः | संसारकारणेषु धर्मप्रतीतिराहितेति आहरणतद्दोपतेति, यथा वा-बुद्धिमता केनापि कृतमिदं जगत् सन्निवेशविशेषवस्वात् घटवत् स चेश्वर इति, अनेन हि स बुद्धिमान कुम्भकारतुल्योऽनीश्वरः सिध्यतीति, ईश्वरश्च स विवक्षित इति,
तथा वादिना अभिमतार्थसाधनाय कृते वस्तूपन्यासे तद्विघटनाय यः प्रतिवादिना विरुद्धार्थोपनयः क्रियते पर्येनुयो₹ गोपन्यासे वा य उत्तरोपनयः स उपन्यासोपनयः, उत्तररूपमुपपत्तिमात्रमपि ज्ञातभेदो ज्ञातहेतुत्वादिति, यथा अकत्ता
G |२५४ ऽऽत्मा अमूर्त्तत्वादाकाशवदित्युक्त अन्य आह-आकाशवदेवाभोवत्यपि प्राप्तमनिष्टं चैतदिति, यथा वा मांसभक्षणमदुष्ट
अनुक्रम [३६०]
AR
आहरणस्य भेदा:
~518~
Page #519
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [३३८]
दीप
दापाण्यङ्गत्वादोदनादिवत् , अवाहान्या-ओदनादिवदेव स्वपुत्रादिमांसभक्षणमप्यदुष्टमिति, यथा वा त्यक्तसङ्गा वखपात्रा-I |दिसहं न कुर्वन्ति ऋषभादिवत्, अत्राह-कुण्डिकाद्यपि ते न गृह्णन्ति तद्वदेवेति, तथा कस्मारकर्म कुरुषे यस्माद। धनार्थीति, इह प्रथमं ज्ञातं समग्रसाधर्म्य द्वितीयं देशसाधर्म्य तृतीयं सदोष चतुर्थे प्रतिवायुत्तररूपमित्ययमेषां स्वरूपविभाग इति, इह देशतः संवादगाधा-"चरियं च कप्पियं वा दुविहं तत्तो चढविहेकेकं । आहरणे तसे तद्दोसे चेवुवन्नासा ॥१॥" [चरितं च कल्पिक वा द्विविधं ततश्चतुर्विधमेकैक आहरणं तद्देशः तद्दोषश्चैव उपन्यासः ॥१॥] इति, 'अवायें अपायः-अनर्थः स यत्र द्रव्यादिष्वभिधीयते यथैतेषु द्रव्यादिविशेषेष्वस्त्यपायो विवक्षितद्रव्यादिविशेषेष्विव, हेयता चाऽस्य यत्राभिधीयते तदाहरणमपाय इति, स च चतुर्धा द्रव्यादिभिः-तत्र द्रव्यात् द्रव्ये वाऽपायो द्रव्यमेव वा तत्कारणत्वादपायो द्रव्यापायः, एतद्धेयतासाधकं एतत्साधकं वाऽऽहरणमपि तथोच्यते, तत्प्रयोगो-द्रव्यापायः परिहार्यस्तत्र वाऽपायो वत्तते देशान्तरगमनेनोपार्जितद्रविणयोस्तल्लोभात् परस्परमारणपरिणतयोः स्वग्रामाद् बहिः प्राप्तावनुतापात् इदत्यक्तमत्स्यगिलिततद्वित्तयोमत्स्यबन्धकपार्थात् गृहीतस्य तस्य मत्स्यस्य विदारणेऽवाप्ततद्रव्यलुग्धभगिन्या मत्स्यच्छेदकशस्त्राभिघातेन तदुद्दालनप्रवृत्तमारितमातृकायास्तथाविधव्यतिकरदर्शनोपन्नसंवेगात् प्रतिपन्नप्रव्रज्ययोर्धातृवणिजोरिव, तत्परिहारश्च प्रवज्यया तत्त्यागादिति, आहरणता चास्य देशेनोपनयस्याविवक्षणादिति, तथा क्षेत्रात् क्षेत्रे वा क्षेत्रमेव वाऽपायः क्षेत्रापायः, शेषं तथैव, एवमुत्तरत्रापि, तनयोगःअपायवत् क्षेत्र वर्जयेत् जरासन्धाभिधानप्रतिवासुदेवात् सम्भावितापायां मधुरानगरी यथा दशाहचक्र वर्जयामासेति,
अनुक्रम [३६०]
+545-45
आहरणस्य भेदा:
~519~
Page #520
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[३३८]
दीप
अनुक्रम [३६०]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
उद्देशक [३], मूलं [ ३३८ ]
स्थान [ ४ ], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थाना के अथवा सम्भवत्यपायः सप्रत्यनीकक्षेत्रे ससर्पगृहवत्, कालापायो यथा-सापायकालवर्जने यतेत, द्वैपायनो द्वारकामावर्षद्वादशकाद्धक्ष्यतीति श्रुतनेमिनाथवचनो द्वादशवर्षलक्षणसापाय कालपरिजिहीर्षयोत्तरापथप्रवृत्तो द्वैपायनो यथेति, अथवा सापायोऽपि भवति कालो रुद्रादिवदिति, तथा भावापायो यथा भावापायं परिहरेत् महानागवत् नागदत्तक्षुल्लकवद्वेति, तथाहि किल कश्चित् क्षपकः प्रस्तुतपारणकः सधुलकः समारब्धभिक्षार्थभ्रमणकः कथशिन्मारितमण्डूकिकः क्षुलकप्रेरितोऽप्रतिपन्नतद्वचनः पुनरावश्यककाले स्मारिततदर्थः समुत्यन्नकोपः क्षुल्लकोपघातायाभ्युत्थितो वेगादागच्छन् स्तम्भ आपतितो मृतो ज्योतिष्केषूपनोऽनन्तरं च्युतो जातिस्मरदृष्टिविषसर्पतयोखन्नः सर्पदष्टमृतपुत्रेण च सप्र्पेषु कुपितेन राज्ञाऽऽदिष्टजनमार्यमाणेषु नागेषु नागविनाशकनरेण केनाप्योषधिवलादाकृष्यमाणो दृष्टकोपविपाकतया च मद्दृष्टिविषेण मा घातकपुरुषविघातो भवत्विति भावनया पुच्छतो निर्गच्छन् यथानिर्गमं च खण्ड्यमानः कोपलक्षणभावापायं परिहृतवानिति, तथा स एवानन्तरं नागदत्ताभिधानराजसुततयोत्सन्नो बालत्व एव प्रतिपन्नप्रत्रज्योऽत्यन्तसंविग्नस्तिर्यग्भवाभ्यासाच्चात्यन्तक्षुधालुरादित्योदयादस्तमयं यावद् भोजनशीलोऽसाधारणगुणावर्जितदेवताभिवन्दितोऽत एव तद्गच्छगतमासादिक्षपकचतुष्टयस्येर्ष्याविषयीभूतो विनयार्थं तेषामुपदर्शितस्वार्थानीतभोजनः तैश्च म त्सराद्भोजनमध्यनिष्ठ्यतनिष्ठीवनोऽत्यन्तोपशान्तश्चित्तवृत्तितया यः सञ्जातकेवलः पुर्देवतावन्दितस्तेषामपि क्षपकाणां | संवेगहेतुत्वेन केवलज्ञानदर्शनसमृद्धिसम्पादकः कोपरूपं भावापायं परिजहारेति, अथवा कोपादिलक्षणो भावोऽपायो भवति क्षपकस्येवेति, गाथे इह "देव्वावाए दुन्नि व वाणियगा भायरो धणनिमित्तं । वहपरिणयमेकमिकं दमि म
ङ्गसूत्र
वृत्तिः
।। २५५ ।।
Education intemational
आहरणस्य भेदा:
For Personal & Pre Only
~520~
४ स्थाना०
उद्देशः ३ आहरण
भेदाः
सू० १३८
।। २५५ ।।
Page #521
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [३३८]
च्छेण निब्बेओ॥१॥ खितमि अवक्कमणं दसारवग्गस्स होइ अवरेणं । दीवायणो य काले भावे मंडुकियाखमओ
॥२॥" [द्रव्यापाये द्वौ वणिग्भ्रातरौ धननिमित्तं । वधपरिणतौ एकैकस्मिन् हदे मत्स्येन निर्वेदः॥१॥ क्षेत्र काअवक्रमणं दशाहवर्गस्य भवत्यपरस्याम । दीपायनश्च काले भावे मण्डू किकाक्षपकः ॥२॥] इति, 'उवाए'त्ति उपाय:
उपर्य प्रति पुरुषव्यापारादिका साधनसामग्री स यत्र द्रव्यादावुपये अस्तीत्यभिधीयते यथैतेषु द्रव्यादिविशेषेषु साधनीयेष्वस्त्युपायो विवक्षितद्रव्यादिविशेषवत् , उपादेयता वाऽस्य यत्राभिधीयते तदाहरणमुपाय इति, सोऽपि द्रव्यादिभिश्चतुर्दैव, तत्र द्रव्यस्य सुवर्णादेः प्रासुकोदकादेर्वा द्रव्यमेव वा उपायो द्रव्योपायः, एतत्साधनमेतदुपादेयतासाधनं वाऽऽहरणमपि तथोच्यते, तत्प्रयोगश्चैवम्-अस्ति सुवर्णादिषूपाया उपायेनैव चा सुवर्णादौ प्रवर्तितव्यं, तथाविधधातुवादसिद्धादिवदिति, एवं क्षेत्रोपाय:-क्षेत्रपरिकर्मणोपायो यथा अस्त्यस्य क्षेत्रस्य क्षेत्रीकरणोपायो| लाङ्गलादिस्तथाविधसाधुव्यापारो वा तेनैव वा प्रवर्तितव्यमत्र तथाविधान्यक्षेत्रवदिति, एवं कालोपाय:-कालज्ञानोपायः, यथा अस्ति कालस्य ज्ञाने उपायः धान्यादेरिव, जानीहि वा कालं घटिकाच्छायादिनोपायेन तथाभूतगणितज्ञवदिति, एवं भावोपायो यथा भावज्ञाने उपायोऽस्ति भावं वोपायतो जानीहि, वृहत्कुमारिकाकथाकथनेन | | विज्ञातचौरादिभावाभयकुमारवदिति, तथाहि-किल राजगृहनगरस्वामिनः श्रेणिकराजस्य पुत्रोऽभयकुमाराभिधानो देवताप्रसादलब्धसर्व कफलादिसमृद्धारामस्थायफलानां अकालायफलदोहदवदार्यादोहदपूरणार्थ चाण्डालचौरेणापहरणे कृते चौरपरिज्ञानार्थं नाव्यदर्शननिमित्तमिलितबहुजनमध्ये बृहत्कुमारिकाकथामचकथत् , तथाहि-काचिद् वृद्धकुमारिका
दीप
अनुक्रम [३६०]
CAR
आहरणस्य भेदा:
~521~
Page #522
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
स्थाना. उद्देशः ३ आहरण
सूत्रांक [३३८]
भेदाः
w
॥२५६॥
सू०३३८
+
दीप अनुक्रम [३६०]
श्रीस्थाना-|बाञ्छितवरलाभाय कामदेवपूजार्थमारामे पुष्पाणि चोरयन्ती आरामपतिना गृहीता सद्भावकथने विवाहितया पत्या मसूत्र- अपरिमुक्तया मसार्वे समागन्तव्यमित्यभ्युपगम कारयित्वा मुक्ता ततः कदाचित् विवाहिता सती पतिमापृच्छच रात्रा- वृत्तिः वारामपतिपार्चे गच्छन्ती चौरराक्षसाभ्यां गृहीता सद्भावकथने प्रतिनिवृत्तया भवसाचे आगन्तव्यमितिकृताभ्युपगमा
मुक्ता आरामे गता आरामिकेण सत्यप्रतिज्ञेत्यखण्डितशीला विसर्जिता इतराभ्यामपि तथैव विसर्जिता पतिसमीपमा
गतेति, ततो भो लोकाः पत्यादीनां मध्ये को दुष्करकारक इति चासौ पप्रच्छ, तत ईष्यालुप्रभृतयः पत्यादीन् दुष्कसरकारित्वेनाभिदधुः, चौरचाण्डालस्तु चौरानिति, ततोऽसावनेनोपायेन भावमुपलक्ष्य चौर इतिकृत्वा तं बन्धयामासेति,
अत्रापि गाथे-"एमेव चउविगप्पो होइ उवाओऽवि तत्थ दबम्मि । धाउब्वाओ पढमो जंगलकुलिएहिं खेत्तं तु ॥१॥ कालोऽवि नालियाईहिं होइ भावम्मि पंडिओ अभओ। चोरस्स कए णट्टि य वडकुमारि परिकहिंसु ॥२॥" [एवमेव चतुर्विकल्पो भवत्युपायोऽपि तत्र द्रव्ये धातुबादः प्रथमः लांगूलकुलिक क्षेत्रं तु ॥१॥ कालोऽपि नालिकादिभिः भवति भावे पंडितोऽभयः चौरस्य कृते नृत्ये वृद्धकुमारीकथां परिचख्यौ ।॥२॥] इति । 'ठवणाकम्मे'त्ति स्थापन प्रतिष्ठापनं स्थापना तस्याः कर्म-करणं स्थापनाकम्में येन ज्ञातेन परमतं दूषयित्वा स्वमतस्थापना | क्रियते तत्स्थापनाकम्मेंति भावः, तच द्वितीयाने द्वितीयश्रुतस्कन्धे प्रथमाध्ययन पुण्डरीकाय, तत्र युक्तमस्ति-काचित्पुष्करिणी कईमप्रचुरजला तन्मध्यदेशे महत्पुण्डरीकं तदुद्धरणार्थ चतसृभ्यो दिग्भ्यश्चत्वारः पुरुषाः सकईममार्गः प्रवेष्टुमारब्धाः, ते चाकृततदुद्धरणा एवं पङ्के निमग्नाः, अन्यस्तु तटस्थोऽसंस्पृष्टकर्दम एवामोघवचनतया तदुदतवानिति
२५९॥
आहरणस्य भेदा:
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [३३८]
46045614455445%85%25-5
ज्ञातम् , उपनयश्चायमत्र-कर्दमस्थानीया विषयाः पुण्डरीकं राजादिव्यपुरुषः चत्वारः पुरुषाः परतीर्थिकाः पञ्चमः पुरुषः साधुः अमोधवचनं धर्मदेशना पुष्करिणी संसारः तदुद्धारो निर्वाणमिति, अनेन च ज्ञातेन विषयाभिष्वङ्गवतां तीथिकानां भव्यस्य संसारानुत्तारकत्वं साधोश्च तद्विपर्ययं बदता आचार्येण परमतदूषणेन स्वमतं स्थापितमतो भवतीदं ज्ञातं स्थापनाकम्र्मेति, अथवाऽऽपन्नं दूषणमपोह्य स्वाभिमतस्थापना कार्येत्येवंविधार्थप्रतिपत्तिर्यतो जायते तत्स्थापनाकर्म, किल मालाकारेण केनापि राजमार्गपुरीपोत्सर्गलक्षणापराधापोहाय तत्स्थाने पुष्पपुञ्जकरणेन किमिदमिति पृच्छतो लोकस्य हिंगुशिवो देवोऽयमिति बदता व्यन्तरायतनस्थापना कृतेति, एतस्मारिकलाख्यानकादुक्तार्थः प्रतीयत इतीद स्थापनाकम्भेति, तथा नित्यानित्यं वस्त्वित्यसङ्गतं जिनमतं विरुद्धधर्माध्यासादिति दूषणमापन्नमेतद्व्यपोहायोच्यतेविरुद्धधर्माध्यासो न भेदनिबन्धनं विकल्पस्येव, विकल्पो हि क्रमभाविवर्णो लेखवान् विरुद्धधम्मोपेतो भवति, न च कथचिदेको न भवति, खण्डशो विभक्तस्य तस्य स्वरूपलाभाभावात् प्रवृत्तिनिवृत्त्योरकारणता स्यादसमञ्जसं चैवमिति, एवश्च विरुद्धधर्माध्यासस्य कथश्चिदभेदकत्वे सति न केवलं नित्यानित्यं न भवतीति दूषणमपोढमपि तु सर्वमनेकान्तात्मकमिति विकल्पज्ञानेन स्वमतं प्रसाधितम् , अतो विकल्पज्ञातं स्वमतस्थापनेन स्थापनाकर्मेति, अन नियुक्तिगाथा:"ठेवणाकम्मं एक [अभेदमित्यर्थः> दिढतो तत्थ पुंडरीयं तु । अहवाऽवि सनढकण हिंगुसिवकर्य उदाहरणं ॥१॥" इति, सव्यभिचारी हेतुर्यः सहसोपन्यस्तस्तस्य समर्थनार्थ यो दृष्टान्तः पुनरुपन्यस्यते स स्थापनाकर्मेति, उक्तं च
१ स्थापना कर्म अभिन्न स्थान्तसन पुटरीकं तु अथवा पिसंहाच्यादयगिविलदेवतमुदाहरणम् ॥1॥
दीप
अनुक्रम [३६०]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
3भेदाः
सूत्रांक [३३८]
दीप
श्रीस्थाना-8"संवभिचारं हे सहसा बोत्तुं तमेव अन्नेहिं । उवबूहइ सप्पसरं सामत्थं चप्पणो णा ॥१॥" ति, तद्यथा-अनित्यः४स्थाना. जसूत्र
शब्दः कृतकत्वात्, अथ वर्णात्मके शब्दे कृतकत्वं न विद्यते वर्णानां नित्यतयाऽभिहितत्वादिति व्यभिचारः, समर्थना पु- उद्देशा३ वृत्तिः नर्णात्मा शब्दः कृतको निजकारणभेदेन भिद्यमानत्वात् घटपटादिवत्, घटादिदृष्टान्तेन हि वर्णानां कृतकत्वं स्थापि- आहरण
तमिति भवत्ययं स्थापनाकम्र्मेति, 'पडप्पन्नविणासित्ति प्रत्युत्पन्नस्य-तत्कालोत्पन्नवस्तुनो विनाशोऽभिधेयतया यत्रास्ति ॥२५७॥
तत्प्रत्युत्पन्नविनाशीति, यथा केनापि वणिजा दुहित्रादिस्त्रीपरिवारशीलविनाशरक्षार्थं तदासक्तिनिमित्तस्वगृहासन्नराजगा- सू० ३३८ न्धर्विकगुणनिकायाः स्वगृहे कुलदेवतानिवेशनाद् गुणनिकाकाले तस्या देवताया अग्रतः आतोद्यनादब्याजेन राजाप-|
राधपरिहारेण विनाशः कृतः, एवं गुरुणा शिष्यान् कचिद् वस्तुन्यध्युपपद्यमानानुपलभ्य तस्य तदासक्तिनिमित्तत्वमु-| लापहन्तव्यमित्येवं प्रत्युत्पन्नविनाशनीयताज्ञापकत्वात् प्रत्युत्पन्नविनाशिज्ञातता गन्धर्षिकाख्यानकस्थावगन्तव्येति, उक्तश्च
--"होति पडुप्पन्नविणासणंमि गंधचिया उदाहरणं । सीसोऽवि कथइ जई अज्झोवजेज तो गुरुणा ॥१॥ वारेयन्वो उवाएणं" इति, अथवा अकर्ताऽऽत्मा अमूर्तत्वादाकाशवदित्युत्पन्ने आत्मनोऽकर्तृत्वापत्तिलक्षणे दूषणे तद्विना-13 शायोच्यते-कत्र्सवात्मा कथञ्चिन्मूर्तत्वाद्देवदत्तवदिति । व्याख्यातमाहरणं, आहरणता चैतद्भेदानां देशेन दोषवत्तया चोपनयनाभावादिति । अथाहरणतद्देशो व्याख्यायते स च चतुर्डा, तत्र अनुशासनमनुशास्तिः-सद्गुणोरकीतेनेनोपबृंहणं | 2
%
॥२५७॥ १ सव्यभिचार हेतु सहसोक्त्वा समेवाभ्यः उपयति सप्रसंग सामर्थ्य चारमनो हावा ॥१॥२ भवति प्रत्युत्पन्न विनापने गांधर्षिकोदाहरणं शिष्योऽपि | कुत्रापि यदि अभ्युपपद्यत तदा गुरुणोपायेन वारवितव्यः॥
अनुक्रम [३६०]
आहरणस्य भेदा:
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[३३८]
दीप
अनुक्रम [३६०]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
उद्देशक [३], मूलं [ ३३८ ]
स्थान [ ४ ], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
सा विधेयेति यत्रोपदिश्यते साऽनुशास्तिः, यथा गुणवन्तोऽनुशासनीया भवन्ति, यथा साधुलोचनपतितरजःकणापन-' यनेन लोकसम्भावितशीलकलङ्का तत्क्षालनायाराधितदेवताकृतप्रातिहार्या चालनीव्यवस्थापितोदकाच्छोदनोद्घाटितचंपागोपुरत्रया सुभद्रा अहो शीलवतीति महाजनेनानुशासितेति, उक्तं च- "आहरणं तदेसे चउहा अणुसट्ठि तह उवालंभो । पुच्छा निस्सावयणं होइ सुभद्दाऽणुसट्टीए ॥ १ ॥ साहुकारपुरोयं जह सा अणुसासिया पुरजणेणं । वेयावच्चाईसुचि एव जयंतेववूहेजा ॥ २ ॥” इति इह च तथाविधवैयावृत्त्य करणादिनाप्युपनयः सम्भवति तत्यागेन च महाजनानुशास्तिमात्रेणोपनयः कृत इत्याहरणतदेशतेति एवमनभिमतांशत्यागादभिमतांशोपनयनमुत्तरेष्वपि भावनीयमिति, तथा उपालम्भनं उपालम्भो-भयन्तरेणानुशासनमेव स यत्राभिधीयते स उपालंभो यथा कचिदपराधवृत्तयो विनेया उपालम्भनीयाः यथा महावीरसमवसरणे सविमानागतचन्द्रादित्योद्योतेन कालविभागमजानती मृगावतीनाम्नी साध्वी स्थिता ततस्तद्गमनेऽतिकालोऽयमिति सम्भ्रान्ता सह साध्वीभिरार्यचन्दनासमीपं गता तया चोपालब्धा - अयुक्तमिदं | भवादृशीनामुत्तमकुल जातानामिति तथा पृच्छा-प्रश्नः किं कथं केन कृतमित्यादि सा यत्र विधेयतयोपदिश्यते सा पृच्छा, यथा प्रच्छनीया ज्ञानिनो निर्णयार्थिभिर्यथा भगवान् कोणिकेन पृष्टः, तथाहि किल कोणिकः श्रेणिकराजपुत्रः श्रमण भगवन्तं महावीरं पप्रच्छ तद्यथा-भदन्त । चक्रवर्त्तिनोऽपरित्यक्तकामा मृताः कोलद्यन्ते १, भगवताऽभिहितं
आहरणस्य भेदा:
१ आहरणं देथे चतुर्थी अनुशास्तिस्तथोपाभः पृच्छा निभावचनं भवति सुभदा नुशास्ती ॥ १ ॥ साधुकारपूर्वक यथा साऽनुशिष्टा पौरजनेन वैदास्वादिष्यपि एवं यतमानापयेत् ॥ २ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३३८]
दीप
श्रीस्थाना- सप्तमनरकपृधिव्या, ततोऽसौ वभाण-अहं कोत्पत्स्ये?, स्वामिनोक-पष्ठ्यां, स उवाच-अहं किं न सप्तम्यां?, स्वामिना स्थाना इसूत्र- जगदे-सप्तम्यां चक्रवर्तिनो यान्ति, ततोऽसावभिदधौ-किमहं न चक्रवर्ती ?, यतो ममापि हस्त्यादिकं तरसमानमस्ति, उद्देशः३ वृत्तिः स्वामिना प्रत्यूचे-तव रतनिधयो न सन्ति, ततोऽसौ कृत्रिमाणि रत्नानि कृत्वा भरतक्षेत्रसाधनप्रवृत्तः कृतमालि-131 आहरण
कयक्षेण गुहाद्वारे व्यापादितः षष्ठी गत इति । तथा 'निस्सावयणे'त्ति निश्श्रया वचनं निश्रावचनम्, अयमथे:-कमपि | भेदाः BR५८॥
सुशिष्यमालम्ब्य यदन्यप्रबोधार्थ वचनं तन्निश्रावचनं तद्यत्र विधेयतयोच्यते तदाहरणं निश्रावचनं, यथा असहनान्सू ० ३३८ विनेयान् माईवसम्पन्नमन्यमालम्न्य किश्चिद् ब्रूयात् , गौतममाश्रित्य भगवानिवेति, तथाहि-किल गौतम तापसादिप्रनजि-|
तानां केवलोत्पत्तावनुत्पन्नकेबलत्वेनाधृतिमन्तं चिरसंश्लिष्टोऽसि गौतम ! चिरपरिचितोऽसि गौतम! मा त्वमति कार्षी-16 परित्याविना वचनसन्दोहेनानुशासयता अन्येऽप्यनुशासिताः, तदनुशासनार्थं द्वमपत्रकाध्ययनं च प्रणिन्ये इति, उक्तंच
"पुच्छाए कोणिए खलु निस्सावयणमि गोयमस्सामि" [पृच्छायां कोणिकः खलु निश्रावचने गौतमस्वामी] इति॥ व्याख्यातं | तद्देशोदाहरणम् , तद्दोषोदाहरणमथ व्याख्यायते, तश्च चतुर्डा, तत्र 'अहम्मजुत्ते'त्ति यदुदाहरणं कस्यचिदर्थस्य साधनायोपादीयते केवलं पापाभिधानस्वरूपं येन चोक्तेन प्रतिपाद्यस्याधर्मबुद्धिरुपजन्यते तदधर्मयुक्तं, तद्यथा-उपायेन का
योणि कुर्यात् कोलिकनलदामवत्, तथाहि-पुत्रखादकमरकोटकमार्गेणोपलब्धविलवासानामशेषमकोटकानां तप्तजलस्य दविले प्रक्षेपणतो मारणदर्शनेन रञ्जितचित्तचाणक्यावस्थापितेन चौरग्राहनलदामाभिधानकुविन्देन चौर्यसहकारितालक्षणो
२५८॥ पायेन विश्वासिता मिलिताश्चौरा विषमिश्रभोजनदानतः सर्वे व्यापादिता इति, आहरणतदोषता चास्याधर्मयुक्तत्वात् तथा
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आगम
(०३)
प्रत सूत्रांक
[३३८]
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अनुक्रम [३६०]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) स्थान [ ४ ], उद्देशक [३], मूलं [ ३३८ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३ ]
