Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पापा ४६-४७
गुगास्थान ४७
सम्यक्त्व की अपेक्षा, सम्यक्त्व के प्रतिबन्धक कौ के क्षय, क्षयोपशम और उपशम से यह गुरगस्थान हित्पन्न होता है । इसलिए क्षायिक, क्षायोपशमिक और प्रौपमिक भी (यह गुणस्थान) है ।
स्वस्थान अप्रमत्तसंयत एवं सातिशाम अप्रमनसंयत का स्वरूप गट्ठासेसपमावो वयगुणसोलोलिमंडियो गाणी । अणुबसमम्रो प्रखवनो भारणिलीणो हु अपमत्तो ॥४६।। इगवीसमोहखवणुवसमरराणिमित्तारिण तिकरणारिण तहिं । पढम प्रधापवसं करणं तु करेदि अपमत्तो ॥४७॥ युग्मम् |
गाथार्थ-जिस संयत के सम्पूर्ण व्यकाव्यक्त प्रमाद नष्ट हो चुके हैं और जो समग्र ही महाव्रत, भट्ठाईस मूलगुण तथा शील से युक्त है और शरीर-प्रात्मा के भेदज्ञान में तथा मोक्ष के कारण भूत ध्यान में निरन्तर लीन रहता है, ऐसा अप्रमत्त जब तक उपशमक या क्षपक श्रेणी का आरोहण नहीं करता तब तक उसको स्वस्थान अप्रमत्त अथवा निरतिशय अप्रमत्त कहते हैं ।।४६।। अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यान-संज्वलन सम्बन्धी क्रोधमानमायालोभ तथा हास्यादिक नव नोकषाय मिलकर मोहनीय की इक्कीस प्रकृतियों के उपशम या क्षय करने को प्रात्मा के ये तोन करण अर्थात् तोन प्रकार के विशुद्ध परिणाम निमित्तभूत हैं—अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण । उनमें से सातिशय अप्रमत अर्थात जो श्रेणी चढ़ने के सम्मुख है, वह प्रथम अधःप्रवृत्तकरण को ही करता है ।।४७॥
विशेषार्थ-चतुर्थना स्थान से सप्तम गुणस्थान पर्यन्त किसी भी गुणस्थान में जिस वेदक सम्यग्दृष्टि ने प्रधःकरण, अपूर्वक रण। और अनिवृत्तिकरण इन तीनों कररणों द्वारा अनन्तानुबन्धीकषाय की विसंयोजना करके, पुन: तीन करणों के द्वारा दर्शनमोहनीय की (सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, मिथ्यात्व) तीन प्रकृतियों का उपशम करके द्वितीयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया है। अथवा इन तीन प्रकृतियों का क्षय करके क्षायिक सम्यग्रष्टि हो गया है वह द्वितीयोपशम सम्यादृष्टि या क्षायिक सम्यग्दृष्टि चारित्रमोहनीय कर्म की अप्रत्याख्यानावरमादि २१ प्रकृतियों का उपशम करने के योग्य होता है, किन्तु चारित्रमोहनीय कर्म की २१ प्रकृतियों के क्षपण के योग्य क्षायिक सम्यग्दष्टि ही होता है, क्योंकि द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि क्षपकश्रेणी पर आरोहण नहीं कर सकता। । ऐसा सम्यग्दृष्टि प्रमत्त से अप्रमत में और अप्रमत्त से प्रमत्त में संख्यात बार भ्रमण करके अनन्तगुणी
विशुद्धि के द्वारा विशुद्ध होता हुआ सातिशय अप्रमत्त हो जाता है । .. जो निर्विकल्प समाधि में स्थित है, वास्तव में वहो ज्ञानी है, क्योंकि उसके बुद्धिपूर्वक राग-द्वेष का अभाव हो गया है। जो राग-द्वेष को हेय जानसा हुआ भी बुद्धिपूर्वक राम-द्वेष करता है वह वास्तविक ज्ञानी नहीं है।
. . ४६वीं गाथा का विशेषार्थ:-स्वस्थान-अप्रमत्त गुणस्थान में गमनागमन प्रादि क्रिया होती है। । अन्यथा अप्रमत्तगुणस्थान में परिहार विशुद्धिसंगम के अभाव का प्रसंग प्रा जाएगा, क्योंकि जो
.. प्राकृत पंचसंग्रह म. १ गा. १६ व ध.पु. १ पृ. १७६ सूत्र १५ की टीका ।