Book Title: Aagam 01 ACHAR Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आचारागसूत्रम् नमो नमो निम्मलदसणस्स 'पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरूभ्यो नमः / “आचार" मूलं एवं वृत्ति: [मूलं + भद्रबाहुस्वामी कृत् नियुक्ति; + शिलांकाचार्य रचित वृत्तिः] [आदय संपादकः - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. / / (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता नि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) | '06/06/2014, शुक्रवार, 2070 ज्येष्ठ शुक्ल 8 jain_e_library's Net Publications ~0~# Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक -- दीप अनुक्रम [-] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [-], अध्ययन [ - ], उद्देशक [-], मूलं [-], निर्युक्ति: [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र - [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Jam Education national आचाराङ्गसूत्रस्य मूल "टाइटल पेज" SPIRAT ॥ अर्हम् ॥ श्रीमद्गणधरवरसुधर्मस्वामिप्रणीतं श्रुत केवलिभद्रबाहुखामिद्दब्धनिर्युक्तियुक्तं श्रीमच्छीलाङ्काचार्यविहितविवृतियुतं श्री आचाराङ्गसूत्रम् (पूर्वभागः ) । meerz2 मुद्रयिता महेशानपुरनिवासि शा. लल्लुभाई किशोरदासविहितद्रव्य साहाय्येन आगमोदयसमितिकार्यवाहकः शाह-वेणीचन्द्रः सूरचन्द्रात्मजः । मुद्रितं मोहमय्यां निर्णयसागरयन्त्रे रा. रा. रामचंद्र येसू शेडगेद्वारा वीरसंवत् २४४२. विक्रमसंवत् १९७२. #ITE 9594. पण्यम् १.१२-० प्रथम संस्करणे प्रतयः ५०० For Parnal&Prat Use C ~1~# Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलांक: — ००१ ०१४ ०१९ ०३२ ०४० ०४९ ०५६ ०६३ ०७३ ०७८ ०८४ ०८८ ०९८ १०९ ११५ १२५ १३४ १३९ मूलाका: ५५२ विषय: श्रुतस्कंध १ अध्ययनं १ शस्त्रपरिज्ञा -- उद्देशकः १ जीवअस्तित्वं --उद्देशकः २ पृथ्विकाय -- उद्देशकः ३ अप्काय: -- उद्देशकः ४ अग्निकाय: -- उद्देशक: ५ वनस्पतिकाय: -- उद्देशकः ६ त्रसकाय: --- उद्देशकः ७ वायुकायः अध्ययनं २ लोकविजयः -- उद्देशकः १ स्वजन: -- उद्देशकः २ अदृढत्वम् -- उद्देशक: ३ मदनिषेधः -- उद्देशकः ४ भोगासक्तिः --उद्देशक: ५ लोकनिश्रा -- उद्देशकः ६ अममत्वं अध्ययनं ३ शीतोष्णीयं -- उद्देशकः १ भावसृप्तः -- उद्देशकः २ दुःखान्भवः -- उद्देशकः ३ अक्रिया -- उद्देशकः ४ कषायवमनं अध्ययनं १ सम्यक्त्वं -- उद्देशकः १ सम्यकवादः पृष्ठांक ००५ ०२३ ०२५ ०५९ ०८२ १०१ ११६ १३६ १५० १६७ २०० २२६ २३६ २५४ २६२ २८४ ३०१ ३०६ ३२० ३३२ ३४४ ३५३ ३५४ आचाराग सूत्रस्य विषयानुक्रम विषय: मूलांक १४३ १४७ १५० १५४ १५९ १६४ १६९ १७३ १७९ १८६ १९४ १९८ २०१ २०७ * २१० २१५ -- उद्देशकः २ धर्मप्रवादीपरीक्षणं -- उद्देशकः ३ निरवद्यतपः - उद्देशकः ४ संयमप्रतिपादनं -वचनं अध्ययनं ५ लोकसार: उद्देशकः १ एकचर्या - उद्देशक: २ विरतमुनि - उद्देशकः ३ अपरिग्रह -- उद्देशकः ४ अव्यक्तः -- उद्देशक: ५ हदोपमः -- उद्देशकः ६ कुमार्गत्यागः अध्ययनं ६ दयुतं --उद्देशक: १ स्वजनविधुननं -- उद्देशकः २ कर्मविधूननं -- उद्देशकः ३ उपकरण एवं शरीर-विधननं उद्देशकः ४ गौरवत्रिकविधूननं -- उद्देशक: ५ उपसर्ग-सन्मान विधननं “अध्ययनं ७ व्युच्छिनम्” अध्ययनं ८ विमोक्षं - उद्देशकः १ कुशीलपरित्यागः उद्देशकः २अकल्प्यपरित्यागः पृष्ठांक ३६६ ३८० ३८७ ३९५ ४०० ४११ ४२० ४३० ४४३ ४५६ ४६७ ४६८ ४८३ ४९० ५०१ ५११ ५२२ ५३२ ५४३ निर्यक्ति गाथा: ३५६ विषय: मूलांक: २२० २२४ २२९ २३१ २३६ २४० २६५ २८८ ३०४ ३१८ — ३३५ ३९८ -- उद्देशकः ३ अंगचेष्टाभाषितः उद्देशकः ४ वेहासनादिमरणं -- उद्देशक: ५ ग्लानभक्तपरिज्ञा --उद्देशक: ६ इंगितमरणं --उद्देशकः ७ पादपोपगमनमरणं -- उद्देशकः ८ उत्तममरणविधिः अध्ययनं ९ उपधानश्रुतं -- उद्देशकः १ चर्या: -- उद्देशकः २ शय्या: - उद्देशकः ३ परिषहः -- उद्देशकः ४ रोगातंक: श्रुतस्कंध - २ चूडा-१ अध्ययनं १ पिण्डैषणा ( उद्देशका: १... ११) आहारग्रहण विधि एवं निषेध: आहारार्थे गमनविधि:, सइखडीदोष:, पानकग्रहण विधि:, भोजन ग्रहण विधि इत्यादि । अध्ययनं २ शय्यैषणा - (उद्देशका: १... ३) शय्या वसति ग्रहणे निषेधः व विधि: संस्तारक प्रतिमा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~2~# पृष्ठ ५५१ ५५६ ५६३ ५६८ ५६७ ५८२ ५९६ ६०५ ६१६ ६२३ ६२८ ६४० ६४० ६४६ ६४७ ७२२ ७२३ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलांक: ----- ७५४ मूलाका: ५५२ मूलांक: विषय: पृष्ठांक ___ श्रुतस्कंध-२ चूडा-१ | अध्ययनं ३ इO ७५३ ४४५ --- (उद्देशका: १...) विहार निषेध: व विधि: वर्षावासः, गमनागमन विधि: व निषेधः पथिना सह वार्ताविधि ** | अध्ययनं ४ भाषाजातं ७७४ ४६६ --उद्देशकः १ वचनविभक्तिः । ७७५ ४७० ।--उद्देशकः २ क्रोधोत्पतिवर्जनं | ७८२ | अध्ययनं ५ वस्त्रैषणा ४७५ --उद्देशकः १ वस्त्रग्रहणविधि: ७८९ ४८३ |--उद्देशक: २ वस्त्रधारणविधि: ७९८ आचाराङ्ग सूत्रस्य विषयानुक्रम मूलांक:। विषय: पृष्ठांक ** | अध्ययनं ६ पाषणा ८०२ ४८६ -- (उद्देशका: १.२) ८०२ पात्रस्वरूपं, पात्रग्रहण विधि:निषेधश्च, पात्र पडिमा, पात्र प्रमार्जना, पात्र परिग्रहणम् ** | अध्ययनं ७ अवग्रह प्रतिमा ८०८ ४९५ |-- (उद्देशका: १, २) ८०८ अवग्रह आदि याचनाविधि: एवं अवग्रह पडिमा(७) चुडा-२. ८१८ ४९७ | सप्तैकक १ स्थानं ८१८ ४९८ | सप्तैकक २ निषिधिका: ८२० नियुक्ति गाथा: ३५६ | विषय: | पृष्ठांक ४९९ | सप्तैकक ३ उच्चार-प्रश्रवणं ५०२ | सप्तैकक ४ शब्दः ५०५ | सप्तैकक ५ रूप: ५०६ | सप्तैकक६ परक्रिया ५०७ | सप्तैकक ७ अन्योन्यक्रिया चूडा-३ - ५०९ | भगवन् महावीरस्य च्यवन,जन्म, दीक्षादि वर्णनम्, पंच महाव्रतस्य प्ररूपणा, तस्य पंच-पंच भावना चूडा-४ . ८६२ ५०९ अनित्यभावना, मुने हस्ति आदि उपमा,अन्त्कृत् मोक्षगामी मुनि० आचाराङग सुत्रस्य संक्षिप्त विषयानक्रम: परिसमाप्त: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार' मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~3~# Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [आचार- मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले "आचारागसूत्र” के नामसे सन १९१६ (विक्रम संवत १९७२) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादकमहोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | इसी प्रत को फिर अपने नामसे 'जिनशासन आराधना ट्रस्ट' की तरफ से आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, ऊपर अपना नाम एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. यह स्पष्ट रूपसे एक प्रकारसे अदत्तादान ही है, ऐसी अनेक प्रतो के अगले दो पेज पलटकर या नए डालकर उन्होंने अपने नामसे छपवाइ है, इस तरह वो अपने आपको बड़ा आगम संरक्षक साबित करनेकी अनचित चेष्टा कर चुके है। इसी आचारांग सूत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से आचार्य श्री नयचंद्रसागरसूरिजीने भी छपवाया है, समुदाय की वफादारी निभाते हुए इस पूज्यश्रीने पूज्य सागरानंदसूरीश्वरजी महाराजश्री का नाम बड़ी इज्जत के साथ अपनी जगह पे ही रखा है, और खुदका नाम पुन: संपादक रूप से पेश किया है | अपनी प्रस्तावनामें नयचंद्रसागरसूरिजी ने भी मेरी तरह उक्त बात का उल्लेख किया है। इसी आचारांगसूत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से पूज्य जम्बूविजयजी महाराजजीने श्री मोतीलाल बनारसीदास की तरफसे प्रकाशित करवाई है, जो की पुस्तक रूपसे बाईंडेड है, और परिशिष्टमें पूज्य श्री पुन्यविजयजी संकलित शुद्धि-वृद्धि पत्रक दिया है। - हमारा ये प्रयास क्यों? --- आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी. ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर श्रुतस्कंध-अध्ययन-उद्देशक-मूलसूत्र-नियुक्ति आदि के नंबर लिख दिए, ताकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, उद्देशक आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस H] दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है। हर पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट लिखी है | अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसिको मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ......मुनि दीपरत्नसागर. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ - ], उद्देशक [-], मूलं [-], निर्युक्तिः [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ॐ नमः सर्वज्ञाय ॥ जयति समस्तवस्तुपर्याय विचारापास्ततीर्थिक, विहितैकै कतीर्थनयवादसमूहवशात्प्रतिष्ठितम् । बहुविधभङ्गिसिद्धसिद्धान्तविधूनितमलमलीमसं, तीर्थमनादिनिधनगतमनुपममादिनतं जिनेश्वरैः ॥१॥ (स्कन्दकच्छन्दः) आचारशास्त्रं सुविनिश्चितं यथा, जगाद वीरो जगते हिताय यः । तथैव किञ्चिद्गदतः स एव मे, पुनातु धीमान् विनयार्पिता गिरः ॥ २ ॥ शस्त्रपरिज्ञाविवरणमतिबहुगहनं च गन्धहस्तिकृतम् । तस्मात् सुखबोधार्थ गृह्णाम्यहमञ्जसा सारम् ॥ ३ ॥ Jain duration indamational ॥ अर्हम् ॥ श्रीसुधर्मस्वामिविरचितं । श्रीश्रुतकेवलिभद्रबाहुखामिद्दव्धनिर्युक्तियुतं । श्रीशीलाङ्काचार्यविहितविवरणसमन्वितं । श्रीआचाराङ्गसूत्रम् । वृत्तिकार रचित आरम्भिक गाथा: For P&Pratap O ~5~# Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-1, उद्देशक -1, मूलं -1, नियुक्ति: [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचा- इह हि रागद्वेषमोहाद्यभिभूतेन सर्वेणापि संसारिजन्तुना शारीरमानसानेकातिकटुकदुःखोपनिपातपीडितेन तदपनयनाय अध्ययनं १ रावृत्तिः हेयोपादेयपदार्थपरिज्ञाने यलो विधेयः, स च न विशिष्टविवेकमृते, विशिष्टविवेकश्च न प्राप्ताशेषातिशयकलापाप्तोपदेश-18 उद्देशका (शी०) मन्तरेण, आप्तश्च रागद्वेषमोहादीनां दोषाणामात्यन्तिकप्रक्षयात् , स चाहत एव, अतः प्रारभ्यतेऽर्हद्वचनानुयोगः, स च चतुर्धा, तद्यथा-धर्मकथानुयोगो गणितानुयोगो द्रव्यानुयोगश्चरणकरणानुयोगश्चेति, तत्र धर्मकथानुयोग उत्तराध्य-12 ॥१॥ लायनादिका, गणितानुयोगः सूर्यप्रज्ञप्त्यादिकः, द्रव्यानुयोगः पूर्वाणि सम्मत्यादिकश्च, चरणकरणानुयोगश्चाचारादिक, स च प्रधानतमः, शेषाणां तदर्थत्वात् , तदुक्तम्-चरणपडिवत्तिहेर्ड जेणियरे तिषिण अणुओग"त्ति, तथा "चरणपडिवत्तिहेर्ड धम्मकहाकालदिक्खमादीया । दविए दंसणसोही दंसणसुद्धस्स चरणं तु ॥१॥" गणधरैरप्यत एव तस्यै|वादी प्रणयनमकारि, अतस्तत्प्रतिपादकस्याचाराङ्गस्यानुयोगः समारभ्यते, स च परमपदप्राप्तिहेतुत्वात्सवितः, तदुक्तम्“श्रेयांसि बहुविघ्नानि, भवन्ति महतामपि । अश्रेयसि प्रवृत्तानां, क्वापि यान्ति विनायकाः॥ १ ॥" तस्मादशेषप्रत्यू होपशमनाय मङ्गलमभिधेयं, तच्चादिमध्यावसानभेदात्रिधा, तत्रादिमङ्गलं 'सुर्य मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खाय'मि-15 दात्यादि, अत्र च भगवद्वचनानुवादो मगलम्, अथवा श्रुतमिति श्रुतज्ञानं, तच्च नन्द्यन्तःपातित्वान्मङ्गलमिति, एतच्चासाविनेनाभिलपितशास्त्रार्थपारगमनकारणं, मध्यमङ्गलं लोकसाराध्ययनपश्चमोद्देशकसूत्रं 'से जहा केवि हरए पडिपुण्णे : चिट्ठाइ समंसि भोम्मे उवसन्तरए सारक्खमाणे इत्यादि, अत्र च इदगुणैराचार्यगुणोत्कीर्तनम् , आचार्याश्च पश्चनमस्का १ चरणप्रतिपत्तिहेतवो येनेतरे प्रयोऽनुयोगाः । चरणप्रतिपत्तिहेतवो धर्मकथाकालदीक्षादिकाः । द्रव्ये दर्शनशुद्धिदर्शनशुद्धस्य चरणं तु ॥ १ ॥ 2-564-59-7-54-59 JanEauraton intamational For सूत्रस्य उपोद्घात:, चतुर अनुयोग: ~6-2 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] "आचार" अंगसूत्र- १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ - ], उद्देशक [-], मूलं [-], निर्युक्ति: [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | रान्तःपातित्वान्मङ्गलमिति एतच्चाभिलषितशास्त्रार्थस्थिरीकरणार्थम्, अवसानमङ्गलं नवमाध्ययनेऽवसानसूत्रम् 'अभिनिव्वुडे अमाई आवकहाए भगवं समियासी' अत्राभिनिर्वृतग्रहणं संसारमहातरुकन्दोच्छेद्यऽविप्रतिपच्या ध्यानकारिस्वान्मङ्गलमिति एतच्च शिष्यप्रशिष्यसन्तानाव्यवच्छेदार्थमिति, अध्ययनगत सूत्रमङ्गलत्वप्रतिपादनेनैवाध्ययनानामपि मङ्गलत्वमुक्तमेवेति न प्रतन्यते, सर्वमेव वा शास्त्रं मङ्गलं, ज्ञानरूपत्वात्, ज्ञानस्य च निर्जरार्थत्वात्, निर्जरार्थत्वेन च तस्याविप्रतिपत्तिः, यदुक्तम् - "जं अन्नाणी कम्मं खवेइ बहुयाहिं वासकोडीहिं । तं नाणी तिहिं गुत्तो खवेद उस्सासमित्तेर्ण ॥ १ ॥ मङ्गलशब्दनिरुक्तं च मां गायत्यपनयति भवादिति मङ्गलं मा भूङ्गलो विघ्नो गाठो वा नाशः शास्त्रस्येति मङ्गलमित्यादि, शेषं त्वाशेपपरिहारादिकमन्यतोऽवसेयमिति । - साम्प्रतमाचारानुयोगः प्रारभ्यते - आचारस्यानुयोगः- अर्धकथनमाचारानुयोगः, सूत्रादनु-पश्चादर्थस्य योगोऽनुयोगः, सूत्राध्ययनात्यश्चादर्थकथनमिति भावना, अणोर्वा लघीयसः सूत्रस्य महताऽर्थेन योगोऽनुयोगः, स चामीभिर्द्वारैरनुगन्तव्यः, तद्यथा निक्खेवेगड निरुत्तिविहिपवित्तीय केण वा कस्स । तदारभेयलक्षण तदरिहपरिसा य सुत्तत्थो ॥ १ ॥ तत्र निक्षेपो-नामादिः सप्तधा, नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यानुयोगो द्वेषा-आगमतो नोआगमतश्च तत्रागमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तो, नोआगमतो ज्ञशरीर भव्यशरीर तव्यतिरिक्तोऽनेकधा, द्रव्येण-सेटिकादिना द्रव्यस्य- आत्मपरमाण्वादेर्द्रव्येनिषद्यादी वा अनुयोगो द्रव्यानुयोगः, क्षेत्रानुयोगः क्षेत्रेण क्षेत्रस्य क्षेत्रे वाऽनुयोगः क्षेत्रानुयोगः, एवं कालेन कालस्य * प्रतिशिष्येति प्र. १ यदज्ञानी कर्म क्षपयति बहुकाभित्रकोटीमिः । तज्ज्ञानी त्रिभिर्गुप्तः क्षपयत्युवासमात्रेण ॥ १ ॥ Jan Education intemational सूत्रस्य उपोद्घातः, आचारस्य अनुयोग: For Prest Use Only ~7~# Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक -- दीप अनुक्रम [-] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ - ], उद्देशक [-] मूलं [-], निर्युक्ति: [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र -[०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचाराङ्गवृत्तिः ॥२॥ काले वाऽनुयोगः कालानुयोगः, वचनानुयोग एकवचनादिना, भावानुयोगो द्वेधा-आगमतो नोआगमतश्च तत्रागमतो ज्ञातोपयुक्तो, नोआगमतस्तु औपशमिकादिभावैः, तेषां चानुयोगोऽर्थकथनं भावानुयोगः, शेषमावश्यकानुसारेण (शी०) ५ ज्ञेयं, केवल मिहानुयोगस्य प्रस्तुतत्वात्तस्य चाचार्याधीनत्वात् केनेति द्वारं वित्रियते, तथोपक्रमादीनि च द्वाराणि प्रचुरतरोपयोगित्वात्प्रदर्श्यन्ते तत्र केनेति कथम्भूतेन ?, यथाभूतेन च सूरिणा व्याख्या कर्त्तव्या तथा प्रदर्श्यते- "देसकुलजाइरुवी संघयणी धिइजुओ अणासंसी । अविकत्थणो अमाई थिरपरिवाडी गहियवक्को ॥ १ ॥ जियपरिसो जियनिदो | मज्झत्थो देसकालभावन्नू । आसन्नद्धपइभो णाणाविहदेस भासण्णू ॥ २ ॥ पंचविहे आवारे जुत्तो सुत्तत्थतदुभयवि| हिन्नू । आहरण हे कारणणयणिउणो गाहणाकुसलो ॥ ३ ॥ ससमयपरसमयविऊ गंभीरो दित्तिमं सिवो सोमो । गुणसयकलिओ जुत्तो पवयणसारं परिकहेउं ॥ ४ ॥ आर्यदेशोद्भूतः सुखावबोधवचनो भवतीत्यतो देशग्रहणं, पैतृकं कुलमिक्ष्वाक्कादि ज्ञातकुलश्च यथोत्क्षिप्तभारवहने न श्राम्यतीति, मातृकी जातिस्तत्संपन्नो विनयादिगुणवान् भवति, 'यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ती' ति रूपग्रहणं, संहननधृतियुतो व्याख्यानादिषु न खेदमेति, अनाशंसी श्रोतृभ्यो न वस्त्राद्याकाङ्गति, अविकत्थनो हितमितभाषी, अमायी सर्वत्र विश्वास्यः, स्थिरपरिपाटिः परिचितग्रन्थस्य सूत्रार्थगलनासंभवात्, ग्राह्यवाक्यः सर्वत्रास्खलिताज्ञः, जितपर्षद् राजादिसदसि न क्षोभमुपयाति, जितनिद्रोऽप्रमत्तत्वान्निद्राप्रमादिनः शिष्यान् सुखेनैव प्रबोधयति, मध्यस्थः शिष्येषु समचित्तो भवति, देशकालभावज्ञः सुखेनैव गुणवदेशादौ विहरिष्यति, आसन्नलब्धप्रतिभो द्राक् परवाद्युत्तरदानसमर्थो भवति, नानाविधदेशभाषाविधिज्ञस्य नानाविधदेशजाः शिष्याः व्याख्यानं सु Education Intemational सूत्रस्य उपोद्घातः, आचारस्य अनुयोगः For Porannal & Prata Use Only ~8~# अध्ययनं १ उद्देशकः १ ॥ २ ॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [९.], अध्ययन -, उद्देशक [-], मूलं -1, नियुक्ति: [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: SACARALE * खमवभोत्स्यन्ते, ज्ञानाद्याचारपश्चकयुक्तः श्रद्धेयवचनो भवति, सूत्रार्थतदुभयविधिज्ञ उत्सर्गापवादप्रपञ्च यथावद् ज्ञापयिष्यति, हेतूदाहरणनिमित्तनयप्रपश्चज्ञः अनाकुलो हेत्वादीनाचष्टे, ग्राहणाकुशलो बहीभियुक्तिभिः शिष्यान् बोधयति, स्वसमयपरसमयज्ञः सुखेनैव तत्स्थापनोच्छेदी करिष्यति, गम्भीरः खेदसहा, दीप्तिमान् पराधृष्यः, शिवहेतुत्वात् शिवः, तदधिष्ठितदेशे मार्य्याद्युपशमनात्, सौम्यः सर्वजननयनमनोरमणीयः, गुणशतकलितः प्रश्रयादिगुणोपेतः, एवंविधः सूरिः प्रवचनानुयोगे योग्यो भवति ॥ तस्य चानुयोगस्य महापुरस्येव चत्वार्यनुयोगद्वाराणि-व्याख्याङ्गानि भवन्ति, तद्यथा -उपक्रमो निक्षेपोऽनुगमो नया, तत्रोपक्रमणमुपक्रमः उपक्रम्यतेऽनेनास्मादस्मिन्निति वोपक्रमः-व्याचिख्यासितशाखस्य समीपानयनमित्यर्थः, स च शास्त्रीयलौकिकभेदाद् द्विधा, तत्र शास्त्रीयः आनुपूर्वी नाम प्रमाण वक्तव्यताऽर्थाधिकारः समवतारश्चेति पोढा, लौकिको नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् पोदैव । निक्षेपणमनेनास्मादस्मिन्निति वा निक्षेपः, उपक्रमानीतस्य व्याचिख्यासितशाखस्य नामादिन्यसनमित्यर्थः, स च त्रिविधः, तद्यथा--ओघनिष्पन्नो नामनिष्पन्नः सूत्रालापकनिष्पन्नश्च, तत्रौघनिष्पन्नोऽङ्गाध्ययनादिसामान्याभिधानन्यासः, नामनिष्पन्न आचारशस्त्रपरिज्ञादिविशेषाभिधाननामादिन्यासः, सूत्रालापकनिष्पन्नश्च सूत्रालापकानां नामादिन्यसनमिति । अनुगमनमनेनास्मादस्मिन्निति वाऽनुगमः, अर्थकथनमित्यर्थः, स च द्विधा-नियुक्त्यनुगमः सूत्रानुगमश्चेति, तत्र नियुक्त्यनुगमस्त्रिविधा, तद्यथानिक्षेपनियुक्त्यनुगमः उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमः सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमश्चेति, तत्र निक्षेपनियुक्त्यनुगमो निक्षेप एव सामान्यविशेषाभिधानयोरोघनिष्पन्ननामनिष्पन्नाभ्यां निक्षेपाभ्यामनुगतः सूत्रापेक्षया वक्ष्यमाणलक्षणश्चेति, उपोद्घात सूत्रस्य उपोद्घात:, चत्वारि अन्योगद्वाराणि- उपक्रम आदि ~ 9 -23 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ - ], उद्देशक [-], मूलं [-], निर्युक्तिः [१.] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा राङ्गवृत्तिः निर्युक्तत्यनुगमश्चाभ्यां द्वारगाथाभ्यामनुगन्तव्यः, तद्यथा - "उद्दे से णिसे व णिग्गमे खेत्तकालपुरिसे य । कारणपञ्चयलक्खण गए समोयारणाऽणुमए ॥ १ ॥ किं कतिविहं कस्स कहिं केसु कहं केच्चिरं हवइ कालं । कइ संतरमविरहियं भवा(शी०) २ गरिस फासणणिरुत्ती ॥ २ ॥ सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्त्यनुगमः सूत्रावयवानां नयैः साक्षेपपरिहारमर्थकथनं, स च सूत्रे सति ॐ भवति, सूत्रं च सूत्रानुगमे, स च सूत्रोच्चारणरूपः पदच्छेदरूपश्चेति । अनन्तधर्माध्यासितं वस्त्वेकेनैव धर्मेण नयन्ति 2 - परिच्छिन्दन्तीति ज्ञानविशेषा नयाः, ते च नैगमादयः सप्तेति । साम्प्रतमाचाराङ्गस्योपक्रमादीनामनुयोगद्वाराणां यथायोगं किञ्चिद् विभणिपुरशेषप्रत्यूहोपशमनाय मङ्गलार्थे प्रेक्षापूर्वकारिणां च प्रवृत्त्यर्थं सम्बन्धाभिधेयप्रयोजनप्रतिपादिकां नियुक्तिकारो गाथामाह ॥ ३ ॥ वंदित् सव्वसिद्धे जिणे अ अणुओगदायए सच्वे । आयारस्स भगवओ निजत्ति कित्तहस्सामि ॥ १ ॥ तत्र वन्दित्वा सर्वसिद्धान् जिनांश्चेति मङ्गलवचनम्, अनुयोगदायकानित्येतच सम्बन्धवचनमपि, आचारस्येवेत्यभिधेयवचनं, निर्युक्किं करिष्ये इति प्रयोजनकथनमिति तात्पर्यार्थः, अवयवार्थस्तु 'वन्दित्वे 'ति 'वदि अभिवादनस्तुत्यो 'रित्यर्थद्वयाभिधायी धातुः, तत्राभिवादनं कायेन स्तुतिर्वाचा, अनयोश्च मनःपूर्वकत्वात्करणत्रयेणापि नमस्कार आवेदितो भवति, सितं मातमेषामिति सिद्धाः - प्रक्षीणाशेषकर्माणः सर्वे च ते सिद्धाश्च सर्वसिद्धाः, सर्वग्र१] उद्देशो निर्देश निर्गमः क्षेत्रं कालः पुरुषत्र । कारणं प्रत्ययः लक्षणं नयाः समवतारः अनुमतम् ॥ १ ॥ किं कतिविधं कस्य क के कथं कियचिरं भवति कालम् । कति सान्तरमविरहितं भवाकर्षाः स्पर्शना निरुक्तिः ॥ २ ॥ Estication Untational सूत्रस्य उपोद्घातः, निर्युक्ति गाथाएँ वंदन एवं प्रतिज्ञा गाथा For Party at Use Only ~10~# अध्ययनं१ उद्देशकः १ ॥३॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक [-1, मूलं -1, नियुक्ति: [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: * हणं तीर्थातीर्थानन्तरपरम्परादिसिद्धप्रतिपादक, तान्बन्दित्वेति सम्बन्धः सर्वत्र योग्यः, रागद्वेषजितो जिना:-तीर्थकृतस्तानपि सर्वान अतीतानागतवर्त्तमानसर्वक्षेत्रगतानिति, अनुयोगदायिनः-सुधर्मस्वामिप्रभृतयो यावदस्य भगवतो नियुक्तिकारस्य भद्रबाहुस्वामिनश्चतुर्दशपूर्वधरस्याचार्योऽतस्तान् सर्वानिति, अनेन चाम्नायकथनेन स्वमनीषिकाव्युदासः कृतो भवति, 'वन्दित्वे ति क्त्वाप्रत्ययस्योत्तरक्रियासब्यपेक्षत्वादुत्तरक्रियामाह-'आचारस्य' यथार्थनाम्नः 'भगवत' इति अर्थधर्मप्रयत्नगुणभाजस्तस्यैवंविधस्य, निश्चयेनार्थप्रतिपादिका युक्तिनियुक्तिस्तां 'कीर्तयिष्ये' अभिधास्ये इति अन्तस्तत्वेन निष्पन्नां नियुक्ति बहिस्तत्त्वेन प्रकाशयिष्यामीत्यर्थः ॥१॥ यथाप्रतिज्ञातमेव विभणिनिक्षेपार्हाणि पदानि तावत् सुहभूत्वाऽऽचार्यः संपिण्ड्य कथयति आयार अंग सुपखंध वंभ चरणे तहेव सस्थे य । परिणाए संणाए निक्खेयो तह दिसाणं च ॥२॥ आचारअङ्गश्रुतस्कन्धब्रह्मचरणशस्त्रपरिज्ञासंज्ञादिशामित्येतेषां निक्षेपः कर्तव्य इति । तत्राचारब्रह्मचरणशस्त्रपरिज्ञाशब्दा नामनिष्पन्ने निक्षेपे द्रष्टव्याः, अङ्गश्रुतस्कन्धशब्दा ओघनिष्पन्ने, संज्ञादिक्शब्दी सूत्रालापकनिष्पन्ने निक्षेपे द्रष्टव्याविति ॥२॥ एतेषां मध्ये कस्य कतिविधो निक्षेप इत्यत आहचरणदिसावजाणं निक्खेवो चउक्कओ य नायवो । चरणमि छविहो खलु सत्तविहो होइ उ दिसाणं ॥३॥ १ चान्द्रमतेन णिज उभयपदभावात् । wataneltmanam सूत्रस्य उपोद्घात:, नियुक्ति गाथाएँ- आयार, अंग, इत्यादि शब्दस्य निक्षेपा: ~11-23 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ - ], उद्देशक [-], मूलं [-], निर्युक्तिः [३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा राजवृत्तिः (शी०) चरणदिग्वजनां चतुर्विधो निक्षेपः, चरणस्य षड्रविधः, दिक्शब्दस्य सप्तविधो निक्षेपः, अत्र च क्षेत्रकालादिकं यथा| सम्भवमायोज्यम् ॥ ३ ॥ नामादिचतुष्टयं सर्वव्यापीति दर्शयितुमाह जत्थ य जं जाणिज्जा निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं । जत्थविय न जाणिजा चक्क निक्खिवे तत्थ ॥ ४ ॥ 'यत्र' चरणदिक्शब्दादी यं निक्षेपं क्षेत्रकालादिकं जानीयातं तत्र निरवशेषं निक्षिपेद्, यत्र तु निरवशेषं न जानीयादा५ चाराङ्गादौ तत्रापि नामस्थापनाद्रव्यभावचतुष्कात्मकं निक्षेपं निक्षिपेदित्युपदेश इति गाथार्थः ॥ ४ ॥ प्रदेशान्तरप्रसिद्धस्यार्थस्य लाघवमिच्छता नियुक्तिकारण गाथाऽभ्यधायि 1) 8 || आधारे अंगंमि यदिट्ठो चक्कनिक्लेवो । नवरं पुण नाणत्तं भावायारंमि तं वोच्छं ॥ ५ ॥ क्षुल्लिकाचारकथायामाचारस्य पूर्वोद्दिष्टो निक्षेपः अङ्गस्य तु चतुरङ्गाध्ययन इति, यश्चात्र विशेषः सोऽभिधीयते -'भावाचारविषय' इति ॥ ५ ॥ यथाप्रतिज्ञातमाह तरसेगढ पवतण पढमंग गणी तहेव परिमाणे । समोयारे सारो य सतहि दारेहि नाणतं ॥ ६ ॥ 'तस्य' भावाचारस्य एकार्थाभिधायिनो वाच्याः, तथा केन प्रकारेण प्रवृत्तिः- प्रवर्त्तनमाचारस्याभूत् तच्च वाच्यं, तथा प्रथमाङ्गता च वाच्या, तथा गणी आचार्यस्तस्य कतिविधं स्थानमिदमिति च वाच्यं तथा 'परिमाणम्' इयत्ता वाच्या, तथा किं क समवतरतीत्येतच्च वाच्यं तथा सारश्च वाच्यः, इत्येभिर्द्धरिः पूर्वस्माद्भावाचारादस्य भेदो-नानात्वमिति पिण्डार्थः ॥ ६ ॥ अवयवार्थ तु निर्युक्तिकृदेवाभिधातुमाह Jan Estication Intemational सूत्रस्य उपोद्घातः, निर्युक्ति गाथाएँ- भावाचार: For Parts O ~ 12 ~# अध्ययनं १ उद्देशकः १ ॥ ४॥ wwwindinary Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H “आचार" अंगसूत्र- १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) - श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ - ], उद्देशक [ - ], मूलं [ - ], निर्युक्ति: [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः आयारो आचालो आगालो आगरो य आसासो । आयरिसो अंगंति य आइण्णाऽऽजाइ आमोक्खा ||७|| आचर्यते आसेन्यत इत्याचारः, स च नामादिचतुर्द्धा तत्र ज्ञशरीरभव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तो द्रव्याचारो ऽनया गाथयाऽनुसर्त्तव्यः - 'णामण धोयणवासण सिक्खावणसुकरणाविरोहीणि । दब्वाणि जाणि लोए दव्वायारं वियाणाहि ॥ १ ॥ भावाचारो द्विधा-लौकिको लोकोत्तरश्च तत्र लौकिकः पाषण्डिकादयः पञ्चरात्रादिकं यत् कुर्व्वन्ति स विज्ञेयो, लोकोत्तरस्तु पञ्चधा ज्ञानादिकः, तत्र ज्ञानाचारोऽष्टधा तद्यथा - 'काले विणए बहुमाणे बहाणे तहा अणिण्हवणे । वंजण अत्थतदुभए अडविहो णाणमायारो ॥ १ ॥ दर्शनाचारोऽप्यष्टधैव तद्यथा - 'निस्संकियनिकखिय निव्वितिगिच्छा अमूढदिडी य । उबवूहथिरीकरणे वच्छलपभावणे अट्ठ ॥ २ ॥' चारित्राचारो ऽप्यष्टधैव, - 'तिशेव य गुत्तीओ पंच समिइओ अड मिलियाओ । पवयणमाईड इमा तासु ठिओ चरणसंपन्नो ॥ ३ ॥ तपआचारो द्वादशधा तद्यथा - 'अणसणमूणोयरिया वित्तीसंखेवणं रसञ्चाओ । कायकिलेसो संलीणया य १ नामनभावनचासन शिक्षणसुकरणाविरोधीनि । द्रव्याणि यानि ठोके द्रव्याचारं विजानीहि ॥ १ ॥ २ कालो विनयः बहुमानः उपधानं तथा अनिवः । व्यजनमर्थस्तदुभयस्मिन् अष्टविधो शानाचारः ॥ १ ॥ निश्वतो निष्काङ्क्षितो निर्विचिकित्सोऽमूढदृष्टि । उपबृंदा स्थिरीकरणं वात्सल्यं प्रभावनाऽष्टौ ॥ २ ॥ तिस्र एव च गुप्तयः पक्ष समितयोऽष्ट मिलिताः । प्रवचनमातर इमास्ता स्थितवरणसंपन्नः ॥ ३ ॥ अनशनमवमौदर्य वृत्तिसंक्षेपणं रसत्यागः । कामकेशः संलीनता च बाह्यं तपो भवति ॥ ४ ॥ प्रायश्चित्तं विनयो वैयावृत्यं तथैव स्वाध्यायः । ध्वानमुत्सर्गेऽपि च अभ्यन्तरं तपो भवति ॥ ५ ॥ अनिहितवीर्यः पराक्रमते यो यथोक्तमायुक्तः । युनक्ति व यथास्थाम ज्ञातव्यः स वीर्याचारः ॥ ६ ॥ Jan Estication matinal सूत्रस्य उपोद्घातः, आचार शब्दस्य पर्यायाः, पंचाचार वर्णनम् For Parts Onl ~13~# www.indiary.org Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत दीप अनुक्रम [-] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ - ], उद्देशक [-], मूलं [-], निर्युक्तिः [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा- बज्झो तवो होइ ॥ ४ ॥ पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं तहेव सज्झाओ । झाणं उस्सग्गोविय अग्भितरओ तवो होइ राङ्गवृत्तिः ॥ ५ ॥ वीर्याचारस्त्वनेकधा - 'अणि गूहियबलविरओ परकमइ जो जहुत्तमाउसो । जुंजइ य जहाथामं नायब्यो वीरि(शी०) ३ यायारो ॥ ६ ॥ एष पश्चविध आचारः, एतत्प्रतिपादकश्चायमेव ग्रन्थविशेषो भावाचारः, एवं सर्वत्र योज्यम् । इदानी ॥ ५ ॥ माचालः, आचाल्यतेऽनेनातिनिविडं कर्मादीत्या चालः, सोऽपि चतुर्धा, व्यतिरिक्तो वायुः, भावाचालस्त्वयमेव ज्ञानादिः पञ्चधा । इदानीमागाल:, आगालनमागालः समप्रदेशावस्थानं, सोऽपि चतुर्धा, व्यतिरिक्त उदकादेर्निम्न प्रदेशावस्थानं, ४ भावागालो ज्ञानादिक एव तस्यात्मनि रागादिरहितेऽवस्थानमिति कृत्वा । इदानीमाकरः आगत्य तस्मिन् कुर्वन्तीत्याकरः, नामादिः, तत्र व्यतिरिक्तो रजतादिः, भावाकरोऽयमेव ज्ञानादिः, तत्प्रतिपादकश्चायमेव ग्रन्थो, निर्जरादिरलानामत्र लाभात् । इदानीमाश्वासः, आश्वसन्त्यस्मिन्नित्या श्वासो नामादिः, तत्र व्यतिरिक्तो यानपात्रद्वीपादिः, भावाश्वासो ज्ञानादिरेव । इदानीमादर्शः, आदृश्यते अस्मिन्नित्यादर्शो नामादिः, व्यतिरिक्तो दर्पणः, भावादर्श उक्त एव, यतोऽस्मि - नितिकर्त्तव्यता दृश्यते । इदानीमगम्, अज्यते व्यक्तीक्रियते अस्मिन्नित्यङ्गं, नामाद्येव तत्र व्यतिरिक्तं शिरोबाह्रादि, भावाङ्गमयमेवाचारः । इदानीमाचीर्णम्-आसेवितं तच्च नामादिषोढा, तत्र व्यतिरिक्तं द्रव्याचीर्णे सिंहादेस्तृणादिपरिहारेण पिशितभक्षणं, क्षेत्राचीर्ण वाल्हीकेषु सक्तवः कोङ्कणेषु पेया, कालाचीर्ण त्विदं- 'सरसो चंदणपंको अग्घइ सरसा य गंधकासाई पाडलिसिसमल्लिय पियाइँ काले निदाहंमि ॥ १ ॥ भावाचीर्णे तु ज्ञानादिपञ्चकं तत्प्रतिपादकश्चाचा१ सरचन्दनपति सरसा च गन्धकापायिकी पाटलशिरीयमह्निकाः प्रियाः काले निदाघे ॥ १ ॥ Jan Estication Inational सूत्रस्य उपोद्घातः, आचार शब्दस्य पर्याया:, For Parts Only ~14~# अध्ययनं १ उद्देशकः १ ॥५॥ www.indiary.org Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन -1, उद्देशक [-1, मूलं -], नियुक्ति: [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: रगन्धः । इदानीमाजातिः, आजायन्ते तस्यामित्याजातिः, साऽपि चतुर्दा, व्यतिरिक्ता मनुष्यादिजातिः, भावाजातिस्तु ज्ञानाद्याचारप्रसूतिरयमेव ग्रन्थ इति । इदानीमामोक्षः, आमुच्यन्तेऽस्मिन्नित्यामोक्षणं वाऽऽमोक्षो, नामादिः, तत्र व्यति-12 रिक्तो निगडादेः, भाषामोक्षः कर्माष्टकोद्वेष्टनमशेषमेतत्साधकश्चायमेवाचार इति । एते किश्चिद्विशेषादेकमेवार्थं विशिंपन्तः प्रवर्तन्त इत्येकाथिकाः, शक्रपुरन्दरादिवत्, एकार्थाभिधायिनां च छन्दश्चितिबन्धानुलोम्यादिपतिपत्त्यर्थमुद्घट्टनम् , उक्तं च-"बंधाणुलोमया खलु सत्थंमि य लाघवं असम्मोहो । संतगुणदीवणाविय एगद्वगुणा हवंतेए ॥१॥" ॥७॥ इदानीं प्रवर्त्तनाद्वारं, कदा पुनर्भगवताऽऽचारः प्रणीत इत्यत आह सब्बेसिं आयारो तित्थस्स पवत्तणे पढमयाए । सेसाई अंगाई एकारस आणुपुच्चीए ॥८॥ सर्वेषां तीर्थडकराणां तीर्थप्रवर्त्तनादावाचारार्थः प्रथमतयाऽभवद्भवति भविष्यति च, ततः शेषाङ्गार्थ इति, गणधरा अप्यनयैवानुपूर्त्या सूत्रतया प्रश्नन्तीति ।। ८॥ इदानी प्रथमत्वे हेतुमाह आयारो अंगाणं परमं अंग दुवालसण्हंपि । इत्थ य मोक्खोवाओ एस य सारो पवयणस्स ॥९॥ अयमाचारो द्वादशानामप्यङ्गानां प्रथममङ्गमित्यनूद्य कारणमाह-यतोऽत्र मोक्षोपाय:-चरणकरणं प्रतिपाद्यते, एष च प्रवचनस्य सार प्रधानमोक्षहेतुप्रतिपादनाद्, अत्र च स्थितस्य शेषाङ्गाध्ययनयोग्यत्वाद् अस्य प्रथमतयोपन्यास इति ॥९॥ इदानी गणिद्वारं, साधुवर्गो गुणगणो वा गणः सोऽस्यास्तीति गणी, आचारायत्तं च गणित्वमिति प्रदर्शयन्नाह १ बन्धानुलोमता खलु शास्त्रे च लाघवमसंमोहः । सतुणदीपनमपि च एकार्थगुणा भवन्त्येते ॥१॥ wwwanditimaryam सूत्रस्य उपोद्घात:, 'आचार' अंगसूत्रस्य प्रथमत्वम् ~15-2 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन -1, उद्देशक -1, मूलं -1, नियुक्ति: [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) अध्ययन उद्देशकः१ आयारम्मि अहीए जं नाओ होइ समणधम्मो उ । तम्हा आयारधरो भण्णइ पढम गणिवाणं ॥ १०॥ यस्मादाचाराध्ययनात् क्षान्त्यादिकश्चरणकरणात्मको वा श्रमणधर्मः परिज्ञातो भवति, तस्मात्सर्वेषां गणित्वकारणानामाचारधरत्वं प्रथमम् आद्यं प्रधानं वा गणिस्थानमिति ॥१०॥ इदानी परिमाणं-किं पुनरस्याध्ययनतः पदतश्च परिमाणमित्यत आह णवयंभचेरमइओ अट्ठारसपयसहस्सिओ वेओ । हवइ य सपंचचूलो बहुबहुतरओ पयग्गेणं ॥ ११॥ तत्राध्ययनतो नवब्रह्मचर्याभिधानाध्ययनात्मकोऽयं पदतोऽष्टादशपदसहस्रात्मको 'वेद' इति विदन्त्यस्माद्धेयोपादेयपदार्थानिति वेदाक्षायोपशमिकभाववयंयमाचार इति । सह पञ्चभिभूडाभिर्वर्त्तत इति सपञ्चचूडश्च भवति, उक्तशेषानु () ()() () () ( वादिनी चूडा, तत्र प्रथमा "पिंडेसण सेजिरियाभासज्जाया य वत्थपाएसा उग्गहपडिमत्ति' सप्ताध्ययनात्मिका, द्वितीया |सत्तसत्तिक्कया, तृतीया भावना, चतुर्थी विमुक्तिः, पञ्चमी निशीथाध्ययनं, 'बहुबहुरओ पदग्गेणं ति तत्र चतुश्चूलिकात्मकद्वितीय श्रुतस्कन्धप्रक्षेपाबहुः, निशीथाख्यपञ्चमचूलिकाप्रक्षेपाबहुतरोऽनन्तगमप-यात्मकतया बहुतमश्च, पदाण-पदपरिमाणेन भवतीति॥११॥ इदानीमुपक्रमान्तर्गतं समवतारद्वारं, तत्रैताथूडा नवसु ब्रह्मचर्याध्ययनेष्ववतरन्तीति | दर्शयितुमाह SAGAR ॥६ ॥ *पिडेसणसिजिरिया भासा वासणा य पाएसा इति प्र. infundstisarma सूत्रस्य उपोद्घातः, आचार सूत्रस्य अध्ययनानि एवं पद प्रमाणम् ~16-2 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन -1, उद्देशक -, मूलं -1, नियुक्ति: [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: आयारग्गाणत्यो बंभचेरेसु सो समोयरइ । सोऽवि य सत्यपरिणाएँ पिंडिअत्यो समोयरइ ॥१२॥ सत्थपरिणाअत्यो छस्सुचि काएसु सो समोयरइ। छज्जीवणियाअत्यो पंचमुवि वएसु ओयरद ॥१३॥ पंच य महब्बयाई समोयरंते य सव्वव्वेसु । सब्वेसि पज्जवाणं अणंतभागम्मि ओयरइ ॥१४॥ उत्तानार्थाः, नवरम् 'आचारामाणि'चूलिकाः द्रव्याणि-धर्मास्तिकायादीनि पर्याया-अगुरुलध्वादयः तेषामनन्तभागे व्रतानामवतार इति ॥१२-१३-१४ ॥ कथं पुनर्महाव्रतानां सर्वद्रव्येष्ववतार इति?, तदाह छज्जीवणिया पढमे बीए चरिमेय सव्वव्वाई । सेसा महव्वया खलु तदेकदेसेण व्वाणं ॥१५॥ 'छज्जीवणिया इत्यादिस्सष्टा, कथं पुनर्महाव्रतानां सर्वद्रव्येष्ववतारो न सर्वपर्यायेष्विति उच्यते, येनाभिप्रायेण चोदितवांस्तमाविष्कर्तुमाह--"णणु सब्बणभपएसाणंतगुणं पढमसंजमट्ठाणं । छविहपरिवुड्डीए छहाणासंखया सेढी॥१॥ | अन्ने के पज्जाया? जेणुवउत्ता चरित्तविसयम्मि । जे तत्तोऽणंतगुणा जेसिं तमणंतभागम्मि ॥२॥ अन्ने केवलगम्मत्ति ते | मई ते य के तदन्भहिया । एवंपि होज तुला णाणतगुणत्तणं जुत्तं ॥३॥चो०। सेढीसु णाणदसणपज्जाया तेण तप्पमाणेसा । इह पुण चरित्तमेत्तोवओगिणो तेण ते थोवा ॥ ४॥ अयमासामर्थों लेशतः-नन्वित्यसूयायां, संयमस्थानान्यसंख्यातानि तावद्भवन्ति, तेषां यजघन्यं तदविभागपलिच्छेदेन बुद्ध्या खण्ड्यमानं पर्यायैरनन्ताविभागपलिच्छेदात्मक | भवति, तच्च पर्यायसंख्यया निर्दिष्टं सर्वाकाशप्रदेशसंख्याया अनन्तगुणं, सर्वनभःप्रदेशवर्गीकृतप्रमाणमित्यर्थः, ततो द्विती पद्जीवनिकायः प्रथमे द्वितीये परमे च सर्वव्याणि । शेषाणि महानतानि खलु तदेकदेशेन व्याणाम् । .२ antonditimarmarg सूत्रस्य उपोद्घात:, महाव्रतानाम् सर्वद्रव्येषु अवतारः ~17-2 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन -1, उद्देशक -, मूलं -1, नियुक्ति: [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: अध्ययन उद्देशकः श्रीआचा- यादिस्थानरसंख्यातगच्छगतैरनन्तभागादिकया वृद्ध्या षट्स्थानकानामसंख्येयस्थानगता श्रेणिर्भवति, एवं चैकमपि स्थान रावृत्तिः सर्वपर्यायान्वितं न शक्यते परिच्छेत्तुं, किं पुनः सर्वाण्यपीत्यतः केऽन्ये पर्याया? येषामनन्तभागे व्रतानि वर्तेरनिति । (शी०) हास्यान्मतिः, अन्ये केवलगम्या इति, इदमुक्तं भवति-केवलगम्याप्रज्ञापनीयपोयाणामपि तत्र प्रक्षेपाद्वहुत्वम्, एवमपि ॥७॥ ज्ञानज्ञेययोस्तुल्यत्वाचल्या एव नानन्तगुणा इति । अत्रोचार्य आह-याऽसौ संयमस्थानश्रेणिनिरूपिता सा सर्वा चारिपर्यायैानदर्शनपर्यायसहितैः परिपूर्णा तत्प्रमाणा-सर्वाकाशप्रदेशानन्तगुणा, इह पुनश्चारित्रमात्रोपयोगित्वात्पर्यायानन्तभागवृत्तित्वमित्यदोषः । इदानीं सारदारं, कः कस्य सार इत्याह___ अंगाणं किं सारो? आयारो. तस्स हवह किं सारो? अणुओगत्थो सारो तस्सवि य परूवणा सारो॥१६॥ स्पष्टा, केवलमनुयोगार्थो-व्याख्यानभूतोऽर्थस्तस्य प्ररूपणा-यथास्वं विनियोग इति । अन्यच्च सारो परूवणाए चरणं तस्सवि य होइ निब्वाणं । निव्वाणस्स उ सारो अव्वाचाहं जिणा बिति ॥१७॥ स्पष्टव । इदानीं श्रुतस्कन्धपदयोर्नामादिनिक्षेपादिकं पूर्ववद्विधेयं, भावेन चेहाधिकारः, भावश्रुतस्कन्धश्च ब्रह्मचर्यादात्मक इत्यतो ब्रह्मचरणशब्दौ निक्षेप्तव्यावित्याह बंभम्मी य चउकं ठवणाए होइ भणुप्पत्ती। सत्तण्हं वण्णाणं नवण्ह वण्णंतराणं च ॥१८॥ तत्र ब्रह्म नामादिचतुझे, तत्र नामब्रह्म ब्रह्मेत्यभिधानम् , असद्भावस्थापना अक्षादौ सद्भावस्थापना प्रतिविशिष्टय१ आचार्या आहुः प्र. ॥ ७ ॥ wwwandltimaryam सूत्रस्य उपोद्घात:, सार द्वार ~18-23 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-1, उद्देशक -1, मूलं -1, नियुक्ति: [१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: KARAC दीप अनुक्रम लाज्ञोपवीतायाकृतिमृल्लेप्यादी द्रव्ये, अथवा स्थापनायां व्याख्यायमानायां ब्राह्मणोसत्तिर्वक्तव्या, तत्प्रसङ्गेन च सप्तानां वर्णानां नवानां च वर्णान्तराणामुत्पत्तिणनीयेति । यथाप्रतिज्ञातमाह ___एका मणुस्सजाई रजुप्पत्तीइ दो कया उसमे। तिण्णेव सिप्पणिए सावगधम्मम्मि चत्तारि ॥१९॥ ___ यावन्नाभेयो भगवान्नाद्यापि राजलक्ष्मीमध्यास्ते, तावदेकैव मनुष्यजातिः, तस्यैव राज्योत्सत्ती भगवन्तमेवाश्रित्य ये स्थितास्ते क्षत्रियाः, शेषाश्च शोचनाद्रोदनाच्च शुदाः, पुनरयुत्पत्तावयस्कारादिशिल्पवाणिज्यवृत्त्या वेशनाद्वैश्या:, भगवतो ज्ञानोत्पत्ती भरतकाकणीलाञ्छनाच्छ्रावका एव ब्राह्मणा जज्ञिरे, एते शुद्धास्त्रयश्चान्ये गाथान्तरितगाथया प्रदर्श-IN विष्यन्ते ॥ साम्प्रतं वर्णवर्णान्तरनिष्पन्नं संख्यानमाह संजोगे सोलसगं सत्त य वण्णा उ नव य अंतरिणो। एए दोवि विगप्पा ठवणा भस्स णायव्वा ॥२०॥ संयोगेन पोडश वर्णाः समुत्पन्नाः, तत्र सप्त वर्णा नव तु वर्णान्तराणि, एतच्च वर्णवर्णान्तरविकल्पद्वयं स्थापनाब्रह्मेति ज्ञातव्यम् ॥ साम्प्रतं पूर्वसूचितं वर्णत्रयमाह-यदि वा प्रागुद्दिष्टान् सप्त वर्णानाह___पगई चउक्कगाणंतरे य ते हुंति सत्त वण्णा उ । आणंतरेसु चरमो वपणो खलु होइ णायच्चो ॥२१॥ १जे राय अस्सिता ते सत्तिआ जाया, अणस्सिया गिहवणी जावा, जया अग्गी उप्पणो तया पागभावस्सिता सिप्पिया पाणियगा जाया, तेहि तेहिं सिष्यवाणिज्जेहि विस्ति मिसंगीति वदरसा उप्पण्णा । महारए पन्चइए भरहे अभिसित्ते सावधम्मे उप्पाने बंभणा जाया, णिरिसता संभणा जावा, माहणत्ति उकस्सगभाचा धम्मपिणा जं च किंचिति हर्णतं पिच्छति तं निवारैति मा हण भो मा इग, एवं ते जण सुकम्मानिन्वत्तितसण्णा बंभणा जाया । जे पुण मणस्सिता| अतिप्पिणो असावना ते वयं खला इतिकाउं तेच तेगु पओवणेसु हिंसाचोरियादियासु दुभमाणा सोगदोदणसीला मुद्दा संनुत्ता (इति चूर्णि:). % EX सूत्रस्य उपोद्घात:, मनुष्यजाती/वर्ण एवं वर्णान्तरम् ~19-23 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन -1, उद्देशक -, मूलं -1, नियुक्ति: [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचा-दा प्रकृतयश्चतम्रा-ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राच्या आसामेव चतसृणामनन्तरयोगेन प्रत्येक वर्णत्रयोत्पत्तिः, तयथा-द्विजेन रावृत्तिःक्षत्रिययोपितो जातः प्रधानक्षत्रियः संकरक्षत्रियो वा, एवं क्षत्रियेण वैश्ययोषितो वैश्येन शुद्याः प्रधानसंकरभेदौ वक्त-15 (शी०) व्यावित्येवं सप्त वर्णा भवन्ति, अनन्तरेषु भवा आनन्तरास्तेषु योगेषु चरमवर्णव्यपदेशो भवति-ब्राह्मणेन क्षत्रियायाः| उद्देशकः१ क्षत्रियो भवतीत्यादि, स च स्वस्थाने प्रधानो भवतीतिभावः ॥ इदानीं वर्णान्तराणां नवानां नामान्याह अंबदग्गनिसाया य अजोगवं मागहा य सूया य । खत्ता(य) विदेहाविय चंडाला नवमगा हुंति ॥ २२॥ अम्बष्ठ उग्रः निषादः अयोगवं मागधः सूतः क्षत्ता विदेहः चाण्डालश्चेति ॥ कथमेते भवन्तीत्याहएगंतरिए इणमो अंबडो चेव होइ उग्गो य । विइयंतरिम निसाओ परासरं तं च पुण वेगे ॥ २३ ॥ पडिलोमे सुधाई अजोगवं मागहो य सूओ अ । एगंतरिए खत्ता चेदेहा चेव नायच्या ॥ २४ ॥ बितियंतरे नियमा चण्डालो सोऽवि होइ णायव्यो । अणुलोमे पडिलोमे एवं एए भवे भेया ॥२५॥ आसामर्थो यन्त्रकादवसेयः, तच्चेदम्ब्रह्मपुरुषः क्षत्रियः पुरुषः मानणः पुरुषः | शहः पुरुषः । श्यपुरुषः क्षत्रियः पुरुषः| शरः पुरुषः । पश्यपुरुषः | पापुरुषः वैश्या खी चीनी | पाहीली | वैश्या स्त्री क्षत्रिया स्त्री ब्रह्मनी क्षत्रियासी । ब्राह्मश्री माझवी अम्बः । उपः निषादः | अयोगवम् मागमः सूतः पारासरो वा एतानि नव वर्णान्तराणि, इदानीं वर्णान्तराणां संयोगोत्पत्तिमाह पाण्यासः wwwandltimaryam सूत्रस्य उपोद्घातः, मनुष्यजाती/वर्ण एवं वर्णान्तरम् ~20~# Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत दीप अनुक्रम [-] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ - ], उद्देशक [-], मूलं [-], निर्युक्तिः [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः eri खाए सोबागो वेणवो विदेहेणं । अंबट्टीए सुदीय बुकसो जो निसाएणं ॥ २६ ॥ सूपण निसाईए कुकरओ सोवि होइ णायच्वो । एसो बीओ भेओ चउब्विहो होइ णायब्बो ॥। २७ ॥ अनयोरप्यर्थी यन्त्रकादवसेयः, तच्चेदम् । Jan Estication Intl उग्रपुरुषः क्षत्ता स्त्री विदेहः पुरुषः क्षत्ता स्त्री वैणवः निषादः पुरुषः अम्बष्ठी स्त्री शूद्री स्त्री वा बुक्कसः श्वपाकः गतं स्थापनाब्रा, इदानीं द्रव्यत्रह्मप्रतिपादनाय आहदवं सरीरभविओ अन्नाणी वस्थिसंजमो चेव । भावे उ वत्थिसंजम णायव्यो संजमो चैव ।। २८ ।। ज्ञशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तं शाक्यपरिब्राजकादीनामज्ञानानुगतचेतसां वस्तिनिरोधमात्रं विधवाप्रोषितभर्तृकादीनां च कुलव्यवस्थार्थं कारितानुमतियुक्तं द्रव्यब्रह्म, भावब्रह्म तु साधूनां वस्तिसंयमः, अष्टादशभेदरूपोऽप्ययं संयम एव, सप्तदशविधसंयमाभिन्नरूपत्वादस्येति, अष्टादश भेदास्त्वमी - 'दिव्यात्कामरतिसुखात् त्रिविधं त्रिविधेन विरतिरिति नवकम् । औदारिकादपि तथा तद्ब्रह्माष्टादशविकल्पम् ॥ १ ॥ चरणनिक्षेपार्थमाह चरणमि होइ छकं गइमाहारो गुणो व चरणं च । खित्तंमि जंमि खित्ते काले कालो जहिं जाओ (जो उ) ॥२९॥ १] तच प्रथमच कोकादवगन्तव्यन् त्र. सूत्रस्य उपोद्घातः, मनुष्यजाती/वर्ण एवं वर्णान्तरम्, द्रव्यब्रह्म For Pantry at Use Only शूद्रः पुरुषः निषादखी कुकुरकः ~21~# Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक -], मूलं -1, नियुक्ति: [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत HEIGE [-] श्रीआचा-G चरणं नामादिषोढा, व्यतिरिक्तं द्रव्यचरणं विधा भवति-गतिभक्षणगुणभेदात्, तत्र गतिचरणं गमनमेव, आहारच-15अध्ययन राङ्गवृत्तिःरणं मोदकादेः, गुणचरणं द्विधा-लौकिकं लोकोत्तरं च, लौकिक यत् द्रव्याथै हस्तिशिक्षादिक वैद्यकादिकं वा शिक्षन्ते, (शी०) लोकोत्तरं साधूनामनुपयुक्तचरणमुदायिनृपमारकादेर्वा, क्षेत्रचरणं यस्मिन् क्षेत्रे गत्याहारादि चर्यते व्याख्यायते वा उदशकार दशब्दसामान्यान्तर्भावाद्वा शालिक्षेत्रादिचरणमिति, कालेऽप्येवमेव ॥ भावचरणमाह॥९ ॥ भावे गइमाहारो गुणो गुणवओ पसत्यमपसस्था । गुणचरणे पसत्थेण बंभचेरा नव हवंति ॥ ३०॥ भावचरणमपि गत्याहारगुणभेदात् त्रिधा, तत्र गतिचरणं साधोरुपयुक्तस्य युगमात्रदत्तदृष्टेगच्छतः, भक्षणचरणमपि शुद्ध पिण्डमुपभुजानस्य, गुणचरणमप्रशस्तं मिथ्यादृष्टीनां सम्यग्दृष्टीनामपि सनिदानं, प्रशस्तं तेषामेव कोंद्वेष्टनार्थे | मूलोत्तरगुणकलापविषयम् , इह चानेनवाधिकारो, यतो नवाप्यध्ययनानि मूलोत्तरगुणस्थापकानि निजेरार्थमनुशील्यन्ते ।। एतेषां चान्वार्थाभिधानानि दर्शयितुमाहसत्थपरिण्णा १ लोगविजओरय सीओसणिज्न ३ सम्मत्तं तह लोगसारनामंधुयं ६ तह महापरिणाय ३१ अट्ठमए य विमोक्खो ८ उवहाणसुयं ९ च नवमर्ग भणियं । इचेसो आयारो आयारग्गाणि सेसाणि ॥ ३२॥ दा सष्टे, केवलमित्येष नवाध्ययनरूप आचारो, द्वितीयश्रुतस्कन्धाध्ययनानि तु शेषाणि-आचारामाणीति ॥ साम्प्रतमुप- ॥९॥ क्रमान्तर्गतोऽर्थाधिकारी द्वेधा-अध्ययनार्थाधिकार उद्देशार्थाधिकारश्च, तत्राद्यमाह CASSACCES अनुक्रम सूत्रस्य उपोद्घात:, चरण-निक्षेपाः, अध्ययन-नामानि ~22-23 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आचार” - अंगसूत्र-१ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [-], मूलं [–], निर्युक्तिः [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः जिअसंजमो १ अ लोगो जह बज्झइ जह य तं पजहियवं २ । सुहदुक्खतितिक्खाविय ३सम्मत्तं४ लोग सारो ५८ ३३ निस्संगया ६ य छट्ठे मोहसमुत्था परीसहुवसग्गा ७ । निजाणं ८ अट्ठमए नवमे य जिणेण एवं ति ९ ॥ ३४ ॥ तत्र शस्त्रपरिज्ञायामयमर्थाधिकारो— 'जियसंजमो'त्ति जीवेषु संयमो जीवसंयमः तेषु हिंसादिपरिहारः, स च जीवास्तित्वपरिज्ञाने सति भवत्यतो जीवास्तित्वविरतिप्रतिपादनमत्रार्थाधिकारः । लोकविजये तु 'लोगो जह बज्झइ जह य तं पजहियन्वंति, विजितभावलोकेन संयमस्थितेन लोको यथा बध्यते अष्टविधेन कर्मणा यथा च तत्प्रहातव्यं तथा | ज्ञातव्यमित्ययमर्थाधिकारः । तृतीये स्वयम् संयमस्थितेन जितकषायेणानुकूल प्रतिकूलोपसर्गनिपाते सुखदुःखतितिक्षा विधेयेति । चतुर्थे स्वयम् प्राक्तनाध्ययनार्थसंपन्नेन तापसादिकष्टतपः सेविनामष्टगुणैश्वर्यमुद्वीक्ष्यापि दृढसम्यक्त्वेन भवि|तव्यमिति । पञ्चमे त्वयम् - चतुरध्ययनार्थस्थितेनासारपरित्यागेन लोकसाररत्नत्रयोद्युक्तेन भाव्यमिति । षष्ठे स्वयम्-प्रा| गुक्तगुणयुक्तेन निसङ्गतायुक्तेनाप्रतिबद्धेन भवितव्यम् । सप्तमे त्वयम् - संयमादिगुणयुक्तस्य कदाचिन्मोहसमुत्थाः परीषहा उपसर्गा वा प्रादुर्भवेयुस्ते सम्यक् सोढव्याः । अष्टमे त्वयम्-निर्याणम्-अन्तक्रिया सा सर्वगुणयुक्तेन सम्यग्विधेयेति । नवमे त्वयम्-अष्टाध्ययनप्रतिपादितोऽर्थः सम्यगेवं वर्द्धमानस्वामिना विहित इति, तत्मदर्शनं च शेषसाधूनामुत्साहार्थं, उदइओ भावो होगा कसाया जानियव्या (इति चूर्णिः). Esticatonttumational अध्ययन- १ 'शस्त्रपरिज्ञा" आरब्धं अध्ययन-अर्थाधिकार एवं उद्देशक अर्थाधिकार: For Pantry Use Onl ~23~# Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम - श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ १० ॥ “आचार” - अंगसूत्र-१ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [-], मूलं [–], निर्युक्तिः [३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः १ ॥ तदुक्तम्- "तित्थेयरो चरणाणी सुरमहिओ सिज्झियव्वयधुवंमि । अणिगूहियबलविरओ सन्वत्थामेसु उज्जमइ किं पुण अवसेसेहिं दुक्खक्खयकारणा सुविहिएहिं । होंति न उज्जमियन्त्रं सपञ्चवायंमि माणुस्से ॥ २ ॥ ॥ साम्प्रतमुद्देशार्थाधिकारः शस्त्रपरिज्ञाया अयम् * जीवो छक्कायपरुवणा य तेसिं बहे य बंधोति । विरईए अहिगारो सत्थपरिण्णाएँ णायव्वी ॥ ३५ ॥ तत्र प्रथमोदेश के सामान्येन जीवास्तित्वं प्रतिपाद्यं, शेषेषु तु षट्सु विशेषेण पृथिवीकायाद्यस्तित्वमिति, सर्वेषां चावसाने बन्धविरतिप्रतिपादन मिति, एतच्चान्ते उपात्तत्वात्प्रत्येक मुद्देशार्थेषु योजनीयं प्रथमोदेशके जीवस्तद्वधे बन्धो विरतिश्चेत्येवमिति ॥ तत्र शस्त्रपरिज्ञेति द्विपदं नाम, शस्त्रस्य निक्षेपमाह दृवं सत्धग्गिविसन्नेबिलखारलोणमाईयं । भावो य दुप्पउत्तो वाया काओ अविरई या ॥ ३६ ॥ शस्त्रस्य निक्षेपो नामादिश्चतुर्द्धा व्यतिरिक्तं द्रव्यशस्त्रं खड्गाद्यग्निविषस्नेहाम्ल क्षारलवणादिकं, भावशस्त्रं दुष्प्रयुक्तो भावः - अन्तःकरणं तथा वाक्कायावविरतिश्चेति, जीवोपघातकारित्वादितिभावः ॥ परिज्ञापि चतुर्जेत्याह दव्वं जाणण पचक्खाणे दविए सरीर उवगरणे। भावपरिण्णा जाणण पचक्खाणं च भावेणं ॥ ३७ ॥ १ तीर्थंकरचतुशांनी सुस्महितः भुवं रोधितव्ये अनितिमतवीर्यः सर्वस्थानोद्यच्छति ॥ १ ॥ किं पुनरवशेषदुःखक्षयकारणात्सुविहितैः भवति नोद्यन्तव्यं ४ ॥ १० ॥ सत्यपाये मानुष्ये ॥ २ ॥ Jan Estication Untamal For Pantry Use Only अध्ययन-अर्थाधिकार एवं उद्देशक अर्थाधिकार:, शस्त्र-शब्दस्य निक्षेपा: अध्ययनं १ उद्देशकः १ ~24~# Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आचार” - अंगसूत्र-१ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [-], मूलं [–], निर्युक्तिः [३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः तत्र द्रव्यपरिज्ञा द्विधा ज्ञपरिज्ञा प्रत्याख्यानपरिज्ञा च ज्ञपरिज्ञा आगमनौआगमभेदाद्विधा, आगमतो ज्ञाताऽनुपयुक्तः, नोआगमतस्त्रिधा, तत्र व्यतिरिक्का द्रव्यपरिज्ञा यो यत् द्रव्यं जानीते सचित्तादि सा परिच्छेद्यद्रव्यप्राधान्यात् द्रव्यपरिज्ञेति, प्रत्याख्यानपरिज्ञाऽप्येवमेव तत्र व्यतिरिक्तद्रव्यप्रत्याख्यानपरिज्ञा देहोपकरणपरिज्ञानम्, उपकरणं च रजोहरणादि, साधकतमत्वात् भावपरिज्ञापि द्विधैव-ज्ञपरिज्ञा प्रत्याख्यानपरिज्ञा च तत्रागमतो ज्ञातोपयुक्तश्च, नोआगमतस्त्विदमेवाध्ययनं ज्ञानक्रियारूपं, नोशब्दस्य मिश्रवाचित्वात् प्रत्याख्यानभावपरिज्ञापि तथैव, आगमतः पूर्ववत्, नोआगमतस्तु प्राणातिपातनिवृत्तिरूपा मनोबा काय कृतकारितानुमतिभेदात्मिका ज्ञेयेति । गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतमाचारादिप्रदानस्य सुखप्रतिपत्तये दृष्टान्तोपन्यासेन विधिराख्यायते यथा कश्चिद्राजा अभिनवनगरनिवेशेच्छया भूखण्डानि विभज्य समतया प्रकृतिभ्यो दत्तवान् तथा कचवरापनयने शल्योद्धारे भूस्थिरीकरणे पक्केष्टकापीउप्रासादरचने रत्नाद्युपादाने चोपदेशं दत्तवान्, ताश्च प्रकृतयस्तदुपदेशानुसारेण तथैव कृत्वा यथाऽभिप्रेतान् भोगान् बुभुजिरे, अयमत्रार्थीपनयः - राजसदृशेन सूरिणा प्रकृतिसदृशस्य शिष्यगणस्य भूखण्डसदृशः संयमो मिथ्यात्वकचबराद्यपनीय सर्वोपाधिशुद्धस्थारोपणीयः तं च सामायिकसंयमं स्थिरीकृत्य पक्केष्टिकापीठतुल्यानि व्रतान्यारोपणीयानि, ततः प्रासादकल्पोऽयमाचारो विधेयः, तत्रस्थश्वाशेषशास्त्रादिरलान्यादत्ते, निर्वाणभाक् भवति । साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणलक्षणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं लक्षणं विदम्- 'अप्पम्गंथमहत्थं बत्तीसादोसविरहियं जं च । लक्खणजुत्तं अल्पग्रन्थं महार्थं द्वात्रिंशदोषविरहितं यत्र लक्षणयुक्तं सूत्रमभिध गुणैरुपेतम् ॥ १ ॥ Jain Estication Intimational For Pantry Use Onl प्रथम अध्ययने प्रथम उद्देशक जीव अस्तित्व' आरब्धः अध्ययन-अर्थाधिकार एवं उद्देशक अर्थाधिकारः, परिज्ञा शब्दस्य भेदा: ~25~# Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [१], नियुक्ति: [३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) अध्ययन | CROCEROSAGAR ॥ सुयं मे आउस ! तेणं भगवया एवमक्खायं-इहमेगेसि णो सपणा भवइ (सू०१) सुत्तं अहहि य गुणेहिं उबवेयं ॥१॥ इत्यादि, तच्चेदं सूत्रम्-'सुर्य मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं-इहमेगेसि णो सण्णा भवति' अस्य संहितादिक्रमेण व्याख्या-संहितोचारितैव, पदच्छेदस्त्वयम्-श्रुतं मया आयुष्मन् ! तेन भगवता एवमाख्यातम्-इह एकेषां नो संज्ञा भवति । एक तिङन्तं शेषाणि सुवन्तानि, गतः सपदच्छेदः सूत्रानुगमः, साम्पतं सूत्रपदार्थः समुन्नीयते-भगवान् सुधर्मस्वामी जंबूनाम्न इदमाचष्टे यथा-'श्रुतम्' आकर्णितमवगतमवधारितमितियावद् । अनेन स्वमनीषिकाब्युदासो, 'मयेति साक्षान्न पुनः पारम्पर्येण 'आयुष्मन्निति जात्यादिगुणसंभवेऽपि दीपोंयुष्कत्वगुणोपादानं दीर्घायुरविच्छेदेन शिष्योपदेशप्रदायको यथा स्यात्, इहाचारस्य व्याचिख्यासितत्वात्तदर्थस्य च तीर्थकृत्प्रणीतत्वादिति सामर्थ्यप्रापितं तेनेति तीर्थकरमाह, यदि वा-आमृशता भगवत्पादारविन्दम् , अनेन विनय आवेदितो भवति, आवसता वा तदन्तिक इत्यनेन गुरुकुलवासः कर्तव्य इत्यावेदितं भवति, एतथार्थद्वयं 'आमुसंतेण आवसंतेणेत्येतत्याठान्तरमाश्रित्यावगन्तव्यमिति, 'भगवते'ति भगः-ऐश्वर्यादिषडर्धात्मकः सोऽस्यास्तीति भगवान् तेन, एवं'मिति वक्ष्यमाणविधिना 'आख्यात'मित्यनेन कृतकत्वब्युदासेनार्थरूपतया आगमस्य नित्यत्वमाह, 'इहे'ति क्षेत्रे प्रवचने आचारे। शस्त्रपरिज्ञायां वा आख्यातमितिसंबन्धो, यदि वा-'इहेति संसारे 'एकेषां' ज्ञानावरणीयावृतानां प्राणिनां 'नो संज्ञा १ चूर्वभिप्रायेण द्वितीयसूत्रावतरणमेतत. २ पत्तेयं पत्तेयं (गणहरा) सित्तेहिं पजुवासिन्जमाणा एवं भगति-'सुर्य मे० (इति चूर्णिः). डर ॥११॥ wwwandltimaryam सूत्राधिकारे प्रथमं सूत्रम् ~26~# Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [१], नियुक्ति: [३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: भवति' संज्ञान संज्ञा स्मृतिरवबोध इत्यनान्तरं, सा नो जायत इत्यर्थः, उक्तः पदार्थः, पदविग्रहस्य तु सामासिकपदा-15) भावादप्रकटनम् । इदानीं चालना-ननु चाकारादिकप्रतिषेधकलघुशब्दसंभवे सति किमर्थ नोशब्देन प्रतिषेधः इति ?, अनट प्रत्यवस्था, सत्यमेवं, किंतु प्रेक्षापूर्वकारितया नोशब्दोपादानं, सा चेयम्-अन्येन प्रतिषेधेन सर्वनिषेधः स्याद्, यथा न घटोऽघट इति चोक्के सर्वात्मना घटनिषेधः, स च नेष्यते, यतः प्रज्ञापनायां दश संज्ञाः सर्वप्राणिनामभिहितास्तासां |सर्वासां प्रतिषेधः प्राप्नोतीतिकृत्वा, ताश्चेमाः-"कैइ णं भंते ! सण्णाओ पणत्ताओ?, गोयमा! दस सण्णाओ पण्णत्ताओ, तंजहा-आहारसण्णा भयसण्णा मेहुणसण्णा परिग्गहसण्णा कोहसण्णा माणसण्णा मायासण्णा लोभसण्णा ओहसण्णा लोगस ण"त्ति, आसां च प्रतिषेधे स्पष्टो दोषः, अतोनोशब्देन प्रतिषेधनमकारि, यतोऽयं सर्वनिषेधवाची देशनिषेधवाची च, तथा-18 हि-नोघट इत्युक्ते यथा घटाभावमात्र प्रतीयते, तथा प्रकरणादिप्रंसक्तस्य विधानं, स पुनर्विधीयमानः प्रतिषेध्यावयवो ग्रीवादिः प्रतिषेध्यादन्यो वा पटादिः प्रतीयत इति, तथा चोक्तम्-"प्रतिषेधयति समस्तं प्रसक्तमर्थ च जगति नोशब्दः। स पुनस्तदवयवो वा तस्मादर्थान्तरं वा स्याद् ॥१॥" इति, एवमिहापि न सर्वसंज्ञानिषेधः, अपितु विशिष्टसंज्ञानिषेधो, ययाऽऽत्मादिपदार्थस्वरूपं गत्यागत्यादिकं ज्ञायते तस्या निषेध इति ॥ साम्प्रतं नियुक्तिकृत्सूत्रावयवनिक्षेपार्थेमाह १ कति भदन्त ! संसाः प्राप्ताः ?, गौतम! दश संज्ञाः प्रशताः, तद्यथा-आहारसंज्ञा भवसंज्ञा मैथुनसंझा परिप्रहसंज्ञा कोवसंज्ञा मागसंझा मायारका लोभसंशा ओषसंज्ञा लोकसंज्ञा. २०के पटाभावमानं प्रतीयते अर्थप्रसकनिषेधेन चाप्रसक्तस्य प्र. AAAAAAAA सूत्राधिकारे प्रथमं सूत्रम्, संज्ञा शब्दस्य विविध भेदा: ~27~# Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [१.], नियुक्ति: [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: १टा * श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) . ॥१२॥ दव्वे सञ्चित्ताई भावेऽणुभवणजाणणा सण्णा। मति होइ जाणणा पुण अणुभवणा कम्मसंजुत्ता ॥३८॥ अध्ययनं १ संज्ञा नामादिभेदाचतुर्द्धा, नामस्थापने क्षुण्णे, ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता सचित्ताचित्तमिश्रभेदाभिधा, सचित्तेन ॥ हस्तादिद्रव्येण पानभोजनादिसंज्ञा अचित्तेन ध्वजादिना मिश्रेण प्रदीपादिना संज्ञान-संज्ञा अवगम इतिकृत्वा, भाव उद्देशकः १ |संज्ञा पुनधिा-अनुभवनसंज्ञा ज्ञानसंज्ञा च, तत्राल्पव्याख्येयत्वात्तावत् ज्ञानसंज्ञा दर्शयति-'मह होइ जाणणा पुणत्ति मननं मतिः-अवबोधः सा च मतिज्ञानादिः पञ्चधा, तत्र केवलसंज्ञा क्षायिकी शेषास्तु क्षायोपशमिक्या, अनुभवनसंज्ञा तु |स्वकृतकर्मोदयादिसमुत्था जन्तोर्जायते, सा च षोडशभेदेति दर्शयतिआहार भय परिग्गह मेहुण सुख दुक्ख मोह वितिगिच्छा। कोह माण माय लोहे सोगे लोगेय धम्मोहे ॥३९॥ आहाराभिलाष आहारसंज्ञा, सा च तैजसशरीरनामकर्मोदयादसातोदयाच्च भवति, भयसंज्ञा त्रासरूपा, परिग्रह|संज्ञा मूर्छारूपा, मैथुनसंज्ञा ख्यादिवेदोदयरूपा, एताश्च मोहनीयोदयात्, सुखदुःखसंज्ञे सातासातानुभवरूपे वेदनीयोदयजे, मोहसंज्ञा मिथ्यादर्शनरूपा मोहोदयात्, विचिकित्सासंज्ञा चित्तविलुतिरूपा मोहोदयात् ज्ञानावरणीयोदयाच, क्रोधसंज्ञा अप्रीतिरूपा, मानसंज्ञा गर्वरूपा, मायासंज्ञा वक्रतारूपा, लोभसंज्ञा गृद्धिरूपा, शोकसंज्ञा विप्रलापवैमनस्यरूपा, एता मोहोदयजाम, लोकसंज्ञा स्वच्छन्दघटितविकल्परूपा लौकिकाचरिता, यथा-न सन्त्यनपत्यस्य लोकाः, श्वानो यक्षाः, विना देवाः, काकाः पितामहाः, बहिणां पक्षवातेन गर्भ इत्येवमादिका ज्ञानावरणक्षयोपशमाम्मोहोदयाच्च भ- ॥१२॥ वति, धर्मसंज्ञा क्षमायासेवनरूपा मोहनीयक्षयोपशमाज्जायते, एताश्चाविशेषोपादानापश्चेन्द्रियाणां सम्यग्मिथ्यादृशां wataneltmanam सूत्राधिकारे प्रथमं सूत्रम्, 'संज्ञा' शब्दस्य विविध भेदा: ~28~# Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [२], नियुक्ति: [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ACCESS द्रष्टव्याः, ओघसंज्ञा तु अव्यक्तोपयोगरूपा वल्लिवितानारोहणादिलिङ्गा ज्ञानापरणीयाल्पक्षयोपशमसमुत्था द्रष्टव्येति । इह पुनर्ज्ञानसंज्ञयाऽधिकारो, यतः सूत्रे सैव निषिद्धा 'इह एकेषां नो संज्ञा ज्ञानम्-अवबोधो भवतीति ॥१॥ प्रतिषिद्धज्ञानविशेषारगमार्थमाह सूत्रम् तंजहा-पुरथिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, दाहिणाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, पञ्चत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, उत्तराओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, उड्डाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, अहोदिसाओ वा आगओ अहमंसि, अण्णयरीओ वा दिसाओ अणुदिसाओ वा आगओ अहमंसि, एवमेगेसिं णो णायं भवति (सू०२) "तंजहेत्यादि णो णायं भवतीति यावत्" तद्यथेति प्रतिज्ञातार्थोदाहरणं, 'पुरथिमाज'त्ति प्राकृतशैल्या मागधदेशीभाषानुवृत्त्या पूर्वस्या दिशोऽभिधायकात् पुरस्थिमशब्दासश्चम्यन्तात्तसा निर्देशः, वाशब्द उत्तरपक्षापेक्षया विकल्पार्थः, यथा लोके भोक्तव्यं का शयितन्वं वेति, एवं पूर्वस्या वा दक्षिणस्था वेति । दिशतीति दिक, अतिसृजति ब्यपदिशति द्रव्यं द्रव्यभागं वेति भावः ॥ तां नियुक्तिकृन्निक्षेप्नुमाह wwwandltimaryam ~29~# Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [२], नियुक्ति: [४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत उद्देशकः१ सत्राक श्रीआचा नाम ठवणा दविए खित्ते तावे य पण्णवग भावे। एस दिसानिक्खेवो सत्तविहो होइ णायब्बो ॥४०॥ राङ्गवृत्तिः नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रतापप्रज्ञापकभावरूपः सप्तधा दिग्निक्षेपो ज्ञातव्यः, तत्र सचित्तादेव्यस्य दिगित्यभिधानं नाम(शी०) || दिक, चित्रलिखितजम्बूद्वीपादेदि विभागस्थापनं स्थापनादिक् । द्रव्यदिग्निक्षेपार्थमाह॥१३॥ तेरसपएसियं खलु तावइएसुं भवे पएसेसुं। दवं ओगाई जहण्णयं तं दसदिसागं ॥४१॥ द्रव्यदिगू द्वेधा-आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो ज्ञाताऽनुपयुक्तो, नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता त्वियम्-त्रयोदशप्रदेशिक द्रव्यमाश्रित्य या प्रवृत्ता, खलुरवधारणे, त्रयोदशप्रदेशिकमेव दिक्, न पुनईशप्रदेशिकं यत् कैश्चिदुक्तमिति, प्रदेशा:-परमाणवस्तैर्निष्पादित कार्यद्रव्यं तावत्स्वेव क्षेत्रप्रदेशेष्ववगाढं जघन्यं द्रव्यमाश्रित्य दशदिविभागपरिकल्पनातो द्रव्यदिगियमिति । तत्स्थापना (२) । त्रिबाहुक नवप्रदेशिकमभिलिख्य चतसृषु विश्वेकैकगृहवृद्धिः कार्या ॥ क्षेत्रदिशमाह अट्ठ पएसो रुपगो तिरियं लोयस्स मज्झयारंमि । एस पभयो दिसाणं एसेव भवे अणुदिसाणं ॥४२॥ तिर्यग्लोकमध्ये रत्नप्रभापृथिव्या उपरि बहुमध्यदेशे मेर्वन्तौं सर्वक्षुल्लकातरौ तयोरुपरितनस्य चत्वारः प्रदेशा गोस्तनाकारसंस्थाना अधस्तनस्यापि चत्वारस्तथाभूता एवेत्येषोऽष्टाकाशप्रदेशात्मकश्चतुरस्रो रुचको दिशामनुदिशां च |प्रभव-उत्पत्तिस्थानमिति । स्थापना (३)। आसामभिधानाम्याह इंदग्गेई जम्मा य नेरुती वारुणी य वायव्वा । सोमा ईसाणावि य विमला य तमा य बोद्धव्या ॥ ४३ ॥ SCSSC दीप अनुक्रम ॥१३॥ wwwandltimaryam दिशा शब्दस्य सप्त निक्षेपा: ~30~# Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [२], नियुक्ति: [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: BI आसामायैन्द्री विजयद्वारानुसारेण शेषाः प्रदक्षिणतः सप्तावसेयाः, ऊर्ध्वं विमला तमा बोद्धच्या इति ॥ आसामेव स्वरूपनिरूपणायाह दुपएसाइ दुरुत्तर एगपएसा अणुत्तरा चेव । चउरो चउरो य दिसा चउराइ अणुत्तरा दुण्णि ॥४४॥ चतस्रो महादिशो द्विपदेशाद्या द्विद्विप्रदेशोत्तरवृद्धाः, विदिशश्चतस्र एकप्रदेशरचनात्मिकाः 'अनुत्तरा'वृद्धिरहिताः, जोधोदिगद्वयं त्वनुत्तरमेव चतुष्प्रदेशादिरचनात्मकम् । किश्च- अंतो साईआओ बाहिरपासे अपज्जवसिआओ। सव्वाणंतपएसा सव्वा य भवंति कडजुम्मा ॥ ४५ ॥ सर्वाऽप्यन्तः-मध्ये सादिका रुचकाद्या इतिकृत्वा बहिश्च अलोकाकाशाश्रयणादपर्यवसिताः, 'सर्वाश्च' दशाप्यनन्तप्रदेशात्मिका भवन्ति, 'सध्या य हवंति कडजुम्म'त्ति सर्वासां दिशां प्रत्येकं ये प्रदेशास्ते चतुष्ककेनापहियमाणाश्चतुष्का-1 वशेषा भवन्तीतिकृत्वा, तनदेशात्मिकाच दिश आगमसंज्ञया कडजुम्मत्तिशब्देनाभिधीयन्ते, तथा चागमः-"कई णं भंते । जुम्मा पण्णता ?, गोयमा! चत्वारि जुम्मा पण्णत्ता, तंजहा-कडजुम्मे तेउए दावरजुम्मे कलिओए। से केणटेणं भंते! |एवं बुच्चइ, गोयमा! जे णं रासी चउकगावहारेणं अवहीरमाणे अवहीरमाणे चउपज्जवसिए सिया, से गं कडजुम्मे, एवं एल तिपजवसिए तेउए, दुपज्जवसिए दावरजुम्मे, एगपजवसिए कलिओए"ति ।। पुनरप्यासा संस्थानमाह १ कति भदन्त ! युग्माः प्रज्ञताः १, गौतम । चत्वारो युग्माः प्रज्ञप्ताः, तबधा-कृतयुग्मः योजः द्वापर युग्मः कल्योजः । अथ केनार्थेन भदन्तवमुच्यते ., गौतम! योराशिचतुष्ककापहारेणापहियमाणोऽपहियमाणश्चतुष्पर्यन सितः स्यात् स कृतयुग्मः, एवं विपर्यवसितम्योचः, द्विषर्ववसितो द्वापर युग्मः, एकपर्यवसितः कल्योजः. wwwandltimaryam दिशा शब्दस्य सप्त निक्षेपा: ~31~# Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२] दीप अनुक्रम [२] श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ १४ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [२], निर्युक्तिः [४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सगद्धीसंठिआओ महादिसाओ हवंति चत्तारि । मुत्ताबली य चउरो दो चैव हवंति रूपगनिभा ॥ ४६ ॥ महादिशश्चतस्रोऽपि शकटोद्धिंसंस्थानाः, विदिशश्च मुक्तावलिनिभाः ऊर्द्धाधोदिग्द्वयं रुचकाकारमिति ॥ तापदि शमाह जस्स जओ आइचो उदेह सा तस्स होइ पुव्वदिसा। जस्तो अ अत्थमेइ उ अवर दिसा सा उ णायव्वा ॥ ४७ ॥ दाहिणपासंमि य दाहिणा दिसा उत्तरा उ वामेणं । एया चसारि दिसा तावखित्ते उ अक्खाया ॥ ४८ ॥ तापयतीति ताप:- आदित्यः, तदाश्रिता दिकू तापदिक् शेषं सुगमं, केवलं दक्षिणपार्श्वादिव्यपदेशः पूर्वाभिमुखस्येति द्रष्टव्यः ॥ तापदिगङ्गीकरणेनान्योऽपि व्यपदेशो भवतीति प्रसङ्गत आह--- जे मंदरस्स पुब्वेण मणुस्सा दाहिणेण अवरेण । जे आवि उत्तरेणं सव्वेसिं उत्तरो मेरू ॥ ४९ ॥ सव्वेसिं उत्तरेण मेरू लवणो य होइ दाहिणओ। पुत्र्वेणं उहेई अवरेणं अत्थमइ सुरो ॥ ५० ॥ ये 'मन्दरस्थ' मेरोः पूर्वेण मनुष्याः क्षेत्र दिगङ्गीकरणेन, रुचकापेक्षं पूर्वादिदिक्स्त्वं वेदितव्यं तेषामुत्तरो मेरुर्दक्षिणेन लवण इति तापदिगङ्गीकरणेन, शेषं स्पष्टम् ॥ प्रज्ञापकदिशमाह - जत्थ य जो पण्णवओ कस्सवि साहह दिसासु य णिमित्तं । जत्तोमुहो पठाई सा पुग्वा पच्छओ अवरा ॥ ५१ ॥ प्रज्ञापको यत्र क्वचित् स्थितः दिशां बलात्कस्यचिन्निमित्तं कथयति स यदभिमुखस्तिष्ठति सा पूर्वा, पृष्ठतश्चापरेति, निमित्तकथनं चोपलक्षणमन्योऽपि व्याख्याता ग्राह्य इति ॥ शेषदिसाधनार्थमाह Etication intimal दिशा शब्दस्य सप्त निक्षेपा: For Pantry Use Only ~32~# अध्ययनं १ उद्देशकः १ ॥ १४ ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [२], नियुक्ति: [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत दीप अनुक्रम दाहिणपासंमि उ दाहिणा दिसा उत्सरा उ वामेणं । एयासिमन्तरेणं अण्णा चत्तारि विदिसाओ ॥५२॥ एयासिं चेव अट्ठण्हमंतरा अह हुंति अण्णाओ। सोलस सरीरउस्सयपाहल्ला सम्वतिरिवदिसा ॥ ५३॥ हेडा पायतलाणं अहोदिसा सीसउवरिमा उड्डा । एया अट्ठारसवी पण्णवगदिसा मुणेयव्वा ॥ ५४॥ एवं पकप्पिआर्ण दसह अट्ठण्ह चेव य दिसाणं । नामाई वुच्छामी जहकर्म आणुपुच्चीए ॥५५॥ पुष्वा य पुब्वदक्खिण दक्षिण तह दक्षिणावरा चेव । अवरा य अवरउत्तर उत्तर पुष्युत्तरा चेव ॥५६॥ सामुस्थाणी कविला खेलिजा खलु तहेव अहिधम्मा । परियाधम्मा य तहा सावित्ती पण्णवित्तीय ॥१७॥ हेहा नेरइयाणं अहोदिसा उवरिमा उ देवाणं । एयाई नामाइं पण्णवगस्सा दिसाणं तु ॥ ५८॥ एताः सप्त गाथाः कण्ठ्या, नवरं द्वितीयगाथायां सर्वतिर्यग्दिशां चाहल्यं-पिण्डः शरीरोच्यप्रमाणमिति ॥ साम्यतमासां संस्थानमाह सोलस तिरिपदिसाओ सगदुद्धीसंठिया मुणेयब्वा। दो मल्लगमूलाओ उहे अ अहेवि प दिसाओ ॥५९॥ षोडशापि तिर्यगदिशः शकटोर्द्धिसंस्थाना बोद्धव्याः, प्रज्ञापकपदेशे सङ्कटा बहिर्विशालाः, नारकदेवाख्ये द्वे एव उद्धोंधोगामिन्यौ शरावाकारे भवतः, यतः शिरोमूले पादमूले च स्वल्पत्वान्मल्लकबुभ्राकारे गच्छन्त्यी च विशाले भवत इति ।। आसां सर्वासा तात्पर्य यन्त्रकादवसेयं, तच्चेदम् (४)॥ भावदिग्निरूपणार्थमाहमणुया तिरिया काया तहग्गवीया चउक्गा चउरो । देवा नेरइया चा अट्ठारस होति भावदिसा ॥ ६॥ wwwandltimaryam दिशा शब्दस्य सप्त निक्षेपा: ~33-23 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [२], नियुक्ति: [६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचा-18 मनुष्याश्चतुर्भेदास्तद्यथा-सम्मूर्च्छनजाः कर्मभूमिजा अकर्मभूमिजाः अन्तरद्वीपजाश्चेति, तथा तिर्यञ्चो द्वीन्द्रियास्त्री- अध्ययन राङ्गवृत्तिः (0(२) (२) (0 . (शी०) |न्द्रियाश्चतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाश्चेति चतुर्की, कायाः पृथिव्यप्तेजोवायवश्चत्वारः, तथाऽप्रमूलस्कन्धपर्वचीजाश्चत्वार एव, उद्देशक एते षोडश देवनारकप्रक्षेपादष्टादश, एभिर्भावैर्भवनाजीवो व्यपदिश्यत इति भावदिगष्टादशभेदेति ॥ अत्र च सामान्यदिगग्रहणेऽपि यस्यां दिशि जीवानामविगानेन गत्यागती स्पष्टे सर्वत्र सम्भवतस्तयैवेहाधिकार इति तामेव नियुक्तिक|साक्षाद्दर्शयति, भावदिकाविनाभाविनी सामर्थ्यादधिकृतैव, यतस्तदर्थमन्या दिशश्चिन्त्यन्त इत्यत आह पण्णवगदिसट्ठारस भावदिसाओऽवि तत्तिया चेव । इक्किकं विंधेज्जा हवंति अट्ठारसऽद्वारा ॥ ६ ॥ पण्णवगदिसाए पुण अहिगारो एत्य होइ णायव्यो । जीवाण पुग्गलाण य एयासु गयागई अस्थि ।। ६२॥ प्रज्ञापकापेक्षया अष्टादशभेदा दिशः, अत्र च भावदिशोऽपि तावत्प्रमाणा एव प्रत्येक सम्भवन्तीत्यतः एकैकां प्रज्ञाप-1 कदिशं भावदिगष्टादशकेन 'विन्ध्येत्' ताडयेद्, अतोऽष्टादशाष्टादशकाः, ते च संख्यया त्रीणि शतानि चतुर्विंशत्यधिकानि भवन्तीति, एतच्चोपलक्षणं तापदिगादावपि यथासम्भवमायोजनीयमिति । क्षेत्रदिशि तु चतसृष्वेव महादिक्षु सम्भवो न विदिगादिषु, तासामेकप्रदेशिकत्वाच्चतुष्पदेशिकत्वाच्चेति गाथाद्वयार्थः ॥ अयं च दिसंयोगकलापः 'अण्णयरीओ दिसाओ आगओ अहमंसी'त्यनेन परिगृहीतः, सूत्रावयवार्थश्चायम्-इह दिग्ग्रहणात् प्रज्ञापकदिशश्चतस्रः पूर्वादिका ऊ - xl॥१५॥ धोदिशौ च परिगृह्यन्ते, भावदिशस्त्वष्टादशापि, अनुदिग्ग्रहणानु प्रज्ञापकविदिशो द्वादशेति, तत्रासंज्ञिनां नैषोऽवबो www.janaitnary.org दिशा शब्दस्य सप्त निक्षेपा: ~34-2 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [३], नियुक्ति: [६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत दीप धोऽस्ति, संज्ञिनामपि केषाञ्चिद्भवति केषाश्चिन्नेति, यथाऽहममुष्या दिशः समागत इहेति । एवमेगेसिं णो णायं भवइत्ति' 'एव' मित्यनेन प्रकारेण, अतिविशिष्टदिग्विदिगागमनं नैकेषां विदितं भवतीत्येतदुपसंहारवाक्यम् , एतदेव नियुक्तिकृदाह केसिंचि नाणसण्णा अत्यि केसिंचि नत्थि जीवाणं । कोऽहं परंमि लोए आसी कयरा दिसाओ वा ॥३॥ केषाश्चिज्जीवानां ज्ञानावरणीयक्षयोपशमवतां ज्ञानसंज्ञाऽस्ति, केषाश्चित्सु तदावृतिमतां न भवतीति । यादृगभूता संज्ञा न भवति तां दर्शयति-कोऽहं परमिन् 'लोके जन्मनि मनुष्यादिरासम्, अनेन भावदिग् गृहीता, कतरस्या वा दिशः समायात इत्यनेन तु प्रज्ञापकदिगुपात्तेति, यथा कश्चिन्मदिरामदघूर्णितलोललोचनोऽव्यक्तमनोविज्ञानो रथ्यामा-18 गनिपतितस्तच्छ-कृष्टश्वगणापलिज़मानवदनो गृहमानीतो मदात्यये न जानाति कुतोऽहमागत इति, तथा प्रकृतो मनुप्यादिरपीति गाथार्थः ॥ न केवलमेषैव संज्ञा नास्ति अपराऽपि नास्तीति सूत्रकृदाह अत्थि मे आया उववाइए, नस्थि मे आया उववाइए, के अहं आसी ? के वा इओ चुए इह पेचा भविस्लामि ? (सू०३) , 'अस्ति' विद्यते 'ममे त्यनेन षष्ठ्यन्तेन शरीरं निर्दिशति, ममास्य शरीरकस्याधिष्ठाता, अतति-गच्छति सततगतिप्रवृत्त आत्मा-जीवोऽस्तीति, किंभूतः?-'औपपातिकः' उपपात:-प्रादुर्भावो जन्मान्तरसंक्रान्तिः, उपपाते भव औपपातिक इति, १ औषपातिकहत्यभिप्रागणैष तृतीयसूत्रावतरणभागः, चूर्व्यभिप्रायेण तु भविस्सामि' इति पर्यन्त उपसंहारः, 'भवति' इति 'तंजहा' इति चाधिकम्, अनुक्रम wwwandltimaryam | आत्मा विषयक अज्ञानताया: निरूपणं# ~35~# Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [३], नियुक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम श्रीआचा अनेन संसारिणः स्वरूपं दर्शयति, स एवंभूत आत्मा ममास्ति नास्तीति च एवंभूता संज्ञा केषाश्चिदज्ञानावष्टब्धचेतसां अध्ययनं १ राङ्गवत्तिान जायत इति । तथा 'कोऽहं' नारकतिर्यगमनुष्यादिः पूर्वजन्मन्यासं, को पा देवादिः 'इतो' मनुष्यादेर्जन्मनः। जाउद्देशकः १ (शी०) MI'च्युतो' विनष्टः 'इह' संसारे 'प्रेत्य' जन्मान्तरे 'भविष्यामि' उत्पत्स्ये इति, एषा च संज्ञा न भवतीति । इह च यद्यपि सर्वत्र भावदिशाऽधिकारः प्रज्ञापकदिशा च, तथापि पूर्वसूत्रे साक्षात्मज्ञापकदिगुपात्तात्र तु भावदिगित्यवगन्तव्यम् । ॥१६॥ ननु चात्र संसारिणां दिग्विदिगागमनादिजा विशिष्टा संज्ञा निषिध्यते न सामान्यसंज्ञेति, एतच्च संज्ञिनि धर्मिमण्यात्मनि सिद्धे सति भवति, 'सति धम्मिणि धर्माश्चिन्त्यन्त' इति वचनात् , स च प्रत्यक्षादिप्रमाणगोचरातीतत्वादुरुपपादः, तथाहि-नासावध्यक्षेणार्थसाक्षात्कारिणा विषयीक्रियते, तस्यातीन्द्रियस्वाद, अतीन्द्रियत्वं च स्वभावविप्रकृष्टत्वादू, अतीन्द्रियत्वादेव च तदव्यभिचारिकार्यादिलिङ्गसम्बन्धग्रहणासम्भवात् नाप्यनुमानेन, तस्याप्रत्यक्षत्वे तत्सामान्यग्रहणशक्त्यनुपपत्तेः नाप्युपमानेन, आगमस्यापि विवक्षायां प्रतिपाद्यमानायामनुमानान्तभोवादू अन्यत्र च बाह्येऽर्थे सम्ब धाभावादप्रमाणत्वं, प्रमाणत्वे वा परस्परविरोधित्वान्नाप्यागमेन, तमन्तरेणापि सकलार्थोपपत्तेनोप्यापस्या, तदेवं ॥ दाप्रमाणपश्चकातीतत्वात्वष्ठप्रमाणविषयत्वादभाव एवात्मनः । प्रयोगश्चायम्-नास्त्यात्मा, प्रमाणपशकविषयातीतत्वात् , खरविषाणवदिति, तदभावे च विशिष्टसंज्ञाप्रतिषेधाभावसम्भवेनानुत्थानमेव सूत्रस्येति, एतत्सर्वमनुपासितगुरोर्वचः, तथाहि-प्रत्यक्ष एवात्मा, तद्गुणस्य ज्ञानस्य स्वसंवित्सिद्धत्वात् , स्वसंविनिष्ठाश्च विषयव्यवस्थितयो, घटपटादीनामपि ॥ १६ ॥ रूपादिगुणप्रत्यक्षस्वादेवाध्यक्षत्वमिति, मरणाभावप्रसङ्गाञ्च न भूतगुणश्चैतन्यमाशङ्कनीयं, तेषां सदा सन्निधानसम्भवादिति, wwwanditimaryam | आत्मा विषयक अज्ञानताया: निरूपणं# ~36-2 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [३], नियुक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत दीप अनुक्रम हेयोपादेयपरिहारोपादानप्रवृत्तेश्चानुमानेन परात्मनि सिद्धिर्भवतीति, एवमनयैव दिशोपमानादिकमपि स्वधिया स्वविषये यथासम्भवमायोज्यं, केवलं मौनीन्द्रेणानेनैवागमेन विशिष्टसंज्ञानिषेधद्वारेणाहमिति चात्मोल्लेखेनात्मसद्भावः प्रतिपादितः, शेषागमानां चानाप्तप्रणीतत्वादप्रामाण्यमेवेति । अत्र चास्त्यात्मेत्यनेन क्रियावादिनः समभेदा नास्तीत्यनेन चाक्रियावा-| दिन एतदन्तःपातित्वाचाज्ञानिकवैनयिकाश्च सप्रभेदा उपक्षिप्ताः, ते चामी-असियसयं किरियाणं अकिरियवाईण होइ दाचुलसीई । अन्नाणिय सत्तही वेणइयाणं च बत्तीसा ॥१॥ तत्र जीवाजीवाश्रवबन्धपुण्यपापसंवरनिर्जरामोक्षाख्या नव पदार्थाः स्वपरभेदाभ्यां नित्यानित्यविकल्पद्धयेन च कालनियतिस्वभावेश्वरात्माश्रयणादशीत्युत्तरं भेदशतं भवति क्रियावादिनाम् , एते चास्तित्ववादिनोऽभिधीयन्ते, इयमन भावना-अस्ति जीवः स्वतो नित्यः कालतः १ अस्ति जीवः स्वतो|ऽनित्यः कालतः २ अस्ति जीवः परतो नित्यः कालतः ३ अस्ति जीवः परतोऽनित्यः कालतः ४ इत्येवं कालेन चत्वारो |भेदा लब्धाः, एवं नियतिस्वभावेश्वरात्मभिरप्येकैकेन चत्वारश्चत्वारो विकल्पा लभ्यन्ते, एते च पञ्च चतुष्कका विंशतिर्भवति, इयं च जीवपदार्थेन लब्धा, एवमजीवादयोऽप्यष्टौ प्रत्येक विंशतिभेदा भवन्ति, ततश्च नव विंशतयः शतम| शीत्युत्तरं भवति १८० । तत्र स्वत इति स्वेनैव रूपेण जीवोऽस्ति, न परोपाध्यपेक्षया इस्वत्वदीर्घत्वे इव, नित्यः-शाश्वतो न क्षणिकः, पूर्वोत्तरकालयोरवस्थितत्वात्, कालत इति काल एव विश्वस्य स्थित्युत्पत्तिप्रलयकारणम्, उक्तं च"कालः पचति भूतानि, कालः संहरते प्रजाः । कालः सुप्तेषु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रमः॥१॥" स चातीन्द्रियो युगपच्चिरक्षिप्रक्रियाभिव्यङ्गयो हिमोष्णवर्षाव्यवस्थाहेतुः क्षणलवमुहूर्तयामाहोरात्रमासर्तुअयनसंवत्सरयुगकल्पपल्योपम -% %% wwwandltimaryam | आत्मा विषयक अज्ञानताया: निरूपणं, क्रियावादि आदि विविध वादिनाया: मते आत्म स्वरूप में ~37~# Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [3] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [३], निर्युक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्री आचा सागरोपमोत्सर्पिण्यवसर्पिणीपुद्गलपरावर्त्तातीतानागतवर्त्तमानस र्वाद्धादिव्यवहाररूपः १ । द्वितीयविकल्पे तु कालादेवाराङ्गवृत्तिः ४ त्मनोऽस्तित्वमभ्युपेयं, किं खनित्योऽसाविति विशेषोऽयं पूर्वविकल्पात् २ । तृतीयविकल्पे तु परत एवास्तित्वमभ्युपग(शी०) हे म्यते, कथं पुनः परतोऽस्तित्वमात्मनोऽभ्युपेयते ?, नन्वेतव्यसिद्धमेव सर्वपदार्थानां परपदार्थस्वरूपापेक्षया स्वरूपपरिच्छेदो, ॥ १७ ॥ यथा दीर्घत्वापेक्षया इस्वत्वपरिच्छेदो ह्रस्वत्वापेक्षया च दीर्घत्वस्येति एवमेव चानात्मनः स्तम्भकुम्भादीन् समीक्ष्य त४ द्व्यतिरिक्ते वस्तुन्यात्मबुद्धिः प्रवर्त्तत इति, अतो यदात्मनः स्वरूपं तत्परत एवावधार्य्यते न स्वत इति ३ । चतुर्थविकल्पोऽपि प्राग्वदिति चत्वारो विकल्पाः ४ । तथाऽन्ये नियतित एवात्मनः स्वरूपमवधारयन्ति का पुनरियं नियतिरिति, उच्यते, पदार्थानामवश्यंतया यद्यथाभवने प्रयोजककत्रीं नियतिः, उक्तं च- "प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः, सोsविश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा । भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयले, नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः ॥ १ ॥ " इयं च मस्करिपरिब्राण्मतानुसारिणी प्राय इति । अपरे पुनः स्वभावादेव संसारव्यवस्थामभ्युपयन्ति, कः पुनरयं स्वभावः ?, वस्तुनः स्वत एव तथापरिणतिभावः स्वभावः, उक्तं च- "कः कण्टकानां प्रकरोति तैक्ष्ण्यं, विचित्रभावं मृगप| क्षिणां च । स्वभावतः सर्व्वमिदं प्रवृत्तं, न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयलः १ ॥ १ ॥ स्वभावतः प्रवृत्तानां निवृत्तानां स्वभावतः । नाहं कर्त्तेति भूतानां यः पश्यति स पश्यति ॥ २ ॥ केनाखितानि नयनानि मृगाङ्गनानां, कोऽलङ्करोति रुचिराङ्गरुहान्मयूरान् । कश्चोपलेषु दलसन्निचयं करोति को वा दधाति विनयं कुलजेषु पुंस्सु ? ॥ ३ ॥” तथाऽन्येऽभि ॥ १७ ॥ दधते- समस्तमेतजीवादीश्वरात्मसूतं, तस्मादेव स्वरूपेऽवतिष्ठते, कः पुनरयमीश्वरः १, अणिमाद्यैश्वर्ययोगादीश्वरः, उक्तं | Estication Utmational For Parts Only आत्मा विषयक अज्ञानतायाः निरूपणं, क्रियावादि आदि विविध वादिनायाः मते आत्म स्वरूपं अध्ययनं१ उद्देशकः १ ~38~# www.sindia.org Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [३], नियुक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत दीप अनुक्रम Kाच-"अज्ञो जन्तुरनीशः स्यादात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेच्छु_ वा स्वर्गमेव वा ॥१॥" तथाऽन्ये बवते -न जीवादयः पदार्थाः कालादिभ्यः स्वरूपं प्रतिपद्यन्ते, किं तर्हि ?, आत्मनः, कः पुनरयमात्मा?, आत्माद्वैतवादिनां विश्वपरिणतिरूपः, उक्तश्च-"एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् | शा" तथा-"पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्य"मित्यादि। एवमस्त्यजीवः, स्वतः नित्यः कालत इत्येवं सर्वत्र योज्यम् ॥ II तथा अक्रियावादिनो-नास्तित्ववादिनः, तेषामपि जीवाजीवानवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षाख्याः सप्त पदार्थाः स्वप-I ४ रभेदद्वयेन तथा कालयदृच्छानियतिस्वभावेश्वरात्मभिः पनिश्चिन्त्यमानाश्चतुरशीतिविकल्पा भवन्ति, तद्यथा-नास्ति |जीवः स्वतः कालतः नास्ति जीवः परतः कालत इति कालेन द्वौ लब्धौ, एवं यहच्छानियत्यादिप्यपि द्वौ द्वौ भेदी प्रत्येक भवतः, सर्वेऽपि जीवपदार्थे द्वादश भवन्ति, एवमजीवादिष्वपि प्रत्येकं द्वादशैते, सप्त द्वादशकाश्चतुरशीतिरिति ६८४ । अयमत्रार्थः- नास्ति जीवः स्वतः कालत इति, इह पदार्थानां लक्षणेन सत्ता निश्चीयते कार्यतो वा?, न चात्मनहस्ताहगस्ति किञ्चिलक्षणं येन सत्ता प्रतिपद्येमहि, नापि कार्यमणूनामिव महीध्रादि सम्भवति, यच्च लक्षणकार्याभ्यां नाभिगम्यते वस्तु तन्नास्त्येव, वियदिन्दीवरवत्, तस्मान्नास्त्यात्मेति । द्वितीयविकल्पोऽपि यच्च स्वतो नात्मानं विभर्ति | गगनारविन्दादिक तत्सरतोऽपि नास्त्येव, अथवा सर्वपदार्थानामेव परभागादर्शनात्सर्वार्वाग्भागसूक्ष्मत्वाचोभयानुपलब्धः। सर्वानुपलब्धितो नास्तित्वमध्यवसीयते, उक्तं च-"यावद् दृश्यं परस्तावद्भागः स च न दृश्यते' इत्यादि, तथा यदृच्छा-1 |तोऽपि नास्तित्वमात्मनः, का पुनर्यदृच्छा ?, अनभिसन्धिपूर्विकाऽर्थप्राप्तिर्यदृच्छा, "अतर्कितोपस्थितमेव सर्वं, चित्रं www.andituaryam | आत्मा विषयक अज्ञानताया: निरूपणं, क्रियावादि आदि विविध वादिनाया: मते आत्म स्वरूपं ~39~# Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [३], नियुक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥१८॥ दीप अनुक्रम जनानां सुखदुःखजातम् । काकस्य तालेन यथाऽभिघातो, न बुद्धिपूर्वोऽत्र वृथाऽभिमानः॥१॥ सत्यं पिशाचाः स्म अध्ययनं १ वने वसामो, भेरिं करात्रैरपि न स्पृशामः । यदृच्छया सिद्ध्यति लोकयात्रा, भेरी पिशाचाः परिताडयन्ति ॥२॥" यथा काकतालीयमबुद्धिपूर्वक, न काकस्य बुद्धिरस्ति-मयि तालं पतिष्यति, नापि तालस्याभिप्रायः-काकोपरि पतिष्यामि, अथ उद्देशकः१ च तत्तथैव भवति, एवमन्यदप्यतर्कितोपनतमजाकृपाणीयमातुरभेषजीयमन्धकण्टकीयमित्यादि द्रष्टव्यम् , एवं सर्व जातिजरामरणादिकं लोके यादृच्छिकं काकतालीयादिकल्पमवसेयमिति। एवं नियतिस्वभावेश्वरात्मभिरप्यात्मा निराकर्त्तव्यः॥ तथाऽज्ञानिकानां सप्तपष्टिर्भेदार, ते चामी-जीवादयो नव पदार्था उत्पत्तिश्च दशमी सत् असद् सदसत् अवक्तव्यः सदवतन्यः असदवक्तव्यः सदसदवक्तब्य इत्येतैः सप्तभिः प्रकारैर्विज्ञातुं न शक्यन्ते न च विज्ञातैः प्रयोजनमस्ति, भावना चेयम्-सन् जीव इति को वेत्ति? किं वा तेन ज्ञातेन?, असन् जीव इति को जानाति? किं वा तेन ज्ञातेनेत्यादि, एवमजीवादिष्वपि प्रत्येक सप्त विकल्पाः, नव सप्तकात्रिषष्टिः, अमी चान्ये चत्वारस्त्रिषष्टिमध्ये प्रक्षि-15 प्यन्ते, तद्यथा-सती भावोत्पत्तिरिति को जानाति? किं वाऽनया ज्ञातया? एवमसती सदसती अवक्तव्या भावोत्पत्तिरिति को वेत्ति ? किं वाऽनया ज्ञातयेति, शेषविकल्पत्रयमुत्पत्त्युत्तरकालं पदार्थावयवापेक्षमतोऽत्र न सम्भवतीति नोक्तम् , एतच्चतुष्टयप्रक्षेपात्सप्तपष्टिर्भवन्ति । तत्र सन् जीव इति को वेत्ति? इत्यस्यायमर्थः-न कस्यचिद्विशिष्टं ज्ञानमस्ति योऽतीन्द्रियान् जीवादीनवभोत्स्यते, न च तैज्ञातैः किश्चित्फलमस्ति, तथाहि-यदि नित्यः सर्वगतोऽमूर्तों ज्ञानादिगुणोपेत ॥१८॥ एतद्गुणव्यतिरिक्को धा? ततः कतमस्य पुरुषार्थस्य सिद्धिरिति, तस्मादज्ञानमेव श्रेयः । अपि च-तुल्येऽप्यपराधे अका CSCREC wataneltmanam | आत्मा विषयक अज्ञानताया: निरूपणं, क्रियावादि आदि विविध वादिनाया: मते आत्म स्वरूपं ~40-23 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [3] सू. ४ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [३], निर्युक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः मकरणे लोके स्वल्पो दोषो, लोकोत्तरेऽपि आकुट्टिकानाभोगसहसाकारादिषु क्षुल्लकभिक्षुस्थविरोपाध्यायसूरीणां यथाक्र| ममुत्तरोत्तरं प्रायश्चित्तमित्येवमन्येष्वपि विकल्पेष्वायोज्यम् ॥ तथा वैनयिकानां द्वात्रिंशद्भेदाः, ते चानेन विधिना | भावनीयाः सुरनृपयतिज्ञातिस्थविराधममातृपितृष्वष्टसु मनोवाक्कायप्रदान चतुर्विधविनयकरणात्, तद्यथा देवानां विनयं करोति मनसा वाचा कायेन तथा देशकालोपपन्नेन दानेनेत्येवमादि । एते च विनयादेव स्वर्गापवर्गमार्गमभ्युपयन्ति, नीचैर्वृत्त्यनुत्सेकलक्षणो विनयः सर्वत्र चैवंविधेन विनयेन देवादिषूपतिष्ठमानः स्वर्गापवर्गभाग् भवति, उक्तं च - "विर्णया णाणं णाणाओ दंसणं दंसणाहि चरणं च । चरणाहिंतो मोक्खो मोक्खे सोक्खं अणावाहं ॥ १ ॥” अत्र च क्रियावादिनामस्तित्वे सत्यपि केषाञ्चित्सर्वगतो नित्योऽनित्यः कर्त्ताऽकर्त्ता मूर्त्तोऽमूर्त्तः श्यामाकतण्डुलमात्रोऽङ्गुष्ठप|र्वमात्रो दीपशिखोपमो हृदयाधिष्ठान इत्यादिकः, अस्ति चौपपातिकश्च, अक्रियावादिनां त्वात्मैव न विद्यते, कुतः पुनरौपपातिकत्वम् ?, अज्ञानिकास्तु नात्मानं प्रति विप्रतिपद्यन्ते, किन्तु तज्ज्ञानमकिञ्चित्करमेषामिति, वैनयिकानामपि नात्माsस्तित्वे विप्रतिपत्तिः, किन्त्वन्यन्मोक्षसाधनं विनयादृते न सम्भवतीति प्रतिपन्नाः । तत्रानेन सामान्यात्मास्तित्वप्रतिपादनेनाक्रियावादिनो निरस्ता द्रष्टव्याः, आत्मास्तित्वानभ्युपगमे च - " शास्ता शास्त्रं शिष्यः प्रयोजनं वचनहेतुदृष्टान्ताः । सन्ति न शून्यं ब्रुवतस्तदभावाच्चाप्रमाणं स्यात् ॥ १ ॥ प्रतिषेद्धप्रतिषेधौ स्तश्चेच्छ्रन्यं कथं भवेत्सर्वम् ? । तदभावेन तु सिद्धा अप्रतिषिद्धा जगत्यर्थाः ॥ २ ॥” एवं शेषाणामप्यत्रैव यथासम्भव निराकरणमुत्प्रेक्ष्यमिति ॥ ३ ॥ गतमानुषङ्गिके, १ विनयात् ज्ञानं ज्ञानानं दर्शनात् (ज्ञानदर्शनाभ्यां चरणं च चरणात (ज्ञानदर्शनचारित्रेभ्यः) मोक्षो मोझे सोयमनाबाधम् ॥ १ ॥ Jan Estication Intematonal For Pantry at Use Only आत्मा विषयक अज्ञानतायाः निरूपणं, क्रियावादि आदि विविध वादिनायाः मते आत्म स्वरूपं ~41~# Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [४], नियुक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीआचारावृत्तिः (शी०) अध्ययनं १ उद्देशकः१ RECERS ॥१९॥ दीप अनुक्रम प्रकृतमनुम्रियते-तत्रेह 'एवमेगेसिं णो णायं भवई' इत्यनेन केषाञ्चिदेव संज्ञानिषेधात्केषाश्चित्तु भवतीत्युक्तं भवति तत्र सामान्यसंज्ञायाः प्रतिप्राणि सिद्धत्वात्तत्कारणपरिज्ञानस्य चेहाकिश्चित्करत्वाद्विशिष्टसंज्ञायास्तु केषाश्चिदेव भावात् | तस्याश्च भवान्तरगाम्यात्मस्पष्टप्रतिपादने सोपयोगित्वाद् सामान्यसंज्ञाकारणप्रतिपादनमनादृत्य विशिष्टसंज्ञायाः कारणं सूत्रकृद्दर्शयितुमाह से जं पुण जाणेज्जा सह संमइयाए परवागरणेणं अण्णेसिं अंतिए वा सोच्चा तंजहा-पुरस्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि जाव अण्णयरीओ दिसाओ अणुदिसाओ वा आगओ अहमसि, एवमेगेसिं जं णायं भवति-अस्थि मे आया उववाइए, जो इमाओ (दिसाओ) अणुदिसाओ वा अणुसंचरेइ, सव्वाओ दिसाओ अ-. णुदिसाओ, सोऽहं (सू०४) 'से जं पुण जाणेजत्ति सूत्रं यावत् सोऽहमिति 'से' इति निर्देशो मागधशैल्या प्रथमैकवचनान्तः, स इत्यनेन च यः माग्निर्दिष्टो ज्ञाता विशिष्टक्षयोपशमादिमान् स प्रत्यवमृश्यते, यदित्यनेनापि यत्नाग्निर्दिष्टं दिग्विदिगागमनं, तथा कोडहमभूवमतीतजन्मनि देवो नारकस्तिर्यग्योनो मनुष्यो वा? स्त्री पुमान्नपुंसको वा, को वाऽमुतो मनुष्यजन्मनः प्रभ्रष्टो १ अणुसंसरद (इति पा.) ना॥१९॥ wataneltmanam विशिष्ट संज्ञादि कारणत्वात् पूर्वापरजन्मस्य ज्ञानं । ~42-23 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [४] दीप अनुक्रम [४] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [४], निर्युक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ऽहं प्रेत्य देवादिर्भविष्यामीत्येतत्सरामृश्यते, 'जानीयाद्' अवगच्छेत्, इदमुक्तं भवति न कश्चिदनादौ संसृतौ पर्यटनसुमान् दिगागमनादिकं जानीयात्, यः पुनर्जानीयात्स एवं 'सह सम्मइयाए'ति सहशब्दः सम्बन्धवाची, सदिति प्रशंसायां, मतिः- ज्ञानम्, अयमत्र वाक्यार्थः - आत्मना सह सदा या सन्मतिर्वर्त्तते तया सन्मत्या कञ्चिज्जानीते, सहशब्दविशेषणाञ्च | सदाऽऽत्मस्वभावत्वं मतेरावेदितं भवति, न पुनर्यथा वैशेषिकाणां व्यतिरिक्ता सती समवायवृत्त्याऽऽत्मनि समवेतेति । यदि वा 'सम्मइए'त्ति स्वकीयया मत्या स्वमत्येति, तत्र भिन्नमप्यश्वादिकं स्वकीयं दृष्टमतः सहशब्दविशेषणं, सहशब्दश्वासमस्त इति, सत्यपि चात्मनः सदा मतिसन्निधाने प्रबलज्ञानावरणावृतत्वान्न सदा विशिष्टोऽवबोध इति सा पुनः स म्मतिः स्वमतिर्वा अवधिमनःपर्याय केवलज्ञानजातिस्मरणभेदाच्चतुर्विधा ज्ञेया, तत्रावधिमनःपर्यायकेवलानां स्वरू| पमन्यत्र विस्तरणोकं, जातिस्मरणं त्वाभिनिवोधिकविशेषः, तदेवं चतुर्विधया मत्याऽऽत्मनः कश्चिद्विशिष्टदिग्गत्यागती जानाति, कश्चिश्च परः- तीर्थकृत्सर्वज्ञः, तस्यैव परमार्थतः परशब्दवाच्यत्वात्परत्वं, तस्य तेन वा व्याकरणम्-उपदेशस्तेन जीवांस्तद्भेदांश्च पृथिव्यादीन् तद्वत्यागती च जानाति, अपरः पुनः 'अन्येषां' तीर्थकरव्यतिरिक्तानामतिशयज्ञानिनामन्तिके श्रुत्वा जानातीति, यच्च जानाति तत् सूत्रावयवेन दर्शयति तद्यथा पूर्व्वस्या दिश आगतोऽहमस्मि एवं दक्षिणस्याः | पश्चिमायाः उत्तरस्या ऊर्ध्वदिशोऽधोदिशोऽन्यतरस्या दिशोऽनुदिशो वाऽऽगतोऽहमस्मीत्येवमेकेषां विशिष्टक्षयोपशमादिमतां | तीर्थकरान्यातिशयज्ञानिबोधितानां च ज्ञानं भवति, तथा प्रतिविशिष्टदिगागमनपरिज्ञानान्तरमेषामेतदपि ज्ञानं भवतियथा अस्ति मेऽस्य शरीरकस्याधिष्ठाता ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षण 'उपपादुको' भवान्तरसंक्रातिभागू असर्वगतो भोक्ता Etication Intel विशिष्ट संज्ञादि कारणत्वात् पूर्वापरजन्मस्य ज्ञानं, आत्मस्वरूपं# For Paint Use Only ~43 ~# www.india.org Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [४] दीप अनुक्रम [४] “आचार” - अंगसूत्र-१ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [४], निर्युक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः (शी०) श्रीआचा- 4 मूर्त्तिरहितोऽविनाशी शरीरमात्र व्यापीत्यादिगुणवानात्मेति । स च द्रव्यकपाययोगोपयोगज्ञानदर्शन चारित्रवीर्यात्मभेराङ्गवृत्तिः दादष्टधा, तत्रोपयोगात्मना बाहुल्येनेहाधिकारः, शेषास्तु तदंशतयोपयुज्यन्त इति उपन्यस्ताः । तथा अस्ति च ममात्मा, योऽमुच्या दिशोऽनुदिशश्च सकाशाद् 'अनुसञ्चरति' गतिप्रायोग्य कर्मोपादानादनु-पश्चात् सञ्चरत्यनुसञ्चरति पाठान्तरं वा 'अणुसंसरइ'त्ति दिग्विदिशां गमनं भावदिगागमनं वा स्मरतीत्यर्थः । साम्प्रतं सूत्रावयवेन पूर्वसूत्रोक्तमेवार्थमुपसंहरति सर्वस्या दिशः सर्वस्याश्चानुदिशो य आगतोऽनुसञ्चरति अनुसंस्मरतीति वा सः 'अह' मित्यात्मोल्लेखः, अहंप्रत्ययग्राह्यत्वादात्मनः, अनेन पूर्वाद्याः प्रज्ञापकदिशः सर्वा गृहीताः भावदिशश्चेति । इममेवार्थं निर्युक्तिकृद्दर्शयितुमना गाथात्रितयमाह 4 ॥ २० ॥ जाणइ सयं मईए अन्नेसिं वावि अन्तिए सोचा । जाणगजणपण्णविओ जीवं तह जीवकाए वा ॥ ६४ ॥ इत्थ य सह संमह अति जं एवं तत्थ जाणणा होई । ओहीमणपञ्जवनाणकेवले जाइस रणे य ॥ ६५ ॥ परवइ वागरणं पुण जिणवागरणं जिणा परं नत्थि । अण्णेसिं सोचंतिय जिणेहिं सव्वो परो अण्णो ॥ ६६ ॥ कश्चिदनादिसंसृतौ पर्यटन्नवध्यादिकया चतुर्विधया स्वकीयया मत्या जानाति । अनानुपूर्वीन्यायप्रकटनार्थं पश्चादुपात्तमप्यमन्येषामित्येतत्पदं तावदाचष्टे - 'अन्येषां वा' अतिशयज्ञानिनामन्तिके श्रुत्वा जानाति, तथा 'जाणगजणपपणविओ' इत्यनेन परव्याकरणमुपात्तं, तेनायमर्थो - ज्ञापकः- तीर्थकृत्तत्प्रज्ञापितश्च जानाति, यज्जानाति तत् स्वत एव |दर्शयति- सामान्यतो 'जीव'मिति, अनेन चाधिकृतोदेशकस्यार्थाधिकारमाह, तथा 'जीवकायांश्च' पृथ्वी कायादीन् इत्य Etication Intemational विशिष्ट संज्ञादि कारणत्वात् पूर्वापरजन्मस्य ज्ञानं, आत्मस्वरूपं# For Pantry Use Only ~44 ~# अध्ययनं १ उद्देशकः १ ॥ २० ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [४], नियुक्ति: [६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत दीप अनुक्रम नेन चोत्तरेषां षण्णामप्युदेशकानां यथाक्रममधिकारार्थमाहेति, अत्र च 'सह सम्मइए'त्ति सूत्रे यत्पदं, तत्र जाणणत्ति ज्ञानमुपात्तं भवति, 'मनि ज्ञाने' मननं मतिरितिकृत्वा, तच्च किंभूतमिति दर्शयति–'अवधिमनःपर्यायकेवलजातिस्मरणरूप'मिति, तत्रावधिज्ञानी संख्येयानसंख्येयान्वा भवान् जानाति, एवं मनःपर्यायज्ञान्यपि, केवली तु नियमतोऽनन्तान् , जातिस्मरणस्तु नियमतः संख्येयानिति, शेषं स्पष्टम् । अत्र च सहसम्मत्यादिपरिज्ञाने सुखप्रतिपत्त्यर्थं त्रयो दृष्टान्ताः प्रदर्शयन्ते, तद्यथा-वसन्तपुरे नगरे जितशत्रू राजा, धारणी नाम महादेवी, तयोर्मरुच्यभिधानः सुतः, सच राजाऽन्यदा तापसत्वेन प्रत्रजितुमिच्छुर्द्धर्मरुचिं राज्य स्थापयितुमुद्यतः, तेन च जननी पृष्टा-किमिति तातो राज्यश्रियं त्यजति ?, तयोक्तम्-किमनया चपलया नारकादिसकलदुःखहेतुभूतया स्वर्गापवर्गमार्गार्गलया अवश्यमपायिन्या परमार्थत इहलोकेऽप्यभिमानमात्रफलयेत्यतो विहायैनां सकलसुखसाधनं धर्म कर्तुमुद्यतः, धर्मरुचिस्तदाकण्र्योक्तवान् यद्येवं किमहं तातस्यानिष्टो ? येनयंभूतां सकलदोषाश्रयिणीं मयि नियोजयति, सकलकल्याणहेतोर्द्धर्मात्मच्यावयतीत्यभिधाय पित्राऽनुज्ञातस्तेन सह तापसाश्रममगात्, तत्र च सकलास्तापसक्रिया यथोक्ताः पालयन्नास्ते, अन्यदाऽमावास्यायाः पूर्वाहे केनचित्तापसेनोदष्टम्-यथा भो भोः तापसाः! श्वोऽनाकुहिर्भविता, अतोऽद्यैव समित्कुसुमकुशकन्दफलमूलाचाहरणं कुरुत, एतच्चाकर्ण्य धर्मरुचिना जनकः पृष्टः-तात! केयमनाकुट्टिरिति, तेनोक्तम्-पुत्र! कन्दफलादीनामच्छेदनं, तब्य FOREX या चेत्यतो प्र. २ एफेन प्र. ३ लतादीनामच्छे. प्र. walaatram.org | विशिष्ट संज्ञादि कारणत्वात् पूर्वापरजन्मस्य ज्ञानं, आत्मस्वरूपं, जातिस्मरणज्ञाने 'धर्मरूचि:'-कथा# ~45~ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [४] दीप अनुक्रम [४] श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ २१ ॥ Jain Estication “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [४], निर्युक्तिः [६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः मावास्यादिके विशिष्टे पर्वदिवसे न वर्त्तते, सावद्यत्वाच्छेदनादिक्रियायाः, श्रुत्वा चैतदसावचिन्तयत् - यदि सर्वदाऽनाकुट्टिः स्याच्छोभनं भवेद् एवमध्यवसायिनस्तस्यामावास्यायां तपोवनासन्नपथेन गच्छतां साधूनां दर्शनमभूत्, ते च तेनाभिहिताः किमद्य भवतामनाकुट्टिर्न सञ्जाता ? येनाटवीं प्रस्थिताः तैरप्यभिहितम् — 'यथाऽस्माकं यावज्जीवमना| कुट्टि' रित्यभिधायातिक्रान्ताः साध्यः, तस्य च तदाकर्ण्यहापोहविमर्शेन जातिमरणमुत्सन्नं यथाऽहं जन्मान्तरे प्रत्रज्यां कृत्वा देवलोकसुखमनुभूयेहागत इति, एवं तेन विशिष्टदिगागमनं स्वमत्या - जातिस्मरणरूपया विज्ञातं, प्रत्येकबुद्धश्च जातः, एवमन्येऽपि वल्कलचीरिश्रेयांसप्रभृतयोऽत्र योज्या इति । परव्याकरणे त्विदमुदाहरणम् - गौतमस्वामिना भग| बाम्बर्द्धमानस्वामी पृष्टो-भगवन् ! किमिति मे केवलज्ञानं नोत्पद्यते ?, भगवता व्याकृतं-भो गौतम ! भवतोऽतीव ममोपरि स्नेहोऽस्ति तद्वशात् तेनोक्तम्– 'भगवन्नेवमेवं, किंनिमित्तः पुनरसौ मम भगवदुपरि स्नेहः १, ततो भगवता तस्य | बहुषु भवान्तरेषु पूर्वसम्बन्धः समावेदितः 'चिरसंसिद्धोऽसि मे परिचिओऽसि मे गोयमेत्येवमादि, तच्च तीर्थकृयाकरणमाकर्ण्य गौतमस्वामिनो विशिष्टदिगागमनादिविज्ञानमभूदिति । अन्यश्रवणे त्विदमुदाहरणम्-महिस्वामिना षण्णां राजपुत्राणामुद्वाहार्थमागतानामवधिज्ञानेन तत्प्रतिबोधनार्थं यथा जन्मान्तरे सहितैरेव प्रव्रज्या कृता, यथा च तत्फलं देवलोके जयन्ताभिधानविमानेऽनुभूतं तथाऽऽख्यातं तच्चाकर्ण्य ते लघुकर्म्मत्वात्प्रतिबुद्धा विशिष्टदिगागमनविज्ञानं च १० मेतत् प्र० २ बिरसंसष्टोऽसि मया गौतम चिरपरिचितोऽसि मम गौतम ! For Pantry Use Only अध्ययनं १ उद्देशकः१ ~46~# ॥ २१ ॥ www.indiary.org विशिष्ट संज्ञादि कारणत्वात् पूर्वापरजन्मस्य ज्ञानं तत्र पर व्याकरणे गौतमस्वामी एवं अन्यश्रवणे मल्लिनाथस्य षण्णां पूर्वमित्राणामुदाहरणं Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [५], नियुक्ति: [६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत है दीप अनुक्रम सञ्जातं, उक्तं च-'किं थे तैयं पम्हुई जं च तया भो! जयंतपवरंमि । वुच्छा समयनिबद्धं देवा! तं संभरह जाति ॥१॥ इति गाथात्रयतात्पर्यार्थः ॥४॥ साम्प्रतं प्रकृतमनुम्रियते-यो हि सोऽहमित्यनेनाहङ्कारज्ञानेनात्मोल्लेखेन पूर्वादेर्दिश आगतमात्मानमविच्छिन्नसंततिपतितं द्रव्यार्थतया नित्यं पर्यायार्थतया खनित्यं जानाति स परमार्थतः आत्मवादीति सूत्रकृद्दर्शयति से आयावादी लोयावादी कम्मावादी किरियावादी (सू०५) 'स' इति यो भ्रान्तः पूर्वं नारकतिर्यग्नरामराद्यासु भावदिक्षु पूर्वाद्यासु च प्रज्ञापकदिक्षु अक्षणिकामूर्तादिलक्षणोपेतमात्मानमवैति, स इत्थंभूतः 'आत्मवादी'ति आत्मानं वदितुं शीलमस्येति, यः पुनरेवंभूतमात्मानं नाभ्युपगच्छति सोऽनात्मवादी नास्तिक इत्यर्थः । योऽपि सर्वव्यापिनं नित्यं क्षणिकं वाऽऽत्मानमभ्युपैति सोऽप्यनात्मवाद्येव, यतः सर्वव्यापिनो निष्क्रियत्वाद्भवान्तरसंक्रान्तिन स्यात्, सर्वथा नित्यत्वेऽपि 'अप्रच्युतानुसन्नस्विरकस्वभावं नित्य'मितिकृत्वा मरणाभावेन भवान्तरसंक्रान्तिरेव न स्यात् , सर्वथा क्षणिकत्वेऽपि निर्मूलविनाशात्सोऽहमित्यनेन पूर्वोत्तरानुसन्धानं न स्यात् । य एव चात्मवादी स एव परमार्थतो लोकबादी, यतो लोकयतीति लोका-प्राणिगणस्तै वदितुं शीलमस्येति, अनेन चात्माद्वैतवादिनिरासेनात्मबहुत्वमुक्तं, यदिवा 'लोकापाती ति लोकः-चतुर्दशरज्यात्मकः प्राणिगणो वा, तत्रापतितुं ११.प्र. २ किमय तद्विस्मृतं यच्च तदा भो जयन्तप्रवरे । उषिताः नित्रसमयं देवास्तां स्मरत जातिम् ॥ १॥ ३०नं बेसि. [५] wwwandltimaryam | आत्मवादिः अनात्मवादिश्च-स्वरूपं, आत्मवादेः लोकवादित्वं ~47~# Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [4] दीप अनुक्रम [9] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ २२ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [५], निर्युक्तिः [६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः शीलमस्येति, अनेन च विशिष्टाकाशखण्डस्य लोकसंज्ञाऽऽवेदिता, तत्र च जीवास्तिकायस्य सम्भवेन जीवानां गमनागमनमावेदितं भवति य एव च दिगादिगमनपरिज्ञानेनात्मवादी लोकवादी च संवृत्तः, स एवासुमान् 'कर्मवादी' कर्मज्ञानावरणीयादि तद्वदितुं शीलमस्य, यतो हि प्राणिनो मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगः पूर्वं गत्यादियोग्यानि कर्माण्याददते, पश्चात्तासु तासु विरूपरूपासु योनिपूत्पद्यन्ते, कर्म च प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशात्मकमवसेयमिति । अनेन च कालयदृच्छानियतीश्वरात्मवादिनो निरस्ता द्रष्टव्याः । तथा य एव कर्मवादी स एव क्रियावादी, यतः कर्म योगनिमित्तं बध्यते, योगश्च व्यापारः, स च क्रियारूपः, अतः कर्मणः कार्यभूतस्य वदनात्तत्कारणभूतायाः क्रियाया अप्यसावेव परमार्थतो वादीति, क्रियायाश्च कर्मनिमित्तत्वं प्रसिद्धमागमे, स चायमागमः -- "जाये णं भंते! एस जीवे सया समियं एयर वेयइ चलति फंदति घट्टति तिप्पति जाव तं तं भावं परिणमति तावं च णं अडविहबंधए वा सत्तविहबंधए वा छन्विहबंधए वा एगविहबंधए वा णो णं अबंधए"त्ति, एवं च कृत्वा य एव कर्म्मवादी स एव क्रियावादीति, अनेन च सांख्याभिमतमात्मनोऽक्रियावादित्वं निरस्तं भवति ॥ ५ ॥ साम्प्रतं पूर्वोक्तां क्रियामात्मपरिणतिरूपां विशिष्टकालाभिधायिना तिप्रत्ययेनाभिदधदहंप्रत्ययसाध्यस्यात्मनस्तद्भव एवावधिमनःपर्याय केवलज्ञानजातिस्मरण व्यतिरेकेणैव त्रिकालसंस्पर्शिना मतिज्ञानेन सद्भावावगमं दर्शयितुमाह यावद भदन्त ! एष जीवः सदा समितमेजते ब्वेजले चलति रुपन्दते तिप्यति यावत् तं तं भावं परिणमति तावच अष्टविधबन्धको वा खप्तविधबन्धको वाषधिबन्धको वा एकविधबन्धको यश, नायन्धकः. Jan Estication Intational कर्मवादिः क्रियावादिश्च स्वरूपं # For Parts Only ~48~# अध्ययनं १ उद्देशकः १ ॥ २२ ॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) ཚམྦྷོ ཝཱ ཋཏྠུཾ, ཡྻ अनुक्रम “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [६], निर्युक्ति: [६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः अकरिस्सं चऽहं, कारवेसुं चऽहं करओ आवि समणुन्ने भविस्सामि ( सू० ६ ) इह भूतवर्त्तमान भविष्यत्कालापेक्षया कृतकारितानुमतिभिर्नव विकल्पाः संभवन्ति, ते चामी - अहमकार्षमची करमहं कुर्वन्तमन्यमनुज्ञासिषमहं करोमि कारयाम्यनुजानाम्यहमिति करिष्याम्यहं कारयिष्याम्यहं कुर्वन्तमन्यमनुज्ञास्याम्यहमिति, एतेषां च मध्ये आद्यन्तौ सूत्रेणैवोपात्ती, तदुपादानाच्च तन्मध्यपातिनां सर्वेषां ग्रहणम्, अस्यैवार्थस्याविष्करणाय द्वितीयो विकल्पः 'कारवेसुं चऽहमिति सूत्रेणोपात्तः, एते च चकारद्वयोपादानादपिशब्दोपादानाच्च मनोवाक्कायैश्चिअन्त्यमानाः सप्तविंशतिर्भेदा भवन्ति, अयमत्र भावार्थ:- अकार्षमहमित्यत्राहमित्यनेनात्मोलेखिना विशिष्टक्रियापरिणतिरूप आत्माऽभिहितः, ततश्चायं भावार्थो भवति स एवाहं येन मयाऽस्य देहादेः पूर्व यौवनावस्थायामिन्द्रियवशगेन विषयविषमोहितान्धचेतसा तत्तदकार्य्यानुष्ठानपरायणेनाऽऽनुकूल्यमनुष्ठितम् उक्तं च- “विहैवावलेवनडिएहिं जाई कीरंति जोव्वणमएणं । वयपरिणामे सरियाइँ ताई हियए खुडुकंति ॥ १ ॥" 'तथा अचीकरमह' मित्यनेन परोऽकार्यादी प्रवर्त्तमानो मया प्रवृत्तिं कारितः, तथा कुर्वन्तमन्यमनुज्ञातवानित्येवं कृतकारितानुमतिभिर्भूतकालाभिधानं, तथा 'करोमी' त्यादिना वचनत्रिकेण वर्त्तमानकालोल्लेखः, तथा करिष्यामि कारयिष्यामि कुर्वतोऽन्यान् प्रति समनुज्ञापरायणो भविष्यामीत्यनागतका लोल्लेखः, अनेन च कालत्रयसंस्पर्शेन देहेन्द्रियातिरिक्तस्यात्मनो भूतवर्त्तमानभविष्यत्कालपरिणतिरू १ चकारद्वयापिशब्दोपादानाम्मनो० प्र० २ विभवावलेपनतिर्यानि क्रियन्ते योवनमदेन वयःपरियाने स्मृतानि तानि हृदये शल्यायन्ते ॥ १ ॥ Jain Estication Intematonal कृत् कारित - अनुमित भेदेन २७-भेदा:, कर्मबंध परिज्ञा, # # For P&P Use Onl ~49 ~# Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [७] दीप अनुक्रम [] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ २३ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्ति) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१], मूलं [७], निर्युक्ति: [६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः कर्मबंध परिज्ञा, # पस्यास्तित्वावगतिरावेदिता भवति, सा च नैकान्तक्षणिक नित्यवादिनां सम्भवतीत्यतोऽनेन ते निरस्ताः क्रियापरिणा- २ अध्ययनं १ मेनात्मनः परिणामित्वाभ्युपगमादिति, एतदनुसारेणैव सम्भवानुमानादतीतानागतयोरपि भवयोरात्मास्तित्वमवसेयम् । यदिवा - अनेन क्रियाप्रबन्धप्रतिपादनेन कर्मण उपादानभूतायाः क्रियायाः स्वरूपमावेदितमिति ॥ ६ ॥ अथ किमेतावत्य एव क्रिया उतान्या अपि सन्तीति एता एवेत्याह उद्देशकः १ एयावंति सव्वावंति लोगंसि कम्मसमारंभा परिजाणियव्वा भवंति ( सू० ७ ) एतावन्तः सर्वेऽपि 'लोके' प्राणिसङ्घाते 'कर्म्मसमारम्भाः' क्रियाविशेषा ये प्रागुक्ताः, अतीतानागतवर्त्तमानभेदेन कृतकारितानुमतिभिश्च अशेषक्रियानुयायिना च करोतिना सर्वेषां सङ्ग्रहादिति एतावन्त एवं परिज्ञातव्या भवन्ति नान्य इति । परिज्ञा च ज्ञप्रत्याख्यानभेदाद्विधा, तत्र ज्ञपरिज्ञयाऽऽत्मनो बन्धस्य चास्तित्वमेतावद्भिरेव सर्वैः कर्म्मसमारम्भर्ज्ञातं भवति, प्रत्याख्यानपरिज्ञया च सर्वे पापोपादानहेतवः कर्म्मसमारम्भाः प्रत्याख्यातव्या इति । इयता सामान्येन जीवास्तित्वं प्रसाधितमधुना तस्यैवात्मनो दिगादिभ्रमणहेतूपदर्शनपुरस्सरमपायान् प्रदर्शितुमाह-यदिवा यस्तावदात्मकर्मादिवादी स दिगादिभ्रमणान्मोक्ष्यते, इतरस्य तु विपाकान् दर्शयितुमाह अपरिण्णायकमा खलु अयं पुरिसे जो इमाओ दिसाओ अणुदिसाओ अणुसंचरइ, सव्वाओ दिसाओ सव्वाओ अणुदिसाओ साहेति (सू०८) Estication Intl For Parts Only ~50~# ॥ २३ ॥ www.india.org Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) ངམྦྷཡྻ अनुक्रम “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [८], निर्युक्ति: [६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः योऽयं पुरिं शयनात्पूर्णः सुखदुःखानां वा पुरुषो जन्तुर्मनुष्यो वा, प्राधान्याच्च पुरुषस्योपादानम्, उपलक्षणं चैतत्, सर्वोऽपि चतुर्गत्यापन्नः प्राणी गृह्यते दिशोऽनुदिशो वाऽनुसञ्चरति सः 'अपरिज्ञातकर्मा' अपरिज्ञातं कर्मानेनेत्यपरिज्ञातकर्म्मा, खलुरवधारणे, अपरिज्ञातकर्मैव दिगादौ भ्राम्यति नेतर इति, उपलक्षणं चैतद्, अपरिज्ञातात्मापरिज्ञातक्रियश्चेति यश्चापरिज्ञातकर्मा स सर्वा दिशः सर्वाश्चानुदिशः 'साहेति' स्वयंकृतेन कर्मणा सहानुसञ्चरति सर्वग्रहणं सर्वासां प्रज्ञापकदिशां भावदिशां चोपसङ्ग्रहार्थम् ॥ ८ ॥ स यदाप्नोति तद्दर्शयति अगरुवाओ जोणीओ संधेइ, विरूवरूवे फासे पडिसंवेदेइ ( सू० ९) अनेकं संकटविकटादिकं रूपं यासां तास्तथा यौति मिश्रीभवत्यौदारिकादिशरीरवर्गणापुद्गलैरसुमान् यासु ता योनयः - प्राणिनामुत्पत्तिस्थानानि, अनेकरूपत्वं चासां संवृतविवृतोभयशीतोष्णोभयरूपतया, यदिवा चतुरशीतिलक्षभेदेन, ते चामी चतुरशीतिर्लक्षा:- पुंढवीजलजलणमारुय एक्केके सत्त सत्त लक्खाओ । वण पत्तेय अनंते दस चोदस जोणिलक्खाओ ॥ १ ॥ विगलिंदिए दो दो चउरो चउरो य णारयसुरेसुं । तिरिए हुंति चउरो चोदस लक्खा य १ पृथ्वी जलज्वलनमारुतेषु एकैकस्मिन् सप्त सप्त दक्षाः प्रत्येकपने अनन्ते दश चतुर्दश योनिलक्षाः ॥ १ ॥ विकलेन्द्रियेषु द्वे द्वे तसतश्च नारकसुरेषु तिरधि भवन्ति चतलचतुर्दश लक्षा मनुष्येष्षु ॥ २ ॥ Etication matinal For Pantry Use Only कर्मबंध परिज्ञा, 'अपरिज्ञातकर्मा' स्वरूपं, ८४ लक्ष जीव-योनि स्वरूपं # ~51~# Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [S] दीप अनुक्रम [s] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [९], निर्युक्ति: [६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीचा राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ २४ ॥ मणुसु ॥ २ ॥ तथा शुभाशुभभेदेन योनीनामनेकरूपत्वं गाथाभिः प्रदर्श्यते- 'सीवादी जोणीओ चउरासीती य सयसहस्साइं । असुभाओ य सुभाओ तत्थ सुभाओ इमा जाण ॥ १ ॥ अस्संखाउमणुस्सा राईसर संखमादिआऊणं । तित्थगरनामगोतं सव्वसुहं होइ नायव्यं ॥ २ ॥ तत्थवि य जाइसंपन्नतादि सेसाउ हुति असुभाओ । देवेसु किव्विसादी सेसाओ हुंति उ सुभाओ ॥ ३ ॥ पंचिंदियतिरिए हयगयरयणे हवंति उ सुभाओ । सेसाओ अ सुभाओ सुभवण्णे* गिंदियादीया ॥ ४ ॥ देविंदचकवट्टित्तणाई मोतुं च तित्थगरभावं । अणगारभाविताविय सेसा उ अनंतसो पत्ता ॥ ५ ॥ एताश्चानेकरूपा योनीर्दिगादिषु पर्यटन्नपरिज्ञातकर्माऽसुमान् 'संधेइति सन्धयति सन्धि करोत्यात्मना, सहाविच्छेदेन संघट्टयतीत्यर्थः, 'संधावइ'त्ति वा पाठान्तरं, 'सन्धावति' पौनःपुन्येन तासु गच्छतीत्यर्थः, तत्सन्धाने च यदनुभवति तद्दर्शयति-विरूपं वीभत्सममनोज्ञं रूपं स्वरूपं येषां स्पर्शानां दुःखोपनिपातानां ते तथा, स्पर्शाश्रिता दुःखोपनिपाताः स्पर्शा इत्युक्ताः, 'तात्स्थ्यात्तद्व्यपदेश' इतिकृत्वा उपलक्षणं चैतन्मानस्योऽपि वेदना ग्राह्याः, अतस्तानेवम्भूतान् स्पर्शान् 'प्रतिसंवेदयति' अनुभवति, प्रतिग्रहणात्प्रत्येकं शारीरान्मानसांश्च दुःखो १ शीताया योनयश्चतुरशीतिश्च शतसहस्राणि । अशुभाः शुभाच तत्र शुमा इमा जानीहि ॥ १ ॥ असंख्यायुर्मनुष्याः संख्यायुकाणां राजेश्वराद्याः । तीर्थंकरनामगोत्रं सर्वशुभं भवति ज्ञातव्यम् ॥ २ ॥ तत्रापि जातिसम्पन्नतायाः शेषा भवन्त्यशुभाः । देनेषु किल्विषायाः शेषा भवन्ति च शुभाः ॥ ३ ॥ पञ्चेन्द्रियतिक्षु हयगजरत्नयोर्भवति शुभा शेषाथ शुभाः शुभवर्णै केन्द्रियाद्याः ॥४॥ देवेन्द्र चक्रवर्तित्वे मुक्त्वा तीर्थंकरभावं । भावितानगारतामपि च शेपास्त्वनन्तशः प्राप्ताः॥५॥ २ ताः प्र० Etication tamational शुभाशुभ भेदेन जीव-योनि स्वरूपं, संसारपरिभ्रमणं# For Pantry Use Only ~ 52~# अध्ययनं १ उद्देशकः १ ॥ २४ ॥ www.india.org Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [१], नियुक्ति: [६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत दीप अनुक्रम पनिपाताननुभवतीत्युक्तं भवति, स्पर्शग्रहणं चेह सर्वसंसारान्तर्वत्तिजीवराशिसङ्ग्रहार्थ, स्पर्शनेन्द्रियस्य सर्वजीवच्या-131 पित्वाद्, अत्रेदमपि वक्तव्यं-सर्वान्विरूपरूपान् रसगन्धरूपशब्दान् प्रतिसंवेदयतीति, विरूपरूपत्वं च स्पर्शानां कार्यभूतानां विचित्रकर्मोदयात्कारणभूताद्भवतीति वेदितव्यं, विचित्रकर्मोदयाच्चापरिज्ञातकर्मा संसारी सर्शादी|न्धिरूपरूपांस्तेषु तेषु योन्यन्तरेषु विपाकतः परिसंवेदयतीति, आह च-"तैः कर्मभिः स जीवो विवशः संसारचक्रमुपयाति । द्रव्यक्षेत्राद्धाभावभिन्नमावर्त्तते बहुशः॥ १॥ नरकेषु देवयोनिषु तिर्यग्योनिषु च मनुजयोनिषु च । पर्यटति घटीयन्त्रवदात्मा विचच्छरीराणि ॥ २ ॥ सततानुबद्धमुक्कं दुःखं नरकेषु तीनपरिणामम् । तिर्यक्षु भयक्षुत्तधा|दिदुःखं सुखं चाल्पम् ॥ ३ ॥ सुखदुःखे मनुजानां मनःशरीराश्रये बहुविकल्पे । सुखमेव हि देवानां दुःखं स्वल्पं च मनसि भवम् ॥ ४ ॥ कर्मानुभावदुःखित एवं मोहान्धकारगहनवति । अन्ध इव दुर्गमार्गे धमति हि संसारकान्तारे ॥५॥ दुःखप्रतिक्रियार्थ सुखाभिलाषाच पुनरपि तु जीवः । प्राणिवधादीन दोषानधितिष्ठति मोहसंछन्नः॥६॥ बन्नाति ततो बहुविधमन्यत्पुनरपि नवं सुबहु कर्म । तेनाथ पच्यते पुनरग्नेरग्निं प्रविश्येव ॥ ७ ॥ एवं कर्माणि पुनः पुनः स वस्तथैव मुश्चंश्च । सुखकामो बहुदुःखं संसारमनादिकं भ्रमति ॥८॥ एवं भ्रमतः संसारसागरे दुर्लभं मनुष्यत्वम् । |संसारमहत्त्वाधार्मिकत्वदुष्कर्मबाहुल्यैः॥ ९ ॥आर्यों देशः कुलरूपसम्पदायुश्च दीर्घमारोग्यम् । यतिसंसर्गः श्रद्धा धर्मश्रवणं च मतितैक्ष्ण्यम् ॥ १० ॥ एतानि दुर्लभानि प्राप्तवतोऽपि दृढमोहनीयस्य । कुपथाकुलेऽर्हदुक्तोऽतिदुर्लभो तत्रे प्र.. 5:45RENX-2CE5% | अपरिज्ञातकर्मा आत्मानाम् विविध जीव-योनि मध्ये परिभ्रमणं ~53-23 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [s] दीप अनुक्रम [१०] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [९], निर्युक्ति: [६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा जगति सन्मार्गः ॥ ११ ॥” यदि वा योऽयं पुरुषः सर्वा दिशेोऽनुदिशश्चानुसञ्चरति तथाऽनेकरूपा योनीः सन्धावति विराङ्गवृत्तिः ॐ रूपरूपांश्च स्पर्शान् प्रतिसंवेदयति, सः 'अविज्ञातकर्मा' अविज्ञातम् - अविदितं कर्म क्रिया व्यापारो मनोवाक्कायलक्षणः, (शी०) ७ अकार्षमहं करोमि करिष्यामीत्येवंरूपः जीवोपमर्दात्मकरवेन बन्धहेतुः सावद्यो येन सोऽयमविज्ञातकर्मा, अविज्ञातक* र्मत्वेन च तत्र तत्र कर्मणि जीवोपमर्दादिके प्रवर्त्तते येन येनास्याष्टविधकर्म्मबन्धो भवति, तदुदयाच्चानेकरूपयोन्यनुसन्धानं विरूपरूपस्पर्शानुभवश्च भवतीति ॥ ९ ॥ यद्येवं ततः किमित्यत आह ।। २५ ।। ४ तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेइआ (सू० १० ) 'तत्र' कर्मणि व्यापारे अकार्षमहं करोमि करिष्यामीत्यात्मपरिणतिस्वभावतया मनोवाक्कायव्यापाररूपे 'भगवता' वीरवर्द्धमानस्वामिना परिज्ञानं परिज्ञा सा प्रकर्षेण प्रशस्ताऽऽदौ वा वेदिता प्रवेदिता, एतच्च सुधर्म्मस्वामी जम्बूखामिनाम्ने कथयति सा च द्विधा ज्ञपरिज्ञा प्रत्याख्यानपरिज्ञा च तत्र ज्ञपरिज्ञया सावद्यव्यापारेण बन्धो भवतीत्येवं भगवता परिज्ञा प्रवेदिता, प्रत्याख्यानपरिज्ञया च सावद्ययोगा बन्धहेतवः प्रत्याख्येया इत्येवंरूपा चेति ॥ अमुमेवार्थं निर्युक्तिकृदाह तत्थ अकारि करिस्सति बंधचिंता कया पुणो होइ । सहसम्मइया जाणइ कोइ पुण हेतुजुत्तीए ॥ ६७ ॥ 'तत्र' कर्मणि क्रियाविशेषे, किम्भूत इत्याह- 'अकारि करिस्संति' अकारीति कृतवान् करिस्सन्ति-करिष्यामीति ॥ २५ ॥ अनेनातीतानागतोपादानेन तन्मध्यवर्तिनो वर्त्तमानस्य कारितानुमत्योश्चोपसान्नचापि भेदा आत्मपरिणामत्वेन यो Jain Estication Intematonal For Pantry Use Only अध्ययनं १ उद्देशकः १ ~54 ~# Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [१०], नियुक्ति: [६७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [१०] % दीप अनुक्रम [१०]] गरूपा उपात्ता द्रष्टव्याः, तत्रानेनात्मपरिणामरूपेण क्रियाविशेषेण 'बन्धचिन्ता कृता भवति' बन्धस्योपादानमपात | भवति, 'कर्म योगनिमित्तं बध्यते' इति वचनात्, एतच्च कश्चिज्जानाति आत्मना सह या सन्मतिः स्वमति-अवधिमनापर्यायकेवलजातिस्मरणरूपा तया जानाति, कृश्चिच्च पक्षधर्मान्वयव्यतिरेकलक्षणया हेतुयुक्त्येति । अथ किमर्थमसौ। कटुकविपाकेषु कर्माश्रवहेतुभूतेषु क्रियाविशेषेषु प्रवर्त्तत इत्याह इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाईमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेउं (सू०११) तत्र जीवितमिति-जीवन्त्यनेनायुःकर्मणेति जीवित-प्राणधारणम् , तच्च प्रतिप्राणि स्वसंविदितमितिकृत्वा प्रत्यक्षास-12 सवाचिनेदमा निर्दिशति, चशब्दो वक्ष्यमाणजात्यादिसमुच्चयार्थः, एवकारोऽवधारणे, अस्यैव जीवितस्यार्थे परिफल्गु-18 सारस्य तडिल्लताविलसितचञ्चलस्य बहपायस्य दीर्घसुखाई क्रियासु प्रवर्तते, तथाहि-जीविष्याम्यहमरोगः सुखेन भोगान् भोक्ष्ये ततो व्याध्यपनयनार्थं स्नेहापानलावकपिशितभक्षणादिषु क्रियासु प्रवर्तते, तथाऽल्पस्य सुखस्य कृते अभिमानग्रहाकुलितचेता बह्वारम्भपरिग्रहादहशुभं कर्मादत्ते, उक्तं च-"द्वे वाससी प्रवरयोपिदपायशुद्धा, शय्याऽऽसनं करिवरस्तुरगो रथो वा । काले भिपग्नियमिताशनपानमात्रा, राज्ञः पराक्यमिव सर्वमवेहि शेषम् ॥ १ ॥ पुष्ट्यर्थमन्नमिह यत्प्रणिधिप्रयोगैः, संत्रासदोषकलुषो नृपतिस्तु भुते । यन्निर्भयः प्रशमसौख्यरतिश्च भैक्षं, तत् स्वादुतां भृशमुपैति न पार्थिवान्नम् ॥ २॥ भृत्येषु मन्त्रिषु सुतेषु मनोरमेषु, कान्तासु वा मधुमदाकरितेक्षणासु । विश्वम्भमेति न कदाचिदपि क्षितीशः, सर्वाभिशविन्तमतेः कतरतु सौख्यम् ॥ ३ ॥" तदेवमनवबुद्धतरुणकिशलयपलाशचश्चलजीवितरतयः कर्मा 150-1550 JAILERKIMind | कर्माश्रव-हेतुभूत क्रियाविशेषे प्रवर्तने जीवस्य हेत: ~55-2 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [११], नियुक्ति: [६७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [११] दीप अनुक्रम [११] श्रीआचा- श्रवेषु जीवितोपमर्दादिरूपेषु प्रवर्तन्ते, तथाऽस्यैव जीवितस्य परिवन्दनमाननपूजनार्थ हिंसादिषु प्रवर्तन्ते, तत्र 'परि- अध्ययनं १ रावृत्तिः वन्दनं' संस्तवः प्रशंसा तदर्थमाचेष्टते, तथाहि-अहं मयूरादिपिशिताशना(ली तेजसा देदीप्यमानो देवकुमार इव|3|| (शी.) लोकानां प्रशंसास्पदं भविष्यामीति 'माननम्' अभ्युत्थानासनदानाञ्जलिपग्रहादिरूपं तदर्थे वा चेष्टमानः कमोचि उद्देशकः१ नोति तथा पूजनं पूजा-द्रविणवस्त्रानपानसत्कारप्रणामसेवाविशेषरूपं तदर्थं च प्रवर्त्तमानः क्रियासु कर्माश्रवैरात्मानं ॥२६॥ सम्भावयति, तथाहि-वीरभोग्या वसुन्धरे'ति मत्वा पराक्रमते, दण्डभयाच्च सर्वा प्रजा बिभ्यतीति दण्डयति, इत्येवं 31 राज्ञामन्येषामपि यथासम्भवमायोजनीयम् , अत्र च वन्दनादीनां द्वन्द्वसमासं कृत्वा तादर्थे चतुर्थी विधेया, परिव-प न्दनमाननपूजनाय जीवितस्य कर्माश्रयेषु प्रवर्त्तन्त इति समुदायार्थः । न केवलं परिवन्दनाद्यर्थमेव कर्मादत्ते, अन्यार्थमप्यादत्त इति दर्शयति-जातिश्च मरणं च मोचनं च जातिमरणमोचनमिति समाहारद्वन्द्वात्तादयें चतुर्थी, एतदर्थं 8 |च प्राणिनः क्रियासु प्रवर्त्तमानाः कर्माददते, तत्र जात्यर्थं क्रौञ्चारिवन्दनादिकाः क्रिया विधत्ते, तथा यान् यान् का-I मान् ब्राह्मणादिभ्यो ददाति तांस्तानन्यजन्मनि पुनर्जातो भोक्ष्यते, तथा मनुनाऽप्युक्तम्-“वारिदस्तृप्तिमामोति, सुखमक्षयमन्नदः । तिलप्रदः प्रजामिष्टामायुष्कमभयप्रदः ॥११॥" अन चैकमेव सुभाषितम्-'अभयप्रदान'मिति तुषमध्ये कणिकावदिति, एवमादिकुमार्गोपदेशाद्धिसादौ प्रवृत्तिं विदधाति । तथा मरणार्थमपि पितृपिण्डदानादिषु क्रियासु प्रव४ तेते , यदिवा भमानेन सम्बन्धी व्यापादितस्तस्य वैरनिर्यातनार्थं वधबन्धादी प्रवर्त्तते, यदिवा मरणनिवृत्त्यर्थमात्मनो ॥२६॥ १ कार्तिकेशः wwwandltimaryam कर्माश्रव-हेतुभूत क्रियाविशेषे प्रवर्तने जीवस्य हेतुः, ते ते क्रिया: ~56-2 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [११], नियुक्ति: [६७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक A [११] दीप अनुक्रम |दुर्गाद्युपयाचितमजादिना बलिं विधत्ते यशोधर इव पिष्टमयकुक्कुटेन, तथा मुक्त्यर्थमज्ञानावृतचेतसः पश्चाग्नितपोऽनुष्ठा-II नादिकेषु प्राण्युपमईकारिषु प्रवर्त्तमानाः कर्माददते, यदिवा जातिमरणयोविमोचनाय हिंसादिकाः क्रियाः कुर्वते । 'जाइमरणभोयणाए'त्ति वा पाठान्तरं, तत्र भोजनार्थ कृष्यादिकर्मसु प्रवर्त्तमाना वसुधाजलज्वलनपवनवनस्पतिद्वित्रिचतुप्पञ्चेन्द्रियव्यापत्तये व्याप्रियन्त इति । तथा दुःखप्रतिघातमुररीकृत्यात्मपरित्राणार्थमारम्भानासेवन्ते, तथाहि-व्याधिवेदनार्त्ता लावकपिशितमदिराद्यासेवन्ते, तथा वनस्पतिमूलत्वपत्रनिर्यासादिसिद्धशतपाकादितैलार्थमझ्यादिसमारम्भेण पापं कुर्वन्ति स्वतः कारयन्त्यन्यैः कुर्वतोऽन्यान् समनुजानत इत्येवमतीतानागतकालयोरपि मनोवाकाययोगैः कर्मादानं विदधतीत्यायोजनीयम् । तथा दुःखप्रतिघातार्थमेव सुखोत्सत्यर्थं च कलत्रपुत्रगृहोपस्कराद्याददते, तल्लाभपालनार्थं च तासु तासु क्रियासु प्रवर्त्तमानाः पापकर्मासेवन्त इति, उक्तं च-"आदौ प्रतिष्ठाऽधिगमे प्रयासो, दारेषु पश्चागृहिणः सुतेषु । कर्तुं पुनस्तेषु गुणप्रकर्ष, चेष्टा तदुबै पदलहनाय ॥१॥" तदेवंभूतैः क्रियाविशेषैः कर्मोपादाय नानादिश्वनुसञ्चरन्ति अनेकरूपासु च योनिषु सन्धावन्ति विरूपरूपांश्च स्पर्शान् प्रतिसंवेदयन्ति, इत्येतज्ज्ञात्वा क्रियाविशेषनिवृत्तिविधेयेति ॥११॥ एतावन्त एव च क्रियाविशेषा इति दर्शयितुमाह एयावंति सव्वावंति लोगंसि कम्मसमारंभा परिजाणियव्वा भवंति (सू०१२) 'एआवन्ती सव्यावन्तीति एतौ द्वौ शब्दो मागधदेशीभाषाप्रसिद्ध्या एतावन्तः सर्वेऽपीत्येतपर्यायौ, एतावन्त एव १मोक्षाया प्र. C HALISASS* ********* wwwandltimaryam कर्माश्रव-हेतुभूत क्रियाविशेषे प्रवर्तने जीवस्य हेत्ः, ते ते क्रिया: ~57~# Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [१२], नियुक्ति: [६७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: अध्ययन प्रत सूत्रांक [१२] दीप अनुक्रम [१२] श्रीआचा- सर्वस्मिन् 'लोके' धर्माधर्मास्तिकायावच्छिन्ने नभःखण्डे ये पूर्व प्रतिपादिताः 'कर्मसमारम्भाः' क्रियाविशेषाः, नैतेभ्यो- राजवृत्तिःऽधिकाः केचन सन्तीत्येवं परिज्ञातव्या भवन्ति, सर्वेषां पूर्वत्रोपादानादिति भावः तथाहि आत्मपरोभयहिकामुष्मिका(शी०) तीतानागतवर्तमानकालकृतकारितानुमतिभिरारम्भाः क्रियन्ते, ते च सर्वेऽपि प्रागुपात्ता यथासम्भवमायोज्या इति ॥ १२ ॥ एवं सामान्येन जीवास्तित्वं प्रसाध्य तदुपमईकारिणां च क्रियाविशेषाणां बन्धहेतुत्वं प्रदश्योपसंहारद्वारेण ॥२७॥ विरति प्रतिपादयन्नाह जस्सेते लोगसि कम्मसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिषणायकम्मे (सू० १३) तिबेमि ॥ प्रमथोद्देशकः १॥ भगवान् समस्तवस्तुवेदी केवलज्ञानेन साक्षादुपलभ्यैवमाह-'यस्य' मुमुक्षोः 'एते' पूर्वोक्ताः 'कर्मसमारम्भाः' क्रियाविशेषाः कमणो वा-ज्ञानावरणीयाद्यष्टप्रकारस्य समारम्भा-उपादानहेतवस्ते च क्रियाविशेषा एव, परि-समन्तात् ज्ञाताः |-परिच्छिन्ताः कर्मबन्धहेतुत्वेन भवन्ति, हुरवधारणे, मनुते मन्यते वा जगतखिकालावस्थामिति मुनिः स एव मुनिज़ परिज्ञया परिज्ञातकर्मा प्रत्याख्यानपरिज्ञया च प्रत्याख्यातकर्मबन्धहेतुभूतसमस्तमनोवाकायव्यापार इति, अनेन | दाच मोक्षाभूते ज्ञानक्रिये उपात्ते भवतो, न ह्याभ्यां विना मोक्षो भवति, यत उक्तम्-"ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष" इति इतिशब्द एतावानयमात्मपदार्थविचारः कर्मबन्धहेतुविचारश्च सकलोदेशकेन परिसमापित इति प्रदर्शकः, यदिवा ॥ २७॥ 50 wwwandltimaryam | कर्मबंधस्य कारणभूत क्रियाविशेषा: ~58~# Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१३], नियुक्ति: [६७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [१३] इति' एतदहं ब्रवीमि यत्यागुतं यच्च वक्ष्ये तत्सर्वं भगवदन्तिके साक्षात् श्रुत्वेति शस्त्रपरिज्ञायां प्रशमोद्देशकः समाप्तः॥ उक्तः प्रथमोद्देशक साम्प्रतं द्वितीयः प्रस्तूयते-अस्य चायमभिसम्बन्धः-प्रथमोद्देशके सामान्येन जीवास्तिवं प्रसा[धितम् , इदानीं तस्यैवेकेन्द्रियादिपृथिव्याधस्तित्वप्रतिपिपादयिषयाऽऽह-यदिवा प्राक् परिज्ञातकर्मत्वं मुनित्वकारणमुपादेशि, यः पुनरपरिज्ञातकर्मत्वान्मुनिर्न भवति-विरतिं न प्रतिपद्यते स पृथिव्यादिषु धम्भ्रमीति, अथ क एते पृथिव्यादय इत्यतस्तद्विशेषास्तित्वज्ञापनार्थमिदमुपक्रम्यत इति । अनेनाभिसम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि वाच्यानि, यावन्नामनिष्पन्ने निक्षेपे पृथिव्युद्देशक इति, तत्रोद्देशकस्य निक्षेपादेरन्यत्र प्रतिपादितत्वान्नेह प्रदर्श्यते, पृथिव्यास्तु यन्निक्षेपादि सम्भवति तनियुक्तिकृद्दर्शयितुमाह पुढचीए निकखेचो परूवणालक्खणं परीमाणं । उपभोगो सत्थं वेयणा य वहणा निवित्तीय ॥१८॥ प्राग् जीवोद्देशके जीवस्य प्ररूपणा किं न कृतेत्येतच नाशङ्कनीयं, यतो जीवसामान्यस्य विशेषाधारत्वात् विशेषस्य च पृथिव्यादिरूपत्वात् सामान्यजीवस्य चोपभोगादेरसम्भवात् पृथिव्यादिचर्चयैव तस्य चिन्तितत्वादिति । तत्र पृथिव्या नामादिनिक्षेपो वक्तव्यः, प्ररूपणा-सूक्ष्मवादरादिभेदा, लक्षणं-साकारानाकारोपयोगकाययोगादिक, परिमाण-संवर्तिपातलोकप्रतरासंख्येयभागमात्रादिकम् , उपभोगः-शयनासनचङ्कमणादिकः, शस्त्रं-हाम्लक्षारादि, वेदना-स्वशरीराव्यक्त चेतनानुरूपा मुखदुःखानुभवस्वभावा, वधा-कृतकारितानुमतिभिरुपमईनादिकः, निवृत्तिः-अप्रमत्तस्य मनोवाकायगुप्याऽनुपमहादिकेति समासाथैः । व्यासार्थं तु नियुक्तिकृयथाक्रममाह wwwandltimaryam प्रथम अध्ययने द्वितीय: उद्देशक: 'पृथ्विकाय' आरब्धः, 'पृथ्वी' शब्दस्य निक्षेपा:, ~59~# Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [१३] श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०) नामंठवणापुढवी दव्वपुढवी य भावपुढवी य। एसो खलु पुढवीए निक्खेवो चडविहो होइ ॥ ६९ ॥ स्पष्टा, नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्याह- दव्वं सरीरभविओ भाषेण य होइ पुढविजीवो उ। जो पुढविनामगोयं कम्मं वेएइ सो जीवो ॥ ७० ॥ द्रव्यपृथिवी आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः, नोआगमतस्तु पृथिवीपदार्थज्ञस्य शरीरं ॥ २८ ॥ * जीवापेतं तथा पृथिवीपदार्थज्ञत्वेन भव्यो- बालादिस्ताभ्यां विनिर्मुक्तो द्रव्यपृथिवीजीयः - एकभविको बद्धायुष्कोऽभिमुखनामगोत्रश्च भावपृथिवीजीवः पुनर्यः पृथिवीनामादिकर्मोदीर्ण वेदयति । गतं निक्षेपद्वारं, साम्प्रतं प्ररूपणाद्वारम्-दुविहाय पुढविजीवा सुहमा तह बायरा य लोगंमि । सुमा य सव्वलोए दो चैव य बाघरविहाणा ॥ ७१ ॥ पृथिवीजीवा द्विविधाः - सूक्ष्मा बादराश्च, सूक्ष्मनामकर्मोदयात् सूक्ष्माः, बादरनामकर्मोदयान्तु बादराः, कर्मोदयजनिते एवैषां सूक्ष्मवादरत्वे न त्वापेक्षिके वदरामलकयोरिव । तत्र सूक्ष्माः समुद्गकपर्याप्तप्रक्षिप्तगन्धावयववत् सर्वलोकव्यापिनः, बादरास्तु मूलभेदाद्विविधा इत्याह- “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [२] मूलं [ १३...], निर्युक्तिः [६९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः %%*% *%% % % *%* दुविहा बायरपुढवी समासओ सण्हपुढवि खरपुढवी । सण्हा य पंचवण्णा अवरा छत्तीसहविहाणा ॥ ७२ ॥ 'समासतः' संक्षेपाद्विविधा बादरपृथिवी श्लक्ष्णबादरपृथिवी खरवादरपृथिवी च तत्र श्लक्ष्णवादरपृथिवी कृष्णनीललोहितपीतशुक्लभेदालवधा, इह च गुणभेदाद्गुणिभेदोऽभ्युपगन्तव्यः, खरबादरपृथिव्यास्त्वन्येऽपि षटूत्रिंशद्विशेषभेदाः ४ ॥ २८ ॥ सम्भवन्तीति ॥ तानाह Jan Estication Intemational 'पृथ्वी' शब्दस्य निक्षेपा:, 'पृथ्व्या: भेदा: For Parts Only अध्ययनं १ उद्देशकः २ ~60~# Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [१३] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [२], मूलं [ १३...], निर्युक्तिः [७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः पुढवी व सकरा बालुगा य उवले सिला य लोणूसे । अय तंब तउअ सीसग रुप्प सुवण्णे य वइरे य ॥ ७३ ॥ हरियाले हिंगुलए मणोसिला सासगंजण पवाले । अम्भपडलन्भवालुअ बायरकाए मणिविहाणा ॥ ७४ ॥ गोमेज य रुगे अंको फलिहे य लोहियक्खे य। मेरगय मसारगल्ले भुयमोयग इंदनीले य ॥ ७६ ॥ चंद पह बेरुलिए जलकंते चैव सूरकन्ते य। एए खरपुढवीए नाम छत्तीस होइ ॥ ७६ ॥ अत्र च प्रथमगाथया पृथिव्यादयश्चतुर्द्दश भेदाः परिगृहीताः, द्वितीयगाथया त्वष्टौ हरितालादयः, तृतीयगाथया दश गोमेदकादयः, तुर्यगाथया चत्वारश्चन्द्रकान्तादयः । अत्र च पूर्वगाथाद्वयेन सामान्यपृथिवीभेदाः प्रदर्शिताः, उसरगाथाद्वयेन मणिभेदाः प्रदर्शिताः, एताः स्पष्टा इति कृत्वा न विवृताः ॥ एवं सूक्ष्मवादरभेदान् प्रतिपाद्य पुनर्वर्णादिभेदेन पृथिवीभेदान् दर्शयितुमाह वण्णरसगंधफासे जोणिप्पमुहा भवंति संखेज्जा । णेगाइ सहस्साई हुंति विहाणंमि इक्किके ॥ ७७ ॥ तत्र वर्णाः शुक्लादयः पञ्च रसास्तिकादयः पञ्च गन्धौ सुरभिदुरभी स्पर्शाः मृदुकर्कशादयः अष्टौ तत्र वर्णादिके एकैकस्मिन् 'योनिप्रमुखा' योनिप्रभृतयः संख्येया भेदा भवन्ति, संख्येयस्यानेकरूपत्वाद्विशिष्टसंख्यार्थमाह-अनेकानि सहस्राणि एकैकस्मिन् वर्णादिके 'विधाने' भेदे भवन्ति, योनितो गुणतश्च भेदानामिति । एतच्च सप्तयोनिलक्षप्रमाणत्वात् १ चंदण गेय हंसग भुयमोय नसारगले व प्र. Jan Estication Intemational 'पृथ्व्या: भेदा:, (वर्ण-आदि भेदे) For Fanart Use Only ~61~# www.india.org Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [१३] श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ २९ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [२], मूलं [ १३...], निर्युक्तिः [७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः पृथिव्या एवं सम्भावनीयमिति । उक्तं च प्रज्ञापनायाम् - "तैत्थ णं जे ते पज्जत्तगा एएसि णं वण्णादेसेणं गंधादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई संखेजाई जोणिपमुहसयसहस्साई पज्जत्तयणिस्साए अपज्जत्तया वकमंति, तं जत्थेगो तत्थ नियमा असंखेज्जा, से तं खरचायरपुढविकाइया" इह च संवृतयोनयः पृथिवीकायिका उक्ताः, सा पुनः सचित्ता अचित्ता मिश्रा वा, तथा पुनश्च शीता उष्णा शीतोष्णा वेत्येवमादिका द्रष्टव्येति ॥ एतदेव भूयो निर्युक्तिकृत् स्पष्टतरमाह वर्णमि य इक्किके गंधमि रसंमि तह य फासंमि । नाणत्ती कायव्वा विहाणए होइ इकिकं ॥ ७८ ॥ वर्णादिके एकैकस्मिन् 'विधाने' भेदे सहस्राशो नानात्वं विधेयं, तथाहि कृष्णो वर्ण इति सामान्यं तस्य च भ्र|| मराङ्गारकोकिलगबलकज्जलादिषु प्रकर्षाप्रकर्षविशेषाद्भेदः कृष्णः कृष्णतरः कृष्णतम इत्यादि, एवं नीलादिष्वप्यायोज्यं, तथा रसगन्धस्पर्शेषु सर्वत्र पृथिवीभेदा वाच्याः, तथा वर्णादीनां परस्परसंयोगाद्धूसर केसरकर्बुरादिवर्णान्तरोत्पत्तिरेवमुत्प्रेक्ष्य वर्णादीनां प्रत्येकं प्रकर्षाप्रकर्षतया परस्परानुवेधेन च बहवो भेदा वाच्याः ॥ पुनरपि पर्याप्तकादिभेदाने दमाह--- जे बायरे विहाणा पत्ता तत्तिआ अपलत्ता । सुहुमावि हुंति दुबिहा पञ्चत्ता चेव अपनन्ता ॥ ७९ ॥ १ भावनीयमिति प्र. २ तत्र ये ते पर्याप्तकाः एतेषां वर्णादेशेन गन्धादेशेन रसादेशेन स्पर्शादेशेन सहस्रामो विधानानि संख्येयानि योनिप्रमुखानि शतसहस्राणि पर्याप्तकनिश्रयाऽपर्याप्तका व्युत्क्रामन्ति तद् यत्रैकस्तत्र नियमादसंख्येयाः इत्येते खरबादरपृथ्वीकायिकाः. Jan Estication Intematonal 'पृथ्व्या: भेदा:, (वर्ण-आदि भेदे) For Panart Use Only ~62 ~# अध्ययनं‍ उद्देशकः २ ॥ २९ ॥ www.india.org Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१३...], नियुक्ति: [७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] यानि बादरपृथिवीकाये 'विधानानि' भेदाः प्रतिपादितास्तानि यावन्ति पर्याप्तकानां तावन्त्येवापर्याप्तकानामपि, अत्र। लाच भेदानां तुल्यत्वं द्रष्टव्यं न तु जीवाना, यत एकपर्याप्तकाश्रयेणासंख्येया अपर्याप्तका भवन्ति, सूक्ष्मा अपि पर्याप्तका-| पर्याप्तकभेदेन द्विविधा एव, किन्तु अपर्याप्तकनिश्रया पर्याप्तकाः समुत्पद्यन्ते, यत्र चैकोऽपर्याप्तकस्तत्र नियमादसंख्येयाः | INIपर्याप्तकाः स्युः। पर्याप्तिस्तु 'आहारसरीरिन्दियऊसासवओमणोऽहिनिब्वत्ती । होति जतो दलियाओ करणं पइ सा| |उ पजत्ती ॥ १ ॥' जन्तुरुत्पद्यमानः पुद्गलोपादानेन करणं निवर्त्तयति तेन च करणविशेषेणाहारमवगृह्य पृथग | खलरसादिभावेन परिणतिं नयति स ताहकरणविशेष आहारपर्याप्तिशब्देनोच्यते, एवं शेषपर्याप्तयोऽपि वाध्याः, तत्रै-18 केन्द्रियाणामाहारशरीरेन्द्रियोच्यासाभिधानाचतस्रो भवन्ति, एताश्चान्तर्महतेन जन्तुरादत्ते, अनाप्तपर्याप्तिरपर्याप्तको-IN ऽवासपोष्ठिस्तु पर्याप्ठक इति, अत्र च पृथिव्येव कायो येषामिति विग्रहः ॥ यथा सूक्ष्मबादरादयो भेदाः सियन्ति तथा प्रसिद्धभेदेनोदाहरणेन दर्शयितुमाह रुक्खाणं गुच्छाणं गुम्माण लयाण वल्लिवलयाणं । जह दीसह नाणत्तं पुढवीकाए तहा जाण ॥८॥ _यथा वनस्पतेपेक्षाविभेदेन स्पष्टं नानात्वमुपलभ्यते, तथा पृथिवीकायिकेऽपि जानीहि, तत्र वृक्षाः-चूतादयो गुच्छा-15 वृन्ताकीसलकीकपोस्वादयः, गुल्मानि-नवमालिकाकोरण्टकादीनि, लताः-पुत्रागाशोकलताधार, कल्या-वपुषीवालङ्कीकोशातक्याद्याः, क्लयानि केतकीकदल्यादीनि । पुनरपि वनसक्तिभेदहष्टान्तेन पृथिव्या भेदमाह-- मादा शरीरमिन्द्रियाणि उपकासो क्कः मनः (एषा) अभिनितिः । भवति यतो दलिकात् करणं प्रति सैव पर्याप्तिः ॥ १॥ दीप अनुक्रम [१३] CCCCCESCR4560 walpatnamang 'पृथ्व्या:' भेदाः, वनस्पते: भेदा: ~63-23 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१३...], नियुक्ति: [८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम श्रीआचा- AL ओसहि तण सेवाले पणगविहाणे य कंद मूले य । जह दीसह नाणत्तं पुढवीकाए तहा जाण ॥ ८१॥ . अध्ययनं १ रावृत्तिः यथा हि वनस्पतिकायस्य ओषध्यादिको भेद एवं पृथिव्या अपि द्रष्टव्यः, तत्र ओषध्यः-शाल्याद्याः, तृणानि-दर्भा(शी०) दीनि, सेवालं-जलोपरि मलरूप, पनकः-काष्ठादावुल्लीविशेषः पञ्चवर्णः, कन्दः-सूरणकन्दादिः, मूलम्-उशीरादीति ॥ उद्देशकः२ IN एते च सूक्ष्मत्वान्नकल्यादिकाः समुपलभ्यन्ते, यत्संख्यास्तूपलम्भ्यन्ते तदर्शयितुमाह॥३०॥ इकस्स दुण्ह तिण्ह व संखिज्जाण व न पासि सका । दीसंति सरीराई पुढविजियाणं असंखाणं ॥८२॥ सष्टा ॥ कथं पुनरिदमवगन्तव्यम् , सन्ति पृथिवीकायिका इति, उच्यते, तदधिष्ठितशरीरोपलब्धेः अधिष्ठातरि || प्रतीतिर्गवाश्वादाविव इति, एतद्दर्शयितुमाह एएहिं सरीरेहिं पचक्ख ते परूविया हंति । सेसा आणागिशा चक्खुफासं नजं इंति ॥८॥ 'एभिः' असंख्येयतयोपलभ्यमानैः पृथिवीशर्करादिभेदभिन्नैः शरीरैस्ते शरीरिणः शरीरद्वारेण 'प्रत्यक्ष साक्षात् 'प्र-13 |रूपिताः' ख्यापिता भवन्ति, शेषास्तु सूक्ष्मा आज्ञामाह्या एव द्रष्टव्याः, यतस्ते चक्षुःस्पर्श नागच्छन्ति, स्पर्शशब्दो विषयार्थः ॥ प्ररूपणाद्वारानन्तरं लक्षणद्वारमाहउवओगजोग अज्झवसाणे मइसुय अचक्खुदंसे य । अट्ठविहोदयलेसा सन्नुस्सासे कसाया य ॥८४॥ तत्र पृथिवीकायादीनां स्त्यानाद्युदयाद्या च यावती चोपयोगशक्तिरव्यक्ता ज्ञानदर्शनरूपेत्येवमात्मक उपयोगो लक्षणं, तथा योग:-कायाख्य एक एव, औदारिकतन्मिनकार्मणात्मको वृद्धयष्टिकल्यो जन्तोः सकर्मकस्थालम्बनाय [१३] ॥३०॥ wwwandltimaryam | वनस्पते: भेदाः, पृथिवी आदि कायिकानाम् लक्षणा: ~64-2 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१३...], नियुक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [१३] व्याप्रियते, तथा अध्यवसायाः-सूक्ष्मा आत्मनः परिणामविशेषाः, ते च लक्षणम् , अव्यक्तचैतन्यपुरुषमनःसमुद्भूतचिताविशेषा इवानभिलक्ष्यास्तेऽभिगन्तव्याः, तथा साकारोपयोगान्तःपातिमतिश्रुताज्ञानसमन्विताः पृथिवीकायिका बोद्धव्याः, तथा स्पर्शनेन्द्रियेणाचक्षुर्दर्शनानुगता बोद्धव्याः, तथा ज्ञानावरणीयायष्टविधकर्मोदयभाजस्तावद्वन्धमाजश्च, तथा लेश्या-अध्यवसायविशेषरूपाः कृष्णनीलकापोततैजस्यश्चतस्रः ताभिरनुगताः, तथा दशविधसंज्ञानुगताः, ताश्च आहारादिकाः प्रागुता एव, तथा सूक्ष्मोच्छासनिःश्वासानुगताः, उक्तं च "पुढ विकाइया णं भंते ! जीवा आणवन्ति वा पाणवन्ति वा ऊससन्ति वा नीससंति वा ?, गोयमा! अविरहियं सतयं चेव आणवन्ति वा पाणवन्ति वा ऊससन्ति वा नीससन्ति चा" कषाया अपि सूक्ष्माः क्रोधादयः । एवमेतानि जीवलक्षणान्युपयोगादीनि कषायपर्यवसानानि पृथिवीकायिकेषु सम्भवन्तीति, ततश्चैवंविधजीवलक्षणकलापसमनुगतत्वात् मनुष्यवत्सचित्ता पृथिवीति । ननु च तदिदम| सिद्धमसिद्धेन साध्यते, तथाहि-न छुपयोगादीनि लक्षणानि पृथिवीकायेषु व्यक्तानि समुपलक्ष्यन्ते, सत्यमेतद्, अव्यतानि तु विद्यन्ते, यथा कस्यचित्पुंसः हृत्पूरकव्यतिमिश्रमदिरातिपानपित्तोदयाकुलीकृतान्तःकरणविशेषस्याव्यक्ता चेतना, न चैतावता तस्याचिद्रूपता, एवमत्राप्यन्यक्तचेतनासम्भवोऽभ्युपगन्तव्यः, ननु चाबोडासादिकमव्यक्तचेतनालिङ्गामस्ति, न चेह तथाविधं किचिच्चेतनालिङ्गमस्ति, नैतदेवम्, इहापि समानजातीयलतोमेदादिकमर्शोमांसाङ्कुरवच्चेतना पृथ्वीकायिका भदन्त ! जीचा आनन्ति या प्राणन्ति वा उपसन्ति वा निःश्वसन्ति वा !, गौतम ! अविरहितं सततमेव चानन्ति वा प्राणन्ति वा उपवसन्ति वा निःश्वसन्ति वा. wwwandltimaryam पृथिवी आदि कायिकानाम् लक्षणा: ~65~# Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१३...], नियुक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) [१३] दीप अनुक्रम [१३] माचिह्नमस्त्येव, अव्यक्तचेतनानां हि सम्भावितकचेतनालिङ्गानां वनस्पतीनामिव चेतनाऽभ्युपगन्तव्येति, वनस्पतेश्च चैतन्य अध्ययन १ विशिष्ट पुष्पफलप्रदत्वेन स्पष्टं साधयिष्यते च, ततोऽव्यक्कोपयोगादिलक्षणसद्भावात् सचित्ता पृथिवीति स्थितम् ॥ देश ननु चाश्मलतादेः कठिनपुद्गलात्मिकायाः कथं चेतनत्वमित्यत आह अट्ठी जहा सरीरंमि अणुगयं चेयणं खरं दिह्र । एवं जीवाणुगयं पुढविसरीरं खरं होई ।। ८५॥ यथाऽस्थि शरीरानुगतं सचेतनं खरं दृष्टम् , एवं जीवानुगतं पृथिवीशरीरमपीति ॥ साम्प्रतं लक्षणद्वारानन्तरं परिमाणद्वारमाह जे वायरपजत्ता पयरस्स असंखभागमित्ता ते । सेसा तिन्निवि रासी वीसुं लोया असंखिजा ॥८६॥ तत्र पृथिवीकायिकाश्चतुर्दा, तद्यधा-बादराः पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च तथा सूक्ष्मा अपर्याप्ताः पर्याप्ताच, तत्र ये बादरा-13 पर्याप्तकास्ते संवर्तितलोकमतरासंख्येयभागमात्रवर्तिप्रदेशराशिप्रमाणा भवन्ति, शेषास्तु त्रयोऽपि राशयः प्रत्येकमसंख्येयानां लोकानामाकाशप्रदेशराशिप्रमाणा भवन्ति, यथानिर्दिष्टक्रमेण चैते यथोत्तरं बहुतराः, यत उक्तम्-"सब्बत्थोवा बादरपुढविकाइया पजत्ता, बादरपुढविकाइया अपज्जत्ता असंखेजगुणा सुहुमपुढविकाइया अपजत्ता असंखेज|गुणा सुहुमपुढविकाइया पजत्ता असंखेजगुणा" ॥ प्रकारान्तरेणापि राशित्रयस्थ परिमाणं दर्शयितुमाह सर्वसोका पादरपृथ्वीकायिकाः पर्याप्त पादरप्रथ्वीकायिका अपर्याप्ता असंख्येयगुणाः सूक्ष्मपृथ्वीकाविकाः अपर्याप्ता असंख्येयगुणाः सूक्ष्मपृथ्वी-1* काविकाः पर्याप्ता असंख्येयगुणाः. wwwandltimaryam पृथिवी आदि कायिकानाम् लक्षणा:, पृथिवीकायिकस्य परिमाण: ~66~# Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१३...], नियुक्ति: [८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [१३] पत्थेण च कुडवेण व जह कोइ मिणिज्ज सब्वधन्नाई। एवं मविजमाणा हवंति लोया असंखिज्जा ॥ ८७॥ द| यथा प्रस्थादिना कश्चित्सर्वधान्यानि मिनुयाद्, एवमसद्भावप्रज्ञापनाङ्गीकरणालोकं कुडवीकृत्याजघन्योत्कृष्टावगाह नान् पृथिवीकायिकजीवान् यदि मिनोति ततोऽसंख्येयान् लोकान् पृथिवीकायिकाः पूरयन्ति ॥ पुनरपि प्रकारान्तरेण परिमाणमाह लोगागासपएसे इकिकं निक्खिवे पुढविजीवं । एवं मविजमाणा हवंति लोआ असंखिज्जा ॥८॥ स्पष्टा ॥ साम्प्रतं कालतः प्रमाणं निर्दिदिक्षुः क्षेत्रकालयोः सूक्ष्मवादरत्वमाहनिउणो उ होइ कालो तत्तो निउणयरयं हवइ खित्तं । अंगुलसेढीमिते ओसप्पिणीओ असंखिज्जा ॥ ८॥ 'निपुणः' सूक्ष्मः 'काल' समयात्मकः, ततोऽपि सूक्ष्मतरं क्षेत्रं भवति, यतोऽङ्गुलीश्रेणिमात्रक्षेत्रप्रदेशानां समयापहारेkणासंख्येया उत्सपिण्यवसपिण्योऽपक्रामन्तीत्यतः कालात् क्षेत्रं सूक्ष्मतरम् ॥ प्रस्तुतं कालतः परिमाणं दर्शयितुमाहPI अणुसमयं च पवेसो निक्खमणं चेव पुढविजीवाणं । काए कायट्टिइया चउरो लोया असंखिज्जा ॥९॥ ॥ | तत्र जीवाः पृथिवीकायेऽनुसमयं प्रविशन्ति निष्कामन्ति च, एकस्मिन् समये कियतां निष्क्रमः प्रवेशश्च १-२, तथा विवक्षिते च समये कियन्तः पृथिवीकायपरिणताः सम्भवन्ति ३, तथा कियती च कायस्थिति ४ रित्यते चत्वारो वि-8 कल्पाः कालतोऽभिधीयन्ते, तत्रासंख्येयलोकाकाशप्रदेशपरिमाणाः समयेनोत्पद्यन्ते विनश्यन्ति च, पृथिवीत्वेन परि wwwanatimarmarg पृथिवीकायिकस्य परिमाण: ~67~# Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१३...], नियुक्ति: [९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत अध्ययनं १ सूत्रांक उद्देशकः२ [१३] दीप अनुक्रम [१३] श्रीआचा- णता अप्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणाः, तथा कायस्थितिरपि मृत्वा मृत्वाऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशपरिमाणं कालं तत्र तत्रोत्पद्यन्त इति, एवं क्षेत्रकालाभ्यां परिमाणं प्रतिपाद्य परसरावगाहप्रतिपिपादयिषयाऽऽह-- (शी०) थायरपुदविकाइयपज्जत्ती अन्नमन्नमोगाढो । सेसा ओगाहंते सुहुमा पुण सब्बलोगंमि ॥९१॥ बादरपृथिवीकायिकः पर्याप्तो यस्मिन्नाकाशखण्डे अवगाढः तस्मिन्नेवाकाशखण्डेऽपरस्यापि बादरपृथिवीकायिकस्य शरीरमवगादमिति, शेषास्तु अपर्याप्तकाः पर्याप्तकनिश्रया समुत्पद्यमाना अनन्तरप्रक्रियया पर्याप्तकावगाढाकाश्चमदेशावगाढाः, सूक्ष्माः पुनः सर्वस्मिन्नपि लोकेऽवगाढा इति ॥ उपभोगद्वारमाहचंकमणे य हाणे निसीयण तुयट्टणे य कयकरणे । उच्चारे पासवणे उवगरणाणं च निक्खिवणे ॥ ९२॥ आलेवण पहरण भूसणे य कयविक्कए किसीए य। भंडाणंपि य करणे उपभोगविही मणुस्साणं ॥ १३॥ चमणोद्धस्थाननिषीदनत्वग्वर्तनकृतकपुत्रककरणउच्चारप्रश्रवणउपकरणनिक्षेपआलेपनाहरणभूषणक्रयविक्रयकृषीकरAणभण्डकपट्टनादिघूपभोगविधिर्मनुष्याणां पृथिवीकायेन भवतीति ॥ यद्येवं ततः किमित्यत आह एएहिं कारणेहिं हिंसंति पुढविकाइए जीये। सायं गवेसमाणा परस्स दुक्खं उदीरति ॥ ९४॥ एभिश्चमणादिभिः कारणैः पृथिवीजीवान् हिंसन्ति, किमर्थमिति दर्शयति-'सात' सुखमात्मनोऽन्वेषयन्तः परदुःखा-| वन्यजानानाः कतिपयदिवसरमणीयभोगाशाकर्षितसमस्तेन्द्रियग्रामा विमूढचेतस इति, परस्य' पृथिव्याश्रितजन्तुराशेः 'दुःखम्' असातलक्षणं तदुदीरयन्ति-उत्सादयन्तीति, अनेन भूदानजनितः शुभफलोदयः प्रत्युक्त इति ॥ अधुना शस्त्र ॥३२॥ wwwandltimaryam पृथिवीकायिकस्य परिमाणद्वारं एवं उपभोगद्वारं ~68~# Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१३...], नियुक्ति: [९४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत ECRA सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [१३] द्वार-शस्यतेऽनेनेति शस्त्रं, तच्च द्विधा-द्रव्यशत्रं भावशस्त्रं च, द्रव्यशस्नमपि समासविभागभेदाविधैव, तत्र समासद्रव्य शस्त्रप्रतिपादनायाहKI हलकुलियविसकुद्दालालित्तयमिगसिंगकट्ठमग्गी य । उच्चारे पासवणे एयं तु समासओ सत्यं ॥ १५ ॥ तत्र हलकुलिकविपकुदालालित्रकमृगशृङ्गकाष्ठाग्युचारप्रश्रवणादिकमेतत् 'समासतः' संक्षेपतो द्रव्यशस्त्रम् ॥ विभागद्रव्यशस्त्रप्रतिपादनायाहकिंची सकायसत्थं किंची परकाय तदुभयं किंचि । एवं तु दव्वसत्वं भावे अ असंजमो सत्थं ॥ ९६ ॥ किश्चित्स्वकायशस्त्रं पृथिव्येव पृथिव्याः, किञ्चिपरकायशस्त्रमुदकादि, तदुभयं किञ्चिदिति भूदकं मिलितं भुव इति । तच्च सर्वमपि द्रव्यशखं, भावे पुनः 'असंयमः' दुष्पयुक्ता मनोवाकायाः शस्त्रमिति ॥ वेदनाद्वारमाह पायच्छेयण भेयण जंघोरु तहेव अंगुवंगेमुं। जह हुंति नरा दुहिया पुढविक्काए तहा जाण ॥ ९७॥ यथा पादादिकेष्वङ्गप्रत्यङ्गेषु छेदनभेदादिकया क्रियया नरा दुःखिताः, तथा पृथिवीकायेऽपि वेदनां जानीहि ॥ यद्यपि पादशिरोग्रीवादीन्यङ्गानि पृथिवीकायिकानां न सन्ति तथापि तच्छेदनानुरूपा वेदनाऽस्त्येवेति दर्शयितुमाह नधि य सि अंगुवंगा तयाणुरूवा य वेयणा तेसिं । केसिंचि उदीरंती केसिंचऽतिवायए पाणे ॥९८॥ पूर्वार्द्ध गतार्थं, केषाश्चित्पृथिवीकायिकानां तदारम्भिणः पुरुषा वेदनामुदीरयन्ति, केषाशित्तु प्राणानप्यतिपातयेयुBारिति । तथा हि भगवत्या दृष्टान्त उपात्तो यथा-चतुरन्तचक्रवर्तिनो गन्धपेषिका यौवनवर्तिनी बलवती आमलक र CKER wwwandltimaryam शस्त्रद्वारम् एवं शस्त्रस्य भेदाः, वेदना दवारं ~69~# Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [१३] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी० ) ॥ ३३ ॥ टू प्रमाणं सचित्तपृथिवीगोलक मेकविंशतिकृत्वो गन्धपट्टके कठिनशिलापुत्रकेण पिंष्यात्, ततस्तेषां पृथिवीजीवानां कश्चिसङ्घट्टितः कश्चित्परितापितः कश्चिद्व्यापादितोऽपरः किल तेन शिलापुत्रकेण न स्पृष्टोऽपीति ॥ वधद्वारमाह5 पवयंति य अणगारा ण य तेहि गुणेहि जेर्हि अणगारा । पुढत्रिं विहिंसमाणा न हु ते वायाहि अणगारा ॥९९॥ इह ह्येके कुतीर्थिका यतिवेषमास्थाय एवं च प्रवदन्ति वयम् 'अनगाराः' प्रब्रजिताः, न च 'तेषु गुणेषु' निश्वयानुष्ठानरूपेषु प्रवर्त्तन्ते येष्वनगाराः, यथा चानगारगुणेषु न प्रवर्त्तन्ते तद्दर्शयति-यतस्तेऽहर्निशं पृथिवी जन्तुविपत्तिकारिणो दृश्यन्ते गुदपाणिपादप्रक्षालनार्थम्, अन्यथापि निर्लेपनिर्गन्धत्वं कर्तुं शक्यम्, अतश्च यतिगुणकलापशून्या न वाडवात्रेण युक्तिनिरपेक्षेणानगारत्वं विभ्रतीति, अनेन प्रयोगः सूचितः, तत्र गाथापूर्वार्द्धेन प्रतिज्ञा, पश्चार्द्धन हेतुः, उत्तरगाथार्द्धन साधर्म्यदृष्टान्तः, स चायं प्रयोगः- कुतीर्थिका यत्यभिमानवादिनोऽपि यतिगुणेषु न प्रवर्तन्ते, पृथिवीहिंसाप्रवृत्तत्वाद्, इह ये ये पृथिवीहिंसाप्रवृत्तास्ते ते यतिगुणेषु न प्रवर्त्तन्ते, गृहस्थवत् ॥ साम्प्रतं दृष्टान्तगर्भ निगमनमाहअणगारवाइणो पुढविहिंसगा निग्गुणा अगारिसमा । निहोसत्ति य महला विरइदुगंछाइ महलतरा ॥ १०० ।। 'अनगारवादिनो' वयं यतय इति वदनशीलाः पृथिवीकायविहिंस कास्सन्तो निर्गुणा यतोऽतः 'अगारिसमा ' गृहस्थतुल्या भवन्ति, अभ्युच्चयमाह - सचेतना पृथिवीत्येवं ज्ञानरहितत्वेन तत्समारम्भवर्त्तिनः सदोपा अपि सन्तो वयं निर्दोषा इत्येवं मन्यमानाः स्वदोषप्रेक्षाविमुखत्वात् 'मलिनाः' कलुषितहृदयाः, पुनश्चातिप्रगल्भतया साधुजनाश्रिताया निरवद्या ॥ ३३ ॥ नुष्ठानात्मिकाया विरते: 'जुगुप्सया' निन्दया मलिनतरा भवन्ति, अनया च साधुनिन्दयाऽनन्तसंसारित्वं प्रदर्शितं भव ४ ★ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [२], मूलं [१३...], निर्युक्तिः [ ९८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र- [ ०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Estication Intimat वध द्वारं, अनगारवादी For Pantry O ~70~# अध्ययनं १ उद्देशकः २ www.anditary.org Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१३...], नियुक्ति: [१००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] AKAR दीप अनुक्रम [१३] तीति ॥ एतच्च गाथाद्वयं सूत्रोपात्तानुसार्यपि वधद्वाराषसरे नियुक्तिकृताऽभिहितं, तस्य स्वयमेवोपात्तत्वेन तद्व्याख्यानस्य न्याय्यत्वात्, तच्चेदं सूत्रम् 'लज्जमाणा पुढो पास अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणे'त्यादि ॥ अयं च वधः कृतका-IK रितानुमतिभिर्भवतीति तदर्थमाह __ केई सयं वहंती केई अन्नेहि उ वहाविंती । केई अणुमन्नंती पुढधिकार्य बहेमाणा ॥ १०१॥ सष्टा, तद्वधे अन्येषामपि तदाश्रितानां वधो भवतीति दर्शयितुमाहजो पुदवि समारंभइ अन्नेऽवि य सो समारभइ काए । अनियाए अनियाए दिस्से य तहा अदिस्से य॥१०॥ । यः पृथ्वीकार्य 'समारभते' व्यापादयति सः 'अन्यानपि' अप्कायद्वीन्द्रियादीन् 'समारभते' व्यापादयति उदुम्बरवटफलभक्षणप्रवृत्तः तत्फलान्त प्रविष्टत्रसजन्तुभक्षणवदिति, तथा 'अणियाए य नियाईत्ति अकारणेन कारणेन च, यदिवाऽसङ्कल्पेन सङ्कल्पेन च पृथिवीजन्तून् समारभते तदारम्भवांश्च 'दृश्यान्' दर्दुरादीन् 'अदृश्यान्' पनकादीन । 'समारभते' व्यापादयतीत्यर्थः । एतदेव स्पष्टतरमाह पुढचं समारभंता हणंति तनिसिए य बहुजीवे । सुहमे य बायरे य पज्जते या अपज्जत्ते॥१०॥ सष्टा, अन्न च सूक्ष्माणां वधः परिणामाशुद्धत्वातद्विपयनिवृत्त्यभावेन द्रष्टव्य इति ॥ विरतिद्वारमाहएयं विपाणिऊणं पुढवीए निक्खिवंति जे दंडं । तिविहेण सव्वकालं मणेण चायाए कारणं ॥१०४॥ 'एवमि'त्युक्तप्रकारानुसारेण पृथिवीजीवान् विज्ञाय तद्वधं बन्धं च विज्ञाय पृथिवीतो निक्षिपन्ति ये दण्ड-पृथिवी-1 लक-AKRE wwwandltimaryam ~71~# Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१३...], नियुक्ति: [१०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचा- रागवत्तिः (शी०) सूत्रांक [१३] ॥३४॥ दीप अनुक्रम [१३] समारम्भावचुपरमन्ति, ते ईदृक्षा अनगारा भवन्तीत्युत्तरगाथायां वक्ष्यति, 'त्रिविधेने'ति कृतकारितानुमतिभिः 'सर्वकाल अध्ययनं १ यावज्जीवमपि मनसा वाचा कायेनेति ॥ अनगारभवने उक्तशेषमाह उद्देशकः२ गुत्ता गुत्तीहि सव्वाहिं समिया समिई हिं संजया । जयमाणगा सुविहिया एरिसया हुंति अणगारा ॥१०॥ ा तिसूभिर्मनोवाकायगुप्तिभिर्गुप्ताः, तथा पञ्चभिरीर्यासमित्यादिभिस्समिताः, सम्यक्-उत्थानशयनचङ्कमणादिक्रियासुन यताः संयताः 'यतमानाः' सर्वत्र प्रयत्नकारिणः, शोभनं विहित-सम्यग्दर्शनाद्यनुष्ठानं येषां ते तथा, ते ईदक्षा अनगारा भवन्ति, न तु पूर्वोक्तगुणाः पृथिवीकायसमारम्भिणः शाक्यादय इति ॥ गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, अधुना सूत्रानुगमे|ऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चार्यते, तच्चेदं सूत्रम् अट्टे लोए परिजुण्णे दुस्संबोहे अविजाणए अस्सि लोए पव्वहिए तत्थ तत्थ पुढो पास आतुरां परिताति (सू०१४) अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरसूत्रे परिज्ञातकर्मा मुनिर्भवतीत्युक्तं, यस्त्वपरिज्ञातकर्मा स भावातॊ भवतीति, तथाऽऽदिसूत्रेण सह सम्बन्धः-सुधर्मस्वामी जम्यूनाम्ने इदमाचष्टे-'श्रुतं मया' किं तच्छ्रतं? पूर्वोद्देशकार्थं प्रदर्वेदमपीति, IN | 'अट्टे' इत्यादि, परम्परसम्बन्धस्तु 'इह एगेसिं णो सन्ना भवतीत्युक्तं, कथं पुनः संज्ञा न भवतीति, आत्तेत्वात्, तदाह'अट्टे'इत्यादि, आत्तॊ नामादिश्चतुर्द्धा, नामस्थापने क्षुण्णे, ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो नोआगमतो द्रव्यातः शक दा॥३४॥ wwwandltimaryam पृथिवीकायिकानाम् हिंसकाः ~72~# Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१४], नियुक्ति: [१०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत 25% सूत्रांक % [१४] दीप अनुक्रम [१४] टादिचक्राणामुद्धिमूले वा यो लोहमयः पट्टो दीयते स द्रव्यातः, भावार्तस्तु द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमतो ज्ञाता-आपदार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्तो, नोआगमतस्तु औदयिकभाववर्ती रागद्वेषग्रहपरिगृहीतान्तरात्मा प्रियविप्रयोगादिदुःखसङ्कटनिमग्नो भावाः इति व्यपदिश्यते, अथवा शब्दादिविषयेषु विषविपाकसदृशेषु तदाकाजिरवाद्धिताहितविचार-1101 शून्यमना भावाः कर्मोपचिनोति, यत उक्तम्-"सोइंदियवसट्टे णं भंते ! जीवे किं बंधइ? किं चिणाइ! किं उव|चिणाइ?, गोयमा! अह कम्मपगडीओ सिढिलबंधणवद्धाओ घणियबंधणबद्धाओ पकरेइ, जाव अणादियं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरन्तसंसारकन्तारमणुपरियट्टई" एवं स्पर्शनादिप्वघ्यायोजनीयम्, एवं क्रोधमानमायालोभदर्शनमोहनीयचारित्रमोहनीयादिभिर्भावार्ताः संसारिणो जीवा इति, उक्तं च-रागहोसकसाएहिं, इंदिएहि य पञ्चहिं । दुहा वा मोहणिजेण, अट्टा संसारिणो जिया ॥१॥" यदिवा ज्ञानावरणीयादिना शुभाशुभेनाष्टप्रकारेण कर्मणाऽऽत्ते, का पुनरेवंविध इत्यवाह-लोकयतीति लोकः-एकद्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियजीवराशिरित्यर्थः, अत्र लोकशब्दस्य नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभवभावपर्यायभेदादष्टधा निक्षेपं प्रदर्याप्रशस्तभावोदयवर्सिना लोकेनेहाधिकारो वाच्यः, यस्माद्यावानातः स सर्वोपि परिवूनो नाम परिपेलवो निस्सारः औपशमिकादिप्रशस्तभावहीनोऽव्यभिचारिमोक्षसाधनहीनो वेति, स च द्विधाद्रव्यभावभेदात्, तत्र सचित्तद्रव्यपरियूनो जीर्णशरीरः स्थविरकः जीर्णवृक्षो वा, अचित्तद्रव्यपरिघुनो जीर्णपटादिः, १ श्रोग्रेन्द्रियवकासौ भदन्त ! जीवः कि बनाति ? किं चिनोति ! किमुपचिनोति !, गौतम ! अप कर्मप्रकृतीः विधिलपरधनबद्धा गाढवन्धनबद्धाः प्रकरोति, पायावदनादिकमनवनवा दीर्थावानं चातुरन्तसंसारकान्तारमनुपर्यटति. २ रागद्वेषकषायैरिन्द्रियैव पचभिः । द्विषा मोहनीवेन वा आततः संसारिणो जीवाः ॥ १॥ %E5%A9%20%45034 wwwandltimaryam ~73-23 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१४], नियुक्ति: [१०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सत्रांक [१४] दीप अनुक्रम [१४] श्रीआचा- भावपरियून औदयिकभावोदयात्प्रशस्तज्ञानादिभावविकलः, कथं विकला?, अनन्तगुणपरिहाण्या, तथाहि-पञ्चचतुत्रिदयेके अध्ययनं १ राङ्गवृत्तिः न्द्रियाः क्रमशो ज्ञानविकलाः, तत्र सर्वनिकृष्टज्ञानाः सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकाः प्रथमसमयोपन्ना इति, उक्तं च-"सर्वनिकृष्टो (शी०)- जीवस्य दृष्ट उपयोग एष वीरेण । सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकानां स च भवति विज्ञेयः ॥ १॥ तस्मात्प्रभृति ज्ञानविवृद्धिद्देष्टा उद्देशकः२ जिनेन जीवानाम् । लब्धिनिमित्तैः करणैः कायेन्द्रियबाङमनोहगूभिः ॥२॥" स च विषयकषायाः प्रशस्तज्ञानघुनः ॥३५॥ किमवस्थो भवतीति दर्शयति-'दुस्संबोध' इति, दुःखेन सम्बोध्यते-धर्मचरणप्रतिपत्ति कार्यत इति दुस्सम्बोधो, मेतायवदिति, यदिवा दुस्सम्बोधो यो बोधयितुमशक्यो ब्रह्मदत्तवत्, किमित्येवम्, यतः 'अवियाणए'त्ति विशिष्टावबोध रहितः, स चैवंविधः किं विदध्यादित्याह-अस्मिन्' पृथिवीकायलोके 'प्रव्यथिते' प्रकर्षण व्यघिते, सर्वस्यारम्भस्य हातदाश्रयत्वादिति प्रकर्षार्थः, तत्तत्प्रयोजनतया खननादिभिः पीडिते नानाविधशस्त्रागीते वा 'व्यथ भयचलनयोरिति कृत्वा व्यथितं भीतमिति, 'तत्य तत्थेति तेषु तेषु कृषिखननगृहकरणादिषु 'पृथग्'विभिन्नेषु कार्येषूत्पन्नेषु 'पश्येति विनेयस्य लोकाकार्यप्रवृत्तिः प्रदश्यते, सिद्धान्तशैल्या एकादेशेऽपि प्राकृते बहादेशो भवतीति, 'आतुरा' विषयकषायादिभिः 'अस्मिन्' पृथिषीकाये विषयभूते सामर्थ्यात् पृथिवीकार्य 'परितापयन्ति' परि-समन्तात्तापयन्ति-पीडयन्तीत्यर्थः, बहुवच ननिर्देशस्तु तदारम्भिणां बहुत्वं गमयति, यदिवा-लोकशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, कश्चिल्लोको विषयकषायादिभिरातोंRऽपरस्तु कायपरिजीर्णः कश्चिदुःखसम्बोधः तथाऽपरो विशिष्टज्ञानरहितः, एते सर्वेऽप्यातुरा विषयजीर्णदेहादिभिः सुखा-18 १ कश्चित्तु प्र. अपरो दुःसम्बोधः नास्तीदं. A wwwanditimaryam ~74-2 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१४], नियुक्ति: [१०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४] दीप अनुक्रम [१४] प्येऽस्मिन्-पृथिवीकायलोके विषयभूते पृथिवीकार्य नानाविधैरुपायैः 'परितापयन्ति' परि-समन्तात्तापयन्ति-पीडयन्तीति सूत्रार्थः ॥ १४॥ननु चैकदेवताविशेषावस्थित्ता पृथिवीति शक्यं प्रतिपत्तुं न पुनरसंख्येयजीवसङ्घातरूपेत्येतसरिहर्तुकाम आह संति पाणा पुढो सिया लजमाणा पुढो पास अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं पुढविकम्मसमारंभेणं पुढविसत्थं समारंभेमाणा अणेगरूवे पाणे विहिंसइ (सू०१५) 'सन्ति' विद्यन्ते 'प्राणाः सत्त्वाः 'पृथग्' पृथग्भावेन, अङ्गुलासंख्येयभागस्वदेहावगाहनया पृथिव्याश्रिताः सिता| वा-सम्बद्धा इत्यर्थः, अनेनैतत्कथयति नैकदेवता पृथिवी, अपि तु प्रत्येकशरीरपृथिवीकायात्मिकेति, तदेवं सचेतनत्वमनेकजीवाधिष्ठितत्वं च पृथिव्या आविष्कृतं भवतीति । एतच ज्ञात्वा तदारम्भनिवृत्तान् दर्शयितुमाह-लजमाणा पुढो पास'त्ति, लज्जा द्विविधा-लौकिकी लोकोत्तरा च, तत्र लौकिकी स्नुषासुभटादेः श्वशुरसङ्ग्रामविषया, लोको|त्तरा सप्तदशप्रकारः संयमः, तदुक्तम्-"लज्जा दया संजम बंभचेर'मित्यादि, लज्जमानाः संयमानुष्ठानपराः, यदिवा | १ सजा दया संयमो ब्रह्मचर्यम्. wwwandltimaryam पृथ्विकायेषु जीवस्य अस्तित्वं ~75~# Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१५], नियुक्ति: [१०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१५] श्रीआचा-1-पृथिवीकायसमारम्भरूपादसंयमानुष्ठानालज्जमानाः 'पृथगिति प्रत्यक्षज्ञानिनः परोक्षज्ञानिनश्च, अतस्तान् लजमानान अध्ययनं १ राङ्गवृत्तिः पश्येत्यनेन शिष्यस्य कुशलानुष्ठानप्रवृत्तिविषयः प्रदर्शितो भवतीति । कुतीथिंकास्त्वन्यथावादिनोऽन्यथाकारिण इति दर्श उद्देशक:२ (शी०) Bायितुमाह-'अणगारा' इत्यादि,नविद्यतेऽगारं-गृहमेषामित्यनगारा-यतयः स्मो वयमित्येवं प्रकर्षेण वदन्तःप्रवदन्त इति, एके। शाक्यादयो ग्राह्याः, ते च वयमेव जन्तुरक्षणपराः क्षपितकषायाज्ञानतिमिरा 'इति' एवमादि प्रतिज्ञामात्रमनर्थकमारटन्ति, ॥३६॥ यथा कश्चिदत्यन्तशुचिर्वोद्रश्चतुःषष्टिमृत्तिकास्नायी गोशवस्याशुचितया परित्यागं विधाय पुनः कर्मकरवाक्याच्चास्थिपिशि-IN तस्नाय्वादेर्यथास्वमुपयोगार्थ सङ्ग्रहं कारितवान् , तथा च तेन शुच्यभिमानमुद्बहताऽपि किं तस्य परित्यकम् । एवमेतेऽपि द शाक्यादयोऽनगारवादमुद्वहन्ति, न चानगारगुणेषु मनागपि प्रवर्तन्ते, न च गृहस्थचर्या मनागप्यतिलवयन्तीति दर्शयति 'यद्' यस्माद् 'इम'मिति सर्वजनप्रत्यक्षं पृथिवीकार्य 'विरूपरूपैः' नानाप्रकारैः 'शस्त्रैः' हलकुद्दालखनित्रादिभिः पृथिव्याश्रयं कर्म-क्रियां समारभमाणा विहिंसन्ति, तथाऽनेन च पृथिवीकर्मसमारम्भेण पृथिवीशस्त्रं 'समारभमाणों' व्यापा-18 रयन पृथिवीकार्य नानाविधैः शस्त्रैर्व्यापादयन् 'अनेकरूपान्' तदाश्रितानुदकवनस्पत्यादीन् विविधं हिनस्ति, नानाविधैरुपायैन्यापादयतीत्यर्थः, एवं शाक्यादीनां पार्थिवजन्तुवैरिणामयतित्वं प्रतिपाद्य साम्पतं सुखाभिलाषितया कृतकारितानु-13 मतिभिर्मनोवाकायलक्षणां प्रवृत्ति दर्शयितुमाह तत्थ खल्लु भगवया परिण्णा पवेइया, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूय१ येषां ते प्र. २ सम्प्रति. wwwandltimaryam पृथ्विकायजीवस्य हिंसाया: हेतु: ~76~# Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१६] भा. सू. ७ Jain Education intimation “आचार” - अंगसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [२], मूलं [१५], निर्युक्ति: [१०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र - [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः गाए जाइमरणमोयणाए दुक्खपडिघाय हेउं से सयमेव पुढविसत्थं समारंभइ अण्णेहिं वाढवित्थं समारंभावेइ अण्णे वा पुढविसत्थं समारंभंते समणुजाणइ (सू० १५ ) तत्र पृथिवीकायसमारम्भे खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे 'भगवता' श्रीवर्द्धमानस्वामिना परिज्ञानं परिज्ञा सा प्रवेदितेति, इद| मुक्तं भवति-भगवतेदमाख्यातं यथैभिर्वक्ष्यमाणैः कारणैः कृतकारितानुमतिभिः सुखैषिणः पृथिवीकायं समारभन्ते, तानि चामूनि अस्यैव जीवितस्य परिपेलवस्य परिवन्दनमाननपूजनार्थ, तथा जातिमरणमोचनार्थं दुःखप्रतिघातहेतुं च स सुखलिप्सुर्दुःखद्विद्र स्वयमात्मनैव पृथिवीशस्त्रं समारभते, तथाऽन्यैश्च पृथिवीशस्त्रं समारम्भयति, पृथिवीशस्त्रं समारभमाणानन्यश्च स एव समनुजानीते, एवमतीतानागताभ्यां मनोवाक्कायकर्मभिरायोजनीयम् । तदेवं प्रवृशंमतेर्यद्भवति तद्दर्शयितुमाह तं से अहिआए तं से अबोहीए से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय सोच्चा खलु भगवओ अणगाराणं इहमेगेसिं जातं भवति- एस खलु गंथे एस खलु मोहे एस खलु मारे एस खलु णरए इच्चत्थं गड्डिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं पुढविकम्मसमारंभेण पुढविसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ, से बेमि अप्पेगे For Par Prata Use Only अत्र "तत्थ खलु भगवया०" सूत्रस्य क्रम १५ मूल सम्पादकेन द्वी-वारान् लिखितम्, तत् मुद्रणदोष: दृश्यते पृथ्विकायस्य हिंसायाः फलं, ~77 ~# anibrary Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१६], नियुक्ति: [१०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचाराङ्गवृत्तिः अध्ययनं १ उद्देशकः२ सूत्रांक (शी०) [१६]] ॥३७॥ म दीप अनुक्रम [१७] अंधमब्भे अप्पेगे अंधमच्छे अप्पेगे पायमन्भे अप्पेगे पायमच्छे अप्पेगे गुप्फमब्भे अप्पेगे गुप्फमच्छे अप्पेगे जंघमन्भे २ अप्पेगे जाणुमब्भे २ अप्पेगे ऊरुमब्भे २ अप्पेगे कडिमब्भे २ अप्पेगे णाभिमब्भे २ अप्पेगे उदरमब्भे २ अप्पेगे पासमब्भे २ अप्पेगे पिट्रिमन्भे २ अप्पेगे उरमब्भे २ अप्पेगे हिययमन्भे २ अप्पेगे थणमब्भे २ अप्पेगे खंधमन्भे २ अप्पेगे बाहुमब्भे २ अप्पेगे हत्थमन्भे २ अप्पेगे अंगुलिमब्भे २ अप्पेगे णहमब्भे २ अप्पेगे गीवमन्भे २ अप्पेगे हणुमब्भे २ अप्पेगे हो?मब्भे २ अप्पेगे दंतमब्भे २ अप्पेगे जिब्भमन्भे २ अप्पेगे ताल्लुमब्भे २ अप्पेगे गलमब्भे २ अप्पेगे गंडमब्भे २ अप्पेगे कण्णमब्भे २ अप्पेगे णासमब्भे २ अप्पेगे अच्छिमब्भे २ अप्पेगे भमुहमन्भे २ अप्पेगे णिडालमब्भे २ अप्पेगे सीसमन्भे २ अप्पेगे संपसारए भा अप्पेगे उद्दवए, इत्थं सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिपणाता भवंति (सू०१६) ॥३७॥ wwwandltimaryam पृथ्विकायस्य हिंसकानाम् वेदानाया: अज्ञानं ~78~# Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१६] दीप अनुक्रम [१७] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति© श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [२], मूलं [१६], निर्युक्तिः [१०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः 'से अहियाए तं से अबोहीए' तत् पृथिवीकायसमारम्भणं 'से' तस्य कृतकारितानुमतिभिः पृथ्वीशस्त्रं समारभमाणस्यागामिनि काले अहिताय भवति, तदेव चाबोधिलाभायेति, न हि प्राणिगणोपमर्दनप्रवृत्तानामणीयसाऽपि हितेनाssयत्यां योगो भवतीत्युक्तं भवति, यः पुनर्भगवतः सकाशात्तच्छिष्यानगारेभ्यो वा विज्ञाय पृथ्वीसमारम्भं पापात्मकं भावयति स एवं मन्यत इत्याह- 'से त'मित्यादि, 'सः' ज्ञातपृथिवी जीवत्वेन विदितपरमार्थः 'तं' पृथ्वी शस्त्रसमारम्भमहितं सम्यगवबुध्यमानः 'आदानीयं ग्राह्यं सम्यग्दर्शनादि सम्यगुत्थाय - अभ्युपगम्य, केन प्रत्ययेनेति दर्शयति- 'श्रुत्वा' अवगम्य साक्षाद्भगवतोऽनगाराणां वा समीपे ततः 'इह' मनुष्यजन्मनि 'एकेषां' प्रतिबुद्धतत्त्वानां साधूनां ज्ञातं भवतीति, यत् ज्ञातं भवति तद्दर्शयितुमाह - 'एसे'त्यादि, एष पृथ्वीशस्त्रसमारम्भः खलुरवधारणे कारणे कार्योपचारं कृत्वा 'नडूवलोदकं पादरोग' इति न्यायेनैष एवं ग्रन्थः- अष्टमकारकर्मबन्धः, तथैष एव पृथ्वीसमारम्भो मोहहेतुत्वान्मोहःकर्मबन्धविशेषो दर्शनचारित्रभेदोऽष्टाविंशतिविधः, तथैष एव मरणहेतुत्वान्मारः- आयुष्ककर्मक्षयलक्षणः, तथैष एव नरकहेतुत्वान्नरकः-सीमन्तकादिर्भूभागः, अनेन चासातावेदनीयमुपात्तं भवति, कथं पुनरेकप्राणिव्यापादनप्रवृत्तावष्टविधकर्मबन्धं करोतीति, उच्यते, मार्यमाणजन्तुज्ञानावरोधित्वात् ज्ञानावरणीयं बनात्येवमन्यत्राप्यायोजनीयमिति, अन्यदपि तेषां ज्ञातं भवतीति दर्शयितुमाह - 'इच्चत्थमित्यादि, 'इत्येवमर्थम्' आहारभूषणोपकरणार्थ तथा परिवन्दनमाननपूजनार्थं दुःखप्रतिघातहेतुं च 'गृद्धो' मूर्छितो 'लोकः' प्राणिगणः, एवंविधेऽप्यतिदुरितनिचयविपाकफले पृथ्वीकायसमारम्भे अज्ञानवशान्मूर्च्छितस्त्वेतद्विधत्त इति दर्शयति- 'यद्' यस्माद् 'इमं' पृथ्वीकायं विरूपरूपैः शस्त्रैः पृथ्वी Etication tal For Party Use Onl ~79~# Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१६], नियुक्ति: [१०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] श्रीआचारावृत्तिः (शी०) ३८॥ दीप अनुक्रम [१७] कर्म समारभमाणो हिनस्ति, पृथिवीकायसमारम्भेण च पृथिव्येव शस्त्रं स्वकायादेः पृथिव्या या शस्त्रे हलकुद्दालादि अध्ययनं १ तत्समारभते, पृथिवीशस्त्रं समारभमाणश्चान्याननेकरूपान् 'प्राणिनों' द्वीन्द्रियादीन्विविधं हिनस्तीति । स्थादारेका, ये|| ॥ उद्देशकः२ हि न पश्यन्ति न शृण्वन्ति न जिघ्रन्ति न गच्छन्ति कथं पुनस्ते वेदनामनुभवन्तीति ग्रहीतव्यम् ?, अमुष्यार्थस्य प्रसि-8 ये दृष्टान्तमाह-'से बेमी' त्यादि, सोऽहं पृष्टो भवता पृथिवीकायवेदनां ब्रवीमि, अथवा 'से' इति तच्छब्दार्थे वर्तते, यत्त्वया पृष्टस्तदहं ब्रवीमि, अपिशब्दो यथानामशब्दार्थे, यथा नाम कश्चिज्जात्यन्धो बधिरो मूका कुष्ठी पङ्गः अनभिनिवृत्तपाण्याद्यवयवविभागो मृगापुत्रवत् पूर्वकृताशुभकर्मोदयाद्धिताहितप्राप्तिपरिहारविमुखोऽतिकरुणां दशां प्राप्तः, तमे-18 वंविधमन्धादिगुणोपेतं कश्चित्कुन्ताग्रेण 'अब्भे' इति आभिन्द्यात् तथाऽपरः कश्चिदन्धमाच्छिन्द्यात्, स च भिद्यमानाद्यवस्थायां न पश्यति न शृणोति मूकत्वानोच्चै रारटीति, किमेतावता तस्य वेदनाऽभावो जीवाभावो वा शक्यो विज्ञातुम् ?, एवं पृथिवीजीवा अप्यव्यक्तचेतना जात्यन्धबधिरमूकपङ्गादिगुणोपेतपुरुषवदिति, यथा वा पञ्चेन्द्रियाणां परिस्पष्टचेतनानां 'अप्पेगे पायमन्भे' इति यथा नाम कश्चित्पादमाभिन्द्यादाच्छिन्द्याद्वेत्येवं गुल्फादिष्वप्यायोजनीयमिति || दर्शयति, एवं जवाजानूरुकटीनाभ्युदरपार्श्वपृष्ठउरोहृदयस्तनस्कन्धबाहुहस्ताङ्गलिनखग्रीवाहनुकोष्ठदन्तजिह्वातालुगलगण्डकर्णनासिकाक्षिधूललाटशिरप्रभृतिष्ववयवेषु भिद्यमानेषु छिद्यमानेषु वा वेदनोसत्तिर्लक्ष्यते, एवमेषामुत्कटमोहाज्ञा-2 नभाजां स्त्यानांद्युदयादव्यक्तचेतनानामव्यक्तव वेदना भवतीति ग्राह्यम् । अत्रैव दृष्टान्तान्तरं दर्शयितुमाह-'अप्पेगे| १ कार्य प्र. wwwlandltimaryam ~80-23 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१६] दीप अनुक्रम [१७] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति© श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [२], मूलं [१६], निर्युक्तिः [१०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः संपमारए अप्पेगे उद्दवए' यथा नाम कश्चित् 'सम्' एकीभावेन प्रकर्षेण प्राणानां मारणम्-अव्यक्तत्वापादनं कस्यचित् कुर्यात्, मूर्च्छामापादयेदित्यर्थः, तथाऽवस्थं च यथा नाम कश्चिदपद्रापयेत् प्राणेभ्यो व्यपरोपयेत् न चासौ तां वेदनां स्फुटमनुभवति, अस्ति चाव्यक्ता तस्यासौ वेदनेति, एवं पृथिवीजीवानामपि द्रष्टव्यमिति । पृथिवीकायिकानां जीवत्वं प्रसाध्य तथा नानाविधशस्त्रसंपाते वेदनां चाविर्भाव्य अधुना तद्वधे बन्धं दर्शयितुमाह एत्थ सत्थं असमारभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाता भवति, तं परिण्णाय मेहावी नेत्र सयं पुढविसत्थं समारंभेजा णेवण्णेहिं पुढविसत्थं समारंभावेजा णेवण्णे पुढविसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा, जस्सेते पुढविकम्मसमारंभा परिण्णाता भवंति से हुमणी परिणातकम्मेति बेमि ( सू० १७ ) इति द्वितीय उद्देशकः ॥ 'अ' पृथिवीकाये 'शस्त्रं' द्रव्यभावभिन्नं तत्र द्रव्यशस्त्रं स्वकायपरकायोभयरूपं, भावशस्त्रं त्वसंयमो दुष्प्रणिहितमनोवाक्कायलक्षणः, एतद्विविधमपि शस्त्रं समारभमाणस्येति 'एते' खनन कृष्याद्यात्मकाः समारम्भाः बन्धहेतुत्वेन 'अपरिज्ञाता' अविदिता भवन्ति, एतद्विपरीतस्य परिज्ञाता भवन्तीति दर्शयितुमाह- 'पत्थे' त्यादि, 'अत्र' पृथिवीकाये द्विविधमपि शस्त्रम् 'असमारभमाणस्य' अव्यापारयत इति, 'एते' प्रागुक्ताः कर्मसमारम्भाः 'परिज्ञाता' विदिता भ १ चेतनेति. २ प्रतिपादयन् ३ ०तीति. Estication tumanl पृथ्विकायानाम् ज्ञाता ही मुनि: For Para Prata Use Onl ~81~# Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१७] दीप अनुक्रम [८] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [३], मूलं [१७], निर्युक्ति: [१०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः (शी०) श्रीआचावन्ति, अनेन च विरत्यधिकारः प्रतिपादितो भवतीति तामेव विरतिं स्वनामग्राहमाह - 'त' मित्यादि, तं पृथिवीकाराङ्गवृत्तिः यसमारम्भे बन्धं परिज्ञाय असमारम्भे वाऽवन्धमिति 'मेघावी' कुशलः एतत् कुर्यादिति दर्शयति-नैव पृथिवीशस्त्रं द्रव्यभावभिन्नं समारभेत, नापि तद्विषयोऽन्यैः समारम्भः कारयितव्यः, न चान्यान् पृथिवीशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीयात् इति, एवं मनोवाक्कायकर्मभिरतीतानागतका लयोरप्यायोजनीयमिति, ततश्चैवं कृतनिवृत्तिरसी मुनिरिति व्यपदिश्यते, न शेष इति दर्शयन्नुपसञ्जिहीर्षुराह - 'यस्य' विदितपृथिवी जीववेदनास्वरूपस्य, 'एते' पृथिवीविषयाः कर्म्म४ समारम्भाः खननकृष्याद्यात्मकाः कर्मबन्धहेतुत्वेन परिज्ञाता भवन्ति ज्ञपरिज्ञया तथा प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहृता भवन्ति, हुरवधारणे, स एव मुनिर्द्विविधयाऽपि परिज्ञया परिज्ञातं कर्म -सावद्यानुष्ठानमष्टप्रकारं वा कर्म येन स परिज्ञातकर्मा, नापरः शाक्यादिः, ब्रवीमि पूर्ववदिति शस्त्रपरिज्ञायां द्वितीय उद्देशकः समाप्तः ॥ ॥ ३९ ॥ गतः पृथिव्युदेशकः, साम्प्रतमप्कायोद्देशकः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरोदेश के पृथिवीकायजीवाः प्रतिपादितास्तद्वधे बन्धो विरतिश्च, साम्प्रतं क्रमायातस्यापूकायस्य जीवत्वं तद्बधे बन्धो विरतिश्च प्रतिपाद्यते इति, | अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि वाच्यानि, तत्र नामनिष्पन्ने निक्षेपे अप्कायोद्देशकः, तत्र | पृथिवी काय जीवस्वरूपसमधिगतये यानि नव निक्षेपादीनि द्वाराण्युक्तानि, अपकायेऽपि तान्येव समानतयाऽतिदेष्टुकामः कानिचिद्विशेषाभिधित्सयोद्धर्तुकामश्च नियुक्तिकारो गाथामाह आउस्सवि दाराई ताई जाई हवंति पुढवीए । नाणत्ती व विहाणे परिमाणुवभोगसत्थे य ॥ १०६ ॥ Etication Intemational प्रथम अध्ययने तृतीय: उद्देशकः 'अप्काय' आरब्ध:, For Pantry O ~82~# अध्ययनं १ उद्देशकः ३ ॥ ३९ ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [१७...], नियुक्ति: [१०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७] दीप अनुक्रम अपकायस्यापि तान्येव द्वाराणि भवन्ति यानि पृथिव्याः प्रतिपादितानीति, 'नानात्वं' भेदरूपं विधानपरिमाणोपभोगशस्त्रविषयं द्रष्टव्यं, चशब्दालक्षणविषयं च, तुशब्दोऽवधारणार्थः, एतद्गतमेव नानात्वं नान्यगतमिति ॥ तत्र विधानं -प्ररूपणा, तद्गतं नानात्वं प्रदर्शयितुमाहदुविहा उ आउजीवा सुहुमा तह बायरा य लोगंमि । मुहमा य सव्वलोए पंचेव य बायरविहाणा ॥ १०७॥ स्पष्टा ॥ तत्र पञ्च बादरविधानानि दर्शयितुमाहसुद्धोदए य उस्सा हिमे य महिया य हरतणू चेव । थायर आउविहाणा पंचविहा वणिया एए॥१०८॥ 'शुद्धोदक' तडागसमुद्रनदीहदावटादिगतमवश्यायादिरहितमिति, 'अवश्यायो' रजन्यां यत्रेहः पतति, हिम तु दाशिशिरसमये शीतपुद्गलसम्पकोजलमेव कठिनीभूतमिति, गर्भमासादिषु सायं प्राता धूमिकापातो महिकेत्युच्यते, वर्षाशरत्कालयोहरिताङ्कुरमस्तकस्थितो जलबिन्दुभूमिस्नेहसम्पर्कोद्भूतो हरतनुशब्देनाभिधीयते, एवमेते पञ्च बादराप्कायविधयो व्यावर्णिताः। ननु च प्रज्ञापनायो बादराप्कायभेदा बहवः परिपठितार, तद्यथा-करकशीतोष्णक्षारक्षत्रकदम्ललवणवरुणकालोदपुष्करक्षीरघृतेक्षुरसादयः, कथं पुनस्तेषामत्र सङ्ग्रहः', उच्यते, करकस्तावत्कठिनत्वाद्धिमान्त:पाती, शेषास्तु सर्शरसस्थानवर्णमात्रभिन्नत्वान्न शुद्धोदकमतिवर्तन्ते, यद्येवं प्रज्ञापनायां किमर्थोऽपरभेदानां पाठः, उच्यते, खीबालमन्दबुवादिप्रतिपत्त्यर्थमिति, इहापि कस्मान्न तदर्थं पाठः ?, उच्यते, प्रज्ञापनाध्ययनमुपाङ्गत्वादार्ष, तत्र युक्तः सकलभेदोपन्यासः ख्याद्यनुग्रहाय, नियुक्तयस्तु सूत्रार्थ पिण्डीकुर्वन्त्यः प्रवर्तन्त इत्यदोषः। त एते बादरापकायाः [१८] wwwandltimaryam ~83-23 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [१७...], नियुक्ति: [१०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: अध्ययनं १ प्रत सूत्रांक [१७] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) उद्देशकः ३ ॥४०॥ दीप अनुक्रम समासतो द्वेधाः- पर्याप्तका अपर्याप्तकाश्च, तत्रापर्याप्तका वर्णादीनसम्प्राप्ताः, पर्याप्तकास्तु वर्णगन्धरसस्पर्शादेशैः सहस्रा- प्रशो भिद्यन्ते, ततश्च सङ्खधेयानि योनिप्रमुखानि शतसहस्राणि भवन्ति भेदानामित्यवगन्तव्यं, संवृतयोनयश्चैते, सा च योनिः सचित्ताचित्तमित्रभेदात् विधा, पुनश्च शीतोष्णोभयभेदात्रिविधैव, एवं गण्यमानाः योनीनां सप्त लक्षा भवन्तीति ॥ प्ररूपणानन्तरं परिमाणद्वारमाह जे वायरपज्जत्ता पयरस्स असंखभागमित्ता ते । सेसा तिन्निवि रासी वीसुं लोगा असंखिज्जा ॥ १०९॥ ये बादरापकायपर्याप्तकास्ते संवर्सितलोकप्रतरासङ्घधेयभागप्रदेशराशिपरिमाणाः, शेषास्तु योऽपि राशयो 'विष्वक्क पृथगसङ्घयेयलोकाकाशप्रदेशराशिपरिमाणा इति, विशेषश्चायम्-चादरपृथिवीकायपर्याप्तकेभ्यो बादराप्कायपर्याप्तका असङ्खचेयगुणाः बादरपृथ्वीकायापर्याप्तकेभ्यो बादराकायिकापर्याप्तका असंख्येयगुणाः सूक्ष्मपृथिवीकायापर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्मा कायापर्याप्तका विशेषाधिकाः सूक्ष्मपृथ्वीकायपर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्मापकायपर्याप्ता विशेषाधिकाः॥ साम्प्रतं परिमाणद्वारानन्तरं चशब्दसूचितं लक्षणद्वारमाहजह हथिस्स सरीरं कललावत्थस्स अहुणोववनस्स । होइ उदगंडगस्स य एसुवमा सव्वजीवाणं ॥ ११०॥ अथवा पर आक्षिपति-नापकायो जीवः, तल्लक्षणायोगात् प्रश्रवणादिवदित्यस्य हेतोरसिद्धतोडावना) दृष्टान्तद्वारेण लक्षणमाह-जहेत्यादि, यथा हस्तिनः शरीरं कललावस्थायामधुनोत्पन्नस्य द्रवं चेतनं च दृष्टम्, एषमप्कायोऽपीति, | यथा वा उदकप्रधानमण्डकमुदकाण्डकमधुनोसन्नमित्यर्थः, तन्मध्यव्यवस्थितं रसमात्रमसङ्गातावयवमनभिव्यक्तचश्वा-| [१८] ॥४०॥ wwwandltimaryam ~84-2 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१७] दीप अनुक्रम [८] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [१७...], निर्युक्तिः [११०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः दिप्रविभागं चेतनावद् दृष्टम् एषा एवोपमा अष्कायजीवानामपीति, हस्तिशरीरकललग्रहणं च महाकायत्वात्तद्बहु भवतीत्यतः सुखेन प्रतिपद्यते, अधुनोपपन्नग्रहणं सप्ताहपरिग्रहार्थे, यतः सप्ताहमेव कललं भवति, परतस्त्वर्बुदादि, | अण्ड केऽप्युदकग्रहणमेवमर्थमेव, प्रयोगश्चायम् - सचेतना आपः शस्त्रानुपहतत्वे सति द्रवत्वात्, हस्तिशरीरोपादानभूतकललवत्, विशेषणोपादानात्प्रश्रवणादिव्युदासः, तथा सात्मकं तोयम्, अनुपहतद्रवत्वाद्, अण्डकमध्यस्थितकललवदिति, तथा आपो जीवशरीराणि, छेद्यत्वाद्भेद्यत्वादुत्क्षेप्यत्वाद्भोज्यत्वादोग्यत्वात् घेयत्वाद्रसनीयत्वात् स्पर्शनीयस्वात् दृश्यत्वाद् द्रव्यत्वाद् एवं सर्वेऽपि शरीरधर्मा हेतुत्वेनोपन्यसनीयाः, गगनवर्जभूतधर्माश्च रूपवत्त्वाकारवत्त्वादयः, सर्व्वत्र चायं दृष्टान्तः - सास्नाविषाणादिसङ्घातबदिति, ननु च रूपवत्त्वाकारवत्त्वादयो भूतधर्माः परमाणुष्वपि दृष्टा इत्यनैकान्तिकता, नैतदेवं यदत्र छेद्यत्वादिहेतुत्वेनोपन्यस्तं तत्सर्वमिन्द्रियव्यवहारानुपाति, न च तथा परमाणवः, अतः प्रकरणादतीन्द्रियपरमाणुव्यवच्छेदः, यदिवा नैवासौ विपक्षः, सर्वस्य पुद्गलद्रव्यस्य द्रव्यशरीराभ्युपगमात्, जीवसहितासहितत्वं तु विशेषः, उक्तं च- “तणवोऽण भातिविगार मुत्तजाइत्तओऽणिलता उ । सत्यासत्यहयाओ निज्जीवसजीवरुवाओ ॥ १ ॥” एवं शरीरखे सिद्धे सति प्रमाणं- सचेतना हिमादयः कचित् अपकायत्वाद्, इतरोदकवत् इति, तथा सचेतना आपः, क्वचित् खातभूमिस्वाभाविकसम्भवत्वाद्, दर्दुरवत्, अथवा सचेतना अन्तरिक्षोद्भवा १ वनोऽयादिविकारा मूर्त्तजातित्वतः अनिलान्तास्तु । शस्त्रास्त्रता निर्जीवजीरूपाः ॥१ ॥ Etication Intimation For Pantry at Use Only ~85~# www.sinditary.org Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [१७...], नियुक्ति: [११०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत IDअध्ययन सूत्रांक [१७] दीप अनुक्रम श्रीआचा- आपः, स्वाभाविकव्योमसम्भूतसम्पातित्वात् , मत्स्यबत् , अत एते एवंविधलक्षणभाक्त्वाज्जीवा भवन्त्यपकायाः ॥ साराङ्गवृत्तिः साम्प्रतमुपभोगद्वारमाह(शी०) व्हाणे पिणे तह धोअणे य भत्तकरणे असेए । आउस्स उ परिभोगो गमणागमणे य जीवाणं ॥११॥ | स्नानपानधावनभक्तकरणसेकयानपात्रोडुपगमनागमनादिरुपभोगः । ततश्च तत्परिभोगाभिलाषिणो जीवा एतानि का॥४१॥ रणाम्युद्दिश्यापकायवधे प्रवर्तन्त इति प्रदर्शयितुमाह एएहिं कारणेहिं हिंसंती आउकाइए जीवे । सायं गवसमाणा परस्स दुक्खं उदीरति ।। ११२॥ __'एभिः' स्नानावगाहनादिका कारणैरुपस्थितैः विषय विषमोहितात्मानो निष्करुणा अपूकायिकान् जीवान् 'हिंसन्ति। व्यापादयन्ति, किमर्थमित्याह-सात' सुखं तदात्मनः 'अन्वेषयन्तः' प्रार्थयन्तः हिताहितविचारशून्यमनसः कतिपयदिवसस्थायिरम्ययौवनदध्मातचेतसः सन्तः सद्विवेकरहिताः तथा विवेकिजनसंसर्गविकलाः 'परस्य' अबादेजेंन्तुग-1 णस्य 'दुःखम्' असातलक्षणं तदू 'उदीरयन्ति' असातवेदनीयमुत्पादयन्तीत्यर्थः, उक्कं च-"एक हि चक्षुरमलं सहजो द| विवेकस्तदभिरेव सह संवसतिद्धितीयम् । एतद्वयं भुवि न यस्य स तत्त्वतोऽन्धस्तस्यापमार्गचलने खलु कोऽपराधः? Su१॥ इदानीं शस्त्रद्वारमुच्यते उस्सिचणगालणधोवणे य उवगरणमत्तभंडे य । बायरआउकाए एयं तु समासओ सत्थं ॥ ११३ ।। शस्त्रं द्रव्यभावभेदात् द्विधा-द्रव्यशस्नमपि समासविभागभेदात् द्विधैव, तत्र समासतो द्रव्यशखमिदम्-ऊर्दै सेच [१८] ॥४१॥ ~86-2 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१७] दीप अनुक्रम [८] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [१७...], निर्युक्तिः [११३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः अनगार स्वरुप नमुत्सेचनं - कूपादेः कोशादिनोत्क्षेपणमित्यर्थः, 'गालनं' घनमसृणवस्त्रार्द्धान्तेन 'घावनं' वस्त्राद्युपकरणचर्मकोशकटाहादिभण्डकविषयम्, एवमादिकं बादराप्काये 'एतत्' पूर्वोक्तं 'समासतः' सामान्येन शस्त्रं, तुशब्दो विभागापेक्षया विशेपणार्थः ॥ विभागतस्त्विदम् — किंची सकाय सत्थं किंची परकाय तदुभयं किंचि । एवं तु दव्वसत्थं भावे य असंजमो सत्थं ॥ ११४ ॥ किञ्चित् स्वकायशस्त्रं नादेयं तडागस्य किश्चित्पर कायशस्त्रं मृत्तिकास्नेहक्षारादि किञ्चिचोभयं उदकमिश्रा मृत्तिकोदकस्येति, भावशस्त्रमसंयमः प्रमत्तस्य दुष्प्रणिहितमनोवाक्कायलक्षण इति ॥ शेषद्वाराणि पृथिवीकायवन्नेतव्यानि इति ||दर्शयितुमाह सेसाई दाराई ताई जाई हवंति पुढबीए एवं आउछेसे निज्जुत्सी कितिया एसा ( होइ ) ॥ ११५ ॥ 'शेपाणी' त्युक्तशेषाणि निक्षेपवेदनावधनिवृत्तिरूपाणि तान्येवात्रापि द्रष्टव्यानि यानि पृथिव्यां भवन्तीति, 'एवम्' उक्तप्रकारेणापकायोद्देश के 'निर्युक्तिः' निश्चयेनार्थघटना 'कीर्त्तिता' प्रदर्शिता भवतीति ॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं तच्चेदम्--- से बेमि जहा अणगारे उज्जुकडे नियार्यपडिवण्णे अमायं कुव्वमाणे वियाहिए (सू० १८ ) १ निकाय पवित्रे इति पा. Jan Estication Intemational For Pantry Use Only ~87~# www.indiary.org Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [१८], नियुक्ति: [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचाः अध्ययनं १ उद्देशकः ३ सूत्रांक [१८] दीप अनुक्रम [१९] 'से बेमी'त्यादि अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके परिसमाप्तिसूत्रे 'पृथिवीकायसमारम्भव्यावृत्तो राङ्गवृत्तिः मुनि रित्युक्तं, न चैतावता सम्पूर्णो मुनिर्भवति, यथा च भवति तथा दर्शयति, तथाऽऽदिसूत्रेणार्य सम्बन्धः-सुधर्म(शी०) ४ स्वामी इदमाह-श्रुतं मया भगवदन्तिके यत् प्राक् प्रतिपादितमन्यच्चेदमित्येवं परम्परसूत्रसम्बन्धोऽपि प्राग्वद्वाच्यः। ॥४२॥ सेशब्दस्तच्छब्दार्थो, स यथा पृथिवीकायसमारम्भव्यावृत्त्युत्तरकालं सम्पूर्णानगारव्यपदेशभाग भवति तदहं ब्रवीमि, अपिः समुच्चये, स यथा वाऽनगारो न भवति तथा च ब्रवीमि 'अणगारा मो त्ति एगे पयवमाणे'त्यादिनेति, न विद्यते अगारं-गृहमस्येत्यनगारः, इह च यत्यादिशब्दव्युदासेनानगारशब्दोपादानेनैतदाचष्टे-गृहपरित्यागः प्रधानं मु| नित्वकारणं, तदाश्रयत्वात्सायद्यानुष्ठानस्य, निरवद्यानुष्ठायी च मुनिरिति दर्शयति-'उज्जुकडे'त्ति ऋजुः-अकुटिलः संयमो दुष्प्रणिहितमनोवाकायनिरोधः सर्वसत्त्वसंरक्षणप्रवृत्तत्वायैकरूपः, सर्वत्राकुटिलगतिरितियावत्, यदिवा मोक्षस्थानगमनर्जुश्रेणिप्रतिपत्तिः सर्वसवरसंयमात्, कारणे कार्योपचारं कृत्वा संयम एव सप्तदशप्रकार ऋजुः ते करोदातीति ऋजुकृत्, ऋजुकारीत्यर्थः । अनेन चेदमुक्तं भवति-अशेषसंयमानुष्ठायी सम्पूर्णोऽनगारः, एवंविधश्चेदग भव तीति दर्शयति-नियागपडिवन्नेत्ति, यजनं यागः नियतो निश्चितो वा यागो नियागो-मोक्षमार्गः, सङ्गतार्थत्वाद्धातोः सम्यगज्ञानदर्शनचारित्रात्मतया गतं सनातमिति, तं नियागं-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकं मोक्षमार्ग प्रतिपन्नो नियाग प्रतिपन्नः, पाठान्तरं वा 'निकायप्रतिपन्नो' निर्गतः काया-औदारिकादिर्यस्माद्यस्मिन्या सति स निकायो-मोक्षस्तं प्रतिपन्नो निकायप्रतिपन्ना, तत्कारणस्य सम्यग्दर्शनादेः स्वशत्याऽनुष्ठानात्, स्वशत्याऽनुष्ठानं चामायाविनो भवतीति दर्शयति | ~88~# Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [84] दीप अनुक्रम [१९] आ. स. “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [३], मूलं [१८], निर्युक्तिः [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Estication tamational - 'अमायं कुव्यमाणे ति माया - सर्वत्र स्ववीर्यनिगूहनं, न माया अमाया तां कुर्वाणः, अनिगूहितबलवीर्यः संयमानु| ष्ठाने पराक्रममाणोऽनगारो व्याख्यात इति, अनेन तज्जातीयोपादानादशेषकपायापगमोऽपि द्रष्टव्य इति उक्तं च - "सोही र्य उज्जुयभूयस्स, धम्मो युद्धस्स चिठ्ठद्द" ति ।। तदेवमसावुद्धृतसकलमायावल्लीवितानः किं कुर्यादित्याह जाए सछाए निक्खतो तमेव अणुपालिज्जा, वियहित्ता विसोत्तिय ( सूत्र० १९ ) 'यथा श्रद्धया' प्रवर्द्धमानसंयमस्थानकण्डकरूपया 'निष्क्रान्तः' प्रव्रज्यां गृहीतवान् 'तामेव' श्रद्धामश्रान्तो यावज्जीवम् 'अनुपालयेद्' रक्षेदित्यर्थः, प्रव्रज्याकाले च प्रायशः प्रवृद्धपरिणाम एव प्रव्रजति, पश्चात्तु संयमश्रेणी प्रतिपन्नो वर्द्धमानपरिणामो वा हीयमानपरिणामो वा अवस्थितपरिणामो वेति, तत्र वृद्धिकालो हानिकालो वा समयाद्युत्कर्षेणान्तमहर्त्तिकः, नातः परं सङ्केशविशुज्य द्वे भवतः, उक्तं च- "नान्तर्मुहर्सकालमतिवृत्य शक्यं हि जगति सक्तेष्टुम् । नापि विशोद्धुं शक्यं प्रत्यक्षो ह्यात्मनः सोऽर्थः ॥ १ ॥ उपयोगद्वयपरिवृत्तिः सा निर्हेतुका स्वभावत्वात् । आत्मप्रत्यक्षो हि स्वभावो व्यर्थाsत्र हेतूक्तिः ॥ २ ॥” अवस्थितकालश्च द्वयोर्वृद्धिहानिलक्षणयोर्यवमध्यवज्रमध्ययोरष्टौ समयाः, तत ऊर्द्धमवश्यं पातात्, अयं च वृद्धिहान्यवस्थितरूपः परिणामः केवलिनां निश्चयेन गम्यो न छद्मस्थानामिति । यद्यपि च प्रव्रज्याभिगमोत्तरकालं श्रुतसागरमवगाहमानः संवेगवैराग्यभावनाभावितान्तरात्मा कश्चित्प्रवर्द्धमानमेव परिणामं १ शोभिधभूतस्य धर्मः शुद्धस्य तिष्ठति २ संजोयं इति पा संयम श्रद्धा वृद्धिकरणे उपदेश: For Party Use Onl ~89~# Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१९] दीप अनुक्रम [२०] श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ४३ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [३], मूलं [१९], निर्युक्ति: [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः भजते, तथा चोक्तम्- "जह जह सुयमवगाहइ अइसयरसपसरसंजुमन्त्रं । तह तह पव्हाइ मुणी नवनवसंवेगसद्धाए ॥ १ ॥ " तथापि स्तोक एव तादृकू बहवश्च परिपतन्ति अतोऽभिधीयते 'तामेवानुपालयेदिति कथं पुनः कृत्वा श्रद्धामनुपालयेदित्याह - 'विजहे'त्यादि, 'विहाय' परित्यज्य 'विस्रोतसिकां'शङ्कां सा च द्विधा-सर्वशङ्का देशशङ्का च, तत्र सर्वशङ्का किमस्ति आर्हतो मांगें नवेति, देशशङ्का तु किं विद्यन्ते अपकायादयो जीवाः १, विशेष्य प्रवचनेऽभिहितत्वात् स्पष्टचेतनात्मलिङ्गाभावान्न विद्यन्ते इति वा, इत्येवमादिकामारेकां विहाय सम्पूर्णाननगारगुणान् पालयेत्, यदिवा विस्रोतांसि द्रव्यभावभेदात् द्विधा-तत्र द्रव्यविस्रोतांसि नद्यादिस्रोतसां प्रतीपगमनानि, भावविस्रोतांसि तु मोक्षं प्रति सम्यग्दर्शनादिस्रोतसा प्रस्थितानां विरूपाणि, प्रतिकूलानि गमनानि भावविस्रोतांसि तानि विहाय सम्पूर्णानगारगुणभौग भवति, श्रद्धां वाऽनुपालयेदिति पाठान्तरं वा 'विजहित्ता पुण्यसंजोगं' पूर्वसंयोगः- मातापित्रादिभिः, अस्य चोपलक्षणार्थत्वासश्चात्संयोगोऽपि श्वशुरादिकृतो ग्राह्यस्तं 'विहाय' त्यक्त्वा 'श्रद्धामनुपालयेदिति मीलनीयं ॥ तत्र यस्यायमुपदेशो दीयते यथा 'विहाय विस्रोतांसि तदनु श्रद्धानुपालनं कार्य' स एवाभिधीयते न केवलं भवानेवापूर्व मिदमनुष्ठानमेवंविधं करिष्यति, किं त्वन्यैरपि महासत्त्यैः कृतपूर्वमिति दर्शयितुमाह पणा वीरा महावीहिं ( सू० २० ) १ यथा यथा श्रुतमवगाहतेऽतिशयरसप्रसरसंयुतमपूर्वम्। तथा तथा प्रह्रादते मुनिर्नवनवसंवेगश्रद्धया ॥ १ ॥ Jan Estication Intimanal महापुरुष आचरित मार्ग: For Pantry Use Onl ~90~# २ मार्ग उत नेति प्र. अध्ययनं १ उद्देशकः ३ ॥ ४३ ॥ www.india.org Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [२०], नियुक्ति: [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक २०] दीप अनुक्रम [२१] 'प्रणताः' प्रहाः 'वीरा' परीपहोपसर्गकषायसेनाविजयात् वीथिः-पन्थाः महांश्चासी वीथिश्च महावीथिः-सम्यग्दर्शनादिरूपो मोक्षमार्गो जिनेन्द्रचन्द्रादिभिः सत्पुरुषः ग्रहतः, तं प्रति प्रह्वाः-वीर्यवन्तः संयमानुष्ठानं कुर्वन्ति, ततश्चोत्तमपुरुषमहतोऽयं मार्ग इति प्रदर्य तज्जनितमार्गविनम्भो विनेयः संयमानुष्ठाने सुखेनैव प्रवर्तयिष्यते ॥ उपदेशान्तरमाह-लोकं चेत्यादि, अथवा यद्यपि भवतो मतिर्ने क्रमतेऽप्कायजीवविषये, असंस्कृतत्वात्, तथापि भगवदाज्ञेयमिति श्रद्धातव्यमित्याह लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुओभयं (सू० २१) अत्राधिकृतत्वादकायलोको लोकशब्देनाभिधीयते, तमकायलोकं चशब्दादन्यांश्च पदार्थान् 'आशया' मौनीन्द्रवचनेनाभिमुख्येन सम्यगित्वा-ज्ञात्वा, यथाऽप्कायादयो जीवाः, इत्येवमवगम्य न विद्यते कुतश्चिद्धेतोः केनापि प्रकारेण जन्तूनां भयं यस्मात् सोऽयमकुतोभयः-संयमस्तमनुपालयेदिति सम्बन्धः, यद्वा 'अकुतोभयः' अप्कायलोको, यतोऽसौ न कुतश्चियमिच्छति, मरणभीरुत्वात्, तमाज्ञयाऽभिसमेत्यानुपालयेद्-रक्षेदित्यर्थः ॥ अपकायलोकमाज्ञया अभिसमेत्य यत्कर्त्तव्यं तदाह से बेमि णेव सयं लोग अभाइक्खिज्जा व अत्ताणं अब्भाइक्खिज्जा, जे लोयं अ wwwandltimaryam अप्कायेषु जीवस्य अस्तित्वं ~91-23 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [२२], नियुक्ति: [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: अध्ययन प्रत सूत्रांक (शी०) [२२] दीप अनुक्रम [२३] श्रीआचा ब्भाइक्खइ से अत्ताणं अब्भाइक्खइ, जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ से लोयं अब्भाइराङ्गवृत्तिः क्खइ (सू० २२) उद्देशकः३ सोऽहं ब्रवीमि, सेशब्दस्य युष्मदर्थत्वात्त्वां वा ब्रवीमि, न 'स्वयम्' आत्मना 'लोक' अप्कायलोकोऽभ्याख्यातव्यः, अभ्याख्यानं नामासदभियोगः, यथाऽचोरं चोरमित्याह, इह तु जीवा न भवन्त्यापा, केवलमुपकरणमात्र, घृततला|दिवत्, एषोऽसदभियोगः, हस्त्यादीनामपि जीवानामुपकरणत्वात् , स्थादारेका-नन्येतदेवाभ्याख्यानं यदजीवानां जीवत्वापादनं, नैतदस्ति, प्रसाधितमपां प्राक् सचेतनत्वं, यथा हि अस्य शरीरस्याप्रत्यादिभिहेतुभिरधिष्ठाताऽऽत्मा व्यतिरिक्तः प्राक् प्रसाधित एवमष्कायोऽप्यन्यक्तचेतनया सचेतन इति प्राक् प्रसाधितः, न च प्रसाधितस्याभ्याख्यान न्याय्यम् , अथापि स्याद् , आत्मनोऽपि शरीराधिष्ठातुरभ्याख्यानं कर्त्तव्यं, न च तक्रियमाणं घटामियतीति दर्शयति ||5|| -'नेव अत्ताणं अब्भाइक्खेज्जा' नैव 'आत्मानं शरीराधिष्ठातारमहंप्रत्ययसिद्ध ज्ञानाभिन्नगुणं प्रत्यक्षं 'प्रत्याचक्षीत' || अपहवीत, ननु चैतदेव कथमवसीयते-शरीराधिष्ठाताऽऽत्माऽस्तीति, उच्यते, विस्मरणशीलो देवानां प्रिय उक्तमपि भाण-IN यति, तथाहि-आहुतमिदं शरीरं केनचिदभिसन्धिमता, कफरुधिराङ्गोपाङ्गादिपरिणतेः, अन्नादिवत्, तथोत्सृष्टमपि केनचिदभिसन्धिमतैय, आहुतत्वाद्, अन्नमलवदिति, तथा न ज्ञानोपलब्धिपूर्वकः परिस्पन्दो भ्रान्तिरूपः, परिस्सन्द-1 मात्वात् , स्वदीयवचनपरिस्पन्दवत्, तथा विद्यमानाधिष्ठातृव्यापारभाञ्जीन्द्रियाणि, करणत्वात्, दात्रादिवत्, एवं कुत-IA Jain Educatinintamathima www.anatvarmarg ~92-23 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२२] दीप अनुक्रम [२३] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [३], मूलं [२२], निर्युक्ति: [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः र्क मार्गानुसारिहेतुमालोच्छेदः स्याद्वादपरशुना कार्यः, अत एवंविधोपपत्तिसमधिगतमात्मानं शुभाशुभफलभाजं न प्रत्याचक्षीत, एवं च सति यो यज्ञः कुतर्कतिमिरोपहतज्ञान चक्षुरपूकाय लोकमभ्याख्याति प्रत्याचष्टे स सर्वप्रमाणसिद्धमात्मानमभ्याख्याति यश्चात्मानमभ्याख्याति नास्म्यहं स सामर्थ्यादपूकायलोकमभ्याख्याति, यतो ह्यात्मनि पाण्याद्यवयवोपेतशरीराधिष्ठायिनि प्रस्पष्टलिङ्गेऽभ्याख्याते सत्यव्यक्तचेतनालिङ्गोऽप्रकायलोकस्तेन सुतरामभ्याख्यातः ॥ एवमनेकदोषोपपत्तिं विदित्वा नायमप्कायलोकोऽभ्याख्यातव्य इत्यालोच्य साधवो नाष्कायविषयमारम्भं कुर्वन्तीति, शाक्यादयस्त्वन्यथोपस्थिता इति दर्शयितुमाह Jan Estication Intentional लज्जमाणा पुढो पास अणगारा मोति एगे पवयमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं उदयकम्मसमारंभेणं उदयसत्थं समारंभमाणे अणेगरूवे पाणे विहिंसह । तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेदिता । इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाइमरणमोयणाए दुक्खपडिघाय हेउं से सयमेव उदयसत्थं समारभति अण्णेहिं वा उदयसत्थं समारंभावेति अण्णे उदयसत्थं समारंभंते समणुजाणति । तं से अहियाए तं से अबोहीए । से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय सोच्चा भगवओ अ अप्काय हिंसानाम् विरतः एव 'मुनिः ' For Pantry O ~93~# www.indiary.org Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [२३], नियुक्ति: [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) 2-%*50-55--4 ॥४५॥ दीप अनुक्रम [२४] णगाराणं अंतिए इहमेगेसिं णायं भवति-एस खलु गंथे एस खलु मोहे एस खलु अध्ययन मारे एस खलु णरए, इच्चत्थं गड्डिए लोए जमिणं विरूवरूवहिं सत्थेहिं उदयकम्म उद्देशकः३ समारम्भेणं उदयसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ । से बेमि संति पाणा उदयनिस्सिया जीवा अणेगे (सू० २३) 'लज्जमानाः' स्वकीयं प्रत्रज्याभासं कुर्वाणाः यदिवा सावधानुष्ठानेन लज्जमाना-लज्जां कुर्वाणाः 'पृथग्'विभिन्नाः शाक्योलूककणभुक्कपिलादिशिष्याः, पश्येति शिष्यचोदना, अविवक्षितकर्मका अपि अकर्मका भवन्ति, यथा-पश्य मृगो धावतीति, द्वितीयार्थे वा प्रधमा सुब्व्यत्ययेन द्रष्टव्या, ततश्चायमधः-शाक्यादीन् गृहीतप्रव्रज्यानपि सावद्यानुष्ठानरतान् पृथग्विभिन्नान् पश्य, किं तैरसदाचरितं ? येनैवं प्रदश्यन्त इति दर्शयति-अनगारा बयमित्येके शाक्यादयः प्रवदन्तो 'यदिदं' यदेतत्, काका दर्शयति-विरूपरूपैः' उत्सेचनाग्निविध्यापनादिशौः स्वकायपरकायभेदभिरुदककर्म समारभन्ते, उदककर्मसमारम्भेण च उदके शस्त्रं उदकमेव वा शस्त्रं समारभन्ते, तच्च समारभमाणोऽनेकरूपान्वनसतिद्वीन्द्रियादीन्विविधं हिनस्ति, तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता, यथा अस्यैव जीवितव्यस्थ परिवन्दनमानन-g पूजनार्थ जातिमरणमोचनार्थं दुःखप्रतिघातहेतुं यत् करोति तद्दर्शयति-स स्वयमेवोदकशस्त्रं समारभते अन्यैश्चोदक- ॥४५॥ शस्त्रं समारम्भयति अन्यांश्चोदकशखं समारभमाणान् समनुजानीते, तचोदकसमारम्भणं तस्याहिताय भवति, तथा Vinanatram.org अप्कायस्य हिंसात् अनेक जीवानाम् हिंसा ~94-23 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [२३], नियुक्ति: [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक २३] दीप अनुक्रम [२४] ४ तदेवाबोधिलाभाय भवति, स एतत्सम्बुध्यमान आदानीयं-सम्यग्दर्शनादि सम्यगुत्थाय-अभ्युपगम्य श्रुत्वा भगव तोऽनगाराणां वाऽन्तिके इहैकेषां साधूनां यत् ज्ञातं भवति तदर्शयति-'एषः' अकायसमारम्भो ग्रन्थ एष खलु मोह एष खलु मार एप खलु नरक इत्येवमर्थ गृद्धो लोको यदिदं विरूपरूपैः शस्त्रैः उदककर्मसमारम्भेणोदकशखं समार-1 |भमाणोऽन्याननेकरूपान् प्राणिनी विविध हिनस्तीत्येतत्माग्वत् व्याख्येयं, पुनरयाह-'से बेमी'त्यादि, सेशन्द आत्म| निर्देशे, सोऽहमेवमुपलब्धानेकापकायतत्त्ववृत्तान्तो ब्रवीमि-'सन्ति' विद्यन्ते प्राणिन उदकनिश्रिताः-पूतरकमत्स्यादयो यानुदकारम्भप्रवृत्तो हन्यादिति, अथवाऽपरः सम्बन्धः-प्रागुक्तमुदकशखं समारभमाणोऽन्यानप्यनेकरूपान् जन्तून विविधं हिनस्तीति, तत् कथमेतच्छक्यमभ्युपगन्तुमित्यत आह-'सन्ति पाणा' इत्यादि पूर्ववत्, कियन्तः पुनस्त इति दर्शयति-'जीवा अणेगा' पुनजीवोपादानमुदकाश्रितप्रभूतजीवभेदज्ञापनार्थ, ततश्चेदमुक्तं भवति-एकैकस्मिन् जीवभेदे उदकाश्रिता 'अनेके' असंख्येयाः प्राणिनो भवन्ति, एवं चाप्कायविषयारम्भभाजः पुरुषास्ते तनिश्रितप्रभूतसत्त्व-1 व्यापत्तिकारिणो द्रष्टव्याः॥ शाक्यादयस्तूदकाश्रितानेव द्वीन्द्रियादीन् जीवानिच्छन्ति नोदकमित्येतदेव दर्शयति इहं च खल्लु भो! अणगाराणं उदयजीवा वियाहिया (सू० २४) PI खलुशब्दोऽवधारणे 'इहैव' ज्ञातपुत्रीये प्रवचने द्वादशाङ्गे गणिपिटके 'अनगाराणां' साधूनाम् 'उदकजीवा' उद-18 ४ करूपा जीवाश्चशब्दात्तदाश्रिताश्च पूतरकछेदनकलोहणकभ्रमरकमत्स्यादयो जीवा व्याख्याताः, अवधारणफलं च ना-18 न्येषामुदकरूपा जीवाः प्रतिपादिताः ॥ यद्येवमुदकमेव जीवास्ततोऽवश्यं तसरिभोगे सति प्राणातिपातभाजः साधव | का | अप्कायिक जीवानाम् स्वरूपं ~95-2 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२४] दीप अनुक्रम [29+ २६] श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ४६ ॥ P10 इति, अत्रोच्यते, नैतदेवं, यतो वयं त्रिविधमष्कायमाचक्ष्महे सचित्तं मिश्रमचितं च तत्र योऽचित्तोऽपकायस्तेनोपयोगविधिः साधूनां, नेतराभ्यां कथं पुनरसौ भवत्यचित्तः ? किं स्वभावादेवाहोश्विच्छस्त्रसम्बन्धात् ?, उभयथाऽपीति, तत्र यः स्वभावादेवाचित्तीभवति न बाह्यशस्त्रसम्पर्कात्, तमचित्तं जानाना अपि केवलमनःपर्यायावधिश्रुतज्ञानिनो न परिभुञ्जते, अनवस्थाप्रसङ्गभीरुतया, यतो नु श्रूयते भगवता किल श्रीवर्द्धमानस्वामिना विमलसलिलसमुल्लसत्तरङ्गः शैवलपटल सादिरहितो महाइदो व्यपगताशेपजलजन्तुकोऽचित्तवारिपरिपूर्णः स्वशिष्याणां तृवाधितानामपि पानाय नानु+ जज्ञे, तथा अचित्ततिलशकटस्थण्डिलपरिभोगानुज्ञा चानवस्थादोपसंरक्षणाय भगवता न कृतेति श्रुतज्ञानप्रामाण्यज्ञापनार्थं च, तथाहि - सामान्यश्रुतज्ञानी बाह्येन्धनसम्पर्कारुषितस्वरूपमेवा चित्तमिति व्यवहरति जलं, न पुनर्निरिन्धनमेवेति, अतो यद्वाह्यशस्त्रसम्पर्कात् परिणामान्तरापन्नं वर्णादिभिस्तदचित्तं साधुपरिभोगाय कल्पते, किं पुनस्तच्छस्त्रमि त्यत आह * “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [२४], निर्युक्तिः [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः अप्कायानाम् शस्त्रा: सत्थं चेत्थं अणुवीइ पासा, पुढो सत्थं पवेइयं ( सू० २५ ) शस्यन्ते - हिंस्यन्तेऽनेन प्राणिन इति शस्त्रं तच्चोत्सेचन गालनउपकरणधावनादि स्वकायादि च वर्णाद्यापत्तयो वा पूर्वावस्थाविलक्षणाः शस्त्रं (तथाहि अग्निपुद्गलानुगतत्वादीपसिङ्गलं जलं भवत्युष्णं गन्धतोऽपि धूमगन्धि रसतो विरसं स्पर्शत उष्णं तथोद्वृत्तत्रिदण्डम्) एवंविधावस्थं यदि ततः कल्पते, नान्यथा, तथा कचवरकरीषगोमूत्रोषादीन्धनसम्वन्धात् स्तोकमध्यबहुभेदात्, स्तोकं स्तोके प्रक्षिपतीत्यादिचतुर्भङ्गिकाभावना कार्या, एवमेतत् त्रिविधं शस्त्रं, चशब्दो Jan Estication Intemational For Pantry Use Only ~96 ~# अध्ययनं १ उद्देशकः ३ ॥ ४६ ॥ www.indiary.org Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [२५], नियुक्ति: [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] दीप अनुक्रम २५+ २६] अवधारणार्थः, अन्यतमशस्त्रसम्पर्कविध्वस्तमेव ग्राह्य, नान्यथेति, 'एत्थति एतस्मिन् अपकाये प्रस्तुते 'अनुविचिन्त्य ।। विचार्य इदमस्य शस्त्रमित्येवं ग्राह्यं, 'पश्ये त्यनेन शिष्यस्य चोदनेति । तदेवं नानाविधं शस्त्रमप्कायस्यास्तीति प्रतिपादितम्, एतदेव दर्शयति-'पुढो सत्थं पवेदित' 'पृथग्' विभिन्नमुत्सेचनादिकं शस्त्रं 'प्रवेदितम्' आख्यातं भगवता, पाठान्तरं वा 'पुढोऽपासं पवेदित' एवं पृथग्विभिन्नलक्षणेन शस्त्रेण परिणामितमुदकग्रहणमपाशं प्रवेदितम्-आख्यातं भगवता, अपाश:-अबन्धनं शस्त्रपरिणामितोदकग्रहणमबन्धनमाख्यातमितियावद् ॥ एवं तावत्साधूनां सचित्तमिश्रापकायपरित्यागेनाचित्तपयसा परिभोगः प्रतिपादितः, ये पुनः शाक्यादयोऽपकायोपभोगप्रवृत्तास्ते नियमत एवाप्कार्य विहिंसन्ति, तदाश्रितांश्चान्यानिति, तत्र न केवलं प्राणातिपातापत्तिरेव तेषां, किमन्यदित्यत आह अदुवा अदिन्नादाणं (सू० २६) 'अथवेति पक्षान्तरोपन्यासद्वारेणाभ्युचयोपदर्शनार्थः, अशस्त्रोपहतापकायोपभोगकारिणां न केवलं प्राणातिपातः. अपि त्वदत्तादानमपि तत्तेषां, यतो यैरपकायजन्तुभियोनि शरीराणि निर्वर्तितानि तैरदत्तानि ते तान्युपभुञ्जते, यथा कश्चित् पुमान् सचित्तशाक्यभिक्षुकशरीरकात् खण्डमुत्कृत्य गृह्णीयाद्, अदत्तं हि तस्य तत्, परपरिगृहीतत्वात्, परकीयगवाद्यादानवत्, एवं तानि शरीराण्यब्जीवपरिगृहीतानि गृहृतोऽदत्तादानमवश्यम्भावि, स्वाम्यनुज्ञानाभावादिति, ननु यस्य तत्तडागकूपादि तेनानुज्ञातं सकृत्तपय इति, ततश्च नादत्तादानं, स्वामिनाऽनुज्ञातत्वात्, परानुज्ञातपश्वादिदाघातवत्, नन्वेतदपि साध्यावस्थमेवोपन्यस्तं, यतः पशुरपि शरीरप्रदानविमुख एव भिन्नार्यमर्यादैरुच्चैरारटन्विशस्यते, wwwanditimaryam अप्कायस्य हिंसात् अदत्तादान-दोष: ~97~# Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [२६], नियुक्ति: [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत अध्ययनं १ सूत्रांक श्रीआचा- रावृत्तिः (शी०) उद्देशकः३ [२६] दीप अनुक्रम [२७]] ततश्च कथमिव नादत्तादानं स्यात्, न चान्यदीयस्यान्यः स्वामी दृष्टः परमार्थचिन्ताया, नन्वेवमशेषलोकप्रसिद्धगो- दानादिव्यवहारखुट्यति, त्रुव्यतु नामैवंविधः पापसम्बन्धः, तद्धि देयं यदुःखितं स्वयं न भवति दासीबलीवर्दादिवत् , न चान्येषां दुःखोपत्तेः कारणं हलखगादिवत्, एतव्यतिरिक्त दातृपरिगृहीत्रोरेकान्तत एवोपकारकं देयं प्रतिजानते जिनेन्द्रमतावलम्बिनः, उक्तं च-“यत् स्वयमदुःखितं स्यान्न च परदुःखे निमित्तभूतमपि । केवलमुपग्रहकर धर्मकृते | तद्भवेद्देयम् ॥१॥" इति, तस्मादवस्थितमेतत्-तेषां तददत्तादानमपीति ॥ साम्प्रतमेतद्दोषद्वयं स्वसिद्धान्ताभ्युपगमद्वारेण परः परिजिहीर्पराह कप्पइ णे कप्पइ णे पाउं, अदुवा विभूसाए (२७ सू०) . ___ अशस्त्रोपहतोदकारम्भिणो हि चोदिताः सन्तं एवमाहुः-यथा नैतत् स्वमनीषिकातः समारम्भयामो वयं, किं त्यागमे निर्जीवत्वेनानिषिद्धत्वात् 'कल्पते' युज्यते 'नः' अस्माकं पातुम्' अभ्यवर्तुमिति, वीप्सया च नानाविधप्रयोजनविषय | उपभोगोऽभ्यनुज्ञातो भवति, तथाहि-आजीविकभस्मस्नाय्यादयो बदन्ति-पातुमस्माकं कल्पते न स्नातुं वारिणा, शा-15 क्यपरिव्राजकादयस्तु स्नानपानावगाहनादि सर्व कल्पते इति प्रभाषन्ते, एतदेव स्वनामग्राहं दर्शयति-अथवोदकं विभूषार्थमनुज्ञातं नः समये, विभूपा-करचरणपायूपस्थमुखप्रक्षालनादिका वस्खभण्टकादिप्रक्षालनामिका घा, एवं स्नानादि-| शीचानुष्ठाथिनां नास्ति कश्चिदोष इति ॥ एवं ते परिफल्गुवचसः परिव्राजकादयो निजराद्धान्तोपन्यासेन मुग्धमतीम्बिमोह्य किं कुर्वन्तीत्याह-- ॥४७॥ wwwandltimaryam अप्काय सम्बन्धे अन्य मत ~98~23 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [२८], नियुक्ति: [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८] दीप अनुक्रम [२९] पुढो सत्थेहिं विउद्दन्ति (सू०२८) 'पृथग' विभिन्नलक्षणः नानारूपैरुत्सेचनादिशौस्ते अनगारायमाणाः 'विउदृन्ति'त्ति अप्कायजीवान् जीवनान्यावर्तयन्ति-व्यपरोपयन्तीत्यर्थः, यदिवा पृथग्विभिन्नैः शस्त्रैरप्कायिकान्विविधं कुदृन्ति-छिन्दन्तीत्यर्थः, कुहेर्द्धातोः छेदनाअर्थत्वात् । अधुनैषामागमानुसारिणामागमासारत्वप्रतिपादनायाह एत्थऽवि तेसिं नो निकरणाए (सू० २९) 'एतस्मिन्नपि' प्रस्तुते स्वागमानुसारेणाभ्युपगमे सति 'कप्पा णे कप्पइ णे पाउं, अदुवा विभूसाए'त्ति एवंरूपस्तेषामयमागमो यद्बलादप्कायपरिभोगे ते प्रवृत्ताः स स्याद्वादयुक्तिभिरभ्याहतः सन् 'नो निकरणाए'त्ति नो निश्चयं कर्नु समों भवति, न केवलं तेषां युक्तयो न निश्चयायालम्, अपि त्वागमोऽपीत्यपिशब्दः, कथं पुनस्तदागमो निश्चयाय | RI नालमिति, अत्रोच्यते, त एवं प्रष्ट व्याः-कोऽयमागमो नाम ? यदादेशात्कल्पते भवतामप्कायारम्भः, त आहुः-प्रतिविशिष्ठानुपु विन्यस्तवर्णपदवाक्यसङ्घात आप्तप्रणीत आगमः, नित्योऽकर्तृको वा । ततश्चैवमभ्युपगते यो येन प्रतिपन्न आप्तः स निराकर्तव्यः, अनाप्तोऽसौ अप्कायजीवापरिज्ञानात् तद्वधानुज्ञानाद्वा भवानिव, जीवत्वं चापां प्राक् प्रसा-| धितमेव, ततस्तत्प्रणीतागमोऽपि सद्धर्मचोदनायामप्रमाणम् , अनाप्तप्रणीतत्वाद्, रथ्यापुरुषवाक्यवत् , अथ नित्योऽकर्तृका समयोऽभ्युपगम्यते ततो नित्यत्वं दुष्प्रतिपादं, यतः शक्यते वक्तुं-भवदभ्युपगतः समयः सकर्तृको वर्णपदवा C SH -4 अप्कायस्य हिंसकाः ~99-23 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [२९], नियुक्ति: [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम श्रीआचा- क्यात्मकत्वात् , विधिप्रतिषेधात्मकत्वात् , उभयसम्मतसकर्तृकग्रन्थसन्दर्भवदिति, अभ्युपगम्य वा ब्रूमः-अप्रमाणमसौ, अध्ययनं १ रामवृत्तिः नित्यत्वादाकाशवत् , यच्च प्रमाणं तदनित्यं दृष्टं प्रत्यक्षादिवदिति, तथा विभूषासूत्रावयवेऽपि पृष्टा न प्रत्युत्तरदाने क्षमाः, || उद्देशकः३ (शी०) यतियोग्यं स्नानं न भवति, कामाङ्गत्वात् , मण्डनवत् , कामाङ्गता च सर्वजनप्रसिद्धा, तथा चोक्तम्-"स्नानं मदद॥४८॥ सर्पकरं, कामाङ्गं प्रथम स्मृतम् । तस्मात्कामं परित्यज्य, नैव स्मान्ति दमे रताः ॥ १॥” शौचार्थोऽपि न पुष्कलो, वारिणा वाह्यमलापनयनमात्रत्वात् , न ह्यन्तर्व्यवस्थितकर्ममलक्षालनसमर्थ वारि दृष्टं, तस्माच्छरीरवाङमनसामकुशलप्रवृत्तिनिरोधी भावशौचमेव कर्मक्षयायाल, तत्र वारिसाध्यं न भवति, कुतः ?, अन्ययव्यतिरेकसमधिगम्यत्वात्सर्वभावानां, न हि मत्स्यादयः तत्र स्थिता मरस्यादित्यकर्मक्षयभाक्त्वेनाभ्युपगम्यन्ते, विना च वारिणा महर्षयो विचित्रतपोभिः कर्म क्षपबन्तीति, अतः स्थितमेतत्-तत्समयो न निश्चयाय प्रभवतीति ॥ तदेवं निःसपलमपां जीवत्वं प्रतिपाद्य तत्प्रवृत्तिनिवृत्तिविकल्पफलप्रदर्शनद्वारेणोपसंजिहीर्युः सकलमुद्देशार्थमाह एत्थ सत्थं समारभमाणस्स इच्चेए आरंभा अपरिणाया भवंति, एत्थ सत्थं असमारभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवंति, तं परिणाय मेहावी व सयं उद M ४८।। यसत्थं समारम्भेजा णेवण्णेहिं उदयसत्थं समारंभावेजा उदयसत्थं समारंभंतेऽवि wwwjaanaitimaryam ~100~# Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [३०], नियुक्ति: [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०] दीप अनुक्रम [३१] अण्णे ण समणुजाणेजा, जस्सेते उदयसरथसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिणातकम्मे (सू० ३०) त्ति बेमि ॥ इति तृतीयोऽप्कायोद्देशकः॥ 'एतस्मिन्' अपकाये 'शस्त्रं द्रव्यभावरूपं समारभमाणस्येत्येते समारम्भा बन्धकारणत्वेनापरिज्ञाता भवन्ति, अत्रैवाप्काये शस्त्रमसमारभमाणस्येत्येते आरम्भा ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाता भवन्ति प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहता भवन्ति, तामेव प्रत्याख्यानपरिज्ञां विशेषतो ज्ञपरिज्ञापूर्विकां दर्शयति-तद्' उदकारम्भणं बम्धायेत्येवं परिज्ञाय मेधावी-मयो दाव्यवस्थितो नैव स्वयमुदकशस्त्रं समारभेत, नैवान्यैरुदकशस्त्रं समारम्भयेत्, नैवान्यानुदकशस्त्रं समारभमाणान्समSIनुजानीयात्, यस्यैते उदकशस्त्रसमारम्भाः द्विधा परिज्ञाता भवन्ति स एव मुनिः परिज्ञातकर्मा भवति । नवीमीति दापूर्ववद् । इति शस्त्रपरिज्ञायां तृतीयोद्देशकः समाप्तः ॥ उक्तस्तृतीयोद्देशकः, साम्प्रतं चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोदेशके मुनित्वप्रतिपत्तये अप्कायः प्रतिपादितः, तदधुना तदर्थमेव क्रमायातस्तेजस्कायप्रतिपादनायायमुदेशकः समारभ्यते-तस्य चोपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि वाच्यानि तावद्यावन्नामनिष्पन्ने निक्षेपे तेजउद्देशक इति नाम, तत्र तेजसो निक्षेपादीनि द्वाराणि वाच्यानि, अत्र च पृथिवीविकल्पतुल्यत्वात् केपाश्चिदतिदेशो द्वाराणामपरेषां तद्विलक्षणत्वात् अपोद्धार इत्येतत् द्वयमुररीकृत्य नियुक्तिकृद् गाथामाह तेउस्सवि दाराई ताई जाई हवंति पुढवीए । नाणत्ती उ विहाणे परिमाणुवभोगसत्थे य ॥ ११ ॥ wwwandltimaryam | प्रथम अध्ययने चतुर्थ: उद्देशक: 'अग्निकाय:' आरब्ध:, ~101~# Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [३०] दीप अनुक्रम [३१] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ४९ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [३०...], निर्युक्ति: [११६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः 'तेजसोsपि' अझेरपि 'द्वाराणि' निक्षेपादीनि यानि पृथिव्याः समधिगमेऽभिहितानि तान्येव वाच्यानि, अपवादं दर्शयितुमाह-'नानात्वं' भदो विधानपरिमाणोपभोगशस्त्रेषु, तुरवधारणे, विधानादिष्वेव च नानात्वं नान्यत्रेति, चशब्दालक्षणद्वारपरिग्रहः ॥ यथाप्रतिज्ञातनिर्वहणार्थमादिद्वारव्याचिख्यासयाऽऽह दुविहाय तेजीवा सुहमा तह बायरा य लोगंमि । सुद्दमा य सव्वलोए पंचैव य वायरविहाणा ॥ ११७ ॥ स्पष्टा । बादरपञ्चभेदप्रतिपादनायाह इंगाल अगणि अची जाला तह मुम्मुरे य बोद्धव्वे । बायरतेउविहाणा पंचविहा वणिया एए ॥ ११८ ॥ दग्धेन्धनो विगतधूमज्वालोऽङ्गारः--, इन्धनस्थः लोपक्रियाविशिष्टरूपः तथा विद्युदुल्काऽशनिसङ्घर्षसमुत्थितः सूर्यमणिसंसृतादिरूपञ्चाग्निः, दाह्यप्रतिबद्धो ज्वालाविशेषोडाच, ज्वाला छिन्नमूलाऽनङ्गारप्रतिबद्धा, प्रविरलाग्निकणानुविद्धं भस्म मुर्मुरः, एते बादरा अनिभेदाः पञ्च भवन्तीति । एते च बादराग्नयः स्वस्थानाङ्गीकरणान्मनुष्यक्षेत्रेऽर्द्धतृतीयेषु द्वीपसमुद्रेष्वव्याघातेन पञ्चदशसु कर्म्मभूमिषु व्याघाते सति पञ्चसु विदेहेषु, नान्यत्र, उपपाताङ्गीकरणेन लोकासङ्ख्येयभागवर्तिनः, तथा चागमः-- " उववारणं दोसु उकवाडेसु तिरियलोयतट्टे (डे) य" अस्यायमर्थः- अर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रबाहल्ये पूर्वापरदिक्षणोत्तरस्वयम्भूरमणपर्यन्तायते ऊर्द्धाधोलोकप्रमाणे कपाटे तयोः प्रविष्टा बादराग्निषूद्यमानकास्तद्व्यपदेशं लभन्ते, तथा 'तिरियलोयतट्टे () य'त्ति तिर्यग्लोकस्थालके च व्यवस्थितो बादरानिषूत्यद्यमानो बादराग्निव्यप| देशभागू भवति । अम्ये तु व्याचक्षते -तयोस्तिष्ठतीति तत्स्थः, तिर्यग्लोकश्चासौ तत्स्थश्च तिर्यग्लोकतत्स्थः, तत्र च स्थित Jan Estication matinal For Parts O ~102~# अध्ययनं १ उद्देशकः ४ ॥ ४९ ॥ www.sindia.org Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [३०...], नियुक्ति: [११८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०] उत्पित्सुर्बादराग्निव्यपदेशमासादयति, अस्मिंश्च व्याख्याने कपाटान्तर्गत एव गृह्यते, स च द्वयोरुईकपाटयोरित्यनेनैशवोपात्त इति तद्व्याख्यानाभिप्रायं न विद्मः । कपाटस्थापना चेयम् । समुद्घातेन सर्वलोकवर्तिनः, ते च पृथि व्यादयो मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहता बादराग्निषत्सद्यमानास्तझ्यपदेशभाजः सर्वलोकव्यापिनो भवन्ति, यत्र च| बादराः पर्याप्तकास्तत्रैव वादरा अपर्याप्तकाः, तन्निश्रया तेषामुत्पद्यमानत्वात्, तदेवं सूक्ष्मा बादराश्च पर्याप्तकापर्याप्तक| भेदेन प्रत्येक द्विधा भवन्ति, एते च वर्णगन्धरसस्पर्शादेशैः सहस्राग्रशो भिद्यमानाः सवेययोनिप्रमुखशतसहस्रभेदपरि8 माणा भवन्ति, तत्रैषां संवृता योनिरुष्णा च सचित्ताचित्तमिश्रभेदात् त्रिधा, सप्त चैषां योनिलक्षा भवन्ति ॥ साम्प्रतं | चशब्दसमुच्चितं लक्षणद्वारमाह जह देहप्परिणामो रति खजोयगस्स सा उवमा । जरियस्स य जह उम्हा तओवमा तेउजीवाणं ॥ ११९॥ 'यथे ति दृष्टान्तोपन्यासार्थः 'देहपरिणामः' प्रतिविशिष्टा शरीरशक्तिः 'रात्राविति विशिष्टकालनिर्देशः 'खद्योतक' इति प्राणिविशेषपरिग्रहा, यथा तस्यासी देहपरिणामो जीवप्रयोगनिवृत्तशक्तिराविश्वकास्ति, एवमहारादीनामपि प्रतिविशिष्टा प्रकाशादिशक्तिरनुमीयते जीवप्रयोगविशेषाविर्भावितेति । यथा वा-ज्वरोष्मा जीवप्रयोगं नातिवर्त्तते, जीवा[धिष्ठितशरीरकानुपात्येव भवति, एवोपमाऽऽग्नेयजन्तूनां, न च मृता ज्वरिणः क्वचिदुपलभ्यन्ते, एवमन्वयव्यतिरेका[भ्यामग्ने सचित्तता मुक्तकग्रन्थोपपत्तिमुखेन प्रतिपादिता, सम्प्रति प्रयोगमारोप्यते अयमेवार्थ:-जीवशरीराण्यङ्कारादयः, छेद्यत्वादिहेतुगणान्वितत्वात्, सानाविषाणादिसङ्घातवत्, तथा आत्मसंयोगाविभूतोऽङ्गारादीनां प्रकाशपरिणामः, +RAKA5 दीप अनुक्रम [३१] % wwwandltimaryam ~103~# Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [३०] दीप अनुक्रम [३१] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [३०...], निर्युक्तिः [११९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा- * शरीरस्थत्वात् खद्योतकदेहपरिणामवत्, तथा आत्मसम्प्रयोगपूर्वकोऽङ्गारादीनामूष्मा, शरीरस्थत्वात्, ज्वरोष्मवत्, * अध्ययनं १ राङ्गवृत्तिः न चादित्यादिभिरनेकान्तः, सर्वेषामात्मप्रयोगपूर्वकं यत उष्णपरिणाम भाकूत्वं तस्मान्नानेकान्तः, तथा सचेतनं तेजो, * उद्देशकः ४ यथायोग्याहारोपादानेन वृद्धिविशेषतद्विकारवत्त्वात्, पुरुषवत्, एवमादिना लक्षणेनाग्नेया जन्तवो निश्चेया इति ॥ उक्तं * लक्षणद्वारं, तदनन्तरं परिमाणद्वारमाह (शी०) ।। ५० ।। ॐ जे बायरपजन्ता पलिअस्स असंवभागमित्ता उ । सेसा तिष्णिवि रासी बीसुं लोगा असंखिजा ॥ १२० ॥ .ये बादरपर्याप्तानलजीवाः क्षेत्रपल्योपमासङ्घ धेयभागमात्रवर्त्तिप्रदेशराशिपरिमाणाः भवन्ति, ते पुनर्वादरपृथिवीकायप* र्याप्तिकेभ्योऽसङ्घयेयगुणहीनाः, शेषास्त्रयोऽपि राशयः पृथ्वीकायवद्भावनीयाः, किन्तु बादरपृथिवी कायापर्याप्तकेभ्यो बादराय पर्याप्तका असंख्येयगुणहीनाः सूक्ष्मपृथिवीकायापर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्माग्नेयापर्यातका विशेषहीनाः सूक्ष्मपृथिवीकायपर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्माग्नेयपर्याप्तका विशेषहीना इति ॥ साम्प्रतमुपभोगद्वारमाह दहणे पयावण पगासणे य सेए य भक्तकरणे य । वायरतेडक्काए उपभोगगुणा मणुस्साणं ॥ १२१ ॥ दहनं - शरीराद्यवयवस्य वाताद्यपनयनार्थं प्रकृष्टं तापनं प्रतापनं-शीतापनोदाय प्रकाशकरणमुद्योतकरणं प्रदीपादिना भक्तकरणम्-ओदनादिरन्धनं स्वेदो-ज्वरविसूचिकादीनाम् इत्येवमादिष्वनेकप्रयोजनेषूपस्थितेषु मनुष्याणां बादरते|जस्कायविषया उपभोगरूपा गुणा उपभोगगुणा भवन्तीति ॥ तदेवमेवमादिभिः कारणैः समुपस्थितैः सततमारम्भप्रवृत्ता गृहिणो यत्याभासा वा सुखैषिणस्तेजस्का यजन्तून् हिंसन्तीति दर्शयितुमाह Etication Intel For Parts Onl ~104~# ।। ५० ।। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [३०...], नियुक्ति: [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०] दीप अनुक्रम एएहिं कारणेहिं हिंसंती तेउकाइए जीवे । सायं गवेसमाणा परस्स दुक्ख उदीरति ॥ १२२॥ 'एतैः' दहनादिभिः कारणैस्तेजस्कायिकान् जीवान् “हिंसन्ती'ति सङ्घटनपरितापनापद्रावणानि कुर्वन्ति 'सात' सुर्ख तदात्मनोऽन्विष्यन्तः 'परस्य' बादराग्निकायस्य दुःखम् 'उदीरयन्ति' उत्पादयन्तीति ॥ साम्प्रतं शस्त्रद्वारं, तच्च द्रव्यभावशखभेदात् द्विधा, द्रव्यशनमपि समासविभागभेदात् द्विधैव, तत्र समासतो द्रव्यशस्त्रप्रतिपादनायाह पुढयी आउक्काए उल्ला य वणस्सई तसा पाणा । बायरतेउक्काए एयं तु समासओ सत्थं ॥ १२३ ॥ 'पृथिवी' धूलिः अप्कायश्च आर्द्रश्च धनसतिः त्रसाश्च प्राणिनः, एतद्वादरतेजस्कायजन्तूनां 'समासतः' सामान्येन शस्त्रमिति ॥ विभागतो द्रव्यशस्त्रमाह| किंची सकायसत्थं किंची परकाय तदुभयं किंची। एयं तु दब्बसस्थं भावे य असंजमो सत्थं ॥१२४ ।। किञ्चिच्छखं स्वकाय एव-अग्निकाय एव अग्निकायस्य, तद्यथा-ताणोऽग्निः पार्णाग्नेः शस्त्रमिति, किञ्चिच्च परकायशस्त्रम्उदकादि, उभयशस्त्र पुनः-तुषकरीपादिव्यतिमिश्रोऽग्निरपराग्ने, तुशब्दो भावशस्त्रापेक्षया विशेषणार्थः, 'एतत्तु' पूर्वोक्तं समासविभागरूपं पृथिवीस्वकायादि द्रव्यशस्त्रमिति । भावशस्त्रं दर्शयति-भावे शस्त्रम् असंयमो-दुष्पणिहितमनोवाकायलक्षण इति ॥ उक्तव्यतिरिक्तद्वारातिदेशद्वारेणोपसञ्जिहीनियुक्तिकृदाह सेसाई दाराई ताई जाई हवंति पुढवीए । एवं तेउद्देसे निब्रुत्ती कित्तिया एसा ॥ १२५ ॥ उक्तशेषाणि द्वाराणि तान्येव यानि पृथिव्युद्देशकेऽभिहितानि 'एवम्' उक्तप्रकारेण तेजस्कायाभिधानोद्देशके। wwwandltimaryam ~105~# Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [३१], नियुक्ति: [१२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [३२]] श्रीआचा- नियुक्तिः 'कीर्तिता' ब्यावर्णिता भवतीति ॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्- अध्ययन राङ्गवृत्तिः से बेमि व सयं लोगं अन्भाइक्खेजा व अत्ताणं अन्भाइक्ज्ज्जा , जे लोयं अ(शी०) उद्देशका ४ ब्भाइक्खइ से अत्ताणं अब्भाइक्खइ, जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ से लोयं अब्भाइ क्खड़ (सू० ३१) अस्य च सम्बन्धः प्राग्वद्वाच्य इति, येन मया सामान्यात्मपदार्थपृथिव्यप्कायजीवप्रविभागव्यावर्णनमकारि स एवाहमव्यवच्छिन्नज्ञानप्रवाहस्तेजोजीवस्वरूपोपलम्भसमुपजनितजिनवचनसम्मदो अचीमि, किं पुनस्तदिति दर्शयति-18 'नैवे'त्यादि, इह हि प्रकरणसम्बन्धाल्लोकशब्देनाग्निकायलोकोऽभिधित्सितः, अतस्तमग्निलोकं जीवत्वेन नैव स्वयम्' आत्मना|ऽभ्याचक्षीत-नैवापडवीतेत्यर्थः, एतदभ्याख्याने ह्यात्मनोऽपि ज्ञानादिगुणकलापानुमितस्याभ्याख्यानमवाप्नोति, अथ च प्राक् प्रसाधितत्वादभ्याख्यानं नैवात्मनो न्याय्यम्, एवं तेजस्कायस्यापि प्रसाधितत्वात् अभ्याख्यानं क्रियमाणं न युक्ति पथमवतरति, एवं चास्य युक्त्यागमबलप्रसिद्धस्याभ्याख्याने क्रियमाणे सत्यात्मनोऽप्यप्रत्ययसिद्धस्याभ्याख्यानं भवतम्या४प्तम् । एवमस्त्विति चेत्, तन्नेति दर्शयति-'नेव अत्ताणं अन्भाइक्वेज्जा' नैवात्मानं-शरीराधिष्ठातारं ज्ञानगुर्ण प्रत्या-13 मात्मसंवेद्य प्रत्याचक्षीत, तस्य शरीराधिष्ठातृत्वेन आहतमिदं शरीरं केनचिदभिसन्धिमता, तथा त्यक्तमिदं शरीर केन |चिदभिसन्धिमतैवेत्येवमादिभिर्हेतुभिः प्रसाधितत्वात् , न च प्रसाधितप्रसाधनं पिष्टपेषणवत् विद्वज्जनमनांसि रञ्जयति, wwwandltimaryam ~106~# Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [३१], नियुक्ति: [१२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [३३] एवं च सत्यात्मवत्प्रसाधितमग्निलोकं यः प्रत्याचक्षीत सोऽतिसाहसिक आत्मानमभ्याख्याति-निराकरोति, यश्चात्माभ्याख्यानप्रवृत्तः स सदैवाग्निलोकमभ्याख्याति, सामान्यपूर्वकत्वाद्विशेषाणां, सति ह्यात्मसामान्ये पृधिव्याद्यात्मविभागः सिद्ध्यति, नान्यथा, सामान्यस्य विशेषव्यापकत्वात् , व्यापकविनिवृत्तौ च व्याप्यस्याप्यवश्यंभाविनी विनिवृत्तिरिति|| कृत्वा । एवमयमग्निलोकः सामान्यात्मवन्नाभ्याख्यातव्य इति प्रदर्शितम्, अधुनाऽग्निजीवप्रतिपत्ती सत्यां तद्विषयसमारम्भकटुकफलपरिहारोपन्यासाय सूत्रमाह जे दीहलोगसत्थस्स खेयपणे से असत्थस्स खेयपणे जे असत्थस्स खेयपणे से दीह लोगसस्थस्स खेयण्णे (सू० ३२) __'य' इति मुमुक्षुदीर्घलोको-वनस्पतिर्यस्मादसौ कायस्थित्या परिमाणेन शरीरोच्छ्रयेण च शेपैकेन्द्रियेभ्यो दीर्घो वर्तते, तथाहि-कायस्थित्या तावत् 'वैणस्सइकाइए णं भंते ! वणस्सइकाइएत्ति कालओ केवञ्चिर होइ?, गोयमा ! अणतं कालं अणंताओ उस्सप्पिणिभवसप्पिणिओ खेत्तओ अणंता लोया असंखेज्जा पोग्गलपरियडा, ते णं पुग्गलपरियट्टा आव-| लियाए असंखेजइभागे परिमाणतस्तु 'पर्युप्पन्नवणस्सइकाइयाणं भंते ! केवतिकालरस निल्लेवणा सिया, गोयमा!| १ वनस्पतिकायो भदन्त | वनस्पतिकाय इति कालतः किय चिरं भवति ?, गौतम ! अनन्तं कालम् , अनन्ता उत्सपियवसर्पिण्यः, क्षेत्रतोऽनन्ता लोकाः, असंख्येयाः पुगलपरावर्ताः, ते पुदलपरावा आवलिकाया असलोये भागे. २ प्रत्युत्पन्नवनस्पतिकायिकानां भदन्त! किवता कालेन निपना स्थान , गौतम !! प्रत्युत्पनबनस्पतिकाविकानां नास्ति निर्लेपना. A4 - walpatnamang ~107~# Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [३२], नियुक्ति: [१२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२] दीप अनुक्रम [३३] श्रीआचा-या पडुप्पन्नवणस्सइकाइयाणं नस्थि निलेवणा' तथा शरीरोच्छ्याच दीर्घो वनस्पतिः 'वणसइकाइयाणं भंते ! के महालिया | अध्ययनं १ राङ्गवृत्तिः सरीरोगाहणा पण्णत्ता, गोयमा! साइरेगं जोयणसहस्सं सरीरोगाहणा' न तथाऽन्येषामेकेन्द्रियाणाम् , अतः स्थित(शी०) मेततू-सर्वथा दीर्घलोको वनस्पतिरिति, अस्य च शस्त्रमग्निः, यस्मात्स हि प्रवृद्धज्वालाकलापाकुलः सकलतरुगणप्रध्वं उद्देशका ४ |सनाय प्रभवति, अतोऽसौ तदुत्सादकत्वाच्छखं, ननु च सर्वलोकप्रसिद्ध्या कस्मादग्निरेव नोक्तः, किं वा प्रयोजनमुर-IS ॥५२॥ रीकृत्योक्तं दीर्घलोकशस्त्रमिति, अत्रोच्यते, प्रेक्षापूर्वकारितया, न निरभिप्रायमेतत्कृतमिति, यस्मादयमुलायमानो। ज्वाल्यमानो वा हव्यवाहः समस्तभूतग्रामघाताय प्रवर्तते, वनस्पतिदाहप्रवृत्तस्तु बहुविधसत्त्वसंहतिविनाशकारी विशेषतः स्यात्, यतो वनस्पती कृमिपिपीलिकाधमरकपोतश्वापदादयः सम्भवन्ति, तथा पृथिव्यपि तरुकोटरव्यवस्थिता | स्यात्, आपोऽप्यवश्यायरूपाः, वायुरपीपचञ्चलस्वभावकोमलकिशलयानुसारी सम्भाव्यते, तदेवमग्निसमारम्भप्रवृत्तः। एतावतो जीवानाशयति, अस्थार्थस्य सूचनाय दीर्घलोकशस्त्रग्रहणमकरोत् सूत्रकार इति, तथा चोकम्-"जॉयतेयं । न इच्छन्ति, पावर्ग जलइत्तए । तिक्खमन्नयरंसत्थं, सब्बओऽवि दुरासयं ॥ १ ॥ पाईणं पडिणं वावि, उहुं अणुदिसामवि । अहे दाहिणओ वावि, दहे उत्तरओऽवि य ॥२॥ भूयाणमसमाधाओ, हब्ववाहो न संसओ । तं पईवपयावठ्ठा, वनस्पतिकायिकानां भदन्त ! का महती शरीरावगाहना प्राप्ता है, गौतम ! सातिरेक योजनसहसं शरीरावगाहना. २ जाततेजसं नेच्छन्ति पावकं उपल ॥५२॥ यितुम् । तीक्ष्णमन्यतरत् शत्रं सर्वतोऽपि दुराश्रयम् ॥ १॥ प्राचीनं प्रतीचीनं वापि ऊर्थमनुदिश्वपि । अधो दक्षिणतो पापि दहति उत्तरतोऽपि च ॥२॥ भूतानामेष आघातो हव्यवाहो न संशयः । तत् प्रदीपप्रतापार्थ संयतः किचित्रारभेत ॥३॥ wataneltmanam ~108~# Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [३२] दीप [33] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [३२], निर्युक्तिः [१२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः संजओ किंचि नारभे ॥ ३ ॥" अथवा वादरतेजस्कायाः पर्याप्तकाः स्तोकाः, शेषाः पृथिव्यादयो जीवकाया बहवः, भवस्थितिरपि त्रीण्यहोरात्राणि स्वल्पा इतरेषां पृथिव्यन्वायुवनस्पतीनां यथाक्रमं द्वाविंशतिसप्तत्रिदशवर्षसहस्रपरिमाणा दीर्घा अवसेया इति, अतो दीर्घलोकः पृथिव्यादिस्तस्य शस्त्रम्-अग्निकायस्तस्य 'क्षेत्रज्ञो निपुणः अग्निकार्य वर्णादितो जानातीत्यर्थः, 'खेदज्ञो वा' खेदः - तद्व्यापारः सर्वसत्त्वानां दहनात्मकः पाकाद्यनेकशक्तिकला पोपचितः प्रवरमणिरिव जाज्वल्यमानो लब्धाग्निव्यपदेशः यतीनामनारम्भणीयः, तमेवंविधं खेदम्-अग्निव्यापारं जानातीति खेदज्ञः, अतो य एव दीर्घलोकशस्त्रस्य खेदज्ञः स एव 'अशस्त्रस्य' सप्तदशभेदस्य संयमस्य खेदज्ञः, संयमो हि न कचिज्जीवं व्यापादयति, अतोऽशस्त्रम्, एवमनेन संयमेन सर्वसत्त्वाभयप्रदायिनाऽनुष्ठीयमानेनाग्निजीवविषयः समारम्भः शक्यः परिहर्तुं पृथि व्यादिकाय समारम्भश्चेत्येवमसौ संयमे निपुणमतिर्भवति, ततश्च निपुणमतित्वाद्विदितपरमार्थोऽग्निसमारम्भाद्व्यावृत्य सं यमानुष्ठाने प्रवर्त्तते । इदानीं गतप्रत्यागतलक्षणेनाविनाभावित्वप्रदर्शनार्थं विपर्ययेण सूत्रावयवपरामर्श करोति- 'जे असत्थस्से' त्यादि, यश्चाशस्त्रे-संयमे निपुणः स खलु दीर्घलोकशस्त्रस्य-अग्नेः क्षेत्रज्ञः खेदज्ञो वा, संयमपूर्वकं ह्यग्निविषयखेदज्ञत्वम्, अग्निविषयखेदज्ञतापूर्वकं च संयमानुष्ठानम्, अन्यथा तदसम्भव एवेत्येतद्गतप्रत्यागतफलमाविर्भावितं भवति ॥ कैः पुनरिदमेवमुपलब्धमित्यत आह- 'वीरेही 'त्यादि, अथवा सद्वप्रसिद्धौ सत्यां वाक्यप्रसिद्धिर्भवतीत्यत उपदिश्यते वीरेहिं एवं अभिभूय दिहूं, संजएहिं सया जत्तेहिं सया अप्पमत्तेहिं ( सू० ३३) Jan Estication Intematonal For Pantry at Use Only ~109~# www.india.org Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [३३], नियुक्ति: [१२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत अध्ययनं १ सूत्रांक उद्देशकः ४ [३३] दीप अनुक्रम पनपातिकर्मसातविदारणानन्तरप्राप्तातुलकेवलश्रिया विराजन्त इति वीरा:-तीर्थकरासीरैरर्थतो दृष्टमेतद्गण- धरैश्च सूत्रतोऽग्निशस्त्रं दृष्टम् अशस्त्र संयमस्वरूपं चेति । किं पुनरनुष्ठायेदं तैरुपलब्धमिति, अत्रोच्यते, 'अभि(शी०) भूये'ति अभिभवो नामादिश्चतुर्की, द्रव्याभिभवो-रिपुसेनादिपराजयः आदित्यतेजसा वा चन्द्रग्रहनक्षत्रादितेजोऽभि- |भवः, भावाभिभवस्तु परीपहोपसगानीकज्ञानदर्शनावरणमोहान्तरायकर्मनिईलनं, परीपहोपसर्गादिसेनाविजयाद्विमलं | ॥५३॥ चरणं, चरणशुद्धेोनावरणादिकर्मक्षयः, तत्क्षयान्निरावरणमप्रतिहतमशेषज्ञेयग्राहि केवलज्ञानमुपजायते, इदमुक्तं भवतिपरीपहोपसर्गज्ञानदर्शनावरणीयमोहान्तरायाण्यभिभूय केवलमुत्साद्य तैरुपलब्धमिति । यथाभूतैस्तैरिदमुपलब्धं तह|र्शयति-'संजएहि' सम्यग् यताः संयताः प्राणातिपातादिभ्यस्तैः, तथा 'सदा' सर्वकालं चरणप्रतिपत्ती मूलोत्तरगुणभेदायां निरतिचारत्वाद्यत्नवन्तस्तैः, तथा 'सदा सर्वकालं न विद्यते प्रमादो-मद्यविषयकपायविकधानिद्राख्यो येषां तेऽप्रमत्तास्तै, एवंभूतैर्महावीरैः केवलज्ञानचक्षुषेदं दीर्घलोकशस्त्रम् अशस्त्रं च संयमो दृष्टम् उपलब्धमिति । अत्र च Kा यलग्रहणादीर्यासमित्यादयो गुणा गृह्यन्ते, अप्रमादग्रहणात्तु मद्यादिनिवृत्तिरिति । तदेवमेतत्प्रधानपुरुषप्रतिपादितमग्नि-| शस्त्रमपायदर्शनादप्रमत्तैः साधुभिः परिहार्यमिति ॥ एवं प्रत्यक्षीकृतानेकदोपजालमप्यग्निशस्त्रमुपभोगलोभानमादवशगा ये न परिहरन्ति तानुद्दिश्य विपाकदर्शनायाह जे पमत्ते गुणट्रीए से हुदंडेत्ति पवुच्चइ (सू०३४) II यो हि प्रमत्तो भवति मद्यविषयादिप्रमादैरसंयतो 'गुणार्थी' रन्धनपचनप्रकाशातापनाद्यग्निगुणप्रयोजनवान् स! [३४] JainEducatinintamathima www.andituaryam ~110~# Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [३४], नियुक्ति: [१२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक [३४] दीप अनुक्रम [३५]] दुष्पणिहितमनोवाकायोऽग्निशस्त्रसमारम्भकतया प्राणिनां दण्डहेतुत्वाद्दण्डः प्रकर्षेणोच्यते प्रोच्यते, आयुघृतादिव्यपदेशवदिति ॥ यतश्चैवं ततः किं कर्त्तव्यमित्यत आह तं परिणाय मेहावी इयाणिं णो जमहं पुब्बमकासी पमाएणं (सू०३५) 'तम्' अग्निकायसमारम्भं दण्डफलं परिज्ञाय-ज्ञपरिज्ञाप्रत्याख्यानपरिज्ञाभ्यां 'मेधावी' मर्यादाव्यवस्थितो वक्ष्यमा-18 णप्रकारेण व्यवच्छेदमात्मन्याचिनोतीति । तमेव प्रकारं दर्शयितुमाह---'इयाणी' त्यादि, यमहमग्निसमारम्भं विषयप्रमादेनाकुलीकृतान्तःकरणः सन् पूर्वमकार्ष तमिदानी जिनवचनोपलब्धानिसमारम्भदण्डतत्त्वः नो करोमीति ॥ अन्ये त्वन्यथावादिनोऽन्यथाकारिण इति दर्शयितुमाह लज्जमाणा पुढो पास-अणगारा मोत्ति एगे पवदमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं अगणिकम्मसमारम्भेणं अगणिसत्थं समारभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसंति । तत्थ खलु भगवता परिपणा पवेदिता, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाइमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेउं से सयमेव अगणिसत्थं समारभइ अण्णेहिं वा अगणिसस्थं समारंभावेइ अण्णे वा अगणिसत्थं समारभमाणे समणुजा Jain Educatinintamathima wwwandltimaryam ~111~# Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [३६], नियुक्ति: [१२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीआचारावृत्तिः (शी०) ॥५४॥ 40-4-304 [३६] दीप अनुक्रम [३७]] णइ, तं से अहियाए तं से अबोहियाए से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुद्राय अध्ययनं १ सोच्चा भगवओ अणगाराणं इहमेगेसिं णायं भवति-एस खलु गंथे एस खलु मोहे उद्देशकः४ एस खलु मारे एस खलु णरए, इच्चत्थं गड्डिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं अगणिकम्मसमारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ (सू० ३६) अस्य अन्धस्योक्तार्थस्यायमर्थों लेशतः प्रदयते-'लज्जमानाः' स्वागमोक्तानुष्ठानं कुर्वाणाः सावद्यानुधानेन वा लज्जा13 कुर्वाणाः 'पृथग्' विभिन्नाः शाक्यादयः पश्य'ति संयमानुष्ठाने स्थिरीकरणाध शिष्यस्य चोदना, अनगारा वयमित्येके प्रवदमानाः, किं तैर्विरूपमाचरितं येनैवं प्रदर्श्यन्त इति दर्शयति-यदिदं विरूपरूपैः शखैरग्निकर्मसमारम्भेण अग्निशस्त्रं समारभमाणः सन्नन्याननेकरूपान् प्राणिनो विहिनस्ति, तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता, यथाऽस्यैव परिफल्गुजीवितस्य परिवन्दनमाननपूजनार्थ जातिमरणमोचनार्थ दुःखप्रतिघातहेतुं यत्करोति तद्दर्शयति-'स' परिवन्दनायीं स्वत| एवाग्निशखं समारभते तथा अन्यैश्चाग्निशस्त्रं समारम्भयति तथाऽन्यांश्च अग्निशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीते, तच्चाग्नेः । | समारम्भणं 'से' तस्य सुखलिप्सोरमुत्रान्यत्र चाहिताय भवति, तथा तदेव च तस्याबोधिलाभाय भवति, 'स' इति यस्यैतदसदाचरणं प्रदर्शितं, स तु शिष्यस्तदग्निसमारम्भणं पापायेत्येवं सम्बुध्यमान 'आदानीय' ग्राह्यं सम्यग्दर्शनादि 'सम्य- ५४॥ गुत्थाय' अभ्युपगम्य श्रुत्वा भगवदन्तिकेऽनगाराणां वा इहैकेपां साधूनां ज्ञातं भवति, किम् ?, तद्दर्शयति-'एष C-50-5% ~112~2 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [३६] दीप अनुक्रम [३८] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [४], मूलं [३६], निर्युक्तिः [१२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः अग्निसमारम्भः ग्रन्थः - कर्महेतुत्वाद् एष एव मोह एष एव मार एष एव नरकस्तद्धेतुत्वादिति भावः इत्येवमर्थं च गृद्धो लोको यत्करोति तद्दर्शयति-यदिदं विरूपरूपैः शस्त्रैरग्निकर्म समारभते तदारम्भेण चाग्निशस्त्रं समारभते तच्चारभमाणोऽन्याननेकरूपान् प्राणिनो विहिनस्तीति ॥ कथं पुनरग्निसमारम्भप्रवृत्ता नानाविधान् प्राणिनो विहिंसन्तीति दर्शयितुमाह सेम-संतिपाणा पुढवीनिस्सिया तणणिस्सिया पत्तणिस्सिया कट्ठनिस्सिया गोमयणिस्सिया कयवरणिस्सिया, संति संपातिमा पाणा आहच्च संपयंति, अगणिं च खलु पुट्ठा एगे संघायमावज्जंति, जे तत्थ संघायमावजंति ते तत्थ परियावज्जंति, जे तत्थ परियावज्जंति ते तत्थ उद्दायंति (सू० ३७ ) तदहं ब्रवीमि यथा नानाविधजीवहिंसनमग्निकायसमारम्भेण भवतीति । यथाप्रतिज्ञातार्थ दर्शयति — 'सन्ति' विद्यन्ते 'प्राणा' जन्तवः, पृथिवीकायनिश्रिताः पृथिवीकायत्वेन परिणता इत्यर्थः, तदाश्रिता वा कृमिकुन्थुपिपीलिकागण्डूपदाहिमण्डूकवृश्चिककर्कटकादयः, तथा वृक्षगुल्मलतावितानादयः, तथा तृणपत्रनिश्रिताः पतङ्गेलिकादयः, तथा काष्ठनिश्रिता- घुणोद्देहिकापिपीलिकाण्डादयः, गोमयनिश्रिताः - कुन्थुपनकादयः, कचवरः- पत्रतृणधूलिसमुदायस्तन्निश्रिताः Jan Estication Intimanal For Pantry O ~113~# Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [३७] दीप अनुक्रम [३८] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः ७ (शी०) ॥ ५५ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [३७], निर्युक्ति: [१२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः कृमिकीटपतङ्गादयः । तथा 'सन्ति' विद्यन्ते सम्पतितुमुत्प्लुत्योत्लुत्य गन्तुमागन्तुं वा शीलं येषां ते सम्पातिनः प्राणिनो -जीवा मक्षिकाभ्रमरपतङ्गमशकपक्षिवातादयः, एते च सम्पातिनः 'आहत्य' उपेत्य स्वत एव, यदिवा अत्यर्थ कदाचिद्वा अग्निशिखायां सम्पतन्ति च । तदेवं पृथिव्यादिनिश्रितानां जीवानां यद्भवति तद्दर्शयितुमाह- 'अगणिं चेत्यादि, रन्धनपचनतापनाद्यग्निगुणार्थिभिरवश्यमग्निसमारम्भो विधेयः, तत्समारम्भे च पृथिव्यादिनिश्रितानां जीवानामेता वक्ष्यमाणा अवस्था भवन्ति, छान्दसत्वात् तृतीयार्थे द्वितीया, ततश्चायमर्थ:-अग्निना 'स्पृष्टाः छुप्ता एके केचन सङ्घातम्अधिकं गात्रसङ्कोचनं मयूरपिच्छवदापद्यन्ते, चशब्दस्याधिक्यार्थत्वात् खलुशब्दोऽवधारणे, अग्नेरेवायं प्रतापो नापरस्येति, यदिवा सप्तम्यर्थे द्वितीया स्पृष्टशब्दश्च पतितवचनः, ततश्चायमर्थो भवति-अग्नावेव स्पृष्टाः पतिता 'एके' शलभादयः 'सङ्घात' समेकीभावेनाधिकं गात्रसङ्कोचनम् 'आपद्यन्ते' प्राप्नुवन्ति ये च 'तत्र' अग्नौ पतिताः सङ्घातमापद्यन्ते ते! प्राणिनः 'तत्र' अग्नौ पर्यापद्यन्ते, पर्यापत्तिः- सम्मूर्धनम्, ऊष्माभिभूता मूर्द्धामापद्यन्ते इत्यर्थः । अथ किमर्थ सूत्रकृता विभक्तिपरिणामोऽकारीति, उच्यते, मागधदेशीसमनुवृत्तेः व्याख्याविकल्पप्रदर्शनार्थं वा, अध्याहारादयोऽपि व्याख्याज्ञानीत्यनेन शिष्यो ज्ञापितो भवति । अथ के पुनस्तेऽध्याहारादय इति ?, उच्यन्ते, अध्याहारो विपरिणामो व्यवहितकल्पना गुणकल्पना लक्षणा वाक्यभेदश्चेति, इह च द्वितीयाविभक्तेः सप्तमीपरिणामः कृत इति । ये च 'तत्र' अग्नौ पर्याप धन्ते ते प्राणिनः कृमिपिपीलिकाभ्रमर नकुलादयस्तत्राग्नावपद्रावन्ति-प्राणान् मुञ्चन्तीत्यर्थः, तदेवमग्निसमारम्भे सति न केवलमग्निजन्तूनां विनाशः किं त्वन्येषामपि पृथिवीतृणपत्र काष्ठगोमयकचवराश्रितानां सम्पातिनां च व्यापत्तिरवश्य Jain Estication Intimational For Parts O ~114~# ४ अध्ययनं १ उद्देशकः ४ ।। ५५ ।। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [३७], नियुक्ति: [१२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: * * प्रत * सूत्रांक [३७]] *** दीप अनुक्रम म्भाविनीति, अत एव च भगवत्यां भगवतोक्तम्-"दो पुरिसा सरिसवया अन्नमन्नेहिं सद्धिं अगणिकार्य समारंभंति, तत्थ याण एगे पुरिसे अगणिकार्य समुज्जालेति, एगे विमवेति, तत्थ णं के पुरिसे महाकम्मयराए के पुरिसे अप्पकम्मयराए?,M गोयमा! जे उजालेति से महाकम्मयराए, जे विज्झवेति से अप्पकम्मयराए" ॥ तदेवं प्रभूतसत्त्वोपमईनकरमण्यारम्भ विज्ञाय मनोवाकायैः कृतकारितानुमतिभिश्च तपरिहारः कार्य इति दर्शयितुमाह एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवति, तं परिणाय मेहावी णेब सयं अगणिसत्थं समारंभे नेवऽपणेहिं अगणिसत्थं समारंभावेजा अगणिसत्थं समारंभमाणे अण्णे न समणुजाणेजा, जस्सेते अगणिकम्मसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे (सू. ३८) त्ति बेमि ॥ इति चतुर्थ उद्देशकः ॥ 'अत्र' अग्निकाये 'शस्त्र' स्वकायपरकायभेदभिन्नं 'समारभभाणस्य' व्यापारयत इत्येते आरम्भाः पचनपाचनादयो धन्धहेतुत्वेनापरिज्ञाता भवन्ति, तथा अत्रैवाग्निकाये शस्त्रमसमारभमाणस्यैते आरम्भाः परिज्ञाता भवन्ति, यस्यैते अग्नि १द्री पुरुषो सशक्यसी अन्योऽन्य समकममिकार्य समारम्भयतः, तत्रैकः पुरुषोऽग्निकार्य समुज्वलयति, एको विध्यापयति, तत्र कः पुरुषो महाकर्मा का पुरपोऽल्पकर्मा, गौतम! व उगवलयति स महाकर्मा यो विभ्यापयति सोऽल्पकर्मा, [३८] * * * * * ~115-2 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [9], मूलं [३८], नियुक्ति: [१२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीआचा- रावृत्तिः (शी) ARC+% [३८] ॥५६॥ दीप अनुक्रम [३९]] कायसमारम्भा ज्ञपरिज्ञया ज्ञाता भवन्ति प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहृता भवन्ति स एव मुनिः परमार्थतः परिज्ञातक है अध्ययनं १ |म्मति अवीमीति पूर्ववत् । इति शस्त्रपरिज्ञायां चतुर्थोद्देशकटीका समाता । उद्देशकः५ | उक्तश्चतुर्थीदेशकः, साम्प्रतं पञ्चमः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोदेशके तेजस्कायः प्रतिपादितः, तदनन्तरमविकलसुसाधुगुणप्रतिपत्तये कमायातवायुकायप्रतिपादनावसरे वनस्पतिकायजीवस्वरूपमाविर्भाव्यते, किं पुनः कमोलहनकारणमिति, उच्यते, एप हि वायुरचाक्षुषत्वाहुःश्रद्धानः, अतः समधिगताशेषपृथिव्यायेकेन्द्रियप्राणिगणस्वरूपः शिष्यः सुखमेव वायुजीवस्वरूपं प्रतिपत्स्यते, स एव च क्रमो येन शिष्याः जीवादितत्त्वं प्रति प्रोत्सहन्ते यथावप्रतिषत्तुमिति, वनस्पतिकायस्तु समस्तलोकप्रत्यक्षपरिस्फुटजीवलिङ्गकलापोपेतः, अतः स एव तावत्प्रतिपाद्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि वाच्यानि यावन्नामनिष्पन्ने निक्षेपे वनस्पत्युद्देशकः, तत्र वनस्पतेः स्वभेदकलापप्रतिपादनाय पूर्वप्रसिद्धार्थातिदेशद्वारेण नियुक्तिकृदाह पुढवीए जे दारा वणसइकाएऽपि हुँति ते चेव । नाणती उ विहाणे परिमाणुवभोगसत्थे य ॥१२६॥ यानि पृथवीकायसमधिगतये द्वाराण्युक्तानि तान्येव वनस्पती द्रष्टव्यानि, नानात्वं तु प्ररूपणापरिमाणोपभोगशस्त्रेषु चशब्दालक्षणे च द्रष्टव्यमिति ॥ तत्रादौ प्ररूपणास्वरूपनिज्ञोपनायाहदुविह वणस्सहजीचा मुहुमा तह वायरा य लोगंमि । सुहमा य सब्बलोए दो चेव य वायरविहाणा ॥१२७॥ C4%AC-CA ॥५६॥ Swatantram.org | प्रथम अध्ययने पंचम उद्देशक: 'वनस्पतिकाय:' आरब्ध:, ~116~# Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [५], मूलं [३८...], नियुक्ति: [१२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] 4%95%256456456456456* दीप अनुक्रम [३९]] वनस्पतयो द्विविधाः-सूक्ष्मा बादराश्च, सूक्ष्माः सर्वलोकापन्नाश्चक्षुर्माह्याश्च न भवन्त्येकाकारा एव, बादराणां पुन || विधाने ॥ के पुनस्ते बादरविधाने इत्यत आह पत्तेया साहारण बायरजीवा समासओ दुविहा । बारसविहाणेगविहा समासओ छविहा हंति ॥१२८॥ बादराः समासतः द्विविधाः-प्रत्येकाः साधारणाश्च, तत्र पत्रपुष्पमूलफलस्कन्धादीन् प्रति प्रत्येको जीचो येषां ते प्रत्येकजीवाः, साधारणास्तु परस्परानुविद्धानन्तजीवसङ्घातरूपशरीरावस्थानाः, तत्र प्रत्येकशरीरा द्वादशविधानाः, साधारणाW|| स्वनेकभेदाः, सर्वेऽप्येते समासतः पोढा प्रत्येतन्याः। तत्र प्रत्येकतरुद्वादशभेदप्रत्यायनायाह रुक्खा गुच्छा गुम्मा लया य वल्ली य पव्वगा चेव । तणवलयहरियओसहिजलरुहकुहणा य योद्धब्बा ॥१२९॥ | वृश्यन्त इति वृक्षाः, ते द्विविधा-एकास्थिका बहुबीजकाच, तत्रैकास्थिकाः-पिचुमन्दानकोशम्बशालाकोलपीलुशल-12 क्यादयः, बहुबीजकास्तु-उदुम्बरकपित्थास्तिकतिन्दुकबिल्वामलकपनसदाडिममातुलिङ्गादयः, गुच्छास्तु-वृन्ताकीको | सीजपाआढकीतुलसीकुसुम्भरीपिष्पलीनील्यादया, गुल्मानि तु-नवमालिकासेरियककोरण्टकबन्धुजीवकवाणकरवीर-IA सिन्दुवारविचकिलजातियूथिकादया, लतास्तु-पद्मनागाशोकचम्पकचूतवासन्तीअतिमुक्तककुन्दलताद्याः, वल्यस्तु-कु प्माण्डीकालिङ्गीत्रपुषीतुम्बीवालुङ्कीएलालुकीपटोल्यादयः, पर्वगाः पुनः-इधुवीरणशुण्ठशरवेत्रशतपर्ववंशनलवेणुकादयः, Solgणानि तु-श्वेतिकाकुशदर्भपर्वकार्जुनसुरभिकुरुविन्दादीनि, वलयानि च-तालतमालतकलीशालसरलाकेतकीकदलीक १ शतपत्री. प्र. २ वर्चका. प्र. wwwjaanaitimaryam ~117~# Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [9], मूलं [३८...], नियुक्ति: [१२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) अध्ययन उद्देशकः५ [३८] ॥५७॥ दीप अनुक्रम [३९] न्दल्यादीनि, हरितानि-तन्दुलीयकाधूयारुहवस्तुलबदरकमार्जारपादिकाचिल्लीपालक्यादीनि, औषध्यस्तु-शालीब्रीहिगोधू|मयवकलममसूरतिलमुगमापनिष्पावकुलस्थातसीकुसुम्भकोद्रवकनवादयः, जलरुहा-उदकावकपनकशैवलकलम्बुकापावककशेरुकउसलपद्मकुमुदनलिनपुण्डरीकादयः, कुहुणास्तु-भूमिस्फोटकाभिधानाः आयकायकुहुणकुण्डुको हलिकाशलाकासपच्छत्रादयः, एषां हि प्रत्येकजीवानां वृक्षाणां मूलस्कन्धकन्दत्वक्शालप्रवालादिष्वसंख्येयाः प्रत्येकं जीवाः, पत्राणि पुष्पाणि चैकजीवानि मन्तव्यानि, साधारणास्त्वनेकविधाः, तद्यथा-लोहीनिहस्तुभायिकाअश्वकर्णीसिंहकणींशृङ्गाबेरमा-I लुकामूलककृष्णकन्दसूरणकन्दकाकोलीक्षीरकाकोलीप्रभृतयः ॥ 'सर्वेऽप्येते संक्षेपात् पोढा भवन्ती'त्युक्तं, के पुनस्ते भेदा इत्याह अग्गबीया मूलषीया खंधषीया चेव पोरबीया य । बीयरुहा समुच्छिम समासओ वणसईजीवा ॥ १३० ।। तत्र कोरिण्टकादयोऽयबीजाः, कदल्यादयो मूलबीजार, निहुशल्लकचरणिकादयः स्कन्धवीजाः, इक्षुवंशवेत्रादयः पर्वबीजाः, बीजरुहाः शालिनीह्यादयः, सम्मूर्छनजाः पद्मिनीशृङ्गारकपाठशैवलादयः, एवमेते समासात्तरुजीवाः पोढा कथिताः, नान्ये सन्तीति प्रतिपत्तव्यं ॥ किंलक्षणाः पुनः प्रत्येकतरवो भवन्तीत्यत आहजह सगलसरिसवाणं सिलेसमिस्साण वत्तिया वट्टी। पत्तेयसरीराणं तह हुंति सरीरसंघाया ॥१३१॥ यथेति दृष्टान्तोपन्यासार्थः, यथा सकलसर्षपाणां श्लेषयतीति श्लेषः-सर्जरसादिस्तेन मिश्रितानां 'वर्तिता' वलिता वत्तिः १०त्रिहरी प्र. २.पावाक.प्र. ३ कुरणेति नि०. रा.प्र. ॥ ५७॥ wwwandltimaryam ~118~# Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [५], मूलं [३८...], नियुक्ति: [१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] दीप तस्यां च बतौं प्रत्येकप्रदेशाः क्रमेण सिद्धार्थकाः स्थिताः, नाम्योऽन्यानुवेधेन, चूर्णितास्तु कदाचिदन्योऽन्यानुवेधभाजोऽपि स्युरित्यतः सकलग्रहणं, यथाऽसौ पर्तिस्तथा प्रत्येकतरुशरीरसातः, यथा च सर्पपास्तथा तदधिष्ठायिनो जीवाः, यथा श्लेषविमिश्रितास्तथा रागद्वेषप्रचितकर्मपुद्गलोदयमिश्रिताः जीवाः, पश्चिमार्द्धन गाथाया उपन्यस्तदृष्टान्तेन सह | साम्यं प्रतिपादितं, तथेति शब्दोपादानादिति ॥ अस्मिन्नेधार्थे दृष्टान्तान्तरमाह जह वा तिलसकुलिया बहुएहिं तिलहि मेलिया संती । पत्तेयसरीराणं तह हुँति सरीरसंघाया ॥ १३२ ॥ यथा वा तिलशकुलिका-तिलप्रधाना पिष्टमयपोलिका बहुभिस्तिलनिष्पादिता सती भवति, तथा प्रत्येकशरीराणां तरूणां शरीरसाता भवन्तीति द्रष्टव्यमिति ॥ साम्प्रतं प्रत्येकशरीरजीवानामेकानेकाधिष्ठितत्वप्रतिपिपादयिपयाऽऽह नाणाविहसंठाणा दीसंती एगजीविया पत्ता । खंधावि एगजीवा तालसरलनालिएरीणं ॥१३३ ॥ नानाविध-भिन्न संस्थानं येषां तानि नानाविधसंस्थानानि पत्राणि यानि चैवंभूतानि दृश्यन्ते तान्येकजीवाधिष्ठितान्यवगन्तव्यानि, तथा स्कन्धा अप्येकजीवाधिष्ठितास्तालसरलनालिकेर्यादीनां, नात्रानेकजीवाधिष्ठितत्वं सम्भवतीति, अवशिष्टानां त्वनेकजीवाधिष्ठितत्वं सामर्थ्यात्प्रतिपादितं भवति ॥ साम्प्रतं प्रत्येकतरुजीवराशिपरिमाणाभिघित्सयाऽऽह पत्तेया पज्जत्ता सेढी' असंखभागमित्ता ते । लोगासंखप्पज्जत्तगाण साहारणाणता ॥ १३४॥ प्रत्येकतरुजीवाः पर्याप्तकाः संवर्तितचतुरस्त्रीकृतलोकश्रेण्यसंख्येयभागवाकाशप्रदेशराशितुल्यप्रमाणाः, एते च पुन अनुक्रम [३९]] RAKAKARA wwwandltimaryam ~119~# Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [५], मूलं [३८...], नियुक्ति: [१३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम [३९] श्रीआचा-II दरतेजस्कायपर्याप्तकराशेरसङ्गधेयगुणाः, ये पुनरपर्याप्तकाः प्रत्येकतरुजन्तवः ते ह्यसाचेयानां लोकानां यावन्तः प्रदे-13 अध्ययनं १ राङ्गवृत्तिः शास्तावन्त इति, एतेऽप्यपर्याप्तका बादरतेजस्कायजीवराशेरसङ्खयेयगुणाः, सूक्ष्मास्तु वनस्पतयः प्रत्येकशरीरिणः प(शी०) यप्तिका अपर्याप्तका वा न सन्त्येव, साधारणास्त्वनन्ता इति विशेषानुपादानात्?, साधारणाः सूक्ष्मवादरपर्याप्तकापर्या उद्देशका५ सकभेदेन चतुर्विधा अपि पृथक् पृथगनन्तानां लोकानां यावन्तः प्रदेशास्तावन्त इति, अयं तु विशेषः-साधारणवादरप॥५८॥ प्तिकेभ्यो बादरा अपर्याप्तका असंख्येयगुणाः बादरापर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्माः अपर्याप्तका असळधेयगुणास्तेभ्योऽपि सूक्ष्माः। पर्याप्तकाः असवधेयगुणा इति ॥ सम्प्रत्येषां तरूणां यो जीवत्वं नेच्छति तं प्रति जीवत्वप्रतिपादनेच्छया नियुक्तिकृदाह एएहिं सरीरेहिं पचक्वं ते परूविया जीवा । सेसा आणागिज्झा चक्खुणा जे न दीसति ।। १३५॥ 15 'एतैः' पूर्वप्रतिपादितैस्तरुशरीरैः प्रत्यक्षप्रमाणविषयैः 'प्रत्यक्ष साक्षात् 'ते' वनस्पतिजीवाः 'प्ररूपिताः' प्रसाधिताः, तथाहि-न ह्येतानि शरीराणि जीवव्यापारमन्तरेणैवंविधाकारभाञ्जि भवन्ति, तथा च प्रयोगः-जीवशरीराणि वृक्षाः, हा अक्षाद्युपलब्धिभावात्, पाण्यादिसङ्घातवत्, तथा कदाचित् सचित्ता अपि वृक्षार, जीवशरीरत्वात, पाण्यादिसातव देव, तथा मन्दविज्ञानसुखादिमन्तस्तरवः, अव्यक्तचेतनानुगतत्वात्, सुप्तादिपुरुषवत्, तथा चोक्तम्-"वृक्षादयोऽक्षाधुपलब्धिभावाखाण्यादिसङ्घातवदेव देहाः । तद्वत्सजीवा अपि देहतायाः, सुप्तादिवत् ज्ञानमुखादिमन्तः ॥१॥" 'शेषा' इति सूक्ष्मास्ते च चक्षुषा नोपलभ्यन्त इत्याज्ञया ग्राह्या इति, आज्ञा च भगवद्वचनमवितधमरक्तद्विष्टमणीतमिति G ॥५८॥ श्रद्धातव्यमिति ॥ साम्प्रतं साधारणलक्षणमभिधित्सुराह ACASCENCC06 wwwandltimaryam ~120~# Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [9], मूलं [३८...], नियुक्ति: [१३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम [३९]] साहारणमाहारो साहारण आणपाणगहणं च । साहारणजीवाणं साहारणलक्षणं एवं ॥ १३६ ॥ समानम्-एकं धारणम्-अङ्गीकरणं शरीराहारादेर्येषां ते साधारणाः तेषां साधारणानाम्-अनन्तकायानां जीवानां साधारण' सामान्यमेकमाहारग्रहण तथा प्राणापानग्रहणं च साधारणमेव, एतत्साधारणलक्षणम्, एतदुक्तं भवतिएकस्मिन्नाहारितवति सर्वेऽप्याहारितवन्तस्तथैकस्मिन्नुच्छ्रसिते निःश्वसिते वा सर्वेऽप्युच्छसिता निःश्वसिता वेति ॥ अमुमेवार्थ सष्टयितुमाह___ एगस्स उ जं गहणं बहूण साहारणाण ते चेव । जं बहुयाणं गहणं समासओ तंपि एगस्स ।। १३७ ॥ एको यदुच्छासनिःश्वासयोग्यपुद्गलोपादानं विधत्ते बहूनामपि साधारणजीवानां तदेव भवति, तथा यच बहवो ग्रहणमकापुरेकस्यापि तदेवेति ॥ अथ ये बीजात्परोहन्ति वनस्पतयस्तेषां कथमाविर्भाव इत्यत आह जोणिम्भूए बीए जीवो वकमह सो व अन्नो वा । जोऽवि य मूले जीवो सो चिय पत्ते पढमयाए ॥१३८ ॥ अत्र भूतशब्दोऽवस्थावचनः, योन्यवस्थे बीजे योनिपरिणाममजहतीत्यर्थः, वीजस्य हि द्विविधावस्था-योन्यवस्था अ-18 योन्यवस्था च, यदा योन्यवस्था न जहाति बीजमुज्झितं च जन्तुना तदा योनिभूतमुच्यते, योनिस्तु जन्तोरुसत्तिस्था-1 नमविनष्टमिति, तस्मिन् बीजे योनिभूते जीवो 'व्युत्कामति' उत्पद्यते, स एव पूर्वको बीजजीवोऽन्यो वाऽऽगत्य तत्रोपद्यते, एतदुक्तं भवति-यदा जीवेनायुषः क्षयाद्वीजपरित्यागः कृतो भवति, तस्य च यदा बीजस्य क्षित्युदकादिसंयोगस्तदा कदाचित्स एव प्राक्तनो जीवस्तत्रागत्य परिणमते कदाचिदन्य इति, यश्च मूलतया जीवः परिणमते स एव प्रथम ~121~# Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम [३९] श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ५९ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [५], मूलं [३८...], निर्युक्तिः [१३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः पत्रतयाऽपीति, एकजीवकर्तृके मूलपत्रे इतियावत्, प्रथमपत्रकं च याऽसौ बीजस्य समुच्छ्रनावस्था भूजल कालापेक्षा सैवोच्यत इति, नियमप्रदर्शनमेतत् शेषं तु किशलयादि सकलं न मूलजीवपरिणामाविर्भावित मेवेत्यवगन्तव्यमिति ॥ यत + उक्तम्- "सेव्वोऽवि किसलओ खलु उग्गममाणो अणन्तओ भणिओ" इत्यादि । तथाऽपरं साधारणलक्षणमभिधित्सुराह ari भज्नमाणस्स गंठी पुण्णघणो भवे। पुढविसरिस भेएणं अनंतजीवं वियाणेहि ॥ १३९ ॥ यस्य मूलकन्दत्वक्पत्रपुष्पफलादेर्भज्यमानस्य चक्रकं भवति, चक्राकारः समच्छेदो भङ्गो भवतीतियावत्, यस्य च ग्रन्थिः-पर्व भङ्गस्थानं वा 'चूर्णेन' रजसा 'घनो' व्याप्तो भवति, यो वा भिद्यमानो वनस्पतिः पृथिवीसदृशेन भेदेन केदारोपरिशुष्कतरिकावत् पुटभेदेन भिद्यते तमनन्तकार्यं विजानीहि ॥ तथा लक्षणान्तरमाह--- गूढसिरागं पत्तं सच्छीरं जं च होइ निच्छीरं । जं पुण पणट्ठसंघिय अनंतजीवं विद्याणाहि ॥ १४० ॥ स्पष्टार्थी ॥ एवं साधारणजीवान् लक्षणतः प्रतिपाद्य सम्प्रति नामग्राहमनन्तान् वनस्पतीन् दर्शयितुमाहसेवालकत्थभाणियअवए पणए य किंनए य हडे । एए अनंतजीवा भमिया अण्णे अणेगविहा ॥ १४१ ॥ सेवा कत्थभाणि काऽवकपनककिण्वहठादयोऽनन्तजीवा गदिता अनेकप्रकाराश्चान्येऽपीत्यमवगन्तव्या इति ॥ सम्प्रति प्रत्येकतरूणामेकादिजीवपरिगृहीतशरीरदृश्यत्वं प्रतिपिपादयिपयाह एगस्स दुण्ह तिण्ह व संखिजाण व तहा असंखाणं । पत्तेयसरीराणं दीसंति सरीरसंघाया ॥ १४२ ॥ १] सर्वोऽपि किसलयः द्रच्छनतको भणितः, ४ Jan Estication Intamational For Par at Use Only ~122~# अध्ययनं १ उद्देशकः ५ ॥ ५९ ॥ www.indiary.org Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [५], मूलं [३८...], नियुक्ति: [१४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः - प्रत सत्राक [३८] दीप अनुक्रम [३९] एकजीवपरिगृहीतशरीर तालसरलनालिकेर्यादिस्कन्धः, स च चक्षु यः, तथा बिसमृणालकर्णिकाकुणककटाहानामे-II कजीवपरिगृहीतत्वं चक्षुर्दश्यत्वं च, द्वित्रिसलधेयासङ्ख्येयजीवपरिगृहीतत्वमप्येवं दृश्यतया भावनीयमिति ॥ किमतानन्तानामप्येवं ?, नेत्यत आह इकस्स दुण्ह तिण्ह व संखिजाण व न पासिउं सका । दीसंति सरीराई निओयजीवाणऽणताणं ॥ १४३॥ ISI नैकादीनामसळधेयावसानानामनन्ततरुजीवानां शरीराण्युपलभ्यन्ते, फुतः?, अभावात्, न ोकादिजीवपरिगृहीतान्य-12 नन्तानां शरीराणि सन्ति, अनन्तजीवपिण्डत्वादेव, कथं तर्युपलभ्यास्ते भवन्तीति दर्शयति-दृश्यन्ते शरीराणि चादर-15 |निगोदानामनन्तजीवानां, सूक्ष्मनिगोदानां तु नोपलभ्यन्ते, अनन्तजीवसङ्घातत्वे सत्यष्यतिसूक्ष्मत्वादिति भावः, निगोकादास्तु नियमत एवानन्तजीवसाता भवन्तीति, उक्तंच-"गोला व असंखेज्जा हुँति णिओआ असङ्ख्या गोले । एकेको य निओए अणंतजीवो मुणेयच्चो॥१॥" एवं वनस्पतीनां वृक्षादिप्रत्येकादिभेदात्तथा वर्णगन्धरसस्पर्शभेदात् सहस्रायशो विधानानि सङ्घधेयानि योनिप्रमुखानि शतसहस्राणि भेदानामवसेयानीति, तथाहि-वनस्पतीनां संवृता योनिः, सा, च सचित्ताचित्तमिश्रभेदात् त्रिधा, तथा शीतोष्णमिश्रभेदाच, तथा प्रत्येकतरूणां दश लक्षा योनिभेदानां, साधारणानां ताच चतुर्दश, कुलकोटीनां, द्वयोरपि पञ्चविंशतिकोटिशतसहस्राणीति ॥ उक्तं विधानद्वारम्, इदानी परिमाणमभिधीयते-15 तत्र प्रथमं सूक्ष्मानन्तजीवानां दर्शयितुमाह १ गोलावासलचेया भवन्ति निगोदा असङ्ख्या गोले । एकैका निगोदोऽनन्तलीलो मुणितव्यः ॥ १ ॥ CXAAAAACARE ~123~# Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [५], मूलं [३८...], नियुक्ति: [१४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम [३९]] श्रीआचा- पत्थेण व कुडवेण वजह कोइ मिणिज्ज सव्वधन्नाई। एवं मविजमाणा हवंति लोया अर्णता उ ॥ १४४ ॥ अध्ययनं १ राङ्गवृत्तिः प्रस्थकुडवादिना यथा कश्चित्सर्वधान्यानि प्रमिणुयात्, मित्वा चान्यत्र प्रक्षिपेद्, एवं यदि नाम कश्चित्साधारण(शी०) जीवराशिं लोककुडवेन मित्वाऽन्यत्र प्रक्षिपेत् तत एवं मीयमाना अनन्ता लोका भवन्तीति ॥ इदानी बादरनिगोदपरि-1 उद्देशकः ५ माणाभिधित्सयाऽऽह॥६ ॥ जे बायरपज्जत्ता पयरस्स असंखभागमित्ता ते । सेसा असंखलोया तिन्निवि साहारणाणता ॥१४५॥ ॥ | ये पर्याप्तकवादरनिगोदास्ते संवर्तितचतुरश्रीकृतसकललोकप्रतराससवेयभागवर्तिप्रदेशराशिपरिमाणा भवन्ति, एते | पुनः प्रत्येकशरीरबादरवनस्पतिपर्याप्तकजीवेभ्योऽसङ्खयेयगुणाः, शेषास्त्रयोऽपि राशयः प्रत्येकमसङ्खचेयलोकाकाशप्रदे|शपरिमाणाः, के पुनस्त्रय इति ?, उच्यन्ते, अपर्याप्तकबादरनिगोदा अपर्याप्तकसूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्तकसूक्ष्मनिगोदार, एते || च क्रमशो बहुतरका द्रष्टव्या इति, साधारणजीवास्तेभ्योऽनन्तगुणाः, एतच्च जीवपरिमाणं, प्राक्तनं तु राशिचतुष्टय निगोदपरिमाणमिति ।। परिमाणद्वारानन्तरमुपभोगद्वारमभिधित्सुराह आहारे उवगरणे सयणासण जाण जुग्गकरणे य । आवरण पहरणेसु अ सत्वविहाणेसु अ बहुसुं॥१४६।। आहारः-फलपत्रकिशलयमूलकन्दत्वगादिनिर्वर्त्यः, उपकरणं व्यजनकटककवलकार्गलादि, शयन-खटाफलकादि, आसनम्-आसन्दकादि, यानं-शिबिकादि, युग्य-गन्त्रिकादि, आवरणम्-फलकादि, प्रहरण-लकुटमुसुण्त्यादि, शस्त्रवि- Al६०॥ प्रधानानि च बहुनि तन्निर्वानि, शरदात्रखशक्षुरिकादिगण्डोपयोगित्वादिति। तथाऽपरोऽपि परिभोगविधिः, तद्दर्शनायाह wwwandltimaryam ~124~# Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [9], मूलं [३८...], नियुक्ति: [१४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम [३९]] आउज कडकम्मे गंधंगे घस्थ मल्ल जोए य । झावणवियावणेसु अ तिल्लविहाणे अ उज्जोए ॥ १४७ ॥ आतोद्यानि-पटहभेरीवंशवीणाझलादीनि, काष्ठ कर्म-प्रतिमास्तम्भद्वारशाखादि, गन्धाङ्गानि-बालकप्रियङ्गपत्रकदमनकत्वक्कन्दनोशीरदेवदार्यादीनि, वस्त्राणि वल्कलकापसमयादीनि, माल्ययोगा-नवमालिकाबकुलचम्पकपुन्नागाशोक मालतीविचकिलादयः, ध्मापन-दाहो भस्मसात्करणमिन्धनैः, वितापनं-शीताभ्यर्दितस्य शीतापनयनाय काष्ठप्रज्वा-13 पालनात्, तैलविधान-तिलातसीसर्षपेङ्गदीज्योतिष्मतीकरजादिभिः, उद्योतो-वर्तितृणचूडाकाष्ठादिभिरिति । एवमेतान्यु-| पभोगस्थानानि प्रतिपाद्य तदुपसबिहीर्षुराह एएहिं कारणेहिं हिंसंति वणस्सई बहू जीवे । सायं गवेसमाणा परस्स दुक्खं उदीरंति ॥१४८ ।। 'एतैः' गाथाद्वयोपात्तैः 'कारणैः' प्रयोजनैः 'हिंसन्ति' व्यापादयन्ति प्रत्येकसाधारणवनस्पतिजीवान् बहून् वनस्पतिसमारम्भिणः पुरुषाः, किंभूतास्त इति दर्शयति–'सातं' सुखं तदन्वेषिणः 'परस्य' बनस्पत्यायेकेन्द्रियादेः 'दुःख' | बाधामुत्सादयन्ति । साम्प्रतं शस्त्रमुच्यते-तच्च द्विधा-द्रव्यभावभेदात्, द्रव्यशस्त्रमपि समासविभागभेदात् द्विधैव, तत्र समासद्रव्यशस्वाभिधित्सयाऽऽह कप्पणिकुहाणिअसियगदत्तियकुदालवासिपरसू अ । सत्थं वणस्सईए हत्था पाया मुहं अग्गी ॥ १४९ ॥ कल्प्यते-छिचते यया सा कल्पनी-शस्त्रविशेषः, कुठारी प्रसिद्धैव, असियर्ग-दात्र, दात्रिका-प्रसिद्धा, कुदालकवा-II सिपरशवश्च, एते वनस्पतेः शस्त्रं, तथा हस्तपादमुखाग्नयश्च इत्येतत्सामान्यशस्त्रमिति ।। विभागशस्त्राभिधित्सयाऽऽह मा.सू.११ wwwandltimaryam ~125~# Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [३९], नियुक्ति: [१५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत X सूत्रांक श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) [३९] ॥६१॥ दीप अनुक्रम किंची सकायसत्थं किंची परकाय तदुभयं किंचि । एयं तु दव्वसत्यं भावे य असंजमो सत्यं ॥१५॥ अध्ययन किञ्चित् स्वकायशवं-लकुटादि किश्चिच परकायशवं-पाषाणाम्यादि तथोभयशस्त्र-दात्रदात्रिकाकुठारादि, एतद् द्रव्यशस्त्रं, भावशस्त्रं पुनरसंयमः दुष्पणिहितमनोवाकायलक्षण इति ॥ सकलनिर्युक्त्यर्थपरिसमाप्तिप्रचिकटयिषयाऽऽह उद्देशकः५ सेसाई दाराई ताई जाई हवंति पुढवीए । एवं वणस्सईए निज्जुत्ती कित्तिया एसा ॥१५१॥ उक्तव्यतिरिक्तशेषाणि तान्येव द्वाराणि यानि पृथिव्यामभिहितानि ततस्तद्वाराभिधानाद्वनस्पती नियुक्तिः 'कीर्तिता' व्यावर्णितेति ॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमे अस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम् तं णो करिस्सामि समुट्ठाए, मत्ता मइम, अभयं विदित्ता, तं जे णो करए, एसोवरए, एत्थोवरए, एस अणगारेत्ति पवुच्चई (सू० ३९) अस्य चानन्तरपरम्परादिसूत्रैः सम्बन्धः प्राग्वद्वाच्यः, उक्तं प्राक् 'सातान्वेषिणो हि वनस्पतिजन्तूनां दुःखमुदीर|यन्ति, ततश्च तम्मूलमेव दुःखगहने संसारसागरे भ्राम्यन्ति सत्त्वाः' इत्येवं विदितकटुकविपाकः समस्तवनस्पतिसत्त्व| विषयविमर्दनिवृत्तिमात्यन्तिकीमात्मनि दर्शयन्नाह-'तत्' वनस्पतीनां दुःखमहं दृष्टप्रत्यपायो न करिष्ये, यदिवा तदु:खोसत्तिनिमित्तभूतं वनस्पतावारम्भ-छेदनभेदनादिरूपं नो करिष्ये मनोवाकायैः, तथाऽपरैर्न कारयिष्ये, तथा कुर्च-II ॥६१॥ तश्चान्यान्नानुमस्ये, किं कृत्वेति दर्शयति-सर्वज्ञोपदिष्टमार्गानुसृत्या सम्यक् प्रव्रज्योत्थानेनोत्थाय समुत्थाय, प्रव्रज्या [४०] wwwandltimaryam ~126~# Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [४०] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [ ५ ], मूलं [३९], निर्युक्तिः [१५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः प्रतिपद्येत्यर्थः, तदेवं वर्जितसकलसावद्यारम्भकलापः संस्तद्वनस्पतिदुःखं तदारम्भं वा नो करिष्यामीति, अनेन च संयमक्रिया दर्शिता, न च क्रियात एव मोक्षावाप्तिः, किं तर्हि ?, ज्ञानक्रियाभ्यां तदुक्तम्- "नाणं किरियारहियं किरियामेत्तं च दोऽवि एगन्ता । न समत्था दाउँ जे जम्ममरणदुक्खदाहाई ॥ १ ॥” यत एवमतो विशिष्टमोक्षकारणभूतज्ञानप्रतिपिपादविषयाऽऽह - 'मत्ता मइमं' मत्वा - ज्ञात्वा अवबुध्य यथावत् जीवान्, मतिरस्यास्तीति मतिमान्, मतिमानेवोपदेशार्हो भवतीत्यतस्तद्वारेणैव शिष्यामन्त्रणं हे मतिमन् ! प्रव्रज्यां प्रतिपद्य जीवादिपदार्थांश्च ज्ञात्वा मोक्षमवाप्नोतीति, सम्यग्ज्ञानपूर्विका हि क्रिया फलवतीति दर्शितं भवति । पुनरत्रैवाह - 'अभयं विदित्ता' अविद्यमानं भयमस्मिन्सत्त्वानामित्यभयः- संयमः, स च सप्तदशविधानस्तं चाभयं सर्वभूतपरिपालनात्मकं संसारसागरनिर्वाहकं विदित्वा वनस्यत्यारम्भान्निवृत्तिर्विधेयेति । एतदेव दर्शयितुमाह-'तं जे नो करए' इत्यादि, 'तं' वनस्पत्यारम्भं 'यो' विदिततदारम्भकटुकविपाकः नो कुर्यात्, तस्य प्रतिविशिष्टेष्टफलावाप्तिर्नान्यस्यान्धमूया प्रवर्त्तमानस्य, अभिलपितविप्रकृष्टस्थानप्राप्तिप्रवृत्तान्धक्रियाव्याघातवदिति मन्तव्यं, ज्ञानमपि क्रियाहीनं न मोक्षाय, गृहान्तर्दह्यमाननिनङ्क्षुपङ्गचक्षुर्ज्ञानवदिति, एवं ज्ञात्वाऽभ्युपेत्य च तत्सरिहारः कर्त्तव्य इति दर्शितं भवति । एवं यः सम्यग्ज्ञानपूर्विकां निवृत्तिं करोति स एव समस्तारम्भनिवृत्त इति दर्शयति- 'एसोवरए' ति एष एव सर्वस्मादारम्भाद्वनस्पतिविषयादुपरतो यो यथावत् ज्ञात्वाऽऽरम्भं न करोतीति, स पुनरेवंविधनिवृत्तिभाकि शाक्यादिष्वपि सम्भवत्युतेहैव प्रवचन इति दर्शयति- 'एत्थोव १ शानं क्रियारहितं क्रियामात्रं च द्वे अप्येकान्तात् । न समर्थे दातुं यानि जन्ममरणदुःखदाहकानि ॥ १ ॥ Jan Estication Intemational For Par Pry Use Onl ~ 127 ~# Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [४०] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [ ५ ], मूलं [३९], निर्युक्तिः [१५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा रएत्ति एतस्मिन्नेव जैनेन्द्रे प्रवचने परमार्थत उपरतो नान्यत्र यथाप्रतिज्ञातनिरवद्यानुष्ठायित्वादुपरतव्यपदेशराङ्गवृत्तिः भागू भवति न शेषाः शाक्यादयः, तद्विपरीतत्वाद्, एष एव च सम्पूर्णानगारव्यपदेशमनुते इति दर्शयति- 'एस : (शी०) ४ अणगारेत्ति पचई' 'एप' अतिक्रान्तसूत्रार्थव्यवस्थितोऽविद्यमानागारोऽनगारः प्रकर्षेण उच्यते प्रोच्यते इति, किं ॥ ६२ ॥ कृतः प्रकर्षः ?, अनगारव्यपदेशका रणभूतगुणकलापसम्बन्धकृतः प्रकर्षः, इतिशब्दोऽनगारव्यपदेशकारणपरिसमाप्ति- 2 ॐ द्योती, एतावदनगारलक्षणं नान्यदिति, ये पुनः प्रोज्झितपारमार्थिकानगारगुणाः शब्दादीन्विषयानङ्गीकृत्य प्रवर्त्तन्ते ते तु नापेक्षन्ते वनस्पतीन् जीवान्, यतो भूयांसः शब्दादयो गुणा वनस्पतिभ्य एव निष्पद्यन्ते, शब्दादिगुणेष्वेव वर्त्तमाना रागद्वेपविषमविषविघूर्णमान लोललोचना नरकादिचतुर्विधगत्यन्तःपातिनो बोद्धव्याः, तदन्तःपातिन एव च शब्दादिविषयाभिष्वङ्गिणो भवन्तीति ॥ अस्यार्थस्य प्रसिद्धये गतप्रत्यागतलक्षणमितरेतरावधारणफलं सूत्रमाह जे गुणे से आवहे जे आवट्टे से गुणे (सू० ४० ) यो 'गुणः शब्दादिकः स आवर्त्तः, आवर्त्तन्ते- परिभ्रमन्ति प्राणिनो यत्र स आवर्त्तः संसारः, इह च कारणमेव कार्यत्वेन व्यपदिश्यते यथा नडुलोदकं पादरोगः, एवं य एते शब्दादयो गुणाः स आवर्त्तः, तत्कारणत्वात् अथवैकवचनोपादानात्पुरुषोऽभिसम्बध्यते, यः शब्दादिगुणे वर्त्तते स आवर्त्ते वर्त्तते, यश्चावर्त्ते वर्त्तते स गुणे वर्तत इति, अत्र कश्चिन्वोद्यचक्षुराह-यो गुणेषु वर्त्तते स आवर्त्ते वर्त्तत इति साधु, यः पुनरावर्त्ते वर्त्तते नासौ नियमत एव ॥ ६२ ॥ गुणेषु वर्त्तते यस्मात्साधवो वर्त्तन्त आवर्त्ते न गुणेषु तदेतत्कथमिति, अत्रोच्यते, सत्यम्, आवर्त्ते यतयो वर्त्तन्ते न गुणेषु, ४ Esticatonttumational For Party Use Onl अध्ययनं १ उद्देशकः ५ ~128~# Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [४०] दीप अनुक्रम [४१] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [ ५ ], मूलं [४०], निर्युक्ति: [१५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र- [ ०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः किन्तु रागद्वेषपूर्वकं गुणेषु वर्तनमिहाधिक्रियते तच साधूनां न सम्भवति, तदभावात्, आवर्त्तोऽपि संसरणरूपो दुःखात्मको न सम्भवति, सामान्यतस्तु संसारान्तःपातित्वं सामान्यशब्दादिगुणोपलब्धिश्च सम्भवत्येवातो नोपलब्धिः प्रतिषिध्यते, रागपरिणामो द्वेषपरिणामो वा यस्तत्र स प्रतिषिध्यते, तथा चोक्तम् - "कोण सोक्खेहिं सद्देहिं पेम्मं नाभिनिबेसए" इत्यादि, तथा - " न शक्यं रूपमद्रष्टुं चक्षुर्गोचरमागतम् । रागद्वेषौ तु यौ तत्र, तौ बुधः परिवर्जयेत् ॥ १ ॥” कथं पुनर्गुणभूयस्त्वं वनस्पतिभ्य इति प्रदर्श्यते वेणुवीणापटहमुकुन्दादीनामातोद्यविशेषाणां वनस्पतेरुत्पत्तिः, ततश्च मनोहराः शब्दा निष्पद्यन्ते, प्राधान्यमत्र वनस्पतेर्विवक्षितं, अन्यथा तु तन्त्रीचर्मपाण्यादिसंयोगाच्छब्द निष्पत्तिरिति, रूपं पुनः काष्ठकर्म्मस्त्रीप्रतिमादिषु गृहतोरणवेदिकास्तम्भादिषु च चक्षूरमणीयं गन्धा अपि हि कर्पूरपाटलालवलीलव| केतकी सरसचन्दनागुरुकक्कोल केलाजातिफलपत्रिकाकेसरमांसीत्वक्पत्रादीनां सुरभयो गन्धेन्द्रियाहादकारिणः प्रादुभवन्ति, रसास्तु बिसमृणालमूलकन्दपुष्पफलपत्रकण्टकमञ्जरीत्वगङ्कुर किसलयारविन्दकेसरादीनां जिह्वेन्द्रियप्रहादिनो निष्पद्यन्ते अतिबहव इति, तथा स्पर्शाः पद्मिनीपत्रकमलदलमृणालवल्कलदुकूलशाट कोपधानतूलिकप्रच्छादनपटादीनां स्पर्शनेन्द्रियसुखाः प्रादुष्ष्यन्ति एवमेतेषु वनस्पतिनिष्पन्नेषु शब्दादिगुणेषु यो वर्त्तते स आवर्त्ते वर्त्तते, यश्च आवर्त्तवर्त्ती स रागद्वेषात्मकत्वात् गुणेषु वर्त्तत इति, स चावत नामादिभेदाच्चतुर्द्धा, नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यावर्त्तः स्वामित्वकरणाधिकरणेषु यथासम्भवं योज्यः, स्वामित्वे नद्यादीनां क्वचित्प्रविभागे जलपरिभ्रमणं द्रव्यस्यावर्त्तः, १ कर्णसोयेषु शब्देषु प्रेम नाभिनिवेशयेत्. Etication matinal For Pantry Use Only ~129~# *%*-%**% *% *% Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [9], मूलं [४०], नियुक्ति: [१५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४० श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०) दीप अनुक्रम [४१] द्रव्याणां वा हंसकारण्डवचक्रवाकादीनां व्योनि क्रीडतामावर्त्तनादावर्त्तः, करणे तु तेनैव जलद्रव्येण भ्रमता यदन्य- अध्ययनर दावर्त्तते तृणकलिञ्चादि स द्रव्येणावती, तथा पुसीसकलोहरजतसुवणरावर्त्यमानैर्यदन्यत्तदन्तःपात्यावर्त्यते स द्रव्यै-- रावर्त्तत इति, अधिकरणविवक्षायामेकस्मिन् जलद्रव्ये आवर्तस्तथा रजतसुवर्णरीतिकात्रपुसीसकेम्वेकस्थीकृतेषु बहुषु । उद्देशका ५ द्रव्येष्वावतः, भावाव” नामान्योऽन्यभावसङ्क्रान्तिः, औदयिकभावोदयाद्वा नरकादिगतिचतुष्टयेऽसुमानावर्त्तते, इह च भावावर्तेनाधिकारो न शेषैरिति ॥ अथ य एते गुणाः संसारावर्तकारणभूताः शब्दादयो वनस्पतेरभिनिर्वृत्तास्ते कि नियतदिग्देशभाजः उत सदिक्षु इत्यत आह उई अहं तिरियं पाईणं पासमाणे रूवाई पासति, सुणमाणे सदाई सुणेति, उर्छ अहं पाईणं मुच्छमाणे रूवेसु मुच्छति, सद्देसु आवि (सू० ४१) प्रज्ञापकदिगङ्गीकरणादू दिग्व्यवस्थितं रूपगुणं पश्यति प्रासादतलहादिषु, 'अध'मित्यवाङ् अधस्तात् गिरिशिखरप्रासादाधिरूढोऽधोव्यवस्थितं रूपगुणं पश्यति, अधःशब्दार्थे अवाडित्ययं वर्त्तते, गृहभित्त्यादिव्यवस्थितं रूपगुणं तिर्यक् पश्यति, तिर्यकशब्देन चात्र दिशोऽनुदिशश्च परिगृह्यन्ते, ताश्चेमाः–'प्राचीन मिति पूर्वा दिग, एतचोपलक्षणम्, अन्या अप्येतदाद्यास्तिर्यग्दिशो द्रष्टच्या इति, एतासु दिक्षु पश्यन् चक्षुर्ज्ञानपरिणतो रूपादिद्रव्याणि चक्षुह्यतया परिणतानि पश्यति-उपलभत इत्यर्थः, तथा तासु च शृण्वन् शृणोति शब्दानुपयुक्त श्रोत्रेण नान्यथेति ॥ अत्रोपलब्धिमात्रं wwwandltimaryam ~130-23 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [9], मूलं [४१], नियुक्ति: [१५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१] दीप अनुक्रम प्रतिपादितं, न चोपलब्धिमात्रात्संसारप्रपातः, किन्तु यदि मूर्छा रूपादिषु करोति, ततोऽस्य बन्ध इति दर्शयितुमाह उहमित्यादि पुनरूद्वादेर्मूर्जासम्बन्धनार्थमुपादानं, मूर्छन् रूपेषु मूर्छति, रागपरिणाम यान् रज्यते रूपादिष्वित्यर्थः, माएवं शब्देष्वपि मर्छति, अपिशब्दः सम्भावनायां समुच्चये वा, रूपशब्दविषयग्रहणाच शेषा अपि गन्धरसस्पर्शा गृहीता भवन्ति, 'एकग्रहणे तज्जातीयानां ग्रहणाद्, आद्यन्तग्रहणाद्वा तन्मध्यग्रहणमवसेयमिति ॥ एवं विषयलोकमाख्याय विवक्षितमाह एस लोए वियाहिए एत्थ अगुत्ते अणाणाए (सू०४२) 'एष' इति रूपरसगन्धस्पर्शशब्दविषयाख्यो लोको व्याख्यातः, लोक्यते परिच्छिद्यते इतिकृत्वा, एतस्मिंश्च प्रस्तुते । का शब्दादिगुणलोकेऽगुप्तो यो मनोवाकार्यः मनसा द्वेष्टि रज्यते वा वाचा प्रार्थनं शब्दादीनां करोति कायेन शब्दादि| विषयदेशमभिसर्पति, एवं यो ह्यगुप्तो भवति सोऽनाज्ञायां वर्तते, न भगवत्प्रणीतवचनानुसारीतियावदिति ॥ एवंगुणश्च यत्कुर्यात्तदाह पुणो पुणो गुणासाए, वंकसमायारे (सू०४३) ततश्चासावसकृच्छन्दादिगुणलुब्धो न शक्नोत्यात्मानं शब्दादिगृद्धेनिवर्त्तयितुम् , अनिवर्तमानश्च पुनः पुनर्गुणास्वादो| दिभवति, क्रियासातत्येन शब्दादिगुणानास्वादयतीत्यर्थः, तथा च यादृशो भवति तदर्शयति-वकः-असंयमः कुटिलो [४२] wwwanditimaryam ~131~# Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [9], मूलं [४३], नियुक्ति: [१५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] श्रीआचा- रावृत्तिः अध्ययन (शी०) ॥६४|| दीप अनुक्रम नरकादिगत्याभिमुख्यप्रवणत्वात् , समाचरणं समाचारः-अनुष्ठान, वक्रः समाचारो यस्यासी चक्रसमाचारः, असंयमानुष्ठायीत्यर्थः, अवश्यमेव शन्दादिविषयाभिलाषी भूतोपमईकारीत्यतो वक्रसमाचारः, प्राक् शब्दादिविषयलवसमास्वादनाद्वृद्धः पुनरात्मानमाचारयितुमसमर्थत्वादपथ्याम्रफलभोजिराजवद्विनाशमाशु संश्रयत इति ॥ एवं चासौ नितरां जितः शब्दादिविषयसमास्वादनात् 'खंतपुत्तोव्व' इदमाचरति पमत्तेऽगारमावसे (सू०४४) प्रमत्तो विषयविषमूर्छितः 'अगारं' गृहमावसति, योऽपि द्रव्यलिङ्गसमन्वितः शब्दादिविषयप्रमादवान असावपि |विरतिरूपभावलिङ्गरहितत्वात् गृहस्थ एवेति ॥ अन्यतीर्थिकाः पुनः सर्वदा सर्वथाऽन्यथावादिनोऽन्यथाकारिण इति दर्शयितुमाह लजमाणा पुढो पास, अणगारा मोत्ति एगे पवदमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहि वणस्सइकम्मसमारंभेणं वणस्सइसत्थं समारभमाणा अपणे अणेगरूवे पाणे विहिसंति, तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेदिता, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जातीमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेउं से सयमेव वणस्सइसत्थं समारंभइ अण्णेहिं वा वणस्सइसत्थं समारंभावेइ अपणे वा वणस्सइसत्थं समारभमाणे ४४] 24-% ॥६४॥ wwwandltimaryam ~132~# Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [४५] दीप अनुक्रम [४६ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [ ५ ], मूलं [४५], निर्युक्ति: [१५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Jan Estication Ital समणुजाण, तं से अहियाए तं से अबोहीए, से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए सोचा भगवओ अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं णायं भवति- एस खलु गंथे एस खलु मोहे एस खलु मारे एस खलु णरए, इञ्चत्थं गट्टिए लोए, जमिणं विरूवरूबेहिं सत्थेहिं वणस्सइकम्मसमारंभेणं वणस्सइसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसंति ( सू० ४५) प्राग्वत् ज्ञेयं, नवरं वनस्पत्यालापो विधेय इति ॥ साम्प्रतं वनस्पतिजीवास्तित्वे लिङ्गमाह से बेमि इमपि जाइधम्मयं एयंपि जाइधम्मयं इमंपि वुडिधम्मयं एयंपि बुधम्मयं इमपि चित्तमंतयं एयंपि चित्तमंतयं इमंपि छिपणं मिलाइ एयंपि छिपणं मिलाइ इमपि आहारगं एयंपि आहारगं इमपि अणिच्चयं एयंपि अणिच्चयं इमंपि असासयं एपि असासयं इमपि चओवचइयं एयंपि चओवचइयं इमपि विपरिणामधम्मयं एयंपि विपरिणामधम्मयं ( सू० ४६ ) For Pantry Use Onl ~133~# www.sendiary.org Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [४६ ] दीप अनुक्रम [ ४७ ] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ।। ६५ ।। “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [ ५ ], मूलं [४६], निर्युक्तिः [१५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र- [ ०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सोऽहमुपलब्धतत्त्वो ब्रवीमि अथवा वनस्पतिचैतन्यं प्रत्यक्षप्रमाणसमधिगम्यमानस्वरूपं यत्तदहं ब्रवीमि यथाप्रतिज्ञातमर्थं दर्शयति — 'इमंपि जाइधम्मयं ति इहोपदेशदानाय सूत्रारम्भस्तद्योग्यश्च पुरुषो भवत्यतस्तस्य सामर्थ्येन सन्निहितत्वात्तच्छरीरं प्रत्यक्षासन्नवाचिनेदमा परामृशति, इदमपि-मनुष्यशरीरं, जननं जातिरुत्पत्तिस्तद्धर्मकम् एतदपि वनस्पतिशरीरं तद्धर्म्मकं तत्स्वभावमेव इतिपूर्वकोऽपिशब्दः सर्वत्र यथाशब्दार्थे द्वितीयस्तु समुच्चये व्या ख्येयः, ततश्चायमर्थः यथा मनुष्यशरीरं बालकुमारयुववृद्धतापरिणामविशेषवत् चेतनावत्सदाधिष्ठितं प्रस्पष्टचेतनाकमुपलभ्यते, तथेदमपि वनस्पतिशरीरं, यतो जातः केतकतरुर्वालको युवा वृद्धश्च संवृत्त इति, अतस्तुल्यत्वादेतदपि जातिधर्मकं, न च कश्चिद्विशेषोऽस्ति, येन सत्यपि जातिधर्मत्वे मनुष्यादिशरीरमेव सचेतनं न वनस्पतिशरीरमिति, ननु च जातिधर्मत्वं केशनखदन्तादिष्वप्यस्ति, अव्यभिचारि च लक्षणं भवत्यस्ति च व्यभिचारः, तस्मादयुक्तं कल्पयितुं जातिधर्मत्वं जीवलिङ्गमिति, उच्यते, सत्यमस्ति जननमात्रं, किन्तु मनुष्यशरीरप्रसिद्ध बाल कुमार काद्यवस्थानामसम्भवः केशादिष्वस्ति स्फुटः, तस्मादसमञ्जसमेतद् अपि च- केशनखं चेतनावत्पदार्थाधिष्ठितशरीरस्थं जातमित्युच्यते, वर्द्धते इति वा, न पुनस्त्वयैवं तरवोऽपि चेतनावत्पदार्थाधारस्था इष्यन्ते त्वन्मते भुवोऽचेतनत्वात्तस्मादयुक्तमिति अथवा जातिधर्मत्वादीनि समुदितानि सूत्रोक्तान्येक एव हेतुः, न पृथक् हेतुता, न च समुदायहेतुः केशादिष्वस्ति तस्माददोष इति । तथा यथेदं मनुष्यशरीरकमनवरतं बालकुमाराद्यवस्थाविशेषैर्वर्द्धते तथैतदपि वनस्पतिशरीरमङ्करकिशलय शाखा प्रशाखादिभिर्विशेषर्वर्द्धत इति, तथा यथेदं मनुष्यशरीरं चित्तवदेवं वनस्पतिशरीरमपि चित्तवत्, Jan Estication matinal For Parts Onl ~134~# अध्ययन १ उद्देशक: ५ ॥ ६५ ॥ www.india.org Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [9], मूलं [४६], नियुक्ति: [१५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४६] दीप अनुक्रम कथम् !, चेतयति येन तच्चित्तं-ज्ञानं, ततश्च यथा मनुष्यशरीरं ज्ञानेनानुगतमेवं वनस्पतिशरीरमपि, यतो धात्री पुन्नाटादीनां स्वापविबोधसद्भावः तथाऽधोनिखातदविणराशेः स्वप्ररोहणावेष्टनं प्रावृड्जलधरनिनादशिशिरवायुसंस्पर्शादकुरोझेदः, तथा मदमदनसङ्गस्खलगतिविघूर्णमानलोललोचनविलासिनीसन्नूपुरसुकुमारचरणताडनादशोकतरोः पल्लवकुसुमोद्गमः, तथा सुरभिसुरागण्डूपसेकाद्वकुलस्य स्पृष्टप्ररोहिकादीनां च हस्तादिसंस्पर्शात्सङ्कोचादिका परिस्फुटा क्रियोपलब्धिः, न चैतदभिहिततरुसम्बन्धि क्रियाजालं ज्ञानमन्तरेण घटते, तस्मात्सिद्धं चित्तवत्त्वं वनस्पतेः इति । तथा यथेदं छिन्नं म्लायति तथैतदपि छिन्नं म्लायति, मनुष्यशरीरं हि हस्तादि छिन्नं म्लायति-शुष्यति, तथा तरुशरीरमपि पल्लवफलकुसुमादि छिन्नं शोषमुपगच्छत् दृष्टं, न चाचेतनानामयं धर्म इति । तथा यथेदं मनुष्यशरीरं स्तनक्षीरव्यञ्जनौदनाद्याहाराभ्यवहारादाहारक तथैतदपि वनस्पतिशरीरं भूजलाचाहाराभ्यवहारकं, न चैतदाहारकत्वमचेतनानां |दृष्टम् , अतस्तद्भावात्सचेतनत्वमिति । तथा यथेदं मनुष्यशरीरमनित्यक-न सर्वदाऽवस्थायि तथैतदपि वनस्पतिशरीरमनित्यं नियतायुष्कत्वात् , तथाहि-अस्य दश वर्षसहस्राणि उत्कृष्टमायुः । तथा यथेदं मनुष्यशरीरमशाश्वत-प्रतिक्षणमावीचीमरणेन मरणात् तथैतदपि वनस्पतिशरीरमिति । तथा यथेदमिष्टानिष्टाहारादिप्राप्त्या 'चयापचयिक' वृद्धिहान्यात्मिकं तथैतदपि इति । तथा यथेदं मनुष्य शरीरं विविधपरिणामः-तत्तद्रोगसम्पकोत् पाण्डुत्वोदरवृद्धिशोफकृशत्वाङ्गुलिनाA सिकाप्रवेशादिरूपो बालादिरूपो या, तथा रसायनस्नेहाद्युपयोगाद्विशिष्टकान्तिबलोपचयादिरूपो विपरिणामः तद्धर्मक तत्स्वभावकं तथैतदपि वनस्पतिशरीरं तथाविधरोगोद्भवात्पुष्पपत्रफलत्वगाद्यन्यथाभवनात् तथा विशिष्टदौहृदप्रदानेन [४७] wwwanatimarmarg ~135-2 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [४६ ] दीप अनुक्रम [ ४७ ] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ६६ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [ ५ ], मूलं [४६], निर्युक्ति: [१५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः पुष्पफलाद्युपचयाद्विपरिणामधर्मकम् । एवमनन्तरोक्तधर्मकलापसद्भावादसंशयं गृहाणैतत् - सचेतनास्तरव इति ॥ एवं वनस्पतेश्चैतन्यं प्रदर्श्य तदारम्भे बन्धं तत्परिहाररूपविरत्यासेवनेन च मुनित्वं प्रतिपादयन्नृपस जिहीर्षुराह एत्थ सत्थं समारभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाता भवंति, एत्थ सत्थं असमारभमाणस्स इच्छेते आरंभा परिण्णाया भवंति तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं वणस्सइसत्थं समारंभेज्जा णेवण्णेहिं वणस्सइसत्थं समारंभावेजा णेत्रपणे वणस्सइसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा, जस्सेते वणस्सतिसत्थसमारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे ( सू० ४७ ) त्ति बेमि ॥ पञ्चम उद्देशकः समाप्तः ॥ 'एतस्मिन् ' वनस्पती शस्त्रं द्रव्यभावाख्यमारभमाणस्येत्येते आरम्भा अपरिज्ञाता-अप्रत्याख्याता भवन्ति, एतस्मिंश्च वनस्पती शस्त्रमसमारभमाणस्येत्येते आरम्भाः परिज्ञाताः प्रत्याख्याता भवन्तीति पूर्ववच्चर्चः यावत् स एव मुनिः | परिज्ञातकर्मेति ब्रवीमि पूर्व्ववदिति । शस्त्रपरिज्ञाध्ययने पञ्चमोदेशकटीका परिसमाप्तेति । उक्तः पञ्चमोद्देशकः, साम्प्रतं षष्ठः समारभ्यते-अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरोदेश के वनस्पतिकायः प्रतिपादितः, तदनन्तरं च त्रसकायस्यागमे परिपठितत्वात् तत्स्वरूपाधिगमायायमुद्देशकः समारभ्यते, तस्य चोपक्रमादीनि चत्वार्य Estication Intemational प्रथम अध्ययने षष्ठम् उद्देशक: 'त्रसकाय:' आरब्ध:, For Parts Only ~136 ~# अध्ययन १ उद्देशक: ५ ॥ ६६ ॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [ ४७ ] दीप अनुक्रम [४८] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [४७...], निर्युक्तिः [१५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः नुयोगद्वाराणि वाध्यानि यावन्नामनिष्पन्ने निक्षेपे त्रसकायोदेशकः, तत्र सकायस्य पूर्व्वप्रसिद्धद्वारकमातिदेशाय तद्विभिन्नलक्षणद्वाराभिधानाय च निर्युतिकदाह तसकाए दाराई ताई जाई हवंति पुढवीए । नाणन्ती उ विहाणे परिमाणुवभोगसत्थे य ॥ १५२ ॥ त्रस्यन्तीति त्रसास्तेषां कायस्त्र सकायस्तस्मिंस्तान्येव द्वाराणि भवन्ति यानि पृथिव्यां प्रतिपादितानि नानात्वं तु विधानपरिमाणोपभोगशस्त्रद्वारेषु, चशब्दालक्षणे च प्रतिपत्तव्यमिति । तत्र विधानद्वारमाह- दुबिहा खलु तसजीवा लद्धितसा चैव गहतसा चैव । लद्धीय तेउबाऊ तेणऽहिगारो इहं नत्थि ॥ १५३ ॥ 'द्विविधा' द्विभेदाः, खलुरवधारणे, त्रसत्वं प्रति द्विभेदत्वमेव, बसनात्-स्पन्दनात् त्रसाः, जीवनात्प्राणधारणाज्जीवाः, त्रसा एव जीवास्त्रसजीवाः, उन्धित्रसा गतित्रसाथ, लब्ध्या तेजोवायू असौ, लब्धिस्तच्छक्तिमात्रं, लब्धित्रसाभ्यामिहाधिकारी नास्ति, तेजसोऽभिहितत्वाद्वायोश्चाभिधास्यमानत्वाद्, अतः सामर्थ्याद्गतित्रसा एवाधिक्रियन्ते ॥ के पुनस्ते कियद्भेदा वेत्यत आह---- नेरयतिरियमणुया सुरा य गइओ चउग्विहा चेव । पञ्जन्त्ताऽपञ्जत्ता नेरहयाई अ नायव्वा ॥ १५४ ॥ नारका - रत्नप्रभादिमहातमः पृथ्वी पर्यन्तनरकावासिनः सप्तभेदाः, तिर्यञ्चोऽपि द्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियाः, मनुष्याः सम्मूर्छनजाः गर्भव्युत्क्रान्तयश्च, सुरा भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकाः, एते गतित्रसाश्चतुर्विधाः, नामकर्मोदया Estication tumanl For Parts O ~137~# Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [४७...], नियुक्ति: [१५४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत अध्ययनं १ सूत्रांक [४७] दीप अनुक्रम श्रीआचा- भिनिवृत्तगतिलाभाद्गतित्रसत्वम् , एते च नारकादयः पर्याप्तापर्याप्तभेदेन द्विविधा ज्ञातव्याः, तत्र पर्याप्तिः पूर्वोक्तव राङ्गवृत्तिः पोढा, तया यथासम्भवं निष्पन्नाः पर्याप्ताः, तद्विपरीतास्त्वपर्याप्तका अन्तर्मुहुर्त्तकालमिति ॥ इदानीमुत्तरभेदानाह(शी०) तिविहा तिविहा जोणी अंडापोअअजराउआ चेव । बेइंदिय तेइन्दिय चउरो पंचिंदिया चेव ॥१५५॥ दारं ॥ अत्र हि शीतोष्णमिश्रभेदात्तथा सचित्ताचित्तमिश्रभेदात्तथा संवृतविवृततदुभयभेदात्तथा खीपुनपुंसकभेदाचेत्या॥६७॥ दीनि बहूनि योनीनां त्रिकाणि सम्भवन्ति, तेषां सर्वेषां सङ्ग्रहार्थं त्रिविधा त्रिविधेति वीप्सानिर्देशा, तत्र नारकाणामाद्यासु तिसृषु भूमिषु शीतैव योनिः चतुर्थ्यामुपरितननरकेषु शीता अधस्तननरकेषूष्णा पञ्चमीषष्ठीसप्तमीपूष्णव नेतरे, गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यडअनुष्यायामशेषदेवानां च शीतोष्णा योनिनेंतरे, द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियसंमूर्छनजतिर्यङमनुष्याणां । त्रिविधाऽपि योनिः शीता उष्णा शीतोष्णा चेति, तथा नारकदेवानामचित्ता नेतरे, द्वीन्द्रियादिसम्मूर्छनजपञ्चेन्द्रिय-12 नतिर्यअनुष्याणां त्रिविधाऽपि योनिः सचित्ताचित्ता मिश्रा च, गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यमनुष्याणां मिश्रा योनिर्नेतरे, तथा देव नारकाणां संवृता योनिर्नेतरे, द्वित्रिचतुरिन्द्रियसम्मूर्छनजपञ्चेन्द्रियतिर्यमनुष्याणां विवृता योनिर्नेतरे, गर्भव्युत्क्रान्तिकतियेग्मनुष्याणां संवृतविवृता योनिर्नेतरे, तथा नारका नपुंसकयोनय एव, तिर्यञ्चस्त्रिविधाः-स्त्रीपुनपुंसकयोनयोऽपि, मनुष्या अप्येवं त्रैविध्यभाजा, देवाः खीपुंयोनय एव, तथाऽपरं मनुष्ययोनेस्वैविध्यं, तद्यथा-कूर्मोन्नता, तस्यां चाहेतूचक्रवत्यों शीता शीतोष्णेति । तत्र नारकाणामाद्यासु तिमधु भूमिपूष्णव योनिः चतुर्थ्यामुपरितननरकेपूरणाऽचलननरकेषु शीता पमनीषष्ठीसप्तमीषु शीतैव नेतरे कादवि पा., मतान्तराभिप्रायकवायं पाठः, अस्ति सद्भदणीपत्तावर मतद्वयमपि. [४८ ॥६७। wwwandltimaryam ~138~# Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [ ४७ ] दीप अनुक्रम [४८] "आचार" अंगसूत्र - १ (मूलं निर्युक्तिः + वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [६], मूलं [४७...], निर्युक्ति: [ १५५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...... आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र- [ ०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - दिसत्पुरुषाणामुत्पत्तिः, तथा शङ्खावर्त्ता, सा च स्त्रीरलस्यैव तस्यां च प्राणिनां सम्भवोऽस्ति न निष्पत्तिः, तथा वंशीपत्रा, सा च प्राकृतजनस्येति, तथाऽपरं त्रैविध्यं निर्युक्तिकृद्दर्शयति तद्यथा - अण्डजाः पोतजाः जरायुजाश्चेति, तत्राण्डजाः पक्ष्यादयः, पोतजाः वल्गुलीगजकलभकादयः, जरायुजा गोमहिषीमनुष्यादयः, तथा द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियभेदाच्च भिद्यन्ते, एवमेते त्रास्त्रिविधयोन्यादिभेदेन प्ररूपिताः, एतद्योनिसङ्ग्राहिण्यौ च गाथे- 'पुढे विद्ग अगणिमारुयपत्तेयनिओयजीवजोणीणं । सत्तग सत्तग सत्तग सत्तग दस चोदस य लक्खा ॥ १ ॥ विगलिंदिएस दो दो चउरो चउरो य नारयसुरेसु । तिरियाण होन्ति चउरो चोद्दस मणुआण लक्खाई ॥ २ ॥ एवमेते चतुरशीतियोनिलक्षा भवन्ति, तथा कुलपरिमाणं 'कुलेकोडिसयसहस्सा बत्तीसहनव य पणवीसा । एगिंदियविति इंदिय चउरिंदि यहरियकायाणं ॥ १ ॥ | अद्धत्तेरस वारस दस दस नव चेव कोडिलक्खाई । जलयरपक्खि चउप्पय उरभुयपरिसप्पाजीवाणं ॥ २ ॥ पणुवी छ - व्वीसं च सयसहस्साई नारयसुराणं । बारस य संयसहस्सा कुलकोडीणं मणुस्साणं ॥ ३ ॥ एगा कोडाकोडी सत्ताणउतिं च सयसहस्साई । पञ्चासं च सहस्सा कुलकोडीणं मुणेयव्वा ॥ ४ ॥ अङ्कतोऽपि १९७५००००००००००० सकलकुलसङ्ग्रहोऽयं बोद्धव्य इति ॥ उक्ता परूपणा, तदनन्तरं लक्षणद्वारमाह १ पृथ्युदकाग्निमारुत प्रत्येकनिगोदजीवयोनीनाम् । सप्त सप्त सप्त सप्त दश चतुर्दश च लक्षाः ॥ १ ॥ विकलेन्द्रियेषु द्वे द्वे चतस्रश्चतत्रञ्च नारकरयोः । तिरक्षां भवन्ति चतचतुर्दश मनुष्याणां लक्षाः ॥ २ ॥ २ कुलकोटिशतसहस्राणि द्वात्रिंशत् अष्टाष्टनच च पञ्चविंशतिः । एकेन्द्रियद्वित्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रियहरितका यानाम् ॥ १ ॥ अर्थत्रयोदश द्वादश दश दश नय चैव कोटीलक्षाः । जलचरपक्षिचतुष्पदोरोभुजपरिसर्पजीचानाम् ॥ २॥ पञ्चविंशतिः षड्विंशति शतसहस्राणि नारकसुरयोः । द्वादश च शतसहस्राणि कुलकोटीन मनुष्याणाम् ॥ ३ ॥ एका कोटी कोटी सप्तनवतिञ्च दातसहस्राणि । पञ्चाशच सहस्राणि कुलकोटीनां मुणितव्यानि ॥ ४ ॥ ३ सत्त य नव व अहवीसं च बेइन्दियते इन्दिय. प्र. Jan Estication matinal For Parts Onl ~139 ~# www.nary.org Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [ ४७ ] दीप अनुक्रम [४८] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ६८ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [४७...], निर्युक्तिः [१५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः दंसणनाणचरिते चरियाचरिए अ दाणलाभे अ । उवभोगभोगबीरिय इंदियविसए य लद्धी य ॥ १५६ ॥ उवओगजोगअज्झवसाणे वीसुं च लद्धि ओदइया (णं उदया)। अट्ठविहोदय लेसा सन्नुसासे कसाए अ १५७ ' दर्शनं' सामान्योपलब्धिरूपं चक्षुरचक्षुरवधिकेचलाख्यं मत्यादीनि ज्ञानानि स्वपरपरिच्छेदिनो जीवस्य परिणामाः ज्ञानावरणवि गमव्यक्तास्तत्त्वार्थपरिच्छेदाः, सामायिकच्छेदोपस्थाप्यपरिहारविशुद्धि सूक्ष्मसम्पराययथाख्यातानि चारित्रं, चारित्राचारित्रं देशविरतिः स्थूलप्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणं श्रावकाणां, तथा दानलाभभोगोपभोगवीर्यश्रोत्रचक्षुर्माणरसनशिनाख्याः दश उब्धयः जीवद्रव्याव्यभिचारिण्यो लक्षणं भवन्ति, तथोपयोगः - साकारोऽनाकारश्चाष्टचतुर्भेदः, योगो मनोवाक्कायाख्यस्त्रिधा अध्यवसायाश्चानेकविधाः सूक्ष्माः मनःपरिणामसमुत्थाः, विष्त्रम् - पृथग् लब्धीनामुदया:प्रादुर्भावाः क्षीरमध्वास्रवादयः, ज्ञानावरणाद्यन्तरायावसानकर्माष्टकस्य स्वशक्तिपरिणाम उदयः, लेश्याः- कृष्णादिभेदा | अशुभाः शुभाश्च कषाययोगपरिणामविशेषसमुत्थाः, संज्ञास्त्वाहारभयपरिग्रहमैथुनाख्याः, अथवा दशभेदाः - अनन्तरोकाश्चतस्रः क्रोधाद्याश्च चतस्रस्तथैौघसंज्ञा लोकसंज्ञा च उच्छ्रासनिःश्वासौ प्राणापानौ, कषायाः कषः - संसारस्तस्यायाः क्रोधादयोऽनन्तानुबन्ध्यादिभेदात् षोडशविधाः । एतानि गाथाद्वयोपन्यस्तानि द्वीन्द्रियादीनां लक्षणानि यथासम्भवमवगन्तव्यानीति, न चैवंविधलक्षणकलापसमुच्चयो घटादिष्वस्ति, तस्मात्तत्राचैतन्यमध्यवस्यन्ति विद्वांसः ॥ अभिहितलक्षणकलापोपसञ्जिहीर्षया तथा परिमाणप्रतिपादनार्थ गाथामाह- लक्खणमेवं चैव उ पयरस्स असंखभागमित्ता उ । निक्खमणे य पवेसे एगाईयावि एमेव ॥ १५८ ॥ Jan Estication Intimatinal For Pantry Use Onl ~140 ~# ३ अध्ययनं १ उद्देशकः ६ ॥ ६८ ॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [ ४७ ] दीप अनुक्रम [४८ ] आगम (०१) ট % জল “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [४७...], निर्युक्तिः [१५८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः 'तुशब्दः पर्याप्तिवचनः, द्वीन्द्रियादिजीवानां लक्षणं-लिङ्गमेतावदेव दर्शनादि परिपूर्ण, नातोऽन्यदधिकमस्तीति । परिमाणं पुनः क्षेत्रतः संवर्त्तितलोकप्रतरासङ्ख्येय भागवर्त्ति प्रदेशराशिपरिमाणास्त्रसकाय पर्याप्तकाः, एते च वादरतेजस्कायपर्याप्तकेभ्योऽसङ्घयेयगुणाः, त्रसकायपर्याष्टकेभ्यस्त्रसकायिकापर्याप्तकाः असङ्ख्येयगुणाः, तथा कालतः प्रत्युत्सजसकायिकाः सागरोपमलक्षपृथक्त्वसमय राशिपरिमाणा जघन्यपदे, उत्कृष्टपदेऽपि सागरोपमलक्षपृथक्त्वपरिमाणा एवेति, तथा चागमः-- "पडुप्पन्नतसकाइया केवतिकालस्स निलेवा सिया ?, गोयमा ! जहन्नपए सागरोवमसयसहस्स पुहुत्तस्स उक्कोसपदेऽवि सागरोवमसय सहस्सपुहुत्तस्स” । उद्धर्त्तनोपपातौ गाथाशकलेनाभिदधाति - निष्क्रमणम्-उद्वर्त्तनं प्रवेशःउपपातः जघन्येनैको द्वौ त्रयो वा उत्कृष्टतस्तु 'एवमेवे 'ति प्रतरस्यासङ्घयेयभागप्रदेशपरिमाणा एवेत्यर्थः ॥ साम्प्रतमविर - हितप्रवेशनिर्गमाभ्यां परिमाणविशेषमाह | निक्खमपचेसकालो समयाई इत्थ आवली भागो । अंतोमुहुत्तऽविरहो उहिसहस्साहिए दोन्नि || १५९ ॥ दारं ।। जघन्येन अविरहिता संतता त्रसेषु उत्पत्तिर्निष्क्रमो वा जीवानामेकं समयं द्वौ त्रीन् वेत्यादि, उत्कृष्टेनात्रावलिकाऽसवधेयभागमात्रं कालं सततमेव निष्क्रमः प्रवेशो वा, एकजीवाङ्गीकरणेनाचिरहश्चिन्त्यते गाथापश्चिमार्द्धेन-अविरहः सातत्येनावस्थानम्, एकजीवो हि त्रसभावेन जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमासित्वा पुनः पृथिव्याद्येकेन्द्रियेषूत्पद्यते, प्रकर्षेणाधिकं सागरोपमसहस्रद्वयं च त्रसभावेनावतिष्ठते सन्ततमिति ॥ उक्तं प्रमाणद्वारं, साम्प्रतमुपभोगशस्त्रवेदनाद्वारत्रयप्रतिपादनायाह-१ प्रत्युत्पन्नकायिकाः कियता कालेन निर्देषाः स्युः १, गौतम ! जयभ्यपदे सागरोपमशतसहस्रपृथकृत्वेन उत्कृष्टपदेऽपि सागरोपमशतसहस्रन Jan Estication Intimational For Parts Only ~141 ~# Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [४७...], नियुक्ति: [१६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४७] दीप अनुक्रम श्रीआचा- मसाईपरिभोगो सत्यं सत्याइयं अणेगविहं । सारीरमाणसा वेयणा य दुविहा बहुविहा य ॥ १६० ॥ दारं अध्ययनं १ el मांसचर्मकेशरोमनखपिच्छदन्तस्त्रावस्थिविषाणादिभित्रसजीवसम्बन्धिभिरुपभोगो भवति, शखं पुनः 'शस्त्रादिक-I. (शी०) मिति' (शस्त्र) खातोमरक्षुरिकादि तदादिर्यस्य जलानलादेस्तच्छस्त्रादिकमनेकविध-स्वकायपरकायोभयद्रव्यभावभेदभिन्न-1 ६ मनेकप्रकारं त्रसकायस्येति, वेदना चात्र प्रसङ्गेनोच्यते-सा च शरीरसमुत्था मनःसमुत्था च द्विविधा यथासम्भव ॥१९॥ तत्राद्या शल्यशलाकादिभेदजनिता, इतरा प्रियविप्रयोगाप्रियसम्प्रयोगादिकृता, बहुविधा च ज्वरातीसारकासश्वासभगन्दरशिरोरोगशूलगुदकीलकादिसमुत्था तीब्रेति ॥ पुनरप्युपभोगप्रपश्चाभिधित्सयाऽऽह मंसस्स के अट्ठा केइ चम्मस्स के रोमाणं । पिच्छाणं पुच्छाणं दंताणभट्टा वहिजंति ॥११॥ के बहंति अट्ठा केह अणट्ठा पसंगदोसेणं । कम्मपसंगपसत्ता बंधति बहंति मारंति ॥१२॥ मांसाथै मृगशूकरादयो यध्यन्ते, चर्मार्थं चित्रकादयः, रोमार्थ मूषिकादयः, पिच्छा) मयूरगृद्ध कपिशुरुदुकादयः, पुच्छार्थ चमर्यादयः, दन्तार्थ वारणवराहादयः, वध्यन्त इति सर्वत्र सम्बध्यते इति ॥ तत्र केचन पूर्वोक्तप्रयोजनमुद्दिश्य मन्ति, केचित्तु प्रयोजनमन्तरेणापि क्रीडया प्रन्ति, तथा परे प्रसङ्गदोपात् मृगलक्षक्षिप्तेषुलेलुकादिना तदन्तरालव्यवस्थिता अनेके कपोतकपिञ्जलशुकसारिकादयो हन्यन्ते, तथा कर्म-कृष्याघनेकप्रकारं तस्य प्रसङ्गः-अनुष्ठानं तत्र प्रसक्ताः-सन्निष्ठाः सन्तस्त्रसकायिकान् बहून् प्रन्ति रज्ज्वादिना, नन्ति-कशलकुटादिभिः ताडयन्ति, मारयन्ति- ॥६९॥ माणैर्वियोजयन्तीति । एवं विधानादिद्वारकलापमुपवयं सकल नियुक्त्यर्थोपसंहारायाह--- [४८] wwwandltimaryam ~142-23 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [४८], नियुक्ति: [१६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४८] दीप अनुक्रम सेसाई दाराई ताई जाई हवंति पुढवीए । एवं तसकार्यमी निज्जुत्ती कित्तिया एसा ॥ १३ ॥ उक्तव्यतिरिक्तानि शेषाणि द्वाराणि तान्येव वाच्यानि यानि पृथ्वीस्वरूपसमधिगमे निरूपितानि, अत एवमशेषद्वाराभिधानात्रसकाये नियुक्तिः कीर्तितैषा सकला भवतीत्यवगन्तव्येति ॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीय, तच्चेदम् से बेमि संतिमे तसा पाणा, तंजहा-अंडया पोयया जराउआ रसया संसेयया समुच्छिमा उब्भियया उववाइया, एस संसारेत्ति पवुच्चई (सू०४८) अस्य चानन्तरपरम्परादिसूत्रसम्बन्धः प्राग्वद्वाच्यः, सोऽहं ब्रवीमि येन मया भगवद्वदनारविन्द विनिसृतार्थजाताव-IN धारणात् यथावदुपलब्धं तत्त्वमिति, 'सन्ति' विद्यन्ते त्रस्यन्तीति सा-प्राणिनो द्वीन्द्रियादयः, ते च कियझेदाः किंप्रकाराश्चेति दर्शयति-तद्यथेति वाक्योपन्यासार्थः, यदिवा 'तत् प्रकारान्तरमर्थतो यथा भगवताऽभिहितं तथाऽहं भणामीति, अण्डाजाताः अण्डजाः-पक्षिगृहकोकिलादयः, पोता एव जायन्ते पोतजाः 'अन्येष्वपि दृश्यते' (पा-३-२-१०१) इति जनेर्डप्रत्ययः, ते च हस्तिवल्गुलीचर्मजलूकादयः, जरायुवेष्टिता जायन्त इति जरायुजाः, पूर्व वित् प्रत्ययः, गोमहिष्यजाविकमनुष्यादयः, रसाजाता रसजाः-तकारनालदधितीमनादिषु पायुकृम्याकृतयोऽतिसूक्ष्मा भवन्ति, संस्वेदाज्जाताः संस्वेदजा:-मत्कुणयूकाशतपदिकादयः, सम्मुर्छनाजाताः सम्मूर्छनजा:-शलभपिपीलिकामक्षि| काशालिकादयः, उद्भेदनमुद्रित्ततो जाता उद्भिजाः, पृषोदरादित्वाइलोपः, पतङ्गखजरीटपारीप्लवादयः, उपपाताजाता BREACHAR wwwandltimaryam ~143~# Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) ཛམྦྷཡྻ [४८] अनुक्रम [४९ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [६], मूलं [४८], निर्युक्ति: [१६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा उद्देशकः ६ उपपातजाः, अथवा उपपाते भवा औपपातिकाः- देवा नारकाश्च, एवमष्टविधं जन्म यथासम्भवं संसारिणो नातिवर्तन्ते, ५ अध्ययनं १ राङ्गवृत्तिः * एतदेव शास्त्रान्तरे त्रिविधमुपन्यस्तं " सम्मूर्छनगर्भोपपाता जन्म" ( तत्त्वार्थ० अ० २ सू० ३२) रसस्वेदजोद्भिज्जानां (शी०) सम्मूर्छनजान्तः पातित्वात् अण्डजपोतजजरायुजानां गर्भजान्तःपातित्वात् देवनारकाणामोपपातिकान्तःपातित्वात् इति त्रिविधं जन्मेति, इह चाष्टविधं सोत्तरभेदत्वादिति । एवमेतस्मिन्नष्टविधे जन्मनि सर्वे त्रसजन्तवः संसारिणी निप* तन्ति, नैतद्व्यतिरेकेणान्ये सन्ति एते चाष्टविधयोनिभाजोऽपि सर्वलोकप्रतीता बालाङ्गनादिजनप्रत्यक्षप्रमाणसमधि* गम्याः, 'सन्ति च' अनेन शब्देन त्रैकालिकमस्तित्वं प्रतिपाद्यते त्रसानां, न कदाचिदेतैर्विरहितः संसारः सम्भवतीति, एतदेव दर्शयति- 'एस संसारोति पवुञ्चति एषः - अण्डजादिप्राणिकलापः संसारः प्रोच्यते नातोऽन्यस्त्रसानामुयत्तिप्रकारोऽस्तीत्युक्तं भवति ॥ कस्य पुनरत्राष्टविधभूतग्रामे उत्पत्तिर्भवतीत्याह ॥ ७० ॥ मंदस्सावियाणओ ( सू० ४९ ) मन्दो द्विधा - द्रव्यभावभेदात्, तत्र द्रव्यमन्दोऽतिस्थूलोऽतिकृशो वा भावमन्दोऽप्यनुपचितबुद्धिर्वालः कुशास्त्रवासितबुद्धिर्वा, अथमपि समुद्धेरभावाद्वाल एव, इह भावमन्देनाधिकारः, 'मन्दस्येति बालस्याविशिष्टबुद्धेः अत एव अविजानतो - हिताहितप्राप्तिपरिहारशून्यमनसः इत्येषोऽनन्तरोक्तः संसारो भवतीति ॥ यद्येवं ततः किमित्याह निज्झाइत्ता पडिलेहिता पत्तेयं परिनिव्वाणं सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं Jan Estication Intemational For Parts Onl ~144 ~# ॥ ७० ॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [५०], नियुक्ति: [१६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५०] -9845445 पर दीप अनुक्रम [५१] जीवाणं सब्वेसि सत्ताणं अस्सायं अपरिनिव्वाणं महब्भयं दुक्खं तिबेमि, तसंति पाणा पदिसो दिसासु य (सू० ५०) एवमिमं त्रसकायमागोपालाङ्गनादिप्रसिद्ध निश्चयेन ध्यात्वा निाय चिन्तयित्वेत्यर्थः, क्त्वाप्रत्ययस्योत्तरक्रियापेक्षत्वाद् बबीमीत्युत्तरक्रिया सर्वत्र योजनीयेति । पूर्वं च मनसाऽऽलोच्य ततः प्रत्युपेक्षणं भवतीति दर्शयति-पडिहालेहेत्त'त्ति प्रत्युपेक्ष्य-दृष्टा यथावदुपलभ्येत्यर्थः, किं तदिति दर्शयति 'प्रत्येक मित्येकमेकं सकार्य प्रति परिनिर्वाणसुखं प्रत्येकसुखभाजः सर्वेऽपि प्राणिनः, नान्यदीयमन्य उपभुङ्गे सुखमित्यर्थः, एष च सर्वप्राणिधर्म इति दर्शयति-सर्वेषां प्राणिनां-द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां, तथा सर्वेषां भूतानां प्रत्येकसाधारणसूक्ष्मवादरपर्याप्तकापर्याप्तकतरूणामिति, तथा सर्वेषां जीवानां-गर्भव्युत्क्रान्तिकसम्मूर्छनजीपपातिकपञ्चेन्द्रियाणां, तथा सर्वेषां सत्त्वानां-पृथिव्यायेकेन्द्रियाणामिति, इह च प्राणादिशब्दानां यद्यपि परमार्थतोऽभेदस्तथापि उक्तन्यायेन भेदो द्रष्टव्यः, उक्तं च-'प्राणा द्वित्रि-13 चतुः प्रोक्ताः, भूतास्तु तरवः स्मृताः । जीवाः पञ्चेन्द्रियाः प्रोक्ताः, शेषाः सत्त्वा उदीरिताः ॥ १ ॥” इति, यदिवाशब्दव्युत्पत्तिद्वारेण समभिरूढनयमतेन भेदो द्रष्टव्यः, तद्यथा-सततप्राणधारणामाणाः कालत्रयभवनाद् भूताः त्रिकालजीवनात् जीवाः सदाऽस्तित्वात्सत्त्वा इति, तदेवं विचिन्त्य प्रत्युपेक्ष्य च यथा सर्वेषां जीवानां प्रत्येक परिनिवोर्ण-सुखं तथा प्रत्येकमसातम्-अपरिनिर्वाणं महाभयं दुःखमहं ब्रवीमि, तत्र दुःखयतीति दुःखं, तद्विशिष्यते-कि wwwonditimaryam ~145~# Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [५० ] दीप अनुक्रम [५१] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [६], मूलं [५०], निर्युक्तिः [१६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ॥ ७१ ॥ श्रीआचा-विशिष्टम् ? –'असातम्' असद्वेद्यकर्माशविपाकजमित्यर्थः, तथा 'अपरिनिर्वाण मिति समन्तात् सुखं परिनिर्वाणं न परिराङ्गवृत्तिः : निर्वाणमपरिनिर्वाणं समन्तात् शरीरमनः पीडाकरमित्यर्थः, तथा 'महाभय' मिति महच्च तद्भयं च महाभयं नातः (शी०) परमन्यद् भयमस्तीति महाभयं तथाहि सर्वेऽपि शारीरान्मानसाच्च दुःखादुद्विजन्ते प्राणिन इति, इति शब्दएवमर्थे, एवमहं ब्रवीमि सम्यगुपलब्धतत्रत्वो यत्प्रागुक्तमिति । एतच्च ब्रवीमीत्याह - 'तसंती' त्यादि, एवंविधेन च असातादिविशेपणविशिष्टेन दुःखेनाभिभूतास्त्रस्यन्ति - उद्भिजन्ति प्राणा इति प्राणिनः कुतः पुनरुद्विजन्तीति दर्शयति- प्रगता दिक् प्रदिग्विदिक् इत्यर्थः, ततः प्रदिशः सकाशादुद्विजन्ति, तथा प्राच्यादिषु च दिक्षु व्यवस्थितास्त्रस्यन्ति एताश्च प्रज्ञापकविधिविभक्ता दिशोऽनुदिशश्च गृह्यन्ते, जीवव्यवस्थान श्रवणात्, ततश्चायमर्थः प्रतिपादितो भवति काका-न काचिदिगनुदिग्वा यस्यां न सन्ति त्रसाः त्रस्यन्ति वा यस्यां स्थिताः कोशिकारकीटवत्, कोशिकारकीटो हि सर्वदिग्भ्योऽनुदिग्भ्यश्च विभ्यदात्मसंरक्षाणार्थं वेष्टनं करोति शरीरस्येति, भावदिगपि न काचित्तादृश्यस्ति यस्यां वर्त्तमानो जन्तुर्न त्रस्येत्, शारीरमानसाभ्यां दुःखाभ्यां सर्वत्र नरकादिषु जंघन्यन्ते प्राणिनोऽतस्त्रासपरिगतमनसः सर्वदाऽवगन्तव्याः ॥ एवं सर्वत्र दिक्ष्वनुदिक्षु च त्रसाः सन्तीति गृह्णीमः, दिग्विदिग्व्यवस्थिता स्त्रसास्त्रस्यन्तीत्युक्तं, कुतः पुनस्त्रस्यन्ति १ - यस्मातदारम्भवद्भिस्ते व्यापाद्यन्ते, किं पुनः कारणं ?, ते तानारम्भन्त इत्यत आह Jan Estication Intemational तत्थ तत्थ पुढो पास आतुरा परितावंति, संति पाणा पुढो सिया ( सू० ५१ ) 'तत्र तत्र' तेषु तेषु कारणेषूसन्नेषु वक्ष्यमाणेषु अर्चाजिनशोणितादिषु च पृथग्विभिन्नेषु प्रयोजनेषु पश्येति शिष्य For Pantry Use Only ~146 ~# अध्ययनं १ उद्देशकः ६ ॥ ७१ ॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [११], नियुक्ति: [१६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५१] दीप अनुक्रम चोदना, किं तत्पश्येति दर्शयति-मांसभक्षणादिगृद्धा आतुरा:-अस्वस्थमनसः परि-समन्तात्तापयन्ति-पीडयन्ति नानाविधवेदनोसादनेन प्राणिव्यापादनेन या तदारम्भिणखसानिति, येन केनचिदारम्भेण प्राणिनां सन्तापनं भवतीति दर्श-II यन्नाह-'संती'त्यादि, 'सन्ति' विद्यन्ते प्रायः सर्वत्रैव प्राणाः-प्राणिनः 'पृथक् विभिन्नाः द्वित्रिचतुःपश्चेन्द्रियाः "श्रिताः पृथिव्यादिश्रिताः, एतच्च ज्ञात्वा निरवद्यानुष्ठायिना भवितव्यमित्यभिप्रायः ॥ अन्ये पुनरन्यथावादिनोऽन्यथाकारिण इति दर्शयन्नाह लजमाणा पुढो पास अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं तसकायसमारंभेण तसकायसत्थं समारभमाणा अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति, तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाईमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेउं से सयमेव तसकायसत्थं समारभति अपणेहिं वा तसकायसत्थं समारंभावेइ अण्णे वा तसकायसत्थं समारभमाणे समणुजाणइ, तं से अहियाए तं से अबोहीए, से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय सोच्चा भगवओ अणगाराणं अंतिए इहमेगेसिं णायं भवति-एस खलु गंथे एस खलु [२] ~147~# Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [५२ ] दीप अनुक्रम [43] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ७२ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [६], मूलं [५२], निर्युक्तिः [१६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः मोहे एस खलु मारे एस खलु णरए, इञ्चत्थं गहिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं तसकायसमारंभेण तसकायसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति (सू० ५२ ) पूर्ववत् व्याख्येयं यावत् 'अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइति ॥ यानि कानिचित्कारणान्युद्दिश्य त्रसवधः क्रियते तानि दर्शयितुमाह से बेमि अप्पेगे अच्चाए हणंति, अप्पेगे अजिणाए वहंति, अप्पेगे मंसाए वहंति, अप्पेगे सोणियाए वहंति, एवं हिययाए पित्ताए वसाए पिच्छाए पुच्छाए वालाए सिंगाए विसाणाए दंताए दाढाए हाए पहारुणीए अट्टीए अट्ठिमिंजाए अट्टाए अट्टाए, अप्पे हिंसिंस मेति वा वहति अप्पेगे हिंसंति मेति वा वहति अप्पेगे हिंसिस्संति मेति वा वहंति (सू० ५३ ) तदहं ब्रवीमि यदर्थं प्राणिनस्तदारम्भप्रवृत्तैर्व्यापाद्यन्त इति, अप्येकेऽचयै नन्ति, अपिरुत्तरापेक्षया समुच्चयार्थः, 'एके' केचन तदर्थित्वेनातुराः, अर्च्यतेऽसावाहारालङ्कारविधानैरित्यच देहस्तदर्थं व्यापादयन्ति तथाहि लक्षणवत्पुरु Jan Estication Intematonal For Pantry at Use Only ~148~# अध्ययनं १ उद्देशकः ६ ॥ ७२ ॥ www.india.org Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [१३], नियुक्ति: [१६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [५४] दापमक्षतमव्यक्त व्यापाद्य तच्छरीरेण विद्यामन्त्रसाधनानि कुर्वन्ति उपयाचितं वा यच्छन्ति दुर्गादीनाममता, अथवा भविषं येन भक्षितं स हस्तिनं मारयित्वा तच्छरीरे प्रक्षिप्यते पश्चाद्विर्ष जीयति, तथा अजिनार्थ-चित्रकव्याघ्रादीन व्यापादयन्ति, एवं मांसशोणितहृदयपित्तवसापिच्छपुच्छवालशृङ्गविषाणदन्तदंष्ट्रानखस्नाय्वस्थ्यस्थिमिजादिश्वपि वाच्यं, मांसाई सूकरादयः, त्रिशूलालेखार्थ शोणितं गृह्णन्ति, हृदयानि साधका गृहीत्वा मन्ति, पित्ताई मयूरादयः, वसार्थ व्याघ्रमकरवराहादयः, पिच्छार्थ मयूरगृध्रादयः, पुच्छार्थ रोझादयः, वालार्थ चमर्यादयः, शृङ्गार्थ रुरुखगादयः, तस्किल शृङ्ग पवित्रमिति याज्ञिका गृहणन्ति, विषाणार्थ हस्त्यादयः, दन्तार्धं शृगालादय: तिमिरापहत्वात्तद्दन्तानां, दंष्ट्रार्थ वराहादया, नखार्थ व्याघ्रादयः, स्नायवर्थ गोमहिष्यादयः, अस्थ्यर्थ शङ्खशुक्त्यादयः, अस्थिमिजार्थं महिषवराहादयः, एवमेके यथोपदिष्टप्रयोजनकलापापेक्षया प्रन्ति, अपरे तु कृकलासगृहकोकिलादीन् विना प्रयोजनेन व्यापादयन्ति, अन्ये पुनः 'हिंसिसु मेत्ति' हिंसितवानेपोऽस्मत्स्वजनान्सिहः सोऽरिर्थाऽतो प्रन्ति, मम वा पीडां कृतवन्त इत्यतो हन्ति, तथा अन्ये वर्तमानकाल एव हिनस्ति अस्मान् सिंहोऽन्यो वेति मन्ति, तथाऽन्येऽस्मानयं हिंसिष्यतीत्यनागतमेव सादिक व्यापादयन्ति । एवमनेकप्रयोजनोपन्यासेन हननं त्रसविषयं प्रदर्य उद्देशकार्थमुपसञ्जिहीराह एत्थ सत्थं समारभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिणाया भवंति, एस्थ सत्थं असमारभमाणस्स इच्छेते आरंभा परिणाया भवन्ति, तं परिपणाय मेहावी व सयं तस१ विषाणार्थ गालादयः, दन्ताय रस्त्यादयः इति प्र०, परं 'विषाणं तु भड्गे कोलेभदन्तयोः' इलनेकार्थवणनानायमसुन्दरः. 454-- - wwwandltimaryam ~149~# Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [ ५४ ] दीप अनुक्रम [ ५५ ] श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ७३ ॥ %%%%%% “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) [ १ ], उद्देशक [६], मूलं [५४], निर्युक्तिः [१६३] आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित Jain Estication Intimational काय सत्थं समारंभेजा वऽपणेहिं तसकायसत्थं समारंभावेजा णेवऽण्णे तसकायसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा, जस्सेते तसकायसमारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे ( सू० ५४ ) तिबेमि ॥ इति षष्ठ उद्देशकः ॥ प्राग्वंद्वाच्यं यावत्स एव मुनिखसकाय समारम्भविरतत्वात् परिज्ञातकर्म्मत्वात्प्रत्याख्यातपापकर्म्मत्यादिति ब्रवीमि भगवतः त्रिलोकबन्धोः परमकेवलालो कसाक्षात्कृतसकलभुवनप्रपञ्चस्योपदेशादिति षष्ठोद्देशकः समाप्तः ॥ उक्तः षष्ठोद्देशकः, साम्प्रतं सप्तमः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - अभिनवधर्माणां दुःश्रद्धानत्वादल्पपरिभोगत्वादुत्क्रमायातस्योक्तशेषस्य वायोः स्वरूपनिरूपणार्थमिदमुपक्रम्यते तदनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्योपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि वाच्यानि यावन्नाम निष्पन्ने निक्षेपे वायूदेशक इति, तत्र वायोः स्वरूपनिरूपणाय कतिचिद्वारातिदेशगर्भा निर्युक्तिकृद्वाधामाह arrasa दारा ताइं जाई हवंति पुढवीए । नाणत्ती उ विहाणे परिमाणुवभोगसत्थेय ॥ १६४ ॥ वातीति वायुस्तस्य वायोरपि तान्येव द्वाराणि यानि पृथिव्यां प्रतिपादितानि, नानात्वं भेदः, तच्च विधानपरिमाणोपभोगशस्त्रेषु चशब्दालक्षणे च द्रष्टव्यमिति । तत्र विधानप्रतिपादनायाह १ बावनीयं प्र. प्रथम अध्ययने सप्तमं उद्देशकः 'वायुकाय:' आरब्धः, For Pantry Use Onl ~150 ~# शस्त्र. परि१ उद्देशकः ७ ॥ ७३ ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [ ५४ ] दीप अनुक्रम [ ५५ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [५४...], निर्युक्तिः [१६५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः दुविहा उ वाउजीवा सुहुमा तह बायरा उ लोगंमि । सुहुमा य सव्वलोए पंचैव य बाघरविहाणा || १६६५ ॥ वायुरेव जीवा वायुजीवाः, ते च द्विविधाः सूक्ष्मवादरनामकर्मोदयात् सूक्ष्मा बादराश्च तत्र सूक्ष्माः सकललोकव्यापितया अवतिष्ठन्ते, दत्तकपाटस कलवातायनद्वारगेहान्तर्द्धमवत् व्याघ्या स्थिताः, बादरभेदास्तु पञ्चैवानन्तरगाथया वक्ष्यमाणा इति ॥ बादरभेदप्रतिपादनायाह उक्कलिया मंडलिया गुंजा घणवाय सुद्धवाया य । बायरवाजविहाणा पंचविहा चण्णिया एए ॥। १६६ ।। स्थित्वा स्थित्वात्कलिकाभियों वाति स उत्कलिकावातः, मण्डलिकावातस्तु वातोलीरूपः, गुञ्जा-भम्भा तद्वत् गुञ्जन् यो वाति स गुञ्जावातः, घनवातोऽत्यन्तघनः पृथिव्याद्याधारतया व्यवस्थितो हिमपटलकल्पो, मन्दस्तिमितः शीतकालादिषु शुद्धवातः, ये त्वन्ये प्रज्ञापनादौ प्राच्यादिवाता अभिहितास्तेषामेष्वेव यथायोगमन्तर्भावो द्रष्टव्य इति, एवमित्येते बादरवायुविधानानि - भेदाः 'पञ्चविधाः पञ्चप्रकारा व्यावर्णिता इति ॥ लक्षणद्वाराभिधित्सयाऽऽह जह देवस्स सरीरं अंतद्धाणं व अंजणाईसुं । एओवम आएसो बाएऽसंतेऽवि रूवंम ॥ १६७ ॥ यथा देवस्य शरीरं चक्षुषाऽनुपलभ्यमानमपि विद्यते चेतनावच्चाध्यवसीयते, देवाः स्वशक्तिप्रभावात्तथाभूतं रूपं कुर्व्वन्ति यच्चक्षुषा नोपलभ्यते, न चैतद्वक्तुं शक्यते - नास्त्यचेतनं चेति, तद्वद्वायुरपि चक्षुषो विषयो न भवति, अस्ति च चित्तवांश्चेति, यथा वाऽन्तर्द्धानमज्जन विद्यामन्त्रैर्भवति मनुष्याणां न च नास्तित्वमचेतनत्वं चेति, ऐतदुपमानो वायावपि भवति १ एतदुरमानेन प्र. Etication matinal For Pantry Use Only ~151~# Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [ ५४ ] दीप अनुक्रम [ ५५ ] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ७४ ॥ ४ “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [५४...], निर्युक्तिः [१६७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः 'आदेशो' व्यपदेशोऽसत्यपि रूप इति, अत्र चासच्छन्दो नाभाववचनः, किं त्वसद्रूपं वायोरिति चक्षुर्गाह्यं तद्रूपं न भवति, सूक्ष्मपरिणामात् परमाणोरिव, रूपरसस्पर्शात्मकश्च वायुरिष्यते, न यथाऽन्येषां वायुः सर्शवानेवेति, प्रयोगार्थश्च गाथया प्रदर्शितः, प्रयोगश्चायं चेतनावान् वायुः, अपरप्रेरिततिर्यगनियमितगतिमत्त्वात्, गवाश्वादिवत् तिर्यगेव गमननियमाभावात् अनियमित विशेषणोपादानाञ्च परमाणुनाऽनेकान्तिकासंभवः, तस्य नियमितगतिमत्त्वात्, जीवपुद्गलयोः 'अनुश्रेणिगति' ( तत्स्वा० अ० २ सू० २७) रिति वचनात् एवमेष वायुः घनशुद्धवातादिभेदोऽशखोपहतश्चेतनावानवगन्तव्य इति ॥ परिमाणद्वारमाह जे वायरपज्जन्ता पयरस्स असंखभागमित्ता ते । सेसा तिनिवि रासी बीसुं लोगा असंखिजा ॥ १६८ ॥ ( दारं) ये बादरपर्याप्तका वायवस्ते संवर्त्तितलोकप्रतरासङ्घयेयभागवर्त्तिप्रदेशराशिपरिमाणाः, शेषास्त्रयोऽपि राशयो विष्वक्| पृथगसङ्घयेयलोकाकाशप्रदेशपरिमाणा भवन्ति, विशेषश्चायमत्रावगन्तव्यः - बादराएकायपर्याप्तकेभ्यो वादरवायुपर्याप्तका असङ्ख्येयगुणाः बाद पकायापर्याप्तकेभ्यो बादरवायुकायापर्याप्तका असङ्ख्येयगुणाः सूक्ष्मापकाया पर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्मवाय्वपर्यातका विशेषाधिकाः सूक्ष्मापकायपर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्मवायुपर्यातका विशेषाधिकाः ॥ उपभोगद्वारमाहवियणघमणाभिधारण उस्सिचणफुसणआणुपाणू अ । बाथरवाउकार उपभोगगुणा मणुस्साणं ॥ १६९ ॥ व्यजनभस्त्राध्माताभिधारणोत्सिञ्चन फूत्कारप्राणापानादिभिर्वादरवायुकायेन उपभोग एव गुण उपभोगगुणो मनुष्याणामिति ॥ शस्त्रद्वाराभिधित्सयाऽऽह, तत्र शस्त्रं द्रव्यभावभेदाद्विविधं द्रव्यशस्त्राभिधित्सयाऽऽह Jan Estication Intemational For Pantry at Use Only ~152~# शस्त्र. परि१ उद्देशकः ७ ॥ ७४ ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [१४...], नियुक्ति: [१७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत ५४॥ दीप विअणे अ तालवंटे सुप्पसियपत्त चेलकण्णे य । अभिधारणा य बाहिं गंधग्गी वाउसस्थाई ॥१७० ॥ व्यजन-तालवृन्तं सूर्पसितपत्रचेलकर्णादयः द्रव्यशस्त्रमिति, तत्र सितमिति चामरं, प्रविन्नो यद्वहिरवतिष्ठते वातागमनमागें साऽभिधारणा, तथा गन्धाः-चन्दनोशीरादीनां अग्निाला प्रतापश्च, तथा प्रतिपक्षवातश्च शीतोष्णादिका, प्रतिपक्षवायुग्रहणेन स्वकायादिशखं सूचितमिति, एवं भावशस्त्रमपि दुष्पणिहितमनोवाकायलक्षणमवगन्तव्यमिति ॥ अधुना सकलनियुक्त्यर्थोपसञ्जिहीपुराह सेसाई दारारं ताई जाई हवंति पुढवीए । एवं वाउद्देसे निजुत्ती कित्तिया एसा ॥ १७१॥ 'शेषाणि' उत्तव्यतिरिक्तानि तान्येव द्वाराणि पृथिवीसमधिगमे यान्यभिहितानीति, एवं सकलद्वारकलापव्यावर्णेनाद् । वायुकायोद्देशके नियुक्तिः कीर्तितैषाऽवगन्तव्येति ॥ गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं |सूत्रमुच्चारणीयं, तचेदम्-'पहू एजस्स दुगुंछणाए'त्ति, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोदेशके पर्यन्तसूत्रे त्रसकायपरिज्ञानं तदारम्भवर्जनं च मुनित्वकारणमभिहितम् , इहापि तदेव द्वयं वायुकायविषयं मुनित्वकारणमेवोच्यते, तथा परम्परसूत्रसम्बन्धः 'इहमेगेसिं णो णायं भवई'त्ति, किं तत् ज्ञातं भवति ?, 'पहु एजस्स दुगुंछणाए'त्ति, तथा आदिसूत्रसम्बधश्च 'सुयं मे आउसंतेण' मित्यादि, किं तत् श्रुतं ?, यत्पागुपदिष्टं, तथैतच पहू एजस्स दुगुंछणाए (सू० ५५) 'दुगुम्छण'त्ति जुगुप्सा प्रभवतीति प्रभुः-समर्थः योग्यो वा, कस्य वस्तुनः समर्थ इति ?, 'एजु कम्पने एजतीत्येजो अनुक्रम [५] www.ianditimaryam ~153~# Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [44] दीप अनुक्रम [ ५६ ] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) 1104 11 “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [७], मूलं [ ५४ ], निर्युक्ति: [१७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः वायुः कम्पनशीलत्वात् तस्यैजस्य जुगुप्सा-निन्दा तदासेवनपरिहारो निवृत्तिरितियावत् तस्या- तद्विषये प्रभुर्भवति, वायुकायसमारम्भनिवृत्तौ शक्तो भवतीतियावत्, पाठान्तरं वा 'पहू य एगस्स दुर्गुछणाए' उद्रेकांवस्थावर्त्तिनैकेन गुणेन स्पर्शाख्येनोपलक्षित इत्येको - वायुस्तस्यैकस्य एकगुणोपलक्षितस्य वायोर्जुगुप्सायां प्रभुः चशब्दात् श्रद्धाने च प्रभुर्भवतीति, अर्थात् यदि श्रद्धाय जीवतया जुगुप्सते ततः ॥ योऽसौ वायुकायसमारम्भनिवृत्तौ प्रभुरुक्तस्तं दर्शयतिआयंकसी अहिंयंति णच्चा, जे अज्झत्थं जाणइ से बहिया जाणइ, जे बहिया जाइसे अज्झत्थं जाणइ, एयं तुलमन्नेसिं ( सू० ५६ ) 'तकि कृच्छ्रजीवन' इत्याङ्कनमातङ्कः- कृच्छ्रजीवनं दुःखं, तच्च द्विविधं शारीरं मानसं च तत्राद्यं कण्टकक्षारशखगण्डलूतादिसमुत्थं, मानसं प्रियविप्रयोगाप्रियसम्प्रयोगेप्सितालाभदारिद्र्य दौर्मनस्यादिकृतम्, एतदुभयमातङ्कः, एनमातङ्कं पश्यति तच्छीलश्चेत्यातङ्कदर्शी, अवश्यमेतदुभयमपि दुःखमापतति मय्यनिवृत्तवायुकायसमारम्भे ततश्चैतद्वायुकायसमारम्भणमातङ्कहेतुभूतमहितमिति ज्ञात्वैतस्मान्निवर्त्तने प्रभुर्भवतीति । यदिवाऽऽतङ्को द्वेधा- द्रव्यभावभेदात्, तत्र द्रव्यात इदमुदाहरणम्-जर्बुदीवे दीवे भरहे वासंमि अस्थि सुपसिद्धं । बहुणयरगुणसमिद्धं रायगिहं णाम णयरंति ॥ १ ॥ तत्थासि गरुयदरियारिमद्दणो भुयणनिग्गयपयावो । अभिगयजीवाजीवो राया णामेण जियसत्तू ॥ २ ॥ अण१० मापतितमध्यनिवृत प्र. अन्नामीति सम्बोधनेऽन्यस्याश्रयै वा. २ जम्बूद्वीपे द्वीपे भरते वर्षेऽस्ति सुप्रसिद्धम् बहुनगरगुणसमृद्धं राजगृहं नाम नगरमिति ॥ १ ॥ तत्रासीत् गुरुदतारिमर्दनो भुवननितप्रतापः । अभिगतजीवाजीचो राजा नाना जितशत्रुः ॥ २ ॥ Jan Estication Internal For Paint Use Only ~ 154 ~# शस्त्र. परि१ उद्देशकः ७ ॥ ७५ ॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [4ε] दीप अनुक्रम [ ५७ ] “आचार" अंगसूत्र- १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [[.], अध्ययन [१] उद्देशक [७]. मूलं [ ५६ ] निर्युक्ति: [ १७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...... आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र- [ ०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः वरयगरुयसंवेगभाविओ धम्मघोसपामूले । सो अन्नया कयाई पमाइणं पासए सेहं ॥ ३ ॥ चोइज्जतमभिक्खं अवराहं तं पुणोऽवि कुणमाणं । तस्स हिय राया सेसाण य रक्खणडाए || ४ || आयरिणाणुण्णाएं आणावइ सो ज णिययपुरिसेहिं । तिब्बुकडदव्येहिं संधियपुच्वं तहिं खारं ॥ ५ ॥ पक्खित्तो जत्थ णरो णवरं गोदोहमेत्तकालेणं । णिज्जिण्णमंससोणिय अट्टियसेसत्तणमुवे || ६ || दो ताहे पुब्वमए पुरिसे आणावए तहिं राया । एवं गिहत्थवेसं बीयं पासंडिणेवत्थं ॥ ७ ॥ पुब्वं चिय सिक्खविए ते पुरिसे पुच्छए तहिं राया। को अवराहो एसिं? भांति आणं अइकमइ ॥ ८ ॥ पासंडिओ जहुत्ते पण वट्टइ अत्तणो य आयारे । पक्खिवह खारमज्झे खित्ता गोदोहमेत्तस्स ॥ ९ ॥ दद्दूणऽद्विवसेसे ते पुरिसे अलियरोसरतच्छो । सेहं आलोयंतो राया तो भणइ आयरियं ॥ १० ॥ तुम्हवि कोऽवि पमादी ? सासेमि य तंपि णत्थि भणइ गुरू । जइ होही तो साहे तुम्हे च्चिय तस्स जाणिहि || ११|| सेहो गए णिवंमी भाई ते साहुणो उ ण पुणत्ति । होहं पमायसीलो तुम्हें सरणागओ धणियं ॥ १२ ॥ जइ पुण होज पमाओ पुणो ममं सहभावरहियस्स । तुम्ह गुणेहिं १ अनवरत गुरुसंवेगभावितो धर्मघोषपादमूले। सोऽन्यदा कदाचित्प्रमादिनं पयति शिष्यम् ॥ ३ ॥ योद्यमानमभीक्ष्णमपराधं तं पुनरपि कुर्वन्तम्। तस्य हितार्थ राजा शेषाणां च रक्षणार्थाय ॥ ४ ॥ आचार्यानुइया आनयति स तु निजपुरुषैः । तत्रोत्कटद्रव्ये संयुक्तपूर्ण तत्र क्षारम् ॥ ५ ॥ प्रक्षिप्तो यंत्र नरो नवरं गोदोइमात्रकालेन निजीर्ण मांसशोणितोऽस्थिशेषत्वमुपैति ॥ ६ ॥ द्वौ तदा पूर्वमृती पुरुषादानयति तत्र राजा । एकं गृहस्थकेयं द्वितीयं पापण्डिनेपथ्यम् ॥ ७ ॥ पूर्वमेव शिक्षितान् तान् पुरुषान् पृच्छति तत्र राजा कोऽपराधोऽनयोः ! भणन्ति आज्ञामतिक्रामति ॥ ८ ॥ पाखण्डिको यथोके न वर्तते आत्मनश्राचारे प्रक्षिपत क्षारमध्ये क्षिप्त गोदोमात्रेण ॥ ९ ॥ वाऽभ्यवशेषौ तौ पुरुषो अलिक परकाक्षः । शैक्षकमा ठोकयन् राजा ततो भत्याचार्यम् ॥ १० ॥ युष्माकमपि कोऽपि प्रमादी है, शायामिचमपि नास्ति भणति गुरुः । यदि भविष्यति तदा कथविष्यामि यूयमेव तं ज्ञास्यथ ॥ ११ ॥ शैक्षको गते नृपे भणति तान् साधूंस्तु न पुनरिति । भविष्यामि प्रमादशीलो युष्माकं शरणागतोऽत्यर्थम् ॥ १२ ॥ यदि पुनर्भवेत्प्रमादः पुनर्मम शट ( श्राद्ध) भावरहितस्य । युष्माकं गुणैः Jan Estication matinal For Parana Prata Use Only ~155~# www.india.org Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [१६], नियुक्ति: [१७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: शस्त्र-परिर प्रत उद्देशक ५६] दीप श्रीआचा-3 सुंबिहिय! तो सावगरक्खसा मुच्चे ॥१३॥ आर्यकभओविग्गो ताहे सो णिचउजुओ जाओ। कोबियमती य समए रण्णा रावृत्तिः मरिसाविओ पच्छा ॥ १४ ॥ दब्वायंकादंसी अत्ताणं सब्बहा णियत्तेइ । अहियारंभाउ सया जह सीसो धम्मघोसस्स | (शी०) ॥१५॥ भावातङ्कादर्शी तु नरकतिर्य डानुष्यामरभवेषु प्रियविप्रयोगादिशारीरमानसातङ्कभीत्या न प्रवर्तते वायुसमा-| रम्भे, अपि त्वहितमेतद्वायुसमारम्भणमिति मत्वा परिहरति, अतो य आतङ्कदी भवति विमलविवेकभावात् स वायुस॥ ७६।। मारम्भस्य जुगुप्सायां प्रभुः, हिताहितप्राप्तिपरिहारानुष्ठानप्रवृत्तेः, तदन्यैवंविधपुरुषवदिति । वायुकायसमारम्भनिवृत्तेः | कारणमाह-जे अज्झत्थ'मित्यादि, आत्मानमधिकृत्य यद्वर्त्तते तदध्यात्म, तच्च सुखदुःखावि, तद्यो जानाति-अवबुध्यते स्वरूपतोऽवगच्छतीत्यर्थः, स बहिरपि प्राणिगणं वायुकायादिकं जानाति, यथैपोऽपि हि सुखाभिलापी दुःखाचो-| द्विजते, यथा मयि दुःखमापतितमतिकटुकमसद्यिकमोंदयादशुभफलं स्वानुभवसिद्धं एवं यो वेत्ति स्वात्मनि सुखं च सद्वेचकर्मोदयात् शुभफलमेवं च योऽवगच्छति स खल्वध्यात्म जानाति, एवं च योऽध्यारमवेदी स बहिव्यवस्थितवायु कायादिप्राणिगणस्यापि नानाविधोपक्रमजनितं स्वपरसमुत्थं च शरीरमनःसमाश्रयं दुःखं सुखं वा वेत्ति, स्वप्रत्यक्षतया है परत्राप्यनुमीयते, यस्य पुनः स्वात्मन्येव विज्ञानमेवंविधं न समस्ति कुतस्तस्य बहिर्व्यवस्थितवायुकायादिष्वपेक्षा, यश्च बहिर्जानाति सोऽध्यात्म यथावदवैति, इतैरतराव्यभिचारादिति । परात्मपरिज्ञानाच्च यद्विधेयं तदर्शयितुमाह-एयं सुविहिताः ततः श्रावकराक्षसात् मुबेयम् ॥ १३ ॥ आतभयोद्विमतदा स निखमुधुको जातः । कोविदमतिष समये राज्ञा क्षमितः पवात् ॥ १४ ॥दव्या ४ तादी आत्मानं सर्वथा निवर्तयति । अहितारम्भान् सदा यथा शिष्यो धर्मघोषस्य ॥ १५॥ अनुक्रम [१७] X ॥ ६ ॥ ~156~# Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [१६], नियुक्ति: [१७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक [५६]] दीप तुलमन्नेसि'मित्यादि, एतां तुलां यथोक्तलक्षणाम् अन्वेषयेद्-गवेषयेदिति, का पुनरसी तुला ?, यथाऽऽत्मानं सर्वथा सु-13 खाभिलाषितया रक्षसि तथाऽपरमपि रक्ष, यथा परं तथाऽऽत्मानमित्येता तुला तुलितस्वपरसुखदुःखानुभवोऽन्वेषयेद्एवं कुर्यादित्यर्थः, उक्तं च-"कडेणे कंटएण व पाए विद्धस्स वेयणट्टस्स । जह होइ अनिवाणी सव्वत्थ जिएसुतं जाण ॥१॥" तथा "मरिष्यामीति यद् दुःखं, पुरुषस्योपजायते । शक्यस्तेनानुमानेन, परोऽपि परिरक्षितुम् ॥१॥ |अतश्च यथाऽभिहिततुलातुलितस्वपरा नैराः स्थावरजङ्गमजन्तुसङ्घातरक्षणायैव प्रवर्तन्ते, कथमिति दर्शयति इह संतिगया दविया णावकंखंति जीविङ (सू० ५७) 'इह' एतस्मिन् दयैकरसे जिनप्रवचने शमनं शान्तिः-उपशमः प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणसम्यग्दर्शनज्ञानचरणकलापः शान्तिरुच्यते, निराबाधमोक्षाख्यशान्तिप्राप्तिकारणत्वात् , तामेवंविधा शान्ति गताः-प्राप्ताः शान्तिगताः, शान्तौ वा स्थिताः शान्तिगताः, द्रविका नाम रागद्वेषविनिर्मुक्ताः, द्रवः-संयमः सप्तदशविधानः कर्मका-13 ठिन्यद्रवणकारित्वाद्-विलयहेतुत्वात् स येषां विद्यते ते द्रविकाः, नावकान्ति-न वाञ्छन्ति नाभिलपन्तीत्यर्थः, किं नावकाङ्क्षन्ति ?-'जीवितुं' प्राणान् धारयितुं, केनोपायेन जीवितुं नाभिकाङ्गन्ति ?, वायुजीवोपमर्दनेनेत्यर्थः, शेषपृधिव्यादिजीवकायसंरक्षणं तु पूर्वोक्तमेव, समुदायार्थस्त्वयम्-इहैव जैने प्रवचने यः संयमस्तद्व्यवस्थिता एवोन्मूलितातितुङ्गरा-1 १ काष्ठेन कण्टकेन वा पादे विद्धय पैदनातस्य । यथा भवत्य निर्वाणी (असाता) सर्वत्र जीवेषु ता जानीहि ॥१॥ २ सपरान्तराः. प्र. अनुक्रम [१७] wwwandltimaryam ~157~# Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [१७], नियुक्ति: [१७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: शस्त्र.परि१ उद्देशका ।। ७७॥ श्रीआचा- गद्वेषद्रुमाः परभूतोपमर्दनिष्पन्नसुखजीविकानिरभिलाषाः साधवो, नान्यत्र, एवंविधक्रियावयोधाभावादिति ॥ एवं व्यव- रावृत्तिःला स्थिते सति(शी०) लज्जमाणे पुढो पास अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वाउकम्मसमारंभेणं वाउसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति । तत्थ खलु भगवया परिपणा पवेइया । इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाईमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेउं से सयमेव वाउसत्थं समारभति अण्णेहिं वा वाउसत्थं समारंभावेइ अण्णे वाउसत्थं समारंभंते समणुजाणति, तं से अहियाए तं से अबोहीए, से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुद्राए सोच्चा भगवओ अणगाराणं अंतिए इहमेगेसिं णायं भवति-एस खल्लु गंथे एस खलु मोहे एस खलु मारे एस खलु णिरए, इच्चत्थं गड्डिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं बाउकम्मसमारंभेणं वाउसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति (सू०५८) [१८] ॥७७॥ www.anatvarmarg ~158~# Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [१९], नियुक्ति: [१७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रता ༔ से बेमि संति संपाइमा पाणा आहच्च संपयंति य फरिसं च खलु पुट्ठा एगे संघायमावजंति, जे तत्थ संघायमावर्जति ते तत्थ परियावजंति, जे तत्थ परियावजंति ते तत्थ उद्दायंति, एस्थ सत्थं समारभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिणाया भवंति, एत्थ सत्थं असमारभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवंति, तं परिणाय मेहावी व सयं वाउसत्थं समारंभेजा णेवऽपणेहिं वाउसत्थं समारंभावेजा णेवऽपणे वाउसत्थं समारंभंते समणुजाणेजा, जस्सेते वाउसत्थसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिणायकम्मे (सू०५९) तिबेमि पूर्ववन्नेयं । सम्पति षड्डीवनिकायविषयवधकारिणामपायदिदर्शयिषया तन्निवृत्तिकारिणां च सम्पूर्णमुनिभावप्रदर्शनाय सूत्राणि प्रक्रम्यन्ते एत्थंपि जाणे उवादीयमाणा, जे आयारे ण रमंति, आरंभमाणा विणयं वयंति, छंदो वणीया अज्झोववण्णा, आरंभसत्ता पकरंति संगं (सू०६०) एतस्मिन्नपि-प्रस्तुते वायुकाये, अपिशब्दात् पृथिव्यादिषु च समाश्रितमारम्भं ये कुर्वन्ति ते उपादीयन्ते-कर्मणा अनुक्रम [६०] 42% Jain Educatinintamathima ~159~# Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [६०], नियुक्ति: [१७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ཉྙོ གློ [६०] दाप श्रीआचा- बध्यन्त इत्यर्थः, एकस्मिन् जीवनिकाये वधप्रवृत्तः शेषनिकायवधजनितेन कर्मणा बध्यते, किमिति ?-यतो नोकजीवराङ्गवृत्तिः |निकायविषय आरम्भः शेषजीवनिकायोपमर्दमन्तरेण कर्तुं शक्यत इत्यतस्त्वमेवं जानीहि, श्रोतुरनेन परामर्शः, अत्र च (शी०) | द्वितीयार्थे प्रथमा, ततश्चैवमन्वयो लगयितव्यः-पृथिव्याचारम्भिणः शेषकायारम्भकर्मणा उपादीयमानान् जानीहि. के उद्देशका पुनः पृथिव्याद्यारम्भिणः शेषकायारम्भकर्मणोपादीयन्ते? इति, आह-जे आयारे ण रमंति' ये ह्यविदितपरमार्था । ॥ ७८ ॥ ज्ञानदर्शनचरणतपोवीर्याख्ये पञ्चप्रकाराचारे 'न रमन्ते'न धृतिं कुर्वन्ति, तदधृत्या च पृथिव्याद्यारम्भिणः, तान् कर्म-10 भिरुपादीयमानान् जानीहि, के पुनराचारे न रमन्ते ?, शाक्यदिगम्बरपाईस्थादयः । किमिति ?, यत आह-आरंभ-18 माणा विणयं वयंति' आरम्भमाणा अपि पृथिव्यादीन् जीवान् विनयं-संयममेव भापन्ते, कोष्टकविनयनाद्विनयः-सं-I कायमः, शाक्यादयो हि ययमपि विनयव्यवस्थिता इत्येवं भाषन्ते, न च पृथिव्यादिजीवाभ्युपगम कुब्र्वन्ति, तदभ्युपगमे | वा तदाश्रितारम्भित्वात् ज्ञानाद्याचारविकलत्वेन नष्टशीला इति । किं पुनः कारणं?, येनैवं ते दुष्टशीला अपि विनयव्यवस्थितमात्मानं भाषन्ते इत्यत आह-'छन्दोवणीया अज्झोववण्णा' छन्दः-स्वाभिप्रायः इच्छामात्रमनालोचितपूर्वापरं विषयाभिलाषो वा, तेन छन्दसा उपनीताः-प्रापिता आरम्भमार्गमविनीता अपि विनयं भाषन्ते, अधिकमत्यर्थमुपपन्ना तच्चित्तास्तदात्मकाः अध्युपपन्ना:-विषयपरिभोगायत्तजीविता इत्यर्थः, य एवं विषयाशाकर्षितचेतसस्ते किं कुयुरित्याह-'आरंभसत्ता पकरति संगं आरम्भणमारम्भ:-सावद्यानुष्ठानं तस्मिन् सक्ताः-तसराः प्रकर्षण कुन्वन्ति, सज्यन्ते || १ छन्देनोपनीता प्र. अभिप्रायवधी छन्दी' इत्यमरोक्तः 'छन्दो वशेऽभिप्राये य' इति सकारान्तेऽनेकार्थोके यमसाधुः, अनुक्रम [६] ॥ ७ ॥ www.tanditimaryam ~160~# Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [६०] दीप अनुक्रम [६१] * “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [७], मूलं [६०], निर्युक्ति: [१७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः येन संसारे जीवाः स सङ्गः - अष्टविधं कर्म विषयसङ्गो वा तं सङ्गं प्रकुर्व्वन्ति, सङ्गाच्च पुनरपि संसारः, आजवजवीमाबरूपैः, एवंप्रकारमपायमवाप्नोति षड्जीवनिकायघातकारीति ॥ अथ यो निवृत्तस्तदारम्भात्स किंविशिष्टो भवतीत्यत आहसे वसुमं सव्वसमण्णागयपण्णाणेणं अप्पाणेणं अकरणिजं पावं कम्मं णो अण्णेसिं, सं परिण्णाय मेहावी व सयं छज्जीवनिकायसत्थं समारंभेजा णेवऽण्णेहिं छज्जीवनिकायसत्थं समारंभावेजा वऽपणे छज्जीवनिकायसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा, जस्सेते छज्जीवनिकाय सत्थसमारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे ( सू० ६१ ) तिमि ॥ इति सप्तमोदेशकः । इति प्रथममध्ययनम् ॥ 'से' इति पृथिव्युद्देशकाद्यभिहितनिवृत्तिगुणभाक् षड्जीवनिकायहनननिवृसो 'वसुमान्' वसूनि द्रव्यभावभेदाद्विधाद्रव्यवसूनि - मरकतेन्द्रनीलवज्रादीनि भाववसूनि सम्यक्त्वादीनि तानि यस्य यस्मिन्वा सन्ति स वसुमान् द्रव्यवानित्यर्थः, इह च भाववसुभिर्वसुमत्त्वमङ्गीक्रियते, प्रज्ञायन्ते यैस्तानि प्रज्ञानानि - यथावस्थितविषयग्राहीणि ज्ञानानि सर्वाणि समन्यागतानि प्रज्ञानानि यस्यात्मनः स सर्वसमम्वागतप्रज्ञानः- सर्वावबोधविशेषानुगतः सर्वेन्द्रियज्ञानैः पटुभिर्यथावस्थितविषयमाहिभिरविपरीतैरनुगत इतियावत् तेन सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेनात्मना, अथवा सर्वेषु द्रव्यपर्यायेषु सम्यगनुगतं प्रज्ञानं १ इतः प्राक् पुनः पुनस्तत्रैवोत्पत्तिः' इति प्र न च युक्तः २ पुनः पुनस्तत्रैव सङ्गः कर्मोत्पत्तिरूपः. Jan Estication Intemational For Parts Only ~161~# Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [६१], नियुक्ति: [१७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत ཉྙོ ཟླ [६१]] श्रीआचा- यस्यात्मनः स सर्वसमन्वागतप्रज्ञान आत्मा, भगवद्वचनप्रामाण्यादेवमेतत् द्रव्यपर्यायजात नान्यथेति सामान्यविशेषपरि- 1शख.परि१ राजवृत्तिःच्छेदाग्निश्चिताशेषज्ञेयप्रपश्चस्वरूपः सर्वसमन्वागतप्रज्ञान आत्मेत्युच्यते, अथवा-शुभाशुभफलसकलकलापपरिज्ञानान्नर(शी०) कतिर्यक्नरामरमोक्षसुखस्वरूपपरिज्ञानाच्चापरितुष्यन्ननैकान्तिकादिगुणयुक्ते संसारसुखे मोक्षानुष्ठानमाविष्कुर्वन् सर्व समन्वागतप्रज्ञान आत्माऽभिधीयते, तेनैवंविधेनात्मना ' अकरणीयम्' अकर्तव्यमिहपरलोकविरुद्धत्वादकार्यमिति मत्वा 81 ॥७९॥ नान्वेषयेत्-न तदुपादानाय यनं कुर्यादित्यर्थः, किं पुनः तदकरणीयं नान्वेषणीयमिति !, उच्यते, 'पापं कर्म' अधःपतनकारित्वात्पापं क्रियत इति कर्म, तच्चाष्टादशविध प्राणातिपातमृपावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहक्रोधमानमायालोभप्रेमद्वे पकलहाभ्याख्यानपैशून्यपरपरिवादरत्यरतिमायामृषामिथ्यादर्शनशल्याख्यमिति, एवमेतत् पापमष्टादशभेदं नान्वेषयेत्-न| दाकुर्यात् स्वयं न चान्यं कारयेत् न कुर्वाणमन्यमनुमोदेत । एतदेवाह-तं परिण्णाय मेहाची'त्यादि 'तत्' पापम-18 ष्टादशप्रकार परिः-समन्तात् ज्ञात्वा मेधावी-मर्यादावान् नैव स्वयं षड्जीवनिकायशस्त्रं स्वकायपरकायादिभेदं समा-| जरभेत नैवान्यैः समारम्भयेत् न चान्यान् समारभमाणान् समनुजानीयात्, एवं यस्यैते सुपरीश्यकारिणः पड़जीव-13 त निकायशस्त्रसमारम्भाः तद्विषयाः पापकर्मविशेषाः परिज्ञाता ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया च, स एव मुनिः प्रत्या-16 ख्यातकर्मत्वात्-प्रत्याख्याताशेषपापागमत्वात् , तदन्यैवंविधपुरुषवदिति । इतिशब्दोऽध्ययनपरिसमाप्तिप्रदर्शनाय, अवीमीति सुधर्मस्वाम्याह स्वमनीषिकाव्यावृत्तये, भगवतोऽपनीतघनघातिकर्मचतुष्टयस्य समासादिताशेषपदार्थाविर्भावकदिव्यज्ञानस्य प्रणताशेषगीर्वाणाधिपतेश्चतुस्त्रिंशदतिशयसमन्वितस्य श्रीवर्धमानस्वामिन उपदेशात्सर्वमेतदाख्यातं । अनुक्रम [६२ walpatnamang ~162~# Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [६१], नियुक्ति: [१७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक [६१]] यदतिकान्त मयेति । उक्तः सूत्रानुगमः निक्षेपश्च ससूत्रस्पर्शनियुक्तिः । सम्प्रति नया नैगमादयः, ते चान्यत्र सुविचारिताः, सङ्केपतस्तु सर्वेऽपि एते द्वेधा भवन्ति, ज्ञाननयाश्चरणनयाश्च, तत्र ज्ञाननया ज्ञानमेव प्रधान मोक्षसाधनमित्यध्यवस्यन्ति, हिताहितप्राप्तिपरिहारकारित्वात् ज्ञानस्य, तत्पूर्वकसकलदुःखप्रहाणाञ्च ज्ञानमेव न तु क्रिया, चरणनयास्तु चरणस्य प्राधान्यमभिदधति, अन्वयव्यतिरेकसमधिगम्यत्वात्सकलपदार्थानां, तथाहि-सत्यपि ज्ञाने सकलवस्तुग्राहिणि समुल्लसिते न चरणमन्तरेण भवधारणीयकर्मोच्छेदः, तदनुच्छेदाच मोक्षालाभः, तस्मान्न ज्ञानं प्रधान, चरणे पुनः सति सर्वमूलोत्तरगुणाख्ये घातिकर्मोच्छेदः, तदुच्छेदात् केवलावबोधप्राप्तिः, ततश्च यथाख्यातचारित्रवहिज्वालाकलापप्रतापितसकलकर्मकन्दोच्छेदः, तदुच्छेदाव्याबाधसुखलक्षणमोक्षावाप्तिरिति, तस्माचरणं प्रधानमित्यध्यवस्थामः । अत्रोच्यते, उभयमप्येतन्मिथ्यादर्शनं, यत उक्तम्-"हयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नाणओ किया । पासंतो पंगुलो दहो, ४ दाधावमाणो य अंधओ ॥१॥" तदेवं सर्वेऽपि नयाः परस्परनिरपेक्षा मिथ्यात्वरूपतया न सम्यग्भावमनुभवन्ति, समु|दितास्तु यथावस्थितार्थप्रतिपादनेन सम्यक्त्वं भवन्ति, यत उक्तम्-"ऐवं सब्वेवि णया मिच्छादिही सपक्वपडि बद्धा । अण्णोण्णणिस्सिया पुण हवंति ते चेव सम्मत्तं ॥१॥" तस्मादुभयं परस्परसापेक्षं मोक्षप्राप्तये अलं, न प्रत्येकं ज्ञानं दाचरणं चेति, निर्दोषः खल्वेष पक्ष इति व्यवस्थितं । तथा चोभयप्राधान्यदिदर्शयिषयाह-सव्वेसिपि णयाणं बहुविधवत्त १हत ज्ञानं क्रियाहीनं हताशानतः किया । पश्यन् पर्दग्धो भाषश्चान्धः ॥ १॥ २ एवं सर्वेऽपि नयाः सिध्यारष्टयः सपक्षप्रतिबद्धाः । अन्योऽन्यनिश्रिताः पुनर्भवन्ति त एव सम्यक्त्वम् ॥१॥ SUASANATATAKUTSARAKS6 अनुक्रम [६२ wwwanditimaryam ~163~# Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [६१] दीप अनुक्रम [६२] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [७], मूलं [६१], निर्युक्ति: [१७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ॥ ८० ॥ श्रीआचा * स्वयं णिसामेसा । तं सब्वणयविमुद्धं जं चरणगुणडिओ साहू ॥ १ ॥ चरणं च गुणश्च चरणगुणौ तयोः स्थितश्चराङ्गवृत्तिः रणगुणस्थितः, गुणशब्दोपादानात् ज्ञानमेव परिगृह्यते, यतो न कदाचिदात्मनो गुणिनस्तेन ज्ञानाख्येन गुणेन वियो(शी०) ू गोऽस्ति ततोऽसौ सहभावी गुणः, अतो बहुविधवक्तव्यं नयमार्गमवधार्यापि सङ्क्षेपात् ज्ञानचरणयोरेव स्थातव्यमिति * निश्चयो विदुषां न चाभिलषितप्राप्तिः केवलेन चरणेन, ज्ञानहीनत्वात्, अन्धगमिक्रियाप्रतिविशिष्टप्रदेशप्राप्तिवत् न च ज्ञानमात्रेणाभीष्टप्राप्तिः, क्रियाहीनत्वात् चक्षुर्ज्ञानसमन्वितपङ्गपुरुष अर्धदग्धनगरमध्यावस्थितयथावस्थितदर्शिज्ञानवत्, तस्मादुभयं प्रधानं, नगरदाह निर्गमे पनबन्धसंयोगक्रियाज्ञानवत् ॥ एवमिदमाचाराङ्गसन्दोहभूतं प्रथमाध्ययनं षङ्गीवनिकायस्वरूपरक्षणोपाय गर्भमादिमध्यावसानेषु दयैकरसमेकान्तहितापत्तिकारि मुमुक्षुणा यदाऽधीतं भवति सूत्रतः शिक्षकेणार्थतश्चावघृतं भवति श्रद्धामसंवेगाभ्यां च यथावदात्मीकृतं भवति ततोऽस्य महाव्रतारोपणमुपस्थापनं परीक्ष्य निशीथाद्यभिहितक्रमेण सचित्तपृथिवीमध्यगमनादिना श्रदधानस्य सर्वे यथाविधि कार्यम् । कः पुनरुपस्थापने विधिरिति ?, अत्रोच्यते, शोभनेषु तिथिकरणनक्षत्रमुहूर्त्तेषु द्रव्यक्षेत्रभावेषु च भगवतां प्रतिकृतीरभिवन्द्य प्रवर्द्धमानाभिः स्तुतिभिः अथ पादपतितोत्थितः सूरिः सह शिक्षकेण महात्रतारोपणप्रत्ययं कायोत्सर्गमुत्सायैकैकं महात्रतमादित आरभ्य त्रिरुच्चारयेद् यावनिशिभुक्तिविरतिरविकला त्रिरुच्चारिता, पश्चादिदं त्रिरुच्चरितव्यम् - 'ईच्चेइयाई पंच मह याई राइभौयणवेरमणछडाई अचहियहयाए उपसंपजित्ता णं विहरामि पश्चाद्वन्दनकं दत्वोत्थितोऽभिधत्ते अवनताङ्ग ॥ ८० ॥ १ इत्येतानि पक्ष महानतानि रात्रिभोजनविरमणपष्ठानि आत्महितार्थायोपसंपय विरहानि. Jan Estication Intl For Pantry ~164~# शस्त्र. परि १ उद्देशकः ७ www.indiary.org Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [६१] दीप अनुक्रम [६२] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [७], मूलं [६१], निर्युक्ति: [१७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः यष्टिः - 'संदिशत किं भणामी 'ति ?, सूरिः प्रत्याह- ' वन्दित्वाऽभिधत्स्वे' त्येवमुक्तोऽभिवन्द्येोत्थितो भणति - 'युष्माभिर्मम महाव्रतान्यारोपितानि इच्छाम्यनुशिष्टि' मिति, आचार्योऽपि प्रणिगदति - 'निस्तारकपारगो भवाचार्यगुणैर्वर्द्धस्व' वचनविरतिसमनन्तरं च सुरभिवासचूर्णमुष्टिं शिष्यस्य शिरसि किरति, पश्चाद्वन्दनकं दत्त्वा प्रदक्षिणीकरोत्याचार्य नमस्कारमावर्त्तयन् पुनरपि वन्दते, तथैव च करोति सकलक्रियानुष्ठानम्, एवं त्रिप्रदक्षिणीकृत्य विरमति शिष्यः, शेषाः साधवश्चास्य मूर्ध्नि युगपद्वासमुष्टिं विमुञ्चन्ति सुरभिपरिमलां बतिजनसुलभकेसराणि वा, पश्चात्कारितकायोत्सर्गः सूरिरभिदधाति - गणस्तव कोटिकः स्थानीयं कुलं वैराख्या शाखा अमुकाभिधान आचार्य उपाध्यायश्च साध्व्याः प्रवसिंनी तृतीयोद्देष्टव्या यथाऽऽसन्नं चोपस्थाप्यमाना रत्नाधिका भवन्ति, पश्चादाचाम्लं निर्विकृतिकं वा स्वगच्छसन्ततिसमायातमाचरन्तीति । एवमेतदध्ययनमादिमध्यान्तकल्याणकलापयोगि भव्यजनतामनःसमाधानाधायि प्रियविप्रयोगादिदुःखावर्त्तबहुलकषायझपादिकुलाकुलविषमसंसृतिसरित्सारणसमर्थममलदयैकरसमसकृदभ्यसितव्यं मुमुक्षुणेति ॥ आचार्यश्रीशीलाङ्कविरचिता शस्त्रपरिज्ञाध्ययनटीका समाप्तेति (ग्रन्थामं श्लोकाः २२२१ ) ॥ Etication national For Parts Only ~165~# Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [६१], नियुक्ति: [१७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: FOREQर PAIKXKAKAMANANENNAINIKMAINMENMENKRAMEAKS इत्याचाराङ्गे शस्त्रपरिज्ञाध्ययनम् ॥१॥ ~166~23 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [६१] दीप अनुक्रम [६२] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], निर्युक्तिः [१७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र- [ ०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः नमः श्रीवर्द्धमानाय, वर्द्धमानाय पर्ययैः । उक्ताचारप्रपश्चाय, निष्प्रपञ्चाय तायिने ॥ १ ॥ शस्त्रपरिज्ञाविवरणमतिगहनमितीव किल वृतं पूज्यैः । श्रीगन्धहस्तिमित्रैर्विवृणोमि ततोऽहमवशिष्टम् ॥ २ ॥ उक्तं प्रथमाध्ययनं, साम्प्रतं द्वितीयमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इह हि मिथ्यात्वोपशमक्षय क्षयोपशमान्यतरावातसम्यग्दर्शनज्ञान कार्यस्यात्यन्तिकैकान्तानाबाधपरमानन्दस्वतत्त्वसुखानावरणज्ञानदर्शनलक्षणलक्षितमोक्षकारणस्याश्रवनिरोधनिर्जरारूपस्य मूढोत्तरगुणभेदभिन्नस्य चारित्रस्यापरा शेषश्तवृतिकल्पनिष्पादितनिष्प्रत्यूहसकलप्राणिगणसङ्घट्टनपरितापनापद्रावणनिवृत्तिरूपस्य संसिद्धये मरणाभावप्रसङ्गादभूतगुणात्मधर्मज्ञानोपलब्धेर्बार्हस्पत्यमतनिरासेन सामान्यतो जीवास्तित्वं प्रतिपाद्य विशेषतश्च बौद्धादिमतनिरासेनै केन्द्रियावनिवनानलपवनवनस्पतिभेदांश्च जीवान् प्रकटय्य यथाक्रमं | समानजातीयाश्मलताद्युद्धे ददर्शनादर्शोमांसाङ्कुरवत् अविकृतभूमिखननोपलब्धेर्म्मण्डूकवत् विशिष्टाहारोपचयापचयशरीराभिवृद्धिक्षयान्वयव्यतिरेकगतेरर्भ कशरीरवत् अपरप्रेरिताप्रतिहता नियततिरश्चीनगमनाङ्गवाश्वादिवत् सालककनूपुरालङ्कारकामिनीचरणताडन विकाराधिगतेः कामुकवदित्यादिभिः प्रयोगेः तथोच्चैः शिर उद्घाट्य सूक्ष्मवादरद्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियसंज्ञीतरपर्याप्त क अपर्याप्तकभेदांश्च प्रदर्श्य शस्त्रं च स्वकायपरकायभेदभिन्नं तद्वधे वन्धं विरतिं च प्रतिपाद्य पुनरपि तदेव चारित्रं यथा सम्पूर्णभावमनुभवति तथाऽनेनाध्ययनेनोपदिश्यते, तथाहि - अधिगतशस्त्रपरिज्ञा सूत्रार्थस्य तत्प्रतिपादितैकेन्द्रियपृथिवीकायादि श्रद्दधानस्य सम्यक् तद्रक्षापरिणामवतः सर्वोपाधिशुद्धस्य तद्योग्यतयाऽऽरोपितपञ्चमहाव्रतभारस्य साधोर्यथा रागादिकषायलोकस्य शब्दादिविषयलोकस्य वा विजयो भवति तथाऽनेनाध्ययनेन प्रतिपाद्यते । Jain Estication Intl For Parts Only मुद्रणदोषात् अत्र नियुक्ति-क्रम पुनः लिखितम्, तत् कारणत्वात् मया 'R' संज्ञा दत्वा निर्युक्तिः १६३ - २' निर्देशित: द्वितीयं अध्ययनं "लोकविजय'' आरब्ध:, ~167~# www.andlibrary.org Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१६३-R.] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: [६१]] श्रीआचा-5 तथा च नियुक्तिकारेणाध्ययनार्थाधिकारः शस्त्रपरिज्ञायां प्राग्निरदेशि-" लोओ जह बज्झइ जह य तं विजहियवं"ति, लोक.वि.२ रागावृत्तिः इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्थाध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति । तत्र सूत्रार्थकथनमनुयोगः, तस्य द्वाराणि (शी०) उपाया व्याख्यानानीत्यर्थः, तानि चोपक्रमादीनि, तत्रोपक्रमो द्वेधा-शास्त्रानुगतः शास्त्रीयः लोकानुगतो लौकिक इति, निक्षेपविधा-ओघनामसूत्रालापकनिष्पन्नभेदात्, अनुगमो द्वेधा-सूत्रानुगमो नियुक्त्यनुगमश्च, नया-नैगमादयः ।। ॥८२॥ तत्र शास्त्रीयोपक्रमान्तर्गतोऽर्थाधिकारो देधा-अध्ययनार्थाधिकार उद्देशार्थाधिकारश्च, तत्राध्ययनार्थाधिकारोऽध्ययन सम्बन्धे शस्त्रपरिज्ञायां प्रागेव निरदेशि, उद्देशार्थाधिकारं तु स्वयमेव नियुक्तिकारः प्रचिकटयिषुराह॥ सयणे य अढतं बीपगंमि माणो अ अत्थसारो अ। भोगेस लोगनिस्साह लोगे अममिजया चेव ॥१६॥ तत्र प्रथमोद्देशकार्थाधिकारः 'स्वजने' मातापित्रादिके अभिष्वङ्गोऽधिगतसूत्रार्थेन न कार्य इत्यध्याहारः, तथा च सूत्रम्-'माया मे पिया में इत्यादि १, 'अदढत्तं बीयगंमित्ति द्वितीय उद्देशके अहृढत्वं संयमे न कार्यमिति शेषा, | विषयकषायादौ चादृढत्वं कार्यमिति, वक्ष्यति च-'अरई आउट्टे मेहावी' २, तृतीय उद्देशके 'माणो अ अस्थसारो अ'त्ति जात्याधुपेतेन साधुना कर्मवशाद्विचित्रतामवगम्य सर्वमदस्थानानां मानो न कार्यः, आह च-के गोआवादी | के माणावादी'त्यादि, अर्थसारस्य च निस्सारता वर्ण्यते, तथा च-'तिविहेण जाऽवि से तत्थ मत्ता अप्पा वा बहुगा| वे'त्यादि इ, चतुर्थे तु 'भोगेसुसि भोगेष्वभिष्वङ्गो न कार्य इति शेषः, यतो भोगिनामपायान् वक्ष्यति, सूत्र च-थी-13॥ ८२॥ हिं लोए पम्वहिए' ४, पश्चमे तु 'लोगणिस्साए'त्ति त्यतस्वजनधनमानभोगेनापि साधुना संयमदेहप्रतिपालनाय स्वार्थी अनुक्रम [६२] wwwandltimaryam मुद्रण दोषात् अत्र नियुक्ति-क्रम पुन: लिखितम्, तत् कारणत्वात् मया 'R' संज्ञा दत्वा नियुक्ति: १६३-R' निर्देशित: ~168~# Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१६३-R.] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक [६१]] रम्भप्रवृत्तलोकनिश्रया विहर्त्तव्यमिति शेषः, तथा च सूत्रम्-'समुछिए अणगारे इत्यादि जाव परिचए' ५, पष्ठोद्देशके | तु-'लोए अममिजया चेच' लोकनिश्रयाऽपि विहरता साधुना तस्मिन् लोके पूर्वापरसंस्तुतेऽसंस्तुते च न ममत्वं कार्य ट्र पङ्कजवत्तदाधारस्वभावानभिष्वङ्गिणा भाव्यमिति, तथा च सूत्रम्-जे ममाईयमई जहाति से जहाति ममातिय' गाथातापार्थः । नामनिष्पन्ने तु निक्षपे लोकविजय इति द्विपदं नाम, तत्र लोकविजययोनिक्षेपः कार्यः, सूत्रालापकनिष्पन्ने च निक्षेपे यानि निक्षेपार्हाणि सूत्रपदानि तेषां च निक्षेपः कार्यः, सूत्रपदोपन्यस्तमूलशब्दस्य च कपायाभिधायकत्वात् कपायाश्च निक्षेप्तव्याः, तदेव नामनिष्पन्नं भविष्यत्सूत्रालापकनिष्पन्न निक्षेपोपक्षिप्त सामर्थ्यायातं च यन्निक्षेप्तव्यं तनियुक्तिकारो गाथया सपिण्ड्याऽऽचष्टे| लोगस्स य विजयस्स य गुणस्स मूलस्स तह य ठाणस्स । निक्खेवो कायब्बो जमूलागं च संसारो ॥१६४ ॥18 | कण्ठ्या, केवलं 'जंमूलागं च संसार' इति यन्मूलकः संसारस्तस्य च निक्षेपः कार्यः, तच्च मूलं कषायाः, यतः नारकतिर्यनरामरगतिस्कन्धस्य गर्भनिषेककललार्चुदमांसपेश्यादिजन्मजरामरणशाखस्य दारिद्यायनेकव्यसनोपनिपातपत्रगहनस्य प्रियविप्रयोगाप्रियसम्प्रयोगार्थनाशानेकव्याधिशतपुष्पोपचितस्य शारीरमानसोपचिततीव्रतरदुःखोपनिपातफलस्य सं-13 सारतरोमलमू-आय कारणं कपाया:-कपः-संसारस्तस्याऽऽया इतिकृत्वा ॥ तदेवं यान्यत्र नामनिष्पने यानि च सूत्राSIलापकनिष्पन्ने निक्षेप्तव्यपदानि सम्भवन्ति तानि नियुक्तिकारः सुहृद्भूत्वा विवेकेनाऽऽचष्टे लोगोति य विजअत्ति य अज्झयणे लक्खणं तु निष्फणं । गुणमूलं ठाणंति य मुत्तालावे य निप्फण्णं ॥१६॥ अनुक्रम [६२ wwwandltimaryam ~169~# Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१६५-R.] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचा प्रत लोक.वि.२ उद्देशकः१ [६१]] कण्ठया, तत्र 'यथोद्देशस्तथा निर्देश'इति न्यायाल्लोकविजययोनिक्षेपमाहराङ्गवृत्तिः|लोगस्स य निक्खेवो अढविहो छब्बिहो उ विजयस्स । भावे कसायलोगो अहिगारो तस्स विजएणं ॥१६६ ॥ (शी०) | तत्र लोक्यत इति लोकः, 'लोक दर्शन' इत्यस्माद्धातोः 'अकर्तरि च कारके संज्ञाया (पा. ३-३-१९) मिति घञ्, स च धर्माधर्मास्तिकायव्यवच्छिन्नमशेषद्रव्याधारं वैशाखस्थानस्थकटिन्यस्तकरयुग्मपुरुषोपलक्षितमाकाशखण्डं पञ्चास्तिकायात्मको वेति, तस्य निक्षेपोऽष्टधा-नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभवभावपर्यवभेदात्, 'छबिहो उ विजयस्स'त्ति विजयः अभिभवः पराभवः पराजय इति पर्यायाः, तस्य निक्षेपः षनिधो वक्ष्यते, तत्राष्टप्रकारे लोके येनात्राधिकारस्तमाह-भावे 8 कसायलोगो'त्ति भावलोकेनात्राधिकारः, स च भावः षट्प्रकार औदयिकादिः, तत्राप्यौदयिकभावकषायलोकेनाधिकारः, तन्मूलत्वात् संसारस्थ, यद्येवं ततः किमत आह-'अहिगारो तस्स विजएण'ति अधिकारो-व्यापारः, तस्य-औदयिकभावकषायलोकस्य 'विजयेन' पराजयेनेति गाथार्थः ॥ तत्र लोकोऽष्टधा निक्षेपार्थ प्रागुपादेशि विजयश्च पोदा, तन्निक्षेपार्थमाहलोगो भणिओ दवं खित्तं कालो अभावविजओ अभिव लोग भावविजओ पगयं जह बजाई लोगो १६७ । तत्र लोकश्चतुर्विंशतिस्तवे विस्तरतोऽभिहितः, ननु च केयं वाचो युक्तिः? 'लोकश्चतुर्विंशतिस्तवेऽभिहित' इति, किमत्रानुपपन्नम् ?, उच्यते, इह ह्यपूर्वकरणप्रक्रमाधिरूढक्षपकनेणिध्यानाग्निदग्धघातिकम्र्मेन्धनेनोत्पन्ननिरावरणज्ञानेन विपच्यमानतीर्थकरनामाविर्भूतचतुर्विंशदतिशयोपेतेन श्रीवर्द्धमानस्वामिना हेयोपादेयार्थाविर्भावनाय सदेवमनुजायां परिषद्याचा अनुक्रम [६२ ॥८३॥ wwwandltimaryam | मुद्रण दोषात् अत्र नियुक्ति-क्रम पुन: लिखितम्, तत् कारणत्वात् मया 'R' संज्ञा दत्वा नियुक्ति: १६५-R' निर्देशित: ~170~# Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१६७-R.] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्राक [६१]] AMERICRORSCOS रार्थों वभाषे, गणधरैश्च महामतिभिरचिन्त्यशक्त्युपेतैगाँतमादिभिः प्रवचनार्थमशेषासुमदुपकाराय स एवाचाराङ्गतया दभे, आवश्यकान्तर्भूतश्चतुर्विंशतिस्तवस्त्वारातीयकालभांविना भद्रबाहुस्वामिनाऽकारि, ततश्चायुक्तः पूर्वकालभाविन्याचाराङ्गे व्याख्यायमाने पश्चात्कालभाविना चतुर्विंशतिस्तवेनातिदेश इति कश्चित् सुकुमारमतिः, अत्राह-नैष दोषो, यतो भद्रबाहुस्वामिनाऽयमतिदेशोऽभ्यधायि, स च पूर्वमावश्यकनियुक्ति विधाय पश्चादाचाराङ्गनियुक्तिं चक्रे, तथा चोकम्-"आस्सयरस दसकालियस्स तह उत्तरज्झमायारे"त्ति सूक्तम् । विजयस्य तु निक्षेपं नामस्थापने क्षुण्णत्वादद नाहत्य द्रव्यादिकमाह-दवमित्यादिना, द्रव्यविजयो व्यतिरिक्तो द्रव्येण द्रव्यात् द्रव्ये वा विजयः कटुतिक्तकषा यादिना श्लेष्मादेनॅपतिमल्लादेर्वा, क्षेत्रविजयः पट्खण्डभरतादेयस्मिन् वा क्षेत्रे विजयः प्ररूप्यते, कालविजय इति कालेन || विजयो यथा पष्टिभिर्वर्षसहस्रैर्भरतेन जितं भरतं, कालस्य प्राधान्यात्, भृतककर्मणि वा मासोऽनेन जित इति, यस्मिन् | दवा काले विजयो व्याख्यायत इति, भावविजय औदयिकादेर्भावस्य भावान्तरेण औपशमिकादिना विजयः। तदेवं लो कविजययोः स्वरूपमुपदय प्रकृतोपयोग्याह-'भवेत्यादि, अत्र हि भवलोकग्रहणेन भावलोक एवाभिहितः, छन्दोभङ्गभीत्या हस्व एवोपादायि, तथा चावाचि-"भावे कसायलोगो अहिगारो तस्स विजएणं ति, तस्य औदयिकभावकपायलोकस्य औपशमिकादिभावलोकेन विजयो यत एतदत्र प्रकृतम्, इदमत्र हृदयम्-अष्टविधलोकपड्डिधविजययोः प्रा १यावश्यकस्य दशकालिकस्य तथोत्तराध्ययनेवाचारे अनुक्रम [६२ wwwlandltimaryam | मुद्रण दोषात् अत्र नियुक्ति-क्रम पुन: लिखितम्, तत् कारणत्वात् मया 'R' संज्ञा दत्वा नियुक्ति: १६७-R' निर्देशित: ~171~# Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१६७-R.] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: [६१]] श्रीआचा- द व्यावर्णितस्वरूपयोर्भावलोकभावविजयाभ्यामत्रोपयोग इति, यथा चाष्टप्रकारेण कर्मणा लोकः-प्राणिगणो बध्यते, लोक.वि.२ रावृत्तिः बन्धस्योपलक्षणत्वाद्यथा च मुच्यत इत्येतदप्यत्राध्ययने प्रकृतमिति गाथार्थः ॥ तेनैव भावलोकविजयेन किं फलमित्याह(शी०) विजिओ कसायलोगो सेयं खुतओ नियत्ति होइ । कामनियत्तमई खलु संसारा मुच्चई खिप्पं ॥१६८॥ उद्देशकः१ II व्याख्या-'विजितः' पराजितः, कोऽसौ ?-कपायलोकः औदयिकभावकषायलोक इतियावत्, विजितकषायलोकः || ॥८४॥ सन् किमवामोतीत्याह-संसाराग्मुच्यते क्षिप्रम् , अतस्तस्मान्निवर्तितुं श्रेयः, खुर्वोक्यालङ्कारे अवधारणे वा, निवर्तितुं श्रेय एव, किं कषायलोकादेव निवृत्तः संसारान्मुच्यते आहोश्विदन्यस्मादपि पापोपादानहेतोरिति दर्शयति-कामे त्यादि गाथार्द्ध सुगमम् । गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपावसरः, स च सूत्रे सति भवति, तत्रास्व|लितादिगुणोपेतं सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारयितव्यं, तच्चेदम्-'जे गुणे से मुलढाणे जे भूलहाणे से गुणे' इत्यादि । | अस्य च निक्षेपनियुक्त्यनुगमेन प्रतिपदं निक्षेपः क्रियते, तत्र गुणस्य पश्चदशधा निक्षेप:दादब्बे खित्ते काले फल पञ्जव गणण करण अन्भासे। गुणगुणे अगुणगुणे भव सीलगुणे य भावगुणे ॥१९॥ नामगुणः स्थापनागुणः द्रव्यगुणः क्षेत्रगुणः कालगुणः फलगुणः पर्यवगुणः गणनागुणः करणगुणः अभ्यासगुणः |गुणागुणः अगुणगुणः भवगुणः शीलगुणः भावगुणवेति गाथासमासार्थः ॥ तदेवं सूत्रानुगमेन सूत्रे समुच्चरिते निक्षेपनियुक्त्यनुगमेन तदवयवे निक्षिप्ते सत्युपोद्घातनियुक्तरवसरः, सा च 'उद्देसे'त्यादिना द्वारगाथाद्वयेनानुगन्तब्या। साम्प्रतं सूत्रस्पर्शिकनियुक्तरवसरः, तत्रापि सुगमनामस्थापनाब्युदासेन द्रव्यादिकमाह अनुक्रम [६२ wwwandltimaryam मुद्रण दोषात् अत्र नियुक्ति-क्रम पुन: लिखितम्, तत् कारणत्वात् मया 'R' संज्ञा दत्वा नियुक्ति: १६७-R' निर्देशित: ~172~# Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१७०-R.] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक [६१]] RECA ब्धगुणो व्वं चिय गुणाण जं तंमि संभवो होइ । सच्चित्ते अचित्ते मीसंमि य होइ दवंमि ॥ १७ ॥ तत्र द्रव्यगुणो नाम द्रव्यमेव, किमिति !, गुणानां यतो गुणिनि तादात्म्येन सम्भवात् (वः), ननु च द्रव्यगुणयोर्लक्षणविधानभेदाझेदः, तथाहि-द्रव्यलक्षण-गुणपर्यायवद् द्रव्यं, विधानमपि-धर्माधर्माकाशजीवपुद्गलादिकमिति, गुणलक्षणं-द्रव्याश्रयिणः सहवर्तिनो निर्गुणा गुणा इति, विधानमपि-ज्ञानेच्छाद्वेषरूपरसगन्धस्पर्शादयः स्वगतभेदभिन्ना इति, नैष दोषो, यतो द्रव्ये सचित्ताचित्तमित्रभेदभिन्ने स गुणस्तादात्म्येन स्थितः, तत्राचित्तद्रव्यं द्विधा-अरूपि रूपि दाच, तत्रारूपिद्रव्यं विधा-धर्माधर्माकाशभेदभिन्नं, तच्च गतिस्थित्यवगाहदानलक्षणं, गुणोऽप्यस्यामूर्त्तत्वागुरुलघुपयो यलक्षणः, तत्रामूर्तत्वं त्रयस्यापि स्वं रूपं न भेदेन व्यवस्थितम् , अगुरुलघुपर्यायोऽपि, तत्पर्यायत्वादेव, मृदो मृत्पिण्ड स्थासकोशकुशूलपर्यायवत्, रूपिद्रव्यमपि स्कन्धतद्देशप्रदेशपरमाणुभेदं, तस्य च रूपादयो गुणाः अभेदेन व्यवस्थिताः, लाभेदेनानुपलब्धेः, संयोगविभागाभावात् , स्वात्मवत् । तथा सचित्तमप्युपयोगलक्षणलक्षितं जीवद्रव्यं, न च तस्माद्भिन्ना ज्ञानादयो गुणाः, तभेदे जीवस्याचेतनत्वप्रसङ्गात् , तत्सम्बन्धादविष्यतीति चेत्, अनुपासितगुरोरिदं वचो, यतो न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्येन पार्यते, न ह्यन्धः प्रदीपशतसम्बन्धेऽपि रूपावलोकनायालमिति । अनयैव दिशा मिश्नद्रव्ये - प्येकत्वसंयोजना स्वबुद्ध्या कार्येति गाथार्थः ॥ तदेवं द्रव्यगुणयोरेकान्तेनैकत्वे प्रतिपादिते सत्याह शिष्यः-तत्किमिदा नीमभेदोऽस्तु, नैतदप्यस्ति, यतः सर्वथाऽभेदेऽभ्युपगम्यमाने सत्येकेनैवेन्द्रियेण गुणान्तरस्याप्युपलब्धेरपरेन्द्रियवैफल्य हास्यात् , तथाहि-चूतफलरूपादौ चक्षुराद्युपलभ्यमाने रूपाद्यात्मभूतावयविद्रव्याव्यतिरिक्तरसादेरप्युपलब्धिः स्थाद्, रू अनुक्रम [६२ C wwwandltimaryam मुद्रण दोषात् अत्र नियुक्ति-क्रम पुन: लिखितम्, तत् कारणत्वात् मया 'R' संज्ञा दत्वा निर्युक्ति: १७०-R' इति निर्देशित: ~173~# Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१७०-R.] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: [६१]] श्रीआचा- पादिस्वरूपवत्, एवं ह्यभेदः स्याद्-यदि रूपादौ समुपलभ्यमानेऽन्येऽपि समुपलभ्येरन्, अन्यथा विरुद्धधर्माध्यासा- लोक.वि.२ रावृत्तिः॥नियेरन् घटपटवदिति । तदेवं भेदाभेदोपपत्तिभिाकुलितमतिः शिष्यः पृच्छति-उभयथाऽपि दोषापत्तिदर्शनात्कथं | (शी०) यहीमः, आचार्य आह-अत एव भेदाभेदोऽस्तु, तत्राभेदपक्षे द्रव्यं गुणो भेदपक्षे तु भावो गुण इति, तथाहि-गुणगु-18| दाउद्देशकः१ णिनोः पर्यायपर्यायिणोः सामान्यविशेषयोरवयवावयविनोभेंदाभेदव्यवस्थानेनैवात्मभावसद्भावात्, आह हि-"दन्वं ॥८५॥ दपज्जवविजुयं दब्बविउत्ता य पज्जवा णस्थि । उप्पायठिइभंगा हंदि दवियलक्खणं एयं ॥ १ ॥ नयास्तव स्यात्सदला छिता इमे, रसोपविद्धा इव लोहधातवः । भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो, भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः॥२॥"इ-18 दत्यादि स्खयूथ्यरत्र बहु विजृम्भितमित्यलं विस्तरेण । एतदेव नियुक्तिकारः समस्तद्रव्यप्रधाने जीवद्रव्ये गुणभेदेन व्यव स्थितमाह____संकुचियवियसियत्तं एसो जीवस्स होइ जीवगुणो। पूरेइ हंदि लोग बहुप्पएसत्तणगुणणं ॥ १७१ ॥ I जीवो हि सयोगिवीर्यसद्व्यतया प्रदेशसंहारविसर्गाभ्यामाधारवशात् प्रदीपवत् सङ्कुचति विकसति च, एष जीवस्यात्मभूतो गुणो, भेदं विनाऽपि षष्ठ चुपलब्धेः, तद्यथा-राहोः शिरः शिलापुत्रकस्य शरीरमिति, तद्भव एव वा सप्तसमुद्घातवशात् सङ्घचति विकसति च, सम्यक्-समन्ततः उत्-प्राबल्येन हननम् -इतश्चेतश्चात्मप्रदेशानां प्रक्षेपणं समुद्घातः, स च कषायवेदनामारणान्तिकवैक्रियतैजसाहारककेवलिसमुद्घातभेदात् सप्तधा, तत्र कषायसमुद्घातोऽनन्ता पदव्यं पर्यायवियुतं व्यनियुताय पर्थवा न सन्ति । उत्पादस्थितिभाना इन्धि द्रव्यलक्षणमेतत् ॥१॥ अनुक्रम [६२] H ॥८५॥ wwwandltimaryam मुद्रण दोषात् अत्र नियुक्ति-क्रम पुन: लिखितम्, तत् कारणत्वात् मया 'R' संज्ञा दत्वा निर्युक्ति: १७०-R' इति निर्देशित: ~174~# Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [६१] दीप अनुक्रम [६२] “आचार” - अंगसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], मूलं [६१...], निर्युक्ति: [१७१-R.] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र -[०१] “ आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः नुबन्धिक्रोधाद्युपहतचेतस आत्मप्रदेशानामितश्चेतश्च प्रक्षेपः इत्येवं तीव्रतरवेदनोपहतस्यापि वेदनासमुद्घातः, मारणान्तिकसमुद्घातो हि मुमूर्षोरसुमत आदित्सितोत्पत्तिप्रदेशे आलोकान्तादात्मप्रदेशानां भूयो भूयः प्रक्षेपसंहाराविति, वैक्रि| यसमुद्घातो वैक्रियलब्धिमतो वैक्रियोत्पादनाय बहिरात्मप्रदेशप्रक्षेपः, तैजससमुद्घातस्तैजसशरीरनिमित्तं तेजोलेश्यालविधमतस्तेजोलेश्या प्रक्षेपावसरे इति, आहारकसमुद्घातश्चतुर्दशपूर्वविद आहारकलब्धिमतः कचित्सन्देहापगमनाय तीर्थङ्करान्तिकगमनार्थमाहार कशरीरं समुपादातुं बहिरात्मप्रदेशप्रक्षेपः, केवलिसमुद्घातं तु समस्तलोकव्यापितयाऽन्तनतान्यसमुद्धातं नियुक्तिकारः स्वत एवाचष्टे – 'पूरयति' व्याप्नोति हन्दीत्युपप्रदर्शने, किम् ? – 'लोकं' चतुर्द्दशरजवात्मकमाकाशखण्डं, कुतो ?, बहुप्रदेशगुणत्वात् तथाहि उत्पन्नदिव्यज्ञान आयुषोऽल्पत्वमवधार्य वेदनीयस्य च प्राचुर्य दण्डादिक्रमेण लोकप्रमाणत्वादात्मप्रदेशानां लोकमापूरयति, तदुक्तम्- "दंडे कवाडे मंथंतरे य'त्ति गाथार्थः ॥ गतो द्रव्यगुणः, क्षेत्रादिकमाह देवकुरु सुसमसुसमा सिद्धी निष्भय दुगादिया चैव । कल भोअणुज्जु बंके जीवमजीवे य भावंमि ॥ १७२ ॥ क्षेत्रगुणः देवकुर्वादिः कालगुणे सुषमसुषमादिः, फलगुणे सिद्धिः पर्यवगुणे निर्भजना, गणनागुणे द्विकादि, करणगुणे कलाकौशल्यम्, अभ्यासगुणे भोजनादि, गुणागुणे ऋजुता, अगुणगुणे वक्रता, भवगुणशीलगुणयोर्भावगुणार्थमुपात्तेन जीवग्रहणेन गतार्थत्वाद्नाथायां पृथगनुपादानं, भवगुणो जीवस्य नारकादिर्भवः, शीलगुणो जीवः क्षान्त्यायु १ दण्डः कपाटये मन्धा अन्तराणि च Jain Estucation Intimanal For Fanart Use Only मुद्रणदोषात् अत्र नियुक्ति-क्रम पुनः लिखितम्, तत् कारणत्वात् मया 'R' संज्ञा दत्वा निर्युक्तिः '१७० -R' निर्देशितः ~175 ~# Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) ཡྻ सूत्रांक [६१] अनुक्रम [६२] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], निर्युक्तिः [१७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः 11 ॥ ८६ ॥ पेतो, भावगुणो जीवाजीवयोः, इति संयोज्यकेको व्याख्यायते तत्र देवकुरूत्तरकुरु हरिवर्षरम्यक हैमवत हैरण्यवतषट्पञ्चा शदन्तरद्वीपकाकर्म्मभूमीनामयं गुणो, यदुत तत्रत्यमनुजा देवकुमारोपमाः सदावस्थितयौवना निरुपक्रमायुषो मनोज्ञशब्दादिविषयोपभोगिनः स्वभावमाद्देवार्जवप्रकृतिभद्रकगुणासन्नदेवलोकगतयश्च भवन्ति । कालगुणोऽपि भरतैरावतयोॐ स्तिसृष्वप्येकान्तसुपमादिषु समासु स एव सदावस्थितयौवनादिरिति । फलमेव गुणः फलगुणः फलं च क्रियाया भवति, तस्याश्च क्रियायाः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र रहिताया ऐहिकामुष्मिकार्थं प्रवृत्ताया अनात्यन्तिकोऽनैकान्तिको भवन् फलगुणोऽप्यगुण एव भवति, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रक्रियायास्वै कान्तिकात्यन्तिकानाबाधसुखाख्यसिद्धिफलगुणोऽवाॐ प्यते एतदुक्तं भवति सम्यग्दर्शनादिकैव क्रिया सिद्धिफलगुणेन फलवती, अपरा तु सांसारिकमुखफलाभास एव, फलाध्यारोपान्निष्फलेत्यर्थः । पर्यायगुणो नाम द्रव्यस्यावस्थाविशेषः पर्यायः स एव गुणः पर्यायगुणः, गुणपर्याययोर्नयवादान्तरेणाभेदाभ्युपगमात् स च निर्भजनारूपो, निश्चिता भजना निर्भजना निश्चितो भाग इत्यर्थः तथाहि--स्कन्ध द्रव्यं देशप्रदेशेन भिद्यमानं परमाण्वन्तं भेदं ददाति परमाणुरप्येकगुणकृष्णद्विगुणकृष्णादिना अनन्तशोऽपि भिद्यमानो भेददायीति । गणनागुणो नाम द्विकादिकः, तेन च सुमहतोऽपि राशेर्गणनागुणेनेयत्ताऽवधार्यते । करणगुणो नाम कलाकौशल, तथाहि उदकादी करणपाटवार्थ गात्रोत्क्षेपादिकां क्रियां कुर्वन्ति । अभ्यासगुणो नाम भोजनादिविषयः, तद्यथा तदहर्जातबालकोऽपि भवान्तराभ्यासात् स्तनादिकं मुख एव प्रक्षिपति उपरतरुदितश्च भवति, यदिवाऽभ्यास| वशात् सन्तमसेऽपि कवलादेर्मुखविवरप्रक्षेपाढ्या (पो व्याकुलित चेत सोऽपि च तुदङ्गात्र कण्डूयनमिति । गुणागुणो नाम गुण श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०) Jain Estication intumatl For Party Use Onl ~176~# लोक.वि.२ उद्देशकः १ ॥ ८६ ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक SAGAR [६१]] एव कस्यचिदगुणत्वेन विपरिणमते, यथाऽऽर्जयोपेतस्यर्जुत्वाख्यो गुणो मायाविनः प्रत्यगुणो भवति, उक्तं च-"शाठयं हीमति गण्यते व्रतरुचौ दम्भः शुचौ कैतवं, शूरे निपुणता ऋजौ विमतिता दैन्यं प्रियाभापिणि । तेजस्विन्यवलिप्तता! मुखरता वक्तर्यशक्तिः स्थिरे, तत्को नाम गुणो भवेत् स विदुषां यो दुर्जनै जितः ॥१॥" । अगुणगुणो नामागुण एव च कस्यचित् गुणत्वेन विपरिणमते, स च वनविषयो, यथा गौगलिरसञ्जातकिणस्कन्धो गोगणस्य मध्ये सुखेनैवास्ते, तथा च-"गुणानामेव दौर्जन्याहुरि धुर्यो नियुज्यते । असञ्जातकिणस्कन्धः, सुखं जीवति गौर्गलिः ॥१॥"। भवगुणो नाम भवन्ति-उत्पद्यन्ते तेषु तेषु स्थानेष्विति नारकादिर्भवः, तत्र तस्य वा गुणो भवगुणः, स च जीवविषयः, तद्यथानारकास्तीव्रतरवेदनासहिष्णवस्तिलशश्छिन्नसन्धानिनोऽवधिमन्तश्च भवगुणादेव भवन्ति, तिर्यश्वश्च सदसद्विवेकविकला अपि सन्तो गगनगमनलब्धिमन्तो, गवादीनां च तृणादिकमप्यशनं शुभानुभावेनापद्यते, मनुजानां चाशेषकर्मक्षयो, देवानां च सर्वशुभानुभावो भवगुणादेवेति । शीलगुणो नाम परैराश्यमानोऽपि शीलगुणादेव न क्रोधवशो भवति, अथवा शब्दादिके शोभने अशोभने वा स्वभावादेव विदितवेद्यवन्माध्यस्थ्यमवलम्बते । भावगुणो नाम भावा:-औदयिकादयस्तेषां गुणो भावगुणः, स च जीवाजीवविषयः, तत्र जीवविषय औदयिकादिः पोढा, तत्रौदयिकः प्रशस्तोऽप्र शस्तश्च, तीर्थकराहारकशरीरादिः प्रशस्तः, अप्रशस्तस्तु शब्दादिविषयोपभोगहास्यरत्यरतीत्यादिः, औपशमिक उपशमशेपाण्यन्तर्गतायुष्कक्षयानुत्तरविमानप्राप्तिलक्षणस्तथा सत्कर्मानुदयलक्षणश्चेति, क्षायिकभावगुणश्चतुर्दो, तद्यथा-क्षीणसप्त उर्जवे प्र. २ दौरारम्यान प्र. अनुक्रम [६२ wwwlandltimaryam ~177~# Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [६१] दीप अनुक्रम [६२] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], निर्युक्ति: [१७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा ।। ८७ ।। कस्य पुनर्मिथ्यात्वागमनं ९ क्षीणमोहनीयस्यावश्यंभाविशेषघातिकर्म्मक्षयः २ क्षीणघातिकर्म्मणोऽनावरणज्ञानदर्शनाविराङ्गवृत्तिः ४ र्भावः ३ अपगताशेषकर्म्मणोऽपुनर्भवस्तथाऽऽत्यन्तिकै कान्ति कानाबाधपरमानन्दलक्षणसुखावाति ४ श्वेति, क्षायोप(शी०) शमिकः क्षायोपशमिकदर्शनाद्यवाप्तिरिति, पारिणामिको भव्यत्वादिरिति, सान्निपातिकत्वादयिकादिपञ्चभावसमकाल* निष्पादितः, तद्यथा - मनुष्यगत्युदयादौदयिकः सम्पूर्णपश्चेन्द्रियत्वावाप्तेः क्षायोपशमिकः दर्शनसप्तकक्षयात् क्षायिकः चारित्रमोहनीयोपशमादौपशमिकः भव्यत्वात्सारिणामिक इति उक्तो जीवभावगुणः । साम्प्रतमजीवभावगुणः, स चौदयिकपारिणामिकयोरेव सम्भवति, नान्येषां तत्रौदयिकस्तावद् उदये भव औदयिकः, स चाजीवाश्रयोऽनया विवक्षया, यदुत काश्चित् प्रकृतयः पुद्गलविपाकिन्य एव भवन्ति, काः पुनस्ताः ?, उच्यन्ते, औदारिकादीनि शरीराणि पञ्च षट् संस्थानानि त्रीण्यङ्गोपाङ्गानि षट् संहननानि वर्णपञ्चकं गन्धद्वयं पञ्च रसा अष्टौ स्पर्शा अगुरुलघुनाम उपघातनाम पराघातनाम उद्योतनाम आतपनाम निर्माणनाम प्रत्येकनाम साधारणनाम स्थिरनाम अस्थिरनाम शुभनाम अशुभनाम, एताः सर्वा अपि पुद्गलविपाकिन्यः, सत्यपि जीवसम्बन्धित्वे पुद्गलविपाकित्वादासामिति, पारिणामिकोऽजीवगुणस्तु | द्वेधा-अनादिपारिणामिकः सादिपारिणामिकश्चेति, तत्रानादिपारिणामिको धर्माधर्म्माकाशानां गतिस्थित्यवगाहलक्षणः, सादिपारिणामिकस्त्ववेन्द्रधनुरादीनां परमाणूनां च वर्णादिगुणान्तरापत्तिरिति गाथातात्पर्यार्थः ॥ उक्तो गुणो, मूल निक्षेपार्थमाह मूले छकं दब्वे ओदइउचएस आइमूलं च । खित्ते काले मूलं भावे मूलं भवे तिविहं ॥ १७३ ॥ Jan Estication Ital For Pantry Use Only ~178 ~# लोक.वि. २ उद्देशकः १ ॥ ८७ ॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक [६१]] CLOSSAROKAR मूलस्य पोढा निक्षेपो, नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात्, नामस्थापने गतार्थे, द्रव्यमूलं शशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं विधा-औदायिकमूलमुपदेशमूलमादिमूलं चेति, तत्रौदयिकद्रव्यमूलं वृक्षादीनां मूलत्वेन परिणतानि यानि द्रव्याणि, उपदेशमूलं यचिकित्सको रोगप्रतिघातसमर्थ मूलमुपदिशत्यातुरायेति, तच पिप्पलीमूलादिकं, आदिमूलं नाम यदृक्षादिमूलोसत्तावाद्य कारणं, तद्यत् स्थावरनामगोत्रप्रकृतिप्रत्ययान्मूलनिवर्तनोत्तरप्रकृतिप्रत्ययाच मूलमुत्सद्यते, एतदुक्तं । भवति-तेषामौदारिकशरीरत्वेन मूलनिवर्त्तकानां पुद्गलानामुदयिष्यता कार्मणं शरीरमाद्यं कारणं, क्षेत्रमूलं यस्मिन् क्षेत्रे | मूलमुखद्यते व्याख्यायते धा, एवं कालमूलमपि, यावन्तं वा कालं मूलमास्ते, भावमूलं तु विधेति गाथार्थः । तथाहि ओदइयं उवदिट्ठा आइ तिगं मूलभाव ओदइ। आयरिओ उवदिहा विणयकसायादिओ आई ॥१७४॥ भावमूलं त्रिविधम्-औदयिकभावमूलम् उपदेष्ट्रमूलम् आदिमूलं चेति, तत्रौदयिकभावमूलं वनस्पतिकायमूलत्वमनुभवन्नामगोत्रकर्मोदयात् मूलजीव एव, उपदेष्ट्रभावमूलं त्वाचार्य उपदेष्टा-यैः कर्मभिः प्राणिनो मूलत्वेनोत्सद्यन्ते, तेषामपि मोक्षसंसारयोर्वा यदादिभावमूलं तस्य चोपदेष्टेत्येतदेव दर्शयति–विणयकसाआइओ आई तत्र मोक्षस्यादिमूलं ज्ञानदर्शनचारित्रतपऔपचारिकरूपः पञ्चधा विनयः, तन्मूलत्वान्मोक्षावाप्लेः, तथा चाह-"विर्णया णाणं णाणाउ दसणं दसणाहि चरणं तु । चरणाहिंतो मोक्खो मुक्खे सुक्खं अणाबाहं ॥१॥ विनयफलं शुश्रूपा गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानम् । ज्ञानस्य फलं विरतिविरतिफलं चाश्रवनिरोधः ॥२॥ संवरफलं तपोबलमथ तपसो निर्जरा फलं दृष्टम् । १ यिनयात् ज्ञानं शानादर्शनं ज्ञानदर्शनाभ्यो चरण तु । ज्ञानदर्शनचरणेभ्यस्तु गोक्षो मोक्ष सौख्यमनायाधम् ॥1॥ अनुक्रम [६२ wwwandltimaryam ~179~# Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: लोक.वि.२ (शी०) [६१] ॥८८॥ श्रीआचा- तस्मारिक्रयानिवृत्तिः क्रियानिवृत्तेरयोगित्वम् ॥ ३॥ योगनिरोधाद् भवसन्ततिक्षयः सन्ततिक्षयान्मोक्षः । तस्मात्कल्यारावृत्तिःणानां सर्वेषां भाजनं विनयः॥४॥” इत्यादि, संसारस्य त्वादिमूलं विषयकषाया इति ॥ मूलमुक्तमिदानी स्थानस्य पञ्चदशधा निक्षेपमाह णामंठवणादविए खित्तद्धा उह उवरई वसही। संजम पग्गह जोहे अयल गणण संधणा भावे ॥१७॥ तत्र द्रव्यस्थानं ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्याणां सचित्ताचित्तमिश्राणां स्थानम्-आश्रयः, क्षेत्रस्थानं भरतादि ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्लोकादिति, यत्र वा क्षेत्रे स्थानं व्याख्यायते, अद्धा-कालः तत्स्थानं द्विधा-कायस्थितिभवस्थितिभेदात्, तत्र कायस्थितिः पृथिव्यप्तेजोवायूनामसङ्कवेया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः, वनस्पतेस्तु ता एवानन्ताः, विकलेन्द्रियाणाम(णां)सङ्घयेया वर्षसहस्रार, पवेन्द्रियतिर्यग्मनुजानां सप्ताष्टौ वा भवाः । भवस्थितिस्तु वायूदकवनस्पतिधिवीनां त्रिसप्तदशद्वाविंशतिवर्षसहस्रात्मिका, तेजसखीण्यहोरात्राणि, द्वीन्द्रियाणां शङ्खादीनां द्वादश वर्षाणि, श्रीन्द्रियाणां पिपीलिकादी|नामेकोनपञ्चाशदहोरात्राणि, चतुरिन्द्रियाणां भ्रमरादीनां षण्मासाः, पथेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणां त्रीणि पल्योपमानि, देवानां नारकाणां च कायस्थितेरभावाद्भवस्थितिः त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणीति, इयमुत्कृष्टा द्विरूपापि, जघन्या तु सर्वेपामन्तमुंहत्तोत्मिका, नवरं देवनारकयोर्दश वर्षसहस्राणीति, अथवा अद्धास्थान-समयावलिकामुहूर्ताहोरात्रपक्षमासत्वे X यनसंवत्सरयुगपल्योपमसागरोपमोत्सपिण्यवसपिणीपगलपरावर्तातीतानागतसर्वाद्धारूपमिति । ऊर्द्ध स्थानं तु कायोत्सगोंदिकम् , अस्योपलक्षणत्वाविषण्णाद्यपि गृह्यते। उपरतिः-विरतिः, तत्स्थान देशे सर्वत्र च श्रावकसाधुविषयं । वसति-| अनुक्रम [६ ] ८८॥ wwwandltimaryam ~180~# Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत - सूत्राक - [६१]] - - दास्थानं यो यत्र ग्रामगृहादौ वसति । संयमस्थानं संयमः-सामायिकच्छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसम्पराययथा ख्यातरूपः, तस्य पञ्चविधस्याप्यसङ्खधेयानि संयमस्थानानि, कियदसङ्घयमिति चेत् अतीन्द्रियत्वादर्थस्य न साक्षानिर्देष्टुं शक्यते, आगमानुसारोपमया तूच्यते-इहकसमयेन सूक्ष्माग्निजीवा असङ्खयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणा उत्पद्यन्ते, तेभ्योC|निकायत्वेन परिणता असङ्खधेयगुणाः, ततोऽपि तत्कायस्थितिरसवयेयगुणाः, ततोऽप्यनुभागबन्धाध्यवसायस्थाना-1 न्यसङ्ख्यगुणानि, संयमस्थानान्यप्येतावन्त्येवेति सामान्यतः, विशेषतस्तूच्यते-सामायिकच्छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुखीनां प्रत्येकमसङ्खधेयलोकाकाशप्रदेशतुल्यानि संयमस्थानानि, सूक्ष्मसम्परायस्य त्वान्तर्मुहर्तिकत्वादन्तर्मुहर्तसमयतुल्यान्यसङ्ख्येयानि संयमस्थानानि, यथाख्यातस्य त्वेकमेवाजघन्योत्कृष्ट संयमस्थानम्, अथवा संयमश्रेण्यन्तर्गतानि संयमस्थानानि ग्राह्याणि, सा चानेन क्रमेण भवति, तद्यधा-अनन्तचारित्रपर्यायनिष्पादितमेकं संयमस्थानम् , असलचेयसंयमस्थाननिर्तितं कण्डक, तैश्चासङ्खधेयैर्जनितं षट्स्थानक, तदसङ्खधेयात्मिका श्रेणीति । प्रग्रहस्थानं तु प्रकर्षण गृह्यते वचोऽस्येति प्रग्रहः-ग्राह्यवाक्यो नायक इत्यर्थः, स च लौकिको लोकोत्तरश्च, तस्य स्थान प्रग्रहस्थानं, लौकिकं तावत्सश्वविधं, तद्यथा-राजा युवराजो महत्तरः अमात्यः कुमारश्चेति, लोकोत्तरमपि पञ्चविध, तद्यधा-आचार्योपाध्यायप्रवृ|त्तिस्थविरगणावच्छेदकभेदादिति । योधस्थानं पञ्चधा, तद्यथा-आलीढप्रत्यालीढवैशाखमण्डलसमपादभेदात् । अचलस्थानं तु चतुर्द्धा-सादिसपर्यवसानादिभेदात् , तद्यथा-सादिसपर्यवसानं परमाण्वादेव्यस्यैकप्रदेशादाववस्थानं जघन्यत एक समयमुत्कृष्टतश्चासतधेयकालमिति, साधपर्यवसानं सिद्धानां भविष्यदद्धारूपम्, अनादिसपर्यवसानमतीताद्धारू - अनुक्रम [६२ - ~181~# Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ཀླུ ༔ ཀླུཤྩ བློ श्रीआचा- पस्य शैलेश्यवस्थान्त्यसमये कार्मणतैजसशरीरभव्यत्वानां चेति, अनाद्यपर्यवसानं धर्माधर्माकाशानामिति । गणना- लोक.वि.२ राङ्गवृत्तिः दास्थानमेकट्यादिकं शीर्षप्रहेलिकापर्यन्त । सन्धानस्थानं द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, पुनरप्यकैकं द्विधा-छिन्नाच्छिन्नभेदात् , MLA ME उद्देशकः१ (शी०) तत्र द्रव्यच्छिन्नसन्धान कझुकादेः, अच्छिन्नसन्धानं तु पक्ष्मोत्पद्यमानतन्त्वादेरिति, भावसन्धानमपि प्रशस्ताप्रशस्तभेदात् द्वेधा, तत्र प्रशस्ताच्छिन्नभावसन्धानमुपशमक्षपकश्रेण्यामारोहतो जन्तोरपूर्वसंयमस्थानान्यच्छिन्नान्येव भवन्ति, श्रेणि॥८९॥ व्यतिरेकेण वा प्रवर्द्धमानकण्डकस्येति, छिन्नप्रशस्तभावसन्धानं पुनरौपशमिकादिभावादौदयिकादिभावान्तरगतस्य पुनरपि शुद्धपरिणामवतः तत्रैव गमनम्, अप्रशस्ताच्छिन्नभावसन्धानमुपशमश्रेण्याः प्रतिपततोऽविशुममानपरिणामस्यान-1 न्तानुबन्धिमिथ्यात्योदयं यावत्, उपशमश्रेणिमन्तरेणापि कषायवशात् बन्धाध्यवसायस्थानान्युत्तरोत्तराण्यवगाहमानस्य वा इति, अप्रशस्तच्छिन्नभावसन्धानं पुनरोदयिकभावादौपशमिकादिभावान्तरसङ्कान्ती सत्यां पुनस्तत्रैव गमनमिति ।। इह द्वारद्वयं योगपपेन व्याख्यातं, तत्र सन्धानस्थानं द्रव्यविषयमितरत्तु भावविषयमित्युक्तं स्थानम् ॥ अथवा भावकास्थानं कपायाणां यत् स्थानं तदिह परिगृह्यते, तेषामेव जेतव्यत्वेनाधिकृतत्वात, तेषां किं स्थानं?, यदाश्रित्य च तेल भवन्ति, शब्दादिविषयानाश्रित्य च ते भवन्तीति तद्दर्शयतिपंचसु कामगुणेसु य सद्दष्फरिसरसरूवगंधेसुं । जस्स कसाया वहति मूलट्ठाणं तु संसारे ॥ १७६ ॥ ॥८९॥ तत्रेच्छानङ्गरूपः कामस्तस्य गुणा यानाश्रित्यासी चेतसो विकारमादर्शयति, ते च शब्दस्पर्शरसरूपगन्धास्तेषु पञ्चस्वपि व्यस्तेषु समस्तेषु वा विषयभूतेषु 'यस्य' जन्तोर्विषयसुखपिपासोन्मुखस्यापरमार्थदर्शिनः संसाराभिष्यङ्गिणो राग-1 AACKASSAGE wwwandltimaryam ~182~# Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [६१] अनुक्रम [६२] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], निर्युक्ति: [१७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | द्वेषतिमिरो पप्लुतरष्टेर्मनोज्ञेतरविषयोपलब्धौ सत्यां कषाया 'वर्त्तन्ते' प्रादुर्भवन्ति, तन्मूलश्च संसारपादपः प्रादुर्भवतीत्यतः शब्दादि विषयोद्भूत (ताः) कषायाः 'संसारे' संसार विषयं मूलस्थानमेवेति एतदुक्तं भवति - रागाद्युपहतचेताः परमार्थम जानानोऽतत्स्वभावेऽपि तत्स्वभावारोपणेनान्धादप्यन्धतमः कामी मोदते, यत आह-"दृश्यं वस्तु परं न पश्यति जगत्यन्धः पुरोऽवस्थितं, रागान्धस्तु यदस्ति तसरिहरन् यन्नास्ति तत् पश्यति । कुन्देन्दीवरपूर्णचन्द्रकलशश्री महतापल्लवानारोप्याशुचिराशिषु प्रियतमागात्रेषु यन्मोदते ॥ १ ॥” द्वेषं वा कर्कशशब्दादौ व्रजतीति, ततश्च मनोज्ञेतरशब्दादिविपयाः कषायाणां मूलस्थानं, ते च संसारस्येति गाथातात्पर्यार्थः ॥ यदि नाम शब्दादिविषयाः कषायाः कथं तेभ्यः संसार इति ?, उच्यते, यतः कर्म्मस्थितेः कषाया मूलं, साऽपि संसारस्य, संसारिणश्चावश्यंभाविनः कषाया इति, एतदेवाह-जह सव्वपायचाणं भूमीए पट्टियाई मूलाई । इय कम्मपायचाणं संसारपट्टिया मूला || १७७ || यथा सर्वपादपानां भूमौ प्रतिष्ठितानि मूलानि, एवं कर्मपादपानां संसारे कषायरूपाणि मूलानि प्रतिष्ठितानीति गाथार्थः ॥ ननु च कथमेतच्छ्रद्धेयं कर्म्मणः कपाया मूलमिति ?, उच्यते, यतो मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपाययोगा बन्धहेतवः, तथा चागमः-- "जीवे णं भंते! कतिहिं ठाणेहिं णाणावरणिज्जं कम्मं बंधइ ?, गोयमा! दोहिं ठाणेहिं, तंजहारागेण व दोसेण व रागे दुविहे माया लोभे य, दोसे दुबिहे-कोहे य माणे य। एएहिं चउहिं ठाणेहिं वीरिओवगृहिए हिं १ जीवो मदन्त । कविभिः स्थानैर्ज्ञानावरणीयं कर्म बनाति, गौतम द्वाभ्यां स्थानाभ्यां तद्यथा-रागेण वा द्वेषेण वा रागो द्विविधो माया लोभव, द्वेषो द्विविधः कोषश्च मानव, एतैचतुर्भिः स्थानीय पवैर्ज्ञानावरणीयं कर्म बञ्जाति. Jain Estication intumatl For Pantry Use Only ~183~# www.india.org Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत ॥ [६१]] ९. ॥ श्रीआचा- जाणाणावरणिज कम्मं बंधई" एवमष्टानामपि कर्मणां योज्यमिति । ते च कषाया मोहनीयान्तःपातिनोऽष्टमकारस्य च लोक.वि.२ राङ्गवृत्तिः कर्मणः कारणं, मोहनीय कामगुणानां च (इति) दर्शयति(शी०) उद्देशकः१ अट्ठविहकम्मरुक्खा सब्वे ते मोहणिजमूलागा । कामगुणमूलगं या तम्मूलागं च संसारो॥१७८॥ यदवादि प्राक्-'इय कम्मपायवाण' तत्र कतिप्रकाराः ते कर्मपादपाः किंकारणाश्चेति?, उच्यते, अष्टविधकर्मवृक्षाः, ते सर्वेऽपि मोहनीयमूलाः, न केवलं कषायाः, कामगुणा अपि मोहनीयमूलाः, यस्माद्वेदोदयात् कामाः, वेदश्च | मोहनीयान्तःपातीत्यतस्तन्मोहनीयं मूलम्-आद्यं कारणं यस्य संसारस्य स तथा इति गाथार्थः ॥ तदेवं पारम्पर्येण |2 संसारकपायकामानां कारणत्वान्मोहनीय प्रधानभावमनुभवति, तत्क्षये चावश्यम्भावी कर्मक्षयः, तथा चाभाणि“जह मत्थयसूईए, हयाए हम्मए तलो। तहा कम्माणि हम्मंति, मोहणिजे खयं गए ॥ १॥" तच्च द्विधा-दर्शनचारित्रमोहनीयभेदात्, एतदेवाह दुविहो अ होइ मोहो दसणमोहो चरित्तमोहो अ । कामा चरित्तमोहो तेणऽहिगारो इहं सूत्ते ॥ १७९ ॥ मोहनीयं कर्म द्वेधा भवति, दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं चेति, बन्धहेतोर्द्वविध्यात्, तथाहि-अहेरिसद्धचैत्यतपःश्रुतगुरुसाधुसङ्गप्रत्यनीकतया दर्शनमोहनीयं कर्म बभाति, येन चासावनन्तसंसारसमुद्रान्तःपात्येवावतिष्ठते, तथा तीनकपायबहुरागद्वेषमोहाभिभूतः सन् देशसर्वविरत्युपघाति चारित्रमोहनीय कर्म बनाति, तत्र मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वस ॥९ ॥ यथा मस्तकसूच्या हतायां हन्यते तालः । तथा कम्मानि हन्यन्ते मोहनीय क्षयं गते ॥१॥ अनुक्रम [६२ wataneltmanam ~184-23 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक [६१]] LKAR.25% म्यक्त्वभेदात्रेधा दर्शनमोहनीय, तथा षोडशकषायनवनोकपायभेदाच्चारित्रमोहनीयं पञ्चविंशतिधा, तत्र कामाः शब्दादयः पञ्च चारित्रमोहः, तेन चान सूत्रेऽधिकारो, यतः कषायाणां स्थानमत्र प्रकृतं, तच शब्दादिकपञ्चगुणात्मकमिति गाथार्थः ॥ तत्र चारित्रमोहनीयोत्तरप्रकृतिस्त्रीपुंनपुंसकवेदहास्यरतिलोभाश्रितकामाश्रयिणः कषायाः संसारमूलस्य च कर्मणः प्रधान कारणमिति प्रचिकटयिषुराह संसारस्स उ मूलं कम्मं तस्सवि हुँति य कसाया। 'संसारस्य' नारकतिर्यनरामरगतिसंसृतिरूपस्य(मूल)कारणमष्टप्रकारं कर्म,तस्यापि कर्मणः कषायाः-क्रोधादयो निमित्तं भवन्ति । तेषां च प्रतिपादितशब्दादिस्थानानां प्रचुरस्थानत्वप्रतिपादनाय पुनरपि स्थानविशेष गाथाशकलेनाह ते सयणपेसअस्थाइएसु अज्झत्वओ अ ठिआ ॥१८॥ स्वजन:-पूर्वापरसंस्तुतो मातापितृश्वशुरादिकः प्रेष्यो-भृत्यादिरों-धनधान्यकुप्यबास्तुरत्नभेदरूपः ते स्वजनादयः कृतद्वन्द्वा आदिर्येषां मित्रादीनां तेषु स्थिताः कषाया विषयरूपतया, अध्यात्मनि च विषयिरूपतया प्रसन्नचन्द्रैकेन्द्रियादीनामिति गाथार्थः ॥ तदेवं कषायस्थानप्रदर्शनेन सूत्रपदोपात्तं स्थानं परिसमाप्य तेषामेव कपायाणां सूत्रमूलपदोपात्तानां जेतव्यत्वाधिकृतानां निक्षेपमाह •णामंठवणादविए उप्पत्ती पञ्चए य आएसो। रसभावकसाए या तेण य कोहाइया चउरो ॥ १८१ ॥ यथाभूतार्थनिरपेक्षमभिधानमात्रं नाम, सद्भावासद्भावरूपाप्रतिकृतिः स्थापना, कृतभीमभूकुव्युत्कटललाट(पट)घटितत्रि अनुक्रम [६२ A wwwandltimaryam ~185~# Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: [६१]] श्रीआचा- शूलरक्तास्यनयनसन्दष्टाधरस्पन्दमानखेदसलिलचित्रपुस्ताश्चक्षवराटकादिमत्तेति, द्रव्यकषाया शरीरभव्यशरीराभ्या व्यति- लोक.वि.२ राङ्गवृत्तिः रिक्ताः कर्माद्रव्यकषाया नोकर्मद्रव्यकपायाश्चेति, स्वादिस्सितासानुवीर्णोदीर्णाः पुद्गला द्रव्यप्राधान्यात् कर्मद्रव्यक(शी०) विषायाः, नोकर्मव्रव्यकषायास्तु विभीतकादयः, उत्पत्तिकषायाः शरीरोपधिक्षेत्रवास्तुस्थाण्वादयो यदाश्रित्य तेषामुत्पत्तिः, तथा चोक्तम्-'किं एत्तो कहयरं जं मूढो थाणुअम्मि आवडिओ । थाणुस्स तस्स रूसइ न अपणो दुष्पओगस्स ॥२॥" ॥ ९१॥ प्रत्ययकषायाः कषायाणां ये प्रत्ययाः-यानि बन्धकारणानि, ते चेह मनोज्ञेतरभेदाः शब्दादयः, अत एवोत्पत्तिप्रत्ययोः कार्यकारणगतो भेदा, आदेशकषायाः कृत्रिमकृतधूकुदीभवादयः, रसतो रसकपायः कटुतिक्तकषायपञ्चकान्तर्गतम्, भावकषायाः शरीरोपधिक्षेत्रवास्तुस्वजनप्रेष्या_दिनिमित्ताविर्भूताः शब्दादिकामगुणकारणकार्यभूतकषायकर्मोदयात्मपरिणामविशेषाः क्रोधमानमायालोभाः, ते चैकैकशोऽनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसज्वलनभेदेन भिद्यमानाः पोडशविधा भवन्ति, तेषां च स्वरूपानुबन्धफलादि गाधाभिरभिधीयन्ते, ताश्चेमा:-"जलरेणुपुढविपश्वयराईसरिसो |चउबिहो कोहो । तिणिसलयाकहडियसेलत्थंभोवमो माणो ॥१॥ मायावलेहिगोमुत्तिमेंढसिंगषणवंसमूलसमा । लोभो हलिद्दकद्दमखंजणकिमिरायसामाणो ॥२॥ पक्खचउमासवच्छरजावजीवाणुगामिणो कमसो । देवणरतिरियणारयगइसाहणहेयचो भणिया ॥३॥" एषां नामाद्यष्टविधकषायनिक्षेपाणां कतमो नयः कमिच्छत्तीत्येतदभिधीयते-तत्र नैग-1 किमेतस्मात्कष्टकर बन्भूदः स्थाणाचापतितः । स्थाणवे तमै यति नात्मनो दुपयोगाय ॥१॥२अलरेषुपृथ्वीपर्वतराजीसरसवतुर्विधः क्रोधः। IMI||९१॥ हालिनिशलताकाष्ठास्थिशेलसम्मोपमो मानः ॥१॥ मायाऽनलेसिकागोमूत्रिकामेषजधनवंशीमूलसमा । सोमो हरिदाकदमसाजन मिरागसमानः ॥ २ ॥ पक्षचतुर्मासबसस्थानचीवानुगामिनः मशः । देवनतिर्यभारकगतिसाधनहेश्यो अणिताः ॥३॥ अनुक्रम [६२ wwwandltimaryam ~186~23 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक [६१]] |मस्य सामाग्यविशेषरूपत्वान्नैकगमत्वाच्च तदभिप्रायेण सर्वेऽपि साधवो नामादक, सत्रहव्यवहारी तु कपावसम्बधा-12 भावादादेशसमुत्पत्ती नेच्छतः, ऋजुसूत्रस्तु वर्तमानार्थनिष्ठत्वादादेशसमुत्पत्तिस्थापना मेच्छति, शब्दस्तु नानोऽपि कथसिद्भावान्तर्भावानामभावाविच्छतीति गाथातात्पयोः ॥ तदेवं कषायाः कर्मकारणत्वेनोक्ताः, तदपि संसारस्य, सच कतिविध इति दर्शयति दब्वे खित्ते काले भवसंसारे अ भावसंसारे । पंचविहो संसारो जत्थेते संसरति जिआ॥ १८२॥ द्रव्यसंसारो व्यतिरिक्तो द्रव्यसंसृतिरूपः, क्षेत्रसंसारो येषु क्षेत्रेषु इध्याणि संसरन्ति, कालसंसारः यस्मिन् काल इति, नारकतिर्यग्नरामरगतिचतुर्विधानुपूर्वृदयावान्तरसङ्क्रमणं भवसंसारः, भावसंसारस्तु संसृसिस्वभाव औदयिकादिभावपरिणतिरूपः, तत्र च प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबन्धानां प्रदेशविपाकानुभवनम् , एवं द्रव्यादिकः पञ्चविधः संसार: अथवा द्रव्यादिकश्चतुर्धा संसारः, तद्यथा-अश्चाद्धस्तिनं ग्रामानगर बसन्ताद ग्रीष्म औदयिकादीपशमिकमिति गाथार्थः ॥ तस्मिंश्च संसारे कर्मवनगाः प्राणिनः संसरन्तीत्यतः कर्मनिदर्शनार्थमाह णामंठवणाकम्मं दबकम्मं पओगकम्मं च । समुदाणिरियावहिवं आहाकम्मं तथोकम्मं ।। १८३ ॥ किइकम्म भावकम्मं दसविह कम्मं समासओ होइ।। नामकर्म कर्थिशून्यमभिधानमात्र, स्थापनाकर्म पुस्तकपत्रादौ कर्मवर्गणानां सद्भावासद्भावरूपा स्थापना, द्रव्यकर्म व्यतिरिक्तं द्विधा-द्रव्यकर्म नोद्रव्यकर्म च, तन्त्र द्रव्यकर्म कर्मवर्गणान्तापातिनः पुद्गलाः बम्धयोग्या पध्यमाना अनुक्रम [६२ wwwandltimaryam ~187~# Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०) [६१] बद्धाश्चानुदीर्णा इति, नोद्रव्यकर्म कृषीवलादिकर्म । अथ कर्मवर्गणान्तःपातिनः पुद्गला द्रव्यकर्मेत्यवाचि, काः पु-लोक.वि.२ नस्ता वर्गणा इति सङ्कीर्त्यन्ते ?, इह वर्गणाः सामान्येन चतुर्विधाः-द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात्, तत्र द्रव्यत एकट्यादि- देशक सङ्ख्येयासङ्ख्येयानन्तप्रदेशिकाः क्षेत्रतोऽवगाढ द्रव्यैकद्व्यादिसङ्ख्येयासङ्ख्येयप्रदेशात्मिकाः कालत एकळ्यादिस ख्येयासख्येयसमयस्थितिकाः भावतो रूपरसगन्धस्पर्शस्वगतभेदात्मिकाः सामान्यतः, विशेषतस्तूच्यन्ते तत्र परमाणूनामेका वर्गणा, एवमेकैकपरमाणूपचयात् सख्येयप्रदेशिकानां स्कन्धानां सख्येयाः असख्येयप्रदेशिकानामसन्ख्येयाः, एताश्चौदारिकादिपरिणामाग्रहणयोग्याः, अनन्तप्रदेशिकानामप्यनन्ता अग्रहणयोग्याः, ता उल्लङ्गय औदारिकग्रहणयोग्यास्त्वनन्तानन्तप्रदेशिकाः खल्वनन्ता एव भवन्ति, तत्रायोग्योत्कृष्टवर्गणायां रूपे प्रक्षिप्ते औदारिकश-12 रीरग्रहणयोग्या जघन्या वर्गणा भवति, पुनरेकैकप्रदेशवृद्ध्या प्रवर्द्धमाना औदारिकयोग्योत्कृष्टवर्गणा यावदनन्ता भ-R वन्ति, अथ जघन्योत्कृष्टयोः को विशेषः?, जघन्यात् उत्कृष्टा विशेषाधिकाः, विशेषस्त्वस्या एवौदारिकजघन्यवर्गणाया | अनन्तभागः, तस्य चानन्तपरमाणुमयस्वादेककोत्तरप्रदेशोपचये सत्यप्यौदारिकयोग्यवर्गणानां जघन्योत्कृष्टमध्यवर्तिनीनामानन्त्य, तत औदारिकयोम्योत्कृष्टवर्गणायां रूपप्रक्षेपणायोग्यवर्गणा जघन्या भवन्ति, एता अध्येकैकप्रदेशवृद्ध्योस्कृष्टान्ता अनन्ता भवन्ति, जघन्योत्कृष्टवर्गणानां को विशेषः?, जघन्याभ्योऽसख्येयगुणा उत्कृष्टाः, ताश्च बहुप्रदे। |शत्वादतिसूक्ष्मपरिणामत्वाच्चीदारिकस्यानन्ता एवाग्रहणयोग्या भवन्ति, अल्पप्रदेशस्वाद्वादरपरिणामत्वाच्च वैक्रियस्या ॥९२॥ पीति, अत्र च यथा यधा प्रदेशोपचयस्तथा तथा विश्रसापरिणामवशाद्वर्गणानां सूक्ष्मतरत्वमवसेयम् । एतदेवोत्कृष्टोपरि अनुक्रम [६२ wwwandltimaryam ~188~# Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [६१] दीप अनुक्रम [६२] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], निर्युक्ति: [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः रूपप्रक्षेपयोग्यायोग्यादिकं वैक्रियशरीरवर्गणानां जघन्योत्कृष्टविशेषलक्षणं चावसेयं, तथा वैक्रियाहारकान्तरालवयोस्ववर्गणानां जघन्योत्कृष्टविशेषासख्येयगुणत्वमिति, पुनरप्ययोग्यवर्गणोपरि रूपप्रक्षेपात् जघन्याहारकशरीरयोग्यवर्गणा भवन्ति, ताश्च प्रदेशवृद्ध्या वर्द्धमाना उत्कृष्टां यावदनन्ता भवन्ति, अथ जघन्योत्कृष्टयोः कियदन्तरमिति ? उच्यते, जघन्याभ्य उत्कृष्टा विशेषाधिकाः, को विशेष इति चेत् ?, जघन्यवर्गणाया एवानन्तभागः, तस्याप्यनन्तपरमाणुत्वादा* हारकशरीरयोग्यवर्गणानां प्रदेशोत्तर वृद्धानामानन्त्यमिति भावना, तस्यामेवोत्कृष्टवर्गणायां रूपे प्रक्षिप्ते जघन्या आहारकाग्रहणयोग्यवर्गणाः, ततः प्रदेशवृद्ध्या वर्द्धमाना उत्कृष्टां यावदनन्ता एव आहारकस्य सूक्ष्मत्वाद् बहुप्रदेशत्वाच्चायोग्या एव भवन्ति, बादरत्वादल्पप्रदेशत्वाच्च तेजसस्येति, जघन्योत्कृष्टयोः कियदन्तरमिति ? उच्यते, जघन्याभ्य उत्कृष्टा अनन्तगुणाः, केन गुणकारेणेति चेत्, अभव्येभ्योऽनन्तगुणाः सिद्धानामनन्तभाग इति, तदुपरि रूपे प्रक्षिप्ते तैजसरारीरवर्गणा जघन्याः, एता अपि प्रदेशवृद्ध्या वर्द्धमाना उत्कृष्टां यावदनन्ता भवन्ति, अथ जघन्योत्कृष्टयोः कियदन्तरं ?, जघन्याभ्य उत्कृष्टा विशेषाधिका, विशेषस्तु जघन्यवर्गणानन्तभागः, तस्याप्यनन्तप्रदेशत्वाज्जघन्योत्कृष्टान्तरालवर्गणानामानन्त्यं भवति, तैजसोत्कृष्टवर्गणोपरि रूपे प्रक्षिप्ते सत्यग्रहणवर्गणा भवन्ति एवमेकादिवृद्धयोत्कृष्टान्ता अ नन्ताः, ताश्चातिसूक्ष्मत्वाद् बहुप्रदेशत्वाच्च तेजसस्याग्रहणयोग्याः, चादरत्वात् अल्पप्रदेशत्वाच्च भाषाद्रव्यस्यापीति, जघन्योत्कृष्टयोरनन्तगुणत्वेन विशेपो, गुणकारश्चाभव्येभ्योऽनन्तगुणः सिद्धानामनन्तभाग इति, तस्यामयोग्योत्कृष्टवर्गणायां रूपे प्रक्षिष्ठे जघन्या भाषाद्रव्यवर्गणा भवति, तस्याश्च प्रदेशवृद्ध्या उत्कृष्टवर्गणापर्यन्तान्यनन्तानि स्थानानि Esticatonttumational For Party Use Onl ~189~# Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [६१] दीप अनुक्रम [६२] श्रीचा राङ्गवृत्तिः (०) ॥ ९३ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], निर्युक्ति: [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः भवन्ति, जघन्योत्कृष्टयोविंशेषो जघन्यवर्गणानन्तभागाधिकोत्कृष्टवर्गणा भवति, अत्राप्यनन्तभागस्यानन्तपरमाण्यात्मकत्वाद्भाषाद्रव्ययोग्य वर्गणानामानन्त्यमवसेयं, तदनेनैकादिप्रदेशवृद्धिप्रक्रमेणायोग्यवर्गणानां जघन्योत्कृष्टादिकं ज्ञातव्यं, नवरं जघन्योत्कृष्टयोर्भेदोऽयम् अभव्यानन्तगुणः सिद्धानन्तभागात्मकः, तासां च पूर्व्वहेतुकदम्बकादेव भाषाद्रव्यानापानद्रव्ययोर योग्यत्वमवसेयम्, अयोग्योत्कृष्टवर्गणायां रूपे प्रक्षिप्ते आनापानवर्गणा जघन्या, तत्तो रूपोत्तरवृद्धयोकृष्टवर्गणान्ता अनन्ता भवन्ति, जघन्यातउत्कृष्टा जघन्यानन्तभागाधिका, तदुपरि रूपोसरवृद्ध्या जघन्योत्कृष्टभेदेनाग्रहणवर्गणा, विशेषस्त्वभव्येभ्योऽनन्तगुणः सिद्धानामनन्तभागः, पुनरप्ययोग्योत्कृष्टवर्गणोपरि प्रदेशादिवृद्ध्या जध| न्योत्कृष्टभेदा मनोद्रव्यवर्गणा, जघन्य वर्गणानन्तभागो विशेषः, पुनरपि प्रदेशोत्तरक्रमेणाग्रहणवर्गणा, विशेषश्चाभव्यानन्तगुणादिकः, ताश्च प्रदेश बहुत्वादतिसूक्ष्मत्वाच्च मनोद्रव्यायोग्याः, अल्पप्रदेशत्वाद् वादरत्वाच्च कार्म्मणस्यापि तदुपरि रूपे ५) प्रक्षिशे जघन्याः कार्म्मणशरीरवर्गणाः, पुनरप्येकैकप्रदेशवृद्ध्या वर्द्धमाना उत्कृष्टा यावदनन्ता भवन्ति, अथ जघन्योत्कृष्टयोः कः प्रतिविशेष इति १, उच्यते, जघन्यवर्गणानन्तभागाधिकोत्कृष्टवर्गणा, स चानन्तभागोऽनन्तानन्तपरमाण्वा| रमकोऽत एवानन्तभेदभिन्नाः कर्म्मद्रव्यवर्गणा एवं भवन्ति, आभिश्चात्र प्रयोजनं, द्रव्यकर्म्मणो व्याचिख्यासितत्वादिति । शेषा अपि वर्गणाः क्रमायाताः विनेयजनानुग्रहार्थं व्युत्पाद्यन्ते - पुनरप्युत्कृष्टक वर्गणोपरि रूपादिप्रक्षेपेण जघ| न्योत्कृष्टभेदभिन्ना ध्रुववर्गणाः, जघन्याभ्य उत्कृष्टाः सर्व्वजीवेभ्योऽनन्तगुणाः, तदुपरि रूपप्रक्षेपादिक्रमेणानन्ता एव जघन्योत्कृष्टभेदा अनुघवर्गणाः, अध्रुवत्वादवाः, पाक्षिक सद्भावादनुवत्वं जघम्वोत्कृष्टभेदोऽनन्तरोक्त एष, तदुत्कृष्टो Jan Estication Intimanal For Pantry Use Only ~ 190 ~# छोक. वि. २ उद्देशकः १ ॥ ९३ ॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्रा [६१]] OCALCCANCER हापरि रूपादिप्रवृद्ध्या जघन्योत्कृष्टभेदा अनन्ता एव शून्या वर्गणा भवन्ति, जघन्योस्कृष्टषिशेषः पूर्ववत्, तासां संसारे|ऽप्यभावात् शून्यवर्गणा इत्यभिधानम्, एतदुक्तं भवति-अध्रुववर्गणोपरि प्रदेशब्याऽनन्ता अपि न सम्भवन्तीति प्रथमा शून्यवर्गणा, तदुपरि रूपादिवृद्ध्या जघन्योत्कृष्टभेदाः प्रत्येकशरीरवर्गणा भवन्ति, जघन्यातः क्षेत्रपल्योपमासउल्येयभागप्रदेशगुणोत्कष्टा, तदुपरि रूपोत्तरादिवृक्या जघन्योत्कृष्टभेदा अनन्ता एव शून्यवर्गणा भवन्ति, जघन्यव-I गणात उत्कृष्टा त्वसख्येयभागप्रदेशगुणा, तदसम्ख्येयभागोऽध्यसख्येयलोकात्मक इति द्वितीया शून्यधर्मणा, तदुपरि रूपादिवृझ्या बादरनिगोदशरीरवर्गणा जघन्यातः क्षेत्रपल्योपमासण्येयभागप्रदेशगुणोत्कृष्टा, तदुपरि रूपादिवृद्धया जघन्योत्कृष्टभेदा तृतीया शून्यवर्गणा, उत्कृष्टा जघन्यातोऽसङ्ख्येयगुणा, को गुणकार इति?, उच्यते, अङ्गलासङ्ख्येयभागप्रदेशराशेरावलिकाकालासङ्ख्येयभागसमयप्रमाणकृतपौनःपुन्यवर्गमूलस्यासख्येयभागप्रदेशप्रमाण इति, तदुपरि रूपोत्तरवृद्ध्या जघन्योत्कृष्टभेदा सूक्ष्मनिगोदशरीरवर्गणा, जघन्यात उत्कृष्टा आवलिकाकालासंख्येयभागसमयगुणा, तदुपरि रूपोत्तरपृड्या जघन्योत्कृष्टभेदा चतुर्थी शून्यवर्गणा, जघन्यात उत्कृष्टा चतुरस्रीकृतलोकस्यासङ्|ख्येयाः श्रेण्यः, ताश्च प्रतरासख्येयभागतुल्या इति, तदुपरि रूपादिवृद्ध्या जघन्योत्कृष्टभेदा महास्कन्धवर्गणा, जयन्यात उत्कृष्टा क्षेत्रपस्योपमस्यासङ्ख्येयगुणा संख्येयगुणा वेति । उक्ताः समासतो वर्गणाः, विशेषार्थिना तु कर्मप्रकृतिरवलोकनीयेति । साम्प्रतं प्रयोगकर्म, वीर्यान्तरायक्षयोपशमाविर्भूतवीर्येणात्मना प्रकर्षेण युज्यत इति प्रयोगः, स च मनोवाकायलक्षणः पञ्चदशधा, कथमिति ?, उच्यते, तत्र मनोयोगः सत्यासत्यमिश्रानुभयरूपश्चतुर्द्धा, एवं वाग्योगोऽपि, काय अनुक्रम [६२ wwwanatimarmarg ~191~# Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥९४॥ [६१]] योगः सप्तधा-औदारिकौदारिकमिश्नवैक्रियवैक्रियमिश्राहारकाहारकमिश्रकार्मणयोगभेदात् , तंत्र मनोयोगो मनःपर्याप्त्या लोक.वि.२ पर्याप्तस्य मनुष्यादेः, वाग्योगोऽपि द्वीन्द्रियादीनाम् , औदारिकयोगस्तिर्यग्मनुजयोः शरीरपर्याप्तेरूद्धे, तदारतस्तु मिश्नः, उद्देशका केवलिनो वा समुद्घातगतस्य द्वितीयषष्ठसप्तमसमयेषु, वैक्रियकाययोगो देवनारकबादरवायूनाम् , अन्यस्य वा वैक्रियलब्धिमतः, तन्मिनस्तु देवनारकयोरुत्पत्तिसमयेऽन्यस्य वा वैक्रियं निवर्तयता, आहारककाययोगश्चतुर्दशपूर्वविद आहारकशरीरस्थस्य, तन्मिश्रस्तु निर्वर्तनाकाले, कार्मणयोगो विग्रहगतौ केवलिसमुद्घाते वा तृतीयचतुर्थपश्चमसमयेष्विति। तदनेन पञ्चदशविधेनापि योगेनात्माऽष्टौ प्रदेशान् विहायोत्तप्तभाजनोदकवदुद्वर्त्तमानैः सर्वैरेवात्मप्रदेशैरात्मप्रदेशावष्ट-II ब्धाकाशदेशस्थं कार्मणशरीरयोग्यं कर्मदलिकं यद् बनाति तत्प्रयोगकर्मेत्युच्यते, उक्तं च-"जाव णं एस जीवे एयइ वेयइ चलइ फंदईत्यादि ताव णं अहबिहबंधए वा सत्तविहबंधए वा छब्धिहबंधए वा एगविहबंधए वा नो णं अबंधए"। || समुदानकर्म सम्पूर्वादापूाच ददातेल्युडन्तात् पृषोदरादिपाठेन आकारस्योकारादेशेन रूपं भवति, तत्र प्रयोगकर्म-IN जैकरूपतया गृहीतानां कर्मवर्गणानां सम्यग्मूलोत्तरप्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशबन्धभेदेनाइ-मर्यादया देशसर्वोपघातिरूपया तथा स्पृष्टनिधत्तनिकाचितावस्थया च स्वीकरणं समुदानं तदेव कर्म समुदानकर्म, तत्र मूलप्रकृतिवन्धो ज्ञानावरणीयादि, उत्तरप्रकृतिवन्धस्तूच्यते-उत्तरप्रकृतिवन्धो ज्ञानावरणीयं पञ्चधा-मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलावरणभेदात्, तत्र केवलावारकं सर्वघाति शेषाणि तु देशसर्वघातीन्यपि, दर्शनावरणीयं नवधा-निद्रापश्चकदर्शनचतुष्टयभेदात्, तत्र MI||९४॥ १ यावदेष जीव एजते येजते चलति सन्दते, ताबदष्टविषवन्धको था सप्तबिधबन्धको वा षद्धिवन्धको वा एकविधबन्धको वा, नैवाबन्धकः, अनुक्रम [६२ wwwandltimaryam ~192~# Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक [६१]] निद्रापञ्चकं प्राप्तदर्शनलब्ध्युपयोगोपघातकारि, दर्शनचतुष्टयं तु दर्शनलब्धिप्राप्तेरेव, अत्रापि केवलदर्शनावरणं सर्वघाति शेषाणि तु देशतः, वेदनीयं द्विधा-सातासातभेदात्, मोहनीयं द्विधा-दर्शनचारित्रभेदात्, तत्र दर्शनमोहनीयं त्रिधामिथ्यात्वादिभेदात्, बन्धतस्त्वेकविधं, चारित्रमोहनीयं षोडशकषायनवनोकषायभेदासञ्चविंशतिविधम् , अत्रापि मिथ्यात्वं सबलनवर्जा द्वादश कषायाश्च सर्वघातिन्या, शेषास्तु देशघातिन्य इति, आयुष्कं चतुर्द्धा-नारकादिभेदात्, नाम द्विचत्वारिंशभेदं गत्यादिभेदात्, त्रिनवतिभेदं चोत्तरोत्तरप्रकृतिभेदात्, गतिश्चतुर्डा जातिरेकेन्द्रियादिभेदात्यवधा शरीराणि औदारिकादिभेदात्पञ्चधा औदारिकवैक्रियाहारकभेदादङ्गोपाङ्गं त्रिधा निर्माणनाम सर्वजीवशरीरावय वनिष्पादकमेकधा बन्धननाम औदारिकादिकर्मवर्गणकत्वापादकं पञ्चधा सङ्घातनामौदारिकादिकर्मवर्गणारचनाविशेदिपसंस्थापकं पञ्चधा संस्थाननाम समचतुरस्रादि पोढा संहनननाम वज्रऋषभनाराचादि पोद्वैव सर्शोऽष्टधा रसः पञ्चधार गन्धो द्विधा वर्णः पञ्चधा आनुपूर्वी नारकादिश्चतुर्दा विहायोगतिः प्रशस्ताप्रशस्तभेदात् द्विधा अगुरुलघूपघातपराघातातपोद्योतोच्छासप्रत्येकसाधारणत्रसस्थावरशुभाशुभसुभगदुर्भगसुस्वरदुःस्वरसूक्ष्मवादरपर्याप्तकापर्याप्तकस्थिरास्थिरादेयानादेययशःकीर्तिअयशाकीर्तितीर्थकरनामानि प्रत्येकमेकविधानीति, गोत्रमुच्चनीचभेदात् द्विधा, अन्तरायं दानला-11 भभोगोपभोगवीयभेदात् पक्षधेत्युक्तः प्रकृतिबन्धो, बन्धकारणानि तु गाथाभिरुच्यन्ते-"पंडिणीयमंतराइय उवधाए अनुक्रम [६२ १ सप्तधा-अनन्तानुबन्धिमिध्यात्वादिभेदात, बन्यतस्तु पञ्चधा प्र. २ द्वादश प्र.३ एकविंशतिविधम् प्र. ४ प्रसनीकरपेऽन्तराब उपपाते. wwwandltimaryam ~193~# Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचाराजवृत्तिः (सी) [६१] ९५॥ तप्पेओस णिण्हवणे । आवरणदुर्ग बन्धइ भूओ अञ्चासणाए य ॥१॥ भूयाणुकंपवयजोगउज्जुओ खंतिदाणगुरु-दालोक.वि.२ भत्तो । बन्धइ भूओ सायं विवरीए बन्धई इयरं ॥२॥ अरहंतसिद्धचेइयतवसुअगुरुसाधुसंघपडिणीओ। बंधइ सण| मोहं अर्णतसंसारिओ जेणं ॥३॥ तिब्धकसाओ बहुमोहपरिणतो रागदोससंजुत्तो । बंधह चरित्तमोहं दुविहंपि चरित्तगुणधाई ॥४॥ मिच्छदिडी महारंभपरिग्गहो तिब्वलोभ णिस्सीलो । निरआउयं निबंधइ पावमती रोद्दपरिणामो ॥५॥ उम्मग्गदेसओ मम्गणासओ गूढहिथय माइलो । सढसीलो अ ससल्लो तिरिआउं बंधई जीवो ॥६॥ पगतीऍ तणुक-14 साओ दागरओ सीलसंजमविहूणो । मज्झिमगुणेहिं जुत्तो मणुयाउं बन्धई जीवो ॥ ७॥ अणुब्बयमहब्वएहि य बालतवोऽकामनिजराए य । देवाउयं णिबंधइ सम्मद्दिडी उ जो जीवो ॥ ८॥ मणवयणकायवंको माइलो गारवेहि पडि-] बद्धो । असुभं बंधई नामं तप्पडिपक्खेहि सुभनामं ॥९॥ अरिहंतादिसु भत्तो सुत्तरुई पयणुमाण गुणपेही । बन्धइ | अनुक्रम [६२ १ तत्वद्वेषे निहपने। बावरणद्विकं बध्नाति भूतोऽत्याशातनया च ॥१॥ भूतानुकम्पावतयोगोधुक्तः क्षान्ति (मान) दानी गुरुभक्तः । वनाति भूतः सात विपरीतो बनातीतरत् ॥ २ अर्हत्सिदखतपःश्रुतगुण्यासहप्रवचीकः । बभ्राति दर्शनमोहमनन्तसंसारिको येन ॥ तीमकवायो बहुमोहपरिणतो रागद्वेषसंयुक्तः । वनाति | चारित्रमोहं द्विविधमपि चारित्रगुणाति ॥ ४मिथ्याष्टिमंहारम्भपरिवहस्तीवलोचो विस्तीतः । नरकाम्युफ निबध्नाति अपयती रोगपरिणामः ॥ ५॥ सन्मार्गIPI देशको मार्गनाशको गूढहदयो मायावी । शाम्यशीलक्ष सशल्यस्तिर्यगायुधानि जीवः ॥ ६॥ प्रकृया तनुकषायो दानरतः शीखसयमविहीमः । मध्यमगुणेषुम्ने ||४॥ ९५॥ । मनुजायुर्वभाति जीवः ॥ ॥ अणुव्रतमहावतैश्च बालतपोऽकामनिर्जरया च । देवायुर्निबध्नाति सम्यगरष्टिय यो जीवः ॥ ८॥ मनोवचनकायबको मायावी औरवैः । | प्रतिषकः । लाभ वनाति नाम तत्प्रतिपः शुभनाम ॥ ९॥ अईदादिषु भक्तः सूत्ररुचिः प्रतनुमानो गुणप्रेक्षी। SA wwwandltimaryam ~194~23 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: % प्रत सूत्राक % [६१]] %95 उधागोयं विवरीए बंधई इयरं ॥ १०॥ पाणवहादीसु रतो जिणपूयामोक्खमग्गविग्घयरो । अजेइ अंतराय ण लइइ जेणिच्छिय लाभं ॥ ११॥" स्थितिबन्धो मूलोत्तरप्रकृतीनामुत्कृष्टजघन्यभेदः, तत्रोत्कृष्टो मूलप्रकृतीनां ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीयवेदनीयान्तरायाणां त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोव्यः, यस्य च यावत्यः कोटीकोव्यः स्थितिस्तस्य तावन्त्येव वर्षशतान्यबाधा, तदुपरि प्रदेशतो विपाकतो वा अनुभवः, एसदेव प्रतिकर्मस्थिति योजनीयं, सप्ततिम्मोहनीयस्य, नामगोत्रयोविंशतिः, त्रयविंशत्सागरोपमाण्यायुषः पूर्वकोटीविभागोबाधा । जघन्यो ज्ञानदर्शनावरणमोहनीयान्तरायाणामन्तर्मुहूर्त, नामगोत्रयोरष्टौ मुहूर्ताः, वेदनीयस्य द्वादश, आयुषः क्षुलकभवः, स थानापानसप्तदशभागः । साम्प्रतमेतदेव बन्धद्वयमुत्तरप्रकृतीनामुच्यते-तत्रोत्कृष्टो मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलावरणनिद्रापश्चकचक्षुर्दर्शनादिचतु कासद्वेचदानाद्यन्तरायपञ्चकभेदानां विंशतेरुत्तरप्रकृतीनां त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोव्यः, स्त्रीवेदसातवेदनीयमनुजगत्या-16 अनुपूर्वीणां चतसृणां पञ्चदश, मिथ्यात्वस्यौधिकमोहनीययत्, कषायपोडशकस्य चत्वारिंशत् कोटीकोट्यः, नपुंसकवेदार तिशोकभयजुगुप्सानरकतिर्यम्गत्येकेन्द्रियपश्चेन्द्रियजात्यौदारिकवैक्रियशरीरतदङ्गोपाङ्गद्वयतैजसकार्मणहुण्डसंस्थानान्त्य|संहननवर्णगन्धरसस्पर्शनरकतिर्यगानुपूर्वीअगुरुलघूपघातपराघातोच्छासातपोद्योताप्रशस्तविहायोगतित्रसस्थावरवादरपर्यासकप्रत्येकास्थिराशुभदुर्भगदुःस्वरानादेयायशःकीतिनिर्माणनीचैर्गोत्ररूपाणां त्रिचत्वारिंशत उत्तरप्रकृतीनां विंशतिः, पुंवेदहास्यरतिदेवगत्यानुपूर्वीद्वयाद्यसंस्थानसंहननप्रशस्तविहायोगतिस्थिरशुभसुभगसुस्वरादेययशःकीर्युश्चैर्गोत्ररूपाणां प १ बझाल्युचैर्गोत्रं विपरीतो बनातीतरत् ॥ १० ॥ प्राणवधादिषु रतो जिनपूजाभोक्षमागविघ्नकरः । अर्जयसन्तरायं न लभते येनेसित लाभम् ॥ ११ ॥ अनुक्रम [६२ %%E5 % 0-% Jain Educatinintamathima wwwanatimarmarg ~195~2 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०) [६१]] दशानामुत्तरप्रकृतीनां दश, न्यग्रोधसंस्थानद्वितीयसंहननयोादश तृतीयसंस्थाननाराचसंहननयोश्चतुर्दश कुब्जर्स- लोक.दि.२ स्थानार्धनाराचसंहननयोः षोडश वामनसंस्थानकीलिकासंहननद्वित्रिचतुरिन्द्रियजातिसूक्ष्मापर्याप्तकसाधारणानामष्टाना- ALL उद्देशकः१ मुत्तरप्रकृतीनामष्टादश, आहारकतदनोपाङ्गतीर्थकरनाम्नां सागरोपमकोटीकोटिभिन्नान्तर्मुहर्तमबाधा, देवनारकायुषोरी-18 [घिकवत्, तियेग्मनुष्यायुषः पल्योपमत्रयं पूर्वकोटित्रिभागोऽबाधा । उक्त उत्कृष्टः स्थितिबन्धो, जघन्य उच्यते-मत्यादिपञ्चकचक्षुर्दर्शनाद्यावरणचतुष्कसज्जवलनलोभदानाद्यन्तरायपश्चकभेदानां पञ्चदशानामन्तर्मुहर्तमन्तर्मुहूर्तमेवावाधा, निद्रापञ्चकासातावेदनीयानां पण्णां सागरोपमस्य त्रयः सप्तभागाः पल्योपमासन-धेयभागन्यूनाः, सातावेदनीयस्य द्वादश मुहूर्ता अन्तर्मुहर्त्तमवाधा, मिथ्यात्वस्य सागरोपमं पल्योपमासन्ख्येयभागन्यूनम् , आद्यकषायद्वादशकस्य चत्वारः सप्तभागाः सागरोपमस्य पल्योपमासन्ख्येयभागन्यूनाः, सञ्चलनक्रोधस्य मासद्वयं, मानस्य मासः, तदधैं मायाया, पुवेदस्याष्टी संवत्सराः, सर्वत्रान्तर्मुहूर्तमवाधा, शेषनोकपायमनुष्यतिर्यग्गतिपश्चेन्द्रियजात्यौदारिकतदङ्गोपाङ्गतैजसकामेणषट्संस्थानसंहननवर्णगन्धरसस्पर्शतिर्यग्मनुजानुपूबींअगुरुलधूपघातपराघातोच्छासातपोद्योतप्रशस्ताप्रशस्तविहायोगतियश कीर्तिवजेत्रसादिविंशतिकनिम्मणिनीचेोत्रदेवगत्यानुपूर्वीद्वयनरकगत्यानुपूर्वीद्वयवैक्रियशरीरतदङ्गोपाङ्गरूपाणामष्टषट्युत्तरप्रकतीनां सागरोपमस्य द्वौ सप्तभागी पल्योपमासङ्ख्ययभागन्यूनौ अन्तर्मुहर्तमबाधा, वैकियषट्कस्य तु सागरोपमसह गतिजातिपश्चकीदा० प्र. २ देवद्विकनरकटिकवैक्रियट्रिक आहारकदिकयशःकीर्तितीर्थकरनामकमरहितानां शेषनामप्रकृतीनां तथा नीचेर्गोत्रस्य चेत्यासामुहात्तरप्रकृतीनों प्र. अनुक्रम [६२ wwwandltimaryam ~196~# Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [६१] अनुक्रम [६२] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], निर्युक्तिः [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः स्रस्य द्वौ सप्तभागौ पस्योपमा सङ्ख्येयभागन्यूनाबन्तर्मुहूर्त्तमबाधा, आहारकतदङ्गोपाङ्गतीर्थकर नाम्नां सागरोपमकोटीको टिभिज्ञान्तर्मुहूर्तमबाधा, ननु चोत्कृष्टोऽप्येतावन्मात्र एवाभिहितस्ततः कोऽनयोर्भेद इति ?, उच्यते, उत्कृष्टात् सङ्ख्येयगुणहीनो जघन्य इति, यशः कीर्त्त्यच्चर्गोत्रयोरष्टमुहूर्त्ताभ्यन्तर्मुहूर्तमबाधा, देवनारकायुषेोर्दश वर्षसहस्राण्यन्तर्मुहूर्त्तमबाधा, तिर्यग्मनुजायुषोः क्षुल्लकभवोऽन्तर्मुहूर्त्तमवाधेति, बन्धनसङ्घातयोरीदारिकादिशरीर सहचरितत्वातगत एवोस्कृष्टजघन्यभेदोऽवगन्तव्य इति । उक्तः स्थितिबन्धः, अनुभावबन्धस्तूच्यते तत्र शुभाशुभानां कर्मप्रकृतीनां प्रयोगकर्मगोपात्तानां प्रकृतिस्थितिप्रदेशरूपाणां तीव्रमन्दानुभावतयाऽनुभवनमनुभावः, स चैकद्वित्रिचतुः स्थानभेदेनानुगन्तव्यः, तत्राशुभप्रकृतीनां कोशातकीर ससमक्कथ्यमानार्द्धत्रिभागपादावशेषतुल्यतया तीव्रानुभावोऽवगन्तव्यो मन्दानुभावस्तु जातिर सैक द्वित्रिचतुर्गुणोदकप्रक्षेपास्वादतुल्यतयेति, शुभानां तु क्षीरेक्षुरसदृष्टान्तः पूर्ववद्योजनीयः, अत्र च कोशातकी क्षुरसादावुदकविन्द्रादिप्रक्षेपात् व्यत्ययाद्वा भेदानामानन्त्यमवसेयमिति । अत्र चायूंषि भवविपाकीनि आनुपूर्व्यः क्षेत्रविपाकिन्यः शरीर संस्थानाङ्गोपाङ्ग सङ्घातसंहननवर्णगन्धरसस्पर्शा गुरुलघूपघातपराधातोद्योतातप निर्माणप्रत्येकसाधारणस्थिरास्थिरशुभाशुभरूपाः पुद्गलविपाकिन्यः, शेषास्तु ज्ञानावरणादिका जीवविपाकिन्य इत्युक्तोऽनुभाववन्धः । प्रदेशबन्धस्त्वेक विधादिबन्धकापेक्षया भवति, तत्र यदैकविधं बध्नाति तदा प्रयोगकर्मणैकसमयोपात्ताः पुद्गलाः सातावेदनीयभावेन विपरिणमन्ते, पधिबन्धकस्य स्वायुम्मोहनीयवज्र्जः षोढा, सप्तविधबन्धकस्य सप्तधा, अष्टविधबन्धकस्याष्टधेति, तत्राद्यसमयप्रयोगात्ताः पुद्गलाः समुदानेन द्वितीयादिसमयेष्वल्प बहुप्रदेश तयाऽनेन क्रमेण व्यवस्थापयति-तत्रा Estication tumanl For Pantry Use Only ~197 ~# Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: [६१]] दीप श्रीआचा युषः स्तोकाः पुद्गलाः, तद्विशेषाधिकाः प्रत्येक नामगोत्रयोः, परस्परं तुल्याः, तद्विशेषाधिकार प्रत्येक ज्ञानदर्शनावरणा-लोक.वि.२ राङ्गवृत्तिः सन्तरायाणां, तेभ्यो विशेषाधिका मोहनीये । ननु च तेभ्यो विशेषाधिका इत्यत्र निर्धारणे पञ्चमी, सा च “पञ्चमी विभक्ते" उद्देशक (शी०) (पा०२-३-४२) इत्यनेन सूत्रेण विधीयते, अस्य चायमों-विभागो विभक्तं तत्र पञ्चमी विधीयमाना यत्रात्यन्तविभागस्तत्रैव भवति, यथा माथुरेभ्यः पाटलिपुत्रका अभिरूपतराः, इह च कर्मपुद्गलानां सर्वदैकत्वं, तथावस्थानामेव च बुझ्या बहु॥९७॥ प्रदेशादिगुणेन पृथकरणं चिकीर्षितं, तत्र षष्ठी सप्तमी वा न्याय्या, तद्यथा-गवां गोषु वा कृष्णा सम्पन्नक्षीरतमेति, |नैष दोषो, यत्रावध्यवधिमतोः सामान्यवाची शब्दः प्रयुज्यते तत्रैव षष्ठीसप्तम्यौ, "यतश्च निर्धारण (पा०२-३-४१) मित्यसानेन सूत्रेण विधीयेते, यथा गवां कृष्णा सम्पन्नक्षीरतमा, मनुष्येषु पाटलिपुत्रकाः आब्यतराः, कर्मवर्गणापुद्गलानां K| वेदनीये बहुतरा इति, यत्र पुनर्विशेषवाची शब्दोऽवधित्वेनोपादीयते तत्र पञ्चम्येव, यथा खण्डमुण्डशवलशावलेयध-IK वलधावलेयव्यक्तिभ्यः कृष्णा सम्पन्नक्षीरतमेति, अतो नात्र विभागः कारणमविभागो वा, यतो माथुरपाटलिपुत्रकादिविभागेन विभक्तानामपि सामान्यमनुष्यादिशब्दोच्चारणे षष्ठीसप्तम्यौ भवतो, यत्र तु पुनम्मोंधुरादिविशेषोऽय-13 |धित्वेनोपादीयते तत्र कार्यवशादेकस्थानामपि पञ्चम्येव, तदिह सत्यपि कर्मवर्गणानामेकत्वे तद्विशेषस्थावधित्वेनोपादानात्पञ्चम्येव न्याय्येति, तद्विशेषाधिका वेदनीये । उक्तः प्रदेशबन्धः समुदानकापीति । साम्प्रतमीयोपथिक, "ईर गति-IN प्रेरणयोः" अस्माद्धावे ण्यत ईरणमीर्या तस्याः पन्था ईर्यापथस्तत्र भवमीर्यापथिक, कश्चर्यायाः पन्धा भवति', यदा-18|| श्रिता सा भवतीति !, एतच्च व्युत्पत्तिनिमित्तं यतस्तिष्ठतोऽपि तद्भवति, प्रवृत्तिनिमित्तं तु स्थित्यभावः, तच्चोपशान्तक्षीण अनुक्रम [६२] wwwandltimaryam ~198~# Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [६१] दीप अनुक्रम [६२] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], निर्युक्तिः [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः मोहसयोगकेवलिनां भवति, सयोगकेवलिनोऽपि हि तिष्ठतोऽपि सूक्ष्मगात्रसञ्चारा भवन्ति, उक्तं च – “केवली णं भंते! अस्सि समयंसि जेसु आगासपदेसेसु हत्थं वा पायं वा ओगाहित्ता णं पडिसाहरेजा, पभू णं भंते! केवली तेसु चैवागासपदेसेसु पडिसाहरित्तए ?, जो इणडे समट्ठे, कहं?, केवलिस्स णं चलाई सरीरोवगरणाई भवति, चलोवगरणत्ताए केवली णो सञ्चापति तेसु चैवागासपदेसेसु हत्थं वा पायं वा पडिसाहरित्तए” तदेवं सूक्ष्मतरगात्रसञ्चाररूपेण योगेन यत्कर्म्म बध्यते तदीर्य्यापथिकम् - ईर्याप्रभवं ईर्याहेतुकमित्यर्थः तच्च द्विसमयस्थितिकम् एकस्मिन् समये बद्धं द्वितीये वेदितं, तृतीयसमये तदपेक्षया चाकर्म्मतेति कथमिति ?, उच्यते, यतस्तत्प्रकृतितः सातावेदनीयमकषायत्वात् स्थित्यभावेन बध्यमानमेव परिशटति, अनुभावतोऽनुत्तरोपपातिक सुखातिशाथि प्रदेशतः स्थूलरूक्षशुक्लादिबहुप्रदेशमिति, उक्तं च- "अप्पं बायरमउयं बहुं च लुक्खं च सुक्किलं चैव । मंदं महव्वतंतिय साताबहुलं च तं कम्मं ॥ १ ॥" अल्पं स्थितितः स्थितेरेवाभावात्, बादरं परिणामतोऽनुभावतो मृद्रनुभाव, बहु च बहुप्रदेशैः, रूक्षं स्पर्शतो, वर्णेन शुक्ल, मन्दं लेपतः, स्थूलचूर्णमुष्टिमृष्टकुड्यापतितलेपवत् महाव्ययमेकसमयेनैव सर्वापगमात् साताबहुलमनुत्तरोपपातिकमुखातिशायीति । उक्तमीर्यापथिकम् अधुना आधाकर्म्म, यदाधाय - निमित्तत्वेनाश्रित्य पूर्वोक्तमष्टप्रकारमपि कर्म्म बध्यते तदाधाकर्मेति, तच्च शब्दस्पर्शरसरूपगन्धादिकमिति, तथाहि शब्दादिकामगुणविषयाभिष्वङ्गवान् सुखलिप्सुमहोपहतचेताः परमार्था १ केवली भदन्त । अस्मिन् समये येण्याकाशप्रदेशेषु इ या पादं वाऽवगाह्य प्रतिसंहरेत् प्रभुर्भदन्त केवली तेष्वेवाकाशप्रदेशेषु प्रतिसंहर्तुम् १, मैयोऽर्थः समर्थः, कथम् ?, केवलिनश्चलानि शरीरोपकरणानि भवन्ति, बलोपकरणतया केवली न शक्नोति तेष्वेवाकाशप्रदेशेषु हस्तं वा पादं वा प्रतिसंहर्तुम्. Eticatontational For Party Use Onl ~199 ~# Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६१...], नियुक्ति: [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: % - श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०) [६१]] ॥९८॥ सुखमयेष्वपि सुखाध्यारोपं विदधाति, तदुक्तम्- "दुःखात्मकेषु विषयेषु सुखाभिमानः, सौख्यात्मकेषु नियमादिषु दुःख- लोक.वि.२ बुद्धिः । उत्कीर्णवर्णपदपतिरिवान्यरूपा, सारूप्यमेति विपरीतगतिप्रयोगात् ॥ १॥" एतदुक्तं भवति-कर्मनिमित्तभूता मनोज्ञेतरशब्दादय एवाधाकम्र्मेत्युच्यन्ते इति । तपःकर्म तस्यैवाष्टप्रकारस्य कर्मणो बद्धस्पृष्टनिधत्तनिकाचितावस्थ- उद्देशक स्थापि निर्जराहेतुभूतं बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्वादशप्रकार तपःकर्मेत्युच्यते । कृतिकर्म तस्यैव कर्मणोऽपनयनकारकमई-| | सिद्धाचार्योपाध्यायविषयमवनामादिरूपमिति । भावकर्म पुनरबाधामुलकाच खोदयेनोदीरणाकरणेन चोदीर्णोः पुदलाः प्रदेशविपाकाभ्यां भवक्षेत्रपुबलजीवेष्वनुभावं ददतो भावकर्मशब्देनोच्यन्त इति । तदेवं नामादिनिक्षेपेण दशधा|| कम्मोकम् , इह तु समुदानकर्मोपात्तेनाष्टविधकर्मणाऽधिकार इति गाथाशकलेन दर्शयति अट्ठविहेण उ कम्मेण एस्थ होई अहीगारो॥१८४ ॥ गाथाई कण्ठ्यमिति गाथाद्वयपरमार्थः । तदेवं सूत्रानुगमेन सूत्रे समुच्चारिते निक्षेपनियुक्त्यनुगमन प्रतिपदं निक्षिप्ते IN नामादिनिक्षेपे च व्याख्याते सत्युत्तरकालं सूत्रं विनियते जे गुणे से मूलढाणे, जे मूलदाणे से गुणे । इति से गुणट्टी महया परियावेणं पुणो पुणो रसे पमत्ते-माया मे पिया मे भज्जा मे पुत्ता मे धूआ मे ण्डसा मे सहिसयणसंगंथसंथुआ मे विवित्तुवगरणपरिवहणभोयणच्छायणं मे । इच्चत्थं गहिए लोए अनुक्रम [६२ LOCARKHE ॥९८ walaatmaram दवितीय-अध्ययने प्रथमं उद्देशक: 'स्वजन' आरब्धः, ~200~# Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [६२] दीप अनुक्रम [ ६३ ] -36564544 “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], मूलं [६२], निर्युक्ति: [१८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः अहो य राओ य परितप्यमाणे कालाकालसमुट्ठाई संजोगट्टी अट्ठालोभी आलूंचे सहसाकारे विणिविचित्ते, एत्थ सत्थे पुणो पुणो, अप्पं च खलु आउयं इहमेगेसिं माण वाणं तंजहा ॥ ६२ ॥ अस्य चानन्तरपरम्परादिसूत्रैः सम्बन्धो वाच्यः, तत्रानन्तरसूत्र सम्बन्धः --' से हु मुणी परिण्णायकम्मे'ति, स मुनिः परिज्ञातकर्मा भवति यस्यैतद्गुणमूलादिकमधिगतं भवति, परम्परसूत्रसम्बन्धस्तु 'से जं पुण जाणिज्जा सहसंमुइयाए | परवागरणेणं अण्णेसिं वा सोच्चा' स्वसम्मत्या परव्याकरणेन तीर्थकरोपदेशादन्येभ्यो वाऽऽचार्यादिभ्यः श्रुत्वा जानीयात् परिच्छिन्द्यात् किं तदित्युच्यते- 'जे गुणे से मूलहाणे', आदिसूत्रसम्बन्धस्तु 'सुयं मे आउसंतेगं भगवया एवमक्खायें' किं तत् श्रुतं भवता यद्भगवता आयुष्मताऽऽख्यातमिति, उच्यते, 'जे गुणे से मूलद्वाणे,' 'य' इति सर्वनाम प्रथमान्तं मागधदेशीवचनत्वादेकारान्तं सामान्योद्देशार्थाभिधायीति, गुण्यते- भिद्यते विशेष्यतेऽनेन द्रव्यमिति गुणः, स चेह शब्दरूपरसगन्धस्पर्शादिकः, 'स' इति सर्वनाम प्रथमान्तमुद्दिष्टनिर्देशार्थाभिधायीति, 'मूल' मिति निमित्तं कारणं प्रत्यय इति पर्यायाः, तिष्ठन्त्यस्मिन्निति स्थानं, मूलस्य स्थानं मूलस्थानं, 'व्यवच्छेदफलत्वाद् वाक्याना' मिति न्यायात् य एव शब्दादिकः कामगुणः स एव संसारस्य-नारकतिर्यग्नरामरसंसृतिलक्षणस्य यन्मूलं कारणं कषायास्तेषां स्थानम्आश्रयो वर्त्तते यस्मान्मनोज्ञेतर शब्दाद्युपलब्धौ कषायोदयः, ततोऽपि संसार इति, अथवा मूलमिति कारणं, तच्चा Jan Estication Inmatnl For Pantry O ~ 201~# Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [६२] दीप अनुक्रम [ ६३ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], मूलं [६२], निर्युक्तिः [१८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचाराङ्गवृत्तिः उद्देशकः १ (शी०) ॥ ९९ ॥ प्रकारं कर्म्म, तस्य स्थानम् आश्रयः कामगुण इति, अथवा मूलं-मोहनीयं तद्भेदो वा कामस्तस्य स्थानं शब्दादिको ते लोक. वि. २ विषयगुणः, अथवा मूलं-शब्दादिको विषयगुणस्तस्य स्थानमिष्टानिष्टविषयगुणभेदेन व्यवस्थितो गुणरूपः संसार एव, आत्मा वा शब्दाद्युपयोगानन्यत्वाद् गुणः, अथवा मूलं संसारस्तस्य शब्दादयः स्थानं कषाया वा, गुणोऽपि शब्दादिकः * कषायपरिणतो वाऽऽत्मेति, यदिवा मूलं संसारस्य शब्दादिकषायपरिणतः सन्नात्मा तस्य स्थानं शब्दादिकं, गुणोऽप्यसावेवेति, ततश्च सर्वथा य एव गुणः स एव मूलस्थानं वर्त्तते । ननु च वर्त्तनक्रियायाः सूत्रेऽनुपादानात् कथं प्रक्षेप इति १, उच्यते, यत्र हि काचिद्विशेषक्रिया नैवोपादायि तत्र सामान्यक्रियामस्ति भवति विद्यते वर्त्तत इत्यादिकामुपादाय वाक्यं परिसमाप्यते, एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यमिति । अथवा मूलमित्याचं प्रधानं वा, स्थानमिति कारणं, मूलं च तत्कारणं चेति विगृह्य कर्म्मधारयः, ततश्च य एव शब्दादिको गुणः स एव मूलस्थानं संसारस्य आद्यं प्रधानं वा कारणमिति, शेषं पूर्ववदिति । साम्प्रतमनयोरेव गुणमूलस्थानयोर्नियम्यनियामकभावं दर्शयंस्तदुपात्तानां विषय कषायादीनां | बीजाङ्कुरन्यायेन परस्परतः कार्यकारणभावं सूत्रेणैव दर्शयति- 'जे मूलद्वाणे से गुणेति यदेव संसारमूलानां कर्ममूलानां वा कषायाणां स्थानम्-आश्रयः शब्दादिको गुणोऽप्यसावेव, अथवा कषायमूलानां शब्दादीनां यत् स्थानं कर्म्म संसारो वा तत्तत्स्वभावापत्तेः गुणोऽप्यसावेवेति, अथवा शब्दादिकषायपरिणाममूलस्य संसारस्य कर्म्मणो वा यत् स्थानं मोहनीयं कर्म्म शब्दादिकषायपरिणतो वाऽऽत्मेति तद्गुणावाप्तेः गुणोऽप्यसावेव, यदिवा-संसारकषायमूलस्यात्मनो यत् स्थानं ॥ ९९ ॥ विषयाभिष्वङ्गोऽसावपि शब्दादिविषयत्वाद् गुणरूप एवेति । अत्र च विषयोपादानेन विषयिणोऽप्याक्षेपात् सूचनार्थ Jan Estication Intl For Parts O ~202~# www.india.org Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६२], नियुक्ति: [१८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [६२] दीप त्वाच सूत्रस्येत्येवमपि द्रष्टव्य-यो गुणे गुणेषु वा वर्तते स मूलस्थाने मूलस्थानेषु वा वर्त्तते, यो मूलस्थानादौ वर्तते सही दाएव गुणादौ वर्तत इति, य एव जन्तुः शब्दादिके प्राग्व्यावर्णितस्वरूपे गुणे वर्तते स एवं संसारमूलकषायादिस्थानादी वर्त्तते, एतदेव द्वितीयसूत्रापेक्षया व्यत्ययेन प्राग्वदायोज्यम्, अनन्तगमपर्यायत्वात् सूत्रस्यैवमपि द्रष्टव्यं-यो गुणः स| एव मूलं स एव च स्थानं, यन्मूलं तदेव गुणः स्थानमपि तदेव, यत् स्थानं तदेव गुणो मूलमपि तदेवेति, यो गुणः शब्दादिकोऽसावेव संसारस्य कपायकारणत्वान्मूलं स्थानमप्यसावेव इत्येवमन्येष्वपि विकल्पेषु योज्यं, विषयनिर्देशे च | विषय्यप्याक्षिप्तो, यो गुणे वर्त्तते स मूले स्थाने चेत्येवं सर्वत्र द्रष्टव्यम्, इह च सब्बैज्ञप्रणीतत्वादनन्तार्थता सूत्रस्यावग-12 स्तव्या, तथाहि-मूलमत्र कषायादिकमुपन्यस्त, कषायाश्च क्रोधादयश्चत्वारः, कोधोऽप्यनन्तानुवन्ध्यादिभेदेन चतुद्धों,x अनन्तानुबन्धिनोऽप्यसइख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि बन्धाध्यवसायस्थानान्यनन्ताश्च तत्पर्यायास्तेषां च प्रत्येकं स्थानगुणनिरूपणेनानन्तार्थता सूत्रस्य सम्पद्यते, सा च छद्मस्थेन सर्वायुषाऽप्यविषयत्वा(दनन्तत्वा)चाशक्या दर्शयितुं, दिग्दर्शनं तु कृतमेवातोऽनया दिशा कुशाग्रीयशेमुष्या गुणमूलस्थानानां परस्परतः कार्यकारणभावः संयोजना च कार्येति । तदेवं य एव गुणः स एव मूलस्थानं यदेव मूलस्थानं स एव गुण इत्युक्तं, ततः किमित्यत आह–'इति से गुणही महया इत्यादि, इतिहेती यस्माच्छन्दादिगुणपरीत आत्मा कषायमूलस्थाने वर्तते, सर्वोऽपि च प्राणी 'गुणार्थी' गुणप्रयोजनी | गुणानुरागीत्यतस्तेषां गुणानामप्राप्ती प्राप्तिनाशे वा कालाशोकाभ्यां स प्राणी 'महता' अपरिमितेन परि-समन्तात्तापः परितापस्तेन-शारीरमानसस्वभावेन दुःखेनाभिभूतः सन् पौनःपुन्येन तेषु तेषु स्थानेषु 'वसेत्' तिष्ठेदुपयेत, किम्भूतः अनुक्रम [६३] 5525% wwwanditimaryam ~203~23 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६२], नियुक्ति: [१८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: लोक.वि.२ उद्देशका प्रत सूत्रांक [२] दीप अनुक्रम [६३] श्रीआचा- सन्?-प्रमत्तः । प्रमादश्च रागद्वेषात्मको, द्वेषश्च प्रायो न रागमृते, रागोऽप्युत्पत्तेरारभ्यानादिभवाभ्यासान्मातापित्रा- राङ्गवृत्तिः दिविषयो भवतीति दर्शयति-'माया में' इत्यादि, तत्र मातृविषयो रागः संसारस्वभावादुपकारकर्तृत्वाद्वोपजायते, रागे| (शी) च सति मदीया माता क्षुत्पिपासादिकां वेदनां मा प्रापदित्यतः कृषिवाणिज्यसेवादिकां प्राण्युपघातरूपां क्रियामारभते, तदुपघातकारिणि वा तस्यां वाऽकार्यप्रवृत्तायां द्वेष उपजायते, तद्यथा-अनन्तवीर्यप्रसक्तायां रेणुकायां रामस्येति, एवं ॥१०॥ |पिता मे, पितृनिमित्तं रागद्वेषौ भवतो, यथा रामेण पितरि रागात्तदुपहन्तरि च द्वेषात् सप्तकृत्वः क्षत्रिया व्यापादिताः, सुभूमेनापि त्रिसप्तकृत्वो ब्राह्मणा इति, भगिनीनिमित्तेन च क्लेशमनुभवति प्राणी, तथा भार्यानिमित्त रागद्वेषोद्भवः, तद्यथा-चाणाक्येन भगिनीभगिनीपत्याद्यवज्ञातया भार्यया चोदितेन नन्दान्तिकं द्रव्यार्थमुपगेतन कोपान्नन्दकुलं क्षयं निन्ये, तथा पुत्रा मे न जीवन्तीति आरम्भे प्रवर्त्तते, एवं दुहिता मे दुःखिनीति रागद्वेषोपहतचेताः परमार्थमजानानस्तत्त18 द्विधत्ते येन ऐहिकामुष्मिकान् अपायान् अवाप्नोति, तद्यथा-जरासन्धो जामातरि कसे व्यापादिते स्वबलावलेपादपस्त वासुदेवपदानुसारी सबलवाहनः क्षयमगात् , स्नुषा मे न जीवन्तीत्यारम्भादी प्रवर्तते, 'सखिस्वजनसंग्रन्थसंस्तुता में सखा-मित्रं स्वजन:-पितृव्यादिः संग्रन्थः-स्वजनस्यापि स्वजनः पितृव्यपुत्रशालादिः संस्तुतो-भूयो भूयो दर्शनेन परिचितः, अथवा पूर्वसंस्तुतो मातापित्रादिरभिहितः पश्चात्संस्तुतः शालकादिः स इह ग्राह्यः, सच मे दु:खित इति परितप्यते, विविक्तं शोभनं प्रचुरं वा उपकरण-हस्त्यश्वरथासनमञ्चकादि परिवर्तनं-द्विगुणत्रिगुणाविभेदभिन्नं तदेव, भोजनं-मोदकादि आच्छादन-पट्टयुग्मादि तच्च मे भविष्यति नष्टं वा । 'इचथ'मिति इत्येवमर्थ गृडो लोकः तेष्वेव ॥१०॥ wwwandltimaryam ~ 204~# Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६२], नियुक्ति: [१८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक [६२]] दीप मातापित्रादिरागादिनिमित्तस्थानेष्वामरणं प्रमत्तो ममेदमहमस्य स्वामी पोषको वेत्येवं मोहितमना 'वसेत्' तिष्ठेदिति. उक्तं च-"पुत्रा मे भ्राता मे स्वजना मे गृहकलत्रवर्गो मे । इति कृतमेमेशब्द पशुमिव मृत्युर्जमं हरति ॥१॥ पुत्रकलत्रपरिग्रहममत्वदोषैर्नरो व्रजति नाशम् । कृमिक इव कोशकारः परिग्रहाहुःखमामोति ॥२॥" अमुमेवार्थ नियुक्तिकारो गाथाद्वयेनाह संसार छेतुमणो कम्म उम्मूलए तदहाए । उम्मूलिज्ज कसाया तम्हा उ चइज्ज सपणाई ॥१८५॥ माया मेत्ति पिया मे भगिणी भाया य पुत्तदारा मे। अस्थंमि चेव गिद्धा जम्मणमरणाणि पायति॥१८॥ 'संसार' नारकतिर्यग्नरामरलक्षणं मातापितृभार्यादिस्नेहलक्षणं वा 'छत्तुमना' उन्मुमूलयिषुरष्टप्रकारं कर्मोन्मूलयेत्, तदुन्मूलनार्थ च तत्कारणभूतान् कषायानुन्मूलयेत् , कषायापगमनाय च मातापित्रादिगतं स्नेहं जह्यात्, यस्मान्मातापित्रादिसंयोगाभिलाषिणोऽर्थे-रत्नकुप्यादिके गृद्धाः-अध्युपपन्ना जन्मजरामरणादिकानि दुःखान्यसुभृतः प्रामुवन्तीसि गाथाद्धयार्थः ॥ तदेवं कषायेन्द्रियप्रमत्तो मातापित्राद्यर्थमर्थोपार्जनरक्षणतसरो दुःखमेव केवलमनुभवतीत्याह-'अहो' इत्यादि, अहश्च सम्पूर्ण रात्रिं च, चशब्दात्पक्षं मासं च, निवृत्तशुभाध्यवसायः परि-समन्तात्तप्यमानः परितप्यमानः सन् तिष्ठति, तद्यथा-"कइया वच्चइ सत्थो? किं भण्डं कत्थ कित्तिया भूमी । को कयविक्कयकालो निविसइ किं कहिं केण? ॥१॥" १कदा मजति सार्थः कि भाण्ट कुत्र कियती भूमिः । कः कयविक्रयकालो मिर्विषयति (निर्विशति) केन! ॥१॥ अनुक्रम KARE [६३] ~ 205~# Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [६२] दीप अनुक्रम [ ६३ ] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (श्री०) ॥ १०१ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], मूलं [६२], निर्युक्ति: [१८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः उद्देशकः १ इत्यादि, स च परितप्यमानः किम्भूतो भवतीत्याह - 'काले'त्यादि, कालः कर्त्तव्यावसरस्तद्विपरीतोऽकालः सम्य- 2 लोक.वि. गुत्थातुम् अभ्युद्यन्तुं शीलमस्येति समुत्थायीति पदार्थः, वाक्यार्थस्तु काले कर्त्तव्यावसरे अकालेन तद्विपर्यासेन समु| तिष्ठते-अभ्युद्यतमनुष्ठानं करोति तच्छीलश्चेति, कर्त्तव्यावसरे न करोत्यन्यदा च विदधातीति, यथा वा काले करोत्येबमकालेऽपीति, यथा वाऽनवसरे न करोत्येवमवसरेऽपीति, अन्यमनस्कत्वादपगतकालाकालविवेक इति भावना, यथा | प्रद्योतेन मृगापतिरपगतर्भतृका सती ग्रहणकालमतिवाह्य कृतप्राकारादिरक्षा जिघृक्षितेति, यस्तु पुनः सम्यक्कालोत्थायी | भवति स यथाकालं परस्परानाबाधया सर्वाः क्रियाः करोतीति, तदुक्तम् - " मासैरष्टभिरहा च, पूर्वेण वयसाऽऽयुषा । तत् | कर्त्तव्यं मनुष्येण येनान्ते सुखमेधते ॥ १ ॥” धर्मानुष्ठानस्य च न कश्चिदकालो मृत्योरिवेति । किमर्थ पुनः काला| कालसमुत्थायी भवतीत्याह - 'संजोगडी' संयुज्यते संयोजनं वा संयोगोऽर्थः प्रयोजनं संयोगार्थः सोऽस्यास्तीति संयोगार्थी, तत्र धनधान्यहिरण्यद्विपदचतुष्पदराज्यभार्यादिः संयोगस्तेनार्थी तत्प्रयोजनी, अथवा शब्दादिविषयः संयोगो मातापित्रादिभिर्वा तेनार्थी कालाकालसमुत्थायी भवतीति । किं च- 'अठ्ठालोभी' अर्थो - रत्नकुप्यादिस्तत्र आ-समतालोभोऽर्थालोभः स विद्यते यस्येत्यसावपि कालाकालसमुत्थायी भवति, मम्मणवणिग्वत्, तथाहि असावतिक्रान्तार्थोपार्जनसमर्थयौवनवया जलस्थलपथप्रेषितनानादेशभाण्डभृतबोहित्थगन्त्रीकोष्ट्रमण्डलिकासम्भृतसम्भारोऽपि प्रावृषि सप्तरात्रावच्छिन्नमुशलप्रमाणजलधारावर्षनिरुद्ध सकलप्राणिगणसञ्चारमनोरथायां महानदीजलपूरानीतकाष्ठानि जिघृक्षुरु Etication matinal For Parana Prat Use Only ~206~# ॥ १०१ ॥ www.landiary.org Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६२], नियुक्ति: [१८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत **** सूत्राक [६२]] LOCAL दीप पभोगधर्मावसरे निवृत्तापराशेषशुभपरिणामः केवलमर्थोपार्जनप्रवृत्त इति, उक्तं च-"उक्खणइ खणइ निहणइ रत्ति ण सुअति दियावि य ससंको । लिंपइ ठएइ सययं लंछियपडिलंछियं कुणइ ॥१॥ भुंजसु न ताव रिको जेमेङ नविय अज मज्जीहं । नवि य वसीहामि घरे कायच्वमिणं बर्दु अर्ज ॥२॥" पुनरपि लोभिनोऽशुभव्यापारानाह-आलुंपे। आ-समन्तालुम्पतीत्यालुम्पः, स हि लोभाभिभूतान्तःकरणोऽपगतसकलकर्तव्याकर्तव्यविवेकोऽर्थलोभैकदत्तदृष्टिरैहिकामु-त मिकविपाककारिणीनिर्लान्छनगलकर्तनचौर्यादिकाः क्रियाः करोति, अन्यच्च-सहसकारें' करणं कारः, असमीक्षितपूर्वापरदोषं सहसा करणं सहसाकारः स विद्यते यस्येत्यर्श आदिभ्योऽच,(पा०५-२-१२७)अथवा छान्दसत्वात्कर्तर्येव घञ् , करो-४ तीति कारः, तथाहि-लोभतिमिराच्छादितदृष्टिरथैकमनाः शकुन्तवच्छराघातमनालोच्य पिशिताभिलाषितया सन्धिच्छेदनामादितो विनश्यति, लोभाभिभूतो ह्यर्थकदृष्टिस्तम्मनास्तदर्थोपयुक्तोऽर्थमेव पश्यति नापायान्, आह च-'विणिविवचित्ते' | विविधम्-अनेकधा निविष्ट-स्थितमवसाहमर्थोपार्जनोपाये मातापित्राद्यभिष्वझे वा शब्दादिविषयोपभोगे वा चित्तम्-अदान्तःकरणं यस्य स तथा, पाठान्तरं वा 'विणिबिडचिडे'त्ति, विशेषेण निविष्टा कायवाग्मनसा परिस्पदात्मिकाऽर्थोपार्जनोपा यादी चेष्टा यस्य स विनिविष्टचेष्टः । तदेवं मातापित्रादिसंयोगार्थी अर्थालोभी आलुम्पः सहसाकारो विनिविष्टचित्तो विनिविष्टचेष्टो वा किम्भूतो भवतीत्याह-'इरथ' इत्यादि, 'अत्र' अस्मिन्मातापित्रादौ शब्दादिविषयसंयोगे वा विनिविष्टचित्तः १ जत्खनति सनति निवधाति (इन्ति ) रात्री न खपिति दिवाऽपि च सशः । लिम्पति स्थगयति सततं लाञ्छित प्रतिलाजितं करोति ॥ १॥ भुवन तावविव्यापारी जिमितुं नापि चाय मरक्ष्यामि । नापि च वत्स्यामि रहे कर्तव्यमिदं बाप ॥२॥ अनुक्रम * [६३] - **** 4k wwwandltimaryam ~207~# Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) ཡྻ सूत्रांक [६२] अनुक्रम [ ६३ ] श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ १०२ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], मूलं [६२], निर्युक्ति: [१८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सन् पृथिवी कायादिजन्तूनां यच्छखम्-उपघातकारि तत्र पुनः पुनः प्रवर्त्तते, एवं पौनःपुन्येन शस्त्रे प्रवृत्तो भवति यदि पृथिवीकायादिजन्तूनामुपघाते वर्त्तते, तथाहि - 'शसु हिंसायामित्यस्माच्छस्यते हिंस्यत इति करणे टुम्विहितः तच्च स्वकायपरकायादिभेदभिन्नमिति । पाठान्तरं वा 'एत्थ सत्ते पुणो पुणो,' 'अत्र' मातापितृशब्दादिसंयोगे लोभार्थी सन् 'सक्ती' गृद्धः अध्युपपन्नः पौनःपुन्येन विनिविष्टचेष्ट आलुम्पकः सहसाकारः कालाकालसमुत्थायी वा भवतीति । एतच्च साम्प्रतेक्षिणामपि युज्येत यद्यजरामरत्वं दीर्घायुष्कं वा स्यात्, तच्चोभयमपि नास्तीत्याह -- 'अप्पं च' इत्यादि, अल्पंस्तोकं चशब्दोऽधिकवचनः, खलुरवधारणे, आयुरिति भवस्थितिहेतवः कर्म्मपुद्गलाः 'इहेति संसारे मनुष्यभवे वा 'एकेषां' केषाञ्चिदेव 'मानवानां' मनुजानामिति पदार्थः, वाक्यार्थस्तु - इह अस्मिन् संसारे केषाञ्चिन्मनुजानां क्षुल्लकभवो| पलक्षितान्तर्मुहूर्त्तमात्रमल्पं - स्तोकमायुर्भवति, चशब्दादुत्तरोत्तरसमयादिवृद्ध्या पल्योपमन्त्रयावसानेऽप्यायुषि खलुशब्द| स्यावधारणार्थत्वात्संयम जीवितमल्पमेवेति, तथाहि अन्तर्मुहूर्तादारभ्य देशोनपूर्वकोटिं यावत्संयमायुष्कं तच्चाल्पमेवेति, अथवा त्रिपल्योपमस्थितिकमप्यायुरल्पमेव, यतस्तदप्यन्तर्मुहूर्त्तमपहाय सर्वमपवर्त्तते, उक्तं च- “अद्धा जोगुकोसे बंधित्ता भोगभूमिएसु लहुं । सब्वप्पजीवियं वज्जइतु उब्वट्टिया दोन्हं ॥ १ ॥" अस्या अयमर्थः -- उत्कृष्टे योगे-बन्धा|ध्यवसायस्थाने आयुषो यो बन्धकालोऽद्धा उत्कृष्ट एवं तं बद्धा, क ? - 'भोगभूमिकेषु' देवकुब्र्व्वादिजेषु, तस्य क्षिप्रमेव सर्वाल्पमायुर्वर्जयित्वा 'द्वयोः' तिर्यग्मनुष्ययोरपवृत्तिका - अपवर्त्तनं भवति, एतञ्चापर्यातकान्तर्मुहूर्त्तान्तर्द्रष्टव्यं तत ऊर्ध्वमनपवर्त्तनमेवेति । सामान्येन वाऽऽयुः सोपक्रमायुषां सोपक्रमं निरुपक्रमायुषां निरुपक्रमं यदा ह्यसुमान् स्वायुषस्त्रि in Estication Intl For Pantry Use Only ~208~# लोक. वि. २ उद्देशकः १ ॥ १०२ ॥ www.indiary.org Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [६२] दीप अनुक्रम [ ६३ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], मूलं [६२], निर्युक्तिः [१८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः भागे त्रिभागात्रिभागे वा जघन्यत एकेन द्वाभ्यां वोत्कृष्टतः सप्तभिरष्टभिर्वा क्रन्तर्मुहूर्तप्रमाणेन कालेनात्मप्रदेशरचनानाडिकान्तर्वर्त्तिन आयुष्ककर्म वर्गणापुद्गलान् प्रयत्नविशेषेण विधत्ते तदा निरुपक्रमायुर्भवतीति अन्यदा तु सोपक्रमायुष्क इति, उपक्रमश्चोपक्रमणकारणैर्भवति, तानि चामूनि—“दंडे कससत्थरज्जू अग्गी उदगपडणं विसं वाला । सीउण्हं अरइ भयं खुहा पिवासा व वाही य ॥ १ ॥ मुत्तपुरीसनिरोहे जिण्णाजिण्णे य भोयणे बहुसो । सणघोलणपीठण आउरस उवकमा एते ॥ २ ॥” उक्तं च- "स्वतोऽम्यत इतस्ततोऽभिमुखधावमानापदामहो निपुणता नृणां क्षणमपीह यज्जीव्यते । मुखे फलमतिक्षुधा सरसमल्पमायोजितं, कियच्चिरमचर्चितं दशनसङ्कटे स्थास्यति १ ॥ १ ॥ उच्छा सावधयः प्राणाः, स चोच्वासः समीरणः । समीरणाञ्चलं नान्यत् क्षणमध्यायुरद्भुतम् ॥ २ ॥" इत्यादि । येऽपि दीर्घायुष्कस्थि|तिका उपक्रमणकारणाभावे आयुःस्थितिमनुभवन्ति तेऽपि मरणादप्यधिकां जराभिभूतविग्रहां जघन्यतमामवस्थामनुभवन्तीति तद्यथेत्यादिना दर्शयति तंजहा- सोयपरिण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं चक्खुपरिण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं घाणपरिण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं रसणापरिण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं फासपरिण्णाणेहिं १ दण्डः कक्षा शतं रज्डरमिरुदकं पत्तनं विषं व्यालाः शीतमुष्णमरतिर्भयं क्षुत्पिपासा व्याधि ॥ १ ॥ मूत्रपुरीषनिरोधः जीर्णेऽजीर्णे च भोजने बहुशः घर्षणं घोलनं पीडनमायुष उपक्रमा एते ॥ १ ॥ Etication Intl For Para Prata Use Onl ~209~# www.indiary.org Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६३], नियुक्ति: [१८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचाराङ्गवृत्तिः सत्राक (शी०) [६३] ॥१३॥ दीप परिहायमाणेहिं अभिकंतं च खलु वयं स पेहाए तओ से एगदा मूढभावं लोक.वि.२ जणयंति ॥ ३॥ उद्देशकः१ शृणोति भाषापरिणतान् पुद्गलानिति श्रोत्रं, तच्च कदम्बपुष्पाकारं द्रव्यतो भावतो भाषाद्रव्यग्रहणलग्ध्युपयोगस्वभा-10 वमिति, तेन श्रोत्रेण परिः समन्ताद् घटपटशब्दादि विषयाणि ज्ञानानि परिज्ञानानि तैः श्रोत्रपरिज्ञानर्जराप्रभावासरिहीयमानैः सनिस्ततोऽसौ-पाणी 'एकदा' वृद्धावस्थायां रोगोदयावसरे वा 'मूढभावं' मूढतां कर्त्तव्याकर्त्तव्याज्ञतामिन्द्रियपाटवाभावादात्मनो जनयति, हिताहितप्राप्तिपरिहारविवेकशून्यतामापद्यत इत्यर्थः, जनयन्तीति चैकवचनावसरे 'तिखगं तिडो भवन्तीति बहुवचनमकारि, अथवा तानि वा श्रोत्रविज्ञानानि परिक्षीयमाणान्यात्मनः सदसद्विवेकविकलतामापाद-| यन्तीति, श्रोत्रादिविज्ञानानां च तृतीया प्रथमार्थे सुब्व्यत्ययेन द्रष्टव्येति, एवं चक्षुरादिविज्ञानेष्वपि योग्यम्, अत्र च | करणत्वादिन्द्रियाणामेवं सर्वत्र द्रष्टव्यं-श्रोत्रेणात्मनो विज्ञानानि चक्षुषाऽऽत्मनो विज्ञानानीति, ननु च तान्येव द्रष्टणि कुतो न भवन्ति ?, उच्यते, अशक्यमेवं विज्ञातुं, तद्विनाशे तदुपलब्धार्थस्मृत्यभावात् , दृश्यते च हपीकोपघातेऽपि तदुपलब्धार्थस्मरणं, तद्यथा-धवलगृहान्तर्वर्तिपुरुषपश्चवातायनोपलब्धार्थस्य तदन्यतरस्थगनेऽपि तदुपपत्तिरिति, तथाहिअहमनेन श्रोत्रेण चक्षुषा वा मन्दमर्थमुपलभे, अनेन च स्फुटतरमिति स्पष्टव करणत्वावगतिरक्षाणां, यद्येवमन्यान्यपि ॥१०३॥ करणानि सन्ति तानि कि नोपात्तानि ?, कानि पुनस्तानि?, उच्यन्ते, वाक्पाणिपादपायूपस्थमनांसि वचनादानविहरणो-15/ अनुक्रम [६४] www.tandituaryam ~210~23 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६३], नियुक्ति: [१८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: KARSA प्रत सूत्राक [६३]] सात्सर्गानन्दसङ्कल्पव्यापाराणि, ततश्चैतेपामारमोपकारकत्वेन करणत्वं, करणत्वादिन्द्रियत्वमिति, एवं चैकादशेन्द्रियसद्भावे सति पञ्चानामेवोपादानं किमर्थमिति, आहाचार्यों-नैष दोषः, इह ह्यात्मनो विज्ञानोत्पत्ती यत् प्रकृष्टमुपकारकं तदेव | करणत्वादिन्द्रियम् , एतानि तु वाक्पाण्यादीनि नैवात्मनोऽनन्यसाधारणतया करणत्वेन व्याप्रियन्ते, अथ यां काञ्चन | क्रियामुपादाय करणत्वमुच्यते एवं तर्हि भूदरादेरप्युत्क्षेपादिसम्भवात्करणत्वं स्यात् , किं च-इन्द्रियाणां स्वविषये निय-| तत्वात् नान्येन्द्रियकार्यमन्यदिन्द्रियं कर्तुमलं, तथाहि-चक्षुरेव रूपावलोकनायालं न तदभावे श्रोत्रादीनि, यस्तु रसा-| युपलम्भे शीतस्पर्शादेरप्युपलम्भः स सर्वव्यापित्वात् स्पर्शनेन्द्रियस्येत्यनाशङ्कनीयम् , इह तु पुनः पाणिच्छेदेऽपि तत्कायस्यादानलक्षणस्य दशनादिनाऽपि निर्वर्त्यमानत्वाद्यत्किञ्चिदेतत्, मनसस्तु सर्वेन्द्रियोपकारकत्वादन्तःकरणत्वमिष्यत एव, तस्य च बाह्येन्द्रियविज्ञानोपघातेनैव गतार्थत्वान्न पृथगुपादानमिति, प्रत्येकोपादानं च क्रमोत्पत्तिविज्ञानोपलक्ष-12 णार्थ, तथाहि-येनैवेन्द्रियेण सह मनः संयुज्यते तदेवात्मीयविषयगुणग्रहणाय प्रवर्तते नेतरदिति, ननु च दीर्घशष्कुलीभक्षणादौ पञ्चानामपि विज्ञानानां योगपद्येनोपलब्धिरनुभूयते, नैतदस्ति, केवलिनोऽपि द्वावुपयोगौ न स्तः, आस्तां | तावदारातीयभागदर्शिनः पञ्चोपयोगा इति, एतच्चान्यत्र न्यक्षेण प्रतिपादितमिति नेह प्रतायते, यस्तु योगपधेनानुभवा-1 भासः स द्राग्वृत्तित्वान्मनसो भवतीति, उक्तं च-"आत्मा सहेति मनसा मन इन्द्रियेण, स्वार्थेन चेन्द्रियमिति क्रम | एष शीघ्रः । योगोऽयमेव मनसः किमगम्यमस्ति ?, यस्मिन्मनो ब्रजति तत्र गतोऽयमात्मा ॥१॥" । इह चायमात्मेन्द्रि १खपक्षे भावमनो व्याप्रियते इत्यर्थः. अनुक्रम [६४] ~211~# Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [ ६३ ] दीप अनुक्रम [ ६४ ] प्रत “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], मूलं [६३], निर्युक्ति: [१८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ॥ १०४ ॥ श्रीआचायलब्धिमान आदित्सितजन्मोत्पत्तिदेशे समयेनाहारपर्याप्तिं निर्वर्त्तयति, तदनन्तरमन्तर्मुहूर्त्तेन शरीरपर्याधिं, ततोऽपीराङ्गवृत्तिः न्द्रियपर्याप्तं तावतैव कालेन तानि च पञ्चेन्द्रियाणि-स्पर्शनरसनम्राणचक्षुः श्रोत्राणीति, तान्यपि द्रव्यभावभेदात् प्रत्येकं १ द्विविधानीति, तत्र द्रव्येन्द्रियं निर्वृत्त्युपकरणभेदात् द्विधा, निर्वृत्तिरप्यान्तरबाह्यभेदात् द्विधैव निर्वर्त्यत इति नि(शी०) वृत्तिः, केन निर्वर्त्यते ?, कर्म्मणा, तत्रोत्सेधाङ्गुलासइख्येय भागप्रमितानां शुद्धानामात्मप्रदेशानां प्रतिनियतचक्षुरादीन्द्रि यसंस्थानेनावस्थिता या वृत्तिरभ्यन्तरा निर्वृत्तिः, तेष्वेवात्मप्रदेशेष्विन्द्रियव्यपदेशभाक् यः प्रतिनियतसंस्थानो निर्मानाना पुद्गलविपाकिना बर्द्धकिसंस्थानीयेन आरचितः कर्णशष्कुल्यादिविशेषः अङ्गोपाङ्गनाम्ना च निष्पादित इति वाह्या निर्वृत्तिः, तस्या एव निर्वृत्तेर्द्विरूपायाः येनोपकारः क्रियते तदुपकरणं तच्चेन्द्रिय कार्यसमर्थ, सत्यामपि निर्वृत्तावनुपहतायां मसूराकृतिरूपायां निर्वृत्तौ तस्योपघातान्न पश्यति, तदपि निर्वृत्तिवद् द्विधा, तत्राभ्यन्तरमक्ष्णस्तावत् कृष्णशुक्लमण्डलं बाह्यमपि पत्रपक्ष्मद्वयादि, एवं शेषेष्वप्यायोजनीयमिति भावेन्द्रियमपि लब्ध्युपयोगभेदात् द्विधा, तत्र लब्धिज्ञानदर्शनावरणीय क्षयोपशमरूपा यत्सन्निधानादात्मा द्रव्येन्द्रियनिर्वृत्तिं प्रति व्याप्रियते, तन्निमित्त आत्मनो मनस्साचिव्यादर्थग्रहणं प्रति व्यापार उपयोग इति, तदत्र सत्यां लब्धौ निर्वृत्त्युपकरणोपयोगाः, सत्यां च निर्वृत्तावुपकरणोपयोगी, सत्युपकरण उपयोग इति, एतेषां च श्रोत्रादीनां कदम्बकमसूर कलम्बुकापुष्पक्षुरप्रनाना संस्थान ताऽवगन्तव्येति, विषयश्च श्रोत्रेन्द्रियस्य द्वादशभ्यो योजनेभ्य आगतं शब्दं गृह्णाति चक्षुरप्येकविंशतिषु लक्षेषु सातिरेकेषु व्यवस्थितं प्रकाशकं प्रकाश्यं तु सातिरेकयोजनलक्षस्थितं रूपं गृह्णाति, शेषाणि तु नवभ्यो योजनेभ्य आगतं स्वविषयं गृह्णन्ति, Jan Estication Intemational For Party Use Onl ~212~# लोक.वि. २ उद्देशकः १ ॥ १०४ ॥ www.india.org Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६३], नियुक्ति: [१८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक [६३]] जघन्यतस्त्वनालासख्येयभागविषयत्वं सर्वेषाम्, अत्र च 'सोयपरिण्णाणेहिं परिहायमाणेही त्यादि य उत्पत्ति प्रति व्यत्ययेनेन्द्रियाणामुपन्यासः स एवमर्थ द्रष्टव्यः-इह संज्ञिनः पश्चेन्द्रियस्य उपदेशदानेनाधिकृतत्वादुपदेशश्च श्रोत्रेन्द्रियविषय इतिकृत्वा तत्पर्याप्तौ च सर्वेन्द्रियपर्याप्तिः सूचिता भवति । श्रोत्रादिविज्ञानानि च षयोऽतिक्रमे परिहीयन्ते, तदेवाह–'अभिकत'मित्यादि, अथवा श्रोत्रादिविज्ञानरपचितैः करणभूतैः सद्भिः 'अभिकतं च खलु वयं स पेहाए' तत्र प्राणिनां कालकृता शरीरावस्था यौवनादिर्वयः तज्जरामभि-मृत्यु वा क्रान्तमभिकान्तम्, इह हि चत्वारि वयांसि-कुमारयौवनमध्यमवृद्धत्वानि, उक्तं च-"प्रथमे वयसि नाधीतं, द्वितीये नार्जितं धनम् । तृतीये न तपस्तप्तं, चतुर्थे कि करिष्यति ? ॥१॥" तत्राद्यवयोद्वयातिक्रमे जराभिमुखमभिक्रान्तं वयो भवति, अन्यथा वा त्रीणि वयांसि-कौमारयौवनस्थविरत्वभेदाद्, उक्तं च "पिता रक्षति कौमारे, भर्ती रक्षति यौवने । पुत्राश्च स्थाविरे भावे, न खी स्वातन्त्र्यम-12 हति ॥१॥" अन्यथा वा त्रीणि वयांसि, बालमध्यवृद्धत्वभेदात्, उक्तं च-आषोडशाद्भवेद्वालो, यावत्क्षीरानवर्तकः । मध्यमः सप्ततिं यावत्परतो वृद्ध उच्यते ॥ १॥" एतेषु वयस्सु सर्वेष्वपि योपचयवत्यवस्था तामतिकान्तोऽतिकान्तवया इत्युच्यते, चः समुच्चये, न केवलं श्रोत्रचक्षुर्माणरसनस्पर्शनविज्ञानैर्व्यस्तसमस्तैर्देशतः सर्वतो वा परिहीयमाणैर्वा मौढ्य-| मापद्यते, वयश्चातिक्रान्तं 'प्रेक्ष्य' पर्यालोच्य 'स' इति प्राणी खलुरिति विशेषणे विशेषेण-अत्यर्थं मौढ्यमापद्यत इति, आह च-ततो से' इत्यादि, 'तत' इति तस्मादिन्द्रियविज्ञानापचयाद्वयोऽतिक्रमणाद्वा स इति प्राणी 'एकदेति वृद्धाव १ चक्षुषः संख्येयभागे यद्यपि तथापि सर्वेषां विषयस्य सामान्येन विवक्षनादित्यनुतं. अनुक्रम [६४] ~213~# Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [६३] दीप अनुक्रम [ ६४ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], मूलं [६३], निर्युक्ति: [१८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः (शी०) श्रीआचा- ४ स्थायां मूढभावो मूढत्वं किंकर्त्तव्यताभावमात्मनो जनयति, अथवा 'से'तस्यासुभृतः श्रोत्रादिविज्ञानानि परिहीयमा राङ्गवृत्तिः णानि मूढभावं जनयन्तीति । स एवं वार्द्धक्ये मूढस्वभावः सन् प्रायेण लोकावगीतो भवतीत्याहजेहिं वा सद्धिं संवसति ते वि णं एगदा णियगा पुठिंब परिवयंति, सोऽवि ते पियए पच्छा परिवपज्जा, णालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमंपि तेसिं णालं ताणाए वासरणाएवा, से ण हासाय ण किड्डाए ण रतीए ण विभूसाए (सू०६४ ) ॥ १०५ ॥ ४ वाशब्दः पक्षान्तरद्योतकः, आस्तां तावदपरो लोको 'यैः' पुत्रकलत्रादिभिः 'सार्द्ध' सह संवसति, त एव भार्यापुत्रादयो णमिति वाक्यालङ्कारे 'एकदे 'ति वृद्धावस्थायां 'नियगा' आत्मीया ये तेन समर्थावस्थायां पूर्वमेव पोषिताः ते तं 'परिवदंति' परि-समन्ताद्वदन्ति यथाऽयं न म्रियते नापि मलकं ददाति यदिवा परिवदन्ति परिभवन्तीत्युक्तं भवति, अथवा किमनेन वृद्धेनेत्येवं परिवदन्ति, न केवलमेषां, तस्यात्मापि तस्यामवस्थायामवगीतो भवतीति, आह च - " वलिसन्ततमस्थिशेषितं, शिथिलस्नायुधृतं कडेवरम् । स्वयमेव पुमान् जुगुप्सते, किमु कान्ता कमनीयविग्रहा ? ॥ १ ॥ " गोपालवालाङ्गनादीनां च दृष्टान्तद्वारेणोपन्यस्तोऽर्थो बुद्धिमधितिष्ठतीत्यतस्तदाविर्भावनाय कथानकम् - कौशाम्ब्यां नगर्या अर्थवान् बहुपुत्रो धनो नाम सार्थवाहः, तेन चैकाकिना नानाविधैरुपायैः स्वाप्रतेयमुपार्जितं तच्चाशेषदुःखितबन्धुजनस्वजनमित्रकलत्रपुत्रादिभोग्यतां निन्ये, ततोऽसौ कालपरिपाकवशाद्वृद्धभावमुपगतः सन् पुत्रेषु सम्यकूपालनो Etication Intemational For Pantry Use Only ~ 214 ~# ७ लोक.वि. २ उद्देशकः १ ॥ १०५ ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [ ६४ ] अनुक्रम [ ६५ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], मूलं [६४], निर्युक्तिः [१८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः पचितकलाकुशलेषु समस्त कार्यचिन्ताभारं निचिक्षेप । तेऽपि वयमनेनेदृशीमवस्थां नीताः सर्वजनाप्रेसरा विहिता इति कृतोपकाराः सन्त कुलपुत्रतामवलम्बमानाः स्वतः कचित् कार्यव्यासङ्गात् स्वभार्याभिस्तमकल्पं वृद्धं प्रत्यजजागरन्, ता अप्युद्वर्त्तनस्नानभोजनादिना यथाकालमक्षुण्णं विहितवत्यः । ततो गच्छत्सु दिवसेषु वर्द्धमानेषु पुत्रभाण्डेषु प्रौढीभवत्सु भर्तृषु जरद्धृद्धे च विवशकरणपरिचारे सर्वाङ्गकम्पिनि गलदशेषश्रोतसि सति शनैः शनैरुचितमुपचारं शिथिलतां निन्युः । असावपि मन्दप्रतिजागरणतया चित्ताभिमानेन विश्वसया च सुतरां दुःखसागरावगाढः सन् पुत्रेभ्यः स्नुषाक्षुण्णान्याचचक्षे, ताश्च स्वभर्तृभिश्चे विद्यमानाः सुतरामुपचारं परिहृतवत्यः सर्वाश्च पर्यालोच्यैकवाक्यतया स्वभर्तृनभिहितवत्यः क्रियमाणेऽप्ययं प्रतिजागरणे वृद्धभावाद्विपरीतबुद्धितयाऽपडते, यदि भवतामध्यस्माकमुपर्यविस्रम्भस्ततोsम्येन विश्वसनीयेन निरुपयत, तेऽपि तथैव चक्रुः, तास्तु तस्मिन्नवसरे सर्वा अपि सर्वाणि कार्याणि यथावसरं विहितवत्यः, असावपि पुत्रैः पृष्टः पूर्वविरुक्षितचेतास्तथैव ता अपवदति, नैता मम किञ्चित्सम्यक् कुर्वन्ति, तैस्तु प्रत्ययिकवचनादवगत तस्यैर्यथाऽयमुपचर्यमाणोऽपि वार्द्धक्याद्रोरुद्यते, ततस्तैरप्यवधीरितोऽन्येषामपि यथावसरे तण्डनस्वभावतामाचचक्षिरे । ततोऽसौ पुत्रैरवधीरितः स्नुषाभिः परिभूतः परिजनेनावगीतो वाङ्मात्रेणापि केनचिदप्यननुवर्त्त्यमानः सुखितेषु दुःखितः कष्टतरामायुः शेषामवस्थामनुभवतीति । एवमन्योऽपि जराभिभूतविग्रहस्तृणकुब्जीकरणेऽप्यसमर्थः सन् कार्यैकनिष्ठलोकात्परिभवमानोतीति, आह- "गात्रं सङ्कुचितं गतिर्विगलिता दन्ताश्च नाशं गता, दृष्टिर्श्वश्यति रूपमेव १ स्मृतोपकाराः २ असमर्थ. Jan Estication matinal For Parts Only ~ 215 ~# Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [ ६४ ] दीप अनुक्रम [ ६५ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], मूलं [६४], निर्युक्तिः [१८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र- [ ०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ॥ १०६ ॥ श्रीआचा- हसते वक्रं च लालायते । वाक्यं नैव करोति बान्धवजनः पल्ली न शुश्रूषते, धिक्कष्टं जरयाऽभिभूतपुरुषं पुत्रोऽप्यय- २ लोक.वि. २ राङ्गवृत्तिः ॐ ज्ञायते ॥ १ ॥ इत्यादि । तदेवं जराभिभूतं निजाः परिवदन्ति, असावपि परिभूयमानस्तद्विरंक्तचेतास्तदपवादाञ्जनाउद्देशकः १ (शी०) ५ याचष्टे, आह च-'सो वा' इत्यादि, वाशब्दः पूर्वापेक्षया पक्षान्तरं दर्शयति, ते वा निजास्तं परिवदन्ति, स वा जराज* र्जरितदेहस्तान्निजाननेक दोषोद्धनतया परिवदेत्- निन्देद्, अथवा खिद्यमानार्थतया तानसाववगायति - परिभवतीत्यर्थः । ४ येऽपि पूर्वकृतधर्म्मवशात्तं वृद्धं न परिवदन्ति तेऽपि तद्दुःखापनयनसमर्था न भवन्ति, आह च- 'नाल 'मित्यादि, नालंन समर्थाः ते पुत्रकलत्रादयः, तवेति प्रत्यक्षभावमुपगतं वृद्धमाह, त्राणाय शरणाय वेति, तत्रापत्तरणसमर्थ त्राणमुच्यते, यथा महाश्रीतोभिरुह्यमानः सुकर्णधाराधिष्ठितं लवमासाद्यापस्तरतीति, शरणं पुनर्यदवष्टम्भान्निर्भयैः स्थीयते तदुच्यते, तत् पुनर्दुर्ग पर्वतः पुरुषो वेति, एतदुक्तं भवति-जराभिभूतस्य न कश्चित् त्राणाय शरणाय वा त्वमपि तेषां नातं त्राणाय शरणाय वैति, उक्तं च- "जन्मजरामरणभयैरभिद्रुते व्याधिवेदनाग्रस्ते । जिनवरवचनादन्यत्र नास्ति शरणं क्वचिल्लोके ॥ १ ॥ " इत्यादि, स तु तस्यामवस्थायां किम्भूतो भवतीत्याह- 'से ण हस्साए' इत्यादि, 'स' जरा जीर्णविग्रहो न हास्याय भवति, तस्यैव हसनीयत्वात् न परान् हसितुं योग्यो भवतीत्यर्थः, स च समक्षं परोक्षं वा एवमभिधीयते जनैः किं किलास्य हसितेन हास्यास्पदस्येति, न च क्रीडायै न च लङ्घनवल्गनास्फोटनक्रीडानां योग्योऽसौ भवति, नापि रत्यै भवति, रतिरिह विषयगता गृह्यते, सा पुनर्ललनावगूहनादिका, तथाभूतोऽप्यवजुग्गूहिषुः स्त्रीभिरभिधीयते न लज्जते १ तद्व्यतिरिक्त० प्र० २ विद्यमाना० प्र० Jain Estication International For Pantry Use Onl ~216 ~# ॥ १०६ ॥ www.indiary.org Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) ཎྜལླཱ ཡྻ [ ६४ ] अनुक्रम [ ६५ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], मूलं [६४], निर्युक्तिः [१८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः भवान् न पश्यति आत्मानं नावलोकयति शिरः पलितभस्मावगुण्डितं मां दुहितृभूतमेवं गूहितुमिच्छसीत्यादिवचसामास्पदत्वान्न रत्यै भवति, न विभूषायै, यतो विभूषितोऽपि प्रततचर्म्मवलीकः स नैव शोभते, उक्तं च- "न विभूषणमस्य युज्यते, न च हास्यं कुत एव विभ्रमः १ । अथ तेषु च वर्त्तते जनो, ध्रुवमायाति परां विडम्बनाम् ॥ १ ॥ जं जं करेइ तं तं न सोहए जोन्वणे अतिक्कंते । पुरिसस्स महिलियाइ व एकूकं धम्मं पमुत्तूर्णं ॥ २ ॥” गतमप्रशस्तं मूलस्थानं, साम्प्रतं प्रशस्तमुच्यते इच्चेवं समुट्टिए अहोविहाराए अंतरं च खलु इमं सपेहाए धीरे मुहुत्तमवि णो पमायए वओ अच्चेति जोव्वणं व ( सू० ६५ ) अथवा यत एवं ते सुहृदो नालं त्राणाय शरणाय वा अतः किं विदध्यादित्याह - 'इच्छेव' मित्यादि, 'इतिः' उपप्रदर्शने, अप्रशस्तमूलगुणस्थाने वर्तमानो जराभिभूतो न हास्याय न क्रीडायै न रत्यै न विभूपायै प्रत्येकं च शुभाशुभ कर्मफलं प्राणिनामित्येवं मत्वा समुत्थितः - सम्यगुत्थितः शस्त्रपरिज्ञोक्तं मूलगुणस्थानमधितिष्ठन् अहो इत्याश्चर्ये विहरणं विहारः आश्चर्यभूतो विहारो अहो बिहारो - यथोक्तसंयमानुष्ठानं तस्मै अहोविहारायोत्थितः सन् क्षणमपि नो प्रमादयेदित्युत्तरेण सण्टङ्कः, किंच- 'अंतरं चेत्यादि, अन्तरमित्यवसरः, तच्चार्यक्षेत्रसुकुलोत्पत्तिबोधिलाभ सर्वविरत्यादिकं, चः समुच्चये, खलु१] यत्करोति तन शोभते यौवनेऽतिक्रान्ते पुरुषस्य महिलाया वा एक धम्मं प्रमुध्य ॥ २ ॥ Etication Intimational For Parts Only ~217~# www.india.org Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६५], नियुक्ति: [१८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: (शी०) उद्देशकः१ [६५ श्रीआचा- रवधारणे, 'इम मित्यनेनेदमाह-विनेयस्तपःसंयमादाववसीदन् प्रत्यक्षभावापन्नमार्यक्षेत्रादिकमन्तरमवसरमुपदाभिधीयतेराजवृत्तिः तवायमेवम्भूतोऽवसरोऽनादी संसारे पुनरतीव सुदुर्लभ एवेति, अतस्तमवसरं 'संप्रेक्ष्य'पोलोच्य धीरः सन्मुहूर्तमप्येक नो 'प्रमादयेत्' प्रमादवशगो भूयादिति, सम्प्रेक्ष्येत्यत्र अनुस्वारलोपश्चान्दसत्वादिति, अन्यदप्यलाक्षणिकमेवंजातीयमस्मादिदेव हेतोरवगन्तव्यमिति, आन्तमौहूर्तिकत्वाच्च छाझस्थिकोपयोगस्य मुहर्त्तमित्युक्तम् , अन्यथा समयमप्येकं न प्रमादये॥१०७॥ दिति वाच्यं, तदुक्तम्-"सम्प्राप्य मानुषत्वं संसारासारतां च विज्ञाय । हे जीव ! किं प्रमादान्न चेष्टसे शान्तये सततम् | 3॥१॥ ननु पुनरिदमतिदुर्लभमगाधसंसारजलधिविभ्रष्टम् । मानुष्यं खद्योतकतडिल्लताविलसितप्रतिमम् ॥ २॥" इत्यादि, दकिमर्थं च नो प्रमादयेदित्याह-'वयो अच्चेइ'त्ति, वयः-कुमारादि अत्येति-अतीव एति-याति अत्येति, अन्यच्च-'जोव्वणं | वत्ति अत्येत्यनुवर्तते, यौवनं वाऽत्येति-अतिक्रामति, वयोग्रहणेनैव यौवनस्य गतत्वात्तदुपादानं प्राधान्यख्यापनार्थ | धर्मार्थकामानां तन्निबन्धनत्वात्सर्ववयसा यौवनं साधीयः, तदपि त्वरितं यातीति, उक्तं च-"नइवेगसमं चवलं च जीवियं जोब्वर्ण च कुसुमसमं । सोक्खं च ज अणिचं तिण्णिवि तुरमाणभोजाई ॥१॥" तदेवं मत्वा अहोविहारायोस्थानं श्रेय इति । ये पुनः संसाराभिष्वशिणोऽसंयमजीवितमेव बहु मन्यन्ते ते किंभूता भवतीत्याह| जीविए इह जे पमत्ता से हंता छेत्ता भेत्ता लुपित्ता विलंपित्ता उद्दवित्ता उत्तासइत्ता, दीप अनुक्रम [६६] ॥ १०७॥ | १ नदीवेगसमं चपलगेव जीवितं यौवनं च कुसुमसमम् । सौख्यं च बदनिस्वं त्रीण्यपि त्वरमापभोज्यानि ॥1॥ ~218~# Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६६], नियुक्ति: [१८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक [६६] दीप अकडं करिस्सामित्ति मण्णमाणे, जेहिं वा सद्धिं संवसइ ते वा णं एगया नियगा तं पुद्धि पोसेंति, सो वा ते नियगे पच्छा पोसिजा, नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा सरणाए वा (सू० ६६) ये तु वयोऽतिक्रमणं नावगच्छन्ति, ते 'इहे'त्यस्मिन्नसंयमजीविते 'प्रमत्ताः' अध्युपपन्ना विषयकपायेषु प्रमाद्यन्ति, प्रमत्ताश्चहनिशं परितप्यमानाः कालाकालसमुत्थायिनः सन्तः सत्त्वोपघातकारिणीः क्रियाः समारम्भत इति, आह च-'से हंता' इत्यादि, 'से'इत्यप्रशस्तगुणमूलस्थानवान्विषयाभिलाषी प्रमत्तः सन् स्थावरजङ्गमानामसुमतां हन्ता भवतीति, अत्र च बहुवचनप्रक्रमेऽपि जात्यपेक्षयैकवचननिर्देश इति, तथा छेत्ता कर्णनासिकादीनां भेत्ता शिरोनयनोदरादीनां लुम्पयिता ग्रन्थिच्छेदादिभिः विलुम्पयिता ग्रामघातादिभिः अपद्रावयिता प्राणव्यपरोपको विषशस्त्रादिभिः अवद्रापयिता वा, उत्रासको लोष्टप्रक्षेपादिभिः। स किमर्थं हननादिकाः क्रियाः करोतीत्याह-अकर्ड' इत्यादि, अकृतमिति, यदन्येन नानुष्ठितं तदहं करिष्यामीत्येवं मन्यमानोऽर्थोपार्जनाय हननादिषु प्रवर्त्तते । स एवं क्रूरकर्मातिशयकारी समुभाद्रलानादिकाः क्रियाः कुर्वन्नप्यलाभोदयादपगतसर्वस्वः किंभूतो भवतीत्याह-'जेहिं वा' इत्यादि, वाशब्दो भिन्नक्रमः | |पक्षान्तरद्योतकः 'य'मातापितृस्वजनादिभिः साई संवसत्यसो त एव वाण'मिति वाक्यालङ्कारे 'एकदे'त्यर्थनाशाद्या-18 पदि शैशवे वा निजाः' आत्मीया बान्धवाः सुहृदो चा 'पुबि' पूर्वमेव 'ते' सर्बोपायक्षीणं पोषयन्ति, सपा प्राप्तेष्टमनो अनुक्रम [६७]] Jain Educatinintamataind wwwandituaryam ~219~# Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६६], नियुक्ति: [१८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत लोक.वि.२ उद्देशका १ सूनाक [६६]] दीप श्रीआचा- रथलाभः संस्ताग्निजान् पश्चात् 'पोषयेद्' अर्थदानादिना सन्मानयेदिति । ते च पोषकाः पोष्या वा तव आपद्गतस्य न त्रा- रावृत्तिः णाय भवन्तीत्याह-नालं' इत्यादि, 'ते' निजा मातापित्रादयः, तवेत्युपदेशविषयापन्न उच्यते, 'त्राणाय आपद्रक्षणार्थ (शी०) 'शरणाय'निर्भयस्थित्यर्थं 'नालं' न समर्थाः, त्वमपि तेषां त्राणशरणे कर्तुं नालमिति ॥ तदेवं तावत्स्वजनो न त्राणाय भवतीत्येतत्प्रतिपादितं, अर्थोऽपि महता क्लेशेनोपात्तो रक्षितश्च न त्राणाय भवतीत्येत्प्रतिपिपादयिषुराह॥१०८॥ उवाईयसेसेण वा संनिहिसंनिचओ किजई, इहमेगेसिं असंजयाण भोयणाए, तओ से एगया रोगसमुप्पाया समुप्पजंति, जेहिं वा सद्धिं संवसइ ते वा णं एगया नियगा तं पुट्विं परिहरंति, सो वा ते नियगे पच्छा परिहरिज्जा, नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा सरणाए वा (सू०६७) 'उपादिते'ति 'अद भक्षणे' इत्येतस्मादपप निष्ठाप्रत्ययः, तत्र 'बहुलं छन्दसी'तीडागमः, उपादितम्-उपभुक्तं, तस्य शेषमुपभुक्तशेष, तेन वा, वाशब्दादनुपभुक्तशेषेण वा सन्निधान-सन्निधिस्तस्य संनिचयः सन्निधिसन्निचयः, अथवा ४ सम्यग् निधीयते-अवस्थाप्यत उपभोगाय योऽर्थः स सन्निधिस्तस्य सन्निचय:-प्राचुर्यमुपभोग्यद्रव्यनिचय इत्यर्थः, स Cइह' अस्मिन्संसारे 'एकेषाम्' असंयतानां संयताभासाना वा केषाञ्चिद् 'भोजनाय' उपभोगार्थ “क्रियते' विधीयत अनुक्रम [६७]] ॥ १०८ JainEducatunintaimational www.taneltmanam ~220~# Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६७], नियुक्ति: [१८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुनाक [६७] RECESSAGAR इति, असावपि यदर्थमनुष्ठितोऽन्तरायोदयात्तत्संपत्तये न प्रभवतीत्याह-तओ से' इत्यादि, 'ततो' द्रव्यसनिधिसन्निचयादुत्तरकालमुपभोगावसरे 'से'तस्य बुभुक्षोः 'एकदेति द्रव्यक्षेत्रकालभावनिमित्ताविर्भावितवेदनीयकम्र्मोदये 'रोगस-1 मुत्पादाः' ज्वरादिप्रादुर्भावाः 'समुत्पद्यन्त' इत्याविर्भवन्ति । स च तैः कुष्ठराजयक्ष्मादिभिरभिभूतः सन्मन्ननासिको गलत्पाणिपादोऽविच्छेदप्रवृत्तश्वासाकुलः किंभूतो भवति इत्याह-'जेहिं' इत्यादि, 'यैः'मातापित्रादिभिर्निजैः सार्द्ध संवसति त एव वा निजाः 'एकदा'रोगोत्पत्तिकाले पूर्वमेव तं परिहरन्ति, स वा तान्निजान्पश्चात्परिभवोत्थापितविवेका 'परिहरेत् त्यजेत्, तन्निरपेक्षः सेडुकवत् स्यादित्यर्थः, ते च स्वजनादयो रोगोत्पत्तिकाले परिहरन्तोऽपरिहरन्तो वान ब्राणाय भवन्तीति दर्शयति-'नाल मित्यादि, पूर्ववद्, रोगाद्यभिभूतान्तःकरणेन चापगतत्राणेन च किमालम्ब्य सम्यक्करणेन रोगवेदनाः सोढच्याः? इत्याह जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं (सू०६८) ज्ञात्वा प्रत्येक प्राणिनां दुःखं तद्विपरीतं सातं वाऽदीनमनस्केन ज्वरादिवेदनोत्पत्तिकाले स्वकृतकर्मफलमवश्यमनुभवनीयमिति मत्वा न वैक्लव्यं कार्यमिति, उक्तं च-"सह कलेवर ! दुःखमचिन्तयन् , स्ववशता हि पुनस्तव दुर्लभा । बहुतरं च सहिष्यसि जीव हे !, परवशो न च तत्र गुणोऽस्ति ते ॥१॥" यावच्च श्रोत्रादिभिर्विज्ञानैः परिहीयमानैः जराजीर्ण न निजाः परिवदन्ति यावच्चानुकम्पया न पोषयन्ति रोगाभिभूतं च न परिहरन्ति तावदात्मार्थोऽनुष्ठेय | इत्येतद्दर्शयति अनुक्रम [६८ ~221~# Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [६९] दीप अनुक्रम [ ७०] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ १०९ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], मूलं [६९], निर्युक्ति: [१८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः अणभिक्कतं च खलु वयं संपेहाए (सू० ६९ ) चशब्द आधिक्ये खलुशब्दः पुनरर्थे पूर्वमभिक्रान्तं वयः समीक्ष्य मूढभावं व्रजतीति प्रतिपादितम्, अनभिक्रान्तं च पुनर्वयः संप्रेक्ष्य " आयङ्कं समणुवासेज्जासि” इत्युत्तरेण सम्बन्धः, 'आत्मार्थम्' आत्महितं 'समनुवासयेत्' कुर्यादित्यर्थः । किमनतिक्रान्तवयसैवात्महितमनुष्ठेयमुतान्येनापि इति परेणापि लब्धावसरेणात्महितमनुष्ठेयमित्येतद्दर्शयति खणं जाणाहि पंडिए ( सू० ७०) क्षणः-अवसरो धर्म्मानुष्ठानस्य, स चार्यक्षेत्रसुकुलोत्पत्त्यादिकः, परिवादपोषणपरिहार दोषदुष्टानां जरावालभावरोगाणामभावे सति तं क्षणं 'जानीहि' अवगच्छ 'पण्डित' आत्मज्ञ !। अथवाऽवसीदन् शिष्यः प्रोत्साह्यते हे अनतिक्रा न्तयौवन ! परिवादादिदोषत्रयास्पृष्ट! पण्डित ! द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदभिन्नं 'क्षणम्' अवसरमेवंविधं 'जानीहि' अवबुध्यस्व, तथाहि द्रव्यक्षणो द्रव्यात्मकोऽवसरो जङ्गमत्वपञ्चेन्द्रियत्वविशिष्टजातिकुलरूपबलारोग्यायुष्कादिको मनुष्यभावः संसा| रोत्तरणसमर्थचारित्रावाप्तियोग्यस्त्वयाऽवाप्तः स चानादौ संसारे पर्यटतोऽसुमतो दुरापो भवति, अन्यत्र तु नैतच्चारित्रमवाप्यते, तथाहि देवनारकभवयोः सम्यक्त्वश्रुतसामायिके एव, तिर्यक्षु च कस्यचिदेशविरतिरेवेति । क्षेत्रक्षणः क्षेत्रात्मकोऽवसरो यस्मिन् क्षेत्रे चारित्रमवाप्यते, तत्र सर्वविरतिसामायिकस्याधोलौकिकग्रामसमन्वितं तिर्यक्क्षेत्रमेव, तत्राप्यतृतीयद्वीपसमुद्राः, तत्रापि पञ्चदशसु कर्मभूमिषु तत्रापि भरतक्षेत्रमपेक्ष्य अर्द्धषडूिंशेषु जनपदेष्वित्यादिकः क्षेत्रक्षण:क्षेत्ररूपोऽवसरोऽधिगन्तव्यः, अन्यस्मिंश्च क्षेत्र आये एव सामायिके । कालक्षणस्तु कालरूपः क्षणोऽवसरः, स चावसर्पिण्यां Estication Intel For Pantry Use Only ~222~# लोक.वि. २ उद्देशकः १ ॥ १०९ ॥ www.india.org Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [ ७०] दीप अनुक्रम [१] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], मूलं [७०], निर्युक्ति: [१८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः तिसृषु समासु सुषमदुष्षमादुष्षमसुषमादुष्पमाख्यासु उत्सर्पिण्यां तु तृतीयचतुर्थारकयोः सर्वविरतिसामायिकस्य भवति, एतच्च प्रतिपद्यमानकं प्रत्यभ्यधायि, पूर्वप्रतिपन्नास्तु सर्वत्र तिर्यगूर्द्धाधोलोके सर्वासु च समासु द्रष्टव्याः, भावक्षणस्तु द्वेधा-कर्म्मभावक्षणो नोकर्म्मभावक्षणश्च तत्र कर्मभावक्षणः कर्मणामुपशमक्षयोपशमक्षयान्यतरावाप्ताववसर उच्यते, तत्रोपशमश्रेण्यां चारित्रमोहनीय उपशमितेऽन्तम्मौहूर्तिक औपशमिकश्चारित्रक्षणो भवति, तस्यैव मोहनीयस्य क्षयेणान्तम्मौहूर्तिक एव छद्मस्थयथाख्यातचारित्रक्षणो भवति, क्षयोपशमेन तु क्षायोपशमिकचारित्रावसरः, स चोत्कृष्टतो | देशोनां पूर्वकोटिं यावदवगन्तव्यः, सम्यक्त्वक्षणस्त्व जघन्योत्कृष्टस्थितावायुषो वर्त्तमानस्य, शेषाणां तु कर्म्मणां पल्योपमासङ्ख्येयभागन्यूनान्तःसागरोपमकोटिकोटीस्थितिकस्य जन्तोर्भवति, स चानेन क्रमेणेति, ग्रन्थिकसत्त्वेभ्योऽभव्येभ्योऽनन्तगुणया शुद्ध्या विशुद्ध्यमानो मतिश्रुतविभङ्गान्य तर साकारोपयुक्तः शुद्धलेश्यात्रि कान्यतरलेश्योऽशुभकर्म्मप्रकृतीनां चतुःस्थानिकं रसं द्विस्थानिकतामापादयन् शुभानां च द्विस्थानिकं चतुःस्थानिकतां नयन् वश्च ध्रुवप्रकृतीः परिवर्त्तमानाश्च भवप्रायोग्या बनन्निति, ध्रुवकर्म्मप्रकृतयश्चेमाः पञ्चधा ज्ञानावरणीयं नवधा दर्शनावरणीयं मिथ्यात्वं कषायषोडशकं भयं जुगुप्सा तेजसकार्मणशरीरे वर्णगन्धरसस्पर्शागुरुलधूपघात निर्माणनामानि पञ्चधाऽन्तरायः, एताः सप्तचत्वारिंशद् ध्रुवप्रकृतयः, आसां सर्वदा वध्यमानत्वात्, मनुष्यतिरश्चोरन्यतरः प्रथमं सम्यक्त्वमुत्पादयन्नेता एकविंशतिः (म्) परिवर्त्तमाना वन्नाति, तद्यथा देवगत्यानुपूर्वीद्वयपञ्चेन्द्रियजातिवैक्रियशरीराङ्गोपाङ्गद्वयसमचतुरस्रसंस्थानपराधातोच्छ्वासप्रशस्त विहायोगतिप्रश| तत्रसादिदशक सातावेदनीयोच्चैर्गोत्ररूपा इति, देवनारकास्तु मनुष्यगत्यानुपूर्वीद्वयौदारिकद्वयप्रथमसंहननसहितानि Jan Estication Intational For Pantry Use Only ~ 223 ~# Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [७०], नियुक्ति: [१८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचारावृत्तिः प्रत (शी०) || सूत्राक [७० शुभानि बध्नन्ति, तमतमानारकास्तु तिर्यग्गत्यानुपूर्वाद्वयनीचैर्गोत्रसहितानीति, तदध्यवसायोपपन्नः सन्नायुष्कमबनन् लोक.वि.२ यथाप्रवृत्तेन करणेन ग्रन्थिमासाद्यापूर्वकरणेन भित्त्वा मिथ्यात्वस्यान्तरकरणं विधायानिवृत्तिकरणेन सम्यक्त्वमवाप्नोति, तत ऊर्दू क्रमेण क्षीयमाणे कर्मणि प्रवर्द्धमानेषु कण्डकेषु देशविरत्यादेरवसर इति । नोकर्मभावक्षणस्त्वालस्यमो उद्देशकः१ हावर्णवादस्तम्भायभावे सम्यक्त्वाद्यवाप्स्यवसर इति, आलस्यादिभिस्तूपहतो लग्ध्वाऽपि संसारलइनक्षम मनुष्यभवं बोध्यादिकं नामोतीति, उक्तं च-"आलस्समोहऽवन्ना थंभा कोहा पमाय किविणत्ता । भयसोगा अन्नाणा विक्खेव कुऊहला रमणा ॥१॥ एएहि कारणेहिं लण सुदुलहपि माणुस्स । न लहइ सुई हिअरि संसारुत्तारणिं जीवो ॥२॥" तदेवं चतुर्विधोऽपि क्षण उक्तः, तद्यथा-द्रव्यक्षणो जङ्गमत्वादिविशिष्टं मनुष्यजन्म क्षेत्रक्षण आर्यक्षेत्र कालक्षणो धर्मचरणकालो भावक्षणः क्षयोपशमादिरूपः । इत्येवंभूतमवसरमवाप्यात्मार्थ समनुवासयेदित्युत्तरेण सम्बन्धः । किं च जाव सोयपरिपणाणा अपरिहीणा नेत्तपरिणाणा अपरिहीणा घाणपरिणाणा अपरिहीणा जीहपरिणाणा फरि०, इच्चेएहिं विरूवरूवेहिं पण्णाणेहिं अपरिहीणेहिं आयटुं संमं समणुवासिजासि (सू०७१) तिबेमि ॥ प्रथमोदेशः॥ आलसां मोद्दोऽवर्णः सम्भः कोपः प्रमादः कृपणता। भयशो को अज्ञानं विक्षेपः कौतूहलं रमणम् ॥१॥ एकः कारगलम्या सुदुर्लभमपि मानुष्यं । न लभते श्रुति हितकरी संसारोत्तारिणी जीवः ॥२॥ अनुक्रम [७१] ॥११ wwwandltimaryam ~224~# Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [७२] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], मूलं [७१], निर्युक्ति: [१८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः यावदस्य विशरारोः कायापशदस्य श्रोत्र विज्ञानानि जरसा रोगेण वा अपरिहीनानि भवन्ति, एवं नेत्रम्राणरसन स्पर्शविज्ञानानि न विषयग्रहणस्वभावतया मान्यं प्रतिपद्यन्ते, इत्येतैः 'विरूपरूपैः' इष्टानिष्टरूपतया नानारूपैः 'प्रज्ञानैः' प्रकृटैर्ज्ञानेरपरिक्षीयमाणैः सद्भिः किं कुर्याद् ? इत्याह- 'आय' इत्यादि, आत्मनोऽर्थ आत्मार्थः, स च ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकः, अन्यस्त्वनर्थ एव, अथवाऽऽत्मने हितं प्रयोजनमात्मार्थं तच्च चारित्रानुष्ठानमेव, अथवा आयतःअपर्यवसानान्मोक्ष एव स चासावर्थश्वायतार्थोऽतस्तं, यदि वाऽऽयत्तो- मोक्षः अर्थः- प्रयोजनं यस्य दर्शनादित्रयस्य तत्तथा 'समनुवासयेत्' इति 'वस निवासे' इत्येतस्माद्धेतुमण्णिजन्ता हिसिपू सं- सम्यग् यथोक्तानुष्ठानेन अनु-पश्चादनभि क्रान्तं वयः संप्रेक्ष्य क्षणम्-अवसरं प्रतिपद्य श्रोत्रादिविज्ञानानां वा प्रहीणतामधिगम्य तत आत्मार्थ 'समनुवासये:' आत्मनि विदध्याः । अथवा 'अर्थवशाद् विभक्तिपुरुषपरिणाम' इतिकृत्वा तेन वा आत्मार्थेन ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकेनात्मानं 'समनुवासयेद् भावयेद्रञ्जयेत्, आयतार्थ वा मोक्षाख्यं सम्यग् - अपुनरागमनेनान्विति यथोक्तानुष्ठानात्पश्चादात्मना 'समनुवासयेद् 'अधिष्ठापयेद् । 'इति' परिसमाप्तौ ब्रवीमीति सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमिदमाह यद्भगवता श्रीवर्द्धमानस्वामिनाऽर्थतोऽभ्यधायि तदेवाहं सूत्रात्मना वच्मीति । द्वितीयाध्ययनस्य प्रथम उद्देशकः समाप्तः ॥ Jan Estication Intematonal For Pantry Use Only ~ 225 ~# www.india.org Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [७१] दीप अनुक्रम [७२] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [२], मूलं [७१], निर्युक्ति: [१८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०) उक्तः प्रथमोदेशकः, साम्प्रतं द्वितीयस्य व्याख्या प्रतन्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इह विषयकषायमातापित्रादिलोकविजयेन मोक्षावाप्तिहेतुभूतं चारित्रं यथा सम्पूर्णभावमनुभवत्येवंरूपोऽध्ययनार्थाधिकारः प्राङ्गिरदेशि, तत्र मातापित्रादिलोकविजयेन रोगजराद्यनभिभूतचेतसाऽऽत्मार्थः - संयमोऽनुष्ठेय इत्येतत्प्रथमोद्देशकेऽभिहितम् इहापि तस्मि * नेव संयमे वर्त्तमानस्य कदाचिन्मोहनीयोदयादरतिः स्याद्, अज्ञानकर्म्मलोभोदयाद्वाऽध्यात्मदोषेण संयमे न दृढत्वं भवे॥ १११ ॥ ॐ दित्यतोऽरत्यादिव्युदासेन यथा संयमे दृढत्वं भवति तथाऽनेन प्रतिपाद्यते, अथवा यथाऽष्टप्रकारं कर्मापहीयते तथा अस्मिन्नध्ययने प्रतिपाद्यते इत्यध्ययनार्थाधिकारेऽभ्यधायि तच कथं क्षीयत इत्याह अरई आउट्टे से मेहावी, खणंसि मुक्के ( सू०७२ ) अस्य चानन्तरसूत्रेण सम्बन्धो वाच्यः, स चायम्- 'आय समणुवासेज्जासि' आत्मार्थ संयमं सम्यक्कया कुर्यात्, तत्र कदाचिदरत्युद्भवो भवेत्तदर्थमाह- 'अरई' इत्यादि, परम्परसूत्रसम्बन्धस्तु 'खणं जाणाहि पंडिए' क्षणं- चारित्रावसरमवाप्यारतिं न कुर्यादित्याह – 'अरई' इत्यादि, आदिसूत्रसम्बन्धस्तु 'सुअं मे आउसंतेगं भगवया एवमक्खायें' किं तच्छ्रुतमित्याह- 'अरई आउट्टे से मेहावी' रमणं रतिस्तदभावोऽरतिस्तां पञ्चविधाचारविषयां मोहोदयात् कषायाभिष्वङ्गजनितां मातापितृकलत्रायुत्थापितां 'स' इत्यरतिमान् 'मेधावी' विदितासारसंसारस्वभावः सन् आवर्त्तेत अपत्रर्त्तेत निवर्त्तयेदित्युक्तं भवति, संयमै चारतिर्न विषयाभिष्वङ्गरतिमृते कण्डरीकस्येवेत्यत इदमुक्तं भवति-विषयाभिष्वङ्गे | रतिं निवर्त्तेत, निवर्त्तनं चैवमुपजायते यदि दशविधचक्रवालसामाचारीविषया रतिरुत्पद्यते पौण्डरीकस्येवेति, ततश्चेदमुक्कं Estication tumanl द्वितीय-अध्ययने द्वितीय उद्देशक: 'अदृढता' आरब्ध:, For Parts Only ~226 ~# लोक.वि. २ उद्देशका २ ॥ १११ ॥ www.indiary.org Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [७२] दीप अनुक्रम [७३] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [२], मूलं [७२], निर्युक्ति: [१८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः भवति-संयमे रतिं कुब्बत, तद्विहितरतेस्तु न किञ्चिद्वाधायै, नापीहापरसुखोत्तरबुद्धिरिति, आह च- “क्षितितलशयनं वा प्रान्तभैक्षाशनं वा, सहजपरिभवो वा नीचदुर्भाषितं वा । महति फलविशेषे नित्यमभ्युद्यतानां न मनसि न शरीरे दुःखमुत्पादयन्ति ॥ १ ॥ तैणसंचारनिसण्णोऽवि मुणिवरो भट्टरागमयमोहो । जं पावइ मुत्तिसुहं तं कत्तो चकवट्टीवि ? ॥ २ ॥” इत्यादि च । अत्र हि चारित्रमोहनीयक्षयोपशमादवाप्तचारित्रस्य पुनरपि तदुदयादवदिधाविषोरनेन सूत्रेणोपदेशो दीयते तच्चावधावनं संयमात् यैर्हेतुभिर्भवति तान्निर्युक्तिकारो गाथयाऽऽचष्टे विइउसे अदढो उ संजमे कोइ हुज्ज अरईए । अन्नाणकम्मलो भाइएहिँ अज्झत्थदोसेहिं ॥ १९७ ॥ इह हि प्रथमोदेश के बह्रयो निर्युक्तिगाथा अस्मिंस्त्वियमेवैकेत्यतो मन्दबुद्धेः स्यादारेका यथा इयमपि तत्रत्यैवेत्यतो विनेयसुखप्रतिपत्त्यर्थे द्वितीयोदेशकग्रहणमिति, कश्चित्कण्डरीकदेशीयः 'संयमे' सप्तदशभेदभिन्ने 'अदृढः' शिथिलो मोहनीयोदयादरत्युद्भवाद्भवेत्, मोहनीयोदयोऽप्याध्यात्मिकैर्दोषैर्भवेत्, ते चाध्यात्मदोषा अज्ञान लोभादयः, आदि| शब्दादिच्छामदनकामानां परिग्रहो, मोहस्याज्ञानलोभकामाद्यात्मकत्वात्तेषां चाध्यात्मिकत्वादिति गाधार्थः ॥ [द्वितीयाध्य यने द्वितीयोदेशक नियुक्तिः ] ॥ ननु चारतिमतो मेधाविनोऽनेन सूत्रेणोपदेशो दीयते यथा-संयमारतिमपवर्त्तत, मेधावी चात्र विदितसंसारस्वभावो विवक्षितो यश्चैवंभूतो नासावरतिमान् तद्वांश्चेन्न विदितवेद्य इत्यनयोः सहानवस्थानलक्षणेन विरोधेन विरोधाच्छायातपयोरिव नैकत्रावस्थानम्, उक्तं च- " तज्ज्ञानमेव न भवति यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणः । १ तृणसंस्तारनिषण्णोऽपि मुनिवरो अरामद मोहः । यत्प्राप्नोति मुक्तिमुखं कुतस्तद कवपि ॥ १ ॥ Esticatonttumational For Parts O पुनः अत्र निर्युक्ति क्रमे मुद्रण-दोष: (१८६ के बजाय सीधा १९७ क्रम दे दिया है, इसके पूर्व क्रम १६३ से १७१ दो बार दिये थे) ~227 ~# Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [७२], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ७२ दीप अनुक्रम [७३] श्रीआचा- तमसः कुतोऽस्ति शक्तिर्दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम् ॥१॥" इत्यादि, यो यज्ञानी मोहोपहतचेताः स विषयाभिष्वङ्गात्सं- लोक.वि.२ राङ्गवृत्तिःशयमे सर्वद्वन्द्वप्रत्यनीके रत्यभावं विदध्याद्, आह च-अज्ञानान्धाश्चटुलवनितापाङ्गविक्षेपितास्ते, कामे सक्तिं दधतिर (शी०) विभवाभोगतुङ्गार्जने वा । विद्वचित्तं भवति हि महन्मोक्षमार्गकतानं, नाल्पस्कन्धे विटपिनि कपत्यसभित्ति गजेन्द्रः Kelu१॥" नैतन्मृष्यामहे, यतो ह्यवाप्तचारित्रस्यायमुपदेशो दित्सितः, चारित्रावाप्तिश्च न ज्ञानमृते, तत्कार्यत्वाचारित्रस्य, ॥११२॥ न च ज्ञानारत्योर्विरोधः, अपि तु रत्यरत्योः, ततश्च संयमगता रतिरेवारत्या वाध्यते न ज्ञानम्, अतो ज्ञानिनोऽपि दाचारित्रमोहनीयोदयात्संयमे स्यादेवारतिः, यतो ज्ञानमप्यज्ञानस्यैव बाधक, न संयमारतेः, तथा चोक्तम्-ज्ञानं भूरि यथा-18 र्थवस्तुविषयं स्वस्य द्विषो बाधकं, रागारातिशमाय हेतुमपरं युङ्क्ते न कर्तृ स्वयम् । दीपो यत्तमसि व्यनक्ति किमु नो रूपं स एवेक्षता, सर्वः खं विषयं प्रसाधयति हि प्रासङ्गिकोऽन्यो विधिः ॥१॥" तथेदमपि भवतो न कर्णविवरमगा-3 द्यथा-'बलवानिन्द्रियग्रामः, पण्डितोऽप्यत्र मुह्यती'त्यतो यत्किञ्चिदेतत्, अथवा नारत्यापन्न एवैवमुच्यते, अपि त्वयमुपदेशो मेधावी संयमविषये मा विधादरतिमिति । संयमारतिनिवृत्तश्च सन् के गुणमवामोतीत्याह-'खणंसि मुके परम-11 |निरुद्धः कालः क्षणः जरत्पशाटिकापाटनदृष्टान्तसमयप्रसाधितः तत्र मुक्तो विभक्तिपरिणामाद्वा क्षणेन-अष्टप्रकारेण | कर्मणा संसारबन्धनैर्वा विषयाभिष्वङ्गस्नेहादिभिर्मुक्तो भरतवदिति, ये पुनरनुपदेशवर्तिनः कण्डरीकाद्यास्ते चतुग्गेपातिकसंसारान्तर्वतिनो दुःखसागरमधिवसन्तीत्याह च ॥१२॥ अणाणाय पुढावि एगे नियति, मंदा मोहेण पाउडा, अपरिग्गहा भविस्सामो समु wwwandltimaryam ~228~# Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [७३] दीप अनुक्रम [७४] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [२], मूलं [७३], निर्युक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः द्धे कामे अभिगाइ, अणाणाए मुणिणो पडिलेहंति, इत्थ मोहे पुणो पुणो सन्ना नो हव्वाए नो पाराए (सू०७३) आज्ञाप्यत इत्याज्ञा - हिताहितमाप्तिपरिहाररूपतया सर्वज्ञोपदेशस्तद्विपर्ययोऽनाज्ञा तथा अनाज्ञया सत्या 'स्पृष्टाः ' परीषहोपसगैः, अपिशब्दः सम्भावनायां स च भिन्नक्रमो निवर्त्तन्त इत्यस्मादनन्तरं द्रष्टव्यः, 'एके' मोहनीयोदयाकण्डरीकादयो न सर्वे संयमात्समस्तद्वन्द्वोपशमरूपात् निवर्त्तन्ते अपीति, सम्भाव्यत एतन्मोहोदयस्येत्यपिशब्दार्थः, किंभूताः सन्तो निवर्त्तन्त इत्याह-'मन्दा' जडा अपगतकर्त्तव्याकर्त्तव्यविवेकाः कुत एवंभूता ? यतो 'मोहेन प्रावृता' मोह:- अज्ञानं मिथ्यात्वमोहनीयं वा तेन प्रावृता-गुण्ठिताः, उक्तं च-"अज्ञानं खलु कष्टं क्रोधादिभ्योऽपि सर्वपापेभ्यः अर्थ हितमहितं वा न वेत्ति येनावृतो लोकः ॥ १ ॥" इत्यादि, तदेवमवाप्तचारित्रोऽपि कम्र्मोदयात्परीषहोदयेऽङ्गीकृतलिङ्गः पश्चाद्भावतामालम्बत इत्युक्तम् । अपरे तु स्वरुचिविरचितवृत्तयो नानाविधैरुपायैर्लोकादर्थं जिघृक्षवः किल वयं संसारोद्विझा मुमुक्षवस्तेषु तेषु आरम्भविषयाभिष्वङ्गेषु प्रवर्तत इति दर्शयति-'अपरिग्गहा' इत्यादि, परिः समन्तात् मनोवाक्कायकर्मभिर्गृह्यत इति परिग्रहः स येषां नास्तीत्यपरिग्रहा एवंभूता वयं भविष्याम इति शाक्यादिमतानुसारिणः स्वयूथ्या वा 'समुत्थाय' चीवरादिग्रहणं प्रतिपद्य, ततो लब्धान् कामान् 'अभिगाहन्ते' सेवन्ते, तिद्व्यत्ययेन चैकवचनमिति, अत्र चान्त्यत्रतोपादानात् शेषाण्यपि ग्राह्याणि, अहिंसका वयं भविष्याम एवममृषावादिन इत्याद्यप्यायोज्यम् । तदेवं शैलूषा इवान्यथावादिनोऽन्यथाकारिणः कामार्थमेव तांस्तान् प्रब्रज्याविशेषान्विवति, उक्तं च-“स्वेच्छयविरचितशास्त्रैः Estication Untamal For Pantry at Use Only ~229~# www.india.org Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [७३] दीप अनुक्रम [७४] श्री आचा राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ११३ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [२], मूलं [७३], निर्युक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः प्रत्रज्यावेषधारिभिः क्षुद्रेः । नानाविधैरुपायैरनाथवन्मुष्यते लोकः ॥ १ ॥" इत्यादि । तदेवं प्रत्रज्यावेषधारिणो लब्धाकामानवगाहन्ते तल्लाभार्थं च तदुपायेषु प्रवर्त्तन्ते इत्याह- 'अणाणार' इत्यादि, 'अनाज्ञया' स्वैरिण्या बुद्ध्या 'मुनय' इति मुनिवेषविडम्बिनः कामोपायान् 'प्रत्युपेक्षन्ते' कामोपायारम्भेषु पौनःपुन्येन उगन्तीति, आह च-'एत्थ' इत्यादि, 'अत्र' अस्मिन् विषयाभिष्वङ्गाज्ञानमये भावमोहे पौनःपुन्येन 'सन्नाः' विषण्णा निमग्नाः पङ्कावमना नागा इवात्मानमात्रष्टुं नालमिति, आह च- 'नो हब्वाए नो पाराए' यो हि मध्येमहानदीपूरं निमग्नो भवत्यसौ नारातीयतीराय नापि पारेमहानदीपूरमिति, एवमत्रापि कुतश्चिन्निमितात्त्य कगृहगृहिणीपुत्र धनधान्यहिरण्यरलकुप्यदासीदासादिविभव आकिशन्यं प्रति|ज्ञायारातीय तीरदेश्यागृहवाससौख्यान्निर्गतः सन् नो हव्वापत्ति भवति, पुनरपि चान्तभोगाभिलाषितया यथोक्तसंयमाभावेन तत्क्रियाया विफलत्वात् नो पाराए त्ति भवति, उभयतो मुक्तबन्धना मुक्तोलीवोभयवष्टो न ग्रहस्थो नापि प्रब्रजित इत्युक्तं भवति, उक्तं च- "इन्द्रियाणि न गुप्तानि, लालितानि न चेच्छया । मानुष्यं दुर्लभं प्राप्य न भुक्तं नापि शोषितम् ॥ १ ॥” इति । ये पुनरप्रशस्त रतिनिवृत्ताः प्रशस्तरतिमधिशयानास्ते किंभूता भवन्तीत्याह विमुत्ता हु ते जणा जे जणा पारगामिणो, लोभमलोभेण दुगुंछमाणे लद्धे कामे नाभिगाहइ (सू०७४ ) विविधम्- अनेकप्रकारं द्रव्यतो धनस्वजनानुषङ्गाद्भावतो विषयकषायादिभ्योऽनुसमयं मुच्यमाना एव भाविनि भूतवदुपचारान्मुक्ता विमुक्ताः ते जना ये जनाः सर्वस्वजनभूता निर्ममत्वाः पारगामिनो भवन्ति, पारो मोक्षः संसाराणंवतट Jan Estication Intemational For Pantry Use Only ~230~# लोक.वि. २ उद्देशकः २ ॥ ११३ ॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [७४] दीप अनुक्रम [७५] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [२], मूलं [७४], निर्युक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः वृत्तित्वात्तत्कारणानि ज्ञानदर्शनचारित्राण्यपि पार इति भवति हि तादर्थ्यात्ताच्छन्द्यं यथा तन्दुलान् वर्षति पर्जन्यः, अतस्तत्पारं - ज्ञानदर्शनचारित्राख्यं गन्तुं शीलं येषां ते पारगामिनः, ते मुक्ता भवन्तीति पूर्वेण सम्बन्धः । कथं पुनः सम्पूर्णपारगामित्वं भवतीत्याह-'लोभ' इत्यादि, इह हि लोभः सर्वसङ्गानां दुस्त्यजो भवति, तथाहि क्षपकश्रेण्यन्तर्गतस्वापगताशेषकषायस्यापि खण्डशः क्षिप्यमाणोऽप्यनुवध्यत इति, अतस्तं लोभं तद्विपक्षेण अलोभेन 'जुगुप्समानो' निन्दम्परिहरन् किं करोतीत्याह-'लद्धे' इत्यादि, 'लब्धान्' प्राप्तानिच्छामदनरूपान् कामान् 'नाभिगाहते' न सेवते, यो हि शरीरादावपि निवृत्तलोभः स कामाभिष्वङ्गवान्न भवति, ब्रह्मदत्तामन्त्रितचित्रवदिति, प्रधानान्त्यलोभपरित्या गेन चोपसर्जनाधस्तनपरित्यागो द्रष्टव्यः, तद्यथा - क्रोधं क्षान्त्या जुगुप्समानो मानं माईवेन मायामार्जवेनेत्याद्यप्यायोज्यं, लोभोपादानं तु सर्वकषायप्राधान्यख्यापनार्थमुपाददे, तथाहि तत्प्रवृत्तः साध्यासाध्यविवेकविकलः कार्याकार्यविचाररहितः सन्नर्थैकदत्तदृष्टिः पापोपादानमास्थाय सर्वाः क्रियाः अधितिष्ठतीति, तदुक्तम्- “ धोवेइ रोहणं तरइ सायरं भमइ गिरिणिगुंजेसुं । मारेइ बंधवंपिहु पुरिसो जो होइ घणलुद्धो ॥ १ ॥ अडइ बहुं वह भरं सहइ छुह पावमायरइ धिट्ठो । कुलसीलजाइपञ्च्चयधिदं च लोभहुओ चयइ ॥ २ ॥" इत्यादि, तदेवं कुतश्चिन्निमित्तात्सहापि लोभादिना निष्क्रम्य पुनर्लोभादिपरित्यागः कार्यः, अन्यस्तु लोभं विनापि प्रत्रभ्यां प्रतिपद्यत इति दर्शयति १ धावति रोहणं तरति सागरं श्राम्यति गिरिनिकुञ्जेषु मारयति बान्धवमपि पुरुषो यो भवति धनधः ॥ १ ॥ अटति बहु वहति भारं सहते क्षुषां पापमाचरति पृष्ठः कुलशीलजातिप्रथयतीच भामितस्यजति ॥ २ ॥ Jain Estication Intel For Parts Only ~231~# Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [७५], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचारावृत्तिः (शी०) ॥११४॥ दीप विणावि लोभ निक्खम्म एस अकम्मे जाणइ पासइ, पडिलेहाए नावकंखइ, एस लोक.वि.२ अणगारित्ति पवुच्चइ, अहो य राओ परितप्पमाणे कालाकालसमुट्ठाइ संजोगट्टी अट्टा उद्देशक लोभी आलुपे सहकारे विणिविचित्ते इत्थ सत्थे पुणो पुणो से आयबले से नाइबले से मित्तबले से पिच्चबले से देवबले से रायबले से चोरवले से अतिहिबले से किविणबले से समणबले, इच्चेएहिं विरूवरूवेहिं कजेहिं दंडसमायाणं संपेहाए भया कजइ, पावमुक्खुत्ति मन्नमाणे, अदुवा आसंसाए (सू०७५) कश्चिदरतादिनिःशेषतो लोभापगमाद्विनापि लोभ 'निष्क्रम्य प्रव्रज्या प्रतिपद्य, पाठान्तरं वा 'विणइत्तु लोभ' सञ्च-1 लनसंज्ञकमपि लोभं 'विनीय'निर्मूलतोऽपनीय एष एवंभूतः सन् 'अकर्मा'अपगतघातिकर्मचतुष्टयाविर्भूतानावरणज्ञानो विशेषतो जानाति सामान्यतः पश्यति, एतदुक्तं भवति-एवंभूतो लोभो येन तत्क्षये मोहनीयक्षये चावश्य घातिकर्मक्षयस्तस्मिंश्च निरावरणज्ञानसद्भावस्ततोऽपि भवोपग्राहिकर्मापगम इत्यतो लोभापगमे अकर्मेत्युक्तम् । यतश्चैवम्भूतो लोभो दुरन्तस्तद्धानी चावश्यं कर्मक्षयस्ततः किं कर्तव्यमित्याह-'पडिलेहाए'इत्यादि, प्रत्युपेक्षणया-गुणदोषपयोंलो-13 चनयोफ्पन्नः सन्नथवा लोभविपाकं प्रत्युपेक्ष्य-पर्यालोच्य तदभावे गुणं च लोभ 'नावकाङ्क्षति' नाभिलषतीति, यश्चाज्ञानो- ॥११४॥ पहतान्तःकरणोऽप्रशस्तमूलगुणस्थानवी विषयकषायाद्युपपन्नस्तस्य पूर्वोक्तं विपरीततया सर्व संतिष्ठते, तथाहि-अलोभ अनुक्रम [७६] wwwandltimaryam ~232-23 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [ ७५ ] दीप अनुक्रम [ ७६ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [२], मूलं [७५], निर्युक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः लोभेन जुगुप्समानो लब्धान् कामानवगाहते, लोभमनपनीय निष्क्रम्य पुनरपि लोभैकमनाः सकर्म्मा न जानाति नापि पश्यति, अपश्यंश्चाप्रत्युपेक्षणयाऽभिकाङ्क्षति । यच्च प्रथमोदेश केऽप्रशस्तमूलगुणस्थानमवाचि तच्च वाच्यमिति, आह च- 'अहो य राओ' इत्यादि, अहोरात्रं परितप्यमानः कालाकालसमुत्थायी संयोगार्थी अर्थालोभी आलुम्पः सहसाकारो विनिवि|ष्टचित्तः अत्र-शस्त्रे पृथिवीकायाद्युपधातकारिणि पौनःपुन्येन वर्त्तते । किं च-' से आयवले' आत्मनो बलं शक्त्युपचय आत्मबलं तन्मे भावीतिकृत्वा नानाविधैरुपायैरात्मपुष्ट्ये तास्ताः क्रियाः ऐहिकामुष्मिकोपघातकारिणीर्विधत्ते, तथाहि'मांसेन पुष्यते मांस 'मितिकृत्वा पश्चेन्द्रियघातादावपि प्रवर्त्तते, अपराश्च लुम्पनादिकाः सूत्रेणैवाभिहिताः, एवं च 'ज्ञातिवलं' स्वजनवलं मे भावीति, तथा तन्मित्रबलं मे भविष्यति येनाहमापदं मुखेनैव निस्तरिष्यामि, तत्मेत्यबलं भविष्यतीति बस्तादिकमुपहन्ति तद्वा देववलं भावीति पचनपाचनादिकाः क्रिया विधत्ते, राजवलं वा मे भविष्यतीति राजानमुपचरति, चौरग्रामे वा वसति चौरभागं वा प्राप्स्यामीति चौरानुपचरति, अतिथिवलं वा मे भविष्यतीत्यतिथीनुपचरति, अतिथिर्हि निःस्पृहोऽभिधीयते इति उक्तं च- “तिथिपर्वोत्सवाः सर्वे त्यक्ता येन महात्मना । अतिथिं तं विजानीयाच्छेषमभ्यागतं विदुः ॥ १ ॥ एतदुक्तं भवति तद्वलार्थमपि प्राणिषु दण्डो न निक्षेतव्यः इति, एवं कृपणश्रमणार्थमपि वाच्यमिति, एवं पूर्वोक्तः 'विरूपरूपैः 'नानाप्रकारैः पिण्डदानादिभिः कार्यैः 'दण्डसमादान' मिति | दण्ड्यन्ते - व्यापाद्यन्ते प्राणिनो येन स दण्डस्तस्य सम्यगादानं ग्रहणं समादानं, तदात्मबलादिकं मम नाभविष्यत् यद्यहमेतन्नाकरिष्यमित्येवं 'संप्रेक्षया' पर्यालोचनया एवं संप्रेक्ष्य वा भयात् क्रियते, एवं तावदिहभवमाश्रित्य दण्ड Estication Intel For Pantry Use Only ~233~# Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [७५], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचान रावृत्तिः (शी०) ॥११५॥ लोक.वि.२ उद्देशकः२ सूत्रांक समादानकारणमुपन्यस्तम् , आमुष्मिकार्थमपि परमार्थमजानानैर्दण्डसमादानं क्रियत इति दर्शयति-'पावमोक्खोत्ति| इत्यादि, पातयति पासयतीति वा पापं तस्मान्मोक्षः पापमोक्षः, 'इति' हेतौ, यस्मात्स मम भवीप्यतीति मन्यमानः दण्डसमादानाय प्रवर्तत इति, तथाहि-हुतभुजि पडूजीवोपघातकारिणि शस्त्रे नानाविधोपायप्राण्युपघातात्तपापविर्वसनाय पिप्पलशमीसमित्तिलाज्यादिकं शठन्युदाहितमतयो जुह्वति, तथा पितृपिण्डदानादौ बस्तादिमांसोपस्कृतभोजनादिकं द्विजातिभ्य उपकल्पयन्ति तद्भुक्तशेषानुज्ञातं स्वतोऽपि भुञ्जते, तदेवं नानाविधैरुपायैरज्ञानोपहतबुद्धयः | पापमोक्षार्थ दण्डोपादानेन तास्ताः क्रियाः पाण्युपघातकारिणीः समारभमाणाः अनेकभवशतकोटीदुर्मोचमघमेवोपाददत इति । किश्य-'अदुवा' इत्यादि, पापमोक्ष इति मन्यमानो दण्डमादत्त इत्युक्तम् , अथवा आशंसनम् आशंसा-अप्राप्तप्रापणाभिलापस्तदर्थं दण्डसमादानमादत्ते, तथाहि-ममैतत् परुपरारि वा प्रेत्य वोपस्थास्यते इत्याशंसया क्रियासु प्रवर्तते, राजानं वाऽर्थाशाविमोहितमना अवलगति, उक्तं च-"आराध्य भूपतिमवाप्य ततो धनानि, भोश्यामहे किल वयं सततं सुखानि । इत्याशया धनविमोहितमानसाना, कालः प्रयाति मरणावधिरेव पुंसाम् ॥१॥ पहि गच्छ पतोत्तिष्ठ, वद मौनं समाचर । इत्याद्याशाग्रहास्तैः, क्रीडन्ति धनिनोऽथिभिः ॥२॥" इत्यादि ॥ तदेवं| ज्ञात्वा किं कर्त्तव्यमित्याह दीप अनुक्रम [६] ॥११५॥ तं परिणाय मेहावी नेव सयं एएहिं कजेहिं दंड समारंभिजा नेव अन्नं एएहिं wwwandltimaryam ~234~# Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [७६], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्राक [७६] दीप कजेहिं दंडं समारंभाविजा एएहिं कज्जेहिं दंडं समारंभंतपि अन्नं न समणुजाणिज्जा, एस मग्गे आरिएहिं पवेइए, जहेत्थ कुसले नोवलिंपिज्जासि तिबेमि (सू०७६) लोगविजयस्स बितिओ उद्देसो ॥२॥ 'तदिति सर्वनाम प्रक्रान्तपरामर्शि, 'तत्' शस्त्रपरिज्ञोकं स्वकायपरकायादिभेदभिन्नं शखम्, इहवा यदुक्तम् । | अप्रशस्तगुणमूलस्थानं-विषयकषायमातापित्रादिकं, तथा कालाकालसमुत्थानक्षणपरिज्ञानश्रोत्रादिविज्ञानप्रहाणादादिकं तथाऽऽत्मवलाधानाद्यर्थं च दण्डसमादानं ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत् 'मेधावी' मर्या-||3| दावर्ती, ज्ञातहेयोपादेयः सन् किं कुर्यादित्याह-नेव सयं' इत्यादि, नैव 'स्वयम् आत्मना एतैः-आत्मबलाधानादिका 'कायः' कर्त्तव्यैः समुपस्थितैः सद्भिः 'दण्ड' सत्त्वोपघातं समारभेत्, नाप्यन्यमपरमेभिः कार्यहिंसानृतादिकं दण्ड समारम्भयेत् , तथा समारभमाणमप्यपरं योगत्रिकेण न समनुज्ञापयेद् । एष चोपदेशस्तीर्घकृद्भिरभिहित इत्येतत् सुध-४ कर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमाहेति दर्शयति-'एस' इत्यादि, 'एप' इति ज्ञानादियुक्तो भावमार्गो योगत्रिककरणत्रिकेण दण्डसमादानपरिहारलक्षणो वा 'आय' आराद्याताः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्याः संसारार्णवतटवर्तिनः क्षीणघातिकमांशाः संसारोदरविवरवर्तिभावविदः तीर्थकृतस्तैः 'प्रकर्षण' सदेवमनुजायां पर्षदि सर्वस्वभाषानुगामिन्या वाचा योगपद्याशेषसंशीतिच्छे या प्रकर्षण वेदित:-कथितः प्रतिपादित इतियावत्, एवम्भूतं च मार्ग ज्ञात्वा किं कर्तव्य अनुक्रम [७७] SECASS %A4 www.jansatnam.org ~235~# Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [७६], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०) मित्याह-'जहेत्थ' इत्यादि, तेषु तेष्वात्मबलोपधानादिकेषु कार्येषु समुपस्थितेषु सत्सु दण्डसमुपादानादिकं परिहरन लोक.वि.२ कुशलो' निपुणः अवगततत्त्वो यथैतस्मिन् दण्डसमुपादाने स्वमात्मानं 'नोपलिम्पयेः' न तत्र संश्लेषं कुर्या इति, विभक्तिपरिणामाद्वा एतेन दण्डसमुपादानजनितकर्मणा यथा नोपलिप्यसे तथा सर्वैः प्रकारैः कुर्यास्त्वम् । इति-Iाउद्दशका शब्दः परिसमाप्ती, बबीमीति पूर्ववत् । लोकविजये द्वितीय उद्देशकः समाप्तः ॥ [७६ ॥११६॥ दीप अनुक्रम [७७] - उक्तो द्वितीयोद्देशकः, साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके संयमे दृढत्वं कार्य-| |मसंयमे चादृढत्वमुक्तं, तच्चोभयमपि कषायव्युदासेन सम्पद्यते, तत्रापि मान उत्पत्तेरारभ्य उच्चैर्गोत्रोत्थापितः स्यात् ||अतस्तद्व चुदासार्थमिदमभिधीयते । अस्य चानन्तरसूत्रेण सम्बन्धः-'जस्थ कुसले नोवलिंपेजासि' कुशलो निपुणः। सन्नस्मिन्नुच्चैर्गोत्राभिमाने यथाऽऽस्मानं नोपलिम्पयेस्तथा विदध्यास्त्वं, किं मत्वा ?, इत्यतस्तदभिधीयते से असई उच्चागोए असई नीआगोए, नो हीणे नो अइरित्ते, नोऽपीहए, इय संखाय को गोयावाई को माणाबाई ?, कसि वा एगे गिज्झा, तम्हा नो हरिसे नो कुप्पे, भूएहिं जाण पडिलेह सायं (सू०७७) 'से असई उच्चागोए असई नीआगोएत्ति' 'स' इति संसार्यसुमान् 'असकृद्' अनेकशः उच्चैगोत्रे मानसत्काराहे, - - |॥११६॥ % + * wwwandltimaryam दवितीय-अध्ययने तृतीय-उद्देशक: 'मदनिषेध' आरब्धः, ~236~# Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [bb] दीप अनुक्रम [ ७८ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [३], मूलं [७७], निर्युक्तिः [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः उत्पन्न इति शेषः, तथा असकृन्नीचैगोत्रे सर्वलोकावगीते, पौनःपुन्येनोसन्न इति, तथाहि नीचैर्गोत्रोदवादनन्तमपि कालं तिर्यक्ष्वास्ते, तत्र च पर्यटन् द्विनवतिनामोत्तरप्रकृतिसत्कर्म्मा संस्तथाविधाध्यवसायोपपन्नः आहारकशरीरतत्सद्वातबन्धनाङ्गोपाङ्गदेवगत्यानुपूर्वीद्व यनरकगत्यानुपूर्वीद्वयवैक्रियचतुष्टयरूपा एता द्वादशकर्मप्रकृतीनिर्लेप्याशीतिसकर्म्मा तेजोवायुषूत्पन्नः सन् मनुजगत्यानुपूर्वीद्वयमपि निर्लेप्य तत उच्चैर्गोत्रमुद्बलयति पल्योपमासंख्येयभागेन, अतस्तेजोवायुष्वाद्य एव भङ्गकः, तद्यथा-नीचैर्गोत्रस्य बन्ध उदयोऽपि तस्यैव सत्कर्म्मताऽपीति, ततोऽप्युद्वृत्तस्यापरै केन्द्रियगतस्यायमेव भङ्गः, त्रसेष्वप्यपर्याप्त कावस्थायामयमेव, अनिर्लेपिते' तूचैगोत्रे द्वितीयचतुर्थी भङ्गौ, तद्यथा-नीचैर्गोत्रस्य बन्ध उदयोऽपि तस्यैव सत्कर्म्मता तूभयरूपस्यैवेति द्वितीयः, तथा उच्चैर्गोत्रस्य बन्धो नीचस्योदयः सत्कर्म्मता तूभयरूपस्येति चतुर्थः, शेषास्तु चत्वारो न सन्त्येव, तिर्यक्षूच्चैर्गोत्रस्योदयाभावादिति भावः, तदेवमुचैर्गोत्रोद्बलनेन कलंकलीभावमापन्नोऽनन्तं कालमेकेन्द्रियेष्वास्ते, अनुद्वलिते वा तिर्यश्वास्तेऽनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिणीः, आवलिकाकालासङ्ख्ये १० स्थान्ययापि आदाय प्र. २ अनिलेपिते सूत्रे द्वितीयो मङ्गकः कस्यचित्प्रथमसमय एवापरस्यान्तमुहूतांद्वोर्ध्वमुवर्गेत्रसम्बन्धसद्भावे चतुर्थभङ्गकः, तद्यथा-नीचैर्योत्रस्य बन्ध उदयोऽपि तस्यैव सत्कर्म्मता तूभयरूपस्यैवेति द्वितीयः, तथोचैगस्थ बन्धो नीचस्योदयः सत्कम्मैता तूभयरूपस्येति चतुर्थः, शेषास्तु चत्वारो न सन्त्येव तिर्यगौत्रस्योदयाभावादिति भावः । तदेवमुचैर्गोत्रोद्दलनेन कलंकी भावमापन्नोऽसंख्येयमपि कालं सूक्ष्मत्रसेष्वास्ते, ततोऽयुत्त उत्रोदयाभावे सति द्वितीयचतुर्थभङ्गकस्थोऽनन्तमपि कालं तिर्यक्ष्वास्ते इति, स च अनन्ता उत्सर्पिव्यवसर्पिणीः, आवलिकाकाला संख्येयभाग समय संख्यान् पुलपरावत्तोनिति प्र ३ नीचैर्गोत्रस्य बन्ध उच्चैर्गोत्रस्योदयः उपपनीचेगोत्रे सती ३ उचैर्गोत्रस्य बन्ध उचैगोत्रस्थोदय उपनीचैोत्रे सती ५ स्वोदय उनी गोत्रे सती ६ उबेगोत्रस्योदय उचैगोत्रं सत् ७ इत्येवंरूपाः शेषास्तृतीयपचमषष्ठ सप्तमभङ्गरूपाथत्वारः. प्र. Jan Estication Intemational For Parts O ~237~# Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [७७], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचाराङ्गवृत्तिः प्रत लोक.वि.२ म ॥११७॥ |यभागसमयसंख्यान पुद्गलपरावर्तीनिति, कीदृशः पुनः पुद्गलपरावर्त इति ? उच्यते, यदौदारिकवैक्रियतैजसभाषानापा- नमनःकर्मसप्तकेन संसारोदरविवरवर्तिनः पुद्गलाः आत्मसात्परिणामिता भवन्ति तदा पुद्गलपरावर्त इत्येके, अन्ये तु द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदाचतुर्दा वर्णयन्ति, प्रत्येकमसावपि वादरसूक्ष्मभेदात् द्वैविध्यमनुभवति, तत्र द्रव्यतो बादरो यदीदारिकवैक्रियतैजसकार्मणचतुष्टयेन सर्वपुद्गला गृहीत्वोज्झितास्तदा भवति, सूक्ष्मः पुनर्थदैकशरीरेण सर्वपुद्गलाः स्पर्शिता भवन्ति तदा द्रष्टव्यः १, क्षेत्रतो बादरो यदा क्रमोत्क्रमाभ्यां म्रियमाणेन सर्वे लोकाकाशप्रदेशाः स्पृष्टा भवन्ति सदा SI| विज्ञेयः, सूक्ष्मस्तु तदा विज्ञेयो यदैकस्मिन् विवक्षिताकाशखण्डके मृतः पुनर्यदा तस्यानन्तरप्रदेशवृया सर्व लोकाका व्यामोति तदा ग्राह्यः २, कालतो बादरो यदोत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमयाः क्रमोत्क्रमाभ्यां म्रियमाणेनालिङ्गिता भवन्ति | तदा विज्ञेयः, सूक्ष्मस्तूत्सर्पिणीप्रथमसमयादारभ्य क्रमेण सर्वसमया बियमाणेन यदा छुप्ता भवन्ति तदाऽवगन्तव्यो ३, |भावतो बादरो यदाऽनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि क्रमोत्क्रमाभ्यां नियमाणेन व्याप्तानि भवन्ति तदाऽभिधीयते, | अनुभागबन्धाध्यवसायप्रमाणं तु संयमस्थानावसरे प्रागेवाभ्यधायीति, सूक्ष्मस्तु जघन्यानुभागवन्धाध्यवसायस्थानादा-1 रभ्य यदा सर्वेष्वपि क्रमेण मृतो भवति तदाऽवसेय इति । तदेवं कलंकलीभावमापनोऽन्यो वा नीचैर्गोत्रोदयादनन्तमपि कालं तिर्यक्ष्वास्ते, मनुष्येष्वपि तदुदयादेव चावगीतेषु स्थानेषुत्पद्यते, तथा कलंकलीसत्वोऽपि द्वीन्द्रियादिषूत्पन्नः सन् प्रथमसमये एव पर्यास्युत्तरकालं वोच्चैर्गोत्रं बवा मनुष्येष्वसकृदुच्चैर्गोत्रमास्कन्दति, तत्र कदाचित्तृतीयभङ्गकस्थः पञ्चमभङ्गोपपन्नो वा भवति, ताविमौ-नीचेोत्रं बनात्युच्चैर्गोत्रस्योदयः सत्कर्मता तूभयस्य तृतीयः, पञ्चमस्तूच्चैर्गोत्रं [७८] %ES ॥११७ ।। wwwandltimaryam ~238~# Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [७७], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत ७७ जीवनाति तस्यैवोदयः सत्कर्मता तूभयस्य, षष्ठसप्तमभङ्गौ तूपरतबन्धस्य भवतः, अविषयत्वान्न ताभ्यामिहाधिकारः, तौ चेमी-10 तबन्धोपरमे उगोत्रोदयः सत्कर्मता तूभयस्येति षष्ठः, सप्तमस्तु शैलेश्यवस्थायां द्विचरमसमये नीचैर्गोत्रे क्षपिते उच्च-18|| गोत्रोदयस्तस्यैव सत्कर्मतेति, तदेवमुच्चावचेषु गोत्रेषु असकृदुखद्यमानेनासुमता पञ्चभङ्गकान्तवर्त्तिना न मानो विधेयो नापि दीनतेति । तयोश्चोचावचयोः गोत्रयोर्बन्धाध्यवसायस्थानकण्डकानि तुल्यानीत्याह-णो हीणे णो अइरित्ते'। यावन्त्युच्चैर्गोत्रेऽनुभावबन्धाध्यवसायस्थानकण्डकानि नीचैर्गोत्रेऽपि तावन्त्येव, तानि च सर्वाण्यप्यसुमताऽनादिसंसारे भूयो भूयः सर्शितानि, तत उच्चैर्गोत्रकण्डकार्धतयाऽसुभृन्न हीनो नाप्यतिरिक्तः, एवं नीचैर्गोत्रकण्डकार्थतयाऽपीति। नागार्जुनीयास्तु पठन्ति–“एगमेगे खल्लु जीवे अईअद्धाए असई उच्चागोए असई नीआगोए, कंडगट्टयाए नो हीणे नो अइरित्ते" एकैको जीवः खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे अतीते कालेऽसकृदुच्चावचेषु गोत्रेपूसन्ना, स चोच्चावचानुभागकण्डकापेक्षया न हीनो नाप्यतिरिक्त इति, तथाहि-उच्चैर्गोत्रकण्डकेभ्य एकभविकेभ्योऽनेकभविकेभ्यो वा नीचैर्गोत्रकण्डकानि न हीनानि नाप्यतिरिक्तानीत्यतोऽवगम्योत्कर्षापकों न विधेयौ, अस्य चोपलक्षणार्थत्वात् सर्वेष्वपि मदस्थानेष्वे-19 तदायोज्यं । यतश्चोच्चावचेषु स्थानेषु कर्मवशादुखद्यन्ते, बलरूपलाभादिमदस्थानानां चासमञ्जसतामवगम्य किं कर्त्तव्यमित्याह-'नोऽपीहए' अपिः सम्भावने स च भिन्नक्रमो, जात्यादीनां मदस्थानानामन्यतमदपि नो 'ईहेतापि' नाभिलपेदपि अथवा नो स्पृहयेत्-नावकाङ्केदिति । तत्र यद्युञ्चावचेषु स्थानेष्वसकृदुत्पन्नोऽसुमांस्ततः किमित्याह-इय ||संखाय' इत्यादि, इतिरुपप्रदर्शने 'इति' एतत्पूर्वोत्तनीत्योच्चावचस्थानोसादादिकं परिसंख्याय' ज्ञात्वा 'को गोत्रवादी||| कलक दीप अनुक्रम [७८] wwwandltimaryam ~239~# Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [७७], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ७७ दीप अनुक्रम [७८] श्रीआचा- भवेद् यथा ममोचैर्गोत्रं सर्वलोकमादनीयं नापरस्थेत्येवंवादी को बुद्धिमान् भवेत् ?, तथाहि-मयाऽन्यैश्च जन्तुभिः लोक.वि.२ रावृत्तिः सर्वाण्यपि स्थानान्यनेकशःप्राप्तपूर्वाणीति, तथोच्चैर्गोत्रनिमित्तमानवादी वा को भवेत्, न कश्चित्संसारस्वरूपपरिच्छेदी-IPL उद्देशका (शी०) इत्यर्थः, किं च-कसि वा एगे गिज्झे अनेकशोऽनेकस्मिन् स्थानेऽनुभूते सति तम्मध्ये कस्मिन्वा एकस्मिनचौत्रादिकेड-18 नवस्थितस्थानके रागादिविरहादेकः कथं गृध्येत् ?, तात्पर्यम्-आसेवां विदितकर्मपरिणामो विदध्यात्, युज्येत गाय यदि ॥११८॥ तत्स्थान प्राप्तपूर्व नाभविष्यत् , तच्चानेकशः प्राप्तपूर्वम्, अतस्तल्लाभालाभयोः नोत्कर्षापकों विधेयाविति, आह च 'तम्हा' इत्यादि, यतोऽनादी संसारे पर्यटताऽसुमताऽदृष्टायत्तान्यसकृदुच्चावचानि स्थानान्यनुभूतानि तस्मात्कथञ्चिदु-४ चावचादिकं मदस्थानमवाप्य 'पण्डितो' हेयोपादेयतत्त्वज्ञो 'न दृष्येत्' न हर्ष विदध्यात्, उक्तं च-"सर्वसुखान्यपि बहुशः प्राप्तान्यटता मयाऽत्र संसारे । उच्चैःस्थानानि तथा तेन न मे विस्मयस्तेषु ॥१॥ जइ सोऽवि णिजरमओ पडिसिद्धो अहमाणमहणेहिं । अवसेस मयहाणा परिहरिअब्वा पयत्तेणं ॥२॥" नाप्यवगीतस्थानावाप्तौ वैमनस्यं विदध्याद्, आह च-नो कुप्पे' अदृष्टवशात्तथाभूतलोकासम्मतं जातिकुलरूपवललाभादिकमधममवाप्य 'न कुष्येत्' न क्रोध कुयोत्, कतरनीचस्थानं शब्दादिकं वा दुःखं मया नानुभूतमित्येवमधगम्य नोद्वेगवशगेन भाव्यम्, उक्तं च-"अवमानापरिधशाद्वधवन्धधनक्षयात् । प्राप्ता रोगाश्च शोकाच, जात्यन्तरशतेष्वपि ॥ १॥ संते ये अविम्हइज असोइउं पंडिएण यदि सोऽपि निरामदः प्रतिषियोामानमयनैः । अवशेषाणि मदस्थानानि परिहर्तव्यानि प्रयनेन ॥1॥ २ साच विस्मेनुमशोचितु पण्डितेन। INU११८॥ चासत्सु । शक्यं हि इमोपमितहृदयेन हितं धरता ॥१॥ भूत्वा चक्रवर्ती पृथ्वीपतिमिलपाण्डरच्छनः । स एव नाम भूयोऽनाथशालालयो भवति ॥ १ ॥ %ANCERICA C2% wwwandltimaryam ~240-23 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [७७], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत ७७ दीप य असंते । सका हु दुमोवमिअहिअएण हि धरतेण ॥ २॥ होऊण चक्वट्टी पुहइबई विमलपंडरछत्तो । सो चेव। नाम भुजो अणाहसालालओ होइ ॥ ३॥" एकस्मिन् वा जन्मनि नानाभूतावस्था उच्चावचाः कर्मवशतोऽनुभवति ।। तदेवमुञ्चनीचगोत्रनिर्विकल्पमनाः अन्यदपि अविकल्पेन किं कुर्यादित्याह-'भूएहिं' इत्यादि, भवन्ति भविष्यन्त्यभूषनिति च भूतानि-असुभृतस्तेषु 'प्रत्युपेक्ष्य' पर्यालोच्य विचार्य कुशाग्रीयया शेमुष्या जानीहि-अवगच्छ, किं जानीहि: सात' सुख तद्विपरीतमसातमपि जानीहि, किंच कारणं सातासातयोः? एतज्जानीहि, किं चाभिलषन्त्यविगानेन प्राणिन || द्र इति, अत्र जीवजन्तुप्राण्यादिशब्दानुपयोगलक्षणद्रव्यस्य मुख्यान वाचकान्विहाय सत्तावाचिनो भूतशब्दस्योपादानेनेदमा विर्भावयति-यथाऽयमुपयोगलक्षणपदार्थोऽवश्य सत्तां विभर्ति, साताभिलाध्यसातं च जुगुप्सते, साताभिलापश्च शुभशाप्रकृतित्वाद् अतोऽपरासामपि शुभप्रकृतीनामुपलक्षणमेतदवसेयम्, अतः शुभनामगोत्रायुराद्याः कर्मप्रकृतीरनुधावत्य-II शुभाश्च जुगुप्सते सर्वोऽपि प्राणी । एवं च व्यवस्थिते सति किं विधेयमित्याह समिए एयाणुपस्सी, तंजहा-अन्धत्तं बहिरत्तं मूयत्तं काणत्तं कुंटत्तं खुज्जत्तं वडभत्तं सामत्तं सबलतं सह पमाएणं अणेगरूवाओ जोणीओ संधायइ विरूवरूवे फासे परिसंवेयइ (सू०७८) १ कर्मवंशगो. प्र. २ बुध्वस. अनुक्रम [७८] www.iratnam.org ~241-23 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [७८], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०) ७८ दीप . अथवा भूतेषु शुभाशुभरूपं कर्म प्रत्युपेक्ष्य यत्तेषामप्रियं तन्न विदध्यात् इत्ययमुपदेशो, नागार्जुनीयास्तु पठन्ति- लोक.वि.२ "पुरिसेणं खलु दुक्खुव्वेअसुहेसए" 'पुरुषों' जीवः णमिति वाक्यालङ्कारे 'खलुः' अवधारणे दुःखात् उद्वेगो यस्य | स दुःखोद्धेगा, सुखस्वैपकः सुखेपका, याजकादित्वात्समासश्छाम्दसत्वाद्वा, दुःखोद्वेगश्वासी सुखैपकश्च दुखोद्वेगसुखै उद्देशका ३ पका, सर्वोऽपि प्राणी दुःखोद्वेगसुखैषक एव भवत्यतो जीवनरूपणं कार्य, तच्चावनिवनपचनानलवनस्पतिसूक्ष्मबादर| विकलपञ्चेन्द्रियसंज्ञीतरपर्याप्तकापर्याप्तकरूपं शस्त्रपरिज्ञायामकार्येव, तेषां च दुःखपरिजिहीपूणां सुखलिप्सूनामात्मौपम्यमाचरता तदुपमर्दकानि हिंसादिस्थानानि परिहरताऽऽत्मा पञ्चमहाव्रतेष्वास्थेयः, तत्परिपालनार्थं चोत्तरगुणा अप्यनुशीलनीयाः, तदर्थमुपदिश्यते-'समिए एयाणुपस्सी' पञ्चभिः समितिभिः समितः सन् एतत्-शुभाशुभं कर्म वक्ष्यमाणं चान्धत्वादिकं द्रष्टुं शीलं यस्येत्येतदनुदशी भूतेषु सातं जानीहीति सण्टङ्कः, तत्र 'समिति'रिति 'इण् गता' वित्यस्मात्सम्पूर्वात् क्तिन्नन्ताद्भवति, सा च पश्चधा, तद्यथा-र्याभाषेषणाऽऽदाननिक्षेपोत्सर्गरूपाः, तत्रैर्यासमितिः प्राणव्यपरोपणन तपरिपालनाय, भाषासमितिरसदभिधाननियमसंसिद्धये, एषणासमितिरस्तेयव्रतपरिपालनाय, शेषद्वयं तु समस्तवतप्रकृष्टलास्याहिंसात्रतस्य संसिद्धये व्याप्रियते इति, तदेवं पञ्चमहाव्रतोपपेतस्तद्वत्तिकल्पसमितिभिः समितः सन् भावत एतद्भूतसा-10 तादिकमनुपश्यति, अथवा यदनुदयसो भवति तद्यधेत्यादिना सूत्रेणैव दर्शयति 'अन्धत्वमित्यादिना यावत् विरूपरूपे ११९॥ फासे परिसंवेएइ' संसारोदरे पर्यटन प्राणी अन्धत्वादिका अवस्था बहुशः परिसंवेदयते, स चान्धो द्रव्यतो भावतच, तत्रै| केन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रिया द्रव्यभावान्धाः, चतुरिन्द्रियादयस्तु मिथ्यादृष्टयो भावान्धाः, उक्तं च-"एक हि चक्षुरमलं सहजो अनुक्रम [७९]] www.tanditimaryam ~242-23 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [ ७८ ] दीप अनुक्रम [७] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [३], मूलं [७८], निर्युक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः विवेकस्तद्वद्भिरेव सह संवसतिर्द्वितीयम् । एतद्वयं भुवि न यस्य स तत्त्वतोऽन्धस्तस्यापमार्गचलने खलु कोऽपराधः ॥ १ ॥” सम्यग्टष्टयस्तुपहतनयना द्रव्यान्धाः, त एवानन्धा न द्रव्यतो न च भावतः, तदेवमन्धत्वं द्रव्यभावभिन्नमेकान्तेन दुःखजननमवाप्नोतीति उक्तं च- "जीवन्नेव मृतोऽन्धो यस्मात्सर्वक्रियासु परतन्त्रः । नित्यास्तमितदिवाकरस्तमोऽन्धकारार्णवनिमग्नः ॥ १ ॥ लोकद्वयव्यसनवह्निविदीपिताङ्गमन्धं समीक्ष्य कृपणं परयष्टिनेयम् । को नोद्विजेत भयकृजननादिवोग्रात् कृष्णा हिनैकनिचितादिव चान्धगर्त्तात् ॥ २ ॥” एवं बधिरत्वमप्यदृष्टवशादनेकशः परिसंवेदयते, तदावृतश्च सदसद्विवेकवि कलत्वादैहिकामुष्मिकेष्टफल क्रियानुष्ठानशून्यतां विभर्त्ति इति उक्तं च- “धर्म्मश्रुतिश्रवणमङ्गलवर्जितो हि, लोकश्रुतिश्रवणसंव्यवहारबाह्यः । किं जीवतीह बधिरो ? भुवि यस्य शब्दाः, स्वमोपलब्धधन निष्फलतां प्रयान्ति ? ॥ १ ॥ स्वकलत्रवालपुत्रकमधुरवचः श्रवणवाह्यकरणस्य । बधिरस्य जीवितं किं जीवन्मृतका कृतिधरस्य ॥ २ ॥ एवं मूकत्वमप्येकान्तेन दुःखावहं परिसंवेदयते, उक्तं च-- " दुःखकरमकीर्त्तिकरं मूकत्वं सर्वलोकपरिभूतम् । प्रत्यादेशं मूढाः कर्मकृतं किं न पश्यन्ति ? ॥ १ ॥” तथा काणत्वमप्येवंरूपमिति, आह् च - "काणो निमन्नविषमोन्नतदृष्टिरेकः, शको विरागजनने जननातुराणाम् । यो नैव कस्यचिदुपैति मनः प्रियत्वमालेख्यकर्म्मलिखितोऽपि किमु स्वरूपः १ ॥ १ ॥ " एवं 'कुण्टत्वं' पाणिवक्रत्वादिकं 'कुब्जत्वं' वामनलक्षणं 'वडभत्वं' विनिर्गतपृष्ठी वडभलक्षणं 'श्यामत्वं' कृष्णलक्षणं 'शबलत्वं' श्वित्रलक्षणं सहजं पश्चाद्भावि वा कर्म्मवशगो भूरिशो दुःखराशिदेशीयं परिसंवेदयते । किं च सह 'प्रमादेन' विषय क्रीडाभिष्वङ्गरूपेण श्रेयस्यनुद्यमात्मकेन 'अनेकरूपाः सङ्कटविकटशीतोष्णादिभेदभिन्ना योनीः 'संदधाति' संधत्ते Estication tumanl For Pantry at Use Only ~243~# wwwindiary.org Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [ ७८ ] दीप अनुक्रम [७] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ १२० ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [३], मूलं [७८], निर्युक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः चतुरशीतियोनिलक्षसम्बन्धाविच्छेदं विदधातीति भावः, सम्यग् धावतीति वा, तासु तास्वायुष्कबन्धोत्तरकालं गच्छ तीत्यर्थः, तासु च नानाप्रकारासु योनिषु 'विरूपरूपान' नानाप्रकारान् 'स्पर्शान' दुःखानुभवान् परिसंवेदयते, अनुभवतीत्यर्थः ॥ तदेवमुचैर्गोत्रोत्थापितमानोपहतचेता नीचैगोत्र विहितदीनभावो वाऽन्धवधिरभूयं वा गतः सन्नावबुध्यते कर्त्तव्यं न जानाति कर्म्मविपाकं नावगच्छति संसारापसदतां नावधारयति हिताहिते न गणयति औचित्यमित्यनव गततत्त्वो मूढस्तत्रैवोगत्रादिके विपर्यासमुपैति आह च- से अबुज्झमाणे हओवहए जाईमरणं अणुपरियहमाणे, जीवियं पुढो पियं इहमेगेसिं माणवाणं खित्तवत्थुममायमाणाणं, आरतं विरतं मणिकुंडलं सह हिरणेण इत्थियाओ परिगिज्झति तत्थेव रत्ता, न इत्थ तवो वा दमो वा नियमो वा दिस्सर, संपुर्ण वाले जीविकामे लालप्पमाणे मूढे विप्परियासमुवेइ (सू०७९) 'से' इत्युचैर्गोत्राभिमानी अन्धबधिरादिभावसंवेदको वा कर्म्मविपाकमनवबुध्यमानो हतोपहतो भवति, नानाव्याधिस द्भावक्षतशरीरत्वाद्धतः समस्तलोकपरिभूतत्वादुपहतः, अथवोच्चैर्गोत्रगर्वाध्मात त्यक्तोचितविधेय विद्वज्जनवदनसमुद्भूतशव्दायशः पटहहतत्वाद्धतः अभिमानोत्पादितानेकभवको टिनीचैगोत्रोदया दुपहतः, मूढो विपर्यासमुपैतीत्युत्तरेण सम्बन्धः, तथा जातिश्च मरणं च समाहारद्वन्द्वस्तद् 'अनुपरिवर्त्तमानः' पुनर्जन्म पुनर्भरणमित्येवमरहट्टघटीयन्त्रन्यायेन संसारोदरे Jan Estication listational For Pantry Use Only ~244 ~# लोक.वि. २ उद्देशकः ३ ॥ १२० ॥ www.india.org Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [७९], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत दीप विवर्तमानः, आवीचीमरणाद्वा प्रतिक्षणं जन्मविनाशावनुभवन् दुःखसागरावगाढो विशरारुण्यपि नित्यताकृतमतिः हितेऽप्यहिताध्यवसायो विपर्यासमुपैति, आह च-'जीवितम् आयुष्कानुपरमलक्षणमसंयमजीवितं वा 'पृथग्' इति प्रत्येक प्रतिग्राणि 'प्रिय' दयितं वल्लभम् 'इहे ति अस्मिन् संसारे 'एकेषाम् अविद्योपहतचेतसां मानवानामिति, उपलक्षणार्थत्वात् प्राणिनां, तथाहि-दीर्घजीवनार्थ तास्ता रसायनादिकाः क्रियाः सत्त्वोपघातकारिणीः कुर्वते, तथा क्षेत्र शालिक्षेत्रादि 'वास्तु' धवलगृहादि मम इदमित्येवमाचरतां सतां तत्क्षेत्रादिकं प्रेयो भवति, किं च-'आरक्तम्' ईपद्रकं वस्वादि विरक्तं' विगतरागं विविधरागं वा 'मणिः' इति रत्नवैडूर्येन्द्रनीलादि 'कुण्डलं' कर्णाभरणं हिरण्येन सह स्त्रीः परिगृह्य तत्रैव क्षेत्रवास्त्वारक्तविरक्तवस्त्रमणिकुण्डलस्यादौ 'रक्का' गृद्धा अध्युपपन्ना मूढा विपर्यासमुपयान्ति, वदन्ति चनात्र 'तपो वा' अनशनादिलक्षणं 'दमो वा' इन्द्रियनोइन्द्रियोपशमलक्षणो 'नियमोवा' अहिंसावतलक्षणः फलवान् दृश्यते, तथाहि-तपोनियमोपपेतस्यापि कायक्लेशभोगादिवञ्चनां विहाय नान्यत्फलमुपलभ्यते, जन्मान्तरे भविष्यतीति चेयुद्धा हितस्योल्लापः, किं च-दृष्टहानिरदृष्टकल्पना च पापीयसीति, तदेवं साम्प्रतेक्षी भोगसङ्गविहितैकपुरुषार्थबुद्धिः सम्पूर्ण पायथावसरसम्पादितविषयोपभोग 'बाल' अज्ञः 'जीवितुकामः' आयुष्कानुभवनमभिलषन् 'लालप्यमानः भोगार्धमत्यर्थ र लपन् वाग्दण्डं करोति, तद्यथा-अत्र तपो दमो नियमो वा फल वान्न दृश्यत इत्येवमर्थ बुवन् मूढः अबुध्यमानो हतोपहतो जातिमरणमनुपरिवर्त्तमानो जीवितक्षेत्रख्यादिलोभपरिमोहितमनाः 'विपर्यासमुपैति' तत्त्वेऽतत्त्वाभिनिवेशम अतत्त्वे च तत्त्वाभिनिवेशं हितेऽहितबुद्धिमित्येवं सर्वत्र विपर्ययं विदधाति, उक्तं च-"दाराः परिभवकारा बन्धुजनो CREAK अनुक्रम न--2344 [८०] * * wwwandltimaryam ~245~# Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [68] दीप अनुक्रम [ ८० ] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) 8 ॥ १२१ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [३], मूलं [७९], निर्युक्तिः [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | बन्धनं विषं विषयाः । कोऽयं जनस्य मोहो ?, ये रिपवस्तेषु सुहृदाशा ॥ १ ॥" इत्यादि । ये पुनरुन्मज्जत्शुभकर्मापादिताध्यवसाय पुरस्कृतमोक्षास्ते किंभूता भवन्तीत्याह Jan Estication matinal इणमेव नावकंति, जे जणा धुवचारिणो । जाईमरणं परिन्नाय, चरे संकमणे दढे (१) नत्थि कालस्स णागमो, सव्वे पाणा पियाउया, सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा पिजीविणो जीविकामा, सव्वेसिं जीवियं पियं, तं परिगिज्झ दुपयं चउप्पयं अभिजुंजिया णं संसिंचिया णं तिविहेण जाऽवि से तत्थ मन्त्ता भवइ अप्पा वा बहुया वा, से तत्थ गड्डिए चिट्ठइ, भोअणाए, तओ से एगया विविहं परिसि संभूयं महोवगरणं भवइ, तंपि से एगया दायाया वा विभयन्ति, अदत्तहारो वा से अवहरति, रायाणो वा से विलुपति, नस्सइ वा से विणस्सइ वा से, अगारदाहेण वा से इज्झइ इय, से परस्सऽट्टाए कूराई कम्माई बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण संमूढे विप्परियासमुवेइ, मुणिणा हु एयं पवेइयं, अणोहंतरा एए नो य ओहं तरितए, अतीरंगमा For Pantry Use Onl ~246 ~# लोक.वि. २ उद्देशकः श् [ ॥ १२१ ॥ www.anditary.org Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [८०], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: २ % 0- प्रत सूत्राक [८०] दीप एए नो य तीरं गमित्तए, अपारंगमा एए नो य पारंगमित्तए, आयाणिजं च आयाय तमि ठाणे न चिट्ठइ, वितहं पप्पऽखेयन्ने तमि ठाणंमि चिट्ठइ (सू०८०) 'इणमेव' इत्यादि, इदमेव पूर्वोक्तं सम्पूर्णजीवितं क्षेत्राङ्गनापरिभोगादिकं वा 'नावकाङ्क्षति' नाभिलषन्ति, ये जना| 'ध्रुवचारिणों' ध्रुवो-मोक्षस्तत्कारणं च ज्ञानादि ध्रुवं तदाचरितुं शीलं येषां ते तथा, धूतचारिणो वा धुनातीति धूतं-18 चारित्रं तच्चारिण इति । किं च-'जाई' इत्यादि, जातिश्च मरणं च समाहारद्वन्द्वः तत् 'परिज्ञाय परिच्छिद्य ज्ञात्वा 'चरेत्' उद्युक्तो भवेत् , क?—'सङ्क्रमणे' सङ्कम्यतेऽनेनेति सङ्क्रमणं-चारित्रं तत्र 'दृढो' विश्रोतसिकारहितः परीषहोपसग्गैः निष्प्रकम्पो वा यदि वा अशङ्कमनाः सन् संयम चर, न विद्यते शङ्का यस्य मनसस्तदशङ्कम् अशङ्कं मनो यस्यासावशङ्कमनाः-तपोदमनियमनिष्फलत्वाशङ्कारहित आस्तिक्यमत्युपपेतस्तपोदमादौ प्रवर्तेत, यतस्तद्वान् राजराजादीनां पूजाप्रशंसा) भवति, (न चौपशमिकसुखावाप्तफलस्य तपस्विनः समस्तद्वन्द्वदवीयसोऽसत्यपि परलोके किञ्चित् श्रूयते, उक्तं च-"संदिग्धेऽपि परे लोके, त्याज्यमेवाशुभं बुधैः । यदि नास्ति ततः किं स्यादस्ति चेन्नास्तिको हतः॥१॥" इत्यादि । तस्मात् स्वायत्ते संयमसुखे दृढेन भाव्यं, न चैतद्भावनीयं यथा-परुत्परारि वृद्धावस्थायां वा धम्म करिष्यामीति, यतः-'नस्थि' इत्यादि, 'नास्ति' न विद्यते 'कालस्य मृत्योरनागमः-अनागमनमनवसर इतियावत् , तथाहि-सोपक्रमायुषोऽसुमतो न काचित्साऽवस्था यस्यां कर्मपावकान्तर्वी जन्तुर्जतुगोलक इव न विलीयेत इति, उक्तं च-"शिशुम अनुक्रम [८१+ ८२] wwwandltimaryam ~247~# Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [८०], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ८० दीप श्रीआचा- शिशु कठोरमकठोरमपण्डितमपि च पण्डितं, धीरमधीरं मानिनभमानिनमपगुणमपि च बहुगुणम् । यतिमयति प्रका- लोक.वि.२ राजवृत्तिःशमवलीनमचेतनमथ सचेतनं, निशि दिवसेऽपि सान्ध्यसमयेऽपि विनश्यति कोऽपि कथमपि ॥१॥" तदेव सर्वंकषत्वं । (शी०) मृत्योरवधार्याहिंसादिषु दत्तावधानेन भाव्यं, किमिति ?, यतः-सवे पाणा पियाउया' प्राणशब्देनात्राभेदोपचारात् उद्देशकः३ तद्वन्त एव गृह्यन्ते, सर्वे प्राणिनो-जन्तवः "प्रियायुषः' प्रियमायुर्वेषां ते तथा, ननु च सिद्धय॑भिचारो, न हि ते| ॥१२२॥ प्रियायुषस्तदभावात् , नैष दोषो, यतो मुख्यजीवादिशब्दव्युदासेन प्राणशब्दस्योपचरितस्य ग्रहणं संसारप्राण्युपलक्षणार्थमिति यत्किञ्चिदेतत् , पाठान्तरं वा 'सब्बे पाणा पियायया' आयतः-आत्माऽनाद्यनन्तत्वात् स प्रियो येषां ते तथा, सर्वेऽपि प्राणिनः प्रियात्मानः । प्रियात्मता च सुखदुःखप्राप्तिपरिहारतया भवतीति आह च-'सुहसाया दुक्खपडिकूला' सुखम्-आनन्दरूपमास्वादयन्तीति सुखास्वादा:-सुखभोगिनः सुखैषिण इत्युक्तं भवति, दुःखम्-असातं तत्प्रतिकूलयन्तीति दुःखप्रतिकूला:-दुःखद्वेषिण इत्युक्तं भवति, तथा 'अप्रियवधा' अप्रियं-दुःखकारणं तत् प्रन्त्यप्रियवधाः, तथापि 'पियजीविणो' प्रियं-दयितं जीवितम्-आयुष्कमसंयमजीवितं येषां ते तथा, 'जीविउकामा' यत एव प्रियजीविनोऽत एव दीर्घकालं जीवितुकामाः-दीर्घकालमायुष्काभिलाषिणो दुःखाभिभूता अध्यन्त्यां दशामापन्ना जीवितुमेवाभिलपन्ति, उक्तं च "रमइ विहवी विसेसे ठितिमित्तं थेववित्थरो महई । मग्गइ सरीरमहणो रोगी जीए चिय कयत्थो ॥१॥"|| तदेवं सर्वोऽपि प्राणी सुखजीविताभिलाषी, तच्च नारम्भमृते, असावपि प्राण्युपघातकारी, प्राणिनां च जीवितमत्यर्थं दयि ॥१२२॥ १ रमते विभलवान् विशेषे स्थितिमात्र स्तोकविस्तारोऽभिलपति । मार्गयति शरीरमधनी रोगी जीवित एव कृतार्थः ॥१॥ 25 अनुक्रम [८१+ % ८२] 4%95 रबर wwwandltimaryam ~248~# Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [८०], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक [८०] दीप तमित्यतो भूयो भूयस्तदेवोपदिश्यत इत्याह–'सब्वेसिं' इत्यादि, सर्वेषामविगानेन 'जीवितम्' असंयमजीवितं 'प्रियं' है दयितं, यद्येवं ततः किमित्यत आह-तं परिगिज्झ तद्-असंयमजीवितं 'परिगृह्य आश्रित्य, किं कुर्वन्तीत्याह 'दुपय' इत्यादि, 'द्विपद' दासीकर्मकरादि 'चतुष्पद' गवाश्चादि 'अभियुज्य' योजयित्वा अभियोग ग्राहयित्वा व्यापा-12 तारयित्वेत्युक्तं भवति, ततः किमित्यत आह-'संसिंचिया गं' इत्यादि, प्रियजीवितार्थमर्थाभिवृद्धये द्विपदचतुष्पदादि-1A व्यापारेण संसिच्य' अर्थनिचयं संवय 'त्रिविधेन' योगत्रिककरणत्रिकेण यापि काचिदल्पा परमार्थचिन्तायां वह्वयपि फल्गुदेश्या 'से' तस्यार्थारम्भिणः सा चार्थमात्रा 'तत्र' इति द्विपदाद्यारम्भे 'मात्रा' इति सोपस्कारत्वात्सूत्राणां अर्थमात्रा-अल्पता 'भवति' सत्तां बिभर्ति, किंभूता?, सा सूत्रेणेव कथयति-अल्पा वा बही घा, अल्पबहुत्वं चापे-101 क्षिकमतः सर्वाऽप्यल्पा सर्वाऽपि बही 'स' इत्यर्थवान् 'तत्र' तस्मिन्नर्थे 'गृद्धः' अध्युपपन्नस्तिष्ठति, नालोचयत्यर्थस्योपार्ज-I नक्लेशं न गणयति रक्षणपरिश्रमं न विवेचयति तरलतां नावधारयति फल्गुताम् , उक्त च-कृमिकुलचितं लालाक्लिन्न विगन्धि जुगुप्सितं, निरुपमरसप्रीत्या खादन्नरास्थि निरामिषम् । सुरपतिमपि वा पार्श्वस्थं सशङ्कितमीक्षते, न हि गणयति क्षुद्रो लोकः परिग्रहफल्गुताम् ॥१॥" इत्यादि, सच किमर्थमर्थमर्थयत इत्यत आह-भोयणाए' भोजनम्-उपभोगस्तस्मै अर्थमर्थयते, तदर्थी च क्रियासु प्रवर्तते, क्रियावतश्च किं भवतीत्याह-'तओ से' इत्यादि, ततः 'से' तस्यावलगनादिकाः क्रियाः कुर्वतः 'एकदा' लाभान्तरायकर्मक्षयोपशमे 'विविध नानाप्रकारं 'परिशिष्टं' प्रभूतत्वाअक्तोद्धरितं 'सम्भूतं' सम्यकपरिपालनाय भूतं-संवृत्तं, किं तत्?, महच्च तत्परिभोगाङ्गत्वादुपकरणं च महोपकरण-द्रव्यनिचय | अनुक्रम [८१+ ८२ FhO ~249~# Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [८] दीप अनुक्रम [८१ + ८२] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ १२३ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [३], मूलं [ ८० ], निर्युक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः इत्यर्थः, स कदाचिल्लाभोदये भवति, असावप्यन्तरायोदयान्न तस्योपभोगायेत्याह - 'तंपि से' इत्यादि, तदपि समुद्रोतरणरोहणखनन विलप्रवेश रसेन्द्रमर्दन राजा व लगन कृषीवलादिकाभिः क्रियाभिः स्वपरोपतापकारिणीभिः स्वोपभो गायोपार्जितं सत् 'से' तस्यार्थोपार्जनोपायक्लेशकारिणः 'एकदा 'भाग्यक्षये 'दायादाः' पितृपिण्डोदकदानयोग्याः 'विभजन्ते' विलुम्पन्ति, 'अदत्तहारो वा' दस्युर्वा अपहरति राजानो वा 'विलुम्पन्ति' अवच्छिन्दन्ति 'नश्यति वा स्वत एवाटवीतः 'से' तस्य 'विनश्यति वा' जीर्णभावापत्तेः 'अगारदाहेन वा' गृहदाहेन वा दह्यते कियन्ति वा कारणान्यर्थनाशे वक्ष्यन्ते इत्युपसंहरति — 'इति' एवं बहुभिः प्रकारैरुपार्जितोऽप्यर्थो नाशमुपैति नैवोपार्जयितुरुपतिष्ठत इत्युपदिश्यते, सः अर्थस्योत्पादयिता परस्मै अन्यस्मै अर्थाय प्रयोजनाय अन्यप्रयोजनकृते 'क्रूराणि' गलकर्त्तनादीनि कर्माणि' अनुष्ठानानि 'वाल:' अज्ञः 'प्रकुर्वाणः' विदधानः 'तेन' कर्म्मविपाकापादितेन 'दुःखेन' असातोदयेन ' (सं) मूढः' अपगतविवेकः 'विपर्यासमुपैति' अपगत सदसद्विवेकत्वात्कार्यमकार्य मन्यते व्यत्ययं चेति, उक्तं च-- " रागद्वेषाभिभूतत्वात्कार्याकार्यपराङ्मुखः । एष मूढ इति ज्ञेयो, विपरीतविधायकः ॥ १ ॥” तदेवं मौन्यान्धतमसाच्छादितालोकपथाः सुखार्थिनो दुःखमृच्छन्ति जन्तव इति ज्ञात्वा सर्वज्ञवचनप्रदीपमशेषपदार्थ स्वरूपाविर्भावकमाललम्बिरे मुनयः, अदक्ष मया न स्वमनीषिकयोच्यते सुधर्म्मस्वामी जम्बूस्वामिनमाह, यदि स्वमनीषिकया नोच्यते कौतस्त्यं तदमित्यत आह'मुणिणा' इत्यादि, मनुते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनि:- तीर्थकृत्तेन 'एतद्' असकृदुच्चैर्गोत्रभवनादिकं प्रकर्षेणादी या | सर्वस्वभाषानुगामिन्या वाचा वेदितं कथितं वक्ष्यमाणं च प्रवेदितं किं तदित्याह - 'अणोहं' इत्यादि, ओघो द्विधा Education Intamational Fat Para Privata the Ont ~250~# लोक.वि. २ उदेशकः ३ ॥ १२३ ॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [८] दीप अनुक्रम [८३] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [३], मूलं [८१], निर्युक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः द्रव्यभावभेदात्, द्रव्यौघो नदीपूरादिको भावोघोऽष्टप्रकारं कर्म संसारो वा तेन हि प्राप्यनन्तमपि कालमुह्यते, तमओषं ज्ञानदर्शनचारित्रबोहित्यस्था तरन्तीत्योघन्तरा न ओघन्तरा अनोपन्तराः, तरतेश्छान्दसत्वात् खशू, खिस्वान्मुमागमः, एते कुतीर्थिकाः पार्श्वस्थादयो वा ज्ञानादियानविकलाः यद्यपि तेऽप्योघतरणायोद्यतास्तथापि सम्यगुपायाभ्रावात् न ओघतरणसमर्था भवन्तीति, आह च'नो य ओहं तरित्तए' 'न च' नैवोघं भावौषं तरितुं समर्थाः, संसारीघतरणप्रत्यला न भवन्तीत्यर्थः तथा 'अतीरंगमा' इत्यादि, तीरं गच्छन्तीति तीरङ्गमाः पूर्ववत् खश्प्रत्ययादिकं, न तीरङ्गमा अतीरङ्गमाः एत इति प्रत्यक्षभावमापशान् कुतीर्थिकादीन् दर्शयति, न च ते तीरगमनायोद्यता अपि तीरं गन्तुमलं सर्वज्ञोपदिष्टसन्मार्गाभावादिति भावः तथा 'अपारंगमा' इत्यादि, पार:-तटः परकूलं तद्गच्छन्तीति पारङ्गमा न पारङ्गमा अपारङ्गमाः 'एत' इति पूर्वोक्ताः, पारंगतोपदेशाभावादपारङ्गता इति भावनीयं, न च ते पारगतोपदेशमृते पारगमनायोद्यता अपि पारं गन्तुमलम्, अथवा गमनं गमः पारस्य पारे वा गमः पारगमः, सूत्रे त्वनुस्वारोऽलाक्षणिको, न पारगमोऽपारगमस्तस्मा अपारगमाय, असमर्थसमासोऽयं, तेनायमर्थः - पारगमनाय ते न भवन्तीत्युक्तं भवति, ततश्चानन्तमपि कालं संसारान्तर्वर्त्तिन एवासते, यद्यपि पारगमनायोद्यमयन्ति तथापि ते सर्वज्ञोपदेशविकलाः स्वरुचिविरचितशास्त्रप्रवृत्तयो नैव संसारपारं गन्तुमलम्, अथ तीरपारयोः को विशेष इति उच्यते, तीरं मोहनीयक्षयः पारं शेषघातिक्षयः, अथवा तीरं घातिचतुष्टयापगमः पारं भवोपग्राह्यभाव इत्यर्थः स्यात् कथमोघतारी कुतीर्थादिको न भवति तीरपारगामी चेत्याह-'आयाणिज्जं' इत्यादि, आदीयन्ते -गृह्यन्ते सर्वभावा अनेनेत्यादानीयं श्रुतं तदादाय Jain Education Intemational For Parts Use One ~251~# www.jandibran org Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [८१], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)। ॥१२४॥ [८१] दीप तदुत्ते तस्मिन् संयमस्थाने न तिष्ठति, यदि वा-आदानीयम्-आदातव्यं भोगाङ्गं द्विपदचतुष्पदधनधान्यहिरण्यादि || लोक.वि.२ तदादाय-गृहीत्वा, अथवा-मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगैरादानीयं-कादाय, किंभूतो भवतीत्याह-'तस्मिन् ज्ञा-II नादिमये मोक्षमार्गे सम्यगुपदेशे वा प्रशस्तगुणस्थाने न तिष्ठति-नात्मानं विधत्ते, न केवलं सर्वज्ञोपदेशस्थाने न तिष्ठतिउद्दश विपर्ययानुष्ठायी च भवतीति दर्शयति-वितह' इत्यादि, वितथम्-असद्भूतं दुर्गतिहेतुं तत्तथाभूतमुपदेशं प्राप्याखेदज्ञःअकुशलः खेदज्ञो वाऽसंयमस्थाने तस्मिंश्च साम्प्रतेक्ष्याचरित उपदिष्टे वा तिष्ठति, तत्रैवासंयमस्थानेऽध्युपपन्नो भवतीतियावत् , अथवा वितथमिति आदानीयभोगाव्यतिरिक्तं संयमस्थानं तनाप्य खेदज्ञो-निपुणस्तस्मिन् स्थाने आदानीयस्य | हन्तृणि तिष्ठति, सर्वज्ञाज्ञायामात्मानं व्यवस्थापयन्तीत्यर्थः । अयं चोपदेशोऽनवगततत्त्वस्य विनेयस्य यथोपदेशं प्रवर्त्त-| मानस्य दीयते, यस्त्ववगतहेयोपादेयविशेषः स यथावसरं यथाविधेयं स्वत एव विधत्त इत्याह च उद्देसो पासगस्स नस्थि, बाले पुण निहे कामसमणुन्ने असमियदुक्खे दुक्खी दुक्खा णमेव आवढे अणुपरियदृइ (सू०८१) तिबेमि ॥ लोकविजये तृतीयोदेशकः ॥ उद्दिश्यते इत्युद्देशः-उपदेशः सदसत्कर्त्तव्यादेशः स पश्यतीति पश्यः स एव पश्यकस्तस्य न विद्यते, स्वत एव । विदितवेद्यत्वात्तस्य, अथवा पश्यतीति पश्यकः-सर्वज्ञस्तदुपदेशवती वा तस्य उद्दिश्यत इत्युद्देशो-नारकादिव्यपदेशः ॥ १२४॥ उच्चावचगोत्रादिव्यपदेशो वा स तस्य न विद्यते, तस्य द्रागेव मोक्षगमनादिति भावः, कः पुनर्वथोपदेशकारी न भव अनुक्रम [८३ Form ation ~252~# Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [८१], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत ཉྙོ ཟླ सुत्राक ** [८१] तीत्याह-बाले' इत्यादि, बालो नाम रागादिमोहितः, स पुनः कषायैः कर्मभिः परीपहोपसगै निहन्यत इति निहः, निपूर्वाद्धन्तेः कर्मणि डः, अथवा स्निह्यत इति स्त्रिहः-स्नेहवान् रागीत्यर्थः, अत एवाह-'कामसमणुन्ने' कामा:इच्छामदनरूपाः सम्यग् मनोज्ञा यस्य स तथा, अथवा सह मनोजैवर्तत इति समनोज्ञो, गमकत्वारसापेक्षस्यापि समासः, कामैः सह मनोज्ञः कामसमनोज्ञो, यदिवा कामान् सम्यगनु-पश्चात् स्नेहानुबन्धाज्जानाति सेवत इति कामसमनुज्ञः, एवंभूतश्च किंभूतो भवतीत्याह-'असमियदुक्खें' अशमितम्-अनुपशमितं विषयाभिष्वङ्गकषायोत्थं दुःखं येन स तथा, यत एवाशमितदुःखोऽत एव दुःखी शारीरमानसाभ्यां दुःखाभ्यां, तत्र शारीरं कण्टकशनगण्डलूतादिसमुत्थं मानसं प्रियविप्रयोगाप्रियसंप्रयोगेप्सितालाभदारिद्यदौर्भाग्यदौर्मनस्यकृतं तद्विरूपमपि दुःखं विद्यते यस्यासौ दुःखी, एवंभूतश्च सन् किमयामोतीत्याह-दुक्खाणं' इत्यादि, दुःखाना-शारीरमानसानामावर्त-पौनःपुन्यभवनमनुपरिवर्त्तते, दुःखावर्तावमग्नो बंधम्यत इत्यर्थः, । इतिः परिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ लोकविजयस्य तृतीयोद्देशकटीका समाप्ता ॥ ३॥ दीप ** * अनुक्रम [८३ * ** wwwandltimaryam ~253~# Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [४], मूलं [८२], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: क.वि.२ ૮R श्रीआचा तओ से एगया रोगसमुप्पाया समुप्पज्जति, जेहिं वा सद्धिं संवसइ ते व णं एगया राजवृत्तिः (शी०) नियया पुदिव परिवयंति, सो वा ते नियगे पच्छा परिवइजा, नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा सरणाए वा, जाणितु दुक्खं पत्तेयं ॥ १२५॥ सायं, भोगा मे व अणुसोयन्ति इहमेगेसिं माणवाणं (सू०८२) उक्तस्तृतीयोद्देशकः, साम्प्रतं चतुर्थस्य व्याख्या प्रस्तूयते-भोगेष्वनभिषक्तेन भाव्यं, यतो भोगिनामपाया दर्श्यन्ते (इति) प्रागुक्तं, ते चामी-'तओ से एगया' इत्यादि, अनन्तरसूत्रसम्बन्धः 'दुक्खी दुक्खाणमेव आवर्ल्ड अणुपरियट्टई त्ति, तानि चामूनि दुःखानि 'तओ से' इत्यादि, परम्परसूत्रसम्बन्धस्तु 'बाले पुण निहे कामसमणुपणे', ते च कामा दुःखात्मका एव, तत्र चासक्तस्य धातुक्षयभगन्दरादयो रोगाः समुत्पद्यन्ते इत्यतोऽपदिश्यते-तत' इति कामानुषङ्गात् कम्मोपचयस्ततोऽपि पञ्चत्वं तस्मादपि नरकभवो नरकान्निषेककललार्बुदपशीव्यूहगर्भप्रसवादिर्जातस्य च रोगाः प्रादुःध्यन्ति, 'से' तस्य कामानुषक्तमनसः 'एकदे'त्यसातावेदनीयविपाकोदये 'रोगसमुत्पादा' इति रोगाणां-शिरोऽतिशूलादीनां समुत्पादाः-प्रादुर्भावाः 'समुत्पद्यन्ते' प्रादुर्भवन्ति, तस्यां च रोगावस्थायां किंभूतो भवत्यसावित्यत आह–'जेहि इत्यादि, यैर्वा 'सार्द्धमसौ संवसति, त एकैकदा निजाः पूर्वं परिवदन्ति, स वा ताग्निजान् पश्चात्परिवदेत् , नालं 'ते' हतब प्राणाय वा शरणाय चा, स्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा शरणाय का, इति ज्ञात्वा दुःखं प्रत्येकं सातं च स्वकृत अनुक्रम [८४] ॥ १२५ ॥ wwwandltimaryam द्वितीय-अध्ययने चतुर्थ-उद्देशक: 'भोगासक्ति' आरब्धः, ~254~# Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [४], मूलं [८२], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक [८२] कर्मफलभुजः सर्वेऽपि पाणिन इति मत्वा रोगोत्पत्तौ न दौमनस्य भावनीयं, न भोगाः शोचनीया इति, आह च-4 |'भोगा में' इत्यादि, भोगाः-शब्दरूपरसगन्धस्पर्शविषयाभिलापास्तानेवानुशोचयन्ति-कथमस्यामप्यवस्थायां वयं भोगान् । ट्रभुक्ष्महे ?, एवंभूता वाऽस्माकं दशाऽभूयेन मनोज्ञा अपि विषया उपनता नोपभोगायेति । ईटक्षश्चाध्यवसायः केषाश्चिदेव || भवतीत्याह-'इहमेगेसिं' इत्यादि, 'इह' संसारे एकेषामनवमतविषयविपाकानां ब्रह्मदत्तादीनां मानवानामेवंभूतोऽध्यबसायो भवति, न सर्वेषां, सनत्कुमारादिना व्यभिचारात्, तथाहि-ब्रह्मादत्तो मारणान्तिकरोगवेदनाभिभूतः सन्ता|पातिशयात् स्पृशन्तीं प्रणयिनीमिव विश्वासभूमी मूर्छा बहुमन्यमानः तथा हस्तीकृतो विहस्ततया विषयीकृतो वैषम्येण गोचरीकृतो ग्लान्या दृष्टो दुःखासिकया क्रोडीकृतो कालेन पीडितः पीडाभिनिरूपितो नियत्या आदित्सितो देवेन। का अन्तिकऽन्त्योच्छासस्य मुखे महाप्रवासस्य द्वारि दीर्घनिद्राया जिह्वाग्रे जीवितेशस्य वर्तमानो विरलो वाचि विह्वलो वपुषि प्रचुरः प्रलापे जितो जृम्भिकाभिरित्येवंभूतामवस्थामनुभवन्नपि महामोहोदयात् भोगांश्चिकाट्वियुः पार्थोपविष्टां |भार्यामनवरतवेदनावेशविगलदश्रुरक्तनयनां कुरुमति ! कुरुमतीत्येवं तां व्याहरन्नधः सप्तमी नरकपृथ्वीमगात्, तत्रापि | तीव्रतरवेदनाभिभूतोप्यऽवगणय्य वेदनां तामेव कुरुमती व्याहरतीत्येवंभूतो भोगाभिष्वङ्गो दुस्त्यजो भवति केषाञ्चित्, न पुनरन्येषां महापुरुषाणामुदारसत्त्वानाम् आत्मनोऽन्यच्छरीरमित्येवमवगततत्त्वानां सनत्कुमारादीनामिव यथोक्तरोगवेदनासद्भावे सत्यपि मयैवैतत्कृतं सोढव्यमपि मयैवेत्येवं जातनिश्चयानां कर्मक्षपणोद्यतानां न मनसः पीडोत्पद्यते इति, उक्तं च-"उप्तो यः स्वत एव मोहसलिलो जन्मालवालोऽशुभो, रागद्वेषकषायसन्ततिमहानिर्विघ्नबीजस्त्वया । अनुक्रम [८४] wwwlandltimaryam ~255~# Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [४], मूलं [८२], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचा- रोगैरङ्कुरितो विपत्कुसुमितः कर्मद्रुमः साम्प्रतं, सोढा नो यदि सम्यगेष फलितो दुःखैरघोगामिभिः ॥ १॥ लोक.वि.२ राङ्गवृत्तिः पुनरपि सहनीयो दुःखपाकस्त्वयाऽयं, न खलु भवति नाशः कर्मणा संचितानाम् । इति सह गणयित्वा यद्यदायाति (शी) सम्यग्, सदसदिति विवेकोऽन्यत्र भूयः कुतस्त्यः ॥ २ ॥" अपि च-भोगानां प्रधानं कारणमर्थोऽतस्तत्स्वरूपमेव निर्दिदिक्षुराह॥१२६॥ तिविहेण जाऽवि से तत्थ मत्ता भवइ अप्पा वा बहुगा वा, से तत्थ गड्डिए चिटइ, . भोयणाए, तओ से एगया विपरिसि; संभूयं महोवगरणं भवइ, तंपि से एगया दायाया विभयंति, अदत्तहारो वा से हरति, रायाणो वा से विलुपंति, नस्सइ वा से विणस्सइ वा से, अगारडाहेण वा से डज्झइ इय, से परस्स अट्टाए कूराणि कम्माणि बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेइ (सू०८३) AI त्रिविधेन याऽपि तस्य तथार्थमात्रा भवति अल्या वा बही वा, स तस्यामर्थमात्रायां गृद्धस्तिष्ठति, सा च भोज-IN नाय किल भविष्यति, ततस्तस्यैकदा विपरिशिष्टं सम्भूतं महोपकरणं भवति, तदपि 'से' तस्यैकदा दायादा विभजन्ते, अदत्तहारो वा तस्य हरति, राजानो वा विलुम्पन्ति, नश्यति वा विनश्यति वा, अगारदाहेन वा दह्यते इति, स [८४] wwwandltimaryam ~256~# Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [४], मूलं [८३], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक [८३]] परस्मै अर्थाय कराणि कर्माणि चालः प्रकुर्वाणस्तेन दुःखेन मूढो विपर्यासमुपैति, एतच्च प्रागेव व्याख्यातमिति नेह |प्रतायते ॥ तदेवं दुःखविपाकान् भोगान् प्रतिपाद्य यत् कर्त्तव्यं तदुपदिशतीत्याह आसं च छन्दं च विगिंच धीरे !, तुमं चेव तं सल्लमाटु, जेण सिया तेण नो सिया, इणमेव नावबुझंति जे जणा मोहपाउडा, थीभि लोए पव्वहिए, ते भो! वयंति एयाइं आययणाई, से दुक्खाए मोहाए माराए नरगाए नरगतिरिक्खाए, सययं मूढे धम्मं नाभिजाणइ, उआहु वीरे, अप्पमाओ महामोहे, अलं कुसलस्स पमाएणं, संतिमरणं संपेहाए भेउरधम्म संपेहाए, नालंपास अलं ते एएहिं (सू०८४) 'आशा' भोगाकासां, चः समुच्चये, छन्दनं छन्दः-परानुवृत्त्या भोगाभिप्रायस्तै च, चशब्दः पूर्वापेक्षया समुच्चयार्थः, तावाशाछन्दी 'विश्व' पृथकरु त्यज 'धीर। धी:-चुद्धिस्तया राजत इति, भोगाशाछन्दापरित्यागे च दुःखमेव केवलं न ताप्तिरिति, आह च–'तुम चेव' इत्यादि, विनेय उपदेशगोचरापन्न आत्मा वा उपदिश्यते त्वमेव तद्भोगाशाPादिकं शल्यमाहत्य-स्वीकृत्य परमशुभमादत्से, न तु पुनरुपभोग, यतो भोगोपभोगो यैरेवार्थाद्युपायैर्भवति तैरेव न ४ भवतीत्याह-जेण सिआ तेण नो सिया' येनैवार्थोपार्जनादिना भोगोपभोगः स्यात् तेनैव विचित्रत्वात् कर्मपरि-1 अनुक्रम [८५]] | ~257~# Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [४] दीप अनुक्रम [८६ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [४], मूलं [८४], निर्युक्तिः [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा- पातेर्न स्यादू, अथवा येन केनचिद्धेतुना कर्म्मबन्धः स्यात्तन्न कुर्यात्, तत्र न वर्त्तेतेत्यर्थः, यदिवा येनैव राज्योपभोगाराङ्गवृत्तिः दिना कर्म्मबन्धो येन वा निर्मन्थत्वादिना मोक्षः 'स्याद्' भवेत्तेनैव तथाभूतपरिणामवशान्न स्यादिति । एतच्चानुभवा(शी०) २ वधारितमपि मोहाभिभूता नावगच्छन्तीत्याह - 'इणमेव' इत्यादि, इदमेव हेतुवैचित्र्यं 'न बुध्यन्ते' न संजानते, के ? ॥ १२७ ॥ ये जना मौनीन्द्रोपदेशविकला मोहेन-अज्ञानेन मिथ्यात्वोदयेन वा प्रावृताः - छादितास्तत्त्वविपर्यस्तमतयो मोहनीयो* दयाद्भवन्ति । मोहनीयस्य च तद्भेदकामानां च स्त्रियो गरीयः कारणमिति दर्शयति- 'धीभि' इत्यादि, स्त्रीभिः-अङ्गनाभिर्भूत्क्षेपादिविभ्रमैरसौ लोकः आशाच्छन्दाभिभूतात्मा क्रूरकर्म्मविधायी नरकविपाकफलं शल्यमाहृत्य तत्फलमबुध्यमानो मोहाच्छादितान्तरात्मा प्रकर्षेण व्यथितः पराजितो वशीकृत इतियावत्, न केवलं स्वतो विनष्टाः, अपरानपि असकृदुपदेशदानेन विनाशयन्तीत्याह - 'ते भो !' इत्यादि, 'ते' स्त्रीभिः प्रव्यथिता भो ! इत्यामन्त्रणे एतद्वदन्ति यथेतानि - ख्यादीनि 'आयतनानि' उपभोगास्पदभूतानि वर्त्तन्ते, एतैश्च विना शरीरस्थितिरेव न भवतीति । एतच्च प्रव्यथनमुपदेशदानं वा तेषामपायाय स्यादित्याह - 'से' इत्यादि, तेषां 'से' इत्येतत् प्रव्यथनमायतनभणनं वा 'दुःखाय' भ वति - शारीरमानसासातावेदनीयोदयाय जायते, किं च-- मोहाए' मोहनीयकर्म्मबन्धनाय अज्ञानाय वेति, तथा 'माराए' मरणाय, ततोऽपि 'नरगाए' नरकाय नरकगमनार्थे, पुनरपि 'नरगतिरिक्खाए' ततोऽपि नरकादुद्धृत्य तिरश्चयेतत्प्रभवति, तिर्यग्योन्यर्थं तत् स्त्रीप्रव्यथनं भोगायतनवदनं वा सर्वत्र सम्बन्धनीयं । स एवमङ्गनापाङ्गविलोकनाक्षि- ॥ १२७ ॥ तस्तासु तासु योनिषु पर्यटन्नात्महितं न जानातीत्याह -- 'सययं' इत्यादि, सततम् - अनवरतं दुःखाभिभूतो मूढो 'धर्म' Jan Estication International For Parts Only ~258~# लोक.वि. २ उद्देशकः ४ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [४], मूलं [८४], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: *** प्रत सुनाक * [८४] Bाक्षान्त्यादिलक्षणं दुर्गतिप्रसूतिनिषेधक 'न जानाति' न वेत्ति । एतच तीर्थकृदाहेति दर्शयति-उदाहु' इत्यादि, उत् प्राबल्येनाह उदाह-उक्तवान् , कोऽसौ ?-वीस-अपगतसंसारभयस्तीर्थकृदित्यर्थः, किमुक्तवान् ?, तदेव पूर्वोक्तं वाचा दर्शयति--'अप्रमादः' कर्त्तव्यः, क-'महामोहे' अङ्गनाभिष्वङ्ग एव, महामोहकारणत्वान्महामोहः, तत्र प्रमादवता न भाव्यम् । आह च-'अलम्' इत्यादि, 'अलं' पर्याप्तं, कस्य-'कुशलस्य' निपुणस्य सूक्ष्मेक्षिणः, केनालं?-मद्यविषय कषायनिद्राविकथारूपेण पञ्चविधेनापि प्रमादेन, यतः प्रमादो दुःखाद्यभिगमनायोक्त इति । स्यात्-किमालम्ब्य प्रमादेनाशलमिति ?, उच्यते-'सन्ति' इत्यादि, शमनं शान्तिः-अशेषकर्मापगमोऽतो मोक्ष एवं शान्तिरिति, नियन्ते प्राणिनः पीनःपुन्येन यत्र चतुर्गतिके संसारे स मरणः-संसारः शान्तिश्च मरणं च शान्तिमरण, समाहारद्वन्द्वस्तत् 'संप्रेक्ष्य' पर्यालोच्य, प्रमादवतः संसारानुपरमस्तत्सरित्यागाच मोक्ष इत्येतद्विचार्येति हृदयं, स वा कुशलः प्रेक्ष्य विषयकषायप्रमादं न |विदध्याद्, अथवा शान्त्या-उपशमेन मरणं-मरणावर्षि यावत् तिष्ठतो यत्फलं भवति तत्सर्यालोच्य प्रमादं न कुर्या४ दिति । किं च-'भेउर' इत्यादि, प्रमादो हि विषयकषायाभिष्वङ्गरूपः शरीराधिष्ठानः, तच्च शरीरं भिदुरधर्म, स्वत एव भिद्यत इति भिदुरं स एव धर्म:-स्वभावो यस्य तद्भिदुरधम्मै एतत् 'समीक्ष्य' पर्यालोच्य प्रमादं न कुर्यादिति सम्बन्धः, एते च भोगा भुज्यमाना अपि न तृप्तये भवन्तीस्याह-नालं'इत्यादि, 'नालं' न समर्था अभिलायोच्छित्तये यथेष्टावाप्तावपि भोगाः एतत् पश्य जानीहि, अतोऽलं तव कुशल! 'एभिः' प्रमादमयैर्दुःखकारणस्वभावैविषयैरुपभो|गैरिति, न चैते बहुशोऽप्युपभुज्यमाना उपशमं विदधतीति, उक्तं च-"यल्लोके ब्रीहियवं, हिरण्यं पशवः स्त्रियः।। * अनुक्रम [८६] ** wwwanditimaryam ~259~# Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [४], मूलं [८४], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचा- नालमेकस्य तत्सर्वमिति मत्वा शमं कुरु ॥१॥ उपभोगोपायपरो वाञ्छति यः शमयितुं विषयतृष्णाम् । धावत्याकमि- लोक.वि.२ राङ्गवृत्तिः तुमसौ, पुरोऽपराहे निजच्छायाम् ॥२॥" तदेवं भोगलिप्सूनां तत्माप्तावमाप्तौ च दुःखमेवेति दर्शयति(शी) एयं पस्स मुणी! महब्भयं, नाइवाइज कंचणं, एस वीरे पसंसिए, जे न निविजइ उद्देशका ४ आयाणाए, न मे देइन कुप्पिज्जा थोवं लद्धं न खिंसए, पडिसेहिओ परिणमिज्जा, ॥२२८॥ एयं मोणं समणुवासिज्जासि (सू०८५) तिबेमि ॥ 'एतत्' प्रत्यक्षमेव भोगाशामहाज्वरगृहीतानां कामदशावस्थात्मकं महद्भय भयहेतुत्वात् दुःखमेव महाभयं, तच मरणकारणमिति महदित्युच्यते, एतत् मुने! 'पश्य' सम्यगैहिकामुष्मिकापायापादकत्वेन जानीहीत्युक्तं भवति । यद्येवं तत्किं| कुयोंदित्याह-'नाइवाएज' इत्यादि, यतो भोगाभिलषणं महद्भयमतस्तदर्थं 'नातिपातयेत्' न व्यथेत 'कश्चन' कमपि जीवमिति, अस्य च शेषनतोपलक्षणार्थत्वान्न प्रतारयेत् कञ्चनेत्याद्ययायोज्यं । भोगनिरीहः प्राणातिपातादिवतारूढचा ला के गुणमवासोतीत्याह-'एस' इत्यादि, 'एप' इति भोगाशाच्छन्दविवेचकोऽप्रमादी पञ्चमहानतभारारोहणोन्नामितस्कन्धो| वीरः कम्मेविदारणात् 'प्रशंसितः स्तुतो देवराजादिभिः, क एष वीरो नाम ? योऽभिष्ट्यत इत्यत आह-'जे' -1 त्यादि, यो 'न निर्विद्यते' न खिद्यते न जुगुप्सते, कस्मै !-'आदानाय' आदीयते गृह्यतेऽवाप्यते आत्मस्वतत्त्वमशेषावारककर्मक्षयाविर्भूतसमस्तवस्तुग्राहिज्ञाना(ना)बाधसुखरूपं येन तदादान-संयमानुष्ठानं तस्मै न जुगुप्सते, तद्वा कुर्वन् | ॥१२८॥ सिकताकवलचर्वणदेशीय क्वचिदलाभादौ न खेदमुपयातीति, आह-'न में' इत्यादि, ममायं गृहस्थः सम्भृतसंभारो [८६] wwwandltimaryam ~260~# Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [४], मूलं [८५], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत % % ८५॥ % प्युपस्थितेऽपि दानावसरे न ददातीतिकृत्वा न कुप्येत्' न क्रोधवशगो भूयाद्, भावनीयं च-ममैवैशा कर्मपरिणति-18 रित्यलाभोदयोऽयम् , अनेन चालाभेन कर्मक्षयायोद्यतस्य मे तत्क्षपणसमर्थ तपो भावीति न किञ्चिस्थ्यते, अथापि कथश्चित स्तोकं प्रान्तं वा लभेत तदपि न निन्देदित्याह-'थोवं' इत्यादि, 'स्तोकम्' अपर्याप्त 'लढुं' लब्धा न निन्देहातारं दत्तं वा, तथाहि-कतिचित्सिक्थानयने ब्रवीति-सिद्ध ओदनो भिक्षामानय लवणाहारो वा अस्माकं मास्तीत्य | ददस्वेत्येवं अत्युद्वृत्तच्छात्रवन्न विदध्यात् । किं च-पडिसेहिओं' इत्यादि, 'प्रतिषिद्धः' अदित्सितस्तस्मादेव प्रदेशात 'परिणमेत् निवत्त, क्षणमपि न तिष्ठेन्न दौमनस्सं विदध्यान्न रुण्टन्नपगच्छेत् न तां सीमन्तिनीमपवदेद्-धिक्के गृहवासमिति, उक्तं च-"दिवाऽसि कसेरुमई ! अणुभूयासि कसेरुमइ!। पीय चिय ते पाणिययं करि तुह नाम न दंसणं ॥२॥" इत्यादि । पठ्यते च-पडिलाभिओ परिणमेजा" प्रतिलाभितः-प्राप्तभिक्षादिलाभः सन् परिणमेत्, नोच्चावचालापैः तत्रैव संस्तवं विदध्याद्, वैतालिकवद्दातारं नोप्रासयेदिति । उपसंहरन्नाह--'एय' इत्यादि, 'एतत् प्रवज्यानिवेदरूपं अदा-14 हनाकोपनं स्तोकाजुगुप्सनं प्रतिषिद्धनिवर्तनं मुनेरिदै मौनं-मुनिभिर्ममक्षभिराचरितं त्वमप्यवातानेकभवकोटिदुराप-1 संयमः सन् 'समनुवासयेः सम्यग् विधत्स्वानुपालयेति विनेयोपदेश आत्मानुशासनं वा । इतिः परिसमाप्तौ, बवीमि पूर्ववत् ॥ लोकविजयाध्ययनचतुर्थोद्देशकटीका समाप्ता ॥ दीप अनुक्रम [८७]] * * १साउति उदारमते ! अनुभूताऽसि उदारमते।। पीवमेव ते पानीयं वरं तव भाम न दर्शम् ॥१॥ wwwandltimaryam ~261~# Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [८५ ] दीप अनुक्रम [८७] श्रीआचा राजवृत्तिः (श्री०) ॥ १२९ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [५] मूलं [८५], निर्युक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः चतुर्थोद्देशः, साम्प्रतं पञ्चमस्य व्याख्या प्रतन्यते, तस्य चायमभिसम्बन्धः, इह भोगान् परित्यज्य लोकनिश्रया संयमदेहप्रतिपालनार्थं विहर्त्तव्यमित्युक्तं तदत्र प्रतिपाद्यते इह हि संसारोद्वेगवता परित्यक्तभोगाभिलाषेण मुमुक्षुणोत्क्षिप्त पञ्चमहाव्रतभारेण निरवद्यानुष्ठान विधायिना दीर्घसंयमयात्रार्थ देहपरिपालनाय लोकनिश्रया विहर्त्तव्यं, निराश्रयस्य हि कुतो देहसाधनानि ?, तदभावे धर्मश्चेति, उक्तं हि -“धम्र्मी चरतः साधोलोंके निश्रापदानि पश्चापि । राजा गृहपतिरपरः पट्टाया गणशरीरे च ॥ १ ॥” साधनानि च वस्त्रपात्रानासनशयनादीनि तत्रापि प्रायः प्रतिदिनमुपयोगित्वादाहारो गरीयानिति, स च लोकादन्वेष्टव्यो, लोकश्च नानाविधैरुपायैरात्मीयपुत्रकलत्राद्यर्थं आरम्भे प्रवृत्तः, तत्र साधुना संयमदेह निमित्तं वृत्तिरन्वेषणीयेति दर्शयति जमणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं लोगस्स कम्मसमारंभा कज्वंति, तंजहा - अप्पणो से ताणं धूयाणं सुहाणं नाईणं धाईणं राईणं दासाणं दासीणं कम्मकराणं कम्मकरीणं आएसाए पुढोपणाए सामासाए पायरासाए, संनिहिसंनिचओ कज्जइ, इहमेगेसिं माणवाणं भोयणाए (सू०८६) 'यैः' अविदितवेद्यैः 'इदमिति सुखदुःखप्राप्तिपरिहारत्वमुद्दिश्य 'विरूपरूपैः' नानाप्रकारस्वरूपैः 'शस्त्रैः' प्राण्युपघातकारिभिर्द्रव्यभावभेदभिन्नैः 'लोकाय' शरीरपुत्र दुहितृस्नुषाज्ञात्याद्यर्थं कर्म्मणां - सुखदुःखप्राप्तिपरिहारक्रियाणां Jan Etication in द्वितीय-अध्ययने पंचम उद्देशक: 'लोकनिश्रा' आरब्ध:, For Pan Prata Use Only ~262~# लोक.वि. २ उद्देशका ५ ॥ १२९ ॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [9], मूलं [८६], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ** प्रत सूत्राक [८६] कायिकाधिकरणिकापादोषिकापारितापनिकाप्राणातिपातरूपाणां कृषिवाणिज्यादिरूपाणां वा, समारम्भा इति मध्यग्रहणाबहुवचननिर्देशाच्च संरम्भारम्भयोरप्युपादानं, तेनायमर्थः-शरीरकलवाद्यर्थ संरम्भसमारम्भारम्भाः "क्रियन्ते' अनुष्ठीयन्ते, तत्र संरम्भ इष्टानिष्टप्राप्तिपरिहाराय प्राणातिपातादिसङ्कल्पावेशः, तत्साधनसन्निपातकायवागूव्यापारजनितपरितापनादिलक्षणः समारम्भः, दण्डत्रयव्यापारापादितचिकीर्षितप्राणातिपातादिक्रियानिवृत्तिरारम्भः, कर्मणो वा-अष्टप्रकारस्य समारम्भाः-उपार्जनोपायाः क्रियन्त इति, लोकस्येति चतुर्थ्यर्थे षष्ठी, साऽपि तादर्थे, कः पुनरसौ लोको? यदर्थ संरम्भसमारम्भारम्भाः क्रियन्त इत्याह-तंजहा अप्पणो से इत्यादि, यदिवा लोकस्य तृतीयार्थे पष्ठी, यदिति हेती, यस्मालोकेन नानाविधैः शस्त्रैः कर्मसमारम्भाः क्रियन्त इत्यतस्तस्मिन् लोके साधुर्वृत्तिमन्वेषयेत्,3 प्रयदर्थ च लोकेन कर्मसमारम्भाः क्रियन्ते तद्यथेत्यादिना दर्शयति-तंजहा अपणो से' इत्यादि, 'तद्यथेत्युपप्र-टू प्रदर्शनार्थों, नोकमात्रमेवान्यदप्येवंजातीयकं मित्रादिकं द्रष्टव्यं, 'से'तस्यारम्भारिप्सोर्य आत्मा-शरीरं तस्मै अर्थ तदर्थ कम्र्मसमारम्भा-पाकादयः क्रियन्ते, ननु च लोकार्थेमारम्भाः क्रियन्त इति प्रागभिहितं, न च शरीरं लोको भवति, नैतदस्ति, यतः परमार्थदशां ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकमात्मतत्त्वं विहायान्यत्सर्व शरीराद्यपि पराक्यमेव, तथाहिबाह्यस्य पौद्गलिकस्याचेतनस्य कर्मणो विपाकभूतानि पञ्चापि शरीराणीत्यतः शरीरात्माऽपि लोकशब्दाभिधेय इति, तदेवं कश्चिच्छरीरनिमित्तं कारभते, परस्तु पुत्रेभ्यो दुहितृभ्यः स्नुषा:-वध्वस्ताभ्यो ज्ञातयः-पूर्वापरसम्बद्धाः स्वजनाः तेभ्यो धात्रीभ्यो राजभ्यो दासेभ्यो दासीभ्यः कर्मकरेभ्यः कर्मकरीभ्यः आदिश्यते परिजनो यस्मिन्नागते तदातिथेयायेत्या अनुक्रम [८८] ** wwwandltimaryam ~263~# Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [८६] दीप अनुक्रम [८] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [५] मूलं [८६], निर्युक्तिः [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचादेशः प्राचूर्णकस्तदर्थं कर्म्मसमारम्भाः कियन्त इति सम्बन्धः, तथा 'पुढो पहेणाए' इत्यादि, पृथक् पृथक् पुत्रादिभ्यः राङ्गवृत्तिः प्रहेण कार्य तथा 'सामासाए'ति श्यामा-रजनी तस्यामशनं श्यामाशः तदर्थे, तथा 'पायरासाए'त्ति प्रातरशनं प्रातराश(शी०) ५ स्तस्मै, कर्म्मसमारम्भाः क्रियन्त इति सामान्येनोक्तावपि विशेषार्थमाह - 'सन्निहि' इत्यादि, सम्यग्निधीयत इति सन्निधिः* विनाशिद्रव्याणां दध्योदनादीनां संस्थापनं, तथा सम्यग् निश्चयेन चीयत इति सन्निचयः - अविनाशिद्रव्याणां अभया४ सितामृद्धीकादीनां सङ्ग्रहः, सन्निधिश्च सन्निचयश्च सन्निधिसन्निचयं, प्राकृतशैल्या पुलिङ्गता, अथवा सन्निधेः सन्निचयः सन्निधिसन्निचयः, स च परिग्रहसंज्ञोदयादाजीविकाभ्यासाद्वा धनधान्यहिरण्यादीनां क्रियत इति । स च किम* र्थमित्याह – 'इह्' इत्यादि, 'इहेति मनुष्यलोके 'एकेषा' मिलोके कृतपरमार्थबुद्धीनां 'मानवानां' मनुष्याणां 'भोजनाय' उपभोगार्थमिति । तदेवं विरूपरूपैः शस्त्रैरात्मपुत्राद्यर्थं कर्म्मसमारम्भप्रवृत्ते लोके पृथक्प्रहेणकाय श्मामाशाय प्रातराशाय केषाञ्चिन्मानवानां भोजनार्थं सन्निधिसन्निचयकरणोद्यते सति साधुना किं कर्त्तव्यमित्याह ॥ १३० ॥ समुट्टिए अणगारे आरिए आरियपन्ने आरियदंसी अयंसंधित्ति अदक्खु, से नाईए नाइयावर न समजाणइ, सव्वामगंधं परिन्नाय निरामगंधो परिव्वए (सू० ८७ ) सम्यक् सततं सङ्गतं वा संयमानुष्ठानेनोत्थितः समुत्थितो, नानाविधशस्त्रकर्म्मसमारम्भोपरत इत्यर्थः, न विद्यतेऽगारं - गृहमस्येत्यनगारः, पुत्रदुहितृस्नुषाज्ञातिधात्र्यादिरहित इत्यर्थः, सोsनगारः आरायातः सर्वहेयधम्र्मेभ्यः Jain Estication Intimanal For Pantry Use Only ~264~# लोक.वि. २ उद्देशका ५ ॥ १३० ॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [८७] दीप अनुक्रम [८९] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [५] मूलं [८७], निर्युक्तिः [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः इत्यार्थः - चारित्राईः, आर्या प्रज्ञा यस्यासावार्यप्रज्ञः श्रुतविशेषितशेमुषीक इत्यर्थः, आर्य-प्रगुणं न्यायोपपर्ण पश्यति तच्छीलश्चेत्यार्यदर्शी पृथक्प्रहेणकश्यामाशनादिसङ्कल्परहित इत्यर्थः, 'अयंसंधीति' सन्धानं सन्धीयते वाऽसाविति सन्धिरयं सन्धिर्यस्य साधोरसावयंसन्धिः, छान्दसत्वाद्विभक्तेरलुगित्ययंसन्धिः - यथाकालमनुष्ठानविधायी यो यस्य वर्त्तमानः कालः कर्त्तव्यतयोपस्थितस्तत्करणतया तमेव सन्धत्त इति, एतदुक्तं भवति - सर्वाः क्रियाः प्रत्युपेक्षणोपयोगस्वाध्याय भिक्षाचर्याप्रतिक्रमणादिकाः असपला अन्योऽन्याबाधया आत्मीय कर्त्तव्यकाले करोतीत्यर्थः, इतिः हेतौ, यस्माद्यथाकालानुष्ठान विधायी तस्मादसावेव परमार्थं पश्यतीत्याह - 'अदखुसि, तिङ्व्यत्ययेन एकवचनावसरे बहुवचनमकारि, ततश्चायमर्थः यो ह्यार्य आर्यप्रज्ञ आर्यदर्शी कालज्ञश्च स एव परमार्थमद्राक्षीन्नापर इति पाठान्तरं वा 'अयं संधिमदक्खु' 'अयम्' अनन्तरविशेषणविशिष्टः साधुः 'सन्धि' कर्त्तव्यकालम् 'अद्राक्षीद्' दृष्टवान् एतदुक्तं भवति यः परस्परावाधया हिताहितप्राप्तिपरिहाररूपतया विधेयावसरं वेति विधत्ते च स परमार्थ ज्ञातवानिति, अथवा भावसन्धिः- ज्ञानदर्शनचारित्राणामभिवृद्धिः स च शरीरमृते न भवति, तदपि नोपष्टम्भककारणमन्तरेण, तस्य च सावद्यस्य परिहारः कर्त्तव्य इत्यत आह- 'से णाईए' इत्यादि, 'स' भिक्षुस्तद्वाऽकरूप्यं 'नाददीत' न गृह्णीयात्राप्यपरमादापयेत् प्राहयेत्, नाप्यपरमनेषणीयमाददानं समनुजानीयादपि, अथवा सङ्गालं सधूमं वा नाद्यात्-न भक्षयेनापरमादयेददन्तं वा न समनुजानीयादिति, आह---'सव्वामगंधं' इत्यादि, आमं च गन्धश्च आमगन्धं समाहारद्वन्द्वः, सर्व च तदामगन्धं च सर्वामगन्धं, सर्वशब्दः प्रकारकात्तूर्येऽत्र गृह्यते न द्रव्यकात्सूर्ये, आमम्- अपरिशुद्धं, गन्धग्रह Jan Estication Intimatinal For Party Use Onl ~265 ~# Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [८७] दीप अनुक्रम [८९] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ १३१ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [५] मूलं [८७], निर्युक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः णेन तु पूतिर्गृह्यते, ननु च पूतिद्रव्यस्याप्यशुद्धत्वात् आमशब्देनैवोपादानात्किमर्थं भेदेनोपादानमिति १, सत्यम्, अशुद्धसामान्यागृह्यते, किं तु पूतिग्रहणेनेहाधाकर्म्माद्यविशुद्धकोटिरुपात्ता, तस्याश्च गुरुतरत्वात् प्राधान्यख्यापनार्थं पुनरुपादानं, ततश्चायमर्थः- गन्धग्रहणेनाधाकर्म्म १ औदेशिकत्रिकं २ पूतिकर्म ३ मिश्रजातं ४ बादरप्राभृतिका ५ अध्यवपूरक ६ चैते षडुङ्गमदोषा अविशुद्धकोव्यन्तर्गता गृहीताः, शेषास्तु विशुद्धकोट्यन्तर्भूता आमग्रहणेनोपात्ता द्रष्टव्या इति, सर्वशब्दस्य च प्रकारकात्स्त्रर्थ्याभिधायकत्वाद् येन केनचित् प्रकारेण आमम्-अपरिशुद्धं पूति वा भवति तत्सर्वं ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया 'निरामगन्धः' निर्गतावामगन्धौ यस्मात्स तथा 'परिव्रजेत्' मोक्षमार्गे ज्ञानदर्शनचारित्राख्ये परिः समन्ताङ्गच्छेत् संयमानुष्ठानं सम्यगनुपालयेदितियावत् । आमग्रहणेन प्रतिषिद्धेऽपि क्रीतकृते तथाप्यल्पसत्त्वानां विशुद्धकोव्यालम्बनतया मा भूत्तत्र प्रवृत्तिरतस्तदेव नामग्राहं प्रतिषिषेधिषुराह— अदिस्समाणे कयविक्कयेसु, से ण किणे न किणावए किर्णतं न समणुजाण, से भि क्खू कालन्ने बान्ने मान्ने खेयन्ने खणयन्ने विणयन्ने ससमयपरसमयन्ने भावन्ने प रिहं अममायमाणे कालाणुट्टाई अपडिण्णे ( सू० ८८ ) क्रयश्च विक्रयश्च क्रयविक्रयौ तयोरदृश्यमानः कीदृक्षश्च तयोरदृश्यमानो भवति ?, यतस्तयोर्निमित्तभूतद्रव्याभावादकिचनोऽथवा क्रयविक्रययोरदिश्यमानः - अनपदिश्यमानः कश्च तयोरनपदिश्यमानो भवति । यः क्रीतकृतापरि Jain Estication International For Parts Only ~266~# लोक.वि. २ उद्देशका ५ ॥ १३१ ॥ www.india.org Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [9], मूलं [८८], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: 4 प्रत . सुनाक ૮૮ી भोगी भवतीति, आह च-से ण किणे' इत्यादि, 'स'मुमुक्षुरकिञ्चनो धर्मोपकरणमपि न क्रीणीयात् स्वतो नाप्यपरेण कापयेत् कीणन्तमपि न समनुजानीयाद्, अथवा निरामगन्धः परित्रजेदित्यत्रामग्रहणेन हननकोटित्रिकं गन्धग्रहणेन पचनकोटित्रिक क्रयणकोटित्रिकं तु पुनः स्वरूपेणैवोपात्तम्, अतो नवकोटिपरिशुद्धमाहारं विगताङ्गारधूमं भुञ्जीत, एतद्गुणविशिष्टश्च किंभूतो भवतीत्याह-से भिक्खू कालन्ने' काल-कर्तव्यावसरस्तं जानातीति कालज्ञः-विदितवेद्यः, तथा 'बालपणे' बलज्ञः बलं जानातीति बलज्ञः, छान्दसत्वाद्दीर्घत्वं, आत्मबलं सामर्थ्य जानातीति यथाशत्यनुष्ठान विधायी, अनिगृहितवलवीर्य इत्यर्थः, तथा 'मायन्ने यावद्रव्योपयोगिता मात्रा तां जानातीति तज्ज्ञः, तथा |'खेयन्ने' खेदः-अभ्यासस्तेन जानातीति खेदज्ञः अथवा खेदः-श्रमः संसारपर्यटनजनितस्तं जानातीति, उक्तं च-"जरा-13 मरणदीर्गत्यव्याधयस्तावदासताम् । मन्ये जन्मैव धीरस्य, भूयो भूयस्त्रपाकरम् ॥१॥" इत्यादि, अथवा 'क्षेत्रज्ञा संसक्तविरुद्धद्रव्यपरिहार्यकुलादिक्षेत्रस्वरूपपरिच्छेदका, तथा 'खणयन्नो' क्षण एवं क्षणका-अवसरो भिक्षार्थमुपसर्पणादिकस्तं जानातीति, तथा 'विणयन्ने' विनयो-ज्ञानदर्शनचारित्रौपचारिकरूपस्तं जानातीति, तथा 'ससमयपरसमयण्णे' स्वसमयपरसमयी जानातीति, स्वसमयज्ञो गोचरप्रदेशादौ पृष्टः सन् सुखेनैव भिक्षादोषानाचष्टे, तद्यथा-पोडशोद्गमदोषाः, ते चामी-आधाकर्म १ औद्देशिकं २ पूतिकर्म ३ मिश्रजातं ४ स्थापना ५ प्राभृतिका ६ प्रकाशकरणं ७ क्रीतं ८ उद्यतकं ९ परिवर्तितं १. अभ्याहृतं ११ उद्धिनं १२ मालापहृतं १३ आच्छेद्यं १४ अनिसृष्टं १५ अध्यवपूरकश्चेति १६ । षोडशोसादनदोषाः, ते चामी-धात्रीपिण्डः १ दूतीपिण्डः २ निमित्तपिण्डः ३ आजीवपिण्डः ४ अनुक्रम Các [९०] wwwandltimaryam ~267~# Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [८] दीप अनुक्रम [80] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [५] मूलं [८८], निर्युक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा- वनीपकपिण्डः ५ चिकित्सापिण्डः ६ क्रोधपिण्डः ७ मानपिण्डः ८ मायापिण्डः ९ लोभपिण्डः १० पूर्वसंस्तवपिण्डः ११ १ ठोक.वि.२ राङ्गवृत्तिः ५ पश्चात्संस्तवपिण्डः १२ विद्यापिण्डः १३ मन्त्रपिण्डः १४ चूर्णयोगपिण्डः १५ मूलकर्म्मपिण्डश्चेति १६ । तथा दक्षैषणा- 8 (शी०) ४ दोषाः, ते चामी -शङ्कित १ म्रक्षित २ निक्षिप्त ३ पिहित ४ संहृत ५ दायको ६ मिश्रा ७ परिणत ८ दिप्तो ९ ज्झित- ४ उद्देशकः ५ ॥ १३२ ॥ १० दोषाः । एषां चोद्गमदोषा दातृकृता एव भवन्ति, उत्पादनादोषास्तु साधुजनिताः, एषणादोषाश्चोभयोत्सादिता इति । तथा परसमयज्ञो ग्रीष्ममध्याहृतीव्रतर तरणि करनिकरावलीढगलत्स्वेदबिन्दुकः क्लिन्नवपुष्कः साधुः केनचिद् धिग- १ जातिदेश्येनाभिहितः किमिति भवतां सर्वजनाचीर्ण स्नानं न सम्मतमिति १, स आह-प्रायः सर्वेषामेव यतीनां कामा| ङ्गत्वाज्जलस्नानं प्रतिषिद्धं, तथा चार्षम् - " स्नानं मददकरं, कामाङ्गं प्रथमं स्मृतम् । तस्मात्कामं परित्यज्य, नैव स्नान्ति दमे रताः ॥ १ ॥" इत्यादि, तदेवमुभयज्ञस्तद्विषये प्रश्न उत्तरदानकुशलो भवति, तथा 'भावन्ने' भावः- चित्ताभिप्रायो दातुः श्रोतुर्वा तं जानातीति भावज्ञः, किं च 'परिग्गहं अममायमाणे' परिगृह्यत इति परिग्रहः- संयमातिरिक्तमुपकरणादिः तमममीकुर्वन्- अस्वीकुर्वन् मनसाऽप्यनाददान इतियावत् स एवंविधो भिक्षुः कालज्ञो बलज्ञो मात्रज्ञः क्षेत्रज्ञः खेदज्ञो क्षणज्ञः विनयज्ञः समयज्ञो भावज्ञः परिग्रहमममीकुर्वाणश्च किंभूतो भवतीत्याह-- 'कालाणुहाई' वचस्मिन् काले कर्त्तव्यं तत्तस्मिन्नेवानुष्ठातुं शीलमस्येति कालानुष्ठायी - कालानतिपातकर्त्तव्योद्यतो, ननु चास्यार्थस्य 'से भिक्खू | कालन्ने' इत्यनेनैव गतार्थस्यात् किमर्थं पुनरभिधीयते इति १, नैष दोषः, तत्र हि ज्ञपरिज्ञेव केवलाऽभिहिता, कर्त्तव्यकाल जानाति, इह पुनरासेवनापरिज्ञा कर्त्तव्यकाले कार्य विधत्त इति । किं च- 'अपडिण्णे' नास्य प्रतिज्ञा विद्यते इत्यप्रतिज्ञः, Jan Estication Intamal For Paint Use Onl ~268~# ॥ १३२ ॥ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [9], मूलं [८८], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुनाक 4 प्रतिज्ञा च कपायोदयादाविरस्ति, तद्यथा-क्रोधोदयात् स्कन्दाचार्येण स्वशिष्ययन्त्रपीलनव्यतिकरमालोक्य सबलवाहनराजधानीसमन्वितपुरोहितोपरि विनाशप्रतिज्ञाऽकारि, तथा मानोदयात् बाहुबलिना प्रतिज्ञा व्यधायि-कथमहं शिशन स्वधावनुत्पन्ननिरावरणज्ञानांश्छद्मस्थः सन् द्रक्ष्यामीति ?, तथा मायोदयात् मल्लिस्वामिजीवेन यथाऽपरयतिविप्रलम्भनं भवति तथा प्रत्याख्यानपरिज्ञा जगृहे, तथा लोभोदयाचाविदितपरमार्थाः साम्प्रतक्षिणो यत्याभासा मासक्षपणादिका अपि प्रतिज्ञाः कुर्वते, अथवा अप्रतिज्ञः-अनिदानो वसुदेववत् संयमानुष्ठानं कुर्वन् निदानं न करोतीति, अथवा गोचरादौ । प्रविष्टः सन्नाहारादिकं ममैवैतद्भविष्यतीत्येवं प्रतिज्ञा न करोतीत्यप्रतिज्ञो, यदिवा स्याद्वादप्रधानत्वान्मौनीन्द्रागमस्यैकपक्षावधारणं प्रतिज्ञा तद्रहितोऽप्रतिज्ञः, तथाहि-मैथुनविषयं विहायान्यत्र न क्वचिनियमवती प्रतिज्ञा विधेया, यत उक्कम् -"ने ये किंचि अणुण्णायं पडिसिद्धं वावि जिणवरिंदेहिं । मोनुं मेहुणभावं न तं विणा रागदोसेहिं ॥१॥ तथा नापि किञ्चिदकल्पनीयमनुज्ञातं कारणे च समुत्पन्ने नापि लिञ्चित प्रतिषिद्धं, किन्तु एषा वेषां तीर्थंकृतां निश्चयव्यवहारनयद्वयाश्रिता सम्यगाज्ञा मन्तव्या यदुत कार्ये झानाद्यालम्बने सत्येन सद्भावसारेण साधुना भवितव्यं, न मानूस्थानतो यत्किञ्चिदालम्बनीयमित्यर्थः, तात्विकज्ञानाबालम्बन सिध्यैव मोक्षपथसिद्धेबाह्यानुष्ठानस्य अनेकान्तिकत्वादनात्यन्तिकत्वान, इत्यमेव तस्य व्यवतिः , अथवा सवं नाम संवमस्तेन कार्ये समुत्पने भवितव्यं, यथा यथा संयम उपसर्पति तथा तथा कर्त्तव्यं, तदुत्सर्पणं व शक्यनिगृहनेनैव निर्वहतीति, सर्वत्र यथाशक्ति यतितव्यमेवेति भावः, आह च वृहद्भाग्यकार:-"कनं नाणादीयं सर्च पुर्ण होई सोदेवचरणं तह तह कायमय होइ ॥१॥" दोषा रागादयो निरुध्यन्ते-सन्तोऽप्यप्रकृतिमन्तो जायन्ते येनानुष्ठानविशेषेण पूर्वकर्माणि प्राग-1 भवोपात्तमानाबरणादिकर्माणि च येन क्षीयन्ते स सोऽनुष्ठानविशेषो मोक्षोपायो ज्ञातव्यः, रोगावस्थासु-ज्जसदिरोगप्रकारेषु शमनमियोचितौषधप्रदानापथ्यपरिहारायानमिव, यथा तेन विधीयमानेन ग्यराविरोगः क्षयमुपगच्छति, एवमुत्समें उत्सर्गमपवादे वापवादं समाचरतो रागाववो निरुण्यन्वे पूर्वसम्मतिःच क्षीमन्ते, अनुक्रम + [९०] +- है wwwandltimaryam ~269~# Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [८] दीप अनुक्रम [80] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ १३३ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [५] मूलं [८८], निर्युक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः "दोसा जेण निरुज्झंति जेण जिज्झति पुन्त्रकम्माई । सो सो मुक्खोवाओ, रोगावस्थासु समणं व ॥ २ ॥ जे जत्तिया उ हेऊ भवस्स ते चैव तत्तिया मुक्खे । गणणाइया लोया दुहवि पुष्णा भवे तुला ॥ २ ॥" इत्यादि । 'अर्थसन्धी| त्यारभ्य काले अणुडाइ'ति यावदेतेभ्यः सूत्रेभ्य एकादश पिण्डेषणा निर्यूढा इति । एवं तर्ह्यप्रतिज्ञ इत्यनेन सूत्रेणेदमापन्नं न कचित्केनचित्प्रतिज्ञा विधेया, प्रतिपादिताश्चागमे नानाविधा अभिग्रहविशेषाः, ततश्च पूर्वोत्तरव्याहतिरिव लक्ष्यत इत्यत आह दुहओ छेत्ता नियाइ, वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं उग्गहणं च कडासणं एएस चैव जाणिजा (सू० ८९) 'द्विधेति रागेण द्वेषेण वा या प्रतिज्ञा तां छित्त्वा निश्चयेन नियतं वा याति नियाति ज्ञानदर्शन चारित्राख्ये मोक्षमार्गे संयमानुष्ठाने वा भिक्षाद्यर्थं वा, एतदुक्तं भवति - रागद्वेषौ छित्त्वा प्रतिज्ञा गुणवती, व्यत्यये व्यत्यय इति, स एवम्भूतो भिक्षुः कालज्ञो बलज्ञो यावद्विधा छिन्दन् किं कुर्यादित्याह - 'वत्थं पडिग्गहं इत्यादि यावत् एएसु चेव अथवा यथा कस्यापि रोगिणोऽधिकृतपथ्यौषधादिकं प्रतिषिध्यते कस्यापि पुनन्तदेवानुज्ञायते, एवमत्रापि यः समर्थस्तस्थाकल्प्यमन्यस्य तु तदेवानुज्ञायते तथोक भिषग्वरशास्त्रे "उत्पद्यते हि साऽवस्था, देशकालामयान् प्रति । यस्यामकार्य कार्य स्वाद, कर्मकार्ये च वर्जये ॥ १ ॥" दिति. २ नैव किञ्चिदनुज्ञातं प्रतिषिद्धं वापि जिनवरेन्द्रैः। गुक्त्वा मैथुनभावं न तद् विना रागद्वेषाभ्याम् ॥ १ ॥ दोषा येन निरुध्यन्ते येन श्रीयन्ते पूर्वकर्माणि । स स मोक्षोपायो रोगावस्थासु शमनमिव ॥ २ ॥ ये यावन्तो हेतवो भवस्य त एवं तावन्तो मोक्षस्य गणनातीता लोका द्वयोरपि पूर्णा भवेयुस्तुल्याः ॥ ३ ॥ Jan Estication listational For Party at Use Only ~270 ~# लोक.वि. २ उद्देशका ५ | ॥ १३३ ॥ www.indiary.org Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [9], मूलं [८९], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रता ८९] जाणेजा' एतेषु पुत्राद्यर्थमारम्भप्रवृत्तेषु सन्निधिसन्निचयकरणोद्यतेषु जानीयात्-शुद्धाशुद्धतया परिच्छिन्द्यात्, परिच्छेद-15 श्चैिवमात्मक:-शुद्धं गृह्णीयादशुद्ध परिहरेदितियावत्, किं तद्विजानीयात् !-वस्त्रं वस्त्रग्रहणेन वस्वैषणा सूचिता, तथा पतगह-पात्रम्, एतब्रहणेन च पात्रैषणा सूचिता, कम्बलमित्यनेनाऽऽविकः पात्रनिर्योगः कल्पश्च गृह्यते, पादपुञ्छनकमित्य-12 नेन च रजोहरणमिति, एभिश्च सूत्रैरोघोपधिरौपग्रहिकश्च सूचितः, तथैतेभ्य एव वस्त्रैषणा पात्रैषणा च नियूंढा, तथा अवगृह्यत इत्यवग्रहः, स च पञ्चधा-देवेन्द्रावग्रहः १ राजावग्रहः २ गृहपत्यवग्रहः ३ शय्यातरावग्रहः ४ साधर्मिकावग्रहश्चेति, अनेन चावग्रहप्रतिमाः सर्वाः सूचिताः, अत एवासी नियूढाः, अवग्रहकल्पिकश्चास्मिन्नेव सूत्रे कल्प्यते, तथा कटासनं, कटग्रहणेन संस्तारो गृह्यते, आसनग्रहणेन चासन्दकादिविष्टरमिति, आस्यते-स्थीयते अस्मिन्निति वासन-शय्या, ततश्च आसनग्रहणेन शय्या सूचिता, अत एव नियूंढेति । एतानि च सर्वाण्यपि वस्त्रादीन्याहारादीनि | चैतेषु स्वारम्भप्रवृत्तेषु गृहस्थेषु जानीयात्, सर्वामगन्धं परिज्ञाय निरामगन्धो यथा भवति तथा परिव्रजेरिति भावार्थः । दाएतेषु च स्वारम्भप्रवृत्तेषु गृहस्थेषु परिव्रजन यावल्लाभं गृह्णीयादुत कश्चिनियमोऽप्यस्तीत्याह लद्धे आहारे अणगारो मायं जाणिज्जा, से जहेयं भगवया पवेईयं, लाभुत्तिन मजिजा, अलाभुत्ति न सोइज्जा, बहुपि लढुंन निहे, परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्किज्जा (सू०९०) । 'लब्धे' प्राप्ते सत्याहारे, आहारमहर्ण चोपलक्षणार्थम् अन्यस्मिन्नपि वस्खौषधादिके 'अनगार' भिक्षुः 'मात्रां जानीयात्' यावन्मात्रेण गृहीतेन गृहस्थः पुनरारम्भे न प्रवते यावन्मात्रेण चात्मनो विवक्षितकार्यनिष्पत्तिर्भवति तथा-IC अनुक्रम [९१] wwwandltimaryam ~271~# Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [30] दीप अनुक्रम [२] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [५] मूलं [९०], निर्युक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः भूतां मात्रामवगच्छेदिति भावः, एतच्च स्वमनीषिकथा नोच्यत इत्यत आह- 'से जहेयं' इत्यादि, तद्यथा - इदमुद्देशकादेरारभ्यानन्तरसूत्रं यावद्भगवता-ऐश्वर्यादिगुणसमन्वितेनार्द्धमागधया भाषया सर्वस्वभाषानुगतया सदेवमनुजायां परिॐ पदि केवलज्ञानचक्षुषाऽवलोक्य 'प्रवेदितं' प्रतिपादितं सुधर्म्मस्वामी जम्बूस्वामिने इदमाचष्टे । किं चान्यत्- 'लाभो 'ति ॥ १३४ ॥ इत्यादि, लाभो वस्त्राहारादेर्मम संवृत्त इत्यतोऽहो । अहं लब्धिमानित्येवं मदं न विदध्यात् न च तदभावे शोकाभि* भूतो विमनस्को भूयादिति, आह च- 'अलाभो त्ति इत्यादि, अलाभे सति शोकं न कुर्यात् कथं ?- धिग्मां मन्दभा* ग्योऽहं येन सर्वदानोद्यतादपि दातुर्न लभेऽहमिति, अपि तु तयोर्लाभालाभयोर्माध्यस्थ्यं भावनीयमिति, उक्तं च-"लभ्यते लभ्यते साधु, साधुरेव न लभ्यते । अलब्धे तपसो वृद्धिर्लब्धे तु प्राणधारणम् ॥ १ ॥" इत्यादि, तदेवं पिण्डपात्रवस्त्राणामेषणाः प्रतिपादिताः, साम्प्रतं सन्निधिप्रतिषेधं कुर्वन्नाह - 'बहुंपी' त्यादि, 'बहुपि' बह्वपि लब्ध्वा 'न निहे'त्ति न स्थापयेत् न सन्निधिं कुर्यात्, स्तोकं तावन्न सन्निधीयत एव, बह्वपि न सन्निदध्यादित्यपिशब्दार्थः, न केवलमाहारसन्निधिं न कुर्याद्, अपरमपि वस्त्रपात्रादिकं संयमोपकरणातिरिक्तं न विभृयादिति, आह- 'परि' इत्यादि, परिगृह्यत इति परिग्रहो - धर्मोपकरणातिरिक्तमुपकरणं तस्मादात्मानमपष्वष्केद् - अपसर्पयेद्, अथवा संयमोपकरणमपि मूर्छया परिग्रहो भवति, 'मूर्च्छा परिग्रहः' (तत्त्वा० अ० ८ सू० ) इतिवचनात् तत आत्मानं परिग्रहादपसर्णयनुपकरणे तुरगवत् मूर्च्छा न कुर्यात्, ननु च यः कश्चिद्धर्मोपकरणाद्यपि परिग्रहो, न स चित्तकालुष्यमृते भवति, तथाहि -आत्मीयोपकारिणि राग उपघातकारिणि च द्वेषः, ततः परिग्रहे सति रागद्वेषौ नेदिष्ठौ, ताभ्यां च कर्म्मबन्धः, ततः कथं Jain Estication International For Pantry Use Only ~272~# लोक.वि. २ उद्देशका ५ ॥ १३४ ॥ www.indiary.org Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [30] दीप अनुक्रम [२] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [५] मूलं [९०], निर्युक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः न परिग्रहो धम्र्मोपकरणम् ?, उक्तं च- "ममाहमिति चैष यावदभिमानदाहज्वरः कृतान्तमुखमेव तावदिति न प्रशान्त्युन्नयः । यशःसुखपिपासितैरयमसावनर्थोत्तरैः परैरपसदः कुतोऽपि कथमप्यपाकृष्यते ॥ १ ॥” नैष दोषः, न हि धम्मोंपकरणे ममेदमिति साधूनां परिग्रहाग्रहयोगोऽस्ति, तथा ह्यागमः- “अवि अप्पणोऽवि देहंमि, नायरंति ममाइलं", यदिह परिगृहीतं कर्म्मबन्धायोपकल्पते स परिग्रहो, यत्तु पुनः कर्म्मनिर्जरणार्थं प्रभवति तत्परिग्रह एव न भवतीति । आह च अन्ना णं पासए परिहरिजा, एस मग्गे आयरिएहिं पवेइए, जहित्य कुसले नोवलिंपिज्जासि तिवेमि (सू० ९१ ) णमिति वाक्यालङ्कारे, 'अन्यथे'त्यन्येन प्रकारेण पश्यकः सन् परिग्रहं परिहरेत्, यथा हि अविदितपरमार्था गृहस्थाः सुखसाधनाय परिग्रहं पश्यन्ति न तथा साधुः तथाहि अयमस्याशयः- आचार्यसत्कमिदमुपकरणं न ममेति, रागद्वेषमूलत्वात् परिग्रहाग्रहयोगोऽत्र निषेध्यो, न धम्र्मोपकरणं, तेन विना संसारार्णवपारागमनादिति, उक्तं च--" साध्यं यथा कथञ्चित् स्वल्पं कार्य महच्च न तथेति । प्लवनमृते न हि शक्यं पारं गन्तुं समुद्रस्य ॥ ॥" अत्र चाईताभासेबोंटिकैः सह महान्विवादोऽस्तीत्यतो विवक्षितमर्थं तीर्थंकराभिप्रायेणापि सिसाधयिषुराह-- 'एस मग्गे' इत्यादि, धम्र्मोपकरणं न | परिग्रहायेत्येषः - अनन्तरोक्तो मार्गः आराद्याताः सर्वहेयधम्र्मेभ्य इत्यार्याः- तीर्थकृतस्तैः 'प्रवेदितः' कथितो, न तु यथा बोटिकैः कुण्डिका तट्टिका लम्बणिका अश्ववालधिवालादि स्वरुचिविरचितो मार्ग इति, न वा यथा मौगलिखातिपुत्राभ्यां १ अध्यात्मनोऽपि देहे नाचरन्ति ममायितुम् Jan Estication Intimatinal For Parts Only ~273~# Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [9], मूलं [९१], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: लोक.वि.२ रावृत्तिः ९१॥ दीप श्रीआचा-16 शौद्धोदनि ध्वजीकृत्य प्रकाशितः, इत्यनया दिशा अन्येऽपि परिहार्या इति । इह तु स्वशास्त्रगौरवमुत्सादयितुमायः प्रवेदित इत्युक्तम्, अस्मिंश्चार्यप्रवेदिते मार्गे प्रयत्नवता भाव्यमिति, आह च-'जहेत्थ' इत्यादि, लब्ध्वा कर्मभूमि (शी०) |मोक्षपादपवीजभूतां च बोधिं सर्वसंवरचारित्रं च प्राप्य तथा विधेयं यथा 'कुशलो' विदितवेद्यः 'अत्र' अस्मिन्नार्यप्रवे-1 दिते मार्गे आत्मानं पापेन कर्मणा नोपलिम्पयेत् इति । एवं चोपलिम्पनं भवति यदि यथोक्तानुष्ठान विधायित्वं न ॥१३५॥ भवति, सतां चायं पन्था यदुत-यत्स्वयं प्रतिज्ञातं तदन्त्योच्छासं यावद्विधेयमिति, उक्तं च-"लज्जां गुणौघजननी जननीमिवामित्यन्तशुद्धहृदयामनुवर्तमानाः । तेजस्विनः सुखमसूनपि सन्त्यजन्ति, सत्यस्थितिव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम् ॥१॥” इतिशब्दोऽधिकारसमाप्त्यर्थो, 'ब्रवीमि' इति सोऽहं ब्रवीमि येन मया भगवत्पादारविन्दमुपासता अश्रावीति ॥ परिग्रहादात्मानमपसर्पयेदित्युक्तं, तच्च न निदानोच्छेदमन्तरेण, निदानं च शब्दादिपणागुणानुगामिनः कामाः, तेषां चोच्छेदोऽसुकरो, यत आह कामा दुरतिकमा, जीवियं दुप्पडिवूहगं, कामकामी खलु अयं पुरिसे, से सोयइ जूरइ तिप्पइ परितप्पइ (सू० ९२) कामा द्विविधाः-इच्छाकामा मदनकामाश्च, तत्रेच्छाकामा मोहनीयभेदहास्यरत्युद्भवाः, मदनकामा अपि मोहनी-1 यभेदवेदोदयात् प्रादुष्ष्यन्ति, ततश्च द्विरूपाणामपि कामानां मोहनीयं कारणं, तत्सद्भावे च न कामोच्छेद इत्यतो| K दुःखेनातिक्रमः-अतिलधन विनाशो येषां ते तथा, ततश्चेदमुक्तं भवति-न तत्र प्रमादवता भाव्यं । न केवलमत्र जी अनुक्रम [९३] ॥१५॥ wwwandltimaryam ~274~# Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [9], मूलं [९२], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक [९२] वितेऽपि न प्रमादवता भाव्यमिति, आह च-'जीवियं' इत्यादि, जीवितम्-आयुष्कं तत् क्षीणं सत् 'दुष्प्रतिबृंहणीय' दुरभावार्थे, नैव वृद्धि नीयते इतियावत् , अथवा जीवित-संयमजीवितं तदुष्पतिव्रहणीयं, कामानुषक्तजनान्तर्वतिना दुःखेन वृद्धि नीयते, दुःखेन निष्प्रत्यूहः संयमः प्रतिपाल्यते इति, उक्तं च-"आगासे गंगसोउन्ध, पडिसोउच दुत्तरो। बाहाहिं चेव गंभीरो, तरिअब्बो महोअही ॥१॥ वालुगाकवलो चेव, निरासाए हु संजमो । जवा लोहमया चेव, चावे| यच्चा सुदुकरं ॥२॥" इत्यादि, येन चाभिप्रायेण कामा दुरतिक्रमा इति प्रागभ्यधायि तमभिप्रायमाविष्कुर्वनाह कामकामी' इत्यादि, कामान् कामयितुम्-अभिलषितुं शीलमस्येति कामकामी 'खलु' वाक्यालङ्कारे 'अयम्' इत्यध्यक्ष 'पुरुषः' जन्तुः । यस्त्वेवंविधोऽविरतचेताः कामकामी स नानाविधान् शारीरमानसान् दुःखविशेषाननुभवतीति दर्शयति-से सोयईत्यादि, 'स' इति कामकामी ईप्सितस्यार्थस्याप्राप्तौ तद्वियोगे च स्मृत्यनुषङ्गः शोकस्तमनुभवति अथवा शोचत इति काममहाज्वरगृहीतः सन् प्रलपतीति, उक्त च-गते प्रेमावन्धे प्रणयवहुमाने च गलिते, निवृत्ते सद्भावे जन इव जने गच्छति पुरः। तमुत्प्रेक्ष्योत्प्रेक्ष्य प्रियसखि! गतांस्तांश्च दिवसान्, न जाने को हेतुर्दलति शतधा यन्न हृदयम् ॥१॥" इत्यादि शोचते, तथा 'जूरइ'त्ति हृदयेन खिद्यते, तद्यथा-"प्रथमतरमधेदं चिन्तनीयं तवासीद्बहुजनदयितेन प्रेम कृत्वा जनेन । हतहृदय ! निराश! क्लीव! संतप्यसे किं?, न हि जडगततोये सेतुबन्धाः क्रियन्ते ॥१॥" आकाशे गङ्गाश्रोत इव, प्रतिश्रोत इव दुल्तरः । बाहुभ्यामेव गम्भीरतरीतव्यो महोदधिः ॥1॥ बालकाकवल इच, निराखाद एव संयमः । यथा लोहमया एव, चयितव्याः सुदुष्करम् ॥ २॥ अनुक्रम [९४] ACCORRECRUSTAN www.jansatnam.org ~275~# Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [9], मूलं [९२], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचा-1 राङ्गवृत्तिः (शी०) [९२ ॥१३६॥ दीप इत्येवमादि, तथा 'तिप्पइत्ति 'तिपू ते प्रक्षरणार्थी' तेपते-क्षरति सञ्चलति मर्यादातो भ्रश्यति निर्मर्यादो भवतीतियावत् , लोक.वि.२ तथा शारीरमानसर्दुःखः पीज्यते, तथा परि:-समन्ताद्वहिरन्तश्च तप्यते परितप्यते, पश्चात्तापं वा करोति, यथेष्टे पुत्रक-| लत्रादौ कोपात् कचिद्गते स मया नानुवर्तित इति परितप्यते, सर्वाणि चैतानि शोचनादीनि विषयविषावष्टब्धान्त:करणानां दुःखावस्थासंसूचकानि, अथवा शोचत इति यौवनधनमदमोहाभिभूतमानसो विरुद्धानि निषेव्य पुनर्वयःपरिणामेन मृत्युकालोपस्थानेन वा मोहापगमे सति किं मया मन्दभाग्येन पूर्वमशेषशिष्टाचीर्णः सुगतिगमनैकहेतुर्दुर्गतिद्वारपरिपो धम्मों नाचीर्णः? इत्येवं शोचत इति, उक्त च-“भवित्री भूतानां परिणतिमनालोच्य नियता, पुरा यद्यत् किश्चिमा |द्विहितमशुभं यौवनमदात् । पुनःप्रत्यासन्ने महति परलोकैकगमने, तदेवैकं पुंसां व्यथयति जराजीर्णवपुपाम् ॥१॥" तथा जूरतीत्यादीन्यपि स्वबुद्ध्या योजनीयानि, उक्तं च-"सगुणमपगुणं वा कुर्वता कार्यजातं, परिणतिरवधार्या | यत्नतः पण्डितेन । अतिरभसकृतानां कर्मणामाविपत्तेर्भवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः ॥१॥" इत्यादि । का पुनरेवं न शोचत इत्याह आययचक्खू लोगविपस्सी लोगस्स अहो भागं जाणइ उर्दू भागं जाणइ तिरियं भागं जाणइ, गड्डिए लोए अणुपरियडमाणे, संधिं विइत्ता इह मच्चिएहि, एस वीरे पसंसिए जे बढे पडिमोयए जहा अंतो तहा बाहिं जहा बाहिं तहा अंतो, अंतो अनुक्रम [९४] JAIREucatunintamatund wwwandltimaryam ~276~# Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत [ ९३] दीप अनुक्रम [५] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [५] मूलं [९३], निर्युक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः तो पू देहंतराणि पासइ पुढोवि सवंताई पंडिए पडिलेहाए (सू० ९३ ) आयतं - दीर्घमैहिकामुष्मिकापायदर्शि चक्षुः- ज्ञानं यस्य स आयतचक्षुः कः पुनरित्येवंभूतो भवति ? यः कामानेकान्तेनानर्थभूयिष्ठान् परित्यज्य शमसुखमनुभवति, किं च - 'लोगविपस्सी' लोकं विषयानुषङ्गावेशाप्तदुःखातिशयं तथा त्यक्तकामावासप्रशमसुखं विविधं द्रष्टुं शीलमस्येति लोकविदर्शी, अथवा लोकस्य ऊर्द्धास्तिर्यग्भागगतिकारणायुष्कसुखदुःखविशेषान् पश्यतीति एतद्दर्शयति- 'लोगस्स' इत्यादि, लोकस्य - धर्माधर्मास्तिकायावच्छिन्नाकाशखण्डस्याधोभागं जानातीति-स्वरूपतोऽवगच्छति, इदमुक्तं भवति येन कर्म्मणा तत्रोत्पद्यन्तेऽसुमन्तः यादृक् तत्र सुखदुःखविपाको भवति तं जानाति, एवमूर्द्धतिर्यग्भागयोरपि वाच्यं यदिवा लोकविदशति - कामार्थमर्थोपार्जनप्रसक्तं गृद्धमभ्युपपन्नं लोकं पश्यतीति । एतदेव दर्शयितुमाह- 'गहिए' इत्यादि, अयं हि लोको 'गृद्धः' अध्युपपन्नः कामा|नुषङ्गे तदुपाये वा तत्रैवानुपरिवर्त्तमानो भूयो भूयस्तदेवाचरंस्तज्जनितेन वा कर्म्मणा संसारचक्रेऽनुपरिवर्त्तमानः- पर्य टन्नायतचक्षुषो गोचरीभवन् कामाभिलाषनिवर्त्तनाय न प्रभवति ?, यदिवा कामगृद्धान् संसारेऽनुपरिवर्त्तमानानसुमतः पश्येत्येवमुपदेशः, अपि च- 'संधि' इत्यादि, इह 'मर्त्येषु' मनुजेषु यो ज्ञानादिको भावसन्धिः, स च मर्त्येष्वेव सम्पूर्णो भवतीति मर्त्यग्रहणम्, अतस्तं विदित्वा यो विषयकपायादीन् परित्यजति स एव वीर इति दर्शयति- 'एस' इत्यादि, 'एषः' अनन्तरोक्तः आयतचक्षुर्यथावस्थितलोक विभागस्वभावदर्शी भावसन्धेर्वेसा परित्यक्तविषयतर्षो वीरः कर्म्मविदारणात् 'प्रशंसितः' स्तुतः विदिततच्चैरिति । स एवंभूतः किमपरं करोतीति चेदित्याह - 'जे बद्धे' इत्यादि, यो Estication Intel For Par at Use Only ~277~# Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [९३] दीप अनुक्रम [५] श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ १३७ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [५] मूलं [९३], निर्युक्तिः [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः उद्देशकः ५ बद्धान् द्रव्यभाववन्धनेन स्वतो विमुक्तोऽपरानपि मोचयतीत्येतदेव द्रव्यभावबन्धनविमोक्षं वाचोयुक्तयाऽऽचष्टे - ६ लोक.बि. २ 'जहा अंतो तहा बाहिं' इत्यादि, यथाऽन्तर्भावबन्धनमष्टमकारकर्मनिगडनं मोचयति एवं पुत्रकलत्रादि बाह्यमपि यथा वा वाह्यं बन्धुबन्धनं मोचयति एवं मोक्षगमनविघ्नकारणमान्तरमपीति, यदिवा - कथमसी मोचयतीति चेत्तस्वाविर्भावनेन, स्यादेतत्-तदेव किंभूतमित्याह - 'जहा अंतो' इत्यादि, यथा स्वकायस्यान्तः - मध्ये अमेध्यकललपिशितासृक्पूत्यादिपूर्णत्वेनासारत्वमित्येवं बहिरप्यसारता द्रष्टव्या, अमेध्यपूर्णघटवदिति, उक्तं च- “यदि नामास्य कायस्य, यदन्तस्तद्वहिर्भवेत् । दण्डमादाय लोकोऽयं, शुनः काकांश्च वारयेत् ॥ १ ॥” इति, यथा वा बहिरसारता तथाsतरपीति । किं च- 'अन्तो अन्तो' इत्यादि, देहस्य मध्ये मध्ये पूत्यन्तराणि - पूतिविशेषान् 'देहान्तराणि' देहस्यावस्थाविशेषान् इह मांसमिह रुधिरमिह मेदो मज्जा चेत्येवमादि पूतिदेहान्तराणि पश्यति' यथावस्थितानि परि च्छिन्नत्तीत्युक्तं भवति, यदिवा देहान्तराण्येवंभूतानि पश्यति – 'पुढो' इत्यादि, 'पृथगपि' प्रत्येकमपि अपिशब्दात्कुष्ठाद्यवस्थायां यौगपद्येनापि स्रवन्ति नवभिः श्रोत्रोभिः कर्णाक्षिमलश्लेष्मलालाप्रश्रवणोच्चारादीन् तथाऽपरव्याधिविशेषापादितत्रणमुखपूतिशोणितरसिकादीनि चेति । यद्येतानि ततः किं ? – 'पंडिए पडिलेहाए' एतान्येवंभूतानि गलच्छोतोव्रणरोमकूपानि 'पण्डितः' अवगततवः 'प्रत्युपेक्षेत' यथावस्थितमस्य स्वरूपमवगच्छेदिति, उक्तं च- "मंसहिरु १ मांसास्थिरुधिरस्नाश्ववनद्धकल्मषमे दमनाभिः । पूर्णे चर्मको दुर्गन्धेऽभिसे ॥ १ ॥ संचारक (वत्) यन्त्रगलद्वचमूत्रान्तस्येदपूर्वे । देदे भवेत् किं रागकारणं अनुचिती ॥ १ ॥ Jan Estication Intemational For Party Use Onl ~278 ~# ॥ १३७ ॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [9], मूलं [९३], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक [९३]] NAGAR दाप हिरण्हारुवणद्धकलमलयमेयमज्जासु । पुण्णमि चम्मकोसे दुग्गंधे असुइबीभच्छे ॥ १ ॥ संचारिमर्जतगलंतवचमुत्तंतसेअपुण्णमि । देहे हुज्जा किं रागकारणं असुइहेउम्मि? ॥ २ ॥” इत्यादि । तदेवं पूतिदेहान्तराणि पश्यन् पृथगपि नवन्तीत्येवं प्रत्युपेक्ष्य किं कुर्यादित्याह से मइमं परिन्नाय मा य हु लालं पच्चासी, मा तेसु तिरिच्छमप्पाणमावायए, कासंकासे खलु अयं पुरिसे, बहुमाई कडेण मूढे, पुणो तं करेइ लोहं वेरं वड्वेइ अप्पणो, जमिणं परिकहिजइ इमस्स चेव पडिवूहणयाए, अमरा य महासङ्घी अट्टमेयं तु पेहाए अपरिणाए कंदइ (सू०९४) 'स' पूर्वोक्तो यतिमतिमान्-श्रुतसंस्कृतबुद्धिर्यधावस्थितं देहस्वरूपं कामस्वरूपं च द्विविधयाऽपि परिज्ञया परि-IN ज्ञाय किं कुर्यादित्याह-'मा य हु' इत्यादि, 'मा' प्रतिषेधे चः समुच्चये हुर्वाक्यालङ्कारे, ललतीति लाला-अत्रुव्यन्मुखश्लेष्मसन्ततिः तां प्रत्यशितुं शीलमस्येति प्रत्याशी, वाक्यार्थस्तु यथा हि बालो निर्गतामपि लाला सदसद्विवेकाभा वात् पुनरप्यश्नातीत्येवं त्वमपि लालाबत्त्यक्त्वा मा भोगान् प्रत्यशान, वान्तस्य पुनरप्यभिलाषं मा कुर्वित्यर्थः । किं चAl'मा तेसु तिरिच्छ' इत्यादि, संसारश्रोतांसि अज्ञानाविरतिमिथ्यादर्शनादीनि प्रतिकूलेन वा तिरश्चीनेन वाऽतिक्रमणीयानि, ४ निर्वाणश्रोतांसि तु ज्ञानादीनि तत्रानुकूल्यं विधेयं, मा तेष्वात्मानं तिरश्चीनमापादयः, ज्ञानादिकार्ये प्रतिकूलतां मा अनुक्रम [९५]] JainEducatinintamathima wwanditaram ~279~# Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [९४] दीप अनुक्रम [ ९६] श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी० ) ॥ १३८ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [५] मूलं [९४], निर्युक्तिः [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः विदध्याः, तत्राप्रमादवता भाव्यं, प्रमादवांश्चे हैव शान्ति न लभते यत आह- 'कासंकासे' इत्यादि, यो हि ज्ञानादिश्रोतसि तिरश्चीनवत्र्त्ती भोगाभिलाषवान् स एवंभूतोऽयं पुरुषः सर्वदा किंकर्त्तव्यताकुल इदमहमकार्षमिदं च करिष्ये इत्येवं भोगाभिलाषक्रियाव्यापृतान्तःकरणो न स्वास्थ्यमनुभवति, खलुशब्दोऽवधारणे, वर्तमानकालस्यातिसूक्ष्मत्वादसंव्यवहारित्वमतीतानागतयोश्चेदमहम कार्यमिदं च करिष्य इत्येवमातुरस्य नास्त्येव स्वास्थ्यमिति, उक्तं च--"इदं तावत् करोम्यद्य, श्यः कर्त्ताऽस्मीति चापरम् । चिन्तयन्निह कार्याणि प्रेत्यार्थं नावबुध्यते ॥ १ ॥ " अत्र दधिघटिकादमकद्रष्टान्तो वाच्यः स चायं द्रमकः कश्चित् कचिन्महिषीरक्षणावाप्तदुग्धः तदधीकृत्य चिन्तयामास, ममातो घृतवेतनादि यावद्भार्या अपत्योत्पत्तिस्ततश्चिन्ता, कलहे पाणिप्रहारेणैव दधिघटिकाव्यापत्तिरित्येवं चिन्तामनोरथव्याकुलीकृतान्तःकरण इति तदद्ध्यानयने शिरोविण्टलीकाचीवरे आदीयमाने इव शिरो विधूयास्फोटिता दधिघटिकेत्येवं यथा तेन न तद्दधि भक्षितं नापि कस्मैचित्पुण्याय दत्तम्, एवमन्योऽपि कासंकसः - किंकर्त्तव्यतामूढो निष्फलारम्भो भवतीति, अथवा कस्यतेऽस्मिन्निति कासः - संसारस्तं कषतीति तदभिमुखो यातीति कासंकपः, यो ज्ञानादिप्रमादवान् वक्ष्यमाणो वेत्याह- 'बहुमायी' कासंकषो हि कषायैर्भवति, तन्मध्यभूताया मायाया ग्रहणे तेषामपि ग्रहणं द्रष्टव्यमिति, ततः क्रोधी मानी मायी लोभीति द्रष्टव्यमिति । अपि च-'कडेण मूढं' करणं कृतं तेन मूढःकिंकर्त्तव्यताकुलः सुखार्थी दुःखमश्नुते इति, उक्तं हि - "सोडं सोवणकाले मज्जणकाले य मज्जिर्ड लोलो । जेमे च १ खपितुं शयनकाले मञ्जनका न म ठोठ (चपलः) । जेमितुं च वराको मनकाले न शक्नोति ॥ १ ॥ Etication Intemational For Pantry Use Onl ~280 ~# लोक.वि. २ उद्देशकः ५ ॥ १३८ ॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [9], मूलं [९४], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत [९४|| Iबराओ जेमणकाले नचाएइ ॥१॥" अत्र मम्मणवणिग्रहष्टान्तो वाच्यः, स चैवं कासंकषः बहुमायी कृतेन मूढस्त-1 हात्तत्करोति येनात्मनो वैरानुषो जायत इति, आह च-'पुणो तं करेई'त्यादि, मायावी परवञ्चनबुझ्या पुनरपि तत् लोभानुष्ठान तथा करोति येनात्मनो वैरं वर्द्धते, अथवा तं लोभं करोतीति-अर्जयति येन जन्मशतेष्वपि वैरं वर्द्धत इति, उक्तं च-"दुःखातः सेवते कामान् , सेवितास्ते च दुःखदाः । यदि ते न प्रियं दुःखं, प्रसङ्गस्तेषु न क्षमः॥१॥" किं पुनः कारणमसुमास्तत्करोति येनात्मनो वैरं बर्द्धते?, इत्याह-'जमिण' इत्यादि, 'यदिति यस्मादस्यैव-विशसरोः शरीरकस्य परिवहणार्थ प्राणघातादिकाः क्रियाः करोतीति, ते च तेनोपहताः प्राणिनः पुनः शतशो मन्ति, ततो मयेदं कथ्यते-कासंकषः खल्वयं पुरुषो बहुमायी कृतेन मूढः पुनस्तत्करोति येनात्मनो वैरं वर्धयतीति, यदिवा यदिदं मयोपदेशपायं पौनःपुन्येन कथ्यते तदस्यैव संयमस्य परिवहणार्थम्, इदं चापरं कथ्यते–'अमराय' इत्यादि अमरायतेऽनमरः सन् द्रव्ययौवनप्रभुत्वरूपावसकोऽमर इवाचरति अमरायते, कोऽसौ ?-'महाश्रद्धी' महती चासो श्रद्धा च महाश्रद्धा सा विद्यते भोगेषु तदुपायेषु वा यस्य स तथा, अत्रोदाहरणं-राजगृहे नगरे मगधसेना गणिका, तत्र कदाचिद्धनः सार्थवाहो महता द्रव्यनिचयेन समन्वितः प्रविष्टः, तद्रूपयौवनगुणगणद्रव्यसम्पदाक्षिप्तया मगधसेनयाऽसावभिसरितः, तेन चायव्ययाक्षिप्तमानसेनासौ नावलोकिताऽपि, अस्याश्चात्मीयरूपयौवनसौभाग्यावलेपान्महती दुःखासिकाऽभूत्, ततश्च तां परिम्लानवदनामवलोक्य जरासन्धेनाभ्यधायि-किं भवत्या दुःखासिका कारणं ?, केन वा सार्द्धमुषितेति, सा स्ववादीद्-अमरेणेति, कथमसावमर इत्युक्त तया सद्भावः कथितो निरूपितश्च यावत्तथैवाद्या 352- 655 अनुक्रम [१६] wwwandltimaryam ~281-23 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [४] दीप अनुक्रम [ ९६] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [५] मूलं [९४], निर्युक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा प्यास्त इत्यतो भोगार्थिनोऽर्थे प्रसक्ता अजरामरवत्क्रियासु प्रवर्त्तन्त इति । यश्चामरायमाणः कामभोगाभिलाषुकः स राङ्गवृत्तिः ४ किंभूतो भवतीत्याह - 'अट्ट' इत्यादि, अर्त्तिः शारीरमानसी पीडा तत्र भव आर्त्तस्तमार्त्तममरायमाणं कामार्थ महा(शी० ) ॐ श्रद्धावन्तं 'प्रेक्ष्य' दृष्ट्वा पर्यालोच्य वा कामार्थयोर्न मनो विधेयं इति, पुनरमरायमाणभोगश्रद्धावतः स्वरूपमुच्यते 2- 'अपरिण्णाए' इत्यादि, कामस्वरूपं तद्विपाकं वा अपरिज्ञाय तत्र दत्तावधानः कामस्वरूपापरिज्ञया वा 'कन्दते' ४ भोगेष्वप्राप्तनष्टेषु काङ्गाशोकावनुभवतीति उक्तं च - " चिन्ता गते भवति साध्वसमन्तिकस्थे, मुक्ते तु ततिरधिका रमितेऽप्यतृप्तिः । द्वेषोऽन्यभाजि वशवर्त्तिनि दग्धमानः, प्राप्तिः सुखस्य दयिते न कथचिदस्ति ॥ १ ॥" इत्यादि । तदेवमनेकधा कामविपाकमुपदर्श्य उपसंहरति ॥ १३९ ॥ सेतं जाणह जहं बेमि, तेइच्छं पंडिए पवयमाणे से हंता छित्ता भित्ता लुंपइत्ता विलुंपइत्ता उद्दवइत्ता, अकडं करिस्सामित्ति मन्नमाणे, जस्सवि य णं करेइ, अलं बा लस्स संगेणं, जे वा से कारइ बाले, न एवं अणगारस्स जायइ (सू० ९५) तिबेमि ॥ 'से 'ति तदर्थे तदपि हेत्वर्थे, यस्मात्कामा दुःखैकहेतवः तस्मात्तज्जानीत यदहं ब्रवीमि मदुपदेशं कामपरित्यागविषयं कर्णे कुरुतेति भावार्थः । ननु च कामनिग्रहोऽत्र चिकीर्षितः, स चान्योपदेशादपि सिद्ध्यत्येवेत्येतदाशङ्कयाह-'तेइच्छं' इत्यादि, कामचिकित्सां 'पण्डितः' पण्डिताभिमानी प्रवदन्नपरव्याधिचिकित्सामिवोपदिशन्नपरः-तीर्थिको जीवोपमर्दे Jan Estication Intimational For Pantry O ~282~# लोक.वि. २ उद्देशका ५ ॥ १३९ ॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [ ९५] दीप अनुक्रम [७] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [५] मूलं [९५], निर्युक्तिः [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | वर्त्तत इति, आह- 'से हंता' इत्यादि, 'स' इत्यविदिततत्त्वः कामचिकित्सोपदेशकः प्राणिनां हन्ता दण्डादिभिः छेत्ता | कर्णादीनां भेत्ता शूलादिभिः लुम्पयिता ग्रन्थिच्छेदनादिना विलुम्पयिता अवस्कन्दादिना अपद्रावयिता प्राणव्यपरोपणादिना, नान्यथा कामचिकित्सा व्याधिचिकित्सा वा अपरमार्थदृशां सम्पद्यते, किं च- 'अकृतं' यदपरेण न कृतं कामचिकित्सनं व्याधिचिकित्सनं वा तदहं करिष्य इत्येवं मन्यमानः हननादिकाः क्रियाः करोति, ताभिश्च कर्म्मबन्धः, अतो य एवंभूत उपदिशति यस्याप्युपदिश्यते उभयोरप्येतयोरपथ्यत्वाद कार्यमिति, आह च- 'जस्सवि य णं' इत्यादि, यस्याप्यसावेवंभूतां चिकित्सां करोति, न केवलं स्वस्येत्यपिशब्दार्थः, तयोर्द्वयोरपि कर्तुः कारयितुश्च हननादिकाः क्रियाः, अतो 'अलं' पर्याप्तं 'बालस्य' अज्ञस्य 'सङ्गेन' कर्म्मबन्धहेतुना कर्तुरिति, योऽप्येतत् कारयति 'बालः' अज्ञस्तस्याप्यलमिति सण्टङ्कः, एतच्चैवम्भूतमुपदेशदानं विधानं वाऽवगततत्त्वस्य न भवतीत्याह-न एवं' इत्यादि, एवम्भूतं | प्राण्युपमर्देन चिकित्सोपदेशदानं करणं वा 'अनगारस्य' साधोः ज्ञातसंसारस्वभावस्य न जायते-न कल्पते, ये तु काम| चिकित्सां व्याधिचिकित्सां वा जीवोपमर्देन प्रतिपादयन्ति ते बालाः- अविज्ञाततत्त्वाः, तेषां वचनमवधीरणीयमेवेति भावार्थः । इतिः परिसमात्यर्थे, ब्रवीमीति पूर्ववदिति लोकविजयस्य पञ्चमोदेशकटीका समाप्तेति । Etication matinal For Parts Only ~283~# Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [६], मूलं [९६], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: लोक.वि.२ उद्देशका ६ श्रीआचा- उक्तः पञ्चमोद्देशकः, साम्प्रतं पष्ठ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-संयमदेहयात्रार्थ लोकमनुसरता साधुना राङ्गवृत्तिःलोके ममत्वं न कर्त्तव्यमित्युदेशार्थाधिकारोऽभिहितः, सोऽधुना प्रतिपाद्यते-अस्य चानन्तरसूत्रसम्बन्धो वाच्यो 'नव(शी०) मनगारस्य जायत' इत्यभिहितम् , एतदेवात्रापि प्रतिपिपादयिषुराह॥१४॥ से तं संवुज्झमाणे आयाणीयं समुद्राय तम्हा पावकम्मं नेव कुज्जा न कारवेज्जा (सू०९६) यस्थानगारस्यैतत्पूर्वोक्तं न जायते सोऽनगारस्तत्-प्राण्युपघातकारि चिकित्सोपदेशदानमनुष्ठानं वा संबुद्ध्यमानःअवगच्छन् ज्ञपरिज़या प्रत्याख्यानपरिजया च परिहरन्नादातव्यम् आदानीयं तच्च परमार्थतो भावादानीयं ज्ञानदर्शन-1 चारित्ररूपं तद् 'उत्थाये'त्यनेकार्थत्वादादाय-गृहीत्वा अथवा सोऽनगार इत्येतदादानीयं-ज्ञानाद्यपवर्गककारणमित्येवं सम्यगवबुद्ध्यमानः सम्यक्संयमानुष्ठानेनोत्थाय-सर्व सावा कर्म न मया कर्तव्यमित्येवं प्रतिज्ञामन्दरमारुह्य, क्त्वाप्रत्ययस्य पूर्वकालाभिधायित्वात् किं कुर्यादित्याह-'तम्हा' इत्यादि, यस्मात् संयमः सर्वसावद्यारम्भनिवृत्तिरूपः तस्मात्तमादाय पापं-पापहेतुत्वात् कर्म क्रियां न कुर्यात् स्वतो मनसाऽपि न समनुजानीयादित्यवधारणफलं, अपरेणापि न कारयेदिति, आह च-'न कारवे' इत्यादि, अपरेणापि कर्मकरादिना पापसमारम्भं न कारयेदित्युक्तं भवति, प्राणातिपात मृषावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहक्रोधमानमायालोभरागद्वेषकलहाभ्याख्यानपैशून्यपरपरिवादारतिरतिमायामृषावादमिथ्याप्रदर्शनशल्यरूपमष्टादशप्रकारं पापं कर्म स्वतो न कुर्यान्नाप्यपरेण कारयेदेवकाराचापरं कुर्वन्तं न समनुजानीयाद्योग त्रिकेणापि भावार्थः । स्यादेतत्-किमेकं प्राणातिपातादिकं पापं कुर्वतोऽपरमपि दौकते आहोखिन्नेत्याह ॥१४०॥ wwwtoneitnary.am द्वितीय-अध्ययने षष्ठ-उद्देशक: 'अममत्व' आरब्धः, ~284-23 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [६], मूलं [९७], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सिया तत्थ एगयरं विप्परामुसइ छसु अन्नयरंमि, कप्पइ सुहट्टी लालप्पमाणे, सरण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेइ, सएण विप्पमाएण पुढो वयं पकुव्वइ, जंसिमे पाणा पव्वहिया, पडिलेहाए नो निकरणयाए, एस परिन्ना पवुच्चइ, कम्मोवसंती (सू०९७) 'स्यात्तत्र' कदाचित्तत्र पापारम्भे 'एकतरं' पृथिवीकायादिसमारम्भं विपरामृशति-पृथिवीकायादिसमारम्भं करोति, एकतरं वाऽऽश्रवद्वारं परामृशति-आरभते स षट्स्वन्यतरस्मिन् कल्प्यते, यस्मिन्नेवालोच्यते तस्मिन्नेव प्रवृत्तो द्रष्टव्यः, इदमुक्तं भवति-पृथिवीकायादिषु षट्सु जीवनिकायेष्वाश्रवद्वारेषु वा मध्येऽन्यतरस्मिन्नपि प्रवर्त्तमानो यस्मिन्नेव पर्यालोच्यते तस्मिन्नेव कल्प्यते, सर्वस्मिन्नेव वर्त्तत इति भावार्थः । कथमन्यतरस्मिन् पृथिवीकायादिसमारम्भे वर्तमानो|ऽपरकायसमारम्भे सर्वपापसमारम्भे वा वर्त्तते इत्येवं मन्यते?, कुम्भकारशालोदकप्लावनदृष्टान्तेनैककायसमारम्भको:परकायसमारम्भको भवति, अथवा प्राणातिपाताम्रवद्वारविघटनादेकजीवातिपातादेककायातिपाताद्वा अपरजीवातिपाती द्रष्टव्यः, प्रतिज्ञालोपाञ्चानृतो, न च तेन व्यापाद्यमानेनासुमताऽऽत्मा ब्यापादकाय दत्तस्तीर्थकरेण चानुज्ञातोऽतः प्रा[णिनः प्राणान् गृहनदत्तग्राही, सावद्योपादानाच्च पारिवाहिकः, परिग्रहाच्च मैथुनरात्रीभोजने अपि गृहीते, यतो नापरिगृही तमुपभुज्यते परिभुज्यते चेत्यतोऽन्यतरारम्भ षण्णामप्यारम्भोऽथवा अनावृतचतुराश्रवद्वारस्य कथं चतुर्थषष्ठन्त्रतावस्थान द स्याद् ?, अतः पदस्वन्यतरस्मिन् प्रवृत्तः सर्वेष्वपि प्रवृत्त इति, अथवैकतरमपि पापसमारम्भं य आरभते स षट्स्वन्यतर-18 स्मिन् कल्पते-योग्यो भवति, अकर्त्तव्यप्रवृत्तत्वाद्, अथवैकतरमपि यः पापारम्भं करोत्यसावष्टप्रकारं कर्मादाय षट् SHIKSHAKEER walaatmaram ~285~# Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [९७] दीप अनुक्रम [९] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ १४१ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [६], मूलं [९७], निर्युक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः स्वम्यतरस्मिन् कल्पते प्रभवति, पौनःपुन्येनोत्पद्यत इत्यर्थः स्यात् किमर्थमेवंविधं पापकं कर्म्म समारभते ?, तदुच्यते'सुहडी लालप्पमाणे' सुखेनार्थः सुखार्थः स विद्यते यस्यासाविति मत्वर्थीयः, स एवम्भूतः सन्नत्यर्थं लपति पुनः पुनर्वा लपति लालप्यते वाचा कायेन धावनवलगनादिकाः क्रियाः करोति मनसा च तत्साधनोपायांश्चिन्तयति, तथाहि सुखार्थी सन् कृध्यादिकर्म्मभिः पृथिवीं समारभते स्नानार्थमुदकं वितापनार्थमग्निं धर्मापनोदार्थं वायुं आहारार्थी वनस्पतिं त्रस कार्य वेत्य संयतः संयतो वा रससुखार्थी सच्चित्तं लवणवनस्पतिफलादि गृह्णात्येवमन्यदपि यथासंभवमायोज्यं । स चैवं लालप्यमानः किंभूतो भवतीत्याह - 'सएण' इत्यादि, यत्तदुप्तमन्यजन्मनि दुःखतरुकर्म्मबीजं तदात्मीयं दुःखतरुकार्यमाविर्भावयति, तच्च तेनैव कृतमित्यात्मीयमुच्यते, अतस्तेन स्वकीयेन 'दुःखेन' स्वकृतकम्र्म्मोदयजनितेन 'मूढः' परमार्थमजानानो 'विपर्यासमुपैति' सुखार्थी प्राण्युपघातकारणमारम्भमारभते, सुखस्य च विपर्यासो दुःखं तदुपैति उक्तं च“दुःखद्विट् सुखलिप्सुर्मोहान्धत्वाददृष्टगुणदोषः । यां यां करोति चेष्टां तया तया दुःखमादत्ते ॥ १ ॥” यदिवा 'मूढो' हिताहितप्राप्तिपरिहाररहितो विपर्यासमुपैति - हितमप्यहितबुद्ध्याऽधितिष्ठत्यहितं च हितबुद्धयेति, एवं कार्याकार्यपथ्यापध्यवाच्यावाच्यादिष्वपि विपर्यासो योज्यः, इदमुक्तं भवति मोहोऽज्ञानं मोहनीयभेदो वा, तेनोभयप्रकारेणापि मोहेन मूढोऽल्पसुखकृते तत्तदारभते येन शारीरमानसदुःखव्यसनोपनिपातानामनन्तमपि काल पात्रतां व्रजतीति । पुनरपि मूढस्यानर्थपरम्परां दर्शयितुमाह - 'सएण ' इत्यादि, स्वकीयेनात्मना कृतेन प्रमादेन - मद्यादिना 'विविध' मिति मद्यविषयकपायवि कथानिद्राणां स्वभेदग्रहणं तेन पृथग विभिन्नं व्रतं करोति, यदिवा पृथु विस्तीर्ण 'वय मिति वयन्ति - पर्यटन्ति Jain Estication tytumanl For Pantry Use Only ~286 ~# लोक.वि. २ उदेशका ६ ॥ १४१ ॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [६], मूलं [९७], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्राणिनः स्वकीयेन कर्मणा यस्मिन् स वयः-संसारस्तं प्रकरोति, एकैकस्मिन् काये दीर्घकालावस्थानाद्, यदिवा कारणे का-2 ४ोपचारात् स्वकीयेन नानाविधप्रमादकृतेन कर्मणा वयः-अवस्थाविशेषस्तमेकेन्द्रियादिकललार्बुदादितदहर्जातवालादिव्या धिगृहीतदारिद्यदौर्भाग्यव्यसनोपनिपातादिरूपं प्रकर्षण करोति-विधत्त इति । तस्मिंश्च संसारेऽवस्थाविशेषे वा प्राणिनः। कापीयन्ते इति दर्शयितुमाह-जंसिमें' इत्यादि, यस्मिन् स्वकृतप्रमादापादितकर्मविपाकजनिते चतर्गतिकसंसारे एके-10 दन्द्रियाद्यवस्थाविशेषे वा 'इमें प्रत्यक्षगोचरीभूताः 'प्राणा'इत्यभेदोपचारात्याणिनः 'प्रव्यथिताः' नानाप्रकारैर्व्यसनोपनि-13 पातैः पीडिताः, सुखार्थिभिरारम्भप्रवृत्तैर्मोहाद्विपर्यस्तैः प्रमादवद्भिश्च गृहस्थैः पाण्डिकैर्यत्याभासैश्चेति वा । यदि नामात्र प्रव्यथिताः प्राणिनस्ततः किमित्याह-'पडि' इत्यादि, एतत् संसारचक्रवाले स्वकृतकर्मफलेश्वराणामसुमतां गृहस्थादिभिः परस्परतो वा कर्मविपाकतो वा प्रव्यथनं प्रत्युपेक्ष्य विदितवेद्यः साधुनिश्चयेन नितरां वा नियतं वा क्रियन्ते || नानादुःखावस्था जन्तवो येन तन्निकरणं निकारः-शारीरमानसदुःखोत्सादनं तस्मै नो कर्म कुर्याद्, येन प्राणिनां पीडोत्पद्यते तमारम्भं न विदध्यादिति भावार्थः । एवं च सति किं भवतीत्याह-'एस' इत्यादि, येयं सावद्ययोगनिवृत्तिरेषा परिज्ञा-एतत्तत्त्वतः परिज्ञानं प्रकर्षणोच्यते प्रोच्यते, न पुनः शैलूपस्येव ज्ञानं निवृत्तिफलरहितमिति । एवं द्विविधयाऽपि ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया च प्राणिनिकारपरिहारे सति किं भवतीत्याह-कम्मोवसंती'त्ति कर्मणाम्-अशेषद्वन्दूवातात्मकसंसारतरुवीजभूतानामुपशान्तिः-उपशमः, कर्मक्षयः पाणिनिकारक्रियानिवृत्तेर्भवतीत्युक्तं भवति । अस्य च कर्मक्षयप्रत्यूहस्य प्राणिनिकरणस्य मूलमात्मात्मीयग्रहः, तदपनोदार्थमाह लस wwwandltimaryam ~287~# Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) 177284 प्रत सूत्रांक [८] ॥१॥ दीप अनुक्रम [१००+ १०१] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ १४२ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [६], मूलं [९८, गाथा- १], निर्युक्तिः [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः जे माइयमई जहाइ से चयइ ममाइयं, से हु दिट्ठपहे मुणी जस्स नत्थि ममाइयं तं परिन्नाय मेहावी विइत्ता लोगं वंता लोगसन्नं से मइमं परिक्कमिज्जासि तिबेमि ॥ नारई सहई वीरे, वीरे न सहई रतिं । जम्हा अविमणे वीरे, तम्हा वीरे न रज्जइ ॥ १ ॥ (सू०९८) ममायितं मामकं तत्र मतिर्ममायितमतिस्तां यः परिग्रहविपाकज्ञो 'जहाति' परित्यजति स 'ममायितं' स्वीकृतं परिग्रह 'जहाति' परित्यजति, इह द्विविधः परिग्रहो - द्रव्यतो भावतश्च तत्र परिग्रहमति निषेधादान्तरो भावपरिग्रहो निषिद्धः, परिग्रहबुद्धिविषयप्रतिषेधाच्च बाह्यो द्रव्यपरिग्रह इति । अथवा काका नीयते, यो हि परिग्रहाध्यवसायकलुषितं ज्ञानं परित्यजति स एव परमार्थतः सबाह्याभ्यन्तरं परिग्रहं परित्यजति ततश्चेदमुक्तं भवति- सत्यपि सम्बन्धमात्रे चित्तस्य परिग्रहकालुष्याभावान्नगरादिसम्बन्धः पृथ्वीसम्बन्धेऽपि जिनकल्पिकस्येव निष्परिग्रहतैव, यदि नामैवं ततः किमि - त्याह- 'से हु' इत्यादि, यो हि मोक्षैकविनहेतोः संसारभ्रमणकारणात् परिग्रहान्निवृत्ताध्यवसायः, हुः अवधारणे, स एव मुनिः दृष्टो ज्ञानादिको मोक्षपथो येन स दृष्टपथः, यदिवा दृष्टभयः - अवगतसप्तप्रकारभयः शरीरादेः परिग्रहात्साक्षात्यारम्पर्येण वा पर्यालोच्यमानं सप्तप्रकारमपि भयमापनपद्यत इत्यतः परिग्रहपरित्यागे ज्ञातभयत्वमवसीयत इति । एतदेव पूर्वोक्तं स्पष्टयितुमाह--- 'जस्स' इत्यादि, यस्य 'ममायितं' स्वीकृतं परिग्रहो न विद्यते स दृष्टभयो मुनिरिति सम्बन्धः, किं च 'तं' इत्यादि, 'तं' पूर्वव्यावणितस्वरूपं परिग्रहं द्विविधयाऽपि परिज्ञया परिज्ञाय 'मेधावी' ज्ञात For Pantry Use Only लोक. वि. २ उद्देशका ६ ~288~# ॥ १४२ ॥ www.indiary.org ( उक्त सूत्र ९८ में एक सूत्र और एक गाथा, दोनों सम्मिलित है, इसीलिए हमारे प्रकाशनमे दोनों को अलग करके क्रम दिए है ) Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [६], मूलं [९८, गाथा-१], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ई सूत्राक [९८] ॥१॥ दीप अनुक्रम [१००+ १०१] जयो विदित्वा 'लोक' परिग्रहाग्रहयोगविपाफिनमेकेन्द्रियादिप्राणिगणं 'वान्त्वा' उद्गीर्य 'लोकस्य' प्राणिगणस्य संज्ञा दशप्रकारा अतस्ता 'स' इति मुनिः, किंभूतो-'मतिमान्' सदसद्विवेकज्ञः 'पराक्रमेथाः' संयमानुष्ठाने समुद्यच्छ. संयमानुष्ठानोद्योगं सम्यग्विदध्या इतियावद् , अथवाऽष्टप्रकारं कारिषड्वर्ग वा विषयकषायान् वा पराक्रमस्वेति, इतिरधिकारसमाप्ती, अवीमीति पूर्ववत् । स एवं संयमानुष्ठाने पराक्रममाणस्त्यक्तपरिग्रहाग्रहयोगो मुनिः किंभूतो भवतीत्याह-तस्य हि त्यक्तगृहगृहिणीधनहिरण्यादिपरिग्रहस्य निष्किञ्चनस्य संयमानुष्ठानं कुर्वतः साधोः कदाचिन्मोहनीयोदयादरतिराविः स्यात् , तामुत्पन्नां संयमविषयां 'न सहते' न क्षमते, कोऽसौ ?-विशेषेणेरयति-प्रेयरति अष्टप्रकार कर्मा रिपड़र्ग वेति वीर-शक्तिमान , स एव वीरोऽसंयमे विषयेषु परिग्रहे वा या रतिरुत्पद्यते तां 'न सहते' न मर्पति, या साचारतिः संयमे विषयेषु च रतिस्ताभ्यां विमनीभूतः शब्दादिषु न रज्यति, अतो रत्यरतिपरित्यागान विमनस्को भवति नापि रागमुपयातीति दर्शयति-यस्मात्त्यक्तरत्यरतिरविमना वीरस्तस्मात् कारणाद्वीरो 'न रज्यति' शब्दादिविषयग्रामे न गार्य विदधाति । यत एवं ततः किमित्याह सद्दे फासे अहियासमाणे निविंद नंदि इह जीवियस्स । मुणी मोणं समायाय, धुणे कम्मसरीरगं ॥२॥ पंतं लूहं सेवंति वीरा संमत्तदंसिणो । एस ओहंतरे मुणी तिन्ने मुत्ते विरए वियाहिए तिबेमि (सू० ९९) -30-35 Jain Educatinintamathima www.tanditnam.org ~289~# Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [६], मूलं [९९, गाथा-२], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: (सी०) ||२|| दीप अनुक्रम [१०२+ १०३] श्रीआचा- यस्माद्वीरो रत्यरती निराकृत्य शब्दादिषु विषयेषु मनोज्ञेषु न रागमुपयाति, नापि दुष्टेषु द्वेष, तस्माच्छब्दान् स्पर्शाश्च कविर राङ्गवृत्तिः | मनोज्ञेतरभेदभिन्नान 'अहियासमाणे'त्ति सम्यक् सहमानो निर्विन्द नन्दीत्युत्तरसूत्रेण सम्बन्धः, एतदुक्तं भवति-मनो ||ज्ञान् शब्दान् श्रुत्वा न रागमुपयाति, नापीतरान् द्वेष्टि, आद्यन्तग्रहणाचेतरेपामप्युपादानं द्रष्टव्यं, तत्राप्यतिसहनं||उद्देशका ६ विधेयमिति, उक्तं-"सद्देसु अभद्दयपावएसु, सोयविसयमुवगएसु । तुडेण व रुद्रेण व समणेण सया न होअब्बं ॥१॥ ॥१४३॥ का एवं रूवेसु अभयपावरसु० । तहा गंधेसु अ०॥" इत्यादि वाच्यं, ततश्च शब्दादीविषयानतिसहमानः किं कुर्याद दित्याह-निविंद' इत्यादि, इहोपदेशगोचरापन्नो विनेयोऽभिधीयते, सामान्येन वा मुमुक्षोरयमुपदेशः, निर्विन्दस्व-जु गुप्सस्व ऐश्वर्यविभवात्मिका मनसस्तुष्टिनन्दिस्ताम् 'इह' मनुष्यलोके यजीवितमसंयमजीवितं वा तस्य या नन्दिः-तुष्टिः प्रमोदो यथा ममैतत्समृद्ध्यादिकमभूद्भवति भविष्यति वेत्येवंविकल्पजनितां नन्दी जुगुप्सस्व-यथा किमनया पापोपादादानहेतुभूतयाऽस्थिरयेति ?, उक्तं च-विभव इति किं मदस्ते, च्युतविभवः किं विषादमुपयासि?। करनिहितकन्दुकसमाः, पातोत्पाता मनुष्याणाम् ॥ १ ॥” एवं रूपबलादिष्वपि वाच्यं, सनत्कुमारदृष्टान्तेनेति, अथवा पञ्चानामप्यतीचाराणा||मतीतं निन्दति प्रत्युत्पन्नं संवृणोत्यनागतं प्रत्याचष्टे, स्यादेतत्-किमालम्ब्य करोतीत्याह-'मुणी' त्यादि, मुनिखिका लवेदी यतिरित्यर्थः, मुनेरयं मौनः-संयमो, यदिया मुने वः मुनित्वं तदप्यसावेव मौनं वा वाचः संयमनम् , अस्य |चोपलक्षणार्थत्वात् कायमनसोरपि, अतः सर्वथा संयममादाय, किं कुर्यात् ?-धुनीयात् कर्मशरीरक औदारिकादिश |१४३।। शब्देषु च भाकपापकेषु ओनविषयमुपगतेषु । तुष्टेन ना रुष्टेन वा श्रमणेन सदा न भवितव्यम् ॥ १॥ एवं रूपेषु च भरकपापकेषु । तथा गन्धेषु च. KARAN wwwandltimaryam ~290~# Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [६], मूलं [९९, गाथा-२], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९९] ||२|| दीप अनुक्रम [१०२+ १०३] सरीरं वा, अथवा 'धुनीहि' विवेचय पृथकुरु तदुपरि ममत्वं मा विधत्स्वेति भावार्थः । कथं तच्छरीरकं धूयते, ममत्वं || दवा तदुपरि न कृतं भवतीत्याह-प्रान्त' स्वाभाविकरसरहितं स्वल्पं वा 'रूक्षम् आगन्तुकस्नेहादिरहितं 'द्रव्यतो भावतोऽपि प्रान्तं-द्वेषरहितं विगतधूमं रूक्ष-रागरहितमपगताकारं 'सेवन्ते' भुञ्जते, के ?-'वीराः' साधवः, किंभूताः|'समत्वदर्शिनः' रागद्वेषरहिताः सम्यक्त्वदर्शिनो वा-सम्यक् तत्त्वं सम्यक्त्वं तद्दर्शिनः परमार्थदृशः, तथाहि-इदं शरीरकं कृतघ्नं निरुपकारि, एतत्कृते प्राणिनः ऐहिकामुष्मिकक्केशभाजो भवन्ति, अनेकादेशे चैकादेश इतिहरवा, प्रान्तरुक्षसेवी समत्वदर्शी च कं गुणमवाप्नोतीत्याह-'एस' इत्यादि, एष इति प्रान्तरुक्षाहारसेवनेन कर्मादिशरीरं धुनानो भावतो भवीर्घ तरतीति । कोऽसौ?'मुनिः' यतिः, अथवा क्रियमाणं कृतमितिकृत्वा तीर्ण एव भवाघ, कश्च भवौघं तरति ?-यो 'मुक्तः' सबाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहितः, कश्च परिग्रहान्मुक्तो भवति ?-यो भावतः शब्दादिविषयाभिष्वङ्गाद्विरतः, ततश्च यो मुक्तत्वेन विरतत्वेन वा विख्यातो मुनिः स एव भवौघं तरति, तीर्ण एवेति वा स्थितम् । इतिरधिकार परिसमाप्ती, ब्रवीमीति पूर्ववत् । यश्च मुक्तत्वविरतत्वाभ्यां न विख्यातः स किंभूतो भवतीत्याह दुव्वसुमुणी अणाणाए, तुच्छए गिलाइ बत्तए, एस वीरे पसंसिए, अच्चेइ लोयसंजोगं, एस नाए पवुच्चइ (सू० १००) wataneltmanam ~291-23 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [६], मूलं [१००], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) लोक.वि.२ उद्देशका ६ सूत्रांक [१००] ॥१४४॥ दीप अनुक्रम [१०४] CSCRkk वसु-द्रव्यमेतच्च भव्येऽर्थे व्युत्पादितं 'द्रव्यं च भव्य' इत्यनेन, भव्यश्च-मुक्तिगमनयोग्यः, ततश्च मुक्तिगमनयोग्यं यद्र्व्यं तद्वसु, दुष्टं वसु दुर्वसु दुर्वसु चासौ मुनिश्च दुर्वसुमुनिः-मोक्षगमनायोग्यः, स च कुतो भवति ?-अनाज्ञयातीर्थकरोपदेशशून्यः स्वैरीत्यर्थः, किमत्र तीर्थकरोपदेशे दुष्करं येन स्वैरित्वमभ्युपगम्यते ?, तदुच्यते-उद्देशकादेरारभ्य सर्व यथासम्भवमायोज्यं, तथाहि-मिथ्यात्वमोहिते लोके संबोढुं दुष्करं व्रतेष्वात्मानमध्यारोपयितुं रत्यरती निग्रहीतुं शब्दादिविषयेष्विष्टानिष्टेषु मध्यस्थतां भावयितुं प्रान्तरूक्षाणि भोक्तुम् , एवं यथोद्दिष्टया मौनीन्द्राज्ञया असिधारकल्पया दुष्करं सश्चरितुं, तथाऽनुकूलपतिकूलांश्च नानाप्रकारानुपसर्गान् सोदुम् , असहने च कर्मोदयोऽनाचतीतकालसुखभावना च कारणं, जीवो हि स्वभावतो दुःखभीरुरनिरोधसुखप्रियः, अतो निरोधकल्पायामाज्ञायां दुःखं वसति, अवसंश्च किंभूतो भवतीत्याह-'तुच्छ' इत्यादि, तुच्छो-रिक्तः, स च द्रव्यतो निर्धनो घटादिर्वा जलादिरहितो भावतो ||ज्ञानादिरहितः, ज्ञानादिरहितो हि कचित्संशीतिविषये केनचित्पृष्टोऽपरिज्ञानात् ग्लायति वक्तुं, ज्ञानसमन्वितो वा चारित्ररिक्तः पूजासत्कारभयात् शुद्धमार्गप्ररूपणावसरे ग्लायति यथावस्थितं प्रज्ञापयितुं, तथाहि-प्रवृत्तसन्निधिः सन्निधेर्निर्दोषतामाचष्टे, एवमन्यत्रापीति । यस्तु कपायमहाविषागदकल्पभगवदाज्ञोपजीवकः स सुवसुर्मुनिर्भवत्यरिक्तो न ग्लायति च वक्तुं, यथावस्थितवस्तुपरिज्ञानादनुष्ठानाच्च, आह च-'एस' इत्यादि, 'एष' इति सुवमुमुनिज्ञानाधरितो यथावस्थितमार्गप्ररूपको वीरः कर्मविदारणात् 'प्रशंसितः' तद्विद्भिः श्लाधित इति । किं च-'अच्चेई त्यादि, स एवं भगवदाज्ञानुवर्तको वीरोऽत्येति-अतिकामति, क-'लोकसंयोग' लोकेनासंयतलोकेन संयोगः-सम्बन्धः ॥१४॥ JainEducatinintamathima ~292~# Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१००] दीप अनुक्रम [१०४] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [६], मूलं [१०० ], निर्युक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ममत्वकृतस्तमत्येति, अथवा लोको वाह्योऽभ्यन्तरश्च तत्र बाह्यो धनहिरण्यमातृपित्रादिः आन्तरस्तु रागद्वेषादिस्तत्कार्य वा अष्टप्रकारं कर्म्म तेन सार्द्ध संयोगमत्येति - अतिलयतीत्युक्तं भवति । यदि नामैत्रं ततः किमित्याह -- 'एस' इत्यादि, योऽयं लोकसंयोगातिक्रमः 'एष न्यायः एष सन्मार्गः मुमुक्षूणामयमाचारः 'प्रोच्यते' अभिधीयते, अथवा परम् आत्मानं च मोक्षं नयतीति छान्दसत्वात्कर्त्तरि घञ् नायः, यो हि त्यक्तलोकसंयोग एष एव परात्मनो मोक्षस्य न्यायः प्रोच्यते-मोक्षप्रापकोऽभिधीयते सदुपदेशात् । स्थादेतत्- किंभूतोऽसावुपदेश इत्यत आह जं दुक्खं पवेइयं इह माणवाणं तस्स दुक्खस्स कुसला परिन्नमुदाहरति, इइ कम्मं परिन्नाय सव्वसो जे अणन्नदंसी से अणन्नारामे जे अणण्णारामे से अणन्नदंसी, 'जहा पुण्णस्स करथइ तहा तुच्छस्स कत्थइ जहा तुच्छस्स कत्थइ तहा पुण्णस्स करथइ, ( सू० १०१ ) यद्दुःखं दुःखकारणं वा कर्म्म लोकसंयोगात्मकं वा 'प्रवेदितं' तीर्थकृद्भिरावेदितं 'इह' अस्मिन् संसारे 'मानवान।' जन्तूनां ततः किं ? -तस्य 'दुःखस्य' असातलक्षणस्य कर्मणो वा 'कुशला' निपुणा धर्म्मकथालब्धिसम्पन्नाः स्वसमयपर| समयविद उद्युक्तविहारिणो यथावादिनस्तथाकारिणो जितनिद्रा जितेन्द्रिया देशकालादिक्रमज्ञास्ते एवंभूताः परिज्ञाम्उपादानकारणपरिज्ञानं निरोधकारणपरिच्छेदं चोदाहरन्ति ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यान परिज्ञया च परिहरन्ति परिहारयन्ति Eat Infamational For Parts Only ~293~# Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१०१] दीप अनुक्रम [१०५ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [६], मूलं [१०१], निर्युक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः लोक.वि. २ ॥ १४५ ॥ श्रीआचाच । किं च-' इति कम्' इत्यादि, इतिः पूर्वप्रक्रान्तपरामर्शको यत्तद्दुःखं प्रवेदितं मनुजानां यस्य च दुःखस्य परिज्ञां राङ्गवृत्तिः कुशला उदाहरन्ति तद्दुःखं कर्म्मकृतं तत्कर्म्माष्टप्रकारं परिज्ञाय तदाश्रयद्वाराणि च तद्यथा-ज्ञानप्रत्यनीकतया ज्ञाना(शी०) वरणीयमित्यादि, प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याख्याय तदाश्रवद्वारेषु 'सर्वशः' सर्वैः प्रकारैर्योगत्रिककरणत्रिकरूपैर्न वर्त्तेत, ५ उद्देशकः ६ अथवा सर्वशः परिज्ञाय कथयति, सर्वशः परिज्ञानं च केवलिनो गणधरस्य चतुर्द्दशपूर्वविदो वा, यदिवा सर्वशः कथ५ यति आक्षेपण्याद्या चतुर्विधया धर्मकथयेति । सा च कीदृकथेत्याह- 'जे' इत्यादि, अन्यद्रष्टुं शीलमस्येत्यन्यदर्शी यस्तथा नासावनन्यदर्शी - यथावस्थितपदार्थद्रष्टा, कश्चैवंभूतो ? - यः सम्यग्दृष्टिमनीन्द्रमवचनाविभूततत्त्वार्थो, यश्चानन्यदृष्टिः सोऽनन्यारामो-मोक्षमार्गादन्यत्र न रमते । हेतुहेतुमद्भावेन सूत्रं लगयितुमाह- 'जे' इत्यादि, यश्च भगवदुपदेशादन्यत्र न रमते सोऽनन्यदर्शी, यश्चैवम्भूतः सोऽन्यत्र न रमत इति उक्तं च " शिवमस्तु कुशास्त्राणां वैशेषिकषष्टितन्त्रधीद्धानाम् । येषां दुर्विहितत्वाद्भगवत्यनुरज्यते चेतः ॥ १ ॥” इत्यादि । तदेवं सम्यक्त्वस्वरूपमाख्यातं कथयंञ्चारक्तद्विष्टः कथयतीति दर्शयति- 'जहा पुण्णस्स' इत्यादि, तीर्थकरगणधराचार्यादिना येन प्रकारेण 'पुण्यवतः' सुरेश्वरचक्रवर्त्तिमाण्डलिकादेः 'कथ्यते' उपदेशो दीयते 'तथा' तेनैव प्रकारेण 'तुच्छस्य' द्रमकस्य काष्ठहारकादेः कथ्यते, अथवा पूर्णा १] कथाचतुष्टय लक्षणं विदंस्थाप्यते हेटान्तैः समतं यत्र पण्डितैः । स्याद्वादध्वनिसंयुक्तं सा कथाऽऽक्षेपणी मता ॥ १ ॥ मिथ्यादृशां मतं यत्र पूर्वापरबिरोधकृत् । तनिराक्रियते सद्भिः सा च विक्षेपणी मता ॥२॥ यस्याः श्रवणमात्रेण भवेन्मोक्षाभिलाषिता । भव्यानां सा च विद्वद्भिः प्रोता संवेदनी कथा ॥३॥ यत्र संसारभोगान स्थितिलक्षणवर्णनम्। वैराग्यकारणे भव्यैः, सोफा निर्वेदनीकथा ॥ ४ ॥ Jain Estication Intel For Pantry Use Onl ~294 ~# ॥ १४५ ॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [६], मूलं [१०१], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०१] दीप अनुक्रम [१०५]] जातिकलरूपाद्युपेतस्तद्विपरीतस्तुच्छो, विज्ञानवान वा पूर्णस्ततोऽन्यस्तुच्छ इति, उक्तं च--"ज्ञानैश्वर्यधनोपेतो, जात्यन्वयबलान्वितः । तेजस्वी मतिमान् ख्यातः, पूर्णस्तुच्छो विपर्ययात् ॥१॥" एतदुक्तं भवति-यथा द्रमकादेस्तदनुग्रहबड्या प्रत्युपकारनिरपेक्षः कथयत्येवं चक्रवत्योंदेरपि, यथा वा चक्रवयादेः कथयत्यादरेण संसारोत्तरणहेतुमेवमितरस्यापि, अत्र च निरीहता विवक्षिता, न पुनरयं नियमा-एकरूपतयैव कथनीय, तथा हि-यो यथा बुध्यते तस्य तथा कथ्यते, बद्धिमतो निपूर्ण स्थूलबुद्धेस्त्वन्यथेति, राज्ञव कथयता तदभिप्रायमनुवर्तमानेन कथनीयं, किमसावभिगृहीतमिथ्याहप्टिरनभिगृहीतो वा संशीत्यापन्नो वा?, अभिगृहीतोऽपि कुतीथिकैब्युग्राहितः स्वत एव वा, तस्य चैवम्भूतस्य ययेवं कथ-IN येद्यधा-"दशसूनासमश्चक्री, दशचक्रिसमो ध्वजः। दशध्वजसमा वेश्या, दशवेश्यासमो नृपः ॥१॥" तद्भक्तिविषयरुद्रादिदेवताभवनचरितकथने च मोहोदयात्तथाविधकम्मोदये कदाचिदसी प्रद्वेषमुपगच्छेदू, द्विष्टबैतद्विदध्यादित्याह च अवि य हणे अणाइयमाणे, इत्थंपि जाण सेयंति नत्थि, केयं पुरिसे कं च नए ?. एस वीरे पसंसिए, जे बद्धे पडिमोयए, उहुं अहं तिरियं दिसासु, से सव्वओ सव्वपरिन्नाचारी, न लिप्पई छणपएण, वीरे, से मेहावी अणुग्घायणखेयन्ने, जे य बन्धप मुक्खमन्नेसी कुसले पुण नो बद्धे नो मुक्के (सू० १०२) १ तादावन..प्र. wwealtimamarg ~295~# Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१०२ ] दीप अनुक्रम [१०६ ] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ १४६ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [६], मूलं [१०२], निर्युक्तिः [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः अपिः सम्भावने, आस्तां तावद्वाचा तर्जनम्, अनाद्रियमाणो हन्यादपि चशब्दादन्यदप्येवं जातीयक्रोधाभिभूतो दण्डकशादिना ताडयेदिति, उक्तं च- "तत्थेव य निडवणं बंधण निच्छुभण कडगमद्दो वा । निब्विमयं व नरिंदो करेज संघपि सो कुद्धो ॥ १ ॥” तथा तच्चनिकोपासको नन्दबलात् बुद्धोत्पत्तिकथानकाद्भागवतो वा भल्लिगृहोपाख्यानाद्रौद्रो वा पेढालपुत्रस त्यक्युमाच्यतिकरा कर्णनात् प्रद्वेषमुपगच्छेत्, द्रमककाण कुण्डादिर्वा कश्चित्तमेवोद्दिश्योद्दिश्य ऽधर्मफलोप8 दर्शनेनेति । एवमविधिकथनेनेहैव तावद्वाधा, आमुष्मिकोऽपि न कश्चिद्गुणोऽस्तीत्याह च- 'एत्थं पि' इत्यादि, मुमुक्षोः ४ परहितार्थ धर्मकथां कथयतस्तावत्पुण्यमस्ति परिषदं त्वविदित्वाऽनन्तरोपवर्णितस्वरूपकथने 'अत्रापि धर्म्मकथायामपि 'श्रेयः' पुण्यमित्येतन्नास्तीत्येवं जानीहि यदिवाऽसौ राजादिरनाद्रियमाणस्तं साधुं धर्म्मकथिकमपि हन्यात् । कथमित्याह- 'एत्थंपी' त्यादि, यद्यदसौ पशुवधतर्पणादिकं धर्म्मकारणमुपन्यस्यति तत्सदसौ धर्म्मकथिकोऽत्रापि श्रेयो न विद्यते इत्येवं प्रतिहन्ति, यदिवा यद्यदविधिकथनं तत्र तत्रेदमुपतिष्ठते-अत्रापि श्रेयो नास्तीति, तथाहि अक्षरकोविदपरिषदि पक्षहेतुदृष्टान्ताननादृत्य प्राकृतभाषया कथनमविधिरितरस्यां चान्यथेति । एवं च प्रवचनस्य हीलनैव केवलं कर्मबन्धश्च न पुनः श्रेयो, विधिमजानानस्य मौनमेव श्रेय इति उक्तं च- "सावज्जणवज्जाणं वयणाणं जो न याण वि सेसं । बुन्नुंपि तस्स न खमं किमंग पुण देसणं काउं? ॥ १ ॥” स्थादेतत् कथं तर्हि धर्म्मकथा कार्येत्युच्यते—'कोऽयं' १ तत्रैव निष्ठापनं बन्धनं निष्कानं कटकमदे वा । निर्विषयं वा नरेन्द्रः कुर्यात्समपि स क्रुद्धः ॥ १ ॥ २ सावधान वययोर्वचनयोयों न जानाति विशेषम् । वक्तुमपि तस्य न क्षमं किमङ्ग पुनर्देशनां कर्तुम् ॥ १ ॥ Estication intimational For Fanart Use Only ~296 ~# लोक.वि. २ उद्देशकः ६ ॥ १४६ ॥ www.sendiary.org Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१०२] दीप अनुक्रम [१०६ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [६], मूलं [१०२], निर्युक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः इत्यादि, यो हि वश्येन्द्रियो विषयविषपराङ्मुखः संसारोद्विग्नमना वैराग्याकृष्यमाणहृदयो धर्म पृच्छति, तेनाचार्यादिना धर्म्मक थिकेनासौ पर्यालोचनीयः कोऽयं पुरुषो ?, मिथ्यादृष्टिरुत भद्रकः, केन वाऽऽशयेनायं पृच्छति, कं च देवताविशेषं नतः, किमनेन दर्शनमाश्रितमित्येवमालोच्य यथायोग्यमुत्तरकालं कथनीयं एतदुक्तं भवति-धर्मकथाविधिज्ञो ह्यात्मना परिपूर्णः श्रोतारमालोचयति द्रव्यतः - क्षेत्रतः किमिदं क्षेत्रं तचनिकैर्भागय तैरन्यैर्वा तज्जातीयः पार्श्वस्यादिभिर्वोत् सर्गरु चिभिर्वा भावितं, कालतो दुष्पमादिकं कालं दुर्लभद्रव्यकालं वा, भावतोऽरक्तद्विष्टमध्यस्थभावापन्नमेवं पयालोच्य यथा| यथाऽसौ बुध्यते तथा तथा धर्म्मकथा कार्या, एवमसौ धर्म्मकथायोग्यः, अपरस्य त्वधिकार एव नास्तीति उक्तं च - "जो हे वायपक्खमि हेउओ आगमम्मि आगमिओ । सो ससमयपण्णवओ सिद्धंतविराहओ अण्णो ॥ १ ॥" य एवं धर्म्मकथाविधिज्ञः स एव प्रशस्त इत्याह च - 'एस' इत्यादि, यो हि पुण्या उण्यवतो धर्मकथा समदृष्टिविधिज्ञः श्रोतृविवेचकः 'एषः' अनन्तरोको 'वीरः कर्म्मविदारकः 'प्रशंसितः' श्लाघितः । किंभूतश्च यो भवतीत्याह-- 'जे बद्धे' इत्यादि, यो ह्यष्टप्रकारेण कर्मणा स्नेहनिगडादिना वा बद्धानां जन्तूनां प्रतिमोचकः धर्म्मकथोपदेश दानादिना स च तीर्थ कृङ्गणधर आचार्यादिर्वा यथोक्तधर्म्मकथाविधिज्ञ इति । व पुनर्व्यवस्थितान् जन्तून् मोचयतीत्याह- 'उ' इत्यादि, ऊर्द्ध ज्योतिष्कादीन् अधो भवनपत्यादीन् तिर्यक्षु मनुष्यादीनिति । किं च' से सम्बओ' इत्यादि, 'स' इति दीरो बद्ध तिमोचकः 'सर्वतः' सर्वकालं सर्वपरिज्ञया द्विविधयाऽपि चरितुं शीलमस्येति सर्वपरिज्ञाचारी - विशिष्टज्ञानान्वितः सर्वसंवरचारित्रो१ यो हेतुवादपक्षे हेतुक आगमे आगमिकः । स स्वसमय प्रापकः सिद्धान्त विराय कोऽन्यः ॥ १ ॥ Jan Estication Untamal For Pantry at Use Only ~297~# www.india.org Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१०२ ] दीप अनुक्रम [१०६ ] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [६], मूलं [१०२], निर्युक्तिः [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः उद्देशका ६ ॥ १४७ ॥ पेतो वा स एवंभूतः कं गुणमत्रानोतीत्याह - 'न लिप्पईत्यादि, 'न लिप्यते' नावगुण्ठ्यते, केन ? - 'क्षणपदेन' हिंसास्पदेन ४ लोक.वि. २ प्राण्युपमर्दजनितेन, 'क्षणु हिंसायामित्यस्यैतद्रूपं । कोऽसौ ?, वीर इति । किमेतावदेव बीरलक्षणमुतान्यदप्य (स्त्य) स्तीत्याह - 'से मेहावी'त्यादि, स 'मेधावी' बुद्धिमान् यः 'अणोघातनस्य खेदज्ञः' अणत्यनेन जन्तुगणश्चतुर्गतिकं संसारमित्यणं४ कर्म तस्योत् प्राबल्येन घातनम् अपनयनं तस्य तत्र वा खेदज्ञो निपुणः, इह हि कर्मक्षपणोद्यतानां मुमुक्षूणां यः कर्म्मक्षपणविधिज्ञः स मेधावी कुशलो वीर इत्युक्तं भवति, किं चान्यत् - 'जे य' इत्यादि, यश्च प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशरूपस्य चतुर्विधस्यापि बन्धस्य यः प्रमोक्षः तदुपायो वा तमन्वेष्टुं मृगयितुं शीलमस्येत्यन्वेषी, यश्चैवम्भूतः स वीरो मेधावी खेदज्ञ इति पूर्वेण सम्बन्धः, अणोद्घातनस्य खेदज्ञ इत्यनेन मूलोत्तरप्रकृतिभेदभिन्नस्य योगनिमित्तायातस्य | कपायस्थितिकस्य कर्मणो बध्यमानावस्थां बद्धस्पृष्टनिधत्तनिका चितरूपां तदपनयनोपायं च वेत्तीत्येतदभिहितं, अनेन चापनयनानुष्ठानमिति न पुनरुक्तदोषानुषङ्गः प्रसजति । स्यादेतत्-योऽयमणोद्घातनस्य खेदज्ञो बन्धमोक्षान्वेषको वाऽभिहितः स किं छद्मस्थ आहोस्वित् केवली ?, केवलिनो यथोक्तविशेषणासम्भवात् छद्मस्थग्रहणं, केवलिनस्तर्हि का वार्त्तेति ?, उच्यते- 'कुसले' इत्यादि, कुशलोऽत्र क्षीणघातिकर्म्माशो विवक्षितः, स च तीर्थकृत् सामान्य केवली वा छद्मस्थो हि कर्म्मणा बद्धो मोक्षार्थी तदुपायान्बेषकः, केवली तु पुनर्घातिकर्म्मक्षयानो बद्धो भवोपग्राहिकर्म्मसद्भावाशो मुक्तो, यदिवा छद्मस्थ एवाभिधीयते - 'कुशल: ' अवाप्तज्ञानदर्शनचारित्रो मिथ्यात्वद्वादशकषायोपशमसद्भावात् तदुद Jan Estication Untamal For Para Prata Use Only ~298~# ॥ १४७ ॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [६], मूलं [१०२], नियुक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०२] दीप अनुक्रम [१०६] यवानिव न बद्धोऽद्यापि तत्सत्कर्मतासद्भावान्नो मुक्त इति । एवम्भूतश्च कुशलः केवली छद्मस्थो वा यदाचीर्णवानाचरति वा तदपरेणापि मुमुक्षुणा विधेयमिति दर्शयति से जं च आरभे जं च नारभे, अणारद्धं च न आरभे, छणं छणं परिणाय लोगसन्नं च सव्वसो (सू० १०३) । 'स' कुशलो यदारभते आरब्धवान् वा अशेषकर्मक्षपणोपायं संयमानुष्ठानं यच्च नारभते मिथ्यात्वाविरत्यादिक संसारकारणं, तदारब्धव्यमारम्भणीयमनारब्धमनारम्भणीयं चेति, संसारकारणस्य च मिथ्यात्वाविरत्यादेः प्राणातिपाताद्यष्टादशरूपस्य चैकान्तेन निराकार्यत्वात् , तनिषेधे च विधेयस्य संयमानुष्ठानस्य सामर्थ्यायातत्वात्तन्निषेधमाह'अणारद्धं च' इत्यादि, अनारब्धम्-अनाचीर्ण केवलिभिर्विशिष्टमुनिभिर्वा तन्मुमुधुनारभते-न कुर्यादित्युपदेशो, यच्च मोक्षाङ्गमाचीर्ण तत्कुर्यादित्युकं भवति । यत्तद्भगवदनाचीर्ण परिहार्य तन्नामग्राहमाह-'छण छणं' इत्यादि, 'क्षणु हिंसायां' क्षणनं क्षणो-हिंसनं कारणे कार्योपचारात् येन येन प्रकारेण हिंसोत्पद्यते तत्तज्ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेद्, यदिवा क्षण:-अवसरः कर्त्तव्यकालस्तं तं ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वाऽऽसेवनापरिज्ञया च आचरेदिति । किं च-'लोयसझं' इत्यादि, 'लोकस्य' गृहस्थलोकस्य संज्ञानं संज्ञा-विषयाभिष्वङ्गजनितसुखेच्छा परिग्रहसंज्ञा वा तां नाच ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिजया च परिहरेत् , कथं!-'सर्वशः सर्वैः प्रकारोगविककरणत्रिकेणेत्यर्थः, तस्यैवं-18 C+कटककर ~299~# Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१०४] दीप अनुक्रम [१०८ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [६], मूलं [१०४], निर्युक्ति: [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा- * विधस्य यथोक्तगुणावस्थितस्य धर्म्मकथा विधिज्ञस्य बद्धप्रतिमोचकस्य कम्र्मोद्घातनखेदज्ञस्य बन्धमोक्षान्वेषिणः सत्यराङ्गवृत्तिः थव्यवस्थितस्य कुमार्गनिराचिकीर्षोहिंसाद्यष्टादशपापस्थानविरतस्यावगत लोकसंज्ञस्य यद्भवति तद्दर्शयतिउद्देसो पासगस्स नत्थि, बाले पुणे निहे कामसमणुन्ने असमियदुःखे दुःखी दुक्खा (शी०) ॥ १४८ ॥ मेव आवहं अणुपरियहइ ( सू० १०४) त्ति बेमि ॥ लोकविजयाध्ययनम् २ ॥ उद्दिश्यते नारकादिव्यपदेशेनेत्युद्देशः स 'पश्यकस्य' परमार्थदृशो न विद्यते इत्यादीनि च सूत्राण्युदेशकपरिसमाि यावत्तृतीयोदेश के व्याख्यातानि तत एवार्थोऽवगन्तव्यः, आक्षेपपरिहारौ चेति । तानि चामूनि बालः पुनर्निहः काम| समनुज्ञः अशमितदुःखः दुःखी दुःखानामेवावर्त्तमनुपरिवर्त्तते । इतिः परिसमाप्तौ त्रयीमीति पूर्ववत् ॥ ( प्रन्थाग्रम् | २५०० ) ॥ उक्तः षष्ठोदेशकः ॥ तत्परिसमाप्ती चोक्तः सूत्रानुगमः सूत्रालापकनिष्पन्न निक्षेपश्च ससूत्रस्पर्शनियुक्तिकः । साम्प्रतं नैगमादयो नयाः, ते चान्यत्र न्यक्षेण प्रतिपादिता इति नेह प्रसम्यन्ते, संक्षेपतस्तु ज्ञानक्रियानयद्वयान्तर्गतत्वात्तेषां तावेव प्रतिपाद्येते, तयोरप्यात्मीयपक्षसावधारणतया मोक्षाङ्गत्वाभावात् प्रत्येकं मिथ्यादृष्टित्वम्, अतः पवन्धवत् परस्परसापेक्षतयेष्टकार्यावाप्तिरवगन्तव्येति उपगम्यते ॥ इति लोकविजयाध्ययनस्य टीका समाप्ता ॥ २ ॥ श्रीआचाराने इतिश्रीशीलाङ्काचार्यवृत्तियुतं लोकविजयाध्ययनं द्वितीयम् Jain Estication Intl For Pantry Use Onl ~300 ~# लोक.वि. २ उद्देशकः ६ ॥ १४८ ॥ www.indiary.org Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१०४] दीप अनुक्रम [१०८ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [-] मूलं [ १०४...], निर्युक्ति: [१९८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र- [ ०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः अथ तृतीयमध्ययनं शीतोष्णीयं । SECRET उक्तं द्वितीयमध्ययनं साम्प्रतं तृतीयमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, तत्र शस्त्रपरिज्ञायामस्यार्थाधिकारोऽभाणि, यथा शीतोष्णयोरनुकूलप्रतिकूलपरिषहयोरतिसहनं कर्त्तव्यं तदधुना प्रतिपाद्यते, अध्ययनसम्बन्धस्तु शस्त्रपरिज्ञोतमहाव्रत सम्पन्नस्य लोकविजयाध्ययनप्रसिद्ध संयमव्यवस्थितस्य विजितकषायादिलोकस्य मुमुक्षोः कदाचिदनुलोमप्रतिलोमाः परीषदाः प्रादुष्यन्ति तेऽविकृतान्तःकरणेन सम्यक् सोढव्या इत्यनेन सम्बन्धेनायातमिदमध्ययनम् अस्य चोपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमेऽर्थाधिकारो द्वेषा, तत्राप्यध्ययनार्थाधिकारोऽभिहितः, उद्दे|शार्थाधिकारप्रतिपादनार्थे तु निर्युक्तिकार आह पढमे सुत्ता अस्संजयन्ति १ बिए दुहं अणुहवंति २। तइए न हु दुक्खेणं अकरणयाए व समत्ति ३ ॥ १९८ ॥ उद्देसंमि चउत्थे अहिगारो उ वमणं कसायाणं । पावविरईओ चिउणो उ संजमो इत्थ मुक्खुत्ति ४ ॥ १९९ ॥ प्रथमोद्देशकेऽयमर्थाधिकारो, यथा-भावनिद्रया सुप्ताः सम्यगविवेकरहिताः, के? - असंयताः - गृहस्थास्तेषां च भात्रसुतानां दोषा अभिधीयन्ते, जाग्रतां च गुणाः, तद्यथा- 'जरामच्चुवसोवणीए नरे' इत्यादि १, द्वितीये तु त एवासंयता यथा भावनिद्रापन्ना दुःखमनुभवन्ति तथोच्यते, तद्यथा- 'कामेसु गिद्धा निचयं करंति' २, तृतीये तु 'न हु' नैव दुःख सहनादेव केवलाच्छ्रमणः अकरणतयैव - अक्रिययैव संयमानुष्ठानमन्तरेणेत्यर्थः, वक्ष्यति च - 'सहिए दुक्खमायाय Estication Intimal तृतीय- अध्ययनं “शीतोष्णिय” आरब्धः, For Pantry Use Only ~301 ~# Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [१०४...], नियुक्ति: [१९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक उद्देशका १ [१०४] दीप अनुक्रम [१०८] श्रीआचा- तेणेव य पुढो नो झंझाए' ३, चतुर्थोद्देशके त्वयमधिकारो, यथा-कषायाणां वमनं कार्य, पापस्य च कर्मणो विरतिः, राङ्गवृत्तिः विदुषो विदितवेद्यस्य संयमोऽत्रैव प्रतिपाद्यते, क्षपकश्रेणिप्रक्रमात् केवलं भवोपग्राहिक्षयान्मोक्षश्चेति गाथाद्वयार्थः। शीतो०३ (शी०) |नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे शीतोष्णीयमध्ययनमतः शीतोष्णयोनिक्षेपं निर्दिदिक्षुराह॥१४९॥ नाम ठवणा सीयं दब्वे भावे य होइ नायब्वं । एमेव य उपहस्सवि चउविहो होइ निक्खेवो ॥२०॥ सुगमा । तत्र नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यशीतोष्णे दर्शयितुमाहदब्वे सीयलदचं दण्ह चेव उण्हदव्वं तु । भावे उ पुग्गलगुणो जीवस्स गुणो अणेगविहो ॥२०१॥ 15 ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यशीतं शीतगुणोपेतं गुणगुणिनोरभेदात् शीतकारणं वा यद्रव्यं द्रव्यप्राधान्याच्छीतलद्रव्यमेव द्रव्यशीत-हिमतुषारकरकादि, एवं द्रब्योष्णमपीति । भावतस्तु द्वेधा-पुद्गलाश्रितं जीवाश्रित च, गाथाशकलेनाचष्टे-तत्र पुद्गलाश्रितं भावशीतं पुद्गलस्य शीतो गुणो गुणस्य प्राधान्यविवक्षयेति, एवं भावोष्णमपि, जीवस्य तु | शीतोष्णरूपोऽनेकविधो गुणः, तद्यथा-औदयिकादयः षडू भाषा:, तत्रौदयिका कर्मोदयाविर्भूतनारकादिभवकषायोसत्तिलक्षणः उष्णः, औपशमिकः कर्मोपशमावाप्तसम्यक्त्वविरतिरूपः शीतः, क्षायिकोऽपि शीत एव, क्षायिकसम्यक्त्व चारित्रादिरूपत्वादू, अथवाऽशेषकर्मदाहान्यथानुपपत्तेरुष्णः, शेषा अपि विवक्षातो द्विरूपा अपीति ॥ अस्य च जीवभाव-15/ * गुणस्य शीतोष्णविवेकं स्वत एव नियुक्तिकारः प्रचिकटयिषुराह ॥१४९॥ जासीयं परीसहपमायुवसमविरई सुहं चउण्हं तु । परीसहतवुजमकसाय सोगाहियेयारई दुक्खं ।। २०२॥ दारं । ~302~# Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१०४] दीप अनुक्रम [१०८ ] “आचार” - अंगसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [१], मूलं [१०४...], निर्युक्तिः [२०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः 'शीत' मिति भावशीतं, तछेह जीवपरिणामस्वरूपं गृह्यते स चायं परिणामो मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिपोढव्याः परीषहाः 'प्रमादः' कार्यशैथिल्यं शीतलविहारता 'उपशमो' मोहनीयोपशमः, स च सम्यक्त्वदेशविरतिसर्वविरतिलक्षणः, उपशमश्रेण्याश्रितो वा, तत्क्षयो वेति, 'विरति 'रिति प्राणातिपातादिविरत्युपलक्षितः सप्तदशविधः संयमः 'सुखं च' सातावेदनीयविपाकाविर्भूतमिति । एतत् सर्व परीषहादि शीतमुष्णं च गाथाशकलेनाह- परीपहा:- पूर्वव्य । वर्णितस्वरूपाः तपस्युद्यमो यथाशक्ति द्वादशप्रकारतपोऽनुष्ठानं 'कषायाः' क्रोधादयः 'शोक' इष्टामाप्तिविनाशोद्भवः आधिः 'वेदः' स्त्रीपुंनपुंसक वेदोदयः 'अरतिः' मोहनीयविपाकाञ्चित्तदौःस्थ्यं 'दुःखं च' असातावेदनीयोदयादीनि, एतानि परीपहादीनि पीडाकारित्वादुष्णमिति गाथासमासार्थः । व्यासार्थं तु निर्युक्तिकारः स्वत एवाचष्टे-तत्र परीपहाः शीतोष्णयोर्द्वयोरप्यभिहिताः, ततो मन्दबुद्धेरनध्यवसायः संशयो विपर्ययो वा स्याद् अतस्तदपनोदार्थमाह इत्थी सक्कारपरीसहो य दो भावसीयला एए। सेसा वीसं उण्हा परीसहा हुंति नायव्वा ॥ २०३ ॥ स्त्रीपरीषहः सत्कारपरीषहश्च द्वावप्येतौ शीतौ भावमनोऽनुकूलत्वात् शेषास्तु पुनविंशतिरुष्णा ज्ञातव्या भवन्ति, | मनसः प्रतिकूलत्वादिति गाथार्थः ॥ यदिवा परीषहाणां शीतोष्णत्वमन्यथा आचष्टे जे तिब्वप्परिणामा परीसहा ते भवंति उण्हा उ । जे मंदप्परिणामा परीसहा ते भवे सीया ॥ २०४ ॥ दारं । तीव्रो - दुःसहः परिणामः - परिणतिर्येषां ते तथा य एवम्भूताः परीषहास्ते उष्णाः, ये तु मन्दपरिणामास्ते सीता इति, इदमुक्तं भवति-ये शरीरदुःखोत्यादकत्वेनोदीर्णाः सम्यक्सहनाभावाच्चाधिविधायिनस्ते तीव्रपरिणामत्वादुष्णाः, ये पुन Jan Estication matinal For Pantry at Use Only ~303~# Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१०४ ] दीप अनुक्रम [१०८ ] “आचार” - अंगसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [१], मूलं [१०४...], निर्युक्तिः [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र- [ ०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा- रुदीर्णाः शारीरमेव केवलं दुःखमुसादयन्ति महासत्त्वस्य न मानसं ते भावतो मन्दपरिणामाः, यदिवा ये तीव्रपरिराङ्गवृत्तिः णामाः- प्रकाविर्भूतस्वरूपास्ते उष्णाः, ये तु मन्दपरिणामाः - ईषलक्ष्यमाणस्वरूपास्ते शीता इति । यत्सरीपहानन्तरं प्रमा(शी०) * दपदमुपन्यस्तं शीतत्वेन यच्च तपस्युद्यम इत्युष्णत्वेन तदुभयं गाथयाऽऽचष्टे 1 धर्ममि जो पमायइ अत्थे वा सीअलुत्ति तं विंति । उब्बुत्तं पुण अन्नं तत्तो उपहति णं विति ॥ २०५ ॥ द्वारं । ॥ १५० ॥ 'ध' श्रमणधर्मे यः 'प्रमाद्यति' नोद्यमं विधत्ते 'अर्थे वा' अथ्यत इत्यर्थो धनधान्यहिरण्यादिस्तत्र तदुपाये वा शीतल इत्येवं तं 'ब्रुवते' आचक्षते, उद्युक्तं पुनरन्यं ततः-संयमोद्यमात् कारणादुष्णमित्येवं ब्रुवते, णमिति वाक्यालङ्कार इति गाथार्थः ॥ उपशमपदव्याचिख्यासयाऽऽह Estication ma सीईभूओ परिनिब्बुओ य संतो तहेब पण्हाणो (ल्हाओ)। होउवसंतकसाओ तेणुवसंतो भवे जीवो ॥ २०६॥ दारं । उपशमो हि क्रोधाद्युदयाभावे भवति, ततश्च कषायाइयुपशमात् शीतीभूतो भवति, क्रोधादिज्वालानिर्वाणात् परिनिवृतो भवति, चः समुच्चये, रागद्वेषपावकोपशमादुपशान्तः, तथा क्रोधादिपरितापोपशमात् 'प्रहादितः' आपन्नसुखो, यतो ह्युपशान्तकषाय एव एवम्भूतो भवति तेनोपशान्तकषायः शीतो भवतीति, एकार्थिकानि वैतानोति गाथार्थः ॥ अधुना विरतिपदव्याख्यामाह - अभयकरो जीवाणं सीयघरो संजमो भवह सीओ। अस्संजमो य उण्हो एसो अन्नोऽवि पज्जाओ ॥२०७॥ दारं । अभयकरण शीलः, केषां ? – जीवानां शीतं मुखं तद्गृहं तदावासः, कोऽसौ !-संयमः सप्तदशभेदः, अतोऽसौ शीतो For Pantry O ~304~# शीतो० ३ उद्देशकः १ ॥ १५० ॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [१०४...], नियुक्ति: [२०७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०४] दीप अनुक्रम [१०८] भवति, समस्तदुःखहेतुद्वन्द्वोपरमाद्, एतद्विपर्ययस्त्वसंयम उष्णः, 'एष' शीतोष्णलक्षणः संयमासंयमयोः पर्यायोऽन्यो। वा सुखदुःखरूपो विवक्षावशाद्भवतीति गाथार्थः॥ साम्प्रतं सुखपदविवरणायाहall निब्वाणसुहं सायं सीईभूयं पयं अणाबाहं । इहमवि जं किंचि सुहं तं सीयं दुक्खमवि उण्हं ॥ २०८॥ सुखं शीतमित्युक्तं, तच्च समस्तद्वन्द्वोपरमादात्यन्तिकैकान्तिकानाबाधलक्षणं निरुपाधिकं परमार्थचिन्तायां मुक्तिसुखमेव सुख नापरम् , एतच्च समस्तकर्मोपतापाभावाच्छीतमिति दर्शयति-निर्वाणसुख'मिति, निर्वाणम्-अशेषकर्मक्षयस्तदवाप्तौ वा विशिष्टाकाशप्रदेशः तेन तत्र वा सुखं निर्वाणसुखम् , अस्य चैकार्थिकानि-सातं शीतीभूतं पदमनाबा-18 धमिति । इहापि संसारे यत्किञ्चित् सातावेदनीयविपाकोद्भूतं सात-सुखं तदपि शीतं मनआल्हादाद्, एतद्विपयर्यस्तु दुःखं, तच्चोष्णमिति गाथार्थः ।। कषायादिपदव्याचिख्यासयाह| उज्झइ तिब्वकसाओ सोगभिभूओ उइन्नवेओ य । उण्यरो होइ तवो कसायमाईवि जं डहइ ॥२०९॥ | दह्यते' परिपच्यते, कोऽसौ ?-तीना' खत्कटा उदीर्णा विपाकानुभवेन कषाया यस्य स तथा, न केवलं कषायाग्निना 8 दह्यते, 'शोकाऽभिभूतश्च' इष्टवियोगादिजनितः शोकस्तेनाभिभूतः तिरोहितशुभव्यापारोऽसावपि दाते, तथा उदीर्णोविपाकापनो वेदो यस्य स तथा, उदीर्णवेदो हि पुमान् स्त्रियं कामयते, साऽपीतरं, नपुंसकस्तूभयमिति, तनात्यभावे काडनेद्भतारतिदाहेन दह्यते, चशब्दादिच्छाकामाप्राप्तिजनितारतिपावकेन दह्यते, तदेवं कषायाः शोको वेदोदयश्च दाहकत्वादुष्णः, सर्व वा मोहनीयमष्टप्रकारं वा कम्मोष्णं, ततोऽपि तद्दाहकत्वादुष्णतरं तप इति गाथाशकलेन *346451- 5टकर wwwandltimaryam ~305~# Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१०४] दीप अनुक्रम [१०८ ] श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ १५१ ॥ ে “आचार” - अंगसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [१], मूलं [१०४...], निर्युक्तिः [२०९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र- [ ०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः दर्शयति-उष्णतरं तपो भवति, किमिति । यतः कषायादिकमपि दहति आदिशब्दाच्छोकादिपरिग्रह इति गाथार्थः । येनाभिप्रायेण द्रव्यभावभेदभिन्ने परीषहप्रमादोद्यमादिरूपे शीतोष्णे जगादाचार्यस्तमभिप्रायमाविष्करोति सीउण्हफाससुहदुहपरी सहकसायवेयसोयसहो । हुन समणो सया उज्जुओ य तवसंजमोवसमे ॥ २१० ॥ शीतं चोष्णं च शीतोष्णे तयोः स्पर्शः तं सहत इति सम्बन्धः, शीतस्पर्शोष्णस्पर्शजनितवेदनामनुभवन्नार्त्तध्यानोपगतो भवतीतियावत्, शरीरमनसोरनुकूलं सुखमिति, तद्विपरीतं दुःखं, तथा परीषहकसायवेदशोकान् शीतोष्णभूतान् सहत इति । तदेवं शीतोष्णादिसहः सन् भवेत् 'श्रमणः' यतिः सदोद्युक्तश्च क ?- तपःसंयमोपशमे इति गाथार्थः ॥ साम्प्रतमुपसंहारव्याजेन साधुना शीतोष्णातिसहनं कर्त्तव्यमिति दर्शयति- सीयाणि य उण्हाणि य भिक्खूणं हंति विसहियव्वाईं। कामा न सेवियब्वा सीओसणिजस्स निजुती ॥२११॥ 'शीतानि' परीषहप्रमादोपशमविरतिसुखरूपाणि यान्यभिहितानि 'उष्णानि च' परीषहतप उद्यमकषाय शोकवेदारत्यात्मकानि प्रागभिहितानि तानि 'भिक्षूणां' मुमुक्षूणां विषोढव्यानि न सुखदुःखयोः उत्सेकविषादौ विधेयौ, तानि चैवं सम्यग्दृष्टिना सह्यन्ते यदि कामपरित्यागो भवतीति गाथाशकलेनाह- 'कामा' इत्यादि गाथार्द्ध सुगमं । गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतमशेषदोषत्रात विकलं सूत्रमुच्चारयितव्यं तच्चेदम् सुता अमुणी सया मुणिणो जागरंति (सू० १०५ ) Jan Estication intimal तृतीय- अध्ययने प्रथमं उद्देशक : 'भावसुप्त' आरब्ध:, For Pantry at Use Only ~306~# शीतो० ३ उद्देशका १ ॥ १५१ ॥ www.indiary.org Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [१०५], नियुक्ति: [२११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५] दीप अनुक्रम [१०९] अस्य चानन्तरसूत्रेण सम्पन्धो वाच्या, स चायम्-इह दुःखी दुःखानामेवावर्त्तमनुपरिवर्त्तत इत्युक्त, तदिहापि Viभावसुप्ता अज्ञानिनो दु:खिनो दुःखानामेवावर्त्तमनुपरिवर्तन्ते इति, उक्तं च-"नातः परमहं मन्ये, जगतो दाखका रणम् । यथाऽज्ञानमहारोगो, दुरन्तः सर्वदेहिनाम् ॥ १॥” इत्यादि, इह सुप्ता द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र निद्राममादवन्तो द्रव्यसुधार, भावसुप्तास्तु मिथ्यात्वाज्ञानमयमहानिद्राव्यामोहिताः, ततो ये 'अमुनयः' मिथ्यादृष्टयः सततं भावसुप्ताः सद्विज्ञानानुष्ठानरहितत्वात् , निद्रया तु भजनीयाः, मुनयस्तु सद्बोधोपेता मोक्षमार्गादचलन्तस्ते सततम्-अनवरतं 'जाग्रति' हिताहितप्राप्तिपरिहारं कुर्वते, अतो द्रव्यनिद्रोपगता अपि क्वचिद्वितीयपौरुष्यादौ सततं जागरूका एवेति ॥ एनमेव भावस्वापं जागरणं च विषयीकृत्य नियुक्तिकारो गाथां जगाद सुत्ता अमुणिओ सया मुणिओ सुत्तावि जागरा हुंति । धम्म पहुच एवं निद्दामुत्तेण भइयब्वं ॥ २१२॥ सुप्ता द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र निद्रया द्रव्यसुप्तान् गाथान्ते वक्ष्यति, भावसुप्तास्त्वमुनयो-गृहस्था मिथ्यात्वाज्ञानावृता हिंसाद्यास्रवद्वारेषु सदा प्रवृत्ताः, मुनयस्वपगतमिथ्यात्वादिनिद्रतयाऽवाप्तसम्यक्त्वादियोधा भावतो जागरूका एव, यद्यपि क्वचिदाचार्यानुज्ञाता द्वितीयपौरुष्यादौ दीर्घसंयमाधारशरीरस्थित्यर्थं निद्रावशोपगता भवन्ति तथापि सदा जागरा एव,) एवं च धर्म प्रतीत्योक्ताः सुप्ता जाग्रदवस्थाश्च । द्रव्यनिद्रासुप्तेन तु भाज्यमेतद्-धर्मः स्यादा न वा, यद्यसौ भावतो जागत्ति ततो निद्रासुप्तस्यापि धर्मः स्यादेव, यदिवा भावतो जाग्रतो निद्राप्रमादावष्टब्धान्तःकरणस्य न स्यादपि, यस्तु द्रव्यभावसुप्तस्तस्य न स्यादेवेति भजनार्थः । अथ किमिति द्रव्यसुप्तस्य धर्मो न भवतीति ?, न wwwandltimaryam ~307~# Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [१०५], नियुक्ति: [२१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५] दीप अनुक्रम [१०९] श्रीआचा- उच्यते, द्रव्यसुप्तो हि निद्रया भवति, सा च दुरन्ता, किमिति ?, यतः स्त्यानिित्रकोदये सम्यक्त्वावाप्तिर्भवसिद्धि-13 शीतो. राङ्गवृत्तिः कस्यापि न भवति, तद्वन्धश्च मिथ्यादृष्टिसास्वादनयोरनन्तानुबन्धिबन्धसहचरितः, क्षयस्त्वनिवृत्तिबादरगुणस्थानकालसं(शी०) ख्येयभागेषु कियत्स्वपि गतेषु सत्सु भवति, निद्राप्रचलयोरपि उदये प्राग्वदेव, बन्धोपरमस्त्वपूर्वकरणकालसंख्येयभागान्ते उद्देशकः१ भवति, क्षयः पुनः क्षीणकषायद्विचरमसमये, उदयस्तूपशमकोपशान्तमोहयोरपि भवतीत्यतो दुरन्तो निद्राप्रमादः । यथा ॥१५२॥ |च द्रव्यसुप्तो दुःखमवाप्नोत्येवं भावसुप्तोऽपि (इति) दर्शयितुमाह जह सुत्त मत्त मुच्छिय असहीणो पावए पहुं दुक्खं । तिव्वं अपडियारंपि चट्टमाणो तहा लोगो ॥ २१३ ॥ सुप्तो निद्रया मत्तो मदिरादिना मूच्छितो गाढमर्मप्रहारादिना अस्वाधीन:-परायत्तो वातादिदोपोनवग्रहादिना यथा बहु दुःखमप्रतीकारमवाप्नोति, तथा भावस्वापे-मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपायादिकेऽपि 'वर्तमानः' अवतिष्ठमानो 'लोक' प्राणिगणो नरकभवादिकं दुःखमवामोतीति गाथार्थः ॥ पुनरपि व्यतिरेकदृष्टान्तद्वारेणोपदेशदानायाहएसेव य उवएसो पदित्त पयलाय पंथमाईसुं । अणुहवइ जह सचेओ सुहाई समणोऽवि तह चेव ॥ २१४ ॥ | 'एष एव' पूर्वोक्त उपदेशो यो विवेकावियेकजनितः, तथाहि-सचेतनो विवेकी प्रदीप्ते सति प्रपलायमानः सुखमनुx भवति, पथिविषये च सापायनिरपायविवेकज्ञा, आदिग्रहणादन्यस्मिन्वा दस्युभयादी समुपस्थिते सति, यथा विवेकी ॥१५२॥ सुखेनैव तमपार्य परिहरन् सुखभाग् भवति, एवं श्रमणोऽपि भावतः सदा विवेकित्वाज्जायदवस्थामनुभवन् समस्तक Jain Educatinintamathima wwwandltimaryam ~308~# Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [ १०५] दीप अनुक्रम [१०२] “आचार" अंगसूत्र- १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [१] मूलं [१०५ ], निर्युक्तिः [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...... आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र- [ ०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | ल्याणास्पदीभवति । अत्र च सुप्तासुप्ताधिकारगाथाः – “जागरह जरा णिचं जागरमाणस्स बहुए बुद्धी । जो सुअइ न सो घण्णो जो जग्गइ सो सया धन्नो ॥ १ ॥ सुअर सुअंतरस सुअं संकियखलियं भवे पमत्तस्स । जागरमाणस्स सुअं थिरपरिचिअमध्यमत्तस्स ॥ २ ॥ नालस्सेण समं सुक्खं, न विज्जा सह निद्दया । न वेरगं पमाएणं, नारंभेण दयालुया ॥ ३ ॥ जागरिआ धम्मीणं आहम्मीणं तु सुत्तया सेआ । वच्छाहिवभगिणीए अकहिंसु जिणो जयंतीए ॥ ४ ॥ सुबह य अयगरभूओ सुअंपि से नासई अमयभूअं । होहि गोणच्भूओ नईमि सुए अमयभूए ॥ ५ ॥ तदेवं दर्शनावरणीयकर्म्मविपाकोदयेन क्वचित्स्वपन्नपि यः संविग्नो यतनावांश्च स दर्शनमोहनीय महा निद्रापगमाज्जाग्रदवस्थ एवेति । ये तु सुप्तास्तेऽज्ञानोदयाद्भवन्ति, अज्ञानं च महादुःखं, दुःखं च जन्तूनामहितायेति दर्शयति--- लोयंसि जान अहिपाव दुब, समर्थ लोगस्स जाणिना, इत्थ सत्थोवरण, जस्सिमे सदा य रूवा य रसा य गंधा य फासा य अभिसमन्नागया भवंति (सू० १०६) 'लोके' पजीवनिकाये 'जानीहि ' परिच्छिन्द्या दुःखहेतुत्वाद्दुःखम् - अज्ञानं मोहनीयं वा तदहिताय - नरकादिभ १ जागृत नरा निस्त्रं जातो वर्धते बुद्धिः यः खपिति न स धन्यः यो जागर्ति स सदा धन्यः ॥ १ ॥ खपिति स्वपतः श्रुतं शङ्कितस्तलितं भवेत्प्रम तस्य जागरतः श्रुतं स्थिरपरिचितमप्रमत्तस्य ॥ २ ॥ नास्येन समं सौख्यं न विद्या सह निद्रया न वैराम्यं प्रमादेन नारम्भेण दयालुता ॥ ३ ॥ जामत्ता धर्मिणां अधर्मिणां तु सुप्ता श्रेयसी । वत्साधियभगिन्या अकथयत् जिनो जयन्त्याः ॥ ४ ॥ खपिति चाजगरभूतः श्रुतमपि तस्य नश्यत्यमृतभूतम् । भविष्यति गोभूतो नटे श्रुतेऽमृतभूते ॥ ५ ॥ Jan Estucation Intimanal For Pantry Use Only ~309~# www.senditary.org Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [१०६], नियुक्ति: [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०६] दीप अनुक्रम [११०]] श्रीआचा- वव्यसनोपनिपाताय, इह वा बन्धवधशारीरमानसपीडायै जायत इत्येतज्जानीहि, परिज्ञानाच्चै तत्फलं यदुत-द्रव्यभाव-13 राङ्गवृत्तिः स्वापादज्ञानरूपाहुःखहेतोरपसर्पणमिति, किं चान्यत्-'समय'मित्यादि, समयः-आचारोऽनुष्ठानं तं लोकस्यासुमदा(शी०) तस्य ज्ञात्वा अन शस्त्रोपरतो भवेदित्युत्तरसूत्रेण सम्बन्धो, लोको हि भोगाभिलाषितया प्राण्युपमर्दादिकषायहेतुकं क- उद्देशका १ म्र्मोपादाय नरकादियातनास्थानेषूत्पद्यते, ततः कथञ्चिदुद्वत्त्यावाप्य चाशेषक्लेशबातघ्नं धर्मकारणमार्यक्षेत्रादौ मनुष्य॥१५३॥ जन्म पुनरपि महामोहमोहितमतिस्तत्तदारभते येन येनाधोऽधो ब्रजति, संसारान्नोन्मजतीति, अयं लोकाचारस्तं ज्ञात्वा, |अथवा समभावः समता तां ज्ञात्वा, 'लोकस्येति सप्तम्यर्थे षष्ठी, ततश्चायमों-'लोके' जन्तुसमूहे 'समता' समशत्रु-18 | मित्रतां समात्मपरतां वा ज्ञात्वा, यदिवा सर्वेऽप्येकेन्द्रियादयो जन्तवः सदा स्वोत्पत्तिस्थानरिरंसवो मरणभीरवः सुखप्सवो दुःखद्विष इत्येवम्भूतां समतां ज्ञात्वा, किं कुर्यादित्याह-'एत्थ सत्थोवरए', 'अत्र' अस्मिन् पट्कायलोके शस्त्रा द्रव्यभावभेदादुपरतो धर्मजागरणेन जागृहि, यदिवा यद्यत्संयमशस्त्रं प्राणातिपातायात्रबद्वार शब्दादिपञ्चप्रकारिकामगुणाभियङ्गो वा तस्माद्य उपरतः स मुनिरिति, आह च-'जस्सिमें' इत्यादि, यस्य मुनेरिमे-प्रत्यारमवेद्याः। समस्तपाणिगणेन्द्रियप्रवृत्तिविषयभूताः शब्दरूपरसगन्धस्पर्शा मनोज्ञेतरभेदभिन्ना 'अभिसमन्वागता' इति, अभिः-आभिमुख्येन सम्यग्-इष्टानिष्टावधारणतयाऽन्विति-शब्दादिस्वरूपावगमात् पश्चादागता:-ज्ञाता परिच्छिन्ना यस्य मुने..। वन्ति स लोकं जानातीति सम्बन्धः, इदमुक्तं भवति-इष्टेषु न रागमुपयाति नापीतरेषु द्वेषम्, एतदेवाभिसमन्वागमनं ॥१५॥ वेषां नान्यदिति, यदिवेहव शब्दादयो दु:खाय भवन्त्यास्तां तावत्परलोक इति, उक्तं च-"रका शब्दे हरिणः स्पर्शे | wwwandltimaryam ~310~# Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१०६ ] दीप अनुक्रम [११०] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [१], मूलं [१०६], निर्युक्तिः [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः नागो रसे च वारिचरः । कृपणपतङ्गो रूपे भुजगो गन्धे ननु विनष्टः ॥ १ ॥ पञ्चसु रक्ताः पञ्च विनष्टा यत्रागृहीत परमार्थाः । एकः पश्चसु रक्तः प्रयाति भस्मान्ततामबुधः ||२||" अथवा शब्दे पुष्पशालाद्भद्रा ननाश रूपे अर्जुनकतस्करः गन्धे गन्धप्रियकुमारः रसे सौदासः स्पर्शे सत्यकिः सुकुमारिकापतिर्वा ललिताङ्गकः परत्र च नारकादियातनास्थानभयमिति । एवं शब्दादीनुभयदुःखस्वभावानवगम्य यः परित्यजेदसौ के गुणमवाप्नुयादित्याह से आयवं नागवं वेयवं धमवं वंभवं पन्नाणेहिं परियाणइ लोयं, मुणीति वुच्चे, धम्मविऊ उज्जू, आवट्टसोए संगमभिजाणइ (सू० १०७) यो हि महामोहनिद्रावृते लोके दुःखमहिताय जानानो लोकसमयदर्शी शस्त्रोपरतः सन् शब्दादीन् कामगुणान् दुःखेकहेतूनभिसमन्वागच्छति ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया च प्रत्याचष्टे 'स' मुमुक्षुरात्मवान् आत्मा ज्ञानादिकोऽस्यास्तीत्यात्मवान्, शब्दादिपरित्यागेन ह्यात्माऽनेन रक्षितो भवति, अन्यथा नारकै केन्द्रियादिपाते सत्यात्मकार्याकर णात्कुतोऽस्यात्मेति पाठान्तरं वा 'से आयवी नाणवी' आत्मानं श्ववादिपतनरक्षणद्वारेण वेत्तीत्यात्मवित्, तथा ज्ञानंयथावस्थितपदार्थपरिच्छेदकं वेत्तीति ज्ञानवित्, तथा वेद्यते जीवादिस्वरूपम् अनेनेति वेदः - आचाराद्यागमः तं वेत्तीत्ति वेदवित्, तथा दुर्गतिप्रसृतजन्तु धरणस्वभावं स्वर्गापवर्गमार्ग धर्म वेत्तीति धर्म्मवित् एवं ब्रह्म-अशेषमलकलङ्कविकलं योगिशर्म्म वेतीति ब्रह्मवित्, यदिवा अष्टादशधा ब्रह्मेति, एवम्भूतश्चासी प्रकर्षेण ज्ञायते ज्ञेयं यैस्तानि प्रज्ञानानि - मत्या Jan Estication Inman For P&P Use Onl ~311~# Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [१०७], नियुक्ति: [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत शीतो०३ उद्देशक १ सूत्रांक [१०७]] दीप अनुक्रम [१११] श्रीआचा- दीनि तैलॊकं यथावस्थितं जन्तुलोकं तदाधारं वा क्षेत्रं जानाति-परिच्छिनत्तीत्युक्तं भवति, य एव शब्दादिविषयसङ्गास्य रावृत्तिः परिहर्ता स एव यथावस्थितलोकस्वरूपपरिच्छेदीति । यश्चानन्तरगुणोपेतः स किं वाच्य ? इत्यत आह-'मणी' त्यादि, (शी०) यो ह्यात्मवान् ज्ञानवान् वेदवान् धर्मवान् ब्रह्मवान् प्रज्ञानैर्व्यस्तैः समस्तैर्वा लोकं जानाति स मुनिर्वाच्यो, मनुते मन्यते वा जगतस्त्रिकालावस्था मुनिरितिकृत्या, किं च-'धम्म' इत्यादि, धर्म-चेतनाचेतनद्रव्यस्वभावं श्रुतचारित्ररूपं ॥१५४॥ वा वेत्तीति धर्मवित्, 'ऋजुरिति ऋजोः-ज्ञानदर्शनचारित्राख्यस्य मोक्षमार्गस्यानुष्ठानादकुटिलो यथावस्थितपदार्थस्वरूपपरिच्छेदाद्वा ऋजुः सर्वोपाधिशुद्धोऽवक्र इतियावत् । तदेवं धर्मविद्दजुर्मुनिः किम्भूतो भवतीत्याह-आवदृ' इत्यादि, भावावतों-जन्मजरामरणरोगशोकव्यसनोपनिपातात्मकः संसार इति, उक्तं हि-"रागद्वेषवशाविद्धं, मिथ्यादर्शन४॥ दुस्तरम् । जन्मावर्ते जगत्क्षिप्तं, प्रमादाब्राम्यते भृशम् ॥१॥" भावनोतोऽपि शब्दादिकामगुणविषयाभिलाषः, आवदात्तश्च श्रोतश्चावर्तश्रोतसी तयो रागद्वेषाभ्यां सम्बन्धः-सङ्गस्तमभिजानाति-आभिमुख्येन परिच्छिनत्ति-यथाऽयं सङ्गः आवर्तश्रोतसोः कारणं, जानानश्च परमार्थतः कोऽभिधीयते?, योऽनर्थ ज्ञात्वा परिहरति, ततश्चायमर्थः-संसारश्रोतासङ्ग रागद्वेषात्मकं ज्ञात्वा यः परिहरति स एव आवर्तस्रोतसोः सङ्गस्याभिज्ञाता ॥ सुप्तजायतां दोपगुणपरिच्छेदी के गुणभवामुयादित्याह सीउसिणच्चाई से निग्गंथे अरइरइसहे, फरुसयं नो वेएइ, जागर वेरोवरए, वीरे एवं दुक्खा पमुक्खसि, जरामचुवसोवणिए नरे सययं मूढे धम्म नाभिजाणइ (सू०१०८) ॥१५४॥ wwwratnam.org ~312~# Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१०८] दीप अनुक्रम [११२] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [१], मूलं [१०८], निर्युक्तिः [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सबाह्याभ्यन्तरग्रन्थरहितः सन् शीतोष्णत्यागी सुखदुःखानभिलाषुकः शीतोष्णरूपौ वा परीपहावतिसहमान: संयमासंयम रत्यरतिसहः सन् परुषतां - कर्कशतां पीडाकारितां परीषहाणामुपसर्गाणां वा कर्मक्षपणायोद्यतः साहाय्यं मन्यमानो 'नो वेत्ति' न तान् पीडाकारित्वेन गृह्णातीत्युक्तं भवति, यदिवा संयमस्य तपसो वा परुषतां शरीरपीडोत्पादनात् कर्म्मले पापनयनाद्वा संसारोद्विग्नमना मुमुक्षुर्निराबाधसुखोन्मुखो 'न वेत्ति' न संयमतपसी पीडाकारित्वेन गृह्णातीतियावत् । किं च - 'जागर' इत्यादि, असंयमनिद्रापगमाज्जागतति जागरः, अभिमानसमुत्थोऽमर्षावेशः परापकाराध्यवसायो वैरं तस्मादुपरतो वैरोपरतो, जागरश्चासौ वैरोपरतश्चेति विगृह्य कर्म्मधारयः, क एवम्भूतो- 'वीरः' कर्म्मापनयनशक्त्युपेतः, एवम्भूतश्च त्वं वीर! आत्मानं परं वा दुःखादुःखकारणाद्वा कर्म्मणः प्रमोक्ष्यसीति । यश्च यथोक्ताद्विपरीतः आवर्त्तश्रोतसोः सङ्गमुपगतोऽजागरः स किमाप्नुयादित्याह – जरा च मृत्युश्च ताभ्यामात्मवशमुपनीतो 'नरः' प्राणी 'सततम्' अनवरतं 'मूढो' महामोहमोहितमतिर्द्धर्म-स्वर्गापवर्गमार्ग नाभिजानीते - नावगच्छति, तत् संसारे स्थानमेव नास्ति यत्र जरामृत्यू न स्तः, देवानां जराऽभाव इति चेत्, न तत्राप्युपान्त्यकाले लेश्याबलसुखप्रभुत्ववर्णहान्युपपत्तेरस्त्येव च तेषामपि जरासद्भावः, उक्तं च- "देवा णं भंते! सव्वे समवण्णा ?, नो इणडे समहे, सेकेण णं भंते! एवं १ देवा भदन्त ! सर्वे समवर्णाः, नैषोऽर्थः समर्थः, तत् केन्नार्थेन भदन्त । एवमुच्यते ? गौतम! देवर द्विविधाः पूर्वोत्पन्नकाच पश्चादुपपद्मकाच । तत्र से पूर्वोत्पन्न कास्तेऽविशुद्धवर्णाः, ये पधादुपमास्ते विशुद्धवर्णाः Etication matinal For Pantry Use Only ~313~# www.india.org Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१०८ ] दीप अनुक्रम [११२] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [१], मूलं [१०८], निर्युक्तिः [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा- बुच्चइ ?, गोयमा ! देवा दुविहा- पुव्वोववण्णगा य पच्छोववण्णगा य । तत्थ णं जे ते पुच्चोत्रवण्णगा ते णं अविसुद्धराङ्गवृत्तिः वण्णवरा, जेणं पच्छोववण्णगा ते णं विसुद्धवण्णयरा” एवं लेश्याद्यपीति, च्यवनकाले तु सर्वस्यैवैतद्भवति, तद्यथा--- (शी०) ५ “मास्यम्लानिः कल्पवृक्षप्रकम्पः, श्रीहीनाशो वाससां चोपरागः । दैन्यं तन्द्रा कामरागाङ्गभङ्गौ, दृष्टिभ्रान्तिर्वेपथुश्चारॐ तिश्च ॥ १ ॥” यतश्चैवमतः सर्वे जरामृत्युवशोपनीतमभिसमीक्ष्य किं कुर्यादित्याह ।। १५५ ।। ४ पासिय आउरपाणे अप्पमत्तो परिव्वए, मंता य मइमं, पास आरंभजं दुक्खमिणंति चा, माई माई पुणइ गन्भं, उवेहमाणो सहरूवेसु उज्जू माराभिसंकी मरणा पमुच्चई, अप्पमत्तो कामेहिं, उवरओ पावकम्मेहिं, वीरे आयगुत्ते खेयन्ने, जे पज्ज - वायसत्थस्त खेयपणे से असत्थस्स खेयन्ने, जे असत्थस्स खेयपणे से पज्जवज्जायस - त्थस्स खेयन्ने, अक्रम्मस्स ववहारो न विज्जइ, कम्मुणा उवाही जायइ, कम्मं च पडिहाए (सू० १०९ ) स हि भावजागरस्तैस्तैर्भावस्वापजनितैः शारीरमानसैर्दुःखेरातुरान् किंकर्त्तव्यतामूढान् दुःखसागरावगाढान् प्राणानभेदोपचारात् प्राणिनो 'दृष्ट्वा' ज्ञात्वाऽप्रमत्तः परिव्रजेद् - उद्युक्तः सन् संयमानुष्ठानं विदध्यात् । अमित्र --'मंता' इ Jan Estication matinal For Parts Only ~314~# शीतो० ३ उद्देशका १ ॥ १५५ ॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१०९ ] दीप अनुक्रम [११३] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [१], मूलं [१०९], निर्युक्तिः [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः त्यादि, हे मतिमन् ! - सश्रुतिक ! भावसुधातुरान् पश्य, मत्वा चैतजाग्रत्सुप्तगुणदोषापादनं मा स्वापमतिं कुरु, किं च- 'आरंभज' मित्यादि, आरम्भः सावयक्रियानुष्ठानं तस्माज्जातमारम्भजं, किं तद् ?-दुःखं तत्कारणं वा कर्म 'इद' मिति प्रत्यक्षगोचरापन्नमशेषारम्भप्रवृत्तप्राणिगणानुभूयमानमित्येतत् 'ज्ञात्वा' परिच्छिद्य निरारम्भो भूत्वाऽऽत्महिते जागृहि । यस्तु विषयकपायाच्छादित चेता भावशायी स किमाप्नुयादित्याह - 'माई' इत्यादि, मध्यग्रहणाच्चाद्यन्तयोर्ग्रहणं, | तेन क्रोधादिकषायवान् मद्यादिप्रमादवान्नारकदुःखमनुभूय पुनस्तिर्यक्षु गर्भमुपैति । यस्त्वकषायी प्रमादरहितः स किम्भूतो भवतीत्याह - 'उबेह' इत्यादि, बहुवचननिर्देशादाद्यर्थो गम्यते, शब्दरूपादिषु यौ रागद्वेषौ तावुपेक्षमाणः - अकुर्वन् ऋजुर्भवति-यतिर्भवति, यतिरेव परमार्थत ऋजुः, अपरस्त्वन्यथाभूतः ख्यादिपदार्थान्यथाग्रहणाद्वक्रः, किं च स ऋजुः | शब्दादीनुपेक्षमाणो मरणं मारस्तदभिशङ्की- मरणादुद्विजंस्तत्करोति येन मरणात् प्रमुच्यते । किं तत्करोतीत्याह - 'अप्पमत्त' इत्यादि, कामैर्यः प्रमादस्तत्राप्रमत्तो भवेत् । कश्चाप्रमत्तः स्याद् ?, य कामारम्भकेभ्यः पापेभ्य उपरतो भवतीति दर्शयति - 'उबरओ' इत्यादि, उपरतो मनोवाक्कायैः कुतः ? - पापोपादानकर्मभ्यः कोऽसौ ? - वीरः किम्भूतो ? - गुप्तात्मा, कश्च गुप्तो भवति ?, यः खेदज्ञो, यश्च खेदज्ञः स कं गुणमवाप्नुयादित्याह--'जे पज्जव' इत्यादि, शब्दादीनां विषयाणां पर्यवा:-- विशेषास्तेषु तन्निमित्तं जातं शस्त्रं पर्यवजातशस्त्रं - शब्दादिविशेषोपादानाय यत्प्राण्युपघातकार्यनुष्ठानं तत्पर्यवजात शस्त्रं तस्य पर्यवजातशत्रस्य यः खेदज्ञो- निपुणः सोऽशस्त्रस्य - निरवद्यानुष्ठानरूपस्य संयमस्य खेदज्ञो, यश्वाशस्त्रस्य संयमस्य खेदज्ञः स पर्यवजातशस्त्रस्य स्वेदज्ञः, इदमुक्तं भवति यः शब्दादिपर्यायानिष्टानिष्टात्मकान् तत्प्राप्तिपरिहारानुष्ठानं च Jan Estication Intemational For Parts Only ~315~# Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१०९ ] दीप अनुक्रम [११३] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ १५६ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [१], मूलं [१०९], निर्युक्तिः [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः शस्त्रभूतं वेत्ति सोऽनुपघातकत्वात्संयममप्यशस्त्र भूतमात्मपरोपकारिणं वेत्ति, शस्त्रास्त्रे च जानानस्तत्प्राप्तिपरिहारौ विधत्ते, एतत्फलत्वात् ज्ञानस्येति यदिवा शब्दादिपर्यायेभ्य स्तजनित रागद्वेषपर्यायेभ्यो वा जातं यज्ज्ञानावरणीयादि | कर्म तस्य यच्छस्त्रं दाहकत्वात् तपस्तस्य यः खेदज्ञः तज्ज्ञानानुष्ठानतः सोऽशस्त्रस्य संयमस्यापि खेदज्ञः पूर्वोक्तादेव हेतोः, हेतुहेतुमद्भावाच्च योऽशस्त्रस्य खेदज्ञः स पर्यवजातशस्त्रस्यापि खेदश इति, तस्य च संयमतपःखेदज्ञस्यास्रवनिरो धादनादिभवोपात्तकर्म्मक्षयः । कर्मक्षयाच्च यद्भवति तदप्यतिदिशति - 'अकम्मस्स' इत्यादि, न विद्यते कर्म्माष्टप्रकारतमस्येत्य कर्म्मा तस्य 'व्यवहारो न विद्यते' नासौ नारकतिर्यग्नरामरपर्याप्त कापर्याप्त कबालकुमारादिसंसारिव्यपदेशभागू भवति । यश्च सकर्म्मा स नारकादिव्यपदेशेन व्यपदिश्यत इत्याह- 'कम्मुणा' इत्यादि, उपाधीयते व्यपदिश्यते येनेत्युपाधिः- विशेषणं स उपाधिः कर्म्मणा - ज्ञानावरणीयादिना जायते, तद्यथा-मतिश्रुतावधिमनःपर्यायवान् मन्दमतिस्तीक्ष्णो वेत्यादि, चक्षुर्दर्शनी अचक्षुर्दर्शनी निद्रालुरित्यादि, सुखी दुःखी वेति, मिथ्यादृष्टिः सम्यग्मिथ्यादृष्टिः स्त्री पुमान्नपुंसकः कषायीत्यादि, सोपक्रमायुष्को निरुपक्रमायुष्कोऽल्पायुरित्यादि, नारकः तिर्यग्योनिक एकेन्द्रियो द्वीन्द्रियः पर्यातकोऽपर्याप्तकः सुभगो दुर्भग इत्यादि, उच्चैर्गोत्रो नीचैर्गोत्रो वेति, कृपणस्त्यागी निरुपभोगो निर्वीर्यः इत्येवं कर्मणा संसारी व्यपदिश्यते । यदि नामैवं ततः किं कर्त्तव्यमित्याह – 'कम्मं च इत्यादि, कर्म्म-ज्ञानावरणीयादि तत्प्रत्युपेक्ष्य बन्धं वा प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशात्मकं पर्यालोच्य तत्सत्ताविपाकापन्नांश्च प्राणिनो यथा भावनिद्रया शेरते तथाऽवगम्याकर्म्मतोपाये भावजागरणे यतितव्यमिति, तदभावश्चानेन प्रक्रमेण भवति, तद्यथा - अष्टविधसत्कर्मापूर्वादिकरणक्ष Jan Estication Intel For Pantry O ~316~# शीतो० ३ उद्देशकः १ ॥ १५६ ॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [१०९], नियुक्ति: [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत 16 सूत्रांक [१०९]] --26% आपकनेणिप्रक्रमेण मोहनीयक्षयं विधायान्तर्मुहूर्त्तमजघन्योत्कृष्टं कालं सप्तविधसत्कर्मा, सतः शेषघातित्रये क्षीणे चतुर्विधभवोपग्राहिसरका जघन्यतोऽन्तर्मुहर्त्तमुत्कृष्टतो देशानां पूर्वकोटिं यावत्, पुनरूद पञ्चास्वाक्षरोगिरणकालीयां शैले-IA श्यवस्थामनुभूषाका भवति । साम्प्रतमुत्तरप्रकृतीनां सदसत्कर्मताविधानमुच्यते-तत्र ज्ञानावरणीयान्तराययोः। प्रत्येकमुपातपशभेदयोश्चतुर्दशस्वपि जीवस्थानकेषु गुणस्थानकेषु च मिथ्यादृष्टेरारभ्य केवलिगुणस्थानादारतोऽपरविक-11 ल्पाभावात् पञ्चविधसत्कर्माता। दर्शनावरणस्य त्रीणि सत्कर्मतास्थानानि, तद्यथा-नवविध निद्रापञ्चकदर्शनचतुष्टयसमन्वयाद् एतत् सर्वजीवस्थानानुयायि, गुणस्थानेष्वष्यनिवृत्तिवादरकालसख्येयभागान् यावत् १, ततः कतिचित्सड्ख्येयभागावसाने स्त्यानर्द्धित्रयक्षयात् पट्सत्कर्मतास्थानं २, ततः क्षीणकपायद्विचरमसमये निद्राप्रचलाद्वयक्षयाच्चतुःसत्कर्मतास्थानं, तस्यापि क्षयः क्षीणकषायकालान्त इति ३। वेदनीयस्य द्वे सत्कर्मतास्थाने, तद्यथा-द्धे अपि सातासाते इत्येकं, अन्यतरोदयारूढशैलेश्यवस्थेतरद्विचरमक्षणक्षये सति सातमसातं वा कम्र्मेति द्वितीयं ।। मोहनीयस्य पश्चदश सत्कर्मतास्थानानि, तद्यथा-पोडश कषाया नव नोकषाया दर्शनत्रये सति सम्यग्दृष्टेरष्टाविंशतिः १, सम्यक्त्वोलने सम्बगूमिथ्यादृष्टेः सप्तविंशतिः२, दर्शनद्वयोहलनेऽनादिमिध्यादृष्टेर्वा पड्रिंशतिः ३, सम्यग्दृष्टरष्टाविंशतिसत्क र्माणोऽनन्सानुषन् युद्धलने क्षपणे वा चतुर्विंशतिः ४, मिथ्यात्वक्षये त्रयोविंशतिः ५, सम्यग्मिथ्यात्वक्षये द्वाविंशतिः ६ काक्षायिकसम्यग्दृष्टेरेकविंशतिः ७, अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणक्षये त्रयोदश ८, अन्यतरवेदक्षये द्वादश ९, द्वितीयवेद ये सत्येकादश १०, हास्यादिषट्क्षये पश्च ११, पुवेदाभावे चत्वारि १२, सज्जवलनक्रोधक्षये वयः १३, मानक्षये द्वौ १४, दीप अनुक्रम [११३] - - 4 - - wwwandltimaryam ~317~# Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१०९ ] दीप अनुक्रम [११३] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ।। १५७ ।। “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [१], मूलं [१०९], निर्युक्तिः [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः मायाक्षये सत्येको लोभः १५, तत्क्षये च मोहनीयासत्तेति । आयुषो द्वे सत्कर्म्मतास्थाने सामान्येन, तद्यथा-परभवायुष्कबन्धोत्तरकालमायुष्कद्वयमेकं १, द्वितीयं तु तद्वन्धाभाव इति । नाम्नो द्वादश सत्कर्म्मतास्थानानि, तद्यथा-त्रिनवतिः १ द्विनवतिः २ एकोननवतिः ३ अष्टाशीतिः ४ षडशीतिः ५ अशीतिः ६ एकोनाशीतिः ७ अष्टसप्ततिः ८ पट्सततिः ९ पश्चसप्ततिः १० नव ११ अष्टौ १२ चेति, तत्र त्रिनवतिः गतयश्चतस्रः ४ पञ्च जातयः ५ पञ्च शरीराणि ५ पश्च सङ्घाताः ५ बन्धनानि पञ्च ५ संस्थानानि षट् ६ अङ्गोपाङ्गत्रयं ३ संहननानि पटू ६ वर्णपञ्चकं ५ गन्धद्वयं २ रसाः पच ५ अष्टौ स्पर्शा ८ आनुपूर्वीचतुष्टयं ४ अगुरुलघूपघातपराघातोच्छ्रासातपोद्योताः षट् ६ प्रशस्ते तर विहायोगतिद्वयं २ प्रत्येकशरीर त्रस शुभसुभगसुस्वरसूक्ष्मपर्याप्तकस्थिरादेययशांसि सेतराणीति विंशतिः २० निर्माण तीर्थकरत्वमित्येवं सर्वसमुदाये त्रिनवतिर्भवति ९३, तीर्थकरनामाभावे द्विनवतिः ९२, त्रिनवतेराहारकशरीरसङ्घातबन्धनाङ्गोपाङ्ग चतुष्टयाभावे सत्येकोननवतिः ८९, ततोऽपि तीर्थकरनामाभावेऽष्टाशीतिः ८८, देवगतितदानुपूर्वीद्वयोद्बलने षडशीतिः ८६, यदिवा अशीतिसत्कर्मणो नरकगतिप्रायोग्यं बनतः तङ्गत्यानुपूर्वीद्वय वैक्रियचतुष्कवन्धकस्य पडशीतिः देवगतिप्रायोग्यबन्धकस्य वेति ततो नरकगत्यानुपूर्वीद्वयवैक्रियचतुष्टयोद्वनेऽशीतिः ८०, पुनर्मनुष्यगत्यानुपूर्वीद्वयोद्दलनेऽष्टससतिः ७८, एतान्यक्षपकाणां सत्कर्म्मतास्थानानि । क्षपकश्रेण्यन्तर्गतानां तु प्रोच्यन्ते, तद्यथा-त्रिनवतेर्न र कतिर्यग्गतितदानुपूर्वीद्वयैक द्वित्रिचतुरिन्द्रियजात्यातपोद्योतस्थावरसूक्ष्म साधारणरूपैर्नरकतिर्यग्गतिप्रायोग्यैखयो दशभिः कर्मभिः क्ष| पितैरशीतिर्भवति, द्विनवतेस्त्वेभिस्त्रयोदशभिः क्षपितैरेको नाशीतिः, याऽसावाहारकचतुष्टयापगमेनै कोननवतिः सञ्जाता Etication matinal For Party Use Onl ~318~# शीतो० ३ उद्देशकः १ ॥ १५७ ॥ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१०९ ] दीप अनुक्रम [११३] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [१], मूलं [१०९], निर्युक्तिः [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ततस्त्रयोदशनानि क्षपिते षट्सप्ततिर्भवति, तीर्थकरनामाभावापादिताऽष्टाशीतिः, अष्टाशीतेस्त्रयोदशनामाभावे पञ्चसततिः, तत्राशीतेः षट्सप्ततेर्वा तीर्थकर केवलिशैलेश्यापनद्विचरमसमये तीर्थकरनाम्नः प्रक्षेपात् वेद्यमाननव कर्म्मप्रकृतिव्युदासेन क्षयमुपगते शेषनाम्नि अन्त्यसमये नवसत्कर्म्मतास्थानं, ताश्च वेद्यमाना नवेमाः, तद्यथा मनुजगति १ पश्चेन्द्रियजाति २ त्रस ३ बादर ४ पर्याप्तक ५ सुभगादेय ६-७ यशःकीर्त्ति ८ तीर्थकररूपाः ९, एता एव शैलेश्यन्त्यसमये सत्तां विश्वति, शेषास्तु एकसप्ततिः सप्तषष्टिर्वा द्विचरमसमये क्षयमुपयान्ति एता एव नव अतीर्थकर केवलिनस्तीर्थकर - नामरहिता अष्टौ भवन्ति, अतोऽन्त्य समयेऽष्टसत्कर्म्मतास्थानमिति । सामान्येन गोत्रस्य द्वे सत्कर्म्मतास्थाने, तद्यथाउच्चनीचगोत्रसद्भावे सत्येकं सत्कर्म्मतास्थानं, तेजोवायूच्चैर्गोत्रोद्बलने कालंकलीभावावस्थायां नीचैर्गोत्र सत्कर्म्मतेति द्वितीयं यदिवा अयोगिद्विचरमसमये नीचैगोंद्रक्षये सत्युच्चै गोत्रसत्कर्म्मता, एवं द्विरूपगोत्रावस्थाने सत्येकं सत्कर्म्मतास्थानमन्यतरगोत्रसद्भावे सति द्वितीयमित्येवं कर्म्म प्रत्युपेक्ष्य तत्सत्तापगमाय यतिना यतितव्यमिति । किं च Etication mainl कम्ममूलं च जं छणं, पडिलेहिय सव्वं समायाय दोहिं अंतेहिं अदिस्समाणे तं परिन्नाय मेहावी विइत्ता लोगं वंता लोगसन्नं से मेहावी परिक्कमिजासि ( सू० ११० ) तिमि ॥ शीतोष्णीयोदेशः १ ॥ कर्मणो मूल कारणं मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगाः, चः समुच्चये, कर्ममूलं च प्रत्युपेक्ष्य 'यत्क्षण' मिति 'क्षणु For Party Use Onl ~319~# www.andrary.org Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [११०], नियुक्ति: [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत राङ्गवृत्तिः सूत्रांक [११०] 4 दीप श्रीआचाहिंसायाँ' क्षणनं-हिंसनं यत्किमपि प्राण्युपघातकारि तत् कर्ममूलतया प्रत्युपेक्ष्य परित्यजेत्, पाठान्तरं वा 'कम्ममाहूय|| शीतो०३ &ाज छर्ण' य उपादानक्षणोऽस्य कर्मणः तरक्षणं काहय-कर्मोपादाय तत्क्षणमेव निवृत्ति कुर्योद्, इदमुक्तं भवति-अ-IAL (सी.) ज्ञानप्रमादादिना यस्मिन्नेव क्षणे कर्महेतुकमनुष्यानं कुर्यात्तस्मिन्नेव क्षणे लब्धचेताः तदुपादानहेतोनिवृत्ति विदध्यादिति, उद्देशकः २ पुनरप्युपदेशदानायाह-'पडिलेहिअ' इत्यादि, 'प्रत्युपेक्ष्य' पूर्वोक्तं कर्म तद्विपक्षमुपदेशं च सर्व 'समादाय' गृहीत्वा ॥१५८॥ अन्तहेतुत्वादन्तौ रागद्वेषी ताभ्यां सहादृश्यमानः ताभ्यामनपदिश्यमानो वा तत्कर्म तदुपादानं वा रागादिकं ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेदिति, रागादिमोहितं लोकं विषयकषायलोकं वा ज्ञात्वा वान्त्वा च 'लोकसंज्ञा | विषयपिपासासंज्ञितां धनायाग्रहग्रहरूपां वा 'स' मेधावी मर्यादाव्यवस्थितः सन् 'पराकमेत' संयमानुष्ठाने उद्युक्तो। भवेत् विषयपिपासामरिषदुर्ग वाऽष्टप्रकारं वा कर्मावष्टभ्याद् । इतिः परिसमाप्ती ब्रवीमीति पूर्ववत् । इति शीतोष्णीयाध्ययनप्रथमोद्देशकटीका समाप्ता॥ -- - ecodin7- उक्तः प्रथमोद्देशकः, साम्प्रतं द्वितीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, पूर्वोदेशके भावसुप्ताः प्रदर्शिताः, इह तु। तेषां स्वापविषाकफलमसातमुच्यते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य सूत्रानुगमे सूत्रमुचारयितव्यं, सच्चेदम्जाइं च बुद्धिं च इहऽज ! पासे, भूएहिं जाणे पडिलेह सायं । तम्हाऽतिविजे परमंति ॥॥१५८॥ णच्चा, संमत्तदंसी न करेइ पावं ॥१॥ 8-0 5% अनुक्रम [११४] 9 wataneltmanam तृतीय-अध्ययने द्वितीय-उद्देशक: 'दुःखानुभव' आरब्धः, ~320~# Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [3], उद्देशक [२], मूलं [११०...], नियुक्ति : [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत ||१|| दीप अनुक्रम [११५]] जाति:-प्रसूतिः बालकुमारयौवनवृद्धावस्थावसाना वृद्धिः 'इह' मनुष्यलोके संसारे या अवैव काउक्षेपमन्तरेण, जातिं च वृद्धिं च पश्य' अवलोकय, इदमुक्तं भवति-जायमानस्य यदुःखं वृद्धावस्थायां च यच्छारीरमानसमुत्पद्यते तद्विवेकचक्षुषा पश्य, उक्तं च-"जायमाणस्स जं दुक्खं, मरमाणस्स जंतुणो । तेण दुक्खेण संतत्तो, न सरइ जाइमप्पणो ॥ १॥ विरसरसियं रसंतो तो सो जोणीमुहाउ निष्फिडइ । माऊए अप्पणोऽविअ वेअणमउलं जणेमाणो ॥२॥" तथा—'हीणभिष्णसरो दीणो, विषरीगो विचित्तओ । दुबलो दुक्खिो वसइ, संपत्तो चरिमं दस ॥ ३ ॥ इत्यादि, अथवा आर्य इत्यामन्त्रणं भगवान् गौतममामन्त्रयति, इह आर्य ! जातिं वृद्धिं च तत्कारणं कर्म कार्यं च दुःखं पश्य, दृष्ट्वाऽवयुद्धपस्व, यथा च जात्यादिकं न स्यात् तथा विधत्स्व । किं चापरं-'भूएहि मित्यादि, भूतानि-चतुर्दशभूतग्रामास्तैः सममात्मनः सात-मुखं 'प्रत्युपेक्ष्य' पर्यालोच्य जानीहि, तथाहि-यथा त्वं सुखप्रिय एवमन्येऽपीति, यथा च त्वं दुःखद्विडेवमन्येऽपि जन्तवः, एवं मत्वाऽन्येपामसातोसादनं न विदध्याः, एवं च जन्मादिदुःखं न प्राप्स्यसीति, उक्तं च "यथेष्टविषयाः सातमनिष्टा इतरत्तव । अन्यत्रापि विदित्वैवं, न कुर्यादप्रियं जने ॥ १ ॥" ययेवं ततः किमित्याह-'तम्हा' इत्यादि, 'तस्माद्' जातिवृद्धिसुखदुःखदर्शनादतीय विद्या-तश्वपरिच्छेत्री यस्यासावतिविद्यः स आयमानमा यदु मिगमागमा जन्तोः । न हुसेन चतो ग सरति जातिमात्मनः ॥1॥निरसरचितं रसन्, ततः बोनिमुखा, निरारति । मातुरात्मनोऽपि च वेदनामतुल जनयन् ॥१॥ हीनभिनखरो दीनो विपरीतो विचित्तकः । दुबलो दुःखितो पसति संत्राप्तः परमा दशाम ॥३॥ ~ 321~# Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + आग “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [११०/गाथा-१], नियुक्ति: [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: शीतो०३ उद्देशका शा दीप अनुक्रम [११५]] श्रीआचा--'परम' मोक्ष ज्ञानादिकं वा तन्मार्ग ज्ञात्वा सम्यक्त्वदर्शी सन् पापं न करोति, सावद्यमनुष्ठानं न विदधातीत्युक्तं भवति । पापस्य च मूलं स्नेहपाशास्तदपनोदार्थमाह(शी०) उम्मुंच पास इह मच्चिपहि, आरंभजीवी उभयाणुपस्सी । कामेसु गिद्धा निचयं क॥१५९॥ रंति, संसिच्चमाणा पुणरिति गम्भं ॥२॥ 'इह' मनुष्यलोके चतुर्विधकषायविषयविमोक्षक्षमाधारे मत्त्यैः सार्द्ध द्रव्यभावभेदभिन्नं पाशमुत्-प्राबल्येन 'मुन्छ' अपा|कुरु, स हि कामभोगलालसस्तदादानहेतोहिसादीनि पापान्यारभते अतोऽपदिश्यते-'आरंभ' इत्यादि, आरम्भेण जीवितुं शीलमस्येत्यारम्भजीवी-महारम्भपरिग्रहपरिकल्पितजीवनोपायः उभयं-शारीरमानसमैहिकामुष्मिक वा द्रष्टुं शील-| मस्येति स तथा, किं च-'कामेसु' इत्यादि, कामा-इच्छामदनरूपास्तेषु गृद्धा:-अध्युपपन्ना निचयं-कर्मोपचयं | कुर्वन्ति । यदि नामैवं ततः किमित्याह-संसिच' इत्यादि, तेन कामोपादानजनितेन कर्मणा 'संसिच्यमाना' आपूर्यमाणा गर्भाद्गर्भान्तरमुपयान्ति, संसारचकवालेऽरघट्टघटीयन्त्रन्यायेन पर्यटन्ते, आसत इत्युक्तं भवति । तदेवमनिभृतात्मा किंभूतो भवतीत्याहअवि से हासमासज, हंता नंदीति मन्नई। अलं बालस्स संगण, वरं बढइ अप्पणो॥३॥ G हीभयादिनिमित्तश्चेतोविप्लवो हासस्तमासाद्य-अङ्गीकृत्य 'स' कामगृनुहत्वाऽपि प्राणिनो 'नन्दीति क्रीडेति मन्यते, ॥१५९॥ wwjanditaram ~322~# Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत ||3|| दीप अनुक्रम [११७] “आचार” - अंगसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [२], मूलं [ ११० / गाथा - ३ ], निर्युक्ति: [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः वदति च महामोहावृतोऽशुभाध्यवसायो यथा एते पशवो मृगयार्थ सृष्टाः, मृगया च सुखिनां क्रीडाये भवति, इत्येवं मृषावादादत्तादानादिष्वप्यायोज्यं । यदि नामैवं ततः किमित्याह - 'अल' मित्यादि, अलं-पर्याप्तं बालस्य - अज्ञस्य यः प्राणातिपातादिरूपः सङ्गो विषयकषायादिमयो वा तेनालं, बालस्य हास्यादिसङ्गेनालं किमिति वेद् ?, उच्यते, 'बेर'मित्यादि, पुरुषादिवधसमुत्थं वैरं तद्वालः सङ्गानुषङ्गी सन्नात्मनो वर्द्धयति, तद्यथा-गुणसेनेन हास्यानुषङ्गादग्निशम्र्माणं नानाविधैरुपायैरुपहसता नवभवानुषङ्गि वैरं वर्द्धितं एवमन्यत्रापि विषयसङ्गादावायोज्यं ॥ यतश्चैवमतः किमित्याह तम्हातिविज्जो परमंति णच्चा, आयंकदंसी न करेइ पावं । अग्गं च मूलं च विगिंच धीरे, पलिच्छिदिया णं निकम्मदंसी ॥ ४ ॥ यस्माद्वालसङ्गिनो वैरं वर्द्धते तस्मादतिविद्वान् परमं मोक्षपदं सर्वसंवररूपं चारित्रं वा सम्यग्ज्ञानं सम्यग्दर्शनं वा, एतत्परमिति ज्ञात्वा किं करोतीत्याह - 'आयंके'त्यादि, आतङ्को- नरकादिदुःखं तद्रष्टुं शीलमस्येत्यातङ्कदश स 'पाप' पापानुबन्धि कर्म न करोति, उपलक्षणार्थत्वान्न कारयति नानुमन्यते । पुनरप्युपदेशदानायाह - 'अग्गं च' इत्यादि, अयंभवोपग्राहिकर्म्मचतुष्टयं मूलं-घातिकर्म्मचतुष्टयं, यदिवा मोहनीयं मूलं शेषाणि स्वयं, यदिवा मिध्यात्वं मूलं शेषं स्वयं तदेवं सर्वमयं मूलं च 'विगिंच' इति त्यजापनय पृथक्करु, तदनेनेदमुक्तं भवति न कर्म्मणः पौगलिकस्यात्यन्तिकः क्षयः, अपि त्वात्मनः पृथक्करणं, कथं मोहनीयस्य मिथ्यात्वस्य वा मूलत्वम्? इति चेत्, तद्वशाच्छेषप्रकृतिबन्धो यतः, Jan Estication Intemational For Par at Use Only ~323~# Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [११०/गाथा-४],नियुक्ति: [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचा-उच-"न मोहमतिवृत्त्य बन्ध उदितस्त्वया कर्मणां, न चैकविधवन्धनं प्रकृतिबन्धविभयो महान् । अनादिभवहेतुरेष शीतो०३ रावृत्ति न च बध्यते नासकृत्त्वयाऽतिकुटिला गतिः कुशल! कर्मणां दर्शिता ॥१॥" तथा चागम:-"कहण्णं भंते ! जीवा अह (शी०) उद्देशका २ ||8| कम्मपगडीओ बंधंति !, गोयमा! णाणावरणिजस्स उदएणं दरिसणावरणिज कम्म नियच्छद, दरिसणावरणिज्जस्स क-18 ॥१०॥ |म्मस्स उदएणं दसणमोहणीय कम्म नियच्छइ, दसणमोहणिजस्स कम्मस्स उदएणं मिच्छत्तं नियच्छइ, मिच्छत्तेणं उदि ण्णेणं एवं खलु जीवे अढकम्मपगडीओ बंधई", क्षयोऽपि मोहनीयक्षयाविनाभावी, उक्तं च-"नायगंमि हते संते, जहा सेणा विणस्सई । एवं कम्मा विणस्संति, मोहणिजे खयं गए ॥१॥" इत्यादि, अथवा मूलम्-असंयमः कर्म वा, |अग्र-संयमतपसी मोक्षो वा ते मूलाने 'धीरः' अक्षोभ्यो धीविराजितो वा विवेकेन दुःखसुखकारणतयाऽवधारय । किं| च-पलिच्छिदिया णमित्यादि, तपःसंयमाभ्यां रागादीनि बन्धनानि तत्कार्याणि वा कर्माणि छित्त्वा निष्कर्मदीं | भवति, निष्कर्माणमात्मानं पश्यति तच्छीलच निष्कर्मत्वाद्वा अपगतावरणः सर्वदर्शी सर्वज्ञानी च भवति ॥ यश्च नि-II कर्मदीं भवति सोऽपरं किमाप्नुयादित्याह दीप अनुक्रम [११८] N १ कथं भदन्त ! जीना अष्ट कर्मप्रकृतीनन्ति !, गौतम! ज्ञानावरणीयस्योदयेन दर्शनावरणीयं कर्म वान्ति, दर्शनावरणीयस्थ कर्मण उदयेन दर्शनमोहनीय RE: १६०॥ कर्म बनन्ति, दर्शनमोहनीयस्य कर्मण उदयेन भिध्यात्वं बान्ति, मिथ्यात्वेनोदितेनैवं खलजीचा अ कर्मप्रकृती शान्ति ॥ २ नायके हते सति यथा सेना विनश्यति । एवं कर्माणि विनश्यन्ति मोहनीये क्षयं गते ॥