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आहरणस्य भेदा:
विधश्रोतुरधर्मबुद्धिजनकत्वा चेति, अत एव नैवंविधमुदाहर्त्तव्यं यतिनेति, 'पडिलो मे 'ति प्रतिकूलं यत्र प्रातिकूल्यमुपदिश्यते यथा शठं प्रति शठत्वं कुर्यात्, यथा चण्डप्रद्योते तदपहरणार्थं तदपहृताभयकुमारश्च कारेति, तद्दोषता चास्य श्रोतुः परापकारकरणनिपुणबुद्धिजनकत्वात्, अथवा पृष्टप्रतिवादिना द्वावेव राशी जीवश्चाजीवश्चेत्युके तत्प्रतिघातार्थं क श्चिदाह तृतीयोऽप्यस्ति नोजीवाख्यो गृहकोलिकादिच्छिन्नपुच्छवदिति, अस्थापि तद्दोषताऽपसिद्धान्ताभिधानादिति, 'अतोवणीए ति आत्मैवोपनीतः तथा निवेदितो नियोजितो यस्मिंस्तत्तथा, येन ज्ञातेन परमतदूपणा योपा तेनात्ममतमेव दु|ष्टतयापनीयते यथा पिङ्गलेनात्मा तदात्मोपनीतं, तथाहि कथमिदं तडागमभेदं भविष्यतीति राज्ञा पृष्टः पिङ्गलाभिधानः स्थपतिरवोचत्-भेदस्थाने कपिलादिगुणे पुरुषे निखाते सतीति, अमात्येन तु स एव तत्र तद्गुणत्वान्निखात इति तेनास्मैव नियुक्तः, स्ववचनदोषात्, तदेवंविधमात्मोपनीतमिति, अत्रोदाहरणं यथा सर्व्वे सत्त्वा न हन्तव्या इत्यस्य पक्षस्य दूषणाय कश्चिदाह-अन्यधम्र्मस्थिता हन्तव्या विष्णुनेव दानवा इत्येवंवादिना आत्मा हन्तव्यतयोपनीतो धम्र्मान्तरस्थित पुरुषाणामत्त, तद्दोषता तु प्रतीतैवास्यति, 'दुरुवणीए'ति दुष्टमुपनीतं निगमितं योजितमस्मिन्निति दुरुपनीतं परिव्राजकवाक्यवद् यथा हि किल कश्चित् परित्राजको जालव्यमकरो मत्स्यबन्धाय चलितः, केनचिद् धूर्त्तेन किञ्चिदुतस्तेन च तस्योत्तरमसङ्गतं दत्तम् अत्र च वृत्तं - "कन्धाऽऽचार्याऽघना ते ननु शफरवधे जालमश्नासि मत्स्यांस्ते मे मद्योपदंशान् पिवासे ननु ? युतो वेश्यया यासि वेश्याम् ? । दत्त्वाऽरीणां गलेऽहि क्व नु तव रिपवो? येषु सन्धि छिनझि, चौरस्त्वं ? द्यूतहेतोः कितव इति कथं ? येन दासीसुतोऽस्मि ॥ १ ॥" इत्येवं प्रकृतसाध्यानुपयोगेि स्वमतदूषणावहं वा
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"स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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श्रीस्थाना
सूत्रवृत्तिः
सूत्रांक [३३८]
॥२५९॥
दीप
यत्सद्दार्शन्तिकेन सह साधाभावाद् दुरुपनीतमिति, यथा नित्यः शब्दो घटवद्, इह घटे नित्यत्वं नास्त्येवेति कुत-12 स्थाना. स्तत्साधाच्छब्दस्य नित्यत्वमस्तु?, अपि त्वनित्यत्वात् घटस्य तत्साधयांच्छब्दस्यानित्यत्वमेवानभिमतं सिध्यतीति सा- उद्देशा३ ध्यानुपयोगीदमुदाहरणम् , तथा सन्तानोच्छेदो मोक्षो दीपस्येवेत्यभ्युपगमे दीपदृष्टान्तादनादिमतोऽपि सन्तानस्याव- आहरणस्तुता प्रतीयते, तथाहि-दीपस्थात्मनश्च सन्तानोच्छेद उत्तरक्षणाजनकत्वात् , तत्त्वे चार्थक्रियाकारित्वलक्षणसवाभावा- भेदाः दन्त्यक्षणस्थावस्तुत्वम् अवस्तुत्वजनकत्वात् पूर्वक्षणस्यापि तत एव पूर्वतरस्यापीत्येवं समस्त स्यापि सन्तानस्यावस्तुत्वम् ,
सू० ३३८ अथ क्षणान्तरानारम्भेऽपि स्वगोचरज्ञानजननलक्षणार्थक्रियाकारित्वादन्त्यक्षणो वस्तु भविष्यति, नैवम् , एवं हि भूतभाविपर्यायपरम्परापि योगिज्ञानं स्वविषयमुत्पादयतीति वस्तुत्वं स्वीकुर्यात्, तन्न क्षणान्तरानारम्भे वस्तुत्वमित्यतो| भवति दीपज्ञातं स्वमतदूषणावहमिति, अथवा अनित्यः शब्दः कृतकत्वाद् घटवदिति वक्तव्ये सम्भ्रमादनित्यो घटः कृतकत्वाच्छन्दवदिति बदतो दुरुपनीतं विपर्ययोपनयनादिति, अत्र गाथा:-"पढम अहम्मजुत्तं पडिलोमं अत्तणो उवनासो । दुरुवणियं च चउत्थं अहम्मजुत्तमि नलदामो ॥ १॥ पडिलोमे जह अभओ पजोयं हरइ अवहिओ संतो"| इति “असउवनासंमि य तलायभेयंमि पिंगलो धवई । अणिमिसगेण्हणभिच्छुग दुरुवणीए उदाहरणं ॥१॥" इति, उक्त | आहरणतद्दोषोऽधुनोपन्यासोपनय उच्यते, स च चतुद्धो, तत्र 'तव्वत्थुए'त्ति तदेव-परोपन्यस्तसाधनं वस्त्विति-उत्तः |
॥२५९॥ १ प्रथममधर्मयुर प्रतिलोम आरमन उपन्यासः रुपनीतं च चतुर्थमधर्मयुक्ते नवदामः ॥ १॥ प्रतिलोनि यथाऽभयः प्रद्योत हरति अपहता सन् ॥ &II आत्मोपन्यासे च तडाकमेरे पिंगलः स्वपतिः अनिमेषग्राहकभिक्षु रुपनीते उदाहरणं ॥१॥
अनुक्रम [३६०]
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आहरणस्य भेदा:
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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सूत्रांक [३३८]
कारभूतं वस्तु यस्मिन्नुपन्यासोपनये स तद्वस्तुकोऽथवा तदेव-परोपन्यस्तं वस्तु तद्वस्तु तदेव तद्वस्तुकं तद्युक्त उपन्यासोमापनयोऽपि तद्वस्तुक इत्युच्यते एवमुत्तरत्रापि, यथा कश्चिदाह-समुद्रतटे महान् वृक्षोऽस्ति, तच्छाखा जलस्थलयोरुपरि |स्थिताः, तसत्राणि च यानि जले निपतन्ति तानि जलचरा जीवा भवन्ति यानि च स्थले निपतन्ति तानि स्थलचरा इति, अन्यस्तदुपन्यस्तमेव तरुपत्रपतनवस्तु गृहीत्वा तदुक्तं विघटयति, यदुत-यानि पुनर्मध्ये तेषां का वात्सेत्येतदुपपत्तिमात्रमुत्तरभूतं तद्वस्तुक उपन्यासोपनयो, ज्ञातत्वं चास्य ज्ञातनिमित्तत्वात् , अथवा यथारूढमेव ज्ञातमेतत् , तथा हि एवं प्रयोगोऽस्थ-जलस्थलपतितपत्राणि न जलचरादिसत्त्वाः सम्भवन्ति, जलस्थलमध्यपतितपत्रवत्, तन्मध्यपति|तपत्राणां हि जलस्थलपतितपत्रजलचरत्वादिप्राप्तिवदुभयरूपप्रसङ्गो, न चोभयरूपाः सत्त्वा अभ्युपगता इति, अथवा नित्यो जीवः अमूर्तत्वादाकाशवदित्युक्ते आह-अनित्य एवास्तु अमूर्तत्वात् कर्मवदिति । तथा 'तयन्नवत्थुएत्ति तस्मात्-परोपन्यस्ताद् वस्तुनोऽन्यदुत्तरभूतं वस्तु यस्मिन्नुपन्यासोपनये स तदन्यवस्तुको यथा जले पतितानि जलचरा इत्युक्ते एतद्विघटनाय पतनादन्यदुत्तरमाह-यानि पुनः पातयित्वा खादति नयति वा तानि किं भवन्ति?, न किचिदित्यर्थोऽयमपि ज्ञापकतया ज्ञातमुक्तः, अथवा यथारूढमेव ज्ञातमेषः, तथाहिन्न जलस्थलपतितानि पत्राणि जलचरादिसत्त्वाः सम्भवन्ति, मनुष्याद्याश्रितानीव, अयमभिप्रायो यथा-जलाद्याश्रितत्वात् जलचरादितया तानि सम्पद्यन्ते तथा मनुष्याद्याश्रिततया मनुष्यादिभवयूकादितयाऽपि सम्पद्यन्ताम्, आश्रितत्वस्याविशेषात् , न च तानि तथाऽभ्युपगम्यन्त इति जलादिगतानामपि जलचरत्वाद्यसम्भव इति, तथा 'पडिनिभेत्ति यत्रोपन्यासोपनये वादिनोपन्यस्तव
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अनुक्रम [३६०]
'आहरण तद्दोषा
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना-
प्रत
नसूत्रवृत्तिः
सूत्रांक [३३८]
॥२६॥
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स्तुनः सदृशं वस्तूत्तरदानायोपनीयते स प्रतिनिभो यथा कोऽपि प्रतिजानीने यदुत-यो मामपूर्व श्रावयति तस्मै लक्ष-1टा स्थाना. मूल्यमिदं कटोरकं ददामीति, स च श्रावितोऽपि तन्नापूर्वमिति प्रतिपद्यते, तत एकेन सिद्धपुत्रेणोक्तम्-"तुझ पिया उद्देशा३ मज्झ पिउणो, धारेड अणूणयं सयसहस्सं । जइ सुयपुव्वं दिजउ अह न सुयं खोरयं देहि ॥१॥” इति, प्रतिनिभता आहरणचास्य सर्वस्मिन्नप्युक्ते श्रुतपूर्वमेवेदं ममेत्येवमसत्यं वचो ब्रुवाणस्य परस्य निग्रहाय तव पिता मम पितुद्धारयति लक्षमि
भेदाः | त्येवंविधस्य द्विपाशरजुकल्पस्यासत्यस्यैव वचस उपन्यस्तत्वादिति, अस्य चोपपत्तिमात्ररूपस्याप्यर्थज्ञापकतया ज्ञातत्व-
I सू० १२८ मुक्तमिति, अथवा यथारूढमेव ज्ञातमेपः, तथाहि अत्रायं प्रयोगः-नास्त्यश्रुतपूर्व किश्चित् श्लोकादि ममेत्येवमभिमानधनं बेमो वयम्-अस्ति तवाश्रुतपूर्व वचनं तव पिता मम पितु रयत्यनूनं शतसहस्रमिते यथेाते । तथा 'हे'त्ति यत्रोपन्यासोपनये पर्यनुयोगस्य हेतुरुत्तरतयाऽभिधीयते स हेतुराित, यथा केनापि कश्चित् पर्यनुयुक्तः-अहो कि यवाः क्रीयन्ते त्वया?, स त्वाह-येन मुधैव न लभ्यन्ते इति, तथा कस्मात् ब्रह्मचर्यादिकष्टमनुष्ठीयते ?, यस्मादकृततपसां नरकादौ गुरुतरा वेदना भवतीति, इदमपि उपपत्तिमात्रमेव ज्ञातत्वेनोक्तमर्थज्ञापकत्वादिाते, अथवाऽयमपि यथारूढं ज्ञातमेव, तथाह्यस्यैवं प्रयोगः-कस्मात् त्वया प्रव्रज्या क्रियत इति पृष्टः सन् केनापि साधुराह-यतस्तां विना मोक्षो न भवति, एतत्समर्थनायैव साधुस्तमाह-भो यवमाहिन्! किमिात त्वया यवाः क्रीयन्ते ?, स त्वाह-येन मुधा न लभ्यन्ते, साधो
॥२६॥ पश्चायमभिप्रायो यथा-मुधालाभाभावात् तान् क्रीणासि त्वमेवमहं तां विना तदभावात्तां करोमीति, इह च मुधा य
१ तब पिता मम पितुर्धारयत्पनूनं शतसहस्रं यदि श्रुतपूर्व ददातु अथ न श्रुवं क्षौरकं देहि ॥१॥
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [३३८]
बालाभस्य क्रयणे हेतोः सतो दृष्टान्ततयोपन्यस्तत्वाद्धेतूपन्यासोपनयज्ञाततेति, इह च किश्चिद्विशेषेणैवंविधा ज्ञातभेदाः। सम्भवन्त्यन्येऽपि किन्तु ते न विवक्षिताः अन्तर्भावो वा कथश्चित् गुरुभिर्विवक्षितो न च तं वयं सम्यग् जानीम इति । अथ ज्ञातानंतरं ज्ञातवद्धेतोः साध्यसिद्ध्यङ्गत्वात् तद्भेदान हेऊ इत्यादिना सूत्रत्रयेणाह-व्यक्तं चैतत्, नवरं हिनोति-18 गमयति ज्ञेयमिति हेतुः-अन्यथाऽनुपपत्तिलक्षणः, उक्तश्च-"अन्यथाऽनुपपन्नत्वं, हेतोर्लक्षणमीरितम् । तदप्रसिद्धिसन्देह| विपर्यासैस्तदाभता ॥१॥" इति, प्रागुक्तश्च हेतुः पर्यनुयुक्तस्योत्तररूपमुपपत्तिमात्रमयं तु साध्यं प्रत्यन्वयव्यतिरेकवान् 18| तथाविघदृष्टान्तस्मृततद्भाव इति, स चैकलक्षणोऽपि किचिद्विशेषाचतुर्डा, तत्र 'जावए'त्ति यापयति-वादिनः कालया-18 | पनां करोति, यथा काचिदसती एकैकरूपकेण एकैकमुष्ट्रलिण्डं दातव्यमिति दत्तशिक्षस्य पत्युस्तद्विक्रयार्थेमुज्जयनीप्रेष-1 णोपायेन विटसेवायां कालयापनां कृतवतीति यापका, उक्तञ्च-"उब्भामिया य महिला जावगहेउम्मि उट्टलिंडाई ॥" इति, इह वृद्घाख्यातम्-प्रतिवादिनं ज्ञात्वा तथा तथा विशेषणबहुलो हेतुः कर्त्तव्यो यथा कालयापना भवति, ततो|ऽसौ नावगच्छति प्रकृतमिति, स चेदृशः सम्भाव्यते-सचेतना वायवः अपरप्रेरणे सति तियगनियतत्वाभ्यां गतिम-16 चात् गोशरीरवदिति, अयं हि हेतुर्विशेषणबहुलतया परस्य दुरधिगमत्वात् वादिनः कालयापनां करोति, स्वरूपमस्या-12
नवबुज्यमानो हि परो न झगित्येवानकान्तिकत्वादिदूषणोद्भावनाय प्रवर्तितुं शक्नोति, अतो भवत्यस्माद् वादिनः काल-18 नयापनेति, अथवा योऽप्रतीतव्याप्तिकतया व्याप्तिसाधकप्रमाणान्तरसव्यपेक्षत्वान्न झगित्येव साध्यप्रतीतिं करोति अपि तु|
कालक्षेपेणेत्यसौ साध्यप्रतीति प्रति कालयापनाकारित्वाद्यापकः, यथा क्षणिक वस्त्विति पो बौद्धस्य सत्त्वादिति हेतुः,
दीप
अनुक्रम [३६०]
ABERucatanimal
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [३३८]
सास०३३८
दीप अनुक्रम [३६०]
श्रीस्थाना- नहि सत्त्वश्रवणादेव क्षणिकरवं प्रत्येति पर इल्यतो बौद्धः सत्त्वं क्षणिकत्वेन व्याप्तमिति प्रसाधयितुमुपक्रमते, तथाहि- स्थानाः
सत्त्वं नामार्थक्रियकारिखमेव, अन्यथा वन्ध्यासुतस्यापि सत्त्वप्रसङ्गः, अर्थक्रिया तु नित्यस्यैकरूपत्वान्न क्रमेण नापि वृत्तिः । योगपद्येन क्षणान्तरे अकर्तृत्वासङ्गादित्यतोऽर्थक्रियालक्षणं सत्त्वमक्षणिकान्निवर्तमान क्षणिक एवावतिष्ठत इत्येवं क्षेपेण
आहरण२६१॥R साध्यसाधने कालयापनाकारित्वाद् यापकः सत्त्वलक्षणो हेतुरिति । तथा स्थापयति पक्षमक्षेपेण प्रसिद्धव्याप्तिकत्वात्
भेदाः समर्धयति, यथा परिव्राजकधूर्ते लोकमध्यभागे दत्तं बहुफलं भवति तञ्चाहमेव जानामीति मायया प्रतिग्राममन्यान्यं सू० ३३ लोकमध्यं प्ररूपयति सति तन्निग्रहाय कश्चित् श्रावको लोकमध्यस्यैकत्वात् कथं बहुषु ग्रामादिषु तत्सम्भव इत्येवंवि-४ धोपपत्त्या त्वद्दर्शितो भो लोकमध्यभागो न भवतीति पक्ष स्थापितवानिति स्थापको हेतुः, उक्तञ्च "लोगस्स मज्झ-16 जाणण थावगहेऊ उदाहरणं" इति, स चायं-अग्निरत्र धूमात्, तथा नित्यानित्यं वस्तु द्रव्यपर्यायतस्तथैव प्रतीयमानत्वादिति, अनयोश्च प्रतीतव्याप्तिकतया अकालक्षेपेण साध्यस्थापनात् स्थापकत्वमिति । तथा व्यसयति-परं व्यामोहयति | शकटतित्तिरीग्राहकधूर्त्तवद् यः स व्यंसक इति, तथाहि-कश्चिदन्तराललब्धमृततित्तिरीयुक्तेन शकटेन नगरं प्रविष्टः
उक्तो धूर्तेन यथा-शकटतित्तिरी कथं लभ्यते?, स च किलायं शकटस्य सत्कां तित्तिरी याचत इत्यभिप्रायादवोचत्ट्रातर्पणालोडिकयेति, सक्त्वालोडनेन जलाद्यालोडितसक्तुभिरित्यर्थः, ततो धूर्तः साक्षिण आहुत्य सतित्तिरीके शकट ज-|
ग्राह, उक्तवांश्च मदीयमेतद्, अनेनैव शकटतित्तिरीति दत्तत्वात् , मया तु शकटसहिता तित्तिरी शकटतित्तिरीति गृही-&॥२६१ ।। तत्वादिति, ततो विषण्णः शाकटिक इति, अत्रोक्तम्-“सा सगडतित्तिरी मगंमि हेमि होइ णायब्वा ।।" इति, स चैवं
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [३३८]
|-अस्ति जीवोऽस्ति घट इत्यभ्युपगमे जीवघटयोरस्तित्वमविशेषेण वर्तते ततस्तयोरेकत्वं प्राप्तमभिन्नशब्दविषयस्वादिति व्यसको हेतुः, घटशब्दविषयघटस्वरूपवत्, अधास्तित्वं जीवादी न वर्त्तते ततो जीवाद्यभावः स्यादस्तित्वाभावादिति व्यंसकः प्रतिवादिनो व्यामोहकत्वादिति, तथा 'लूसए'त्ति लूपयति-मुष्णाति व्यंसकापादितमनिष्टमिति लूपको हेतुः, स एव शाकटिको, यथा-धूर्तान्तरशिक्षितेन हि शाकटिकेन तेन याचितोऽसौ धूर्त तर्हि देहि मे तर्पणालोडिकामिति, ततो धूर्तेनोक्ता स्वभार्या-देह्यस्मै सत्कूनालोड्येति, ताञ्च तथा कुर्वन्ती तद्भार्या गृहीत्वाऽसौ प्रस्थितोऽवादीच्च धूर्तमभि-मदीयेयं तर्पणमिति सत्कूनालोडयतीति तर्पणालोडिकेति भवतैव दत्तत्वादिति, स चायं यदि जीवघटयोरस्तित्ववृत्त्या एकत्वं सम्भावयसि तदा सर्वभावानामेकत्वं स्यात्, सर्वेष्यप्यस्तित्ववृत्तेरविशेषात् , न चैवमिति, इहास्तित्ववृत्तेरविशेषादित्ययं लूपको जीवघटयोरेकत्वापादनलक्षणस्याभावापत्तिलक्षणस्य वाऽनिष्टस्य परापादितस्यानेन लूषितत्वा-14 दिति, अथवेति हेतोः प्रकारान्तरताद्योतको विकल्पार्थों हिनोति-गमयति प्रमेयमर्थं स वा हीयते-अधिगम्यते अनेनेति हेतुः-प्रमेयस्य प्रमिती कारणं प्रमाणमित्यर्थः, स चतुर्विधः स्वरूपादिभेदात् , तत्र 'पञ्चक्खे'त्ति अश्वाति अश्नुतेव्यामोत्यानित्यक्ष:-आस्मा तं प्रति यद्वर्तते ज्ञान तत्प्रत्यक्ष निश्चयतोऽवधिमनःपर्यायकेवलानि, अक्षाणि वेन्द्रियाणि प्रति यत्सत्प्रत्यक्ष व्यवहारतस्तच्चक्षुरादिप्रभवमिति, लक्षणमिदमस्य-"अपरोक्षतयाऽर्थस्य, ग्राहकं ज्ञानमीदृशम् । प्रत्य-1 क्षमितरत् ज्ञेयं, परोक्ष प्रहणेक्षया ॥१॥" ग्रहणापेक्षयेति भावः, अन्विति-लिङ्गदर्शनसम्बन्धानुस्मरणयोः पश्चान्मानं -ज्ञानमनुमानम्, एतल्लक्षणमिदम्-"साध्याविनाभुवो लिङ्गात्, साध्यनिश्चायकं स्मृतम् । अनुमानं तदभ्रान्तं, प्रमा
दीप
SEXSASARAC9-36-*
अनुक्रम [३६०]
ForParamasPrvammoni
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[३३८]
दीप
अनुक्रम [३६०]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
उद्देशक [३], मूलं [ ३३८ ]
स्थान [ ४ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थाना णत्वात् समक्षवद् ॥ १ ॥” इति एतच्च साध्याविनाभूतहेतुजन्यत्वेनाप्युपचाराद्धेतुरिति तथा उपमानमुपमा सैवोपम्यं अनेन गवयेन सदृशोऽसौ गौरिति सादृश्यप्रतिपत्तिरूपं, उक्तञ्च - "गां दृष्ट्वाऽयमरण्येऽन्यं, गवयं वीक्षते यदा । भूयोऽवयवसामान्यभाजं वर्त्तुलकण्डकम् ॥ १ ॥ तस्यामेव त्ववस्थायां यद्विज्ञानं प्रवर्त्तते । पशुनैतेन तुल्योऽसौ, गोपिण्ड इति सोपमा ॥ २ ॥ इति, अथवा श्रुतातिदेशवाक्यस्य समानार्थोपलम्भने संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञानमुपमानमुच्यत इति, आगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते अर्था अनेनेत्यागमः- आप्तवचन सम्पाद्यो विप्रकृष्टार्थप्रत्ययः, उक्तश - "दृष्टेष्टाव्याहताद् वाक्यात्परमार्थाभिधायिनः । तस्वग्राहितयोत्पन्नं, मानं शाब्दं प्रकीर्त्तितम् ॥ १ ॥ आप्तोपज्ञमनुलक्ष्य मद्दष्टेष्टविरोधकम् । तत्त्वोपदेशकृत् सार्व, शास्त्रं कापथघट्टनम् ॥ १ ॥” इति । इहान्यथाऽनुपपन्नत्व लक्षणहेतुजन्यत्वादनुमानमेव कार्ये कारणोपचाराद्धेतुः, स च चतुर्विधः, चतुर्भङ्गीरूपत्वात्, तत्र अस्ति-विद्यते तदिति-लिङ्गभूतं घूमादिवस्तु इतिकृत्वा अस्ति सः अन्यादिकः साध्योऽर्थ इत्येव हेतुरिति अनुमानं, तथा अस्ति तदद्वयादिकं वस्त्वतो नास्त्यसौ तद्विरुद्धः श्रीतादिरर्थ इत्येवमपि हेतुरनुमानमिति, तथा नास्ति तदस्यादिकमतः शीतकालेऽस्ति स शीतादिरर्थ इत्येवमपि हेतुरनुमानमिति, तथा नास्ति तदुक्षत्वादिकमिति नास्ति शिंशपात्वादिकोऽर्थ इत्यपि हेतुरनुमानमिति, इह च शब्दे कृतकत्वस्यास्तित्वादस्त्यनित्यत्वं घटवत्तथा धूमस्यास्तित्वादिहारत्यग्निर्महानस इवेत्यादिकं स्वभावानुमानं कार्यानुमानश्च प्रथमभङ्गकेन सूचितम् १, तथा अग्रस्तित्वाद्भूमास्तित्वाद्वा नास्ति शीतस्पर्श इत्यादि बिरुद्धोपलम्भानुमानं विरुद्धकार्योपलम्भानुमानश्च तथाऽग्नेर्धूमस्य वाऽस्तित्वान्नास्ति शीतस्पर्शजनितदन्तवीणारोमहर्षादिः पुरुषविकारो महानसवदित्यादि कारणवि
ङ्गसूत्रवृत्तिः
॥ २६२ ॥
Education intemational
For Personal & Prat e Only
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४ स्थाना०
उद्देशः ३ आहरणभेदाः
सु० ३३८
॥ २६२ ॥
www.scary.
