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प्राचार्य अमतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन द्वारा पीएच. डी.
के लिए स्वीकृत शोध-प्रबन्ध
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सायचा यामासास-4
लेखक: डॉ. उत्तमचन्द जैन एम. ए., बी. एड., पीएच. डी.
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प्रस्तावना :
डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल शास्त्री, न्यायतीर्थ, साहित्य रत्न, एम. ए., पीएच.डी.
प्रकाशक: पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट
ए-४, बापूनगर, जयपुर - ३०२०१५
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प्रथम संस्करण : २२००
दि० १ जनवरी १९८८ ई०
(प्राचार्य कुन्दकुन्द द्विसहस्राब्दि समारोह वर्ष )
© सर्वाधिकार सुरक्षित
मूत्र्य :
:
सामान्य संस्करण वीस रुपये पुस्तकालय संस्करण चालीस रुपये
मुद्रक : कपूर भार्ट प्रिन्टर्स ननिहारों का रास्ता
जयपुर (राज.)
प्रकाशकीय
प्रस्तावना
लेखकीय
पृष्ठभूमि
संकेत सूची
विषय सूची
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(xvii)
(SAV)
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प्रकाशकीय प्राचार्य कुमार के द्विसाझाली नमार के अवसर पर नके प्रय टीकाकार प्राचार्य अमृतचन्द्र पर विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन से 'पीएच. डी.' उपाधि के लिए स्वीकृत डॉ. उत्तमचन्द जी जैन द्वारा लिखित शोधप्रबन्ध "प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व" प्रकाशित करते द्वारा हमें अत्यधिक प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है ।
डॉ, उत्तमचन्दजी ने प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में प्राचार्य अमृतचन्द्र के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व सम्बन्धी गूढ़ तथ्यों को उजागर किया है। डॉ. उत्तमचन्दजी संस्कृत में एम. ए. हैं, अत: आपका संस्कृत भाषा पर प्रभुत्व होने से आपने अनेक ग्रन्थों का गम्भीरता एवं सूक्ष्मता से अध्ययन किया है। लगभग १८ वर्ष पूर्व पाएको पुज्य श्री कानजी स्वामी का समागम प्राप्त हुआ, जिससे आपकी अध्यात्म की ओर रुचि और भी बढ़ गई । उसके पश्चात आपने अनेक न्यायशास्त्रों एवं सिद्धान्तशास्त्रों का अध्ययन अध्यात्म की दृष्टि से किया है। इसी के फलस्वरूप प्रापने शोध-खोज हेतु आचार्य अमृतचन्द्र के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व विषय को ही चुना।
प्रापन अफ्रीका के केनिया देश के प्रमुख शहर नाइरोवी में भी दो वर्ष तक सपरिवार निवास किया है, जहां अपने दिगम्बर जैन ममक्ष मण्डल में धर्माध्यापन का कार्य किया है।
बाप वर्तमान में राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय सिवनी में व्याख्याता के पद पर कार्यरत हैं। आपकी विद्वतापूर्ण व्याख्यान शैली अत्यन्त लोकप्रिय एवं प्रभावशाली होने से सारा जैन समाज आपसे भली-भांति परिचित है। १९८४ ई में प्रापका पर्युषण दादर बिम्बई) में हुआ। उक्त अवसर पर ग्रापकी हो प्रेरणा से इस शोध-प्रबन्ध के प्रकाशन के लिए मुमुक्ष मण्डल, दादर के सदस्यों से प्रावश्यक धनराशि के वचन प्राप्त हुए। दादर मुमुक्षु मण्डल को भावना थी कि इस ग्रन्थ का प्रकाशन किसी ऐसी प्रतिष्ठित संस्था से हो. जो इस काम को सहज भाव से कर सके, तथा इस अन्य का समुचित प्रचार-प्रसार भी हो सके, साथ में इस राशि से भविष्य में इसीप्रकार के ग्रन्थों का प्रकाशन होता रहे ।
अतः श्री कुन्दकुन्द कहान दिगम्बर जैन तीर्थ सुरक्षा दस्ट स अनुरोध किया गया, पर उक्त ट्रस्ट का उद्देश्य प्राचार्यों एवं दिवमत प्राचीन विद्वानों के साहित्य प्रकाशन तक सीमित होने में पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट से अनुरोध किया गया । हमारे द्वारा सहर्ष स्वीकार कर लेने पर उक्त ग्रन्ध
A
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का प्रकाशन का भार तथा उक्त राशि समर्पित कर दी गयी । परिणामस्वरूप प्रस्तुत कृति आपके हाथों में है। इस ग्रन्थ के प्रकाशन में सहयोग देने वालों को नामावली ग्रन्थान्त में सधन्यवाद प्रकाशित की जा रही है ।
शोध-प्रबन्धों के प्रकाशन की श्रृंखला में यह हमारा नृतीय प्रकाशन है। सबसे पहले हमने डॉ, भारिल्ल द्वारा लिखित एवं इन्दौर विश्वविद्यालय से पीएच. डी. की उपाधि के लिए स्वीकृत 'पण्डित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व" नामक शोध-प्रबन्ध्र का प्रकाशन किया था । दूसरा - डॉ. शुद्धात्मप्रभा द्वारा लिखित एवं राजस्थान विश्वविद्यालय से पीएच. डी. उपाधि के लिए स्वीकृत "प्राचार्य कुन्दकुन्द
और उनके टीकाकार" का प्रकाशन किया था और यह तीसस प्रकाशन है। इनके अतिरिक्त हमने दो लधु शोध-प्रबन्ध भी प्रकाशित किये हैं। राजस्थान विश्वविद्यालय द्वारा एम. ए. की परीक्षा के नवम प्रश्न-पत्र के लिए स्वीकृत शुद्धात्मप्रभा द्वारा लिखित "प्राचार्य अमृतचन्द्र और उस पुरुषार्थ सदुयाय" या अध्यात्मप्रभा द्वारा लिखित 'कविवर बनारसीदास : व्यक्तित्व और कर्तृत्व" ।।
इसके शीघ्र प्रकाशन हेतु अनेक प्रयास करते रहने पर भी अनुमान से भी अधिक समय लग गया है। साथ ही प्रकाशन में जितनी शुद्धता एवं सुन्दरता आनी चाहिए थी, वह भी नहीं आ सकी । तदर्थ क्षमा प्रार्थी हैं।
प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के लेखन हेतु डॉ. उत्तमचन्दजी धन्यवाद के पात्र हैं। डॉ हुकमचन्दजी भारिल्ल ने इसकी सुन्दर एवं विस्तृत प्रस्तावना लिखी है; अतः उनके भी हम हार्दिक अाभारी हैं। इसके प्रूफसंशोधन में पण्डित अभयकुमारजी जैन दर्शनाचार्य एव प्रकाशन व्यवस्था में अखिल बंसल का सराहनीय सहयोग रहा है, अतः हम उक्त दोनों महानुभावों के भी आभारी हैं । मुद्रण व्यवस्था हेतु कपूर पार्ट प्रिन्टर्स वाले भी धन्यवाद के पात्र हैं।
परमोपकारी पूज्य श्री कानजी स्वामी के उपकार को तो क्षणमात्र भी विस्मृत नहीं किया जा सकता है। उन्हीं के सदुपदेश एवं सत्प्रेरणा से डॉ. हुकमचन्दजी एवं डॉ उत्तमचन्दजी जैसे उच्चकोटि के विद्वान उनके द्वारा प्रसारित वीतराग मार्ग के प्रचार एवं प्रसार में संलग्न हैं। १ जनवरी, १६८८ ई०
नेमीचन्द पाटनी महामंत्री, पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट
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प्रस्तावना
डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल शास्त्री, न्यायतीर्थ, साहित्यरत्न एम. ए., पीएच. डी.
अध्यात्मसरोवर में आकण्ठ-निमान प्राचार्य अमृत वन्द्र ने अपनी ऋतियों में अध्यात्म की ऐसी मन्थर मन्दाकिनी प्रवाहित की है कि जिसके अमल शीतल जल में डुबकी लगाने वाले आत्मार्थीजन अद्भुत सुख-शांति का अनुभव करते हैं । विगत एक हजार वर्ष में न जाने कितने आत्मार्थियों ने इस पावन अध्यात्मगंगा में मजन कर शुभाशुभ भाव के संताप से मुक्ति प्राप्त कर तन्द्रिय समन्ध का रसपान किया है, कर रहे हैं और भविष्य में भी करेंगे।
अयि कथमपि मृत्वा तत्व कौतूहली सन्,
अनुभव भव मूर्तः पार्श्ववर्ती मुहूर्तम् ।। अरे भाई ! किसी भी प्रकार मरकर भी तत्वों का कौतली होकर - निज भगवान आत्मा का रुचित होकर -- इन शरीरादि मूर्त पदार्थों का पड़ोसी होकर कम से कम एक मुहूर्त (४८ मिनट - दो घड़ी) अपने प्रात्मा का अनुभव तो कर।
विरम किमपरेरणाकार्यकोलाहलेन,
स्वयमपि निभृतः सन् पश्य षण्मासमेकम् ॥' अरे भव्यात्मा ! अन्य व्यर्थ के कोलाहल करने से क्या लाभ है ? तू जगत के इस कार्य कोलाहल से विराम ले, इसमें समय खराब मत कर । एक छह महिना जगत से निवृत्त होकर एकमात्र निज भगवान प्रात्मा को देख ।"
मृदु सम्बोधनों से मुक्त ऐसी असंख्य प्रेरणायें प्राचार्य अमृतचन्द्र के साहित्य-गगन में पग-पग पर दृष्टिगोचर होती हैं, जो साधकों के हृदय को झकझोर देती हैं, उन्हें प्रात्मानुभव करने की, प्रात्मा में ही समा जाने की ओर प्रेरित करती रहती हैं । अन्तर को छ लेने वाले ये मृदुल सम्बोधन आत्मार्थियों की ऐसी सम्पत्ति हैं. जो उन्हें अन्तर की गहराई में उतरने की प्ररणा तो देती ही है, साथ ही सन्मार्ग से भटकने भी नहीं देती।
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१. समयसार कलश, २३ २. समयसार कलश, ३४
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श्राचार्य अमृतचन्द्र ने जिन - अध्यात्म के प्रतिष्ठापक प्राचार्य कुन्दकुन्द के अध्यात्म को श्रात्मसात् कर, उन्हीं के ग्रन्थों पर लिखी गई टोकाओं के माध्यम से जिन अध्यात्म को ऐसा मृदुल किन्तु सशक्त रूप प्रदान किया कि लोगों को कुन्दकुन्द के समय मार से भी अधिक महिमा आचार्य अमृतचन्द्र कृत समयसार की आत्मस्याति टीका की आने लगी। इससे बड़ी सफलता आचार्य अमृतचन्द्र की और क्या हो सकती थी ?
इस सन्दर्भ में प्राचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी जैसे वरिष्ठ आत्मार्थी विज्ञान का निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है -
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"वर्तमान काल में अध्यात्मतत्व तो श्रात्मख्याति समयसार प्रन्थ की अमृतचन्द्र आचार्यकृत टीका में है और ग्रागम की चर्चा गोम्मटसार में है तथा और अन्य ग्रन्थों में है ।
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जो जानते हैं, वह लिखने में आबे नहीं, इसलिए तुम भी अध्यात्म तथा आगम ग्रन्थों का अभ्यास रखना और स्वरूपानन्द में मग्न रहना ।'
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इसमें विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि आचार्यकल्प पडित टोडरमलजी सुदूरवर्ती मुलताननगर में रहने वाले साधर्मी भाइयों को श्रध्यात्म के अध्ययन के लिए आचार्य अमृतचन्द्र की आत्मख्याति टीका के अध्ययन की सलाह देते हैं । अध्यात्म की गहराई जानने के लिए एकमात्र आत्मस्याति को सलाह देने वाले टोडरमलजी के हृदय में ग्रात्मख्याति और उसके कर्त्ता आचार्य अमृतचन्द्र की कितनी महिमा होगी ? इसकी कल्पना सरलता से की जा सकती है ।
सचमुच ही स्वरूपगुप्त अमृतचन्द्र जिन अध्यात्म के स्तम्भ हैं । जिन अध्यात्म की परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द के बाद यदि किसी का निर्विवाद रूप से नाम लिया जा सकता है तो वे हैं - स्वरूपगुप्त प्राचार्य अमृतचन्द्र, जिनका प्रत्येक पद अध्यात्म-अमृत से सराबोर है । "स्वरूप गुप्त" आचार्य अमृतचन्द्र की एक ऐसी उपाधि है, जिसे उन्होंने स्वयं ली है और जो उनके जीवन और भावना को अभिव्यक्त करने में पूर्णतः समर्थ है | आत्मख्याति के अन्तिम छन्द में उक्त उपाधि को अपने नाम के साथ जोड़ते हुए वे लिखते हैं
-
१.
"स्वशक्तिसंसूचित वस्तुतत्वर्व्याख्या कृतेयं समयस्य शब्दः । स्वरूपगुप्तस्य न किन्चिदस्ति कर्त्तव्यमेवामृत चन्द्रसूरेः ।।
रहस्यपूर्ण चिट्टी, अन्तिम पृष्ठ
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जिन्होंने अपनी शक्ति से वस्तुतत्व को भलीभांति कहा है, एसे यों ने इस समयसार नामक ग्रन्थ की अथवा शुद्धात्मा की व्याख्या की है, स्वरूपप्त (ग्रपने स्वभाव में ही लीन रहने वाले ) अमृत प्राचार्य का (मेरा) इसमें कुछ भी कर्त्तव्य नहीं है अर्थात् मैंने इसमें कुछ भी नहीं किया है ।"
बहुमुखी प्रतिभा के धनी यात्रा अमृतचन्द्र न केवल सिद्धहस्त कवि ही हैं, अपितु सुप्रतिष्ठित सफल गद्यकार भी हैं। उनकी प्रतिभा का चमत्कार गद्य और पद्य साहित्य की दोनों ही विधानों में समान रूप से प्रस्फुटित हुआ है। अमृतचन्द्र की कृतियों का अध्ययन करते समय एक बात अत्यन्त स्पष्ट रूप से प्रतिभारित होती है कि जब वे किसी बात को सिद्ध करना चाहते हैं, समझाना चाहते हैं तो गद्य का सहारा लेते हैं और जब वे अन्तर से गद्गद् होकर अध्यात्ममार्ग में चलने की प्रेरणा देना चाहते हैं तो सहज ही उनके कल से, उनकी कलम से कविता प्रस्फुटित होने लगती है । तात्पर्य यह है कि उनके साहित्य में बुद्धि एवं हृदय दोनों का ही सुन्दरतम् समन्वय है। न तो वे एकान्ततः भावुक ही हैं और न शुष्क तर्कबाज उनके ग्रन्थों में भावना और तर्क का सुन्दरतम सरस समन्वय है । जब उनकी बुद्धि हृदय पर हावी रहती है, तब वे परिमार्जित गद्य लिखते हैं और जब हृदय बुद्धि पर हावी हो जाता है, तब वे शान्तरस से सरावोर प्रवाहमयी प्रांजल पद्य लिखने लगते हैं। - - इस बात को आत्मस्वाति में विशेषरूप से देखा जा सकता है । यही कारण है कि 'आत्मख्याति' चम्पू बन गई है । गद्यपद्यमयं काव्यं चम्पूरित्यभिधीयते गद्य और पद्य जिसमें मिश्रित हो, उसे चम्पू कहते हैं ।
भावों को उद्वेलित कर देने वाले प्रेरणास्पद प्रवाह के लिए जो अनुकूलता पद्य में पाई जाती है, वह गद्य में नहीं । इसीप्रकार वस्तुस्वरूप के सतर्क प्रतिपादन के लिए जो विशाल क्षेत्र गद्य प्रदान करता है, वह क्षमता पद्य में नहीं होती ।
किसी विषय के विशेष स्पष्टीकरण के लिए तर्क-वितर्क जरूरी है। तर्क-वितर्क की उछल-कूद बाली भाषा के भार को पद्म वदस्ति नहीं कर एकता, गद्य में ही वह क्षमता है कि जो तर्क-वितर्क की भाषा में बुद्धिपक्ष को निर्वाध विचरण करने के लिए असीमित क्षेत्र प्रदान करता है | अक्षर मात्रा, स्वर, ताल आदि असीम बन्धनों के बीच लीमित पद्यक्षेत्र में तर्कवितर्क का ताण्डव सम्भव नहीं है ।
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आत्मख्यातिकार आचार्य अमृतचन्द्र ने जिन-अध्यात्म के दार्शनिक पक्ष के स्पष्टीकरण के लिए गद्य एवं आत्मार्थियों को प्रात्महित की पावन प्रेरणा देने के लिए पद्य का चुनाव किया। इसप्रकार प्रात्मख्याति टीका गद्य-पद्यमय चम्पूकाव्य बन गई है।
___ आचार्य अमृतचन्द्र की मौलिक कृतियां पद्य में हैं और टीका ग्रन्थ गद्य में, पर यात्मख्याति इसका अपवाद है; उसमें गद्य के साथ-साथ पद्य का भी पर्याप्त प्रयोग हुआ है। अन्य टीकाग्रन्थों में पद्य पाये ही न जाते हों- यह बात नहीं है; पर प्रादि और अन्त में मंगलाचरण और प्रशस्तियों के रूप में ही पाये जाते हैं, टीकायों के बीच में बहुत कम देखने को मिलते हैं, पर प्रात्मख्याति में तो २७८ छन्द हैं, जो टीका के बहुत बड़े भाग को घेर लेते हैं। यदि उन्हें टीका से पृथक कर दे तो टीका चुसे हए आम की भांति नीरस हो जावेगी; क्योंकि उक्त पद्यों ने टीका को जो सरसता प्रदान की है, वह अद्भुत है, अपूर्व है ! यही कारण है कि प्रात्मयादि के एक पद्यों को अलग कर उन्हें पृथक ग्रन्थ के रूप में तो अपनाया जाता रहा है, पर अकेले गद्य भाग को कभी पृथक रूप से नहीं रखा गया है।
पाण्डे राजमलजी की कलश टीका, भट्टारक शुभचन्द्र की परमाध्यात्मतरंगिणी एवं पण्डित श्री जगन्मोहनलालजी शास्त्री का अध्यात्म अमृत कलश आदि टीकाएं इसके प्रबल प्रमाण हैं। उक्त तीनों टीकाग्रन्थ आत्मख्याति में समागत कलशों ( छन्दों) की ही टोकाएं हैं। कविवर पण्डित बनारसीदासजी ने प्रात्मख्याति के कलशों एवं पाण्डे राजमलजी की टीका को आधार बनाकर सुन्दरतम छन्दानुवाद प्रस्तुत किया है, जो समयसार नाटक नाम से प्रसिद्ध है, अत्यन्त लोकप्रिय है ।
__ "गद्य कवीनां निकष वदन्ति - मद्य कवियों की कसौटी है" - इस सक्ति में प्रतिपादित तथ्य की कसौटी पर जब हम प्राचार्य अमृतचन्द्र के गद्य को कसते हैं, तो उनका गद्य सौटंच का खरा स्वर्ण सिद्ध होता है। अपने विषय के प्रतिपादन में पूर्णतः समर्थ, अत्यन्त सुगठित, प्रौढ़, प्रांजल उनके गद्य में एक ऐसा मनोरम प्रवाह पाया जाता है, जो पाठकों के हृदय को एकदम बांध लेता है। उनके गद्य को एकदम सरल तो नहीं कहा जा सकता है, पर उस पर कठिनता का आरोप लगाना भी असम्भव है, अपनी भाषागत कमजोरी का प्रदर्शन मात्र है ।
"कान्येषु नाटकं रम्यं - काश्यों में नाटक स्वभावतः ही रम्य होते हैं। इस सूक्ति पर उनके काव्य को कसना इस लिए सम्भव नहीं है, क्योंकि
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उन्होंने कोई नाटक नहीं लिखा; पर उन्होंने प्रात्मख्याति को नाटकीयता का रूप अवश्य प्रदान किया है। एक अध्यात्मग्रन्थ की दीका में नाटकीय तत्त्वों का समावेश करके उन्होंने उसे एक ऐसी रोचकता प्रदान कर दी है, जो पाठकों को सहज ही आकर्षित करती है। यही कारण है कि कविवर पण्डित बनारसीदासजी ने अपने पद्यानुवाद का नाम ही 'समयसार नाटक' रखा है।
आचार्य कुन्दकुन्द की जिन-अध्यात्म परम्परा को पागे बढ़ाने का परमश्रेय तो आपको है हो, आधस्तुतिकार प्राचार्य समन्तभद्र की स्तोत्र परंपरा को भी उसी रूप में पल्लवित करने का श्रेय भी ग्रायको ही है। क्योंकि प्रापका 'लघुतत्त्वस्फोट' नामक स्तोत्र भी उसी शैली में लिखा गया है, जिस शैली में प्राचार्य समन्तभद्र के स्तोत्र पाये जाते हैं ।
२५-२५ छन्दों के २५ अधिकारों में विभक्त, शार्दूलविक्रीड़ित एवं मन्दाक्रान्ता जैसे बड़े-बड़े तेरह प्रकार के ६२६ छन्दों में लिखा गया यह स्तोत्र अपने प्राकार-प्रकार में तो अद्वितीय है ही, भावपक्ष और कलापक्ष की सम्पूर्ण विशेषताओं से भी मण्डित है।
इसके प्रथम अधिकार में २४ तीर्थकरों की स्तुति है । आगे के २४ अधिकारों में सामान्य रूप से जिनेन्द्रबन्दना के माध्यम से जिन-सिद्धान्तों का युक्तिपुरस्सर निरूपण है। भावानुरूप छन्दों एवं अलंकृत भाषा में निबद्ध यह स्त्रोत जिन-सिद्धान्त और जन-न्याय का अनमोल खजाना है, जो माद्यन्त मूलतः पठनीय है।
प्राद्यस्तुतिकार आचार्यसमन्तभद्र के स्तोत्रों में न्यायशास्त्र भरा पड़ा पड़ा है । वस्तुतः बात तो यह है कि जन-न्याय का उद्गम स्थल ही प्राचार्य समंतभद्र के स्तोत्र हैं, जिन्हें आधार बनाकर आगे चलकर प्राचार्य अकलंक और प्राचार्य विद्यानन्दी ने जैन-न्याय का अभेद्य गढ़ तैयार किया।
यद्यपि यह ध्रुव सत्य है कि कलंक और विद्यानन्दी ने समन्तभद्र के देवागमस्तोत्र पर वत्ति और भाष्य लिखे, पर समन्तभद्र की शैली में स्तोत्र लिखने वाले सर्वप्रमुख प्राचार्य अमृतचन्द्र ही हैं। अमृतचन्द्र को छोड़कर अन्य किसी में यह साहस देखन में नहीं पाया कि समन्तभद्र से स्तोत्रों की रचना करे।
_ यह बात भी नहीं है कि प्राचार्य अमृतचन्द्र अध्यात्म गंगा में ही डुबकियां लगाते रहे हों या न्याय-शास्त्र के दीहड़ों में ही भटकते रहे हों,
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उनके स्तोत्रों में भक्ति का तरल प्रवाह भी है और उन्होंन पुरुषार्थसिद्धयुपाय जोस सशक्त श्रावकाचार की भी रचना की है. जो प्राचार्य समन्तभद्र के रत्नकरण्ड श्रावकाचार में किसी भी प्रकार कम नहीं है, अपितु अनेक बातों में वह अपनी अलग पहचान भी रखता है। हिंसा-अहिंसा का जितना सूक्ष्म और विस्तृत विवेचन उनके पुरुषार्थसिद्धयुपाय में मिलता है, उतना सूक्ष्म और विस्तृत विवेचन अन्यत्र कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता। और भी अनेक ऐसे प्रमेयों का प्रतिपादन इसमें हुआ है, जो अन्य श्रावकाचारों में उपलब्ध नहीं होते।
इसीप्रकार आचार्य उमास्वामी की सिद्धान्त परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए उनके द्वारा रचित तत्वार्थसुत्र (मोक्षशास्त्र) की विषयवस्तु को आधार बनाकर आचार्य अमृतचन्द्र ने सरल सुबोध भाषा में तत्वार्थसार नामक ग्रन्थ की पद्यमय रचना की है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि प्राचार्य अमृतचन्द्र ने प्राचार्य कुन्दकुन्द की अध्यात्म परम्परा, प्राचार्य उमाम्वामी को सिद्धान्त परम्परा एवं प्राचार्य ममन्तभद्र की स्तोत्र परम्परा तथा श्रावकाचार निरूपण परम्परा को विकसित करने में अभूतपूर्व योगदान दिया है। उनके इस अमूल्य योगदान का मूल्यांकन करना शोध-समीक्षकों का एक ऐसा कर्तव्य है, जिसकी उपेक्षा को जाना उचित नहीं है।
ध्यान रहे प्राचार्य कृन्दकन्द, उमास्वामी और समन्तभद्र प्रथमद्वितीय शताब्दी के उन दिग्गज आचार्यों में हैं, जिन्होंने निबद्ध जिनागम परम्परा को महत्वपूर्ण प्रारम्भिक योगदान दिया है 1 वे प्राचार्य अपनी-अपनी परम्परा के प्राद्य प्रणेता हैं। इनके ग्रन्थ परवर्ती आचार्य परम्परा को आदर्श रहे हैं।
उक्त आचार्यों के ग्रन्थों के गहन अध्येता अत्मानुभवी प्राचार्य अमृतचन्द्र में उनके ग्रन्थों में प्रतिपादित विषयवस्तु को अपने ग्रन्थों के माध्यम से जिस जीवन्तता के साथ प्रस्तुत किया है, वह अपने ग्राप में अद्भुत है, समाबरणीय है, अनुकरणीय है ।
ग्राचार्य अमृतचन्द्र के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व का शोधपरक मल्यांकन किए जाने की प्रावश्यकता निरन्तर अनुभव की जा रही थी, पर योग्य गोधार्थी के अभाव में यह कार्य सम्पन्न नहीं हो पा रहा था।
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अध्यात्म रसिक होने से प्राचार्य अमृत चन्द्र मेरे अत्यन्त प्रिय प्राचार्य रहे हैं। उनकी कृतियों में अध्ययन - अध्यापत में मुझे अद्भुत प्रानन्द का अनुभव होता है। जब भी कोई शोधार्थी मुभसे शोध के लिए विषय के सम्बन्ध में सलाह लेने नाता तो मैं कोह विषय समार कोई इस विषय पर शोध - प्रवन्ध लिखने का साहस नहीं जुटा पाया । जब डॉ. उत्तमचन्दजी जैन ने भी मुझ से शोध के लिए विषय चनने में सहयोग मामा नो ने अपनी रुचि के अनुसार उन्हें भी यही विषय सुझाया ।।
मुझे अत्यन्त प्रसन्नता है कि उन्होंने मेरी बात का वजन अनुभव करत हाए प्राचार्य अमृतचन्द्र पर शोधकार्य करने का निश्चय किया । यदि यह विषय और कोई ले लेता तो निश्चित ही इस स्तर का कार्य होना सम्भव नहीं था । डॉ. उत्तमचन्दजी व्यत्पन्न विद्वान तो है हो, अध्यात्मरसिक भी हैं। अतः उन्होंने पूरे मनोयोग से इस कार्य को सम्पन्न किया है और अपनी शोध - खोज को सुन्दरतम रूप में प्रस्तुत करने में वे पूर्णतः सफल हुए हैं।
उनकी भावना थी कि उनकी इस कृति को प्रस्तावना भी मैं ही लिन्दू, क्योंकि मेरा यह प्रिय विषय भी है और मैंने ही उन्हें वह विषय सुझाया था। जितनी विस्तृत और सर्वांग प्रस्तावना मैं लिखना चाहता था, उतना समय मुझे नहीं मिल पा रहा था। अत: मैंने उनसे अनुरोध किया कि आप यह काम किसी अन्य योग्यतम विद्वान से करा लें, पर उनका आग्रह बना ही रहा । परिणामस्वरूप जो भी, जैसी भी प्रस्तावना मै लिख सका हूं, वह आपके समक्ष है।
वैसे तो सम्बन्धित सम्पूर्ण विषयवस्तु को उन्होंने अपने शोध-प्रबन्छ में समेट ही लिया है, फिर भी उनके अाग्रह - अनुरोध से मुझे भी प्राचार्य अमृतचन्द्र को अपने श्रद्धासुमन समर्पित करने का अवसर सहज ही मिल गया है - तदर्थ मैं उनका प्रभारी हूं।
ग्राशा है विज्ञजन अथक श्रम से सम्पन्न इस स्तरीय शोधकार्य से अवश्य लाभ उठायेंगे । २७ अक्टुबर १९८७ १.
डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल
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लेखकीय
प्राचार्य अमृतचन्द्र संस्कृत वाङमय के असाधारण साहित्यकार एवं अद्वितीय अध्यात्म रसिक हए हैं। वास्तव में वे प्राचार्य श्रेष्ठ कुन्दकुन्द स्वामी के दिगम्बर दर्शन, तत्त्व नथा अध्यात्म परक् प्राकृत सूत्रों अथवा गाथाओं के मर्मज व्याख्याता, मौलिक ग्रन्थ प्रणेता और अध्यात्म रस के रसिया के रूप में विश्रुत थे। उन्होंने अपने पूर्ववर्ती कुन्दकुन्दादि प्राचार्यों को हजार वर्षीय दिसम्बर साहित्य, दर्शन के अध्यात्म की परम के मर्म को अपने में यात्मसात् कर अपनी कृतियों व टोकानों द्वारा ईस्वी दशवीं शती के बाद की हजार बर्ष तक की परम्परा को आलोकित तथा अनुप्राणित किया।
आचार्य कुन्दकुद ने जिस अध्यात्म एवं दर्शन का बीज बोया था, उसे अपने अनुपम व्यक्तित्व द्वारा पल्लवित, पुष्पित, फलित और विस्तृत करने का पूर्ण श्रेय प्राचार्य अमृतचन्द्र को ही है। ऐसे महान प्राचार्य एवं उनकी अनुपम कृतियों को जनसाधारण ही नहीं, अपितु विद्वज्जन भी विस्मृत कर बैठे थे। यदि आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी का उदय न हुआ होता तो प्राचार्य कन्दकन्द की दो हजार वर्षीय दिगम्बर दर्शन की तत्वज्ञान व अध्यात्म की परम्परा बीसवीं सदी के अन्त तक लुप्त प्रायः हो गई होती। कानजी स्वामी के कारण अब प्राचार्य कुन्दकन्द एवं प्राचार्य अमृतचन्द्र का व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व न केबल आलोकित ही हुआ है, बल्कि विद्वज्जनों तथा सर्वसामान्य जनों के आकर्षण, अध्ययन और रसास्वादन का विषय बनने लगा है।
कानजी स्वामी सोनगढ़ (सौराष्ट्र के द्वारा वर्तमान बीसवीं सदी में एक महान आध्यात्मिक क्रांति का शंखनाद किया गया। उनके द्वारा अध्यात्म युग का पुननिर्माण हुअा 1 उनके व्यापक प्रचार व प्रसार मे एक ओर जन अध्यात्म का प्रकाश देश तथा विदेशों में फैला तथा दूसरो प्रोर प्राचार्य कुन्दकुन्द तथा अमृतचन्द्र का प्रभाव सूर्य तथा चन्द्र की भांति प्रगट हुआ ।
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इस क्रांति की लहर में आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान शिक्षण-प्रशिक्षण शिविरों कोखला प्रारम्भ हुई । सन् १९७४ में उक्त शृखला को एक कड़ी के रूप में एक शिविर मलकापुर (बुलढाणा-महाराष्ट्र में लगा। उस समय अादरणीय पं. डॉ. हुकमचन्दजो भारि ग्ल, शास्त्री जयपुर के सत्परामर्श एवं श्रद्धेय पं. श्रीमान् बाबूभाई चुन्नीलाल मेहता फतेपुर (साबरकांठा-गुजरात) एवं आदरणीय व. श्रीमान माणिकचन्द्र जी चंदरे, कारंजा पाकोला - महाराष्ट्र की सत्प्रेरणा से जैनाचार्य अमृतचन्द्र पर शोध व खोज करने का विचार पक्का हुया, परन्तु उसका विधिवत प्रारम्भ नहीं हो सका। १९७८ में अादरणीय श्रीमान् प्रोफेसर जमनालाल जी जैन (इन्दौर) के सौहार्द, सदभावना व सत्यास स अादरणाय श्रीमान डॉ. हरीन्द्रभूषण जी जैन, उपाचार्य - संस्कृत विभाग - विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन (म.प्र.) के सुयोग्य निर्देशन की स्वीकृति का सौभाग्य मिला। इधर शिक्षा विभाग से शोध करने की अनुमति तथा विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन में शोध कार्य हेतु मेरा पंजीकरण आदेश प्राप्त होने से मेरा उत्साह द्विगुणित हो गया।
तत्पश्चात् 'प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं वर्तृत्व' शीर्षक के अन्तर्गत प्रस्तावना सहित आठ अध्यायों में निम्नानुसार शोध व खोज करके शोध प्रबन्ध लिखा 1
सर्वप्रथम पृष्ठभुमि प्राक्कथन) में दिगम्बराचार्य परम्परा में प्राचार्य अमृतत्चन्द्र का स्थान, महत्व तथा कृतियों पर शोध की आवश्यकता प्रदर्शित की।
- प्रथम अध्याय में प्राचार्य अमृतचन्द्र की पूर्वकालीन धार्मिक, साहित्यिक तथा राजनैतिक परिस्थितियों का सप्रमाण विशद् आलोडन किया गया ।
द्वितीय अध्याय में प्राचार्य अमृतचन्द्र का जीवन परिचय कराया गया । इसके अन्तर्गत अमृतचन्द्र का समय निर्धारण, अलौकिक-लौकिक जीवन परिचय, ठाकुरकुल, द्रविड़ संघ, पुनाट संघ तथा काष्ठा संघ से अमृतचन्द्र को सम्बद्ध मानने वाली भ्रांतियों का निराकरण करते हए, उन्हें कुन्दकुन्द की नंदिसंघीय परम्परा का ही सिद्ध किया गया । आचार्य परम्परा में उनका स्थान भी दर्शाया गया ।
तृतीय अध्याय में उनके व्यक्तित्व को नाटककार, गद्य-पद्य व चम्पू काव्यकार, व्याख्याकार तार्किक व नैयायिक, भाषाविद् व सिद्धान्तज्ञ, व्याकरणज्ञ तथा अध्यात्म रसिक के रूप में प्रकाशित किया गया । उनका
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प्रभाव परवर्ती याचार्यों, भट्टारकों तथा विद्वानों पर सप्रमाण स्पष्ट किया गया।
चतुर्थ
1
में उनकी कृतियों का अनुशीलन निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया - परिचय नामकरण कर्तृवि, प्रामाणिकता, आधारस्रोत विषयवस्तु पाठानुसंधान, परम्परा, प्रणाली, वैशिष्ट्य, विभिन्न टीकायें, ताड़पत्रीय व हस्तलिखित पाण्डुलिपियां, प्रकाशन एवं संस्करण । कृतियों में पुरुषार्थसिद्ध युपाय ( मौलिक कृति), ग्रात्मस्याति, तत्वप्रदीपिका तथा समयव्याख्या (संस्कृत गद्य टीकायें), तत्त्वार्थसार (पच टीका ) तथा लघुतत्त्वस्फोट (नवीनतम उपलब्ध मौलिक स्तोत्रकाव्य) मुख्य हैं ।
2
पंचम अध्याय में उनकी कृतियों का साहित्यिक मूल्यांकन भाषा, शैली, अलंकार, छंद, रस एवं गुण के आधार पर किया गया ।
षष्ठम अध्याय में दार्शनिक विचारों का अध्ययन निश्चय व्यवहार अनेकांत स्याद्वाद निमित्त उपादान, कर्ता कर्म यादि शीर्षकों द्वारा किया
गया।
सप्तम अध्याय में आचार्य अमृतचन्द्र के धार्मिक विचारों को मुनि के योग्य याचरणों अर्थात् मुनि-याचार एवं ज्ञानी श्रावकों के योग्य सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं देशव्रत रूप श्राचरणों को श्रावकाचार के रूप में स्पष्ट किया गया ।
अष्टम अध्याय में उपसंहार करते हुए प्राचार्य अमृचन्द्र के मौलिक वैशिष्ट्य अध्यात्मवाद के लिए उनका योगदान तथा वर्तमान युम को उनकी देन इन बिन्दुों को आलोकित किया गया है ।
अंत में संदर्भ ग्रंथों की सूची एवं गोत्रोपयोगी सामग्री प्राप्ति में सहयोगी ग्रंथालयों की सूची प्रस्तुत करके शोध प्रबन्ध समाप्त किया है।
इस शोध कार्य में गुरुवर्य डा. श्रीमान् हरीन्द्रभूषण जी जैन का निरंतर सम्पर्क एवं बहुमुच्य मार्गदर्शन प्राप्त हुआ है. अतः बोध प्रबन्धका कार्य प्रगति एवं पूर्णता को प्राप्त हो सका । एतदर्थ में उनका चिरऋणी एवं अत्यंत आभारी हूँ । जेन सिद्धान्त भर्मज्ञ विद्वत्त्त आदरणीय श्रीमान् पं. फूलचन्द जी शास्त्री बनारस की मेरे ऊपर महती कृपा रही। उन्होंने मुझे अपने घर रखकर लगभग आठ दिन तक कई घण्टे मनोयोग पूर्वक शोध प्रबन्ध की प्रगति में अमूल्य योगदान दिया। उनकी प्रकाण्ड विद्वत्ता तथा
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परामर्श का पूरा-पूरा प्रयोग इस शोध प्रबन्ध में हुअा है। मैं उनके प्रति कृतज्ञ एवं श्रद्धावनत हूँ।
- शोध कार्य में सम्बन्धित मन्यवान् परामर्शदाताओं में प्रादरणीय पं. बंशीधर जी शास्त्री तथा श्रीमान् डॉ कस्तूरचन्द जी कासलीवाल जयपुर का भी ग्राभागे हैं । परमादरणीय श्रीमान ब. माणिकचन्द जी चवरे कारंजा अकोला) ने गोधोपयोगी सामग्री - ग्रंथादि जूटाने तथा निरंतर प्रेरणा प्रदान कर में कोई कसर नहीं की। तदर्थ मैं उनका अत्यविक ऋणी एवं आभारी हं । प्रेरणादायकों में अग्रणी श्रीमान् प्रो जमनालाल जी जैन इन्दौर है, जिनका अग्रजतुल्य सक्रिय योगदान इस कार्य का मूल प्रेरणास्रोत रहा है । उनके प्रति मैं अति कृतज्ञ हूं ! अन मालिकों एक गहलोनियों में सर्वश्री डॉ दरबारीलाल जी कोठिया बनारस, पं. प्रकाशचन्द जी हितैषी दिल्ली, पं. माणिकचन्द जी भिसीकर, बाहुबलि कुम्भोज, ब्र. यशपाल जी एलोरा, शांति कमार जी ठवली देवलगांव राजा, पं देवेन्द्र जैन, नीमच, पं. ज्ञानचन्द जी जन जबलपुर, न. मचन्द्र जी जैन भोपाल, मास्टर मनोहर लाल जी अजमेर, श्री भगतराम जी दिल्ली, श्री विमलचंद शाह सोलापुर. श्री फूलचन्द जी विमलचन्द जी झांझरी · उज्जैन, श्री विमलचन्द डोसी इन्दौर, श्री मांगीलाल जी पहाडिया इन्दौर, प्रोफेसर पद्मनाभ जैनी वर्कले विश्वद्यालय, यू. एस. ए. आदि प्रमुख हैं।
श्री कुन्दकुन्द कहान तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट - वम्बई ने मुझे भाग्डारकर प्राच्यविद्या शोध संस्थान पना का आजीवन सदस्य बनाकर उक्त संस्था के विशालकाय ग्रंथालय का परिपूर्ण लाभ दिलाया। श्री महावीर ट्रस्ट मध्यप्रदेश, इन्दौर ने मुझे गोध छात्रवृत्ति स्वीकृत कर सर्व प्रकार शोध कार्य में सहयोग प्रदान किया । श्रीमान् शिख चन्द जी मोनी तथा मुमुक्षु मण्डल जमेर ने शोक कार्य के टंकण की व्यवस्था कराई, टंकणकर्ता भ्रातादृय श्री पवन कमार एबं श्री सुशील कमार जैन ने मनोयोगपूर्वक लगातार शोध प्रबन्ध के टंकण में नत्परता दिखाई। उक्त सभी व्यक्तियों संस्थानों एवं टम्टीजनों के प्रति भी मैं आभारी है।
दोन प्रवन्ध की प्रस्तावना लिखने हेतु मैंन आदरणीय पं. डॉ. हुकमचन्द जी भारिल, जयपुर से निवेदन किया, जिसे उन्होंन सहज भात्र से स्वीकार कर. बहमन्य प्रस्तावना लिखकर मुझे अत्यन्त उपकृत किया, तदर्थ हम उनके ऋणी व प्राभारी हैं। अनुजवत भाई श्रीमान् पं. अभयकुमार जी शास्त्री जयपर ने शोध प्रबन्ध के प्रकाशन का यथा-संभव भार उठाया, तदर्थ वे भी धन्यवाद के पात्र हैं।
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सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि दादर दि. जैन मुमुक्षु मण्डल बम्बई के उन सभी सदस्यों का जिन्होंन इस शोष प्रबन्ध के प्रकाशन में उदारता पूर्वक आर्थिक योगदान दिया है तथा विशेषकर अादरणीय पं. नेमिचन्द जी शाह, श्रीमान् हिम्मतभाई शाह (मंत्री), श्री अनिल भाई कामदार, श्री जयन्तीभाई दोशी आदि सभी का बहुत-बहुत आभार मानता है, जिनके सहयोग बिना शोध प्रबन्ध का प्रकाशित होना असंभव था। मैं साथ ही उन सभी व्यक्तियों व संस्थानों को परोक्ष रूप में धन्यवाद देता हूँ, जिनके नामोल्लेख में नहीं कर सका हूँ।
___ अन्त में मैं अपनी यह कृति सुविज्ञ एवं तत्त्वरसिक पाठकों के सामने इस अभिप्राय से प्रस्तुत करता हूँ कि वे इस कृति से यदि किसी भी प्रकार से "प्राचार्य अमृतचन्द्र - व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व" से परिचित होकर प्राचार्य एवं उनकी कृत्तियों का अध्ययन कर आत्महित की भावना जागृत कर सकें तो मैं अपने श्रम को सार्थक समझगा।
नेहरू वार्ड, सिवनी (म. प्र.) १ गतवरो १६मा
उत्तम चन्द जैन (व्याख्याता)
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पृष्ठ-भूमि
अखिल मानव जगत निरन्तर दो विभागों में विभक्त रहा है, प्रथम आध्यात्मिक और द्वितीय भौतिक । चिरकाल से भारत आध्यात्मिकता के लिए और पाश्चात्य देश भौतिकता के लिए विश्रुत रह हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि सभी भारतवासी आध्यात्मिक हैं। यहां भी शुद्ध भौतिक बादी, नास्तिक एवं अध्यात्म से अछूते या दूर रहते वाले व्यक्ति भी सदा होते रहे हैं और आज भी प्रचारमात्रा में हैं। 'खामो, पियो, मौज करो" के सिद्धान्त को मानकर मात्र इंद्रिय-विषयों में मस्त रहने वाले तथा पात्मा, परमात्मा और अतीन्द्रिय-यात्मिक आनंद में अविश्वास करने वाले भौतिकवादी हैं । शुभाशुभ कर्मों के फल स्वर्ग-नरक आदि हैं एवं निष्कर्म अात्मानुभुति की अवस्था का फल मुक्ति है । आत्मा की सत्ता परलोक में भी रहती है अथवा अात्मा का एक पर्याय या शरीर छोड़कर दूसरो पर्याय या शरीर-प्राप्ति रूप पुर्नजन्म होता है, इत्यादि तथ्यों को न मानने वाले नास्तिक हैं। प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनी ने लिखा है "अस्ति नास्ति दिष्टं मतिः'। उक्त सत्र की टीका में यास्तिक व नास्तिक के स्वरूप का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है:-''अस्ति परलोकः इत्येवं मतिर्यस्य सः प्रास्तिकः, नास्तीति मतिर्यस्य सः नास्तिकः ' अर्थात् प्रात्मा का परलोक में अस्तित्व रहता है - ऐसी जिनकी मान्यता है, बे प्रास्तिक हैं तथा आत्मा का प लोक में अस्तित्व नहीं होता - ऐसी जिनकी मान्यता है वे नास्तिक हैं। उक्त ग्राघार पर ही भारत को अध्यात्मवादो तथा पाश्चात्य देशों को भौतिकवादी माना जाता है ।
___ समस्त भारतीय दर्शनों को धमण और श्रमणेतर, इन दो विभागों में समाहित किया जा सकता है। वाचस्पति गैरोला का भी अभिमत है
१. सिद्धान्त कौमुदी (बालमनोरमा टोका) ४/४/६० पृ. ८००
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कि अनादिकाल से भारतीय बिचारधारा दो रूपों में विभक्त रही है ।। उनमें एक है श्रमणधारा तथा दूसरी ब्राह्मण - ब्रह्मवादी अथवा श्रमणेतर वारा। श्रमणधारा प्रगतिशील तथा पुरुषार्थवादी है। इसमें आचरण को प्रधानता दी गई है। इसकी उदभूति प्रासाम, बंगाल, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, तथा पूर्वी उत्तरप्रदेश में है । इसके जन्मदाता जैन थे। ब्राह्मण धारा परम्परामूलक है । उसका स्वरूप वेदों में है । उसकी उद्भूति पंजाब, पश्चिमी उत्तरप्रदेश में है ।' श्रमणधारा का मौलिक तथा विशुद्ध रूप दिगम्बर जैन धर्म है। ईस्वी प्रथम सदी के सुविख्यात दिगम्बराचार्य कुन्द-कुन्द ने तीर्थकरों के लिए "समण" अर्थात् "श्रमण" शब्द का प्रयोग किया है । उनके ही सुप्रसिद्ध टीकाकार प्राचार्य अमृतचन्द्र ने “समण" पद की व्याख्या करते हुए लिखा है श्रमणाहि महाश्रमणाः सर्वज्ञवीतरागा: ।"3 अर्थात् वास्तव में श्रमण का अर्थ महाश्रमण, सर्वज्ञ तथा बोतराग है । सामान्यतः "श्रमण" शब्द का व्यवहार दिगम्बर जैनदर्शन में निग्रन्थ साधूओं ने लिए होता है। ऐसे साधूनों के स्वरूप का संकेत भी प्राचार्य कुन्दकुन्द ने किया है। वे लिखते हैं कि जो शत्रु व वन्धु वर्ग, मुख-दुःख, प्रशंसा-निंदा, पत्थर और स्वर्ण में समभाव रखता है तथा जीवन-मरण में मध्यस्थ रहता है वह श्रमण है।' श्रमण पद का अन्यत्र यह भी प्रर्थो ग्लेख है कि जो अपन विकारों को नष्ट करने के लिए श्रम कर रहा है वह असम है। जैन पर प्रौर मध पानी है अथवा श्रमण जैन धर्म का प्रतीक है। एक कोशकार ने श्रमण शब्द का अर्थ बौद्ध भिक्षु भी किया है । बौद्धधर्म का श्रमणधारा में अंतर्भाव कुछ साम्यों के अाधार पर किया जाने लगा है। इसी तरह सांख्य मत यद्यपि मूलतः श्रमणेतर पारा के अन्तर्गत आता है । तथापि उस भी किन्हीं दृष्टियों से श्रमणधाराने साम्य देखकर श्रमणधारा के साथ परिगणित किया जाता है । इन तीनों दर्शनों में कुछ साम्यताएं इस प्रकार हैं
१. संस्कृत साहित्य का इतिहाम पृ० ८३-८४ २. पंचालिकाय मुल। गाथा २ तथा १२५ ग्रादि । 4. पचास्तिकाय, समपव्याख्याटीका, गाथा २ ४. प्रवचनसार, मूल गाथा २४२ ५. जनगीता पृ. १४, १५ ६. संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ पृ. ११७५
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१-तीनों दर्शन - वेद, ईश्वर, याज्ञिक क्रियाकाण्ड व जातिभेद को नदी स्वीकारते हैं। २- बढ् प्रात्मवाद तथा मात्र सम्बन्धी मान्यता तीनों में लगभग समान है। ३. परिणामवाद को भी नीनों मानते हैं 1
हीनों अपने धर्मप्रवर्तकों को तीर्थकर तथा क्षत्रियकुलोत्पन्न मानते हैं। ५-तीनों वदिक देवी-देवताओं पर विश्वास नहीं करते, बकि वैदिक अचानों पर कटाक्ष करते हैं । ६-तीनों तत्त्वज्ञान, सन्यास और तपश्चरण को प्रधानता देते हैं। वे ब्रह्मचर्य तथा गृहस्थापेक्षा सन्यास धर्म को महत्व देते हैं । इस तरह जैन, बौद्ध तथा सांख्य को श्रमणधारा में अंतहित किया जाता है।
श्रमणेतर विचारधारा में सभी वैदिक दर्शन तथा चार्वाक आदि मत गभित हैं । वैदिक दर्शन प्राकृतिक जगत् के प्रकट, अप्रकट तथा कम्पित उपादानों में भक्तिमूलक तथा सकाम उपाय भावना को लेकर हो विकसित होता रहा है । पश्चात् उसमें श्रमण संस्कृति की अहिंसा न अध्यात्म के प्रभाव एवं प्रतिस्पर्धा के कारण वेदांत, उपनिषदादि के उदभव से प्राध्यात्मिकता की चर्चा का समावेश झा है। उक्त धारा श्रमण संस्कृति के साथ प्रतिस्पर्धा के कारण प्रभावित एवं परिष्कृत होती रही है। श्रमणधारा के श्राद्य संस्थापक तीर्थंकर ऋषदेव थे जो प्रथम तीर्थंकर थे । उक्त श्रमणधारा के अंतिम उन्नायक चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर थे। महाबीर के बाद बौद्ध, चार्वाक, न्याय,
शेषिक, सांख्य, योग, मीमांसक आदि मतों के संस्थापक प्राचार्य हए । उनका काल महावीर के पश्चात् का उल्लिखित है 11 प्रकृत में श्रमणधारा के मौलिक विशुद्धरूप दिगम्बर जैनदर्गन से सम्बद्ध 'ग्राचार्य अमृतचन्द्र के व्यक्तित्व एवं कतत्व' का अनुशीलन, शोध व खोज प्रस्तुत की जा रही है. अत: श्रमणधारा के इतिहास व दर्शन पर संक्षेप में दृष्टिपात करना समुचित है।
श्रमण संस्कृति का प्रारम्भ प्रादि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से होता है । वे श्रमण संस्कृनि अथवा जैनधर्म के प्राद्य-संस्थापक थे । यह
१. चैनेन्द्र सिद्धान कोष भाग ४, पृ. ४.० २. प्राप्तपरीक्षा, प्राक्कसन पृ. १ ३. संस्कृत साहित्य का इतिहास, डा. बलदेव उपाध्य पृ. ६.. से ६७२ तक।
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बात जैन तथा जेनेतर साहित्य, इतिहास एवं पुरातत्व के आधार पर भलीभांति प्रमाणित हो चुकी है। जैनधर्म के सम्बन्ध में प्रचलित अनेक भ्रांतियों का निराकरण अब हो चुका है तथा यह तथ्य भी अब निष्पक्ष विद्वानों द्वारा स्वीकार किया जाने लगा है कि जैनधर्म या श्रमण संस्कृति सनातन, स्वतंत्र, मौलिक तथा मूलत: अध्यात्मवादी दर्शन है । यह किसी दर्शन या संस्कृति की शाखा नहीं है । सिद्धांताचार्य पं कैलाशचन्द्र शास्त्री लिखते हैं कि एक समय था जब जैनधर्म को बौद्धधर्म की शाखा समझ लिया गया था, किन्तु अब वह भ्रांति दूर हो गई तथा नई खोजों के फलस्वरूप यह प्रमाणित हो चुका है कि जैनधर्म बौद्धधर्म से न केवल पृथक और स्वतंत्र धर्म है किन्तु उससे बहुत प्राचीन भी है। अब अंतिम तीर्थकर भगवान् महावीर को जैनधर्म का संस्थापक नहीं माना जाता और उनसे अढाई सौ वर्ष पहले होने वाले भगवान् पार्श्वनाथ को एक ऐतिहासिक महापुरुष स्वीकार कर लिया गया है । इसके पश्चात् कुछ विश्वविख्यात मूर्धन्य विद्वानों ने पार्श्वनाथ को भी जैनधर्म का संस्थापक नहीं माना तथा प्रथम तीर्थकर ऋषदेव को ही जैनधर्म या श्रमणधारा का मुलप्रणेता माना है । इन में डा. हर्मन याकोबी, डॉ. राधाकृष्णन, डॉ. फूहरर तथा विसेन्ट स्मिथ के नाम उल्लेखनीय हैं । डॉ याकोबी का ग्रभिात है कि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि पार्श्वनाथ जैनधर्म के संस्थापक थे। जैन परम्परा तीर्थकर ऋषभदेव को जैनधर्म का संस्थापक मानने में एकमत है । इस मान्यता में ऐतिहासिक तथ्य को संभावना है । इसी संदर्भ में डॉ. राधाकृष्णन् के विचार तथ्य प्रकाशक एवं महत्त्वपूर्ण है। वे लिखते हैं कि जैन परम्परा ऋषभदेव मे अपने धर्म की उत्पत्ति होने का कथन करती है, जो बहुत शताब्दियों पूर्व हुए हैं । इस बात का प्रमाण उपलब्ध है कि
**There is nothing to prove that parshya was the founder of Jainisni, Jain irudition is unanimous in making Rishabha, the first Tirthankars (as its founder), There may be something historical in lite tradition which makes him the first Tirthankara.
(INDIAN ANTIQUBRY VOL, IX. P. 163.)
जैन धर्म पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री पृ० १ वही, पृ० ९
२.
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स्वीपर्व प्रथम शताब्दी में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की पूजा होती थी। समें संदेह नहीं है कि जैन धर्म वर्धमान और पार्श्वनाथ से भी पहले मलित था। यजुर्वेद में ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि इन तीन तीर्थकरों के नामों का निर्देश है। भागवत् पुराण भी इस बात का समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैनधर्म के संस्थापक थे।
इस विषय में ऐतिहासिक प्रमाण भी उपलब्ध होते हैं । इन में शिलालेख मुख्य हैं। डॉ. हरर को मथुरा के कंकाली नामक टोले की खदा में जो जैन शिलालेख साप्त हा', वे करीब दो हजार वर्ष प्राचीन हैं। उन पर इन्डोसिथियन राजा कनिष्क, हुविष्क और वासुदेव का सम्वत् है। उसमें भगवान ऋषभदेव की पूजा के लिए दान देने का उल्लेख है । इतिहासकार बिमेन्ट ए. स्मिथ का कहना है कि मथुरा में प्राप्त सामग्री लिखित जैन परम्परा के सम्बन्ध में विस्तृत प्रकाश डालती है । वह जैन धर्म की प्राचीनन के विषय में अकाट्य प्रमाण उपस्थित करती है तथा यह भी बतलाती है कि प्राचीन समय में भी बह अपने इसी रूप में मौजूद था। ईस्वी सन् के प्रारम्भ में भी अपने विशेष चिह्नों के साथ चौबीस तीर्थंकरों की मान्यता में दृढ़ विश्वास था । इस तरह यह बात प्रमाणित होती है
१.
"There is evidence to show that so far back as the first century B, C., there were people who worshipping Rishabhadeva, the first Tirthankara. There is no doubt that Jainism prevailed even before Vardhamana or purshyanath The Yajurveda mentions the banks of theree Tirthankaras - Rishabha, Ajitnath and Aristanemi. The Bhagavata Puran endorses the view that Rishabha was The founder of Jainim.'
(INDIAN PHILOSOPHY VOL/PAGE 287) जैन धर्म प. ३ "The discoveries have to a very large extent suppled Coroboration to the written Jain tradition and they offer tangible incontroverible proof of the antiquity of the Jain Religion and of its early existence very much in its present fom. The scries of twenty four poatiffs (Tirthankaras), cach with bis distinctive cmblem, was evident firmly believed in at the beginning of the christan era.
