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संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र मार्ग-रागी, प्रवचन- पटु, सुपरिवार युक्त
पूज्य गच्छाधिपति आचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब
••• परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये । फ़िर क्या ! शिष्यो कि संख्या बढती चली, बढ़ते हुए पुन्य के साथ• साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापुन्य के कारण उन के उपदेश प्राप्त बहोत आत्माओने संयम मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था । आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्य परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे |
*** ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेलु दिखाए । एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवनमें देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी
भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष}दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि आराधना कभी नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही रटण बारबार चालु हो गया- " अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनुं शरण " इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना | मुनि दीपरत्नसागर...
श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था, पालिताणा
पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम संवत १९९९ मे महा वद ५ को हुई | आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक- आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य-सहाय की प्राप्ति हुई | शिल्प-स्थापत्य, शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर' है, जो शत्रुंजय· गिरिराज कि तलेटीमे स्थित है | वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और १ शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है। जहां ४० समवसरण की रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्णों के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस पत्थर से बना है, देवो द्वारा रचित समवसरण के शास्त्र वर्णन• अनुसार आगम मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है। ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है ।
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पूज्य
मुनि दीपरत्नसागर....