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [३३८]
ACADAKC
रुद्धोपलम्भानुमानम् कारणविरुद्धकार्योपलम्भानुमानं च द्वितीयभङ्गाकेनाभिहितं २ तथा छत्रादेरग्नेर्वा नास्तित्वादस्ति | कचित्कालादिविशेषे आतपः शीतस्पर्शो वा पूर्वोपलब्धप्रदेश इवेत्यादिकं विरुद्धकारणानुपलम्भानुमानं विरुद्धानुपलम्भानुमानश्च तृतीयभङ्गकेनोपात्तं ३ तथा दर्शनसामग्यां सत्यां घटोपलम्भस्य नास्तित्वान्नास्तीह घटो विवक्षितप्रदेशवदित्यादि स्वभावानुपलब्ध्यनुमानं तथा धूमस्य नास्तित्वान्नास्त्यविकलो धूमकारणकलापः प्रदेशान्तरवदित्यादि कार्यानुपलब्ध्यनुमानम् , तथा वृक्षनास्तित्वात् शिंशपा नास्तीत्यादि व्यापकानुपलम्भानुमानं तथाऽनेनोस्तित्वाबूमो नास्ती-1 त्यादि कारणानुपलम्भानुमानश्च चतुर्थभगनावरुद्धमिति, न च वाच्यं न जैनप्रक्रियेयं, सर्वत्र जैनाभिमतान्यथानुपपन्नत्वरूपस्य हेतुलक्षणस्य विद्यमानत्वादिति । अनन्तरं हेतुशब्देन ज्ञानविशेष उक्तस्तदधिकाराद् ज्ञानविशेषनिरूपणायाह
चउबिहे संखाणे पं० सं०-पडिकम्मं १ ववहारे २ रजू ३ रासी ४ । अहोलोगे णं चत्तारि अंधगार करेंति, तं० -नरगा रहया पावाई कम्माई असुमा पोगाला १, तिरियलोगे णं चत्तारि उज्जोतं करेंति, सं०-वंदा सूरा मणि जोती २, उड़लोगे णं चत्तारि उज्जोतं करेंति, सं०-देवा १ देवीओ २ विमाणा ३ आभरणा ४, ३ (सू० ३३८)॥
चउट्ठाणस्स ततिओ उद्देसतो समत्तो ॥ 'चलम्विहे'इत्यादि, सङ्ख्यायते-गण्यते अनेनेति सङ्ख्यानं गणितमित्यर्थः, तत्र परिकर्म सङ्कलनादिकं पाटीप्रसिद्धं, एवं 12 द्र व्यवहारोऽपि मिश्रकव्यवहारादिरनेकधा, रज्जुरिति रजुगणितं क्षेत्रगणितमित्यर्थः, राशिरिति त्रैराशिकपञ्चराशिकादीति।।
दीप
अनुक्रम [३६०]
MERucaturintinational
अत्र मुद्रण-दोष दृश्यते:- मूल-संपादने (सू० ३३८) लिखितम्, तत् पुन: लिखितम् ( मूल संपादनमें सू० ३३८ दूसरी बार छप गया है)
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [३], मूलं [३३८-R*] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
स्थाना० उद्देश ३ संख्याना
प्रत
श्रीस्थाना-पीरजुरिति क्षेत्रगणितमुक्तमिति क्षेत्रसम्बन्धाल्लोकलक्षणक्षेत्रस्य त्रिधा विभक्तस्यान्धकारोद्योतावाश्रित्य सूत्रत्रयेण प्ररूपणा-I इसूत्र- माह-'अहे' इत्यादि सुगम, किन्तु अधोलोके-उक्तलक्षणे चत्वारि वस्तूनीति गम्यते नरका-नरकावासा नैरयिका-नारका वृत्तिः एते कृष्णस्वरूपत्वात् अन्धकारं कुर्वन्ति, पापानि कर्माणि ज्ञानावरणादीनि मिथ्यात्वाज्ञानलक्षणभावान्धकारकारित्वाद
न्धकार कुर्वन्तीत्युच्यते, अथवा अन्धकारस्वरूपे अधोलोके प्राणिनामुत्पादकत्वेन पापानां कर्मणामन्धकारकर्तृत्वमिति, |२६३॥
तथा अशुभाः पुद्गलाः-तमिश्रभावेन परिणता इति । 'मणि त्ति मणयः-चन्द्रकान्ताद्याः, 'जोईत्ति ज्योतिरनिरिति । चतुःस्थानकस्य तृतीयोदेशको विवरणतः समाप्त इति ।।
सूत्रांक
[३३८R]
कारोद्योतकारकाः सू०३३९३४०
दीप
अनुक्रम [३६१]
व्याख्यातस्तृतीयोद्देशकः, तदनन्तरं चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोदेशके विविधा भावाश्च| तुःस्थानकतयोक्ता इहापि त एव तधेवीच्यन्त इत्येवंसम्बन्धस्यास्योद्देशकस्येदमादिसूत्र
चसारि पसषगा पं००-अणुप्पन्नाणं भोगाणं उप्पाएत्ता एगे पसप्पए पुब्बुप्पन्नाणं भोगाणं अविष्पतोगेणं एगे पसप्पते अणुप्पनाणं सोक्खाणं उत्पाइत्ता एगे पसप्पए पुब्बुप्पन्नाणं सोक्खाणं अविपओगेणं एगे पसप्पए । (सू० ३३९) जेरतितार्ण चाउठिवहे आहारे पं० त०-दंगालोबमे मुम्मरोवमे सीतले हिमसीतले, तिरिक्ख जोणियाणं चउबिहे आहारे पं० सं०-कोवमे बिलोयमे पाणमंसोवमे पुत्तमसोवमे, मणुस्साणं चउब्विहे आहारे ५००-असणे जाव सातिमे, देवाणं चउबिहे आहारे पं० सं०-वन्नमंते गंधर्मते रसमंते फासमंते । (सू० ३४०) पत्तारि जातिआसीविसा ५०
॥२६३॥
SamtaucatimmiMone
*R- सूत्रांक पुनःमुद्रितं (यह सूत्रांक दुबारा छप गया है) अत्र चतुर्थ-स्थानस्य तृतीय-उद्देशक: परिसमाप्तः अथ चतुर्थ-स्थानस्य चतुर्थ: उद्देशक: आरब्ध:
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आगम
(०३)
प्रत
सूचांक
[ ३४१]
दीप
अनुक्रम [३६४]
[भाग-5] "स्थान" अंगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः) - स्थान [ ४ ], उद्देशक [V], मूलं [ ३४९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३]
Education intemational
तं०—-विच्छुतजातीयालीविसे मंडुकजातीयालीविसे उरगजातीयासीविसे मणुस्सजाति आसी विसे, विच्छुयजाति आसीविसस्स णं भंते! केवइए विसए पत्नत्ते ?, पभू णं विच्छुय जाति आसीदिसे अद्धभरम्पमाणमेत्तं बौदिं विसेणं विसपरियं विट्टमाणि करितए विसए से विसताए नो चेव णं संपत्तीए करेंसु वा करेंति वा करिस्संति वा, मंडुकजातिआ सीविसस्त पुच्छा, पभू णं मंडुकजाति आसी विसे भरप्यमाणमेत्तं बौदिं विसेणं (विसप०) विसट्टमाणि, सेसं तं चैव जाव करेस्संति वा, उरगजाति पुच्छा, पभू णं उरगजाति असीविसे जंबूद्दीवपमाणमेतं बोदिं विसेण सेसं तं चैव जाव करेस्संति वा, मणुस्सजातिपुच्छा, पभू णं मणुस्तजाति आसीब से समतखेत्तपमाणमेत्तं बौदि विसेणं विसपरिणतं विसट्टमाणि करेशर, विसते से बिसट्टताते नो चेव णं जाव करिस्संति वा ( सू० ३४१ )
'चत्तारि पसप्पगेत्यादि, अस्य चानन्तरसूत्रेण सहायं सम्बन्धः - अनन्तरसूत्रे देवा देव्यश्च निर्दिष्टाः, ते च भोगवन्तः | सुखिताश्च भवन्तीति भोगान् सुखानि चाश्रित्य प्रसर्पकभेदाभिधानायेदमुच्यते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्य व्याख्या-प्रकर्षेण सर्पन्ति - गच्छन्ति भोगाद्यर्थं देशानुदेशं सञ्चरन्ति आरम्भपरिग्रहतो वा विस्तारं यान्तीति प्रसर्पकाः, 'अणुत्पन्नानं'ति द्वितीयार्थे षष्ठीति अनुसन्नान् - असम्पन्नान् भोगान्-शब्दादीन् तत्कारणद्रविणाङ्गनादीन् वा 'उप्पादत्त त्ति उत्पादयितुं सम्पादनाय अथवाऽनुत्पन्नानां भोगानामुत्पादयिता- उत्पादकः सन् एकः कोऽपि प्रसर्पति-प्रगच्छति, प्रसर्पको वा प्रग न्ता भवतीति गम्यते, प्रसर्पन्ति च भोगाद्यर्थिनो देहिनः उक्तञ्च---' वधावेइ रोहणं तरह सागरं भमइ गिरिनिगुंजेसु । १ धावति रोहणं तरति सागरं भ्राम्यति गिरिनिकुजेषु ।
"स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
For Personal & Pre Use Only
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना- नसूत्रवृत्तिः
सूत्रांक
॥२६४॥
[३४१]
विषाः
दीप
मारेइ बंधबंपिहु पुरिसो जो होज (इ) धणलुद्धो॥१॥ अडइ बहुं वहइ भरं सहइ छुहं पावमायरइ चिट्ठो । कुल- ४ स्थाना० |सीलजातिपच्चयटिइं च लोभाओ चयइ ॥२॥" इति, तथा पूर्वोसन्नानां पाठान्तरेण प्रत्युत्पन्नानां वा 'अविप्पओ- उद्देशः ४ गेणं ति अविप्रयोगाय रक्षणार्थमिति 'सौख्याना'मिति भोगसम्पाद्यानन्दविशेषाणां, शेषं सुगर्म । भोगसौख्यार्थश्व प्रस-15 प्रसर्पकाः प्र्पन्तः कर्म बट्टा नारकत्वेनोपद्यन्त इति नारकानाहारतो निरूपयन्नाह-'नेरइयाणमित्यादि व्यक्तं, केवलं अङ्गारो-ता पमः अल्पकालदाहत्वात् मुर्मुरोपमः स्थिरतरदाहत्वात् शीतलः शीतवेदनोसादकत्वात् हिमशीतलोऽत्यन्तशीतवेदना- आशीजनकत्वात् , अधोऽध इति क्रम इति । आहाराधिकारात् तिर्यग्मनुष्यदेवानामाहारनिरूपणाय सूत्रत्रयं-'तिरिक्खजो-15 |णियाण'मित्यादि व्यक्त, नवरं कङ्क:-पक्षिविशेषः तस्याहारेणोपमा यत्र स मध्यपदलोपात् कलोपमः, अयमों-यथा हि सू०३४१
कङ्कस्य दुर्जरोऽपि स्वरूपेणाहारः सुखभक्ष्यः सुखपरिणामश्च भवति एवं यस्तिरश्चा सुभक्षः सुखपरिणामश्च स कङ्कोपम ४ इति, तथा पिले प्रविशद्रव्यं बिलमेव तेनोपमा यत्र स तथा, बिले हि अलब्धरसास्वादं झगिति यथा किल किञ्चित् |
प्रविशति एवं यस्तेषां गलविले प्रविशति स तथोच्यते, पाणो-मातङ्गस्तम्मांसमस्पृश्यत्वेन जुगुप्सया दुःखार्य स्यादेवं | यस्तेषां दुःखायः स पाणमांसोपमः, पुत्रमांसं तु स्नेहपरतया दुःखाद्यतरं स्यादेवं यो दुःखाद्यतरः स पुत्रांसोपमः, क|मेण चैते शुभसमाशुभाशुभतरा वेदितव्याः, वर्णवानित्यादौ प्रशंसायामतिशायने वा मतुविति । आहारो हि भक्षणीय मारयति बांधयमपि पुरुषो यो भवनब्धः ॥ १॥ अति बहुं बद्दति भार सहते सुधां पापमा परति यः । कुलशीलजातिप्रत्ययस्थिति च
M॥२४॥ | ओभोपइतस्त्यजति ॥1॥
अनुक्रम [३६४]
aam Educatonahanorma
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
दू
सूत्रांक [३४१]
इति भक्षणाधिकारादाशीविषसूत्र, सुगमश्चेदं, नवरं 'आसीविसत्ति आश्यो-दंष्ट्रास्तासु विषं येषां ते आशीविषाः, ते च कर्मतो जातितश्च, तत्र कर्मतस्तिर्यङमनुष्याः कुतोऽपि गुणादाशीविषाः स्युः, देवाश्चासहस्राराच्छापादिना परच्यापादनादिति, उकश्च-"आसी दाढा तग्गयमहाविसाऽऽसीविसा दुविह भेया । ते कम्मजाइभेएण णेगहा चउबिहविग्गप्पा
" [आशी द्रष्टा तद्भतमहाविषा आशीविषा द्विविधभेदाः ते कर्मजातिभेदेन नैकधा चतुर्विधविकल्पाः ॥१॥ (वृश्चिक-दू मंडुकोरगनरा:)] इति, जातित आशीविषा जात्याशीविषाः-वृश्चिकादयः, 'केघाइय'त्ति कियान् विषयो-योचरो विपस्येति | गम्यते, प्रभुः-समर्थः, अ.भरतस्य यतामाण-सातिरेकत्रिषष्ठ्यधिकयोजनशतद्वयलक्षणं तदेव मात्रा-प्रमाणं यस्याः। साऽर्द्धभरतप्रमाणमात्रा तां बोन्दि-शरीरं विषेण-स्वकीयाशीप्रभवेण करणभूतेन विषपरिणतां-विषरूपापन्नां विषपरिगतामिति कचिसाठे तव्याप्तामित्यर्थः, 'विसहमाणि विकसन्ती विदलन्तीं 'कर्नु विधातुं विषयः सा-गोचरोऽसौ अथवा 'से' तस्य वृश्चिकस्य, विषमेवार्थों विषार्थस्तद्धावस्तत्ता तस्या विषार्थताया-विषत्वस्य तस्यां वा 'नो चेव'त्ति नैवेत्यर्थः 'सम्पत्त्या एवंविधवोन्दिसम्प्राप्तिद्वारेण 'करिसत्ति अकार्षश्चिका इति गम्यते, इह चैकवचनप्रक्रमेऽपि बहुवचननिर्देशो वृश्चिकाशीविषाणां बहुत्वज्ञापनार्थं, एवं कुर्वन्ति करिष्यन्ति, त्रिकालनिर्देशश्चामीषां वैकालिकत्वज्ञापनार्थः, समयक्षेत्रं-मनुष्यक्षेत्रं । विषपरिणामो हि व्याधिरिति तदधिकारात व्याधिभेदानाइ
चउब्बिरे वाही पं० २० जातिते पिचिते सिंभिते सन्निवातिते, चउविदा तिगिरमा ५००-विजो ओसधाई आपरे परिचारते । (सू०३४३) चचारि तिगिच्छग्म पं००-आदतिगिच्छते नाममेगे णो परतिपिच्छते १ परतिगि
दीप
अनुक्रम [३६४]
ForParamasPramond
अत्र मुद्रण-दोष दृश्यते:- मूल-संपादने (सू० ३४३) लिखितम्, (मूल संपादनमें सू० ३४३ छपा है, यहां सूत्रांक ३४२ आता है, मगर ३४३ छापा है, उसका कारण यह है की इसके पहले सूत्रांक ३३८ दो बार छप गया था, इसलिए शायद बादमे यह गलती सुधारली गई है)
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आगम
(०३)
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सूचांक
[ ३४४]
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[३६६ ]
[भाग - 5] "स्थान" अंगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः) स्थान [ ४ ], उद्देशक [४], मूलं [ २४४ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३]
श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः
॥ २६५ ॥
Educationmational
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च्छ नाममेगे ४ २ चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० वणकरे णाममेगे नो वणपरिमासी वणपरिमासी नाममेगे णो वणकरे एगे वणकरेवि वर्णपरिमासीवि एगे णो वणकरे णो वणपरिमासीबि १, चचारि पुरिसजाया पं० [सं० वणकरे नाममेगे णो वणसारक्खी ४ २ चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० वणकरे नामं एगे णो वणसंरोही ४, ३ चत्तारि वणा पं० नं० - अंतोसले नाममेगे जो बासिले ४, १ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-- अंतोसड़े णाममेगे णो बासिले ४ २, पत्तारि वणा पं० तं अतो दुट्टे नाम एगे णो वाहिं दुडे बादि बुट्टे नामं एगे तो अंतो ४, ३, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०-अंतो दुढे नाममेगे तो बाहिं दुट्ठे ४, ४ चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०सेतसे णाममेगे सेयंसे सेयंसे नामगेगे पावंसे पासे णामं एगे सेयंसे पासे णाममेगे पावसे, १ चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० - सेतंसे णाममेगे सेतंसेति सालिसए सेतंसे णाममेगे पावंसेत्ति सालिसते ४ २, चचारि पुरिसा पं० तं०. सेतंसेति णाममेगे सेतंसेत्ति मण्णति सेतंसेत्ति णाममेगे पावसेत्ति मण्णति ४, ३, चत्तारि पुरिसजाता पं० नं०सेयंसे णाममेगे सेयंसेति सालिसते मन्नति सेतंसे णाममेगे पावसेति सालिसते मन्नति ४, ४ चत्तारि पुरिसजाता पं० नं० - आपवतित्ता णाममेगे णो परिभावतित्ता परिभावइत्सा णाममेगे णो आघवतित्ता ४, ५, चत्तारि पुरिसजाया पं० [सं० - आघववित्ता णाममेगे नो छजीविसंपन्ने उंछजीविसंपन्ने णाममेगे जो आपवत्ता ४, ६, चउन्विहा रुक्खविगुव्वणा पं० तं०पवाढत्ताए पत्तत्ताए पुष्फत्ताए फलत्ताए (सू० ३४४ ) 'वि' इत्यादि कण्ठ्यं केवलं वातो निदानमस्येति वातिकः एवं सर्वत्र नवरं सन्निपातः संयोगो द्वयोस्त्रयाणां वेति,
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"स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
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१४ स्थाना० उद्देशः ४
व्याधि
चिकित्से
[सू० ३४३ चिकित्सकव्रणश
ल्यश्रेयः
पापाख्यायकादि
सू० ३४४
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आगम
(०३)
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सूत्रांक
[388]
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अनुक्रम [३६६]
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
उद्देशक [४], मूलं [३४४]
स्थान [ ४ ], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
वातादिस्वरूपं चैतत् -"तत्र रुक्षो १ लघुः २ शीतः ३ खरः ४ सूक्ष्म ५ चलो ६ऽनिलः । पित्तं सस्नेह १ तीक्ष्णो २ष्णं ३ लघु ४ विश्रं ५ सरं ६ द्रवम् ७ ॥१॥ कफो गुरु १ हिंमः २ स्निग्धः ३ प्रवेदी ४ स्थिर ५ पिच्छिलः ६ । सन्निपातस्तु सङ्कीर्णलक्षणो व्यादिमीलकः ॥ २ ॥” वातादीनां कार्याणि पुनरिमानि - "पारुप्यसङ्कोचनतोदशूलश्यामत्वमङ्गव्यथचेष्टभङ्गाः । सुप्तत्वशीतत्वखरत्वशोषाः, कर्माणि वायोः प्रवदन्ति तज्ज्ञाः ॥ १ ॥ परिस्रवस्वेदविदाहरागा, वैगन्ध्यसङ्केद विपाककोपाः । प्रलापमूर्च्छावमिपीतभावाः, पित्तस्य कर्माणि वदन्ति तज्ज्ञाः || २ || श्वेतत्वशीतत्वगुरुत्वकण्डू स्नेहोपदेहस्तिमितत्वलेपाः । उत्सेधसम्पातचिरक्रियाश्च, कफस्य कर्माणि वदन्ति तज्ज्ञाः ॥ ३ ॥” इति । अनन्तरं व्याधिरुकः, अधुना तस्यैव चिकित्सां चिकित्सकांश्च सूत्रद्वयेनाह - 'चउब्बिहे'त्यादि, कण्ठ्यं, नवरं चिकित्सा - रोगप्रतीकारस्तस्याश्चातुविंध्यं कारणभेदादिति एतत्सूत्र संवादकमुक्तमपरैरपि - "भिषग १ द्रव्याण्यु २ पस्थाता ३, रोगी ४ पादचतुष्टयम् । चिकित्सितस्य निर्दिष्टं, प्रत्येकं तच्चतुर्गुणम् ॥ १ ॥ दक्षो १ विज्ञातशास्त्रार्थो २, दृष्टकर्म्मा ३ शुचि ४ भिषक् । बहुकल्पं १ बहुगुणं २, सम्पन्नं ३ योग्यमौषधम् ४ ॥ २ ॥ अनुरक्तः १ शुचि २ र्दक्षो ३ बुद्धिमान् ४ परिचारकः । आढ्यो १ रोगी भिषग्वश्यो २, ज्ञापकः ३ सत्त्ववानपि ४ ॥ ३ ॥” इति इयं द्रव्यरोगचिकित्सा मोहभावरोगचिकित्सा त्वेवं,'निब्बिगइ निबलोमे तवद्वाणमेव उम्भामे । वेयावच्चाहिंडण मंडल कप्पट्टियाहरणं ॥ १ ॥” इति [ निर्व्वलं - बल्लादि, अवमम् ऊनं उद्धामो- भिक्षाभ्रमणम् आहिंडणं देशेषु मण्डली- सूत्रार्थयोः 'कम्पट्टिया' श्रेष्ठिवधूरिति > [निर्विकृतिकं बल्लादि न्यूनं आचामाम्लादि कायोत्सर्गः बिहारः वैयावृत्त्यं भिक्षाश्रमः मंडली (मोहचिकित्सैषा) कुलपुत्रि
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"वात" आदिनाम् स्वरूपं एवं कार्याणि, व्याधि चिकित्सा
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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सूत्रांक
[३४४]
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श्रीस्थाना
कोदाहरणात् ] चिकित्सका द्रव्यतो ज्वरादिरोगान् प्रति भावतो रागादीन् प्रतीति, तत्रात्मनो ज्वरादेः कामादेर्वा चिकि- स्थाना० गसूत्र
त्सकः-प्रतिकतॆत्यात्मचिकित्सक इति । अथात्मचिकित्सकान् भेदतः सूत्रत्रयेणाह-चत्तारीत्यादि कण्ठ्यं, नवरं व्रणं उद्देशा४ वृत्तिः -देहे क्षतं स्वयं करोति रुधिरादिनिर्गालनार्धमिति व्रणकरो नो-नैव व्रणं परिमृशतीत्येवंशीलो व्रणपरिमीत्येकः, अ- | व्याधि
न्यस्त्वन्यकृतं वर्ण परिमृशति न च तत् करोतीति, एवं भावनणं-अतिचारलक्षणं करोति कायेन न च तदेव परिमृशति- |चिकित्से ॥२६६ ॥ 1पुनः पुनः संस्मरणेन स्पृशति, अन्यस्तु तत्सरिमृश्यत्यभिलाषान्न च करोति कायतः संसारभयादिभिरिति, व्रणं करोति सू०३४३
न च तसट्टबन्धादिना संरक्षति, अन्यस्तु कृतं संरक्षति न च करोति, भावत्रणं त्वाश्रित्यातिचारं करोति न च तं सानु- चिकित्सवन्धं भवन्तं कुशीलादिसंसर्गतन्निदानपरिहारतो रक्षत्येकोऽन्यस्तु पूर्वकृतातिचारं निदानपरिहारतो रक्षति नवं च
न कवणशकरोति, 'नो नैव व्रणं संरोहयत्यौषधदानादिनेति वणसरोही, भावत्रणापेक्षया तु नो वणसरोही प्रायश्चित्ताप्रतिपत्तेःशल्यश्य:दावणसरोही पूर्वकृतातिचारप्रायश्चित्तप्रतिपया, नो प्रणकरोऽपूर्वातिचाराकारित्वादिति । उक्का आत्मचिकित्सकार, अब पापाख्या
चिकित्स्य वर्ण दृष्टान्तीकृत्य पुरुषभेदानाह-'चत्तारीत्यादि चतुःसूत्री, सुगमा, नवरं, अन्तः-मध्ये सल्वं यस्य अदृश्य- यकादि मानमित्यर्थः तचथा, 'बाहिं सल्ले'त्ति यच्छल्यं व्रणस्थान्तरल्पं बहिस्तु बहु तहिरिब बहिरित्युच्यते, अन्तो पहिः शल्यं सू० ३४४ यस्य तत्तथा, यदि पुनः सर्वथैव तत्ततो बहिः स्यात् तदा शल्यतैव न स्याद्, उद्धृतत्वे वा भूतभावितया स्यादपीति २, यत्र पुनरन्तबहु बहिरप्युपलभ्यते तदुभयशल्यं ३ चतुर्थः शून्य इति ४, गुरुसमक्षमनालोचितत्वेनान्तः शल्यम्-अति- २६॥ चाररूपं यस्य स तथा, बहिः शल्यं आलोचिततया यस्य तत्तथा, अन्तर्बहिश्च शस्यमालोचितानालोचितत्वेन यस्य स
अनुक्रम [३६६]
CONTS
व्याधि चिकित्सा,
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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[३४४]
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तथा, चतुर्थः शून्यः । अन्तर्दुएं व्रण लूतादिदोषतः, न बही रागाद्यभावेन सौम्यत्वात् ४, पुरुषस्तु अन्तर्दुष्टः शठतया है संवृताकारत्वान्न बहिरित्येकः, अन्यस्तु कारणेनोपदर्शितघाक्पारुप्यादित्वाद्वहिरेवेति । पुरुषाधिकारात् तद्भेदप्रतिपाद-10 नाय षट्सूत्री कण्ठया च, किन्तु अतिशयेन प्रशस्यः श्रेयानेकः प्रशस्यभावः सद्बोधत्वात् पुनःश्रेयान प्रशस्तानुष्ठानत्वात् साधुवदित्येकः १ अन्यस्तु श्रेयांस्तथैव अतिशयेन पापः पापीयान् , स चाविरतत्वेन दुरनुष्ठायित्वादिति २ अभ्यस्तु |पापीयान् भावतो मिथ्यात्वादिभिरुपहतत्वात् कारणवशात् सदनुष्ठायित्वाच श्रेयान् उदायिनृपमारकवत् ३ चतुर्थः स| एव कृतपाप इति ४, अथवा श्रेयान् गृहस्थत्वे निष्क्रमणकाले वा पुनः श्रेयान् प्रव्रज्यायां विहारकाले वेत्येवमन्येऽपि । श्रेयानेको भावतो द्रव्यतस्तु श्रेयान् प्रशस्थतर इत्येवंबुद्धिजनकत्वेन सदशक:-अन्येन श्रेयसा तुल्यो न तु सर्वथा | श्रेयानेवेत्येकः १, अन्यस्तु भावतः श्रेयानपि द्रव्यतः पापीयानित्येवंबुद्धिजनकत्वेन सदृशक:-अन्येन पापीयसा समानो न तु पापीयानेवेति द्वितीयः२, भावतः पापीयानप्यन्यः संवृताकारतया श्रेयानित्येवंबुद्धिजनकतया सहशकोऽन्येन