(THE JAIN STUPA-MADHUARA INSRD. PRGE 6)
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कि श्रमणधारा के प्राद्यप्रवर्तक प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे तथा पश्चादवर्ती चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर तक सभी तीर्थंकर श्रमणधारा के उन्नायक, सम्पोषक, सम्वर्द्धक एवं सम्प्रसारक थे ।
तीर्थंकरों की उक्त धमणधारा में साततत्त्व, नवपदार्थ पंचास्तिकाय षड्व्य, रत्नत्रय, अनेकान्त-स्याद्वाद, नय-प्रमाण. निश्चय-व्यवहार, निमित्त-उपादान, कर्ता-कर्म, कारण-कार्य, पुण्य-पाप, द्रव्य-गुण-पर्याय इत्यादि दार्शनिक तत्वों की गंभीर विवेचना की गई है । उपरोक्त तत्त्वों के परिज्ञानपूर्वक सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रुप त्रयात्मक मार्ग द्वारा परमकल्याण स्वरूप मुक्ति की प्राप्ति होती है। उक्त उत्कृष्ट सुख की प्राप्ति का ही लक्ष्य प्रत्येक प्रात्महितैषी का होना चाहिये । प्रात्महितैषी जनों तक तीर्थंकरों की उक्त परमकल्याणी वाणी को पहुंचाते रहन का कार्य प्राचार्य परम्परा द्वारा ही सम्पन्न होता रहा है । माचार्य परम्परा से प्राप्त मौखिक ज्ञान को लिपिबद्ध करके उसे स्थायित्व प्रदान करना, सूत्रगत भागों का विशद स्पष्टीकरण करने हेतु टीकानों, भाष्यों तथा मौलिक ग्रंथों की रचना करना तथा तत्वज्ञान एवं सिद्धांतों का प्रचार प्रसार करना प्राचार्य-परम्परा का विशिष्ट कार्य रहा है । जैनाचार्यों
या चित काल काय विस्तत जमा भीर है। इसे पागम भाषा में श्रुत ज्ञान कहा जाता है। उक्त समग्र श्रुतज्ञान को प्राचार्यों ने प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग तथा द्रव्यानुयोग इन चार अनुयोगों के द्वारा परिपुष्ट, प्रकटित एवं प्रसारित किया है। यद्यपि इन चारों अनुयोगों का मूलस्रोत अध्यात्म ही रहा है, तथापि द्रव्यानुयोग विषयक साहित्य में अध्यात्म-निरूपण का बाहुल्य है । ऐसे अध्यात्मबहुल वाङमय की सृष्टि आचार्यों ने बड़ी कुशलता, विद्वता तथा प्रात्मानुभव प्रचुरता के साथ को है 1 डॉ. रवीन्द्र जैन के शब्द उक्त तथ्य के प्रकाशक हैं। वे लिखते हैं कि
१. पंचास्तिकायापदन्ध - प्रकारेण प्ररूपणम् ।
पूर्व मुलपदार्थानामिह सूत्रकृता कृतम् ।।४ । जीवाजीवदिपर्यायरूपाणां चित्रवर्मनाम् । ततो नवपदार्थानां व्यवस्था प्रतिपादिता ।। ५ ।। तनस्तत्वपरिजानपूर्वेस गितयात्मना । प्रोक्ता मार्गेश कल्याणी मोक्षप्राप्तिरपपिचमा ।। ६ ॥
. -पंचास्तिकाय, समयल्याख्या
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जनाचार्यों ने अध्यात्म मूलक ग्रथों का मृजन बड़ी दृढ़ता, मौलिकता एवं शानभव के साथ किया है । जैन अध्यात्म की परम्परा सहस्रों वर्ष प्राचीन है। जैन साहित्य के क्षेत्र में कुन्दकुन्दाचार्य. उमास्वामी. पूज्यपाद, योगीन्दु मणभद्राचार्य, अमृतचन्द्र, शुभचन्द्र. मुनि रामसिंह, और पं. राजमलजीग्रादि बनारसीदास जी के पूर्ववर्ती. यध्यात्म के प्रभावशाली एवं अधिकारी कवि हो गये हैं। उक्तसहसवर्षीय अध्यात्म परम्परा में प्राचार्य अमृतचन्द्र का विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अध्यात्म का जो चीज बोया. उसे पन्लवित, पुष्पित तथा फलित करने का श्रेय याचार्य अमृतचन्द्र को ही है । यद्यपि पूज्यपाद, योगीन्दु गुणभद्र आदि प्राचार्यों की प्राध्यात्मिक रचनाओं द्वारा ग्राचार्य कुन्दकुन्द द्वारा प्रतिपादित अध्यात्म एवं दर्शन का प्रचार-प्रसार एवं पोषण हुना, तथापि प्राचार्य अमृतचन्द्र द्वारा जिस यापकता, स्पष्टता एवं गंभीरता के साथ अध्यात्म का प्रचार-प्रसार हुश्रा, वसा सहस्रवर्षीय पूर्वाचार्य परम्परा में संभवतः नहीं हरा है, यात्रार्य अमृत चन्द्र ने अपने परिपूर्ण समर्पित, अध्यात्म रस से ओतप्रोत, असाधारण व्यक्तित्व द्वारा उक्त अध्यात्म एवं तत्त्वज्ञान का व्यापक प्रचार-प्रसार तो किया ही है, साथ ही उसे विकसित. परिष्कृत परिपुष्ट एवं समृद्ध करने में अभुतपूर्व सफलता प्राप्त की है। उनके द्वारा प्रवाहित अध्यात्मसबाह ने उनके परवर्ती प्राचार्यो, विद्वानों एवं अध्यात्मरसिकों की हजार वर्षीय परम्परा को प्रभावित एवं उद्वेलित किया है । संकड़ों रसिक, प्राचार्य अमृतचन्द्र की अध्यात्मगंगा में अवगाहन करने को उत्सुक हो उठे, अनेक विद्वानों को कलमें अमृतचन्द्र द्वारा प्रदर्शित मार्ग को चित्रित करने के लिए उठ गईं तथा हजारों भव्यात्माएं शुद्धात्मतत्व के प्रकाश में निजात्मतत्त्व को निहारने में संलग्न हो गई। इस सम्बन्ध में पं. कलाजचन्द्र शास्त्री के शब्द उक्त तथ्य के प्रमाणीकरण हेतु पर्याप्त हैं । वे लिखते हैं : -
ऐसा प्रतीत होता है कि कुन्दकुन्द के ग्रंथों पर जन आचार्य अमृतचन्द्र की टीकानों ने अध्यात्म की त्रिवेणी प्रवाहित कर दी, तो उसमें अवगाहन कर के अपना और दूसरों का ताप मिटाने के लिए अनेक ग्रंथकार उत्सुक हो उठे । प्राचार्य वृन्दकुन्द के अध्यात्म में प्राचार्य पूज्यपाद का ध्यान आकृष्ट किया और उन्होंने समाधितंत्र तथा इष्टोपदेश जैसे सुन्दर, मनोहार प्रकरण प्रथ - -
१. कविवर बनारसदासजी : जीवनी और कृतित्व पृ० १६१
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रचे थे, किन्तु उस समय के भारत के दार्शनिक क्षेत्र में होने वाली उथलपुथल ने जैन धर्म दार्शनिकों का भी ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लिया था, फलतः जैन धर्म के बड़े बड़े नथ रचे गये। गुप्तराजाओं का काल भारतीय दर्शन की समृद्धि का काल था। इस काल में सभी क्षेत्रों में प्रख्यात दार्शनिक हुए । और उन्होंने अपनी रचनाओं से भारतीय माहित्य के भण्डार को समृद्ध । किया । इधर दसवीं शताब्दी में अमृतचन्द्र की टीकात्रों की रचना होने पर राममेन ने "तत्त्वानुशासन", नमिचन्द्र ने "द्रव्यसंग्रह", अमितगति प्रथम ने "योगसार प्राभूत", पद्मप्रभमलघारीदेव ने अपनी टीकायें, पद्मनंदि ने 'पद्मनंदिपंचविंशतिका" की रचना की । इसके पश्चात् ही माइल्ल घवल ने नयचक्र ग्रंथ रचा। उन्होंने उसमें मयों के विवेचन के साथ अध्यात्म का विवेचन किया।' उक्त विद्वान लेखक ने प्राचार्य अमृतचन्द्र को जैन अध्यात्म का मूर्धन्यमणि भी निरूपित किया है।
इस तरहमारतीय संस्कृत वाङ्मय को सुसमृद्ध करने वाले, विशेषतः जैनश्रमण परम्परा के अध्यात्म ब तत्वज्ञान विषयक साहित्य को समृद्ध, परिपुष्ट तथा व्यापक बनाने वाले प्राचार्य अमृतचन्द्र का व्यक्तित्व विशाल एवं असाधारण है । उनका कर्तृत्व अप्रतिम तथा महान् है। उनके व्यक्तित्व तथा ग्रंथों पर अद्यावधि विस्तृत अध्ययन नहीं हया था जिसकी अत्यधिक
आवश्यकता थी। इसी दृष्टि से हमने यह छोटा सा प्रयास किया है जिसके द्वारा आचार्य अमृतचन्द्र और उनके प्रथों पर शोषपूर्ण प्रकाश डाला गया है। उनके समग्र व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व का व्यवस्थित प्राकलन एवं मूल्यांकन प्रागामी अध्यायों में प्रस्तुत किया जा रहा है ।
१. जं. मा. का इतिहास (पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री) पृ. १७६ २. श्री कुन्दकुन्दाचार्य का जीवन परिचय-संग्राहक ब. दवाचन्द, प. ६ से १ तक
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संकेत सूची
अन्य सम्बन्धी :१. अर्थ क.
अर्घकथानक २. म. श्रा.
अमितगति श्रावकाचार ३. प्रा. टीका
आत्मख्याति टीका ४. क. प्रा. ता. ५. म. सु. कन्न प्रांतीय ताड़ पत्रीय ग्रंथ सूची ५. के. सं.प्रा. पा. लि. केटलाग संस्कृत-प्राकृत पाण्डुलिपि जि. प्र. र. को
जिन प्रवचन रत्न कोश जे. प्रा. इति.
जनधर्म का प्राचीन इतिहास ८. जै. सा वृ. इति. जैन साहित्य का वृद्ध इतिहास, भाग ४ 8. जै सि. को.
जनेन्द्र सिद्धांत कोश १०. जै. सि. प्र.
जैन सिद्धांत प्रवेशिका ११. त.प्र.टी.
तत्व प्रदीपिका टीका १२. ती. म. उ. प्रा. प. तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्य
परम्परा १३. पंचा. प्र. पृ.
पंचाध्यायी प्रस्तावना पृष्ठ १४. पु. सि.
पुरुषार्थसिद्ध युपाय १५. प्र. क. मार्तण्ड
प्रमेय कमल मार्तण्ड १६. भा. सं. में जै. यो. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान १७. र. क. श्रा.
रत्नकरण्ड श्रावकाचार १८. रा. के. जे. शा. भ. की सूची राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों
की सूची
( xxv )
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१६.
२०.
२१.
२२.
१.
प्रकाशन सम्बन्धी :
ܕ
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४. जं. प. मं.
५.
जे. प्र. का.
जै. घ. प्र. का.
७. जै. का. कु. माला
८.
जं. हि. का.
वि. जे. ग्र. उ. का.
६.
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१०.
११.
१२.
रा. के. जे. संव्य. कृ.
ल. त. स्फो.
१३.
१४.
वृ. स्व.
स्तोत्र
समयसार स. द. टी.
१५.
१६.
१७.
१८.
{2.
कु. कु. क. द्र.
के. युनि. प्रेस
च. दि. जे. मं.
दि. जै. ग्र. मा.
दि. जं. पु. दि. जै. मु. मं.
दि. जं. स.
दि. जे. स्वा.
मं. ट्रस्ट
दी. से. जी. प. हा.
नि जे. ग्र. मा.
ने. म.प्र पा
पा. दि. जे. प्र. मा.
ब्र. दु. जे. प्र. मा.
राजस्थान के जैन संत व्यक्तित्व एवं
कृतित्व
लघु तत्व स्फोट
वृहद् स्वयंभू स्तोत्र
समयसार सप्त दशांगी टोका
कुन्दकुन्द कहान ट्रस्ट, बम्बई केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, लंदन चन्द्रप्रभ दिगम्बर जैन मंदिर, कटनी जैन अध्यात्म मंडल, मुरादाबाद जैन ग्रंथ कार्यालय, बम्बई जैन धर्म प्रकाशन कार्यालय, इंदौर जन वाङ् मय कुसुममाला, उस्मानाबाद जैन हितैषी कार्यालय, बम्बई दिगम्बर जैन ग्रंथ उद्धारक, कार्यालय दिगम्बर जैन ग्रंथमाला, बनारस / भिण्ड
दिगम्बर जैन पुस्तकालय, सूरत दिगम्बर जैन मुमुक्षु मंडल, बम्बई
दिगम्बर जैन समाज दिगम्बर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़ दी सेन्ट्रल जैन पब्लिशिंग हाऊस,
लखनऊ प्रारा निजानंद जैन ग्रंथमाला, सहारनपुर नेमचन्द महावीर प्रसाद पाण्ड्या, कलकत्ता पार्श्वनाथ दिगम्बर गंथमाला, मारोठ ब्रह्मचारी दुलीचन्द जैन ग्रन्थमाला, सोनगढ़
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को
भा. जी. सि.प्र. सं. भारतवर्षीय जैन सिद्धांत प्रचारिणी संस्था
कलकत्ता
२१. भा. व. गै. सा. मं. भारतवर्षीय वर्णी जैन साहित्य मण्डल
. मुजफ्फरनगर २२. भा. ज्ञा. पी.
भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस. दिल्ली २३. म. ज्ञान. स.
महावीर ज्ञानोपासना समिति, कारंजा २४. मू कि. का.
मूलचन्द किशनदास कापड़िया, सूरत २५. रा. ए. सो.
रायल एसियाटिक सोसाइटी, बम्बई २६. रा. न. प. प्र. मं. रायचन्द्र ग्रंथमाला परमधुत प्रभावक मंडल,
अगास २७. रा. ज. शा. मा.
रायचन्द्र जैन शास्त्र माला, अगास २८. रा. ज. स.
राजस्थान जीन सभा, जयपुर २६. स. दि, जै. प्र. माला लक्ष्मीसेन भट्टारक दिगम्बर जैन
ग्रंथमाला, कोल्हापुर २०. वर्णी ग्र. मा
वर्णी ग्रन्थमाला, बनारस ३.. वप ला.
वर्षमान पब्लिक लायन्नेरी, दिल्ली ३१. बी. स. सा. प्र.. वीतराग सत्साहित्य प्रसारक ट्रेस्ट,
भावनगर ३३. शा. वी दि. जै. सं. शांतिवीर दिगम्बर जैन संस्थान,
महावीरजी ३४. शा. वी. जे. सि. प्र. सं. शांतिवीर दिगम्बर जैन सिद्धांत
प्रकाशिनी संस्था ३५. स. प. मा.
सम्ती ग्रन्थ माला, दिल्ली ३६. स. जै, ग्रं. मा.
सनातन जैन ग्रन्थमाला, कलकत्ता ३७. स. ज्ञा. प्र. मं.
सन्मति ज्ञान प्रकाशक मण्डल, सोलापुर ३८. स. शा. मा.
सहजानंद वर्णी शास्त्रमाला, मेरठ ३६. स्वा. प्रा. मा.
स्वाधीन ग्रन्थ माला, सागर ४०. श्रु. भा. ग. प्र. स. श्रुत भाण्डार ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटन
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विभिन्न :
ईस्वी सन् क्रमांक
२.
गाथा
टीका
४. ५.
टी. डा.
डाक्टर दिगम्बर जैन
पण्डित
पुस्तक पृष्ठ
१०. प्र. पृ. ११. प्रस्ता. १२. प्रो. १३. वि. १४. वि. सं. १५. बी. नि. सं. १६. वे. क्र. १७. दे. नं. १८. वृ.
प्रस्तावना पृष्ठ प्रस्तावना प्रोफेसर
विक्रम विक्रम सम्वत् वीर निर्वाण संवत्
वेष्ठन क्रमांक वेष्ठन नम्बर
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विषय-सूची
प्रथम अध्याय पूर्वकालीन परिस्थितियां
१-३१ पूर्वकालीन धार्मिक परिस्थियाँ १, पर्वकालीन साहित्यिक परिस्थितियाँ १६, पूर्वकालीन
राजनातिक परिस्थितियाँ २५ द्वितीय अध्याय जीवन परिचय
३२-७७ समय ३२, जीवन परिचय ४४, अलौकिक जोवन परिचय ४६ लौकिक जीवन परिचय ५३, पद एवं व्यक्तित्व ५७, कुल ५६, द्रविड़ संघ ६०, पुनाट संघ ६०. काष्ठा संघ ६१, नंदि संघ ६७
प्राचार्य परम्परा में स्थान ६६ तृतीय अध्याय व्यक्तित्व तथा प्रभाव
७८-१६६ नाटककार ७६, काव्यकार ८६, गद्य काव्यकार ११, पद्य काव्यकार १००, चम्पू काव्यकार ११० व्याख्याकार ११५, तार्किक तथा नैयायिक १३३, भाषाविद् १४६, सिद्धान्तज्ञ १५१. व्याकरणज्ञ
१५८, अध्यात्म रसिक १६२ प्रभाव १६६ चतुर्थ अध्याय कृतियाँ
२१८-३८४ पुरुषार्थसिद्ध युपाय २१६, आत्मख्याति टीका २४६, तत्त्वप्रदीपिका वृत्ति २८२, समय व्याख्या ३०६, समयसार कलश ३२८, तत्त्वार्थसार ३५३, लघुतत्त्वस्फोट ३६१
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पंचम अध्याय साहित्यिक मूल्यांकन
३६५-४२६ भाषा ३८५, शैली ३६४, अलंकार ४०५,
छंद, रस, गुण ४२५ षष्ठ अध्याय दार्शनिक विचार
४२७-४८४ निश्चय व्यवहार ४२८, अनेकान्त-स्याद्वाद ४५२
निमित्त-उपादान ४७०, कर्ता-कर्म आदि ४८३ सप्तम अध्याय धामिक विचार
४८५-५०४ मुनि प्राचार, ४८५ श्रावकाचार ४६६ अष्टम अध्याय उपसंहार
वैशिष्ट्य ५०५, योगदान ५०७, देन ५०६ संदर्भ ग्रंथ सूची ५११-५२७ शोषोपयोगी सामग्रो प्राप्ति में सहयोगी ग्रंथालयों की सूचो ५२८
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ars.
स्व० श्री शांतिलाल क स्तर चन्द जोवालिया
का परिचय
अपने प्रयास एवं बुद्धिबल से अपने भाग्य का निर्माण करने वाले स्वर्गीय श्री शांतिलाल कस्तुरचन्द जोवालिया महानगर बम्बई के लोहा बाजार में एक कुशल एवं प्रसिद्ध व्यापारी के रुप में प्रतिष्ठित थे । अपनी गगभूमि नागा बं: iCE परिस्थितियों का सामना करते हुए पाप प्रतिष्ठा के एक ऐसे स्थान पर पहुंचे जहां तक सभी को पहुंचना संभव नहीं होता। उनके कार्य एवं प्रयास युवा वर्ग को प्रेरणास्पद थे ।
व्यापारिक कुशलता के साथ हो उनकी भावना समाजसेवा की भी थी। आपके सुपुत्र श्री मनसुखभाई, श्री जयंतीभाई तथा श्री कन्हैयालाल उनके सुयोग्य उत्तराधिकारी साबित हुए हैं। वे अपने पिताजी के समान ही जाति, समाज. धर्म तथा देशहित में दान देते रहते हैं । उन्होंन सुरेन्द्रनगर में एक अस्पताल के निर्माणार्थ ५१ हजार रुपये प्रदान किए थे । सोनगढ़ में भी मुमुक्षुत्रों के लाभार्थ निर्मित "श्री कानजी स्वामी दिगम्बर जैन विश्रांतिगह' के निर्माण में भी तन, मन तथा धन से सहयोग किया था। उनकी मवायें चिरम्मणीय रहेंगी।
उनके देहावसान के बाद उनके परिवारजनों की प्रोर से नागनेश (सोराष्ट्र में एक हाईस्कूल निर्माणार्थ एक अच्छी दान राशि प्रदान की गई तथा महाराष्ट्र में देवलाली में निर्माणाधीन श्री कानजी स्वामी स्मारक ट्रस्ट हेतु एक बड़ी राशि दान दी गई है। ऐस सेवा भावी, उदारमना स्व० श्री शांतिलालजी का प्रात्मा जहाँ भी हो, वहाँ सम्यग्दर्शन पाकर प्रात्मकल्याण करे ऐसी सद्भावना करते हैं।
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प्रथम अध्याय पूर्वकालीन परिस्थितियाँ मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समाज बिना मानव जीवन का सर्वाङ्गीण विकास संभव नहीं है। वन विहारी, एकल बिहारी मुनिराजों आचार्यो आदि को भी यदाकदा ग्रामों, नगरों तथा मानव-समाज के बीच आना पड़ता है। भले ही वे जगज्जनों को करुणाबुद्धि से आत्मकल्याण का उपदेश देने प्राव अथवा स्वयं के प्राहार-पानी के असह्य विकल्प को मिटाने के लिए प्रावें, परन्तु उनका सम्पर्क कुछ काल के लिए विभिन्न प्रकार की समाजों से अवश्य होता ही है। समाज के वर्तमान बातावरण एवं परिस्थितियों के निर्माण में पूर्वकालीन परम्परागों, मान्यताओं, और परिस्थितियों का असर अवश्य पाया जाता है। उक्त पूर्वकालोन व समकालीन समाजों के वातावरण का प्रभाव साहित्यकारों के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अवश्य होता है। प्रतिभाशाली साहित्यकार अपने युग की पूर्ववर्ती या समवर्ती परिस्थितियों से जहां एक और प्रभावित होते हैं, वहीं दूसरी ओर वे तत्कालीन युग को भी अपने व्यक्तित्व और कर्तृत्व से प्रभावित तथा अनुप्राणित भी करते हैं । अतः किसी भी साहित्यकार के व्यक्तित्व एवं कर्तत्व के अध्ययन और मल्यांकन हेतु उसकी पूर्वकालीन तथा समकालीन परिस्थितियों और विचारधाराओं का सिंहावलोकन किया जाना महत्त्वपूर्ण ही नहीं, अपितु आवश्यक भी है । प्रकृत में आचार्य अमृतवन्द्र की पूर्वकालीन परिस्थितियों का आकलन तीन प्रकार से किया जा रहा है। वे तीन प्रकार हैं धार्मिक, साहित्यिक और राजनीतिक परिस्थितियां । इनमें सर्वप्रथम धार्मिक परिस्थितियों का आकलन करते हैं।
पूर्वकालीन धार्मिक परिस्थितियाँ धर्म आचारों से और दर्शन विचारों से सम्बन्वित होता है। आचरण की आधारशिला विचार ही हैं, अत: धर्म और दर्शन अथवा आचार और विचार दोनों में परस्पर घनिष्ट सम्बन्ध है। भारत धार्मिक प्राचारों और विचारों के लिए विश्वविख्यात है 1 भारत
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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व की समस्त विचारधाराओं और आचरणों को मुख्यतः दो धाराओं में समाहित किया जाता है। इनमें प्रथम है श्रमणवारा और द्वितीय है श्रमणेतरघारा। श्रमणेतरधारा में न्याय, बैशेषिक, सांख्य, योग. मीमांसा तथा वेदांत ये षडदर्शन और चावोक.. मुस्लिम आदि मत गभित हैं । अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान महावीर के आविर्भाव के समय श्रमणेतरघाग में प्रायः वेदोक्त क्रियाकाण्ड, धार्मिक प्राचार-विचारों का प्राबल्य था। चारों और हिंसा असत्य, शोषण, अनाचार, मांसाहार, सुरापान, यतकीड़ा, नारी मात्र पर अत्याचार आदि का बोलबाला था। याज्ञिक क्रियाकाण्डों तथा धर्म के नाम पर मानव अपनी विकृतियों का दास बना हुना था । वैयक्तिक स्वतन्त्रता समाप्त हो चुकी थी। मानवीय अधिकार धर्मगुरुओं की नानाशाही के शिकार बन चुके थे। मानवता कराह रही थी। निरीह पशुओं का निर्ममता पूर्वक वध किया जाता था। पशुमेघ तथा नरमेघ यज्ञों में पशुओं और मनुष्यों की होली मनाई जाती थी। अग्निकुण्डों से चीत्कार की ध्वनि कर्णगोचर होती थी। मानव की अन्तश्चेतना मूदित हो चुकी थी । धर्म और दर्शन के क्षेत्र में पूर्णतया अराजकता विद्यमान थी। सर्बोदय का स्थान वर्गोदय ने ले लिया था।
उपयुक्त धार्मिक अराजकता के विषमकाल में तीर्थङ्कर महावीर ने क्रांनि को सूत्रधार के रूप में करुणा और अहिंसा का शंखनाद फुका। उस समय यज्ञादिक का बहुत जोर था और यज्ञों में पशुबलिदान बहुतायन गे होता था । बेचारे मूकपशु धर्म के नाम पर बलिदान कर दिये जाते थे और इन कृत्यों को धर्म की संज्ञा दे दी जाती थी । करुणासागर महावीर के कानों तक भी उन मूक पशुओं की चीत्कार पहुंची और राजपुत्र महावीर का हृदय उनकी रक्षा के लिए तड़प उठा। धर्म के नाम पर किये जाने वाले किसी भी कृत्य का विरोध कितना दुष्कर है यह बतलाने की आवश्यकता नहीं। किन्तु महावीर तो महावीर ही थे। उन्होंने तीर्थङ्करों को योम और अध्यात्म की विलुप्त धारा को परिष्कृत एवं पुनरुज्जीवित किया, प्रवाहित और सम्बद्धित किया। भगवान महावीर द्वारा प्रसारित अध्यात्म और अहिंसामयी आचार-विचारों का अमरोतर धर्म तथा दर्शनों पर व्यापक प्रभाव पड़ा। इस प्रकार अध्यात्म के उन्नयन और समाज के जागरण का युग प्रारम्भ हुअा। रूढ़िवादिता, अज्ञानता, १. तीर्थकर महावीर और उनकी यात्रार्य परम्परा, भाग-१, पृष्ठ ७२-७३ २. जैनधर्म : पण्डित कैलाशचन्द्र शास्त्री, पथ्ट १९
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पूर्वकालीन परिस्थितियों ]
मार पाखण्ड और हिप" कृमश: पलायन करने लगे तथा का आनमयी, कल्याणदायिनी धर्मधारा प्रवाहित होने लगी । वेदोक्त
काण्डों का स्थान वेदांत तथा उपनिषदों में वर्णित अध्यात्मदर्शन ने ले लिया । भक्तिधारा का शैथिल्य और ज्ञानधारा का प्राबल्य हुआ ।
श्रद्धा, अत्याचार तथा तथ्यहीन क्रियाकाण्डों के बोझ से संत्रस्त आत्माओं ने राहत की सांस ली।
भगवान महावीर के युग से लेकर शताब्दियों तक उक्त राहत का काल चलता रहा। पश्चात् विभिन्न दर्शनों में अपने-अपने मत तथा विचारों के प्रचार की होड़ प्रारम्भ हो गई। बिचार भिन्य के कारण प्रत्येक दर्शन में शाखाएं-प्रशाखाएँ प्रादुर्भूत हुई । भगवान् महावीर के अनुवर्ती बौद्ध सम्प्रदाय के संस्थापक भगवान् बुद्ध के पश्चात् बौद्धदर्शन में सत्ता के सिद्धांत के विषय में मतभेद होने से उक्त दर्शन चार सम्प्रदायों में बट गया। वे चार सम्प्रदाय हैं वैभाषिक, सौत्रान्तिक, योगाचार और माध्यमिक । वैभाषिक लोगों के अनुसार जगत् के समस्त पदार्थ सच्चे माने गये। इस मत का दूसरा नाम "सर्वास्तिवाद" भी है। सर्वास्तिवादीजनों की उक्त मान्यता का आधार प्रत्यक्ष रूप था। सौत्रांतिक सम्प्रदाय भी जगत् के समस्त पदार्थों को मत तो मानता है परन्तु उक्त मान्यता का आधार वे प्रत्यक्ष को नहीं अपितु अनुमान को मानते हैं। तीसरा सम्प्रदाय योगाचार. एक मात्र चित्त को ही सत्य मानता है। चित्त का दूसरा नाम विज्ञान भी है, अतः इस मत का दूसरा नाम "विज्ञानवाद" भी है। चतुर्थ सम्प्रदाय है माध्यमिकों का, जो जगत् के समस्त पदार्थों को सत्य न मानकर शून्यरूप मानता है इसलिए इसे शून्यवाद भी कहते हैं । शून्यवादियों में प्राचार्य नागार्जुन ( तृतीय शतक ईस्वी), प्रार्यदेव (तृतीय शतक ई०,) स्थविर, बुद्धिघालित (पंचम शतक ई०), भावविवेक न चन्द्रकीति (सप्तम शतक ई.) तथा शांतरक्षित (अष्टम शतक ई.) आदि आचार्य बौद्ध दर्शन में विशेष विख्यात हैं। इन सभी ने अपने-अपने विचारों के प्रचार हेतु धामिक-दानिक स्पर्धा में भाग लिया।
. दूसरी ओर त्याय दर्शन ने प्रमाण, प्रमेय, दृष्टान्त, सिद्धान्त तक आदि १६ पदार्थों का निरूपण, प्ररूपण एवं प्रचार जोरों के साथ
१. संस्कृत साहित्य का इतिहास, डॉ बलदेव उपाध्याय, पृ० ६५८.६५६ २. तर्कभाषा, मैं शमिश्रचित, नरहस्यदपिका.हि.टी., ग्रा. विश्वेश्वर सिं.श.,पृ.८
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४ ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व किया । न्यायदर्शन ने जहां अपनी उक्त १६ बातों के निरूपण व प्रचार में तर्क-न्याय तथा ज्ञानधारा को प्रतिष्ठित किया, वहीं जाने उक्त १६ पदार्थों में अनुमान निरूपण में "वेदिका हिंसा" का उचित ठहराया और यज्ञों में होने वाली पशुहिंसा को निषेष योग्य नहीं माना । इसे उसने साधन-अव्यापकत्व कहा।' इसी तरह वितण्डारा स्वपक्ष: सिद्धि की आवश्यकता का निषेध और एकमात्र परमत का खण्डन करना,या नसे दूषण लगाना मात्र प्रयोजन बताया। कुल निरूपण द्वारा प्रकृत में प्रयुक्त यथार्थ अभिप्राय ग्रहण न करके, अन्यथा कल्पना करके दोष देना। उचित ठहराया तथा जाति व निग्रहस्थान निरूपण द्वारा क्रमशः असत् { झूठ ) उत्तर देना, व किसी प्रकार की हीनता बताकर अपरपक्ष को पराजिन करने को न्यायमत ने न्यायोचित ठहराया । इस मत के प्रमुख विद्वानों में सूत्रकार वात्स्यायन (द्वितीय शतक विक्रम ) उद्योतकर (षष्ठम शतक विक्रम), बाचस्पति मिश्र (नवम शतक विक्रम). आचार्य उदयन (दशम शतक विक्रम), गंगेश उपाध्याय (बारहवीं शती) आदि उल्लेखनीय हैं। न्यायमत के अतिरिक्त इस धार्मिक स्पर्धा में वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा तथा वेदांत मतों के घरन्धर आचार्यों व विद्वानों ने भी यथाशक्ति भाग लिया ।
उपनिषदों का तत्त्वनिरूपण रहस्यपूर्ण था। उनमें एक सर्वशक्तिमान अदृश्य ब्रह्म (परमात्मा) की सत्ता की घोषणाएं प्रारंभ की गई। किन्तु 'ब्रह्म' का स्वरूप रहस्यमयी, अत्यंतगूढ़ और वचन अगोचर ही बताया। कठोपनिषद् में बाजधवस् के पुत्र नचिकेता का कथानक है, जिसमें नचिकेता मृत्यु के आचार्य से मृत्यु तथा आत्मतत्त्व के विषय में समझना चाहता है, तब मृत्यु के प्राचार्य अत्यन्त आश्चर्य चकित होकर कहते हैं कि इस विषय में अणुमात्र भी जानने योग्य नहीं है। इसलिए तुम कोई अन्य वरदान मांग लो। मैं तुम्हें पुत्र पौत्रादि, विपुल संपत्ति और लौकिक ऐश्वर्य देने को तैयार हूँ। परमात्मतत्व अत्यन्त गूढ़ है,
१. “यज्ञीअपशुहिंसामा निषिद्धत्वाभावात ।" तक भाषा-केशवनिथ, पृष्ठ १३ २ वही, पृष्ठ २४४ ३. वही, पृष्ठ २५६ से २६२
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[ ५
पूर्वकालीन परिस्थितियां ।
निरूपण संभव नहीं हैं।' इतना ही नहीं उस पर विचार करने की जरूरत नहीं समझी गई। जमा कि वृहदारण्यक उपनिषद के
से स्पष्ट है कि जहां प्रत्येक वस्तु वस्तुतः स्वयं आत्मा हो बन गई है वो कौन किसका विचार करे। कदाचित् निरूपण किया भी गया तो डाकी रहस्यमय ही रहा । उपनिषदों में उसका वर्णन नकारात्मक रूप में किया गया यथा ब्रह्म यह नहीं यह नहीं ...' देति - नेति"। अनभव का तो वह विषय है ही नहीं। उसे अव्यक्त, अचिन्त्य, अविकार्य, आदि बताया गया है। वह न सत् है और न ही असत् है । उसे प्रयुक्त परस्पर विरोधी विशेषण यह सूचित करते हैं कि उस पर अनुभवगम्य धारणाएं लागू नहीं की जा सकती। इस प्रकार एक और तर्क पीर अनुभव को महत्वहीन बताया गया तो दूसरी ओर उनको ही आधारभूत बनाकर विभिन्न दर्शनों तथा धर्मों में अपने-अपने मतविस्तार तथा प्रचार हेतु स्पर्धाएं प्रारम्भ हई। अपने पाण्डित्यप्रदर्शन, स्वमतमण्डन और परमत खण्डन हेतु वादविवाद की भेरियां बजने लगों, विद्वान परस्पर में इतरमत के विद्वानों को 'चलेंज" देने लगे, ग्राम जनसभाओं में वादविवाद के मंच लगने लगे और तत्कालीन राजा-महाराजा भी इन आयोजनों में रुचि रखने लगे। बाद विवाद में विजेता पक्ष को राजाओं और उनको अनुयायो प्रजा का समर्थन प्राप्त हो जाता था। उक्त समर्थन पाने के लिए विभिन्न मतधुरीण आचार्यों, एवं विद्वानों में अनेक प्रकार के कौशलप्रदर्शनों का सिलसिला चल पड़ा। वे अपने उच्चपद, कवित्वशक्ति, शास्त्रार्थ, पाडित्यप्रदर्शन, ज्योतिष, बेद्यक, मन्त्र, तन्त्र आदि चमत्कारों द्वारा राजापों और उनके अनयायियों में प्रभाव स्थापित करते थे । आचार्यगण राजसभाओं में अपने सम्बन्ध में गर्वोक्तियां प्रकट करते थे। ऐनी गर्बोक्तियों के अनेक प्रमाण अद्यावधि साहित्यिक कृतियों में विद्यमान हैं । उदाहरण के लिाह "समंतभद्रस्वामी, जिनका समय ईसा की द्वितीय शती है;
१. संस्कृत मंजरों, पृ. ६७ ''अस्यधर्मस्याणुमानमपि न हि सुविज्ञेयम् । अतस्त्वमन्य
वरं याचस्व । अहं त्वां पुत्रपौत्रान् प्रभूतां सम्पत्ति लोकश्वर्य' च दातु प्रस्तुतो
ऽस्मि । परमात्मतत्त्वमतिगढ़ न ा यं वक्तु शक्यने ।" २. भगवद्गीता, डॉ० राधाकृष्णन् पृ. २४-२५ ३. वीरशासन के प्रभादक आचार्य, प्राक्कथन पृ ५ ४. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग-४ पृष्ठ ३२८
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६
]
हार
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व दिगम्बराचार्यों में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। धर्म, न्याय, व्याकरण, साहित्य, ज्योतिष, प्रायवेद, मंत्र तथा तन्त्र आदि सभी विद्याओं में निपुण होने के साथ ही साथ वे वादकला में अत्यंत पटु थे । काशीनरेश के सामने स्वमीसमन्तभद्र ने स्वमुख से जो अपना परिचय दिया था, वह मात्र गर्वोक्ति नहीं, किंतु तथोक्ति थी । परिचय देते हुए वे कहते हैं - "मैं आचार्य हूँ', कवि हूँ, शास्त्रार्थी हूँ', पंडित हूँ, ज्योतिषी हूँ, वैध हूँ, मांत्रिक हूँ, तांत्रिक हूँ, इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर मुझे बचनसिद्धि है, अधिक क्या कहूँ मैं सिद्धसारस्वत हूँ।'
इसी प्रकार एक बार काशीनरेश के क्रोधित होकर पूछने पर समन्तभद्र निर्भीक घोषणा करते हुए कहते हैं कि राजन् आपके सामने यह दिगम्बर जैन वादी खड़ा है, जिसकी शक्ति हो मुझसे शास्त्रार्थ कर ले ।२
समन्तभद्र ने भस्मकब्याधि रोग के उपनामन के पश्चात् फिर से निन्ध दीक्षा धारण कर लो । निर्ग्रन्थ दीक्षा धारण कर आपने पूर्वपश्चिम, उत्तर-दक्षिण सर्वत्र विहार कर जिनधर्म को महिमा स्थापित की। करहाटक नगर में पहुंचने पर वहां के राजा द्वारा पूछे जाने पर अापने अपना पिछला परिचय देते हुए कहा-राजन् पहले मैंने पाटलिपुत्र नगर में शास्त्रार्थ के लिए भेरी बजाई, फिर मालवा, सिन्ध, उक्क, कांचो, विदिशा आदि स्थानों में जाकर भेरो ताड़ित की। अब बड़े-बड़े दिमाज विद्वानों से परिपूर्ण इस करहाटक नगर में आया हूं। मैं तो शास्त्रार्थ की इच्छा रखता हुप्रा सिंह के समान घूमता फिरता हू।।
धर्मप्रचार तया पाण्डित्य प्रदर्शन की स्पर्धा के काल में श्रमणेतरमतों के घुरन्धर प्राचार्य तथा विद्वान् इस होड़ में संलग्न रहते थे । इन धुरन्धर आचार्यों में न्यायदर्शन धुरीण, न्यायसूत्र के प्रणेता आचार्य
१. प्राचार्योऽहं कविरहमहंवादिरद पण्डितोऽहं
दैवज्ञोऽभिषगमहं मांत्रिकस्तांत्रिकोऽहम् । राजन्नस्यां जलाधवलयामेस्सनायामिलाया
माजामिद्धः किमिति बहुना सिद्धमारस्वतोऽहम् ।। स्वयंभूरतोत्र प्रस्तावना,पृष्ठ १० २. "राजन् यस्यास्ति शकिः स वदतु पुरतः जननिग्रन्थवादी ।" वहीं, पृष्ठ १२ ३. वही, पृष्ठ १२
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पूर्वकालीन परिस्थितियां ।
हात्स्यायन (विक्रम की द्वितीय सदी ), वैशेषिक मतानुयायी, प्रमुख आचार्य महर्षिकणाद ( विक्रम की तृतीय सदी पूर्व )२, सांख्यमत के सांख्यसूत्रकार प्राचार्यकपिल, बृत्तिकार आवार्य माठर (द्वितीय सदी विक्रम भाष्यकार गौर ( दिका की पांचवी सदी ), योगदर्शन के सूत्रकार पतंजलि तथा भाष्यकार व्यास (विक्रम की तृतीय सदी)". मीमांसामत में भादृमत प्रणेता कुमारिल्लभट्ट, गुरुमतसंस्थापक प्रभाकर मिश्र, मुरारिमतप्रवर्तक मुरारिमिश्र, वेदांतमत के प्रबल समर्थक, वेदांतसूत्र भाष्यकार प्राचार्यशंकर, बौद्धमतानुयायी आचार्य दिङ नाग तथा उद्योत. कर, शून्यवादी आचार्य नागार्जुन (तृतीय सदी विक्रम ), आर्य देव (तीसरी सदी विक्रम), स्थविर तथा बुद्धिपालित ( पंचमशतक वि. ) के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। उपर्युक्त सभी प्राचार्यो और विद्वानों ने विक्रम सदी के प्रारम्भ से लेकर हवीं सदी तक घामिक स्पर्धा के यग को अनप्राणित एवं प्रभावित किया । वास्तव में ईसा की ७वीं, 5वीं और हवों शताब्दियां मध्यकालीन दार्शनिक इतिहास की क्रांतिपूर्ण शताब्दियां थीं। इनमें प्रत्येक दर्शन ने जहां स्वदर्शन' की किले-बन्दी की, वहां परदर्शन पर विजय पाने का अभियान भी किया। इन शताब्दियों में बड़े-बड़े शास्त्रार्थ हए, उद्भटवादियों ने अपने पाण्डित्य का डिडिम नाद किया तथा दर्शनप्रभावना और तत्वाध्यवसाय संरक्षण के लिए राजाश्रय प्राप्त करने हेतु बाद रोपे गये । इस यग के ग्रन्थों में स्वसिद्धांत प्रतिपादन की अपेक्षा परपक्ष खंडन का भाग ही प्रमुख रूप से रहा है। इसो यग में महावादी भट्टाकलक ने जैन न्याय के अभेद्य दुर्ग का निर्माण किया था। उनकी यशोगाथा शिलालेखों और अन्य कारों के उल्लेखों में बिखरी पड़ी है। प्राचार्य भट्टाकलंक ने प्रमुखतः बौद्धों के साथ दार्शनिक संघर्ष किया और अनेकांत सिद्धांत को बिजयपताका फहराई। वे महानशास्त्रविजेता तथा महान् वाग्मी थे । वौद्धों के विचारों से होने वाली निरात्मकता से जन-जन की रक्षा करने की करुणाबुद्धि से वे ओतप्रोत थे । उनके सत्त्वप्रकोप के मूललक्ष्य वौद्धाचार्य ही थे। वे उनके अश्लील परिहास तथा कुतक पूर्ण कक्तियों का उत्तर भी बड़े मजे से देते थे। जब बौद्धाचार्य धर्मकीति ने - -
५. संस्कृत नाहित्य का इतिहास, डॉ. बलदेवप्रसाद उपाध्याय, पृ. ६६० २. वही, पृ. ६६३ ३-४. वही, पृ. ६६६ ५. वही, पृ० ६६७ ६. वही, पृ० ६५६७. सिद्धिविनिश्चय, प्र. पृ०७
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[ आचार्य अभूतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व अपने ग्रन्थ "प्रमाणबातिक' में अनेकांतवादियों को दही और ऊँट के अभेद के प्रसंग का दूषण देकर लिखा कि अनेकांतवादी दही की जगह कंट को क्यों नहीं खाते।' तब प्राचार्य भट्टाकलंक अपने ग्रन्थ न्याय विनिश्चय में इसका सतर्क, सचोट एवं सटीक उत्तर देते हुए लिखते हैं कि सुगत मुग हुए थे और मृग भी सुगत हुआ फिर भी जैसे आप लोग भृग को ही खाते हो सुगत को नहीं, उनकी तो बन्दना ही करते हो । ठीक उसी प्रकार पर्यायभेद से दही और ऊँट के शरीर में भेद है, इसलिए दही के समान ऊँट खाद्य नहीं है।
इस तरह एक अोर दार्शनिक स्पर्धा में तर्क, न्याय तथा वृद्धि का विकास हो रहा था, वहीं दूसरी ओर विभिन्न सम्प्रदायों में भ्रष्टाचार, आलस्य, विलासिता, हिंसापूर्ण मद्य, मांस, मधु तथा व्यभिचार आदि द्र तगति से पनप रहे थे। उक्त वातावरण नवमी-दशमी शताब्दी तक अपनी चरम सीमा को छने लगा था। इस संदर्भ में प्रसिद्ध विद्वान स्वर्गीय डा. राजन राण्डेय ने दमों में लिखा है कि भक्तिमार्गी सम्प्रदायों में वैष्णव, शैव और शाक्त प्रधान थे। उक्त मागियों ने गुप्तकालीन जनता में एक नयी प्रेरणा उत्पन्न कर दी थी । परन्तु नवमीं सदी से उसमें बाह्याडम्बर और भ्रष्टाचार आने लगे। वैष्णव सम्प्रदाय में गोपलीला और अन्तरङ्ग समाज, शैव सम्प्रदाय में पाशुपत, कापालिक और अघोरपंथ, शाक्त सम्प्रदाय में आनन्द, भैरवी अथवा भैरवीचक्र, योगियों में सिद्धिमार्ग आदि कई अशोभन, अश्लील और अनैतिक पन्थ उत्पन्न हो गये। इस काल में धर्म का स्वरूप बहत से स्थानों में, विशेषकर बिहार, कश्मीर, उड़ीसा, बंगाल और आसाम में तांत्रिक हो गया था और उसके कई सम्प्रदाय प्रतिमार्ग अथवा वाममार्ग पर चल पड़े थे, जिनमें पञ्च मकारों मदिरा, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मंथन का सेवन धर्म के नाम
- . .-- १. सत्याभय रूपत्वे तद्विशेष निराकृतेः 1
वोदितो इधि खादेति, किमुष्ट नाभिधावति ।। ३/१८१ प्रमाणवातिक २. गगनोऽपति मृगो जातः, मृगोऽपि शुगतस्तथा ।
तयापि युगतो बन्यो, मृगः खाद्यो यथेष्यने ।। तथा वस्तुबलादेव, भेदाभेद व्यवस्थिते । चोदितो दघि खादेति किमुष्ट्र नाभिधावति ।। न्यायविनिश्चय ३७३/७४, सिद्धिविनिश्चय टीका, पूर्वाध प्र० पृष्ठ ६५/६६
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पूर्व कालीन परिस्थितियां ]
पर होता था। शंकराचार्य ने दर्शन और धर्म का प्रचार करने के लिए भारत के चारों कोनों में चार मठ स्थापित किये थे । कुछ समय तक इन मठों और उनकी शाखाओं-प्रशाखाओं के शंकराचार्य और दूसरे सन्यासी धर्म का प्रचार करते रहें, परन्तु आगे चलकर उनमें भी बिलासिता और भ्रष्टाचार आ गये।
इधर बौद्धधर्म के प्रचारकों व प्रसारकों में भी उपयुक्त बिलासिता और भ्रष्टाचार प्रादि पनपने लगे। हर्षवर्धन के समय तक बौद्धधर्म के काफी अनयायी थे और उसका स्वरूप उच्च व नाचना , परन्तु मागे चलकर जिस प्रकार वैदिक या ब्राह्मण धर्म में विलासिता और भ्रष्टाचार आ गये, वैसे ही बौद्धधर्म में भी व्याप्त हो गये। इसका भी तान्त्रिक तथा वाममार्गी स्वरूप हो गया। बजयान आदि सम्प्रदायों का इसमें उदय हुआ जिससे बौद्ध संघाराम और विहार, गुह्मसमाजों और भ्रष्टाचार के केन्द्र हो गये।
__ यद्यपि जैनधर्म में भी मूर्तिपूजा और मन्दिर आदि का काफी विस्तार हो गया था और उसके मूलज्ञान और तपस्या के मार्ग ने अन्धविश्वास और एक प्रकार के कर्मकाण्ड का रूप धारण कर लिया था, फिर भी उसमें मुह्यसमाजी विचार और भ्रष्टाचार नहीं फैले जो ब्राह्मण और बौद्धधर्म में घुस गये थे ।'
उपयुक्त नवमीदसवीं सदी के काल को अति साम्प्रदायिकता और अत्याचार का धुग कहा जा सकता है। इस युग में धार्मिकस्पर्घा एवं घोन्माद ने साम्प्रदायिकता का रूप ले लिया था। तर्क तथा ज्ञान बल का स्थान अत्याचार और पशु-बल ने ले लिया था। आना वर्चस्व एवं स्वमत की स्थापना करने हेतु अल्पसंख्यक एवं अल्पशक्ति सम्पन्न अन्य मतावलम्बियों को बलपूर्वक दबाया जाने लगा, सैकड़ों हजारों नरनारियों को मौत के घाट उतारा गया, लाखों जनों को स्वमत परिवर्तन करने हेतु बाध्य किया गया, अल्पमत के अनुयायियों पर अमानवीय, अनैतिक, अन्यायपूर्ण अत्याचार किये गये । इस सन्दर्भ में रूसी लेखिका डॉ. श्रीमती एन. आर. गुसेवा ने "जैनिज्म" नामक पुस्तक में लिखा है कि इस बात के प्रमाण हैं कि महाराष्ट्र में भैरवों के नाम से ख्यात व्यक्तियों के नेतृत्व
१. प्राचीन भारत, डॉ. राजपलि पाण्डेय, प० ४२८-४२६
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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व में स्थानीय जनसंख्या के एक वर्ग की ओर से जैनों को भयंकर आक्रमणों का शिकार बनाया गया। उक्त भैरव सम्प्रदाय शैवों में से एक था।
इसी प्रकार की अत्याचारपूर्ण घटनाओं का उल्लेख करते हुए विख्यात लेखक कृष्णस्वामी अय्यर ने लिखा है कि तत्कालीन शंकराचार्य के प्रभाव में आने वाले कुछ राजाओं ने तो यहां तक उद्घोषणाएं की थीं कि मेरी उस सभी प्रजा को कत्ल कर दिया जावे, जो हिमालय से लेकर रामब्रिज (कन्याकुमारी) तक के वद्ध एवं यवा बौद्धों को कल करने में असफल हो। ऐसी ही घोषणाएँ जैनों के प्रति भी की गई। जैनों को भी ऐसे ही अमानुषिक अत्याचारों को सहना पड़ा था । इसका भी प्रमाण प्रस्तुत करते हए उक्त लेखक ने लिखा है कि हमें पौराणिक उपद्रव सम्बन्धी विवरणों पर थोड़ा-बहुत सन्तोष करना होता है कि हिन्दुस्तान में बौद्धों नथा दक्षिण भारत में लाखों जैनों को सताया गया । वे पैशाचिक तरीके केवल धार्मिक उपद्रवकारियों को ही झात थे। इन तथ्यों की शान्तिपूर्वक, गम्भीरता के साथ समीक्षा करने पर हमें विश्वास करने के पर्यापन कारण मिल सकते हैं कि उपदव को इस धामिक तथा राजनीतिक ज्वाला ने भारतीय समाजों के निर्मल-शान्त आकाश को शायद ही इतना कुरूप (रक्तरंजित) कभी किया हो। दूरवर्ती ग्राम या शहर का कोई भाग शायद ही छूटा हो जो उक्त ज्वाला में झुलसा न हो।
1. "There is evidence that in Maharashtra, the Jains were guhjet euf to tierce
attacks from a group of local population led b. persons known by the name of "Bhairavas." (Jainism by Mrs. N R Guseva, Iranslated from
russian into English by Y. S Redker, P. 53) 2 Bhairava is one of the papucs of shuiva. Ibid p. 53) 3. The king thus got rid of all his doubis at-once and issued this memorable
adict- 'Let all those of subjects be alain who fail to slay the Buddhists old and young, franı Himalaya to the Bridge of Rama, See Shanktracharya
His life & times, T-Edition, p.41) 4. For, if we content curselves with th: more or less legendary accounts of
tbe prosecution cither of Buddhists in Hindustan and Dakhao or of Jaias ja. Southern Indis. We staall have to admjt tha: millio..s of ints were tortured ur burnt ar destroyed in the various diabolical ways known only w the religious prosecutors. But taking a more søber view of India and its people and interpretting these legends in the light of comparison with past and prescnt facts and of calm criticism we have ampla reasons to believe that religious and political fires of pousccutiva hardly cyer discoloured the serene skies of the Indian village, commouities or any those parts of the country whicb lay fat removed from town and cities. (Sec Shunkoracharya-His life and times, Page 43)
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पूर्वकालीन परिस्थितियां ]
[ ११ वीरशैवों या लिंगायतों का सर्वाधिक, तीव्र विद्वष जैनधर्म और जनों पर था । जब जहां उन्हें शक्ति प्राप्त हुई जैनों पर इन्होंने भीषण अत्याचार किये, जिनमें ये प्राचीन शव नयनारों तथा वैष्णव अलवारों से भी आगे बढ़ गये ।
___ इसी तरह ११वीं सदी ई. में कुमारपाल का भतीजा अजयपाल हा जो शैवधर्म का अनुयायी था । वह बड़ा असहिष्णु था । उसने पुराने मस्त्रियों और सरदारों को अपमानित किया तथा नष्ट किया। जैन, विद्वानों और साधुओं पर भी घोर अत्याचार किये, उनकी हत्या करायी और जैन मन्दिरों को भी नष्ट करवाया।
इस प्रकार तत्कालीन रोमांचकारी, अति भयानक परिस्थितियों से बचने हेतु जनों में भट्टारकों का उदय हुआ ! उन्होंने युगानुरूप बहुसंख्यकों की कई धार्मिक क्रियाओं तथा रूढ़ियों की नकल करना और उन्हें तथैव अपनाना प्रारम्भ कर दिया। उक्त भट्टारक सम्प्रदाय के विकास में शंकराचार्य द्वारा स्थापित मठों का प्रभाव एवं उनका अनुकरण स्पष्ट दिखाई देता है। उस समय की मांग हो कुछ ऐसी रही । भट्टारक गोठों में भी कई दृष्टियों से वैदिक पद्धतियों का प्रवेश हुमा । पद्यावतो आदि देवियों को काली, दुर्गा या लक्ष्मी का ही रूपान्तर माना जाने लगा। अध्यात्म शास्त्रों के व्यास्यान में आत्मा के समान ही ब्रह्म का निरूपण होने लगा । मन्त्र, तन्त्र, चमत्कार आदि के द्वारा जनता पर अपना प्रभाव जमाये रखना तत्कालीन भद्रारकों का प्रमुख कर्तव्य बन गया था । बे मन्त्र तन्त्रादि द्वारा देवी देवताओं को भी प्रसन्न करते रहते थे । मन्त्र चमत्कार के ही द्वारा भट्टारक अपनी पालका का आकाश में गमन होना, पापाण मुनियों द्वारा अपने पक्ष की पुष्टि होना इत्यादि सिद्ध करते थे। सरस्वती वी पाषाण मुनि के द्वारा दिगम्बर सम्प्रदाय का प्राचीनत्व सिद्ध करना चमत्कारों का ही एक उदाहरण है 1 3 उक्त मन्त्र, तन्त्र, चमत्कारादि क अतिरिक्त भट्टारकों ने तत्कालीन ब्राह्मण संस्कृति के आचार, विचार तथा प्रधाओं का पूर्णनः अथवा अंशतः अतकरण किया। इस सन्दर्भ में विदुषी श्रीमती एस. स्टीवेंशन लिखती हैं कि जन-सम्प्रदाय ने भारत के - - - - - - -. . .. .. - १. भारतीय इतिहास, एक अप्टि' डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन, पप्ठ ३२ २. भट्टारक गम्प्रदाय प्र. पृष्ठ १५ ३. वही, पृष्ठ १५
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। आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व तत्कालीन, आर्थिक एवं नैतिक जीवन के पक्ष को अपनाया । हिन्दू जातियों में मौजूद अनेकों नियमों तया नियन्त्रगों को शनैः शनैः अपनाना प्रारम्भ किया और जातिप्रथा का ढांचा भी जैनधर्म में हिन्दू धर्म की तरह निर्मित हो गया।' यहाँ तक कि मृतक के शरीर को जलाना, उसकी राख को पानी में सिराना आदि सामाजिक रूढ़ियां भी जैनों ने हिन्दुधर्म से ग्रहण की। हिन्दुओं के उत्सवों को भी जैनों ने अपनाया ।
इस तरह भट्टारकों का प्रभाव तत्कालीन समाज पर स्थापित होता गया । वे समाज के कर्णधार एवं शासक वन गये । इनमें धर्मविहित आचारविचारों का अभाव और धार्मिक भ्रष्टाचार का प्रभाव बढ़ता गया । शिथिलाचारी मुनियों से दिगम्बर परम्परा में भट्टारकों का पंथ उदित हुआ ! प्रारम्भ में इन्होंने वनवास छोड़कर मन्दिरों में रहना शुरू किया, फिर मन्दिरों के निमित्त से दानादि ग्रहण करने लगे और इस तरह धीरे-धीरे हिन्दु महन्तों की तरह पूरे मठाधीश बन गये। निवास स्थान के रूप में मठों और मन्दिरों का निर्माण तथा उपयोग: इसी के प्रबन्धादि के लिए भूमि आदि का दान लेना, ग्रन्थ लेखन तथा संरक्षण, चमत्कार आदि के द्वारा धर्म का उद्योत करना; शासकवर्ग से सम्बन्ध रखना आदि इनके मुख्य काम थे। इनमें से अनेकों ने सामयिक स्थिति के अनसार धर्म की रक्षा में सहयोग दिया कि बुराइयों से ये भी नहीं बच सके । इस युग को हम जेनेतर संस्कृति के साथ प्रादान प्रदान का युग कह सकते हैं। यद्यपि इस यग में बाह्य प्राचार-विचार, पूजा द्धिति, त्यौहार उत्सव आदि में हिन्दू सम्प्रदायों के साथ जैन धर्म का बहुत कुछ आदान प्रदान हुआ, तथापि जैनधर्म को सैद्धांतिक मूलभित्ति अडिग रही । उसके मौलिक विश्वास और परम्पराएं अडिग बनी रहीं; इन्हीं कारणों से वह भारत का एक स्वतन्त्र एवं प्रमुख धर्म बना रहा। उसके प्रेरक तत्व . सजीव बने रहे और उनके कारण इसमें अनुयायियों का उत्साह सजग रहा ।"
1. The Jain Cornmuntics adopted this feature of Sucialcconomic and iteologi
cal life of losia and gradually Listes, adoptiog many restrictions and prohibitions, which existed in Hindu castcs took shape fa Jainism also. (I be Ileart of Jainism, p. 55)
"Burning dead body, the ashes are thrown ja water erc... all these rites... were introduced in Jain Practicc in medieval Period and were borrowed
mainly from Hinduism. (The Heart of Jainism, P. 78) ३. दक्षिण भारत में जैनधर्म, पृष्ठ १६८
भारतीय इतिहास, एक दष्टि, पृष्ठ १७८-१७६
Mirclinine
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पूर्वकालीन परिस्थितियाँ |
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जीवदया तथा अहिंसा प्रधान जंनधर्म पर आंतरिक तथा बाह्य विद्वेषियों द्वारा भोषण, क्रूर पाशविक अत्याचार एवं दुर्व्यवहार किया गया, फिर भी जैनों ने कभी भी ऐसे अमानवीय कृत्यों का सहारा नहीं लिया। जैनाचार्यों तथा विद्वानों ने निरन्तर अपने अमूल्य, अहिंसामयी आध्यात्मिक आचारों व विचारों से भारतीय संस्कृति एवं जनजीवन को अनुप्राणित किया। आचार्य अमृतचन्द्र के समय तक उपर्युक्त विषम परि स्थितियां वाणिक रोग में व्याप्त हो चुकी थी। इन परिस्थितियों की विकटता अपने चरमोत्कर्ष पर थी। फिर भी आचार्य अमृतचन्द्र ने एक ओर हिसात्मक तथ्यहीन युक्तियों का खण्डन किया और अहिंसामयी अमृत द्वारा उत्पीडित जनमानस को शांति के मार्ग का प्रदर्शन किया; तो दूसरी प्रोर जैनदर्शन व घर्माचार में आगत अनाचार व पतन से जैन आचार तथा विचारों का परिमार्जन एवं संरक्षण भी किया । उनकी कृतियों में तत्कालीन वातावरण तथा उसके निराकरण की झलक पदपद पर दिखाई देती है। उदाहरणार्थ - विभिन्न मतों में परस्पर चलने वाले विरोध को मिटाने के लिए अनेकांत को हो अमोध उपाय बताते हुए वे लिखते हैं – कि जैसे जन्मांध पुरुष हाथी के एक अङ्ग को छूकर उस मङ्ग रूप हाथी का स्वरूप मानते हैं, परन्तु वैसा हाथी का स्वरूप नहीं होता । अतः जन्मांध पुरुषों के हस्तिविधान का निषेध करने वाले, समस्त नयों (सभी दृष्टियों) से प्रकाशित वस्तु स्वरूप के विरोध को मिटाने वाले, उत्कृष्ट जैन सिद्धांत के प्राणरूप अनेकांत को नमस्कार हो ।'
इसी प्रकार तत्कालीन वातावरण में व्याप्त मद्य, मांस, मधु, पाँच प्रकार के उदुम्बर फलों के सेवन को महान् हिंसाकारक सिद्ध करते हुए, उनके त्याग का सर्वप्रथम उपदेश दिया। उनके शब्द इस प्रकार है कि"हिंसा के त्याग के इच्छुक पुरुषों को प्रथम ही प्रयत्नपूर्वक शराब, मांस, मधु (शहद) और पांच उदुम्बर फलों को छोड़ देना चाहिये । उक्त आठों वस्तुओं के सेवन में होने वाली हिंसा की सिद्धि प्राचार्य श्री ने सतर्क
१. परमागमस्य जीवं निषिद्धजात्यंध सिन्धुर विधानम् ।
सकलनयविलसितानां, विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ||२|| पुरुषार्थ सिद्धयुशय २. बड़, पीपरफल पाकर ( गूलर ), कमर तथा कठूमर (फास) के फलों को पंच उदुम्बर कहते हैं। पु० सि० उ० पृ० ६०
२. मद्य मासं क्षौद्र पञ्चोदुम्बर फलानि यत्नेन ।
हिंसा व्युपरत कामैर्मोक्तव्यानि प्रथममेव ।।६१|| ५० सि० उ
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१४ ]
[ आचाय अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृ स्व
एवं सचोट की है। वैदिकी हिंसा हिंसा मा भवति" के अनुसार की जाने वाली याज्ञिक हिंसा का श्राचार्य अमृतचन्द्र ने निम्न शब्दों में खण्डन किया है "भगवान् का कहा हुआ धर्म बहुत सूक्ष्म है इसलिए धर्म के निमित्त से हिंसा करने में दोष नहीं है" इस प्रकार धर्म त्रिमूढ़ (भ्रमरूप ) हृदय वाला होकर कभी भी शरीरधारी जीवों को नहीं करना चाहिए।" " पशवः सृष्टाः " की तत्कालीन प्रचलित धार्मिक उक्ति का खंडन करते हुए वे लिखते हैं कि 'निश्चय से धर्म देवों से उत्पन्न होता है, इसलिए इस लोक में उनके लिए सभी कुछ दे देना चाहिए" ऐसी अविवेक से ग्रसित बुद्धि प्राप्त करके शरीरधारी जीवों को नहीं मारना चाहिए। तत्कालीन समाज में व्यापक रूप से व्याप्त धर्म के नाम पर बकरों आदि की बलि की प्रथा का विरोध करते हुए वे लिखते हैं कि पूज्य पुरुषों के निमित्त चकरा आदि जीवों के घात करने में कोई भी दोष नहीं है ऐसा विचार कर अतिथि के लिए जीवों का घात नहीं करना चाहिये। हिंसक की हिंसा, बहुत जीवों की अपेक्षा एक बड़े शरीरधारी जीव की हिंसा, हत्यारे जीवों की दयाबुद्धि से हिंसा, दुखी जीव के दुःख मिटाने के लिए हिंसा, सुखी को मारने से सुखी रहेगा," इस भाव से हिंसा, गुरु की हिन की भावना के कारण हिंसा, खारपटक मत सम्मत हिंसा, (अर्थात् जैसे बड़े में बन्द पक्षी की घड़ा फोड़ने से शीघ्र मुक्ति होती है, उसी प्रकार शरीर में रहने वाले ग्रात्मा की शरीर नाश करने से शीघ्र मुक्ति मानना खारपटिक मत की मान्यता है) कतिपय " धर्मशास्त्रों में वर्णित 'शविदान कथा के अनुसार भूखे के लिए अपने शरीर का मांस देना इत्यादि अनेक प्रकार से प्रचलित तत्कालीन हिंसा पोषक मान्यताओं का अमृतचन्द्राचार्य ने स्पष्ट रूप से सतर्क निराकरण किया और किसी
१. सूक्ष्मो भगवद्र्धर्मो धर्मार्थ हंसने न दोयोऽरित ।
इन धर्ममुहूर्त जानु भूत्वा शरीरिणो हिस्याः ||५६ || पु०मि०३०॥ २. धर्मो हि यः प्रभवति नाभ्यः प्रदेहि सर्व ।
इति दुवितां न प्राप्य देहिनो हिस्याः ॥ मि० उगा ३. पुज्यनिमित्ताने लागानां न कोऽपि दोषोऽनि
इनि सम्प्रधार्य कार्य नातियये सत्वज्ञपनम् ||३१|| पुरुषार्थ मिपाय || ४. संस्कृत मंजरी मा. शि. मण्डल, मध्यप्रदेश भोपाल द्वारा संकलित) पृ० २८ ५. उपयुक्त विभिन्न माताओं के निराकरण हेतु देखिये "पुरुषार्थ निद्धयुपाय पद्य क्रम मे ८६ तक "
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पूर्वकालीन परिस्थितियां ]
कार से हिसा करने का निषेध किया तथा अहिंसा सवा की वष्टि
पाणीमात्र के कल्याण की पवित्रतम भावना द्वारा तत्कालीन समाज, साहित्य एवं युग को अनुप्राणित किया।
उन्होंने प्रकट, विद्यमान जगत् को मिथ्या (भ्रमरूप) मानने वाली मान्यता को प्रसत्य बताते हुए “विद्यमान का निषेध करना प्रथम प्रकार का असत्य है" इस -हेतु द्वारा उक्त मत का निरसन किया है ।' साथ ही अविद्यमान (असत्) वस्तु को स्थापना को द्वितीय प्रकार का असत्य, वस्तु को अन्यरूप से कहने को ती मरे प्रकार का असत्य, गहित (निंदनीक), साबध (हिंसापोषक), अप्रिय वचन कहने को चौथे प्रकार का असत्य बताकर असत्य वचनों के चार प्रकार के भेदों द्वारा समस्त प्रकार के असत्य पोषक कथनों का परिहार क्रिया और सत्यधर्म की स्थापना, प्रचार व प्रसार किया। असत्य की तरह, परधन हरणरूप चोरी, मैथन रूप अब्रह्म (कुशील) सेवन, तथा परवस्तु में मूच्रू प भाव (परिग्रह) के सेवन को हिसारूप बताकर उनका भी निषेध किया । उन्होंने झूठ, चोरी, कुशील तथा परिग्रह को भी हिंसा के ही भेद बताया क्योंकि वे सभी प्रात्मा के शुद्धोपयोग रूप परिणामों के घातक हैं । अतः पांचों पापों को हिंसामयी निरूपित करते हुए कहा कि पत्रि भेद तो केवल शिष्यों को समझाने के लिए किये गए हैं।
___इस तरह प्राचार्य अमृतचन्द्र ने अहिंसा के आलोक में हिंसा का सर्वप्रकार से उत्थापन करके, अहिंसामयी अध्यात्म रस की शीतल-शांत एवं सुखमयी वर्षा द्वारा सन्तप्त आत्माओं को शांति व राहत उपलब्ध कराई | साथ हो तत्कालीन प्रदूषण, दबाव, भय तथा भ्रम के वातावरण में वे दिनकर सदृश उदित हुए और शनैः-शनैः उन्होंने अपने प्रखर व्यक्तित्व तथा असाधारण कृतियों द्वारा समाज, साहित्य, धर्म तथा देश को आलोकित और प्रभावित किया ।
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१. पुरुषार्थ मिद्धयुपाय, पद्य १२
२. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, 'पद्य ६३ ३. वही, गद्य ६४
४. बही, पद्य ६५ ५. वही, पद्य १०३, १०७. १११ ६. प्रात्मपरिणाम हिंसनहेतुत्वात्सर्वमेव हिसतत् ।
अन्नबचनादि केवल गुदाहृतं शिष्यबोधाय ॥४२॥ पुरुषार्थ सिद्धयुपाय ।।
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१६ !
। आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
पूर्वकालीन साहित्यिक परिस्थितियाँ वास्तव में तो हित की भावना जिसमें निहित हो ऐसी लेखनी का नाम साहित्य है । उक्त साहित्य शब्द का वास्तविक रूप अब बदल चुका है और आचार-विचारों, सभ्यता तथा संस्कृति का दर्पण साहित्य को माना जाने लगा है। उक्त अर्थ में, प्राचार बिचार प्रादि भले ही हित को भावना सहित हों या अहित को, परन्तु उन्हें लेखनीबद्ध कर देने से वे साहित्य में परिगणित कर लिये जाते हैं। जिस प्रकार के आचार विचार एवं वातावरण को लेखती ब्यक्त करती है, उसी प्रकार का वह साहित्य कहलाता जाता है, उदाहरण के लिए युद्धसाहित्य, धर्मसाहित्य, हास्यव्यंगसाहित्य, प्रेमसाहित्य, शांतिसाहित्य इत्यादि । वास्तव में हम देखते हैं कि विभिन्न प्रकार का साहित्य ही समस्त देशों, धर्मों, समाजों आदि के उत्थान व पतन का प्राधार है।' साहित्य किसी भी देश, समाज या व्यक्ति का सामयिक समर्थक नहीं, बल्कि सार्वदेशिक और सार्वकालिक नियमों से प्रभावित होता है । साहित्य में साधना और अनुभूति के समन्वय से समाज और संसार से ऊपर सत्य और सौन्दर्य का चिरन्तन रूप पाया जाता है । इसी कारण साहित्यकार, चाहे वह किसी भी धर्म, जाति, समाज या देश का हो, समान रूप से अनुभूति का भण्डार जित करता है । इस अनभूति के लिए व्यक्ति, धर्म, जाति, समाज और देश का तनिक भी बन्धन अपेक्षित नहीं। इसी कारण मनीषियों ने प्रात्मदर्शन को ही साहित्य का दर्शन माना है । अपने में जो प्राभ्यंतरिक सत्य है उसे देखना और दिखलाना साहित्यकार की चरम साधना है। जैनसाहित्य स्रष्टाओं ने अखण्ड चैतन्य-आनन्दमयी आत्मा के अन्तर्दर्शन करके, अपनी अनभूतियों को मूर्त रूप प्रदान करने हेतु विपुलमात्रा में साहित्य का स्रजन किया । उनकी साहित्यमृष्टि सार्वकालिक, सर्वहितकारी तथा शाश्वत शांतिसुख दायिनी रही है ।
ऐसे ही साहित्य की अखण्डधारा आदि तीर्थकर ऋषभदेव से लेकर अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान महावीर तक चलती रही। उक्त साहित्य धारा पहले मौखिक परम्परा द्वारा प्रवाहित होती रही, जो महावीर के पश्चात् ६८३ वर्ष तक अङ्ग-पूर्वज्ञानधारक प्राचार्यों द्वारा अविच्छिन्न रूप से
१. युगवीर निबन्धावलि, भाग-१, पृ०४ २. हिन्दी जन साहित्यपरिशीलन भाग-१, डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, पृ० १६-२०
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पूर्व साहित्यिक परिस्थितियां ।
चलती रही। पश्चात् उक्त मौखिक श्रमणसाहित्य धारा ने लिखित रूप धारण किया । इस लिखित श्रमणसाहित्य धारा का विकास दो दष्टियों से होता रहा जिन्हें प्रथम श्रुतस्कन्ध तथा द्वितीय श्रृतस्कंध के नाम से जाना जाता है। इनमें प्रथम श्रुतस्कन्ध की उत्पत्ति प्राचार्य धरसेन (ईस्वी ३८ से ६६ नक) द्वारा षट्खण्डागम के रूप में हुई। उन्होंने उक्त विद्या आचार्य पुष्पदन्त और मानाय भूलि को डिसाई, जिसे उक्त आचार्यय गल ने 'षट्खण्डागमसुत" नाम से प्राकृतभाषा में निबद्ध किया। उक्त षट्खण्डागम के प्रथमखण्ड को रचना प्राचार्य पुष्पदन्त ने (ईस्वो ६६ से १०६ के बीच की, शेष (दो से लेकर छह तक) पांच खण्डों के सूत्रों का प्रणयन आचार्य भूतबलि ने (ईस्वी ६६ से १५६ के बोच) किया । उक्त ग्रन्थ की कई टीकाएं रची गई । सर्वप्रथम टीका आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा (ईस्वी १२७ से १६६ के बोच) प्रारम्भ के तीन स्वण्डों पर रचो गई । कुन्दकुन्द कृत टीका का नाम "परिकर्म" था। दूसरी टीका की रचना प्राचार्य समन्तभद्रस्वामी ने (ई० द्वितीय सदी) इसके प्रथम पांच वण्डों पर रची । तीसरी टीका के कर्ता आचार्य शामकुण्ड (ई० तृतीय सदी) .. थे। चतुर्थ टीका आचार्य वीरसेन स्वामी द्वारा (ई० ७६२ से ८२३ के बीच) बनाई गई । इसका नाम धवलाटीका है, जो ७२ हजार श्लोक प्रमाण अत्यंत गंभीर एवं विशाल है। तत्पश्चात् आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धांतकक्रवर्ती ( ई० सदी १०१८ से १०६८) ने उक्त षट्खण्डागम एवं कषायपाहुड़ का अध्ययन कर साररूप में गोम्मटसार, ल ब्धिसार, शपणासार, त्रिलोकसार की रचना की। उस पर प्राचार्य अभयचन्द्र द्वितोय (१३३३ से १३४३ ई० के बीच) ने “मन्दप्रबोधिनी" नामक प्रथम संस्कृत टीका रची। द्वितीय टीका केशबवर्णी कृत कन्नड़ भाषा में बनाई गई । तृतीय टीका नेमिचन्द्राचार्य चतुर्थ ( ई० १६ वीं सदी पूर्वार्ध ) ने सविस्तार लिखी । चौथी टीका पण्डिनप्रवर टोडरमलज़ो ने (वि. संवत् १७७६-७७ में) सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नाम से बनाई जो ३४०६ मुद्रितपृष्ठों में अद्यावधि उपलब्ध है। इस प्रकार प्रथमश्रुतस्कंध को उत्सति एवं विकास परम्परा चली। इसमें आत्मा और कर्म के सम्बन्ध में सिद्धांतविषयक ज्ञान का विपुल भण्डार है।
द्वितीय श्रुतस्कन्ध को उत्पत्ति आचार्य गुणघर से हुई । उनका काल ( ईस्वी ५७ से १५६ ) है। उन्होंने कषायपाहड़ सुत्त नामक ग्रन्थ
१. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग-४, पृ० ८१
२. बही, भाग-२, पृ० २४४
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[ आचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व और कर्तृत्व की रचना की । पश्चात् आचार्य आयभक्षु और नागहस्ती (ई० ४४५ से ५६० तक) ने इन सूत्रों का विस्तार किया। उसके बाद उनके शिष्य यनिवृषभाचार्य ने ( ई० ५४०-६०६) इसकी विशद टीका "चूर्णिसुत्त" नाम से को। इस टोका का विस्तार ६० हजार श्लोक प्रमाण है। इन्हीं चुणिसुत्तों के आधार पर उच्चारणाचार्य ने विस्तृत उच्चारणा लिखो। उक्त उच्चारणा के आधार पर आचार्य वप्पदेव (ई० ७६७ से ७६७) ने भी एक और संक्षिप्त उच्चारणा लिखी । पश्चात् आचार्य वीरसेन ने (ई० ७६२-८२३) इस ग्रन्थ पर २० हजार श्लोक प्रमाण “जयघवला" नामक टोका संस्कृत में लिखी। ये इस टीका को पूर्ण न कर सके, जिसे उनके शिष्य जिनसेनाचार्य (ई० ८००-८४३) ने ४० हजार श्लोक प्रमाण
और रचना करके उक्त टीका को पूर्ण किया। इस प्रकार जैनधर्म के विशाल वाङमय की सिद्धांतज्ञानधारा अंकुरित, अभिसिंचित एवं विकसित होती रही।
उक्त द्वितीय श्रुतस्कन्ध के ज्ञान को गुरु परम्परा से प्राचार्य कुन्दकुन्द ने (ई० प्रथम सदी) ने प्राप्त क्रिया, तथा उन्होंने समयसार, प्रवचनसार, पंचा स्तिकाय, नियमसार, अष्टपाहुड़ आदि ग्रन्थों की पाकृत गाथाओं में रचना की और श्रमणों की अध्यात्मज्ञानघारा को विशेष रूप से प्रवाहित किया। इस अध्यात्मधारा को क्रमशः प्राचार्य उमास्वामी (ई० दूसरी सदो), ताकि शिरोमणि स्वामी समन्तभद्राचार्य (ई० तीसरी सदी), आचार्य पूज्यपाद ( ई० पांचवीं सदी), आचार्य योगीन्दु ( जोइन्दु ) देव (ई० छठवीं सदी) आचार्य जटासिंहनन्दि (जटाचार्य-ई० सातवीं सदी), गुणभद्राचार्य ( आत्मानुशासनकार) (ई० नवमी सदी पूर्षि ), आचार्य प्रमुतचन्द्र (ई० दसवीं सदी), प्राचार्य अमितगति प्रथम (ई० ६१५ से ६६८), अमितगति द्वितीय (ई० ६६३ से १०२१), प्राचार्य पद्मप्रभमलधारीदेव ( ई० ११४० से ११८५), मुनि नागसेन (ई. बारहवीं सदी), आचार्य जयसेन (ई० १२६२ से १३२३), प्राचार्य प्रभाचंद्र (ई० तेरहवीं सदी), बालचंद्र (ई. १३५०) इत्यादि आचार्यों तथा विद्वानों ने अध्यात्मरसप्रज्र टोकाओं तथा मौलिक कृतियों द्वारा यथासंभव आगे बढ़ाया । उपर्यत अध्यात्मधारा के विकास एवं प्रचार-प्रसार में आचार्य अमृतचन्द्र का असाधारण योगदान रहा है। जिस प्रकार तोथंकर महावीर के
१. जनेन्द्र सिद्धान्तकोश, भाग-२, पृ० ४१
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पूर्व साहित्यिक परिस्थितियां ।
गौतमगणधर का स्मरण किया जाता है, उसी प्रकार कुन्दकन्दा
बाद अध्यात्म के अद्वितीय प्रवक्ता एवं भाष्यकार के रूप में आचार्य अमृतचन्द्र का नाम विश्रुत है । उनके बाद के टीकाकारों ने उन्हें कलिकाल-गणधर के गरिमापूर्ण पद से विभूषित किया है।'
प्राचार्य कुन्दकुन्द के अनन्य शिष्य गृपिच्छाचार्य उमास्वामो (ई. दूसरी सदी) ने तत्त्वार्थसूत्र अपरनाम मोक्षशास्त्र नामक ग्रन्थ की संस्कृत सूत्रों में रचना कर जैन संस्कृत वाङमय में सर्वप्रथम सूत्रशैली का सत्रपात किया । दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों ही जनसम्प्रदायों में उक्त गन्ध समान रूप से मान्य प्रादरणीय है। इस ग्रन्थ में जैनसिद्धांतों का रहस्य "गागर में सागर" की तरह भरा गया है। इसे जैनों की बाईबिल कहकर इसकी महत्ता व्यक्त की जाती है। इसके मंगलाचरण रूप प्रथम लोक पर ही प्राचार्य समन्तभद्र ने आप्तमीमासा (अपरनाम देवागम स्तोत्र की रचना ईसा की द्वितीय सदी में की थी। पश्चात प्राचार्य अकलंकदेव ने ( ई० ६४०-६८०) ८०० श्लोक प्रमाण 'अष्टशती" नामक संस्कृत पाटोका रची। तत्पश्चात् प्राचार्य विद्यानन्दि प्रथम (ई०७७५५४०) ने अष्टशती पर से ८ हजार श्लोक प्रमाण "अष्टसहस्त्री" नामक अत्यन्त प्रीत, क्लिष्ट, विजन को आश्चर्यकारी संस्कृत गद्यटीका लिखी। इसके अतिरिक्त तत्वार्थसूत्र पर अनेकों भाष्य और टीकाएँ रची गई, जिनमें कुछ प्रमुख टीकाओं के नाम इस प्रकार हैं :-समन्तभद्राचार्य (ई. दूसरी सदी) द्वारा विरचित ८४ हजार श्लोक प्रमाण टीका “गन्धहस्तिमहाभाष्य', आचार्य पूज्यपाद (ई० पांचवीं सदी)कृत "सर्वार्थ सिद्धि", आचार्य योगीन्दुदेव (ई० छठवीं सदी) विरचित "तत्त्वप्रकाशिका", अकलकभट्ट (भट्टाकलंक-६४०-६८० ई.) द्वारा रचित 'तत्त्वार्थ राजवातिक", आचार्य विद्यानन्दि (७७५-८४० ई.) कृत "श्लोकवातिक", अभूतचन्द्राचार्य (दसवीं सदी ई०) द्वारा प्रणीत "तत्वार्थसार" पघटीका, आचार्य अभयनन्दि (ग्यारहवीं सदी ई.) द्वारा लिखित तत्त्वार्थवृत्ति", आचार्य शिवकोटि (बारहवीं सदी ई.) द्वारा "रत्नमाला". आचार्य भास्करन न्दि (तेरहवीं सदी ई.) कृत ''सुखबोध टीका", प्राचार्य बालचंद्र (ई० १३५०) कृत कन्नड़ टीका, विवघसेन आचार्य कृत "तत्त्वार्थ-टीका', योगदेव कृत "तत्त्वार्थवृत्ति टीका", लक्ष्मीदेव कृत 'तत्वार्थटीका", आचार्य श्रुतसागर ( ई. १४७३-१५३३) कृत "तत्त्वार्थवृत्ति टीका",
१. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय (अनुवादक-मज्ञात) प्रथमावृति १६२८ ई० का मुख्यपृष्ठ
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२० ]
[ आचार्य अमृतचंद्र व्यक्तित्व और कर्तृत्व
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श्रुतसागर द्वितीय विरचित "तत्त्वार्थ सुखबोधिनी टीका", पं० सदासुखदास ( ई० १७९३-१८६३) द्वारा रचित " अर्धप्रकाशिका" हिन्दी टीका इत्यादि अन्य अनेक विभिन्न भाषाओं में टीकाएँ उपलब्ध हैं। इस प्रकार श्राचार्य उमास्वामी द्वारा सूत्रशैली में उद्घाटित जैन अध्यात्म को सरिता प्रवाहित होती रही। इस जमा के विकास में आचार्य अमृतचन्द्र ने तत्त्वार्थसार द्यटीका रचकर अपना अपूर्व योगदान किया ।
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इसके अतिरिक्त आचार्य कुन्दकुन्द के ही प्रशिष्य एवं आचार्य उमास्वामी के शिष्य समन्तभद्राचार्य ने गन्धहस्तिमहाभाष्य प्राप्तमीमांसा, युक्त्यनुशासन, जीवसिद्धि तत्त्वानुशासन आदि ग्रन्थों की रचना कर एक ओर जैन-ध्याय के भव्य भवन को आधार शिला स्थापित की दूसरी ओर रत्नकरण्डश्रावकाचार की रचना द्वारा जैन श्रावकों की आचार परम्परा का प्रकाश स्तम्भ खड़ा किया। साथ ही स्वयंभूस्तोत्र तथा जिनस्तुतिशतक आदि स्तोत्र - काव्यों के निर्माण द्वारा जैन अध्यात्म एवं भक्ति की तरंगिणी प्रवाहित की ।
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जन न्याय का विकासः - आचार्य समन्तभद्र द्वारा स्थापित जैनन्याय के भव्य भवन की आधारशिला पर अनेक आचायों ने जन-न्याय का सुदृढ़, सुरम्य भवन निर्मित किया। उनमें कुछ आचार्यों के नाम तथा काम इस प्रकार हैं : आचार्य पात्रकेशरी ( ई० छठवीं सदी) ने बौद्धों के रूप्य हेतुवाद का खण्डन करने के लिए "त्रिलक्षणकदर्शन" नामक न्यायशास्त्र की रचना की। उनके बाद जैन न्याय के प्रखर प्रणेता आचार्य अकलंकभट्ट ने ( ई० ६२० से ६५० ) समन्तभद्र के आप्तमीमासा ग्रन्थ पर "अष्टशती" नामक भाष्य लिखा । इसके अतिरिक्त उन्होंने प्रमाण संग्रह, न्यायविनिश्चय, लघीयस्त्रय, सिद्धिविनिश्चय और तत्त्वार्थ राजवार्तिक आदि अत्यन्त गंभीर न्याय व तर्क परक ग्रन्थों का प्रणयन किया और जैन न्याय के प्रतिष्ठाता कहलाये। उनके पश्चात् मुनि विद्यानन्दि ( ई० ७७५-४० ) ने अकलंक भट्ट के ग्रन्थ अष्टशती पर " अष्टसहस्त्री " नामक विद्वज्जनमन आश्चर्यकारी, गंभीर, न्याय-वर्क व युक्तिहुल विशद् टीका लिखी । अष्टसहस्त्री को पढ़कर बड़े-बड़े विद्वान भी उसे सहस्त्री अनुभव करते हैं। वे सभी दर्शनों के पारगामी विद्वान थे । उन्होंने अष्टसहस्त्री के प्रतिरिक्त आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा,
१. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग-२, पृष्ठ ३५५-३५६ २. जैनधर्म, पृष्ठ २६६
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पूर्व साहित्यिक परिस्थितिया ]
। २१
PARTI
सत्यशासन परीक्षा, प्रमाणमीमांसा, प्रमाण निर्णय, जल्पनिर्णय, नय विवरण, युक्त्यनुशासन, तत्वार्थश्लोकवार्तिक, विद्यानन्दमहोदय तथा बुद्धेश भवन ध्यास्थान, इन १३ गंभीर ग्रन्थों की रचना कर जैन न्याय, लकं एवं दर्शन परक् वाइ मय को भलीभांति समृद्ध किया। इसी तरह आचार्यकुमारनन्दि चतुर्थ (ई. आठवीं सदी का उत्तरार्ध नवापी भदी का पवर्षि ने "बादन्याय" नामक ग्रन्थ की रचना की। तत्पश्चात प्राचार्य माणिक्यनन्दि द्वितीय (नवमी दसवीं सदी ई०) ने अकलंकदेव के वचनों का अवगाहन करके परीक्षामुख नामक सूत्रग्रन्थ की रचना की जिसमें प्रमाण, प्रमाणाभास मादि की सूक्ष्म, संक्षिप्त परन्तु स्पष्ट नर्चा है। उनके बाद प्राचार्य अनन्तवीर्य (ई० दसवीं सदी के उत्तरार्ध में) अकलंकन्याय के प्रकांड पंडित हुए, जिन्होंने अकलक के सिद्धिविनिश्चय ग्रन्थ पर बहुत ही विद्वत्तापूर्ण टीका लिखी है । बहुश्रुत, दार्शनिक विद्वान् प्रभाचंद्र (ई० ६२५-१०२३) ने अकलंक के लघीयस्त्रय पर न्यायकुमुदचन्द्र नामक भाष्य तथा माणिक्यनन्दि के परीक्षामुख सूत्र पर 'प्रमेयकमलमार्तण्ड" नामक अत्यन्त गंभीर एवं विषद् टीका बनाई। श्रवणवेल्गोल ( मैसूर ) के ४० नं के शिलालेख में इन्हें शब्दाम्भोरुहभास्कर और प्रथिततकनन्थकार बताया गया है।' इनके ही समकालीन आचार्य अमृतचंद्र (वि.६६३ से १०१५) में हुए जो अत्यन्त प्रौढ़ गभीर, दार्शनिक एवं प्राध्यात्मिक टीकानों एवं मौलिक ग्रन्थों के रचयिता थे। उन्होंने कुन्दकुन्द के समयसार पर संस्कृत में "आत्मख्याति कलशटीका". प्रवचनसार पर तत्त्वप्रदीपिका टीका, पंचास्तिकाय पर समयव्याख्या टीका लिखकर इन्हें अत्यन्त तर्क प्रचुर, न्यायपूर्ण, मर्मस्पर्शी तथा अध्यात्मरस से सराबोर निर्मित कर न्याय, सिद्धांत तथा अध्यात्म की त्रिवेणी प्रवाहित की। उनके बाद मुनिराज वादिराज (ई. १०००-१०४० में) हए जो म्याद्वादविद्यापति, पदतर्कषणमुख जगदेकमल्लवादी आदि विशिष्ट उपाधियों से विभूषित थे। सालका नगर के ३६ नं. के शिलालेख में आपको प्रतिपादन करने में धर्मकीर्ति, बोलने में बृहस्पति और न्यायशास्त्र में प्रक्षपाद निरूपित किया गया है। इन्होंने अकलंनदेव के न्यायविनिश्चय पर २० हजार श्लोक प्रमाणटीका रची। इसके अतिरिक्त एकीभाव स्तोत्र, पार्श्वनाथ स्तोत्र, यशोधरचरित्र, काकुस्थचरित्र आदि रचनाएं की । आप साहित्यिक युग के असाधारण विद्वान्, वैयाकरण, महानतार्किक, और गंभीर काव्य
१. जैनधर्म पृष्ठ २७१
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२२ ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व और कर्तृत्व कार थे । इस सम्बन्ध में उन्होंने ही अपनी एक रचना "एकीभावस्तोत्र" के अन्त में लिखा है कि समस्त वयाकरण बादिराज से पीछे हैं, समस्त तर्कवादी बादिराज के बाद ही आते हैं, समस्त काव्यकार वादिराज से पीछे परिगणित हैं, समस्त भव्यजनों के हितैषियों में वादिराज ही अग्नणी हैं तो सभी जनजान हैं। मकर : आचार्यों ने समंतभद्र द्वारा स्थापित तर्क व न्याय धारा को परिपुष्ट एवं सुविकसित किया । उसमें भी आचार्य अमृतचन्द्र का अमूल्य योगदान रहा।
जैन गहस्थाचार परम्परा का विकासः- समन्तभद्र द्वारा प्रदर्शित जैन गृहस्थाचार परस्परा को विकसित करने वाले प्राचार्यों में आचार्य कार्तिकेय (ई० ग्यारहवीं सदी) कार्तिकेयानुप्रेक्षाग्रंथ रचने वाले, भाचार्य जिनसेन {ई० ८०० - ८४३) महापुराण की रचना करने वाले, आचार्य अमृतचन्द्र (६६२-१०१५ ई०) पुरुषार्थ सिद्ध्य नाय के प्रणेता, पं० आशाधरजी (ई० ११७३.१२४३ ) सागार धर्मामृत के कर्ता चरित्र सारग्रंथ कर्ता, चामुण्डराय (ई० १०-११वीं सदी), अमितगति श्रावका चार (२६३-१०२१) रचयिता अमितगति, बसुनन्दिश्रावकाचार के लेखक आचार्य वसुनंदि आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। उपर्युक्त लेखकों में सर्वाधिक प्रामाणिक, लोकप्रिय, अत्यन्त गंभीर ग्रन्थकार आचार्य अमृतचन्द्र ही हैं। उनका पुरुषार्थसिद्धिय उपाय इस विषय का अनुपम, श्रेष्ठ ग्रन्थ रत्न है, जिस पर आगे यथास्थल सविस्तार प्रकाश डाला गया है।
जैन भक्ति-धारा का विकास- समन्तभद्र द्वारा प्रवाहित आध्यात्मिक रसपूर्ण भक्ति धारा को प्रवाहित एवं विकसित करते रहने वाले अनेक प्राचार्य हुए, जिनमें सिद्धभक्ति प्रादि (दशभक्त्यादि) स्तुतियों के रचयिता आचार्य पूज्यपाद (ई. ५-६वीं सदी), सहस्त्रनाम स्तोत्र रचयिता आचार्य जिनसेन (ई० ८८०-८४३), "लघुतत्त्वस्फोट" अपरनाम 'शक्तिगितकोश" नामक अत्यन्त गहन, आलंकारिक, अध्यात्म व दर्शन से अनुप्राणित रचना के रचयिता आचार्य अमृतचन्द्र (६६२-१०१५ वि०), सामायिक पाठ के कर्ता प्राचार्य अमितगति (ई० ६६३-१०२१), एकीभावस्तोत्र के लेखक वादिराज (ई० १०००-१०४०), भक्तामर, १. वादिराजमनुशाब्दिकलोको, वादिराजमनुताकिकसिंहः । वादिराजमनु काव्यकृनस्ते, वादिराजम्नु भव्यसहायः॥प्रलोक न॥२६।।
एकीभाव स्तोत्र
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पूर्व साहित्यिक परिस्थितियां 1
। २३ (आदिनाथ) स्तोत्र के कर्ता आचार्य मानतुङ्ग (ई० १०२१-१०५५), कल्याणमन्दिर स्तोत्रकार कुमुदचन्द्राचार्य, विषापहारस्तोत्रकार महाकवि घनंजय, जिनचतुर्विशन्तिका के रचियता महाकवि भूपाल आदि मुख्य हैं। इन सभी रचनाओं में प्राचार्य अमृतचन्द्र की रचना "लघुतत्त्वस्फोट" एक अत्यन्त प्रौढ़, चमत्कारी-पालकारिक सस्कृतपद्यों में उपलब्ध हुई है।' इस कृति में अमृतचन्द्र की असाधारण काव्यप्रतिभा द्वारा जैनदर्शन, अध्यात्म एवं भक्तिरूप त्रिधारागों ने एकमेक होकर विशाल साहित्यिक सरिता का रूप धारण किया है। वस्तुतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र के वित्व की एक त्वरूप प्रात्मज्योति की जगमगाहट प्राचार्य अमृतचन्द्र को साहित्यिक कृतियों में प्रस्फुटित है। उनके काल में जहां अन्यमतों में कहीं पर तर्क, न्याय तथा आत्मानुभूति की उत्थापना होकर रहस्यमयी ब्रह्म की घोषणाएं हो रही थी, कहीं पर खोटी युक्तियों तथा अनुचित साधनों द्वारा सारहीन तथ्यों की घोषणाएं एवं विजिगीषा को पूर्ण किया जा रहा था, वहीं पर आचार्य अमृतचन्द्र भी अपनी कृतियों एवं टीकाओं में डंके की चोट, निर्भीक घोषणाओं द्वारा स्याद्वादन्याय, प्रात्मानुभूति, निर्दोष युक्ति एवं पूर्वाचार्य परम्परा की स्थापना करने को कटिवद्ध थे । इस सम्बन्ध में आचार्य अमृतचन्द्र की आत्मख्याति टीका का निम्न अंश प्रकट प्रमाण है । वे लिखते हैं :-"स्यात् पद मुद्रांकित शब्दब्रह्म ( जिनवाणो ) की उपासना द्वारा प्रगट निज आत्मानुभूति से, अत्यंत निर्दोषयुक्ति के प्रवलम्बन से, पर-अप रगुरु ( अर्थात् जिनेन्द्रदेव तथा गणधर आदि ) से लेकर हमारे गुरुपर्यन्त उपदेश के अनुसरण से तथा निरन्तर झरते हुए निजवैभव
१. आचार्य अमृतचंद कृत, लघुतत्त्वस्वफोट या शक्तिमरिणत् कोश नामक एक श्रेष्ठ
दिगम्बर कृति अद्यावधि जनसमाज में अज्ञात थी। सद्भाग्य में इस ग्रन्थ की मात्र ताडात्रीय कृति अहमदाबाद के श्वेताम्बर जैन मंदिर के डेला भण्डार में आगमोद्धारक श्वेताम्बर मुनिराज श्री पुग्यविजय जी को उपलब्ध हुई । उन्होंने बड़ी उदारता के साथ उक्त प्रति की प्रसिद्धि की तथा उनकी कापा कराकर सम्पादनार्थ डॉ० पदमनाथ श्रावर्माजी जैना, यूनिवर्सिटी प्रॉफ कैलीफोतिया यु.एस.ए. के पास भेजी। जिसका प्राग्लभाषा में भानुवाद सम्पादन होकर लालभाई दलपत्र भाई विद्यामन्दिर अमदाबाद से मार्च १९७८ में प्रथम वार प्रकाशन किया गया।
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२४ ]
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व और कतु त्व से एकत्व विभक्त आत्मा को दिखाने हेतु में कटिबद्ध हूँ।'. उपर्युत साधनों के अतिरिक्त छल वितण्डा, वाद, निग्रहस्थान आदि से आत्मोपलब्धि की सिद्धि त्रिकाल में भी सम्भव नहीं है इसकी भी घोषणा उन्होंने अपनी टीकाओं में की है। उदाहरणार्थ "अनंतचतन्य चिह्न वाली प्रात्मज्योति का हम हमेशा अनुभव करते हैं, क्योंकि उसके अनुभव के बिना अन्य प्रकार से साध्य नात्मा की सिद्धि नहीं होती, नहीं होती । वह आत्मज्योति (सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र के) त्रित्वरूप वाली होने पर भी अपने एकत्व को नहीं छोड़ती हुई निर्मलता के साथ उदित हो रही है। इस अंश' में यहां "न खल न खल यस्मादन्यथा साध्यसिद्धिः" शब्दों में कितनी दढ़ता, और सत्यानभूति की स्पष्ट अभिव्यक्ति पाई जाती है । प्राचार्य अमृतचन्द्र के पूर्व तथा समकाल में राग द्वेष, मोह को बढ़ाने वाले साहित्य की सृष्टि हो चुकी थी। ऐसे साहित्य को प्रात्म अहितकारी बताते हुए वे उसके पठन-श्रवण आदि का निषेध करते हुए लिखते हैं कि राग द्वेष मोहादि को बढ़ाने वाली तथा वहत अंशों में अज्ञान से भरी हुई दुष्टकथाओं का सुनना, धारण करना, सीखना आदि किसी समय कभी भी नहीं करना चाहिए। प्राचार्य श्री जहां एक
ओर तत्कालीन वातावरण के परिमार्जन में लगे थे, वहां दूसरी ओर दिगम्बर जैन श्चमण परम्परा के यथार्थ-सत्यार्थ सिद्धान्तों के मण्डन तथा सिद्धांत विरुद्ध समस्त प्रकार की विकृतियों तथा मान्यताओं के खण्डन में सतर्क रहते थे। श्वेताम्बर मत सम्मत वस्त्रादि परिग्रह सहित गुरुपने तथा केवली के कवलाहारी होने का खण्डन करते हुए वे लिखते हैं
१. "इह किल सकलस्योद्भासितस्यात्पदमुद्रितशब्दब्रह्ममोपासनजन्मा, समस्त
विपक्षक्षोदक्षमातिनिष्तुषयुवस्यबलम्बनजन्मा, निर्मलविज्ञाननघनानिमग्न परापर गुरुप्रसादीकृतशुद्धात्मतत्वानुशासनजन्मा, अनवरतस्यंदिसुन्दरानन्दमुद्रितामन्द सविदात्मक स्वसंवेदनजन्मा च यः कश्चनापि ममात्मनः स्वो विभवस्तेन रांमस्तनाप्ययमेकत्वविभक्तमात्मानं दर्शयेहमिति बसव्यवसायोस्मि ।"
__ यात्मख्याति टीका, गाथा ५ पृष्ठ १४-१५ २. कथमपि ममुपान्तत्रित्वमप्येकतामा, अपतितमिदमात्मज्योतिरूद्गच्छदच्छम् । सतनमनुभाषामोऽनन्त चैतन्य चिन्हं, न खलु न खलु यस्मादन्यथा साध्यसिद्धिः ।।
प्रास्मस्याति, समयसारकलशटीका, कलश-२० ३. रागादिवर्द्धनाना दुष्टक थानामबोधबहुलानाम् ।
न कदाचन कुर्वीत श्रवणार्जन शिक्षणादीनि ।। १४५, पु० सु० ॥
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पूर्व साहित्यिक परिस्थितियां ] "परिग्रह सहित भी गुरू होता है और केवली कबलाहारी होता है, इस प्रकार की जिसकी श्रद्धा होती है, वह विपरीत मिथ्यात्व है।" आचार्य अमृतचन्द्र मोहविजेता, अजेय सेनानी तथा प्रमाद चोर से सदा सावधान रहने वाले सजग प्रहरी के रूप में उनकी ही कृतियों में चित्रांकित पाते हैं । वे स्वयं इस बात का उल्लेख करते हुए लिखते हैं - "मुझे मोह नहीं है, स्वपर का विभाग ( भेदविज्ञान ) है।" "मैंने मोह की सेना जीतने का उपाय पा लिया है।"३ "मैंने मोह की सेना पर विजय प्राप्त करने को कमर कस ली है ।"४ “अब मैंने चिंतामणि रत्न प्राप्त कर लिया है तथापि प्रमाद चोर विद्यमान है, मह विचारकर मेरा आमा साकार रहता है।"५
इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्र ने अपनी समस्त कृतियों में अध्यात्म की गंगा प्रवाहित कर जैनदर्शन, न्याय तथा अध्यात्म और आचार को विमल तथा विकसित करने में भागीरथी प्रयत्न किया है । प्रध्यात्म जैन दर्शन का प्राण हैं और प्राचार्य अमृतचन्द्र की कृतियों उसको परिपुष्ट एवं चिरंजीवी बनाये रखने हेतु संजीवनी समान हैं। इस प्रकार विकाट साहित्यिक परिस्थितियों के बीच भी दृढ़तापूर्वक जन अध्यात्म एवं दर्शन के मौलिक सिद्धांतों की सुरक्षा करते हुए, स्वपर वाल्याणकारी साहित्य की सृष्टि कर प्राचार्य अमृतचन्द्र पूर्वकालीन आचार्य परम्परा को, तत्कालीन साहित्य व समाज को तथा आगामी पीढ़ियों के कल्याणकारी पथ को आलोकित करने में सफल रहें हैं ।
पूर्वकालीन राजनीतिक परिस्थितियों उपयुक्त साहित्यिक परिस्थितियों के प्राकलन के पश्चात् आचार्य अमृतचन्द्र की पूर्व राजनीतिक परिस्थितियों पर प्रकाश डाला जाता है।
१. सग्रन्थोऽपि च निग्रन्थो, ग्रासाहारी च केवली ।
रुचिरेवंविधा यत्र विपरीत हि तत्स्मृतम् ।। तत्त्वार्थसार, अध्याय ५ पद्य ६ २. नास्ति मे मोहोऽस्ति स्वपर विभागः। प्रवचनसार गाथा १५४ टीका. पृ० २५० ३. यद्य बलब्धोमया मोहवाहिनी विजयोगामः ।
प्रवचनसार गाथा ५० टीका, पृ० ११२ ४. अतो मया मोहवाहिनी चिजमाथ बाकक्षेयम् । वहीं, गाथा ७६ टीका,पृ० ११० ५. अथवं प्राप्तचितामणेरपि में प्रमादो दस्युरिति जागर्ति ।
प्रवचनसार तत्त्वप्रदीपिका टीका, गाथा ८१, उत्थानिका, पृ० ११३
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[ प्राचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व और कर्तृत्व
किसी भी देश अथवा समाज के साहित्य पर तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों का प्रभाव अवश्य पड़ता है। समाज में रहकर साहित्य साधना करने वाले विहानों पर राजनीतिक परिस्थितियों का प्रभाव यदि अधिकांश रूप में होता है तो वनवासी ऋषियों-मुनियों के साहित्य पर आंशिक रूप में, परन्तु प्रभाव अवश्य लक्षित होता है। भगवान महावीर के समय वैशाली का राजवंश गणतंत्र के रूप में था परन्तु राजगृहा का राजवंश राजतन्त्र के रूप में विद्यमान था। "महावीर की माता लिच्छवि गणतन्त्र के प्रधान चेटकरराजा की पुत्री थीं । ई० पूर्व छठवीं सदी में पूर्वीय भारत में लिच्छवि राजवंश अत्यन्त शक्तिशाली एवं महान् था । चम्मा के राजा कूणिक (अजातशत्र ई० पूर्व ५५२ से ५१८ के बीच) ने चेटक पर आक्रमण करने की तैयारी की नब चेटक ने काशी-कौशल आदि के १८ राजाओं को बुलाकर कुणिक के विपक्ष में समर्थन प्राप्त किया था । इससे पता चलता है कि भगवान् महावीर का राजघरानों पर गहरा प्रभाव था।' राजा श्रेणिक (ई० पूर्व ६०१-५५२), नन्दवंश ( ई० पूर्व ३०५), मौर्यसम्राट चन्द्रगुप्त (ई० पू० ३२०), सम्राट अशोक (ई० पू० २७७), सम्राट सम्पति (ई. पू० २२०), उड़ीसा में चक्रवर्ती खारवेल (ई० पू० १७४) आदि जैन धर्म के उपासक थे। इनके काल में जनधर्म काकी फला-फुला। प्रोफेसर रामस्वामी अयंगर ने लिखा है कि सुशिक्षित जैन साधु छोटे-छोटे समूह धनाकर दक्षिण भारत में फैल गये। उन्होंने दक्षिण की भाषाओं में साहित्य निर्माण कर जैनधर्म का प्रभाव वृद्धिगत किया। मेगस्थनीज के विवरण से पता चलता है कि ई० पूर्व चतुर्थ शताब्दी तक राजा लोग अपना दूत भेजकर वनवासी जैन श्रमणों से राजकीय मामलों में सलाह लिया करते थे। वे शताब्दियों तक जैन धर्म के प्रति साहिष्णु बने रहे । परन्तु जैनधर्म ग्रन्थों में रक्तपात के निषेध पर अधिक जोर दिये जाने से राजा लोग उनसे दूर हो गये, जिससे जनों का राजनीतिक पतन प्रारम्भ हो गया ।3 डॉ. एस. बी. देव ने इस बात का स्पष्टोल्लेख किया है कि शक्ति सम्पन्न गुप्त साम्राज्य के अंतर्गत
१. जैनधर्म, पृष्ठ २४ २. वही, पृष्ठ २८, ३१, ३४, ३५ व ३६ ३. स्टडीज इन साउथ इण्डियन जैनिज्म, पृष्ठ १०५-१०६
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पूर्व साहित्यिक परिस्थितियां ]
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पश्चिमी भारत, गुजरात एवं राजपूताना जैनधर्म के प्रमुख केन्द्र थे ।' ई. पूर्व २२० में सम्प्रतिमौर्य ने भारत के विभिन्न प्रदेशों में जैनधर्म का प्रचार किया। उसके छोटे भाई शालीशुक ने भी सौराष्ट्र में जैन धर्म को फैलाने का श्रेय प्राप्त किया। इससे यह बात प्रमाणित होती है कि ई. पूर्व द्वितीय सदो के लगभग सम्पूर्ण उत्तरी भारत में जनधर्म के अनयायी थे । सम्प्रतिमौर्य ने उज्जैन को अपनी राजधानी बनाया था, उस समय मालवा, मथुरा तथा मध्य भारत में जैनों का विशेष बर्चस्व था। इसके अतिरिक्त कलिंग, बंगाल में भी जैनधर्म का प्रभाव दिखाई देता था। पहारपुर ताम्रपत्र जो कि गुप्त काल संवत् १५६ तथा ईस्वी ४७८-७६ का है, इस बात का संकेत करता है कि दिगम्बरों का अस्तित्व बंगाल में था। एक लेख में नंदिसंघ के आचार्य गहनंदि का उल्लेख है। बंगाल के ही मैनामती ग्राम में ५०० ईस्वी की तोयंकर की मूर्तियाँ प्राप्त हुई थीं। चीनी यात्री ह नसांग जिसने सातवीं ई. में भारत की यात्रा की थी, ने लिखा है कि नग्न निथ मुनिराज उस समय अधिक संख्या में थे । इस प्रकार चीनी यात्री के विवरणों, पुरातत्त्व तथा जैन अनश्रतियों आदि अन्य ऐतिह्य साधनों से पता चलता है कि आठवीं सदी तक सम्पूर्ण कलिंग देश में जनधर्म की अच्छी स्थिति थी। कवि श्रोहर्ष के नषध चरित से विदित होता है कि आठवीं ई. सदी में सिन्ध में जैनधर्म अच्छो दशा में प्रचलित था । मूल्ताननगर तो मध्यकाल में भी इस प्रदेश में जनधर्म का प्रमुख केन्द्र बना रहा । गौड़ी पार्श्वनाथ को सुप्रसिद्ध मूर्ति से सम्बन्धित अनुश्र तियाँ भी प्राचीनकाल में सिन्ध में जैनधर्म के अस्तित्व का समर्थन करती हैं। इस तरह जहाँ एक ओर ई. सातवीं-पाठवीं सदी में भारतवर्ष के अधिकांश भागों में जैनधर्म का प्रचार-प्रसार एवं प्रभाव अपने उत्कर्ष पर था, वहीं दूसरी और राजनीतिक राजाओं के सरक्षण एवं समर्थन में भयंकर, रोमांचकारी अत्याचारों का भी सूत्रपात हो चका था। राजाओं
9. We go 10 Western India and Gujrat, wo steall sce klic stale of Jainism
under the powerful Gupta Eropire. It would be better for us Ly> treat Gujrat, Western India and Rajputana separaçly 15 they have longbon KILOW LO be uenires of Jainism (Hiytory of Jain Monachim trom Inscription
Literature-Page 102.) २. वही, पृष्ठ ६७ ३. भारतीय इतिहास, एक दृष्टि, पृष्ट १६४ ४. वही, पृष्ट २१३
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। आचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व और कर्तृत्व
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में परिवर्तन प्रारम्भ हो गया। उनकी प्रास्था में जिस मत या सम्प्रदाय का समर्थन किया, उसे हर प्रकार से ऊंचा उठाया, प्रचार किया, परन्तु जिस मत या सम्प्रदाय से उनकी प्रास्था हटी, उस मत के अनुयायियों को बलपूर्वक मत परिवर्तन कराया, उनका दमन किया उन्हें यातनाएँ पहुचाई, यहाँ तक उनको मौत के घाट उतारा गया । इतिहास के सैकड़ों पृष्ठ ऐसे वातावरण के वर्णन से भरे पड़े हैं। श्रीमती सिक्लेयर स्टीवेंशन इस सम्बन्ध में लिखती हैं-ई. सन् ६४० में, जब चीनी यात्री ह्वेनसांग भारत आया तब वह दक्षिण में नग्न दिगम्बर मत के अनेक साघओं से मिला और उनके सुन्दर मंदिरों की प्रशंसा की। परन्तु उसकी यात्रा के पश्चात् महान परिवर्तन पूर्ण अभियान प्रारम्भ हुआ । एक जैन राजा कण ने अपना मत परिवर्तन कर सातवीं सदी के बीच शैवमत स्वीकार किया। अर्काट के त्रिबतर लेख से ज्ञात होता है कि उसने अपने पूर्व सहधर्मियों को हजारों की संख्या में कत्ल कर दिया, क्योंकि वे उसका अनुकरण करने को तैयार नहीं थे। इस तरह दक्षिण भारत में जैनमत का काफी ह्रास हुा ।' इधर उत्तर भारत में भो मुस्लिम अाक्रमणों का शिकार जैन गृहस्थों नथा जैनाचार्यों को बनना पड़ा।
आश्चर्य नहीं कि उत्तर भारत में मुसलमानों के विध्वंसकारी अभियान से कोई भी मन्दिर अवशिष्ट बचा हो। फिर भी जैनधर्म स्वयं ही उस आंधी में नहीं बुझ पाया, जिस प्रांधी ने आसानी से बौद्धों का भारत से सफाया किया । उत्तर भारत की भांति, दक्षिण भारत में मलिककाफूर" के नेतृत्व में मुसलिम आक्रमण की लहरों से जैन सन्तों
1. In A. D. 604 when the Chinese traveller Hiuen 'Isang visited Indiy, toe met
numbers of monks belonging to Diyambar (oaked) sealin the south aod admired their beautiful temples. But after his visit, A great prosecution urose. A Jain king, Kuna becaine comverted to Shaivism in the middle of the sevçoth venlury and if we may frest the sculpturce at trivatur in Arcot, siew with the horrible severity thousands of his former co-religionists who refuses to follow his example............. This time the prosperity of Jainisin in tbe South steadily declined. (The Heart of Jainism by Sent, Sinclair Stevenson. Ed. by J. N. Fatauhar.
Page-BEdn, 1915) 2. To return to the North, the wonder is not, that any temples Servived the
mohaninadaaprosecutions, but that Jainism it self was not extinguished in a storm which sinply swept Buddhism out of India, Ibid - Page 18.
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पूर्व साहित्यिक परिस्थितियाँ ।
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r-inment
को कठिन समय का सामना करना पड़ा । कठिनाई के कारणों में ब्राह्मणों के कई सम्प्रदायों की प्रतिद्वन्दता भी एक है । इस प्रतिद्वन्दता ने जैन सन्तों की अध्ययन सम्बन्धि परम्पराओं (आदतों) को अस्थाया तोर से पाछे ढकेल दिया । उक्त अत्याचार एवं मातंकपूर्ण लहर घीरे धीरे विभिन्न प्रदेशों में फैलने लगी।
ईस्वी छठवीं-सातवीं सदी में ही तमिलदेश में; विशेषतः पाण्यराज्य में जैनों का बड़ा भारी राजनैतिक प्रभाव था। कल भ्रों के प्राक्रमण से लेकर सुन्दरपांड्य के धर्म परिवर्तन काल तक जैन लोग राज्य की राजनीति के सूत्रधार थे। वे वैदिक धर्म का कठोरता से विरोध करते थे। इसने शीघ्र ही प्रतिक्रिया का रूप धारण कर लिया। इसलिए सुन्दरपाण्ड्य का धर्मपरिवर्तन मदुरा राज्य के धार्मिक इतिहास में केवल प्रासंगिक घटना नहीं थी, बल्कि वह एक राजनैतिक क्रांति थी और उसका लाभ ब्राह्मण संत सम्बन्दर ने खूब उडाया, जिसके फलस्वरूप हजारों जनो को शंब बनाया गया और जिन्होंने अपनी कट्टरतावश शैव धर्म स्वीकार नहीं किया उन्हें देश से निकाल दिया गया । उसकी प्रेरणा से आठ हजार जैनों को कोल्ह में पेल दिया गया, वे सभी जैनधर्म के मात्र अनुयायो ही नहीं, अपितु मुखिया थे। सम्बन्दर ने कुछ भजन लिखे जिनमें अविचारी जनता को जैनों के विरुद्ध भड़काया गया, उन्हें गाली तथा अपशब्दों का प्रयोग किया गया. उनको बुरे रूप में चित्रित किया गया। श्री रामस्वामी आयंगर ने अपनी पुस्तक "स्टडीज इन साउथ इंडियन जैनिज्म' में लिखा है कि यह सभी जानते हैं कि गालियां कोई युक्तियां नहीं हैं और सम्बन्दर के भजनों में गालियों के सिवाय और कुछ भी नहीं है । इससे हमें बलात हो निष्कर्ष निकालना पड़ता है कि सम्बन्दर तथा उसके साथी अप्पर ने जैनों को पराजित करने के जो जो ढंग अपनाये वे केवल असभ्य ही नहीं थे किन्त ऋर भी थे । सम्बन्दर पहले जैन था, पश्चात उसने जैनधर्म का परित्याग करके शवधर्म को अपनाया। उसने नेन्दुमारन को भी शेव बना लिया।
9. As in the case of northern India, in the sourb also, with the waves of
Muslim aegression under Malik -Kafur, Jain Monks Suced hard dark days. added to wbicb way the rivalary of numerous Brabmanical scats whicli possibly gave a temporary set back to the stucious liebits of Jaine monks. "The History of Jain Monachison from Inscriptions and Literature.
