Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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४६ / गो. सा. जीवकाण्ड
सातवें अप्रमतसंगत गुगुस्थान का स्वरूप संजलरपरोकसायाणुदश्री मंझे जदा तदा होदि । प्रमत्तगुणो तेा य प्रपमत्तो संजदो होदि || ४५ ||
गाथा ४५
गायायें – संज्वलन कषाय और नोकषाय का जब मन्द उदय होता है, तब श्रप्रमत्तगुणस्थान होता है और उसी से प्रप्रमत्तसंयत होता है ॥४५॥
विशेषार्थ -संज्वलन कोष मान-माया लोभ और हास्य रति प्ररति-शोक-भय-जुगुप्सा- स्त्रीवेदपुरुप्रवेद-नपुसकवेद ये नव नोकषाय, इन १३ प्रकृतियों के तीव्र उदय का नाम प्रमाद है।' इसी से यह भी सिद्ध हो जाता है कि चार संज्वलन कषाय और नव नोकषाय के मन्द उदय का नाम प्रप्रमाद है । श्रेणीमा रोहण से पूर्व सकलसंयमी के इन तेरह प्रकृतियों का कभी तीव्रोदय होता है और कभी मन्दोदय तीव्रोदय होने पर प्रमत्तसंयत नामक छठा गुरणस्थान प्राप्त हो जाता है और मन्दोदय होने पर अप्रमत्तसंगत नामक ७ गुणस्थान रहता है, किन्तु श्रप्रमत्तसंयत के काल से प्रमत्तसंयत का काल दुगुना है। इस प्रकार प्रमत्त व अप्रमत्तगुणस्थान में जो भूला करता है, वह स्वस्थान अप्रमत्तसंयत है ।
जिनका संयम प्रमादसहित नहीं होता, वे अप्रमत्तसंथत हैं। संयत होते हुए जिन जीवों के पन्द्रह प्रकार का प्रमाद नहीं पाया जाता, वे अप्रमत्तसंयत हैं ।
शङ्का - शेष सम्पूर्ण संयतों का इसी अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में अन्तर्भाव हो जाता है इसलिए शेष संगत गुणस्थानों का अभाव हो जाएगा ?
समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि जो आगे कहे जाने वाले अपूर्वकरणादि विशेषरणों से युक्त नहीं हैं और जिनका प्रमाद ग्रस्त हो गया है, ऐसे संगतों का ही श्रप्रमत्तसंगत गुणस्थान में ग्रहण होता है; इसलिए आगे के समस्त संयत गुणस्थानों का श्रप्रमत्तसंयत गुणस्थान में अन्तर्भाव नहीं होता ।
शङ्का - यह कैसे जाना जाये कि यहाँ पर आगे कहे जाने वाले पूर्वकरणादि विशेषणों से युक्त संयतों का ग्रहण नहीं होता ?
समाधान- आगे के संयत जोवों का यहाँ ग्रहण नहीं होता, यदि ऐसा नहीं माना जाये तो आगे के संयतों का निरूपण बन नहीं सकता, इससे ज्ञात होता है कि यहाँ अपूर्वकरणादि विशेषणों से रहित प्रमत्तसंयतों का ही ग्रहरण किया गया है।
वर्तमान समय में प्रत्याख्यानावररगीय कर्मों के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयक्षय से और आगे उदय में आने वाले उन्हीं के उदयाभाव लक्षण उपगम से तथा संज्वलन कषायों के मन्द उदय होने से प्रत्याख्यान की उत्पत्ति होती है, इसलिए यह गुणस्थान भी क्षायोपशमिक है। संयम के कारणभुत
१. " को पमादो णाम? चदुसंजल रगवणोकसायरणं तिब्बोदओ ।" धवल पु. ७ पृ. ११ । २. "प्रथमत्तद्भादो प्रमत्तढाए डुगुणत्तादो - अवल पु. ३ पृ. ६० । ३. प्राकृत पंचसंग्रह प्र. १ गा. १६, व धवल पू. १ पृ. १७९; सूत्र १५ की टीका में भी यह गाथा है।