श्रेयसेति तृतीयः, चतुर्थः सुज्ञानः । श्रेयानेकः सद्भुत्तत्वात् श्रेयानित्येवमात्मानं मन्यते यथावद्धोधात् लोकेन वा ममान्यते विशदसदनुष्ठानाद्, इह च मन्निजत्ति वक्तव्ये प्राकृतत्वेन मन्नईत्युक्तम् , श्रेयानप्यन्य आत्मन्यरुचिपरायणत्वात्
पापीयानित्यात्मानं मन्यते, स एव वा पूर्वोपलब्धतदोपेण जनेन मन्यते दृढप्रहारिवत् १ पापीयानप्यपरो मिथ्यात्वा-1 धुपहततया श्रेयानित्यात्मानं मन्यते, कुतीर्थिकवत्, तद्भतेन वेति २, पापीयानन्योऽविरतिकत्वात् पापीयानित्यास्मानं मन्यते, सद्बोधत्वात् , असंयतो वा मन्यते, संयतलोकेनेति ३, श्रेयानेको भावतो द्रव्यतस्तु किश्चित्सदनुष्ठायि
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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श्रीस्थाना-त्वात् श्रेयानित्येवंचिकल्पजनकत्वेन सहशकोऽन्येन श्रेयसा मन्यते-ज्ञायते जनेनेति विभक्तिपरिणामाद्वा सदशकमा-४४ स्थाना
सूत्र- त्मानं मन्यत इति एवं शेषाः ४, 'आघवइत्तेति आख्यायका-प्रज्ञापकः प्रवचनस्य एकः-कश्चिन्न च प्रविभावयिता- उद्देशः ४ वृत्तिः प्रभावयिता प्रभावकः शासनस्य उदारक्रियाप्रतिभादिरहितत्वात् प्रविभाजयिता वा-प्रवचनार्थस्य नयोत्सर्गादिभिर्दिव- व्याधि
वेचयितेति, अथवा आख्यायकः सूत्रस्य प्रविभावयिता प्रविभाजयिता वाऽर्थस्येति । आख्यायक एकः सूत्रार्थस्य न चो-४ ॥२६७॥ कान्छजीविकासम्पन्नो नैषणादिनिरत इत्यर्थः, स चापद्गतः संविनःसंविग्नपाक्षिको वा, यदाह-"होज हु वसणं पत्तो सरी-18
सू० ३४३ ४ारदुबल्लयाए असमस्थो । चरणकरणे असुद्धे सुद्धं मग्गं परवेजा ॥१॥" तथा-"ओसन्नोऽवि विहारे कम्मं सिदिलेड चिकित्स* सुलहबोही य । चरणकरणं विसुद्धं उवहतो परूतो ॥२॥" शरीरदौर्बल्येनासमर्थः व्यसनं प्राप्तो भवेत् (तथापिका कवणशअशुद्ध चरणकरणे शुद्ध मार्ग प्ररूपयेत् ॥१॥ विहारेऽवसन्नोऽपि कर्म शिथिलयति सुलभबोधिश्च विशुद्धं चरणकरण
ल्यश्रेयःमुपबृंयन् प्ररूपयंश्च ॥२॥] इत्येकः द्वितीयो यथाच्छन्दः तृतीयः साधुः चतुर्थो गृहस्थादिरिति, पूर्वसूत्रे साधुलक्षण
पापाख्याहै पुरुषस्याख्यापकत्वोच्छजीविकासम्पन्नत्वलक्षणा गुणविभूषोक्ता अधुना तत्साम्यावृक्षविभूषामाह-'चउविहें' त्यादि,अथवा
यकादि पूर्वमुञ्छजीविकासंपन्नः साधुपुरुष उक्तः, तस्य च वैक्रियलब्धिमतस्तथाविधप्रयोजने वृक्षं विकुर्वतो यद्विधा तद्विक्रिया |
स्यात्तामाह-'चरब्धिहे'त्यादि पातनयैवोक्ता), नवरं 'प्रवालतयेति नवाङ्कुरतयेत्यर्थः । एते हि पूर्वोक्का आख्यायHIकादयः पुरुषास्तीथिका इति तेषां स्वरूपाभिधानायाह
ला॥२६७॥ चत्तारि बातिसमोसरणा पं० ०-किरियावादी अकिरियावादी अन्नाणितावादी घेणतियावादी । रइयाणं चत्वारि
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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सूत्रांक [३४५]
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वाविसमोसरणा पं०२०--किरियावादी जाव वेणतितवादी, एवमसुरकुमाराणवि जाव थणियकुमाराणं एवं विगलिदि
यवज जाव बेमाणियाणं । (सू० ३४५) बादिनः-तीथिकाः समवसरन्ति-अवतरन्त्येष्विति समवसरणानि-विविधमतमीलकास्तेषां समवसरणानि वादिसमव-| सरणानि, क्रियां-जीवाजीवादिरर्थोऽस्तीत्येवंरूपां वदन्तीति क्रियावादिन आस्तिका इत्यर्थः तेषां यत्समवसरणं तत्त एवोच्यन्ते अभेदादिति, तनिषेधादक्रियावादिनो-नास्तिका इत्यथैः, अज्ञानमभ्युपगमद्वारेण येषामस्ति ते अज्ञानिकाः त, एवं वादिनोऽज्ञानिकवादिनः, अज्ञानमेव श्रेय इत्येवंप्रतिज्ञा इत्यर्थः, विनय एव वैनयिकं तदेव निःश्रेयसायेत्येवंवादिनो वैनयिकवादिन इति, एतदूभेदसङ्ख्या चेय-"असियसयं किरियाणं अकिरियवाईण होइ चुलसीई । अन्नाणिय सत्तट्ठी वेणइयाणं च बत्तीसा ॥१॥" [क्रियावादिनां अशीत्यधिकं शतं अक्रियावादिनां चतुरशीतिरज्ञानिनां सप्तषष्टिः वैनयिकानां द्वात्रिंशत् ॥१॥] इति, तत्राशीत्यधिकं शतं क्रियावादिनां भवति, इदं चामुनोपायेनावगन्तव्यम्-जीवाजीवाश्रवसंवरबन्धनिर्जरापुण्यापुण्यमोक्षाख्यान नव पदार्थान् विरचय्य परिपाच्या जीवपदार्थस्याधः स्वपरभेदावुपन्यसनीयौ तयोरधो नित्यानित्यभेदी तयोरप्यघः कालेश्वरात्मनियतिस्वभावभेदाः पञ्च न्यसनीयाः, पुनश्चेत्थं विकल्पा-४ कर्त्तव्याः-अस्ति जीवः स्वतो नित्यः कालत इत्येको विकल्पः, विकल्पार्थश्चार्य-विद्यते खवयमात्मा स्खेन रूपेण न परा-1 पेिक्षया इस्वत्वदीर्घत्वे इव नित्यश्च कालवादिनः, उक्तेनैवाभिलापेन द्वितीयो विकल्प ईश्वरकारणिनः, तृतीयो विकल्प आत्मवादिनः 'पुरुष एवेदं निमित्यादिप्रतिपत्तुरिति, चतुर्थों नियतिवादिनः, नियतिश्च पदार्थानामवश्यन्तया य-14
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वादिः, तस्य समवसरणानि, क्रियावादि, अक्रियावादि
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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श्रीस्थाना-3 यथाभवने प्रयोजककीति पञ्चमः स्वभाववादिनः, एवं स्वत इत्यजहता लब्धाः पश्च विकल्पाः, परत इत्यनेनापि पञ्चैव स्थाना
सूत्र- लभ्यन्ते, तत्र परत इत्यस्यायमर्थः-इह सर्वपदार्थानां पररूपापेक्षः स्वरूपपरिच्छेदो यथा इस्वत्वाद्यपेक्षो दीर्घत्वादिपरि-14 उद्देशः वृत्तिः च्छेदः, एवमेव चात्मनः स्तम्भकुम्भादीन् समीक्ष्य तद्व्यतिरिके हि वस्तुन्यात्मबुद्धिः प्रवर्तत इत्यतो यदात्मन: स्वरूपं| क्रियावातत्परत एवावधार्यते न स्वत इति, नित्यत्वापरित्यागेन चैते दश विकल्पाः, एवमनित्यत्वेनापि दशैव, एवं विंशति वप- का
द्याद्या ॥३६८॥
दार्थेन लब्धाः अजीवादिष्वप्यष्टस्वेवमेव प्रतिपदं विंशतिर्विकल्पानामतो विंशतिर्नवगुणा शतमशीत्युत्तरं क्रियावादिना- सू०३४५ मिति, एते च विकल्पा एकैकशो न लभ्यन्ते शीलाङ्गावदिति । तथा अक्रियावादिनां तु चतुरशीतिद्रष्टव्या, एवञ्चेयं- पुण्यापुण्यविवर्जितपदार्थसप्तकन्यासस्तधैव जीवस्याधः स्वपररूपविकल्पद्वयोपन्यासः, असत्वादात्मनो नित्यानित्यभेदौ3 न स्तः, कालादीनां तु पञ्चानां षष्ठी यहच्छा न्यस्यते, इयं चानभिसन्धिपूर्विकाऽर्थप्राप्तिरिति, पश्चाद्विकल्पाभिलापःनास्ति जीवः स्वतः कालत इत्येको विकल्पः, एवमीश्वरादिभिरपि यदृच्छावसानैः सर्वे पडिकल्पाः, तथा नास्ति जीवः परतः कालत इति पदेव विकल्पा इत्येकत्र द्वादश, एवमजीवादिष्वपि पसु प्रत्येक द्वादश विकल्पाः, एवथ द्वादश सप्तगुणाश्चतुरशीतिविकल्पाः नास्तिकानामिति । अज्ञानिकानां तु सप्तपष्टिर्भवति, इयं चामुनोपायेन द्रष्टव्या-तत्र जीवाजीवादीन् नव पदार्थान् पूर्ववत् व्यवस्थाप्य पर्यन्ते चोत्पत्तिमुपन्यस्याधः सप्त सदादय उपन्यसनीयाः, सत्त्व १ मसत्त्वं २ सदसत्त्वं ३ अवाच्यत्वं ४ सदवाच्यत्वं ५ असदवाच्यत्वं ६ सदसदवाच्यत्व ७ मिति, तत एते नव सप्तकाःत्रिषष्टिः,131 उत्सत्तेस्तु चत्वार एवाद्या विकल्पाः, तद्यथा-सत्त्व १मसत्वं सदसत्त्व ३ मवाच्यत्वं ४ चेति, त्रिषष्टिमध्ये क्षिप्ताः सप्तपष्टि
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वादिः, तस्य समवसरणानि, क्रियावादि, अक्रियावादि, अज्ञानिक,
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [३४५]
र्भवन्ति. विकल्पाभिलापश्चैव-को जानाति जीवः सन्निति किंवा तेन ज्ञातेनेत्येको विकल्पः, एवमसदादयोऽपि पाच्याः, तथा सती भावोत्पत्तिरिति को जानाति किं वाऽनया ज्ञातया? एवमसती सदसती अवतव्या चेति, सत्त्वादिसप्तभजवाश्चायमर्थ:-स्वरूपमात्रापेक्षया वस्तुनः सत्त्वं १ पररूपमात्रापेक्षया त्वसत्त्वं २ तथा एकस्य घटादिद्रव्यदेशस्य ग्रीवादेः सद्भावपर्यायेण ग्रीवात्यादिनाऽऽदिष्टस्य सत्त्वात् तथा घटादिद्रब्यदेशस्यैवापरस्य बुनादेरसद्भावपर्यायेण वृत्तत्वादिना परगतपर्यायेणैयादिष्टस्यासत्वाद् वस्तुनः सदसत्त्वम् ३ तथा सकलस्यैवाखण्डितस्य घटादिवस्तुनोऽर्धान्तरभूतैः पटादिपर्यायैनिश्चोर्द्धकुण्डलौष्ठायतवृत्तग्रीवादिभिर्युगपद्विवक्षितस्य सत्त्वेनासत्त्वेन वा वक्तुनशक्यत्वात् तस्य घटादेव्यस्यावक्तव्यत्वम् ४, तथा घटादिद्रव्यस्यैकदेशस्य सद्भावपर्यायैरादिष्टस्य सत्त्वादपरस्य स्वपरपर्याययुगपदादिष्टतया सत्त्वेनासवेन वा वक्तुमशक्यत्वात् घटादिद्रव्यस्य सदवक्तव्यत्वमिति ५, तथा तस्यैव घटादिद्रव्यस्यैकदेशस्य परपर्यायैरादिष्टस्यासत्त्वादपरदेशस्य स्वपरपर्यायैर्युगपदादिष्टत्वेन तथैव वकुमशक्यत्वात् तस्य घटादेरसदवक्तव्यत्वम् ६, तथा घटादिद्रव्यस्यैकदेशस्य स्वपर्यायैरादिष्टत्वेन सत्वादपरस्य परपर्यायैरादिष्टतया असत्त्वादन्यस्य स्वपरपर्यायैर्युगपदादिष्टस्य तथैव वक्तुमशक्यत्वेनावक्तव्यत्वात् तस्य घटादिद्रव्यस्य सदसदवक्तव्यत्वमिति ७, इह च प्रथमद्वितीयचतुर्थी अखण्डवस्त्वाश्रिताः शेषाश्चत्वारो वस्तुदेशाश्रिता दर्शिताः, तथाऽन्यैस्तृतीयोऽपि विकल्पोऽखण्डवस्त्वाश्रित एवोक्तः,
तथाहि-अखण्डस्य वस्तुनः स्वपर्यायैः परपर्यायैश्च विवक्षितस्य सदसत्त्वमिति, अत एवाभिहितमाचारटीकायाम्CI"इह चोत्पत्तिमङ्गीकृत्योत्तरविकल्पत्रयं न सम्भवति, पदार्थावयवापेक्षत्वात् तस्योत्पत्तेश्चावयवाभावा"दिति, एवम-|
दीप अनुक्रम [३६७]
5444
वादिः, तस्य समवसरणानि, अज्ञानिक,
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना- जासूत्रवृत्तिः
प्रत सूत्रांक [३४५]
॥२६९॥
दीप अनुक्रम [३६७]
ज्ञानिकानां सप्तषष्टिर्भवतीति । वैनयिकानां च द्वात्रिंशत् , सा चैवमवसेया-सुरनृपतियतिज्ञातिस्थविराधममातृपितृणां स्थाना० प्रत्येकं कायेन वाचा मनसा दानेन च देशकालोपपन्नेन विनयः कार्य इत्येते चत्वारो भेदाः सुरादिष्वष्टासु स्थानेषु भ-18||
| उद्देशा४ वन्ति, ते चैकन मीलिता द्वात्रिंशदिति, सर्वसङ्ख्या पुनरेतेषां त्रीणि शतानि विषयधिकानीति, उक्तश्च पूज्यैः--"आ-II क्रियावास्तिकमतमात्माद्या ९ नित्यानित्यात्मका नव पदार्थाः । कालनियतिस्वभावेश्वरात्मकृतकाः स्वपरसंस्थाः॥१॥ काल-12 यदृच्छानियतीश्वरस्वभावात्मनश्चतुरशीतिः । नास्तिकवादिगणमतं न सन्ति सप्त स्वपरसंस्थाः ॥२॥ अज्ञानिकवादि- सू०३४५ मतं नव जीवादीन् सदादिसप्तविधान् । भावोसति सदसवैधाऽवाच्याञ्च को वेत्ति ॥३॥ वैनयिकमतं विनयश्चेतोवा- गर्जितादिकायदानतः कायें। सुरनृपतियतिज्ञातिस्थविराधममातृपितृषु सदा ॥१॥" इति, एतान्येव समवसरणानि चतुर्विश-I मेघपुरुषाः तिदण्डके निरूपयन्नाह-निरइयाण'मित्यादि सुगर्म, नवरं नारकादिपश्चेन्द्रियाणां समनस्कत्वाचत्वार्यप्येतानि सम्भ- सू०३४६ वन्ति, 'विगलेंदियवजु'ति एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणाममनस्कत्वान्न सम्भवन्ति तानीति । पुरुषाधिकारात् पुरुषविशेपप्रतिपादनाय प्रायः सदृष्टान्तसूत्राणि पुरुषसूत्राणि त्रिचत्वारिंशतं 'चत्तारि मेहे'त्यादीत्याह,
चत्तारि मेहा पं० ०-जित्ता णाममेगे णो वासित्ता वासित्ता णाममेगे णो गजित्ता एगे गजित्तावि वासित्तावि एगे णो गजित्ता णो बासित्ता १, एवामेव चत्वारि पुरिसजाया पं०२०-गजित्ता णाममेगे णो वासित्ता ४, २, चचारि मेहा पं० २०-जित्ता गाममेगे णो विजुयाइत्ता विजुयाइत्ता णाममेगे ४, ३, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं०
४ ॥२६९॥ तं० कित्ता णाममेने णो विजुयाइत्ता ४, ४, चत्तारि मेहा पं० २०-वासित्ता णाममेगे णो बिजुयाइत्ता ४, ५,
वादिः, तस्य समवसरणानि, अज्ञानिक, वैनयिक
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [३४६]
एषामेव चत्तारि पुरिस० वासित्ता णाममेगे णो विजुयाइत्ता ४, ६, चत्तारि मेहा पं० सं०-कालवासी ४, ७, णाममेगे णो अकालवासी एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-कालवासी णाममेगे नो अकालबासी ४, ८, चचारि मेहा पं० २०खेत्तवासी णाममेगे णो अखित्तवासी ४, ९, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-खेत्तवासी णागमेगे णो अखेतवासी ४, १०, पत्तारि मेहा पं० सं०-अणसित्ता जामगेगे णो णिम्मवइत्ता णिम्मवइत्ता णाममेगे णो जणतित्ता ४, ११, एषामेव चतारि अम्मापियरो पं० २०-जणइत्ता णाममेगे णो णिम्मवइत्ता ४, १२, चत्तारि मेहा पं० त०-देसवासी णाममेगे
णो सव्ववासी ४, १३, एवामेव चत्तारि रायाणो पं० सं०---देसाधिवती णाममेगे णो सव्वाधिवती ४,१४ (सू०३४६) सुगमानि च, नवरं मेघाः-पयोदाः गर्जिता-गर्जिकृत् नो वर्षिता-न प्रवर्षणकारीति १, एवं कश्चित्पुरुषो गर्जितेव, गर्जिता दानज्ञानव्याख्यानानुष्ठानशत्रुनिग्रहादिविषये उच्चैः प्रतिज्ञावान् नो-नैव वर्षितेव वर्षिता-वर्षकोऽभ्युपगतसम्पादक इत्यर्थः, अन्यस्तु कार्यकर्ता न चोचैः प्रतिज्ञावानिति, एवमितरावपि नेयाविति २। 'विजुयाइत्त'त्ति [विद्युत्को ३, एवं पुरुषोऽपि कश्चिदुच्चैः प्रतिज्ञाता न च विद्युत्कारतुल्यस्य दानादिप्रतिज्ञातार्थारम्भाडम्बरस्य कता-| काऽन्यस्तु आरम्भाडम्बरस्य कर्ता न प्रतिज्ञातेति, एवमन्यावपीति ४, वर्षिता कश्चिद् दानादिभिने तु तदारम्भा-12
डम्बरकर्ता, अन्यस्तु विपरीतोऽन्य उभयथाऽन्यो न किञ्चिदिति ५.६, कालवर्षी-अवसरवर्षीति एवमन्येऽपि, ७, पुरुषस्तु कालवीय कालवी-अवसरे दानव्याख्यानादिपरोपकारार्थप्रवृत्तिक एकः अन्यस्त्वन्यथेति, एवं शेषौ ८, क्षेत्र धान्याद्युत्पत्तिस्थानम् ९, पुरुषस्तु क्षेत्रवर्षीय क्षेत्रवर्षी-पात्रे दानश्रुतादीनां निक्षेपका, अन्यो विपरीतोऽन्यस्तथा-115
दीप
अनुक्रम [३६८]
मेघ: एवं तस्य भेदा:
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक [ ३४६]
दीप
अनुक्रम
[३६८ ]
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
उद्देशक [४], मूलं [३४६]
स्थान [ ४ ], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थाना
जसूत्रवृत्तिः
॥ २७० ॥
विधविवेकविकलतया महौदार्यात् प्रवचनप्रभावनादिकारणतो वा उभयस्वरूपोऽन्यस्तु दानादावप्रवृत्तिक इति १०, जनयिता मेघो यो वृष्ट्या धान्यमुद्गमयति, निर्मापयिता तु यो दृष्ट्यैव सफलता नयतीति ११, एवं मातापितरावपीति प्रसिद्धं, एवमाचार्योऽपि शिष्यं प्रत्युपनेतव्य इति १२, विवक्षित भरतादिक्षेत्रस्य प्रावृडादिकालस्य वा देशे आत्मनो | वा देशेन वर्षतीति देशवर्षी १ यस्तु तयोः सर्वयोः सर्वात्मना वा वर्षति स सर्ववर्षी, अन्यस्तु क्षेत्रतो देशे कालतः सर्वत्रात्मनो वा सर्व्वः २, अथवा कालतो देशे क्षेत्रतः सर्वत्र ३ आत्मनो वा सर्वतः ४, अथवा आत्मनो देशेन क्षेत्रतः, कालो वा सर्वत्र ६, अथवा क्षेत्रकालतो देशेन आत्मनः सर्वतः ७, अथवा क्षेत्रतो देशे, आत्मनो देशेन कालतः सर्वत्र ८, अथवा कालतो देशे आत्मनो देशेन क्षेत्रतो न सर्वत्रे ९ त्येयं नवभिर्विकल्पैर्वर्षति स देशवर्षी सर्ववर्षी चेति, चतुर्थः सुज्ञान इति १२, राजा तु यो विवक्षितक्षेत्रस्य मेघवदेश एव योगक्षेमकारितया प्रभवति स देशाधिपतिर्न सर्वाधिपतिः स च पल्लीपत्यादिः यस्तु न पत्यादौ देशेऽम्यत्र तु सर्वत्र प्रभवति स सर्वाधिपतिर्न देशाधिपतिर्यस्तूभयत्र स उभयाधिपतिरथवा देशाधिपतिर्भूत्वा सर्वाधिपतिर्यो भवति वासुदेवादिवत् स देशाधिपतिश्च सर्वाधिपतिश्चेति, चतुर्थी राज्यभ्रष्ट इति १४,
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चारि मेहा पं० [सं० पुक्खलबते पज्जुने जीमूते जिन्हें पुक्खलवट्टए णं महामेद्दे एगेणं वासेणं दसवास सहरसाई भावेति, पज्जुने णं महामेद्दे एगेणं वासेणं दस वाससयाई भावेति, जीमूते णं महामेहे एगेणं वासेणं दसवासाई भावेति, जिन्हे णं महामेहे बहूहिं वासेहिं एवं वासं भावेति वा प वा भावेइ १५, (सू० ३४७) चत्तारि करंडगा पं०
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१४ स्थाना०
उद्देशः ४
पुष्करसं
वर्त्ताया मेघपुरुषाः
सू० ३४७ करण्डकपुरुषाः सू० ३४८
॥ २७० ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३४८] +गाथा १ से ४ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
C
सूत्रांक [३४८]
तं०-सोधागकरंडते वेसिताकरंडते गाहावतिकरंडते रायकरंडते १६, एवामेव चत्तारि आयरिया पं० सं०--सोयागकरंगमसमाणे वेसिताकरंडगसमाणे गाहावइककरंडनसमाणे रायकरंडगसमाणे १७ (सू० ३४८) चत्तारि रुक्या पण्णता तं०-साले नाममेंगे सालपरियाते साले नाममेगे एरंडपरियाए एरंडे०४,१८ एवामेव पत्तारि आयरिया पं०२०साले णाममेगे सालपरिताते साले णाममेगे एरंडपरियाते एरंडे णाममेगे०४, १९ चचारि रुक्खा पं० सं०--साले णाममेगे सालपरिवार०४, २० एवामेव चत्तारि आयरिया पं००-साले मामभेगे सालपरिबारे०४, २१ सालदु मम झयारे जह साले णाम होइ दुमराया । इव सुंदरआयरिए सुंदरसीसे मुणेयच्ये ॥ १॥ एरंडमझयारे जह साले णाम होइ दुमराया । इस सुंदरआयरिए मंगुलसीसे मुणेयब्बे ॥ २ ॥ सालदुममञ्झयारे एरंडे णाम होति दुमराया । इय मंगुलआथरिए सुंदरसीसे मुणेयव्ये ।। ३।। एरंडमझयारे एरंडे णाम होइ दुमराया । इय मंगुलआयरिए मंगुलसीसे मुणेयम् ।। ४ ।। चत्तारि मच्छी पं० २०-अणुसोयचारी पडिसोयचारी अंतचारी ममचारी, २२ एवामेव चत्तारि भिक्खागा पं० सं०--अणुसोयचारी पडिसोयचारी अंतचारी मझचारी, २३ चत्तारि गोला पं० सं०-मधुसित्थगोले जङगोले दारुगोले मट्टियागोले, २४ एवामेव चत्वारि पुरिस जाया पं० २०-मधुसित्थगोलसमाणे ४, २५ पत्तारि गोला पं० २०-अथगोले तउगोले संथगोले सीसगोले, २६ एवामेव पत्तारि पुरिसजाया पं००-अयगोलसमाणे जाव सीसगोलसमाणे, २७ चत्तारि गोला पं००-हिरण्णगोले सुवनगोले रयणगोले वयरगोले, २८ एवागेव पत्तारि पुरिसजाया पं००-हिरण्णगोलसमाणे जाव बइरगोलसमाणे, २९ चत्तारि पत्ता पं० सं०-असिपत्ते
दीप
अनुक्रम [३७०]
ONTRACTest
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आगम (०३)
[भाग-5] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३४९] + गाथा १ से ५ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
CRESS
सूत्रांक
श्रीस्थाना
सूत्रवृत्तिः
॥२७१॥
[३४९]
गाथा ||१-५||
दीप अनुक्रम [३७१३७६]
करपत्ते खुरपत्ते कलम्पचीरितापते, ३० एवामेव चत्वारि पुरिसजाया पं० सं०-असिपत्तसमाणे जाव कलंबचीरिता
४ स्थाना० पत्तसमाणे, ३१ चत्तारि कडा पं००-मुंबकडे विदलकडे चम्मकडे कंबलकडे, ३२ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया
उद्देशः४ पं०२०-मुंवफडसमाणे जाव कंवलकडसमाणे ३३ (सू०३४९) चउब्विहा चप्पया पं०२०-एगखुरा दुखुरा
करण्डका गंडीपदा सणण्फदा, ३४ चाम्बिहा पक्षी पं० तं०-चम्मपक्खी लोमपक्सी समुमापक्षी विततपक्षी, ३५
वृक्षमत्स्यचाउम्विहा खुडपाणा पं० 0.-इंदिया तेइंदिया चरिंदिया संमुच्छिमपंचिदियतिरिक्खजोणिया ३६ (सू० ३५०)
गोलपत्र चत्तारि पक्षी पं० सं०-णिवृत्तित्ता णाममेगे नो परिवतित्ता परिवइत्ता नाम एगेनो निवइत्ता एगे निवतिसावि परि
कटाः चतु पतित्तावि एगे नो निवतित्ता नो परिवतित्ता, ३७ एवामेव चत्तारि मिक्खागा पं० सं०-णिवतित्ता णाममेगे मो
पदाद्याः परिवतिता ४, ३८ (सू. ३५१) चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-णिकडे णाममेगे णिकडे निकडे नाममेगे अणिक पक्षिभि ४, ३९ चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-गिकढे नाममेने णिकट्टप्पा णिकढे नाममेगे अनिषापा ४, ४० चत्तारि निष्कृपुरिसजाया पं० सं०-- हे नाममेगे बुद्दे बुरे नाममेगे अबुहे ४,४१ चत्तारि पुरिसजाया पं० २०-बुधे नाममेगे
टाद्याः बुधहिथए ४, ४२ पचारि पुरिसजाया पं० सं०-आयाणुकंपते णाममेगे नो पराणुकंपते ४, ४३ (सू० ३५२)
सू०३४८'पुक्खले'त्यादि, 'एगेणं वासेणं ति एकया वृष्ट्या भावयतीति-उदकस्नेहवतीं करोति धान्यादिनिष्पादनसमर्धामिति