(S. B. Dev) page. 453. २. दक्षिण भारत में जैनधर्म, पृष्ट २२
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३० ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व और कर्तृत्व नेन्दुमारन ने संवन्दर के सहयोग से पाण्ड्यराज्य के जैनियों पर अमानुषिक अत्याचार किये। जिसके दृश्य मदुरा के प्रसिद्ध मीनाक्षी मन्दिर की दीवार के प्रस्तरांकनों में आज भी विद्यमान हैं । यद्यपि कडंग से लेकर नेन्दुमारन (ई० सातवीं सदी) के समय तक पुनरुत्थापित पाण्डयराज्य की शक्ति और प्रभाव बता पा रहा था । परन्तु इन धार्मिक तथा राजनैतिक अत्याचारों के कारण लगभग एक शताब्दी के लिए जनधर्म की उन्नति पिछड़ गई।
उपयुक्त आतंककारी राजनैतिक वातावरण आचार्य अमृतचन्द्र के समय (ई० ६६२-१०१५) तक चरमोत्कर्ष पर था । फिर भी वे अपने उपदेशों तथा कृतियों में अहिंसा, सत्य, प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांचों व्रतों को यथाशक्ति पालन करने का उपदेश देते रहे । उन्होंने अपने अथ "पुरुषार्थ सिद्धय पाय" में उक्त पांचों सिद्धान्तों का सविस्तार स्वरूप प्रस्तुत किया है। हजारों जीवों के हत्यारे की भी हत्या करने को हिंसा सिद्ध कर हत्यारे को भी मारने का निषेध किया। वे लिखते हैं कि इस एक ही जीव का घात करने से बहुत जीवों की रक्षा होती है "ऐसा मानकर हिंसक जीवों को भी हिसा नहीं करना चाहिये । जैनाचार्यों के उपदेशों में उदात्त तथा प्राणीमात्र के कल्याण की श्रेष्ठ भावना निहित रही है, इसीलिए ऐसे विषम, संकटापन्न वातावरण में भी वे सात्विक (अहिंसक या भद्र) जीवों के साथ मित्रता करने, गुणवानों से प्रेम करने, दुखी प्राणियों पर दया करने तथा विरोधी (आतंकवादी) जनों के प्रति भी माध्यस्थ भाव रखने की भावना भाते थे तथा उसी का प्रचार प्रसार करते थे। इस संदर्भ में डा. ज्योतिप्रसाद जैन लिखते हैं कि शंव-वैष्णव प्रादि द्वारा काल विशेषों और प्रदेश विशेषों में जनों पर भीषण अत्याचार किये जाने पर भी और स्वयं जनों के इस युग में इतना अधिक शक्ति
१. भारतीय इतिहाम, एक दृष्टि, पृ० २४७ २. रक्षा भवति बहूनामेकल्प वास्य जीवहरणेन । ___ इति मत्वा कन्न न्यं न हिंसनं हितमत्त्वानाम् ॥३॥ पुरुषार्थ सिद्ध युपाय ।। ३. सत्वेषु मंत्रों, गुणीषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरस्वं ।
माध्यस्थभावं विपरीतवत्ती, सदा ममात्मा विदधातु देवः ।।।। कृत सामायिक पाठ, "श्री जिनस्तोत्र व पूजनसंग्रह, संकलयिताहीरालाल छगनलाल काले, सोलापुर, वी, नि. सं० २४००
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पूर्व साहित्यिक परिस्थितियाँ ]
३१
सम्पन्न होते हुए भी उनके द्वारा अर्जनों पर धार्मिक प्रत्याचार किये जाने का कोई प्रमाण नहीं मिलता। साथ ही जैनधर्म अपने अनुयायियों के लौकिक कर्तव्यों, वीरतापूर्वक युद्धसंचालन, स्वदेशप्रेम, स्वराज्य रक्षा एवं विस्तार, शासन प्रबंध आदि में बाधक तो कभी हुआ ही नहीं, साधक ही हुआ। जैन विद्वानों ने भारती का भण्डार भरा और जैनकलाकारों ने अद्वितीय कृतियों से देश को अलंकृत किया। अपने इस अभ्युदय काल में जैन संस्कृति ने भारतीय संस्कृति का सर्वतोमुखी विकास किया । श्राचार्य अमृतचन्द्र भी ऐसे ही अग्रणी आचार्यों में अग्रगण्य हैं जिन्होंने भारतीय संस्कृत वाङ्मय की विभिन्न धाराओं को अपनी मौलिक कृतियों तथा टीकाओं द्वारा सम्पुष्ट, सम्बद्धित एवं समृद्ध किया है। साथ ही उन्होंने पूर्वकालीन तथा तत्कालीन धार्मिक, साहित्यिक और राजनीतिक विकट-विषमवातावरण में भी जैनदर्शन, जनन्याष, जनअध्यात्म और जैनाचार विषयक विभिन्न धाराओं का भली भांति संरक्षण तथा सम्बर्द्धन किया है। एक ओर जहां उन्होंने विपुल वाङमय की सृष्टि तथा स्वपरकल्याणकारी आत्मसाधना की, वहीं दूसरी ओर पतनोन्मुख, उत्पोड़ित तथा दिशाहीन समाज को मार्गदर्शन, संरक्षण एवं दिशा प्रदान की। जहां तथोक्त दूषित वातावरण में अपना ही जीवन सुरक्षित व्यतीत करना भी कठिन होता है, वहां प्रदूषित वातावरण को परिष्कृत करना तथा ज्ञानप्रकाश फैलाकर समाज का हित करना अत्यन्त दुष्कर कार्य है, परन्तु आचार्य अमृतचन्द्र के अपने हिमालय सदृश अडिंग व्यक्तित्व तथा गंगासदृश पवित्र शांतिदायक कर्तृत्व द्वारा कठिन एवं दुष्कर कार्य भी सुगम एवं सुकर हो गया। उनके तथोक्त व्यक्तित्व का परिचय आगामी प्रध्यायों में किया जा रहा है।
१. भारतीय इतिहास एक दृष्टि
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द्वितीय अध्याय
जीवन परिचय समय
आध्यात्मिक विद्वानों में भगवत् कुन्दकुन्दाचार्य के बाद यदि किसी का नाम लिया जा सकता है, तो ये हैं आचार्य अमृतचन्द्र। आलौकिक तथा आध्यात्मिक जीवन जीने वाले प्राचार्य अमृतचन्द्र ने अपने सम्बन्ध में कहीं कुछ भी लौकिक परिचय नहीं दिया है, जिससे कि उनके समय आदि का ज्ञान किया जा सके। उन्होंने अपनी समस्त कृतियों में अपने निलिप्त स्वभाव को ही प्रकट किया है, इसीलिए विद्वानों को उनके समय को निर्णीत करने में असुविधा होती रही है। यहाँ पर अद्यावधि उपलब्ध विभिन्न स्रोतों के आधार पर आचार्य अमृतचन्द्र के समय का निर्धारण किया जा रहा है।
विक्रम संवत् १२०० में पंडित आशाधरजी ने "अनगारधर्मामृत" नामक अपने ग्रन्थ पर एक "भव्यकूमदचन्द्रिका" नाम की टीका रची।' इसमें पं० आशाधरजी ने आचार्य अमृतचन्द्र के नाम का उल्लेख किया है। साथ ही उन्हें "ठक्कूर" पद से विभूषित भी किया है। उक्त टीका में पं० आशाघरजी ने प्राचार्य अमृतचन्द्र कृत समयसार कलश के १४ कलश, पुरुषार्थसिद्धयपाय के १६ पद्य, तत्त्वार्थसार का एक
१. शैनसाहित्य और इतिहास, पं. नाथूराम "प्रेमी", संस्करण प्रथम, १९४२
पृष्ठ ४५८ २. अनगार थर्मामृत, पं० प्राशायर ए० (५८८) "एतच्च विस्तरेण ठक्कुरामृत
चन्द्रविरचित समवसार टीकामां द्रष्टव्यम् ।" तथा पृ० १६० पर । 'एतदनुसारेणैव ठक्कुरोऽपीदम्पाटोत्" लिखकर--अमुत्तचन्द्र के पुरषार्थसियुपाय का "लोक शास्त्राभासे..........."प्रादि पद्य उद्धृत किया है । ३. "ममयसार कलश" क्र. २४, ११०, १११, १३१, १६४, २०५, २२४, २२५,
२२६, २२७, २२८, २२६, २३० तथा २३१ (कुल १४ कालश)। ४. पुरुषार्थसिद्धयुपाय के पद्य क्र० २६ से ३० तक, ३२, ३३, ३४ ४२, ४८, ४६,
६६, १११ से ११४ तकः, २११, २२० तथा २२५ (कुल १६ पद्य) ।
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जीवन परिचय ]
पद्य तथा प्रवचनसार की तत्वप्रदीपिका टीका का एक श्लोक उद्धरण तथा प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है। इतना ही नहीं, उन्होंने कई श्लोक अमृतचन्द्र के पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय तथा समयसार कलश से लेकर उनमें मात्र कुछ शाब्दिक परिवर्तन करके अपने ग्रन्थ अनगार धर्मामृत में प्रस्तुत किये हैं। इन परिवर्तित श्लोकों के भावार्थ में कोई भी परिवर्तन दिखाई नहीं देता। इससे यह बात निस्सदेह निर्णीत होती है कि आचार्य अमृतपान कः कृनिषों का अस्तित्व विनाम की तेरहवीं सदो के उतरार्द्ध में था आचार्य अमृतचन्द्र की कृतियों के लगभग अर्द्ध शताब्दी पूर्व में अमृतचन्द्र का अस्तित्व मानने में कोई आपत्ति प्रतीत नहीं होती, अत: उक्त आधार पर प्राचार्य अमृतचन्द्र का समय विक्रम की तेरहवीं सदी का पूर्वार्थ निश्चित होता है ।
प्राचार्य जयसेन (छठवें) कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों के टीकाकारों में प्राचार्य अमृतचन्द्र के पश्चात्वर्ती माने गये हैं। उनका समय १२६२ से १३२३ ई. (अथवा १३४६ से १३८७ विक्रम संवत्) का माना गया है। आचार्य जयसेन ने अपनी टीकाओं में आचार्य अमतचन्द्र को टोकाओं फा अनुकरण ही नहीं, अपितु उनकी कृतियों के अंशों को प्रमाण रूप में उदधुत भी किया है। समयसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टोका में जयसेन ने अमृतचन्द्र की समयसार कलश टीका के सात पद्यों को उद्धृत किया है । इससे भी यह बात स्वयमेव प्रमाणित होती है कि प्राचार्य अमृतचन्द्र के ग्रन्थों एवं टीकाओं का प्रचार-प्रसार जयसेनाचार्य के पूर्व हो हो चुका था तथा ग्रन्थों एवं टीकाओं की रचना के लगभग ३०-४० वर्ष पूर्व प्राचार्य
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a
s
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withis :
१. तत्त्वार्थसार, अध्याय प्रथम, पद्य नं. ५१ (४) तत्वदीपिका, चरणानुयोग
लिका, पद्य क्र. १३, २. तुलना कीजिये--"अनगार धर्माभूत के पद्य १०६, १०१, १०२, ११०,
१११ प्रथम अध्याय । पद्य क० २६ तथा २८ चतुर्थ अध्याय, पद्य ऋ० ८१ षष्ठ अध्याय, को क्रमशः पुरुषार्थ सिद्धध पाय के पच नं० ५,१० समयसार कलश के कलश नं० ५ तथा २१०, पु. शि. २१२, स. सा. क. १२०, पु. सि. ४४, ४९
तथा ४२ के साथ। ३. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग प्रथम, पृ० ३३६ तथा भाग द्वितीय पृ० ३२४ ४, समयसार तारपर्यन त्ति में 'उक्तं च' लिखकर समयसार कलश के पद्य नं0 68,
६९, १३१, १८३, २३५, २३६, तथा २४७ (कुल ७ पद्य) उद्धृत हैं ।
:, - .
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३४ ]
। भाचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व अमृतचन्द्र विद्यमान रहे होंग, इस प्राधार पर भी आचार्य अमृतचन्द्र का काल विक्रम की तेरहवीं सदी का पूर्वार्ध या उत्तरार्ध माना जा सकता है। डा. ए. एन. उपाध्ये ने भी प्रवचनसार की प्रस्तावना में उक्त अनमान की पुष्टि की है।'
आचार्य रामसेन कृत तत्त्वानशासन नामक ग्रन्थ का उपयोग पं० आशाधरजी ने अपने ग्रन्थ इष्टोपदेश की टीका में किया है । कहींकहीं रामसेनाचार्य के नामोल्लेख के साथ ही तत्त्वानशासन के कई पद्यों का उल्लेख भी किया है। प० पाशाधरजो इष्टोपदेश के टीकाकार हुएइसका उल्लेख उन्होंने स्वयं विक्रम संवत् १२८५ में लिखित 'जिनयज्ञकल्प' की प्रशस्ति में किया है । इससे रामसेन के तत्वानशासन की विद्यमानता वि० सं० १२८५ के पूर्व सिद्ध होती है ।' तत्त्वानुशासन पर प्राचार्य अमृतचन्द्र के तत्त्वार्थसार तथा समयसार आदि टीकाओं का प्रभाव दिखाई देता है। रामसेन ने अमृतचन्द्र की युक्तिपुरस्सर शैली, निश्चय. व्यवहार कथनशैली तथा तात्विकता का अनुसरण भी किया है। उदाहरणार्थ--निश्चय-व्यवहार के भेद से मोक्षमार्ग का दो प्रकार से निरूपण तथा उनमें साध्य साधनता स्पष्ट करने हेतु अमृतचन्द्र ने जिन शब्दों द्वारा अभिव्यक्ति की है, लगभग उन्हीं शब्दों को रामसेन' ने भी अपनाया है - यथा
"निश्चयव्यवहाराभ्यां मोक्षमागों द्विधास्मृतः ।" तबाऽद्यः साध्यरूपः स्याद द्वितीयस्तस्य साधनम् ।।
॥२॥ "तत्त्वार्थसार" उपसंहार, || मोक्ष हेतुपु नधा निश्चयाद् व्यवहारतः । तत्राऽऽयः साध्य रूपः स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम् ।।
॥२॥ "तत्त्वानुशासन", ॥ इसी प्रकार तत्त्वार्थसार के पद्य क्र. ७ तथा + और समयसार कलश २१० के आधार पर किचित् शाब्दिक परिवर्तन कर तत्त्वानशासन
-...
१, प्रवचनसार, प्रस्तावना (अंग्रेजी में) पृष्ठ ६६ २. तत्त्वानुशासन, प्र० पृष्ठ १७ लेखक पण्डित जुगन किशोर मुस्तार, प्रकाशन
सं. २०२० ३. तत्वानुशासन, प्र० पृष्ठ ३३
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पूर्वकालीन परिस्थितियाँ ]
[ ३५
के क्रमशः ४, ५, तथा २६वें पद्यों की रचना की है। इससे स्पष्ट होता है कि रामसेन के लवानुशासत वि. सं. १२८५ के पूर्व ही आचार्य अमृतचन्द्र एवं उनकी कृतियां विद्यमान थीं इसलिए उक्त आधार पर आचार्य अमृतचन्द्र विक्रम की बारहवीं सदी के पूर्वार्ध के ही ठहरते हैं उसके बाद के नहीं ।
पद्मप्रभमलधारीदेव ने कुन्दकुन्द कृत नियमसार ग्रन्थ की अत्यन्त गम्भीर आध्यात्मिक टीका की है। इनका समय विक्रम संवत ११६७ से १२३२ (अर्थात् ईस्वी ११४० से ११८५ ) है | नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक इस टीका में "पद्मप्रभमलघारीदेव" ने आचार्य अमृतचन्द्र की टीकाशैली को ज्यों का त्यों अपनाया है। प्रमृतचन्द्र अपनी टीकात्रों का प्रारंभ "अथसूत्रावतारः " शब्द से करते हैं, इसी का अनुकरण पद्मप्रभमलधारीदेव ने किया है। उत्थानिका लिखकर टीकारम्भ करने की पद्धति को भी ज्यों का त्यों अपनाया है । इतना ही नहीं, उन्होंने अपनी टीका में अमृतचन्द्र के समयसार कलश के १७ तथा प्रवचनसार तत्त्वप्रदीपिका टीका के ४ पद्यों को उद्धरण ( प्रमाण ) रूप में प्रस्तुत किया है।
१. उपादेयतयाजीचोऽजीवो देवतयोदितः ।
हेयस्यस्मिन्नुपादान हेतुनाऽचः स्मृतः ॥ ७ ॥ तत्त्वार्थसार ॥ संबरी निर्जरा यहानहेतु तथोदितो
हेय प्रहारणरूपेण मोक्षों जीवस्य दर्शितः ॥ ८ ॥ तत्वार्थसार || बंघो निबंधनं चास्य हेयमित्युपदशितम् ।
हेयस्याऽशेष दुःखस्य यस्मादुबौजमिदेद्वयम् ॥ ४ ॥ तवानुशासन || मोक्षस्तत्कारणं चैतदुपादेयमुदाह् तम् ।
उपादेयं सुखं यस्मादाविर्भविष्यति ।। ५ ।। तत्त्वानुशासन ॥ व्यवहारिकदृशैव केवलं कर्तुं कर्म च विभिन्न मिष्यते ।
निश्चयेन यदि वस्तु चिन्त्यते कर्तृकर्म च सर्द कमिष्यते ।। २१० ॥ स.सा.क.
भिन्न कर्तृकर्मादि विषयों निश्चयो नमः ।
व्यवहारनयो भिन्न कर्तुं कर्मादि गोचरः ॥ २६ ॥ तवानुशासन ॥
२. जैनेन्द्र सिद्धांतकोश, भाग तृतीय, पृ. १०
P
३. समयसार कलश के कलश क्र. ५,११,२४,३५,२६,४४,६०,१०४,१३१, १३८ १८५, १८७, १८६, १२२,२२७,२२८ तथा २४४ ( कुल १७ कलश), तया प्रवचनसार तत्त्वप्रदीपिका के - ४, ५, ८ तथा १२ ( कुल ४ श्लोक )
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३६ ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तुं त्व
इससे यह सिद्ध है कि प्राचार्य अमृतचन्द्र एवं उनकी कृतियों का अस्तित्व पद्मप्रभमलघारीदेव के काल विक्रम सं० १२३२ के लगभग अर्द्ध शताब्दी पूर्व अवश्य रहा होगा, अतः अमृतचन्द्र का समय तेरहवीं सदा विक्रम का का प्रारम्भ अथवा बारहवीं का उत्तरार्द्ध अनुमानित होता है ।
आचार्य शुभचन्द्र ने अपने "ज्ञानार्णव' (पृ. १६५ ) में अमृतचन्द्र की पुरुषार्थ सिद्धय पाय का "मिथ्यात्ववेदरा प्रादि (११६ वां) पद्य “उक्तं च" रूप से उद्धृत किया है अतः अमृतचन्द्र से पूर्ववर्ती होना स्पष्ट है | शुभचन्द्र के ज्ञानर्णव का एक श्लोक' पद्मप्रभमलघारी देव ने की ठीक लप्त किया है। स्वर्गीय नाथूराम प्रेमी ने पद्मप्रभ का समय विक्रम की बारहवीं का अंत तथा तेरहवीं सदी का आरंभ बताया है तथा शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव का रचनाकाल विक्रम की ११-१२ वीं सदी अनुमान किया है इसलिए आचार्य अमृतचन्द्र का समय विक्रम की बारहवीं सदी के पूर्वार्ध या उत्तरार्धं से बाद का नहीं माना जा
सकता
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आचार्य पद्मनंदि (नं. ५ ) ने "पद्मनंदिपंचविशति" नामक ग्रंथ की रचना की है पद्मनंदि के दीक्षागुरु वीरनंदि तथा शिक्षा गुरु ज्ञानार्णव के कर्त्ता शुभचन्द्राचार्य थे। पद्मनंदिपंचविशति के एकस्वसप्तति अधिकार की टीका विक्रम संवत् ११६३ को उपलब्ध है, अतः पद्मनंदि का समय विक्रम १०७३ से ११६३ के बीच माना गया है।" उन्होंने अपने ग्रंथ में आचार्य अमृतचन्द्र के ग्रंथों से शब्द एवं भावग्रहण कर उसे यत्किंचित् परिवर्तन के साथ प्रस्तुत किया है। उनके ग्रंथ में अमृतचन्द्र के ग्रंथों का प्रभाव पद पद पर दृष्टिगोचर होता है । उदाहरणार्थ अमृतचन्द्रसूरि ने
१. ज्ञानार्णव (धर्म ध्यान का फल ) स ४१, पच ४.
२. नियमसार टीका, गा. ६ पृष्ठ १६८.
३. जैन साहित्य और इतिहास, प्रथम संस्करण, पृ. ४५८ (शाना व ग्रन्थ करे प्रस्तावना में शुभचन्द्र को राजा मुंज का समकालीन बताया है। मुरंज का समय विक्रम १०५० के लगभग था । अतः अमृतचन्द्र शुभचन्द्र से भी अर्धशतक पूर्व में हुए होगें । इस आधार पर वे दसवीं विक्रम सदी के उत्तरार्ध या ग्रहवीं के पूर्वा के ठहरते हैं । ) ( जाना व पृष्ठ १५ - १६ )
४. जैनेन्द्र सिद्धांतकोश भाग तृतीय, पृष्ठ १० ५. पद्मनंदिपंचविंशतिः, प्र. पृष्ठ ३१
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जीवन परिचय ]
[ ३७
अपने प्रथ पुरुषार्थसिद्ध पाय में व्यवहार नय का प्रयोजन स्पष्ट करते हुए लिखा है :
:
अनुप घोषनार्थं न देयं । व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति ॥ ६ ॥
पद्मनंदि ने भी अपने ग्रंथ पद्मनंदिपंचविशति में उपयुक्त पद्य के शब्दों एवं भावों का अनुकरण करते हुए लिखा है :
व्यवहृतिरबोधजन बोधनाय, कर्मक्षयाय शुद्धयः । स्वायं मुमुक्षुरहमिति वक्ष्ये तदाश्रितं किंचित् ।। ६०५ ।।
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इसी प्रकार अमृतचन्द्र ने समयसार कलश में "विरम किमपरेणाकार्य कोलाहलेन "" इत्यादि पश्च द्वारा समस्त प्रकार के कोलाहल बंदकर आस्मोपलब्धि हेतु स्वयं एकाग्र होकर प्रयास करने की प्रेरणा दी। इसी का अनुकरण करते हुए पद्मनंदि ने भी पद्मनंदिपंचविशति में " निश्चे तव्यो 'वदत किमपरेणालकोलाहलेन इत्यादि पद्य रचना कर समस्त प्रकार के कोलाहल से हठ कर जिनेन्द्र वचनों की प्रतीतिकर आत्मानुभवरूप सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति हेतु प्रेमपूर्वक प्रयत्न करने की प्रेरणा दी है। इस प्रकार अन्यत्र कई स्थलों पर पद्मनंदि ने अमृतचन्द्र की कृतियों का अनुकरण किया है। पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने लिखा है कि अमृतचसूरि ने पद्मनंदि को भी अध्यात्म की और आकृष्ट किया । पद्मनंदिपंचविशतिः ः का निश्चय पंचाशत् नामक ६२ श्लोकों का प्रकरण समयसार तथा आत्मख्याति टीका के आधार पर रचा है। इससे सिद्ध है कि आचार्य पद्मनंदि के समक्ष अमृतचन्द्र की कृतियां विद्यमान थी। अतः पद्मनंदि के समय से अर्धशताब्दी पूर्व अमृतचन्द्र अवश्य रहें होंगे। पद्मनंदि का समय विक्रम १०७३ से ११६३ है । इस आधार पर श्राचार्य अमृतचन्द्र
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१. समयसार कलश क्र. ३४ ( अजीवाधिकार )
२. पद्मनंदिपंचविशतिः पद्य ऋ. १२८ "धर्मोपदेशामृतम्' अधिकार /
३. अमृतचन्द्रकृत समयसार कलश ३४, १५४,२००,२७८, तथा पुरुषार्थ सिद्ध पाय पच क्र. ४, ५, ६, को क्रमशः पद्मनंदिपंचविशति के पद्म क्र. १४४,६३,३६१, ६५ तथा ६०६,६०८,६०५ से तुलना करने पर स्पष्ट होता है कि पद्मनंदि अमृतचन्द्र के ही शब्दों और भावों को ज्यों का त्यों अथवा किचित् शब्द परिवर्तन कर प्रस्तुत किया है।
४. जैनसाहित्य का इतिहास, भाग २, पृष्ठ १६०
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३ ]
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व और कर्त,त्त्व का समय बारहवी विक्रम सदी का पूर्वार्ष मानने में कोई प्रापत्ति प्रतीत नहीं होती है।
प्राचार्य जयसेन नं. ४ लाइबागड़ संघ की गुबलि के अनुसार भावसेन के शिष्य तथा ब्रह्मसेन के गुरु थे। इनका समय विक्रम संवत् १०५५ से १०७८ है। जयसेन ने धर्मरत्नाकर नामक ग्रंथ की रचना की। धर्मरत्नाकर की एक प्रति ऐलक पन्नालाल दिगम्बर जैन सरस्वती भवन ब्यावर के शास्त्रभण्डार में उपलब्ध है। इस प्रति में नथ का रचनाकाल वि० सं० १०५५ दिया है । पण्डित परमानन्द शास्त्री ने एक लेख द्वारा यह सूचित किया था कि जयसेन के धर्मरत्नाकर में आचार्य अमृतचन्द्र के पुरुषार्थसिद्धय पाय के ५६ श्लोक उद्धृत हैं, परन्तु उक्त दोनों प्रथों से मिलान करने पर ज्ञात हुआ कि पुरुषार्थसिद्धय पाय के १२५ श्लोक धर्मरत्नाकर में उद्धत हैं। पू. सि. में कुल श्लोक संख्या २२६ है। इससे स्पष्ट होता है कि जयसेन ने इस ग्रन्थ का आधे से अधिक भाग अपने ग्रन्थ में ज्यों का त्यों उदधुत कर दिया। साथ ही यह बात भी सिद्ध हो जाती है कि धर्म रत्नाकर की रचना के पूर्व अमृतचन्द्र का यह ग्रन्थ विद्यमान था। उससे भी पहले आचार्य अमृतचन्द्र रहे होंगे। इस आधार से अमृत चन्द्र का समय ग्यारहवीं विक्रम सदी का प्रारम्भ अथवा पूर्वार्ध ही ठहरता है ।
प्राचार्य अमितगति द्वितीय अमितगति प्रथम के प्रशिष्य तथा माघबसेन के शिष्य थे। यह बात उनके ही स्वरचित ग्रन्थ 'सुभाषितरनसंदोह की प्रशस्ति में प्रदत्त मुलि से ज्ञात होता है। आप राजा मुंज के राज्य काल में विद्यमान थे। अापके अन्य ग्रन्थों में धर्मपरोक्षा, सामायिकपाठ तथा श्रावकाचार मुख्य हैं। आपका समय विक्रम संवत् १०५० से १०७८ निश्चित है। अमितगति ने अपना श्रावकाचार धर्मरलाकर के समय वि. १०५५ के लगभग रचा है ।" इस श्रावकाचार पर
१. जनेन्द्र सिद्धांत कोश भाग, २ १ष्ट ३२४ २. जैन साहित्य का इतिहास, भाग २ पृष्ठ १७६ ३. अनेकान्त, वर्ष , पृष्ठ १५३-१७५ तथा २००-२०३ ४. जनेन्द्र सिद्धान्त कोश, प्रथम भाग, पृष्ठ १३६ ५. जन साहित्य का इतिहास भाग २, पृष्ठ १८०
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जीवन परिचय ]
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प्राचार्य प्रभुतचन्द्र का प्रभाव स्पष्टतः प्रगट होता है । इसके कुछ प्रमाण इस प्रकार है :-- १. प्राचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्धय पाय में पांच उदुम्बर
फलों तथा तीन मकारों को त्याज्य बतलाकर अहिंसाणुव्रत की पुष्टि के लिए रात्रिभोजन त्याग पर जोर दिया। प्राचार्य अमितगति ने भी श्रावकाचार में उपयंक्त निरूपण को ज्यों का
त्यों प्रस्तुत किया । २. पुरूषार्थसिद्ध्युपाय में मद्य में बहुत से सजीवों की उत्पत्ति
बतलाने वाले तथा मध के लिए "सरक" शब्द का प्रयोग करने वाले कथन को अमितगति ने भी अपने प्रावकाचार में ग्रहण किया है। ३. अमृतचन्द्र ने "प्राणिधात बिना मांसोत्पत्ति संभव नहीं "बतलाकर
उसके सेवन का निषेध किया। पांच उदुम्बर, तीन मकार के त्यागी को ही जिनधर्म की देशना का पात्र बताया जीवों के घातक हिंसक) की हिंसा करने का भी निषेध किया, सुखी जीव को मारने का भी निषेध किया । असत्य के चार भेद एवं उनके स्वरूप का कथन किया, घन को बाह्य प्राणों की संज्ञा दी तथा निरतिचार ब्रती पुरुषार्थ सिद्धि को पाता है इत्यादि निरूपण किये । इन सभी को अमितगति ने भी ज्यों का त्यों अपनाकर अपने श्रावकाचार में । प्रस्तुत किया। इससे सिद्ध होता है कि अमितगति के समक्ष अमृतचन्द्र की कृति पुरुषार्थसिद्धयपाय विद्यमान थी । अमृतचन्द्र अमितमति से पूर्ववर्ती विद्वात् थे अत: अमृतचन्द्र का समय निस्संदेह विनाम की ग्यारहवीं सदी का प्रारम्भ अथवा दशवी का उत्तरार्द्ध निश्चित होता है।
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१. पुरुषार्थसिद्धय पाय, श्लोक ६१ तथा १२६ २. अमितगतिकृत श्रावकाचार, पञ्चम परिच्छेद पद्य १ तथा ४० से ४२ ३. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, घलोक, ६३ तथा ६४ । ४. अमितगतिकृत थावकाचार, पंचम परिच्छेद, पद्य ६ ५. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लोक ६५, ७४, ८३, १६, १२ से १८ तक, १०३, १६६, ६. अमितगतिकृत श्रावकाचार, पंचम परिच्छेद, पद्य १४, ७३ षष्ठ परिच्छेद,
पद्म ३३, ४०, ४५ से १५ तक, तथा ६१ सप्तम परिच्छेद १७ वां पद्य ।
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४० ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्त्व
मुनि रामसिंह ने "दोहापाड़" अपरनाम "पाहुड़दोहा' नामक ग्रंथ रचना की। उममें देवसेनकृत सावयधम्मदोहा के क्रमांक ३० तथा १२६ वें पद्यों को उद्धृत किया है । देवसेन का समय विक्रम संवत १५० से १००० के बीच का है। मुनिरामसिह के दोहापाहुड से एक गाथा नं. ६८ अमृत चन्द्र ने अपनी पंचास्तिकाय टीका में गाथा १४६ की व्याख्या में "तथा चोक्तम्" शब्द के साथ उद्धत की है। इससे सिद्ध होता है कि देवसेन के पश्चात् रामसिंह तथा रामसिंह के बाद आचार्य अमृतचन्द्र हुए । अतः अमतचन्द्र का समय दसवीं विक्रम सदी का उत्तरार्ध या ग्यारहवीं विक्रम सदी का प्रारंभ माना जा सकता है। इसकी पुष्टि पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री के लेख से भी होती है।
शौचाल पुत्र दिइव के संस्थत , पंजसंग्रह पंथ की रचना की। अमितगति आचार्य (१०५०-१०७८ विक्रम संवत् ) ने भी संस्कृत में पंचसंग्रह ग्रंथ रचा । इनकी रचना विक्रम संवत् १०७३ में पूर्ण हुई थी। डड् ढा अमितगति से पूर्व के विद्वान् हैं प्रतः उनका समय १०५५ विक्रम माना गया है। डड्ढा ने अपने पंचसंग्रह के प्रकृतिसमुत्कोर्तन अधिकार में (पृष्ठ ६७४ पर) उक्तञ्च" रूप में एक श्लोक उद्धत किया है जो अमृतचन्द्र के तत्त्वार्थसार के बन्धाधिकार का ग्यारहवां श्लोक है। इससे स्पष्ट है कि हुड्ढा के समय में अमृतचन्द्र का तत्त्वार्थसार विद्यमान था अतः उससे भी लगभग अर्धशताब्दी पूर्व अमृतचन्द्र हुए, इसलिए उनका समय विक्रम की दसवीं सदी का उत्तराई निश्चित होता है।
सोमदेव ने "यशस्तिलक" नामक चम्पुकाध्य की रचना विक्रम संवत् ११६ में की, इसकी जानकारी ग्रंथ के अन्त में प्रदत्त प्रशस्ति से प्राप्त होती है । पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री ने एक लेख द्वारा यह प्रकट
१. जैन नाहित्य का इतिहास, भाग २, पृष्ठ १५३ २. जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग २, पृष्ट ४४६. ३. जैन संदेश, शोधांक नं० ५, पृष्ठ १८० (२२ अक्टूबर १६५६). ४. राजस्थान का जैन साहित्य, पृष्ठ १७-६८ ५. जैन संदेश, शोघांक २६ पृ. ६५ (२६ फरवरी, ६८) लेख-. कैलाशचन्द्र शास्त्री ६. जैन गंदेश, शोधांक ३२, पृष्ठ ३३४ तथा यशस्तिलक चम्पुमहाकाव्य उत्तरार्घ
पृष्ठ १८१ ७. जैन संदेश, शोधांक १६, पष्ठ १८१
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जीवन परिचय ]
[ ४१
किया है कि नवमी शताब्दी के प्रारम्भ तथा दसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में हुए सोमदेव के पूर्वज ग्रंथकारों में पुरुषार्थसिद्धयुपाय के रचयिता अमृतचन्द्र भी उल्लेखनीय है । इससे अमृतचन्द्र का समय विक्रम को दसवीं सदा का पूर्वार्ध के लगभग निश्चित होता है।
__ अमित्यादि प्रम (ोगसार चाही). मिग दिदीय श्रावकाचार, सुभाषित रत्नसंदोह आदि के कर्ता से दो पीढ़ी पूर्व के विद्वान थे उनके योगसार पर भी अमृतचन्द्र के तत्त्वार्थसार एवं समयसारादि को टीकाओं का प्रभाव लक्षित होता है। सुभाषि रत्नसंदोह की प्रशस्ति के अनुसार अमितगति प्रथम का समय विक्रम संवत् ६७५ से १०२५ निर्णीत है। इस प्राधार से अमितगति प्रथम के पूर्ववर्ती आचार्य अमृतचन्द्र का समय विक्रम की दसवीं सदी पूर्वार्ध ही ठहरता है।
डा. ए. एन. उपाध्ये ने अमृतचन्द्र को देवसेनाचार्य (विक्रम संवत् ६E0) की आलापपद्धति नामक कृति से परिचित माना है। उन्होंने अमृतचन्द्र' का समय ई. की दसवी सदी की समाप्ति के लगभग माना है अतः उनका वैसा अनुमान अनुचित नहीं है, परन्तु जब ईसा की दसवीं सदी के अन्त में हुए ग्रथकरों के द्वारा अमृतचन्द्र के पुरुषार्थ सिद्धयुपाय से उद्धरण लिये जाने तथा उसका अनुसरण किये जाने की बात निस्संदेह है, तब यह भी निश्चित होता है कि अमृतचन्द्र उससे पूर्व में हुए हैं। ऐसी स्थिति में अमृतचन्द्र का आलापपद्धति से परिचित होना विचारणीय है । पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री का अभिमत है कि देवसेन ही अमृतचन्द्र की टीकाओं से परिचित जान पढ़ते हैं, कारण कि अमृतचन्द्र द्वारा कुन्दकुन्दाचार्य की भांति व्याथिक-पर्यायार्थिक, शुद्धनम-अशुद्धनय, निश्चय व्यवहार इत्यादि मुख्य भेदों का उल्लेख हुआ है किन्तु उनके प्रभेदों का कहीं उल्लेख नहीं हुमा। जयसेनाचार्य द्वारा अवश्य भेद-प्रमेदों का निरूपण हुआ है। जयसेन तो आलापपद्धतिकार के बाद के है परन्तु अमुतचन्द्र नहीं । देवसेन की आलापपद्धति में निश्चय-श्यवहार नय के भेद-प्रभेदों का जो वर्णन है, वह अमृतचन्द्राचार्य द्वारा समयसार की टीका में प्रतिपादित तत्त्वव्यवस्था
१. तत्त्वानुशासन, प्रस्तावना पुष्ठ ३३-३४ लेख पं. जुगल किशोर मुख्तार, वीरसेवा
मन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन, दिसंबर १६६३ २. जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग ।, पृष्ठ १३६. ३. जैन साहित्य का इतिहास, भाग २, पृष्ठ १८३.
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४२ ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व एवं कर्तृत्त्व
के आधार पर हुआ है। उससे पहले के किसी भी ग्रंथ में उन भेद-प्रभेदों का कथन नहीं मिलता। जिनमें मिलता हैं वे सभी आलापद्धति के बाद के है। इस प्रकार अमृतचन्द्र देवसेन के पूर्ववर्ती होने से, विक्रम की दसव सदी के पूर्वार्ध के लगभग समय के सिद्ध होते है ।"
जैन सिद्धांतभास्कर ( दी जैन एन्टीक्वेरी ) पत्रिका के एक उल्लेख में नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती तथा आचार्य श्रमृतचन्द्र को विक्रम की दसवीं सदी का ही घोषित किया गया है। डा. ए. एन. उपाध्ये ने भी अमृतचन्द्र कोदसवीं ईसा शताब्दो का स्वीकारा है । 3 डा. उपाध्ये के उक्त समय का समर्थन डा. मोहन लाल मेहता तथा फोफेसर हीरालाल र कापड़िया ने भी किया है। *
सुप्रसिद्ध विद्वान स्वर्गीय पं. नाथूराम प्रेमी ने पुरुषार्थ सिद्धयुपाय की प्रस्तावना में आचार्य अमृतचन्द्र के समय के संबंध में स्पष्ट लिखा है कि आचार्य पट्टावलियों तथा पाश्चात्य विद्वानों की रिपोर्ट देखने से ज्ञात होता है कि पुरुषार्थसिद्धयुपाय के कर्ता अमृतचन्द्रसूरि विक्रम संवत् १६२ में जीवित थे । पं. नाथूराम प्रेमी के उपर्युक्त अभिमत का समर्थन स्व. पं. जुगल किशोर मुख्तार, स्व. पं. मिलापचन्द्र कटारिया, स्व. डा. हीरालाल पं. मुन्नालाल राधेलीय, पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, डा. पं. पन्नालाल साहित्याचार्य आदि ने भी किया है। साथ ही पट्टावलि में उपलब्ध अमृतचन्द्र के पट्टारोहण का समय विक्रम सं. ९६२ उचित ठहराया है।
१. जैन साहित्य का इतिहास, भाग २, पृष्ठ १८५
२. जैन सिद्धांत भास्कर, (The jain antiquiry ) भाग ३, किरण २, पृष्ठ ४४ (वि. सं. १६९३ / सितम्बर, १६३६)
३. प्रवचनसार प्रस्तावना ( अंग्रेजी), पृष्ठ ६६. संस्करण तृतीय ।
४. जैन साहित्य का वृहइतिहास, भाग ४, ५, १५० डा. मेहता तथा प्रो. कापड़िया । प्रकाशकन्पार्श्वनाथविद्याश्रम, शोच संस्थान, बनारस-५ सन् १९६८ ५. Peterson's Report XLIX -A Vol. No 18 Royal Asiatic Society, Bombay. ६. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय प्रस्तावना, पृष्ठ ४ पं. नाथूराम प्रेमी, प्रकाशक रामचन्द्र जं. शा. १. बी. नि. सं. २४३१, दि. २५-१२-१६०४
७. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृष्ठ ८४
प. पु० सि० पद्यानुवाद एवं भावप्रकाशिनी भाषा टीका, पृष्ठ १० ६. तत्वार्थसार, प्राक्कथन, दृष्ट ७
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जीवन परिचय ।
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(केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एफ. डब्ल्यू. थामस लन्दन ने भी अमृतचन्द्र के पट्टारोहण के उक्त काल को ही उचित माना है।'
इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्र के समय पर विचार करते हुए उनकी समयावधि को विक्रम की तेरहवीं सदी के अन्त से संकोचकर विक्रम सं. ६६२ से १०१५ के बीच तक लाकर स्थिर किया गया। विक्रम संवत ६६२ के पूर्व के प्रमाणों के अभाव होने से उक्त सीमा को और अधिक संकुचित नहीं किया जा सकता।
इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध होते हैं कि अमृतचन्द्र ने स्वयं अपने पूर्ववर्ती आचार्यों में विक्रम की आठवीं सदी तक के आचार्यों का अनुकरण किया है। ऐसे आचार्यों में यहाँ प्राचार्य अकलंक का उल्लेख करना उचित है । आचार्य अमृतचन्द्र ने प्रकलं कस्वामी का अनुकरण हो नहीं, अपितु उनके भाष्य तत्त्वार्थ राजवातिक का अपने नथ तत्त्वार्थसार में विशेष उपयोग किया है। उन्होंने "वार्तिक के गद्यांगों को पद्यों में परिवर्तित कर प्रस्तुत किया है। उदाहरणार्थ
निमित्तान्तरानपेक्ष संज्ञा कर्म नाम ।। ५ ।। सोयमित्य भिसम्बन्धस्वेन अन्यस्य व्यवस्थापनामा स्थापना ।। २ । अनागत परिणाम विशेषः प्रतिगृहीताभिमुख्यं द्रव्यं ।। ३ ।। (तत्त्वार्थ वार्तिक)
या निमित्तान्तरं किंचिदनपेक्ष्य विधीयते । द्रव्यस्य यस्यचित्, संज्ञा तन्नाम परिकीर्तितम् ।।१०।। सोऽयमित्यक्ष काष्ठादेः सम्बन्धेनान्य वस्तुनि । यद् व्यवस्थापनामा स्थापना सभिधीयते ॥११॥ भाविनः परिणामस्य यप्प्राप्तिं प्रति कस्यचित् । स्या, गृहीताभिमुख्यं हि तद्रव्यं ब्रवंते जिनाः ॥१२॥ तत्त्वार्थसार)
इस प्रकार अन्य कई स्थल उदाहरण योग्य हैं अतः निश्चित हैं कि अकलंकदेव अमृत चन्द्र के पूर्वज आचार्य है। अकलंकदेव का समय विक्रम
(१. There is not difficulty in accepting for Amritchandra, the direc. 905 A.D.
furnished by the patinyalis, 5cc Introduction P.24 of the Pravachanasara of Kunda Kundla Acharya, tagether with the commentary, Tattvaeradipika Arurtebandra Suri, English Translation by Barrend Foddegon, Edited with Iniroductiony F.W. Thomas, Pub:-Cambridge, at the University Press, London 1935. Under the Jain literature Society Series Vol. I. 4
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४४ ]
। आमा अगुवचन्द्रगतित्व नौ पात्र
की आठवीं सदी के बाद का नहीं हैं, इसलिए उनके बाद ही अमृतचन्द्र का होना प्रमाणित होता है ।'
इस प्रकार अनेक प्रमाणों, उपलब्ध साधनों के परीक्षणों तथा विद्वानों के अभिमतों के आधार पर आचार्य अमृतचन्द्र का समय विक्रम की दसवीं सदी पूर्वार्ध (अर्थात् ६६२) ही निश्चित होता है । विश्वविख्यात जर्मन विद्वान डॉ. विन्टर निदज ने भी पीटर्सन रिपोर्ट के अनुसार आचार्य अमृतचन्द्रकृत, २२६ पद्यवाले "पुरुषार्थसिद्धयुपाय सय की रचना विक्रम संवत् ६६१ (अथवा ईसा सन् ६०४) को ही मानी है अतः आचार्य अमृतचन्द्र का समय विक्रम की दसवीं सदी पूर्वार्ध के लगभग निस्संदेह प्रमाणित है।
जोवन परिचय भारतीय संस्कृत वाङमय को अपने असाधारण व्यक्तित्व तथा अप्रतिम प्रतिभा द्वारा समृद्धि एवं प्रौढ़ता प्रदान करने वाले, दिगम्बर जैनधर्म के अध्यात्म, दर्शन तथा अंतर्बाह्य आचार का अपनी टीकाकृतियों तथा मौलिक रचनाओं द्वारा रहस्योद्घाटन करने वाले, अलौकिक प्राध्यात्मिक जीवन जीने वाले, परमानन्द रस ने पिपामुत्रों को अध्यास्मामृत का पान कराने वाले आचार्य प्रमृतचन्द्र के जीवन का परिचय कराने हेतु अद्यावधि अनेक विद्वानों ने असमर्थता ही व्यक्त की है। इस असमर्थता का एकमात्र कारण उनकी लोकिक निस्पहता तथा मोक्षमार्ग रूढ़ अलौकिक जीवन है। उनकी निस्पहता और अलौकिक जीवन का सबसे प्रबल प्रमाण तो यह है कि उन्होंने जिन महान् ग्रंथों की टीकाएं
१. जैन साहित्य का इतिहास, भाग-2, पृष्ठ 183 । ३. "n about 904 A.D. wrote the works 'Purusartha Siddhyupaya' or Jina
Pravacana Rahasya Cosa, in 226 Sanskrit versess, Tattvarthasara, Tattvar diyika und commentaries on Kundokunda's works." (A History of Indian
Literature by Maurice winternitz. PH. D., Vol.-11, Page 584.) - ३. परमानन्दमुधारस पिपासिलानां हिताय भव्यानाम् ।
श्यिते प्रकटिततत्वा प्रवचनसारस्प व रिमरियम् ।।। प्रवचनकार तत्त्वप्रदीपिका ४. जनसाहित्य और इतिहास पं. नाथूराम प्रेमी पृ. ३०६, द्वितीय संस्करण ६५६
जैन साहित्य का इतिहास पं. कैलासचन्द्र शास्त्री, भाग २, पृष्ठ १७२ लघु तत्त्वस्फोट, प्रस्तावना पृष्ठ २ डा. पद्मनाभ जैन, (प्रोफेसर बुद्धदर्शन कलीफोनिया वकले विश्वविद्यालय)
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जीवन परिचय ]
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रची, उन ग्रंथों के प्रणेता आचार्य का ही न तो कहीं परिचय दिया है और न ही कोई उल्लेख किया है, बल्कि टीकाओं तथा मौलिक रचनाओं के कर्तृत्व का भार भी अपने ऊपर नहीं लिया है। उन्होंने अपनी समस्त कृतियों के अंत में कर्तापने का निषेध करने हेतु निजात्म स्वरूप में मग्नपना प्रगट करते हुए पद्य अवश्य रचे है । उन्होंने प्रत्येक ग्रंथ के अंत में जिन शब्दों में घोषणा की है, उनसे उनकी निस्पृहता तथा अलौकिक जीवन की एक झलक अवश्य मिल जाती है। "समयसार" की आत्मख्यातिकलश टीका के अंत में वे लिखते हैं कि अपनी शक्ति से वस्तुस्वरूप को प्रकाशित करने वाले शब्दों द्वारा समयसार की व्याख्या की गई है, निजात्मस्वरूप में मग्न अर्थात् स्वरूपगुप्त अमृतचन्द्रसूरि का इस टीका रचना में कुछ भी कर्त्तव्य ( कर्तृत्व ) नहीं है।' उक्त घोषणावाक्यों को उन्होंने पंचास्तिकाय ग्रंथ की टीका के अंत में दुहराया है। प्रवचनसार की तस्प्रदीपिका टीका के अंत में तो वे यहाँ तक लिखते हैं कि श्रात्मा सहित विश्वव्याख्येय ( समझाने योग्य) है, वाणी का गंधन व्याख्या ( समझाना ) है तथा श्रमृतचन्द्रसूरि व्याख्याता ( समझाने वाले ) हैं, इस प्रकार की मोहयुक्त मान्यता में, जगज्जनों, मत नाचो ( मत फुलो), किन्तु स्याद्वाद विद्या के बल से प्रादुर्भुत ज्ञानकला द्वारा इस संपूर्णशाश्वत स्वतत्त्व को प्राप्त करके प्राज श्रव्याकुल रूप से नाचो प्रर्थात् परमानन्दमय स्वरूप में मग्न होओ। इसी प्रकार मौलिक कृतियों तत्त्वार्थसार तथा पुरुषार्थसिद्ध युपाय के अंत में भी शास्त्रकर्तृत्व का निषेध करते हुए लिखा है कि अनेक प्रकार के अक्षरों से पत्र रचे गये हैं,
१. स्वशक्तिमूचितवस्तुतस्वव्याख्या कृतेयं समयस्य शब्दः । स्वरूप गुप्तस्य न किचिदस्ति कर्तव्य मे वाऽमृत चन्द्रसूरेः ॥ २७८ ॥
समयसार आत्मख्याति टीका, पृष्ठ ६०३ (सोनगढ़ १६६४ )
२. पंचास्तिकाय समयभ्याख्या, श्लोक, पृष्ठ २७०, सोनगढ १६६५ द्वितीय संस्करण |
३. व्याख्येयं किल विश्वमात्म महितं व्याख्या तु गुम्फे गिरां । व्याख्यातागृतचन्द्रसूरिरिति मा मोहाज्जनों वातु ॥
aerers विशुद्धबोधकलया स्थाद्वाद विद्याबलात् । लवकं सकलात्म शाश्वतमिदं स्वं तत्त्वमव्याकुलः ||२०|| (प्रवचनसार-तत्वप्रदीपिका टीका, ४१५ सोनगढ़, १९९४ )
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| आचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
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पदों से बने गये हैं और उन गायों से यह वित्रशास्त्र बनाया गया है, हमारे द्वारा कुछ भी नहीं किया गया है। "
इस प्रकार परमनिस्पृह् आचार्य अमृतचन्द्र ने लौकिक परिचय के रूप में कहीं भी अपने कुल, गुरु, निवासी, कार्यस्थल तथा समय आदि का उल्लेख नहीं किया है, बल्कि इस प्रकार के लौकिक उल्लेख को वे "मोह में नाचना" कहकर उसका निषेध करते है । वे अपना अलौकिक जीवन परिचय अवश्य यत्र तत्र अनेक बार अपनी कृतियों में देते हुए प्रतीत होते हैं, अतः आचार्य अमृतचन्द्र का जीवन परिचय कराने हेतु हमें दो दृष्टिकोणों से देखना होगा । इनमें प्रथम है उनका अलौकिक आध्यात्मिक जीवन परिचय, जिसके स्रोत उनकी ही कृतियों में प्रचुरमात्रा में उपलब्ध है | दूसरा है उनका लौकिक जीवनपरिचय, जिसके सूत्र उनके समवर्ती और परवर्ती विद्वानों, टीकाकारों एवं लेखकों की कृतियों में उपलब्ध उल्लेखों, पट्टाबलियों तथा विद्वानों के अभिमतों से प्राप्त होते हैं । प्रलौकिक जीवन परिचय :
सर्वप्रथम यहाँ उनके ही शब्दों में उनके अलौकिक जोवन का परिचय कराते हैं। इस अलौलिक परिचय से यह बात स्पष्ट अवश्य होगी कि मोक्षमार्ग में आरूढ़ हुआ आत्मा स्व का (अपना) किस प्रकार अवलोकन तथा अवधारण करता है । वह कैंसर जीवन जीता है । इन सभी का आचार्य अमृतचंद्र ने मर्मस्पर्शी चित्रण किया है। उससे उनके स्वयं के आध्यात्मिक जीवन पर भी पर्याप्त प्रकाश पड़ता है और मालूम पड़ता है कि वे अलौकिक जीवन में रम गये थे । ग्रन्थों की टोकाएं लिखना उनका मुख्य प्रयोजन नहीं था, किन्तु इस माध्यम से वे अपने स्वयं के जीवन को मनसा वाचा कर्मणा अनुस्मृत रखना चाहते थे । अतएव उन्होंने अपनी टीका-कृतियों में मोक्षमार्गारूढ़ प्रत्येक आत्मा को माध्यम बनाकर किस प्रकार से चित्रण किया है, उसका विवरण उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार है :- मैं कौन हूँ ? प्रश्न के उत्तर में आचार्य अमृतचन्द्र अपना परिचय देते हुए कहते हैं "यह मैं स्वसंवेदन प्रत्यक्ष,
१. वर्णैः कृतानि चित्र, पदानि तु पदेः कृतानि वाक्यानि ।
वाक्यः कृतं पवित्रं शास्त्रमिदं न पुनरस्माभिः ||
तत्त्वार्थसार, उपसंहार, श्लोक २३ तथा पु. सि. - पच २२६, पृष्ठ १६५ ( सोनगढ़ १६७४)
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से जीवन परिचय ]
[ ४७
दर्शनशान सामान्य स्वरूप आत्मा हूँ।"१ "मैं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान
और सम्यकचारित्र की एकता को प्राप्त हुआ है।"२ "इस लोक में मैं । स्वतः ही अपने एक आत्मस्वरूप का अनुभव करता हूँ वह स्वरूप सर्वतः
अपने निजरस रूप चैतन्य के परिणमन से पूर्ण भरे हुए स्वभाव वाला है,
इसलिए यह मोह मेरा कुछ नहीं लगता अर्थात् मोह से मेरा कोई भी । सम्बन्ध नहीं है । मैं तो शुद्धचैतन्य के समूह रूप तेजपुंज का खजाना हूँ।"3 I में चैतन्य ज्योति रूप आत्मा हू', में मेरे ही अनुभव से प्रत्यक्ष ज्ञात हूँ।
मैं ऐसा घिमात्र तेजपुज हूँ, जो अपने स्फुरणमात्र से ही विपुल महान, * चंचल-बिकल्पतरंगों के इन्द्रजाल को तत्क्षण उड़ा देता हूँ। मैं यह
(बनुभयगोचर ) टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक भाव हूँ। मैं ऐसा तेजमात्र हूँ, जो अखण्ड, एका, एकाकी, शांत और अचल है !" मेगालो नैना गुण है, उसके द्वारा मैं समान तथा असमानजातीय अन्य द्रव्य को छोड़ कर, मेरे मात्मा में ही प्रवर्तता हूँ और अपनी प्रात्मा को सकल, त्रिकालवर्ती प्रौव्यपने का धारक द्रव्य जानता हूँ। अनंतचैतन्यस्वरूप लक्षणवाली पात्मज्योति को हम निरन्तर अनुभव करते हैं। इस प्रकार
१. "एष स्वस बदन प्रत्यक्ष दर्शनशान सामान्यात्माह"
प्रवचनसार गाथा १ टीका, पृष्ठ ५ । २. सम्यग्दर्शन शानचारितक्यात्मककाम्यं गतोऽस्मि ।
प्रवचनसार गाथा ५ टीका, पुष्ठ ७ । ३ सर्वतः स्वरसनिर्भर भात्रं चेतये रवयमहं स्वमिहैकम् । नास्ति नास्ति मम कपवन मोहः शुद्धचिद्घन महोनिधि रस्मि ।।३०॥
समयसारकलश, आत्मख्याति टीका, पृष्ठ ७७ । ४. सिल्वहमात्मात्म प्रत्यक्ष चि मात्र ज्योति", समयसार गाथा ३८ टीका. प. ५० ५. इन्द्रजालमिदमेवमुच्छलत् पुष्कलोच्चलविकल्पवीचिभिः । यस्यविस्फुरगामेव तत्क्षणं कृत्स्नमवति तदस्मि चिन्महः ।।१।।
समयमार कलश, पृष्ठ २२१ । ६. "एष टंकोत्कीर्णेकशायकभावोऽहम्" समयसार गाथा १९८ टीका, पाष्ठ ३०४ । ७. तदस्मादखण्डमनिराकृतखंडमेक्रमेकांतशांतमचलं चिदहं महोऽस्मि ।
समयसार गाथा २७० टीका, पृष्ठ ५६७ । . मबीयंममनाम चैतन्यमहमनेन तेन समानजातीयमरामान जातीयं वा द्रव्यमान्यदपहाम ममात्मन्येव वतमानेनात्मीममात्मानं सकल त्रिकाल कलिन प्रौव्यं द्रब्यं जानामि ।
प्रवचनसार, गाभा टीका, पृष्ठ १२५ । १. "सतसमनुभवामोऽनंत चतन्यचिन्ह" समयसार कलश २०, पृष्ठ ५० ।
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४८ ]
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व। मैं कौन हूँ? प्रश्न के उत्तर द्वारा उन्होंने अपना परिचय कराया है, साथ ही "मैं कौन नहीं हूँ? का उत्तर देकर अपने परिचय को विशेष स्पष्ट किया है- यथा मैं आकाश द्रव्य नहीं हूँ', धर्म द्रव्य नहीं हू', अधर्मद्रव्य नहीं हूँ', काल द्रव्य नहीं हूँ, पुद्गल द्रव्य नहीं हूँ सथा निज प्रात्मा को छोड़कर अन्य अनंत आत्मा अर्थात् आत्मांतर मैं नहीं है।' पुनः निष्कर्ष रूप में अपना परिचय कराते हुए उन्होंने स्पष्ट घोषणा की है- मैं स्वयं साक्षात् धर्म स्वरूप हूँ।२ वीतराग चारित्र दशा में परिणत मेरा आत्मा स्वयं धर्म रूप होकर, समस्त विघ्नों का नाश कर सदाकाल निष्कम्प ही रहता है । 3 "मैं यह मोक्षाधिकारी है। ज्ञायक स्वभावी आत्मतत्व के परिज्ञानपूर्वक, ममत्व की त्याग रूप और निर्ममत्व की महण रूप विधि द्वारा सर्व आरम्भ (प्रयास) से शुद्धात्मा में प्रवृत्त होता ह', क्योंकि मेरे अन्यकृत्य का प्रभाव है । मैं स्वभाव से ज्ञायक हूँ। केवल ज्ञायक होने से मेरा समस्त पदार्थों के साथ भी सहज ही शेय-ज्ञायक लक्षण वाला सम्बन्ध है, किन्तु अन्य प्रकार का स्व-स्वामो लक्षण वाला सम्बन्ध नहीं है, इसलिये मेरा किसी के प्रति ममत्व नहीं है, मैं सर्वत्र निर्ममत्व स्वरूप हूँ। एक ज्ञायक भाव का समस्त ज्ञेयों को जानने का स्वभाव होने के कारण मेरा स्वभाव क्रमशः प्रयतमान अनंत भूतकालीन, वर्तमान तथा भविष्यकालीन विभिन्न पर्यायों के समूह वाले, गम्भोरअगाध स्वभाव वाले द्रव्यों को क्षणमात्र में प्रतिविम्बित करता है प्रथवा प्रत्यक्ष करता है तथा प्रत्यक्षीकृत द्रव्य ऐसे प्रतीत होते हैं मानों वे ज्ञायक स्वभाव में उत्कीर्ण हो गये हों, चित्रित हो गये हों, भीतर घुस गये हों, कीलित हो गये हों, डूब गये हों, समा गये हों, प्रतिविम्बित हो गये हों। प्रात्मा शायक और सकल द्रव्य ज्ञेय ऐसा ज्ञेय ज्ञायक-सम्बन्ध अनिवार्य है, उमे मिटाया नहीं जा सकता है, इसलिये पात्मा सकल ज्ञेयों की अपेक्षा विश्वरूपता को प्राप्त होता है. परन्तु अपनी स्वाभाविक अनंत शक्ति वाले ज्ञायक स्वभाव की अपेक्षा अपने एकत्वरूप को नहीं
१. नाहमाकाशं न धर्मो, नाधर्मो, न च कालो, न पुदगलो नात्मान्तरं च भवामि ।
प्रवचनसार, गाथा १० की टीका, पृष्ठ १२५ । २. "स्वयं साक्षाद्धर्म एवास्मि" । प्रवचनसार, गाथा १६ टीका, पृष्ठ १२६ । ३. वीतराग चारित्र सूश्रितायतारो ममायमारमा स्वयं धर्मो भूत्वा निरस्त प्रत्यू
हतया नित्यमेव निष्कम्प एवावतिष्ठते । प्रवचनसार, गाथा ६२ टीका, पृ. १३०
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जीवन परिचय ।
[ ४६ छोड़ता । अनादि संसार से ऐसी ही वस्तुस्थिति रही है, फिर भी मोही जीवों के द्वारा दूसरे रूप में ही आत्मा जाना, माना जाता है, परन्तु यह मैं मोह को उखाड़ फेंकना हुआ, प्रतिनिष्कम्र रहना हुया, अपने शुद्धात्मस्वरूप को जैसा का तैसा ही प्राप्त करता हु।' इस तरह आचार्य अमृतचन्द्र का परिचय उनके ही मार्मिक शब्दों में प्रगट हुआ है।
मोह विजेता अमृतचन्द्र ने अपनी कृतियों में अपने माता-पिता तथा अन्य सम्बन्धियों के विषय में कहीं भी किसी प्रकार का लौकिक परिचय नहीं दिया। लौकिला माता-पिता आदि समस्त सम्बन्धों को तो वे मात्र संयोग रूप से जानते थे, परन्तु उन्हें अपना कदापि नहीं मानते थे। उन्हें अपना मानना मोहो जीवों का काम है, मोह विजेताओं का नहीं। मोह विजेताओं को माता-पिता तथा अन्य परिवार के सम्बन्ध सभी अलौकिक ही होते हैं। ऐसे अलौकिक परिवार का परिचय आचार्य अमृतचन्द्र ने अवश्य कराया है। साथ ही लौकिक परिवार को अपना मानने का निषेध किया है, कारण कि वे स्व-पर के भेदज्ञान वाले तथा मोह को जीतने वाले थे। इस बात की पुष्टि उनके निम्न शब्दों से होती है। वे लिखते हैं- मैंने मोह की सेना पर विजय प्राप्त करने को कमर कस ली है। मैंने मोह की सेना को जीतने का उपाय पा लिया है।'
१. अहमष मोनाधिकारी ज्ञायकस्वभावात्मनत्व परिज्ञान पुरस्मा ममत्व निर्ममत्व
हालोपादान विधानेन कृत्यान्न रस्याभावात् सर्वारम्भेग] शुद्धात्मनि प्रवत अहं हि तावत् ज्ञायक एव स्वभावन, वेवलज्ञायकस्य व सतो मम विश्नेनापि सहज जे यज़ायक लक्षण एवं सम्बन्धः न पुनम्ये स्वस्वामि लक्षणादयः सम्बयाः । ततो मम न वचनापि ममत्वं सर्वत्र निर्ममत्वमेव । अर्थ कस्य ज्ञायकमानल्म ममस्तज्ञयभावस्वभावत्वात प्रीत्कीर्ण-लिखित निरवात-कीलितमजिजत-समतित-प्रतिविम्बितवत् तत्र मप्रवृतानंतभूत भवावि विचित्रपयाय प्राम्भार मगाध-स्वभावं गंभीर समस्तमपि द्रव्यजातमक अगए व प्रत्यक्षयन्त जे पजावक लक्षगा-सम्बन्धस्यानिवायत्वेनाशक्य दिनेचनस्वादुपात्त वैभवमप्यमापि सहजानन्तशकि-जावकर वभावेगक्य रूप्य मनुस्मन्तगासंसार मनयन स्थित्या स्थित मोहेनान्यथा-व्यवस्यमानं शुद्धात्मानमष मोहमुखाय यथावस्थित
मेर्वाति निष्पकम्पः संप्रतिपय । प्रवचनसार, गाथा २०० टीका, पृष्ठ ३०३-३०४ २. "मया मोहवाहिनी विजयार बड़ा कक्षेयम"
प्रवचनसार, गाथा ७६ टीका, पृष्ट ११२ ३. "लब्धोमया मोहवाहिनी विजयोपायः ।"
प्रवधनसार, गाथा ६० टीका, पृष्ठ ११२
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५० J
| आचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
मुभं मोह नहीं है, स्व-पर का विभाग है ।' लौकिक परिवार ममकार निषेध करते हुए है कि बिते हैं- "अहो इस पुरुष के शरीर (अर्थात् मेरो आत्मा से सम्बन्धित शरीर ) के जनक- पिता के आत्मा तथा इस पुरुष के शरीर की जननी माता के आत्मा, इस पुरुष का ( मेरा ) श्रात्मा तुम्हारे द्वारा जनित ( उत्पन्न किया हुआ) नहीं हैं, ऐसा तुम निश्चय से जानो। जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह ( मेरा ) आत्मा आज आत्मारूपी अपने अनादि जनक के पास जा रहा है ।" "अहो इस पुरुष के ( मेरी आत्मा से सम्बन्धित ) शरीर की रमणो (पत्नी) के श्रात्मा, तू इस पुरुष के आत्मा को रमण नहीं कराना, ऐसा तू निश्चय से जान । ज्ञान ज्योति प्रगदित ( मेरा ) यह ग्रात्मा श्राज अपनी स्वानुभूतिरूपी अनादि रमणी (पत्नी) के पास जा रहा है । ३ अहो, इस पुरुष के शरीर के पुत्र के आत्मा, तू इस पुरुष ( मेरे आत्मा) का पुत्र नहीं है ऐसा तू निश्चय से जान । ज्ञानज्योति उदित ( मेरा ) यह आत्मा ग्राज आत्मारूपी अनादि पुत्र के पास जा रहा है ।" "अहो इस पुरुष के शरीर के बन्धुवर्ग में प्रवर्तमान आत्माओं ! इस पुरुष का ( मेरा ) आत्मा किचित् मात्र भी तुम्हारा नहीं है, इस प्रकार तुम निश्चय में जानो । ज्ञानज्योति उदित यह (मेरा ) आत्मा आज अपने ग्रात्मारूपी अनादि बन्धु के पास जा रहा है।""
—
१.
