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आगम
(०३)
[भाग-5] "स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
स्थान [२], उद्देशक [३], मूलं [९०,गाथा-३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र - [०३], अंग सूत्र - [३] "स्थान" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९०]
गाथांक
157
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कजोवगा दो कब्बडगा दो अयकरगा दो दुंदुभगा दो संखा दो संखवन्ना दो संखवन्नाभा दो कंसा दो कंसवन्ना दो कंसवन्नाभा दो रुप्पी दो रुपाभासा दो णीला दो णीलोभासा दो भासा दो भासरासी दो तिला दो तिलपुष्फवण्णा दो दगा दो दगपंचवन्ना दो काका दो ककंधा दो इंदग्गीवा दो धूमकेऊ दो हरी दो पिंगला दो बुद्धा दो सुफा दो बहस्सती दो राहू दो अगत्थी दो माणवगा दो कासा दो फासा दो धुरा दो पमुहा दो वियडा दो विसंधी दो नियल्ला दो पल्ला दो जडियाइलगा दो अरुणा दो अग्गिल्ला दो काला दो महाकालगा दो सोस्थिया दो सोवस्थिया दो बदमाणगा दो पेससमाणगा दो अंकुसा दो पलंवा दो निचालोगा दो णिनुजोता दो सयंपमा दो ओभासा दो सेयंकरा दो सेमंकरा दो आभंकरा दो पभंकरा दो अपराजिता दो अरया दो असोगा दो विगतसोगा दो विमला दो वितत्ता दो वितत्था दो विसाला दो साला दो सुन्वता दो अणियट्टा दो एगजडी दो दुजड़ी दो करकरिगा दो रायग्गला दो पुरुफकेतू दो भाव
केऊ । (सू० ९.) 'जंबुद्दीवे' इत्यादि सूत्रद्वयं, 'पभासिंसु वत्ति प्रभासितवन्तौ वा प्रकाशनीयमेवं प्रभासयतः प्रभासयिष्यतः, चन्द्र-14 योश्च सौम्यदीप्तिकत्वात् प्रभासनमात्रमुक्तम् , आदित्ययोश्च खररश्मित्वात्तापितवन्तौ वा एवं तापयतस्तापयिष्यत इति | वस्तुनस्तापनमुक्तम् , अनेन कालत्रयप्रकाशनभणनेन सर्वकालं चन्द्रादीनां भावानामस्तित्वमुक्तम् , अत एव चोच्यते'न कदाचिदनीदृशं जगदिति, न वा विद्यमानस्य जगतः को कल्पयितुं युक्तः, अप्रमाणकत्वात् , अथ यत्सन्निवे.
१ नंगे संख्यया तदर्शकपाठेन च संवदत इति नाइनीवे.
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दीप अनुक्रम [९०-९४]
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