३५२ यावत् भुवमिति गम्यते, जिह्मस्तु बहुभिर्वर्षणैरेकमेव वर्षम्-अब्दं यावत् भुवं भावयति नैव वा भावयति रुक्षत्वात्तज-II
|॥२७१।। लस्येति । अत्रान्तरे मेघानुसारेण पुरुषाः पुष्कलावतसमानादयः पुरुषाधिकारत्वात् अभ्यूह्या इति, तत्र सकृदुपदे
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मेघ: एवं तस्य भेदा:
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [३५२]
शेन दानेन वा प्रभूतकालं यावच्छुभस्वभावमीश्वरं वा देहिनं यः करोत्यसावाद्यमेघसमानः, एवं स्तोकतरस्तोकतमकाहुलापेक्षया द्वितीयतृतीयमेघसमानौ असकृदुपदेशादिना देहिनमल्पकालं यावदुपकुर्वन्ननुपकुर्वन् वा चतुर्थमेषसमान |
इति १५ । करण्डको-वस्त्राभरणादिस्थानं जनप्रतीतः, श्वपाककरण्डकः-चाण्डालकरण्डकः, स च प्रायश्चर्मपरिकम्मोपहै करणवर्धादिचर्माशस्थानतया अत्यन्तमसारो भवति, वेश्याकरण्डकस्तु जतुपूरितस्वर्णाभरणादिस्थानत्वात् क्रिमित्ततः सारोऽपि वक्ष्यमाणकरण्डकापेक्षया त्वसार एवेति, गृहपतिकरण्डकः-श्रीमत्कौटुम्बिककरण्डका, स च विशिष्टमणिसुबर्णाभरणादियुक्तत्वात् सारतरः, राजकरण्डकस्तु अमूल्यरत्नादिभाजनत्वात्सारतम इति १६, एवमाचार्यों यः षट्प्रज्ञकगाथादिरूपसूत्रार्धधारी विशिष्टक्रिया विकलश्च स प्रथमः अत्यन्तासारत्वात्, यस्तु दुरधीतश्रुतलवोऽपि वागावम्बरेण
मुग्धजनमावर्जयति स द्वितीयः परीक्षाऽक्षमतया असारस्वादेव, यस्तु स्वसमयपरसमयज्ञः क्रियादिगुणयुक्तश्च स तप्रातीयः सारतरत्वात् , यस्तु समस्ताचार्यगुणयुक्ततया तीर्थकरकल्पः स चतुर्थः सारतमस्यात् सुधर्मादिवदिति १५, सालो
नामैका सालाभिधानवृक्षजातियुक्तत्वात् सालस्यैव पर्याया-धर्मा बहलच्छायत्वासेव्यत्वादयो यस्य सः शालपर्याय इत्येकः, शालो नामैक इति तवैव एरण्डस्येव पर्याया धर्मा अवहलच्छावत्वाऽऽसेव्यत्वादयो यस्य स एरण्डपर्याय इति द्वितीयः, एरण्डो नामैक एरण्डाभिधानवृक्षजातीयत्वात् सालपर्यायो बहलच्छायत्वादिधर्मयुक्तत्वादिति तृतीयः, एहै रण्डो नामैकस्तथैव एरण्डपर्यायः अवहलच्छायत्वाघेरण्डधर्मयुक्तत्वादिति चतुर्थः १८, आचार्यस्तु साल इव सालो यथा हि सालो जातिमानेवमाचार्योऽपि यः सत्कुलः सद्गुरुकुलश्च स साल एवोच्यते तथा सालपर्यायः-सालधम्मा
दीप
अनुक्रम [३७९]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३५२]
दीप अनुक्रम [३७९]
श्रीस्थाना- यथा हि सालः सच्छायत्वादिधर्मयुक्त एवं यो ज्ञानक्रियाप्रभवयशःप्रभृतिगुणयुक्तो भवति स तथोच्यते इत्येकः, तथा स्थाना. सूत्र
सालो नामैक इति तथैव एरण्डपर्यायस्तूक्तविपर्ययादिति द्वितीयः, एवमितरावपीति १९, तथा सालस्तथैव साल एव 5 उद्देशः ४ वृत्तिः परिवारः-परिकरो यस्य स सालपरिवारः, एवं शेषत्रयमिति २०, आचार्यस्तु साल इव सालो गुरुकुलश्रुतादिभिरुत्तम-16
| करण्डका हात्वात् सालपरिवारः साल कल्पमहानुभावसाधुपरिकरवात् , तथा एरण्डपरिवारः एरण्ड कल्पनिर्गुणसाधुपरिकरत्वात् एव-14
| वृक्षमत्स्य| मेरण्डोऽपि श्रुतादिभिहीनत्वादिति, चतुर्थः सुज्ञानः, उक्तचतुर्भङ्गया एवं भावनार्थ 'सालदुमे'त्यादि गाथाचतुष्कं, व्यक्त | गोलपत्र नवरं मङ्गलम्-असुन्दरं २१, अनुश्रोतसा चरतीत्यनुश्रोतश्चारी-नद्यादिप्रवाहगामी एवमन्ये वयः २२, एवं भिक्षाकासाधुः, यो ह्यभिग्रहविशेषादुपाश्रयसमीपात् क्रमेण कुलेषु भिक्षते सोऽनुश्रोतश्चारिमत्स्यवदनुश्रोतवारी प्रथमो, यस्तू-IN
पदाद्याः क्रमेण गृहेषु भिक्षमाण उपाश्नयमायाति स द्वितीयो, यस्तु क्षेत्रान्तेषु भिक्षते स तृतीयः, क्षेत्रमध्ये चतुर्थः २३, मधु- पक्षिभिशू|सित्थु-मदनं तस्य गोलो-वृत्तपिण्डो मधुसित्थगोल एवमन्येऽपि, नवरं जतु-लाक्षा दारुमृत्तिके प्रसिद्ध इति २४, यथैते || निष्कृहै गोला मृदुकठिनकठिनतरकठिनतमाः क्रमेण भवन्त्येवं ये पुरुषाः परीपहादिषु मृदुदृढढतरहढतमसत्त्वा भवन्ति ते टायाः
मधुसिस्थगोलसमाना इत्यादिभिर्व्यपदेशैर्व्यपदिश्यन्त इति २५, अयोगोलादयः प्रतीताः २६, एतैश्चायोगोलकादिभिः सू०३४८|| कमेण गुरुगुरुतरगुरुतमात्यन्तगुरुभिः आरम्भादिविचित्रप्रवृत्त्युपार्जितकर्मभारा ये पुरुषा भवन्ति तेऽयोगोलसमाना ३५२ दि इत्यादिव्यपदेशवन्तो भवन्ति पितृमातृपुत्रकलत्रगतस्नेहभारतो वेति २७, हिरण्यादिगोलेषु क्रमेणाल्पगुणगुणाधिकगुणा-IV॥२७२॥
धिकतरगुणाधिकतमेषु पुरुषाः समृद्धितो ज्ञानादिगुणतो वा समानतया योज्याः २८, पत्राणि-पर्णानि तद्वतनुतया |
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३५२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [३५२]
दीप
यानि अस्यादीनि तानि पत्राणीति, असि:-खड्गः स एव पत्रमसिपत्रं करपत्रं-कचं येन दारु छिद्यते शुर:-छुरः स एव |
पत्रं क्षुरपत्रं, कदम्बचीरिकेति शखविशेष इति २९, तत्र द्राक् छेदकत्वादसेयः पुरुषो द्रागेव स्नेहपाशं छिनत्ति सोऽसि-15 181 पत्रसमानः, अवधारितदेववचनसनत्कुमारचक्रवर्तिवत्, यस्तु पुनः पुनरुच्यमानो भावनाभ्यासात् स्नेहतरूं छि-15
नत्ति स करपत्रसमानः, तथाविधश्रावकवत्, करपत्रस्य हि गमनागमनाभ्यां कालक्षेपेण छेदकत्वादिति, यस्तु श्रुतध
नेमार्गोऽपि सर्वथा नेहच्छेदासमर्थो देशविरतिमानमेव प्रतिपद्यते स क्षुरपत्रसमानः, क्षुरो हि केशादिकमल्पमेव छिनहात्तीति, यस्तु स्नेहच्छेदं मनोरथमात्रेणैव करोति स चतुर्थः अविरतसम्यग्दृष्टिरिति, अथवा यो गुवादिषु शीघमन्दमन्द
तरमन्दतमतया खेहं छिनत्ति स एवमपदिश्यते ३१, कम्बादिभिरातानवितानभावेन निष्पाद्यते यः स कटः कट इव
कट इत्युपचारात् तन्वादिमयोऽपि कट एवेति, तत्र 'सुंबकडे'त्ति तृणविशेषनिष्पन्नः 'विदलकडे'त्ति वंशशकलकृतः13 दा'चम्मकडे'त्ति वर्द्धव्यूतमञ्चकादिः 'कंबलकडेत्ति कम्बलमेवेति ३२, एतेषु चाल्पबहुबहुतरबहुतमावयवप्रतिबन्धेषु पुरुषा योजनीयाः, तथाहि-यस्य गुर्वादिष्वल्पः प्रतिबन्धः स्वल्पव्यलीकादिनापि विगमात् स सुम्बकटसमान इत्येवं सर्वत्र भावनीयमिति ३३, चतुष्पदाः स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चः एकः खुरः पादे पादे येषां ते एकखुरा:-अश्वादयः, एवं द्वौ
खुरौ येषां ते तथा ते च गवादयः, गण्डी-सुवर्णकारादीनामधिकरणी गण्डिका तद्वत्पदानि येषां ते तथा ते हस्त्यादादयः, 'सणफय'ति सनखपदाः नाखरा:-सिंहादयः, इहोत्तरसूत्रद्वये च जीवानां पुरुषशब्दवाच्यत्वात् पुरुषाधिकार
तेति ३४, चर्ममयपक्षाः पक्षिणश्चर्मपक्षिणो-बल्गुलीमभृतयः एवं लोमपक्षिणो-हंसादयः समुद्कबत् पक्षी येषां ते समु
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना-
प्रत
वृत्तिः
सूत्रांक
॥२७३॥
1ऊरकर
[३५२]
दीप
गकपक्षिणः, समासान्त इन्, ते च बहिद्वीपसमुद्रेषु, एवं विततपक्षिणोऽपीति ३५, क्षुद्रा-अधमा अनन्तरभवे सिध-४४ स्थाना भावात् प्राणा-उपासादिमन्तः क्षुद्रमाणाः संमूर्छन निर्वृत्ताः सम्मूच्छिमाः, तिरश्चा सत्का योनिर्येषां ते तथा ततःउद्देशः४ पदत्रयस्य कर्मधारये सति सम्मूच्छिमपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका इति भवति ३६, निपतिता-नीडादवतरीता-अवतरीत करण्डकाः | शक्तो नामैका पक्षी धृष्टत्वादज्ञवाद्वा न तु परिव्रजिता-न परिवजितुं शक्को बालस्वादित्येकः, एवमन्यः परिव्रजितुं||
लावृक्षमत्स्यशक्तः पुष्टत्वान्न तु निपतितुं भीरुत्वादन्यस्तूभयथा चतुर्थस्तूभयप्रतिषेधवानतिचालत्वादिति ३७, निपतिता-भिक्षाच- गोलपत्र
यामवतरीता भोजनाद्यर्थित्वान्न तु परिब्रजिता-परिभ्रमको ग्लानत्वादलसत्वालज्जालुत्वाद्धेत्येकः अन्यः परिजिता- कटाः चतुः परिभ्रमणशील आश्रयान्निर्गतः सन् न तु निपतिता-भिक्षार्थमवतरीतुमशक्तः सूत्रार्थासक्तरयादिना, शेषी स्पष्टी ३८, पदाद्याः निष्कृष्टः-निष्कर्षितः तपसा कृशदेह इत्यर्थः पुनर्निकृष्टो भावतः कृशीकृतकषायत्वादेवमन्ये त्रय इति ३९, एतद्भाय-17
पक्षिभित्नार्थमेवानन्तरं सूत्र-नि:कृष्टः कृशशरीरतया तथा निःकृष्टः आत्मा कषायादिनिर्मथनेन यस्य स तथेत्येवमन्ये त्रय
निष्कृइति, अथवा निःकृष्टस्तपसा कृशीकृतः पूर्व पश्चादपि तथैवेत्येवमाद्यसूत्रं व्याख्येयं, द्वितीयं तु यथोक्तमेवेति ४०, बुधोला
Rष्टाद्याः बुधत्वकार्यभूतसक्रियायोगात्, उक्तञ्च-"पठकः पाठकश्चैव, ये चान्ये तत्वचिन्तकाः । सर्वे ते व्यसनिनो राजन्,
& ३५२ यः क्रियावान् स पण्डितः॥१॥” इति, पुनर्बुधः सविवेकमनस्वादित्येकः, अन्यो बुधस्तथैव अबुधस्त्वविविक्तमन-131 स्त्वात् , अपरस्त्वबुधोऽसक्रियत्वात् युधो विवेकवञ्चित्तवाचतुर्थ उभयनिषेधादिति ४१, अनन्तरसूत्रेणैतदेव व्यकी-IC॥२७३ ।। क्रियते-बुधः सक्रियत्वात् , बुध हृदयं-मनो यस्य स बुधहृदयो विवेचकमनस्त्वात् , अथवा बुधः शास्त्रज्ञत्वात् बुध
अनुक्रम [३७९]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [३५२]
हृदयस्तु कार्येष्वमूढलक्षत्वादित्येकः, एवमन्ये त्रय ऊह्याः ४२, आत्मानुकम्पका-आत्महितप्रवृत्तः प्रत्येकबुद्धो जिनकल्पिको वा परानपेक्षो वा निघृणः, परानुकम्पको निष्ठितार्धतया तीर्थकरः आत्मानपेक्षो वा दयैकरसो मेतार्यवत् , उभ-| यानुकम्पकः स्थविरकल्पिक उभयाननुकम्पकः पापारमा कालशौकरिकादिरिति ४३ । अनन्तरं पुरुषभेदा रक्ताः, अधुना तद्व्यापारविशेष तवेदसम्पाद्यमभिधित्सुः सूत्रसप्तकमाह-'चउबिहे संवासे' इत्यादि
चाउव्यिहे संवासे पं० सं०-दिवे आसुरे रक्खसे माणुसे १, पब्विधे संवासे पं० ०-देवे णाममेगे देवीए सचि संवासं गछति देवे नाममेगे असुरीए सद्धि संवासं गच्छति अमुरे णाममेगे देवीए सचि संवासं गच्छद असुरे नाममेगे असुरीए सहि संवासं गच्छति २, पव्विधे संवासे पं००-देवे नाममेगे देवीए सहि संवासं गच्छति देवे नाममेगे रक्खसीए सद्धि संवासं गमछति रक्खसे णाममेगे देवीर सद्धिं संवानं गच्छति रक्ससे नाममेगं रक्खसीए सद्धिं संवासं गच्छति १, ३, चउविधे संवासे पं० त०-देवे नाममेगे देवीए ससिं संवास गछति देवे नाममेगे मगुस्सीहि सद्धिं संवासं गच्छति मणुस्से नाममेगे देवीहि सद्धिं संवासं गच्छति मणुस्से नाममेगे मणुस्सीइ सद्धिं संवार्स गच्छति ४, चविधे संवासे पं० तं०-असुरे गाममेगे असुरीए सद्धि संवासं गच्छति असुरे नाममेगे रक्खसीए सद्धिं संवासं गच्छति ४, ५, चम्विधे संवासे पं० तं०-असुरे नाममेगे असुरीए सद्धिं संवासं गच्छति असुरे णाममेगे मणुस्सीए सचि. संवासं गच्छति १,६, चाबविधे संवासे ५००-रक्खसे नाममेगे रक्खसीए सदिसंवासं गच्छति रक्ख से नाममेगे माणुसीए सर्हि संवासं गमछति ४, ७, (सू. ३५३) चउबिहे अबसे पं० २०-आसुरे आमिओगे
दीप
अनुक्रम [३७९]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३५४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
संवासः
सूत्रांक
४ R
[३५४]
श्रीस्थाना-18 संमोहे देवकिब्बिसे चहि, ठाणेहिं जीवा आसुरत्ताते कम्मं पगरेंति, तं०-कोवसीलताते पाहुडसील याते संसत्तत्तयो- १४ स्थाना० असूत्र
कम्मेणं निमित्ताजीवयाते, चउहि ठाणेहिं जीया आभिओगत्ताते कम्म पगरेति तं०-अन्तुकोसेणं परपरिवातेणं भूतिक- | उद्देशः४ वृत्तिः
म्मेणं कोउयकरणेणं, चउहि ठाणेहि जीवा सम्मोदत्ताते कम्मं पगरेंति, सं०-उम्मग्गदेसणाए मग्गंतराएर्ण कामासंसपो गेणं भिजानियाणकरणं, चडहिं ठाणेहि जीवा देवकिदिबसियत्ताते कम्मं पगरेंति २०-अरहताणं अवन्नं वयमाणे अर
आसुरा॥२७४॥ हतपन्नत्तस्स धम्मस्स अवन्नं धयमाणे आथरियउयज्झायाणमवन्नं वदमाणे चाउयनस्स संघस्स अवनं वदमाणे(सू० ३५४)
भियोग्याकण्ठ्यं, नवरं खिया सह संवसन-शयनं संवासः, द्यौः-स्वर्गः तद्वासी देवोऽप्युपचाराद् द्यौस्तत्र भवो दिव्यो ।
धा: वैमानिकसम्बन्धीत्यर्थः, असुरस्य-भवनपतिविशेषस्यायमासुर एवमितरी, नवरं राक्षसो-व्यन्तरविशेषः, चतुर्भभिका-131
सू०३५३
३५४ देव ३ | असुर २ | राक्षस १ | मनुष्य | सूत्राणि देवासुरेत्येवमादिसंयोगतः षड् भवन्ति । पुरुषक्रियाधिकारादेवापध्वंससूत्र | | देवी । असुरी | राक्षसी । नारी | तत्रापध्वंसनमपध्वंस:-चारित्रस्य तत्फलस्य चा असुरादिभावनाजनितो विनाशः, तत्रासुरभावनाजनित आसुरः, येषु वाऽनुष्ठानेषु वर्तमानोऽसुरत्वमर्जयति तैरात्मनो वासनमासुरभावना, एवं भावनान्तर
मपि, अभियोगभावनाजनित आभियोगः, सम्मोहभावनाजनितः साम्मोहः, देवकिल्विषभावनाजनितो दैवकिल्विष इति, ★इह च कन्दर्पभावनाजनितः कान्दोऽपध्वंसः पञ्चमोऽस्ति, स च सन्नपि नोक्तः, चतुःस्थानकानुरोधाद, भावना हि *1॥२७४॥
पश्चागमेऽभिहिताः, आह च-"कंदप्प १ देवकिब्धिस २ अभिओगा ३ आसुरा य ४ संमोहा ५। एसा उ संकिलिट्ठा पंचविहा भावणा भणिया ॥१॥" [कंदपी देवकिल्बिषाऽभियोग्या आसुरी च संमोहा । एतास्तु संक्लिष्टाः पंचविधा
दीप अनुक्रम [३८१]
CAS
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आगम
(०३)
प्रत सूत्रांक
[ ३५४ ]
दीप
अनुक्रम [३८१]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ३५४]
स्थान [ ४ ],
उद्देशक [४],
भावना भणिता ॥ १ ॥ ] आसाच मध्ये यो यस्यां भावनायां वर्त्तते स तद्विधेषु देवेषु गच्छति चारित्रलेशप्रभावाद्, उक्तञ्च - "जो संजओऽवि एयासु अप्पसत्थासु वट्टइ कहंचि । सो तन्त्रिहेसु गच्छइ सुरेसु भइओ चरणहीणो ॥ १ ॥ " [यः संयतोऽप्येतासु अप्रशस्तासु वर्त्तते कथञ्चित् । स तद्विधेषु सुरेषु गच्छति भक्तश्चरणहीनः ॥ १ ॥] इति, आसुरादिरपध्वंस उक्तः, स चासुरत्वादिनिबन्धन इत्यसुरादिभावना स्वरूपभूतान्यसुरादित्य साधनकर्म्मणां कारणानि सूत्रचतुष्टयेनाह-'चउहिं ठाणेही' त्यादि कण्ठ्यं, नवरं असुरेषु भव आसुरः-असुरविशेषस्तद्भावः आसुरत्वं तस्मै आसुरस्याय त दर्थमित्यर्थः, अथवा असुरतायै असुरतया वा कर्म-तदायुष्कादि प्रकुर्वन्ति-कर्त्तुमारभन्ते, तद्यथा - क्रोधनशीलतयाकोपस्वभावत्वेन प्राभृतशीलतया - कलन सम्बन्धतया संसक्ततपःकर्म्मणा - आहारोपधिशय्यादिप्रतिबद्धभावतपश्चरणेन | निमित्ताजीवनसया त्रैकालिक लाभालाभादिविषयनिमित्तोपात्ताहाराद्युपजीवनेनेति, अयमथऽन्यत्रैवमुक्तः - " अणुबद्धविग्गहोंबिय संसत्ततवो निमित्तमाएसी । निक्किवणिराणुकंपो आसुरियं भावणं कुणइ ॥ १ ॥ " [अनुबद्धविग्रहः संसक्ततपा निमित्तादेशी निष्कृपः निरनुकंप: आसुरिकीं भावनां करोति ॥ १ ॥] इति तथा अभियोग-व्यापारणमर्हन्तीत्या|भियोग्याः किङ्करदेवविशेषास्तद्भावस्तत्ता तस्यै तया वेति, आत्मोत्कर्षेण-आत्मगुणाभिमानेन परपरिवादेन - परदोषपरिकीर्तनेन भूतिकर्मणां ज्वरितादीनां भूत्यादिभी रक्षादिकरणेन कौतुककरणेन सौभाग्यादिनिमित्तं परस्त्रपनकादिकरणेनेति, इयमप्येवमन्यत्र - "कोउय भूईकम्मे पसिणा इयरे निमित्तमाजीवी । इहिरससायगरुओ अभिओगं भावणं कुणइ ॥ १ ॥” इति [ प्रश्नोऽङ्गुष्ठप्रश्नादिरितरः स्वमविद्यादिरिति > [ कौतुकं भूतिकर्म प्रश्नः इतर ( स्वमादिः) निमित्ताजीवी
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आगम
(०३)
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सूत्रांक
[ ३५४ ]
दीप
अनुक्रम
[३८१]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
उद्देशक [४], मूलं [३५४]
स्थान [ ४ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थानानसूत्रवृत्तिः
॥ २७५ ॥
४ स्थाना०
संवासः आसुरा
द्याः
ऋद्धिरससातागौरवित आभियोग्यां भावनां करोति ॥ १ ॥ ] तथा सम्मुह्यतीति सम्मोह :- मूढात्मा देवविशेष एव तद्भाॐ वस्तत्ता तस्यै सम्मोहतायै सम्मोहत्वाय सम्मोहतया वेति, उन्मार्गदेशनया सम्यग्दर्शनादिरूपभावमार्गातिक्रान्तधर्म्म- ४ उद्देशः ४ > प्रथनेन [ प्रकटनेन-प्रकथनेन > मार्गान्तरायेण - मोक्षाध्वप्रवृत्ततद्विन करणेन, कामाशंसाप्रयोगेण-शब्दादावभिलापकरणेन, 'भिन्न'त्ति लोभो गृद्धिस्तेन निदानकरणं एतस्मात्तपःप्रभृतेश्चक्रवर्त्त्यादित्वं मे भूयादिति निकाचना करणं तेनेति, इयमप्येवमन्यत्र — “उम्मम्गदेसओ मग्गनासओ मग्गविप्पडीवती । मोहेण य मोहेत्ता संमोहं भावणं कुणइ ॥ १ ॥ ॐ भियोग्या इति, [उन्मार्गदेशको मार्गनाशको मार्गविप्रतिपत्तिकः मोहेन च मोहयित्वा संमोहीं भावनां करोति ॥ १ ॥ देवानां मध्ये किल्विषः पापोडत एत्रास्पृश्यादिधर्म्मको देवश्वासौ किल्विषश्चेति वा देवकिल्विषः शेषं तथैव, अवर्ण:- अश्लाघा असदोषोद्घट्टनमित्यर्थः, अयमर्थोऽन्यत्रैवमुच्यते - " नाणस्स केवलीणं धम्मायरिआण सव्वसाहूणं । भासं अवनमाई किविसियं भावणं कुणइ ॥ १ ॥ इति, [ज्ञानस्य केवलिनां धर्माचार्याणां सर्वसाधूनाम् । भाषमाणोऽवर्णादि किस्विपिक भावनां करोति ॥ १ ॥ ] इह कन्दर्पभावना नोक्ता चतुःस्थानकत्वादिति, अवसरश्चायमस्या इति सा प्रदर्श्यते "कंदष्पे | कुक्कुट दवसीले यावि हासणकरे य। बिम्हाविंतो य परं कंदष्पं भावणं कुणइ ॥ १ ॥” इति [कन्दर्पः कन्दर्पकथावान्, कुक्रुश्चितो भाण्डचेष्टः, द्रवशीलो दर्पात् द्रुतगमनभाषणादि, हासनकरो बेषवचनादिना स्वपरहासोत्पादकः विस्मापकःइन्द्रजाली >> [कंदर्पी कुक्कुचितः द्रुतगामी चापि हासनकरः परं विस्मापयन् ( विस्मापक इन्द्रजाली ) कंदप भावनां करोति ॥ १ ॥ ] अयञ्चापध्वंसः प्रव्रज्यान्वितस्येति प्रत्रज्यानिरूपणाय 'चविवहा परबजे' त्यादि सूत्राष्टकं -
० सू० ३५३. ३५४
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।। २७५ १.
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३५५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [३५५]
चलम्विहा पयजा पं० सं०-इहलोगपडिबद्धा परलोगपतिवद्धा दुहतो लोगपढिबद्धा अप्पडिबद्धा १, चविहा पध्वजा पं०२०-पुरमोपडिबद्धा मग्गोपडिचद्धा दुहतो पडिबद्धा अपडियद्धा २, चउन्विहा पवजा पं०२०-ओवायपब्बजा अक्वातपन्चजा संगारपब्बया विहगगइपवजा ३, चउम्विहा पवजा पं००-यापहत्ता पयावत्ता मोबाचइत्ता परिपूयावइत्ता ४, चउश्विहा पन्वज्जा पं० २०---नडखइया भइखझ्या सीहखइया सियालक्खया ५, च:विहा किसी पं०सं०-याविया परिवाविया पिंदिता परिणिदिता ६, एवामेव चाउम्विहा पयजा पं०२०-वारिता परिवाविता किंदिता परिणिदिता ७, चविहा पवजा पं० २०-धनपुंजितसमाणा धनविरहितसमाणा धन्नविक्वित्त.
समाणा धन्नसङ्कट्टितसमाणा ८, (सू० ३५५) कण्ठयं, किन्तु इहलोकप्रतिवद्धा निर्वाहादिमात्रार्थिनां परलोकप्रतिबद्धा जन्मान्तरकामाद्यर्थिनां द्विधालोकप्रति | बद्धोभयार्थिनां अप्रतिवद्धा विशिष्टसामायिकवतामिति । पुरतः-अग्रतः प्रवज्यापर्यायभाविषु शिष्याहारादिषु या प्रतिबद्धा सा तथोच्यते, एवं मार्गतः-पृष्ठतः स्वजनादिषु, विधाऽपि काचित् , अप्रतिबद्धा पूर्ववत् । 'ओवाय'त्ति अवपातः-सद्गुरूणां सेवा ततो या प्रव्रज्या साध्वपातप्रव्रज्या, आख्यातस्य-प्रवजेत्याधुक्तस्य या स्यात् साउंडख्यातप्रव्रज्या आर्यरक्षितधातुः फल्गुरक्षितस्येवेति, 'संगारति सङ्केतस्तस्माद्या सा तथा मेतार्यादीनामिव यदिवा यदि खं प्रव्रजसि तदाऽहमपीत्येवं सङ्केततो या सा तथेति, 'विहगगइ'त्ति विहगगत्या-पक्षिन्यायेन परिवारादिवियोगेनैकाकिनो देशान्तरगमनेन च या सा विहगगतिप्रजज्या, कचिद् "विहगपवजे ति पाठस्तत्र विहगस्ये
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'प्रव्रज्या' एवं तस्य भेदा:
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आगम
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[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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सूत्रांक
[३५५]
दीप
श्रीस्थाना-15 वेति दृश्यमिति, विहतस्य वा-दारियादिभिररिभिर्वेति । 'तुयावइतत्ति तोदं कृत्वा तोदयित्वा-व्यथामुत्पाद्य या प्रव्रज्या र स्थाना.