नाति में मोहोऽस्ति स्त्र पर विभागः । "
7
प्रवचनसार, गाथा १५४ टीका, पृष्ठ २५० २. "अहो इदं जनशरीरजनकस्यात्मन् श्रहो इवं जनमरीर जनन्या श्रात्मत् । अस्य जनस्यात्मा न युवाभ्यां जनितो भवतीति निश्चयेन युवां जानीतं । अयमात्मा अद्योभिनज्ञानज्योतिः श्रात्मान देवात्मनोऽनादि जनकमुपसर्पति ।" प्रवचनसार गाथा २०२ टीका, पृष्ठ ३०६ श्रस्य जनस्थात्मानं न त्वं रमयस- इति प्रद्योद् भिन्नज्ञानज्योतिः स्वानुभूतिमेवावहीं, गाथा २०२ टीका, पृष्ठ ३०६-३१० ग्रस्य जनस्यात्मनो न त्वं जन्मो भवमीति निश्वयेन त्वं जानीहि । श्रयमात्मा श्रोदुभिन्न ज्ञानज्योतिः श्रात्मानमेवात्मनोअनादि जन्यमुपसर्पति ।"
वहीं, गाया २०२, पृष्ठ ३१०
५. अहो इदं जनशरीर बन्धुवर्गवर्तन प्रात्मानः गुष्माकं भवतीति निश्चयेन यूयं जानीत श्रात्मानमेवात्मनोऽनादि बन्धुमुपसर्पति । प्रवचनसार, गाथा २०२ टीका,
अस्य जनस्यात्मा न किंचनापि श्रयमात्मा अद्योविज्ञानज्योतिः
३. "अहो इदं जनशरीर रमण्या आत्मन् निश्चयेन त्वं जानीहि । अयमात्मा मनांनादि रमणीमुपसर्पति ।" ४. ग्रहो इदं जनशरीर पुत्रस्यात्मन्
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पू. ३१०
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जीवन परिचय ]
[ ५१ इस प्रकार आचार्य प्रमतचन्द्र ने लौकिक रिसर से भिन अलौकिक परिवार का परिचय कराया है। इस अलौकिक परिवार में आत्मा ही सब कुछ है, वहीं पिता है, माता है, पत्नी है, पुत्र तथा बन्धुवर्ग आदि भी बहीं है । भेदज्ञानज्योति सम्पन्न आत्मा सदाकाल अपने लिए परद्रव्यों से भिन्न अकेला ही अनुभव करता है। अमृतचन्द्र ने भी इसका उल्लेख करते हुए लिखा है कि आत्म तत्व का समस्त द्रव्यों से कोई भी सम्बन्ध नहीं है।" आत्मा भूतकाल तथा बर्तमानकाल में सर्वथा अकेला था एवं प्रोला है। भूतकाल में पौद्गलिक कर्मबन्धन रूप उपाधि की सन्निधि से मलिनभाव रूप से मेरा परिणमन होना था। जिस प्रकार स्फटिकमणि जपाकुसुम की सन्निधि में मलिन परिणमन करता है, उसा प्रकार अज्ञानदशा में मेरा आत्मा मलिन होता है, मलिन था, उस समय भी श्रात्मा अकेला था। अकेला कर्ता था, क्योंकि अकेला ही उपरक्त (मलिन) चैतन्यस्वभाव रूप परिणमित होने के स्वभाव के कारण मात्मा से प्राप्य था । अकेला ही सुख-विपरीत लक्षण बाला दुःखरूाकर्मफल था। वह भी मलिन चैतन्य स्वभाव से ही उत्पन्न किया जाता था। अब वर्तमान में कमोपाधि की निकटता का नाश होने से मुविशुद्ध सहज स्वपरणति प्रगट हुई ... "अभी भी आत्मा का कोई भी नहीं है। आत्मा अकेला ही कर्ता, कर्म, करण आदि है। इस तरह बन्धमार्ग तथा मोक्षमार्ग में प्रात्मा अकेला ही है। इस तरह स्व में निजत्व तथा पर से भिन्नत्व निश्चित करते हुए आचार्य अमृत चन्द्र "शरीर-मन तथा वाणी
१. "नास्ति सोऽपि सम्बन्धाः परद्रव्यात्मतत्त्वयोः" रामयसार करनश २००. प. १७१ २. यदा नामानादि प्रसिद्ध पौद्गलिंक कर्मबन्धनोपानि निश्त्रि प्रधावितोपरांगरं
जितात्मबत्तिजपापुष्ण मंनिधिप्रधावतोपराम रंजितात्मयत्तिः स्फटिकमाणरिव परारोपित विकारोऽहमागम । मंसारी नदापि न नाम मम वोग्यासीत । तदाप्प हमेक एबोपरक चिरस्वभावेन स्वतन्य काहि । अहमेक एवोपरक्त विस्वभाबेन गाधकतमः कारगणमासम। ग्रहमक एकोपरक्त चितारिशमन स्वभावेनात्मना प्रायः कर्मामम् । अहह्मक एव चोपरक्त चित्रगमन स्त्रमावस्य निष्पाद्य सौख्यं विपर्यस्तलक्षण दुखाख्यं क्रम पलमासम् ।
प्रवचनगार गाथा १२६ रोका, पृष्ठ २०५-२०६ ३. इदानीमपि न नाम मय कोप्यस्ति, इदानीमप्य हमेव एवं सुविशुद्धचित्स्वभावेन स्वतन्त्रः कर्तास्मि " कारगास्मि""कर्मास्मि ।
प्रवचनसार गाथा १२६ टीका, पृष्ट २०६
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५२ ]
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
को भी परद्रव्य जानकर उनसे भी पश्चपात न करते हुए अत्यन्त मध्यस्थ होते हैं। वे सदाकाल एक ही व्यापार-उद्यम में लगे रहते हैं- वह है शुद्धात्मद्रव्य में प्रवृत्ति करना । वे इस सम्बन्ध में स्वयं लिखते हैं :"इस प्रकार ज्ञेयतत्त्व को समझाने बाले जन-तत्त्वज्ञान में विशाल शब्दब्रा में सम्यक्तमा मा हुन कसे हम मात्र शुद्धात्म द्रव्य रूप एक ही परणतिवृत्ति से सदाकाल युक्त रहते हैं।"२ "समस्त कषायक्लेश रूपी कलंक से भिन्न होने से निर्वाणप्राप्ति के कारण वीतराग चारित्र रूप साम्य को प्राप्त होते हैं। वे इस वीतरागचारित्रको चिन्तामणि रत्न की तरह समझकर प्रमादरूपो चोरों से सावधान रहते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र अन्ततः यह उदघोषणा करते हैं कि जिस प्रकार दुःखों से मुक्त होने के इच्छुक मेरे प्रात्मा ने अर्हतों सिद्धों प्राचार्यों उपाध्यायों तथा साधुओं को प्रणाम कर विशुद्ध दर्शन ज्ञान प्रधान साम्यनामक धामण्य को अंगीकार किया है, उसी प्रकार दूसरे आत्मा भो यदि दुःख मुक्त होना चाहते हैं तो उस साम्यरूप श्रामण्यपने को अंगीकार करें। उसका जो यथानभूत मार्ग है, उसके प्रणेता हम स्वयं खड़े हुए हैं। इस निर्वाण का अन्य कोई मार्ग नहीं है यह सुनिश्चित है, अधिक प्रलाप से क्या प्रयोजन है। मेरी मति-व्यवस्थित हो गई है।
१. शरीरं च वाचं च मनश्च परद्रव्यत्वेनाहं प्रपद्य ततो न तेषु कश्विदपि मम पक्षपातो ऽस्ति । सर्वत्राप्यमत्यन्तं मध्यस्योऽस्मि ।
प्रवचनसार गाथा १६०, पृष्ट २५५ २. जन-ज्ञान ज्ञचतत्वप्रणेतृ, स्फीतं शब्दब्रह्मसम्यग्विगाए । - संशुद्धाल्पव्य भावकवृत्या, नित्वंयुक्त स्थीयतेऽस्माभिरेवम् ॥१०॥
प्रवचनसार माथा २०० टीका, पृष्ठ ३०४ ३. "सकलकषायकलिकाल क विविस्तया निर्माण संप्राप्तिहेतुभूतं श्रीतराग चारित्रा. स्य साम्यमुपसंपा।" प्रनवसार गाया ५ टीका, पृष्ठ ६ ४. अर्थन प्राप्तचिंतामरिगरपि प्रमादो दस्युरिति जागति । वही, गाथा५१, पृ.११३ ५. यथा ममात्मना दुख मोक्षार्थिना..." अहत्सिद्धाचार्योपाध्यायसाधुनां प्रगति
वन्दनात्मकनमस्कारपुरम्गरं विशुद्धदर्शनज्ञान प्रधानं साम्यनाम् श्रामण्यमवान्तर प्रध संदर्भ भय संभावित सौस्थित्यं स्वयं प्रतिपन्नम् । परेषामपि यदि दुखमोक्षायीं तथा नत्प्रतिपद्यतां यथानुभूतस्य तत्प्रतिपत्तिः वमना प्रणेतारो अयमिमे तिष्ठामीति ।
प्रबचनसार गाथा २०१ टीका, पृष्ठ ३०५ ६. सतो नान्यद्वम निर्वाधस्येत्यवधार्यते । प्रप्तमथवा प्रलपितेन । व्यबस्थिता
मतिर्मम । वहीं गाथा ६२. पृष्ठ ११६
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जीवन परिचय ]
[ ५३
इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्र ने अपनी व्यवस्थित मति द्वारा अपना अलौकिक एवं व्यवस्थित परिचय दिया है। उन्होंने अपने ग्रन्थों मेंअपना अलौकिक परिचा तो गम व दिर है परन्तु लौकिक परिचय के विषय में वे सर्वत्र मौन ही रहे हैं फिर भी यहां उनके लौकिक जीवन का भी ग्रथमम्भव परिचय कराया जाता है ।
लौकिक जीवन परिचय नामोल्लेख स्वयं द्वारा -- प्राचार्य अमृतचन्द्र 'अमृत चन्द्रमूरि' नाम से ही विख्यात थे, यह बात उनकी ही टीकाओं तथा अन्य कृतियों से ज्ञात होता है। समयमार की आत्मख्याति', प्रवचनसार को तत्त्वप्रदीपिका', पंचास्तिकाय की समयव्याख्या नामक टीकाओं तथा नधुतत्त्वस्फोट नामक कृति के अन्त में अमृतचन्द्रसरि नाम का प्रयोग मिलता है। तत्वप्रदीपिका में उनके उक्त नाम के पूर्व व्याख्याता तथा लघुतत्त्वस्फोटः में उनके नाम के पश्चात् कबोन्द्र विशेषण भी प्रयुक्त है जिनसे उनके विख्यात व्यक्तित्व की झलक भी मिलती है।
नामोल्लेख परवर्ती लेखकों द्वारा -- उनके उक्त नाम का उल्लेख अमृतचन्द्र के परवर्ती आचार्यो, भट्टारकों तथा विद्वानों ने विभिन्न विशेषणों के साथ किया है। कुछ विद्वानों ने उनके पर्यायवाची नामों का प्रयोग किया हैं। आचार्य पदमप्रभमलधारी देव ने तो नियमसार की
१. स्वरूपगुप्तस्य न निदस्ति, कर्नव्यमवाऽमृतचन्द्रसूरेः । समयसार कलम, २७८ २ याच्यातामनचन्द्रमुरिरिति मा मोहाज्जनों बल्गनु ।' प्रवचनसार नवनदी
पिका दीका प नं० २१ पृष्ठ ५३४, (वी. सत्माहित्य प्रसारक ट्रस्ट भावनगर,
वि. सं. २०३२, तृतीयावृत्ति) ३. "इनि श्री पंचास्तिकापव्याख्यायां थीमदमृतचन्द्रभूरिविरचितायां "...द्वितीय
स्कंधः समाप्तः।" (चास्तिकाय ममय व्याख्या टीका, पष्ठ २५५ बम्बई-द्वितीय
संस्वारगा १६०४ ई.) तथा प्रतिम पद्य नं. ८ "कर्तव मेनाऽमृतचन्द्रसूरेः' ४. "मे भावयन्ति विकलार्थवती जिनानां नामावलीमपृतचन्द्रचिदेकपीताम् ।'
लय तन्यस्फोट, पद्य २५ ५. प्रवचनसार, तत्वप्रदीपिका टीका पद्य नं. २१, पूर ५३४ ६. "आस्वादयत्वमृतचन्द्रकवीन्द्र एवं"........' (ला तत्त्वस्फोटः, अध्याय २५,
पञ्च २४)
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५४ ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व टीका में उक्त नाम का पन्द्रह बार प्रयोग किया है । उन्होंने "तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः"५ लिखकर उनके अन्थों से उद्धरण प्रस्तुत किये हैं।
पं० आशाधरजी (तेरहवीं विक्रम सदी) ने "ठक्कुरामृतचन्द्रसूरि"२ नाम का उल्लेख किया है। उन्होंने अमृतचन्द्र के लिए ठवकर तथा सरि उपगविटोमणों का पायोग किया है। इससे यह बात तो प्रमाणित हो ही जाती है कि प्राचायं अमृतचन्द्र की ख्याति परवर्ती ग्रन्थकारों में अत्यधिक सम्माननीय पद पर थी।
___ भट्टारक शुभचन्द्र (सोलहवीं विक्रम सदी) ने अमृतचन्द्र के लिए ''सुधाचन्द्रमुनि" शब्द से व्यवहृत किया है, साथ ही उन्हें विपक्षविजेता, समस्त शिष्यवर्ग के पालक, निजस्वतत्त्ववेत्ता, अनेक जीवों को सम्बोधितकर्ता तथा यतीश विशेषणों से समलंकृत किया है। उन्होंने एक स्थल पर अमृत चन्द्र का "अमृतविघुमतीश" नाम भी लिखा है।
पण्डित वृन्दावनदास (विक्रम अठारहवीं सदी) ने उन्हें अमृतचन्द्र तथा पं० दौलतराम (वि. सं. १८२६) ने "अमृतचन्द्रमुनीद्र" नाम का प्रयोग किया है तथा पं. भूधरदास (वि.सं. १८२०-१८८६) ने पार्श्वपुराण में "अमृतचन्द्रमुनिराज"७ नाम लिखा है। पं. जयचन्द (वि. सं. १८२०-१८८६) ने अमृतचन्द्र को "सुधाचन्द्रसूरि"८ और पं. वृन्दाबनदास (वि० १८८०) ने "अमीइन्दु" नाम से स्मरण किया है। श्री --..-.-.-..... १. नियमसार गाथा ७, १९, २४, ४०, ४२, ४४, ४६, ५० ५५, ६२, ८३, ६९,
१०७, १५६, १७८ इत्यादि की टीकाएं। २. अनगार धर्मामृत, भव्यकुमुद चन्द्रिका टीका, पृष्ठ १६० तथा ५८८ ३. परमाध्यात्मतरंगिणी, मंगलाचरण पा २ ४. वहीं. अंतिम प्रशस्ति, पद्य, पृष्ठ २३५ ५. प्रवचनसार परमागम (पद्य), पृष्ठ ६ तथा २३८ ब्र. दुलीचन्द्र ग्रंथमाला सन
१९७४ ६. पुरुषार्थ मिद्धयुपाय अंतिम प्रशास्ति, पष्ठ १६५. (सोनगढ़ १६७२) ७. पापपुराण, पृष्ठ ७२-७३ वी, नि. २४३४ ८, परमाध्यात्म तर गिरणी, अंतिम प्रशस्ति पृष्ठ २३४ ६. गुरुदेव अमीइन्दु ने तिनकी करी टीका । झरता है निजानंद अमीबन्द सरीका ।। १६ ।।
वुहृद् जिनवाणी संग्रह, पृष्ठ १८६
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जीवन परिचय ]
[ ५५ एच. डी. बेलकर ने पीटर्सन रिपोर्ट के पृष्ठ १६१ पर उन्हें “अमयं चन्देणसूरी हिं"१ शब्द का प्रयोग किया है जो अमृतचन्द्रसूरि का ही द्योतक है। मराठी टीकाकार श्रीकृष्णाजी नारायण जोगी ने अमृतचन्द्र को 'पीयूषचन्द्रसूरि' लिखा है। वर्तमान मुनि सूर्यसागर ने उन्हें "मुनिवृषभ अमृतन्द्राचार्य" नाम से स्मरण किया है। पं. पन्नालाल साहित्याचार्य ने उन्हें 'अमृतेन्दु"४ तथा पं. फूलचन्द सिद्धान्ताचार्य ने ''श्रीमदाचार्यवर अमृतचन्द्रदेव"५ नाम से उल्लेख किया है । पं. मक्खनलाल शास्त्री ने प्रकृत आचार्य को "श्रीमन्महामहिम अमृतचन्द्रसूरिवयं" लिखकर अपनी आस्था ब्यक्त की है तथा उनकी कृति पुरुषार्थ सिद्धाय की वृहद् हिन्दी टीका लिखी है ।' पं. के. भुजवलि शास्त्री ने अमृत नन्द्र को "अमृतनन्दि" नाम से भी उल्लिखित किया है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि उपर्युक्त समस्त नामों से प्रकृत आचार्य का नाम अमृतचन्द्र ही अभिव्यक्त होता है जो सूरि विशेषण से विशेषतः दि..रहे है . विभिनाया था लेखकों ने श्रीमदमृतचन्द्रमूरि, उक्कुरअमृत चन्द्रसूरि, सुंधाचन्द्रमुनि, अमृतबिधुयतीश, अमृतचन्द्र मुनिराज, सुधाचन्द्रसरि, अमीइन्द्र, अमयंचन्द्रसरि, पीयुषचन्द्रसरि. अमृतेन्दु, श्रीमदाचार्यवर, अमृतचन्द्रदेव, अमृतनंदि इत्यादि नामों द्वारा प्रकृत अमृतचन्द्र को ही याद किया है । इन नामों श्रीमद्, सूरि, ठकुर, मुनि, यतीशमुनीन्द्र, मुनिराज, प्राचार्थवर, देव आदि शब्द अमृतचन्द्र के व्यक्तित्व के द्योतक हैं । इन में सुधा, अमी, अमयं तथा पीयूष ये सभी शब्द "अमृत" पद के
१. जि. र. को, एच. डी. वेलंकर २. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, अंतिम पद्य २२७, श्री कृष्णाजी भारायण जोशी कृत
मराठी टीका । ३. निजान दमार्तण्ड, हिन्दी भाषा टोका, पृष्ठ ५ प्रस्तावना । ४. तत्त्वार्थसार, अंतिमप्रशस्ति, पं. पन्नालाल कृत । ५. नमवसार कलश मुखपष्ट पं. फूलचन्द्र शास्त्री) ६. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, पं. मक्खनलाल मुखपृष्ठ. । ५. कन्नडपत्रीय ताडात्रीय वध सूची, के भुजवलि शास्त्री, प्रस्तावना पुष्ठ १५
प्रथम मरकरण १९४८. (इसमें सथ मं. ५.३५ पबयणसार प्राचार्य कोण्डकून्द तथा प्राचार्य अमृत विकृत तत्वदीपिका नामक संस्कृतवृत्ति भी है ।) ये अमृतनंदि प्राचार्य अमृतचन्द्र ही हैं ।
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५६ ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
पर्यायवाची हैं तथा विधु, इन्दु, तथा चन्द ये 'चन्द्र" पद के बाचक होने से प्रकृत्त प्राचार्य का वास्तविक नाम "अमृतचन्द्र" ही प्रमाणित होता है। साथ ही वे आचार्य पद से विभूषित होने से "आचार्यअमृतचन्द्र" कहलाते हैं।
प्रकृत अमृतचन्द्र से भिन्न अमृतचन्द्र नामधारी मारक- प्रकृत आचार्य अमृतचन्द्र से भिन्न "अमृतचन्द्र" नामधारी एक भट्टारक भी हुए हैं ! इन भट्टारक अमृत चन्द्र के गुरु (वि. बारहवीं शती के) मलधारी माधवचन्द्र थे । वे विहार करते हुए बांभणवाड़ा नामक नगर में पाये थे, जिनकी प्रेरणा से कविवर सिंह (सिद्धकधि) ने "पज्जपणचरिऊ" (प्रदुम्नचरित) काव्य की रचना की थी।' इस बात की पुष्टि ५० परमानन्द शास्त्री ने भी की है। वे लिखते हैं कि कविवर सिंह के गुरु मुनिपुगव, भट्टारका अनृसचन्द्र थे, जो तप-तारूपी दिवाकर और व्रत नियम तथा शोल के रत्नाकर थे। प्रस्तुत भट्टारक अमृतचन्द्र उन प्राचार्य अमृतचन्द्र से भिन्न हैं जो कुन्दकुन्दाचार्य के समय सारादि प्राभतश्य के संस्कृत टीकाकार हैं और पुरुषार्थ सिद्धयुपाय आदि ग्रन्थों के रचयिता हैं। वे लोक में ठक्कूर उपनाम से प्रसिद्ध रहे हैं। पं. मुन्नालाल राघेलीय', न. गुलाबचन्द तथा न. पंडिता सुमतिबाई शहाँ ने भट्टारक अमृतचन्द्र को हो कुन्दकुन्द के टीकाकार (प्रकृत) अमृतचन्द्र माना है जो उपयुक्त प्रमाणों से असिद्ध है। हमारे आलोच्य आचार्य अमृतचन्द्र तथा मलघारीमाधवचंद्र के शिष्य भट्टारक अमृतचन्द्र में भिन्नता है। प्रकृत आचार्य अमृतचन्द्र कुन्दकुन्द्राचार्य के प्राभूतत्रय (समयसार, प्रवचनसार एवं पंचास्तिकाय ग्रन्यों) के असाधारण, अद्वितीय एवं सर्वप्रथम टीकाकार हुए हैं जिन्होंने प्रत्येक टीका के अन्त में अपने लिये "स्वरूपगुप्त अमृतचन्द्र'' ६ लिखा है।
१. जनसाहित्य और इतिहास, द्वितीय संरकरण. पं, नाथूरामप्रेमी, पृष्ठ ३१० २. जैनधर्म का प्राचीन इतिहास, भाग-२, पृष्ठ ३४९ तथा जन ग्रन्थ शस्ति संग्रह
'भाग-२. प्रस्तावना पृष्ठ ७४ ३. पुरुषार्थ मिन युपाय, भावग्रकाशिनी टीवा प्र. पृष्ठ १० ४. सम्मतिमन्देश, वर्ष १३, अंक ८, अगस्त १९६८, पृष्ठ २७ ५. पूर्णार्य जिनज्ञानकोश), वीर निर्वाण सम्बत २५०४, पृष्ठ २०० ६. "स्वरूपगुप्तस्य न किंचिदस्ति, कर्तव्यमेवामृत चन्द्र सूरेः ।" समयसार (पाल्म
ख्याति कलश टीका), प्रवचनसार (तत्त्वप्रदीपिका टीक) तथा पंपास्तिकाय (ममयच्याझ्या टोका का अन्तिम पद्य) ।
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जीवन परिचय ]
[ ५७
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आचार्य श्रमतचन्द्र का पद एवं व्यक्तित्व प्रकृत अमृतचन्द्र "प्राचार्य" पद पर प्रतिष्ठित, एवं प्रख्यात रहे हैं । आचार्य पद उनके गौरवपूर्ण पद एवं व्यक्तित्व का द्योतक है। श्रमणपरम्परा या जनदर्शन में पांच पद सर्वश्रेष्ठ माने गये है। वे हे अहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा साथ । इन पांचो को "पंचपरमेष्ठी" पद से जाना जाता है। प्राचार्य पद साधु और उपाध्याय पदों से भी अधिक गौरवशाली, महत्त्वपूर्ण तथा उच्चतर माध्यात्मिक विकास का प्रतीक है । अमृतचन्द्र का व्यक्तित्व इतना महान था कि प्राचार्य के अतिरिक्त अन्य अनेक पदवियों से भी वे सुशोभित थे । जिनमें से सरि, व्याख्याता, कवीन्द्र इत्यादि पदवियों का उल्लेख तो स्वयं अमृतचन्द्र द्वारा उनको ही कृतियों में प्रसंगोपात्त सहज हुआ है।।
"सरि" पद का प्रयोग दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों जैन सम्प्रदायों में अपने विशेष प्रभावशाली गुरुओं (साघु तथा पाचायों) के नाम के अंत में प्रयत्तः होता रहा है। दिगम्बरों में भट्टारकों के नाम के अंत . में भी सूरि पद का प्रयोग मिलता है। श्रतसागर भद्रारक के नाम के साथ उक्त सूरि पद का प्रयोग हुआ है। उन्होंने अपने को श्रुतसागरसूरि नाम से प्रकट किया है। जैन श्वेताम्बर आचार्यों के नामांत में "सूरि" पद का प्रयोग विशेष प्रचलित रहा है। डॉ. पी. एल. वैद्य ने उक्त बात का उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट होता है कि प्राचार्य अमृतचन्द्र दिगम्बरों में तो लब्धप्रतिष्ठ थे ही, साथ ही श्वेताम्बरों तथा भद्रारकों के बीच भी उनका प्रभाव था । यही कारण है कि आचार्य प्रमतचन्द्र की अद्यावधि प्रज्ञात, असाधारण कृति अहमदाबद के श्वेताम्बर जैन मन्दिर के डेलाशास्त्रमण्डार में श्वेताम्बर मुनि पुण्यविजय जी को प्राप्त हुई है। उक्त कृति ताड़पत्रों पर अंकित हैं। कृति का नाम "लधुतत्त्वस्फोटः" अपरनाम 'शक्तिमणित कोश' है।
१. अष्टपाहुड़, श्रुतसागरसूरि चुत मंस्कृत टीका, संपादक पं. पन्नालाल जी,
प्रस्तावना पाठ १४ ''यहाँ पर बलसागर ने अपने को सुरि तो लिखा है, परन्तु यहाँ सूरि का अर्ध दिगम्बर याचार्य नहीं है अपितु भदटारक हैं क्योंकि
श्रुतसागर स्वयं भटदारक थे।" २. "दिगम्बर थी अपने मुध्य साधुओं को 'भट्टारक" नाम से पुकारते थे और
श्वेताम्बर उसके बदले "सूर" शब्द का प्रयोग करते थे।" जैन धर्म प्रारिंग
वाल मथ, डॉ. परशुराम लक्ष्मण वैद्य-पृष्ट ५७ ३. प्रा, शांतिसागरजी जन्माताबिद स्मृतिनथ, द्वितीय भाग पृष्ठ २२३ डॉ.
पदमनाम श्रीवर्मा जैनी प्रोफेसर कैलीफोनिया पूनिसिटी, यू. एस. ए. का "श्री जिननामावलि' शीर्षक लेखे ।
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[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व "व्याख्याता" पद प्राचार्य अमृतचन्द्र के सफलतम, प्रौढ़तम एवं कुशलतम व्याख्याकार अथवा भाष्यकार होने की घोषणा करता है। वे कुन्दकुन्दाचार्य के कलिकाल सर्वज्ञतल्य, अर्थगांभीर्ययक्त सूत्रों का गूढ़तम अद्घिाटन तथा मर्म प्रकट करने के लिए कलिकालगणधर तुल्य व्याख्याकार थे । इसीलिए कुछ विद्वानों ने कुन्दकुन्द को कलिकालसर्वज्ञ' तथा अमृचन्द्र को कलिकालगण घर' कहकर उनके महत्त्व एवं व्यक्तित्व को व्यक्त किया है अतः व्याख्याता पद अमृतचद्रसूरि को ही उपयुक्त एवं शोभास्पद प्रतीत होता है।
कवीन्द्र" विशेषण उनके सिद्धहस्त तथा लब्धप्रतिष्ठ कवि श्रेष्ठ होने का परिचायक है। उनकी कृतियों में गंभीरतम एवं प्रौढ़तम कवित्व छलकता है। भाषा, अलंकार लथा छंद, आत्मान भूति की प्रबलता तथा भावाभिव्यक्ति की तीव्रता में सहज ही प्रस्फुटित हो गये हैं। प्राभूतत्रय टीकयों में, विशेषतः समयसार की प्रात्मख्याति टीका में भावाभिव्यक्ति की तीव्रता के कारण ही गद्य धारा कहीं कहीं पयवारा का रूप धारण करती है। "लघत्त्वस्फोट" काव्य में उनकी कविप्रतिभा का चरमोत्कर्ष देखते ही बनता है अतः उक्त कवीन्द्र पद भी अमृतचन्द्र के व्यक्तित्व का समुचित प्रकाशक है। रावजी नेमचन्द शहा ने आचार्य अमृतचन्द्र को कवीन्द्र ही नहीं बल्कि 'अल मुखकवोन्द्र" कहा है।
प्रा. अमृतचन्द्र की स्वरचित कृतियों में प्राप्त उपयुक्त पदों के अतिरिक्त, उनके परवर्ती आचार्यों, विद्वानों तथा टीकाकारों ने भी अमृत चन्द्र को यतीश, अध्यात्ममातंगड मुनि, मुनिराज, ठक्कुर आदि अनेक विशेषणों से विभूषित किया है जिससे अमृतचंद्र के बहुमुखो व्यक्तित्व पर स्पष्टत: प्रकाश पड़ता है। हिन्दो टीकाकार पं. दौलतराम ने
१. "कलिकालसर्वजन विचिने षट्प्राभूत न थे......." | मष्टपाहुड श्रुतसागर
मुरिकृत दीका पृष्ठ ५६४ २. पुरुषार्थ मिजबुताय (मराठी अनुवादक अज्ञात) प्रथमायत्ति, १९२८ ई. के
मुखपृष्ठ पर 'मूललेखक कलिकाल गणधर श्रीमदमृतचन्द्रमूरि" शब्दो का
उल्लेख है। ३. पुरुषाध सिद्धयुपाय (मराठा अनुवाद) प्रस्तावना पृष्ठ १२ ४. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, पंचादक, विद्याकुमार सेठी, (शुभार्शीर्वाद)
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जीवन परिचय ]
अमृतचन्द्र को "मुनीन्द्र" शब्द से संबोधित किया है। नत्वार्थसार के हिन्दी टोकाकार, पं. पन्नालाल साहित्याचार्य ने तो अमृतचन्द्र को सरि हो नहीं, "महासरि तथा नानानयविशारद लिखकर उनको गरिमा तथा महिमा को दायिा है। इस प्रकार आचार्य अमतचन्द्र अत्यंत उच्च पद पर प्रतिष्ठित तथा असाधारण व्यक्तित्व से सुशोभित थे ।
अमृतचन्द्र का कुल अनेकांत स्वरूप आनंदामन का पान करने वाले, परमानन्द रूप अमृत रस के पिपासुओं को अध्यात्मामृत का पान कराने वाले, भव्यजीवों के हितकारी आत्रायं अमृतचन्द्र ने कहीं भी अपनी कृतियों में अपना लौकिक धरिचय नहीं दिया है। अलौकिक, निस्पृह जीवन जीने वाले आचार्य को लौकिक माता पिता, जन्मस्थान, कुल, गृरु आदि लौकिक परिचय से प्रयोजन ही क्या था, इसलिए उनके कुल-गण-संघ प्रादि के सम्बन्ध में परिचय प्रस्तुत करने वाली सामग्री तथा माधनों की, बहत कमी है, फिर भी इस सम्बन्ध में आ. अमतचन्द्र के पर बनी टीकाकारों तथा लेखकों के आधार पर प्रकाश डाला जा
ठाकुर कुल-पं. प्राशाधरजी ने अपनी अनगारधर्मामृत की टोका में "एनच्च विस्तरेण सनकूरामतचन्द्रसरि विरचित समयसार टीकाया द्रष्टव्यम्" वाक्य का प्रयोग किया हैं । इस में अमृतचन्द्रसूरि को "उक्कुर" शब्द का प्रयोग किया है । यह ठक्कुर शब्द हिन्दी में ठाकुर पद का वाचक " तथा सम्मानित कुल का द्योतक है । इससे झात होता है कि आ. अमृतचन्द्र किसी कुलीन घराने से सम्बन्धित थे। संभव है ये 'ठाकुर. वंश' के हों। डॉ. लालबहादुर शास्त्री ने एक नवीन कल्पना की है कि
१. 'अमनचन्द्र मुनीन्द्रवात अथ श्रावकाचार, अध्यातममी महा प्रायः छंद ___मार।"पु. सि.. दौलतराम , अंतिमप्रशस्ति पृष्ठ १६५ २. नन्नार्थसार, टीकाकारकृत अंतिमप्रशस्ति पृष्ठ २१२ ''अम तन्दु महामुरिनाना
नयविशादः" ३. प्रवचनसार, तत्त्वप्रदीपिका टाका, मंगलाचरण पद्य *. ३ ४. अनगार धर्माम त टीका, 'पृय ५८८ ५. जैन साहित्य का इतिहास, भाग २. पृष्ट १७३ पं. बलाश चन्द्र शास्त्री ६. तीर्थकर महावीर तथा उनको याचार्य परम्परा, भाग २. पृष्ठ ४०३
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६० }
[ श्राचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व एव तु त्व
२
अमृतचन्द्र यह नाम "चन्द्र" पदांत होने से अमृतचन्द्र चन्द्रवंशी ठाकुर होना चाहिये, परन्तु यह अनुमान ही प्रतीत होता है क्योंकि इसका कोई ठोस आधार नहीं है। फिर भी आचार्य अमृतचन्द्र का ठाकुरवंशी या कुलीनवंशी होना तो प्रमाणित हो ही जाता है ।
द्रविड़ संघ तथा अमृतचन्द्र आचार्य प्रभूतचन्द्र तथा शंकराचार्य समकालीन थे। शंकराचार्य अमृतचन्द्राचार्य के "आत्ख्याति" में वर्णित विचारों से प्रभावित थे। आत्मख्याति टीका तथा शंकर का शारीरिक भाष्य बहुत कुछ समान है तथा शंकर एक अवसर पर अपने को एक द्रविड़ श्राचार्य द्वारा प्रभावित कहते हैं, इसलिए प्रोफेसर ए. चक्रवर्ती ने प्राचार्य श्रमृतचन्द्र को द्रविड़ संधी अनुमानित किया है । उक्त अनुमान के भी कोई भी आधार उपलब्ध न होने से आचार्य अमृतचन्द्र को द्रविड़संघी भी नहीं माना जा सकता । द्रविसंघ की मान्यताएं भी मूलसंघ से विपरीत हैं । उनका पोषण अमृतचन्द्र के साहित्य में कहीं भो नहीं मिलता अतः वे द्रविड़संघी सिद्ध नहीं होते ।
पुत्रासंघ तथा अमृतचन्द्र सुल्तानपुर ( पश्चिमखानदेश-महाराष्ट्र) के एक मूर्तिलेख में अमृतचन्द्र के शिष्य विजयकीर्ति का नाम पुन्नागुरुकुल के अंतर्गत उल्लिखित है। उक्त लेख ११५४ सन् का है । उक्त पुनाट संघ बाद में काष्ठासंघ में परिवर्तित हुआ तथा इसका नाम लाडवागड़ गच्छ हो गया। उक्त उल्लेख से अमृतचन्द्र के पुन्नाटसंघी होने संभावना व्यक्त की जा सकती हैं परन्तु उक्त विजयकीर्ति के गुरु अमृतचन्द्र प्रकृत अमृतचन्द्र नहीं है। उन्होंने स्वयं भी अपने किसी शिष्य का कहीं भी उल्लेख नहीं किया । उनके पश्चावर्ती लेखकों ने भी उक्त प्रकार का
१. आचार्य कुन्दकुन्द और उनका समयसार पृष्ठ ३२४
२. सभवसार (अंग्रेजी प्रस्तावना, पृष्ठ १६०-१६१. प्रकाशक, भारतीय ज्ञान - पीठ, बनारस, १६५०
२. खड़े खड़े भोजन विधि का निषेधक, कोई वस्तुप्रामुक नहीं, मुनिजन खेतीरोजगार करावें, वसतिका बनवावें, श्रप्रागुक जलस्नान करें, प्रतिमाएँ वस्त्राभुषणसहित होती है इत्यादि द्रविड़ मंत्र की विपरीत मान्यताएँ हैं । जनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग-१, पृष्ठ ३४२-२४३
४. जैन शिलालेख संग्रह, भाग-५, डॉ० विद्याधर जोहरापुरकर, पृष्ठ ४६, लेख
क्रमांक
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जीवन परिचय ।
कहीं भी कथन नहीं किया है। दूसरे उक्त लेख विक्रम की तेरहवी सदी के प्रारम्भ १२११ का है जिसमें विजय कीति का अमृतचन्द्र के शिष्य के रूप में उल्लेख है। उक्त समय मलवारीमाधवचंद्र ने. शिष्य भटारखा अमृतचन्द्र का अवश्य है परन्तु प्रकृति प्राचार्य अमृतचन्द्र का नहीं । उनका समय तो दसवीं विक्रम सदी है । अतः प्रकृत अमृतचन्द्राचार्य के पुग्नाटसंघी होने के कोई भी प्रमाण नहीं हैं।
काष्ठासंघ तथा श्रमतचन्द्र- वर्तमान प्राचार्य विद्यासागर ने अमृतचंद्रसुरि कृत समयसारकलशों के अाधार पर 'मिजान'' एनं "कलशागीत" नाम से हिन्दी पद्यानुवाद किया है। "निजामृतपान" पद्यानुवाद की प्रस्तावना चेतना के गहराव शीर्षक के अन्तर्गत आचार्य अमृतचंद्र को काष्ठासंबी लिखा है। उक्त मान्यता की पुष्टि हेतु उनका तर्क है कि अमृतचन्द्र ने प्रवचनसार की चूलिका में १०-१२ गाथानों की टीका नहीं लिखी जबकि उनके परवर्ती जयसेनाचार्य ने टीका लिखी है। उक्त गाथाओं में स्त्रीमुक्ति निषेध का प्रसंग इष्ट नहीं था। दूसरे अमृतचन्द्र कृत टीका के अन्त में काष्ठासंघ की परम्परा का ज्ञान कराया है इसलिए जयसेन मूलसंघ के तथा अमृतचन्द्र काष्ठासंघ के सिद्ध होते हैं।
उपयुक्त मान्यता एकदम नवीन कल्पना प्रतीत होती है क्योंकि प्रथम तो काष्ठासंधी भी मूलसंघो की भांति स्त्री मुक्ति को स्वीकार नहीं करते हैं । यदि स्त्रीमुक्ति मानना काष्ठासंघ की मान्यता होतो तो यह प्रारोप कि "अमृतचन्द्र को स्त्रीमुक्ति निषेध प्रसंग इष्ट नहीं था इसलिए काष्ठासंघी थे" विचारणीय होता। दूसरे आचार्य अमृतवन्द्र ने काष्ठासंघ की किसी भी मान्यता का कहीं भी किसी ग्रन्थ में पोषण नहीं किया है जिससे उन्हें काष्ठासंघी कहा जाता। तीसरे, काष्ठासंघ की गुर्वावलि में भी अमृतचन्द्र का कहीं नामोल्लेख नहीं है। चौथे रायचंद्र जैन शास्त्र
१. निजाम नपान, पाट
२. वही, पृष्ट ३. काप्यासंघ की प्रमुख मान्यताएं हैं- गाय की पूछ बी पिच्छि रखना, स्त्रियों
को दीक्षा दना, शुल्लकों को वीरचर्या का विधान करना. मुनियों को कड़े बालों को पिछि रखने का उपदेश. रात्रिभोजन त्याग नामक छठवां गुणवत (अरात्रत) मानना, स्त्रीमुकि निषेच, सर्वस्त्रमुक्ति निषेध तथा वनीमुक्ति का
निषेध करना इत्यादि । (दपेनमार नाथा नं. ३४, ३५, ३६) * An Pritome of Jainism by Pooranchand Nabar and Krithachand Ghosh
(Scc Appendix D) Publisbed by H. Duby Gulab Kumar Library, 45 Indian Mirror Street, Calcutta- 1917.
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६२ ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
माला से प्रकाशित प्रवचनसार (द्वितीय आवृत्ति) के अन्त में प्रशस्ति दी है जिसे एक अन्य संस्करण में “टीकाकार की प्रशस्ति" शीर्षक से छापा है जबकि उक्त प्रशस्ति टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र को नहीं है क्योंकि उक्त प्रशस्ति में विक्रम संवत् १४६६ में राजा वीरमदेव के काल में हुए भट्टारक हेमकीर्ति का विवरण दिया है तथा उनके संघस्थ हरिराज ब्रह्मचारी का उल्लेख किया है। उक्त सम्पूर्ण प्रशस्ति में अमृनचन्द्र का कहीं नाम भी नहीं हैं।' प्रवचनसार तथा उनकी टोकाओं के प्रमुख अध्येता स्वर्गीय डॉ. ए. एम. उपाध्ये ने भी उक्त प्रशस्ति को प्रतिलिपिकार को ही माना है, उसका अमृत चन्द्र से कोई भी सम्बन्ध नहीं है।' प्रशस्ति में उल्लिखित हेमको ति अवश्य काष्ठासंघो प्रतीत होते हैं जिससे प्रशस्ति सम्बन्धित है। काष्ठासंघ की गुर्वावलि में हेमकीर्ति का उल्लेख ६५ नम्बर पर है। पांचवें, काष्ठासंधी कई भट्टारकों ने समयसार, पंचा स्तिकाय आदि ग्रन्थों की प्रतिलिपियां कराई तथा उनमें गुरु परम्परा का विवरण दिया और अपने को कुन्दकन्दान्वयी भी लिखा तो क्या कुन्दकुन्दाचार्य को भी काष्ठासंघी मान लिया जावे परन्तु यह बात किसी भी समझदार को मान्य नहीं हो सकती। इसी तरह अमृत चन्द्र को भी काशसंघी नहीं माना जा सकता। छठवें, आचार्य अमृतचन्द्र ऐसे असाधारण आचार्य हुए हैं जिन्होंने अपनी कृतियों में कहीं भी अपने गुरु तथा उनकी परम्परा और कुल, संघ आदि का कोई भी उल्लेख नहीं किया प्रतः उक्त प्रशस्ति उनकी बताना सर्वथा अनचित एवं निराधार है। सातवें, प्राचार्य देवसेन ने काष्ठामघ को जनाभासी, मिथ्यात्व तथा उन्मार्ग प्रचारक लिखा है। जबकि आचार्य अमृतचन्द्र की समस्त कृतियाँ मूलसंत्री सिद्धान्तों की सम्पोषक एवं प्रचारक हैं, उन्हें काष्ठासघी बता कर उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को कलंकित करना तथा उन्हें अप्रमाणिक ठहराना होगा। इससे मूलसंघोय आचार्य परम्परा तथा आर्षनथों को प्रामाणिकता पर भी आंच आयेगी इसलिए बिना कोई ठोस
१. सन्मति गंदेश. मार्च ८०, पृष्ठ १८, लेख-पं. बंशीधरजी शास्त्री एम. ए. 3. The Frasesti Printed at the end has Terthing to do with Amrtachzodra but
it belongs possibly to Ascribe of aM.S. (See Pravachanasara's Introduct
ion, Page 91-98) 3. An Epitome of Jainisru-(Appendix E) ४, दर्शनसार, गाया ३४ तया ३६
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जीवन परिचय ] प्रमाण या आधार के आचार्य अमृतचन्द्र को काष्ठासंघी नहीं कहा जा सकता। आठवीं बात विचारणीय रहती है कि अमृत चन्द्र की टीका तत्त्वप्रदीपिका में उक्त स्त्रीमुक्ति प्रसंग विषयक गाथाएं क्यों छूटी हैं ? इसका समाधान यह है कि प्रथम तो आचार्य अमृतचन्द्र ने केवल स्त्रीमुक्ति निषेध प्रकरण विषयक ही गाथाए नहीं छोड़ी अपितु अन्य प्रकरण विषयक गाथाएं भी छोड़ी हैं। प्रबचनसार में ही ऐसी दो गाथाओं पर प्राचार्य अमतचन्द्र ने कोई टीक नहीं लिखी जिनमें मासांहार वा दोष बताया गया है । इसका यह अर्थ नहीं निकाला जा सकता कि आचार्य अमृतचन्द्र को मांसाहार को दोष बताना इष्ट नहीं था। इसी तरह स्त्रीमुक्ति प्रकरण सम्बन्धी गाथाओं की टीका के अभाव में ''अमतचन्द्र को स्त्रीमुक्ति प्रकरण का निषेध इष्ट नहीं था यह मारोप भी नहीं लगाया जा सकता। दूसरे, श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय में स्त्रीमुक्ति प्रकरण को इष्ट माना गया है। इसके अतिरिक्त वे सबस्त्र (सनथ) गुरु, केवली के कवलाहार आदि कई बातें इष्ट मानते हैं जबकि आचार्य अमतचन्द्र ने अपने तत्त्वार्थसार में "परि ग्रहधारी को गुरु मानने का) तथा कोवली के कवलाहार मानने का' विरीत मान्यता अथवा विपरीत मिथ्यात्व कहकर खण्डन किया है । इससे स्पष्ट होता है कि जहाँ अमृतचन्द्र सनथ (सवस्त्र, सपरिग्रही) को गुरु भी मानने का निषेध वारते हैं, वहीं वे सर्वस्त्र स्त्री को मुक्ति कैसे मान सकते हैं तथा जब उन्होंने श्वेताम्बर मत सम्मत उक्त दो मान्यताओं का स्पष्ट रूप से खण्डन किया है लब बे स्त्री मुक्ति सम्बन्धी तीसरी मान्यता का समर्थन कैसे कर सकते हैं ? तीसरे, गाथाओं की कमी तथा अमृतचन्द्र की टीका न होने का कारण यह अबश्य हो सकता है कि दे गाथाएं अमृतचन्द्र के समक्ष उपलब्ध प्रति में होंगी ही नहीं, अन्यथा वे उनके सम्बन्ध में कुछ न कुछ सूचना अवश्य देते । चौथे यह सम्भव प्रतीत होता है कि अध्येता विद्वान् या साघु कुछ प्रासङ्गिक या अप्रासङ्गिक
१. प्रवचनसार, गाथा २२६ के बाद "पके सु अ आमसु" - तथा " पक्कमपक्क"
इत्यादि दो गाथाएं छटी है । तथा संयम और दया निरुपक अन्य दो गाथाएँ
भी छोड़ी हैं जो क्रमशः २३९ तथा ३६६ गाथाएँ के बाद पाती हैं। २. सग्रन्थोऽगि च निग्रन्थो मासाहारी च चली। रूचिरेवंविधा रात्र विपरीतं हि स्मृतम् ।।६।।
तत्वार्थसार अधिकार ५, पद्य. ६
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६४ ]
। आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तुत्व
गाथा हासिए पर नोट कर देते हैं और लिपिकार प्रमाद या अज्ञानवश उन्हें भी मूल भाग में शामिल कर लेते हैं। जयसेनाचार्य के समक्ष ऐसी ही प्रति रही होगी।' इसीलिए केवल एक ही टीका में गाथा भेद नहीं है अपितु तीनों टीकाओं में गाथाभेद मिलता है ।२ पाँचवे जयसेनीय टोकाओं में जो अतिरिक्त गाथाएँ हैं उनमें अधिकांश तो ऐसी हैं जिनके ग्रन्थ में होने या न होने से मूल विषय में कोई व्यवधान नहीं आता है। प्रवचनसार की ही ३६ अतिरिक्त गाथाओं का अनुशीलन करने पर ज्ञात होता है कि इनमें अधिकांश गाथाएँ नमस्कारात्मक हैं। शेष गाथाएँ संबंधित विषय के विशेष स्पष्टीकरण हेतु हैं। इसी तरह पंचास्तिकाय की जयरोनीय टीका में ८ गाथाएं अधिक हैं। इनमें ७ गाथायें मति, श्रत, अवधि, मनःपर्यय तथा केवलज्ञान और अज्ञान के स्वरूप की प्रकाशक है' तथा एक गाथा ६ प्रकार के स्कंधों की सूचक है ।६ समयसार की जयसेनीय टीका में २२ माथा अधिक हैं जिनमें कुछ गाथाएँ अत्रासंगिक है, कुछ पुनरावृत्त हैं तथा कुछ विशेष स्पष्टीकरण हेतु हैं। इस प्रकार गाथाभेद पर सूक्ष्मावलोकन करने पर अमृतचन्द्र के काष्ठासंघी सिद्ध होने के कोई प्रमाण या संकेत उपलब्ध नहीं होते। छठवें, गाथाभेद केवल अमृतचन्द्र एवं जयसेन कृत टीकाओं में ही नहीं है अपितु अन्य टीकाओं में
१. सन्मतिमंदेश. मात्र ८०, पृष्ठ १८, लेख-. वंशीधर शास्त्री, एम. ए. २. प्रवचनमार, पंत्रास्निाय तथा समयसार पर अमतचन्द्र ने क्रमशः २७५, १७३
तथा ४२५ गाथानों पर टीका लिखी है, जबकि जयसन ने क्रमशः ३११, ११ तथा ४३७ पर। टीप-समयप्राभृतं, सम्पादक पं. गजाधरलाल, में ४४५ गाथाएँ है जबकि समयसार सम्पादक-मुनि जानसागर, अंग्रेजी संस्कररा-जे.
एन, जनी व मेच्युमके (१९५०) ४३७ गाथाएँ हैं। ३. इसमें १० गाथाएँ नमस्कारात्मक हैं जो क्रमशः गा. १६. ५२. ६५, ६८ वी,
७६, ६ . २, ६२, ६२ व, २०० ४. शेष २६ गाथाएँ प्रतिज्ञावाक्य, अस्तिकाय, बन्धनियम, ईयारामिति, परिग्रह
निषेध, स्त्रीमुकलंजन, ग्रमाद के कारण, मांसदोष, पाहार, संयम तथा अनु
वाम्मा विषयक म्पष्टीकरणार्थ हैं। ५. वे ७ गाथाएँ क्रमशः ८१ गा के बाद की ६ तथा १०६ गा क बाद की एक
गाथा है। ६. स्वधपभेद सूचक गाथा १०६ गा के बाद की है। ७, समयसार, पं. वलभद्र प्र., पृष्ठ 5
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भी गाथा भेद पाया जाता है, उदाहरण के लिए स्वयं जय सेन ने समयसार श्री यायः नयर १३:४६ य; २५२ ये चार गाथाएं छोड़ दी हैं जिन पर अमृतचन्द्र ने टीकाएँ लिखी हैं, परन्तु जयसेन ने कोई टीका नहीं लिखी। उन गाथाओं में प्रयम दो में सांख्यमत सम्मत "जीव पुद्गल द्रव्य को कर्मभाव से परिणमाता है।" इस तर्क का खण्डन तथा पुद्गल द्रव्य का परिणामस्वभावपना सिद्ध किया गया है।' तीसरी गाथा में "पर द्वारा आयकर्म का हरण संभव न होने से अपना मरण किया जाना संभव नहीं है" तथा चौथो गाथा में "पर द्वारा आयकर्म दिया जाना संभव न होने से अपने लिए जीवन दिया जाना संभव नहीं है" इस प्रकार सिद्धान्तों का निरूपण है। इस पर से यह फलित करना, कि जयसेन को सांख्यमत का उक्त तर्क खण्डन करना इष्ट नहीं था तथा उन्हें परकृत आयहरण तथा आयप्रदान के सिद्धांतों का खण्डन भी इष्ट नहीं था, कदापि उचित नहीं माना जा सकता ।
गाथा भेद के सम्बन्ध में दूसरा उदाहरण प्रभाचन्द्राचार्य का है जिन्होंने प्रवचनसार की जयसेनीय टीका में उपलब्ध एका गाथा छोड़ दी है। उसे अमलचन्द्र ने भी १८८ गाथा के बाद छोड़ा है। उक्त छूटी हुई गाथा गोम्मटसार कर्मकाण्ड की १६३ वी गाथा है । इससे यह भी सिद्ध होता है कि किसी विद्वान् अध्येता ने गाथा १८८ में वर्णित बंधप्रकरण से साम्य रखने वाली उक्त गोम्मटसार की गाथा हांसिये पर लिख ली होगी जिसे प्रतिलिपिकार ने प्रवचनसार की मानकर प्रकरण में सम्मिलित कर लिया होगा। ऐसी ही प्रति जयसेन के समक्ष होगी। उसे जयसेन ने प्रवचनसार की गाथा मानकर टीका लिख दी।
इस सम्बन्ध में तीसरा उदाहरण बालचन्द्र का है। उन्होंने भी प्रवचनसार में जयसेनीय टीका में प्रयुक्त अतिरिक्त गाथाओं की कन्नड़ में टीका नहीं लिखी। १. 'अयजीवः पुद्गलद्रव्यं कर्मभावेन परिणामयति ततो न संसाराभावः इति तक;"
इस तर्क का खण्डन गा. ११६ तथा १२० में किया गया है. जिसे जयसेन ने __ छोड़ दिया है। २. "सुहूपयडीग विमाही तिब्बो अमुहारण संकिलेसेण ।
विवरीदेण जहणो अणुभाग सब्बपयडीगं ॥' १६३॥ गोम्मटसार कर्मकाण्ड ३. प्रवचनसार, (अंग्रेजी) द्वितीय संस्करण, पृष्ठ १-७, प्रस्तावना डॉ. ए. एन.
उपाध्ये
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[ आचार्य अमृत चन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व चौथा उदाहरण धवला के प्रथम भाग का है। इसके अमरावतो से प्रकाशित तथा सोलापूर से प्रकाशित संस्करणों में गाथा संख्या में भेद है। इसी प्रकार मूलाराधना (भगवती आराधना) की पंडित सदासुखदास की टीका में गाथा ८०८ से ८१२ तक नहीं है जबकि पं. जिनदास पार्श्वनाथ फड़कुले कृत टीका में ये गाथायें हैं। इसमें भी अपराजित सूरि कृत विजयोदया संस्कृत टीका उपलब्ध है, परन्तु माशाधर कृत मूलाराधना में दर्पण टीका नहीं है ।"
पुरुषार्थसिद्धयुपाय (मराठी) भाषातर में कुल १६६ श्लोक है १७७-२२६ तक के ३० पद्य छोड़ दिये गए हैं तथा कृष्णाजी नारायणजी जोशी कृत पुरुषार्थसिद्धय पाय टीका में गाथा नं. ७० छोड़ दी गई है। उक्त गाथा में स्वयं पतितमधु खाने का निषेध है । इसके अतिरिक्त २२७ नम्बर की गाथा मिला दी गई है। उक्त २२७वों को गाथा के परीक्षण से ज्ञात होता है कि लिपिकार ने भूल से पुरुषार्थ सिद्भयप्राय के अन्त में "पुरुषार्थसिद्धयपाय नाम जिनप्रवचनरहस्य कोशः समाप्तमिति" इस गद्य वाक्य को पद्य समझकर गाथा क्रमांक दे दिया है। इसी प्रकार ३७० वर्ष प्राचीन कपड़े पर की गई हस्तलिखित प्रतिलिपि में समयसार कलश के १६ पद्य छोड़ दिये गये हैं। जो समयसार कलश में ७१-८६ तक उपलब्ध होते हैं।
इसी प्रकार तिलोयपण्णति ग्रन्थ में १३४० गाथायें प्रक्षिप्त हैं तथा मुलनथकर्ता के प्रतिकूल हैं। इसी प्रकार पंचास्तिकाय की १११ वीं
१. अमरावती (बरार) से प्रथम संस्करसाई, १६३६ में (सेठ लक्ष्मीचन्द्र शिताबराय
जन साहित्योद्धारक फंड अमरावती) प्रकाशित हुअा था। २. जैन संस्कृति संरक्षक संघ सोलापूर द्वारा १६७३ ई., में इसका द्वितीय संस्करण
प्रकाशित किया गया । ३. इस संस्करण में पृष्ठ ४०१ पर ४ गाथाएं अधिक हैं, जो प्रश्रम संस्करण में
नहीं हैं। ४. भगवती प्राराधना, पृष्ठ ३३० फूटनोट ५. पुरुषार्थसिद्धयुपाय (मराठी) कृष्णाजी नारायण जोशी कृत १८६७ ई. ६. समयसार कलश की हस्तलिखित कपष्टे पर अंकित प्रति वि. सं. १६६८
दिगम्बर जैन तेरह पंथी मन्दिर जयपुर में उपलब्ध । ७. जैन साहित्य और इतिहास, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ ११
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गाथा प्रक्षिप्त मानी गयी हैं ।' उक्त १११ वीं गाथा को पंचास्तिकाय के अंग्रेजी संस्करण में सम्मलित नहीं किया गया है। जबकि उक्त ग्रंथ के द्वितीय संस्करण में उक्त गाथा के प्रक्षिप्त होने की सूचना भी दी गई है । इस संदर्भ मे ५ चन्द्र शास्त्री ने लिखा है कि नाचार्य अमृतन्द्र ने २८ मूलगुणों में नग्नता का उल्लेख किया है । श्रन्यत्र यथाजातरूप का भी उल्लेख किया है, अतः उन्हें काष्ठासंघी मानना महज भ्रम ही है । काष्ठासंघ को जैनाभास मानकर अमृतचन्द्र को बलात् उससे सम्बद्ध करना उचित नहीं है। मूलसंघ के संस्थापक आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रंथों पर टीका रचने वाले तथा जिनशासन प्रभावक और अध्यात्म सरिता प्रवाहित करने वाले आचार्य अमृतचन्द्र के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार की अन्यथा कल्पना उचित नहीं है। जिन्हें अध्यात्म सा नहीं है वे तो कुन्दकुन्द को भी नहीं छोड़ते, किन्तु कुन्दकुन्द दिगम्बर जैन शासन के सूत्रधार हैं, अतः किसी की कुछ चलती नहीं 1 अमृतचन्द्र तो उन्हीं के अनुगामी हैं । *
इस तरह सर्व प्रकार से सूक्ष्म परीक्षण तथा विचार करने पर आचार्य अमृतचन्द्र काष्ठासंधी सिद्ध नहीं होते ।
नेविसंघ तथा प्राचार्य प्रभूतचन्द्र- " पुरुषार्थं सिद्धयुपाय" के कर्ता आचार्य अमृतचंद्र ९६२ विक्रम सम्बत् में जीवित थे यह बात पट्टावलियों तथा पाश्चात्य विद्वानों की रिपोर्टों से प्रमाणित होती है । नम्बिसंघ की पट्टावल में आचार्य कुन्दकुन्द हुए, उसी संघ में प्राचार्य अमृतचंद्र कीर्ति हुए हैं । नन्दिसंघ के आचार्यों के नाम के अन्त में नन्दि, चन्द्र, तथा भूषण शब्दों का प्रयोग किया जाता है । अमृतचंद्र का नाम भी
१. जैन निबन्ध रत्नावली, पृष्ठ २४६
२. पंचास्तिकाय ए. चक्रवर्ती, सेक्रेड बुक्स श्राक दी जैनाज यानक ३ १९२० ई. ३. पंचास्तिकाय भा. ज्ञा. प्र. दिल्ली, १९७५ ६.