१॥ wwwandltimaryam ~ 324~# Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [१११],नियुक्ति: [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: । प्रत सूत्रांक * [१११] * एस मरणा पमुच्चइ, से हु दिट्ठभए मुणी, लोगंसि परमदंसी विवित्तजीवी उवसंते समिए सहिए सया जए कालखी परिवए, बहुं च खलु पावं कम्मं पगडं (सू० १११) 'एष' इत्यनन्तरोक्तो मूलाग्ररेचको निष्कर्मदशी मरणाद्-आयुःक्षयलक्षणात् मुच्यते, आयुषो बन्धनाभावाद्, यदिवा आजवंजवीभावादावीचीमरणाद्वा सर्व एव संसारो मरणं तस्मात्प्रमुच्यते । यश्चैवं स किम्भूतो भवतीत्याह-'से दाहु' इत्यादि, 'सः' अनन्तरोक्तो मुनिष्टं संसाराजय सप्तप्रकारं वा येन स तथा, हुरवधारणे दृष्टभय एव । किं च|'लोयंसि' इत्यादि, लोके द्रव्याधारे चतुर्दशभूतग्रामात्मके या परमो-मोक्षस्तत्कारणं वा संयमः तं द्रष्टुं शीलमस्येति परमदर्शी, तथा 'विविक्तं' स्त्रीपशुपण्डकसमन्वितशय्यादिरहितं द्रव्यतः भावतस्तु रागद्वेपरहितमसइक्लिष्टं जीवितुं शीलमस्येति विविक्तजीवी, यश्चैवम्भूतः स इन्द्रियनोन्द्रियोपशमादुपशान्तो, यश्चोपशान्तः स पञ्चभिः समितिभिः सम्यग्वा इतो-गतो मोक्षमार्गे समितः, यश्चैवं स ज्ञानादिभिः सहितः-समन्वितो, यश्च ज्ञानादिसहितः स सदा यतःअप्रमादी । किमवधिश्वायमनन्तरोको गुणोपन्यास इत्याह-'काल' इत्यादि, कालो-मृत्युकालस्तमाकातितुं शी-1 लमस्येति कालाकाली स एवम्भूतः परिः-समन्तात्बजेपरिव्रजेत् , यावत्सोयागतं पण्डितमरणं तावदाकाडमाणो विविक्तजीवित्वादिगुणोपेतः संयमानुष्ठानमार्गे परिष्वकेदिति । स्यादेतत्-किमर्थं एवं क्रियते? इत्याह-मूलोत्तरप्रकृतिभेदभिन्न प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशबन्धात्मक बन्धोदयसत्कर्मताव्यवस्थामयं तथा बद्धस्पृष्टनिधत्तनिकाचितावस्था दीप अनुक्रम [११९] ** * * wwwsaneitnam.org ~325~# Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१११] दीप अनुक्रम [११९] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [२], मूलं [१११], निर्युक्ति: [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) : ॥ १६१ ॥ गतं कर्म तच न इसीयसा कालेन क्षयमुपयातीत्यतः कालाकाङ्गीत्युक्तं तत्र बन्धस्थानापेक्षया तावन्मूलोत्तरप्रकृतीना बहुत्वं प्रदर्श्यते, तद्यथा - सर्वमूलप्रकृतीर्वतोऽन्तमुहूर्त्तं यावदष्टविधं आयुष्कवर्ज सप्तविधं तज्जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कृष्टतस्तद्रहितानि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि पूर्वकोदित्रिभागाभ्यधिकानि, सूक्ष्मसंपरायस्य मोहनीयबन्धो★ परमे आयुष्कबन्धाभावात् षडिधम्, एतच्च जघन्यतः सामयिकमुत्कृष्टतस्त्वन्तर्मुहूर्त्तमिति, तथोपशान्तक्षीणमोहसयोगिकेवलिनां सप्तविधबन्धोपरमे सातमेकं बनतामेकविधं बन्धस्थानं, तच्च जघन्येन सामयिकमुत्कष्टतो देशोनपूर्वकोटिकालीयं । इदानीमुत्तरप्रकृतिबन्धस्थानान्यभिधीयन्ते तत्र ज्ञानावरणान्तराययोः पञ्चभेदयोरप्येकमेव ध्रुववन्धित्वाद्वन्धस्थानं, दर्शनावरणीयस्य त्रीणि बन्धस्थानानि - निद्रापञ्चकदर्शनचतुष्टयस मन्त्रयाद् ध्रुवबन्धित्वान्नवविधं १, ततः स्त्यानर्द्धित्रिकस्यानन्तानुबन्धिभिः सह बन्धोपरमे षड्विधं २, अपूर्वकरणसङ्ख्येयभागे निद्राप्रचलयोर्बन्धोपरमे चतुविधं बन्धस्थानं ३ | वेदनीयस्यैकमेव बन्धस्थानं-सातमसातं वा वनतः, उभयोरपि यौगपद्येन विरोधितया बन्धाभा वात् । मोहनीयबन्धस्थानानि दश, तद्यथा- द्वाविंशतिः - मिथ्यात्वं १ षोडश कपाया १७ अन्यतरवेदो १८ हास्यरतियुग्मारतिशोकयुग्मयोरन्यतर २० अयं २१ जुगुप्सा २२ चेति १, मिथ्यात्वबन्धोपरमे सास्वादनस्य संवैकविंशतिः २, सैव सम्यगूमिध्यादृष्टेर विरतसम्यग्दृष्टेर्वा अनन्तानुबन्ध्यभावे सप्तदशविधं बन्धस्थानं ३, तदेव देशविरतस्याप्रत्याख्यानवन्धाभावे त्रयोदशविधं ४, तदेव प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणानां यतीनां प्रत्याख्यानावरणवन्धाभावान्नवविधं ५, एतदेव हास्यादियुग्मस्य भयजुगुप्सयोश्चापूर्वकरण चरमसमये बन्धोपरमात्पञ्चविधं ६, ततोऽनिवृत्तिकरणसङ्ख्येय भागावसाने पुंवे 1 Jan Estication Infomational For Party at Use Only ~326 ~# शीतो० ३ उद्देशकः २ ॥ १६१ ॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१११] दीप अनुक्रम [११९] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [२], मूलं [१११],निर्युक्तिः [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः दवन्धोपरमाच्चतुर्विधं ७, ततोऽपि तस्मिन्नेव सङ्ख्येयभागे क्षयमुपगच्छति सति क्रोधमानमाया लोभसवनानां क्रमेण बन्धोपरमात्रिविधं ८ द्विविध ९ मेकविधं १० चेति, तस्याप्यनिवृत्तिकरणचरमसमये बन्धोपरमान्मोहनीयस्यावन्धकः । आयुषः सामान्येनैकविधं बन्धस्थानं चतुर्णामन्यतरत्, द्व्यादेर्यौगपद्येन वन्धाभावो विरोधादिति । नाम्नोsat बन्धस्थानानि तद्यथा - त्रयोविंशतिस्तिर्यग्गतिप्रायोग्यं वनतस्तिर्यग्गतिरेकेन्द्रियजाति रौदारिक तैजसकार्म्मणानि हुण्ड संस्थानं वर्णगन्धरसस्पर्शास्तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी अगुरुलघूपघातं स्थावरं बादरसूक्ष्मयोरन्यतरदपर्याप्तकं प्रत्येकसाधारणयोरन्यतरत् अस्थिरं अशुभं दुर्भगं अनादेयं अयशःकीर्त्तिर्निर्माणमिति, इयमेकेन्द्रियापर्याप्तकप्रायोग्यं बनतो मिथ्यादृष्टेर्भवति १, इयमेव पराघातोच्छ्रास सहिता पञ्चविंशतिः, नवरमपर्याप्तकस्थाने पर्याप्तकमेव वाच्यं २, इयमेव चातपोद्योतान्यतरसमन्विता पविंशतिः, नवरं वादरप्रत्येके एवं वाच्ये २ तथा देवगतिप्रायोग्यं बनतोऽष्टाविंशतिः, तथाहि - देवगतिः १ पञ्चेन्द्रियजातिः २ वैक्रिय ३ तैजस ४ कार्म्मणानि ५ शरीराणि समचतुरस्रं ६ अङ्गोपा ७ वर्णादिचतुष्टयं ११ आनुपूर्वी १२ अगुरुलघु १३ पघात १४ पराघात १५ उच्छासाः १६ प्रशस्त विहायोगतिः १७त्रसं १८ बाद १९ पर्याप्तक २० प्रत्येक २१ स्थिरांस्थिरयोरन्यतरत् २२ शुभाशुभयोरन्यतरत् २३ सुभगं २४ मुखरं २५ | आदेयं २६ यशः कीर्त्त्ययशः की योरन्यतरत् २७ निर्माणमिति २८, एषैव तीर्थकरनामसहिता एकोनत्रिंशत्, साम्प्रतं | त्रिंशत्-देवगतिः १ पञ्चेन्द्रियजातिः २ वैक्रिया ३ हारका ४ ङ्गोपाङ्ग ६ चतुष्टयं तैजस ७ कार्म्मणे ८ संस्थानमाद्यं ९ १ स्थिर, २ शुभं Jan Estication Untamal For Pantry Use Only ~327 ~# Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१११] दीप अनुक्रम [११९] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [२], मूलं [१११],निर्युक्तिः [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा- वर्णादिचतुष्कं १३ आनुपूर्वी १४ अगुरुलघु १५ पघातं १६ पराघातं १७ उच्छ्रासं १८ प्रशस्तविहायोगतिः १९ सं २० राङ्गवृत्तिः ६ बादरं २१ पर्याप्तकं २२ प्रत्येकं २३ स्थिरं २४ शुभं २५ सुभगं २६ सुस्वरं २७ आदेयं २८ यशः कीर्त्ति २९ निर्माण(शी०) ३० मिति च वनत एकं बन्धस्थानं ६, एषैव त्रिंशत्तीर्थकरनामसहिता एकत्रिंशत् ७, एतेषां च बन्धस्थानानामेकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियनरकगत्यादिभेदेन बहुविधता कर्म्मग्रन्थादवसेया, अपूर्वकरणादिगुणस्थानकत्रये देवगतिप्रायोग्यबन्धोपरमाद्यशः कीर्त्तिमेव वनतः एकविधं बन्धस्थानमिति ८, तत ऊर्द्ध नाम्नो बन्धाभाव इति । गोत्रस्य सामा* न्येनैकं बन्धस्थानं उच्चनीचयोरन्यतरत्, यौगपद्येनोभयोर्बन्धाभावो विरोधादिति । तदेवं बन्धद्वारेण लेशतो बहुत्वमावेदितं कर्मणां तच्च बहु कर्म्म प्रकृतं वद्धं प्रकटं वा, तत्कार्यप्रदर्शनात् खलुशब्दो वाक्यालङ्कारेऽवधारणे वा, बहेव तत्कर्म्म । यदि नामैवं ततस्तदपनयनार्थे किं कर्त्तव्यमित्याह ॥ १६२ ॥ सचंमि धि कुव्वा, एत्थोवरए मेहावी सव्वं पावं कम्मं जोसइ ( सू० ११२ ) सद्भ्यो हितः सत्यः- संयमस्तत्र धृतिं कुरुध्वं, सत्यो वा मौनीन्द्रागमो यथावस्थित वस्तुस्वरूपाविर्भावनात्, तत्र भगवदाज्ञायां धृतिं कुमार्गपरित्यागेन कुरुध्वमिति, किं च - 'एत्थोवरए' इत्यादि, 'अत्र' अस्मिन् संयमे भगवद्वचसि वा उपसामीप्येन रतो-व्यवस्थितो 'मेधावी' तत्त्वदर्शी 'सर्वम्' अशेषं 'पाप' कर्म संसारार्णवपरिभ्रमणहेतुं झोषयति-शोषयति क्षयं नयतीतियावत् । उक्तोऽप्रमादः, तत्प्रत्यनीकस्तु प्रमादः तेन च कषायादिप्रमादेन प्रमत्तः किंगुणो भवतीत्याह Etication matinal For Pantry Use Onl ~328~# शीतो० ३ उद्देशकः २ ॥ १६२ ॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [११३] दीप अनुक्रम [१२१] २०१% ०%% % % % % % % % “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [२], मूलं [११३],निर्युक्तिः [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः अगचित्ते खलु अयं पुरिसे, से केयणं अरिहए पूरिण्णए, से अण्णवहाए अण्णपरियाare अण्णपरिग्गहाए जणवयवहाए जणवयपरियावाए जणवयपरिग्गहाए (सू० ११३) अनेकानि चित्तानि कृषिवाणिज्यावलगनादीनि यस्यासावनेकचित्तः, खलुरवधारणे, संसारसुखाभिलाप्यनेकचित्त एव भवति, 'अयं पुरुष' इति प्रत्यक्षगोचरीभूतः संसार्यपदिश्यते, अत्र च प्रागुपन्यस्तदधिघटिकया कपिलदरिद्रेण चं दृष्टान्तो वाक्य इति । यश्चानेकचित्तो भवति स किं कुर्यादित्याह - 'से केयण' मित्यादि, द्रव्यकेतनं चालिनी परिपू ४ र्णकः समुद्रो वेति भावकेतनं लोभेच्छा, तदसावनेकचित्तः केनाप्यभृतपूर्वं पुरवितुमर्हति, अर्थितया शक्याशक्यविचा| राक्षमोऽशक्यानुष्ठानेऽपि प्रवर्त्तत इत्युक्तं भवति, स च लोभेच्छापूरणव्याकुलितमतिः किं कुर्यादित्याह -- 'से अण्णवहाए' इत्यादि, स लोभपूरणप्रवृत्तोऽन्येषां प्राणिनां बधाय भवति, तथाऽन्येषां शारीरमानस परितापनाय तथाऽन्येषां द्विपदचतुष्पदादीनां परिग्रहाय, जनपदे भवा जानपदाः कालप्रष्टादयो राजादयो वा तद्बधाय, मगधादिजनपदा वा तद्वधाय तथा जनपदानां लोकानां परिवादाय-दस्युरयं पिशुनो वेत्येवं मर्मोद्घट्टनाय, तथा जनपदानां - मगधादीनां परिग्रहाय प्रभवतीति सर्वत्राध्याहारः ॥ किं य एते लोभप्रवृत्ता वधादिकाः क्रियाः कुर्व्यन्ति ते तथाभूता एवासते उतान्यथाऽपीति दर्शयति 'आसेवित्ता एतं (वं) अटुं इच्चेवेगे समुट्ठिया, तम्हा तं चिइयं नो सेवे, निस्सारं पासिय Jan Estication matinal For Pantry O ~329~# Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [११४] दीप अनुक्रम [१२२] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [२], मूलं [११४], निर्युक्तिः [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः नाणी, उक्वायं चवणं णच्चा, अणवणं चर माहणे, से न छणेन छणावए छणतं नाणुजाणइ, निविंद नंदि, अरए पयासु, अणोमदंसी, निसण्णे पावेहिं कम्मेहिं (सू०११४) ॥ १६३ ॥ एवम् अनन्तरोक्तमर्थमन्यवधपरिग्रहपरितापनादिकमासेव्य 'इत्येवेति लोभेच्छाप्रतिपूरणायैव 'एके' भरतराजादयः 8 'समुत्थिताः' सम्यग्योगत्रिकेणोत्थिताः संयमानुष्ठानेनोद्यतास्तेनैव भवेन सिद्धिमासादयन्ति । संयमसमुत्थानेन च ॐ समुत्थाय कामभोगान् हिंसादीनि चास्रवद्वाराणि हित्वा किं विधेयमित्याह -- 'तम्हा' यस्माद्वान्तभोगतया कृतप्रति22 ज्ञस्तस्माद्भोग लिप्सुतया तं द्वितीयं मृषावादमसंयमं वा नासेवेत । विषयार्थमसंयमः सेव्यते, ते च विषया निःसारा इति दर्शयति--' निस्सारं इत्यादि, सारो हि विषयगणस्य तत्प्राप्तौ तृप्तिस्तदभावान्निःसारस्तं दृष्ट्वा 'ज्ञानी' तत्ववेदी न विषयाभिलाषं विदध्यात् । न केवलं मनुष्याणां देवानामपि विषयसुखास्पदमनित्यं जीवितमिति च दर्शयति- 'उबवायं चवणं णच्चा' उपपातं जन्म च्यवनं - पातस्तच्च ज्ञात्वा न विषयसङ्गोन्मुखो भवेदिति यतो निःसारो विषयग्रामः | समस्तः संसारो वा सर्वाणि च स्थानान्यशाश्वतानि ततः किं कर्त्तव्यमित्याह- 'अणण्णमित्यादि, मोक्षमार्गादन्योऽसंयमो नान्योऽनन्यः- ज्ञानादिकस्तं चर 'माहण' इति मुनिः । किं च- 'से न छणे' इत्यादि, स मुनिरनन्यसेवी प्राणिनो न क्षणुयात् न हन्यात् नाप्यपरं घातयेत् घातयन्तं न समनुजानीयात् । चतुर्थत्रत सिद्धये स्विदमुपदिश्यते— 'निषिद' इत्यादि, निर्विन्दस्त्र- जुगुप्सस्व विषयजनितां 'नंदी' प्रमोदं किम्भूतः सन् ? 'प्रजासु' स्त्रीषु अरक्तो - रागरहितो, Jan Estication Intemational For Pantry Use Only ~330 ~# शीतो० ३ उद्देशकः २ ॥ १६३ ॥ www.india.org Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [११४] दीप अनुक्रम [१२२] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [२], मूलं [११४], निर्युक्तिः [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः भावयेच्च यथैते विषयाः किम्पाकफलोपमास्त्र पुषी फलनिबन्धनकटवः, अतस्तदर्थे परिग्रहाग्रहयोगपराङ्मुखो भवेदिति, उत्तमधर्मपालनार्थमाह- 'अणोम' इत्यादि, अवमं हीनं मिथ्यादर्शनाविरत्यादि तद्विपर्यस्तमनवमं तद्रष्टुं शीलमस्ये त्यनवमदर्शी सम्यद्गर्शनज्ञानचारित्रवान्, एवम्भूतः सन् प्रजानुगां नन्दि निर्विन्दस्खेति सण्टङ्कः । यश्चानवमसंदर्शी स किम्भूतो भवतीत्याह - ' निसन्न' इत्यादि, पापोपादानेभ्यः कर्म्मभ्यो निषण्णो-निर्विण्णः पापकर्म्मभ्यः पापकर्म्मसु वा कर्त्तव्येषु निवृत्त इतियावत् ॥ किं च कोहामा हणिया य वीरे, लोभस्स पासे निरयं महंतं । तम्हा य वीरे विरएवहाओ, छिंदिज सोयं लहुभूयगामी ॥ १ ॥ गंथं परिण्णाय इहज ! धीरे, सोयं परिपणाय चरिज दंते । उम्मज लधुं इह माणयेहिं, नो पाणिणं पाणे समारभिज्जा ॥२॥ सित्तिमि । द्वितीय उद्देशकः ३-२ ॥ क्रोध आदिर्येषां ते क्रोधादयः मीयते - परिच्छिद्यतेऽनेनेति मानं स्वलक्षणं अनन्तानुबन्ध्यादिविशेषः, क्रोधादीनां मानं क्रोधादिमानं, क्रोधादिर्वा यो मानो-गर्वः क्रोधकारणस्तं हन्यात्, कोऽसौ ? - त्रीरः, द्वेषापनोदमुक्त्वा रागापनोदार्थमाह — 'लोहस्स' इत्यादि, लोभस्यानन्तानुबन्ध्यादेश्चतुर्विधस्यापि स्थितिं विपाकं च पश्य स्थितिर्महती सूक्ष्मसम्परायानुयायित्वाद् विपाकोऽप्यप्रतिष्ठानादिनरकापत्तेर्महान्, यत आगमः - "मच्छा मणुआ य सत्तमं पुढविं” ते च महा Jan Estication Intimational For Pantry Use Only 'कोहाइमाणं'.... एवं 'ग्रंथं परिण्णाय'.... दुवे गाथे गाथा क्रम रहिते सम्पादिते। मया तो वे गाथे क्रम-युक्ते कारिते | ~331~# Mandinary org Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [११४] गाथा - २ दीप अनुक्रम [-] “आचार” - अंगसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [२], मूलं [ ११४ / गाथा- २ ], निर्युक्ति: [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र- [ ०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्री भाचा राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ १६४ ॥ लोभाभिभूताः सप्तमपृथिवीभाजो भवन्तीति भावार्थः । यद्येवं ततः किं कर्त्तव्यमित्याह - 'सम्हा' इत्यादि, यस्माल्लोभाभिभूताः प्राणिवधादिप्रवृत्तितया महानरकभाजो भवन्ति, तस्माद्वीरो लोभहेतो:- वधाद्विरतः स्यात् किं च* 'छिंदिज्ज' इत्यादि, शोकं भावश्रोतो वा छिन्द्यात् अपनयेत् किम्भूतो ?-लघुभूतो मोक्षः संयमो वा तं गन्तुं शीलमस्येति लघुभूतगामी, लघुभूतं वा कामयितुं शीलमस्येति लघुभूतकामी, पुनरप्युपदेशदानायाह - 'गन्थ' मित्यादि, 'ग्रन्थं' बाह्याभ्यन्तरभेदभिन्नं ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय इहाचैव कालानतिपातेन धीरः सन् प्रत्याख्यान परिज्ञया परित्य * जेत् किं च 'सोय' मित्यादि, विषयाभिष्वङ्गः संसारश्रोतस्तत् ज्ञात्वा दान्त इन्द्रियनोइन्द्रियदमेन संयमं चरेदिति, * किमभिसन्धाय संयमं चरेदित्याह - 'उम्मज्ज उडुमित्यादि, इह मिथ्यात्वादि शैवलाच्छादित संसारहदे जीवकच्छपः श्रु तिश्रद्धासंयमयी र्यरूपमुन्मज्जनमासाद्य - लब्ध्या, अन्यत्र सम्पूर्णमोक्षमार्गासम्भवात् मानुष्येष्वित्युक्तं, क्त्वाप्रत्ययस्योत्तरक्रियासव्यपेक्षत्वादुत्तरक्रियामाह - 'नो पाणिण' मित्यादि, प्राणा विद्यन्ते येषां ते प्राणिनस्तेषां प्राणान् पश्चेन्द्रियत्रिवि धबलोच्छ्रासनिश्वासायुष्कलक्षणान् 'नो समारभेधाः' न व्यपरोपयेः, तदुपघातकार्यनुष्ठानं मा कृथा इत्युक्तं भवति, इतिः परिसमाप्ती, ब्रवीमीति पूर्ववत् । शीतोष्णीयाध्ययने द्वितीयोदेशकटीका समाप्तेति । उक्त द्वितीयोदेशकः, साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरोदेशके दुःखं तत्सहनं च प्रतिपादितं न च तत्सहनेनैव संयमानुष्ठानरहितेन पापकर्माकरणतया वा श्रमणो भवतीत्येतत् प्रागुद्देशार्थाधिकारनिदिंष्टमुच्यते, ततोऽनेन सम्बन्धेनाया तस्यास्योद्देश कस्य सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारयितव्यं तच्चेदम् Etication Intematinal तृतीय-अध्ययने तृतीय- उद्देशक : 'अक्रिया' आरब्ध:, For Pantry Use Only ~332~# शीतो० ३ उद्देशकः २ ।। १६४ ॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [११५] दीप अनुक्रम [१२५ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [३], मूलं [११५], निर्युक्ति: [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः संधि लोस्स जाणित्ता, आयओ बहिया पास, तम्हा न हंता न विधायए, जमिणं अन्नमन्नवितिगिच्छाए पडिलेहाए न करेइ पार्व कम्मं, किं तत्थ मुणी कारणं सिया? (सू० ११५) तत्र सन्धिर्वव्यतो भावतश्च तत्र द्रव्यतः कुड्यादिविवरं भावतः कर्म्मविवरं तत्र दर्शनमोहनीयं यदुदीर्णं तत्क्षीणं | शेषमुपशान्तमित्ययं सम्यक्त्वावाप्तिलक्षणो भावसन्धिः, यदिवा ज्ञानावरणीयं विशिष्टक्षायोपशमिकभावमुपगतमित्ययं सम्यग्ज्ञानावाप्तिलक्षणः सन्धिः, अथवा चारित्रमोहनीय क्षयोपशमात्मकः सन्धिस्तं ज्ञात्वा न प्रमादः श्रेयानिति, यथा हि लोकस्य चारकाद्यवरुद्धस्य कुड्यनिगडादीनां सन्धि-छिद्रं ज्ञात्वोपलभ्य न प्रमादः श्रेयान् एवं मुमुक्षोरपि कर्मविवरमासाद्य लवक्षणमपि पुत्रकलत्रसंसारसुखव्यामोहो न श्रेयसे भवतीति यदिवा सन्धानं सन्धिः, स च भावसन्धिर्ज्ञानदर्शनचारित्राध्यवसायस्य कम्र्म्मोदयात् क्रुष्यतः पुनः सन्धानं मीलनम्, एतत्क्षायोपशमिकादिभावलोकस्य विभक्तिपरिणामाद्वा लोके ज्ञानदर्शन चारित्रार्ह भावसन्धि ज्ञात्वा तदक्षुण्णप्रतिपालनाय विधेयमिति, यदिवा सन्धिः - अवसरो धर्मानुष्ठानस्य तं ज्ञात्वा लोकस्य - भूतग्रामस्य दुःखोत्पादनानुष्ठानं न कुर्यात् । सर्वत्रात्मौपम्यं समाचरेदित्याह - 'आयओ' इत्यादि, यथा ह्यात्मनः सुखमिष्टमितरत्त्वन्यथा तथा बहिरपि आत्मनो व्यतिरिकानामपि जन्तूनां सुखप्रियत्वमसुखाप्रियत्वं च 'पश्य' अवधारय । तदेवमात्मसमतां सर्वप्राणिनामवधार्य किं कर्त्तव्यमित्याह - 'तम्हा' इत्यादि, यस्मात्सर्वेऽपि जन्तवो दुःखद्विषः सुखलिप्स वस्तस्मात्तेषां 'न हन्ता' न व्यापादकः स्यान्नाप्यपरैस्तान् जन्तून् विविधैः नानाप्रकारैरुपा Jan Estucation Intimatinal For Parts O ~333~# Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [११५], नियुक्ति: [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११५] दीप अनुक्रम [१२५] श्रीआचा- दायैर्यातयेत् विधातयेदिति, यद्यपि कांश्चित् स्थूलान् सत्वान् स्वयं पापण्डिनो न नन्ति तथाऽप्यौदेशिकसन्निध्यादिपरिभो- शीतो०३ राङ्गवृत्तिः गानुमतेरपरैर्घातयन्ति । न चैकान्तेन पापकाकरणमात्रतया श्रमणो भवतीति दर्शयति-'जमिण' मित्यादि, यदिदं(शी०) यदेतत् पापकर्माकरणताकारणं, किं तद् ?, दर्शयति-अन्योऽन्यस्य परस्परं या विचिकित्सा-आशङ्का परस्परतो भयं उद्देशकः३ लज्जा वा तया तां वा प्रत्युपेक्ष्य परस्पराशङ्कयाऽपेक्षया वा पापं-पापोपादानं कर्मानुष्ठानं 'न करोति' न विधत्ते, किं १६५॥ प्रश्ने क्षेपे वा, 'तत्र' तस्मिन् पापकर्माकरणे किं मुनिः कारणं स्यात् ?, किं मुनिरितिकृत्वा पापकर्म न करोति ?, काका पृच्छति, यदिवा यदि नामासौ यथोक्तनिमित्तालापानुष्ठानविधायी न सञ्जज्ञे किमेतायतैव मुनिरसौ ?, नैव मुनिरित्यर्थः, अद्रोहाध्यवसायो हि मुनिभावकारणं, स च तत्र न विद्यते, अपरोपाध्यावेशात , विनेयो वा पृच्छति-यदिदं परस्पराशङ्कया आधाकादिपरिहरणं तन्मुनिभावाङ्गतां यात्याहोस्विन्नेति?, आचार्य आह-सौम्य ! निरस्तापरब्यापारः शृणु-'जमिण'|मित्यादि, (अपरोपाधिनिरस्त हेयव्यापारत्वमेव मुनिभावकारणमिति भावार्थः, यतः शुभान्तःकरणपरिणामव्यापारापादितदाक्रियस्य मुनिभावो नान्यथेति, अयं तावन्निश्चयनयाभिप्रायो व्यवहाराभिप्रायेण तुच्यते-यो हि सम्यग्दृष्टिरुत्क्षिप्तपञ्चम-IG हातभारस्तद्बहने प्रमाद्यन्नप्यपरसमानसाधुलज्जया गुर्वाधाराध्यभयेन गौरवेण वा केनिचिदाधाकम्मोदि परिहरन् प्रत्युपेक्षणादिकाः क्रियाः करोति, यदि च तीर्थोद्धासनाय मासक्षपणातापनादिका जनविज्ञाताः क्रियाः करोति, तत्र तस्य & मुनिभाव एव कारणं, तद्व्यापारापादितपारम्पर्य शुभाध्यवसायोपपत्तेः ॥ तदेवं शुभान्तःकरणब्यापारविकलस्य मुनित्वे सदसद्भावः प्रदर्शितः, कथं तहिं नैश्चयिको मुनिभाव इत्यत आह ~334~# Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [११६] गाथा - १ दीप अनुक्रम [१२६+ १२७] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [३], मूलं [ ११६ / गाथा - १], निर्युक्ति: [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः समयं तत्थुबेहा अप्पाणं विप्पसायए- अणन्नपरमं नाणी, नो पमाए कयाइवि । आयगुत्ते सया वीरे, जायामायाइ जावए ॥ १ ॥ विरागं रूवेहिं गच्छिजा महया खुएहि य, आगई गई परिष्णाय दोहिवि अंतेहिं अदिस्समाणेहिं से न छिजइ न भिज्जइ न उज्झइ न हमइ कंचणं सव्वलोए (सू० ११६ ) समभावः समता तां तत्रोत्प्रेक्ष्य पर्यालोच्य समताव्यवस्थितो यद्यत्करोति येन केनचित्प्रकारेणानपणीयपरिहरणं लजादिना जनविदितं चोपवासादि तत्सर्वं मुनिभावकारणमिति, (यदिवा समयम्-आगमं तत्रोत्प्रेक्ष्य यदागमोक्तविधिना|नुष्ठानं तत्सर्वं मुनिभावकारणमिति भावार्थ:, तेन चागमोत्प्रेक्षणेन समतोत्प्रेक्षया वाऽऽत्मानं 'विप्रसादयेद्' विविधं प्रसादयेदागमपर्यालोचनेन समतादृष्ट्या वा आत्मानं विविधैरुपायैरिन्द्रियप्रणिधानाप्रमादादिभिः प्रसन्नं विदध्याद् । आत्मप्रसन्नता च संयमस्थस्य भवति, तत्राप्रमादवता भाव्यमित्याह च- 'अणण्णपरम' मित्याद्यनुष्टुप् न विद्यतेऽन्यः | परमः - प्रधानोऽस्मादित्यनन्यपरमः - संयमस्तं 'ज्ञानी' परमार्थवित् 'नो प्रमादयेत् तस्य प्रमादं न कुर्यात्कदाचिदपि, | यथा चाप्रमादवत्ता भवति तथा दर्शयितुमाह- 'आयगुत्ते' इत्यादि, इन्द्रियनोइन्द्रियात्मना गुप्तः आत्मगुप्तः 'सदा' सर्वकालं यात्रा - संयमयात्रा तस्यां मात्रा यात्रामात्रा, मात्रा च 'अच्चाहारो न सहे' इत्यादि, तयाऽऽत्मानं यापयेद्यथा विषयानुदीरणेन दीर्घकालं संयमाधारदेहमतिपालनं भवति तथा कुर्यादित्युक्तं भवति, उक्तं च- "आहारार्थं कर्म कुर्यादनिन्द्यं, Jan Estucation anal For Pantry Use Only ~335~# Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [११६] गाथा - १ दीप अनुक्रम [१२६+ १२७] “आचार” - अंगसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [३], मूलं [ ११६ / गाथा - १], निर्युक्ति: [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ १६६ ॥ स्यादाहारः प्राणसन्धारणार्थम् । प्राणाः धार्यास्तत्त्वजिज्ञासनाय, तत्त्वं ज्ञेयं येन भूयो न भूयात् ॥ १ ॥” सैवात्मगुप्तता कथं स्यादिति चेदाह - 'विराग' मित्यादि, विरञ्जनं विरागस्तं विरागं रूपेषु मनोज्ञेषु चक्षुर्गोचरीभूतेषु 'गच्छेद्' यायात्, रूपमतीवाऽऽक्षेपकारी अतो रूपग्रहणम्, अन्यथा शेषविषयेष्वपि विरागं गच्छेदित्युक्तं स्यात्, महता - दिव्यभावेन ययवस्थितं रूपं क्षुल्लकेषु वा मनुष्यरूपेषु सर्वत्र विरागं कुर्यादिति, अथवा दिव्यादि प्रत्येकं महत् क्षुलं चेति क्रिया पूर्ववत्, ॐ नागार्जुनीयास्तु पठन्ति – “विसयंमि पंचगंमीवि, दुबिहंमि तियं तियं । भावओ मुहु आणित्ता, से न लिप्पड़ दोसुवि ॥ १ ॥ शब्दादिविषयपञ्चकेऽपि इष्टानिष्टरूपतया द्विविधे हीनमध्यमोत्कृष्टभेदमित्येतत् भावतः परमार्थतः सुष्ठु ज्ञात्वा मुनिः पापेन कर्म्मणा द्वाभ्यामपि रागद्वेषाभ्यां न लिप्यते, तदकरणादिति भावः स्यात् किमालम्ब्यैतत्कर्त्तव्य मि त्याह- 'आग' मित्यादि, आगमनम् आगतिः सा च तिर्यङ्मनुष्ययोश्चतुर्द्धा चतुर्विधनरकादिगत्यागमनसद्भावाद्, देवनारकयोर्द्वेधा, तिर्यग्मनुष्यगतिभ्यामेवागमन सद्भावाद्, एवं देवगतिरपि मनुष्येषु तु पञ्चधा, तत्र मोक्षगतिसद्भावाद्, अतस्वामागतिं गतिं च परिज्ञाय संसारचक्रवालेऽरघट्टघटीयन्त्रन्यायमवेत्य मनुष्यत्वे च मोक्षगतिसद्भावमाकलय्यान्तहेतुत्वादन्ती-रागद्वेषौ ताभ्यां द्वाभ्यामन्ताभ्यामदृश्यमानाभ्यामनपदिश्यमानाभ्यां वा, क्त्वाप्रत्ययस्योत्तरक्रियामाह - 'से' इत्यादि, सः- आगतिगतिपरिज्ञाता रागद्वेषाभ्यामनपदिश्यमानो न छिद्यतेऽस्यादिना न भिद्यते कुन्तादिना न दह्यते पावकादिना न हन्यते नरकगत्यानुपूर्व्यादिना बहुशः, अथवा रागद्वेषाभावात् सिद्धयत्येव तदवस्थस्य चैतानि छेदनादीनि विशेषणानि 'कंचण' मिति विभक्तिपरिणामात् केनचित्सर्वस्मिन्नपि लोके न छिद्यते नापि भिद्यते रागद्वेषोपशमादिति, Jan Estication Intematonal For Pana ~336 ~# शीतो० ३ उद्देशकः ३ ॥ १६६ ॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [११६/गाथा-१],नियुक्ति: [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत ॥१॥ दीप अनुक्रम [१२८] तदेवमागतिगतिपरिज्ञानाद्रागद्वेषपरित्यागस्तदभावाच छेदनादिसंसारदुःखाभावः। अपरे च साम्पतेक्षिणः कुतो वयमागताः कयास्यामः किं वा तत्र नः सम्पत्स्यते ?, नैवं भावयन्त्यतः संसारभ्रमणपात्रतामनुभवन्तीति दर्शयितुमाह अवरेण पुचि न सरंति एगे, किमस्स तीयं किं वाऽऽगमिस्सं । भासंति एगे इह माणवाओ, जमस्स तीयं तमागमिस्सं ॥१॥नाईयमटुं न य आगमिस्स, अटै नियच्छन्ति तहागया उ। विहुयकप्पे एयाणुपस्सी, निज्झोसइत्ता खवगे महेसी॥२॥ रूपकं, 'अपरेण' पश्चात्कालभाविना सह पूर्वमतिकान्तं न स्मरन्त्येकेऽन्ये मोहाज्ञानावृतबुद्धयो यथा किमस्य जन्तोर्नरकादिभवोद्भूतं बालकुमारादिवयोपचितं वा दुःखायतीतं किं वाऽऽगमिष्यति आगामिनि काले किमस्य सुखाभिलाषिणो दुःखद्विषो भावीति, यदि पुनरतीतागामिपर्यालोचनं स्यान्न तर्हि संसाररतिः स्यादिति, उक्कं च-"केण ममेत्थुप्पत्ती कहं इओ तह पुणोऽवि गंतव्वं? । जो एत्तियपि चिंतइ इत्थं सो को न निविण्णो? ॥१॥" एके पुन महामिथ्याज्ञानिनो भाषन्ते-'इह' अस्मिन् संसारे मनुष्यलोके वा मानवा-मनुष्या यथा यदस्य जन्तोरतीतं स्त्रीपुंनतापुंसकसुभगदुर्भगश्वगोमायुब्राह्मणक्षत्रियविट्शदादिभेदावेशात् पुनरप्यन्यजन्मानुभूतं तदेवागमिष्यम्-आगामीति, यदिवा न विद्यते परः-प्रधानोऽस्मादित्यपरः-संयमस्तेन वासितचित्ताः सन्तः 'पूर्व' पूर्वानुभूतं विषयसुखोपभोगादि कैग ममागोपत्तिः केतः तथा पुनरपि गन्तव्यम् । य इयवपि पिम्तयति अत्र सका न निविण १ ॥1॥ wwwandltimaryam ~337~# Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [११६/गाथा-२],नियुक्ति: [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुधाक ||२|| दीप अनुक्रम [१२९] श्रीआचा-टा'न स्मरन्ति' न तदनुस्मृति कुर्वते, एके रागद्वेषविप्रमुक्ताः, तथाऽनागतदिव्याङ्गनाभोगमपि नाकालन्ति, किं च-अस्य शीतो. रावृत्तिःजन्तोरतीतं सुखदुःखादि किं वाऽऽगमिष्यम्-आगामीत्येतदपि न स्मरन्ति, यदिवा कियान कालोऽतिक्रान्तः किया-1 उद्देशका ३ (शी०) ४ानेष्यति, लोकोत्तरास्तु भाषन्ते-एके रागद्वेषरहिताः केवलिनश्चतुर्दशपूर्वविदो वा यदस्य जन्तोरनादिनिधनत्वात् काल-18 शरीरसुखाद्यतीतमागामिन्यपि तदेवेति, अपरे तु पठन्ति-"अवरेण पुब्बं किह से अतीतं, किह आगमिस्सं न सरंति ॥१६७॥ जाएगे। भासन्ति एगे इह माणबाओ, जह स अईअंतह आगमिस्सं ॥१॥" अपरेण-जन्मादिना साई पूर्वम्-अति क्रान्तं जन्मादि न स्मरन्ति, 'कथं वा केन वा प्रकारेणातीतं सुखदुःखादि, कथं चैष्यमित्येतदपि न स्मरन्ति, एके भाषन्ते-किमत्र ज्ञेयं ?, यथैवास्य रागद्वेषमोहसमुत्थैः कर्मभिवक्ष्यमानस्य जन्तोस्तद्विपाकांश्चानुभवतः संसारस्य यदतिक्रान्तमागाम्यपि तत्प्रकारमेवेति, यदिवा प्रमादविषयकषायादिना कम्ाण्युपचित्येष्टानिष्टविषयाननुभवतः सर्वज्ञवाक्सुधास्वादासंविदो यथा संसारोऽतिक्रान्तस्तथागाम्यपि यास्यति, ये तु पुनः संसारार्णवतीरभाजस्ते पूर्वोत्त रवेदिन इत्येतद्दर्शयितुमाह-'नाईय' मित्यादि, तथैव-अपुनरावृत्त्या गर्त-गमनं येषां ते तथागताः-सिद्धाः, यदिवा यथैव ज्ञेयं तथैव गतं-ज्ञानं येषां ते तथागताः-सर्वज्ञाः, ते तु नातीतमर्थमनागतरूपतयैव नियच्छन्ति-अवधारयन्ति | नाप्यनागतमतिक्रान्तरूपतयैव, विचित्रत्वात् परिणतेः, पुनरर्थग्रहणं पर्यायरूपार्थ, द्रव्यार्थतया वेकत्वमेवेति, यदिवा नातीतमर्थ विषयभोगादिकं नाप्यनागतं दिव्याङ्गनासङ्गादिकं स्मरन्त्यभिलषन्ति वा, के, तथागता:-रागद्वेषाभावात् ॥१६७।। पुनरावृत्तिरहिताः, तुशब्दो विशेषमाह, यथा मोहोदयादेके पूर्वमागामि वाऽभिलपन्ति, सर्वज्ञास्तु नैवमिति । तन्मा wwwandltimaryam ~338~# Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [११७/गाथा-२],नियुक्ति: [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११७] दीप अनुक्रम [१३०]] गर्गानुयाय्यप्येवम्भूत एवेति दर्शयितुमाह-विहूय कप्पे' इत्यादि, विविधम्-अनेकधा धूतम्-अपनीतमष्टप्रकारं कर्म येन स विधूतः, कोऽसी? कल्प:-आचारो, विधूतः कल्पो यस्य साधोः स विधूतकल्पः स एतदनुदर्शी भवति, अतीतानागतसुखाभिलाषी न भवतीतियावत्, एतदनुदी च किंगुणो भवतीत्याह-'निझोस' इत्यादि, पूर्वोपचितकमणां निझोंपयिता--क्षपकः क्षपयिष्यति वा तृजन्तमेतलुडन्तं वा। कमेक्षपणायोद्यतस्य च धर्माध्यायिनः शुक्लध्या-12 यिनो वा महायोगीश्वरस्य निरस्तसंसारसुखदुःखविकल्पाभासस्य यत्स्यात्तद्दर्शयति का अरई के आणंदे ?, इत्यपि अग्गहे चरे, सव्वं हासं परिचज आलीणगुत्तो परि व्बए, पुरिसा!-तुममेव तुम मित्तं किं बहिया मित्तमिच्छसि ? (सू० ११७) इष्टाप्राप्तिविनाशोत्थो मानसो विकारोऽरतिः, अभिलषितावातावानन्दः, योगिचित्तस्य तु धर्मशुक्लध्यानावेशावष्टब्धध्येयान्तरावकाशस्यारत्यानन्दयोरुपादानकारणाभावादनुस्थानमेवेत्यतोऽपदिश्यते-केयमरति म को वाऽऽनन्द दाइति?, नास्त्येवेतरजनक्षुण्णोऽयं विकल्प इति । एवं तहरतिरसंयमे संबमे चानन्द इत्येतदन्यत्रानुमतमनेनाभिप्रायेण न विधेयमित्येतदनिच्छतोऽप्यापन्नमिति चेत्, न, अभिप्रायापरिज्ञानाद् यतोऽत्रारतिरतिविकल्पाध्यवसायो निषिषि सितः, न प्रसङ्गायाते अप्यरतिरती, तदाह-'एत्थंपी'त्यादि, अत्राप्यरतावानन्दे चोपसर्जनप्राये न विद्यते 'ग्रहों। लगाय तात्पर्य यस्य सोऽग्रहः, स एवम्भूतश्चरेद्-अवतिष्ठेत, इदमुक्तं भवति-शुक्लध्यानादारतोऽरत्यानन्दौ कुतश्चिन्नि ~339~# Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [3], मूलं [११७],नियुक्ति: [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: S प्रत श्रीआचा- रावृत्तिः (शी०) ॥१६८॥ सूत्रांक [११७] दीप अनुक्रम [१३०]] ECREASCORRECAR मित्तादायातौ तदाग्रहग्रहरहितस्तावप्यनुचरेदिति । पुनरप्युपदेशदानायाह-सव्व' मित्यादि, (सर्वे हास्यं तदास्पदं वा । शीतो० ३ परित्यज्याइ-मर्यादयेन्द्रियनिरोधादिकया लीनः आलीनो गुप्तो मनोवाक्कायकर्मभिः कूर्मवद्धा संवृतगात्रः,आलीनश्चासौ गुप्तधालीनगुप्तः स एवम्भूतः परिः-समन्तादूजेत् परिव्रजेत्-संयमानुष्ठान विधायी भवेदिति । तस्य च मुमुक्षोरास्मसा-INT उद्देश ३ " मात् संयमानुष्ठान फलवयति न परोपरोधेनेति दर्शयति-'पुरिसा' इत्यादि, यदिवा त्यक्तगृहपुत्रकलनधनधान्य-12 हिरण्यादितया अकिश्चनस्य समतृणमणिमुक्तालेष्टुकाश्चनस्य मुमुक्षोरुपसर्गव्याकुलितमतेः कदाचिन्मित्राद्याशंसा भवेतदपनोदार्थमाह-'पुरिसा' इत्यादि, पूर्णः सुखदुःखयोः पुरि शयनाद्वा पुरुषो-जन्तुः, पुरुषद्वारामन्त्रणं तु पुरुषस्यैवोपदेशाहत्वात्तदनुष्ठानसमर्थत्वाचेति, कश्चित्संसारादुद्विग्नो विषमस्थितो बाऽऽत्मानमनुशास्ति, परेण वा साध्वादिनाऽनुशास्यत्ते-यथा हे पुरुष-हे जीव! तब सदनुष्ठानविधायित्वात्त्वमेव मित्रं, विपर्ययाञ्चामित्रः, किमिति बहिर्मित्रमिच्छसि ?-मृगयसे, यतो झुपकारि मित्रं, स चोपकारः पारमार्थिकात्यन्तिकैकान्तिकगुणोपेतं सन्मार्गपतितमात्मानं विहाय नान्येन शक्यो विधातु, योऽपि संसारसाहाय्योपकारितया मित्राभासाभिमानस्तन्मोहविजृम्भित, यतो महाव्य-15 |सनोपनिपाताणेवपतनहेतुत्वादमित्र एवासी, इदमुक्तं भवति-आत्मैवात्मनोऽप्रमत्तो मित्रम्, आत्यन्तिकैकान्तिकपरमार्थसुखोत्पादनात्, विपर्ययाच विपर्ययो, न बहिमित्रमन्वेष्टव्यमिति, यस्त्वयं बाह्यो मित्रामित्रविकल्पः सोऽदृष्टो-: दयनिमित्तत्वादीपचारिक इति, उक्तं हि-"दुष्पस्टिओ अमित्तं अप्पा सुपस्थिओ अ ते मित्तं । सुहदुक्खकारणाओ ॥१६८॥ १पस्थितोऽभित्र भारमा सुप्रस्थितय ते भित्रम् । सुखदुःखकारणात आरमा मित्रममित्रय ॥1॥ २ * www.tanditimaryam ~340~# Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [११८],नियुक्ति: [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: * प्रत * सूत्रांक * [११८] * अप्पा मिसं अमित्तं च ॥१॥" तथा-"अप्येकं मरणं कुर्यात्, संक्रुद्धो बलवानरिः । मरणानि त्वनन्तानि, जन्मानि च करोत्ययम् ॥१॥" यो हि निर्वाणनिर्वर्तकं व्रतमाचरति स आत्मनो मित्रं, स चैवम्भूतः कुतोऽवगन्तव्यः? किंफलश्चेत्याह जं जाणिज्जा उच्चालइयं तं जाणिज्जा दूरालइयं, जं जाणिज्जा दूरालइयं तं जाणिज्जा उच्चालइयं, पुरिसा! अत्ताणमेवं अभिणिगिज्झ एवं दुक्खा पमुच्चसि, पुरिसा! सञ्चमेव समभिजाणाहि, सच्चस्स आणाए से उवट्ठिए मेहावी मारं तरइ, सहिओ धम्म मायाय सेयं समणुपस्सइ (सू०११८) 'व' पुरुष 'जानीयात्' परिच्छिन्द्याकर्मणां विषयसङ्गानां चोच्चालयितारम्-अपनेतारं तं जानीयात् 'दूरालयिकमिति, दूरे सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यालयो दूरालयः-मोक्षस्तन्मार्गो वा स विद्यते यस्येति मत्वर्थीयष्ठन् दरालयिकस्तमिति, |हेतुहेतुमद्भाचे दर्शयितुं गतप्रत्यागतसूत्रमाह-जं जाणेजे'त्यादि, यं जानीयारालयिकं तं जानीयादुच्चालयितारमिति, |एतदुक्तं भवति-यो हि कर्मणां तदात्रबद्वाराणां चोच्चालयिता-अपनेता स मोक्षमार्गव्यवस्थितो मुक्तो वेति, यो वा सन्मागांनुष्ठायी स कर्मणामुष्चालयितेति, स च आत्मनो मित्रमतोऽपदिश्यते-पुरिसा' इत्यादि, हे जीव! आत्मान|मेवाभिनिगृह्य धर्मध्याना(हिर्विषयाभिष्वङ्गाय निःसरन्तमवरुध्य ततः 'एवम्' अनेन प्रकारेण दुःखारसकाशादात्मानं | दीप अनुक्रम [१३१] * * wwwandltimaryam ~341-23 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [११८],नियुक्ति: [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत शीतो०३ उद्देशकः३ सूत्रांक [११८] दीप अनुक्रम [१३१] श्रीआचा- मोक्ष्यसि, एवमात्मा कर्मणां उच्चालयिताऽऽत्मनो मित्रं भवति । अपि च-पुरिसा' इत्यादि, हे पुरुष! सयो हितः राङ्गवृत्तिः सत्यः-संयमस्तमेवापरब्यापारनिरपेक्षः समभिजानीहि-आसेवनापरिज्ञया समनुतिष्ठ, यदिवा सत्यमेव समभिजानीहि(शी०) गुरुसाक्षिगृहीतप्रतिज्ञानिर्वाहको भव, यदिवा सत्यः-आगमस्तसरिज्ञानं च मुमुक्षोस्तदुक्तप्रतिपालनं । किमर्थमेतदिति चेदाह-सच्चस्से'त्यादि, सत्यस्य-आगमस्याज्ञयोपस्थितः सन् मेधावी 'मारं' संसारं तरति, किं च-'सही'त्यादि, स॥१६९॥ दहितो-ज्ञानादियुक्तः सह हितेन वा युक्तः सहितः 'धर्म' श्रुतचारित्राख्यं “आदाय' गृहीत्वा, किं करोतीत्याह-श्रेयः'। पुण्यमात्महितं वा सम्यग्-अविपरीततयाऽनुपश्यति समनुपश्यति । उक्तोऽप्रमत्तः तद्गुणाश्च, तद्विपर्ययमाह दुहओ जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए, जसि एगे पमायंति (११९) द्विधा-रागद्वेषप्रकारद्वयेनात्मपरनिमित्तमैहिकामुष्मिकार्थं वा यदिवा द्वाभ्यां-रागद्वेषाभ्यां हतो द्विहतो दुष्टं हतो वा दुर्हतः, स किं कुयाद् ?-जीवितस्य कदलीगर्भनिःसारस्य तडिल्लतासमुल्लसितचञ्चलस्य परिवन्दनमाननपूजनार्थ हिंसादिषु| प्रवर्तते, परिवन्दन-परिसंस्तवस्तदर्थमाचेष्टते, लावकादिमांसोपभोगपुष्टं सर्वाङ्गोपाङ्गसुन्दरमालोक्य मां जनाः सुखमेव परिवन्दिप्यन्ते, श्रीमान् जीयास्त्वं बहूनि वर्षशतसहस्राणीत्येवमादि परिवन्दनं, तथा माननार्थ कर्मोपचिनोति, दृष्टी-1 रसवलपराक्रम मामन्येऽभ्युत्थानविनयासनदानाञ्जलिप्रग्रहर्मानयिष्यन्तीत्यादि माननं, तथा पूजनार्थमपि प्रवर्त्तमानाः कर्मानवैरात्मानं भावयन्ति, मम हि कृतविद्यस्योपचितद्रव्यप्राग्भारस्य परो दानमानसत्कारप्रणामसेवाविशेषैः पूजां कर १६९॥ wwwandltimaryam ~342~# Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१२०] दीप अनुक्रम [१३३] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [३], मूलं [१२०],निर्युक्तिः [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः करिष्यतीत्यादि पूजनं तदेवमर्थ कर्मोपचिनोति । किं च-- 'जंसि एगे इत्यादि, यस्मिन् परिवन्दनादिनिमित्ते एके रागद्वेषोपहताः प्रमाद्यन्ति, न ते आत्मने हिताः ॥ एतद्विपरीतं वाह सहिओ दुक्खमत्ताए पुट्ठो नो झंझाए, पासिमं दविए लोकालोकपवंचाओ मुचइ (१२० ) तिबेमि ॥ तृतीय उद्देशो ३-३ ॥ सहितो - ज्ञानादिसमन्वितो हितयुक्तो वा दुःखमात्रया उपसर्गजनितया व्याभ्युद्भवया वा स्पृष्टः सन् 'नो झंझाए 'सि नो व्याकुलितमतिर्भवेत्, तदपनयनाय नोद्यच्छेद्, इष्टविषयावासौ रागझञ्झाऽनिष्टावाष्ठौ च द्वेपझञ्झेति, तामुभयप्र|कारामपि व्याकुलतां परित्यजेदिति भावः । किं च--' पासिम' मित्यादि यदुक्तमुद्देशकादेरार भ्यानन्तरसूत्रं यावत् तमिममर्थ पश्य परिच्छिन्द्धि कर्त्तव्याकर्त्तव्यतया विवेकेनावधारय, कोऽसौ १-द्रव्यभूतो- मुक्तिगमनयोग्यः साधुरित्यर्थः, एवम्भूतश्च कं गुणमवामोति ? - आलोक्यत इत्यालोकः, कर्मणि घन्, लोके चतुर्दशरज्वात्मके आलोको लोकालोकस्तस्य प्रपञ्चः पर्याप्तकापर्याप्त कसुभगादिद्वन्द्वविकल्पः, तद्यथा-नारको नारकत्वेनावलोक्यते, एकेन्द्रियादिरे केन्द्रिय(यादि) खेन, एवं पर्याप्तकापर्याप्तकाद्यपि वाच्यं तदेवम्भूतात्मपञ्चान्मुच्यते-चतुर्द्दशजीवस्थानान्यतरव्यपदेशार्हो न | भवतीतियावद् । इतिः परिसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ इति शीतोष्णीयाध्ययने तृतीयोदेशकटीका समाप्ता ॥ Jan Estication Intematinal For Party Use Onl ~343~# Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१२१] दीप अनुक्रम [१३४] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [४], मूलं [१२१], निर्युक्तिः [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०) शीतो० ३ उक्तस्तृतीयोदेशकः, साम्प्रतं चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः--इहानन्तरोद्देशके पापकर्माकरणतया दुःखसहनादेव केवलाच्छ्रमणो न भवतीति अपि तु निष्प्रत्यूहसंयमानुष्ठानादित्येतत्प्रतिपादितं, निष्प्रत्यूहता च कषायवमनाद्भवति, तदधुना प्रागुद्देशार्थाधिकारनिर्दिष्टं प्रतिपाद्यते, तदनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्य सूत्रानुगमे सूत्रमु- के उद्देशकः ४ ४. चारयितव्यं तच्चेदम् ॥ १७० ॥ सेवंता कोहं च माणं च मायं च लोभं च, एयं पासगस्स दंसणं, उवरयसत्थस्स पलियंतकरस्स, आयाणं सगडब्भि ( सू० १२१ ) 'स' ज्ञानादिसहितो दुःखमात्रास्पृष्टोऽव्याकुलितमतिर्द्रव्यभूतो लोकालोकप्रपञ्चात् मुक्तदेश्यः स्वपरापकारिणं क्रोधं च वमिता 'टुवम् उद्भिरणे' इत्यस्मात्ताच्छीलिकस्तृन्, तद्योगे च षष्ठ्याः प्रतिषेधे क्रोधशब्दाद् द्वितीया, लुडन्तं चैतत्, यो हि यथोक्तसंयमानुष्ठायी सोऽचिरात् क्रोधं वमिष्यति, एवमुत्तरत्रापि यथासम्भवमायोज्यं, तत्रात्मात्मीयोपघातकारिणि क्रोधकर्म्मविपाकोदयात्क्रोधः, जातिकुलरूपबलादिसमुत्थो गर्यो मानः, परवञ्चनाध्यवसायो माया, तृष्णापरिग्रहपरिणामो लोभः क्षपणोपशमक्रममाश्रित्य च क्रोधादिक्रमोपन्यासः, अनन्तानुवन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसबलनस्वगतभेदाविर्भावनाय व्यस्तनिर्देशः, चशब्दस्तु पर्वतपृथ्वीरेणुजलराजिलक्षणलक्षकः क्रोधस्य, शैलस्तम्भास्थिकाप्रतिनिशलता लक्षणलक्षको मानस्य, वंशकुडङ्गीमेषशृङ्गगोमूत्रिकाऽबलेखक लक्षणलक्षको मायायाः, कृमिरागकर्द्दमखञ्ज तृतीय-अध्ययने चतुर्थ उद्देशक: 'कषायवमन' आरब्ध:, For Parts O ~344~# ॥ १७० ॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [१२१],नियुक्ति: [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२१] दीप नहरिद्वालक्षणसूचको लोभस्य, तथा यावज्जीवसंवत्सरचातुर्मासपक्षस्थित्याविर्भावकश्चेति । तदेवं क्रोधमानमायालोभ-1 वमनादेव पारमार्थिकः श्रमणभावो, न तत्सम्भवे सति, यत उक्तम्-सामण्णमणुचरंतस्स कसाया जस्स उकडा हुंति । मन्नामि उच्छुपुष्पं व निष्फलं तस्स सामण्णं ॥ १ ॥ अजिअं चरित्तं देसूणाएवि पुब्बकोडीए । तंपि कसाइयमेत्तो हारेइ नरो मुहुत्तेणं ॥ २ ॥"। स्वमनीषिकापरिहारार्थ गौतमस्वाम्याह-'एय' मित्यादि, 'एतद् यत्कषायवमनमनन्तरमुपादेशि तत् पश्यकस्य दर्शनं' सर्व निरावरणत्वात्पश्यति-उपलभत इति पश्यः स एव पश्यकः-तीर्थकृत् श्रीवर्द्ध|मानस्वामी तस्य दर्शनम्-अभिप्रायो यदिवा दृश्यते यथावस्थितं वस्तुतत्त्वमनेनेति दर्शनम्-उपदेशो, न स्वमनीषिका. | किम्भूतस्य पश्यकस्य दर्शनमित्याह-उवरय' इत्यादि, उपरतं द्रव्यभावशस्त्रं यस्यासावुपरतशस्त्र शस्त्राद्वोपरतः शस्त्रोपरतः, भावे शखं त्वसंयमः कपाया वा, तस्मादुपरतः, इदमुक्तं भवति-तीर्थकृतोऽपि कषायवमनमृते न निरावरणसकलपदार्थयाहिपरमज्ञानावाप्तिः, तदभावे च सिद्धिवधूसमागमसुखाभावः, एवमन्येनापि मुमुक्षुणा तदुपदेशवर्तिना तन्मार्गानुयायिना कषायवमनं विधेयमिति, शस्त्रोपरमकार्य दर्शयन् पुनरपि तीर्थकरविशेषणमाह-'पलियंतकरस्स' पर्यन्तं कर्मणां संसारस्य वा करोति तच्छीलश्चेति पर्यन्तकरस्तस्यैतद् र्दशन मिति सण्टकः । यथा च तीर्थकृत् संयमापकारिकषायशस्त्रोपरमात्कर्मपर्यन्तकृदेवमन्योऽपि तदुक्कानुसारीति दर्शयितुमाह-'आयाण' मित्यादि, आदीयते-गृह्यते १ आमण्यमनुधरतः कषाया यस्वोत्कटा भवन्ति । मन्ये इक्षुपुष्पयन निष्फलं तस्य श्रामण्यम् ॥ १॥ यदर्जितं चारित्रं देशोनयाऽपि पूर्वकोव्या । तदपि | कपायितमात्रो हारयति नरो मुहूर्तेन ॥२॥ अनुक्रम [१३४] HERE wwwanatimarmarg ~345~# Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१२१] दीप अनुक्रम [१३४] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [४], मूलं [१२१], निर्युक्ति: [ २१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचाआत्मप्रदेशैः सह लिप्यतेऽष्टप्रकारं कर्म्म येन तदादानं हिंसाद्याश्रवद्वारमष्टादशपापस्थानरूपं वा तत्स्थितेर्निमित्तत्वा- शीतो० ३ राङ्गवृत्तिः कषाया वाऽऽदानं तद्वमिता स्वकृतभिद्भवति, स्वकृतमनेकजन्मोपात्तं कर्म भिनत्तीति स्वकृतभित्, यो ह्यादानं + उद्देशकः ४ (शी०) : कर्म्मणां कषायादि निरुणद्धि सोऽपूर्वकर्म्मप्रतिषिद्धप्रवेशः स्वकृतकर्म्मणां भेत्ता भवतीति भावः, तीर्थकरोपदेशेनापि परकृतकर्म्मक्षपणोपायाभावात् स्वकृतग्रहणं, तीर्थकरेणापि परकृतकर्मक्षपणोपायो न व्यज्ञायीति चेत्, तन, तज्ज्ञा॥ १७१ ॥ नस्य सकलपदार्थसत्ताव्यापित्वेनावस्थानात् ॥ ननु च हेयोपादेयपदार्थहानोपादानोपदेशज्ञोऽसौ न सर्वज्ञ इति सनिरामहे, एतावतैव परोपकारकर्तृत्वेन तीर्थकरत्वोपपत्तेः, तदेतन्न सतां मनांस्यानन्दयति, युक्तिविकलत्वात्, यतः सम्य * ग्ज्ञानमन्तरेण हिताहितप्राप्तिपरिहारोपदेशासम्भवो यथावस्थितैकपदार्थपरिच्छेदश्च न सर्वज्ञतामन्तरेणेति दर्शयितुमाह ४ जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ (सू० १२२ ) 'यः' कश्चिदविशेषितः 'एक' परमाण्वादि द्रव्यं पश्चात् पुरस्कृतपर्यायं स्वपरपर्यायं वा 'जानाति' परिच्छिनत्ति स सर्व स्वपरपर्यायं जानाति, अतीतानागतपर्यायिद्रव्यपरिज्ञानस्य समस्त वस्तुपरिच्छेद । विनाभावित्वाद् इदमेव हेतुहेतुमद्भावेन लगयितुमाह--'जे सब्ब' मित्यादि, यः सर्वे संसारोदरविवरवर्त्ति वस्तु जानाति स एकं घटादि वस्तु जानाति, तस्यैवातीतानागतपर्याय भेदैस्तत्तत्स्वभावापस्याऽनाद्यनन्तकालतया समस्तवस्तुस्वभावगमनादिति, तदुक्तम्- "एगदवियस्स जे १ एकद्रव्यस्य येऽर्थंवा वचनपर्यना वाऽपि वीतानागत भूता (वर्तमाना) तावत्तद् भवति द्रव्यम् ॥ १ Jan Estication Intimanal For Pantry Use Only ~ 346 ~# ॥ १७१ ॥ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [१२२],नियुक्ति: [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत ***** सूत्रांक [१२२ दीप अत्थपज्जवा वयणपज्जवा वावि । तीयाणागयभूया तावइयं तं हवइ दबं ॥१॥" तदेवं सर्वज्ञस्तीर्थकृत, सर्वज्ञश्च | सम्भविनमेव सर्वसत्त्वोपकारिणमुपदेशं ददातीति दर्शयति सव्वओ पमत्तस्स भयं, सव्वओ अप्पमत्तस्स नत्थि भयं, जे एगं नामे से बहुं नामे, जे बहुं नामे से एगं नामे, दुक्खं लोगस्स जाणित्ता वंता लोगस्स संजोगं जति धीरा महाजाणं, परेण परं जंति, नावकखंति जीवियं (सू० १२३) सर्वतः-सर्वप्रकारेण द्रव्यादिना यद्यकारि कम्र्मोपादीयते ततः 'प्रमत्तस्य मद्यादिप्रमादवतो 'भयं' भीतिः, तद्यथादि प्रमत्तो हि कर्मोपचिनोति द्रव्यतः सर्वैरात्मप्रदेशैः क्षेत्रतः पदिग्व्यवस्थितं कालतोऽनुसमयं भावतो हिंसादिभिः, य-13 दिवा 'सर्वत्र' सर्वतो भयमिहामुत्र च, एतद्विपरीतस्य च नास्ति भयमिति, आह च-'सब्बओ' इत्यादि, 'सचेतः' ऐहिकामुष्मिकापायाद् 'अप्रमत्तस्य' आत्महितेषु जाग्रतो नास्ति भयं संसारापंसदात्सकाशात्कम्र्मणो वा, अप्रमत्तता च कपायाभावाभवति, तदभावाच्चाशेषमोहनीयाभावः, ततोऽप्यशेषकर्मक्षयः, तदेवमेकाभावे सति बहूनामभावसम्भवः, एकाभावोऽपि बहूवभावनान्तरीयक इत्येवं गतप्रत्यागतसूत्रेण हेतुहेतुमनाय दर्शयितुमाह-'जे एग' मित्यादि, यो हि| प्रवर्द्धमानशुभाध्यवसायाधिरूढकण्डकः एकम्-अनन्तानुबन्धिनं क्रोधं 'नामयति' क्षपयति स बहूनपि मानादीनामयति ||-क्षपयति अप्रत्याख्यानादीन् वा स्वभेदान्नामयति, मोहनीयं चैकं यो नामयति स शेषा अपि प्रकृतीनोमयति, यो वा| अनुक्रम [१३५]] ** *** wataneltmanam ~347~# Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१२३] दीप अनुक्रम [१३६ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [४], मूलं [१२३], निर्युक्तिः [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचाराङ्गवृत्तिः ॥ १७२ ॥ बहून् स्थितिशेषान्नामयति सोऽनन्तानुबन्धिनमेकं नामयति मोहनीयं वा, तथाहि एकोनसप्ततिभिर्मोहनीयकोटीकोटिभिः क्षयमुपागताभिः ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीयवेदनीयान्तरायाणामेकोनत्रिंशद्भिः नामगोत्रयोरेकोनविंशतिभिः (शी०) ४ शेषकोटीकोव्याऽपि देशोनया मोहनीयक्षपणार्हो भवति नान्य इत्यतोऽपदिश्यते यो बहुनामः स एव परमार्थत एकॐ नाम इति, नाम इति क्षपकोऽभिधीयते उपशामको वा, उपशमश्रेण्याश्रयेणैकबहूपशमता बहेकोपशमता वा वाच्येति, तदेवं बहेक कम्र्म्माभावमन्तरेण मोहनीयक्षयस्योपशमस्य वाऽभावः, तदभावे च जन्तूनां बहुदुःखसम्भव इति दर्शयति'दुक्ख' मित्यादि, 'दुःखम्' असातोदयस्तत्कारणं वा कर्म तत् 'लोकस्य' भूतग्रामस्य ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया च यथा तदभावो भवति तथा विदध्यात् कथं तदभावः ? का वा तदभावे गुणावाप्तिरित्युभयमपि दर्शयितुमाह-- 'बंता' इत्यादि, 'वान्त्वा त्यक्त्वा लोकस्य - आत्मव्यतिरिक्तस्य धनपुत्रशरीरादेः 'संयोगं' ममत्वपूर्वकं सम्बन्धं शारीरदुःखादिहेतुं तद्धेतुकम्मपादानकारणं वा 'यान्ति' गच्छन्ति 'धीराः' कर्म्मविदारणसहिष्णवः यान्त्यनेन मोक्षमिति यानं -चारित्रं तच्चानेकभवकोटिदुर्लभं लब्धमपि प्रमाद्यतस्तथाविधकम्र्मोदयात् स्वप्नावाप्तनिधिसमतामवाप्नोत्यतो महच्छव्देन विशेष्यते, महच्च तद्यानं च महायानं, यदिवा महद्यानं सम्यग्दर्शनादित्रयं यस्य स महायानो-मोक्षस्तं यान्तीति सम्बन्धः । स्यात् किमेकेनैव भवेनावाप्तमहायानदेश्य चारित्रस्य मोक्षावाप्तिरुत पारम्पर्येण ?, उभयथाऽपि ब्रूमः, तद्यथाअवाप्ततद्योग्यक्षेत्रकालस्य लघुकर्म्मणस्तेनैव भवेन मुक्त्यवाप्तिरपरस्य स्वन्यथेति दर्शयति- परेण पर' मित्यादि, सम्यक्त्वप्रतिषिद्धनरकगतितिर्य्यग्गतयो ज्ञानावाप्तियथाशक्तिप्रतिपालितसंयमा आयुषः क्षयात् सौधर्मादिकं देवलोकमवाप्नु Etication tamainal For Parts Only ~348~# शीतो० ३ उद्देशका ४ ॥ १७२ ॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१२३] दीप अनुक्रम [१३६ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [४], मूलं [१२३],निर्युक्तिः [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः वन्ति, ततोऽपि पुण्यशेषतया कर्म्मभूम्यार्यक्षेत्र सुकुलोत्पत्यारोग्य श्रद्धाश्रवणसंयमादिकमवाप्य विशिष्टतरं स्वर्गमनुत्तरो| पपातिकपर्यन्तमधितिष्ठन्ति, पुनरपि ततश्युतस्यावाप्तमनुष्यादिसंयम भावस्याशेष कर्म्मक्षयान्मोक्षः, तदेवं परेण संयमेनोद्दिष्टविधिना 'परं' स्वर्ग पारम्पर्येणापवर्गमपि यान्ति यदिवा 'परेण' सम्यग्दृष्टिगुणस्थानेन 'परं' देशविरत्याद्ययोगिकेवलिपर्यन्तं गुणस्थानकमधितिष्ठन्ति परेण वाऽनन्तानुबन्धिक्षये णोल्लसत्कण्डकस्थानाः 'पर' दर्शनमोहनीयचारित्रमोहनीयक्षयं घातिभवोपग्राहि कर्म्मणां वा क्षयमवाप्नुवन्ति, एवंविधाश्च कर्म्मक्षपणोद्यता जीवितं कियगतं किं वा शेषमित्येवं नावकाङ्क्षन्ति, दीर्घजीवित्यं नाभिलषन्तीत्यर्थः, असंयमजीवितं वा नावकाङ्क्षन्तीति यदिवा परेण परं यान्तीत्युत्तरोत्तरां तेजोलेश्यामवाप्नुवन्तीति, उक्तं च- "जे ईमे अज्जत्ताए समणा निम्गंधा विहरंति एए णं कस्स तेयलेस्सं वीईवयंति ?, गोयमा !, मासपरियाए समणे निग्गंथे वाणमंतराणं देवाणं तेयलेस्सं बीइवयइ, एवं दुमासपरियाए असुरिंदवज्जियाणं भवणवासीणं देवाणं, तिमासपरियाए असुरकुमाराणं देवाणं चउमासपरियाए गहगणनक्खत्ततारारूवाणं जोइसियाणं देवाणं, पंचमासपरियाए चंदिमसूरियाणं जोइसिंदाणं जोइसराईणं तेउलेस्सं, छम्मासपरियाए सोहम्मीसागाणं देवाणं, १ य इमे अयतया श्रमणा निर्मन्था विहरन्ति एते कस्य तेजोलेश्यां व्यतिषजन्ति, गौतम मासपर्यायः श्रमणो निर्मन्दो व्यन्तराणां देवानां तेजोलेश्यां व्यतित्रजति, एवं द्विमासपर्यायः अमुरेन्द्रवर्जितानां भवनवासिनां देवानां त्रिमासपर्यायोऽसुरकुमाराणां देवानां चतुर्मासपर्यायः महगणनक्षत्रतारारूपाणां ज्योतिष्कानां देवानां पथमा सपर्यायः चन्द्रसूर्य योज्योति केन्द्र योज्यतीराज वोस्तेजोलेश्यां परमासपर्यायः स्रोधर्मेशानानां देवानां सप्तमातपर्यायः सनत्कुमारमाहेन्द्राणां देवानां अष्टमासपर्याय ब्रह्मलोकतान्तकानां देवानां नवमासपर्यायो महाशुफसहाराणां देवानां दशमासपर्याय आनतप्राणतारणाच्युतानां देवानां एकादशमासपर्यायो मैवेयकाणां द्वादशमासः श्रमणो निर्मन्थोऽनुत्तरोपपातिकानां देवानां तेजोलेश्यां व्यतित्रजति, ततः परं शानिजातिर्भू (लो भूत्वा ततः पञ्चात्सिध्यति, Jan Estication Ital For Parts Only ~349 ~# Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [१२३],नियुक्ति: [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: शीतो०३ प्रत श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः सूत्रांक (सी०) 1४/ उद्देशका४ [१२३] ॥ १७३ ॥ सत्तमासपरिआए सणकुमारमाहिंदाणं देवाणं, अहमासपरियाए बंभलोगलंतगाणं देवाणं, नवमासपरिआए महा सुक्कस- हस्सारार्ण देवाणं, दसमासपरियाए आणयपाणयआरण चुआणं देवाण, एगारसमासपरियार गेवेजाणं, बारसमासे समणे निग्गंथे अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं तेयलेसं वीयवयइ, तेण परं सुके सुक्काभिजाई भवित्ता तो पच्छा सिज्झइ।" | यश्चानन्तानुबन्ध्यादिक्षपणोद्यतः स किमेकक्षयादेव प्रवर्तते उत नेत्याह एगं विगिंचमाणे पुढो विगिंचइ, पुढोवि, सवी आणाए मेहावी लोगं च आणाए अभिसमिच्चा अकुओभयं, अस्थि सत्थं परेण परं, नत्थि असत्थं परेण परं (सू० १२४) 'एकम्' अनन्तानुबन्धिनं क्रोधं क्षपक श्रेण्यारूढः क्षपयन् 'पृथग्' अन्यदपि दर्शनादिकं क्षपयति, बद्धायुष्कोऽपि दर्शनसप्तकं यावत्क्षपयति, पृथगन्यदपि क्षपयन्नवश्यमनन्तानुबन्धिनामक क्षपयति पृथग्-अन्य क्षयान्यथानुपपत्तेः, किं-18 गुणः क्षपकश्रेणियोग्यो भवतीत्याह-सट्ठी' इत्यादि, श्रद्धा-मोक्षमार्गाद्यमेच्छा विद्यते यस्यासौ श्रद्धावान् 'आज्ञया' तीर्धकरप्रणीतागमानुसारेण यथोक्तानुष्ठानविधायी 'मेधावी' अप्रमत्तयतिः मर्यादाव्यवस्थितः श्रेण्यहाँ नापर इति । किं च–'लोगं च' इत्यादि, चः समुच्चये 'लोक' षड्डीवनिकायात्मकं कषायलोकं वा 'आज्ञया' मौनीन्द्रागमोपदेशेन 'अभिसमेत्य' ज्ञात्वा पडीवनिकायलोकस्य यथा न कुतश्चिन्निमित्ताइयं भवति तथा विधेयं, कषायलोकप्रत्याख्यानपरिज्ञानाच्च तस्यैव परिहर्तुर्न कुतश्चिद्भयमुपजायत इति, लोक वा चराचरमाज्ञया-आगमाभिप्रायेणाभिसमेत्य न कुतश्चिदैहिकामु दीप अनुक्रम [१३६]] XXXXXX* ॥१७३॥ wwwonditimaryam ~350~# Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [१२४],नियुक्ति: [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत SADASRCSS सूत्रांक [१२४] दीप अनुक्रम [१३७] मिकापायसन्दर्शनतो भयं भवति। तच भयं शस्त्राद्भवति, तस्य च शस्त्रस्य प्रकर्षगतिरस्त्युत नेति?, अस्तीति दर्शयतिअत्थि' इत्यादि, तत्र द्रव्यशवं कृपाणादि तत्सरेणापिपरमस्ति-तीक्ष्णादपि तीक्ष्णतरमस्ति, लोहकर्तृसंस्कारविशेषात् , यदिबा शस्त्रमित्युपघातकारि तत एकस्मात्पीडाकारिणोऽन्यत् पीडाकार्युत्पद्यते ततोऽप्यपरमिति, तद्यथा-कृपाणाभिघाताद्वातोत्कोपः ततः शिरोऽतिः तस्या ज्वरः ततोऽपि मुखशोषमूच्छोदय इति, भावशस्त्रपारम्पर्य त्वेकसूत्रान्तरितं स्वत एव प्रत्याख्यानपरिज्ञाद्वारेण वक्ष्यति, यथा च शस्त्रस्य प्रकर्षगतिरस्ति पारम्पर्य वा विद्यते अशस्त्रस्य तथा नास्तीति दर्शयितुमाह-'नत्थि' इत्यादि, 'नास्ति' न विद्यते, किं तद्-शस्त्रं' संयमः तत् 'परेण पर मिति प्रकर्षगत्यापन्न मिति, तथाहि-पृथिव्यादीनां सर्व तुल्यता कार्या न मन्दतीत्रभेदोऽस्तीति, पृधिब्यादिषु समभावत्वात् सामायिकस्य, अथवा शैलेश्यवस्थासंयमादपि परः संयमो नास्ति, तदूई गुणस्थानाभावादिति भावः । यो हि क्रोधमुपादानतो बन्धतः स्थितितो विपाकतोऽनन्तानुबन्धिलक्षणतः क्षयमाश्रित्य प्रत्याख्यानपरिज्ञया जानाति सोऽपरमानाविदयपीत्येतदेव प्रतिसूत्रं लगयितव्यमित्याह जे कोहदंसी से माणदंसी, जे माणदंसी से मायादंसी, जे मायादंसी से लोभदंसी, जे लोभदंसी से पिजदंसी, जे पिजदंसी से दोसदंसी, जे दोसदंसी से मोहदंसी, जे मोहदंसी से गब्भदंसी, जे गब्भदंसी से जम्मदंसी, जे जम्मदंसी से SC-% A5% www.jansatnam.org ~351~# Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [१२५],नियुक्ति: [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२५] ॥१४॥ दीप अनुक्रम [१३८] श्रीआचा- मारदंसी, जे मारदंसी से नरयदंसी, जे नरयदंसी से तिरियदंसी, जे तिरियदंसी मशीतो०३ राजवृत्तिः से दुक्खदंसी । से मेहावी अभिणिवहिज्जा कोहं च माणं च मायं च लोभं च पिज (सी०) उद्देशका ४ च दोसं च मोहं च गभं च जम्मं च मारं च नरयं च तिरियं च दुक्खं च । एवं पासगस्स दंसणं उवरयसत्थस्स पलियतकरस्स, आयाणं निसिद्धा सगडब्भि, किमस्थि ओवाही पासगस्स? न विजइ ?, नत्थि(सू०१२५) तिबेमि॥शीतोष्णीयाध्ययनम् ३॥ यो हि क्रोधं स्वरूपतो वेत्ति अनर्थपरित्यागरूपत्वाज्ज्ञानस्य परिहरति च स मानमपि पश्यति परिहरति चेति, यदिवा यः क्रोधं पश्यत्याचरति स मानमपि पश्यति, मानाध्मातो भवतीत्यर्थः, एवमुत्तरत्रापि आयोज्यं, यावत् स दुःखदशीति, सुगमत्वात विवियते । साम्प्रतं क्रोधादेः साक्षान्निवर्त्तनमाह-'से' इत्यादि, स मेधावी 'अभिनिवर्तयेद्' व्यावर्तयेत्, |किं तत् -'क्रोधमित्यादि याबहुःखं', सुगमत्वाव्याख्यानाभावः, स्वमनीषिकापरिहारार्थमाह-एय' मित्यादि, 'एतद् अनन्तरोक्तमुद्देशकादेरारभ्य पश्यकस्य-तीर्थकृतो दर्शनम्-अभिप्रायः, किम्भूतस्य ?-उपरतशस्त्रस्य पर्यन्तकृतः, पुन रपि किम्भूतोऽसौ ?–'आयाण मित्यादि, आदानं कर्मोपादानं निषेध्य पूर्वस्वकृतकर्मभिदसाविति, किं चास्य भवलातीत्याह-'किमत्थी'त्यावि, 'पश्यकस्य केवलिनः 'उपाधिः' विशेषणं उपाधीयत इति वोपाधिः, द्रव्यतो हिरण्याविर्भा-I5॥१७४॥ वतोऽष्टप्रकारं कर्म, स द्विविधोऽप्युपाधिः किमस्त्याहोस्विन्न विद्यते?, नास्तीति, एतदहं ब्रवीमि, सुधर्मस्वामी जम्बू wwwandltimaryam ~352~# Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१२५] दीप अनुक्रम [१३८ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [१२५...],निर्युक्तिः [२१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः स्वामिनं कथयति, यथा सोऽहं ब्रवीमि येन मया भगवत्पादारविन्दमुपास (य) ता सर्वमेतदश्रावि तद्भवते तदुपदिष्टार्थानुसारितया कथयामि न पुनः स्वमतिविकल्पशिल्परचनयेति । गतः सूत्रानुगमः, तद्गतौ च समाप्तश्चतुर्थोद्देशकः ॥ तत्स|माप्तौ चातीतानागतनयविचारातिदेशात् समाप्तं शीतोष्णीयाध्ययनमिति ॥ ग्रन्थानम् ७९० ॥ TALERST अथ चतुर्थ सम्यक्त्वाख्य मध्ययनम् । उक्तं तृतीयमध्ययनं साम्प्रतं चतुर्थमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इह शस्त्रपरिज्ञायामन्वयव्यतिरेकाभ्यां पड्डीवनिकायान् व्युत्पादयता जीवाजीवपदार्थद्वयं व्युत्पादितं तद्बधे च बन्धं विरतिं च भणताऽऽस्रवसंवरपदार्थद्वयमूचे, तथा लोकविजयाध्ययने लोको यथा वध्यते यथा च मुध्यत इति वदता बन्धनिर्जरे गदिते, शीतोष्णीयाध्ययने तु शीतोष्णरूपाः परीपहाः सोढव्या इति भणता तत्फललक्षणो मोक्षोऽभिहितः, ततश्चाध्ययनत्रयेण सप्तपदार्थात्मकं तत्वमभिहितं, तस्वार्थश्रद्धानं च सम्यक्त्वमुच्यते, तदधुना प्रतिपाद्यते अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्थनुयोगद्वाराणि व्यावर्ण्योपक्रमेऽर्थाधिकारो द्वेधा, तत्राध्ययनार्थाधिकारः सम्यक्त्वाख्यः शस्त्रपरिज्ञायां प्रागेवाभाणि, उद्देशकार्थाधिकारप्रतिपादनाय तु निर्युक्तिकार आह Jain Estication Intemational पढमे सम्मावाओ बीए धम्मप्पवाइयपरिक्खा । तइए अणवजतवो न हु बालतवेण मुक्खुत्ति ॥ २१५ ॥ उद्देसंमि चत्थे समासवयणेण नियमणं भणियं । तम्हा य नाणंसणतवचरणे होइ जइयव्वं ॥ २१६ ॥ चतुर्थ अध्ययनं 'सम्यक्त्व' आरब्धः, For Pantry Use Only ~ 353 ~# www.indiary.org Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१२५] दीप अनुक्रम [१३८ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१२५...],निर्युक्तिः [२१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा प्रथमोदेशके सम्यग्वाद इत्ययमर्थाधिकारः, सम्यग् - अविपरीतो वादः सम्यग्वादो - यथावस्थितवस्त्वाविर्भावनं, द्विराङ्गवृत्तिः * तीये तु धर्म्मप्रवादिकपरीक्षा, धर्म्म प्रवदितुं शीलं येषां ते धर्म्मप्रवादिनस्त एव धर्म्मप्रवादिकाः, धर्म्मप्रावादुका इत्यर्थ(शी०) स्तेषां परीक्षा- युक्तायुक्तविचारणमिति, तृतीयेऽनवद्यतपोव्यावर्णनं, न च बालतपसा - अज्ञानितपश्चरणेन मोक्ष इत्ययमर्थाधिकारः, चतुर्थीदेशके तु 'समासवचनेन' सङ्क्षेपवचनेन 'नियमनं भणितं संयत उक्त इति । तदेवं प्रथमोदेशके सम्य४ ग्दर्शनमुक्तं, द्वितीये तु सम्यग्ज्ञानं, तृतीये बालतपोव्युदासेन सम्यक्तपः, चतुर्थे तु सम्यक् चारित्रमिति, तस्माच्चशब्दो हेती, यतश्चतुष्टयमपि मोक्षाङ्गं प्रागुक्तं तस्मात् ज्ञानदर्शनस्तपश्चरणेषु 'मुमुक्षुणा यतितव्यं तमतिपालनाय यावज्जीवं यलो विधेय इति गाथाद्वयार्थः ॥ अधुना नामनिष्पन्न निक्षेपायातस्य सम्यक्त्वाभिधानस्य निक्षेपं चिकीर्षुराह ॥ १७५ ॥ नाठवणासम्मं दव्यसम्मं च भावसम्मं च । एसो खलु सम्मस्सा निक्खेवो चडव्विहो होइ ॥ २१७ ।। अक्षरार्थः सुगमः, भावार्थं तु सुगमनामस्थापनाव्युदासेन द्रव्यभावगतं नियुक्तिकारः प्रतिपिपादयिपुराह-अह दबसम्म इच्छानुलोमियं तेसु तेसु दब्बेसुं । कयसंख्यसंजुत्तो पउक्त्त जढ भिण्ण छिण्णं वा ॥ २१८ ॥ 'अथे' त्यानन्तर्ये ज्ञशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यसम्यक्त्वमित्याह, 'ऐच्छानुलोमिकं' इच्छा-चेतःप्रवृत्तिरभिप्रायस्तस्यानुलोमम्-अनुकूलं तत्र भवमैच्छानुलोमिकं तच्च तेषु तेष्विच्छा भावानुकूल्यताभाक्षु द्रव्येषु कृताद्युपाधिभेदेन सप्तधा भवति, तद्यथा - कृतम् - अपूर्वमेव निर्वर्त्तितं रथादि, तस्य यथाऽवयवलक्षणनिष्पत्तेर्द्रव्यसम्यक र्तुस्तन्निमित्तचित्तस्वास्थ्योत्पत्तेः Estication Intemational चतुर्थ अध्ययने प्रथम उद्देशकः 'सम्यग्वाद' आरब्ध:, For Parts Only ~354~# सम्य० ४ उद्देशकः १ ॥ १७५ ॥ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१२५] दीप अनुक्रम [१३८ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [१९], मूलं [१२५...],निर्युक्तिः [२१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः यदर्थे वा कृतं तस्य शोभनाशुकरणतया समाधानहेतुत्वाद्वा द्रव्यसम्यग् १, एवं संस्कृतेऽपि योज्यं, तस्यैव रथादेर्भग्नजीर्णापोढापरावयवसंस्कारादिति २, तथा ययोर्द्रव्ययोः संयोगो गुणान्तराधानाय नोपमर्दाय उपभोक्तुर्वा मनःप्रीत्यै पयःशर्करयोरिव तत्संयुक्तद्रव्यसम्यक् ३, तथा यत्प्रयुक्तं द्रव्यं लाभहेतुत्वादात्मनः समाधानाय प्रभवति तत्प्रयुक्तद्रव्यसम्यक् ४, पाठान्तरं वा- 'उवउत्त'ति यदुपयुक्तम्- अभ्यवहृतं द्रव्यं मनःसमाधानाय प्रभवति तदुपयुक्तद्रव्यसम्यक् ४, तथा जढं परित्यक्तं यद्वारादि तत्त्यक्तद्रव्यसम्यक् ५ तथा दधिभाजनादि भिन्नं सत् काकादिसमाधानोत्पत्तेर्भिन्नद्रव्यसम्यक् ६, तथाऽधिकमांसादिच्छेदाच्छिन्नसम्यक् ७, सर्वमध्ये तत्समाधानकारणत्वाद्द्रव्य सम्यक्, विपर्ययादसम्यगिति गाथार्थः ॥ भावसम्यक्प्रतिपादनाचाह तिविहं तु भावसम्मं दंसण नाणे तहा चरिते य । दंसणचरणे तिविहं नाणे दुविहं तु नायव्वं ॥ २१९ ॥ त्रिविधं भावसम्यक दर्शनज्ञानचारित्रभेदात् पुनरप्येकैकं भेदत आचष्टे-तत्र दर्शनचरणे प्रत्येकं त्रिविधे, तद्यथा-अनादिमिथ्यादृष्टेरकृत त्रिपुञ्जस्य यथाप्रवृत्तकरणक्षीणशेषकर्म्मणो देशोनसागरोपमकोटिकोटी स्थिति कस्या पूर्वकरणभिन्नग्रन्थेर्मिथ्यात्वानुदयलक्षणमन्तरकरणं विधायानिवृत्तिकरणेन प्रथमं सम्यक्त्वमुत्सादयत औपशमिकं दर्शनम् १, उक्तं च - "ऊसरदेसं दहेलयं च विज्झाइ वणदवो पष्प । इय मिच्छत्ताणुदए उवसमसम्मं लहइ जीवो ॥ १ ॥” उपशमश्रेण्यां चौपशमिकमिति तथा सम्यक्त्वपुद्गलोपष्टम्भजनिताध्यवसायः क्षायोपशमिकं २, दर्शनमोहनीयक्षयात् क्षायिकं ३, १ कपरदेशं दग्धं च विध्याति वन्दवः प्राप्य एवं मिथ्यावाद औपदामिकसम्यक्त्वं लभते जीवः ॥ १ ॥ Jan Estication matinal For Pantry Use Only ~ 355 ~# www.sindiary.org Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१२५] दीप अनुक्रम [१३८ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१२५...],निर्युक्तिः [२१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ १७६ ॥ चारित्रमप्युपशमश्रेण्यामौपशमिकं १ कपायक्षयोपशमात् क्षायोपशमिकं चारित्रं २ चारित्रमोहनीयक्षयात्क्षायिकं १, ज्ञाने तु भावसम्यग् द्विधा ज्ञातव्यं तद्यथा- क्षायोपशमिकं क्षायिकं च तत्र चतुर्विधज्ञानावरणीय क्षयोपशमात् मत्यादि चतुविषं क्षायोपशमिकं ज्ञानं, समस्तक्षयात्क्षायिकं केवलज्ञानमिति । तदेवं त्रिविधेऽपि भावसम्यक्त्वे दर्शिते सति परखो४ दयति-यद्येवं त्रयाणामपि सम्यग्वादसम्भवे कथं दर्शनस्यैव सम्यक्त्ववादी रूढो यदिहाध्ययने व्यावर्ण्यते, उच्यते, तद्भावभावित्वादित्तरयोः, तथाहि मिथ्यादृष्टेस्ते न स्तः, अत्र च सम्यक्त्वप्राधान्यख्यापनाय अन्धेतरराजकुमारद्वयेन वालाङ्गनाद्यवबोधार्थ दृष्टान्तमाचक्षते - तद्यथा-उदयसेनराज्ञो वीरसेनसूरसेन कुमारद्वयं तत्र वीरसेनोऽन्धः, स च त| व्यायोग्या गान्धर्वादिकाः कला ग्राहितः, इतरस्त्वभ्यस्तधनुर्वेदो लोकश्लाध्यां पदवीमगमत् एतच्च समाकर्ण्य वीरसेनेनापि राजा विज्ञप्तो यथाऽहमपि धनुर्वेदाभ्यासं विदधे, राज्ञाऽपि तदाग्रहमवगम्यानुज्ञातः, ततोऽसौ सम्यगुपाध्यायोपदेशात् प्रज्ञातिशयादभ्यासविशेषाञ्च शब्दवेधी सञ्जज्ञे, तेन चारूढयौवनेन स्वभ्यस्तधनुर्वेदविज्ञान क्रियेणागणितचक्षुदर्शनसदसद्भावेन शब्दवेधित्वावष्टम्भात्परबलोपस्थाने सति राजा युद्धायादेशं याचितः तेनापि याच्यमानेन वितेरे, वीरसेनेन च शब्दानुवेधितया परानीके जजृम्भे, परैश्चावगतकुमारान्धभावैर्मूकतामा लम्ब्यासी जग्रहे, सूरसेनेन च विदितवृतान्तेन राजानमापृच्छ्य निर्शितंशरशतजालावष्टब्धपरानीकेन मोचितः । तदेवमभ्यस्तविज्ञान क्रियोऽपि चक्षुविकलत्वान्नालमभिप्रेतकार्यसिद्धये इति । एतदेव नियुक्तिकारो गाथयोपसंहर्तुमाह कुणमाणोऽवि य किरियं परिचयंतोवि सयणधण भोए। दितोऽवि दुहस्स उरं न जिगह अंधो पराणीयं ॥ २२० ॥ Etication matinal For Pantry at Use Only ~356 ~# सम्य० ४ उद्देशकः१ ॥ १७६ ॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१२५] दीप अनुक्रम [१३८ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१२५...],निर्युक्तिः [२२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः कुर्वन्नपि क्रियां परित्यजन्नपि स्वजनधनभोगान् दददपि दुःखस्योरः न जयत्यन्धः परानीकमिति गाथार्थः ॥ तदेवं दृष्टान्तमुपदर्श्य दाष्टन्तिकमाह कुणमाणोऽवि निवित्तिं परिचयतोऽवि सयणघणभोए । दितोऽवि दुहस्स उरं मिच्छद्दिट्ठी न सिज्झइ उ ॥ २२९ ॥ कुर्वन्नपि निवृत्तिम् -- अन्यदर्शनाभिहितां, तद्यथा - पञ्च यमाः पक्ष नियमा इत्यादिकां तथा परित्यजन्नपि स्वजनध नभोगान् पञ्चाग्नितपआदिना दददपि दुःखस्योरः मिथ्यादृष्टिर्न सिध्यति, तुरवधारणे, नैव सिध्यति, दर्शन विकलत्वाद्, अन्धकुमारवत् असमर्थः कार्यसिद्धये । यत एवं ततः किं कर्त्तव्यमित्याह तम्हा कम्माणीयं जेडमणो दंसणंमि पयइज्जा । दंसणवओ हि सफलाणि हुंति तवनाणचरणाई ॥ २२२ ॥ यस्मात्सिद्धिमार्गमूलास्पदं सम्यग्दर्शनमन्तरेण न कर्मक्षयः स्यात् तस्मात्कारणात्कम्मनीकं जेतुमनाः सम्यग्दर्शने प्रयतेत, तस्मिंश्च सति यद्भवति तद्दर्शयति-दर्शनयतो हि 'हि' हेतौ यस्मात्सम्यग्दर्शननः सफलानि भवन्ति तपोज्ञान चरणाम्यतस्तत्र यलवता भाव्यमिति गाथार्थः ॥ प्रकारान्तरेणापि सम्यग्दर्शनस्य तत्पूर्वकाणां च गुणस्थानकानां गुणमाविर्भावयितुमाह सम्म पत्ती साय विरए अनंतकम्मंसे । दंसणमोहक्खवए उवसामन्ते य उवसंते ॥ २२३ ॥ aar य खीणमोहे जिणे अ सेदी भवे असंखिज्जा । तब्बिवरीओ कालो संखिजगुणाइ सेढीए ॥ २२४ ॥ सम्यक्त्वस्योत्पत्तिः सम्यक्त्वोत्पत्तिस्तस्यां विवक्षितायामसङ्घयेयगुणा श्रेणिर्भवेदित्युत्तरगाथार्द्धान्ते क्रियामपेक्ष्य स Jan Estication Ital For Pantry Use Only ~ 357 ~# wwwantary org Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१२५] दीप अनुक्रम [१३८ ] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ १७७ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१२५...],निर्युक्तिः [२२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः म्बन्धो लगयितव्यः, कथमसङ्ख्येयगुणा श्रेणिर्भवेदिति ?, अत्रोच्यते, इह मिथ्यादृष्टयो देशोनकोटी कोटिकर्म्मस्थितिका | ग्रन्थिकसत्त्वास्ते कर्मनिर्जरामाश्रित्य तुल्याः, धर्म्मप्रच्छनोत्पन्न संज्ञास्तेभ्योऽसङ्ख्ये यगुणनिर्जरकाः, ततोऽपि पिपृच्छिषुः सन् साधुसमीपं जिगमिषुस्तस्मादपि क्रियाविष्टः पृच्छन्, ततोऽपि धर्म्म प्रतिपित्सुः अस्मादपि क्रियाविष्टः प्रतिपद्यमानः, तस्मादपि पूर्वप्रतिपन्नोऽसङ्ख्येयगुणनिर्जरक इति सम्यक्त्वोत्पत्तिर्व्याख्याता तदनन्तरं विरताविरतिं प्रतिपित्सुप्र तिपद्यमानपूर्वप्रतिपन्नानामुत्तरोत्तरस्या सङ्ख्येयगुणा निर्जरा योग्या, एवं सर्वविरतावपीति, ततोऽपि पूर्वप्रतिपन्न सर्व विरतेः सकाशात् 'अणंतकम्मंसे'त्ति 'पदैकदेशे पदप्रयोग' इति यथा भीमसनो भीमः सत्यभामा भामा एवमनन्तशब्दोपल|क्षिता अनन्तानुबन्धिनः, ते हि मोहनीयस्यांशाः-भागाः तांश्चिक्षपयिपुरसङ्ख्येयगुणनिरकः, ततोऽपि क्षपकः, तस्मादपि क्षीणानन्तानुबन्धिकपायः, एतदेव दर्शनमोहनीयत्रयेऽभिमुख क्रियारूढापवर्गत्रयमायोज्यं, ततोऽपि क्षीणसप्तकात्क्षीण| सप्तक एवोपशमश्रेण्यारूढोऽसङ्ख्येयगुणनिर्जरकः, ततोऽप्युपशान्तमोहः, तस्मादपि चारित्रमोहनीयक्षपकः, ततोऽपि क्षीणमोहः, अत्र चाभिमुखादित्रयं यथासम्भवमायोजनीयम्, अस्मादपि 'जिनो' भवस्थकेवली, तस्मादपि शैलेश्यवस्थोऽसख्येयगुणनिर्जरकः । तदेवं कर्मनिर्जराये असख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाण निष्पादितसंयमस्थानप्रचयोपात्तश्रेणिः | सोत्तरोत्तरेषामस इख्येयगुणा, उत्तरोत्तर प्रवर्द्धमानाध्यवसाय कण्डकोपपतेरिति, कालस्तु तद्विपरीतोऽयोगिकेव लिन आरभ्य प्रतिलोमतया सख्येयगुणया श्रेण्या ज्ञेयः, इदमुक्तं भवति यावत्कालेन यावत्कर्मायोगिकेवली क्षपयति तावमात्रं कर्म सयोगिकेवली सख्येयगुणेन कालेन क्षपयति एवं प्रतिलोमतया यावद्धर्मे पिपृच्छिषुस्तावन्नेयमिति गाथा Etication Infamil For Pantry O ~358~# सभ्य० ४ उद्देशकः१ ।। १७७ ॥ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१२५] दीप अनुक्रम [१३८ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [१९], मूलं [१२५...],निर्युक्तिः [२२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | द्वयार्थः ॥ एवमन्तरोक्तया नीत्या दर्शनयतः सफलानि तपोज्ञान चरणान्यभिहितानि, यदि पुनः केनचिदुपाधिना विदघाति ततः सफलत्वाभावः, कञ्चासावुपाधिस्तमाह आहारवहिपूआइडीसु य गारवेसु कइतवियं । एमेव वारसविहे तवंमि न तु कतवे समणो ॥ २२५ ॥ आहारश्च उपधिश्च पूजा व ऋद्धिश्च - आमर्षौषध्यादिका आहारोपधिपूजर्द्धयस्तासु निमित्तभूतासु ज्ञानचरणक्रियां करोति, तथा गारवेषु त्रिषु प्रतिबद्धो यत्करोति तत्कृत्रिममित्युच्यते, यथा च ज्ञानचरणयोराहाराद्यर्थमनुष्ठानं कृत्रिमं सन्न फलवद्भवति एवं सबाह्याभ्यन्तरे द्वादशप्रकारे तपस्यपीति, न च कृत्रिमानुष्ठायिनः श्रमणभावो न चाश्रमणस्यानुष्ठानं गुणवदिति, तदेवं निरुपधेर्दर्श नवतस्तपोज्ञान चरणानि सफलानीति स्थितमतो दर्शने यतितव्यं, दर्शनं च तत्त्वार्थश्रद्धानं तत्त्वं चोपन्नापगतकलङ्काशेषपदार्थ सताव्यापिज्ञानैस्तीर्थकृद्भिर्यदभाषि, तदेव सूत्रानुगमायातेन सूत्रेण दर्शयति Etication matinal से बेमि जे अईया जे य पडुपन्ना आगमिस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वे एवमाइक्खन्ति एवं भाति एवं पण्णविंति एवं परुविंति सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतव्वा न अज्जावेयव्या न परिधित्तव्वा न परियावेयव्वा न उद्दवेयव्वा, एस धम्मे सुद्धे निइए समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए, तंजहा-उट्ठिएसु वा अणुट्टिएस For Print&PO ~359~# www.india.org Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१२६] दीप अनुक्रम [१३९ ] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ १७८ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [१], मूलं [१२६],निर्युक्ति: [२२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः वा उवट्टिए वा अणुवट्टिएस वा उवरयदंडेसु वा अणुवरयदंडेसु वा सोवहिपसु वा अणोवहिपसु वा संजोगरएसु वा असंजोगरएसु वा तच्चं चेयं तहा चेयं अस्ति चेयं पच्चइ (सू० १२६ ) गौतमस्वाम्याह-यथा सोऽहं ब्रवीमि योऽहं तीर्थकरवचनावगततच्यः श्रद्धेयवचन इति यदिवा शौद्धोदनिशिष्याभिमतक्षणिकत्वव्युदासेनाह-येन मया पूर्वमभाणि सोऽहमद्यापि ब्रवीमि नापरो, यदिवा सेशब्दस्तच्छब्दार्थे यच्छ्रद्धाने सम्यक्त्वं भवति तदहं तत्त्वं ब्रवीमीति, येऽतीताः - अतिक्रान्ता ये च प्रत्युत्पन्नाः - वर्त्तमानकालभाविनो ये चागामिनः त एवं प्ररूपयन्तीति सम्बन्धः, तत्रातिक्रान्तास्तीर्थ कृतः कालस्यानादित्वादनन्ता अतिक्रान्ता अनागता अप्यनन्ता आगा| मिकालस्यानन्तत्वात्तेषां च सर्वदैव भावादिति वर्त्तमानतीर्थकृतां च प्रज्ञापकापेक्षितया अनवस्थितत्वे सत्यप्युत्कृष्टजघन्यपदिन एव कथ्यन्ते तत्रोत्सर्गतः समयक्षेत्रसम्भविनः सप्तत्युत्तरशतं तच्चैवं पश्ञ्चस्वपि विदेहेषु प्रत्येकं द्वात्रिंशत्क्षेत्रात्मकत्वादेकैकस्मिन् द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशत् पञ्चस्वपि भरतेषु पञ्चैवमैरावतेष्वपीति, तत्र द्वात्रिंशत्सञ्चभिर्गुणिताः षष्टयुतरशतं (१६०) भरतैरावतदशप्रक्षेपेण सप्तत्यधिकं शतमिति, जघन्यतस्तु विंशतिः, सा चैवं पञ्चस्वपि महाविदेहेषु महाविदेहान्तर्महानयुभयतट सद्भावात्तीर्यकृतां प्रत्येकं चत्वारः, तेऽपि पञ्चभिर्गुणिता विंशतिर्भरतैरावतयोस्त्वेकान्तसुषमादावभाव एवेति, अन्ये तु व्याचक्षते - मेरोः पूर्वापर विदेहयोरेकैक सद्भावान्महाविदेहे द्वावेव ततः पश्वस्वपि दशैवेति, तथा च ते Estication Intemational For Pantry Use Only ~360 ~# सम्य० ४ उद्देशका १ ॥ १७८ ॥ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१२६],नियुक्ति: [२२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६] दीप अनुक्रम [१३९] आहा-"सत्तरसयमुफोर्स इअरे दस समयखेत्तजिणमाणं । चोत्तीस पढमदीये अणंतरऽद्धेय ते दुगुणा ॥१॥"के इमे 'अर्हन्तो' अईन्ति पूजासत्कारादिकमिति, तथा ऐश्वर्याद्युपेता भगवन्तः, ते सर्व एव परप्रश्नावसरे एवमाचक्षते | यदुत्तरत्र वक्ष्यते, वर्तमाननिर्देशस्योपलक्षणार्थत्वादिदमपि द्रष्टव्यम्-एवमाचचक्षिरे एवमाख्यास्यन्ति, एवं सामान्यतः सदेवमनुजायां परिषदि अर्धमागधया सर्वसत्त्वस्वभाषानुगामिन्या भाषया भाषन्ते, एवं प्रकर्षण संशोत्यपनोदायान्तेवासिनो जीवाजीवाववन्धसंवरनिर्जरामोक्षपदार्थान् ज्ञापयन्ति प्रज्ञापयन्ति, एवं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपाययोगा बन्धहेतवः स्वपरभावेन सदसती तत्त्वं सामान्यविशेषात्मकमित्यादिना प्रकारेण प्ररूपय&ान्ति, एकार्थिकानि वैतानीति, किं तदेवमाचक्षते इति दर्शयति-यथा 'सर्वे प्राणाः' सर्व एव पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः || द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियाश्चेन्द्रियबलोच्छासनिश्वासायुष्कलक्षणप्राणधारणात् प्राणाः, तथा सर्वाणि भवन्ति भविष्यन्त्यभूवन्निति च भूतानि चतुर्दशभूतग्रामान्तःपातीनि, एवं सर्व एव जीवन्ति जीविष्यन्ति अजीविषुरिति जीवाः-नारकतिर्यग्नरामरलदिक्षणाश्चतुर्गतिकाः, तथा सर्व एव स्वकृतसातासातोदयसुखदुःखभाजः सत्त्वाः, एकार्था चैते शब्दाः 'तत्त्वभेदपर्यायैः। प्रतिपादन मितिकृत्वेति, एते च सर्वेऽपि प्राणिनः पर्यायशब्दावेदिता न हन्तव्याः दण्डकशादिभिः नाज्ञापयितव्याः प्रसह्याभियोगदानतो न परिग्राह्या भृत्यदासदास्यादिममस्वपरिग्रहतो न परितापयितव्याः शारीरमानसपीडोत्सादनतो नापद्रावयितव्याः प्राणव्यपरोपणतः 'एषः' अनन्तरोक्तो 'धम्मों' दुर्गत्यर्गलासुगतिसोपानदेश्यः, अस्य च प्रधानपुरपार्थत्वाद्विशेषणं दर्शयति-'शुद्धः' पापानुबन्धरहितः न शाक्यधिग्जातीनामिवैकेन्द्रियपश्चेन्द्रियवधानुमतिकलङ्कासितः, wwwandltimaryam ~361~# Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१२६],नियुक्ति: [२२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सम्यक प्रत सूत्रांक [१२६] श्रीआचा- ला तथा 'नित्यः' अप्रच्युतिरूपः, पञ्चस्वपि विदेहेषु सदाभवनात्, तथा 'शाश्वतः' शाश्वतगतिहेतुत्वात् यदिवा नित्यत्वाच्छाराङ्गवृत्तिः श्वतो, न तु नित्यं भूत्वा न भवति, भव्यत्ववत्, अभूत्वा च नित्यं भवति घटाभाववदिति, अयं तु त्रिकालावस्थायीति, (शी०) || अमुं च 'लोक' जन्तुलोकं दुःखसागरावगाढे 'समेत्य ज्ञात्वा तदुत्तरणाय 'खेदजः' जन्तुदुःखपरिच्छेत्तृभिः 'प्रवेदिता उद्देशका ॥१७९॥ प्रतिपादित इति, एतच्च गौतमस्वामी स्वमनीषिकापरिहारेण शिष्यमतिस्थैर्यार्थ बभापे ॥ एनमेव सूत्रोक्तम) नियुक्तिकारः सूत्रसंस्पर्शकेन गाथाद्वयेन दर्शयतिजे जिणवरा अईया जे संपइ जे अणागए काले। सब्वेवि ते अहिंसं वर्दिसु वदिहिति विवदिति ॥२२६॥ छप्पिय जीवनिकाए णोवि हणे णोऽवि अहणाविजा।नोऽवि अ अणुमन्निज्जासम्मत्तस्सेस निजुत्ती॥२२७॥ [चतुर्थेऽध्ययने प्रथमोदेशकनियुक्तिः] गाथाद्वयमपि कण्ठ्यं । तीर्थकरोपदेशश्च परोपकारितया तत्स्वाभाव्यादेव प्रवर्तमानो भास्करोदय इव प्रबोध्यविशेषनिरपेक्षतया प्रवर्तते(तत्तद्यथेत्यादिना दर्शयति-तंजहा-उडिपसु वा इत्यादि,8 धर्मचरणायोचता उत्थिता-ज्ञानदर्शनचारित्रोद्योगवन्तः, तद्विपर्ययेणानुत्थिताः तेषु निमित्तभूतेषु तानुदिश्य भगवता सर्ववेदिना त्रिजगत्पतिना धर्मः प्रवेदितः, एवं सर्वत्र लगयितव्यं, यदिवा उत्थितानुस्थितेषु द्रव्यतो निषण्णानिषण्णेषु,' 18|| तत्रैकादशसु गणधरेपूस्थितेष्वेव वीरवर्द्धमानस्वामिना धर्मः प्रवेदितः, तत उपस्थिता धर्म शुश्रूषवो जिवृक्षवो वा तद्वि-IN दापर्ययेणानुपस्थितास्तेष्विति, निमित्तसप्तमी चेयं, यथा चर्मणि दीपिनं हन्तीति, ननु च भावोपस्थितेषु चिलातिपु- ॥ १७९ ॥ त्रादिष्विव धर्मकथा युक्तिमती अनुपस्थितेषु तु के गुणं पुष्णाति?, अनुपस्थितेष्वपीन्द्रनागादिषु विचित्रत्वात्कर्म CAMERA दीप अनुक्रम [१३९] waianditaram ~362~# Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१२६],नियुक्ति: [२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६] दीप अनुक्रम [१३९] परिणतः क्षयोपशमापादनाद्गुणवत्येवेति यत्किञ्चिदेतत्, प्राणिन आत्मानं वा दण्डयतीति दण्डः, स च मनोवाकाय-1 लक्षणः, उपरतो दण्डो येपो ते तथा, तद्विपर्ययेणानुपरतदण्डाः, तेषूभयरूपेष्वपि, तत्रोपरतदण्डेषु तत्स्थैर्यगुणान्तराधानार्थ देशना, इतरेषु तूपरतदण्डत्वार्थमिति, उपधीयते-सङ्ग्रह्यत इत्युपधिः, द्रव्यतो हिरण्यादिः भावतो माया, सह, उपधिना वर्तन्त इति सोपधिकास्तद्विपर्ययेणानुपधिकास्तेष्विति, संयोगः-सम्पन्धः पुत्रकलत्रमित्रादिजनितस्तत्र रताः संयोगरतास्तद्विपर्ययेणैकत्वभावनाभाविता असंयोगरतास्तेष्विति, तदेवमुभयरूपेष्वपि यद्भगवता धर्मदेशनाऽकारि तत् 'तथ्य' सत्यमेतदिति, चशब्दो नियमार्थः, तथ्यमेवैतद्भगवद्वचनं, यथामरूपितवस्तुसद्भावात्तथ्यता वचसो भवतीत्यतो वाच्यमपि तथैवेति दर्शयति-तथा चैतद्वस्तु यथा भगवान् जगाद, यथा-सवें प्राणा न हन्तव्या इत्यादि, एवं सम्यग्दर्शनं श्रद्धानं विधेयम्, एतच्चास्मिन्नेव मौनीन्द्रप्रवचने सम्यग्मोक्षमार्गविधायिनि समस्तदम्भप्रबन्धोपरते प्रकर्षणोच्यते मोच्यत इति, न तु यथा अन्यत्र 'न हिंस्यात्सर्वभूतानी त्यभिधायान्यत्र वाक्ये यज्ञपशुवधाभ्यनुज्ञानात् पूर्वोत्तरबाधेति ॥ तदेवं सम्यक्त्वस्वरूपमभिधाय तदवाप्तौ यद्विधेयं तद्दर्शयितुमाह तं आइत्तु न निहे न निक्खिवे जाणितु धम्मं जहा तहा, दिट्रेहिं निव्वेयं गच्छिज्जा, नो लोगस्सेसणं चरे (सू० १२७) 'तत्' तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं सम्यग्दर्शनमादाय-गृहीत्वा तत्कार्याकरणतो 'न निहेति न गोपयेत् तथाविधसंसर्गा wnloadmarang ~363~# Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१२७],नियुक्ति: [२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सम्य . ४ प्रत सूत्रांक [१२७] दीप अनुक्रम [१४०]] श्रीआचा-दिनिमित्तोत्थापितमिथ्यात्वोऽपि जीवसामर्थ्य गुणान्न त्यजेदपि, यथा वा शैवशाक्यादीनां गृहीत्वा ब्रतानि पुनरपि । राझवृत्तिः व्रतेश्वरयागादिविधिना गुरुसमीपे निक्षिप्योत्सवजनं, एवं गुर्वादेः सकाशादवाप्य सम्यग्दर्शनं 'न निक्षिपेत्' न त्यजेत्, (शी०) किं कृत्वा?-यथा तथाऽवस्थितं धर्म ज्ञात्वा श्रुतचारित्रात्मकमवगम्य, वस्तूनां वा धर्म-स्वभावमवबुध्येति । तदवगमे तु किं चापरं कुर्यादित्याह-'दिठेहिं' इत्यादि, दृष्टैरिष्टानिष्टरूपानेवेदं गच्छेद्, विरागं कुर्यादित्यर्थः, तथाहि-112 शब्दैः श्रुतैः रसैरास्वादितैर्गन्धेराधातैः स्पशैंः स्पृष्टैः सद्भिरेवं भावयेत्-यथा शुभेतरतापरिणामवशाभवतीत्यतः कस्तेषु रागो द्वेषो वेति । किं च--'नो लोयस्स' इत्यादि, 'लोकस्य' प्राणिगणस्यैषणा--अन्वेषणा इष्टेषु शब्दादिषु प्रवृत्तिरनिष्टेषु तु हेयबुद्धिस्ता 'न चरेत्' न विदध्यात् ॥ यस्य चैपा लोकैपणा नास्ति तस्याभ्याप्यप्रशस्ता मतिनास्तीति दर्शयति जस्स नत्थि इमा जाई अण्णा तस्स कओ सिया?, दिटुं सुयं मयं विषणायं जं एवं परिकहिजइ, समेमाणा पलेमाणा पुणो पुणो जाई पकप्पंति (सू० १२८) यस्य मुमुक्षोरेपा ज्ञातिः-लोकैषणाबुद्धिः 'नास्ति' न विद्यते, तस्यान्या सावद्यारम्भप्रवृत्तिः कुतः स्यात् ?, इदमुक्त | भवति-भोगेच्छारूपां लोकपणां परिजिहीपों व सावद्यानुष्ठानप्रवृत्तिरुपजायते, तदर्थत्वात्तस्या इति, यदिवा 'इमाण। अनन्तरोक्तत्वात् प्रत्यक्षा सम्यक्त्वज्ञातिः प्राणिनो न हन्तब्या इति वा यस न विद्यते तस्यान्या अविवेकिनी बुद्धिः || कुमार्गसावद्यानुष्ठानपरिहारद्वारेण कुतः स्यात् ।। शिष्यमतिस्थैर्यार्थमाह-विढ'मित्यादि, यदेतन्मया परिकथ्यते तत्स KCCESS wwwandltimaryam ~364-23 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१२८] दीप अनुक्रम [१४१] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [१], मूलं [१२८],निर्युक्ति: [२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः र्वज्ञैः केवलज्ञानावलोकेन दृष्टं ततः शुश्रूषुभिः श्रुतं लघुकर्म्मणा भव्यानां मतं, ज्ञानावरणीय क्षयोपशमाद्विशेषेण ज्ञातं विज्ञातम्, अतो भवताऽपि सम्यक्त्वादि के मत्कथिते यलवता भवितव्यमिति । ये पुनर्यथोक्तकारिणो न स्युः ते कथम्भूता भवेयुरित्याह- 'समेमाणा' इत्यादि, तस्मिन्नेव मनुष्यादिजन्मनि 'शाम्यन्तो गायेनात्यर्थमासेवां कुर्वन्तः तथा 'प्रलीयमानाः' मनोज्ञेन्द्रियार्थेषु पौनःपुन्येनै केन्द्रियद्वीन्द्रियादिकां जातिं प्रकल्पयन्ति, संसाराविच्छित्तिं विदधतीत्यर्थः ॥ यद्येवमविदितवेद्याः साम्प्रतेक्षिणो यथाजन्मकृतरतय इन्द्रियार्थेषु प्रलीनाः पौनःपुन्येन जन्मादिकृतसन्धाना जन्तवस्ततः किं कर्त्तव्यमित्याह अहो अ राओ य जयमाणे धीरे सया आगयपण्णाणे पमत्ते बहिया पास अप्पमत्ते सया परिक्कमिजासि तिबेमि ( सू० १२९ ) ॥ सम्यक्त्वाध्ययने प्रथमोदेशकः ४-१ ॥ अहश्च रात्रिं च यतमान एव यलवानेव मोक्षाध्वनि 'धीरः' परीपहोपसर्गाक्षोभ्यः 'सदा' सर्वकालम् 'आगतं' स्वीकृतं 'प्रज्ञानं' सदसद्विवेको यस्य स तथा, 'प्रमत्तान्' असंयतान् परतीर्थिकान्या धर्म्माद्वहिर्व्यवस्थितान् पश्य, तांश्च तथाभूतान् दृष्ट्वा किं कुर्यादित्याह - 'अप्पमत्ते' इत्यादि, अप्रमत्तः सन्निद्राविकथादिप्रमादरहितोऽक्षिनिमेषोन्मेषादावपि सदोपयुक्तः पराक्रमेथाः कर्म्मरिपून मोक्षाध्वनि वा । इतिरधिकारसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत् । इति सम्यक्त्वाध्ययने प्रथमोद्देशकटीका परिसमाप्ता । Jan Estation matinal For Pantry Use Only ~365~# www.india.org Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३०],नियुक्ति: [२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३०] दीप अनुक्रम [१४२] श्रीआचा- उक्तः प्रथमोद्देशकः । साम्प्रतं द्वितीयव्याख्या प्रतन्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इह अनन्तरोदेशके सम्यग्वादः सम्य०४ रावृत्तिः प्रतिपादितः, स च प्रत्यनीकमिथ्यावादव्युदासेनात्मलाभ लभते, ब्युदासश्च न परिज्ञानमन्तरेण, परिज्ञानं च न विचार-I उद्देशकार (शी०) मृते, अतो मिथ्यावादभूततीर्थिकमतविचारणायेदमुपक्रम्यते, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्सेदमादिसूत्र-जे आ सवा' इत्यादि, यदिवेह सम्यक्त्वमधिकृतं, तच सप्तपदार्थश्रद्धानात्मकं, तत्र मुमुक्षुणाऽवगतशखपरिज्ञाजीवाजीवपदार्थेन ॥१८१॥ संसारमोक्षकारणे निर्णतब्ये, तत्र संसारकारणमाञवस्तब्रहणाच बन्धग्रहणं, मोक्षकारणं तु निर्जरा तहणाच्च संवरस्तत्कार्यभूतश्च मोक्षः सूचितो भवतीत्यत आश्रवनिर्जरे संसारमोक्षकारणभूते सम्यक्त्वविचारायाते दर्शयितुमाह जे आसवा ते परिस्सवा जे परिस्सवा ते आसवा, जे अणासवा ते अपरिस्सवा जे अपरिस्सवा ते अणासवा, एए पए संबुज्झमाणे लोयं च आणाए अभिसमिच्चा पुढो पवेइयं (सू० १३०) 'य' इति सामान्यनिर्देशः, आश्रवत्यष्टप्रकारं कर्म थैरारम्भस्ते आम्रवाः, परिः-समन्तात्रवति-गलति बैरनुष्ठान-5 Kा विशेषस्ते परित्रवाः, य एवानवा:-कर्मबन्धस्थानानि त एव परिस्रवा:-कर्मनिर्जरास्पदानि, इदमुक्तं भवति-यानि इतरजनाचरितानि नगङ्गनादीनि सुखकारणतया तानि कर्मबन्धहेतुत्वादास्रवाः, पुनस्तान्येव तत्वविदों विषयसुखप-1 M॥१८१॥ राशुखानां निःसारतया संसारसरणिदेश्यानीतिकृत्वा वैराग्यजनकानि अतः परिस्रवाः-निर्जरास्थानानि । सर्ववस्तूना wwwandltimaryam चतुर्थ-अध्ययने द्वितीय-उद्देशक: 'धर्मप्रवादी-परीक्षा' आरब्धः, ~366~# Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१३०] दीप अनुक्रम [१४२ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [२], मूलं [१३०], निर्युक्ति: [ २२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः मनैकान्तिकतां दर्शयितुमेतदेव विपर्ययेणाह - 'जे परिस्सवा' इत्यादि, य एव परिश्रवाः - निर्जरास्थानानि - अर्हत्साधुतपश्चरणदशविधचक्रवालसामाचार्यनुष्ठानादीनि तान्येव कम्मोदयावष्टन्धशुभाध्यवसायस्य दुर्गतिमार्गप्रवृत्तसार्थवाहस्य जन्तोर्महाशात नावतः सातर्द्धिरसगारवप्रवणस्यास्रवा भवन्ति पापोपादानकारणानि जायन्ते इदमुक्तं भवति यावन्ति कर्मनिर्जरार्थं संयमस्थानानि तद्बन्धनायासंयमस्थानान्यपि तावन्त्येव, उक्तं च---" यथाप्रकारा यावन्तः, संसारावेशहेतवः । तावन्तस्तद्विपर्यासान्निर्वाणसुखहेतवः ॥ १ ॥ तथाहि रागद्वेषवासितान्तःकरणस्य विषयसुखोन्मुखस्य दुष्टाशयत्वात्सर्वं संसाराय, पिचुमन्दरसवासितास्यस्य दुग्धशर्करादिकटुकत्वापत्तिवदिति, सम्यग्दृष्टेस्तु विदितसंसारोदम्वतः न्यकृत विषयाभिलाषस्य सर्वमशुचि दुःखकारणमिति च भावयतः सञ्जातसंवेगस्येतरजनसंसारकारणमपि मोक्षायेति भावार्थः । पुनरेतदेव गतप्रत्यागतसूत्रं सप्रतिषेधमाह - 'जे अणासवा' इत्यादि, प्रसज्यप्रतिषेधस्य क्रियाप्रतिषेधपर्यवसान नतया परिस्रवा इत्यनेन सह सम्बन्धाभावात् पर्युदासोऽयम्, आस्रवेभ्योऽन्येऽनास्रवाः - व्रत विशेषाः, तेऽपि कम्मोदयादशुभाध्यवसायिनोऽपरिस्रवाः कर्म्मणः, कोङ्कणार्यप्रभृतीनामिवेति, तथाऽपरिस्रवाः - पापोपादानकारणानि केनचि - दुपाधिना प्रवचनोपकारादिना क्रियमाणाः कंणवीरलता भ्रामक क्षुल्लकस्येवानास्रवाः - कर्म्मबन्धनानि न भवन्ति, यदिवा आस्रवन्तीत्यास्रवाः, पचाद्यच्च, एवं परिस्रवन्तीति परिस्रवाः, अत्र चतुर्भङ्गिका-तत्र मिथ्यात्वाविरतिप्रमाद कषाययोगैर्य | एव कर्म्मणामास्रवाः चन्धकाः त एवापरेषां परिस्रवाः - निर्जरकाः, एते च प्रथमभङ्गपतिताः सर्वेऽपि संसारिणश्चतुर्गतिकाः, सर्वेषां प्रतिक्षणमुभयसद्भावात्, तथा ये आस्रवास्तेऽपरिस्रवा इति शून्योऽयं द्वितीयभङ्गको, बन्धस्य शाटावि Jain Estication intumatl For Par at Use Only ~367~# Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१३०] दीप अनुक्रम [१४२ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [२], मूलं [१३०],निर्युक्ति: [२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सम्य० ४ उद्देशका २ ॥ १८२ ॥ श्रीआचा- ४ नाभावित्वाद्, एवं येनास्रवास्ते परिस्रवाः, एते चायोगिकेवलिनस्तृतीयभङ्गपतिताः, चतुर्थभङ्गपतितास्तु सिद्धाः, ते ४ राङ्गवृत्तिः पामनास्रवत्वादपरिस्रवत्वाच्चेति, अत्र चाद्यन्तभङ्गको सूत्रोपात्तौ तदुपादाने च मध्योपादानस्यावश्यंभावित्वात् मध्यम(शी०) झकद्वयग्रहणं द्रष्टव्यमिति । यद्येवं ततः किमित्याह - 'एए पए' इत्यादि, एतानि - अनन्तरोकानि पद्यते गम्यते येभ्योऽस्तानि पदानि तद्यथा-ये आस्रवा इत्यादीनि परस्य चार्थावगत्यर्थे शब्दप्रयोगादेतत्पदवाच्यानर्थाश्च सम्यग-अविपर्या| सेन बुध्यमानस्तथा 'लोकं' जन्तुगणमास्रवद्वारायातेन कर्मणा बध्यमानं तपश्चरणादिना च मुच्यमानमाज्ञया तीर्थकर - प्रणीतागमानुसारेणाभिसमेत्य - आभिमुख्येन सम्यक् परिच्छिद्य चशब्दो भिन्नक्रमः पृथक् प्रवेदितं चाभिसमेत्य पृथगास्ववोपादानं निर्जरोपादानं चेत्येतच्च ज्ञात्वा को नाम धर्मचरणं प्रति नोद्यच्छेदिति ?, कथं प्रवेदितमिति चेत् ?, तदुच्यते, | आस्वस्तावज्ज्ञानप्रत्यनीकतया ज्ञाननिह्वेन ज्ञानान्तरायेण ज्ञानप्रद्वेषेण ज्ञानात्याशातनया ज्ञानविसंवादेन ज्ञानावरणीयं कर्म्म बध्यते, एवं दर्शनप्रत्यनीकतया यावद्दर्शनविसंवादेन दर्शनावरणीयं कर्म्म बध्यते, तथा प्राणिनामनुकम्पनतथा भूतानुकम्पनतया जीवानुकम्पनतया सत्त्वानुकम्पनत्वेन बहूनां प्राणिनामदुःखोत्पादनतया अशोचनतया अजूरण| तया अपीडनतया अपरितापनतया सातावेदनीयं कर्म बध्यते एतद्विपर्ययाच्चा सातावेदनीयमिति, तथाऽनन्तानुबन्ध्यु| त्कटतया तीव्रदर्शन मोहनीयतया प्रबलचारित्रमोहनीयसद्भावान्मोहनीयं कर्म वध्यते, महारम्भतया महापरिग्रहतया पञ्चेन्द्रियवधात् कुणिमाहारेण नरकायुष्कं बध्यते, मायावितया अनृतवादेन कूटतुलाकूटमानव्यवहारातिर्यगायुर्बध्यते, प्रकृतिविनीततथा सानुक्रोशतया अमात्सर्यान्मनुष्यायुष्कं सरागसंयमेन देशविरत्या बालतपसा अकामनिर्जरया देवायु Jan Estication Intimational こう For Party Use Onl ~368~# | ॥ १८२ ॥ www.indiary.org Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३०],नियुक्ति: [२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ASKAR [१३०] दीप अनुक्रम [१४४] प्कमिति, काय तया भाव तया भाषर्जुतया अविसंवादनयोगेन शुभनाम बध्यते, विपर्ययाच विपर्यय इति, जातिकुलबलरूपतपःश्रुतलाभैश्वर्यमदाभावावुच्चैर्गोत्रं, जात्यादिमदात् परपरिवादाच्च नीचैर्गोत्रं, दानलाभभोगोपभोगवीर्यान्तरायविधानादान्तरायिकं कर्म वध्यते, एते ह्यास्रवाः, साम्प्रतं परिस्रवाः प्रतिपाद्यन्ते-अनशनादि सबाह्याभ्यन्तरं तप इत्यादि, एवमास्रवकनिर्जरकाः सप्रभेदा जन्तवो वाच्याः, सर्वेऽपि च जीवादयः पदार्था मोक्षावसाना वाच्याः। एतानि च पदानि सम्बुध्यमानस्तीर्थकरगणधरैलॊकमभिसमेत्य पृथक् पृथक् प्रवेदितम्, अन्योऽपि तदाज्ञानुसारी चतुर्दशपूर्वविदादिः सत्त्वहिताय परेभ्य आवेदयतीत्येतद्दर्शयितुमाह आघाइ नाणी इह माणवाणं संसारपडिवपणाणं संबुज्झमाणाणं विन्नाणपत्ताणं, अहावि संता अदुवा पमत्ता अहा सच्चमिणं तिबेमि, नाणागमो मचुमुहस्स अस्थि, इच्छा पणीया वंकानिकेया कालगहिया निचयनिविटा पुढो पुढो जाई पकप्पयंति (सू० १३१) ज्ञानं सकलपदार्थाविर्भावकं विद्यते यस्यासौ ज्ञानी स 'आख्याति' आचष्टे 'इहे'ति प्रवचने केषां?-मानवानां, सर्वसंवरचारित्रार्हत्वात्तेपाम्, अथवोपलक्षणं चैतद्देवादीनां, तत्रापि केवल्यादिव्युदासाय विशेषणमाह-संसार' इत्यादि, संसार-चतुर्गतिलक्षणं प्रतिपन्नाः संसारप्रतिपन्नाः, तत्रापि ये धर्म भोत्स्यन्ते ग्रहीष्यन्ते च मुनिसुव्रतस्वामिघोटकदृष्टान्तेन तेषामेवाख्यातीत्येतद्दर्शयति-'सम्बुध्यमानानां' यथोपदिष्टं धर्म सम्यगवबुध्यमानानां, छद्मस्थेन त्वज्ञात wataneltman.arg ~369~# Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३१],नियुक्ति: [२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥१८३॥ सूत्रांक [१३१] दीप बुध्यमानेतरविशेषेण यादृगभूतानां कथयितव्यं तान् सूत्रेणैव दर्शयति-विज्ञानप्राप्तानां हिताहितप्राप्तिपरिहाराध्यव- सम्य०४ सायो विज्ञानं तत्प्राप्ता विज्ञानप्राप्ताः, समस्तपर्याप्तिभिः पर्याप्ताः, संजिन इत्यर्थः, नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-"आघाइ धम्म खलु से जीवाणं, तंजहा-संसारपडिवन्नाणं माणुसभवस्थाणं आरंभविणईणं दुक्खुवेअसुहेसगाणं धम्मसवणग I उद्देशकार वेसयाणं सुस्सूसमाणाणं पडिपुच्छमाणाणं विष्णाणपत्ताण" एतच्च प्रायो गतार्थमेव, नवरमारम्भविनयिनामित्यारम्भवि-14 नया-आरम्भाभावः स विद्यते येषामिति मत्वर्थीयस्तेषामिति । यथा च ज्ञानी धर्ममाचष्टे तथा दर्शयति-अट्टावि इत्यादि, विज्ञानं प्राप्ता धर्म कथ्यमानं कुतश्चिन्निमित्तादार्ता अपि सन्तः चिलातिपुत्रादय इव अथवा प्रमत्ता विष-8 याभिष्यङ्गादिना शालिभद्रादय इव तथाविधकर्मक्षयोपशमापत्तेर्यथा प्रतिपद्यन्ते तथाऽऽचष्टे यदिवाऽऽत्तोः-दु:खिन-II प्रमत्ताः-सुखिनः, तेऽपि प्रतिपद्यन्ते धम्मै, किं पुनरपरे?, अथवा आर्त्ता:-रागद्वेपोदयेन प्रमत्ता विषयः, ते च तीथिका गृहस्था वा संसारकान्तारं विशन्तः कथं भवतां विज्ञातज्ञेयानां करुणास्पदानां रागद्वेषविषयाभिलापोन्मूलनाय न प्रभवन्ति । एतच्चान्यथा मा मंस्था इति दर्शयितुमाह-'अहा सच्च' मित्यादि, इदं यन्मया कथितं कथ्यमानं च तद्यथा| सत्यं, याथातथ्यमित्यर्थः, इत्येतदहं ब्रवीमि, यथा दुर्लभमवाप्य सम्यक्त्वं चारित्रपरिणाम वा प्रमादो न कार्यः, स्यात्| किमालम्ब्य प्रमादो न कार्यस्तदाह-नाणागमो' इत्यादि, न धनागमो मृत्योर्मुखस्य कस्यचिदपि संसारोदरवर्तिनो|स्तीति, उक्तं च-"वदत यदीह कश्चिदनुसंततसुखपरिभोगलालितः । प्रयत्नशतपरोऽपि विगतव्यथमायुरवाप्तवान्नरः Kा॥१८३॥ ॥१॥ न खलु नरः सुरौघसिद्धासुरकिन्नरनायकोऽपि यः । सोऽपि कृतान्तदन्तकुलिशाक्रमेण कृशितो न नश्यति ॥२॥ अनुक्रम [१४४] % %95%A5% wwwanatimarmarg ~370~# Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३१],नियुक्ति: [२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [१३१] दीप तथोपायोऽपि मृत्युमुखप्रतिषेधस्य न कश्चिदस्तीति, उक्तं च-"नश्यति नौति याति वितनोति करोति रसायनक्रियां, चिरति गुरुब्रतानि विवराण्यपि विशति विशेषकातरः । तपति तपांसि खादति मितानि करोति च मन्त्रसाधनं, तदपि है कृतान्तदन्तयन्त्रककचक्रमणैर्विदार्यते ॥१॥" ये पुनर्विषयकषायाभिष्वङ्गात् प्रमत्ता धर्म नावबुध्यन्ते ते किम्भूता |भवन्तीत्याह-'इच्छा' इत्यादि, इन्द्रियमनोविषयानुकूला प्रवृत्तिरिहेच्छा तया विषयाभिमुखमभिकर्मवन्धं संसाराभिमुखं वा प्रकर्षण नीता इच्छाप्रणीताः, ये चैवम्भूतास्ते 'वंकानिकेता' वत्स्य-असंयमस्य आ-मर्यादया संयमावधिभूतया निकेतभूताः-आश्रया वानिकेताः, वङ्को वा निकेतो येषां ते वङ्कानिकेताः, पूर्वपदस्य दीर्घत्वं, ये चैवम्भूतास्ते 'कालगृहीता' कालेन-मृत्युना गृहीताः कालगृहीताः, पौनःपुन्यमरणभाज इत्यर्थः, धर्मचरणाय वा गृहीतः-अभिसन्धितः कालो यैस्ते कालगृहीताः, आहिताग्निदर्शनादापत्वाद्वा निष्ठान्तस्य परनिपातः, तथाहि-पाश्चात्ये चयसि परुत्परारि वा अपत्यपरिणयनोत्तरकालं वा धर्मं करिष्याम इत्येवं गृहीतकालाः, ये चैवम्भूतास्ते निचये निविष्टा-निचये कर्मनिचये तदुपादाने वा सावद्यारम्भनिचये निविष्टाः-अध्युपपन्नाः, ये चेच्छाप्रणीता वङ्कानिकेताः कालगृहीता निचये निविष्टास्ते तद्धर्माणः किमपरं कुर्वन्तीति दर्शयितुमाह-'पुढो पुढो' इत्यादि, पृथक्पृथगेकेन्द्रियद्वीन्द्रियादिकां जातिमनेकशः 'प्र-15 कल्पयन्ति' प्रकुर्वन्ति, पाठान्तर था 'एस्थ मोहे पुणो पुणो' 'अत्र' अस्मिन्निच्छाप्रणीतादिके हपीकानुकूले मोहे कर्मरूपे। वा मोहे निमग्नाः पुनः पुनस्तत्कुर्वन्ति येन तदप्रच्युतिः स्यात् ॥ तदप्रच्युती च किं स्यादित्याह इहमेगेसिं तत्थ तत्थ संथवो भवइ अहोववाइए फासे पडिसंवेयंति, चिटुं कम्मेहि अनुक्रम [१४४] wwwandltimaryam ~371~# Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३२],नियुक्ति: [२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सम्य प्रत श्रीआचारावृत्तिः (शी०) सूत्रांक [१३२] ॥ १८४ ॥ दीप अनुक्रम [१४५] कूरेहिं चिटुं परिचिट्ठइ, अचिट्ठे कूरेहि कम्मेहिं नो चिटुं परिचिट्ठइ, एगे वयंति अदुवावि नाणी नाणी वयंति अदुवावि एगे (सू० १३२) उद्देशकार 'इह' असिंश्चतुर्दशरज्ज्वात्मके लोके 'एकेषां' मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषायवता 'तत्र तत्र' नरकतिर्यग्गत्यादिषु यातनास्थानकेषु 'संस्तवः' परिचयो भूयोभूयोगमनाद्भवति, ततः किमित्याह-'अहोववाइए' इत्यादि, त एवमिच्छया प्रणीतत्वादिन्द्रियवशगास्तद्वशित्वात्तदनुकूलमाचरन्तो नरकादियातनास्थानजातसंस्तवास्तीथिका अध्यौदेशिकादि निर्दोष-RI माचक्षाणा 'अधऔपपातिकान्' नरकादिभवान् 'स्पर्शान्' दुःखानुभवान् 'प्रतिसंवेदयन्ति' अनुभवन्ति, तथाहि-लोकायतिका अवते-"पिव खाद च चारुलोचने !, यदतीतं वरगात्रि! तन्न ते । न हि भीरु ! गतं निवर्त्तते, समुदयमात्र| मिदं कलेवरम् ॥१॥" वैशेषिका अपि सावद्ययोगारम्भिणः, तथाहि ते भाषन्ते-अभिषेचनोपवासब्रह्मचर्यगुरुकुलवासवानप्रस्थयज्ञदानमो(प्रो)क्षणदिनक्षत्रमन्त्रकालनियमाः' इत्यादि, अन्येऽपि सावद्ययोगानुष्ठायिनोऽनया दिशा वाच्याः, स्यात् किं सर्वोऽपीच्छाप्रणीतादिवित्तत्र तत्र कृतसंस्तवोऽधऔपपातिकान् स्पर्शान् प्रतिसंवेदयत्याहोस्वित्कश्चिदेव तद्योग्यकर्मकार्येवानुभवति !, न सर्व इति दर्शयति-चिट्ठ' इत्यादि, चिई-भृशमत्यर्थं 'क्रूरैः' वधबन्धादिभिः 'कर्मभिः' क्रियाभिः 'चिट्ठ'मिति भृशमत्यर्थमेव विरूपां दशां वैतरणीतरणासिपत्रवनपत्रपाताभिघातशाल्मलीवृक्षालिङ्ग-1 N॥१८४॥ नादिजनितामनुभवंस्तमस्तमादिस्थानेषु परितिष्ठति, यस्तु नात्यर्थे हिंसादिभिः कर्मभिर्वर्त्तते सोऽत्यन्तवेदनानिचिते wataneltmanam ~372~# Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३२],नियुक्ति: [२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३२]] दीप अनुक्रम [१४५] वपि नरकेषु नोत्पद्यते, स्यात्-क एवं वदतीत्याह-एगे वयंती' त्यादि, 'एके' चतुर्दशपूर्वविदादयो 'वदन्ति' अवते|ऽथवाऽपि ज्ञानी बदति, ज्ञान-सकलपदार्थाविर्भावकम् अस्यास्तीति ज्ञानी, स चैतद् ब्रवीति, यदिव्यज्ञानी केवली भाषते श्रुतकेवलिनोऽपि तदेव भाषन्ते, यच्च श्रुतकेवलिनो भाषन्ते निरावरणज्ञानिनोऽपि तदेव वदन्तीत्येतद्गतप्रत्यागतसूत्रेण दर्शयति-नाणी' इत्यादि, 'ज्ञानिना' केवलिनो यद्वदन्त्यथवाऽप्येके-श्रुतकेवलिनो यद्वदन्ति तद्यथार्थभाषित्वादेकमेव, एकेषां सर्वार्थप्रत्यक्षत्वादपरेषां तदुपदेशप्रवृत्तेरिति, वक्ष्यमाणेऽप्येकवाक्यतेति । तदाह आवंती केयावंती लोयंसि समणा य माहणा य पुढो विवायं वयंति, से दिटुं च णे सुयं च णे मयं च णे विण्णायं च णे उड्ढे अहं तिरियं दिसासु सव्वओ सुपडिलेहियं च णे-सव्वे पाणा सव्वे जीवा सव्वे भूया सवे सत्ता हन्तव्वा अजावेयव्वा परियावेयव्वा परिघेत्तव्वा उद्देवयव्वा, इत्थवि जाणह नत्थित्थ दोसो अणारियवयणमेयं, तत्थ जे आरिआ ते एवं वयासी-से दुट्टिं च भे दुस्सुयं च भे दुम्मयं च मे दुव्विण्णायं च भे उहूं अहं तिरियं दिसासु सव्वओ दुप्पडिलेहियं च भे, जं णं तुब्भे एवं आइक्खह एवं भासह एवं परूवेह एवं पण्णवेह-सव्वे पाणा ४ ~373~# Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३३],नियुक्ति: [२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सम्य०४ उद्देशका सूत्रांक [१३३] श्रीआचा हंतव्वा ५, इत्थवि जाणह नस्थित्थ दोसो, अणारियवयणमेयं, वयं पुण एवमाइक्खामो राङ्गवृत्तिः एवं भासामो एवं परूवेमो एवं पण्णवेमो-सव्वे पाणा ४न हंतव्वा १ न अजावेयव्वा (शी०) २ न परिचित्तव्वा ३ न परियावेयव्वा ४ न उद्दवेयव्वा ५, इत्थवि जाणह नत्थित्थ ॥१८५॥ दोसो, आयरियवयणमेयं पुव्वं निकाय समयं पत्तेयं पत्तेयं पुच्छिस्सामि, हंभो पवाइया! किं भे सायं दुक्खं असायं? समिया पडिवणे यावि एवं व्या-सव्वेसि पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसि सत्ताणं असायं अपरिनिव्वाणं महब्भयं दुक्खं तिबेमि (सू० १३३) ॥ चतुर्थाध्ययने द्वितीय उद्देशकः ४-२॥ 'आवन्तीति यावन्तः 'केआवन्तीति केचन 'लोके' मनुष्यलोके 'श्रमणाः' पाषण्डिकाः 'ब्राह्मणा' द्विजातयः पृथमाक्पृथग विरुद्धो वादो विवादस्त वदन्ति, एतदुक्तं भवति-यावन्तः केचन परलोकं ज्ञीप्सवस्ते आत्मीयदर्शनानुरागितया पाराक्यं दर्शनमपवदन्तो विवदन्ते, तथाहि-भागवता ब्रुवते-“पञ्चविंशतितत्त्वपरिज्ञानान्मोक्षः, सर्वव्याप्यात्मा निष्क्रियो निर्गुणश्चैतन्यलक्षणो, निर्विशेष सामान्यं तत्त्व"मिति, वैशेषिकास्तु भाषन्ते-"द्रव्यादिषट्पदार्थपरिज्ञाना- न्मोक्षः, समवायिज्ञानगुणेनेच्छाप्रयलद्वेषादिभिश्च गुणैर्गुणवानात्मा, परस्परनिरपेक्षं सामान्यविशेषात्मकं तत्त्व"मिति 5%2554545453 दीप अनुक्रम [१४६]] %%%* ॥१८५॥ wwwandltimaryam ~374~# Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३३],नियुक्ति: [२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३३] दीप शाक्यास्तु वदन्ति-"यथा परलोकानुयाय्यात्मैव न विद्यते, निःसामान्य वस्तु क्षणिक "ति, मीमांसकास्त मोक्षहै सर्वज्ञाभावेन व्यवस्थिता इति, तथा केषाश्चित् पृथिव्यादय एकेन्द्रिया जीवा न भवन्ति, अपरे वनस्पतीनामप्यचेत|नतामाहुः, तथा द्वीन्द्रियादीनामपि कृम्यादीनां न जन्तुस्वभावं प्रतिपद्यन्ते, तदावे वा न तद्वधे बन्धोऽल्पबन्धता बेति, तथा हिंसायामपि भिन्नवाक्यता, तदुक्तम्-प्राणी प्राणिज्ञानं घातकचित्तं च तद्गता चेष्टा । प्राणैश्च विप्रयोगः। पञ्चभिरापद्यते हिंसा ॥१॥" इत्येवमादिक औद्देशिकपरिभोगाभ्यनुज्ञादिकश्च विरुद्धो वादः स्वत एवाभ्यूह्यः । यदि वा ब्राह्मणाः श्रमणा धर्माविरुद्धं वादं यद्वदन्ति तत्सूत्रेणैव दर्शयति-से दिहं चणे' इत्यादि यावत् 'नत्थित्थ दोसो'त्ति, ४|| 'से'त्ति तच्छब्दार्थे यदहं वक्ष्ये तत् 'दृष्टम्' उपलब्धं दिव्यज्ञानेनास्माभिरस्माकं वा सम्बन्धिना तीर्थकृता आगमप्रणा-13 यकेन चशब्द उत्तरापेक्षया समुच्चयार्थः, श्रुतं चास्माभिर्गुर्वादेः सकाशात् , अस्मद्गुरुशिष्यैर्वा तदन्तेवासिभिर्वा मतम्अभिमतं युक्तियुक्तत्वादस्माकमस्मत्तीर्थकराणां वा विज्ञातं च तत्त्वभेदपर्यायैरस्माभिरस्मत्तीर्थकरेण वा, स्वतो न परोपदेशदानेन, एतच्चोर्ध्वाधस्तिर्यक्षु दशस्वपि दिक्षु सर्वतः सर्वैः-प्रत्यक्षानुमानोपमानागमार्थापत्त्यादिभिः प्रकारैः सुष्टु प्रत्युपेक्षितंच-पर्यालोचितंच, मनःप्रणिधानादिना अस्माभिरस्मत्तीर्थकरेण वा, किं तदित्याह-सर्वे प्राणाः सर्वे जीवाः सर्वे भूताः सर्वे सत्वा हन्तव्या आज्ञापयितव्याः परिगृहीतव्याः परितापयितव्या अपद्रापयितव्याः, 'अत्रापि धर्मचिन्तायामप्येवं जानीथ, यथा नास्त्यत्र यागार्थ देवतोपयाचितकतया वा प्राणिहननादौ 'दोषः' पापानुबन्ध इति, एवं यावन्तः | केचन पाषण्डिका औद्देशिकभोजिनो ब्राह्मणा वा धर्मविरुद्धं परलोकविरुद्ध वा वादं भाषन्ते । अयं अनुक्रम [१४६]] Swatantram.org ~375~# Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३३],नियुक्ति: [२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत + सूत्रांक [१३३] + दीप श्रीआचा- च जीवोपमर्दकत्वात् पापानुबन्धी अनार्यप्रणीत इति, आह च-आराद्याताः सर्वहेयधर्मेभ्यः इत्यार्या-| ID सम्य०४ रामवृत्तिः स्तद्विपर्यासादनार्या:-क्रूरकर्माणस्तेषां प्राण्युपघातकारीदं वचनं, ये तु तथाभूता न ते किम्भूतं प्रज्ञापय उद्देशकार (शी०) न्तीत्याह-तत्थ' इत्यादि, 'तत्रे'ति वाक्योपन्यासार्थे निर्धारणे वा, ये ते आर्या देशभाषाचारित्रार्यास्त का एवमवादिषुर्यथा यत्तदनन्तरोक्तं दुईष्टमेतहुष्टं दृष्टं दुर्दष्टं 'भे' युस्माभिर्युष्मत्तीर्थकरेण वा, एवं यावद्दुष्पत्यु॥१८६॥ पेक्षितमिति । तदेवं दुष्टादिकं प्रतिपाद्य दुष्प्रज्ञापनानुवादद्वारेण तदभ्युपगमे दोषाविष्करणमाह-जंणमित्यादि, णमिति वाक्यालङ्कारे, यदेतद्वक्ष्यमाण यूयमेवमाचध्वमित्यादि यावदत्रापि यागोपहारादौ जानीथ यूर्य यथा नास्त्येवात्र-प्राण्युपमर्दानुष्ठाने दोषः-पापानुबन्ध इति, तदेवं परवादे दोषाविर्भावनेन धर्मविरुद्धतामाविर्भाव्य स्वमतवादमार्या आविर्भावयन्ति-वय' मित्यादि, पुनःशब्दः पूर्वस्माद्विशेषमाह, वयं पुनर्यथा धर्मविरुद्धवादो न भवति तथा प्रज्ञापयाम इति, तान्येव पदानि सप्रतिषेधानि हन्तव्यादीनि यावन्न केवलमत्र-अस्मदीये वचने नास्ति दोषोऽत्रापि-अधिकारे जानीथ यूयं यथा 'अत्र' हननादिप्रतिषेधविधी नास्ति दोषः-पापानुवन्धः, सावधारणत्वाद्वाक्यस्य नास्त्येव दोषः, प्राण्युपधातिप्रतिषेधाचार्यवचनमेतत्, एवमुक्ते सति ते पापण्डिका ऊचुः-भवदीयमार्यवचनमस्मदीयं बनायेमित्येतन्निरन्तराः सुहृदः प्रत्येष्यन्ति, युक्तिविकलत्वात् , तदत्राचार्यों यथा परमतस्यानार्यता स्यात्तथा दिदर्शयिषुः स्ववाग्यन्त्रिता वादिनो। न विचलयिष्यन्तीतिकृत्वा प्रत्येकमतप्रच्छनार्थमाह-'पुवं मित्यादि, 'पूर्वम्' आदावेव 'समयम्' आगमं यद्यदीयाग- 4 ॥१८६॥ मेऽभिहितं तत् 'निकाच्य' व्यवस्थाप्य पुनस्तद्विरूपापादनेन परमतानार्यता प्रतिपाद्येत्यतस्तदेव परमतं प्रश्नयति, + अनुक्रम [१४६]] + + + wwwandltimaryam ~376~# Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१३३] दीप अनुक्रम [१४६ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [२], मूलं [१३३],निर्युक्तिः [२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः * यदिवा पूर्व प्राश्निकान्निकाच्य ततः पाषण्डिकान् प्रश्नयितुमाह- 'पत्तेय' मित्यादि, एकमेकं प्रति प्रत्येकं भोः प्रावादुकाः! भवतः प्रश्नयिष्यामि किं 'भे' युष्माकं 'सात' मनआह्लादकार दुःखमुतासातं मनःप्रतिकूलं?, एवं पृष्टाः सन्तो यदि सातमित्येवं ब्रूयुः ततः प्रत्यक्षागमलोकवाधा स्याद्, अथ चासातमित्येवं ब्रूयुः ततः 'समिया' सम्यक् प्रतिपन्नांस्तान् प्रावादुकान् स्ववाग्यन्त्रितानप्येवं ब्रूयात् 'अपिः' सम्भावने, सम्भाव्यते एतद्भणनं यथा न केवलं भवतां दुःखमसातं, सर्वेपामपि प्राणिनां दुःखमसातं मनसोऽनभिप्रेतम् अपरिनिर्वाणम्-अनिर्वृत्तिरूपं महद्भयं दुःखमित्येतत् परिगणय्य सर्वेऽपि प्राणिनो न हन्तव्या इत्यादि वाच्यं तद्धनने च दोषः, यस्त्वदोषमाह तदनार्थवचनम् । इतिरधिकारपरिसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत्, तदेवं प्रावादुकानां स्ववानियन्त्रणयाऽनार्यता प्रतिपादिता, अत्रैव रोहगुप्तमन्त्रिणा विदितागमसद्भावेन माध्यस्थ्यमवलम्बमानेन तीर्थिकपरीक्षाद्वारेण यथा निराकरणं चक्रे तथा नियुक्तिकारो गाथाभिराचष्टे खुड्डग पायसमासं धम्मकपि य अर्जपमाणेणं । छन्त्रेण अन्नलिंगी परिच्छिया रोहगुत्तेणं ॥ २२७ ॥ अनया गाथया सङ्क्षेयतः सर्वे कथानक मावेदितं क्षुल्लकस्य, 'पादसमासो' गाथापादसङ्क्षेपस्तजल्पता धर्म्मकथां च 'छन्नेन' प्रकटेन 'अन्यलिङ्गिनः' प्रावादुकाः 'परीक्षिताः' निरूपिताः 'रोहगुप्तेन' रोहगुप्तनाम्ना मन्त्रिणेति गाथासमासार्थः । भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-चम्पायां नगर्यो सिंहसेनस्य राज्ञो रोहगुप्तो नाम महामन्त्री, स चाई| दर्शनभावितान्तःकरणो विज्ञातसदसद्वादः, तत्र च कदाचिद्राजाऽऽस्थानस्थो धर्म्मविचारं प्रस्तावयति, तत्र यो यस्याभिमतः स तं शोभनमुवाच स च तूष्णीभावं भजमानो राज्ञोतः- धर्म्मविचारं प्रति किमपि न ब्रूते भवान् ?, स त्वाह Jain Estication Intl For Fanart Use Only मुद्रण-दोषात् '२२७' इति निर्युक्तिः क्रम द्वितीय वारं लिखितं । ~377 ~# www.sendiary.org Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३३],नियुक्ति: [२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचाराजवृत्तिः (शी०) सूत्रांक [१३३] ॥१८७॥ दीप किमेभिः पक्षपातवचोभिः, विमोमः स्वत एव धर्म परीक्षामहे तीथिकानित्यभिधाय राजानुमत्या 'सकण्डलं वाससम्य०४ वदनं न 'त्ति, अयं गाथापादो नगरमध्ये आललम्बे, सम्पूर्णा तु गाथा भाण्डागारिता, नगी घोरपुरे, पधान्य एनं ॥ गाथापादं पूरयिष्यति तस्य राजा यथेप्सितं दानं दास्यति तद्भक्तश्च भविष्यतीति, तं च गाथापादं सर्वेऽपि गृहीत्वा| प्राचादुका निर्जग्मुः, पुनश्च सप्तमेऽहनि राजानमास्थानस्थमुपस्थिताः, तत्रादावेव परिवाइ प्रवीति भिक्खं पवितॄण मएऽज्ज दिह, पमयामुहं कमलविसालनेतं । वक्खित्तचित्तेण न सुद्दु नार्य, सकुंडलं वा वयणं न वत्ति ।। २२८ ॥ सुगम, नवरमपरिज्ञाने व्याक्षेपः कारणमुपन्यस्तं न पुनवीतरागतेति पूर्वगाथाविसंवादादसौ तिरस्कृत्य निर्वाटितः ।। पुनस्तापसः पठति फलोदएणं मि गिहं पविट्ठो, तत्थासणस्था पमया मि विट्ठा। वक्खित्तचित्तेण न सुटु नायं, सकुंडलं वा बयणं न यत्ति ॥ २२९॥ सुगम पूर्ववत् । तदनन्तरं शौद्धोदनिशिष्यक आहमालाविहारंमि मएउज दिहा, उवासिया कंचणभूसियंगी। ॥१८ ॥ वक्खित्तचिसेण न सुट्ठ नायं, सकुंडलं वा वयणं न वत्ति ॥२३॥ अनुक्रम wwwandltimaryam ~378~# Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३३],नियुक्ति: [२३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ********** [१३३] दीप पर्ववत, एवमनया दिशा सर्वेऽपि तीथिका वाच्याः, आईतस्तु पुनर्न कश्चिदागत इति राज्ञाऽभाणि, मन्त्रिणा वाई-12 तालकोऽप्येवम्भूतपरिणाम इत्येवं संप्रत्यय एषां स्यादित्यतो भिक्षार्थ प्रविष्टः प्रत्युषस्येव क्षुल्लका समानीतः, तेनापि 18 गाथापादं गृहीत्वा गाथा बभाषे, तद्यथा खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स, अज्झप्पजोगे गयमाणसस्स । किं मजा एएण विचिंतपणं?, सकुंडलं वा वयणं न वत्ति ।। २३१ ।। सुगमा, अत्र च क्षान्त्यादिकमपरिज्ञाने कारणमुपन्यस्तं न पुनर्व्याक्षेप इत्यतो गाथासंवादात् शान्तिदमजितेन्द्रियत्वा४||ध्यात्मयोगाधिगतेश्च कारणाद्राज्ञो धर्म प्रति भावोल्लासोऽभूत्, क्षुलकेन च धर्मप्रश्नोत्तरकालं पूर्वगृहीतशुष्केतरकद्दम गोलकद्वयं भित्तौ निक्षिप्य गमनमारेभे, पुनर्गच्छन् राज्ञोक-किमिति भवान् धर्म पृष्टोऽपि न कथयति?, स चावो|चत्-हे मुग्धा ननु कथित एवं धर्मो भवतः शुष्केतरगोलकदृष्टान्तेन । एतदेव गाथाद्वयेनाहउल्लो सुको य दो छदा, गोलया महियामया । दोवि आवडिया कुडे, जो उल्लो तत्थ (सोऽस्थ) लग्गइ ।। एवं लग्गति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा । विरत्ता उन लग्गति, जहा से मुक्कगोलए ॥ २३३ ॥ दि। अयमत्र भावार्थ:-ये ह्यङ्गप्रत्यङ्गनिरीक्षणव्यासङ्गात् कामिनीनां मुखं न पश्यन्ति तदभावे तु पश्यन्ति ते कामगृनु तया सार, सार्द्रतया च संसारपके कर्मकर्दमे वा लगन्ति, ये तु पुनः क्षान्त्यादिगुणोपेताः संसारसुखपराङ्मुखाः ** अनुक्रम * www.iratnam.org ~379~# Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३४],नियुक्ति: [२३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सम्य०४ प्रत श्रीआचारावृत्तिः काष्ठमुनयस्ते शुष्कगोलकसन्निभा न कचिल्लगन्तीति गाथाद्वयार्थः । सम्यक्त्वाध्ययने द्वितीयोद्देशकनियुक्तिः । इति सम्यक्त्वाध्ययने द्वितीयोद्देशकः समाप्तः ॥४-२॥ उद्देशका (शी) सूत्रांक [१३४] ॥१८८॥ दीप अनुक्रम [१४७] उक्को द्वितीयोद्देशकः, साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके परमतव्युदासद्वारेण सम्यक्त्वमविचलं प्रतिपादयता तत्सहचरितं ज्ञानं तत्फलभूता च विरतिरभिहिता, सत्यपि चामिखये न पूर्वोपात्तकर्मणो निरवद्यतपोऽनुष्ठानमन्तरेण भयो भवतीत्यतस्तदधुना प्रतिपाद्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादि | सूत्रम् उवेहि णं बहिया य लोग, से सव्वलोगंमि जे केइ विष्णू, अणुवीइ पास निक्खित्तदंडा, जे केइ सत्ता पलियं चयंति, नरा मुयच्चा धम्मविउत्ति अंजू, आरंभजं दुक्खमिणंति णच्चा, एवमाहु संमत्तदंसिणो, ते सव्वे पावाइया दुक्खस्स कुसला परिण मुदाहरंति इय कम्मं परिण्णाय सव्वसो (सू० १३४) योऽयमनन्तरं प्रतिपादितः पापण्डिलोकः एनं धर्माद्वहिर्व्यवस्थितमुपेक्षस्व-तदनुष्ठानं मा अनुमंस्थाः, चशब्दोऽनु- तसमुच्चयार्थः, तदुपदेशमभिगमनपर्युपासनदानसंस्तवादिकं च मा कृथा इति । यः पापण्डिलोकोपेक्षकः स कं गुणमवाप्नु ॥१८॥ चतुर्थ-अध्ययने तृतीय-उद्देशक: 'अनवद्यतप' आरब्धः, ~380~2 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [३], मूलं [१३४],नियुक्ति: [२३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३४]] दीप Fयादित्याह-'से सवलोए' इत्यादि, यः पापण्डिलोकमनार्यवचनमवगम्य तदुपेक्षां विधत्ते स सर्वस्मिलोके-मनुष्यलोके ये केचिद्विद्वांसस्तेभ्योऽग्रणीविंद्वत्तम इति स्यात्, लोके केचन विद्वांसः सन्ति? येभ्योऽधिकः स्यादित्यत आह 'अणुवी इत्यादि, ये केचन लोके 'निक्षिप्तदण्डाः' निश्चयेन क्षिप्तो निक्षिप्तः-परित्यक्तः कायमनोवाङ्मयः प्राण्युपधातकारी दण्डो यैस्ते विद्वांसो भवन्त्येव एतदनुविचिन्त्य-पर्यालोच्य पश्य-अवगच्छ । के चोपरतदण्डा इत्यत आह-'जे केई' इत्यादि, ये केचनावगतधर्माणः सत्त्वाः-प्राणिनः 'पलित'मिति कर्म तत्त्वजन्ति, ये 'चोपरतदण्डा भूत्वाऽष्टप्रकारं कर्म नन्ति ते IS विद्वांस इत्येतदनविचिन्त्य-अक्षिनिमीलनेन पर्यालोच्य 'पश्य' विवेकिन्या मत्याऽवधारय । के पुनरशेषकर्मक्षयं कुर्वन्ति | इत्यत आह-'नरे' इत्यादि, नरा:-मनुष्यास्त एवाशेषकर्मक्षयायालं नान्ये, तेऽपि न सर्वे अपि तु मृतार्चा-मृतेव मृता संस्काराभावाद; शरीरं येषां ते तथा, निष्प्रतिकर्मशरीरा इत्यर्थः, यदिवा अर्था-तेजः, स च क्रोधः, स च कषायोपलक्षणार्थः, ततश्चायमों-मृता-विनष्टा अर्चा कपायरूपा येषां ते मृतार्चाः, अकपायिण इत्यर्थः, किं च धम्मै श्रुतचारित्राख्यं विदन्तीति धर्मविदः, इति हेतो, यत एव धर्मविदोऽत एव ऋजवः-कौटिल्यरहिताः । स्थादेतत्-किमालम्ब्यतद्विधेयमित्यत आह–'आरंभज' मित्यादि, सावद्यक्रियानुष्ठानमारम्भस्तस्माज्जातमारम्भर्ज, किं तद्-दुःखमिदमिति सकलपाणिप्रत्यक्षं, तथाहि-कृषिसेवावाणिज्याद्यारम्भप्रवृत्तो यच्छारीरभानसं दुःखमनुभवति तद्वाचामगोचरमिस्थतः प्रत्यक्षाभिधायिनेदमोक्तम्, 'इतिः' उपप्रदर्शने, इत्येतदनुभवसिद्धं दुःखं ज्ञात्वा मृतार्चा धर्मविद ऋजवश्च भव-| न्तीति । एतच समस्तवेदिनो भाषन्त इति दर्शयति-'एवमित्यादि, 'एवं' पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहुः उक्तवन्तः, के एव अनुक्रम [१४७] ~381~# Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१३४] दीप अनुक्रम [१४७] श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ १८९ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [३], मूलं [१३४],निर्युक्तिः [२३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः माहुः १ - समत्वदर्शिनः सम्यक्त्वदर्शिनः समस्तदर्शिनो वा, यदुद्देशकादेरारभ्योक्तं तदेवमूचुरित्यर्थः कस्मात ऊचुरित्याह –'ते सव्वे' इत्यादि, यस्मात्ते सर्वेऽपि सर्वविदः 'प्रावादिकाः' प्रकर्षेण मर्यादया वदितुं शीलं येषां ते प्रावादिनः, त एव प्रावादिका:-यथावस्थितार्थस्य प्रतिपादनाय वावदूका', 'दुःखस्य' शारीरमानसलक्षणस्य तदुपादानस्य वा कर्म्मणः 'कुशखा' निपुणास्तदपनोदोपायवेदिनः सन्तः से सर्वेऽपि ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय हेयार्थस्य प्रत्याख्यान परिज्ञामुदाहरन्ति *'इतिः' उपप्रदर्शने, इत्येवं पूर्वोक्तनीत्या फर्म्मबन्धोदय सत्कर्म्मताविधानतः परिज्ञाय 'सर्वशः' सब्बैः प्रकारैः कुशलाः प्रत्या४ ख्यानपरिज्ञामुदाहरन्ति यदिवा मूलोत्तरप्रकृतिप्रकारैः सर्वैः परिज्ञायेति मूलप्रकारा अष्टौ उत्तरप्रकृतिप्रकारा अष्टपशाशदुत्तरं शतम्, अथवा प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशप्रकारैः, यदिवोदयप्रकारैर्बन्धसत्कर्म्मता कार्यभूतैरागामिबन्धसरक मताकारणैश्च कर्म्म परिज्ञायेति, ते चामी उदयप्रकाराः, तद्यथा मूलप्रकृतीनां त्रीण्युदयस्थानानि, अष्टविधं सप्तविधं चतुर्विधमिति, तत्राष्टापि कर्म्मप्रकृती यौगपद्येन वेदयतोऽष्टविधं तथ कालतोऽनादिकमपर्यवसितमभव्यानां भव्यानां त्वनादिसपर्यवसितं सादिसपर्यवसितं चेति, मोहनीयोपशमे क्षये वा सप्तविधं, घातिक्षये चतुर्विधमिति । साम्प्रतमुत्तरप्रकृतीनामुदयस्थानान्युच्यन्ते तत्र ज्ञानावरणीयान्तराययोः पश्चप्रकारं एकमुदयस्थानं, दर्शनावरणीयस्य द्वे, दर्शनचतुष्कस्योदयाच्चत्वारि अन्यतरनिद्रया सह पञ्च, वेदनीयस्य सामान्येनैकमुदयस्थानं सातमसातं वेति, विरोधाद्यौगपद्यो दयाभाव:, मोहनीयस्य सामान्येन नवोदयस्थानानि तद्यथा दश नव अष्टौ सप्त पटू पञ्च चत्वारि द्वे एकं चेति, तत्र दश मिथ्यात्वं १ अनन्तानुबन्धी क्रोधोऽप्रत्याख्यानः प्रत्याख्यानावरणः सवलनश्चेत्येतत्क्रोधचतुष्टयम् ५ एवं मानादि Jain Estication intumatl For Pantry at Use Only ~382~# सम्य० ४ उद्देशका २ ॥ १८९ ॥ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [३], मूलं [१३४],नियुक्ति: [२३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३४] दीप चतुष्टयमपि योज्यं अन्यतरो वेदः ६ हास्यरतियुग्मम् अरतिशोकदुग्म वा ८ भयं ९ जुगुप्सा १० चेति, भयमुगुप्सयोरन्यतराभावे नव, द्वयाभावेऽष्टी, अनन्तानुबन्ध्यभावे सप्त, मिथ्यात्वाभावे षट् , अप्रत्याख्यानोदयाभावे पञ्च, प्रत्याख्यानावरणाभावे चत्वारि, परिवर्तमानयुगलाभावे सञ्चलनान्यतरवेदोदये सति द्वे, वेदाभावे एकमिति, आयुषोऽप्येकमेवोदयस्थान चतुर्णामायुषामन्यतरदिति, नानो द्वादशोदयस्थानानि, तद्यथा-विंशतिः एकविंशतिः चतुर्विंशतिः पञ्चविंशतिः षड्विंश||तिः सप्तविंशतिः अष्टाविंशतिः एकोनत्रिंशत् विंशत् एकत्रिंशत् नव अष्टौ चेति, तब संसारस्थानां सबोगिना जीवानां दशोदयस्थानानि नाम्रो भवन्ति, अयोगिनां तु चरमद्यमिति, अत्र च द्वादश ध्रुवोदयाः कर्मप्रकृतयः, तद्यथा-तैजसol कार्मणे शरीरे २ वर्णगन्धरसस्पर्शचतुष्टय ६ अगुरुलघु ७ स्थिरं ८ अस्थिरं शुभं १.अशुभ ११ निर्माण १२ मिति, तत्र विंशतिरतीर्थकरकेवलिनः समुद्घातगतस्य कार्मणशरीरयोगिनो भवति, तद्यथा-मनुष्यगतिः १ पन्नेन्द्रियजातिः २ त्रसं ३ वादरं ४ पर्याप्त ५ सुभगं ६ आदेयं ७ यश कीर्तिरिति ८ध्रुवोदय १२ सहिता विंशतिः २०, एकविंशत्यादीमि तूदयस्थानानि एकत्रिंशत्पर्यन्तानि जीवगुणस्थानभेदादनेकभेदानि भवन्ति, सानि चेह प्रधगौरवभयात् प्रत्येक नोच्यन्त इत्यत एकैकभेदावेदनं क्रियते, तत्रैकविंशतिः गतिः १ जातिः २ आनुपूर्वी ३ वसं ४ बादरं ५ पर्याप्तापर्याप्त योरन्यतरत् ६ सुभगदुर्भगयोरन्यप्तरत् ७ आदेयानादेययोरन्यतरत् ८ यशःकीस्र्ययशम्कीयोरन्यतरत् ९, एसाश्च नव भूवोदय १२] सहिता एकविंशतिः २१, चतुर्विंशतिस्तु तिर्यग्गतिः १ एकेन्द्रियजालिः २ औदारिकं ३ हुण्डमंस्थानं ४ उपघातं ५ प्रत्ये६कसाधारणयोरन्यतरत् ६ स्थावरं ७ सूक्ष्मवादरयोरभ्यतरत् ८ दुर्भगं ९ अनादेयं १० अपर्याप्तकं ११ यशःकीय॑यश: अनुक्रम [१४७] JainEducatinintamataima www.tanditnary.org ~383-2 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१३४] दीप अनुक्रम [१४७] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ १९० ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [३], मूलं [१३४],निर्युक्तिः [२३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः कीयोरन्यतर १२ दिति, तत्रैवापर्याष्टकापनयने पर्याप्तकपराघाताभ्यां प्रक्षिप्ताभ्यां पञ्चविंशतिः २५, पशितिस्तु या ऽसौ केवलिनो विंशतिरभिहिता सैवीदारिकशरीराङ्गोपाङ्गद्वयान्यतरसंस्थानाद्य संहननोपघातप्रत्येक सहिता वेदितव्या मिश्रकाययोगे वर्त्तमानस्य २६, सैव तीर्थकरनामसहिता केवलिसमुद्घातवतो मिश्रकाययोगिन एव सप्तविंशतिः २७, सैव प्रशस्तविहायोगतिसमन्विताऽष्टाविंशतिः २८, तत्र तीर्थकरनामापनयने उच्छास १ सुस्वर २ पराघात ३ प्रक्षेपे सति त्रिंशद्भवति ३०, तत्र सुस्वरे निरुद्धे एकोनत्रिंशत् २९, सैव त्रिंशत्तीर्थकरनाम सहिता एकत्रिंशत् ३१, नवोदयस्तु मनुष्यगतिः १ पञ्चेन्द्रियजातिः २ व ३ बादरं ४ पर्याप्तकं ५ सुभगं ६ आदेयं ७ यशःकीर्त्ति ८ स्तीर्थकर मिति ९, एता अयोगितीर्थकर केवलिनः, एता एव तीर्थकरनामरहिता अष्टाविति ८, गोत्रस्यैकमेव सामान्येनोदयस्थानं, उच्चनीचयोरन्यतरद्, यौगपद्येनोदयाभावो विरोधादिति, तदेवमुदयभेदैरनेकप्रकारतां कर्म्मणः परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञामुदाहरन्तीति ॥ यदि नाम कर्म्मपरिज्ञामुदाहरन्ति ततः किं कार्यमित्याह Jan Estication Intemational इह आणाखी पंडिए अणिहे, एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरं, कसेहि अप्पाणं जरेहि अप्पाणं, जहा जुन्नाई कट्टाई हव्ववाहो पमत्थइ । एवं अत्तसमाहिए अणिहे, विगिंच कोहं अविकंपमाणे ( सू० १३५ ) 'इह' अस्मिन् प्रवचने आज्ञामाकाङ्क्षितुं शीलमस्येति आज्ञाकाङ्क्षी - सर्वज्ञोपदेशानुष्ठायी, यश्चैवम्भूतः स 'पण्डित' For Pantry Use Onl ~384~# सम्य० ४ उद्देशका‍ ॥ १९० ॥ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१३५] दीप अनुक्रम [१४८ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [३], मूलं [१३५],निर्युक्ति: [२३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | विदितवेद्यः अस्त्रिहो भवति, स्निह्यते श्लिष्यतेऽष्टप्रकारेण कर्म्मणेति स्त्रिहो न स्त्रिहोऽस्त्रिहः, यदिवा स्निह्यतीति स्त्रिहोरागवान् यो न तथा सोऽस्निहः, उपलक्षणार्थत्वाश्चास्य रागद्वेषरहित इत्यर्थः, अथवा निश्चयेन हन्यत इति निहतः भावरिपुभिरिन्द्रियकषायकर्म्मभिः यो न तथा सोऽनिहतः, इह प्रवचने आज्ञाकाङ्क्षी पण्डितो भावरिपुभिर निहतो, नाम्यत्र, यश्चानिहतः स परमार्थतः कर्म्मणः परिज्ञाता । यश्चैवम्भूतः स किं कुर्यादित्याह - 'एगमप्पाण' मित्यादि, सोऽनिहतोऽ-स्निहो वा आत्मानमेकं धनधान्यहिरण्य पुत्र कलत्रशरीरादिव्यतिरिक्तं 'संप्रेक्ष्य' पर्यालोच्य धुनीयाच्छरीरकं, सम्भावनायां लिङ, सर्वस्मादात्मानं व्यतिरिक्तं पश्यतः सम्भाव्यत एतच्छरीरविधूननमिति, तच्च कुर्वता संसारस्वभावैकस्वभावनैवंरूपा भावयितव्येति – “संसार एवायमनर्थसारः कः कस्य कोऽत्र स्वजनः परो वा ? सर्वे भ्रमन्तः स्वजनाः परे च, भवन्ति भूत्वा न भवन्ति भूयः ॥ १ ॥ विचिन्त्यमेतद्भवताऽहमेको, न मेऽस्ति कश्चित्पुरतो न पश्चात् । स्वकर्मभिश्र तिरियं ममैव, अहं पुरस्तादहमेव पश्चात् ॥ २ ॥ सदैकोऽहं न मे कश्चित्, नाहमन्यस्य कस्यचित् । न तं पश्यामि यस्याहं, नासी भावीति यो मम ॥ ३ ॥” तथा एकः प्रकुरुते कर्म्म, भुनक्त्त्येकश्च तत्फलम् । जायते म्रियते चैक, एको याति भवान्तरम् ॥ १ ॥ इत्यादि, किं च- 'कसेहि अप्पाणं जरेहि अप्पाणं' परव्यतिरिक्त आत्मा शरीरं तत् कष्टतपश्वरणादिना कृशं कुरु, यदिवा 'कष' कस्मै कर्म्मणेऽलमित्येवं पर्यालोच्य यच्छक्तोषि तत्र नियोजयेदित्यर्थः तथा 'जर' शरीरकं जरीकुरु, तपसा तथा कुरु यथा जराजीर्णमिव प्रतिभासते, विकृतिपरित्यागद्वारेणात्मानं निःसारतामापादयेदित्यर्थः, किमर्थमित्येतदिति चेदाह - 'जहा' इत्यादि, यथा 'जीर्णानि' निःसाराणि काष्ठानि 'हव्यवाहो' हुतभुक्ममनाति - शीघ्रं Estication Intl For Par at Use Only ~385~# www.anditary.org Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [३], मूलं [१३५],नियुक्ति: [२३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सम्य.४ उद्देशका प्रत सूत्रांक [१३५] श्रीआचा- भस्मसात् करोति, दृष्टान्त प्रदर्य दार्शन्तिकमाह-एवं अत्तसमाहिए' 'एवम्' अनन्तरोक्तहसम्तमकारेणात्मना रावृत्तिः समाहितः आत्मसमाहितः, ज्ञानदर्शनचारित्रोपयोगेन सदोपयुक्त इत्यर्थः, आत्मा वा समाहितोऽस्येत्यात्मसमाहितः, सदा (शी०) || शुभव्यापारवानित्यर्थः, आहिताश्यादिदर्शनादापत्वाद्वा निष्ठान्तस्य परनिपातः, यदिवा प्राकृते पूर्वोत्तरनिपातोऽतन्त्रः समाहितात्मेत्यर्थः, 'अस्मिहः' स्नेहरहितः संस्तपोऽग्निना कर्मकाष्ठं दहतीति भावार्थः ॥ एतदेव दृष्टान्तदान्तिकगतमर्थ नियुक्तिकारो गाथयोपसञ्जिवृक्षुराहजह खलु झुसिरं कई सुचिरं सुकं लहुं डहह अग्गी । तह खलु खचंति कम्मं सम्मचरणे ठिया साहू ॥२४॥ गतार्था । अत्र चास्त्रिहपदेन रागनिवृत्तिं विधाय द्वेषनिवृत्तिं विधित्सुराह-विगिंच कोह'मित्यादि, कारणेऽकारणे वाऽतिराध्यवसायः क्रोधः तं परित्यज, तस्य च कार्य कम्पनं तत्प्रतिषेधं दर्शयति-अविकम्पमानः॥ किं विगणय्यैतत्कुर्यादित्याह-- इमं निरुद्धाउयं संपेहाए, दुक्खं च जाण अदु आगमेस्सं, पुढो फासाइंच फासे, लोयं च पास विफंदमाणं, जे निव्वुडा पावेहि कम्मेहिं अणियाणा ते वियाहिया, तम्हा अतिविजो नो पडिसंजलिज्जासि तिबेमि (सू० १३६) चतुर्थे तृतीयः॥४-३॥ G 'इदं' मनुष्यत्वं 'निरुद्धायुष्क' निरुद्धं परिगलितमायुष्कं 'सम्प्रेक्ष्य' पर्यालोच्य क्रोधादिपरित्यागं विदध्यात् , किंच|| दीप अनुक्रम [१४८] 4 ॥१९१॥ ~386~# Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१३६ ] दीप अनुक्रम [ १४९ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [३], मूलं [१३६],निर्युक्ति: [२३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - दुक्ख' मित्यादि, क्रोधादिना दन्दह्यमानस्य यन्मानसं दुःखमुद्यते तज्जानीहि, तज्जनितकर्म्मविपाकापादितं चागामि दुःखं सम्प्रेक्ष्य क्रोधादिकं प्रत्याख्यानपरिज्ञया जानीहि, परित्यजेरित्यर्थः आगामि दुःखस्वरूपमाह - 'पुढो' इत्यादि, पृथक् सप्तमनरकपृथिवीसम्भवशीतोष्ण वेदना कुम्भीपा का दियातनास्थानेषु 'स्पर्शान्' दुःखानि चः समुच्चये, न केवलं कोषाध्मातस्तस्मिन्नेव क्षणे दुःखमनुभवतीत्यागामीनि पृथग् दुःखानि च स्पृशेद्-अनुभवेत् तेन चातिदुःखेन परोऽपि लोको दुःखित इत्येतदाह-- 'लोयं च' इत्यादि, न केवलं क्रोधादिविपाकादात्मा दुःखान्यनुभवति, लोकं च शारीरमा| नसदुःखापनं विस्पन्दमानमस्वतन्त्रमितश्चेतश्च दुःखप्रतीकाराय धावन्तं 'पश्य' विवेकचक्षुषाऽवलोकय । ये त्वेवं न ते किम्भूता भवन्तीत्यत आह--'जे निव्वुडा' इत्यादि, ये तीर्थकरोपदेशवासितान्तःकरणा विषयकषायाभ्युपशमान्निर्वृताःशीतीभूताः पापेषु कर्म्मसु 'अनिदानाः' निदानरहितास्ते परमसुखास्पदतया व्याख्याताः, औपशमिकसुखभाक्त्वेन प्रसिद्धा इत्यर्थः, यत एवं ततः किमित्याह - 'तम्हा' इत्यादि, यस्माद्रागद्वेषाभिभूतो दुःखभाग्भवति तस्मादतिविद्वान्विदितागम सद्भावः सन्न प्रतिसवले:- कोधाग्निनाऽऽत्मानं नोद्दीपयेः, कषायोपशमं कुर्वित्यर्थः । इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत्, सम्यक्त्वाध्ययने तृतीयोदेशकटीका समाप्तेति । उक्तस्तृतीयोदेशकः, साम्प्रतं चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरोदेशके निरवद्यं तपोऽभिहितं तच्चा| विकलं सत्संयमव्यवस्थितस्य भवतीत्यतः संयमप्रतिपादनाय चतुर्थोद्देशक इत्यनेन सम्बन्धेनाया तस्यास्योद्देश स्यादि सूत्रम् - Estication tamational चतुर्थ अध्ययने चतुर्थ उद्देशक: 'संक्षेप वचन' आरब्ध:, For Par at Use Only ~387 ~# jandinary org Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१३७] दीप अनुक्रम [१५० ] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ १९२ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [४], मूलं [१३७],निर्युक्तिः [२३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः आवीलए पवीलए निप्पीलए जहित्ता पुव्वसंजोगं हिचा उवसमं, तम्हा अविमणे वीरे, सारए समिए सहिए सया जए, दुरणुचरो मग्गो वीराणं अनियहगामीणं, विगिंच मंससोणियं, एस पुरिसे दविए वीरे, आयाणिज्जे वियाहिए, जे धुणाइ समुस्लयं वसित्ता बंभचेरंसि ( सू० १३७ ) आङीषदर्थे, ईपत्पीडयेद् अविकृष्टेन तपसा शरीरकमापीडयेद्, एतच्च प्रथमप्रत्रज्याऽवसरे, तत ऊर्द्धमधीतागमः परितार्थसद्भावः सन् प्रकर्षेण विकृष्टतपसा पीडयेत्प्रपीडयेत् पुनरध्यापितान्तेवासिवर्गः सङ्क्रामितार्थसारः शरीरं तित्यक्षुर्मासार्द्धमासक्षपणादिभिः शरीरं निश्चयेन पीडयेन्निष्पीडयेत् स्यात् कर्म्मक्षयार्थं तपोऽनुष्ठीयते, स च पूजाला भख्यात्यर्थेन तपसा न भवत्यतो निरर्थक एव शरीरपीडनोपदेश इत्यतोऽन्यथा व्याख्यायते -कम्मैव कार्मणशरीरं वा आपीडयेत्प्रपीडयेनिष्पीडयेत्, अत्रापीषदर्थादिका प्रकर्षगतिरवसेया, यदिवा आपीडयेत्कर्म्म अपूर्वकरणादिकेषु सम्यग्दृष्ट्यादिषु गुणस्थानकेषु, ततोऽपूर्वकरणानिवृत्तित्रादरयोः प्रपीडयेत्, सूक्ष्मसम्परायावस्थायां तु निष्पीडयेत्, अथवा आपीडनमुपशमश्रेण्यां प्रपीडनं क्षपकश्रेण्यां निष्पीडनं तु शैलेश्यवस्थायामिति । किं कृत्वैतत्कुर्यादित्याह - 'जहित्ता' इत्यादि, पूर्वः संयोगः पूर्वसंयोगो धनधान्यहिरण्यपुत्रकलत्रादिकृतस्तं त्यक्त्वा, यदिवा पूर्वः - असंयमोऽनादिभवाभ्यासात्तेन संयोगः पूर्वसंयोगस्तं त्यक्त्वा 'आवीलये' दित्यादिसम्बन्धः, किं च ' हिच्चा' इत्यादि, 'हि गतावित्यस्मात् पूर्वकाले क्त्वा 'हित्वा' गत्वा, किं Jan Estication Inmatnl For Pantry Use Only ~388~# सम्य० ४ उद्देशका ३ ॥ १९२ ॥ www.sindia.org Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [४], मूलं [१३७],नियुक्ति: [२३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: % प्रत % सूत्रांक [१३७] 4 दीप तत्-उपशम-इन्द्रियनोइन्द्रियजयरूपं संयम वा 'गत्वा' प्रतिपद्यापीडयेदिति वर्त्तते, इदमुक्तं भवति-असंयम त्यक्त्वा संयम साप्रतिपद्य तपश्चरणादिनाऽऽत्मानं कर्म वाऽऽपीडयेत् प्रपीडयेन्निष्पीडयेदिति, यतः कापीडनार्थमुपशमप्रतिपत्तिस्ताकतिपत्तौ चाविमनस्कतेत्याह-'तम्हा' इत्यादि, यस्मात्कर्मक्षयायासंयमपरित्यागस्तत्परित्यागे चावश्यंभावी संयमस्तत्र च न चित्तवैमनस्यमिति, तस्मादविमना विगतं भोगकपायादिष्वरतौ वा मनो यस्य स विमना यो न तथा सोऽविमनाः, कोऽसौ?, वीरा-कर्मविदारणसमर्थः । अविमनस्कत्वाच्च यत्स्यात्तदाह-सारए' इत्यादि, सुष्टा-जीवनमर्योदया संयमानुछाने रतः स्वारतः, पञ्चभिः समितिभिः समितः, सह हितेन सहितो ज्ञानादिसमन्वितो वा सहितः, 'सदा सर्वकालं सकृदारोपितसंयमभारः संस्तत्र 'यतेत' यत्नवान् भवेदिति । किमर्थं पुनः पौनःपुन्येन संयमानुष्ठानं प्रत्युपदेशो दीयते? इत्याह-'दुरनुचरों' इत्यादि, दुःखेनानुचर्यत इति दुरनुचरः, कोऽसौ !-मार्गः-संयमानुष्ठानविधिः, केषां ?-'वीराणाम्। अप्रमत्तयतीना, किम्भूतानामित्याह-'अणियह' इत्यादि, अनिवत्र्लो-मोक्षस्तत्र गन्तुं शीलं येषां ते तथा तेषामिति, यथा |च तन्मार्गानुचरणं कृतं भवति तद्दर्शयति-विगिंच' इत्यादि, मांस' शोणितं दर्पकारि विकृष्टतपोऽनुष्ठानादिना 'विवेचय| पृथकुरु, तद्रास विधेहीतियावत्, एवं वीराणां मार्गानुचरणं कृतं भवतीति भावः । यश्चैवम्भूतः स के गुणमवाप्नुयादित्याह-'एस' इत्यादि, 'एप' मांसशोणितयोरपनेता पुरि शयनात् पुरुषः द्रवः-संयमः स विद्यते यस्यासौ द्रविकः, मत्व(यष्ठन, द्रव्यभूतो वा मुक्तिगमनयोग्यत्वात् , कमरिपुविदारणसहिष्णुत्वाद्वीर इति, मांसशोणितापचयप्रतिपादनाच्च तदुत्तरेषामपि मेदआदीनामपचय उक्त एव द्रष्टव्यः, तद्भावभावित्वात्तेषामिति । किंच-आयाणिज्जे' इत्यादि, स वी A % अनुक्रम [१५०] .75 4-%2 wwwandltimaryam ~ 389~# Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [४], मूलं [१३७],नियुक्ति: [२३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सम्य०४ उद्देशका -- सूत्रांक [१३७] - दीप श्रीआचा- राणां मार्ग प्रतिपन्नः मांसशोणितयोरपनेता मुमुषणामादानीयो-माह्य आदेयवचनश्च व्याख्यात इति। कश्चैवम्भूत इत्याह रावृत्तिः81-जे धुणाई' इत्यादि, 'ब्रह्मचर्ये संयमे मदनपरित्यागे वोषित्वा यः 'समुच्छ्रयं' शरीरकं कर्मोपचयं वा तपश्चरणा(शी०) दिना 'धुनाति' कृशीकरोति स आदानीय इति विविधमाख्यातो व्याख्यात इति सम्बन्धः ॥ उक्ता अप्रमत्तार, तद्विध॥१९३॥ भर्मणस्तु प्रमत्तानभिषिरसुराह नित्तेहिं पलिच्छिन्नेहिं आयाणसोयगढिए बाले, अब्बोच्छिन्नबंधणे अणभिक्तसंजोए तमंसि अवियाणओ आणाए लंभो नत्थि त्तिबेमि (सू० १३८) नयंत्यर्थदेशम्-अर्थक्रियासमर्थमर्थमाविर्भावयन्तीति नेत्राणि-चक्षुरादीनीन्द्रियाणि तैः परिच्छिन्नः यथास्वं विषयग्रहणं प्रति निरुद्धैः समिरादानीयोऽपि भूत्वोषित्वा ब्रह्मचर्ये पुनर्मोहोदयादादानस्रोतोगृद्धः-आदीयते-सावद्यानुष्ठानेन स्वीक्रि-1 यत इत्यादानं-कर्म संसारबीजभूतं तस्य स्रोतांसि-इन्द्रियविषया मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपाययोगा वा तेषु गृद्धःKअध्युपपन्नः स्यात्, कोऽसौ-बालः' अज्ञः रागद्वेषमहामोहाभिभूतान्तःकरणः। यश्चादानस्रोतोगृद्धः स किम्भूतः स्यादि त्याह-अब्बोच्छिन्नबंधणे' इत्यादि, अव्यवच्छिन्नं जन्मशतानुवृत्ति बन्धनम्-अष्टप्रकारं कर्म यस्य स तथा, किं च |-'अणभिकत' इत्यादि, अनभिकान्त:- अनतिलहितः संयोगो धनधान्य हिरण्यपुत्रकलबादिकृतोऽसंयमसंयोगो वा येनासावनभिकान्तसंयोगः तस्य चैवम्भूतस्येन्द्रियानुकूल्यरूपे मोहात्मके वा तमसि वर्तमानस्यात्महितं मोक्षोपायं वा अनुक्रम [१५०] ॥१९॥ Swatantram.org ~ 390~# Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [४], मूलं [१३८],नियुक्ति: [२३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३८] दीप अनुक्रम [१५१] विजानत आज्ञाया:-तीर्थकरोपदेशस्य लाभो नास्तीत्येतदहं ब्रवीमि तीर्थकरवचनोपलब्धसद्भाव इति, यदिवाऽऽज्ञा बोधिः सम्यक्त्वम्, अस्तिशब्दश्चायं निपातस्विकालविषयी, तेनायमर्थः-तस्यानभिक्रान्तसंयोगस्य भावतमसि वर्तमा-1 नस्य बोधिलाभो नासीन्नास्ति न भावीति । एतेदवाह जस्स नत्थि पुरा पच्छा मज्झे तस्स कुओ सिया ?, से हु पन्नाणमंते बुद्धे आरंभोवरए, सममेयंति पासह, जेण बंधं वहं घोरं परियावं च दारुणं पलिळिंदिय बाहिरगं च सोयं, निकंमदंसी इह मच्चिएहिं, कम्माणं सफलं द?ण तओ निजाइ वेयवी (सू० १३९) यस्य कस्यचिदविशेषितस्य कर्मादानस्रोतोगृद्धस्य बालस्याव्यवच्छिन्नवन्धनस्यानभिकान्तसंयोगस्याज्ञानतमसि वर्चमानस्य 'पुरा' पूर्वजन्मनि बोधिलाभो नास्ति-सम्यक्त्वं नासीत् 'पश्चादपि एण्येऽपि जन्मनि न भावि 'मध्ये मध्यजन्मनि तस्य कुतः स्यात् इति ?, एतदुक्तं भवति-यस्यैव पूर्व बोधिलाभः संवृत्तो भविष्यति वा तस्यैव वर्तमानकाले भवति, येन हि सम्यक्त्वमास्वादितं पुनर्मिथ्यात्वोदयात्ताच्यवते तस्यापार्द्धपुद्गलपरावर्नेनापि कालेनावश्यं तत्सद्भावात्, न ह्ययं सम्भवोऽस्ति प्रच्युतस्य सम्यक्त्वस्य पुनरसम्भव एवेति, अथवा निरुद्धेन्द्रियोऽपि आदानस्रोतोगृद्ध इत्युक्तः, तद्विपर्ययभूतस्य त्वतिकान्तसुखस्मरणमकुर्वतः आगामि च दिव्यागानाभोगमनभिकासतो वर्तमानसुखाभिष्वङ्गोऽपि नैव स्यादित्येतद्दर्शयितुमाह-'जस्स नत्थि' इत्यादि, यस्य भोगविपाकवेदिनः पूर्वभुक्तानुस्मृतिर्नास्ति नापि पाश्चात्य काल ~ 391~# Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१३९ ] दीप अनुक्रम [१५२ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [४], मूलं [१३९],निर्युक्ति: [२३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ॥ १९४ ॥ श्रीमाचाभोगाभिलाषिता विद्यते तस्य व्याधिचिकित्सारूपान् भोगान् भावयतो 'मध्ये' वर्त्तमानकाले कुतो भोगेच्छा स्यात् ?, राङ्गवृत्तिः * मोहनीयोपशमान्नैव स्यादित्यर्थः । यस्य तु त्रिकालविषया भोगेच्छा निवृत्ता स किम्भूतः स्यादित्याह - 'से हु' इत्यादि, (शी०) 'हुः' यस्मादर्थे यस्मान्निवृत्तभोगाभिलाषस्तस्मात्स प्रज्ञानवान् प्रकृष्टं ज्ञानं प्रज्ञानं जीवाजीवादिपरिच्छेन तद्विद्यते यस्यासौ प्रज्ञानवान्, यत एव प्रज्ञानवानत एव बुद्ध:- अवगततत्त्वो, यत एवम्भूतोऽत एवाह - 'आरंभोवरए' सावधा नुष्ठानमारम्भस्तस्मादुपरत आरम्भोपरतः । एतच्चारम्भो परमणं शोभनमिति दर्शयन्नाह - 'सम्म 'मित्यादि, यदिदं साव५. द्यारम्भोपरमणं सम्यगेतत् शोभनमेतत् सम्यक्स्वकार्यत्वाद्वा सम्यक्त्वमेतदित्येवं पश्यत एवं गृह्णीत यूयमिति । किमित्यारम्भोपरमणं सम्यगिति चेदाह - 'जेण' इत्यादि येन कारणेन सावयारम्भप्रवृत्तो बन्धं निगडादिभिः वधं कशादिभिः 'घोरं' 'प्राणसंशयरूपं 'परिताप' शारीरमानसं 'दारुणं' असह्यमवाप्नोत्यत आरम्भोपरमणं सम्यग्भूतं कुर्यात् किं* कृत्वेत्याह--'पलिच्छिन्दि' इत्यादि, 'परिच्छिन्द्य' अपनीय, किं तत् ? - 'स्रोतः' पायोपादानं तच्च वाह्यं धनधान्यहिरण्यपुत्रकलत्रादिरूपं हिंसाद्याश्रवद्वारात्मकं वा, चशब्दादान्तरं च रागद्वेषात्मकं विषयपिपासारूपं वेति, किं च- 'णिकम्मदेसी'त्यादि, निष्क्रान्तः कर्म्मणो निष्कर्म्मा-मोक्षः संवरो वा तं द्रष्टुं शीलमस्येति निष्कर्म्मदर्शी, 'इहे'ति संसारे मर्त्येषु मध्ये य एव निष्कर्म्मदशीं स एव वाह्याभ्यन्तरस्रोतसश्छेत्तेति स्यात् । किमभिसन्ध्य स बाह्याभ्यन्तरसंयोगस्य छेत्ता निष्कर्म्मदर्शी वा भवेत् इत्यत आह- 'कम्माणं इत्यादि, मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपाययोगेः क्रियन्ते वध्यन्त इति कमणि-ज्ञानावरणीयादीनि तेषां सफलत्वं दृष्ट्वा स वा निष्कर्म्मदर्शी वेदविद्वा कर्म्मणां फलं दृष्ट्रा तेषां च फलं ज्ञाना Jan Esticato For Parts Only ~392 ~# सम्य• ४ उद्देशकः३ ॥ १९४ ॥ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१३९ ] दीप अनुक्रम [१५२ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [४], मूलं [१३९],निर्युक्ति: [२३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः वरणीयस्य ज्ञानावृतिः दर्शनावरणस्य दर्शनाच्छादनं वेदनीयस्य विपाकोदयजनिता वेदनेत्यादि, ननु च न सर्वेषां कर्म्मणां विपाकोदयमिच्छन्ति, प्रदेशानुभवस्यापि सद्भावात् तपसा च क्षयोपपत्तेरित्यतः कथं कर्म्मणां सफलत्वं ?, नैप दोषो, नात्र प्रकारकात्सूर्यमभिप्रेतम्, अपितु द्रव्यकात्सूर्य, तच्चास्त्येव, तथाहि यद्यपि प्रतिबन्धव्यक्ति न विपाकोदयस्तथाप्यष्टानामपि कर्म्मणां सामान्येन सोऽस्त्येवेत्यतः कर्म्मणां सफलत्वमुपलभ्यते, तस्मात् कर्म्मणस्तदुपादानादाखवाद्वा निश्चयेन याति निर्याति-निर्गच्छति, तन्न विधत्त इतियावत्, कोऽसौ ? - ' वेद विद्' वेद्यते सकलं चराचरमनेनेति वेद:आगमस्तं वेतीति वेदवित्, सर्वज्ञोपदेशवत्तींत्यर्थः ॥ न केवलस्य ममैवायमभिप्रायः, सर्वेषामेव तीर्थकराणामयमाशय इति दर्शयितुमाह Etication matinal जे खलु भो ! वीरा ते समिया सहिया सयाजया संघडदंसिणो आओवरया अहातहं लोयं उवेहमाणा पाईणं पडिणं दाहिणं उईणं इय सञ्चंसि परि (चिए) चिहिंसु, साहिस्सामो नाणं वीराणं समियाणं सहियाणं सयाजयाणं संघडदंसीणं आओवरयाणं अहातहं लोयं समुवेहमाणाणं किमत्थि उवाही ?, पासगस्स न विज्जइ नत्थित्तिबेमि (सू०१४०) ॥ चतुर्थे चतुर्थः ४-४ । इति सम्यक्त्वाध्ययनम् ॥ ४ ॥ यदिवा उक्तः सम्यग्वादो निरवद्यं तपश्चारित्रं च अधुना तत्फलमुच्यते- 'जे खलु' इत्यादि, खलुशब्दो वाक्याल For Pantry Use Only ~393~# Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१४०] दीप अनुक्रम [१५३ ] श्रीआचा राजवृत्तिः (शी०) ॥ १९५ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [४], मूलं [१४०],निर्युक्तिः [२३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ङ्कारे, ये केचनातीतानागतवर्त्तमानाः 'भो' इत्यामन्त्रणे 'वीराः कर्म्मविदारण सहिष्णवः समिताः समितिभिः सहितां | ज्ञानादिभिः सदा यताः सत्संयमेन 'संघडदंसिणो' त्ति निरन्तरदर्शिनः शुभाशुभस्य आत्मोपरताः पापकर्म्मभ्यो यथा तथा अवस्थितं 'लोक' चतुर्द्दशरज्यात्मकं कर्म्मलोकं वोपेक्षमाणाः पश्यन्तः सर्वासु प्राच्यादिषु दिक्षु व्यवस्थिता इत्येवंप्रकाराः 'सत्य' मिति ऋतं तपः संयमो वा तत्र परिचिते-स्थिरे तस्थुः स्थितवन्तः, उपलक्षणार्थत्वात् त्रिकालविषयता द्रष्टव्या, तत्रातीते काले अनन्ता अपि सत्ये तस्थुः वर्त्तमाने पञ्चदशसु कर्म्मभूमिषु सङ्ख्येयास्तिष्ठन्ति अनागते अनन्ता अपि स्थास्यन्ति तेषां चातीतानागतवर्त्तमानानां सत्यवतां यज्ज्ञानं योऽभिप्रायस्तदहं कथयिष्यामि भवतां शृणुत यूयं किम्भूतानां तेषां ? - 'वीराणामित्यादीनि विशेषणानि गतार्थानि किम्भूतं ज्ञानमिति चेदाह किं प्रश्ने 'अस्ति' विद्यते ?, | कोऽसौ ? – 'उपाधिः' कर्म्मजनितं विशेषणं, तद्यथा - नारकस्तिर्यग्योनः सुखी दुःखी सुभगो दुर्भगः पर्याप्तकोऽपर्याप्तक इत्यादि, आहोस्विन्न विद्यत इति परमतमाशङ्क्य त ऊचुः - 'पश्यकस्य' सम्यग्वादादिकमर्थं पूर्वोपात्तं पश्यतीति पश्यः स एव पश्यकस्तस्य कर्म्मजनितोपाधिर्न विद्यते इत्येतदनुसारेणाहमपि ब्रवीमि न स्वमनीषिकयेति । गतः सूत्रानुगमः, तद्गतौ च समाप्तश्चतुर्थोदेशको, नयविचारातिदेशात् समाप्तं सम्यक्त्वाध्ययनं चतुर्थमिति ॥ ग्रं० ६२० ॥ Jan Estication anal For Pantry Use Onl ~394~# सम्य० ४ उद्देशकः३ ॥ १९५ ॥ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१४०...],नियुक्ति: [२३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४०] दीप अनुक्रम [१५३] अथ लोकसाराख्यं पञ्चममध्ययनम् । उक्तं चतुर्धमध्ययनं, साम्प्रतं पश्चममारभ्यते, अस्प चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तराध्ययने सम्यक्त्वं प्रतिपादितं तदन्तर्गत च ज्ञानं, तदुभयस्य च चारित्रफलत्वात् तस्यैव च प्रधानमोक्षाङ्गतया लोकसारत्वात् तत्प्रतिपादनार्थमिदमुपक्रम्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्योपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमेऽर्थाधिकारो द्वेधा, तत्राप्यध्ययनार्थाधिकारोऽभिहितः, उद्देशार्थाधिकारं तु नियुक्तिकारः प्रतिपिपादयिषुराह| हिंसगविसयारंभग एगचरुति न मुणी पढमर्गमि । विरओ मुणित्ति थिइए अविश्यवाई परिग्गहिओ ॥२३॥ दतइए एसो अपरिग्गहो प निम्विन्नकामभोगो य । अव्यत्तस्सेगचरस्स पचवाया चउत्थंमि ॥ २३७ ॥ हरओवमो य तवसंयमगुत्ती निस्संगया य पंचमए । उम्मग्गवज्जणा छट्ठगंमि तह रागदोसे य ।। २३८ ॥ हिनस्तीति हिंसकः आरम्भणमारम्भो विषयाणामारम्भोऽस्येति विषयारम्भका, व्यधिकरणस्यापि गमकत्वात्समासः, दण्वुलन्तस्य वा याजकादिदर्शनात् समासो, विषयाणामारम्भको विषयारम्भक इति, हिंसकश्च विषयारम्भकश्चेति विगृह्य समाहारद्वन्द्व, प्राकृतत्वात्पुंलिकता, अयमों-हिंसकः प्राणिनां विषयारम्भकश्च विषयार्थं सावद्यारम्भप्रवृत्तश्च न मुनिः, तथा विषयार्थमेव एक एव चरत्येकचरः स च न मुनिरिति, एतदधिकारत्रयं प्रथमोद्देशके १, द्वितीये तु हिंसादिपापस्था-18 नकेभ्यो विरतो मुनिर्भवतीत्ययमर्थाधिकारः, बदनशीलो वादी अविरतस्य वादी अविरतवादी परिग्रहवान् भवतीत्येत wwwandltimaryam नियुक्ति: क्रम-२३५ न दृश्यते पंचम-अध्ययनं 'लोक्सार' आरब्ध:, ~ 395~# Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१४०] दीप अनुक्रम [१५३ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१९], मूलं [१४०...],निर्युक्तिः [२३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र- [ ०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा- चात्रोद्देशके प्रतिपादयिष्यत इति २, तृतीये त्वेष एव विरतो मुनिरपरिग्रहो भवतीति निर्विण्णकामभोगश्चेत्ययमर्थाधिराङ्गवृत्तिः कारः ३, चतुर्थे त्वव्यक्तस्य- अगीतार्थस्य सूत्रार्थापरिनिष्ठितस्य प्रत्यपाया भवन्तीत्ययमर्थाधिकारः ४, पश्चमके तु इदो(शी०) ५ पमेन साधुना भाव्यं यथा हि इदो जलभृतोऽप्रतिस्रवः प्रशस्यो भवति, एवं साधुरपि ज्ञानदर्शनचारित्रभृतो विस्रोत* सिकारहित इति, तथा तपःसंयमगुप्तयो निःसङ्गता चेत्ययमर्थाधिकारः ५ षष्ठे तून्मार्गवर्जना- कुदृष्टिपरित्यागः, तथा राग९ द्वेषौ च त्याज्यावित्ययमर्थाधिकारः ६, इति गाधात्र्यार्थः ॥ नामनिष्पन्ने तु निक्षेपेऽत्र द्विधा नाम-आदानपदेन गौणं चेति, एतत् द्विविधमपि नियुक्तिकारः प्रतिपादयितुमाह ॥ १९६ ॥ आयाणपरणावति गोण्णनामेण लोगसारुत्ति । लोगस्स य सारस्स य चउक्कओ होइ निक्खेवो ॥ २३९ ॥ आदीयते प्रथममेव गृह्यत इत्यादानं तच्च तत्पदं च आदानपदं तेन करणभूतेनावन्तीत्येतनाम, अध्ययनादावावन्तीशब्दस्योच्चारणाद् गुणैर्निष्पन्नं गौणं तच्च तन्नाम च गौणनाम तेन हेतुना लोकसार इति, लोकस्य चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य सारः - परमार्थो लोकसारः द्विपदं नामेत्यतः लोकस्य सारस्य च प्रत्येकं चतुष्कको निक्षेपो भवति, तद्यथा-नामलोको यस्य कस्यचिल्लोक इति नाम क्रियते, स्थापनालोकश्चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य लोकस्य स्थापना गाथात्रयादवसेया, तच्चैतत्-तिरिअं चउरो दोसुं छदो अठ दस य एकेके । बारस दोसुं सोलस दो वीसा य चउसुं तु ॥ १ ॥ पुणरवि सोलस दोसुं बारस दोसुं तु हुंति नायव्वा । तिसु दस तिसु अठ्ठच्छ य दोसु दोसुं तु चत्तारि ॥ २ ॥ ओयरिअ लोअ मज्झा चउरो चउरो य सब्वहिं णेया । तिअ तिअ दुग दुग एकेकगं च जा सत्तमीए ॥३ द्रव्यलोको जीवपुद्ग Jan Estication matinal For Pantry Use Onl ~396 ~# लोक० ५ उद्देशकः१ ॥ १९६ ॥ www.senditrary.org Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [१४०...],नियुक्ति: [२३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४०] दीप अनुक्रम [१५३] लधर्माधर्माकाशकालात्मकः षड्विधः भावलोकस्त्वौदयिकादिषड्भावात्मकः सर्वद्रव्यपर्यायात्मको वा । सारोऽपि नामादि चतुर्विधः, तत्र नामस्थापने सुगमत्वादनात्य द्रव्यसारप्रतिपादनायाह| सच्चस्स थूल गुरुए मझे देसप्पहाण सरिराई । धण एरंडे वहरे खइरं च जिणादुरालाई ॥२४॥ | अत्र पूर्वार्द्धपश्चार्द्धयोर्यथासङ्ख्यं लगनीयं, सर्वस्वे धनं सारभूतं, तद्यथा-कोटिसारोऽयं पञ्चकपर्दकसारो वा, स्थूले | एरण्डः सारः, सारशब्दोऽत्र प्रकर्षवाची, स्थूलानां मध्ये एरण्डो भिण्डो वा प्रकर्षभूतः, गुरुत्वे वज्र, मध्ये खदिरः, देशे आम्रवृक्षो वेणुर्वा, प्रधाने यो यत्र प्रधानभावमनुभवति सचित्तोऽचित्तो मिश्रश्चेति, सचित्तो द्विपदश्चतुष्पदोऽपदश्चेति, है। द्विपदेषु जिनः चतुष्पदेषु सिंहः अपदेषु कल्पवृक्षः, अचित्तेषु वैडूर्यो मणिः, मिश्रेषु तीर्थकर एव विभूपितः, शरीरेष्वी दारिक मुक्तिगमनयोग्यत्वाद्विशिष्टरूपापत्तेश्च, आदिग्रहणात् स्वामित्वकरणाधिकरणेषु सारता योज्या, तद्यथा-स्वामित्वे टू गोरसस्य घृतं सारभूतं, करणत्वे मणिसारेण मुकुटेन शोभते राजा, अधिकरणे दभि घृतं जले पद्ममुत्थितमित्यादि-|| गाथार्थः ॥ भावसारप्रतिपादनायाहI भावे फलसाहणया फलओ सिद्धी सुटुत्तमवरिट्ठा । साहणय नाणदसणसंजमतवसा तहिं पगयं ।। २४१॥ | 'भावे' भावविषये सारे चिन्त्यमाने फलसाधनता सारः फलम्-अर्थक्रियावाप्तिस्तस्य साधनता फलसाधनता-फलार्थमारम्भे प्रवर्तनं ततः फलावाप्तिः प्रधान, फलतोऽप्यनैकान्तिकानात्यन्तिकरूपात् सांसारिकासकाशात्तद्विपर्यस्तं फलं सारः, किं तत्-सिद्धिः, किम्भूताऽसौ ?–'उत्तमसुखवरिष्ठा' उत्तमं च तदात्यन्तिकैकान्तिकानावाचत्वात् सुखं च K5%*ॐ*ARSHAN wwwandltimaryam ~ 397~# Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१४०] दीप अनुक्रम [१५३ ] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ १९७ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], मूलं [१४०...],निर्युक्तिः [२४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः उत्तमसुखं तेन वरिष्ठा-वरतमा, तत्साधनानि च गाथाशकलेन दर्शयति-साधनकानि' प्रकृष्टोपकारकाणि ज्ञानदर्शन संयमतपांसि तस्मिंश्च भावसारे सिद्धाख्यफलसाधने ज्ञानादिके प्रकृतं ज्ञानदर्शनचारित्रेण भावसाररूपेणात्राधिकार इति | गाथार्थः ॥ तस्यैव ज्ञानादेः सिद्ध्युपायस्य भावसारतां प्रतिपादयन्नाह लोगंमि कुसमएस य कामपरिग्गहकुमग्गलग्गेसुं । सारो हु नाणदंसणतवचरणगुणा हियट्ठाए || २४२ ॥ 'लो' गृहस्थलो कुत्सिताः समयाः कुसमयाः तेषु च किम्भूतेषु ? - कामपरिग्रहेण ये कुत्सिता मार्गास्तेषु लग्नेषु, हुर्हेती, यस्माल्लोकः कामपरिग्रहाग्रही गृहस्थभावमेव प्रशंसति, वक्ति च-'गृहाश्रमसमो धम्र्मो न भूतो न भविष्यति पालयन्ति नराः शूराः, क्लीनाः पाषण्डमाश्रिताः ॥ १ ॥' गृहाश्रमाधाराश्च सर्वेऽपि पाषण्डिनः इत्येवं महामोहमोहितइच्छामदन कामेषु प्रवर्त्तते, तथा तीर्थिका अप्यनिरुद्धेन्द्रियमसरा द्विरूपकामाभिष्वङ्गिणः इत्यतस्तेषु सारो ज्ञानदर्शनतपश्चरणगुणाः, उत्तमसुखवरिष्ठ सिद्धिहेतुत्वात्, हिता - सिद्धिस्तदर्थत्वादिति गाथार्थः ॥ यतो ज्ञानदर्शनतपश्चरणगुणा हितार्थतया सारस्तस्मात्किं कर्त्तव्यमित्याह चऊणं संकपयं सारपयमिणं दद्वेण चित्तध्वं । अस्थि जिओ परमपयं जयणा जा रागदोसेहिं ॥ २४३ ॥ 'त्यक्त्वा' प्रोज्झ्य, किं तत् ? -'शङ्कापदं' किमेतन्मदारब्धमनुष्ठानं निष्फलं स्यादित्येवम्भूतो विकल्पः शङ्का तस्याः पदं निमित्तकारणं तच्चार्हो केष्वत्यन्त सूक्ष्मेश्वतीन्द्रियेषु केवलागमग्राह्येष्वर्थेषु या संशीतिः - सन्देह इत्येतद्रूपं तच्छ Jain Estication Intematonal For Panas ~398 ~# लोक० ५ उद्देशका ॥ १९८ ॥ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [१४०...], नियुक्ति: [२४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४०] दीप अनुक्रम [१५३] पदं विहाय सारपद-इदं ज्ञानादिकं प्रागुपन्यस्तं दृढेन-अनन्यमनस्केन तीर्थिकदम्भप्रतारणाक्षोभ्येन ग्राह्य, तदेव शङ्कापदब्युदासकार्य गाथाशकलेन दर्शयति-अस्ति जीवः, अस्य च पदार्थानामादावुपन्यासाजीवपदार्थस्य च प्राधान्यादुपलक्षणार्थवाद्वा शेषपदार्थग्रहणं, अस्ति-विद्यते जी वेतवान् जीवति जीविष्यतीति वा जीवः शुभाशुभफलभोक्तति, 8 स च प्रत्यक्ष एवाहप्रत्ययसाध्या, इच्छाद्वेषप्रयत्नादिकायाँनुमानसाधो वा, तथा अजीवा अपि धमाधम्मोकाशपुद्गला गतिस्थित्यवगाहन्यणुकादिस्कन्धहेतवः सन्ति,एवमानवसंवरबन्धनिर्जरा अपि विद्यन्ते, प्रधानपुरुषार्थत्वाद् आद्यन्तग्रहणे मध्यग्रहणस्यावश्यंभाविस्वादाचं जीवपदार्थं साक्षादुपन्यस्यान्त्यं मोक्षपदार्थमुपम्यस्यति-परमं च तत्पदं च परमपदं, तथास्तीति सम्बन्ध इति, अस्ति मोक्षः शुद्धपदवाच्यत्वाद् बन्धस्य संप्रतिपक्षत्वान्मोक्षाविनाभावित्वाद्वा बन्धस्येति, सत्यपि मोक्षे यदि तदवातावुपायो न स्यात्ततो जनाः किं कुर्युरित्यतस्तत्कारणास्तित्वं दर्शयति-'यतना'यलो रागद्वे पेषु, रागद्वेषोपशमाधः संयमोऽसावप्यस्तीति । तदेवं सति जीवे परमपदे च शङ्कापदन्युदासेन ज्ञानादिकं सारपदं दृढेन ४ ग्राह्यमिति गाथार्थः । ततोऽप्यपरापरसारमकर्षगतिरस्तीति दर्शयतुपक्षेपमाहलोगस्स उ को सारो? तस्स य सारस्स को हवाइ सारो।सस्स य सारो सारं जद्द जाणसि पुडिओ साह२४४ 'लोकस्य चतुर्दशरवास्मकस्य का सारः, तस्यापि सारस्य कोऽपरः सारः, तस्वापि सारसारस्य सारं यदि जानासि M| ततः पृष्टो मया कबवेति गाथार्थः ॥ प्रश्नपतिवचनार्थमाहM लोगस्स सार धम्मो धम्मपि य नाणसारिप चिंति । नाणं संजमसारं संजमसारं च निब्वाणं ॥ २४५ ॥ wwwonditimaryam ~ 399~# Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१४१] दीप अनुक्रम [१५४ ] श्रीआचा राजवृत्तिः (शी०) ॥ १९८ ॥ *%%*96% Etication tem “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], मूलं [१४१],निर्युक्ति: [२४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः astraः सारो, धर्म्ममपि ज्ञानसारं ब्रुवते, ज्ञानमपि संयमसारं, संयमस्यापि सारभूतं निर्वाणमिति गाथार्थः ॥ उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारयितव्यं तच्चेदम्आवंती यावंती लोयंसि विप्परामुसंति अट्टाए अणट्टाए, एएसु चैव विप्परामुसंति, गुरु से कामा, तओ से मारते, जओ से मारते तओ से दूरे, नेव से अंतो नेव दूरे ( सू० १४१ ) ''ति यावत वा मनुष्या असंयता वा स्युः, 'केआवेति'त्ति केचन 'लोके' चतुर्दशरज्वात्मके गृहस्थान्यतीर्थिकलोके वा षड्जीवनिकायान आरम्भप्रवृत्ता विविधम्- अनेकप्रकारं विषयाभिलाषितया 'परामृशन्ति' उपतापयन्ति, दण्डकशताडनादिभिर्घातयन्तीत्यर्थः किमर्थं विपरामृशन्तीति दर्शयति- 'अर्था' अर्थार्थ अर्थाद्वा अर्थः- प्रयोजनं धर्म्मार्थ कामरूपं, कर्म्मणि स्यलोपे पञ्चमी, अर्थमुद्दिश्य-प्रयोजनमुत्प्रेक्ष्य प्राणिनो घातयन्ति तथाहि धर्मनिमित्तं शौचार्थे पृथिवीकायं समारभन्ते, अर्थार्थ कृष्यादि करोति, कामार्थमाभरणादि, एवं शेषेष्वपि कायेषु यथायोगं वाच्यं, अनर्थाद्वा-प्रयोजनमनुद्दिश्यैव तच्छीलतयैव मृगयायाः प्राण्युपघातकारिणीः क्रियाः कुर्वन्ति, तदेवमर्थादनर्थाद्वा प्राणिनो हत्वा एतेष्वेव-षड्जीवनिकायस्थानेषु विविधम्- अनेकप्रकारं सूक्ष्मवादरपर्याप्तकापर्याप्तकादिभेदेन तानेकेन्द्रिदायीन् प्राणिनस्तदुपधातकारिणः परामृशन्ति, तान् प्रपीडय तेष्वेवानेकश उत्पद्यन्त इतियावत्, यदिवा तत्पड़जीवनिकायबाधाऽवासं कर्म तेष्वेव कायेषूत्पद्य ते तैस्तैः प्रकारैरुदीर्ण विपरामृशन्ति- अनुभवन्तीति, नागार्जुनीयास्तु पठन्ति ॐ ॥ १९८ ॥ - "जावंति केइ लोए छकायवहं समारभंति अडाए अणद्वाए वा" इत्यादि, गतार्थ, स्याद्-असौ किमर्थमेवंविधानिक पंचम अध्ययने प्रथम उद्देशक: 'एकचर' आरब्धः, For Parts Only ~400~# लोक० ५ उद्देशकः १ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१४१] दीप अनुक्रम [१५४ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], मूलं [१४१],निर्युक्ति: [२४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः म्र्माणि कुरुते यान्यस्य कायगतस्य विपच्यन्ते ?, तदुच्यते-'गुरु से कामा' 'से' तस्यापरमार्थविदः काम्यन्त इति कामा:शब्दादयस्ते गुरवो दुस्त्यजत्वात्, कामा ह्यल्पसत्त्वैरनवाप्तपुण्योपचयैरुङ्घयितुं दुष्करमित्यतस्तदर्थं कायेषु प्रवर्त्तते तत्प्रवृत्ती च पापोपचयस्तदुपचयाच्च यत्स्यात्तदाह- 'ततः' षड्जीवनिकाय विपरामर्शात् परमकामगुरुत्वाचासौ मरणं मारः- आयुषः क्षयस्तस्यान्तर्वर्त्तते, मृतस्य च पुनर्जन्म जन्मनि चावश्यंभावी मृत्युरेवं जन्ममरणात् संसारोदन्वति | मज्जनोन्मज्जनरूपान्न मुच्यते । ततः किमपरमित्याह - 'जओ से' इत्यादि, यतोऽसौ मृत्योरन्तस्ततोऽसौ 'दूरे' परमपदोपायात् ज्ञानादित्रयात् तत्कार्याद्वा मोक्षाद्, यदिवा सुखार्थी कामान्न परित्यजति, तदपरित्यागे च मारान्तर्वर्त्ती, यतश्च मारान्तर्वतीं ततो जातिजरामरणरोगशोकाभिभूतत्वादसी सुखाद्दूरे। यस्मादसौ कामगुरुस्तद्गुरुत्वान्मारान्तर्वतीं तदन्तर्वर्त्तित्वात्किम्भूतो भवतीत्यत आह- 'नेव से' इत्यादि, नैवासौ विषयसुखस्यान्तर्वर्त्तते, तदभिलाषापरित्यागाच्च नैवासौ दूरे, यदिवा यस्य गुरवः कामाः स किं कर्मणोऽन्तर्बहिर्वेति प्रश्नावसरे सत्याह-- 'णेव से' इत्यादि, नैवासौ कर्मणोऽन्तः- मध्ये भिन्नग्रन्थित्वात्सम्भावितावश्यं भाविकम्र्मक्षयोपपत्तेः नाप्यसौ दूरे देशोन कोटीकोटिकर्म्मस्थितिकत्वात्, चारिनावाप्तावपि नैवान्तनैव च दूरे इत्येतच्छक्यते वक्तुं पूर्वोक्तादेव कारणादिति, अथवा येनेदं प्राणायि किमसावन्तर्भूतः संसारस्याहोश्चिद्बहिर्वर्त्तते इत्याशङ्कयाह - 'णेव से' इत्यादि, नैवासौ संसारान्तः धातिकर्मक्षयात् नापि दूरे अद्यापि भवोपग्राहिक सद्भावादिति ॥ यो हि भिन्नग्रन्थिको दुरापावातसम्यक्त्वः संसारारातीयतीरवर्ती स किमध्यवसायी स्यादित्याह Jan Estication Untamal For Party Use Onl ~ 401 ~# www.india.org Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१४२] दीप अनुक्रम [१५५ ] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ १९९ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], मूलं [१४२], निर्युक्तिः [२४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः से पासइ फुसियमिव कुसग्गे पणुन्नं निवइयं वाएरियं, एवं बालस्स जीवियं मंदस्स अवियाणओ, कूराई कम्माइं वाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परिआसमुवेइ, मोहेण गर्भ मरणाइ एइ, एत्थ मोहे पुणो पुणो ( सू० १४२ ) 'से पासई' त्यादि, 'सः' अपगतमिध्यात्वपटलः सम्यक्त्वप्रभावावगतसंसारासारः 'पश्यति' दृशिरुपलब्धिक्रिय इत्यत उपलभते - अवगच्छति, किं तत् ? – 'फुसियमिव त्ति कुशाम्र उदकविन्दुमिव बालस्य जीवितमिति सम्बन्धः, तत्किम्भूतमित्याह -- ' पणुन्न' मित्यादि, प्रणुन्नम् - अनवरतापरापरोदकपरमाणूपचयात् प्रणुन्नं-प्रेरितं वातेनेरितं सन्निपतितं भाविनि भूतवदुपचारानिपतदेव निपतितं दाष्टन्तिकं दर्शयति-- 'एव' मिति यथा कुशाग्रे विन्दुः क्षणसम्भावितस्थितिकः एवं बालस्यापि जीवितम्, अवगततत्त्वो हि स्वयमेवावगच्छति नाप्यसौ तदभिकाङ्गति अतो बालग्रहणं, बालो ह्यज्ञः, स चाज्ञानत्वादेव जीवितं बहु मन्यते, यत एव बालोऽत एव मन्दः सदसद्विवेकापडुः, यत एव बुद्धिमन्दोऽत एव परमार्थ न जानाति, अतः परमार्थमविजानत एवम्भूतं जीवितमित्येवं पश्यति । परमार्थमजानंश्च यत्कुर्यात्तदाह - ' कूराणि' इत्यादि, 'क्रूराणि' निर्दयानि निरनुक्रोशानि 'कम्मणि' अनुष्ठानानि हिंसातृतस्तेयादीनि सकललोक चमत्कृतिकारीणि अअष्टादश वा पापस्थानानि 'बालः' अज्ञः प्रकर्षेण कुर्वाणः कर्त्रभिप्राये क्रियाफले आत्मनेपदविधानात्तस्यैव तत्क्रियाफलविपाकं दर्शयति- 'तेन' क्रूरकर्म्मविपाकापादितेन दुःखेन 'मूढः' किंकर्त्तव्यताऽऽकुलः, केन कृतेन ममैतद्दुःखमुपशमं या Jan Estication Inational For Pantry at Use Only ~402~# लोक० ५ उद्देशकः१ ॥ १९९ ॥ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [१४२],नियुक्ति: [२४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२]] दीप अनुक्रम [१५५] Kयादिति मोहमोहितो विपर्यासमुपैति-यदेव प्राण्युपधातादि दुःखोत्पादने कारणं तदुपशमाय तदेव विदधातीति । किंच -'मोहेण इत्यादि, 'मोहः' अज्ञानं मोहनीय चा मिथ्यात्वकषायविषयाभिलापमयं तेन मोहेन मोहितः सन् कर्म बनाति, तेन च गर्भमवाप्नोति, ततोऽपि जन्म पुनर्वालकुमारयौवनादिवयोविशेषाः, पुनर्विषयकषायादिना कम्र्मोपादायायुषःक्ष-४ यात् मरणमवाप्नोति, आदिग्रहणात्पुनर्गमित्यादि, नरकादियातनास्थानमेतीत्यतोऽभिधीयते-'एत्थ'इत्यादि, 'अत्र' अस्मिन्ननन्तरोक्के 'मोहे' मोहकार्य गर्भमरणादिके पौनःपुन्येनानादिकमपर्यन्तं चतुर्गतिकं संसारकान्तारं पर्यटति, नास्मिादपैतीतियावत् , कथं पुनः संसारे न चम्धम्यात्, तदुच्यते-मिथ्यात्वकषायविषयाभिलाषाभावाद्, असावेव कुतो?, विशिष्टज्ञानोसत्तेः, सैव कुतो, मोहाभावात् , यद्येवमितरेतराश्रयत्वं, तथाहि-मोहोऽज्ञानं मोहनीयं वा, तदभावो विशिष्टज्ञानोत्पत्तेः, साऽपि तदभावादिति भणता स्पष्टमेव इतरेतराश्रयत्वमुक्तं, ततश्च न यावद्विशिष्टज्ञानोत्पत्तिः संवृत्ता Bान तावत्कर्मशमनाय प्रवृत्तिः स्यात् , नैष दोषः, अर्थसंशयेनापि प्रवृत्तिदर्शनादिति । आह च संसय परिआणओ संसारे परिन्नाए भवइ, संसयं अपरियाणओ संसारे अपरि नाए भवइ (सू० १४३) 'संसय मित्यादि, संशीतिः संशयः-उभयांशावलम्बा प्रतीतिः संशयः, स चार्थसंशयोऽनर्थसंशयश्च, इह चार्थों मोक्षो| मोक्षोपायश्च, तत्र मोक्षे न संशयोऽस्ति, परमपदमितिप्रतिपादनात्, तदुपाये तु संशयेऽपि प्रवृत्तिर्भवत्येव, अर्थसंश wwwandltimaryam ~403423 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१४३] दीप अनुक्रम [१५६ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], मूलं [१४३], निर्युक्ति: [२४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा- यस्य प्रवृत्त्यङ्गत्वात् । अनर्थस्तु संसारः संसारकारणं च तत्सन्देहेऽपि निवृत्तिः स्यादेव, अनर्थसंशयस्य निवृत्त्यङ्गत्वात् ' राङ्गवृत्तिः अतः संशयमर्थानर्थगतं परिजानतो हेयोपादेयप्रवृत्तिः स्यादित्येतदेव परमार्थतः संसारपरिज्ञानमिति दर्शयति तेन संशयं (शी०), परिजानता संसारश्चतुर्गतिकः तदुपादानं वा मिथ्यात्वाविरत्यादि अनर्थरूपतया परिज्ञातं भवति ज्ञपरिज्ञया, प्रत्याख्या नपरिज्ञया तु परिहृतमिति, यस्तु पुनः संशयं न जानीते स संसारमपि न जानावीति दर्शयितुमाह- 'संसयं' इत्यादि, ॥ २०० ॥ 'संशयं' सन्देहं द्विविधमध्यपरिजानतो हेयोपादेयप्रवृत्तिर्न स्यात्, तदप्रवृत्तौ च संसारोऽनित्याशुचिरूपो व्यसनोपनिपातबहुलो निःसारो न ज्ञातो भवति ॥ कुतः पुनरेतन्निश्चीयते ? यथा तेन संशयवेदिना संसारः परिज्ञात इति ?, किमत्र निश्चेतव्यं ?, संसारपरिज्ञान कार्यविरत्युपलब्धेः, तत्र सर्वविरतिष्ठां विरतिं निर्दिदिक्षुराह— जे छेए से सागारियं न सेवइ, कटु एवमवियाणओ बिइया मंदस्स बालया, लद्धा हुरत्था पडिलेहाए आगमित्ता आणविज्जा अणासेवणय त्ति बेमि ( सू० १४४ ) 'जे छेए' इत्यादि यश्छेको निपुण उपलब्धपुण्यपापः स 'सागारियं'ति मैथुनं न सेवते मनोवाक्कायकर्मभिः, स एव यथावस्थितसंसारवेदी, यस्तु पुनर्मोहनीयोदयापार्श्वस्थादिः तत्सेवते, सेवित्वा च सातगौरवभयात् किं कुर्यादित्याह 'कट्ट' इत्यादि, रहसि मैथुनप्रसङ्गं कृत्वा पुनर्गुर्वादिना पृष्टः सन्नपलपति, तस्य चैवमकार्यमपलपतोऽविज्ञापयतो वा किं स्यादित्याह--'विइया' इत्यादि, 'मन्दस्य' अबुद्धिमत एकमकार्यासेवनमियं चालता-अज्ञानता, द्वितीया तदपह्नवनं मृषा Etication mainl For Pantry Use Only ~404~# लोक० ५ उद्देशका १ ॥ २०० ॥ www.indiary.org Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१४४] दीप अनुक्रम [१५७ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], मूलं [१४४], निर्युक्तिः [२४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः वादः तदकरणतया वा पुनरनुत्थानमिति, नागार्जुनीयास्तु पठन्ति - "जे खलु विसए सेवई सेवित्ता वा णालोएइ, परेण वा पुट्ठो निण्हवइ, अहवा तं परं सएण वा दोसेण पाविद्वयरेण वा दोसेण उवलिंपिज्ज' सि” सुगमं । यद्येवं ततः किं कुर्यादित्याह लद्धा हु' इत्यादि, लब्धानपि कामान् 'हुरत्थे'ति बहिश्चित्रक्षुल्लकादिवत्तद्विपाकं प्रत्युपेक्ष्य चित्ताद्बहिः कुर्यात्, यदिवा हुशब्दोऽपिशब्दार्थे, रेफागमः सुब्व्यत्ययेन द्वितीयार्थे प्रथमा, ततोऽयमर्थो - लब्धानप्यन्ते -अभिलप्यन्त इत्यर्था:- शब्दादयस्तानुपनतानपि तद्विपाकद्वारेण 'प्रत्युपेक्ष्य' पर्यालोच्य ततः 'आगम्य' ज्ञात्वा दुरन्तं शब्दादिविषयानुषङ्ग, क्त्वाप्रत्ययस्योत्तरक्रियासव्यपेक्षत्वात्तां दर्शयति-तदनासेवनतया परानाज्ञापयेत् स्वतोऽपि परिहरेदिति, एतदहं ब्रवीमि येन मया पूर्वार्थव्यावर्णनमकारि स एवाहमव्यवच्छिन्नसम्यग्ज्ञानप्रवाहः शब्दादिविषयस्वरूपो|पलम्भात् समुपजनितजिनवचनसंमद इति । एतच्च वक्ष्यमाणं ब्रवीमीति, तदाह पासह एगे रूवेसु गिद्धे परिणिजमाणे, इत्थ फासे पुणो पुणो, आवंती केयावंती लोयंसि आरंभजीवी, एएसु चेव आरंभजीवी, इत्थवि बाले परिपञ्चमाणे रमई पावेहिं कम्मेहिं असरणे सरणंति मन्नमाणे, इहमेगेसिं एगचरिया भवइ, से बहुकोहे बहुमाणे बहुमाए बहुलोभे बहुरए बहुनडे बहुसढे बहुसंकप्पे आसवसची पलिउ - च्छन्ने उट्ठियवायं पवयमाणे, मा मे केइ अदक्खू अन्नायपमायदोसेणं, सययं मूढे Etication matinal For Pantry Use Only ~405~# Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१४५ ] दीप अनुक्रम [१५८] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ २०१ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], मूलं [१४५],निर्युक्तिः [२४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः धम्मं नाभिजाइ, अट्टा पया माणव ! कंमकोविया जे अणुवरया अविजाए पलिमु'आवमेव अणुपरियहंति तिबेमि (१४५ ) ॥ लोकसारे प्रथमोदेशकः ५-१ ॥ क्खमाहु 'पासह' इत्यादि, हे जनाः ! पश्यत यूयमेकान्तपुष्टधर्माणो, बहुवचननिर्देशादाद्यर्थो गम्यते, 'रूपेषु' रूपादिष्विन्द्रियविषयेषु निःसारकदुफलेषु 'गृद्धान' अभ्युपपन्नान् सतः इन्द्रियैर्विषयाभिमुखं संसाराभिमुखं वा नरकादियातनास्थानकेषु वा परिणीयमानान् प्राणिन इति । ते च विषयगृन्नव इन्द्रियवशगाः संसारार्णवे किमाप्नुयुरित्याह-'एत्थ फासे इत्यादि, 'अत्र' अस्मिन् संसारे हृषीकवशगाः सन् कर्म्मपरिणतिरूपान् स्पर्शान् पौनःपुन्येन -आवृत्त्या तानेव तेषु तेष्वेव स्थानेषु प्राप्नुयादिति । पाठान्तरं वा 'एत्थ मोहे पुणो पुणो' 'अत्र' अस्मिन् संसारे 'मोहे' अज्ञाने चारित्रमोहे वा पुनः पुनर्भवतीति । कोऽसावेवम्भूतः स्यादित्यत आह- 'आवंती'त्यादि, यावन्तः केचन 'लोके' गृहस्थलोके 'आरम्भजीविनः' सावद्यानुष्ठानस्थितिकाः, ते पौनःपुन्येन दुःखान्यनुभवेयुरिति । येऽपि गृहस्थाश्रिताः सारम्भास्तीर्थिकादयस्तेऽपि तद्दुःखभाजिन इति दर्शयति- 'एएसु' इत्यादि, 'एतेषु' सावद्यारम्भप्रवृत्तेषु गृहस्थेषु शरीरयापनार्थे वर्त्तमानस्तीर्थिकः पार्श्वस्थादिर्वा 'आरम्भजीवी' सावधानुष्ठानवृत्तिः पूर्वोक्तदुःखभाग् भवति । आस्तां तावद्गृहस्थस्तीर्थिको वा, योऽपि संसारार्णवतटदेश| मवाप्य सम्यक्त्वरलं लब्ध्वाऽपि मोक्षैककारणं विरतिपरिणामं सफलतामनीत्वा कम्र्म्मोदयात् सोऽपि सावद्यानुष्ठायी | स्यादित्याह - 'एत्थवि बाले' इत्यादि, 'अत्र' अस्मिन्नप्यर्हत्प्रणीत संयमाभ्युपगमे 'बालो' रागद्वेषाकुलितः परितप्यमानः Jan Estication matinal For Parts Only ~406 ~# लोक० ५ उद्देशकः१ ॥ २०१ ॥ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१४५] दीप अनुक्रम [१५८] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], मूलं [१४५],निर्युक्तिः [२४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः परिपच्यमानो वा विषयपिपासया रमते, कैः १-पापैः कर्मभिः, विषयार्थी सावद्यानुष्ठाने धृतिं विधत्ते, किं कुर्वाण इत्याह — असरण 'मित्यादि, कामाग्निना पापैर्वा कर्म्मभिः परिपश्यमानः सावद्यानुष्ठानमशरणमेव शरणमिति मन्यमानो भोगेच्छाऽज्ञानतमिस्राच्छादितदृष्टिविपर्ययः सन् भूयो भूयो नानारूपावेदना अनुभवेदिति । आस्तां तावदन्ये, प्रत्रज्यामध्यभ्युपेत्य केचिद्विषयपिपासार्त्तास्तांस्तान् कल्काचाराना चरन्तीति दर्शयितुमाह- 'इहमेगेसि मित्यादि, 'इह' मनुष्यलोके एकेषां न सर्वेषां चरणं चर्यते वा चर्या एकस्य चर्या एकचर्या, सा च प्रशस्तेतरभेदेन द्विधा-साऽपि द्रव्यभावभेदात् प्रत्येकं द्विधा, तत्र द्रव्यतो गृहस्थपापण्डिकादेर्विषय कषायनिमित्तमेकाकिनो विहरणं, भावतस्तु अप्रशस्ता न विद्यते, सा हि रागद्वेषविरहाद्भवति, न च तद्रहितस्याप्रशस्ततेति । प्रशस्ता तु द्रव्यतः प्रतिमाप्रतिपन्नस्य गच्छनिर्गतस्य स्थविरकल्पि - कस्य चैकाकिनः सङ्घादिकार्यनिमित्तान्निर्गतस्य भावतरंतु पुना रागद्वेषविरहाद्भवति, तत्र द्रव्यतो भावतश्चैकचर्या अनुयन्नज्ञानानां तीर्थकृतां प्रतिपन्नसंयमानाम्, अन्ये तु चतुर्भङ्गपतिताः, तत्राप्रशस्तद्रव्यैकचर्यादाहरणं, तद्यथा - पूर्वदेशे धान्यपूरकाभिधाने सन्निवेशे एकस्तापसः प्रथमवया देवकुमारसदृश विग्रहः षष्ठभक्तेन तद्रामनिर्गमपथे तपस्तेपे, द्वितीयोऽप्युपग्रामं गिरिगह्वरेऽष्टमभक्तेन तपःकर्म्मणाऽऽतापनां विधत्ते तस्मै च ग्रामनिर्गमपथवर्त्तिने शीतोष्ण सहिष्णवे गुणैराकृष्टो लोक आहारादिभिः सपर्ययोपतिष्ठते, स च तथा लोकेन पूज्यमानो वाग्भिरभिष्ट्रयमानः आहारादिनोपचर्यमाणो जनमूचे-मत्तोऽपि गिरिपरिसरातापी दुष्करकारकः, ततोऽसौ लोकस्तेन भूयो भूयः प्रोच्यमानस्तमेकाकिनं तापसमद्रिकुहरवासिनं पर्यपूजयद्, दुष्करं च परगुणोत्कीर्त्तनमितिकृत्वा तस्यापि सपर्यादिकं व्यधात्, तदेवमाभ्यां पूजाख्या Jain Estication Intemational For Pantry Use Only ~ 407 ~# www.indiary.org Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [१४५...],नियुक्ति: [२४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचा- रावृत्तिः (शी०) लोक०५ उद्देशका सूत्रांक [१४५] ॥२०२॥ दीप अनुक्रम [१५८] *XXXSARAAN******* त्यर्थमेकचर्या विदधे, अतोऽप्रशस्ता, एवमनया दिशाऽन्येऽप्यप्रशस्तैकचर्याश्रिता दृष्टान्ता यथासम्भवमायोज्या इति । तदेवं सूत्रार्थे व्याख्याते सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्या नियुक्तिकारो व्याचिण्यासुराह चारो चरिया चरणं एगढ वंजणं तहिं छक्कं । दब्वं तु दारुसंकम जलथलचाराइयं बहुहा ॥ २४६ ॥ 'चार' इति 'चर गतिभक्षणयोः भावेघञ् , चयेति 'गदमदचरयमश्चानुपसर्गे' (पा०३-१-१००) इत्यनेन कर्मणि भावे वा! यत् , चरणमिति वा, भावे त्यु, एकः-अभिन्नोऽर्थोऽस्येत्येकार्थ, किं तत् ?-व्यञ्जन व्यज्यते-आविष्क्रियतेऽर्थोऽनेनेति व्यञ्जन-शब्द इत्येतत्पूर्वोक्त शब्दत्रयमेकार्थ, एकार्थत्वाचन पृथर निक्षेपः, 'तत्र' चारनिक्षेपे षटुं, चारस्य षट्प्रकारो निक्षेप इत्यर्थः, तद्यथा-नामस्थापनेत्यादि, तत्र सुगमत्वान्नामस्थापने अनाहत्य ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यचार गाथाशकलेन दर्शयति-'दग्वं तु' त्ति तुशब्दः पुनःशब्दार्थे द्रव्यं पुनरेवम्भूतं भवति, दारुसङ्कामश्च जलस्थलचारश्च दारुसमजलस्थलचारी तावादी यस्य तदारुसङ्घमजलस्थलचारादिकं 'बहुधा' अनेकधा, तब दारुसङ्कमो जले सेत्वादिः। क्रियते, स्थले वा गर्तलानादिका, जलचारो नावादिना, स्थलचारो रथादिना, आदिग्रहणात् प्रासादादी सोपानप चादिरिति, यद्यद्देशाद्देशान्तरावाप्तये द्रव्यं स स द्रव्यचार इति गाथार्थः।। साम्प्रतं क्षेत्रादिकमाहखितं तु जंमि खित्ते कालो काले जहिं भवे चारो। भावंमि नाणदसणचरणं तु पसत्थमपसत्यं ॥२४७॥ क्षेत्र पुनर्यस्मिन् क्षेत्रे चारः क्रियते यावद्वा क्षेत्र चर्यते स क्षेत्रचारः, कालस्तु यस्मिन् काले चरति यावन्तं वा कालं स कालचारः, भावे तु द्विधा चरण-प्रशस्तमप्रशस्तं च, तत्र प्रशस्तं ज्ञानदर्शनचरणानि, अतोऽन्यदप्रशस्तं गृहस्थान्य walpatnamang ~408-23 Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [१४५...],नियुक्ति: [२४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४५]] दीप अनुक्रम [१५८] तीर्थकाणामिति गाथार्थः । तदेवं सामान्यतो द्रव्यादिकं चार प्रदर्य प्रकृतोपयोगितया यते वचार प्रशस्त प्रश्नद्वारेणी दर्शयितुमाह लोगे चउब्धिहमी समणस्स चउब्बिहो कहं चारो। होई धिई अहिगारो विसेसओ खित्तकालेसुं ॥२४॥ 'लोके' चतुर्विधे द्रव्यक्षेत्रकालभावरूपे 'श्रमणस्य' श्राम्यतीति श्रमणो यतिस्तस्य कथम्भूतो द्रव्यादिश्चतुर्विधश्चारः स्याद्, इति प्रश्न निर्वचनमाह-भवति धृतिरित्येषोऽधिकार, द्रव्ये तावदरसविरसपान्तरूक्षादिके धृतिर्भावयितव्या, क्षेत्रेऽपि कुतीर्थिकभाषिते प्रकृत्यभद्रके वा नोद्वेगः कार्य:, कालेऽपि दुष्कालादी यथालाभं सन्तोषिणा भाव्यं, भावेडप्याक्रोशोपहसनादौ नोद्दीपितव्यं, विशेषतस्तु क्षेत्रकालयोरवमयोरपि धृतिर्भाव्या, द्रव्यभावयोरपि प्रायस्तनिमित्तस्वात् ॥ पुनरपि द्रव्यादिकं विशेषतो यतेश्चारमाह पावोवरए अपरिग्गहे अ गुरुकुलनिसेवए जुत्ते । उम्मग्गवजए रागदोसविरए य से विहरे ॥ २४९॥ 'पापोपरतः पापात्-पापहेतोः सावधानुष्ठानाद्धिंसाऽनृतादत्तादानाब्रह्मरूपादुपरतः पापोपरतः, तथा न विद्यते परिग्रहोऽस्येत्यपरिग्रहः, पापोपरतोऽपरिग्रहश्चेति द्रव्यचारः, क्षेत्रचारमाह-गुरोः कुलं गुरुकुलं-गुरुसान्निध्यं तत्सेवको-युक्तः समन्वितो यावज्जीवं गुरूपदेशादिनेति, अनेन कालचारः प्रदर्शितः, सर्वकालं गुरूपदेशविधायित्वोपदेशाद्, भावचारमाह-उद्गतो मार्गादुन्मार्ग:-अकार्याचरणं तद्वर्जकः, तथा रागद्वेषविरतः स साधुर्विहरेत्-संयमानुष्ठानं कुर्यादिति, गता | नियुक्तिः । साम्प्रतं सूत्रमनुश्रियते-तत्र विषयकषायनिमित्तं यस्यैकचर्या स्थात् स किम्भूतः स्थादित्याह-'से बहु कोहे' ~409~23 Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [१४५...], नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: लोक०५ प्रत सूत्रांक [१४५] दीप अनुक्रम [१५८] श्रीआचा- इत्यादि, 'स' विषयगृधुरिन्द्रियानुकूलवत्येकचर्याप्रतिपन्नस्तीर्थिको गृहस्थो वा परैः परिभूयमानो बहुः क्रोधोऽस्येति रावृत्तिः| बहुक्रोधः, तथा वन्द्यमानो मानमुद्वहत इति बहुमानः, तथा कुरुकुचादिभिः कल्कतपसा च बहुमायी, सर्वमेतदाहारा दिलोभात्करोतीत्यतो बहुलोभः, यत एवमतो बहुरजाः-बहुपापो बहुषु वाऽऽरम्भादिषु रतो बहुरतः, तथा नटवभोगाथै | बहून वेषान विधत्त इति बहुनटः, तथा बहुभिः प्रकारैः शठो बहुशठः, तथा बहवः सङ्कल्पा:-कर्त्तव्याध्यवसाया यस्य स बहुसङ्कल्पः, इत्येवमन्येषामपि चौरादीनामेकचर्या वाच्येति, स एवम्भूतः किमवस्थ: स्यादित्याह-'आसव' इत्यादि, आनवाः-हिंसादयस्तेषु सक्त-सङ्गं आश्रवसक्तं तद्विद्यते यस्यासावाश्रवसक्ती-हिंसाधनुषद्वान् पलितं-कर्म तेनाव|च्छन्ना, कर्मावष्टग्ध इतियावत्, स चैवम्भूतोऽपि किं बृयादित्याह-'उद्विय इत्यादि, धर्माचरणायोद्युक्तः उत्थितस्त द्वाद उत्थितवादस्त प्रवदन, तीथिकोऽप्येवमाह-यथा अहमपि प्रबजितो धर्मचरणायोद्यत इत्येवं प्रवदन कर्मणाऽवच्छा|चत इति । स चोस्थितवादी आस्रवेषु प्रवर्त्तमानः आजीविकाभयात् कथं प्रवर्तत इत्याह-'मा में इत्यादि, मा मां 'के-1 चन' अन्येऽद्राक्षुरवद्यकारिणमित्यतः प्रच्छन्नमकार्य विदधाति, एतच्चाज्ञानदोषेण प्रमाददोपेण वा विधत्त इति । किं| च-सयय'मित्यादि, 'सततम्' अनवरतं मूढो मोहनीयोदयादज्ञानाद्वा 'धम्मै श्रुतचारित्राख्यं नाभिजानाति, न वि-| वेचयतीत्यर्थः । ययेवं ततः किमित्याह-'अट्टा' इत्यादि, आर्त्ता विषायकपायैः 'प्रजायन्त' इति प्रजा:-जन्तवः हे मानव!, मनुजस्यैवोपदेशाईत्वान्मानवग्रहणं, 'कर्मणि' अष्टप्रकारे विभंत्सिते 'कोविदाः' कुशलाः, न धर्मानुष्ठान इति, के पुनः ते ये सततं धर्म नाभिजानन्ति कर्मबन्धकोविदाश्चेति ?, अत आह-जे अणुवरया' इत्यादि, ये केचनानि ||२०३॥ wwwandltimaryam ~410-23 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [१४५...], नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत दिष्टस्वरूपाः 'अनुपरता' पापानुष्ठानेभ्योऽनिवृत्ता ज्ञानदर्शनचारित्राणि मोक्षमार्ग इत्येषा विद्या अतो विपर्ययेणाविद्या तया परि-समन्तात् मोक्षमाहुः ते धर्म नाभिजानन्त इति सम्बन्धः, धर्ममजानानाश्च किमानुयुरित्याह-'आवर्द्धन इत्यादि, भावावर्तः-संसारस्तमरघट्टघटीयन्त्रन्यायेनानुपरिवर्तन्ते, तास्वेव नरकादिगतिषु भूयो भूयो भवन्तीतियावत् ।। &| इतिरधिकारपरिसमाप्ती, ब्रवीमीति पूर्ववत् । लोकसाराध्ययने प्रथमोदेशक इति ॥१॥ सूत्रांक [१४५]] दीप अनुक्रम [१५८] उक्तः प्रथमोद्देशकः, साम्मतं द्वितीयः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इह प्रागुदेशके एकचर्याप्रतिपन्नोऽपि सावद्यानुष्ठानाद्विरतेरभावाच न मुनिरित्युक्तम् , इह तु तद्विपर्ययेण यथा मुनिभावः स्यात्तथोच्यते, इत्यनेन सम्बन्धेना-12 ६ यातस्थास्योद्देशकस्यादि सूत्रम् आवन्ती केयावन्ती लोए अणारंभजीविणो तेसु, एत्थोवरए तं झोसमाणे, अयं संधीति अदक्खू, जे इमस्स विग्गहस्स अयं खणेत्ति अन्नेसी एस मग्गे आरिपहिं पवेइए, उठ्ठिए नो पमायए, जाणितु दुक्खं पत्तेयं सायं, पुढोछंदा इह माणवा पुढो दुक्खं पवेइयं से अविहिंसमाणे अणवयमाणे, पुट्ठो फासे विपणुन्नए (सू० १४६) AAAAAAAACKछ wwwanatimarmarg | पंचम-अध्ययने द्वितीय-उद्देशक: 'विरत मुनि' आरब्धः, ~411~# Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१४६ ] दीप अनुक्रम [१५९ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [२], मूलं [१४६], निर्युक्ति: [ २४९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा 'यावन्तः' केचन 'लोके' मनुष्यलोके 'अनारम्भजीविनः' आरम्भः - सावद्यानुष्ठानं प्रमत्सयोगो वा उक्तं च- " आदाणे राङ्गवृत्तिः निक्लेवे भासुरसग्गे अ ठाणगमणाई । सब्बो पमत्तजोगो समणस्सवि होइ आरंभो ॥ १ ॥ तद्विपर्ययेण त्वनारम्भस्तेन (शी०) * जीवितुं शीलं येषां इत्यनारम्भजीविनो यतयः समस्तारम्भनिवृत्ताः तेष्वेव गृहिषु पुत्रकलत्रस्वशरीराद्यर्थमारम्भप्रवृत्तेष्व ॥ २०४ ॥ नारम्भजीविनो भवन्ति, एतदुक्तं भवति - सावद्यानुष्ठानप्रवृत्तेषु गृहस्थेषु देहसाधनार्थमनवद्यारम्भजीविनः साधवः पङ्काधारपङ्कजवन्निर्लेपा एव भवन्ति । यद्येवं ततः किमित्याह - 'अत्र' अस्मिन् सावद्यारम्भे कर्त्तव्ये 'उपरतः' सङ्कुचितगात्रः, * अत्र वाऽऽर्हते धर्मे व्यवस्थित उपरतः पापारम्भात्, किं कुर्यात् स ? 'तत्' सावधानुष्ठानायातं कर्म 'झोषयन्न क्षपयन् मुनिभावं भजत इति । किमभिसन्धायात्रोपरतः स्यादित्याह 'अयं संधी' इत्यादि, अविवक्षितकर्मका अप्यकर्मका धातवो यथा पश्य मृगो धावति, एवमत्राप्यद्राक्षीदित्येतत्क्रियायोगेऽप्ययं सम्धिरिति प्रथमा कृतेति, 'अय' मिति प्रत्यक्षगोचरापन्न आर्यक्षेत्र सुकुलोसत्तीन्द्रियनिर्वृत्तिश्रद्धासंवेगलक्षणः 'सन्धिः' अवसरो मिथ्यात्वक्षयानुदयलक्षणो वा सम्यक्त्वावाप्तिहेतुभूतकर्म्मविवरलक्षणः सन्धिः शुभाध्यवसायसन्धानभूतो वा सन्धिरित्येनं स्वात्मनि व्यवस्थापितमद्राक्षीद्रवानित्यतः क्षणमप्येकं न प्रमादयेत् न विषयादिप्रमादवशगो भूयात् । कश्च न प्रमत्तः स्यादित्याह - 'जे इमस्स' इत्यादि, 'य' इत्युपलब्धतत्त्वः 'अस्य' अध्यक्षस्य विशेषेण गृह्यते अनेनाष्टप्रकारं कर्म्म तद्वेतरशरीरविशिष्टं बाह्येन्द्रियेण गृह्यत इति विग्रह:- औदारिकं शरीरं तस्य 'अयं' वार्त्तमानिकक्षणः एवम्भूतः सुखदुःखान्यतररूपश्च गतः एवम्भूतश्च भावीत्येवं १ आदाने निक्षेपे भाषायामुत्सर्गे च स्थाने गमनादौ सर्वः प्रमत्तयोगः श्रमणस्यापि भवयारम्भः ॥ १ ॥ Jan Estication Intemational For Pantry Use Only ~ 412 ~# लोक० ५ उद्देशकः २ ॥ २०४ ॥ www.sendiitrary.org Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [२], मूलं [१४६],नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४६] दीप अनुक्रम [१५९] यः क्षणाग्वेषणशीलः सोऽन्वेषी सदाऽप्रमत्तः स्यादिति । स्वमनीषिकापरिहारार्थमाह-एस मग्गे' इत्यादि, 'एषः' अनन्तरोको 'मागों मोक्षपथः 'आर्यैः' सर्वहेयधारातीय(तीर)वर्तिभिस्तीर्थकरगणधरैः प्रकर्षणादौ वा वेदित:-कथितः प्रवेदित इति । न केवलमनन्तरोक्को वक्ष्यमाणश्च तीर्थकरैः प्रवेदित इति तदाह-'उहिए' इत्यादि, सन्धिमधिगम्योत्थितो धर्मचरणाय क्षणमप्येक न प्रमादयेत् । किं चापरमधिगम्येत्याह-जाणित्नु' इत्यादि, ज्ञात्वा प्राणिनां प्रत्येकं दुःखं तदुपादानं वा कर्म तथा प्रत्येक सातं च-मनआहादि ज्ञात्वा समुत्थितो न प्रमादयेत् । न केवलं दुःखं कर्म वा प्रत्येक, तदुपादानभूतोऽध्यवसायोऽपि प्राणिनां भिन्न एवेति दर्शयितुमाह-'पुढो' इत्यादि, पृथग-भिन्नः छन्द:-अभिप्रायो येषां ते पृथग्छन्दाः, नानाभूतबन्धाध्यवसायस्थाना इत्यर्थः, 'इहे'ति संसारे संज़िलोके वा, के ते?-'मानवाः' मनुष्याः, उपलक्षणार्थत्वादन्येऽपि, संज्ञिनां पृथक्सङ्कल्पत्वाच्च तत्कार्यमपि कर्म पृथगेव, तत्कारणमपि दुःखं नानारूपमिति, का-४ रणभेदे कार्यभेदस्य अवश्यंभावित्वादिति, अतः पूर्वोक्तं स्मारयन्नाह-'पुढों' इत्यादि, दुःखोपादानभेदाद् दुःखमपि प्राणिनां पृथक् प्रवेदितं, सर्वस्य स्वकृतकर्मफलेश्वरत्वात् नान्यकृतमन्य उपभुङ्क्ते इति। एतन्मत्वा किं कुर्यादित्याह-'से है इत्यादि, 'सः' अनारम्भजीवी प्रत्येकसुखदुःखाध्यवसायी प्राणिनो विविधैरुपायैरहिंसन् तथाऽनपवदन्-अन्यथैव व्यवस्थितं वस्त्वन्यथा वदन्नपवदन् नापवदन् अनपवदन् , मृषावादमब्रुवन्नित्यर्थः, पश्य च त्वं तस्यापि प्राकृतत्वादापत्वाद्वा लोपः, एवं परस्वमगृहन्नित्याद्यप्यायोज्यम् । एतद्विधायी च किमपरं कुर्यादित्याह-'पुढो' इत्यादि, स पञ्चमहाव्रतव्यवस्थितः सन् यथागृहीतप्रतिज्ञानिर्वहणोद्यतः स्पृष्टः परीषहोपसर्गस्तान तत्कृतान् शीतोष्णादिस्पर्शान् दुःखस्पर्शान् वा त ~413~# Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१६०] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (श्री०) ॥ २०५ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [२], मूलं [१४६], निर्युक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः त्सहिष्णुतया अनाकुलो विविधैरुपायैः प्रकारैः संसारासारभावनादिभिः प्रेरयेत् तत्प्रेरणं च सम्यक्सहवं, न तत्कृतया | दुःखासिकयाऽऽत्मानं भावयेदितियावत् ॥ यो हि सम्यक्करणतया परषहान् सहेत स किंगुणः स्यादित्याहएस समिया परियाए वियाहिए, जे असत्ता पावेहिं कम्मेहिं उदाहु ते आयंका - संति, इति उदाहु धीरे ते फासे पुट्ठो अहियासइ, से पुठिवपेयं पच्छापेयं भेउरधम्मं विद्धंसणधम्ममधुवं अणिइयं असासयं चयावचइयं विप्परिणामधम्मं, पासह एवं रुवसंधिं । (सू० १४७ ) 'एषः' अनन्तरोको यः परीषहाणां प्रणोदकः 'समिया' सम्यक् शमिता वा शमोऽस्यास्तीति शमी तद्भावः शमिता 'पर्यायः' प्रब्रज्या सम्यक् शमितया वा पर्यायः - प्रव्रज्याऽस्येति विगृह्य बहुव्रीहिः स सम्यकूपर्यायः शमितापर्यायो वा व्याख्यातो नापर इति । तदेवं परीषहोपसर्गाक्षोभ्यतां प्रतिपाय व्याधिसहिष्णुतां प्रतिपादयन्नाह - 'जे असत्ता' इत्यादि, येऽपाकृतमदनतया समतृणमणिलेष्टुकाञ्चनाः समतापन्नाः पापेषु कर्म्मस्वसक्ताः - पापोपादानानुष्ठानारताः 'उदाहु' कदाचित्तान् तथाभूतान् साधून् 'आतङ्का' आशुजीवितापहारिणः शुलादयो व्याधिविशेषाः 'स्पृशन्ति' अभिभवन्ति पीडयन्ति । यदि नामैवं ततः किमित्याह -' इति उदाहु' इत्यादि, 'इति' एतद्वक्ष्यमाणमुदाहृतवान्-व्याकृतवान्, कोऽसौ ? - 'धीरो' धीः- बुद्धिस्तया राजते, स च तीर्थकुद्गणधरो वा, किं तदुदाहृतवान् :- तैरातकैः स्पृष्टः सन् Jan Estication Intemational For Pantry O ~414 ~# लोक० ५ | उद्देशकः २ ॥ २०५ ॥ www.indiary.org Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१४७ ] दीप अनुक्रम [१६०] “आचार" अंगसूत्र- १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [[.], अध्ययन [५] उद्देशक [२] मूलं [ १४७]. निर्युक्तिः [ २४९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - तान् स्पर्शान् दुःखानुभवान् व्याधिविशेषापादितानध्यासयेत् सहेत । किमाकलय्येत्याह- 'से पुण्व' मित्यादि, स स्पृष्टः पीडितः आशुकारिभिरातङ्करेतद्भावयेद् यथा पूर्वमध्येतद्-असातावेदनीय विपाकजनितं दुःखं मयैव सोढव्यं, पश्चादप्येतन्मचैव सहनीयं यतः संसारोदरविवरवर्त्ती न विद्यत एवासौ यस्यासातावेदनीयविपाकापादिता रोगातङ्का न भवेयुः तथाहि केवलिनोऽपि मोहनीयादिघाति चतुष्टयक्षयादुत्पन्नज्ञानस्य वेदनीयसद्भावेन तदुदयात्तत्सम्भव इति, यतश्च तीर्थकरैरप्येतद्वद्धस्पृष्टेनिधैत्तनिकाचनावस्थायातं कम्मवश्यं वेद्यं नान्यथा तन्मोक्षः, अतोऽन्येनाप्यसातावेदनीयोदये | सनत्कुमारदृष्टान्तेन मयैवैतत्सोढव्यमित्याकलय्य नोद्विजितव्यमिति, उक्तं च- "स्वकृतपरिणतानां दुर्नयानां विपाकः, १-२-३-४] कर्मबन्धचतुर्विधः, तयया-प्रकृतिबन्धः १ स्थितिबन्धः २ अनुभागवन्धः ३ प्रदेशबन्धः ४ तत्र प्रकृतिबन्धोऽष्टविधः, शनावरणीयाद्यन्तरायान्तः, एतेऽहायपि मूलभेदाः, उत्तरभेदास्तु ज्ञानावरणीये पश्च, दर्शनावरणीये नव, वेदनीये द्वी, मोहनीयेऽष्टाविंशतिः, आयुपञ्चत्वारः, नानः द्विचत्वारिंशत् सप्तषष्टिय त्रिनवतियां युतरवार्त वा गोत्रे द्वी, अन्तराये पथ, इति मूलोत्तरप्रकृतिवन्धः । स्थितिबन्धे ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय वेदनीयान्तरायेषु त्रिंशत्कोटीकोव्य उत्कृष्ट स्थितिः, मोहनीये सप्ततिकोटाकोज्यः, नामगोत्रयोविंशतिः, आयुषि ३३ सागरोपमाणि पूर्वकोटिनिभागोनानि, नामगोत्रयोर्जघन्या स्थितिरष्टी मुहूर्त्ताः, वेदनीरस वारसमुदृत्ता, अंतोमुहुत्ता सेसाणं इति स्थितिबन्धः शुभाशुभकर्मपुद्र तेषु " जो रसो अनुभागो दुबइ तत्थ सुभे महुरो अनुभेषु अमदुरो रसो तस्स बन्धो अणुभागबंधी" अणुभागबन्धो समत्तो प्रदेशाः कर्म्मवर्गणास्कन्धाः तेषां मन्धः जीवप्रदेशैः समं वहययः पिण्डवत्क्षी र नीरसम्बन्धमा उर्फ च--"जीवकर्मप्रदेशानां यः सम्बन्धः परस्परम्। कृशानुलोवद्धेतोः तं जगदुर्बुधाः ॥ १ ॥ स्पृष्टवदनियत निकाचितकारणमेदात् स पुनश्चतुर्विधः तथाहिसमूहगतायः सुचिसम्बन्धवत् स्पृष्टकर्मबन्धः, दवरकबद्धसूचिसम्बन्धवद्वय कर्मबन्धः वर्षान्तरितदवरकबद्धसूचिका सम्बन्धवभिधतकर्मबन्धः, अभिनाशविकासमदायमेकनिकाकम्मैबन्धः Jan Eaton national For Parts Onl ~415~# Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१६०] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [२], मूलं [१४७], निर्युक्ति: [ २४९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) पुनरपि सहनीयोऽन्यत्र ते निर्गुणस्य । स्वयमनुभवतोऽसौ दुःखमोक्षाय सद्यो, भवशतगतिहेतुर्जायतेऽनिच्छतस्ते ॥ १ ॥” अपि च- एतदौदारिकं शरीरं सुचिरमध्यौषधरसायनाद्युपबृंहितं मृन्मयामघटादपि निःसारतरं सर्वथा सदा विशराविति दर्शयन्नाह - 'भिदुरधम्म'मित्यादि, यदिवा पूर्व पश्चादप्येतदौदारिकं शरीरं वक्ष्यमाणधर्मस्वभावमित्याह - 'भिदुरधम्म' मित्यादि, स्वयमेव भिद्यत इति भिदुरः स धर्मोऽस्य शरीरस्येति भिदुरधर्म्म, इदमौदारिकं शरीरं सुपोषितमपि ॥ २०६ ॥ वेदनोदयाच्छिरोदर चक्षुरुरःप्रभृत्यवयवेषु स्वत एव भिद्यत इति भिदुरं, तथा विध्वंसनधर्मं पाणिपादाद्यवयवविध्वंसनात्, तथा अवश्यंभावसम्भावितं त्रियामान्ते सूर्योदयवत् ध्रुवं न तथा यत्तदधुवं, तथा अप्रच्युतानुपन्नस्थिरैकस्वभावतया ॐ कूटस्थनित्यत्वेन व्यवस्थितं सन्नित्यं नैवं यत्तदनित्यमिति तथा तेन तेन रूपेणोदकधारावच्छभ्वद्भवतीति शाश्वतं ततोऽन्यदशाश्वतं तथेष्टाहारोपभोगतया धृत्युपष्टम्भादौदारिकशरीरवर्गणापरमाणूपचयाच्चयः तदभावेन तद्विचटनादपचयः, चयापचयौ विद्येते यस्य तच्चयापचयिकम्, अत एव विविधः परिणामः - अन्यथाभावात्मको धर्मः स्वभावो यस्य तद्वि| परिणामधर्म्म । यतश्चैवम्भूतमिदं शरीरकमतोऽस्योपरि कोऽनुबन्धः का मूर्च्छा?, नास्य कुशलानुष्ठानमृतेऽन्यथा साफल्यमित्येतदेवाह - 'पासह' इत्यादि, पश्यतैनं पूर्वोक्तं रूपसन्धि, भिदुरधर्म्माद्याघातौदारिकं पञ्चेन्द्रियनिर्वृत्तिलाभावसरात्मकं दृष्ट्वा च विविधातङ्कजनितान् स्पर्शानध्यासयेदिति । एतपश्यतश्च यत्स्यात्तदाह Jan Estication Intimanal समुप्पेहमाणस्स इक्काययणरयस्स इह विप्पमुक्कस्स नत्थि मग्गे विरयस्त तिबेमि । ( सू० १४८) सम्यगुत्प्रेक्षमाणस्य - पश्यतोऽनित्यताम्रातमिदं शरीरमित्येवमवधारयतो नास्ति मार्ग इति सम्बन्धः, किं च-आ For Pantry Use Onl ~416 ~# लोक० ५ | उद्देशक २ ॥ २०६ ॥ www.indiary.org Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [२], मूलं [१४८],नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४८] दीप अनुक्रम [१६१] अभिविधौ समस्तपापारम्भेभ्यः आत्मा आयत्यते-आनियम्यते यस्मिन् कुशलानुष्ठाने वा यत्नवान् क्रियत इत्यायतनंज्ञानादित्रयम् एकम्-अद्वितीयमायतनमेकायतनं तत्र रतस्तस्य, किं च-इह' शरीरे जन्मनि वा विविध परमार्थभावनया शरीरानुबन्धात् प्रमुक्तो विप्रमुक्तस्तस्य 'नास्ति' न विद्यते, कोऽसौ ?-'मार्गो' नरकतियंडानुष्यगमनपद्धतिः, वर्तमानसामीप्ये वर्तमानदर्शनान्न भविष्यतीति नास्तीत्युक्तं, यदिवा तस्मिन्नेव जन्मनि समस्तकर्मक्षयोपपत्तेर्नास्ति नरकादिमार्गः, कस्येति दर्शयति-विरतस्य हिंसाद्याश्रवद्वारेभ्यो निवृत्तस्य, इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् सुधशर्मस्वाम्यात्मानमाह, यद्भगवता वीरवर्द्धमानस्वामिना दिव्यज्ञानेनार्थानुपलभ्य वाग्योगेनोक्तं तदहं भवतां ब्रवीमि, न दास्वमतिविरचनेनेति । विरत एवं मुनिर्भवत्येतत्प्रतिपाद्य साम्प्रतम् 'अविरतवादी परिग्रहवानिति यदुक्तं तत्प्रतिपादयन्नाह-1 आवंती केयावंती लोगंसि परिग्गहावंती, से अप्पं वा बहुं वा अणुं वा शुलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा एएसु चेव परिग्गहावंती, एतदेव एगेसिं महब्भयं भवइ, लोगवित्तं च णं उबेहाए, एए संगे अवियाणओ । (सू० १४९) यावन्तः केचन लोके 'परिग्रहवन्तः परिग्रहयुक्ताः स्युस्तत(त्र) एवम्भूतपरिग्रहसद्भावादित्याह–'से अप्पं वा' इत्यादि, तद्रव्यं यत्परिगृह्यते तदल्पं वा-स्तोकं वा स्यात् कपर्दकादि, बहु वा स्यात् धनधान्यहिरण्यग्रामजनपदादि, अणु वा स्यात् मूल्यतस्तृणकाष्ठादि प्रमाणतो बजादि, स्थूलं वा स्यात् मूल्यतः प्रमाणतश्च हस्त्यपादि, एतच चित्तवद्वा स्याद wwanatimamarg ~417~23 Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [२], मूलं [१४९],नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचा- रावृत्तिः (शी०) भारताउदेशका सूत्रांक [१४९]] ॥२०७॥ दीप अनुक्रम [१६२] चित्तवद्वेति । एतेन च परिग्रहेण परिग्रहवन्तः सन्त एतेष्वेव परिग्रहवत्सु गृहस्थेष्वन्तर्वतिनो तिनोऽपि स्युः, यदिवैतेष्वेव पसु जीवनिकायेषु विषयभूतेष्वल्पादिषु वा द्रव्येषु मूछी कुर्वन्तः परिग्रहवन्तो भवन्ति, तथा चाविरतो विरतिवादं वदन्नल्पादपि परिग्रहात् परिग्रहवान् भवति, एवं शेपेष्वपि व्रतेष्वायोज्यम्, एकदेशापराधादपि सर्वापराधितासम्भवः, अनिवारिताम्रवत्वात् । यद्येवमस्पेनापि परिग्रहेण परिग्रहवत्त्वमतः पाणिपुटभोजिनो दिगम्बराः सरजस्कबोटिकादयोऽपरिग्रहाः स्युः, तेषां तदभावात्, नैतदस्ति, तदभावादित्य सिद्धो हेतुः, तथाहि-सरजस्कानामस्थ्यादिपरिग्रहाद्वोटिकानामपि पिछिकाविपरिग्रहाद् अन्त(न्तत)श्च शरीराहारादिपरिग्रहसद्भावात् , धर्मोपष्टम्भकत्वाददोष इति | चेद् तद् इतरत्रापि समानं, किं दिगम्बराग्रहप्रहेणेति । एतच्चाल्पादिपरिग्रहेण परिग्रहवत्वमपरिग्रहाभिमानिना चाहारशरीरादिक महतेऽनर्थायेति दर्शयन्नाह-एतदेवे'त्यादि, एतदेव-अल्पबहुत्वादिपरिग्रहेण परिग्रहवत्त्वमेकेषां-परिग्रहवतां । नरकादिगमनहेतुत्वात् सर्वस्याविश्वासकारणाद्वा महाभयं भवति, प्रकृतिरियं परिग्रहस्य, यदुत-तद्वान् सर्वस्माचकति, यदिवैतदेव शरीराहारादिकमपरस्याल्पस्यापि पात्रत्वक्त्राणादेर्द्धम्मोपकरणस्याभावाद् गृहिगृहे सम्यगुपायाभावादविधिनाऽशुद्धमाहारादिकं भुञ्जानस्य कर्मबन्धजनितमहाभयहेतुत्वान्महाभयं, तथैतद्धर्मशरीरं समस्ताच्छादनाभावाद्वीभत्संग परेषां महाभयं, तन्निरवद्यविधिपालनाभावाच महाभयमिति । यतः परिग्रहो महाभयमतोऽपदिश्यते-'लोग' इत्यादि, 'लोकस्य' असंयतलोकस्य 'वित्तं' द्रव्यमल्पादिविशेषणविशिष्टं, चशब्दः पुनःशब्दार्थे, णमिति वाक्यालकारे, लोक-15 वित्तं लोकवृत्तं वा आहारभयमैथुनपरिग्रहोत्कटसंज्ञारमकं महते भयाय पुनरुत्प्रेक्ष्य-ज्ञात्वा ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरि दरक wwwandltimaryam ~418~# Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [२], मूलं [१४९],नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४९] दीप अनुक्रम [१६२] ज्ञया परिहरेत् । तत्सरिहर्जुश्च यत्स्यात्तदाह-एए संगे' इत्यादि, 'एतान्' अल्पादिद्रव्यपरिग्रहसङ्गान् शरीराहारादिसदाजान् वा 'अविजानतः अकुर्वाणस्य वा तत्परिग्रहजनितं महाभयं न स्यात् ॥ किंच से सुपडिबद्धं सूवणीयंति नच्चा पुरिसा परमचक्खू विपरिकमा, एएसु चेव बंभचेरं तिबेमि, से सुयं च मे अज्झत्थयं च मे-बंधपमुक्खो अज्झत्थेव, इत्थ विरए अणगारे दीहरायं तितिक्खए, पमत्ते बहिया पास, अप्पमत्तो परिव्वए, एवं मोणं सम्म अ णुवासिज्जासि तिबेमि (सू० १५०)। लोकसाराध्ययने द्वितीयोदेशकः ५-२॥ 'से' तस्य परिग्रहपरिहर्तुः सुष्टु प्रतिवद्धं सुप्रतिबद्धं सुष्टूपनीतं सूपनीतं ज्ञानादि इत्येतत् ज्ञात्वा 'हे पुरुष' मानव! परमं ज्ञानं चक्षुर्यस्यासौ परमचक्षुः मोक्षकदृष्टिा सन् विविधं तपोऽनुष्ठानविधिना संयमे कर्मणि वा पराक्रमस्वेति । अध किमर्थं पराक्रमणोपदेश इत्यत आह-एएसु चेवे' त्यादि, य इमे परिग्रहविरताः परमचक्षुषश्चैतेष्वेव परमार्थतो | ब्रह्मचर्य नान्येषु, नवविधब्रह्मचर्यगुप्त्यभावाद्, यदिवा ब्रह्मचर्याख्योऽयं श्रुतस्कन्धः, एतद्वाच्यमपि ब्रह्मचर्य तदेतेवेवापरिग्रहवत्सु, इतिरधिकारपरिसमाप्ती, अबीम्यहं यदुकं वक्ष्यमाणं च सर्वज्ञोपदेशादित्याह-से सुअंच में| इत्यादि, तद्यत् कथितं यच्च कथयिष्यामि तच्छ्रतं च मया तीर्थकरसकाशात् तथा आत्मन्यधि अध्यात्मं ममैतञ्चेतसि | व्यवस्थितं, किं तदध्यात्मनि स्थितमिति दर्शयति-बन्धात्सकाशालामोक्षः बन्धप्रमोक्षस्तथा 'अध्यात्मन्येव' ब्रह्मचर्ये wwwanditimaryam ~419~# Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१५० ] दीप अनुक्रम [१६३ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [२], मूलं [१५० ], निर्युक्ति: [ २४९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र- [ ०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) * व्यवस्थितस्यैवेति । किं च - 'इत्थ' इत्यादि, 'अत्र' अस्मिन् परिग्रहे जिघृक्षिते विरतः कोऽसौ ? - नास्यागारं गृहं विद्यत इत्यनगारः, स एवम्भूतो 'दीर्घरात्रं' यावज्जीवं परिग्रहाभावात् यत् क्षुत्पिपासादिकमागच्छति तत् 'तितिक्षेत' सहेत । पुनरप्युपदेशदानायाह- 'पमत्ते' इत्यादि, प्रमत्तान् - विषयादिभिः प्रमादैर्वहिर्द्धम्म व्यवस्थितान् पश्य गृहस्थतीर्थिका* दीन् । दृष्ट्वा च किं कुर्यादिति दर्शयति-अप्रमत्तः सन् संयमानुष्ठाने परिव्रजेदिति । किं च- 'ए' मित्यादि, 'एतत्' ३ पूर्वोक्तं संयमानुष्ठानं मुनेरिदं मौनं सर्वज्ञोक्तं सम्यग् 'अनुवासयेः' प्रतिपालयेः 'इति' अधिकारपरिसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत् । लोकसाराध्ययने द्वितीयोदेशकः समाप्तः ॥ २०८ ॥ उक्त द्वितीयोदेशकः, साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते-अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरोकोदेशकेऽविरतवादी परिग्रहवानित्यभिहितम्, इह तु तद्विपर्यय उच्यते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम् - Jan Estication Instal Falsart आवंती यावंती लोयंसि अपरिग्गहावंती एएसु चैव अपरिग्गहावंती, सुच्चा वई मेहावी पंडियाण निसामिया समियाए धम्मे आरिएहिं पवेइए जहित्य मए संधी झोसिए एवमन्नत्थ संधी दुज्जोसए भवइ, तम्हा बेमि नो निहणिज वीरियं । (सू० १५१) यावन्तः केचन लोकेऽपरिग्रहवन्तो विरता यतय इत्यर्थः, ते सर्वे एतेष्वेव- अल्पादिषु द्रव्येषु त्यकेषु सत्स्वपरिग्रह पंचम अध्ययने तृतीय उद्देशक: 'अपरिग्रह' आरब्ध:, For Par at Use Only ~420 ~# लोक० ५ उद्देशका ३ ॥ २०८ ॥ www.indiary.org Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१५१] दीप अनुक्रम [१६४ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [३], मूलं [१५१], निर्युक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः वन्तो भवन्ति, यदिवैतेष्वेव षट्सु जीवनिकायेषु ममत्वाभावादपरिग्रहा भवन्ति । स्यात् कथमपरिग्रहभावः स्वादित्याह- 'सोच्चा' इत्यादि 'वई'त्ति सुव्यत्ययेन द्वितीयार्थे प्रथमाऽतो वाचं तीर्थकराज्ञामागमरूपां 'श्रुत्वा' आकर्ण्य 'मेधावी' मर्यादाव्यवस्थितः सश्रुतिको हेयोपादेयपरिहारप्रवृत्तिज्ञः, तथा 'पण्डितानां' गणधराचार्यादीनां विधिनियमात्मकं वचनं निशम्य सचित्ताचितपरिग्रहपरित्यागादपरिग्रहो भवति । स्यादेतत्-कदा पुनरुत्पन्ननिरावरणज्ञानानां तीर्थ| कृतां वाग्योगो भवति येनासावाकर्ण्यते ?, उच्यते, धर्मकथावसरे, किम्भूतस्तैः पुनर्धर्मः प्रवेदित इत्यारेकापनोदार्थमाह- 'समिय'त्ति 'समता' समशत्रु मित्रता तयाऽऽर्द्धर्मः प्रवेदित इति उक्तं च--"जो चंदेणेण बाहुं आलिंपइ वासिणा व तच्छेति । संधुणइ जो अ जिंदति महेसिणो तत्थ समभावा ॥ १ ॥ यदिवाऽऽर्येषु देशभाषाचरित्राऽऽर्येषु समतया भगवता धर्मः प्रवेदितः, तथा चोक्तम्- "जहा पुण्णस्स कत्थइ तहा तुच्छरस कत्थई "त्यादि, अथवा शमिनो | भावः शमिता तथा सर्वहेयधर्म्मारातीयवर्त्तिभिः आयैः प्रकर्षेणादौ वा धम्म वेदितः प्रवेदितः, इन्द्रियनोइन्द्रियोपशमेन तीर्थकृद्भिर्द्धर्मः प्रज्ञापित इतियावत् । स्याद्-अभ्यैरपि स्वाभिप्रायेण धर्म्माः प्रवेदिता एवेत्यतस्तद्व्युदासार्थं भगवाने वाह'जहेत्थे'त्यादि, सदेवमनुजायां पर्षदि भगवानेवमाह-यथाऽत्र मया ज्ञानादिको मोक्षसन्धिः 'झोसिओ'त्ति सेवित इति, यदिवा 'अत्र' अस्मिन् ज्ञानदर्शनचारित्रात्मके मोक्षमार्गे समभावात्मके इन्द्रियनोइन्द्रियोपशमरूपे मया मुमुक्षुणा स्वत एव सन्धानं सन्धिः - कर्म्मसन्ततिः सन्धीयत इति वा भवाद्भवान्तरमनेनेति सन्धिः - अष्टप्रकार कर्म्मसन्ततिरूपः स 1 यन्दनेन बाहू माजिम्पति वास्या वा तक्ष्णोति । संस्तीति यक्ष निन्दति महर्षयस्तत्र समभावाः ॥ १ ॥ Jan Estucation Intemational For Pantry Use O ~421~# www.indiary.org Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [३], मूलं [१५१],नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: है प्रत सूत्रांक [१५१] दीप अनुक्रम [१६४] श्रीआचा- झोषित:-क्षपितः अतो य एव तीर्थकृभिर्द्धर्मोऽभिहितः स एव मोक्षमार्गों नापर इत्येतदेवाह-यथाऽत्र मया सन्धि- लोक० ५ राजवृत्तियॊषितः एवमन्यत्र-अन्यतीर्थिकप्रणीते मोक्षमार्गे सन्धिः कर्मसन्ततिरूपः दुोप्यो भवति-दुम्क्षयो भवति, असमीची-III. उद्देशका३ (शी०) नतया तदुपायाभावाद्, यदि नाम भगवताऽत्र कर्मसन्धिोषितस्ततः किमित्याह यस्मादस्मिन्नेव मार्गे व्यवस्थितेन ॥ ॥ २०९॥ मयाऽपि विकृष्टतरेण तपसा कर्म क्षपितं ततोऽन्योऽपि मुमुक्षुः संयमानुष्ठाने तपसि च वीर्य 'नो निहन्यात्' नो निगृहये अनिगृहितवलवीयर्यो भूयाद्, एतदहं ब्रवीमि परमकारुण्याकृष्टहृदयः परहितकोपदेशदायीत्येतद्वीरवर्द्धमानस्वाम्याह,13 सुधर्मस्वामी स्वशिष्याणां कथयति स्म । कश्चैवम्भूतः स्यादित्याह जे पुखुट्राई नो पच्छानिवाई, जे पुवुदाई पच्छानिवाई, जे नो पुवुटायी नो पच्छानिवाई, सेऽवि तारिसिए सिया, जे परिन्नाय लोगमन्नेसयंति । (सू० १५२) यः कश्चिद्विदितसंसारस्वभावतया धर्मचरणकप्रवणमनाः पूर्व-प्रव्रज्याऽवसरे संयमानुष्ठानेनोत्थातुं शीलमस्येति पूर्वो-1 स्थायी पश्चाच श्रद्धासंवेगतया विशेषेण बर्द्धमानपरिणामो नो निपाती, निपतितुं शीलमस्येति विगृह्य णिनिः निपतनं | वा निपातः सोऽस्यास्तीति निपाती, सिंहतया निष्क्रान्तः सिंहतया विहारी च गणधरादिवत् प्रथमो भङ्गः । द्वितीय-18 है भङ्गं सूत्रेणैव दर्शयन्नाह-पूर्वमुत्थातुं शीलमस्येति पूर्वोत्थायी, पुनर्विचित्रत्वात् कर्मपरिणतेस्तथाविधभवितव्यतानियो- ॥२०९ |गात्पश्चान्निपाती स्यात्, नन्दिषेणवत्, कश्चिद्दर्शनतोऽपि गोष्ठामाहिलवदिति । तृतीयभङ्गस्य चाभावादनुपादानं, wwwandltimaryam ~422~# Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१५२] दीप अनुक्रम [१६५ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [३], मूलं [१५२ ], निर्युक्ति: [ २४९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः स चायम्- 'जे नो पुब्बुद्वायी पच्छानिवाती, तथाहि--उत्थाने सति निपातोऽनिपातो वा चिन्त्यते, सति धर्मिणि धर्मचिन्ता, तदुत्थानप्रतिषेधे च दूरोत्सादितैव निपातचिन्तेति । चतुर्थभङ्गदर्शनाय स्वाह-यो हि नो पूर्वोत्थायी न च पश्चान्निपाती सोऽविरत एव गृहस्थः सन्नोत्थायी भवति सम्यग्विरतेरभावात् नापि पश्चान्निपाती उत्थानाविनाभावि - त्वान्निपातस्य, शाक्यादयो वा चतुर्थभङ्गपतिता द्रष्टव्याः तेषामप्युभयासद्भावादिति । ननु च गृहस्था एव चतुर्थभङ्गपतिता युक्ता वक्तुं, तथाहि तेषां सावद्ययोगानुष्ठानेनानुत्थानतया प्रतिज्ञामन्दरारोपाभावान्निपाताभावः, शाक्यादिरपि चतुर्थभङ्गपतित इत्यत आह- 'सोऽपि शाक्यादिर्गणः पञ्चमहातभारारोपणाभावेन सावद्ययोगानुष्ठानतया | नो पूर्वोत्थायी निपातस्य च तत्पूर्वकत्वान्नोपश्चानिपातीत्यतस्तादृश एव-गृहस्थतुल्य एव स्याद्, आनव द्वाराणामुभयेषामप्यसंवृतत्वात्, उदायिन्नृपमारकवत् । अन्येऽपि ये सावद्यानुष्ठायिनस्तेऽपि तादृक्षा एवेति दर्शयन्नाह-येऽपि स्वयूथ्याः पार्श्वस्यादयो द्विविधयाऽपि परिज्ञया लोकं परिज्ञाय पुनः पचनपाचनाद्यर्थं तमेव लोकमन्वाश्रिता अम्वेषयन्ति वा तेऽपि गृहस्थ तुल्या एव भवेयुः ॥ स्वमनीषिकापरिहारार्थमाह Jan Estication Untamal एयं नियाय मुणिणा पवेइयं, इह आणाकंखी पंडिए अणिहे, पुव्वावररायं जयमाणे, सया सीलं सुपेहाए सुणिया भवे अकामे अझंझे, इमेण चैव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ ? (सू० १५३ ) For Parna Prva Use Onl ~423~# www.anditary.org Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१५३] दीप अनुक्रम [१६६ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [३], मूलं [१५३], निर्युक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ।। २१० ॥ श्रीआचा- 2 'एतद्' यदुत्थाननिपातादिकं प्रागुपन्यस्तं तत्केवलज्ञानावलोकनेन 'नियाय'त्ति ज्ञात्वा 'मुनिना' तीर्थकृता 'प्रवेदितं' राङ्गवृत्तिः कथितम् । इदं चान्यत्मवेदितमित्याह - 'इह' अस्मिन् मौनीन्द्रे प्रवचने व्यवस्थितः सन् 'आज्ञां' तीर्थकरोपदेशमाका(शी०) है ङ्गितुं शीलमस्येत्याज्ञाकाङ्क्षी - आगमानुसारप्रवृत्तिकः, कश्चैवम्भूतः ? - 'पण्डितः' सदसद्विवेकज्ञः 'अस्तिहः' स्नेहरहितः । | रागद्वेषविप्रमुक्तोऽहर्निशं गुरुनिर्देशवर्ती यलवान् स्यादित्येतदाह - पूर्वरात्र-रात्रेः प्रथमो यामोऽपररात्रं- रात्रेः पाश्चात्यः एतद्यामद्वयमपि यतमानः' सदाचारमाचरेत्, मध्यवर्त्तियामद्वयमपि यथोक्तविधिना स्वपन वैरात्रादिकं विदध्यात्, राते त्रियतनाप्रतिपादनेन चापि प्रतिपादितैव भवति, आद्यन्तग्रहणे मध्यग्रहणस्यावश्यंभावित्वात् । किं च - 'सदा' सर्वकालं 'शीलम्' अष्टादशभेदसहस्रसङ्ख्यं संयमं वा यदिवा चतुर्द्धा शीलं - महाव्रतसमाधानं तिस्रो गुप्तयः पञ्चेन्द्रि यदमः कषायनिग्रहश्चेत्येतच्छीलं सम्प्रेक्ष्य मोक्षाङ्गतयाऽनुपालयेत् नाशिनिमेषमात्रमपि कालं प्रमादवशगो भूयात् । कश्च शीलसम्प्रेक्षकः स्यादित्याह-यो हि श्रुत्वा शीलसम्प्रेक्षणफलं निःशील निर्व्रतानां च नरकादिपातविपाकमाकर्ण्यागमात्, 'भवेत्' स्यात् 'अकाम' इच्छामदनकामरहित इति, तथा नास्य 'झञ्झा' माया लोभेच्छा वा विद्यत इत्यझञ्झः, कामझञ्झाप्रतिषेधाच्च मोहनीयोदयः प्रतिषिद्धः, तत्प्रतिषेधाच्च शीलवान् स्यादिति, एतदुक्तं भवति-धर्मं श्रुत्वा स्यात् अकामोऽझञ्झश्चेत्यनेन चोत्तरगुणा गृहीताः, उपलक्षणार्थत्वाच्च मूलगुणा अपि गृहीताः, ततः स्यात् अहिंसकः सत्यवादीत्याद्यपि द्रष्टव्यं । ननु चान्यज्जीवाच्छरीरमित्येवंभावनायुक्तस्यानिगूहितबलवीर्यस्य पराक्रममाणस्याष्टादशशीलाङ्गसहस्रधारिणोऽपि मे यथोपदेशं प्रवर्त्तमानस्यापि नाशेषकर्ममलापगमोऽद्यापि भवतीत्यतस्तथाभूतमसाधारणकारणमाचक्ष्व Etication matinal For Parts O ~424 ~# लोक० ५ उद्देशकः३ ॥ २१० ॥ www.indiary.org Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [3], मूलं [१५४],नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५४] दीप अनुक्रम [१६७] येनाहमाश्वेवाशेषमलकलङ्करहितः स्याम् , अहं च भवदुपदेशाद् अपि सिंहेनापि सह युद्ध्ये, न मे कर्मक्षयार्थ प्रवृत्तस्य कि|श्चिदशक्यमस्तीत्यत्रोत्तरं सूत्रेणैवाह-अनेनैवौदारिकेण शरीरेणेन्द्रियनोइन्द्रियात्मकेन विषयसुखपिपासुना स्वैरिणा सार्द्ध युध्यस्व, इदमेव सन्मार्गावतारणतो वशीकुरु, किमपरेण बाह्यतस्ते युद्धेन?, अन्तरारिषडर्गकर्मरिपुजयादा सर्व सेत्स्यति भवतो, नातोऽपर दुष्करमस्तीति ॥ किंत्वियमेव सामग्री अगाधसंसारार्णवे पर्यटतो भवकोटिसहस्रेष्वपि दुष्प्रापेति दर्श[यितुमाह जुद्धारिहं खलु दुल्लहं, जहित्य कुसलेहिं परिन्नाविवेगे भासिए, चुप हु बाले गब्भाइसु रजइ, अस्सि चेयं पवुच्चइ, रूवंसि वा छणंसि वा, से हु एगे संविद्धपहे मुणी, अन्नहा लोगमुवेहमाणे, इय कम्म परिणाय सव्वसो से न हिंसइ, संजमई नो पगब्भइ, उवेहमाणो पत्तेयं सायं, वण्णाएसी नारभे कंचणं सव्वलोए एगप्पमुहे वि दिसप्पइन्ने निविण्णचारी अरए पयासु (सू० १५४) एतदौदारिकं शरीरं भावयुद्धाह, खलुरवधारणे, स च भिन्नक्रमो, दुर्लभमेव-दुष्पापमेव, उक्तं च-"ननु पुनरि-3 दमतिदुर्लभमगाघसंसारजलधिविभ्रष्टम् । मानुष्यं खद्योतकतडिल्लताविलसितप्रतिमम् ॥१॥” इत्यादि, पाठान्तरं wwwandltimaryam ~425~# Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१५४] दीप अनुक्रम [१६७ ] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ २११ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [३], मूलं [१५४], निर्युक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः वा - " जुद्धारियं च दुल्लहं” तत्रानार्थं सङ्ग्रामयुद्धं परीषहादिरिपुयुद्धं त्वार्य तद् दुर्लभमेव तेन युद्ध्यस्व, ततो भवतोऽशेषकर्मक्षयलक्षणो मोक्षोऽचिरादेव भावीति भावार्थः । तच्च भावयुद्धार्ह शरीरं लब्ध्वा कश्चित्तेनैव भवेनाशेषकर्मक्षयं विधत्ते, मरुदेवीस्वामिनीव, कश्चित् सप्तभिरष्टभिर्वा भवैर्भरतवत् कश्चिदपाई पुद्गलपरावर्त्तेन, अपरो न सेत्स्यत्येव, किमित्येवं यत आह-यथा येन प्रकारेण 'अत्र' अस्मिन् संसारे 'कुशलैः' तीर्थकृद्भिः 'परिज्ञाविवेकः' परिज्ञानविशिष्टता, कस्यचित् कोऽप्यध्यवसायः संसारवैचित्र्यहेतुः 'भाषितः प्रज्ञापितः, स च मतिमता तथैवाभ्युपगन्तव्य इति । तदेव परिज्ञाननानात्वं दर्शयन्नाह - लब्ध्वाऽपि दुर्लभं मनुजत्वं प्राप्य च मोक्षैकगमनहेतुं धर्म्म पुनरपि कम्मोदयात्तस्मात् च्युतो 'बालः' अज्ञः 'गर्भादिषु रज्यते' गर्भ आदिर्येषां कुमारयौवनावस्थाविशेषाणां ते गर्भादयः तेष्वेव गामुपयाति यथैभिः सार्द्ध मम वियोगो मा भूत् इत्यध्यवसायी भवति, यदिवा धर्म्मायुतस्तत्करोति येन गर्भादिषु यातनास्थानेषु सङ्गमुपयाति, 'रिजइति वा क्वचित्पाठः, रयते गच्छतीत्यर्थः । स्यात्-कोक्तमिदं १ यत् प्रागू व्यावर्णितमित्याह - 'अस्मि न्नि'ति आर्हते प्रवचने 'एतत् पूर्वोक्तं प्रकर्षेणोच्यते प्रोच्यते । एतच्च वक्ष्यमाणमत्रैवोच्यते इति दर्शयन्नाह - 'रुपे' चक्षुरिन्द्रियविषयेऽभ्युपपन्नो, वाशब्दादन्यत्र वा स्पर्शरसादौ 'क्षणे' प्रवर्त्तते, 'क्षणु हिंसायां' क्षणनं क्षणो-हिंसा तस्यां प्रवर्त्तते, वाशब्दादन्यत्र चानृतस्तेयादाबिति रूपप्रधानत्वाद्विषयाणां रूपित्याच्च रूपोपादानं, आस्रवद्वाराणां च हिंसाप्रधानत्वात्तदादित्वाच्च तदुपादानमिति । बालो रूपादिविषयनिमित्तं धर्माच्युतः सन् गर्भादिषु रज्यते, अत्रार्हते मार्गे इदमुच्यते यस्तु पुनर्गर्भादिगमनहेतुं ज्ञात्वा विषयसङ्गं धम्मदच्युतो हिंसाद्याश्रवद्वारेभ्यो निवर्त्तते स किंभूतः Jan Estication Intemational For Pantry O ~426 ~# लोक० ५ उद्देशकः ॥ २११ ॥ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [३], मूलं [१५४],नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५४] दीप अनुक्रम [१६७]] स्यादित्याह-स' जितेन्द्रियो, हुरवधारणे, स एवैकः-अद्वितीयो 'मुनिः' जगत्रयमन्ता 'संविद्धपथः' सभ्यग्विद्धः ताडितः क्षुण्णः पन्थाः-मोक्षमार्गो ज्ञानदर्शनचारित्राख्यो येन स तथा, 'संविद्धभयेत्ति वा पाठः, संविद्धभयो दृष्टभय ४ इत्यर्थः, यो ह्यानवद्वारेभ्यो हिंसादिभ्यो निवृत्तः स एव मुनिः क्षुण्णमोक्षमार्ग इति भावार्थः । किं च-अन्येन प्रकारे&ाणान्यथा-विषयकषायाभिभूतं हिंसादिकर्मसु प्रवृत्तं 'लोक' गृहस्थलोकं पाखण्डिलोकं वा पचनपाचनौदेशिकसञ्चित्ता-101 हारादिप्रवृत्तमुत्प्रेक्षमाणोऽन्यथा वा आत्मानं निवृत्ताशुभव्यापारमुत्प्रेक्षमाणः संविद्धपधो मुनिः स्यात् इति । लोकं चान्यथोमेश्य किं कुर्यादित्याह-'इति' पूर्वोक्तैर्हेतुभिर्यद्वद्धं कर्म तदुपादानं च सर्वतः परिज्ञाय ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञयाऽपि सर्वतः परिहरेत् । कथं परिहरतीत्याह-'स' कर्मपरिहा कायवाङ्मनोभिन हिनस्ति जन्तून न पातयत्यपरै प्यनुमन्यते । किं च-पापोपादानप्रवृत्तमात्मानं संयमयति, सप्तदशप्रकारं वा संयम करोति संयमयति, आचारकि-15 बन्तं वैतत् संयम इवाचरति संयमयति । किं च-नो पगभइ' 'गल्भ धार्थे' असंयमकर्मसु प्रवृत्तः सन् न प्रगल्भत्वमायाति, रहस्यप्यकार्यप्रवृत्तो जिइति न धृष्टतां अवलम्बत इति, उपलक्षणार्थत्वादस्य क्षुण्णमोक्षपथो मुनिने क्रुध्यति, न जात्यादिमानमुदहति, न वश्चनां विधत्ते, न लुभ्यति । किमाकलय्यैतत्कुर्यादित्याह-उत्प्रेक्षमाणः' अवगच्छन् प्रत्येक ४ामाणिनां सातं मनोऽनुकूलं नान्यसुखेनान्यः सुखीति नापि परदुःखेन दुःखीत्यतः प्राणिनो न हिंस्यादिति । प्राणिनां प्रत्येकं सातमुत्प्रेक्षमाणश्च किं कुर्यादित्याह-वर्ण्यते-प्रशस्यते येन स वर्ण-साधुकारस्तदादेशी वर्णादेशी-वर्णाभिलाषी सन् नारभते कञ्चन पापारम्भं सर्वस्मिन्नपि लोके, यदिवा-तपःसंयमादिकमप्यारम्भं यशःकीर्त्यर्थं नारभते, प्रवचनो SACROSACS ~427-23 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [3], मूलं [१५४],नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५४] दीप अनुक्रम [१६७]] श्रीआचा-18दावनार्थ त्वारभते, तदुझावकाश्चामी-"प्रावचनी धर्मकधी वादी नैमित्तिकस्तपस्वी च । विद्यासिद्धः ख्यातः कवि-18 लोक०५ राङ्गवृत्तिः रिपि चोद्भावकास्त्वष्टौ ॥१॥" यदिवा वर्णो-रूपं तदादेशी-तदभिलाषुकः नोद्वर्तनादिकाः क्रिया आरभेत, किम्भूतः (शी) सन्नेतत्कुर्यादित्याह-'एको' मोक्षोऽशेषमलकलङ्करहितत्वात् संयमो वा रागद्वेषरहितत्वात् तत्र प्रगतं मुखं यस्य स तथा उद्देशका -मोक्षे तदुपाये वा दत्तैकदृष्टिर्न कञ्चन पापारम्भमारभेत इति, किं च-मोक्षसंयमाभिमुखा दिक् ततोऽन्या विदिक् तां ॥२१२॥ प्रकर्षेण तीणों विदिक्प्रतीर्णः, स चैवम्भूतः सन्नारम्भी स्यात्, कुमार्गपरित्यागेन न पापारम्भान्वेषी भवतीत्यर्थः, किं च-चरणं चार:-अनुष्ठानं निविण्णस्य चारो निर्विष्णचारः सोऽस्यास्तीति निर्विग्णचारी, कुत इति चेत् , यतः 'प्रजास्वरतः' प्रजायन्त इति प्रजाः-प्राणिनस्तत्रारतः-तदारम्भाप्रवृत्तो निर्ममत्वो वा, यश्च शरीरादिष्वपि ममत्वरहितः स है निर्विष्णचार्येव भवति, यदिवा प्रजाः-स्त्रियस्तास्वरतः आरम्भेऽपि निर्वेदमागच्छति, कारणाभावे कार्यस्याप्यभावादिति ॥ यश्च प्रजास्वरक्तः आरम्भरहितः स किम्भूतः स्थादित्याह--से वसुमं सव्वसमन्नागयपन्नाणेणं अप्पाणेणं अकरणिजं पावकम्मं तं नो अन्नेसी, जं संमंति पासहा तं मोणंति पासहा जं मोणंति पासहा तं संमंति पासहा, न इमं सकं सिढिलेहिं अदिजमाणेहिं गुणासाएहिं वंकसमायारेहिं पमत्तेहिं गारमावसंतेहिं, XI||२१२॥ मुणी मोणं समायाए धुणे सरीरगं, पंतं लूहं सेवंति वीरा सम्मत्तदंसिणो, एस ओ wataneltmanam ~428~# Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१५५] दीप अनुक्रम [१६८ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [३], मूलं [१९५५], निर्युक्ति: [ २४९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र- [ ०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः हन्तरे मुणी, तिण्णे मुत्ते विरए वियाहिए तिबेमि ( सू० १५५ ) | लोकसारे तृती - योद्देशकः ॥ ५-३ ॥ वसु-द्रव्यं, स चात्र संयमस्तद्विद्यते यस्य स निवृत्तारम्भो मुनिर्वसुमान् सर्व सम्यगन्वागतं प्रज्ञानं पदार्थाविर्भावकं यस्यात्मनस्तेनात्मना सर्वसमन्वागतप्रज्ञानरूपापन्नेन यदकर्त्तव्यं पापकर्म्म तन्नो कदाचिदप्यन्वेपति, उपलब्ध परमार्थरूपेणात्मना न सावद्यानुष्ठानविधायी स्यादिति भावार्थः । यदेव सम्यक् प्रज्ञानं तदेव पापकर्मवर्जनं यदेव च पापकर्मवर्जनं तदेव च सम्यक् प्रज्ञानमित्येतद्गतप्रत्यागतसूत्रेणैव दर्शयितुमाह-सम्यगिति - सम्यग्ज्ञानं सम्यक्त्वं वा तत्सहचरितं, अनयोः सहभावादेकग्रहणे द्वितीयग्रहणं न्याय्यं यदिदं सम्यग्ज्ञानं सम्यक्त्वं वेत्येतत्पश्यत तन्मुनेर्भावो मौनं संयमानु ठानमित्येतत्पश्यत यच्च मौनमित्येतत् पश्यत तत्सम्यग्ज्ञानं नैश्चयिकसम्यक्त्वं वा पश्यत, ज्ञानस्य विरतिफलत्वात् सम्यकृत्वस्य चाभिव्यक्तिकारणत्वात् सम्यक्त्वज्ञान चरणानामेकताऽध्यवसेयेति भावार्थ: । एतच्च न येन केनचिच्छक्यमनुष्ठातुमित्याह- नैतत्सम्यक्त्वादित्रयं सम्यगनुष्ठातुं शक्यं, कैः १ – 'शिथिलैः' अल्पपरिणामतया मन्दवीर्यैः संयमतपसोर्धृतिदृढिमरहितैरिति किं च- आत्रैः पुत्रकलत्राद्यनुषङ्गजनितस्नेहादाद्रक्रियमाणैरेतत्पूर्वोक्तम शक्यमिति सम्बन्धः, किं च-गुणाः शब्दादयस्तेष्वास्वादो येषां ते गुणास्वादास्तैरिति, किं च वक्रः समाचारो येषां ते तथा तैः, मायाविभिरित्यर्थः तथा-विषयकपायादिप्रमादैः प्रमत्तैरिति किं च-अगारं गृहं तद् आद्यक्षरलोपाद्द्वारमित्युक्तं तदगारमा Jan Estication Intemational For Pantry O ~429 ~# Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [3], मूलं [१५५],नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचारावृत्तिः (शी०) सूत्रांक |लोक०५ वसभिः-सेवमानैः, पापकर्मवर्जनरूपं मौनमनुष्ठानमशक्यमिति सर्वत्र योजनीयं । कथं तर्हि शक्यमित्याह-मुनिया जगत्रयस्य मन्ता मौनं-मुनित्वमशेषसावद्यानुष्ठानवर्जनरूपं 'समादाय' गृहीत्वा धुनीयाच्छरीरकमौदारिकं कर्मशरीरं|| वेति । कथं च तडुननमित्याह-प्रान्तं-पर्युषितं वल्लचनकाद्यल्पं वा, तदपि रूक्षं विकृतेरभावात् , तत् 'सेवन्ते तदभ्यवहरन्ति, के ते?"वीराः कर्मविदारणसहिष्णवः, किंभूताः?-सम्यक्त्वदर्शिनः समत्वदर्शिनो वा । यश्च प्रान्तरूक्षसेवी स किंगुणः स्यादित्याह--'एषः' अनन्तरोक्तविशेषणविशिष्टः ओघो-भावौधः संसारस्तं तरतीति, कोऽसौ ?-मुनिः, वर्तमानसामीप्ये वा वर्तमानवद्वेति तीर्ण एवासौ, सबाह्याभ्यन्तरसङ्गाभावान्मुक्तवन्मुक्तः, कश्चैवम्भूतो?-यः सावद्यानुष्ठानाद्विरत इत्येवं व्याख्यातः । इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् । लोकसाराध्ययने तृतीयोदेशकः परिसमाप्त इति । [१५५] ॥२१३॥ दीप अनुक्रम [१६८] उक्तस्तृतीयोद्देशकः, साम्प्रतं चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहाद्योद्देशके हिंसकस्य विषयारम्भकस्यैकचरस्य मुनित्वाभावः प्रदर्शितो, द्वितीयतृतीययोस्तु हिंसाविषयारम्भपरिग्रहव्युदासेन तद्वतो दोषं प्रदय विरत एष मुनिर्भवतीत्येतत्प्रतिपादितम् , अस्मिंश्च एकचरस्यामुनिभावे दोषोद्भावनतः कारणमाह, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योदेशकस्यादिसूत्रम् गामाणुगामं दूइजमाणस्स दुजायं दुप्परकंतं भवइ अवियत्तस्स भिक्खुणो (सू०१५६) ॥२१३॥ www.anditimaryam | पंचम-अध्ययने चतुर्थ-उद्देशक: 'अव्यक्त' आरब्धः, ~430~# Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [४], मूलं [१५६],नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५६] दीप अनुक्रम [१६९] असति बुद्ध्यादीन् गुणानिति ग्रामः, ग्रामादनु-पश्चादपरो ग्रामो ग्रामानुग्रामस्तं, 'दूयमानस्य' अनेकार्थत्वाद्धातूनां द विहरतः एकाकिनः साधोयत्स्यात् तदर्शयति-दुष्टं यातं दुर्यातं, गमनक्रियाया गर्हा, गच्छत एवानुकूलप्रतिकूलोपसर्ग-12 सद्भावादहन्नकस्येव कृतगतिभेदस्य दुष्टव्यन्तरीजवाच्छेदवत्, तथा दुष्टं पराक्रान्तम्-आक्रान्तं स्थानमेकाकिनो भवति, स्थूलभद्रेष्याश्रितोपकोशागृहसाधोरिवेति, यदिवा-चतुष्पोषितभर्तृकागृहोषितसाधोरिव, तस्य महासत्त्वतया अक्षोभेऽपि दुष्पराक्रान्तमेवेति, एतच्च न सर्वस्यैव दुर्यातं दुष्पराकान्तं च भवतीत्यतो विशिनष्टि-अव्यक्तस्य भिक्षो- रिति, भिक्षणशीलो भिक्षुस्तस्य, किम्भूतस्य ?-अव्यक्तस्य, स चाव्यक्तः श्रुतवयोभ्यां स्यात्, तत्र श्रुताव्यको येनाचारम-18 कल्पोऽर्थतो नाधिगतो भवति गच्छगतानां तन्निर्गतानां तु नवमपूर्वतृतीयवस्त्विति, वयसा चाव्यक्त आषोडशवर्षाद्गच्छगतानां तन्निर्गतानां च विंशत इति, अत्र चतुर्भङ्गिका, श्रुतवयोभ्यामव्यक्तस्यैकचर्या न कल्पते, संयमात्मविराधनातः|| इत्याद्यो भङ्गः, तथा श्रुतेनाव्यक्तो वयसा च व्यक्तः, अस्याप्येकचर्या न कल्पते, अगीतार्थत्वादुभयविराधनासद्भावा8 दिति द्वितीयः, तथा श्रुतेन व्यक्तो वयसा चाव्यक्तः, तस्यापि न कल्पते, बालतया सर्वपरिभवास्पदत्वाद् विशेषतः स्तेन| कुलिङ्गादीनामिति तृतीयः, यस्तूभयव्यक्तः स सति कारणे प्रतिमामेकाकिविहारित्वमभ्युद्यतविहारं वा प्रतिपद्यताम् , अस्यापि कारणाभावे एकचर्या नानुमता, यतस्तस्यां गुप्तीर्या भाषणादिविषया बहवो दोषाः प्रादुष्पन्ति, तथाहि-ए४ काकी पर्यटन् यदीर्यापथं शोधयति ततः वायुपयोगाश्यति तदुपयुक्तश्चेनेर्यापथं शोधयेदित्यादिकाः शेषा अपि|| समितयो वाच्याः, अन्यच्च-अजीर्णेन वातादिक्षोभेण वा व्याध्युद्भवे संयमात्मविराधना प्रवचनहीलना च, तत्र यदि F-% ARS GRONACSC ~431~# Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१५६] दीप अनुक्रम [१६९ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [४], मूलं [१५६], निर्युक्ति: [ २४९] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ २१४ ॥ करुणापन्ना गृहस्थाः प्रतिजागरणं कुर्युस्तर्ह्यज्ञानतया पटुकायोपमर्दनं कुर्वाणाः संयमवाधामापादयेयुः, अथ न कश्चित्तत्र तथाभूतः कर्त्तव्योद्यतः स्यात् तत आत्मविराधना, तथाऽतिसारादौ मूत्रपुरीषजम्बालान्तर्वर्त्तित्वात् प्रवचनहीलना, अपि च- प्रामादिव्यवस्थितः सन् धिग्जात्यादिना केशसुचिताद्यधिक्षेपेणाधिक्षिप्तः सन् परस्परोपमर्दकारि दण्डादण्डि भण्डनं विदध्यात् तच्च गच्छगतस्य न सम्भवति, गुर्वाद्युपदेशसम्भवात्, तदुक्तं च- "अकोसहणणमारणधम्मभंसाण बालसुलभाणं । लाभं मण्णइ धीरो जहुत्तराणं अभावमि ॥ १ ॥" इत्येवमादिनोपदेशेन गच्छान्तर्गतो गुरुणाऽनुशास्यते, ॐ गच्छनिर्गतस्य पुनर्दोषा एव केवला इति उक्तं च - " साहंमिएहिं संमुज्जएहिं एगामिओ अ जो विहरे । आयंकपउरयाए छक्कायवहंमि आवडइ || १ || ऐगागिअस्स दोसा इत्थी साणे तहेव पडिणीए । भिक्खऽविसोहि महन्वय तम्हा सविइजए गमणं ॥ २ ॥" इत्यादि, गच्छान्तर्वर्त्तिनस्तु बहवो गुणाः, तन्निश्रया अपरस्यापि बालवृद्धादेरुद्यतविहाराभ्युपगमात्, यथाहि उदके समर्थस्तरन्न परमपि काष्ठादि विलग्नं तारयति, एवं गच्छेऽप्युद्यतविहार्यपरं सीदन्तमुद्यमयति, तदेवमेकाकिनो दोषान् वीक्ष्य गच्छान्तर्विहारिणश्च गुणान् कारणाभावे व्यक्तेनापि नैकचर्या विधेया, कुतः पुनरव्यक्तेनेति स्थितं । ननु च सति सम्भवे प्रतिषेधो युक्तो, न चास्ति सम्भवः एकाकिविहारितायाः, को हि नाम बालिशः सहायान् विहाय समस्तापायास्पदमेका किविहारितामभ्युपेयादिति, अत्रोच्यते, न किञ्चिदपि कर्म्मपरिणतेरशक्यमस्ति, तथाहि १ आक्रोशबधमारणधर्म अंशानां बालसुलभानाम् । जाभं मन्यते धीरः ययोत्तराणामभावे ॥ १ ॥ २ साधर्मिकेषु सम्यगुद्यतेषु एकाकी यो विहरेत् । आतप्रचुरतायां षट्रायवधे स पतति ॥ १ ॥ ३ एकाकिनो दोषाः स्त्री वा तथैव प्रत्यनीकः । मिक्षाऽविशोषिः महात्रतेषु तस्मात्सद्वितीयेन गमनम् ॥ २ ॥ Jan Education International For Par Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~432~# लोक० ५ उद्देशकः४ ॥ २१४ ॥ wwwbrary.org Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१५६ ] दीप अनुक्रम [१६९ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [४], मूलं [१५६], निर्युक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | - स्वातन्यगदागदकल्पस्य समस्तव्यसनप्रवाहसेतुभूतस्याशेषकल्याणनिकेतनस्य शुभाचाराधारस्य गच्छस्यान्तर्वर्त्तिनः | कचित्प्रमादस्खलिते चोदिताः अवगणय्य सदुपदेशमपर्यालोच्य सद्धर्ममविचार्य कषायविपाककटुकतामन वधार्य परमार्थ पृष्ठतः कृत्वा कुलपुत्रतां वाङ्मात्रादपि केचित्कोपनिघ्नाः सुखैषिणोऽगणितापदो गच्छान्निर्गच्छन्ति, तत्र चैहिकामुष्मिकापायानवाशुवन्तीति उक्तं च- "जह सायरंमि मीणा संखोहं सायरस्स असहंता । णिति तओ सुहकामी णिग्गयमित्ता | विणस्संति ॥ १ ॥ एवं गच्छसमुद्दे सारणचीईहिं चोईया संता । णिंति तओ सुहकामी मीणा व जहा विणस्संति ॥ २ ॥ गच्छंमि केइ पुरिसा सउणी जह पंजरंतरणिरुद्धा । सारणवारणचोइय पासत्थगया परिहरति ॥ ३ ॥ जहा दियापोयमपक्खजायं, सवासया पविउमणं मणागं । तमचाइया तरुणमपत्तजायं, ढंक्कादि अव्वत्तगमं हरेजा ॥ ४ ॥ एवमजातसूत्रवयःपक्षस्तीर्थिकध्वाङ्क्षादिभिर्विलुप्यते गच्छालयान्निर्गतो वाडमात्रेणापि चोदितः सन् इति । एतद्दर्शयितुमाह वयसावि एगे बुइया कुप्पंति माणवा, उन्नयमाणे य नरे महया मोहेण मुज्झइ, संबाहा बहवे भुज्जो २ दुरइकम्मा अजाणओ अपासओ, एयं ते मा होउ, एयं कुसलस्स १ यथा सागरे मीनाः संक्षोभं सागरस्यासहमानाः । निर्गच्छन्ति ततः सुखकामिनो निर्गतमात्रा विनश्यन्ति ॥ १ ॥ एवं गच्छसमुद्रे स्मारणवीचिमिनदिताः सन्तः । निर्गच्छन्ति ततः सुखकामिनो मोना इव यथा विनश्यन्ति ॥ २ ॥ गच्छे केचित् पुरुषाः शकुनयो यथा पञ्चरान्तरनिरुद्धाः । स्मारणवारणचोदिताः पार्श्वस्थां गताः परित्यजन्ति ॥३॥ यथा द्विजपोतमजातपक्षं खकादावासकात वितुमनसं मनाम् । तत्राशचं तरुणमजातपत्रं, कङ्कादयोऽव्यगमं हरेयुः (रन्ति ॥४॥ Jan Estication Intimanal For Pantry Use Only ~ 433 ~# www.sendiary.org Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१५७] दीप अनुक्रम [१७० ] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ।। २१५ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [४], मूलं [१५७],निर्युक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः दंसणं, तट्ठिीए तम्मुत्तीए तप्पुरकारे तस्सन्नी तन्निबेसणे, जयं बिहारी चित्तनिवाई पंथनिज्झाई पलिवाहिरे, पासिय पाणे गच्छिजा (सू० १५७ ) क्वचित्तपःसंयमानुष्ठानादाववसीदन्तः प्रमादस्खलिता वा गुर्वादिना धर्मेण वचसाऽपि 'एके' अपुष्टधर्माणः अनवगतपरमार्थाः 'उक्ताः' चोदिताः कुप्यन्ति, के ते ?- 'मानवा' मनुजाः क्रोधवशगा भवन्ति, ब्रुवते च कथमहमनेनेयतां साधूनां मध्ये तिरस्कृतः, किं मया कृतम् ?, अथवाऽन्येऽप्येतत्कारिणः सन्त्येव, ममाप्येवम्भूतोऽधिकारोऽभूत्, धिग्मे जीवितमित्यादि, महामोहोदयेन क्रोधतमित्राच्छादितदृष्टयः उज्झितसमुचिताचारा उभयान्यतराव्यक्ता मीना इव गच्छसमुद्रानिंगत्य विनाशमाशुवन्ति यदिवा वचसाऽपि यथा के इमे लुखिताः मलोपहतगात्रयष्टयः प्रगेतनावसर एवास्मा| भिर्द्रष्टव्या इत्यादिनोक्ता एके क्रोधान्धाः कुप्यन्ति मानवाः, अपिशब्दात्कायेनापि स्पृष्टाः कुप्यन्ति, कुपिताश्चाधिकरणादि कुर्वन्तीत्येवमादयो दोषा अव्यक्तकचर्यायां गुर्वादिनियामकाभावात्प्रा दुष्ष्युरिति, गुरुसान्निध्ये चैवम्भूत उपदेशः सम्भवेत्, तद्यथा - " आक्रुष्टेन मतिमता तत्त्वार्थान्वेषणे मतिः कार्या । यदि सत्यं कः कोपः स्यादनृतं किं नु कोपेन ? ॥ १ ॥" तथा " अपकारिणि कोपश्चेत्कोपे कोपः कथं न ते ? । धर्मार्थकाममोक्षाणां प्रसह्य परिपन्धिनि ॥ २ ॥ इत्यादि, किं पुनः कारणं वचसाऽप्यभिहिता ऐहिकामुष्मिकापकारकारिणः स्वपरवाधकस्य क्रोधस्यावकाशं ददतीत्याह-उन्नतो मानोऽस्येत्युन्नतमानः, उन्नतं वाऽऽत्मानं मन्यत इति, स चैवम्भूतो 'नरो' मनुष्यो महता मोहेन- प्रबलमोहनीयोदयेन Jan Estication Intematonal For Pantry Use O ~434~# लोक० ५ उद्देशक ४ ॥ २१५ ॥ www.anditary.org Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१५७] दीप अनुक्रम [१७० ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [४], मूलं [१५७],निर्युक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः अज्ञानोदयेन वा 'मुह्यति' कार्याकार्यविचार विवेक विकटो भवति, स च मोहमोहितः केन चिच्छिक्षणार्थमभिहितो मिथ्याहष्टिना वा वाचा तिरस्कृतो जात्यादिमदस्थानान्यतरसद्भावेनोन्नतमानमन्दरारूढः कुप्यति, मामध्येवमयं तिरस्करोति, धिग्मे जातिं पौरुषं विज्ञानं चेत्येवमभिमानग्रहगृहीतो वाडयात्रादपि गच्छान्निर्गच्छति, तन्निर्गतो वाऽधिकरणादिविडम्ब नयाऽऽत्मानं विडम्बयति, अथवोन्नम्यमानः केनचित् दुर्विदग्धेनाहोऽयं महाकुलप्रसूत आकृतिमान् पटुप्रज्ञो मृष्टवाकू समस्तशास्त्रवेता सुभगः सुखसेच्यो वेत्यादिना वचसा तथ्येनातथ्येन वोत्प्रास्यमान उन्नतमानो गर्वाध्मातो महता चारित्रमोहेन मुह्यति संसारमोहेन वोह्यत इति । तस्य चोन्नतमानतया महामोहेन मुह्यतो मोहाच्च वाडयात्रेणापि कुप्यतः कोपाच्च गच्छनिर्गतस्यानभिव्यक्तस्य भिक्षोर्मामानुग्राममेकाकिनः पर्यटतो यत्स्यात्तदाह-तस्याव्यक्तस्यैकचरस्य पर्यटतः | सम्बाधयन्तीति सम्बाधाः पीडाः उपसर्गजनिता नानाप्रकारातङ्कजनिता वा भूयो भूयो वह्नयः स्युः, ताश्चैकाकिनाऽव्यक्तेन निरवद्यविधिना 'दुरतिक्रमा' दुरतिलहनीयाः किम्भूतस्य दुरतिक्रमा इत्याह-तासां नानाप्रकारनिमित्तोत्था| पितानां बाधानामतिसहनोपायमजानानस्य सम्यकरणसहनफलं चापश्यतो दुरतिक्रमणीयाः पीडा भवन्ति, ततश्चातपीडाकूलीभूतः सन्नेषणामपि लङ्घयेत्, प्राण्युपमर्दमप्यनुमन्येत वाकण्टकनुदितः सन्नव्यक्ततया प्रज्वलेत, नैतद्भावयेद् यथा मत्कर्म्मविपाकापादिता एताः पीडाः परोऽत्र केवलं निमित्तभूतः, किं च "आत्मद्रोहममर्यादं, मूढमुज्झि तसत्पथम् । सुतरामनुकम्पेत, नरकाचिष्मदिन्धनम् ॥ १ ॥" इत्यादिका भावना आगमापरिमलितमतेर्न भवेदिति । एतत्प्रदर्श्य भगवान् विनेयमाह - 'एतद्' एकचर्याप्रतिपन्नस्य बाधादुरतिक्रमणीयत्वमजानानस्यापश्यतश्च 'ते' तव Jan Estucation Infomatinal For Parts Only ~435~# Mandiary.org Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१५७] दीप अनुक्रम [१७० ] श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी० ) ॥ २१६ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [४], मूलं [१५७],निर्युक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः मदुपदेशवर्त्तिनो मा भवतु, आगमानुसारितया सदा गच्छान्तर्वतीं भवेत्यर्थः । सुधर्मस्वाम्याह- 'एतत् पूर्वोकं तत् 'कुशलस्य' श्रीवर्द्धमानस्वामिनो 'दर्शनम्' अभिप्रायों यथाऽव्यक्तस्यैकचरस्य दोषाः सततमाचार्यसमीपवर्त्तिनश्च गुणा * इति । आचार्यसमीपवर्त्तिना च किं विधेयमित्याह तस्य- आचार्यस्य दृष्टिस्तद्दृष्टिस्तया सततं वर्त्तितव्यं हेयोपादेयार्थेषु, यदिवा तस्मिन् संयमे दृष्टिस्तदृष्टिः, स एव वाऽऽगमो दृष्टिस्तदृष्टिस्तया सर्वकार्येषु व्यवहर्त्तव्यम्, तथा-तेनोक्ता सर्व| सङ्गेभ्यो विरतिर्मुक्तिस्तया सदा यतितव्यम्, तथा पुरस्करणं पुरस्कारः- सर्वकार्येष्वग्रतः स्थापनं, तस्य - आचार्यस्य पुर|स्कारस्तत्पुरस्कारस्तस्मिन् तद्विषये यतितव्यम्, तथा तस्य संज्ञा तत्संज्ञा- तज्ज्ञानं तद्वांस्तत्संज्ञी सर्वकार्येषु स्यात्, न स्वमतिविरचनया कार्य विदध्यात्, तथा तस्य-गुरोर्निवेशनं स्थानं यस्यासौ तन्निवेशनः सदागुरुकुलवासी स्यादिति भावः । तत्र गुरुकुले निवसन् किम्भूतः स्यादित्याह यतमानो-यतनया विहरणशीलो विहारी स्यात्, यतमानः प्राण्युपमर्दनमकुर्वन् प्रत्युपेक्षणादिकाः क्रियाः कुर्यादिति किं च-चित्तम्- आचार्याभिप्रायस्तेन निपतितुं क्रियायां प्रवर्त्तितुं | शीलमस्येति चित्तनिपाती सदा स्यादिति, तथा गुरोः कचिङ्गतस्य पन्थानं नियतुं प्रलोकितुं शीलमस्येति पधनिर्यायी उपलक्षणं चैतत् तेन सुषुप्सोः संस्तारकमलोकी बुभुक्षोराहारान्वेषीत्यादिना गुरोराराधकः सदा स्यात् किं चपरि:- समन्तात् गुरोरवग्रहात् पुरतः पृष्ठतो वाऽवस्थानात्सदा कार्यमृते बाह्यः स्याद्, एतस्माच्च सूत्रात्रयः ईर्योद्देशका निर्गता इति । किं च कचित्कार्यादौ गुर्वादिना प्रेषितः सन् दृष्ट्वा प्राणिनो युगमात्रदृष्टिस्तदुपधातं परिहरन् गच्छेत् । किं चसे अभिक्कममाणे पडिक्कममाणे संकुचमाणे पसारेमाणे विणिवट्टमाणे संपलिज्जमाणे, Jan Estication Intimanal For Pantry Use Only ~436 ~# लोक० ५ उद्देशकः४ ॥ २१६ ॥ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [४], मूलं [१५८],नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५८]] दीप अनुक्रम [१७१] एगया गुणसमियस्सरीयओ कायसंफासं समणुचिन्ना एगतिया पाणा उद्दायंति, इहलोगवेयणविजावडियं, जं आउद्दिकयं कमं तं परिन्नाय विवेगमेइ, एवं से अप्प माएण विवेगं किइ वेयवी (सू० १५८) 'स' भिक्षुः सदा गुर्वादेशविधायी एतद्व्यापारवान् भवति, तद्यथा-अभिकामन्-गच्छन् प्रतिकामन-निवर्तमानः सङ्घचन् हस्तपादादिसङ्कोचनतः प्रसारयन् हस्तादीनवयवान् विनिवर्तमानः समस्ताशुभव्यापारात्, सम्यक् परिःसमन्ताद्धस्तपादादीनवयवांस्तन्निक्षेपस्थानानि वा रजोहरणादिना मृजन-परिजन गुरुकुलवासे वसेदिति सर्वत्र सम्बन्धनीयं, तत्र निविष्टस्य विधिः-भूम्यामेकमूलं व्यवस्थाप्य द्वितीयमुत्क्षिप्य तिष्ठेत्, निश्चलस्थानासहिष्णुतया भूमीं प्रत्युपेक्ष्य प्रमाय॑ च कुकुटीविजृम्भितदृष्टान्तेन सङ्कोचयेत् प्रसारयेद्वा, स्वपन्नपि मयूरवत्स्वपिति, स किलान्यसत्त्वभयादेकपार्श्वशायी सचेतनश्च स्वपिति, निरीक्ष्य च परिवर्तनादिकाः क्रिया विधत्ते, इत्येवमादि संपरिमृजन् सर्वाः क्रियाः करोति । एवं चाप्रमत्ततया पूर्वोक्ताः क्रियाः कुर्वतोऽपि कदाचिदवश्यंभावितया यत्स्यात्तदाह-'एकदा' कदाचित्, 'गुणसमितस्य' गुणयुक्तस्याप्रमत्ततया यतेः 'रीयमाणस्य' सम्यगनुष्ठानवतोऽभिकामतः परिकामतः सचतः प्रसारयतो| विनिवर्तमानस्य संपरिमृजतः कस्याञ्चिदवस्थायां कायः-शरीरं तत्संस्पर्शमनुचीर्णाः-कायसङ्गमागताः सम्पातिमादयः । प्राणिनः एके परितापमाप्नुवन्ति एके ग्लानतामुपयान्ति एकेऽवयवविध्वंसमापद्यन्ते, अपश्चिमावस्थां तु सूत्रणेव दर्श- ~437~# Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [४], मूलं [१५८],नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५८] श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥२१७॥ दीप अनुक्रम [१७१] यति-एके 'प्राणा' प्राणिनः 'अपद्रान्ति' प्राणैर्विमुच्यन्ते, अत्र च कर्मवन्धं प्रति विचित्रता, तथाहि-शैलेश्यवस्थायां लोक०५ मशकादीनां कायसंस्पर्शेन प्राणत्यागेऽपि बन्धोपादानकारणयोगाभावान्नास्ति बन्धः, उपशान्तक्षीणमोहसयोगिकेवलिना, स्थितिनिमित्तकषायाभावात् सामयिका, अप्रमत्तयतेर्जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कृष्टतश्चान्तःकोटीकोटीस्थितिरिति, प्रमतस्य त्वनाकुट्टिकयाऽनुपेत्यप्रवृत्तस्य कचित्पाण्याद्यवयवसंस्पर्शात् प्राण्युपतापनादौ जघन्यतः कर्मबन्ध उत्कृष्टतश्च | प्राक्तन एव विशेषिततरः। स च तेनैव भवेन क्षिष्यत इति सूत्रेणैव दर्शयितुमाह-इह-अस्मिन् लोके-जन्मनि वेदनम्अनुभवनमिहलोकवेदनं तेन वेद्यम्-अनुभवनीयमिहलोकवेदनवेद्यं तत्रापतितमिहलोकवेदनवेद्यापतितं, इदमुक्तं भवति-प्रमत्तयतिनाऽपि यदकामतः कृतं कर्म कायसङ्घटनादिना तदैहिकभवानुबन्धि, तेनैव भवेन क्षप्यमाणत्वाद्, आकुवीकृतकर्मणि तु यद्विधेयं तदाह-यत्तु पुनः काकुट्टया कृतम्-आगमोक्तकारणमन्तरेणोपेत्य प्राण्युपमर्देन विहितं तत्परिज्ञाय ज्ञपरिज्ञया 'विवेकमेति' विविच्यतेऽनेनेति विवेकः-प्रायश्चित्तं दशविधं तस्यान्यतरं भेदमुपैति, तद्विवेकं वा-अभा-1 वाख्यमुपैति-तत्करोति येन कर्मणोऽभावो भवति । यथा च कर्मणो विवेको भवति तथा दर्शयितुमाह-एवं मिति | वक्ष्यमाणेन प्रकारेण 'से' तस्य कर्मणः साम्परायिकस्य सदा वेदविद् 'अप्रमादेन' प्रमादाभावेन दशविधप्रायश्चित्तान्यतरभेदसम्यगनुष्ठानेन 'विवेकम्' अभावं कीर्तयति 'वेदवित्' तीर्थकरो वेदविद्वा-आगमविद्गणधरश्चतुर्दशपूर्वविद्वेति ॥ किम्भूतः पुनरप्रभादवान् भवतीत्याह ||२१७॥ से पभूयदंसी पभूयपरिन्नाणे उवसंते समिए सहिए सयाजए, दटुं विप्पडिवेएइ अ. Jain Educatinintamathima walpatnamang ~438-23 Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [४], मूलं [१५९],नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: * * प्रत सूत्रांक [१५९] ******** दीप प्पाणं किमेस जणो करिस्सइ?, एस से परमारामो जाओ लोगंमि इत्थीओ, मुणिणा हु एवं पवेइयं, उब्बाहिजमाणे गामधम्मेहिं अवि निब्बलासए अवि ओमोयरियं कुजा अवि उहुं ठाणं ठाइजा अवि गामाणुगामं दृइजिजा अवि आहारं वुच्छिदिजा अवि चए इत्थीसु मणं, पुव्वं दंडा पच्छा फासा पुव्वं फासा पच्छा दंडा, इच्चेए कलहासंगकरा भवंति, पडिलेहाए आगमित्ता आणविजा अणासेवणाए त्तिबेमि, से नो काहिए नो पासणिए नो संपसारणिए नो मामए णो कयकिरिए वइगुत्ते अज्झप्पसंवुडे परिवज्जइ सया पावं एवं मोणं समणुवासिज्जासित्तिबेमि (सू० १५९)॥५-४॥ लोकसारे चतुर्थः ॥ HI 'स' साधः प्रभूतं प्रमादविपाकादिकमतीतानागतवर्तमानं वा कर्मविपाक द्रष्टुं शीलमस्येति प्रभूतदर्शी, साम्प्रतेक्षि तया न यत्किञ्चनकारीत्यर्थः, तथा प्रभूतं सत्त्वरक्षणोपायपरिज्ञानं संसारमोक्षकारणपरिज्ञानं वा यस्य स प्रभूतपरिज्ञानः, यथावस्थितसंसारस्वरूपदर्शीत्यर्थः, किं च-उपशान्तः कषायानुदयादिन्द्रियनोइन्द्रियोपशमाद्वा, तथा पञ्चभिः समितिभिः समितः सम्यग्वा मोक्षमार्गमितः समितः, तथा ज्ञानादिभिः सहितः-समन्वितः सह हितेन वा सहितः, 'सदा' अनुक्रम [१७२] * ** ~439~# Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१५९ ] दीप अनुक्रम [१७२] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [४], मूलं [१५९], निर्युक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा लोक० ५ सर्वकालं यतः सदायतः, स एवम्भूतोऽप्रमत्तो गुरोरन्तिकमावसन् प्रमादजनितस्य कर्म्मणोऽन्तं विधत्ते । स च सयाराङ्गवृत्तिः १ धनुकूलपरीषहोपपत्तौ किं विदध्यादित्याह - 'दृष्ट्वा' अवलोक्य स्त्रीजनमुपसर्गकरणायोद्यतमात्मानं 'विभूतिवेदयति' ॐ उद्देशक ४ (शी०) हूँ पर्यालोचयति, तद्यथा सम्यग्दृष्टिरस्मि, तथोत्क्षिप्तमहाव्रतभारः शरच्छशाङ्कनिर्मलकुललब्धजन्मा अकार्याकरणतयो ॥ २१८ ॥ * स्थित इत्येवमात्मानं पर्यालोचयति तं च स्त्रीजनं किमेष स्त्रीजनो मम त्यक्तजीविताशस्योज्झितैहिक सुखाभिलाषस्योपस१ ग्र्गादिकं कुर्यात् ?, अथवा वैषयिकसुखस्य दुःखप्रतीकाररूपत्वात् किमेष स्त्रीजनः सुखं विदध्याद् ? अन्यो वा पुत्रकलत्रादिको ४ जनो मम मृत्युना जिघृक्षितस्य व्याधिना वाऽऽदित्सितस्य किं तत्प्रतीकारादिकं कुर्यादिति । यदिषैवं स्त्रीजनस्वभावं चिन्तयेदिति सूत्रेणैव दर्शयति स एष स्त्रीजन आरमयतीत्यारामः परमश्चासावारामश्च परमारामः ज्ञाततस्वमपि जनं हासविलासोपाङ्गनिरीक्षणादिभिर्विध्वोकैर्मोहयतीत्यर्थः, याः काञ्चनास्मिन् लोके स्त्रियः ता मोहरूपा विज्ञाय यावन्न परित्यजन्ति तावत्स्वत एवं परित्यजेत् । एतच्च तीर्थकरेण प्रवेदितमिति दर्शयितुमाह- 'मुनिना' श्रीवर्द्धमानस्वामिनो| सन्नज्ञानेनैव 'एतत्' पूर्वोक्तं यथा स्त्रियो भावबन्धनरूपाः, 'प्रवेदितं' प्रकर्षेणादौ वा व्याख्यातमिति । एतच्च वक्ष्यमाणं | प्रवेदितमित्याह - उत्-प्राबल्येन मोहोदयाद् बाध्यमानः पीड्यमानः उद्वाध्यमानः कः ? - प्रामधर्मैः ग्रामाः - इन्द्रियग्रा | मास्तेषां धर्माः-स्वभावा यथास्वं विषयेषु प्रवर्त्तनं तैरुद्धाध्यमानो गच्छान्तर्गतः सन् गुर्वादिनाऽनुशास्यते, कथमनुशास्यत इत्यत आह-अपिः सम्भावनायां, निर्बलं - निःसारमन्तप्रान्तादिकं यद्रव्यं तदाशकः-तोजी स्थात्, यदिवा निर्गतं ४ बलं - सामर्थ्यमस्येति निर्बलः एवम्भूतः सन्नाशीत, बलाभावे च ग्रामधम्र्मोपशमदर्शनाद्, बलाभावश्चाहारहान्या स्यादिति Estication matinal For Pantry Use Only ~440 ~# ।। २१८ ॥ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [४], मूलं [१५९],नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५९] दीप दर्शयति--अप्यवमौदर्य कुर्याद्, यदि ह्यन्तप्रान्ताशिनोऽपि न मोहोपशमः स्यात् ततस्तदपि वल्लचनकादिना द्वात्रिंश|कवलमा गृहीयात् , तेनाप्यनुपशमे कायोत्सर्गादिना कायक्लेशं कुर्यादित्येतदर्शयति-अप्यूर्व स्थानं तिष्ठेत. शी-|| दतोष्णादी कायोत्सर्गेणातापनां कुर्यात् , तेनाप्यनुपशमे ग्रामानुग्राममपि विहरेत् , निष्कारणे विहारो निपिद्धो मोहोपश मनार्थं तु कुर्यात् , किंबहुना, येन येनोपायेन विषयेच्छा निवर्त्तते तत्तस्कुर्यात् , पर्यन्ते आहारमपि व्यवच्छिन्द्याद, अपि पातं विदध्यात् अप्युद्धन्धनं कुर्यात् न च स्त्रीषु मनः कुर्यादित्याह च-अपिः समुच्चये, स्त्रीषु यन्मनः प्रवृत्तं तत् परित्यजेत् , तत्परित्यागे हि कामा द्विरूपा अपि दूरत एव परित्यक्ता भवन्तीति, उक्तं च-"काम! जानामि ते रूपं, संकल्पात्किल जायसे । न त्वां संकल्पयिष्यामि, ततो मे न भविष्यसि ॥ १॥” किं पुनः कारणं स्त्रीषु मनो न विधेयमित्याह--स्त्रीसङ्गमवृत्तानामपरमार्थदृशां 'पूर्व' प्रथममेव तत्सङ्गाविच्छेदार्थमर्थोपार्जनप्रवृत्तस्य कृषिवाणिज्यादिक्रियाः |कुर्वतोऽगणितक्षुपिपासाशीतोष्णादिपरीपहस्यैहिकदुःखरूपा दण्डाः, ते च खीसम्भोगात्प्रथममेव क्रियन्त इति पूर्वमित्युक्तं, पश्चाच्च विषयनिमित्तजनितकर्मविपाकापादितनरकादिदुःखविशेषाः स्पर्शा भवन्ति, यदिवा ख्याद्यकार्यप्रवृत्तस्य पूर्व दण्डपाताः पश्चाद्धस्तपादच्छेदादिकाः स्पर्शा भवन्ति, यदिवा पूर्व स्पर्शाः पश्चाद्दण्डपाता इति, अथवा पूर्व दण्डाःताडनादिकाः पश्चात्स्पर्शाः-सम्बाधनालिङ्गनचुम्बनादिकाः, तद्यथा-वन्द्यानीतावरुद्धराजकुमारीगवाक्षक्षिप्तपतदावीलग्रहणाद्राजपुरुषावलोकनताडनेन मूछितराजकुमारीतद्दर्शनतो वणिगिन्द्रदत्तस्याग्रतो दण्डाः पश्चात्स्पर्शा इति, पूर्व वा |सुखादिस्पर्शाः पश्चाद्दण्डा ललिताङ्गकस्येवान्येषां चोपपतीनामिति । किं च-इत्येते स्त्रीसम्बन्धाः कलहः-सङ्ग्रामस्त अनुक्रम [१७२] wwwandltimaryam ~441-23 Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१५९] दीप अनुक्रम [१७२] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [४], मूलं [१५९], निर्युक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ २१९ ॥ त्रासङ्गः- संबन्धस्तत्करा भवन्ति, यदिवा कलहः- क्रोधः आसङ्गो - राग इत्यतो रागद्वेषकारिणो भवन्ति, यद्येवं ततः किं कुर्यादित्याह- ऐहिकामुष्मिकापायतः स्त्रीसङ्गप्रत्युपेक्षया 'आगमेत्त'ति ज्ञात्वा आज्ञापयेदात्मानमनासेवनयेति, इतिरधिकारपरिसमाप्तौ ब्रवीम्यहं तीर्थकरवचनानुसारेण दुःखं च ताः परिहर्तुमिति पुनरपि तत्परिहरणोपायमाह -- 'स' ४ स्त्रीसङ्गपरित्यागी खीनेपथ्यकथां शृङ्गारकथां वा नो कुर्यात् एवं च तास्त्यक्ता भवन्ति, तथा-तासां नरकवीथीनां स्वर्गापवर्गमार्गार्गलानामङ्गप्रत्यङ्गादिकं न पश्येत्, यतस्तन्निरीक्ष्यमाणं महतेऽनर्थाय भवतीति उक्तं च- "सन्मार्गे तावदास्ते प्रभवति पुरुषस्ताव देवेन्द्रियाणां लज्जां तावद्विधत्ते विनयमपि समालम्बते तावदेव । भ्रूचापाकृष्टमुक्ताः श्रवणपथजुषो नीलपक्ष्माण एते, यावलीलावतीनां न हृदि धृतिमुषो दृष्टिवाणाः पतन्ति ||१|| ” तथा-ताभिर्नरकविस्रम्भभूमिभिः सार्द्ध न सम्प्रसारणं पर्यालोचनमेकान्ते निजस्वस्रादिभिरपि कुर्यादिति, उक्तं च- "मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा, न विविक्तासनो भवेत् । चलवानिन्द्रियग्रामः, पण्डितोऽप्यत्र मुह्यति ॥ १ ॥ इत्येवमादि, तथा-न तासु स्वार्थपरासु ममत्वं कुर्यात्, तथा - कृता - अनुष्ठिता तदुपकारिणी मण्डनादिका क्रिया येन स कृतक्रिय इत्येवम्भूतो न भूयात्, न स्त्रीणां वैयावृत्त्यं कुर्यात्, काययोगनिरोध इति भावः, तथा तथैताः शुभानुष्ठानपरिपन्थिनीर्न वाङ्मात्रेणाप्यालपेदिति वाग्योगनिरोधः, तथा - आत्मन्यधि अध्यात्मं-मनस्तेन संवृत्तोऽध्यात्मसंवृत्तः - स्त्रीभोगादत्तमनाः सूत्रार्थीपयुक्तनिरुद्धमनोयोगः, एवम्भूतश्च ५ ॥ २१९ ॥ | किमपरं कुर्यादित्याह -- परिः समन्तात् वर्जयेत् परिहरेत् 'सदा' सर्वकालं 'पाप' किल्विषं तदुपादानं वा कर्म्म, उपसं Etication matinal For Parts Only ~442 ~# लोक० ५ उद्देशका४ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [४], मूलं [१५९],नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: हरणार्थमाह-एतद्' यदुद्देशकादेरारभ्योक्तं, मुनेरिदं मौनं मुनिभावो वा तदात्मनि समनुवासये:-आत्मनि विदध्याः॥l ॥ इतिरधिकारपरिसमाप्ती, बबीमीति पूर्ववत् । लोकसाराध्ययने चतुर्थोद्देशकः परिसमाप्तः॥ प्रत सूत्रांक [१५९] दीप ***SAXXA******+36 अनुक्रम [१७२] उक्तश्चतुर्थोद्देशकः, साम्प्रतं पञ्चम आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशकेऽव्यक्तस्यैकचरस्य प्रत्यपायाः प्रदर्शिताः, अतस्तान् परिजिहीर्षणा सदाऽऽचार्यसेविना भवितव्यम् , आचार्येण च इदोपमेन भाव्यं, तदन्तेवासिना च |तपःसंयमगुप्तेन निःसङ्गेन च विहर्त्तव्यमिति, एतत्प्रतिपादनसम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम् से बेमि तंजहा-अवि हरए पडिपुण्णे समंसि भोमे चिट्रइ उवसंतरए सारक्खमाणे, से चिटुइ सोयमज्झगए से पास सव्वओ गुत्ते, पास लोए महेसिणो जे य पन्नाणमंता पबुद्धा आरम्भोवरया सम्ममेयंति पासह, कालस्स कंखाए परिव्वयंति त्तिबेमि (सू० १६०) सेशब्दस्तच्छब्दार्थे, यद्गुण आचार्यों भवति तदहं तीर्थकरोपदेशानुसारेण ब्रवीमीति, तद्यथेति वाक्योपन्यासार्थे, || अपिशब्दो भङ्गसमुच्चयार्थः, ते चामी भङ्गाः-एको ह्रदो-जलाशयः परिगलस्रोताः पयोगलतस्रोताच, सीतासीतो ACXCCX wwwandltimaryam | पंचम-अध्ययने पंचम-उद्देशक: 'हृद-उपमा' आरब्धः, ~443~# Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [५], मूलं [१६०],नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत देशकः५ सूत्रांक [१६०] श्रीआचा- दाप्रवाहहूदवत् , अपरस्तु परिगलत्स्रोताः नो पर्यागलस्रोताः, पद्मादवत् , तथा परो नो परिगलत्स्रोताः पर्यागल-४ लोक स्रोताच, लवणोदधिवत्, अपरस्तु नो परिगलस्रोता नो पर्यागलस्रोताच, मनुष्यलोकादहिः समुद्रवत् । तत्राचार्या (शी०) श्रुतमङ्गीकृत्य प्रथमभङ्गपतितः, श्रुतस्य दानग्रहणसद्भावात् , साम्परायिककम्मापेक्षया तु द्वितीयभङ्गपतितः, कषायो-1 दयाभावेन ग्रहणाभावात्तपःकायोत्सर्गादिना क्षपणोपपत्तेश्चेति, आलोचनामङ्गीकृत्य तृतीयभङ्गपतितः, आलोचनाया ॥२२०॥ अप्रतिश्रावित्वात् , कुमार्ग प्रति चतुर्थभङ्गपतितः, कुमार्गस्य हि प्रवेशनिर्गमाभावात् , यदिवा धम्मिभेदेन भङ्गा योज्यन्ते-तत्र स्थविरकल्पिकाचार्योः प्रथमभङ्गापतिताः, द्वितीयभनपतितस्तीर्थकृत्, तृतीयभङ्गस्थरत्वहालन्दिका, स च कचिदर्थापरिसमाप्तावाचार्यादेन्निर्णयसद्भावात्, प्रत्येकबुद्धास्तूभयाभावाच्चतुर्थभङ्गस्था इति, इह पुनः प्रथमभङ्गपति-18 नतेनोभयसद्भाविनाऽधिकारः, तथाभूतस्यैवायं ददृष्टान्तः, स च इदो निर्मलजलस्य 'प्रतिपूर्णो' जलजैः सर्वत्तुजैरुप शोभितः समे भूभागे विद्यमानोदकनिर्गमप्रवेशो नित्यमेव तिष्ठति, न कदाचिच्छोषमुपयाति, सुखोत्तारावतारसमन्वितः, उपशान्तम्-अपगतं रजः कालुथ्यापादकं यस्य स तथा, नानाविधांश्च यादसां गणान् संरक्षन् सह वा यादोगणैरात्मानमारक्षन्-प्रतिपालयन् सारक्षन् तिष्ठतीत्येषा क्रिया प्रकृतैव । यथा चासौ इदस्तथाऽऽचार्योऽपीति दर्शयति-'सः' दीप अनुक्रम [१७३] ॥२२० १ उदकाः करो यावत् कालेन शुभ्यति रामपन्य बन्दं तत आरभ्योस्कृष्ट पञ्चरात्रिंदिवलक्षणं लन्द, सवत्र गाते, उत्कृष्टलन्दवानतिकमेण चरन्तीति यथालन्दिकाः, पञ्चको गणोऽमुं कर्ष प्रतिपद्यते, मासकल्पोत्रं च गृहपडिहाराभिः पशिवायोमिनिकल्पिकवरपरिकल्पयन्द्रि. २ पर्यागलस्रोतोवदर्यापेक्षया ग्राहकलात् तृतीयभापतित इति गम्यम्. wwwandltimaryam ~444~# Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [9], मूलं [१६०],नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६०] दीप अनुक्रम [१७३] आचार्यः प्रथमभङ्गपतितः पञ्चविधाचारसमन्वितोऽष्टविधाचार्यसम्पदुपेतः, [तद्यथा-"आयार सुअ सरीरे वयणे वा-- यण मई पभोगमई। एए सुसंपया खलु अडमिआ सङ्गहपरिन्ना ॥१॥"] पट्त्रिंशद्गणगणाधारो हदकल्पो निर्मलज्ञानप्रतिपूर्णः समे भूभाग इति संसक्तादिदोपरहिते सुखविहारे क्षेत्रे समो वा ज्ञानदशनचारित्राख्यो मोक्षमार्गः उपशमवतां तत्र तिष्ठति-समध्यास्ते, किंभूतः ?-'उपशान्तरजा' उपशान्तमोहनीय इति, किं कुर्वन् ?-जीवनिकायान् रक्षन् स्वतः परतश्च सदुपदेशदानतो नरकादिपाताद्वेति, 'स्रोतोमध्यगत' इत्यनेन प्रथमभङ्गपतितं स्थविराचार्यमाह, तस्य हि श्रुतार्थदानग्रहणसभावात् स्रोतोमध्यगतत्वम्, स च किम्भूतः स्यादित्याह-'सः' आचार्योऽक्षोभ्याइदकल्पः 'सर्वतः' सर्वप्रकारतयेन्द्रियनोइन्द्रियरूपया गुह्या गुप्त इत्येतत्पश्य आचार्यव्यतिरेकेणान्येऽप्येवम्भूता बहवः साधवः सम्भवन्तीत्येतन्निर्दिदिक्षुराह-रह मनुष्यलोके पूर्वव्यावर्णितस्वरूपाः 'महर्षयों' महामुनयः सन्ति, इत्येतत्पश्य, किम्भूतास्ते महर्षय इत्यत आह-न केवलमाचार्या इदकल्पा ये चान्ये साधवस्तेऽपि इदकल्पाः, किम्भूताः-प्रकर्षण ज्ञायतेऽनेनेति प्रज्ञानं-स्वपरावभासकत्वादागमस्तद्वन्तः प्रज्ञानवन्तः, आगमस्य वेत्तार इत्यर्थः, तज्ज्ञा अपि मोहोदयात् कचिद्धेतूदाहरणासम्भवे ज्ञेयगहनतया संशयानाः न सम्यक् श्रद्धानं विदध्युरित्यतो विशिनष्टि–'प्रबुद्धाः' प्रकर्षेण यथैव तीर्थकृदाह तथैवावगततश्चाः प्रबुद्धाः, तथाभूता अपि कर्मगुरुत्वान्न सावद्यानुष्ठानविरतिं कुर्युरित्यतो विशेषयति-आरम्भोपरताः' आरम्भः-सावद्यो योगस्तस्मादुपरता आरम्भोपरताः, एतच्च न मदुपरोधेन ग्राह्यम् अपि तु स्वत एव कु १नाचारा श्रुतं दारीर वचनं वाचना मतिः प्रयोगमतिः । एताः सुसंपदः सल अष्टमी संप्रहपरिशा ॥१॥ wwwandltimaryam ~445~# Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [9], मूलं [१६०],नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: लोक ५ प्रत (शी०) उद्देशका५ सूत्रांक [१६०] दीप अनुक्रम [१७३] श्रीआचा-|| शानीयया बुझ्या विचार्यमित्याह-एतद्यन्मया प्रोक्तं तत्सम्यग् मध्यस्था भूत्वा समर्यादं यूयमपि पश्यत । अपि चैतस- राङ्गवृत्तिः श्यत-'कालसमाधिमरणकालस्तदभिकाया साधवो मोक्षाध्वनि संयमे परिः-समन्ताजन्ति परिव्रजन्ति-उद्य च्छन्ति, इतिरधिकारपरिसमाप्ती, ब्रवीमीत्येतत्प्रकरणोद्देशकाध्ययन श्रुतस्कन्धाङ्गपरिसमाप्तौ प्रयुज्यते, तदिहाधिकारपरि॥ २२१॥ समाप्तौ द्रष्टव्यमिति ॥ आचार्याधिकार परिसमापय्य विनेयवक्तव्यतामाह वितिगिच्छसमावन्नेणं अप्पाणेणं नो लहइ समाहि, सिया वेगे अणुगच्छंति असिता वेगे अनुगच्छंति, अणुगच्छमाणेहिं अणणुगच्छमाणे कहं न निविजे ? (सू० १६१) विचिकित्सा या चित्तविप्लुतिः यथा इदमप्यस्तीत्येवमाकारा युक्त्या समुपपन्नेऽप्यर्थे मतिविभ्रमो मोहोदयाद्भवति, तथाहि-अस्य महतस्तपक्केशस्य सिकताकणकवलनिःस्वादस्य स्यात् सफलता न वेति ? कृषीवलादिकियाया उभयथा|ऽप्युपलब्धेरिति, इयं च मतिर्मिथ्यात्वांशानुवेधाद्भवति ज्ञेयगहनत्वाच्च, तथाहि-अर्थविविध:-सुखाधिगमो दुरधिगमोऽनधिगमश्च श्रोतारं प्रति भिद्यते, तत्र सुखाधिगमो यथा चक्षुष्मतश्चित्रकर्मनिपुणस्य रूपसिद्धिः दुरधिगमस्त्वनिपुणस्य अनधिगमस्वन्धस्य, तत्रानधिगमरूपोऽवस्त्वेव, सुखाधिगमस्तु विचिकित्साया विषय एव न भवति, देशकालस्वभावविप्रकृष्टस्तु विचिकित्सागोचरीभवति, तस्मिन् धर्माधर्माकाशादौ या विचिकित्सेति, यदिवा 'विइगिच्छत्ति विद्वज्जुगुप्सा, विद्वांसः-साधवो विदितसंसारस्वभावाः परित्यक्तसमस्तसङ्गास्तेषां जुगुप्सा-निन्दा अनानात् प्रस्वेदजलक्लिन ॥२२१॥ wwwandltimaryam ~446-23 Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [9], मूलं [१६१],नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६१] दीप अनुक्रम [१७४] मलत्यादुर्गन्धिवपुषस्तान्निन्दति-को दोषः स्याद्यदि प्रासुकेन वारिणाऽङ्गक्षालनं कुर्वीरन्नित्यादि जुगुप्सा तां विचिकित्सा ४ विद्वज्जुगुप्सां वा सम्यगापन्ना-प्राप्तः आत्मा यस्य स तथा तेन विचिकित्सासमापन्नेनात्मना नोपलभते 'समाधि' चित्तस्वास्थ्यं ज्ञानदर्शनचारित्रात्मको वा समाधिस्तं न लभते, विचिकित्साकलुपिन्तान्तःकरणो हि कथयतोऽप्याचार्यस्य सम्यक्त्वाख्यां बोधि नावानोति । यश्चावाप्नोति स गृहस्थो वा स्याद्यतिति दर्शयितुमाह-'सिताः' पुत्रकलत्रादिभिरवबद्धाः, वाशब्द उत्तरापेक्षया पक्षान्तरमाह, 'एके' लघुकर्माणः सम्यक्त्वं प्रतिपादयन्तमाचार्यमनुगच्छन्ति-आचार्योक्तं प्रतिपद्यन्ते, तथा 'असिता वा' गृहवासविमुक्का वा 'एके' विचिकित्सादिरहिता आचार्यमार्गमनुगच्छन्ति । तेषां च मध्ये यदि कश्चित् कङ्कटुकदेश्यः स्यात् स तान् प्रभूताननपाचीनमार्गप्रतिपन्नानवलोक्यासावपि कर्मविवरतः प्रतिपचेतापीति दर्शयितुमाह-आचार्योक्तं सम्यक्त्वमनुगच्छद्भिर्विरताविरतैः सह संवसंस्तैर्वा चोद्यमानोऽननुगच्छन्-अप्रतिपद्यमानः कथं न निर्वेदं गच्छेद्?, असदनुष्ठानस्य मिथ्यात्वादिरूपां विचिकित्सां परित्यज्याचार्योक्तं सम्यक्त्वमेव प्रतिपद्यतेत्यर्थः, यदिवा सितासितैराचार्योक्तमनुगच्छद्भिः-अवगच्छद्भिर्बुध्यमानैः सद्भिः कश्चिदज्ञानोदयान्मतिजान्यतया क्षपकादिश्चिरप्रबजितोऽप्यननुगच्छन्-अनवधारयन् कथं न निविद्येत?, न निर्वेद तपःसंयमयोर्गच्छेत् , निर्विष्णश्चेदमपि भावयेत्, यथा-नाहं भव्यः स्यां न च मे संयतभावोऽप्यस्तीति, यतः स्फुटविकटमपि कथितं नाचगच्छामि, एवं च निर्विपणस्याचार्योः समाधिमाहुः-यथा-भोः साधो! मा विषादमवलम्बिष्ठार, भव्यो भवान् , यतो भवता सम्यक्त्वमभ्युपगतं, तच न ग्रन्थिभेदमृते, तद्भेदश्च न भव्यत्वमृते, अभव्यस्य हि भव्याभव्यशङ्काया अभावादिति भावः ॥ किं चायं विर www.andituaryam ~447-23 Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१६१] दीप अनुक्रम [ १७४] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [५] मूलं [१६१], निर्युक्ति: [ २४९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा तिपरिणामो द्वादशकषायक्षयोपशमाद्यन्यतमसद्भावे सति भवति, स च भवताऽवासः, तदेवं दर्शनचारित्रमोहनीये राङ्गवृत्तिः । भवतः क्षयोपशमं समागते, दर्शनचारित्रान्यथानुपपत्तेः, यत्पुनः कथ्यमानेऽपि समस्तपदार्थावगतिर्न भवति तज्ज्ञानाव(शी०) रणीयविजृम्भितं तत्र च श्रद्धानरूपं सम्यक्त्वमालम्बन मित्याह तमेव सञ्चं नीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं ( सू० १६२ ) ॥ २२२ ॥ यत्र क्वचित्स्वसमय पर समयज्ञाचार्याभावात् सूक्ष्मव्यवहितातीन्द्रिय पदार्थेषूभय सिद्धदृष्टान्तसम्यगृहेत्वभावाच्च ज्ञानावरणीयोदयेन सम्यग्ज्ञानाभावेऽपि शङ्काविचिकित्सादिरहित इदं भावयेत्, यथा-तदेवैकं सत्यम् - अवितथं, 'निःशङ्कमिति अर्हदुक्तेष्वत्यन्तसूक्ष्मेष्यतीन्द्रियेषु केवलारामग्राह्येष्वर्थेष्वेवं स्यात् एवं वा इत्येवमाकारा संशीतिः शङ्का निर्गता शङ्का यस्मिन् प्रवेदने तन्निःशङ्कं यत्किमपि धर्माधर्म्माकाशपुद्गलादि प्रवेदितं, कैः ? -“जिनैः' तीर्थकरै रागद्वेषजयनशीलैः, तत्तथ्यमेवेत्येवम्भूतं श्रद्धानं विधेयं सम्यक्पदार्थानवगमेऽपि न पुनर्विचिकित्सा कार्येति । किं यतेरपि विचिकित्सा स्याद्येनेदमभिधीयते ?, संसारान्तर्वर्त्तिनो मोहोदयात्तत्किं ? यन्न स्यादिति, तथा चागमः – “अस्थि णं भंते! समणावि निग्गंथा कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेति ?, हंता अस्थि, कन्नं समणावि णिग्गंथा कंखामोहणिज्जं कम्मं वेयंति ?, गोअमा ! १ अस्ति भदन्त । श्रमणा अपि निर्धन्याः काहामोहनीयं कर्म वेदयन्ति ?, हन्त अस्ति, कथं श्रमणा अपि निर्मन्थाः काहामोहनीय कर्म वेदयन्ति ?, गौतम 1 तेषु तेषु ज्ञानान्तरेषु चरित्रान्तरेषु शङ्किताः काङ्क्षिता विचिकित्सासमापना भेदसमापन्नाः कालुष्यसमापन्नाः, एवं खल गौतम । श्रमणा अपि निर्मन्थाः काहामोहनीयं कर्म वेदयन्ति तत्रालम्बनं 'तदेव सत्यं निशई चिनैः प्रवेदितम् । अथ नूनं भदन्त एवं मनो धारयन् आज्ञाया आराधको भवति ?, इन्त गौतम एवं मनो धारयन् आहाया आराधको भवति. Etication tal For Par at Use Only ~448 ~# लोक० ५ उद्देशकः५ ॥ २२२ ॥ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१६२] दीप अनुक्रम [१७५] *० * * * * * %% “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [५] मूलं [१६२ ], निर्युक्ति: [ २४९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः तेसु तेसु नाणन्तरेसु चरितंतरेसु संकिया कंखिया विइगिच्छासमायना भेयसमावन्ना कलुससमावन्ना, एवं खलु गोयमा ! समणावि निग्गंथा कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदंति, तत्थालंबणं 'तमेव सचं णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं,' से णूणं भंते! एवं मणं धारेमाणे आणाए आराहए भवति ?, हंता गोअमा ! एवं मणं धारेमाणे आणाए आराहए भवति " किं चान्यत् । - " वीतरागा हि सर्वज्ञा, मिथ्या न ब्रुवते क्वचित्। यस्मात्तस्माद्वचस्तेषां तथ्यं भूतार्थदर्शनम् ॥ १ ॥” इत्यादि ॥ सा पुनर्विचिकित्सा प्रविवजिषोर्भवत्यागमापरिकर्म्मितमतेः, तत्राप्येतत्पूर्वोक्तं भावयितव्यमित्याह Jan Estication Intimanal सहिस्स णं समणुन्नस्स संपव्वयमाणस्स समियंति मन्नमाणस्स एगया समिया होइ १, समियंति भन्नमाणस्स एगया असमिया होइ २, असमियंति मन्नमाणस्स एगया समिया होइ ३, असमियंति मन्नमाणस्स एगया असमिया होइ ४, समियंति मन्नमामाणस्स समिया वा असमिया वा समिआ होइ उवेहाए ५, असमियंति मन्नमाणस्स समिया वा असमिया वा असमिया होइ उवेहाए ६, उवेहमाणो अणुवेहमाणं ब्रूया उवेहाहि समियाए, इच्चेवं तत्थ संधी झोसिओ भवइ, से उट्ठियस्स ठियस्स गई समणुपासह, इत्थवि बालभावे अप्पाणं नो उवदंसिज्जा ( सू० १६३ ) For Pantry Use Only ~449 ~# netary org Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१६३] दीप अनुक्रम [१७६] श्रीआचारानवृत्तिः (शी०) ।। २२३ ॥ Jain Esticatos “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [५] मूलं [ १६३ ], निर्युक्ति: [ २४९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रद्धा-धच्छा सा विद्यते यस्यासौ श्रद्धावांस्तस्य 'समनुज्ञस्य' संविघ्नविहारिभिर्भावितस्य संविग्नादिभिर्वा गुणैः प्रत्रज्यार्हस्य 'संप्रव्रजतः' सम्यक्प्रत्रज्यामभ्युपगच्छतो विचिकित्सा- शङ्का भवेत्, तत्रैतस्य सम्यग्जीवादिपदार्थावधारणाशतस्येदमुपदेष्टव्यम्, यथा-तदेव सत्यं निःशङ्कं यजिनैः प्रवेदितमिति, तदेवं प्रब्रज्यावसरे तदेव निःशङ्कं यज्जिनैः प्रवे दितमित्येवं यथोपदेशं प्रवर्त्तमानस्य प्रवर्द्धमानकण्डकस्य सत उत्तरकालमपि तदधिकता तत्समता तन्यूनता तदभावो वा स्यादित्येवंरूपां विचित्रपरिणामतां दर्शयितुमाह-तस्य श्रद्धावतः समनुज्ञस्य संप्रव्रजतस्तदेव निःशङ्कं यज्जिनैः प्रवेदितमित्येतत्सम्यगित्येवं मन्यमानस्य 'एकदा' इत्युत्तरकालमपि शङ्काकाङ्गाविचिकित्सादिरहिततया सम्यगेव भवति-न तीर्थकर भाषिते शङ्काद्युत्पद्यत इति १ । कस्यचित्तु प्रब्रज्यावसरे श्रद्धानुसारितया सम्यगिति मन्यमानस्य तदुत्तरकालमधीतान्वीक्षिकीकस्य दुर्गृहीतहेतुदृष्टान्तलेशस्य ज्ञेयगहनता व्याकुलितमतेः 'एकदेति मिथ्यात्यांशोदयेऽसम्यगिति भवति, तथाहि असौ सर्वनय समूहाभिप्रायतया अनन्तधर्म्माध्यासितवस्तुप्रसाधने सति मोहादेकनयाभिप्रायेणैकांशसाधनाय प्रक्रमते, यदि नित्यं कथमनित्यमनित्यं चेत्कथं मित्यमिति, परस्परपरिहारलक्षणतयाऽनयोरवस्थानात्, तथाहि अप्रच्युतानुपन्नस्थिरैकस्वभावं हि नित्यम् अतोऽन्यत्मतिक्षणविशरारुरूपमनित्यमित्येवमादिकमसम्यग्भावमुपयाति न पुनर्वि वेचयति यथा अनन्तधर्म्माध्यासितं वस्तु सर्वनयसमूहात्मकं च दर्शनमतिगहनं मन्दधियां श्रद्धागम्यमेव न हेतुक्षोभ्यमिति, उक्तं च- "सर्वैर्नवैर्नियतनैगमसङ्ग्रहाद्यैरेकैकशो विहिततीर्थिकशासनैर्यत् । निष्ठां गतं बहुविधैर्गमपर्ययैस्ते', श्रद्धेयमेव वचनं न तु हेतुगम्यम् ॥ १ ॥" इत्यादि, यतो हेतुः प्रवर्त्तमानः एकनयाभिप्रायेण प्रवर्त्तते, एकं च धर्म For Pantry O ~ 450 ~# | लोक० ५ उद्देशका ॥ २२३ ॥ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [9], मूलं [१६३],नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६३] दीप अनुक्रम साधयेत् , सर्वधर्मप्रसाधकस्य हेतोरसम्भवादिति २ । पुनरपि विचित्रभावनामाह-कस्यचित् मिथ्यात्वलेशानुविद्धस्य कथं | पौगलिकः शब्द इत्यादिकमसम्यगिति मन्यमानस्य 'एकदेति मिथ्यात्वपरमाणूपशमतया शङ्करविचिकित्साद्यभावे गुर्वाधुपदेशतः सम्यगिति भवति, यदि हि पौद्गलिकः शब्दो न स्यात् ततस्तत्कृतावनुग्रहोपघातौ श्रवणेन्द्रियस्य न स्याताम् , अमूर्त्तत्वादाकाशवदित्यादिकं सम्यग् भवति३ । कस्यचित्त्वागमापरिमिलितमतेः कथमेकेनैव समयेन परमाणोर्लोकान्तगमनमित्यादिकमसम्यगिति मन्यमानस्यैकदेति-कुहेतुवितर्काविर्भावावसरे नितरामसम्यगेव भवति, तथाहि-चतुद्देशरज्वात्मकस्य लोकस्याद्यन्ताकाशप्रदेशयोः समयाभेदतया यौगपद्यसंस्पर्शात् तावन्मात्रता परमाणोः स्यात्, प्रदेशयोर्लो-|| कान्तद्वयगतयोर्वेक्यमित्यादिकमसम्यगिति भवति, न त्वसौ स्वाग्रहाविष्ट एतन्द्रावयति, यथा-विनसापरिणामेन शीघगतित्वात् परमाणोरेकसमयेनासङ्ख्येयप्रदेशातिक्रमणं, यथा हि अङ्गुलिद्रव्यमेकसमयेनासङ्ख्येयानध्याकाशप्रदेशानतिलक्ष्यति, एतदेव कुत इति चेत्, न हि दृष्टेऽनुपपन्नं नाम, न च सकलप्रमाणप्रष्ठप्रत्यक्षसिद्धेऽर्थेऽनुमानमन्वेष्टव्यं, तथाहियधनेकप्रदेशातिक्रमणं सामयिकं न भवेत् ततोऽङ्गलमात्रमपि क्षेत्रमसख्ययसमयातिकमणीयं स्यात्, तथा च सति दृष्टेष्टबाधाऽऽपयेतेति यत्किश्चिदेतत् ४ । साम्प्रतं भङ्गाकोपसंहारद्वारेण परमार्थमाविर्भावयन्नाह सम्यगित्येवं मन्यमानस्य शङ्काविचिकित्सादिरहितस्य सतस्तद्वस्तु यलेन तथारूपतयैव भावितं तत्सम्यग्वा स्यादसम्यग्वा, तथापि तस्य तत्र सम्यगुरुप्रेक्षया-पयोलोचनया सम्यगेव भवति, ईर्यापथोपयुक्तस्य क्वचिप्राण्युपमर्दवत् ५। साम्प्रतमेतद्विपर्ययमाह-असम्यगिति किश्चिद्वस्तु मन्यमानस्य शङ्का स्वादग्दर्शितया छद्मस्थस्य सतस्तद्वस्तु सम्यग्वा स्यादसम्यग्वा, तस्य तदसम्यगेवोन [१७६] द्र wwwandltimaryam ~451-23 Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [9], मूलं [१६३],नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥२२४॥ [१६३] दीप अनुक्रम [१७६] क्षया, असम्यगूपर्यालोचनतयाऽशुद्धाध्यवसायतयेतियावत् , 'वद्यथा शङ्कयेत्तत्तथैव समापद्यते'ति पचनादिति ॥ यधिवा लोक०५ -"समियंति मन्नमाणस्स" इत्याद्यन्यथा व्याख्यायते-शमिनो भावः शमिता 'इतिः' उपप्रदर्शने तामेतां शमितां मन्य-15 मानस्य शुभाध्यवसायिनः 'एकदे'त्युत्तरकालमपि शमितैव भवति-उपशमवत्तैवोपजायते, अन्यस्य तु शमितामपि मन्यमा उद्देशका५ नस्य कषायोदयादशमितोपजायत इति, अनया दिशोत्तरभङ्गेष्वपि सम्यगुपयुज्यायोज्यमिति । तदेवं सम्यगसम्यगित्येवं पोलोचयनपरस्याप्युपदेशदानायालमिति, आह च-आगमपरिकम्मितमतिस्वाद्यथावस्थितपदार्थस्वभावदर्शितया सम्यगसम्यगिति चोप्रेक्षमाणः-पर्यालोचयनपरमनुत्प्रेक्षमाणं गडरिकायूथप्रवाहप्रवृत्तं गतानुगतिकन्यायानुसारिणं शङ्कया| वाऽपधावन्तं याद्, यथा-'उतोक्षस्व पोलोचय सम्यम्भावेन माध्यस्थमवलम्ब्य किमेतदर्हदुकं जीवादितत्त्वं घटामियत्योहोचिनेत्यक्षिणी निमील्य चिन्तयेति भावः। यदिवा उत्तरेक्षमाणः संयममुत्-प्राबल्येनेक्षमाणा-संयमे उद्यच्छन्ननुत्ने क्षमाणं यात्, यथा-सम्यग्भावापन्नः सन् संयममुक्षस्व-संयमे उद्योगं कुरु । किमवलम्ब्येत्याह-'इत्येवं पूर्वोक्तन M||प्रकारेण 'तत्र' तस्मिन् संयमे 'सन्धिः कर्मसन्ततिरूपो 'झोषितः क्षपितो भवति, यदि संयमे सम्यम्भावे वोप्रेक्षणं स्यात्, नान्यथेति । सम्यगुरेक्षमाणस्य च यत्स्यात्तदाह-से' तस्य सम्यगुत्थानेनोस्थितस्य निःशङ्कस्य श्रद्धावतः स्थितस्य गुरुकुले गुरोराज्ञायां वा या गतिर्भवति-या पदवी भवति तां सम्यगनुपश्यत यूर्य, तद्यथा-सकललोकश्लाध्यता ज्ञानदशेनस्थैर्य चारित्रे निष्पकम्पता श्रुतज्ञानाधारता च स्यादिति, यदिवा स्वर्गापवर्गादिका गतिः स्यात् , तां पश्यतेति || सम्बन्धः, अथवा उस्थितस्य-संयमोद्योगवतः तदभावेन च स्थितस्य पार्श्वस्थादेति-सकलजनोपहास्यरूपामधमस्थान wwwjanaltimaryam ~452~# Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [9], मूलं [१६३],नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६३] * दीप अनुक्रम EXAKCEARCH गतिं वा पश्यतेति । तदेवमुद्युक्तेतरयोगतिमुपलभ्य पञ्चविधाचारसारे प्रक्रमितव्यं, यदि नामानुपस्थितस्य विरूपा गतिर्भवति ततः किमित्याह-'अत्रापि'असंयमे बालभावरूपे इतरजनाचरिते आत्मानं सकलकल्याणास्पदं नोपदर्शयेत् , बालानुठानविधायी मा भूदिति यावत्, तथाहि-बालाः शाक्यकापिलादयस्तद्भावितो बालभावमाचरति, वक्ति च-नित्यत्वादमूर्त्तत्वाचारमनः प्राणातिपात एव नास्त्याकाशस्येव, न हि वृक्षादिच्छेदे दाहे वाऽऽकाशस्य भिदा लोपो वा स्यात्, एवमात्मनोऽपि शरीरविकारेऽविकारित्वम् , उक्तं च-"न जायते न वियते कदाचिन्नायं भूत्वा भवितेति ॥ नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः । न चैनं केदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः ॥ १ ॥ अच्छेद्योऽयमभेद्योऽयमधिकारी Mस उच्यते । नित्यः सततगः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥२॥” इत्यादि । अध्यवसायात्तद्धननादौ प्रवृत्तस्य तलतिषेधार्थमाह तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वंति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं अजावेयव्वंति मनसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं परियावेयव्वंति मन्नसि, एवं जं परिचित्तव्वंति मन्नसि, जं उद्दवेयंति मन्नसि, अंजू चेयपडिबुद्धजीवी, तम्हा न हंता नवि घायए, अणुसंवेय णमप्पाणेणं जं हंतव्वं नाभिपत्थए (सू०१६४) योऽयं हन्तव्यत्वेन भवताऽध्यवसितः स त्वमेव, नामशब्दः सम्भावनायां, यथा भवान् शिर पाणिपादपार्श्वपृष्ठोरूद ** [१७६] ~453~# Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१६४ ] दीप अनुक्रम [१७७] श्रीआचा राजवृत्तिः (शी०) ॥ २२५ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [५] मूलं [१६४ ], निर्युक्ति: [ २४९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः रवान् एवमसावपि यं हन्तव्यमिति मन्यसे, यथा च भवतो हननोद्यतं दृष्ट्वा दुःखमुत्पद्यते एवमन्येषामपि तद्दुःखीपीदनाच्च किल्बिषानुषङ्गः, इदमुक्तं भवति - नात्रान्तरात्मनः आकाशदेशस्य व्यापादनेन हिंसा, अपि तु शरीरात्मनः, तस्य हि यत्र कचित्स्वाधारं शरीरं नितरां दयितं तद्वियोजीकरणमेव हिंसेति, उक्तं च- “पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छासनिःश्वासमथान्यदायुः । प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥ १ ॥" न च संसारस्थस्य सर्वथा अमूर्त्तत्वावाप्तिः, येनाकाशस्येव विकारो न स्यात्, सर्वत्रैव च प्राण्युपमर्दचिकीर्षितायामात्मतुल्यता भावयितव्येत्येतदुत्तरसूत्रैर्दर्शयितुमाह-त्वमपि नाम स एव यं प्रेषणादिना आज्ञापयितव्यमिति मन्यसे तथा त्वमपि नाम स एव यं परितापयितव्यमिति मन्यसे, एवं यं परिगृहीतव्यमिति मन्यसे, यमपद्रावयितव्यमिति मन्यसे असौ त्वमेव यथा भ वतोऽनिष्टापादनेन दुःखमुखद्यते एवमस्यापीत्यर्थः, यदिवा यं कार्यं हन्तव्यादितयाऽध्यवस्यसि तत्रानेकशो भवतोऽपि भावाच्वमेवासौ, एवं मृषावादादावप्यायोज्यम् । यदि नाम हन्तव्यघातकयोरुक्तक्रमेणैक्यं ततः किमित्याह - 'अञ्जु'रिति ऋजुः प्रगुणः साधुरितियावत् चशब्दोऽवधारणे, एतस्य--हन्तव्यघातकैकत्वस्य प्रतिबोधः प्रतिबुद्धमेतत्प्रतिबुद्धं तेन जीवितुं शीलमस्येत्येतत्प्रतिबुद्धजीवी साधुरेव तत्परिज्ञानेन जीवति नापर इत्युक्तं भवति । यदि नामैवं ततः किमित्याह'तस्माद्' हन्यमानस्यारमन इव महद्दुःखमुत्पद्यते तस्मादात्मौपम्यादन्येषां जन्तूनां न हन्ता स्यात् नाप्यपरेर्घातयेत् न च नतोऽनुमन्येत, किं च- संवेदनम्-अनुभवनं अनु-पश्चात्संवेदनं केन ? - आत्मना यत्परेषां मोहोदयाननादिना | दुःखोत्पादनं विधीयते तत्पश्चादात्मना संवेद्यमित्याकलय्य यत्किमपि हन्तव्यमिति चिकीर्षितं तन्नाभिप्रार्थयेत्-नाभिल Jan Estication Intimationa For Pantry Use Onl ~454 ~# लोक० ५ उद्देशकः५ ।। २२५ ।। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१६५] दीप अनुक्रम [१७८ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [५] मूलं [ १६५ ], निर्युक्ति: [ २४९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः पेत् । ननु चात्मनाऽनुसंवेदनमित्युक्तं, संवेदनं च सातासातरूपं तच्च यथा नैयायिकवैशेषिकाणामात्मनो भिन्नेन गुणभूतेनेकार्थसमवायिना ज्ञानेन भवति तथा भवतामप्याहोस्विदभिन्नेनात्मन इत्यस्य प्रतिवचनमाह जे आया से विन्नाया जे विन्नाया से आया जेण वियाणइ से आया तं पहुच पडिसंखाए, एस आयावाई समियाए परियाए वियाहिए तिबेमि (सू० १६५) ॥ ५-५ ॥ . य आत्मा नित्य उपयोगलक्षणः विज्ञाताऽप्यसावेध, न तु पुनस्तस्मादात्मनो भिन्नं ज्ञानं पदार्थसंवेदकं, यश्च विज्ञाता -पदार्थानां परिच्छेदक उपयोगः आत्माऽप्यसावेव, उपयोगलक्षणत्वाज्जीवस्य उपयोगस्य च ज्ञानात्मकत्वादिति । ज्ञानात्मनोरभेदाभिधानाद्वौद्धाभिमतं ज्ञानमेवैकं स्यादिति चेत्, तन्न, भेदाभावोऽत्र केवलं चिकीर्षितो नैक्यं एतदेवैक्यं यो भेदाभाव इति चेद्, वार्त्तमेतत्, तथाहि पटशुक्लत्वयोर्भेदेनावस्थानाभावेऽपि नैकत्वापत्तिः, अत्रापि शुत्वव्यतिरेकेण नापरः पटः कश्चिदप्यस्तीति चेद्, अशिक्षितस्योलापो, यतः शुक्कुगुणविनाशे सर्वथा पटाभावापत्तिः स्यात्, तदात्मना विनष्ट एवेति चेत्, भवतु का नो हानिः १, अनन्तधर्मात्मकत्वाद्वस्तुनोऽपरमृद्वादिधर्म्मसद्भावे तद्धर्मविनाशेऽप्यविनष्ट एव इत्येवमात्मनोऽपि प्रत्युत्पन्नज्ञानात्मकतया विनाशेऽप्यपरामूर्त्तत्वा सङ्ख्येयप्रदेशताऽगुरुध्वादिधर्म्मसद्भावादविनाश एवेत्यलं प्रसङ्गेन । ननु च य आत्मा स विज्ञातेत्यत्र तृजन्तेन कर्तुरभिधानादात्मनश्च कर्तृत्वात्ततश्च य एवात्मा स एव विज्ञातेत्यत्र विप्रतिपत्त्यभावो, येन चासौ जानाति तद्भिन्नमपि स्यात्, तथाहि तत्करणं क्रिया वा भवेद् ?, यदि Jan Estication national For Party at Use Only ~455~# www.indiary.org Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [9], मूलं [१६५],नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत उद्देशक५ सूत्रांक [१६५] श्रीआचा- करणं तदानादिवभिन्न स्यात् , मध क्रिया सा यथा कर्तृस्था सम्भवत्येवं कर्मस्थाऽपीत्येवं भेदसम्भवे कुत ऐक्य-18 रावृत्तिःहा मिति यश्चोदयेत्तं प्रति स्पष्टतरमाह-'येन' मत्यादिना ज्ञानेन करणभूतेन क्रियारूपेण वा विविधं-सामान्यविशेषाका(शी०) IN रतया वस्तु जानाति विजानाति स्त्र आत्मा, न तस्मादात्मनो भिन्नं ज्ञानं, तथाहि-न करणतया भेदः, एकस्यापि कर्तृ-11 कर्मकरणभेदेनोपलब्धेः, तद्यथा-देवदत्त आत्मानमात्मना परिच्छिनत्ति, क्रियापक्षे पाक्षिको ह्यभेदो भवताऽप्यभ्युपगत ॥ २२६॥ दिएच, अपि च-भूतियेषां किया सैव, कारकं सैव चोच्यत' इत्यादिनैकत्वमेवेति । ज्ञानात्मनोश्चैकत्वे यद्भवति तदर्श-1 शयितुमाह-तं' ज्ञानपरिणाम 'प्रतीत्य'आश्रित्यात्मा तेनैव 'प्रतिसङ्खचायते' व्यपदिश्यते, तद्यथा-इन्द्रोपयुक्त इन्द्र इत्यादि, यदिवा मतिज्ञानी श्रुतज्ञानी यावत्केवलज्ञानीति, यश्च ज्ञानात्मनोरेकत्वमभ्युपगच्छति स किंगुणः स्यादि-18 त्याह-एषः अनन्तरोक्तया नीत्या यथावस्थितात्मवादी स्यात्, तस्य च सम्यग्भावेन शमितया वा 'पर्यायः' संयमानुष्ठानरूपो व्याख्यातः । इत्यधिकारपरिसमाप्तौ, अवीमीति पूर्ववत् ।। लोकसाराध्ययने पञ्चमोद्देशकः ।। दीप अनुक्रम [PbC] FAC-AAAAAAA%45 NI उक्तः पञ्चमोद्देशकः, साम्प्रतं षष्ठ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके हृदोपमेनाचार्येण भाव्य-IN मित्येतदुक्तं, तथाभूताचार्यसंपर्काच कुमार्गपरित्यागो रागद्वेषहानिश्चावश्यंभाविनीत्यतस्तत्प्रतिपादनसम्बन्धेनागतस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम् ॥ २६॥ wwjanditaram | पंचम-अध्ययने षष्ठ-उद्देशक: 'उन्मार्गवर्जन' आरब्ध:, ~456-23 Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१६६ ] दीप अनुक्रम [१७९] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [६], मूलं [१६६], निर्युक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः अणाणाए एगे सोबट्टाणा आणाए एंगे निरुवट्टाणा, एयं ते मा होउ, एयं कुसलस्स दंसणं, तहिट्टीए तम्मुत्तीए तप्पुरक्कारे तस्सन्नी तन्निवेसणे ( सू० १६६ ) इह तीर्थकरगणधरादिनोपदेशगोचरीभूतो विनेयोऽभिधीयते, यदिवा सर्वभावसम्भवित्वाद्भावस्य सामान्यतोऽभिधानम्, अनाज्ञा-अनुपदेशः स्वमनीषिकाचरितोऽनाचारस्तयाऽनाज्ञया तस्यां वा 'एके' इन्द्रियवशगा दुर्गतिं जिगमिषवः स्वाभिमानग्रहग्रस्ताः सह उपस्थानेन-धर्म्मचरणाभासोद्यमेन वर्त्तन्त इति सोपस्थानाः, किल वयमपि प्रत्रजिताः सदसद्धर्मविशेषविवेकविकलाः सावद्यारम्भतया प्रवर्त्तन्ते, एके तु न कुमार्गवासितान्तःकरणाः, किन्तु आलस्यावर्णस्तम्भाद्युपबृंहितबुद्धयः, 'आज्ञायां' तीर्थकरोपदेशप्रणीते सदाचारे निर्गतमुपस्थानम् - उद्यमो येषां ते निरुपस्थाना:- सर्वज्ञमणीतसदाचारानुष्ठानविकलाः । एतत्कुमार्गानुष्ठानं सन्मार्गावसीदनं च द्वयमपि 'ते' तब गुरुविनेयोपगतस्य दुर्गतिहेतुत्वान्मा भूदिति । सुधर्म्मस्वामी स्वमनीषिकापरिहारार्थमाह-- 'एतद्' यत्पूर्वोक्तं यदिवा अनाज्ञायां निरुपमस्थानत्वमाज्ञायां च सोपमस्थानत्वमित्येत् 'कुशलस्य' तीर्थकृतो दर्शनमभिप्रायः, यदिवैतद्वक्ष्यमाणं कुशलस्य दर्शनमित्याह- कुमार्ग परित्यज्य सदाऽऽचार्यान्तेवासिना एवंभूतेन भाव्यं तस्य - आचार्यस्य दृष्टिस्तदृष्टिस्तया वर्त्तितव्यं, सा वा तीर्थकरप्रणीतागमदृष्टिस्तदृष्टिस्तयेति, तथा तस्य- आचार्यस्य तीर्थकृतो वा मुक्तिस्तन्मुक्तिस्तया, तथा तमाचार्य सर्वकार्येषु पुरः करोतीति तत्पुरस्कारः- आचार्यानुमत्या क्रियानुष्ठायीत्यर्थः, तथा तत्संज्ञी - तज्ज्ञानोपयुक्तः, तथा तन्निवेशन:- सदा गुरुकुलनिवासी ॥ स एवंभूतः किंगुणः स्यादित्याह Etication mainl For Pantry Use O ~ 457 ~# www.india.org Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१६७] दीप अनुक्रम [१८०] % % श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ २२७ ॥ ४ “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [६], मूलं [ १६७ ], निर्युक्ति: [ २४९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः अभिभूय अक्खू अभिभूए पभू निरालंबणयाए जे महं अबहिमणे, पवाएण पवायं जाणिजा, सहसंमइयाए परवागरणेणं अन्नेसिं वा अंतिए सुच्चा ( सू० १६७ ) 'अभिभूय' पराजित्य परीषहोपसर्गान् घातिचतुष्टयं वा तत्त्वमद्राक्षीत् किं च - नाभिभूतोऽनभिभूतः अनुकूल प्रतिकूलोपसर्गेः परतीर्थिकैर्वा स एवम्भूतः 'प्रभुः' समर्थो निरालम्बनतायाः नात्र संसारे मातापितृकलत्रादिकमालम्बनमस्तीति तीर्थकृद्वचनमन्तरेण नरकादी पततामित्येवम्भूतभावनायाः समर्थो भवति, पुनः परीषहोपसर्गाणां जेता केनचिदनभिभूतो निरालम्बनतायाः प्रभुर्भवति ? इत्येवं पृष्ठे तीर्थकृत् सुधर्म्मस्वाम्यादिको वाऽऽचार्योऽन्तेवासिनमाह-यः पुरस्कृतमोक्षो 'महान' महापुरुषो लघुकर्म्मा ममाभिप्रायान्न विद्यते वहिर्मनो यस्यासावबहिर्मनाः, सर्वज्ञोपदेशवत्तति यावत् कुतः पुनस्तदुपदेशनिश्चय इति चेदाह प्रकृष्टो वादः प्रवादः - आचार्यपारम्पर्योपदेशः प्रवादस्तेन प्रवादेन प्रवादंसर्वज्ञोपदेशं 'जानीयात्' परिच्छिन्द्यादिति । यदिवाऽणिमाद्यष्टविधैश्वर्यदर्शनादपि न तीर्थकृद्वचनाद्वहिर्मनो विधत्ते, तीर्थिकानिन्द्रजालिककल्पानिति मत्वा तदनुष्ठानं तद्वादांश्च पर्यालोचयति, कथमित्याह - 'पवाएण पत्रायं जाणिजा' प्रकृष्टो वादः प्रवादः सर्वज्ञवाक्यं तेन मौनीन्द्रेण प्रवादेन तीर्थिकप्रवादं 'जानीयात्' परीक्षयेत्, तद्यथा-वैशेषिकाः तनु| भुवनकरणादिकमीश्वर कर्तृकमिति प्रतिपन्नाः, तदुक्तम् — “अम्यो जन्तुरनीशः स्यादात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो ॥ २२७ ॥ गच्छेत्स्वर्ग वा वस्त्रमेव च ॥ १ ॥" इत्यादिकं प्रवादमात्मीयप्रवादेन पर्यालोचयेत्, तद्यथा-अवेन्द्रधनुरादीनां विस्र Etication matinal For Party at Use Only लोक० ५ उद्देशकः६ ~458 ~# Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [६], मूलं [१६७],नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] दीप अनुक्रम सापरिणामलब्धात्मलाभानां तदतिरिक्वेश्वरादिकारणपरिकल्पनायामतिप्रसङ्गः स्यात् , तथा घटपटादीनां दण्डचक्रचीवरसलिलकुलालतुरीवेमशलाकाकुविन्दादिव्यापारानन्तरावाप्तात्मलाभानां तदनुपलब्धव्यापारेश्वरस्य कारणपरिकल्पनायां | रासभादेरपि किं न स्यात् १, तनुकरणादीनामष्यवन्ध्यस्वकृतकम्मापादितं वैचित्र्यं, कर्मणोऽनुपलब्धेः कुत एतदिति चेत्, समानः पर्यनुयोगः, अपि च-तुल्ये मातापित्रादिके कारणेऽपत्यवैचित्र्यदर्शनात्तदधिकेन निमित्तेन भाव्यं, तच्चेश्वराभ्युपगमेऽप्यदृष्टमेवेष्टव्यं, नान्यथा सुखदुःखसुभगदुर्भगादि जगद्वैचित्र्यं स्यादिति। तथा साङ्ख्या एवमाहुः यथा 'सत्त्व-| ४ रजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः, प्रकृतेर्महांस्ततोऽहङ्कारः, तस्मादेकादशेन्द्रियाणि पश्च तन्मात्राणि, तन्मात्रेभ्यः पञ्चभू तानि, बुद्ध्यध्यवसितमर्थं पुरुषश्चेतयते, स चाकर्ता निर्गुणश्चेति, तथा प्रकृतिः करोति पुरुष उपभुते ततः कैवल्याव स्थायां द्रष्टाऽस्मीति निवर्तते' इत्यादिक युक्तिविकलत्वान्निरन्तराः सुहृदः प्रत्येष्यन्ति, तथाहि-प्रकृतेरचेतनत्वात् कुत आ-18 हात्मोपकाराय कियाप्रवृत्तिः स्यात् ?, कुतो वा दृष्टेत्यात्मोपकाराय प्रवृत्तिर्न स्यात् ?, अचेतनायास्तद्विकल्पासम्भवात् , नि-1 दत्यायाश्च प्रवृत्तिनिवृत्त्यभावात् , पुरुषस्याप्यकर्तृत्वे संसारोद्वेगमोक्षीत्सुक्यभोक्तृत्वाद्यभावः स्यादिति, उक्कं च-"न वि-18 रक्तो न निर्विष्णो, न भीतो भवबन्धनात् । न मोक्षसुखकावी वा, पुरुषो निष्क्रियात्मकः ॥१॥ का प्रनजति साख्यानां, निष्क्रिये क्षेत्रभोक्तरि । निष्क्रियत्वात्कथं वाऽस्य, क्षेत्रभोक्तृत्वमिष्यते ॥२॥” इति । तथा शीदोदनिशिष्यका यत्स-1 तत्सर्वे क्षणिकमित्येवं व्यवस्थिताः, तत्रोत्तरम्, यदि निरन्वयो विनाशः स्यात् ततः प्रतिनियतः कार्यकारणभाव एव न स्यात्, एकसन्तानान्तर्गतत्वात्स्यादिति चेत्, अशिक्षितस्योल्लापः, तथाहि-न सन्ताभिव्यतिरेकेण कश्चित्सन्तानोऽस्ति, [१८] walaatram.org ~459~# Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१६७] दीप अनुक्रम [१८०] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [६], मूलं [ १६७ ], निर्युक्ति: [ २४९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ।। २२८ ।। श्रीआचा- तथाच सति पूर्वकालक्षणावस्थायित्वमेव कारणत्वम्, एवं च सर्वे सर्वस्य कारणं स्यात्, सर्वस्य पूर्वकालक्षणावस्थाविराङ्गवृत्तिः त्वाद्यत्किञ्चिदेतदिति, किं च - " यज्जातमात्रमेव प्रध्वस्तं तस्य का क्रिया कुम्भे ? । नोत्पन्नमात्रभने क्षिप्तं सन्तिष्ठते वारि (शी०) २२ ॥ १ ॥ कर्त्तरि जातविनष्टे धर्माधर्मक्रिया न सम्भवति । तदभावे बन्धः को बन्धाभावे च को मोक्षः १ ॥ २ ॥” इ त्यादि । वार्हस्पत्यानां तु भूतवादेनात्म पुण्यपापपरलोकाभाववादिनां निर्म्मर्यादतथा जनतातिगानां न्यक्कारपदव्याधानमनुत्तरमेवोत्तरमिति । अपि च - " अब्रह्मचर्यरतैर्मूढैः परदारघर्षणाभिरतैः । मायेन्द्रजालविषववर्त्तितमसत्किमध्येतत् ॥ १ ॥” तथा “ मिथ्या च दृष्टिर्भवदुःखधात्री, मिथ्यामतिश्चापि विवेकशून्या । धर्म्माय येषां पुरुषाधमानां, तेषामधर्मो भुवि कीदृशोऽन्यः १ ॥ २ ॥" इत्यनया दिशा सर्वेऽपि तीर्थिकवादाः सर्वज्ञवादमनुश्रित्य निराकार्या इति स्थितं । तन्निराकरणं च सर्वज्ञप्रवादं निराकार्ये च तीर्थिकप्रवादमेभिस्त्रिभिः प्रकारैर्जानीयादित्याह - मननं मतिः- ज्ञानं ज्ञानावरणीयक्षयक्षयोपशमान्यतरसद्भावानन्तरमेव सहसा - तत्क्षणमेव मत्या प्रातिभबोधावध्यादिज्ञानेन परिच्छिन्द्यात् सह वा ज्ञानेन ज्ञेयं सच्छोभनया मिथ्यात्व कलङ्काङ्करहितया मत्याऽवगच्छेत्, स्वपरावभासकत्वान्मतेरिति, कदाचित्पर| व्याकरणेनाप्यवगच्छेत् परः- तीर्थकृतस्य तेन वा व्याकरणं यथावस्थितार्थप्रज्ञापनम् आगमः परव्याकरणं तेन वा जानीयात्, तथाऽप्यनवगमेऽन्येषामाचार्यादीनां अन्तिके श्रुत्वा यथावस्थितवस्तुसद्भावमवधारयेद् ॥ अवधार्य च किं कुर्यादित्याह Jain Estication Intl For Pantry Use Only ~460 ~# लोक० ५ उद्देशकः ६ ॥ २२८ ॥ www.sendiary.org Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [६], मूलं [१६८/गाथा-१],नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६८] |१|| दीप अनुक्रम [१८१] [१८२] निदेसं नाइवढेज्जा मेहावी सुपडिलेहिया सव्वओ सव्वप्पणा सम्मं समभिण्णाय, इह आरामो परिवए निट्रियट्टी वीरे आगमेण सया परक्कमे (सू०१६८) निर्दिश्यत इति निर्देशः-तीर्थकराधुपदेशस्तं नातिवर्तेत 'मेधावी' मर्यादावानिति । किं कृत्वा निर्देश नातिवर्तेतेत्यत आह-मुष्ठु प्रत्युपेक्ष्य हेयोपदेयतया तीर्थकवादान् सर्वज्ञवादं च 'सर्वतः' सर्वैः प्रकारैर्द्रव्यक्षेत्रकालभावरूपैः सर्वात्मनासामान्यविशेषात्मकतया पदार्थान् पर्यालोच्य सहसम्मत्यादित्रिकेण परिच्छिद्य सदाऽऽचार्यनिर्देशवर्ती तीथिंकवादनि-18 राकरणं कुर्यात्, किं च कृत्वेत्यत आह-सम्यगेव स्वपरतीर्थिकवादान् 'समभिज्ञाय' बुद्धा ततो निराकरणं कुर्यात् । किंच-'इह' अस्मिन् मनुष्यलोके आरमणमारामो रतिरित्यर्थः, स चारामः परमार्थचिन्तायामात्यन्तिकैकान्तिकरतिरूपः संयमः तमासेवनपरिज्ञया परिज्ञाय आलीनो गुप्तश्च 'परिव्रजेत्' संयमानुष्ठाने विहरेत्, किंभूत इत्याह-निष्ठितोमोक्षस्तेनार्थी यदिवा निष्ठितः-परिसमाप्तः अर्थः-प्रयोजनं यस्य स निष्ठितार्थः 'वीरः कर्मविदारणसहिष्णुः सन् 'आगमेन' सर्वज्ञप्रणीताचारादिना 'सदा' सर्वकालं 'पराक्रमेथाः' कर्मरिपून प्रति मोक्षाध्वनि वा गच्छेः । इत्यधिकारपरिसमाप्ती, अवीमीति पूर्ववत् । किमर्थं पुनः पौनःपुन्येनोपदेशदानमित्याह उडे सोया अहे सोया, तिरियं सोया वियाहिया । एए सोया विअक्खाया, जेहिं संगंति पासह ॥१॥ www.tanditimaryam ~461~# Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१६८ ] ॥१॥ दीप अनुक्रम [१८१] [१८२] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [६], मूलं [ १६८ / गाथा - १], निर्युक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा श्रोतांसि - कर्मास्रवद्वाराणि तानि च प्रतिभवाभ्यासाद्विषयानुबन्धादीनि गृह्यन्ते तत ऊर्द्ध श्रोतांसि वैमानिकाराङ्गवृत्तिः ङ्गनाऽभिलाषेच्छा वैमानिकसुखनिदानं वा, अधो भवनपतिसुखाभिलाषिता, तिर्यग् व्यन्तरमनुष्यतिर्यग्विषयेच्छा, यदि (शी०) ७ वा प्रज्ञापकापेक्षयोर्द्ध गिरिशिखरप्राग्भारनितम्बप्रपातोदकादीनि अधोऽपि श्ववनदीकूलगुहालयनादीनि तिर्यगप्यारा मसभाऽऽवसथादीनि प्राणिनां विषयोपभोगस्थानानि विविध माहितानि प्रयोगविस्रसाभ्यां स्वकर्म्मपरिणत्या वा जनितानि ॥ २२९ ॥ ॐ व्याहितानि, एतानि च कर्मास्रवद्वाराणीतिकृत्वा श्रोतांसीव स्रोतांसि, एभिश्च त्रिभिः प्रकारैरप्यन्यैश्च पापोपादानहेतुभूतैयैः 'स' प्राणिनामासक्तिं कर्मानुषङ्गं वा पश्यत, इतिर्हेती, तस्मात्कर्मानुषङ्गात् कारणादेतानि स्रोतांसीत्यतोऽपदिश्यते, आगमेन सदा पराक्रमेथा इति । किं च आव तु पेहा इत्थ विरमिज्ज वेयवी, विणइत्तु सोयं निक्खम्म एसमहं अकम्मा जाणइ पास पडिलेहाए नावकखइ इह आगई गई परिन्नाय ( सू० १६९ ) रागद्वेषकषायविषयावर्त्त कर्म्मबन्धावर्त्त वा तुशब्दः पुनःशब्दार्थे भावावर्त्त पुनरुत्प्रेक्ष्य 'अत्र' अस्मिन् भावावर्त्ते विषयरूपे 'वेदविद्' आगमविद् 'विरमेद्' आस्रवद्वारनिरोधं विदध्यात्, पाठान्तरं वा "विवेगं किट्टर वेदवी" आस्रवद्वारनिरोधेन तज्जनितकर्म्मविवेकम् - अभावं 'कीर्त्तयति' प्रतिपादयति वेदविदिति । आस्रवद्वारनिरोधेन च यरस्यात्त| दाह-स्रोतः- आस्रवद्वारं तद्विनेतुम् अपनेतुं 'निष्क्रम्य' प्रत्रज्य 'एष' इति प्रत्यक्षः प्रस्तुतार्थस्य चावश्यंभावित्वादेव इति Jan Estication Intl For Pantry Use O ~462 ~# लोक० ५ उद्देशकः ६ ॥ २२९ ॥ www.indiary.org Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [६], मूलं [१६९],नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६९]] दीप अनुक्रम [१८३] प्रत्यक्षवाचिना सर्वनाम्नोक्तो यः कश्चिदित्यर्थः 'महान्' महापुरुषः अतिशयिककर्मविधायी, एवम्भूतश्च किंविशिष्टः | तस्यादिति दर्शयति-अकर्मा'नास्य कर्म विद्यत इत्यको, कर्मशब्देन चात्र घातिकम विवक्षितं, तदभावाच्च जा नाति विशेषतः पश्यति च सामान्यतः, सर्वाश्च लब्धयो विशेषोपयुक्तस्य भवन्तीत्यतः पूर्वं जानाति पश्चाच्च पश्यति, अ-1 नेन च क्रमोपयोग आविष्कृतः, स चोत्पन्नदिव्यज्ञानस्त्रैलोक्यललामचूडामणिः सुरासुरनरेन्द्रकपूग्यः संसारार्णवपारवर्ती विदितवेद्यः सन् किं कुर्यादित्याह-स हि ज्ञातज्ञेयः सुरासुरनरोपहितां पूजामुपलभ्य कृत्रिमामनित्यामसारी सोपाधिका || च 'प्रत्युपेक्ष्य' पर्यालोच्य हषीकविजयजनितसुखनिःस्पृहतया तां नाकाङ्कति-नाभिलपतीति । किं च-'इह' अस्मिन् मनुष्यलोके व्यवस्थितः सन् उत्पन्नज्ञानः प्राणिनामागतिं गतिं च संसारभ्रमणं तत्कारणं च ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्या-| ख्यानपरिज्ञया निराकरोति ॥ तन्निराकरणे च यत्स्यात्तदाह अच्चेइ जाईमरणस्स बद्दमग्गं विक्खायरए, सव्वे सरा नियहति, तक्का जत्थ न विजइ, मई तत्थ न गाहिया, ओए, अप्पइट्ठाणस्स खेयन्ने, से न दीहे न हस्से न वढे न तंसे न चउरंसे न परिमंडले न किण्हे न नीले न लोहिए न हालिदे न सुकिल्ले न सुरभिगंधे न दुरभिगंधे न तित्ते न कडुए न कसाए न अंबिले न महुरे न कक्खड़े न मउए न गरुए न लहुए न उण्हे न निद्धे न लुक्खे न काऊ न रुहे न wwwandltimaryam ~463-23 Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [६], मूलं [१७०],नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचारावृत्तिः (शी०) उद्देशका सूत्रांक [१७०] ॥२३०॥ दीप अनुक्रम [१८४] संगे न इत्थी न पुरिसे न अन्नहा परिन्ने सन्ने उवमा न विजए, अरूबी सत्ता, अप यस्स पयं नस्थि, (सू० १७०) 'अत्येति' अतिक्रामति जातिश्च मरणं च जातिमरणं तस्य 'वट्टमर्गति पन्थानं मार्ग उपादानं कर्मेतियावत् , तदत्येति-अशेषकर्मक्षयं विधत्ते, तक्षयाच्च किंगुणः स्यादित्याह-विविधम्-अनेकप्रकारं प्रधानपुरुषार्थतयाऽऽरब्धशास्त्रार्धतया तपःसंयमानुष्ठानार्थत्वेन (आख्यातो) व्याख्यातो मोक्षः-अशेषकर्मक्षयलक्षणो विशिष्टाकाशप्रदेशाख्यो वा तत्र रतो व्याख्यातरतः, आत्यन्तिकैकान्तिकानाबाधसुखक्षायिकज्ञानदर्शनसंपदुपेतोऽनन्तमपि काल संतिष्ठते । किम्भूत इति चेत्, न तत्र शब्दानां प्रवृत्तिा, न च सा काचिदवस्थाऽस्ति या शब्दैरभिधीयेत इत्येतत्प्रतिपादयितुमाह-'सर्वे' निरवशेषाः 'स्वरा'ध्वनयस्तस्मानिवर्तन्ते, तद्वाच्यवाचकसम्बन्धे न प्रवर्त्तन्ते, तथाहि-शब्दाः प्रवर्तमाना रूपरसगन्धस्पर्शानामन्यतमे विशेषे सङ्केतकालगृहीते तत्तुल्ये वा प्रवरन् , न चैतत्तत्र शब्दादीनां प्रवृत्तिनिमित्तमस्ति, अतः शब्दानभिधेया मोक्षावस्थेति । न केवल शब्दानभिधेया, उत्प्रेक्षणीयाऽपि न सम्भवतीत्याह-सम्भवत्पदार्थविशेषास्तित्याध्यवसाय | अहस्तकः-एवमेवं चैतत्स्यात् , स च यत्र न विद्यते ततः शब्दानां कुतःप्रवृत्तिः स्यात् । किमिति तत्र ताभाव इति चेदाहमननं मतिः-मनसो व्यापारः पदार्थचिन्ता सौत्पत्तिक्पादिका चतुर्विधाऽपि मतिस्तत्र न ग्राहिका, मोक्षावस्थायाः सकलविकल्पातीतत्वात् , तत्र च मोक्षे कौशसमन्वितस्य गमनमाहोश्चिनिष्कर्मणः, न तत्र कर्मसमन्वितस्य गमनमस्तीत्येत ॥२३०॥ wwwandltimaryam ~464-23 Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [६], मूलं [१७०],नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: SAR प्रत सूत्रांक [१७०] दीप अनुक्रम [१८४] दर्शयितुमाह-'ओजः' एकोऽशेषमलकलङ्काङ्करहितः, किंच-न विद्यते प्रतिष्ठानमौदारिकशरीरादेः कर्मणो वा यत्र सोऽप्रतिष्ठानो-मोक्षस्तस्य 'खेदज्ञों निपुणो, यदिवा अप्रतिष्ठानो-नरकस्तत्र स्थित्यादिपरिज्ञानतया खेदज्ञो, लोकनाडिपर्यन्तपरिज्ञानावेदनेन च समस्तलोकखेदज्ञता आवेदिता भवति । सर्वस्वरनिवर्त्तनं च येनाभिप्रायेणोक्तवांस्तमभिप्रायमाविष्कुर्वन्नाह- 'स' परमपदाध्यासी लोकान्तकोशषड्भागक्षेत्रावस्थानोऽनन्तज्ञानदर्शनोपयुक्तः संस्थानमाश्रित्य न दी| न हस्वो न वृत्तो न यस्रो न चतुरस्रो न परिमण्डलो वर्णमाश्रित्य न कृष्णो न नीलो न लोहितो न हारिद्रो न शुक्लो गन्धमाश्रित्य न सुरभिगन्धो न दुरभिगन्धो रसमाश्रित्य न तिक्तो न कटुको न कषायो नाम्लो न मधुरः स्पर्शमाश्रित्य न कर्कशो न मृदुर्न लघुन गुरुन शीतो नोष्णो न स्निग्धो न रुक्षो 'न काऊ' इत्यनेन लेश्या गृहीता, यदिया न कायवान् । यथा वेदान्तवादिनाम्-'एक एव मुक्तात्मा तत्कायमपरे क्षीणक्लेशा अनुपविशन्ति आदित्यरश्मय इवांशुमन्तमिति, तथा न रुहः 'रुह बीजजन्मनि प्रादुर्भावे च' रोहतीति रुहः, न रहोऽरुहः, कर्मवीजाभावादपुनर्भावीत्यर्थः, न पुनर्यथा शा क्यानां दर्शननिकारतो मुक्तात्मनोऽपि पुनर्भवोपादानमिति, उक्तं च-"दग्धेन्धनः पुनरुपैति भवं प्रमध्य, निर्वाणमप्यनविधारितभीरुनिष्ठम् । मुक्तः स्वयंकृतभवश्च परार्थशूरस्त्वच्छासनप्रतिहतेविह मोहराज्यम् ॥१॥" तथा च न विद्यते सङ्गोऽमूतवाद्यस्य स तथा, तथा न खी न पुरुषो नान्यथेति-न नपुंसकः, केबलं सधैरात्मप्रदेशैः परिः-समन्ताद्विशेषतो जानातीति परिज्ञः, तथा सामान्यतः सम्यग्जानाति-पश्यतीति संज्ञः, ज्ञानदर्शनयुक्त इत्यर्थः, यदि नाम स्वरूपतो न ज्ञायते मुक्तात्मा तथाऽप्युपमाद्वारेणादित्यगतिरिष ज्ञायत एवेति चेत्, तन्न, यत आह-उपमीयते सादृश्यात् परिच्छि xxx JainEducatinintamataima ~465~# Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [६], मूलं [१७०],नियुक्ति: [२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचारावृत्तिः (शी०) सूत्रांक [१७१] ॥२३१॥ दीप अनुक्रम [१८५]] द्यते यया सोपमा-तुल्यता सा मुक्तात्मनस्तज्ज्ञानसुखयोर्वा न विद्यते, लोकातिगत्वात्तेपा, कुत एतदिति चेदाह-तेषां लोक०५ मुक्तात्मनां या सत्ता सा अरूपिणी, अरूपित्वं च दीर्घाविप्रतिषेधेन प्रतिपादितमेव । किं च न विद्यते पदम्-अवस्था उद्देशकः६ | विशेषो यस्य सोऽपदः, तस्य पद्यते-गम्यते येनार्थस्तत्पदम्-अभिधानं तच्च 'नास्ति' न विद्यते, वाच्यविशेषाभावात्, तथाहि-योऽभिधीयते स शब्दरूपगन्धरसस्पर्शान्यतरविशेषेणाभिधीयते, तस्य च तदभाव इत्येतदर्शयितुमाह, यदिवाद दीर्घ इत्यादिना रूपादिविशेषनिराकरणं कृतं, इह तु तत्सामान्यनिराकरणं कर्तुकाम आह से न सद्दे न रूवे न गंधे न रसे न फासे, इच्चेव त्तिवेमि (सू०१७१)॥ षष्ठ उद्देशकः। लोकसाराध्ययनं समाप्तं ॥ ५-६॥ 'स' मुक्तारमा न शब्दरूपः न रूपात्मा न गन्धः न रसः न स्पर्श इत्येतायन्त एव वस्तुनो भेदाः स्युः, तत्प्रतिषेधाच नापरः कश्चिद्विशेषः सम्भाव्यते येनासौ व्यपदिश्यतेति भावार्थः । इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, अवीमीति पूर्ववत् । गतः | सूत्रानुगमः, तद्गतौ चापवर्गमाप्त उद्देशकः, तदपवर्गावाप्तौ च नयवक्तव्यताऽतिदेशात्समाप्तं लोकसाराख्यं पश्चममध्ययनमिति ॥ ग्रन्धान०१११५ ॥ ॥२३१ wataneltmanam ~466~23 Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१७१] दीप अनुक्रम [१८५] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [-], मूलं [ १७१...], निर्युक्तिः [२५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः अथ धुताख्यं षष्ठमध्ययनम् 10 उक्तं पञ्चममध्ययनं साम्प्रतं षष्ठमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तराध्ययने लोकसारभूतः संयमो मोक्षश्च प्रतिपादितः, स च निःसङ्गताव्यतिरेकेण कर्म्मधुननमन्तरेण च न भवतीत्यतस्तस्प्रतिपादनार्थमिदमुपक्रम्यत इत्यनेन | सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमेऽर्थाधिकारो द्वेधा-अध्ययनार्थाधिकार उद्देशाधिकारश्च तत्राध्ययनार्थाधिकारः प्रागभाणि, उद्देशार्थाधिकारं तु निर्युक्तिकारो बिभणिपुराह पठमे नियगविणणा कम्माणं चितियए तइयगंमि । उवगरणसरीराणं चत्थए गारवतिगस्स ॥ २५० ॥ प्रथमोदेशके निजकाः- स्वजनास्तेषां विधूननेत्ययमर्थाधिकारः, द्वितीये कर्म्मणां, तृतीये उपकरणशरीराणां, चतुर्थे गौरवत्रिकस्य, विधूननेति सर्वत्र सम्बन्धनीयम् उपसर्गाः सम्माननानि च यथा साधुभिर्विधूतानि तथा पञ्चमोदेशके प्रतिपाद्यत इत्यर्थाधिकारं परिसमापय्य निक्षेपमाह स च त्रिधा, तत्रौघनिष्पन्नेऽध्ययनं, नामनिष्पन्ने तु धूर्त, तच्च चतुर्द्धा तत्रापि नामस्थापने सुगमत्वादनादृत्य द्रव्यभावधूतप्रतिपादनाय गाधाशकलम् - उवसग्गा सम्माणयविहआणि पञ्चमंमि उद्देसे । दव्वधुयं वत्थाई भावधुयं कम्म अट्ठविहं ।। २५१ ।। द्रव्यधूतं द्विधा - आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो ज्ञाता तंत्र चानुपयुक्तः, नोआगमतस्तु शशरीर भव्य शरीर Estication Intel षष्ठ- अध्ययनं 'द्युत' आरब्धः, For Party Use Onl ~467~# জ www.india.org Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [१], मूलं [१७१...], नियुक्ति: [२५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: धुता०६ उद्देशकः१ प्रत * सूत्रांक % [१७१] % दीप अनुक्रम [१८५]] श्रीआचा- व्यतिरिक्तं द्रव्यधूतं द्रव्यं च तद्वस्त्रादि धूतं च रजोऽपनयनार्थ द्रव्यधूतं, आदिग्रहणाद्वृक्षादि फलार्थ, भावधूतं क- रावृत्तिः ष्टिविध, तद्विमोक्षार्थं धूयत इति गाथाशकलार्थः ॥ पुनरप्येनमेवार्थ विशेषतः प्रतिपादयितुमाह (शी०) BI अहियासित्त्वसग्गे दिव्ये माणुस्सए तिरिच्छे य । जो विहुणइ कम्माई भावधुयं तं वियाणाहि ॥ २५२॥ ॥२३२॥ अधिकमासह्यात्यर्थं सोवा, कानतिसह्य ?-उपसर्गान, किंभूतान् ?--दिव्यान्मानुपास्तरश्चांश्च यः कर्माणि संसाभारतरुवीजानि विधुनाति-अपनयति तदाबधुतमित्येयं जानीहि, क्रियाकारकयोरभेदादा कर्मधूननं भावधूतं जानीहीति | भावार्थः ॥ गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारयितव्यं, तच्चेदम् ओबुज्झमाणे इह माणवेसु आघाइ से नरे, जस्स इमाओ जाइओ सव्वओ सुपडिलेहियाओ भवंति, आघाइ से नाणमणेलिसं, से किट्टइ तेसिं समुट्रियाणं निक्खित्तदण्डाणं समाहियाणं पन्नाणमंताणं इह मुत्तिमग्गं, एवं (अवि) एगेमहावीरा विप्परिकमंति, पासह एगे अवसीयमाणे अणत्तपन्ने से बेमि, से जहावि (सेवि) कुंमे हरए विणिविटुचित्ते पच्छन्नपलासे उम्मग्गं से नो लहइ भंजगा इव संनिवेसं नो चयंति एवं (अवि) एगे अणेगरूवेहिं कुलेहिं जाया रूवेहिं सत्ता कलणं थणंति नियाणओ ते न लभंति मुक्खं, 4 A % ॥२३२॥ www.tanditimaryam षष्ठं-अध्ययने प्रथम-उद्देशक: 'स्वजन विधुनन' आरब्धः, ~468~# Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [१], मूलं [१७२/गाथा-१],नियुक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७२] गाथा अह पास तेहिं कुलेहिं आयत्ताए जाया,-गंडी अहवा कोढी, रायसी अवमारियं । काणियं झिमियं चेव, कुणियं खुजियं तहा ॥ १॥ उदरिं च पास मूयं च, सूणीयं च गिलासणिं । वेवई पीढसपि च, सिलिवयं महुमेहणिं ॥२॥ सोलस एए रोगा अक्खाया अणुपुव्वसो । अह णं फुसंति आयंका, फासा य असमंजसा ॥३॥ मरणं तेसिं संपेहाए उववायं चवणं च नच्चा, परियागं च संपेहाए (सू० १७२) स्वर्गापवग्गी तत्कारणानि च तथा संसारं तत्कारणानि चायबुध्यमानोऽनावारकज्ञानसभाबाद् इहे ति मर्त्यलोके मानवेषु विषयभूतेषु धर्ममाख्याति स नरो भवोपग्राहिकर्मसद्भावात् मनुष्यभावव्यवस्थितः सन् धर्ममाचष्टे, न पुनयथा शाक्यानां कुख्यादिभ्योऽपि धर्मदेशनाः प्रादुरुष्यन्ति, यथा वा वैशेषिकाणामुलूकभावेन पदार्थाविर्भावनम् , एवमस्माकं न, क-पातिकर्मक्षये तत्पन्ननिरावरणज्ञानो मनुष्यभावापन्न एव कृतार्थोऽपि सत्त्वहिताय सदेवमनुजायां पर्षदि| कथयतीति। कि तीर्थकर एवं धर्ममाचष्टे उतान्योऽपि?, अन्योऽपि यो विशिष्टज्ञानः सम्यक्पदार्थपरिच्छेदी स धर्माविर्भावनं करोतीति दर्शयितुमाह-यस्यातीन्द्रियज्ञानिनः श्रुतकेवलिनो वा 'इमाः' शस्त्रपरिज्ञायां साधितत्वात् प्रत्यक्षवाचिनेदमाऽभिहिताः 'जातयः' एकेन्द्रियादयः 'सर्वतः सर्वैः प्रकारैः सूक्ष्मवादरपर्याप्तकापर्याप्तकरूपैः सुछु-शङ्कादिव्यु दीप अनुक्रम [१८६... १९०] ~469~23 Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१७२] गाथा 8...3 दीप अनुक्रम [१८६... १९०] श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी ० ) ॥ २३३ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [१], मूलं [१७२],निर्युक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः दासेन 'प्रत्युपेक्षिताः' प्रति उप-सामीप्येन ईक्षिता: ज्ञाता भवन्ति स धर्म्ममाचष्टे नापर इति । इदमेवाह - 'आख्याति' कथयति 'स' तीर्थकृत्सामान्यकेवली अपरो वाऽतिशयज्ञानी श्रुतकेवली वा किमाख्याति ! – 'ज्ञानं' ज्ञायन्ते परिच्छि X ग्रन्ते जीवादयः पदार्थाः येन तज्ज्ञानं-मत्यादि पञ्चधा, किम्भूतं ज्ञानमाख्याति ? - ' अनीदृशं' नान्यत्रेदृशमस्तीत्यनीदर्श, यदिवा सकलसंशयापनयनेन धर्म्ममाचक्षाण एव स आत्मनो ज्ञानमनन्यसदृशमाख्याति । केषां पुनः स धर्ममाचष्ट इत्यत आह-'स' तीर्थकुङ्गणधरादिः 'कीर्त्तयति' यथावस्थितान् भावान् प्रतिपादयति 'तेषां' धर्मचरणाय सम्य गुत्थितानां, यदिवा उत्थिता द्रव्यतो भावतश्च तत्र द्रव्यतः शरीरेण भावतो ज्ञानादिभिः, तत्र स्त्रियः समवसरणस्था उभ यथाऽभ्युत्थिताः शृण्वन्ति, पुरुषास्तु द्रव्यतो भाज्याः, भावोत्थितानां तु धर्ममावेदयति उत्तिष्ठासूनां च देवानां तिरश्चांच, येsपि कौतुकादिना शृण्वन्ति तेभ्योऽप्याचष्टे, भावसमुत्थितान् विशिशेषयिषुराह - निक्षिप्ताः संयमिताः मनोवाक्कायरूपाः प्राण्युपमर्दकारित्वाद्दण्डा इव दण्डा यैस्ते तथा तेषां निक्षिप्तदण्डानां तथा 'समाहिताणं' सम्यगाहिताः- तपःसंयम उद्युक्ताः समाहिता अनम्यमनस्कास्तेषां तथा प्रकर्षेण ज्ञायतेऽनेनेति प्रज्ञानं तद्वतां सश्रुतिकानाम् 'इह' अस्मि न्मनुष्यलोके 'मुक्तिमार्ग' ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकं कीर्त्तयतीति सम्बन्धः । तस्य च तीर्थकृतः साक्षाद्धर्ममावेदयतः केचन लघुकम्र्माणस्तथैव प्रतिपद्य धर्मचरणायोद्यच्छन्त्यपरे त्वन्यथेत्येतत्प्रतिपादयितुमाह-अपिशब्दश्चार्थे, चशब्दश्च वाक्योपन्यासाथै, एवं च तीर्थकृताऽऽवेदिते सत्येके - लब्धकर्मविवरा विविधं संयमसङ्ग्रामशिरसि पराक्रमन्ते, परान् वा इन्द्रियकधर्मरिपून् आक्रमन्ते पराक्रमन्त इति । एतद्विपर्ययमाह - साक्षात्तीर्थकरे सकतसंशयच्छेत्तरि धर्ममावेदयति सत्येकान् Etication Intentional For Party Use Onl ~470 ~# धुता द उद्देशका ।। २३३ ॥ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [ १७२ ] गाथा १...३ दीप अनुक्रम [१८६... १९०] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [१], मूलं [१७२],निर्युक्तिः [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः प्रबलमोहोदयावृतान् संयमेऽवसीदतः पश्यत यूयं किम्भूतानित्याह--नात्मने हिता प्रज्ञा येषां ते अनात्मप्रज्ञास्ता निति, कुतः पुनः संयमानुष्ठानेऽवसीदन्ति इत्यारेकायां सोऽहं ब्रवीमि । अत्र दृष्टान्तद्वारेण सोपपत्ति- किं कारणमित्याहसेशब्दस्तच्छच्दार्थे, अपिशब्दश्चार्थे, स च वाक्योपन्यासार्थः, तद्यथा च कूम्मों महाहूदे विनिविष्टं चित्तं यस्यासौ विनिविष्टचित्तो-गामुपगतः पलाशैः- पत्रैः प्रच्छन्नः पलाशप्रच्छन्नः, सूत्रे तु प्राकृतत्वाद्व्यत्ययः, 'उम्मगं'ति विवरं उन्मज्यतेऽनेनेति वोन्मज्यम्, ऊर्द्ध वा मार्गमुन्मार्ग, सर्वथा अरन्धमित्यर्थः, तदसौ न लभतः इत्यक्षरार्थः । भावार्थस्त्वयम् - कश्चिद् हदो योजनशतसहस्रविस्तीर्णः प्रवलशेवालघन कठिनवितानाच्छादितो नानारूपकरिमकरमत्स्य कच्छपादिजलचराश्रयः, तन्मध्ये चैकं विस्रसापरिणामापादितं कच्छपग्रीवामात्रप्रमाणं विवरमभूत्, तत्र चैकेन कूम्र्मेण निजयूथात् प्रनष्टेन वियोगाकुलतयेतस्ततश्च शिरोधरां प्रक्षिपता कुतश्चित्तथाविधभवितव्यतानियोगेन तद्रन्धे ग्रीवानिर्गमनमाप्तं, तत्र चासौ शरच्चन्द्रचन्द्रिकया क्षीरोदसलिलप्रवाहकल्पयोपशोभितं विकचकुमुदनिकरकृतोपचारमिव तारकाकीर्ण नभस्तलमीक्षाञ्चक्रे, दृष्ट्वा चातीव मुमुदे आसीश्चास्य मनसि यदि तानि मद्रयाण्येतत्स्वर्गदेश्यमदृष्टपूर्व मनोरथानामप्यविषयभूतं पश्यन्ति ततः शोभनमापद्यत इत्येतदवधार्य तूर्णमन्वेषणाय वन्धूनामितश्चेतश्च वभ्राम, अवाप्य च निजान् पुनरपि तद्विवरान्वेषणार्थं सर्वतः पर्यटति न च तद्विवरं विस्तीर्णतया हृदस्य प्रचुरतया यादसामीक्षते, तत्रैव च विनाशमुपयात इति । (अस्यायमर्थोपनयः - संसारहदे जीवकूर्मः कर्मशेवालविवरतो मनुष्यार्यक्षेत्रसुकुलोत्पत्तिसम्यक्त्वावसा| ननभस्तलमासाद्य मोहोदयात् ज्ञात्यर्थं विषयोपभोगाय वा सदनुष्ठानविकलो न सफलतां नयति, तत्यागे कुतः पुनः Jan Estication Untamal For Party Use Onl ~471~# Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१७२] गाथा १...३ दीप अनुक्रम [१८६... १९०] श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ २३४ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [१], मूलं [१७२],निर्युक्तिः [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः संसारहूदान्तर्वर्त्तिनस्तदवासिः १, तस्मादवाप्य भवशतदुरापं कर्म्मविवरभूतं सम्यक्त्वं क्षणमप्येकं तत्र न प्रमादवता भा धुता० ६ व्यमिति तात्पर्यार्थः । पुनरपि संसारानुषङ्गिणां दृष्टान्तान्तरमाह - 'भञ्जगा' वृक्षास्त इव शीतोष्णप्रकम्पनच्छेदनशाखाकवणक्षोभामोटनभञ्जनरूपानुपद्रवान् सहमाना अपि 'सन्निवेशं' स्थानं कर्म्मपरतया न त्यजन्ति, एवमित्यादिना दाष्टन्तिकमर्थ उद्देशका १ दर्शयति- 'एव 'मिति वृक्षोपमया 'अपिः' सम्भावने, 'एके' कर्म्मगुरवोऽनेकरूपेषु कुलेषूच्चावचेषु जाता धर्म्मचरणयोग्या अपि रूपेषु चक्षुरिन्द्रियानुकूलेपूपलक्षणार्थत्वाच्छन्दादिषु च विषयेषु 'सक्ताः' अभ्युपपन्नाः शारीरमानसदुःख दुःखिता राजोपद्रवोपद्रुताः अग्निदाहदग्धसर्वस्वा नानानिमित्ताहिताधयोऽपि न सकलदुःखावासं गृहवासं कर्मनिघ्नास्त्यतुमलम्, अपि तु तत्स्था एव तेषु तेषु व्यसनोपनिपातेषु सत्सु 'करुणं स्तनन्ति' दीनमाक्रोशन्ति, तद्यथा हा तात ! हा मातः हा दैव ! न युज्यते भवत एवंविधेऽवसरे एवम्भूतं व्यसनमापादयितुं, तदुक्तम् -- “ किमिदमचिन्तितमसदृशमनिष्टमतिकष्टमनुपमं दुःखम् । सहसैवोपनतं मे नैरयिकस्येव सत्त्वस्य ॥ १ ॥” इत्यादि, यदिवा रूपादिविषयासक्ता उपचितकर्माणो नरकादिवेदनामनुभवन्तः करुणं स्तनन्तीति, न च करुणं स्तनन्तोऽप्येतस्मात् दुःखान्मुच्यन्ते इत्येतद्दर्शयितुमाह-दुःखस्य निदानम् - उपादानं कर्म्म ततस्ते विलपन्तोऽपि न लभन्ते 'मोक्षं' दुःखापगमं मोक्षकारणं वा संयमानुष्ठानमिति । दुःखविमोक्षाभावे च यथा नानाव्याभ्युपसृष्टाः संसारोदरे प्राणिनो विवर्त्तन्ते तथा दर्शयितुमाह - 'अथ' इति वाक्योपन्यासार्थे पश्य त्वं तेषूच्चावचेषु कुलेषु, आत्मत्वाय - आत्मीयकम्र्मानुभवाय जाताः, तदुदयाच्चेमां अवस्थामनुभवन्तीत्याह-पोडशरोगवक्तव्यानुगतं श्लोकत्रयं, वातपित्तश्लेष्मसन्निपातजं चतुर्द्धा गण्डं तदस्यास्तीति गण्डी-गण्ड Jan Estication Intimal For Pantry Use Only ~ 472 ~# ॥ २३४ ॥ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) *** प्रत सूत्रांक [ १७२ ] गाथा१...३ दीप अनुक्रम | [१८६... १९०] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [१], मूलं [१७२], निर्युक्ति: [२५२ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः २१ मालावानित्यादि, अथवेत्येतत्प्रतिरोगमभिसम्बध्यते, अथवा राजांसी अपस्मारीत्यादि, अथवा तथा - 'कुष्ठी' कुष्ठमष्टादशभेदं तदस्यास्तीति कुष्ठी, तत्र सप्त महाकुष्ठानि, तद्यथा-अरुणोदुम्बरनिश्यजिह्न कपालकाकनादपौण्डरीकदद्रुकुष्ठानीति, महत्त्वं चैषां सर्वधात्वनुप्रवेशादसाध्यत्वाच्चेति, एकादश क्षुद्रकुष्ठानि, तद्यथा-स्थूलारुष्क १ महाकुष्ठै २ ककुष्ठ ३चर्मदल ४ परिसर्प ५ विस ६ सिध्म ७ विचर्चिका ८ किटिभ ९ पामा १० शतारुक ११ संज्ञानीति, सर्वाण्यप्यष्टादश, सामान्यतः कुष्ठं सर्वं सन्निपातजमपि वातादिदोषोत्कटतया तु भेदभाग्भवतीति । तथा राजांसो - राजयक्ष्मा सोऽस्यास्तीति राजांसी, क्षयीत्यर्थः, स च क्षयः सन्निपातजश्चतुर्भ्यः कारणेभ्यो भवति इति, उक्तं च-- "त्रिदोषो जायते यक्ष्मा, गदो हेतुचतुष्टयात् । वेगरोधात् क्षयाच्चैव, साहसाद्विषमाशनात् ॥ १ ॥” तथा अपस्मारो वातपित्तश्लेष्मसन्निपातजत्वाच्चतुर्द्धा तद्वानपगतसदसद्विवेकः भ्रममूर्च्छादिकामवस्थामनुभवति प्राणीति, उक्तं च- "भ्रमावेशः ससंरम्भो, द्वेषोद्रेको हृतस्मृतिः । अपस्मार इति ज्ञेयो, गदो घोरश्चतुर्विधः ॥ १॥" तथा 'काणियं'ति अक्षिरोगः, स च द्विधा-गर्भगतस्योत्पद्यते जातस्य च तत्र गर्भस्थस्य दृष्टिभागमप्रतिपन्नं तेजो जात्यन्धं करोति, तदेवैकाक्षिगतं काणं विधत्ते, तदेव रक्तानुगतं रक्ताक्षं | पित्तानुगतं पिङ्गाक्षं श्लेष्मानुगतं शुक्काक्षं वातानुगतं विकृताक्षं, जातस्य च वातादिजनितोऽभिष्यन्दो भवति, तस्माच्च सर्वे रोगाः प्रादुष्ष्यन्तीति, उक्तं च - " वातात्पित्त कफाद्रक्तादभिष्यन्दश्चतुर्विधः । प्रायेण जायते घोरः, सर्वनेत्रामयाकरः ॥ १ ॥” इति, तथा - 'झिमियं ति जायता सर्वशरीरावयवानामवशित्वमिति, तथा 'कुणियं'ति गर्भाधानदोषाद् १ अपगतः स्मारः स्मरणं यस्मात् सः अपस्मारः तस्मिन्सति तद्योगिणः सर्वविषया स्मृतिः नदयति Jan Estication Intimational For Pantry Use Only ~473 ~# Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१७२] गाथा १...३ दीप अनुक्रम | [१८६... १९०] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [१], मूलं [१७२],निर्युक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ॥ २३५ ॥ श्रीआचा-हस्वैकपादो न्यूनैकपाणिर्वा कुणिः, तथा 'खुजियंति कुब्जं पृष्ठादावस्यास्तीति कुब्जी, मातापितृशोणितशुक्रदोषेण गर्भराङ्गवृत्तिः १ स्थदोषोद्भवाः कुब्जवामनकादयो दोषा भवन्तीति, उक्तं च- "गर्भे वातप्रकोपेन, दौहृदे वाऽपमानिते । भवेत् कुब्जः (सी०) कुणिः पङ्गुर्मूको मन्मन एव वा ॥ १ ॥” मूको मन्मन एवेत्येतदेकान्तरिते मुखदोषे लगनीयमिति । तथा — 'उदरिं चत्ति चः समुच्चये वातपित्तादिसमुत्थमष्टधोदरं तदस्यास्तीत्युदरी, तत्र जलोदर्यसाध्यः शेषास्त्वचिरोत्थिताः साध्या ७ इति, ते चामी भेदाः- “पृथक् समस्तैरपि चानिलाद्यैः, प्लीहोदरं बद्धगुदं तथैव । आगन्तुकं सप्तममष्टमं तु, जलोदरं चेति भवन्ति तानि ॥ १ ॥” इति, तथा 'पास मूयं चति पश्य - अवधारय मूकं मन्मनभाषिणं वा, गर्भदोषादेव जातं तदुत्तरकालं च पञ्चषष्टिर्मुखे रोगाः सप्तस्वायतनेषु जायन्ते तत्रायतनानि ओष्ठौ दन्तमूलानि दन्ता जिल्हा तालु कण्ठः सर्वाणि चेति, तत्राष्टात्रोष्ठयोः पञ्चदश दन्तमूलेष्वष्टौ दन्तेषु पञ्च जिह्वायां नव तालुनि सप्तदश कण्ठे त्रयः सर्वेष्वायतनेष्विति, 'सूणियं च' ति शूनत्वं श्वयथुर्वातपित्तश्लेष्मसन्निपातरक्ताभिघातजोऽयं पोढेति, उक्तं च- “ शोफः स्यात् षड्विधो घोरो, दोषैरुत्सेधलक्षणः । व्यस्तैः समस्तैश्चापीह, तथा रक्ताभिघातजः ॥ १ ॥” इति, तथा 'गिलासणि' ति भस्मको व्याधिः, स च वातपित्तोत्कटतया श्लेष्मन्यूनतयोपजायत इति, तथा 'वेवई'ति वातसमुत्थः शरीरावयवानां कम्प इति उक्तं च- " प्रकामं वेपते यस्तु, कम्पमानश्च गच्छति । कलापख तं विद्यान्मुक्त्तसन्धिनिबन्धनम् ॥ १ ॥” इति, तथा 'पीढसपिं चत्ति जन्तुर्गर्भदोषात् पीढसपित्वेनोत्पद्यते, जातो वा कर्मदोषाद्भवति, स किल ॥ २३५ ॥ पाणिगृहीतकाष्ठः प्रसतीति, तथा 'सिलिवयं' ति श्लीपदं पादादौ काठिन्यं, तद्यथा- प्रकुपितवातपित्तश्लेष्माणोऽधः प्रपन्ना Etication matinal For Parts Only ~474 ~# धुता० ६ उदेशका १ www.indiary.org Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [१], मूलं [१७२],नियुक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७२] गाथा वक्ष्णो(वक्षो)रुजङ्घास्ववतिष्ठमानाः कालान्तरेण पादमाश्रित्य शनैः शनैः शोफमुपजनयन्ति तच्छ्लीपदमित्याचक्षते -"पुराणोदकभूमिष्ठाः, सर्व षु च शीतलाः । ये देशास्तेषु जायन्ते, श्लीपदानि विशेषतः॥१॥ पादयोर्हस्तयोश्चापि, ४||श्लीपदं जायते नृणाम् । कर्णोष्ठनाशास्वपि च, केचिदिच्छन्ति तद्विदः॥२॥" तथा 'महुमेहर्णि'ति मधुमेहो-बस्ति-113 रोगः स विद्यते यस्यासौ मधुमेही, मधुतुल्यप्रस्राववानित्यर्थः, तत्र प्रमेहाणां विंशतिर्भेदाः, स्तत्रास्थासाध्यत्वेनोपन्यासः, तत्र सर्व एव प्रमेहाः प्रायशः सर्वदोषोत्थास्तथापि वाताद्युत्कटभेदाद्विशतिर्भदा भवन्ति, तत्र कफाद्दश षद् फ्तिात् वातजाश्चत्वार इति, सर्वेऽपि चैतेऽसाध्यावस्थायां मधुमेहत्वमुषयान्तीति, उक्तं च-"सर्व एव प्रमेहास्तु, कालेनाप्रतिकारिणः । मधुमेहत्वमायान्ति, तदाऽसाध्या भवन्ति ते ॥१॥” इति । तदेवं पोडशाप्येते-अनन्तरोक्काः 'रोगा' व्या-18 धयो व्याख्याताः 'अनुपूर्वशो' अनुक्रमेण 'अर्थ' अनन्तरं 'ण' इति वाक्यालद्वारे 'स्पृशन्ति' अभिभवन्ति 'आतङ्का आशुजीवितापहारिणः शूलादयो व्याधिविशेषाः 'स्पाश्च' गाढप्रहारादिजनिता दुःखविशेषाः 'असमञ्जसाः' क्रमयोगपद्यनिमित्तानिमित्तोत्पन्नाः स्पृशन्तीति सम्बन्धः । न रोगातकैरेव केवलैर्मुच्यते, अन्यदपि यत् संसारिणोऽधिक | स्यात्तदाह-तेषां कर्मगुरूणां गृहवासासक्तमनसामसमजसरोगैः क्लेशितानां 'मरणं' प्राणत्यागलक्षणं 'संप्रेक्ष्य' पर्यालोच्य |पुनरुपपातं च्यवनं च देवानां कर्मोदयात् सचितं ज्ञात्वा तद्विधेयं येन गण्डादिरोगाणां मरणोपपातयोश्चात्यन्तिको| ऽभावो भवति, किं च-कर्मणां मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगाहितानामबाघोत्तरकालमुदयावस्थायां परिपाकं च | 'सम्प्रेक्ष्य' शारीरमानसदुःखोत्पादकं पर्यालोच्य तदुच्छित्तये यतितव्यं ।। स च करुणं स्तनन्तीत्यादिना ग्रन्थेनोपपात दीप अनुक्रम [१८६... १९०] wwwandltimaryam ~475~# Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१७७] दीप अनुक्रम [१९०] श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ २३६ ॥ * ८८० “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [१], मूलं [१७७],निर्युक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः च्यवनावसानेनावेदितोऽपि पुनरपि तद्गरीयस्त्वख्यापनाय प्राणिनां संसारे निर्वेदवैराग्योत्पत्त्यर्थमभिधित्सुकाम आह तं सुणेह जहा तहा संति पाणा अंधा तमसि वियाहिया, तामेव सई असई अइअ च उच्चावयफासे पडिसंवेएइ, बुद्धेहिं एयं पवेइयं संति पाणा वासगा रसगा उदए उदचरा आगासगामिणो पाणा पाणे किलेसंति, पास लोए महन्भयं ( सू० १७७ ) 'तं' कर्म्मविपाकं यथावस्थितं तथैव ममावेदयतः शृणुत यूयं तद्यथा-नारकतिर्यङ्नरामरलक्षणाश्चतस्रो गतयः, तत्र नरकगतौ चत्वारो योनिलक्षाः पञ्चविंशतिकुल कोटिलक्षाः त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्युत्कृष्टा स्थितिः वेदनाश्च परमाधार्मिकपरस्परोदीरितस्वाभाविकदुःखानां नारकाणां या भवन्ति ता वाचामगोचराः, यद्यपि लेशतश्चिकथयिषोरभिधेयविपयं न वागवतरति तथाऽपि कर्म्मविपाकावेदनेन प्राणिनां वैराग्यं यथा स्यादित्येवमर्थं श्लोकैरेव किञ्चिदभिधीयते-“श्रवणलवनं नेत्रोद्धारं करक्रमपाटनं, हृदयदहनं नासाच्छेदं प्रतिक्षणदारुणम् । कटविदहनं तीक्ष्णापातत्रिशूलविभेदनं, दहनवदनैः कङ्केघोरैः समन्तविभक्षणम् ॥ १॥ तीक्ष्णैरसिभिर्दीप्तैः कुन्तैर्विषमैः परश्वधैश्वकैः । परशुत्रिशूलमुद्गरतोमरवासीमुषण्डीभिः ॥ २ ॥ सम्भिन्नतालुशिरस छिन्नभुजारिछन्नकर्णनासौष्ठाः । भिन्नहृदयोदरान्त्रा भिन्नाक्षिपुटाः सुदुःखार्त्ताः ॥ ३ ॥ निपतन्त उत्पतन्तो विचेष्टमाना महीतले दीनाः । नेक्षन्ते त्रातारं नैरयिकाः कर्म्मपटलान्धाः ॥ ४ ॥ छिद्यन्ते कृपणाः कृतान्तपरशोस्तीक्ष्णेन धारासिना, क्रन्दन्तो विषवीचि (वच्छु)भिः परिवृताः संभक्षणव्यापृतैः । पाठ्यन्ते Jan Estication Intational For Prata Use Only धुता० ६ उद्देशकः१ ~476~# ।। २३६ ॥ मूल सम्पादकेन अत्र सूत्रक्रम- १७७ अलिखित, तन्मध्ये सूत्र - क्रम १७३ १७६ न दृश्यते (आद्य संपादक यहाँ सिर्फ सूत्र १७३ से १७६ का क्रम ना भूल गए है, मेटर के सम्पादनमे कोई भूल नहीं है ) Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [१], मूलं [१७७],नियुक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: BAR प्रत सूत्रांक [१७] दीप अनुक्रम [१९०]] क्रकचेन दारुवदसिन प्रच्छिन्नवाहुद्वयाः, कुम्भीषु पुपानदग्धतनको मूषासु चान्तर्गताः ॥ ५॥ भृज्यन्ते ज्वलदम्बरीपहुतभुगूज्वालाभिराराविणो, दीप्ताङ्गारनिभेषु वनभवनेष्वङ्गारकेषूत्थिताः । दह्यन्ते विकृतोयबाहुबदनाः कन्दन्त आर्तस्वनाः, पश्यन्तः कृपणा दिशो विशरणाखाणाय को नो भवेत् ॥६॥" इत्यादि । तथा तिर्यग्गतौ पृथिवीकायजन्तूनां सप्त योनिलक्षा द्वादश कुलकोटिलक्षाः स्वकायपरकायशस्त्राणि शीतोष्णादिका वेदनाः, तथाऽप्कायस्यापि सप्त योनिलक्षाः सप्त च कुलकोटिलक्षाः वेदना अपि नानारूपा एव, तथा तेजस्कायस्य सप्त योनिलक्षाः त्रयः कुलकोटीलक्षाः पूर्ववढेदनादिकं, वायोरपि सत योनिलक्षाः सप्त च कुलकोटीलक्षाः वेदना अपि शीतोष्णादिजनिता नानारूपा एव, प्रत्येकवनसतेर्दश योनिलक्षाः साधारणवनसतेश्चतुर्दश उभयरूपस्याप्यष्टाविंशतिः कुलकोटीलक्षाः, तत्र च गतोऽसुमाननन्तमपि कालं छेदनभेदनमोटनादिजनिता नानारूपा वेदना अनुभवन्नास्ते, विकलेन्द्रियाणामपि द्वौ द्वौ योनिलक्षी कुलकोव्यस्तु द्वीन्द्रियाणां सप्त त्रीन्द्रियाणामष्टौ चतुरिन्द्रियाणां नव, दुःखं तु क्षुपिपासाशीतोष्णादिजनितमनेकधाऽध्यक्षमेव तेषामिति, पशेन्द्रियतिरश्चामपि चत्वारो योनिलक्षाः कुलकोटीलक्षास्तु जलचराणामझेत्रयोदश पक्षिणां द्वादश चतुप्पदानां दश उरम्परिसपोणो दश भुजपरिसप्पाणां नव वेदनाश्च नानारूपा यास्तिरश्चां सम्भवन्ति ताः प्रत्यक्षा एवेति, | उक्तं च-"धुत्तइहिमात्युष्णभयादिताना, पराभियोगव्यसनातुराणाम् । अहो ! तिरश्चामतिदुःखितानां, सुखानुषगः किल वार्तमेतद् ॥१॥" इत्यादि । मनुष्यगतावपि चतुर्दश योनिलक्षा द्वादश कुलकोटीलक्षाः, वेदनास्वेवम्भूता इति-"दुःखं स्त्री-X) है कुक्षिमध्ये प्रथममिह भये गर्भवासे नराणां, बालत्वे चापि दुःखं मललुलिततनुस्त्रीपयःपानमिश्चम् । तारुण्ये चापि दुःखं wwwandltimaryam ~477~# Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [१], मूलं [१७७],नियुक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत धुता०६ उद्देशका सूत्रांक [१७७] दीप अनुक्रम [१९०]] श्रीआचा- भवति विरह वृद्धभावोऽप्यसारः, संसारे रे मनुष्या! वदत यदि सुखं स्वल्पमप्यस्ति किश्चित् ॥ १॥ बाल्यात्प्रभृति रावृत्तिःच रोगैर्दष्टोऽभिभषश्च यावदिह मृत्युः । शोकवियोगायोगैदुर्गतदोपैश्च नैकविधैः ॥२॥ क्षुत्तृहिमोष्णानिलशीतदादा(शी०) रिधशोकप्रियविप्रयोगैः । दौर्भाग्यमौानभिजात्यदास्यवैरूप्यरोगादिभिरस्वतन्त्रः ॥३॥" इत्यादि । देवगतावपि चत्वारो योनिलक्षाः पड्रिंशतिः कुलकोटीलक्षाः तेषामपीवा॑विषादमत्सरच्यवनभयशल्यवितुद्यमानमनसां दुःखानुषङ्ग ॥२३७॥ एव, सुखाभासाभिमानस्तु केवल मिति, उक्तं च-"देवेषु च्यवनवियोगदुःखितेषु, क्रोधेामदमदनातितापितेषु । आर्या ! नस्तदिह विचार्य संगिरन्तु, यत्सौख्यं किमपि निवेदनीयमस्ति ॥१॥" इत्यादि । तदेवं चतुर्गतिपतिताः संसारिणो नानारूपं कर्मविपाकमनुभवन्तीत्येतदेव सूत्रेण दर्शयितुमाह-सन्ति' विद्यन्ते 'प्राणाः' प्राणिनः 'अन्धाः' चक्षुरिन्द्रियविकला भावान्धा अपि सद्विवेकविकलाः 'तमसि' अन्धकारे नरकगत्यादी भावान्धकारेऽपि च मिथ्यात्याविरतिप्रमादक-1 पायादिके कर्मविपाकापादिते व्यवस्थिता व्याख्याताः । किं च-तामेवावस्था कुष्ठाद्यापादितामेकेन्द्रियापर्याप्तकादिका वा सकृदनुभूय कर्मोदयात्तामेव असकृद्-अनेकशोऽतिगत्योचावचान-तीत्रमन्दान् स्पर्शान-दुःखविशेषान् 'प्रतिसंवेदयति' अनुभवति । एतच तीर्थकृद्भिरावेदितमित्याह-'बुद्धः' तीर्थकृद्भिः 'एतद् अनन्तरोक्तं प्रकर्षेणादौ वा वेदितं प्रवेदितम् । एतच वक्ष्यमाणं प्रवेदितमित्याह-सन्ति' विद्यन्ते 'प्राणाः' प्राणिनो 'बासका' 'वासू शब्दकुत्सायां वासन्तीति वासका:-भाषालब्धिसम्पन्ना द्वीन्द्रियादयः, तथा रसमनुगच्छन्तीति रसगा:-कटुतिक्तकषायादिरसवेदिनः संजिन इत्यर्थः, इत्येवम्भूतः कर्मविपाकः संसारिणां सम्प्रेक्ष्य इति सम्बन्धः, तथा-'उदके' उदकरूपा एवैकेन्द्रिया C ॥२३७॥ wwwandltimaryam ~478~# Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [१], मूलं [१७७],नियुक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७] दीप अनुक्रम [१९०]] जन्तवः पर्याप्तकापर्याप्तकभेदेन व्यवस्थिताः, तथा उदके चरन्तीत्युदकचराः-पूतरकच्छेदनकलोडणकवसा मत्स्यकच्छपादयः, तथा स्थलजा अपि केचन जलाश्रिता महोरगादयः पक्षिणश्च केचन तद्गतवृत्तयो द्रष्टव्याः, अपरे तु आकाशगामिनः पक्षिणः, इत्येवं सर्वेऽपि 'प्राणाः' प्राणिनोऽपरान् प्राणिनः आहाराद्यर्थ मत्सरादिना वा 'क्लेशयन्ति' उपतापयन्ति । यद्येवं ततः किमित्यत आह-'पश्य' अवधारय 'लोके' चतुर्दशरज्वात्मके, कर्मविपाकात्सकाशात् 'महद्भय'। नानागतिदुःखक्लेशविपाकात्मकमिति ॥ किमिति कर्मविपाकान्महद्रयमित्याह बहुदुक्खा हु जन्तवो, सत्ता कामेसु माणवा, अबलेण वहं गच्छन्ति सरीरेणं पभंगुरेण अढे से बहुदुक्खे इइ बाले पकुव्वइ एए रोगा बहू नच्चा आउरा परियावए नालं पास, अलं तवेपहि, एयं पास मुणी! महब्भयं नाइवाइज कंचणं (सू० १७८) बहूनि दुःखानि कर्मविपाकापादितानि येषां जन्तूनां ते तथा, हुर्यस्मादेवं तस्मात्तत्राप्रमादवता भाव्यं । किमित्येवं भूयो भूयोऽपदिश्यत इत्यत आह-यस्मादनादिभवाभ्यासेनागणितोत्तरपरिणामाः 'सक्ताः' गृद्धाः 'कामेषु' इच्छामदनरूपेषु 'मानवाः' पुरुषा इत्यतो न पुनरुक्तदोषानुषङ्गः । कामासक्ताश्च यदवामुवन्ति तदाह-बलरहितेन निःसारेण तुषमुष्टिकल्पेनौदारिकेण शरीरेण 'प्रभङ्करेण' स्वत एव भङ्गशीलेन तत्सुखाधानाय कम्मोपचित्याऽनेको वधं गच्छन्ति, कः पुनरसी विपाककटुकेषु कामेषु यो रतिं विदध्यादित्याह-मोहोदयादातः अगणितकार्याकायविवेकः सोऽसुमान्बहु ~479~# Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [१], मूलं [१७८],नियुक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक (सी०) [१७८] दीप अनुक्रम [१९१] श्रीआचादुःखं प्राप्तव्यमनेनेति बहुदुःख इत्येनं कामानुषङ्ग प्राणिनां क्लेशं वा 'बालो' रागद्वेषाकुलितः प्रकर्षण करोति प्रकरोति, धुता०६ रागबृत्तिः शतजनितकम्मविपाकाच्च अनेकशो वधं गच्छति, यदिवा रोगेषु सत्सु इत्येतद्वक्ष्यमाणं बालोऽज्ञः प्रकरोति तदाह|| एतान्-गण्डकुष्ठराजयक्ष्मादीन रोगान् बहुनूत्पन्नानिति ज्ञात्वा तद्रोगवेदनया आतुराः सन्तः चिकित्सायै प्राणिनः परि उद्देशका तापयेयुः, 'लावकादिपिशिताशिनः किल क्षयव्याध्युपशमः स्यादित्यादिवाक्याकर्णनाजीविताशया गरीयस्यपि प्राण्युप॥२३८॥ मर्दे प्रवर्तेरन् , नैतदवधारयेयुः यथा-स्वकृतावन्ध्यकर्मविपाकोदयादेतत् , तदुपशमाच्चोपशमः, प्राण्युपमर्दचिकित्सया च किल्बिषानुषङ्ग एवेति, एतदेवाह-पश्यैतद्विमलविवेकावलोकनेन यथा 'नालं' न समर्थाः चिकित्साविधयः कम्मोदयोपशमं विधात, यद्येवं ततः किं कर्तव्यमिति दर्शयति–'अल' पर्याप्त 'तव' सदसद्विवेकिनः 'एभिः' पापोपादानभू-|| तैश्चिकित्साविधिभिरिति । किं च एतत् प्राण्युपमर्दादिकं पश्य' अवधारय हे 'मुने! जगत्रयस्वभाववेदिन, म-15 हद्-वृहद्भयहेतुत्वाद्भय, यद्येवं ततः किं कुर्यादिति दर्शयति–नातिपातयेत्' न हन्यात् कञ्चन प्राणिनं, यत एकस्मिन्नपि प्राणिनि-हन्यमानेऽष्टप्रकारमपि कर्म वध्यते, तच्चानुत्तारसंसारगमनायेत्यतो महाभयमिति, यदिया एए |रोगे बहू णचेत्यादिको ग्रन्थः कामानधिकृत्य नेयः, एतान् रोगरूपान् कामान् बहून् ज्ञात्वा आसेवनाप्रज्ञयेति आतुरा:कामेच्छान्धा अपरान् प्राणिनः परितापयेयुः इत्यादिना प्रक्रमेणेति ॥ तदेवं रोगकामातुरतया सावद्यानुष्ठानप्रवृत्तानामुपदेशदानपुरस्सरं महाभयं प्रदर्य तद्विपर्यस्तानां सस्वरूपां गुणवत्ता दिदर्शयिषुः प्रस्तावमारचयन्नाह ॥२३८॥ आयाण भो सुस्सूस! भो धूयवायं पवेयइस्सामि इह खलु अत्तत्ताए तेहिं तेहिं कु Jain Educatinintamathima wwwandltimaryam ~480~# Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१७९] दीप अनुक्रम [१९२] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [१], मूलं [१७९],निर्युक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः लेहिं अभिसेएण अभिसंभूया अभिसंजाया अभिनिव्बुडा अभिसंबुड्ढा अभिसंबुद्धा अभिनिता अणुपुव्वेण महामुणी ( सू० १७९ ) 'भोः' इति शिष्यामन्त्रणं, यदहमुत्तरत्रावेदयिष्यामि भवतस्तद्' 'आजानीहि' - अवधारय, 'शुश्रूषस्व' श्रवणेच्छां विघेहि 'भो:' इति पुनरप्यामन्त्रणमर्थगरीयस्त्वख्यापनाय नात्र भवता प्रमादो विधेयो, धूतवादं कथयिष्याम्यहं, धूतम्अष्टप्रकारकर्म्मधूननं ज्ञातिपरित्यागो वा तस्य वादो धूतवादः तं प्रवेदयिष्यामि, अवहितेन च भवता भाव्यमिति । नागार्जुनीयास्तु पठन्ति – “धुतोवायं पवेयंति" अष्टमकारकर्म्मधूननोपायं निजघूननोपार्य वा प्रवेदयन्ति तीर्थकरादयः । कोऽसावुपाय इत्यत आह- 'इह' अस्मिन् संसारे 'खलुः' वाक्यालङ्कारे आत्मनो भाव आत्मता - जीवास्तिता स्वकृतकर्म्मपरिणतिर्वा तयाऽभिसम्भूताः सञ्जाताः, न पुनः पृथिव्यादिभूतानां कायाकारपरिणामतया ईश्वरप्रजापतिनियोगेन वेति तेषु तेषूच्चावचेषु कुलेषु यथास्वं कम्र्मोदयापादितेषु 'अभिषेकेण शुक्रशोणितनिषेकादिक्रमेणेति, तत्रायं क्रमः - "सप्ताहं कललं विन्द्यात्ततः सप्ताहमर्बुदम् । अर्बुदाज्जायते पेशी, पेशीतोऽपि घनं भवेत् ॥ १ ॥” इति तत्र | यावत्कललं तावदभिसम्भूताः, पेशीं यावदभिसञ्जाताः, ततः साङ्गोपाङ्गस्नायुशिरोरोमादिक्रमाभिनिवर्त्तनादभिनिर्वृत्ताः, ततः प्रसूताः सन्तोऽभिसंवृद्धाः, धर्म्मश्रवणयोग्यावस्थायां वर्त्तमाना धर्मकथादिकं निमित्तमासाद्योपलब्धपुण्यपापतयाऽभिसम्बुद्धाः, ततः सदसद्विवेकं जानानाः अभिनिष्क्रान्ताः, ततोऽधीताचारादिशास्त्रास्तदर्थ भावनोपबृंहितचर Etication national For Pantry Use Only ~481 ~# Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१७९] दीप अनुक्रम [१९२] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ २३९ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [१], मूलं [१७९],निर्युक्तिः [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः णपरिणामा अनुपूर्वेण शिक्षकगीतार्थक्षपक परिहारविशुद्धि कै का किविहारिजिन कल्पि कावसाना मुनयोऽभूवन्निति ॥ अभिसम्बुद्धं च प्रवित्रजिषुमुपलभ्य यन्निजाः कुर्युस्तद्दर्शयितुमाह तं परिक्कतं परिदेवमाणा मा चयाहि इय ते वयंति-छंदोवणीया अज्झोववन्ना अकंदकारी जणगा रुयंति, अतारिसे मुणी (ण य) ओहं तरप जणगा जेण विप्पजढा, सरणं तत्थ नो समेइ, कहं तु नाम से तत्थ रमइ ?, एयं नाणं सया समणुवासिजासि तिमि ( सू० १८० ) धूताध्ययनोदेशकः ६-९ ॥ 'तम्' अवगततत्त्वं गृहवासपराङ्मुखं महापुरुषसेवितं पन्थानं पराक्रममाणमुपलभ्य मातापितृपुत्रकलत्रादयः परि| देवमाना माऽस्मान् परित्यज 'इति' एतत् ते कृपामापादयन्तो वदन्ति, किं चापरं वदन्तीत्याह-छन्देनोपनीताः छ|न्दोपनीताः- तवाभिप्रायानुवर्त्तिनस्त्वयि चाभ्युपपन्नाः, तदेवम्भूतानस्मान्माऽवमंस्था इत्येवमाक्रन्दकारिणो 'जनका’ मातापित्रादयो जना वा रुदन्ति । एवं च वदेयुरित्याह-न तादृशो मुनिर्भवति, न चौघं संसारं तरति, येन पाखण्ड| विप्रलब्धेन 'जनका' मातापित्रादयः 'अपोढाः' त्यक्ता इति । स चावगतसंसारस्वभावो यत्करोति तदाह-न ह्यसावनुरक्तमपि बन्धुवर्ग 'तत्र' तस्मिन्नवसरे शरणं समेति, न तदभ्युपगमं करोतीत्यर्थः । किमित्यसौ शरणं नैतीत्याहकथं नु नामासौ 'तत्र' तस्मिन् गृहवासे सर्वनिकारास्पदे नरकप्रतिनिधौ शुभद्वारपरिधे रमते ?, कथं गृहवासे द्वन्द्वै Jan Estication Untamal For Pantry O ~482~# घुता० ६ उद्देशकः१ ॥ २३९ ॥ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१८०] दीप अनुक्रम [१९३] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [१], मूलं [१८०],निर्युक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः कहती विघटितमोहकपाटः सन् रतिं कुर्यादिति १ । उपसंहारमाह- 'एतत् पूर्वोक्तं ज्ञानं सदा आत्मनि 'सम्यगनुवासयेः' व्यवस्थापयेः, इतिरधिकारपरिसमाप्ती, ब्रवीमीति पूर्ववत् । धूताध्ययनस्य प्रथमोदेशकः समाप्तः ॥ उक्तः प्रथमोदेशकः, साम्प्रतं द्वितीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः इहानन्तरोदेशके निजकविधूनना प्रतिपादिता, सा चैवं फलवति स्याद्यदि कर्म्मविधूननं स्याद्, अतः कर्म्मविधूननार्थमिदमुपक्रम्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादि सूत्रम् - आउरं लोगमायाए चइता पुव्वसंजोगं हिच्चा उवसमं वसित्ता बंभचेरंसि वसु वा अ वसु वा जाणि धम्मं अहा तहा अहेगे तमचाइ कुसीला ( सू० १८१ ) 'लोकं' मातापितृपुत्रकलत्रादिकं तमातुरं स्नेहानुषङ्गतया वियोगात् कार्यावसादेन वा यदिवा जन्तुलोकं कामरागातुरम् 'आदाय' ज्ञानेन 'गृहीत्वा' परिच्छिद्य तथा त्यक्त्वा च 'पूर्वसंयोगं' मातापित्रादिसम्बन्धं, तथा' हित्वा गत्वोपशमं उषित्वापि ब्रह्मचर्ये, किम्भूतः सन्निति दर्शयति-वसु द्रव्यं तद्भूतः कषायकालिकादिमलापगमाद्वीतराग इत्यर्थः, तद्विपर्ययेणानुबसु सराग इत्यर्थः, यदिवा वसुः साधुः अनुवसुः श्रावकः, तदुक्तम्- "वीतरागो वसुर्ज्ञेयो, जिनो वा संयतोऽथवा । सरागो ह्यनुवसुः प्रोक्तः, स्थविरः श्रावकोऽपि वा ॥ १ ॥ " तथा ज्ञात्वा ' श्रुतचारित्राख्यं Jan Estication tumanl षष्ठं- अध्ययने द्वितीय उद्देशक: 'कर्मविधुनन' आरब्ध:, For Parts Only ~483~# www.isenditary.org Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [२], मूलं [१८१],नियुक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत (शी०) सूत्रांक [१८१] दीप श्रीआचा- यथातथावस्थितं धर्म प्रतिपद्याप्यथैके मोहोदयात्तथाविधभवितव्यतानियोगेन 'त' धर्म प्रति पालयितुं न शक्नुवन्ति, धुता०६ राजवृत्तिः किंभूताः?-कुत्सितं शीलं येषां ते कुशीला इति, यत एव धर्मपालनाशक्ता अत एव कुशीलाः ॥ एवम्भूताश्च सन्तः किं | कुर्युरित्याह उद्देशकार वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं विउसिज्जा, अणुपुट्वेण अणहियासेमाणा परीसहे ॥२४॥ दुरहियासए, कामे ममायमाणस्स इयाणिं वा मुहत्तेण वा अपरिमाणाए भेए, एवं से अंतराएहिं कामेहिं आकेवलिएहिं अवइन्ना चेए (सू०१८२) | केचिद्भवशतकोटिदुरापमवाप्य मानुषं जन्म समासाद्यालब्धपूर्वी संसारार्णवोत्तरणप्रत्यलां बोधिद्रोणीमङ्गीकृत्य मोक्षतरुबीजं सर्वविरतिलक्षणं चरणं पुनर्दुर्निवारतया मन्मथस्य पारिप्लवतया मनसो लोलुपतयेन्द्रियग्रामस्थानेकमवाभ्यासापादितविषयमधुरतया प्रबलमोहनीयोदयादशुभवेदनीयोदयासन्नप्रादुर्भावादयशःकीर्युत्कटतया अवगणय्याऽऽयतिमविचार्य कार्याकार्य उररीकृत्य महाव्यसनसागरं साम्प्रतेक्षितयाऽधाकृतकुलक्रमाचारास्तत्यजेयुः, तत्त्यागश्च धम्मोपकरण-|| परित्यागाभवतीत्यतस्तदर्शयति-वस्त्रमित्यनेन क्षौमिकः कल्पो गृहीतः, तथा 'पतगहः' पात्रं 'कम्बल' और्णिकं कल्प पा-1 बनियोगं वा 'पादपुज्छनक' रजोहरणं एतानि निरपेक्षतया व्युत्सृज्य कश्चिद्देशविरतिमभ्युपगच्छति, कश्चिद्दर्शनमेवाल-1510l. दम्बते, कश्चित्ततोऽपि भ्रश्यति । कथं पुनर्दुर्लभं चारित्रमवाप्य पुनस्तत्त्यजेदित्याह-परीपहान् दुरधिसहनीयान् 'अनुक्र-14 अनुक्रम [१९४] wwwlandltimaryam ~484~# Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [२], मूलं [१८२],नियुक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८२] दीप अनुक्रम [१९५] RECARकदर मेण परिपाव्या योगपयेन वोदीर्णाननधिसहमाना:-परीपहर्भग्ना मोहपरवशतया पुरस्कृतदुर्गतयो मोक्षमार्ग परित्य- जन्ति । भोगार्थ त्यक्तवतामपि पापोदयाद्यत्स्यात्तदाह-'कामान् विरूपानपि 'ममायमाणस्स'त्ति स्वीकुर्वतो भोगाध्यवसायिनोऽन्तरायोदयात् 'इदानी तत्क्षणमेव प्रत्रज्यापरित्यागानन्तरमेव भोगप्राप्तिसमनन्तरमेव वा अन्तर्मुहूर्तेन वा कण्डरीकस्येवाहोरात्रेण वा ततोऽप्यूचं शरीरभेदो भवत्यपरिमाणाय, एवम्भूत आत्मना साई, विवक्षितशरीरभेदो भवति येनानन्तेनापि कालेन पुनः पञ्चन्द्रियत्वं न प्रामोति । एतदेवोपसञ्जिहीपुराह-एवं' पूर्वोक्तप्रकारेण 'स' भोगाभिलाषी आन्तरायिकः कामैः-बहुप्रत्यपायः न केवलमकेवलं तत्र भवा आकेवलिका:-सद्वन्द्वाः सप्रतिपक्षा इतियावत् असम्पूर्णा बा, तैः सगिरवतीर्णाः संसारं तान् वा द्वितीया) तृतीया, 'च' समुच्चये, 'एत' इति भोगाभिलाषिणः, कामैरतृप्ता एव शरीरभेदमवाप्नुवन्तीति तात्पर्यार्थः ॥ अपरे त्वासन्नतया मोक्षस्य कथञ्चित्कुतश्चित् कदाचिदवाप्य चरणपरिणामं प्रतिक्षणं लघुकर्मतया प्रवर्द्धमानाध्यवसायिनो भवन्तीति दर्शयितुमाह अहेगे धम्ममायाय आयाणप्पभिइसु पणिहिए चरे, अप्पलीयमाणे दढे सव्वं गिद्धिं परिन्नाय, एस पणए महामुणी, अइअच्च सव्वओ संगं न महं अस्थिति इय एगो अहं, अस्सि जयमाणे इत्थ विरए अणगारे सव्वओ मुंडे रीयंते, जे अचेले परिवुसिए संचिक्खइ ओमोयरियाए, से आकुटे वा हए वा लुंचिए वा पलियं पकत्थ अ wwlanditaram ~485-23 Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [२], मूलं [१८३],नियुक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचारावृत्तिः सूत्रांक (शी०) [१८३] P4%A3-3- 11 ॥२४१॥ दीप अनुक्रम [१९६] दुवा पकत्थ अतहेहिं सहफासेहिं इय संखाए एगयरे अन्नयरे अभिन्नाय तितिक्ख धुता०६ माणे परिव्वए जे य हिरी जे य अहिरीमाणा (सू० १८३) उद्देशका 'अर्थ' अनन्तरमेके विशुद्धपरिणामतया आसन्नापवर्गतया 'धर्म' श्रुतचारित्राख्यं 'आदाय' गृहीत्वा वस्त्रपतगृहादिधम्मोपकरणसमन्विता धर्मकरणेषु प्रणिहिताः परीषहसहिष्णवः सर्वज्ञोपदिष्टं धर्म चरेयुरिति । अत्र च पूर्वाणि प्रमादसूत्राण्यप्रमादाभिप्रायेण पठितव्यानीति, उक्तं च-“यत्र प्रमादेन तिरोऽपमादः, स्याद्वाऽपि यलेन पुनःप्रमादः। विपर्ययेणापि पठन्ति तत्र, सूत्राण्यधीकारवशाद्विधिज्ञाः॥१॥"। किम्भूताः पुनर्धम चरेयुरित्याह-कामेषु मातापिवादिके वा लोके न प्रलीयमाना अप्रलीयमानाः-अनभिषक्का धर्मचरणे 'दृढाः' तपःसंयमादौ द्रढिमानमालम्बमाना धर्म चरन्तीति, किं च-सर्वी 'गृद्धिं' भोगका दुःखरूपतया ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परित्यजेत् ।। तत्सरित्यागे गुणमाह-एप' इति कामपिपासापरित्यागी प्रकर्षेण नतः-प्रहः संयमे कर्मधुननायां वा महामुनिर्भवति नापर इति । किं च-'अतिगत्य अत्येत्यातिक्रम्य 'सर्वतः' सबै प्रकारः 'सङ्गं सम्बन्धं पुत्रकलत्रादिजनितं कामानुषङ्गं वा, किं भावयेदित्याह-न मम किमप्यस्तीति यत्संसारे पतत आलम्बनाय स्यादिति, तदभावाच 'इति' उक्तक्रमे-18 णकोऽहमस्मिन् संसारोदरे, न चाहमन्यस्य कस्यचिदिति । एतद्भावनाभावितश्च यत्कुर्यात्तदाह-अत्र' अस्मिन् मी-INT॥२४॥ नीन्द्रे प्रवचने विरतः सन् सावद्यानुष्ठानाद्दशविधचक्रवालसामाचार्या यतमानः, कोऽसौ?-'अनगारः' प्रबजितः, एक-17 wwwandltimaryam ~486-23 Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१८३] दीप अनुक्रम [१९६] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [२], मूलं [१८३],निर्युक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः स्वभावना भावयन्नत्र मौदर्ये संतिष्ठत इत्युत्तरसूत्रेण सम्बन्धः, इयमेव क्रिया अनन्तरसूत्रेष्वपि लगयितव्येति, किं च'सर्वतः द्रव्यतो भावतश्च मुण्डो 'रीयमाणः' संयमानुष्ठाने गच्छन्, किम्भूत इत्याह-यः 'अचेल : ' अल्पचेलो जिनकल्पिको वा 'पर्युषितः' संयमे उद्युक्तविहारी अन्तप्रान्तभोजी, तदपि न प्रकामतयेत्याह- 'संचिक्ख' संतिष्ठते अवमौदर्ये । न्यूनोदरतायां वर्त्तमानः सन् कदाचित्प्रत्यनीकतया ग्रामकण्टकैस्तु येतेत्येतद्दर्शयितुमाह - 'स' मुनिर्वाग्भिराक्रुष्टो वा द ण्डादिभिर्हतो वा लुश्चितो वा केशोत्पादनतः पूर्वकृतकर्म्मपरिणत्युदयादेतदवगच्छन् सम्यक्तितिक्षमाणः परिव्रजेदिति, एतच्च भावयेत्, तद्यथा - "पावाणं च खलु भो कडाणं कम्माणं पुविदुचिन्नाणं दुष्पडिकंताणं वेदयित्ता मुक्खो, नत्थि अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता" इत्यादि । कथं पुनर्वाग्भिराकुश्यत इत्याह- 'पलिअं 'ति कर्म्म जुगुप्सितमनुष्ठानं तेन पूर्वाचरितेन कुविन्दादिना प्रकथ्य जुगुप्स्यते, तद्यथा-भो कोलिक ! प्रव्रजित! त्वमपि मया सार्द्धमेवं जल्पसीति, अथवा जकारचकारादिभिरपरैः प्रकारैः प्रकथ्य निन्दां विधत्ते, एभिर्वा वक्ष्यमाणैः प्रकारैरित्याह--'अतथ्यैः' वितथैरसद्भूतैः शब्देवीरस्वं पारदारिक इत्येवमादिकैः स्पशैश्च असद्भूतैः साधोः कर्तुमयुक्तैः करचरणच्छेदादिभिः स्वकृतादृष्टफलमित्येतत् 'सन्ख्याय' ज्ञात्वा तितिक्षमाणः प्रव्रजेदिति, यदिवा एतत् सङ्ख्याय, तद्यथा-पंचहि ठाणेहिं छड़ | पापानां च खतु भोः कृतानां कर्मणां पूर्व दुखीनां दुप्पराक्रान्तानां वेदविला मोक्षः, नास्त्यवेदवित्वा तपसा वा क्षपयित्वा २ पञ्चभिः स्थानप्रस्थ उत्पन्नानुपसर्गान् सहते क्षमते तितिक्षते अभ्यासयति तयथा-यक्षा विद्योऽयं पुरुषः, उन्मादप्राप्तोऽयं पुरुषः, सथितोऽयं पुरुषः मम च तद्भव वेदनीयानि कर्माण्युदीर्णानि भवन्ति यदेष पुरुष आकोशति नाति तेपते विध्यति परितापयति, मम च सम्यक् समानस्य यावदध्यासीन स्यैकान्ततः कर्मनिर्जरा भवति । पञ्चभिः स्थानैः केवली उदीर्णान् परानुपसमन यावदध्यासयेत् यावत् ममाध्यास्यतः वह प्रस्थाः श्रमणा निर्मन्या उदीर्णान् परीषहोपसर्गान् सम्यक् सहिग्यन्ते यावद् अध्यासि पन्ते. Jan Estication Intimational For Parts Only ~487 ~# www.india.org Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१८३] दीप अनुक्रम [१९६] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [२], मूलं [१८३], निर्युक्तिः [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ २४२ ॥ | मत्थे उप्पन्न उवसग्गे सहइ खमइ तितिक्खड़ अहियासेइ, तंजहा- जक्खाइट्ठे अयं पुरिसे १, उम्मायपत्ते अयं पुरिसे २, दित्तचित्ते अयं पुरिसे ३, ममं च णं तब्भववेअणीयाणि कस्माणि उदिन्नाणि भवंति-जन्नं एस पुरिसे आउसइ बंधइ तिप्पइ पिट्टइ परितावेइ ४, ममं चणं सम्म सहमाणस्स जाव अहियासेमाणस्स एगतसो कम्मणिज्जरा हवइ ५ । पंचहिं ठाणेहिं केवली उदिने परीसह उवसग्गे जाव अहियासेज्जा, जाव ममं च णं अहियासेमाणस्स बहवे छउमस्था समणा निग्गंथा उदिने ॐ परीसहोवसग्गे सम्मं सहिस्संति जाय अहियासिस्संति" इत्यादि, परीपहाश्चानुकूलप्रतिकूलतया भिन्ना इत्येतद्दर्शयितुमाह - एकतरान्-अनुकूलान् अन्यतरान् प्रतिकूलान् परीपहानुदीर्णानभिज्ञाय सम्यक्तितिक्षमाणः परित्रजेत् यदिवाऽन्यथा परीपहाणां द्वैविध्यमित्याह-ये च परीषहाः सत्कारपुरस्कारादयः साधोहरिणो-मन आह्लादकारिणो ये तु प्रतिकूलतया अहारिणो-मनसोऽनिष्टा, यदिवा हीरूपाः-याचनाऽचेलादयः, अहीमनसश्च अलज्जाकारिणः शीतोष्णादयः इत्येतान् द्विरूपानपि परीषहान् सम्यक् तितिक्षमाणः परिव्रजेदिति । किं च Jan Estication matinal चिच्चा सव्वं वित्तियं फासे समियदंसणे, एए भो णगिणा वृत्ता जे लोगंसि अणागणधम्मणो आणाए मामगं धम्मं एस उत्तरवाए इह माणवाणं वियाहिए, इत्थोवरए तं झोसमाणे आयाणिज्जं परिन्नाय परियाएण विगिंचर, इह एगेसिं एगचरिया होइ तत्थियरा इयरेहिं कुलेहिं सुद्धेसणाए सव्वेसणाए से मेहावी परिव्वए सुबिंभ For Party at Use Only ~488~# धुता० ६ उदेशकः २ ॥ २४२ ॥ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१८४] दीप अनुक्रम [१९७] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [२], मूलं [१८४], निर्युक्तिः [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः अदुवा दुभि अदुवा तत्थ भेरवा पाणा पाणे किलेसंति, ते फासे पुट्टो धीरे अहियासिजासि तिमि (सू० १८४ ) ॥ धूताध्ययने द्वितीयोदेशकः ॥ ६-२ ॥ त्यक्त्वा स परहकृतां विस्रोतसिकां परीषहापादितान् स्पर्शान- दुःखानुभवान् 'स्पृशेत्' अनुभवेत् सम्यगधिसहेत, स किम्भूतः !- सम्यग् इतं गतं दर्शनं यस्य स समितदर्शनः सम्यग्दृष्टिरित्यर्थः । तत्सहिष्णवश्च किम्भूताः स्युरित्याह- 'भोः' इत्यामन्त्रणे 'एते' परीषहसहिष्णवो निष्किञ्चना निर्ग्रन्था भावनना 'उक्ताः' अभिहिताः, यस्मिन्मनुष्यलोके अनागमनं धम्मों येषां तेनागमनधर्माण:, यथाऽऽरोपित प्रतिज्ञाभारवाहित्वान्न पुनर्गृहं प्रत्यागमनेप्सव इति, किं च- आज्ञाप्यतेऽनयेत्याज्ञा तया मामकं धर्मं सम्यगनुपालयेत् तीर्थकर एवमाहेति यदिवा धर्मानुष्ठाय्येवमाह-धर्म एवैको मामकः अन्यत्तु सर्व पारक्यमित्यतस्त महमाज्ञया- तीर्थकरोपदेशेन सम्यकरोमीति, किमित्याज्ञया धम्र्मोऽनुपालयत इत्यत आह- 'एषः अनन्तरोक्तः 'उत्तरवाद' उत्कृष्टवाद इह मानवानां व्याख्यात इति । किं च - 'अत्र' अस्मिन् कर्म्मधुननोपाये संयमे उप-सामीप्येन रत उपरतः तद्-अष्टप्रकारं कर्म 'झोपयन' क्षपयन् धर्मे चरेदिति किं चापरं कुर्यादित्याह आदीयत इत्यादानीयं कर्म तत्परिज्ञाय मूलोत्तरप्रकृतिभेदतो ज्ञात्वा 'पर्यायेण' श्रामण्येन विवेचयति, क्षपयतीत्यर्थः । अत्र चाशेषकर्म्म धुननासमर्थं तपस्तद्वाह्यमधिकृत्योच्यते - 'इह' अस्मिन् प्रवचने 'एकेषां' शिथिलकर्मणामेकचर्या भवति - एकाकिविहारप्रतिमाऽभ्युपगमो भवति, तत्र च नानारूपाभिग्रहविशे Jan Estication anal For Parts Only ~489 ~# Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१८४] दीप अनुक्रम [१९७] श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ २४३ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [२], मूलं [१८४],निर्युक्तिः [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः तत्र राग पास्तपश्चरणविशेषाश्च भवन्तीत्यतस्तावत्माभृति कामधिकृत्याह - 'तत्र' तस्मिन्नेकाकिविहारे 'इतरे' सामान्यसाधुभ्यो वि| शिष्टतरा 'इतरेषु' अन्तमान्तेषु कुलेषु शुद्धपणया दशैषणा दोषरहितेनाहारादिना 'सर्वेषणये 'ति सर्वा याऽऽहाराद्युद्धमोयादनप्रासैपणारूपा तया सुपरिशुद्धेन विधिना संयमे परिव्रजन्ति, बहुत्वेऽप्येकदेशतानाह - स मेधावी मर्यादाव्यवस्थितः संयमे परिव्रजेदिति, किं च स आहारस्तेष्वितरेषु कुलेषु सुरभिर्वा स्यात् अथवा दुर्गन्धः, द्वेषौ विदध्यात् किं च- अथवा तत्रैकाकिविहारित्वे पितृवनप्रतिमाप्रतिपन्नस्य सतो 'भैरवा' भयानका यातुधानादिकृताः शब्दाः प्रादुर्भवेयुः, यदिवा 'भैरवा' बीभत्साः 'प्राणाः प्राणिनो दीप्तजिह्वादयोऽपरान् प्राणिनः 'क्लेशयन्ति' उपतापयन्ति, त्वं तु पुनस्तैः स्पृष्टस्तान् स्पर्शान् दुःखविशेषान् 'धीरः' अक्षोभ्यः सन्नतिसहस्व । इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् । धूताध्ययने द्वितीयोदेशकः परिसमाप्तः ॥ उक्त द्वितीयोदेशकः, साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरोद्देश के कर्म्मधूननाऽभिहिता, सा च नोपकरणशरीरविधूननामन्तरेण, इत्यतस्तद्विधूननार्थमिदमारभ्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देश कस्य सूत्रमुच्चारयितव्यम्, तचेदम् Estication Infamil एयं खु मुणी आयाणं सया सुक्खायधम्मे वियकप्पे निज्झोसइत्ता, जे अचेले परिखुसिए तस्स णं भिक्खुस्स नो एवं भवइ-परिजुपणे मे वत्थे वत्थं जाइस्सामि सुत्तं षष्ठं अध्ययने तृतीय उद्देशक: 'उपकरण शरीर विधुनन' आरब्ध:, For Pantry Use Only ~490 ~# धुता० ६ उद्देशकः३ ॥ २४३ ॥ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१८५] दीप अनुक्रम [१८] * “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [३], मूलं [१८५], निर्युक्ति: [२५२ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः जाइस्सामि सूई जाइस्सामि संधिस्सामि सीविस्सामि उक्कसिस्सामि वुक्कसिस्सामि परिहिस्सामि पाउणिस्सामि, अदुवा तत्थ परिक्कमंतं भुज्जो अचेलं तणफासा फुसंति सीयफासा फुसति तेउफासा फुसंति दंसमसगफासा फुसंति एगयरे अन्नयरे विरूवरूवे फासे अहियासेइ अचेले लाघवं आगममाणे तवे से अभिसमन्नागए भवइ, जयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमिच्चा सव्वओ सव्वत्ताए संमत्तमेव समभिजाणिज्जा, एवं तेसिं महावीराणं चिररायं पुव्वाई वासाणि रीयमाणाणं दवियाणं पास अहियासियं (सू० १८५ ) 'एतत्' यत्पूर्वीकं वक्ष्यमाणं वा 'खुः' वाक्यालङ्कारे, आदीयते इत्यादानं कर्म आदीयते वाडनेन कम्र्मेत्यादानं - कम्मोपादानं तच्च धर्मोपकरणातिरिक्तं वक्ष्यमाणं वस्त्रादि तन्मुनिः निर्झापथितेति सम्बन्धः किम्भूतः १ - 'सदा' सर्वकालं सुवाख्यातो धम्र्मोऽस्येति स्वाख्यातधर्म्मा-संसार भीरुत्वाद्यथारोपितभारवाहीत्यर्थः तथा विधूतः क्षुण्णः सम्यगस्पृष्टः कल्पः- आचारो येन स तथा स एवम्भूतो मुनिरादानं झोषयित्वा आदानमपनेष्यति कथं पुनस्तदादानं वस्त्रादि स्याद्येन तत् झोषयितव्यं भवेदित्याह अल्पार्थे नञ्, यथाऽयं पुमानज्ञः, स्वल्पज्ञान इत्यर्थः, यः साधुर्नास्य Jan Estication Initial For Pantry Use Only ~491 ~# www.nary.org Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१८५] दीप अनुक्रम [१८] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [३], मूलं [१८५],निर्युक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा-चेलं वस्त्रमस्तीत्यचेलः, अल्पवेल इत्यर्थः, संयमे 'पर्युषितो' व्यवस्थित इति, तस्य भिक्षोः 'नैतद्भवति' नैतत्कल्पते यथा राङ्गवृत्तिः ४ परिजीर्ण मे वस्त्रमचेलकोऽहं भविष्यामि न मे त्वाणं भविष्यति, ततश्च शीताद्यदितस्य किं शरणं मे स्यादिति वस्त्रं ५ * विनेत्यतोऽहं कञ्चन श्रावकादिकं प्रत्यग्रं वस्त्रं याचिष्ये, तस्य वा जीर्णस्य वस्त्रस्य सन्धानाय सूत्रं याचिष्ये, सूचिं च (शी०) याचिष्ये, अवाप्ताभ्यां च सूचि सूत्राभ्यां जीर्णवस्त्ररन्धं सन्धास्यामि पाटितं सेविष्यामि, लघु वा सदपरशकललगनत ॥ २४४ ॥ ७ उत्कर्षयिष्यामि, दीर्घ वा सत् खण्डापनयनतो व्युत्कर्षयिष्यामि एवं च कृतं सत्परिधास्यामि तथा प्रावरिष्यामीत्याद्यार्त्तध्यानोपहता असत्यपि जीर्णादिवस्त्रसद्भावे यद्भविष्यत्ताऽध्यवसायिनो धम्मैकप्रवणस्य न भवत्यन्तःकरणवृत्तिॐ रिति, यदिवा जिनकल्पिकाभिप्रायेणैवैतत्सूत्रं व्याख्येयं तद्यथा - 'जे अचेले' इत्यादि, नास्य चेलं वस्त्रमस्तीत्यचेल:- | अच्छिद्रपाणित्वात् पाणिपात्रः, पाणिपात्रत्वात् पात्रादिसप्तविधतन्निर्योगरहितोऽभिग्रह विशेषात् त्यक्तकल्पत्रयः केवलं रजोहरणमुखवस्त्रिकासमन्वितस्तस्याचेलस्य भिक्षोनैतद्भवति, यथा--परिजीर्ण मे वस्त्रं छिद्रं पाटितं चेत्येवमादि वस्त्रगतमपध्यानं न भवति, धम्मिंणोऽभावाद्धम्र्म्माभावः, सति तु धर्मिणि धर्मान्वेषणं न्याय्यमिति सत्पथः, तथेदमपि तस्य न भवत्येव यथा - अपरं वस्त्र महं याचिष्ये इत्यादि पूर्ववन्नेयं, योऽपि छिद्रपाणित्वात् पात्रनिर्योगसमन्वितः कल्पन्त्रयान्यतरयुक्तोऽसावपि परिजीर्णादिसद्भावे तद्गतमपध्यानं न विधत्ते, यथाकृतस्याल्पपरिकर्म्मणो ग्रहणात्सूचिसूत्रान्वेषणं न क| रोति । तस्य चाचेलवाल्पचेलस्य वा तृणादिस्पर्शसद्भावे यद्विधेयं तदाह-तस्य ह्यचेलतया परिवसतो जीर्णवस्त्रादिकतमपध्यानं न भवति, अथर्वैतत्स्यात्-तत्राचेलवे पराक्रममाणं पुनस्तं साधुमचेलं कचिद्रामादौ त्वक्राणाभावात् तृण Jain Estication Intimational For Par at Use Only ~492 ~# धुता० ६ उद्देशका ॥ २४४ ॥ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [3], मूलं [१८५],नियुक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८५] दीप अनुक्रम [१९८] MOCRACC-DAC- AARA काशच्याशायिनं तृणानां स्पर्शाः परुषास्तृणैर्वा जनिताः स्पर्शाः-दुःखविशेषास्तुणस्पर्शास्ते कदाचित् स्पृशन्ति, सांश्च सम्यग अदीनमनस्कोऽतिसहत इति सम्बन्धः, तथा शीतस्पाः स्पृशन्ति-उपतापयन्ति, तेजा-उष्णस्तत्स्पर्शाः स्पृशन्ति, तथा दंशमशकस्पर्शाः स्पृशन्ति, एतेषां तु परीषहाणामेकतरेऽविरुद्धा दंशमशकतृणस्पर्शादयः प्रादुर्भवेयुः, शीतोष्णादिपरीष| हाणां वा परस्परविरुद्धानामन्यतरे प्रादुष्प्युः, प्रत्येक बहुवचननिर्देशश्च तीवमन्दमध्यमावस्थासंसूचकः, इत्येतदेव दर्शयति-विरूपं-बीभत्सं मनोऽनाहादि विविध वा मन्दादिभेदादूपं-स्वरूपं येषां ते विरूपरूपाः, के ते?-'स्पर्शाः' दुःखविशेषाः, तदापादकास्तृणादिस्पर्शा वा, तान् सम्यकरणेनापध्यानरहितोऽधिसहते, कोऽसौ?-'अचेलः' अपगतचेलो|अल्पचेलो वा अचलनस्वरूपो वा सम्यक्तितिक्षते, किमभिसन्ध्य परीषहानधिसहत इत्यत आह-लघोर्भावो लाघवं, द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यतो झुपकरणलाघवं भावतः कर्मलाघवं 'आगमयन्' अवगमयन् बुध्यमान इतियावद् अधिसहते परीपहोपसम्र्गानिति, नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-"एवं खलु से उवगरणलापचियं तवं कम्मक्खयकारणं करेइ” 'ए-1 वम्' उक्तक्रमेण भावलाघवार्थमुपकरणलाघवं तपश्च करोति इति भावार्थः । किं च-'से' तस्योपकरणलाघवेन कर्मलाघवमागमयतः कर्मलाघवेन चोपकरणलाघवमागमयतस्तृणादिस्पर्शानधिसहमानस्य 'तपः' कायक्लेशरूपतया बाह्यम|भिसमन्वागतं भवति-सम्यग् आभिमुख्येन सोढं भवति । एतच्च न मयोच्यते इत्येतद्दर्शयितुमाह-'यथा' येन प्रकारेण 'इद'मिति यदुक्तं वक्ष्यमाणं चैतद्भगवता-बीरवर्द्धमानस्वामिना प्रकर्षणादौ वा वेदितं प्रवेदितमिति, यदि नाम भगवता प्रवेदितं ततः किमित्याह-तद्-उपकरणलाघवमाहारलाघवं वा 'अभिसमेत्य' ज्ञात्वा एवकारोऽवधारणे, तदेव लाघवं walpatnamang ~493-23 Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [३], मूलं [१८५],नियुक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) धुता०६ उद्देशका सूत्रांक [१८५] ॥२४५॥ दीप अनुक्रम [१९८] ज्ञात्वेत्यर्थः, कथमिति चेत् तदुच्यते-'सर्वत' इति द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतः आहारोपकरणादौ क्षेत्रतः सर्वत्र ग्रामादौ कालतोऽहनि रात्री वा दुर्भिक्षादौ वा सर्वात्मनेति भावतः कृत्रिमकल्काद्यभावेन, तथा 'सम्यक्त्व'|मिति प्रशस्तं शोभनं एक समतं वा तत्त्वं सम्यक्त्वं, यदुक्तम्-"प्रशस्तः शोभनश्चैव, एकः सङ्गत एव च । इत्येतैरुप सृष्टस्तु, भावः सम्यक्त्वमुच्यते ॥१॥" तदेवम्भूतं सम्यक्त्वमेव समत्वमेव वा 'समभिजानीयात्' सम्यगाभिमुख्येन| जानीयात्-परिच्छिन्द्यात्, तथाहि-अचेलोऽप्येकचेलादिक नावमन्यते, यत उक्तम्-"जोऽवि दुवत्थतिवत्थो एगेण अचेलगो व संघरइ । ण हु ते हीलंति परं सब्वेऽवि य ते जिणाणाए ॥१॥" तथा-"जे खलु विसरिसकप्पा संघयण|धियादिकारणं पप्प । णऽवमन्नाइ ण यहीणं अप्पाणं मन्नई तेहिं ॥ २॥ सम्वेऽवि जिणाणाए जहाविहिं कम्मखवणअहाए । विहरति उज्जया खलु सम्म अभिजाणई एवं ॥३॥" ति, यदिवा तदेव लाघवमभिसमेत्य सर्वतो द्रव्यादिना सर्वात्मना नामादिना सम्यक्त्वमेव सम्यगभिजानीयात्, तीर्थकरगणधरोपदेशात् सम्यकुर्यादिति तात्पयर्थिः । एतच्च | नाशक्यानुष्ठानं ज्वरहरतक्षकचूडालङ्काररत्नोपदेशवद्भवतः केवलमुपन्यस्यते, अपि त्वन्यै बहुभिश्चिरकालमासेवितमित्येत. दर्शयितुमाह-'एवम्' इत्यचेलतया पर्युषितानां तृणादिस्पर्शानधिसहमानानां तेषां महावीराणां सकललोकचमत्कृतिकारिणां 'चिररात्र' प्रभूतकालं यावज्जीवमित्यर्थः, तदेव विशेषतो दर्शयति-'पूर्वाणि' प्रभूतानि वर्षाणि 'रीयमाणानां' योऽपि द्विवनविन एकैन अचेलको या निर्षति । नैव हीव्यति पर सर्वेऽपि च ते जिनाशायाम् ॥१॥ये मल विसरशकल्पाः संहननभूत्यादिकारण प्राप्य । नायमन्यते न च हीनमात्मानं मन्यते वेभ्यः ॥२॥ सर्वेऽपि जिनाज्ञायां यथाविधि कर्मक्षपणार्थं । विहरम्स्युयताः सल सम्बगभिजानात्येवम् ॥३॥ ॥२४५॥ wwwandltimaryam ~494-23 Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [३], मूलं [१८५],नियुक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८५] दीप अनुक्रम [१९८] संयमानुष्ठानेन गच्छता, पूर्वस्य तु परिमाणं वर्षाणां सप्ततिः कोटिलक्षाः षट्पञ्चाशच्च कोटिसहस्राः, तथा प्रभूतानि वपाणि रीयमाणानां, तत्र नाभेयादारभ्य शीतलं दशमतीर्थकरं यावत्पूर्वसङ्ख्यासद्भावात् पूर्वाणीत्युक्तं, ततः आरतः श्रेयांसादारभ्य वर्षसङ्ख्याप्रवृत्तेर्वषाणीत्युक्तमिति, तथा 'द्रव्याणां' भव्यानां मुक्तिगमनयोग्यानां 'पश्य' अवधारय यत्तॄणस्पर्शादिकं पूर्वमभिहितं तदधिसोढव्यमिति सम्यकरणेन स्पर्शातिसहनं कृतमेतदवगच्छेति ॥ एतच्चाधिसहमानानां यत्स्यात्तदाह आगयपन्नाणाणं किसा बाहवो भवंति पयणुए य मंससोणिए विस्सेणिं कद्दु परिन्नाय, एस तिपणे मुत्ते विरए वियाहिए तिबेमि (सू० १८६) आगतं प्रज्ञानं पदार्थाविर्भावकं येषां ते तथा तेषामागतप्रज्ञानानां तपसा परीपहातिसहनेन च कृशा 'बाहयः' भुजा| भवन्ति, यदिवा सत्यपि महोपसर्गपरीपहादावागतप्रज्ञानत्वाद् 'बाधाः' पीडाः कृशा भवन्ति, कर्मक्षपणायोस्थितस्य शरीरमात्रपीडाकारिणः परीपहोपसर्गान् सहायानिति मन्यमानस्य न मनःपीडोत्पद्यत इति, तदुक्तम्-"णिम्माजेइ परो चिय अप्पाण उण वेयणं सरीराणं । अप्पाणो चिअ हिअयस्स ण उण दुक्खं परो देह ॥ १॥" इत्यादि, |शरीरस्य तु पीडा भवत्येवेति दर्शयितुमाह-प्रतनुके च मांसं च शोणितं च मांसशोणिते द्वे अपि, तस्य हि रूक्षाहार विदधाति परो नैवात्मनो वेदना शरीराणाम् । आत्मन एव हृदयस्य न पुनदुःख परो ददाति ॥ १॥ www.tanditimaryam ~495~# Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [3], मूलं [१८६],नियुक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८६] दीप अनुक्रम [१९९] श्रीआचा स्वादल्पाहारत्वाच्च प्रायशः खलत्वेनैवाहारः परिणमति, न रसत्वेन, कारणाभावाच्च प्रतन्वेच शोणितं तत्तनुत्वान्मांस- ता०६ राङ्गवृत्तिः दमपीति ततो मेदादीन्यपि, यदिवा प्रायशो रूक्षं वीतलं भवति, वातप्रधानस्य च प्रतनुतैव मांसशोणितयोः, अचे(शी०) लतया च तृणस्पर्शादिप्रादुभावेन शरीरोपतापात् प्रतनुके मांसशोणिते भवत इति सम्बन्धः, 'संसारश्रेणी' संसाराव-18 उद्देशकः३ तरणी रागद्वेषकषायसंततिस्तां क्षान्त्यादिना विश्रेणी कृत्वा, तथा 'परिज्ञाय' ज्ञात्वा च समत्वभावनया, तद्यथा-जि॥२४६॥ नकल्पिकः कश्चिदेककल्पधारी द्वौ त्रीन् वा विभर्ति, स्थविरकल्पिको वा मासार्द्धमासक्षपकः तथा विकृष्टाविकृष्टतपश्चारी प्रत्यहं भोजी कूरगडुको वा, एते सर्वेऽपि तीर्थकृद्वचनानुसारतः परस्परानिन्दया समत्वदर्शिन इति, उक्तं च-"जोवि दुवधतिवत्थो एगेण अचेलगो व संथरइ । न हु ते हीलेंति परं सब्वेवि हु ते जिणाणाए ॥१॥" तथा जिनकल्पिकः प्रतिमाप्रतिपन्नो वा कश्चित्कदाचित् पडपि मासानात्मकल्पेन भिक्षां न लभेत तथाऽप्यसौ कूरगडुकमपि यधौदनमुण्डस्वमित्येवं न हीलयति । तदेवं समत्वदृष्टिप्रज्ञया विश्रेणीकृत्य 'एप' उक्तलक्षणो मुनिः तीर्णः संसारसागरं| एष एव मुक्तः सर्वसङ्गेभ्यो विरतः सर्वसावद्यानुष्ठानेभ्यो व्याख्यातो नापर इति । बबीमीतिशब्दौ पूर्ववत् ॥ तदेवं संसारश्रेणी विश्लेषयित्वा यः संसारसागरतीर्णवत्ती! मुक्तवन्मुक्तो विरतो व्याख्यातः, तं च तथाभूतं किमरतिरभिभवे-| दुत नेति, अचिन्त्यसामर्थ्यात् कर्मणोऽभिभवेदित्येतदेवाह ॥२४॥ विरयं भिक्खू रीयंतं चिरराओसियं अरई तत्थ किं विधारए?, संधेमाणे समुट्रिए, wwwandltimaryam ~496~23 Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१८७] दीप अनुक्रम [२००] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [३], मूलं [१८७],निर्युक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः जहा से दीवे असंदीणे एवं से धम्मे आरियपदेसिए, ते अणवकंखमाणा पाणे अणइवाएमाणा जइया मेहाविणो पंडिया, एवं तेसिं भगवओ अणुट्टाणे जहा से दियापोए एवं ते सिस्सा दिया य राओ य अणुपुव्वेण वाइय तिबेमि ( सू० १८७ ) धूताध्ययने तृतीयोदेशकः ॥ ६-३ ॥ विरतमसंयमाद् भिक्षणशीलं भिक्षु 'रीयमाणं' निस्सरन्तमप्रशस्तेभ्योऽसंयमस्थानेभ्यः प्रशस्तेष्वपि गुणोत्कर्षादुपर्युपरि वर्त्तमानं चिररात्रं- प्रभूतं कालं संयमे उषितश्चिररात्रोषितस्तमेवंगुणयुक्तम् 'अरतिः' संयमोद्विग्नता 'तत्र' तस्मिन् संयमे प्रवर्त्तमानं 'किं विधारयेत् किं प्रतिस्खलयेत् ?, किंशब्दः प्रश्ने, किं तथाभूतमपि मोक्षप्रस्थितं प्रणाय्य विषयमरतिर्विधारयेत्, ओमित्युच्यते, तथाहि दुर्बलान्यविनयवन्ति चेन्द्रियाण्यचिन्त्या मोहशक्तिर्विचित्रा कर्म्मपरिणतिः किं न कुर्यादिति, उक्तं च- "कम्मणि णूर्ण घणचिकणाई गरुवाई बहरसाराई । णाणडिअपि पुरिसं पंथाओ उप्पहं र्णिति ||१||” यदिवा किं क्षेपे, किं तथाभूतं विधारयेदरतिः ?, नैव विधारयेदित्यर्थः, तथाहि असौ क्षणे क्षणे विशुद्धतरचरणपरिणामतया विष्कम्भितमोहनीयोदयत्वा लघुकर्म्मा भवतीति, कुतस्तमरतिर्वि (र्न वि) धारयेदित्याह-क्षणे क्षणेऽव्यवच्छेदेनोत्तरोत्तरं संयमस्थानकण्डकं संदधानः सम्यगुत्थितः समुत्थितः उत्तरोत्तरं गुणस्थानकं वा संदधानो यथाख्यातचा१ कर्माणि नूनं पनकठोराणि गुरुकानि असाराणि हानस्थितमपि पुरुषं पथ उत्पयं नयन्ति ॥ १॥ Jan Estication matinal For Party Use Onl ~497 ~# Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१८७] दीप अनुक्रम [२००] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [३], मूलं [१८७],निर्युक्तिः [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ॥ २४७ ॥ श्रीआचारित्राभिमुखः समुत्थितोऽसावतस्तमरतिः कथं विधारयेदिति । स चैवम्भूतो न केवलमात्मनस्त्राता परेषामप्यरतिविधारकत्वात् त्राणायेत्येतदर्शयितुमाह-द्विर्गता आपोऽस्मिन्निति द्वीपः, स च द्रव्यभावभेदात् द्वेधा-तत्र द्रव्यद्वीप आश्वासद्वीपः, आश्वास्यतेऽस्मिन्नित्याश्वासः आश्वासश्वासी द्वीपश्चाश्वासद्वीपो यदिवा आश्वसनमाश्वासः, आश्वासाय द्वीप 4 आश्वासद्वीपः, तत्र नदीसमुद्र बहुमध्यप्रदेशे भिन्नवोहित्यादयस्तमवाप्याश्वसन्ति, असावपि द्वेधा-सन्दीनोऽसन्दीनश्चेति, यो हि पक्षमासादावुदकेन लाव्यते स सन्दीनो, विपरीतस्त्वसन्दीनः सिंहलद्वीपादिः, यथा हि सांयात्रिकास्तं द्वीपमसन्दीनमुदन्यदादेरुत्तितीर्षवः समवाप्याश्वसन्ति एवं तं भावसंधानायोत्थितं साधुमवाप्यापरे प्राणिनः समा+ श्वस्युः, यदिवा दीप इति प्रकाशदीपः, प्रकाशाय दीपः प्रकाशदीपः, स चादित्यचन्द्रमण्यादिरसन्दीनोऽपरस्तु विद्यु दुल्कादिः सन्दीनो, यदिवा प्रचुरेन्धनतया विवक्षितकालावस्थाय्यसन्दीनो विपरीतस्तु सन्दीन इति यथा ह्यसौ स्थ- 5 पुटाद्यावेदनतो हेयोपादेयहानोपादानवतां निमित्तभावमुपयाति तथा क्वचित्समुद्रायन्तर्वर्त्तिनामाश्वासकारी च भ विति एवं ज्ञानसंधानायोत्थितः परीषहोपसर्गाक्षोभ्यतयाऽसन्दीनः साधुर्विशिष्टोपदेश दानतोऽपरेषामुपकारायेति, अपरे भावद्वीपं भावदीपं वा अन्यथा व्याचक्षते तद्यथा-भावद्वीपः सम्यत्ववं तच्च प्रतिपातित्वादोपशमिकं क्षायोपश मिकं च संदीनो भावद्वीपः क्षायिकं त्वसन्दीन इति तं द्विविधमवाप्य परीतसंसारत्वात् प्राणिन आश्वसन्ति, भावदीपस्तु सन्दीनः श्रुतज्ञानम् असंदीनस्तु केवलमिति, तच्चावाप्य प्राणिनोऽवश्यमाश्वसन्त्येवेति, अथवा धर्म्म संदधानः समुत्थितः सन्नरतेदुष्प्रधृष्यो भवतीत्युक्ते कश्चिच्चोदयेत् किम्भूतोऽसौ धम्र्मो ? यत्सन्धानाय समुत्थित इति, राङ्गवृत्तिः (शी०) Jain Estication tytumanl For Parts Onl ~498~# धुता० ६ उद्देशकः २ ॥ २४७ ॥ www.indiary.org Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [3], मूलं [१८७],नियुक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: -- प्रत सूत्रांक .50 [१८७] 4 2 दीप अनुक्रम [२००] अत्रोच्यते, यथाऽसौ द्वीपोऽसन्दीनः असलिलप्लुतोऽवरुग्णवाहनानामितरेषां च बहूनां जन्तूनां शरण्यतयाऽऽश्वासहेतर्भवत्येवमसावपि धर्मः 'आर्यप्रदेशितः' तीर्थकरप्रणीतः कषतापच्छेदनिर्षटितोऽसन्दीनः, यदिवा कुतर्काप्रधृष्यतयाऽसन्दीन:-अक्षोभ्यः प्राणिनां त्राणायाश्वासभूमिर्भवति । तस्य चार्यदेशितस्य धर्मस्य किं सम्यगनुष्ठायिनः केचना सन्ति ?, ओमित्युच्यते, यदि सन्ति किम्भूतास्त इत्यत आह–'ते' साधवो भावसन्धानोयताः संयमारतेः प्रणोदका| मोक्षनेदिष्ठा भोगाननवकान्तो धमें सम्यगुत्थानवन्तः स्युरिति, एतदुत्तरत्रापि योज्यम् , तथा प्राणिनोऽनतिपातयन्तः, उपलक्षणार्थत्वात् शेषमहाव्रतग्रहणमायोज्यं, तथा कुशलानुष्ठानप्रवृत्तत्वादयिताः सर्वलोकानां, तथा 'मेधा-| विनों' मर्यादाव्यवस्थिताः 'पण्डिताः' पापोपादानपरिहारितया सम्यक्पदार्थज्ञा धर्माचरणाय समुत्थिता भवन्तीति । ये पुनस्तथाभूतज्ञानाभावात् सम्यग्विवेकविकलतया नाद्यापि पूर्वोक्तसमुत्थानवन्तः स्युः ते तथाभूता आचार्यादिभिः सकाम्यगनुपाल्या यावद्विवेकिनोऽभूवन्नित्येतदर्शयितुमाह-'एवम् उक्तविधिना 'तेषाम् अपरिकर्मितमतीनां 'भगवतो वीरवर्द्धमानस्वामिनो धर्म सम्यगनुत्थाने सति तसरिपालनतस्तथा सदुपदेशदानेन परिकर्मितमतित्वं विधेयमिति, | अत्रैव दृष्टान्तमाह-द्विजः-पक्षी तस्य पोतः-शिशुः द्विजपोतः स यथा तेन द्विजेन गर्भप्रसवात् प्रभृत्यण्डकोच्छूनो छूनतरभेदादिकास्ववस्थासु यावन्निष्पन्नपक्षस्तावत्पाल्यते एवमाचार्येणापि शिक्षकः प्रव्रज्यादानादारभ्य सामाचार्युपदेशदानेनाध्यापनेन च तावदनुपाल्यते यावद्गीतार्थोऽभूत्, यः पुनराचार्योपदेशमुलक्ष्य स्वैरित्वाद्यथा कथश्चिक्रियासु प्रवर्तते स उज्जयिनीराजपुत्रवद्विनश्येदिति, तद्यथा-उज्जयिन्यां जितशत्रो राज्ञो द्वौ पुत्री, तत्र ज्येष्ठो धर्मयो %25% % 4 ~499~# Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१८७] दीप अनुक्रम [२००] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [३], मूलं [१८७],निर्युक्तिः [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा राङ्गवृत्तिः ( शी०) ॥ २४८ ॥ पाचार्यसमीपे संसारासारतामवगम्य प्रवाज, क्रमेण चाधीताचारादिशास्त्रोऽयगततदर्थश्च जिनकल्पं प्रतिपित्सुः द्वितीयां सत्त्वभावनां भावयति, सा च पञ्चधा-तत्र प्रथमोपाश्रये द्वितीया तद्बहिः तृतीया चतुष्के चतुर्थी शून्यगृहे प श्रमी श्मशाने, तत्र पञ्चम भावनां भावयतः स कनिष्ठो भ्राता तदनुरागादाचार्यान्तिकमागत्योवाच- मम ज्यायान् ४ भ्राता कास्ते ?, साधुभिरभाणि किं तेन?, स आह-प्रव्रजाम्यहं, आचार्येणोको-गृहाण तावत् प्रव्रज्यां पुनर्ब्रक्ष्यसि, स तु तथैव चक्रे, पुनरपि पृच्छत आचार्या ऊचुः किं तेन दृष्टेन ?, नासौ कस्यचिदुल्लापमपि ददाति, जिनकल्पं प्रतिपतुकाम इति, असावाह तथाऽपि पश्यामि तावदिति, निर्बन्धे दर्शितः, तूष्णीभावस्थित एव वन्दितः, तदनुरागाच्च ५ षिद्धोऽप्याचार्येण निवार्यमाणोऽप्युपाध्यायेन प्रियमाणोऽपि साधुभिरसाम्प्रतमेतद्भवतो दुष्करं दुरध्यवसेयमित्येवं कथ्यमानेऽप्यहमपि तेनैव पित्रा जात इत्यवष्टम्भेन मोहात्तथैव तस्थौ यथा ज्येष्ठो वातेति इतरो देवतयाssगत्य वन्दितः, शिक्षकस्तु न वन्दितः, ततोऽसावपरिकर्मितमतित्वात्कुपितः अविधिरितिकृत्वा देवताऽपि तस्योपरि कुपिता सती तलप्रहारेणाक्षिगोलकी बहिर्निश्चिक्षेप, ततस्तज्यायान् हृदयेनैव देवतामाह- किमित्ययमज्ञस्त्वया कदर्शितः, तदस्याक्षिणी पुनर्नवीकुरु, सा त्ववादीत् जीवप्रदेशैर्मुक्ताविमौ गोलको न शक्यो पुनर्नवीकर्नु इत्युक्त्वा ऋषिवचनमलङ्घनीयमित्यवधार्य तत्क्षणश्वपाकव्यापादितैलाक्षिगोलको गृहीत्वा तदक्ष्णोश्चकार । इत्येवमनुपदेशप्रवर्त्तनं सापायमित्यवधार्य शिष्येण सदाऽऽचार्योपदेशवर्त्तिना भाव्यम्, आचार्येणापि सदा स्वपरोपकारवृत्तिना सम्यक् स्वशिष्या यथो क्तविधिना प्रतिपालनीया इति स्थितम् । इत्येतदेवोपसंहरन्नाह-यथा द्विजपोतो मातापितृभ्यामनुपालयते एवमाचा For Parts Only ~500~# धुता० ६ उद्देशकः३ ॥ २४८ ॥ www.sinditary.org Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [४], मूलं [१८८],नियुक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: + C येणापि शिष्या अहर्निशम् 'अनुपूर्वेण' क्रमेण 'वाचिताः' पाठिताः शिक्षा ग्राहिताः समस्तकार्यसहिष्णवः संसारोत्तर-18 णसमर्थाश्च भवन्ति । इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् । धूताध्ययने तृतीयोद्देशकः परिसमाप्त इति ॥ + प्रत % M सूत्रांक % [१८८] % % दीप % अनुक्रम २०१] % उक्तस्तृतीयोदेशका, साम्प्रतं चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके शरीरोपकरणधूननाभिहिता, सा च परिपूर्णा न गौरवत्रिकसमन्वितस्येत्यतस्तथूननार्थमिदमुपक्रम्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्थास्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम् एवं ते सिस्सा दिया य राओ य अणुपुव्वेण वाइया तेहिं महावीरेहिं पन्नाणमन्तेहि तेसिमंतिए पन्नाणमुवलब्भ हिच्चा उवसमं फारुसियं समाइयंति, वसित्ता वंभचेरंसि आणं तं नोत्ति मन्नमाणा आघायं तु सुच्चा निसम्म, समणुन्ना जीविस्सामो एगे निक्खमंते असंभवंता विडज्झमाणा कामेहिं गिद्धा अज्झोववन्ना समाहिमाघायमजोसयंता सत्थारमेव फरुसं वयंति (सू० १८८) 'एवम्' इति द्विजपोतसंवर्द्धनक्रमेणैव 'ते शिष्याः' स्वहस्तप्रवाजिता उपसम्पदागताः प्रातीच्छकाच दिवा च रात्री च RECACACTCANCCASSki %* * * षष्ठं-अध्ययने चतुर्थ-उद्देशक: 'गौरवत्रिक विधुनन' आरब्ध:, ~501~# Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१८८] दीप अनुक्रम [२०१] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (fto) ॥ २४९ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [४], मूलं [१८८], निर्युक्तिः [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः 'अनुपूर्वेण' क्रमेण 'वाचिताः' पाठिताः, तत्र कालिकमहः प्रथमचतुर्थपौरुष्योरध्याप्यते उत्कालिकं तु कालवेलावर्ज सकलमप्यहोरात्रमिति, तच्चाध्यापनमाचारादिक्रमेण क्रियते, आचारश्च त्रिवर्षपर्यायोऽध्याप्यत इत्यादिक्रमेणाध्यापिताः शिष्याश्चारित्रं च ग्राहिताः, तद्यथा - युगमात्रदृष्टिना गन्तव्यम् कूर्म्मवत्सङ्कुचिताङ्गेन भाव्यमित्याद्येवं शिक्षां ग्राहिता वाचिताः - अध्यापिताः, कैरिति दर्शयति- तैर्महावीरैः- तीर्थकरैर्गणधराचार्यादिभिः किम्भूतैः १-प्रज्ञानवद्भिः, ज्ञानिभिरेवोपदेशादि दत्तं लगतीत्यतो विशेषणं, ते तु शिष्याः द्विप्रकारा अपि प्रेक्षापूर्वकारिणस्तेषाम् आचार्यादीनाम् 'अन्तिके' स मीपे प्रकर्षेण ज्ञायते अनेनेति प्रज्ञानं श्रुतज्ञानं, तस्यैवापरस्मादाप्तिसद्भावादित्यतस्तद्, 'उपलभ्य' लब्ध्वा बहुश्रुतीभूताः प्रचलमोहोदयापनी तसदुपदेशोत्कटमदत्वात् त्यक्त्वोपशमं स च द्वेधा-द्रव्यभावभेदात्, तत्र द्रव्योपशमः कर्तकफलाद्यापादितः कलुषजलादेः भावोपशमस्तु ज्ञानादित्रयात्, तत्र यो येन ज्ञानेनोपशाम्यति स ज्ञानोपशमः, तद्यथा-आक्षे पण्याद्यन्यतरया धर्मकथया कश्चिद् उपशाम्यतीत्यादि, दर्शनोपशमस्तु यो हि शुद्धेन सम्यग्दर्शनेनापरमुपशमयति, यथा श्रेणिकेनाश्रद्दधानो देवः प्रतिबोधित इति, दर्शनप्रभावकैर्वा सम्मत्यादिभिः कश्चिदुपशाम्यति, चारित्रोपशमस्तु क्रोधाद्युपशमो विनयनश्वतेति तत्र केचन क्षुद्रका ज्ञानोदन्वतोऽथाप्युपर्येव लवमानास्तमेवंभूतमुपशमं त्यक्त्वा ज्ञानलवोत्तम्भितगर्वाध्माताः 'पारुष्यं' परुषतां 'समाददति गृह्णन्ति तद्यथा परस्परगुणनिकायां मीमांसायां वा एकोऽपरमाह-त्वं न जानीषे न चैषां शब्दानामयमर्थो यो भवताऽभाणि, अपि च-कश्चिदेव मादृशः शब्दार्थनिर्णयायालं, न सर्व इति उक्तं च- "पृष्टा गुरवः स्वयमपि परीक्षितं निश्चितं पुनरिदम् नः । वादिनि च मलमुख्ये च माइगेवान्तरं ग For Pantry Use Onl ~502~# धुता० ६ उद्देशकः४ ॥ २४९ ॥ anditary.org Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [४], मूलं [१८८],नियुक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वत्ति: प्रत सूत्रांक [१८८] दीप अनुक्रम २०१] च्छेत् ॥ १॥" द्वितीयस्त्वाह-नन्वस्मदाचार्या एवमाज्ञापयन्तीत्युक्ते पुनराह-सोऽपि वाचिकुण्ठो बुद्धिविकलः किं जानीते?, त्वमपि च शुकवत्याठितो निरूहापोह इत्यादीन्यन्यान्यपि दुहीतकतिचिदक्षरो महोपशमकारणं ज्ञानं विपरीततामापादयन् स्वीद्धत्यमाविर्भावयन् भापते, उक्तं च-"अन्यैः स्वेच्छारचितानर्थविशेषान् श्रमेण विज्ञाय । कृत्स्नं वा-1 ड्ययमित इति खादत्यङ्गानि दर्पण ॥ १॥ क्रीडनकमीश्वराणां कुफुटलावकसमानवाल्लभ्यः । शास्त्राण्यपि हास्यकथां लघुतां वा क्षुलको नयति ॥२॥" इत्यादि, पाठान्तरं वा "हेच्चा उवसमं अहेगे पारुसियं समारुहंति" त्यक्त्वोपशमम् 'अथ' अनन्तरं बहुश्रुतीभूताः एके न सर्वे परुषतामालम्बन्ते, ततश्चालप्ताः शब्दिता वा तूष्णीभावं भजन्ते हुङ्कारशिरःकम्पनादिना वा प्रतिवचनं ददति । किं च-एके पुनर्ब्रह्मचर्य-संयमस्तत्रोषित्वा आचारो वा ब्रह्मचर्य तदर्थोऽपि ब्रह्मचयमेव तत्रोषित्वा आचारार्थानुष्ठायिनोऽपि तद्भसितास्तामाज्ञां-तीर्थकरोपदेशरूपां 'नो इति मन्यमानाः' नोशब्दो देशप्रतिषेधे देशतस्तीर्थकरोपदेशं न बहु मन्यमानाः सातागौरवबाहुल्याच्छरीरबाकुशिकतामालम्बन्ते, यदिवा अपवादमालम्ब्य वर्तमाना उत्सर्गचोदनाचोदिताः सन्तः नैषा तीर्थकराज्ञेत्येवं मन्यन्ते, दर्शयन्ति चापवादपदानि "कुजा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहियं” इत्यादि, ततश्च यो येन ग्लायति तस्य तदपनयनार्थमाधाकांद्यपि कार्य, स्यादेतत्किं तेषां नाख्याताः कुशीलानां प्रत्यपायाः यथाऽऽशातनाबहुलानां दीर्घः संसार इति?, तदुच्यते-'तुः' अवधारणे, आख्यातमेवैतत्कुशीलविपाकादिकं श्रुत्वा 'निशम्य' अवबुध्य च शास्तारमेव परुषं बदन्तीति सम्बन्धः । किमर्थं तर्हि | १ कुर्यानिवानस्य अग्लान्या समाहितं. RRC Swatanaitram.org ~503-2 Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [४], मूलं [१८८],नियुक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: धुता० प्रत सूत्रांक [१८८] दीप अनुक्रम २०१] श्रीआचा- शृण्वन्तीति चेत्तदाह-समनोज्ञा' लोकसम्मता जीविष्याम इतिकृत्वा प्रश्नव्याकरणार्थमेव शब्दशास्त्रादीनि शास्त्राराङ्गवृत्तिः ण्यधीयते, यदिवा अनेनोपायेन लोकसम्मता जीविष्याम इतिकृत्वैके निष्क्रम्य, अथवा समनोज्ञा उद्युक्तविहारिणः सन्तो जीविष्यामः संयमजीवितेनेत्येवं निष्क्रम्य पुनर्मोहोदयाद् असम्भवन्तः-ते गौरवत्रिकान्यतरदोषात् ज्ञानादिके मोक्षमार्गे ||8 (शी०) उद्देशकः४ न सम्यग्भवन्तो-नोपदेशे वर्तमाना विविधं दह्यमानाः कामैद्धा गौरवत्रिकेऽध्युपपन्ना विषयेषु 'समाधि' इन्द्रियाणि॥२५॥ जधानमाख्यातं तीर्थकृदादिभिः यमा(आ)वेदित(तः)तं 'अजोषयन्तः' असेवमाना दुर्विदग्धा आचार्यादिना शास्त्राभिप्रायेण दाचोद्यमाना अपि तच्छास्तारमेव परुष वदन्ति-नास्मिन्विषये भवान् किश्चिजानाति, यथाऽहं सूत्रार्थ शब्दं गणितं निमित्त बा जाने तथा कोऽन्यो जानीते?, इत्येवमाचार्यादिक शास्तारं हीलयन्तः परुषं वदन्ति, यदिवा शास्ता-तीर्थकृदादिस्तमपि परुषं वदन्ति, तथाहि-वचित्स्खलिते चोदिता जगदुः-किमन्यदधिकं तीर्थकृद्धक्ष्यत्यस्मद्गलकर्त्तनादपीति, इत्यादिभिरपाचीनैरालापरलीकविद्यामदावलेपाच्छाखकृतामपि दूषणानि वदेयुः ॥ न केवलं शास्तारं परुषं बदन्त्यपरानपि साधूनपवदेयुरित्येतदाह सीलमंता उवसंता संखाए रीयमाणा असीला अणुवयमाणस्स बिइया मंदस्स बा लया (सू० १८९) शीलम्-अष्टादशशीलाइसहनसण्यं, यदिवा महानतसमाधानं पश्चेन्द्रियजयः कषायनिग्रहस्त्रिगुप्ति गुप्तता चेत्येतच्छील ||॥ २५० विद्यते येषां ते शीलवन्तः, तथा उपशान्ताः कषायोपशमात्, अत्र शीलवणेनैव गतार्थत्वादुपशान्ता इत्येतद्विशे wwanditaram ~504~23 Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१८९ ] दीप अनुक्रम [२०२] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [४], मूलं [१८९],निर्युक्तिः [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः पणं कषायनिग्रहप्राधान्यख्यापनार्थे, सम्यक् ख्यायते - प्रकाश्यतेऽनयेति संख्या प्रज्ञा तथा 'रीयमाणाः संयमानुष्ठाने पराक्रममाणाः सन्तः कस्यचिद्विश्रान्तभागधेयतया अशीला एत इत्येवमनुवदतोऽनुपश्चाद्वदतः पृष्ठतो वदतोऽन्येन वा मिथ्यादृष्ट्यादिना कुशीला इत्येवमुक्तेऽनुवदतः पार्श्वस्थादेः द्वितीयैषा 'मन्दस्य' अज्ञस्य 'बालता' मूर्खता, एकं तावत्खतश्चारित्रापगमः पुनरपरानुद्युक्तविहारिणोऽपवदत इत्येषा द्वितीया वाढता, यदिवा शीलवन्त एते उपशान्ता वेत्येवमन्येनाभिहिते कैषां प्रचुरोपकरणानां शीलवत्तोपशान्तता वा इत्येवमनुवदतो हीनाचारस्य द्वितीया बालता भवतीति ॥ अपरे तु वीर्यान्तरायोदयात् स्वतोऽवसीदन्तोऽप्यपरसाधुप्रशंसान्विता यथावस्थितमाचारमावेदयेयुः इत्ये तद्दर्शयितुमाह नियमाणा वेगे आयारगोयरमाइक्खंति, नाणब्भट्ठा दंसणलूसिणो ( सू० १९० ) एके कर्म्मोदयात् संयमान्निवर्त्तमाना लिङ्गाद्वा, वाशब्दादनिवर्त्तमाना वा यथावस्थितमाचारगोचरमाचक्षते, वयं तु कर्त्तुमसहिष्णव आचारस्त्वेवम्भूत इत्येवं वदतां तेषां द्वितीया वाढता न भवत्येव न पुनर्वदन्ति एवंभूत एवाचारो योऽस्माभिरनुष्ठीयते, साम्प्रतं दुष्षमानुभावेन बलाद्यपगमान्मध्यभूतैव वर्त्तनी श्रेयसी नोत्सर्गावसर इति उक्तं हि "नात्यायतं न शिथिलं यथा युञ्जीत सारथिः । तथा भद्रं वहन्त्यश्वा, योगः सर्वत्र पूजितः ॥ १ ॥ " अपि च-जो जत्थ होइ भग्गो, ओवासं सो परं अविंदतो । गंतुं तत्थऽचयंतो, इमं पहाणंति घोसेति ॥ १ ॥ " ) इत्यादि । किम्भूताः १ यो यत्र भवंति भमोऽवकाशं सोऽपरमविन्दन् । गन्तुं तत्रासमर्थं इदं प्रधानमिति घोषयति ॥ १॥ Jan Estication Intl For Party at Use Only ~505~# Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [४], मूलं [१९०],नियुक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत धुता. उद्देशका सूत्रांक [१९०] दीप अनुक्रम [२०३] श्रीआचा-1 ट्रा पुनरेतदेवं समर्थयेयुरित्याह-सदसद्विवेको ज्ञानं तस्माद्भष्टा ज्ञानभ्रष्टाः, तथा 'दसणलूसिणो'त्ति सम्यग्दर्शनविध्वंसिनो- रावृत्तिः सदनुष्ठानेन स्वतो विनष्टा अपरानपि शङ्कोत्पादनेन सन्मार्गाच्यावयन्ति ॥ अपरे पुनर्बाह्यक्रियोपपेता अध्यात्मानं | (शी०) नाशयन्तीत्याह॥२५१॥ नममाणा वेगे जीवियं विप्परिणामंति पुटा वेगे नियति जीवियस्सेव कारणा, निक्खंतंपि तेसिं दुन्निक्खंतं भवइ, बालवयणिजा हु ते नरा, पुणो पुणो जाई पकप्पिति अहे संभवंता विदायमाणा अहमंसीति विउक्कसे उदासीणे फरुसं वयंति, पलियं प कथे अदुवा पकथे अतहेहि, तं वा मेहावी जाणिज्जा धम्म (सू० १९१) नमन्तोऽप्याचार्यादेव्यतः श्रुतज्ञानार्थं ज्ञानादिभावविनयाभावात् कर्मोदयाद् एके न सर्वे संयमजीवितं 'विप[रिणामयन्ति' अपनयन्ति, सच्चरितादात्मानं ध्वंसयन्तीत्यर्थः । किं चापरमित्याह-एके-अपरिकर्मिर्मतमतयो गौरवत्रिकप्रतिबद्धाः स्पृष्टाः परीपहेर्निवर्तन्ते संयमात् लिङ्गाद्वेति, किमर्थ -जीवितस्यैव-असंयमाख्यस्य कारणात्-निमित्तात् सु-| खेन वयं जीविष्याम इतिकृत्वा सावद्यानुष्ठानतया संयमान्निवर्तन्ते । तथाभूतानां च यत्स्यात्तदाह-तेषां गृहवासान्निएकान्तमपि ज्ञानदर्शनचारित्रमूलोत्तरगुणान्यतरोपघाताहुनिष्क्रान्तं भवति । तद्धर्मणां च यत्स्यात्तदाह-हुहेती यस्माद-| सम्यगनुष्ठानात् दुनिष्क्रान्तास्तस्माद्बालानां-प्राकृतपुरुषाणामपि वचनीया:-मा बालवचनीयास्ते नरा इति । किं च IN ॥२५ ॥ ~506~# Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१९१] दीप अनुक्रम [२०४] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [४], मूलं [१९१], निर्युक्तिः [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः पौनःपुन्येनारहट्टघटीयन्त्रन्यायेन जातिः - उत्पत्तिस्तां कल्पयन्ति किम्भूतास्ते इत्याह- अधः संयमस्थानेषु सम्भवन्तोवर्त्तमाना अविद्यया वाऽधो वर्त्तमानाः सन्तो विद्वांसो वयमित्येवं मन्यमाना उघुतयाऽऽत्मानं व्युत्कर्षयेयुरिति - आत्मनः श्लाघां कुर्वते, यत्किञ्चिज्ज्ञानानोऽपि मानोन्नतत्वाद्रससातागौरवबहुलोऽहमेवात्र बहुश्रुतो यदाचार्यो जानाति तन्मयाऽस्पेनैव कालेनाधीतमित्येवमात्मानं व्युत्कर्षयेदिति । नात्मश्लाघतयैवासते, अपरानप्यपवदेयुरित्याह – 'उदासीनाः' रागद्वेषरहिता मध्यस्था बहुश्रुतत्वे सत्युपशान्तास्तान् स्खलितचोदनोद्यतान् परुषं वदन्ति, तद्यथा-स्वयमेव तावत्कृत्यमकृत्यं वा जानीहि ततोऽन्येषामुपदेक्ष्यसीति । यथा च परुषं वदन्ति तथा सूत्रेणैव दर्शयितुमाह-'पलियंति अनुष्ठानं तेन पूर्वाचरितेनानुष्ठानेन तृणहारादिना प्रकथयेद् एवम्भूतस्त्वमिति, अन्यथा वा कुण्टमण्टादिभिर्गुणैर्मुखविकारादिभिर्वा प्रकथयेदिति । किम्भूतैः !-'अतथ्यैः' अविद्यमानैरिति । उपसंहरन्नाह--' तद्' वाच्यमवाच्यं वा 'तं' या धर्म श्रुतचारित्राख्यं 'मेधावी' मर्यादाव्यवस्थितो 'जानीयात्' सम्यकू परिच्छिन्द्यादिति ॥ सोऽसभ्यवादप्रवृत्तो बालो गुर्वादिना यथाऽनुशास्यते तथा दर्शयितुमाह Etication matinal अहम्मट्ठी तुमंस नाम वाले आरंभट्टी अणुवयमाणे हण पाणे घायमाणे हणओ यावि समणुजाणमाणे, घोरे धम्मे, उदीरिए उवेहइ णं अणाणाए, एस विसन्ने वियदे वियाहिए तिमि ( सू० १९२ ) For Pantry Use Onl ~ 507~# Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [४], मूलं [१९२],नियुक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत धुता०६ उद्देशका सूत्रांक (शी) [१९२] दीप अनुक्रम २०५] श्रीआचा- अर्थोऽस्यास्तीत्यर्थी, अधर्मेणार्थी अधर्मार्थी, यतो नाम त्वमेवम्भूतोऽतोऽनुशास्यसे, कुतोऽधर्माथीं? यतो 'बाल राङ्गवृत्तिः अज्ञः, कुतो बालो', यत 'आरम्भार्थी' सावद्यारम्भप्रवृत्तः, कुतः आरम्भार्थी ?, यतः प्राण्युपमवादाननुवदन्तद् ब्रूषे, तद्यथा-जहि प्राणिनोऽपरैरेवं घातयन् नतश्चापि समनुजानासि गौरवत्रिकानुबद्धः पचनपाचनादिक्रियाप्रवृत्तांस्तपिण्ड तकी तत्समक्षं ताननुवदसि कोऽत्र दोषो?, न ह्यशरीरैर्द्धर्मः कर्तुं पार्यते, अतो धर्माधारं शरीरं यत्नतः पालनीय॥२५२॥ मिति, उक्तंच-"शरीरं धर्मसंयुक्तं, रक्षणीयं प्रयत्नतः । शरीराज्जायते धम्मों, यथा बीजात्सदङ्करः ॥१॥" इति, किं चैवं ब्रवीपि त्वं, तद्यथा-'घोरः' भयानको धर्मः सर्वानवनिरोधात् दुरनुचरः उत्-पावल्येनेरितः कथितः प्रतिपादितस्तीर्थकरगणधरादिभिरित्येवमध्यवसायी भवांस्तमनुष्ठानत 'उपेक्षते' उपेक्षां विधत्ते, 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे, 'अनाज्ञया' तीर्थकरगणधरानुपदेशेन स्वेच्छया प्रवृत्त इति, क एवम्भूत इति दर्शयति-'एष' इत्यनन्तरोक्तोऽधर्मार्थी बाल आरम्भार्थी प्राणिनां हन्ता घातयिता नतोऽनुमन्ता धर्मोपेक्षक इति, विषण्णः कामभोगेषु, विविधं तदतीति वितर्दोहिंसकः 'तर्द हिंसाया'मित्यस्मात् कर्तरि पचाद्यच, संयमे वा प्रतिकूलो वितर्दः इत्येवंरूपस्त्वमेष व्याख्यात इत्यतोऽहं दाबवीमि-वं मेधापी धर्म जानीया इति । एतच्च वक्ष्यमाणमहं बबीमीत्यत आह किमणेण भो! जणेण करिस्सामित्ति मन्नमाणे एवं एगे वइत्ता मायरं पियरं हिच्चा नायओ य परिग्गहं वीरायमाणा समुद्राए अविहिंसा सुव्वया दंता पस्स दीणे ॥२५२॥ Jain Educatinintamathima ~508~# Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [४], मूलं [१९३],नियुक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार' मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [१९३] दीप अनुक्रम [२०६] उप्पइए पडिवयमाणे वसट्टा कायरा जणा लूसगा भवंति, अहमेगेसिं सिलोए पावए भवइ, से समणो भवित्ता विभंते २ पासहेगे समन्नागरहिं सह असमन्नागए नममाणेहिं अनममाणे विरपहिं अविरए दविएहिं अदविए अभिसमिच्चा पंडिए मेहावी निट्रियट्रे वीरे आगमेणं सया परक्कमिजासि तिबेमि (सू० १९३) ॥ इति धूताध्ययने चतुर्थ उद्देशकः ६-४॥ केचन-विदितवेद्या वीरायमाणाः सम्यगुत्थानेनोत्थाय पुनः प्राण्युपमर्दका भवन्तीति, कथमुस्थाय?-किमहमनेन भोः' इत्यामन्त्रणे 'जनेन' मातापितृपुत्रकलत्रादिना स्वार्थपरेण परमार्थतोऽनर्थरूपेण करिष्यामीति, न ममायं कस्यचिदपि कार्यस्य रोगापनयनादेरलमित्यतोऽनेन किमहं करिष्ये', यदिवा प्रवित्रजिषुः केनचिदभिहितः किमनया सिकताकवलसन्निभया प्रत्रज्यया करिष्यति भवान् ?, अदृष्टवशायातं तावदोजनादिकं भुक्ष्वेत्यभिहितो विरागतामापन्नो ब्रवीतिकिमहमनेन भोजनादिना करिष्ये?, भुक्तं मयाऽनेकशः संसारे पर्यटता तथापि तृप्ति भूत्, तकिमिदानीमनेन जन्मना भविष्यतीत्येवं मन्यमाना एके विदितसंसारस्वभावा उदित्वाऽप्येवं ततो 'मातरं' जननीं 'पितरं' जनयितारं 'हित्वा | त्यक्त्वा 'ज्ञातयः' पूर्वापरसम्बन्धिनः स्वजनास्तान् परिगृह्यत इति परिग्रहः-धनधान्यहिरण्यद्विपदचतुष्पदादिः तं, | किम्भूताः-चीरमिवात्मानमाचरन्तो वीरायमाणाः, सम्यक् संयमानुष्ठानेनोत्थाय समुत्थाय विविधैरुपायैर्हिसा विहिंसा wwwanditimaryam ~509~# Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [४], मूलं [१९३],नियुक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९३]] दीप अनुक्रम २०६] श्रीआचा-IMIन विद्यते विहिंसा येषां तेऽविहिंसाः, तथा शोभनं व्रतं येषां ते सुत्रताः, तथेन्द्रियदमाद्दान्ताः, इत्येवं समुत्थाय, नागा-1 साधुता०६ राजवृत्तिःर्जुनीयास्तु पठन्ति-"समणा भविस्सामो अणगारा अकिंचणा अपुत्ता अपसूया अविहिंसगा सुब्बया दंता परदत्तभो उद्देशका४ (शी०) इणो पावं कम्मं न करेस्सामो समुहाए" सुगमत्वान्न वित्रियते, इत्येवं समुत्थाय पूर्व पश्चात् 'पश्य' निभालय 'दीनान ॥२५॥ शृगालत्वविहारिणो वान्तं जिघृक्षून पूर्वमुत्पतितान् संयमारोहणात् पश्चासापोदयात् प्रतिपतत इति, किमिति दीना भवन्तीति दर्शयति-यतो 'वशारी' वशा इन्द्रियविषयकषायाणां तत आर्ता वशार्ताः, तथाभूतानां च कर्मानुषङ्गः, तदुक्तम्-"सोइंदियवसट्टेणं भंते! कइ कम्मपगडीओ बंधह?, गोयमा आउअवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ जाव अ णुपरिअट्टइ । कोहवसट्टेणं भंते! जीवे एवं तं चेव" एवं मानादिष्वपीति, तथा 'कातराः' परीपहोपसर्गोपनिपाते सति ४ाविषयलोलुपा वा कातराः, के ते?-जनाः, किं कुर्वन्ति ।-ते प्रतिभन्नाः सन्तः 'लूपका भवन्ति' ब्रतानां विध्वंसका भ वन्ति, को अष्टादशशीलाइसहस्राणि धारयिष्यतीत्येवमभिसन्धाय द्रव्यलिङ्ग भावलिङ्गं वा परित्यज्य प्राणिनां विराधका भवन्ति । तेषां च पश्चात्कृतलिङ्गानां यत्स्वात्तदाह-'अर्थ' आनन्तर्ये 'एकेषां' भग्नप्रतिज्ञानामुमनजितानां तत्समनन्तरमेवान्तर्मुहर्जेन वा पञ्चत्वापत्तिः स्याद्, एकेषां तु 'श्लोको' श्लाघारूपः पापको भवेत्, स्वपक्षासरपक्षाद्वा महत्ययश:कीर्तिर्भवति, तद्यथा-स एष पितृवनकाष्ठसमानो भोगाभिलाषी व्रजति तिष्ठति वा, नास्य विश्वसनीयं, यतो नास्थाकर्तव्यमस्तीति, उक्तं च-"परलोकविरुद्धानि, कुर्वाणं दूरतस्त्यजेत् । आत्मानं यो न संधत्ते, सोऽन्यस्मै स्यात्कथं| भा॥२५३॥ श्रोनेन्द्रियवशातौ भदन्त ! कति कर्मप्रकृतीभाति १, गौतम ! आयुषाः सप्त कर्मप्रकृतीवर्वावत् अनुपरिवर्तते । क्रोधवशात्तों भवन्त ! जीवः, एवमेव तत. wwwiandituaryam ~510~# Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१९३] दीप अनुक्रम [२०६] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [४], मूलं [१९३],निर्युक्तिः [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ७ हितः १ ॥ १ ॥ इत्यादि, यदिवा सूत्रेणैवाश्लाघ्यतां दर्शयितुमाह- सोऽयं श्रमणो भूत्वा विविधं भ्रान्तो-भग्नः श्रमणविभ्रान्तो, वीप्सयाऽत्यन्तजुगुप्सामाह, किं च पश्यत यूयं कर्म्मसामर्थ्यम् 'एके' विश्रान्तभागधेयाः समन्वागतैरुयुक्तविहारिभिः सह वसन्तोऽप्यसमम्बागताः- शीतलविहारिणः, तथा 'नममानैः' संयमानुष्ठानेन विनयवद्भिः 'अनममानानू' निर्घृणतया सावद्यानुष्ठायिनो, विरतैरविरता द्रव्यभूतैरद्रव्यभूताः पापकलङ्काङ्कितत्वादेवम्भूतैरपि साधुभिः सह वसन्तोऽपि, एवम्भूतान् 'अभिसमेत्य' ज्ञात्वा किं कर्त्तव्यमिति दर्शयति- 'पण्डितः' त्वं ज्ञातज्ञेयो 'मेधावी' मर्यादाव्यवस्थितो 'निष्ठितार्थः' विषयसुखनिष्पिपासो 'वीर' कर्म्मविदारणसहिष्णुर्भूत्वा 'आगमेन' सर्वज्ञमणीतोपदेशानु सारेण 'सदा' सर्वकालं परिक्रामयेरिति । इतिरधिकारपरिसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववद् ॥ धूताध्ययनस्य चतुर्थोद्देशकः परिसमाप्तः ॥ Jan Estication Intimat उक्तञ्चतुर्थोदेशकः, साम्प्रतं पञ्चम आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरोदेशके कर्म्मविधूननार्थं गौरवत्रयविधूननाऽभिहिता, साच कर्मविधूननोपसर्गविधूननामन्तरेण न सम्पूर्ण भावमनुभवति, नापि सत्कारपुरस्कारात्मकसन्मान विधूननामन्तरेण गौरवत्रयविधूनना सम्पूर्णता मियादित्यत उपसर्गसन्मानविधूननार्थमिदमुपक्रम्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यास्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं तच्चेदम्--- सेगिसु वा गितरेसु वा गामेसु वा गामंतरेसु वा नगरेसु वा नगरंतरेसु वा जण षष्ठं अध्ययने पंचम उद्देशक: 'उपसर्ग-सन्मान विधुनन' आरब्ध:, For Para Prata Use Onl ~511~# www.landiary.org Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१९४] दीप अनुक्रम [२०७] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ।। २५४ ।। “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [५], मूलं [१९४],निर्युक्तिः [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः वयेसु वा जणवयंतरेसु वा गामनयरंतरे वा गामजणवयंतरे वा नगरजणवयंतरे वा संतेगइया जणा सगा भवंति अदुवा फासा फुसंति ते फासे पुट्टे वीरो अहियासए, ओए समिदंसणे, दयं लोगस्स जाणित्ता पाईणं पडीणं दाहिणं उदीणं आइक्खे, विभए कि वेयवी, से उट्टिएस वा अणुट्टिएसु वा सुस्सूसमाणेसु पवेयए संतिं विरङ्गं उवसमं निव्वाणं सोयं अज्जवियं मद्दवियं लाघवियं अणइवत्तियं सव्वेसिं पाणा सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं सत्ताणं सव्वेसिं जीवाणं अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइखिजा ( सू० १९४ ) 'स' पण्डितो मेधावी निष्ठितार्थो वीरः सदा सर्वज्ञप्रणीतोपदेशानुविधायी गौरवत्रिका प्रतिबद्धो निर्ममो निष्क्रिञ्चनो निराश एकाकिविहारितया ग्रामानुग्रामं रीयमाणः क्षुद्रतिर्यग्नरामरकृतोपसर्गपरी पहापादितान् दुःखस्पर्शान् निर्जराथीं सम्यगधिसहेत व पुनर्व्यवस्थितस्य ते परीषहोपसर्गा अभिपतेयुरिति दर्शयति- आहाराद्यर्थ प्रविष्टस्य गृहेषु वा, उचनीचमध्यमावस्थासंसूचकं बहुवचनं, तथा गृहान्तरेषु वा, ग्रसन्ति बुद्ध्यादीन् गुणानिति ग्रामाः तेषु वा तदन्तरालेषु वा, नैतेषु करोऽस्तीति नकराणि तेषु वा तदन्तरालेषु वा, जनानां लोकानां पदानि - अवस्थानानि येषु ते जनपदाः Etication tumanl For Parts Only ~512~# धुता० ६ उद्देशकः५ ।। २५४ ।। Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [9], मूलं [१९४],नियुक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९४] दीप अनुक्रम २०७]] अवन्त्यादयः साधुविहरणयोग्याः अर्द्धपड़िशतिर्देशास्तेषु तदन्तरालेषु वा, तथा ग्रामनगरान्तरे वा ग्रामजनपदान्तरे | वा नगरजनपदान्तरे वा उद्याने वा तदन्तरे वा विहारभूमिगतस्य वा गच्छतो वा, तदेवं तस्य भिक्षोओमादीनधिशयानस्य कायोत्सर्गादि वा कुर्वत एके कालुष्योपहतात्मानो ये जना लूपयन्तीति लूषका भवन्ति, 'लूष हिंसाया'मित्य-II स्मात् ल्युद, ते 'सन्ति' विद्यन्ते, तत्र नारकास्तावदुपसर्गकरणं प्रत्यवस्तु, तिर्यगमरयोरपि कादाचित्कत्वान्मानुष्याणामेवानुकूलप्रतिकूलसद्भावाजनग्रहण, यदिवा जायन्त इति जनाः, ते च तिर्यग्नरामरा एव जनशब्दाभिहिताः, तेच जना अनुकूलप्रतिकूलान्यतरोभयोपसम्पादानेनोपसर्गयेयुरिति, तत्र दिव्याश्चतुर्विधार, तद्यथा-हास्यात् १ प्रद्धेदिपा २ विमर्शात् ३ पृथग्विमात्रातो ४ वा, तत्र केलीकिलः कश्चिद्यन्तरो विविधानुपसर्गान् हास्यादेव कुर्यात् , यथा भिक्षार्थं प्रविष्टैः क्षुलकर्भिक्षाखाभार्थं पललविकटतर्पणादिनोपयाचितकं व्यन्तरस्य प्रपेदे, भिक्षावाप्तौ च तद्याचमानस्य | कुतश्चिदुपलभ्य विकटादिकं तैर्द्धढोके, तेनापि केल्यैव ते क्षुल्लकाः क्षीबा इव व्यधायिषत १, प्रदेषेण यथा भगवतो माघमासरजन्यन्ते तापसीरूपधारिण्या व्यन्तर्योदकजटाभारवल्कलविधुनिस्सेचनमकारि २, विमर्शाकिमयं दृढधर्मा न वेत्यनुकूलप्रतिकूलोपसगैः परीक्षयेत् , यथा संविग्नसाधुभावितया कयाचिढ्यन्तर्या खीवेषधारिण्या शून्यदेवकुलिकावासितः 'पुरपिछमेणं फापर निबंधाण वा निग्गंधीण वा जाव ममहाओ एत्तए, दक्षिणेणं कप्पद निग्गंधाण वा निग्गंधीण या आप कोसंबीओ एत्तए, परिमेयं । जाव भूगाविसभी, उत्तरेणं जाय कुणाला विसओ, ताव मारिए सित्ते, नो कप्पद इत्तो याहिं 'ति, अस्यां च भार्यभूमिकायां साईपचविंशतिर्जनपदा धर्मक्षेत्राण्यईदिकानि ॥ www.tanditsarmarg ~513~# Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [9], मूलं [१९४],नियुक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९४] दीप अनुक्रम २०७]] श्रीआचा- साधुरनुकूलोपसग्गैरुपसर्गितो दृढधम्र्मेति च कृत्वा वन्दित इति ३, तथा पृथग् विविधा मात्रा येषूपसर्गेषु ते पृथग्वि- धुता०६ राजवृत्तिः मात्रा:-हास्यादित्रयान्यतरारब्धा अन्यतरावसायिनो भवन्ति, तद्यथा भगवति सङ्गमकेनेव विमारब्धाः प्रद्वेषेण पर्यव उद्देशका५ (शी०) सिता इति, मानुषा अपि हास्यप्रद्वेषविमर्शकुशीलप्रतिसेवनाभेदाच्चतुर्की, तत्र हास्याद्देवसेनागणिका क्षुल्लकमुपसर्गयन्ती दण्डेन ताडिता राजानमुपस्थिता, क्षुल्लकेन तदाहूतेन श्रीगृहोदाहरणेन राजा प्रतिबोधित इति १, प्रद्वेषागजसुकुमार-5 ॥२५५॥ | स्यैव श्वशुरसोमभूतिनेति २, विमर्शाच्चन्द्रगुप्तो राजा चाणाक्यचोदितो धर्मपरीक्षार्थमन्तःपुरिकाभिधम्ममावेदयन्तं साधुमुपसर्गयति, साधुना च प्रताड्य ताः श्रीगृहोदाहरण राज्ञे निवेदितमिति ३, तत्र कुत्सितं शीलं कुशीलं तस्य प्रतिसेवनं कुशीलप्रतिसेवनं तदर्थ कश्चिदुपसर्ग कुर्यात् , तद्यथा-ईर्ष्यालगृहपर्युषितः साधुश्चतसृभिः सीमन्तिनीभिः प्रोषितभर्तृकाभिः सकलां रजनीमेकैकया प्रतियाममुपसम्गितो न चासौ तासु लुलुभे मन्दरवन्निष्प्रकम्पोऽभूदिति । तैर्यग्योना। अपि भयप्रद्वेषाहारापत्यसंरक्षणभेदाचतुर्दुव, तत्र भयात्सर्पादिभ्यः, प्रद्वेषाद्यथा भगवतश्चण्डकौशिकात्, आहारात् सिंहै हव्याघ्रादिभ्यः, अपत्यसंरक्षणात् काक्यादिभ्य इति । तदेवमुक्तविधिनोपसम्पादकत्वाजना लूपका भवन्ति, अथवा तेषु प्रामादिषु स्थानेषु तिष्ठतो गच्छतो या स्पर्शा:-दुःखविशेषा आत्मसंवेदनीयाः स्पृशन्ति-अभिभवन्ति, ते चतुर्विधाः -तद्यथा-घट्टनताऽक्षिकणुकादेः पतनता भ्रमिमूर्छादिना स्तम्भनता वातादिना श्लेषणता तालुनः पातादगुल्यादेवी स्यात् , यदिवा वातपित्तश्लेष्मादिक्षोभात् स्पर्शाः स्पृशन्ति, अथवा निष्किञ्चनतया तृणपदंशमशकशीतोष्णाद्यापा|दिताः साः-दुःखविशेषाः कदाचित्स्पृशन्ति-अभिभवन्ति, तैश्च स्पृष्टः परीपहस्तान् स्पर्शान-दुःखविशेषान् 'धीरः' SSAGAE% ~514~# Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [9], मूलं [१९४],नियुक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: * * प्रत सूत्रांक [१९४] दीप अनुक्रम २०७]] 6555-2564545456-4% अक्षोभ्योऽधिसहेत नरकादिदुःखभावनयाऽवन्ध्यकम्मोदयापादितं पुनरपि मयैवैतत्सोढव्यमित्याकलय्य सम्यक् तितिव तेति । कीदृक्षोऽधिसहेतेत्यत आह, यदिवा स एवम्भूतो न केवलमात्मनखाता सदुपदेशदानतः परेषामपीति || दर्शयितुमाह-'ओजः' एको रागादिविरहात् सम्यग् इतं-गतं दर्शनमस्येति समितदर्शनः, सम्यग्दृष्टिरित्यर्थः, यदिवा 'शभितम्' उपशमं नीतं 'दर्शन' दृष्टिानमस्येति शमितदर्शनः, उपशान्ताध्यवसाय इत्यर्थः, अथवा समतामितंगतं दर्शनं-दृष्टिरस्येति समितदर्शनः, समदृष्टिरित्यर्थः, एवम्भूतः स्पर्शानधिसहेत, यदिवा धर्ममाचक्षीतेत्युत्तरक्रियया 8 सह सम्बन्धः, किमभिसन्धाय धर्ममाचक्षीतेति दर्शयति–'दयां' कृपां 'लोकस्य जन्तुलोकस्योपरि द्रव्यतो ज्ञात्वा क्षेत्रतः प्राचीनं प्रतीचीनं दक्षीणमुदीचीनमपरानपि दिग्विभागानभिसमीक्ष्य सर्वत्र दयां कुर्वन् धर्ममाचक्षीत, कादालतो यावजीवं, भावतोऽरक्तोऽद्विष्टः, कथमाचक्षीत?-तद्यथा-सर्वे जन्तवो दुःखद्विषः सुखलिप्सवः आरमोपमया 8 सदा द्रष्टव्या इति, उक्तं च+“न तत्परस्य संदध्यात्, प्रतिकूलं यदात्मनः । एष सङ्क्राहिको धर्मः, कामादन्यः प्रवर्तते ॥१॥") इत्यादि, तथा धर्ममाचक्षाणो 'विभजेत् द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदैराक्षेपण्यादिकथाविशेषैर्वा प्राणा-II तिपातमृपावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहरात्रीभोजनविरतिविशेषैर्वा धर्म विभजेत्, यदिवा कोऽयं पुरुषः के नतो देवताविशेषमभिगृहीतोऽनभिगृहीतो वा? एवं विभजेत् , तथा कीर्तयेद्रतानुष्ठानफलं, कोऽसौ कीतयेद्?-वेदविद्, आ-| गमविदिति । नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-"जे खलु समणे बहुस्सुए बज्झागमे आहरणहेउकुसले धम्मकहालद्धिसम्पन्ने | खेत्तं कालं पुरिसं समासज्ज केऽयं पुरिसे के वा दरिसणमभिसम्पन्नो? एवंगुणजाइए पभू धम्मस्स आघवित्तए" इति,४॥ ~515~# Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [9], मूलं [१९४],नियुक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: धुवा. प्रत श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥२५६॥ उद्देशकः५ सूत्रांक [१९४] दीप अनुक्रम २०७]] कण्ठ्यं । स पुनः केषु निमित्तभूतेषु कीर्तयेदित्याह-स' आगमवित् स्वसमयपरसमयज्ञः 'उस्थितेषु वा' भावोत्थानेन । यतिघु, वाशब्दः उत्तरापेक्षया पक्षान्तरद्योतकः, पार्श्वनाथशिष्येषु चतुर्यामोत्थितेष्वेव वर्द्धमानतीर्थाचार्यादिः पञ्चयाम || धर्म प्रवेदयेदिति, स्वशिष्येषु वा सदोस्थितेप्वज्ञातज्ञापनाय धर्म प्रवेदयेदिति, 'अनुत्थितेषु वा श्रावकादिषु 'शुश्रूषमाणेषु' धर्म श्रोतुमिच्छत्सु गुर्वादेः पर्युपास्ति कुर्वत्सु वा संसारोत्तारणाय धर्म प्रवेदयेत् । किम्भूतं प्रवेदयेदित्याह-शमनं शान्तिः, अहिंसेत्यर्थः, तामाचक्षीत, तथा विरतिम्, अनेन च मृपावादादिशेषत्रतसङ्ग्रहा, तथा 'उपशम' क्रोधजयाद्, अनेन चोत्तरगुणसङ्ग्रहः, तथा निवृतिः निर्वाणं मूलगुणोत्तरगुणयोरैहिकामुष्मिकफलभूतमाचक्षीत, तथा 'शौच सर्वोपाधिशुचित्वं निर्वाच्यव्रतधारणं, तथा आर्जवं मायावक्रतापरित्यागात्, तथा मार्दवं मानस्तब्धतापरित्यागात्, तथा लाघवं सवाह्याभ्यन्तरग्रन्थपरित्यागात् , कथमाचक्षीतेति दर्शयति-'अनतिपत्य' यथावस्थितं वस्त्वागमाभिहितं ४ तथाऽनतिक्रम्येत्यर्थः, केषां कथयति? –'सर्वेषां प्राणिनां दशविधाः प्राणा विद्यन्ते येषां ते प्राणिनस्तेषां सामान्यतः संज्ञिपश्चेन्द्रियाणां, तथा 'सर्वेषां भूतानां मुक्तिगमनयोग्येन भव्यत्वेन भूतानां-व्यवस्थितानां, तथा 'सर्वेषां जीवानां | संयमजीवितेन जीवतां जिजीविषूणां च, तथा 'सर्वेषां सत्त्वानां' तिर्यङ्नरामराणां संसारे क्लिश्यमानतया करुणास्पदानामेकार्थिकानि वैतानि प्राणादीनि वचनानि इत्यतस्तेषां क्षान्त्यादिकं दशविधं धर्म यथायोगं प्रागुपन्यस्तं शान्त्यादिपदाभिहितम् 'अनुविचिन्त्य' स्वपरोपकाराय भिक्षणशीलो भिक्षुर्धर्मकथालब्धिमान् 'आचक्षीत' प्रतिपादयेदिति । यथा च धर्म कधयेत्तथाऽऽह ॥२५६॥ wwanditaram ~516~23 Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [9], मूलं [१९५],नियुक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९५]] दीप अनुक्रम [२०८] अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइक्खमाणे नो अत्ताणं आसाइज्जा नो परं आसाइजा नो अन्नाई पाणाइं भूयाई जीवाई सत्ताइं आसाइजा से अणासायए अणासायमाणे वज्झमाणाणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं जहा से दीवे असंदीणे एवं से भवइ सरणं महामुणी, एवं से उदिए ठियप्पा अणिहे अचले चले अबहिल्लेसे परिवए संक्खाय पेसलं धम्म दिट्टिमं परिनिव्वुडे, तम्हा संगति पासह गंथेहिं गढिया नरा विसन्ना कामकता तम्हा लूहाओ नो परिवित्तसिज्जा, जस्सिमे आरंभा सम्वओ सव्बप्पयाए सुपरिन्नाया भवंति जेसिमे लूसिणो नो परिवित्तसंति, से वंता कोहं च माणं य मायं च लोभं च एस तुट्टे वियाहिए तिबेमि (सू० १९५) स भिक्षुर्मुमुक्षुरनुविचिन्त्य-पूर्वापरेण धर्म पुरुष वाऽऽलोच्य यो यस्य कथनयोग्यस्तं धर्ममाचक्षाणः आडिति मयोंदया यथाऽनुष्ठानं सम्यग्दर्शनादेः शातना आशातना तया आत्मानं नो आशातयेत्, तथा धर्ममाचक्षीत य-12 थाऽऽरमन आशातना न भवेत्, यदिवाऽऽत्मन आशातना द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यतो यथाऽऽहारोपकरणादेव्यस्य कालातिपातादिकृताऽऽशातना-बाधा न भवति तथा कथये, आहारादिद्रव्यबाधया च शरीरस्यापि पीडा wwanditaram ~517~# Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [9], मूलं [१९५],नियुक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०) धुता०६ उद्देशका५ प्रत सूत्रांक [१९५] ॥२५७॥ दीप अनुक्रम [२०८] भावाशातनारूपा स्यात्, कथयतो वा यथा गात्रभङ्गरूपा भावाशातना न स्यात् तथा कथयेदिति, तथा नो परं शु- श्रूर्षु आशातयेत्-हीलयेद् , यतः परो हीलनया कुपितः सन्नाहारोपकरणशरीरान्यतरपीडायै प्रवतेति, अतस्तदाशातनां वर्जयन धर्म ब्रूयादिति, तथाऽन्यान् वा सामान्येन प्राणिनो भूतान् जीवान् सत्त्वानो आशातयेद्-बाधयेत् , त-1 देवं स मुनिः स्वतोऽनाशातकः परैरनाशातयन् तथाऽपरानाशातयतोऽननुमन्यमानो परेषां वध्यमानानां प्राणिनां भूतानां जीवानां सत्त्वानां यथा पीडा नोत्पद्यते तथा धर्म कथयेदिति, तद्यथा-यदि लौकिककुपावचनिकपार्श्वस्थादिदानानि प्रशंसति अवटतटागादीनि था ततः पृथिवीकायादयो व्यापादिता भवेयुः, अथ दूषयति ततोऽपरेषां अन्तरायापादनेन तत्कृतो बन्धविपाकानुभवः स्यात्, उक्तं च-"जे उ दाणं पसंसंति, वहमिच्छंति पाणिणं । जे उ णं पडिसेहिंति, वित्तिच्छे करिति ते ॥१॥" तस्मात्तदानावेटतडागादिविधिप्रतिषेधच्युदासेन यथावस्थितं दानं शुद्ध प्ररूपयेत् सायद्यानुष्ठानं चेति, एवं चवन्नुभयदोषपरिहारी जन्तूनामाश्वासभूमिर्भवतीति, एतदृष्टान्तद्वारेण दर्शयति-यथाऽसौ द्वीपोऽसन्दीनः शरणं भवत्येवमसावपि महामुनिः तद्रक्षणोपायोपदेशतः वध्यमानानां धधकानां च |तदध्यवसायविनिवत्तेनेन विशिष्टगुणस्थानापादनाच्छरण्यो भवति, तथाहि-यथोद्दिष्टेन कथाविधानेन धर्मकथा कथयन् कांचन प्रत्राजयति काश्चन श्रावकान् विधत्ते काश्चन सम्यग्दर्शनयुजः करोति, केषाश्चित्प्रकृतिभद्रकतामापादयति । किंगुणश्चासौ द्वीप इव शरण्यो भवतीत्याह-एवं मिति वक्ष्यमाणप्रकारेण 'स' शरण्यो महामुनिर्भावोत्थानेन ये तु दानं प्रशंसन्ति वधमिच्छन्ति प्राणिनाम् । ये पैतत् प्रतिषेधयन्ति वृत्तिच्छेदं कुर्वन्ति ते ॥१॥ ॥२५७॥ ~518~# Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [५], मूलं [१९५],नियुक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९५]] GAROTOCOASARDAN दीप अनुक्रम [२०८] संयमानुष्ठानरूपेण उत्-प्राबल्येन स्थित उत्थितः, तथा स्थितो ज्ञानादिके मोक्षाध्वन्यात्मा यस्य स स्थितात्मा, तथा स्निह्यतीति निहो न स्त्रिहोऽस्त्रिहा-रागद्वेषरहितत्वात् अप्रतिबद्धः, तथा न चलतीत्यचलः परीषहोपसर्गवातेरिलो |ऽपीति, तथा चला अनियतविहारित्वात्, तथा संयमावहिनितंगा लेश्या-अध्यवसायो यस्य स बहिर्लेश्यः यो न तथा सोऽवहिर्लेश्यः, स एवम्भूतः परि-समन्तात् संयमानुष्ठाने ब्रजेत् परिव्रजेत्, न कचियतिबध्यमान इतियावत्, स च किमिति संयमानुष्ठाने परिजजेदित्याह-संख्याय' अवधार्य 'पेशल' शोभनं 'धर्म' अविपरीतार्थ दर्शनं दृष्टिः सदनुष्ठानं वा सा यस्यास्त्यसौ दृष्टिमान् , स च कषायोपशमात् क्षयादा, परिः-समन्तानिवृतः-शीतीभूतो । यस्त्व|सल्यातवान् पेशलं धर्म मिथ्यादृष्टिरसी न निर्वातीति दर्शयितुमाह-इतिहेती यस्माद्विपरीतदर्शनो मिथ्यादृष्टिः॥ सङ्गवान्न निर्वाति तस्मात् 'सङ्गं मातापितृपुत्रकलत्रादिजनितं धनधान्यहिरण्यादिजनितं वा सङ्गविपाकं वा पश्यत यूयं विवेकेनावधारयत, सूत्रेणैव सङ्गमाह-त एवं सङ्गिनो नराः सबाह्याभ्यन्तरैर्ग्रन्धैर्ग्रथिता अवबद्धा विषण्णा अन्धसङ्गे निमनाः कामः-इच्छामदनरुपैराकान्ता अवष्टब्धा न निर्वान्ति, यद्येवं ततः किं कर्त्तव्यमित्याह-यस्मात्कामाद्यासकचेतसः स्वजनधनधान्यादिमूच्छिताः कामजैः शारीरमानसादिभिर्दुःखैरुपतापितास्तस्मादू सक्षात्-संयमानिसङ्गात्मकात् 'नो परिचित्रसेत्' न संयमानुष्ठानादिभीयात्, यतः प्रभूततरदुःखानुषङ्गिणो हि सङ्गिन इति । कस्य पुनः संयमान परिवित्रसनं सम्भाव्यत इत्याह-यस्य महामुनेरवगतसंसारमोक्षकारणस्येमे सङ्गा:-आरम्भा अनन्तरोक्ता अविगानतः सर्वजनाचरितत्वात् प्रत्यक्षासन्नवाचिनेदमाऽभिहिताः 'सर्वतः' सर्वात्मकतया सुपरिज्ञाता भवन्ति, किम्भूता आरम्भाः-ये ~519~# Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [9], मूलं [१९५],नियुक्ति: [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) धुता०६ उद्देशकः५ सूत्रांक [१९५] ॥ २५८॥ दीप अनुक्रम [२०८] विमे ग्रन्थग्रथिता विषण्णाः कामभराकान्ता जना 'लूषिणों लूषणशीलाः हिंसका अज्ञानमोहोदयात् 'न परिवित्रसन्ति' न बिभ्यति, यो ह्येवम्भूतांश्चारम्भान् ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहरति तस्यैते सुपरिज्ञाता भवन्ति । || यश्चारम्भाणां परिज्ञाता स किमपरं कुर्यादित्याह-'स' महामुनिः पूर्वव्यावर्णितस्वरूपो 'वान्त्वा' त्यक्त्वा क्रोधं च मानं च |मायां च लोभं चेति, स्वगतभेदसंसूचनार्थो व्यस्त निर्देशः, सर्वानुयायित्वात् क्रोधस्य प्रथमोपादानं तत्सम्बद्धत्वान्मानस्य लोभाथै मायोपादीयत इत्यतस्तत्कारणत्वान्मायाया लोभस्यादावुपन्यासः ततः सर्वदोषाश्रयत्वात् सर्वगुरुत्वाच सर्वोपरि लोभस्य, क्षपणाक्रम वाऽऽश्रित्यायमुपन्यास इति, चकारो हीतरेतरापेक्षया समुच्चयार्थः । स एवं क्रोधादीन वान्त्वा मोहनीयं त्रोटयति, स चैपोऽपगतमोहनीयः संसारसन्ततेस्तुट्टः-अपमृतो व्याख्यातस्तीर्थकृदादिभिरितिरधिकारपरिसमाप्ती, बबीमीत्येतत् पूर्वोतं ॥ यदि चैतद्वक्ष्यमाणमित्याह कायस्स वियाघाए एस संगामसीसे वियाहिए से हु पारंगमे मुणी, अविहम्ममाणे फलगावयट्टी कालोवणीए कंखिज्ज कालं जाव सरीरभेउत्तिवेमि (सू० १९६) ६-५॥ धूताध्ययनम् ॥ ६॥ 'कायः' औदारिकादित्रयं घातिचतुष्टयं वा तस्य 'व्याघातो विनाशः, अथवा चीयत इति कायस्तस्य विशेषेणाङ्गमदियाऽऽयुषकक्षयावधिलक्षणया घातो व्याघातः-शरीरविनाशः एप सङ्कामशीर्षरूपतया व्याख्यातो, यथा हि सङ्ग्राम २५८॥ wwwandltimaryam ~520~# Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१९६] दीप अनुक्रम [२०९] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [५], मूलं [१९६],निर्युक्तिः [२५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः शिरसि परानीकनिशिताकृष्टकृपाण निर्यत्प्रभासंवलितोद्यत्सूर्यत्विद्भूत विद्युन्नयन चमत्कृतिकारिणि कृतकरणोऽपि सुभटश्चित्तविकारं विधत्ते, एवं मरणकालेऽपि समुपस्थिते परिकर्मितमतेरप्यन्यथाभावः कदाचित्स्याद् अतो यो मरणकाले * न मुह्यति स पारगामी मुनिः संसारस्य कर्म्मणो वा उत्क्षिप्तभारस्य वा पर्यन्तयायीति । किं च विविधं परीषहोपसर्गैर्हन्यमानो विहन्यमानः न विहन्यमानोऽविहन्यमानः न निर्विण्णः सन् वैहानसं गार्द्धपृष्ठमन्यद्वा बालमरणं प्रतिपद्यत इति, यदिवा हन्यमानोऽपि सबाह्याभ्यन्तरतया तपः परीषहोपसर्गेः फलवदवतिष्ठते न कातरीभवति, तथा कालेनो| पनीतः कालोपनीतो मृत्युकालेनान्यवशतां प्रापितः सन् द्वादशवर्षसंलेखनयाऽऽत्मानं संलिख्य गिरिगह्वरादिस्थण्डिल| पादपोपगमनेङ्गितमरणभक्तपरिज्ञान्यतरावस्थोपगतः 'काल' मरणकालमायुष्कक्षयं यावच्छरीरस्य जीवेन सार्द्धं भेदो भवति तावदाकाङ्गेद्, अयमेव च मृत्युकालो यदुत शरीरभेदो, न पुनर्जीवस्यात्यन्तिको विनाशोऽस्तीति । इतिरधिकारपरिसमाप्तौ त्रवीमीत्यादिकं पूर्ववदिति, पञ्चमोदेशकः, तत्समाप्तौ समाप्तं भूताख्यं षष्ठमध्ययनमिति ॥ घं० ८३५ ॥ Jain Estication Intematonal For Parts Only www.indiary.org पूर्वकालात् अध्ययन - ७ व्युच्छिन्नम्, स्वयं वृत्तिकारेण अस्य अध्ययन-विषये न किंचित् अपि कथितम् | ~521~# Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [-], मूलं [१९६...],नियुक्ति: [२५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीआचारावृत्तिः (शी०) ॥२५९॥ [१९६] दीप अनुक्रम २०९] विमो०८ अथाष्टमं विमोक्षाध्ययनम् (सप्तमं व्युच्छिन्नम्) उद्देशकः१ उक्तं षष्ठमध्ययन, अथ सप्तमाष्टमाध्ययनमारभ्यते, अधुना सप्तमाध्ययनस्य महापरिज्ञाख्यस्यावसरः, तच व्यवच्छिनमितिकृत्वाऽतिलकधाष्टमस्य सम्बन्धो वाच्यः, स चायम्-इहानन्तराध्ययने निजकर्मशरीरोपकरणगौरवत्रिकोपसर्ग-18 सन्मानविधूननेन निःसङ्गताऽभिहिता, सा चैवं साफल्यमनुभवति यद्यन्तकालेऽपि सम्यग्निर्याणं स्थादित्यतः सम्यग्निर्याणप्रतिपादनायेदमारभ्यते, यदिवा निःसङ्गविहारिणा नानाविधाः परीषहोपसर्गाः सोढव्या इत्येतत्प्रतिपादित, तत्र मारणान्तिकोपसर्गनिपाते सति अदीनमनस्केन सम्यग्निर्याणमेव विधेयमित्यस्यार्थस्य प्रतिपादनायेदमारभ्यते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्योपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमद्वारायातोर्थाधिकारी द्वेधा, तत्रा प्यध्ययनार्थाधिकारः प्रागभिहितः, उद्देशार्थाधिकारं तु नियुक्तिकारो विभणिषुराहअसमणुन्नस्स विमुक्खो पढमे बिइए अकप्पियविमुक्खो। पडिसेहणा य रुटस्स चेव सम्भावकहणा य ॥२५॥ तइयंमि अंगचिट्ठाभासिय आसंकिए य कहणा य । सेसेसु अहीगारो उवगरणसरीरमुक्खेसु ॥ २५४ ॥ M उसंमि चउत्थे वेहाणसगिद्धपिट्ठमरणं च । पंचमए गेलन्नं भत्तपरिन्ना य बोद्धब्बा ॥ २५५ ॥ ॥२५९॥ ण्ट्ठमि उ एग इंगिणिमरणं च होइ बोद्धव्वं । सत्तमए पडिमाओ पायवगमणं च नायब्वं ।। २५६ ।। www.tandituaryam अष्टम-अध्ययन 'विमोक्ष' आरब्ध:, ~522~# Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१९६] दीप अनुक्रम [२०९ ] Jan Estication “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९६...],निर्युक्तिः [२५७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः अणुपुव्विविहारीणं भत्तपरिन्ना य इंगिणीमरणं । पायवगमणं च तहा अहिगारो होइ अट्टमए ॥ २५७ ॥ अत्राद्योद्देशकेऽयमर्थाधिकारः, तद्यथा - असमनुज्ञानाम- समनोज्ञानां वा त्रयाणां त्रिषष्ट्यधिकानां प्रावादुकशतानां | विमोक्षः परित्यागः कार्यः, तथा तदाहारोपधिशय्यातद्दृष्टिपरित्यागश्च पार्श्वस्थादयः पुनश्चारित्रतपोविनयेध्वसमनोज्ञाः, यथाच्छन्दास्तु पञ्चस्वपि ज्ञानाचारादिष्वसमनोज्ञास्तेषां यथायोगं त्यागो विधेय इति १ । द्वितीये तु अकल्पिकस्य-आधा| कर्म्मादेर्विमोक्षः- परित्यागः कार्यो, यदिवाऽऽधाकर्म्मणा कश्चिन्निमन्त्रयेत्, ततः प्रतिषेधो विधेयः, तत्प्रतिषेधे च रुष्टस्य सतः सिद्धान्तसद्भावः कथनीयो यथैवम्भूतं दानं तव मम च न गुणायेति २ तृतीये तूदेशकेऽयमर्थाधिकारः, तद्यथागोचरगतस्य यतेः शीतादिना कम्पनादिकायामङ्गचेष्टायां सत्यां गृहस्थस्येयमारेका स्याद् यथा- ग्राम धम्मैरुद्वाध्यमानस्य शृङ्गारभावावेशादस्य यतेः कम्पनमित्येवं भाषिते आशङ्किते वा तदाशङ्काव्युदासाय यथावस्थितार्थकथना क्रियत इति ३ । | शेषेषु तूदेशकेषु पञ्चस्वयमर्थाधिकारः, तद्यथा-उपकरणशरीराणां विमोक्षः परित्यागस्तद्विषयः समासतो व्यासतस्तूच्यतेचतुर्थीदेशके त्वयमर्थाधिकारः, तद्यथा-वैहानसम् उद्बन्धनं गार्द्धपृष्ठम् - अपरमांसादिहृदयन्यासाद्दृद्धादिनाऽऽत्मव्यापादनम् एतत् प्रकारद्वयं मरणं वाच्यं ४ । पञ्चमके तुग्लानता भक्तपरिज्ञा च बोद्धव्या ५। पृष्ठे त्वेकत्वम् एकत्वभावना तथेङ्गितमरणं च बोद्धव्यं ६ । सप्तमकेषु प्रतिमाः - भिक्षुप्रतिमा मासादिका वाच्याः, तथा पादपोपगमनं च ज्ञातव्यमिति ७ । अष्टमके त्वयमर्थाधिकारः, स्तद्यथा - अनुपूर्वविहारिणां प्रतिपालितदीर्घ संयमानां शास्त्रार्थग्रहणप्रतिपादनोत्तरकालमवसीदत्संयमाध्ययनाध्यापनक्रियाणां निष्पादितशिष्याणामुत्सर्गतः द्वादशसंवत्सरसंलेखनाक्रमसंलिखितदेहानां भक्तपरिज्ञेङ्गित For Pantry Use Only ~523~# Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९६...], नियुक्ति: [२१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत विमो०८ उद्देशका सूत्रांक [१९६] दीप अनुक्रम २०९] श्रीआचा- मरणं पादपोपगमनं वा यथा भवति तथोच्यत इति गाथापञ्चकसमासार्थों, व्यासार्थस्तु प्रत्युदेशकं वक्ष्यते । निक्षेपस्तु रावृत्तिः निधा-ओघनिष्पनो नामनिष्पन्नः सूत्रालापकनिष्पन्नश्चेति, तत्रौघनिष्पन्ने निक्षेपेऽध्ययन, नामनिष्पन्ने तु विमोक्ष इति | (शी०) नाम, तत्र विमोक्षस्य निक्षेपं चिकीर्षुः नियुक्तिकार आह नामंठवणविमुक्खो दब्वे खित्ते य काल भावे य । एसो उ विमुक्खस्सा निक्खेवो छब्धिहो होह ।।२५८॥ ॥२६॥ | नामविमोक्षः स्थापनाविमोक्षो द्रव्यविमोक्षः क्षेत्रविमोक्षः कालविमोक्षो भावविमोक्षश्चेत्येवं विमोक्षस्य निक्षेपः षोढा भवतीति गाथासमासार्थः॥ व्यासार्थप्रतिपादनाय तु सुगमनामस्थापनाव्युदासेन द्रव्यादिविमोक्षप्रतिपादनद्वारेणाह दव्वविमुक्खो नियलाइएम खित्तंमि चारपाईसुं । काले चेइयमहिमाइएमु अणघायमाईओ ॥ २५९ ॥ द्रव्यविमोक्षो द्वेधा-आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्ता, नोआगमतस्तु ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्को निगडादिकेषु विषयभूतेषु यो विमोक्षः स द्रव्यविमोक्षः, सुव्यत्ययेन वा पञ्चम्यर्थे सप्तमी, निगडादिभ्यो द्रव्येभ्यः सकाशाद्विमोक्षो द्रव्यविमोक्षः, अपरकारकवचनसम्भवस्तु स्वयमभ्यूद्यायोग्यः, तद्यथा-द्रव्येण द्रव्यात् सचित्ताचित्तमिश्राद्विमोक्ष इत्यादि, क्षेत्रविमोक्षस्तु यस्मिन् क्षेत्रे चौरकादिके व्यवस्थितो विमुच्यते क्षेत्रदानाद्वा यस्मिन्या क्षेत्रे व्यावय॑ते स क्षेत्रविमोक्षा, कालविमोक्षस्तु चैत्यमहिमादिकेषु कालेवनाधातादिघोषणापादितो यावन्तं कालं मुच्यते यस्मिन्या काले दाव्याख्यायते सोऽभिधीयते इति गाथार्थः ।। भावविमोक्षप्रतिपादनायाह दुविहो भावविमुक्खो देसविमुक्खो य सब्वमुक्खो य। देसविमुक्खा साह सबविमुक्खा भवे सिद्धा॥२६०॥ % ॥ २६ ॥ % * ~524~# Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९६...], नियुक्ति: [२६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९६] दीप अनुक्रम २०९] भावविमोक्षो द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो ज्ञाता तत्र चोपयुक्तो, नोआगमतस्तु द्विधा-देशतः सर्वदि तश्च, तत्र देशतोऽविरतसम्यग्दृष्टिनामाद्यकषायचतुष्कक्षयोपशमाद्देशविरतानामाद्याष्टकषायक्षयोपशमाद्भवति, साधूनां च द्वादशकषायक्षयोपशमात् क्षपकरेण्यां च यस्य यावन्मात्रं क्षीणं तस्य तत्क्षयादेशविमुक्ततेत्यतः साधषो देशविमुक्ता, भवस्थकेवलिनोऽपि भवोपनाहिसद्भावाद्देशविमुक्ता एव, सर्वविमुक्ताश्च सिद्धा भवेयुः इति गाथार्थः॥ ननु बन्धपूर्वकत्वान्मोक्षस्य निगडादिमोक्षवदित्याशङ्कांव्यवच्छेदार्थं चन्धाभिधानपूर्वकं मोक्षमाह कम्मयवेहि समं संजोगो होइ जो उ जीवस्स । सो बंधो नायब्बो तस्स विओगो भवे मुक्खो ॥ २६॥ कर्मद्रव्यः' कर्मवर्गणाद्रव्यैः 'सम' सार्द्ध यः संयोगो जीवस्य सवन्धः प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशरूपो बद्धस्पृष्टनिधत्तनिकाचनावस्थश्च ज्ञातव्यः, तथैकैको ह्यात्मप्रदेशोऽनन्तानन्तः कर्मपुद्गलैबंद्धः, बध्यमाना अप्यनन्तानन्ता एव, शेषाणामग्रहणयोग्यत्वात्, कथं पुनरष्टप्रकारं कर्म बनातीति चेद्, उच्यते, मिथ्यात्वोदयादिति, उक्कं च-"केहं णं भंते ! जीवा अह कम्मपगडीओ बंधति?, गोअमा! णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दरिसणावरणिज्ज कम्मं निअच्छन्ति, दसणमोहणिजस्स कम्मस्स उदएण मिच्छत्तं णियच्छन्ति, मिच्छत्तेणं उइन्नेणं एवं खलु जीवे अढकम्मपगडीओ वं मन कथमन्यथा? इत्येवरूपा. २ कई भदन्त । जीवा अष्टकर्मप्रकृतीप्रन्ति !, गौतम! ज्ञानावरणीयस्य कर्मण उदयेन दर्शनावरणीय कर्म बनन्ति RI(उदयते), दर्शनमोहनीयस्थ कर्मण उदयेन मिश्यात्वं वनन्ति (उदयते), मिथ्यावेन अदितेन एवं बछ जीवोऽष्टकर्मप्रकृतीभाति. Jain Educatinintamathima infundstisarma ~525~# Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९६...], नियुक्ति: [२६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) सूत्रांक [१९६]] ॥२६१॥ दीप अनुक्रम २०९] धई" यदिवाणेहतुप्पिअगत्तस्स रेणुओ लग्गई जहा अंगे। तह रागदोसणेहालियस्स कम्मपि जीवस्स ॥१॥" इ-TRI विमो०८ त्यादि, तस्यैवम्भूतस्याष्टप्रकारस्य कर्मणः आस्रवनिरोधात् तपसाऽपूर्वकरणक्षपकश्रेणिप्रक्रमेण शैलेश्यवस्थायां वा योऽसी| उद्देशकः१ वियोगा-क्षयः स मोक्षो भवेदिति गाथार्थः ॥ अस्य च प्रधानपुरुषार्थत्वात् प्रारब्धासिधाराबतानुष्ठानफलत्वात् तीथिकैः। सह विप्रतिपत्तिसद्धावाच यथावस्थितमव्यभिचारि मोक्षस्य स्वरूपं दर्शयितुमाह, यदिवा पूर्व कर्मवियोगोदेशेन मोक्षस्वरूपमभिहितं, साम्प्रतं जीववियोगोद्देशेन मोक्षस्वरूप दर्शयितुमाहजीवस्स अत्तजणिएहि चेव कम्मेहिं पुब्वबद्धस्स । सब्बविवेगो जो तेण तस्स अह इत्तिओ मुक्खो ॥२६२।।। जीवस्यासण्येयप्रदेशात्मकस्य स्वतोऽनन्तज्ञानस्वभावस्यात्मनैव-मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपाययोगपरिणतेन जनितानि-बद्धानि यानि कर्माणि तैः पूर्वबद्धस्यानादिवन्धबद्धस्य प्रवाहापेक्षया तेन कर्मणा 'सर्वविवेक' सर्वाभावरूपतया यो विश्लेषस्तस्य-जन्तोः 'अथे'त्युपप्रदर्शने एतावन्मात्र एव मोक्षो नापरः परपरिकल्पितो निर्वाणप्रदीपकल्पादिक इति गाथार्थः ॥ उक्तो भावविमोक्षः, स च यस्य भवति तस्यावश्यं भक्तपरिज्ञादिमरणत्रयान्यतरेण मरणेन भान्यं, तत्र कार्ये कारणोपचारात् तन्मरणमेव भावविमोक्षो भवतीत्येतत्प्रतिपादयितुमाह भत्तपरिन्ना इंगिणि पायवगमणं च होइ नायव्वं । जो मरइ चरिममरणं भावविमुक्खं वियाणाहि ॥२६॥ भक्तस्य परिज्ञा भक्तपरिज्ञाऽनशनमित्यर्थः, तत्र त्रिविधचतुर्विधाहारनिवृत्तिमान् सप्रतिकर्मशरीरो धृतिसंहननवान १ नेहम्रक्षितगात्रस्य रेणुलंगति यथाले । तथा रागद्वेषन्नेहाईस्य कर्मापि जीवस्य ॥ १ ॥ २६१ wwwjaanaitimaryam ~526~# Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९६...],नियुक्ति: [२६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९६] दीप अनुक्रम २०९] यथा समाधिर्भवेत्तथाऽनशनं प्रतिपद्यते, तथेङ्गिते प्रदेशे मरणमिङ्गितमरणमिदं चतुर्विधाहारनिवृत्तिस्वरूपं विशिष्टसंहननवतः स्वत एवोद्वर्तनादिक्रियायुक्तस्थावगन्तब्यं, तथा परित्यक्तचतुर्विधाहारस्यैवाधिकृतचेष्टाव्यतिरेकेण चेष्टान्तरमधिकृत्यैकान्तनिष्पतिकर्मशरीरस्य पादपस्येवोप-सामीप्येन गमन-वत्तनं पादपोपगमनमेतच्च ज्ञातव्यं भवति, यो हि भवसिद्धिकश्चरम-अन्तिम मरणमाश्रित्य म्रियते स एतत्पूर्वोक्तत्रयान्यतरेण मरणेन बियते, नान्येन वैहानसादिना बालमरणनेत्येतवानन्तरोक्तं मरणं चेष्टाभेदोपाधिविशेषात् त्रैविध्यमनुभवावमोक्षं विजानीहीति गाथार्थः ।। साम्प्रतमेतदेव मरणं सपराक्रमेतरभेदाद् द्विविधमिति दर्शयितुमाह सपरिक्कमे य अपरिकमए य वाघाय आणुपुष्वीए । सुत्तत्थजाणएणं समाहिमरणं तु कायव्वं ॥ २६४ ॥ । 'पराक्रमः' सामर्थ्य सह पराक्रमेण वर्तत इति सपराक्रमस्तस्मिंश्च मरणं स्यात्, तद्विपर्यये चापराक्रमे-जावलपरिक्षीणे तद्भक्तपरिक्षेङ्गितमरणपादपोपगमनभेदात्रिविधमपि मरणं सपराक्रमेतरभेदात् प्रत्येक द्वैविध्यमनुभवति, तदपि व्याघातिमेतरभेदात् द्विधा भवेत् , तत्र व्याघातः सिंहव्याघ्रादिकृतोऽव्याघातस्तु प्रव्रज्यासूत्रार्थग्रहणादिकयाऽऽनुपूर्व्या ६ विपक्रिममायुष्कक्षयमनुभवतो यो भवति सोऽव्याघात इहानुपूर्वीत्युक्त, तत्र परमार्थोपक्षेपेणोपसंहरति-व्याघातेनानु पूर्व्या वा सपराक्रमस्यापराक्रमस्य वा मरणे समुपस्थिते सति सूत्रार्थज्ञेन कालज्ञतया समाधिमरणमेव कर्त्तव्यं, भक्तप रिज्ञेजितमरणपादपोपगमनानामन्यतरद् यथासमाधि विधेयं, न वेहानसादिकं बालमरणं कर्त्तव्यमिति गाथार्थः । तत्र द सपराक्रममरणं दृष्टान्तद्वारेण दर्शयितुमाह *कर ~527~# Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१९६] दीप अनुक्रम [२०९ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९६...],निर्युक्तिः [२६५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र- [ ०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा सपरकममाएसो जह मरणं होइ अज्जवइराणं । पायवगमणं च तहा एवं सपरकर्म मरणं ॥ २६५ ॥ राङ्गवृत्तिः सह पराक्रमेण वर्त्तत इति सपराक्रमं किं तत् ? - मरणं आदिश्यते इत्यादेशः आचार्यपारम्पर्यश्रुत्यायातो वृद्धवादो (शी०) : यमैतिह्यमाचक्षते, स आदेशो 'यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, यथैतत्तथाऽन्यदप्यनया दिशा द्रष्टव्यं, 'आर्यवैरा' वैरस्वामिनो यथा तेषां मरणमभूत् तथा पादपोपगमनं च, एतच्च सपराक्रमं मरणमन्यत्राप्यायोज्यमिति गाथार्थः ॥ भावार्थस्तु कथानकादवसेयः तच्च प्रसिद्धमेव यथाऽऽर्थवैरैर्विस्मृत कर्णाहितशृङ्गवेरैः प्रमादादवगतासन्नमृत्युभिः सपराक्रमैरेव रथावर्त्तशिखरिणि पादपोपगमनमकारीति । साम्प्रतमपराक्रमं दर्शयितुमाह ॥ २६२ ॥ अपरक्कममाएसो जह मरणं होइ उदहिनामाणं । पाओवगमेऽवि तहा एवं अपरकर्म मरणं ॥ २६६ ॥ न विद्यते पराक्रमः - सामर्थ्यमस्मिन्नित्यपराक्रमं किं तत् ? - मरणं, तच्च यथा जङ्गा बलपरिक्षीणानामुदधिनाम्न्नाम्-आर्यसमु द्राणां मरणमभूद्, अयमादेशो-दृष्टान्तो वृद्धवादायात इति, पादपोपगमनेऽपि तथैवादेशं जानीयाद् यथा पादपोपगमनेन तेषां मरणमभूदिति, एतद्-अपराक्रमं मरणं यदार्यसमुद्राणां सञ्जातमेवमन्यत्राप्यायोज्यमिति गाथाऽक्षरार्थः ॥ भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, तच्छेदम्-आर्यसमुद्रा आचार्याः प्रकृतिकृशा एवासन् पश्चाच्च तैर्जङ्घावलपरिक्षीणैः शरीरालाभमनपेक्ष्य तत्तित्यक्षुभिर्गच्छस्थैरेवानशनं विधाय प्रतिश्रयैकदेशे निर्धारिमं पादपोपगमनमकारि ॥ साम्प्रतं व्याघातिममाहवाघाइयमाएसो अवरडो हुन अन्नतरएणं । तोसलि महिसीइ हओ एयं वाघाइयं मरणं ॥ २६७ ॥ विशेषेणाघातो व्याघातः सिंहादिकृतः शरीरविनाशस्तेन निर्वृत्तं तत्र वा भवं व्याघातिमं, कश्चित्सिंहाद्यन्यतरेणाप Estication Til For Pantry Use Only ~528~# विमो० ८ उद्देशकः १ ।। २६२ ॥ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९६...], नियुक्ति: [२६७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: A प्रत सूत्रांक [१९६] ASACX4 दीप अनुक्रम २०९] राद्धो भवेद-आरब्धो भवेत् तेन यन्मरणं तयाघातिमं, तत्र वृद्धवादायात आदेशो-दृष्टान्तः, यथा-तोसलिनामा-1|| चार्यों महिण्याऽऽरव्यश्चतुर्विधाहारपरित्यागेन मरणमभ्युपगतवान् एतद्व्याघातिमं मरणमिति गाथाऽक्षरार्थो, भावार्थस्तु। कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-तोसलिनामाचार्योऽरण्यमहिषीभिःप्रारब्धः, तोसलिदेशे वा बढ्यो महिष्यः सम्भवन्ति, ताभिश्च कदाचिदेकः साधुरदव्यन्तर्वारब्धा, स च ताभिः क्षुद्यमानोऽनिर्वाहमवगम्य चतुर्विधाहारं प्रत्याख्यातवा-IN |निति ॥ साम्प्रतमव्याधातिमप्रतिपादनेच्छयाऽऽह अणुपुब्बिगमाएसो पव्वजामुत्तअत्थकरणं च । वीसजिओ(य)निन्तो मुको तिविहस्स नीयस्स ॥२६८॥ आनुपूर्वी-क्रमस्तं गच्छतीत्यानुपूर्वीगा, कोऽसौ?-आदेशो-वृद्धवादः, स चाय, तद्यथा-पूर्वमुत्थितस्य प्रव्रज्यादानं, ततः सूत्रकरणं पुनरर्थग्रहणं, ततस्तदुभयनिर्मातः सुपात्रनिक्षिप्तसूत्रार्थः गुर्वादिनाऽनुज्ञातोऽभ्युद्यतो मरणत्रिकान्यतराय 'निर्यन्' निर्गच्छन् त्रिविधस्याहारोपधिशय्याख्यस्य नित्यपरिभोगान्नित्यस्य मुक्तो भवति, तत्र यद्याचार्यस्तदा शिष्यान्निप्याद्याऽपरमाचार्य विधायोत्सर्गेण द्वादशसांवत्सरिक्या संलेखनया संलिख्य ततो गच्छविसर्जितो गच्छानुज्ञया स्वस्थापिताचार्यविसर्जितो वा अभ्युद्यतमरणायापराचार्यान्तिकमियात् , एवमुपाध्यायः प्रवर्तिः स्थविरो गणावच्छेदकः सामान्यसाधुर्वाऽऽचार्यविसर्जितः कृतसंलेखनापरिका भक्तपरिज्ञादिकं मरणमभ्युपेयात्, तत्रापि भावसंलेखनां कुर्यात् ।। द्रव्यसंलेखनायां तु केवलायां दोषसम्भवादित्याहपडिचोइओ य कुविओ रणोजह तिक्ख सीयला आणा। तंबोले य विवेगो घट्टणया जा पसाओ य ॥२६॥ % %*5 ~529~# Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९६...], नियुक्ति: [२६९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्रांक [१९६] दीप अनुक्रम २०९] श्रीआचा- प्रतिचोदितः सन्नाचार्येण पुनरपि संलिखेत्येवमभिहितः 'कुपितः' क्रुद्धो यथा च राज्ञः पूर्व तीक्ष्णाज्ञा पश्चाच्छी-1 | विमो०८ रावृत्तिःतलीभवति एवमाचार्यस्यापि, 'तम्बोले' नागवल्लीपत्रे च कुथिते शेषरक्षणाय 'विवेकः' परित्यागः कार्यः, ततः 'घ(शी०) हना' कदर्थना कार्या, तत्सहिष्णोः पश्चाद्यावत् प्रसाद इति गाथाऽक्षरार्थः, भावार्थस्तु कथानकादबसेयः, तच्चेदम्-ए-15/ उद्देशका ॥२६३ ॥ केन साधुना द्वादशवर्षसंलेखनयाऽऽत्मानं संलिख्य पुनरभ्युद्यतमरणायाचार्यों विज्ञप्तः, तेनाप्यभाणि-यथाऽद्यापि सं-1 लिख, ततोऽसौ कुपितः स्वगस्थिशेषामङ्गली भकृत्वा दर्शयति, किमत्राशुद्धमिति !, आचार्योऽपि येनाभिप्रायेणोक्तवाँस्तमाविष्करोति-अत एवाशुद्धो भवान्, यतो वचनसमनन्तरमेवाङ्गलीभङ्गद्वारेण भावाशुद्धतामाविष्कृतवानित्युक्त्वा|ssचार्यस्तत्प्रतिबोधनाय दृष्टान्तं दर्शयति, यथा-कस्यचिद्राज्ञो नित्यं निष्पन्दिनी लोचने, ते च स्ववैद्योपन्यस्तानुष्ठानवतोऽपि न स्वस्थतामियातां, पुनरागन्तुकेन वैद्येनाभिहितः-स्वस्थीकरोमि भवन्तं यदि मुहूर्त वेदनां तितिक्षसे वेदनार्त्तश्च न मां घातयसीति, राज्ञा चाभ्युपगतं, अञ्जनप्रक्षेपानन्तरोद्भूततीनवेदनातैनापगते ममाक्षिणी इत्येवंवादिना व्यापादयितुमारेभे, ततो राज्ञस्तीक्ष्णाज्ञा, यतश्च पूर्वमव्यापादनमभ्युपगतमतः शीतलेति, मुहूर्ताच्चापगतवेदनः पटुनयनश्च पूजितवैद्यो मुमुदे राजेति, एवमाचार्यस्यापि तीक्ष्णा प्रतिचोदनादिकाऽऽज्ञा परमार्थतस्तु शीतलेति, यदि पुनरेवं कथितेऽपि | नोपशाम्यति ततः शेषसंरक्षणार्थ विकृतनागवल्लीपत्रस्येव विवेकः क्रियते, अथाचार्योपदेशं प्रतिपद्यते ततो गच्छ एव ति तो घट्टना दुर्वचनादिभिः कदर्थना क्रियते, यदि च तथापि न ज्वलति ततः शुद्ध इतिकृत्वाऽनशनदानेन प्रतिजागरणेन च प्रसादः क्रियत इति । किम्भूतः पुनः कियन्तं वा कालं कथं वाऽऽत्मानं संलिखेदित्येतत् हदि व्यवस्थाप्याह २६३ ~530~# Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९६...], नियुक्ति: [२७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९६] दीप अनुक्रम २०९] निफाईया य सीसा सउणी जह अंडग पयत्तेणं । बारससंवच्छरियं सो संलेहं अह करेइ ।। २७० ॥ चत्तारि विचित्ताई विगई निहियाई चत्तारि । संवच्छरे य दुन्नि उ एगंतरियं तु आयाम ॥ २७१ ॥ नाइविगिट्ठो उ तवो छम्मासे परिमियं तु आयामं । अन्नेऽवि य छम्मासे होइ विगिटुं तवोकम्मं ॥२७२।। वासं कोडीसहियं आयाम काउ आणुपुब्बीए । गिरिकंदरंमि गंतुं पायवगमणं अह करेइ ॥ २७३ ॥ सूत्रार्थतदुभयैः स्वशिष्याः प्रातीच्छका वा 'निष्पादिता' योग्यतामापादिताः शकुनिनेवाण्डक प्रयलेन, ततोऽसौर अथ' अनन्तरं द्वादशसांवत्सरिकी संलेखनां करोति, तद्यथा-चत्वारि वर्षाणि 'विचित्राणि' विचित्रतपोऽनुष्ठानवन्ति | भवन्ति, चतुर्थषष्टाष्टमदशमद्वादशादिके कृते पारणकं सविकृतिकमन्यथा वेति, पञ्चमादारभ्य संवत्सरादपराणि चत्वारि वर्षाणि निर्विकृतिकमेव पारणकमिति, नवमदशमसंवत्सरद्वयं वेकान्तरितमाचाम्लमेकस्मिन्नहनि चतुर्थमपरेधुराचाम्लेन पारणकमिति, तत एकादशसंवत्सरं द्विधा विधत्ते-तत्राचं पण्मासं नातिविकृष्टं तपः करोति, चतुर्थ षष्ठं वा || विधाय परिमितेनाचाम्लेन पारणकं विधत्ते, न्यूनोदरता करोतीत्यर्थः, अपरषण्मासं तु विकृष्टतपश्चरणवतः पूर्वोक्तमेव पारणकं, द्वादशं तु संवत्सरं कोटीसहितमाचाम्लं करोति, प्रतिदिनमाचाम्लेन भुले, आचाम्लस्य कोव्याः कोटिं मीलयत्यतः कोटीसहितमित्युक्तं, चतुर्मासावशेषे तु संवत्सरे तैलगण्डूषानस्खलितनमस्काराद्यध्ययनायापगतवातमुखय४त्रप्रचारार्थ पौनःपुन्येन करोतीति, तदेवमनयाऽऽनुपूर्व्या सर्व विधाय सति सामर्थे गुरुणाऽनुज्ञातो गिरिकन्दरं गत्वा स्थण्डिलं प्रत्युपेक्ष्य 'अर्थ' अनन्तरं पादपोपगमनं करोति, इङ्गितमरणं वा भक्तप्रत्याख्यानं वा यथासमाधि SAIREita t ina ~531~# Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९६...], नियुक्ति: [२७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत (शी०) सूत्रांक [१९६] श्रीआचा- विधत्त इति गाथाचतुष्टयार्थः॥ अनया च द्वादशसंवत्सरसंलेखनाऽऽनुपूर्व्या क्रमेण आहारं परितर्नु कुर्वत आहाराभिला-1 विमो०८ राजवृत्तिःपोच्छेदो भवतीत्येतद्गाथाद्वयेन दर्शयितुमाह उद्देशकः१ कह नाम सो तबोकम्मपंडिओ जो न निचुजुत्तप्पा । लहवित्तीपरिकखेवं बच्चइ जेमंतओ व ? ॥ २७४ ।। आहारेण विरहिओ अप्पाहारो य संवरनिमित्तं । हासंतो हासंतो एवाहारं निरुभिजा ॥ २७५॥ ॥ २६४॥ ४. कथं नामासी तपःकर्मणि पण्डितः स्यात् ?, यो न नित्यमुद्युक्तात्मा सन् वर्त्तनं वृत्तिः-द्वात्रिंशत्कवलपरिमाणल-3 क्षणा तस्याः परिक्षेपः-संक्षेपो वृत्तिपरिक्षेपः लघुर्वृत्तिपरिक्षेपोऽस्येति लघुवृत्तिपरिक्षेपः तद्भावं यो भुञान एव न व्रजति । कथमसौ तपःकर्मणि पण्डितः स्यात् !, तथाऽऽहारेण विरहितो द्वित्रान् पञ्चषान् वा वासरान् स्थित्वा पुनः पारयति तत्राप्यल्पाहारोऽसौ भवति, किमर्थ ?-'संवरनिमित्तम् अनशननिमित्तं, एवमसावुपवासैः प्रतिपारणकमल्पाहारतया च हासयन् हासयन्नाहारमुक्तविधिना पश्चान्निरुन्ध्याद्-भक्तप्रत्याख्यानं कुर्यादिति गाथाद्वयार्थः ।। उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपस्तनियुक्तिश्च, साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम् से बेमि समणुनस्स वा असमणुन्नस्स वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंच्छणं वा नो पादेजा नो निमंतिज्जा नो कुज्जा ॥२६४॥ वेयावडियं परं आढायमाणे तिबेमि (सू०१९७) दीप अनुक्रम २०९] wwwandltimaryam अष्टम-अध्ययने प्रथम-उद्देशक: 'असमनोज्ञ विमोक्ष' आरब्ध:, ~532~# Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९७],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९७] दीप 8 सोऽहं प्रवीमि योऽहं भगवतः सकाशात् ज्ञातज्ञेय इति, किं तद्वीमि :-वक्ष्यमाणं, तद्यथा-'समनोज्ञस्य बाग वाशब्द उत्तरापेक्षया पक्षान्तरोद्योतकः, समनोज्ञो दृष्टितो लिङ्गतो न तु भोजनादिभिः तस्य, तद्विपरीतस्त्वसमनोज्ञः-III शाक्यादिस्तस्य था, अश्यत इत्यशन-शाल्योदनादि, पीयत इति पानं-द्राक्षापानकादि, खाद्यत इति खादिम नालिकेरादि, स्वाद्यत इति स्वादिम-कपूरलवङ्गादि, तथा वखं वा पात्रं वा पतनहं वा कम्बलं वा पादपुन्छनं वा, नो प्रद| द्यात्-पासुकमप्रासुकं वा तदन्येषां कुशीलानामुपभोगाय नो वितरेत, नापि दानार्थं निमन्त्रयेत् , न च तेषां वैया|वृत्त्यं कुर्यात् , परम्-अत्यर्थमाद्रियमाण इति, अत्यर्थमादरवान तेभ्यः किमपि दद्यात् नापि तानामन्त्रयेत् न च | तेषां वैयावृश्यमुच्चावचं कुर्यादिति, ब्रवीमीत्यधिकारपरिसमाप्तौ ॥ एतच्च वक्ष्यमाणमहं अबीमीत्याह धुवं चेयं जाणिज्जा असणं वा जाव पायपुंछणं वा लभिया नो लभिया भुंजिया नो भुजिया पंथं विउत्ता विउक्कम्म विभत्तं धम्म जोसेमाणे समेमाणे चलेमाणे पाइजा वा निमंतिज वा कुज्जा वेयावडियं परं अणाढायमाणे तिबेमि (सू० १९८) ते हि शाक्यादयः कुशीला अशनादिकमुपदश्वं युः, यथा-धर्व चैतज्जानीयात-नित्यमस्मदाबसथे भवति लभ्यते | वाऽतो भवद्भिरेतदशनादिकमन्यत्र लब्ध्वावाऽलब्ध्वा वा भुवया बाऽभुक्त्या वा अस्मदृतयेऽवश्यमागन्तव्यं, अलब्ध अनुक्रम २१०]] था. सू.४५ wwwandltimaryam ~533~# Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९८],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत राजवृत्तिः (शी०) 51340-1941 विमो. उद्देशकः१ सूत्रांक [१९८] ॥२६५॥ 5 दीप अनुक्रम २११] लाभाय लब्धेऽपि विशेषाय भुक्ते पुनः पुनर्मोजनायाभुक्तेऽपि प्रथमालिकार्थमस्मद्भुतये यथाकथश्चिदागन्तव्यं, यद्यथा वा भवतां कल्पनीयं भवति तत्तथा दास्याम इति, अनुपथ एवास्मदावसथो भवतां वर्तते, अन्यथाऽप्यस्मत्कृते पन्धानं व्यावापि वक्रपथेनाप्यागन्तव्यमपक्रम्य वाऽन्यगृहाणि समागन्तव्यं, नात्रागमने खेदो विधेयः, किम्भूतोऽसौ शाक्यादिरिति दर्शयति-'विभक्तं' पृथग्भूतं धर्म 'जुषन्' आचरन्, एतच्च कदाचित्पतिश्रयमध्येन 'समेमाणे'त्ति समागच्छन् तथा 'चलेमाणे त्ति गच्छन् ब्रूयाद् यदिवाऽशनादि प्रदद्यात् अशनादिदानेन वा निमन्त्रयेदन्यद्वा प्रश्रयबद्धयावृत्त्यं कुर्यात् , तस्य कुशीलस्य नाभ्युपेयात् न तेन सह संस्तवमपि कुर्यात् , कथं परम्-अत्यर्थमनाद्रियमाणः-अनादरवान्, एवं हि दर्शनशुद्धिर्भवतीति ब्रवीमीत्येतत्पूर्वोक्तं ॥ यदि वैतद्वक्ष्यमाणमित्याह इहमेगेसिं आयारगोयरे नो सुनिसंते भवति ते इह आरंभट्टी अणुवयमाणा हण पाणे घायमाणा हणओ यावि समणुजाणमाणा अदुवा अदिन्नमाययंति अदुवा वायाउ विउजंति, तंजहा-अस्थि लोए नत्थि लोए धुवे लोए अधुवे लोए साइए लोए अणाइए लोए सपज्जवसिए लोए अपज्जवसिए लोए सुकडेत्ति वा दुकडेत्ति वा कल्लाणेत्ति वा पावेत्ति वा साहुत्ति वा असाहुत्ति वा सिद्धित्ति वा असिद्धित्ति वा नि 3 200- 1२६५॥ ~534~# Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९९],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९९] दीप अनुक्रम २१२] रएत्ति वा अनिरएत्ति वा, जमिणं विप्पडिवन्ना मामगं धम्म पन्नवेमाणा इत्थवि जा णह अकस्मात् एवं तेसिं नो सुयक्खाए धम्मे नो सुपन्नत्ते धम्मे भवइ (सू० १९९) । 'इह' अस्मिन्मनुष्यलोके 'एकेषां' पुरस्कृताशुभकर्मविपाकानामाचरणमाचारो-मोक्षार्थमनुष्ठानविशेषस्तस्य गोचरोविषयः नो सुष्ठ निशान्तः-परिचितो भवति, ते चापरिणताचारगोचरा यथाभूताः स्युः तथा दर्शयितुमाह-'ते' अनधीताचारगोचरा भिक्षाचर्याऽस्मानस्वेदमलपरीपहतर्जिताः सुखविहारिभिः शाक्यादिभिरात्मसात्परिणामिताः 'इह' मनुष्यलोके आरम्भार्थिनो भवन्ति, ते वा शाक्यादयोऽन्ये वा कुशीलाः सावद्यारम्भार्थिनः, तथा विहारारामतडागकूपकरणादेशिकभोजनादिभिधम्मै वदन्तोऽनुवदन्तः, तथा जहि प्राणिन इत्येवमपरैर्घातयन्तो नतश्चापि समनुजानन्तः, अथवा अदत्तं परकीयं द्रव्यमगणितविपाकास्तिरोहितशुभाध्यवसायाः 'आददति' गृह्णन्तीति, किं च-तत्र प्रथमतृतीयव्रते अल्पवक्तव्यत्वात् पूर्व प्रतिपाद्य ततो बहुतरवक्तव्यत्वात् द्वितीयत्रतोपन्यास इति, 'अथवेति' पूर्वस्मात् पक्षान्तरोपक्षेपकः, तद्यथा अदत्तं गृह्णन्त्यथवा वाचो विविधं-नानाप्रकारा युञ्जन्ति, 'तद्यथे'त्युपक्षेपार्थः, अस्ति 'लोक' स्थावरजङ्गमात्मकः, तत्र नवखण्डा पृथ्वी सप्तद्वीपा वसुन्धरेति वा, अपरेषां तु ब्रह्माण्डान्तवर्ती, अपरेषां तु प्रभूतान्येवम्भूतानि ब्रह्माण्डातान्युदकमध्ये प्लवमानानि संतिष्ठन्ते, तथा सन्ति जीवाः स्वकृतफलभुजः, अस्ति परलोकः, स्तो बन्धमोक्षी, सन्ति पञ्च महाभूतानि इत्यादि, तथाऽपरे चार्वाका आहुः-नास्ति लोको मायेन्द्रजालस्वप्रकल्पमेवैतत्सर्वं, तथा ह्यविचारितरमणी Jain Educatinintamathima ~535~# Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९९],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९९] दीप श्रीआचा- यतया भूताभ्युपगमोऽपि तेषामतो नास्ति परलोकानुयायी जीवो, न स्तः शुभाशुभे, किण्वादिभ्यो मदशक्तिवतेभ्य विमो०८ राङ्गवृत्तिः एव चैतन्यमित्यादिना सर्व मायाकारगन्धर्वनगरतुल्यम्, उपपत्त्यक्षमत्वादिति, उक्तंच-"यथा यथाऽर्थाश्चिन्त्यन्ते, (शी०) विविच्यन्ते तथा तथा । यद्येतत्स्वयमर्थेभ्यो, रोचते तत्र के वयम् ॥१॥ भौतिकानि शरीराणि, विषयाः करणानि उद्देशका दाच । तथापि मन्दरन्यस्य, तत्वं समुपदिश्यते ॥ २ ॥" इत्यादि, तथा साङ्ख्यादय आहुः-'ध्रुवो' नित्यो लोकः, ॥२६६॥ आविर्भावतिरोभावमात्रत्वादुत्पादविनाशयोः, असतोऽनुत्पादात् सतश्चाविनाशात्, यदिवा 'ध्रुवः' निश्चलः, सरि समुद्रभूभूधराधाणां निश्चलत्वात् , शाक्यादयस्त्वाहुः-अधुवो लोकोऽनित्यः, प्रतिक्षणं विशरारुस्वभावत्वात् , विनाश-18 दहतोरभावात् नित्यस्य च क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियायामसामर्थ्यात्, यदिवा 'अभुवः' चलः, तथाहि-भूगोलः केषा चिन्मतेन नित्यं चलन्नेवास्ते, आदित्यस्तु व्यवस्थित एव, तत्रादित्यमण्डलं दूरत्वाद्ये पूर्वतः पश्यन्ति तेषामादित्योदयः आदित्यमण्डलाधो व्यवस्थितानां मध्याह्नः ये तु दूरातिक्रान्तत्वान्न पश्यन्ति तेषामस्तमित इति, अन्ये पुनः सादिको लोक इति प्रतिपन्नाः, तथा चाह:-"आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् । अप्रतयमविज्ञेयं, प्रसुप्तमिय सर्वतः Pu१॥ तस्मिन्नेकार्णवीभूते, नष्टस्थावरजङ्गमे । नष्टामरनरे चैव, प्रनष्टोरगराक्षसे ॥२॥ केवलं गहरीभूते, महाभूतवि वर्जिते । अचिन्त्यात्मा विभुस्तन, शयानस्तप्यते तपः॥३॥ तस्य तत्र शयानस्य, नाभेः पद्म विनिर्गतम् । तरुणरवि-| मण्डलनिर्भ, हयं काशनकर्णिकम् ॥ ४॥ तस्मिन् पझे तु भगवान् दण्डी यज्ञोपवीतसंयुक्तः । ब्रह्मा तत्रोपन्नस्तेन जगन्मातरः सृष्टाः॥५॥ अदितिः सुरसानां दितिरसुराणां मनुर्मनुष्याणाम् । विनता विहङ्गमानां माता विश्वप्रकारा अनुक्रम २१२] SCARRCRAC ॥२६६ wwwratnam.org ~536~23 Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९९], नियुक्ति: [२७५] प्रत सूत्रांक [१९९] Kणाम् ॥ १॥ कद्रूः सरीसृपाणां सुलसा माता तु नागजातीनाम् । सुरभिश्चतुष्पदानामिला पुनः सर्वबीजानाम् ॥ ७॥" इत्यादि, अपरे तु पुनरनादिको लोक इत्येवं प्रतिपन्नाः, यथा शाक्या एवमाहुः-अनवदमोऽयं भिक्षवः। संसारः, पूर्वा च कोटी न प्रज्ञायते, अविद्या निरावरणानां सत्त्वानां न विद्यते, न च सत्त्वोसाद इति, तथा सपर्यवसितो लोको, जगमलये सर्वस्य विनाशसद्भावात्, तथाऽपर्यवसितो लोकः, सतः आत्यन्तिकविनाशासम्भवात् , 'न कदाचिदनीदृशं जगदिति वचनात् , तत्र येषां सादिकस्तेषां सपर्यवसितो येषां त्वनादिकस्तेषामपर्यवसित इति, केपाश्चित्तूभ यमपीति, तथा चोक्तम्-"द्वावेव पुरुषी लोके, क्षरश्चाक्षर एव च । क्षरः सर्वाणि भूतानि, कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥१॥" ६ इत्यादि, तदेवं परमार्थमजानाना अस्तीत्याद्यभ्युपगमेन लोकं विवदमानाः नानाभूता वाचो नियुञ्जन्ति, तथाऽऽत्मानमपि प्रति विवदन्ते, तद्यथा-सुत कृतं सुकृतमिति वा दुष्कृतमिति वेत्येवं क्रियावादिनः संप्रतिपद्यन्ते. तथा सष्ठ कृतं यत् सर्व-14 सङ्गपरित्यागतो महाव्रतमग्राहि, तथाऽपरे दुष्कृतं भवता यदसौ मुग्धमृगलोचना पुत्रमनुत्पाद्योज्झितेति, तथा य एव कश्चिनज्योद्यतः कल्याण इत्येवमभिहितः स एवापरेण पाखण्डिकविप्रलब्धः क्लीवोऽयं गृहाश्रमपालनासमर्थोऽनपत्यः +पाप इत्येवमभिधीयते, तथा साधुरिति वा असाधुरिति वा स्वमतिविकल्पितरुचिभिरभिधीयते, तथा सिद्धिरिति वा अ-1 सिद्धिरिति वा नरक इति वा अनरक इति षा, एवमन्यदप्याश्रित्य स्वाग्रहपहिणो विवदन्त इति दर्शयति, 'यदिदं विदप्रतिपन्ना' यत्पूर्वोक्तं लोकादिकं तदिदमाश्रित्य विविध प्रतिपन्ना-विप्रतिपन्नाः, तथा चोक्तम्-"इच्छंति कृत्रिमं सृष्टिवा दिनः सर्वमेव मितिलिङ्गम् । कृत्स्नं लोकं माहेश्वरादयः सादिपर्यन्तम् ॥१॥ नारीश्वरजं केचित् केचित्सोमाग्निसम्भवं दीप अनुक्रम २१२] Foto www.janabran.ara मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~537~# Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९९],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: विमो०८ श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः प्रत दशका सूत्रांक (शी०) [१९९] दीप अनुक्रम २१२] लोकम् । द्रव्यादिषडिकल्प जगदेतत्केचिदिच्छन्ति ॥२॥ ईश्वरप्रेरितं केचित्केचिब्रह्मकृतं जगत् । अव्यक्तप्रभवं सर्व, विश्वमिच्छन्ति कापिलाः ॥३॥ यादृच्छिकमिदं सर्वं, केचिद्भूतविकारजम् । केचिच्चानेकरूपं तु, बहुधा संप्रधाविताः | ॥४॥" इत्यादि, तदेवमनवगाहितस्याद्वादोदन्वतामेकांशावलम्बिना मतिभेदाः प्रादुष्ष्यन्ति, तदुक्तम्-"लोकक्रिया- |ऽऽत्मतत्त्वे विवदन्ते वादिनो विभिन्नार्थम् । अविदितपूर्व येषां स्याद्वादविनिश्चितं तत्त्वम् ॥१॥" येषां तु पुनः स्याद्वादमतं निश्चितं तेषामस्तित्वनास्तित्वादेरर्थस्य नयाभिप्रायेण कथञ्चिदाश्रयणात् विवादाभाव एवेति, अन च बहु वक्तन्यं तत्तु नोप्यते, अन्धविस्तरभयाद्, अन्यत्र च सूत्रकृतादौ विस्तरेण सुविहितत्वादिति । ते च विवदन्तः परस्परतो विप्रतिपन्नाः। मामकम्' इत्यात्मीयं धर्म प्रज्ञापयन्तः स्वतो नष्टाः परानपि नाशयन्ति, तथाहि केचित्सुखेन धर्ममिच्छन्ति अपरे का दुःखेनान्ये स्नानादिनेति, तथा मामक एवैको धर्मो मोक्षायानिर्वाच्यश्च नापर इत्येवं वदन्तोऽपुष्टधर्माणोऽविदितपरमार्थान् प्रतारयन्ति, तेषामुत्तरं दर्शयति-'अत्रापि' अस्ति लोको नास्ति वेत्यादी जानीत यूयम् 'अकस्मादिति मागधदेशे आगोपालाङ्गनादिना संस्कृतस्यैवोच्चारणादिहापि तथैवोच्चारित इति, कस्मादिति हेतुर्न कस्मादकस्माद् हेतोरभावादित्यर्थः, तत्रास्ति लोक इत्युक्तेऽत्राप्येवं जानीत यथा न भवत्येवमकस्माद्, हेतोरभावादिति, तथाहि-योकान्तेनैव लोकोऽस्ति ततोऽस्तिना सह समानाधिकरण्याद्यदस्ति तल्लोकः स्याद् एवं च तत्प्रतिपक्षोऽप्यलोकोऽस्तीतिकृत्वा लोक एवालोकः स्याद्, व्याप्यसद्भावे व्यापकस्यापि सद्भावादलोकाभावः, तदभावे च तत्प्रतिपक्षभूतस्य लोकस्य प्रागेवाभावः सर्वगतत्वं वा लोकस्य स्यादिति, अथवा लोकोऽस्ति, न च लोको भवति, लोकोऽपि नामास्ति, न च लोकोऽलोकाभाव इत्येवं ॥२६७ ॥ wwwandltimaryam ~538~# Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९९],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: * प्रत * सूत्रांक * [१९९] * स्थाद, अनिष्टं चैतत् , किंच-अस्तेापकत्वे लोकस्य घटपटादेरपि लोकत्वप्राप्तिः, व्याप्यस्य व्यापकसद्भावनान्तरीयकदत्वात् , किं च-अस्ति लोकः इत्येषापि प्रतिज्ञा लोक इतिकृत्वा हेतोरप्यस्तित्वात्, प्रतिज्ञाहेत्वोरेकत्वावाप्तिः, तदेकत्वे हेत्व भावः, तदभावे किं केन सिक्ष्यतीति?, उतास्तित्वादन्यो लोक इत्येवं च प्रतिज्ञाहानिः स्यात्, तदेवमेकान्तेनैव लोकास्तित्वेऽभ्युपगम्यमाने हेत्वभावः प्रदर्शितः, एवं नास्तित्वप्रतिज्ञायामपि वाच्यं, तथाहि-नास्ति लोक इति ब्रुवन् वाच्यःकिं भवानस्त्युत नेति ?, यद्यस्ति किं लोकान्तर्वती न वेति, यदि लोकान्तर्गतः कथं नास्ति लोक इति ब्रवीषि?, अथ बहिर्भूतस्ततः खरविषाणवदसद्भूत एवेति कस्य मयोत्तरं दातव्यम् , इत्यनया दिशैकान्तवादिनः स्वयमभ्यूह्य प्रतिक्षेप्तव्या || इति, 'एव' मिति यथाऽस्तित्वनास्तित्ववादस्तेषामाकस्मिको नियुक्तिकः, एवं ध्रुवाधुवादयोऽपि वादा नियुक्तिका ए-1 दावेति, अस्माकं तु स्याद्वादवादिनां कथश्चिदभ्युपगमान्न यथोक्तदोषानुपङ्गो, यतः स्वपरसत्ताच्युदासोपादानापाद्यं हि वस्तुनो वस्तुत्वम्, अतः स्वद्रव्यक्षेत्रकालस्वभावतोऽस्ति परद्रव्यादिचतुष्टयान्नास्तीति, उक्तं च-"सदेव सर्व को नेच्छेत् , || स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विषयांसान चेन व्यवतिष्ठते ॥१॥" इत्यादि, अलमतिप्रसङ्गेनाक्षरगमनिकार्थत्वात् प्रयासस्य, एवं धुवाध्रुवादिष्वपि पश्चावयवेन दशावयवेन वाऽन्यथा वैकान्तपक्षं विक्षिप्य स्याद्वादपक्षोऽभ्यूह्यायोज्य इति । साम्प्रतमुपसंहरति एवं' उक्तनीत्या तेषामेकान्तवादिनां न स्वाख्यातो धर्मो भवति, नापि शास्त्रप्रणयनेन सुप्रज्ञा|| पितो भवति ॥ किं स्वमनीषिकया भवतेदमभिधीयते?, नेत्याह-यदिवा किम्भूतस्तहि सुप्रज्ञापितो धर्मो भवतीत्याह से जहेयं भगवया पवेइयं आसुपन्नेण जाणया पासया अदुवा गुत्ती वओगोयरस्स * * दीप अनुक्रम २१२] * * * wwwandltimaryam ~539~# Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२००] दीप अनुक्रम [२१३] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ २६८ ॥ চ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [१], मूलं [२००],निर्युक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः त्तिबेमि सव्वत्थ संमयं पावं, तमेव उवाइकम्म एस महं विवेगे वियाहिए, गामे वा अदुवा रणे नेव गामे नेव रण्णे धम्ममायाणह पवेइयं माहणेण मइमया, जामा तिन्न उदाहिया जेसु इमे आयरिया संबुज्झमाणा समुट्टिया, जे णिव्वुया पावेहिं कम्मेहिं अणियाणा ते वियाहिया ( सू० २०० ) तद्यथा 'इदं स्याद्वादरूपं वस्तुनो लक्षणं समस्तव्यवहारानुयायि कचिदप्यप्रतिहतं 'भगवता' श्रीवर्द्धमान स्वामिना प्रवेदितम्, एतद्वाऽनन्तरोक्तं भगवता प्रवेदितमिति, किम्भूतेनेति दर्शयति- आशुप्रज्ञेन, निरावरणत्वात् सततोपयुक्तेनेत्यर्थः, किं यौगपद्येन ?, नेति दर्शयति- 'जानता' ज्ञानोपयुक्तेन, तथा 'पश्यता' दर्शनोपयुक्तेनैतत्प्रवेदितं यथा नैषामेकान्तवादिनां धर्मः स्वाख्यातो भवति, अथवा गुप्तिर्वाग्गोचरस्य-भाषासमितिः कार्येत्येतत्प्रवेदितं भगवता य दिवा अस्ति नास्ति ध्रुवाधुवादिवादिनां वादायोत्थितानां त्रयाणां त्रिषष्ट्यधिकानां प्रावादुकशतानां वादलब्धिमतां प्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तोपन्यासद्वारेण तदुपन्यस्तदूषणोपन्यासेन च तत्पराजयापादनतः सम्यगुत्तरं देयम्, अथवा गुप्तिर्वाग्गोचरस्य विधेयेत्येतदहं ब्रवीमि वक्ष्यमाणं चेत्याह-तान् वादिनो वादायोत्थितानेवं ब्रूयाद्-यथा भवतां सर्वेषामपि पृथि व्यप्तेजोवायुवनस्पत्यारम्भः कृतकारितानुमतिभिरनुज्ञातोऽतः सर्वत्र 'सम्मतम्' अभिप्रेतमप्रतिषिद्धं 'पाप' पापानुष्ठानं, मम तु नैतत्सम्मतमित्येतद्दर्शयितुमाह-'तदेव' एतत्पापानुष्ठानमुप- सामीप्येनातिक्रम्य - अतिलङ्घ्य यतोऽहं व्यवस्थि Jan Estication Intimational For Pantry Use Only ~540 ~# विमो० ८ उद्देशकः १ ।। २६८ ।। www.indiary.org Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [२००],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२००] दीप अनुक्रम २१३] है तोऽत एष मम विवेको व्याख्यातः, तत्कथमहं सर्वाप्रतिषिद्धास्रवद्वारैः संभाषणमपि करिष्ये ?, आस्तां तावद्वाद इत्ये वमसमनुज्ञविवेकं करोतीति, अत्राह चोदकः कथं तीर्थिकाः सम्मतपापा अज्ञानिनो मिथ्यादृष्टयोऽचरित्रिणोऽतप|| स्विनो वेति !, तथाहि-तेऽप्यकृष्टभूमिवनवासिनो मूलकन्दाहारा वृक्षादिनिवासिनश्चेति, अत्राहाचार्यः-नारण्यवासादिना |धर्मः, अपि तु जीवाजीवपरिज्ञानात् तत्पूर्वकानुष्ठानाच्च, तच्च तेषां नास्तीत्यतोऽसमनोज्ञास्ते इति । किं च-सदसद्विवेकिनो हि धर्मः, स च ग्रामे वा स्यात् अथवाऽरण्ये, नैवाधारो ग्रामो नैवारण्यं धर्मनिमित्तं, यतो भगवता न बसि-15 ममितरद्वाऽऽग्नित्य धर्मः प्रवेदितः, अपि तु जीवादितत्त्वपरिज्ञानात् सम्यगनुष्ठानाच्च, अतस्तं धर्ममाजानीत 'प्रवेदित' कथितं 'माहणेण'त्ति भगवता, किम्भूतेन ?-'मतिमता' मननं-सर्वेपदार्थपरिज्ञानं मतिस्तद्वता मतिमता केवलिने-114) त्यर्थः । किंभूतो धर्मः प्रवेदित इत्याह-'यामा' व्रतविशेषाः त्रय उदाहृताः, तद्यथा-प्राणातिपातो मृषावादः परिग्र हश्चेति, अदत्तादानमैथुनयोः परिग्रह एवान्तर्भावात् त्रयग्रहणं, यदिवा यामा-वयोविशेषाः, तद्यथा-अष्टवर्षादात्रि*शतः प्रथमस्तत ऊईमाषष्टेः द्वितीयस्तत ऊ तृतीय इति अतिवालवृद्धयोब्युदासो, यदिवा यम्यते-उपरम्यते संसार-|| भ्रमणादेभिरिति यामाः-ज्ञानदर्शनचारित्राणीति ते 'उदाहुता' व्याख्याताः, यदि नामैवं ततः किमित्याह-येषु' अवस्थाविशेषेषु ज्ञानादिषु वा इमे देशार्या अपाकृतहेयधर्मा वा सम्बुध्यमानाः सन्तः समुत्थिताः, के ?-ये 'निर्वताः' कोद्याद्यपगमेन शीतीभूताः पापेषु कर्मसु 'अनिदाना' निदानरहिताः ते 'व्याख्याताः' प्रतिपादिता इति ॥ क च पुनः पापकर्मस्वनिदाना इत्यत आह www.ianditnary.org ~541~# Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [२०१],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचा प्रत राजवृत्तिः (शी) विमो०८ उद्देशका सूत्रांक ॥२६९॥ [२०१] दीप अनुक्रम २१४] उई अहं तिरियं दिसासु सव्वओ सव्वावंति च णं पाडियक जीवहिं कम्मसमारम्भे णं तं परिन्नाय मेहावी नेव सयं एएहिं काएहिं दंड समारंभिजा नेवन्ने एएहिं काएहिं दंडं समारंभाविजा नेवन्ने एएहिं काएहिं दंडं समारंभंतेऽवि समणुजाणेजा जेवऽन्ने एएहिं काएहिं दंडं समारंभंति तेसिपि वयं लज्जामो तं परिन्नाय मेहावी तं वा दंडं अन्नं वा नो दंडभी दंड समारंभिजासि तिबेमि (सू० २०१)। विमोक्षाध्ययनो देशकः ८-१॥ ऊर्ध्वमधस्तिर्यग्दिक्षु 'सर्वतः सः प्रकारैः सर्वा या काश्चन दिशः चशब्दादनुदिशश्च 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे 'प्रत्येक जीवेषु' एकेन्द्रियसूक्ष्मेतरादिकेषु यः कर्मसमारम्भः-जीवानुदिश्य य उपमर्दरूपः क्रियासमारम्भः 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे तं कर्मसमारम्भं ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याचक्षीत, कोऽसौ ?--'मेधावी' मर्यादाव्यवस्थित इति, कथं प्रत्याचक्षीतेत्याह-नैव स्वयमात्मना 'एतेषु' चतुर्दशभूतनामावस्थितेषु 'कायेषु' पृथिवीकायादिषु 'दण्डम्' उ|पमर्दै समारभेत, न चापरेण समारम्भयेत्, नेवान्यान् समारभमाणान् समनुजानीयात् , ये चान्ये दण्डं समारभन्ते, सुब्ब्यत्ययेन तृतीयार्थे षष्ठी, तैरपि वयं लज्जाम इत्येवं कृताध्यवसायः सन् तज्जीवेषु कर्मसमारम्भं महतेऽनर्थाय 'परि ॥२६९॥ wataneltmanam ~542-23 Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२०१] दीप अनुक्रम [२१४] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [१], मूलं [२०१],निर्युक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ज्ञाय' ज्ञात्वा 'मेधावी' मर्यादावान्, तथा पूर्वोक्तं दण्डमन्यद्वा नृपावादादिकं दण्डाद्विभेतीति दण्डभीः सन् नो 'दण्डं' प्राण्युपमर्दादिकं समारभेथाः, करणत्रिकयोगत्रिकेण परिहरेदिति, इतिरधिकारपरिसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत् । विमोक्षाध्ययने प्रथमोद्देशक इति ॥ उक्तः प्रथमोद्देशकः, साम्प्रतं द्वितीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरो देशकेऽनघसंयमप्रतिपालनाय कुशीलपरित्यागोऽभिहितः, स चैतावताऽकल्पनीयपरित्यागमृते न सम्पूर्णतामियाद् अतोऽकल्पनीयपरित्यागार्थमिदमुपक्रम्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम् - Jain Estication Intematonal से भिक्खू परिकमिज वा चिट्टिज वा निसीइज वा तुयट्टिज वा सुसाणंसि वा सुनागारंसि वा गिरिगुहंसि वा रुक्खमूलंसि वा कुंभाराययणंसि वा हुरत्था वा कहिचिविहरमाणं तं भिक्खु उवसंकमित्तु गाहावई ब्रूया आउसंतो समणा ! अहं खलु तव अट्ठा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुच्छणं वा पाणाई भूयाइं जीवाई सत्ताइं समारम्भ समुद्दिस्स कीयं पामिचं अष्टम अध्ययने द्वितीय उद्देशकः 'अकल्पनीय विमोक्ष' आरब्धः, For Panay at Use Onl ~543 ~# Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [२], मूलं [२०२],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक विमो०८ उद्देशकार [२०२]] दीप अनुक्रम २१५]] श्रीआचा- अच्छिज्ज अणिसटुं अभिहडं आहहु चेएमि आवसहं वा समुस्सिणोमि से भुंजह वरामवृत्तिः सह, आउसंतो समणा! भिक्खू तं गाहावई समणसं सवयसं पडियाइक्खे-आउ(शी०) संतो! गाहावई नो खल्लु ते वयणं आढामि नो खलु ते वयणं परिजाणामि, जो तुम ॥२७॥ मम अट्टाए असणं वा ४ वत्थं वा ४ पाणाई वा ४ समारम्भ समुदिस्स कीयं पामिचं अच्छिज अणिस अभिहडं आह१ चेएसि आवसहं वा समुस्सिणासि, से विरओ आउसो गाहावई! एयस्स अकरणयाए (सू० २०२) 'स' कृतसामाथिका सर्वसाबद्याकरणतया प्रतिज्ञामन्दरमारूडो भिक्षणशीलो भिक्षुः भिक्षार्थमन्यकार्याय वा 'पराक्रमेत' [विहरेत् तिष्ठेद्वा ध्यानव्यग्रो निपीदेवा अध्ययनाध्यापनश्रवणश्रावणाहतः, तथा श्रान्तः कचिदवानादी वग्वत्तेनं वा विदध्यात्, कैतानि विदध्यादिति दर्शयति-इमशाने वा' शबानां शयनं श्मशानं-पितृवनं तस्मिन् वा, तत्र च त्वग्वत्तेनं न सम्भवत्यतो यथासम्भवं पराक्रमणाद्यायोज्यं, तथाहि-गच्छवासिनस्तत्र स्थानादिकं न कल्पते, प्रमादस्खलि तादी व्यन्तराद्युपद्रवात् , तथा जिनकल्पार्थ सत्त्वभावनां भावयतोऽपि न पितृवनमध्ये निवासोऽनुज्ञाता, प्रतिमाप्रति-1 ट्रपन्नस्य तु यत्रैव सूर्योऽस्तमुपयाति तत्रैव स्थानं, जिनकल्पिकस्य वा, तदपेक्षया श्मशानसूत्रम्, एवमन्यदपि यथासम्भव 14॥२७॥ wwwandituaryam ~544~# Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२०२] दीप अनुक्रम [२१५] Jain Esticatos “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [२], मूलं [२०२],निर्युक्तिः [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः मायोज्यं, शून्यागारे वा गिरिगुहायां वा 'हुरत्था व 'त्ति अन्यत्र वा ग्रामादेर्बहिस्तं भिक्षं क्वचिद्विहरन्तं गृहपतिरुपसंकम्य विनेयदेशं गत्वा 'ब्रूयाद्' वदेदिति, यच्च श्रूयात्तदर्शयितुमाह- साधुं श्मशानादिषु परिक्रमणादिकां क्रियां कुर्वाणमुपसङ्क्रम्य-उपेत्य पूर्वस्थितो वा गृहस्थः प्रकृतिभद्रकोऽभ्युपेतसम्यक्त्वो वा साध्वाचाराकोविदः साधुमुद्दिश्यैतद्भूयात् - यथैते लब्धापलब्धभोजिनः त्यक्तारम्भाः सानुक्रोशाः सत्यशुचय एतेषु निक्षिप्तमक्षयमित्यतोऽहमेतेभ्यो दास्यामीत्यभिसन्धाय साधुमुपतिष्ठते, वक्ति च- आयुष्मन् ! भोः श्रमण ! अहं संसारार्णवं समुत्तितीर्षुः 'खलुः' वाक्यालङ्कारे 'तवार्थाय' युष्मनिमित्तं अशनं वा पानं वा खादिमं वा स्वादिमं वा तथा वस्त्रं वा पतग्रहं वा कम्बलं वा पादपुञ्छनं वा समुद्दिश्यआश्रित्य किं कुर्यादिति दर्शयति-पञ्चेन्द्रियोच्छ्वास निश्वासादिसमन्विताः प्राणिनस्तान, अभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति चेति भूतानि तानि तथा जीवितवन्तो जीवन्ति जीविष्यन्तीति वा जीवाः तान्, सक्ताः सुखदुःखेष्विति सच्चास्तान् समारभ्य उपमर्थ, तथाहि अशनाद्यारम्भे प्राण्युपमर्दोऽवश्यंभावी, एतच्च समस्तं व्यस्तं वा कश्चित्प्रतिपद्येत, इयं चाविशुद्धिकोटिगृहीता, सा चेमा - " आहाकम्मुद्देसिअ मीसज्जा बायरा य पाहुडिआ । पूइअ अज्झोयरगो उग्गमकोडी अ छभेआ ॥ १ ॥ विशुद्धिकोटिं दर्शयति- 'क्रीतं' मूल्येन गृहीतं 'पामिच्चं ति अपरस्मादुच्छिन्नमुद्यतकं गृहीतं बलास्कारितया वाऽन्यस्मादाच्छिद्य राजोपसृष्टो वाऽन्येभ्यो गृहिभ्यः साधोर्दास्यामीत्याच्छिन्द्यात्, तथा 'अनिसृष्टं' परकीयं यत्तदन्तिके तिष्ठति न च परेण तस्य निसृष्टं दत्तं तदनिसृष्टं तदेवंभूतमपि साधोर्दानाय प्रतिपद्यते, तथा स्वगृहादाहृत्य १ आधाकमै देशिके मिश्रजातं वादरा व प्राकृतिका प्रतिथ अभ्यवपूरक उद्गमकोटी च पद्मेदा ॥ १ ॥ For Parts O ~545~# Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२०२] दीप अनुक्रम [२१५] श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ २७१ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [२], मूलं [२०२],निर्युक्तिः [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः 'चेएमि'त्ति ददामि तुभ्यं वितरामि, एवमशनादिकमुद्दिश्य श्रूयात्, तथा 'आवसथं वा' युष्मदाश्रयं समुच्छृणोमि -आदेरारभ्यापूर्वं करोमि संस्कारं वा करोमीत्येवं प्राञ्जलिरवनतोत्तमाङ्गः सन् अशनादिना निमन्त्रयेत्, यथा-भुङ्क्ष्वाशना 8 दिकं मत्संस्कृतावसथे वसेत्यादि, द्विवचनबहुवचने अध्यायोज्ये । साधुना तु सूत्रार्थविशारदेनादीनमनस्केन प्रतिषेधितव्यमित्याह-- आयुष्मन् ! श्रमण ! भिक्षो! तं गृहपतिं समनसं सवयसमन्यथाभूतं वा प्रत्याचक्षीत, कथमिति चेद्दर्शयति -यथा आयुष्मन् ! भो गृहपते ! न खलु तवैवंभूतं वचनमहमाद्रिये, खलुशब्दोऽपिशब्दार्थे, स च समुच्चये, नापि तवैतद्वचनं 'परिजानामि' आसेवनपरिज्ञानेन परिविदधेऽहमित्यर्थः, यस्त्वं मम कृतेऽशनादि प्राण्युपमर्देन विदधासि यावदावसथसमुच्छ्रयं विदधासि भो आयुष्मन् गृहपते ! विरतोऽहमेवम्भूतादनुष्ठानात् कथम्? - एतस्य- भवदुपन्यस्तस्याकरणतयेत्यतो भवदीयमभ्युपगमं न जानेऽहमिति ॥ तदेवं प्रसह्यांशनादिसंस्कारप्रतिषेधः प्रतिपादितो, यदि पुनः कश्चिद्विदितसाध्वभिप्रायः प्रच्छन्नमेव विदध्यात्तदपि कुतश्चिदुपलभ्य प्रतिषेधयेदित्याह in Estication Intl सेभिक्खु परिकमिज वा जाव हुरत्था वा कहिंचि विहरमाणं तं भिक्खु उवसंकमित्तु या पेह असणं वा ४ वत्थं वा ४ जाव आहद्दु चेएइ आवसहं वा समुसिणाइ भिक्खू परिघासेउं, तं च भिक्खू जाणिजा सहसम्मइयाए परवागरणेणं अन्नेसिं वा सुच्चा - अयं खलु गाहावई मम अट्टाए असणं वा ४ वत्थं वा ४ जाव For Pantry at Use Only ~546 ~# विमो० ८ उद्देशकः२ ॥। २७१ ॥ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२०३] दीप अनुक्रम [२१६] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [२], मूलं [२०३],निर्युक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः आवस वा समुस्सिणाइ, तं च भिक्खु पडिलेहाए आगमित्ता आणविजा अणासेवणाए तिबेमि ( सू० २०३ ) तं भिक्षु कचित् श्मशानादौ विहरन्तमुपसङ्गम्य प्राञ्जलिर्वन्दित्वा गृहपतिः प्रकृतिभद्रकादिकः कश्चिदात्मगतया प्रेक्षयाऽनाविष्कृताभिप्रायः केनचिदलक्ष्यमाणो यथाऽहमस्य दास्यामीत्यशनादिकं प्राण्युपमर्देनारभेत, किमर्थमिति चेदर्शयति - तदशनादिकं भिक्षु 'परिघासयितुं' भोजयितुं, साधुभोजनार्थमित्यर्थः, आवसथं च साधुभिरधिवासयितुमिति, तदशनादिकं साध्वर्थे निष्पादितं भिक्षुः 'जानीयात्' परिच्छिन्द्यात्, कथमित्याह - स्वसम्मत्या परव्याकरणेन वा तीर्थकरोपदिष्टोपायेन वा अन्येभ्यो वा तत्सरिजनादिभ्यः श्रुत्वा जानीयादिति वर्त्तते, यथाऽयं खलु गृहपतिर्मदर्थमशनादिकं प्राप्युपमर्देन विधाय मह्यं ददात्यावसथं च समुच्छृणोति, तद्भिक्षुः सम्यकू 'प्रत्युपेक्ष्य' पर्यालोच्यावगम्य च ज्ञात्वा 'ज्ञापयेत् तं गृहपतिमनासेधनया यथाऽनेन विधानेनोपकल्पितमाहारादिकं नाहं मुझे एवं तस्य ज्ञापनं कुर्याद्, यद्यसौ श्राकस्ततो लेशतः पिण्डनिर्युक्तिं कथयेद्, अन्यस्य च प्रकृतिभद्रकस्योद्गमादिदोषानाविर्भावयेत् प्रासुकदानफलं च प्ररूपयेत्, यथाशक्तितो धर्म्मकथां च कुर्यात्, तद्यथा - "काले देशे कल्प्यं श्रद्धायुक्तेन शुद्धमनसा च । सत्कृत्य च दातव्यं दानं प्रयतात्मना सद्भ्यः ॥ १ ॥” तथा “दानं सत्पुरुषेषु स्वल्पमपि गुणाधिकेषु विनयेन । वटकणिकेव महान्तं न्यग्रोधं सत्फलं कुरुते ॥ २ ॥ दुःखसमुद्रं प्राज्ञास्तरन्ति पात्रापिंतेन दानेन । लघुनेव मकरनिलयं वणिजः सद्यानपात्रेण ॥ ३ ॥" इत्यादि, इतिरधिकारपरिसमाप्तौ ब्रवीमीत्येतत्पूर्वोक्तं वक्ष्यमाणं चेत्याह Jan Estication Ital For Par at Use Only ~547 ~# Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [२], मूलं [२०४],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक (शी०) ॥ २७२ ॥ [२०४] श्रीआचा- भिक्खं च खलु पुट्ठा वा अपुट्टा वा जे इमे आहच्च गंथा वा फुसंति, से हंता हणह विमो०८ राङ्गवृत्तिः खणह छिंदह दहह पयह आलुपह विलुपह सहसाकारह विप्परामुसह, ते फासे धीरो उद्देशकार पुट्ठो अहियासए अदुवा आयारगोयरमाइक्खे, तकिया णमणेलिसं अदुवा वइगुत्तीए गोयरस्स अणुपुब्वेण संमं पडिलेहए आयतगुत्ते बुद्धेहिं एयं पवेइयं (सू० २०४) 'च' समुच्चये 'खलु' वाक्यालङ्कारे भिक्षणशीलो भिक्षुस्तं भिक्षु पृष्ट्वा कश्चिद्यथा भो भिक्षो! भवदर्थमशनादिकमाविसर्थ वा संस्करिष्येऽननुज्ञातोऽपि तेनासौ तस्करोत्यवश्यमयं चाटुभिर्बलात्कारेण वा ग्राहयिष्यते, अपरस्त्वीपत्सा ध्वाचारविधिज्ञोऽतोऽपृष्ट्वैव छद्मना ग्राहयिष्यामीत्यभिसन्धायाशनादिकं विदध्यात्, स च तदपरिभोगे श्रद्धाभाच्चाटुशताग्रहणाच्च रोषावेशान्निःसुखदुःखतयाऽलोकज्ञा इत्यनुशयाच राजानुसृष्टतया च न्यकारभावनातः प्रद्वेषमुपगतो हननादिकमपि कुर्यादिति दर्शयति-एकाधिकारे बहतिदेशाद्य इमे प्रश्नपूर्वकमप्रश्नपूर्वकं वा आहारादिकं 'ग्रन्थात्' म-18 हतो द्रव्यव्ययाद् 'आहृत्य' ढौकित्वा आहृतग्रन्था वा-व्ययीकृतद्रव्या वा तदपरिभोगे 'स्पृशन्ति' उपतापयन्ति, कथ|| मिति चेदर्शयति-'स' ईश्वरादिः प्रद्विष्टः सन् हन्ता स्वतोऽपरांश्च हननादौ चोदयति, तद्यथा-हतेनं साधु दण्डाभि-18|| 'क्षणुत'व्यापादयत छिन्नहस्तपादादिकं दहत अश्यादिना पचत उरुमांसादिकं आलुम्पत वखादिकं विलुम्पत सर्वस्वाः %ANASANCHAR दीप अनुक्रम २१७]] wwwandltimaryam ~548~# Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२०४] दीप अनुक्रम [२१७] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [२], मूलं [२०४],निर्युक्तिः [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः पहारेण सहसात् कारयत आशु पञ्चत्वं नयत तथा विविधं परामृशत - नानापीडाकरणैर्वाधयत, तांश्चैवम्भूतान् 'स्प |र्शान' दुःखविशेषान् 'धीरः' अक्षोभ्यः तैः स्पर्शैः स्पृष्टः सन्नधिसहेत, तथा परैः क्षुत्पिपासापरी हैः स्पृष्टः सन्नधिसहेत, न तु पुनरुपसः परीषहैर्वा तर्जितो विक्लवतामापन्नस्तदुद्देशिकादिकमभ्युपेयादनुकूलैर्वा साम्यवादादिभिरुपसर्गितो नादद्याद्, अपि तु सति सामर्थ्ये जिनकल्पिकादन्यः आचारगोचरमाचक्षीतेत्याह- नानाविधोपसर्गजनितान् स्पर्शानधिस हेत, अथवा साधूनामाचारगोचरम् - आचारानुष्ठानविषयं मूलोत्तरगुणभेदभिन्नमाचक्षीत, न पुनर्नयैर्द्रव्यविचारं तत्रापि मूलगुणस्यैर्यार्थमुत्तरगुणान् तत्रापि पिण्डेपणाविशुद्धिमाचक्षीत, अत्र च पिण्डेपणा सूत्राणि पठितव्यानि अपि च- "यस्वयमदुःखितं स्यान्न च परदुःखे निमित्तभूतमपि । केवलमुपग्रहकरं धर्म्मकृते तद्भवेद्देयम् ॥ १ ॥” किं सर्वस्य सर्वे कथयेत् ?, नेति दर्शयति- 'तर्कयिखा' पर्यालोच्य पुरुषं तद्यथा कोऽयं पुरुषः कख नतोऽभिगृहीतोऽनभिगृहीतो मध्यस्थः प्रकृतिभद्रको वेत्येवमुपयुज्य यथार्ह यथाशक्ति चावेदयेत्, सत्यां च शक्तौ पञ्चावयवेनान्यथा वा वाक्येनानीदृशम्-अ| नन्यसदृशं स्वपरपक्षस्थापनाव्युदासद्वारेणावेदयेदिति, अथ सामर्थ्यविकलः स्यात् कुप्यति वा कथ्यमानेऽसावनुकूलप्रत्यनीकस्ततो वाग्गुप्तिविधेयेत्याह- सति सामर्थ्य शृण्वति वा दातरि आचारगोचरमाचक्षीत, 'अथवे' त्यन्यधाभावे तु वागुश्या व्यवस्थितः सन्नात्महितमाचरन् 'गोचरस्य' पिण्डविशुद्ध्यादेराचारगोचरस्य 'आनुपूर्व्या' उद्गमप्रनादिरूपया स म्यगशुद्धिं प्रत्युपेक्षेत, किम्भूतः - आत्मगुप्तः सन् सततोपयुक्त इत्यर्थः नैतन्मयोच्यत इत्याह-- 'बुद्धैः' कल्प्याकल्प्य विधिज्ञैः 'एतत्' पूर्वोक्तं प्रवेदितम् ॥ एतद्धा वक्ष्यमाणमित्याह Estication anal For Pantry at Use Only ~549 ~# www.sendiary.org Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [२], मूलं [२०५],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: विमो०८ उद्देशकार प्रत सूत्रांक [२०५] ॥२७३॥ दीप अनुक्रम २१८] श्रीआचा से समणुन्ने असमणुन्नस्स असमणं वा जाव नो पाइजा नो निमंतिजा नो कुज्जा वेरावृत्तिः (शी०) यावडियं परं आढायमाणे तिबेमि (सू० २०५) न केवलं गृहस्थेभ्यः कुशीलेभ्यो वा अकल्प्यमितिकृत्वाऽऽहारादिकं न गृह्णीयात् , स समनोज्ञोऽसमनोज्ञाय तत् पू-11 3र्वोक्तमशनादिकं न प्रदद्यात् , नापि परम्-अत्यर्थमाद्रियमाणोऽशनादिनिमन्त्रणतोऽन्यथा वा तेषां वैयावृत्त्यं कुर्यादिति, बवीमीतिशब्दावधिकारपरिसमाप्त्यथौं । किम्भूतस्तहिं किम्भूताय दद्यादित्याह धम्ममायाणह पवेइयं माहणेण मइमया समणुन्ने समणुन्नस्स असणं वा जाव कुज्जा वेयावडियं परं आढायमाणे (सू० २०६) तिबेमि ॥८-२॥ 'धर्म' दानधर्म जानीत यूयं 'प्रवेदितं' कथितं, केन?-श्रीवर्द्धमानस्वामिना, किम्भूतेन ? मतिमता' केवलिना, &ा किम्भूतं धर्ममिति दर्शयति-यथा समनोज्ञः-साधुरुधुक्तविहारी अपरस्मै-समनोज्ञाय चारित्रवते संविनाय साम्भोगि-1 कायैकसामाचारीप्रविष्टायाशनादिकं चतुर्विधं तथा वस्त्रादिकमपि चतुद्धों 'प्रदद्यात्' प्रयच्छेत् , तथा तदर्थं च निमन्त्रयेत्, पेशलमन्यद्वा वैयावृत्यम्-अङ्गमर्दनादिकं कुर्यात् , नैतद्विपर्यस्तेभ्यो गृहस्थेभ्यः कुतीर्थिकेभ्यः पार्श्वस्थादिभ्यो संविग्नेभ्योऽसमनोज्ञेभ्यो वेत्येतत्पूर्वोक्तं कुर्यादिति, किन्तु समनोज्ञेभ्य एव परम्-अत्यर्थमाद्रियमाणस्तदर्थसीदने परमु| तप्यमानः सम्यग्वैयावृत्त्वं कुर्यात् , तदेवं गृहस्थादयः कुशीलादयस्त्याज्या इति दर्शितम् , अयं तु विशेषो-गृहस्थेभ्यो ||२७३॥ wwanditaram ~550~# Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२०६] दीप अनुक्रम [२१९] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [२], मूलं [२०६],निर्युक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः यावलभ्यते तावद्गृह्यते, केवलमकल्पनीयं प्रतिषिध्यते, असमनोज्ञेभ्यस्तु दानग्रहणं प्रति सर्वनिषेध इति । इतित्रवीमि शब्दौ पूर्ववद् । विमोक्षाध्ययने द्वितीयोदेशकः समाप्तः ॥ ८-२ ॥ द्वितीयदेशकः, साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरोदेशकेऽकल्पनीयाहारादिप्रतिषेधोऽभिहितस्तत्प्रतिषेधकुपितस्य दातुर्यथावस्थित पिण्डदानप्ररूपणा च तदिहाप्याहारादिनिमित्तं प्रविष्टेन शीताद्यङ्गोटक|म्पदर्शनान्यथाभाववतो गृहपतेर्यथावस्थितपदार्थावेदनतो गीतार्थेन साधुनाऽसदारेकाऽपनेयेत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योदेशकस्य सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारयितव्यं तच्चेदम् मज्झिमेणं वयसावि एगे संबुज्झमाणा समुट्टिया, सुच्चा मेहावी वयणं पंडियाणं निसामिया समिया धम्मे आरिएहिं पवेइए ते अणवकखमाणा अणइवाएमाणा अपरिग्गहेमाणा नो परिग्गहावंती सव्वावंति च णं लोगंसि निहाय दंडं पाणेहिं पावं कम्मं अकुव्यमाणे एस महं अगंथे वियाहिए, ओए जुइमस्स खेयन्ने उववायं चवणं च नच्चा ( सू० २०७ ) अष्टम अध्ययने तृतीय - उद्देशकः 'अंगचेष्टाभाषित' आरब्धः, For Parna Prva Use Onl ~551~# Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२०७] दीप अनुक्रम [२२०] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ २७४ ॥ इह त्रीणि वयांसि - युवा मध्यमवया वृद्धश्चेति, तत्र मध्यमवयाः परिपक्कबुद्धित्वाद्धम्माई इत्यादौ दर्शयति-मध्यमेन वयसाऽप्येके सम्बुध्यमानाः धर्मचरणाय सम्यगुत्थिताः समुत्थिता इति, सत्यपि प्रथमचरमवयसोरुत्थाने यतो बाहुल्यायोग्यत्वाच्च प्रायो विनिवृत्तभोगकुतूहल इति निष्प्रत्यूहधर्म्माधिकारीति मध्यमवयोग्रहणं । कथं सम्बुज्यमानाः समुत्थिता | इत्याह-इह त्रिविधाः सम्बुध्यमानका भवन्ति, तद्यथा-स्वयंबुद्धाः प्रत्येकबुद्धाः बुद्धबोधिताश्च तत्र बुद्धबोधितेनेहाधिकार ४ इति दर्शयति-- 'मेधावी' मर्यादाव्यवस्थितः 'पण्डितानां' तीर्थ कृदादीनां 'वचनं' हिताहितप्राप्तिपरिहारप्रवर्त्तकं 'श्रुत्वा' आकर्ण्य पूर्व पश्चात् 'निशम्य' अवधार्य समतामा लम्बेत, किमिति :-यतः समतया - माध्यस्थ्येनायैः- तीर्थकृद्भिर्धर्मः श्रुतचा रित्राख्यः 'प्रवेदितः' आदी प्रकर्षेण वा कथित इति, ते च मध्यमे वयसि श्रुत्वा धर्म्म सम्बुध्यमानाः समुत्थिताः सन्तः किं कुर्युरित्याह-ते निष्क्रान्ताः मोक्षमभि प्रस्थिताः कामभोगानभिकाङ्क्षन्तः तथा प्राणिनोऽनतिपातयन्तः परिग्रह्मपरिगृहन्तः, आद्यन्तयोर्ग्रहणे मध्योपादानमपि द्रष्टव्यम्, तथा (तो) मृपावादमवदन्त इत्याद्यपि वाच्यम्, एवम्भूताः स्वदेहेऽप्यममत्वाः 'सव्वाति'त्ति सर्वस्मिन्नपि लोके, चः समुच्चये स च भिन्नक्रमः, 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे, नो परिग्रहवन्तश्च भवन्तीतियावत् किं च प्राणिनो दण्डयतीति दण्डः परितापकारी तं दण्डं प्राणिषु प्राणिभ्यो वा 'निधाय' क्षिस्वा त्यक्त्वा 'पाप' पापोपादानं 'कर्म्म' अष्टादशभेदभिन्नं तत् 'अकुर्वाणः' अनाचरन्नेषु महान्, न विद्यते ग्रन्थः सबाह्याभ्य|न्तरोऽस्येत्यग्रन्थः 'व्याख्यातः' तीर्थंकरगणधरादिभिः प्रतिपादित इति । (कश्चैवम्भूतः स्यादित्याह - 'ओजः' अद्वितीयो रागद्वेषरहितः 'द्युतिमान् संयमो मोक्षो वा तस्य 'खेदशो' निपुणो देवलोकेऽप्युपपातं च्यवनं च ज्ञात्वा सर्वस्थानानि “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [३], मूलं [२०७],निर्युक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Jan Esticato For Pantry Use Only ~552~# विमो० ८ उद्देशकः ३ ॥ २७४ ॥ www.sindia.org Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२०८] दीप अनुक्रम [२२१] in Esticator “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [३], मूलं [२०८], निर्युक्ति: [ २७५ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः त्यताहितमतिः पापकर्म्मवर्जी स्यादिति । केचित्तु मध्यमवयसि समुत्थिता अपि परीपहेन्द्रियैग्लनतां नीयन्त इति दर्श यितुमाह आहारोवचया देहा परीसहपभंगुरा पासह एगे सव्विंदियहिं परिगिलायमाणेहिं (सू० २०८ ) आहारेणोपचयो येषां ते आहारोपचयाः, के ते ? - दिद्यन्त इति देहास्तदभावे तु म्लायन्ते स्त्रियन्ते वा, तथा 'परीपहप्रभञ्जिनः परीषहैः सद्भिर्भरा देहा भवन्ति, ततश्चाहारोपचितदेहा अपि प्राप्तपरीषहा वातादिक्षोभेण वा पश्यत यूयमेके क्लीचाः सर्वैरिन्द्रियैग्लयमानैः क्लीवतामीयुः तथाहि सीडितो न पश्यति न शृणोति न जिघ्रतीत्यादि, (तत्र केवलिनोऽप्याहारमन्तरेण शरीरं ग्लानभावं यायाद् आस्तां तावदपरः प्रकृतिभङ्गुरशरीर इति, स्यान्मतं - अकेवल्यकृतार्थत्वात् क्षुद्वेदनीयसद्भावाच्चाहारयति दयादीनि व्रतान्यनुपालयति, केवली तु नियमात् सेत्स्यतीत्यतः किमर्थं शरीरं धारयति ? तद्धरणार्थं चाहारयतीति ?, अत्रोच्यते, तस्यापि चतुः कर्म्मसद्भावान्नैकान्तेन कृतार्थता, तस्कृते शरीरं विभूयात्, तद्धरणं च नाहारमन्तरेण, क्षुद्वेदनीयसद्भावाच्चेति, तथाहि वेदनीयसद्भावात्तत्कृता एकादशापि परीपहाः केवलिनो व्यस्त समस्ताः प्रादुष्यन्ति इत्यत आहारयत्येव केवलीति स्थितम्, अत आहारमृते ग्लानतेन्द्रियाणामिति प्रतिपादितं । विदितवेद्यश्च परीपपीडितोऽपि किं कुर्यादित्याह- ओए दयं दयइ, जे संनिहाणसत्थस्स खेयन्ने से भिक्खू कालने बलन्ने मान्ने For Para Prata Use Onl ~553~# Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [3], मूलं [२०९],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: NA श्रीआचा प्रत | विमो०० उद्देशका सूत्रांक [२०९] ॥२७५॥ दीप अनुक्रम २२२] खणन्ने विणयन्ने समयन्ने परिग्गहं अममायमाणे कालेणुटाइ अपडिन्ने दुहओ छित्ता नियाई (सू० २०९) 'ओजः' एको रागादिरहितः सन् सत्यपि क्षुत्पिपासादिपरीषहे 'दयामेव दयते' कृपां पालयति, न परीषहैः तर्जितो दयां खण्डयतीत्यर्थः । कः पुनर्दयां पालयतीत्याह-यो हि लघुकम्मा सम्य निधीयते नारकादिगतिषु येन तत्सन्निधानंकर्म तस्य स्वरूपनिरूपकं शास्त्रं तस्य खेदज्ञो-निपुणो, यदिवा सन्निधानस्य-कर्मणः शस्त्रं-संयमः सन्निधानशस्त्रं तस्य खेदज्ञा-सम्यक् संयमस्य वेत्ता, यश्च संयमविधिज्ञः स भिक्षुः कालज्ञः-उचितानुचितावसरज्ञः, एतानि च सूत्राणि लोकविजयपञ्चमोदेशकव्याख्यानुसारेण नेतव्यानीति, तथा बलज्ञो मात्रज्ञः क्षणज्ञो विनयज्ञः समयज्ञः परिग्रहममत्वेन अचरन् कालेनोत्थायी अप्रतिज्ञः उभयतश्छेत्ता, स चैवम्भूतः संयमानुष्ठाने निश्चयेन याति निर्यातीति ॥ तस्य च संयमानुछाने परिप्रजतो यत्स्यात्तदाह तं भिक्खं सीयफासपरिवेवमाणगायं उवसंकमित्ता गाहावई ब्रूया-आउसंतो समणा ! नो खलु ते गामधम्मा उव्वाहंति ?, आउसंतो गाहावई ! नो खलु मम गामधम्मा उव्वाहंति, सीयफासं च नो खलु अहं संचाएमि अहियासित्तए, नो खल्लु मे कप्पइ ॥२७५॥ ~554~23 Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२१०] दीप अनुक्रम [२२३] Jain Esticatos *ে*%% “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [३], मूलं [२१०],निर्युक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः अगणिकायं उज्जालित्तए वा (पज्जालित्तए वा ) कार्य आयावित्तए वा पयावित्तए वा अन्नेसिं वा वयणाओ, सिया स एवं वयंतस्स परो अगणिकार्य उज्जालित्ता पज्जालित्ता कार्य आयाविज वा पयाविज्ज वा तं च भिक्खू पडिलेहाए आगमित्ता आणविजा अणासेवणाए तिमि ( सू० २१० ) ॥ ८-३ ॥ 'तम्' अन्तप्रान्ताहारतया निस्तेजसं निष्किञ्चनं भिक्षणशीलं भिक्षुमतिक्रान्तसोष्मयौवनावस्थं सम्यक्त्वकाणाभावतया | शीतस्पर्शपरिवेपमानगात्रं उपसङ्क्रम्य - आसन्नतामेत्य गृहपतिः - ऐश्वर्योष्मानुगतो मृगनाभ्यनुविद्ध कश्मीरजबहलर सानुलि तदेहो मीनमदागुरुघनसार धूपितरल्लिकाच्छादितवपुः प्रौढसीमन्तिनी सन्दोह परिवृतो वार्तीभूतशीतस्पर्शानुभवः सन् किमयं मुनिरुपहसितसुरसुन्दरीरूपसम्पदो मत्सीमन्तिनीरवलोक्य सात्त्विकभावोपेतः कम्पते उत शीतेनेत्येवं संशयानो ब्रूयात्-भो आयुष्मन् ! श्रमण ! कुलीनतामात्मन आविर्भावयन् प्रतिषेधद्वारेण प्रश्नयति-नो भवन्तं ग्रामधर्म्मा:-विषया उत्-प्राबल्येन बाधन्ते ?, एवं गृहपतिनोके विदिताभिप्रायः साधुराह- अस्य हि गृहपतेरात्मसंवियाऽङ्गनावलोकनाऽऽविधकृतभावस्यासत्याशङ्काऽभूद् अतोऽहमस्यापनयामीत्येवमभिसन्धाय साधुर्वभाषे आयुष्मन् ! गृहपते ! 'नो खलु' नैव ग्रामधर्म्मा मामुद्वाधन्ते यत्पुनर्वेपमानगात्रयष्टिं मामीक्षांचकृषे तच्छीतस्पर्शविजृम्भितं, न मनसिजविकारः, शीतस्पर्शमहं न खलु शक्नोम्यधिसोढुं एवमुक्तः सन् भक्तिकरुणारसाक्षिप्तहृदयो ब्रूयात्-सुप्रज्वलितमाशुशुक्षणिं किमिति न सेवसे ?, For Parts Only ~ 555 ~# Mandiary.org Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२१०] दीप अनुक्रम [२२३] (शी०) श्रीआचा-४ महामुनिराह - भो गृहपते ! न खलु मे कल्पतेऽग्निकार्य मनाग ज्वालयितुं (उज्वालयितुं प्रकर्षेण ज्वालयितुं प्रज्वालयितुं राङ्गवृत्तिः स्वतो ज्वलितादी 'कार्य' शरीरमीपत् तापयितुमातापयितुं वा प्रकर्षेण तापयितुं प्रतापयितुं वा, अन्येषां वा वचनात् ममैतत्कर्त्तु न कल्पते, यदिवाऽग्निसमारम्भायान्यो वा वक्तुं न कल्पते ममेति । तं चैवं वदन्तं साधुमवगम्य गृहपतिः कदाचिदेतत्कुर्यादित्याह - स्यात् कदाचित्स-परो गृहस्थ एवमुक्तनीत्या वदतः साधोरनिकायमुज्वालय्य प्रज्वालय्य वा कायमातापयेत् प्रतापयेद्वा, तज्च्चोज्वालनातापनादिकं भिक्षुः 'प्रत्युपेक्ष्य' विचार्य स्वसम्मत्या परव्याकरणेनान्येषां वाऽन्तिके श्रुत्वा अवगम्य ज्ञात्वा तं गृहपतिमाज्ञापयेत् प्रतिबोधयेत् कया ? - अनासेवनया, यथैतत् ममायुक्तमासेवितुं, भवता तु पुनः साधुभक्त्यनुकम्पाभ्यां पुण्यप्राग्भारोपार्जनमकारीति, ब्रवीमीतिशब्दायुक्तार्थौ । विमोक्षाध्ययनस्य तृतीयोद्देशकः परिसमाप्तः । ॥ २७६ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [३], मूलं [२१०],निर्युक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ४ उक्तस्तृतीयोदेशकः, साम्प्रतं चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरोदेश के गोचरादिगतेन शीताद्यङ्ग| विकारदर्शनान्यथाभावापनस्य गृहस्थस्यासदारेका व्युदस्ता, यदि पुनर्गृहस्थाभावे योषित एवान्यधाभावाभिप्रायेणोपसर्गयेयुः ततो वैहानसगार्द्धपृष्ठादिकं मरणमप्यवलम्बनीयं, कारणाभावे तु तन्न कार्यमित्येतत्प्रतिपादनार्थमिदमारभ्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देश कस्यादिसूत्रम् - Etication national अष्टम अध्ययने चतुर्थ उद्देशक : 'वेहासनादि मरण' आरब्धः, For Para Prata Use Onl ~556 ~# विमो० ८ उद्देशकः४ ॥ २७६ ॥ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [४], मूलं [२११],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत *962-52- सूत्रांक [२११] ECRE 5 जे भिक्खू तिहिं वत्थेहिं परिवुसिए पायचउत्थेहिं तस्स णं नो एवं भवइ-चउत्थं वत्थं जाइस्सामि, से अहेसणिज्जाइं वत्थाई जाइजा अहापरिग्गहियाई वत्थाई धारिजा, नो धोइजा नो धोयरत्ताई वत्थाई धारिजा, अपलिओवमाणे गामंतरेसु ओमचेलिए, एवं खु वत्थधारिस्स सामग्गियं (सू० २११) । इह प्रतिमाप्रतिपन्नो जिनकल्पिको वा अच्छिद्रपाणिः, तस्य हि पात्रनियोगसमन्वितं पात्रं कल्पत्रयं चायमेवीघोपधिभवति नौपग्रहिकः, तत्र शिशिरादौ क्षौमिक कल्पद्वयं सार्द्धहस्तद्वयायामविष्कम्भ तृतीयस्त्वौर्णिकः, स च सत्यपि शीते नापरमाकाङ्कतीत्येतद्दर्शयति-यो भिक्षुः त्रिभिर्वस्त्रैः 'पर्युपितो' व्यवस्थितः, तत्र शीते पतत्येक क्षौमिक प्रावृणोति, ततो|ऽपि शीतासहिष्णुतया द्वितीयं क्षौमिक, पुनरपि अतिशीततया क्षौमिककल्पद्वयोपयौर्णिकमिति, सर्वधौर्णिकस्य बाह्याच्छादनता विधेया, किम्भूतैस्त्रिभिर्वस्वैरिति दर्शयति-पात्रचतुर्थैः' पतन्तमाहारं पातीति पात्रं, तब्रहणेन च पात्रनिर्योगः सप्तप्रकारोऽपि गृहीतः, तेन विना तहणाभावात् , स चायम्-"पत्तं पत्ताबंधो पायढवणं च पायकेसरिआ । पडलाइ रयत्ताणं च गोच्छओ पायणिजोगो ॥१॥" तदेवं सप्तप्रकारं पात्रं कल्पवयं रजोहरणं १ मुखवस्त्रिका २ चेत्येवं द्वादशधोपधिः, स्तस्यैवम्भूतस्य भिक्षोः 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे 'नैवं भवति' नायमध्यवसायो भवति, तद्यथा-न ममास्मिन् १ पात्रं पात्रबन्धः पात्रस्थापनं च पात्रकेशरिका । पटलानि रजनाणं च गोच्छकः पात्र नियोगः ॥१॥ दीप अनुक्रम २२४] 4 - wwwandltimaryam ~557~# Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२११] दीप अनुक्रम [२२४] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [४], मूलं [२११],निर्युक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ २७७ ॥ काले कल्पत्रयेण सम्यक् शीतापनोदो भवत्यतश्चतुर्थे वस्त्रमहं याचिप्ये, अध्यवसायनिषेधे च तथाचनं दूरोत्सादितमेव, यदि पुनः कल्पत्रयं न विद्यते शीतकालश्चापतितस्ततोऽसौ जिनकल्पिकादिर्यथैषणीयानि वस्त्राणि याचेत उत्कर्षणापकर्षणरहितान्यपरिकर्माणि प्रार्थयेदिति, तत्र “उद्दिड १ पहे २ अंतर ३ उज्झियधम्मा ४ य" चतस्रो वस्त्रेषणा भवन्ति, तत्र चाधस्तन्योर्द्वयोरग्रह इतरयोस्तु ग्रहः, तत्राप्यन्यतरस्यामभिग्रह इति, याञ्जावाप्तानि च वस्त्राणि 4 ॐ यथापरिगृहीतानि धारयेत्, न तत्रोत्कर्षणधावनादिकं परिकर्म कुर्याद् ॥ एतदेव दर्शयितुमाह-नो धावेत्- १ प्रासुकोदकेनापि न प्रक्षालयेत्, गच्छ्वासिनो ह्यप्राप्तवर्षादौ ग्लानावस्थायां वा प्रासुकोदकेन यतनया धावनमनुज्ञातं, न तु जिनकल्पिकस्येति, तथा-न धौतरक्तानि वस्त्राणि धारयेत्, पूर्व धौतानि पश्चाद्रक्तानीति, तथा ग्रामान्तरेषु गच्छन् वस्त्राण्यगोपयन् त्रजेद्, एतदुक्तं भवति तथाभूतान्यसावन्तप्रान्तानि बिभर्ति यानि गोपनीयानि न भवन्ति, तदेवमसाववमचेलिकः, अवमं च तचेलं चावमचेलं प्रमाणतः परिमाणतो मूल्यतश्च तद्यस्यास्त्यसाववमचेलिक इत्येतत् पूर्वोक्तं 'खुः' अवधारणे, एतदेव वस्त्रधारिणः सामग्र्यं भवति- एषैव त्रिकल्पात्मिका द्वादशप्रकारौधिकोपध्यात्मिका वा सामग्री भवति, नापरेति ॥ शीतापगमे तान्यपि वखाणि त्याज्यानीत्येतद्दर्शयितुमाह Etication Intational अह पुण एवं जाणिजा उवाइकंते खलु हेमंते गिंम्हे पडिवन्ने अहापरिजुन्नाई वत्थाई परिट्ठविजा, अदुवा संतरुत्तरे अदुवा ओमचेले अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले (सू० २१२) For Parts Only ~558~# विमो० ८ उद्देशकः४ ॥ २७७ ॥ www.indiary.org Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२१२] दीप अनुक्रम [२२५] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [४], मूलं [२१२],निर्युक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः यदि तानि वस्त्राण्यपरहेमन्तस्थितिसहिष्णूनि तत उभयकालं प्रत्युपेक्षयन् विभर्ति, यदि पुनर्जीर्णदेश्यानि जीर्णानीति जानीयात् ततः परित्यजतीत्यनेन सूत्रेण दर्शयति, अथ पुनरेवं जानीयाद्यथाऽपक्रान्तः खल्वयं हेमन्तो ग्रीष्मः प्रतिपन्नः अपगता शीतपीडा यथापरिजीर्णान्येतानि वस्त्राणि, एवमवगम्य ततः परिष्ठापयेत् परित्यजेदिति, यदि पुनः सर्वाण्यपि न जीर्णानि ततो यद्यज्जीर्ण तत्तत्परिष्ठापयेत् परिष्ठाप्य च निस्सङ्गो विहरेत्, यदि पुनरतिक्रान्तेऽपि शिशिरे क्षेत्रकालपुरुषगुणाद्भवेच्छीतं ततः किं कर्त्तव्यमित्याह-अपगते शीते वखाणि त्याज्यानि, अथवा क्षेत्रादिगुणाद्धिमकणिनि वाते वाति सत्यात्मपरितुलनार्थं शीतपरीक्षार्थं च सान्तरोत्तरो भवेत् - सान्तरमुत्तरं प्रावरणीयं यस्य स तथा, क्वचित्मावृणोति कचित्पार्श्ववर्त्ति बिभर्त्ति शीताशङ्कया नाद्यापि परित्यजति अथवाऽवमचेल एककल्पपरित्यागात् द्विकल्पधारीत्यर्थः, अथवा शनैः शनैः शीतेऽपगच्छति सति द्वितीयमपि कल्पं परित्यजेत् तत एकशाटकः संवृतः, अथवाऽऽत्यन्तिके शीताभावे तदपि परित्यजेदतोऽचेलो भवति, असौ मुखवस्त्रिकारजोहरणमात्रोपधिः ॥ किमर्थमसावेकैकं वखं परित्यजेदित्याह लाघवियं आगममाणे, तवे से अभिसमन्नागए भवइ ( सू० २१३ ) घोर्भायो लाघवं लाघवं विद्यते यस्यासौ लाघविक(स्त) मात्मानमागमयन्- आपादयन् वस्त्रपरित्यागं कुर्यात्, शरी रोपकरणकर्म्मणि वा लाघवमागमयन् वस्त्रपरित्यागं कुर्यादिति । तस्य चैवम्भूतस्य किं स्यादित्याह 'से' तस्य वस्त्रप Jan Estication matinal For Pantry Use Only ~559~# www.india.org Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२१३] दीप अनुक्रम [२२६] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [४], मूलं [२१३],निर्युक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा- ४ रित्यागं कुर्वतः साधोस्तपोऽभिसमन्वागतं भवति, कायक्लेशस्य तपोभेदत्वात् उक्तं च-- "पंचेहिं ठाणेहिं समणाणं निराङ्गवृत्तिः गंथाणं अचेलगत्ते पसत्थे भवति, तंजहा- अप्पा पडिलेहा १ वेसासिए रूबे २ तवे अणुमए ३ लाघवे पसत्थे ४ बिउले इंदियनिग्गहे ५" ॥ एतच्च भगवता प्रवेदितमिति दर्शयितुमाह (शी०) ॥ २७८ ॥ जमेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमिच्चा सव्वओ सव्वत्ताए सम्मत्तमेव सम भिजाणिजा ( सू० २१४ ) यदेतद्भगवता वीरवर्द्धमानस्वामिना प्रवेदितं तदेवाभिसमेत्य - ज्ञात्वा 'सर्वतः सर्वैः प्रकारैः सर्वात्मतया सम्यक्त्वमेव | समयं वा - सचेलाचेलावस्थयोस्तुल्यतां 'समभिजानीयात्' आसेवनापरिज्ञया आसेवेतेति ॥ यः पुनरल्पसत्त्वतया भगवदुपदिष्टं नैव सम्यग् जानीयात्स एतदध्यवसायी स्यादित्याह - जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ- पुट्टो खलु अहमंसि नालमहमंसि सीयकासं अहियासित्तए, से वसुमं सव्वसमन्नागयपन्नाणेणं अप्पाणेणं केइ अकरणयाए आउट्टे तव - सिणो हु तं सेयं जमेगे विहमाइए तत्थावि तस्स कालपरियार, सेऽवि तत्थ १ पञ्चभिः कारणैः श्रमणानां नियंन्यानामचेलकत्वं प्रशस्तं भवति, वयथा अल्पा प्रतिलेखना वैश्वसिकं रूपं २ तपोऽनुमतं ३ लाघवं प्रशस्तं ४ विपुल इन्द्रियनिग्रहः ५. Jan Estication Intematinal For Pantry Use Only ~560 ~# विमो० ८ उद्देशकः४ ।। २७८ ॥ www.indiary.org Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२१५] दीप अनुक्रम [२२८] 44444 “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [४], मूलं [२१५],निर्युक्तिः [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः विअंतिकारए, इच्चेयं विमोहायतणं हियं सुहं खमं निस्सेसं आणुगामियं तिबेमि ( सू० २१५ ) ॥ ८-४ ॥ विमोक्षाध्ययने चतुर्थ उद्देशकः ॥ 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे यस्य भिक्षोर्मन्दसंहनन तया एवम्भूतोऽध्यवसायो भवति, तद्यथा-स्पृष्टः खल्वहमस्मि रोगातकैः शीतस्पर्शादिभिर्वा ख्यायुपसर्गेर्वा ततो ममास्मिन्नवसरे शरीरविमोक्षं कर्तुं श्रेयो 'ना' न समर्थोऽहमस्मि, 'शीतस्पर्श' शीतापादितं दुःखविशेष भावशीतस्पर्श वा ख्यायुपसर्गम् 'अध्यासयितुम्' अधिसोदुमित्यतो भक्तपरिज्ञेङ्गितमरणपादपोपगमनमुत्सर्गतः कर्तुं युक्तं, न च तस्य ममास्मिन्नवसरेऽवसरो यतो मे कालक्षेपासहिष्णुरुप सर्गः समु|त्थितो रोगवेदनां वा चिराय सोढुं नालमतो बेहानसं गार्द्धपृष्ठं वा आपवादिकं मरणमत्र साम्प्रतं न पुनरुपसर्गितस्तदेवाभ्युपेयादित्याह - 'स' साधुः वसु-द्रव्यं स चात्र संयमः स विद्यते यस्यासौ वसुमान्, सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेनात्मना कश्चिदर्द्धकटाक्षनिरीक्षणादुपसर्गसम्भवे सत्यपि तदकरणतया आ-समन्ताद्वतो व्यवस्थित आवृत्तो, यदिवा शीतस्पर्शवातादिजनितं दुःखविशेषमसहिष्णुस्तच्चिकित्साया अकरणतया वसुमान् सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेनात्मना आवृत्तो व्यव स्थित इति, स चोपसर्गितो वातादिवेदनां चासहिष्णुः किं कुर्यादित्याह-हुर्हेतौ यस्माचिराय वातादिवेदनां सोढुमसहिष्णुः, यदिवा यस्मात् सीमन्तिनी उपसर्गवितुमुपस्थिता विषभक्षणोद्बन्धनाद्युपन्यासेनापि न मुञ्चति ततस्तपस्विनः प्रभूततरकालनानाविधोपायोपार्जिततपोधनस्य तदैव श्रेयो यदेकः कश्चिन्निजैः सपलीकोऽपवरके प्रवेशितः आरूढप्रण Jan Estication Intimanal For Parts Only ~561~# www.indiary.org Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [४], मूलं [२१५],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत (शी०) सूत्रांक [२१५]] दीप अनुक्रम २२८] श्रीआचा- यप्रेयसीमार्थितस्तन्निर्गमोपायमलभमान आत्मोद्वन्धनाय विहायोगमनं तदाऽऽदद्याद्विषं वा भक्षयेत् पतनं वा कुर्याद् विमो०८ राङ्गवृत्तिः दीर्घकालं वा शीतस्पर्शादिकमसहिष्णुः सुदर्शनवत् प्राणान् जह्यात् । ननु च वेहानसादिकं बालमरणमुक्तं, तच्चानीय, तत्कथं तस्याभ्युपगमः?, तथा चागमः-"इच्छेएणं बालमरणेणं मरमाणे जीवे अर्णतेहिं नेरइयभवग्गहणेहि अप्पाणं संजोएइ जाव अणाइयं च णं अणवयम्गं चाउरंत संसारकतारं भुज्जो भुजो परियइत्ति, अत्रोच्यते, नैष दोषोऽत्रास्मा॥२७९॥ कमाईतानां, नैकान्ततः किश्चित्प्रतिषिद्धमभ्युपगतं वा मैथुनमेकं विहाय, अपि तु द्रव्यक्षेत्रकालभावानाश्रित्य तदेव प्रति-IN विध्यते तदेव चाभ्युपगम्यते, उत्सर्गोऽप्यगुणायापवादोऽपि गुणाय कालज्ञस्य साधोरिति, एतद्दर्शयितुमाह-दीर्घकालं संय-15 मप्रतिपालन विधाय संलेखनाविधिना कालपर्यायेण भक्तपरिज्ञादिमरणं गुणायेति, एवंविधे त्ववसरे तत्रापि हानसगा प्रष्ठादिमरणे अपि कालपर्याय एव, यद्वकालपर्यायमरणं गुणाय एवं वेहानसादिकमपीत्यर्थः, बहुनाऽपि कालपर्यायेण यावन्मांत्रं कर्मासौ क्षपयति तदसावल्पेनापि कालेन कर्मक्षयमवामोतीति दर्शयति-'सोऽपि वेहानसादेविधाता, न केवलमानुपूर्व्या भक्तपरिज्ञादेः कर्तेत्यपिशब्दार्थः, 'तत्र' तस्मिन् वेहानसादिमरणे 'विअंतिकारए'त्ति विशेषेणान्तिय॑न्तिः TASI-अन्तक्रिया तस्याः कारको व्यन्तिकारकः, तस्य हि तस्मिन्नवसरे तदेहानसादिकमौत्सर्गिकमेव मरणं, यतोऽनेनाप्याप-IN वादिकेन मरणेनानन्ताः सिद्धाः सेत्स्यन्ति च, उपसञ्जिहीर्घराह–इत्येतत्' पूर्वोक्तं वेहानसादिमरणं विगतमोहानामायतनम्-आश्रयः कर्त्तव्यतया तथा हितम् अपायपरिहारतया तथा सुखं जन्मान्तरेऽपि सुखहेतुत्वात् तथा 'क्षम' युक्तं ॥२७९ ॥ १इत्येतेन बालमरणेन नियमाणो जीवोऽनन्तै रविकभवग्रहणैरात्मानं संयोजयवि यावदनादिकं चानवदनं चातुरन्तं संसारकान्तारं भूयो भूयः परिवर्तते. Jain Educatinintamathima wwwandltimaryam ~562~# Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [४], मूलं [२१५],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्राप्तकालत्वात् तथा निःश्रेयसं कर्मक्षयहेतुत्वात् तथा 'आनुगामिकं तदजितपुण्यानुगमनात्, इतिबधीमिशब्दी पूर्ववद् । विमोक्षाध्ययनस्य चतुर्थोद्देशकः समाप्तः ॥ प्रत सूत्रांक [२१५] दीप अनुक्रम २२८] RECERAGट उक्तश्चतुर्थोद्देशकः, साम्प्रतं पञ्चम आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरोद्देशके बालमरणं गार्द्धपृष्ठादिकमुपन्यस्तम्, इह तु तद्विपर्यस्त ग्लानभावोपगतेन भिक्षुणा भक्तपरिज्ञाख्यं मरणमभ्युपगन्तव्यमित्येतत्प्रतिपाद्यते, तदनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम् जे भिक्खू दोहिं वत्थेहिं परिवुसिए पायतइएहिं तस्स णं नो एवं भवइ-तइयं वत्थं जाइस्सामि, से अहेसणिज्जाइं वत्थाई जाइजा जाव एवं खु तस्स भिक्खुस्स सामग्गियं, अह पुण एवं जाणिज्जा-उबाइक्कते खलु हेमन्ते गिम्हे पडिवण्णे, अहापरिजुन्नाइं वत्थाई परिदृविजा, अहापरिजुन्नाई परिझुवित्ता अदुवा संतरुत्तरे अदुवा ओमचेले अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमन्नागए भवइ जमेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमिच्चा सव्वओ सव्वत्ताए सम्मत्तमेव स दष्ट wwealtmarmarg अष्टम-अध्ययने पंचम-उद्देशक: 'ग्लान-अक्त-परिज्ञा' आरब्धः, ~563~# Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [9], मूलं [२१६],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचाराजवृत्तिः (शी०) विमो०८ उद्देशका सूत्रांक [२१६] ॥२८ ॥ दीप अनुक्रम २२९] मभिजाणिया, जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-पुट्ठो अबलो अहमसि नालमहमंसि गिहतरसंकमणं भिक्खायरियं गमणाए, से एवं वयंतस्स परो अभिहडं असणं वा ४ आहहु दलइजा, से पुवामेव आलोइजा-आउसंतो! नो खलु मे कप्पइ अभिहडं असणं ४ भुत्तए वा पायए वा अन्ने वा एयप्पगारे (सू० २१६) तत्र विकल्पपर्युषितः स्थविरकल्पिको जिनकल्पिको वा स्यात् , कल्पद्वयपर्युषितस्तु नियमाजिनकल्पिकपरिहारविशु-| द्धिकयथालन्दिकप्रतिमाप्रतिपन्नानामन्यतमः, अस्मिन् सूत्रेऽपदिष्टो यो भिक्षुर्जिनकल्पिकादिर्हाभ्यां वस्त्राभ्यां पर्युषितो वस्त्रशब्दस्य सामान्यबाचित्वादेका क्षौमिकोऽपर औणिक इत्याभ्यां कल्पाभ्यां पर्युषितः-संयमे व्यवस्थितः, किम्भूताभ्यां कल्पाभ्यां ?-पात्रतृतीयाभ्यां पर्युषित इत्याद्यनन्तरोद्देशकवनेयं यावत् 'नालमह मंसित्ति स्पृष्टोऽहं वातादिभी रोगैः 'अबलः असमर्थः 'नालं' न समर्थोऽस्मि गृहाग्रहान्तरं सङ्कमितुं, तथा भिक्षार्थ चरणं चर्या भिक्षाचर्या तद्गमनाय 'नालं' न समर्थ इति, तमेवम्भूतं भिक्षुमुपलभ्य स्याग्रहस्थ एवम्भूतामात्मीयामवस्थां वदतः साधोरवदतोऽपि परो गृहस्थादिरनुकम्पाभक्तिरसादयोऽभिहतं-जीवोपमर्दनिवृत्त, किं तब!-अशनं पानं खादिम स्वादिमं चेत्यारादाहृत्य तस्मै साधवे 'दलएजत्ति दद्यादिति । तेन च ग्लानेनापि साधुना सूत्रार्थमनुसरता जीवितनिष्पिपासुनाऽवश्यं मर्त्तव्यमित्यध्यवसायिना किं विधेयमित्याह-स जिनकल्पिकादीनां चतुर्णामप्यन्यतमः पूर्वमेव-आदावेव 'आलोचयेत्' विचारयेत् , कतरे INR८.॥ wwwandituaryam ~564~# Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [9], मूलं [२१६],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१६] दीप अनुक्रम २२९] राणोद्गमादिना दोषेण दुष्टमेतत्?, तत्राभ्याहृतमिति ज्ञात्वाऽभ्याहृतं च प्रतिषेधयेत् , तद्यथा--आयुष्मन् गृहपते! न खल्वे तन्ममाभिहतमभ्याहृतं च कल्पते अशनं भोक्तुं पानं पातुमन्यद्वैतरकारमाधाकादिदोषदुष्टं न कल्पते, इत्येवं तं गृहपतिं दानायोद्यतमाज्ञापयेदिति, पाठान्तरं वा "तं भिक्खु केइ गाहावई उवसंकमित्तु बूया-आउसंतो समणा! अहन्नं ४ तव अढाए असणं वा ४ अभिहडं दलामि, से पुवामेव जाणेज्जा-आउसंतो गाहाबई। जन्नं तुम मम अहाए असणं वा ४ अभिहई चेतेसि, णो य खलु मे कप्पइ एयप्पगारं असणं वा ४ भोत्तए वा पायए वा, असे वा तहप्पगारे"त्ति, कण्ठ्यं, तदेवं प्रतिषिद्धोऽपि श्रावकसंज्ञिप्रकृतिभद्रकमिश्यादृष्टीनामन्यतम एवं चिन्तयेत्, तद्यथा-एष तावत् ग्लानो टन शक्रोति भिक्षामटितुं न चापरं कश्चन ब्रवीति तदस्मै प्रतिषिद्धोऽप्यहं केनचिच्छाना दास्यामीत्येषमभिसन्धायाहारादिकं ढोकयति, तत्साधुरनेषणीयमितिकृत्वा प्रतिषेधयेत् ॥ किं च जस्स णं भिक्खुस्स अयं पगप्पे-अहं च खल पडिन्नत्तो अपडिन्नत्तेहिं गिलाणो अगिलाणेहिं अभिकंख साहम्मिएहिं कीरमाणं वेयावडियं साइजिस्सामि, अहं वावि खल्लु अप्पडिन्नत्तो पडिन्नत्तस्स अगिलाणो गिलाणस्स अभिकंख साहम्मियस्स कुजा वेयावडियं करणाए आहङ परिन्नं अणुक्खिस्सामि आहडं च साइज्जिस्सामि १, आहदु परिन्नं आणक्खिस्सामि आहडं च नो साइज्जिस्सामि २, आहद्दु परिन्नं नो आण ~565~# Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२१७] दीप अनुक्रम [२३०] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ २८१ ॥ Jain Esticatos “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [ ५ ], मूलं [२१७],निर्युक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः क्विस्सामि आहडं च साइजिस्सामि ३, आहद्दु परिन्नं नो आणक्खिस्सामि आहडं च नो साइजिस्सामि ४ एवं से अहाकिट्टियमेव धम्मं समभिजाणमाणे संते विरए सुसमाहियलेसे तत्थावि तस्स कालपरियाए से तत्थ विअंतिकारए, इच्चेयं विमोहाय - यणं हियं सुहं खमं निस्सेसं आणुगामियं तिबेमि ( सू० २१७) ८-५ । विमोक्षाध्ययने पञ्चम उद्देशकः ॥ 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे यस्य भिक्षोः परिहारविशुद्धिकस्य यथालन्दिकस्य वाऽयं वक्ष्यमाणः 'प्रकल्पः' आचारो भवति, तद्यथा-अहं च खलु 'चः' समुच्चये 'खलुः' वाक्यालङ्कारे अहं क्रियमाणं वैयावृत्त्यमपरैः 'स्वादयिष्यामि' अभिलपिष्यामि किम्भूतोऽहं १ - प्रतिज्ञप्तो वैयावृत्यकरणाया परैरुक्तः- अभिहितो यथा तव वयं वैयावृत्त्यं यथोचितं कुर्म्म इति, किम्भूतैः परैः ? - अप्रतिज्ञतैः- अनुक्तैः किम्भूतोऽहं-ग्लानो विकृष्टतपसा कर्त्तव्यताऽशक्तो वातादिक्षोभेण वा ग्लान इति, किम्भूतैरपरैः १-अग्लानैः - उचितकर्त्तव्यसहिष्णुभिः, तत्र परिहारविशुद्धिकस्यानुपारिहारिकः करोति कल्पस्थितो वा परो, यदि पुनस्तेऽपि ग्लानास्ततोऽन्ये न कुर्वन्ति, एवं यथालन्दिकस्यापीति, केवलं तस्य स्थविरा अपि कुर्वन्तीति दर्शयति- निर्जराम् 'अभिकाङ्क्ष्य' उद्दिश्य 'साधम्मिकैः' सदृशकल्पिकैरेक कल्पस्थैरपरसाधुभिर्वा क्रियमाणं वैयावृत्त्यमहं 'स्वादयिष्यामि' अभिकाङ्क्षयिष्यामि यस्यायं भिक्षोः प्रकल्पः- आचारः स्यात् स तमाचारमनुपालयन् भक्तपरिज्ञयाऽपि For Pantry at Use Only ~566 ~# विमो० ८ उद्देशक १५ ॥ २८१ ॥ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२१७] दीप अनुक्रम [२३०] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [ ५ ], मूलं [२१७],निर्युक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः जीवितं जह्यात्, न पुनराचारखण्डनं कुर्यादिति भावार्थः । तदेवमन्येन साधम्मिकेण वैयावृत्त्यं क्रियमाणमनुज्ञातं, साप्रतं स एवापरस्य कुर्यादिति दर्शयितुमाह- 'चः' समुच्चये अपिशब्दः पुनःशब्दार्थे, स च पूर्वस्माद्विशेषदर्शनार्थः, 'खलुः' वाक्यालङ्कारे, अहं च पुनरप्रतिज्ञप्तः - अनभिहितः प्रतिज्ञप्तस्य- वैयावृत्य करणायाभिहितस्य अग्लानो ग्लानस्य निर्जरामभिकाङ्क्ष्य साधम्मिकस्य वैयावृत्त्यं कुर्या, किमर्थ ? - 'करणाय' तदुपकरणाय तदुपकारायेत्यर्थः, तदेवं प्रतिज्ञां परिगृह्यापि भक्तपरिज्ञया प्राणान् जह्यात् न पुनः प्रतिज्ञामिति सूत्रभावार्थः । इदानीं प्रतिज्ञा विशेषद्वारेण चतुर्भङ्गिकामाह-एकः कश्चिदेवम्भूतां प्रतिज्ञां गृह्णाति तद्यथा - ग्लानस्यापरस्य साधर्मिकस्याहारादिकमन्वेषयिष्यामि, अपरं च वैयावृत्यं यथोचितं करिष्यामि, तथाऽपरेण च साधर्मिकेणाहृतमानीतमाहारादिकं स्वादयिष्यामि - उपभोक्ष्ये, एवम्भूतां प्रतिज्ञामाहत्य--गृहीत्वा वैयावृत्त्यं कुर्यादिति १, तथाsपर आहृत्य प्रतिज्ञां गृहीत्वा यथाऽपरनिमित्तमन्वीक्षिष्ये आहारादिकमाहृतं चापरेण न स्वादयिष्यामीति २, तथाऽपर आहत्य प्रतिज्ञामेवम्भूतां तद्यथा-नापरनिमित्तमन्वीक्षिष्याम्या| हारादिकमाहृतं चान्येन स्वादयिष्यामीति २, तथाऽपर आहृत्य प्रतिज्ञामेवम्भूतां तद्यथा-नान्वीक्षिष्येऽपरनिमित्तमाहारादिकं नाप्याहृतमन्येन स्वादयिष्यामीति ४, एवम्भूतां च नानाप्रकारां प्रतिज्ञां गृहीत्वा कुतश्चिद् ग्लायमानोऽपि जीवितपरित्यागं कुर्यात् न पुनः प्रतिज्ञालोपमिति । अमुमेवार्थमुपसंहारद्वारेण दर्शयितुमाह- 'एवम् उक्तविधिना 'स' भिक्षु| स्वगत्ततस्यः शरीरादिनिष्पिपासुः यथाकीर्त्तितमेव धर्म्मम् उक्तस्वरूपं सम्यगभिजानन्-आसेवनापरिज्ञया आसेवमानः, | तथा लाघविकमागमयन्नित्यादि यच्चतुर्थोद्देशकेऽभिहितं तदत्र वाच्यमिति, तथा 'शान्तः' कषायोपशमाच्छ्रान्तो वा अ For Pantry Use Only ~ 567 ~# Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [9], मूलं [२१७],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीआचा-IIIनादिसंसारपर्यटनादू विरतः सावद्यानुष्ठानात् शोभनाः समाहृता-गृहीता लेश्या:-अन्तःकरणवृत्तयस्तैजसीप्रभृतयो वा येन || विमो राङ्गवृत्तिः स सुसमाहृतलेश्यः, एवम्भूतः सन पूर्वगृहीतप्रतिज्ञापालनासमर्थों ग्लानभावोपगतस्तपसा रोगातकेन वा प्रतिज्ञालोप उद्देशकः५ (शी०) मकुर्वन् शरीरपरित्यागाय भक्तप्रत्याख्यानं कुर्यात्, 'तत्रापि भक्तपरिज्ञायामपि तस्य' कालपर्यायेणानागतायामपि कालपर्याय एव निष्पादितशिष्यस्य संलिखितदेहस्य यः कालपर्यायो-मृत्योरवसरोऽत्रापि ग्लानावसरेऽसावेव कालपर्याय इति, कर्मनिर्जराया उभयत्र समानत्वात् , स भिक्षुस्तत्र-ाला नतयाऽनशनविधाने व्यन्तिकारका-कर्मक्षयविधायीति । उद्देशकार्थमुपसञ्जिहीर्घराह-सर्वं पूर्ववद् । विमोक्षाध्ययनस्य पञ्च मोद्देशकः परिसमाप्तः ॥ RECACAKAR+ [२१७] ॥२८२॥ दीप अनुक्रम २३०]] C% उक्तः पञ्चमोदे शका, साम्प्रतं षष्ठ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके ग्लानतया भकप्रत्याख्यानमुक्तम् , इह धृतिसंहननादिवलोपेत एकत्वभावनां भावयन्निङ्गितमरणं कुर्यादित्येतत्प्रतिपाद्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादौ सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्जे भिक्खू एगेण वस्थेण परिसिए पायबिईएण, तस्स णं नो एवं भवइ-बिइयं वत्थं M२८२॥ जाइस्सामि, से अहेसणिजं वरथं जाइजा अहापरिग्गहियं वत्थं धारिजा जाव गिम्हे Ack T wwwandltimaryam अष्टम-अध्ययने षष्ठ-उद्देशक: 'एकत्व भावना/इंगित मरण' आरब्ध:, ~568~# Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [६], मूलं [२१८],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: 2 4 प्रत -9- सूत्रांक [२१८] दीप अनुक्रम [२३१] पडिवन्ने अहापरिजुन्नं वत्थं परिदृविज्जा २ ता अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले लाघ वियं आगममाणे जाव सम्मत्तमेव समभिजाणीया (सू० २१८) गतार्थ ॥ तस्य च भिक्षोरभिग्रहविशेषात् सपात्रमेकं वस्त्र धारयतः परिकम्मितमतेलघुकर्मतया एकत्वभावनाऽध्यवदिसायः स्यादिति दर्शयितुमाह जस्त णं भिक्खुस्स एवं भवइ-एगे अहमंसि न मे अस्थि कोइन याहमवि कस्सवि, एवं से एगागिणमेव अप्पाणं समभिजाणिज्जा, लावियं आगममाणे तवे से अभि समन्नागए भवइ जाव समभिजाणिया (सू० २१९) KI 'णम्' इति वाक्यालगरे, यस्य भिक्षोः 'एव'मिति वक्ष्यमाणं भवति, (तद्यथा-एकोऽहमस्मि संसारे पर्यटतो न मे || पारमार्थिक उपकारकर्तृत्वेन द्वितीयोऽस्ति, न चाहमन्यस्य दुःखापनयनतः कस्यचिद् द्वितीय इति, स्वकृतकर्मफलेश्वरत्वात्प्राणिनां, एवमसौ साधुरेकाकिनमेवात्मानम्-अन्तरात्मानं सम्यगभिजानीयात्, नास्थात्मनो नरकादिदुःखत्राणतया शरण्यो द्वितीयोऽस्तीत्येवं संदधानो यद्यद्रोगादिकमुपतापकारणमापद्यते तत्तदपरशरणनिरपेक्षो मयैवैतत्कृतं मयैव सोढव्य|मित्येतदध्यवसायी सम्यगधिसहते। कुत एतदधिसहत इत्यत आह-लाघवियमित्यादि, चतुर्थोदेशकवद्गतार्थ, यावत् 'सम्मत्तमेव समभि जाणिय'त्ति ॥ इह द्वितीयोद्देशके उद्गमोसादनैषणा प्रतिपादिता, तद्यथा-'आउसंतो समणा! अहं खलु बा.सू.४८ ity wwwandltimaryam ~569~# Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [६], मूलं [२१९],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: विमो०८ प्रत सूत्रांक [२१९] दीप अनुक्रम २३२] श्रीआचा- तव अठाए असणं वा ४ वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई समारंभ समुहिस्स रावृत्तिःकीयं पामिर्च अच्छेज्जं अणिसिहँ आहट्ट चेएमि' इत्यादिना अन्धेनेति, तथाऽनन्तरोद्देशके ग्रहणैषणा प्रतिपादिता, (शी०) "सिया य से एवं वयंतस्सवि परो अभिहर्ड असणं वा ४ आह१ दलएज्जा" इत्यादिना ग्रन्थेन, ततो ग्रासैषणाऽवशिष्यते, उद्देशक अतस्तत्प्रतिपादनायाह॥२८३॥ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा असणं वा ४ आहारेमाणे नो वामाओ हणुयाओ दाहिणं हणुयं संचारिजा आसाएमाणे, दाहिणाओ वाम हणुयं नो संचारिजा आसाएमाणे, से अणासायमाणे लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमन्नागए भवइ, जमेयं भगवया पवेइयं तमेवं अभिसमिच्चा सव्वओ सव्वत्ताए सम्मत्तमेव अ(सम)भि जाणिया (सू० २२०) 'स' पूर्वव्यावर्णितो 'भिक्षुः साधुः साध्वी वा अशनादिकमाहारमुद्गमोसादनेषणाशुद्धं प्रत्युत्पन्नं ग्रहणैषणाशुद्ध च गृहीतं सदङ्गारिताभिधूमितवर्जमाहारयेत्, तयोश्चाङ्गारिताभिधूमितयो रागद्वेषौ निमित्तं, तयोरपि सरसनीरसोपलब्धिः, कारणाभावे च कार्याभाव इतिकृत्वा रसोपलब्धिनिमित्तपरिहारं दर्शयति-स भिक्षुराहारमाहारयन्नो वामतो हनुतो द-10 क्षिणां हर्नु रसोपलब्धये सञ्चारयेदास्वादयन्नशनादिकं, नापि दक्षिणतो वामां सञ्चारयेदास्वादयन् , तत्सञ्चारास्वादनेन ॥ २८३ wwwandltimaryam ~570~# Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [६], मूलं [२२०],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२०] दीप अनुक्रम २३३] हि रसोपलब्धौ रागद्वेषनिमित्ते अङ्गारितत्वाभिधूमितत्वे स्यातामतो यत्किञ्चिदप्यास्वादनीयं नास्वादयेत्, पाठान्तरं वा Oil'आढायमाणे' आदरवानाहारे मूछितो गृद्धो न सञ्चारयेदिति, हन्वन्तरसङ्कमवदन्यत्रापि नास्वादयेदिति दर्शयति-स ह्याहारं चतुर्विधमप्याहारयन् रागद्वेषौ परिहरन्नास्वादयेदिति, तथा कुतश्चिनिमित्ताद्धन्वन्तरं सवारयन्नयनाखादयन् ||3|| सञ्चारयेदिति। किमिति यत आह-आहारलाघवमागमयन्-आपादयन् नो आस्वादयेदित्यास्वादनिषेधेन चान्तप्रान्ताहाराभ्युपगमोऽभिहितो भवति, एवं च तपः 'से तस्य भिक्षोरभिसमन्वागतं भवतीत्यादि गतार्थ यावत् 'सम्मत्तमेव समभिजा-2 णिय'त्ति ॥ तस्य चान्तप्रान्ताशितयाऽपचितमांसशोणितस्य जरदस्थिसन्ततः क्रियाऽवसीदत्कायचेष्टस्य शरीरपरित्यागबुद्धिः तस्यादित्याह जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-से गिलामि च खलु अहं इममि समए इमं सरीरगं अणुपुव्वेण परिवहित्तए, से अणुपुब्वेणं आहारं संवद्विजा, अणुपुट्वेणं आहारं संवहित्ता कसाए पयणुए किच्चा समाहियच्चे फलगावयटी उट्राय भिक्खू अभिनि वुडच्चे (सू० २२१) 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे यस्यैकत्वभावनाभावितस्य भिक्षोराहारोपकरणलाघवं गतस्य एव'मिति वक्ष्यमाणोऽभिप्रायो भवति, 'से' इति तच्छब्दार्थे तच्छन्दोऽपि वाक्योपन्यासार्थे, 'चः' शब्दसमुच्चये 'खलु' अवधारणे, अहं चास्मिन् 'समये JainEducatinintamataind www.tandituaryam ~571~# Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [६], मूलं [२२१],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२१] % % % श्रीआचा-शा अवसरे संयमावसरे ग्लायामि ग्लानिमेव गतो रुक्षाहारतया तत्समुत्धेन वा रोगेण पीडितोऽतो न शक्नोमि रूक्षतपो- विमो०८ रावृत्तिः | भिरभिनिष्टप्तं शरीरकमानुपूा-यथेष्टकालावश्यकक्रियारूपया परिवोढुं-नालमहं क्रियासु व्यापारयितुम् , अस्मिन्नवसरे (शी०) इदं प्रतिक्षणं शीर्यमाणत्वाच्छरीरकमिति मत्वा स भिक्षुरानुपूर्व्या-चतुर्थषष्ठाचाम्लादिकया आहारं 'संवर्तयेत्' संक्षिपेत् । उद्देशका ॥२८४॥ न पुनर्वादशसंवत्सरसंलेखनाऽऽनुपूर्वीह गृह्यते, ग्लानस्य तावन्मात्रकालस्थितेरभावाद, अतस्तत्कालयोग्ययाऽऽनुपूर्ध्या द्रव्यसलेखनार्थमाहारं निरुन्ध्यादिति । द्रव्यसंलेखनया संलिख्य च यदपरं कुयात्तदाह-पष्ठाष्टमदशमद्वादशादिकयाऽऽनु-15 पूर्ध्याऽऽहारं संवर्ध्व कषायान् प्रतनून कृत्वा सर्वकालं हि कपायतानवं विधेयं विशेषतस्तु सैलेखनावसरे इत्यतस्तान् प्रतनून कृत्वा सम्यगाहिता-व्यवस्थापिता अर्चा-शरीरं येन स समाहिताः, नियमितकायन्यापार इत्यर्थः, यदिवा अर्चालेश्या सम्यगाहिता-जनिता लेश्या येन स समाहितार्चः, अतिविशुद्धाध्यवसाय इत्यर्थः, यदिवाऽर्चा-क्रोधाद्यध्यवसाया|त्मिका ज्वाला समाहिता-उपशमिताऽर्चा येन स तथा, 'फलं' कर्मक्षयरूपं तदेव फलकं तेनापदि-संसारचमणरूपायाDoमर्थः-प्रयोजनं फलकापदर्थः स विद्यते यस्यासौ फलकापदर्थी, यदिवा फलकबदास्यादिभिरुभयतो बाह्यतोऽभ्यन्तर तश्चावकृष्टः फलकावकृष्ट इत्येवं विगृह्यापत्वात् 'फलगावयट्ठी' इत्युक्तं, यदिवा तक्ष्यमाणोऽपि दुर्वचनवास्यादिभिः कपायाभावतया फलकवदवतिष्ठते तच्छीलश्चेति फलकावस्थायी, वासीचन्दनकल्प इत्यर्थः, स एवम्भूतः प्रतिदिनं साकारभक्तप्रत्याख्यायी बलवति रोगावेगे उत्थाय-अभ्युद्यतमरणोद्यम विधायाभिनिवृत्तार्थ:-शरीरसन्तापरहितो धृतिसं-3॥२८४ ॥ हननायुपतो महापुरुषाचीर्णमार्गानुविधायीङ्गितमरणं कुर्यात् ॥ कथं कुर्यादित्याह दीप अनुक्रम २३४] % %95+% PRO walanditaryam ~572~# Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२२२] दीप अनुक्रम [२३५ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [६], मूलं [२२२],निर्युक्तिः [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः अणुपविसित्ता गामं वा नगरं वा खेडं वा कब्बडं वा मडंबं वा पट्टणं वा दोणमुहं आगरं वा आसमं वा सन्निवेसं वा नेगमं वा रायहाणि वा तणाई जाइजा तणाई जाइत्ता से तमायाए एगंतमवक्कमिज्जा, एगंतमवक्कमित्ता अप्पंडे अप्पपाणे अप्पबीए अप्पहरिए अप्पोसे अप्पोदए अप्पुतिंगपणगदगमट्टियमक्कडासंताणए पडिलेहिय २ पमज्जिय २ तणाई संथरिजा, तणाई संथरित्ता इत्थवि समए इत्तरियं कुज्जा, तं सञ्चं सञ्चवाई ओए तिन्ने छिन्नकहंकहे आईयट्ठे अणाईए चिचाण भेउरं कायं संविद्वय विरूवरूवे परीसहोवसग्गे अस्सि विस्तंभणयाए भेरवमणुचिन्ने त स्थावि तस्स कालपरियाए जाव अणुगामियं तिबेमि ( सू० २२२ ) ८-६ ॥ विमो क्षाध्ययने पष्ट उद्देशकः ॥ ८ ॥ प्रसति बुद्ध्यादीन् गुणानिति गम्यो वाऽष्टादशानां कराणामिति ग्रामः, सर्वत्र वाशब्दः पक्षान्तरदर्शनार्थः, नात्र करो विद्यत इति नकरं, पांशुप्राकारवद्धं खेटं, हकप्राकारवेष्टितं कर्बटं, अर्द्धतृतीयगव्यूतान्तर्ग्रामरहितं मडम्बं पत्तनं For Fanart Use Only ~573~# Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [६], मूलं [२२२],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२२] दीप श्रीआचा- दातु द्विधा-जलपत्तनं स्थलपत्तनं च, जलपत्तनं यथा काननद्वीपः, स्थलपत्तनं यथा मथुरा, 'द्रोणमुर्ख जलस्थलनिर्गम- विमो०८ रावृत्तिः प्रवेशं यथा भरुकच्छं तामलिप्ती वा, आकरो' हिरण्याकरादिः, 'आश्रमः' तापसावसथोपलक्षित आश्रयः, 'सन्निवेश यात्रा- . उद्देशकः६ | समागतजनावासो जनसमागमो वा 'नैगमः' प्रभूततरवणिग्वर्गावासः 'राजधानी' राजाधिष्ठानं राज्ञः पीठिकास्थानमि-13/ (शी०) त्यर्थः, एतेष्वेसानि वा प्रविश्य तृणानि याचेत, ततः किमित्याह-संस्तारकाय प्रासुकानि दर्भवीरणादिकानि कचिद्रामादौ ॥२८५॥ तृणस्वामिनमशुपिराणि तृणानि याचित्वा स तान्यादायकान्ते-गिरिगुहादावपक्रामेद्-गच्छेदेकान्तं-रहोऽपक्रम्य च प्रासुकं महास्थण्डिलं प्रत्युपेक्षते, किम्भूतं तदर्शयति-अल्पान्यण्डानि कीटिकादीनां यत्र तदल्याण्ड तस्मिन् , अल्पशब्दोऽत्राभावे । वर्तते, अण्डकरहित इत्यर्थः, तथाऽल्पाः प्राणिनो-द्वीन्द्रियादयो यस्मिन् तत्तथा, तथा अल्पानि बीजानि नीवारश्यामा कादीनां यत्र तत्तथा, तथा अल्पानि हरितानि-दूर्वाप्रवालादीनि यत्र तत्तथा, तथाऽल्पावश्याये-अधस्तनोपरितनावश्याय६ विमुड्वर्जिते, तथाऽल्पोदके-भीमान्तरिक्षोदकरहिते, तथोत्तिङ्गपनकोदकमृत्तिकामर्कटसन्तानरहिते, तत्रोत्तिगः-पिपी-13 |लिकासन्तानका पनको-भूम्यादावुल्लिविशेषः उदकमृत्तिका-अचिराप्कायाकृता मृत्तिका मर्केटसन्तानको-छूतातन्तुजालं, तदेवम्भूते महास्थण्डिले तृणानि संस्तरेत्, किं कृत्वा तत् स्थण्डिलं चक्षुषा प्रत्युपेक्ष्य २, वीप्सया भृशभावमाह, एवं रजोहरणादिना प्रमूज्य २, अत्रापि वीप्सया भूशार्थता सूचिता, संस्तीर्य च तृणान्युच्चारप्रस्रवणभूमिं च प्रत्युपेक्ष्य पूर्वाभिमुखसंस्तारकगतः करतलललाटस्पर्शिधृतरजोहरणः कृतसिद्धनमस्कारः आवर्तितपञ्चनमस्कारोऽत्रापि समये अपिश- ॥२८५॥ न्दादन्यत्र वा समये 'इत्वर'मिति पादपोपगमनापेक्षया नियतदेशप्रचाराभ्युपगमादिङ्गितमरणमुच्यते, न तु पुनरित्वरं| अनुक्रम २३५]] 15 ~574~# Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२२२] दीप अनुक्रम [२३५ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [६], मूलं [२२२],निर्युक्तिः [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः साकारं प्रत्याख्यानं, साकारप्रत्याख्यानस्यान्यस्मिन्नपि काले जिनकल्पिकादेरसम्भवात् किं पुनर्यावत्कथिक भक्तप्रत्याख्यानावसर इति, इत्वरं हि रोगातुरः श्रावको विधत्ते, तद्यथा - यद्यहमस्माद्रोगात् पञ्चषैरहोभिर्मुक्तः स्यां ततो भोक्ष्ये, नान्यथेत्यादि, तदेवमित्वरम् - इङ्गितमरणं धृतिसंहननादिवलोपेतः स्वकृतत्वग्वर्त्तनादिक्रियो यावज्जीवं चतुर्विधाहारनियमं | कुर्यादिति, उक्तं च- "पश्ञ्चक्खद आहारं चउन्विहं नियमओ गुरुसमीवे । इंगियदेसंमि तहा चिपि हु नियमओ कुइ ॥ १ ॥ उब्बत्तइ परिअत्तर काइगमाईऽवि अप्पणा कुणइ । सव्वमिह अप्पणचि ण अन्नजोगेण धितिबलिओ ॥ २ ॥ तच्चेङ्गितमरणं किम्भूतं किम्भूतश्च प्रतिपद्यत इत्याह- 'तद्' इङ्गितमरणं सद्भयो हितं सत्यं, सुगतिगमनाविसंवादनात्सर्वज्ञोपदेशाच्च सत्यं तथ्यं, तथा स्वतोऽपि सत्यं वदितुं शीलमस्येति सत्यवादी, यावज्जीवं यथोक्तानुष्ठानाद्य| थाऽऽरोपित प्रतिज्ञाभारनिर्वहणादित्यर्थः, तथा 'ओजः' रागद्वेषरहितः, तथा 'तीर्णः' संसारसागरं, भाविनि भूतवदुपचारात्तीर्णवतीर्ण इत्यर्थः तथा 'छिन्ना' अपनीता 'कथं कथमपि या 'कथा' रागकथादिका विकथारूपा येन स छिन्नकथंकथः, यदिवा कथमहमिङ्गितमरणप्रतिज्ञां निर्वहिष्ये इत्येवंरूपा या कथा सा छिन्ना येन स छिन्नकथंकथः, दुष्करानुष्ठानविधायी हि कथंकधी भवति, स तु पुनर्महापुरुषतया न व्याकुलतामियादिति, तथा आ-समन्तादतीव इताज्ञाता परिच्छिन्ना जीवादयोऽर्था येन सोऽयमातीतार्थः आदत्तार्थो वा यदिवाऽतीताः - सामस्त्येनातिक्रान्ताः अर्थाः १ प्रत्याख्याति आहारं चतुर्विधं नियमाद् गुरुसमीपे इतिदेशे तथा चेष्ठामपि नियमतः करोति ॥ १ ॥ उद्वर्तते परिवर्तते कायिकयापि आत्मना करोति । सबै महात्मनैव नान्ययोगेन धृतिवलिकः ॥ २ ॥ Jan Estication matinal For Parts Only ~575~# Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२२२] दीप अनुक्रम [२३५ ] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ २८६ ॥ Jan Estication “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [६], मूलं [२२२],निर्युक्तिः [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | प्रयोजनानि यस्य स तथा उपरतव्यापार इत्यर्थः, तथा आ-समन्तादतीव इतो गतोऽनाद्यनन्ते संसारे आतीतः न आतीतः अनातीतः, अनादत्तो वा संसारो येन स तथा संसारार्णवपारगामीत्यर्थः स एवम्भूत इङ्गितमरणं प्रतिपद्यते, विधिना 'त्यक्त्वा' प्रोज्झ्य स्वयमेव भिद्यते इति भिदुरं प्रतिक्षणविशरारुं 'कार्य' कर्म्मवशाही समौदारिकं शरीरं त्यक्त्वा, तथा 'संविधूय' परीषहोपसर्गान् प्रमध्य 'विरूपरूपान्' नानाप्रकारान् सोडा 'अस्मिन्' सर्वज्ञप्रणीत आगमे 'विस्रम्भणतया' विश्वासास्पदे तदुक्तार्थावि संवादाध्यवसायेन भैरवं भयानक मनुष्ठानं क्लीवैर्दुरध्यवसमिङ्गितमरणाख्य मनुचीर्णवान्अनुष्ठितवानिति, तच्च तेन यद्यपि रोगातुरतया व्यधायि तथापि तत्कालपर्यायागततुल्यफलमिति दर्शयितुमाह-'त त्रापि' रोगपीडाऽऽहितेङ्गितमरणाभ्युपगमेऽपि न केवलं कालपर्यायेणेत्यपिशब्दार्थः, 'तस्य' कालज्ञस्य भिक्षोरसावेव कालपर्यायः, कर्म्मक्षय स्योभयत्र समानत्वादिति, आह च- 'सेवि तत्थ वियंतिकारए' इत्यादि पूर्ववद्भतार्थम् इतिश्रवीमिशब्दावपि क्षुण्णार्थाविति विमोक्षाध्ययनस्य षष्ठोदेशकः समाप्तः ॥ उक्तः षष्ठोद्देशकः, साम्प्रतं सप्तमव्याख्या प्रतन्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरोदेशके एकत्वभावनाभावि - तस्य धृतिसंहननाद्युपेतस्येङ्गितमरणमभिहितम्, इह तु सैवैकत्वभावना प्रतिमाभिर्निष्पाद्यत इतिकृत्वाऽतस्ताः प्रतिपाद्यन्ते, तथा विशिष्टतरसंहननोपेतश्च पादपोपगमनमपि विदध्यादित्येतच्चेत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देश कस्यादिसूत्रम् - जे भिक्खू अचेले परिसिए तस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-चाएमि अहं तणफासं अष्टम अध्ययने सप्तम उद्देशकः पादपोपगमन' आरब्धः, For Pantry at Use Only ~576~# विमो० ८ उद्देशकः७ ॥ २८६ ॥ ntary org Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [७], मूलं [२२३],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२३] दीप अनुक्रम २३६] अहियासित्तए सीयफासं अहियासित्तए तेउफासं अहियासित्तए दंसमसगफासं अहियासित्तए एगयरे अन्नतरे विरूवरूवे फासे अहियासित्तए, हिरिपडिच्छायणं चऽहं नो संचाएमि अहिआसित्तए , एवं से कप्पेइ कडिबंधणं धारित्तए ॥ (सू० २२३) यो भिक्षुः प्रतिमाप्रतिपन्नोऽभिग्रहविशेषादचेलो-दिग्वासाः 'पर्युषितः' संयमे व्यवस्थितो 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे | तस्य' भिक्षोः 'एवं मिति वक्ष्यमाणोऽभिप्रायो भवति, तद्यथा-शक्नोम्यहं तृणस्पर्शमपि सोढुं धृतिसंहननाद्युपेतस्य है वैराग्यभावनाभावितान्तःकरणस्यागमेन प्रत्यक्षीकृतनारकतिर्यग्वेदनाऽनुभवस्य न मे तृणस्सों महति फलविशेषेऽभ्युद्य तस्य किञ्चित् प्रतिभासते, तथा शीतोष्णदंशमशकस्पर्शमधिसोदुमिति, तथा एकतरान् अन्यतरांश्चानुकूलप्रत्यनीकान् |विरूपरूपान् 'स्पर्शान्' दुःखविशेषानध्यासयितु-सोढुमिति, किं त्वह ही-लज्जा तया गुह्यप्रदेशस्य प्रच्छादनं हीमच्छादनं, तच्चाहं त्यक्तुं न शक्नोमि, एतच्च प्रकृतिलजालुकतया साधनविकृतरूपतया वा स्यात्, एवमेभिः कारणैः 'से' तस्य कल्पते' युज्यते 'कटिबन्धन' चोलपट्टकं कर्नु, स च विस्तरेण चतुरङ्गलाधिको हस्तो दैर्येण कटिप्रमाण इति गणनापमाणेनैकः, पुनरेतानि कारणानि न स्युः ततोऽचेल एव पराक्रमेत, अचेलतया शीतादिस्पर्श सम्यगधिसहेतेति ॥ एतनतिपादयितुमाह अदुवा तत्थ परक्कमंतं भुजो अचेलं तणफासा फुसन्ति सीयफासा फुसन्ति तेउफासा ~577~# Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [७], मूलं [२२४],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) उद्देशका सूत्रांक ॥२८७URI [२२४] दीप फुसन्ति दंसमसगफासा फुसन्ति एगयरे अन्नयरे विरूवरूवे फासे अहियासेइ, अ चेले लापवियं आगममाणे जाव समभिजाणिया (सू० २२४) स एवं कारणसद्भावे सति वस्खं बिभृयादथवा नैवासौ जिहेति, ततोऽचेल एव पराक्रमेत, तं च तत्र संयमेऽचेलं| पराक्रममाणं भूयः-पुनस्तुणस्पर्शाः स्पृशन्ति-उपतापयन्ति, तथा शीतोष्णदेशमशकस्पर्शाः स्पृशन्तीति, तथैकतरानन्यतरांश्च विरूपरूपान् स्पर्शानुदीनधिसहते असावचेलोऽचेललाघवमागमयन्नित्यादि गतार्थ यावत् 'सम्मत्तमेव समभि जाणिय'त्ति ।। किं च-प्रतिमाप्रतिपन्न एव विशिष्टमभिग्रहं गृह्णीयात्, तद्यथा-अहमन्येषां प्रतिमाप्रतिपन्नानामेव किश्चिद्दाहा स्यामि, तेभ्यो वा ग्रहीप्यामीत्येवमाकारं चतुर्भङ्गिकयाऽभिग्रहविशेषमाह जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-अहं च खलु अन्नेसि भिक्खूणं असणं वा ४ आहटु दलइस्सामि आहडं च साइजिस्सामि १ जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-अहं च खलु अन्नेसि भिक्खूणं असणं वा ४ आहहु दलइस्सामि आहडं च नो साइस्सामि २ जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-अहं च खल असणं वा ४ आहहु नो दलइस्सामि आहडं च साइजिस्सामि ३ जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-अहं च खलु अन्नेसिं अनुक्रम २३७]] ॥२८७॥ ~578~# Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [७], मूलं [२२५],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२५] दीप अनुक्रम २३८] भिक्खूणं असणं वा ४ आहहु नो दलइस्सामि आहडं च नो साइजिस्सामि ४, अहं च खलु तेण अहाइरित्तेण अहेसणिजेण अहापरिग्गहिएणं असणेण वा ४ अभिकङ्ग साहम्मियस्स कुजा वेयावडियं करणाए, अहं वावि तेण अहाइरित्तेण अहेसणिजेण अहापरिग्गहिएणं असणेण वा पाणेण वा ४ अभिकल साहम्मिएहिं कीरमाणं वेयावडियं साइजिस्सामि लाघवियं आगममाणे जाव सम्मत्तमेव समभि जाणिया (सू० २२५) एतच पूर्व व्याख्यातमेव, केवलमिह संस्कृतेनोच्यते-यस्य भिक्षोरेवं भवति-वक्ष्यमाणम् , तद्यथा-अहं च खल्वन्येभ्योभिक्षुभ्योऽशनादिकमात्य दास्याम्यपराहृतं च स्वादयिष्यामीत्येको भङ्गका १, तथा यस्य भिक्षोरेवं भवति, तद्यथा-अहं |च खल्वन्येभ्योऽशनादिकमाहत्य दास्याम्यपराहृतं च नो स्वादयिष्यामीति द्वितीयः २ यस्य भिक्षोरेवं भवति, तद्यथा-- अहं च खल्वन्येभ्योऽशनादिकमाहृत्य नो दास्याम्यपराहृतं च स्वादयिष्यामीति तृतीयः ३ तथा यस्य भिक्षोरेवं भवति, || तद्यथा-अहं च खल्वन्येभ्यो भिक्षुभ्योऽशनादिकमाहृत्य नो दास्याम्यपराहृतं च नो स्वादयिष्यामीति चतुर्थः ४ । इत्येवं चतुर्णामभिग्रहाणामन्यतरमभिग्रहं गृह्णीयात् , अथवा एतेषामेवाद्यानां त्रयाणां भङ्गानामेकपदेनैव कश्चिदभिग्रहं गृह्णी NAGACANCAR ~579~# Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) "आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [७], मूलं [२२५],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचा- रावृत्तिः (शी०) विमो०८ उद्देशका सूत्रांक [२२५]] ॥२८८॥ दीप अनुक्रम २३८] की यादिति दर्शयितुमाह-यस्य भिक्षोरेवंभूतोऽभिग्रहविशेषो भवति, तद्यथा-अहं च खलु तेन यथाऽतिरिक्तेन-आत्मपरिभोगाधिकेन यथैषणीयेन यत्तेषां प्रतिमाप्रतिपन्नानामेषणीयमुक्तम् , तद्यथा-पञ्चसु प्राभृतिकासु अग्रहः द्वयोरभिग्रहः तथा यथापरिगृहीतेनात्मार्थ स्वीकृतेनाशनादिना निर्जरामभिकाय साधम्मिकस्य वैयावृत्यं कुर्याद्, यद्यपि ते प्रतिमाप्रतिपन्नत्वादेकत्र न भुञ्जते तथाप्येकाभिग्रहापादितानुष्ठानत्वात्साम्भोगिका भण्यन्ते, अतस्तस्य समनोजस्य करणायउपकरणार्थं वैयावृत्यं कुर्यामित्येवंभूतमभिग्रहं कश्चिद्बाति । तथाऽपरं दर्शयितुमाह-वाशब्दः पूर्वस्मात्पक्षान्तरमाह| अपिशब्दः पुनःशब्दार्थे, अहं वा पुनस्तेन यधातिरिक्तेन यथैषणीयेन यथापरिगृहीतेनाशनेन ४ निर्जरामभिकाक्ष्य सांधम्मिकैः क्रियमाणं वैयावृत्त्यं स्वादयिष्यामि-अभिलषिष्यामि, यो वाऽन्यः साधम्मिकोऽन्यस्य करोति तं चानुमोदयिष्यामि-यथा सुष्टु भवता कृतमेवंभूतया वाचा, तथा कायेन च प्रसन्नदृष्टिमुखेन तथा मनसा चेति, किमित्येवं करोति लापविकमित्यादि, गतार्थ ॥ तदेवमन्यतराभिग्रहवान् भिक्षुरचेल: सचेलो वा शरीरपीडायां सत्यामसत्यां वा आयुःशेषतामवगम्योद्यतमरणं विदध्यादिति दर्शयितुमाह जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-से गिलामि खलु अहं इमम्मि समए इमं सरीरगं अणुपुट्वेणं परिवहित्तए, से अणुपुट्वेणं आहारं संवहिज्जा २ कसाए पयणुए किच्चा समाहियच्चे फलगावयट्ठी उट्ठाय भिक्खू अभिनिव्वुडच्चे अणुपविसित्ता गाम वा नगरं ॥२८८॥ ~580~# Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२२६] दीप अनुक्रम [२३९] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [७], मूलं [२२६],निर्युक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः वा जाव रायहाणि वा तणाई जाइज्जा जाव सन्धरिजा, इत्थवि समए कार्य च जोगं च ईरियं च पञ्चकखाइजा, तं सच्चं सच्चावाई ओए तिने छिन्नकहकहे आइयट्टे अाईए चिचाणं भेउरं कायं संविहुणिय विरूवरूवे परीसहोवसग्गे अस्सि विस्संभणाए भैरवमचिन्ने तत्थवि तस्स कालपरियाए, सेवि तत्थ विअन्तिकारए, इच्चेयं विमोहाय - यणं हियं सुहं खमं निस्सेसं आणुगामियं तिबेमि ( सू० २२६ ) ८-७ ॥ णमिति वाक्यालङ्कारे, यस्य भिक्षोरेवंभूतो वक्ष्यमाणोऽभिप्रायो भवति, तद्यथा ग्लायामि खल्वहमित्यादि यावतृणानि संस्तरेत्, संस्तीर्य च तृणानि यदपरं कुर्यात्तदाह--अत्रापि समये अवसरे न केवलमन्यत्रानुज्ञाप्य संस्तारकमारुह्य सिद्धसमक्षं स्वत एव पञ्चमहात्रतारोपणं करोति, ततश्चतुर्विधमप्याहारं प्रत्याचष्टे, ततः पादपोपगमनाय कायं च शरीरं प्रत्याचक्षीत, तद्योगं च-आकुश्शनप्रसारणोन्मे निमेषादिकम्, तथेरणमीर्या तां च सूक्ष्मां कायवारगतां मनोगतां वाडप्रशस्तां प्रत्याचक्षीत, तच्च सत्यं सत्यवादीत्याद्यनन्तरोद्देशकवन्नेयम् । इतिब्रवीमिशब्दावपि क्षुण्णार्थाविति विमोक्षाध्ययनस्य सप्तमोद्देशकः समाप्तः ८-७ ॥ Etication Intimanal For Pantry Use Onl ~581~# Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [ २४० ] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ २८९ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [८], मूलं [ २२६ / गाथा - १], निर्युक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः उक्तः सप्तमोद्देशकः, साम्प्रतमष्टम आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरोद्देशकेषु रोगादिसम्भवे कालपर्यायागतं परिज्ञेङ्गितमरणपादपोपगमनविधानमुक्तम्, इह तु तदेवानुपूर्वीविहारिणां कालपर्यायागतमुच्यते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रमुच्यते अनुष्टुप् ॥ अणुपुवेण विमोहाई, जाई धीरा समासज्ज । वसुमन्तो मइमन्तो, सव्वं नच्चा अलि ॥ १ ॥ दुविपि विइत्ता णं, बुद्धा धम्मस्स पारगा । अणुपुब्बीइ सङ्खाए, आरम्भाओ (य) तिउहई ॥ २ ॥ कसाए पयणू किच्चा, अप्पाहारे तितिक्खए । अह भिक्खू गिलाइजा, आहारस्सेव अन्तियं ॥ ३ ॥ जीवियं नाभिकाङ्क्षिज्जा, मरणं नोवि पत्थए । दुहओऽवि न सज्जिज्जा, जीविए मरणे तहा ॥ ४ ॥ आनुपूर्वी - क्रमः, तद्यथा- प्रव्रज्याशिक्षा सूत्रार्थग्रहणपरिनिष्ठितस्यैका कि बिहारित्वमित्यादि, यदिवा आनुपूर्वी-संलेखनाक्रमश्चत्वारि विकृष्टानीत्यादि तथा आनुपूर्व्या यान्यभिहितानि कानि पुनस्तानि ? - ' विमोहानि' विगतो मोहो येषु येषां वा येभ्यो वा तानि तथा-भक्तपरिज्ञेङ्गितमरणपादपोपगमनानि यान्येवंभूतानि यथाक्रममायातानि धीराः - अक्षोभ्याः समासाद्य प्राप्य वसु-द्रव्यं संयमस्तद्वन्तो वसुमन्तः, तथा मननं मतिः- हेयोपादेयहानोपादानाध्यवसायस्तद्वन्तो मतिमन्तः, तथा 'सर्व' कृत्यमकृत्यं च ज्ञात्वा यद्यस्य वा भक्तपरिज्ञानादिकं मरणविधानमुचितं धृतिसंहननाद्यपेक्षयाऽनन्यस Jatry Estutation International अष्टम अध्ययने अष्टम उद्देशक: 'अनशन-मरण' आरब्धः, For Prana & Private Only ~582~# विमो० ८ उद्देशका ॥ २८९ ॥ wintimatturary.org Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [८], मूलं [२२६/गाथा-१],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: दृशम्-अद्वितीयम् , सर्व ज्ञात्वा समाधिमनुपालयेदिति ॥ १॥ किं च-द्वे विधे प्रकारावस्येति द्विविधं तपो बाह्यमभ्यन्तरं च, तद्विदित्वा-आसेव्य यदिवा मोक्षाधिकारे विमोक्तव्यं द्विविधं, तदपि बाह्य शरीरोपकरणादि आन्तरं रागादि, तद्धेयतया विदित्वा त्यक्त्वेत्यर्थः, हेयपरित्यागफलत्वात् ज्ञानस्य, 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे, के विदित्वा ?-'बुद्धा' अवगततत्त्वा धर्मास्य-श्रुतचारित्राख्यस्य पारगाः-सम्यग्वेत्तारः, ते बुद्धा धर्मस्वरूपवेदिनः 'आनुपूळ प्रव्रज्यादिक्रमेण संयममनुपाल्य मम जीवतः कश्चिद्गुणो नास्तीत्यतः शरीरमोक्षावसरः प्राप्तः तथा कस्मै मरणायालमहमित्येवं 'संख्याय' ज्ञात्वा, आरम्भणमारम्भः-शरीरधारणायानपानाद्यन्वेषणात्मकस्तस्मात् त्रुश्यति-अपगच्छतीत्यर्थः, सुब्ब्यत्ययेन पञ्चम्यर्थे चतुर्थी, पाठान्तरं वा 'कम्मुणाओ तिअट्टई कर्माष्टभेदं तस्मात् त्रुटयिष्यतीति त्रुट्यति 'वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वेPikh०३-३-१३१)त्यनेन भविष्यत्कालस्य वर्तमानता॥२॥ स चाभ्युद्यतमरणाय संलेखनां कुर्वन् प्रधानभूतां भावसंलेखना कुर्यादित्येतद्दर्शयितुमाह-कषः-संसारस्तस्यायाः कषायाः क्रोधादयश्चत्वारस्तान् प्रतनून कृत्वा ततो यत्किञ्चनाश्नीयात् , सातदपि न प्रकाममिति दर्शयति-'अल्पाहारः स्तोकाशी षष्ठाष्टमादि संलेखनाक्रमायातं तपः कुर्वन् यत्रापि पारयेत्तत्राप्यल्प-14 मित्यर्थः, (अल्पाहारतया च क्रोधोद्भवः स्यादतस्तदुपशमो विधेय) इति दर्शयति-तितिक्षते-असदृशजनादपि दुर्भाषि४ तादि क्षमते, रोगात वा सम्यक् सहत इति, तथा च संलेखनां कुर्वन्नाहारस्याल्पतया 'अर्थ'त्यानन्तर्ये 'भिक्षुः' मुमुक्षुः 'ग्लायेत्' आहारेण विना ग्लानतां ब्रजेत् , क्षणे मूच्र्छन्नाहारस्यैवान्तिक-पर्यवसानं ब्रजेदिति, चत्वारि विकृष्टानीत्यादि संलेखनादन विहायाशनं विदध्यादित्यर्थः, यदिवा ग्लानतामुपगतः सन्नाहारस्यान्तिक-समीपं न ब्रजेत् , तथाहि दीप अनुक्रम [२४३] For F un Maanetkinary.org ~583~# Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक ||५|| दीप अनुक्रम [२४४] श्रीभाचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ २९० ॥ ४ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [८], मूलं [ २२६ / गाथा - ५], निर्युक्तिः [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र- [ ०९] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः आहारयामि तावत्कतिचिद्दिनानि पुनः संलेखनाशेषं विधास्येऽहमित्येवं नाहारान्तिकमियादिति ॥३॥ किं च-तत्र संलेखनायां व्यवस्थितः सर्वदा वा साधुर्जीवितं प्राणधारणलक्षणं नाभिकाङ्गेत्, नापि क्षुद्वेदनापरीषहमनधिसहमानो मरणं प्रार्थयेद् 'उभयतोऽपि जीविते मरणे वा न सङ्गं विदध्यात् जीविते भरणे तथा ॥४॥ किं भूतस्तर्हि स्यादित्याहमज्झत्थ निज्जरापेही, समाहिमणुपालए । अन्तो बहिं विऊस्सिज, अज्झत्थं सुद्धसए ॥ ५ ॥ जं किंचुवकमं जाणे, आऊखेमस्समप्पणो । तस्सेव अन्तरद्धाए, खिष्पं सिक्खिज्ज पण्डिए ॥ ६ ॥ गामे वा अदुवा रपणे, थंडिलं पडिलेहिया । अप्पपाणं तु विन्नाय, ताई संथ मुणी ॥ ७ ॥ अणाहारो तुयट्टिज्जा, पुट्ठो तत्थऽहियासए । नाइवेलं उवचरे, माणुस्सेहि विपुटुवं ॥ ८ ॥ रागद्वेषयोर्मध्ये तिष्ठतीति मध्यस्थः, यदिवा जीवितमरणयोर्निराकाङ्क्षतया मध्यस्थो निर्जरामपेक्षितुं शीलमस्येति निर्जरापेक्षी, स एवंभूतः समाधिं मरणसमाधिमनुपालयेत् - जीवितमरणाशंसारहितः कालपर्यायेण यन्मरणमापद्यते तत् समाधिस्थोऽनुपालयेदिति भावः । अन्तः कषायान् बहिरपि शरीरोपकरणादिकं व्युसृज्यात्मन्यध्यध्यात्मम्-अन्तःकरणं तच्छुद्धं सकलद्वन्द्वोपरमाद्विस्रोतसिकारहितमन्वेषयेत् - प्रार्थयेदिति ॥ ५ ॥ किंचउपक्रमणमुपक्रमः - उपायस्तं यं कञ्चन जानीत, कस्योपक्रमः १ – ' आयुः क्षेमस्य' आयुषः क्षेमं सम्यकूपालनं तस्य, Jan Education intamanal For Prana Prato Use Only ~584~# विमो० ८ उद्देशका ॥ २९० ॥ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [८], मूलं [२२६/गाथा-८],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: *** RSAC * *** दीप अनुक्रम [२४७] कस्य सम्बन्धि तदायुः-आत्मनः, एतदुक्तं भवति-आत्मायुषो यं क्षेमप्रतिपालनोपाय जानीत तं क्षिप्रमेव शिक्षेत्-व्यापारयेत् पण्डितो-बुद्धिमान्, 'तस्यैव' संलेखनाकालस्य 'अन्तरद्धाए'त्ति अन्तरकालेऽर्द्धसंलिखित एव देहे देही यदि कश्चित् वातादिक्षोभात् आतङ्क आशुजीवितापहारी स्यात् ततः समाधिमरणमभिकाश्चन् तदुपशमोपायमेषणीयविधिनाऽभ्यङ्गादिकं विदध्यात्, पुनरपि संलिखेत् , यदिवाऽऽत्मनः आयुःक्षेमस्य-जीवितस्य यत्किमप्युपक्रमणम्-आयुःपुद्गलानां संवर्तनं समुपस्थितं तज्जानीत, ततस्तस्यैव संलेखनाकालस्य मध्येऽव्याकुलितमतिः क्षिप्रमेव भक्तपरिज्ञानादिकं शिक्षेत -आसेवेत पण्डितो-बुद्धिमानिति ॥ ६॥ संलेखनाशुद्धकायश्च मरणकालं समुपस्थितं ज्ञात्वा किं कुर्यादित्याह-ग्रामःप्रतीतो, ग्रामशब्देन चात्र प्रतिश्रय उपलक्षितः, प्रतिश्रय एव स्थण्डिलं-संस्तारकभुवं प्रत्युपेक्ष्य, तथा अरण्ये वेत्यनेन चोपाश्रया(हिरित्येतदुपलक्षितम् , उद्याने गिरिगुहायामरण्ये वा स्थण्डिलं प्रत्युपेक्ष्य विज्ञाय चाल्पप्राण-प्राणिरहितम् ,ग्रामादियाचितानि प्रासुकानि दर्भादिमयानि तृणानि संस्तरेत् 'मुनिः' यथोचितकालस्य वेत्तेति॥७॥संस्तीर्य च तृणानि यत्कुर्या-13 त्तदाह-न विद्यते आहारोऽस्येत्यनाहारः तत्र यथाशक्ति यथासमाधानं च त्रिविधं चतुर्विधं वाऽऽहारं प्रत्याख्यायारोपितपञ्चमहानतः क्षान्त:-क्षामितसमस्तप्राणिगणः समसुखदुःखः आवर्जितपुण्यप्राग्भारतया मरणादविभ्यत् संस्तारके त्वग्वर्त्तनं । कुर्यात् , तत्र च स्पृष्टः परीषहोपसर्गस्त्यक्तदेहतया सम्यक्तानध्यासयेद्-अधिसहेत, तत्र मानुष्यैरनुकूलप्रतिकूलैः परीपहो-४ || पसगैः स्पृष्टो-व्याप्तो नातिवेलमुपचरेत् न मर्यादोलनं कुर्यात्, पुत्रकलत्रादिसम्बन्धानातेध्यानवशगो भूयात् , प्रतिकूलैर्वा परीषहोपसगर्ने क्रोधनिनः स्यादिति ॥ ८॥ एतदेव दर्शयितुमाह *** * * * For ~585~# Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [८], मूलं [२२६/गाथा-९],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: विमो०८ उद्देशका * श्रीआचा- संसप्पगा य जे पाणा, जे य उडमहाचरा । भुञ्जन्ति मंससोणियं, न छणे न पमराजवृत्तिः | जए ॥९॥ पाणा देहं विहिंसन्ति, ठाणाओ नवि उन्भमे । आसवेहिं विवित्तेहिं, (शी०) तिप्पमाणोऽहियासए ॥ १०॥ गन्थेहिं विवित्तेहिं, आउकालस्स पारए। पग्गहियतरगं ॥२९ ॥ चेयं, दवियस्स वियाणओ ॥ ११ ॥ अयं से अवरे धम्मे, नायपुत्तेण साहिए।आयवर्ज पडीयारं, विजहिजा तिहा तिहा ॥ १२॥ संसर्पन्तीति संसर्पकाः-पिपीलिकाक्रोष्ट्रादयो ये प्राणा:-प्राणिनो ये चोर्द्धचरा-गृध्रादयो ये चापश्चराः बिलवासिवात्सादयस्त एवंभूता नानाप्रकाराः 'भुञ्जन्ते' अभ्यवहरन्ति मांसं सिंहव्याघ्रादयः तथा शोणितं मशकादयः, तांश्च प्राणिन आहारार्थिनः समागतानवन्तिसुकुमारवद्धस्तादिभिन्न क्षणुयात्-न हन्यात् न च भक्ष्यमाणं शरीरावयवं रजोहरणादिना प्रमार्जयेदिति ॥९॥ किं चस्पाणा:-पाणिनो देहं मम (वि)हिंसन्ति, न तु पुननिदर्शनचारित्राणीत्यतस्त्यक्तदेहाशिनस्तानन्तरायभयान्न निषेधयेत्, तस्माच्च स्थानान्नायुद्धमेत्-नान्यत्र यायात्, किंभूतः सन् १ आश्रवैः-प्राणातिपातादिभिर्विषयकषायादिभिर्वा विविक्तैः पृथग्भूतैरविद्यमानैः शुभाध्यवसायी तैर्भक्ष्यमाणोऽKाप्यमृतादिना तृष्यमाण इव सम्यक्तत्कृतां वेदनां तैस्तप्यमानो वाऽध्यासयेद-अधिसहेत ॥ १०॥ किं च ग्रन्थैः सबाह्याभ्यन्तरैः शरीररागादिभिः 'विविक्तैः' त्यक्तैः सद्भिग्रन्थैर्वा-अङ्गानङ्गप्रविष्टैरात्मानं भावयन् धर्मशुक्ल दीप अनुक्रम [२४८] * * ~586-23 Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [८], मूलं [२२६/गाथा-१२,नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्राक ||१२|| दीप अनुक्रम [२५१] CATARNARSS ध्यानान्यतरोपेतः 'आयुःकालस्य' मृत्युकालस्य 'पारगः' पारगामी स्यात्-यावदन्त्या उच्छासनिश्वासास्तावत्तद्विदध्याद, एतन्मरणविधानकारी सिद्धिं त्रिविष्टपं वा प्रामुयादिति गतं भक्तपरिज्ञामरणं । साम्प्रतमिङ्गितमरणं श्लोका दिनोच्यतेतद्यथा-'प्रगृहीततरकं चेदं' प्रकर्षण गृहीततरं प्रगृहीततरं तदेव प्रगृहीततरकम् , 'इद'मिति वक्ष्यमाणमिङ्गितमरणम्, एतद्धि भक्तप्रत्याख्यानात्सकाशानियमेन चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानादिमितप्रदेशसंस्तारकमात्रविहाराभ्युपगमाच विशिष्ट तरधृतिसंहननायुपेतेन प्रकर्षण गृह्यत इति, कस्यैतद्भवति ?-द्रव्यं-संयमः स विद्यते यस्यासी द्रविकस्तस्य 'विजामानतो' गीतार्थस्य जघन्यतोऽपि नवपूर्वविशारदस्य भवति, नान्यस्येति, अत्रापीनितमरणे यत्संलेखनातृणसंस्तारादिकमभिहितं तत्सर्व वाच्यम् ॥ ११ ॥ अयमपरो विधिरित्याह-'अयं स' इति सोऽयम् 'अपरः' अन्यो भक्तप्रत्याख्यानाद्भिन्न इनितमरणस्य 'धर्मो विशेषो 'ज्ञातपुत्रेण' वीरवर्द्धमानस्वामिना सुवाहितः-उपलब्धः स्वाहितः, अस्य चानन्तरं वक्ष्यमाणत्वात्प्रत्यक्षासन्नवाचिनेदमाऽभिधानं, अत्रापीङ्गितमरणे प्रत्यादिको विधिः संलेखना च पूर्वबद्रष्टव्या, तथोपकरणादिकं हित्वा स्थण्डिलं प्रत्युपेक्ष्यालोचितप्रतिक्रान्तः पञ्चमहाव्रतारूढश्चतुर्विधमाहारं प्रत्याख्याय संस्तारके तिष्ठति, अयमत्र विशेष:-आत्मवर्ज प्रतिचारम्-अङ्गव्यापार विशेषेण जह्यात्-त्यजेत् 'त्रिविधत्रिविधेने'ति मनोवाकायैः कृतकारितानुमतिभिः स्वव्यापारव्यतिरेकेण परित्यजेत् , स्वयमेव चोद्वर्तनपरिवर्तनं कायिकायोगादिक || विधत्ते ॥१२॥ सर्वथा प्राणिसंरक्षणं पौनःपुन्येन विधेयमिति दर्शयितुमाह हरिपसु न निवजिज्जा, थण्डिलं मुणिया सए । विओसिज अणाहारो, पुटो तत्था कष्टकर ~587~# Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप अनुक्रम [२५२] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ।। २९२ ।। “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [८], मूलं [ २२६ /गाथा १३], निर्युक्तिः [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र - [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः हिree ॥ १३ ॥ इन्दिएहिं गिलायन्तो, समियं आहरे मुणी । तहावि से अगरिहे, अचले जे समाहिए ॥ १४ ॥ अभिक्कमे पडिक्कमे सङ्कुचए पसारए । कायसाहारट्टाए, इत्थं वावि अयणो ॥ १५ ॥ परिकमे परिकिलन्ते, अदुवा चिट्ठे अहायए । ठाणे ण परिकिलन्ते, निसीइज्जा य अंतसो ॥ १६ ॥ हरितानि दूर्वादीनि तेषु न शयीत स्थण्डिलं मत्वा शयीत तथा सबाह्याभ्यन्तरमुपधिं व्युत्सृज्य त्यक्त्वाऽनाहारः सन् स्पृष्टः परीष होपसर्गः 'तत्र' तस्मिन् संस्तारके व्यवस्थितः सन् सर्वमध्यासयेद् अधिसहेत ॥ १३ ॥ किं च--- सानाहारतया मुनिलायमान इन्द्रियैः शमिनो भावः शमिता समता तां साम्यं वा आत्मन्याहारयेद् व्यवस्था|पयेत् नार्त्तध्यानोपगतो भूयादिति, यथासमाधानमास्ते, तद्यथा-सङ्कोचननिर्विण्णो हस्तादिकं प्रसारयेत् तेनापि निर्विण्ण उपविशेत् यथेङ्गितदेशे सञ्चरेद्वा, तथाप्यसौ स्वकृतचेष्टत्वादग एव, किंभूत इति दर्शयति- अचलो यः समाहितः, यद्यप्यसाविङ्गितप्रदेशे स्वतः शरीरमात्रेण चलति तथाप्यभ्युद्यतमरणान्न चलतीत्यचः सम्यगाहितं-व्यवस्थापितं धर्मध्याने शुक्लध्याने वा मनो येन स समाहितः, भावाचलितवेङ्गितप्रदेशे चङ्क्रमणादिकमपि कुर्यादिति ॥ १४ ॥ एतद्दर्शयितुमाह - प्रज्ञापकापेक्षयाऽभिमुखं क्रमणमभिक्रमणं, संस्तारकाद्गमनमित्यर्थः, तथा प्रतीपं पश्चादभिमुखं क्रमणं प्रतिक्रमणमागमनमित्यर्थः, नियतदेशे गमनागमने कुर्यादितियावत् तथा निष्पन्नो निषण्णो वा यथासमाधानं भुजादिकं सङ्को Jan Education intamal For Porn Presto Use Onl ~588~# विमो० ८ उद्देशक ॥ २९२ ॥ www.janbay.org Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [८], मूलं [२२६/गाथा-१६],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक ||१६|| चियेत्मसारयेद्वा, किमर्थमेतदिति चेद्दर्शयति-कायस्य-शरीरस्य प्रकृतिपेलवस्य साधारणार्थ, कायसाधारणाच तसीडाकृजतायुष्कोपक्रमपरिहारेण स्वायुःस्थितिक्षयान्मरणं यथा स्यात्, न पुनस्तेषां महासत्त्वतया शरीरपीडोत्थापितचित्तस्यान्य थाभावः स्यादिति भावः, ननु च निरुद्धसमस्तकायचेष्टस्य शुष्ककाष्ठवदचेतनतया पतितस्य प्रचुरतरपुण्यप्राग्भारोऽभिहित इति, नायं नियमः, संविशुद्धाध्यवसायतया यथाशक्यारोपितभारनिर्वाहिणः तत्तुल्य एव कर्मक्षयः अत्राप्यसौ वाशब्दात्तत्र वा पादपोपगमनेऽचेतनवत्सक्रियोऽपि निष्क्रिय एव, यदिवा 'अत्रापि' इङ्गितमरणेऽचेतनवच्छुष्ककाष्ठवत्सक्रियारहितो यथा पादपोपगमने तथा सति सामर्थ्य तिछेद् ॥१५॥ एतत्सामयाभावे चैतत्कुर्यादित्याह यदि निषण्णस्यानिषण्णस्य वा गात्रभङ्गः स्यात् , ततः परिकामेत्-चकम्याद् यथानियमिते देशेऽकुटिलया गत्या गतागतानि कुर्यात् , तेनापि श्रान्तः सन् अथवोपविष्टस्तिछेत्, 'यथावतो' यथाप्रणिहितगात्र इति, यदा पुनः स्थानेनापि परिक्कममियात् तद्यथा-निषण्णो वा पर्यक्रेण वा अर्द्धपयरूण वोत्कुटुकासनो वा परिताम्यति तदा निषण्णः स्यात्, तत्राप्युत्तानको वा पार्श्वशायी वा दण्डायतो वा लगण्डशायी वा यथा समाधानमवतिष्ठेत् ॥ १६ ॥ किंच आसीणेऽणेलिसं मरणं, इन्दियाणि समीरए । कोलावासं समासज, वितहं पाउरे सए ॥ १७ ॥ जओ वजं समुप्पजे, न तत्थ अवलम्बए । तउ उक्कसे अप्पाणं, फासे तत्थऽहियासए ॥ १८॥ अयं चाययतरे सिया, जो एवमणुपालए। सव्वगायनिरो दीप अनुक्रम [२५]] For www.janetkinary.org ~589~# Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [८], मूलं [२२६/गाथा-१९],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचाराङ्गवृत्तिः HI (शी०) सूत्रांक ||१९|| ॥२९३॥ दीप अनुक्रम [२५८] हेऽवि, ठाणाओ नवि उब्भमे ॥ १९ ॥ अयं से उत्तमे धम्मे, पुवटाणस्स पग्गहे । विमो०८ अचिरं पडिलेहिता, विहरे चिट्र माहणे ॥२०॥ दाउद्देशकार 'आसीनः' आश्रितः किं तत्?-मरणम्, किंभूतम्-'अनीदृशम्' अनन्यसदृशमितरजनदुरध्यवसेयम् , तथाभू-न Pातच किं कुर्यादिति दर्शयति-इन्द्रियाणीष्टानिष्टस्वविषयेभ्यः सकाशाद्रागद्वेषाकरणतया सम्यगीरयेत-प्रेरयेदिति, कोला घुणकीटकास्तेषामावासः कोलावासस्तमन्तघुणक्षतमुद्देहिकानिचितं वा 'समासाद्य'लब्ध्वा तस्माद्यद्वितथम्-आगन्तुकतदुत्थजन्तुरहितमवष्टम्भनाय प्रादुरेषयेत्-प्रकटं प्रत्युपेक्षणयोग्यमशुपिरमन्वेषयेत् ॥१७॥ इङ्गितमरणे चोदनामभिधाय यनिषेध्यं तदर्शयितुमाह-'यतो' यस्मादनुष्ठानादवष्टम्भनादेर्वज्रवद्वज्रं-गुरुत्वात्कर्म अवयं वा-पापं वा तत्समुत्पद्येतप्रादुष्प्यात्, न तत्र घुणक्षतकाष्ठादाववलम्बेत-नावष्टम्भनादिकां क्रियां कुर्यात् , तथा 'ततः' तस्मादुत्क्षेपणापक्षेपणादेः काययोगादुष्पणिहितवाग्योगादार्सध्यानादिमनोयोगाच्चावद्यसमुत्पत्तिहेतोरात्मानमुत्कर्षेद्-उकामयेत्, पापोपादानादात्मानं| निवर्तयेदितियावत्, तत्र च धृतिसंहननाद्युपतोऽप्रतिकर्मशरीरः प्रवर्धमानशुभाध्यवसायकण्डकोऽपूर्वापूर्वपरिणामारोही सर्वज्ञप्रणीतागमानुसारेण पदार्थस्वरूपनिरूपणाहितमतिः अन्यदिदं शरीरं त्याज्यमित्येवंकृताध्यवसायः सर्वान् स्पर्शानदुःखविशेषाननुकूलप्रतिकूलोपसर्गपरीषहापादितान् तथा वातपित्तश्लेष्मद्वन्द्वतरप्रोद्भूतान् कर्मक्षयायोद्यतो मयैवैतदवयं ॥२९३॥ |कृतं सोढव्यं चेत्येतदध्यवसायी अध्यासयेदू-अधिसहेत, यतो यन्मया त्यक्तं शरीरकमेतदेवोपद्रवन्ति न पुनर्जिघृक्षितं | For the www.lanetkinary.org ~590~# Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [८], मूलं [२२६/गाथा-२०],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [२५९] धर्माचरणमित्याकलय्य सर्वपीडासहिष्णुर्भवेदिति ॥ १८॥ गत इङ्गितमरणाधिकारः, साम्प्रतं पादपोपगमनमाश्रित्याहअनन्तरमभिधास्यमानत्वाद्योऽयं प्रत्यक्षो मरणविधिः, स चाऽऽयततरो, (न केवलं भक्तपरिज्ञाया इङ्गितमरणविधिरायततरः, अयं च तस्मादायततर इति चशब्दार्थः, आयततर इत्याडभिविधौ सामस्त्येन यत आयतः, अयमनयोरतिशयेनायत आयततरः, यदिवाऽयमनयोरतिशयेनातो-गृहीत आत्ततरः, यलेनाध्यवसित इत्यर्थः, तदेवमयं पादपोपगमनमरणविधिरात्ततरो-दृढतरः स्याद्भवेत् , अत्रापि यदिङ्गितमरणे प्रत्रग्यासलेखनादिकमुक्तं तत्सर्वं द्रष्टव्यमिति, यद्यसावायततरः ततः किमिति दर्शयतिन्यो भिक्षुः 'एवम् उक्तविधिनैव पादपोपगमनविधिमनुपालयेत् 'सर्वगात्रनि8 रोधेऽपि' उत्तप्यमानकायोऽपि मूर्छन्नपि मरणसमुद्घातगतो वा भक्ष्यमाणमांसशोणितोऽपि क्रोष्टुगृद्रपिपीलिकादि-18 भिर्महासत्त्वतयाऽऽशंसितमहाफलविशेषः संस्तस्मात्स्थानात्-प्रदेशात् द्रव्यतो भावतोऽपि शुभाध्यवसायस्थानान्न व्युद्धमेत्-न स्थानान्तरं यायात् ॥ १९॥ किं च-'अय' मित्यन्तःकरणनिष्पन्नत्वात्प्रत्यक्षः 'उत्तमः' प्रधानो मरणविधिः सर्वोत्तरत्वाद्धर्मो-विशेषः पादपोपगमनरूपो मरणविशेष इति, उत्तमत्वे कारणं दर्शयति-पूर्वस्थानस्य प्रग्रह' इति पञ्चम्यर्थे षष्ठी पूर्वस्थानामतपरिज्ञेजितमरणरूपात्मकर्षेण महोत्र पादपोपगमने, प्रगृहीततरमेतदित्यर्थः, तथाहि-अत्र यदिङ्गि तमरणानुमतं कायपरिस्पन्दनं तदपि निषेध्यते अच्छिन्नमूलपादपवन्निश्चेष्टो निष्कियो दह्यमानश्छिद्यमानो या विषमप४ तितो वा तथैवास्ते न तस्मात्स्थानाञ्चलति, चिलातपुत्रवत्, एतदेव दर्शयति-अचिरं स्थानं, तच्च स्थण्डिलं तत्पूर्वविधिना प्रत्युपेक्ष्य तस्मिन् प्रत्युपेक्षिते स्थण्डिले बिहरेदिति, अत्र पादपोपगमनाधिकाराद्विहरणं तद्विधिपालनमुक्तं, सच्च स्थाना For ~591~# Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [८], मूलं [२२६/गाथा-२०],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार' मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत श्रीआचाराजवृत्तिः (शी०) सूत्रांक ||२१|| ॥२९४॥ दीप अनुक्रम [२६०] स्थानान्तरासंक्रमणम्, एतदेव च दर्शयति-तिष्ठेत् सर्वगात्रनिरोधेऽपि, स्थानान्तरासङ्घमणं कुर्यादित्यर्थः, कोऽसौ ?-13 विमो०८ माहणे'त्ति साधुः, स हि निषण्णोधनिषण्ण ऊर्ध्वस्थितो वा निष्पतिका यद्ययानिक्षिप्तमङ्गमचेतन इव न चालयेदितियावत् ॥२०॥ एतदेव प्रकारान्तरेण दर्शयितुमाह उद्देशका अचित्तं तु समासज, ठावए तत्थ अप्पगं । वोसिरे सब्बसो कायं, न मे देहे परीसहा ॥ २१ ॥ जावज्जीवं परीसहा, उवसग्गा इति सङ्ख्या । संवुडे देहभेयाए, इय पन्नेऽहियासए ॥ २२ ॥ भेउरेसु न रजिज्जा, कामेसु बहुतरेसुवि । इच्छा लोभन सेविजा, धुववन्नं सपेहिया ॥ २३ ॥ सासएहिं निमन्तिजा, दिव्वमायं न सरहे । तं पडिबुज्झ माहणे, सव्वं नूमं विहृणिया ॥२४॥ न विद्यते चित्तमस्मिन्नित्यचित्तम्-अचेतनं जीवरहितमित्यर्थः, तच्च स्थण्डिलं फलकादि वा 'समासाद्य' लब्ध्वा फलकेऽपि समर्थः कश्चित्काष्ठे वाऽवष्टभ्य तत्रात्मानं स्थापयेत् , व्यवस्थाप्य च त्यक्तचतुर्विधाहारो मेरुरिव निष्पकम्पः कृता लोचनादिपरिका गुरुभिरनुज्ञातो व्युत्सृजेत् , 'सर्वशः' सर्वात्मना 'कार्य'देहं, व्युत्सृष्टदेहस्य च यदि केचन परीजापहोपसगोंः स्युस्ततो भावयेत् 'न मे देहे परीषहाः' मत्सम्बन्धी देह एव न भवति, परित्यक्तत्वात्, तदभावे कुतः||॥२९४॥ हा परीषहाः १, यदिवा न मम देहे परीपहाः, सम्यकरणेन सहमानस्य तत्कृतपीडयोद्धेगाभावात्, अतः परीषहान् | ~592~# Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [२६३] श्रा. सू. ५० “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [८], मूलं [ २२६ / गाथा - २४ ], निर्युक्तिः [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Jain Estication Intemationa कर्म्मशत्रुजय सहायानिति कृत्वाऽपरीषहानेव मन्यते ॥ २१ ॥ ते पुनः कियन्तं कालं सोढव्या इत्याशङ्कान्युदासार्थमाह'यावज्जीवं' यावत्प्राणधारणं तावत्सरीषहा उपसर्गाश्च सोढव्या इत्येतत् 'सङ्ख्याय' ज्ञात्वा तानध्यासयेदिति, यदिवा न मे यावज्जीवं परीषहोपसर्गा इत्येतत्सङ्ख्याय-ज्ञात्वाऽधिसहेत, यदिवा यावज्जीवमिति यावदेव जीवितं तावत्पपहोपसर्गजनिता पीडेति, तत्पुनः कतिपयनिमेषाऽवस्थायि एतदवस्थस्य ममात्यन्तमल्पमेवेत्यत एतत्सङ्ख्याय - ज्ञात्वा संवृतो यथानिक्षिप्तत्यतगात्रो 'देहभेदाय' शरीरत्यागायोत्थित इतिकृत्वा 'प्राज्ञः' उचितविधानवेदी, यद्यत्कायपीडाकार्यपतिष्ठते तत्तत्सम्यगधिसहेत ॥ २२ ॥ एवंभूतं च साधुमुपलभ्य कश्चिद्राजादिर्भोगैरुपनिमन्त्रयेत् तत्प्रतिविधानार्थमाह| भेदनशीला भिदुराः शब्दादयः कामगुणास्तेषु प्रभूततरेष्वपि 'न रज्येत्' न रागं यायात्, पाठान्तरं वा 'कामेसु बहुलेसुवि' इच्छामदनरूपेषु कामेषु बहुलेषु अनल्पेष्वपीत्यर्थः, यद्यपि राजा राज्यकन्यादानादिनोपप्रलोभयेत् तथापि तत्र न गार्घ्यमियात्, तथा इच्छारूपो लोभ इच्छालोभः - चक्रवर्तीन्द्रत्वाद्यभिलाषादिको निदानविशेषस्तमसौ निर्जरापेक्षी न सेवेत, सुरद्भिदर्शनमोहितो बह्मदत्तवन्निदानं न कुर्यादित्यर्थः तथा चागमः - 'इहलोगासंसप्पओगे १ परलोगासंसप्पओगे २ जीवियासंसप्पयोगे ३ मरणासंसप्पयोगे ४ कामभोगासंसप्पयोगे ५ इत्यादि, 'वर्णः' संयमो मोक्षो वा स च सूक्ष्मो दुर्ज्ञेयत्वात्, पाठान्तरं वा- 'धुववन्नमित्यादि, ध्रुवः - अव्यभिचारी स चासौ वर्णश्च ध्रुववर्णस्तं संप्रेक्ष्य ध्रुवां वा शाश्वती यशःकीर्ति पर्यालोच्य कामेच्छालोभविक्षेपं कुर्यादिति ॥ २३ ॥ किं च शाश्वता यावज्जीवमपरिक्षया For Pantry Use Only ~593~# Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [८], मूलं [२२६/गाथा-२४],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत उद्देशकर सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम २६४] श्रीआचा- प्रतिदिनदानाद्वाऽर्थास्तैस्तथाभूतविभवः कश्चिन्निमन्त्रयेत् तत्प्रतिबुध्यस्व यथा शरीरार्थ धनं मृग्यते तदेव शरीरमशाव- | विमो०८ रावृत्तिःमिति तमिति, तथा दिव्यां मायां न श्रद्दधीत, तद्यथा यदि कश्चिद्देवो मीमांसया प्रत्यनीकतया वा भक्त्या वाऽन्यथा वा| (शी०) कौतुकादिना नानदिानतो निमन्त्रयेत्, तां च तत्कृतां मायां न श्रद्दधीत, तथा बुध्यस्व यथा देवमायैषा, अन्यथा कुतोऽयमाकस्मिकः पुरुषो दुर्लभमेतद्रव्यं प्रभूततरमेवंभूते क्षेत्रे काले भावे च दद्यात्, एवं द्रव्यादिनिरूपणया देवमायां ॥२९५॥ बुध्यस्व इति, तथा देवाङ्गना वा यदि दिव्यं रूपं विधाय प्रार्थयेत् तामपि बुध्यस्वेति, 'माहणे'त्ति साधुः 'सर्वम्' अशेष | 'नूमति कर्म मायां वा तत् तां वा 'विधूय' अपनीय देवादिमायां बुध्यस्वेति क्रिया ॥ २४ ॥ किंच सबट्रेहिं अमुच्छिए, आउकालस्स पारए । तितिक्खं परमं नच्चा, विमोहन्नयरं हियं ॥२५॥ तिबेमि ॥ विमोक्षाध्ययनमष्टमं समाप्तम् । उद्देशः ॥ ८-८॥ सर्वे च तेऽर्थाश्च सर्वार्था:-पञ्चप्रकाराः कामगुणास्तत्सम्पादका वा द्रव्यनिचयास्तैस्तेषु वा अमूछितः-अनध्युपपन्नः आयुःकालस्य यावम्मानं कालमायुः संतिष्ठते असी आयुःकालस्तस्य पारम्-आयुष्कपुद्गलानां क्षयो मरणं तद्गच्छतीति पारगः, यथोक्तविधिना पादपोपगमनव्यवस्थितः प्रवर्द्धमानशुभाध्यवसायः स्वायुःकालान्तगः स्यादिति । तदेवं पादपोपगमनविधि परिसमापथ्योपसंहारद्वारेण त्रयाणामपि मरणानां कालक्षेत्रपुरुषावस्थाश्रयणातुल्यकक्षतां पश्चार्डेन दर्शयति- ॥२९५॥ तितिक्षा-परीषहोपसर्गापादितदुःखविशेषसहनं तत्रयाणामपि परम-प्रधानमस्तीति 'ज्ञात्वा' अवधार्य 'विमोहान्यतरं ~594~# Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [८], मूलं [२२६/गाथा-२४],नियुक्ति: [२७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत हित मिति विगतो मोहो येषु तानि विमोहानि-भक्तपरिक्षेङ्गितमरणपादपोपगमनानि तेषामन्यतरत्कालक्षेत्रादिकमाश्रित्य तुल्यफलत्वाद्धितं अभिप्रेतार्थसाधनादतो यथाशक्ति त्रयाणामन्यतरत्तुल्यबलस्वाद्यथावसरं विधेयं, इति अधिकारपरिसमाप्ती बवीमीति पूर्ववत्, नयविचारादिकमनुगतं वक्ष्यमाणं च द्रष्टव्यमिति विमोक्षाध्ययनस्याष्टमोद्देशकः समाप्तः । समाप्त शाच विमोक्षाध्ययनमष्टममिति ॥ ग्रन्थानम् ॥ १०२०॥ सूत्रांक ||२४|| DEE दीप अनुक्रम [२६४] Jain Educatinintamathima www.tandituaryam ~595~# Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [२२६...],नियुक्ति: [२७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत राइवृत्तिः सूत्रांक [२२६] दीप अनुक्रम २६४] श्रीआचा-HS अथोपधानश्रुताख्यं नवममध्ययनम् उपधा०९ उद्दशका१ (शी०) उक्तमध्ययनमष्टमं, साम्प्रतं नवममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तराध्ययनेष्वष्टसु योऽर्थोऽभिहितः स ॥२९६॥ दातीर्थकृता वीरवर्द्धमानस्वामिना स्वत एवाचीर्ण इत्येतनवमेऽध्ययने प्रतिपाद्यते, अनन्तराध्ययनसम्बन्धस्त्वयम्-इहाम्यु चतमरणं त्रिप्रकारमभिहितं, तत्रान्यतरस्मिन्नपि व्यवस्थितोऽष्टाध्ययनार्थविधायिनमतिघोरपरीषहोपसर्गसहिष्णुमाविष्क-3 | तसन्मार्गावतारं तथा घातितपातिचतुष्टयाविर्भूतानन्तातिशयाप्रमेयमहाविषयस्वपरावभासककेवलज्ञानं भगवन्तं श्रीव-| ईमानस्वामिनं समवसरणस्थं सत्वहिताय धर्मदेशनां कुर्वाणं ध्यायेदित्येतातिपादनार्थमिदमध्ययनमुच्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमेऽर्थाधिकारी द्वेधा अध्ययनार्थाधिकार उद्देशार्थाधिकारश्च, तत्राध्ययनार्थाधिकारो लेशतोऽभिहितस्तमेव नियुक्तिकारः स्पष्टतरं विभणिपुराह जो जइया तित्थपरो सो तइया अप्पणो य तित्वम्मि । वण्णेह तवोकम्म ओहाणसुमि अज्झयणे ॥२७॥ यो यदा तीर्थकृदुत्पद्यते स तदाऽऽत्मीये तीर्थे आचारार्धप्रणयनावसानाध्ययने स्वतपःकर्म व्यावर्णयतीत्ययं सर्वतीसार्थकृतां कल्पः, (इह पुनरुपधानश्रुताख्यं चरममध्ययनमभूत् अत उपधान श्रुतमिरयुक्तमिति ॥ किमेकाकारं केवलज्ञानव सर्वतीर्थकृतां तपःकर्मोतान्यथेत्यारेकाव्युदासार्थमाह ॥२९ wwwandltimaryam नवम-अध्ययनं 'उपधानश्रुत' आरब्ध:, ~596~# Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२२६] दीप अनुक्रम [२६४] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ९ ], उद्देशक [-], मूलं [ २२६...], निर्युक्ति: [ २७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सव्वेसिं तवोकम्मं निरुवसग्गं तु वण्णिय जिणाणं । नवरं तु वद्धमाणस्स सोवसग्गं मुणेयव्यं ॥ २७७ ॥ तित्थयरो चनाणी सुरमहिओ सिज्झियब्वय ध्रुवम्मि । अणिगृहियबलविरओ तवोविहाणंमि उज्जमह ॥ किं पुण अबसेसेहिं दुक्खक्खयकारणा सुविहिएहिं । होइ न उज्जमियत्वं सपंचवामि माणुस्से १ ।। २७९ ।। थानार्थम् ॥ अध्ययनार्थाधिकारं प्रतिपाद्योद्देशार्थाधिकारं प्रतिपादयन्नाह- | चरिया १ सिज्जा य २ परीसहाय ३ आयंकिया (ए) चिमिच्छा ४ य । तवचरणेणऽहिगारो चउसुसेसु नायव्वो ॥ २८० ॥ चरणं चर्यत इति वा चर्या - श्रीवीरवर्द्धमानस्वामिनो बिहारः अयं प्रथमोद्देश केऽर्थाधिकारः १, द्वितीयोदेशके त्वयमर्थाधिकारः, तद्यथा शय्या वसतिः सा च यादृग्भगवत आसीत् तादृग्वक्ष्यते २ तृतीये त्वयमर्थाधिकार:- मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः, उपलक्षणार्थत्वादुपसर्गाश्चानुकूलप्रतिकूला वर्द्धमानस्वामिनो येऽभूवन् तेऽत्र प्रतिपा द्यन्ते र चतुर्थे स्वयमर्थाधिकारः, तद्यथा - 'आतङ्किते' क्षुत्पीडायामातङ्कोसत्ती विशिष्टाभिग्रहावाताहारेण चिकित्सेदिति ४, तपश्चरणाधिकारस्तु चतुर्ष्वप्यु देशकेष्वनुयायीति गाथार्थः ॥ निक्षेपत्रिधा - ओघनिष्पन्नो नामनिष्पन्नः सूत्रालापकनिष्पन्नश्च तत्रौघनिष्पन्ने निक्षेपेऽध्ययनं, नामनिष्पन्ने तूपधानश्रुतमिति द्विपदं नाम, तत्रोपधानस्य श्रुतस्य च यथाक्रमं निक्षेपः कर्तव्य इति न्यायादुपधाननिक्षेपचिकीर्षयाऽऽह नामंठवणुवहाणं दव्वे भावे य होइ नायव्वं । एमेव य सुत्तस्सवि निक्खवो चडव्विहो होइ ॥ २८१ ॥ नामोपधानं स्थापनोपधानं द्रव्योपधानं भावोपधानं च श्रुतस्याप्येवमेव चतुर्द्धा निक्षेपः, तत्र द्रव्यश्रुतमनुपयुक्तस्य Jain Estucation Intimanal For Pantry Use Only ~597~# Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२२६] दीप अनुक्रम [२६४] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [२२६...],निर्युक्तिः [२८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा- १ यत् श्रुतं द्रव्यार्थ वा यत् श्रुतं कुप्रावचनिकश्रुतानि चेति द्रव्यश्रुतम्, भावश्रुतं त्वङ्गानङ्गप्रविष्टश्रुतविषयोपयोगः ॥ राङ्गवृत्तिः तत्र सुगमनामस्थापनाव्युदासेन द्रव्याद्युपधानप्रतिपादनायाह (शी०) 2 ॥ २९७ ॥ दव्वहाणं सयणे भाववहाणं तवो चरित्तस्स । तम्हा उ नाणदंसणतवचरणेहिं इहाहिगयं ॥ २८२ ॥ उप-सामीप्येन धीयते - व्यवस्थाप्यत इत्युपधानं द्रव्यभूतमुपधानं द्रव्योपधानं तत्पुनः शय्यादौ सुखशयनार्थ शिरोऽवष्टम्भनवस्तु, 'भावोपधानमिति भावस्योपधानं भावोपधानं, तत्पुनर्ज्ञानदर्शनचारित्राणि तपो वा सबाह्याभ्यन्तरं, तेन हि चारित्रपरिणतभावस्योपष्टम्भनं क्रियते, यत एवं तस्मात् ज्ञानदर्शनतपश्चरणैरिहाधिकृतमिति गाथार्थः ॥ किं पुनः | कारणं चारित्रोपष्टम्भकतया तपो भावोपधानमुच्यते इत्याह जह खलु मइत्थं सुज्झइ उदगाइएहिं दव्वेहिं । एवं भावुवहाणेण सुज्झए कम्ममट्ठविहं ॥ २८३ ॥ 'येथे' त्युदाहरणोपन्यासार्थः यथैतत्तथाऽन्यदपि द्रष्टव्यमित्यर्थः, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे, यथा मलिनं वस्त्रमुदकादिभिर्द्वव्यैः शुद्धिमुपयाति एवं जीवस्यापि भावोपधानभूतेन सबाह्याभ्यन्तरेण तपसा अष्टप्रकारं कर्म्म शुद्धिमुपयातीति ॥ अस्य च कर्मक्षयहेतोस्तपस उपधानश्रुतत्वेनात्रोपात्तस्य 'तत्त्वभेदपर्यायैर्व्याख्ये तिकृत्वा पर्यायदर्शनायाह-यदिवा तपोऽनुष्ठानेनापादिता अवधूननादयः कर्म्मापगमविशेषाः सम्भवन्तीत्यतस्तान् दर्शयितुमाह ओधूणण धुणण नासण विणासणं झवण खवण सोहिकरं। छेयण भेयण फेडण डहणं धुवणं च कम्माणं ॥ २८४॥ तत्रावधूननम् - अपूर्वकरणेन कर्म्मग्रन्थेर्भेदापादनं तच्च तपोऽन्यतरभेद सामर्थ्याद्भवतीत्येषा क्रिया शेषेष्वप्येकादश Jan Estication matinal For Pantry O ~598 ~# उपधा० ९ उद्देशकः १ ॥ २९७ ॥ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [२२६...], नियुक्ति: [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [२२६] सु पदेवायोज्या, तथा 'धूनन' भिन्नग्रन्थेरनिवर्तिकरणेन सम्यक्त्वावस्थानं, तथा 'नाशनं' कर्मप्रकृतेः स्तिबुकसङ्कमेण प्रकृत्यन्तरगमनं, तथा 'विनाशनं शेलेश्यवस्थायां सामस्त्येन कम्ाभावापादनं, तथा ध्यापनम्-उपशमश्रेण्या कर्मानुदयलक्षणं विध्यापनं, तथा 'क्षपणम्' अप्रत्याख्यानादिप्रक्रमेण क्षपक श्रेण्यां मोहाद्यभावापादनं, तथा 'शुद्धिकर'मित्यनन्तानुवन्धिक्षयप्रक्रमेण क्षायिकसम्यक्त्वापादनं, तथा 'छेदनम् उत्तरोत्तरशुभाध्यवसायारोहणास्थितिहासजननं, तथा 'भेदनं' बादरसम्परायावस्थायां सञ्जवलनलोभस्य खण्डशो विधानं, तथा 'फेडण'न्ति अपनयनं चतुःस्थानिकादीनामशुभप्रकृतीनां रसतख्यादिस्थानापादनं, तथा 'दहन केवलिसमुद्घातध्यानाग्निना वेदनीयस्य भस्मसात्करणं, शेषस्य च दग्धरज्जुतुल्यत्वापादनं, तथा 'धावन' शुभाध्यवसायान्मिथ्यात्वपुद्गलानां सम्यक्त्वभावसंजननमिति, एताश्च कर्मणोऽवस्थाः प्रायश उपशमश्रेणिक्षपकश्रेणिकेवलिसमुद्घातशैलेश्यवस्थाप्रकटनेन प्रभूता आविर्भाविता भवन्तीत्यतस्तत्प्रकटनाय प्रक्रम्यते, तत्रोपशमश्रेण्यामादावेवानन्तानुबन्धिनामुपशमना तावत्कथ्यते, इहासंयतसम्यग्दृष्टिदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तानामन्यतरोऽन्यतरयोगे वर्तमान आरम्भको भवति, तत्रापि दर्शनसप्तकमेकेनोपशमयति, तद्यथा-अनन्तानुबन्धिनश्चतुरा, उपरितनलेश्यात्रिके च विशुद्धे साकारोपयोग्यन्ताकोटीकोटीस्थितिसत्कर्मा परिवर्तमानाः शुभप्रकृतीरेव चनन प्रतिसमयमशुभप्रकृतीनामनुभागमनन्तगुणहान्या हासयन् शुभानां चानन्तगुणवृदयाऽनुभागं व्यवस्थापयन् पस्योपमासख्येयभागहीनमुत्तरोत्तरं स्थितिबन्धं कुर्वन् करणकालादपि पूर्वमन्तर्मुहर्त विशुध्यमानः करणत्रयं विधत्ते, तच्च प्रत्येकमान्तमौहर्तिक, तद्यथा-यथाप्रवृत्तकरणमपूर्वकरणमनिवृत्तिकरणं चेति, चतुर्युप दीप अनुक्रम २६४] SaintaicatunintIC ~599~# Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [२२६...], नियुक्ति: [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२६] दीप अनुक्रम २६४] श्रीआचा- शान्ताद्धा, तत्र यथाप्रवृत्तकरणे प्रतिसमयमनन्तगुणवृद्ध्या विशुद्धिमनुभवति, न तत्र स्थितिघातरसघातगुणश्रेणीगुणराङ्गवृत्तिः सङ्कमाणामन्यतमोऽपि विद्यते, तथा द्वितीयमपूर्वकरणं, किमुक्तं भवति ?-अपूर्वामपूर्वी क्रियां गच्छतीत्यपूर्वकरणं, तना (शी०) च प्रथमसमय एव स्थितिघातरसघातगुणश्रेणिगुणसङ्कमा अन्यश्च स्थितिबन्ध इत्येते पश्चाप्यधिकारा योगपद्येन पूर्वम-1 उद्देशकः१ प्रवृत्ताः प्रवर्तन्त इत्यपूर्वकरणं, तथाऽनिवृत्तिकरणमित्यन्योऽन्यं नातिवर्तन्ते परिणामा अस्मिन्नित्यनिवृत्तिकरण, एत॥ २९८॥ दुक्तं भवति-प्रथमसमयप्रतिपन्नानां तत्करणमसुमतां सर्वेषां तुल्यः परिणामः, एवं द्वितीयादिष्वप्यायोज्यं, अत्रापि पू४ोक्ता एव स्थितिघातादयः पश्चाप्यधिकारा युगपत्प्रवर्त्तन्त इति, तत एभित्रिभिरपि करणैर्यथोतक्रमेणानन्तानुबन्धिनः कषायानुपशमयति, उपशमनं नाम यथा धूलिरुदकेन सिक्का दुघणादिभिर्हता न वाय्वादिभिः प्रसर्पणादिविकारभाग्भवति, एवं कर्मघूल्यपि विशुब्युदकाीकृता अनिवृत्तिकरणक्रियाहता सत्युदयोदीरणसङ्कमनिधत्तनिकाचनाकरणा-13 नामयोग्या भवति, तत्रापि प्रथमसमयोपशान्तं कर्मदलिकं स्तोकं द्वितीयादिषु समयेष्वसख्येयगुणवृद्ध्योपशम्यमानदमन्तर्मुहून सर्वमप्युपशान्तं भवति, एवमेकीयमतेनानन्तानुबन्धिनामुपशमोऽभिहितः, अन्ये त्वनन्तानुबन्धिनां विस योजनामेवाभिदधति, तद्यथा-क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टयश्चतुर्गतिका अप्यनन्तानुबन्धिनां विसंयोजकाः, तत्र नारका देवा अविरतसम्यग्दृष्टयस्तिर्यञ्चोऽविरतदेशविरता मनुष्या अविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्ताः, एते सर्वेऽपि यथासम्भवं विशोधिविवेकेन परिणता अनन्तानुबन्धिविसंयोजनार्थं प्रागुक्त करणत्रयं कुर्वन्ति, तत्राप्यनन्तानुबन्धिनां स्थितिमपवर्त्तयअपवर्तयन् यावखल्योपमासङ्ख्येयभागमात्रा तावद्विधत्ते, तमपि पल्योपमासल्ययभागं वध्यमानासु मोहप्रकृतिषु|| ॐॐ 1॥२९८॥ www.ianditnary.org ~600~# Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२२६] दीप अनुक्रम [२६४] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [२२६...],निर्युक्तिः [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः प्रतिसमयं सङ्क्रामयति, तत्रापि प्रथमसमये स्तोकं द्वितीयादिष्वसङ्ख्येयगुणं एवं यावच्चरमसमये सर्वसङ्क्रमेणावलिकागतं मुक्तवा सर्व सङ्क्रामयति, आवलिकागतमपि स्तिबुकसङ्क्रमेण वेद्यमानास्वपरप्रकृतिषु सङ्क्रामयति, एवमनन्तानुबन्धिनो विसंयोजिता भवन्ति । इदानीं दर्शन त्रिकोपशमना भण्यते तत्र मिथात्वस्योपशमको मिथ्यादृष्टिर्वेदकसम्यग्दृष्टिर्वा सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोस्तु वेदक एवोपशमकः, तत्र मिथ्यात्वस्योपशमं कुर्वस्तस्यान्तरं कृत्वा प्रथमस्थितिं विपाकेनानुभूयोपशान्तमिथ्यात्वः सनुपशमसम्यग्दृष्टिर्भवतीति । साम्प्रतं वेदकसम्यग्दृष्टिरुपशमश्रेणिं प्रतिपद्यमानोऽनन्तानुबन्धिनो विसंयोज्य संयमे वर्त्तमानो दर्शन त्रिकमुपशमयत्यनेन विधिना, तत्र यथाप्रवृत्तादीनि प्राग्वत्रीणि करणानि | कृत्वाऽन्तरकरणं कुर्वन् वेदकसम्यक्त्वस्य प्रथमस्थितिमान्तमौहूर्त्तिकीं करोति, इतरां त्वावलिकामात्रां ततः किञ्चिन्यून| मुहूर्त्तमात्रां स्थितिं खण्डयित्वा बध्यमानानां प्रकृतीनां स्थितिबन्धमात्रेण कालेन तत्कर्म्मदलिकं सम्यक्त्वप्रथमस्थिती प्र क्षिपनेत्येवमनया प्रक्रियया सम्यक्त्वबन्धाभावादन्तरं क्रियमाणं कृतं भवति, मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वप्रथम स्थितिदलिकमाव|लिकामात्रपरिमाणं सम्यक्त्वप्रथम स्थिती स्तिबुकसङ्क्रमेण सङ्क्रमयति, तस्यामपि सम्यक्त्वप्रथमस्थितौ क्षीणायां सत्यामु| पशान्तदर्शनत्रिको भवतीति । तदनन्तरं चारित्रमोहनीयमुपशमयन् पूर्ववत् करणत्रयं करोति, नवरं यथाप्रवृत्तकरणमप्रमत्तगुणस्थान एव भवति, द्वितीयं त्वपूर्वकरणमष्टममेव गुणस्थानकं, तस्य च प्रथमसमय एव स्थितिघातरसघातगुणश्रेणिगुणसङ्कमा पूर्वस्थितिबन्धा यौगपद्येन पञ्चाप्यधिकाराः प्रवर्त्तन्ते तत्रापूर्वकरणसङ्ख्येयभागे गते निद्राप्रचलयोर्बन्धव्यवच्छेदो भवति, ततोऽपि बहुपु स्थितिकण्डकसहस्त्रेषु गतेषु सत्सु परभविकनाम्नां चरमसमये त्रिंशतो नाम For Pantry Use Only ~601~# Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२२६] दीप अनुक्रम [२६४] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ २९९ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१९], मूलं [२२६...],निर्युक्तिः [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः प्रकृतीनां बन्धव्यवच्छेदं विधत्ते, ताश्चेमाः देवगतिस्तदानुपूर्वी पञ्चेन्द्रियजातिर्वैक्रियाहारकॅशरीरतदङ्गोपाङ्गानि तैजर्सकार्मणशेरीरे चतुरस्रसंस्थानं वर्णगन्धरसंस्पर्शागुरुधूपघातपराघतोच्छ्छा संप्रशस्त विहायो गेतित्र संवादरपर्याप्तं कप्रत्येकस्थिरैशुभैसुभर्गेसुस्वरादेर्यनिर्माणतीर्थकरेंनामानि चेति, ततोऽपूर्वकरण चरमसमये हास्यरतिभयजुगुप्सानां बन्धव्यवच्छेदः, हास्यादिषट्कस्य तृदयव्यवच्छेदश्च सर्वकर्म्मणामप्रशस्तो ( णां देशी ) पशमनानिधत्तनिकाचना करणानि च व्यवच्छि द्यन्ते, तदेवमसंयतसम्यग्दृष्ट्यादिष्यपूर्वकरणान्तेषु सप्त कर्माण्युपशान्तानि लभ्यन्ते तत ऊर्ध्वमनिवृत्तिकरणं, स च नवमो गुणः, तत्र व्यवस्थित एकविंशतीनां मोहमकृतीनामन्तरं कृत्वा नपुंसकवेदमुपशमयति, तदनन्तरं स्त्रीवेदं ततो हास्यादिसप्तकं (पट्ट), पुनः पुंवेदस्य बन्धोदयव्यवच्छेदः, तत ऊर्ध्वं समयोनावलिकाद्वयेन पुंवेदोपशमः, ततः क्रोधद्वयस्य पुनः सज्वलनक्रोधस्यैवं मानत्रिकस्य मायात्रिकस्य च ततः सबलनलोभं सूक्ष्मखण्डानि विधत्ते, तत्करणकालचरमसमये लोभद्वयमुपशमयति, एवं चानिवृत्तिकरणान्ते सप्तविंशतिरुपशान्ता भवति, ततः सूक्ष्मखण्डान्यनुभवन् सूक्ष्मसम्परायो भवति, तदन्ते ज्ञानान्तरायदशकदर्शनावरणचतुष्कयशः कीर्त्यच्चैर्गोत्राणां बन्धव्यवच्छेदः, तदेवमष्टाविंशतिमोहप्रकृत्युपशमे सत्युपशान्तवीतरागो भवति, स च जघन्यत एकं समयमुत्कृष्टतोऽन्तर्मुहूर्त्त तव्यतिपातश्च भवक्षयेणाद्धाक्षयेण वा स्यात् स च यथाऽऽरूढो बन्धादिव्यवच्छेदं च यथा कृतवांस्तथैव प्रतिपतन्विधत्ते, कश्चिच्च मिथ्यास्वमपि गच्छेदिति, यस्तु भवक्षयेण प्रतिपतति तस्य प्रथमसमय एव सर्वकरणानि प्रवर्त्तन्ते, एकभव एव कश्चिद् वारद्वयसुपशमं विदध्यादिति । साम्प्रतं क्षपकश्रेणिर्व्यावर्ण्यते-अस्याश्च मनुष्य एवाष्टवर्षोपरि वर्त्तमान आरम्भको भवति, स च Estication tumanl For Pantry Use Only ~602~# उपधा०९ उद्देशकः १ ॥ २९९ ॥ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [२२६...], नियुक्ति: [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२६] दीप अनुक्रम २६४] प्रथममेव करणत्रयपूर्वकमनन्तानुबन्धिनो विसंयोजयति, ततः करणत्रयपूर्वकमेव मिथ्यात्वं तच्छेषं च सम्यगमिथ्यात्वे प्रक्षिपन् अपयति, एवं सम्यग्मिथ्यात्वं, नवरं तच्छेषं सम्यक्त्वे प्रक्षिपति, एवं सम्यक्त्वमपि, तच्चरमसमये च वेदकसम्यग्दृष्टिर्भवति, तत ऊर्व क्षायिकसम्यग्दृष्टिरिति, एताश्च सप्तापि कर्मप्रकृतीरसंयतसम्यग्दृष्ट्याद्यप्रमत्तान्ताः क्षपयन्ति, बद्धायुष्कश्चात्रैवावतिष्ठते, श्रेणिकवद् , अपरस्तु कषायाष्टक क्षपयितुं करणत्रयपूर्वकमारभते, तत्र यथाप्रवृत्तकरणमप्रमत्तस्यैव, अपूर्वकरणे तु स्थितिघातादिकं प्राग्वन्निद्राद्विकस्य देवगत्यादीनां च त्रिंशतां हास्यादिचतुष्कस्य (च) यथाक्रम बन्धव्यवच्छेद उपशमश्रेणिक्रमेण वक्तव्यः, अनिवृत्तिकरणे तु स्त्यानचित्रिकस्य नरकतिर्यग्गतितदानुपूर्वे केन्द्रियादिजातिचतुष्टयातपोद्योतस्थावरसूक्ष्मसाधारणानां षोडशप्रकृतीनां क्षयः, ततः कषायाष्टकस्यापि, अन्येषां तु मतं-पूर्व कषायाष्टकं क्षप्यते, पश्चात् षोडशेति, ततो नपुंसकवेदं, तदनन्तरं हास्यादिषट्क, पुनः पुंवेदं, ततः स्त्रीवेदं, ततः क्रमेण क्रोधादीन सवलनान् क्षपयति, लोभं च खण्डशः कृत्वा क्षपयति, तत्र बादरखण्डानि क्षपयन्ननिवृत्तिवादरः सूक्ष्मानि तु सूक्ष्मसम्पराय इति, तदन्ते च ज्ञानावरणीयादीनां पोडशप्रकृतीनां बन्धव्यवच्छेदं विधत्ते, ततः क्षीणमोहोऽन्तर्मुहर्त स्थित्वा तदन्ते विचरमसमये निद्राद्वयं क्षपयति, अन्तसमये च ज्ञानान्तरायदशकं दर्शनावरणचतुष्कं च क्षपयित्वा निरावरणज्ञानदर्शनसमन्वितः केवली भवति, स च सातावेदनीयमेवैकं बनाति यावत्सयोग इति, स चान्तर्मुहर्त देशोनां पूर्वकोटिं वा यावद्भवति, सतोऽसावन्तर्मुहुर्तावशेषमायुर्ज्ञात्वा वेदनीयं च प्रभूततरमतस्तयोः स्थितिमाम्यापादनार्थं | समुद्घातमेतेन क्रमेण करोति, तद्यथा-औदारिककाययोगी आलोकान्तादूर्वाधाशरीरपरिणाहप्रमाणं प्रथमसमये wwealtimarmarg ~603~# Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२२६] दीप अनुक्रम [२६४] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१९], मूलं [२२६...],निर्युक्तिः [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०) * उपधा० ९ ॥ ३०० ॥ दण्डं करोति, पुनर्द्वितीयसमये तिरश्चीनमालोकान्तात्काय प्रमाणमेवौदारिककार्म्मणशरीरयोगी कपाटवत्कपार्ट विधत्ते, तृतीयसमये त्वपरदितिरश्चीनमेव कार्म्मणशरीरयोगी मन्थानवन्मन्थानं करोति, अनुश्रेणिगमनाच्च लोकस्य प्रायशो बहु पूरितं भवति, ततश्चतुर्थसमये कार्मण काययोगेनैव मन्थान्तरालब्यापनात्सह निष्कुटैर्लोकः पूरितो भवति, पुनरने- उद्देशकः १ नैव क्रमेण पश्चानुपूर्व्या समुद्घातावस्थां चतुर्भिरेव समयैरुपसंहरंस्तद्व्यापारवांस्तत्तद्योगो भवति, केवलं पष्ठसमये मन्धाॐ नमुपसंहरन्नौदारिकमिश्रयोगी स्यादिति, तदेवं केवली समुद्घातं संहृत्य प्रत्यर्प्य च फलकादिकं ततो योगनिरोधं विधत्ते, * तद्यथा पूर्व मनोयोगं बादरं निरुणद्धि, पुनर्वाग्योगं काययोगं च वादरमेवेति, पुनरनेनैव क्रमेण सूक्ष्ममनोयोगं निरुणद्धि, ततः सूक्ष्मवाग्योगं निरुणद्धि, ततः सूक्ष्मकाययोगं निरुन्धन् सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाति तृतीयं शुक्लध्यानभेदमारोहति, तन्निरोधे च व्युपरत क्रियमनिवर्त्ति चतुर्थी शुक्लध्यानमारोहति, तदारूढश्चायोगिकेवलिभावमुपगतः सन्नन्तर्मुहूर्त्त | यावत्कालमजघन्योत्कृष्टमास्ते, तत्र चासौं येषां कर्म्मणामुदयो नास्ति तानि स्थितिक्षयेण क्षपयन् वेद्यमानासु चापरमकृतिषु सङ्क्रामयन् क्षपयंश्च तावद्गतो यावद्विचरमसमयं तत्र च द्विचरमसमये देवगति सहगताः कर्म्मप्रकृतीः क्षपयति, ताश्चेमा:-देवगतिस्तदानुपूर्वी वैक्रियाहारकशरीरतदङ्गोपाङ्गचतुष्टयमेतद्बन्धनसङ्घाताविति च, तथा तत्रैवापरा इमाः क्षपयति, तद्यथा-औदारिकतैजसकार्मणानि शरीराणि एतद्बन्धनानि त्रीणि सङ्घातांश्च पद् संस्थानानि षट् संहननानि औदारिकशरीराङ्गोपाङ्गं वर्णगन्धरसस्पर्शा मनुष्यानुपूर्व्यगुरुलधूपघातपराघातोच्छ्रासप्रशस्ता प्रशस्तविहायोगतयस्तथाऽपर्याकप्रत्येक स्थिरास्थिरशुभाशुभसुभगादुर्भगसुस्वरदुःखरानादेयायशः कीर्त्तिनिर्माणानि तथा नीचैर्गोत्रमन्यतरद्वेदनीयमिति, Etication Inmatnl For Pantry Use Only ~604~# ॥ ३०० ॥ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [२२६/गाथा-१],नियुक्ति: [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ॥१॥ दीप अनुक्रम [૨૬] चरमसमये तु मनुष्यगतिपञ्चेन्द्रियजातित्रसबादरपर्याप्तकसुभगादेययशःकीर्तितीर्थकरत्वान्यतरवेदनीयायुष्कोच्चैर्गोत्राण्येता द्वादश तीर्थकृत् केषांचिन्मतेनानुपूर्वीसहितास्त्रयोदश अतीर्थकृच्च द्वादशैकादश वा क्षपयति, अशेषकर्मक्षयसमनन्तरमेव चास्पर्शवद्गत्या ऐकान्तिकात्यन्तिकानाबाधलक्षणं सुखमनुभवन् सिद्धा(ब्याख्यं लोकाप्रमुपैतीत्ययं गाथातात्पर्याधः ।। साम्प्रतमुपसंहरस्तीर्थकरासेवनतः प्ररोचनता दर्शयितुमाह एवं तु समणुथिनं वीरवरेणं महाणुभावणं । जं अणुचरितु धीरा सिवमचलं जन्ति निव्वाणं ॥ २८४ ॥ 'एवम्' उक्तविधिना भावोपधानं-ज्ञानादि तपो वा वीरवर्द्धमानस्वामिना स्वतोऽनुष्ठितमतोऽन्येनापि मुमुक्षुणैतदनुष्ठेयमिति गाथार्थः ॥ समाप्ता ब्रह्मचर्याध्ययननियुक्तिः ॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमे सूत्रमुञ्चारणीयं, तच्चेदम्- . अहासुयं वइस्सामि जहा से समणे भगवं उठाए । संखाए तंसि हेमंते अहणो पत्रइए रीइत्था ॥१॥णो चेविमेण वत्थेण पिहिस्सामि तंसि हेमंते । से पारए आवकहाए, एयं खु अणुधम्मियं तस्स ॥२॥ चत्तारि साहिए मासे, बहवे पाणजाइया आगम्म । अभिरुज्झ कायं विहरिंसु, आरुसिया णं तत्थ हिंसिंसु ॥३॥ संवच्छरं साहियं मासं जं न रिकासि वत्थगं भगवं। अचेलए तओ चाइ तं वोसिज्ज वत्थमणगारे ॥४॥ wwwandltimaryam मुद्रणदोषात् अत्र नियुक्ति: क्रम- २८४ पूनः लिखितम् नवम-अध्ययने प्रथम-उद्देशक: 'चर्या' आरब्धः, ~605-2 Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [२२६/गाथा-४],नियुक्ति: [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत दीप अनुक्रम २६८] श्रीआचा- आर्यसुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिने पृच्छते कथयति, यथाश्रुतं यथासूत्रं वा वदिष्यामि, तद्यथा-स श्रमणो भगवान् उपधा०९ राजयत्तिःवीरवर्द्धमानस्वाम्युत्थाय-उद्यतविहारं प्रतिपद्य सर्वालङ्कारं परित्यज्य पश्चमुष्टिकं लोचं विधायैकेन देवदूष्येणेन्द्रक्षिप्तेन | L उद्देशकः१ (शी०) युक्तः कृतसामायिकप्रतिज्ञ आविर्भूतमनःपर्यायज्ञानोऽष्टप्रकारकर्मक्षयार्थं तीर्थप्रवर्तनार्थं चोत्थाय 'संख्याय'ज्ञात्वा तस्मिन् हेमन्ते मार्गशीर्षदशम्यां प्राचीनगामिन्यां छायायां प्रव्रज्याग्रहणसमनन्तरमेव 'रीयते स्म' विजहार,) तथा च । ॥३०१॥ता किल कुण्डग्रामान्मुहूर्तशेषे दिवसे कारग्राममाप, तत्र च भगवानित आरभ्य नानाविधाभिग्रहोपेतो घोरान् परीपहोपसर्गानधिसहमानो महासत्यतया म्लेच्छानप्युपशमं नयन द्वादश वर्षाणि साधिकानि छास्थो मौनव्रती तपश्चचार, अत्र चसामायिकारोपणसमनन्तरमेव सुरपतिना भगवदुपरि देवदृष्यं चिक्षिपे, तत् भगवताऽपि निःसङ्गाभिप्रायेणैव धर्मोपकरणदामृते न धर्मोऽनुष्ठातुं मुमुक्षुभिरपरैः शक्यत इति कारणापेक्षया मध्यस्थवृत्तिना तथैवावधारित, न पुनस्तस्य तदुपभोगे-18 |च्छाऽस्तीति । एतद्दर्शयितुमाह-न चैवाहमनेन वस्त्रेणेन्द्रप्रक्षिप्तेनात्मानं पिधास्यामि-स्थगयिष्यामि तस्मिन् हेमन्ते तद्वा वस्त्रं त्वत्राणीकरिष्यामि, लज्जापच्छादनं वा विधास्यामि, किंभूतोऽसाविति दर्शयति-'स' भगवान् प्रतिज्ञायाः परीषहाणां संसारस्य वा पारं गच्छतीति पारगः, कियन्तं कालमिति दर्शयति-यावत्कथं यावज्जीवमित्यर्थः, किमर्थं पुनरसौ विभत्तीति चेद्दर्शयति-खुरवधारणे स च भिन्नक्रमः, एतद्वस्त्रावज्ञावधारणं तस्य भगवतोऽनु-पश्चाद्धामिकमनुधार्मिकमेवेति, अपरैरपि तीर्थकृद्भिः समाचीर्णमित्यर्थः, तथा चागमः-"से बेमि जे य अईया जे य पडुप्पन्ना जे य आग-1 ॥३०१॥ मेस्सा अरहंता भगवन्तो जे य पब्वयन्ति जे अ पन्बइस्सन्ति सव्चे ते सोवही धम्मो देसिअन्योतिकड तित्थधम्मयाए wwwandltimaryam ~606~# Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [२२६/गाथा-५],नियुक्ति: [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत ॥५| दीप अनुक्रम [२६९] SOCCASSROR साऽणुधम्मिगत्ति एगं देवदूसमायाए पव्वईसु वा पव्वयंति वा पब्वइस्सन्ति व”त्ति, अपि च-गरीयस्त्वात्सचेलस्य, धर्मास्यान्यैस्तथागतः । शिष्यस्य प्रत्ययाच्चैव, वस्त्रं दधे न लजया ॥१॥"इत्यादि ॥ तथा भगवतः प्रव्रजतो ये दिव्याः सुगन्धिपटवासा आसंस्तद्गन्धाकृष्टाश्च भ्रमरादयः समागत्य शरीरमुपतापयन्तीति, एतदर्शयितुमाह-चतुरः समधिकान् मासान् बहवः प्राणिजातयो-भ्रमरादिका समागत्य आरुह्य च 'कार्य' शरीरं 'विजः' काये प्रबिचारं चक्रुः, तथा| मांसशोणितार्थितयाऽऽरुह्य 'तत्र' काये 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे, 'हिंसिंसु' इतश्चेतश्च विलुम्पन्ति स्मेत्यर्थः ॥ कियन्मात्रं || कालं तद्देवदूष्यं भगवति स्थितमित्येतद्दर्शयितुमाह-तदिन्द्रोपाहितं वस्त्र संवत्सरमेकं साधिक मास 'जं ण रिकासित्ति यन्न त्यक्तवान् भगवान तत्स्थितकल्प इतिकृत्वा, तत ऊर्वं तद्वस्त्रपरित्यागी, व्युत्सृज्य च तदनगारो भगवानचेलोडभूदिति, तच्च सुवर्णवालुकानदीपूराहतकण्टकावलग्नं धिग्जातिना गृहीतमिति ॥ किं च अदु पोरिसिं तिरिय भित्तिं चक्खुमासज अन्तसो झायइ । अह चक्षुभीया संहिया ते हन्ता हन्ता बहवे कंदिसु ॥५॥ सयणेहिं वितिमिस्सेहिं इथिओ तत्थ से परिन्नाय । सागारियं न सेवेइ य, से सयं पवेसिया झाइ ॥ ६॥जे के इमे अगारत्था मीसीभावं पहाय से झाई । पुट्रोवि नाभिभासिंसु गच्छइ नाइवत्तइ अंजू EASNA 45 ~607~# Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [२२६/गाथा-८],नियुक्ति: [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत ||८|| दीप श्रीआचा ॥७॥णो सुकरमेयमेगेसिं नाभिभासे य अभिवायमाणे । हयपुब्वे तत्थ दण्डेहि उपधा०९ रावृत्तिः (शी) लूसियपुव्वे अप्पपुण्णेहिं ॥८॥ उद्देशका ॥ ३०२॥ 'अर्थ' आनन्तर्ये पुरुषप्रमाणा पौरुषी-आत्मप्रमाणा वीथी तां गच्छन् ध्यायत्तीर्यासमितो गच्छति, तदेव चात्र ध्यान यदीर्यासमितस्य गमनमिति भावः, किंभूतां तां?-तिर्यग्भित्ति-शकटोर्द्धिवदादौ सङ्कटामग्रतो विस्तीर्णामित्यर्थः, कथं हाध्यायति', 'चक्षुरासाय' चक्षुर्दत्वाऽन्तः-मध्ये दत्तावधानो भूत्वेति, तं च तथा रीयमाणं दृष्ट्वा कदाचिदव्यक्तव यसः कुमारादय उपसर्गयेयुरिति दर्शयति--'अथ' आनन्तर्ये चक्षुःशब्दोऽत्र दर्शनपर्यायो, दर्शनादेव भीता दर्शनभीताः संहिता-मिलितास्ते बहवो डिम्भादयः पांसुमुट्यादिभिहत्वा हत्वा चक्रन्दुः, अपरांश्च चुकुशुः-पश्यत यूयं नग्नो मुण्डितः, तथा कोऽयं कुतोऽयं किमीयो वा अयमित्येवं हलबोलं चक्रुरिति ॥ किं च-शय्यत एष्विति शयनानि-वसतयस्तेषु कुतश्चिन्निमित्ताब्यतिमिश्रेषु गृहस्थतीथिकैः, तत्र व्यवस्थितः सन् यदि स्त्रीभिः पार्थ्यते ततस्ताः शुभमार्गार्गला इति ज्ञात्वा ज्ञप-13 रिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरन सागारिक-मैथुनं न सेवेत, शून्येषु च भावमैथुनं न सेवेत,इत्येवं स भगवान् स्वयम्-आस्मना वैराग्यमार्गमात्मानं प्रवेश्य धर्मध्यानं शुक्लध्यानं वा ध्यायति । तथा-ये केचन इमेऽगार-गृहं तत्र तिष्ठन्तीति अगारस्था:-गृहस्थास्तमिश्रीभावमुपगतोऽपि द्रव्यतो भावतश्च तं मिश्रीभावं प्रहाय-त्यक्त्वा स भगवान् धर्मध्यानं ध्या-18|| यति, तथा कुतश्चिनिमित्ताद्गृहस्थैः पृष्टोऽपृष्टो वा न वक्ति, स्वकार्याय गच्छत्येव, न तैरुक्को मोक्षपथमतिवर्त्तते ध्यानं वा, अनुक्रम २७२] walpatnamang ~608~23 Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [२२६/गाथा-८],नियुक्ति: [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत ||९|| | अंजु'त्ति काजुः जोः संयमस्यानुष्ठानात् , नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-'पुट्ठो य सो अपुट्ठो व णो अणुनाइ पावगं भगवं'। ४ कण्ठयम् ॥ किं च-जैतद्वक्ष्यमाणमुक्तं वा एकेषाम्-अन्येषां सुकरमेव, नान्यैः प्राकृतपुरुषः कर्तुमलं, किं तत्तेन कृतमिति दर्शयति अभिवादयतो नाभिभाषते, नाप्यनभिवादयन्यः कुप्यति, नापि प्रतिकूलोपसगैरन्यथाभावं यातीति दर्शयति -दण्डहतपूर्वः तत्र' अनार्यदेशादी पर्यटन तथा 'लूषितपूर्वो' हिंसितपूर्वः केशलुचनादिभिरपुण्यैः-अनार्यैः पापाचारैरिति॥ किं च फरुसाई दुत्तितिक्खाइ अइअच्च मुणी परक्कममाणे । आघायनहगीयाई दण्डजुद्धाई मुद्रिजुद्धाई ॥९॥ गढिए मिहुकहासु समयंमि नायसुए विसोगे अदक्खु । एयाइ से उरालाई गच्छइ नायपुत्ते असरणयाए ॥ १० ॥ अवि साहिए दुवे वासे सीओदं अभुच्चा निक्खन्ते । एगत्तगए पिहियच्चे से अहिन्नायदंसणे सन्ते ॥ ११ ॥ 'परुषाणि' कर्कशानि बाग्दुष्टानि तानि चापरैर्दुःखेन तितिक्ष्यन्त इति दुस्तितिक्षाणि तान्यतिगत्य-अविगणय्य 'मुनिः' भगवान् विदितजगत्स्वभावः पराक्रममाणः सम्यक्तितिक्षते, तथा आख्यातानि च तानि नृत्यगीतानि च आख्यातनृत्यगीतानि तानि उद्दिश्य न कौतुकं विदधाति, नापि दण्डयुद्धमुष्टियुद्धान्याकर्ण्य विस्मयोत्फुल्ललोचन उषितरोमकूपो भवति, तथा 'म दीप अनुक्रम २७३] www.taneltman.arg ~609~# Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [२२६/गाथा-११],नियुक्ति: [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||११|| दीप अनुक्रम २७५]] श्रीआचा-टाथितः' अवबद्धो 'मिथ' अन्योऽन्यं 'कथासु' स्वैरकथासु समये वा कश्चिदवबद्धस्तं स्त्रीद्वयं वा परस्य कथायां गृद्धमपेक्ष्य तस्मि- उपधा०९ राङ्गवृत्तिः नवसरे 'ज्ञातपुत्रो' भगवान् विशोको विगतहर्षश्च तान्मिथःकथाऽवबद्धान् मध्यस्थोऽद्राक्षीत् , एतान्यन्यानि चानुकूलप्रति उद्देशका (शी०) कूलानि परीपहोपसर्गरूपाण्युरालानि दुष्प्रधृष्याणि दुःखान्यस्मरन् 'गच्छति' संयमानुष्ठाने पराक्रमते, ज्ञाता:-क्षत्रियास्तेषां पुत्रः-अपत्यं ज्ञातपुत्रः-वीरवर्द्धमानस्वामी स भगवान्सद्दुःखस्मरणाय गच्छति-पराक्रमत इति सम्बन्धः, यदिवा शरणं॥३० ॥ गृहं नात्र शरणमस्तीत्यशरणः-संयमस्तस्मै अशरणाय पराक्रमत इति, तथाहि-किमत्र चित्रं यद्भगवानपरिमितवलपराक्रमः प्रतिज्ञामन्दरमारूढः पराक्रमते इति?, स भगवानप्रनजितोऽपि प्रासुकाहारानुवासीत् । श्रयते च किल पञ्चत्वमुपगते मातापितरि समाप्तप्रतिज्ञोऽभूत्, ततः प्रवित्रजिषुः ज्ञातिभिरभिहितो, यधा-भगवन्! मा कृथाः क्षते क्षारावसेचनमित्येवमभिहितेन भगवताऽवधिना व्यज्ञायि, यथा-मय्यस्मिन्नवसरे प्रव्रजति सति बहवो नष्टचित्ता विगतासवश्च स्युरित्यवधार्य तानुवाच-कियन्तं कालं पुनरत्र मया स्थातव्यमिति?, ते ऊचुः-संवत्सरद्वयेनास्माकं शोकापगमो भावीति, भट्टार-18 कोऽप्योमित्युवाच, किं स्वाहारादिकं मया स्वेच्छया कार्य, नेच्छाविघाताय भवद्भिपस्थातव्यं, तैरपि यथाकथश्चिदयं तिष्ठत्वितिमत्वा तैः सर्वैस्तथैव प्रतिपेदे ॥ ततो भगवांस्तद्वचनमनुवात्मीयं च निष्कमणावसरमवगम्य संसारासारता| | विज्ञाय तीर्थप्रवर्तनायोद्यत इति दर्शयितुमाह-अपि साधिके द्वे वर्षे शीतोदकमभुक्त्वा-अनभ्यवहत्यापीत्वेत्यर्थः, अपरा| अपि पादधावनादिकाः क्रियाः प्रासुकेनैव प्रकृत्य ततो निष्क्रान्तो, यथा च प्राणातिपातं परिहतवान् एवं शेषनतान्यपि ॥३०३॥ |पालितवानिति, तथा 'एकत्व'मिति तत एकत्वभावनाभावितान्तःकरणः पिहिता-स्थगिताऽच्चों-क्रोधण्याला येन स तथा, wwwanatimarmarg ~610~23 Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [२२६/गाथा-११],नियुक्ति: [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||११|| दीप अनुक्रम [२७५] यदिवा पिहिताों-गुप्ततनुः स भगवान् छद्मस्थकालेऽभिज्ञातदर्शन:-सम्यक्त्वभावनया भाषितः शान्तः इन्द्रियनो| इन्द्रियैः । स एवंभूतो भगवान् गृहवासेऽपि सावद्यारम्भत्यागी, किं पुनः प्रवज्यायामिति दर्शयितुमाह पुढविं च आउकायं च तेउकायं च वाउकायं च । पणगाई बीयहरियाई तसकायं च सव्वसो नच्चा ॥ १२ ॥ एयाई सन्ति पडिलेहे, चित्तमन्ताइ से अभिन्नाय । परिवजिय विहरित्था इय सङ्काय से महावीरे ॥ १३ ॥ अदु थावरा य तसत्ताए, तसा य थावरताए । अदुवा सव्वजोणिया सत्ता कम्मुणा कप्पिया पुढो बाला ॥ १४ ॥ भगवं च एवमन्नेसि सोवहिए हु लुप्पई बाले । कम्मं च सव्वसो नच्चा तं पडियाइक्खे पावगं भगवं ॥ १५ ॥ दुविहं समिच्च मेहावी किरियमक्खायऽणेलिसं नाणी । आयाणसो यमइवायसोयं जोगं च सव्वसो णच्ची ॥ १६ ॥ श्लोकद्वयस्याप्ययमर्थः-एतानि पृथिव्यादीनि चित्तमत्यभिज्ञाय तदारम्भं परिवर्ण्य विहरति स्म, क्रियाकारकसम्बन्धः, तत्र पृथिवी सूक्ष्मबादरभेदेन द्विधा, सूक्ष्मा सर्वगा, बादराऽपि श्लक्ष्णकठिनभेदेन द्विधैव, तत्र श्लक्ष्णा शुक्लादिपञ्चवर्णा, www.ianditimaryam ~611~# Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [ २८०] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ९ ], उद्देशक [१], मूलं [ २२६ / गाथा - १६], निर्युक्तिः [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र- [ ०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्री आचा राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ३०४ ॥ कठिना तु पृथ्वीशर्करावालुकादि पत्रिंशद्भेदा शस्त्रपरिज्ञानुसारेण द्रष्टव्या, अप्कायोऽपि सूक्ष्मवादरभेदाद्विधा, तत्र सूक्ष्मः पूर्ववद्वादरस्तु शुद्धोदकादिभेदेन पञ्चधा, तेजःकायोऽपि पूर्ववत् नवरं बादरोऽङ्गारादि पञ्चधा, वायुरपि तथैत्र, नवरं बादर उत्कलिकादिभेदेन पञ्चधा, वनस्पतिरपि सूक्ष्मवादरभेदेन द्विधा, तत्र सूक्ष्मः सर्वगो बादरोऽप्यग्रमूलस्कन्धपर्वबीजसम्मूर्छन भेदात्सामान्यतः षोढा, पुनर्द्विधा प्रत्येकः साधारणश्च तत्र प्रत्येको वृक्षगुच्छादिभेदाद्वादशधा, साधा* रणस्वनेकविध इति, स एवं भेदभिन्नोऽपि वनस्पतिः सूक्ष्मस्य सर्वगतत्वादतीन्द्रियत्वाच्च तद्व्युदासेन बादरो भेदत्वेन संगृहीतः, तद्यथा-पनकग्रहणेन बीजाङ्कुरभावरहितस्य पनकादेरुल्यादिविशेषापन्नस्य ग्रहणं, बीजग्रहणेन त्वग्रबीजादेरुपादानं, हरितशब्देन शेषस्येत्येतानि पृथिव्यादीनि भूतानि सन्ति' विद्यन्त इत्येवं प्रत्युपेक्ष्य तथा 'चित्तवन्ति' सचेतनान्यभिधाय-ज्ञात्वा 'इति' एतत्सङ्ख्याय- अवगम्य स भगवान्महावीरस्तदारम्भं परिवर्ज्य विहृतवानिति । पृथिवीकायादीनां जन्तूनां त्रसस्थावरत्वेन भेदमुपदर्श्य साम्प्रतमेषां परस्परतोऽनुगमनमप्यस्तीत्येतद्दर्शयितुमाह-- 'अर्थ' आनन्तर्ये 'स्थावराः' पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः ते 'त्रसतया' द्वीन्द्रियादितया 'विपरिणमन्ते' कर्मवशाद् गच्छन्ति, चशब्द उत्तरापेक्षया समुच्चयार्थः, तथा 'सजीवाश्च' कृम्यादयः 'स्थावरतया' पृथिव्यादित्वेन कर्म्मनिघ्नाः समुत्पद्यन्ते, तथा चान्यत्राप्युक्तम् -" "अयणं भन्ते ! जीवे पुढविका इयत्ताए जाव तसकाइयत्ताए उबवण्णपुब्बे ?, हन्ता गोअमा ! असई अदुवाऽणंतखुत्तो जाव उबवण्णपुच्वे"त्ति, अथवा सर्वा योनयः- उत्पत्तिस्थानानि येषां सत्वानां ते सर्वयोनिकाः ॥ ३०४ ॥ १] [r] भदन्त । जीवः पृथ्वीकायिकतया दावत् सकायिकतयोत्पन्नपूर्वः १, इन्त गौतम असकृत् अनन्तकृत्यो यावदुत्पन्नपूर्वः Jan Estication Intimational For Pantry O ~ 612 ~# उपधा० ९ उद्देशकः १ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [ २८०] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ९ ], उद्देशक [१], मूलं [ २२६ / गाथा - १६], निर्युक्तिः [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सत्त्वाः सर्वगतिभाजः, ते च 'बाला'रागद्वेषाकलिताः स्वकृतेन कर्मणा पृथक्तया सर्वयोनिभाकूत्वेन च 'कल्पिताः' व्यवस्थिता इति, तथा चोक्तम् — “ णत्थि किर सो पएसो लोए वालग्ग कोडिमित्तोऽवि । जम्मणमरणाबाहा अणेगसो जत्थ णवि पत्ता ॥ १ ॥" अपि च--" रङ्गभूमिर्न सा काचिच्छुद्धा जगति विद्यते । विचित्रैः कर्म्मनेपथ्यैर्यत्र सर्न नाटितम् ॥ २ ॥ इत्यादि ॥ किं च-भगवांश्च-असौ वीरवर्द्धमानस्वाम्येवममन्यत ज्ञातवान् सह उपधिना वर्त्तत इति सोपधिकः- द्रव्यभावोपधियुक्तः, सुरवधारणे, लुध्यत एव - कर्मणा क्लेशमनुभवत्येव 'अज्ञो' बाल इति यदिवा हुर्हेती य स्मात्सोपधिकः कर्म्मणा लुप्यते बालस्तस्मात्कर्म्म च सर्वशो ज्ञात्वा तत्कर्म्म प्रत्याख्यातवांस्तदुपादानं च पापकमनुष्ठानं भगवान् वर्द्धमानस्वामीति । किं च-द्वे विधे-प्रकारावस्येति द्विविधं किं तत् ? - कर्म्म, तच्चेर्याप्रत्ययं साम्परायिकं च, तद्विविधमपि 'समेत्य' ज्ञात्वा 'मेघावी' सर्वभावज्ञः, 'क्रिया' संयमानुष्ठानरूपां कम्मच्छेत्रीमनीदृशीम् अनन्यसदृशी माख्यातवान् किंभूतो?-ज्ञानी, केवलज्ञानवानित्यर्थः, किं चापरमाख्यातवानिति दर्शयति-आदीयते कर्मानेनेति आदानं दुष्प्रणिहितमिन्द्रियमादानं च तत् स्रोतश्चादानस्रोतस्तत् ज्ञात्वा तथाऽतिपातस्रोतश्च उपलक्षणार्थत्वादस्य मृषावादादिकमपि ज्ञात्वा तथा 'योगं च' मनोवाक्कायलक्षणं दुष्प्रणिहितं 'सर्वशः' सर्वैः प्रकारैः कर्म्मबन्धायेति ज्ञात्वा क्रियां संयमलक्षणामाख्यातवानिति सम्बन्धः ॥ किं चं अवत्तियं अणाउहिं सयमन्नेसिं अकरणयाए । जस्सित्थिओ परिन्नाया सव्वकम्मावहा १ नास्ति किल स प्रदेश लोके [वालामकोटीमात्रोऽपि जन्ममरणाबामा भनेकशो यत्र नैव प्राप्ताः ॥ १ ॥ For Pantry Use Onl ~613~# Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [२२६/गाथा-१७],नियुक्ति: [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) उपधा०९ उद्देशका सूत्रांक ||१७|| दीप अनुक्रम २८१] उ से अदक्खु ॥ १७ ॥ अहाकडं न से सेवे सव्वसो कम्म अदक्खू । जं किंचि पावगं भगवं तं अकुव्वं वियडं भुञ्जित्था ॥ १८ ॥णो सेवइ य परवत्थं परपाएवी से न भुञ्जित्था । परिवजियाण उमाणं गच्छइ संखडिं असरणयाए ॥ १९ ॥ मायपणे असणपाणस्स नाणुगिद्धे रसेसु अपडिन्ने । अञ्छिपि नो पमजिजा नोवि य कंडयए मुणी गायं ॥ २०॥ आकुट्टिः-हिंसा नाकुट्टिरनाकुटिरहिंसेत्यर्थः, किंभूताम् ?-अतिक्रान्ता पातकादतिपातिका-निदोषा तामाश्रित्य, स्वतोऽन्येषां चाकरणतया-अव्यापारतया प्रवृत्त इति, तथा यस्य स्त्रियः स्वरूपतस्तद्विपाकतश्च परिज्ञाता भवन्ति, सर्व कविहन्तीति सर्वकर्मावहा:-सर्वपापोपादानभूताः स एवाद्राक्षीत्-स एव यथावस्थितं संसारस्वभावं ज्ञातवानिति, एतदुक्तं भवति-स्त्रीस्वभावपरिज्ञानेन तत्परिहारेण च स भगवान् परमार्थदर्यभूदिति ॥ मूलगुणानाख्यायोत्तरगुण(णान् प्रचिकटयिषुराह-'यथा' येन प्रकारेण पृष्ठा वाऽपृष्टा वा कृतं यथाकृतम्-आधाकादि नासौ सेवते, किमिति? -यतः 'सर्वशः' सर्वेः प्रकारैस्तदासेवनेन कर्मणाऽष्टप्रकारेण बन्धमद्राक्षीत्-दृष्टवान्, अन्यदप्येवंजातीयकं न सेवत इति दर्शयति-यत्किचिसापक-पापोपादानकारणं तद्भगवानकुर्वन् 'विकर्ट' प्रासुकमभु-उपभुक्तवान् ॥ किं च-नो से-1 ॥३०५॥ ~614~# Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [ २८४] Jan Esticato “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [ २२६ / गाथा - २०], निर्युक्तिः [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः वते च-नोपभुङ्क्ते च परवस्त्रं प्रधानं वस्त्रं परस्य वा वस्त्रं परवस्त्रं नासेवते, तथा परपात्रेऽप्यसौ न भुङ्क्ते, तथा परिवयपमानम् अवगणय्य गच्छति असावाहाराय सङ्घण्ड्यन्ते प्राणिनोऽस्यामिति सङ्घण्डिस्तामा हारपाकस्थानभूतामशरणाय शरणमनालम्बमानोऽदीनमनस्कः कल्प इतिकृत्वा परीषहविजयार्थे गच्छतीति ॥ किं च-आहारस्य मात्रां जानातीति मात्राज्ञः कस्य ? - अश्यत इत्यशनं - शाल्योदनादि पीयत इति पानं द्राक्षापानकादिः तस्य च तथा नानुगृद्धो 'रसेषु' विकृतिषु, भगवतो हि गृहस्थभावेऽपि रसेषु गृद्धिर्नासीत् किं पुनः प्रत्रजितस्येति ?, तथा रसेष्वेव ग्रहणं प्रत्यः प्रतिज्ञो, यथा-मयाऽथ सिंहकेसरा मोदका एव ग्राह्या इत्येवंरूपप्रतिज्ञारहितोऽन्यत्र तु कुल्माषादी सप्रतिज्ञ एव, तथाऽश्यपि रजःकणुकाद्यपनयनाय नो प्रमार्जयेनापि च गात्रं मुनिरसौ कण्डूयते - काष्ठादिना गात्रस्य कण्डूव्यपनोदं न विधत इति । किं च अप्पं तिरियं पेहाए अप्पि पिटुओ पेहाए । अप्पं बुइएपडिभाणी पंथपेहि चरे जयमाणे ॥ २१ ॥ सिसिरंसि अद्धपडिवन्ने तं वोसिज्ज वत्थमणगारे | पसारितु बाहुं परक्कमे नो अवलम्वियाण कंधमि ॥ २२ ॥ एस विही अणुकन्तो माहणेण मईमया । बहुसो अडिनेण भगवया एवं रियंति ॥ २३॥ त्तिबेमि ॥ उपधानश्रुताध्ययनोद्देशः १ ॥९-१॥ For Fanart Use Only ~615~# www.indiary.org Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [२२६/गाथा-२३],नियुक्ति: [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: उपधा०९ प्रत श्रीआचारानवृत्ति (शी०) उद्देशकः१ सूत्रांक ॥ ३०६॥ ||२३|| दीप अनुक्रम २८७]] अल्पशब्दोऽभावे वर्तते, अल्पं तिर्यक्-तिरश्चीनं गच्छन् प्रेक्षते, तथाऽल्पं पृष्ठतः स्थित्वोत्प्रेक्षते, तथा मार्गादि केनचि-1 स्पृष्टः सन्नप्रतिभाषी सन्नल्प ब्रूते, मौनेन गच्छत्येव केवलमिति दर्शयति-पथिप्रेक्षी 'चरे' गच्छेद्यतमानः-प्राणिविषये यत्नवानिति ।। किं च-अध्वप्रतिपन्ने शिशिरे सति तद्देवदूष्यं वखं व्युत्सृज्यानगारो भगवान् प्रसार्य बाहू पराक्रमते, न तु पुनः शीतार्दितः सन् सङ्कोचयति, नापि स्कन्धेऽवलम्ब्य तिष्ठतीति ।। साम्प्रतमुपसञ्जिहीर्षुराह-एप चर्या विधिहरनन्तरोक्तोऽनुक्रान्तः-अनुचीर्णः 'माहणेण'त्ति श्रीवर्द्धमानस्वामिना 'मतिमता' विदितवेद्येन 'बहुशः' अनेकप्रकारमद प्रतिज्ञेन-अनिदानेन 'भगवता' ऐश्वर्यादिगुणोपेतेन, 'एवम्' अनेन पथा भगवदनुचीर्णेनान्ये मुमुक्षवोऽशेषकर्मक्ष याय साधवो 'रीयन्ते' गच्छन्तीति । इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत्, उपधानश्रुताध्ययनस्य प्रथमोद्देशक इति ॥ उक्तः प्रथमोद्देशकः, साम्प्रतं द्वितीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोदेशके भगवतश्चर्याऽभिहिता, तत्र चावश्यं कयाचिच्छय्यया-बसत्या भाव्यमतस्तत्प्रतिपादनायायमुद्देशकः प्रक्रम्यते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादि सूत्रम् चरियासणाई सिज्जाओ एगइयाओ जाओ बुइयाओ। आइक्ख ताई सयणासणाई जाई सेविस्था से महावीरे ॥ १ ॥ आवेसणसभापवासु पणियसालासु एगया वासो । अदुवा पलियठाणेसु पलालपुञ्जेसु एगया वासो ॥२॥ आगन्तारे आरा ॥३०६॥ नवम-अध्ययने द्वितीय-उद्देशक: 'शय्या' आरब्ध:, ~616~# Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [२], मूलं [२२६/गाथा-२],नियुक्ति: [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ॥१॥ +BACKGROCENCE दीप मागारे तह य नगरे व एगया वासो।सुसाणे सुण्णगारे वा रुक्खमूले व एगया वासो ॥३॥ एएहिं मुणी सयणेहिं समणे आसि पतेरसवासे । राई दिवंपि जयमाणे अ पमत्ते समाहिए झाइ ॥४॥ 'चर्यायामवश्यंभावितया यानि शय्यांसनान्यभिहितानि सामर्थ्यायातानि तानि शयनासनानि-शय्याफलकादीन्याचक्ष्व सुधर्मस्वामी जम्बूनानाऽभिहितो यानि सेवितवान् महावीरो-वर्द्धमानस्वामीति, अयं च श्लोकश्चिरन्तनटीकाकारेण न व्याख्यातः, तत्र किं सुगमत्वादुताभावात् , सूत्रपुस्तकेषु तु दृश्यते, तदभिप्रायं च वयं न विद्म इति ॥ प्रश्नपतिवचनमाह-भगवतो याहाराभिग्रहवत् प्रतिमाव्यतिरेकेण प्रायशो न शय्याऽभिग्रह आसीत्, नवरं यत्रैव चरमपौरुषी भवति तत्रैवानुज्ञाप्य स्थितवान्, तद्दर्शयति-आ-समन्ताद्विशन्ति यत्र तदावेशनं-शून्यगृई सभा नाम ग्रामनगरादीनां तद्वासिलोकास्थायिकार्थमागन्तुकशयनार्थं च कुड्याद्याकृतिः क्रियते, 'प्रपा' उदकदानस्थानम् आवेशनं च सभा च प्रपा |च आवेशनसभाप्रपास्तासु, तथा 'पण्यशालासु' आपणेषु 'एकदा' कदाचिद्वासो भगवतोऽधवा 'पलियन्ति कर्म तस्य Clस्थानं कर्मस्थानं-अयस्कारवर्द्धकिकुख्यादिक, तथा पलालपुलेषु मश्योपरि व्यवस्थितेष्वधो, न पुनस्तेष्वेव, अपिरत्वा दिति ॥ किं च-प्रसङ्गायाता आगत्य वा यत्र तिष्ठन्ति तदागन्तारं तत्पुनामानगराद्वा बहिः स्थानं तत्र, तथा आरामेऽगारं-गृहमारामागारं तत्र वा तथा नगरे वा एकदा वासः, तथा श्मशाने शून्यागारे वा, आवेशनशून्यागारयोर्भेदः *水*~*六中六中六十六六八节 अनुक्रम २८८] ~617~# Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [२], मूलं [२२६/गाथा-४],नियुक्ति: [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचा उपधा०९ उप प्रत रावृत्तिः (शी०) उद्देशका ॥३०७॥ दीप अनुक्रम २९१] सकुख्याकुज्यकृतो, वृक्षमूले वा एकदा वास इति ॥ किं च एतेषु' पूर्वोक्तेषु 'शयनेषु' वसतिषु स 'मुनिः' जगप्रयवेत्ता ऋतुबद्धेषु वर्षासु वा 'श्रमणः' तपस्युद्युक्तः समना वाऽऽसीत् निश्चलमना इत्यर्थः, कियन्त कालं यावदिति दर्शयतिपतेलसवासे'त्ति प्रकर्षण त्रयोदश वर्ष यावत्समस्तां रात्रि दिनमपि यतमानः संयमानुष्ठान उद्युक्तवान् तथाऽप्रमत्तो-निद्रादिप्रमादरहितः 'समाहितमनाः' विस्रोतसिकारहितो धर्मध्यानं शुक्लध्यानं वा ध्यायतीति । किं च णिदंपि नो पगामाए, सेवइ भगवं उढाए । जग्गावइ य अप्पाणं इसिं साई य अपडिन्ने ॥ ५॥ संबुज्झमाणे पुणरवि आसिंसु भगवं उट्ठाए । निक्खम्म एगया राओ बहि चंकमिया मुहुत्तागं ॥ ६॥ सयहिं तत्थुवसग्गा भीमा आसी अणेगरूवा य । संसप्पगा य जे पाणा अदुवा जे पक्खिणो उवचरन्ति ॥७॥ अदु कुचरा उवचरन्ति गामरक्खा य सत्तिहत्था य । अदु गामिया उवसग्गा इत्थी एगइया पुरिसा य ॥८॥ निद्रामप्यसावपरप्रमादरहितो न प्रकामतः सेवते, तथा च किल भगवतो द्वादशसु संवत्सरेषु मध्येऽस्थिकयामे व्यन्तरोपसर्गान्ते कायोत्सर्गव्यवस्थितस्यैवान्तर्मुहूर्त यावत्स्वप्नदर्शनाध्यासिनः सकृन्निद्राप्रमाद आसीत्, ततोऽपि चोत्थायात्मानं 'जागरयति' कुशलानुष्ठाने प्रवर्त्तयति, यत्रापीपच्छेय्याऽऽसीत् तत्राप्यप्रतिज्ञा-प्रतिज्ञारहितो, न त भा॥३०७॥ wwwandltimaryam ~618~23 Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [२९५] Jain Estucation “आचार” - अंगसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ९ ], उद्देशक [२], मूलं [ २२६ / गाथा- ८ ], निर्युक्तिः [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः त्रापि स्वापाभ्युपगमपूर्वकं शयित इत्यर्थः ॥ किं च स मुनिनिंद्राप्रमादाद् व्युत्थितचित्तः 'संबुध्यमानः' संसारपातायायं प्रमाद इत्येवमवगच्छन् पुनरप्रमत्तो भगवान् संयमोत्थानेनोत्थाय यदि तत्रान्तर्व्यवस्थितस्य कुतश्चिन्निद्राप्रमादः स्यात् ततस्तस्मान्निष्क्रम्यैकदा शीतकालरात्रादी बहिश्चङ्क्रम्य मुहूर्त्तमात्रं निद्राप्रमादापनयनार्थं ध्याने स्थितवानिति ॥ किं च-शथ्यते - स्थीयते उत्कुडुकासनादिभिर्येष्विति शयनानि - आश्रयस्थानानि तेषु तैर्वा तस्य भगवत उपसर्गा 'भीमा' भयानका आसन् अनेकरूपाश्च शीतोष्णादिरूपतयाऽनुकूलप्रतिकूलरूपतया वा तथा संसर्पन्तीति संसकाः-शून्यगृहादावहिनकुलादयो ये प्राणिनः 'उपचरन्ति' उप- सामीप्येन मांसादिकमश्नन्ति अथवा श्मशानादौ पक्षिणो गृधादय उपचरन्तीति वर्त्तते । किं च- 'अर्थ' अनन्तरं कुत्सितं चरन्तीति कुचरा:- चौरपारदारिकादयस्ते च कचिच्छून्यगृहादौ 'उपचरन्ति' उपसर्गयन्ति, तथा ग्रामरक्षादयश्च त्रिकचत्वरादिव्यवस्थितं शक्तिकुन्तादिहस्ता उपचरन्तीति, अथ 'ग्रामिका' ग्रामधर्म्माश्रिता उपसर्गा एकाकिनः स्युः, तथाहि काचित्स्त्री रूपदर्शनाभ्युपपन्ना उपसर्गयेत् पुरुषो वेति ॥ किंचइहलोइयाई परलोइयाई भीमाई अणेगरुवाई | अवि सुब्भि दुब्भिगन्धाई सदाई अगवाई ॥ ९ ॥ अहियासए सया समिए फासाई विरूवरूवाई । अरई रई अभिभूय रीयइ माहणे अबहुवाई ॥ १० ॥ स जणेहिं तत्थ पुच्छि एगचरावि एगया राओ । अव्aाहिए कसाइत्था पेहमाणे समाहिं अपनेि ॥ ११ ॥ अयमंतरंसि For Pantry Use Only ~619 ~# Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [२], मूलं [२२६/गाथा-१२], नियुक्ति: [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥३०८॥ ||१२|| दीप अनुक्रम २९९] CARREARRAHAR को इस्थ ? अहमंसित्ति भिक्खु आहहु । अयमुत्तमे से धम्मे तुसिणीए कसाइए झाइ ॥१२॥ उपधा०९ इहलोके भवा ऐहलौकिकाः-मनुष्यकृताः के ते?-'स्पर्शाः' दुःखविशेषा दिव्यास्तैरश्चाश्च पारलौकिकास्तानुपसर्गापादि- उद्देशकार तान् दुःखविशेषानध्यासयति-अधिसहते, यदिवा इहैव जन्मनि ये दुःखयन्ति दण्डप्रहारादयः प्रतिकूलोपसर्गास्त ऐहलौकिकाः, तद्विपर्यस्तास्तु पारलौकिकाः, 'भीमा' भयानका 'अनेकरूपाः' नानाप्रकाराः, तानेव दर्शयति-अपि सुरभिगन्धाः-सचन्दनादयो दुर्गन्धाः-कुथितकडेवरादयः, तथा शब्दाश्चानेकरूपा बीणावेणुमृदङ्गादिजनिताः, तथा क-1 मेलकरसिताद्युत्थापितास्तांश्चाविकृतमना 'अध्यासयति' अधिसहते, 'सदा' सर्वकालं सम्यगितः समितः-पञ्चभिः स| मितिभिर्युक्तः, तथा स्पर्शान-दुःखविशेषानरति संयमे रति चोपभोगाभिष्वङ्गेऽभिभूय-तिरस्कृत्य 'रीयते' संयमानुष्ठाने ब्रजति, 'माहणे'त्ति पूर्ववद् 'अबहुवादी' अबहुभाषी, एकद्विव्याकरणं कचिन्निमित्ते कृतवानिति भावः ॥ 'स' भगवान त्रयोदश पक्षाधिका: समा एकाकी विचरन् तत्र शून्यगृहादी व्यवस्थितः सन् 'जनैः' लोकै पृष्टः, तद्यथा-को भवान् । किमत्र स्थितः कुतस्त्यो वेत्येवं पृष्टोऽपि तृष्णीभावमभजत्, तथोपपत्याद्या अध्येकचरा-एकाकिन एकदा-क-18 दाचिद्रात्रावहि वा पप्रच्छु, अव्याहृते च भगवता कषायिताः ततोऽज्ञानावृतदृष्टयो दण्डमुख्यादिताडनतोऽनार्वत्वमाचरन्ति, भगवांस्तु तत्समाधि प्रेक्षमाणो धर्मध्यानोपगतचित्तः सन् सम्यक्तितिक्षते, किंभूतः-'अप्रतिज्ञों'नास्य वैरनियोतनप्रतिज्ञा विद्यत इत्यप्रतिज्ञः । कथं ते पप्रच्छुरिति दर्शयितुमाह-अयमन्तः-मध्ये कोऽत्र व्यवस्थितः, एवं सङ्केतागता दुचारिणः पृच्छन्ति कर्मकरादयो वा, तत्र नित्यवासिनो दुष्प्रणिहितमानसाः पृच्छन्ति, तत्र चैवं पृच्छतामेषां अनयां कर wataneltmanam ~620~# Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [२], मूलं [२२६/गाथा-१३],नियुक्ति: [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप अनुक्रम [३००] स्तूष्णीभावमेव भजते, क्वचिद्बहुतरदोषापनयनाय जल्पत्यपि, कथमिति दर्शयति-अहं भिक्षुरस्मीति, एवमुक्त यदि तेविधारयन्ति ततस्तिष्ठत्येव, अथाभिप्रेतार्थव्याघातात् कपायिता मोहान्धाः साम्प्रतेक्षितयैवं ब्रूयुः, यथा-तूर्णमस्मा|स्थानान्निर्गच्छ, ततो भगवानचियत्तावग्रह इतिकृत्वा निर्गच्छत्येव, यदिवा न निर्गच्छत्येव भगवान् किंतु सोऽयमुत्तमः प्रधानो धर्म आचार इतिकृत्वा स कषायितेऽपि तस्मिन् गृहस्थे तूष्णीभावव्यवस्थितो यद्भविष्यत्तया ध्यायत्येव-न ध्यानात्मच्यवते ॥ किंच जंसिप्पेगे पवेयन्ति सिसिरे मारुए पवायन्ते । तंसिप्पेगे अणगारा हिमवाए निवायमेसन्ति ॥ १३ ॥ संघाडीओ पवेसिस्सामो एहा य समादहमाणा । पिहिया व सक्खामो अइदुक्खे हिमगसंफासा ॥ १४ ॥ तसि भगवं अपडिन्ने अहे विगडे अहीयासए । दविए निक्खम्म एगया राओ ठाइए भगवं समियाए ॥१५॥ एस विही 'अणुकन्तो माहणेण मईमया । बहुसो अपडिपणेण भगवया एवं रीयन्ति ॥ १६ ॥ त्तिबेमि ॥ नवमस्य द्वितीय उद्देशकः ९-२॥ यस्मिन् शिशिरादावप्येके त्वक्त्राणाभावतया 'प्रवेपन्ते' दन्तवीणादिसमन्विताः कम्पन्ते, यदिवा 'प्रवेदयन्ति' Jain Educatinintamathima ~621~# Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [ ३०३] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ९ ], उद्देशक [२], मूलं [ २२६ / गाथा - १६], निर्युक्तिः [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीआचा शीतजनितं दुःखस्पर्शमनुभवन्ति, आर्त्तध्यानवशगा भवन्तीत्यर्थः तस्मिंश्च शिशिरे हिमकणिनि मारुते च प्रवाति सराङ्गवृत्तिः त्येके न सर्वे 'अनगाराः' तीर्थिकप्रव्रजिता हिमबाते सति शीतपीडितास्तदपनोदाय पावकं प्रज्वालयन्ति-अङ्गारशक(शी०) ४ टिकामन्वेपयन्ति, प्रावारादिकं याचन्ते यदिवाऽनगारा इति मार्श्वनाथतीर्थमत्रजिता गच्छवासिन एव शीतार्दिता निवातमेषन्ति षङ्गशालादिकावसतीर्वातायनादिरहिताः प्रार्थयन्ति । किं च इह सङ्घाटीशब्देन शीतापनोदक्षमं कल्प॥ ३०९ ॥ ४ द्वयं त्रयं वा गृह्यते, ताः सङ्घाटीः शीतार्दिता वयं प्रवेक्ष्यामः, एवं शीतार्दिता अनगारा अपि विदधति, तीर्थिकप्रव्रजितास्त्वेधाः समिधः काष्ठानीतियावद् एताश्च समादहन्तः शीतस्पर्श सोढुं शक्ष्यामः, तथा संघाच्या वा पिहिताः स्थगिताः कम्बलायांवृतशरीरा इति, किमर्थमेतत्कुर्वन्तीति दर्शयति-यतोऽतिदुःखमेतद्-अतिदुःसहमेतद्यदूत हिमसंस्पर्शाःशीतस्पर्शवेदना दुःखेन सान्त इतियावत् । तदेवमेवंभूते शिशिरे यथोक्त्तानुष्ठानवत्सु च स्वयूथ्येतरेष्वनगारेषु यक्षगवान् व्यधात्तद्दर्शयितुमाह- 'तस्मिन्' एवंभूते शिशिरे हिमवाते शीतस्पर्शे च सर्वकषे 'भगवान्' ऐश्वर्यादिगुणोपेतस्तं शीतस्पर्शमध्यासयति-अधिसहते, किंभूतोऽसौ ?- 'अप्रतिज्ञो' न विद्यते निवातवसतिप्रार्थनादिका प्रतिज्ञा यस्य स तथा, काध्यासयति ? - 'अधो विकटे' अधः-कुड्यादिरहिते छन्नेऽप्युपरि तदभावेऽपि चेति, पुनरपि विशिनष्टि-रागद्वेषविरहाद्रव्यभूतः कर्म्मग्रन्थिद्रावणाद्वा द्रवः-संयमः स विद्यते यस्यासौ द्रविकः, स च तथाऽध्यासयन् यद्यत्यन्तं शीतेन वाध्यते ततस्तस्मात् छन्नान्निष्क्रम्य बहिरेकदा रात्री मुहर्त्तमात्रं स्थित्वा पुनः प्रविश्य स भगवान् शमितया सम्यग्वा समतया वा व्यवस्थितः सन् तं शीतस्पर्श रासभदृष्टान्तेन सोढुं शक्नोति - अधिसहत इति ॥ एतदेवोद्देश कार्थमुपसंजिहीर्षु Jan Estication mainl For Pantry Use Only ~622~# उपधा० ९ | उद्देशकः२ ॥ ३०९ ॥ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [३], मूलं [२२६/गाथा-१],नियुक्ति: [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: राह-एस विही इत्याधनन्तरोद्देशकवन्नेयमिति । इतिववीमीतिशब्दौ पूर्ववद् । उपध्यानश्रुतस्य द्वितीयोदेशकः परि-1 |समाप्त इति ॥ सूत्राक ||१|| दीप अनुक्रम [३०४] उक्को द्वितीयोद्देशकः, साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके भगवतः शय्याः प्रतिपादिताः, तासु च व्यवस्थितेन ये यथोपसगाः परीपहाश्च सोढास्तत्प्रतिपादनार्थमिदमुपक्रम्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम् तणफासे सीयफासे य तेउफासे य दंसमसगे य । अहियासए सया समिए फासाई विरूवरूवाई॥१॥ अह दुञ्चरलाढमचारी वज्जभूमिं च सुब्भभूमिं च । पंतं सिज सेविंस आसणगाणि चेव पंताणि ॥२॥ लाडेहिं तस्सुवसग्गा बहवे जाणवया लूसिंसु । अह लूहदेसिए भत्ते कुकुरा तत्थ हिंसिंसु निवइंसु ॥ ३॥ अप्पे जणे निवा रेइ लूसणए सुणए दसमाणे । छुच्छुकारिंति आहेसु समणं कुक्कुरा दसंतुति ॥४॥ तृणानां-कुशादीनां स्पर्शास्तृणस्पाः तथा शीतस्पर्शाः तथा तेजःस्पर्शा-उष्णस्पर्शाश्चातापनादिकाले आसन यदिवा गच्छतः किल भगवतस्तेजःकाय एवासीत्, तथा दंशमशकादयश्च, एतान् तृणस्पर्शादीन् 'विरूपरूपान् नानाभूतान् | नवम-अध्ययने तृतीय-उद्देशक: परीषह' आरब्ध:, ~623~# Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [३], मूलं [२२६/गाथा-४],नियुक्ति: [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: उपधा० श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०) उद्देशका ॥४|| दीप अनुक्रम [३०७]] भगवानध्यासयति, सम्यगितः-सम्यग्भावं गतः समितिभिः समितो वेति ॥ किं च-'अथ' आनन्तर्ये दुःखेन चर्यतेस्मिन्निति दुश्चरः स चासौ लाढश्च-जनपदविशेषो दुश्चरलाढस्तं चीर्णवान्-विहृतवान् , स च द्विरूपो-वज्रभूमिः शुभ्रभूमिश्च, तं द्विरूपमपि विहृतवान्, तत्र च प्रान्ता 'शय्या' वसतिं शून्यगृहादिकामनेकोपद्रवोपद्रुता सेवितवान् , तथा प्रान्तानि चासनानि-पांशूत्करशर्करालोष्टाद्युपचितानि च काष्ठानि च दुर्घटितान्यासेवितवानिति ॥ किं च-लाढा नाम जनपदिविशेषास्तेषु च द्विरूपेष्वपि लाढेषु 'तस्य' भगवतो बहव उपसगोंः प्रायशः प्रतिकूला आकोशश्वभक्षणादय आसन् , तानेव दर्शयति-जनपदे भवा जानपदा-अनार्याऽऽचारिणो लोकाः ते भगवन्तं लूषितवन्तो-दन्तभक्षणोल्मुकदण्डप्रहारा-15 दिभिर्जिहिंसुः, अथशब्दोऽपिशब्दार्थे, स चैवं द्रष्टव्यः, भक्तमपि तत्र 'रूक्षदेश्य' रूक्षकल्पमन्तप्रान्तमितियावत्, ते चानार्यतया प्रकृतिकोधनाः कर्पासाद्यभावत्वाच्च तृणप्रावरणाः सन्तो भगवति विरूपमाचरन्ति, तथा तत्र 'कुर्कुराः श्वानस्ते च जिहिंसुः, उपरि च निपेतुरिति ॥ किं च-'अल्प' स्तोकः स जनो यदि परं सहस्राणामेको यदिवा नास्त्येवासाविति यस्तान् शुनो लूषकान् दशतो 'निवारयति' निषेधयति, अपि तु दण्डप्रहारादिभिर्भगवन्तं हत्वा तोरणाय सीत्कुर्वन्ति, कथं नामैनं श्रमणं कुर्कुराः श्वानो दशन्तु-भक्षयन्तु !, तत्र चैवंविधे जनपदे भगवान् षण्मासावधि कालं| स्थितवानिति ॥ किं च ॥३१०॥ एलिक्खए जणा भुजो बहवे वजभूमि फरुसासी। लढेि गहाय नालियं समणा तत्थ य JainEducatinintamational ~624~# Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत ||५|| दीप अनुक्रम [ ३०८] in Esticato ং ন “आचार” - अंगसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [३], मूलं [ २२६ / गाथा - ५ ], निर्युक्तिः [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः विहरिंसु ॥ ५ ॥ एवंपि तत्थ विहरन्ता पुट्टपुव्वा अहेसि सुणिएहिं । संलुञ्चमाणा सुणएहिं दुच्चराणि तत्थ लाढेहिं ॥ ६ ॥ निहाय दण्डं पाणेहिं तं कायं वोसज्जम णगारे । अह गामकण्टए भगवन्ते अहिआसए अभिसमिच्चा ॥ ७ ॥ नागो संगामसीसे वा पारप तत्थ से महावीरे । एवंपि तत्थ लाढेहिं अलद्धपुव्वोवि एगया गामो ॥ ८ ॥ 'इदृक्षः' पूर्वोक्तस्वभावो यत्र जनस्तं तथाभूतं जनपदं भगवान् 'भूयः' पौनःपुन्येन विहृतवान् तस्यां च वज्रभूमौ बहवो जनाः परुषाशिनो रूक्षाशिनो रूक्षाशितया च प्रकृतिक्रोधनास्ततो यतिरूपमुपलभ्य कदर्थयन्ति ततस्तत्रान्ये श्रमणाः शाक्यादयो यष्टिं देहप्रमाणां चतुरङ्गलाधिकप्रमाणां वा नालिकां गृहीत्वा श्वादिनिषेधनाय विजङ्गुरिति । किं च- एवमपि यष्ट्यादिकया सामग्र्या श्रमणा विहरन्तः 'स्पृष्टपूर्वा' आरब्धपूर्वाः श्वभिरासन्, तथा 'संलुच्यमाना' इतश्चेतश्च भक्ष्यमाणाः श्वभिरासन्, दुर्निवारत्यात्तेषां 'तत्र' तेषु लादेप्वार्यलोकानां दुःखेन चर्यन्त इति दुश्चराणि - प्रामादीनीति ॥ तदेवंभूतेष्वपि लाढेषु कथं भगवान् विहृतवानिति दर्शयितुमाह-प्राणिषु यो दण्डनाद्दण्डो - मनोवाक्कायादिकस्तं भगवान् 'निधाय' त्यक्त्वा, तथा तच्छरीरमप्यनगारो व्युत्सृज्याथ 'ग्रामकण्टकान्' नीचजनरुक्षालापानपि भगवांस्तांस्तान् सम्यकरणतया निर्जरामभिसमेत्य-ज्ञात्वाऽध्यासयति अधिसहते ॥ कथमसिहत इति दृष्टान्तद्वारेण दर्शयितुमाह- 'नागो' हस्ती य For Par at Use Only ~625 ~# Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक ||$|| दीप अनुक्रम [३११] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ३११ ॥ “आचार” - अंगसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [३], मूलं [२२६ / गाथा- ९], निर्युक्तिः [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः थाऽसौ संग्राममूर्द्धनि परानीकं जित्वा तत्पारगो भवति, एवं भगवानपि महावीरस्तत्र लाढेषु परीषहानीकं विजित्य पारगोऽभूत् किं च 'तत्र' लाढेषु विरलत्वाड्रामाणां क्वचिदेकदा वासायालब्धपूर्वो ग्रामोऽपि भगवता ॥ किं चउवसंकमन्तमपडिन्नं गामंतियम्मि अप्पत्तं । पडिनिक्खमित्तु लूसिंसु एयाओ परं पलेहित्ति ॥ ९ ॥ हयपुव्वो तत्थ दण्डेण अदुवा मुट्टिणा अदु कुन्तफलेण । अदु लेलुणा कवालेण हन्ता हन्ता बहवे कन्दिसु ॥ १० ॥ मंसाणि छिन्नपुव्वाणि उटुंभिया गया कार्य । परीसहाई लुंचिंसु अदुवा पंसुणा उवकरिंसु ॥ ११ ॥ उच्चा इय निहणिसु अदुवा आसणाउ खलइंसु । वोसट्टकायपणयाऽऽसी दुक्खसहे भगवं अपनेि ॥ १२ ॥ 'उपसङ्क्रामन्तं' भिक्षायै वासाय वा गच्छन्तं, किंभूतम् ? - 'अप्रतिज्ञं' नियतनिवासादिप्रतिज्ञारहितं ग्रामान्तिकं प्राप्तमप्राप्तमपि तस्माद्वामात्प्रतिनिर्गत्य ते जना भगवन्तमषिपुः, एतच्चोचुः इतोऽपि स्थानात्परं दूरतरं स्थानं 'पर्येहि' ग च्छेति ॥ किं च तत्र ग्रामादेर्बहिर्व्यवस्थितः पूर्व हतो हतपूर्वः केन ? - दण्डेनाथवा मुष्टिनाऽथवा कुन्तादिफलेनाथवा | लेष्टुना कपालेन घटखर्परादिना हत्वा हत्या बहवोऽनार्याश्चक्रन्दुः- पश्यत यूयं किंभूतोऽयमित्येवं कलकलं चक्रुः ॥ किं Jan Estication Intl For Parts Only ~626 ~# उपधा०९ उद्देशका‍ ॥ ३११ ॥ www.indiary.org Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक ||23|| दीप अनुक्रम [३१६] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ९ ], उद्देशक [३], मूलं [ २२६ / गाथा - १२], निर्युक्तिः [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः च-मांसानि च तत्र भगवतच्छिन्न पूर्वाणि एकदा कायमवष्टभ्य - आक्रम्य तथा नानाप्रकाराः प्रतिकूलपरीपहाश्च भगवन्तमलुचिपुः, अथवा पांसुनाऽवकीर्णवन्त इति । किं च भगवन्तमूर्ध्वमुत्क्षिप्य भूमौ 'निहतवन्तः' क्षिप्तवन्तः, अथवा 'आसनात्' गोदोहिकोत्कुटुकासनवीरासनादिकात् 'स्खलितवन्तो' निपातितवन्तः, भगवांस्तु पुनर्युत्सृष्टकायः परीषहसहनं प्रति प्रणत आसीत्, परीपहोपसर्गकृतं दुःखं सहत इति दुःखसहो भगवान्, नास्य दुःखचिकित्साप्रतिज्ञा विद्यत इत्यप्रतिज्ञः ॥ कथं दुःखसहो भगवानित्येतदृष्टान्तद्वारेण दर्शयितुमाह सुरो सङ्गामसीसे वा संबुडे तत्थ से महावीरे । पडिसेवमाणे फरुसाई अचले भ गवं रीत्थिा ॥ १३ ॥ एस विही अणुक्कन्तो० जाव रीयं ॥ १४ ॥ तिबेमि ९ - ३ ॥ यथा हि संग्रामशिरसि 'शूर' अक्षोभ्यः परैः कुन्तादिभिर्भिद्यमानोऽपि वर्म्मणा संवृताङ्गो न भङ्गमुपयातीति, एवं स भगवान्महावीरः 'तंत्र' लाढादिजनपदे परीपहानी कतुद्यमानोऽपि प्रतिसेवमानश्च 'परुषान' दुःखविशेषान् मेरुरिवाचलो - निष्प्रकम्पो धृत्या संवृताङ्गो भगवान् 'रीयते स्म ' ज्ञानदर्शनचारित्रात्मके मोक्षाध्वनि पराक्रमते स्मेति ॥ उद्देशकार्थमुपसंजिहीर्षुराह- 'एस विहीत्यादि पूर्ववद् । उपधानश्रुताध्ययनस्य तृतीयोदेशकः परिसमाप्तः ॥ Jan Estication national For Pantry Use Only ~627 ~# Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [४], मूलं [२२६/गाथा-१],नियुक्ति: [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: उद्देशकः४ दीप श्रीआचा- उक्तस्तृतीयोद्देशकः, साम्प्रतं चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोदेशके भगवतः परीषहोपसर्गारावृत्तिःधिसहनं प्रतिपादितं, तदिहापि रोगातकपीडाचिकित्साव्युदासेन सम्यगधिसहते तदुत्पत्ती च नितरां तपश्चरणायोद्य(शी०) पच्छतीत्येतत्प्रतिपाद्यते, तदनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम्॥३१ ॥ ओमोयरियं चाएइ अपुढेऽवि भगवं रोगेहिं । पुढे वा अपुढे वा नो से साइजई तेइच्छं ॥१॥ संसोहणं च वमणं च गायन्भंगणं च सिणाणं च । संवाहणं च न से • कप्पे दन्तपक्खालणं च परिन्नाए ॥२॥ विरए गामधम्मेहिं रीयइ माहणे अबहुवाई। सिसिमि एगया भगवं छायाए झाइ आसीय ॥३॥ आयावइ य गिम्हाणं अच्छइ उकुडुए अभित्तावे । अदु जाव इत्थ लूहेणं ओयणमंथुकुम्मासेणं ॥४॥ अपि शीतोष्णदंशमशकाकोशताडनाद्याः शक्याः परीपहाः सोढुं न पुनरवमोदरता, भगवांस्तु पुना रोगैरस्पृष्टोऽपि वातादिक्षोभाभावेऽप्यवमौदर्य न्यूनोदरतां शक्नोति कर्तुं, लोको हि, रोगैरभिद्रुतः संस्तदुपशमनायावमोदरतां विधत्ते भगवास्तु तदभावेऽपि विधत्त इत्यपिशब्दार्थः, अथवाऽस्पृष्टोऽपि कासश्वासादिभिर्द्रव्यरोगैः अपिशब्दात्स्पृष्टोऽप्यसवेदनीSIयादिभिर्भावरोगैन्यूनोदरतां करोति, अथ किं द्रव्यरोगातङ्का भगवतो न प्रादुष्ष्यन्ति येन भावरोगैः स्पृष्ट इत्युक्तं ?, तदुच्यते, भगवतो हि न प्राकृतस्येव देहजाः कासश्वासादयो भवन्ति, आगन्तुकास्तु शस्त्रप्रहारजा भवेयुः, इत्येतदेव अनुक्रम [३१८] ॥३१२॥ wwwandltimaryam | नवम-अध्ययने चतुर्थ-उद्देशक: 'आतंकित' आरब्ध:, ~628~# Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [४], मूलं [२२६/गाथा-9],नियुक्ति: [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: - 196 प्रत गाथा - % A 4 दीप अनुक्रम [३२२] दर्शयति स च भगवान् स्पृष्टो वा श्वभक्षणादिभिरस्पृष्टो वा कासश्वासादिभिर्नासी चिकित्सामभिलपति, न द्रव्योपधाधुपयोगतः पीडोपशमं प्रार्थयतीति ॥ एतदेव दर्शयितुमाह-गात्रस्य सम्यक् शोधनं संशोधन-विरेचनं निःसोत्रादिभिः तथा वमनं मदनफलादिभिः, चशब्द उत्तरपदसमुचयार्थो, गात्राभ्यङ्गनं च सहस्रपाकतैलादिभिः स्नानं चोदनादिभिः संबाधनं च हस्तपादादिभिस्तस्य-भगवतो न कल्पते, तथा सर्वमेव शरीरमशुच्यात्मकमित्येवं परिज्ञाय' ज्ञात्वा दन्तकाष्ठादिभिदन्तप्रक्षालनं च न कल्पत इति ॥ किं च-विरतो' निवृत्तः केभ्यो?-'ग्रामधर्मेभ्यो' यथास्वमिन्द्रियाणां शब्दादिभ्यो विषयेभ्यो 'रीयते' संयमानुष्ठाने पराक्रमते, 'माहणे'त्ति, किंभूतो भगवान् ? असावबहुवादी, सकृयाकरणभावाद्वहुशब्दोपादानम् , अन्यथा हि अवादीत्येव ब्रूयात् , तथैकदा शिशिरसमये स भगवांश्छायायां धर्मशुक्लध्यानध्याय्यासीञ्चेति ॥ किं च-सुब्व्यत्ययेन सप्तम्यर्थे षष्ठी, ग्रीष्मेवातापयति, कथमिति दर्शयति-तिष्ठत्युत्कुटुकासनोऽभिताप-तापाभिमुखमिति, 'अथ' आनन्तर्ये धर्माधारं देहं यापयति स्म रूक्षेण-स्नेहरहितेन केन?-'ओदनमन्धुकुल्माषेण' ओदनं च-कोद्रवौदनादि मन्थु च-बदरचूर्णादिकं कुल्माषाश्च-मापविशेषा एवोत्तरापथे धान्यविशेषभूताः पर्युषितमाषा वा सिद्धमाषा वा ओदनमन्थुकुल्मापमिति समाहारद्वन्द्वः तेनात्मानं यापयतीति सम्बन्ध इति ॥ एतदेव कालावधिविशेषणतो दर्शयितुमाह. एयाणि तिन्नि पडिसेबे अट्ट मासे अ जावयं भगवं । अपि इत्थ एगया भगवं अद्ध मासं अदुवा मासंपि ॥५॥ अवि साहिए दुवे मासे छप्पि मासे अदुवा विह -- % - - 84%-%ES wwwandltimaryam ~629~# Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [४], मूलं [२२६/गाथा-६],नियुक्ति: [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत गाथा दीप अनुक्रम [३२३]] श्रीआचा- रित्था । राओवरायं अपडिन्ने अन्नगिलायमेगया भुञ्जे ॥६॥ छट्रेण एगया भुञ्जे उपधा०९ रावृत्तिः अदुवा अट्टमेण दसमेणं । दुवालसमेण एगया भुञ्जे पेहमाणे समाहिं अपडिन्ने ॥७॥ (शी०) उदेशका४ णच्चा णं से महावीरे नोऽविय पावगं सयमकासी । अन्नेहिं वा ण कारित्था कीरंतंपि नाणुजाणित्था ॥८॥ 'एतानि' ओदनादीग्यनन्तरोक्तानि प्रतिसेवते, तानि च समाहारद्वन्द्वेन तिरोहितावयवसमुदायप्रधानेन निर्देशास्कस्यचिन्मन्दबुद्धेः स्यादारेका यथा-वीण्यपि समुदितानि प्रतिसेवत इति, अतस्तव्युदासाय त्रीणीत्यनया सन्ख्यया निर्देश इति, त्रीणि समस्तानि व्यस्तानि वा यधालाभं प्रतिसेवत इति, कियन्तं कालमिति दर्शयति-अष्टौ मासान् ऋतुबद्ध-10 |संज्ञकानात्मानं अयापयद्-पत्रीितवान भगवानिति, तथा पानमप्यर्द्धमासमथवा मास भगवान् पीतवान् | अपि च मासद्वयमपि साधिकम् अथवा पडपि मासान् साधिकान् भगवान्पानकमपीत्वाऽपि 'रात्रोपराव'मित्यहर्निशं बिहुत-| ४वान, किंभूतः?-'अप्रतिज्ञः' पानाभ्युपगमरहित इत्यर्थः, तथा 'अन्नगिलाय'न्ति पर्युषितं तदेकदा भुक्तवानिति ।। किं च-पष्ठेनेकदा भुङ्क्ते, षष्ठं हि नामैकस्मिन्नहन्येकभक्तं विधाय पुनर्दिनद्वयमभुक्त्वा चतुर्थेऽहथेकभक्तमेव विधत्ते,18 ततश्चाद्यन्तयोरेकभक्तदिनयोक्तद्वयं मध्यदिवसयोश्च भक्तचतुष्टयमित्येवं पण्णां भक्तानां परित्यागात्वष्ठं भवति, एवं ॥१३॥ दिनादिवृद्ध्याऽष्टमाद्यायोज्यमिति, अथाष्टमेन दशमेनाथवा द्वादशमेनैकदा कदाचिद्भुक्तवान्, 'समाधि' शरीरसमा wataneltmanam ~630~# Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत गाथा [s] दीप अनुक्रम [३२६] “आचार” - अंगसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ९ ], उद्देशक [ ४ ], मूलं [ २२६ / गाथा - ९ ], निर्युक्ति: [ २८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः धानं 'प्रेक्षमाणः' पर्यालोचयन् न पुनर्भगवतः कथंचिद्दौर्मनस्यं समुत्पद्यते, तथाऽप्रतिज्ञः- अनिदान इति ॥ किं च ज्ञात्वा हेयोपादेयं स महावीरः कर्मप्रेरणसहिष्णुर्नापि च पापकं कर्म स्वयमकार्षीत् न चाप्यन्यैरचीकरत् न च क्रियमाणमपरैरनुज्ञातवानिति ॥ किं च Jan Estication Intl गामं पविसे नगरं वा घासमेसे कडं परट्ठाए । सुविसुद्धमेसिया भगवं आयतजोगया सेविथा ॥ ९ ॥ अदु वायसा दिगिंछत्ता जे अन्ने रसेसिणो सत्ता । घासेसore चिट्ठन्ति सययं निवइए य पेहाए ॥ १० ॥ अदुवा माहणं च समणं वा गामपिण्डोलगं च अतिहिं वा । सोवागमूसियारिं वा कुकुरं वावि विद्वियं पुरओ ॥ ११ ॥ वित्तिच्छेयं वज्जन्तो तेसिमप्पत्तियं परिहरन्तो । मन्दं परकमे भगवं अहिंसमाणो घासमेसित्था ॥ १२ ॥ ग्रामं नगरं वा प्रविश्य भगवान् ग्रासमन्वेषयेत्, परार्थाय कृतमित्युद्गमदोषरहितं तथा सुविशुद्धमुखादनादोषरहितं, तथैषणादोषपरिहारेणैषित्वा - अन्वेष्य भगवानायतः संयतो योगो - मनोवाक्कायलक्षणः आयतश्वासी योगश्चायत योगो - ज्ञानचतुष्टयेन सम्यग्योगप्रणिधानमायतयोगस्य भाव आयतयोगता तया सम्यगाहारं शुद्धं प्रासैपणादोषपरिहारेण से For Pantry O ~631~# www.indiary.org Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [४], मूलं [२२६/गाथा-१२], नियुक्ति: [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत गाथा जी) [१२] दीप अनुक्रम [३२९] श्रीआचा-18|वितवानिति ॥ किंच-अथ भिक्षा पर्यटतो भगवतः पथि वायसा:-काका 'दिगिंछ'त्ति बुभुक्षा तयाऽऽर्ता बुभुक्षा | उपधा०९ राङ्गवत्तिःये चान्ये रसैषिणः-पानार्थिनः कपोतपारापतादयः सत्त्वाः तथा ग्रासस्यैषणार्थम्-अन्वेषणार्थं च ये तिष्ठन्ति तान् सत-II उद्देशका (शी०) तम्-अनवरतं निपतितान् भूमौ 'प्रेक्ष्य' दृष्ट्वा तेषां वृत्तिव्यवच्छेदं वर्जयन्मन्दमाहारार्थी पराक्रमते ॥ किं च-अथ ब्रा मणं लाभार्थमुपस्थितं दृष्ट्वा तथा श्रमणं शाक्याजीवकपरिबादतापसनिग्रंन्धानामन्यतमं 'ग्रामपिण्डोलक' इति भिक्ष॥३१४ ॥ योदरभरणार्थ ग्राममाश्रितस्तुन्दपरिमृजो द्रमक इति, तथाऽतिथिं वा-आगन्तुकम् तथा श्वपार्क-चाण्डालं मार्जारी वा कुकुरं वापि-श्वानं विविधं स्थितं 'पुरतः' अग्रतः समुपलभ्य तेषां वृत्तिच्छेदं वर्जयन मनसो दुष्पणिधानं च वर्जयन् मन्द-मनाक् तेषां त्रासमकुर्वन् भगवान् पराकमते, तथा परांश्च कुन्थुकादीन जन्तून् अहिंसन् ग्रासमन्वेषितवा|निति ।। किं च अवि सूइयं वा सुक्कं वा सीयं पिंडं पुराणकुम्मासं । अदु बुक्कसं पुलागं वा लद्धे पिंडे अलद्धे दविए ॥ १३ ॥ अवि झाइ से महावीरे आसणत्थे अकुक्कुए झाणं । उद अहे तिरियं च पेहमाणे समाहिमपडिन्ने ॥ १४ ॥ अकसाई विगयगेही य सदरूवेसु अमुच्छिए झाई । छउमत्थोऽवि परक्कममाणो न पमायं सइंपि कुम्वित्था ॥ १५ ॥ सयमेव अभिसमागम्म आयतजोगमायसोहीए । अभिनिव्वुडे अमाइल्ले आवकहं भगवं ॥३१४॥ ~632~# Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [४], मूलं [२२६/गाथा-१६],नियुक्ति: [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: 5*5*% प्रत गाथा [१६] दीप अनुक्रम [३३३] * समियासी ॥ १६ ॥ एस विही अणु० रीयइ ॥ १७ ॥ तिबेमि ९-४ ब्रह्मचर्यश्रुतस्कन्धे नवमाध्ययने चतुर्थ उद्देशकः ॥९॥ ___ 'सूइयं'चि दध्यादिना भक्तमाद्रीकृतमपि तथाभूतं शुष्कं वा-बलचनकादि शीतपिण्डवा-पर्युषितभक्तम् तथा 'पुराण-13 कुल्माषं वा' बहुदिवससिद्धस्थितकुल्मापं, 'बुक्कसं ति चिरन्तनधान्यौदनं, यदिवा पुरातनसकुपिण्डं, यदिवा बहुदिवससम्भृतगोरसं गोधूममण्डक चेति, तथा 'पुलाक' यवनिष्पावादि, तदेवम्भूतं पिण्डमवाप्य रागद्वेषविरहाद् द्रविको | भगवान् तथाऽन्यस्मिन्नपि पिण्डे लब्धेऽलब्धे वा द्रविक एव भगवानिति, तथाहि-लब्धे पर्याप्ते शोभने वा नोत्कर्ष याति, नाप्यलब्धेऽपर्याप्तेऽशोभने वाऽऽस्मानमाहारदातारं वा जुगुप्सते ॥ किं च तस्मिंस्तथाभूत आहारे लब्ध उपभुक्तेऽलब्धे चापि ध्यायति स महावीरो, दुष्प्रणिधानादिना नापध्यानं विधत्ते, किमवस्थो ध्यायतीति दर्शयति-आसनस्थ:उत्कुटुकगोदोहिकावीरासनाद्यवस्थोऽकौत्कुचः सन्-मुखविकारादिरहितो ध्यान-धर्मशुक्लयोरन्यतरदारोहति, किं पुनस्तत्र ध्येयं ध्यायतीति दर्शयितुमाह-ऊर्वमधस्तिर्यग्लोकस्य ये जीवपरमाण्वादिका भावा व्यवस्थितास्तान् द्रव्यपर्यायनित्यानि त्यादिरूपतया ध्यायति, तथा समाधिम्-अन्तःकरणशुद्धिं च प्रेक्षमाणोऽप्रतिज्ञो ध्यायतीति । किं च-न कषाय्यकसापायी तदुदयापादितभ्रकुट्यादिकार्याभावात् , तथा विगता गृद्धिः-गाय यस्यासी विगतगृद्धिा, तथा शब्दरूपादिष्विन्द्रियार्थेष्वमूच्छितो ध्यायति, मनोऽनुकूलेषु न रागमुपयाति नापीतरेषु द्वेषवंशगोऽभूदिति, तथा छद्मनि-ज्ञानदर्शना * ~633~# Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [४], मूलं [२२६/गाथा-१७],नियुक्ति: [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचा- प्रत उपधा०९ उद्देशका४ गाथा (शी०) [१७] ॥३१५॥ दीप अनुक्रम [३३४] वरणीयमोहनीयान्तरायात्मके तिष्ठतीति छद्मस्थ इत्येवंभूतोऽपि विविधम्-अनेकप्रकारं सदनुष्ठाने पराक्रममाणो न प्रमाद -कषायादिकं सकृदपि कृतवानिति ॥ किं च-स्वयमेव-आत्मना तत्त्वमभिसमागम्य विदितसंसारस्वभावः स्वयंबुद्धः संस्तीर्थप्रवर्त्तनायोद्यतवान् , तथा चोक्तम्-"आदित्यादिविबुधविसरः सारमस्यां त्रिलोक्यामारकन्दन्तं पदमनुपमं यच्छिवं त्वामुवाच । तीर्थ नाथो लघुभवभयच्छेदि तूर्ण विधत्स्वेत्येतद्वाक्यं त्वदधिगतये नो किमु स्यानियोगः ॥१॥" इत्यादि, कथं तीर्थप्रवर्तनायोद्यत इति दर्शयति-'आत्मशुद्ध्या' आत्मकर्मक्षयोपशमोपशमक्षयलक्षणयाऽऽयतयोग-सुप्रणिहित मनोवाकायात्मकं विधाय विषयकषायाद्युपशमादिभिनिवृत्तः-शीतीभूतः, तथा अमायावी-मायारहित उपलक्षणार्थत्वादस्याक्रोधाद्यपि द्रष्टव्यं, 'यावत्कथ'मिति यावज्जीवं भगवान् पञ्चभिः समितिभिः समितः तथा तिसृभिगुप्तिभिगुप्तश्चासीदिति ॥ श्रुतस्कन्धाध्ययनोद्देशकार्थमुपसंजिहीर्षुराह-एषः-अनन्तरोक्तः शस्त्रपरिज्ञादेरारभ्य योऽभिहितः सोऽनुकान्तःअनुष्ठित आसेवनापरिज्ञया सेवितः, केन?-श्रीवर्द्धमानस्वामिना 'मतिमता' ज्ञानचतुष्टयान्वितेन बहुशः-अनेकशोऽप्रतिज्ञेन-अनिदानेन भगवता-ऐश्वर्यादिगुणोपेतेन, अतोऽपरोऽपि मुमुक्षुरनेनैव भगवदाचीर्णेन मोक्षप्रगुणेन पथाऽऽत्महितमाचरन् रीयते-पराक्रमते, इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीति सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिने कथयति-सोऽहं ब्रवीमि येन मया भगवद्वदनारविन्दादर्थजातं निर्यातमवधारितमिति ॥ उक्तोऽनुगमः सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपश्च ससूत्रस्पर्शनियुक्तिकः, साम्प्रतं नयाः, ते च नैगमसङ्ग्रहव्यवहारऋजुसूत्रशब्दसमभिरूदैवभूतभेदभिन्नाः सामान्यतः सप्त, ते चान्यत्र सम्मत्यादी लक्षणतो विधानतश्च न्यक्षेणाभिहिता इति, इह पुनस्त एव ज्ञानक्रियानयान्तर्भावद्वारेण समासतः प्रो ।।३१५॥ www.taneltmanam ~634~# Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [४], मूलं [२२६/गाथा-१७],नियुक्ति: [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत गाथा [१७] दीप अनुक्रम [३३४] %ARACKCCC च्यन्ते, अधिकृताचाराङ्गस्य ज्ञानक्रियात्मकतयोभयरूपत्वात् ज्ञानक्रियाधीनत्वान्मोक्षस्य तदर्थं च शास्त्रप्रवृत्तेरिति भावः, अब च परस्सरतः सव्यपेक्षावेव ज्ञानक्रियानयो विवक्षितकार्यसिद्धयेऽलं नान्योऽन्यनिरपेक्षावित्येतत्पश्यते, है तत्र ज्ञाननयाभिप्रायोऽयम्-यथा ज्ञानमेव प्रधानं न क्रियेति, समस्तहेयोपादेयहानोपादानप्रवृत्तेानाधीनत्वात् , तथा हि-सुनिश्चितात् सम्यग्ज्ञानात्प्रवृत्तोऽर्थक्रियार्थी न विसंवाद्यते, तथा चोक्तम्-"विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न किया फलदा मता । मिथ्याज्ञानात् प्रवृत्तस्य, फलासंवाददर्शनाद् ॥ १॥" इत्यादि, संविनिष्ठत्वाच्च विषयव्यवस्थितीनां तत्पूर्वकसकलदुःखपहीणत्वाचान्वयव्यतिरेकदर्शनाच्च ज्ञानस्य प्राधान्यं, तथाहि-ज्ञानाभावेऽनर्थपरिहाराय प्रवर्त्तमानोऽपि तत्करोति येन नितरां पतङ्गबदनर्थेन संयुज्यते, ज्ञानसद्भावे च समस्तानप्यानर्थसंशयांश्च यथाशक्तितः परिहरति, तथा चागमः -पढमं नाणं तओ' इत्यादि, एवं तावरक्षायोपशमिक ज्ञानमाश्रित्योक्तं, क्षायिकमप्याश्रित्य तदेव प्रधान, यस्माद्भगवतः प्रणतसुरासुरमुकुटकोटिवेदिकाङ्कितचरणयुगलपीठस्य भवाम्भोधितटस्थस्य प्रतिपन्नदीक्षस्य त्रिलोकबन्धोस्तपश्चरणवतोऽपि न तावदपवर्गप्राप्तिः सञ्जायते यावजीवाजीवाद्यखिलवस्तुपरिच्छेदरूपं घनघातिकर्मसंहतिक्षयात्केवलज्ञान | नोसन्नमित्यतो ज्ञानमेव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारण, युक्तियुक्तत्वादिति । अधुना क्रियानयाभिप्रायोऽभिधीयते, तद्यथा-क्रियैव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणं, युक्तियुक्तत्वात्, यस्माद्दर्शितेऽपि ज्ञानेनार्थक्रियास-| |मर्थेऽर्थे प्रमाता प्रेक्षापूर्वकारी यदि हानोपादानरूपां प्रवृत्तिक्रियां न कुर्यात् ततो ज्ञानं विफलतामियात्, तदर्थत्वात्त-| स्येति, यस्य हि यदर्थं प्रवृत्तिस्तत्तस्य प्रधानमितरदप्रधानमिति न्यायात्, संविदा विषयव्यवस्थानस्याप्यक्रियार्थत्वारिक ~635~# Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [४], मूलं [२२६/गाथा-१७],नियुक्ति : [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत चारः गाथा [१७] दीप अनुक्रम श्रीआचा- यायाः प्राधान्यम् , अन्वयव्यतिरेकावपि क्रियायां समुपलभ्येते, यतः-सम्यचिकित्साविधिज्ञोऽपि यथाथौंषधावाप्ता-IP नयवि. राङ्गवृत्तिः भावपि उपयोगक्रियारहितो नोल्लाघतामेति, तथा चोक्तम्-"शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा, यस्तु क्रियावान् पुरुषः ॥ (शी०) स विद्वान् । संचिन्त्यतामौषधमातुरं हि, किं ज्ञानमात्रेण करोत्यरोगम् ॥१॥" तथा "क्रियैव फलदा पुसां, न ज्ञान फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्सुखितो भवेत् ॥१॥” इत्यादि, तस्क्रियायुक्तस्तु यथाऽभिलषितार्थ-12 ॥३१६॥ भाभवत्या भाग्भवत्यपि, कुत इति चेत् न हि दृष्टेऽनुपपन्नं नाम, न च सकललोकप्रत्यक्षसिद्धेऽर्थेऽन्यत्रमाणान्तरं मृग्यत इति, तथाऽऽमुष्मिकफलप्राध्यर्थिनाऽपि तपश्चरणादिका क्रियैव कर्तव्या, मौनीन्द्र प्रवचनमप्येवमेव व्यवस्थित, यत उक्तं'चइयकुलगणसङ्के आयरियाणं च पवयण सुए य । सव्वेसुऽवि तेण कयं तवसञ्जममुजमन्तेणं ॥१॥" इतश्चैतदेव-18 मङ्गीकर्तव्यं, यतस्तीर्थकृदादिभिः क्रियारहितं ज्ञानमप्यफलमुक्तं, उक्तं च-सुबहुं पि सुअमधीतं किं काहि चरणविप्पडण(मुक)स्स। अंधस्स जह पलित्ता दीवसतसहस्सकोडीवि ॥१॥" हशिक्रियापूर्वकक्रियाबिकलत्वात्तस्येति भावः, न केवलं क्षायोपशमिकाज्ज्ञानाक्रिया प्रधाना, क्षायिकादपि, यतः सत्यपि जीवाजीवाद्यखिलवस्तुपरिच्छेदके ज्ञाने समुल्लसिते न व्युपरतक्रियानिवर्तिध्यानक्रियामन्तरेण भवधारणीयकोच्छेदः, तदच्छेदाच्च न मोक्षावाप्तिरित्यतो न ज्ञानं प्रधान, चरणक्रियायां पुनरैहिकामुष्मिकफलावाप्तिरित्यतः सैव प्रधानभावमनुभवतीति, तदेवं ज्ञानमृते सम्यक्रियाया अभावः, तदभावाच तदर्थप्रवृत्तस्य ज्ञानस्य वैफल्यम् । एवमादीनां युक्तीनामुभयत्राप्युपलब्धेयाकुलितमतिः ID॥३१६॥ १ चमकलगणसके भाचार्य च प्रवचने श्रुते च । सवपि तेन कृतं तपःसंयमयोस्वच्छता ॥१॥२ सुबद्धपि श्रुतमधीतं कि फरिष्यति विहीणचरणस्य ! अन्धस्य यथा प्रदीप्ता दीपशतसइसकोव्यपि ॥१॥ NCC-%ACC65 [३३४] wwwandltimaryam ~636~23 Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत गाथा [१७] दीप अनुक्रम [३३४] Jan Eaton int “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ९ ], उद्देशक [४], मूलं [ २२६ / गाथा - १७], निर्युक्तिः [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः शिष्यः पृच्छति - किमिदानीं तत्त्वमस्तु ?, आचार्य आह- नन्वभिहितमेव विस्मरणशीलो देवानांप्रियो यथा ज्ञानक्रियानयाँ परस्परसव्यपेक्षौ सकलकर्मकन्दोच्छेदात्मकस्य मोक्षस्य कारणभूताविति, प्रदीप्त समस्त नगरान्तर्वर्त्तिपरस्परोपकार्यो|पकारकभावावाप्तानाबाधस्थानौ पवन्धाविवेति, तथा चोक्तम्- "संजोयसिद्धीऍ फलं वदन्तीत्यादि, स्वतन्त्रप्रवृत्तौ तु न विवक्षितकार्य साधयत इत्येतच्च प्रसिद्धमेव, यथा 'हयं गाण'मित्यादि, आगमेऽपि सर्वनयोपसंहारद्वारेणायमेवार्थोऽभिहितो, यथा- 'सब्बेसिंपि णयाणं बहुविहवत्तवयं णिसामेत्ता । तं सव्त्रणयविसुद्धं जं चरणगुणडिओ साहू ॥ १ ॥ त्ति', तदेतदाचाराङ्गं ज्ञानक्रियात्मकं अधिगतसम्यकूपधानां कुश्रुतसरित्कपायझपकुलाकुलं प्रियविप्रयोगा प्रियसंप्रयो| गाद्यनेक व्यसनोपनिपातमहावर्त्त मिथ्यात्वपवनेरणोपस्थापितभयशोकहा स्यरत्यरत्यादितरङ्गं विश्वसावेलाचितं व्याधिशतनक्रचक्रालयं महागम्भीरं भयजननं पश्यतां त्रासोत्पादकं महासंसारार्णवं साधूनामुत्तितीर्षतां तदुत्तरणसमर्थमव्याहतं यानपात्रमिति, अतो मुमुक्षुणाऽऽत्यन्तिकैकान्तिकानावाधं शाश्वतमनन्तमजरममरमक्षयमव्यावाधमुपरतसमस्तद्वन्द्वं सम्यग्दर्शनज्ञानत्रतचरणक्रियाकलापोपेतेन परमार्थपरमकार्यमनुत्तमं मोक्षस्थानं लिप्सुना समालम्बनीयमिति तदात्मकस्य ब्रह्मचर्याख्यश्रुतस्कन्धस्य निर्वृतिकुलीन श्री शीलाचार्येण तस्यादित्यापरनाम्ना वारिसाधुसहायेन कृता टीका परिसमाप्तेति । श्लोकतो ग्रन्थमानम् ॥ ९७६ ॥ १ संयोगसिद्धेः फलं वदन्ति (नैवैकचक्रेण रथः प्रयाति अन्य पक्ष ने समेल तो संप्रयुक्त नगरं प्रविष्टौ ॥ १६) २ इतं ज्ञानं धामपि नयानां बहुविधवान्यतां निशम्य तत्सर्वनयविशुद्धं यमारणगुणस्थितः साधुः ॥ १ ॥ For P&P Use On ~637~# Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत गाथा [१७] दीप अनुक्रम [३३४] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ३१७ ॥ *46*5643 %%%%%%%%% Jain Education Intemational “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ९ ], उद्देशक [४], मूलं [ २२६ / गाथा - १७], निर्युक्तिः [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः द्वासप्तत्यधिकेषु हि शतेषु सप्तसु गतेषु गुप्तानाम् । संवत्सरेषु मासि च भाद्रपदे शुरू शीलाचार्येण कृता गम्भूतायां स्थितेन टीकैषा । सम्यगुपयुज्य शोध्यं मात्सर्यविनाकृतैरायः कृत्वाऽऽचारस्य मया टीकां यत्किमपि संचितं पुण्यम् । तेनाशुयाज्जगदिदं निर्वृतिमतुलां सदाचारम् ॥ वर्णः पदमध वाक्यं पद्यादि च यन्मया परित्यक्तम्। तच्छोधनीयमत्र च व्यामोहः कस्य नो भवति १ ॥ ४ ॥ तत्त्वादित्यापराभिधानश्रीमच्छीलाचार्यविहिता वृत्तिर्ब्रह्मचर्यश्रुतस्कन्धस्य आचाराङ्गस्य समाप्ता ॥ इति श्रीमद्भद्रबाहुस्वामिसंदृब्धनिर्युक्ति संकलिताचाराङ्गप्रथम श्रुतस्कन्धस्य वृत्तिः श्रीबाहरिगणिविहितसाहाय्यकेन श्रीशीलाङ्काचार्येण तत्त्वा दित्यापराभिधानेन विहिताऽऽयाता संपूर्तिम् । For Fan & Prat Use Onl प्रथम श्रुतस्कंध: परिसमाप्तः ~638~# ॥ ३१७ ॥ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन -, उद्देशक [-], मूलं -],नियुक्ति: [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः * சேலைலைலைலகை ാറാക്കുന് ॥अर्हम् ॥ श्रीमच्छीलाङ्काचार्यविहितविवरणयुतं श्रीमद्भद्रबाहुस्वामिसूत्रितनियुक्तिनिचितं __ श्रीमत्सुधर्मस्वामिगणभृट्टब्ध श्रीमदाचाराङ्गसूत्रम् । Prespearप्रकाशयित्री-म्हेशाणानिवासिशा-लल्लभाई किशोरदास विहितपूर्णद्रव्यसाहाय्येन - शाहस्रचन्द्रास्मजवेणीचन्द्रद्वारा आगमोदयसमितिः । वीरसंवत् २४४२. विक्रमसंवत् १९७३. काईष्ट १९१६. प्रतवः ५००. पण्यं समास्य - गृहस्थानां 6-6-6. उत्तरविभागस्य २-४-- गृहल्याना :--- കാപ്പെല് wwwanatimarmarg द्वितीय-श्रुतस्कंध: आरब्ध: ~639~# Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [-], उद्देशक - मूलं [२२६...],नियुक्ति: [२८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२६/ गाथा ॥ अहम् ॥ • जयत्यनादिपर्यन्तमनेकगुणरत्नभृत् । न्यत्कृताशेषतीर्थेशं तीर्थ तीर्थाधिपर्नुतम् ॥१॥ नमः श्रीवर्द्धमानाय, सदाचारविधायिने । प्रणताशेषगीर्वाणचूडारत्नार्चिताईये ॥२॥ आचारमेरोर्गदितस्य लेशतः, प्रवच्मि तोषिकचूलिकागतम् । आरिप्सितेऽर्थे गुणवान् कृती सदा, जायेत निःशेषमशेषितक्रियः॥३॥ उक्तो नवब्रह्मचर्याध्ययनात्मक आचारभुतस्कन्धः, साम्प्रतं द्वितीयोऽयश्रुतस्कन्धः समारभ्यते, अस्य चायमभिस-1 म्बन्धः-उक्तं प्रागाचारपरिमाणं प्रतिपादयता, तद्यथा-"नबंभचेरमइओ अट्ठारसपयसहस्सिओ ओ । हवह य सपंचचूलो बहुबहुअयरो पयग्गेण ॥१॥" तत्राद्ये श्रुतस्कन्धे नवब्रह्मचर्याध्ययनानि प्रतिपादितानि, तेषु चन समस्तोऽपि विवक्षितोऽर्थोऽभिहितः अभिहितोऽपि सङ्केपतोऽतोऽनभिहितार्थाभिधानाय सोपोक्तस्य च प्रपञ्चाय तदनभूताश्चतन्त्रण्डा उक्कानुक्तार्थसमाहिकाः प्रतिपाद्यन्ते, तदात्मकश्च द्वितीयोऽयश्रुतस्कन्धः, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या प्रतन्यते, तत्र नामस्थापने अनादृत्य द्रव्याग्रनिक्षेपार्थं नियुक्तिकृदाह १°तविशेष. २ नंतम् ३ वीरनाथाय ४ भये ५ नवब्रह्मचर्यमयोऽष्टादशापदसदनको नेवः । भवति च सपश्चपूलो बाबातरः पदामेण ॥१॥ १७] दीप अनुक्रम [३३४] F OR अद्य द्वितीय श्रुतस्कंध आरभ्यते, .....[उपोद्घात गाथाएँ], प्रथम श्रुतस्कंधेन सह सम्बन्धस्य निरूपणं • प्रथम चूलिका आरब्धा, ~640~# Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [-], उद्देशक [-1, मूलं [२२६...], नियुक्ति: [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत श्रुतस्कं०२ सूत्रांक (शी०) [२२६/ गाथा श्रीआचा स काल कमगणणसंचए भावे । अग्गं भावे उ पहाणयहुये उवगारओ तिविहं ॥४॥ राङ्गवृत्तिः तत्र द्रव्यानं द्विधा-आगमतो नोआगमत इत्यादि भणित्वा व्यतिरिक्तं विधा-सचित्ताचित्तमिश्रद्रव्यस्य वृक्षकुन्ता उपक्रमः ४|| देर्यदप्रमिति, अवगाहनानं यद्यस्य द्रव्यस्याधस्तादवगादं तदवगाहना, तद्यथा-मनुष्यक्षेत्रे मन्दरवर्जानां पर्वतानामु-18 दाच्यचतुर्भागो भूमाषवगाढ इति मन्दराणां तु योजनसहस्रमिति, आदेशाग्रम् आदिश्यत इत्यादेशः-व्यापारनियोजना, अपशब्दोऽत्र परिमाणवाची, ततश्च यत्र परिमितानामादेशो दीयते तदादेशाग्रं, तद्यथा-त्रिभिः पुरुषैः कर्म कारयति तान् वा भोजयतीति, कालाग्रम्-अधिकमासकः, यदिवाऽनशब्दः परिमाणवाचकस्तत्रातीतकालोऽनादिरनागतोऽनन्तः सर्वाद्धा वा, क्रमाग्रं तु क्रमेण-परिपाट्याऽय क्रमागं, एतद् द्रव्यादि चतुर्विध, तत्र द्रव्याग्रमेकाणुकाद् व्यणुकं घणुकाद् त्र्यणुकमित्येवमादि । क्षेत्रामम्-एकप्रदेशावगाढाद् द्विप्रदेशावगाई, द्विप्रदेशावगाढाश्रिप्रदेशावगाढमित्यादि । काला ममेकसमयस्थितिकाद् द्विसमयस्थितिकं द्विसमयस्थितिकात्रिसमयस्थितिकमित्यादि, भावाग्रमेकगुणकृष्णाद् द्विगुणदि कृष्णं द्विगुणकृष्णात्रिगुणकृष्णमित्यादि, गणना तु सङ्ख्याधर्मस्थानात्स्थानं, दशगुणमित्यर्थः, तद्यथा-एको दश शतं सहनमित्यादि, सञ्चयाग्रं तु सञ्चितस्य द्रव्यस्य यदुपरि तत्सञ्चयाय, यथा साम्रोपस्करस्य सञ्चितस्योपरि शखः, भावाग्रं तु त्रिविध-प्रधानामं १ प्रभूतानम् २ उपकारानं ३ च, तत्र प्रधानानं सचित्तादि त्रिधा, सचित्तमपि द्विपदा R३१८॥ |दिभेदानिधैव, तत्र द्विपदेषु तीर्थकरश्चतुष्पदेषु सिंहः अपदेषु कल्पवृक्षः, अचित्तं वैडूर्यादि मिनं तीर्थकर एवालङ्कृत दीप अनुक्रम [३३४] S wataneltmanam अत्र निर्युक्ते: क्रमस्य मुद्रण-शुद्धिः न दृश्यते..... [यहाँ नियुक्ति के क्रममें ४,...५...६,... इत्यादि लिखा है, ये गलती है, ये क्रमांक- २८५,...२८६,...२८७,.. इत्यादि होना चाहिए क्योंकि पिछला नियुक्ति क्रम २८४ था, और आगे जाकर इसी सम्पादनमें द्वितीय अध्ययन से नियुक्ति गाथा क्रम २९८ से आरम्भ होता है | ~641~# Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२२६/ गाथा १७] दीप अनुक्रम [३३४] आ. सू. ५४ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२. ], अध्ययन [-] उद्देशक [-], मूलं [२२६...], निर्युक्ति: [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र -[०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः इति, प्रभूतार्थं त्वापेक्षिकं तद्यथा - "जीवा पोग्गल समया दव्ब पऐसा य पज्जवा चेव । थवाऽणतार्णता विसेसमहिया दुबे णंता ॥ १ ॥" अत्र च यथोत्तरमयं पर्यायायं तु सर्वाग्रमिति, उपकाराग्रं तु यत्पूर्वोक्तस्य विस्तरतोऽनुक्तस्य च प्रतिपादनादुपकारे वर्त्तते तद् यथा दशवैकालिकस्य चूडे, अयमेव वा श्रुतस्कन्ध आचारस्येत्यतोऽत्रोपकाराग्रेणाधिकार | इति ॥ आह च नियुक्तिकार : Jan Estication Intational उबयारेण उ पगयं आयारस्सेव उवरिमाई तु । रुक्खस्स य पब्वयस्स य जह अग्गाई तयाई ॥ ५ ॥ उपकाराग्रेणात्र प्रकृतम् - अधिकारः यस्मादेतान्याचारस्यैवोपरि वर्त्तन्ते, तदुक्तविशेषवादितया तत्संबद्धानि यथा वृक्षपर्वतादेरप्राणीति । शेषाणि त्वम्राणि शिष्यमतिव्युत्पत्त्यर्थमस्य चोपकाराग्रस्य सुखप्रतिपत्त्यर्थमिति, तदुक्तम्- “उच्चारि अस्स सरिसं जं केणइ तं परुवए विहिणा । जेणऽहिगारो तंमि उ परूविए होइ मुहगेज्झं ॥ १ ॥ तत्रेदमिदानीं वाच्यं केनैतानि निर्यूढानि ? किमर्थ ? कुतो वेति ?, अत आह— सीसहिअं होउ पागडत्थं च । आयाराओ अत्थो आयारंगेसु पविभन्तो ॥ ६ ॥ 'स्थविरैः' श्रुतवृद्धैश्चतुर्दश पूर्वविद्भिर्निर्व्यूढानीति, किमर्थं १, शिष्यहितं भवत्वितिकृत्वाऽनुग्रहार्थं, तथाऽप्रकटोऽर्थः १ जीवाः पुलाः समयाः (त्रैकालिकाः ) द्रव्याणि प्रदेशाथ पवावेद सारेकाः अनन्तगुणा अनन्तगुणा विशेषाधिकाः द्वयेऽनन्ताः (अनन्तगुणाः अनन्तगुणाः ) ॥ १ ॥ २ गायायां वा इत्यनेनोपालं. ३ उच्चारितस्य सरशं यत्केनचित् तत् प्ररूप्यते विधिना । येनाधिकार स्वस्थिस्तु प्ररूपिते भवति सुखप्रायम् ॥ १ ॥ For Party Use Onl octary org दृश्यते ...... | अत्र निर्युक्तेः क्रमस्य मुद्रण-शुद्धिः न [यहाँ निर्युक्ति के क्रममें ४, ५, ६, इत्यादि लिखा है, ये गलती है, ये क्रमांक- २८५, २८६, २८७.. इत्यादि होना चाहिए क्योंकि पिछला निर्युक्ति क्रम २८४ था, और आगे जाकर इसी सम्पादनमें द्वितीय अध्ययन से नियुक्ति गाथा क्रम २९८ से आरम्भ होता है | ~642 ~# Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२२६ / गाथा १७] दीप अनुक्रम [३३४] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ३१९ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२. ], अध्ययन [-] उद्देशक [-], मूलं [२२६...], निर्युक्ति: [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः प्रकटो यथा स्यादित्येवमर्थ च, कुतो निर्यूढानि ?, आचारात्सकाशात्समस्तोऽप्यर्थ आचाराग्रेषु विस्तरेण प्रविभक इति ॥ साम्प्रतं यद्यस्मान्निर्यूढं तद्विभागेनाचष्ट इति बिअस य पंचम अमगस्स विइयंमि उद्देसे । भणिओ पिंटो सिज्जा वत्थं पाउग्गहो चैव ॥ ७ ॥ पंचमस्स वस्थे इरिया वण्णिजई समासेणं । छट्ठस्स य पंचमए भासज्जायं वियाणाहि ॥ ८ ॥ सत्तिक्कगाणि सत्तवि निज्जूढाई महापरिन्नाओ । सत्थपरिन्ना भावण निज्जूढा उ धुय विमुक्ती ॥ ९ ॥ आयापकप्पो पुण पञ्चक्त्राणस्स तयवत्थूओ । आयारनामधिज्ञा वीसइमा पाहुडच्छेया ॥ १० ॥ ब्रह्मचर्याध्ययनानां द्वितीयमध्ययनं लोकविजयाख्यं तत्र पञ्चमोद्देशक इदं सूत्रम् - "सव्वामगंधं परिज्ञाय निरामगंधो परिष्वए" तत्रामग्रहणेन हननाद्यास्तिस्रः कोट्यो गृहीता गन्धोपादानादपरास्तिस्रः, एताः षडप्यविशोधिको व्यो गृहीताः, ताश्चेमाः स्वतो हन्ति घातयति नन्तमन्यमनुजानीते, तथा पश्चति पाचयति पचन्त (मन्य) मनुजानीत इति तथा तत्रैव सूत्रम् -- “ अदिस्समाणो कयविक्कएहिं "ति, अनेनापि तिस्रो विशोधिकोट्यो गृहीताः, ताश्चेमाः-कीणाति क्रापयति कीणन्तमन्यमनुजानीते, तथाऽष्टमस्य - विमोहाध्ययनस्य द्वितीयोदेशक इदं सूत्रम् — “भिक्खू परकमेज्जा चिद्वेज वा निसीएज वा तुयट्टिज वा सुसाणंसि वे” त्यादि यावद् “बहिया विहरिजा तं भिक्खु गाहावती उवसंकमित्तु वएजा ॥ २१९ ॥ अहमाउसंतो समणा ! तुम्भडाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई समारम्भ Estication Intemational For Paint Prata Use Only श्रुतस्कं० २ उपोद्घातः अत्र निर्युक्तेः क्रमस्य मुद्रण-शुद्धिः न दृश्यते....... [यहाँ निर्युक्ति के क्रममें ४, ५, ६, इत्यादि लिखा है, ये गलती है, ये क्रमांक- २८५, २८६, २८७.. इत्यादि होना चाहिए क्योंकि पिछला निर्युक्ति क्रम २८४ था, और आगे जाकर इसी सम्पादनमें द्वितीय अध्ययन से नियुक्ति गाथा क्रम २९८ से आरम्भ होता है | ~643 ~# Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [२२६...],नियुक्ति : [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक |२२६/ गाथा समुदिस्स कीर्य पामिश्च"मित्यादि, एतानि सर्वाण्यपि सूत्राण्याश्रित्येकादश पिण्डैषणा निर्यढाः, तथा तस्मिन्नेव द्विती याध्ययने पञ्चमोद्देशके सूत्रम्-"से बत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं उग्गहं च कडासण"मिति, तत्र वखकम्बलपा४दपुछनमहणावू वस्त्रैषणा नियूंढा, पतगृहपदात् पात्रैषणा नियूंढा, अवग्रह इत्येतस्मादवग्रहप्रतिमा निढा, कटास-II नमित्येतस्माच्छय्येति, तथा पञ्चमाध्ययनाषन्त्याख्यस्य चतुर्थोद्देशके सूत्रम्-"गामाणुगाम दूइज्जमाणस्स दुजायं | दुप्परिकत" इत्यादिनेया सझेपेण व्यावर्णितेत्यत एव ईयोध्ययनं निर्मूढम्, तथा षष्ठाध्ययनस्य धूताख्यस्य पञ्चमोद्देशके सूत्रम्-"आइक्खा विहयइ किट्टइ धम्मकामी"त्येतस्माझाषाजाताध्ययनमाकृष्टमित्येवं विजानीयास्त्वमिति । तथा| | महापरिज्ञाध्ययने सप्तोद्देशकास्तेभ्यः प्रत्येक सप्तापि सप्तकका नियूढाः, तथा शत्रपरिज्ञाध्ययनाद्भावना नियूंढा, तथा धूताध्ययनस्य द्वितीयचतुर्थोद्देशकाभ्यां विमुक्त्यध्ययनं नियूढमिति, तथा 'आचारप्रकल्पः निशीथः, स च प्रत्याख्यानपूर्वस्य यत्तृतीयं वस्तु तस्यापि यदाचाराख्यं विंशतितमं प्राभृतं ततो नियूंढ इति ॥ ब्रह्मचर्याध्ययनेभ्य आचाराग्राणि नियूंढान्यतो निघूहनाधिकारादेव तान्यपि शस्त्रपरिज्ञाध्ययनान्नि!ढानीति दर्शयति अव्योगडो उ भणिओ सत्यपरिन्नाय दंडनिक्खेवो । सो पुण विभजमाणो तहा तहा होइ नायब्वो॥११॥ 'अव्याकृतः' अव्यक्तोऽपरिस्फुट इतियावत् 'भणितः' प्रतिपादितः, कोऽसौ?-'दण्डनिक्षेपः' दण्डः-प्राणिपीडालक्षणस्तस्य निक्षेपः-परित्यागः संयम इत्यर्थः, स च शस्त्रपरिज्ञायामव्यक्तोऽभिहितो यतस्तेन पुनः विभज्यमानः अष्टस्वप्यध्ययनेष्वसाधेव तथा तथा अनेकप्रकारो ज्ञातव्यो भवतीति ॥ कथं पुनरय संयमः सोपाभिहितो विस्तार्यते । इत्याह दीप अनुक्रम [३३४] wwwjaanaitimaryam अत्र निर्युक्ते: क्रमस्य मुद्रण-शुद्धिः न दृश्यते.... [यहाँ नियुक्ति के क्रममें ४,...५...६,... इत्यादि लिखा है, ये गलती है, ये क्रमांक- २८५,...२८६,...२८७,.. इत्यादि होना चाहिए क्योंकि पिछला नियुक्ति क्रम २८४ था, और आगे जाकर इसी सम्पादनमें द्वितीय अध्ययन से नियुक्ति गाथा क्रम २९८ से आरम्भ होता है | ~644~# Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२२६/ गाथा १७] दीप अनुक्रम [३३४] श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ३२० ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ - ], उद्देशक [-], मूलं [२२६...],निर्युक्तिः [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः एगविहो पुण सो संजमुन्ति अज्झत्थ बाहिरो यदुहा । मणवयणकाय तिविहो चउम्विहो चाङजामो ॥१२॥ पंच य महव्वयाई तु पंचहा राइभोअणे छट्ठा। सीलंगसहस्वाणि य आयरस्सप्पवीभागा ॥ १३ ॥ अविरतिनिवृत्तिलक्षण एकविधः संयमः, स एवाध्यात्मिक वाह्यभेदाद् द्विधा भवति, पुनर्मनोवाक्काययोगभेदात्रिविधः, स एव चतुर्यामभेदाच्चतुर्धा, पुनः पञ्चमहाव्रतभेदात्पञ्चधा, रात्रीभोजनविरतिपरिग्रहाच पोढा, इत्यादिकया प्रक्रियया भिद्यमानो यावदष्टादशशीलाङ्गसहस्रपरिमाणो भवतीति ॥ किं पुनरसौ संयमस्तत्र तत्र प्रवचने पञ्चमहाव्रतरूपतया भिद्यते ? इत्याह आइक्खि विभइ विन्नाउं चैव सुहतरं होई । एएण कारणेणं महत्वया पंच पन्नता ॥ १४ ॥ संयमः पञ्चमहाव्रतरूपतया व्यवस्थापितः सन्नाख्यातुं विभक्तुं विज्ञातुं च सुखेनैव भवतीत्यतः कारणात्पञ्चमहानतानि प्रज्ञाप्यन्ते । एतानि च पञ्च महाव्रतानि अस्खलितानि फलवन्ति भवन्त्यतो रक्षायलो विधेयस्तदर्थमाहतेसिं च रक्खणट्टा य भावणा पंच पंच इक्किके । ता सत्यपरिन्नाए एसो अभितरो होई ।। १५ । 'तेषां च ' महाव्रतानामेकैकस्य तद्वृत्तिकल्पाः पञ्च पञ्च भावना भवन्ति, ताश्च द्वितीयाग्रश्रुतस्कन्धे प्रतिपाद्यन्तेऽतोऽयं शस्त्रपरिज्ञाध्ययनाभ्यन्तरो भवतीति ॥ साम्प्रतं चूडानां यथास्वं परिमाणमाहजावग्गहपडिमाओ पदमा सत्तिकमा बिइ अचूलो । भावण विमुत्ति आयारपक्कप्पा तिन्नि इअ पंच ॥ १६ ॥ १ अङ्गारसगस्त निष्फली प्र. एसो उ अम्भन्तरो होइ प्र. Estication intumatl For Parts Only श्रुतस्कं०२ उपोद्घातः ~ 645 ~# ॥ ३२० ॥ अत्र निर्युक्तेः क्रमस्य मुद्रण-शुद्धिः न दृश्यते....... [यहाँ निर्युक्ति के क्रममें ४, ५, ६, इत्यादि लिखा है, ये गलती है, ये क्रमांक- २८५, २८६, २८७.. इत्यादि होना चाहिए क्योंकि पिछला निर्युक्ति क्रम २८४ था, और आगे जाकर इसी सम्पादनमें द्वितीय अध्ययन से नियुक्ति गाथा क्रम २९८ से आरम्भ होता है | Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [१],नियुक्ति: [१६/२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: दीप अनुक्रम [३३५] | पिण्डैषणाध्ययनादारभ्यावग्रहप्रतिमाध्ययनं यावदेतानि सप्ताध्ययनानि प्रथमा चूडा, सप्तसप्तकका द्वितीया, भावना तृतीया, विमुक्तिश्चतुर्थी, आचारप्रकल्पो निशीथः, सा च पञ्चमी चूडेति । तत्र चूडाया निक्षेपो नामादिः पडिधः, नाम| स्थापने क्षुण्णे, द्रव्यचूडा व्यतिरिक्ता सचित्ता कुकुंटस्य अचित्ता मुकुटस्य चूडामणिः मिश्रा मयूरस्य, क्षेत्रचूडा लोकनिष्कुटरूपा, कालचूडाऽधिकमासकस्वभावा, भावचूडा त्वियमेव, क्षायोपशमिकभाववर्तित्वात् । इयं च सप्ताध्यसायनामिका, तत्राद्यमध्ययन पिण्डैपणा, तस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, यावन्नामनिष्पन्ने निक्षेपे पिण्डैपणाऽध्ययनं, तस्य निक्षेपद्वारेण सर्वा पिण्डनियुक्तिरत्र भणनीयेति ॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम् से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अगुपविट्रे समाणे से जं पुण जाणिजा-असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पाणेहिं वा पणगेहि वा वीपहिं वा हरिएहि वा संसर्त उम्मिस्सं सीमोदएण वा ओसित्तं रयसा वा परिचोसियं वा तहप्पगारं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं या परहत्थंसि वा परपायसि वा अफासुयं अणेसणिजंति मन्नमाणे लाभेऽवि संते नो पडिग्गाहिजा ॥ से य आहच पडिग्गहे सिया से तं आयाय एर्गतमवकमिजा, एगंतमवकमित्ता अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा अप्पंडे अप्पपाणे अप्पवीए अप्पहरिए अप्पोसे अपुदए अप्पुलिंगपणगद्गमट्टियमकडासंताणए विगिंचिय २ उम्मीसं विसोहिय २ तओ संजयामेव अँजिज वा पीइज्ज वा, जं च नो संचाइना भुत्तए वा पायए वा से तमायाय एगंतमवकमिजा, अहे झामथंडिलंसि वा अहिरासिसि वा किट्टरासिसि वा तुसरा१ परिवासियं प्र. एवं वृत्तावपि प्र. Manaithan.au अत्र नियुक्ति-क्रम १६/२९७ दृश्यते,......[ यहाँ हमने १६/२९७ ऐसा इसीलिए लिखा है कि--- इस प्रतके सम्पादनमे भूलसे १६ लिखा है, मगर आगे पीछे के क्रम को जोड़कर देखा तो यहाँ आखरी नियुक्ति का क्रम २९७ ही होता है, (हमारे अपने सम्पादन “आगम सत्ताणि सटिक "में हमने नियुक्ति का क्रम सुधार कर नया क्रम दे दिया +प्रथम चूलिकाया: प्रथम-अध्ययनं "पिण्डैषणा" आरब्धं ~646~# Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [1] दीप अनुक्रम [३३५ ] श्रीआचा राङ्कवृत्तिः (afto) ॥ ३२१ ॥ Jain Esticatos “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [१], निर्युक्तिः [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सिंसि वा गोमयरासिंसि वा अन्नयरंसि वा तहपगारंसि थंडिलंसि पडिलेहिय पडिलेहिय पमजिय पमजिय व संजयामेव परिट्टविजा || (सू० १ ) 'से' इति मागधदेशीवचनतः प्रथमान्तो निर्देशे वर्त्तते यः कश्चिद्भिक्षणशीलो भावभिक्षुर्मूलोत्तरगुणधारी विविधाभिग्रहरतः 'भिक्षुणी वा' साध्वी, स भावभिक्षुर्वेदनादिभिः कारणैराहारग्रहणं करोति, तानि चामूनि “वेअण १ वेआवच्चे २ इरियट्ठाए य ३ संजमट्टाए ४ । तह पाणवत्तियाए ५ छद्धं पुण धम्मचिंताए ६ ॥ १ ॥" इत्यादि, अमीषां मध्येऽन्यतमेनापि कारणेनाहारार्थी सन् गृहपतिः - गृहस्थस्तस्य कुलं गृहं तदनुप्रविष्टः किमर्थ ? - 'पिंडवायपडियाए 'त्ति पिण्डपातो - भिक्षालाभस्तत्प्रतिज्ञया - अहमन्त्र भिक्षां लप्स्य इति स प्रविष्टः सन् यत्पुनरशनादि जानीयात्, कथमिति दर्शयति- 'प्राणिभिः' रसजादिभिः 'पनकैः' उल्लीजीवैः संसक्तं 'बीजैः' गोधूमादिभिः 'हरितैः' दूर्वाऽङ्कुरादिभिः 'उन्मिश्रं' शबलीभूतं तथा शीतोदकेन वा 'अवसिक्तम्' आद्रीकृतं 'रजसा वा' सचित्तेन 'परिघासियं' ति परिगुण्डितं, कियद्वा वक्ष्यति ? ' तथाप्रकारम्' एवं जातीयमशुद्धमशनादि चतुर्विधमप्याहारं 'परहस्ते' दातृहस्ते परपात्रे वा स्थितम् 'अप्रासुकं' सचित्तम् 'अनेषणीयम्' आधाकर्मादिदोषदुष्टम् 'इति' एवं मन्यमानः 'स' भावभिक्षुः सत्यपि लाभे न प्रतिगृह्णीयादित्युत्सर्गतः, अपवादतस्तु द्रव्यादि ज्ञात्वा प्रतिगृह्णीयादपि, तत्र द्रव्यं दुर्लभद्रव्यं क्षेत्रं साधारणद्रव्यलाभरहितं सरजस्कादिभावितं वा कालो दुर्भिक्षादिः भावो ग्लानतादिः, इत्यादिभिः कारणैरुपस्थितैरल्पबहुत्वं ॥ ३२१ ॥ १ वेदना वैयावृत्त्यर्थं च संयमार्थ च तथा प्राणप्रत्ययाय एवं पुनर्धर्मचिन्तायै ॥ १ ॥ For Prata Use Only प्रथम चूलिकायाः प्रथम अध्ययनं “पिण्डैषणा, प्रथम उद्देशक: आरब्धः श्रुतस्कं० २ चूलिका १ [ पिण्डेष० १ उद्देशः १ ~647 ~# Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [१], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: दीप अनुक्रम [३३५]] पर्यालोच्य गीतार्थो गृह्णीयादिति ॥ अथ कथञ्चिदनाभोगात्संसक्तमागामिसत्त्वोन्मिश्रं वा गृहीतं तत्र विधिमाह'से आहच्चे'त्यादि स च भावभिक्षुः 'आहचे ति सहसा संसक्तादिकमाहारजातं कदाचिदनाभोगात्प्रतिगृह्णीयात् , स चानाभोगो दातृप्रतिगृहीतृपदद्वयाच्चतुर्धा योजनीय इति, 'तम्' एवंभूतमशुद्धमाहारमादायकान्तम् 'अपक्रामेत्' गच्छेत् , तं 'अपक्रम्य, गत्वेति । यत्र सागारिकाणामनालोकमसम्पातं च भवति तदेकान्तमनेकधेति दर्शयति| अधारामे वा अथोपाश्रये वा अथशब्दोऽनापातविशिष्टप्रदेशोपसङ्ग्रहार्थः, वाशब्दो विकल्पार्थः शून्यगृहाद्युपसम-3 हार्थो वा, तद्विशिनष्टि-'अल्पाण्डे' अल्पशब्दोऽभाववचनः, अपगताण्ड इत्यर्थः, एवमल्पबीजेऽल्पहरिते 'अल्पाव| श्यायें अवश्याय उदकसूक्ष्मतुपारः, अल्पोदके, तथा 'अल्पोत्तिङ्गपनकदगमृत्तिकामर्कटसन्तानके तत्रोत्तिङ्गस्तृणाताउदकबिन्दुः [भुजीतेत्युत्तरक्रियया सम्बन्धः] पनकः-उल्लीविशेषः, उदकप्रधाना मृत्तिका उदकमृत्तिकेति, मर्कट:-सू क्ष्मजीवविशेषस्तेषां सन्तानः, यदिवा मर्कटकसन्तानः-कोलियकः, तदेवमण्डादिदोषरहिते आरामादिके स्थण्डिले गत्वा । प्रारगृहीताहारस्य यत्संसक्तं तद् 'विविच्य विविच्य' त्यक्त्वा त्यक्त्वा, क्रियाऽभ्यावृत्त्याऽशुद्धस्य परित्यागनिःशेषतादमाह, 'उन्मियं वा' आगामुकसत्त्वसंवलितं सक्तुकादि ततः प्राणिनः 'विशोध्य विशोथ्य' अपनीयापनीय 'ततः तदनन्तरं शेषं शुद्धं परिज्ञाय सम्यग्यत एव भुञ्जीत पिबेद्वा रागद्वेषविप्रमुक्तः सन्निति, उक्तश्च-"बायालीसेसणसंकर्डमि १ वाचत्वारिपादेषणासंकटे गहने जीव ! मैव छलितः । इदानी यथा न अन्यसे भुगन् रागद्वेषाभ्यां ( तथा प्रवर्तख ) ॥ १॥ रागेण साझार द्वषेण सधूमकं विजानीहि । रागद्वेषविमुक्तो भुनीत वा निजैराप्रेक्षी ॥२॥ 82%4-5625584%A4%494 wwwandltimaryam ~648~# Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [१], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रुतस्कं०२ चूलिका १ पिण्डैष०१ उद्देशः१ दीप अनुक्रम [३३५]] श्रीआचा- गहणमि जीव ! ण हु छलिओ । इपिंह जह न छलिज्जसि भुंजतो रागदोसेहिं ॥ १॥ रागेण सइंगालं दोसेण सधूमगं राङ्गवृत्तिःवियाणाहि । रागद्दोसविमुको भुंजेज्जा निजरापेही ॥२॥" यच्चाहारादिकं पातुं भोक्तुं वा न शक्नुयात्प्राचुर्यादशुद्ध-|| (शी०) ४ पृथक्करणासम्भवाद्वा स भिक्षुः 'त' आहारजातमादायकान्तमपकामेत् , अपक्रम्य च तदाहारजातं 'परिष्ठापयेत्' त्यजे दिति सम्बन्धः, यत्र च परिष्ठापयेत्तदर्शयति-'अर्थ' आनन्तर्यार्थे वाशब्द उत्तरापेक्षया विकल्पार्थः 'झामे ति दग्धं ॥३२२॥ तस्मिन् वा स्थण्डिलेऽस्थिराशौ वा किट्टो-लोहादिमलस्तद्राशी वा तुषराशौ वा गोमयराशी वा, कियद्वा वक्ष्यते इत्युपसंहरति-अन्यतरराशौ वा 'तथाप्रकारे' पूर्वसदृशे प्रासुके स्थण्डिले गत्वा तत् प्रत्युपेक्ष्य प्रत्युपेक्ष्य अक्षणा प्रमृज्य || रजोहरणादिना, अत्रापि द्विवचनमादरख्यापनार्थमिति, प्रत्युपेक्षणप्रमार्जनपदाभ्यां सप्त भङ्गका भवन्ति, तद्यथा-अप्रत्युपेक्षितमप्रमार्जितम् १, अप्रत्युपेक्षितं प्रमार्जितं २, प्रत्युपेक्षितमप्रमार्जितं ३, तत्राप्यप्रत्युपेक्ष्य प्रमृजन् स्थानात्स्थानसङ्कमणेन सान् विराधयति, प्रत्युपेक्ष्याप्यप्रमृजन्नागन्तुकपृथ्वीकायादीन् विराधयतीति, चतुर्थभङ्गके तु चत्वारोऽमी तद्यथा-दुष्प्रत्युपेक्षितं दुष्प्रमार्जितं ४, दुष्प्रत्युपेक्षितं सुप्रमार्जितं ५, मुप्रत्युपेक्षितं दुष्प्रमार्जितं ६, सुप्रत्युपेक्षितं सुप्रमार्जितमिति ७, स्थापना । तत्रैवंभूते सप्तमभङ्गायाते स्थण्डिले 'संयत एव' सम्यगुपयुक्त एव शुद्धाशुद्धपुञ्जभागपरिकल्पनया 'परिष्ठापयेत् त्यजेदिति ॥ साम्प्रतमौषधिविषयं विधिमाह से भिक्खू वा भिक्खूणी वा गाहावइ० जाव पविढे समाणे से जाओ पुण ओसहीओ जाणिजा-कसिणामो सासियाओ अविदलकढाओ अतिरिच्छच्छिन्नाओ अबुच्छिण्णाओ तरुणियं वा छिबाहिं अणभितभजिय पेहाए अफासुर्थ अणेसणि ॥३२२॥ Jain Educatinintamathima wataneltmanam ~649~ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२] दीप अनुक्रम [३३६ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [२], निर्युक्तिः [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः अंति मन्त्रमाणे लाभे संते नो पडिग्गाहिज्जा ।। से भिक्खू वा० जाव पविट्टे समाणे से जाओ पुण ओसहीओ जाणिजा-अकसिणाओ असासियाओ विदलकडाओ तिरिच्छच्छिन्नाओ वुच्छिन्नाओ तरुणियं वा छिवार्ड अभितं भज्जियं पेहाए फासुयं एसणिकांति मन्त्रमाणे लाभे संते पडिग्गाहिजा || (सू० २) स भावभिक्षुर्गृहपतिकुलं प्रविष्टः सन् याः पुनः “औषधीः " शालिबीजादिकाः एवंभूता जानीयात्, तद्यथा - 'कसि - णाओ'त्ति 'कृत्स्नाः' सम्पूर्णा अनुपहताः, अत्र च द्रव्यभावाभ्यां चतुर्भङ्गिका, तत्र द्रव्यकृत्स्ना अशस्त्रोपहताः, भावकृत्स्नाः सचित्ताः, तत्र कृत्स्ना इत्यनेन चतुर्भङ्गकेष्वाद्यं भङ्गत्रयमुपात्तं, 'सासियाओत्ति, जीवस्य स्वाम् आत्मीयामुत्यत्तिं प्रत्याश्रयो यासु ताः स्वाश्रयाः, अविनष्टयोनय इत्यर्थः आगमे च कासाचिदौषधीनामविनष्टो योनिकालः पठ्यते, तदुक्तम् - " एतेसि णं भंते! सालीणं केवइअं कालं जोणी संचिढइ ?” इत्याद्यालापकाः, 'अविदलकडाओ'त्ति न द्विदलकृताः अद्विदलङ्कृताः, अनूर्ध्वपाटिता इत्यर्थः, 'अतिरिच्छच्छिन्नाओ'त्ति तिरश्चीनं छिन्नाः कन्दलीकृतास्तत्प्रतिषेधादतिरश्चीनच्छिन्नाः, एताश्च द्रव्यतः कृत्स्ना भावतो भाज्याः, 'अब्बोच्छिन्नाओ' त्ति व्यवच्छिन्ना-जीवरहिता न व्यवच्छिन्नाः अव्यवच्छिन्नाः, भावतः कृत्स्ना इत्यर्थः, तथा 'तरुणियं वा छिवार्डिं'ति, "तरुणीम्' अपरिपक्कां 'छिवाडि'न्ति मुद्गादेः फलिं, तामेव विशिनष्टि- 'अणभिकतभजियन्ति, नाभिक्रान्ता जीविताद् अनभिक्रान्ता, सचेतनेत्यर्थः, 'अभज्जियं' | अभग्नाम्-अमर्दितामविराधितामित्यर्थः, इति 'प्रेक्ष्य' दृष्ट्वा तदेवंभूतमाहारजातमप्रासुकमनेषणीयं वा मन्यमानो लाभे १ एतेषां भदन्त शालीनां कियन्तं कालं योनिः संतिष्ठति Etication Intimanal For Pantry Use Only ~650 ~# Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [२], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचारावृत्तिः (सी०) ॥३२३॥ दीप अनुक्रम [३३६]] सति न प्रतिगृह्णीयात् । साम्प्रतमेतदेव सूत्रं विपर्ययेणाह-स एव भावभिक्षुर्याः पुनरौषधीरेवं जानीयात् , तद्यथा-'अ- श्रुतस्क०२ कृत्स्नाः' असम्पूर्णा द्रव्यतो भावतश्च पूर्ववचर्चः, 'अस्वाश्नयाः' विनष्टयोनयः, 'द्विदलकृताः' ऊर्ध्वपाटिताः 'तिर- चूलिका १ चीनच्छिन्नाः' कन्दलीकृताः तथा तरुणिकां वा फलीं जीवितादपक्रान्ता भन्नां चेति, तदेवंभूतमाहारजातं प्रासुक-13 पिण्डैष०१ मेषणीयं च मन्यमानो लाभे सति कारणे गृह्णीयादिति ॥ ग्राह्याग्राह्याधिकार एवाहारविशेषमधिकृत्याह उद्देशः१ से भिक्खू वा जाप समाणे से जं पुण जाणिजा-पिहुयं वा बहुरयं वा भुंजियं वा मंथु वा चाउलं वा चाउलपलंबं वा सई संभजियं अफामुयं जाव नो पडिगाहिज्जा ।। से भिक्खू वा० जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा-पिहुयं वा जाव चाउलपलंब वा असई भजियं दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा भज्जियं फासुयं एसणिज जाव पटिगाहिजा ।। (सू०३) स भावभिक्षुहपतिकुलं प्रविष्टः सन् इत्यादि पूर्ववद्यावत् 'पिहुयं वत्ति पृथुकं जातावेकवचनं नवस्य शालिनीह्या-| दा देरग्निना ये लाजाः क्रियन्ते त इति, बहु रजः-तुषादिकं यस्मिंस्तद्बहुरजः, 'भुजियन्ति अग्यर्द्धपक्कं गोधूमादेः शीर्षकमन्यद्वा तिलगोधूमादि, तथा गोधूमादेः 'मन्धु' चूर्ण तथा 'चाउलाः' तन्दुलाः शालिबीह्यादेः त एव चूर्णीकृतातत्कणिका वा चाउलपलंबंति, तदेवंभूतं पृथुकाद्याहारजातं सकृद् एकवारं 'संभजिय'ति आमर्दितं किञ्चिदग्निना किश्चिदपरशस्त्रेणापासुकमनेपणीयं मन्यमानो लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात् ॥ एतद्विपरीतं ग्राह्यमित्याह-पूर्ववत्, नवरं यदसकृद्-अनेकशोऽयादिना पक्कमामर्दितं वा दुष्पवादिदोषरहितं प्रासुकं मन्यमानो लाभे सति गृह्णीयादिति ॥ ॥३२३॥ साम्प्रतं गृहपतिकुलप्रवेशविधिमाह wataneltmanam ~651~# Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [३३८] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [४], निर्युक्तिः [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं जाव पबिसिउकामे नो अन्नउत्थियण या गारत्थिएण वा परिहारिओ वा अप्परहारिएणं सद्धिं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिज्ज वा निक्खमिन वा ॥ से भिक्खु वा० बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा निक्खममाणे वा पविसमाणे वा नो अन्नउत्थिारण वा गारत्थिएण वा परिहारिओ वा अपरिहारिएण सद्धिं बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा निक्खभिजा वा पविसिज वा ॥ से भिक्खू वा० गामाणुगामं दूइजमाणे नो अन्नउत्थिपण वा जाव गामाणुगामं दूइजिजा ॥ ( सू० ४ ) भिक्षुर्याद्गृहपतिकुलं प्रष्टुकाम एभिर्वक्ष्यमाणैः सार्द्धं न प्रविशेत् प्राक् प्रविष्टो वा न निष्क्रामेदिति सम्बन्धः । यैः सह न प्रवेष्टव्यं तान् स्वनामग्राहमाह-तत्रान्यतीर्थिकाः - सरजस्कादयः 'गृहस्थाः पिण्डोपजीविनो धिग्जातिप्रभृतयः, तैः सह प्रविशताममी दोषाः, तद्यथा ते पृष्ठतो वा गच्छेयुरग्रतो वा तत्राप्रतो गच्छन्तो यदि साध्वनुवृत्त्या गच्छेयुस्ततस्तत्कृत ईर्याप्रत्ययः कर्मबन्धः प्रवचनलाघवं च तेषां वा स्वजात्याद्युत्कर्ष इति, अथ पृष्ठतस्ततस्तत्प्रद्वेषो दातुर्चाSभद्रकस्य, लाभं च दाता संविभज्य दद्यात्तेनात्र मौदर्यादौ दुर्भिक्षादों प्राणवृत्तिर्न स्यादित्येवमादयो दोषाः, तथा परिहरणं- परिहारस्तेन चरति पारिहारिकः- पिण्डदोषपरिहरणादुद्युक्तविहारी साधुरित्यर्थः, स एवंगुणकलितः साधुः 'अपरिहारिकेण' पार्श्वस्थावसन्नकुशीलसंसक्तयथाच्छन्दरूपेण न प्रविशेत्, तेन सह प्रविष्टानामनेषणीय भिक्षाग्रहणाग्रहणकृता दोषाः, तथाहि अनेषणीयग्रहणे तत्प्रवृत्तिरनुज्ञाता भवति, अग्रहणे तैः सहासङ्घडादयो दोषाः, तत एतान् दोषान् ज्ञात्वा साधुर्गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया तैः सह न प्रविशेनापि निष्क्रामेदिति ॥ तैः सह प्रसङ्गतोऽम्य Jan Estication Intemational For Pantry Use Only ~652~# Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [४], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रुतस्कं०२ चुलिका १ पिण्डैप०१ उद्देशः१ दीप अनुक्रम [३३८] श्रीआचा- त्रापि गमन प्रतिषेधमाह-स भिक्षुर्वहिः 'विचारभूमि' सज्ञाव्युत्सर्गभूमि तथा 'विहारभूमि' स्वाध्यायभूमि तैरन्यती-| राङ्गवृत्तिः Kार्थिकादिभिः सह दोपसम्भवास प्रविशेदिति सम्बन्धः, तथाहि-विचारभूमी प्रामुकोदकस्वच्छास्वच्छवहल्पनिर्लेपनकृतो- (शी०) पघातसद्भावाद्, विहारभूमी वा सिद्धान्तालापकविकत्यनभयात्सेहाद्यसहिष्णुकलहसद्भावाच साधुस्तां तैः सह न विशेन्नापि ततो निष्क्रामेदिति ॥ तथा-स भिक्षुामानामो ग्रामान्तरमुपलक्षणार्थत्वान्नगरादिकमपि 'दूइजमाणोति ॥३२४॥ गच्छन्नेभिरन्यतीथिकादिभिः सह दोषसम्भवान्न गच्छेत् , तथाहि-कायिक्यादिनिरोधे सत्यात्मविराधना, व्युत्सर्गे च प्रामुकामासुकग्रहणादावुपघातसंयमविराधने भवतः, एवं भोजनेऽपि दोषसम्भवो भावनीयः सेहादिविप्रतारणादिदोष-| श्चेति ॥ साम्प्रतं तद्दानप्रतिषेधार्थमाह से भिक्खू वा भिक्खूणी बा० जाच पविढे समाणे नो अन्नउत्थियस्स वा गारस्थिवस्स वा परिहारिओ वा अपरिहारियस्स असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा विजा वा अणुपइजा वा ।। (सू०५) | स भिक्षुर्यावद्गृहपतिकुलं प्रविष्टः सन्नुपलक्षणत्वादुपाश्रयस्थो वा तेभ्योऽन्यतीधिकादिभ्यो दोषसम्भवादशनादिकं ४ न दद्यात् स्वतो नाप्यनुप्रदापयेदपरेण गृहस्थादिनेति, तथाहि-तेभ्यो दीयमानं दृष्ट्वा लोकोऽभिमन्यते--एते ह्येवंविधानामपि दक्षिणार्हाः, अपि च-तदुपष्टम्भादसंयमप्रवर्त्तनादयो दोषा जायन्त इति ॥ पिण्डाधिकार एवानेषणीयविशेषप्रतिषेधमधिकृत्याह से भिक्खू वा. जाव समाणे असणं वा ४ अस्सिपडियाए एगं साहम्मियं समुहिस्स पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई समा ॥३२४॥ wataneltmanam ~653~# Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [६], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: दीप अनुक्रम [३४०]] रम्भ समुहिस्सकीय पामि अच्छिन्नं अणिसद्ध अभिहढं आहट्ट चेएइ, तं तहष्पगारं असणं वा ४ पुरिसंतरकर्ड या अपुरिसंतरकडं वा पहिया मीहई वा अनीहई वा अचट्ठियं वा अणत्तद्वियं वा परिभुतं वा अपरिगुतं वा आसेवियं वा अणासेवियं वा अफासुयं जाव नो पडिग्गाहिजा, एवं बहवे साहम्मिया एणं साहम्मिणि बहवे साहम्मिणीओ समुहिस्स चत्तारि आलाक्गा भाणियब्वा ।। (सू०६) स-भिक्षुर्यावद्गृहपतिकुलं प्रविष्टः सन्नेवंभूतमाहारजातं मो प्रतिगृह्णीयादिति सम्बन्धः, 'अस्संपडियाए'ति, न विद्यते स्व-द्रव्यमस्य सोऽयमस्वो-निम्रन्थ इत्यर्थः, तत्प्रतिज्ञया कश्चिद्गृहस्थः प्रकृतिभद्रक एक 'साधर्मिक' साधु 'समुदिश्य' अस्वोऽयमित्यभिसन्धाय 'प्राणिनो भूतानि जीवाः सत्त्वाश्च एतेषां किश्चिझेदाभेदः, तान् समारभ्येत्यनेन मध्यग्रहणात्संरम्भसमारम्भारम्भा गृहीताः, एतेषां च स्वरूपमिदम्-"संकप्पो संरभो परियावकरो भवे समारंभो । आरिंभो उद्दवओ सुद्धनयाणं तु सम्वेसि ॥ १ ॥” इत्येवं समारम्भादि 'समुद्दिश्य' अधिकृत्याधाकर्म कुर्यादिति, अनेन सर्वाऽविशुद्धिकोटिगृहीता, तथा 'क्रीतं मूल्यगृहीतं 'पामिचं' उच्छिन्नकम् 'आच्छेद्यं परस्माद्बलादाच्छिन्नम् 'अणि-14 सिह'ति 'अनिसृष्टं' तरस्वामिनाऽनुत्सङ्कलितं चोल्लकादि 'अभ्याहतं गृहस्थेनानीतं, तदेवंभूतं कीताबाहत्य 'चेएईत्ति मावदाति, अनेनापि समस्ता विशुद्धिकोटिगृहीता, 'तद्' आहारजातं चतुर्विधमपि 'तथाप्रकारम्' आधाकमोदिदोषदुष्ट पायो ददाति तस्मात्पुरुषादपरः पुरुषः पुरुषान्तरं तत्कृतं वा अपुरुषान्तरकृतं वा-तथा तेनैव दाना कृतं, तथा गृहानि १ संकल्पः संरम्भः परितापको भवेत् समारम्भः । आरम्न उपचवतः शुयनयानां च सर्वेषाम् ॥ १॥ wwwaunaltimaryam ~654~# Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [६], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: दीप अनुक्रम [३४०]] श्रीआचा-बर्गतमनिर्गत वा, तथा तेनैव दात्रा स्वीकृतमस्वीकृतं वा, तथा तेनैव दात्रा तस्माद्बहुपरिभुक्तमपरिभुक्तं वा, तथा स्तोक- श्रुतस्क०२ राङ्गवृत्तिःह मास्वादितमनास्वादितं वा, तदेवमप्रासुकमनेषणीयं च मन्यमानो लाभे सति न प्रतिगृह्णीयादिति । एतच्च प्रथमच-16चूलिका १ (शी०) दारमतीर्थकृतोरकल्पनीयं, मध्यमतीर्थकराणां चान्यस्य कृतमन्यस्य कल्पत इति । एवं बहन साधर्मिकान् समुद्दिश्य प्राग्व-1 पिण्डैष०१ चर्चः । तथा साध्वीसूत्रमप्येकत्वबहुत्वाभ्यां योजनीयमिति ॥ पुनरपि प्रकारान्तरेणाविशुद्धिकोटिमधिकृत्याह उद्देशः १ ॥३२५॥ से भिक्खू, पा० आव समाणे से जं पुण जाणिज्जा असणं वा ४ बहवे समणा माहणा अतिहि किवणवणीमए पगणिय २ समुधिस्स पाणाई वा ४ समारब्भ जाव नो पडिग्गाहिजा ।। (सू०७) | स भावभिक्षुर्यावद्गृहपतिकुलं प्रविष्टस्तद्यत्पुनरेवंभूतमशनादि जानीयात् , तद्यथा-बहून श्रमणानुद्दिश्य, ते च ४/पञ्चविधा:-निर्गन्धशाक्यतापसगरिकाजीविका इति, ब्राह्मणान् भोजनकालोपस्थाय्यपूर्वो वाऽतिथिस्तानिति कृपणा-5 &ादरिद्रास्तान् वणीमका बन्दिप्रायास्तानपि श्रमणादीन बहून् 'उद्दिश्य' प्रगणय्य प्रगणय्योद्दिशति, तद्यथा-द्वित्राः। श्रमणाः पञ्चषाः ब्राह्मणा इत्यादिना प्रकारेण श्रमणादीन् परिसइख्यातानुद्दिश्य, तथा प्राण्यादीन् समारभ्य यदशनादि संस्कृतं तदासेवितमनासेवितं वाऽपासुकमनेषणीयमाधाकर्म, एवं मन्यमानी लाभे सति न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ विशोधिकोटिमधिकृत्याहसे भिक्खू वा भिक्खूणी पा० आव पविढे समाणे से जं पुण जाणिज्जा-असणं वा ४ बहवे समणा मारणा अतिहिं किवण | ३२५॥ वणीभए समुदिस्स जाव चेएइ तं तहप्पगारं असणं वा ४ अपुरिसंतरकर्ड वा अबहियानीहडं अणत्तद्वियं अपरिनुत्तं wwwandltimaryam ~655~# Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [८], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: दीप अनुक्रम [३४२] MARACK अणासेवियं अफामुयं अणेसणिज्जं जाव नो पडिग्गाहिजा । अह पुण एवं जाणिज्जा पुरिसंतरकडं बहियानीहडं अत्तट्टियं परिभुत्तं आसेवियं फासुवं एसणिजं जाव पडिग्गाहिज्जा ।। (सू०८) | स भिक्षुर्यत्पुनरशनादि जानीयात्, किंभूतमिति दर्शयति-बहून् श्रमणब्राह्मणातिथिकृपणवणीमकान् समुद्दिश्य श्रमणाद्यर्थमिति यावत्, प्राणादींश्च समारभ्य यावदाहृत्य कश्चिद् गृहस्थो ददाति, तत्तथाप्रकारमशनाद्यपुरुषान्तरकृत-12 मबहिनिर्गतमनात्मीकृतमपरिभुक्तमनासेवितमप्रासुकमनेषणीयं मन्यमानो लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात् । इयं च “जाबतिया भिक्ख"त्ति, एतद्व्यत्ययेन ग्राह्यमाह-अथशब्दः पूर्वापेक्षी पुनःशब्दो विशेषणार्थः, अथ स भिक्षुः पुनरेवं जा-12 नीयात, तद्यथा-पुरुषान्तरकृतम्' अन्यार्थं कृतं बहिनिर्गतमात्मीकृतं परिभुक्तमासेवितं प्रासकमेषणीयं च ज्ञात्वा | लाभे सति प्रतिगृह्णीयात्, इदमुक्तं भवति-अविशोधिकोटिर्यथा तथा न कल्पते, विशोधिकोटिस्तु पुरुषान्तरकृतात्मीयकृतादिविशिष्टा कल्पत इति ॥ विशुद्धिकोटिमधिकृत्याह से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिउकामे से जाई पुण कुलाई जाणिज्जा-इमेसु खलु कुलेसु निइए पिंडे दिजइ अग्गपिंडे दिजाइ नियए भाए दिजइ नियए अवडुभाए बिजइ, तहपगाराई कुलाई निइयाई निउमाणाई नो भत्ताए वा पाणाए वा पविसिव वा निक्खमिज वा ।। एयं खलु तस्म भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सब्बट्रेहिं समिए सहिए सवा जए (सू०९)त्तिबेमि ।। पिण्डैषणाध्ययन आद्योद्देशकः ।। १-१-१॥ १ याचसो भिक्षा, walpatnamang ~656~# Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [८], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: (शी) दीप अनुक्रम [३४३] श्रीआचा-18| स भिक्षुर्याबद्गृहपतिकुलं प्रवेष्टुकामः से-तच्छब्दार्थे स च वाक्योपन्यासार्थः, यानि पुनरेवंभूतानि कुलानि जानीयात् श्रुतस्कं०२ राङ्गवृत्तिः तद्यथा-इमेषु कुलेषु 'खलु' वाक्यालङ्कारे 'नित्य प्रतिदिनं 'पिण्ड' पोषो दीयते, तथा अग्रपिण्डः-शाल्योदनादेः प्रथम- चूलिका १ मुदत्य भिक्षार्थ व्यवस्थाप्यते सोऽपिण्डो नित्यं भागः-अर्धपोपो दीयते, तथा नित्यमुपार्द्धभागः-पोपचतुर्थभागः, पिण्डैष०१ तथाप्रकाराणि कुलानि 'नित्यानि' नित्यदानयुक्तानि नित्यदानादेव 'निइउमाणाइ'न्ति नित्यम् 'उमाण'ति प्रवेशः स्वप- उद्देशः१ ॥ ३२६॥ क्षपरपक्षयोर्येषु तानि तथा, इदमुक्तं भवति-नित्यलाभात्तेषु स्वपक्षः-संयतवर्गः परपक्षा-अपरभिक्षाचरवर्गः सर्वो भिक्षार्थं प्रविशेत् , तानि च बहुभ्यो दातव्यमिति तथाभूतमेव पाकं कुर्युः, तत्र च षट्रायवधः, अल्पे च पाके तदन्तरायः कृतः। स्यादित्यतस्तानि नो भक्तार्थ पानार्थ वा प्रविशेन्निष्कामेद्वेति ॥ सर्वोपसंहारार्धमाहPL एतदिति यदादेरारभ्योक्तं खलुशब्दो वाक्यालङ्कारार्थः, एतत्तस्य भिक्षोः 'सामग्यं समग्रता यदुद्गमोसादनग्रहण षणासंयोजनाप्रमाणेङ्गालधूमकारणः सुपरिशुद्धस्य पिण्डस्योपादानं क्रियते तज्ज्ञानाचारसामभ्यं दर्शनचारित्रतपोवीयोंचारसंपन्नता चेति, अधवैतत्सामय्यं सूत्रेणैव दर्शयति-यत् 'सर्वार्थः सरसविरसादिभिराहारगतैः यदिवा रूपरसगन्धस्पर्शगतः सम्यगितः समितः, संयत इत्यर्थः, पञ्चभिवा समितिभिः समितः शुभेतरेषु रागद्वेषविरहित इतियावत्, एवंभूतश्च सह हितेन वर्तत इति सहितः, सहितो वा ज्ञानदर्शनचारित्रैः, एवंभूतश्च सदा 'यतेत' संयमयुक्तो भवेदित्युपदेशः, ब्रवीमीति जम्बूनामान सुधर्मस्वामीदमाह-भगवतः सकाशाच्छ्रत्वाऽहं ब्रवीमि, न तु स्वेच्छयेति । शेष पूर्ववदिति ॥ पिण्डैषणाध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः समाप्तः ।। ३२६॥ ~657~# Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१०], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: **** प्रत सूत्राक [१०] *** दीप अनुक्रम [३४४] उक्तः प्रथमोदेशका, साम्प्रतं द्वितीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धा-इहानन्तरोदेशके पिण्डः प्रतिपादितस्तदि-|| हापि सद्भतामेव विशुद्धकोटिमधिकृत्याह से भिक्खू पा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविढे समाणे से जं पुण जाणिजा-असणं वा ४ अहमिपोसहिएमु वा अद्वमासिएमु वा मासिएमु वा दोमासिएमु वा तेमासिएसु वा चाउम्मासिएमु वा पंचमासिएमु वा छम्मासिएसु वा उऊम वा उतसंधीसु वा उउपरियट्टेसु वा बहवे समणमाहणअतिहिकिवणवणीमगे एगाओ उक्सागो परिएसिजमाणे पहाए दोहिं उक्वाहि परिएसिजमाणे पेहाए तिहिं उक्साहिं परिएसिजमाणे पेहाए कुंभीमुहाओ वा कलोवाइओ वा संनिहिसंनिचयाओ वा परिणसिज्जमाणे पेहाए तहप्पगारं असणं वा ४ अपुरिसंतरकडं जाव अगासेविय अफासुर्य जाव नो पहिग्गाहिजा ।। अह पुण एवं जाणिज्जा पुरिसंतरकडं जाब आसेवियं फासुयं पडिग्गाहिजा ॥ (सू०१०) स भावभिक्षुर्यत्पुनरशनादिकमाहारमेवंभूतं जानीयात्, तद्यथा-अष्टम्यां पौषधः-उपवासादिकोऽष्टमीपौषधः सर 8 विद्यते येषां तेऽष्टमीपौषधिका-उत्सवाः तथाऽर्द्धमासिकादयश्च ऋतुसन्धिः-ऋतोः पर्यवसानम् ऋतुपरिवर्त:-ऋत्वन्तरम् , इत्यादिषु प्रकरणेषु बहन श्रमणब्राह्मणातिथिकृपणवणीमगामेकस्मास्पिठरका गृहीत्वा कूरादिक 'परिएसिज्जमा'त्ति तदीयमानाहारेण भोज्यमानान् 'प्रेक्ष्य' दृष्ट्वा, एवं द्विकादिकादपि पिठरकाद् गृहीत्वेत्यायोजनीयमिति, पिठरक एव सङ्कटमुखः कुम्भी, 'कलोवाइओ बत्ति पिच्छी पिटकं वा तस्माद्वैकस्माविति, सन्निधेः-गोरसादेः संनिचयस्तस्माद्वति, ['तओ एवंविहं जावंतिवं पिंड समणादीण परिएसिज्जमाणं पेहाए'ति,] एवंभूतं पिण्डं दीयमानं दृष्ट्वा अपुरुषा * * * wwwandltimaryam | प्रथम चूलिकाया: प्रथम-अध्ययनं "पिण्डैषणा", दवितीय-उद्देशक: आरब्ध: ~658~# Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [११], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: दीप अनुक्रम [३४५]] श्रीआचा- सन्तरकृतादिविशेषणमप्रासुकमनेषणीयमिति मन्यमानो लाभे सति न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ एतदेव सविशेषणं ग्राह्यमाह- श्रुतस्कं०२ राङ्गवृत्तिः अथ पुनः स भिक्षुरेवंभूतं जानीयात्तत्तो गृह्णीयादिति सम्बन्धः, तद्यथा-पुरुषान्तरकृतमित्यादि । साम्प्रतं येषु कुलेषु चूलिका १ (शी०) भिक्षार्थ प्रवेष्टव्यं तान्यधिकृत्याह पिण्डैष०१ से भिक्खू वा २ जाव समाणे से जाई पुण कुलाई जाणिना, संजहा–जग्गाकुलाणि वा भोगकुलाणि वा राइन्नकुलाणि उद्देशः२ ॥३२७॥ वा खत्तियकुलाणि वा इकूखागकुलाणि वा हरिवंसकुलाणि वा एसियकुलाणि वा पेसियकुलाणि वा गंडागकुलाणि वा कोट्टागफुलाणि वा गामरक्खकुलाणि वा बुकासकुलाणि वा अनयरेसु वा तहप्पगारेसु कुलेस अदुगुछिएसु अगरहिएसु असणं वा ४ फासुयं जाव पडिग्गाहिजा ।। (सू० ११) II स भिक्षुर्भिक्षार्थ प्रवेष्टुकामो यानि पुनरेवंभूतानि कुलानि जानीयात्तेषु प्रविशेदिति सम्बन्धः, तद्यथा-उग्रा-आर-2 दक्षिकाः, भोगा-राज्ञः पूज्यस्थानीयाः, राजन्या:-सखिस्थानीयाः, क्षत्रिया-राष्ट्रकूटादयः, इक्ष्वाकवा-ऋषभस्वामिवं-1 C शिकाः, हरिवंशाः-हरिवंशजाः अरिष्टनेमिवंशस्थानीयाः, 'एसित्ति गोष्ठाः, वैश्या-वणिजा, गण्डको-नापितः, यो हि ग्राम उद्घोषयति, कोडागा:-काष्ठतक्षका बर्द्धकिन इत्यर्थः, बोकशालिया:-तन्तुवायाः, कियन्तो वा वक्ष्यन्ते इत्युपसं-IN हरति-अन्यतरेषु वा तथाप्रकारेवजुगुप्सितेषु कुलेषु, नानादेशविनेयमुखप्रतिपत्त्यर्थ पर्यायान्तरेण दर्शयति-अगषेषु, यदिवा जुगुप्सितानि चर्मकारकुलादीनि गाणि-दास्यादिकुलानि तद्विपर्ययभूतेषु कुलेषु लभ्यमानमाहारादिकं प्रासुक| मेषणीयमिति मन्यमानो गृह्णीयादिति । तथा wataneltmanam ~659~# Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१२], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक [१२]] दीप RORRESERS.CACANSAL से भिक्खू वा २ आव समाणे से जे पुण जाणिजा-असणं वा ४ समवाएमु वा पिंडनियरेसु वा इदमहेसु वा खंदमहेसु वा एवं रुद्दमहेसु वा मुगुंदमहेसु वा भूयमहेसु वा जक्खमहेसु वा नागमहेसु वा थूभमहेमु वा घेइयमहेसु वा रुक्खमहेसु वा गिरिमहेसु वा दरिमहेसु वा अगडमहेसु वा तलागमहेसु वा दहमहेसु वा नइमहेसु वा सरमहेसु वा सागरमहेसु वा आगरमहसु वा अन्नवरेसु वा तहप्पगारेसु विरूवरूवेमु महामहेसु वट्टमाणेसु बहवे समणमाहणअतिहिकिवणवणीमगे एगाभो उक्खाओ परिएसिजमाणे पेहाए दोहिं जाव संनिहिसंनिचयाओ वा परिएसिजमाणे पेहाए तहप्पगारं असणं वा ४ अपुरिसंतरकर्ड जाव नो पडिग्गाहिजा । अह पुण एवं जाणिजा दिन्नं जं तेसिं दायव्य, अह तत्थ भुंजमाणे पेहाए गाहावइभारियं वा गाहावइभगिणि वा गाहावइपुत्तं वा धूयं वा सुण्डं वा धाई वा दासं वा दासिं था कम्मकर वा कम्मकरि वा से पुब्बामेव आलोइजा-आउसित्ति वा भगिणित्ति वा दाहिसि मे इसो अन्नयरं भोयणजायं, से सेवं वर्यतस्स परो असणं वा ४ आहटु दलइजा तहप्पगार असणं वा ४ सयं वा पुण जाइमा परो वा से दिजा फासुर्य जाब पडिग्गाहिजा ।। (सू०१२) स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतमाहारादिकं जानीयात्तदपुरुषान्तरकृतादिविशेषणमप्रासुकमनेषणीयमिति मन्यमानो नो गृह्णी- यादिति सम्बन्धः, तत्र समवायो-मेलकः शङ्खच्छेदश्रेण्यादेः पिण्डनिकरः-पितृपिण्डो मृतकभक्तमित्यर्थः, इन्द्रोत्सव: प्रतीतः स्कन्दः-स्वामिकार्तिकेयस्तस्य महिमा-पूजा विशिष्टे काले क्रियते, रुद्रादयः-प्रतीताः नवरं मुकुन्दो-बलदेवः, दातदेवभूतेषु नानाप्रकारेषु प्रकरणेषु सत्सु तेषु च यदि यः कश्चिच्छ्रमणब्राह्मणातिथिकृपणवणीमगादिरापतति तस्मै स अनुक्रम [३४६] ~660~# Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१२] दीप अनुक्रम [ ३४६ ] श्री आचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ।। ३२८ ।। “आचार” - अंगसूत्र-१ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१२], निर्युक्तिः [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः |र्वस्मै दीयत इति मन्यमानोऽपुरुषान्तरकृतादिविशेषणविशिष्टमाहारादिकं न गृह्णीयात्, अथापि सर्वस्मै न दीयते तथा ऽपि जनाकीर्णमिति मन्यमान एवंभूते सङ्घडिविशेषे न प्रविशेदिति ॥ एतदेव सविशेषणं ग्राह्यमाह अथ पुनरेवंभूत माहारादिकं जानीयात् तद्यथा-दत्तं यत्तेभ्यः श्रमणादिभ्यो दातव्यम्, 'अथ' अनन्तरं तत्र स्वत एव तान् गृहस्थान भुञ्जानान् 'प्रेक्ष्य' दृष्ट्वाऽऽहारार्थी तत्र यायात्, तान् गृहस्थान् स्वनामग्राहमाह, तद्यथा - गृहप तिभार्यादिकं भुञ्जानं पूर्वमेव 'आलोकयेत्' पश्येत् प्रभुं प्रभुसंदिष्टं वा ब्रूयात्, तद्यथा-आयुष्मति ! भगिनि । इत्यादि, | दास्यसि मामन्यतरद्भोजनजातमिति, एवं वदते साधवे परो-गृहस्थ आहृत्याशनादिकं दद्यात्, तत्र च जनसङ्कुलस्वात्सति वाऽन्यस्मिन् कारणे स्वत एव साधुर्याचेत्, अयाचितो वा गृहस्थो दद्यात् तत्प्रासुकमेषणीयमिति मन्यमानो गृह्णीयादिति ॥ अन्यग्रामचिन्तामधिकृत्याह Jan Estication Intemational से भिक्खू वा २ परं अद्धजोयणमेराए संखद्धिं नथा संखडिपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए । से भिक्खू वा २ पाईणं संखडि नचा पडणं गच्छे अणाढायमाणे, पडीणं संखर्डि नथा पाईणं गच्छे अणाढायमाणे, दाहिणं संखा तथा उदीणं गच्छे अणाढायमाणे, उईणं संखfs नया दाहिणं गच्छे अणाढायमाणे जत्येव सा संखडि सिया, तंजा मंसि वा नगरंसि वा खेडंसि वा कब्बडंसि वा महंयंसि वा पट्टणंसि वा आगरंसि वा दोणमुहंसि वा नेगमंसि वा आसमंसि वा संनिवेसंसि वा जाव रायहाणिसि वा संखार्ड संखडिपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए, केवली सूया आयाणमेयं संखद्धिं संखढिपडियाए अभिधारेमाणे आहाकम्मियं वा उद्देसियं वा मीसजायं वा कीयगडं वा पा For Pantry Use Only ~661~# * श्रुतस्कं० २ ४ चूलिका १ पिण्डैष०१ उद्देशः २ ॥ ३२८ ॥ Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१३...], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत BEST सूत्राक [१३]] दीप अनुक्रम [३४७..] मिश्र वा अच्छिज्ज वा अणिसिह वा अभिहडं वा आहहु दिजमाणं भुजिजा ॥ स भिक्षुः 'परं' प्रकर्षेणार्द्धयोजनमात्रे क्षेत्रे संखण्ज्यन्ते-विराध्यन्ते प्राणिनो यत्र सा सङ्कडिस्तां ज्ञात्वा तत्पतिज्ञया नाभिसंधारयेत्' न पर्यालोचयेत्तत्र गमनमिति, न तत्र गच्छेदितियावत् ॥ यदि पुनर्नामेषु परिपाव्या पूर्वप्रवृत्तं गमनं || तत्र च सङ्खडिं परिज्ञाय यद्विधेयं तद्दशयितुमाहPI स भिक्षुर्यदि 'प्राचीनां पूर्वस्यां दिशि संखडिं जानीयात्ततः 'प्रतीचीनम्' अपरदिग्भागं गच्छेत् , अथ प्रतीचीनां जानीयात्ततः प्राचीनं गच्छेत् , एवमुत्तरत्रापि व्यत्ययो योजनीयः, कथं गच्छेत् -'अनाद्रियमाणः' सङ्खडिमनादरयन्नित्यर्थः, एतदुक्तं भवति यत्रैवासी सङ्खडिः स्यात्तत्र न गन्तव्यमिति, क चासौ स्यादिति दर्शयति, तद्यथा-ग्रामे वा प्राचुर्येण ग्रामधर्मोपेतत्वात्, करादिगम्यो वा ग्रामः, नास्मिन् करोऽस्तीति नकर, धूलिप्राकारोपेतं खेट, कर्बट-कुन-15 गरे, सर्वतोऽर्द्धयोजनासरेण स्थितग्राम मडम्बं पत्तनं यस्य जलस्थलपथयोरन्यतरेण पर्याहारप्रवेशः, आकर:-तायादिदेरुत्पत्तिस्थानं, द्रोणमुखं यस्य जलस्थलपथावुभावपि, निगमा-वणिजस्तेषां स्थान नैगमम् , आश्रमं यत्तीर्थस्थानं, राज धानी-यत्र राजा स्वयं तिष्ठति, सन्निवेशो यत्र प्रभूतानां भाण्डानां प्रवेश इति, तत्रैतेषु स्थानेषु सङ्खडिं ज्ञात्वा सङ्क डिप्रतिज्ञया न गमनम् 'अभिसंधारयेत्' न पोलोचयेत्, किमिति , यतः केवली ब्रूयात् 'आदानमेतत् कर्मोपादानसमेतदिति, पाठान्तरं वा 'आययणमेय'ति आयतनं-स्थानमेतदोषाणां यत्सङ्खडीगमनमिति, कथं दोषाणामायतनमिति का दर्शयति-संखटि संखडिपडियाए'त्ति, या या सङ्कडिस्तां ताम् 'अभिसन्धारयतः' तातिज्ञया गच्छतः साधोरवश्यमे wwwandltimaryam ~662~# Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [...१३], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूनाका [१३] दीप अनुक्रम श्रीआचा तेषां मध्येऽन्यतमो दोषः स्यात्, तद्यथा-आधाकर्म वा औद्देशिकं वा मिश्रजातं वा क्रीतकृतं वा उद्यतकं वा आच्छेद्यं श्रुतस्क०२ राङ्गवृत्तिःवा अनिसृष्टम (टं वाऽ)भ्याहृतमि( तं बेति,) एतेषां दोषाणामन्यतमदोषदुष्टं भुञ्जीत, स हि प्रकरणकर्तवमभिसंधार- चूलिका १ (शी०) येत्-यथाऽयं यतिर्मताकरणमुद्दिश्यहायातः, तदस्य मया येन केनचित्प्रकारेण देवमित्यभिसन्धायाधाकर्मादि विदध्या-18 पिण्डैष०१ दिति, यदिवा यो हि लोलुपतया सङ्कडिप्रतिज्ञया गच्छेत् स तत एवाधाकर्माद्यपि भुञ्जीतेति ॥ किश्व--सङ्खडिनिमि-पट। | उद्देशः२ ॥३२९॥ तमागच्छतः साधूनुद्दिश्य गृहस्थ एवंभूता बसतीः कुर्यादित्याह अस्संजए भिक्खुपडियाए खुड़ियदुवारियाओ महल्लियदुवारियाओ कुजा, महल्लियदुवारियाओ खुड़ियदुवारियाओ कुजा, समाओ सिज्जाओ विसमाओ कुजा, विसमाओ सिज्जाओ समाओ कुजा, पवायाओ सिनाओ निवायाओ कुशा, निवायाओ सिजाओ पवायाओ कुना, अंतो वा बहिं वा उवस्सथस्स हरियाणि छिदिय छिंदिय दालिय दालिय संथारगं संधारिजा, एस विलुंगयामो सिजाए, तम्हा से संजए निबंठे तहप्पगारं पुरेसंखडि वा पच्छासंखडिं वा संखडि संखडिपडियाए नो अभिसं धारिमा गमणाए, एवं खलु तस्स भिक्खुस्स जाव सया जए (सू० १३) तिबेमि ।। पिण्डषणाध्ययने द्वितीयः १-१-२ 'असंयतः' गृहस्थः स च श्रावकः प्रकृतिभद्रको वा स्यात्, तत्रासौ साधुप्रतिज्ञया क्षुद्रद्वारा:-सङ्कटद्वाराः सत्यस्ता महाद्वाराः कुर्यात् , व्यत्ययं वा कार्यापेक्षया कुर्यात् , तथा समाः शय्या-बसतयो विषमाः सागारिकापातभयात् कुर्यात् , साधुसमाधानार्थ वा व्यत्ययं कुर्यात् , तथा प्रवाताः शय्याः शीतभयानिवाताः कुर्यात्, ग्रीष्मकालापेक्षया वा व्यत्यय | ||३२ |विदध्यादिति, तथाऽन्तः-मध्ये उपाश्रयस्य बहिवा हरितानि छित्त्वा छित्त्वा विदार्य विदार्य उपाश्रयं संस्कुर्यात् , संस्ता [..३४७] wwwandltimaryam ~663~# Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१३], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक रकं वा संस्तारयेत् , गृहस्थश्चानेनाभिसन्धानेन संस्कुर्याद्-यथैषः-साधुः शय्यायाः संस्कारे विधातव्ये 'विलुंगयामोत्ति निर्ग्रन्थः अकिश्चन इत्यतः स गृहस्थः कारणे संयतो वा स्वयमेव संस्कारयेदित्युपसंहरति-तस्मात् 'तथाप्रकाराम्' अने कदोषदुष्टां सङ्कडि विज्ञाय सा पुरःसङ्कडिः पश्चात्सङ्खडिवो भवेत् , जातनामकरणविवाहादिका पुरःसङ्घडिः तथा| ४ मृतकसङ्कडिः पश्चात्सङ्कडिरिति, यदिवा पुर:-अग्रतः सङ्खडिभविष्यति अतोऽनागतमेव यायात्, वसतिं वा गृहस्थः संस्कुर्यात् , वृत्ता वा सङ्घडिरतोऽत्र तच्छेपोपभोगाय साधवः समागच्छेयुरिति, सर्वथा सर्वां सङ्घडि सङ्खडिप्रतिज्ञया सानोऽभिसंधारयेत्' न पर्यालोचयेद्गमनक्रियामिति, एवं तस्य भिक्षोः सामग्य-सम्पूर्णता भिक्षुभाषस्य यत्सर्वथा सल-IN डिवर्जनमिति ॥ प्रथमस्य द्वितीयः समाप्तः ।। [१३]] दीप अनुक्रम [३४७]] उक्तो द्वितीयः, साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके दोषसंभवात्सङ्खडिगमनं निषिद्धं, प्रकारान्तरेणापि तद्गतानेव दोषानाह से एगइओ अन्नयर संखडिं आसित्ता पिबित्ता छडिज वा वमिज वा भुत्ते वा से नो सम्म परिणमिजा अन्नपरे वा से दुक्खे रोगायके समुप्पजिजा केवली बूया आयाणमेयं ॥ (सू०१४) इह खलु भिक्खू गाहावईहि था गाहावईणीहिं वा परिवायएहिं वा परिवाईयाहि वा एगजं सद्धिं सुंई पाउं भो वइमिस्स हुरत्या वा उवस्सयं पडिलेहेमाणो नो लभिजा तमेव उवस्सयं संमिस्सीभावमावजिजा, अन्नमणे वा से मत्ते विपरियासियभूए इविविग्गहे ना किलीचे वा तं भिक्खु www.onditimaryam | प्रथम चूलिकाया: प्रथम-अध्ययनं "पिण्डैषणा", तृतीय-उद्देशक: आरब्धः ~664~# Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [१५], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी) ॥३३॥ दीप अनुक्रम [३४९] • उपसंकमित्तु बूथा-भाउसंती समणा! अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयसि वा राओ वा वियाले वा गामधम्मनियंतिय श्रुतस्कं०२ कटु रहस्सियं मेहुणधम्मपरियारणार आउट्टामो, तं चेवेगईओ सातिजिजा-अकरणि चेयं संखाए एए आयाणा चूलिका १ (आवतणाणि) संति संविजमाणा पञ्चवाया भवति, तम्हा से संजए नियंठे तहप्पगार पुरेसंखडिं चा पच्छासंखडिं वा पिण्डप०१ संखडिं संखढिपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए । (सू०१५) उद्देशः३ द्र स भिक्षुः 'एकदा कदाचिद् एकचरो वा 'अन्यतरां' काञ्चित्पुर सङ्घडि पश्चात्सङ्घडि वा 'सङ्खडि मिति सङ्कडिभ तम् 'आस्वाय भुक्त्वा तथा पीत्वा शिखरिणीदुग्धादि, तच्चातिलोलुपतया रसगृङ्ख्याऽऽहारितं सत् 'छडेज वा छर्दैि विदध्यात्, कदाचिच्चापरिणतं सद्विशूचिकां कुर्यात् , अन्यतरो वा रोगः-कुष्ठादिकः आतङ्कस्त्वाशुजीवितापहारी शूलाद्रादिकः समुत्पधेत, केवली-सर्वज्ञो यात्, यथा 'एतत् सङ्खडीभक्तम् 'आदानं' कर्मोपादानं वर्तत इति । यथैतदा दानं भवति तथा दर्शयति-इहेति सङ्कडिस्थानेऽस्मिन् वा भवेऽमी अपायाः आमुष्मिकास्तु दुर्गतिगमनादयः, खलु-1 शब्दो वाक्यालङ्कारे, भिक्षणशीलो भिक्षः स गृहपतिभिस्तद्धार्याभिर्वा परिव्राजकः परित्राजिकाभिर्वा सार्द्धमेकद्यम्-एक-15 वाक्यतया संप्रधार्य 'भो' इत्यामन्त्रणे एतानामन्य चैतदर्शयति-सङ्खडिगतस्य लोलुपतया सर्व संभाव्यत इत्यतस्तै~तिमिनं 'सॉर्ड'ति सीधुमन्यद्धा प्रसन्नादिकं 'पातुं' पीत्वा ततः 'हुरवत्था वा बहिर्वा निर्गत्योपाश्रयं याचेत, यदा च प्रत्युपेक्षमाणो विवक्षितमुपाश्रयं न लभेत ततस्तमेवोपाश्रयं यत्रासौ सङ्घडिस्तत्रान्यत्र वा गृहस्थपरिवाजिकादिभिर्मि-151॥३३॥ ६ श्रीभावमापयेत, तत्र चासावन्यमना मत्तो गृहस्थादिको विपर्यासीभूत आत्मानं न स्मरति, स वा भिक्षुरात्मानं न स्मरेत् | ~665~# Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [१५], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत |१५ दीप अनुक्रम [३४९] अस्मरणाचैवं चिन्तयेद्-यथाऽहं गृहस्थ एव, यदिवा-स्त्रीविग्रहे शरीरे 'विपर्यासीभूतः' अध्युपपन्नः 'क्लीचे वा' नपुंसके वा, सा च स्त्री नपुंसको वा, तं भिक्षुम् 'उपसङ्क्रम्य' आसन्नीभूय यात्, तद्यथा-आयुष्मन् ! श्रमण ! खया सहै कान्तमहं प्रार्थयामि, तद्यथा-आरामे वोपाश्रये वा कालतश्च रात्री वा विकाले वा, तं भिक्षु प्रामधमैंः-विषयोपभोगगतैमायापारैनियन्त्रितं कृत्वा, तद्यथा-मम त्वया विप्रियं न विधेयं, प्रत्यहमहमनुसर्पणीयेति, एवमादिभिर्नियम्य प्रामासन्ने ४वा कुत्रचिद्रहसि मिथुन-दाम्पत्यं तत्र भवं मैथुनम्-अब्रह्मेति तस्य धर्माः-तद्गता व्यापारास्तेषां परियारणा-आसेवना तया 'आउद्दामो'त्ति प्रवद्महे, इदमुक्तं भवति-साधुमुद्दिश्य रहसि मैथुनप्रार्थना काचित्कुर्यात् , तां चैकः कश्चिदेकाकी वा 'साइजेज'त्ति अभ्युपगच्छेत् , अकरणीयमेतद् एवं 'सङ्ख्याय' ज्ञात्वा सङ्घडिगमनं न कुर्याद् , यस्मादेतानि 'आयतनानि कर्मोपादानकारणानि 'सन्ति' भवन्ति 'संचीयमानानि' प्रतिक्षणमुपचीयमानानि, इदमुक्कं भवति-अ-18 दान्यास्यपि कर्मोपादानकारणानि भवेयुः, यत एवमादिकाः प्रत्यपाया भवन्ति तस्मादसी संयतो निर्ग्रन्थस्तथाप्रकारां स-1 डिं पुरःसङ्खडिं पश्चात्सङ्कडिं वा सङ्कडिं ज्ञात्वा सङ्घडिप्रतिज्ञया 'नाभिसंधारयेद् गमनाय' गन्तुं न पर्यालोचयेदित्यर्थः । तथा से भिक्खू वा २ अन्नयरिं संखडिं सुच्चा निसम्म संपहावइ उस्सुयभूएण अप्पाणेणं, धुवा संखडी, नो संचाएइ तत्व इयरेयरेहि कुलेहिं सामुदाणियं एसिय बेसिव पिंडवार्य पडिग्गाहित्ता आहारं आहारित्तए, माइहाणं संफासे, नो एवं करिजा ॥ से तत्व कालेण अणुपथिसित्ता तस्थियरेयरेहिं कुलेहिं सामुदाणिय एसियं वेसियं पिंडवार्य पढिगाहित्ता आहार आहारिजा ॥ (सू. १६) भा. सू. ५६ Likok awajanslitnarmarg ~666~# Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [3], मूलं [१६], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत [१६] दीप श्रीआचा- II स भिक्षुरन्यतरां पुरसङ्गाडि पश्चात्सङ्खडिं वा श्रुत्वाऽन्यतः स्वतो वा 'निशम्य' निश्चित्य कुतश्विद्धेतोस्ततस्तदभिमुख श्रुतस्कं०२ रावृत्तिः संप्रधावत्युत्सुकभूतेनात्मना-यथा ममात्र भविष्यत्यद्भुतभूतं भोज्य, यतस्तत्र 'भुवा' निश्चिता सलडिरस्ति, 'नो संचाए- चूलिका १ (शी०) इत्ति न शक्नोति 'तन्त्र' सबडिग्रामे इतरेतरेभ्यः कुलेभ्यः सङ्गडिरहितेभ्यः 'सामुयाणिय'ति भैक्षं, किम्भूतम्-'एपणी- पिण्डप०१ यम्'आधाकर्मादिदोषरहितं 'वेसियंति केवलरजोहरणादिवेषाल्लब्धमुत्पादनादिदोषरहितम् , एवंभूतं पिण्डपातम्-आहार उद्देशः३ ॥३३१॥ परिगृह्याभ्यवहर्तुं न शक्नोतीति सम्बन्धः, तत्र चासौ मातृस्थानं संस्पृशेत्, तस्य मातृस्थानं संभाव्येत, कथं ?-यद्यपी-14 तरकुलाहारप्रतिज्ञया गतो, न चासौ तमभ्यवहर्तुमलं पूर्वोक्तया नीत्या, ततोऽसौ सङ्खडिमेव गच्छेत् , एवं च मातृस्थानं तस्य संभाव्येत, तस्मान्नवं कुर्याद्-पेहिकामुष्मिकापायभयात् सङ्कडिग्रामगमनं न विदध्यादिति ॥ यथा च कुर्यात्तथाऽऽहKासा' भिक्षः तत्र' सङ्कडिनिवेशे कालेनानप्रविश्य तत्रेतरेतरेभ्यो गृहेभ्यः उग्रकलादिभ्यः 'सामुदानिक' समदान-भिक्षा तत्र भवं सामुदानिकम् 'एपणीय' प्रासुकं 'वैषिक' केवलवेपावाप्तं धात्रीपिण्डादिरहितं पिण्डपातं प्रतिगृह्याहारमाहारयेदिति ॥ पुनरपि सङ्घडिविशेषमधिकृत्याह से भिक्खू वा २ से जं पुण जाणिज्जा गाम वा जाव रावहाणिं वा इमंसि खलु गामसि वा जाव रावहाणिसि वा संखडी सिया तंपि य गार्म वा जाव रायहाणिं वा संखडि संखडिपटियाए मो अभिसंधारिजा गमणाए । केवली धूवा आयाणमेयं आइनाऽवमा णं संखडिं अणुपविस्समाणस्स-पाएण वा पाए अांतपुज्वे भवइ, हत्षेण वा हत्थे संचालि ॥३३१॥ यपुख्ने भवेद, पाएण वा पाए आवडियपुज्वे भवइ, सीसेण चा सीसे संघट्टियपुब्बे भषद, कारण वा काए संखोमियपुल्वे अनुक्रम [३५०]] wwwandltimaryam ~667~# Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [१७], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत १७ दीप अनुक्रम [३५१] भवइ, दंडेण वा अट्रीण वा मुट्ठीण वा लेलुणा वा कवालेण वा अभियपुत्वेण वा भवइ, सीओदएण वा उस्सितपुल्चे भवद, रयसा वा परिघासियपुब्वे भवइ, अणेसणिज्जे वा परिभुत्तपुब्वे भवइ, अन्नेसि वा विजमाणे पडिग्गाहियपुग्वे भवइ, तम्हा से संजए नियंठे तहप्पगार आइनावमा णं संखडि संखडिपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए । (सू. १७) RI स भिक्षुर्यदि पुनरेवंभूतं प्रामादिकं जानीयात् , तद्यथा-ग्रामे वा नगरे वा यावद्राजधान्यां वा सङ्कडिर्भविष्यति, तत्र च चरकादयोऽपरे वा भिक्षाचराः स्युरतस्तदपि प्रामादिकं सङ्खडिप्रतिज्ञया 'नाभिसन्धारयेद्गमनाय न सत्र गमनं कुर्वादित्यर्थः॥ तद्गतांश्च दोषान् सूत्रेणैवाह केवली ब्रूयाद् यथैतदादानं-कर्मोपादानं वर्तत इति दर्शयति-सा च सङ्खडिः आकीर्णा वा भवेत्-चरकादिभिः सङ्खला 'अवमा'हीना शतस्योपस्कृते पञ्चशतोपस्थानादिति, तां चाकीर्णामवमा चानुप्रविशतोऽमी दोषाः, तद्यथा-पादेनापरस्य पाद आक्रान्तो भवेत् , हस्तेन वा हस्तः संचालितो भवेत् , 'पात्रेण वा' भाजनेन वा 'पात्रं |भाजनमापतितपूर्वं भवेत् , शिरसा वा शिरः सङ्घट्टितं भवेत् , कायेनापरस्य-वरकादेः कायः सबोभितपूर्वो भवेदिति, स च चरकादिरारुषितः कलहं कुर्यात् , कुपितेन च तेन दण्डेनास्मा वा मुष्टिना वा लोष्ठेन वा कपालेन वा साधुरभिहतपूर्वो| भवेत् , तथा शीतोदकेन वा कश्चित्सिञ्चेत्, रजसा वा परिघर्पितो भवेत् । एते तावत्सङ्कीर्णदोषाः, अवमदोषाश्चामी-अने६षणीयपरिभोगो भवेत् , स्तोकस्य संस्कृतत्वात्मभूतत्वाचार्थिनां, प्रकरणकारस्यायमाशयः स्याद्-यथा मप्रकरणमुद्दिश्यते समायातास्तत एतेभ्यो मया यथाकथञ्चिद्देयमित्यभिसन्धिनाऽऽधाकर्माद्यपि कुर्याद्, अतोऽनेषणीयपरिभोगः स्यादिति, कदाचिद्वा दात्राऽन्यस्मै दातुमभिवामिछत, तच्चान्यस्मै दीयमानमन्तराले साधुहीयात्, तस्मादेतान् दोषानभिसंप्रधायेंद्र wwwandltimaryam ~668~# Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१७] दीप अनुक्रम [३५१] श्रीआचारागवृत्तिः (शी०) ॥ ३३२ ॥ “आचार” - अंगसूत्र-१ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [१७], निर्युक्तिः [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः संयतो निर्ग्रन्थस्तथाप्रकारामाकीर्णाभवमा वा सङ्घडि विज्ञाय सङ्घडिप्रतिज्ञया नाभिसंधारयेद् गमनायेति ॥ साम्प्रतं सामान्येन पिण्डशङ्कामधिकृत्याह से भिक्खू वा २ जाव समाणे से जं पुण जाणिवा असणं वा ४ एसणिजे सिया अणेसणिजे सिया वितिगिछसमाच त्रेण अप्पाणेण असमाहडाए लेसाए तहपगार असणं वा ४ लाभे संते नो पडिगाहिजा || (सू. १८) स भिक्षुर्गृहपतिकुलं प्रविष्टः सन् यत्पुनराहारजातमेषणीयमध्येवं शङ्केत, तद्यथा - विचिकित्सा - जुगुप्सा वाऽनेषणीयाशङ्का तथा समापन्नः - शङ्कागृहीत आत्मा यस्य स तथा तेन शङ्कासमापन्नेनात्मना 'असमाहडाए' अशुद्धया ले| श्यया- उद्गमादिदोषदुष्टमिदमित्येवं चित्तविलुत्याऽशुद्धा लेश्या - अन्तःकरणरूपोपजायते तया सत्या 'तथाप्रकारम्' अनेपणीयं शङ्कादोषदुष्टमाहारादिकं सति लाभे ""जं संके तं समावओ” इति वचनान्न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ साम्प्रतं गच्छनिर्गतानधिकृत्य सूत्रमाह Jan Estication Intemational से मिक्सू० गादावइकुलं पविसिकामे सधं भंडगमायाए गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिज वा निक्खमि वा ॥ सेभिक्खू वा २ बहिया विहारभूमिं वा वियारभूमिं वा निक्खममाणे वा पविसमाणे वा सव्वं भंडगमावाए बहिया बिहा रभूमिं वा वियारभूमिं वा निक्खमिज्ज वा पविसिज वा ।। से भिक्खू वा २ गामाणुगामं दूइजमाणे सब्वं भंडगमायाए गामाशुगामं दूइजिज्जा ॥ ( सू. १९) १ ये शत तं समापयेत. For Pantry Use Onl #~699~ श्रुतस्कं०२ चूलिका १ पिण्डेष०१ उद्देशः ३ ॥ ३३२ ॥ Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [१९], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत दीप अनुक्रम [३५३] स भिक्षुर्गच्छनिर्गतो जिनकल्पिकादिगृहपतिकुलं प्रवेष्टुकामः सर्वे निरवशेष भण्डक' धर्मोपकरणम् 'आदाय' गृहीत्वा गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रविशेद्धा ततो निष्कामेद्वा । तस्य चोपकरणमनेकधेति, तद्यथा-"दुग तिग चउक्क पंचग नव दस एकारसेव वारसहे"त्यादि । तत्र जिनकल्पिको द्विविधः-छिद्रपाणिरच्छिद्रपाणिश्च, तत्राच्छिद्रपाणे: शक्त्यनुरूपाभिग्रहविशेषाद् द्विविधमुपकरणं, तद्यथा-रजोहरणं मुखवत्रिका च, कस्यचित्त्वक्त्राणार्थ क्षोमपटपरिग्रहानिविधम् , अपरस्योदकबिन्दुपरितापादिरक्षणार्थमौर्णिकपटपरिग्रहाच्चतुर्की, तथाऽसहिष्णुतरस्य द्वितीयक्षौमपटपरिग्रहासञ्चधेति । छिद्रपाणेस्तु जिनकल्पिकस्य सप्तविधपात्रनिर्योगसमन्वितस्य रजोहरणमुखवस्त्रिकादिग्रहणक्रमेण यथायोगं नवविधो दशविध एकादशविधो द्वादशविधश्वोपधिर्भवति, पात्रनिर्योगश्च-"पत्तं १ पत्ताबंधो २ पायढवणं ३ च पायकेसरिया ४ । पडलाइ ५ रयत्ताणं ६ च गोच्छओ ७ पायनिजोगो ॥१॥" अन्यत्रापि गच्छता सर्वमुपकरणं गृहीत्वा गन्तव्यमित्याह-स भिक्षुओमादेर्बहिर्विहारभूमि स्वाध्यायभूमि वा तथा 'विचारभूमि' विष्ठोत्सर्गभूमि सर्वमुपकरणमादाय प्रविशेन्निष्कामेद्वा, एतद्वितीय, एवं ग्रामान्तरेऽपि तृतीयं सूत्रम् ॥ साम्प्रतं गमनाभावे निमित्तमाह से मिक्खू अह पुण एवं जाणिज्जा-तिबदेसियं वास वासेमाणं पेहाए तिव्वदेसियं महियं संनिचयमाणं पेहाए महवाएण वा रय समुलुथं पहाए तिरिच्छसंपाइमा वा तसा पाणा संथखा संनिचयमाणा पेहाए से एवं नया नो सब्वं भंडग१ पात्रं पात्रबन्धः पात्रस्थापन च पात्रकेशरिका । पटलानि रजनाणं च गोच्छकः पात्रनिर्योगः ॥ १॥ wwwandltimaryam ~670~# Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [२०], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रुतस्कं०२ चूलिका १ पिण्डेष०१ उद्देशः ३ सुत्राक [२०] दीप अनुक्रम [३५४] श्रीआचा-दा मायाए गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिज वा निक्समिज वा बहिया विहारभूमि चा वियारभूमि वा निक्खमिन राङ्गवृत्तिः वा पविसिज्ज वा गामाणुगामं दूइजिजा ।। (सू०२०) (शी०) स भिक्षुरथ पुनरेवं विजानीयात्, तद्यथा-तीनं-बृहद्वारोपेतं देशिक-बृहत्क्षेत्रव्यापि तीनं च तद्देशिकं चेति समासः बृहद्वारं महति क्षेत्रे वर्षन्तं प्रेक्ष्य, तथा तीनदेशिका-महति देशेऽन्धकारोपेतां 'महिकां वा' धूमिकां संनिपतन्तीं 'प्रेक्ष्य ॥३३३॥ उपलभ्य, तथा महायातेन वा समुद्भूतं रजः प्रेक्ष्य तिरश्चीनं वा संनिपततो-गच्छतः 'प्राणिनः' पतझादीन 'संस्कृ(स्तु)तान्' धनान् प्रेक्ष्य स भिक्षुरेवं ज्ञात्वा गृहपतिकुलादौ सूत्रत्रयोद्दिष्टं सर्वमादाय न गच्छेन्नापि निष्कामेद्वेति, इदमुक्त भवति-सामाचायेंवैपा यथा गच्छता साधुना गच्छनिर्गतेन तदन्तर्गतेन वा उपयोगो दातव्या, तत्र यदि वर्षमहिकादिक जानीयात्ततो जिनकल्पिको न गच्छत्येव, यतस्तस्य शक्तिरेषा यया षण्मासं यावत्पुरीपोत्सर्गनिषे(रो)धं विदध्यात्, इतरस्तु सति कारणे यदि गच्छेत् न सर्वमुपकरणं गृहीत्वा गच्छेदिति तात्पर्यार्थः । अधस्ताज्जुगुप्सितेषु दोषदर्शनात्प्रवेशप्रतिवेध उक्तः, साम्प्रतमजुगुप्सितेष्वपि केषुचिद्दोषदर्शनात्प्रवेशप्रतिषेधं दर्शयितुमाह से भिक्खू वा २ से जाई पुण कुलाई जाणिज्जा तंजहा-खंत्तियाण वा राईण वा कुराईण वा रायपेसिवाण वा रायसट्टियाण वा अंतो वा बाहिं वा गच्छंताण वा संनिविट्ठाण वा निमंतेमाणाण वा अमिमंतेमाणाण वा असणं वा ४ लामे संते नो पडिगाहिजा (सू०२१)॥ १-१-३ ।। पिण्डैपणायां तृतीय उद्देशकः ।। स भिक्षुर्यानि पुनरेवंभूतानि कुलानि जानीयात् , तद्यथा-क्षत्रियाः-चक्रवर्तिवासुदेवबलदेवप्रभृतयस्तेषां कुलानि, ॥३३३॥ wwwandltimaryam ~671~# Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२१] दीप अनुक्रम [३५५] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [२१], निर्युक्तिः [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः राजानः-शत्रियेभ्योऽन्ये, कुराजानः प्रत्यन्तराजानः, राजप्रेष्याः दण्डपाशिकप्रभृतयः, राजवंशे स्थिता-राज्ञो मातुलभागिनेयादयः, एतेषां कुलेषु संपातभयान्न प्रवेष्टव्यं तेषां च गृहान्तर्बहिर्वा स्थितानां 'गच्छतां' पथि वहतां 'संनिविटानाम्' आवासितानां निमन्त्रयतामनिमन्त्रयतां वाऽशनादि सति लाभे न गृह्णीयादिति ॥ प्रथमस्याध्ययनस्य तृतीय | उद्देशकः समाप्तः ॥ १-१-३ ॥ उक्तस्तृतीयोद्देशकः, साम्प्रतं चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरोद्देशके सङ्घडिगतो विधिरभिहितस्तदिहापि तच्छेषविधेः प्रतिपादनार्थमाह Jan Estication Intl से भिक्खू वा० जान समाणे से जं पुण जाणेज्जा मंसाइयं वा मच्छाइयं वा मंसखलं वा मच्छखलं वा आहेणं वा पहे वा हिंगोलं वा संमेलं वा दीरमाणं पेहाए अंतरा से मग्गा बहुपाणा बहुबीया बहुहरिया बहुओसा बहुउदद्या बहुउत्सिंगपणगद्गमट्टीयमकडासंताणया बहवे तत्थ समणमाहणअतिहिकिवणवणीमगा उवागया उवागमिस्संति ( उवागच्छति ) तत्थाइन्ना वित्ती नो पन्नस्स निक्खमणपबेसाए नो पन्नस्स बायणपुच्छणपरियट्टणाणुप्पेहधम्माणुओगचिंताए, से एवं नचा तहगारं पुरेसंखडि वा पच्छासंखडि वा संखार्ड संखडिपडिआए नो अभिसंधारिजा गमणाए । से भिक्खू वा० से जं पुण जाणिजा मंसाइयं वा मच्छाइयं वा जाव हीरमाणं वा पेहाए अंतरा से मन्या अप्पा पाणा जाव संताणगा नो जत्थ बहवे समण० जाव उवागमिस्संति अप्पाइन्ना वित्ती पन्नस्स निक्खमणपवेसाए पन्नस्स बावणपुच्छणपरिणाणुप्पेधमाणुओगचिंताए, सेवं नथा तहप्पगारं पुरेसंखाडें वा० अभिसंधारिज गमणाए । ( सू० २२ ) For Fanart Use Only प्रथम चूलिकायाः प्रथम अध्ययनं “ पिण्डैषणा, चतुर्थ- उद्देशक: आरब्धः ~672~# Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [२२], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत [२२ दीप अनुक्रम [३५६]] श्रीआचा- स भिक्षुः कचिदामादौ भिक्षार्थ प्रविष्टः सन् यद्येवंभूता सङ्खडिं जानीयात् तत्पतिज्ञया नाभिसंधारयेद् गमनाये- श्रुतस्कं०२ राङ्गवृत्तिःत्यन्ते क्रिया, यादग्भूतां च सङ्कडिं न गन्तव्यं तां दर्शयति-मांसमादौ प्रधानं यस्यां सा मांसादिका तामिति, इद- चूलिका १ (शी०) मुक्तं भवति-मांसनिवृत्तिं कर्तुकामाः पूर्णायां वा निवृत्तौ मांसप्रचुरां सङ्कडिं कुर्युः, तत्र कश्चित्स्वजनादिस्तदनुरूपमेव पिण्डैष०१ किञ्चिन्नयेत्, तच्च नीयमानं दृष्ट्वा न तत्र गन्तव्यं, तत्र दोषान् वक्ष्यतीति, तथा मत्स्या आदौ प्रधानं यस्यां सा तथा, उद्देशः४ ॥३४॥ एवं मांसखलमिति, यत्र सङ्कडिनिमित्तं मांसं छित्त्वा छित्त्वा शोष्यते शुष्क वा पुञ्जीकृतमास्ते तत्तथा, क्रिया पूर्ववत्, एवं मत्स्यखलमपीति, तथा 'आहेणं ति यद्विवाहोत्तरकालं वधूप्रवेशे वरगृहे भोजनं क्रियते, 'पहेण ति वध्वा नीयमा-18 नाया यत्पितगृहभोजनमिति, "हिंगोलंति मृतकभक्त यक्षादियात्राभोजनं वा, 'संमेलं'ति परिजनसन्मानभक्तं गोष्ठीभक्त वा, तदेवंभूतां सहदि ज्ञात्वा तत्र च केनचित्स्वजनादिना तन्निमित्तमेव किशिद् 'हियमाण' नीयमानं प्रेक्ष्य तत्र भिक्षार्थ न गच्छेद् , यतस्तत्र गच्छतो गतस्य च दोषाः संभवन्ति, तांश्च दर्शयति-गच्छतस्तावदन्तरा-अन्तराले 'तस्य' भिक्षोः 'मागोंः पन्थानो वह्वः प्राणा:-प्राणिनः-पतङ्कादयो येषु ते तथा, तथा बहुवीजा बहुहरिता बलवश्याया बहूदका बहुत्तिङ्गपनकोदकमृत्तिकामर्केटसन्तानकाः, प्राप्तस्य च तत्र सङ्कडिस्थाने बहवः श्रमणब्राह्मणातिथिकृपणवणीमगा उपा४ गता उपागमिष्यन्ति तथोपागच्छन्ति च, तत्राकीर्णा चरकादिभिः 'वृत्तिः' वर्तनम् अतो न तत्र प्राज्ञस्य निष्क्रमण प्रवेशाय वृत्तिः कल्पते, नापि प्राज्ञस्य वाचनाप्रच्छनापरिवर्त्तनाऽनुप्रेक्षाधर्मानुयोगचिन्तायै वृत्तिः कल्पते, न तत्र || जनाकीर्णे गीतवादित्रसम्भवात् स्वाध्यायादिक्रियाः प्रवर्त्तन्त इति भावः, स भिक्षुरेवं गच्छगतापेक्षया बहुदोषां तथाप्रकारां wwwandltimaryam ~673~# Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२२] दीप अनुक्रम [ ३५६ ] “आचार” - अंगसूत्र-१ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [२२], निर्युक्तिः [ २९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः मांसप्रधानादिकां पुरःसङ्घडिं पश्चात्सङ्कडिं वा ज्ञात्वा तत्प्रतिज्ञया नाभिसन्धारयेद्गमनायेति ॥ साम्प्रतमपवादमाह -स भिक्षुरध्वानक्षीणो ग्लानोत्थितस्तपश्चरणकर्षितो वाऽवमौदर्य वा प्रेक्ष्य दुर्लभद्रव्यार्थी वा स यदि पुनरेवं जानीयात्- मांसादिकमित्यादि पूर्ववदालापका यावदन्तरा-अन्तराले 'से' तस्य भिक्षोर्गच्छतो मार्गा अल्पप्राणा अल्पवीजा अल्पहरिता इत्यादि व्यत्ययेन पूर्ववदालापकः, तदेवमल्पदोषां सङ्घद्धिं ज्ञात्वा मांसादिदोषपरिहरणसमर्थः सति कारणे तत्प्रतिज्ञयाऽभिसंधारयेद्गमनायेति ॥ पिण्डाधिकारेऽनुवर्त्तमाने भिक्षागोचरविशेषमधिकृत्याह से भिक्खू वा २ जाव पविसिउकामे से जं पुण जाणिजा खीरिणियाओ गावीओ खीरिजमाणीओ पेहाए असणं वा ४ संजाणं हा पुरा अप्पजूहिए सेवं नथा नो गाहावइकुलं पिंढवायपडियाए निक्खमिज्ज वा पविसिज्ज वा ॥ से तमादाय एगतमवकमिजा अणावायमसंलोए चिट्टिजा, अह पुण एवं जाणिजा खीरिणियाओ गावीओ खीरियाओ पेहा असणं वा ४ उवक्खडियं पेहाए पुराए जूहिए सेवं नच्चा तओ संजयामेव गाहा० निक्खमिल वा ॥ ( सू० २३ ) स भिक्षुर्गृहपतिकुलं प्रवेष्टुकामः सन्नथ पुनरेवं विजानीयाद्, यथा क्षीरिण्यो गावोऽत्र दुह्यन्ते, ताश्च दुद्यमानाः प्रेक्ष्य तथाऽशनादिकं चतुर्विधमप्याहारमुपसंस्क्रियमाणं प्रेक्ष्य तथा 'अप्पजूहिए'त्ति सिद्धेऽप्योदनादिके 'पुरा' पूर्वमन्येषामदत्ते सति प्रवर्त्तमानाधिकरणापेक्षी पूर्वत्र च प्रकृतिभद्रकादिः कश्चिद्यतिं दृष्ट्रा श्रद्धावान् बहुतरं दुग्धं ददामीति वत्स - कपीडां कुर्यात् सेयुर्वा दुह्यमाना गावस्तत्र संयमात्मविराधना, अर्द्धपक्कौदने च पाकार्थं त्वरयाऽधिकं यलं कुर्यात् Jain Estication Intemational For Pantry Use Only ~674~# Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [२३], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रुतस्क०२ चूलिका १ पिण्डैष०१ उद्दशः४ [२३] श्रीआचा- ततः संयमविराधनेति, तदेवं ज्ञात्वा स भिक्षुर्गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया न प्रविशेन्नापि निष्क्रामेदिति ॥ यच्च कुर्या- राजवृत्तिःत्तद्दर्शयितुमाह 18 'स' भिक्षुः 'तम्' अर्थ गोदोहनादिकम् 'आदाय' गृहीत्वाऽवगम्येत्यर्थः, तत एकान्तमपक्रामे , अपक्रम्य च गृह॥३५॥ स्थानामनापातेऽसंलोके च तिष्ठेत् , तत्र तिष्ठन्नथ पुनरेवं जानीयाद् यथा क्षीरिण्यो गावो दुग्धा इत्यादि पूर्वव्यत्ययेमा- लापका नेया यावन्निष्कामेत्प्रविशेद्वेति ॥ पिण्डाधिकार एवेदमाह भिक्खागा नामेगे एवमाइंसु- समाणा वा वसमाणा वा गामाणुगाम दूइज्जमाणे खुडाए खलु अयं गामे संनिरुवाए नो महालए से हंता भयंतारो बाहिरगाणि गामाणि मिक्खायरिवाए वयह, संति तत्थेगइयस्स भिक्खुस्स पुरेसंधुया वा पच्छासंथुया वा परिवसंति, तंजहा-पाहावई वा गाहावाणीओ वा गाहावइपुत्ता वा गाहावधूयाओ वा गाहावईसुण्हाओ वा धाइओ वा दासा वा दासीओ वा कम्मकरा वा कम्मकरीओ वा, तहप्पगाराई कुलाई पुरेसंथुयाणि वा पच्छासंथुयाणि वा पुब्बामेव निक्वायरिवाए अणुपविसिस्सामि, अविय इत्थ लमिस्सामि पिंडं वा लोयं वा खीरं वा दहिं वा नवणीयं वा घयं वा गुलं वा तितं वा महुं वा मज वा मंसं वा सकुलिं वा फाणियं वा पूर्व वा सिहिरिणि वा, तं पुम्बामेष भुषा पिया पडिमाहं च संलिहिय संमज्जिय तओ पच्छा भिक्खूहि सद्धिं गाहा. पविसिस्सामि वा निक्खमिस्सामि वा, माइहाणं संफासे, तं नो एवं करिजा ॥ से तत्थ भिक्खूहिं सद्धि कालेण अणुपविसित्ता तत्थियरेयरेहि कुलेहि सामुदाणियं एसियं FOROSSES दीप अनुक्रम [३५७]] Kा ३३५॥ wwwandltimaryam ~675~# Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [२४], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत |२४| दीप अनुक्रम [३५८] वेसिय पिंडवायं पडिगाहित्ता आहार आहारिजा, एवं खलु तस्स मिक्खुस्स वा मिक्सुणीए वा सामग्गिय० (सू०२४) १-१-४॥ पिण्डैषणायो चतुर्थ उदेशकः॥ भिक्षणशीला भिक्षुका नामैके साधवः केचनैवमुक्तवन्तः, किम्भूतास्ते इत्याह-'समानाः' इति जइतबलपरिक्षीणतयै-1 कस्मिन्नेव क्षेत्रे तिष्ठन्तः, तथा 'वसमाना' मासकल्पविहारिणः, त एवंभूताः माघूर्णकान समायातान् योगानुग्राम यमानान्-गच्छत एवमूचुः यथा शुलकोऽयं ग्रामोऽल्पगृहभिक्षादो वा, तथा संनिरुद्धः-सूतकादिना, नो महानिति पुनवचनमादरख्यापनार्थम् , अतिशयेन क्षुल्लक इत्यर्थः, ततो हन्त ! इत्यामन्त्रणं, यूयं भवन्तः-पूज्या बहिामेषु भिक्षाचर्यार्थ || व्रजतेत्येवं कुर्यात् , यदिवा तत्रैकस्य वास्तव्यस्य भिक्षोः 'पुरससंस्तुताः' धान्यादयः 'पश्चात्संस्तुता' श्वशुरकुलसंबद्धाः परिचसन्ति, तान् स्वनामग्राहमाह, तद्यथा-गृहपतिर्वेत्यादि सुगर्म यावत्तथाप्रकाराणि कुलानि पुरःपश्चात्संस्तुतानि पूर्व| मेव भिक्षाकालादहमेतेषु भिक्षार्थ प्रवक्ष्यामि, अपि चैतेषु स्वजनादिकुलेष्वभिप्रेतं लाभ लप्स्ये, तदेव दर्शयति-'पिण्ड' शाल्योदनादिकं 'लोयम्' इतीन्द्रियानुकूलं रसाधुपेतमुच्यते, तथा क्षीरं वेत्यादि सुगम यावत्सिहरिणीं वेति, नवरं मद्यमांसे छेदसूत्राभिप्रायेण व्याख्येये, अथवा कश्चिदतिप्रमादावष्टब्धोऽत्यन्तगृनतया मधुमद्यमांसान्यप्याश्रयेदतस्सदुपादानं, 'फाणिय'ति उदकेन द्रवीकृतो गुडः कथितोऽकथितो वा शिखरिणी मार्जिता, तल्लब्धं पूर्वमेव भुक्त्वा पेयं च पीत्वा पतनहं संलिह्य निरवययं कृत्वा संमृज्य च वस्त्रादिनाऽऽर्द्रतामपनीय ततः पश्चादुपागते भिक्षाफालेऽविकृत SIC ~676~# Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [२४], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रुतस्क०२ चूलिका १ श्रीआचा- वदनः प्राघूर्णकभिक्षुभिः साई गृहपतिकुल पिण्डपातप्रतिश्या प्रवेश्यामि निष्क्रमिष्यामि चेत्यभिसन्धिना मातृस्थान राङ्गवृत्तिः। संस्पृशेदसावित्यतः प्रतिषिध्यते-नैवं कुर्यादिति ॥ कथं च कुर्यादित्याह(शी०) 'स' भिक्षुः 'तत्र' ग्रामादौ प्राघूर्णकभिक्षुभिः सार्द्ध 'कालेन' भिक्षावसरेण प्राप्तेन गृहपतिकुलमनुप्रविश्य तत्र 'इत-| रतरेभ्यः' उच्चावचेभ्यः कुलेभ्यः 'सामुदानिक' भिक्षापिण्डम् 'एषणीयम्' उद्गमादिदोषरहितं 'वैषिकं' केवलवेषावाप्लं धात्रीदूतनिमित्तादिपिण्डदोषरहितं 'पिण्डपात' भैक्षं प्रतिगृह्य प्राघूर्णकादिभिः सह ग्रासैषणादिदोषरहितमाहारमाहारयेद्, एतत्तस्य भिक्षोः 'सामग्य' संपूर्णो भिक्षुभाव इति ॥ प्रथमस्य चतुर्धः समाप्तः १-१-४ ॥ उद्देशः४ |२४॥ दीप अनुक्रम [३५८] उक्तश्चतुर्थोद्देशकः, अधुना पञ्चमः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके पिण्डग्रहणविधिरभिहितः, अत्रापि स एवाभिधीयत इत्याह से भिक्खू वा २ जाव पविढे समाणे से जं पुण जाणिज्जा-अग्गपिंडं उक्खिप्पमाणं पहाए अग्गपिंडं निक्खिप्पमाणं पेहाए अग्गपिंडं हीरमाणं पेहाए अग्गपिडं परिभाइजमाणं पेहाए अग्गपिंड परिभुजमाणं पेहाए अग्गपिंड परिहविजमाणं पेहाए पुरा असिणाइ वा अवहाराइ वा पुरा जत्थऽण्णे समण० वणीमगा खद्धं २ उवसंकमति से हंता अहमवि खद्धं २ उपसंक मामि, माइवाणं संफासे, नो एवं करेजा ।। (सू०२५) स भिक्षुर्ग्रहपतिकुलं प्रविष्टः सन् यत्पुनरेवं जानीयात्तद्यथा-अग्रपिण्डो-निष्पन्नस्य शाल्योदनादेराहारस्य देवताद्यर्थ | ३३६॥ JAINEducatunt | प्रथम चूलिकाया: प्रथम-अध्ययनं "पिण्डैषणा", पंचम-उद्देशक: आरब्ध: ~677~# Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२५] दीप अनुक्रम [ ३५९ ] आ. सू. ५७ “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [५], मूलं [२५], निर्युक्तिः [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Jan Estication Intanal स्तोकस्तोकोद्धारस्तमुत्क्षिप्यमाणं दृष्ट्वा तथाऽन्यत्र निक्षिप्यमाणं, तथा 'ड्रियमाणं' नीयमानं देवतायतनादौ, तथा 'परिभज्यमानं विभज्यमानं स्तोकं स्तोकमन्येभ्यो दीयमानं, तथा परिभुज्यमानं, तथा परित्यज्यमानं देवायतनाच्चतुर्दिक्षु क्षिप्यमाणं, तथा 'पुरा असिणाइ वत्ति- 'पुरा' पूर्वमन्ये श्रमणादयो येऽमुमप्रपिण्डमशितवन्तः, तथा पूर्वमपहृतवन्तो व्यव| स्वयाऽव्यवस्थया वा गृहीतवन्तः, तदभिप्रायेण पुनरपि पूर्वमित्र वयमत्र लप्स्यामह इति यत्रापिण्डादौ श्रमणादयः 'खद्धं खर्द्ध'ति त्वरितं त्वरितमुपसंक्रामन्ति, स भिक्षुरेतदपेक्ष्य कश्चिदेवं 'कुर्याद्' आलोचयेद्, यथा 'हन्त' इति वाक्योपन्यासार्थः अहमपि त्वरितमुपसंक्रमामि, एवं च कुर्वन् भिक्षुर्मातृस्थानं संस्पृशेदित्यतो नैवं कुर्यादिति ॥ साम्प्रतं भिक्षाटनविधिप्रदर्शनार्थमाह से भिक्खू वा० जाव समाणे अंतरा से बप्पाणि वा फलिहाणि वा पागाराणि वा तोरणाणि वा अग्गलाणि वा अग्गलपासगाणि वा सति परकमे संजयामेव परिकमिज्जा, नो उज्जयं गरिछज्जा, केवली वूया आयाणमेयं से तत्थ परकममाणे पयलिन वा पक्खलेन वा पवडिल वा से तत्थ पयलमाणे वा पक्खलेखमाणे वा पवढमाणे वा, तत्थ से कार उच्चारण वा पासवणेण वा खेलेण वा सिंघाणेण वा पंतेण वा पित्तेण वा पूषण वा सुकेण वा सोणिएण वा उवलिते सिया, तहपगार कार्य नो अनंतरहियाए पुढबीए नो ससि गिद्धा पुढवीए तो ससरसाए पुडवीए नो चित्तमंत्ताए सिलाए नो चित्तताए लेलूए कोलावासंसि वा दारुए जीवपट्ठिए सअंडे सपाणे जाव ससंताणए नो आमजिज वा पमजिज वा संलिहिज्ज वा निलिहिन वा उब्वलेज वा उम्बडिज वा आयाविज वा पयाविज्ज वा से पुण्वामेव अप्पससरक्खं तणं वा For Pantry Use Onl ~678~# Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२६] दीप अनुक्रम [ ३६० ] श्री आचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ३३७ ॥ Jain Esticatos “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [५], मूलं [२६], निर्युक्तिः [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः पतं वा कटुं वासकरं वा जाइज्जा, जाइत्ता से तमायाय एगंतमवकमिज्जा २ अहे झामथंडिलंसि वा जाव अन्नयरंसि वा तहपणारंसि पडिलेहिय पडिलेहिय पमजिय पमजिय तो संजयामेव आमजिन वा जाव पयाविन्द वा ।। (सू० २६) स भिक्षुर्भिक्षार्थं गृहपतिकुलं - पाटकं रथ्यां ग्रामादिकं वा प्रविष्टः सन् मार्ग प्रत्युपेक्षेत, तत्र यदि 'अन्तरा' अन्तराले 'से' तस्य भिक्षोर्गच्छत एतानि स्युः, तद्यथा - 'वप्राः ' समुन्नता भूभागा ग्रामान्तरे वा केदाराः, तथा परिखा वा प्राकारा वा गृहस्य पत्तनस्य वा, तथा तोरणानि वा, तथाऽर्गला वाऽर्गलपाशका वा यत्रार्गलाऽमाणि निक्षिपन्ते, एतानि चान्तराले ज्ञात्वा प्रक्रम्यतेऽनेनेति प्रक्रमो - मार्गस्तस्मिन्नन्यस्मिन् सति संयत एव तेन 'पराक्रमेत' गच्छेत् नैवर्जुना गच्छेत्, किमिति ?, यतः 'केवली' सर्वज्ञो ब्रूयाद् 'आदानं' कर्मादानमेतत् संयमात्मविराधनातः, तामेव दर्शयति- 'स' भिक्षुः 'तत्र' तस्मिन् वप्रादियुक्ते मार्गे 'पराक्रममाणः' गच्छन् विषमत्वान्मार्गस्य कदाचित् 'प्रचलेत्' कम्पेत् प्रस्खलेद्वा तथा प्रपतेद्वा, स तत्र प्रस्खलन् प्रपतन् वा षण्णां कायानामन्यतमं विराधयेत्, तथा तत्र 'से' तस्य काय उच्चारेण वा प्रस्रवणेन वा श्लेष्मणा वा सिङ्घानकेन वा वान्तेन वा पित्तेन वा पूतेन वा शुक्रेण वा शोणितेन वा उपलिष्ठः स्यादित्यत एवंभूतेन पथा न गन्तव्यम्, अथ मार्गान्तराभावात्तेनैव गतः प्रस्खलितः सन् कर्दमाद्युपलिप्तकायो नैवं कुर्यादिति दर्श| यति स यतिस्तथाप्रकारम् - अशुचिकर्दमाद्युपलितं कायमनन्तर्हितया - अव्यवहितया पृथिव्या तथा 'सस्निग्धया' आर्द्रया एवं सरजस्कया था, तथा 'चित्तवत्या' सचित्तया शिलया, तथा चित्तवता 'लेलुना' पृथिवीशकलेन वा, एवं कोला-- ७ ॥ ३३७ ॥ घुणास्तदावासभूते दारुणि जीवप्रतिष्ठिते साण्डे सप्राणिनि यावत्ससन्तान के 'नो' नैव सकृदामृज्यान्नापि पुनः पुनः For Pantry Use Only ५ श्रुतस्कं० २ चूलिका १ पिण्डैप०१ उद्देशः ५ ~679 ~# Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२६] दीप अनुक्रम [ ३६० ] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [५], मूलं [२६], निर्युक्तिः [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः प्रमृज्यात्, कर्दमादि शोधयेदित्यर्थः, तथा तत्रस्थ एव 'न संलिहेजा' न संलिखेत्, नोद्वर्त्तनादिनोद्वलेत् नापि तदेवेषच्छुष्कमुद्वर्त्तयेत् नापि तत्रस्थ एव सकृदातापयेत् पुनः पुनर्वा प्रतापयेत्, यत्कुर्यात्तदाह-स भिक्षुः 'पूर्वमेव' तदनन्तरमेवाल्परजस्कं तृणादि याचेत, तेन चैकान्तस्थण्डिले स्थितः सन् गात्रं 'प्रमृज्यात्' शोधयेत् शेषं सुगममिति ॥ किश्व - भिक्खू या से पुष्प जाणिज्जा गोणं वियालं पडिप पेहाए महिसं वियालं पढिपहे पेहाए, एवं मणुस्सं आसं हि सीद्दं वग्धं विगं दीवियं अच्छं तरच्छं परिसरं सियालं विरालं सुणयं कोलसुणयं कोकंतियं चित्ताचिडयं वियालं पहिहे पेहाए सइ परकमे संजयामेव परकमेज्जा, नो उज्जयं गच्छिना से भिक्खू वा० समाणे अंतरा से उवाओ वा खाए वा कं वा घीया मिलगा वा विसमे वा बिजले वा परियाबञ्जिज्ञा, सइ परकमे संजयामेव, नो उज्जयं गच्छा ॥ ( सू० २७ ) स भिक्षुर्भिक्षार्थं प्रविष्टः सन् पथ्युपयोगं कुर्यात्, तत्र च यदि पुनरेवं जानीयाद् यथाऽत्र किञ्चिद्रवादिकमास्त इति तन्मार्गे रुन्धानं 'गां' बलीवर्दे 'व्यालं' दृप्तं दुष्टमित्यर्थः, पन्थानं प्रति प्रतिपथस्तस्मिन् स्थितं प्रत्युपेक्ष्य, शेषं सुगमं, यावत्सति पराक्रमे - मार्गान्तरे ऋजुना पथाऽऽत्मविराधनासम्भवान्न गच्छेत्, नवरं 'विगं'ति वृकं 'द्वीपिनं' चित्रकम् 'अच्छंति ऋक्षं 'परिसर'न्ति सरभं 'कोलसुणयं' महासूकरं 'कोकंतियन्ति शृगालाकृतिलमिटको रात्री को को इत्येवं रारटीति, 'चित्ताचिलडयं'ति आरण्यो जीवविशेषस्तमिति ॥ तथा--स भिक्षुर्भिक्षार्थं प्रविष्टः सन् मार्गोपयोगं दद्यात्, तत्रान्तराले यद्येतत्सर्यापद्येत- स्यात्, तद्यथा - 'अवपातः' गर्त्तः स्थाणुर्वा कण्टको वा घसी नाम-स्थलादधस्तादवतरणं Etication Intemational For Pantry Use Only ~680 ~# www.indiary.org Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम [३६१] श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी० ) ॥ ३३८ ॥ Jan Esticator “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [५], मूलं [२७], निर्युक्तिः [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र- [ ०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः 'भिलुग'त्ति स्फुटितकृष्णभूराजिः विषमं - निम्नोन्नतं विज्जलं --कर्दमः तत्रात्मसंयमविराधनासम्भवात् 'पराक्रमे' मार्गान्तरे श्रुतस्क ०२ सति ऋजुना पथा न गच्छेदिति ॥ तथा* चूलिका १ पिण्डेष०१ उद्देशः ५ से भिक्खु बा० गाहाइकुलस्स दुबारवाहं कंटगबुंदियाए परिपिटियं पेहाए सेसिं पुत्र्वामेव उग्गहं अणणुन्नविय अपडिलेहिय अप्पमज्जिय नो अवंगुणिज्ज वा पबिसिन वा निक्खनिज वा, तेसिं पुष्वामेव उम्म अणुन्नविय पडिलेहिय पडिलेहिय मजिय पमजिय तो संजयामेव अवंगुणिज वा पविसेज वा निक्खमेज वा ॥ ( सू० २८ ) स भिक्षुर्भिक्षार्थी प्रविष्टः सन् गृहपतिकुलस्य 'दुवारबाहंति द्वारभागस्तं कण्टकशाखया 'पिहितं' स्थगित प्रेक्ष्य येषां तगृहं तेषामवग्रहं पूर्वमेव 'अननुज्ञाप्य' अयाचित्रा, तथा अप्रत्युपेक्ष्य चक्षुषाऽप्रमृज्य च रजोहरणादिना 'नोऽवंगुणेजत्ति नैवोद्घाटयेद् उद्घाटय च न प्रविशेनापि निष्क्रामेत्, दोषदर्शनात्, तथाहि गृहपतिः प्रद्वेषं गच्छेत्, नष्टे च वस्तुनि साधुविषया शङ्कोत्यचेत, उद्घाटद्वारे चान्यत् पश्वादि प्रविशेदित्येवं च संयमात्मविराधनेति । सति कारणेऽपवादमाह-स भिक्षुर्येषां तद्गृहं तेषां सम्बन्धिनमवग्रहम् 'अनुज्ञाप्य' याचित्वा प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य च गृहोद्घाटनादि कुर्या दिति, एतदुक्तं भवति-स्वतो द्वारमुद्घाट्य न प्रवेष्टव्यमेव, यदि पुनलनाचार्यादिप्रायोग्यं तत्र लभ्यते वैद्यो वा त त्रास्ते दुर्लभं वा द्रव्यं तत्र भविष्यति अवमौदर्ये वा सत्येभिः कारणैरुपस्थितैः स्थगितद्वारि व्यवस्थितः सन् शब्दं कुर्यात्, स्वयं वा यथाविध्युद्घाट्य प्रवेष्टव्यमिति । तत्र प्रविष्टस्य विधिं दर्शयितुमाह से मिक् या २ से जं पुण जाणिज्जा समणं वा माहणं वा ग्रामपिंडोलगं वा अतिहिं वा पुव्यपविद्धं पेहाए नो वेसिं सं For Pantry O ~681~# ।। ३३८ ॥ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [9], मूलं [२९], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत २९ दीप अनुक्रम [३६३] लोए सपडिदुवारे चिट्ठिजा, से तमावाय एगतमवकमिजा २ अणावायमसलोए चिहिज्जा, से से परो अणावायमसंलोए चिट्ठमाणस असणं वा ४ आटु दलइजा, से य एवं वइजा-आउसंतो समणा! इमे भे असणे वा ४ सम्बजणाए निसढे तं भुजह वा णं परिभाएह वा णं, तं चेगइओ पडिगाहित्ता तुसिणीओ उबेहिजा, अवियाई एवं मममेव सिया, माइहाणं संफासे, नो एवं करिजा, से तमायाए नत्थ गच्छिज्जा २ से पुवामेव आलोइजा-आउसंतो समणा ! इमे भे असणे या ४ सम्बजणाए निसिढे त मुंजह वा गं जाव परिभाएह वा णं, सेणमेवं वयंत परो बइजा-आउसंतो समणा ! तुम चेव णं परिभाएहि, से तत्व परिभाएमाणे नो अप्पणो सहूं २ डाय २ ऊसदं २ रसियं २ मणुनं २ निलु २ लुक्सं २, से तत्थ अमुच्छिए अगिद्धे अग(ना)दिए अणज्झोववन्ने बहुसममेव परिभाइजा, से णं परिभाएमाणं परो वइज्जा--आउसंतो समणा! मा णं तुमं परिभाएहि सव्वे वेगइआ ठिया उ भुक्खामो वा पाहामो वा, से तत्थ भुंजमाणे नो अपणा खर्चा - खद्ध जाव लुक्खं, से तत्व अमुच्छि ए ४ वहुसममेव भुंजिज्जा वा पाइजा था । (सू० २९) . स भिक्षुर्दामादौ भिक्षार्थ प्रविष्टो यदि पुनरेवं विजानीयाद् यथाऽत्र गृहे श्रमणादिः कश्चित्प्रविष्टः, तं च पूर्वप्रविष्टं | प्रेक्ष्य दातृप्रतिग्राहकासमाधानान्तरायभयान्न तदालोके तिछेत्, नापि तन्निर्गमद्धारं प्रति दातृप्रतिग्राहकासमाधा|नान्तरायभयात्, किन्तु स भिक्षुस्तं श्रमणादिकं भिक्षार्थमुपस्थितम् 'आदाय' अवगम्यैकान्तमपकामेत्, अपक्रम्य || चान्येषां चानापाते-विजनेऽसंलोके च संतिष्ठेत् , तत्र च तिष्ठतः स गृहस्थः 'से' तस्य भिक्षोश्चतुर्विधमप्याहारमाहृत्य : दद्यात्, प्रयच्छंश्चैतन्या-यथा यूयं बहवो भिक्षार्थमुपस्थिता अहं च व्याकुलत्वान्नाहारं विभाजयितुमलमतो हे Jain Educatinintamathima ~682~# Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [9], मूलं [२९], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचारावृत्तिः (शी०) २९॥ ॥३३९॥ दीप अनुक्रम [३६३] आयुष्मन्तः! श्रमणाः! अयमाहारश्चतुर्विधोऽपि 'भे' युष्मभ्यं सर्वजनार्थ मया निसृष्टो-दत्तस्तत्साम्प्रतं स्वरुच्या तमा- श्रुतस्कं०२ हारमेकत्र वा भुड्नध्वं परिभजवं वा-विभज्य वा गृहीतेत्यर्थः, तदेवंविध आहार उत्सर्गतो न ग्राह्यः, दुर्भिक्षे वाड- चूलिका १ ध्वाननिर्गतादौ वा द्वितीयपदे कारणे सति गृह्णीयाद् , गृहीत्वा च नैवं कुर्याद् यथा तमाहारं गृहीत्वा तूष्णीको गच्छ- पिण्डैप०१ नेवमुक्षेत-यथा ममैवायमेकस्य दत्तोऽपि चायमल्पत्वान्ममैवैकस्य स्याद् , एवं च मातृस्थानं संस्पृशेद्, अतो नैवं उद्देशः ५ कुर्यादिति, यथा च कुर्यात्तथा च दर्शयति-स भिक्षुस्तमाहारं गृहीत्वा तत्र श्रमणाद्यन्तिके गच्छेद् , गत्वा च सः 'पू-18 वमेव' आदावेव तेषामाहारम् 'आलोकयेत्' दर्शयेत्, इदं च ब्रूयाद्-यथा भो आयुष्मन्तः! श्रमणादयः! अयमशनादिक आहारो युष्माकं सर्वजनार्थमविभक्त एव गृहस्थेन निसृष्टो-दत्तस्तथ्यमेकत्र भुध्वं विभजध्वं वा, 'से' अधनं साधुमेवं ब्रुवाणं कश्चिच्छ्रमणादिरेवं ब्रूयाद्-यथा भो आयुष्मन् ! श्रमण ! त्वमेवास्माकं परिभाजय, नैवं तावत्कुर्यात् , [अथ सति कारणे कुर्यात् तदाऽनेन विधिनेति दर्शयति-स भिक्षुर्विभाजयन्नात्मनः 'खद्धं २' प्रचुर २ 'डाग'ति शाकम् | 'उसढ'ति उच्छ्रितं वर्णादिगुणोपेतं, शेष सुगम यावद्रक्षमिति न गृह्णीयादिति । अपि च-'स' भिक्षुः तत्र' आहारे-10 |ऽभूछितोऽगृद्धोऽनादृतोऽनध्युपपन्न इति, एतान्यादरख्यापनार्थमेकाथिकान्युपाचानि कथश्विझेदाद्वा व्याख्यातव्या-18 नीति, 'बहुसम मिति सर्वमत्र समं किञ्चित्सिक्थादिना यद्यधिकं भवेदिति, तदेवं प्रभूतसमं परिभाजयेत् , तं च साधु 1३३९॥ परिभाजयन्तं कश्चिदेवं ब्रूयाद् , यथा-आयुष्मन् ! श्रमण! मा त्वं परिभाजय, किन्तु सर्व एव चैकत्र व्यवस्थिता वयं भोश्यामहे पास्यामो वा, तत्र परतीर्थिकैः सार्द्ध न भोक्तव्यं, स्वयूथ्यैश्च पार्श्वस्थादिभिः सह सम्भोगिकैः सहोघा-18 wwwandltimaryam ~683~# Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [9], मूलं [२९], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत २९ ACASSESAX लोचनां दत्त्वा भुञ्जानानामयं विधिः, तद्यथा--नो आत्मन इत्यादि, सुगममिति ।। इहानन्तरसूत्रे बहिरालोकस्थान निषिद्धं, साम्प्रतं तत्प्रवेशप्रतिषेधार्धमाह से भिक्खू वा से जं पुण जाणिज्जा समर्ण वा माहणं वा गामपिंडोलगं वा अतिहिं या पुखपविट्ठ पेहाए नो ते उवाइवाम्म पविसिजा बा ओभासिज बा, से तमायाय एगतमवक्कमिज्जा २ अणावायमसंलोए चिट्ठिजा, अह पुणेवं जाणिजा-पडिसेहिए वा दिने वा, तो तंमि नियत्तिए संजयामेव पविसिज बा ओभासिज वा एवं० सामग्गिय० (सू०३०) ॥२-१-१-५ ॥ पिण्डैषणायां पञ्चम उद्देशकः ।। स भिक्षुर्भिक्षार्थ ग्रामादौ प्रविष्टः सन् यदा पुनरेवं विजानीयात् , तद्यथा-अब गृहपतिकुले श्रमणादिकः प्रविष्टः, तं च पर्वप्रविष्ट श्रमणादिकं प्रेक्ष्य ततो न तान् श्रमणादीन् पूर्वप्रविष्टानतिक्रम्य प्रविशेत , नापि तत्स्थ एव 'अवभाषेत दा-IMI सातारं याचेत, अपि च-स तम् 'आदाय' अवगम्यैकान्तमपक्रामेद् अनापातासंलोके च तिष्ठेत् तावद्याबच्छ्रमणादिके| प्रतिषिद्धे पिण्डे वा तस्मै दत्ते, ततस्तस्मिन् 'निवृत्ते' गृहान्निर्गते सति ततः संयत एवं प्रविशेदवभाषेत वेति, एवं च | तस्य भिक्षोः 'सामग्य' सम्पूर्णो भिक्षुभाव इति ॥ प्रथमस्य पञ्चमोद्देशकः समाप्तः।। AKARSA दीप अनुक्रम [३६३] | पञ्चमोद्देशकानन्तरं षष्ठः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके श्रमणाद्यन्तरायभयागृहप्रवेशो निदापिद्धः, तदिहाप्यपरप्राण्यन्तरायप्रतिषेधार्थमाह wwwanditimaryam | प्रथम चूलिकाया: प्रथम-अध्ययनं "पिण्डैषणा", षष्ठ:-उद्देशक: आरब्ध: ~684~# Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [३१], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) श्रुतस्क०२ चूलिका १ पिण्डैप०१ उद्देशः६ सूत्रांक |३१ दीप अनुक्रम [३६५]] से भिक्खू वा० से जं पुण जाणिञ्जा-रसेसिणो वहवे पाणा घासेसणाए संथडे संनिवइए पेहाए, तंजहा-कुकुटजाइयं था सूयरजाइयं वा अग्गपिंडसि वा वायसा संबडा संनिवइया पेहाए सइ परकमे संजया नो उज्जुयं गरिछज्जा ।। (सू०३१) । स भिक्षुर्भिक्षार्थ प्रविष्टः सन् यदि पुनरेवं विजानीयात् , तद्यथा-बहवः 'प्राणाः' प्राणिनः रस्यते-आस्वाद्यत इति रसस्तमेष्टुं शीलमेषां ते रसैषिणः, रसान्वेषिण इत्यर्थः, ते तदर्थिनः सन्तः पश्चाद् प्रासार्थ क्वचिद्रध्यादौ संनिपतितास्तां-| चाहारा) संस्कृ(स्तृ)तान्-धनान् संनिपतितान् प्रेक्ष्य ततस्तदभिमुखं न गच्छेदिति सम्बन्धः, तांश्च प्राणिनः स्वनाममाहमाह-कुकट जातिकं वेत्यनेन च पक्षिजातिरुद्दिष्टा, सूकरजातिकमित्यनेन च चतुष्पदजातिरिति, 'अग्रपिण्डे वा' काकपिण्ड्यां वा बहिः क्षिप्तायां वायसाः संनिपतिता भवेयुः, तांश्च दृष्ट्वाऽग्रतः, ततः सति पराक्रमे-अन्यस्मिन् मार्गान्तरे 'संयतः सम्यगुपयुक्तः संयतामन्त्रणं वा ऋजुस्तदभिमुखं न गच्छेद् , यतस्तत्र गच्छतोऽन्तरायं भवति, तेषां चान्यत्र संनिपतितानां वधोऽपि स्यादिति ।। साम्प्रतं गृहपतिकुलं प्रविष्टस्य साधोर्विधिमाह से भिक्खू वा २ जाव नो गाहावइकुलस्स वा दुवारमाहं अबलंबिय २ चिडिजा, नो गा० दगच्छट्टणमत्तए चिट्ठिजा, नो गा० चंदणियए चिहिज्जा, नो गा. सिणाणरस वा वच्चस्स वा संलोए सपडिदुबारे चिट्ठिया, नो० आलोयं वा थिम्गलं वा संधि वा दगभवणं वा बाहाओ पगिझिय २ अंगुलियाए वा उदिसिय २ अण्णमिव २ अवनमिय २ नियाइजा, नो गाहावइअंगुलियाए उरिसिय २ जाइजा, नो गा० अंगुलिए चालिय २ जाइब्जा, नो गा० अ० तजिय २ ॥३४०॥ wwwandltimaryam ~685~# Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [३२] दीप अनुक्रम [३६६ ] Jan Estication Intimat “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [५], मूलं [३२], निर्युक्तिः [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः जाइजा, नो गा० अं० उक्लंपिय [ उक्खलुंदिय] २ जाइजा, नो गाहावई वंदिय २ जाइजा नो ववणं फरसं वजा || ( सू० ३२ ) स भिक्षुर्भिक्षार्थं गृहपतिकुलं प्रविष्टः सन्नैतत्कुर्यात् तद्यथा नो गृहपतिकुलस्य द्वारशाखाम् 'अवलम्व्यावलम्ब्य ' पौनःपुन्येन भृशं वाऽवलम्ब्य तिष्ठेद् यतः सा जीर्णत्वात्पतेद् दुष्प्रतिष्ठितत्वाद्वा चलेत् ततश्च संयमात्मविराधनेति, तथा 'उदकप्रतिष्ठापनमात्रके' उपकरणधावनोदकप्रक्षेपस्थाने प्रवचनजुगुप्साभयान्न तिष्ठेत् तथा 'चंदणिउदय'त्ति आचमनोदकप्रवाहभूमौ न तिष्ठेद्, दोषः पूर्वोक्त एव, तथा स्नानवर्चः संलोके तत्प्रतिद्वारं वा न तिष्ठेत्, एतदुक्तं भवतियत्र स्थितैः स्नानयर्थः क्रिये कुर्वन् गृहस्थः समवलोक्यते तत्र न तिष्ठेदिति, दोपश्चात्र दर्शनाशङ्कया निःशङ्कतत्क्रियाया अभावेन निरोधप्रद्वेषसम्भव इति, तथा नैव गृहपतिकुलस्य 'आलोकम्' आलोकस्थानं गवाशादिकं, 'थिग्गलं'ति प्रदेशपतित संस्कृतं, तथा 'संधि'त्ति चौरखातं भित्तिसन्धि वा, तथा 'उदकभवनम्' उदकगृहं, सर्वाण्यप्येतानि भुजां 'प्रगृह्य प्रगह्य' पौनःपुम्बेन प्रसार्य तथाऽङ्गल्योद्दिश्य तथा कायमवनम्योन्नस्य च न निध्यापयेत् न प्रलोकयेन्नाप्यन्यस्मै प्रदर्शयेत् सर्वत्र द्विर्वचनमादरख्यापनार्थ, तत्र हि हृतनष्टादौ शङ्कोत्पद्यत इति ॥ अपि च-स भिक्षुर्गहपतिकुलं प्रविष्टः सन्नैव गृहपतिमङ्गुल्याऽत्यर्थमुद्दिश्य तथा चालयित्वा तथा 'तर्जयित्वा' भयमुपदर्श्य तथा कण्डूयनं कृत्वा तथा गृहपतिं 'वन्दित्वा' वाग्भिः स्तुत्वा प्रशस्य नो याचेत, अदत्ते च नैव तद्गृहपतिं परुषं वदेत्, तद्यथा-यक्षस्त्वं परगृहं रक्षसि कुतस्ते For Party Use Onl ~686 ~# www.andbrary.org Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [३३], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचारावृत्तिः (शी) प्रत श्रुतस्क०२ चूलिका १ पिण्डैप०१ उद्देशः६ सुत्राक ॥३४१॥ [३३]] दीप अनुक्रम [३६७]] *CRACX दानं ?, वात्तैव भद्रिका भवतो न पुनरनुष्ठानम् , अपि च-"अक्षरद्वयमेतद्धि, नास्ति नास्ति यदुच्यते । तदिदं देहि देहीति, विपरीतं भविष्यति ॥ १॥ अन्यच्च अह तत्व कपि भुंजमाण पेहाए गाहावई बा० जाव कम्मकरि वा से पुब्बामेव आलोइजा-उसोत्ति वा भइणित्ति वा दाहिसि मे इत्तो अन्नवर भोवणजार्य, से सेवं वयंतस्स परो हत्थं वा मत्तं वा दवि वा भायणं वा सीओषगवियदेण बा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलिज वा पहोइज्ज वा, से पुवामेव आलोइजा-आउसोति वा भइणित्ति वा! मा एवं तुम हत्य वा०४ सीओदगवियडेण वा २ उच्छोलेहि वा २, अभिकंखसि मे दार एवमेव दलयाहि, से सेवं वयंतस्स परो इत्यं वा ४ सीमो० उसि० उपलोलित्ता पहोइत्ता आह९ दलइजा, तहप्पगारेणं पुरेकम्मकएणं हत्येण वा ४ असणं वा ४ अफासुर्य जाव नो पडिगाहिजा । अह पुण एवं जाणिजा नो पुरेकम्मकपणं उदउल्लेणं तहप्पगारेणं वा उदउल्लेण वा हत्येण वा ४ असणं वा ४ अफासुर्य जाव नो पडिगाहिजा । अह पुणेवं जाणिज्जा--नो उदउल्लेण ससिणिद्वेण सेसं तं चेव एवं-ससरक्खे उद्उल्ले, ससिणिद्धे मट्टिया उसे। हरियाले हिंगुलुए, मणोसिला अंजणे लोणे ॥ १॥ गेल्य वन्निय सेडिय मोरट्ठिय पिट्ठ कुकुस उकुसंसट्टेण । अह पुणेवं जाणिना नो असंसढे संसढे सहप्पगारेण संसडेण हत्थेण वा ४ असणं वा ४ फासुर्य जाय पडिगाहिजा ॥ (सू०३३) अध भिक्षुस्तत्र गृहपतिकुले प्रविष्टः सन् कश्चन गृहपत्यादिकं भुआन प्रेक्ष्य स भिक्षः पूर्वमेवालोचयेद-यथाऽयं गृहपतिस्तद्भार्या वा यावत्कर्मकरी वा मुते, पोलोच्य च सनामग्राहं याचेत, तद्यथा-'आउसेत्ति वे'त्ति, अमुक इति | ~687~# Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [33] दीप अनुक्रम [३६७ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [३३], निर्युक्तिः [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः गृहपते ! भगिनि ! इति वा इत्याद्यामन्त्रय दास्यसि मेऽस्मादाहारजातादम्यतरयोजनजातमित्येवं याचेत, तच्च न वर्त्तते कर्नु, कारणे वा सत्येवं वदेत् अथ 'से' तस्य भिक्षोरेवं वदतो याचमानस्य परो गृहस्थः कदाचिद्धस्तं मात्रं दव भाजनं वा 'शीतोदकविकटेन' अप्कायेन 'उष्णोदकविकटेन' उष्णोदकेनामासुकेनात्रिदण्डोद्वृत्तेन पश्चाद्वा सचित्तीभूतेन 'उच्छोलेज 'ति सकृदुदकेन प्रक्षालनं कुर्यात्, 'पहोएज'त्ति प्रकर्षेण वा हस्तादेर्द्धावनं कुर्यात् स भिक्षुर्हस्तादिकं पूर्वमेव प्रक्षाल्यमानमालोचयेद्, दसावधानो भवेदित्यर्थः तच्च प्रक्षाल्यमानमालोच्यामुक इत्येवं स्वनामग्राहं निवारयेद्, यथा मैवं कृथास्वमिति, यदि पुनरसौ गृहस्थो हस्तादिकं सचित्तोदकेन प्रक्षाल्य दद्यात्तदप्रासुकमिति ज्ञात्वा न प्रतिगृहीयादिति ॥ किञ्च - अथासौ भिक्षुर्गृहपतिकुलं प्रविष्टः सन् यदि पुनरेवं विजानीयात्, तद्यथा - 'नो' नैव साधुभिक्षादानार्थ पुरः- अग्रतः कृतं प्रक्षालनादिकं कर्म क्रिया यस्य हस्तादेः स तथा तेनोदकेनाति -गद्विन्दुनेति, एतदुक्तं भवति-साधुभिक्षादानार्थं नैव हस्तादिकं प्रक्षालितं किन्तु तथाप्रकार एव स्वतः कुतोऽप्यनुष्ठानादुदकाद्र हस्तस्तेन, एवं मात्रादिना ऽपि गलद्विन्दुना दीयमानं चतुर्विधमप्याहारमप्रासुकमनेषणीयमिति मत्वा नो गृह्णीयादिति ॥ अथ पुनरेवं विजानीयात्, तद्यथा-नैव 'उदकार्द्रेण' गलद्विन्दुना हस्तादिना दद्यात् किन्तु 'सस्निग्धेन' शीतोदकस्तिमितेनापि हस्तादिना दीयमानं न प्रतिगृह्णीयात्, 'एव'मिति प्राक्तनं न्यायमतिदिशति यथोदकस्निग्धेन हस्तेन न ग्राह्यं तथाऽन्येन रजसाऽपि एवं मृत्तिकाद्यप्यायोज्यमिति तत्रोषः - क्षारमृत्तिका हरितालहिङ्गुलकमनःशिलाऽञ्जनलवणगेरुकाः प्रतीताः, सचित्ताश्च खनिविशेषोत्पत्तेः, वर्णिका-पीतमृत्तिका, सेटिका खटिका, सौराष्ट्रका - तुवरिका, पि Jain Estication Intanal For Pantry Use Only ~688~# www.sendiary.org Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [३३], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्राक [३३]] दीप अनुक्रम [३६७]] श्रीआचा- 1टम्-अच्छटिततन्दुलचूर्णः, कुक्कुसाः-प्रतीताः, 'उक्कुटंति पीलुपर्णिकादेरुदूखलचूर्णितमार्द्रपर्णचूर्णमित्येवमादिना सस्त्रि- श्रतस्क०२ राङ्गवृत्तिः ग्धेन हस्तादिना दीयमानं न गृह्णीयात्, इत्येवमादिना तु असंसृष्टेन तु गृह्णीयादिति । अथ पुनरेवं जानीयान्नोऽसंसृष्टःचूलिका १ (शी०) किं तहिं?-संसृष्टस्तजातीयेनाहारादिना तेन संसृष्टेन हस्तादिना प्रासुकमेषणीयमिति गृह्णीयात्, अन्न चाष्टौ भङ्गाः, त-पिण्डैष०१ द्यथा-"असंसढे हत्थे असंसहे मत्ते निरयसेसे दव्वे" इत्येकैकपदव्यभिचारान्नेयाः, स्थापना चेयम्-अथ पुनरसौ | उद्देशः६ ॥३४२॥ X भिक्षुरेवं जानीयात्, तद्यथा-उदकादिनाऽसंसृष्टो हस्तादिस्ततो गृह्णीयात् , यदिवा तथाप्रकारेण दातव्यद्रव्यजातीयेन संसृष्टो हस्तादिस्तेन तथा प्रकारेण हस्तादिना दीयमानमाहारादिकं प्रासुकमेषणीयमितिकृत्वा प्रतिगृह्णीयादिति । किञ्च से भिक्खू वा २ से जं पुण जाणिज्जा पिहुयं वा बहुरयं वा जाव चाउलपलंब वा असंजए भिक्खुपडियाए चित्तमंताए सिलाए जाव संताणाए कुटिंसु वा कुट्टिति वा कुट्टिस्संति वा जुत्फणिंसु वा ३ तहप्पगार पिहुयं वा० अफ्फामुयं नो पडिगाहिजा ।। (सू० ३४) स भिक्षुर्भिक्षार्थं गृहपतिकुलं प्रविष्टः सन् यदि पुनरेवं विजानीयात् , तद्यथा-'पृथुक' शाल्यादिलाजान 'बहुर-12 यति पहुंके 'चाउलपलंय'ति अर्द्धपक्कशाल्यादिकणादिकमित्येवमादिकम् 'असंयतः' गृहस्थः "भिक्षुप्रतिज्ञया' भिक्षुमुद्दिश्य चित्तमत्यां शिलायां तथा सबीजायां सहरितायां साण्डायां यावन्मर्कटसन्तानोपेतायाम् 'अकुट्टिषुः' कुट्टितवन्तः | ॥३४२॥ तथा कुट्टन्ति कुटिष्यन्ति वा, एकवचनाधिकारेऽपि छान्दसत्वात्तिव्यत्ययेन बहुवचनं द्रष्टव्यं, पूर्वत्र का जातावेकवचनं, ~689~# Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [३४] दीप अनुक्रम [३६८ ] आ सू. ५८ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [३४], निर्युक्तिः [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Jan Estication Intimatinal तच्च पृथुकादिकं सचित्तमचित्तं वा चित्तमत्यां शिलायां कुट्टयित्वा 'उफणिंसु' त्ति साध्वर्थ वाताय दत्तवन्तो ददति दास्यन्ति वा तदेवं तथाप्रकारं पृथुकादि ज्ञात्वा लाभे सति नो प्रतिगृह्णीयादिति ॥ किच से भिक्खू वा २ जाब समाणे से जं० बिलं वा लोणं उब्भियं वा लोणं अस्संगए जाब संताणाए भिदिसु ३ रुचिसु वा ३ लिंवा लोणं उभयं वा टोणं अफासुर्य० नो पड़िगाहिज्जा ।। ( सू० ३५ ) भिक्षुर्यदि पुनरेवं विजानीयात्, तद्यथा- बिलमिति खनिविशेषोत्पन्नं लवणम् अस्य चोपलक्षणार्थत्वात्सैन्धवसौवर्चलादिकमपि द्रष्टव्यं तथोद्भिज्जमिति समुद्रोपकण्ठे क्षारोदकसम्पर्काद् यदुद्भिद्यते लवणम्, अस्याप्युपलक्षणार्थत्वाक्षारोद कसेकाद्यवति रुमकादिकं तदपि ग्राह्यं तदेवंभूतं लवणं पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टायां शिलायामभैत्सुः- कणिकाकारं कुर्युः, तथा साध्वर्थमेव भिन्दन्ति भेत्स्यन्ति वा तथा श्लक्ष्णतरार्थं 'रुचिंसुव'त्ति पिष्टवन्तः पिंपन्ति पेक्ष्यन्ति वा, तदपि लवणमेवंप्रकारं ज्ञात्वा नो ( प्रति) गृह्णीयात् ॥ अपि च से भिक्खू वा० से जं० असणं वा ४ अगणिनिक्खित्तं तप्पारं असणं वा ४ अफामुयं नो०, केवली वूया आयाणमेयं, अस्संजए भिक्खुपडियाए उचिमाणे वा निसिचमाणे वा आमखमाणे या पमजमाणे वा ओयारेमाणे वा उब्वसमाणे वा अगणि हिंसा, अह भिक्खूर्ण पुव्वोवइट्टा एस पइन्ना एस हेऊ एस कारणे एसुबएसे जं तहप्पगारं असणं वा ४ अगणिनिक्वित्तं अफामुयं नो० पढि० एयं० सामग्गियं ॥ ( सू० ३६ ) || पिण्डैषणायां षष्ठ उद्देशकः २-१-१-६ ॥ स भिक्षुर्गृहपतिकुलं प्रविष्टश्चतुर्विधमप्याहारमग्नावुपरि निक्षितं तथाप्रकारं ज्वालासंच लाभे सति न प्रतिगृह्णी For Pantry O ~690 ~# www.indiary.org Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [ ३६ ] दीप अनुक्रम [३७०] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [३६], निर्युक्तिः [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्री भाचा यात् । अत्रैव दोषमाह- केवली ब्रूयात् 'आदानं' कर्मादानमेतदिति, तथाहि 'असंयतः' गृहस्थो भिक्षुप्रतिज्ञया तत्राराङ्गवृत्तिः ट्रे म्युपरिव्यवस्थितमाहारम् 'उत्सिश्चन्' आक्षिपन् 'निः सिञ्चन्' दत्तोद्वरितं प्रक्षिपन, तथा 'आमर्जयन' सकृद्धस्तादिना (शी०) शोधयन् तथा प्रकर्षेण मार्जयन शोधयन् तथाऽवतारयन् तथा 'अपवर्त्तयन' तिरश्चीनं कुर्वन्नग्निजीवान् हिंस्यादिति । 'अथ' अनन्तरं 'भिक्षूणां' साधूनां पूर्वोपदिष्टा एषा प्रतिज्ञा एप हेतुरेतत्कारणमयमुपदेशः यत्तथाप्रकारमग्निसंबद्धमशनाद्यग्निनिक्षिप्तमप्रासुकमनेपणीयमिति ज्ञात्वा लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात्, एतत्खलु भिक्षोः 'सामग्र्यं' समग्रो ४ भिक्षुभाव इति ॥ प्रथमाध्ययनस्य षष्ठ उद्देशकः समाप्तः ॥ २-१-१-६ ॥ ॥ ३४३ ॥ पोदेशकानन्तरं सप्तमः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरोदेशके संयमविराधनाऽभिहिता, इह तु | संयमात्मदातृविराधना तया च विराधनया प्रवचनकुत्सेत्येतदत्र प्रतिपाद्यत इति - Jain Estication Intemational सेभिक्खू वा २ से जं० असणं वा ४ संधंसि वा यंभंसि वा मंचंसि वा मालंसि वा पासायंसि वा हम्मियतलंसि वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि अंतलिक्खजायंसि उपनिक्खित्ते सिया तहप्पगारं मालोहडं असणं वा ४ अफासुयं नो०, केवली बूया आयाणमेयं, अस्संजए भिक्खुपडियाए पीढं वा फलगं वा निस्सेणिं वा उवूहलं वा आहहु उस्सविय दुरुहिना, से तत्थ दुरूहमाणे पयलिन वा पवडिज वा, से तत्थ पयलमाणे वा २ इत्थं वा पायं वा बाहुं वा ऊरुं वा उदरं वा सीसं For Pantry at Use Only प्रथम चूलिकायाः प्रथम अध्ययनं “ पिण्डैषणा”, सप्तम उद्देशक: आरब्धः ~691~# श्रुतस्कं० २ चूलिका १ पिण्डेष०१ उद्देशः ७ ॥ ३४३ ॥ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [३७] दीप अनुक्रम [३७१] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [३७], निर्युक्तिः [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः वा अनयरं वा कार्यसि इंदियजालं लूसिन वा पाणाणि वा ४ अभिहणिज वा वित्तासिज वा लेसिज वा संघसिज्ज वा संघट्टिज वा परियाबिज वा किलामिज्ज वा ठाणाओ ठाणं संकामिज्ज वा तं तहपगारं मालोहडं असणं वा ४ लाने संते नो डिगाहिज्जा से भिक्खू वा २ जाव समाणे से जं० असणं वा ४ कुट्टियाओ वा कोलेज्जाउ वा अस्संजए भिक्खुपडियाए कुज्जिय अवउज्जिय ओहरिय आहट्टु दलइना, तहप्पणारं असणं वा ४ लाभे संते नो पडिगाहिज्ञा ॥ ( सू० ३७) | स भिक्षुर्भिक्षार्थं प्रविष्टः सन् यदि पुनरेवं चतुर्विधमप्याहारं जानीयात्, तद्यथा--'स्कन्धे' अर्द्धप्राकारे 'स्तम्भे वा' शैलदारुमयादौ, तथा मञ्चके वा माले वा प्रासादे वा हर्म्यतले वा अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारेऽन्तरिक्षजाते स आहारः 'उपनिक्षिप्तः' व्यवस्थापितो भवेत्, तं च तथाप्रकारमाहारं मालाहृतमिति मत्वा लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात्, केवली ब्रूयाद्यत आदानमेतदिति, तथाहि असंयतो भिक्षुप्रतिज्ञया साधुदानार्थं पीठकं वा फलकं वा निश्रेणिं वा उदूखलं वाऽऽहृत्य -ऊर्ध्वं व्यवस्थाप्यारोहेत्, स तत्रारोहन् प्रचलेद्वा प्रपतेद्वा, स तत्र प्रचलन् प्रपतन् वा हस्तादिकमन्यतरद्वा काये इन्द्रियजातं 'लूसेज'त्ति विराधयेत्, तथा प्राणिनो भूतानि जीवान् सत्त्वानभिहन्याद्वित्रासयेद्वा लेषयेद्वा-संश्लेषं वा कुर्यात् तथा संघर्ष वा कुर्यात् तथा सङ्घ वा कुर्यात्, एतच्च कुर्वस्तान् परितापयेद्वा क्लामयेद्वा स्थानात्स्थानं सङ्क्रामयेद्वा, तदेतज्ज्ञात्वा यदाहारजातं तथाप्रकारं मालाहतं तल्लाभे सति नो प्रतिगृह्णीयादिति ॥ स भिक्षुर्यदि पुनरेवंभूतमाहारं जानीयात्, तद्यथा— 'कोष्ठिकातः' मृन्मयकुशूलसंस्थानायाः तथा 'कोलेज्जाओ'त्ति अधोवृत्तखाताकाराद् असंयतः 'भिक्षुप्रतिज्ञया' साधुमुद्दिश्य कोष्ठिकातः 'उज्जियन्ति ऊर्द्धकायमुन्नम्य ततः कुब्जीभूय, तथा कोलेज्जाओ Etication Intimational For Pantry O ~692~# Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [३७] दीप अनुक्रम [३७१] श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ३४४ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [३७], निर्युक्तिः [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः 'अवरजिअ 'त्ति अधोऽवनम्य, तथा 'ओहरिय'त्ति तिरश्चीनो भूत्वाऽऽहारमाहृत्य दद्यात् तच्च भिक्षुस्तथाप्रकारमधोमालाहृतमिति कृत्वा लाभे सति न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ अधुना पृथिवीकायमधिकृत्याह से भिक्खू वा० से जं० असणं वा ४ मट्टियाउलित्तं तप्पगारं असणं वा ४ लाभे सं०, केवली०, अस्संजए भि० म ट्टिभोलित्तं असणं वा० उभिदमाणं पुढविकार्य समारंभिजा तह तेजवाउवणस्सइतसकार्य समारंभिज्जा, पुणरवि उडिंपमाणे पच्छाकम्मं करिजा, अह भिक्खूणं पुब्बो० जं वहप्पगारं मट्टिओलित्तं असणं वा लाभे० । से भिक्खू० से जं० असणं वा ४ पुढविकापट्ठियं तप्यगारं असणं वा अफासुयं से भिक्खू० जं० असणं वा ४ आउकायपइद्वियं चैव, एवं काला केवली०, अरसंज० भि० अगणि उत्सकिय निस्सकिय ओहरिय आहद्दु दलइज्जा अह मिक्वूर्ण ० जाब नो पडि० ॥ ( सू० ३८ ) ॥ स भिक्षुर्गृहपतिकुलं प्रविष्टः सन् यदि पुनरेवं जानीयात्, तद्यथा- पिठरकादौ मृत्तिकयाऽवलिप्तमाहारं 'तथाप्रकार'| मित्यवलिप्तं केनचित्परिज्ञाय पश्चात्कर्मभयाच्चतुर्विधमप्याहारं लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात् किमिति ?, यतः केवली ब्रूयात्कर्मादानमेतदिति, तदेव दर्शयति- 'असंयतः ' गृहस्थो भिक्षुप्रतिज्ञया मृत्तिकोपलिप्तमशनादिकम् - अशनादिभाजनं तच्चोद्भिन्दन् पृथिवीकायं समारभेत, स एव केवल्याह, तथा तेजोवायुवनस्पतित्रसकायं समारभेत, दत्ते सत्युत्तरकालं | पुनरपि शेषरक्षार्थं तद्भाजनमवलिम्पन् पञ्चात्कर्म कुर्यात्, अथ भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टा एषा प्रतिज्ञा एप हेतुरेतत्कारणमयमुपदेशः यत्तथाप्रकारं मृत्तिकोपलिप्तमशनादिजातं लाभे सति नो प्रतिगृह्णीयादिति ॥ स भिक्षुगृहपतिकुलं प्रविष्टः सन् Jan Estication matinal For Pantry Use Only ~693~# श्रुतस्कं०२ चूलिका १ पिण्डेष०१ उद्देशः ७ ॥ २४४ ॥ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [३८], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक [३८] दीप यदि पुनरेवंभूतमशनादि जानीयात् , तद्यथा-'सचित्तपृथिवीकायप्रतिष्ठित' पृथ्वीकायोपरिव्यवस्थितमाहारं विज्ञाय सापृथिवीकायसवनादिभयाल्लाभे सत्यमासुकमनेषणीयं च ज्ञात्वा न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ एवमकायप्रतिष्ठितमग्निकायप्रति ष्ठितं लाभे सति न प्रतिगृह्णीयाद्, यतः केवली ब्रूयादादानमेतदिति । तदेव दर्शयति-असंयतो भिक्षुप्रतिज्ञयाऽग्निकायमुल्मुकादिना 'ओसकिय'त्ति प्रज्वाल्य (निषिच्य), तथा 'ओहरियत्ति अग्निकायोपरि व्यवस्थितं पिठरकादिकमाहारभाजनमपवृत्त्य तत आहृत्य-गृहीत्वाऽऽहारं दद्यात् , तत्र भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टा एषा प्रतिज्ञा यदेतत्तथाभूतमाहारं नो प्रतिगृह्णीयादिति ॥ से मिक्खू वा २ से ज० असणं वा ४ अशुसिणं अस्संजए भि० सुप्पेण वा बिहुयणेण वा तालियंटेण वा पत्तेण वा साहाए चा साहाभंगेण था पिहुणेण वा पिहुणहत्थेण वा चेलेण वा चेलकण्योण वा हत्येण वा मुहेण वा फुमिज वा बीइज वा, से पुब्बामेव आलोइज्जा--आउसोत्ति वा भइणित्ति वा! मा एतं तुभं असणं वा अथुसिणं सुप्पेण वा जाव फुमाहि वा वीयाहि वा अभिकखसि मे दाउं, एमेव दलयाहि, से सेवं वयंतस्स परो मुप्पेण वा जाब वीइत्ता आइटु दलइजा तहप्पगारं असणं वा ४ अफासुयं वा नो पडि०॥ (सू० ३९)॥ स भिक्षुहपतिकुलं प्रविष्टः सन् यदिपुनरेवं जानीयाद् यथाऽत्युष्णमोदनादिकमसंयतो भिक्षुप्रतिज्ञया शीतीकरणार्थ सूर्पण वा वीजनेन वा तालबृन्तेन वा मयूरपिच्छकृतव्यजनेनेत्यर्थः, तथा शाखया शाखाभनेन पल्लवेनेत्यर्थः, तथा बhण Clवा वर्हकलापेन वा, तथा वस्त्रेण वस्त्रकर्णेन वा हस्तेन वा मुखेन वा तथाप्रकारेणान्येन वा केनचित् 'फुमेजा चेति | अनुक्रम [३७२] wwwandltimaryam ~694~# Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [३९], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचा प्रत श्रुतस्क०२ चूलिका १ पिण्डैष०१ उद्देशः७ |३९॥ मुखवायुना शीतीकुर्याद् वस्त्रादिभिर्वा धीजयेत् , स भिक्षुः पूर्वमेव 'आलोकयेत्' दत्तोपयोगो भवेत् , तथाकुर्वाणं च रावृत्तिः दृष्ट्वैतद्वदेत् , तद्यथा-अमुक! इति वा भगिनि ! इति वा इत्यामन्त्र्य मैवं कृथा यद्यभिकाजसि मे दातुं तत एवंस्थितमेव (शी०) ददस्व, अथ पुनः स परो-गृहस्थः 'से' तस्य भिक्षोरेवं वदतोऽपि सूर्येण वा यावन्मुखेन वा वीजयित्वाऽऽहुत्य तथाप्रकार-| मशनादिकं दद्यात् , स च साधुरनेषणीयमिति मत्वा न परिगृह्णीयादिति ॥ पिण्डाधिकार एवैषणादोषमधिकृत्याह॥३४५॥x से भिक्खू वा २ से ज० असणं वा ४ वणस्सइकायपइट्ठियं तहप्पगारं असणं का ४ वण. लामे संते नो पडिक । एवं तसकाएवि ॥ (सू०४०)। PI स भिक्षुर्ग्रहपतिकुलं प्रविष्टः सन् यत्पुनरेवं जानीयाद्-वनस्पतिकायप्रतिष्ठितं, तं चतुर्विधमप्याहारं न गृह्णीयादिति ॥ एवं त्रसकायसूत्रमपि नेयमिति । अत्र च वनस्पतिकायप्रतिष्ठितमित्यादिना निक्षिप्ताख्य एषणादोपोऽभिहितः, एवमन्ये|ऽप्येपणादोषा यथासम्भवं सूत्रेष्वेवायोज्याः। ते चामी-“संकिय १ मक्खिय.२ निक्खित्त ३ पिहिय ४ साहरिय ५ दायगु ६ म्मीसे ७ । अपरिणय ८ लित्त ९ छड्डिय १० एसणदोसा दस हवंति ॥ १॥" तत्र शङ्कितमाधाकर्मादिना १, यक्षितमुदकादिना २, निक्षिप्तं पृथिवीकायादी ३, पिहितं बीजपूरकादिना ४, 'साहरिय'ति मात्रकादेस्तुपाद्यदेयमन्यत्र सचित्तपृथिव्यादौ संहत्य तेन मात्रकादिना यद्ददाति तत्संहृतमित्युच्यते ५, 'दायग'त्ति दाता बालवृद्धाद्ययोग्यः ६, उमिश्र-सचित्तमिश्रम् ७, अपरिणतमिति यहेयं न सम्यगचित्तीभूतं दातृग्राहकयोर्वा न सम्यग्भावोपेतं ८, लिप्तं वसादिना ९, 'छडिय'ति परिशाटव १० दित्येषणादोषाः ॥ साम्प्रतं पानकाधिकारमुद्दिश्याह१शक्तिं प्रक्षितं निक्षिप्तं पिहिवं महतं दायकदोषदुई उन्मित्रम् । अपरिणतं लिप्त छर्दित एषणादोषा दश भवन्ति ॥१॥ RECACAKC दीप अनुक्रम [३७३] V॥३४५॥ wwwandltimaryam ~695~# Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [४१], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: कर प्रत ॥४१॥ दीप अनुक्रम [३७५]] से भिक्खू वा २ से जं पुण पाणगजायं जाणिज्जा, तंजहा-उस्सेइमं वा १ संसेइमं वा २ चाउलोदगं वा ३ अन्नयर वा तहप्पगारं पाणगजायं अहुणाधोयं अणंबिलं अव्वुकंतं अपरिणयं अविद्वत्थं अफासुयं जाव नो पढिगाहिज्जा । अह पुण एवं जाणिमा चिराधोयं अंबिल बुक्कतं परिणयं विद्धत्थं फासुयं पडिगाहिज्जा । से भिक्खू वा० से जं पुण पाणगजायं जाणिज्जा, तंजहा-तिलोदगं वा ४ तुसोदगं वा ५ जवोदगं वा ६ आयाम वा ७ सोवीर वा ८ सुद्धवियर्ड वा ९ अन्नयर वा तहप्पगारं वा पाणगजायं पुब्बामेव आलोइजा-आउसोत्ति वा भइणित्ति वा! दाहिसि मे इत्तो अन्नयर पाणगजायं, से सेवं वयंतस्स परो वइजा-आउसंतो समणा! तुमं चेवेयं पाणगजायं पडिग्गहेण वा उस्सिचिया णं उयत्तिया णं गिहाहि, तहप्पगार पाणगजायं सयं वा गिहिजा परो वा से दिज्जा, फासुर्य लाभे संते पडिगाहिजा ॥ (सू०४१) स भिक्षुर्ग्रहपतिकुलं पानकार्थं प्रविष्टः सन् यत्पुनरेवं जानीयात् तद्यथा-'उस्सेइमं वेति पिष्टोत्स्वेदनार्थमुदकं १ द संसेइमं चेति तिलधावनोदकं, यदिवाऽरणिकादिसंस्विन्नधावनोदकं २, तत्र प्रथमद्वितीयोदके प्रासुके एव, तृतीयचतुर्थे । त मिश्रे, कालान्तरेण परिणते भवतः, 'चाउलोदय'ति तन्दुलधावनोदकम् ३, अत्र च प्रयोऽनादेशाः, तद्यथा-बुद्द-16 विगमो वा १ भाजनलग्नविन्दुशोषो वा २ तन्दुलपाको वा ३, आदेशस्त्वयम्-उदकस्वच्छीभावः, तदेवमायुदकम् 'अ४ नाम्ल' स्वस्वादादचलितम् अव्युत्क्रान्तमपरिणतमविध्वस्तमप्रासुकं यावन्न प्रतिगृहीयादिति ॥ एतद्विपरीतं तु ग्राह्यमि त्याह-अहेत्यादि सुगमम् । पुनः पानकाधिकार एव विशेषार्थमाह-स भिक्षुर्गृहपतिकुलं प्रविष्टो यत्पुनः पानकजातमेवं ~696~# Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [४१] दीप अनुक्रम [३७५ ] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ३४६ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [४१], निर्युक्तिः [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रुतस्कं० २ चूलिका १ जानीयात्, तद्यथा - ' तिलोदक' तिलैः केनचित्प्रकारेण प्रासुकीकृतमुदकम् ४, एवं तुवैर्यवैर्वा ५-६, तथा 'आचाम्डम्' अवश्यानं ७, 'सौवीरम्' आरनाएं ८ 'शुद्धविकटं' प्रासुकमुदकम् ९, अन्यद्वा तथाप्रकारं द्राक्षापानकादि 'पानकजातं' पानीयसामान्यं पूर्वमेव 'अवलोकयेत्' पश्येत्, तच्च दृष्ट्वा तं गृहस्थम् अमुक ! इति वा भगिनि । इति वेत्यामन्त्र्यैवं १ पिण्डैष०१ ब्रूयाद्यथा दास्यसि मे किञ्चित्यानकजातं?, स परस्तं भिक्षुमेवं वदन्तमेवं ब्रूयाद्-यथा आयुष्मन् ! श्रमण ! त्वमेवेदं * उद्देशः ७ पानकजातं स्वकीयेन पतद्रहेण टोप्परिकया कटाहकेन वोत्सिश्यापवृत्त्य वा पानकभाण्डकं गृहाण, स एवमभ्यनुज्ञातः स्वयं गृह्णीयात् परो वा तस्मै दद्यात्, तदेवं लाभे सति प्रतिगृह्णीयादिति ॥ किञ्च - से भिक्खू वा० से जं पुण पाणगं जाणिजा - अणंतरहियाए पुढवीए जब संताणए उद्धट्टु २ निक्खित्ते सिया, असंजए भिक्खुपडियाए उण वा ससिणिद्वेण वा सकसाएण वा मत्तेण वा सीओदगेण वा संभोत्ता आह दइया, तहपगारं पाणगजायं अफासुगं० एयं खलु सामग्गियं० ॥ ( सू० ४२ ) ॥ पिण्डैषणायां सप्तमः २-१-१-७ । स भिक्षुर्यदि पुनरेवं जानीयात् तत्पानकं सचित्तेष्वव्यवहितेषु पृथिवीकायादिषु तथा मर्कटकादिसन्तानके वाऽन्यतो भाजनादुद्धृत्योद्धृत्य 'निक्षिप्तं' व्यवस्थापितं स्यात्, यदिवा स एव 'असंयतः' गृहस्थः 'भिक्षुप्रतिज्ञया' भिक्षुमुद्दिश्य 'उद कार्द्रेण' गलद्विन्दुना 'सस्निग्धेन' गलदुदकबिन्दुना 'सकषायेण' सचित्तपृथिव्याद्यवयवगुण्ठितेन 'मात्रेण' भाजनेन शीतोदकेन वा 'संभोएत्ता' मिश्रयित्वाऽऽहृत्य दद्यात्, तथाप्रकारं पानकजातमप्रासुकमनेषणीयमिति मत्वा न परिगृहीयात्, एतत्तस्य भिक्षोभिक्षुण्या वा 'सामग्र्यं' समग्रो भिक्षुभाव इति ॥ प्रथमस्य सप्तमः समाप्तः ॥ २-१-१-७॥ 2013 Jain Estication tytumanl For Pantry Use O ~697~# ॥ ३४६ ॥ Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [८], मूलं [४३], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: - प्रत SAX - सूत्राक - [४३] -% दीप अनुक्रम [३७७]] उक्तः सप्तमोद्देशकः, साम्प्रतमष्टमः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः इहानन्तरोद्देशके पानकविचारः कृतः, इहापि तद्गतमेव विशेषमधिकृत्याह से भिक्खू वा २ से जं पुण पाणगजायं जाणिज्जा, तंजहा-अंबपाणगं वा १० अंबाडगपाणगं वा ११ कविठ्ठपाण० १२ माउलिंगपा० १३ मुदियापा० १४ दालिमपा० १५ खजूरपा० १६ नालियेरपा० १७ फरीरपा० १८ कोलपा० १९ आमलपा० २० चिंचापा० २२ अन्नयरं वा सहप्पगारं पाणगजातं सअष्टियं सकणुयं सवीयगं असंजए भिक्खुपडियाए छरषेण वा दूसेण वा बालगेण वा आविलियाण परिवीलियाण परिसावियाण आहङ दलइजा तहप्पगारं पाणगजायं अफा० लाभे संते नो पडिगाहिजा ॥ (सू०४३) । । स भिक्षुर्ग्रहपतिकुलं प्रविष्टः सन् यत्पुनरेवंभूतं पानकजातं जानीयात् , तद्यथा-'अंबगपाणगं वेत्यादि सुगम, नवरं 'मुद्दिया' द्राक्षा कोलानि-पदराणि, एतेषु च पानकेषु द्राक्षाबदराम्बिलिकादिकतिचिसानकानि तरक्षणमेव संमयें कियन्ते अपराणि त्वाम्बाम्बाडकादिपानकानि द्विवादिदिनसन्धानेन विधीयन्त इत्येवंभूतं पानकजातं तथाप्रकारमन्यदपि || सास्थिक' सहास्थिना कुलकेन यद्वर्तते, तथा सह कणुकेन-वगाद्यवयवेन यद्वर्त्तते, तथा बीजेन सह यद्वर्त्तते, अस्थि-12 बीजयोश्चामलकादी प्रतीतो विशेषः, तदेवंभूतं पानकजातम् 'असंयतः' गृहस्थो भिक्षुमुद्दिश्य-साध्वर्थ द्राक्षादिकमामये पुनर्वशत्वनिष्पादितच्छच्चकेन वा, तथा दुस-वस्त्रं तेन वा, तथा 'वालगेण ति गवादिवालधिवालनिष्पन्नचालनकेन सुध-I पारिकागृहकेन वा इत्यादिनोपकरणेनास्थ्याद्यपनयनार्थं सकृदापीड्य पुनः पुनः परिपीक्य, तथा परिस्राव्य निगाल्याहृत्य || KARAKAR wwwandltimaryam | प्रथम चूलिकाया: प्रथम-अध्ययनं "पिण्डैषणा", अष्टम-उद्देशक: आरब्ध: ~698~# Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [८], मूलं [४३], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रुतस्क०२ चूलिका १ पिण्डैष०१ उद्देशः८ [४३] दीप श्रीआचा- च साधुसमीपं दद्यादिति, एवंप्रकारं पानकजातमुद्गमदोषदुष्टं सत्यपि लाभे न प्रतिगृह्णीयात् , ते चामी उद्गमदोषाः- राङ्गवृत्तिः | PI"आहाकम्मु १ देसिअ २ पूतीकम्मे ३ अ मीसजाए अ४ । ठवणा ५ पाहुडियाए ६ पाओअर ७ कीय ८ पामिच्चे ९ "आहार (शी०) ॥१॥ परियट्टिए १० अभिहडे ११ उब्भिन्ने १२ मालोहडे १३ इअ । अच्छेजे १४ अणिसहे १५ अज्झोअरए १६ अ सोलसमे ॥२॥" साध्वर्थ यत्सचित्तमचित्तीक्रियते अचित्तं वा यसच्यते तदाधाकर्म १ तथाऽऽत्मार्थ यत्पूर्वसिद्धमेव ॥३४७॥lix लडकचूर्णकादि साधुमुद्दिश्य पुनरपि [संत] गुडादिना संस्क्रियते तदुद्देशिकं सामान्येन, विशेषतो विशेषसूत्रादवगन्तव्यमिति २। यदाधाकर्माद्यवयवसम्मियं तत्पूतीकर्म ३ । संयतासंयताद्यर्थमादेरारभ्याहारपरिपाको मिश्रम् ४ । साध्वर्थ क्षीरादिस्थापनं स्थापना भण्यते ५ । प्रकरणस्य साध्वर्थमुत्सर्पणमवसर्पणं वा प्राभूतिका ६ । साधूनुद्दिश्य गवाक्षादिप्रकाशकरणं बहिर्वा प्रकाशे आहारस्य व्यवस्थापनं मादुष्करणम् ७ । द्रव्यादिविनिमयेन स्वीकृतं क्रीतम् ८ । साध्वर्थ यदन्यस्मादुच्छिन्नकं गृह्यते तत्सामिच्चंति ९ । यच्छाल्योदनादि कोद्रवादिना प्रातिवेशिकगृहे परिवर्य ददाति तत्परिवर्तितम् १०। यहादेः साधुवसतिमानीय ददाति तदाहृतम् ११ । गोमयाद्युपलिप्तं भाजनमुद्भिद्य ददाति तदुनिन्नम् १२॥ मालाद्यवस्थितं निश्रेण्यादिनाऽवतार्य ददाति तन्मालाहृतम् १३ । भृत्यादेराच्छिद्य यद्दीयते तदाच्छेद्यम् १४ । सामान्य | श्रेणीभक्तकाकस्य ददतोऽनिसृष्टम् १५ । स्वार्थमधिश्रयणादौ कृते पश्चात्तन्दुलादिप्रसृत्यादिप्रक्षेपादध्यवपूरकः १६॥ तदेवमन्यतमेनापि दोषेण दुष्टं न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ पुनरपि भक्तपानविशेषमधिकृत्याह अनुक्रम [३७७]] ॥३४७॥ wwwjaanaitimaryam ~699~# Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [८], मूलं [४४], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत ॥४४॥ दीप से मिक्खू वा०२ आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहाबईगिहेसु वा परियावसहेसु वा अन्नगंधाणि वा पाणगंधाणि वा सुरभिगंधाणि वा आघाय २ से तत्थ आसायपडियाप गुन्छिए गिद्धे गढिए अज्झोवपन्ने अहो गंधो २ नो गंधमाघाइजा (सू०४४) 'आगंतारेसु वत्ति पत्तनाबहिर्गृहेषु, तेषु ह्यागत्यागत्य पथिकादयस्तिष्ठन्तीति, तथाऽऽरामगृहेषु वा गृहपतिगृहेषु वा 'पर्यावसथेषु' इति भिक्षुकादिमठेषु वा, इत्येवमादिष्वन्नपानगन्धान सुरभीनाघ्रायाघाय स भिक्षुस्तेष्वास्वादनप्रतिज्ञया मूर्छितो गृद्धो ग्रथितोऽध्युपपन्नः सन्नहो! गन्धः अहो! गन्ध इत्येवमादरवान न गन्धं जिदिति ॥ पुनरप्याहारमधिकृत्याह-14 से भिक्खू वा २ से जं० सालुयं वा बिरालियं वा सासवनालियं वा अन्नवरं वा तहप्पगारं आमगं असत्थपरिणयं अफासु० । से भिक्खू वा० से जं पुण• पिपलि वा पिप्पलचुण्णं वा मिरियं वा मिरियचुण्णं वा सिंगबेर वा सिंगवेरचुणं वा अन्नयर वा तहपगार वा आमर्ग वा असत्थ प० । से भिक्खू वा० से जं पुण पलंबजायं जाणिजा, तंजहाअंबपलंसं वा अंबाडगपलं वा तालप० झिझिरिप० सुरहि० सल्लरप० अन्नयरं तहप्पगार पलंबजाय आमगं असस्थप० । से भिक्खू ५ से जं पुण पवालजार्य जाणिजा, तंजहा-आसोपवालं वा निग्गोहप० पिलखुप० निपूरप० सल्लइप० अन्नवरं वा तहप्पगार पवालजार्य आमर्ग असत्यपरिणयं० । से भि० से जं पुण० सरडयजायं जाणिज्जा, तंजहा-सरडुयं वा कविट्ठसर० दाडिमसर० विहस० अन्नयरं वा तहप्पगारं सरडुयजायं आमं असत्य परिणयं० । से निक्लू वा० से जं पु० तंजहाउचरमधु वा नगोहमं० पिलुखुमं० आसोत्थमं० अन्नयरं वा तहप्पगारं वा मधुजायं आमयं दुरुष साणुवीर्य अफासुब० ॥ (सू०४५)॥ अनुक्रम [३७८] wwwandltimaryam ~700~# Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [ ४५ ] दीप अनुक्रम [३७९] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ३४८ ॥ Jain Estication t “आचार” - अंगसूत्र-१ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [८], मूलं [४५], निर्युक्तिः [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सुगमं, 'साकम्' इति कन्दको जलजः 'बिरालियं' इति कन्द एव स्थलजः 'सासवणालिभ'न्ति सर्पपकन्दस्य इति ॥ किञ्च पिप्पलीमरिचे-प्रतीते 'शृङ्गवेरम्' आर्द्रकं तथाप्रकारमामलकादि आमम्-अशखोपहतं न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ सुगमं, नवरं परम्बजातमिति फलसामान्यं झिञ्झिरी - वली पलाशः सुरभिः शतगुरिति ॥ गतार्थ, नवरम् 'आसोद्वे 'ति अश्वत्थः 'पिलुंखु'त्ति पिप्परी णिपूरो-नन्दीवृक्षः ॥ पुनरपि फलविशेषमधिकृत्याहसुगमं, नवरं 'सरडुअं वेति अवद्धास्थिफलं तदेव विशिष्यते कपित्थादिभिरिति ॥ स्पष्टं, नवरं 'मधु'न्ति चूर्णः 'दुरुक'ति ईषत्ष्टिं 'साणुवीय'न्ति अविध्वस्तयोनिचीजमिति ॥ से भिक्खू वा० से जं पुण० आमडागं वा पिन्नागं वा महं वा मर्ज वा सपि खोलं वा पुराणगं वा इत्थ पाणा अणुसूबाई जायाई संबुडाई अब्बुकंवाई अपरिणया इत्थ पाणा अविद्धत्था नो पडिगाहिना । ( सू० ४६ ) || स भिक्षुर्यत्पुनरेवं जानीयत्, तद्यथा- 'आमडागं वे'ति 'आमपत्रम्' अरणिकतन्दुलीयकादि तच्चार्द्धपक्कमपर्क वा, 'प्रतिपिन्नाग 'न्ति कुथितखलं मधुमचे-प्रतीते 'सर्पिः' घृतं 'खोल' मद्याधःकर्दमः, एतानि पुराणानि न प्राह्माणि, यत एतेषु प्राणिनोऽनुप्रसूता जाताः संवृद्धा अव्युत्क्रान्ता अपरिणताः - अविध्वस्ताः, नानादेशजविनेयानुग्रहार्थमेकार्थिकान्येवैतानि किञ्चिद्भेदाद्वा भेदः ॥ से भिक्खु वा० से जं० उच्छुमेरगं वा अंककरेलुगं वा कसेरुगं वा सिंघाडगं वा पूइआलुगं वा अन्नयरं बा० । से भिक्खू वा० से जं० उप्पलं वा उप्पलनालं वा मिसं वा भिसमुणालं वा पुक्खळं वा पुक्खलबिभंगं वा अन्नयरं वा तहय्यगारं० । (सू० ४७) For Pantry Use Only ~701 ~# श्रुतस्कं०२ ४ चूलिका १ * पिण्डेष० १ | उद्देशः ८ ॥ ३४८ ॥ Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [८], मूलं [४७], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत RRC ४७] दीप अनुक्रम [३८१] 'उच्छुमेरगति अपनीतत्वगिधुगण्डिका 'अंककरेलुअं वा' इत्येवमादीन् वनस्पतिविशेषान् जलजान् अन्यद्वा त-12 थाप्रकारमामम्-अशस्त्रोपहतं नो प्रतिगृह्णीयादिति ॥ स भिक्षुर्यत्पुनरेवं जानीयात्, तद्यथा-उत्पलं' नीलोत्पलादि नालं-तस्यैवाधारः, 'भिसं' पदाकन्दमूलं 'भिसमुणालं' पद्मकन्दोपरिवर्तिनी लता 'पोक्खलं' पद्मकेसरं 'पोक्खलविभंग पद्मकन्दः अन्यद्वा तथाप्रकारमामम्-अशस्त्रोपहतं न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ से भिक्खू वा २ से जं पु० अग्गवीयाणि वा मूलवीयाणि वा खंधवीवाणि वा पोरखी० अगाजायाणि वा मूलजाक खंधजा. पोरजा० नन्नत्थ तालिमत्थए ण वा तकलिसीसे ण वा नालियेरमत्थएण वाखजूरिमथएण वा तालम० अन्नयरं वा तह। से भिक्खू वा २ से जं० उक्छ वा काणगं वा अंगारियं वा संमिस्सं विगदूमियं वित(त)ग्गर्ग वा कंदलीऊसुगं अग्नयरं वा तहप्पगा० । से भिक्खू वा० से जं. लसुणं वा लसुणपत्तं वा ल. नालं वा लसुणकंदं वा ल० चोयगं वा अन्नयरं वा०। से भिक्खू वा० से जं० अच्छियं या कुंभिपकं तिदुर्ग वा वेलुगं वा कासवनालियं वा अन्नयरं वा तहप्पगारं आमं असत्थप०। से भिक्खू वा० से ज० कर्ण वा कणकुंडगं वा कणपूयलियं वा चाउलं वा चाउलपिडं वा तिलं वा तिलपिटुं वा तिलपप्पडगं वा अन्नयरं वा तहप्पगारं आमं असत्थप लाभे संते नो प०, एवं खलु तस्स भिक्खुस्स सामग्गियं ॥ (सू०४८) २-१-१-८ ॥ पिण्डैषणायामष्टम उद्देशकः ।। स भिक्षुर्यत्पुनरेवं जानीयात्, तद्यथा-'अग्रवीजानि' जपाकुसुमादीनि 'मूलबीजानि' जात्यादीनि 'स्कन्धबीजानि' सल्लक्यादीनि 'पर्वबीजानि' इक्ष्वादीनि, तथा अग्रजातानि मूलजातानि स्कन्धजातानि पजातानीति, 'णवत्थति नान्य -CLAST बा.सू.५९ ~702~# Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) ཎྜལླཱཡྻ [४८] अनुक्रम [३८२] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ३४९ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [८], मूलं [४८], निर्युक्तिः [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | स्मादग्रादेरानीयान्यत्र प्ररोहितानि किन्तु तत्रैवाग्रादौ जातानि तथा 'तक्कलिमत्थए ण वा' तक्कली - कन्दली 'ण' इति वा| क्यालङ्कारे तन्मस्तकं तन्मध्यवत्तीं गर्भः, तथा 'कन्दलीशीर्ष' कन्दलीस्तबकः, एवं नालिकेरादेरपि द्रष्टव्यमिति, अथवा कन्दल्यादिमस्तकेन सदृशमन्यद्यच्छिन्नानन्तरमेव ध्वंसमुपयाति तत्तथाप्रकारमन्यदामम्-अशस्त्रपरिणतं न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ स भिक्षुर्यत्पुनरेवं जानीयात्, तद्यथा-इक्षं वा 'काणगं'ति व्याधिविशेषात्सच्छिद्रं, तथा 'अंगारकितं' विवर्णीभूतं, तथा 'सम्मिश्रं' स्फुटितत्वकू 'विगदूमिय'ति वृकैः शृगालैर्वा ईषद्भक्षितं, न ह्येतावता रन्धाद्युपद्रवेण तत्मासुकं भवतीति ॐ सूत्रोपन्यासः, तथा वेत्राग्रं 'कंदलीऊसुर्य'ति कन्दलीमध्यं, तथाऽन्यदप्येवंप्रकारमामम्-अशस्त्रोपहतं न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ एवं लशुनसूत्रमपि सुगमं, नवरं 'चोअगं'ति कोशिकाकारा लशुनस्य बाह्यत्वक्, सा च यावत्सार्द्रा तावत्सचित्तेति ॥ 'अच्छियं'ति वृक्षविशेषफलं 'तेंदुयं'ति टेम्बरूयं 'वेलुयं'ति बिल्वं 'कासवनालियं'ति श्रीपणफलं, कुम्भीपक्कशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, एतदुक्तं भवति-यदच्छिकफलादिगर्त्तादावप्राप्तपाककालमेव बलात्पाकमानीयते तदामम् अपरिणतं न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ 'कणम्' इति शाल्यादेः कणिकास्तत्र कदाचिन्नाभिः संभवेत् 'कणिककुण्डं' कणिकाभिर्मिश्राः कुक्कुसाः 'कणपूयलिअं 'ति कणिकाभिर्मिश्राः पूपलिकाः कणपूपलिकाः, अत्रापि मन्दपक्वादौ नाभिः संभाव्यते, शेषं सुगमं यावत्तस्य भिक्षोः 'सामग्र्यं' सम्पूर्णो भिक्षुभाव इति ॥ प्रथमस्याष्टमोदेशकः समाप्तः ॥ Jan Estication Initial For Pantry at Use Only २ १ ~703~# श्रुतस्कं० २ चूलिका १ पिण्डैष०१ उद्देशः ८ ॥ ३४९ ॥ Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत [४९ ] दीप अनुक्रम [३८३] “आचार” - अंगसूत्र-१ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [९], मूलं [४९], निर्युक्तिः [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः उक्तोऽष्टमोद्देशः, साम्प्रतं नवम आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरमनेषणीयपिण्डपरिहार उक्तः, इहापि प्रकारान्तरेण स एवाभिधीयते - इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइया सड्डा भवंति गाहावई वा जाव कम्मकरी वा, तेसिं चणं एवं वृत्तपुव्वं भवइ--जे इमे भवंति समणा भगवंता सीलवंतो जयवंतो गुणवंतो संजया संबुडा बंभयारी उबरया मेहुणाओ धम्माओ, नो खलु एएसिं कप्प आहाकम्मिए असणे वा ४ भुत्तर वा पायए वा, से जं पुण इमं अहं अप्पणो अट्ठाए निद्वियं तं असणं ४ संव्वमेयं समणाणं निसिरामो, अवियाई वयं पच्छा अप्पणी अट्ठाए असणं वा ४ चेइस्लामो, एयप्पगारं निग्घोसं सुधा निसम्म तपगारं असणं वा ४ अफासुर्य० ॥ ( सू० ४९ ) 'इहे 'ति वाक्योपन्यासे प्रज्ञापकक्षेत्रे वा, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे प्रज्ञापकाद्यपेक्षया प्राच्यादौ दिशि सन्ति - विद्यन्ते पुरुषाः तेषु च केचन श्रद्धालवो भवेयुः ते च श्रावकाः प्रकृतिभद्रका वा, ते चामी -गृहपतिर्यावत्कर्मकरी वेति, तेषां चेदमुक्त पूर्वं भवेत् - 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे, ये इमे 'श्रमणाः साधवो भगवन्तः 'शीलवन्तः' अष्टादशशीलाङ्गसहस्रधारिणः 'व्रतवन्तः' रात्रिभोजनविरमणषष्ठपञ्चमहाव्रतधारिणः 'गुणवन्तः ' पिण्डविशुद्ध्याद्युत्तरगुणोपेताः 'संयताः' इन्द्रि यनोइन्द्रियसंयमवन्तः 'संवृताः' पिहितास्रवद्वारा: 'ब्रह्मचारिणः' नवविधत्रह्मगुप्तिगुप्ताः 'उपरता मैथुनाद्धर्मात्' अष्टाद शविकल्पब्रह्मोपेता (संयता), एतेषां च न कल्पते आधाकर्मिकमशनादि भोक्तुं पातुं वा, अतो यदात्मार्थमस्माकं निष्ठितं सिद्धमशनादि ४ तत्सर्वमेतेभ्यः श्रमणेभ्यः 'णिसिरामो' त्ति प्रयच्छामः अपि च-त्रयं पञ्चादात्मार्थमशनाद्यन्यत् 'चेत Jan Estication Intimatinal For Prata Use Only प्रथम चूलिकायाः प्रथम अध्ययनं “पिण्डैषणा", नवम उद्देशक: आरब्धः ~704~# Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [४९], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रुतस्क०२ चलिका १ पिण्डैष०१ उद्देशः९ (शी०) ४ा श्रीआचा- यिष्यामः' सङ्कल्पयिष्यामो निर्वर्तयिष्याम इतियावत्, तदेवं साधुरेवं 'निर्घोष' ध्वनि स्वत एव श्रुत्वाऽन्यतो वा कुत- यष्यामा राङ्गवत्तिःश्चित् 'निशम्य ज्ञात्वा तधाप्रकारमशनादि पश्चात्कर्मभयादपासुकमित्यनेषणीयं मत्वा लाभे सति न प्रतिगृह्णीयादिति किश्च से भिक्खू वा० वसमाणे वा गामाणुगाम वा दूइन्जमाणे से जं. गामं वा जाव रायहाणि वा इमंसि खलु गामंसि वा राय॥ ३५०॥ हाणिसि वा संतेगइयस्स भिक्खुस्स पुरेसंधुया वा पच्छासंथुया वा परिवसंति, तंजहा-गाहावई वा जाव कम्म० तहप्पगाराई कुलाई नो पुवामेव भत्ताए वा निक्समिज वा पविसेज वा २, केवली बूया-आयाणमेयं, पुरा पेहाए तस्स परो अट्ठाए असणं वा ४ उवकरिज वा उबक्सडिज बा, अह भिक्खूणं पुब्बोवट्ठा ४ जं नो तहप्पगाराई कुलाई पुच्चामेव भत्ताए वा पाणाए वा पविसिज वा निक्समिज वा २, से तमायाय एगतमवकमिजा २ अणावायमसंलोए चिडिजा, से तत्थ कालेणं अणुपविसिज्जा २ तत्वियरेयरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवायं एसित्ता आहारं आहारिजा, सिया से परो कालेण अणुपविट्ठस्स आहाकम्मियं असणं वा उबकरिज का उवक्सडिज वा तं गइओ तुसिणीओ उमेहेजा, आदमेव पचाइक्सिस्सामि, माइहाणं संफासे, नो एवं करिजा, से पुब्बामेव आलोहजा-आउसोसि वा भाणित्ति वा! नो खलु मे कप्पद आहाकम्मियं असणं वा ४ भुत्तए का पायए वा, मा उपकरेहि मा उपक्सदेहि, से सेवं वयं तस्स परो आहाकम्मियं असणं वा ४ उवक्खडावित्ता आटु दलइजा तहप्पगारं असणं वा० अफासुर्य० ॥ (सू०५०) स भिक्षुर्यत्पुनरेवं जानीयात्, तद्यथा-ग्रामं वा यावद्राजधानी वा, अमिंश्च प्रामादौ 'सन्ति' विद्यन्ते कस्यचिनिको ASSACANCAR दीप अनुक्रम [३८३] AKADKAACHANAMAST ॥३५० wataneltmanam ~705~# Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [९], मूलं [१०], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक [५०] दीप अनुक्रम [३८४] 'पूर्वसंस्तुता' पितृव्यादयः 'पश्चात्संस्तुता वा' श्वशुरादयः, ते घ तत्र बद्धगृहा: प्रबन्धेन प्रतिवसन्ति, ते चामी-गृहपतिर्वा यावत्कर्मकरी वा, तथाप्रकाराणि च कुलानि भक्तपानाद्यर्थ न प्रविशेत् नापि निष्कामेत् , स्वमनीषिकापरिहारा र्थमाह-केवली यात्कर्मोपादानमेतत्, किमिति?, यतः पूर्वमेवैतत् 'प्रत्युपेक्षेत' पर्यालोचयेत, तथा 'एतस्य' भिक्षोः कृते |'पर।' गृहस्थोऽशनाद्यर्थम् 'उपकुर्यात्' दौकयेदुपकरणजातम् , 'उवक्खडेजत्ति तदशनादि पचेद्वेति, 'अथ' अनन्तरं भि भ्रूणां पूर्वोपदिष्टमेतप्रतिज्ञादि, यथा-नो तथाप्रकाराणि स्वजनसम्बन्धीनि कुलानि पूर्वमेव-भिक्षाकालादारत एव भक्तागद्यर्थं प्रविशेद्धा निष्कामेद्वेति । यद्विधेयं तद्दर्शयति-'सें तमादायेति 'सः' साधुः 'एतत्' स्वजनकुलम् 'आदाय' ज्ञात्वा केनचिरस्वजनेनाज्ञात एवैकान्तमपक्रामेद्, अपक्रम्य च स्वजनाद्यनापातेऽनालोके च तिष्ठेत् , स च तत्र स्वजनसम्बद्धमामादौ 'कालेन' भिक्षाऽवसरेणानुप्रविशेत् , अनुप्रविश्य च 'इतरेतरेभ्यः कुलेभ्यः' स्वजनरहितेभ्यः ‘पसिय'ति एषणीयम्-उद्गमादिदोषरहितं 'वेसियति वेषमात्रादवाप्तमुत्पादनादिदोषरहितं 'पिण्डपात' भिक्षाम् 'एषित्वा' अन्विष्य एवं भूतं ग्रासैषणादोषरहितमाहारमाहारयेदिति । ते चामी उत्पादनादोषाः, तद्यथा-"धाई १ दूह २ निमित्ते ३ आजीव ४ सवणीमगे ५ तिगिच्छा ६ य । कोहे ७ माणे ८ माया ९ लोभे १० य हवन्ति दस एए ॥१॥ पुविपच्छासंथव ११ विज्जा १२ मते १३ अ चुण्ण १४ जोगे १५ य । उपायणाय दोसा सोलसमे मूलकम्मे य १६ ॥२॥" तत्राशनाद्यर्थं दातु-II 18 रपत्योपकारे वर्तत इति धात्रीपिण्डः १, तथा कार्यसङ्घनाय दौत्यं विधत्ते इति दूतीपिण्डः २, निमित्तम्-अङ्गष्ठप्रश्नादि| तदवाप्तो निमित्चपिण्डः ३, तथा जात्याद्याजीवनादवात आजीविकापिण्डः ४, दातुर्यस्मिन् भक्तिस्तत्प्रशंसयाऽवाप्तो व www.andituaryam ~706~# Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [९], मूलं [१०], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत [५०] दीप अनुक्रम [३८४] आचाणीमगपिण्डः ५, सूक्ष्मेतरचिकित्सयाऽवाप्तश्चिकित्सापिण्डः ६, एवं क्रोधमानमायालोभैरवाप्तः क्रोधादिपिण्डः १०, भि- श्रुतस्कं०२ राजवृत्तिः क्षादानात्पूर्व पश्चाद्वा दातुः 'कर्णायते भवानि'त्येवं संस्तवादवाप्तः पूर्वपश्चात्संस्तवपिण्डः ११, विद्ययाऽयाप्तो विद्यापिण्डः चूलिका १ (शी०) ||१२, तथैव मन्त्रजापावाप्तो मन्त्रपिण्डः १३, वशीकरणाद्यर्थ द्रव्यचूर्णादवाप्तचूर्णपिण्डः १४, योगाद्-अञ्जनादेरवाप्तो नावापो पिण्डैप०१ उद्देशा ॥३५१॥ योगपिण्डः १५, यदनुष्ठानागर्भशातनादेर्मूलमवाप्यते तद्विधानादवाप्तो मूलपिण्डः १६, तदेवमेते साधुसमुत्थाः षोडशोत्पा दनादोषाः । ग्रासैषणादोषाश्चामी-"संजोअणा १ पमाणे २ इंगाले ३ धूम ४ कारणे ५ चेव ।" तबाहारलोलुपतया दधिगुडादेः संयोजनां विदधतः संयोजनादोषः १, द्वात्रिंशत्कवलप्रमाणातिरिक्तमाहारमाहारयतः प्रमाणदोषः २, तथा|ऽऽहाररागाद्गाद् भुञ्जानस्य चारित्राङ्गारत्वापादनादङ्गारदोषः ३, तथाऽन्तप्रान्तादावाहारद्वेषाच्चारित्रस्याभिधूमनाजूम्रदोषः ४, वेदनादिकारणमन्तरेण भुञ्जानस्य कारणदोषः ५, इत्येवं वेषमात्रावाप्तं ग्रासैषणादिदोषरहितः सन्नाहारमाहारयेदिति । अथ कदाचिदेवं स्यात् , सः 'परः' गृहस्थः कालेनानुप्रविष्टस्यापि भिक्षोराधाकर्मिकमशनादि विदध्यात्, | तच्च कश्चित्साधुस्तूष्णीभावेनोत्प्रेक्षेत, किमर्थम्?, आहृतमेव प्रत्याख्यास्यामीति, एवं च मातृस्थानं संस्पृशेत् , न चैवं कुर्यात् , यथा च कुर्यात्तद्दर्शयति-स पूर्वमेव 'आलोकयेत्' दत्तोपयोगो भवेत्, दृष्ट्वा चाहारं संस्क्रियमाणमेवं वदेयथा अमुक! इति वा भगिनि ! इति वा न खलु मम कल्पत आधाकर्मिक आहारो भोक्तुं वा पातुं वाऽतस्तदर्थ यलो न विधेयः, अथैवं वदतोऽपि पर आधाकर्मादि कुर्यात्ततो लाभे सति न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ ॥३५१॥ wwwanditimaryam ~707~# Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [११], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: से भिक्खू वा से जं० मंसं वा मच्छं वा भन्जिजमाणं पेहाए तिल्लपूयं वा आएसाए उवक्खडिजमाणं पेहाए नो खर्च २ जवसंकमित्तु ओभासिज्जा, नन्नत्य गिलाणणीसाए ॥ (सू०५१) स पुनः साधुर्यदि पुनरेवं जानीयात् , तद्यथा-मांस वा मत्स्य वा 'भज्यमान'मिति पच्यमानं तैलप्रधानं वा प्रपं, तच्च ४ किमर्थ क्रियते इति दर्शयति-यस्मिन्नायाते कर्मण्यादिश्यते परिजनः स आदेशः-प्राघूर्णकस्तदर्थ संस्क्रियमाणमाहारं प्रेक्ष्य | दालोलुपतया 'नो' नैव 'खद्धं २ति शीघ्र २, द्विर्वचनमादरख्यापनार्थमुपसंक्रम्यावभाषेत-याचेत, अन्यत्र ग्लानादिकार्यादिति ॥ से भिक्खू वा० अन्नयर भोयणजावं पडिगाहित्ता सुभि सुभि भुना दुभि २ परिहवेइ, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करिजा । मुभि वा दुरिंभ वा सव्वं भुजिज्जा नो किंचिवि परिहविजा ॥ (सू०५२) स भिक्षुरन्यतरद् भोजनजातं परिगृह्य सुरभि सुरभि भक्षयेत् दुर्गन्धं २ परित्यजेत् , बीप्सायां द्विवचनं, मातृस्थान चैवं संस्पृशेत् , तच्च न कुर्यात् , यथा च कुर्यात् तद्दर्शयति-सुरभि वा दुर्गन्धं वा सर्व भुञ्जीत न परित्यजेदिति ।। से भिक्खू वा २ अन्नवरं पाणगजायं पढिगाहित्ता पुर्फ २ आविइत्ता कसायं २ परिवेद, माइहाणं संफासे, नो एवं करिजा । पुएर्फ पुप्फेइ वा कसायं कसाइ वा सब्वमेयं मुंजिजा, नो किंचिवि परि० ॥ (सू० ५३) । एवं पानकसूत्रमपि, नवरं वर्णगन्धोपेतं पुष्पं तद्विपरीतं कषायं, वीप्सायां द्विवचनं, दोषश्चानन्तरसूत्रयोराहारगास्यात् सूत्रार्थहानिः कर्मबन्धश्चेति ॥ अनुक्रम [३८५]] wwwandltimaryam ~708~# Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [ ५४ ] दीप अनुक्रम [३८८] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ३५२ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [९], मूलं [५४], निर्युक्तिः [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः से भिक्खू बा० बहुपरियावनं भोयणजायं पडिगाहित्ता बहवे साहम्मिया तत्थ वसंति संभोइया समणुन्ना अपरिहारिया अदूरगया, तेर्सि अणालोइया अणामंते परिवेश, माइहाणं संफासे, नो एवं करेजा, से तमायाए तत्थ गच्छज्जा २ से पुव्वामेव आलोइजा आउसंतो समणा ! इमे मे असणे वा पाणे वा ४ बहुपरियावने तं भुंजह णं, से सेवं वयंतं परो व इज्जा आउसंतो समणा ! आहारमेयं असणं वा ४ जावइयं २ सरह तावइयं २ भुक्खामो वा पाहामो वा सव्वमेयं परिसडइ सब्वमेयं भुक्ामो वा पाहामो वा ।। (सू०५४) स भिक्षुर्वशनादि पर्यापनं लब्धं परिगृह्य बहुभिर्वा प्रकारैराचार्यग्लानप्राघूर्णकाद्यर्थे दुर्लभद्रव्यादिभिः पर्यापनमाहारजातं परिगृह्य तद्बहुत्वाचोकुमसमर्थः, तत्र च साधर्मिकाः सम्भोगिकाः समनोज्ञा अपरिहारिका एकार्थाश्चालापकाः, इत्येतेषु सत्स्वदूरगतेषु वा ताननापृच्छच प्रमादितया 'परिष्ठापयेत्' परित्यजेत् एवं च मातृस्थानं संस्पृशेत् नैवं कुर्यात्, यच कुर्यात्तद्दर्शयति-स भिक्षुस्तदधिकमाहारजातं परिगृह्य तत्समीपं गच्छेद्, गत्वा च पूर्वमेव 'आलोकयेत्' दर्शयेत्, एवं च ब्रूयाद्-आयुष्मन् ! श्रमण ! ममैतदशनादि बहु पर्यापन्नं नाहं भोक्तुमलमतो यूयं किश्चिद् भुङ्गध्वं तस्य चैवं वदत्तः स परो ब्रूयाद् यावन्मात्रं भोक्तुं शक्नुमस्तावन्मात्रं भोक्ष्यामहे पास्यामो वा, सर्व वा 'परिशटति' उपयुज्यते तत्सर्वं भोक्ष्यामहे पास्याम इति ॥ से भिक्खु वा २ से जं० असणं वा ४ परं समुद्दिस्स वहिया नीडं जं परेहिं असमपुकार्य अणिसिद्ध अफा०] जब से Estication Infomatinal For Pantry at Use Only ~709~# श्रुतस्कं० २ चूलिका १ पिण्डेष०१ उद्देशः ९ ॥ ३५२ ॥ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [१५], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत पडिगाहिजा जं परेहिं समणुण्णायं सम्मं णिसिटुं फासुर्य जाव पङिगाहिज़ा, एवं खलु तस्स भिक्षुस्स भिक्षुणीए वा सामग्गियं (सू० ५५)॥२-१-१-९॥ पिण्डैषणायां नवम उद्देशकः । XI स पुनर्यदेवभूतमाहारजातं जानीयात् , तद्यथा-परं' चारभटादिकमुद्दिश्य गृहान्निष्क्रान्तं यच्च परैर्यदि भवान् क स्मैचिद्ददाति ददात्वित्येवं समनुज्ञातं नेतुर्दातुर्वा स्वामित्वेनानिसृष्टं वा तद् बहुदोषदुष्टत्वादनासुकमनेषणीयमिति मत्वा | न प्रतिगृह्णीयात् , तद्विपरीतं तु प्रतिगृह्णीयादिति, एतत्तस्य भिक्षोः सामग्र्यमिति ॥ प्रथमाध्ययनस्य नवमोद्देशकः परिसमाप्तः॥ -%95%ESC-% ५५ % दीप अनुक्रम [३८९] उक्तो नवमोऽधुना दशम आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरं पिण्डग्रहणविधिः प्रतिपादितः, इह तु | साधारणादिपिण्डावाप्ती वसतौ गतेन साधुना यद्विधेयं तद्दशयितुमाह से एगइओ साहारणं वा पिंडवार्य पढिगाहित्ता ते साहम्भिए अणापुच्छित्ता जस्स जस्स इच्छद तस्स तस्स खद्धं खद्धं दलई, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करिना । से तमायाय तत्थ मच्छिन्जा २ एवं वइजा-आउसंतो समणा! संति मम पुरेसंधुया वा पच्छा० तंजहा-आयरिए वा १ उवज्झाए वा २ पवित्ती वा ३ थेरे वा ४ गणी वा ५ गणहरे वा ६ गणावफछेइए वा ७ अवियाई एएसि खद्धं खद्धं दाहामि, सेणेवं वयंस परो वइजा-काम खलु आउसो! अहापजतं निसिराहि, जावइयं २ परो बदइ तावइयं २ निसिरिज्जा, सब्वमेवं परो वयइ सव्वमेयं निसिरिजा ।। (सू० ५६) 24 | प्रथम चूलिकाया: प्रथम-अध्ययनं "पिण्डैषणा", दशम-उद्देशक: आरब्धः ~710~# Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१०], मूलं [१६], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी.) ॥ ३५३॥ ते उद्देश:१० ५६] दीप सः भिक्षुः 'एकतरः कश्चित् 'साधारणं' बहूनां सामान्येन दत्तं वाशब्दः पूर्वोत्तरापेक्षया पक्षान्तरद्योतकः पिण्डपातं श्रुतस्कं०२ परिगृह्य तान साधर्मिकाननापृच्छय यस्मै यस्मै रोचते तस्मै तस्मै स्वमनीषिकया 'खडू खद्धंति प्रभूतं प्रभूतं प्रयच्छति, चूलिका १ एवं च मातृस्थानं संस्पृशेत् तस्मान्नैवं कुर्यादिति ॥ असाधारणपिण्डावाप्तावपि यद्विधेयं तदर्शयति पिण्डैष०१ सः' भिक्षुः 'तम्' एषणीयं केवलवेषावाप्तं पिण्डमादाय 'तत्र' आचार्याद्यन्तिके गच्छेत् , गत्वा चैवं वदेद्, यथाहै आयुष्मन्! श्रमण ! 'सन्ति' विद्यन्ते मम 'पुर संस्तुताः' यदन्तिके प्रबजितस्तत्सम्बन्धिनः 'पश्चासंस्तुता वा' यदन्तिके-/ |ऽधीतं श्रुतं वा तत्सम्बन्धिनो वाऽन्यत्रावासिताः, तांश्च स्वनामग्राहमाह, तद्यथा-'आचार्य' अनुयोगधरः १ 'उपा-10 ध्यायः' अध्यापकः २ प्रवृत्तियथायोग वैयावृत्त्यादौ साधूनां प्रवर्तकः ३, संयमादौ सीदतां साधूनां स्थिरीकरणात्स्थ-18 विरः ४, गच्छाधिपो गणी ५, यस्त्वाचार्यदेशीयो गुर्वादेशात् साधुगणं गृहीत्वा पृथग्विहरति स गणधरः ६, गणावच्छेदकस्तु गच्छकार्यचिन्तका ७, 'अवियाईति इत्येवमादीनुद्दिश्यैतद्वदेद्न्यथाऽहमेतेभ्यो युष्मदनुज्ञया 'खद्धं खर्द्ध'ति प्रभूतं प्रभूतं दास्यामि, तदेवं विज्ञप्तः सन् 'परः' आचार्या दिर्यावन्मात्रमनुजानीते तावन्मात्रमेव 'निसृजेत्' दद्यात् सर्वानुज्ञया सर्व वा दद्यादिति । किञ्चसे एगइओ मणुनं भोयणजार्य पडिगाहित्ता पंतेण भोयणेण पलिच्छाएइ मा मेयं दाइयं संतं पट्टणं सथमाइए आयरिए Al३५३॥ वा जाव गणावच्छेए वा, नो खलु मे कस्सर किंचि दायत्वं सिया, माइहाणं संफासे, नो एवं करिना । से तमायाए अनुक्रम [३९०]] JAINEucatim.intamatund wwwandltimaryam ~711~# Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [ ५७ ] दीप अनुक्रम [३९१] “आचार” - अंगसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१०], मूलं [ ५७ ], निर्युक्तिः [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः तत्थ गच्छिना २ पुव्वामेव उत्ताणए हत्थे पडिम्म कट्टु इमं खलु इमं खलुत्ति आलोइज्जा, नो किंचिव णिहिज्जा । से एगइओ अन्नयरं भोवणजायं पडिगाहित्ता भहयं २ भुशा विवन्नं विरसमाहरइ, माइ०, नो एवं० ॥ ( सू० ५७ ) सुगमं, यावन्नैवं कुर्यात् यच्च कुर्यात्तद्दर्शयति- 'सः' भिक्षुः 'तं' पिण्डमादाय 'तंत्र' आचार्याद्यन्तिके गच्छेद् गत्वा च सर्व यथाऽवस्थितमेव दर्शयेत्, न किञ्चित् 'अवगूहयेत्' प्रच्छादयेदिति ॥ साम्प्रतमटतो मातृस्थानप्रतिषेधमाह'सः' भिक्षुः 'एकतरः' कश्चित् 'अन्यतरत्' वर्णाद्युपेतं भोजनजातं परिगृह्याटन्नेव रसगृभुतया भद्रकं २ भुक्त्वा यद् 'विवर्णम्' अन्तप्रान्तादिकं तत्प्रतिश्रये 'समाहरति' आनयति एवं च मातृस्थानं संस्पृशेत्, न चैवं कुर्यादिति । किच से भिक्खू वा० से जं० अंतरुच्छ्रियं वा उच्छुगंडियं वा उच्छुचोयगं वा उच्छुमेरगं वा उच्छुसालगं वा उच्छुडावा सिंबल वा बिलाल वा अस्सि खलु पडिग्गहियंसि अप्पे भोयणजाए बहुउज्झियधम्मिए तत्पगारं अंतरुच्छ्रयं वा० अफा० ॥ से मिक्खू बा २ से जं० बहुअट्टियं वा मंसं वा मच्छं वा बहुकंटयं अस्ति खलु० तहप्पगारं बहुअट्टियं मंसं० लाभे संतो० । से भिक्खू वा० सिया णं परो बहुअट्ठिएणं मंसेण वा मच्छेण वा उबनिमंतिज्जा — आउसतो समणा ! अभिन कंखसि बहुअद्वयं मंसं पडिगाहित्तए ? एवप्पगारं निग्घोसं सुच्चा निसम्म से पुल्वामेव आलोइया - आउसोत वा २ नो खलु में कप्पइ बहु० पडिगा, अभिकंखसि मे दाडं जावइयं तावइयं पुग्गलं दलयाहि मा य अट्टियाई, से सेवं वयं तस्स परो अभि अंतो पडिम्ाहगंसि बहु० परिभाइत्ता निहट्टु दलइज्जा, तहप्पारं पडिगाहं परहृत्यंसि वा परपासि वा अफा० नो० । से आहच पढिगाहिए सिया तं नोहित्ति बहवा नो अणिहित्ति बज्जा, से तमायाय एगतम Etication matinal For Pantry at Use Only ~712 ~# *** www.indiary.org Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१०], मूलं [१८], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ཉྙོ གློ KA ५ दीप अनुक्रम [३९२] श्रीआचाबकमिजा २ अहे आरामंसि वा अहे अवस्सयंसि वा अप्पंडे जाव संताणए मंसर्ग मच्छर्ग भुवा अहियाई कंटए गहाय श्रुतस्कं०२ राङ्गवृत्तिः से तमायाय एगंतमवकमिज्जा २ अहे झामथंडिलंसि वा जाब पमधिय पमन्जिय परद्वविजा ॥ (सू०५८) चूलिका १ (शी०) स भिक्षुर्यत्पुनरेवभूतमाहारजातं जानीयात् , तद्यथा-'अंतरुच्छुअं वत्ति इक्षुपर्वमध्यम् 'इक्षुगंडियंति सपर्वेक्षुशकलंपिण्डैष०१ |'चोयगो' पीलितेक्षुच्छोदिका 'मेरुक' त्यग्रं 'सालग'ति दीर्घशाखा 'डालगंति शाखैकदेशः 'सिंबलिन्ति मुद्गादीनां विध्वस्ता उद्देशः१० ॥३५४॥ फिलि: 'सिंबलिथालगं'ति वयादिफलीनां स्थाली फलीनां वा पाकः, अत्र चैवंभूते परिगृहीतेऽप्यन्तरिश्वादिकेऽल्पमश नीयं बहुपरित्यजनधर्मकमिति मत्वा न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ एवं मांससूत्रमपि नेयम्, अस्य चोपादानं कचिलताद्युपश-I मनार्थ सद्वैद्योपदेशतो बाह्यपरिभोगेन स्वेदादिना ज्ञानाद्युपकारकत्वात्फलवदृष्टं, भुजिश्चात्र बहिःपरिभोगार्थे नाभ्यवप्रहारार्थे पदातिभोगवदिति । एवं गृहस्थामन्त्रणादिविधिपुद्गलसूत्रमपि सुगममिति, तदेवमादिना छेदसूत्राभिप्रायेण ग्रहणे सत्यपि कण्टकादिप्रतिष्ठापनविधिरपि सुगम इति ॥ से भिक्खू० सिया से परो अभिहट्ट अंतो पडिग्गहे बिलं वा लोणं उभियं वा लोणं परिभाइचा मीहट्ट दलाला, तहप्पगार पडिग्गाई परहत्थंसि वा २ अफासुर्व नो पडि०, से आहश्च पडिगाहिए सिया तं चनाइदूरगए जाणिज्जा, से तमायाए तत्य गरिछना २ पुम्बामेव आलोइजा-आउसोत्ति वा २ इमं किं ते जाणया दिन्नं उयाच अजाणया ?, से व भणिजानो खलु मे जाणया विनं, अजाणया दिन्नं, काम खलु आउसो ! इयाणि निसिरामि, तं भुंजह वा गं परिभाएह वा गं तं का॥३५४।। परेटिं समणुलार्य समणुसहूं तओ संजयामेव अँजिज वा पीज वा, जच नो संचाएइ भोत्तए वा पायए था साहम्मिया K ARSACARA CASEAN ~713~# Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत [ ५९ ] दीप अनुक्रम [३९३] आ. सू. ६० 2964-6 “आचार” - अंगसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१०], मूलं [ ५९ ], निर्युक्तिः [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Jan Estication Untamal तत्य वसंत संभोइया समणुन्ना अपरिहारिया अदूरगया, तेसिं अणुष्पवायचं सिया, नो जत्थ साहम्मिया जहेब बहुपरियानं कीर तहेव कायव्यं सिया, एवं खलु० ॥ ( सू० ५९ ) ।। २-१-१-१० ॥ पिण्डेषणायां दशम उद्देशकः || स भिक्षुर्गृहादौ प्रविष्टः, तस्य च स्यात् कदाचित् 'परः' गृहस्थः 'अभिहट्टु अंतो' इति अन्तः प्रविश्य पतन हे - काष्ठच्छय्वकादौ ग्लानाद्यर्थे खण्डादियाचने सति 'बिडं वा लवणं' खनिविशेपोत्पन्नम् 'उद्भिज्जं वा' लवणाकराद्युत्पन्नं 'परिभाएत त्ति दातव्यं विभज्य दातव्यद्रव्यात्कञ्चिदंशं गृहीत्वेत्यर्थः, ततो निःसृत्य दद्यात्, तथाप्रकारं परहस्तादिगतमेव प्रतिषेधयेत्, तच्च 'आहच्चे 'ति सहसा प्रतिगृहीतं भवेत् तं च दातारमदूरगतं ज्ञात्वा स भिक्षुस्तलवणादिकमादाय तत्समीपं गच्छेद्, गत्वा च पूर्वमेव तलवणादिकम् 'आलोकयेत्' दर्शयेद्, एतच ब्रूयाद्-अमुक ! इति वा भगिनि ! इति वा, एतच्च लवणादिकं किं स्वया जानता दत्तमुताजानता?, एवमुक्तः सन् पर एवं वदेद्यथा पूर्व मयाऽजानता दत्त, साम्प्रतं तु यदि भवतोऽनेन प्रयोजनं ततो दत्तम्, एतयरिभोगं कुरुध्वं तदेवं परैः समनुज्ञातं समनुसृष्टं सत्मासुकं कारणवशादप्रासुकं वा भुञ्जीत पिवेद्वा यच्च न शक्नोति भोक्तुं पातुं वा तत्साधर्मिकादिभ्यो दद्यात्, तदभावे बहुपर्यापन्नविधिं प्राक्तनं विदध्यात्, एतत्तस्य भिक्षोः सामय्यमिति ॥ प्रथमस्य दशमः समाप्तः ॥ २-१-१-१० ॥ 3 उक्त दशमः, अधुनैकादशः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरोदेशके लब्धस्य पिण्डस्य विधिरुक्तः, तदिहापि विशेषतः स एवोच्यते For Fanart Use Only प्रथम चूलिकायाः प्रथम अध्ययनं “ पिण्डैषणा”, एकादशम उद्देशक: आरब्धः ~714 ~# www.sinditary.org Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [११], मूलं [६०], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ཉྙོ གློ श्रुतस्क०२ चूलिका १ पिण्डैष०१ उद्देशः११ ६० दीप अनुक्रम [३९४] श्रीआचा-1 भिक्खागा नामेगे एवमाहंसु समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगाम वा दूइजमाणे भणुन्नं भोयणजायं लभित्ता से भिक्खू रावृत्तिः गिलाइ, से हंदहणं तस्साहरह, से व भिक्खू नो अॅजिज्जा तुमं चेव णं भुंजिञ्चासि, से एगइओ भोक्खामित्तिकटु पलिङ(शी०) चिय २ आलोइजा, तंजहा-इमे पिंडे इमे लोए इमे तित्ते इमे कबुयए इमे कसाए इमे अंबिले इमे महुरे, नो खलु इत्तो किंचि गिलाणस्स सयइत्ति माइहाणं संफासे, नो एवं करिजा, तहाठियं आलोइला जहाठियं गिलाणस्स सयइत्ति, ॥३५५॥ सं तित्तयं तित्तएत्ति वा कडुयं कडुयं कसायं कसायं अंबिलं अंबिलं महुरं महुरं० ।। (सू०६०) भिक्षामटन्ति भिक्षाटाः भिक्षणशीलाः साधव इत्यर्थः, नामशब्दः सम्भावनायां, वक्ष्यमाणमेषां संभाव्यते, 'एके' केचन एवमाहुः-साधुसमीपमागत्य वक्ष्यमाणमुक्तवन्तः, ते च साधवः 'समाना था' साम्भोगिका भवेयुः, वाशब्दादसाहाम्भोगिका वा, तेऽपि च 'वसन्तः' वास्तव्या अन्यतो वा ग्रामादेः समागता भवेयुः, तेषु च कश्चित्साधुः 'ग्लायति' ग्ला निमनुभवति, तत्कृते तान् सम्भोगिकादींस्ते भिक्षाटा मनोज्ञभोजनलाभे सत्येवमाहुरिति सम्बन्धः, 'से' इति एतन्मनोज्ञमाहारजातं 'हन्दह' गृहीत यूयं 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे 'तस्य' ग्लानस्य 'आहरत' नयत, तस्मै प्रयच्छत इत्यर्थः, ग्लानश्चेन भुझे ग्राहक एवाभिधीयते-त्वमेव भुक्ष्वेति, स च भिक्षमिलोहस्ताद ग्लानार्थ गृहीत्वाऽऽहारं तबाध्युपपन्नः सन्नेक एवाहं भोक्ष्य इतिकृत्वा तस्य ग्लानस्य 'पलिचित्र पलिउंचिय'त्ति मनोज्ञं गोपित्वा गोपित्वा वातादिरोगमुदिश्य तथा तस्य 'आलोकयेत्' दर्शयति यथाऽपथ्योऽयं पिण्ड इति बुद्धिरुत्पद्यते, तद्यथा-अग्रतो ढोकयित्वा बदति |-अयं पिण्डो भवदर्थ साधुना दत्तः, किन्त्वयं 'लोए'त्ति रूक्षः, तथा तिक्तः कटुः कषायोऽम्लो मधुरो वेत्यादि दोषदुष्ट ३५५॥ wwwandltimaryam ~715~# Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [११], मूलं [६१], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक [६१]] दीप अनुक्रम [३९५]] त्वान्नातः किञ्चिद् ग्लानस्य 'स्वदतीति' उपकारे न वर्तत इत्यर्थः, एवं च मातृस्थानं संस्पृशेत्, न चैतत्कुर्यादिति । यथा| च कुर्यात्तदर्शयति-तथाऽवस्थितमेव ग्लानस्यालोकयेद्यथाऽवस्थितमिति, एतदुक्तं भवति-मातृस्थानपरित्यागेन यथाऽवस्थितमेव ब्रूयादिति, शेषं सुगमम् ॥ तथा मिक्खागा नामेगे एवमासु-समाणे वा बसमाणे वा गामाणुगाम दूइजमाणे वा मणुन्नं भोयणजाय लमित्ता से य. भिक्खू गिलाइ से हंदह णं तस्स आहरह, से य भिक्खू नो अँजिजा आहारिजा, से णं नो खलु मे अंतराए आहरिस्सामि, इश्चयाई आवतणाई उवाइवाम्म ॥ (सू०६१) 'भिक्षादा' साधवो मनोज्ञमाहारं लब्ध्वा समनोज्ञास्तांश्च वास्तव्यान् प्राघूर्णकान् वा ग्लानमुद्दिश्यैवमूचुः-एतन्मनोज्ञमाहारजातं गृहीत यूयं ग्लानाय नयत, स चेन्न भुङ्क्ते ततोऽस्मदन्तिकमेव ग्लानाद्यर्थम् 'आहरेत् आनयेत्, स चैवमुक्तः सन्नेवं वदे-यथाऽन्तरायमन्तरेणाहरिष्यामीति प्रतिज्ञयाऽऽहारमादाय ग्लानान्तिकं गत्वा प्राक्तनान् भक्कादिरू-18 क्षादिदोषानुराव्य ग्लानायादत्त्वा स्वत एव लील्याहुक्त्वा ततस्तस्य साधोनिवेदयति, यथा मम शूलं वैयावत्यकालापकार्यात्यादिकमन्तरायिकमभूदतोऽहं तद् ग्लानभक्तं गृहीत्वा नायात इत्यादि मातृ[स] स्थान संस्पृशेत्, एतदेव दर्शयति इत्येतानि-पूर्वोक्तान्यायतनानि-कर्मोपादानस्थानानि 'उपातिक्रम्य' सम्यक् परिहत्य मातृस्थानपरिहारेण ग्लानाय वा दयादातृसाधुसमीपं वाऽऽहरेदिति ॥ पिण्डाधिकार एव सप्तपिण्डैषणा अधिकृत्य सूत्रमाह अह भिक्खू जाणिजा सत्त पिंडेसणाओ सत्त पाणेसणाओ, तत्व खलु इमा पढमा पिंडेसणा-असंसट्टे हत्थे असंसट्टे ~716~# Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [११], मूलं [६२], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचारावृत्तिः (शी) प्रत श्रुतस्कं०२ चूलिका १ पिण्डैष०१ उद्देशः११ सुत्राक ॥३५६॥ [६२]] दीप अनुक्रम [३९६]] मत्ते, सहप्पगारेण असंसद्वेण हत्येण वा मत्तेण वा असणं वा ४ सयं वा णं जाइज्जा परो वा से दिजा फासुयं पडिगाहिला, पढमा पिंडेसणा १ ॥ अहावरा दुचा पिंडेसणा-संसट्टे हत्थे संसट्टे गत्ते, तहेव दुधा पिंडेसणा २ ॥ अहावरा तथा पिंडेसणा-इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइया सड़ा भवंति-गाहावई वा जाव कम्मकरी वा, तेसिं च णं अन्नयरेसु विरूवरूवेमु भायणजाएमु उवनिक्खित्तपुत्वे सिवा, तंजहा-थालंसि वा पिटरंसि वा सरगंसि वा परगसि वा वरगंसि वा, अह पुणेवं जाणिजा-असंसटे हत्ये संसढे मत्ते, संसट्टे का हत्थे असंसट्टे मत्ते, से य पडिग्गधारी सिया पाणिपडिग्गहिए वा, से पुब्बामेव०-आउसोत्ति वा ! २ एएण तुझं असंसद्वेण हत्येण संसट्टेण मत्तेणं संसट्टेण वा हत्येण असंसट्टेण भत्तेण अस्सि पडिग्गहगंसि पा पाणिसि वा निहहु उचित्तु दलयाहि तहप्पगार भोयणजायं सर्व वा णं जाइमा २ फासुर्य० पढिगाहिज्जा, तइया पिंडेसणा ३ ॥ अहावरा चउत्था पिंडेसणा-से भिक्खू वा० से जं. पिहुयं वा जाव चाउलपलंबं वा अरिस खालु पढिग्गहियंसि अप्पे पच्छाकम्मे अप्पे पज्जवजाए, तहप्पगारं पिहुयं वा जाव चाउलपलंब वा सयं वाण. जाव पटि०, चउत्था पिंडेसणा ४ ॥ अहावरा पंचमा पिंडेसणा-से भिक्खू वा २ उग्गहियमेव भोषणजार्य जाणिज्जा, तंजहा-सरावसि वा डिंडिमंसि वा कोसर्गसि बा, अह पुणेवं आणिजा बहुपरियाबन्ने पाणीसु दगलेवे, तहप्पगारं असणं वा ४ सयं० जाव पडिगाहि०, पंचमा पिंडेसणा ५ ।। अहापरा छडा पिंडेसणासे मिक्खू वा २ पगहियमेव भोवणजाय जाणिज्जा, जं च सयवाए पग्गहियं, जंच परद्वार पहिय, तं पायपरियावन्नं तं पाणिपरियावन्नं फासुर्य पढि०, छहा पिंडेसणा ६ ।। अहावरा सत्तमा पिसणा-से भिक्खू बा० बहुउनि KARNA ॥३५६॥ wwtanastram.org ~717~# Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [६२] दीप अनुक्रम [३९६ ] “आचार” - अंगसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [११], मूलं [६२], निर्युक्ति: [ २९७ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः यमयं भोवणजायं जाणिजा, जं चन्ने बहवे दुपयचउप्पयसमणमाह्णअतिहि किवणवणीमगा नावकंसंति, तहष्पगारं उज्झियधम्मियं भोवणजायं सयं वा णं जाइला परो वा से दिया जान पडि०, सचमा पिंडेसणा ७ ॥ इथेथाओ सच पिंडेसणाओ, अहावराओ सत्त पाणेसणाओ, तत्थ खलु इमा पढमा पाणेसणा -- असंसङ्के हत्थे असंसढे मत्ते, तं चैव भाणियव्वं, नवरं चउत्थाए नाणत्तं । से भिक्खू वा० से जं० पुण पाणगजायं जाणिज्जा, तंजहा— तिलोदगं वा ६, असि खलु पडिग्गाहियंसि अप्पे पच्छाकम्मे तहेव पडिगाहिज्जा | (सू० ६२ ) अथशब्दोऽधिकारान्तरे, किमधिकुरुते ?, सप्त पिण्डैषणाः पानैषणाश्चेति, 'अथ' अनन्तरं भिक्षुर्जानीयात्, काः ? -सपिण्डेषणाः पानैषणाञ्च ताश्वेमाः, तद्यथा - "असंसडा १ संसद्वा २ उद्धडा ३ अप्पलेवा ४ उग्गहिआ ५ पग्गहिया ६ उज्झयधम्मेति, अत्र च द्वये साधवो गच्छान्तर्गता गच्छविनिर्गताश्च तत्र गच्छान्तर्गतानां सप्तानामपि ग्रहणमनुज्ञातं, गच्छनिर्गतानां पुनराद्ययोर्द्वयोरग्रहः पञ्चस्वभिग्रह इति, तत्राद्यां तावद्दर्शयति- 'तत्र' तासु मध्ये 'खलु' इत्यलङ्कारे, इमा प्रथमा पिण्डैषणा, तद्यथा-असंसृष्टो हस्तोऽसंसृष्टं च मात्रं द्रव्यं पुनः सावशेषं वा स्यान्निरवशेषं वा तत्र निरवशेषे पश्चात्कर्मदोषस्तथाऽपि गच्छस्य बालायाकुलत्वात्तन्निषेधो नास्ति, अत एव सूत्रे तचिन्ता न कृता, शेषं सुगमम् ॥ तथाsपरा द्वितीया पिण्डेषणा, तद्यथा-संसृष्टो हस्तः संसृष्टं मात्रकमित्यादि सुगमम् ॥ अथापरा तृतीया पिण्डेषणा, तद्यथा इह खलु प्रज्ञापकापेक्षया प्राच्यादिषु दिक्षु सन्ति केचित् श्रद्धालवः, ते चामी -गृहपत्यादयः कर्मकरपर्यन्ताः तेषां च गृहेष्वन्यतरेषु नानाप्रकारेषु भाजनेषु पूर्वमुत्क्षितमशनादि स्यात्, भाजनानि च स्थालादीनि सुबोध्यानि नवरं 'सरगम' इति Jan Estication Intemational For Parts Only ~718~# Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [११], मूलं [६२], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत દિર) दीप अनुक्रम [३९६]] श्रीआचा- शरिकाभिः कृतं सूर्यादि 'परग' वंशनिष्पन्नं छब्बकादि 'वरगं' मण्यादि महाघमूल्यं, शेषं सुगमं यावत्परिगृह्णीयादिति, श्रुतस्कं०२ रावृत्तिः अत्र च संसृष्टासंसृष्टसावशेपद्रव्यैरष्टौ भङ्गाः, तेषु चाष्टमो भङ्गः संसृष्टो हस्तः संसृष्टं मात्रं सावशेष द्रव्यमित्येष गच्छ- चूलिका १ (शी०) निर्गतानामपि कल्पते, शेषास्तु भङ्गा गच्छान्तर्गतानां सूत्रार्थहान्यादिकं कारणमाश्रित्य कल्पन्त इति ॥ अपरा चतुर्थी पिण्डैष०१ ॥३५७॥ पिण्डेपणाऽल्पलेपा नाम, सा यत्पुनरेवमल्पलेपं जानीयात् , तद्यथा-'पृथुकम्' इति भुग्नशाल्याद्यपगततुषं यावत् 'तन्दु-सा उद्देशः११ लपलम्ब' इति भुग्नशाल्यादितन्दुलानिति, अत्र च पृथुकादिके गृहीतेऽप्यल्पं पश्चात्कादि, तथाऽल्पं पर्यायजातमल्पं 8 तुषादि त्यजनीयमित्येवंप्रकारमल्पलेपम् , अन्यदपि वल्लचनकादि यावत्परिगृह्णीयादिति ॥ अथापरा पञ्चमी पिण्डैषणा5-16 वगृहीता नाम, तद्यथा-स भिक्षुर्यावदुपहृतमेव भोक्तुकामस्य भाजनस्थितमेव भोजनजातं ढौकितं जानीयात् , तत्पुनर्भाजनं दर्शयति, तद्यथा-'शरावं' प्रतीतं 'डिण्डिम' कंश (कांस्य) भाजनं 'कोशक' प्रतीतं, तेन च दात्रा कदाचित् पूर्वमेवोदकेन हस्तो मात्रकं वा धौतं स्यात् , तथा च निषिद्धं ग्रहणम्, अथ पुनरेवं जानीयाद्बहुपर्यापन्नः-परिणतः पाण्यादिषूदकलेपः, तत एवं ज्ञात्वा यावद् गृहीयादिति ॥ अथापरा षष्ठी पिण्डैषणा प्रगृहीता नाम-स्वार्थ परार्थ वा पिठरकादेरुवृत्त्य चट्टकादिनोत्क्षिप्ता परेण च न गृहीता प्रबजिताय वा दापिता सा प्रकर्षण गृहीता प्रगृहीता ता तथाभूतां प्राभृतिका पात्रपर्यापन्नां वा' पात्रस्थितां 'पाणिपर्यापन्नां वा हस्तस्थितां वा यावत्सतिगृह्णीयादिति ॥ अथापरा सप्तमी पिण्डै-16 M३५७॥ टपणा उज्झितधर्मिका नाम, सा च सुगमा ॥ आसु च सप्तस्वपि पिण्डैपणासु संसृष्टायष्टभङ्गका भणनीयाः, नवरं चतु या नानात्वमिति, तस्या अलेपत्वात्संसृष्टाद्यभाव इति ॥ एवं पनिषणा अपि नेया भङ्गकाश्चायोज्याः, नवरं चतुर्थी 1942 ~719~# Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [११], मूलं [६२], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक [६२]] दीप अनुक्रम [३९६]] नानात्वं, स्वच्छत्वाच्च तस्या अल्पलेपत्वं, ततश्च संसृष्टाधभाव इति, आसां चैषणाना यथोत्तरं विशुद्धितारतम्यादेष एव क्रमो न्याय्य इति ॥ साम्प्रतमेताः प्रतिपद्यमानेन पूर्वप्रतिपन्नेन वा यद्विधेयं तद्दर्शयितुमाह इच्छयासिं सत्तहँ पिंडेसणाणं सत्तण्डं पाणेसणाणं अन्नयरं पडिम पडिबजमाणे नो एवं बइजा-मिच्छापडिवन्ना खलु एए भयंतारो, अहमेगे सम्म पडिबन्ने, जे एए भयंतारो एयाओ पडिमाओ पडिवजिताणं विहरति जो य अहमंसि एवं पडिम पडिवजित्ताणं बिहरामि सव्वेऽवि ते उ जिणाणाए उवटिया अन्नुन्नसमाहीए, एवं च णं विहरति, एयं खलु तस्स मिक्खुस्स भिक्षुणीए वा सामग्गियं ।। (सू०६३)२-१-१-११ पिण्डैषणायामेकादश उद्देशकः ॥ इत्येतासां सप्तानां पिण्डैषणानां पानैषणानां वाऽन्यतरां प्रतिमा प्रतिपद्यमानो नैतद्वदेत् , तद्यथा-'मिथ्याप्रतिपन्नाः' न सम्यक् पिण्डैषणाद्यभिग्रहवन्तो भगवन्तः-साधवः, अहमेवैकः सम्यक्प्रतिपन्नो, यतो मया विशुद्धः पिण्डैषआणाभिग्रहः कृत एभिश्च न, इत्येवं गच्छनिर्गतेन गच्छान्तर्गतेन वा समदृष्ट्या द्रष्टव्याः, नापि गच्छान्तर्गतेनोत्तरोत्तरपि-10 इण्डैषणाभिग्रहवता पूर्वपूर्वतरपिण्डैषणाभिग्रहवन्तो दूष्या इति, यच्च विधेयं तदर्शयति य एते भगवन्तः-साधव एताः प्रतिमाः पिण्डैषणाद्यभिग्रहविशेषान् 'प्रतिपद्य' गृहीत्वा ग्रामानुग्राम 'विहरन्ति' यथायोगं पर्यटन्ति, यां चाहं प्रतिमा प्रतिपद्य विहरामि, सर्वेऽप्येते जिनाज्ञायां जिनाज्ञया वा 'समुत्थिताः' अभ्युद्यतविहारिणः संवृत्ताः, ते चान्योऽन्यसमाधिना यो यस्य गच्छान्तर्गतादेः समाधिरभिहितः, तद्यथा-सप्तापि गच्छवासिना, तन्निर्गतानां तु द्वयोरग्रहः पञ्चस्वभिग्रहः wwwandltimaryam ~720~# Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [११], मूलं [६३], नियुक्ति: [२९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचा-I|| इत्यनेन 'विहरन्ति' यतन्त इति, तथाविहारिणश्च सर्वेऽपि ते जिनाज्ञां नातिलइन्ते, तथा चोक्तम्-"जोऽवि' दुबत्थरावृत्तिः | तिवत्थो बहुवत्थ अचेलओव्व संधरइ । न हु ते हीलंति परं सब्वेवि अ ते जिणाणाए ॥ १॥" एतत्तस्य भिक्षोभिक्षुण्या | (शी०) वा 'सामग्य' सम्पूणों भिक्षुभावो यदात्मोत्कर्षवर्जनमिति २-१-१-११॥ द्वितीयश्रुतस्कन्धे प्रथमाध्ययनटीका परिसमाता॥ ॥३५८।। श्रुतस्कं०२ चूलिका १ पिण्डैष०१ उद्देश:११ [६३] दीप अनुक्रम [३९७]] *।। ३५८॥ १. योऽपि द्विवसनियत्रो बहुवलोऽचेलको वा संसरति । नैव ते हीलन्ति परान सर्वेऽपि च ते विनासायाम् ॥१॥ wwwandltimaryam ~721-23 Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [६३...], नियुक्ति : [२९८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: - अथ द्वितीयं शय्यैषणाख्यमध्ययनम् प्रत सूत्राक [६३]] दीप अनुक्रम [३९७]] KAOCAXSASARAN उक्तं प्रथममध्ययनं, साम्प्रतं द्वितीयमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तराध्ययने धर्माधारशरीरपरिपाल-| नार्थमादावेव पिण्डग्रहणविधिरुक्ता, स च गृहीतः सन्नवश्यमल्पसागारिके प्रतिश्रये भोक्तव्य इत्यतस्तद्गतगुणदोषनिरूपणार्थ द्वितीयमध्ययनम् , अनेन च सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि व्यावर्णनीयानि, तत्र नामनिष्पन्ने निक्षेपे शय्यपणेति, तस्या निक्षेपविधानाय पिण्डेषणानियुक्तिर्यत्र संभवति तां तत्रातिदिश्य प्रथमगाथया अप-|| रासां च नियुक्तीनां यथायोगं संभवं द्वितीयगाधया आविर्भाव्य निक्षेपं च तृतीयगाथया शय्याषट्रनिक्षेपे प्राप्ते नामस्था-18 पने अनाहत्य नियुक्तिकृदाहदवे खित्ते काले भावे सिजा य जा तहिं पगयं । केरिसिया सिन्जा खलु संजयजोगत्ति नायव्वा ?॥२९८॥ द्रव्यशय्या क्षेत्रशय्या कालशय्या भावशय्या, अत्र च या द्रव्यशय्या तस्यां प्रकृतं, तामेव च दर्शयति-क्रीडशी सा द्रव्यशय्या? संयतानां योग्येत्येवं ज्ञातव्या भविष्यति ॥ द्रव्यशय्याच्याचिख्यासयाऽऽहतिविहा य दब्वसिजा सचित्ताऽचित्त मीसगा चेव । खित्तमि जंमि खित्ते काले जा मि कालंमि ॥२९९ ॥ त्रिविधा द्रव्यशय्या भवति, तद्यथा-सचित्ता अचित्ता मिश्रा चेति, तत्र सचित्ता पृथिवीकायादी, अचित्ता तत्रैव प्रा. प्रथम चूलिकाया: द्वितीय-अध्ययनं "शयैषणा", आरब्धं ~722~# Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६३...], नियुक्ति: [२९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत [६३] दीप अनुक्रम [३९७]] श्रीआचा-ICसुके, मिश्राऽपि तत्रैवार्द्धपरिणते, अथवा सचित्तामुत्तरगाथया स्वत एव नियुक्तिकृद् भावयिष्यति । क्षेत्र'मिति तु क्षेत्र तु क्षत्र- श्रुतस्कं०२ रावृत्तिः शय्या, सा च यत्र ग्रामादिके क्षेत्रे क्रियते, कालशय्या तु या यस्मिन्नृतुबद्धादिके काले क्रियते ॥ तत्र सचित्तद्रव्यशय्यो- चूलिका (शी०) दाहरणार्थमाह ४ शय्यैष०२ उक्कलकलिंग गोअम वग्गुमई चेव होइ नायव्वा । एयं तु उदाहरणं नायब्वं दवसिजाए ॥ ३०॥ उद्देशः १ अस्या भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-एकस्यामटव्यां द्वौ भ्रातरावुत्कलकलिङ्गाभिधानी विषमप्रदेशे पलिं निवेश्य | चौर्येण वर्तेते, तयोश्च भगिनी वल्गुमती नाम, तत्र कदाचिद् गौतमाभिधानो नैमित्तिकः समायातः, ताभ्यां च प्रतिपन्नः, तया च बल्गुमत्योक्तं यथा नायं भद्रकः, अत्र वसन् यदा तदाऽयमस्माकं पलिविनाशाय भविष्यत्यतो निर्बाव्यते, ततस्ताभ्यां तद्वचनान्निाटितः, स तस्यां प्रद्वेषमापन्नः प्रतिज्ञामग्रहीद्, यथा-नाहं गौतमो भवामि यदि वल्गुमत्युदरं विदार्य तत्र न स्वपिमीति, अन्ये तु भणन्ति-सैव वल्गुमत्यपत्यानां लघुत्वात्पल्लिस्वामिनी, उत्कलकलिङ्गी नैमित्तिको, सा तयोर्भस्या गौतम पूर्वनैमित्तिकं निर्वाटितवती, अतस्तनद्वेषाप्रतिज्ञामादाय सर्षपान वपन्निर्गतः, सर्पपाश्च वर्षाकालेन जाताः, ततस्तदनुसारेणान्यं राजानं प्रवेश्य सा पल्ली समस्ता लुण्टिता दग्धा च, गीतमेनापि वल्गुमत्या उदरं पादयित्वा द्र सावशेषजीवितदेहाया उपरि सुप्तमित्येषा वा सचित्ता द्रव्यशय्येति ।। भावशय्याप्रतिपादनार्थमाह दविहा य भावसिज्जा कायगए छब्बिहे य भावंमि । भावे जो जत्थ जया सुहदुहगन्भाइसिज्जासु ॥३०१॥ ॥३५९ ॥ द्वे विधे-प्रकारावस्याः सा द्विविधा, तद्यथा-कायविषया पदावविषया च, तत्र यो जीवः 'यत्र' औदयिकादौ भावे wwwandltimaryam ~723~# Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [ ६३ ] दीप अनुक्रम [३९७ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], मूलं [६३...], निर्युक्ति: [ ३०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः 'यदा' यस्मिन् काले वर्त्तते सा तस्य षद्भावरूपा भावशय्या, शयनं शय्या स्थितिरितिकृत्वा, तथा रूपादिकायगतो गर्भत्वेन स्थितो यो जीवस्तस्य ख्यादिकाय एव भावशय्या, यतः ख्यादिकाये सुखिते दुःखिते सुप्ते उस्थिते वा तादृगवस्थ एव तदन्तर्वर्त्ती जीवो भवति, अतः कायविषया भावशय्या द्वितीयेति ॥ अध्ययनार्थाधिकारः सर्वोऽपि शय्याविषयः, उद्देशार्थाधिकारप्रतिपादनाय निर्युक्तिकृदाह "सवेविय सिजविसोहि कारगा तहवि अत्थि उ बिसेसो । उद्देसे उसे वृच्छामि समासओ किंचि ॥३०२॥ 'सर्वेऽपि ' त्रयोsयुद्देशका यद्यपि शय्याविशुद्धिकारकास्तथाऽपि प्रत्येकमस्ति विशेषस्तमहं लेशतो वक्ष्य इति ॥ एतदेवाह उग्गमदोसा पढमिल्लयंमि संसत्तपचवाया य १। वीयंमि सोअवाई बहुविहसिज्जाविवेगो २८ ॥ ३०३ ॥ तत्र प्रथमोद्देश वसतेरुद्गमदोषाः- आधा कर्मादयस्तथा गृहस्थादिसंसक्तप्रत्यपायश्च चिन्त्यन्ते ?, तथा द्वितीयोदेशके शौचवादिदोषा बहुप्रकारः शय्याविवेकश्च त्यागश्च प्रतिपाद्यत इत्ययमर्थाधिकारः २ ॥ तहए जयंतछलणा सज्झायस्सऽणुवरोहि जइयध्वं । समविसमाईएस य समणेणं निजरद्वाए ३ ॥ ३०४ ।। तृतीयोदेशके यतमानस्य उद्गमादिदोषपरिहारिणः साधोर्या छलना स्यात्तत्परिहारे यतितव्यं, तथा स्वाध्यायानुपरोधिनि समविषमादौ प्रतिश्रये साधुना निर्जरार्थिना स्थातव्यमित्ययमर्थाधिकारः ३ ॥ गतो निर्युक्तत्यनुगमः, अधुना सूत्रानुगमे सूत्रमुचारयितव्यं तच्चेदम्- Etication Intemational For Pan Prata Use On प्रथम चूलिकायाः द्वितीय अध्ययनं “शयैषणा”, प्रथम उद्देशक: आरब्धः ~724 ~# www.indiary.org Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६४], नियुक्ति: [३०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचाराङ्गवृत्तिः श्रुतस्कं०२ चूलिका १ (शी०) शय्येष०२ उद्देशः १ [६४] दीप अनुक्रम [३९८] से भिक्खू वा० अभिकखिना सबस्सयं एसित्तए अणुपविसित्ता गाम वा जाव रावहाणि वा, से जं पुण उवस्मयं जाणिज्जा सहं जाव ससंताणयं तहप्पगारे उबस्सए नो ठाणं बा सिजं वा निसीहियं पा चेइज्जा ।। से भिक्खू वा० से जं पुण उवस्मयं जाणिवा अपंडं जाव अप्पसंताण तहप्पगारे उबस्सए पडिलेहिता पमजित्ता तओ संजयामेव ठाणं वा ३ चेइज्जा ॥ से अं पुण अवस्मयं जाणिज्जा अस्सि पडियाए एग साहम्मियं समुदिस्स पाणाई ४ समारम्भ समुदिस्स कीयं पामिचं अच्छिज अणिसई अभिहडं आहटु चेएइ, नहपगारे उवस्सए पुरिसंतरकडे पा जाव अणासेविए का नो ठाणं वा ३ चेइजा । एवं बहये साइम्मिया एगं साहम्मिणि बहवे साहम्मिणीओ ॥ से मिक्खू वा० से जं पुण उ० बहवे समणवणीमए पगणिय २ समुदिरस तं व भाणियध्वं ॥ से मिक्लू वा० से जं० बहवे समण समुहिस्स पाणाई ४ आव एति, तहष्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे जाव अणासेविए नो ठाणं वा ३ चेइना ३, अ६ पुणेवं जाणिजा पुरिसंतरकडे जान सेविए पडिलेहिता २ तओ संजयामेव चेइजा ।। से भिक्खू वा० से जं पुण अस्संजए भिक्खुपडियाए कद्धिए वा उकंथिए वा छन्ने वा लिसे वा घटे वा मढे वा संमढे वा संपधूभिए वा तहपगारे उबस्सए अपुरिसंतरकडे जाव अणासेविए नो ठाणं वा सेज वा निसीहि वा घेइज्जा, अह पुण एवं जाणिजा पुरिसंतरकडे जाव आसेविए पडिलेहित्ता २ तओ चेइजा ॥ (सू०६४) स भिक्षुः 'उपाश्रय' वसतिमेपितुं यद्यभिकाङ्केत्ततो प्रामादिकमनुप्रविशेत् , तत्र च प्रविश्य साधुयोग्यं प्रतिश्नयमन्वेषयेत्, तत्र च यदि साण्डादिकमुपाश्रयं जानीयात्ततस्तत्र स्थानादिकं न विदध्यादिति दर्शयति-सुगम, नवरं ~725~# Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [ ६४ ] दीप अनुक्रम [३९८ ] आ. सु. ६१ “आचार” - अंगसूत्र-१ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [ ६४ ], निर्युक्तिः [३०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Jan Estication Intational 'स्थानं' कायोत्सर्गः 'शय्या' संस्तारकः 'निपीधिका' स्वाध्यायभूमिः 'णो चेइज्ज'त्ति नो चेतयेत्-नो कुर्यादित्यर्थः ॥ एतद्विपरीते तु प्रत्युपेक्ष्य स्थानादीनि कुर्यादिति ॥ साम्प्रतं प्रतिश्रयगतानुगमादिदोषान् विभणिपुराह-'सः' भावभिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतं प्रतिश्रयं जानीयात्, तद्यथा - 'अस्सिंपडियाए 'त्ति एतत्प्रतिज्ञया एतान् साधून् प्रतिज्ञाय-उद्दिश्य प्राण्युपमर्देन साधु प्रतिश्रयं कश्चिच्छ्राद्धः कुर्यादिति । एतदेव दर्शयति एकं साधर्मिकं 'साधुम् अर्हाणीतधर्मानुष्ठायिनं सम्यगुद्दिश्य-प्रतिज्ञाय प्राणिनः 'समारभ्य' प्रतिश्रयार्थमुपमर्द्य प्रतिश्रयं कुर्यात्, तथा तमेव साधुं सम्यगुद्दिश्य 'क्रीतं' मूल्येनावातं, तथा 'पामिच्चं ति अन्यस्मादुच्छिन्नं गृहीतम् 'आच्छेद्यमिति भृत्यादेर्बलादाच्छिय गृहीतम् 'अनिसृष्टं' स्वामिनाऽनुत्सङ्कलितम् ' अभ्याहृतं ' निष्पन्नमेवान्यतः समानीतम्, एवंभूतं प्रतिश्रयम् 'आहृत्य' उपेत्य 'चेपइ'त्ति साधवे ददाति, तथाप्रकारे चोपाश्रये पुरुषान्तरकृतादौ स्थानादि न विदध्यादिति ॥ एवं बहुवचनसूत्रमपि नेयम् ॥ तथा साध्वीसूत्रमध्येकवचनबहुवचनाभ्यां नेयमिति ॥ किञ्च सूत्रद्वयं पिण्डेषणानुसारेण नेयं, सुगमं च ॥ तथास भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतं प्रतिश्रयं जानीयात्, तद्यथा - भिक्षुप्रतिज्ञया 'असंयतः' गृहस्थः प्रतिश्रयं कुर्यात् स चैवंभूतः स्यात्, तद्यथा- 'कटकितः काष्ठादिभिः कुद्ध्यादौ संस्कृतः 'उकंबिओ'त्ति वंशादिकम्बाभिरवबद्धः 'छन्ने वत्ति दर्भादिभिश्छादितः लिप्तः गोमयादिना घृष्टः सुधादिखरपिण्डेन मृष्टः स एव लेवनिकादिना समीकृतः 'संसृष्टः ' भूमिकर्मादिना संस्कृतः 'संप्रधूपितः' दुर्गन्धापनयनार्थं धूपादिना धूपितः, तदेवंभूते प्रतिश्रयेऽपुरुषान्तरस्वीकृते यावदनासेविते स्थानादि न कुर्यात्, पुरुषान्तरकृतासेवितादौ प्रत्युपेक्ष्य स्थानादि कुर्यादिति ॥ For Pantry at Use Only ~726 ~# Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६५], नियुक्ति: [३०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: - प्रत श्रीआचारावृत्तिः (शी०) %A5 ॥३६१ [६५ दीप अनुक्रम [३९९] से मिक्सू पा० से जं० पुण उवस्मयं जा० अस्संजए मिक्खुपडियाय खुडियाओ दुवारियाओ महल्लियाओ कुजा, जहा श्रुतस्क०२ पिंडेसणाए जाव संधारगं संथारिजा बहिया वा निनक्खु तहप्पगारे उवस्सए अपु० नो ठाणं०३ अह पुणेवं पुरि- चूलिका १ संतरकडे आसेविए पडिलेहित्ता २ तओ संजयामेव आव चेइजा ॥ से भिक्खू वा० से जं. अस्संजए भिक्खुपढियाए शय्यैष०२ उदगप्पसूयाणि कदाणि वा मूलाणि वा पत्ताणि वा पुष्पाणि वा फलाणि बा बीयाणि वा हरियाणि वा ठाणाओ ठाणं उद्देशः १ साहरइ बहिया वा निण्णक्खू त० अपु० नो ठाणं वा चेइज्जा, अह पुण. पुरिसंतरकडं चेइजा ॥ से मिक्खू वा से जं. असंज० मि० पीढं वा कलर्ग वा निस्सेणिं वा उदूखलं वा ठाणाओ ठाणं साहरइ बहिया वा निष्णक्खू सहप्पगारे उ. अपु० नो ठाणं वा चेइजा, अह पुण० पुरिसं० चेइना । (सू०६५) स भिक्षुर्य पुनरेवभूतं प्रतिश्रयं जानीयात् , तद्यथा-'असंयतः' गृहस्थः साधुप्रतिज्ञया लघुद्वारं प्रतिश्रयं महाद्वार | हाविदध्यात्, तत्रैवभूते पुरुषान्तरास्वीकृतादौ स्थानादि न विदयात्, पुरुषान्तरस्वीकृतासेवितादौ तु विदध्यादिति, अत्र सूत्रद्वयेऽप्युत्तरगुणा अभिहिता, एतद्दोषदुष्टाऽपि पुरुषान्तरस्वीकृतादिका कल्पते, मूलगुणदुष्टा तु पुरुषान्तरस्वीकृतापिन कल्पते, ते चामी मूलगुणदोषाः-"पट्टी वंसो दो धारणाउ चत्तारि मूलवेलीओ" एतैः पृष्ठवंशादिभिः साधु-| प्रतिज्ञया या वसतिः क्रियते सा मूलगुणदुष्टा ॥ स भिक्षुर्य पुनरेवम्भूतं प्रतिश्रयं जानीयात्, तद्यथा-गृहस्थः साधुप-| तिज्ञया उदकप्रसूतानि कन्दादीनि स्थानान्तरं सङ्कामयति बहिवों 'निण्णक्खु'त्ति निस्सारयति तथाभूते प्रतिश्रये पुरुषा-IN||३६१॥ ष्ठिवंशो द्वे धारणे चतस्रो मूलवेल्यः. REC4 * wwwandltimaryam ~727~# Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [ ६५ ] दीप अनुक्रम [ ३९९ ] “आचार” - अंगसूत्र-१ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [ ६५ ], निर्युक्तिः [३०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः न्तरास्वीकृते स्थानादि न कुर्यात्, पुरुषान्तरस्वीकृते तु कुर्यादिति ॥ एवमचित्तनिःसारणसूत्रमपि नेयम्, अत्र च त्रसादिविराधना स्यादिति भावः ॥ किच ● से भिक्खू वा० से जं० तंजा-खंधंसि वा मंचंसि वा भालंसि वा पासा० इम्मि० अन्नयरंसि वा सहपगारंसि अंतलिक्वायंसि, नन्नस्थ आगाढाणागाडेहिं कारणेहिं ठाणं वा नो चेइया || से आदच चेइए सिया नो तत्थ सीओदगवियद्वेण वा २ हत्थाणि वा पायाणि वा अच्छीणि वा दंताणि वा मुहं वा उच्छोलिज वा पहोइज वा, नो तत्थ ऊसढं पकरेजा, संजहा— उच्चारं वा पा० खे० सिं० वंतं वा पित्तं वा पूर्व वा सोणियं वा अन्नयरं वा सरीरावयवं वा, केवली वूया आयाणमेयं, से तत्थ ऊसढं पगरेमाणे पयलिज वा २, से तत्थ पयलमाणे वा पवढमाणे वा हत्यं वा जाय सीसं वा अन्नरं वा कार्यसि इंदियजालं लूसिन वा पाणि ४ अभिद्दणिन वा जाव वयरोविज्ज वा, अथ भिक्खूणं पुथ्वोवडा ४ जं सहप्पारं उबस्सए अंतलिक्खजाए नो ठाणंसि वा ३ चेइखा ॥ ( सू० ६६ ) स भिक्षुर्य पुनरेवंभूतमुपाश्रयं जानीयात्, तद्यथा-स्कन्धः - एकस्य स्तम्भस्योपर्याश्रयः, मञ्चमाली-प्रतीती, प्रासादोद्वितीयभूमिका, हर्म्यतलं-भूमिगृहम्, अन्यस्मिन् वा तथाप्रकारे प्रतिश्रये स्थानादि न विदध्यादन्यत्र तथाविधप्रयोज-, नादिति, स चैवंभूतः प्रतिश्रयस्तथाविधप्रयोजने सति यद्याहृत्य उपेत्य गृहीतः स्यात्तदानीं यत्तत्र विधेयं तद्दर्शयति-न तत्र शीतोदकादिना हस्तादिधावनं विदध्यात्, तथा न च तत्र व्यवस्थितः 'उत्सृष्टम्' उत्सर्जनं-त्यागमुञ्चारादेः कुर्यात्, केवली ब्रूयात्कर्मोपादानमेतदात्मसंयमविराधनातः, एतदेव दर्शयति स तत्र त्यागं कुर्वन् पतेद्वा पतंश्चान्यतरं शरीराव Estication Intl For Parts Only ~728~# www.indiary.org Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६६], नियुक्ति: [३०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत [६६] दीप श्रीआचा- यवमिन्द्रियं वा विनाशयेत् , तथा प्राणिनश्चाभिहन्याद्यावज्जीविताद् 'व्यपरोपयेत्' प्रच्यावयेदिति, अथ भिक्षूणां पूर्वोप- यामान्द्रय श्रुतस्कं०२ रावृत्तिः दिष्टमेतप्रतिज्ञादिकं यत्तथाभूतेऽन्तरिक्षजाते प्रतिश्रये स्थानादि न विधेयमिति ।। अपि च Mचूलिका १ (शी०) से भिक्खू वा० से जं. सहस्थियं सखुईं सपसुभत्तपाणं तहप्पगारे सागारिए उबस्सए नो ठाणं चा ३ बेइज्जा । आ शय्यैष०२ याणमेयं भिक्खुरस गाहावइकुलेण सद्धिं संवसमाणस्स अलसगे वा विसूइया वा छड्डी वा उब्वाहिज्जा अन्नयरे वा से त उद्देशः १ ॥३६२॥ दुक्खे रोगायके समुपजिज्जा, अस्संजए कलुणपडियाए तं मिक्खुस्स गायं तिलेण वा घएण वा नवणीएण वा वसाए वा अन्भगिज वा मक्खिज्ज वा सिणाणेण वा ककेण वा लुद्धेण वा वण्णेण या चुण्णेण वा पउमेण वा आसिन वा पर्वसिज या उज्वलिज या उबहिज वा सीओद्गवियडेण वा उसिणोद्गवियडेण वा उच्छोलिन या पक्खालिज वा सिणाविज वा सिंचिज वा दारुणा वा दारुपरिणामं कुटु अगणिकार्य उज्जालिज वा पजालिज वा उचालित्ता कार्य आयाविजा वा प. अह मिक्खूर्ण पुन्बोवइहा. जं तहप्पगारे सागारिए उवस्सए नो ठाणं वा ३ चेइज्जा ॥ (सू०६७) स भिक्षुर्य पुनरेवंभूतमुपाश्रयं जानीयात् तद्यथा-यत्र स्त्रियं तिष्ठन्ती जानीयात्, तथा 'सखुडु'न्ति सबालं, यदिवा सह क्षुदैरवबद्धः-सिंहश्वमार्जारादिभिर्यो वर्तते, तथा पशवश्च भक्तपाने च, यदिवा पशूनां भक्तपाने तयुक्तं, तथा प्रकारे सागारिके गृहस्थाकुलपतिश्रये स्थानादि न कुर्याद्, यतस्तत्रामी दोषाः, तद्यथा-आदानं कर्मोपादानमेतद्, भिक्षो-18 हिपतिकुटुम्बेन सह संबसतो यतस्तत्र भोजनादिक्रिया निःशङ्का न संभवति, व्याधिविशेषो वा कश्चित्संभवेदिति दर्श- ॥३६२॥ यति-'अलसगेत्ति हस्तपादादिस्तम्भः श्वयथुर्वा, विशूचिकाछदी प्रतीते, एते व्याधयस्तं साधुमुद्बाधेरन्, अन्यतरद्वा अनुक्रम [४००] wwwandltimaryam ~729~# Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [ ६७ ] दीप अनुक्रम [ ४०१ ] “आचार” - अंगसूत्र-१ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६७], निर्युक्तिः [३०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः दुःखं 'रोगः' ज्वरादिः 'आतङ्कः' सद्यः प्राणहारी शूलादिस्तत्र समुत्यद्येत, तं च तथाभूतं रोगातङ्कपीडितं दृष्ट्वाऽसंयतः कारुण्येन भक्त्या वा तद्भिक्षुगात्रं तैलादिनाऽभ्ययात् तथेपन्त्रक्षयेद्वा पुनश्च स्नानं सुगन्धिद्रव्यसमुदयः, कल्क:-कपायद्रव्यकाधः, छोधं प्रतीतं, वर्णकः - कम्पिलकादिः, चूर्णो यवादीनां पद्मकं प्रतीतम्, इत्यादिना द्रव्येण ईषत्पुनः पुनर्वा घर्षयेत् घृष्ट्वा चाभ्यङ्गापनयनार्थमुद्वर्त्तयेत् ततश्च शीतोदकेन वा उष्णोदकेन वा 'उच्छोलेज'त्ति ईषदुच्छोलनं विदध्यात् प्रशालयेत् पुनः पुनः स्नानं वा-सोत्तमाङ्गं कुर्यात्सिद्वेति, तथा दारुणा वा दारूणां परिणामं कृत्वा-संधर्षं कृत्वाऽग्निमुज्वालयेत्प्रज्वालयेद्वा, तथा च कृत्वा साधुकायम् 'आतापयेत्' सकृत् प्रतापयेत्पुनः पुनः । अथ साधूनां पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतिज्ञादिकं यत्तथाभूते ससागारिके प्रतिश्रये स्थानादिकं न कुर्यादिति ॥ आयाणमेयं भिक्खुस्स सागारिए उबस्सए संवसमाणस्स इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरी वा अन्नमन्नं अकोसंति वा पचति वा संभंति वा उद्दविंति वा, अह भिक्खूणं उच्चावयं मणं नियंहिना, एए खलु अन्नमन्नं अकोसंतु वा मा वा असंतु मा वा विंतु, अह भिक्खूर्ण पुल्व० जं तहप्पगारे सा० नो ठाणं वा ३ चेइजा || (सू० ६८ ) कर्मोपादानमेतद्भिक्षोः ससागारिके प्रतिश्रये वसतो, यतस्तत्र बहवः प्रत्यपायाः संभवन्ति, तानेव दर्शयति- 'इह' इत्थंभूते प्रतिश्रये गृहपत्यादयः परस्परत आक्रोशादिकाः क्रियाः कुर्युः, तथा च कुर्वतो दृष्ट्वा स साधुः कदाचिदुच्चावचं मनः कुर्यात्, तत्रोच्चं नाम मैवं कुर्वन्तु, अवचं नाम कुर्वन्त्विति, शेषं सुगममिति ॥ आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धिं संवसमाणस्स, इह खलु गाहावई अपणो सयट्ठाए अगणिकार्य उज्जालिजा वा Jan Estication Intimatinal For Pantry at Use Only ~730~# www.indiary.org Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [ ६९ ] दीप अनुक्रम [ ४०३ ] श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ३६३ ॥ “आचार” - अंगसूत्र-१ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६९], निर्युक्तिः [३०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः : पशालिन वा विज्झविज्ज वा, अह भिक्खू उचावयं मणं नियंछिज्जा, एए खलु अगणिकार्य उ० वा २ मा वा उ० पजा किंतु वामा वा प०, विज्झबिंदु वा मा वा वि०, अह भिक्खूर्ण पु० जं तहपगारे उ० नो ठाणं वा ३ इजा || (सू० ६९ ) एतदपि गृहपत्यादिभिः स्वार्थमग्निसमारम्भे क्रियमाणे भिक्षोरुच्चावचमनः सम्भवप्रतिपादकं सूत्रं सुगमम् ॥ अपि चआयाणमेवं भिक्खु गाहावईहिं सद्धिं संवसमाणस्स, इह खलु गाहावइरस कुंडले वा गुणे वा मणी वा मुत्तिए वा हिरण्णेसु वा सुवष्णेसु वा कडगाणि वा तुडियाणि वा तिसराणि वा पात्राणि वा हारे वा अद्धहारे वा एगावली वा क-गावली वा मुतावली वा रयणावली वा तरुणीयं वा कुमारिं अलंकियविभूसियं पेहाए, अह भिक्खू उच्चाव० एरि सिया वा सानो वा एरिसिया इय वा णं बूया इय वा णं मणं साइना, अह भिक्खूणं पु० ४ जं सहपगारे उबस्सए नो० ठा० ॥ ( सू०७० ) गृहस्यैः सह संबसतो भिक्षोरेते च वक्ष्यमाणा दोषाः, तद्यथा - अलङ्कारजातं दृष्ट्वा कन्यकां वालङ्कृतां समुपलभ्य ईदृशी तादृशी वा शोभनाऽशोभना वा मद्भार्यासदृशी वा तथाऽलङ्कारो वा शोभनोऽशोभन इत्यादिकां वाचं ब्रूयात्, तथोच्चावचं शोभनाशोभनादौ मनः कुर्यादिति समुदायार्थः, तत्र गुणो-रसना हिरण्यं दीनारादिद्रव्यजातं त्रुटितानिमृणालिकाः प्रालम्ब:-आप्रदीपन आभरणविशेषः, शेषं सुगमम् ॥ किञ्च -. आयाणमेयं भिक्खु गाहावहिं सद्धिं संवसमाणस्स, इह खलु गाहावइणीओ वा गाहावइधूयाओ वा गा० सुहाओ या गा० धाईओ वा गा० दासीओ वा गा० कम्मकरीओ वा वासिं च णं एवं वृत्तपुब्वं भवइजे इमे भवंति समणा Estication mainl For Pantry Use Onl ~731~# श्रुतस्कं० २ चूलिका १ शय्यैष० २ उद्देशः १ | ॥ ३६३॥ Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [७] दीप अनुक्रम [ ४०५ ] “आचार” - अंगसूत्र-१ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [७१], निर्युक्तिः [३०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः भगवंतो जाव वरया मेहुणाओ धम्माओ, नो खलु एएसिं कप्पइ मेहुणधम्मं परियारणाए आउट्टित्तए, जा य खलु एएसिद्धिं मेहुणधम्मं परिवारणाए आउट्टाविज्जा पुतं खलु सा उभिजा उयस्सि तेयसि वचसि जसस्सि संपराइयं आलो. अणदरसणिलं, एयप्पगारं निग्घोसं सुच्चा निसम्म तासि च णं अन्नयरी सड्डी तं तबस्सि भिक्खु मेहुणधम्मपडियारणाए आउट्टाविज्जा, अह् भिक्खूणं पु० जं तहष्पगारे सा० उ० नो ठा ३ चेइज्जा एवं खलु तस्स० ॥ ( सू० ७१ ) पढमा सिंजा सम्मता २-१-२-१ ॥ पूर्वोक्ते गृहे वसतो भिक्षोरमी दोषाः, तद्यथा-गृहपतिभार्यादय एवमालोचयेयुः यथैते श्रमणा मैथुनादुपरताः, तदेतेभ्यो यदि पुत्रो भवेत्ततोऽसौ 'ओजस्वी' बलवान् 'तेजस्वी' दीप्तिमान् 'वर्चस्वी' रूपवान् 'यशस्वी' कीर्त्तिमान्, इत्येवं संप्रधार्य तासां च मध्ये एवंभूतं शब्दं काचित्पुत्रश्रद्धालुः श्रुत्वा तं साधुं मैथुनधर्म (स्य) 'पडियारणाए 'त्ति आसेवनार्थम् 'आउट्टावेज 'ति अभिमुखं कुर्यात्, अत एतद्दोषभयात्साधूनां पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतिज्ञादिकं यत्तथाभूते प्रतिश्रये स्थानादि न कार्यमिति, एतत्तस्य भिक्षोभिण्या वा 'सामग्र्यं' सम्पूर्णो भिक्षुभाव इति ॥ द्वितीयाध्ययनस्य प्रथमोदेशकः समाप्तः ॥ २-१-२-१॥ उक्तः प्रथमोदेशकः, अधुना द्वितीयः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरोद्देशके सागारिकप्रतिबद्धवसतिदोषाः प्रतिपादिताः, इहापि तथाविधवसतिदोषविशेषप्रतिपादनायाह Etication Intematonal কর২৬ For Pantry Use Only प्रथम चूलिकायाः द्वितीय अध्ययनं “शयैषणा”, द्वितीय-उद्देशक: आरब्धः ~732~# Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [७२], नियुक्ति: [३०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रुतस्कं०२ चूलिका १ शय्यैष०२ | उद्देशः २ [७२॥ दीप अनुक्रम श्रीआचा गाहावई नामेगे सुइसमायारा भवति, से भिक्खू य असिणाणए मोयसमायारे से तगंधे दुग्गंधे पडिकूले पडिलोमे यावि राङ्गवृत्तिः भवइ, जं पुर्व कर्म से पच्छा कम्मं जं पन्छा कम्मं तं पुरे कम्म, तं भिक्खुपटियाए वट्टमाणा करिना बा नौ करिजा (शी०) वा, अह भिक्खूर्ण पु० जं तहप्पगारे उ० नो ठाणं० ॥ (सू०७२) - 'एके' केचन गृहपतयः शुचिः समाचारो येषां ते तथा, ते च भागवतादिभक्ता भवन्ति भोगिनो वा-चन्दनागुरुकुडा॥३६४॥ मकर्पूरादिसेविनः, भिक्षुश्चास्नानतया तथाकार्यवशात् 'मोया'त्ति कायिका तत्समाचरणात्स भिक्षुस्तद्गन्धो भवति, तथा च दुर्गन्धा, एवंभूतश्च तेषां गृहस्थानां 'प्रतिकूला' नानुकूलोऽनभिमतः, तथा 'प्रतिलोमः' तगन्धाद्विपरीतगन्धो भवति, एकाधिकी वैतावतिशयानभिमतत्वण्यापनार्थीवुपात्ताविति, तथा ते गृहस्थाः साधुप्रतिज्ञया यत्तत्र भोजनस्वाध्यायभूमी || कास्नानादिकं पूर्व कृतवन्तस्तत्तेषामुपरोधात्पश्चात्कुर्वन्ति यद्वा पश्चात्कृतवन्तस्तत्पूर्व कुर्वन्ति, एवमवसर्पणोत्सर्पणक्रियया साधूनामधिकरणसम्भवः, यदिवा ते गृहस्थाः साधूपरोधाप्राप्तकालमपि भोजनादिकं न कुयुः, ततश्चान्तरायमनःपीडादिदोषसम्भवः, अथवा त एव साधवो गृहस्थोपरोधाद्यत्पूर्व कर्म-प्रत्युपेक्षणादिकं तत्पश्चात्कुयुर्विपरीतं वा कालातिक्रमण कुयुने कुयुर्वा, अथ भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतिज्ञादिकं यत्तथाविधे प्रतिश्श्रये स्थानादिकं न कार्यमिति ॥ किञ्च आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धिं सं०, इह खलु गाहावइस्स अप्पणो सयट्ठाए विरूवरूवे भोयणजाए उवक्सडिए सिया, अह पच्छा मिक्खुपढियाए असणं वा ४ उवक्खडिज वा उवकरिज वा, तं च भिक्खू अभिकंखिजा भुतए चा पायए वा वियट्टित्तए वा, अह भि० जं नो तह ॥ (सू०७३) आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावइणा सर्थि संव० [४०६] ॥३६४॥ wwwandltimaryam ~733~# Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [७४] दीप अनुक्रम [ ४०८ ] “आचार” - अंगसूत्र-१ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [७४], निर्युक्तिः [३०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः इह खलु गाहा इस अप्पणो सयद्वाए विरूवरूवाई दारुयाई भिन्नपुब्वाई भवंति अह पच्छा भिक्खुपडियाए चिरुवरुवाई दारुयाई भिविन वा किणिन वा पामिचेज वा दारुणा वा दारुपरिणामं कट्टु अगणिकार्य उ० प० तत्थ भिक्खू अभिकंखिज्ञा आयावित्तए वा पयावित्तए वा वियट्टित्तए वा, अह भिक्खू० जं नो तहष्पगारे० || (सू० ७४ ) कर्मोपादानमेतद्भिक्षोर्यद्गृहस्थाववद्धे प्रतिश्रये स्थानमिति, तद्यथा - 'गाहावइस्स अप्पणो ति, तृतीयार्थे षष्ठी, गृहप|तिना आत्मना स्वार्थे 'विरूपरूपः' नानाप्रकार आहारः संस्कृतः स्यात्, 'अर्थ' अनन्तरं पश्चात्साधूनुद्दिश्याशनादिपाकं वा कुर्यात्, तदुपकरणादि वा ढोकयेत् तं च तथाभूतमाहारं साधुर्भोक्तुं पातुं वाऽभिकाङ्गेत्, 'विअट्टित्तए व'त्ति तत्रैवाहारगृद्ध्या विवर्त्तितुम्-आसितुमाकाङ्गेत् शेषं पूर्ववदिति ॥ एवं काष्ठाग्निप्रज्वालनसूत्रमपि नेयमिति ।। किच सेभिक्खू वा० उच्चारपासवणेण उब्बा हिज्जमाणे राओ वा बियाले वा गाहाबईकुलस्स दुवारबाई अवंगुणिजा, तेणे य तस्संधिवारी अणुपविसिज्जा, तस्स भिक्खुस्स नो कप्पइ एवं वइत्तए — अयं तेणो पविसइ वा नो वा पविसइ उवलिय वा नो बा० आवयश् वा नो वा० बबइ वा नो वा० तेण हई अन्नेण हवं तस्स हुई अन्नरस हढं अयं तेणे अयं वच रए अयं हंता अयं इत्थमकासी तं तवस्सि भिक्युं अतेणं तेणंति संकइ, अह भिक्लूगं पु० जाव नो ठा० ॥ ( सू० ७५ ) भिस्तत्र गृहस्थसंस प्रतिश्रये वसन्नुच्चारादिना बाध्यमानो विकालादौ प्रतिश्रयद्वार भागमुद्घाटयेत्, तत्र च 'स्तेनः' चौर: 'तत्सन्धिचारी' छिद्रान्वेषी अनुप्रविशेत् तं च दृष्ट्वा तस्य भिक्षोनैवं वक्तुं कल्पते - यथाऽयं चौरः प्रविशति न चेति, तथोपलीयते न वेति, तथाऽयमतिपतति न चेति, तथा वदति वा न वदति वा, तेनामुकेनापहृतम् अन्येन वा, Jan Estication Intemational For Parts Only ~734~# Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [७५], नियुक्ति: [३०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: दीप अनुक्रम [४०९] श्रीआचा- तस्यापहृतमन्यस्य वा, अयं स स्तेनस्तदुपचारको वा, अयं गृहीतायुधोऽयं हन्ता अयमत्राकार्षीदित्यादि न वदनीय, श्रुतस्कं०२ राङ्गवृत्तिःलायत एवं तस्य चीरस्य व्यापत्तिः स्यात्, स वा प्रद्विष्टस्तं साधु व्यापादयेदित्यादिदोषाः, अभणने च तमेव तपस्विनं चूलिका १ (शी०) || भिक्षुमस्तेनं स्तेनमित्याशङ्केतेति, शेषं पूर्ववदिति ॥ पुनरपि वसतिदोपाभिधित्सयाऽऽह शय्यैष०२ से भिक्खू वा से ज० तणपुंजेसु वा पलालपुंजेसु वा सअंडे जाव ससंताणए तहप्पगारे उ० नो ठाणं वा० ।। ३ ।। से | उद्देशः २ ॥३६५॥ भिक्खू वा० से जं० तणपुं० पलाल० अप्पंडे जाव चेइज्जा ।। (सू० ७६) सुगमम्, एतद्विपरीतसूत्रमपि सुगम, नवरमल्पशब्दोऽभाववाची ॥ साम्प्रतं वसतिपरित्यागमुद्देशकार्थाधिकारनिर्दिष्टमधिकृत्याह से आगंतारेसु आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अभिक्खणं साहम्मिएहि उवयमाणेहिं नो उबइजा ॥ (सू०७७) | 8 यत्र ग्रामादेर्बहिरागत्यागत्य पथिकादयस्तिष्ठन्ति तान्यागन्तागाराणि, तथाऽऽराममध्यगृहाण्यारामागाराणि, पर्याव सथा-मठाः, इत्यादिषु प्रतिश्रयेषु 'अभीक्षणम्' अनवरतं 'साधर्मिकैः' अपरसाधुभिः 'अवपतद्भिः आगच्छद्धिर्मासादिविहारिभिश्छर्दितेषु 'नावपतेत्' नागच्छेत्-तेषु मासकल्पादि न कुर्यादिति ॥ साम्प्रतं कालातिक्रान्तवसतिदोषमाह से आगंतारेसु वा ४ जे भयंतारो उडुचद्धियं वा वासावासियं का कप्पं उवाइणित्ता तत्थेव भुजो संवसंति, अयमाउसो ! ___ कालाइवंतकिरियावि भवति १॥ (सू०७८) तेष्वागन्तागारादिषु ये भगवन्तः 'ऋतुबद्धम्' इति शीतोष्णकालयोर्मासकल्पम् 'उपनीय' अतिवाह्य वर्षासु वा चतु-14 www.andituaryam ~735~# Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) ཛམྦྷོཡྻ [ ७८ ] अनुक्रम [ ४१२] “आचार” - अंगसूत्र-१ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [ ७८ ], निर्युक्तिः [३०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः रो मासानतिवाह्य तत्रैव पुनः कारणमन्तरेणासते, अयमायुष्मन् ! कालातिक्रमदोषः संभवति, तथा च रूयादिप्रतिबन्धः स्नेहादुद्गमादिदोपसम्भवो वेत्यतस्तथा स्थानं न कल्पत इति १ ॥ इदानीमुपस्थानदोषमभिधित्सुराह से आगंतारेसु वा ४ जे भयंतारो उडु० वासा० कप्पं उवाइणावित्ता तं दुगुणा दु (ति) गुणेण वा अपरिहरिता तत्थेव भुजो० अयमाउसो ! उवद्वाणकि० २ ॥ ( सू० ७९ ) ये 'भगवन्तः साधव आगन्तागारादिषु ऋतुबद्धं वर्षो वाऽतिवाद्यान्यत्र मासमेकं स्थित्वा 'द्विगुणत्रिगुणादिना' मास(सादि) कल्पेन अपरिहृत्य - द्वित्रैर्मासैर्व्यवधानमकृत्वा पुनस्तत्रैव वसन्ति, अयमेवंभूतः प्रतिश्रय उपस्थानक्रियादोषदुष्टो भवत्यतस्तत्रावस्थातुं न कल्पत इति २ ॥ इदानीमभिक्रान्तवसतिप्रतिपादनायाह इह खलु पाईणं वा ४ संवेगइया सड्डा भवति, तंजहा — गाहावई वा जाब कम्मकरीओ वा, तेसि च णं आयारगोयरे नो सुनिसंते भवइ, तं सद्दहमाणेहिं पत्तियमाणेहिं रोयमाणेहिं बहवे समण माण अतिहि किवणवणीमए समुद्दिस्स तत्थ २ अगारीहिं अगाराई चेइयाई भवंति, संजदा भएसणाणि वा आयतणाणि वा देवकुलाणि वा सहाओ वा पवाणि वा पणियगिहाणि वा पणियसालाओ वा जाणगिहाणि वा जाणसालाओ वा सुहाकम्मैवाणि वा ददभकम्मैताणि वा बद्धकं० वकयकं० इंगाकम्० कटुक० सुसाणक० सुष्णागारगिरिकंदरसंति सेलोषद्वाणकम्मताणि वा भवणगिहाणि वा, जे भयंतारो वहपगाराई आसणाणि वा जाव गिहाणि वा तेहिं उवयमाणेहिं जवयंति अयमाउसो ! अभिकंतकिरिया यावि भवइ ३ ॥ ( सु०८० ) इह प्रज्ञापकाद्यपेक्षया प्राध्यादिषु दिक्षु श्रावकाः प्रकृतिभद्रका या गृहपत्यादयो भवेयुः तेषां च साध्वाचारगोचरः 'णो Jain Estication Intl For Pantry Use Only ~736~# Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [८०], नियुक्ति: [३०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०) सत्राका ८० दीप अनुक्रम सुणिसंतो भवइत्ति न सुष्टु निशान्तः-श्रुतोऽवगतो भवति, साधूनामेवंभूतः प्रतिश्रयः कल्पते नैवंभूत इत्येवं न ज्ञातं श्रुतस्क०२ भवतीत्यर्थः, प्रतिश्रयदानफलं च स्वर्गादिकं तैः कुतश्चिदवगतं, तच्छ्रद्दधानःप्रतीयमानै रोचयदिरित्येकार्थी एते किञ्चि- चूलिका १ अदाद्वा भेदः, तदेवंभूतैः 'अगारिभिः' गृहस्थैर्बहून् श्रमणादीन् उद्दिश्य तत्र तत्रारामादौ यानशालादीनि स्वार्थ कुर्वनिः शय्यैष०२ श्रमणाद्यवकाशार्थ 'चेइयाई महान्ति कृतानि भवन्ति, तानि चागाराणि स्वनामग्राहं दर्शयति, तद्यथा-'आदेशनानि | उद्देशः २ लोहकारादिशालाः 'आयतनानि' देवकुलपाश्चोपवरकाः 'देवकुलानि प्रतीतानि 'सभाः' चातुर्वैद्यादिशालाः 'प्रपाः' उद|कदानस्थानानि 'पण्यगृहाणि वा' पण्यापणाः 'पण्यशाला' घशालाः 'यानगृहाणि' रथादीनि यत्र यानानि तिष्ठन्ति | 'यानशाला' यत्र यानानि निष्पाद्यन्ते 'सुधाकर्मान्तानि यत्र सुधापरिकर्म क्रियते, एवं दर्भवर्धवल्कजाङ्गारकाष्ठकम[का-18 गहाणि द्रष्टव्यानि, 'इमशानगई प्रतीतं शन्यागार-विविक्तग्रह) शान्तिकर्मग्रह-यत्र शान्तिकर्म क्रियते गिरिगृह-पर्वतोपरिगृहं कन्दरं-गिरिगुहा संस्कृता शैलोपस्थापनं-पापाणमण्डपः, तदेवभूतानि गृहाणि तैश्चरकब्राह्मणादिभिरभिकान्तानि पूर्व पश्चाद् भगवन्तः' साधवः 'अवपतन्ति' अवतरन्ति, इयमायुष्मन् ! विनेयामन्त्रणम्, अभिकान्तक्रिया वसतिर्भवति, अल्पदोषा चेयम् ३॥ इह खलु पाईणं वा जाव रोयमाणेहिं बहवे समणमाणअतिहि किवणबणिमए समुदिस्स तत्थ तत्थ अगारिहिं अगाराई चेझ्याई भवंति, सं०-आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा, जे भयंतारो तहप० आएसणाणि जाव गिहाणि वा तेहिं अणोषयमाणेहिं उवयंति अयमाउसो! अणमिकतकिरिया यावि भव ॥ (सू०८१) MER55-256 [४१४] JAINEucatim.intamatund wataneltmarnam ~737~# Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [८] दीप अनुक्रम [ ४१५] आ. सू. ६२ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [८१], निर्युक्तिः [३०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Etication tal सुगर्म, नवरं चरकादिभिरनवसेवितपूर्वा अनभिक्रान्तक्रिया वसतिर्भवति, इयं चानभिक्रान्तत्वादेवा कल्पनीयेति ४ ॥ साम्प्रतं वर्ज्याभिधानां वसतिमाह इह खलु पाईणं वा ४ जाव कम्मकरीओ वा, तेसिं च णं एवं बुत्तपुब्वं भवइ जे इमे भवंति समणा भगवंतो जाव वरया मेहुणाओ धम्माओ, नो खलु एएसिं भयंताराणं कप्पर आहाकंम्मिए उवस्सए वत्थए, से जाणिमाणि अहं अप्पणी सट्टाए चेयाई भवति, तं० आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा सव्वाणि ताणि समणाणं निसिरामो, अवियाई वयं पच्छा अप्पणी सबट्ठाए चेदस्सामो, सं० आएसणाणि वा जाब०, एयप्पगारं निग्घोसं सुखा निसम्म जे भयंतारो तप्प० आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा उवागच्छंति इयराइयरेहिं पाहुडेहिं वहति, अयमाउसो ! वजकिरियावि भवइ ५ || (सू० ८२) इह खल्वित्यादि प्रायः सुगमं, समुदायार्थस्त्वयम्-गृहस्थैः साध्वाचाराभिज्ञैर्यान्यात्मार्थं गृहाणि निर्वर्त्तितानि तानि साधुभ्यो दत्त्वाऽऽत्मार्थ त्वन्यानि कुर्वन्ति, ते च साधवस्तेष्वितरेतरेषूच्चावचेषु 'पाहुडेहिं 'ति प्रदत्तेषु गृहेषु यदि वर्त्तन्ते ततो वर्ज्यक्रियाभिधाना वसतिर्भवति सा च न कल्पत इति ५ ॥ इदानीं महावर्ज्याभिधानां वसतिमधिकृत्याह इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइआ सट्टा भवति, तेसिं च णं आयारगोवरे जाव तं रोयमाणेहिं बहवे समणमाहण जाव वणीमगे पगणिय २ समुद्दिस्स तत्थ २ अगारीहिं अगाराई चेइवाई भवंति तं० आएसणाणि वा जाव विहाणि वा, जे भयंतारो तहप्पगाराई आएसणाणि वा जाब गिहाणि वा उपागच्छति इयराइयरेहिं पाहुडेहिं०, अयमाउसो ! महावज्रकिरियादि भवर ६ ॥ (सू० ८३ ) For Pantry Use Only ~738~# sitary org Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [८३], नियुक्ति: [३०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रुतस्कं०२ चूलिका १ शय्यैष०२ उद्देशः २ सूत्राक [८३] दीप श्रीआचा- KI इहेत्यादि प्रायः सुगममेव, नवरं श्रमणाद्यर्थ निष्पादिताया यावन्तिकवसतौ स्थानादि कुर्वतो महावाभिधाना व- राङ्गवृत्तिः सतिर्भवति, अतः अकल्प्या चेयं विशुद्धकोटिश्चेति ६॥ इदानी सावद्याभिधानामधिकृत्याह(शी०) इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइया जाव तं सद्दहमाणेहिं तं पत्तियमाणेहि त रोयमाणेहिं बहवे समणमाहणअतिहिकिवण वणीमगे पगणिय २ समुहिस्स तत्व २ अगाराई चेइयाई भवंति तं०-आएसणाणि वा जाब भवणगिहाणि बा, जे भयंतारो तहप्पगाराणि आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा उवागच्छंति इयराइयरेहिं पाहुडेहिं, अयमाउसो! सावजकिरिया यावि भवइ ७॥ (सू०८४) इहेत्यादि प्रायः सुगम, नवरं पञ्चविधश्रमणाद्यर्थमेवैषा कल्पिता, ते चामी श्रमणा:-"निग्गथै १ सक २ तावस ३गेअ ४ आजीव ५ पंचहा समणा ।" इति, अस्यां च स्थानादि कुर्वतः सावधक्रियाऽभिधाना वसतिर्भवति, अकल्पनीया, चेयं विशुद्धकोटिश्चेति ७॥ महासावद्याभिधानामधिकृत्याह इह खलु पाईणं वा ४ जाव त रोयमाणेहिं एगं समणजायं समुद्दिस्स तत्थ २ अगारीहिं अगाराई चेइयाई भवन्ति, सं० आएसणाणि जाब गिहाणि या महया पुढविकायसमारंभेणं जाव महया तसकायसमारंभेणं महया विरुवरूवेहिं पावकम्मकिचेदि, तंजहा-छायणओ लेवणओ संथारदुवारपिहणओ सीओदए वा परदृवियपुब्वे भवइ अगणिकाए वा उजालियपुष्वे १ निर्गन्धाः शाक्याः तापसा गरिका आजीविकाः पञ्चधाः श्रमणाः, अनुक्रम [४१७] ॥३६७ स ~739~# Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [८५], नियुक्ति: [३०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: SA प्रत ८५॥ दीप अनुक्रम भवइ, जे भयंतारो तह आएसणाणि वा. वागच्छंति इयराश्यरेहिं पाहुडेहिं दुपक्खं ते कम्म सेवंति, अग्रमाउसो! महासावञ्जकिरिया यावि भवइ ८॥ (सू०८५) इह कश्चिद्गुहपत्यादिरेक साधर्मिकमुद्दिश्य पृथिवीकायादिसंरम्भसमारम्भारम्भैरन्यतरेण वा महता तथा 'विरूपरूपैः नानारूपैः पापकर्मकृत्यैः-अनुष्ठानैः, तद्यथा-छादनतो लेपनतस्तथा संस्तारकार्थ द्वारढकनार्थं च, इत्यादीनि प्रयोजनान्युद्दिश्य शीतोदकं त्यक्तपूर्वं भवेत् अग्निर्वा प्रज्वालितपूर्वो भवेत् , तदस्यां वसतौ स्थानादि कुर्वन्तस्ते द्विपक्षं कर्मा| सेवन्ते, तद्यथा-प्रव्रज्याम् आधाकर्मिकवसत्यासेवनागृहस्थत्वं च रागद्वेषं च ईयोपथं साम्परायिकं च, इत्यादिदोषान्म-| हासावधक्रियाऽभिधाना वसतिभवतीति ८॥ इदानीमल्पक्रियाऽभिधानामधिकृत्याह इह खलु पाईणं वा० रोवमाणेहि अप्पणो सबढाए तत्थ २ अगारीहिं जाव उजालियपुब्वे भवइ, जे भयंतारो सहप० आएसणाणि वा० उवागकठंति इयराइयरेहिं पाहुडेहिं एगपक्खं ते कम सेवंति, अबमाउसो! अप्पसावजकिरिया यावि भवइ ९ ॥ एवं खलु तस्स० (सू०८६)॥२-१-२-२ ॥ शप्वैषणायां द्वितीयोदेशकः ॥ सुगम, नवरमल्पशब्दोऽभाववाचीति ९ । एतत्तस्य भिक्षोः 'सामग्यं संपूर्णो भिक्षुभाव इति ॥ "कालाइकंतु १ व-13 ठाण २ अभिकता ३ चेव अणभिकंता ४ य । बजा य ५ महावज्जा ६ सावज्ज ७ मह ८ अप्पकिरिआ ९ य ॥१॥" कालातिकान्ता उपस्थाना अभियान्ता चैवानभिकान्ता च । वा च महावा सावद्या महासावया अल्पक्रिया च ॥॥ [४१९] Jain Educatinintamathima ~740~# Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [८६], नियुक्ति: [३०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ॐर प्रत सुत्राक [८६] दीप अनुक्रम [४२०] श्रीआचा-15 एताश्च नव वसतयो यथाक्रमं नवभिरनन्तरसूत्रः प्रतिपादिताः, आसु चाभिक्रान्ताल्पक्रिये योग्ये शेषास्त्वयोग्या इति ॥ श्रुतस्कं०२ रावृत्तिः द्वितीयाध्ययनस्य द्वितीयः ॥२-१-२-२॥ चूलिका १ (शी०) I उक्तो द्वितीयोदेशकोऽधुना तृतीयः समारभ्यते, अस्य चायमभिसंवन्धा, इहानन्तरसूत्रेऽल्पक्रिया शुद्धा वसतिर-18 शय्यैष०२ उद्देशः ३ ॥३६८॥ भिहिता, इहाप्यादिसूत्रेण तद्विपरीता दर्शयितुमाह से य नो सुलभे फासुए उंछे अहेसणिजे नो य खलु सुद्धे इमेहि पाहुडेहिं, तंजहा–छायणओ लेवणओ संधारदुवारपिहणओ पिंडवाएसणाओ, से य भिक्खू परियारए ठाणरए निसीहियारए सिज्जासंधारपिंडवाएसणारए, संति भिक्खुणो एवमक्खाइणो उन्जुया नियागपढिवन्ना अमायं कुवमाणा वियाहिया, संतेगड्या पाहुडिया उक्खित्तपुवा भवइ, एवं निक्खित्तपुब्बा भवइ, परिभाइयपुष्वा भवइ, परिभुत्तपुष्वा भवइ परिहावियपुवा भवइ, एवं वियागरेमाणे समियाए वियागरेइ?, हंता भवइ ॥ (सू०८७) अत्र च कदाचित्कश्चित्साधुर्वसत्यन्वेषणार्थ भिक्षार्थ वा गृहपतिकुलं प्रविष्टः सन् केनचिच्छ्रद्धालुनैवमभिधीयते, तद्यथा-प्रचुरान्नपानोऽयं ग्रामोऽतोऽत्र भवतां वसतिमभिगृह्य स्थातुं युक्तमित्येवमभिहितः सन्नेवमाचक्षीत-न केवलं पिदण्डपातः प्रासुको दुर्लभस्तदवाप्तावपि यत्रासौ भुज्यते स च प्रासुकः-आधाकर्मादिरहितः प्रतिश्रयो दुर्लभः, 'उछ' इति ॥ ३६८ ॥ छादनाद्युत्तरगुणदोषरहितः, एतदेव दर्शयति-'अहेसणिजे ति यथाऽसौ मूलोत्तरगुणदोषरहितत्वेनैषणीयो भवति तथा FarpanMETVMaUWORY wataneltmanam | प्रथम चूलिकाया: दवितीय-अध्ययनं “शयैषणा", तृतीय-उद्देशक: आरब्ध: ~741~# Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [3], मूलं [८७], नियुक्ति: [३०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्राक [८७]] दीप अनुक्रम [४२१] भूतो दुर्लभ इति, ते चामी मूलोत्तरगुणा:-"पडी वंसो दो धारणाओ चत्तारि मूलवेलीओ । मूलगुणेहिं विसुद्धा एसा आहागडा वसही ॥१॥ वंसगकडणोकंपण छायण लेवण दुवारभूमीओ। परिकम्मविष्पमुक्का एसा मूलुत्तरगुणेसु | Pilu२॥ दूमिअधूमिअवासिअउज्जोवियबलिकडा अ वत्ता य । सित्ता सम्मावि अविसोहिकोडीगया वसही॥३॥" द्र अत्र च प्रायशः सर्वत्र सम्भवित्वादुत्तरगुणानां तानेव दर्शयति, न चासौ शुद्धा भवत्यमीभिः कर्मोपादानकर्मभिः, त-1|| द्यथा-'छादनतः' दीदिना, 'लेपनतः' गोमयादिना संस्तारकम्-अपवर्तकमाश्रित्य, तथा द्वारमाश्रित्य बृहलघुत्वा-1 पादानतः, तथा द्वारस्थगनं-कपाटमानित्य, तथा पिण्डपातैषणामाश्रित्य, तथाहि-कस्मिंश्चित्पतिश्रये प्रतिवसतः साधून शय्यातरः पिण्डेनोपनिमन्त्रयेत् , तद्हे निषिद्धाचरणमग्रहे तत्पद्वेषादिसम्भव इत्यादिभिरुत्तरगुणैः शुद्धः प्रतिश्रयो दुरापः, शुद्धे च प्रतिश्रये साधुना स्थानादि विधेयं, यत उक्तम्-"मूर्तुत्तरगुणसुद्धं थीपसुपंडगविवज्जियं वसहिं । से- II वेज सव्वकालं विवजए हुंति दोसा उ ॥१॥" मूलोत्तरगुणशुद्धावाप्तावपि स्वाध्यायादिभूमीसमन्वितो विविक्तो दुराप इति दर्शयति-'से' इत्यादि, तत्र च भिक्षवः चर्यारता:-निरोधासहिष्णुत्वाच्चङ्कमणशीलाः, तथा 'स्थानरताः' कायोत्सर्गकारिणः 'निषीधिकारताः' स्वाध्यायध्यायिनः शय्या-सर्वानिकी संस्तारकः-अर्द्धतृतीयहस्तप्रमाणः, यदिवा शयनं शय्या शिक्षो धारणे चततो मूलधेल्यः । मलगुणविशुद्धा एषा यथाक्ता बसतिः ॥ १ वंशककटनोलम्पनच्छादनपनं द्वारभूमेः । परिकर्मविप्रमुक्ता एषा Xमूलोत्तरगुणः ॥ ३ ॥ पालिता धूपिता बासिता उद्योतिता कृतबलिका च व्यका च । सिक्ता संमृष्टाऽपि च विशोधिकोटीगता यसतिः ॥ ३॥ २ मूलोत्तरगुणा श्रीपशुपडकविवर्जितां वसतिम् । सेवेत सदाका विपर्यये तु भवन्ति दोषाः ॥१॥ wwwandltimaryam ~742~# Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [3], मूलं [८७], नियुक्ति: [३०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत ८७ दीप अनुक्रम [४२१] श्रीआचा-13 तदर्थ संस्तारकः शय्यासंस्तारकस्तत्र केचिद्रताः ग्लानादिभावात् , तथा लब्धे पिण्डपाते ग्रासपणारतास्तदेवं 'सन्ति' श्रुतस्क०२ रामवृत्तिः भवन्ति केचन भिक्षवः 'एवमाख्यायिनः' यथाऽवस्थितवसतिगुणदोपाख्यायिनः ऋजवो नियागः-संयमो मोक्षो वाटचूलिका (शी०) तं प्रतिपन्नाः, तथा अमायाविनः, एवंविशिष्टाः साधवः 'व्याख्याता प्रतिपादिताः, तदेवं वसतिगुणदोषानाख्याय गतेषु शय्यैष०२ या तेषु तैश्च श्रावकैरेवंभूतैषणीयवसत्यभावे साध्वर्थमादेरारभ्य वसतिः कृता पूर्वकृता वा छादनादिना संस्कृता भवेत्, | उद्देशः ३ ॥३६९॥ पुनश्च तेष्वन्येषु वा साधुषु समागतेषु 'सन्ति' विद्यन्ते तथाभूताः केचन गृहस्थाः य एवंभूतां छलनां विदध्युः, तयथा-प्राभृतिकेव प्राभृतिका-दानार्थं कल्पिता वसतिरिह गृह्यते, सा च तैर्गृहस्थैः “उरिक्षप्तपूर्वा' तेषामादौ दर्शिता यथाऽस्यां वसत यूयमिति, तथा 'निक्षिप्तपूर्वा' पूर्वमेव अस्माभिरात्मकृते निष्पादिता, तथा परिभाइयपुत्र'त्ति पूर्वमेवास्माताभिरियं भ्रातृव्यादेः परिकल्पितेत्येवंभूता भवेत् , तथाऽन्यैरपीयं परिभुक्तपूर्वा, तथा पूर्वमेवास्माभिरियं परित्यक्तेति, यदि नाच भगवतां नोपयुज्यते ततो वयमेनामपनेष्यामः, इत्येवमादिका छलना पुनः सम्यग् विज्ञाय परिहत्तव्येति, ननु किमेवं| छलनासम्भवेऽपि यथाऽवस्थितवसतिगुणदोषादिकं गृहस्थेन पृष्टः साधुळकुर्वन-कथयन् सम्यगेव व्याकरोति ?, यदि-1 वैवं व्याकुर्वन् सम्यग् व्याकर्ता भवति?, आचार्य आह-हन्त इति शिष्यामन्त्रणे सम्यगेव व्याकर्ता भवतीति । तथाविधकार्यवशाचरककार्पटिकादिभिः सह संवासे विधिमाह ॥३६९॥ से मिक्खू बा० से जं पुण उवस्सर्व जाणिजा खुडियाओ खुदुवारियाओ निययाओ संनिरुद्धामो भवन्ति, तहप्पणा० उबस्सए राओ वा चियाले वा निक्खममाणे वा प० पुरा हत्येण वा पच्छा पाएण वा तओ संजयामेव निक्समिज वा २, 685%25-25% wwwandltimaryam ~743~# Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [८८], नियुक्ति: [३०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: * प्रत सुनाक * दीप केवली या आयाणमेयं, जे तत्थ समणाण वा माहणाण वा छत्तए वा मत्तए वा दंडए वा लट्ठिया वा मिसिया वा नालिया। वा चेलं वा चिलिमिली वा चम्मए वा चम्मकोसए वा चम्मछेयणए वा दुब्बद्धे दुनिक्खित्ते अणिकंपे चलाचले भिक्खू य राओ वा बियाले वा निक्सममाणे वा २ पयलिज वा २, से तत्थ पयलमाणे वा० हस्थं वा० लूसिज्ज वा पाणाणि वा ४ जाव ववरोविज वा, अह मिक्खूणं पुल्योवइटुं जं तह उवस्सए पुरा हत्येण निक्ख० वा पच्छा पाएणं तओ संजयामेव नि० पबिसिज वा ।। (सू०८८) स भिक्षुर्य पुनरेवंभूतं प्रतिश्रयं जानीयात् , तद्यथा-'क्षुद्रिका' लध्व्यः तथा क्षुद्रद्वाराः 'नीचाः' उच्चैस्त्वरहिताः। 'संनिरुद्धाः गृहस्थाकुला वसतयो भवन्ति, ताश्चैवं भवन्ति-तस्यां साधुवसतौ शय्यातरेणान्येषामपि कतिपयदिवसस्थायिनां चरकादीनामवकाशो दत्तो भवेत् , तेषां वा पूर्वस्थितानां पश्चात्साधूनामुपाश्रयो दत्तो भवेत् , तत्र कार्यवशाद्धसता दाराव्यादी निर्गच्छता प्रविशता वा यथा चरकाचुपकरणोपघातो न भवति तदवयवोपघातो वा तथा पुरो हस्तकरणादि कया गमनागमनादिक्रियया यतितव्यं, शेष कण्ठ्यं, नवरं 'चिलिमिली' यमनिका 'चर्मकोश' पाणित्रं खल्लकादिः इदानीं वसतियाजाविधिमधिकृत्याह से आगंतारेसु वा अणुवीय उवस्मयं जाइजा, जे तत्थ ईसरे जे तस्थ समहिट्ठाए ते उबस्सयं अणुनविजा--काम खलु आउसो! अहालंदं अहापरिनार्य वसिस्सामो जाव आउसंतो! जाव आउसंतस्स उवस्सए जाव साहम्मियाई ततो उवस्सयं गिहिस्सामो तेण परं विहरिस्सामो ॥ (सू०८९) अनुक्रम [४२२] www.tanditimaryam ~744~# Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [3], मूलं [८९], नियुक्ति: [३०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: A ال م ا उद्देश ३ ८९] दीप अनुक्रम [४२३] श्रीआचा- स भिक्षुरागन्तागारादीनि गृहाणि पूर्वोक्तानि तेषु प्रविश्यानुविचिन्त्य च-किंभूतोऽयं प्रतिश्श्रयः? कश्चात्रेश्वरः ? इ-| रावृत्तिःत्येवं पर्यालोच्य च प्रतिश्रयं याचेत, यस्तत्र 'ईश्वरः' गृहस्वामी यो वा तत्र 'समधिष्ठाता' प्रभुनियुक्तस्तानुपाश्रयमनु(शी०) ज्ञापयेत् , तद्यथा-'काम' तवेच्छया आयुष्मन् ! त्वया यथापरिज्ञातं प्रतिश्रयं कालतो भूभागतश्च तथैवाधिवत्स्यामः, एवमुक्तः स कदाचिद् गृहस्थ एवं ब्रूयाद्-यथा कियत्कालं भवतामत्रावस्थानमिति', एवं गृहस्थेन पृष्टः साधु-वसतिप्रत्युपेक्षक एतद् ब्रूयाद्-यथा कारणमन्तरेण ऋतुबद्धे मासमेकं वर्षासु चतुरो मासानवस्थानमिति, एवमुक्तः कदाचिपरो भूयात् तावन्तं कालं ममात्रावस्थानं वसतिर्वा, तत्र साधुस्तथाभूतकारणसभावे एवं ब्रूयाद्-यावत्कालमिहायुष्मन्त आसते यावद्वा भवत उपाश्रयस्तावत्कालमेवोपाश्रयं गृहीष्यामः, ततः परेण विहरिष्याम इत्युत्तरेण सम्बन्धः, साधुप्रमाणप्रश्ने चोत्तरं दद्याद् यथा समुद्रसंस्थानीयाः सूरयो, नास्ति परिमाणं, यतस्तत्र कार्यार्थिनः केचनागच्छन्ति अपरे कृतकार्या गच्छन्त्यतो यावन्तः साधर्मिकाः समागमिष्यन्ति तावतामयमाश्रयः, साधुपरिमाणं न कथनीयमिति भावार्थः । किश्च से मिक्खू वा० जस्मुवस्सए संवसिजा तस्स पुब्बामेव नामगुत्तं जाणिज्जा, तओ पच्छा तस्स गिहे निमंतेमाणस्स वा अनिमंतेमाणस्स वा असणं वा ४ अफासुर्य आव नो पडिगाहेजा ।। (सू० ९०) सुगम, नवरं साधूनां सामाचार्येषा, यदुत शय्यातरस्य नामगोत्रादि ज्ञातव्यं, तत्परिज्ञानाञ्च सुखेनैव प्राघूर्णिकादयो भिक्षामटन्तः शय्यातरगृहप्रवेशं परिहरिष्यन्तीति । किश्च CCRAC% wataneltmanam ~745~# Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [११], नियुक्ति: [३०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत ९१॥ दीप अनुक्रम [४२५]] से मिक्खू वा० से जं. ससागारिय सागणियं सउदयं नो पन्नस्स निक्खमणपवेसाए जावऽणुषिताए तहपगारे उबस्सए नो ठा०॥ (सू० ९१) स भिक्षुर्य पुनरेवभूतं प्रतिश्रयं जानीयात् , तद्यथा-ससागारिक साग्निक सोदक, तत्र स्वाध्यायादिकृते स्थानादि| न विधेयमिति । तथा से मिक्सू वा० से ज० गाहावइकुलस्स मझमजोणं गंतु पंथए पडिबद्धं वा नो पन्नस्स जाव चिंताए तह ७० नो ठा०॥ (सू०९२) यस्योपाश्रयस्य गृहस्थगृहमध्येन पन्धास्तत्र बलपायसम्भवात्तत्र न स्थातव्यमिति ॥ तथा से भिक्खू वा० से जं०, बह खलु गाहावई वा० कम्मकरीओ वा अन्नमन्नं अकोसंति या जाव उर्वति वा नो पन्नस्स०, सेवं नचा ताप्पगारे १० नो ठा० ॥ (सू० ९३) से मिक्सू वा० से जं पुण० इह खलु गाहावई या सम्मअरीओ वा अन्नमन्नस्स गायं तिलेण वा नव०प० वसाए वा अभंगेति वा मक्वेति वा नो पण्णास आव तहप्प० उच० नो ठा० (सू० ९४ ) से मिक्स् वा० से जं पुण-इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरीओ अन्नमन्त्रस्स गायं सिणाणेण का क० लु० चु०प० आपसंति वा पसंति वा उव्वलंति वा उबहिँति वा नो पन्नस्स० (सू० ९५) से मिक्खू० से जं पुण उवस्मयं जाणिज्जा, इह खलुगाहावती वा जाव कम्मकरी वा अण्णमण्णस्स गाय सीओदग० उसिणो पुच्छो० पहोयंति सिंचंति सिणावंति वा नो पन्नस्स जाव नो ठाणः ॥ (सू०९६) **%%*45523 wwwandltimaryam ~746~# Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१६] दीप अनुक्रम [ ४३० ] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ३७१ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [९६], निर्युक्तिः [३०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सुगर्म, नवरं यत्र प्रातिवेशिकाः प्रत्यहं कलहायमानास्तिष्ठन्ति तत्र स्वाध्यायाद्युपरोधान्न स्थेयमिति ॥ एवं तैलाद्यभ्यङ्गकल्का युद्धर्त्तनोदकप्रक्षालनसूत्रमपि नेयमिति ॥ किञ्च से भिक्खू वा० से जं० इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा निगिणा ठिया निगिणा उहीणा मेहुणधम्मं विन्नविति हस्तियं वा मंतं मंतंति नो पन्नस्स जाव तो ठाणं वा ३ चेइजा ॥ ( सू० ९७ ) यत्र प्रातिवेशिक खियः 'णिगिणाउ'त्ति मुक्तपरिधाना आसते, तथा 'उपलीनाः प्रच्छन्ना मैथुनधर्मविषयं किञ्चिद्रहस्यं रात्रिसम्भोगं परस्परं कथयन्ति, अपरं वा रहस्यमकार्य संबद्धं मन्त्रं मन्त्रन्यते, तथाभूते प्रतिश्रये नं स्थानादि विधेयं, यतस्तत्र स्वाध्यायक्षितिचित्तविनुत्यादयो दोषाः समुपजायन्त इति ॥ अपि च से भिक्खू वा से जं पुण उ० आइन्नसंलिक्वं नो पन्नस्स० || ( सू० ९८ ) कण्ठ्यं, नवरं, तत्रायं दोषः - चित्रभित्तिदर्शनात्स्वाध्यायक्षितिः, तथाविधचित्रस्थख्यादिदर्शनात्पूर्वक्रीडिताक्रीडितस्मरणकौतुकादिसम्भव इति ॥ साम्प्रतं फलहकादिसंस्तारकमधिकृत्याह Jan Estication anal से भिक्खू बा० अभिकंखिजा संथारगं एसित्तए, से जं० संथारगं जाणिज्जा सभंड जाव ससंताणयं, वहप्पगारं संथारं खाने संते नो पडि० १ ॥ से भिक्खू वा से जं० अप्पंडं जाव संताणगरुयं तहप्पगारं नो प० २ ॥ से भिक्खु बा० अप्पंडं उहुयं अपाडिहारियं तह० नोप० ३ ॥ से भिक्खू वा० अप्पंडं जाव अप्पसंताणगं उहुअं पाडिहारियं नो अहाव For Pantry O ~ 747 ~# श्रुतस्कं० २ चूलिका १ शय्यैष ०२ उद्देशः ३ ।। ३७१ ।। Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत [ ९९ ] दीप अनुक्रम [४३३] “आचार” - अंगसूत्र-१ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [९९], निर्युक्तिः [३०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः तहप्पगार लाभे संते नो पडिगाहिजा ४ || से मिक् २ से जं पुण संधारगं जाणिला अप्पडं जाव संताणगं लहुअं पाडिहारिअं अहाबद्धं, तहप्पगारं संधारगं लाभे संते पडिगाहिज्जा ५ ॥ ( सू० ९९ ) स भिक्षुर्यदि फलहकादिसंस्तारकमेषितुमभिकाङ्क्षयेत्, तच्चैवंभूतं जानीयात्, तद्यथा- प्रथमसूत्रे साण्डादित्वात्संयमविराधनादोषः १, द्वितीयसूत्रे गुरुत्वादुत्क्षेपणादावात्मविराधनादिदोषः २, तृतीयसूत्रेऽप्रतिहारकत्वात्तत्परित्यागादिदोषः ३, चतुर्थसूत्रे त्ववद्धत्वात्तद्बन्धनादिपलिमन्थदोषः ४, पञ्चमसूत्रे स्वल्पाण्डं यावदल्पसन्तानक लघुप्रातिहारिकावबद्धत्वात्सर्वदोषविप्रमुक्तत्वात्संस्तारको ग्राह्य इति सूत्रपञ्चकसमुदायार्थः ५ ॥ साम्प्रतं संस्तारकमुद्दिश्याभिग्रहविशेषानाह- इथेबाई आयतणाई उवाइकम अह भिक्खू जाणिजा इमाई चउहिं पडिमाहिं संधारगं एसित्तर, तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा से भिक्खु वा २ उदिसिय २ संधारगं जाइजा, तंजहा - इकडं वा कढिणं वा जंतुयं वा परगं वा मोरगं वा तणगं वा सोरगं वा कुरूं वा कुचगं वा पिप्पल वा पलालगं वा, पुन्वामेव आलोइज्जा आउसोति वा भ० दाहिसि मे इत्तो अन्नयरं संधारगं ? तह० संधारगं सयं वा णं जाइजा वा देजा फासूयं एसणिज्जं जान पडि०, पढमा पडिमा || (सू० १०० ) 'इत्येतानि' पूर्वोक्तानि 'आयतनादीनि दोषरहितस्थानानि वसतिगतानि संस्तारकगतानि च 'उपातिक्रम्य परिहृत्य क्ष्यमाणांश्च दोषान् परिहृत्य संस्तारको ग्राह्य इति दर्शयति- 'अर्थ' आनन्तर्ये स भावभिक्षुर्जानीयात् 'आभिः' करणभूताभिश्चतसृभिः 'प्रतिमाभिः' अभिग्रहविशेषभूताभिः संस्तारकमन्वेष्टुं ताश्चेमा:- उद्दिष्ट १ प्रेक्ष्य २ तस्यैव ३ Jain Estication Intel For Pantry Use Only ~748~# Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [ १०० ] दीप अनुक्रम [४३ ४] श्रीआचाराजवृत्तिः (शी०) ॥ ३७२ ॥ “आचार” - अंगसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [३] मूलं [ १०० ], निर्युक्तिः [३०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः १ ॐ यथासंस्तृत ४ रूपाः, तत्रोद्दिष्टा फलहकादीनामन्यतमहीष्यामि नेतरदिति प्रथमा १, यदेव प्रागुद्दिष्टं तदेव द्रक्ष्यामि ततो ग्रहीष्यामि नान्यदिति द्वितीया प्रतिमा २, तदपि यदि तस्यैव शय्यातरस्य गृहे भवति ततो ग्रहीष्यामि नान्यत आनीय तत्र शविष्य इति तृतीया ३ तदपि फलहकादिकं यदि यथासंस्तृतमेवास्ते ततो गृहीप्यामि नान्यथेति चतुर्थी प्रतिमा ४ । आसु च प्रतिमास्वाद्ययोः प्रतिमयोर्गच्छनिर्गतानामग्रहः, उत्तरयोरन्यतरस्यामभिग्रहः, गच्छान्तर्गतानां तु चतस्रोऽपि कल्पन्त इति एताश्च यथाक्रमं सूत्रैर्दर्शयति-तत्र खल्विमा प्रथमा प्रतिमा तद्यथा-उद्दिश्योद्दिश्येकडादीनामन्यतमग्रहीष्यामीत्येवं यस्याभिग्रहः सोऽपरलाभेऽपि न प्रतिगृह्णीयादिति शेषं कण्ठ्यं नवरं 'कठिनं वंशकटादि 'जन्तुकं' तृणविशेषोत्पन्नं 'परकं' येन तृणविशेषेण पुष्पाणि प्रथयन्ते 'मोरगं'ति मयूरपिच्छनिष्पन्नं 'कुचगं'ति येन कूर्चकाः क्रियन्ते, एते चैवंभूताः संस्तारका अनूपदेशे सार्द्रादिभूम्यन्तरणार्थमनुज्ञाता इति ॥ Estication Infamational अहावरा दुबा पडिमा से भिक्खू वा० पेहाए संधारगं जाइजा, तंजा हावई वा कम्मकरिं वा से पुब्वामेव आ लो आउ० ! भइ० ! दाहिसि मे ? जाव पडिगाहिज्जा दुच्चा पडिमा २ || अहावरा तथा पडिमा से भिक्खू वा जस्सुवस्सए संदसिज्जा जे तत्थ अहासमन्नागए, जहा — इकडे इ वा जाव पळाले इ वा तरस लाभे संबसिना तस्सालाभे नेसजिए वा विहरिया तथा पडिमा ३ || (सू० १०१ ) उक्कुदुए अत्रापि पूर्ववत्सर्वं भणनीयं, यदि परं तमिकडादिकं संस्तारकं दृष्ट्वा याचते नादृष्टमिति । एवं तृतीयाऽपि नेया, For Pantry at Use Only ~749 ~# श्रुतस्कं० २ चूलिका १ शय्यैप० २ उद्देशः ३ ॥ ३७२ ॥ Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [१०१], नियुक्ति: [३०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०१] दीप अनुक्रम [४३५] पाइयांस्तु विशेषः गच्छान्तर्गतो निर्गतो वा यदि वसतिदातैव संस्तारकं प्रयच्छति ततो गृह्णाति, तदभावे उत्कटुको वा| | निषण्णो वा पद्मासनादिना सर्वरात्रमारत इति । अहावरा चउत्था पडिमा-से निक्खू वा अहासंथडमेव संथारगं जाइजा, तंजहा-पुढविसिलं वा कट्ठसिलं वा अहासं थढमेव, तरस लाभे संते संबसिज्जा, तरस अलाभे उनाडुए वा २ विहरिजा, चउत्था पडिमा ४॥ (सू०१०२) एतदपि सुगम, केवलमस्यामयं विशेषः-यदि शिलादिसंस्तारकं यथासंस्तृतं शयनयोग्यं लभ्यते ततः शेते नान्यथेति ॥ किञ्च श्याणं चउण्हं पडिमाणं अन्नयरं पढिर्म पडिबजमाणे तं चेव जाव अन्नोऽन्नसमाहीए एवं च णं विहरति । (सू० १०३) आसां चतसृणां प्रतिमानामन्यतरां प्रतिपद्यमानोऽन्यमपरप्रतिमाप्रतिपन्नं साधुं न हीलये, यस्मात्ते सर्वेऽपि जिना॥ ज्ञामाश्रित्य समाधिना वर्तन्त इति ।। साम्प्रतं प्रातिहारकसंस्तारकपत्यर्पणे विधिमाह से भिक्खू वा० अमिकंखिजा संथारगं पञ्चप्पिणित्तए, से जं पुण संथारगं जाणिवा सअंडं जाव ससंताणयं तहण सं थारगं नो पञ्चप्पिणिज्जा ।। (सू० १०४) I स भिक्षुः प्रातिहारिक संस्तारक यदि प्रत्यर्पयितुमभिका देवंभूतं जानीयात् तद्यथा-गृहकोकिलकाधण्डकसंबद्धमप्रत्यु-18 पेक्षणयोग्यं ततो न प्रत्यर्पयेदिति ॥ किञ्चमा.सू. ६३ + wwwandltimaryam ~750~# Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [१०५], नियुक्ति: [३०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रुतस्कं०२ चूलिका १ सूत्रांक शय्यष०२ उद्देशः ३ [१०५]] दीप अनुक्रम [४३९] श्रीआचा- से भिक्खू० अभिकसिना सं० से जं० अल्पंहं० तहप्पगारं० संथारगं पडिले हिय २ ५०२ आयाधिय २ विहुणिय २ राङ्गवृत्तिः तओ संजयामेव पञ्चप्पिणिज्जा ॥ (सू०१०५) (शी०) सुगमम् । साम्प्रतं वसती वसतां विधिमधिकृत्याह से भिक्खू वा समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगार्म दूइज्जमाणे वा पुष्यामेव पन्नस्स उधारपासवणभूमि पडिलेहिज्जा, के॥ ३७३॥ बली बूया आयाणमेयं-अपडिलेहियाए उच्चारपासवणभूमीए, से भिक्खू वा० राओ वा बियाले था उच्चारपासवर्ण परिहवेमाणे पयलिज वा २, से तत्थ पवलमाणे वा २ हत्थं वा पायं वा जाव लूसेजा व पाणाणि वा ४ ववरोविजा, अह भिक्खू णं पु० जं पुवामेव पन्नस्स उ० भूमि पडिलेहिजा ।। (सू० १०६) || सुगम, नवरं साधूनां सामाचार्येषा, यदुत-विकाले प्रश्रवणादिभूमयः प्रत्युपेक्षणीया इति ॥ साम्प्रतं संस्तारक मिमधिकृत्याह से भिक्खू वा २ अभिकखिजा सिज्जासंथारगभूमि पडिलेहित्तए नन्नत्थ आयरिएण वा उ० जाव गणावच्छेएण वा बालेण वा युरेण वा सेहेण वा गिलाणेण वा आएसेण वा अंतेण वा मझेण वा समेण वा विसमेण वा पवारण वा निवाणए वा, तओ संजयामेव पडिलेहिय २ पमज्जिय २ तओ संजयामेव वहुफासुर्य सिज्जासंथारगं संथरिजा ।। (सू० १०७) ISI स भिक्षुराचार्योपाध्यायादिभिः स्वीकृतां भूमि मुक्त्वाऽन्यां स्वसंस्तरणाय प्रत्युपेक्षेत, शेष सुगम, नवरमादेशः प्राघूर्णक इति, तथाऽन्तेन येत्यादीनां पदानां तृतीया सप्तम्यर्थ इति ॥ इदानीं शयनविधिमधिकृत्याह wataneltmanam ~751~# Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१०८ ] दीप अनुक्रम [४४२] "आचार" अंगसूत्र - १ (मूलं निर्युक्तिः + वृत्तिः ) - श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित Jan Estication matinal www... अध्ययन [ २ ], उद्देशक [३] मूलं [१०८ ], निर्युक्तिः [ ३०४ ] आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र- [ ०१] “ आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः से भिक्खू वा० बहु० संघरिता अभिकंखिजा बहुफासुए सिज्जासंधारण दुरुहिताए । से भिक्खू० बहु० दुरूहमाणे पुन्वामेव सीसोरिय कार्य पाए पक्षिय २ तओ संजयामेव बहु० दुरुहिता तओ संजयामेव बहु० सइजा || (सू० १०८) से इत्यादि स्पष्टम् । इदानीं सुप्तविधिमधिकृत्याह सेभिक्खू वा० बहु० सयमाणे नो अन्नमन्नस्स हत्येण हत्थं पाएण पायं कारण कार्य आसाइजा, से अणासायमाणे तभ संजयामेव बहु० सइया ।। से भिक्खू वा उस्तासमाणे वा नीसासमाणे वा कासमाणे वा छीयमाणे वा जंभायमाणे वा उडो वा वायनस वा करेमाणे पुष्वामेव आसयं वा पोसयं वा पाणिणा परिपेहित्ता तओ संजयामेव ऊससिज्जा वा जाव वायसगं वा करेजा ।। (सू० १०९ ) निगदसिद्धम्, इयमत्र भावना-स्वपद्भिर्हस्त मात्र व्यवहितसंस्तारकैः स्वप्तव्यमिति ॥ एवं सुप्तस्य निःश्वसितादिविधिसूत्रमुत्तानार्थ, नवरम् ' आसयं वत्ति आस्यं 'पोसयं वा' इत्यधिष्ठानमिति । साम्प्रतं सामान्येन शय्यामङ्गीकृत्याह से भिक्खू वा० समा गया सिना भविजा विसमा वेगया सि० पवाया वे निवाया वे० ससरक्खा वे० अप्पससरक्खा वे० सद्समसगा वेगया अप्पदंसमसगा० सपरिसाडा वे० अपरिसाडा० सउवसग्गा वे० निरुवसग्गा वे० तहष्पगाराहिं सिनाहं संविजमाणाहिं परमहियतरागं विहारं विहरिजा तो किंचिवि गिलाइजा, एवं खलु० जं सव्वद्वेहिं सहिए सयाजएत्तिबेमि (सू० ११० ) २-१-२-२ ।। For Pantry Use Only अत्र यत् २-१-२-२ लिखितं, तत् मुद्रण दोषः | (यहाँ २/१/२/३ होना चाहिए, क्योंकि दूसरे श्रुतस्कंध की पहेली चुडा के दूसरे अध्ययन का ये तीसरा उद्देश समाप्त हुआ है। ~752~# Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [११०] दीप अनुक्रम [ ४४४ ] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ३७४ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [३] मूलं [ ११० ], निर्युक्तिः [३०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सुखोनेयं यावत्तथाप्रकारासु वसतिषु विद्यमानासु 'प्रगृहीततर' मिति यैव काचिद्विषमसमादिका वसतिः संपन्ना तामेव समचित्तोऽधिवसेत् न तत्र व्यलीकादिकं कुर्यात्, एतत्तस्य भिक्षोः सामग्र्यं यत्सर्वार्थैः सहितः सदा यतेतेति ॥ द्वितीयमध्ययनं शय्याख्यं समाप्तम् ॥ २-१-२-२ ॥ DIA उक्तं द्वितीयमध्ययनं साम्प्रतं तृतीयमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहायेऽध्ययने धर्मशरीरपरिपालनार्थं पिण्डः प्रतिपादितः स चावश्यमैहिकामुष्मिकापायरक्षणार्थं वसतौ भोक्तव्य इति द्वितीयेऽध्ययने वसतिः प्रतिपादिता, साम्प्रतं तयोरभ्वेषणार्थं गमनं विधेयं तच्च यदा यथा विधेयं यथा च न विधेयमित्येतत्प्रतिपाद्यम्, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्र निक्षेप निर्युक्तयनुगमे नामनिक्षेपणार्थ निर्युक्तिकृदाहनामं १ ठवणाइरिया २ दग्वे ३ खित्ते ४ यकाल ५ भावे ६ य । एसो खलु इरियाए निक्खेवो छब्विहो होइ ॥ ३०५ ॥ कण्ठ्यं । नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्येर्याप्रतिपादनार्थमाह दरियाओं तिविहा सचित्ताचित्तमीसमा चेव । खित्तंमि जंमि खित्ते काले कालो जहिं होइ ॥ ३०६ ॥ तत्र द्रव्ये सचित्ताचित्तमिश्रभेदात्रिविधा, ईरणमीर्या गमनमित्यर्थः, तत्र सचित्तस्य- वायुपुरुषादेर्द्रव्यस्य यज्ञमनं सा सचित्तद्रव्येर्या, एवं परमाण्वादिद्रव्यस्य गमनमचित्तद्रव्येर्या, तथा मिश्रद्रव्येर्या रथादिगमनमिति, क्षेत्रेर्या यस्मिन् क्षेत्रे गमनं क्रियते ईर्ष्या वा वर्ण्यते, एवं कालेर्याऽपि द्रष्टव्येति ॥ भावेर्याप्रतिपादनायाह Etication Intemational For Parts Only श्रुतस्कं०२ चूलिका ~753~# ॐ ई० ३ 2 उद्देशः १ ॥ ३७४ ॥ अत्र यत् २-१-२-२ लिखितं, तत् मुद्रण दोष:। (यहाँ २/१/२/३ होना चाहिए, क्योंकि दूसरे श्रुतस्कंध की पहेली चुडा के दूसरे अध्ययन का ये तीसरा उद्देश समाप्त हुआ है| अब यहाँ तीसरा अध्ययन आरम्भ हो रहा है। प्रथम चूलिकायाः तृतीय-अध्ययनं "ईर्या”, प्रथम उद्देशक: आरब्धः Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [११०...], नियुक्ति: [३०७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११०] दीप अनुक्रम भावहरियाओ दुविहा चरणरिया चेव संजमरिया य । समणस्स कहं गमणं निहोस होइ परिसुद्धं ? ॥ ३०७॥ | भावविपर्या द्विधा-चरणर्या संयमेर्या च, तत्र संयमेर्या सप्तदशविधसंयमानुष्ठान, यदिवाऽसइख्येयेषु संयमस्थाने वेकस्मात्संयमस्थानादपरं संयमस्थानं गच्छतः संयमेर्या भवति, चरणेर्या तु 'अभ्र वभ्र मन चर गत्यर्थाः' चरते वे ४ ल्युट् चरणं तद्रूपेर्या चरणे, चरणं गतिर्गमनमित्यर्थः, तच्च श्रमणस्य 'कथं' केन प्रकारेण भावरूपं गमनं निर्दोष भवति ? इति ॥ आह आलंबणे य काले मग्गे जयणाइ चेव परिसुद्धं । भंगेहिं सोलसविहं जं परिसुद्धं पसत्थं तु ॥ ३०८ ॥ 'आलम्बन' प्रवचनसद्धगच्छाचार्यादिप्रयोजनं 'कालः' साधूनां विहरणयोग्योऽवसरः 'मार्गः' जनैः पयां क्षुण्णः। पन्थाः 'यतना' उपयुक्तस्य युगमात्रदृष्टित्वं, तदेवमालम्बनकालमार्गयतनापदेरेकैकपदव्यभिचाराद् ये भङ्गास्तैः षोडशविधं गमनं भवति ।। तस्य च यत्परिशुद्धं तदेव प्रशस्तं भवतीति दर्शयितुमाह| चउकारणपरिसुद्धं अहवावि (हुहोज कारणजाए। आलंयणजयणाए काले मग्गे य जइयव्यं ॥ ३०९॥ चतुर्भिः कारणैः साधोर्गमनं परिशुद्धं भवति, तद्यथा-मालम्बनेन दिवा मार्गेण यतनया गछत इति, अथवाऽका-15 जालेऽपि ग्लानाद्यालम्बनेन यतनया गच्छतः शुद्धमेव गमनं भवति, एवंभूते च मार्गे साधुना यतितव्यमिति ॥ उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतमुद्देशार्थाधिकारमधिकृत्याह सब्वेवि ईरियविसोहिकारगा तहषि अधि उ विसेसो । उहेसे उसे बुच्छामि जहफार्म किंचि ॥ ३१ ॥ [४४४] wwwandltimaryam ~754~# Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [११०...], नियुक्ति: [३१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचा प्रत सूत्रांक राङ्गवृत्तिः (शी०) ३७ [११०] दीप अनुक्रम 'सर्वेऽपि' योऽपि यद्यपीर्याविशुद्धिकारकास्तथाऽपि प्रत्युद्देशकमस्ति विशेषः, तं च यथाक्रम किञ्चिद्वक्ष्याम इति ।। यथाप्रतिज्ञातमाह चूलिका १ पढमे उबागमण निग्गमो य अद्धाण नावजयणा य । विइए आरूढ छलणं जंघासंतार पुच्छा य ॥ ३११॥ इयेष०३ प्रथमोदेशके वर्षाकालादावुपागमनं-स्थान तथा निर्गमश्च शरत्कालादी यथा भवति तदत्र प्रतिपाद्यमध्वनि यतना|| उद्देशः १ चेति, द्वितीयोद्देशके नावादावारूढस्य छलन-प्रक्षेपणं व्यावयेते, जवासन्तारे च पानीये यतना, तथा नानाप्रकारे च प्रश्ने साधुना यद्विधेयमेतच प्रतिपाद्यमिति ॥ ML तइयमि अदायणया अप्पडिबंधो य होइ उबहिमि । वजेयम्वं च सया संसारियरायगिहगमणं ॥ ३१२॥ तृतीयोद्देशके यदि कश्चिदुदकादीनि पृच्छति, तस्य जानताऽप्यदर्शनता विधेयेत्ययमधिकारः, तथोपधावप्रतिबन्धो विधेयः, तदपहरणे च स्वजनराजगृहगमनं च वर्जनीयं, न च तेषामाख्येयमिति ॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणो-| पेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम् अभुषगए खलु वासावासे अभिपवुढे बहवे पाणा अभिसंभूया बहवे धीया अहुणाभिन्ना अंतरा से मग्गा बहुपाणा बहुबीया जाव ससंताणगा अणमिता पंथा नो विनाया मग्गा सेवं नच्चा नो गामाणुगानं दूइजिजा, तओ संजयामेव वासा ॥३७५॥ बासं उबल्लिइजा ।। (सू० १११) आभिमुख्येनोपगतासु वर्षासु अभिप्रवृष्टे च पयोमुचि, अत्र वर्षाकालवृष्टिभ्यां चत्वारो भङ्गाः, तत्र साधूनां सामा [४४४] wwwandltimaryam ~755~# Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [१११], नियुक्ति: [३१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१११] दीप चार्येवैपा, यदुत-निर्व्याघातेनाप्राप्त एवाषाढचतुर्मासके तृणफलकडगलकभस्ममात्रकादिपरिग्रहः, किमिति !, यतो जातायां वृष्टौ बहवः 'प्राणिनः' इन्द्रगोपकबीयावकगर्दभकादयः 'अभिसंभूताः' प्रादुर्भूताः, तथा बहूनि 'बीजानि' अभिनवाङ्क-18 रितानि, अन्तराले च मार्गास्तस्य-साधोर्गच्छतो बहुप्राणिनो बहुवीजा यावत्ससन्तानका अनभिकान्ताश्च पन्थानः, अत एव तृणाकुलत्वान्न विज्ञाताः मार्गाः, स-साधुरेवं ज्ञात्वा न ग्रामानामान्तरं यायात्, ततः संयत एव वर्षासु यथाऽवसरप्राप्तायां वसतावुपलीयेत-वर्षाकालं कुर्यादिति ॥ एतदपवादार्थमाह से भिक्खू वा० सेज गार्म वा जाव रावहाणि वा इमंसि खलु गामंसि वा जाव राय० नो महई विहारभूमी नो महई बियारभूमी नो सुलभे पीढफलगसिज्जासंथारगे नो सुलभे फासुए उंछे अहेसणिजे जत्थ बहवे समण वणीमगा उवागया उवागमिस्संति य अचाइना वित्ती नो पन्नरस निक्खमणे जाव चिंताए, सेवं ना तहप्पगार गार्म वा नगरं वा जाव रायहाणि वा नो वासावासं उबलिइजा ॥ से भि० से जं० गामं वा जाव राय० इमंसि खलु गामसि वा जाव महई विहारभूमी महई वियार० सुलभे जत्व पीढ ४ सुलमे फा० नो जत्थ बहवे समण उवागमिस्संति वा अप्पाइन्ना वित्ती जाब रायहाणि वा तओ संजयामेव वासावासं उवलिइजा ॥ (सू० ११२) स भिक्षुर्यत्पुनरेवं राजधान्यादिकं जानीयात् , तद्यथा-अस्मिन् ग्रामे यावद् राजधान्यां वा न विद्यते महती 'विहारभूमिः' स्वाध्यायभूमिः, तथा 'विचारभूमिः' बहिर्गमनभूमिः, तथा नैवात्र सुलभानि पीठफलहकशय्यासंस्तारकादीनि, तथा न सुलभः प्रासुकः पिण्डपातः, 'उंछेत्ति एषणीयः, एतदेव दर्शयति-'अहेसणीजे'त्ति यथाऽसावुलमादिदोषर अनुक्रम ACCORAKAR [४४५] wwwandltimaryam ~756~# Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [११२], नियुक्ति: [३१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचारामवृत्तिः (शी०) ॥ ३७६ ॥ श्रुतस्क०२ चूलिका १ ईयष० ३ उद्देशः १ सूत्रांक [११२] दीप अनुक्रम [४४६] हित एषणीयो भवति तथाभूतो दुर्लभ इति, यत्र च ग्रामनगरादौ बहवः श्रमणब्राह्मणकृपणवणीमगादय उपागता अपरे चोपागमिष्यन्ति, एवं च तत्रात्याकीणों वृत्तिः, वर्तन-वृत्तिः, सा च भिक्षाटनस्वाध्यायध्यानवहिर्गमनकार्येषु जनसङ्क- लत्वादाकीर्णा भवति, ततश्च न प्राज्ञस्य तत्र निष्क्रमणप्रवेशौ यावञ्चिन्तनादिकाः क्रिया निरुपद्रवाः संभवन्ति, स साधुरेवं ज्ञात्वा न तत्र वर्षाकालं विध्यादिति । एवं च व्यत्ययसूत्रमपि व्यत्ययेन नेयमिति ॥ साम्प्रतं गतेऽपि वर्षा- काले यदा यथा च गन्तव्यं तदधिकृत्याह अह पुणेवं जाणिजा-पत्तारि मासा वासावासाणं वीइकता हेमंताण य पंचदसरायकप्पे परिखुसिए, अंतरा से मग्गे बहुपाणा जाब ससंताणगा नो जत्य बहवे जाव उवागमिस्संति, सेवं नया नोगामागुगाम दूइजिजा ।। अह पुणेवं जाणिजा चत्तारि मासा कापे परिवुसिए, अंतरा से मग्गे अप्पंडा जाव ससंताणगा बह जत्थ समण उवागमिस्संति, सेवं नशा तओ संजयामेव० दूइजिज ॥ (सू० ११३) अधैवं जानीयाद् यथा चत्वारोऽपि मासाः प्रावृटकालसम्बन्धिनोऽतिक्रान्ताः, कार्तिकचातुर्मासिकमतिक्रान्तमित्यर्थः, तत्रोत्सर्गतो यदि न वृष्टिस्ततः प्रतिपद्येवान्यत्र गत्वा पारणकं विधेयम्, अथ वृष्टिस्ततो हेमन्तस्य पञ्चसु दशसु वा दिनेषु 'पर्युषितेषु' गतेषु गमनं विधेयं, तत्रापि यद्यन्तराले पन्थानः साण्डा यावत्ससन्तानका भवेयुर्न च तत्र बहवः श्रमणब्राहाणादयः समागताः समागमिष्यन्ति वा ततः समस्तमेव मार्गशिरं यावत्तत्रैव स्थेय, तत ऊ यथा तथाऽस्तु न स्थेयमिति । एवमेतद्विपर्ययसूत्रमयुक्तार्थम् ॥ इदानी मार्गयतनामधिकृत्याह ॥३७६॥ wwwandltimaryam ~757~# Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [११४], नियुक्ति: [३१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११४]] दीप अनुक्रम [४४८] से भिक्खू वा० गामाणुगार्म दूइजमाणे पुरओ जुगमायाए पेहमाणे वठ्ठण तसे पाणे उद्धट्ट पाद रीजा साहट्ट पार्य रीइजा वितिरिच्छ वा कटू पायं रीइजा, सइ परकमे संजयामेव परिकमिजा नो उजुर्व गरिछना, तओ संजयामेव गामाणुगाम दूजिजा ।। से भिक्खू वा० गामा० दूइज्जमाणे अंतरा से पाणाणि चा बी० हरि० उदए वा महिआ वा अविद्वत्थे सइ परकमे जाच नो उज्जुयं गच्छिज्जा, तओ संजया० गामा० दूइजिज्जा ।। (सू० ११४) स भिक्षुर्यावद् प्रामान्तरं गच्छन् 'पुरतः' अग्रतः 'युगमात्रं' चतुर्हस्तप्रमाणं शकटोर्द्धिसंस्थितं भूभागं पश्यन् गच्छेत् , तत्र च पथि दृष्ट्वा 'सान् प्राणिनः' पतङ्गादीन 'उद्धट्टत्ति पादमुवृत्त्याग्रतलेन पादपातप्रदेशं वाऽतिक्रम्य गच्छेत् , एवं | संहृत्य-शरीराभिमुखमाक्षिप्य पादं विवक्षितपादपातप्रदेशादारत एव विन्यस्य उत्क्षिप्य वाऽग्रभागं पार्णिकया गच्छेत् , है तथा तिरश्चीनं वा पादं कृत्वा गच्छेत् , अयं चान्यमार्गाभावे विधिः, सति स्वन्यस्मिन् पराक्रमे-मनमार्गे संयतः संस्तेनैव 'पराक्रमेत्' गच्छेत् न ऋजुनेत्येवं ग्रामान्तरं गच्छेत् सर्वोपसंहारोऽयमिति ॥ से इत्यादि, उत्तानार्थम् ॥ अपि च से भिक्खू वा० गामा० दूइज्जमाणे अंतरा से विरूवरूवाणि पचंतिगाणि दसुगाययाणि भिलक्खूणि अणायरियाणि दुसअप्पाणि दुप्पन्नवणिजाणि अकालपडिबोहीणि अकालपरिभोईणि सइ लाडे विहाराए संथरमाणेहिं जाणवएहिं नो विहाखडियाए पवजिजा गमणाए, केवली वूया आयाणमेचं, तेणं वाला अयं तेणे अयं उवचरए अयं ततो आगएत्तिकट्ट वं भिक्तुं अकोसिज वा जाव उहविज वा वत्थं प० के० पाय० अपिछदिन या भिंदिन वा अवहरिज वा परिढविज ***5*25*35*9005 walpatnamang ~758~# Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [११५], नियुक्ति: [३१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११५] दीप अनुक्रम [४४९] श्रीआचा- का, अह भिक्खूर्ण पु० जं तहप्पगाराई विरू० पचंतियाणि दस्सुगा० जाव विहारवत्तियाए नो पवजिज या गमणाप श्रुतस्कं०२ राङ्गवृत्तिः तो संजया गा० दू०॥ (सू०११५) चूलिका १ (शी०) स भिक्षामान्तर गच्छन् यत्पुनरेवं जानीयात् , तद्यथा-'अन्तरा' नामान्तराले 'विरूपरूपाणि' नानाप्रकाराणि || ईष० ३ Clप्रात्यन्तिकानि दस्यूना-चौराणामायतनानि-स्थानानि 'मिलक्खूणि त्ति बर्बरशबरपुलिन्द्रादिम्लेच्छप्रधानानि 'अना र्याणि' अर्द्धपड्रिंशजनपदबाह्यानि 'दुःसज्ञाप्यानि' दुःखेनार्यसञ्ज्ञा ज्ञाप्यन्ते, तथा 'दुष्प्रज्ञाप्यानि' दुःखेन धर्मसज्ञोपदेशेनानार्यसङ्कल्पान्निवय॑न्ते 'अकालप्रतिबोधीनि' न तेषां कश्चिदपर्यटनकालोऽस्ति, अर्द्धरात्रादावपि मृगयादौ गमन-| सम्भवात् , तथाऽकालभोजीन्यपीति, सत्यन्यस्मिन् ग्रामादिके विहारे विद्यमानेषु चान्येष्वार्यजनपदेषु न तेषु म्लेच्छ-14 स्थानेषु विहरिष्यामीति गमनं न प्रतिपद्येत, किमिति?, यतः केवली ब्रूयात्कोपादानमेतत् , संयमात्मविराधनातः, तत्रात्मविराधने संयमविराधनाऽपि संभवतीत्यात्मविराधनां दर्शयति-'ते' म्लेच्छाः ‘णम्' इति वाक्यालबारे एवमूचुः, तद्यथा--अयं स्तेनः, अयमुपचरका-चरोऽयं तस्मादस्मच्छत्रुग्रामादागत इतिकृत्वा वाचाऽऽकोशयेयुः, तथा दण्डेन ताडयेयुः। मायावजीवितायपरोपयेयुः, तथा वस्त्रादि 'आच्छिन्द्यु।' अपहरेयुः, ततस्तं साधु निर्धटयेयुरिति । अथ साधूनां पूर्वो पदिष्टमेतत्प्रतिज्ञादिकं यत्तथाभूतेषु म्लेच्छस्थानेषु गमनार्थं न प्रतिपद्यते, ततस्तानि परिहरन् संयत एवं ग्रामान्तरं गच्छेदिति ॥ तथा X ॥३७७॥ से भिक्खू० दूइजमाणे अंतरा से अरायाणि वा गणरायाणि वा जुवरायाणि वा दोरजाणि वा वेरजाणि वा विरुद्धरजाणि wataneltmanam ~759~# Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [११६], नियुक्ति: [३१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११६] दीप अनुक्रम वा सइ लादे विहाराए संथ० जण नो विहारवडियाए०, केवली चूया आयाणमेयं, तेणं बाला तं व जाव गमणाए तओ सं० गा० दू०॥ (सू० ११६) कण्य, नवरम् 'अराजानि' यत्र राजा मृतः 'युवराजानि' यत्र नाद्यापि राज्याभिषेको भवतीति ॥ किच से भिक्खू वा गा० दूहामाणे अंतरा से विहं सिया, से जं पुण विहं जाणिज्जा एगाहेण वा दुआहेण वा तिआहेण वा चउआहेण वा पंचाहेण वा पाउणिज वा नो पाणिज वा तहपगार विहं अणेगाहगमणिज सइ लाढे जाव गमणाए, केवली बूया आयाणमेयं, अंतरा से बासे सिया पाणेसु वा पणएसु वा बीएसु वा हरि० उद्० मट्टियाए वा अविद्वत्थाए, अह भिक्खू जं तह० अणेगाह० जाव नो पब०, तओ सं० गा० दू०॥ (सू० ११७) स भिक्षुामान्तरं गच्छन् यत्पुनरेवं जानीयात् 'अन्तरा' ग्रामान्तराले मम गच्छतः 'विहति अनेकाहगमनीयः पन्थाः 'स्यात्' भवेत् , तमेवंभूतमध्वानं ज्ञात्वा सत्यन्यस्मिन् विहारस्थाने न तत्र गमनाय मतिं विदध्यादिति, शेषं सुगम् ।। साम्प्रतं नौगमनविधिमधिकृत्याह से भि० गामा० दूइजिज्जा. अंतरा से नाबासंतारिमे उदए सिया, से जं पुण नावं जाणिजा असंजए अमिक्खुपडियाए किणित वा पामिचेज वा नावाए वा नावं परिणाम कट्ट थलाओ या नावं जलंसि ओगाहिया जलाओ या नावं थलंसि उक्तसिजा पुर्ण वा नावं उस्सिचिञा सन्नं वा नावं उप्पीलाविजा तहप्पगारं नावं उड़गामिणि वा अहे. [४५०] ~760~# Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [११८] दीप अनुक्रम [४५२] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ३७८ ॥ "आचार" अंगसूत्र - १ (मूलं निर्युक्तिः + वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [१] मूलं [१९८ ], निर्युक्तिः [ ३१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - गा० तिरियगामि० परं जोयणमेराए अद्धजोयणमेराए अप्पतरे वा भुज्जतरे वा नो दूरुहिज्जा गमणाए । से भिक्खू वा० पुण्यामेव तिरिच्छसंपादनं नावं जाणिज्ञा, जाणित्ता से तमायाए एतमवकमिज्जा २ भण्डगं पडिलेहिजा २ एमओ भोयणभंडगं करिजा २ ससीसोवरियं कार्य पाए पनिया सागारं भतं पञ्चवखाइजा, एगं पार्थ जले किया एवं पायं थले किया तो सं० नावं दूरुहिजा ।। ( सू० ११८ ) स भिक्षुर्ग्रामान्तराले यदि नौसंतार्यमुदकं जानीयात्, नावं चैवंभूतां विजानीयात्, तद्यथा - 'असंयतः ' गृहस्थो भिक्षुप्रतिज्ञया नावं क्रीणीयात् अन्यस्मादुच्छिन्नां वा गृह्णीयात् परिवर्तनां वा कुर्यात् एवं स्थलाद्यानयनादिक्रियोपेतां नावं ज्ञात्वा नारुहेदिति शेषं सुगमम् ॥ इदानीं कारणजाते नावारोहणविधिमाह — सुगमम् ॥ तथा 3 से भिक्खू बा० नावं दुरूहमाणे नो नावाओ पुरओ दुरूहिजा नो नावाओ मन्नाओ दुरूहिजा नो नावाओ मजाओ दुखहिजा नो बाहाओ परिज्झिय २ अंगुलियाए उद्दिसिय २ ओणमिय २ उन्नमिय २ निज्झाइज्जा से णं परो नावागओ नावागयं वइज्जा आउसंतो !- समणा एवं ता तुमं नावं उक्तसाहिज्जा वा बुक्कसाहि वा खिवाहि वा रज्जूवाए वा गहाय आकासाहि नो से तं परिनं परिजाणिवा, तुसिणीओ उवेहिज्जा से णं परो नावागओ नावाग० वइ० आउसं० नो संचाएसि तुमं नाव उक्कत्ति वा ३ रज्जूयाए वा गहाय आकसितए वा आहर एवं नावाए रज्जूयं सयं चेत्र णं वयं नावं उक्कसिस्सामो वा जाव रज्जूए वा गहाय आकसिस्सामो, नो से वं प० सुसि० । से णं प० आउसं० एवं ता तुमं नावं आलितेण वा पीढएण वा वंसेण वा वलएण वा अवलुरण वा बाहेहि नो से तं प० तुसि० से णं परो० एवं ता तुमं 1 Jan Estication matinal For Parts Onl ~761~# श्रुतस्कं० २ चूलिका १ ईष० २ उद्देशः १ ॥ ३७८ ॥ www.india.org Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [११९], नियुक्ति: [३१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [४५३] नावाए उदय हत्येण वा पाएण वा मत्तेण वा पढिमाहेण वा नावाउस्सिंचणेण वा उम्सिचाहि, नो से तं० सेणं परो० समणा! एवं तुर्म नावाए पत्सिग हत्येण वा पाएण वा बाहुणा वा करुणा वा उदरेण वा सीसेण वा कारण वा परिसंचणेण वा लेण वा मट्टियाए या कुसपत्तएण वा कुविंदरण वा पिहेहि, नो से तं० ॥ से भिक्खू वा २ नावाए उत्तिंगेण उदयं आसवमाणं पेहाए उवरुवरि नावं कालावेमाणि पेहाए नो परं उबसंकमित्तु एवं बूया-आउसंतो! गाहावइ एवं ते नावाए उदयं उत्तिगण आसबह उवरुवार नावा वा कजलावेइ, एयप्पगारं मणं वा वायं वा नो पुरो कट्ठ विहरिजा अपुस्मुए अपहिलेसे एगतगएण अप्पाणं विउसेज्जा समाहीए, तो सं० नावासंतारिमे व्यउदए आहारियं रीइजा, एवं खलु सया जइ जासि तिबेमि ॥ इरियाए पढमो उद्देसो (सू० ११९) २-१-३-१ ॥ स्पष्टं, नवरं नो नावोऽप्रभागमारुहेत् निर्यामकोपद्वसम्भवात् , नावारोहिणां वा पुरतो नारोहेत्, प्रवर्तनाधिकरणसम्भवात् , तत्रस्थश्च नौव्यापारं नापरेण चोदितः कुर्यात्, नाप्यन्य कारयेदिति । 'उत्तिगं'ति रन्ध्र 'कज्जलावेमाण'ति प्लाव्यमानम् 'अप्पुस्मए'त्ति अविमनस्कः शरीरोपकरणादौ मूर्छामकुर्वन् तस्मिंश्चोदके नावं गच्छन् 'अहारिय'मिति यथाऽऽयं भवति तथा गच्छेद्, विशिष्टाध्यवसायो यायादित्यर्थः, एतत्तस्य भिक्षोः सामग्र्यमिति ॥ तृतीयस्याध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः समाप्तः २-१-३-१॥ MESSAGESCRECTOR बा.सू.