दीयते, मुनिचन्द्रपुत्रस्य सागरचन्द्रेणेव सा तथोच्यते, 'उयावइत्त'त्ति क्वचित्साठस्तत्र ओजो-बलं शारीरं विद्यादिसत्कं उद्देशः४ वृत्तिः 18 वा तत्कृत्वा-प्रदय या दीयते सा ओजयित्वेत्यभिधीयते, 'पुयावइत्तत्ति 'प्लङ्कगताविति वचनात् प्लावयित्वा-अन्यत्र इहलोक
नीत्वाऽऽयरक्षितवत्, पूतं वा दूषणव्यपोहेन कृत्वा या सा पूतयित्वेति, 'वुयावइत्त'त्ति सम्भाष्य गौतमेन कर्षकवत्, प्रतिबद्धा॥२७६ ॥1
वचनं वा पूर्वपक्षरूपं कारयित्वा निगृह्य च प्रतिज्ञावचनं वा कारयित्वा या सा तथोक्का, कचित् 'मोयावइत्त'त्ति पाठ- दिप्रवज्या13स्तत्र मोचयित्वा साधुना तैलार्थदासत्वप्राप्तभगिनीवदिति, 'परिवुयावइत्तत्ति घृतादिभिः परिगृतभोजनः परिप्लुत एव भेदाः दतिं कृत्वा परिप्लुतयित्वा सुहस्तिना रखचत् या सा तथोच्यत इति । नटस्येव संवेगविकलधर्मकथाकरणोपार्जितभोजना- सू० ३५५
दीनां 'खइयत्ति खादितं भक्षणं यस्यां सा नटखादिता, नटस्येव वा खइव'त्ति संवेगशून्यधर्मकथनलक्षणो हेवाका-स्वभायो यस्यां सा तथा, एवं भटादिष्वपि, नवरं भदः तथाविधवलोपदर्शनलब्धभोजनादेः खादिता आरभटवृत्तिलक्षणहेवाको वा सिंहः पुनः शौर्यातिरेकादवज्ञयोपात्तस्य यथारब्धभक्षणेन वा खादिता तथाविधप्रकृतियों शृगालस्तु न्यवृत्त्योपात्तस्थान्यान्यस्थानभक्षणेन वा खादिता तत्स्वभावो वेति । कृषिः-धान्यार्थ क्षेत्रकर्षणम् , 'वाविय'त्ति सकृद्धान्यवपनवती 'परिवावियत्ति द्विस्त्रिी उत्साव्य स्थानान्तरारोपणतः परिवपनवती शालिकृषिवत्, 'निंदिय'त्ति एकदा विजातीयतणाद्यपनयनेन शोधिता निदाता, 'परिनिंदिय'त्ति द्विस्त्रिी तृणादिशोधनेनेति, प्रबण्या तु वाविया सामा-18
X ॥२७६॥ यिकारोपणेन परिवाविया महाप्रतारोपणेन निरतिचारस्य सातिचारस्य वा मूलप्रायश्चित्तदानता, निन्दिया सकृदतिचा-1
अनुक्रम [३८२]
'प्रव्रज्या' एवं तस्य भेदा:
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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सूत्रांक [३५५]
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दीप अनुक्रम [३८२]
रालोचनेन परिणिंदिया पुनः पुनरिति 'धन्नपुंजियसमाण'त्ति खले लूनपूनविशुद्धपुञ्जीकृतधान्यसमाना सकलातिचार-16 कचवरविरहेण लग्धस्वस्वभावस्यात् एका, अन्या तु खलक एव यद्विरेलितं-विसारितं वायुना पूनमपुञ्जीकृतं धान्यं| तत्समाना या हि लघुनापि यत्नेन स्वस्वभावं लप्स्यत इति, अन्या तु यद्विकीर्ण-गोखुरक्षुण्णतया विक्षिप्त धान्यं तत्स-15 माना या हि सहजसमुत्पन्नातिचारकचवरयुक्तत्वात् सामग्यन्तरापेक्षितया कालक्षेपलभ्यस्वस्वभावा सा धान्यविकीर्णसमानोच्यते, अन्या तु यत्स हर्षित-क्षेत्रादाकर्षितं खलमानीतं धान्यं तत्समाना या हि बहुतरातिचारोपेतत्वाद् बहुतरकालप्राप्तव्यस्वस्वभावा सा धान्यसङ्कर्षितसमानेति, इह च पुञ्जितादेर्धान्यविशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वादिति ॥ इयश्च प्रव्रज्या एवं विचित्रा संज्ञावशाभवतीति संज्ञानिरूपणाय सूत्रपश्चर्क
चत्तारि सन्नामो पं० सं०--आहारसन्ना भयसन्ना मेहुणसन्ना परिग्गहसन्ना १, चउदि ठाणेहिं आहारसन्ना समुप्पजति, तं०-ओमफोहताते १ छुहावेयणिज्जरस कम्मस्स उदएणं २ मतीते ३ तदहोवोगेणं ४, २, चाहिं ठाणेहिं भयसन्ना समुपजाति, सं०-हीणसत्तत्ताते भयवेयणिजस्स कम्मस्स उदएणं मतीते तदहोवओगेणं ३, चउहि ठाणेहिं मेहुणसन्ना समुपज्जति, तं०-चितमंससोणिययाए मोहणिजस्स कम्मस्स उदएणं मतीते सट्ठोवओगेणं ४, चउहि ठाणेहिं परिग्गहसन्ना समुपजइ, तं-अविमुत्तवाए लोभवेयणिजस्स कम्मस्स उदएणं मतीते तदहोवओगेणं ५ (सू० ३५६) चउम्विहा कामा पं० सं०-सिंगारा कलुणा बीभत्सा रोदा, सिंगारा कामा देवाणं कलुणा कामा मणुयाणं बीभत्सा कामा तिरिक्सजोणियाणं रोदा कामा णेरड्याण (सू० ३५७)
संज्ञा एवं तस्य उत्पत्ति:
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३५७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [३५७]
श्रीस्थाना-IX 'चत्सारी'त्यादि व्यक्तं, केवल संज्ञानं संज्ञा-चैतन्यं, तच्चासातवेदनीयमोहनीयकर्मोदयजन्यविकारयुक्तमाहारसंज्ञा- ४ स्थाना०
सूत्र- मादित्वेन व्यपदिश्यत इति, तत्राहारसंज्ञा-आहाराभिलाषः भयसंज्ञा-भयमोहनीयसम्पाद्यो जीवपरिणामो मैथुनसंज्ञा- उद्देशः ४ वृत्तिः
वेदोदयजनितो मैथुनाभिलाषः परिग्रहसंज्ञा-चारित्रमोहोदयजनितः परिग्रहाभिलाप इति, अवमकोष्ठतया-रिक्तोदर-1 संज्ञाः ॥२७७॥
तया मत्या-आहारकथाश्रवणादिजनितया तदर्थोपयोगेन-सततमाहारचिन्तयेति । हीनसत्त्वतया-सत्त्वाभावेन मतिः- सू० ३५६ ४ भयवा श्रवणभीषणदर्शनादिजनिता बुद्धिस्तया तदर्थोपयोगेन-इहलोकादिभयलक्षणार्थपर्यालोचनेनेति । चिते-उपचिते 8 कामाः & मांसशोणिते यस्य स तथा तझावस्तत्ता तया चितमांसशोणिततया मत्या-सुरतकथाश्रवणादिजनितबुड्या तदर्थोपयो- सू० ३५७
गेन-मैथुनलक्षणार्थानुचिन्तनेनेति । अविमुक्ततया-सपरिग्रहतया मत्या-सचेतनादिपरिग्रहदर्शनादिजनितबुद्ध्या तदर्थोप
योगेन-परिग्रहानुचिन्तनेनेति । संज्ञा हि कामगोचरा भवन्तीति कामनिरूपणसूत्रं व्यक्तञ्च, किन्तु कामा:-शब्दादयः, लागृङ्गारा देवानां एकान्तिकात्यन्तिकमनोजत्वेन प्रकृष्टरतिरसास्पदत्वादिति, रतिरूपो हि शारो, यदाह-"व्यवहाराला
पुनार्योरन्योऽन्य रक्तयोरतिप्रकृतिः शरः" इति, मनुष्याणां करुणा मनोज्ञत्वस्थातथाविधत्वातुच्छत्वेन क्षणदष्टनष्ट४ात्वेन शुकशोणितादिप्रभवदेहाश्रितत्वेन च शोचनात्मकत्वात्, करुणो हि रसः शोकस्वभावः "करुणः शोकप्रकृति"&ारिति वचनादिति, तिरक्षा बीभत्सा जुगुप्सासदत्वात् , बीभत्सरसो हि जुगुप्सात्मको, यदाह-"भवति जुगुप्साप्रकृति-पल वीभत्सः' इति, नैरयिकाणां रौद्रा-दारुणा अत्यन्तमनिष्टत्वेन क्रोधोत्पादकत्वात्, रौद्ररसो हि कोधरूपो, यत आह
का॥२७७॥ ||"रौद्रः क्रोधप्रकृति"रिति । एते च कामाः तुच्छगम्भीरयोर्वाधकेतरा इति तावभिधित्सुः सदृष्टान्तान्यष्टी सूत्राण्याह-12
दीप अनुक्रम [३८४]
AMER
an
संज्ञा एवं तस्य उत्पत्ति:
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३५८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
।
प्रत
सूत्रांक
[३५८]
पत्तारि उद्गा पं० सं०-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोदए उत्ताणे णाममेगे गंभीरोदए गंभीरे णाममेगे उत्ताणोदए गंभीरे भाममेगे गंभीरोदए १, एवामेव चचारि पुरिसजाया पं००-उखाणे नाममेगे उत्ताप हिदए उचाणे णाममेगे गंभीरहिदए १,२, चत्वारि उद्गा पं०२०-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोभासी उत्ताणे णाममेगे गंभीरोभासी ४,३, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० त०-उत्साणे णाममेगे उत्ताणोभासी उत्ताणे णाममेगे गंभीरोभासी ४,४, चत्तारि उदही पं० ०उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोदही उत्ताणे णाममेगे गंभीरोदही ४, ५, एवामेष चत्तारि पुरिसजाता पं० २०-उत्ताणे णामयेगे पत्ताणहियए ४, ६, चत्तारि उदही पं० तं०-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोभासी उत्ताणे णाममेगे गंभीरोभासी ४, ७,
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-उत्ताणे णाममेगे उचाणोभासी ४८ (सू०३५८) 'चत्तारी'त्यादीनि व्यकानि च, किन्तु उदकानि-जलानि प्रज्ञप्तानि तत्रोत्तानं नामैक तुच्छत्वात् प्रतलमित्यर्थः पुनरुसानं स्वच्छतयोपलभ्यमध्यस्वरूपत्वादुदक-जलम् , उसाणोदयेत्ति व्यस्तोऽयं निर्देशः प्राकृत शैलीक्शात् समस्त इवाव-1 भासते, न च मूलोपात्तेनोदकशब्देनायं गतार्थों भविष्यतीति वाच्यम् , तस्य बहुवचनान्तत्वेनेहासम्बग्यमानत्वात्, साक्षादुदकाब्दे च सति किं तस्य वचनपरिणामादनुकर्षणेनेत्येवमुदधिसूत्रेऽपि भावनीयमिति । तथोत्तानं तथैव गम्भीरमुदक-गडुलत्वादनुपलभ्यमानस्वरूपं तथा गम्भीरम्-अगाधं प्रचुरत्वादुत्तानमुदकं स्वच्छतयोपलभ्यमध्यस्वरूपत्वात् | तथा गम्भीरमगाधत्वात् पुनर्गम्भीरमुदकं गडुलत्वादिति, पुरुषस्तु उत्तानः अगम्भीरो बहिर्दर्शितमददैन्यादिजन्य-| विकृतकायवाक्चेष्टत्वादुत्तानहृदयस्तु दैन्यावियुक्तगुह्यधरणासमर्थचित्तवादित्येकः अन्य उत्तानः कारणवशादर्शितपिक-|
दीप
अनुक्रम [३८५]
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
श्रीस्थाना- असूत्र- वृत्तिः
सूत्रांक [३५८]
॥२७८॥
ASSACRACKS
दीप
तचेष्टत्वात् गम्भीरहृदयस्तु स्वभावेनोत्तानहृदयविपरीतत्वात् तृतीयस्तु गम्भीरो दैन्यादिवत्त्वेऽपि कारणवशात् संवृताकारतया उत्तानहृदयस्तथैव चतुर्थः प्रथमविपर्ययादिति । तथा उत्तानं प्रतलत्वादुत्तानमवभासते स्थानविशेषात् तथो- शार |त्तानं तथैव गम्भीरम्-अगाधमवभासते सङ्कीर्णाश्रयत्वादिना तथा गम्भीरम्-अगाधमुत्तानावभासि तु विस्तीर्णस्थानाश्रय-13ादकोटस्वादिना । तथा गम्भीरम्-अगाधं गम्भीरावभासि तथाविधस्थानाश्रितत्वादिनैवेति, पुरुषस्तूत्तान:-तुच्छ उचान एवाव-VISHAN |भासते प्रदर्शिततुच्छत्वविकारत्वाद् द्वितीयः संवृतत्वात् तृतीयः कारणतो दर्शितविकारत्वाच्चतुर्धः सुज्ञानः। तथा
| रुषाः उदकसूत्रद्वयवदुदधिसूत्रद्वयमपि सदाष्टोन्तिकमवसेयमिति, अथवा उत्तानः सगाधत्वादेक उदधिः-उदधिदेशः पूर्व प-TRI |श्चादपि उत्तान एवं वेलाया बहिःसमुद्रेष्वभावात् द्वितीयस्तृत्तानः पूर्वं पश्चाद् गम्भीरो वेलाऽऽगमेनागाधत्वात् तृती-1
|तरककुयस्तु गम्भीरः पूर्व पश्चात् वेलाविगमेनोत्तान उदधिः चतुर्थः सुज्ञानः ॥ समुद्रप्रस्तावात्तत्तरकान् सूत्रद्वयेनाह
म्भसमपुचत्तारि तरगा पं० २०-समुई तरामीतेगे समुदं तरइ समुदं तरामीतेगे गोप्पतं तरति गोप्पतं तरामीतेगे ४,१, चत्तारि
रुषाः तरगा पं० सं०-समुई तरित्ता नाममेगे समुद्दे विसीतते समुदं तरेचा णाममेगे गोप्पते विसीतति गोपतितं ४,२ (सू०
सू०३५९३५९) पचारि कुंभा पं० सं०-पुन्ने नाममेगे पुन्ने पुन्ने नाममेगे तुच्छे तुच्छे णाममेगे पुन्ने तुच्छे णाममेगे तुच्छे, एवामेष
३६० पत्तारि पुरिसजाया पं० त०-पुन्ने नाममेगे पुन्ने ४, चत्तारि कुंभा पं० सं०-पुन्ने नाममेगे पुनोभासी पुन्ने नाममेगे तुच्छोभासी तुच्छे नाममेगे पुन्नोभासी तुच्छे नाममेगे तुच्छोभासी, एवं चत्तारि पुरिसजाया पं० सं०-पुन्ने
॥ २७८॥ णाममेगे पुन्नोभासी ४, चत्तारि कुंभा पं० २०-पुन्ने नाममेगे पुन्नरूवे पुग्ने नाममेगे तुच्छरूवे ४, एवामेव चत्तारि
अनुक्रम [३८५]
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आगम
(०३)
प्रत
सूचांक
[ ३६० ]
गाथा
।। ९-४।।
टीप
अनुक्रम [३८७
-३९१]
[भाग-5] "स्थान" अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्तिः) उद्देशक [४]. मूलं [३६०] + गाथा १ से ४
स्थान [ ४ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
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एगे पितट्टे पुन्नेवि एगे अबदले पुत्रेवि एगे पितट्ठे ४ तहेब चत्तारि विस्संदति तुच्छेवि एगे न विस्सं
पुरिसजाया पं० [सं० पुन्ने नाममेगे पुनरूत्रे ४ चत्तारि कुंभा पं० तं० पुन्नेवि तुच्छेवि एगे पियट्टे तुच्छेवि एगे अवदले, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० कुंभा पं० [सं० पुन्नेवि एगे विस्संदति पुत्रेवि एगे जो विस्संदति तुच्छेवि एगे दद्द, एवामेव वस्तारि पुरिसजाया पं० तं० पुन्नेवि एगे विस्संदति ४, तहेव चत्तारि कुंभा पं० [सं० भिन्ने जज्जरिए परिस्साई अपरिस्साइ, एवामेव चउब्बिहे चरिते पं० नं० - मिने जाव अपरिस्साई, चत्तारि कुंभा पं० तं० - महुकुंभे नाम एगे महुष्पिहाणे महुकुंभे णामं एगे विसपिहाणे विसकुंभे नाम एगे महुपिहाणे विसकुंभे णाममेगे विसपि - हाणे, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० महुकुंभे नाम एगे मधुपिहाणे ४ – 'हिययमपात्रमकलुस जीहाऽवि य महुरभासिणी निथं । जंनि पुरिसंमि विज्जति से मधुकुंभे मधुपि ॥ १ ॥ हिययमपावमकलसं जीहाऽवि य कडुयभासिणी नियं। जंमि पुरिसंमि विजति से मधुकुंभे विसपिहाणे ॥ २ ॥ जं हिययं कलुसमयं जीहाऽवि य मधुरभासिणी नियं । अंमि पुरिसंभि विज्जति से विसकुंभे महुपिहाणे ॥ ३ ॥ जं हिययं कलुसमयं जीदाऽवि व कडुयभासिणी निबं । जंमि पुरिसंमि विजति से बिसकुंभे विसपिदाणे ॥ ४ ॥ ( सू० ३६० )
'चत्तारि तरगे' त्यादि व्यक्तं, नवरं तरन्तीति तराः त एत्र तरकाः, समुद्र-समुद्रबहुस्तरं सर्वविरत्यादिकं कार्ये तरामि - करोमीत्येवमभ्युपगम्य तत्र समर्थत्वादेकः समुद्रं तरति तदेव समर्थयतीत्येकः, अन्यस्तु तदभ्युपगम्यासमर्थत्वात् | गोष्पदं तत्कल्पं देशविरत्यादिकमल्पतमं तरति निर्वाहयतीति, अन्यस्तु गोष्पदप्रायमभ्युपगम्य वीर्यातिरेकात् समुद्र
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[ ३६० ]
गाथा
||2-8||
दीप
अनुक्रम
[३८७
-३९१]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
उद्देशक [४], मूलं [ ३६० ]
स्थान [ ४ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थानाङ्गसूत्रवृत्तिः
।। २७९ ।।
प्रायमपि साधयतीति चतुर्थः प्रतीतः १ । समुद्रप्रायं कार्य तरीखा निर्वाह्य समुद्रप्राये प्रयोजनान्तरे विषीदति-न तन्नि र्वाहयतीति विचित्रत्वात् क्षयोपशमस्येति, एवमन्ये त्रय इति २ । पुरुषानेव कुम्भदृष्टान्तेन प्रतिपिपादयिषुः सूत्रप्रपञ्चमाहसुगमश्चायं, नवरं पूर्णः सकलावयवयुक्तः प्रमाणोपेतो वा पुनः पूर्णो-मध्वादिभृतः द्वितीये भने तुच्छो-रिक्तः, तृतीये तुच्छ:- अपूर्णावयवो लघुर्वा, चतुर्थः सुज्ञानः, अथवा पूर्णो भृतः पूर्व पश्चादपि पूर्ण इत्येवं चत्वारोऽपि १, पुरुषस्तु पूर्णो जात्यादिभिर्गुणैः पुनः पूर्णो ज्ञानादिभिरिति अथवा पूर्णो धनेन गुणैर्वा पूर्व पश्चादपि तैः पूर्ण एवेत्येवं शेषा अपि २, पूर्णोऽवयवैर्दध्यादिना वा पूर्ण एवावभासते द्रष्टृणामिति पूर्णावभासीत्ये कोऽन्यस्तु पूर्णाऽपि कुतश्चिद्धेतोर्विवक्षित प्रयोजनासाधकत्वादेस्तु च्छोऽव भासते, एवं शेषौ ३ । पुरुषस्तु पूर्णो घनश्रुतादिभिस्तद्विनियोगाच्च पूर्ण एवावभासते, अन्यस्तु तदविनियोगात्तुच्छ एवावभासते, अन्यस्तु तुच्छोऽपि कथमपि प्रस्तावोचितप्रवृत्तेः पूर्णवदवभासते, अपरस्तुच्छोधनश्रुतादिरहितोऽत एव तदविनियोजकत्वात् तुच्छावभासीति ४ । तथा पूर्णो नीरादिना पुनः पूर्ण पुण्यं वा - पवित्रं रूपं यस्य स तथेति प्रथमो द्वितीये तुच्छं-हीनं रूपम् - आकारो यस्य स तुच्छरूपः, एवं शेषौ ५ । पुरुषस्तु पूर्णो ज्ञानादिभिः पूर्णरूपः पुण्यरूपो वा विशिष्टर जोहरणादिद्रव्यलिङ्गसद्भावात् सुसाधुरिति द्वितीयभङ्गे तुच्छरूपः कारणात्यक्तलिङ्गः सुसाधुरेवेति तृतीये तुच्छो ज्ञानादिविहीनो निवादिश्चतुर्थो ज्ञानादिद्रव्यलिङ्गहीनो गृहस्थादिरिति ६ । तथा पूर्णस्तथैव अपिस्तुच्छापेक्षया समुच्चयार्थः एकः कश्चित् प्रियाय - प्रीतये अयमिति प्रियार्थः कनकादिमयत्वात् सार इत्यर्थः, तथा अपदलम्-अपशदं द्रव्यं कारणभूतं मृत्तिकादि यस्यासावपदलः अवदलति वा दीर्यत इत्यवदलः आमप
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स्थाना०
उद्देशः ४ उदकोदघिसमपु
रुषाः तरककुम्भसमपुरुषाः सू० ३९०
॥ २७९ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३६०]
गाथा ||१-४||
दीप अनुक्रम [३८७-३९१]
कतयाऽसार इत्यर्थः, तुच्छोऽप्येवमेवेति । पुरुषो धनश्रुतादिभिः पूर्णः प्रियार्थः कश्चिनियवचनदानादिभिः प्रियकारी Mसार इति, अन्यस्तु न तथेत्यपदलः परोपकारं प्रत्ययोग्य इति, तुच्छोऽप्येवमेवेति ८ पूर्णोऽपि जलादेविष्यन्दते-श्रभवति, इह तुच्छ:-तुच्छजलादिः स एव विष्पन्दते, अपिः सर्वत्र समुच्चये प्रतियोग्यपेक्षयेति ९ पुरुषस्तु पूर्णोऽप्येको विजाप्यन्दते धनं ददाति श्रुतं वा अन्यो नेति तुच्छोऽपि-अल्पवित्तादिरपि धनश्रुतादि विष्यन्दतेऽन्यो नैवेति १०। तथा ट्राभिन्नः स्फुटितः जर्जरितो-राजीयुक्तः परिश्रावी-दुप्पकत्वात् क्षरकः अपरिश्नावी कठिनत्वादिति ११ । चारित्रं तु भिन्नं
मूलप्रायश्चित्तापत्त्या जर्जरितं छेदादिमाप्त्या परिस्रावि सूक्ष्मातिचारतया अपरिनावि निरतिचारतयेति, इह च पुरुषाधिकारेऽपि यच्चारित्रलक्षणपुरुषधर्मभणनं तद्धर्मधर्मिणोः कथञ्चिदभेदादनवद्यमवगन्तव्यमिति १२ । तथा मधुन:-क्षीद्रस्य कुम्भो मधुकुम्भो मधुभृतं मध्वेव वा पिधान-स्थगनं यस्य स मधुपिधानः एवमन्ये त्रयः १३ । पुरुषसूत्रं स्वयमेव 'हिय'मित्यादिगाथाचतुष्टयेन भावितमिति, तत्र हृदयं-मनः अपापम्-अहिंस्रमकलुषम्-अप्रीतिवर्जितमिति, जिह्वाऽपि |
च मधुरभाषिणी नित्यं यस्मिन् पुरुषे विद्यते स पुरुषो मधुकुम्भ इव मधुकुम्भो मधुपिधान इव मधुपिधान इति प्रथलिमभङ्गयोजना, तृतीयगाथायां यत् हृदयं कलुषमयम्-अप्रीत्यात्मकमुपलक्षणत्वात् पापं च जिह्वा या मधुरभाषिणी
नित्यं तत्सा चेति गम्यते यस्मिन् पुरुषे विद्यते स पुरुषो विषकुम्भो मधुपिधानस्तरसाधम्योंदिति १४ । अत्र च चतुर्थः पुरुष उपसर्गकारी स्वादिस्युपसर्गमरूपणाय 'चउब्बिहा उबसग्गे'त्यादि सूत्रपशकमाह
चउम्बिहा उनसग्गा पं० तं0-दिव्या माणुसा तिरिक्खजोणिया आयसंचेयणिज्जा १, दिवा उपसग्गा चउम्विहा पं०
उपसर्ग एवं तस्य भेदा:
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[३६१]
दीप
अनुक्रम [३९२]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
उद्देशक [४], मूलं [३६१]
स्थान [ ४ ], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थाना असूत्रवृत्तिः
॥ २८० ॥
सं० - दासा पाओसा वीमंसा पुढोवेमाता २, माणुस्सा उवसग्गा चउब्विघा पं० वं० - हासा पाओसा वीमंसा कुखीउपडि सेवणया ३, तिरिक्खजोणिया उवसग्गा चढव्विा पं० तं० भता पदोसा आहारहेडं अवचलेणसारक्खणया ४, आतसंचैवणिजा उवसग्गा चढव्हिा पं० [सं० पट्टणता पवडणता थंभणता लेसणता ५ ( सू० ३६१ ) कण्ठ्यञ्चेदं, नवरमुपसर्जनान्युपसृज्यते वा-धर्म्मात् प्रच्याव्यते जन्तुरेभिरुपसर्ग - बाधाविशेषाः, ते च कर्तृभेदाच्चतुबिंधाः, आह च - " उवसज्जणमुवसग्गो तेण तओ य उवसिज्जए जम्हा । सो दिव्यमणुयतेरिच्छ आय संवेयणाभेओ || १||” इति, [ उपसर्जनमुपसर्गः येन यतो वोपसृज्यते यस्मात् स दिव्यमानुजतैर्यगात्मसंवेदनाभेदः ॥ १ ॥ ] आत्मना संचेत्यन्ते क्रियन्त इत्यात्मसंचेतनीयाः, तत्र दिव्या हासत्ति-हासाद्भवन्ति हाससम्भूतत्वाद्वा हासा उपसर्ग एवेत्येवमन्यत्रापि, यथा भिक्षार्थं ग्रामान्तरप्रस्थितक्षुल्लकैर्व्यन्तर्या उपयाचितं प्रतिपन्नं यदीप्सितं लप्स्यामहे तदा तवोण्डेरकादि दास्याम इति, लब्धे च तत्र तवेदमिति भणित्वा तदुण्डेरकादि तैः स्वयमेव भक्षितं देवतया च हासेन तद्रूपमावृत्य क्रीडितं अनागच्छत्सु धुलकेषु व्याकुले गच्छे निवेदितमाचार्याणां देवतया शुलकवृत्तं ततो वृषभै| रुण्डेरकादि याचित्वा तस्यै दत्तं तया तु ते दर्शिता इति, प्रद्वेषाद्यथा सङ्गमको महावीरस्योपसर्गानकरोत्, | विमर्षात् यथा क्वचिद्देवकुलिकायां वर्षासूषित्वा साधुषु गतेषु तदीय एवान्यः पश्चादागतस्तत्रोषितः तं च देवता किंस्वरूपोऽयमिति विमर्षादुपसर्गितवतीति पृथग भिन्ना विविधा मात्रा -हासादिवस्तुरूपा येषु ते पृथग्विमात्रा अथवा पृथग्- विविधा मात्रा विमात्रा तया इत्येततृतीयैकवचनं पदं दृश्यं, तथाहि -हासेन कृत्वा प्रद्वेषेण करो
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उपसर्ग एवं तस्य भेदा:
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४ स्थाना०
उद्देशः ४ | उपसर्गाः
सू० ३६१
॥ २८० ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
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[३६१]
दीप अनुक्रम [३९२]
तीत्येवं संयोगाः, यथा सङ्गमक एव विमर्षेण कृत्वा प्रद्वेषेण कृतवानिति, तथा मानुष्या हासात् यथा गणिका-IN | दुहिता क्षुल्लकमुपसर्गितवती सा च तेन दण्डेन ताडिता विवादे च राज्ञः श्रीगृहदृष्टान्तो निवेदितस्तेनेति, प्रद्वेषाद्यथा 8 गजसुकुमारः सोमिल ब्राह्मणेन व्यपरोपितः, विमाद्यथा चाणक्योक्तचन्द्रगुप्तेन धर्मपरीक्षार्थ लिङ्गिनो-] न्तःपुरे धर्ममाख्यापिताः क्षोभिताश्च साधवस्तु क्षोभितुं न शकिता इति, कुशीलम्-अब्रह्म तस्य प्रतिषेवणं कुशीलप्रतिषेवणं तद्भावः कुशीलप्रतिषेवणता उपसर्गः कुशीलस्य वा प्रतिषेवणं येषु ते कुशीलप्रतिषेवणकाः अथवा कुशीलप्रतिषेवणयेति व्याख्येयं, यथा सन्ध्यायां वसत्यर्थं प्रोषितस्येालोहे प्रविष्टः साधुश्चतसृभिरीयालुजायाभिर्दत्तावासः प्रत्येक चतुरोऽपि यामानुरुपसम्गितो न च क्षुभितः, तथा तैरश्चा भयात् श्वादयो दशेयुः प्रद्वेषाचण्डकौशिको भगवन्तं दष्टवान् आहारहेतोः सिंहादयः अपत्यलयनसंरक्षणाय काक्यादय उपसर्गयेयुरिति, तथा आत्मसंचेतनीयाः घट्टनता घट्टनया वा यथाऽक्षिणि रजः पतितं ततस्तदक्षि हस्तेन मलितं दुःखितुमारब्धमधवा स्वयमेवाक्षिणि गले वा मांसाङ्करादि जातं घट्टयतीति प्रपतनता प्रपतनया वा यथा अप्रयलेन सञ्चरतः प्रपतनात् दुःखमुखद्यते स्तम्भनता स्तम्भनया वा यथा तावदुपविष्टः स्थितो यावत् सुप्तः पादादिः स्तब्धो जातः श्लेषणता श्लेषणया वा यथा पादमाकुश्प स्थितो वातेन | तथैव पादो लगित इति, भवन्ति चात्र गाधा:-"हास १ पदोस २ वीमंसओ ३ विमायाय ४ वा भवे दिग्बो । एवं चिय माणुस्सो कुसीलपडिसेवणचउत्थो ॥१॥ तिरिओ भय १ पओसा २ ऽऽहारा ३ ऽवच्चादिरक्खणत्थं वा ४॥ घट्टण १धंभण २ पवडण ३ लेसणओ वाऽऽयसंचेओ४॥२॥ दिवंमि वंतरी १ संगमे २ गजइ ३ छोभणादीया ४