४. लघुतरवस्फोट (अनुवाद डॉ पं. पन्नालाल जैन साहित्याचार्य) प्र. पृष्ठ ७, १६८१ ई.
४. वही, पृष्ठ ७, ८
६. पुरुषार्थं सिद्धयुपाय, प्रस्तावना पृष्ठ ४ ( पं. नाथूराम प्रेमी) रायचंद जैन
शास्त्र माला
७. तत्त्वानुशासन, प्रस्तावना पृष्ठ ५०, बीर निर्वाण सम्वत् २४३१
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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व चन्द्रांत है तथा एक स्थल पर अमनचन्द्र को अमृतनन्दि नाम का प्रयोग मिलता है।' 'नन्दि' पद का नामांत में प्रयोग होने से अमृतचन्द्र का नन्दिसंघ का होना साधार प्रतीत होता है। तीसरे अमृतचन्द्र कुन्दकुन्द के निजामृत रस के रसिक थे। वे कुन्दकुन्द के अनन्य शिष्य तथा भक्त थे। कुन्दकुन्द का नन्दिसंघी होना प्रमाणित है ।२ तब उनके अनगामी शिष्य अमृत चन्द्र का भी नन्दिसंघी होना स्वाभाविक है। नन्दिसंघ मूलसंध का एक सर्वाधिक प्रामाणिक तथा प्राचीन संघ है। प्राचार्य कुन्दकुन्द भीः | महावीर तीर्थकर तथा गौतम गणधर के अनन्तर तीसरे स्थान पर स्मरण किये जाते हैं। उनके ग्रन्थ तथा ग्रन्थोक्त सिद्धान्त भी गणधरए तुल्य प्रमाणता को प्राप्त हैं । ऐसे प्रामाणिक ग्रन्थों, सिद्धांतों के असाधारण टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र का मूलसंघ की प्रामाणिक शाखा के अन्तर्गत होना सहनसिद्ध है । चौथे, रमा बराचार्य विजयम में अमृत चन्द्र को मूलसंघ का अनुयायी लिखा है। इसी आधार पर पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने प्राचार्य अमृतचन्द्र को काष्ठासंघी आचार्यकृत "डाहसी गाथाओं" का कर्ता मानने का खण्डन किया है । कई ग्रन्थकारों ने उन्हें मूल संघी| आचार्य ही माना है।
____ इस तरह आचार्य अमृतचन्द्र के संघ निर्णय पर पर्याप्त ऊहापोह एवं प्रमाणों के आधार पर हम निष्कर्ष रूप से यह कह सकते हैं कि प्राचार्य अमृतचन्द्र सुनिश्चित ही मूलसंघ की नन्दिसंघी परम्परा के भाचार्य थे।
१. कन्नड़ प्रांतीय ताडपत्रीय ग्रन्थसूची, पृष्ठ १५, संस्करण प्रथम १९४८ ई. २ जनेन्द्र सिद्धान्त कोश, प्रथम भाग, पृष्ठ ३४३, कुन्दकुन्द का अपरनाम पननंदि..
भी है जिसमें नंदि शब्द अन्त में पाया है क्योंकि वे नंदिसंघी थे।" ३, वही, पृष्ठ ३४३ ४. जैन साहित्य का इतिहास, भाग २, पृष्ठ १७४ ५. वही, पृष्ठ १७४ ६. (i) तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग २, पृष्ठ ४०३ (i) पं. प्रवर बनारसोदास ने भी अपने "समयसारनाटक" की प्रशस्ति में।
प्राचार्य अमृतचन्द्र को कुन्दकुन्द की परम्परा का ही लिखा है । यथाः"कुन्दकुन्दाचारिज प्रथम गाथा बद्ध करि, समैसार नाटक विचार नाम दयौ है।
ताही की परम्परा अमृतचन्द्र भये तिन,संस्कृत कलश सम्हारि सुख लयो है ॥२०॥ ७. पुरुषार्थसिसयुपाय (मराठी मद्यानुवाद) प्रस्तावना, पृष्ठ १७
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[ ६९ प्राचार्य परम्परा में अमृतचन्द्र का स्थान
आदि तीर्थकर भगवान ऋषभदेव से लेकर अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर पर्यन्त अक्षुण्ण गति से प्रवाहित जैन अध्यात्म, योग, सिद्धान्त, , तत्त्वज्ञान तथा प्राचार मूलक परम्परा को अंग-पूर्व ज्ञानधारी आचार्यों
ने भली भांति प्रचलित तथा प्रसारित किया, किन्तु उक्त परम्परा मौखिक रूप से ही प्रवमान रही। पश्चात् ईस्वी सन् (३८ से ६६) में आचार्य घरसेन ने इस परम्परा में अत्यंत सुयोग्य दो प्राचार्य शिष्यों को सूशिक्षित किया। वे दोनों आचार्य श्रमणों की लिखित श्रुतपरम्परा के "सूर्य तथा चन्द्र' की भांति "प्रकाशक बने । उनके नाम हैं प्राचार्य पुष्पदंत । ६६ से १०१ ईस्वी)लथा आचार्य महस(६६से :१६ ईवीशाचर्मद्वप ने सर्वप्रथम 'षट् खण्डागम श्रुत की रचना की, जिसमें श्रमणपरम्परा से प्राप्त सिद्धान्त तथा तत्त्वज्ञान विषयक गंभीरतमज्ञान भण्डार भरा है। प्राचार्य पुष्पदंत भूतबलि के ही समकालीन प्राचार्य गुणधर (५७-१५६ ईस्वी) हुए जिन्होंने "कषायपाहड़मत्त' की रचना कर उक्त ज्ञान भण्डार को विशेष रूप से समृद्ध एवं सम्पुष्ट किया। उनके पश्चात् आचार्य कुन्दकुन्द (पद्मनंदि) ई. १२७-१७६ ) हुए जिनके काल में अनवरत प्रवहमान दिगम्बर जैनाचार्यश्रमणपरम्परा में नवीनशाखा का जन्म (ईस्त्री द्वितीय सदी में) हुआ जो श्वेताम्बर जैन परम्परा के रूप में विकसित हुई । कुन्दकुन्द दिगम्बर जैन श्रमणपरम्परा, जो कि मूल तथा प्राचीन परम्परा थी, के प्रमुख बने रहे। उनका संघ मूलसंघ या कुन्दकुन्दान्बय के नाम से विश्रुत बना रहा। उन्होंने मुल संघ की दिगम्बर परम्परा के आचार तथा विचारों को पूर्ववत् कायम रखा, अबकि नबीन उत्पन्न श्वेताम्बर शाखा ने मूलसंघ के प्राचार. तथा रीति रिवाजों को छोड़कर निर्ग्रन्थ-नग्न (दिगम्बर) परम्परा के आचार का परित्याग कर दिया तथा "श्वेतवस्त्र' पहिनना प्रारम्भ कर दिया। मूल संघ की दिगम्बर परम्परा की सुरक्षा तथा अविच्छिन्नता बनाये रखने के कारण आचार्य कुन्दकुन्द का नाम तीर्थंकर महावीर व
१. जैनधर्म, पृष्ठ २६१. सिद्धान्तानार्य पं. कैलाशचन्द्र २. वही, पृष्ठ २६१ तथा देखियेः-- " An Epitome of Jainism by Puranchand
Nahar & Krishna Chandra Ghosh (1917), Page 10. (Introduction). "Gradually the manners and customs of the Church changed aud Original Practics of going abroad naked was a handoned. The scetic began to wear th> White Robe".
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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
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गौतम गणधर के पश्चात् तीसरे स्थान पर लिया जाने लगा । उनके पश्चाद्वर्ती दिगम्बराचार्यों ने अपने को कुन्दकुन्दान्वयी अथवा मूल संघी मानने में गौरव का अनुभव किया. आचार्य कुकु को पुनबिद प्राचीन श्रमणपरम्परा का प्रतीक माना जाने लगा। कुन्दकुन्द की प्रभुता का महत्त्व इसी बात से प्रमाणित है कि दिगम्बर जैनों में आज तक जितनी भी मूर्तियां मन्दिरों में तीथों में तथा चैत्यालयों में देश-विदेश में जहां कहीं प्रतिष्ठित की गईं, उन सब पर आचार्य कुन्दकुन्दान्नाय की मुद्रा को अवश्य अंकित किया गया । दिगम्बरों में तो यहां तक उक्तियां प्रचलित हो गई कि "हुए, न है, न होहिंगे मुनीद्रकुन्दकुन्द से । " आचार्य कुन्दकुन्द जैन अध्यात्म तथा जैन तत्त्वज्ञान दोनों के हो पुरस्कर्ता थे । एक ओर जहां उन्होंने अपने महाग्रन्थ "समयप्राभृत" के द्वारा जैन अध्यात्म का प्रस्थापन किया। वहीं दूसरी ओर प्रवचनसार - पंचास्तिकाय द्वारा जैन तत्त्वज्ञान को मूर्तरूप प्रदान किया। साथ ही नियमसार, अष्टपाहुड़ द्वारा जैनाचार की मूल विमलसरिता को प्रवाहित किया ।
उपर्युक्त जैन अध्यात्म, जेनतत्त्वज्ञान तथा जैनाचार की त्रिवेणी को आगे बढ़ाने, विकसित करने तथा प्रचार-प्रसार करने में कई माचार्यों ने अपनी मौलिक तथा टीकाकृतियों द्वारा बहुमूल्य योगदान दिया । उनमें कुछ प्रमुख आचार्य तथा उनकी कृतियां निम्नानुसार हैं । ( ईस्वी दूसरी सदी के ) आचार्य उमास्वामी द्वारा रचित तस्वार्थ सूत्र 'जैनों की बाईबिल' की महत्ता को प्राप्त है । समन्तभद्राचार्य ( तीसरी सदी ईस्वी) द्वारा विरचित स्वयंभूस्तोत्र देवागमस्तोत्र, युक्त्यनुशासन, जिनस्तुतिशतक आदि गम्भीर तत्रज्ञान विषयक तथा 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' जैनाचार विषयक सर्वश्रेष्ठ कृतियां हैं। पाँचवीं सदी के आचार्य पूज्यपाद (देवनन्दि ) कृत समाधितन्त्र तथा इष्टोपदेश कृतियाँ कुन्दकुन्द के अध्यात्म से अनुप्राणित हैं। अध्यात्मरस से सराबोर इन कृतियों का कुन्दकुन्द की अध्यात्म धारा के विकास में असाधारण
१. मंगल भगवान् वीरो, मंगलं गोतमो गणी ।
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो, जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ||
२. कविवर वृन्दावन द्वारा रचित स्तुति का एक काव्य ( पंचास्तिकाय प्र.प्र. १ ईस्वी सन् १९१५)
३. जैन साहित्य का इतिहास, भाग २, पृष्ठ ६५
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जीवन परिचय ।
योगदान है। इसके अतिरिक्त तत्त्वार्थसूत्र की टोका सर्वार्थ सिद्धि जैन तत्वज्ञान की उद्घाटक टीकाकृति है । छठवीं सदी के आचार्य जोइन्दु (योगेन्दुदेव) द्वारा प्रणीत योगसार तथा परमात्मप्रकाश अध्यात्मामृत से भरपूर कृतियां हैं। गुणभद्राचार्य की कृति 'प्रात्मानुशासन' अध्यात्मामृत का अनुपम निष्य है। आचार्य अकषकदेव ने सटशी, पगसंग्रह, न्यायविनिश्चय, लघीयस्त्रय, सिद्धिविनिश्चय तथा राजबार्तिक आदि प्रौढ़तम-विद्वतापूर्ण ग्रन्थ रचकर जनतत्त्वज्ञान तथा जैन न्याय को पल्लवित, पुजिगत तथा फलित किया । इनके ही अनगामी (ईस्वी नवमी सदी में) आचार्य विद्यानन्दि हुए जिन्होंने प्राप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, युक्त्यनुशासन टीका, अष्टसहस्री तथा श्लोकवार्तिक प्रभृति महानदार्शनिक गम्भीर तत्त्वज्ञान निरूपक ग्रंथों का प्रणयन कर उक्त त्रिवेणी के प्रयाह को गतिमान किया।
कुन्दकुन्दाचार्य की इस सहस्रवर्षीय परम्परा में ही आचार्य 'अमृतचन्द्र' पूर्ण चंद्र की भांति अवतरित हुए, जिन्होंने कुन्दकुन्द से प्रबहमान त्रिवेणी की एक नहीं, तीनों ही धाराओं को अपने असाधारण व्यक्तित्त्व द्वारा विकसित किया तथा अपनी अनुपम अर्थगाम्भीर्ययुक्त कृतियों द्वारा गति प्रदान की। यदि समग्र जैनाचार्य परम्परा में कुन्दकुन्द मार्तण्ड बनकर समग्र आचार्य परम्परा को अलौकिक अध्यात्म ब तत्त्वज्ञान से आलोकित करते हैं तो आचार्य अमतचन्द्र सहस्रवर्ष पश्चात् पूर्णचन्द्र बनकर अपनी उत्तरवर्ती सहस्रवर्षीय अध्यात्म-तत्त्वज्ञान तथा आचार परम्परा को अपनी आध्यात्मिक कृतियों से सम्पुष्ट तथा सम्बधित करते हैं। साथ ही परमानन्द रस के पिपासुजनों को अध्यात्मामृत का पान करा कर अलौकिक शान्ति प्रदान करते हैं। उनकी टीका लिखने का उद्देश्य हो भव्य जीवों का हित करना तथा परमानन्द के पिपासूनों को अध्यात्मामृत का पान कराना है। आचार्य अमलचन्द्र द्वारा प्रतिपादित -प्रवाहित त्रिवेणी में अबगाहन करने घाले अनेक आचार्य, विद्वान, लेखक, सम्पादक तथा अध्येता हए हैं, जो एक हजार वर्ष की सुदीर्घ परम्परा के पोषक एवं प्रसारक हुए हैं। उनमें कुछ के नाम इस प्रकार हैं - आचार्य अमितगति प्रथम तथा द्वितीय
१५ ईस्वी से १०२१ के बीच), तत्त्वानुशासन के कर्ता रामसेन, प्राचार्य पद्मप्रभमलधारीदेव, मुनिनागसेन (बारहवीं सदी ईस्वी), आचार्य जयसेन, आचार्य प्रभाचन्द्र, (तेरहवीं सदी ईस्वी) बालचन्द (चौदहवीं सदी ईस्वी) शुभचन्द्र भट्टारक (ईस्वी १६१६), पण्डित
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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
राजमल पाण्डे ( ईस्वी १५८४) पण्डित बनारसीदास (ईस्वी १६३६), पण्डित टोडरमल, पण्डित सदासुखलाल पण्डित जयचन्द छाबड़ा (अठाहरवीं सदी ईस्वी) पण्डित गोपालशाह ( १६१२ ईस्वी), अ. शीतलप्रसाद पण्डित गजाघरलाल, पण्डित मनोहरलाल ( १६१४ ईस्वी से १९१६ ), सन्त कानजी स्वामी ( १६६२ ईस्वी), गणेशप्रसाद वर्णी आदि (उन्नीसवीं तथा बीसवीं ईस्वी सदी) के शताधिक विद्वान् । इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्र को हम कुन्दकुन्द की मूलसंघ की दो हजार वर्षीय सुदीर्घ आचार्य परम्परा में मध्य चन्द्र की भांति पाते हैं जो अपनी पूर्ववर्ती आचार्य परम्परा से प्रकाशित हैं तथा अपनी उत्तरवर्ती सहस्रवर्षीय परम्परा को प्रकाशित करते हैं। वे कुन्दकुन्द की अध्यात्मागम तथा आचार्य परम्परा की प्राचार्यमाला के मध्यस्थ कोहिनूर हैं जिनसे समग्र माला सुशोभित होती है। आचार्य अमृतचन्द्र आचार्य कुन्दकुन्द के अनन्य रसिक, उपासक व्याख्याता हैं। वे कुन्दकुन्द को अपने हृदय में बिठाकर क्षेत्रकृत अन्तर को दूर कर चुके हैं तथा उनके सिद्धांत व श्रध्यात्म का रसास्वादन कर कालकृत दूरी को भी समाप्त कर चुके हैं । इतना ही नहीं, वे कुन्दकुन्द के भविष्य दृष्टा हैं जिन्होंने कुन्दकुन्द के भवसमुद्र का किनारा समीप देख लिया है। सामीप्य को ही देखकर विद्वज्जनों ने उन्हें कुन्दकुन्द का गणधर तुल्य भाष्यकार माना है । साथ ही उन्हें कुन्दकुन्द का अवतार कहकर पुकारा है । वे गरिमापूर्ण आचार्य पद पर प्रतिष्ठित थे क्योंकि आचार्य पद की गरिमा के योग्य समस्त विशिष्ट गुणों से समलंकृत थे ।
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जैन परम्परा में उत्तम शरणभूत तथा श्रेष्ठ रूप में ५ पद ही माने गये हैं ।' ये पांच पद है अरहंत सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा साधु । इन्हें "पंचपरमेष्ठी" कहा जाता है । इन पांचों में आचार्य पद तृतीय स्थान पर प्रतिष्ठित है जो उपाध्याय तथा साधु इन दोनों पदों से विशेष महानता एवं गौरव का प्रतीक है। प्राचार्य "चर" धातु से बना है जिसका अर्थ प्राचरण करना है । अतः श्राचार्य का प्राचरण अनुकरणीय
१. रणमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, सभी ग्राइरियाणं । णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सम्व साहूणं ॥
धवला पुस्तक एक पृष्ठ
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होता है। अमरकोशकार ने आचार्य का अर्थ करते हुए लिखा है कि जो मंत्र की व्याख्या करने वाला, यज्ञ में यजमान को आज्ञा देने वाला और प्रतों को धारण करने वाला हो वह आचार्य है । पं. आशाधर ने लिखा है कि आचार्य का काम मन्त्र की व्याख्या करना है । मन्त्र सर्वज्ञ की वाणी को कहते हैं । आचार्य पद की प्रतिष्ठा, महानता तथा गुरुता के सम्बन्ध में जैनागम में भी आचार्यों ने स्पष्ट प्रकाश डाला है । आचार्य योगीन्दुदेव ने आचार्य के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि निश्चय व्यवहार रूप पंचाचारों से यक्त, मुद्धापयोग की भावना से सहित तथा वीतराग निर्विकल्प समाधि का स्वयं आचरण करने और कराने वाला प्राचार्य है। आचार्य के पंचाचर, पंचेन्द्रियरूपी हाथी के मद को दलन करने की योग्यता तथा अन्य गंभीर गुण होते हैं। आचार्य वीरसेन ने आचार्य पद की महानता पर विशद् प्रकाश डालते हुए लिखा है कि जो दर्शन, ज्ञान चारित्र, तप, वीर्य, इन पांचों आचारों का स्वयं आचरण करता है और दूसरे साधुओं से आचरण कराता है, उसे प्राचार्य कहते हैं। जो तत्कालीन स्वसमय और परसमय में पारंगन है, मेरु के समान तिश्चल है, पृथ्वी के समान सहनशील है, जिसने समुद्र के समान दोषों को बाहर फेक दिया है और जो सात प्रकार के भय से मुक्त है उसे आचार्य कहते हैं। प्रबचानरूपी समुद्र के जल के मध्य स्नान करने से अर्थात् परमागम के परिपूर्ण अभ्यास और अनुभव से जिनकी बुद्धि, निर्मल हो गई है, जो निर्दोष रीति से षट प्रावश्यकों का पालन करते हैं। जो शूरवीर हैं, सिंह के समान निर्भीक हैं, निर्दोष हैं, देश, कुल और जाति से शुद्ध है, सौम्य मूर्ति हैं, अन्तरंग बहिरंग परिग्रह से मुक्त है, आकाश के समान निलेप हैं, ऐसे आचार्य
१. जननि काव्य की पृष्ठभूगि, डॉ. प्रेमसागर प ६१ २. अमरकोश (लिंगानुशासन) कायसिंहामरसिंहकृत पद्य नं. १३ ३. सहस्रनाम, सं. पं. हीरालाल शास्त्री, पृष्ठ ८५ ४. विशुद्धज्ञानदगारवभावशुद्धात्मतत्वसम्यवाद्वानज्ञानानुष्टानबद्रिव्येच्छानिव
तिरूपं तपश्चरगं स्वशस्वनबगहनवीयरूपाभेदपंचाचाररूपात्मक शुद्धोपयोगभावनान्तभूनं वीतरागनिनिकाल्गसमाधि स्वयं प्राचरन्त्यन्यानाचारयतीति भव
त्याचार्यास्तानहं वंदे ।" (परमात्म प्रकाश, ए.एन. उपाध्ये पृष्ठ १४) ५. नियमसार, गाथा ७३ ६. धवला पुस्तक एक, पृष्ट ४९-५० गाथा २९, ३०, ३१
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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एव कर्तृत्व परमेष्ठी होते हैं। तथा जो संघ के संग्रह अर्थात् दीक्षा देने और अनुग्रह करने में कुशल हैं, जो सूत्र (परमागम) के अर्थ में विशारद है, जिनकी कीर्ति सब जगह फैल रही है, जो सारण (आचरण) तथा वारण (निषेध) और शोधन अर्थात् प्रतों की शुद्धि करने वाली क्रियाओं में निरंतर उद्यत रहते है उन्हें प्राचार्य परमेष्ठी समझना चाहिए। प्राचार्य अमृतचन्द्र ऐसे ही गंभीरतम, गुरुतम, एवं महानतम पद से सुशोभित थे। अमृचन्द्र की कृतियों तथा परवर्ती लेखकों के मोख रो या नदी र गित हो जाता है कि अमृतचन्द्र में उन समस्त वैशिष्ट्यों को विद्यमानता थी जो आचार्य परमेष्ठी में होना चाहिए । आचार्य अमृतचन्द्र स्वयं भी पंचाचार के पालक थे और औरों को भी पंचाचार के पालन का उपदेश भी उन्होंने स्पष्ट रूप से अपनी कृति प्रवचनसार की टीका "तत्त्वप्रदीपिका" में दिया है। उन्होंने दीक्षाविधि तथा पंचाचार का स्पष्ट एवं विशद व्याख्यान किया है । पंचाचार में वे लिखते हैं कि ग्रहो ! काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिलव, अर्थ, व्यंजन और तदुभय रूप ज्ञानाचार को मैं तबतक के लिए धारण करता हूँ जबतक तेरे प्रसाद (निमित्त)से में शुद्धात्मा को प्राप्त कर लूं । निःशंकित, निकांक्षित, निविचिकित्सा, अमूढष्टि, उपगहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना रूप दर्शनाचार, मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति के कारणभूत पंचमहाव्रत, तीन गुप्ति, पांच समिति रूप चारिप्राचार, अनशन-अवमोदयं प्रादि बारह तप रूप तपाचार तथा समस्त इतर आचार में प्रवृत्ति कराने वाली स्वशक्ति के अगोपनरूप बीर्याचार हैं। इन पांचों को निश्चय से शुखात्मा से भिन्न जानता हुमा भी तब तक के लिये धारण करता है जब तेरे प्रसाद से शुद्धात्मा को प्राप्त कर लूं।' वे प्रागे यह भी लिखते हैं कि उपरोक्त पंचाचार को धारण करके श्रामप्यार्थी प्रणत तथा अनुगृहीत होता है। प्रणतविधि पर प्रकाश डालते हुए प्राचार्य अमृत चन्द्र लिखते हैं कि जो आचरण करने तथा माचरण कराने में आने वाली समस्त विरति की प्रवृत्ति के समान होने से श्रमण हैं, श्रमण का आचरण करने तथा प्राचरण कराने में प्रवीण होने से गुणाढय हैं, समस्त लौकिक जनों द्वारा संव्य (सेवा योग्य) होने से और कुलक्रमा
१. भक्ला पुस्तक १, गाथा ३१ २. प्रवचनमार, बरवपदीपिका, टीका चरणानुयोग सूचक चुलिका गाथा २०२ ३. प्रवचसार, टीका पृष्ठ ३१०-३११
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जीवन परिचय )
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गत क्रूरतादि दोषों से रहित होने से कुलविशिष्ट हैं, अन्तरग शुद्ध रूप का प्रतीक बहिशद्ध रूप से जो रूपविशिष्ट हैं, बाल्यावस्था तथा वद्धावस्था की बुद्धिविक्लवता से रहित और यौवनोद्रेक की विक्रिया से रहित होने से वय बिशिष्ट हैं, याक्त श्रमणाचार का पालन करने तथा कराने सम्बन्धी पौरुषेय दोषों को नष्ट कर देने से मुमुक्षाओं के अतिआश्रयरूप तथा श्रमणों को अति इष्ट हैं ऐसे गणो के निकट जाकर मुझे शुद्धात्मतत्त्व को उपलब्धि से अनुगृहीत फेरी कहता हुआ प्रणत होता है पश्चात् गणी प्राचार्य द्वारा "तुझे शुद्धात्मतत्व को उपलब्धि हो" ऐसा कह कर अनुगृहीत किया जाना अनुगृहीत विधि है । इस प्रकार प्राचार्य अमृतचन्द्र ने दीक्षा विधि का विशद् स्पष्ट व्याख्यान किया है। पश्चात् यथाजातरूपघर श्रमण के लिए ५ महाव्रत (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह), ५ समिति (ईा, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपोत्सर्ग) ५ इन्द्रियजय, ६ आवश्यक तथा ७ गुण इस तरह अदाईस मूलगुणों का स्वस्वर र कथन किया है। प्रागे श्रमणचर्या की विस्तृत व्याख्या से स्पष्ट है कि प्राचार्य अमृतचन्द्र भी एक महान प्राचार्यपदानुकूल सर्वगुण सम्पन्न, जैनाचार परम्परा तथा सिद्धान्त में निष्णात थे। कुन्दकुन्दाचार्य तथा उनको परम्परा में प्रणीत पूर्वाचार्यों के समग्र परमागमरूप समुद्र में अवगाहन करके वे अपने आत्मा को निर्मल बनाने में संलग्न थे। समयसार की आत्मख्याति टीका में प्रारम्भ में ही टीका रचना का उद्देश्य परमविशुद्धि प्राप्त करना लिखा है।' एक पद्य द्वारा
१. नतो हि श्रामण्यार्थी प्रगतोऽनुगृहीतश्च भवति । तथाहि-प्राचरिताचारितसम
स्तविरति वृत्तिसमानात्मरूपश्चामण्यत्वान श्रमणं, एवंविधामण्याचरणाचरणप्रवीणत्वात् गुगणाढ्य, सकललकि कजननिः शंकभवनीयस्यात् कुलक्रमागतक्रौर्यादिदोषजिनत्त्वाचच कुलविशिष्ट, अन्तरंगशुरूपानुमापाबहिरंग शुद्धरूपत्वात् रूपविशिष्ट, शववार्यक्यकृतबुद्धिविक्लवत्वाभावाद्यौवनोद्रे कबिपिया विविनाबुद्धित्याच्च वयोविशिष्ट, निगेयितयथाक्तश्रामण्यावरणाचा रणविषयगौरुषेयदोषत्वेन मुमुक्षुभिरभ्युपगनतरत्वान् श्रमपरिष्टतरं च मशिन शुद्धात्मतत्वोपलम्भसाधकमात्रार्य शुद्धात्मतत्वोपन्नम्भसिद्धया मामननुगृहाणेायुगमपन् प्ररानो भवति । एवमियं ते सुद्धात्मतत्वोपत्नम्भसिद्धिरिति नेम प्रार्थितार्थेन रायुज्यमानोऽनुगृहीतो भवति ।
प्रवचनसार गाथा २०३ टीका २. वहीं, गाथा २०५, २०६, २०८, २०६ ३. मभयमारकलश, क्रमांक ३
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1 आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व यह भी घोषित किया है कि जिनवचनों (परमागम) में रमण करने वालों का मोह रूप विकार का वमन हो जाता है, वे अपने सुखात्मा (समयसार) का दर्शन या आत्मानुभुति प्राप्त करते हैं ।' उनकी स्वसमय परसमय पारंगतता तो उनकी प्रौढ़तम, ताकिक तथा नैयायिक भाष्य शैली में पद पद पर देखने को मिलती है। समयसार कलश का मंगलाचरण रूप प्रथम पद्य ही इसका पुष्ट प्रमाण हैं जिसमें शुद्धात्मा को नमस्कार करते हुए उनके विशेषणों द्वारा कई परसमयों (परमतों) का खण्डन तथा स्वमत (स्वसमय का मण्डन किया गया है। ज्ञानी की मेरुवत् निश्चलता का उल्लेख भो अमृतचन्द्र ने समयसार कलश टीका में किया है। सात प्रकार के भयों से ज्ञानी किस प्रकार मुक्त होता है इसका सहेतुक विवेचन भो उनकी टीका में उपलब्ध है।४ वे आत्मपुरुषार्थ सूचक स्वानुभव प्रकाशक प्रकरणों में शार्दूलविक्रीडित छंद द्वारा अपनी शूरवीरता का परिचय देते प्रतीत होते हैं । वे सगर्व उद्घोष करते हैं कि मैंने सम्यग्यर्शन-ज्ञान-चरित्ररूप निजाश्रम को प्राप्त किया है। मैं साम्यरूप श्रमणपने को प्राप्त हूँ। मैं मोक्षमार्ग का प्रणेता हूँ। मैं मोक्षाधिकारी हूं, मैंने मोहसेना को जीतने का उपाय जान लिया है। मैं प्रमाद चोरों को नाश करने हेतु कटिबद्ध हो चुका है। मैं अपने अनुभवरूप चिंतामणि रत्न की रक्षा में सदा तत्पर रहता हूँ।' इत्यादि घोषणाएं अमृतचन्द्र के प्रखर-प्रभावशाली व्यक्तित्व को परिचायक है। वे जिनसूत्रों ॐ मर्मज्ञ थे, कुन्दकुन्द के परमागम के विशेषज्ञ और आचार-विचार में सदा साबधान रहते थे। वे जिनेन्द्र स्तुति के माध्यम से जिनवाणी के रहस्योद्घाटक थे । वे स्वयं एक स्थल पर लिखते हैं कि जो कोई भध्यजीव अमृतचन्द्रसूरि के ज्ञान द्वारा गृहीत परिपूर्ण अर्थसंयुक्त ऋषभादि तीर्थंकरों
१. उभयनविरोधध्वंसिनि स्यात्पदाके जिनवचसि रमते ये स्वयं वांतमोहा. । सपदि समयसार तं परं ज्योतिरूमचरन वमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षत एव ।।४।।
समयसारकलश २. नमः रामयसाराय स्वानुभूत्या चकासते ।
चिस्वभावाम भावाय सर्वभावांतरच्छिदे ॥१|| समयसारकलश ३. समयमार कलश, १५४ ४. वहीं, कमांक १५५ से १६० तक । ५. वही, क्रमांक १५३ मे १६१ सक । ६. प्रवचनमार, तत्वप्रदीपिका, गाथा ५ की टीका । ७. बही, गापा २००
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जीवन परिचय ।
[ ७७ को नामावलि हा स्तुति का चिन्तन करते हैं बे सकल विश्व को पी जाते हैं, अर्थात् सर्वज्ञ हो जाते हैं तथा उन्हें कर्म नोकर्म प्रादि कदापि ग्रहण नहीं कर सकते ।'
- इस प्रकार उपर्युक्त प्राचार्यत्व की कसौटी पर अमृतचन्द्र ना व्यक्तित्व शुद्धस्वर्ण की भांति खरा, निर्दोष और प्रभावशाली प्रकट होता है। वे आचार्य परम्परा में ध्र वतारे की भांति मोक्षमार्ग की दिशा के दर्शाने में समर्थ हए हैं। उनकी कृतियां मोक्षमार्ग की प्रकाशस्तंभ हैं। इसका उल्लेख तत्त्वार्थसारकृति में स्वयं अमृतचन्द्र ने किया है। वे तत्त्वार्थसार नामक अपनी कृति को मुमुक्षयों की हितकारी तथा स्रष्ट स्वरूप निरूपक मोक्षमार्ग का एकीकहा , उसकी रचना प्रारंभ करते हैं।
वे तत्कालीन प्रदुषित वातावरण के परिष्कर्ता, जनाचार्य परम्परा में आगत शिथिलताओं के उन्मूलक, मुनिमार्ग (श्रमण परम्परा) के संरक्षक, जैन तत्त्वज्ञान के प्रसारक तथा जैन अध्यात्म के रत्नाकर थे । उन्होंने आचार्य परम्परा के उन्नयन के साथ ही साथ श्रुतपरम्परा का सम्बर्धन तथा सम्पोषण किया। श्रुत परम्परा की रक्षा करना आचार्यों का एक महान कर्तव्य माना गया है। अमृतचन्द्र उस कर्तव्य के पालन में भी सफल रहें हैं | श्रतपरम्परा की सुरक्षा तथा स्वपरकल्याण कर्ता के रूप में ही वे आचार्यों के बीच सुशोभित होते हैं। इस सन्दर्भ में वे स्वयं लिखते हैं कि "समय का प्रकाशक जो प्राभूत नामक अर्हत् प्रबचन का अवयव है उसका परिभाषण (मैं) अनादिकाल से उत्पन्न हुए अपने और पर के मोह वो नाश करने के लिए करता हूँ। बाङमय के सजन का दायित्व उन्होंने अपने मौलिक वैशिष्टयों के साथ निभाया। साहित्य के सृजन द्वारा जहां उन्होंने कुन्दकुन्द की रचनाओं पर भाष्य रच कर आचार्य परम्पराओं का संवर्धनों, संरक्षण एवं प्रकाशन किया, वहीं मौलिक कृत्तियों द्वारा जनाचार तथा जैन तत्त्वज्ञान को विकसित किया। उनकी समस्त कृतियों में अध्यात्म की प्रमुखता दृष्टिगोचर होती है।
संक्षेप में हम आचार्य अमृतचन्द्र को जैन अध्यात्म के रसिक, जैन तत्त्वज्ञान-सिद्धान्त के मर्मज्ञ, जैनाचार के साक्षात् प्रतीक के रूप में पाते हैं। वे जैनाचार्य परम्परा के समुज्वज्ल तथा प्रकाशमान आचार्य रत्न हैं।
१. लघुतत्वस्फोट--पद्यमांक २५
ये भावयन्स्य विकनाथषती जिनानां, नामावलीममृतचन्द्र चिदेक.पीतम् ।
विश्वं पिबन्ति सकल किल लीलव, पीयन्त एव न कदाचन ते परेरण ॥२५॥ २. समयप्रकाशकस्म प्राभृताह्वयस्मात्प्रवचनावयवस्य स्वपरयोरनादि मोहप्रहारगाम भाववाचा हव्यवाचा व परिभाषामुपक्रम्यते ।।
समयसार गाथा १ (प्रात्मख्याति टीका)
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तृतीय अध्याय व्यक्तित्व तथा प्रभाव
प्राचार्य अमृत चन्द्र का व्यक्तित्व (प्राचार्य अमृतचन्द्र असाधारण विद्वान तथा प्रतिभाशाली कवीन्द्र थे। वे अनेकांतस्वरूप चिदानंदामून के पान करने वाले, श्रेष्ठ एव लब्धप्रतिष्ठ भाष्यकार, मौलिक ग्रन्थ प्रणेता तथा जन सिद्धांतों के मर्मज्ञ विद्वान थे। वे सिद्धांतविशारद,' नानानयविशारद, यतीश, मुनीन्द्र, मुनिराज, अध्यात्म मार्तण्ड,' अंतर्मुखकबीन्द्र, विपक्ष विजेता, समस्त शिष्य वर्ग के पालक,निजात्म तत्त्ववेत्ता, स्वरूपगुप्त, व्याख्याता, आनंदामृतचन्द्र,११ कलिकालगणपर,१२ आदि पदों एवं विशेषणों से समलंकृत थे। उनका व्यक्तित्व सर्वतोमुखी तथा प्रभाव व्यापक था। उनके बहुमुखी व्यक्तित्व के अनेक पहलु उनकी कृतियों में प्रस्फुटित हुए हैं जिनमें प्रमुख हैं नाटककार, व्याख्याकार, तार्किक और नैयायिक, भाषाविद्, सिद्धान्तज्ञ, व्याकरणश, अध्यात्म रसिक मादि । यहां उनके सर्वतोमुखो व्यक्तित्व के विभिन्न रूपों को प्रदर्शित किया जाता है।।
१. कन्नड़ प्रान्तीय ताड़पत्रीय ग्रन्थ सूची, १०४८ पृष्ठ (प्रस्तावना) १५ २. तत्त्वार्थसार, टीकाकार निवेदनम्, पृष्ठ २१२ पं, पन्नालाल जी । ३. परमाध्यात्मतरंगिणी, प्रशस्ति पृष्ठ २३५, पद्म । ४. पुरुषार्थसिद्ध युपाय, पं. दौलतराम कृत प्रशस्ति पृष्ठ १०५ ५. सामसार नाटक माध्यमाधक द्वार, पं. बनारसीदास पद्य ५६ पृष्ठ ३६३ ६. पुरुषार्थ सिद्ध युपाय (पं. विद्याधरसेठी) ७. वही (मराठी पद्यानुवादक-अज्ञात) पृष्ठ १२ प्रस्तावना ८. परमाध्यारमतरंगिणी, मंगलाचरण पब २ ६. समयसार कलश २१८ १०. प्रवचनसार पद्य नं० २० ११. पुरुषार्थ सिद्ध युपाय (प० टोडरमल) मंगलाचरण पद्य १२. वही (मराठी पद्य अशात) मुखपृष्ठ
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ब्यक्तित्व तथा प्रभाव
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७६
प्रचन्द्र नाकार के रूप में साहित्य रसिकों को समस्त प्रकार के काव्यों में नाटक सर्वाधिक रमणीय प्रतीत होता है।' रमणीयता का कारण है नाटक में विविध प्रकार के संविधानों का होना। जिस प्रकार विविध रंगों से खचित चित्र सहृदय दर्शकों के चित्त में रस का स्रोत पैदा करता है, उसी प्रकार नाटक भी वेशभूषा, नत्य-गान नेपथ्य आदि विविध संविधानों से दर्शक के हृदय को आनंदित एवं प्रभावित करता है। इसीलिए नाट्यशास्त्र में नाटक की प्रशंमा यह कह कर की गई है कि ऐसा कोई ज्ञान, शिल्प, विद्या, योग अथवा कर्म नहीं है जिसे नाटक में न देखा जा सके। अतः भारतीय संस्कृत वाङमय में नाटक का विशेष महत्व है। नाटक के महत्व के कारण नाटककार का महत्व और भी बढ़ जाता है।
कुन्दकुन्द के सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ समयप्राभत पर आवार्य अमृनचन्द्र ने "आत्मख्याति" टोका लिखी है, उसमें यथास्थान पद्यों का भी प्रयोग किया है। उन्होंने इस टीका एवं पद्यों की अभिव्यक्ति को नाटकीय शैली में प्रस्तत कर उसे नाटक का रूप दे दिया है। साथ ही अपनी उक्त टीकाकृति में नाटकीय तत्त्वों का समावेश भी किया है। इसलिए वे अपनी कृति को नाटकीय रूप प्रदान करने में सफल हुए हैं। प्रा. अमृतचन्द्र के साहित्यानशीलन से उनके प्रौढ़तम गद्य, रसानभूतिमय पद्य तथा रमणीय नाट्य साहित्य के दर्शन होते हैं। प्राचार्य अमृतचन्द्र को नाटककार के रूप में नाटयकला की कसौटी पर कसने के लिए नाटक के स्वरूप तथा उसका पर दृष्टिपात करना आवश्यक है।
अवस्था के अनुकरण को नाट्य कहते हैं । अवस्था से तात्पर्य है पात्रों की चालढाल, वेशभूषा, आलाप-प्रलाप आदि । वस्तु, नेता तथा रसाभिव्यक्ति के आधार पर नाटकों में भेद किए जाते हैं। नाटक के प्रारम्भ में रंगभूमि रची जाती है । वहाँ दर्शक, नायक तथा सभासदों की
१. काव्येषु नाटकं रम्यम्, (दशरूपक प्रस्तावना पृष्ठ ६) २. संस्कृत साहित्य का इतिहास, डॉ० बलदेव प्रसाद उपाध्याय, संस्करण १९६७
पृष्ठ ४४५ ३. न तज्ज्ञानं न तच्छिल्प न सा विद्या न सा कला।
न' स योगो न तत्कर्म नादयेऽस्मिन् न दृश्यते ।। नाट्यशास्त्र १/१४ ४. दशरूपकम्, प्रथम प्रकाश, पच ऋकांक ७ । ५. दशरूपकम्, प्रथम प्रकाण, पद्य क्रमांक ११
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८० ।
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तुत्व
सभा होती है और नृत्य करने वाले होते हैं, जो विविध प्रकार के स्वांग प्रस्तुत करते हैं । शृंगारादि आठ रसों को प्रदर्शित करते हैं । ये आठ रस हैं - शृंगार, हास्य, रौद्र, करुण, बीर, भयानक, बीभत्स और अद्भुत । ये सभी लौकिक रस हैं परन्तु नववां रस शांतरस है जो अलौकिक रस है। उक्त प्रारम्भिक आठ रसों का अधिकार नाटक या नृत्य में होता है, परम शांतरस का नृत्य में अधिकार नहीं होता। सामान्यतया रस का स्वरूप है ज्ञान में ज्ञय का झलकना तथा ज्ञय में ज्ञान का तन्मय (तदाकार) होना।' अथवा काव्य के पठन, श्रवण या दर्शन से जिस से जिस आनन्द का अनुभव होता है उसे भी रस कहते हैं। नाटक में एक प्रमख रस होता है जिसका परिपाक एवं चरमोत्कर्ष नाटकान्त में पाया जाता है। यह प्रमुख रस अंगभूत रस कहलाता है तथा अन्य रसों की अभिव्यक्ति अंगीभूत रसों के रूप में की जाती है ।
आचार्य अमृतचन्द्र ने समयप्राभूत की टोका "आत्मख्याति" को नाटकीय शैली में नाटकीय तत्त्वों का यथास्थान' समावेश करते हुए प्रस्तुत किया है । उन्होंने जीवतत्त्व वी सांसारिक अवस्थाओं का पात्राभिनय द्वारा अनुकरण किया है। वे अवस्थाएँ हैं -कर्ता-कर्म, पुण्य-पाप, आरब, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष तथा सर्वरिशुद्धज्ञान 1 टीकाकार ने प्रत्येक अवस्था को एक स्वांग के रूप में प्रस्तुत किया है। इस नाटक की कथावस्तु मुख्य रूप से शुद्धात्मा का प्रकाशन करना है। इसे हम अधिकारिक कथावस्तु कह सकते हैं तथा गौणरूप से नवतत्त्वों का और कर्ता कर्म का स्वरूप प्रदर्शन करना है, जिसे प्रासंगिक कथावस्तु कह सकते हैं। नवतत्त्वों के वर्णन में शुद्धारमा ही सर्वत्र उपादेय एवं व्याप्त रहता है।" "ज्ञानज्योति" अथवा सम्यम्झान इस नाटक का नायक है। वह नायक परमउदात्त और अत्यन्त धीर है। वह समस्त लोकालोक को
१. समयमाभृत, प्रास्मख्याति टीका, पं. जयनंदजी (अनुवादक) पृष्ठ ६.३ (फलटण
२४५५ वी से.) २. देशरूपकम्, प्रस्तावना पृष्ठ ३५ ३. समयमाभृत, पं. जयचंदजी (फलटण) पृष्ठ ६३ ४. "तावत् समय एवाभिधीयते" समयसार, गाथा २ (प्रात्मख्याति टीका) पृष्ठ ७ ५. "तन्मुक्त्वा नक्तत्वसंततिमिमामारमायमेकोऽस्तु नः ।
आत्मख्याति टीका गाथा १२, कलश क्रमांक ६
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यक्तित्व तथा प्रभाव !
साक्षात् जानता है । वह उदार, गम्भीर, महान अभ्यदय बाला, आसवरूपी योद्धा को जीतने वाला, ज्ञानरूपी धनुष को धारण करने वाला तथा अजेय है । उसका भोजन आनन्दरूप अमृत है। वह जप्ति-क्रियारूप सहज अवस्था को नचाता है। वह आकूलतारहित (अनावल) तथा परिग्रह रहित (निरुपाधि) है। उमको ज्ञानसुधांशु तथा चिन्मयज्योति' नाम से भी अभिहित किया है। उस सहज परमानन्द रस पूर्ण ज्ञान को मोक्ष अधिकार में कृतकृत्य तथा जयवन्त प्रवर्तने वाला लिखा है।' अन्तिम में से समस्त जनता प्राःद साव का भलीभांति नाश करने वाला, पद-पद पर बंध मोक्ष की रचना से दूर रहने वाला, प्रत्यंत बाद, निजज्ञान रस के विस्तार से अचल परिपूर्ण तेजशाला, टंकोत्कीर्ण प्रकट महिमा वाला, ज्ञानपुंज स्फुरित होने बाला लिखा है । नाटककार अमृतचन्द्र ने समयसार नाटक का अंगभूत (प्रधान) रम शांतरस दर्शाया है। शांतरस अलौकिक रस है। ज्ञानज्योति नायक भी अलौकिक नायक है। शुद्धात्मा का नाटक भी अलौकिक नाटक है। इसके नाटककार अमृत चन्द्र भी अलौकिक व्यक्ति हैं, ऐसे नाटक का दर्शक सम्यग्दृष्टि चैतन्यमूर्ति शानी अलौकिक आत्मा है । इसीलिए नाटककार ने समस्त लौकिक जनों को अलौकिक शांतरस में मग्न होने के लिए प्रेरित किया है। वे लिखते हैं - "हे जगज्जीवों अनादि संसार से लेकर आज तक अनुभव किये गये मोह को अब तो छोड़ो और रसिकजनों को रुचिकर, उदित होते हुए ज्ञान का आस्वादन करो ।' यह ज्ञान समुद्र भगवान
१. ज्ञानज्योतिः स्फुरति परमोदात्तमत्यंत धोर।।
साक्षात् कुर्वन-निरुपधि पृथग्द्रव्य निर्भासि विश्वम् ।। समयसार कलश कमांक ४६ २. प्रथमहामदनिर्भरमंथर, समररंगारागतमास्त्रवम् । प्रयमुदारगंभीरमहोदयो, जयति दुजंयबोधधनुर्धरः ।।
समयसार, अाम्रव अधिकार, कलश नं. ११३ ३. प्रानन्दामतनिस्यभोजि सहजावस्थां स्फुटं नाटयद् । धीरोदारमनाकुलं निरुपघि ज्ञानं समुन्मज्जति ।।
___ समयसार, बंध अधिकार, कलश नं. १६३ ४. समयसार कला १०० (अवबोधसुघाप्लवः) ५. वही, कलश १२५ ६. वही, कलश १८॥
७. वही, कलश १६३ ८. 'चिन्मूरत नाटक देखन हारो' नाटक समयसार, पं. बनारसीदास, पृष्ठ ६३ ६. त्यजतु जगदिदानी मोहमाजन्मलीनं, रसयत रसिकानां रोचनं ज्ञानमुद्यत् ।
समयसार कलश क्रमांक २२
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८२ ]
। आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृ स्त्र
आत्मा, विभ्रमरूपी चादर को समूलतया डुबोकर, स्वयं सर्वा गरूप से प्रगट हुआ है। इसलिए अब समस्तलोक इसके शांतरस में एक साथ मग्न हो जाओ, वह शांतरस समस्त लोक पर्यन्त उछल रहा है।' इसप्रकार उक्त नाटक में शांतरस को प्रमुख रूप से रसाभिव्यक्ति हुई है। विशेष इतना है कि सांसारिक (लौकिक) नाटकों में ये रस जड़त्व को लिए होते हैं, परन्तु इस समयसार कलश टीका में ये रस आध्यात्मिकता से ओतप्रोत हैं। ये रस अात्मा के विकास को पूर्णता प्रदान करने में समर्थ हैं।
__"टीकाकार ने आरम्भ की ३८ गाथाओं की टीका को रंगभूमि स्थल के रूप में प्रस्तुत किया है। वहाँ नाटक देखने वाले सम्यग्दृष्टि दर्शक हैं और अन्य मिथ्यादृष्टि पुरुषों को सभा है, । नृत्य करने वाले जीव और अजोत्र पदार्थ हैं। उन दोनों के एकपने रूप तथा कर्ताकर्मपने आदि रूप स्वांग है । वे परस्पर आठ रमरूप होकर परिणमते हैं, वही उनका नत्य है। यहां सम्माधि जोर सी एन स्थांग | पंपांधता जानकर शांतरस में निमग्न रहता है। अज्ञानी उनमें यथार्थपना मान लीन हो जाते हैं। उन्हें भी यथार्थ ज्ञान कराकर शांतारस में लीन कराकर सम्यग्दष्टि बनाते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र ने विश्व के रंगमंच पर नवतत्त्वों का स्वांग दिखलाया है। परमशांतरस की पार्श्वभूमि पर नबतत्त्वों के नाट्य में नवरसों का आविष्कार अपूर्व एवं अलौकिक है, क्योंकि वैसा अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलता ।५ आचार्य अमृतचन्द्र की कृतियों के विशिष्ट अध्येता डॉ. ए. एन. उपाध्ये ने उनको टोकाकृतियों को नाटकीय शैली का समर्थन करते हआ लिखा है-"यद्यपि पंचास्तिकाय, प्रवचनसार तथा समयसार को सामान्यतया नाटकत्रयी पुकारा जाता है, परन्तु वास्तव
१, मज्जन्तु निर्भरममी सममेव लोका, आलोकमुच्छल ति शांतरसे समस्ताः । पाप्लान्य विभ्रम तिरस्करिणी भरेण प्रोन्मग्न एष भगवानवबोधसिंधुः ।।
समयसार कलश क्रमांक ३२ २. अमृतज्योति, प्रस्तावना, नानकचंद जैन-एडवोकेट रोहतक, १९६१ ३, """करत न होय तिन्हको तमासगीर है।" समयसारनाटक, पृष्ठ ७८ ४. समयप्राभूत, प्रात्मख्याति टीका अनुवादक पं. जयचंद जी छाबड़ा (फलटण रो
प्रकाशित दी. नि. सं० २४५ पृष्ठ ६३-६४) ५. प्राचार्य शांतिसागर जन्मशताब्दी स्मृतिग्रन्थ, द्वितीय भाग पूरुठ २६
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
में केवल समयसार ही ऐसा ग्रन्थ है जिसके प्रकरण “संसार के नाटक" को संकेत करते हैं, जिसमें जीव तथा अजीव नाटकीय पात्र हैं जो मानव आदि का स्वांग प्रदर्शन करते हैं, इसलिए इसे नाटक पुकारा जाना उचित है। इसी कारण प्राभतत्रयी को नाटक नयी पुकारा जाने लगा। अमृतचन्द्र सर्वप्रथम व्यक्ति प्रतीत होते हैं, जिन्होंने समयसार को नाटकीय रूप प्रदान किया है उन्होंने अपनी टीका में इस सम्बन्धी विभिन्न संकेतों को जहां तहां विकोण कर उसे अत्यधिक, उचित नाटकीय रूप प्रदान करना चाहा है। प्रारंभिक विभाग को पूर्वरंग नाम से अभिहित किया है। उक्त कृति को अंकों में विभाजित किया गया है। नाटकीय बाब्दावलि के प्रविशति, निष्क्रांतः इत्यादि शब्द अंक के प्रारंभ तथा अन्त में प्रयुक्त हुए हैं । प्राचार्य अमृतचन्द्र जहां तहां और भी ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं जो संस्कृत नाटकों में सामान्यतया उपलब्ध होते हैं। एक बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि एम. शूयलर की संस्कृत नाटकों की नामानक्रमणिका में प्राचार्य अमृतचन्द्र को, उनके नाम के समक्ष समयसार के साथ नाटककार के रूप में उल्लेखित किया गया है ।२ आचार्य अमृतचन्द्र की प्रमुख टीका कृति "प्रात्मख्याति' में नाटकीय तत्त्व यत्र तत्र प्रचुरमात्रा में विकीर्ण हैं, उदाहरण के लिए उन तत्वों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है। आत्मख्याति टीका के प्रारम्भिक कलश में नांदीपाठ, द्वितीय कलश में "आशीवर्चन", तृतीय कलश में अनुबन्ध चतुष्टय, टीका
१. प्रवचनसार, प्रस्तावना, पृष्ट ४६ (अंग्रेजी अनुवाद)
'Though it has been usual to call Pancastikaya, Pravacanasara and Samayasara as Nataka-trai, it is, in fact, Samayasara alone, whose contcats refer to the drama of Samayasara in which live ead Ajive are thedramatis personae playing the the role of akrave etc., that is fit to be called Nataka. It is from this that all the three works which constituted the Prabhrlatrayi came to be called Natakas. Amritacandra appears to the first to give this desisnation 10 Samayasara, and he wanted to make it more appropriate by various indications scattered all over his commentary. The introductory section is called "Furva Ranga', thework isdivided into Ankas or acts, dramatic terms like niskrantah, pravisati etc. are used at the end and beginaig of different chaplers from the end of the second chapter, and he uses here and there, other terms quite usual in Sanskrit dramas." (Sec-Pravacanasara latroduction, Pay:46 and also Fontinute) i.e. It is interesting to note that Amriacandra, with Samayasara against his name, Had a place, as a playwright, in M. schuyler's Bibliography of the Sanskrit Drama, Page 24
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[ आचार्य अमनचन्द्र : व्यक्तित्त्व एवं कर्तृत्व
रंभ में "प्रथमुत्रावतारः" शब्दों द्वारा "सूत्रधार" तथा प्रारम्भिक ३० गाथाओं की टीका द्वारा पूर्वरंग स्थल की सुचना इत्यादि संकेत नाट्यशास्त्रीय परम्परा के परिचायक हैं। समय (शुद्धात्मा) को समयसारनाटक का नायक बताया है जो शांतरस का रसिया है, धीर, उदात्त एवं अनाकुल इन तीनों शांत रस के प्राभूषणों से सुसज्जित है ।' "मज्जंतु" शब्द द्वारा नाटाकारंभ अथवा अंकारम्भ की सूचना दी है। साथ ही शांतरस में मग्न होने की समस्त जगत् को प्रेरणा की है। नाटककार अमृतचन्द्र स्वयं लिखते हैं कि महान अविवेक के नाटक में वर्णादिमान पुद्गल ही नाचता है, अन्य नहीं। जीव अजीव के एकस्व रूप स्वांग धारण करने पर मोह ही नाचता है। किन्तु "समय" नायक उक्त नत्य को देखता-जानता है । जब वे ही जीव-अजीव एकत्व रूप स्वांगघरकर कर्ता-कर्म के वेश में रंगमंच पर पाते हैं, तब भी ज्ञानज्योति नायक परम उदात्त, अत्यंत धीर तथा गंभीर ही बना रहता है । नायक की उक्त गंभीरता तथा ज्ञानप्रकाश की स्थिरता के कारण कतकिम रूप पात्र अपना स्वांग छोड़कर रंगमंच से चले जाते हैं । यही द्वितीय अंक समाप्त होता है। ततीय अंक में प्रारंभ में पुण्यपाप रूप दो पात्रों के वेश में एक कर्म ही प्रवेश करता है, परन्तु निष्कर्म अवस्था से प्रतिबद्ध, उत्कृष्ट रसयुक्त ज्ञानरूप नायक के दौड़कर आने पर कर्म उक्त दोनों वेशों का परित्याग कर रंगभूमि छोड़कर चला जाता है। प्रत्येक अंक के प्रारम्भ में नायक की श्रेष्ठता तथा अंकांत में उसके पुरुषार्थ और प्रभाव के प्रकर्षरून को प्रदर्शित किया गया है । तृतीय अंक की समाप्ति पर ज्ञानज्योति नायक के प्रकर्षरूप का चित्रण करते हुए नाटककार लिखते हैं कि मोहरूपी मदिरा
१. समयसार कलश ३३, आत्मख्याति टीका गाथा ३६ से ४३ की उस्थानिका । २. वही. कलश ३२ ३. अस्मिन्ननादिनि महत्यविवेक नाटये वर्णादिमान्नटति (समयसार कलश ४४) ४. "मोहः नानटीति" (वही, कलश ४३) ५. समयसार कलश, ६६ तथा ४६ ६. इति जीवाजीवो कतृ कर्मवेषविमुको निष्क्रांतौ । प्रारमख्याति टीका पृष्ट २२८ । ७, अथकमेव कम द्विपात्रीभूय पुण्यपापरूपेण प्रविशति । वही, पृष्ठ २२६ ८. सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनान्मोक्षस्य हेतुर्भवन् ।
नष्कर्यप्रतिबद्ध मुद्धतरसंज्ञानं स्वयं धावति ।। समयसार कलश १०६
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ।
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के पीने से, भ्रमरस के भार के कारण, शुभाशुभ कर्म के भेदरूप उन्माद को नचाने वाले समस्तकों को अपने बल द्वारा ज्ञानज्योति समुल उलाड़ फेंकती है और अपने सामथ्र्य को प्रगट करती है । वह ज्ञानज्योति अधकार को निगल जाती है, लीलामात्र (क्षणभर) में विकसित हो जाती है और परमकलारूप केवलज्ञान के साथ कोड़ा करती है। चतुर्थ अंक के प्रारम्भ में आस्रव स्वांग धारण कर मदोन्मत्त योद्धा को भांति प्रवेश करता है। रंगभूमि का स्वरूप अब समरभूमि में परिणत हो जाता है। समरांगण में आये, महामद से भरे हुए मदोन्मत्त आसब को धनुर्धारी दुर्जय ज्ञानरूप नायक जीत लेता है। यह ज्ञानयोद्धा उदार गम्भीर तथा महान उदय वाला है । २ इस अंक में समभूमि तथा योद्धाओं के प्रदर्शन द्वारा नाटककार ने वीर रस की सष्टि की है। आगे पांचवें तथा छठवें अंक में संवर तथा निर्जरा रूप दो पात्र क्रमशः रंगमन्च पर आते है तथा अपना अपना स्वरूप प्रदर्शित कर चले जाते हैं। ज्ञाननायक उन दोनों के स्वरूप का यथावत् ज्ञाता मात्र बना रहता है। सांतवें अंक में "बन्ध" रूा स्वांग प्रवेश करता है जो राग के उदयरूप महारस-मदिरा के द्वारा समस्त जगत् को मतवाला करके, रमभाव से राम के मतवालेपन से नांचता है, उसे भी ज्ञाननायक हटा देता है तथा स्वयं उदय को प्राप्त होता है । ' पाठवें अंक में 'मोक्ष'" रूप स्वांग प्रवेश करता है ।" तथा बह भी अपना स्वरूप दिखाकर रंगमन्च से चला जाता है । इस प्रकार रंगभूमि पर जीव-अजीव कर्ता-कर्म, पुण्यापा, आस्रव, सबर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ये आठ स्वांग पाये, उन्होंने अपने अपने ढंग से नृत्य किया, अपना स्वरूप प्रदर्शन किया
SC
१. भदोन्माद भमरा भरान्नाटयपीत मोहूं,
मूलोन्मुलं ग कलमपि नाम कृत्वा चलेन । हेलो मीलत्पर मकन्नया साचं मारब्धकेन्नि,
जान ज्योतिः कलिनतमः प्रोजजम्भे भरेगा ।। समयगार लश ११२ ।। २. अथ महामदनिर्भरमन्थर, मभररंगपरागतमास्रव ।
प्रयमुदारगंभीरमहोदयो, जति दुर्जयत्रोध वनुर्धरः ।। ११३ ।। ३. रागोद्गारमहार सेन सकलं कृत्वा प्रमहं जगत् ।।
श्रीडन्तं रसभावनिर्भरमहानाट्येन बंधं धुनत्....जानं समुन्मति ।। १६३ ।। । ४. अय प्रवित्ति मोक्षः । पृष्ठ ४१२
५. इति मोक्षो निष्क्रांतः । पृष्ट ४४०
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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
तथा रंगमन्च से चले गये। परन्तु ज्ञाननायक इन सभी का ज्ञाता दुष्टा बना रहता हैं । अंतिम (नवमें) अंक में शानज्योति आत्मा (समय-रूप) नायक अपने "सर्व विशुद्धज्ञानरूप" असली स्वरूप के साथ रंगमन्च पर आता है। और ज्ञानीजनों को अपना परम उदार उदात्त स्वरूप दिखाकर सदाकाल प्रशमरस (शांतरस) के पान की प्रेरणा करता है। इसकी प्रेरणा है कि हे ज्ञानीजनों, अविरतपने से (निरन्तर कर्मचेतना तथा कर्मफल चेतना की बिरक्तिरूप भावना को नचाकर, समस्त अज्ञानचेतना के प्रलय को स्पष्टतया नचाकर, निज रस से प्राप्त अपने स्वभाव को पूर्ण करके. अपनी ज्ञानचेतना को आनन्द पूर्वक नचाते हुए, अब सदाकाल प्रशभरस का पान करो ।२ इस अन्तिम अंक के अंत में नाटक का समापन करते हुए नाटककार अमृतचन्द्र ने ज्ञानस्वरूपी आत्म-नायक की सर्वअसा प्रदर्शित कर, उसका है। आलम्बन करने की प्ररणा दी है। वे लिखते हैं कि यह समयसार ही एक मात्र जगत को जानने वाला अद्वितीय तथा अक्षय नेत्र है जो अपने आनन्दमय विज्ञानधन स्वभाव को प्रत्यक्ष कर पूर्णता को प्राप्त होता है। ऐसे समयमार के अनुभव की प्रेरणा हेतु वे लिखते हैं मि-अधिक कथन करने से क्या प्रयोजन ? बहन विकल्पों से भी प्रब बस होमो, बस होओ तथा इस एकमात्र रमार्य स्वरूप का ही निरन्तर अनभव करो। निजरस के प्रसार से पूर्णज्ञान स्फुरायमान होता है ऐसे समयसार से श्रेष्ठ अन्य कोई पदार्थ नहीं है। इस तरह आचार्य
मृतनन्द्रका उपतित्व सपाल नाटकामार के. खन में प्रस्पूटित पाते हैं। उनकी आत्मख्याति समयसारकलशयुक्त टीका विश्व की प्रथम संस्कृत
१. अथ प्रविशति मर्ग विशुद्धज्ञानम् समयसार प्रात्मख्याति टीका पष्ट ४४१ २. अत्यन्त भावयित्वा विरतिमविरतं कर्मशास्तत्फलाच्च ।
प्रस्पष्ट नायित्वा प्रलयनमखिलाज्ञान संचेतनावाः ।। पुर्ण कृत्वा स्वभाव स्वरसपरिगत ज्ञानचेतनां स्वां,
गानन्दं नाटयतः प्रखमरसमितः सर्वकालं पिबन्तु ।। समयसार कलश २३३ ।। ३. इदमेक जगञ्चक्ष रक्ष याति पूर्णतां,
विज्ञानघनमानन्दमयमध्यक्षता तयत् ।। समयसार कलश २४५ ।। ४. अलमलमति जगदु विकल्परनपरयमिह परमार्थचस्यता नित्यमेकः ।
स्वरसविसरपूर्णज्ञान विस्फूतिमात्रान्न खलु रामयसारादुत्तरं किचिदस्ति ।। २४४ ॥
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
[ ५७ काव्यकृति मानी जा सकती है, ।' जो नाटकीय शैलो में उपलब्ध है।
नाटकों में प्रतीकनाटक भी होते हैं। प्रात्मख्याति टोका "प्रतीकनाटक" की कोटि में आती है। प्रतीक नाटकों में भावात्मक तत्त्वों अथवा मनोगत भावों को पात्र बनाकर नाटकीय अभिनय दिखाया जाता है । इस प्रकार का प्रयास सर्वप्रथम अश्वघोष ने किया है। उनकी रचनाओं में मनोभावों को पात्र बनाकर प्राध्यत्मिक चितन प्रतीकात्मक पद्धति से प्रस्तुत किया गया है । ऐसे प्रतीक नाटकों की रचना हुई भी हो तो ऐसी रचनाएं प्रकाश में नहीं पापाई हैं। इस शैली की प्रमुख विशेषता मानव मन के सूक्ष्मतत्वों को पात्रों के रूप में प्रदर्शित करके अध्यात्म के दुय रहस्यों को बोधगम्य बनाने के प्रयास में झलकती है। दार्शनिक विषय इनने गहन एवं शुष्क होते हैं कि उनमें रस उत्पन्न करना मरूभूमि में जलस्रोत प्रवाहित करने जैसा दूष्कर कार्य हैं। उपर्य क्त तथ्यों के प्रकाश में हमें आचार्य अमृतचन्द्र एक सफलतम प्रतीकनाटक विशेषज्ञ प्रतीत होते हैं । उनकी प्रात्मख्याति टीका में रमणीय नाटयशली अथवा प्रतीकात्मक गादमागली के बनते हैं : ३. तपाद्र ने हार भावात्मवा नवतत्त्वों ककम तथा पुण्यपाप भादि तथ्यों को मानबोय रूप में पात्राभिनय तथा विभिन्न स्वांगों द्वारा व्यक्त किया है। गद्यात्मक-टीका तथा पद्यात्मकाकलशों-दोनों के द्वारा अध्यात्म के सूक्ष्म व गहनतत्वों को सुगम, सुबोध तथा बालबुद्धिगम्य बनाने में अपूर्व सफलता पाई है। वे स्वय लिखते हैं कि अब अज्ञानी अप्रतिवद्ध को समझाने का प्रयास करते हैं। वे अपनी अभिनय शैली द्वारा जैन अध्यात्म एवं दर्शन के रहस्योद्घाटन में तो सफलता प्राप्त करते ही हैं साथ ही भावानुकुल गद्य तथा प्रसंगानुकुल पञ्च रचना द्वारा स्वानुभूतिरूप प्रानन्द रस की अजस्र धारा प्रवाहित करने में भी सफल होते हैं। उन्होंने अभिनय शैली में अध्यात्म सधारा बहाकर अत्यंत दुष्कार कार्य को भी मुकर कर दिखाया है। नाटककार की सफलता एवं उद्देश्य पूर्ति इसी में है कि वह सहृदजनों को अलौकिक
१. निमामृतपान (अमृत चन्द्रकृत कलशों का पद्यानुवाद, अनुवादक-याचार्य
विद्यासागर) प्रस्तावना पृष्ठ “घ” | २. हिन्दी नाटक-उद्भव और विकास, पृष्ट १२८, डॉ० दशरथ प्रोझा, प्रथम
संस्करण, १९७० ३. 'प्रयापति बुद्धबोधनाय व्यवसायः क्रियते" समयसार गाथा २३ की टीका।
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८ ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्त्व एवं कर्तृत्त्व आनन्द का रसास्वाद करा सके। नाटकों के अनुशीलन का फल ही स्वसंवेद्य परमानन्द रूप रसास्वाद है।' अमृतचन्द्र ऐसे ही परमानन्द रस के रसास्वादन हेतु टीकाएं रची हैं। प्रवचनसार की तत्त्वदीपिका टीका के आरम्भ में ही वे इस बात की घोषणा करते हैं कि परमानन्द रूप सूधारस के पिपासुजनों एवं भव्यजीवों के हित करने हेतु तत्त्वस्वरूप स्पष्ट करने वाली टीका रची जाती है। उनकी आत्मख्याति टीका में अध्यात्मरस तथा शांत रस का समुद्र लहराता है । उसमें निजस्वरूप का परमरस लबालब भरा हुआ है। अमृतचन्द्र ऐसे ही समयसार को नमस्कार करते हैं, जो स्वानुभव में प्रकाशित होता है। इस प्रकार उक्त प्रात्मख्याति समयसार कलश टीका प्रतीकनाटकों के इतिहास की परम्परा की पुनर्स्थापक तथा दसवीं विक्रम सदी की सर्सप्रथम प्रतीक नाटक कृति सिद्ध होती है । साथ ही उक्त कृति तत्कालीन समाज की अभिरूचि की भी परिचायक है। इस नाट्यकृति की एक विशेषता यह भी है कि इसमें दर्शक और पात्र अभेद रूप से हैं। इस अध्यात्म ग्रन्थ में नाटक के रूपक, रंगविन्यास तथा तत्कालीन जनरूचि के दर्शन होते हैं। यद्यपि कुछ विचारकों का विचार है कि छंद बाहुल्ययक्त कृति नाटक नहीं कहला सकती। समयसार की आत्मख्याति टीका में भी छंदों की अधिकता है, अतः उसे भी नाट्यकृति मानना संगत नहीं है, किन्तु उपर्युक्त विचार उचित प्रतीत नहीं होता; क्योंकि सभी काव्यों में नाटकीयता और सभी नाटकों में काव्यात्मकता पाई जाती है। मानव जब भावातिरेक में
१. दशरूपका, (धनंजयकृत) प्रथम प्रकाश, श्लोक ६ पृष्ठ ३, ४ २ परमानन्दसुधारस पिघासिताना हिताय मध्यानाम् । क्रियते दिततत्त्वा प्रवचनसारस्य वृत्तिरियम् ।। ३ ।।
प्रवचनसार (तत्त्वदीपिका टीका) पद्म-३ ३. निज स्वरूप को परमरस जाने भरवो अपार । बन्दों परमानन्दमय समयसार अविकार ।।
नाटक समयसार, पं. बनारसीदास ४. 'नमः गमयसाराय स्वानुभूत्या चत्रासः । .......' मात्मस्याति टीका, पद्य १ ५. समयसार सलश नाटकम्, प्रस्तावना पृष्ठ ४-५,मराठी भाषांतरकार
क्षुश्मादिसागर | बीर संवत् २४६३ (१९७० ईस्वी) ६. टी, सी. इलियट- Problems of the Drana, Page 29.