६४ NI wwRatnanag प्रथम चूलिकाया: तृतीय-अध्ययनं "ईर्या', द्वितीय-उद्देशक: आरब्ध: ~762~# Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [१२०], नियुक्ति: [३१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रुतस्कं०२ प्रत चूलिका १ सूत्रांक र्याध्य०३ उद्देशः २ [१२०]] दीप अनुक्रम [४५४] श्रीआचा- उक्तः प्रथमोद्देशकोऽधुना द्वितीयः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानम्तरोद्देशके नावि व्यवस्थितस्य विधि- रावृत्तिःरभिहितस्तदिहापि स एवाभिधीयते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम्(शी०) से णं परो गाया आउसंतो! समणा एवं ता तुमं छत्तर्ग वा जाव चम्मछेयणगं वा गिहाहि, एयाणि तुम विरूवरूवाणि सत्यजायाणि धारेहि, एवं ता तुमं दारगं वा पजेहि, नो से तं० ।। (सू० १२०) ॥३७९॥ | सः 'पर' गृहस्थादिर्नावि व्यवस्थितस्तत्स्थमेव साधुमेवं ब्रूयात्, तद्यथा-आयुष्मन् ! श्रमण ! एतन्मदीयं तावच्छ-1 त्रकादि गृहाण, तथैतानि 'शखजातानि' आयुधविशेषान् धारय, तथा दारकाद्युदर्क पायय, इत्येतां 'परिज्ञां' पार्थनां | परस्य न शृणुयादिति ॥ तदकरणे च परः प्रद्विष्टः सन् यदि नावः प्रक्षिपेत्तत्र यक्कतेंव्यं तदाह से गं परो मावागए मावागवं वरना आउसंतो! एस णं समणे नावाए भंडभारिए भवइ, से णं बाहाए गहाय ना. वाओ उदगंसि पक्खिविना, एयप्पगारं निग्धोसं सुच्चा निसम्म से 2 चीवरधारी सिया सिप्पामेव चीवराणि उज्वेटिन वा निवेढिज वा उप्फेस वा करिजा, अह० अमिकतकूरकम्मा खलु बाला वाहाहिं गहाय ना० पक्विविजा से पुच्चामेव वजा-आउसंतो! गाहावई मा मेत्तो बाहाए गहाय नावाओ उदगंसि पक्खिवह, सयं चेव णे अहं गावामी उदगंसि ओगाहिस्सामि, से णेवं वयंत परो सहसा बलसा बाहाहिं ग० पक्खिविज्जा तं नो सुमणे सिया नो दुम्मणे सिया नो उचावयं मणं नियंछिजा नो तेसिं वालाणं धायाए वहाए समुडिजा, अप्पुस्सुए जाब समाहीए तो सं० उदगंसि पविज्ञा ॥ (सू० १२१) ESCष्ट्र ॥३७९॥ wataneltmanam ~763~# Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [१२१], नियुक्ति: [३१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२१] दीप अनुक्रम स परः 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे नौगतस्तत्स्थं साधुमुद्दिश्यापरमेवं ब्रूयात् , तद्यथा-आयुष्मन् ! अयमत्र श्रमणो भाण्डवनिश्चेष्टत्वाद् गुरुः भाण्डेन बोपकरणेन गुरुः, तदेनं च बाहुयाहं नाव उदके प्रक्षिपत यूयमित्येवंप्रकारं शब्दं श्रुत्वा तथाऽन्यतो वा कुतश्चित् 'निशम्य' अवगम्य 'सः' साधुर्गच्छगतो निर्गतो वा तेन च चीवरधारिणैतविधेय-क्षिप्रमेव चीवराण्यसाराणि गुरुत्वान्निवाहितुमशक्यानि च 'उद्वेष्टयेत्' पृथक् कुर्यात्, तद्विपरीतानि तु 'निर्वेष्टयेत्' सुवद्धानि कु-18 र्यात् , तथा 'उप्फेसं वा कुजत्ति शिरोवेष्टनं वा कुर्याद् येन संवृतोपकरणो निर्व्याकुलत्वात्सुखेनैव जलं तरति, तांश्च | |धर्मदेशनयाऽनुकूलयेत्, अथ पुनरेवं जानीयादित्यादि कण्ठ्यमिति ॥ साम्प्रतमुदकं प्लवमानस्य विधिमाह से मिक्खू वा० उदगंसि पवमाणे नो हत्थेण ह्त्वं पाएण पायं काएण कार्य आसाइजा, से अणासायणाए अणासायमाणे सओ सं० उदगंसि पविजा ।। से मिक्खू वा० उद्गंसि पवमाणे नो उम्मुग्गनिमुग्गियं करिजा, मामेयं उदगं कन्ने वा अच्छीमु वा नकसि वा मुहंसि वा परियावजिजा, तओ० संजयामेव उद्गंसि पविजा ॥ से भिक्खू वा उदगंसि पवमाणे दुबलियं पाउणिज्जा खिप्पामेव उवहिं विगिंचिज वा विसोहिज वा, नो चेव णं साइजिजा, अह पु० पारण सिचा उद्गाओ तीरं पाउणित्तए, तओ संजयामेव उदउल्लेण वा ससिणद्वेण वा कारण उदगतीरे चिडिजा ॥ से भिक्खु वा० उदउहा वा २ कार्य नो आमजिजा वा णो पमजिजा वा संलि हिजा वा निलिहिना वा उब्वालिज्जा वा उव्वट्टिजा वा 'आयाविज वा पया०, अह पु० विगओदओ मे काए छिन्नसिणेहे काए तहप्पगारं कार्य आमजिज वा पयाविज वा तओ सं० गामा० दूइजिज्जा ।। (सू० १२२) [४५५] CCC wwwandltimaryam ~764~# Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [१२२], नियुक्ति: [३१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचारावृत्तिः (शी०) सूत्रांक [१२२] ॥ ३८॥ दीप स भिक्षुरुदके प्लवमानो हस्तादिकं हस्तादिना 'नासादयेत्' न संस्पृशेद् , अकायादिसंरक्षणार्थमिति भावः, ततस्तथा तस्कर कुर्वन् संयत एवोदकं प्लवेदिति ॥ तथा-स भिक्षुरुदके प्लवमानो मज्जनोन्मज्जने नो विदध्यादिति (शेष ) सुगममिति चलिका |किञ्च स भिक्षुरुदके प्लवमानः 'दौर्बल्यं श्रमं प्रामुयात् ततः क्षिप्रमेवोपधिं त्यजेत् तद्देशं वा विशोधयेत्-त्यजेदिति, नैवोप- योजन धावासक्तो भवेत् । अथ पुनरेवं जानीयात् 'पारए सित्ति समर्थोऽहमस्मि सोपधिरेवोदकपारगमनाय ततस्तसमावुद-IIFIRS कादुत्तीर्णः सन् संयत एवोदकाइँण गलद्विन्दुना कायेन सस्निग्धेन वोदकतीरे तिष्ठेत्, तत्र चेयोपथिकां च प्रतिकामेत् ॥ न चैतत्कुर्यादित्याह-स्पष्ट, नवरमत्रेयं सामाचारी-यदुदका वस्त्रं तत्स्वत एव यावन्निष्पगलं भवति | तावदुदकतीर एव स्थेयम् , अथ चीरादिभयागमनं स्यात्ततः प्रलम्बमानं कायेनास्पृशता नेयमिति ॥ तथा से भिक्खू वा गामाणुगामं दूइजमाणे नो परेहिं सद्धिं परिजविय २ गामा० दूइ०, तओ० सं० गामा० दूइ०॥(सू०१२३) कण्ठयं, नवरं 'परिजवियर'त्ति परैः सार्द्ध भृशमुल्लापं कुर्वन्न गच्छेदिति ॥ इदानीं जङ्गासंतरणविधिमाह से मिक्खू वा गामा० दू० अंतरा से जंघासंतारिमे उद्गे सिया, से पुवामेव ससीसोपरियं कार्य पाए य पमजिला २ एगं पायं जले किचा एनं पायं थले किवा तओ सं० उदगंसि आहारियं रीएजा ॥ से मि० आहारियं रीयमाणे नो हत्येण हत्यं जाव अणासाथमाणे तओ संजयामेव जंघासंतारिने उदए अहारियं रीएजा ।। से भिक्खू पा० जंघासंतारिमे उदए अहारिय रीयमाणे नो सायावठियाए नो परिदाहपडियाए महामहालयसि उदयसि कार्य विलसिज्जा, सओ संजयामेव ॥ ३८०॥ जंघासंतारिमे उदए अहारिय रीएज्जा, अह पुण एवं जाणिज्दा पारए सिया उद्गाओ तीरं पाउणिचए, तो संजयामेव अनुक्रम [४५६] wataneltmanam ~765~# Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [१२४], नियुक्ति: [३१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२४] दीप अनुक्रम [४५८] उदउल्लेग वा २ कारण दगतीरए चिद्विज्जा ॥ से भि० उखल्लं वा कार्य ससिक कार्य नो आमजिज वा नो० अह पु० विगोदए मे काए छिन्नसिणेहे तहप्पगारं कार्य आमजिज बा० पयाविज वा तओ सं०गामा० दूइ०॥ (सू० १२४) 'तस्य' भिक्षोामान्तरं गच्छतो यदा अन्तराले जानुदनादिकमुदकं स्यात्तत ऊवेकायं मुखवखिकया अध:कार्य च रजोहरणेन प्रज्योदकं प्रविशेत् , प्रविष्टश्च पादमेकं जले कृत्वाऽपरमुत्क्षिपन् गच्छेत्, न जलमालोडयता गन्तव्यमित्यर्थः, 'अहारियं रीएजत्ति यथा ऋजु भवति तथा गच्छेन्नार्दवितर्दै विकारं वा कुर्वन् गच्छेदिति ॥ स भिक्षुर्यथाऽऽर्यमेव गच्छन् महत्युदके महाश्रये वक्षःस्थलादिप्रमाणे जङ्घातरणीये नदीहूदादौ पूर्वविधिनैव कार्य प्रवेशयेत्, प्रविष्टश्च यधुपकरण निर्वाहयितुमसमर्थस्ततः सर्वमसारं वा परित्यजेत् , अथैवं जानीयाच्छक्तोऽहं पारगमनाय ततस्तथाभूत एव | गच्छेत् , उत्तीर्णश्च कायोत्सर्गादि पूर्ववत्कुर्यादिति ॥ आमर्जनप्रमार्जनादिसूत्र पूर्ववन्नेयमिति ॥ साम्प्रतमुदकोत्तीर्णस्य | गमनविधिमाह से भिक्खू वा० गामा दूइजमाणे नो मट्टियागएहि पाएहिं हरियाणि लिंदिय २ विकुजिय २ विफालिय २ उम्मग्गेण हरियवहार गरिछज्जा, जमेयं पापहिं मट्टियं खिप्पामेव हरियाणि अवहरंतु, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करिजा, से पुवामेव अप्पहरियं मर्ग पडिलहिज्जा तओ० सं० गामा० ॥ से भिक्खू वा २ गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से वप्पाणि वा फ० पा० तो० अ० अग्गलपासगाणि वा गडाओ वा दरीओ वा सइ परकमे संजयामेव परिकामिजा नो उज्जु०, फेवली, से तत्व परकममाणे पयलिज्ज वा २, से तत्थ पयलमाणे वा २ रुक्खाणि वा गुच्छाणि वा गुम्माणि वा लयाओ वा वाल्लीओ ~766~# Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [१२५], नियुक्ति: [३१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक उद्देशः २ [१२५] दीप अनुक्रम [४५९] श्रीआचा वा तणाणि वा गहणाणि वा हरियाणि वा अवलंबिय २ उत्तरिजा, जे तत्थ पाढिपहिया उवागफछति ते पाणी जाइजा २, श्रुतस्कं०२ राङ्गवृत्तिः तो सं०अवलंबिय २ उत्तरिजा तओ स० गामा० दू० ॥ से भिक्खू वा० गा. दूइनमाणे अंतरा से जवसाणि वा चूलिका १ (शी०) सगडाणि वा रहाणि वा सचकाणि चा परचकाणि वा से णं वा विरूवरूवं संनिरुद्धं पेहाए सइ परफमे सं० नो उ०, से ईर्याध्य०३ णं परो सेणागओ वइजा आउसंतो! एस णं समणे सेणाए अभिनिवारियं करेइ, से णं वाहाए गहाय आगसह, से णं परो । बाहाहिं गहाय आगसिजा, तं नो सुमणे सिया जाव समाहीए तओ सं० गामा० दू०॥ (सू० १२५) स भिक्षुरुदकादुत्तीर्णः सन् कर्दमाबिलपादः सन्(नो)हरितानि भृशं छित्त्वा तथा विकुब्जानि कृत्वा एवं भृशं पाटयित्वोन्मार्गेण हरितवधाय गच्छेद्-यथैना पादमृत्तिका हरितान्यपनयेयुरित्येवं मातृस्थानं संस्पृशेत्, न चैतत्कुर्याच्छेष सुगममिति ॥स भिक्षुर्यामान्तराले यदि वनादिकं पश्येत्ततः सत्यन्यस्मिन् सङ्कमे तेन ऋजुना पथा न गच्छेद्, यतस्तत्र गतॊदौ निपतन् सचित्तं वृक्षादिकमवलम्बेत, तच्चायुक्तम् , अथ कारणिकस्तेनैव गच्छेत् , कथश्चित्पतितश्च गच्छगतो वयादितकमायवलम्ब्य प्रातिपथिकं हस्तं वा याचित्वा संयत एवं गच्छेदिति । किञ्च-स भिक्षुर्यदि ग्रामान्तराले 'यवस' गोधूमा दिधान्यं शकटस्कन्धावारनिवेशादिकं वा भवेत् तत्र बहुपायसम्भवात्तन्मध्येन सत्यपरस्मिन् पराक्रमे न गच्छेत्, शेष है। सुगममिति ॥ तथा W ॥३८१॥ से मिक्खू बा० गामा० दूइज्जमाणे अंतरा से पाडिबहिया उचागच्छिज्जा, ते णं पाडिवहिया एवं वइजा-आउ० समणा! केवइए एस गामे वा जाव रायहाणी वा केवईया इत्थ आसा हत्थी गामपिंडोलगा मणुस्सा परिवसंति ! से बहुभसे Swatantram.org ~767~# Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [१२६], नियुक्ति: [३१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक बहुउदए बहुजणे बहुजवसे से अप्पभत्ते अप्पुदए अप्पजणे अप्पजवसे ?, एयप्पगाराणि पसिणाणि पुच्छिजा, पवपक पुट्ठो वा अपुट्ठो वा नो वागरिजा, एवं खलु० जं सबटेहिं० ।। (सू० १२६) ॥२-१-३-२ 'से' तस्य भिक्षोरपान्तराले गच्छतः 'प्रातिपथिकाः' संमुखाः पथिका भवेयुः, ते चैवं वदेयुर्यथाऽऽयुष्मन् ! श्रमण ! किम्भूतोऽयं प्रामः ? इत्यादि पृष्टो न तेषामाचक्षीत, नापि तान् पृच्छेदिति पिण्डार्थः, एतत्तस्य भिक्षोः सामग्र्यमिति ॥ 8 तृतीयस्याध्ययनस्य द्वितीयः ॥२-१-३-२ [१२६] दीप अनुक्रम [४६०] OTOS उक्को द्वितीयोद्देशकः साम्प्रतं तृतीयः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरं गमनविधिः प्रतिपादितः, इहापि स एव प्रतिपाद्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम् से भिक्खू वा गामा दूइजमाणे अंतरा से वष्पाणि वा जाच दरीओ वा जाव कूडागाराणि वा पासायाणि वा नूमगिहाणि वा रुखगिहाणि वा पव्वंयगि रुक्सं वा चेइयकई थूभं वा चेयकई आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा नो बाहामो पगिजिाय २ अंगुलिआए उद्दिसिय २ ओगमिय २ उन्नमिय २ निझाइजा, तओ सं० गामा० ॥ से मिक्सू बा० गामा० दू० माणे अंतरा से कच्छाणि वा दवियाणि वा नूमाणि वा वलयाणि वा गहणाणि वा गहणविदुगाणि वणाणि वा वणवि० पन्चयाणि वा पचयवि० अगडाणि वा तलागाणि वा दहाणि वा नईओ या बाबीभो वा wwwandltimaryam प्रथम चूलिकाया: तृतीय-अध्ययनं "ईर्या', तृतीय-उद्देशक: आरब्धः ~768~# Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१२७] दीप अनुक्रम [४६१] श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ३८२ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [३], मूलं [१२७], निर्युक्तिः [३१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः क्खरिणीओ वा दीहियाओ वा गुंजालियाओ वा सराणि वा सरपंतियाणि वा सरसरपंतियाणि वा नो बाहाओ पगिप्रिय २ जाव निज्झाइना, केवली०, जे तत्थ मिगा वापसू वा पंखी वा सरीसिवा वा सीहा वा जलचरा वा थलचरा वा सहचरा वा सत्ता ते उत्तसिज्ज वा वित्तसिज्ज वा वार्ड वा सरणं वा कंखिज्जा, चारिति मे अयं समणे, अह भिक्खू णं पु० जंनो बाहाओ गिझिय २ निच्झाइबा, तओ संजयामेव आयरिउवज्झाएहिं सद्धिं गामाणुगामं दूइजिज्जा ।। (सू०१२७) स भिक्षुग्रमाड्रामान्तरं गच्छन् यद्यन्तराले एतत्पश्येत्, तद्यथा परिखाः प्राकारान् 'कूटागारान्' पर्वतोपरि गृहाणि, 'नूमगृहाणि' भूमीगृहाणि, वृक्षप्रधानानि तदुपरि वा गृहाणि वृक्षगृहाणि, पर्वतगृहाणि - पर्वतगुहाः, 'रुक्खं वा | चेइअकर्डति वृक्षस्याधो व्यन्तरादिस्थलकं 'स्तूपं वा व्यन्तरादिकृतं तदेवमादिकं साधुना भृशं बाहुं 'प्रगृह्य' उत्क्षिप्य तथाऽङ्गुलीः प्रसार्य तथा कायभवनम्योन्नम्य वा न दर्शनीयं नाप्यवलोकनीयं दोषाश्चात्र दग्धमुपितादौ साधुराशचेताजितेन्द्रियो वा संभाव्येत तत्स्थः पक्षिगणो वा संत्रासं गच्छेत्, एतद्दोषभयात्संयत एव 'दूयेत्' गच्छेदिति ॥ तथास भिक्षुर्ग्रामान्तरं गच्छेत्, तस्य च गच्छतो यद्येतानि भवेयुः, तद्यथा - 'कच्छा:' नद्यासन्ननिम्नप्रदेशा मूलकवालुङ्कादिवाटिका वा 'दवियाणि'त्ति अटव्यां घासार्थं राजकुलावरुद्धभूमयः 'निम्नानि' गर्त्तादीनि 'वलयानि' नद्यादिवेष्टितभूमिभागाः 'गहनं' निर्जलप्रदेशोऽरण्यक्षेत्रं वा 'गुञ्जालिकाः' दीर्घा गम्भीराः कुटिलाः श्लक्ष्णाः जलाशयाः 'सरःपक्कयः' प्रतीताः 'सरःसरःपङ्कयः' परस्परसंउग्नानि बहूनि सरांसीति, एवमादीनि बाह्रादिना न प्रदर्शयेद् अवलोकयेद्वा, यतः ॥ १८२ ॥ केवली ब्रूयात्कर्मोपादानमेतत् किमिति १, यतो ये तत्स्थाः पक्षिमृगसरीसृपादयस्ते त्रासं गच्छेयुः, तदावासितानां वा Jan Estication Intimatinal For Parts Only | श्रुतस्कं० २ चूलिका १ ईर्याध्य०३ उद्देशः ३ ~769 ~# www.indiary.org Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [१२७], नियुक्ति: [३१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७] दीप अनुक्रम [४६१] साधुविषयाऽऽशङ्का समुत्सद्येत, अथ साधूनां पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतिज्ञादिकं यत्तथा न कुर्यात्, आचार्योपाध्यायादिभिश्च गीतार्थैः सह विहरेदिति ॥ साम्प्रतमाचार्यादिना सह गच्छतः साधोर्विधिमाह से भिक्खू वा २ आयरिउवमा० गामा० नो आयरिबउवझायरस हत्येण वा हत्थं जाव अणासायमाणे तो संजयामेव आयरिउ सद्धि जाप दूइजिना ॥ से मिक्खू वा आय० सद्धिं दूइजमाणे अंतरा से पारिवाहिया उपागच्छिज्जा, ते णं पा० एवं वइमा-आउसंतो! समणा! के तुम्भे ? कओ वा एह ! कहिं वा गच्छिहिह', जे तस्थ आयरिए या उवज्झाए वा से भासिज वा वियागरिज वा, आयरिउवज्झायस्स भासमाणस्स वा वियागरेमाणरस वा नो अंतरा भासं करिजा, तओ० सं० अहाराईणिए वा० दूइजिज्जा ।। से भिक्खू वा अहाराइणियं गामा० दू० नो राईणियस्स हत्येण हत्यं जाव अणासायमाणे तओ सं० अहाराणियं गामा० दू० ॥ से मिक्खू वा २ अहाराइणिों गामाणुगाम दूइज्जमाणे अंतरा से पाडिवाहिया उवागच्छिना, ते णं पाडिपहिया एवं वइजा-आउसंतो! सभणा! के तुन्भे, जे तस्थ सम्पराइणिए से भासिज्ज वा वागरिज वा, राइणियस्स भासमाणस्स वा वियागरेमाणस्स वा नो अंतरा भासं भासिजा, तओ संजयामेव अहाराइणियाए गामाणुगामं दूइजिज्जा ।। (सू० १२८) स भिक्षुराचार्यादिभिः सह गच्छंस्तावन्मात्रायां भूमौ स्थितो गच्छेद् यथा हस्तादिसंस्पर्शो न भवतीति ॥ तथातास भिक्षुराचार्यादिभिः सार्द्ध गच्छन् प्रातिपथिकेन पृष्टः सन् आचार्यादीनतिक्रम्य नोत्तरं दद्यात्, नाष्याचार्यादी जल्पत्यन्तरभाषां कुर्यात्, गच्छंश्च संयत एव युगमात्रया दृष्ट्या यथारलाधिकं गच्छेदिति तात्सयार्थः ॥ एवमुत्तरसू 162 ~770~# Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१२८ ] दीप अनुक्रम [6] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ १८३ ॥ "आचार" अंगसूत्र - १ (मूलं निर्युक्तिः + वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [३] मूलं [१२८ ], निर्युक्तिः [ ३१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - त्रद्वयमप्याचार्योपाध्यायैरिवा परेणापि रलाधिकेन साधुना सह गच्छता हस्तादिसङ्घट्टोऽन्तरभाषा च वर्जनीयेति द्रष्टव्यमिति । किच से भिक्खु बा० दूइजमाणे अंतरा से पाडिवहिया उवागच्छिजा, ते णं पा० एवं बदला - आउ० स० ! अविवाई इत्तो पडिवहे पासह, सं० मणुरसं वा गोणं वा महिसं वा पसुं वा पक्खि वा सिरीसिवं वा जलबरं वा से आइक्खह इंसेह, तं नो आइक्खिज्जा नो दंसिज्जा, नो तस्स तं परिनं परिजाणिज्जा, तुसिणीए उवेहिज्जा, जाणं वा नो जाणंति व इज्जा, तओ सं० गामा० दू० ॥ से भिक्खू वा० गा० दू० अंतरा से पाडि० उवा०, ते णं पा० एवं वइजा आउ० स० ! अवियाई इत्तो पडिवहे पासह उदगपसूयाणि कंदाणि वा मूलाणि वा तथा पत्ता पुण्फा फला बीया हरिया उदगं वा संनिहियं अगणि या संनिखित्तं से आइक्खह जाव दूइज्जिज्जा | से भिक्खु वा० गामा० दूइजमाणे अंतरा से पाडि० उचा०, ते णं पाडि० एवं आउ० स० अवियाई इत्तो पढिबहे पासह जवसाणि वा जाव से णं वा विरूवरूवं संनिवि से आइक्लह जाब दूइजिना | से भिक्खु वा० गामा० दूइजमाणे अंतरा पा० जाब आउ० स० केवइए इतो गामे वा जाव रायहाणि वा से आइक्खह जाव दूइजिज्जा ॥ से भिक्खु वा २ गामाणुगामं दूइजेना, अंतरा से पाडिपहिया आउसंतो समणा ! केवइए इत्तो गामस्स नगरस्स वा जाब रायहाणीए वा मग्गे से आइक्खह, तहेब जाव दूइजिया || (सू० १२९) 'से' तस्य भिक्षोर्गच्छतः प्रातिपथिकः कश्चित्संमुखीन एतद्भूयात्, तद्यथा - आयुष्मन् ! श्रमण ! अपिच किं भवता पथ्यागच्छता कश्चिन्मनुष्यादिरुपलब्धः तं चैवं पृच्छन्तं तूष्णीभावेनोपेक्षेत, यदिवा जानन्नपि नाहं जानामीत्येवं Jan Estication Ital For Parts Onl ~ 771 ~# श्रुतस्कं० २ चूलिका १ ईर्याध्य०३ उद्देशः ३ ॥ ३८३ ॥ Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१२९] दीप अनुक्रम [ ४६३ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [३] मूलं [ १२९], निर्युक्तिः [३१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | वदेदिति ॥ अपि च-स भिक्षुर्ग्रामान्तरं गच्छन् केनचित्संमुखीनेन प्रातिपथिकेन पृष्टः सन् उदकप्रसूतं कन्दमूलादि नैवाचक्षीत, जानन्नपि नैव जानामीति वा ब्रूयादिति ॥ एवं यवसासनादिसूत्रमपि नेयमिति ॥ तथा कियद्दूरे ग्रामादिप्रश्नसूत्रमपि नेयमिति ॥ एवं कियान् पन्था ? इत्येतदपीति । किच से भिक्खू० गा० दू० अंतरा से गोणं वियालं पडिव पेहाए जान चित्तचिह्न विवालं प० पेहाए नो तेर्सि भीओ उस्मग्गेणं गच्छिना नो मग्गाओ उम्मग्गं संकमिजा नो गहणं वा वणं वा दुग्गं वा अणुपविसिज्जा तो रुक्खसि दूरुहिज्जा नो महइमहालयंसि उदयंसि कार्य विउसिया नो वाढं वा सरणं वा सेणं वा सत्यं वा कंखिज्जा अप्पुस्सुए जाव सभाहीए तओ संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जिज्जा ।। से निक्खु गामाणुगामं दूइजमाणे अंतरा से विहं सिया से जं पुण विहं आणिजा इमंसि खलु विहंसि बहवे आमोसगा उवगरणपडियाए संपिंडिया गच्छिना, नो तेसिं भीओ उम्मग्गेण गच्छना जाव समाहीए तो संजयामेव गामाणुगामं दूइजेना ॥ ( सू० १३०) स भिक्षुर्घामान्तरं गच्छन् यद्यन्तराले "गां' वृषभं 'व्याल' दर्पितं प्रतिषधे पश्येत्, तथा सिंहं व्याघ्रं यावश्चित्रकं तदपत्यं वा व्यालं क्रूरं दृष्ट्वा च तद्भयान्नैवोन्मार्गेण गच्छेत् न च गहनादिकमनुप्रविशेत्, नापि वृक्षादिकमारोहेत्, न चोदकं प्रविशेत्, नापि शरणमभिकाङ्गेत्, अपि स्वल्पोत्सुकोऽविमनस्कः संयत एव गच्छेत्, एतच्च गच्छनिर्गतैर्विधेयं गच्छान्तर्ग| तास्तु व्यालादिकं परिहरत्यपीति । किच- 'से' तस्य भिक्षोर्ग्रामान्तराले गच्छतः 'विहं'ति अटवीप्रायो दीर्घोऽध्वा भवेत्, तत्र च 'आमोषकाः' रसेनाः 'उपकरणप्रतिज्ञया' उपकरणार्थिनः समागच्छेयुः, न तमयादुन्मार्गगमनादि कुर्यादिति ॥ Jan Estucation Inmatnl For Parts Only ~772~# Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [१३१], नियुक्ति: [३१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचारावृत्तिः (शी०) सूत्रांक [१३१] ॥३८४॥ *CROCRAC से मिक्खू वा० गा० दू० अंतरा से आमोसगा संपिंडिया गच्छिज्जा, ते ण आ० एवं वइजा--आउ० स०! आहर श्रुतस्क०२ एवं वत्थं वा ४ देहि निखिवाहि, तं नो दिजा निक्खिविजा, नो बंदिय २ जाइजा, नो अंजलि कटु जाइजा, नो कलु चूलिका १ अपढियाए जाइजा, धम्मियाए जायणाए जाइजा, तुसिणीयभावेण वा ते णं आमोसगा सर्य करणितिकट्ठ अकोसंति ईयाध्य०३ वा जाव उद्दर्विति वा बत्थं वा ४ अछिदिज वा जाव परिहविज वा, तं नो गामसंसारियं कुज्जा, नो रायसंसारियं उद्देशः ३ कुज्जा, नो परं वसंकमितु बूया-आउसंतो! गाहावई पए खलु आमोसगा उवगरणपडियाए सर्वकरणिजंतिकट्ट अकोसंति वा जाप परिट्ठति वा, एयप्पगारं मणं वा वायं वा नो पुरओ कट्ठ विहरिजा, अप्पुस्मए जाव समाहीए तओ संज यामेव गामा० दूद ॥ एयं खलु० सया जइ० (सू० १३१) त्तिबेमि ॥ समाप्तमीर्याख्यं तृतीयमध्ययनम् ॥२-१-३-३ स भिक्षुर्नामान्तरे गच्छन् यदि स्तेनैरुपकरणं याच्येत तत्तेषां न समर्पयेत् , बलाग़लतां भूमौ निक्षिपेत् , न च चौर| गृहीतमुपकरणं वन्दित्वा दीनं वा वदित्वा पुनर्याचेत, अपि तु धर्मकथनपूर्वकं गच्छान्तर्गतो याचेत तूष्णीभावेन वो | पेक्षेत, ते पुनः स्तेनाः स्वकरणीयमितिकृत्वैतरकुर्युः, तद्यथा-आक्रोशन्ति वाचा ताडयन्ति दण्डेन यावजीवितात्याज-12 यन्ति, वस्त्रादिकं वाऽऽच्छिन्युर्यावत्तत्रैव 'प्रतिष्ठापयेयुः त्यजेयुः, तच्च तेषामेवं चेष्टितं न ग्रामे 'संसारणीयं' कथनीय, नापि राजकुलादी, नापि परं-गृहस्थमुपसंक्रम्य चौरचेष्टितं कथयेत्, नाप्येवंप्रकारं मनो वाचं वा सङ्कल्प्यान्यत्र गच्छे|| दिति, एतत्तस्य भिक्षोः सामन्यमिति ॥ तृतीयमध्ययनं समाप्तम् ॥ Id|३८४॥ दीप अनुक्रम [४६५] %* ** wwwjoincitnary arm ~773~# Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [१३१...], नियुक्ति: [३१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: अथ चतुर्थ भाषाजातमध्ययनम् । प्रत सूत्रांक [१३१] दीप % AARAKAR उक्तं तृतीयमध्ययनं, साम्प्रतं चतुर्थमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तराध्ययने पिण्डविशुयर्थ गमनविधिरुतः, तत्र च गतेन पथि वा यादृग्भूतं वाच्यं न वाच्यं वा, अनेन च सम्बन्धेनायातस्य भाषाजाताध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्र निक्षेपनियुक्त्यनुगमे भाषाजातशब्दयोनिक्षेपार्थ नियुक्तिकृदाहजह वकं तह भासा जाए छकं च होइ नायव्वं । उप्पत्तीए १ तह पज्जवं २ तरे ३ जायगहणे ४ य ।। ३१३ ॥ | यथा वाक्यशुद्ध्यध्ययने वाक्यस्य निक्षेपः कृतस्तथा भाषाया अपि कर्तव्यः, जातशब्दस्य तु पटनिक्षेपोऽयं ज्ञातव्योनाम १ स्थापना २ द्रव्य ३ क्षेत्र ४ काल ५ भाव ६ रूपः, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यजातं तु आगमतो नोआग-| मतः, व्यतिरिक्त नियुक्तिकारो गाथापश्चार्डेन दर्शयति-तच्चतुर्विधम्, उत्पत्तिजातं १ पर्यवजातम् २ अन्तरजातं ३ || ग्रहणजातं ४, तत्रोत्पत्तिजातं नाम यानि द्रव्याणि भाषावर्गणान्तःपातीनि काययोगगृहीतानि वाग्योगेन निसृष्टानि || भाषात्वेनोत्पद्यन्ते तदुत्पत्तिजातं, यद्रव्यं भाषात्वेनोत्पन्नमित्यर्थः १, पर्यवजातं तैरेव वाग्निसृष्टभाषाद्रव्यैर्यानि विश्रेणिस्थानि भाषावर्गणान्तर्गतानि निसृष्टद्रव्यपरापातेन भाषापर्यायत्वेनोपद्यन्ते तानि द्रव्याणि पर्यवजातमित्युच्यन्ते २, यानि || त्वन्तराले समश्रेण्यामेव निसृष्टद्रव्यमिश्रितानि भाषापरिणाम भजन्ते तान्यन्तरजातमित्युच्यन्ते ३, यानि पुन अनुक्रम [४६५] मा.सू.६५| wwanditaram प्रथम चूलिकाया: चतुर्थ-अध्ययनं “भाषाजात", आरब्धं ~774~# Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१३१] दीप अनुक्रम [-] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२. ], चुडा [१], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [१], मूलं [१३१...], निर्युक्ति: [ ३१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः श्रीभाचा-व्याणि समश्रेणिविश्रेणिस्थानि भाषात्वेन परिणतानि कर्णशष्कुली विवरप्रविष्टानि गृह्यन्ते तानि चानन्तप्रदेशिकानि राङ्गवृत्तिः द्रव्यतः क्षेत्रतोऽसख्येयप्रदेशावगाढानि कालत एकद्वित्र्यादियावदसङ्ख्येय समयस्थितिकानि भावतो वर्णगन्धरस(शी०) स्पर्शयन्ति तानि चैवंभूतानि ग्रहणजातमित्युच्यन्ते ४ । उक्तं द्रव्यजातं क्षेत्रादिजातं तु स्पष्टत्वान्निर्युक्तिकारण नोकं, तश्चैवंभूतं यस्मिन् क्षेत्रे भाषाजातं व्यावर्ण्यते यावन्मात्रं वा क्षेत्रं स्पृशति तत्क्षेत्रजातम् एवं कालजातमपि, भावजातं तु तान्येवोत्पत्तिपर्यवान्तरग्रहणद्रव्याणि श्रोतरि यदा शब्दोऽयमिति बुद्धिमुत्पादयन्तीति । इह त्वधिकारो द्रव्यभाषाजातेन, द्रव्यस्य प्राधान्यविवक्षया, द्रव्यस्य तु विशिष्टावस्था भाव इतिकृत्वा भावभाषाजातेनाप्यधिकार इति ॥ उद्देशार्थाधिकारार्थमाह- ॥ ३८५ ॥ सच्चेऽवि य वयणविसोहिकारगा तहवि अस्थि उ विसेसो । वयणविभत्ती पढमे उप्पत्ती वज्रणा बीए ॥ ३१४ ॥ यद्यपि द्वावप्युदेशको वचनविशुद्धिकारकौ तथाऽप्यस्ति विशेषः, स चायं प्रथमोदेशके वचनस्य विभक्तिः वचनविभक्तिः -- एकवचनादिषोडशविधवचनविभागः, तथैवंभूतं भाषणीयं नैवंभूतमिति व्यावर्ण्यते, द्वितीयोदेशके तूत्पत्तिः-कोधाद्युत्पत्तिर्यथा न भवति तथा भाषितव्यम् ॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं तच्चेदम्— सेभिक्खू वा २ इमाई वयायाराई सुच्चा निसम्म इमाई अणायाराई अणारियपुन्नाई जाणिज्जा — जे कोहा वा वायं विडंजति जे माणा या० जे मायाए वा० जे लोभा वा वायं विरंजंति जाणओ वा फरुसं वयंति अजाणओ वा फ० सव्यं चेयं साव जिजा विवेगमायाए, धुवं चेयं जाणिजा अधुवं चेयं जाणिज्जा असणं वा ४ लभिय नो उभिय भुंजिय नो भुं For Parts Only प्रथम चूलिकायाः चतुर्थ अध्ययनं “भाषाजात”, प्रथम उद्देशक: आरब्धः ~ 775 ~# श्रुतस्कं० २ चूलिका १ भाषा० ४ उद्देशः १ ॥ ३८५ ॥ Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१३२ ] दीप अनुक्रम [εε] "आचार" अंगसूत्र - १ (मूलं निर्युक्तिः + वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२. ], घुडा [१]. अध्ययन [४]. उद्देशक [१]. मूलं [१३२] निर्युक्तिः [ ३१४ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - Jan Estication Ital जिय अदुवा आगओ अदुवा नो आगओ अदुवा एव अदुवा नो एइ अदुवा एहिइ अदुवा नो एहि इत्यवि आगए इfe नो आगए इत्थव इ इत्थवि नो एति इत्यवि पहिति इत्थवि नो एहिति ॥ अणुवीइ निट्टाभासी समियाए संजए भासं भासिज्जा, तंजा— एगवयणं १ दुवयणं २ बहुव० ३ इत्थि० ४ पुरि० ५ नपुंसगवयणं ६ अञ्झत्थव० ७ उबणीयवयणं ८ अवणीयवयणं ९ उवणीयअवणीयव० १० अवणीयडवणीयव० ११ तीयव० १२ पप्पन्नव० १३ अणागयब० १४ पञ्चक्त्रवयणं ९५ परुक्खव० १६, से एगवयणं वईत्सामीति एगवयणं वजा जाव परुक्खववणं वइस्सामीति परुक्खवणं वइजा, इत्थी बेस पुरिसो बेस नपुंसगं वेस एयं वा चेयं अन्नं वा चेयं अणुवीर निट्टाभासी समियाए संजए भासं भासिज्जा, इशेयाई आययणाई उपातिकम्म || अह भिक्खु जाणिना चत्तारि भासज्जायाई, तंजा— सचमेगं पढमं भासजायं १ बीयं मोसं २ तईयं सधामोसं ३ जं नेव सर्व नेव मोसं नेव सच्चामोस असच्चामोसं नाम तं चत्थं भासजायं ४ ॥ से बेमि जे अईया जे य पडुप्पन्ना जे अणागया अरहंता भगवंतो सच्चे ते एयाणि चैव चत्तारि भासनायाई भासिसु वा भाति वा भासिस्संति वा पन्नविंसु वा ३, सव्वाई च णं एयाई अचित्ताणि वण्णमंताणि गंधर्मताणि रसमंताणि फासमंताणि चओवचइयाई विष्परिणामथम्माई भवतीति अक्खायाई ॥ ( सू० १३२) 3 स भावभिक्षुः 'इमान्' इत्यन्तःकरणनिष्पन्नान् इदमः प्रत्यक्षासन्नवाचित्वात्समनन्तरं वक्ष्यमाणान् वाच्याचारा | वागाचाराः - वाग्व्यापारास्तान् श्रुत्वा, तथा 'निशम्य ज्ञात्वा भाषासमित्या भाषां भाषेतोत्तरेण सम्बन्ध इति । तत्र यादृग्भूता भाषा न भाषितव्येति तत्तावद्दर्शयति- 'इमान्' वक्ष्यमाणान् 'अनाचारान्' साधूनामभाषणयोग्यान् पूर्व For Parts Onl ~776~# Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१३२], नियुक्ति: [३१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३२]] 95% ॥३८६॥ % 4 दीप अनुक्रम [४६६] श्रीआचा-18साधुभिरनाचीर्णपूर्वान् साधुर्जानीयात् , तद्यथा-ये केचन क्रोधादा वाचं 'विउंजन्ति' विविधं व्यापारयन्ति-भाषन्ते श्रुतस्कं०२ रावृत्तिः यथा चौरस्त्वं दासस्त्वमित्यादि तथा मानेन भाषन्ते यथोत्तमजातिरह हीनस्त्वमित्यादि तथा मायया यथा ग्लानो- चूलिका १ (शी०) हमपरसन्देशक वा सावद्यक केनचिदुपायेन कथयित्वा मिथ्यादुष्कृतं करोति सहसा ममैतदायातमिति तथा लोभे- भाषा०४ 8 नाहमनेनोकेनातः किचिल्लप्स्य इति तथा कस्यचिद्दोषं जानानास्तहोपोद्घटनेन परुष वदन्ति अजानाना चा, सर्वं चैत-I उद्देशः १ क्रोधादिवचनं सहावद्येन-पापेन गर्येण वा वर्तत इति सावधं तद्वर्जयेत् विवेकमादाय, विवेकिना भूत्वा सावधं वचनं| वर्जनीयमित्यर्थः, तथा केनचित्सार्द्ध साधुना जल्पता नैव सावधारणं वचो वक्तव्यं यथा 'ध्रुवमेतत्' निश्चितं वृष्ट्या|दिक भविष्यतीत्येवं जानीयाद् अध्रुवं वा जानीयादिति । तथा कथञ्चित्साधु भिक्षार्थ प्रविष्टं ज्ञातिकुलं वा गतं चिरयन्तमुद्दिश्यापरे साधव एवं बचीरन् यथा-भुमहे वयं स तत्राशनादिकं लब्ध्वैव समागमिष्यति, यदिवा प्रियते। तदर्थं किञ्चित् नैवासौ तस्मालब्धलाभः समागमिष्यति, एवं तत्रैव भुक्त्वाऽभुक्त्वा वा समागमिष्यतीति सावधारणं न | वक्तव्यम् , अथ चैवंभूतां सावधारणां वाचं न ब्रूयाद् यथाऽऽगतः कश्चिद्राजादिनों वा समागतः तथाऽऽगच्छति न वा समागच्छति एवं समागमिष्यति न वेति, एवमत्र पत्तनमठादावपि भूतादिकालत्रयं योज्य, यमर्थं सम्यग् न जानीयात्तदेवमेवैतदिति न ब्रूयादिति भावार्थः, सामान्येन सर्वत्रगः साधोरयमुपदेशो, यथा-'अनुविचिन्त्य' विचार्य सम्यग्निश्चित्यातिशयेन श्रुतोपदेशेन वा प्रयोजने सति 'निष्ठाभाषी' सावधारणभाषी सन् 'समित्या' भाषासमित्या ॥३८६॥ 'समतया वा' रागद्वेषाकरणलक्षणया षोडशवचनविधिज्ञो भाषा भाषेत । यादग्भूता च भाषा भाषितव्या तां षोडश % 3- wwwonditimaryam ~777~# Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१३२] दीप अनुक्रम [४६६ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [१]. मूलं [१३२], निर्युक्तिः [३१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | वचनविधिगतां दर्शयति- ' तद्यथे' त्ययमुपप्रदर्शनार्थः एकवचनं वृक्षः १, द्विवचनं वृक्षौ २, बहुवचनं वृक्ष इति ३, स्त्रीवचनं वीणा कन्या इत्यादि ४, पुंवचनं घटः पट इत्यादि ५, नपुंसकवचनं पीठं देवकुलमित्यादि ६, अध्यात्मवचनम्, आत्मन्यधि अध्यात्मं - हृदयगतं तत्परिहारेणान्यद्भणिष्यतस्तदेव सहसा पतितम् ७, 'उपनीतवचनं' प्रशंसावचनं यथा रूपवती स्त्री ८, तद्विपर्ययेणापनीतवचनं यथेयं रूपहीनेति ९, 'उपनीतापनीतवचनं' कश्चिद् गुणः प्रशस्यः कश्चिन्निन्द्यो, यथा-रूपवतीयं स्त्री किन्त्वसद्वृत्तेति १०, 'अपनीतोपनीतवचनम्' अरूपवती स्त्री किन्तु सद्वृत्तेति ११, 'अतीतवचनं' कृतवान् १२ 'वर्त्तमानवचनं' करोति १३ 'अनागतवचनं' करिष्यति १४ 'प्रत्यक्षवचनम्' एष देवदत्तः १५, 'परोक्षवचनं' स देवदत्तः १६, इत्येतानि षोडश वचनानि, अमीषां स भिक्षुरेकार्थविवक्षायामेकवचनमेव ब्रूयाद् यावत्परोक्षवचनविवक्षायां परोक्षवचनमेव ब्रूयादिति । तथा ख्यादिके दृष्टे सति रूयेवैषा पुरुषो वा नपुंसकं वा, एवमेवैतदन्यद्वैतत् एवम् 'अनुविचिन्त्य' निश्चित्य निष्ठाभाषी सन् समित्या समतया संयत एव भाषां भाषेत, तथा 'इत्येतानि' पूर्वोक्तानि भाषागतानि वक्ष्यमाणानि वा 'आयतनानि' दोषस्थानानि 'उपातिक्रम्य' अतिलङ्घन्ध भाषां भाषेत । अथ स भिक्षुर्जानीयात् 'चत्वारि भाषाजातानि' चतस्रो भाषाः, तद्यथा-सत्यमेकं प्रथमं भाषाजातं यथार्थम् अवितथं, तद्यथागोगोरेवाश्वोऽश्व एवेति १, एतद्विपरीता तु मृषा द्वितीया, यथा गौरश्वोऽश्वो गौरिति २, तृतीया भाषा सत्यामृषेति, यत्र किञ्चित्सत्यं किञ्चिन्मृषेति, यथाऽश्वेन यान्तं देवदत्तमुष्ण यातीत्यभिदधाति ३, चतुर्थी तु भाषा योच्यमाना न सत्या नापि मृषा नापि सत्यामृषा आमन्त्रणाज्ञापनादिका साऽत्रासत्याऽमृषेति ४ ॥ स्वमनीषिकापरिहारार्थमाह Jan Estication Intematonal For Pantry at Use Only ~778 ~# Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१३२], नियुक्ति: [३१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रुतस्क०२ चूलिका १ भाषा०४ उदेश सूत्रांक % [१३२] % % श्रीआचा- सोऽहं यदेतद्रवीमि तत्सर्वैरेव तीर्थकृद्भिरतीतानागतवर्तमानैर्भाषितं भाष्यते भाषिश्यते च, अपि चैतानि-सर्वाण्य- राजवृत्तिःप्येतानि भाषाद्रव्याण्यचित्तानि च वर्णगन्धरसस्पर्शवन्ति चोपचयिकानि विविधपरिणामधर्माणि भवन्तीति, एवमाख्यातं (शी०) तीर्थकृद्भिरिति, अत्र च वर्णादिमत्त्वाविष्करणेन शब्दस्य मूर्त्तत्वमावेदितं, न ह्यमूर्त्तस्याकाशादेर्वर्णादयः संभवन्ति तथा GIचयोपचयधर्माणीत्यनेन तु शब्दस्यानित्यत्वमाविष्कृत, विचित्रपरिणामत्वाच्छन्दद्रव्याणामिति ॥ साम्पतं शब्दस्य कृत- ॥३८७॥ कत्वाविष्करणायाह से भिक्खू वा० से जं पुण जाणिज्जा पुचि भासा अभासा भासिजमाणी भासा भासा भासासमयवीइकता पण भासिया भासा अभासा ॥ से भिक्खू वा० से जं पुण जाणिज्जा जा व भासा सच्चा १ जा य भासा मोसा २ आ य भासा सचामोसा २ जा य भासा असञ्चाऽमोसा ४, तहष्पगारं भासं सावज सकिरियं ककसं कदुयं निहुर फरुसं अण्हयकरि ठेयणकरि भेवणकरि परियावणकरि उहवणकरि भूओवधाइयं अमिकंख नो भासिज्जा ।। से भिक्खू वा मिक्खुणी वा से जं पुण जाणिज्जा, जा य भासा सच्चा सुहुमा जा य भासा असञ्चामोसा तहप्पगारं भासं असावज जाव अभूओवधाइयं अभिकख भासं भासिजा ॥ (सू० १३३) स भिक्षुरेवंभूतं शब्दं जानीयात् , तद्यथा-भाषाद्रव्यवर्गणानां वाग्योगनिस्सरणात् 'पूर्व प्रागभाषा 'भाष्यमाणैव' वाग्योगेन निसृज्यमानैव भाषा, भाषाद्रव्याणि भाषा भवति, तदनेन ताल्वोधादिव्यापारेण प्रागसतः शब्दस्य निष्पादनात्स्फुटमेव कृतकत्वमावेदितं, मृस्पिण्डे दण्डचक्रादिनेव घटस्येति, सा वोच्चरितप्रध्वंसित्वाच्छब्दानां भाषणोत्तरकालमप्य दीप अनुक्रम [४६६] C ॥३८७॥ wwwandltimaryam ~779~# Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१३३], नियुक्ति: [३१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३३] दीप अनुक्रम भाव, यथा कपालावस्थायां घटोऽघट इति, तदनेन प्रागभावप्रध्वंसाभावी शब्दस्यावेदिताविति ॥ इदानी चतसृणां|| भाषाणामभाषणीयामाह-स भिक्षु- पुनरेवं जानीयात्, तद्यथा-सत्यां १ मृपा २ सत्याभूषाम् ३ असत्यामृषा ४, तत्र मृषा सत्याभूषा च साधूनां तावन्न वाच्या, सत्याऽपि या कर्कशादिगुणोपेता सा न बाच्या, तां च दर्शयति-सहावद्येन वर्चत इति सावद्या तां सत्यामपि न भाषेत, तथा सह क्रियया-अनर्थदण्डप्रवृत्तिलक्षणया वर्तत इति सक्रिया तामिति तथा 'कर्कशां' चविताक्षरां तथा 'कटुका' चित्तोद्वेगकारिणी तथा 'निष्ठुरां' हक्काप्रधानां परुषां' मर्मोद्घाटनपराम् अण्हयकरिन्ति कर्माश्रवकरीम्, एवं छेदनभेदनकरी यावदपद्रावणकरीमित्येवमादिकां 'भूतोपघातिनी प्राण्युपताप कारिणीम् 'अभिकालब' मनसा पर्यालोच्य सत्यामपि न भाषेतेति ॥ भाषणीयां त्वाह-स भिक्षुर्या पुनरेवं जानीयात्, दातद्यथा-या च भाषा सत्या 'सूक्ष्मे ति कुशाग्रीयया बुद्ध्या पर्यालोच्यमाना मृषाऽपि सत्या भवति यथा सत्यपि मृगदर्शने | लुब्धकादेरपलाप इति, उक्तञ्च-"अलिअंन भासिअव्वं अस्थि हु सच्चंपि जं न वत्तव्वं । सच्चंपि होइ अलिअंज परपीडाकरं वयणं ॥१॥" या चासत्यामृषा-आमन्त्रण्याज्ञापनादिका तां तथाप्रकारां भाषामसावद्यामक्रियां यावदभूतोपघातिनी मनसा पूर्वम् 'अभिकाश्य' पर्यालोच्य सर्वदा साधु षां भाषेतेति ॥ किच से भिक्खू वा पुमं आमंतेमाणे आमंतिए वा अपडिसुणेमाणे नो एवं वइजा-होलित्ति वा गोलित्ति वा वसुलेत्ति वा कुपक्खेत्ति वा पढदासिसि वा साणेत्ति वा तेणित्ति वा चारिएत्ति वा माईत्ति वा मुसाबाइत्ति वा, एयाई तुम ते जणगा वा, १अलीकं न भाषितव्यं अस्लेव सत्यमपि यन्न वक्तव्यम् । सत्यमपि भवस्थतीकं यत् परपीडाकर वचनम् ॥१॥ [४६७] waleraitram.org ~780~# Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१३४], नियुक्ति: [३१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचारावृत्तिः (शी०) ॥३८८॥ सूत्रांक [१३४] * दीप अनुक्रम [४६८] एअप्पगार भासं सावजं सकिरियं जाव भूओवघाइयं अमिकंख नो भासिज्जा॥ से मिक्खू वा० पुमं आमंतेमाणे आम श्रुतस्कं०२ तिए वा अपडिसुणेमाणे एवं वइजा-अमुगे इ वा आउसोत्ति वा आउसंतारोत्ति वा साबगेत्ति वा उवासगेति वा ध चूलिका १ म्मिएत्ति वा धम्मपिएत्ति वा, एयप्पगारं भासं असावज जाव अभिकंख भासिजा ।। से भिक्खू वा २ इथि आमंतेमाणे भाषा०४ आमंतिए य अप्पडिसुणेमाणे नो एवं वइजा-होली इ वा गोलीति वा इत्थीगमेणं नेयध्वं ॥ से भिक्खू वा २ इत्विं उद्देशः १ आमंतेमाणे आमंतिए य अप्पतिसुणेमाणी एवं बइजा-आउसोत्ति बा भइणित्ति वा भोईति वा भगवईति वा साविगेति वा उवासिएत्ति वा धम्मिएत्ति वा धम्मप्पिएत्ति वा, एयप्पगारं भासं असावजं जाव अभिकख भासिज्जा ।। (सू० १३४) स भिक्षुः पुमांसमामन्त्रयन्नामन्त्रितं वाऽशृण्वन्तं नैवं भाषेत, तद्यथा-होल इति वा गोल इति वा, एतौ च देशान्तरेऽवज्ञासंसूचकी, तथा 'वसुले'त्ति वृषलः 'कुपक्षः' कुत्सितान्वयः घटदास इति वा श्वेति वा स्तेन इति वा चारिक इति वा मायीति वा मृपावादीति वा, इत्येतानि-अनन्तरोतानि त्वमसि तव जनको वा-मातापितरावेतानीति, एवं-18 प्रकारां भाषां यावन्न भाषेतेति ॥ एतद्विपर्ययेण च भाषितव्यमाह-स भिक्षुः पुमांसमामन्त्रयन्नामन्त्रितं वाऽशृण्वन्तमेवं यादू यथाऽमुक इति वा आयुष्मन्निति वा आयुष्मन्त इति वा तथा श्रावक धर्मप्रिय इति, एवमादिकां भाषा भाषे. तेति ॥ एवं त्रियमधिकृत्य सूत्रद्वयमपि प्रतिषेधविधिभ्यां नेयमिति ॥ पुनरप्यभाषणीयामाहसे भि० नो एवं वइजा-नभोदेवित्ति वा गजदेवित्ति वा विज्जुदेवित्ति वा पवुडदे० नियुट्ठदेवित्तए वा पडत चा वास ॥३८८ मा वा पडउ निष्फजउ वा सस्सं मा वा नि० विभाउ वा रयणीमा वा विभाउ उदेउ वा सूरिए मा वा उदेउ सो वा wataneltmanam ~781~# Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१३५], नियुक्ति: [३१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: * प्रत सूत्रांक राया जयउ वा मा जयत, नो एयपगार भासं भासिज्जा ॥ पन्नवं से भिक्खू वा २ अंतलिक्खेत्ति वा गुम्माणुचरिएत्ति वा समुच्छिए वा निवइए वा पभो वइजा वुट्टबलाहगेत्ति वा, एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गिय जं सव्वदेहिं समिए सहिए सथा जइजासि तिबेमि २-१-४-१ ॥ भाषाध्ययनस्य प्रथमः ।। (सू० १३५) स भिक्षुरेवंभूतामसंयतभाषां न वदेत् , तद्यथा-नभोदेव इति वा गजति देव इति वा तथा विद्युदेवः प्रपृष्टो देवः निवृष्टो देवः, एवं पततु वर्षा मा वा, निष्पद्यतां शस्य मेति वा, विभातु रजनी मेति षा, उदेतु सूर्यो मा वा, जयत्वसौ | राजा मा वेति, एवंप्रकारां देवादिकां भाषां न भाषेत ॥ कारणजाते तु प्रज्ञावान् संयतभाषयाऽन्तरिक्षमित्यादिकया भाषेत, एतत्तस्य भिक्षोः सामग्यमिति ॥ चतुर्थस्य प्रथमोद्देशकः समाप्तः२-१-४-१॥ | [१३५] %%85%252 दीप अनुक्रम [४६९] उक्तः प्रथमोद्देशकः, साम्पतं द्वितीयः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-दहानन्तरोद्देशके वाच्यावाच्यविशेषोऽभिहितः, तदिहापि स एव शेषभूतोऽभिधीयते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योदेशकस्यादिसूत्रम् से मिक्खू वा जहा वेगईयाई रूवाई पासिज्जा तहावि ताई नो एवं वइज्जा, तंजहाडी गंडीति वा कुट्टी कुट्ठीति वा जाव महुमेहुणीति वा हत्यच्छिन्नं हत्यच्छिन्नेत्ति वा एवं पायछिन्नेत्ति वा नकछिण्णेइ वा कण्णछिन्नेइ वा उहछिन्नेति वा, जेयाबन्ने सहपगारा एवप्पगाराहि भासाहि बुझ्या २ कुप्पंति माणवा ते यावि तहप्पगाराहिं भासाहि अभिकख नो भासिज्जा ।। wwwandltimaryam प्रथम चूलिकाया: चतुर्थ-अध्ययनं "भाषाजात",द्वितीय-उद्देशक: आरब्ध: ~782~# Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१३६ ] दीप अनुक्रम [४७० ] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ३८९ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२] मूलं [१३६], निर्युक्तिः [ ३१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सेभिक्खू वा० जहा वेगइयाई रुवाई पासिज्जा तहावि ताई एवं वइज्जा - तंजहा - ओयंसी ओयंसित्ति वा तेयंसी तेयंसीति वा जसंसी जसंसीद वा बसी बसी वा अभिरूयंसी २ पडिरूवंसी २ पासाइयं २ दरिसणिज्जं दरिसणीयत्ति वा, जे यावने तहपगारा तहष्पगाराहिं भासाई बुझ्या २ नो कुप्पंति माणवा तेयावि तहप्पगारा एयप्पगाराहिं भासाहिं अभिकं भासिया || से मिक्खू वा० जहा वेगइयाई रुवाई पासिज्जा, तंजा - वप्पाणि वा जाव गिहाणि वा, तहावि ताई नो एवं वइया, तंजा— सुक्कडे इ वा सुडुकडे इ या साहुकडे इ वा कलाणे इ वा करणिजे इवा, एयप्पगारं भासं साव जाव नो भासिजा ॥ से भिक्खू वा० जहा वेगईयाई रूबाई पासिज्जा, तंजावप्पाणि वा जाव गिहाणि वा तहावि साई एवं वइजा, तंजहा— आरंभकडे इ वा सावज्जकडे इ वा पयतकडे इ वा पासाइयं पासाइए वा दरिसणीयं दरसणीयंति वा अभिरूवं अभिरुवंति वा पडिरूवं पडिरूवंति वा एयप्पगारं भासं असावळं जाव भासिया || (सू० १३६) स भिक्षुर्यद्यपि 'एगइयाइ'न्ति कानिचिद्रूपाणि गण्डीपदकुष्ट्यादीनि पश्येत् तथाप्येतानि स्वनामग्राहं तद्विशेषणविशिष्टानि नोच्चारयेदिति, तद्यथेत्युदाहरणोपप्रदर्शनार्थः, 'गण्डी' गण्डमस्यास्तीति गण्डी बदिवोच्छूनगुल्फपादः स गण्डीत्येवं न व्याहर्त्तव्यः तथा कुष्ठ्यपि न कुष्ठीति व्याहर्त्तव्यः एवमपरव्याधिविशिष्टो न व्याहर्त्तव्यो यावन्मधुमेहीति मधुवर्णमूत्रानवरतप्रश्रावीति, अत्र च धूताध्ययने व्याधिविशेषाः प्रतिपादितास्तदपेक्षया सूत्रे यावदित्युक्तम्, एवं छिन्नहस्तपादनासिका कर्णोष्ठादयः, तथाऽन्ये च तथाप्रकाराः काणकुण्टादयः, तद्विशेषणविशिष्टाभिर्वाग्भिरुक्ता उक्ताः कुप्यन्ति मानवास्तांस्तथाप्रकारांस्तथाप्रकाराभिर्वाग्भिरभिकाङ्क्षय नो भाषेतेति । यथा च भाषेत तथाऽऽह-स भिक्षुर्यद्यपि Jain Estication tytumanl For Par at Use Only ~783~# श्रुतस्कं० २ चूलिका १ भाषा० ४ उद्देशः २ ॥ ३८९ ॥ Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३६], नियुक्ति: [३१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक %45-50-4 [१३६] दीप अनुक्रम [४७०] गण्डीपदादिव्याधिप्रस्तं पश्येत्तथाऽपि तस्य यः कश्चिद्विशिष्टो गुण ओजस्तेज इत्यादिकस्तमुद्दिश्य सति कारणे वदेदिति, केशववत्कृष्णश्वशुक्लदन्तगुणोद्घाटनवद्गुणग्राही भवेदित्यथैः ॥ तथा स भिक्षुर्यद्यप्येतानि रूपाणि पश्येत्तद्यथा-वप्रा प्राकारा यावद्गृहाणि, तथाऽप्येतानि नैवं वदेत् , तद्यथा-सुकृतमेतत् सुष्टु कृत्तमेतत् साधु-शोभनं कल्याणमेतत् , कर्तव्यमेवैतदेवंविधं भवद्विधानामिति, एवंप्रकारामन्यामपि भाषामधिकरणानुमोदनात् नो भाषेतेति ॥ पुनर्भाषणीयामाहस भिक्षुर्वप्रादिकं दृष्ट्वाऽपि तदुद्देशेन न किञ्चिद् ब्रूयात्, प्रयोजने सत्येवं संयतभाषया ब्रूयात् , तद्यथा-महारम्भकृतमेतत् सावद्यकृतमेतत् तथा प्रयत्नकृतमेतत् , एवं प्रसादनीयदर्शनादिकां भाषामसावद्या भाषेतेति ॥ से भिक्खू वा २ असणं वा० उवक्सडियं तहाविहं नो एवं वइज्जा, तं० सुकडेत्ति वा सुझुकडे इ वा साहुकडे इ वा कखाणे इ वा करणिजे इवा, एयप्पगारं भासं सावजं जाव नो भासिज्जा ॥ से मिक्खू वा २ असणं वा ४ उपक्सडियं पेहाय एवं वइजा, तं०-आरंभकडेत्ति वा सावजकडेत्ति वा पयत्तकडे इ वा भयं भदेति वा ऊसदं उसड़े इ वा रसियं २ मणुनं २ एयप्पगारं भासं असावजं जाब भासिज्जा ।। (सू० १३७) एवमशनादिगतप्रतिषेधसूत्रद्वयमपि नेयमिति, नवरम् 'ऊसढ'न्ति उच्छ्रितं वर्णगन्धाधुपेतमिति ॥ पुनरभाषणीयामा किश्च से मिक्खू वा भिक्खुणी वा मणुस्सं वा गोणं वा महिसं बा मिर्ग वा पसु वा पक्खि वा सरीसिर्व वा जलचरं वा से तं परिवूढकार्य पेहाए नो एवं बइजा-थूले इ वा पमेइले इ वा बट्टे ३ वा वझे इ वा पाइमे इ वा, एयप्पगारं भासं सा %%%95 % 7- wwwanditimaryam ~784~# Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३८], नियुक्ति: [३१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रुतस्कं०२ प्रत श्रीआचारावृत्तिः (शी०) सूत्रांक CCESCONSES. चूलिका १ भाषा०४ उद्देशः २ [१३८]] ॥३९ ॥ दीप अनुक्रम [४७२] बजं जाव नो भासिजा ॥ से मिक्सू या भिक्खुणी वा मणुस्सं वा जाव जलयरं वा सेतं परिपूढकार्य पहाए एवं वइज्जा -परिखूटकाएत्ति वा उपचिवकाएति वा थिरसंघयणेत्ति वा चियमंससोणिएत्ति वा बहुपडिपुन्नइंदिइएत्ति था, एयप्पगारं भासं असावज जाव भासिना ।। से मिक्खू वा २ विरूवरूवाओ गाओ पेहाए नो एवं बहना, तंजहा-गाओ दुमामोत्ति वा दम्मेत्ति वा गोरहत्ति वा बाहिमत्ति बा रहजोग्गत्ति वा, एयप्पगार भासं सावजं जाव नो भासिना ॥ से मि० विरूवरूवाओ गाओ पहाए एवं वइजा, तंजहा-जुबंगवित्ति वा घेणुत्ति वा रसवइत्ति वा हस्से इ वा महले इ वा महत्वएइ वा संवहणित्ति वा, एअप्पगारं भासं असावज आव अमिकस भासिज्जा ।। से भिक्खू वा० तहेव गंतुमुजाणाई पब्वयाई वणाणि वा रुक्खा महले पेहाए नो एवं वइजा, तं०-पासायजोग्गाति वा तोरणजोग्याइ वा गिहजोगाइ वा फलिहजो० अग्गलजो० नावाजो० उदग० दोणजो० पीढचंगबेरनंगळकुलियतलट्ठीनाभिगंदीआसणजो० सवणजाणउबस्सयजोगाई वा, एयप्पगारं नो भासिज्जा ।। से भिक्खू वा तहेव गंतु० एवं वइजा, तंजहा-जाइमंता इ वा दीहवटा इ वा महालया इ वा पयायसाला इ वा विडिमसाला इ वा पासाइया इ वा जाव पडिरूवाति वा एयप्पगार भासं असाबज जाव भासिज्जा ।। से भि० बहुसंभूया वणफला पेहाए तहावि ते नो एवं वइबा, तंजहा-पका इ वा पायखळा इ वा बेलोइया इ वा टाला इ वा वेहिया इवा, एयप्पगार भासं सावज जाव नो भासिजा ॥ से मिक्खू० बहुसंभूया वणफला अंबा पेहाए एवं बइजा, सं०-असंथबाइ वा बहुनिवट्टिमफला इ वा बहुसंभूया इ या भूवरुचित्ति बा, एयप्पगार भा० असा०॥से बहुसंभूया ओसही पेहाए तहावि ताओ न एवं वइजा, तंजहा-पवाद वा नीलीया इवा छवी ACC ॥३९० JainEducatunintaimational wwwandltimaryam ~785~# Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३८], नियुक्ति: [३१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३८] दीप अनुक्रम [४७२] इया इ वा लाइमा इ वा भजिमा इ वा बहुखज्जा इवा, एयप्पगा० नो भासिज्जा ।। से०बहु० पेहाए तहावि एवं वइज्जा, सं०-रूढा इ वा बहुसंभूया इ वा थिरा इ वा ऊसडा इ वा गम्भिया इ वा पसूया इ वा ससारा इ वा, एयप्पगारं भासं असावजं जाव भासि०॥ (सू० १३८) स भिक्षुर्गवादिकं 'परिवृद्धकार्य' पुष्टकार्य प्रेक्ष्य नैतद्वदेत् , तद्यथा-स्थूलोऽयं प्रमेदुरोऽयं तथा वृत्तस्तथा वध्यो वह-14 नयोग्यो वा, एवं पचनयोग्यो देवतादेः पातनयोग्यो वेति, एवमादिकामन्यामप्येवंप्रकारां सावां भाषां नो भाषेतेति ॥ भाषणविधिमाह-स भिक्षुर्गवादिकं परिवृद्धकार्य प्रेक्ष्यैवं वदेत् , तद्यथा-परिवृद्धकायोऽयमित्यादि सुगममिति ॥ तथा-स भिक्षुः | 'विरूपरूपाः' नानाप्रकारा गाः समीक्ष्य नैतद्वदेत्, तद्यथा-दोहनयोग्या एता गावो दोहनकालो वा वर्तते तथा 'दम्य दमनयोग्योऽयं 'गोरहकः' कल्होटकः, एवं वाहनयोग्यो रथयोग्यो वेति, एवंप्रकारां सावद्या भाषां नो भाषेतेति ॥ सति | कारणे भाषणविधिमाह-स भिक्षुर्नानाप्रकारा गाः प्रेक्ष्य प्रयोजने सत्येवं ब्रूयात् , तद्यथा-'जुवंगवे'त्ति युवाऽयं गीः धेनुरिति | |वा रसवतीति वा, (हस्वः महान् महाव्ययो वा) एवं संवहन इति, एवंप्रकारामसावद्या भाषां भाषेतेति ॥ किश्श-स भिक्षु| रुद्यानादिकं गत्वा महतो वृक्षान् प्रेक्ष्य नैवं वदेत् , तद्यथा-प्रासादादियोग्या अमी वृक्षा इति, एवमादिकां सावद्या भाषां || नो भाषेतेति ॥ यत्तु वदेत्तदाह-स भिक्षुस्तथैवोचानादिकं गत्वैवं वदेत् , तद्यथा-'जातिमन्तः' सुजातय इति, एवमादिकां || भाषामसावद्यां संयत एव भाषेतेति ॥ किश्च-स भिक्षुबहुसंभूतानि वृक्षफलानि प्रेक्ष्य नैवं वदेत्, तद्यथा-एतानि फलानि | 'पक्कानि' पाकप्राप्तानि, तथा 'पाकखाद्यानि' बद्धास्थीनि गोप्रक्षेपकोद्रवपलालादिना विपच्य भक्षणयोग्यानीति, तथा ना.म.६ wwwandltimaryam ~786~# Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३८], नियुक्ति: [३१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०) सूत्रांक [१३८] ॥३९१॥ दीप अनुक्रम [४७२] बेलोचितानि' पाकातिशयतो ग्रहणकालोचितानि, अतः परं कालं न विषहन्तीत्यर्थः, 'टालानि' अनवबद्धास्थीनि कोम- श्रुतस्कं०२ लास्थीनीति यदुक्तं भवति, तथा 'वैधिकानि' इति पेशीसम्पादनेन द्वैधीभावकरणयोग्यानि वेति, एवमादिकां भाषा चूलिका १ फलगतां सावद्यां नो भाषेत ॥ यदभिधानीयं तदाह-स भिक्षुबहुसम्भूतफलानाम्रान् प्रेक्ष्यैवं वदेत, तद्यथा-'अस-14 भाषा०४ मर्थाः' अतिभरेण न शक्नुवन्ति फलानि धारयितुमित्यर्थः, एतेन पक्वार्थ उक्तः, तथा 'बहुनिवर्तितफलाः' बहुनि उद्देशः २ निर्वर्त्तितानि फलानि येषु ते तथा, एतेन पाकखाद्यार्थ उक्तः, तथा 'बहुसम्भूताः' बहूनि संभूतानि पाकातिशयतो ग्रहणकालोचितानि फलानि येषु ते तथा, अनेन वेलोचितार्थ उक्तः, तथा 'भूतरूपाः' इति वा भूतानि रूपाण्यनवबद्धास्थीनि कोमलफलरूपाणि येषु ते तथा, अनेन टालाद्यर्थ उपलक्षितः, एवंभूता एते आम्राः, आरग्रहणं प्रधानोपलक्षणम् , एवं भूतामनवद्यां भाषा भाषेतेति ॥ किञ्च-स भिक्षुर्बहुसम्भूता ओषधीवर्वीक्ष्य तथाऽप्येता नैतद्वदेत् , तद्यथा-पक्का नीला ||R आर्द्राः छविमत्यः 'लाइमा' लाजायोग्या रोपणयोग्या वा, तथा 'भजिमाओ'त्ति पचनयोग्या भञ्जनयोग्या वा 'बहु-18 खजा' बहुभक्ष्याः पृथुककरणयोग्या वेति, एवंप्रकारां सावद्यां भाषां नो भाषेत । यथा च भाषेत तदाह-स भिक्षुर्बहुसं-14 भूता ओषधी प्रेक्ष्यैतद् ब्रूयात् , तद्यथा-रूढा इत्यादिकामसावधां भाषा भाषेत ॥ किश्चसे भिक्खु वा० तहपगाराई सहाई मुणिज्जा तहावि एयाई नो एवं वइज्जा, तंजहा मुसदेति वा दुसदेति वा, एयप ३९१॥ गारं भासं सावज नो भासिदा ।। से मि० बहावि ताई एवं वइज्जा, तंजड़ा-मुसई सुसदिति वा दुसर दुसदित्ति ~787~# Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१३९ ] दीप अनुक्रम [४७३] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [२] मूलं [ १३९ ], निर्युक्तिः [३१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः वा, एयप्पारं असाव जाव भासिज्जा, एवं रुवाई किण्देचि वा ५ गंधाई सुरमिगंधित्ति वा २ रसाई तित्ताणि वा ५ साई कक्खाणि वा ८ ।। (सू० १३९) भिक्षुर्यद्यप्येतान् शब्दान् शृणुयात् तथाऽपि नैवं वदेत्, तथथा - शोभनः शब्दोऽशोभनो वा माङ्गलिकोडमानलिको वा, इत्ययं न व्याहर्त्तव्यः ॥ विपरीतं त्वाह-यथाऽवस्थितशब्दप्रज्ञापनाविषये एतद्वदेत्, तद्यथा--'सुसद्द'ति शोभनशब्द शोभनमेव ब्रूयाद्, अशोभनं स्वशोभनमिति । एवं रूपादिसूत्रमपि नेवम् ॥ किञ्च - Estication Intimational से मिक्यू बा० बंता कोहं च माणं च मायं च लोभं च अणुवीर निद्वाभासी निसम्मभासी अतुरियभासी विवेगभासी समियाप संजए भासं भासिना ५ ।। एवं खलु० सया जइ (सू० १४०) तिबेमि ॥ २-१-४-२ ॥ भाषाऽध्ययनं चतुर्थम् ॥ २-१-४ ॥ स भिक्षुः क्रोधादिकं वान्त्वैवंभूतो भवेत्, तद्यथा-अनुविचिन्त्य निष्ठाभाषी निशम्यभाषी अत्वरितभाषी विवेकभाषी भाषासमित्युपेतो भाषां भाषेत, एतत्तस्य भिक्षोः सामग्र्यमिति ॥ चतुर्थमध्ययनं भाषाजाताख्यं २-१-४ समाप्तमिति ॥ For Parts Only ~788~# *x*x*x www.indiary.org Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [१४०...], नियुक्ति: [३१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीभाचाराङ्गवृत्तिः (शी०) श्रुतस्कं०२ चूलिका वस्त्रैष०५ | उद्देशः १ सूत्रांक [१४०] ॥३९२॥ दीप अथ वस्त्रैषणाऽध्ययनम् । चतुर्थाध्ययनानन्तरं पञ्चममारभ्यते, अस्य चायमंभिसम्बन्धः-इहानन्तराध्ययने भाषासमितिः प्रतिपादिता, तदनन्तरमेषणासमितिर्भवतीति सा वस्त्रगता प्रतिपाद्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि उप-1 क्रमादीनि भवन्ति, तत्रोपक्रमान्तर्गतोऽध्ययनार्थाधिकारो वस्त्रैषणा प्रतिपाद्येति, उद्देशार्थाधिकारदर्शनार्थं तु नियुक्तिकार आह पढमे गहणं बीए धरणं पगयं तु दब्बवत्थेणं । एमेव होइ पायं भावे पायं तु गुणधारी ॥ ३१५ ॥ प्रथमे उद्देशके वस्त्रग्रहणविधिः प्रतिपादितः, द्वितीये तु धरणविधिरिति ॥ नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे वखैषणेति, तत्र वस्त्रस्य नामादिश्चतुर्विधो निक्षेपः, तत्रापि नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यवस्त्रं त्रिधा, तद्यथा-एकेन्द्रियनिष्पन्नं कार्पासिकादि, 8 विकलेन्द्रियनिष्पन्नं चीनांशुकादि, पञ्चेन्द्रियनिष्पन्नं कम्बलरक्षादि, भाववस्त्रं त्वष्टादशशीलाङ्गसहस्राणीति, इह तु द्रव्य वस्त्रेणाधिकारः, तदाह नियुक्तिकारः-'पगयं तु दब्ववत्थेणीति । वस्त्रस्येव पात्रस्यापि निक्षेप इति मन्यमानोऽत्रैव पात्रस्यापि | निक्षेपातिनिर्देशं नियुक्तिकारो गाथापश्चा?नाह-'एवमेव' इति वस्त्रवसात्रस्यापि चतुर्विधो निक्षेपः, तत्र द्रव्यपात्रमेके|न्द्रियादिनिष्पन्नं, भावपात्रं साधुरेव गुणधारीति ॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम् से मि० अभिकंखिज्जा वत्वं एसित्तए, से जं पुण वत्थं जाणिज्जा, तंजहा-जंगियं वा भंगिय वा साणिय वा पोत्तगं वा अनुक्रम [४७४] ॥३९२॥ wwwandltimaryam प्रथम चूलिकाया: पंचम-अध्ययनं “वस्त्रैषणा", आरब्धं प्रथम चूलिकाया: पंचम-अध्ययनं “वस्त्रैषणा", प्रथम-उद्देशक: आरब्ध: ~789~# Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [9], उद्देशक [१], मूलं [१४१], नियुक्ति: [३१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४१] दीप अनुक्रम [४७५] खोमियं वा तूलकडं वा, तहपगार वत्थं वा जे निगंथे तरुणे जुगब बलवं अप्पायके थिरसंघयणे से एम वत्थं धारिजा नो बीर्य, जा निगंथी सा पत्तारिसंघाडीओ धारिजा, एग दुह्त्ववित्थार दो तिहत्यवित्थाराओ एगे चहत्यवित्थार, तहप्पगारेहिं वत्येहि असंधिजमाणेहिं, अहं पच्छा एगमेगं संसिविजा ।। (सू० १४१) स भिक्षुरभिकाङ्ग्रेसमन्वेष्टुं तत्र यत्पुनरेवंभूतं वस्त्रं जानीयात्, तद्यथा-'जंगिय'ति जङ्गमोष्ट्राचूर्णानिष्पन्नं, तथा भंगिय'ति नानाभङ्गिकविकलेन्द्रियलालानिष्पन्नं, तथा 'साणय'ति सणवल्कलनिष्पन्नं 'पोत्तगं'ति ताब्यादिपत्रसङ्घातनिपन्नं 'खोमिय'ति कार्पासिक 'तूलकडंति अर्कादितूलनिष्पन्नम्, एवं तथाप्रकारमन्यदपि वस्त्रं धारयेदित्युत्तरेण सम्बन्धः । येन साधुना यावन्ति धारणीयानि तदर्शयति-तत्र यस्तरुणो निम्रन्थः-साधुयौवने वर्त्तते 'बलवान्' समर्थः 'अल्पातङ्कः' अरोगी 'स्थिरसंहनन' ढकायो दृढधृतिश्च, स एवंभूतः साधुरेक वर्ख' प्रावरणं स्वक्त्राणार्थं धारयेत् नो द्वितीयमिति, यदपरमाचार्यादिकृते विभर्ति तस्य स्वयं परिभोगं न कुरुते, यः पुनर्वालो दुर्बलो वृद्धो वा यावदल्पसंहननः स यथासमाधि यादिकमपि धारयेदिति, जिनकल्पिकस्तु यथाप्रतिज्ञमेव धारयेत् न तत्रापवादोऽस्ति । या पुनर्निन्थी सा चतन्त्रः संघाटिका धारयेत्, तद्यथा-एकां द्विहस्तपरिमाणां यां प्रतिश्रये तिष्ठन्ती प्रावृणोति, द्वे त्रिहस्तपरिमाणे, तत्रैकामुज्वलां भिक्षाकाले प्रावृणोति, अपरां बहिभूमिगमनावसर इति, तथाऽपरां चतुर्हस्तविस्तरां समवसरणादौ सर्वेशरीरमच्छादिकां प्रावृणोति, तस्याश्च यथाकृताया अलाभे अथ पश्चादेकमेकेन साई सीम्येदिति ॥ किच से मि० पर अद्धजोयणमेराए वत्थपडिया० नो अमिसंधारिज गमणाए ॥ (सू० १४२) wwwanditimaryam ~790~# Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१४२ ] दीप अनुक्रम [४७६ ] श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ३९३ ॥ “आचार” - अंगसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१] मूलं [ १४२], निर्युक्तिः [३१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः स भिक्षुर्वस्त्रार्थमर्द्धयोजनासरतो गमनाय मनो न विदध्यादिति ॥ से मि० से ० अहिंसपडियाए एवं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाई जहा पिंडेसणार भाणिवन्वं ॥ एवं बहवे साहम्मिया एवं साहम्मिणि बहवे साहम्बिणीओ बहवे समणमाहण० तहेव पुरिसंतरकडा जहा पिंडेसणाए || (सू० १४३ ) सूत्रद्वयमाधाकर्मिकोद्देशेन पिण्डेषणावन्नेयमिति ॥ साम्प्रतमुत्तरगुणानधिकृत्याह Jan Estication Intemational से मि० से जं० असंजए भिक्खुपडिवाए कीयं वा धोयं वा रतं वा पठ्ठे वा महं वा संपधूमियं वा तहगारं चत्थं अपुरिसंतरकर्ड जाव नो०, अह पु० पुरिसं० जान पडिगाहिया || (सू० १४४ ) 'साधुप्रतिज्ञया' साधुमुद्दिश्य गृहस्थेन क्रीतधौतादिकं वस्त्रमपुरुषान्तरकृतं न प्रतिगृह्णीयात्, पुरुषान्तरस्वीकृतं तु गृह्णीयादिति पिण्डार्थः ॥ अपि च सेभिक्खू बा २ से जाई पुण बत्वाइं जाणिल्या विरूवरूबाई महणमुलाई, तं० आईणगाणि वा सहिणाणि वा सहिकलाणाणि वा आयाणि वा कायाणि वा खोमियाणि वा दुगुहाणि वा पट्टाणि वा मलयाणि वा पशुनाणि वा अंसुवाणि वाचणंयाणि वा देसरागाणि वा अमिलाणि वा गल्फलाणि वा फालियाणि वा कोयवाणि वा कंबलगाणि वा पावराणिवा, अन्नयराणि वा तह० वत्थाई महणमुलाई लाभे संते नो पडिगाहिज्जा | से मि० इण्णपाउरणाणि वत्याणि जाणिजा, सं० उद्दाणि वा पेसाणि वा पेसलागि वा किण्हमिगाईणगाणि वा नीलमिगाईणगाणि वा गोरसि० कणगाणि For Pantry Use Only ~791 ~# श्रुतस्कं० २ चूलिका १ वस्त्रैष० ५ उद्देशः १ ॥ ३९३ ॥ www.india.org Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [9], उद्देशक [१], मूलं [१४५], नियुक्ति: [३१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: 9.8% प्रत सूत्रांक [१४५]] दीप का कणगकताणि वा कणगपट्टाणि वा कणगखझ्याणि वा कणगफुसियाणि वा वाघाणि वा विवग्याणि वा [ विगाणि वा] . आभरणाणि वा आभरणविचित्ताणि वा, अन्नयराणि तह. आईणपाउरणाणि वत्थाणि लाभे संते नो० ॥ (सू० १४५) स भिक्षुर्यानि पुनमहाधनमूल्यानि जानीयात् , तद्यथा-'आजिनानि' मूषकादिचर्मनिष्पन्नानि श्लक्ष्णानि-सूक्ष्माणि । 8च तानि वर्णच्छच्यादिभिश्च कल्याणानि-शोभनानि वा सूक्ष्मकल्याणानि, 'आयाणि'त्ति कचिद्देशविशेषेऽजाः सक्ष्मरो मवत्यो भवन्ति तत्पश्मनिष्पन्नानि आजकानि भवन्ति, तथा कचिद्देशे इन्द्रनीलवर्णः कर्पासो भषति तेन निष्पन्नानि कायकानि, 'क्षौमिक' सामान्यकासिक 'दुकूल' गौडविषयविशिष्टकासिक पट्टसूत्रनिष्पन्नानि पट्टानि 'मलयानि' मलयजसूत्रोत्पन्नानि 'पन्नुन्नति वल्कलतन्तुनिष्पन्नम् अंशुकचीनांशुकादीनि नानादेशेषु प्रसिद्धाभिधानानि, तानि च महाघमूल्यानीतिकृत्वा ऐहिकामुष्मिकापायभयाल्लाभे सति न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ स भिक्षुर्यानि पुनरेवभूतानि अजिननिष्पनानि 'प्रावरणीयानि' वस्त्राणि जानीयात् , तद्यथा-'उद्दाणि वत्ति उद्रा:-सिन्धुविषये मत्स्यास्तत्सूक्ष्मचर्मनिष्पन्नानि उ द्राणि 'पेसाणि'त्ति सिन्धुविषय एव सूक्ष्मचर्माणः पशवस्तवर्मनिष्पन्नानीति 'पेसलाणि'त्ति तच्चर्मसूक्ष्मपक्ष्मनिष्पन्नानि कृठाणनीलगौरमृगाजिनानि-प्रतीतानि 'कनकानि च' इति कनकरसच्छुरितानि, तथा कनकस्येव कान्तिर्येषां तानि कनकKIकान्तीनि तथा कृतकनकरसपट्टानि कनकपट्टानि एवं 'कनकखचितानि' कनकरसस्तबकाश्चितानि कनकस्पृष्टानि तथा व्याघ्रचर्माणि एवं 'वग्याणि'त्ति व्याघ्रचर्मविचित्रितानि 'आभरणानि आभरणप्रधानानि 'आभरणविचित्राणि गिरिषि अनुक्रम [४७९] ~792-23 Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [9], उद्देशक [१], मूलं [१४५], नियुक्ति: [३१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रुतस्कं०२ चूलिका १ (शी०) बखैष०५ सूत्रांक [१४५] उद्देशः १ दीप अनुक्रम श्रीआचा-14 डकादिविभूषितानि अन्यानि वा तथाप्रकाराण्यजिनप्रावरणानि लाभे सति न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ साम्प्रतं वस्त्रग्रहणारावृत्तिः भिग्रहविशेषमधिकृत्याह इइयाई आयतणाई उबाइकम्म अह भिक्खू जाणिज्जा चउहि पडिमाहिं वत्थं एसित्तए, तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा, से मि० २ उदेसिय बत्थं जाइजा, तं०-जंगियं वा जाव तूलकडं बा, तह. वत्थं सयं वा ण जाइज्जा, परो० फासुयं० ॥३९४॥ पढि०, पढमा पडिमा १ । अहावरा दुचा पडिमा-से भि० पेहाए वत्थं जाइजा गाहावई वा० कम्मकरी वा से पुब्बामेव आलोइजा--आउसोत्ति वा २ दाहिसि मे इत्तो अन्नयरं वत्थं ?, तहप्प० वत्थं सयं बा० परो फासुयं एस० लाभे० पडि०, दुचा पडिमा २। अहावरा तथा पडिमा-से भिक्ख पा से जं पण तं अंतरिज वा उत्तरिजं वा सहप्पगारं पत्थं सयं० पडि०, तच्चा पडिमा ३ । अहावरा चउत्था पडिमा-से० उझियधम्मियं वत्थं जाइजा जंचऽन्ने बहवे समण वणीमगा नावकंसंति तहप. उज्झिव० वयं सयं० परो० फासुर्य जाव ५०, चउत्थापढिमा ४ ॥ इश्चेवाणं चउण्हं पडिमाणं जहा पिंडेसणाए । सिया णं एताए एसणाए एसमाणं परो वइजा-आउसंतो समणा! इजाहि तुमं मासेण वा दसराएण या पंचराएण वा सुते सुततरे वा तो ते वयं अन्नयरं वत्थं दाहामो, एयप्पगारं निग्धोसं सुच्चा नि० से पुवामेव आलोइज्जा-आउसोति वा! २ नो खलु मे कप्पइ एयप्पगारं संगारं पंडिसुणित्तए, अभिकंखसि मे दाउं इवाणिमेव दलयाहि, से णेवं वयंत परो बइज्जा-आउ० स०! अणुगच्छाहि तो ते वयं अन्न० वत्थं दाहामो, से पुल्यामेव आलोइज्जा-आउसोत्ति ! वा २ नो खलु मे कप्पइ संगारवयणे पडिसुणित्तएक, से सेवं वयंत परोणेया वइज्जा [४७९] ॥३९४॥ wataneltmanam ~793~# Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [ १४६ ] दीप अनुक्रम [४८०] "आचार" अंगसूत्र - १ (मूलं निर्युक्तिः + वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२. ], घुडा [१]. अध्ययन [५] उद्देशक [१]. मूलं [१४६] निर्युक्तिः [ ३१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Jan Estication matinal - — आउसोति वा भइणित्ति वा! आहरेयं वत्थं समणस्स दाहामो, अवियाई वयं पच्छावि अप्पणो सबट्ठाए पाणाई ४ समारंभ समुद्दिस्स जाब चेइस्लामो, एयप्पगारं निम्पोसं सुधा निसम्म तहपगारं वत्थं अफासु जाव नो पडिगाहिज्जा || सिआ णं परो नेता वइजा आउसोति ! वा २ आहर एयं वत्यं सिणाणे वा ४ आसित्ता वा प० समणस्स णं दाहामो, एयपगारं निग्घोसं सुना नि० से पुव्वामेव आउ० भ० मा एवं तुमं वत्थं सिणाणेण वा जाव पसाहि वा, अभि० एमेव दलयाहि, से सेवं वयंतस्स परो सिणाणेण वा पर्धसित्ता दलज्जा, तहप्प० वत्थं अफा० नो प० ॥ से णं परो नेता वइज्जा० भ० ! आहर एवं वत्थं सीओद्गवियडेण वा २ उच्छोलेत्ता वा पोलेत्ता वा समणस्स णं दाहामो, एय० निग्घोसं तहेव नवरं मा एवं तुमं वत्थं सीओदग० उसि० उच्छोले हि वा पोलेहि वा, अभिरंखसि, सेसं तहेब जाव नो पडिगाहिज्जा ॥ से णं परो ने० आ० भ० ! आहरेयं वत्थं कंदाणि वा जाव हरियाणि वा विसोहित्ता समणस्त णं दाहामो, एय० निग्पोसं तहेव, नवरं मा एयाणि तुमं कंदाणि वा जाब विसोहेहि, नो खलु मे कप्पइ एयप्पगारे वत्थे पडिग्गाहित्तए, से सेवं वयंतस्स परो जाव विसोहित्ता दलइज्जा, तप्प० वत्थं अफासु नो प० ॥ सिया से परो नेता वत्थं निसिरिया, से पुब्बा० आ० भ० ! तुमं चेव णं संतियं वत्थं अंतोअंतेणं पडिलेहिजिस्सामि केवली वूया आ०, बत्तेण बद्धे सिवा कुंडले वा गुणे वा हिरण्णे वा सुवण्णे वा मणी वा जाव रयणावली वा पाणे वा बीए वा हरिए वा, अह भिक्खू णं पु० जं पुव्वामेव वत्थं अंतोअंतेण पडिलेहिज्जा | ( सू० १४६ ) 'इत्येतानि' पूर्वोक्तानि वक्ष्यमाणानि वाऽऽयतनान्यतिक्रम्याथ भिक्षुश्चतसृभिः 'प्रतिमाभिः' वक्ष्यमाणैरभिग्रहविशेष For Parts Only ~794 ~# Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [9], उद्देशक [१], मूलं [१४६], नियुक्ति: [३१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रुतस्कं०२ चूलिका १ प्रत राङ्गवृत्तिः सूत्रांक उद्देशः १ [१४६] दीप अनुक्रम [४८०]] श्रीआचा- वस्त्रमन्वेष्टुं जानीयात् , सद्यथा-'उद्दिष्टं प्राक् सङ्कल्पितं वस्त्रं याचिष्ये, प्रथमा प्रतिमा १, तथा 'प्रेक्षित' दृष्टं सद् वस्त्रं याचिये नापरमिति द्वितीया २, तथा अन्तरपरिभोगेम उत्सरीयपरिभोगेन वा शय्यातरेण परिभुक्तमाय वखं (शी.) ४ग्रहीष्यामीति तृतीया ३, तथा तदेवोत्सृष्टधार्मिक वस्त्रं ग्रहीष्यामीति चतुर्थी प्रतिमेति ४ सूत्रचतुष्टयसमुदायार्थः । ॥ ३९५॥ |आसां चतसृणां प्रतिमानां शेषो विधिः पिण्डैषणावन्नेय इति ॥ किञ्च-स्यात्' कदाचित् 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे 'ए तया' अनन्तरोक्तया वस्त्रैषणया वस्त्रमन्वेषयन्तं साधु परो वदेद् , यथा-आयुष्मन् ! श्रमण! त्वं मासादौ गते समागच्छ ततोऽहं वस्त्रादिकं दास्यामि, इत्येवं तस्य न शृणुयात् , शेषं सुगमं यावदिदानीमेव ददस्वेति, एवं वदन्तं साधु परो ब्रूयाद्, यथा-अनुगच्छ तावत्पुनः स्तोकवेलायां समागताय दास्यामि, इत्येतदपि न प्रतिशृणुयाद्, वदेच्चेदानीमेव दद खेति, तदेवं पुनरपि वदन्तं साधु 'परो' गृहस्थो नेताऽपरं भगिन्यादिकमाहूय वदे यथाऽऽनयतद्, वस्त्रं येन श्रमणाय | शादीयते, वयं पुनरात्मार्थं भूतोपमर्दैनापरं करिष्याम इति, एतनकारं वस्त्रं पश्चात्कर्मभयाल्लामे सति न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ || तथा स्थायर एवं वदेद्, यथा-स्नानादिना सुगन्धिद्रव्येणाघर्षणादिकां क्रियां कृत्वा दास्यामि, तदेतन्निशम्य प्रतिषेध || विदध्यात्, अथ प्रतिषिद्धोऽष्येचं कुर्यात् , ततो न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ एवमुदकादिना धावनादिसूत्रमपि ॥ स परो षदेद्याचितः सन् यथा कन्दादीनि वस्त्रादपनीय दास्यामीति, अत्रापि पूर्ववनिषेधादिकश्चर्च इति ॥ किञ्च-स्थायरो याचितः सन् कदाचिद्वस्त्रे 'निसृजेत् दद्यात्, ते च ददमानमेवं ब्रूयाद्, यथा-स्वदीयमेवाहं वस्त्रमन्तोपान्तेन प्रत्युपेक्षिष्ये, नैवा ॥ ३९५ ॥ ~795~# Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [9], उद्देशक [१], मूलं [१४७], नियुक्ति: [३१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ++ प्रत सूत्रांक [१४७] +C दीप अनुक्रम [४८१] ४प्रत्युपेक्षितं गृहीयात्, यतः केवली ब्रूयात्कर्मोपादानमेतत्, किमिति !, यतस्तत्र किश्चित्कुण्डलादिकमाभरणजातं बद्धं लाभवेत, सचिर्त वा किंचिद् भवेत् , अतः साधूनां पूर्वोपदिष्टमेतप्रतिज्ञादिक यद्वखं प्रत्युपेक्ष्य गृहीयादिति ॥ कि से मि० से जं. सह. ससंताणं तहप्प० वत्थं अफा० नो प० ॥ से मि० से जं अप्पडं जाब संताणगं अनलं अथिर अधुर्व अधारणि रोइजतं न रुबइ तह अफा० नो प०॥ से मि० से ० अप्पडं जाव संताणगं अलं विरं धुर्व धारणिजं रोइज्जतं रुमा, तह० वत्वं फासु पडि० ॥ से मि० नो नवए मे वत्येत्तिकटु नो बहुदेसिएण सिणाणेण वा जाव पसिना ॥ से मि० नो नवए मे अत्येत्तिकहू नो बहुदे० सीओदगविवडेण वा २ जाय पहोइजा ॥ से मिक्खू वा २ दुल्भिगंधे मे बत्पित्तिकटु नो बहु० सिणाणेण तहेव बहुसीओ० उस्सि० आलावो ॥ (सू० १४७) स भिक्षुर्यत्पुनः साण्डादिकं वखं आनीयात् तन्न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतं वस्त्रं जानीयात्, तद्यथा-1 अल्याण्डं यावदल्पसन्तानकं किन्तु 'अमलम्' अभीष्टकार्यासमर्थ हीनादित्वात् , तथा 'अस्थिरं' जीर्णम् 'अनुवं' स्व-14 ल्पकालानुज्ञापनात्, तथा 'अधारणीयम्' अप्रशस्तप्रदेशखञ्जनादिकलकाङ्कितस्वात्, तथा चोक्तम्-"चत्तारि देविया |भागा, दो य भागा य माणुसा। आसुरा य दुवे भागा, मज्झे पत्थस्स रक्खसो ॥१॥ देविएसुत्समो लाभो, माणुसेसु। अ मज्झिमो। आसुरेसु अ गेलर्स, मरणं जाण रक्खसे ॥२॥" स्थापना चेयम् । किश्च-"लक्खणहीणो उवही उवणई | १चत्वारो देविका भाषा हीच भागौ च मानुजी । आमुरौ च द्वौ भागी मध्ये वक्षस्य राक्षसौ ॥१॥ दैविकेयूतमो लाभो मानुष्ययोष मध्यमः । आसुरबायोच ग्लानत्वं मरणं जानीहि राक्षसे ॥२॥ २ लक्षणहीम उपधिरुपहन्ति शानदर्शनचारित्राणि. - 7354 www.tanditimaryam ~796~# Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [9], उद्देशक [१], मूलं [१४७], नियुक्ति: [३१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीआचारावृत्तिः (शी०) ॥ ३९६ ॥ [१४७] CAKAKARSA दीप अनुक्रम [४८१] नाणदसणचरित्त" इत्यादि, तदेवंभूतमप्रायोग्यं रोच्यमान' प्रशस्यमानं दीयमानमपि वा दात्रा न रोचते, साधवे न || श्रुतस्क०२ कल्पत इत्यर्थः॥ एतेषां चानलादीनां चतुर्णी पदानां षोडश भङ्गा भवन्ति, तत्राद्याः पञ्चदशाशुद्धाः, शुद्धस्त्वेकः षोडश- चूलिका १ स्तमधिकृत्य सूत्रमाह-स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतं वस्त्रं चतुष्पदविशुद्धं जानीयात्तच्च लाभे सति गृह्णीयादिति पिण्डार्थः ॥ बखैप०५ किश्च-स भिक्षुः 'नवम्' अभिनवं वखं मम नास्तीतिकृत्वा ततः 'बहुदेश्येन' इषद्बहुंना 'स्नानादिकेन' सुगन्धिद्रव्येणा- उद्देशः १ घृष्य प्रघृष्य वा नो शोभनत्वमापादयेदिति ॥ तथा-स भिक्षुः 'नवम्' अभिनवं वस्त्रं मम नास्तीतिकृत्वा ततस्तस्यैव || 'नो' नैव शीतोदकेन बहुशो न धावनादि कुर्यादिति ॥ अपि च–स भिक्षुर्यद्यपि मलोपचितत्वादुर्गन्धि वस्त्रं स्थात् तथा|ऽपि तदपनयनार्थं सुगन्धिद्रव्योदकादिना नो धावनादि कुर्याद् गच्छनिर्गतः, तदन्तर्गतस्तु यतनया प्रासुकोदकादिना लोकोपघातसंसक्तिभयात् मलापनयनाथ कुर्यादपीति ॥ धौतस्य प्रतापनविधिमधिकृत्याह से भिक्खू वा० अभिकंखिज वत्थं आयावित्तए वा प०, तहप्पगारं वत्थं नो अणंतरहियाए जाव पुढवीए संताणए आयाविज वा प० ॥ से मि० अमि० वत्थं आ० प० त० वत्थं थूणसि वा गिहेलुगंसि वा उसुयालंसि वा कामजलंसि वा अन्नयरे तहप्पगारे अंतलिक्खजाए दुबद्धे दुन्निक्खित्ते अणिकंपे चलाचले नो आ० नो प०॥ से भिक्खू वा० अभि० आयावित्तए वा तह. पत्थं कुकियंसि वा भित्तसि वा सिलसि वा लेलुसि वा अन्नयरे वा तह अंतलि जाव नो आयाविज वा प०॥ से मि० वत्थं आया. ५० तह० वत्वं खंधसि वा मं० मा० पासा. ह. अन्नयरे वा तह. अंतलि. नो आयाविज ||३९६॥ वा०प०॥ से तमायाए एगतमवकमिज्जा २ अहे झामथंडिहंसि वा जाप अन्नवरसि वा तहप्पगारंसि विहंसि पडिले wwwjaanaitimaryam ~797~# Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [9], उद्देशक [१], मूलं [१४८], नियुक्ति: [३१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक हिय २ पमधिय २ तो सं० वत्थं आयाविज वा पया०, एवं खलु, सया जइब्यासि (सू० १४८) तिमि ।। २-१-५-१ ।। वत्थेसणस्स पढमो उद्देसो समत्तो । स भिक्षुरव्यवहितायां भूमौ वस्त्रं नातापयेदिति॥ किश्च-स भिक्षुर्यद्यभिकासयेद्वस्त्रमातापयितुं ततः स्थूणादौ चलाचले स्थूणाविवस्त्रपतनभयान्नातापयेत् , तत्र गिहेलुका-उम्बरः 'उसूयालं' उदूखलं 'कामजलं' स्नानपीठमिति ॥ स भिक्षुभित्ति शिलादी पसनादिभयाखं नातापयेदिति ॥ स भिक्षुः स्कन्धमञ्चकमासादादावन्तरिक्षजाते वस्त्रं पतनादिभयादेव Ixनातापयेदिति ॥ यथा चातापयेत्तथा चाह-स भिक्षुस्तद्वस्त्रमादाय स्थण्डिलादि प्रत्युपेक्ष्य चक्षुषा प्रमृज्य च रजोहरणा दिना सत आतापनादिकं कुर्यादिति, एतत्तस्य भिक्षोः सामग्यमिति ॥ पञ्चमस्य प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥२-१-५-१॥ [१४८] दीप अनुक्रम [४८२] उक्ता प्रथमोदेशकः, साम्प्रतं द्वितीयः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके वस्त्रग्रहणविधिरमिहितस्तदनन्तरं धरणविधिरभिधीयते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योदेशकस्यादिसूत्रम् से मिक्खू वा० अहेसणिलाई वत्थाई जाइज्जा अहापरिग्गहियाई वत्थाई धारिजा नो धोइला नो रएज्जा नो धोयरत्ताई वत्थाई पारिजा अपलिचमाणो गामवरेसु० ओमचेलिए, एयं खलु वत्थधारिस्स सामग्गिय ।। से मि० गाहावाकुलं पविसिउकामे सब धीवरमायाए गाहापाइकुल निक्वमिन वा पविसिज वा, एवं बहिय विहारभूमि का विधारभूमि वा गामाणुगाम वा ki मा. सू. wwwandltimaryam | प्रथम चूलिकाया: पंचम-अध्ययनं “वस्त्रैषणा", द्वितीय-उद्देशक: आरब्ध: ~798~# Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [५], उद्देशक [२], मूलं [१४९], नियुक्ति: [३१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचा प्रत 8 सूत्रांक [१४९] ॥३९७॥ दीप अनुक्रम दूइजिजा, अह पु० तिव्वदेसियं वा वासं वासमाणं पेहाए जहा पिंडेसणाए नवरं सव्वं चीवरमायाए ॥ (सू० १४९) K श्रुतस्क०२ स भिक्षुः 'यथैषणीयानि अपरिकर्माणि वस्त्राणि याचेत यथापरिगृहीतानि च धारयेत्, न तत्र किश्चिरकुर्यादिति चूलिका १ दर्शयति, तद्यथा-न तदुखं गृहीतं सत् प्रक्षालयेत् नापि रञ्जयेत् तथा नापि बाकुशिकतया धौतरक्तानि धारयेत्, तथा- 1बप०५ भ्रतानि न गृह्णीयादित्यर्थः, तथाभूताधौतारक्तवस्त्रधारी च मामान्तरे गच्छन् 'अपलिउंचमाणे'त्ति अगोपयन् सुखेनैव उद्देशः २ गच्छेत्, यतोऽसौ-अवमचेलिकः' असारवस्त्रधारी, इत्येतत्तस्य भिक्षोर्वस्त्रधारिणः 'सामय' सम्पूर्णो भिक्षुभावः यदेवभूतवस्त्रधारणमिति, एतच्च सूत्रं जिनकल्पिकोद्देशेन द्रष्टव्यं, वस्त्रधारित्वविशेषणाद् गच्छान्तर्गतेऽपि चाविरुद्धमिति ॥ किश्च से इत्यादि पिण्डैषणावन्नेयं, नवरं तत्र सर्वमुपधिम् , अत्र तु स सर्व चीवरमादायेति विशेषः ॥ इदानी प्रातिहारिकोपहतवस्खविधिमधिकृत्याह से एगइओ मुहुत्तर्ग २ पाडिहारियं वत्वं जाइजा जाव एगाहेण वा दु० ति० चउ० पंचाहेण वा विषवसिय २ छवागचिछज्जा, नो तह वत्थं अप्पणो गिहिजा नो अन्नमन्नस्स दिजा, नो पामिचं कुजा, नो वत्वेण वत्थपरिणामं करिजा, नो पर उवसंकभित्ता एवं वइजा-आउ० समणा! अभिकंससि वत्थं धारित्तए वा परिहरित्तए वा?, विरं वा संतं नो पलिपिछविय २ परदृविज्जा, तहप्पगार वत्वं ससंधियं वत्वं तस्स चेव निसिरिजा नो णं साइजिजा।से एगइओ एयप्पगारं निग्धोसं सुचा नि० जे भयंतारो तहप्पगाराणि वस्थाणि ससंधियाणि मुहुत्तगं २ जाव एगाहेण वा० ५ विपवसिय २ उवागच्छंति, तह० वत्थाणि नो अप्पणा गिण्हंति नो अन्नभन्नस्स दलयंति तं चेव जाव नो साइजति, बहुवयणेण भाणि [४८३] ॥३९७॥ wwwandltimaryam ~799~# Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [9], उद्देशक [२], मूलं [१५०], नियुक्ति: [३१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: + प्रत सूत्रांक [१५०] दीप यव्यं, से हंता अहमवि महत्तगं पाडिहारियं वत्थं जाइत्ता जाव एगाहेण वा ५ विष्पवसिय २ उवागच्छिस्सामि, अवियाई एवं ममेव सिया, माइहाणं संफासे नो एवं करिना । (सू० १५०) स कश्चित्साधुरपरं साधुं मुहर्तादिकालोद्देशेन प्रातिहारिक वखं याचेत, याचित्वा चैकाक्येव नामान्तरादौ गतः, तत्र चासावेकाहं यावत्सञ्चाहं वोषित्वाऽऽगतः, तस्य चैकाकित्वात्स्वपतो वस्त्रमुपहतं, तच्च तथाविधं वस्त्रं तस्य समर्पयतोPsपि वखस्वामी न गृह्णीयात् , नापि गृहीत्वाऽन्यस्मै दद्यात् , नाप्युच्छिन्नं दद्याद् , यथा गृहाणेदं, त्वं पुनः कतिभिरहो भिर्ममान्यद्दद्यात्, नापि तदैव वस्त्रेण परिवत्र्तयेत्, न चापरं साधुमुपसंक्रम्यैतद्वदेत्, तद्यथा-आयुष्मन् ! श्रमण! 'अभिकाङ्गसि' इच्छस्येवंभूतं वस्त्रं धारयितुं परिभोक्तुं चेति !, यदि पुनरेकाकी कश्चिद्गच्छेत्तस्य तदुपहतं वस्त्रं समर्पयेत् | न स्थिर-दं सत् 'परिच्छिन्ध परिच्छिन्य' खण्डशः २ कृत्वा 'परिष्ठापयेत्' त्यजेत् , तथाप्रकारं वखं 'ससंधिय'न्ति उप हतं स्वतो वखस्वामी 'नास्वादयेत्' न परिभुञ्जीत, अपि तु तस्यैवोपहन्तुः समर्पयेत् , अन्यस्मै वैकाकिनो गन्तुः सम&ापयेदिति । एवं बहुवचनेनापि नेयमिति ॥ किश्च-'सः' भिक्षुः एकः कश्चिदेवं साध्वाचारमवगम्य ततोऽहमपि प्रातिहा रिक वस्त्रं मुहर्रादिकालमुद्दिश्य याचित्वाऽन्यत्रैकाहादिना वासेनोपहनिष्यामि, ततस्तद्वस्त्रं ममैव भविष्यतीत्येवं मातृस्थानं संस्पृशेत् , न चैतत्कुर्यादिति ॥ तथा से मि० नो वष्णमंताई बत्वाई विवण्णाई करिजा विवण्णाई न वष्णमंताई करिजा, अन्नं वा वरवं लभिस्सामित्तिकट्ठ नो अन्नमन्नरस विजा, नो पामिचं कुज्जा, नो वस्थेण वत्थपरिणाम कुज्जा, नो पर अवसंकमित्तु एवं पदेजा-माउसो! अनुक्रम [४८४] कर ~800~# Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [9], उद्देशक [२], मूलं [१५१], नियुक्ति: [३१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचारावृत्तिः (शी०) सूत्रांक SC श्रुतस्क०२ चूलिका १ विखैप०५ व उद्देशः २ [१५१] दीप अनुक्रम [४८५] सममिकस्खसि मे वत्थं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ?, थिरं वा संतं नो पलिच्छिदिय २ परिहविजा, जहा मेयं वत्थं पावगं परो मन्नइ, परं च णं अदत्तहारी पडिपहे पेहाए तस्स बत्थस्स नियाणाय नो तेसि भीमो उम्मग्गेणं गच्छिज्जा, जाव अप्पुस्मुए, तओ संजयामेव गामाणुगामं दूइजिज्जा ।। से मिक्खू वा० गामाणुगाम दूइजमाणे अंतरा से विहं सिया, से जं पुण विहं जाणिजा इमंसि खलु विहंसि बहवे आमोसगा वत्वपडियाए संपिंडिया गच्छेजा, णो तेसिं.भीभो उम्मगोणं गच्छेज्जा जाब गामा० दूइजेजा ॥ से भि० दूइज्जमाणे अंतरा से आमोसगा पडियागच्छेज्जा, ते णं आमोसगा एवं वदेजा-आठसं०! आहरेयं वयं देहि णिक्खियाहि जहा रियाए णाणत्त्रं वत्थपडियाए, एयं खलु० सया जबजासि (सू० १५१) तिबेमि वत्सणा समत्ता ॥२-१-५-२ स भिक्षुर्वर्णवन्ति वस्त्राणि चौरादिभयानो विगतवर्णानि कुर्यात् , उत्सर्गतस्तादृशानि न ग्राह्याण्येव, गृहीतानां वा परिकर्म न विधेयमिति तात्पर्याधः, तथा विवर्णानि न शोभनवर्णानि कुर्यादित्यादि सुगममिति ॥ नवरं 'विह'ति अटवीप्रायः पन्थाः । तथा तस्य भिक्षोः पथि यदि 'आमोषकाः' चौरा वस्त्रग्रहणप्रतिज्ञया सभागच्छेयुरित्यादि पूर्वोक्तं यावदे| तत्तस्य भिक्षोः सामग्यमिति ।। पञ्चममध्ययनं समाप्तम् ॥२-१-५॥ ॥३९८॥ walpatnamang ~801~# Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [६], उद्देशक [१], मूलं [१५१...], नियुक्ति: [३१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: अथ पात्रैषणाख्यं षष्ठमध्ययनम् । प्रत सूत्रांक [१५१] दीप अनुक्रम [४८५] पश्चमाध्ययनानन्तरं षष्ठमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इह प्रथमेऽध्ययने पिण्डविधिरुतः, स च वसतावागमोकेन विधिना भोकव्य इति द्वितीये वसतिविधिरभिहिता, तदन्वेषणार्थं च तृतीये ईसमितिः प्रतिपादिता, पिण्डाद्यर्थं प्रवृत्तेन कथं भाषितव्यमिति चतुर्थे भाषासमितिरुक्का, सच पटलकैर्विना न ग्राह्य इति तदर्थ पञ्चमे वसौषणा प्रति-४ पादिता, तदधुना पात्रेणापि विना पिण्डो न ग्राह्य इत्यनेन सम्बन्धेन पावैषणाऽध्ययनमायातम् , अस्य च चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्र नामनिष्पन्ने निक्षेपे पात्रैषणाऽध्ययनम् , अस्य च निक्षेपोऽर्थाधिकारश्चानन्तराध्ययन एव लाघवार्थ नियुक्तिकृताऽभिहितः, साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्छेदम् से भिक्खू वा अमिकसिब्बा पार्य एसिचए, से जं पुण पादं जाणिज्बा, जहा-अलाउयपाय ना दारुपायं वा मट्टियापार्य वा, तहप्पगारं पाये जे निम्नथे तरुणे जाव विरसंघषणे से एगं पायं धारिजा नो विश्यं ॥ से मिल परं अशजोयणमेराए पायपढिवाए नो अभिसंधारिना गमणाए ॥ से मि० से जं. अस्सि पडियाए एग साहम्मियं समुहिस्स पाणाई ४ जहा पिंडेसणाए बचारि आलावगा, पंचमे बावे समण पगणिय २ तहेव ॥ से मिक्लू वा. अस्संजए भिक्खुपडियाए बहवे समणमाहणे० वत्येसणाऽऽकावभो॥से भिक्खू वा० से जाई घुण पायाई जाणिवा विरूवरूबाई महतणमुलाई, त-अवपा CS wwwandltimaryam प्रथम चूलिकाया: षष्ठं-अध्ययनं “पात्रैषणा", आरब्धं प्रथम चूलिकाया: षष्ठं-अध्ययनं “पात्रैषणा", प्रथम-उद्देशक: आरब्ध: ~802~# Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [ १५२ ] दीप अनुक्रम [४८६] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (ft) ॥ ३९९ ॥ "आचार" अंगसूत्र - १ (मूलं निर्युक्तिः + वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [१] मूलं [१५२ ], निर्युक्तिः [ ३१५ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Etication Infamational - याणि वा उपाया० तंबपाया सीसगपा० हिरण्णपा० सुवण्णपा० रीरिअपाया० हारपुडपा० मणिकायकंसपाया० संखसिंगपा० दंतपा० चेलपा. सेलपा० चम्मपा० अन्नयराई वा तह० विरूवरूवाएं महद्वणमुलाई पायाई अफासुबाई नो० ॥ से मि० से जाई पुण पाया० विरुव० महद्भणबंधणाई, सं०-अवबंधणाणि वा जाव चम्मबंधणाणि वा अन्नयराई तप्प महद्धणबंधणाई अफा० नो प० ॥ इथेयाई आयतणाई उबाइकम्म अह भिक्खू जाणिना चउहिं पडिमाहिं पायं एसित्तए, तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा से मिक्खू० उद्दिसिय २ पायं जाएना, तंजहा - अलाउबपायं वा ३ तह० पायं सयं वाणं जाइला जान पडि० पढमा पढिमा १ अहावरा० से० पेहाए पायं जाइजा, तं० गाहावई वा कम्मकरी वा से पुव्वामेव आलोइला, आउ० भ० ! दाहिसि मे इत्तो अन्नयरं पादं तं० –लाउयपायें वा ३, तह० पायं सयं वा जाब पडि०, दुवा] पडिमा २ अह० से मि० से जं पुण पाये जाणिजा संगइयं वा वेजइयंतियं वा तप० पायं सयं वा जाव पडि०, तथा पडिमा ३ । अहावरा चउत्था पडिमा से भि० उज्झियधम्मियं जाएजा जावने बहुवे समणा जाव नावकंति तह० जाएजा जाव पडि०, चउत्था पडिमा ४ । इथेश्याणं चउण्डं पडिमार्ण अन्नयरं पडिमं जहा पिंडेसणाए ॥ से णं एयाए एसणाए एसमाणं पासिता परो वइजा, आउ० स० ! एज्जासि तुमं मासेण वा जहा बत्थेसणाए, से णं परो नेता ब०आ० भ० ! आहारेयं पायं तिल्लेण वा घ० नव० बसाए वा अभंगित्ता वा तद्देव सिणाणादि तद्देव सीओदुगाई कंदाई तहेव || से णं परो ने० आउ० स० ! मुहुत्तगं २ जाव अच्छाहि ताव अम्हे असणं वा उबकरेंसु वा उबक्खडें वा, तो ते वयं आउसो ० सपाणं सभोवणं पडिग्गहं दाहामो, तुच्छए पडिग्गहे दिने समणस्स नो सुदु ! For Parts Onl ~803~# श्रुतस्कं० २ चूलिका १ पात्रैष० ०६ उद्देशः १ ॥ ३९९ ॥ Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [६], उद्देशक [१], मूलं [१५२], नियुक्ति: [३१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५२] दीप अनुक्रम [४८६] साद भवइ, से पुज्यामेव आलोइजा-आउ० भइ०! नो खलु मे कप्पइ आहाकम्मिए असणे वा ४ भुत्तए वा०, मा उचकरेहि मा उवक्सडेहि, अभिकखसि मे दाङ एमेव दलयाहि, से सेवं वयंतस्स परो असणं वा ४ उवकरिता उबक्सडिचा सपाणं सभोयणं पडिग्गहगं दलइजा तह. पडिग्गहर्ग अफासुर्य जाव नो पडिगाहिज्जा ।। सिया से परो उवणित्ता पडिग्गहर्ग निसिरिजा, से पुज्वामे० आउ० भ० ! तुमं चेव णं संतियं पडिग्गहगं अंतोतेणं पडिलेहिस्सामि, केवली. आयाण, अंतो पडिग्गहगंसि पाणाणि वा बीया० हरि०, अह मिक्खूर्ण पु० ज पुब्बामेव पडिग्ाहगं अंतोअंतेणं पढि० सअंडाई सम्वे आलावगा भाणियन्वा जहा वत्थेसणाए, नाणतं तिल्लेण वा घय नव० वसाए वा सिणाणादि जाव अन्नवरंसि वा तहप्पगा० पंडिलंसि पडिलेहिय २ पम० २ तओ० संज० आमजिजा, एवं खलु० सया जएजा तिमि । (सू० १५२)२-१-६-१ स भिक्षुरभिकाङ्केत् पानमन्वेष्टुं, तत्पुनरेवं जानीयात्, तद्यथा-अलाबुकादिकं तत्र च यः स्थिरसंहननाद्युपेतः स एकमेव पात्रं विभृयात् न च द्वितीयं, स च जिनकल्पिकादिः, इतरस्तु मात्रकसद्वितीयं पात्रं धारयेत्, तत्र सङ्घाटके दि सत्येकस्मिन् भक्तं द्वितीये पात्रे पानकं, मात्रकं त्वाचार्यादिप्रायोग्यकृतेऽशुद्धस्य वेति ॥ से भिक्खू इत्यादीनि सूत्राणि सुगमानि यावन्महार्घमूल्यानि पात्राणि लाभे सत्यप्रासुकानि न प्रतिगृह्णीयादिति, नवरं हारपुडपाय'त्ति लोहपात्रमिति ॥ एवमयोबन्धनादिसूत्रमपि सुगम । तथा प्रतिमाचतुष्टयसूत्राण्यपि ववैषणावन्नेयानीति, नवरं तृतीयप्रतिमायां 'संगइयंति दातुः स्वाङ्गिक-परिभुतप्राय 'वेजयंतियति द्वित्रेषु पात्रेषु पर्यायेणोपभुज्यमानं पात्रं याचेत ॥ एतया' अनन्तरोंक्तया wwwandltimaryam ~804~# Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [६], उद्देशक [२], मूलं [१५२], नियुक्ति: [३१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्रांक [१५२] दीप अनुक्रम [४८६] श्रीआचा- पात्रैषणया पात्रमन्विषन्तं साधु प्रेक्ष्य परो ब्रूयाद् भगिन्यादिकं यथा-तैलादिनाऽभ्यज्य साधवे ददस्वेत्यादि सुगममितिश्रुतस्क०२ रावृत्तिः तथा-स नेता तं साधुमेवं ब्रूयाद् , यथा-रिक्त पात्रं दातुं न वर्तत इति मुहूर्त्तकै तिष्ठ त्वं यावदशनादिकं कृत्वा पाचकं चूलिका १ (शी०) भृत्वा ददामीत्येवं कुर्वन्तं निषेधयेत्, निषिद्धोऽपि यदि कुर्यात्ततः पात्रं न गृह्णीयादिति ॥ यथा दीयमानं गृह्णीयात्तथा- पात्रैष०६ |ऽऽह-तेन दात्रा दीयमानं पात्रमन्तोपान्तेन प्रत्युपेक्षतेत्यादि वस्त्रवन्नेयमिति, एतत्तस्य भिक्षोः सामग्यमिति ॥ षष्ठस्या- उद्देशः २ ध्यवनस्य प्रथमोद्देशकः परिसमातः ॥२-१-६-१॥ उद्देशकाभिसम्बन्धोऽयम्-इहानन्तरसूत्रे पात्रनिरीक्षणमभिहितमिहापि तच्छेषमभिधीयते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यादस्योद्देशकस्वेदमादिसूत्रम् से मिक्सू वा २ गाहावद्वकुलं पिंड. पविढे समाणे पुब्वामेव पेहाए पडिग्गाहर्ग अवटु पाणे पमज्जिय रयं तमे सं० गाहावई० पिंड निक्स०प०, केवली०, आउ०! अंतो पडिग्गहगंसि पाणे वा बीए वा हरि० परियावजिजा, अह मिक्खूणं पु० जं पुल्चामेव पेहाए पडिमाई अवहहु पाणे पमजिय रयं तओ सं० गाहावइ निक्समिज का २॥ (सू० १५३) स भिक्षुहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रविशन् पूर्वमेव भृशं प्रत्युपेक्ष्य पतम्रह, तत्र च यदि प्राणिनः पश्येत्तत-10 स्तान 'आहृत्य' निष्कृप्य त्यक्त्वेत्यर्थः, तथा प्रमृज्य च रजस्ततः संयत एवं गृहपतिकुलं प्रविशेद्वा निष्कामेद्धा इत्येषो-18 पि पाचविधिरेव, यतोऽत्रापि पूर्व पात्रं सम्यक् प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य च पिण्डो ग्राह्य इति पात्रगतैव चिन्तेति, किमिति ॥ ४०० पात्र प्रत्युपेक्ष्य पिण्डो माह्य इति ।, अप्रत्युपेक्षिले तु कर्मबन्धो भक्तीत्याह-केवली ज्याद् यथा कर्मोपादानमेतत् , यथा | wwwanditimaryam | प्रथम चूलिकाया: षष्ठं-अध्ययनं “पात्रैषणा", दवितीय-उद्देशक: आरब्ध: ~805-2 Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [६], उद्देशक [२], मूलं [१५३], नियुक्ति: [३१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५३] दीप अनुक्रम च कर्मोपादानं तथा दर्शयति–'अन्तः' मध्ये पतहकस्य प्राणिनो-द्वीन्द्रियादयः, तथा बीजानि रजो वा 'पर्यापो-11 रन्' भवेयुः, तथाभूते च पाने पिण्डं गृह्णतः कर्मोपादानं भवतीत्यर्थः, साधूनां पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतिज्ञादिकं यत्पूर्वमेव । पात्र प्रत्युपेक्षणं कृत्वा तद्गतप्राणिनो रजश्चापनीय गृहपतिकुले प्रवेशो निष्क्रमणं वा कार्यमिति । किश्च से मि० जाव समाणे सिया से परो आहह अंतो पडिग्गहगंसि सीओदगं परिभाइता नीहट्ट दलला, तहप्प० पटिग्गहगं परहत्यसि वा परपायंसि वा अफासुर्य जाव नो प०, से य आहब पडिग्गहिए सिया खिप्पामेव उदगंसि साहरिना, से पडिग्गाहमायाए पाणं परिडविजा, ससिणिद्धाए वा भूमीए नियमिक्षा ।। से० उदउहं वा ससिणिद्धं वा पडिम्गई नो आमजिज वा २ अह पु० विगओदए मे पडिग्गहए छिन्नसिणेहे तह पडिगई वओ० सं० आमजिजा वा जाव पयाविन वा ॥ से मि० गाहा. परिसिउकामे पडिग्गहमायाए गाहा० पिंड० परिसिज वा नि०, एवं महिया वियारभूमी विहारभूमी बा गामा० दूइजिजा, तिन्चदेसीयाए जहा विइयाए वत्थेसणाए नवरं इत्थ पडिम्पहे, एवं खलु तस्स० जं सबद्वेर्हि सहिए सया जएनासि (सू० १५४ ) तिबेमि ॥ पाएसणा सम्मत्ता ॥ २-१-६-२॥ स मिथुर्रहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रविष्टः सन् पानकं याचेत, तस्य च स्यात्-कदाचित्स परो गृहस्थोऽनाभोगेन प्रत्यनीकतया, तथाऽनुकम्पया विमतया वा गृहान्ता-मध्य एवापरमिन् पतहाई स्वकीये भाजने आहृत्य शीतोदक 'परिभाज्य' विभागीकृत्य 'पीहड्ड'त्ति निःसार्य दद्यात्, स-साधुस्खयापकारं शीतोदकं परहस्तगतं परपात्रगतं वाऽमासुक [४८७] wwwandltimaryam ~806~# Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१५४] दीप अनुक्रम [४८८] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ४०१ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [१] मूलं [ १५४ ], निर्युक्तिः [३१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः मिति मत्वा न प्रतिगृह्णीयात्, तद्यथाऽकामेन विमनस्केन वा प्रतिगृहीतं स्यात् ततः क्षिप्रमेव तस्यैव दातुरुदकभाजने प्रक्षिपेत्, अनिच्छतः कूपादौ समानजातीयोदके प्रतिष्ठापनविधिना प्रतिष्ठापनं कुर्यात्, तदभावेऽन्यत्र वा छायागर्त्तादौ प्रक्षिपेत्, सति चान्यस्मिन् भाजने तत् सभाजनमेव निरुपरोधिनि स्थाने मुचेदिति । तथा स भिक्षुरुद्कार्द्रादेः पतब्रहस्यामर्जनादि न कुर्यादीपच्छुष्कस्य तु कुर्यादिति पिण्डार्थः ॥ किच-स भिक्षुः कचिद् गृहपतिकुलादौं गच्छन् सपतद्रह एव गच्छेदित्यादि सुगमं यावदेतत्तस्य भिक्षोः सामग्र्यमिति ॥ षष्ठमध्ययनं समाप्तम् ॥ २-१-६ ॥ in Estication Intl - রবণ For Pantry Use Onl ~807~# श्रुतस्कं० २ चूलिका १ पात्रैष० ६ उद्देशः २ ॥ ४०१ ॥ www.anditary.org Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१५४ ] दीप अनुक्रम [૪૮] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [ - ], मूलं [ १५४...], निर्युक्ति: [ ३१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः अथ सप्तममवग्रहप्रतिमाख्य मध्ययनम् । उक्तं षष्ठमध्ययनमधुना सप्तममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - पिण्डशय्यावस्त्र पात्रादयोऽवग्रहमाश्रित्य भवन्तीत्यतोऽसावेव कतिविधो भवतीत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमान्तर्गतोऽर्थाधिकारोऽयं यथा साधुना विशुद्धोऽवग्रहो ग्राह्य इति, नामनिष्पन्ने तु निक्षेपेऽवग्रहप्रतिमेति नाम, तत्रावग्रहस्य नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्यादिचतुर्विधं निक्षेपं दर्शयितुकामो नियुक्तिकार आह दब्वे खिते काले भावेऽवि य उग्गहो चउद्धा उ । देविंद १ रायउग्गह २ गिहवइ ३ सागरिय ४ साहम्मी ॥ ३१६ ॥ द्रव्यावग्रहः क्षेत्रावग्रहः कालावग्रहो भावावग्रहश्चेत्येवं चतुर्विधोऽवग्रहः, यदिवा सामान्येन पञ्चविधोऽवग्रहः, तद्यथा - देवेन्द्रस्य लोकमध्यवर्त्तिरुचकदक्षिणार्द्धमवग्रहः १, राज्ञश्चक्रवर्त्त्यादेर्भरतादिक्षेत्रं २ गृहपतेग्रममहत्तरादेग्रमपाटकादिकमवग्रहः ३, तथा सागारिकस्य - शय्यातरस्य घट्ङ्गशालादिकं ४, साधर्मिकाः साधवो ये मासकल्पेन तत्रावस्थितास्तेषां वसत्यादिरवग्रहः सपादं योजनमिति ५, तदेवं पञ्चविधोऽवग्रहः, वसत्यादिपरिग्रहं च कुर्वता सर्वेऽप्येते यथाऽवसरमनुज्ञाप्या इति ॥ साम्प्रतं द्रव्याद्यवग्रहप्रतिपादनायाह Jan Estication Intamational दब्युग्गहो उ तिविहो सचित्ताचित्तमीसओ चैव । खित्तुग्गहोऽवि तिविहो दुविहो कालुग्गहो होइ ॥ ३१७| द्रव्याद्यवग्रह स्त्रिविधः, शिष्यादेः सचित्तो रजोहरणादेरचित्तः शिष्यरजोहरणादेर्मिश्रः, क्षेत्रावग्रहोऽपि सचित्तादि प्रथम चूलिकायाः सप्तमं अध्ययनं “ अवग्रह प्रतिमा”, आरब्धं For Pantry at Use Only ~808~# Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [७], उद्देशक -1, मूलं [१५४...], नियुक्ति: [३१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रुतस्क०२ चूलिका १ अवग्र०७ उद्देशः १ सूत्रांक [१५४] श्रीआचा- त्रिविध एव, यदिवा ग्रामनगरारण्यभेदादिति, कालावग्रहस्तु ऋतुबद्धवर्षाकालभेदाद्विधेति ॥भावावग्रहप्रतिपादनार्थमाह- रावृत्तिः मइउग्गहो य गहणुग्गहो य भावुग्गहो दुहा होइ। इंदिय नोइंदिय अत्थर्वजणे उग्गहो दसहा ॥ ३१८॥ (सी०) टा भावावग्रहो द्वेधा, तद्यथा-मत्यवग्रहो ग्रहणावग्रहश्च, तत्र मत्यवग्रहो द्विधा-अथावग्रहो व्यञ्जनावग्रहश्च, तत्राथोंव ग्रह इन्द्रियनोइन्द्रियभेदात् पोढा, व्यञ्जनावग्रहस्तु चक्षुरिन्द्रियमनोवर्जश्चतुर्धा, स एष सर्वोऽपि मतिभावावग्रहो दश- ॥४०२॥ धेति ॥ ग्रहणावग्रहार्थमाहगहणुग्गहम्मि अपरिग्गहस्स समणस्स गहणपरिणामो । कह पाडिहारियापाडिहारिए होइ? जइयव्वं ३१९ ।। _ अपरिग्रहस्य साधोर्यदा पिण्डवसतिवस्त्रपात्रग्रहणपरिणामो भवति तदास ग्रहणभावावग्रहो भवति, तस्मिंश्च सति 'कथं' केन प्रकारेण मम शुद्धं वसत्यादिकं प्रातिहारिकमप्रातिहारिक वा भवेदित्येवं यतितव्यमिति, प्रागुक्तश्च देवेन्द्राद्यवग्रहः पञ्चविधोऽप्यस्मिन् ग्रहणावग्रहे द्रष्टव्य इति ॥गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रानुगमे सूत्रमुचारणीयं, तवेदम् समणे भविस्सामि अणगारे अकिंचणे अपुत्ते अपसू परदत्तभोई पावं कम्मं नो करिस्सामित्ति समुठ्ठाए सव्वं भंते ! अविनादाण पञ्चक्खामि, से अणुपविसित्ता मामं वा जाव रावहाणि वा नेव सयं अविन गिहिजा नेवऽनेहिं अविन्न गिहाविना अविनं गिण्हंतेकि भन्ने न समणुजाणिज्जा, जेहिवि सविं संपन्वइए तेसिपि जाई छत्तमं वा आव चम्मछेयणगं वा तेसिं पुवामेव उम्मगह अणणुनविय अपडिलेहिय २ अपमजिव २ नो उग्गिव्हिज्जा वा परिगिणिहज वा, तेसिं पुस्वामेव जग्गाई जाइज्जा अणुनविय पढिलेहिय पमज्जिय वमो सं० डम्मिडिल ब० ॥ (सू० १५५) ACAAAAAAAX दीप अनुक्रम [४८८] RI|४०२॥ wataneltmanam प्रथम चूलिकाया: सप्तम-अध्ययनं "अवग्रह प्रतिमा', प्रथम-उद्देशक: आरब्ध: ~809~# Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [१५५], नियुक्ति: [३१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५५] दीप अनुक्रम [४८९] श्राम्यतीति श्रमणः-तपस्वी यतोऽहमत एवंभूतो भविष्यामीति दर्शयति-अनगारः' अगा-वृक्षास्तैर्निष्पन्नमगारं तन्न विद्यत इत्यनगारः, त्यक्तगृहपाश इत्यर्थः, तथा 'अकिञ्चनः' न विद्यते किमष्यस्वेत्यकिशनो, निष्परिग्रह इत्यर्थः, तथा 'अपुत्रः स्वजनबन्धुरहितो, निर्मम इत्यर्थः, एवम् 'अपशु द्विपदचतुष्पदादिरहितः, यत एवमतः परदत्तभोजी सन् पापं कर्म न करिष्यामीत्येवं समुत्थायैतनतिज्ञो भवामीति दर्शयति-यथा सर्व भदन्त ! अदत्तादानं प्रत्याख्यामि, दन्त-12 शोधनमात्रमपि परकीयमदत्तं न गृहामीत्यर्थः, तदनेन विशेषणकदम्बकेनापरेषां शाक्यसरजस्कादीनां सम्यक्त्रमणत्वं | निराकृतं भवति, स चैर्वभूतोऽकिञ्चनः श्रमणोऽनुप्रविश्य ग्राम वा याबदाजधानी वा नैव स्वयमदत्तं गृहीयात् नैवापरेण ग्राहयेत् नाप्यपरं गृह्णन्तं समनुजानीयात् , यैर्वा साधुभिः सह सम्यक् प्रनजितस्तिष्ठति वा तेषामपि सम्बन्ध्यु-| पकरणमननुज्ञाप्य न गृह्णीयादिति दर्शयति, तद्यथा-छत्रकमिति 'छद अपवारणे' छादयतीति छत्रं-वर्षाकल्पादि, यदिदाचा कारणिका कचित्कुणदेशादावतिवृष्टिसम्भवाच्छनकमपि गृह्णीयाद् यावचमच्छेदनकमध्यननुज्ञायाप्रत्युपेक्ष्य च ना वगृह्णीयात् सकृत् प्रगृह्णीयादनेकशः । तेषां च सम्बन्धि यथा गृह्णीयात्तथा दर्शयति-पूर्वमेव ताननुज्ञाप्य प्रत्युपेक्ष्य चक्षुषा प्रमृज्य रजोहरणादिना सकृदनेकशो वा गृह्णीयादिति ॥ किन से मि० आगंतारेसु वा ४ अणुवीइ उग्गई जाइज्जा, जे तत्थ ईसरे जे तत्थ समहिए ते उपगई अणुनविजा-काम खलु आउसो०! अहालंदं अहापरिन्नायं वसामो जाच आउसो! जाव आउसंतस्स लग्गदे जाव साहम्मिया एइतावं सगई उग्गिण्डिस्सामो, तेण पर विहरिस्सामो ॥ से किं पुण तत्वोग्गइंसि एवोगहियंसि जे तत्थ साइम्भिया संभोश्या समणुना चवाग आ.सु.६० JAIRELicatunintimathura wwwandltimaryam ~810~# Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [७], उद्देशक [१], मूलं [१५६], नियुक्ति: [३१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रुतस्कं०२ चूलिका १ अवग्र०७ उद्देशः १ सूत्रांक [१५६] दीप अनुक्रम श्रीआचा- पिछज्जा जे तेण सयमेसित्तए असणे वा ४ तेण ते साहम्मिया ३ उबनिमंतिजा, नो व णं परमडियाए ओगिव्हिय २ रावृत्तिः उवनि० ॥ (सू० १५६) (शी०) स भिक्षुरागन्तागारादौ प्रविश्यानुविचिन्त्य च-पर्यालोच्य यतिविहारयोग्य क्षेत्रं ततोऽवग्रहं वसत्यादिकं याचेत, यश्च| याच्यस्तं दर्शयति-यस्तत्र 'ईश्वरः' गृहस्वामी तथा यस्तत्र 'समधिष्ठाता' गृहपतिना निक्षिप्तभरः कृतस्तानवग्रह-क्षेत्रावग्रहम् | ॥४०३॥ 'अनुज्ञापयेत्' याचेत, कथमिति दर्शयति-'काम'मिति तवेच्छया 'खलु' इति वाक्यालङ्कारे आयुष्मन् ! गृहपते ! 'अ-1 हालंद'मिति यावन्मानं कालं भवाननुजानीते 'अहापरिन्नायति यावन्मात्रं क्षेत्रमनुजानीपे तावन्मानं कालं तावन्मानं |च क्षेत्रमाश्रित्य वयं वसाम इति यावत् , इहायुष्मन् ! यावन्मानं कालमिहायुष्मतोऽवग्रहो यावन्तश्च साधर्मिका:-साधवः |समागमिष्यन्ति एतायन्मात्रमवग्रहिष्यामस्तत ऊर्व बिहरिष्याम इति ॥ अवगृहीते चावग्रहे सत्युत्तरकालविधिमाह-तदेवमवगृहीतेऽवग्रहे स साधुः किं पुनः कुर्यादिति दर्शयति-ये तत्र केचन प्राघूर्णकाः 'साधर्मिकाः' साधवः 'साम्भोगिकाः' एकसामाचारीप्रविष्टाः 'समनोज्ञाः' उद्युक्तविहारिणः 'उपागच्छेयुः अतिथयो भवेयुः, ते चैवंभूता ये तेनैव साधुना | परलोकार्थिना स्वयमेषितव्याः, ते च स्वयमेवागता भवेयुः, तांश्चाशनादिना स्वयमाहृतेन स साधुरुपनिमन्त्रयेद् , यथा-गृदाह्रीत यूयमेतन्मयाऽऽनीतमशनादिकं क्रियतां ममानुग्रहमित्येवमुपनिमन्त्रयेत्, न चैव 'परवडियाए'त्ति परानीतं यदशनादि तभृशम् 'अवगृह्य' आश्रित्य नोपनिमन्त्रयेत् , किं तर्हि ?, स्वयमेवानीतेन निमन्त्रयेदिति ॥ तथा- से आगंतारेसु वा ४ आव से कि पुण तत्थोग्गहंसि एवोग्गहियसि जे तत्थ साहम्मिा अन्नसंभोरमा समणुना उबाग [४९० ॥४०३॥ JainEducatinintamathima wwtanditaram ~811~# Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१५७ ] दीप अनुक्रम [४९१] %%%%%%%%%%%%%%%% "आचार" अंगसूत्र - १ (मूलं निर्युक्तिः + वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२. ], घुडा [१]. अध्ययन [७]. उद्देशक [१]. मूलं [१७] निर्युक्तिः [ ३१९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - Jan Estication Ital च्छिआ जे तेण सयमेसित्तए पीढे वा फलए वा सिया वा संधारए वा तेण ते साहम्भिए अन्नसंभोइए समणुन्ने उबनि'मंतिजा नो चेवणं परबडियाए ओगिज्झिय उबनिमंतिया । से आगंतारेसु वा ४ जाब से किं पुण तत्थुम्गहंसि एवोग् गहिसि जे तत्थ गादावईण वा गादा० पुत्ताण वा सूई वा पिप्पलए वा कण्णसोहणए वा नइच्छेयणए वा तं अप्पणी एगस्स अट्ठार पाडिहारियं जाइता नो अन्नमन्नस्स दिन वा अणुपइज वा सयंकरणिजंतिक से तमायाए तत्थ गच्छजा २ पुरुवामेव उत्तार हत्थे कट्टु भूमीए वा उवित्ता इमं खलु २ त आढोइला, नो चेव णं सर्व पाणिणा परपाणिसि पचप्पि णिजा || ( सू० १५७ ) पूर्वसूत्रवत्सव, नवरसाम्भोगिकान् पीठफलकादिनोपनिमन्त्रयेद्, यतस्तेषां तदेव पीठिकादिसंभोग्यं नाशनादीनि ॥ किश्च तस्मिन्नवग्रहे गृहीते यस्तत्र गृहपत्यादिको भवेत् तस्य सम्बन्धि सूच्यादिकं यदि कार्यार्थमेकमात्मानमुद्दिश्य गृहीयात् तदपरेषां साधूनां न समर्पयेत्, कृतकार्यश्च प्रतीपं गृहस्थस्यैवानेन सूत्रोक्तेन विधिना समर्पयेदिति ॥ अपि चसे मि० से जं० उम्माहं जाणिजा अनंतरहियाए पुडवीए जाव संताणए तह० उग्गहूं नो गिरिजा वा २ ॥ से भि० से जं पुण उग्ग थूर्णसि वा ४ तह० अंतलिक्खजाए दुब्बद्धे जाव नो उगिण्डिजा वा २ ॥ से भि० से जं० कुलियंसि वा ४ जान नो उगिजि वा २ ॥ से भि० संबंसि वा ४ अन्नयरे वा तह० जाव नो उसाहं उगिहिज्ज वा २ ॥ से भि० से जं० पुण० ससागारि० सखुपसुभक्तपाणं नो पन्नस्स निक्खमणपवेसे जाव धम्माणुओगचिंताए, सेवं नचा तह उवस्सए ससागारिए तो उबमा उगिण्टिा वा २ ॥ से मि० से जं० गाहाबइकुलस्स मज्झमज्झेणं गंतुं पंथे पडिवद्धं वा नो For Parts Onl ~812~# Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [७], उद्देशक [१], मूलं [१५८], नियुक्ति: [३१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचारावृत्तिः (शी) ॥४०४॥ पन्नास जाव सेवं न० ॥ से मि० से जं. इह खलु गाहाबई वा जाब कम्मकरीओ वा अनमभं अकोसंति वा तहेष तिहाधि श्रुतस्क०२ सिणाणादि सीओदगवियादि निगिणाइ वा जहा सिज्जाए आलावगा, नवरं सागहवत्तम्बया ।। से भि० से जं. आइन संलिक्खे नो पनस्स. उगिव्हिज वा २, एवं खलु०॥(सू०१५८) उग्गहपडिमाए पढमो परेसी ॥२-१-७-१॥ ४ अवग्र०७ यत्पुनः सचित्तपृथिवीसम्बन्धमवग्रहं जानीयात्तन्न गृह्णीयादिति ॥ तथा-अन्तरिक्षजातमध्यवग्रहं न गृह्णीयादित्यादि शानियाहिउद्देशः २ शय्यावशेयं यावदुदेशकसमाप्तिः, नवरमवग्रहाभिलाप इति ॥ सप्तमस्य प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥ २-१-७-१॥ सूत्रांक [१५८] amra दीप अनुक्रम [४९२] उक्तः प्रथमोदेशका, अधुना द्वितीयः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-पूर्वोदेशकेऽवग्रहः प्रतिपादितस्तदिहापि तच्छेपप्रतिपादनायोद्देशकः, तस्य चादिसूत्रम् से आगंतारेसु वा ४ अणुवीइ समाई जाइजा, जे तत्व ईसरे० ते उम्गहं अणुनविना काम खलु आसमो! अहाळंदं अहापरिमार्य वसामो जाव आनसो! जाव आनसंतस्स उग्गहे जाव साहम्मिआए ताव साहं पग्गिहिस्सामो, सेण पर वि०, से किं पुण तत्व सग्गइंसि एवोगाहियसि जे तत्व समणाण वा माह छत्तए वा जाव चम्मछेदणए वा तं नो अंतोहितो पाहिं नीणिज्जा बहियाओ वा नो अंतो पविसिज्जा, सुत्तं वा नो परिबोहित्रा, नो सेसि किंचियि अप्पत्तियं परिणीय करिज्जा ॥ (सू० १५९) स भिक्षुरागन्तागारादावपरब्राह्मणाद्युपभोगसामान्ये कारणिकः सन्नीश्वरादिकं पूर्वप्रक्रमेणावग्रहं याचेत, तस्मिंश्चाव-| ॥४०४ | प्रथम चूलिकाया: सप्तम-अध्ययनं “अवग्रह प्रतिमा", द्वितीय उद्देशक: आरब्ध: ~813~# Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [७], उद्देशक [२], मूलं [१५९], नियुक्ति: [३१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५९] दीप अनुक्रम गृहीतेऽवग्रहे यत्तत्र श्रमणब्राह्मणादीनां छत्राद्युपकरणजातं भवेत्तन्नैवाभ्यन्तरतो बहिनिष्कामयेत् नापि . ततोऽभ्यन्तरं प्रवेशयेत् नापि ब्राह्मणादिकं सुप्त प्रतिबोधयेत् न च तेषाम् 'अप्पत्तिय'ति मनसः पीडां कुर्यात् तथा 'प्रत्यनीकता' प्रतिकूलतां न विदध्यादिति ॥ से मि० अभिकंखिजा अंबवणं उवागच्छित्तए जे तत्थ ईसरे २ ते उग्गाहं अणुजाणाविजा-कामं खलु जाव चिहरिस्सामो, से किं पुण० एवोग्राहियंसि अह मिक्खू इच्छिजा अंथं भुत्तए वा से जं पुण अंबं जाणिजा ससं ससत्ताणं तह . अंव अफा० नो प०॥ से मि० से ज० अप्पंड अप्पसंताणगं अतिरिच्छछिन्नं अम्बोच्छिन्नं अफासुब जाव नो पडिगाहिजा ॥ से भि० से अं० अपंडं वा जाब संताणगं तिरिच्छछिन्नं धुच्छिनं फा० पडि० ॥ से मि० अंबमित्तगं वा अंथपेसिर्व वा अंबचोयगं या भवसालगं वा अंबडालगं वा भुत्तए वा पायए वा, से जं. अंबमित्तगंवा ५ सोंडं अफा० नो पनि०॥से मिक्खू वा २ से जं. अचं वा अंधमित्त वा अप्पंढं० अतिरिच्छछिन्नं २ अफा० नो ५०॥से जं. अषडालगं वा अपंड ५तिरिकहच्छिन्नं बुन्छिन्नं फासुर्य पडि० ॥ से मि० अमिकंखिजा नछुवणं नवागच्छित्तए, जे तत्थ ईसरे जाव उम्गाइसि० ॥ अह भिक्खू इच्छिज्जा उच्छु मुत्तए वा पा०, से जं. उच्छु जाणिवा सभडं जाव नो प०, अतिरिच्छछिन तहेब, तिरिच्छछिमेऽवि तद्देव ॥ से मि० अभिकखि० अंतरच्छुयं वा उच्छुगंडियं वा नछुचोयगं वा उकळुसा० साछुटा० भुत्तए या पाय०, सेज पु० आंतरच्छुयं वा जाव डाळगं वा सबं० नो प०॥ से मि० से जं. अंतरच्छुर्य वा० अप्पंह वा० जाव पडि०, अतिरिच्छच्छिन्नं तहेव ।। से मि० ल्हसणवणं उबागछित्तए, तहेब तिनिधि आलावगा, नवरं [४९३] wwwandltimaryam ~814~# Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [७], उद्देशक [२], मूलं [१६०], नियुक्ति: [३१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: CA प्रत श्रुतस्क०२ चूलिका १ | अवग्र०७ उद्देशः २ सूत्रांक (शी) [१६०] दीप अनुक्रम श्रीआचा- लामुणं ।। से मि० लहसुणं वा ल्हमुणकद वा ल्ह. चोयगं वा महसुणनालगं वा भुत्तए वा २ से ज. लसुणं वा जाव राङ्गवृत्तिः लसुणबीयं या सअंडं जाव नो प०, एवं अतिरिच्छच्छिन्नेऽवि तिरिच्छछिन्ने जाव प०॥ (सू०१६०) स भिक्षुः कदाचिदाबयनेऽवग्रहमीश्वरादिकं याचेत, तत्रस्थश्च सति कारणे आनं भोक्तुमिच्छेत् , तच्चानं साण्ड ॥४०५॥ राससन्तानकमप्रामुकमिति च मत्वा न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ किच-स भिक्षुर्यत्पुनराम्रमल्पाण्डमल्पसन्तानकं वा जानी यात् किन्तु 'अतिरथीनच्छिन्नं' तिरश्चीनमपाटितं तथा 'अव्यवच्छिन्नम्' अखण्डितं यावदमासुकं न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ तथा-स भिक्षुरल्याण्डमल्पसन्तानकं तिरश्चीनच्छिन्नं तथा व्यवच्छिन्नं यावत्नासुकं कारणे सति गृहीयादिति । एवमामावयवसम्बन्धि सूत्रत्रयमपि नेयमिति, नवरम् -'अंवभित्तयं ति आम्रार्द्धम् 'अंबपेसी' आखफाली 'अंबचोयगं'ति आपछली सालगं-रसं 'डालगं'ति आवश्लक्ष्णखण्डानीति ॥ एवमिक्षुसूत्रत्रयमप्यानसूत्रवन्नेयमिति, नवरम् 'अंतरुच्छुयं ति पर्वमध्यमिति ॥ एवं लशुनसूत्रत्रयमपि नेयमिति, आबादिसूत्राणामबकाशो निशीथपोडशोदेशकादवगन्तव्य इति ॥ साम्प्रतमवग्रहाभिग्रहविशेषानधिकृत्याह से मि० आगंतारेसु वा ४ जावोग्गहियसि जे तत्थ गाहाबईण वा गाहा. पुत्ताण वा इयाई आयतणाई उवाइकम्म अह भिक्खू जाणिजा, इमाहि सत्तहिं पडिमाहिं उग्गहं उग्गिणिहत्तए, तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा-से आगंतारेसु वा ४ अणुवीइ उगई जाइजा जाव विहरिस्सामो पढमा पढिमा १ । अहावरा० जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवई-अहं च खलु अन्भेसि भिक्खूणं अट्ठाए उग्गह उग्गिहिस्सामि, अण्णेसि भिक्खूणं उग्गहे उम्गहिए उवल्लिसामि, दुगा पडिमा २ । अहा [४९४] A ॥४०५॥ KAX JAINEucation.intamatund www.tanastram.org ~815~# Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [७], उद्देशक [२], मूलं [१६१], नियुक्ति: [३१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६१] दीप अनुक्रम [४९५] बरा० जस्स णं भि. अहं प० जग्गिहिस्साभि अन्नेसि च उग्गहे उग्गहिए नो उवलिस्सामि, तणा पडिमा ३ । अहावरा० जस्स णं मि० अहं च. नो उम्गहं उम्गिहिस्सामि, अन्नेसि च उग्गहे उम्गहिए उवल्लिस्सामि, पउत्था पडिमा ४। अहावरा० जस्स णं अहं च खलु अपणो अढाए उग्गहं चउ०, नो दुण्हं नो तिहं नो चहं नो पंचण्ई पंजमा पडिमा ५। अहावरा से मि० जस्स एव उग्गहे उवलिइशा जे तत्थ अहासमन्नागए इकडे बा जाव पलाले तस्स लाभे संवसिजा, तस्स अलाभे उकुटुभो वा नेसजिओ वा विहरिजा, छट्ठा पडिमा ६ । अहावरा सजे मि० अहासंथटमेव उम्गहं जाइजा, तंजहा-पुढविसिलं वा कहसिलं वा अहासंथडमेव तस्स लाभे संते, तस्स अलामे छ० ने० विहरिजा, सत्तमा पडिमा ७ । इश्वेयासिं सत्तण्हं पडिमाणं अन्नयरं जहा पिंडेसणाए ॥ (सू०१६१) स भिक्षुरागन्तागारादायवग्रहे गृहीते ये तत्र गृहपत्यादयस्तेषां सम्बन्धीन्यायतनानि पूर्वप्रतिपादितान्यतिक्रम्यैतानि च वक्ष्यमाणानि कर्मोपादानानि परिहत्यावग्रहमवग्रहीतुं जानीयात् , अथ भिक्षुः सप्तभिः प्रतिमाभिरभिग्रहविशेषैरवग्रह गृह्णीयात् , तत्रेयं प्रथमा प्रतिमा, तद्यथा-स भिक्षुरागन्तागारादौ पूर्वमेव विपिन्त्यैवंभूतः प्रतिश्रयो मया ग्राह्यो नान्य-1161 थाभूत इति प्रथमा । तथाऽन्यस्य च भिक्षोरेवंभूतोऽभिग्रहो भवति, तद्यथा-अहं च खवन्येषां साधूनां कृतेऽवग्रह 'गृहीष्यामि' याचिष्ये, अन्येषां वाऽवग्रहे गृहीते सति 'उपालयिष्ये' वत्स्यामीति द्वितीया । प्रथमा प्रतिमा सामान्येन, || इयं तु गच्छान्तर्गतानां साधूनां साम्भोगिकानामसांभोगिकानां चोद्युक्तविहारिणां, यतस्तेऽन्योऽन्या) याचन्त इति । तृतीया त्वियम्-अन्यार्थमवग्रहं याचियेऽन्यावगृहीते तु न स्थास्यामीति, एषा त्वाहालन्दिकानां, यतस्ते सूत्रार्थविशेष ~816~# Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [७], उद्देशक [२], मूलं [१६२], नियुक्ति: [३१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रुतस्कं०२ चूलिका १ अवन०७ | उद्देशः २ सूत्रांक [१६२] ॥४०६॥ अथापरा सप्तमी दीप अनुक्रम [४९६] श्रीआचा- माचार्यादभिकासन्त आचार्या याचन्ते । चतुर्थी पुनरमन्येषां कृतेऽवग्रहं न याचिष्ये अन्यावगृहीते च वरल्यामीति, रामवृत्तिः इयं तु गच्छ एवाभ्युद्यतविहारिणां जिनकल्पाद्यर्थ परिकर्म कुर्वताम् । अधापरा पञ्चमी-अहमात्मकृतेऽवग्रहमवग्रही(शी०) प्यामि न चापरेषां द्विविचतुष्पश्थानामिति, इयं तु जिनकल्पिकस्य । अथापरा पष्ठी-पदीयमवग्रहं ग्रहीष्यामि तदीयमे वोत्कटादिसंस्तारकं ग्रहीष्यामि, इतरथोत्कुटुको वा निषण्णाः उपविष्टो वा रजनी गमिष्यामीत्येषा जिनकल्पिकादेरिति । अथापरा सप्तमी-एव पूर्वोक्ता, नवरं यथासंस्तृतमेव शिलादिकं ग्रहीष्यामि नेतरदिति, शेषमात्मोत्कर्षवर्जनादि पिण्टेष-| Aणावन्नेयमिति ॥ किश्च सुर्य मे आसतेणं भगवया एवमक्खायद खलु थेरेहिं भगवंतेहिं पंचषिदे सग्गहे पन्नत्ते, त० देविंदरगाहे १ रायसगहे २ गाहावाजगद्दे ३ सागारियलग्गद्दे ४ साहम्मिवलम्ग० ५, एवं खलु तस्स भिक्गुस्स भिक्षुणीए वा सामग्गियं (सू० १६२) जगदपडिमा सम्मत्ता ।। अध्ययनं समा सप्तमम् ।। २-१-७-२ ॥ श्रुतं मयाऽऽयुष्मता भगवतवमाख्यातम्-इह खलु स्थविरैर्भगवद्भिः पञ्चविषोऽवग्रहो व्याख्यातः, तद्यथा-देवेन्द्रावग्रह इत्यादि सुखोनेयं यावदुद्देशकसमाप्तिरिति ॥ अवग्रपतिमाख्यं सप्तममध्ययनं समाप्त, तत्समाप्तौ प्रथमाऽऽचारानचूला समाप्ता ॥२-१-७॥ ४०६ wwwandltimaryam ~817~# Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [१], उद्देशक [-1, मूलं [१६२...], नियुक्ति: [३२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सप्तसप्तिकाख्या द्वितीया चूला। प्रत सूत्रांक [१६२] दीप अनुक्रम [४९६] उक्तं सप्तममध्ययनं, तदुक्तौ च प्रथमचूलाऽभिहिता, इदानी द्वितीया समारभ्यते, अस्थाश्चायमभिसम्बन्धः-इहान-18 न्तरचूडायां वसत्यवग्रहः प्रतिपादितः, तत्र च कीदृशे स्थाने कायोत्सर्गस्वाध्यायोचारप्रश्रवणादि विधेयमित्येताति-| Mपादनाय द्वितीयचूडा, सा च सप्ताध्ययनात्मिकेति नियुक्तिकृदर्शयितुमाह सत्तिकगाणि इकस्सरगाणि पुब्व भणियं तहिं ठाणं । उद्धट्ठाणे पगयं निसीहियाए तहिं छकं ॥ ३२० ॥ 'सप्तककान्येकसराणी'ति सप्ताध्ययनान्युद्देशकरहितानि भवन्तीत्यर्थः, तत्रापि 'पूर्व प्रथम स्थानाख्यमध्ययनमभिहितमित्यतस्तन्याख्यायते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपकमान्तर्गतो धिकारोऽयम्-किंभूतं साधुना स्थानमाश्रयितव्यमिति, नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे स्थानमिति नाम, तस्य च नामादिश्च-2 तुर्धा निक्षेपः, तत्रेह द्रव्यमाश्रित्योर्द्धस्थानेनाधिकारः, तदाह नियुक्तिकारः-अर्द्धस्थाने 'प्रकृत' प्रस्ताव इति, द्वितीयमध्ययनं निशीथिका, तस्याश्च पट्को निक्षेपः, तं च स्वस्थान एव करिष्यामीति । साम्प्रतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम् से भिक्खू वा० अभिकखेजा ठाणं ठाइत्तए, से अणुपविसिज्जा गाम वा जाव रायवाणि बा, से जं पुण ठाणं जाणिजासहं जाव मकडासंताणयं सं सह ठाणं अफासुर्य अणेस० लाभे संते नो प०, एवं सिजागमेण नेयम्वं जाव उदयपसू P द्वितीया चूलिका- “सप्तसप्तिका" दवितीया चूलिकाया: प्रथमा सप्तसप्तिका- 'स्थान-विषयक' ~818~# Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१६३] दीप अनुक्रम [४९७ ] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ४०७ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [१], उद्देशक [-], मूलं [१६३], निर्युक्तिः [३२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः याइति ॥ इबेयाई आयतणाई उवाइकम्म २ अ मिक्लू इच्छिला चउहिं पडिमाहिं ठाणं ठाइत्तए, तत्थिमा पढमा पडिमा —अचितं खलु उवसनिजा अवलंबिज्जा कारण विप्परिकम्माइ सवियारं ठाणं ठाइस्सामि पडमा पडिमा । अहावरा दुजा पडिमा — अचित्तं खलु उवसज्जेज्जा अवलंबिज्जा कारण विप्परिकम्माइ नो सवियारं ठाणं ठाइस्सामि दुबा पडिमा । अहावरा तथा पडिमा अचित्तं खलु उवसज्जेज्जा अवलंबिजा नो कारण विपरिकम्माई नो सविवारं ठाणं ठाइस्सामित्ति तथा पडिमा अहावरा घडत्था पडिमा - अचित्तं खलु उवसलेला नो अवलंबिला कारण तो परकम्माई तो सविवारं ठाणं ठाइस्सामित्ति बोसकाए बोस केसमंसुलोमनहे संनिरुद्धं वा ठाणं ठाइस्सामित्ति चउत्था पडिमा इलेयासि चउं परिमाणं जात्र परायितरायं बिहरिजा, नो किंचिवि बज्जा, एवं खलु तस्स० जाव जइज्जासि तिमि (सू० १६३ ) ॥ ठाणासत्तिकयं सम्मतं ।। २-२-८ ।। 'स' पूर्वो भिक्षुर्यदा स्थानमभिकाङ्क्षत स्थातुं तदा सोऽनुप्रविशेामादिकम्, अनुप्रविश्य च स्थानमूर्द्धस्थानाद्यर्थमन्त्रेषयेत्, तच्च साण्डं यावत्स सन्तानकमप्रामुकमिति लाभे सति न प्रतिगृह्णीयादिति, इत्येवमन्यान्यपि सूत्राणि शय्याद्रष्टव्यानि यावदुदकप्रसृतानि कन्दादीनि यदि भवेयुस्तत्तथाभूतं स्थानं न गृह्णीयादिति ॥ साम्प्रतं प्रतिमोद्देशेनाह'इत्येतानि' पूर्वोक्तानि वक्ष्यमाणानि वा 'आयतनानि' कर्मोपादानानि 'उपातिक्रम्य २' अतिलध्याथ भिक्षुः स्थानं स्थातुमिच्छेत् 'चतसृभिः प्रतिमाभिः' अभिग्रहविशेषैः करणभूतैः, तांश्च यथाक्रममाह, तत्रेयं प्रथमा प्रतिमा- कस्यचिद्भिक्षो रेवंभूतोऽभिग्रहो भवति, यथाऽहमचित्तं स्थानमुपाश्रयिष्यामि, तथा किञ्चिदचित्तं कुड्यादिकमवलम्बयिष्ये कायेन, तथा Jan Estication Ital For Pantry at Use Only ~819 ~# श्रुतस्कं० २ चूलिका २ स्थाना०१ ॥ ४०७ ॥ www.india.org Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१६३] दीप अनुक्रम [४९७ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [१], उद्देशक [-], मूलं [१६३], निर्युक्तिः [३२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः 'विपरिक्रमिष्यामि' परिस्पन्दं करिष्यामि, हस्तपादाद्याकुञ्चनादि करिष्यामीत्यर्थः, तथा तत्रैव सविचारं स्तोकपादादि| विहरणरूपं स्थानं 'स्थास्यामि' समाश्रयिष्यामि, प्रथमा प्रतिमा । द्वितीयायां वाकुञ्चनप्रसारणादिक्रियामबलम्बनं च | करिष्ये न पादविहरणमिति । तृतीयायां त्वाकुञ्चनप्रसारणमेव नावलम्बनपादविहरणे इति । चतुर्थ्यां पुनस्त्रयमपि न विधत्ते, स चैवंभूतो भवति - व्युत्सृष्टः त्यक्तः परिमितं कालं कायो येन स तथा तथा व्युत्सृष्टं केशश्मश्रुलोमनखं येन स तथा, एवंभूतश्च सम्यनिरुद्धं स्थानं स्थास्यामीत्येवं प्रतिज्ञाय कायोत्सर्गव्यवस्थितो मेरुवन्निष्प्रकम्पस्तिष्ठेत्, यद्यपि कश्चिकेशाद्युत्पाटयेत्तथाऽपि स्थानान्न चलेदिति, आसां चान्यतमां प्रतिमां प्रतिपद्य नापरमप्रतिपन्नप्रतिमं साधुमपवदेन्नात्मोत्कर्षे कुर्यान किश्चिदेवजातीयं वदेदिति ॥ प्रथमः ससैककः समाप्तः ॥ २-२-१ ॥ प्रथमानन्तरं द्वितीयः सप्तैककः, सम्बन्धश्चास्य- इहानन्तराध्ययने स्थानं प्रतिपादितं तच्च किंभूतं स्वाध्याययोभ्यं ?, तस्यां च स्वाध्यायभूमौ यद्विधेयं यच्च न विधेयमित्यनेन सम्बन्धेन निपीधिकाऽध्ययनमायातम् अस्य च चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्र नामनिष्पन्ने निक्षेपे निपीथिकेति नाम, अस्य च नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्र कालभावैः पड़िधो निक्षेपः, नामस्थापने पूर्ववत्, द्रव्यनिषीथं नोआगमतो ज्ञशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तं यद्रव्यं प्रच्छन्नं क्षेत्रनिषीथं तु ब्रह्मलोकरिष्ठविमानपार्श्ववर्त्तिभ्यः कृष्णराजयो यस्मिन् वा क्षेत्रे तद्व्याख्यायते, कालनिपीर्थं कृष्णरजन्यो यत्र वा काले निषीथं व्या१ निशीथनिषधयोः प्राकृते एकेन निखीइशब्देन वाच्यत्वात् एवं निक्षेपवर्णनं तथा च निधिका निशीधिकेत्युभयमपि संगतमभिधानयोः । Jan Estication Inmatnl द्वितीया चूलिकायाः द्वितीया सप्तसप्तिका 'निषिधिका विषयक' For Party at Use Only ~820~# www.indiary.org Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [२], उद्देशक [-], मूलं [१६४], नियुक्ति: [३२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रुतस्कं०२ चूलिका २ निषि०२ (शी०) सूत्रांक [१६४] दीप अनुक्रम [४९८] श्रीआचा- ख्यायत इति, भावनिषीय नोआगमत इदमेवाध्ययनम् , आगमैकदेशत्वात् , गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रा- राङ्गवृत्तिः नुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम् से मिक्खू वा २ अभिक निसीहिचं फासुर्य गमणाए, से पुण निसीहियं आणिजा-सअंडं तहअफा० नो चेहरसामि ॥ से भिक्खू० अभिकंखेजा निसीहियं गमणाए, से पुण नि० अप्पपाणं अप्पनीयं जाव संशाणयं तह निसीहियं फासुयं ॥४०८।। चेइरसामि, एवं सिजागमेणं नेयव्वं जाव उदयप्पसूयाई । जे तत्य दुवग्गा तिवग्गा चउवग्गा पंचवग्गा वा अभिसंधारिति निसीहियं गमणाए ते नो अन्नमन्नस्स कार्य आलिंगिज वा विलिंगिज वा चुविज वा दंतेहिं वा नहेहिं वा अञ्छिदिन था बुझ्छि०, एयं खलु० जं सबढेहिं सहिए समिए सया जएज्जा, सेयमिण ममिजासि तिमि । (सू० १६४) निसी हियासत्तिक्कयं ॥ २-२-९॥ I स भावभिक्षुर्यदि वसतेरुपहताया अन्यत्र निषीधिका-स्वाध्यायभूमि गन्तुमभिकात, तां च यदि साण्डा यावत्सससन्तानका जानीयात्ततोऽप्रासुकत्वान्न परिगृह्णीयादिति । किश्श-स भिक्षुरल्पाण्डादिकां गृह्णीयादिति ॥ एवमग्यान्यपि सूत्राणि शय्यावन्नेयानि यावद् यत्रोदकप्रसूतानि कन्दादीनि स्युस्तां न गृह्णीयादिति ॥ तत्र गतानां विधिमधिकृत्याहये तत्र साधवो नषेधिकाभूमौ द्वित्राद्या गच्छेयुस्ते नान्योऽन्यस्य 'कार्य' शरीरमालिङ्गयेयुः-परस्परं गात्रसंस्पर्श न कुयुरित्यर्थः, नापि विविधम् अनेकप्रकारं यथा मोहोदयो भवति तथा विलिङ्गेयुरिति, तथा कन्दर्पप्रधाना वसंयोगादिकाः क्रिया न कुर्युरिति, एतत्तस्य भिक्षोः सामग्र्यं यदसौ 'सर्वाथैः' अशेषप्रयोजनैरामुष्मिकैः ‘सहितः समन्वितः तथा 'स ॥ munaltimaryam ~821~# Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [२], उद्देशक [-], मूलं [१६४], नियुक्ति: [३२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत मितः' पञ्चभिः समितिभिः 'सदा' यावदायुस्तावत्संयमानुष्ठाने यतेत, एतदेव च श्रेय इत्येव मन्येतेति ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ [निपीधिकाऽध्ययनं द्वितीयमादितो नवमं समाप्तमिति ॥२-२-२॥ सूत्रांक [१६४] दीप अनुक्रम [४९८] साम्प्रतं तृतीयः सप्तैकका समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरे निषीधिका प्रतिपादिता, तत्र च कथम्भूतायां | भूमावुच्चारादि विधेयमिति, अस्य च नामनिष्पन्ने निक्षेपे उच्चारप्रश्रवण इति नाम, तदस्य निरुत्त्यर्थं नियुक्तिकृदाहINI उच्चवह सरीराओ उचारो पसवइत्ति पासवणं । तं कह आयरमाणस्स होइ सोही न आइयारो ॥३२॥ 15. शरीरादुत्-प्राबल्येन च्यवते-अपयाति चरतीति वा उच्चार:-विष्ठा, तथा प्रकर्षेण श्रवतीति प्रश्रवणम्-एकिका, तच कथमाचरतः साधोः शुद्धिर्भवति नातिचार इति? | उत्तरगाधया दर्शयितुमाह- .. मुणिणा छफायदयावरण सुत्तभणियंमि ओगासे । उच्चारविउस्सग्गो काययो अप्पमत्तेणं ॥३२२ ॥ 'साधुना' षड्जीवकायरक्षणोद्युक्तेन वक्ष्यमाणसूत्रोक्त स्थण्डिले उच्चारप्रश्रवणे विधेये अप्रमत्तेनेति । निर्युक्त्यनुगमानन्तरं सूत्रानुगमे सूत्र, तच्चेदम् से मि० उच्चारपासवणकिरियाए उव्याहिजमाणे सयस्स पायपुंछणस्स असईए तओ पच्छा साहम्मियं जाइजा ।। से मि० से जं पु० डिहं जाणिज्जा सई० तह. थंडिलंसि नो उच्चारपासवणं वोसिरिजा ॥ से मिजं पुण थं० अप्पपाणं जाव भा.मू.६९ संताणयं तह० ० उच्चा० बोसिरिजा ॥ से भि० से जं० अस्सिपडियाए एग साहम्मियं समुहिस्स वा अस्सि० बहवे | द्वितीया चूलिकाया: तृतीया सप्तसप्तिका- 'उच्चार प्रश्रवण-विषयक' ~822~# Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [३], उद्देशक [-], मूलं [१६५], नियुक्ति: [३२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचारावृत्तिः (शी०) ॥४०९॥ सूत्रांक श्रुतस्कं०२ चूलिका २ | उच्चारम श्रवणा. ३-(१०) [१६५] दीप अनुक्रम [४९९] साहम्मिया स० अस्सि प० एग साहम्मिणि स० अस्सिप० बहवे साहम्मिणीओ स० अस्सि. बहवे समण० पगणिय २ समु० पाणाई । जाव उरेसियं चेपइ, तहः थंडिलं पुरिसंतरकडं जाव बहियानीदडं वा अनी० अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थं० उच्चारं नो वोसि० ।। से मि० से जं. बहवे समणमा० कि० ब० अतिही समुरिस्स पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई जाव उदेसियं गेह, तह. धंडिलं पुरिसंतरगडं जाब बहियाअनीहडं अन्नयरंसि वा तह चंखिहंसि नो उच्चारपासवण०, अह पुण एवं जाणिजा-अपुरिसंतरगडं जाव बहिया नीहडं अन्नयरंसि वा तहप्पगारं० ० उच्चार० बोसि०॥ से जं. अस्मिपडियाए कथं वा कारियं वा पामिश्चियं वा छन वा घटुं वा मटुं वा लित्तं वा संम8 वा संपधूविर्य वा अन्नयरंसि वा तहडि० नो उ० ॥ से भि० से जं पुण थं० जाणेजा, इह खलु गाहावई वा गाहा० पुत्ता वा कंदाणि वा जाव हरियाणि वा अंतराओ वा बाहिं नीहरंति बहियाओ वा अंती साहरंति अन्नयरंसि वा तह ० नो उचा० ।। से मि० से जं पुण० जाणेजा-बंधंसि वा पीढ़सि वा मंचंसि वा मालंसि वा अटुंसि वा पासायसि वा अन्नयरसि वा० थं० नो उ० ।। से भि० से जं पुण० अणंतरहियाए पुढवीए ससिणिद्धाए पु० ससरक्खाए पु. मट्टियाए मकाडाए चितमंताए सिलाए चित्तमंताए लेलुयाए कोलावासंसि वा दारुयंसि वा जीवपइडियंसि पाजाव माडासंताणयसि अन्न तह ५० नो उ० ॥ (सू० १६५) स भिक्षुः कदाचिदुच्चारप्रश्रवणकर्त्तव्यतयोत्-प्राबल्येन बाध्यमानः स्वकीयपादपुञ्छनसमाध्यादावुच्चारादिकं कुर्यात् स्वकीयस्य त्वभावेऽन्य 'साधर्मिक' साधु याचेत पूर्वप्रत्युपेक्षितं पादपुञ्छनकसमाध्यादिकमिति, तदनेनैतत्प्रतिपादित ॥४०९॥ wwwlandltimaryam अत्र आद्य संपादक महोदयेन ३-(१०) लिखितं, तत् हेतु सह कथनं| (३- अर्थात् सप्तैकक ३, एवं १०- अर्थात् प्रथम और दूसरी चुडा के अध्ययन मिलाकर ये दसवां अध्ययन हुआ, [चुडा १ के ७ अध्ययन और दूसरी चुडा का यह तीसरा अध्ययन] | इसी तरह आगे भी समझ लेना| ~823~# Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१६५] दीप अनुक्रम [ ४९९ ] “आचार” - अंगसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [३], उद्देशक [-], मूलं [१६५], निर्युक्तिः [३२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः भवति-वेगधारणं न कर्त्तव्यमिति । अपि च-स भिक्षुरुच्चारप्रश्रवणाशङ्कायां पूर्वमेव स्थण्डिलं गच्छेत्, तस्मिंश्च साण्डादिकेऽप्रासुकत्वादुच्चारादि न कुर्यादिति ॥ किञ्च - अल्पाण्डादिके तु प्रासुके कार्यमिति ॥ तथा स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतं स्थण्डिलं जानीयात्, तद्यथा - एकं बहुन् वा साधर्मिकान् समुद्दिश्य तत्प्रतिज्ञया कदाचित्कश्चित्स्थण्डिलं कुर्यात् तथा श्रवणादीन् प्रगणय्य वा कुर्यात्, तच्चैवंभूतं पुरुषान्तरस्वीकृतमस्वीकृतं वा मूलगुणदुष्टमुद्देशिकं स्थण्डिलमाश्रित्योच्चारादि न कुर्यादिति ॥ किञ्च स भिक्षुर्यावन्तिके स्थण्डिलेऽपुरुषान्तरस्वीकृते उच्चारादि न कुर्यात्, पुरुषान्तरस्वीकृते तु कुर्या दिति ॥ अपि च-स भिक्षुः साधुमुद्दिश्य क्रीतादावुत्तरगुणाशुद्धे स्थण्डिले उच्चारादि न कुर्यादिति ॥ किञ्च स भिक्षुर्गृहपत्यादिना कन्दादिके स्थण्डिलान्निष्काश्यमाने तत्र वा निक्षिप्यमाणे नोवारादि कुर्यादिति ॥ तथा-स भिक्षुः स्कन्धादी स्थण्डिले नोच्चारादि कुर्यादिति ॥ किञ्च स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतं स्थण्डिलं जानीयात्, तद्यथा - अनन्तरितायां सचितायां पृथिव्यां तत्रोच्चारादि न कुर्यात्, शेषं सुगमं, नवरं 'कोलावासं 'ति घुणावासम् । अपि च से भि० से जं० जाणे ० इह खलु गाहावई वा गाहावइपुत्ता वा कंदाणि वा जाब बीयाणि वा परिसाडिँसु वा परिसाडिति वा परिसाडिति वा अन्न० तह० नो उ० ॥ से भि० से जं० इह खलु गाहावई वा गा० पुत्ता वा सालीणि वा वीणा मुगाणि वा मासाणि वा कुलत्थाणि वा जवाणि वा जवजवाणि वा पइरिंसु वा पइरिंति वा पइरिस्संति वा अन्नयसि वा तह० थंडि०नो उ० ॥ से भि० २जं० आमोयाणि वा घासाणि वा निलुयाणि वा विज्जुलवाणि वा खाणुयाणि वाकडयाणि वा पगडाणि वा दरीणि वा पदुम्माणि वा समाणि वा २ अन्नयरंसि तह० नो ४० ॥ से भिक्खू० से जं० Jan Estication Intimanal For Party Use Onl ~824~# Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [ १६६ ] दीप अनुक्रम [५०० ] , श्रीआचाराङ्गतिः (शी०) ॥ ४१० ॥ "आचार" अंगसूत्र - १ (मूलं निर्युक्तिः + वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [३], उद्देशक [-] मूलं [१६६], निर्युक्तिः [३२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Jan Estication matinal - पुण थंडिलं जाणिजा माणुसरंधणाणि वा महिसकरणाणि वा बसहक० अस्सक० कुकुडक० मकडक० हयक० लावयक ० वट्टयक० तित्तिरक० कोयक० कविजलकरणाणि वा अन्नयरंसि वा तह० नो उ० ॥ से भि० से जं० जाणे० बेहाणसहाणेसु वा गिद्धपट्टठा० वा तरुपडणट्टाणेसु वा० मेरुपडणठा० विसभक्खणयठा० अगणिपडणडा० अन्नयरंसि वा तह० नो उ० ॥ से मि० से जं० आरामाणि वा उज्जाणाणि वा वणाणि वा वणसंडाणि वा देवकुलाणि वा सभाणि वा पवाणि वा अन्न० तह० नो उ० || से भिक्खू० से जं पुण जा० अट्टालयाणि वा चरियाणि वा दाराणि वा गोपुराणि वा अन्नयरंसि वा तह० थं० नो उ० ॥ सेमि० से जं० जागे० तिगाणि वा चउकाणि वा चचराणि वा चउम्मुहाणि वा अन्नयरंसि वा तह० नो उ० ॥ सेमि० से जं० जाणे० इंगालदासु खारदाहेसु वा मढयदाहेसु वा मडयभूमियासु वामयइसु वा अन्नयरंसि वा तह० थं० नो उ० ॥ से जं जाणे ० नइयायतणेसु वा पंकाययणेसु वा ओघाययणेसु वा सेयणवहंसि वा अन्नयसि वा तह० ० तो उ० ॥ से मि० से जं जाणे० नवियासु वा मट्टियखाणिआसु नवियासु गोपलियासु वा गवाणी वा खाणीसु वा अन्नयरंसि वा तह० थं० नो उ० ॥ से जं जा० डागबशंसि वा सागव० मूलग० इत्थंकरवयंसि वा अनयरंसि वा तह० नो उ० वो० || सेमि० से र्ज असणवणंसि वा सणव० धायश्व० के बवणंसि वा अंबव० असोगव० नागव० पुन्नागव० चुलगव० अन्नयरेसु तह० पत्तोवेएस वा पुप्फोवेएस वा फलोवेएस वा बीओएस वा हरिओवेएसु वा नो उ० बो० ॥ ( सू० १६६ ) स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतं स्थण्डिलं जानीयात् तद्यथा यत्र गृहपत्यादयः कन्दबीजादिपरिक्षेपणादिक्रियाः कालत्रयव For Parts Onl ~825~# श्रुतस्कं०२ चूलिका २ उच्चारश्रवणा. ३- (१०) ॥ ४१० ॥ Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [३], उद्देशक [-], मूलं [१६६], नियुक्ति: [३२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: क - प्रत सूत्रांक [१६६] 52-5 दीप तिनीः कुर्युस्तहिकामुष्मिकापायभयादुच्चारादि न कुर्यादिति ॥ तथा यत्र च गृहपत्यादयः शाल्यादीन्युप्तवन्तो वपन्ति वस्यन्ति वा तत्राप्युच्चारादि न विदध्यादिति ॥ किञ्च-स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतं स्थण्डिलं जानीयात् , तद्यथा-'आमोकानि' कचवरपुत्राः 'घासा' बृहत्यो भूमिराजयः 'भिलुगाणि' श्लक्ष्णभूमिराजयः 'विज्जलं' पिच्छलं 'स्थाणुः' प्रतीतः 'कडवाणि' इक्षुयोन्नलकादिदण्डकाः 'प्रगर्ताः' महागाः 'दरी' प्रतीता 'प्रदुर्गाणि' कुच्चप्राकारादीनि, एतानि च समानि वा विषमाणि वा भवेयुस्तदेतेष्वात्मसंयमविराधनासम्भवान्नोच्चारादि कुर्यादिति । किञ्च-स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतं स्थण्डिलं जानीयात् , तद्यथा-मानुपरन्धनानि' नुल्यादीनि तथा महिण्यादीनुद्दिश्य यत्र किञ्चित्क्रियते ते वा यत्र स्थाप्यन्ते तत्र लोकविरुद्धप्रवचनोपघातादिभयानोच्चारादि कुर्यादिति ॥ तथा-स भिक्षुः 'वेहानसस्थानानि' मानुषोल्लम्बनस्थानानि || गृध्रपृष्ठस्थानानि' यत्र मुमूर्षवो गृध्रादिभक्षणार्थ रुधिरादिदिग्धदेहा निपत्यासते 'तरुपतनस्थानानि' यत्र मुमूव ए-IM वानशनेन तरुवसतितास्तिष्ठन्ति तरुभ्यो वा यत्र पतन्ति, एवं मेरुपतनस्थानान्यपि, मेरुश्च-पर्वतोऽभिधीयत इति, एवं हा विषभक्षणाग्निप्रवेशस्थानादिषु नोच्चारादि कुर्यादिति ॥ अपि च-आरामदेवकुलादौ नोच्चारादि विदध्यादिति ॥ तथा प्राकारसम्बन्धिम्यहालादौ नोच्चारादि कुर्यादिति ॥ किश्च-त्रिकचतुष्कचत्वरादौ च नोच्चारादि व्युत्सृजेदिति ॥ किश्च-स भिक्षुरङ्गारदाहस्थानश्मशानादौ नोच्चारादि विदध्यादिति ॥ अपि च-'नद्यायतनानि' यत्र तीर्थस्थानेषु लोकाः पुण्यार्थ दिनानादि कुर्वन्ति 'पडायतनानि' यत्र पछिलपदेशे लोका धर्मार्थ लोटनादिक्रियां कुर्वन्ति 'ओघायतनानि' यानि प्रवा-18 हत एव पूज्यस्थानानि तडागजलप्रवेशौघमार्गों वा 'सेचनपथे वा' नीकादौ नोच्चारादि विधेयमिति ॥ तथा-स भि अनुक्रम [५०० -5% % * wwwandltimaryam ~826~# Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [३], उद्देशक [-], मूलं [१६६], नियुक्ति: [३२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०) क सूत्रांक [१६६] ॥४११॥ क्षुरभिनवासु मृत्खनिषु, तथा नवासु गोपहेल्यासु 'गवादनीषु सामान्येन वा गवादनीषु खनीषु वा नोच्चारादिश्रुतस्कं०२ विदध्यादिति । किञ्च-'डाग'त्ति डालप्रधानं शाकं पत्रप्रधानं तु शाकमेव तद्वति स्थाने, तथा मूलकादिवति च नोच्चा- चूलिका २ रादि कुर्यादिति ॥ तथा-अशनो-बीयकस्तद्वनादौ च नोच्चारादि कुर्यादिति, तथा पत्रपुष्पफलाद्युपेतेष्विति ॥ कथं चो-18| उच्चारप्र. चारादि कुर्यादिति दशर्यति श्रवणा. से मि० सयपाययं वा परपाययं वा गहाब से तमायाए एगतमवक्कमे अणावायंसि असलोयंसि अप्पपाणंसि जाव मकडासंताण ३-(१०) यसि अहारामंसि वा उवस्सयसि तो संजयामेव उनारपासवणं वोसिरिजा, से तमायाए एगंतमवकमे अणावाहंसि जाय संताणयंसि अहारामंसि वा शामथंडिल्लंसि वा अन्नयरंसि वा तह. अंडिलंसि अचित्तंसि तओ संजयामेव उपारपासवर्ण बोसिरिजा, एवं खलु तस्स० सया जइजासि (सू० १६७ )त्तिबेमि ।। उच्चारपासवणसत्तिको सम्मत्तो ॥ २-२-३ ॥ स भिक्षुः स्वकीयं परकीयं वा 'पात्रक' समाधिस्थानं गृहीत्वा स्थण्डिलं वाऽनापातमसंलोकं गत्वोच्चारं प्रस्रवणं वा 'कुर्यात् प्रतिष्ठापयेदिति, शेषमध्ययनसमाप्तिं यावत्पूर्ववदिति॥तृतीयं सप्तकैकाध्ययनमादितो दशमं समाप्तम् ॥२-२-३-१० दीप अनुक्रम [५०० + र तृतीयानन्तरं चतुर्थः सप्तककः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहाये स्थान द्वितीये स्वाध्यायभूमिस्तृतीये | उच्चारादिविधिः प्रतिपादितः, तेषु च वर्तमानो यद्यनुकूलप्रतिकूलशब्दान् शृणुयात्तेष्वरक्तद्विष्टेन भाव्यम्, इत्यनेन | ॥४११॥ र wwwandltimaryam | दवितीया चूलिकाया: चतुर्था सप्तसप्तिका- 'शब्द-विषयक' ~827~# Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [४], उद्देशक [-1, मूलं [१६७], नियुक्ति: [३२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] दीप अनुक्रम [५०१] सम्बन्धेनायातस्यास्य नामनिष्पन्ने निक्षेपे शब्दसप्तैकक इति नाम, अस्य च नामस्थापने अनाहत्य द्रव्यनिक्षेपं दर्शयित । नियुक्तिकृद्गाथापश्चा:नाह दव्वं संठाणाई भावो वनकसिणं स भावो य] । दव्वं सद्दपरिणयं भावो उ गुणा य कित्ती य ॥३२३ ॥ द्रव्यं नोआगमतो व्यतिरिक्तं शब्दत्वेन यानि भाषाव्याणि परिणतानि तानीह गृह्यन्ते, भावशब्दस्त्वागमतः शब्दे उपयुक्तः, नोआगमतस्तु गुणा-अहिंसादिलक्षणा यतोऽसी हिंसाऽनृतादिविरतिलक्षणैगुणैः श्लाघ्यते, कीर्तिश्च यथा भग-| वत एव चतुर्विंशदतिशयाधुपेतस्य सातिशयरूपसंपत्समन्वितस्येत्यर्हन्निति लोके ख्यातिरिति, निर्युक्त्यनुगमादनन्तरं सूत्रानुगमे सूत्र, तच्चेदम् से भि० मुइंगसहाणि वा नंदीस० झल्लरीस० अन्नवराणि वा तह० विरूवरूवाई सदाई वितताई कनसोयणपडियाए नो अभिसंधारिजा गभणाए । से भि० महावेगइयाई सद्दाई सुणेइ, तं-वीणासदाणि वा विपंचीस. पिपी(बी)सगस० तूणयसहा वणयस० तुंबवीणियसहाणि वा ढंकुणसहाई अन्नयराई तह विरूवरूवाई. सद्दाई वितताई कण्णसोयपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए । से भि० अहावेगइयाई सद्दाई सुणेइ, ०-तालसदाणि वा कंसतालसद्दाणि वा लत्तियसदा० गोधियस किरिकिरियास० अन्नवरा० तह विरूव. सहाणि कण्ण गमणाए ॥ से मि. अहावेग० त० संखस हाणि वा वेणु सस० खरमुहिसक परिपिरियास० अन्नय तह विरुव० सदाई झुसिराई कन्न० ॥ (सू०१६८) 'स' पूर्वाधिकृतो भिक्षुर्यदि विततततघनशुषिररूपांश्चतुर्विधानातोद्यशब्दान् शृणुयात्, ततस्तच्छ्यणप्रतिज्ञया 'ना-II ~828~# Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [४], उद्देशक [-], मूलं [१६८], नियुक्ति: [३२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रुतस्कं०२ चूलिका २ शब्दसप्तकका. सूत्रांक [१६८] दीप अनुक्रम [५०२] 'श्रीआचा भिसन्धारयेद्गमनाच' न तदाकर्णनाय गमनं कुर्यादित्यर्थः, तत्र विततं-मृदङ्गानन्दीझल्लादि, ततं-वीणाविपश्चीबद्धीसकादि- रावृत्तिः सातन्त्रीवाचं, वीणादीनां च भेदस्तन्त्रीसख्यातोऽवसेयः, धनं तु-हस्ततालकंसालादि प्रतीतमेव नवरं लत्तिका-कंशिका गो- (शी०) ट्रहिका-भाण्डानां कक्षाहस्तगतातोचविशेषः 'किरिकिरिया' तेषामेव वंशादिकम्बिकातोय, शुषिरं तु शसवेवादीनि प्रतीतान्येव, नवरं खरमुही-तोहाडिका 'पिरिपिरिय'त्ति कोलियकपुटावनद्धा वंशादिनलिका, इत्येष सूचचतुष्टयसमुदायार्थः ।। किश्च॥४१२॥ से मि० अहावेग० तं० वप्पाणि वा फलिहाणि वा जाव सराणि वा सागराणि वा सरसरपंतियाणि वा अन्न तह विरूव० सद्दाई कण्ण० ॥ से मि० अहावे० त० कच्छाणि वा शूमाणि वा गहणाणि वा वणाणि या वणदुग्गाणि पश्चयाणि वा पब्बयदुग्गाणि वा अन०॥ अहा. त० गामाणि वा नगराणि वा निगमाणि वा रायहाणाणि वा आसमपट्टणसंनियेसाणि वा अन्न तह नो अमि० ।। से मि० अहावे० आरामाणि वा उजाणाणि वा वणाणि वा वणसंडाणि वा देवकुलाणि वा समाणि वा पवाणि वा अन्नय० तहा० सहाई नो अभि० ॥ से मि० अहावे. अट्टाणि वा अट्टालयाणि वा चरियाणि वा दाराणि वा गोपुराणि वा अन्न तह. सहाई नो अमि० ॥ से मि० अहावे. तंजहा–तियाणि वा चउकाणि वा चपराणि वा चउम्मुहाणि वा अन्न तह सद्दाई नो अभि० ॥ से मि० अहावे. तंजहा–महिसकरणहाणाणि वा बसभक० अस्सक० हत्यिक जाव कविजलकरणट्ठा० अन्न तह. नो अभि० ।। से मि० अहावे. तंज० महिसजुद्धाणि वा जाव कविंजलजु० अन्न तह नो अमि०॥ से मि० अहावे तं० जूहियठाणाणि वा हयजू० गयजू० अन्न तह नो अमि० ॥ (सू०१६९) ॥४१२॥ walpatnamang ~829~# Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [४], उद्देशक [-], मूलं [१६९], नियुक्ति: [३२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत 4-564.5 सूत्रांक * [१६९]] दीप अनुक्रम [५०३] CARSCHAUXXAK स भिक्षुरथ कदाचिदेकतरान् कांश्चित् शब्दान् शृणुयात् , तद्यथा-'वप्पाणि वेति वप्रः-केदारस्तदादिङ, तवर्णकाः शब्दा वप्रा एवोक्ताः, वप्रादिषु वा श्रव्यगेयादयो ये शब्दास्तच्छ्रवणप्रतिज्ञया वादीन्न गच्छेदित्येवं सर्वत्रायोज्यम् । अपि च-यावन्महिषयुद्धानीति पापि सूत्राणि सुबोध्यानि ॥ किश्च-स भिक्षु!थमिति-द्वन्द्वं वधूवरादिकं तत्स्थानं वेदि-1 कादि, तत्र श्रव्यगेयादिशब्दश्रवणप्रतिज्ञया न गच्छेत्, वधूवरवर्णनं वा यत्र क्रियते तत्र न गच्छेदिति, एवं हयगजयूधादिस्थानानि द्रष्टव्यानीति ॥ तथा से मि० जाय सुणेइ, तंजहा-अक्खाइयठाणाणि वा माणुम्माणिवट्ठाणाणि वा महताऽऽहयनहगीयवाईयतंतीतलतालतुद्धियपधुप्पवाइयहाणाणि वा अन्न तह. सहाई नो अभिसं० ॥ से भि० जाव सुणेइ, सं०-कलहाणि वा डिवाणि वा - मराणि वा दोरजाणि वा बेर० विरुद्धर० अन्न तह ० सद्दाई नो० ॥ से मि० आव सुणेइ खुड़ियं वारियं परिभुत्तमडियं भलंकियं निबुज्झमाणि पेहाए एर्ग वा पुरिसं वहाए नीणिजमाण पेहाए अन्नयराणि वा तह. नो अमि० ॥ से मि० अन्नयराई विरूव० महासवाई एवं जाणेज्जा तंजहा बहुसगडाणि वा बहुरहाणि वा बहुमिलक्खूणि वा बहुपच्चंताणि वा अन्न तह विरूव० महासवाई कन्नसोयपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए । से मि० अन्नवराई विरूव० महूरसवाई एवं जाणिज्जा, संजहा-इत्थीणि वा पुरिसाणि वा थेराणि वा डहराणि वा मझिमाणि वा आभरणविभूसिवाणि वा गार्यताणि वा वार्यताणि वा नचंताणि वा हसंताणि वा रमताणि वा मोहंवाणि वा विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं परिमुंजवाणि मा परिभायंताणि वा विछट्टियमाणाणि या विगोक्यमाणाणि वा अन्नय तह विरूव० महु० कन्नसोय० Jain Educatinintamathima wwwandltimaryam ~830~# Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१७०] दीप अनुक्रम [५०४ ] श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ४१३ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [४], उद्देशक [-], मूलं [१७०], निर्युक्तिः [३२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ॥ से भि० नो इहलोइपहिं सदेहिं नो परलोइएहिं स० नो सुपहिं स० नो असुएहिं स० नो दिट्ठेहिं सदेहिं नो अदिद्वेहिं स० नो कंतेहिंं सदेहिं सजिना नो गिज्झिना नो मुझिजा नो अज्झोववज्जिज्जा, एवं खलु० जाव जज्ञासि ( सू० १७० ) तिबेमि ॥ सहसत्तिक ।। २-२-४ ॥ स भिक्षुः 'आख्यायिकास्थानानि' कथानकस्थानानि, तथा 'मानोन्मानस्थानानि' मानं - प्रस्थकादिः उन्मानंनाराचादि, यदिवा मानोम्मानमित्यश्वादीनां वेगादिपरीक्षा तत्स्थानानि तद्वर्णनस्थानानि वा, तथा महान्ति च तानि आहतनृत्यगीतवादित्र तन्त्रीतलतालत्रुटितप्रत्युत्पन्नानि च तेषां स्थानानि सभास्तद्वर्णनानि वा श्रवणप्रतिज्ञया नाभिसन्धारयेद्गमनायेति ॥ किञ्च - कलहादिवर्णनं तत्स्थानं वा श्रवणप्रतिज्ञया न गच्छेदिति ॥ अपि च-स भिक्षुः क्षुल्लिकां 'दारिकां' डिक्करिकां मण्डितालङ्कृतां बहुपरिवृतां 'णिवुज्झमाणि'ति अश्वादिना नीयमानां तथैकं पुरुषं वधाय नीयमानं प्रेक्ष्याहमत्र किञ्चिच्छ्रोष्यामीति श्रवणार्थं तत्र न गच्छेदिति । स भिक्षुर्यान्येवं जानीयात्, महान्त्येतान्याश्रवस्थानानि - पापोपादानस्थानानि वर्त्तन्ते, तद्यथा बहुशकटानि बहुरथानि बहुम्लेच्छानि बहुप्रात्यन्तिकानि, इत्येवंप्रकाराणि स्थानानि श्रवणप्रतिज्ञया नाभिसन्धारयेद् गन्तुमिति ॥ किञ्च स भिक्षुर्महोत्सवस्थानानि यान्येवंभूतानि जानीयांत्, तद्यथा - स्त्रीपुरुषस्थविरबालमध्यवयांस्येतानि भूषितानि गायनादिकाः क्रिया यत्र कुर्वन्ति तानि स्थानानि श्रवणेच्छया न गच्छेदिति ॥ इदानीं सर्वोपसंहारार्थमाह-सः 'भिक्षुः' ऐहिकामुष्मिकापायभीरुः 'नो' नैव 'ऐहलोकिकैः ' मनुष्यादिकृतैः 'पारलोकिकैः पारापतादिकृतैरैहिकामुष्मिकैर्वा शब्दैः तथा श्रुतैरश्रुतैर्वा, तथा साक्षादुपलब्धै Estication Intimational For Party Use Onl ~831~# श्रुतस्कं० २ चूलिका २ शब्दसंत कका. ४- ( ११ ) ॥ ४१३ ॥ Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१७०] दीप अनुक्रम [५०४ ] ****** “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [४], उद्देशक [-], मूलं [१७०], निर्युक्तिः [३२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः रनुपलब्धैर्वा 'न सङ्कं कुर्यात् न रागं गच्छेत् न गा प्रतिपद्येत न तेषु मुह्येत नाध्युपपन्नो भवेत्, एतत्तस्य भिक्षोः सामयं शेषं पूर्ववत्, इह च सर्वत्रायं दोष:- अजितेन्द्रियत्वं स्वाध्यायादिहानी रागद्वेपसम्भव इति, एवमन्येऽपि दोषा ऐहिकामुष्मिकापायभूताः स्वधिया समालोच्या इति ॥ चतुर्थसप्तक काध्ययनमादित एकादशं समाप्तम् ॥ २-२-४-११ ॥ अथ पञ्चमं रूपस सैककमध्ययनम् । चतुर्थसतै ककानन्तरं पञ्चमं समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरं श्रवणेन्द्रियमाश्रित्य रागद्वेषोत्पत्तिर्निषिद्धा तदिहापि चक्षुरिन्द्रियमाश्रित्य निषिध्यते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य नामनिष्पन्ने निक्षेपे रूपसमैकक इति नाम, तत्र रूपस्य चतुर्धा निक्षेपः, नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यभावनिक्षेपार्थ निर्मुक्तिकृद् गाथाऽर्द्धमाह God iठाणाई भावो वन्न कसिणं सभावो य । [दव्वं सहपरिणयं भावो उ गुणा य कित्ती य] ॥ ३२४ ॥ तत्र द्रव्यं नोआगमतो व्यतिरिक्तं पश्च संस्थानानि परिमण्डलादीनि, भावरूपं द्विधा - वर्णतः स्वभावतश्च तत्र वर्णतः कृत्स्नाः पञ्चापि वर्णाः, स्वभावरूपं त्वन्तर्गतक्रोधादिवशात्रूभङ्गललाटनयनारोपणनिष्ठुरवागादिकम् एतद्विपरीतं प्रसनस्येति, उक्तञ्च - "डस्स खरा दिडी उप्पलधवला पसन्नचित्तस्स । दुहियस्स ओमिलायइ गंतुमणस्सुस्सुआ होइ ||१||” सूत्रानुगमे सूत्रं तचेदम् १ खराः पवा] प्रसन्नचित्तस्य । दुःखितस्त्रावम्लायति गन्तुमनस उत्सुका भवति ॥ १ ॥ Jan Estication Intamal द्वितीया चूलिकाया: पंचमा सप्तसप्तिका 'रूप-विषयक' For Party at Use Only ~832~# Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [9], उद्देशक [-1, मूलं [१७१], नियुक्ति: [३२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचारावृत्तिः (शी०) सूत्रांक कका ॥४१४॥ [१७१] से मि० अहावेगइयाई रूवाई पासइ, तं. गंधिमाणि वा वेडिमाणि वा पूरिमाणि वा संघाइमाणि वा फट्टकम्माणि वा पो- श्रुतस्क०२ त्वकम्माणि वा चित्तक० मणिकम्माणि वा दंतक पत्तछिजकम्माणि वा विविहाणि वा वेढिमाई अनवराई० विरू० चूलिका २ चक्खुबसणपडियाए नो अभिसंधारित्र गमणाए, एवं नायव्वं जहा सदपडिमा सव्वा वाइत्तवजा रुवपडिमावि ।। (सू० | रूपसवै१७१) पञ्चमं सत्तिकयं ॥ २-२-५॥ स भावभिक्षुः क्वचित् पर्यटन्नथैकानि-कानिचिन्नानाविधानि रूपाणि पश्यति, तद्यथा-'प्रथितानि' प्रथितपुष्पादि ४५-(१२) निवर्तितस्वस्तिकादीनि 'वेष्टिमानि' वस्खादिनिर्वतितपुत्तलिकादीनि पूरिमाणि'त्ति यान्यन्तः पूरणेन पुरुषाधाकृतीनि भवन्ति संघातिमानि चोलकादीनि 'काष्ठकर्माणि' रथादीनि 'पुस्तकर्माणि' लेप्यकर्माणि 'चित्रकर्माणि प्रतीतानि 'मणिकर्माणि' विचित्रमणिनिष्पादितस्वस्तिकादीनि, तथा 'दन्तकर्माणि' दन्तपुत्तलिकादीनि, तथा पत्रच्छेद्यकर्माणि, इत्येवमादीनि विरूपरूपाणि चक्षुदर्शनप्रतिज्ञया नाभिसन्धारयेद्गमनाय, एतानि द्रष्टुं गमने मनोऽपि न विदध्यादित्यर्थः । एवं शब्दसप्तककसूत्राणि चतुर्विधातोद्यरहितानि सर्वाण्यपीहायोज्यानि केवलं रूपप्रतिज्ञयेत्येवमभिलापो योज्यः, दोषाश्चात्र प्राग्वत्स[मायोज्या इति ॥ पञ्चमं सप्तैककाध्ययनमादितो द्वादशं समाप्तमिति ॥ २-२-५-१२॥ . दीप अनुक्रम [५०५] ॥४१४॥ अथ षष्ठं परक्रियाभिधं सप्लैककमध्ययनम् । साम्प्रतं पश्चमानन्तरं षष्ठः सप्तैकका समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-अनन्तरं रागद्वेषोत्पत्तिनिमित्तप्रतिषेधोऽभिहितः, तदिहापि स एवाम्येन प्रकारेणाभिधीयते इत्यनेन सम्बन्धे द्वितीया चूलिकाया:पष्ठा सप्तसप्तिका- 'परक्रिया-विषयक' ~833~# Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१७१] दीप अनुक्रम [५०५ ] आ. सू. ७० “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [६], उद्देशक [-], मूलं [१७१...], निर्युक्तिः [ ३२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Jan Estication Ital नायातस्यास्य नामनिष्यन्ने निक्षेपे परक्रियेत्यादानपदेन नाम, तत्र परशब्दस्य पड़िधं निक्षेपं दर्शयितुं नियुक्तिकारो गाथाऽर्द्धमाह छकं परइकिकं त १ दन्न २ माएस ३ कम ४ बहु ५ पहाणे ६ । पट्टू 'पर' इति परशब्दविषये नामादिः षडिधो निक्षेपः, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यादिपरमेकैकं षड्रिधं भवतीति दर्शयति, तद्यथा-तत्परम् १ अन्यपरम् २ आदेशपरं ३ क्रमपरं ४ बहुपरं ५ प्रधानपर ६ मिति, तत्र द्रव्यपरं तावत्तद्रूपतयैव वर्त्तमानं परमन्यत्तत्परं यथा परमाणोः परः परमाणुः १, अन्यपरं त्वन्यरूपतया परमन्यद् यथा एकाणुकाद् द्व्यणुकत्र्यणुकादि, एवं द्व्यणुकादेकाकत्र्यणुकादि २, 'आदेशपरम्' आदिश्यते - आज्ञाप्यत इत्यादेशः यः कस्यांचि - क्रियायां नियोज्यते कर्मकरादिः स चासौ परश्चादेशपर इति ३, क्रमपरं तु द्रव्यादि चतुर्द्धा तत्र द्रव्यतः क्रमपरमेकप्रदेशिकद्रव्याद् द्विमदेशिकद्रव्यम्, एवं द्व्यणुकात्र्यणुकमित्यादि, क्षेत्रत एकप्रदेशावगाढाद् द्विप्रदेशावगाढमित्यादि, कालत एकसमयस्थितिकाद् द्विसमयस्थितिकमित्यादि, भावतः क्रमपरमेकगुणकृष्णाद्विगुण कृष्णमित्यादि ४, बहुपरं बहुत्वेन परं बहुपरं यद्यस्माद्बहु तद्बहुपरं तद्यथा - "जीवा पुग्गल समया दव्य पएसा व पज्जवा चेव । थोवाणंताणंता विसेस अहिया दुवेऽणता ॥ १ ॥” तत्र जीवाः स्तोकाः तेभ्यः पुद्गला अनन्तगुणा इत्यादि ५, प्रधानपरं तु प्रधानत्वेन परः, द्विपदानां तीर्थकरः चतुष्पदानां सिंहादिः अपदानामर्जुन सुवर्णपनसादिः ६, एवं क्षेत्रकालभावपराण्यपि तत्सरा For Pantry at Use Only ~834 ~# Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [६], उद्देशक [-], मूलं [१७२], नियुक्ति: [३२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥४१५॥ श्रुतस्कं०२ चूलिका २ परक्रि०६ सूत्रांक [१७२] दीप अनुक्रम [५०६] दिषविधत्वेन क्षेत्रादिप्राधान्यतया पूर्ववत्स्वधिया योज्यानीति, सामान्येन तु जम्बूद्वीपक्षेत्रात्पुष्करादिकं क्षेत्रं परं, काल- परं तु प्रावृटुकालाच्छरत्कालः, भावपरमौदयिकादीपशमिकादिः॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तवेदम् परकिरियं अज्जालियं संसेसियं नो तं सायए नो वं नियमे, सिया से परो पाए आमजिज वा पमजिजा वा नो तं सायए नो सं नियमे । से सिया परो पायाई संवाहिज वा पलिमदिन वा नो तं सायए नो सं नियमे । से सिया परो पायाई कुसिज पा रखका वा नो तं सायए मो तं नियमे । से सिया परो पायाई तिल्लेण वा ध० बसाए वा मक्खिज वा अम्भिगिज वा नो २२ । से सिवा परो पाथाई लुद्धेण वा कोण वा चुन्नेण वा वणेण वा उल्लोडिज वा उव्यलिज वा नो तं २॥ से सिया परी पायाई सीओदगवियडेण वा २ उच्छोलिज का पहोलिज वा नो तं० । से सिया परो पायाई अन्नयरेण विलेवणजाएण आलिंपिज था विलिंपिज्ज चा भो तं० । से सिवा परो पायाई अन्नवरेण धूवणजाएण धूविज या पधू० नो तं २। से सिया परो पायाओ आणुयं वा कंटयं वा नीहरिज वा विसोहित्र वा नो तं०२ । से सिया परो पायाभो पूर्व वा सोणियं वा मीहरिज वा विसो० नो तं०२। से सिया परो कार्य आमज्जेज वा पमजिज वा नो तं सायए नो तं नियमे । से सिया परो कार्य लोट्टेण वा संवाहिज वा पलिमदिज वा नो तं० २ । से सिया परो कार्य तिलेण वा घ० बसा० मक्खिज बा अभंगिज वा नो तं० २।से सिया परो कार्य लुद्धेण वा ४ उल्लोडिज वा उल्बलिज वा नो तं० २ । से सिया परो कार्य सीओ. उसिणो० उच्छोलिन वा प० नो तं० २ । से सिया परो कार्य अन्नयरेण विलेवणजाएण आलिंपिज बा २ नो तं०२ से कार्य अन्नयरेण धूवणजाएग धूविज वा प० नो तं० २ । से० का ॥४१५॥ wwwandltimaryam ~835~# Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [६], उद्देशक [-], मूलं [१७२], नियुक्ति: [३२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७२] दीप अनुक्रम [५०६] यंसि वर्ण आमजिज वा २ नो तं२ । से० वर्ण संवाहिज वा पलि. नो तं०।से. वणं तिल्लेण वा प०२मक्सिज वा अभं० नो तं०२ । से० वर्ण लुद्धेण वा ४ उल्लोढिज वा उठवलेज वा नो तं०२ । से सिया परो कार्यसि वर्ण सीओ०प० पुच्छोलिका वा प० नो तं० २। सेसि वर्ण वा गंडं वा अरई या पुलयं वा भगंदल वा भन्नयरेणं सस्थजाएणं अछिदिन वा विञ्छिदिज वा नो तं०२ । से सिया परो अन्न. जाएण आच्छिदित्ता या विस्छिवित्ता वा पूर्व वा सोणिय वा नीहरिज वा वि० नो तं० २। से० कायंसि गंडं वा अरई वा पुलइयं वा भगंदलं वा आमजिज वा २ नो तं० २ । से० गंडं वा ४ संवाहिज वा पलि. नो दं० २। से० कार्य० गंडं वा ४ तिल्लेण वा ३ मक्खिज वा २ नो तं०२ । से गंड वा लुद्धेण वा ४ उल्लोदिमा वा उ० नो २०२। से० गंडं वा ४ सीओदग २ उच्छोलिज वा प० नो तं० २। से० गई वा ४ अन्नयरेणं सत्यजाएणं अछिदिज वा वि० अन्न सस्थ० अपिछदित्ता वा २ पूर्व वा २ सोणियं वा नीह० विसो० नो तं सायए २ । से लिया परो कार्यसि सेयं वा जल्लं वा नौहरिज वा वि० नो तं० २। से सिया परो अच्छिमलं वा कण्णमलं वा दंतमलं वा नहम० नीहरिज वा २ नो तं० २ । से सिया परो दीहाई वालाई दीहाई वा रोमाई दीहाई भमुहाई दीहाई कक्खरोमाई दोहाई बत्थिरोमाई कपिज्ज वा संठविज वा नो तं०२ से सिया परो सीसाओ लिक्खं वा जूयं वा नीहरिज वा वि० नो तं० २। से सिया परो अंकसि वा पलियंकसि वा तुयट्टावित्ता पायाई आमजिजा वा पम०, एवं हिट्ठिमो गमो पायाइ भाणियब्बो । से सिया परो अंकसि वा २ तुयट्टावित्ता हार वा अद्वहारं वा उरत्यं वा गेवेयं वा मउई वा पालंब वा सुवनसुत्तं वा आविहिज वा पिणहिज वा नो तं०२। से० परो आ wwwandltimaryam ~836~# Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१७२] दीप अनुक्रम [५०६ ] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ४१६ ॥ *%*% “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [६], उद्देशक [-], मूलं [१७२], निर्युक्ति: [ ३२५] रामंसि वा उज्जाणंसि वा नीहरिता वा पविसित्ता वा पायाई आमजिज्ज वा प० नो वं साइए | एवं नेयव्वा अन्नमन्नकिरियावि ।। (सू० १७२ ) पर - आत्मनो व्यतिरिक्तोऽन्यस्तस्य क्रिया चेष्टा कायव्यापाररूपा तां परक्रियाम् 'आध्यात्मिकीम्' आत्मनि क्रिय| माणां, पुनरपि विशिनष्टि - 'सांश्लेषिकी' कर्मसंश्लेषजननीं 'नो' नैव 'आस्वादयेत्' अभिलषेत्, मनसा न तत्राभिलाष कुर्यादित्यर्थः तथा न तां परक्रियां 'नियमयेत्' कारयेद्वाचा, नापि कायेनेति । तां च परक्रियां विशेषतो दर्शयति - 'से' तस्य साधोर्निष्प्रतिकर्मशरीरस्य सः 'परः' अन्यो धर्मश्रद्धया पाद रजोऽवगुण्ठिती आमृज्यात् कर्पटादिना, वाशब्दस्तुत्तरपक्षापेक्षः, तन्नास्वादयेनापि नियमयेदिति, एवं स साधुस्तं परं पादौ संबाधयन्तं मर्दयन्तं वा स्पर्शयन्तंरञ्जयन्तं, तथा तैलादिना वक्षयन्तमभ्यञ्जयन्तं वा, तथा लोधादिना उद्धर्त्तनादि कुर्वन्तं, तथा शीतोदकादिना उच्छोलनादि कुर्वाणं तथाऽन्यतरेण सुगन्धिद्रव्येणालिम्पन्तं, तथा विशिष्टधूपेन धूपयन्तं तथा पादात्कण्टकादिकमुद्धरन्तम्, एवं शोणितादिकं निस्सारयन्तं 'नास्वादयेत्' मनसा नाभिलषेत् नापि नियमयेत् — कारयेद्वाचा. कायेनेति । शेषानि कायत्रणगतादीनि आरामप्रवेशनिष्क्रमणप्रमार्जनसूत्रं यावदुत्तानार्थानि ॥ एवममुमेवार्थमुत्तरसप्तकेऽपि तुल्यत्वात्सङ्क्षेपरुचिः सूत्रकारोऽतिदिशति 'एवम्' इति याः पूर्वोक्ताः क्रिया - रजःप्रमार्जनादिकास्ताः 'अन्योऽन्यं' परस्परतः साधुना कृतप्रतिक्रियया न विधेया इत्येवं नेतव्योऽन्योऽन्यक्रिया सप्तैकक इति ॥ किश्व से सिवा परो सुद्धेणं असुद्वेणं वा बडवलेण वा तेइच्छं आउट्टे से० असुद्वेणं वइबलेणं तेइच्छं आउट्टे । से सिया परो गिलाणस्स Jan Education Intemational For Use Onl मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~837~# श्रुतस्कं०२ चूलिका २ परक्रि० ६ [ ॥ ४१६ ॥ wwwbrary.org Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [६], उद्देशक [-], मूलं [१७३], नियुक्ति: [३२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७३] सचित्ताणि वा कंदाणि वा मूलाणि वा तयाणि वा हरियाणि वा खणित्तु कह्नित्तु वा कडावित्तु वा तेइच्छ आउहाविज नो। तं सा०२ कडवेपणा पाणभूयजीवसत्ता वेयणं वेइंति, एवं खलु समिए सया जए. सेयमिणं मन्निजासि (सू० १७३) त्तिबेमि ॥ छडओ सत्तिकओ ॥२-२-६ ॥ 'से' तस्य साधोः स परः शुद्धनाशुद्धेन वा 'वाम्बलेन' मन्त्रादिसामथ्र्येन चिकित्सा' ब्याध्युपशमम् 'आउद्देत्ति कर्नु-18 मभिलषेत्। तथा स परो ग्लानस्य साधोश्चिकित्साथै सचित्तानि कन्दमूलादीनि 'खनित्वा' समाकृष्य स्वतोऽन्येन वा खानयित्वा चिकित्सां कर्तुमभिलषेत् तच्च 'नास्वादयेत् नाभिलपेन्मनसा, एतच्च भावयेत्-इह पूर्वकृतकर्मफलेश्वरा जीवाः कर्मविपाककृतकटुकवेदनाः कृत्वा परेषां शारीरमानसा वेदनाः स्वतः प्राणिभूतजीवसत्यास्तत्कर्मविपा-18 |कजां वेदनामनुभवन्तीति, उक्तश-"पुनरपि सहनीयो दुःखपाकस्तवायं, न खलु भवति नाशः कर्मणां सचितानाम्।। इति सहगणयित्वा यद्यदायाति सम्यक् , सदसदिति विवेकोऽन्यत्र भूयः कुतस्ते ॥१॥" शेषमुक्तार्थ यावदध्ययनपरिसमाप्तिरिति । षष्ठमादितखयोदर्श सप्तककाध्ययनं समाप्तम् ।।२-१-६-१३॥ दीप अनुक्रम [५०७] IPL अथ सप्तममन्योऽन्यक्रियाभिधमध्ययनम् । षष्ठानन्तरं सप्तमोऽस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तराध्ययने सामा न्येन परक्रिया निषिद्धा, इह तु गच्छनिर्गतोद्देशेनाभ्योऽन्यक्रिया निषिध्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य नामनिष्पन्ने निक्षेपे अन्योऽन्यक्रियेति नाम, तत्रान्यस्य निक्षेपार्थं नियुक्तिकृद् गाथापश्चाद्धेमाह अत्र एक मुद्रण-दोषः, “२-१-६-१३," तस्य सुध्धि: - २-२-६/१३.( क्योंकि ये दूसरे श्रुतस्कंध की दूसरी चुडा का छट्ठा सप्तैकक है।) द्वितीया चूलिकाया: सप्तमा सप्तसप्तिका- 'अन्योन्य क्रिया'-विषयक ~838~# Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१७४] दीप अनुक्रम [५०८ ] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ४१७ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [७], उद्देशक [-], मूलं [१७४], निर्युक्तिः [३२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः अनेकं तं पुण तदन्नमा एसओ थेव ॥ ३२५ ॥ अन्यस्य नामादिषड्विधो निक्षेपः, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यान्यत्रिधा - तदन्यद् अन्यान्यद् आदेशान्यश्चेति द्रव्यपरवशेयमिति । अत्र परक्रियायामन्योऽन्यक्रियायां च गच्छान्तर्गतैर्यतना कर्त्तव्येति, गच्छनिर्गतानां त्वेतया न प्रयोजनमिति दर्शयितुं निर्युक्तिकृदाह जयमाणस्स परो जं करेइ जयणाएँ तत्थ अहिगारो । निष्पडिकम्मस्स उ अन्नमन्नकरणं अजुत्तं तु ॥ ३२६ ॥ ॥ सत्तिकाणं निजुत्सी सम्मत्ता ॥ जयमाणस्सेत्यादि पातनिकयैव भावितार्था । साम्प्रतं सूत्रं तच्चेदम् से भिक्खू वा २ अन्नमन्नकिरियं अज्झत्थियं संसेइयं नो तं सायए २ ॥ से अन्नमन्नं पाए आमजिज्ज वा० नो तं०, सेसं तं चैव, एवं खलु० जइन्नासि ( सू० १७४) चिबेनि ॥ सप्तमम् २-२-७ ॥ अन्योऽन्यस्य- परस्परस्य क्रियां - पादादिप्रमार्जनादिकां सर्वां पूर्वोक्तां क्रियाव्यतिहारविशेषितामाध्यात्मिक सांश्लेषिकीं नास्वादयेदित्यादि पूर्ववशेयं यावदध्ययनसमाप्तिरिति ॥ सप्तममादितश्चतुर्दशं, सप्तैककाध्ययनं समाप्तं, द्वितीया च समाप्ता चूलिका ॥ २-२-७-१० ॥ Jain Estucation Intl For Pantry Use Onl ~839 ~# श्रुतस्कं०२ चूलिका २ अन्यो० ७ ॥ ४१७ ॥ Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१७४] दीप अनुक्रम [५०८ ] “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [ - ], उद्देशक [-], मूलं [ १७४...], निर्युक्तिः [३२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः अथ भावनाख्या तृतीया चूलिका । उक्ता द्वितीया चूला, तदनन्तरं तृतीया समारभ्यते, अस्याश्चायमभिसम्बन्धः - इहादितः प्रभृति येन श्रीवर्द्धमानस्वामिनेदमर्थतोऽभिहितं तस्योपकारित्वात्तद्वक्तव्यतां प्रतिपादयितुं तथा पञ्च महाव्रतोपेतेन साधुना पिण्डशय्यादिकं ग्राह्यमतस्तेषां महाव्रतानां परिपालनार्थ भावनाः प्रतिपाद्या इत्यनेन सम्बन्धेनायातेयं चूडेति, अस्याश्चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमान्तर्गतोऽयमर्थाधिकारः, तद्यथा - अप्रशस्त भावना परित्यागेन प्रशस्ता भावना भावयितव्या इति, नामनिष्पन्ने निक्षेपे भावनेति नाम, तस्याश्च नामादि चतुर्विधो निक्षेपः, तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्यादिनिक्षेपार्थं निर्युक्तिकृदाह द गंधंगतिलाइए सीउन्हविसहणाईसु । भावंभि होइ दुबिहा पसत्थ तह अप्पसत्था य ॥ ३२७ ॥ तत्र 'द्रव्य मिति द्रव्यभावना नोआगमतो व्यतिरिक्ता गन्धाङ्गः - जातिकुसुमादिभिर्द्वव्यैस्तिलादिषु द्रव्येषु या वासना सा द्रव्यभावनेति, तथा शीतेन भावितः शीतसहिष्णुरुष्णेन वा उष्णासहिष्णुर्भवतीति आदिग्रहणाद्व्यायामक्षुण्ण देहो व्यायामसहिष्णुरित्याद्यन्येनापि द्रव्येण द्रव्यस्य या भावना सा द्रव्यभावनेति भावे तु भावविषया प्रशस्ताऽप्रशस्तभेदेन द्विरूपा भावनेति ॥ तत्राप्रशस्तां भावभावनामधिकृत्याह- Estication Intimatinal पाणिहमुसावा अदत्तमेहुणपरिग्गहे चेव । कोहे माणे माया लोभे य हवंति अवसत्था ॥ ३२८ ॥ प्राणिवाकार्येषु प्रथमं प्रवर्त्तमानः साशङ्कः प्रवर्त्तते पश्चात्पौनःपुन्यकरणतया निशङ्कः प्रवर्त्तते, तदुक्तम्- "क तृतीया चूलिका - "भावना" आरब्धाः For Pantry Use Onl ~840 ~# Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [१७४...], नियुक्ति : [३२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७४] दीप अनुक्रम [५०८] श्रीआचा- रोत्यादौ तावत्सघृणहृदयः किञ्चिदशुभं, द्वितीय सापेक्षो विमृशति च कार्य च कुरुते । तृतीयं निःशङ्को विगतघृणम- श्रुतस्क०२ राजवृत्तिः Iकन्याकुरुते, ततः पापाभ्यासात्सततमशुभेषु प्ररमते ॥१॥॥ प्रशस्तभावनामाह चूलिका ३ (सी०) दसणनाणचरित्ते तववेरग्गे य होइ उ पसत्था । जा य जहा ता य तहा लक्षण वुच्छं सलक्खणओ ॥३२९॥ भावनाध्य. दि दर्शनज्ञानचारित्रतपोवैराग्यादिषु या यथा च प्रशस्तभावना भवति तां प्रत्येकं लक्षणतो वक्ष्य इति ॥ दर्शनभावनार्थमाह॥४१८॥ तित्थगराण भगवओ पवयणपावयणिअइसइहीणं । अभिगमणनमणदरिसणकित्तणसंपूअणाथुणणा ।। ३३०॥ 31 तीर्थकृतां भगवतां प्रवचनस्य-द्वादशाङ्गस्य गणिपिटकस्य, तथा प्रावचनिनाम्-आचार्यादीनां युगप्रधानानां, तथा-18 Cऽतिशयिनामृद्धिमतां-केवलिमनःपर्यायावधिमच्चतुर्दशपूर्वविदां तथाऽऽमोषध्यादिप्राप्तऋद्धीनां यदभिगमनं गत्वा च दर्शनं तथा गुणोत्कीर्तनं संपूजनं गन्धादिना स्तोत्रैः स्तवनमित्यादिका दर्शनभावना, अनया हि दर्शनभावनयाऽनवरतं भाव्यमानया दर्शनशुद्धिर्भवतीति । किञ्चजम्माभिसेयनिक्खमणचरणनाणुप्पया य निब्बाणे । दियलोअभवणमंदरनंदीसरभोमनगरेसं ॥ ३३१॥ अट्ठावयमुजिते गयग्गपयए य धम्मचक्के या पासरहावत्तनगं चमरुप्पायं च वंदामि ॥ ३३२॥ 8 तीर्थकृतां जन्मभूमिषु तथा निष्क्रमणचरणज्ञानोत्पत्तिनिर्वाणभूमिषु तथा देवलोकभवनेषु मन्दरेषु तथा नन्दीश्वहारद्वीपादी भीमेषु च-पातालभवनेषु यानि शाश्वतानि चैत्यानि तानि वन्देऽहमिति द्वितीयगाथायामन्ते क्रियेति, एव मष्टापदे, तथा श्रीमदुजयन्तगिरी 'गजाग्रपदे' दशार्णकूटवर्तिनि तथा तक्षशिलायां धर्मचक्रे तथा अहिच्छत्राया JainEducatinintamational www.iandituaryam ~841-23 Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [१७४...], नियुक्ति: [३३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७४] 204नर दीप अनुक्रम [५०८] पार्श्वनाथस्य धरणेन्द्रमहिमास्थाने, एवं रथावर्ते पर्वते वैरस्वामिना यत्र पादपोपगमनं कृतं यत्र च श्रीमद्बर्द्धमानमाश्रित्य चमरेन्द्रेणोसतनं कृतम्, एतेषु च स्थानेषु यथासम्भवमभिगमनवन्दनपूजनोत्कीर्तनादिकाः क्रियाः कुर्वतो दर्श-18 8 नशुद्धिर्भवतीति । किश्वI गणियं निमित्त जुत्ती संदिट्ठी अवितहं इमं नाणं । इय एगंतमुवगया गुणपवइया इमे अत्था ।। ३३३ ॥ C गुणमाहप्पं इसिनामकित्तणं सुरनरिंदपूया य । पोराणचेझ्याणि य इय एसा दंसणे होह ॥ ३३४ ।। प्रवचनविदाममी गुणप्रत्ययिका अर्था भवन्ति, तद्यथा-गणितविषये-बीजगणितादौ परं पारमुपगतोऽयं, तथाऽष्टाअस्य निमित्तस्य पारगोऽयं, तथा दृष्टिपातोक्ता नानाविधा युक्तीः-द्रव्यसंयोगान् हेतून्वा वेत्ति, तथा सम्यग्-अविप-13 रीता रष्टि:-दर्शनमस्य त्रिदशैरपि चालयितुमशक्या तथाऽवितधमस्येदं ज्ञानं यथैवायमाह तत्तथैवेत्येवं प्रावचनिकस्याचार्यादेः प्रशंसां कुर्वतो दर्शनविशुद्धिर्भवतीति, एवमन्यदपि गुणमाहात्म्यमाचार्यादेर्वर्णयतः तथा पूर्वमहर्षीणां च नामोस्कीतनं कुर्वतः तेषामेव च सुरनरेन्द्रपूजादिकं कथयतः तथा चिरन्तनचैत्यानि पूजयतः इत्येवमादिकां क्रियां कुर्वतस्त-13 द्वासनावासितस्य दर्शनविशुद्धिर्भवतीत्येपा प्रशस्ता दर्शनविषया भावनेति ॥ ज्ञानभावनामधिकृत्याह तत्तं जीवाजीवा नायव्या जाणणा इहं दिट्ठा । इह कजकरणकारगसिद्धी इह बंधमुक्खो य ।। ३३५ ।। बद्धो य पंधहेऊ बंधणबंधष्फलं सुकहियं तु । संसारपवंचोऽवि य इहयं कहिओ जिणवरेहिं ॥ ३३६ ॥ नाणं भविस्सई एवमाइया बायणाइयाओ य । सज्झाए आउत्तो गुरुकुलवासो य इय नाणे ।। ३३७ ।। wwwandltimaryam ~842~# Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [१७४...], नियुक्ति: [३३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: % 5 प्रत श्रीआचारावृत्तिः (शी०) A सूत्रांक [१७४] ॥४१९॥ % दीप अनुक्रम [५०८] 5-05-25- तत्र ज्ञानस्य भावना ज्ञानभावना-एवंभूतं मौनीन्द्रं ज्ञानं प्रवचनं यथाऽवस्थिताशेषपदार्थाविर्भावकमित्येवंरूपति, श्रुतस्कं०२ अनया च प्रधानमोक्षाङ्गं सम्यक्त्वमाधिगमिकमाविर्भवति, यतस्तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं, तत्त्वं च जीवाजीवादयो नव चूलिका ३ पदार्थाः, ते च तत्त्वज्ञानाधिना सम्यग् ज्ञातव्याः, तत्सरिज्ञानमिहैव-आहते प्रवचने दृष्टुम्-उपलब्धमिति, तथेहैव-आईते भावनाध्य. प्रवचने कार्य-परमार्थरूपं मोक्षाख्यं तथा करणं-क्रियासिद्धी प्रकृष्टोपकारकं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि, कारका-साधुः सम्यग्दर्शनाद्यनुष्ठाता, क्रियासिद्धिश्च-इहैव मोक्षावाप्तिलक्षणा, तामेव दर्शयतिबन्धा-कर्मबन्धनं तस्मान्मोक्षः कर्मविचटनलक्षणः, असावपीहव, नान्यत्र शाक्यादिकप्रवचने भवति, इत्येवं ज्ञानं भावयतो ज्ञानभावना भवतीति ॥ तथा 'बद्धः' अष्टप्रकारकर्मपुद्गलैः प्रतिप्रदेशमवष्टब्धो जीवः, तथा 'बन्धहेतवः' मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगाः तथा बन्ध-1 नम्-अष्टप्रकारकर्मवर्गणारूपं तत्फलं-चतुर्गतिसंसारपर्यटनसातासाताद्यनुभवनरूपमिति, एतत्सर्वमत्रैव सुकथितम् , अन्यद्वा यत्किश्चित्सुभाषितं तदिहैव प्रवचनेऽभिहितमिति ज्ञानभावना, तथा विचित्रसंसारप्रपञ्चोऽत्रैव जिनेन्द्रैः कथित इति ॥ तथा ज्ञान मम विशिष्टतरं भविष्यतीति ज्ञानभावना विधेया, ज्ञानमभ्यसनीयमित्यर्थः, आदिग्रहणादेकाग्रचिततादयो गुणा भवन्तीति, तथैतदपि ज्ञाने भावनीयं, यथा-"जं अन्नाणी कम्म खवेइ" इत्यादि, तथैभिश्च कारणैज्ञानमभ्यसनीय, तद्यथा-ज्ञानसङ्ग्रहार्थं निर्जरार्थम् अव्यवच्छित्त्यर्थं स्वाध्यायार्थमित्यादि, तथा ज्ञानभावनया नित्यं | गुरुकुलवासो भवति, तथा चोक्तम्-"णाणस्स होइ भागी थिरयरओ देसणे चरित्ते य । धन्ना आवकहाए गुरुकुल भा॥४१९॥ वासं न मुवन्ति ॥१॥", इत्यादिका ज्ञानविषया भावना भवतीति । चारित्रभावनामधिकृत्याह १ज्ञानस्य भवति भागी स्थिरतरो दर्शने चारित्रेच! पन्या यावत्कथं गुरुकुलवासे न मुञ्चन्ति ॥१॥ % % CA% wataneltmanam ~843~# Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन -], उद्देशक [-], मूलं [१७४...], नियुक्ति: [३३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: 4 -2 प्रत सूत्रांक [१७४] SEARC AASCARRC साहुमहिंसाधम्मो सचमदत्तविरह य वंभं च । साहु परिग्गहविरई साहु तवो बारसंगो य ॥ ३३८ ॥ वेरग्गमप्पमाओ एगत्ता (ग्गे) भावणा य परिसंगं । इय चरणमणुगयाओ भणिया इत्तो तवो चुच्छं ॥३३९॥ साधु-शोभनोऽहिंसादिलक्षणो धर्म इति प्रथमवतभावना, तथा सत्यमस्मिन्नेवाहते प्रवचने साधु-शोभनं नान्यत्रेति द्वितीयत्रतस्य, तथाऽदत्तविरतिश्चात्रैव साध्वीति तृतीयस्य, एवं ब्रह्मचर्यमप्यत्रैव नवगुप्तिगुप्तं धार्यत इति, तथा परिग्रहविरतिश्चेव साध्वीति, एवं द्वादशाङ्गं तप इहैव शोभनं नान्यत्रेति ॥ तथा वैराग्यभावना-सांसारिकसुखजुगुप्सारूपा, एवमप्रमादभावना-मद्यादिप्रमादानां कर्मबन्धोपादानरूपाणामनासेवनरूपा, तथैकाग्रभावना-"एको मे सासओ अप्पा, णाणदसणसंजुओ। सेसा मे बहिरा भावा, सब्वे संजोगलक्खणा ॥१॥" इत्यादिका भावनाः (इति प्रकृष्टमृषित्वाङ्ग) ''चरणमुपगताः' चरणाश्रिताः, इत ऊर्ध्वं तपोभावनां 'वक्ष्ये' अभिधास्य इति ॥ किह मे हविजऽवंझो दिवसो? किं वा पहू तवं काउं?। को इह दब्बे जोगो खित्ते काले समयभावे? ||३४०॥ 'कथं' केन निर्विकृत्यादिना तपसा मम दिवसोऽवन्ध्यो भवेत् ? कतरद्वा तपोऽहं विधातुं 'प्रभु' शक्तः, तच्च कत-13 द रत्तपः कस्मिन् द्रव्यादौ मम निर्वहति ? इति भावनीयं, तत्र द्रव्ये उत्सर्गतो बल्लचणकादिके क्षेत्रे स्निग्धरूशादौ काले शीतोष्णादौ भावेऽग्लानोऽहमेवंभूतं तपः कर्तुमलम् , इत्येवं द्रव्यादिकं पोलोच्य यथाशक्ति तपो विधेयं “शक्तितस्त्यागतपसी” (तत्त्वार्थे अ०६ सू० २३ दर्शन०) इति वचनादिति ॥ किञ्च १एको मे शाबत भात्मा हमदर्शनसंयुतः । शेषा मे बाधा भाषा सब संयोगलक्षणाः || दीप अनुक्रम [५०८] KR-5-15 wwwandltimaryam ~844~# Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१७४] दीप अनुक्रम [५०८ ] श्रीमाचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ४२० ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [९७४...], निर्युक्तिः [३४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः उच्च्छाह पालणार इति (एव) तवे संजमे य संघयणे । वेरग्गेऽणिचाई होइ चरिते इहं पगयं ॥ ३४१ ॥ तथाऽनशनादिके तपस्यनिगूहितबलवीर्येणोत्साहः कर्त्तव्यः, गृहीतस्य च प्रतिपालनं कर्त्तव्यमिति, उक्तञ्च - "तित्थयरो चउनाणी सुरमहिओ सिज्झिअश्वयधुवम्मि । अणिगृहिअवलविरिओ सव्वत्थामेसु उज्जमइ ॥ १ ॥ किं पुण अव| सेसेहिं दुक्खक्खयकारणा सुविहिएहिं । होइ न उज्जमि अन्वं सपच्चवार्यमि माणुस्से ? ॥ २ ॥" इत्येवं तपसि भावना विधेया । एवं 'संयमे' इन्द्रियनोइन्द्रियनिग्रहरूपे, तथा 'संहनने' वज्रर्षभादिके तपोनिर्वाहनासमर्थे भावना विधेयेति, वैराग्यभावना त्वनित्यत्वादिभावनारूपा, तदुक्तम् — “भावयितव्यमनित्यत्व १ मशरणत्वं २ तथैकता ३ ऽन्यत्वे ४ । अशुचित्वं ५ संसारः ६ कर्माश्रव ७ संवर ८ विधिश्च ॥ १ ॥ निर्जरण ९ लोकविस्तर १० धर्मस्वाख्याततत्त्वचिन्ता च ११ । बोधेः सुदुर्लभत्वं च १२ भावना द्वादश विशुद्धाः ॥ २ ॥" इत्यादिका अनेकप्रकारा भावना भवन्तीति, इह पुनश्चारित्रे प्रकृतं चरित्रभावनये हाधिकार इति ॥ निर्युक्तत्यनुगमानन्तरं सूत्रमुच्चारणीयं तच्चेदम् ते काणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे पंचहत्युत्तरे यावि हुत्था, तंजहा इत्युत्तराई चुए चइता गब्भं बकते ह तराहिं गभाओ गमं साहरिए हत्थुत्तराहिं जाए हत्थुत्तराहिं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पञ्चइए हत्थुत्तराहिं कसिणे पडिपुत्रे अब्वाधार निरावरणे अणते अणुत्तरे केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने, साइणा भगवं परिनिब्बुए। ( सू० १७५ ) १ तीर्थंकरतुनी सुरमहितो धुवे सेवितव्ये अनिगूहितबलवीर्थः सर्वस्थानोयच्छति ॥ १ ॥ किं पुनस्त्रशेषैः खक्षयकारणात् सुविहितः । भवति नोयदिव्यं सप्रलपाये मानुष्ये ॥ २ ॥ Jan Estication Intemational For Parts Only ~845~# श्रुतस्कं०२ चूलिका ‍ भावनाध्य. ॥ ४२० ॥ www.sendiary.org Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१७६] दीप अनुक्रम [१०] श्रा. सू. ७१ "आचार" अंगसूत्र - १ (मूलं निर्युक्तिः + वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२. ], चुडा [३], अध्ययन [ - ], उद्देशक [-], मूलं [ १७६ ], निर्युक्ति: [ ३४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Jan Estation matinal - समणे भगवं महावीरे इमाए ओसप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए बीइकंताए सुसमाए समाए बीकंताए सुसमदुस्तमाए समाए बीकंताएं दूसमसुसमाए समाए बहु विइकंताए पन्नहत्तरीए वासेहिं मासेहि य अद्धनवमेहिं सेसेहिं जे से गिम्हाणं चउत्थे मासे अट्ठमे पक्खे आसाढमुद्धे तस्स णं आसाढसुद्धस्स छट्ठीपक्खेणं हत्युत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं महाविजय सिद्धत्थपुप्फुत्तरवरपुंडरी यदिसासोवत्थियवद्धमाणाओ महाविमाणाओ वीसं सागरोवमाई आउयं पालइचा आक्खणं ठिक्खणं भवक्खणं चुए चइत्ता इह खलु जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे दाहिणडभरहे दाहिणमाहणकुंडपुरसंनिवेसंमि उसभदत्तस्स माहणस्स कोढाउसगोत्तस्स देवाणंदाए माहणीए जालंधरस्स गुत्ताए सीहुब्भवभूषणं अप्पाणेणं कुच्छिसि गर्भ वकते, समणे भगवं महावीरे तिन्नाणोवगए यावि हुत्था, चइस्सामित्ति जाणइ चुएमित्ति जाणइ घयमाणे न याणे, सुमेणं से काले पन्नत्ते, तओ णं समणे भगवं महावीरे हियाणुकंपणं देवेणं जीयमेयंविकट्टु जे से वासाणं तचे मासे पंचमे पक्खे आसोयबहुले तस्स णं आसोयबहुलरस तेरसीपक्खेणं इत्युत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागणं वासीहिं राईदिएहिं बघतेहिं तेसीइमस्स राईदियस्स परियाए बट्टमाणे दाहिणमाहणकुंडपुरसंनिवेसाओ उत्तरखत्तियकुंडपुरसंनिवेसंसि नावाणं खत्तियाणं सिद्धत्थरस खत्तियस्स कासवगुत्तस्स तिसलाए खत्रियाणीए वासिट्रुसगुत्ताए असुभाणं पुग्गाणं अवहारं करिता सुभाणं पुग्गठाणं पक्खेवं करिता कुच्छिसि गन्धं साहरइ, जेवि य से तिसलाए खत्तियाणी कुच्छिसि गमे तंपि य दाहिणमाहणकुंडपुरसंनिवेसंसि उस० को ० देवा० जालंधरायणगुत्ताए कुच्छिसि गमं साहरइ, समणे भगवं महावीरे तिम्राणोवगए यावि होत्था — साहरिजिस्सामित्ति जाणइ साहरिजमाणे न यागइ साह For Parts Onl ~846 ~# Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन -1, उद्देशक [-], मूलं [१७६], नियुक्ति: [३४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचारावृत्तिः (शी) श्रुतस्कं०२ चूलिका ३ भावनाध्य. प्रत सूत्रांक ॥४२१॥ [१७६] दीप अनुक्रम [५१०] रिएमित्ति जाणइ समणाउसो! । तेणं कालेणं तेणं समएणं तिसलाए खत्तियाणीए अहऽनया कयाई नवण्डं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाणराइदिवाणं वीइकनाणं जे से गिम्हाणं पढमे मासे दुने पक्खे चित्तसुद्धे तस्स णं चित्तसुद्धस्स तेरसीपक्सेणं हत्थु० जोग० समणं भगवं महावीरं अरोग्गा अरोग्ग पसूबा । जण्ण राई तिसलाख० समणं० महावीर अरोया अरोय पसूया तणं राई भवणवइवाणमंतरजोइसियविमाणवासिदेवेहिं देवीहि य उवयंतेहिं अप्पयंतेहि य एगे मई दिव्वे देवुजोए देवसन्निवाए देवकहकहए उप्पिंजलगभूए थावि हुत्था । जाणं रयणि तिसलाख० समणे० पसूया नणं रयणि बहवे देवा य देवीओ य एगं महं अभयवासं च १ गंधवासं च २ चुन्नवासं च ३ पुष्फवा० ४ हिरनवासं च ५ रयणवासं च ६ पासिंसु, जण्ण रयणि तिसलाख० समणं पसूया तण्ण रयणि भवणवदवाणमंतरजोइसियविमाणवासिणो देवा व देवीओ व समणस्स भगवओ महावीरस्स सूझकम्माई तित्थयराभिसेयं च करिसु, जो गं पभिइ भगवं महावीरे तिसलाए ख० कुञ्छिसि गम्भ आगए तो णं पनिइ तं कुलं विपुलेणं हिरनेणं सुवन्नेणं धणेणं धनेणं माणिकणं मुत्तिएणं संखसिलप्पवालेणं अईव २ परिवाइ, तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अम्मापियरो एयमर्दु जाणित्ता निव्वत्तदसाइंसि चुकतंसि सुइभूयंसि विपुलं असणपाणखाइमसाइमं उबक्खडाविति २ ता मित्तनाइसवणसंबंधिवगं उवनिमंतंति मित्त उवनिमंतित्ता बद्दबे समणमाहणकिवणवणीमगाह भिकछुडगपंडरगाईण विच्छति विग्गोर्विति विस्साणिति दायारेसु दाणं पजभाइति विच्छद्वित्ता विग्गो० विस्साणित्ता दाया० पजभाइचा मित्तनाइ० भुंजाविति मित्त० भुंजाविता मित्त बम्गेण इममेयारूवं नामधिज कारविंति-जओ णं पभिइ इमे कुमारे ति०ख० कुपिछसि गम्भे आहूए ॥ ४२१॥ wwwandltimaryam ~847~# Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन -1, उद्देशक [-1, मूलं [१७६], नियुक्ति: [३४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७६] दीप अनुक्रम [५१०] नोपभिइ इमं कुलं विपुलेणं हिरनेणं० संखसिलापवालेणं अतीव २ परिबइ वा होउ ण कुमारे बद्धमाणे, सभी थे समणे भगवं महावीरे पंचधाइपरिबुडे, तं०-खीरधाईए १ मजणधाईए २ भंडणधाईए ३ खेलावणधाइए ४ अंकथा०५ अंकाभो अकं साहरिजमाणे रम्मे मणिकुट्टिमतले गिरिकंदरसमुल्लीणेविव चंपथपायवे अहाणुपुवीए संवडइ, तओ णं समणे भगवं विनायपरिणय (मित्ते) विणियत्तबालभावे अप्पुस्सुयाई उरालाई माणुस्सगाई पंचलक्खणाई कामभोगाई सरफरिसरसरूवगंधाई परियारेमाणे एवं च णं विहरइ । (सू०१७६)। समणे भगवं महावीरे कासवगुत्ते तस्स णं इमे तिन्नि नामधिज्जा एषमाहिजंति, संजहा-अम्मापिउसंति वद्धमाणे १ सहसंमुइए समणे २ भीमं भयभेरवं उरालं अवेलयं परीसहसहत्तिकटु देवेहि से नाम कयं समणे भगवं महावीरे ३, समणस्स गं भगवओ महावीरस्स पिया कासवगुत्तेणं तस्स गं तिन्नि नाम० त०-सिद्धत्थे इ वा सिजसे इ वा जसंसे इवा, समणस्स f० अम्मा वासिहरसगुत्ता तीसे णं तिनि ना०, तं०-तिसला इ वा विदेहविना इ वा पियकारिणी इ वा, समणस्स णं भ० पित्तिअए सुपासे कासवगुत्तेणं, समण जितु भाया नंदिवद्धणे कासवगुत्तेणं, समणस्स णं जेट्ठा भइणी सुदंसणा कासवगुत्तेणं, समणस्स णं भग० भज्जा जसोया कोडिनागुत्तेणं, समणस्स f० धूया कासवगोत्रेणं तीसे णं दो नामधिज्जा एवमा०-अणुज्या इ वा पियदसणा इवा, समणस्स णं भ० नत्तूई कोसिया गुत्तेणं तीसे णं दो नाम० त०-सेसवई इ वा जसवई इवा, (सू०१७७)। समणस्स गं० ३ अम्मापियरो पासावचिजा समणोबासगा यावि हुत्या, ते णं बहूई बासाई समणोबासगपरियागं पालइक्ता छण्हं जीवनिकायाणं सारक्यणनिमित्तं आलोइत्ता निदित्ता गरिदित्ता पटिकमित्ता अहारिहं उत्तरगुणपायच्छित्ताई पडिवजित्ता कुससंथारगं दुरू wwwandltimaryam ~848~# Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [१७९, गाथा-१...६], नियुक्ति: [३४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीआचारागावृत्तिः (शी०) श्रुतस्कं०२ चूलिका ३ भावनाध्य. [१७९+ गाथा१...६] ॥४२२॥ दीप अनुक्रम [५१३... ५४०] हित्ता भत्तं पञ्चक्खायंति २ अपच्छिमाए मारणंतियाए संलेहणासरीरए झुसियसरीरा कालमासे कालं किया तं सरीरं विष्पजहित्ता अचुए कप्पे देवताए उववन्ना, तो णं आउक्खएणं भव० ठि० चुए चदत्ता महाविदेहे वासे चरमेणं उस्मासेणं सिझिसति बुझिासंति मुचिस्संति परिनिब्वाइसंति सब्बदुक्खाणमंतं करिस्संति (सू० १७८) । तेणं कालेणं २ समणे भ० नाए नायपुत्ते नायकुलनिव्वते विदेहे विदेह दिन्ने विदेहजचे विदेहसूमाले तीसं वासाई विदेसित्तिकट्ठ अगारमज्झे बसित्ता अम्मापिऊहिं कालाएदि देवलोगमणुपत्तेहिं समत्चपदने चिचा हिरनं चिचा मुवन्नं चिचा पलं चिचा वाहणं चिचा धणकणगरयणसंतसारखावइज बिच्छवित्ता बिम्गोवित्ता विस्साणित्ता दायारेसुण दाइत्ता परिभाइत्ता संवच्छर दलदत्ता जे से हेमंताणं पढमे मासे पढमे पक्खे मग्गसिरबहुले तस्स गं मग्गसिरबहुलस्स दसमीपक्खेणं हत्थुत्तरा. जोग० अभिनिक्समणाभिपाए यावि हुत्था, संवच्छरेण होहिइ अमिनिक्खमणं तु जिणवरिंदस्स । तो अत्थसंपयाणं पवत्तई पुष्वसूरामओ ॥११॥ एगा हिरनकोडी अद्वेच अणूणगा सयसहस्सा । सूरोदयमाईयं दिनइ जा पायरामुत्ति ॥ २॥ तिन्नेव य कोढिसया अद्वासीईच हुंति कोडीजो । असिई च सबसहस्सा एवं संवच्छरे दिन्नं ॥ ३ ॥ घेसमणकुंडधारी देवा लोगतिया महिडीया । बोहिति य तित्वयरं पन्नरसमु कम्मभूमीसु ॥ ४ ॥ भमि य कप्पमी बोद्धथ्या कणहराइणो मज्झे । लोगतिया विमाणा अहसु वत्या असंखिज्जा ॥ ५ ॥ एए देवनिकाया भगवं बोहिंति जिणवरं वीरं । सबजगज्जीबहियं अरिहं ! तित्थं पचत्तेहि ॥ ६॥ तओ णं समणस्स भ० म० अभिनिक्षमणामिप्पायं जाणित्ता भवणवइवाजो०विमाणवासिणो देवा य देवीभो य सएदि २ रूबेहिं सएहिं २ नेवत्थेहिं सए०२ विधेहिं सब्बिडीए सबजुईए सम्वबल ॥४२२॥ wwwandltimaryam ~849~# Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन -1, उद्देशक [-1, मूलं [१७९], नियुक्ति: [३४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७९] दीप समुदएणं सयाई २ जाणविमाणाई दुरूहति सया० दुरूहित्ता अहाबायराई पुग्गलाई परिसाउंति २ अहासुहमाई पुग्गलाई परियाईति २ उड़े उप्पयंति उड़े उप्पइत्ता ताए उक्किट्ठाए सिग्घाए चवलाए तुरियाए दिवाए देवगईए अहे णं ओवयमाणा २ तिरिएणं असंखिजाइंदीवसमुदाई वीइकममाणा २ जेणेव जंबुद्दीवे दीवे तेणेव उवागच्छति २ जेणेव उत्तरखत्तियकुंडपुरसंनिवेसे तेणेव उवागच्छंति, उत्तरखत्तियकुंडपुरसंनिवेसस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए तेणेव शत्ति वेगेण ओवइया, तो णं सके देविदे देवराया सणिय २ जाणविमाणं पट्टवेति सणिय २ जाणविमाणं पद्ववेत्ता सणिय २ जाणविमाणाभी पचोरहद सणियं २ एगंतभवकमइ एगतमवकमित्ता मया वेउबिएणं समुग्घाएणं समोहणइ २ एग महं नाणामणिकणगरवणभत्तिचित्तं सुभं चार कंतरूवं देवच्छंदर्य वितब्बइ, तस्स णं देवच्छंदयस्स बहुममसभाए एग मई सपायपीद नाणामणिकणयरवणभत्तिचित्तं सुभं चारुकतरूवं सीहासणं विउव्वद, २ जेणेव समणे भगवं महावीरे ते. णेव उवागच्छद २ समर्ण भगवं महावीर तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेए २ समणं भगवं महावीरे बंदर नमसइ २ समण भगवं महावीरं गहाय जेणेव देवच्छंदए तेणेव उवागच्छद सणियं २ पुरस्थाभिमुहं सीहासणे निसीयावेइ सणिय २ निसीयाविसा सयपागसहस्सपागेहि तिलेहि अभंगेइ गंधकासाईएहिं उल्लोलेइ २ सुद्धोदएण मजावेइ २ जस्स णं मुझ सयसहस्सेणं तिपडोलतित्तिएणं साहिएणं सीतेण गोसीसरत्तचंदणेणं अणुलिंपइ २ ईसि निस्सासवायवोझ बरनवरपट्टणुमायं कुसलनरपसंसियं अस्सलालापेलवं छेयारियकणगखइयंतकम्म हंसलक्षणं पट्टजयलं निवंसावेद २ हार अहार उरत्वं नेवत्थं एगावलि पालंबसुत्तं पट्टमउहरयणमालाउ आविधावेइ आविधावित्ता गंथिमवेढिमपूरिमसंघाइमेणं अनुक्रम [५१३... ५४० wwwandltimaryam ~850~# Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [१७९, गाथा-१...११], नियुक्ति: [३४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचारावृत्तिः (शी०) ॥४२३॥ श्रुतस्कं०२ चूलिका ३ भावनाध्य. सूत्रांक [१७९+ गाथा १...११] महेणं कप्परुक्ममिव समलंकरेइ २ ता दुर्चपि महया उब्बियसमुग्याएणं समोहणइ २ एग मह चंदप्पाहं सिबियं सहस्सवाहणियं विउन्वति, तंजहा-हामिगउसमतुरगनरमकरविहगवानरकुंजररुरुसरभचमरसहूलसीहवणलयभत्तिचित्तलयविजाहरमिहुणजुयलजंतजोगजुत्तं अचीसहस्समालिणीयं सुनिरूवियं मिसिमिसितस्वगसहस्सकलियं ईसि भिसमाण मिम्भिसमाणं चक्खुल्लोयणलेसं मुत्ताहलमुत्ताजालंतरोवियं तवणीयपवरलंबूसपलंबतमुत्तदामं हारद्वहारभूसणसमोणय अहियपिच्छणिज पठमलयभत्तिचित्तं असोगलयभत्तिचित्तं कुंदलयभत्तिचित्तं नाणालयभत्ति विरइयं सुभं चारुकतरूवं नाणामणिपंचवन्नघंटापडायपडिमंडियग्गसिहरं पासाईवं दरिसणिजं सुरूवं,-सीया उवणीया जिणवरस्स जरमरणविप्पमुकास्स । ओसत्तमझदामा जलथलथदिव्वकुसुमेहिं ॥१॥ सिवियाइ मज्झयारे दिब्वं वररयणरूवचिंचइयं । सीहासणं महरिहं सपायपीढं जिणवरस्स ॥ २ ॥ आलइयमालमउडो भासुरवुदी वराभरणधारी । खोमियवस्थनियत्यो जस्स य मुखं सयसहस्सं ॥ ३ ॥ण्डेण उ भत्तेणं अावसाणेण सुंदरेण जिणो । लेसाहि विसुजातो आरुहई उत्तम सीयं ॥ ४ ॥सीहासणे निविट्ठो सणीसाणा य दोहि पासेहिं । वीयंति चामराहि मणिरयणविचित्तदंडाहिं ॥ ५ ॥ पुषि उक्वित्ता माणुसेहि साह रोमकूकेहि । पच्छा बहंति देवा सुरअसुरा गरुलनागिंदा ॥ ६॥ पुरओ सुरा वहती अमुरा पुण दाहिणमि पासंमि । अवरे वहति गरुला नागा पुण उत्तरे पासे ॥ ७॥ वणसई व कुसुमियं पउमसरो वा जहा सरयकाले । सोहइ कुसुमभरेणं इस गगणयलं सुरगणेहिं ॥ ८॥ सिद्धत्थवणं व जहा कणयारवणं व चंपयवणं वा । सोहइ कु० ॥९॥ वरपडहभेरिझहरिसंखसयसहस्सिएहि तूरेहिं । गयणयले धरणियले तूरनिनाओ परमरम्मो ॥ १०॥ ततविततं धणा दीप अनुक्रम [५१३... ५४० SSCACANCC ॥४२३॥ wwwtoneitnam.org ~851~# Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [१७९, गाथा-१...११], नियुक्ति : [३४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७९+ गाथा 6*36***%*%*XXSXX सिर आउजं चउम्बिई बहुविहीयं । वाइंति तस्य देवा बहूहिं आनट्टगसएहि ॥ ११॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं जे से हेमंताणं पढ़मे मासे पढमे पक्खे मग्गसिरबहुले तस्स णं मग्गसिरबहुलस्स दसमीपक्खेणं सुरुवएणं दिवसेणं विजएणं गुहुत्तेणं इत्युत्तरानक्खत्तेणं जोगोवगएणं पाईणगामिणीए छायाए विदयाए पोरिसीए छटेणं भत्तेणं अपाणएणं एगसाडगमायाए चंदप्पभाए सिबियाए सहस्सवाहिणियाए सदेवमणुयामुराए परिसाए समणिजमाणे उत्तरखत्तियकुंडपुरसंनियेसस्स मज्झमजोणं निगच्छा २ जेणेव नायसंडे उजाणे तेणेव उवागच्छइ २ ईसि रयणिप्पमाणं अच्छोप्पेणं भूमिभाएणं सणिय २ चंदष्पर्भ सिषियं सहस्सवाहिणि ठवेद २ सणियं २ चंदप्पभाओ सीयाओ सहस्सवाहिणीओ पञ्चोयरर २ सणियं २ पुरस्थाभिमुहे सीहासणे निसीयइ आभरणालंकारं ओमुअइ, तओ णं वेसमणे देवे भतुव्यायपडिओ भगवओ महावीरस्स हंसलक्षणेणं पडेणं आभरणालंकार पडिच्छइ, तओ णं समणे भगवं महावीरे वाहिणणं दाहिणं वामेणं वाम पंचमुहियं लोयं करेइ, तओ णं सके देविंदे देवराया सभणस्स भगवओ महावीरस्स जन्नवायपटिए यइरामएणं थालेण केसाई पढिच्छा २ अणुजाणेसि भंतेत्तिक? खीरोयसागरं साहरइ, तओ णं समणे जाव लोयं करिता सिद्धाणं नमुकार करेइ २ सब मे अकरणिजं पावकम्मतिकटू सामाइयं चरित्तं पडिक्जाइ २ देवपरिसं च मणुषपरिसं च आलिक्वचित्तभूयमिव ठवेइ-दिव्यो मणुस्सपोसो तुरियनिनाओ य सकवयणेणं । खिप्पामेव निलुको जाहे पडिवनइ चरितं ॥१॥ पडिवजितु चरितं अहोनिसं सव्वपाणभूयहियं । साहट्ट लोमपुलया सत्वे देवा निसामिति ।। २ ॥ तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स सामाइयं खोवसमियं चरित्तं पडिवनस्स मणपजवनाणे नामं नाणे समुष्पन्ने अडाइजेहि दीप अनुक्रम [५१३... ५४०] wwwandltimaryam ~852~# Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१७९] दीप अनुक्रम [१३.... ५४० ] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ४२४ ॥ "आचार" अंगसूत्र - १ (मूलं निर्युक्तिः + वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२. ], चुडा [३], अध्ययन [ - ], उद्देशक [-], मूलं [ १७९ ], निर्युक्ति: [ ३४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Jan Estication Intimatinal - दीवेहिं दोहि य समुदेहिं सन्नीणं पंचिदियाणं पलत्ताणं वियत्तमणसाणं मणोगयाई भावाई जाणे । तभ णं समणे भगवं महावीरे पव्यइए समाणे मित्तनाई सयणसंबंधिवग्गं पंडिविसज्जे, २ इमं एयारूवं अभिग्गाहं अभिगिन्छ - पारस वासाई बोसटुकाए चियत्तदेद्दे जे केइ उवसग्गा समुप्पांति, तंजहा - दिव्वा वा माणुस्सा वा तेरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसग्गे समुप्पन्ने समाणे सम्मं सहिस्सामि खमिस्सामि अहिआसइस्सामि, तओ णं स० भ० महावीरे इमं एयावं अभिग्गहूं अभिगिण्डित्ता वोसिट्टचत्तदेहे दिवसे मुहुत्तसेसे कुम्मारगामं समणुपत्ते, तओ णं स० भ० म० बोसिद्वचत्तदेहे अणुत्तरेणं आलएणं अणुत्तरेणं बिहारेणं एवं संजमेणं पग्गहेणं संवरेणं तवेणं बंभचेरवासेणं खंतीए मुक्तीए समिईए गुत्तीए तुट्टीए ठाणेणं कमेणं सुचरियफलनिव्वाणमुचिमग्गेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ, एवं वा विहरमाणस्स जे केइ उवसग्गा समुप्पयंति - दिव्या वा माणुस्सा वा तिरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसग्गे समुप्पन्ने समाणे अणाढले अव्वहिए अद्दीणमाणसे तिविह्मणवयणकायगुत्ते सम्मं सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेइ, तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स एएणं विहा रेणं विरमाणस्स बारस वासा वीइकंता तेरसमस्स य वासस्स परियाए बट्टमाणस्स जे से गिम्हाणं दुबे मासे उत् क्ले वसाहसुद्धे तस्स णं वेसाहसुद्धस्त दसमीपक्खेणं सुव्वएणं दिवसेणं विजएणं मुहुत्तेणं ह्त्युत्तराहिं नक्खणं जोगोवगएणं पाईंणगामिणीए छायाए वियत्ताए पोरिसीए जंमियगामस्स नगरस्स बहिया नईए उज्जुवालियाए उत्तरकूले सामागस्स गाहाबइस्स कटुकरणंसि उडुंजाणूअहोसिरस्स झाणकोट्ठोवगयस्स वेयावत्तस्स चेइयस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसीभागे सालकक्वस्स अदूरसामंते उकुडुयस्स गोदोहियाए आयावणाए आयावेमाणस्स छणं भत्तेणं अपाणणं सुकन्या For Parts Onl ~853~# श्रुतस्कं० २ चूलिका ३ भावनाध्य. ॥ ४२४ ।। www.india.org Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन -1, उद्देशक [-1, मूलं [१७९], नियुक्ति: [३४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: SA प्रत सूत्रांक [१७९] दीप तरियाए बढ़माणस्स निमाणे कसिणे पडिपुन्ने अब्बाहए निरावरणे अणंते अणुत्तरे केवलवरनाणदसणे समुष्पन्ने, से भगवं अरहं जिणे केवली सम्बनू सन्नभावदरिसी सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स पजाए आणइ, तं०-आगई गई ठिई चयर्ण उबवायं भुत्तं पीयं कडं पडिसेवियं आविकर्म रहोकम्मं लविवं कहियं मणोमाणसियं सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वभावाई जाणमाणे पासमाणे एवं च णं विहरह, जण्णं दिवसं समणस्स भगवओ महावीरस्स निब्याणे कसिणे जाव समुप्पन्ने तण्णं दिवसं भवणवदवाणमंतरजोइसियविमाणवासिदेवेहि य देवीहि य उवयंतेहिं जाव उप्पिजलगन्भूए यावि हुत्था, तो णं समणे भगवं महावीरे लप्पन्नवरनाणदसणधरे अप्पाणं च लोगं च अभिसमिक्ख पुष्वं देवाणं धम्ममाइक्खद, ततो पच्छा मणुस्साणं, सो णं समणे भगवं महावीरे उष्णननाणदसणधरे गोयमाईणं समणाणं पंच महत्वयाई सभावणाई छजीवनिकाया आतिक्षति भासइ परूजेद, तं-पुदविकाए जाव तसकाए, पढम भंते ! महवयं पचक्यामि सवं पाणाइवायं से मुहुभं वा वायर वा तसं वा थावरं वा नेब सयं पाणाइवायं करिजा ३ जावजीवाए तिविम् तिविहेणं मणसा बयसा कायसा तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि, वस्सिमाओ पंच भावणाओ भवति, तस्थिमा पढमा भावणा'तेणं कालेण'मित्यादि तेन कालेन' इति दुष्षमसुषमादिना 'तेन समयेन' इति विवक्षितेन विशिष्टेन कालेन सतोत्स-| च्यादिकमभूदिति सम्बन्धः, तत्र 'पंचहत्थुत्तरे यावि हुत्था' इत्येवमादिना आरोग्गा आरोग्ग पसूर्य'त्ति, इत्येवमन्तेन ग्रन्थेन भगवतः श्रीवर्धमानस्वामिनो विमानच्यवनं ब्राह्मणीगर्भाधानं ततः शक्रादेशात्रिशलागर्भसंहरणमुत्पत्तिश्चाभिहिता, 'तत्थ अनुक्रम [५१३... ५४० wwwandltimaryam ~854~# Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन -1, उद्देशक [-1, मूलं [१७९], नियुक्ति: [३४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७९]] दीप श्रीआचा- पंचहत्थुत्तरेहिं होत्य'त्ति हस्त उत्तरो यासामुत्तरफाल्गुनीनां ता हस्तोत्तराः, ताश्च पञ्चसु स्थानेषु-गर्भाधानसंहरणजन्म श्रुतस्क०२ राङ्गवृत्तिःदीक्षाज्ञानोसत्तिरूपेषु संवृत्ता अतः पञ्चहस्तोत्तरो भगवानभूदिति, 'चवमाणे ण जाणइ'त्ति आन्तर्मुहर्तिकत्वाच्छद्मस्थो- चूलिका ३ (शी०) शापयोगस्य यवनकालस्य च सूक्ष्मत्वादिति, तथा 'जण्णं रयणी अरोया अरोयं पसूयन्तीत्येवमादिना 'उप्पन्ननाणदंसण- भावनाध्य. धरे गोयमाईणं समणाणं निग्गंथाणं पञ्च महब्बयाई सभावणाई छज्जीवनिकायाई आइक्खई'त्येवमन्तेन ग्रन्थेन भग॥४२५॥ वतो वीरवर्द्धमानस्वामिनो जातकर्माभिषेकसंवर्द्धनदीक्षाकेवलज्ञानोत्पत्तयोऽभिहिताः, प्रकटार्थं च सर्वमपि सूत्र, साम्प्र-17 तमुत्पन्नज्ञानेन भगवता पञ्चानां महाव्रतानां प्राणातिपातविरमणादीनां प्रत्येकं याः पञ्च पच भावनाः प्ररूपितास्ता ब्या-18 ख्यायन्ते, तत्र प्रथममहावतभावनाः पञ्च, तत्र प्रथमां तावदाह इरियासमिए से निगथे नो अणइरियासमिएत्ति, केवली बूया०-अणइरियासमिए से निगथे पाणाई भूयाई जीवाई सताई अभिहणिज्ज वा वत्तिज वा परिवाविज वा लेसिज वा उपविज था, इरियासमिए से निग्गंधे नो इरियाअसमिइत्ति पढमा भावणा १ । आहावरा दुधा भावणा-मणं परियाणइ से निमगंधे, जे य मणे पावए सावजे सकिरिए अण्हयकरे छेयकरे भेषकरे अहिंगरणिए पाउसिए पारियाबिए पाणाइकाइए भूओवघाइए, तहरपगारं मणं नो पारिजा गमणाए, मणं परिजाणइ से निग्गथे, जे व मणे अपावएत्ति दुचा भावणा २ । अहावरा तच्चा भावणा-वई परिजाणइ से निग्गंधे, ॥४३५॥ जा य बई पाषिया सावजा सकिरिया जाव भूओवघाइया तहष्पगार वई नो उच्चारिजा, जे वई परिजाणइ से निगथे, जाव वा अपावियत्ति तथा भावणा ३ । अहावरा चउत्था भावणा-आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए से निग्गये, मो अनुक्रम [५१३... ५४०] wwwandltimaryam ~855~# Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१७९ ] दीप अनुक्रम [...] ५४० ] 66 अंगसूत्र - १ (मूलं निर्युक्तिः + वृत्तिः ) "आचार" श्रुतस्कंध [२. ], चुडा [३], अध्ययन [ - ], उद्देशक [-], मूलं [ १७९ ], निर्युक्ति: [ ३४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Jan Estication matinal - अणायाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए, केवली वूया० - आयाणभंडमत्तनिक्स्प्रेषणाअसमिए से निग्ये पाणाई भूवाई जीवाई सत्ताई अहिणिजा वा जान उद्दविज वा, तम्हा आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए से निगगंधे, नो आयाणभंडनिक्खेवणाअसमिपत्ति उत्था भावणा ४ अहावरा पंचमा भावणा-आलोश्वपाणभोवणभोई से निग्गंध तो अणालोइयपाणभोयणभोई, केवली वूया० – अणालोईयपाणभोयणभोई से निग्र्गये पाणाणि वा ४ अभिहणिज्न वा जाव उवि वा तम्हा आलोइयपाणभोयणभोई से निगांये नो अणालोईयपाणभोयणभोईति पंचमा भावणा ५ । एयावता महव्वए सम्मं कारण फांसिए पालिए तीरिए किट्टिए अवट्टिए आणाए आराहिए यावि भवइ पढमे भंते! महत्वए पाणाइवायाओ वेरमणं ॥ अहावरं दुषं महत्वयं पचक्खामि सव्वं मुसावायं वइदोसं, से कोहा वा लोहा वा भया वा हासा वा नेव सयं मुसं भासिज्जा नेवनेणं मुखं भासाविजा अनंपि मुसं भासतं न समणुमन्निजा तिविहं तिबिहेणं मणसा वयसा कायसा तस्स भंते! पडिकमामि जाव वोसिरामि, तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति तत्थिमा पढमा भावणा - अणुवीभासी से निम्गंथे नो अणुवी भासी, केवली बूया०-अणणुवीइभासी से निम्नगंधे समावज्जिज्ज मोसं वयणाए, अणुवीइभासी से निग्गंधे नो अणुवी भासित्ति पढमा भावणा । अहावरा दुच्चा भावणा - कोई परियाणा से निम्गंधे नो कोहणे सिया, केवली वूया - कोहपत्ते कोहत्तं समावइज्जा भोसं वयणाए, कोहं परियाणइ से निग्गंथे न य कोहणे सियन्ति दुच्चा भावणा । अहावरा तथा भावणा-लोमं परिया से निग्ये नो अ लोभणए सिया, केवली वूया -लोभपत्ते लोभी समावइज्जा मोसं वयणाए, लोभं परियाणा से निगंधे तो य लोभणए सियत्ति तथा भावणा | अवरा चढत्या भावणा-भयं परिजाणइ से 3 For Parana Prata Use Only ~856 ~# Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन -1, उद्देशक [-1, मूलं [१७९], नियुक्ति: [३४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचारावृत्तिः (शी०) श्रुतस्कं०२ चूलिका ३ भावनाध्य. सूत्रांक [१७९]] ॥४२६॥ दीप निरगंथे नो भयभीरुए सिया, केवली वूया-भयपत्ते भीरू समावइजा मोसं वयणाए, भयं परिजाणइ से निग्गथे नो भयभीरुए सिया चउत्था भावणा४। अहावरा पंचमा भावण्या-हास परियाणइ से निग्गंधे नो य हासणए सिया, केव० हासपत्ते हासी समावइजा मोसं वयणाए, हासे परिवाणइ से निर्माथे नो हासणए सियत्ति पंचमी भावणा ५ । एतावता दोघे महत्वए सम्म कारण फासिए जाव आणाए आराहिए यावि भवइ दुच्चे भंते ! महत्वए ।। अहावरं तचं मंते ! महध्वयं पश्चक्खामि सब्बं अदिनादाण, से गामे वा नगरे वा रत्ने वा अप्प वा बहु वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंत वा अचित्तमंतं वा नेव सयं अदिन गिहिजा नेवहिं अदिन्नं गिहाविजा अदिन्नं अन्नपि गिण्हतं न समणुजाणिजा जावजीपाए जाव बोसिरामि, तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति, तत्थिमा पढमा भावणा-अणुवीइ मिलम्गाई जाई से निग्गंधे नो अणणुवीइमिउग्गई जाई से निर्गथे, केवली बूया-अणणुवीइ मिउग्गहं जाई निगंथे अदिनं गिण्हेजा, अणुवीइ मिजमगई जाई से निर्माथे नो अणणुवीइ मिजगह जाइत्ति पढमा भावणा १ । अहवरा दुशा भावणा-अणुनविय पाणभोयणभोई से निगथे नो अणणुनविज पाणभोवणभोई, केवली यूवा-अणणुनविय पाणभोषणभोई से निग्गंधे अदिन्नं भुंजिजा, तन्हा अणुनविय पाणभोयणभोई से निगये नो अणणुनविय पाणभोयणभोईत्ति दुचा भावणा २ । अहवरा सच्चा भावणा-निग्गंथेणं उम्गहसि उम्गहियंसि एतावताव उग्गइणसीलए सिया, केवली धूया-निर्माथेणं उम्गहसि अणुग्गहियसि एतावता अणुमाहणसीले अविनं ओगिव्हिज्जा, निरगंथेणं उग्गई उग्गहियंसि एतावताब उमाहणसीलएत्ति तथा भावणा । महावरा चउत्था भावणा-निग्गंधणं उग्गहंसि उपगहियसि अभिक्खणं २ उग्गहणसीलए सिया, केवली बूया-निर्माण अनुक्रम [५१३... ५४० M॥४२६॥ wataneltmanam ~857~# Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन -1, उद्देशक [-1, मूलं [१७९], नियुक्ति: [३४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७९] दीप लग्गइंसि उ अभिक्सणं २ अणुग्गहणसीले अदिन्नं गिहिज्जा, निग्गंधे उग्गहंसि उन्गहियंसि अमिक्खणं २ उग्गहणसीलएत्ति चउत्था भावणा । अहावरा पंचमा भावणा-अणुवीइ मिउग्गहजाई से निग्गंधे सादम्मिएमु, मो अणणुबीई मिउम्गहजाई, केवली घूया--अणणुवीइ मिउम्गहजाई से निग्गंथे साहम्मिएसु अदिन्नं उगिहिज्जा अणुवीइमिउमगहजाई से निर्गथे साहम्मिएमु नो अणणुवीइमिजमाद्दजाती इइ पंचमा भावणा, एतावया तचे महब्बए सम्म० जाच आणाए आराहए यावि भवइ, तथं भंते ! महत्वयं ।। अहावरं चउत्थं महत्वयं पञ्चक्खामि सव्वं मेहुणं, से दिव्वं पा माणुस्सं वा तिरिक्खजोणियं वा नेव सर्य मेहुणं गच्छेजा तं चेवं अदिनादाणवत्तन्यया भाणियख्वा जाव वोसिरामि, तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति, तस्विमा पढमा भावणा-नो निर्गथे अभिक्खणं २ इत्थीणं कई कहित्तए सिया, केवली धूया--निगथे णं अभिक्खणं २ इत्थीणं कह कहेमाणे संतिभेया संतिविभंगा संतिकेवलीपन्नत्ताओ धम्माओ भंसिजा, नो निम्गंधे णं अमिक्खणं २ इत्यीक कह कहित्तए सियत्ति पढमा भावणा १ । अहावरा दुचा भावणा-नो निगये इत्थीण मणोहराई २ इंदियाई आलोइत्तए निशाइत्तए सिया, केवली बूया-निर्गधे णं इत्थीणं मणोहराई २ इंदियाई आलोएमाणे निझाएमाणे संतिभेया संतिविभंगा जाव धम्मामो भंसिजा, नो निग्गथे इत्थीणं मणोहराई २ इंदियाई आलोइत्तए निशाइत्तए सियत्ति दुचा भावणा २ । अहावरा तथा भावणा--नो निर्गथे इत्थीणं पुश्वरयाई पुचकीलियाई सुमरित्तए सिया, केवली बूयानिर्माचे णं इत्थीणं पुष्परयाई पुल्वकीलियाई सरमाणे संतिभेया जाब मंसिजा, नो निमगंधे इत्थीणं पुज्वरयाई पुष्पकीलियाई सरित्तए सियत्ति तथा भावणा ३ । अहावरा चउत्था भावणा-नाइमत्तपाणमोयणभोई से निमाथे न पणीयर अनुक्रम [५१३... ५४०] बा.सू. ७२ ~858~# Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन -1, उद्देशक [-1, मूलं [१७९], नियुक्ति: [३४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत श्रीआचारावृत्तिः (शी०) श्रुतस्कं०२ चूलिका ३ भावनाध्य. सूत्रांक ॥४२७॥ [१७९]] दीप सभोषणभोई से निगथे, केवली धूया-अइमत्तपाणभोयणभोई से निम्गथे पणियरसभोवणभोई संतिभेया जाव भंसिजा, नाइमत्तपाणभोयणभोई से निम्थे नो पणीयरसभोवणभोइत्ति चउत्था भावणा ४ । अहावरा पंचमा भावणा-नो निर्माथे इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई सपणासणाई सेवित्तए सिया, केवली बूया-निमांथे णं इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाई सेवेमाणे संतिभेया जाव भंसिजा, नो निमगंथे इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाई सेवित्तए सियत्ति पंचमा भावणा ५. एतावया पनत्ये महन्बए सम्मं कारण फासेइ जाव आराहिए यावि भवइ, चउत्थं भंते ! महव्ययं ।। अहावरं पंचर्म भंते ! महब्वयं सव्वं परिग्गई पच्चक्खामि से अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूल वा चित्तमंतमचित्तं वा नेव सर्व परिग्गई गिहिजा नेवन्नेहि परिग्गहं गिहाविजा अश्रपि परमाहं गिण्हतं न समणुजाणिजा जाब बोसिरामि, तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति, तत्थिमा पढमा भावणा-सोयओ णं जीवे [मणुना]मणुनाई सदाई मुणेइ मणुभामणुन्नेहि सदेहिं नो सजिजा नो रजिजा नो गिभेजा नो मुज्झि(च्छे)जा नो अझोववजिज्जा नो विणिधायमावजेजा, केवली यूया-निर्गथे ण मणुनामणुनेहिं सदेहिं सजमाणे रजमाणे जाब विणिघायमाबजमाणे संतिभेया संतिविभंगा संतिकेवलिपनत्तामो धम्माओ भसिजा, न सका न सोत सदरा, सोतविसयमागया । रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवजए ।। १ ।। सोयो जीवे मणुनामणुन्नाई सहाई सुणेइ पढमा भावणा १ । अहावरा दुचा भावणा-चक्खूओ जीबो मणुन्नामणुनाई रुवाई पासइ मणुनामणुलेहिं रूबेहिं सजमाणे जाव विणिघायमाबजमाणे संतिभेया जाव भंसिजा,-नसका रूवमर, चक्खुविसयमागयं । रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्ख परिवजए ॥ १॥ चक्खूओ जीवो मणुन्ना २ रूवाई पासइ, दुचा भावणा । अनुक्रम [५१३... ५४०] ॥४२७॥ C ~859~ Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन -1, उद्देशक [-1, मूलं [१७९], नियुक्ति: [३४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७९] अहावरा तथा भावणा-पाणओ जीवे मणुन्ना २ इं गंधाई आघायइ मणुनामणुन्नेहिं गंधेहि नो सजिजानी रजिजा जाव नो विणिधायमावजिज्जा केवली बूया-मणुन्नामणुन्नेहिं गंधेहिं सज्जमाणे जाब विणिघायमावजमाणे संतिभेया जाव भंसिज्जा, सका गंधमधाउं, नासाबिसयमागयं । रागदोसा उ जे तस्थ, ते भिक्खू परिवज्जए ॥ १॥ पाणओ जीवो मणुन्ना २ई गंधाई अग्धावइत्ति तथा भावणा ३ । अहावरा चउत्था भावणा-जिब्भाओ जीवो मणुना २ ई रसाई अस्साएइ, मणुनामणुग्नेहिं रसेहिं नो सजिजा जाब नो विणिघायमावजिजा, केवली बूया-निर्गथे णं मणुनामणुनहिं रसेहि सजमाणे जाब विणिधायमावजमाणे संतिभेया जाव भंसिजा,-न सका रसमस्सा, जीहाविसयमागयं । रागदोसा उजे तत्य, ते भिक्खू परिवजए ॥१॥ जीहाओ जीवो मणुन्नारई रसाई अस्साएइत्ति चढत्या भावणा ४ । अहावरा पंचमा भावणा-फासओ जीवो मणुना २ई फासाई पडिसेवेएइ मणुनामणुन्नेहिं फासेहिं नो सजिजा जाब नो विणिघायमावजिजा, केवली बूवा-निर्गथे णं मणुन्नामणुन्नेहिं फासेहिं सज्जमाणे जाव विणिघायमावजमाणे संतिभेया संतिविभंगा संतिकेवलीपनत्ताओ धम्माओ भंसिजा, सका फासमवेएउं, फासविसयमागयं । रागहोसाक ॥ १ ॥ फासओ जीवो मणुना २५ फासाई पडिसंवेएति पंचमा भावणा ५एतावता पंचमे महन्वते सम्म अवहिए आणाए आराहिए यावि भवर, पंचम भंते ! महत्व । इएहिं पंचमहत्वएहिं पणवीसाहि य भावणाहिं संपन्ने अणगारे अहासुर्य अहाकार्ष अहामार्ग सम्म कारण फासित्ता पालित्ता तीरित्ता किट्टित्ता आणाए आराहित्ता यादि भवइ ।। (सू०१७९) भावनाऽध्ययनम् ॥२-३॥ 'एरिया समिए' इत्यादि, ईरणं गमनमीर्या तस्यां समितो-दत्तावधानः पुरतो युगमात्रभूभागन्यस्तदृष्टिगामीत्यर्थः, 4A दीप अनुक्रम [५१३... ५४० ~860~# Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक [१७९] दीप अनुक्रम [५१३... ५४०] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ४२८ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [ १७९], निर्युक्ति: [ ३४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः न त्वसमितो भवेत्, किमिति ?, यतः केवली ब्रूयात्कर्मोपादानमेतद् गमन क्रियायामसमितो हि प्राणिनः 'अभिहन्यात् ' पादेन ताडयेत्, तथा 'वर्त्तयेत्' अन्यत्र पातयेत्, तथा 'परितापयेत्' पीडामुत्पादयेत्, 'अपद्रापयेद्वा' जीविताद्व्यपरोपयेदित्यत ईर्यासमितेन भवितव्यमिति प्रथमा भावना, द्वितीयभावनायां तु मनसा दुष्प्रणिहितेन न भाव्यं तद्दर्शयति-यन्मनः 'पापकं सावयं सक्रियम् ' अण्यकर'ति कर्माश्रयकारि, तथा छेदनभेदनकरं अधिकरणकरं कलहकरं प्रकृष्टदोषं प्रदोषिकं तथा प्राणिनां परितापकारीत्यादि न विधेयमिति, अथापरा तृतीया भावना दुष्प्रसक्ता या वाकू प्राणिनामपकारिणी सा नाभिधातव्येति तात्पर्यार्थः तथा चतुर्थी भावना आदानभाण्डमात्र निक्षेपणासमितिः, तत्र च निर्ग्रन्थेन साधुना समितेन भवितव्यमिति, तथाऽपरा पञ्चमी भावना - 'आलोकितं' प्रत्युपेक्षितमशनादि भोकव्यं, तदकरणे दोषसम्भवादिति, इत्येवं पञ्चभिर्भावनाभिः प्रथमं व्रतं स्पर्शितं पालितं तीर्ण कीर्त्तितमवस्थितमाज्ञयाऽऽराधितं भवतीति । द्वितीयत्रतभावनामाह, तत्र प्रथमेयम् - अनुविचिन्त्यभाषिणा भवितव्यं तदकरणे दोष सम्भवात्, द्वितीय भावनायां तु क्रोधः सदा परित्याज्यो, यतः क्रोधान्धो मिथ्याऽपि भाषत इति, तृतीयभावनायां तु लोभजयः कर्त्तव्यः, तस्यापि मृषावादहेतुत्वादिति हृदयम्, चतुर्थ्यां पुनर्भयं त्याज्यं, पूर्वोक्तादेव हेतोरिति पञ्चमभावनायां तु हास्यामिति, एवं पश्चभिर्भावनाभिर्यावदाज्ञयाऽऽराधितं भवतीति । तृतीयत्रते प्रथमभावनैषा-अनुविचिन्त्य शुद्धोऽवग्रहो याचनीय इति, द्वितीयभावना त्वाचार्यादीननुज्ञाप्य भोजनादिकं विधेयम्, तृतीया त्वेषा - अवग्रहं गृह्णता निर्मन्थेन साधुना ॥ ४२८ ॥ | परिमित एवावग्रहो ग्राह्य इति, चतुर्थभावनायां तु 'अभीक्ष्णम्' अनवरतमवग्रहपरिमाणं विधेयमिति, पञ्चम्यां त्वनु Jain Estication Intational For Par at Use Only श्रुतस्कं०२ चूलिका ३ भावनाध्य. ~861~# Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [१७९], नियुक्ति : [३४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत विचिन्त्य मितमवग्रहं साधर्मिकसम्बन्धिनं गृह्णीयात् , इत्येवमाज्ञया तृतीयव्रतमाराधितं भवतीति । चतुर्थत्रते प्रथमेदायम्-स्त्रीणां सम्बन्धिनी कथां न कुर्यात्, द्वितीयायां तु तदिन्द्रियाणि मनोहारीणि नालोकयेत्, तृतीयायां तु पूर्व कीडितादि न स्मरेत् , चतुझं नातिमात्रभोजनपानासेवी स्यात् , पञ्चम्यां तु स्त्रीपशुपण्डकविरहितशय्याऽयस्थानमिति । | पञ्चमनतभावना पुनरेषा-श्रोत्रमाश्रित्य मनोज्ञान् शब्दान् श्रुत्वा न तत्र गास विदध्यादिति, एवं द्वितीयतृतीय-XII तुर्थपश्चमभावनासु यथाक्रम रूपरसगन्धस्पर्शेषु गाय न कार्यमिति, शेष सुगम यावदध्ययनं समाप्तमिति ॥ भावनाख्य पञ्चदशमध्ययनं । तृतीया चूडा समातेति ॥ २-३-१५। %A5%2595 सूत्रांक [१७९] दीप % 2 अनुक्रम [५१३... ५४०] उक्तं तृतीयचूडात्मक भावनाख्यमध्ययनं, साम्प्रतं चतुर्धचूडारूपं विमुक्त्यध्ययनमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धःइहानन्तरं महावतभावनाः प्रतिपादिताः तदिहाप्यनित्यभावना प्रतिपाद्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य च | | त्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमान्तर्गतमर्थाधिकार दर्शयितुं नियुक्तिकृदाह अणिचे पब्वए रुप्पे भुयगस्स तहा (या) महासमुद्दे य। एए खलु अहिगारा अज्झयणंमी विमुत्तीए ३४२ अस्याध्ययनस्यानित्यत्वाधिकार तथा पर्वताधिकारः पुना रूप्याधिकारः तथा भुजगत्वगधिकार एवं समुद्राधिकारच, इत्येते पश्चार्थाधिकारास्तांश्च यथायोग सूत्र एव भणिष्याम इति ॥ नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे विमुक्तिरिति नाम, अस्य च नामादिनिक्षेपः उत्तराध्ययनान्तःपातिविमोक्षाध्ययनवदित्यतिदेष्टुं नियुक्तिकार आह wwwandltimaryam चतुर्था चूलिका- “विमुक्ति" ~862~# Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक || 8 || दीप अनुक्रम [५४१] श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (afte) ॥ ४२९ ॥ “आचार” - अंगसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [ १७९...गाथा- १], निर्युक्तिः [३४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः जो चैव होइ मुक्खो सा उ विमुत्ति पगयं तु भावेणं । देसविमुक्का साहू सव्वविमुक्का भवे सिद्धा ३४३ य एव मोक्षः सैव विमुक्तिः, अस्याश्च मोक्षवनिक्षेप इत्यर्थः प्रकृतम्-अधिकारो भावविमुक्तयेति, भावविमुक्तिस्तु देशसर्वभेदाद्वेधा, तत्र देशतः साधूनां भवस्थ केवलिपर्यन्तानां सर्वविमुक्तास्तु सिद्धा इति, अष्टविधकर्मविघटनादिति ॥ सूत्रानुगमे सूत्रमुञ्चारयितव्यं तच्चेदमू अणिचमावासमुर्विति जंतुणो, पलोयए सुचमिणं अणुत्तरं । विडसिरे बिन्नु अगारबंधणं, अभीर आरंभपरिग्राहं च ॥ १ ॥ 'आवसन्त्यस्मिन्नित्यावासो - मनुष्यादिभवस्तच्छरीरं वा तमनित्यमुप- सामीप्येन यान्ति गच्छन्ति जन्तवः - प्राणिन इति, चतसृष्वपि गतिषु यत्र यत्रोत्पद्यन्ते तत्र तत्रानित्यभावमुपगच्छन्तीत्यर्थः एतच्च मौनीन्द्रं प्रबचनमनुत्तरं श्रुत्वा 'प्रलोकयेत्' पर्यालोचयेद्, यथैव प्रवचनेऽनित्यत्वादिकमभिहितं तथैव लक्ष्यते दृश्यते इत्यर्थः एतच्च श्रुत्वा प्रलोक्य च विद्वान् 'ब्युत्सृजेत् ' परित्यजेत् 'अगारबन्धनं' गृहपाशं पुत्रकलत्रधनधान्यादिरूपं किम्भूतः सन् ? इत्याह'अभीरुः' सप्तप्रकारभयरहितः परीषहोपसर्गाप्रधृष्यश्च 'आरम्भ' सावद्यमनुष्ठानं परिग्रहं च सवाह्याभ्यन्तरं त्यजेदिति ॥ १ ॥ साम्प्रतं पर्वताधिकारे, - तागयं भिक्खुमणंतसंजयं, अणेलिसं विन्नु चरंतमेसणं । तुदंति वायाहि अमिदवं नरा, सरेहिं संगामगयं व कुंजरं ॥ २ ॥ तथाभूतं साधुम् - अनित्यत्वादिवासनोपेतं व्युत्सृष्टगृहबन्धनं त्यकारम्भपरिग्रहं तथाऽनन्तेष्वेकेन्द्रियादिषु सम्यग् यतः संयतस्तम् 'अनीदृशम्' अनन्यसदृशं 'विद्वांसं' जिनागमगृहीतसारम् 'एषणायां चरन्तं' परिशुद्धाहारादिना वर्त्तमानं, Jain Estication intumatl For Pantry Use Only ~863~# श्रुतस्कं०२ चूलिका ४ विमुक्तत्य. ॥ ४२९ ॥ www.india.org Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [१७९...गाथा-२], नियुक्ति: [३४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक ||२|| तमित्थंभूतं भिक्षु 'नरा': मिथ्यादृष्टयः पापोपहतारमानः 'वाग्भिः' असभ्यालापैः 'तुदन्ति' व्यथन्ते, पीडामुत्पादयन्तीत्यर्थः, तथा लोष्टप्रहारादिभिरभिद्रवन्ति च, कथमिति रष्टान्तमाह-शरैः समामगत कुजरमिव ॥ २॥ अपिच तहप्पगारेहि जणेहिं हीलिए, ससरफासा फरसा उईरिया । तितिक्खए नणि अदुहृचेयसा, गिरिव्य वारण न संपवेयए ॥ ३ ॥ | 'सथामकार।' अनार्यप्रायैर्जनैः 'हीलितः' कदर्थितः, कथं ?, यतस्तैः परुषास्तीवाः सशब्दा:-साकोशाः सर्गः-शीतोद्रष्णादिका दुःखोलादका उत्-प्राबल्येनेरिता-जनिताः कृता इत्यर्थः, तांश्च स मुनिरेवं हीलितोऽपि 'तितिक्षते' सम्यक् | || सहते, यतोऽसौ 'ज्ञानी' पूर्वकृतकर्मण एवायं विपाकानुभव इत्येवं मन्यमानः, 'अदुष्टचेताः' अकलुषान्तःकरणः सन् | 'न तैः संप्रवेपते' न कम्पते गिरिरिव वातेनेति ॥ ३ ॥ अधुना रूप्यदृष्टान्तमधिकृत्याह उवेहमाणे कुसलेहिं संवसे, अकंतदुक्खी तसथावरा दुही । अलूसए सव्वसहे महामुणी, तहा हि से सुस्समणे समाहिए ॥ ४ ॥ उपेक्षमाणः'परीषहोपसर्गान् सहमान इष्टानिष्टविषयेषु वोपेक्षमाणो-माध्यस्थ्यमवलम्बमानः 'कुशलैः' गीताथैः सह संवसेदिति, कथम् ?, अकान्तम्-अनभिप्रेतं दुःखम्-असातावेदनीयं तद्विद्यते येषां सस्थावराणां तान् दुःखिनस्त्रसस्थावरान 'अलूपयन्' अपरितापयन् पिहिताश्रवद्वारः पृथ्वीवत् 'सर्वसहः' परीषहोपसर्गसहिष्णुः 'महामुनिः' सम्यग्जगअयस्वभाववेत्ता तथा ह्यसौ सुश्रमण इति समाख्यातः॥४॥ किश्वविऊ नए धम्मपयं अणुत्तरं, विणीयतण्हस्स मुणिस्स झायओ । समाहियस्सऽग्गिसिहा व तेयसा, तबो व पन्ना य जसो य बहुइ ॥५॥ 'विद्वान्' कालज्ञः 'नतः' प्रणतः प्रहः, किं तत्?–'धर्मपद' क्षान्त्यादिकं, किंभूतम्-'अणुत्तर' प्रधानमित्यर्थः, 9C--KARGASTRA दीप अनुक्रम [५४२] wwwanatimarmarg ~864~# Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक ||५|| दीप अनुक्रम [५४५] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ४३० ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [ १७९...गाथा- ५ ], निर्युक्तिः [३४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः तस्य चैवंभूतस्य मुनेचिंगततृष्णस्य ध्यायतो धर्मध्यानं 'समाहितस्य' उपयुक्तस्याग्निशिखावत्तेजसा ज्वलतस्तपः प्रज्ञा यशश्च वर्द्धत इति ॥ ५ ॥ तथा दिसोदिसंऽतजिषेण ताइणा, महन्वया खेमपया पवेइया । महागुरू निस्सयरा उईरिया, तमेव उत्तिदिसं पगासगा ॥ ६ ॥ 'दिशो दिश' मिति सर्वास्वप्येकेन्द्रियादिषु भावदिक्षु 'क्षेमपदानि' रक्षणस्थानानि 'प्रवेदितानि' प्ररूपितानि, अनन्तश्वासी ज्ञानात्मतया नित्यतया वा जिनश्च रागद्वेषजयनादनन्तजिनस्तेन, किंभूतानि व्रतानि ? - 'महागुरुणि' कापुरुषैदुर्वहस्वात् 'निःस्वकराणि' स्वं - कर्मानादिसम्बन्धात्तदपनयनसमर्थानि निःस्वकराणि 'उदीरितानि' आविष्कृतानि तेजस इव तमोऽपनयनात्रिदिशं प्रकाशकानि, यथा तेजस्तमोऽपनीयोर्ध्वाधस्तिर्यक् प्रकाशते एवं तान्यपि कर्मतमोऽपनयन हेतुत्वात्रिदिशं प्रकाशकानीति ॥ ६ ॥ मूलगुणानन्तरमुत्तरगुणाभिधित्सयाऽऽह - सिएहिं भिक्खू असिए परिव्वए, असजमित्थीसु चइन पूयणं । अणिस्सिओ लोगमिणं तहा परं, न मिलई कामगुणेहिं पंडिए ॥ ७ ॥ सिताः - बद्धाः कर्मणा गृहपाशेन रागद्वेषादिनिबन्धनेन वेति गृहस्था अन्यतीर्थिका वा तैः 'असितः' अवद्धः तैः सार्द्ध सङ्गमकुर्वन् भिक्षुः 'परिव्रजेत् संयमानुष्ठायी भवेत्, तथा स्त्रीषु 'असजन' सङ्गमकुर्वन् पूजनं त्यजेत् न सत्काराभिलाषी भवेत्, तथा 'अनिश्रितः' असंबद्धः 'इहलोके' अस्मिन् जन्मनि तथा 'परलोके' स्वर्गादाविति, एवंभूतश्च 'कामगुणैः' मनोज्ञशब्दादिभिः 'न मीयते' न तोत्यते न स्वीक्रियत इतियावत् 'पण्डितः कटुविपाककामगुणदर्शीति ॥ ७ ॥ तहा विमुकरस परिन्नचारिणो, धिईमओ दुक्खखमस्स भिक्खुणो । बिसुज्झई जंसि मर्छ पुरेकर्ड, समीरियं रूप्पमलं व जोइणा ||८|| Jan Estication Intimational For Pantry Use Only ~865~# श्रुतस्कं० २ चूलिका ४ विमुक्रान्य. ॥ ४३० ॥ Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-1, उद्देशक [-], मूलं [१७९...गाथा-८], नियुक्ति: [३४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुनाका AAAAAAAACCC ||८|| दीप 'तथा' तेन प्रकारेण मूलोत्तरगुणधारित्वेन विमुक्तो-निसङ्गस्तस्य, तथा परिज्ञानं परिज्ञा-सदसद्विवेकस्तया चरितु । शीलमस्येति परिज्ञाचारी-ज्ञानपूर्व क्रियाकारी तस्य, तथा धृतिः-समाधानं संयमे यस्य स धृतिमांस्तस्य, दुःखम्-असातावेदनीयोदयस्तदुदीर्ण सम्यक् क्षमते-सहते, न वैक्लव्यमुपयाति नापि तदुपशमार्थ वैद्यौषधादि मृगयते, तदेवंभूतस्य | | भिक्षोः पूर्वोपात्तं कर्म 'विशुध्यति' अपगच्छति, किमिव ?-'समीरितं' प्रेरितं रूप्यमलमिव 'ज्योतिषा' अग्निनेति ॥८॥ साम्प्रतं भुजङ्गत्वगधिकारमधिकृत्याह____ से हु परिनासमयंमि वट्टई, निराससे उबरय मेहुणा चरे । भुयंगमे जुन्नतयं जहा थए, विमुन्नई से दुहसिज माहणे ॥ ९॥ 'स' एवंभूतो भिक्षुर्मूलोत्तरगुणधारी पिण्डैपणाध्ययनार्थकरणोद्युक्तः परिज्ञासमये वर्त्तते, तथा 'निराशंसः' ऐहिकामुष्मिकाशंसारहितः, तथा मैथुनादुपरतः, अस्य चोपलक्षणत्वादपरमहाव्रतधारी च, तदेवंभूतो भिक्षुर्यथा सर्पः कञ्चुकं मुक्त्वा निर्मलीभवति एवं मुनिरपि 'दुःखशय्यातः' नरकादिभवाद्विमुच्यत इति ॥९॥ समुद्राधिकारमधिकृत्याह- जमाहु ओहं सलिलं अपारय, महासमुई घ भुयाहि दुत्तरं । अहे य णं परिजाणाहि पंडिए, से हु मुणी अंतकडेत्ति वुचई ।। १०॥ ol 'य' संसारं समुद्रमिव भुजाभ्यां दुस्तरमाहुस्तीर्थकृतो गणधरादयो वा, किम्भूतम् -ओषरूपं, तत्र द्रव्यौपः सलिलप्रवेशो भावौष आस्रवद्वाराणि, तथा मिथ्यात्वाद्यपारसलिलम् , इत्यनेनास्य दुस्तरत्वे कारणमुक्तम् , अथैनं संसारसमुद्रमेवंभूतं ज्ञपरिज्ञया सम्यग् जानीहि प्रत्याख्यानपरिज्ञया तु परिहर 'पण्डितः' सदसद्विवेकज्ञः, स च मुनिरेवंभूतः। कर्मणोऽन्तकृदुच्यते ॥१०॥ अपिच अनुक्रम [५४८] C wwwandltimaryam ~866~# Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) प्रत सूत्रांक ||११|| दीप अनुक्रम [५५१] श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ४३१ ॥ “आचार” - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [ - ], उद्देशक [-], मूलं [ १७९... गाथा ११], निर्युक्तिः [३४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः जहा हि बद्धं इद्द माणवेहि, जहा य तेसिं तु विमुक्ख आहिए। अहा वहा बन्धविमुक्ख जे विऊ, से हु मुणी अंतकडेत्ति बुधई ॥ ११ ॥ 'यथा' येन प्रकारेण मिथ्यात्वादिना 'ब' कर्म प्रकृतिस्थित्यादिनाऽऽत्मसात्कृतम् 'इह' अस्मिन् संसारे 'मानवैः' मनुष्यैरिति तथा यथा च सम्यग्दर्शनादिना तेषां कर्मणां विमोक्ष आख्यातः इत्येवं याथातथ्येन बन्धविमोक्षयोर्यः सम्य- ४ वेत्ता स मुनिः कर्मणोऽन्तकृदुच्यते ॥ किञ्च - इममि लोए परप य दोसुवि, न विजई बंधण जस्स किंचिवि । से हु निरालंबणमप्पइडिए, कलंकलीभावप | || १२ || तिमि ॥ विमुत्ती सम्मत्ता ॥ २-४ ॥ आचाराङ्गसूत्रं समाप्तं ॥ प्रन्थानं २५५४ ॥ अस्मिन् लोके परत्र च द्वयोरपि लोकयोर्न यस्य बन्धनं किञ्चनास्ति सः 'निरालम्बनः' ऐहिकामुष्मिकाशं सारहितः 'अप्रतिष्ठितः' न क्वचित्प्रतिबद्धोऽशरीरी वा स एवंभूतः 'कलंकलीभावात्' संसारगर्भादिपर्यटनाद्विमुच्यते ॥ ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ उक्तोऽनुगमः, साम्प्रतं नयाः, ते च ज्ञानक्रियानययोरवतरन्ति तत्र ज्ञाननयः प्राह-यथा ज्ञानमेवैहिकामु ष्मिकार्थावाप्तये, तदुक्तम् – “णायम्मि गिव्हिअब्बे अगिहिअन्वंमि चेव अत्यंमि । जइअव्यमेव इइ जो जबएसो सो णओ नाम ॥ १ ॥” यतितव्यमिति ज्ञाने यलो विधेय इति य उपदेशः स नयो नामेति-स ज्ञाननयो नामेत्यर्थः । क्रियानयस्त्विदमाह — "क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्सुखितो भवेत् ॥ १ ॥” तथा “ शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा, यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् । संचिन्त्यतामौषधमातुरं हि ॥ ४३१ ॥ किं ज्ञानमात्रेण करोत्यरोगम् १ ॥ १ ॥” तथा गायमित्यादि, ज्ञातयोरपि ग्राह्यग्राहकयोरर्थयोस्तथाऽपि यतितव्यमेवेति Jan Estication International For Fanart Use Only श्रुतस्कं० २ चूलिका ४ विमुक्तत्य. ~867 ~# Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक -], मूलं [१७९...गाथा-१२], नियुक्ति: [३४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१२|| दीप अनुक्रम [५५२] क्रियैवाभ्यसनीयेति, इति यो नयः स क्रियानयो नामेति, एवं प्रत्येकमभिसन्धाय परमार्थोऽयं निरूप्यते-'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष' इति, तथा चागमः-"सब्वेसिपि नयाणं बहुविहवत्तव्य निसामित्ता । तं सवनयविसुद्धं जं चरणगुणडिओ साहू॥१॥" चरण-क्रिया गुणो-ज्ञानं तद्वान् साधुर्मोक्षसाधनायालमिति तासयोः ॥ आधारटीकाकरणे यदाप्त, पुण्यं मया मोक्षगमैकहेतुः । तेनापनीयाशुभराशिमुचैराचारमार्गप्रवणोऽस्तु लोकः ॥१॥ अन्त्ये नियुक्तिगाथा: आपारस्स भगवओ चउत्थचूलाइ एस निज्जुत्ती। पंचमचूलनिसीहं तस्स य उवरि भणीहामि ॥३४४॥ सत्तहिं छहिं चउचउहि य पंचहि अवचउहि नायव्वा । उद्देसएहिं पढमे सुयखंधे नव य अज्झयणा ३४५|| इकारस तिति दोदो दोदो उद्देसएहि नायव्वा । सत्तयअट्टयनवमा इकसरा हुंति अज्झयणा ॥ ३४६ ॥ ॥इतिश्रीआचाराङ्गनियुक्तिः।। पाहणे महसदो परिमाणे चेव होइ नायब्वो। पाहण्णे परिमाणे य छव्विहो होइ निक्खेवो ॥१॥ दब्वे खेत्ते काले भावंमि य होंति या पहाणा उ । तेसि महासद्दो खलु पाहण्णेणं तु निष्फन्नो ॥२॥ बब्वे खेते काले भामि य जे भवे महंता उ । तेसु महासदो खलु पमाणओ होति निष्फन्नो ॥३॥ दवे खेत्ते काले भावपरिण्णा य होइ बोद्धव्वा । जाणणओववक्खणओ य दुविहा पुणेकेका ॥४॥ ~868~# Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०१) “आचार" - अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक -1, मूलं [-, नियुक्ति: [३४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: श्रीआचा-10 राजवृत्तिः (शी०) श्रुतस्क०२ चूलिका ४ भावपरिष्णा दुविहा गूलगुणे चेव उत्तरगुणे य । मूलगुणे पंचविहा दुविहा पुण उत्तरगुणेसु ॥५॥ पाहण्णेण उ पगयं परिणाएय तहय दुविहाए । परिषणाणेसु पहाणे महापरिषणा तओ होइ ॥६॥ देवीणं मणुईणं तिरिक्खजोणीगयाण इत्थीणं । तिविहेण परिचाओ महापरिणाए निज्जुत्ती ॥७॥ अविवृता नियुक्तिरेषा महापरिज्ञायाः, अविवृता इत्यत्रोपन्यस्ताः । ॥४३२॥ ॥ इत्याचार्यश्रीशीलाकविरचितायामाचारटीकायां द्वितीयश्रुतस्कन्धः समाप्तः, समाप्तं चाचाराङ्गामिति ॥ ॥ ग्रन्थाग्रम् १२०००॥ इति श्रीमदाचाराङ्गाविवरणं श्रीशीलाङ्काचाय-यं समाप्तम् । ॥४३२॥ wwwandltimaryam आचाराङ्गसूत्र मूलं एवं शीलांकाचार्य रचिता टीका परिसमाप्ता: मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D.] ~869~ Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरूभ्यो नमः पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च / “आचाराङ्गसूत्र" [मूलं, भद्रबाहूस्वामी रचित नियुक्ति: एवं शिलांकाचार्य विहित वृत्तिः] | (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: “आचार" मूलं एवं वृत्तिः " नामेण परिसमाप्त: Remembar it's a Net Publications of 'jain_e_library ~870~#