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उपसर्ग एवं तस्य भेदा:
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थानालसूत्रदृत्तिः
प्रत
सूत्रांक
॥२८१॥
[३६१] दीप अनुक्रम [३९२]
इत्युत्तरार्द्ध>, गणिया १ सोमिल २ धम्मोबएसणे ३ सालुजोसियाईया ४ । तिरियमि साण १ कोसिय २ सीहा स्थाना अचिरसूवियगवाई ॥३॥ कणुग १ कुडणा २ भिपयणाइ ३ गत्तसंलेसणादओ ४ नेया । आओदाहरणा वाम १ वित्त २ उद्देशः ४ कफ ३ सन्निवाया व"सि ॥४॥हास्यात्प्रद्वेषाद्विमाद्विमात्रातो वा भवेदिव्यः । एवमेव मानुष्यः कुशीलप्रतिपेवनाचतु- कर्मसङ्क: अर्थः॥१॥ तैरश्चः भयात्प्रद्वेषादाहारादपत्यरक्षणार्थ वा । घट्टनस्तंभनप्रपतनसलेषणतो वाऽऽत्मसंवेदः॥ दिव्ये व्यस्तरीमा बुद्धिः
संगम एकयतिलोभन्यादिका (क्षोभणादिकाः)। मानुष्ये गणिकासोमिलधर्मोपदेशकेालुयोषिदादयः॥ तैरश्चीने श्वको- | जीवाः शिकसिंहाचिरप्रसूतगवादिकाः । कणकुट्टनाभिपतनगर्तासलेषणादयो ज्ञेयाः ॥ आत्मोदाहरणानि वातपित्तकफसन्निवाता सू०३६२वा] उपसर्गसहनात् कर्मक्षयो भवतीति कर्मस्वरूपप्रतिपादनायाह
३६५ बबिहे कम्मे पं० सं०-सुभे नाममेगे सुमे सुभे नाममेगे असुभे असुभे नाम १, १, चउबिहे कम्मे पं० २०सुभे नाममेगे सुभविवागे सुभे गाममेगे असुभविवागे असुभे नाममेगे सुभविवागे असुभे नाममेगे असुभविवागे ४, २, चउबिहे कम्मे पं० २०-पगडीकम्मे ठितीकम्मे अणुभावकम्मे पदेसकम्मे ४, ३, (सू० ३६२) पबिहे संघे पं० तं०-समणा समणीओ सावगा सावियाओ (सू० ३६३) चउबिहा बुद्धी पं० २०-अप्पत्तिता वेणतिता कम्मिया पारिणामिया, चउब्विधा मई ५००-उगहमती ईहामती अबायमई धारणामती, अथवा पबिहा मती ५००-अरंजरोद्गसमाणा वियरोदयसमाणा सरोदगसमाणा सागरोदगसमाणा (सू०३६४) चउबिहा संसारसमावनगा जीवा पं० सं०-गेरइता तिरिक्खजोणीवा मणुस्सा देवा, चउब्धिहा सबजीया पं० सं०-मणजोगी
|॥२८
॥
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उपसर्ग एवं तस्य भेदा:
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३६५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
%
सूत्रांक [३६५]
दीप
बहजोगी कायजोगी अजोगी आहवा चउब्विहा सबजीया पं००-इस्थिषेवगा पुरिसवेदगा णपुंसकवेदगा अवेवगा अथवा पब्विहा सव्वजीवा पं० त०-चक्खुदंसणी अचक्खुदसणी ओहिदसणी केवलदसणी अहवा चउम्विहा स
बजीवाणं. तं०-संजया असंजया संजयासंजया णोसंजयाणोअसंजया (सू० ३६५) 'चाउम्बिहे'त्यादि सूत्रत्रयं व्यक्तं, नवरं क्रियत इति कर्म ज्ञानावरणीयादि तत् शुभ-पुण्यप्रकृतिरूपं पुनः शुभैWशुभानुवन्धित्वात् भरतादीनामिव, शुभं तथैवाशुभमशुभानुवन्धित्वात् ब्रह्मदत्तादीनामिव अशुभ-पापप्रकृतिरूपं शुभ
शुभानुबन्धित्वात् दुःखितानामकामनिर्जरावतां गवादीनामिव अशुभं तथैव पुनरशुभमशुभानुबन्धित्वात् मत्स्यबन्धादीनामिवेति । तथा शुभं सातादि सातादित्वेनैव बद्धं तथैवोदेति यत्तत् शुभविपाकं यत्तु बद्धं शुभत्वेन सङ्कमकरणवशास्तूदेत्यशुभत्वेन तद् द्वितीय, भवति च कर्मणि कर्मान्तरानुप्रवेशः, सङ्कमाभिधानकरणवशाद्, उक्तश्च-"मूलप्रकृत्यभिन्नाः सङ्कमयति गुणत उत्तराः प्रकृतीः। नन्वात्माऽमूर्तत्वादध्यवसानप्रयोगेण ॥१॥" इति, तथा मतान्तरम्“मोसूण आउयं खलु दंसणमोहं चरित्तमोहं च । सेसाणं पयडीणं उत्तरविहिसंकमो भणिओ ॥१॥" [आयुर्दर्शनमोहं चारित्रमोहमेव च मुक्त्वा शेषाणां प्रकृतीनामुत्तरविधिसंक्रमो भणितः ॥१॥] यवद्धमशुभतयोदेति च शुभतया तत्तृतीयं चतुर्थ प्रतीतमिति, तृतीयं कर्मसूत्रमत्रत्यद्वितीयोदेशकबन्धसूत्रवज्ञेयमिति । चतुर्विधर्मस्वरूपं सङ्घ एव वेत्तीति सङ्घसूत्रं, स च सर्वविद्वचनसंस्कृतबुद्धिमानिति बुद्धिसूत्र, बुद्धिश्च मतिविशेष इति मतिसूत्रे, सुगमानि चैतानि, नवरं सङ्घने-गुणरत्नपात्रभूतसत्त्वसमूहः, तत्र श्राम्यन्ति-तपस्यन्तीति श्रमणाः अथवा सह मनसा शोभनेन
अनुक्रम [३९६]
AA%
'कर्म' व्याख्या एवं तस्य शुभ-अशुभ रुपेण भेदाः,
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३६५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [३६५]
जीवा
दीप
श्रीस्थाना K निदानपरिणामलक्षणपापरहितेन च चेतसा वर्तत इति समनसस्तथा समान-स्वजनपरजनादिषु तुल्यं मनो येषां ते स्थाना०
सूत्र- समनसः, उक्तश्च-"तो समणो जद सुमणो भावेण य जइ न होइ पावमणो । सयणे य जणे य समो समो य | उद्देशः४ वृत्तिः |माणावमाणेसुं ॥१॥" [तदा श्रमणः यदि सुमनाः भावेन यदि न भवति पापमनाः । खजने जने च समः समश्च|| कर्मसङ्कः
मानापमानयोः॥१॥] अथवा समिति-समतया शत्रुमित्रादिष्वणन्ति-प्रवर्त्तन्त इति समणाः, आह च-"नस्थि बुद्धिः ॥२८२॥
यसि कोइ वेसो पिओ व सब्वेसु चेव जीवेसु । एएण होइ समणो एसो अन्नोऽवि पज्जाओ ॥१॥" [नास्ति | च तस्य कोऽपि द्वेष्यः प्रियो वा सर्वेष्वपि जीवेषु । एतेन भवति समनाः एषोऽन्योऽपि पर्यायः॥१॥] इति,
सू०३६५ प्राकृततया सर्वत्र समणत्ति, एवं समणीओ, तथा शृण्वन्ति जिनवचनमिति श्रावकाः, उक्तञ्च-"अवाप्तदृष्ट्यादिवि-1 शुद्धसम्पत् , परं समाचारमनुप्रभातम् । शृणोति यः साधुजनादतन्द्रस्तं श्रावकं प्राहुरमी जिनेन्द्राः ॥१॥” इति, अथवा श्रान्ति पचन्ति तत्त्वार्थश्रद्धानं निष्ठां नयन्तीति श्राः, तथा वपन्ति-गुणवत्सप्तक्षेत्रेषु धनवीजानि निक्षिपन्तीति वास्तथा किरन्ति-क्लिष्टकर्मरजो विक्षिपन्तीति कास्ततः कर्मधारये श्रावका इति भवति, यदाह-"श्रद्धालुतां श्राति पदार्थचिन्तनाद्धनानि पात्रेषु वपत्यनारतम् । किरत्यपुण्यानि सुसाधुसेवनादथापि तं श्रावकमाहुरञ्जसा ॥१॥” इति,
एवं श्राविका अपीति, तथा उत्पत्तिरेव प्रयोजनं यस्याः सा औत्पत्तिकी, ननु क्षयोपशमः कारणमस्याः, सत्यं, किन्तु स3 दाखल्वन्तरङ्गत्वात्सर्वबुद्धिसाधारण इति न विवक्ष्यते, न चान्यच्छास्त्रकर्माभ्यासादिकमपेक्षत इति, अपि च-बुज्युत्पादा-दा
15॥२८२॥ त्पूर्व स्वयमदृष्टोऽन्यतश्चाश्रुतो मनसाऽप्यनालोचितस्तस्मिन्नेव क्षणे यथावस्थितोऽर्थो गृह्यते यया सा लोकद्वयाविरुद्ध
अनुक्रम [३९६]
ECANCIENCE
श्रमण, समिति, श्रावक आदि शब्दस्य व्याख्या, 'बुधि' तस्या: भेदा:
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[ ३६५ ]
दीप
अनुक्रम [३९६]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
उद्देशक [४], मूलं [३६५]
स्थान [ ४ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
कान्तिकफलवती बुद्धिरौत्सत्तिकीति, यदाह-- "पुच्छम दिट्ठम सुथम वेइयत क्खणविमुजगहियत्था । अव्याहय फलजोगा बुद्धी उप्पत्तियानाम ॥ १ ॥” इति [पूर्वमदृष्टश्रुतज्ञातस्य तत्क्षणे गृहीतविशुद्धार्था । अव्याहतफलयोगवती औ-त्पातिकी नाम्नी बुद्धिः ॥ १ ॥] नटपुत्ररोहकादीनामिवेति तथा विनयो- गुरुशुश्रूषा स कारणमस्यास्तत्प्रधाना वा वैनयिकी, अपिच - कार्यभर निस्तरणसमर्था धर्मार्थकामशाखाणां गृहीतसूत्रार्थसारा लोकद्वयफलवती चेयमिति, यदाह - "भरनित्थरणसमत्था तिवग्गमुत्तत्थगहिअपेयाला । उभओ लोगफलवती विषयसमुत्था हवइ बुद्धि ॥ १ ॥ त्ति, [भरनिस्तरणसमर्था गृहीत त्रिवर्गशास्त्रसूत्रार्थसारा । उभय लोकफलवती विनयसमुत्था भवति बुद्धिः ॥ १ ॥ ] नैमि त्तिकसिद्धपुत्रशिष्यादीनामिवेति, अनाचार्यकं कर्म साचार्यकं शिल्पं कादाचित्कं वा कर्म नित्यव्यापारस्तु शिल्पमिति, कर्म्मणो जाता कर्म्मजा, अपिच-कर्माभिनिवेशोपलब्धकर्म्मपरमार्था कम्र्म्माभ्यासविचाराभ्यां विस्तीर्णा प्रशंसाफलवती चेति, यदाह - "उवओगदिहसारा कम्मपसंगपरिघोलणविसाला साहुकारफलवती कम्मसमुत्था हवइ बुद्धी ॥ १ ॥” इति [ उपयोगद्दष्टसारा कर्मप्रसंगपरिघोलन विशाला । साधुकारफलवती कर्मसमुत्था भवति बुद्धिः ॥ १ ॥ ] हैरव्यककर्षकादीनामिवेति, परिणामः सुदीर्घकाल पूर्वापरार्थावलोकनादिजन्य आत्मधर्मः स प्रयोजनमस्यास्तत्प्रधाना वेति पारिणामिकी, अपिच- अनुमानकारणमात्र दृष्टान्तैः साध्यसाधिका वयोविपाके च पुष्टीभूता अभ्युदयमोक्षफला चेति, | यदाह--" अणुमाणहेड दिहंतसाहिया वयविवागपरिणामा । हियनिस्सेसफलवई बुद्धी परिणामिया नाम ॥ १ ॥” इति [अनुमान हेतुदृष्टान्तसाधिका वयोविपाकपरिणामा । हितनिःश्रेयसफलवती बुद्धिः पारिणामिकीनात्री ॥ १ ॥ ] अभयकु
Education intemational
'बुध्धि' तस्या: भेदा:
For Personal Private Only
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३६५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३), अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३६५]
स्थाना. उद्देशः ४ कर्मसः बुद्धिा जीवाः सू०३६५
दीप
श्रीस्थाना- मारादीनामिवेति । तथा मननं मतिः तत्र सामान्यार्थस्याशेषविशेषनिरपक्षस्यानिर्देश्यस्य रूपादेः अब इति-प्रथमतो ग्रहण-
परिच्छेदनमवग्रहः स एव मतिरवग्रहमतिरेवं सर्वत्र, नवरं तदर्थविशेषालोचनमीहा प्रक्रान्तार्थविशेषनिश्चयोऽधायः अ- वृत्तिः वगतार्थविशेषधरणं धारणेति, उक्तश्च-सामन्नत्वावगहणमोग्गहो भेयमग्गणमिहेहा । तस्सावगमोऽबाओ अविचुई
धारणा तस्स ॥१॥" इति । [सामान्येनार्थावग्रहणमवग्रहो भेदमार्गणमिहेहा तस्यावगमोऽवायोऽविच्युतिर्धारणा ॥२८३॥
तस्य ॥१॥] तथा अरञ्जरम्-उदकुम्भो अलञ्जरमिति यत्प्रसिद्ध तत्रोदकं यत्तत्समाना प्रभूतार्थग्रहणोत्प्रेक्षणधरणसामर्थ्याभावेनाल्पत्वादस्थिरत्वाच्च, अरञ्जरोदकं हि सङ्क्षिप्तं शीघ्रं निष्ठितं चेति, विदरो-नदीपुलिनादौ जलार्थों गतः तत्र यदुदकं तत्समाना अस्पत्वादपरापरार्थोहनमात्रसमर्थत्वात् झगिति अनिष्ठितत्वाच्च, तदुदकं ह्यल्प तथाऽपराप-| रमल्पमल्प स्यन्दते, अत एव क्षिप्रमनिष्ठितञ्चेति, सरउदकसमाना तु विपुलत्वाद्बहुजनोपकारित्वादनिष्ठितस्वाच्च प्रायः सरोजलस्याप्येवंभूतत्वादिति, सागरोदकसमाना पुनः सकलपदार्थविषयत्वेनात्यन्तविपुलत्वादक्षयत्वादलब्धमध्यत्वाच्च, सागरजलस्यापि ह्येवंभूतत्वादिति । यथोक्तमतिमन्तो जीवा एव भवन्तीति जीवसूत्राणि पञ्च व्यक्तानि चैतााने, नवरं| मनोयोगिनः-समनस्का योगत्रयसद्भावेऽपि तस्य प्राधान्यादेवं वाग्योगिनो द्वीन्द्रियादयः काययोगिन एकेन्द्रिया अ
योगिनो-निरुद्धयोगाः सिद्धाश्चेति । अवेदका:-सिद्धादयः । चक्षुषः सामान्यार्थग्रहणमवग्रहहारूपं दर्शनं चक्षुर्दर्शनं तद्वसन्तश्चतुरिन्द्रियादयः, अचक्षुः-स्पर्शनादि तदर्शनवन्त एकेन्द्रियादय इति । संयता:-सर्वविरताः असंयता-अविरताः सं
यतासंयता-देशविरताः जयप्रतिषेधवन्तः सिद्धा इति ॥ जीवाधिकाराज्जीवविशेषान् पुरुषभेदान् चतुःसूच्याऽऽह
CASRCS-40RRRRROROST
अनुक्रम [३९६]
COM
AMEducatio n
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'बुध्धि' तस्या: भेदा:
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आगम
(०३)
प्रत
सूचांक
[३६६]
दीप
अनुक्रम [ ३९७]
[भाग-5] "स्थान" अंगसूत्र- ३ ( मूलं + वृत्तिः)
उद्देशक [४].
मूलं [३६६]
स्थान [ ४ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [ ०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
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Education Interminal
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चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०मित्ते नाममेगे मित्ते मित्ते नाममेगे अमित्ते अमित्ते नाममेगे मित्ते अमित्ते णाममेगे अमित्ते १ चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०मित्ते णाममेगे मित्तरूवे चउभंगो, ४, २, चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० मुत्ते णाममेगे मुते मुते णाममेगे अमुत्ते, ४, ३, चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०मुत्ते णाममेगे मुत्तरुवे ४, ४, (सू० ३६६) पंचिदियतिरिक्खजोगिया चउगईया चउआगईया पं० तं० पंचिदियतिरिक्खजोणिया पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु उववजमाणा रहितो वा तिरिक्ख जोणिहिंतो वा मनुस्सेहिंतो वा देवेहिंतो वा उववज्जेज्जा, से चैव णं से पंचिदियतिरिक्खजोगिए पंचिदियतिरिक्खजोणियतं विप्पजह्माणे णेरइत्तत्ताए वा जाव देवत्ताते वा उवागच्छेजा, मणुस्सा चउगईआ चडआगतिता, एवं चेव मणुस्सावि ( सू० ३६७) बेइंदिया णं जीवा असमारभमाणस्स चडविहे संजमे क ज्जति, तं० -- जिन्भामयातो सोक्खातो अववरोबित्ता भवति, जिन्भामरणं दुक्खेणं असंजोगेत्ता भवति, फासमयातो सोक्खातो अववरोवेत्ता भवइ एवं चैव ४, बेइंदियाणं जीवा समारभमाणस्स चढविधे असंजमे कज्जति, तं० जिभामयातो सोक्खाओ ववरोबित्ता भवति, जिब्भामतेणं दुक्खेणं संजोगित्ता भवति, फासामयातो सोक्खाओ ववरोवेत्ता भवइ ( सू० ३६८ ) सम्मदिद्विताणं णेरइयाणं चत्तारि किरियाओं पं० सं० आरंभिता परिग्गहिता मातावत्तिया अपचक्खाणकिरिया, सम्मद्दिट्ठिताणमसुरकुमाराणं चत्तारि किरियाओ पं० तं० एवं चेव, एवं विगलिंदियवज्जाव वेमाणियाणं (सू० ३३९) चढहिं ठाणेहिं संते गुणे नासेज्जा, तं० कोहेणं पडिनिसेवेणं अकयण्णुयाए मिच्छत्ताभिनिवेसेणं । चउहिं ठाणेहिं संते गुणे दीवेज्जा तंजहा - अम्मासवचितं परच्छंदाणुवत्ति कज्जहे कतपडिकतितेति वा,
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[३७०]
दीप
अनुक्रम
[४०१ ]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
उद्देशक [४], मूलं [३७०]
स्थान [ ४ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थानाज्ञसूत्र
वृत्तिः
॥ २८४ ॥
( सू० ३७० ) रइयाणं चहिं ठाणेहिं सरीरुप्पत्ती सिता, तंजहा— कोहेणं माणेणं मायाए लोभेणं, एवं जाव बेमाणियाणं, रइयाणं च ठाणेहिं निव्वचिते सरीरे पं० [सं० - कोहनिव्वत्तिए जाव लोभनिव्वत्तिए, एवं जाव वैमाणियाणं (सू० ३७१ )
Education Intimational
सम्यग्द
'चारी' त्यादि, स्पष्टा चेयं, नवरं मित्रमिहलोकोपकारित्वात्पुनर्मित्रं - परलोकोपकारित्वात्सद्गुरुवत् अन्यस्तु मित्रं स्नेहवच्वादमित्रं परलोकसाधनविध्वंसात्कलत्रादिवत् अन्यस्त्वमित्रः प्रतिकूलत्वान्मित्रं निर्वेदोपादनेन परलोकसाधनोपकारकत्वादविनीत कलत्रादिवच्चतुर्थोऽमित्रः प्रतिकूलत्वात् पुनरमित्रः सक्लेशहेतुत्वेन दुर्गति निमित्तत्वात् पूर्वापरकालापेक्षया वेदं भावनीयमिति । तथा मित्रमन्तःस्नेहवृत्त्या मित्रस्यैव रूपम् - आकारो बाह्योपचारकरणात् यस्य स मित्ररूप इति एको, द्वितीयोऽमित्ररूपो बाह्योपचाराभावात् तृतीयः अमित्रः स्नेहवर्जितत्वादिति चतुर्थः प्रतीतः । तथा मुक्त:- त्यक्तसङ्गो द्रव्यतः पुनर्मुक्तो भावतोऽभिष्वङ्गाभावात् सुसाधुवत्, द्वितीयोऽमुक्तः साभिष्वङ्गत्वात् रङ्कवत्, तृतीयोऽमुक्तो द्रव्यतः भावतस्तु मुक्तो राज्यावस्थोत्पन्न केवलज्ञान भरत चक्रवर्त्तिवत्, चतुर्थी गृहस्थः, कालापेक्षया वेद | दृश्यमिति । मुक्तो निरभिष्वङ्गतया मुक्तरूपो वैराग्यपिशुनाकारतया यतिरिवेत्येको द्वितीयोऽमुक्तरूप उक्तविपरीतत्वाद् सू० ३६६गृहस्थावस्थायां महावीर इव तृतीयोऽमुक्तः साभिष्वङ्गत्वाच्छठयतिवच्चतुर्थी गृहस्थ इति । जीवाधिकारिकं पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्यसूत्रद्वयं सुगमं, एवं द्वीन्द्रियसूत्रद्वयमपि, नवरं द्वीन्द्रियान् जीवान् असमारभमाणस्य - अव्यापादयतः, जिह्वाया विकारो जिह्वामयं तस्मात् सौख्याद् - रसोपलम्भानन्दरूपादव्यपरोपयिता - अभ्रंशयिता, तथा जिह्वामयं जिह्वे
ष्टिक्रिया गुणनाशतनूत्पादाः
३७१
॥ २८४ ॥
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स्थाना०
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उद्देशः ४
मित्रपचे
न्द्रियनरद्र गत्यागतिMark
द्वींद्रिया संयमेतर
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३७१]
दीप
|न्द्रियहानिरूपं यद् दुःखं तेनासंयोजयितेति । जीवाधिकारादेव सम्यग्दृष्टिजीवक्रियासूत्राणि सुगमानि चैतानि, नवरं सम्यग्दृष्टीनां चतस्रः क्रिया मिथ्यात्वक्रियाया अभावात्, एवं 'विगलिंदियवर्जति, एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां पश्चापि, तेषां मिथ्यादृष्टित्वात् , दीन्द्रियादीनाञ्च सासादनसम्यक्त्वस्याल्पत्वेनाविवक्षितत्वादिति, एवं चेह विकलेन्द्रियवर्जनेन | षोडश क्रियासूत्राणि वैमानिकान्तानि भवन्तीति । अनन्तरं किया उक्तास्तद्वांश्च सद्भूतान परगुणान् नाशयति प्रकाशयति चेत्येवमधैं सूत्रद्वयं, तच्च सुगम, नवरं सतो-विद्यमानान गुणान् नाशयेदिव नाशयेत्-अपलपति न मन्यते, क्रोधेन
रोषेण तथा प्रतिनिवेशेन-एष पूज्यते अहं तु नेत्येवं परपूजाया असहनलक्षणेन कृतमुपकारं परसम्बन्धिनं न जानाती-18 लत्यकृतज्ञस्तद्भावस्तत्ता तया मिथ्यात्वाभिनिवेशेन-बोधविपर्यासेन, उक्तञ्च-"रोसेण पडिनिवेसेण तहय अकयण्णुमिच्छ
भावणं । संतगुणे नासित्ता भासइ अगुणे असंते वा ॥१॥” इति रोपेण प्रतिनिवेशेन तथैवाकृतज्ञतया मिथ्याभावे-12 न च सतो गुणानाशयित्वाऽसतो दोषान् भाषते ॥१॥] असतः-अविद्यमानान् कचित्संतेत्ति पाठस्तत्र च सतो-विद्य-18 मानान् गुणान् दीपयेत् वदेदित्यर्थः, अभ्यासो-हेवाको वर्णनीयासन्नता वा प्रत्ययो-निमित्तं यत्र दीपने तदभ्यासप्रत्ययं, दृश्यते ह्यभ्यासान्निविषयापि निष्फलापि च प्रवृत्तिः, सन्निहितस्य च प्रायेण गुणानामेव ग्रहणमिति, तथा परच्छन्दस्य-पराभिप्रायस्यानुवृत्तिः-अनुवर्तना यत्र तत्सरच्छन्दानुवृत्तिकं दीपनमेव, तथा कार्यहेतोः-प्रयोजननिमित्तं चिकीर्षितकार्य प्रत्यानुकूल्यकरणायेत्यर्थः, तथा कृते-उपकृते प्रतिकृतं-प्रत्युपकारः तद्यस्यास्ति स कृतप्रतिकृतिकः 'इति वा' कृतप्रत्युपकर्तेतिहेतोरित्यर्थः, अथवा कृतप्रतिकृतये इति वा-एकेनैकस्योपकृतं गुणा वोत्कीर्तिताः स तस्यासतो
अनुक्रम [४०२]
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना-
प्रत सूत्रांक [३७१]
वृत्तिः
॥२८५॥
दीप
अनुक्रम [४०२]
पि गुणान् प्रत्युपकारार्थमुत्कीर्तयतीत्यर्थः, इतिरुपप्रदर्शने वा विकल्पे । इदश्च गुणनाशनादि शरीरेण क्रियत इति स्थाना० शरीरस्योत्पत्तिनिवृत्तिसूत्राणां दण्डकद्वर्य, कण्ठयं चैतत् , नवरं क्रोधादयः कर्मवन्धहेतवः, कर्म च शरीरोसत्तिकार- उद्देशः ४ णमिति कारणकारणे कारणोपचारात् कोधादयः शरीरोत्पत्तिनिमित्ततया व्यपदिश्यन्त इति । 'चउहि ठाणेहिं सरीरें'त्या- धर्मद्वाराधुकं, क्रोधादिजन्यकर्मनिवर्तितत्वात् क्रोधादिभिनिवतितं शरीरमित्यपदिष्टं, इह चोत्सत्तिरारम्भमात्र निर्वृत्तिस्तु नि- युर्हेतुवाप्पत्तिरिति । क्रोधादयः शरीरनिवृत्तेः कारणानीत्युक्तं तन्निग्रहास्तु धर्मस्येत्याह
चादिविपत्तारि धम्मवारा पन्नत्ता, तंजहा-खंती गुत्ती अजवे मद्दवे (सू०३७२) चदि ठाणेहिं जीवा रतियत्ताए कर्म मानवपकरेंति, तंजहा-महारंभताते महापरिन्गहयाते पंचिंवियवहेणं कुणिमाहारेणं १ परहिं ठाणेहिं जीवा तिरिक्खजोणियत्ताए
र्णादि कम पगरेंति, तं०-माइलताते णिवडिल्लताते अलियवयणेणं कूडतुलकूडमाणेणं २ चउहि ठाणेहिं जीवा मणुस्सत्ताते
सू० ३७२ कम्मं पगरेंति, संजहा--पगतिमहताते पगतिविणीययाए साणुकोसयाते अमच्छरिताते ३ चउदि ठाणेहिं जीवा देवाश्य
३७५ ताए कम्म पगरेंति, तंजहा-सरागसंजमेणं संजमासंजमेणं बालतबोकम्मेण अकामणिजराए ४ (सू० ३७३) बलविहे बजे पं० सं०-तते वितते घणे झुसिरे १ चउबिहे नट्टे पं०२०-अंचिए रिभिए आरभडे मिसोले २ चउबिहे गेए पं०१०-उक्खित्तए पत्तए मंदए रोविंदए ३ चउन्बिहे मल्ले पं० त०-थिमे वेढिमे पूरिमे संघातिमे ४ चउबिहे अलंकारे ५००-केसालंकारे वत्थालंकारे मल्लालंकारे आभरणालंकारे ५ पउबिहे अभिणते पं० सं०-विहतिते पांडु
141॥२८५॥ सुते सामंतोवातणिते लोगमन्भावसिते ६(सू०३७४) सर्णकुमारमादिंदे सुणं कप्पेसु विमाणा चवन्ना पं० तं०-णीला
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३७५]
दीप
लोहिता हालिहा मुकिला, महासुफसहस्सारेसु णं कप्पेसु देवाणं भवधारणिज्जा सरीरगा उकोसेणं चत्तारि रयणीओ
उई उच्चवेणं पन्नत्ता (सू० ३७५) 'चत्तारि धम्मे'त्यादि, धर्मस्य-चारित्रलक्षणस्य द्वाराणीव द्वाराणि-उपायाः । शान्त्यादीनि धर्मद्वाराणीत्युक्तं, अथा-8 रम्भादीनि नारकरवादिसाधनकर्मणो द्वाराणीति विभागतः 'चउहि ठाणेहिं' इत्यादिना सूत्रचतुष्टयेनाह-कण्ठ्यञ्चैतत् , नवरं 'नेरइयत्ताए'त्ति नैरयिकत्वाय नैरयिकतायै नैरयिकतया वा कर्म-आयुष्कादि, नेरइयाउयत्ताएत्ति पाठान्तरे नैर-18 यिकायुष्कतया नैरयिकायुष्करूपं कर्मदलिकमिति, महान्-इच्छापरिमाणेनाकृतमर्यादतया वृहन् आरम्भः-पृथिव्याधुपमईलक्षणो यस्य स महारम्भः-चक्रवत्यादिस्तद्भावस्तत्ता तया महारम्भतया एवं महापरिग्रहतयाऽपि, नवरं परिगृह्यत इति परिग्रहो-हिरण्यसुवर्णद्विपदचतुष्पदादिरिति, 'कुणिम'मिति मांसं तदेवाहारो-भोजनं तेन, 'माइल्लयाए'त्ति मायितया माया च मनाकुटिलता, 'नियडिल्लयाए'त्ति नि कृतिमत्तया निकृतिश्च बचनार्थं कायचेष्टाद्यभ्यथाकरणलक्षणा अभ्युपचारलक्षणा वा तद्वत्तया, कूटतुलाकूटमानेन यो व्यवहारः स कूटतुलाकूटमान एवोच्यते अतस्तेनेति, प्रकृत्या-स्वभावेन भद्रकता-परानुपतापिता या सा प्रकृतिभद्रकता तथा सानुक्रोशतया-सदयतया मस्सरिकता-परगुणासहिष्णुता तत्प्रतिषेधोऽमत्सरिकता तयेति, सरागसंयमेन-सकषायचारित्रेण वीतरागसंयमिनामायुषो बन्धाभावात् संयमासंयमो-द्विस्वभावत्वाद्देशसंयमः बाला इव बाला-मिथ्याशस्तेषां तपःकर्म-तफाक्रिया बालतपःकर्म तेन अकामेन-निर्जरां प्रत्यनभिलाषेण निर्जरा-कर्मनिर्जरणहेतुर्बुभुक्षा दिसहनं यत् सा अकामनिर्जरा तया। अनन्तरं देवोत्पत्ति