"All poetry tends towards drama, and 8]l drama towards postry."
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[ ८६
अपने विचारों को व्यक्त करता है, तब उसकी वह अभिव्यक्ति छदात्मक होती है। आचार्य अमृतचन्द्र की टीकाएं भी इसी विशेषता से मण्डित हैं। अनभूति की प्रबलता में उनको अभिव्यक्ति मा से पद्य का रूप धारण करती है, इसलिए अपनी टीका में उन्होंने पद्यांशों के बीच यत्र तत्र पद्यों की समायोजना भी की है। वे रससिद्ध नाटककार तथा स्वयंसिद्ध कवीन्द्र थे । इस प्रकार अमृतचन्द्र के सर्वतोमुखी व्यक्तित्व का एक पहलू 'नाटककार" के रूप में विद्यमान है।
अम तचन्द्र काव्यकार के रूप में प्राचार्य अमृतचन्द्र के बहुमुखी व्यक्तित्व के अंतर्गत उत्कृष्ट काव्यकार का रूप भी उनकी कृतियों में प्रस्फुटित है । वे प्रौढ़तम संस्कृत गद्य लेखक, रससिद्ध पद्य प्रणेता तथा सफल चम्पूकाधकार है। कुन्दकुन्द आचार्य के समधाभत, प्रवचनसार तथा पंचास्तिकाय पर लिखित गद्य टाकाएं उनके असाधारण, चमत्कारी एवं अर्थगांभीर्ययुक्त गद्य की परिचायक है । समयसार कलश, तत्त्वार्थसार, पुरुषार्थसिद्धय पश्य तथा लघुतत्त्वस्फोट ये कृतियां उनके सरस, सुबोध, मनोहारि पद्य के प्रमाण हैं। समयप्राभूत की प्रात्मख्याति गय टीका तथा उसमें यथासमय आगत पद्यों का समुचित प्रयोग उनकी सफल चम्पूकाव्य शैली के उदाहरण हैं। यहां हम उनके काव्यकार के रूप का गद्य, पद्य तथा चम्पू काप की दृष्टि से मूल्यांकन प्रस्तुत करते हैं ।
__काव्यशास्त्रकार रसयुक्त वाक्य को काव्य की सज्ञा देते है ।' तथा अंतरात्मा की अनुभूति को रस' कहते हैं । भावों के उत्कर्ष को भी "रस" नाम अभिहित किया जाता है। जैन साहित्य निर्माताओं ने लौकिक तथा अलौकिक दोनों ही अवस्थानों में अनिर्वचनीय आनन्द को को रस कहा है। अध्यात्म साहित्य में निश्चयनय की शैली के कथनानुसार आत्मानुभूति को ही रस माना गया है ।
१. (विश्वनाथ) 'वाक्यं रसात्मकं काव्यम् ।" काव्यादर्श २. 'रस्वते अन्तरात्मनाऽनुभूयते इति रसः" अभिधान गजेन्द्र ३. 'भावोत्कर्षा रमः स्मृतः" हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन, भाग १
डा. नेमिचन्द्र, पृष्ठ २२६ ४. वही, पृष्ठ २२७
५. वही, पृष्ठ २२७
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[ आचार्य अमृत चन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व आचार्य अमृनचन्द्र का समग्न बाङमय, चाहे वह गद्य हो, पद्य हो अथवा मिश्र, रसाप्लावित है । पद-पद पर उनके वाक्यों से अध्यात्म का रस छलकता है। उनके पद्यों में आत्मानभूति का रसातिरेक यत्र तत्र सर्वत्र द्रष्टव्य है। उनकी आत्मख्याति समयसार कलश युक्त टीका में निश्चयनय की कथ नशेनी द्वारा प्रात्मानभूनि का रस का सष्ठ परिपाक हआ है । अनिर्वचनीय आनन्द के उल्लेख भी उसमें उपलब्ध होते हैं । उक्त टी. के मंगलाचरण रूप प्रारम्भिक पद्य में अपने शुद्धात्मा को नमस्कार करते हए लिखा है कि द्रव्यकर्म, भावकर्म तथा नोकर्म से रहित शुद्धात्मा समयसार है उसे नमस्कार हो। वह शुद्धात्मा अनुभूति के द्वारा प्रकाशित होता है। यह चैतन्य स्वभाव वाला है, सत्तास्वरूप है तथा समस्त पदार्थों को जानने वाला है। उक्त, शुद्धात्मा की अनुभूति शुद्धनय निश्चयनय के आश्रय से होती है । वह आत्मानुभूति ज्ञानानुभूति ही है। ऐसा जानकर आत्मा का अनुभव करना चाहिये। ऐसे आत्मानभव का आनन्द अनिर्वचनीय होता है। उममे दूतभाव नहीं होता। निश्चयनयाश्रित वह अनभव चैतन्य चमत्कार मात्र तेजपुञ्ज रूप होता है , ४ प्राचार्य अमृतचन्द्र ऐसे शुद्धात्मा के अनुभव में निरन्तर संलग्न रहते हैं। वे लिखते हैं कि शुद्धात्मा को ऐसी महिमा है, जिससे वह एकमात्र प्राने हो अनुभव से जानने में आता है तथा उस समय वह व्यक्त एवं ध्रव ज्ञान होता है । ऐसी अनन्त चैतन्य लक्षण वाली प्रात्म ज्योति जो एकत्व से च्यत न होने वाली तथा निर्मलता के साथ दिन होने वाली है, उसे वे सदा अनुभव करते हैं। इतना ही नहीं, उस चैतन्यज्योति आत्मा के अनुभव रस के रसास्वादन की प्रेरणा भी आचार्य अमृतचन्द्र ने की है । वे लिखते हैं - हे जगज्जनों अनादि संसार में भाज तक मोह का अनुभव किया है, उसे छोड़ो और प्रात्मरसिकजनों को रूचिकर,
१. नमः समयसाराय स्वानुभूत्या नकामते ।
चित्स्वभावाय भावार सर्वभावान्तरन्देि ।। समयसार कलश नं. १ २. भात्मानुभूतिरिति शुद्धनयात्मिकाया, ज्ञानानुभूतिरियम व जिले ति बुद्ध का।
अात्मानमात्मनि निवेश्य सुनिष्प्रकम्प, मेनोऽस्ति नित्यमवबोधघनः समन्तात् ।।१३।। ३. "अनुभव गुपयाते भाति न हूँतमेव" (समयसार कलश ६) ४. 'अतः शुद्धनयायत्त प्रत्याज्योतिश्च मास्ति तन् ।' (वही, कलमा ७) ५. "यात्मात्मानुभवकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्ते घ्र वम् ।" वहीं, कला १२ ६. "अपतितमिदमात्मज्योतिरूद्गच्छदच्छम् ।
राततमनुभवामोऽनन्त चैतन्य चिन्हम् ।। बही, कलश २०
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव !
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सदित होते हुए ज्ञानस्वभाव का अनुभव करो, रसास्वादन करो ।' उक्त शुद्धात्मा का रसास्वाद आबालवृद्ध सभी कर सकते हैं, परन्तु अनादिकालीन बन्ध के कारण पर द्रव्यों के साथ एकत्व बुद्धि के कारण अज्ञानी बना हुआ है, आत्मज्ञान प्रगट नहीं होना । आत्मानुभुति से माध्य निजात्मा की सिद्धि अन्य किसी प्रकार से नहीं हो सकती । इस प्रकार स्पष्ट है कि आचार्य अमृतचन्द्र जिस आत्मामृत के रसिक है उसी के रसिक बाल-वृद्ध सभी जगात् बने, तदर्थ वे अपने साहित्त्व द्वारा जगत् का परम कल्याणकारी प्रेरणा करते हैं । उनके समग्र साहित्य में यदि कोई रस अगोरस - प्रमुखरस के रूप में रसोत्कर्ष को प्राप्त हुआ है तो वह है शांतरस । शनिरस, अध्यात्म रस, परमानन्दामून, ज्ञानरस आदि सभी एकार्थवाची है। इस प्रकार अध्यात्मर सिक अमृतचन्द्र की रसानुभुति जब गद्यम्प में अभिव्यक्त हुई तो उनका गद्य राहज हो प्रौढ़तम गद्यवैशिष्ट्यों से अनुप्राणित हो गया और चे प्रौढ़तम गद्यकाव्यकार के रूप में प्रादुर्भून हए। जब भावोस्कर्ष आनन्दानभूति के रूप में प्रकट हुआ. तब उनको अभिव्यविम भावयाही द्याव्य के रूप में प्रवाहित हुई और वे ?ममिद्ध कवीन्द्र अथवा पद्य काम्पकार के रूप में प्रगट हुए। जब भावों का उतार चढ़ाव अनवरत प्रवाहित हुआ तब उनकी अभिव्यक्ति गद्य पद्यात्मक रहः पार वे चम्पकाव्य लेखक के रूप में व्यक्न हा। यहां उनके गद्यकाव्यकार के रूप का आकलन प्रस्तुत है।
अमृतचन्द्र गद्यकाव्यकार – विद्वानों ने गद्य को पदियों की निद्धता की कसौटी माना है । संस्कृत साहित्य में 'गद्य कवीनां निकष वदन्ति" की उक्ति प्रचलित है । पद्यकाव्य की अपेक्षा काव्यर्शनी में गद्य निखने वाले लेखकों की संख्या बहुत थोड़ी है। संस्कृत गद्यकाव्यकारों में सूबन्ध, बाणभट्ट, दण्डी, बावीसिंहमूरि आदि प्रमुख हैं।* आचार्य अमृतचन्द्र
१. ''वजनु जगदिदानी मोहमा गन्मलीन, रसयतु रसिवानां चनं ज्ञानमुद्यत् ।'
गमयमार कलश २२ २. यदा त् याबाल गोपालव सकल काल व स्वयनयानुभयपानेऽपि भगवत्यनुभूस्थागत्यात्मन्यनादि बन्चनशान परः समनस्वाध्य बनायन विमुहस्यध्यमहमनभुतिरित्यात्मज्ञान नोप्य नया ....."सध्यसिझेरन्यथा नुवपत्तिः ।"
समयसार गाथा १७ १८ श्री ग्रामख्यानि टीका ३. कादम्बरी, प्रस्तावना पृष्ठ २ यात्राकार-कृष्णमोहनावार. १६६३ ४. महाकवि हरिचन्द-एक अनुशीलन, पृष्ठ ४
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६२ ।
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र ; व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व भी इन्हीं प्रमुख गद्य काव्य लेखकों की कोटि में अग्रणी हैं। उनका गद्यसाहित्य प्रायः टोकायों के रू। में उपलब्ध है। उनके गद्य में प्रौढ़तम गद्यकाव्यों की अनेक विशेषताएं प्रस्फुटित हुई हैं। उनकी समस्त गद्यकृतिया में 'आत्मख्याति टोका" अपने आप में एक अनुपम निधि है। इसमें भाषा की गन्भोरता, प्रौढ़ता तथा महज'ना देखते ही बनती है। भाववाही, अर्थवाही, तथा मर्मस्पर्शी भाषा अध्यात्मतन्त्र के गुढ़तम रहस्यों की उदघाटक है। उनकी गद्य काव्यधारा नहीं महज तथा सुगम कहीं क्लिष्ट और दुर्गम, कभी मंदप्रवाहयुक्ल तो कभी तीमावेगयुक्त एवं रस-छंद तथा अलंकार बन तरंगिणी की भांति प्रतीत होनी है। संस्कृत
कार चन्द्रमा या कलशों पर टीका रचकर उसका नाम 'परमाध्यात्मतरंगिणी" रखा है । इस अध्यात्म तरंगिणी में अवगाहन करने वालों को अभूतपूर्व आनन्द तथा शांतिलाभ होता है। उनके मरल, सुगम लघुवाक्यावलि यक्त तथा चमत्कारी गद्य के कई उदाहरण उनकी टीका कृतियों में उपलब्ध हैं। उनमें से कुछ का अवलोकन कराया जाता है :
अमृतचन्द्र एक स्थल पर आत्मा की श्रेष्ठता, उसको ज्ञानमयता तथा ज्ञानस्वभाव के अवलम्बन का फल निरूपण करते हुए वे लिखते हैं"आत्मा किलरमार्थः, सस्तू ज्ञानम; आत्मा च एक पदार्थः, ततो ज्ञानमप्येकमेव पदं, यदेतत्त ज्ञान नामक पदं स एष परमार्थः साक्षानमोक्षोपायः ।......."ततो निरस्त समस्तभेदमात्मस्वभावभूत ज्ञान मेवेकमालम्व्यम् । तदालम्बनादेव भवति पदप्राप्तिः, नश्यति भ्रांतिः, भवत्यात्मलाभः, सिध्यत्यनात्मपरिहारः, न कम मुच्छन्न, न रागद्वेषमोहा इतालवतं, न पुनः कर्म प्रास्रवति, न पूनः कर्म बध्यते, पागबद्ध कर्म उपभुक्तं निर्जीयंत, कृत्स्नकर्माभावात साक्षान्मोक्षो भवति । '' यह है उनके सरल, सुगम,
१, मम पसार गाथा २०४ी दीका - उ: गद्य का हिन्दी अर्थ इस प्रकार है : ..
"अात्मा वास्तव ने परमपदार्थ है। वह (मात्मा) ज्ञान है। अात्मा एक ही पदार्म है. इसलिए ज्ञान भी एक ही पद है। यह ज्ञान नामक एक पद परमार्य रवरूर मोक्ष का उपाय है । ......."इलिए जिममें समस्त भेद दूर हुए हैं ऐसे अात्मस्वभात्रभूत एक ज्ञान का ही अवलम्बन करना चाहिय, उसके अवलम्बन से ही निजपद की प्राप्ति होती है, प्रांति का नाश होता है, ग्राामा का लाभ होता है और अनात्मा वा परिहार सिद्ध होता है ! ऐसा होने से-कर्म वल बान नहीं होने, रागढ़ प मोह उत्पन्न नहीं होते, अतः पुनः नवीन कर्मों का मानव नहीं होता, उससे पुनः नवीन कर्मबन्ध नहीं होता, पूर्वबद्ध कर्म मुक्त होकर निरा को प्राप्त हो जाता है, समस्त कर्मों का प्रभाव होने से साक्षात् मोक्ष होता है।"
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
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लघुवाक्यावलियुक्त तथा चमत्कारी गद्य का नमुना अध्यात्म के गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन करने हेतु उनके गद्य साहित्य में सर्वत्र दुष्टांतों का सहारा लिया गया है, उससे गद्य की सरलता तथा सुगमता और भी बढ़ जाती है। ऐसे दृष्टांतयुक्त गद्य का नमूना यहां दिया जाता है। इसमें धनार्थी का दृष्टांत देकर मोक्षार्थी को किस प्रकार ज्ञान, श्रद्धान तथा आचरण करना चाहिए यह बताया है। यथा - "यथा हि कश्चित्पुरुषोऽर्थार्थी प्रयत्नेन प्रथममेव राजानं जानीते, ततस्तमेव श्रद्धते ततस्तमेवानुचरति । तथात्मना मोक्षार्थिना प्रथममेवात्मा ज्ञातव्यः ततः स एव श्रद्धातच्यः, ततः स एवानुचरितव्यश्च साध्यसिद्धेस्तथान्यथोपपत्त्यनुपपत्तिम्याम् ""
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आचार्य अमृतचन्द्र के गद्य में सरलता, स्पष्टता के साथ साथ प्रौढ़ता के भी दर्शन होते हैं। एक ही पद अथवा प्रकरण का स्पष्टीकरण वे तब तक करते जाते हैं, जब तक वह भली प्रकार से पाठक के समझ में ना जावे | ऐसे स्पष्टीकरणों में भाषा का सहज प्रवाह एवं तारतम्म भी बना रहता है । उदाहरण के लिए एक स्थल पर "चारित्र" के स्वरूप का स्पष्टीकरण करते हुए वे लिखते हैं: - "स्वरूपे चरणं चारित्रं । स्वसमयप्रवृत्तिरित्यर्थः । तदेववस्तुस्वभावत्वाद्धर्मः । शुद्ध चैतन्य प्रकाशनमित्यर्थः । तदेव च यथावस्थितात्मगुणत्वात्साम्यम् । साम्यं तु दर्शनचारित्रमोहनीयोदयापादित समस्त मोक्षोभाभावादत्यन्त निर्विकारो जीवस्य परिणामः | २
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१. " जैसे निश्चय से कोई धन का अर्थी पुरुष बहुत उच्चम से पहले तो राजा को जाने ( कि यह राजा है), फिर उसी का श्रद्धान करे ( कि यह श्रवश्य राजा ही है, इसकी सेवा करने से अवश्य धन की प्राप्ति होगी और फिर उसी का अनुचरण करे ( सेवा करे, आज्ञा में रहे, उसे प्रसन्न करे ), इसी प्रकार मोक्षार्थी पुरुष को पहले तो आत्मा को जानना चाहिये और फिर उसी का श्रद्धान करना चाहिये कि यही ग्रात्मा है, इसका आचरण करने से अवश्य कर्मों से छूटा जा सकेगा और फिर उसी का अनुचरण करना चाहिये। साध्य सिद्धि इसी प्रकार संभव है अन्य प्रकार से अनुपपत्ति है । समयाभूत गाथा १७-१८ की भारमख्याति टीका
२. स्वरूप में चरण ( रमण करना) चारित्र है । स्वसमय में प्रवृत्ति करना ऐसा इसका वास है । यहो वस्तु का स्वभाव होने से धर्म है। शुद्धचैतन्य का प्रकाश करना यह इसका अर्थ है। वहीं यथावस्थित ग्रात्मगुण होने से साम्य है | और साम्य दर्शन तथा चारित्रमोहनीय के उदयजनित समस्त मोह और क्षोम के अभाव के कारण प्रत्यंत निर्विकारी जीव का परिणाम है। प्रवचनसार गाथा ७ की आरमख्याति टोका ।
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६४ ]
। आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व इस प्रकार का चारित्र प्रात्मा के होता है, इसकी सिद्धि हेतु वे लिखते हैं:
'यत्खलु द्रध्यं यस्मिन्काले येन भावेन परिणमति तत् तस्मिन् काले किलोष्पयपरिणतायःपिण्डवत्तन्मयं भवति । ततोऽयमात्मा धर्मेण परिणतो धर्म एत भवतीति सिद्धमात्मनश्चारित्रत्वम ।"५ ।
इस प्रकार जहां उन्होंने एक ओर सरल सुबोध और प्रवाही गद्य का प्रयोग किया है, वहीं उनके दार्शनिक, गहन एवं गूढ़तम सिद्धांतों के विवेचन में क्लिष्ट, दुर्गम तथा प्रौढ़ गद्य का भी प्रयोम मिलता है । ऐसे स्थलों पर लेखक की विद्वत्ता, प्रौढ़ना तथा गभीर दार्शनिकता के भी दर्शन होते हैं । एक स्थल पर 'अनेकांत स्वरूप आत्मा को ज्ञानमात्रपने से व्यपदेश करना किस प्रकार सम्भव है इस सन्दर्भ में अनेकांत का सविस्तार खुलासा करते हुए वे अपनी प्रौढ़तम गद्यशनी में लिखते हैं:"नन्वनेकांतमयस्यापि किमर्थमत्रात्मनो ज्ञानमात्रतया व्यपदेशः ? लक्षण प्रसिद्धया लक्ष्यप्रसिद्धियर्थम् । आत्मनो हि ज्ञानं लक्षणं तदसाधारणगुणत्वात् । तेन ज्ञान प्रसिद्ध्या तल्लक्ष्यस्यात्मनः प्रसिद्धि: । ननु किमनया लक्षणप्रसिद्ध्या, लक्ष्यमेव प्रसाधनीयम् ? नाप्रसिद्धलक्षणस्य लभ्यप्रसिद्धिः, प्रसिद्ध लक्षणस्यैव तत्त्रसिद्धः । ननु कि तल्लक्ष्यं यज्ज्ञानप्रसिध्या ततो भिन्न प्रसिद्ध्यति ? न ज्ञानाद्भिन्नं लक्ष्य, ज्ञानात्मनो व्यत्वेनाभेदात् । तहि कि कृतो लक्ष्य लक्षण विभागः ? प्रसिद्धप्रसाध्यमानत्वात् कृतः । प्रसिद्ध हि ज्ञान, ज्ञानमात्रस्य स्वसंवेदनसिद्धत्वात् तेन प्रसिद्धेन प्रसाध्यमानस्तदविनाभूतानंतधर्मसमुदयमूर्तिरात्मा । ततो ज्ञानमात्राचलितनिखातया दृष्ट्या क्रमाक्रमप्रवृत्त तदविनाभूतं अनन्तधर्मजातं यद्याव
१. वास्तव में जो द्रव्य जिस समय जिस भाव से परिणमन करता है, वह व्य
उस समय "उष्णतारूप से परिणमित लोहे के गोले की भांति उस मय है, इसलिए यह यात्मा धर्मरूप परिणमित होने से धर्म ही है। इस प्रकार आत्मा बी चारित्रता सिद्ध हुई। प्रवचनसार, गाथा ८ की टीका ।
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व्यक्तिस्त्र तथा प्रभाव । लक्ष्यते तत्तावत्समस्तमेवैकः खल्वात्मा । एतदर्थमेवात्रास्यज्ञानमात्रतया व्यपदेशः ।।
इस प्रकार उपरोक्त गद्यांश में जहां एक ओर अमृतचन्द्र की है दार्शनिक गंभीरता, सैद्धांतिक प्रौढ़ता तथा स्पष्टता के दर्शन होते हैं, वही है। उनकी सहेतुक एवं प्रवाहपूर्ण गद्यशैली में प्रकरण की सुस्पष्टता सिद्धांतहै विकता तथा निरूपण कुशलता को छाप साहिल्यरसिको पर पड़ती है ।
ममतचन्द्र का गद्य भावातिरेक के कारण पद्यमयता में परिणत प्रतीत होता है। उनका 'पद्य तो पद्यरूप है ही, परन्तु गद्य भी पद्यरूपता को धारण करता है। उनके गद्य में पद्यमयता का रस होने से “गद्यकाव्य की श्रेणी में उसकी गणना होती है। इन पर: किराना पस्पती को प्राप्त होता है उसका नमूना देखिये। शिष्य का प्रश्न है कि हमारा परमार्थ व हितकारी पद क्या है ? इसके उत्तर स्वरूप वे लिखते हैं :
1. "पारमा अनेकांतमय है फिर भी उसका ज्ञानमात्रता से क्यों व्यपदेश किया जाता
हैं? लक्षरण की प्रसिद्धि को द्वारा लक्ष्य की प्रसिद्धि करने के लिए प्रात्मा को ज्ञानमात्र रूप से व्यपदेश किया जाता है। प्रात्मा का ज्ञान लक्षगा है, क्योंकि जान प्रात्मा का अभाधारण गुण है; इसलिए ज्ञान की प्रसिद्धिः द्वारा उसके लक्ष्य प्रात्मा की प्रसिद्धि होती है। इस लक्षण की प्रसिद्धि से क्या प्रयोजन है ? मान लक्ष्य ही प्रसाध्य (प्रसिद्धि करने योग्य) है ? जिसे लसण अप्रसिद्ध हो उसे लक्ष्य की प्रसिद्धि नही होती। जिसे लक्षण प्रसिद्ध होता है उसी को लक्ष्य की प्रसिद्धि होती है। ऐसा कौन सा लक्ष्य है कि जो ज्ञान की प्रसिद्धि के द्वारा उससे भिन्न प्रसिद्ध होता है ? ज्ञान से भिन्न लक्ष्य नहीं है, क्योंकि जान और भात्मा में द्रव्यपने से अभेद है । तब फिर लक्षण और लक्ष्य का विभाग किसलिए क्रिया गया है ? प्रसिद्धत्व और प्रसाध्यमानत्व के कारण लक्षण और लक्ष्य का विभाग किया जाता है। ज्ञान प्रसिद्ध है क्योंकि ज्ञानमात्र को स्वसंवेदन से सिद्धपना है । वह प्रसिद्ध शान के द्वारा प्रसाध्यमान, तदविनाभूत प्रनन्त समुदामरूप मूर्ति आत्मा है इसलिए ज्ञानमात्र में प्रचलितपने से स्थापित दृष्टि के द्वारा अमरूप और अमरूप प्रवर्तमान, तदनिनाभूत अनंतधर्म समूह कुछ जितना सक्षित होत है, वह सन्न वास्तव में एक प्रात्मा है । इसी कारण से यहां प्रात्ना का ज्ञानमात्रता से व्यपदेश है। (समयलार, प्रारमख्याति टीका, परिशिष्ट पृष्ठ ५८६)
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६६ |
[ आचार्य प्रभृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
"इह खलु भगवत्यात्मनि बहूनां द्रव्यभावानां मध्ये ये किल अतव्यभिस्वभावेनोपलभ्यमानाः श्रनियतत्वावस्थाः, अनेवे, क्षणिकाः, चारिणो भावाः ते सर्वेऽपि स्वयमस्थायित्वेन स्थातुः स्थानं भवितुमशक्यत्वात् अपदभूताः । यस्तु तत्स्वभावेनोपलभ्यमानः नियतत्वावस्थाः, एकः, नित्यः, अव्यभिचारी भावः, स एक एव स्वयं स्थायित्वेन स्थातुः स्थानं भवितुं शक्यत्वात् पदभूतः । ततः सर्वानिवास्थायिभावान् मुक्त्वा स्थायिभावभूतं परमार्थं रसतया स्वदमानं ज्ञानमेकमेवेदं स्वाद्यम् ।
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एकमेव हि तत्स्वद्यं विपदामपदं पदम् । अपदान्येव भासते पदान्यन्यानि यत्पुरः ।। १३६ ।। १
इस प्रकार गद्याश में कथित भावार्थ ही भावातिरेक के कारण पद्यरूप परिणत होकर व्यक्त हुआ है। आत्मख्याति टीका में उक्त प्रकार के गद्य में पद्यमयता के दर्शन पद-पद पर प्राप्त होते हैं । इस तरह आचार्य अमृतचन्द्र का गद्य साहित्य श्रेष्ठ तथा प्रौढ़तम गद्यकाव्य वैशिष्ट्यों से विभूषित है। एक स्थल पर क्षायिकज्ञान अथवा केवलज्ञान को एकांततः सुखस्वरूप निरूपण करते हुए, उसमें खेद ( श्राकुलता ) की संभावना का खण्डन तथा केवलज्ञानियों में ही पारमार्थिक सुख होता है
१. वास्तव में, इस भगवान श्रात्मा में बहुत से द्रव्य भावों के मध्य में से, जो अतत्स्वभाव से अनुभव में घाते हुए. ( श्रात्मा के स्वभाव रूप नहीं किन्तु परव्यभि स्वभावरूप अनुभव में आते हुए) अनियत अवस्थावाले, अनेक, क्षरिंग क चारी भाव हैं, वे सब स्वयं अस्थाई होने के कारण स्थाता ( रहने वाले) के स्थान नहीं हो सकने योग्य होने से प्रपदभूत हैं, और जो तत्स्वभाव से (आत्मस्वभावरूप से) अनुभव में प्राता हुआ, नियत अवस्थावाला, एक, नित्य, श्रव्यभिचारी भाव ( चैतन्यमात्र शानभाव ) है, वह एक ही स्वयं स्थायी होने से स्थाता का स्थान हो सकने योग्य होने से पदभूत है । इसलिए समस्त अस्थायी भावों को छोड़कर, स्थायी भावरूप आला, परमार्थ रसरूप से स्वाद में आने वाला यह एक ज्ञान ही श्रास्वादन के योग्य है ।
पद्य का अर्थ - " वह एक ही पद ग्रास्वादन के योग्य है, जो कि विपत्तियों का पद है ( अर्थात जिसमे श्रापदायें नहीं आ सकती हैं) तथा जिसके समक्ष समस्त अन्य पद अपद ( दुखदायी - माकुलता रूप ) ही भासित होते हैं ।"
समयसार गाथा २०३ की प्रात्यख्यानि टीका तथा १३६ व कलश |
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
[ ६७
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इसका थवान कराने हेतु अमृतचन्द्र ने जो टीका लिखी है, बहू उनके प्रीतम, भावप्रवाही तथा विद्वतापूर्ण गद्य का नमूना प्रस्तुत करना है यथा अथ केवलस्यापि परिणामद्वारेण सदस्य सभाका निक सुखत्वं नास्तीति प्रत्याचष्टे अत्र की हि नाम खेदः कश्च परिणामः कश्च केवलियो [तिरेकः, यतः केवलस्यैकांतिक सुखत्वं न स्यात् ? खेदस्यायतनानि चातिकर्माणि ननाम केवलपरिणाम मात्रम् । घातिकमणि हि महामोहोत्पादकत्वादुन्मत्तक वदत स्मितनुद्धिमधाय परिधम प्रत्यात्मानं यतः परिणामन्यति, ततस्तानि तस्य प्रत्यर्थ परिणमत्र श्राम्यतः खेदनिदानां प्रतिपद्यन्ते । तदभावात्कुतो हि नाम केवले खेदस्वभेवः । यतच त्रिसमय निकल पदार्थ परिच्छद्याकारवैश्वरूप्य प्रकाशनास्पदीभूतं चित्रभित्ति स्थानीयमनंतस्वरूपं स्वयमेव परिणमत्केवलमेव परिणामः ततः कुतोऽन्यः परिणामो यद्द्द्वारंण खेदस्यात्मलाभः । यतश्च समस्त स्वभावप्रतिघातः भावात्समुल्लसिननिर कुशनन्तशक्तितया सकल कालिक लोकालोकाकारमभिव्याप्य कूटस्थत्वेनात्यन्त निःप्रकम्पं व्यवस्थितत्वाद नाकुलता सौख्यलक्षणभूतामात्मनोऽव्यक्तिरिक्तां विभ्राणं केवलमेव सौख्यम् : ततः कुतः केवल सुखयोर्येतरेकः । अतः सर्वथा केवलं सुखमैका - तिनुमदनीयम् २१ आगे केवलियों में पारमार्थिक सुख होता है, इसकी
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१. " श्रत्र केवलज्ञान को भी परिणाम के द्वारा खेद की संभावना के कारण ऐकान्तिक सुख नहीं है" ऐसी मान्यता का खण्डन करते हैं यहाँ (केवलज्ञान के संबंध में) खेद क्या हैं? परिणाम क्या है? केवलज्ञान और गुख का व्यतिरेक क्या है ? जिससे केवलज्ञान को एकांततः सुखत्व न हो ? ( १ ) खेद के आयतन (स्थान) घातक हैं। केवल परिणाम मात्र नहीं । घाति महामोह के उत्पादक होने से धतूरे की भांति अतत् में तबुद्धि धारण करवाकर आत्मा को पदार्थ के प्रति परिगमन कराते हैं, इसलिए वे घातिकर्म प्रत्येक पदार्थ के प्रति परिमित हो होकर थकने वाले ग्रात्मा के लिये खेद के कारण होते है । उनका ( वातिक्रमों का ) प्रभाव होने से केवलज्ञान में खेद कहाँ से प्रगट हो सकता है ? (२) और तीन गलरूप तीन भेद वाले रामरत पदार्थों की ऩयाकार रूप विविधता को प्रकाशित करने का स्थानरूप केवलज्ञान चित्रित दीवार की भांति स्वयं ही अनंतस्वरूप स्वयमेव परिमित होता है इसलिए केवलज्ञान ही परिणाम है | तथा अन्य परिणाम कहाँ है कि जिनसे खेद की उत्पत्ति हो ? (३) और केवलज्ञान समस्त स्वभाव प्रतिघात के अभाव के कारण निरंकुश अनंतशक्ति के उल्लसित होने से समस्त वैकालिक लोकालोक के आकार व्याप्त होकर कूटस्थतथा अत्यंत निष्कम्प है, इसलिये ग्रात्मा से अभिन्न सुख लक्षएभूल अनाकुलता को धारण करता हुआ केवलज्ञान ही मुख है, इसलिये केवल ज्ञान और सुख का व्यतिरेक कहाँ है ? अर्थात् नहीं है ।"
प्रवचनसार गाथा ६० की टीका, पृष्ठ ८६-८७
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१८ ]
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्त त्व
श्रद्धा कराने हेतु लौकियः सुखाभास को सुख पुकारना रूढ़ि मात्र है, परमार्थ नहीं - ऐसा ज्ञान कराया तथा यह भी लिखा कि जो इस परमार्थ सुख को श्रद्धा तत्काल करते हैं वे निकट-आसमभव्य (निकट भविष्य में मोक्ष पाने योग्य) हैं तथा जो इसकी श्रद्धा बाद में करेंगे वे दूर भव्य हैं और जो इसकी श्रद्धा नहीं करेंगे वे अभव्य हैं। इस प्राशय की गभीर तथा प्रौढ़ गद्य टीका इस प्रकार है - ''इह खलु स्वभाप्रतिघातादाकुलत्वाच मोहनीयादिकर्मजालशलिनां सुखाभासेऽप्यपारमाथिको सुखमिति रूढ़िः । वेवलिनां तु भगवतांप्रक्षीणपातिकर्मणां स्वभावप्रतिघाताभावादनाकुलत्वाच्च यथोदितस्य हेतोर्लक्षणस्य च सद्भावात्सारमाथिकं सुख मिति श्रद्धेयं । न किलवं येषां श्रद्धानमस्ति ते खलु मोक्षसुख सुधापानदूरवर्तिनो मृगतृष्णाम्भोमार मेवामिष्य.. पश्यति । पुनदिविलीमेव वचः प्रतीच्छन्ति ते शिवश्रियो भागनं गमासन्मभव्यः भवन्ति । ये तु पुरा प्रतोच्छन्ति ते तु दूर भव्या इति ।'
आचार्य अमृतचन्द्र के पद्य की प्रौढ़ता के साथ-साथ अलंकारमयी गद्यकाव्य की छटा भी अत्यात सरस एवं रमणीय है।
इन्द्रियाधीनता जब तक है तब तक दुःख ही है, इस तथ्य के स्पष्टीकरणाथ प्रयक्त गद्य में उपमाओं को झड़ी द्रष्टव्य है, गद्यकाव्य की सरसना एवं रमणीयता प्रास्वाध है -.. यथा--
__ "येषां जीवदवस्थानि हतकानीन्द्रियागि, न नाम तेषामुपाधिप्रत्ययं दुःखम् । किन्तु स्वाभाविकमेव, विषयेषु रतेरवलोकनात् । १. ''इस लोक में मोहनीय प्रादि कर्मजाल वालों के स्वभाव प्रतिपात के कारण
और प्राकुलता के कारण मुखागास होने पर भी उम सुखाभास को "सुल" कहने की अपारमार्थिक रूढ़ि है, और घातिकर्म नष्ट कर चुकने बाले केवली भगवान के स्वभाव प्रतिघात के अभाव के कारण और अनाकुलता के कारण सुख के यथोक्ता कारण तमा लक्षण का सदभाव होने से पारमार्थिक सुख हैयह श्रद्धा करने योग्य है। जिन्हें ऐसी श्रद्धा नहीं हैं वे मोक्षसुख के सुधापान से दूर रहने वाले अभव्य मृगतृष्णा के जलसमूह को ही देखते (अनुभव करते) हैं, और जो इस वचन को इसी समय स्वीकार करते हैं वे शिवश्री (मोक्ष लक्ष्मी) के भाजन आसन्नभन्य हैं और जो प्रागे जाकर स्वीकार करेंगे वे दूर भव्य हैं।" -प्रवचनसार गापा ६२ की तत्त्वप्रदीपिका टीका, पुण्ठ ९०
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
अवलोक्यते हि तेषां स्तम्बेरमस्य करेणु-कुट्टनीगातस्पर्श इव, सफरस्य बडिश मिषस्वाद इव, इन्दिरस्यसंकोचसंमुखारविन्दामोद इव, पतङ्गस्य प्रदीपाचोरूप इछ, कुरड गस्य मृगयगेयस्वर इव, दुनिर्वारेन्द्रियवेदनावशीकृतातामासन्न निपातेष्वपि विषयेष्वभिपातः । यदि पुनर्न तेषां दुःखं स्वाभाविकमध्यगम्शेन दोपहातिशीतन्वरस्य संस्वेदनमिव, प्रहोणदाहज्वरस्यारनालपरिषेकः इव । निवृत्तनेत्रसंरम्भस्य च बटाचूणविचूर्णमिव विनष्कर्णशूलस्य बस्तमूत्रपूरणमिव । रूलवणस्यालेपनदान मिष, विषय व्यापारो न दृश्येत । दृश्यते चासौ । ततः स्वभावभूतदुःखयोगिन एव जीवदिन्द्रियाः परोक्षज्ञानिनः ।"
इस तरह अमृतचन्द्र का गद्य उच्चकोटि का गद्यकाव्य है । उपयुक्त विशेषताओं के अतिरिक्त वे अनेक गद्यशंलियों के प्रणेता हैं। उनमें प्रमुख हैं-हेतुपुरस्सर न्यायर्शली, व्युत्पनिलो, दृष्टांतशैली, निश्चयव्यवहारनयप्रतिपादनशैली, व्याख्याशैली, अनुमानपरकशैली, प्रश्नोतरशैली, क्लिष्टदार्शनिक विवेचनशैली, प्रश्नशैली आदि। इन शैलियों का १. जिनकी "हृत" (निन्द्र) इन्द्रियाँ जीवित हैं, उन्हें उपाधि के कारण (बाध
संयोगों के कारण) दुःख नहीं है, किन्न स्वाभाविक ही है क्योंकि उनकी विषयों में रतिदेखी जाती है। जैसे हाथी हथिनी रूपी कुट्टिनी के शरीर स्पर्श की ओर, मछली बंमी में फंसे हुए मांस के स्वाद की पोर, भ्रमर बंद हो जाने वाले कमल की गंध की ओर, पंतमा दीपों की ज्योति के रूप की भोर, और हिरन शिकारी के संगीत के स्वर की ओर दौड़ते हुए दिखाई देते हैं। उसी प्रकार दुनिधार इन्द्रिय वेदना हे वशीभूल होते हुए वे लोग वास्तव में, अतिसमीप नाशस्वभाव वाले विषयों की ग्रोर दौड़ते दिखाई देते हैं। और यदि उनका दुःख स्वाभाविक है ऐसा न माना जाय तो जैसे जिसका शीतज्वर उपशांत हो गया है, वह पसीना लाने के लिये प्रयास करता, तथा दाहाबर उत्तर जाने पर कांजी से पारीर के ताप को उतारता, तथा अखिों का दुख दूर हो जाने पर वटाचर्ण (शंखादि का चूर्ण) आंजता, कर्णशूल नष्ट होने पर बकरे का मूत्र कान में डालता और घाव भर जाने पर कोई पुनः लेप करता दिलाई नहीं देता। इसी प्रकार उनके विषय व्यापार देखने में नहीं आना चाहिये, किन्तु उनके वह (विषय प्रवत्ति) तो देखी जाती है, इससे सिद्ध हुप्रा कि जिनके इन्द्रियाँ जीवित हैं ऐसे परोक्षज्ञानियों के दुःख स्वाभाविक है ।
-प्रवचनसार, गाथा ६४ की टीका, पृष्ठ ६२
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१०० ]
[ आचार्य अभूतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कतख सविस्तार अनुशीलन आगे किया गया है। उपर्युक्त विशेषताओं के कारण ही प्राचार्य अमृतचन्द्र एक अंड एम प्रोलमधलेखक सिद्ध होते हैं।
प्रमतचन्द्र पचकाव्यकार - आचार्य अमृतचन्द्र जितने प्रौढ एवं सिद्धहस्त गद्यलेखक है, उससे भी कहीं अधिक प्रौढ़ और कुशल काव्यकार भी हैं। उनमें पद्यकाव्य प्रतिभा नैसगिक तथा असाधारण थो। वे असाधारण कवि ही नहीं, अपितु कवियों में श्रेष्ठ थे। इसीलिए "कवीन्द्र" पद से विभूषित थे। उन्होंने स्वयं भी एक स्थल पर अपने नाम के समक्ष कवीन्द्र पद का प्रयोग किया है।' डॉ. ए. एन. उपाध्ये ने उन्हें गच लेखक की अपेक्षा पद्य कार के रूप में विशेष सक्षम माना है । "पद्य" शब्द का अर्थ हैं "पस्तू योग्य पद्यम्" अर्थात जो गतिशील' हो वह पद्य कहलाता है।' गतिशीलता एवं भावप्रवाहपने के कारण ही गद्य को अपेक्षा पद्यरचनायें अधिक प्रभावशाली एवं रसमया सिद्ध हुई हैं। सहदयजनों के हृदयों को उद्वेलित करने तथा प्रचुरता से रसास्वाद कराने में पद्यकाव्य विशेष सफल सिद्ध हुआ है। आचार्य अमृतचन्द्र रससिद्ध कवीन्द्र थे । उनकी कवित्वशक्ति तथा विलक्षण प्रतिभा उनके द्वारा रचित पद्य साहित्य में विशेष रूप से प्रस्फुटित है। उनकी अद्यावधि उपलब्ध पद्य रचनाओं में पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, समयसार कलश, तत्त्वार्थसार तथा लघुतत्त्वस्फोट प्रसिद्ध हैं। ये समस्त कृतियाँ आध्यात्मिक महाकवि, रससिद्ध कवीन्द्र, आचार्य अमृत चन्द्र के असाधारण व्यक्तित्व से अनुप्राणित हैं। "समयसार कलश" अमृतचन्द्र के अध्यात्मामृत का सागर है। मधुर पद्यों में अध्यात्म विद्या के सार को समाहित किये हुए है । प्रत्येक कलश में जन अध्यात्म व जैनागम का रहस्य और कुन्दकुन्दाचार्य के सूत्रों का भाव भरा हुआ है। वे कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों की रहस्यज्ञता के ज्वलंत उदाहरण हैं। विद्वानों ने इन पद्यमय कलशों को कुन्दकुन्द द्वारा निर्मित जिनदर्शन तथा अध्यात्मरूप मन्दिर के स्वर्ण कलश
१. लघुतत्त्वस्फोट ६२६ वा पद्य, प्रास्वादयत्वमृतचन्द्र कवीन्द्र एष ........" २. प्रवचनसार, प्रस्तावना अंग्रेजी, पृष्ठ १४-६५, IIf Edn. १९६४---
Amrtachandra is more a poet than a prosswriter, to this eyet a for
Yer Ses in his commentary on Pravacinagara bear witbacka." ३. महाकवि हरिचन्द एक मनुशीलन, पृष्ठ ३
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व्यक्तिक तथा प्रभाव ]
[ १०१
की भांति महत्वपूर्ण माना है।' समयसार को भूलगाथायें तथा आत्मलाति संस्कृत टीकाको पढ़ने पर भी समयसार कलशों को पढ़े बिमा पूर्णरूपेण प्रात्मीय, अनुगम आनन्द वा आस्वादन नहीं हो पाता ।' उन
लशों की रचना इतनी सरस है कि सहृदय पाठक को, तगत भावों को हृदयंगम किये बिना भी उनको पठन मात्र में अब आनन्द मिलता है। सचमुच में अमृतचन्द्र आध्यात्मिक कवियों के मुकूटर्माण हैं। उनके पद्य उसने दूरह नहीं है, जितना उनका गद्य । किन्तु दोनों प्रकारों में एक प्रकार का सौष्टव पाया जाता है। उनके द्य सौष्ठव का नमूना इस प्रकार है :
भयनय विरोध ध्वंसिनी स्यात्पदाङ के, जिनबसि रमतेयि स्वयं बात मोहाः। सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चरनवमनय पक्षाक्षण्णमीक्षत एव ।।४॥
आचार्य अमृत चन्द्र का अध्यात्म विषयक पाण्डित्य जितना गंभीर और तलस्पर्शी है, उसको व्यक्त करने वाली भाषा भी तदनुरूप, स्वामाविक तथा धारा प्रवाह में प्रवाहित होती है । समयसार कलश अतिसुन्दर और अध्यात्म रस से भरे हुए हैं। उन कलशों में अनुभव रस का भण्डार भरा है । जिसे भी उस अनुभव रस का रमास्वादन हो जाता है, वह संसाररूप समुद्र से पार हो जाता है । लौकिक जनों को अध्यात्म
म
म. (अ) समयनार नाटक, पं. बनारसीदास, स्याद्वाद द्वारा पद्य नं. १,२
अद्भुतग्रन्थ अध्यातम वानी, समझ कोउ बिरला ज्ञानी । यामै, स्माद्वाद अधिकारा, ताकी जो की विस्तारा ।। तो गरंथ अति शोभावाने, वह मन्दिर रह गलश बहाव ।
तब चित्त अमृत वाचन गढ़ि खोले, अमनचन्द्र कारज बोले ।। . (स) परमाध्यात्मतरंगिणों की प्रस्तावना, पं. गजाधरलाल कृत, पृष्ट ?
(स) आत्मधर्म, अप्रेल, ६६ अंक १२, पृष्ठ ७३१, प्रवचन, मन कानजी स्वामी परमाध्यात्मरंगिणी, प्रस्तावना, पष्ट १
जैन साहित्य का इतिहास, माग २, पृष्ठ १७३, १७४ . समयसार कलश, पद्य क्रमांक ४
जैन साहित्य का इतिहाग, भाग २. पृष्ट १७३ समयसार नाटक, पं. बनारसीदास, ईडर के भण्डार के प्रति का अंतिग अंश । "समयसार नाटक अक्रथ, अनुभव रस भण्डार । पाको रस जी जानहीं सो पावें भवपार ||"
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१०२ ]
{ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
का विषय शुष्क प्रतीत होता है। उस पर सरस कविता करना कठिन है। आचार्य अमृतचन्द्र ने ऐसे कठिन कार्य को भी अपनी अलौकिक आध्यात्मिक प्रतिभा एवं बावित्वशक्ति से सुकर एवं सुगम कर दिखाया है। उनकी लेखनी में बल है, लवितानों में पाया है. सादों में रहा है
और सिद्धांत प्रतिपादन में अस्खलन है। वे उच्च कोटि के कवि हैं।' यपि दर्शन और अध्यात्म के कई अन्य दिग्गज आचार्य भी हुए हैं परन्तु अध्यात्मरस की सरिता में अपने को निमज्जित कर देने वाले आचार्य अमृतचन्द्र ही हुए हैं। उन्होंने अध्यात्मसागर का अवगाहन करके अत्र्यास्मतरंगिणी प्रवाहित की है।
उनकी आत्मख्याति टीका के पाठकों को अमृतचन्द्र की अध्यात्म रसिकता, अनुभवप्रखरता, प्रकान्हविद्धता, वस्तुस्वरूप की न्याय तर्क तथा दृष्टांत से सिद्ध करने की असाधारण शक्ति और उनकी उत्तम काव्यशक्ति का पूरा ज्ञान हो जाता है। संक्षेप में गम्भीर रहस्यों को भर देने की उनकी अनोखी सामर्थ्य विद्वानों को आश्यान्वित करती है। प्रत्येक बालश में अनुभव रस की लहरी तथा अध्यात्म की मस्ती पाई जाती है। तत्त्वज्ञान और अध्यात्म रस से रारावार उनके कलश आध्यास्मरसिकों को अपूर्व आनन्द प्रदान करते हैं। उसके पठन एवं रसास्वादन' से है स्तंत्री के तार मानों झनझना उठते हैं। उक्त झनझाहद एवं आनंदानुभव पैदा कराने वाले कुछे। कलश यहाँ उदाहरण के रूप में प्रस्तुत हैं। प्रात्मस्वभाव का दिग्दर्शन कराते हुए वे लिखते हैं :
आत्मस्वभाव परभावभिन्नमापूर्णमाद्यन्त विमुक्तमेकम् । विलीन-संकल्प-विकल्पजालं प्रकाशयन् शुद्धनयोभ्युदेति ।।
इसी प्रकार नयों के विकल्परूप पक्षपात को छोड़कर, जो स्वरूप में लीन होते हैं उन्हें साक्षात् अध्यात्मरूप अमृत पीने को मिनता है। उक्त अमत से भरा उपेन्द्रवज्रा छंद रूप कलश इस प्रकार है:
य एव मुक्त्वा नयपक्षपातं, स्वरूप गुप्ता निवसन्ति नित्यम् । विकल्पजाल च्युत शांत चित्तास्त एवं साक्षादमतं पिबन्ति ॥
१. प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनका समयमार, पृष्ठ ३२५-२६ २, अध्यात्म अमृतकलश, प्रामथन, पृष्ठ ७ ३. समयसार, प्रस्तावना, पृष्ठ ६, मानगढ़ तृतीयायत्ति १६६४ ४. समयसार कलश, क्रमांक १० ५. समयसार कलश, क्रमांक ६६
माना १०
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व्यक्तिस्व तथा प्रभाव ]
[ १०३
२. उक्त साक्षात अमत को पीने हेतु ज्ञान सिन्ध, शांतरस परिपूर्ण निज भी भगवान् प्रात्मा में निमग्न होने की प्रेरणा वसंततिलका छैद' हा निम्न पञ्च में की गई है :
मज्जन्तु निर्भरममी सममेव लोका आलोकमुच्छति शनि रसे समस्ताः । *. आपलाध्य विभ्रम तिरस्करिणी भरेण, प्रोन्मग्न एष भगवानवबोधसिंघ ।।'
उत्ता प्रेरणा के साथ-साथ, पदलालित्य की भी छटा दर्शनीय है। यहाँ दुतविलंबित छंद में ज्ञानकला द्वारा मुलभ निजपद को कर्मों द्वारा नहीं अपितु शुद्धात्मा के अनुभव की कला द्वारा प्राप्त करने हेतु निरन्तर अभ्याम करने की प्रेरणा दी गई है । यथा :---
पदमिदं नन कर्मदुरासद, सहजबोधकला सुलभं किल । तत इदं निजबोधकलाबलात् कलयितुं यततां सततं जगत् ।।*
यद्यपि समयसार कलशों में कई स्थलों पर पुनरूक्ति पाई जाती है। तथापि अध्यात्म में पुनरुक्ति को दोषाधायक नहीं माना जाता है क्योंकि अनादि काल से संसार के जीव अध्यात्म से दूर रहे हैं अत: उन का पान प्रध्यात्म की ओर आकर्षित कराने के लिए कलशों में भिन्न-भिन्न प्रकारों से कथन किया गया है ।
एक ही कालश में अनेक परिभाषाएं तथा गम्भीर सिद्धांत प्ररूपणा करने की असाधारण कवित्व शक्ति अमृतचन्द्र में है। इसे हम सूत्र रूपेग कथन शैली अथवा अर्थगांभीर्यमयी शैली कह सकते हैं। उनके अथंगांभीर्य का नमूना निम्न पद्य में निहित है :--
:.