अनुक्रम [४०६]
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आगम
(०३)
प्रत
सूत्रांक
[३७५]
दीप
अनुक्रम
[ ४०६ ]
[भाग-5] “स्थान” - अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
उद्देशक [४], मूलं [३७५]
स्थान [ ४ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०३], अंग सूत्र - [०३ ] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
श्रीस्थाना#सूत्र
वृत्तिः
॥ २८६ ॥
कारणान्युक्तानि, देवाश्च वाद्यनाव्यादिरतयो भवन्तीति वाद्यादिभेदाभिधानाय पसूत्री, तत्र वजेत्ति-वाद्यं तत्र - 'ततं वीणादिकं ज्ञेयं, विततं पटहादिकम् । घनं तु कांस्यतालादि, वंशादि शुषिरं मतम् ॥ १ ॥ इति नाव्यगेयाभिनयसूत्राणि सम्प्रदायाभावान्न विवृतानि, मालायां साधु माल्यं - पुष्पं तद्रचनापि माल्यं ग्रन्थः- सन्दर्भः सूत्रेण ग्रन्थनं तेन निर्वृत्तं ग्रन्थिमं मालादि, वेष्टनं वेष्टस्तेन निर्वृत्तं वेष्टिमं मुकुटादि, पूरेण-पूरणेन निर्वृत्तं पूरिमं - मृन्मयमनेकच्छिद्रं वंशशलाकादिपञ्जरं वा यत्पुष्पैः पूर्यत इति, सङ्घातेन निर्वृत्तं सङ्घातिमं यत्परस्परतः पुष्पनालादिसङ्घातनेनोपजन्यत इति, अ 4 लङ्कियते भूष्यतेऽनेनेत्यलङ्कारः केशा एवालङ्कारः केशालङ्कारः, एवं सर्वत्र देवाधिकारवत्येव 'सर्णकुमारे'त्यादिका द्विसूत्री सुगमा चेयं, नवरं सनत्कुमारमाहेन्द्रयोश्चतुर्वर्णानि, कल्पान्तरेषु त्वन्यथा, तदुक्तम्- "सोहम्मे पंचवण्णा एकगहाणी उ जा सहस्सारो। दो दो तुला कप्पा तेण परं पुंडरीयाओ ॥ १ ॥ [ द्वयोर्द्वयोः कल्पयोर्वर्णस्य हानिः कार्येत्यर्थः > तत्र भवे धार्यते तदिति तं वा भवं धारयतीति भवधारणीयं यज्जन्मतो मरणावधि 'कृतमुष्टिकस्तु रक्षिः स एव वितताङ्गुलिररनि 'रिति वचने सत्यपि रक्षिशब्देनेह सामान्येन हस्तोऽभिधीयत इति, शुक्रसहस्रारयोश्चतुर्हस्ता देवा अन्यत्र त्वन्यथा, यत आह- “भवण १० वण ८ जोइस ५ सोहम्मीसाणे सत्त होंति रयणीओ । एक्केकहाणि सेसे दुदुगे य दुगे चउके य ॥ १ ॥ गेविज्जेसुं दोन्नी एका रयणी अणुत्तरेसु "ति [ भवनवान मंतरज्योतिष्कसौधर्मेशानेषु सप्त रत्नयो भवंति शेषेषु एकैकहानिः द्विके द्विके च द्विके चतुष्के च ॥ १॥ मैवेयकेषु द्वे रली अनुत्तरसुरेष्वेका रजिः ॥] भवधारणीयान्येवं, उत्तरवेकियाणि तु लक्षमपि सम्भवन्ति, उत्कृष्टेनैतत् जघन्यतस्त्वङ्गुछासङ्ख्येय भागप्रमाणान्युत्पत्तिकाले भवधा
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४ स्थाना०
उद्देशः ४ धर्मद्वारा
युर्हेतुवाद्यादिवि
मानव
र्णादि
सु० ३७२
३७५
॥ २८६ ॥
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३७५]
प्रत
सूत्रांक [३७५]
दीप अनुक्रम [४०६]
रणीयानि भवन्त्युत्तरवैक्रियाणि त्वङ्गलसद्ध्येयभागप्रमाणानीति । अनन्तरं देववक्तव्यतोक्ता, देवाश्चाप्कायतयाऽप्युत्यधन्ते इत्युदकगर्भप्रतिपादनाय 'चत्तारी'त्यादि सूत्रद्वयमाह
पत्तारि उदगम्भा पं० त०-उस्सा महिया सीता उसिणा, चत्तारि उदगम्भा पं० २०-हेमगा अन्भसंथडा सीतोसिणा पंचरूविता,-माहे उ हेमगा गन्मा, फग्गुणे अध्भसंथदा । सीतोसिणा उ चित्ते, वतिसाहे पंचरूविता ।।१।। (सू० ३७६) चत्तारि माणुस्सीगम्भा पं० सं०-इत्थित्ताए पुरिसत्ताए णपुंसगत्ताते किंवत्ताए,-अप्पं सुकं बहुं ओर्य, इत्थी तत्थ पजातति । अप्पं ओयं बहुं सुकं, पुरिसो तत्व पजातति ॥ १॥ दोहंपि रत्तसुकाणं, तुल्लभावे गपुंसओ।
इत्थीतोतसमाओगे, पिंच तत्थ पजायति ॥ २॥ (सू०३७७) 'दगगन्भ'त्ति दकस्य-उदकस्य गर्भा इव गर्भा दकगर्भाः-कालान्तरे जलवर्षणस्य हेतवस्तत्संसूचका इति तत्त्वमिति, अवश्याय:-क्षपाजलं महिका-धूमिका शीतान्यात्यन्तिकानि एवमुष्णा-धर्माः, एते हि यत्र दिन उत्पन्नास्तस्मादुत्कर्षणाव्याहताः सन्तः पद्भिर्मासैरुदकं प्रसुवते, अन्यैः पुनरेवमुक्तम्-"पवनाभ्रवृष्टिविद्युद्गर्जितशीतोष्णरश्मिपरिवेषाः । जलमत्स्येन सहोक्ताः दशधा धातुप्रजनहेतुः॥१॥" तथा "शीतवाताश्च बिन्दुश्च, गर्जितं परिवेषणम् । सर्च गर्भेषु शं-18 सन्ति, निर्ग्रन्थाः साधुदर्शनाः॥१॥" तथा "सप्तमे २ मासे, सप्तमे २ऽहनि । गर्भाः पार्क नियच्छन्ति, याद्दशास्तादृशं | फलम् ॥ १॥" हिम-तुहिनं तदेव हिमकं तस्यैते हैमका हिमपातरूपा इत्यर्थः, 'अब्भसंथड'त्ति अनसंस्थितानि मेधैराकाशाच्छादनानीत्यर्थः, आत्यन्तिके शीतोष्णे, पञ्चानां रूपाणां-गर्जितविद्युजलवाताभ्रलक्षणानां समाहारः पञ्चरूपं
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३७७] + गाथा १-२ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीस्थाना
प्रत सूत्रांक [३७७]
गाथा ||१-२||
दीप अनुक्रम [४०९४११]
तदस्ति येषां ते पञ्चरूपिका उदकगर्भाः, इह मतान्तरमेवम्-पौषे समार्गशीर्षे सन्ध्यारागोऽम्बुदाः सपरिवेषाः। नात्यर्थ ४ स्थाना० सूत्र-8 मार्गशिरे शीतं पौषेऽतिहिमपातः॥१॥ माघे प्रबलो वायुस्तुपारकलुषद्युती रविशशाङ्की । अतिशीतं सघनस्य च उद्देशः४ वृत्तिः भानोरस्तोदयौ धन्यौ ॥२॥ फाल्गुनमासे रूक्षश्चण्डः पवनोऽभ्रसम्प्लवाः स्निग्धाः । परिवेषाश्चासकलाः कपिलस्तारो उदकगर्भः रविश्व शुभः ॥ ३॥ पवनघनवृष्टियुक्ताश्चैत्रे गर्भाः शुभाः सपरिवेषाः । घनपवनसलिलविद्युत्स्तनितैश्च हिताय वैशाखे |
मनुष्यग॥२८७॥
&॥४॥” इति, तानेव मासभेदेन दर्शयति-'माहे त्यादि श्लोकः । गर्भाधिकारान्नारीगर्भसूत्रं व्यक्तं, केवलं 'इस्थित्ताए'त्तिा ला भेश्च
खीतया विम्बमिति-गर्भप्रतिबिम्ब गर्भाकृतिरार्त्तवपरिणामो न तु गर्भ एवेति, उक्तञ्च-"अवस्थितं लोहितमङ्गनाया, सू०३७६वातेन गर्भ अवतेऽनभिज्ञाः । गर्भाकृतित्वात्कटुकोष्णतीक्ष्णैः, श्रुते पुनः केवल एव रक्ते ॥ १॥ गर्भ जडा भूतहृतं व
का ३७९ दन्ती"त्यादि, वैचित्र्यं गर्भस्य कारणभेदादिति श्लोकाभ्यां तदाह-'अप्पमित्यादि, शुक्र-रेतः पुरुषसम्बन्धि ओजआर्तवं रक्तं स्त्रीसम्बन्धि यत्र गर्भाशय इति गम्यते इति, तथा खिया ओजसा समायोगो-वातवशेन तरिस्थरीभवनलक्षणः ख्योजासमायोगस्तस्मिन् सति बिम्ब 'तत्र' गर्भाशये प्रजायते, अन्यैरप्यत्रोक्तम्-"अत एव च शुक्रस्य, बाहु|ल्याजायते पुमान् । रक्तस्य स्त्री तयोः साम्ये, कीबः शुक्रातवे पुनः॥१॥ वायुना बहुशो भिन्ने, यथावं बहुपत्यता। वियोनिविकृताकारा, जायन्ते विकृतैर्मलैः॥२॥” इति ॥ गर्भः प्राणिनां जन्मविशेषः स चोत्पादोऽभिधीयते, उत्पादचोलादाभिधानपूर्वे प्रपश्चत इति तत्स्वरूपविशेषप्रतिपादनायाह
॥२८७ उपायपुवस्स णं चत्तारि मूलवस्थू पन्नत्ता (सू० ३७८) चउविहे कब्बे पं० त०-बाजे पजे कत्थे गेए (सू०३७९)
454645%
%
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३८०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [३८०]
* NHEA5%
णेरतिताण पत्तारि समुग्धाता पं० सं०-वेवणासमुग्धाते कसायसमुग्धाते मारणंतियसमुग्धाए बेउब्बियसमुग्याए, एवं वाउक्काइयाणवि (सू० ३८०) अरिहतो णं अरिहनेमिस्स चत्वारि सया चोहसपुन्बीणमजिणाणं जिणसंकासाणं सव्वक्खरसन्निवाईणं जिणो इव अविवथवागरमाणाणं उकोसिता चउद्दसपुब्बिसंपया हुस्था (सू०३८१) समणस्स गंभगवओ महावीरस्स पचारि सया बादीणं सदेवमणुयासुराते परिसाते अपराजियाण कोसिता पातिसंपया हुत्या (सू० ३८२) हेहिल्ला चत्तारि कप्पा अद्धचंदसंठाणसंठिया पन्नत्ता, तंजहा-सोहम्मे ईसाणे सर्णकुमारे माहिंदे, मझिल्ला चत्तारि कप्पा पडिपुनचंदसंठाणसंठिया पन्नत्ता, तंजहा-बंभलोगे लंतते महासुफे सहस्सारे, उपरिक्षा चत्तारि कप्पा अद्धचंदसंठाणसंठिता पन्नत्ता, तंजहा-आणते पाणते आरणे अचुते १०३८३) चत्तारि समुदा पत्तेयरसा पं० सं० -लवणोदे वरुणोदे खीरोदे घतोदे (सू० ३८४) चत्तारि आवत्ता पं० तं०-खरावत्ते उन्मतावत्से गूढाबसे आमिसावते, एवामेव चत्तारि कसाया पं० सं०-खरावत्तसमाणे कोहे उन्मत्तावत्तसमाणे माणे गूढावत्तसमाणा माता आमिसावत्तसमाणे लोभे, खरावत्तसमाणं कोई अणुपविढे जीवे कालं करेति रइएसु उववजति, उन्नत्तावत्तसमाणं माण
एवं चेव गूढावत्तसमाणं मातमेवं चेव आमिसावत्तसमाणं लोभमणुपविढे जीवे कालं करेति नेरइएमु उववजेति (सू०३८५) 'उप्पाये'स्यादि कण्ठ्यं, नवरं उत्पादपूर्व प्रथम पूर्वाणां तस्य चूला-आचारस्याग्राणीव तद्रूपाणि वस्तूनि-परिच्छेदविशेषा अध्ययनवचूलावस्तूनि । उत्पादपूर्व हि काव्यमिति काव्यसूत्रं कण्ठ्यं चैतन्त्रवरं काव्य-ग्रन्थः, गद्यम्-अच्छन्दो| निबर्द्ध शस्त्रपरिज्ञाध्ययनवत् पय-छन्दोनिबद्धं विमुक्त्यध्ययनवत्, कथायां साधु कथ्यं ज्ञाताध्ययनवत् , गेयं-गान
दीप
अनुक्रम [४१४]
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८५] दीप अनुक्रम [४१९]
श्रीस्थाना- योग्य, इह गद्यपद्यान्तर्भावेऽपीतरयोः कथागानधर्मविशिष्टतया विशेषो विवक्षित इति । अनन्तरं गेयमुक्त, तच भा- स्थाना० नसूत्र- शस्वभावत्वात् दण्डमन्धादिक्रमेण लोकैकदेशादि पूरयति, समुद्घातोऽप्येवमेवेति साधात् समुद्घातसूत्रे सुगमे च,* उद्देशः ४ वृत्तिः
नवरं समुदूधननं समुद्रातः-शरीराद्वहिर्जीवप्रदेशप्रक्षेपः, वेदनया समुद्घातः कषायैः समुद्घातो मरणमेवान्तो मर- वस्तुसमु
णान्तः तत्र भवो मारणान्तिकः स एव समुद्घातो वैकियाय समुद्घातः२ इति. विग्रहा इति । वैक्रियसमुद्घातो हिल-14 ॥२८८॥
पातपू. ब्धिरूप उक्त इति लब्धिप्रस्तावात् विशिष्ट श्रुतलब्धिमतामभिधानाय 'अरहओं' इत्यादि सूत्रद्वयी सुगमा, नवरमजिना- विवादिकनामसर्वज्ञत्वात् जिनसंकाशानामविसंवादिवचनत्वाद् यथापृष्टनिर्वक्तृत्वाच्च सर्वे अक्षराणाम्-अकारादीनां सन्निपाता| |ल्पसंस्था-व्यादिसंयोगा अभिधेयानन्तत्वादनन्ता अपि विद्यन्ते येषां ते सर्वाक्षरसन्निपातिनः, एतेषां जिनसंकाशत्वे कारणमाह- नाधिर'जिणो विवेत्यादि, 'उक्कोसिय'त्ति नातोऽधिकाश्चतुर्दशपूर्विणो बभूवुः कदाचिदपीति । ते च प्रायः कल्पेषु गता इति सावताः कल्पसूत्राणि सुगमानि च, नवरं 'अद्धचंदसंठाणसंठिएत्ति पूर्वापरतो मध्यभागे सीमासद्भावादिति । देवलोका हि|
सू०३७९क्षेत्रमिति क्षेत्रप्रस्तावात् समुद्रसूत्र व्यक्तं, नवरं एकमेकं प्रति भिन्नो रसो येषां ते प्रत्येकरसाः, अतुल्यरसा इत्यर्थः, *लवणरसोदकत्वालवणः पाठान्तरे तु लवणमिवोदकं यत्र स लवणोदो निपातनादिति प्रथमः वारुणी-सुरा तया समानं
वारुणं वारुणमुदकं यस्मिन् स वारुणोदः चतुर्थः क्षीरवत्तथा घृतवदुदकं यत्र स क्षीरोदः पञ्चमः घृतोदः षष्ठः, कालो-| दिपुष्करोदस्वयम्भुरमणा उदकरसाः, शेषास्तु इक्षुरसा इति, उक्तश-बारुणिवरखीरवरो घयवर लवणो य होति
पत्तेया। कालो पुक्खरउदही सयंभुरमणो य उदगरसा ॥१॥" इति । अनन्तरं समुदा उकास्तेषु चावत" भवन्ती
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आगम (०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८५] दीप अनुक्रम [४१९]
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त्यावत्तान् दृष्टान्तान् कपायांश्च तदान्तिकानभिधित्सुः सूत्रद्वयमाह-सुगर्म चैतत्, नवरं खरो-निष्ठुरोऽतिवेगितया पातकश्छेदको वा आवर्तनमावतः स च समुद्रादेश्चक्रविशेषाणां वेति खरावर्तः, उन्नतः-उच्छ्रितः स चासावावर्त्तश्चेति | उन्नतावतः, स च पर्वतशिखरारोहणमार्गस्य वातोत्कलिकाया वा, गूढश्चासावावर्तश्चेति गूढावतः स च गेन्दुकदवरकस्य दारुपन्ध्यादेवा आमिषं-मांसादि तदर्थमावतः शकुनिकादीनामामिपावर्त इति, एतत्समानता च क्रोधादीनां क्रमेण परापकारकरणदारुणत्वात् पत्रतृणादिवस्तुन इव मनस उन्नतत्वारोपणात् अत्यन्तदुर्लक्ष्यस्वरूपत्वात् अनर्थशतसम्पातसङ्कुलेऽप्यवपतनकारणत्वाचेति, इयञ्चोपमा प्रकर्षवता कोपादीनामिति तत्फलमाह-'खरावत्तेत्यादि, अशु|भपरिणामस्या शुभकर्मवन्धनिमित्ततया दुर्गतिनिमित्तत्वादुच्यते 'णेरइएसु उववजह'त्ति ॥
अणुराहानक्खत्ते चउत्तारे पं० पुन्वासाढे एवं चेव उत्तरासाढे एवं चेव (सू० ३८६) जीवाणं चउठाणनिब्यत्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताते चिणिंसु वा चिति वा चिणिस्संति वा, नेरतियनिव्वत्तिते तिरिक्खजोणितनिवतिते मणुस्स. देवनिव्वत्सिते, एवं उबचिणिसु वा उबचिणति वा उवचिणिस्संति वा, एवं चिय उवचिय बंध उदीर बेत तह निजरे चेव । (सू०३८७) चउपदेसिया खंधा अर्णता पन्नत्ता चउपदेसोगाढा पोग्गला अणंता चउसमयद्वितीया पोग्गला अर्णता चत्रगुणकालगा पोग्गला अर्णता जाव चगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता (सू० ३८८)। चउत्थो उद्देसो
समचो चउठाणं च उत्थमज्झयणं समत्तं ।। नारका अनन्तरमुक्तास्तैश्च वैक्रियादिना समानधर्माणो देवा इति तद्विशेषभूतनक्षत्रदेवानां चतुःस्थानकं विवक्षुः
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4-१
ForParamasPrvammoni
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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [४], उद्देशक [४], मूलं [३८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [०३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८८]
श्रीस्थाना
अणुराहेत्यादि सूत्रत्रयमाह-कण्ठ्यचैतदिति । देवत्वादिभेदश्च जीवानां कर्मपुद्गलचयादिकृत इति तत्प्रतिपादनायाह- स्थाना० असूत्र
'जीवाण'मित्यादि सूत्रपटू, व्याख्यातं प्राक् तथापि क्रिश्चिल्लिख्यते, 'जीवाणं ति गंशब्दो वाक्यालङ्कारार्थः, चतुर्भिःउद्देशः ४ वृत्तिः
स्थानकैः-नारकत्वादिभिः पर्यायनिर्वतिताः-कर्मपरिणामं नीतास्तथाविधाशुभपरिणामवशाहद्धास्ते चतुःस्थाननिर्वर्तिता-18/नक्षत्रतास्तान पुद्गलान, कथं निर्वतितानित्याह-पापकर्मतया-अशुभस्वरूपज्ञानाबरणादिरूपत्वेन, 'चिणिंसुति तथाविधाप-रकाः पदरकर्मपुद्गलैश्चितवन्तः-पापप्रकृतीरल्पप्रदेशा बहुप्रदेशीकृतवन्तः, 'नेरयनिव्वत्तिए'त्ति नैरयिकेण सता निर्वर्तिता इति लनिर्वर्तनं विग्रहः, एवं सर्वत्र, तथा एवं जबचिणिसुत्ति चयसूत्राभिलापेनोपचयसूत्र वाच्यं उबचिणिसुत्ति-उपचितवन्तः पीन:-
1पनलप्रदेपुन्येन 'एव'मिति चयादिन्यायेन बन्धादिसूत्राणि वाच्यानीत्यर्थः, इह च 'एवं बन्धउदीरे'त्यादिवकव्ये यच्चयोपचय- शादि ग्रहणं तत्स्थानान्तरप्रसिद्धगाथोत्तरार्द्धानुवृत्तिवशादिति, तत्र 'बंध'त्ति बंधिंसु ३ श्लधवन्धनबद्धान् गाढबन्धनबद्धान
सारापाचनवद्वान्सू ०३८६. कृतवन्तः ३, 'उदीरति उदीरिंसु ३ उदयप्राप्ते दलिके अनुदितांस्तान् आकृष्य करणेन वेदितवन्तः ३, 'वेय'ति वे-18 ३८८ से दिसु ३ प्रतिसमयं स्वेन रसविपाकेनानुभूतवन्तः ३ 'तह निजरा चेव'त्ति निजरिंसु ३ कात्स्न्येनानुसमयमशेषतद्विपा
कहान्या परिशातितवन्तः ३ इति । पुद्गलाधिकारात् पुद्गलानेव द्रव्यादिभिर्निरूपयन्नाह-'चउप्पएसे'त्यादि सुगममिति ॥ इति चतुःस्थानकस्य चतुर्थ उद्देशकः समाप्तः ॥ ग्रन्थान २९३२
४२८९॥ ॥ इति श्रीमदभयदेवाचार्यविरचिते स्थानाख्यतृतीयाङ्गविवरणे चतुःस्थानकाख्यं चतुर्थमध्ययनं समाप्तम् ।।
दीप
अनुक्रम [४२२]
। स्थान-४ परिसमाप्तं
भाग
स्थानांगसूत्र स्थान १ से ४ मूलं एवं अभयदेवसूरिजी रचिता टीका परिसमाप्ता:
मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब | किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि) |
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भाग
कुलपृष्ठ ३१४
५८६
४९८
३९२
५९४
“सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि" भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा?
इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम 01 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति भाग-१ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन-१,२ 02 आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन- ३ से ९, श्रुतस्कन्ध-२ 03 आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन- १ से १३ 04 आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन १४ से १६, श्रुतस्कन्ध-२ 05 आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ स्थान- १ से ४ 06 आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ स्थान-५ से १० संपूर्ण 07 | आगम ०४ समवाय मूलं एवं वृत्ति. 08 आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ शतक-१ से ६ 09 आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ शतक-७ से ११
आगम ०५ भगवती मलं एवं वृत्ति, भाग-३ शतक- १२ से २० 11 आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ शतक- २१ से ४१ संपूर्ण 12 आगम ०६ ज्ञाताधर्मकथा मूलं एवं वृत्ति. 13 आगम-७,८,९,१०उपासकदशा, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण मलं एवं वृत्ति. 14 आगम-११,१२, विपाक, उववाई मूलं एवं वृत्ति. 15 आगम १३ राजप्रश्नीय मूलं एवं वृत्ति. 16 आगम९४ जीवाजीवाभिगम भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत] सूत्र-१ से १३८ 17 आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत सूत्र- १३९ से प्रतिपत्ती-१० संपूर्ण 18 आगम १५ प्रज्ञापना भाग-१ मलं एवं वृत्ति. पद- १ से ५
आगम १५ प्रज्ञापना भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. पद-६ से २२ 20 आगम १५ प्रज्ञापना भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. पद- २३ से ३६ संपूर्ण 21 |आगम १६ सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति.
10
४९४ ३३८ ५९२ ५५२ ५१४ ३८४ રર. ५३८ ३८४ ३१४ ४८० ४८८ ४२६ ५१४
19
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भाग
कुलपृष्ठ ६१४ ३७६ ४२६ ३४४
३१२
“सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि" भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा?
इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम 22 | आगम १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति.
| आगम१८ जंबुदविपप्रज्ञप्ति भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- १ एवं २. 24 आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ३ एवं ४. 25 | आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार-५ से ७. आगम १९ थी ३२ निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा, चतुःशरण, आतुरपरत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान,
भक्तपरिज्ञा, तंदुलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविद्या, देवेन्द्रस्तव मूलं एवं छाया | आगम ३३ थी ३९ मरणसमाधि मूलं एवं छाया, निशीथ, बुहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध, जीतकल्प/पंचकल्प, महानिशीथ मूलं एव 28 |आगम ४० आवश्यक मूल एवं वृत्ति, भाग-१, नियुक्ति- १ से ५२१ ।
आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, नियुक्ति- ५२२ से ९५१ आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ नियुक्ति- ९५२ से १२७३ अपूर्ण, [अध्ययन- १ से ४ अपूर्ण) आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ नियुक्ति- १२७३ अपूर्ण से १६२३, [अध्ययन- ४ अपूर्ण से ६ संपूर्ण]
आगम ४१/१ ओघनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. | आगम ४१/२ पिंडनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति.
आगम ४२ दशवैकालिक मूलं एवं वृत्ति. आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, अध्ययन- १ से ५ आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन-६ से २१
आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-३, अध्ययन- २२ से ३६ 38 | आगम ४४ नन्दिसूत्र मूलं एवं वृत्ति. 39 | आगम ४५ अनुयोगद्वार मूलं एवं वृत्ति. 40 | कल्प(बारसा)सूत्र... चतुःशरण, तन्दुलवैचारिक, गच्छाचार मूलं एवं वृत्ति.
५२२ ४८२ ४६६ ५२८ ५६० ३९४
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ਬਾਬਲ
ਤਕ ਨ ਲ
ਸ
ਸ
ਸ
ਸ
ਸ .
ਰਿਸ਼ ਨੂੰ ਬਾਬਾ ਭਾਗ ਬਸ
ਤੇ
आगम वाचना शताब्दी वर्ष
ਕਹਿ ਹਾਲ ਹਾਸ ਰਸ ,
ਜ
ਕੇ ਤਨ ਸ ਸ ਲਗਾ ਤਾ
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थानाम आजाआजम आजम
नमो नमो निम्मलदसणस्स
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सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
मूल संशोधक
अभिनव-संकलनकर्ता
MA
KARAN
Radioobs
also
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
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प्रत-प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855798253062757
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ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
OHITE OF OEM
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श्री आगम मंदिर
पालिताणा
DEE ON OT
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________________ म आम आगम आगम म आजमा मूल सशोधक - पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आम आजम आजम आजम आगम आजम आगम आगम - 05 'स्थान' मूलं एवं वृत्ति: [1] आजम आजमा आज अभिनव-संकलनकर्ता आजमा आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी आगम [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] / आजम ~594~