.-
-:---
१. समयमार कलश, त्रमांक ३२ २. समयसार कलश, क्रमांक १४३ ३. एकस्म बद्धो न तथा परस्य चिति द्वयोाविति पक्षापातौ ।
यस्तत्ववेदी च्युत पक्षपाततस्यास्ति नित्यं खलु चिचिदेव ।। कलश १७० इसी प्रकार उपरोक्त पद्य के प्रथम चरण के द्वितीय शब्द 'बो' के स्थान पर क्रमप्राः मुढो, रक्तो, दुष्टो, कर्ता, भोता, जीवो, सूक्ष्मो, हेतुः, कार्य, एको. भावो, शांती, नित्यो, वाच्यो, नाना, चैत्यो, दृश्यो, वेद्यो व भातो पदपरिवर्तन करके शेषांश पूर्ववत् हो रखा है और इस की पुनरावृत्ति ७० से ८६ वं कलश तक पाई जाती है। इसी प्रकार पद्य क्रमांक ६४ एवं ६५ में भी कुछ शब्दों के
परिवर्तन के साथ अधिकांश शब्द पुनरुक्त हैं । ४. अध्यात्म अमृत कलश, पं. जगमोहनलाल शास्त्री, पृष्ठ २६
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१०४ ]
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व यः परिणमति स कर्ता, यः परिणामो भवेत्तु तत्कर्म । या परणति क्रिया सा त्रयमपि भिन्न न वस्तुतया ।। १ नेकस्य हि कारो द्वी स्तो व कर्मणी न चैकस्य । नकस्य च क्रिये व एकमनेक यतो न स्यात् ॥'
अर्थगांभीर्य के साथ साथ जहां वे दृष्टांत प्रस्तुत कर निरूपित विषय को सरल एवं सुबोध बना देते हैं, वहीं वे अपनी अनोखी तर्कशक्ति तथा सालंकृत पद्य भी प्रस्तुत करने की असाधारण क्षमता रखते हैं। एक स्थल पर वे वर्णादिक जीव के कहे जाने पर भो जीव के नहीं हैं, इस कथन की सिद्धि हेतु लिखते हैं :
घृतकुम्भाभिधानेऽपि कुम्भोघृतमयो म चेत् । जीवो वर्णादिमज्जीव जल्पनेऽपि न तन्मयः ।।
जिस प्रकार घृतकुम्भ (घी का घड़ा) कथन किये जाने पर भी घड़ा धीमय नहीं है उसी प्रकार "वर्णादिमान जीव है" ऐसा कथन किये जाने पर भी जीव वर्णादिरूप नहीं हैं। इसी अभिप्राय की सिद्धि हेतु वे दृष्टांतमयी सालंकृत शैली में सुन्दर तर्क प्रस्तुत करते हैं, जिससे कथन भली भांति स्पष्ट एवं सिद्ध हो जाता है । यथा---
निर्वय॑ते येन यदत्र किचित्, तदेव तस्यान्न कथंचनान्यत् । रूपमेण निर्वृत्तमिहासिकोरां, पश्यन्ति रूक्मं न कथंचनासिम् ।
प्रति जिस वस्तु से जो भाव बने, वह भाव वह वस्तु ही है किसी भी प्रकार अन्य वस्तु नहीं है। जैसे जगत् में स्वर्णनिमित स्थान को लोग स्वर्ण ही देखते हैं, किसी प्रकार से तलवार नहीं देखते हैं। अन्यत्र इसी प्रकार तर्कप्रधान शैली में रथोद्धता तथा इन्द्रवज्रा दो पद्यों में लिखा है कि जो ज्ञाता है वह कर्ता नहीं तथा जो कर्ता है वह ज्ञाता नहीं। जानने
१. समयमार लश ५१ (''जो परि गामित होता है सो कर्ता, जो (परिरमित होने
वाले का) परिग़ाम है वह कर्म है और जो परणति है वह क्रिया है, ये तीनों
(मर्ती, कर्म एवं किया) वस्तुरूप से भिन्न नहीं है।") । २. सवयपार नानमा ५४ ("एक द्रव्य के दो कत्ती नहीं होते, एक Fध्य के दो कर्भ
नहीं होते तथा एक द्रव्य को दो क्रियाएँ नहीं होती क्योंकि एक द्रब्य अनेक द्रव्य
रूप नहीं होता।") ३. समयसार कलश, ४०
४, वही, कलश क्रमांक ३८
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पक्तित्व तथा प्रभाव ]
[ १०५
रूप शप्ति क्रिया में करने रूप करोति क्रिया नहीं होती तथा करोति क्रिया में ज्ञप्ति क्रिया नहीं होती, अतः सिद्ध होता है कि जो ज्ञाता है कर्ता नहीं है । इस तरह आचार्य अमृतचन्द्र जिस बात की अतिथि करते हैं, तदर्थ जो तर्क प्रस्तुत करते हैं तथा प्रस्तुतीकरण हेतु जिस प्रकार को शब्द संरचना करते हैं उससे उनके असाधारण व्यकार का रूप साकार हो उठता है। उनके द्वारा प्रयुक्त २५ प्रकार सुन्दर उपमा उत्प्रेक्षा, अनुप्रास, दृष्टांत, यमक, रूपक आदि अनेक कर प्रसाद, माधुर्य, ओज गुणों का प्रस्फुटन, विभिन्न रसों का यावसर परिपाक, पदलालित्य, स्वरलहरी, वाणी का अद्भुत बिलास प्रत्यादि से उनका लोकोत्तर व्यक्तित्व, प्रतिभाशाली कवित्व तथा अद्वितीय कृतित्त्व सहज ही प्रगट हो जाता है ।
पुरुषार्थसिद्धयुपाय उनकी २२६ आर्या छन्दों में प्रसादगुणमयी एक तन्त्र रचना है, जिसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तथा हिंसा का अनूठा वर्णन है। पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रन्थ जैनाचार विषयक पिम्परों में श्रेष्ठ कोहनूर है। इसमें श्रावकों के आचार का विशेष तथा सुनि आचार का संक्षिप्त दिग्दर्शन हुआ है। इसमें प्रयुक्त सूक्तियां जैनागम के सारसूत्र की भांति गम्भीर अर्थ को समाहित किये हैं । प्रत्येक सूक्तियां में गम्भीर सिद्धांत घोषित किया गया। उदाहरण स्वरूप कुछ सूक्तियां इस प्रकार है :- " भवति मुनीनाममौकिकी वृत्तिः" (१६) कार्य विशेषो हिकारण विशेषात् । (१२२), विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् । (२), व्यवहार निश्चयज्ञाः प्रवर्तयन्ते जगति तीर्थम् । ( ४ ) भूतार्थ
रथोद्धताछंद - यः करोतिस करोति केवलं यस्तुचेति स तु वेत्ति केवलम् । यः करोति न हि वेत्तिस क्वचित्, यस्तुवेति न करोति स क्वचित् ॥ इन्द्राद-ज्ञप्तिः करोत न हि भासतेऽन्तः, ज्ञप्ती करोतिश्च न भासतेऽन्तः ॥ ज्ञप्तिः करोतिश्च तो विभिन्ने ज्ञाता न कर्मेति ततः स्थितं च ॥ समयगार कलश, क्रमांक ६६ तथा ६७
उपजाति, वसंततिलका, पृथ्वा आर्या,
श्रनुष्य मालिनी, शार्दूलविक्रीडि स्वागता, शालिनी, मन्द्राकांता, वारा, उपेन्द्रवज्रा रथोद्धता, इन्द्रवज्जा,
तविलम्बित, शिखरणी, नाटक, वंशस्थ, वियोगिनी, मन्जुभाषिणी, तोटक, पुष्पताग्रा, प्रहर्षिणी, मत्तमयूर, हरिणी इन २५ प्रकार के पद्य का प्रयोग हुआ है ।
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१०६ ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र ; व्यक्तित्व एवं कर्तृत्त्व बोधविमुखः प्रायः सर्वोऽपि संसार: । (५), गुरवो भवन्ति शरणं प्रबुद्धनयनचक्रसम्वाराः । (५८). न दुःखिनोऽपि हन्तव्याः । (८५). नित्यमदत्तं परित्याज्यम् । (१०६). मूळ तु ममत्व रिणामः । (१११), त्यक्तध्या रात्रि भुक्तिरपि । (१२६), कर्तव्योऽवश्व भतिथये भागः । (१७६), शिथिलिन लोभो भवत्यहिसेव। (१.५४), मोक्षोपायो, न बन्धनोपायः । (२११)
ये सूक्तियाँ अपने में जैनधर्म का मर्म, अर्थ गौरव तथा दार्शनिकतार्किक महत्त्व समाहित किये हुए हैं। प्राचार्य अमृतचन्द्र का पद्यसाहित्य जहाँ एक ओर गम्भीर दार्शनिकता, सिद्धांतधिज्ञता तथा अध्यात्मरसिकाता से व्याप्त है, वहीं दूसरी और उसमें अलंकारों की आकर्ष झिलमिलाहट, काव्यसौन्दर्य का चरमोत्मापं तथा उनके विशाल व्यक्तित्व की छाप भी विद्यमान है।
उनकी कवित्वशक्ति का उत्कर्ष एवं काय को प्रौढ़ता का सर्व श्रेष्ठ उदाहरण उनके द्वारा रचित 'लधुतस्वस्फोट नामकः'' स्तोत्रकाव्य है। इसमें विभिन्न छन्दों में २५ अध्यायों में जनदर्शन कर परसगम्भीर सागर लहराता हुआ प्रदर्शित किया गया है। इसके प्रथम अध्याय में क्लिष्टतम परन्तु सालंकृत काव्यमा उत्कृष्ट रूप देखने को मिलता है। २४ तीर्थङ्करों को वन्दना २४ पद्यों में की गई है। प्रत्येक पद्य अपने पाप में अद्वितीय पार्योर्म, अनुप्रासारमा रोगी तथा चाममा को संजोये हुए है। वहाँ कविता कामिनी का सर्वश्रेष्ठ सौन्दर्य अभिव्यक्त हना है अथवा सरस्वती स्वयं विभिन्न अलंकारों के बीच साकार हो उठी है। उदाहरण के लिए द्वितीय तीर्थङ्कर अजितनाथ की स्तुति करते हुए थे। बसंततिलका छन्द में लिखते हैं--- माताऽसि मानमसि मेयमसी शिमासि
मानस्य चासि फल मित्यजितासि सर्वम् । . नास्येव कि चिदुत नारि तथापि
किञ्चिदस्येव चिच्चकचकायितचचुरूपनः ।।२।।
..----- १. पुरुषार्थसिद्धमुपाय के उपयुक्त सूक्तिसम्मुख अंकित पद्य क्रमांक । २. लघुतत्त्वस्फोटः, अध्याय १, पद्य नं. २
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शक्तित्व का भाव ।
। १०७
इस चमत्कारी रहस्यमयी 'पद्य का अर्थ इस प्रकार है कि हे अजितनाथ तीर्थङ्कर श्राप ज्ञावक हो, ज्ञान हो, ज्ञेय हो, नअन्त चतुष्टय रूप
लक्ष्मी के ईश्वर हो और ज्ञान के फल हो, इस तरह आप सब कुछ हो । . आपके ज्ञान का कुछ भी नहीं है और आप अन्य किसी 'दार्थ रूप नहीं हैं,
तो भी आप उत्कृष्ट रूप से चैतन्य चमत्कार रूप हो। इसी तरह चतुर्थ
तीर्थकर लभिनन्दननाथ की स्तुति में रनित पद्य गम्भीर, आकर्षक, .. अनुप्रास अलंकार से अलंकृत तथा उच्चवित्बशक्ति का जाज्वल्यमान . उदाहरण है, यथा - परभाति भाति नदिहाथ च न भानि भाति,
नाभानि भाति स च भाति न यो नभाति । भा भाति भात्यनि च भाति न भात्य भाति,
सा चाभिनन्दन विभान्त्यभिनन्दनित्वाम् ।।४।। अर्थात, हे अभिनन्दन नाथ ! जिस देदीप्यमान ज्ञान से यह आत्मा सुशोभित है, बह जान अन्य पदार्थों में सुशोभित नहीं होता क्योंकि वे चेतन नहीं है। वह ज्ञान जो इस निजात्मा में महान वैभव के साथ देदीप्यमान है, चेतनता रहित पदाथों में प्रदोत नहीं होता। विशिष्ट रूप से शोभायमान बह ज्ञानज्योति (सर्वज्ञता जिसमें जाता जय तथा झान गभित हैं) आपका अभिनन्दन करती है ।।
इसी तरह दसवें तीर्थङ्कर शीतलनाथ की स्तुति में रचित पद्य में भी अनुप्रास के साथ विरोधाभास अलंकार भो प्रस्फुटित हुप्रा है। पद्य में आमत भाव इस प्रकार है – हे शीतलनाथ जिनेन्द्र, आप (कोषादि सर्वविकारों से) शून्य होने पर भी, (ज्ञानादि अनन्त गुणों से ) अतिशय पूर्ण हैं । (स्वकीय गुण पर्यायों से) परिपूर्ण होकर भी (अन्य द्रव्य के गुणपर्यायों से) शून्य हैं। अन्य द्रव्यों में शुन्यविभव होकर भी जयरूपता को प्राप्त हुए अनेक द्रव्यों से पूर्ण हैं। अनेक अतिशयों (महिमाओं) से परिपूर्ण होकर भी सदा एक ही हैं। इस तरह हे शीतलनाथ आपके चरित्र को जानने के लिए कौन समर्थ है ? अर्थात् कोई नहीं । मुल पद्य इस प्रकार है
१. लघतत्त्वस्फोट-अध्याय १ पद्य नं. ४
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१०८ ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
शून्योऽपि निर्भर मृतोऽसि मृतोऽपि
चान्यशून्योऽन्यशून्य विभवोऽप्यसि नेकपूर्णः । त्वं नेकपूर्ण महिमागि सदैक एव कः ज्ञानलेति चरितं
तव
मातुमिष्टे || १
शरीर के स्तवन से
उनके समयमा कलश में एक स्थल पर आत्मा का स्तवन क्यों संभव नहीं है - इसके उत्तर में दृष्टि रूप में जो दो काव्य रजे हैं वे उलमकाव्य को दृष्टि से बेजोड़ हैं तथा उत्प्रेक्षा अलंकार के सुन्दर उदाहरण है, यथा
उन्होंने दृष्टांत तथा
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प्राकारकवलितांवरमुपवनराजी निगोर्ण भूमितलम् । पिवतीहि नगरमिदं परिखाबलयेन पातालम् ।। * नित्यम विकार सुस्थित सर्वागमपूर्ण सहज लावण्यम् । अशोभमिव समुद्र जिनेन्द्ररूपं परं जयति ॥ ३ उन्होंने अपनी अलंकार शैली का कौशल टीकांत में प्रदर्शित किया है । वहाँ उन्होंने एक साथ लुप्तोपमा, रूपक, व्यतिरेक तथा अनुप्रास अलंकारों का मनोहारि प्रयोग किया है। वह पद्य इस प्रकार हैं
3
—
१. लघुतम्बस्फोट पद्य क्रमांक १० अध्याय प्रथम ।
श्र (ह शीतलनाथ जिनेन्द्र श्राप कामकोणादि समस्त विकारों से शून्य होकर भी, ज्ञानदर्शनादि गुणों से प्रतिशव पूर्ण हो, स्वधीय गुणों से परिपूर्ण होकर भी अन्यद्रव्य के गुण पर्यायों से अन्यद्रव्यों में शून्य विभव होकर भी ज्ञाता को प्राप्त हुए अनेक परिपूर्ण हो, अनेक प्रतियों से परिपूर्ण होकर भी सदा एत्र हो हो. समर्थ ? अर्थात् कोई नहीं ।
शून्य हो, यों से ऐसे आपके चरित को जानने
२. समयमा कलश, क्रमांक २५
अर्थः- यह नगर ऐसा है कि जिसने अपने कोट के द्वारा आकाश को मानो ग्रसित कर रखा है ( अर्थात् कोट बहुत ऊंचा है) बगीचों की पंक्तियों से जिसने भुमितल को मानो निगल लिया है (कर्थात् चारों और बगीचों से पृथ्वी ढक गई है), और कोट के चारों ओर की खाई के घेरे से मानों पाताल को पी रहा है (अर्थात् खाई बहुत गहरी है) ।"
३. वही, कलश क्रमांक ३६ - भगवान जिनेन्द्र का उत्कृष्ट रूप क्षोभरहिल, गंभीर समुद्र के समान है, विकार रहित तथा सुस्क्षित है, जिसमें यपूर्व तथा स्वाभाविक लावण्य है, ऐसा रूप जयवंत वर्ती ।
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ध्यक्तित्व तथा प्रभाव ।
[ १०६
अविचलितचिदात्मन्यात्मनात्मानमात्म
न्यनबरतनिमग्न धार यद् ध्वस्तमोहम् । उदिनममृतचन्द्रज्योतिरेतत्समंता
जज्वलतु विमलपूर्ण निःसपत्नस्वभावम् !' उक्त पद्य में प्रथम चरण में आत्मनि, प्रात्मना, आत्मनं, आत्मन् में तथा द्वितीय चरण में घारयल-ध्वस्तमोहम् आदि पदों में अनप्रास अलंकार प्रयुक्त है। तथा अमृतचन्द्रज्योति: पद मे आत्मा की अमृतचन्द्रसमान कहा है" यहां समान पद वाचा "वत्" पद का लोप होने से लुप्तोपमा अलंकार प्रकट होता है। यदि "वत्" अर्थ न करके मात्र अमृतचन्द्ररूपज्योति अर्थ किया जाय तो भेदरूपक अलंकार सिद्ध होता है। प्रात्मा को अमृतमय चन्द्रमा के समान कहने पर भी, ध्वस्तमोहः विमलपूर्ण तथा निःसपत्नस्वभाव विशेषणों द्वारा चन्द्रमा के साथ व्यतिरेक भी सिद्ध होता है क्योंकि ध्वस्तमोह विशेषण अज्ञानरूप अघंकार का दूर होना बतलाता है, विमलपूर्ण विशेषण लांछनरहितता को बताता है और निःसपत्नस्वभाव द्वारा चन्द्रमा की भांति राह से ग्रसित अथवा मेघाच्छादित होने का निषेध बताया गया है इस तरह समास परिवर्तन के द्वारा अमृतचन्द्रज्योति के अन्य अनेक अर्थ संभव हैं । २ अलंकारों की सविस्तार चर्चा पागे यथास्थान की जायेगी अतः यहां हम अलंकार के अंतिम उदाहरण के रूप में अतिसुन्दर, सुगम तथा सुबोध कारणमाला नामक अलंकार प्रस्तुत करते हैं। पुरुषार्थ सिद्धयपाय में मद्य के दोष को बताते हुए वे उक्त अलंकार का प्रयोग करते हैं :-यथा
मद्य मोहमति मनों, मोहितचित्तस्तु विस्मरति धर्मम् 1 विस्मृतधर्माजीवो हिंसाम विशंकमाचरति ।। ६२ ॥
१. समयसार कलश २७६, अर्श्व - अकम्पबैतन्य स्वरूप प्रात्मा में, अपने पुरुषार्थ से
ही निरन्तर मग्न हुई मोहांधकार को नष्ट करने वाली, स्वच्छ तथा परिपूर्ण, रागादि विरोधी भावों से रहित, उदय को प्राप्त हुई मह अमृतमयी चन्द्र
समान अात्मज्योति सदा प्रकाशमान रहो । २, समयसार. परिशिष्ट, पृष्ठ ६०१ सोनगढ़, १९६४ ३. अर्थ - मदिरा मन को मोहित करती है, माहितचित्तपुरुष तो धर्म को भूल
जाता है, धर्म को भूला हुमा जीव निःशंक होकर हिसा वा प्राचरण करता है।" देखो, पुरुषार्थसिद्धयुपाय पद्य नं. ६२ ।
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११० ।
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
इस प्रकार छन्द, रस, अलंकारों का समुचित प्रयोग, काव्योचित अनेक गुणों का समावेश, भावानुकुल अर्थगरिमायुक्त भाषा तथा अध्यात्मरस से परिपूर्ण पद्य रचना से अमृत चन्द्र का व्यक्तित्व निश्चित रूप से एक सफलतम, प्रतिभाशाली, अद्वितीय तथा उच्चकोटि के काव्यकार के रूप में प्रस्फुटित होना है। विद्वान अध्येता उनके काव्य को नाटक काव्य, अनुपमकाव्य तथा लयात्मक काव्य की संज्ञा देते हैं, उन्हें निर्दोष काव्य प्रणेता तथा संस्कृत में लयात्मक काव्य का आद्य आविष्कर्ता मानते हैं । उन्होंने जितना कौशल गद्यकार की रचना में प्रदर्शित किया, उससे कही अधिक सिद्धि एवं प्रसिद्धि पद्य काग के प्रणयन में प्राप्त की है। तत्त्वार्थसार नामक विशाल महत्वपूर्ण ग्रन्थ उनको असाधारण पद्य काव्य प्रणयन शक्ति का प्रतीक है। गृद्धपिच्छाचार्य उमास्वामी द्वारा रचित तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रों नथा भावों को और उनपर रचित श्लोकबातिक, राजवातित्रा आदि भाष्यों को अपने अंतर्मुखी व्यक्तित्व में समाहित करके कविता- तरंगिणी के माध्यम से प्रवाहित किया है। उनको उपलब्ध पद्यरचनाएं उनके उच्चकोटि के काव्यकार होने का प्रमाण हैं। उनकी अंतिम कृति लघुतत्त्वाकोट: मैं उनके नहानांविनका उत्कर्ष एवं पूटन देखकर उनका पकवीन्द्र" पद सार्थक प्रतीत होता है। इस तरह अमतचन्द्र निस्संदेह सफल पद्य काव्यकार के रूप में अपनी कृतियों में प्रकार होते हैं।
प्राचार्य प्रमत्तवन्द्र चम्पूकाव्यकार - आचार्य अमृत चन्द्र जितने प्रौढ़ गद्यकाव्यकार तथा पद्यकाव्यकार हैं, उतने ही कुशल वे चम्पूकाव्यकार भी हैं । समयसार पर उनकी आत्मख्याति दीका तथा उसमें बीच बीच में आगत पद्य उनकी चम्पूकाव्य शैली का उदाहरण है। काव्यलक्षणकारों ने "गद्य तथा पद्य मय रचना को चम्पूकाव्य कहा है" यथा - गद्यपद्यमयंकाव्यं चम्पूरित्यभिधीयते ।" इस तरह उक्त परिभाषा के अनुसार आत्मख्याति टीका चम्पूकाव्यशैली में लिखी गई कृति प्रतीत होती है। उसमें दार्शनिक व्याख्याएं गद्य में तथा भावोत्कर्ष पद्य में अभिव्यक्त पाते हैं। उदाहरण के रूप में एक स्थल पर ज्ञानी पुरुषों का त्याग (प्रत्याख्यान), स्वभाव तथा परभाव का भेदज्ञान होने पर, सहज ही हो जाता है। इस
१. निजामृतपान (समयसारकलशों का पद्यानुवाद) प्रथम पृष्ठ घ, ङ, च २, संस्कृत साहित्य का इतिहास, डॉ. बलदेव प्रसाद उपाध्याय, पृष्ठ ४१४
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
[ १११
भिप्राय की विवेचना वे सरल, सालंकृत गद्य तथा सरस पद्य में करते लिए लिखते हैं:
"यथा हि कश्चित्पुरुषः सभ्रांत्या रजकात्परकीय चीवरमादायाया परि अयन स्वामी राशत्वेन तदंचलमालव्य लागुनी क्रियमाणों मंक्षु, प्रतिबुध्यस्वार्णय परिवर्तितमेतद्वस्त्रं मामकमित्यवाक्यं श्रृण्वन्नखिलं रिचन्दैः सुष्ठु परीक्षा विदितमेतत् नरकीयमिति ज्ञात्वा खानी सम्मुन्वति तच्चोवरम चिरात् तथा ज्ञातापि संभ्रांत्या परको यान्भावामादायात्मीयप्रतिपायात्मन्यध्यास्य पानः स्वयमज्ञानी सन् गुरुणा परभाविवेक कुकी क्रियमाणो मंक्ष प्रतिबुध्यस्वकः खल्वयमात्मेत्यसकृच्छ्रात सावधं श्रण्वन्नखिलं विचन्हैः सुष्ठु परीक्ष्य निश्चितमेते परभावा इति ज्ञात्वा यानी सन् मुन्वति सर्वान्परभातानचिरात् ।
मालिनी छंद:
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वतरति न यावद् वृत्तिमत्यत्यंत वेगादनवमपरभावत्यागदृष्टांतदृष्टिः । टिति सकलभावेरन्यदीयविमुक्ता स्वयमियमनुभूतिस्तावदाविवभूव ॥ २९॥१
आत्मरूपातिकलशटीका (गाथा ३५ की टीका ) "जैसे कोई पुरुष धोबी के घर से भ्रमवश दुसरे का वस्त्र लाकर उसे अपना समझकर बोड़कर सो रहा है, और अपने बाप ही अज्ञानी (यह वस्त्र पराया है ऐसे ज्ञान से रहित ) हो रहा है । किन्तु जब दूसरा व्यक्ति उस वस्त्र का छोर पकड़कर खीचता है और उसे नग्न कर कहता है कि "तू शीघ्र जाग, सावधान हो। यह मेरा वस्त्र बदले में ा गया है, यह मेरा है सां मुझे दे दे, (तब बारम्बार कहे गये इस वाक्य को सुनता हुआ वह ( उस वस्त्र की) सर्व चिन्हों से भलीभांति परीक्षा करके ' "प्रवश्यं यह वस्त्र दूसरे का ही है" ऐसा जानकर ज्ञानी होता हुआ, उस वस्त्र को शीघ्र हो त्याग देता है। इसी प्रकार ज्ञाता भी भ्रमवश परद्रव्य के भावों को ग्रहण करके उन्हें अपना जानकर अपने में एक रूप करके सो रहा है और अपने आप अज्ञानी हो रहा है। जब श्री गुरु परभाव का विवेक (भेदज्ञान ) करके उसे एक आत्मभावरूप करते हैं और कहते हैं कि "तू जाग, सावधान हो, यह तेरा श्रात्मा वास्तव में एक (ज्ञानमात्र) ही है, तब बारम्बार कहे गये इस श्रागम वाक्य को सुनता हुआ वह (स्वपर के ) समस्त चिन्हों से भलीभांति परीक्षा करके "अवश्य यह परभाव ही है, ( में एक ज्ञान मात्र ही हैं) यह जानकर, ज्ञानी होता हुआ, सर्व परभावों को तत्काल छोड़ देता है । मालिनी छंद का अर्थ - "यह परभाव के त्याग के दृष्टांत की दृष्टि रूप यह तब तक तत्काल ही परद्रव्यों के सकल प्रकट हो जाती है ।" २६ ॥
वृत्ति जबतक वेगपूर्वक पुरानी न हो भावों से रहित यह श्रात्मानुभूति स्वयं
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११२ ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व इसी तरह की चम्पूर्शली का प्रयोग सम्पूर्ण टीका में पाते हैं । सम्पूर्ण कृति में गद्य के साथ पद्यों का प्रयोग अचुरमात्र में हुआ है। पों। की संख्या २७८ है जिससे चम्पूकाव्यशैलीगत गद्य के साथ समुक्ति अनुपात में पद्यों का मिश्रण सहज बन पड़ा है। तथा प्राचार्य अमृतचन्ह की धम्पुशैली में रचना करने की सफल क्षमता का परिचय भो हुआ है। प्रवचनसार तथा पंचास्तिकाय की उभय टीकाएं यद्यपि प्रमुखतः प्रोड़तम एवं क्लिष्ट गद्यकाव्यशैली में हैं तथापि उनमें भी बीच बीच में कुछ पद आ पड़े हैं जिससे आचार्य अमृतचन्द्र का चम्पूकाव्य शैली का स्नेह प्रदर्शित होता है। डॉ. पद्मनाभ जैनी, (प्रोफेसर, केलीफोनिया विश्वविद्यालय) ने भी अमृतचन्द्र की शैली को उत्तरमध्यकालीन अनुप्रासात्मक चम्यूशैली के रूप में स्वीकार किया है। उनकी दृष्टि में अमृतचन्द्र को तत्कालीन चम्पूर्शनी से पूर्वस्नेह था।' अमृतचन्द्र को हम चम्पूकाव्यशैली का प्रमुख उन्नायक मानते हैं कारण कि चम्पूशैली के साहित्य की उपलब्धि दसवीं शताब्दी से पूर्व नहीं होती । प्राचार्य अमृतचन्द्र दसवीं शताब्दी ईस्वी में प्रारम्भ के हैं। उनका समय हमने विभिन्न प्राधारों पर. ईस्वी १० निश्चित किया है । मध्यकालीन चम्पूकाव्यकारों में नलचम्पू तथा मदालसाचम्पू के लेखक त्रिविक्रम भट्ट (ईस्वी ६१५)3 यशस्तिलकचम्पूकार सोमदेव (ईस्वी ६५६), जीवन्धर चम्पूरचयिता महाकवि हरिचन्द (११. १२ वीं सदी) पुरुदेव चम्पूकार अर्हद्दास (तेरहवीं सदी) के नाम उल्लेख्य । हैं । इन सभी चम्पूकाव्यकारों में आचार्य अमृतचन्द्र वयवरिष्ठ तो हैं ही साथ ही चम्पूयुग के आद्य उन्नायको में भी श्रेष्ठ हैं 1 जहां त्रिविक्रम श्लेषप्रधान रचनाकार हैं वहां अमृतचन्द्र अनुप्रास कवीन्द्र हैं उनकी अनुप्रास शैली चमत्कारोत्पादक, रसाभिव्यंजक तथा अनुभव रस से परिपूर्ण होती है । उदाहरण के लिए रागी जीव ज्ञानी (सम्यग्दृष्टि) क्यों नहीं होता इसके स्पष्टीकरण में अमृतचन्द्र लिखते हैं:---
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१. Amrtacandra, on the other hand, displays a predilection for thealitera
tive Champu style of the lato mediacval period....................Iatroduction
Page 3 of 'Lagbu tattve Sphota' by AAmrtacandrasuri २. संस्कृत साहित्य का इतिहास, डॉ. बलदेव प्रसाद उपाध्याय, पृष्ठ ४१४ ३. वही, पृष्ठ ४१६
४. वही, पृष्ठ ४२१ ५. जनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग ४, पृष्ठ ५३२ ६. महाकवि हरिचन्द, एक अनुशीलन, स्तम्भ १, पृष्ठ ६
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व्यक्तित्व र अभाव ]
[ ११३
"यस्थ रागादीनामाज्ञनमयानां भावांनांलेशस्यापि सद्भावोऽस्ति स तब लिकल्पोऽपि ज्ञानमयस्य भावस्याभावादात्मानं न जानाति । यस्त्वात्मानं न जानाति सांडनात्मानमपि न जानाति स्वरूपपररूप सत्तासत्ताभ्यामेकस्य वस्तुतो निश्चीयमानत्वात् ततो य आत्मानात्मानौ न जानाति स जीवाजीव न जानाति । यस्तु जीव जीवो न जानाति स सम्यदृष्टिरेव न भवति । ततो रागी ज्ञानाभावान्न भवति सम्यग्दृष्टिः । १ मन्दाक्रांता छंद. आसंसारात्प्रतिपदममी रागिणो नित्यमत्ताः
सुप्ता यस्मिन्नपदपदं तद्विबुध्यध्वगंधाः । एर्ततेतः पदमिदमिदं यत्र चैतन्यधातुः
7
शुद्धः शुद्धः स्वरसभरतः स्थायिभावत्वमेति ॥ १३८ ॥ ३
इसी तरह "ज्ञानी को सर्व प्रकार के उपभोगों के प्रति विरक्ति होती है "इस कथन की सिद्धि हेतु प्रयुक्त सालंकृत एवं चमत्कृत चम्पूशैली का नमूना भी दृष्टव्य है यथा
"इह खल्वध्यवसानोदयाः कतरेऽपि संसार विषयाः कतरेऽपि शरीरविषया: । तत्र यतरे संसार विषयाः ततरे बंधनिमित्तः यतरे शरीर विषय
१. समयसार गाथा २०१ - २०२ की आत्मख्याति टीका (अर्थ – जिराके रागादि अज्ञानमय भावों का लेशमात्र भी सद्भाव है, वह श्रुतकेवली जैसा होने पर भी ज्ञानमय भावों के अभाव के कारण श्रात्मा को नहीं जानता। जो श्रात्मा को नहीं जानता वह अनात्मा को भी नहीं जानता क्योंकि स्वरूप से सत्ता और पररूप से सत्ता दोनों के द्वारा एक वस्तु का निश्चय होता है। इसप्रकार जो आत्मा और अनात्मा को नहीं जानता वह जीव तथा प्रजीव को भी नहीं जानता । जो जीव तथा अजीव को नहीं जानता, वह सम्यग्दृष्टि ही नहीं है । भतः रागी सम्यग्ज्ञान के अभाव के कारण सम्यग्दृष्टि नहीं होता |
:―
२. मन्दाक्रांता छंद का अर्थ प्ररे ( वस्तुस्वरूप को न देखने वाले ) यन्त्र प्राणियों सुम परपदार्थ में रागी हुए अनादिकालीन संसार से सदा उन्मत्त बने हो, जिस चतुर्गति रूप संसारी पर्यायों में लीन हो, वह तेरा स्थान नहीं है, नहीं है, अतः जागो जागो। यहां से जाओ यहां से जानो, तुम्हारा पद वह है जहां चैतन्यबालु अपने परमशुद्ध चैतन्य रस से भरी हुई स्थापने को प्राप्त होती है, वहां तेरा पद है । समयसार कलम १३८
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११४ ]
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
स्ततरे तूपभोगनि पित्ताः । यतरे बंध निमित्तास्ततरे रागद्बषमोहायाः यतरे तूपभोगनिमित्त स्त तरे सुखदुःखाद्याः । अथामीषु सर्वेष्वपि ज्ञानिनो नास्ति रागः नानाद्रव्यस्य भावत्वेन टंकोत्कीर्णं कज्ञायकभावस्वभावस्य तस्यतत्प्रतिषेधत्वात ।
स्वागता छंद शानिनो न हि परिग्रहभावं, कर्म रागरस रिक्ततयति ।
रंगय किन रकषायितवस्त्रे स्वीकृतैव हि बहिल उतीह ।। ज्ञानवान् स्वरसतोऽपि यतः स्यात, सर्व रागरस वर्जनशील: ।
लिप्यते सकलकर्मभिरेष: कर्ममध्यपतितोऽपि ततो न ॥ इस तरह उन उदाहरणों से अमृतचन्द्र की सरस, आलंकारिक तथा अध्यात्म र सभरित चम्पू शैली का भलीभांति परिचय मिलता है, अतः उन्हें हम गशपद्य काव्य कार के साथ ही चग्गूकाव्यकार भी वाह सकते हैं। उनके ये तीनों अद्वितीय असाधारण साहित्यिक पहलू अमृतचन्द्र के व्यक्तित्व के काव्यकार के पहलू को उजागर करते हैं। वे सिद्धहस्त प्रौढ़ गद्य लेखक, रससिद्ध पद्यप्रोता तथा आकर्षक चम्पूकाट्यकार के रूप में अपनी कृतियों में प्रकाशमान है।
१. समयसार गाथा २१७ की दीकाः-''इस लोक में जो अध्यवसान के उदय हैं
वे कितने ही तो संसार सम्बन्धी हैं और कितने ही शरीर सम्बन्धी हैं। उनमें जितने संगार सम्बन्धी है, उसने बन्ध के निमित्त है और जितने शरीर संबंधी हैं उतने उपभोग के निमित्त हैं । जिसने बन्ध के निमित्त हैं, उत्तने तो रामद्वेष. मोह धादि हैं और जितने उपभोग के निमित्त हैं उतने सुखदुःखादिक हैं। इन सभी में ज्ञानी के राग नहीं है, क्योंकि वे सभी नाना द्रव्यों के स्वभाव है
इसलिए टंकोंकीर्ण एक ज्ञायकभाव स्वभाव वाले ज्ञानी के उनका निषेध है। २. (स्वागता छंदों का ) अर्थ- "राग के रप से शून्य होने को कारण ज्ञानी की
कोई भी किया ममत्व परिणाम को प्राप्त नहीं होती, जिस प्रकार लोध और फिटकरी से कषायला न किया वस्त्र, अन्य रंग के संयोग को स्वीकार करने पर 'मी; बह रंग बाहिर ही बाहिर बना रहता है अर्थात वस्त्र को रंजित नहीं करता ॥ १४ ॥" " कि ज्ञानीपुरुष अपने स्वभावरस से ही संपूर्ण रागरसों का वर्जक (निषेधक) है अतः कर्मों के बीच पड़ा हुआ भी यह ज्ञानी समस्त कर्मों से लिप्त नहीं होता ।. १४६ ।।" समयसारकलश
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तत्व तथा प्रभाव ]
[ ११५ पाचार्य अमृतचन्द्र – व्याख्याकार के रूप में
१. प्रसाधारण तथा अद्वितीय विद्वान्-आचार्य अमृतचन्द्र के शक्तिव का एक पहल सफलतम व्याख्याकार का भी है। व्याख्याकार के में वे असाधारण तथा अद्वितीय विद्वान् थे। जिस प्रकार टीकाकार सनाथ, महाकवि कालिदास के ग्रन्थों के रहस्यज्ञ थे, उसी प्रकार मुतचन्द्र आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के मर्मज्ञ व्याख्याता थे।' जिस तरह चार्य विद्यानंदस्वामी न होते तो प्राचार्य अकलंक के ग्रन्धों का मर्म मझना कठिन होता, उसी तरह यदि आचार्य अमृतचन्द्र व्याख्याकार न से तो कुन्दकुन्द के सूत्रों का अर्थ समझना मुश्किल होता। उनका ध्यात्मविषयक टीका साहित्य प्रमेय की दृष्टि से उतना ही महत्वपूर्ण
जितना मूल अध्यात्मसाहित्य । आचार्य कुन्दकुन्द ने तीर्थकरों के उपदेश को ग्रन्थों में गूथकर तीर्थकर-सर्वज्ञतुल्य कार्य किया तथा
चार्य अमृतचन्द्र ने कुन्दकुन्द के हृदयगत रहस्य को गम्भीर टोकाओं यस उद्घाटित कर गणधर तुल्य कार्य किया। उनकी टीकाएँ अतरात्मपोति जगमगा देने वाली हैं। ग्रन्थकर्ता के मूलभावों एवं रहस्यों को कट करना, उन पर गम्भीर भाष्य की रचना करना महान दार्शनिक का ये है। "भाष्यकाल को अलंकृत करने वाले ऐसे दार्शनिकों की गणना सार के महान दार्शनिकों में की जाती है। अल्पाक्षररूप मूलसूत्रों में लिहित तथ्यों का विशदीकरण अपनी ताकिक बुद्धि से निष्पन्न कर एक हान साहित्य की सष्टि इन दार्शनिकों द्वारा हुई है। आचार्य अमृतचन्द्र ही ऐसे ही महान् टीका साहित्य के स्रस्टा हैं। उनकी समग्र टीकाएँ औद्धतम, दार्शनिक तथा पांडित्यपूर्ण शैलो में रचित हैं । वे संस्कृत वाङमय उत्कर्ष एवं प्रौदता की झलक को प्रस्तुत करती हैं।
समयसार की आत्मख्याति कलश टीका ऐसी श्रेष्ठ रचना है जो भावार्य अमृतचन्द्र की प्रकाण्ड विद्वत्ता, बाग्मिता तथा अप्रतिम प्रांजलशेली सी परिचायक है, साथ ही उनकी कीर्ति को श्रेष्ठ व्याख्याता के रूप में
तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा, पृष्ठ ४०२ खण्ड द्वितीय ।
जैन साहित्य का इतिहास, भाग २, पृष्ठ १७२ . मात्मधर्म अंक २४८, दिसम्बर १६६५, पृष्ठ ४५३
(संत कानजी स्वामी का प्रवचन) . संस्कृत साहित्य का इकिहास डॉ. बलदेव उपाध्याय पुष्ठ ६५६
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११६ ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृ
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श्रमरता प्रधान करने में समर्थ है। प्रवचनसार तथा पंचास्तिकाय प रचित तत्त्वप्रदीपिका एवं समय व्याख्या नामक गद्य टीकाओं में व्याख्यात अमृतचन्द्र की विद्वत्ता दार्शनिकता तथा प्रौढ़ता का उत्कर्ष चरम सीम को स्पर्श करता प्रतीत होता है । ये दोनों टीकाएं गम्भोर- संद्धांति व्याख्यान तथा दर्शन पर होने के कारण अधिकाश गंधरूप में है, कहीं पाठक उनकी दार्शनिकता, कवित्व शक्ति तथा भावोद्रक को पद्यरू में भी प्रस्फुटित पाते हैं। उनकी टीका तत्वप्रदीपिका में १४ पद्य त समयव्याख्या में " पद्य सहज ही अभिव्यक्त हुए हैं । समयसार को आर स्वाति टीका में उनकी प्रखर विद्वत्ता के साथ ही साथ अध्यात्म र सिक का चरमोत्कर्ष विद्यमान है । यद्यपि इस टीका में गद्य तथा पद्य दोनों क सामन्जस्य है तथापि इसमें अभूतचन्द्र की असाधारण काव्यप्रतिभा विशेष रूप से प्रगट हुई है। इससे यह बात भी प्रमाणित होती है कि अमुच मात्र गटीका लिखने में ही नहीं अपितु पद्यटीका लिखने में भी सिद्धह थे । पद्यटीकाकार के रूप में उनका व्यक्तित्व "तत्त्वार्थसार नामक प टीकृति से स्पष्टतः प्रमाणित है। तस्वार्थसार पद्यटीका गृद्धपिच्छाचारी उमास्वामी के तत्त्वार्थ सूत्र पर आधारित ७२० पद्यों में है । इस तर स्पष्ट है कि अद्यावधि उपलब्ध अमृतचन्द्र की समस्त रचनाओं में बहुभा टीका साहित्य तथा शेष भाग मौलिक साहित्य के रूप में है । इसे ह उनके व्याख्याकार होने का प्रमुख आधार मान सकते है ।
२. सोद्दश्य टीका कृतियाँ- उनकी समस्त टीकाकृतियों की सृष्टि एक विशिष्ट उद्देश्य को लेकर हुई है, पाण्डित्य प्रदर्शन उनका ध्येय नहीं था । वे पाण्डित्यप्रदर्शन के काल में हुए तथा एक सफल व्याख्याकार रूप में उन्होंने विभिन्न टीकाओं की रचना के उद्देश्यों को प्राप्त करने सफलता प्राप्त की । प्रत्येक टीका के आरम्भ में उन्होंने अपने उद्द को स्पष्ट घोषित किया है। आत्मख्याति टीका की रचना का घोषित करते हुए वे लिखते हैं--" परपरगति ( विकारदशा) का कार मोहनामक कर्म है, जिसके अनभव से मेरी परिणति मलिन होती रही हैं अब इस समयसार की व्याख्या द्वारा मेरी परिणति परम विशुद्धि को प्राप्त होवे में द्रव्यदृष्टि से शुद्धचैतन्यमात्र मूर्ति हू। इसी तरह तरबप्रदीपिक
"
१. श्रात्मस्वाति, नमयसार, कलश, पद्य क्रमांक ३
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तथा प्रभाव ]
1 ११७
का लक्ष्य स्पष्ट करते हुए कहा है- "परमानन्दरूप अमृतरस के भव्यजीवों के हित के लिए, वस्तुतत्त्व को स्पष्ट दानेवाली सनसार की यह टीका रखी जा रही है। समय का उद्देश्य महिमा इस प्रकार है कि यह समयव्याख्या टीका सम्यग्ज्ञान रूपी ज्योति को जन्म देने वाली (जनवी ) है दोनों (निश्चयबिहार ) नयों के आश्रय से रची गई है, इसे संक्षेप में कहा जाता है । " सार टोका के आरम्भ में भी यह लक्ष्य स्पष्ट घोषित है कि अब शाभिलाषी जीवों ( मुमुक्षुओं) के कल्याण के लिए, मोक्षमार्ग को काशित करने हेतु दीपक के समान यह तत्वार्थसार नामक ग्रन्थ अत्यंत प्रिंट रूप से कहा जाता है । इस तरह विभिन्न ग्रन्थों के मर्म का रहस्योप्रिंटन करने और अपने घोषित उद्देश्यों को पाने में ये सफल हुए हैं । सिकी उपलब्ध टीकाकृतियां उनकी सफलता की द्योतक हैं ।
7
३. संस्कृत गद्य तथा पद्य साहित्य की विभिन्न शैलियों का प्रयोगकार के रूप में उन्होंने अपने भाष्यों में संस्कृतगद्य तथा पद्य साहित्य की विभिन्न शैलियों का सफल प्रयोग किया है। कुछ नवीन इलियों के के पुरस्कर्ता भी हैं। उनकी टीकाओं में कुछ उपलब्ध प्रमुख शियों के नाम इस प्रकार हैं- व्युत्पत्ति-अर्थशैली, नयशैली, हेतुपुरस्पर ती दृष्टांत व दाष्टीत शैलो, "दृष्टांत में तर्क, तर्क में प्रश्न, प्रश्न में समास्वान व्याख्या शैली, प्रश्न शैली, लर्कसापेक्ष शैली, अनुमान पंचावयवशैली, "शैली", न्याय शैली, अनेकरूप कथन शैली, प्रत्यभिज्ञान शैली, सूत्ररूप कथन शैली, समास विग्रह परक शैली, समास बहुलदीर्घ वाक्यावलि युक्त शैली तथा तुलनात्मक कथन शेली श्रादि। इन शैलियों का सप्रमाण आक्लिन हम प्रागे यथासमय सविस्तार करेंगे, फिर भी उदाहरण के रूप कु शैलियों का प्रयोग इस प्रकार है
में
व्युत्पत्ति या निरुक्तिपरक शैली -झाचार्य अमृतचन्द्र ने जहां जहां मूल शब्द के रहस्य को करना चाहा, वहीं उन शैली का प्रयोग समयसार की टोका प्रारम्भ करते समय "समय" शब्द की गम्भीरता को प्रकट करते हुए लिखा है "ममयतेएकत्वेन युगपज्जा
किया है । यथा
-
प्रदीपिका, पद्म श्रम ३
समयध्याख्या, पद्य क्रमांक ३ तत्वार्थसार, पद्य नं. २
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११८ ]
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
नाति, गच्छति चेति निरुकोः" अर्थात "समय शब्द का अर्थ है एकत्व रूप से साथ साथ जाने तथा गमन (परिणमन) करे ।' उक्त शब्द की व्याख्या का स्पष्टीकरण करते हुए पुनः लिखा है- "समयशब्देनात्र सामान्येन सर्वएवार्थोऽभिधीयते । समयते एकीभावेन स्त्रगुण पर्यायान गच्छतो ति निरुक्तेः। अर्थात् यहां “समय शब्द से सामान्यतया सभी पदार्थ कहे जाते हैं क्योंकि व्यत्पत्ति के अनुसार समयते अर्यात एकीभाव से अपने गुण पर्यायों को प्राप्त होकर जो परिणमन करे वह समय है । 'द्रव्य" शब्द की व्याख्या भी इसी शैली में की गई है।
सरलार्य शली–उक्त "समय" शब्द का ही अन्य प्रकरण में सरलार्थ करते हुए समय 5., अ सा है. 4 .. "सायोति
आगमः" । श्रमण पद का अर्थ महाश्रमण या सर्व-वीतरागदेव किया है यथा- "श्रमणा हि महाश्रमणा: सर्वच वीतरागा: ।५. आचार्य अमृतचन्द्र प्रत्येक शब्द का प्रकरणानुसार जहां जो अर्थ अभिप्रेत है. वह अर्थ करने में कुशल हैं। व्याख्याकार की सफलता भी इसी में है। एक स्थल पर "समय" शब्द का प्रयोग दर्शन या त के रूप में करते हुए सांख्यदर्शन को "सांस्यसमय" पद से अभिहित करते हैं। अन्यत्र समय पद का प्रयोग "काल" के पर्यायवाची अर्थ में भी करते हैं । यथा - "जानसमयेऽनादि शेयज्ञानभेदविज्ञानशून्यत्वात्" इस वाक्य में "ज्ञानसमये" पद का अर्थ "ज्ञान के काल में" अभिप्रेत है। इसी तरह एक स्थल पर "समय" शब्द का प्रयोग आत्मा के अर्थ में किया है यथा-"नमः समय सागय"८ पर्यात शुद्ध प्रात्मा को नमस्कार हो। इस तरह यथोचित यथार्थ शब्द प्रयोग को चातुरी उनके व्याख्याता पद को महत्त्वपूर्ण बनाती है।
नयशैली -- नय शैली में द्रव्य के स्वरूप का मामिक, गम्भीर, दार्शनिक तथा सुस्पष्ट व्याख्यान करते हुए वे लिखते हैं कि वास्तव में सभी वस्तुओं का स्वरूप सामान्य विशेषात्मक होने से वस्तुस्वरूप दष्टाओं
१. समयमार गाथा २ की टीका, पृष्ठ ६ २. वही, गाथा ३ की टीका, पृष्ठ ११ ३, पंचास्तिकाय गाथा ६ की टीका, पष्ठ २५ ४. पंचास्तिकाय गाभा २ की टीका । ५. वही, गाथा २ की टीका । ६. ममयमार माथा ३.४४ की प्रात्मख्याति टीका, पृष्ठ ४७१ ७. वहीं, गाथा ३४४ पृष्ठ ४७२। ८, प्रात्मख्याति, समयसारकलश प्रथम ।
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व्यक्तित्व तथा प्रमाय ]
[
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के सामान्य और विशेष को जानने वालो क्रमशः द्रव्याथिक पौर पर्यायार्थिक नय रूप दो आँखें होती हैं। इनमें पर्यायाथिक नयचक्ष को सर्वथा बन्द करके केवल द्रव्याथिक नयचक्ष को खोलकर देखा जाता है तब नारकत्व, तिथंचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व पर्यायरूप भेदों में अवस्थित एक जीवसामान्य को देखने वाले तथा भेदों को न देखने वाले जीवों को 'सभी जीवद्रव्य है" ऐसा प्रतिभासित होता है। और जब द्रव्याथिक नयचक्षु को सर्वथा बन्द करके केवल पर्यायाथिक नयचक्षु को खोलकर देखा जाता है तब जीवद्रव्य में नारकत्वादि भेद देखने तया सामान्य को न देखने वाले जीवों को (वह जीवद्रव्य) अन्य अन्य प्रतिभासित होता है, क्योंकि द्रव्य उन उन विशेषों से तन्मय होने से उन उन भेदों से अनन्य है। जैसे कण्डे, पत्ते और काष्ठमय अग्नि । और जब द्रव्याथिक व पर्यायाधिक नय रूप दोनों ही चक्ष ओं को खोलकर उनके द्वारा देखा जाता है तब नारकत्व प्रादि में रहने वाला जीव सामान्य तथा जीवसामान्य में रहने वाले नारकत्व आदि विशेष एक काल में ही दिखाई देते हैं। वहीं एक आँख में देखा जाना एकदेश अवलोकन है तथा दोनों आँखों में देखा जाना सर्वावलोकन है। इसलिए सर्वावलोकन में द्रव्य के अन्यत्व और अनन्यत्व विरोष को प्राप्त नहीं होते ।' उक्त गद्यांश में
--.--...... . . १. प्रवचनसार गाथा ११४ वी तत्त्वदीपिका टीका-"सर्वस्य हि वस्तुनः सामान्यदिशेषासात्वात्तत्स्वरूपमृत्पश्यतां यथाश्रमं सामान्यविशेषौ परिन्छिन्दती हूँ क्लि चक्षुषी द्रव्याथिक पर्यायर्थिकं चेति । तत्र पर्यायाथिकमेकांतनिमीलितं विधाय केवलोन्मीलितेन द्रव्याथिकेन पदावलोक्यसे तदा नारकतिर्यङ, मनुष्यदेवनिद्धत्वपर्याणास्मकेषु विशेषेषु व्यवस्थित जीवसामान्यमेकमवलोक्यतामनवलो कित विशेषाणां तस्सर्वजीवद्रव्यामिति प्रतिभाति। यदा तु द्रव्याथिकमकान्तनिमीलितं कंबलोन्मीलितेन पर्यायाथिकेनावलोक्यते तदा जीवद्न्ये व्यवस्थितान्नारकतिर्यक मनुष्यदेबसिद्धत्वपर्यायामकान् विशेषाननेकानवलोकयतामनवलोरितसामान्यानामन्यदन्यत्प्रतिभाति । द्रव्यस्य तसद्विशेष काले तत्तद्विशेषेभ्यस्तन्मयत्वेनानन्यत्वात् गणतृणपर्णदारुमयहव्यवाहवत् । या तु ते उभे अपि 'द्रव्याथिकपर्यायाथिक तुल्यकालोन्मीलिते विधाय तत इतश्चाव लोक्यते तदा नारकतियं मनुष्यदेवसिद्धस्वपर्यायेषु व्यवस्थितं जीवसामान्य जीवसानान्ये च व्यवस्थिता नारकत्तिर्यङ मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायास्मका विशेषाश्च तुल्यकालमेवावलोक्यन्ते । तचक्ष अलोकनमेकदेशावलोकनं, विचक्षुरवलोकन सर्वावलोकन । ततः सर्वावलोकने द्रव्यस्यान्यस्वानन्यस्वं च न विप्रतिषिध्यते ।
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१२० ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व तथा कर्तृत्व
गम्भीर दार्शनिकता के साथ ही अमृतचन्द्र के प्रीतम गद्य, सामासिक सालंकृत शैली एवं विद्वत्ता की स्पष्ट झलक मिलती है जो उन्हें उच्चकोटि काव्यागाकार सित करती है।
सुगम व्याख्या शैली - ज्ञान को मोक्ष का कारण सिद्ध करते हुए सुगम व्याख्याशैली में वे लिखते हैं- "ज्ञानं हि मोक्ष हेतुः ज्ञानस्य शुभाशुभकर्मणोरबंधहेतुत्वे सति मोक्षहेतुत्वस्य तथोपपत्तेः । तत्तु सकलकमी दिजात्यंतर विविक्तचिज्जातिमात्रः परमार्थ आत्मेति यावत् । स तु युगपदेकीभावप्रवृत्तज्ञानगमनमयतया समत्रः सकलनयपक्षासंकीर्णे कज्ञानतया शुद्धः, केवल चिन्म वन्मात्रवस्तुतया केवली, मननमात्र भावतया मुनिः स्वयमेव ज्ञानतथा ज्ञानी, स्वस्य भवनमात्रतया स्वभाव:, स्वतश्चितो भवनमात्रतया सद्भावो वेति शब्दभेदेऽपि न च वस्तु भेद: ।" इसी शैली में अन्यत्र "जीवों को वास्तविक मोक्ष का कारण ज्ञान है" यह बतलाते हुए वे लिखते हैं
" मोक्षहेतुः किल सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि । तत्र सम्यग्दर्शनं तु जीवादि श्रद्धानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनम् । जीवादिज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं ज्ञानम्। रामादिपरिहरणस्वाभावेन ज्ञानस्य भवनं चारित्रम् । तदेवं सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्राण्येक मेव ज्ञानस्य भवनमायातम् । ततो ज्ञानमेव परमार्थ मोक्षहेतुः २ इसी तरह सरलतम, सुगमतम तथा
१. समयसार गाथा १५१ टीका, अर्थ:- ज्ञान मोक्ष का कारण है क्योंकि वह शुभाशुभ कर्मो के बन्ध का कारण न होने से उसके इस प्रकार मोक्ष का कारणपना बनता है । वह ज्ञान समस्त कर्म आदि जातियों से भिन्न चैतन्य जातिमात्र परमार्थ (परमपदार्थ ) है - आत्मा है । वह (आत्मा) एक ही 'माय एक रूप से प्रवर्तमान ज्ञान और गमन स्वरूप होने से समय है, समस्त नयपक्षों से श्रमिश्रित एक ज्ञानस्वरूप होने ते शुद्ध हैं, केवलचिन्मात्र वस्तुस्वरूप होने से केवली है, केवल मनन मात्र ( ज्ञानमात्र) भावस्वरूप होने से मुनि है, स्वयं ही ज्ञानस्वरूप होने से ज्ञानी है. स्व का भवनमात्र स्वरूप होने से स्वभाव है। श्रथवा स्वतः चैतन्य का भवनमात्रस्वरूप होने से सद्भाव है, इस प्रकार शब्दभेद होने पर भी वस्तुभेद नहीं है ।
२. वहीं, गाथा १५५ की टीका, अर्थ:-मोक्ष का कारण वास्तव में सम्यक्दर्शनज्ञानचारित्र है। वहां सम्यग्दर्शन तो जीवादि पदार्थों के श्रद्धानस्वभाव रूप ज्ञान का होना [ परिणमन करना) है, जीवादि पदार्थों के ज्ञानस्वभावरूप ज्ञान का होना ज्ञान है, रागादि के त्याग स्वभाव रूप ज्ञान का होना सो चारित्र है | अतः इस प्रकार सम्यक्दर्शनशानचारित्र तीनों एक शान का ही भवन (परिणमन) है, इसलिए ज्ञान ही परमार्थं ( वास्तविक ) मोक्ष का कारण है ।
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
[ १२१ सगमलम तथा लघुत्तम वाक्यावलि के प्रयोग द्वारा सूग्राह्य, सुबोध तथा सुन्दरगध का श्रेष्ठ नमूना एक स्थल पर उपलब्ध होता है जहां वे ज्ञानी के धर्म (पुण्य ) का परिग्रह नहीं होता "इस बात की सिद्धि करते हुए लिखते हैं:
__ "इच्छा परिग्रहः । तस्य परिग्रहो नास्ति, यस्येच्छा नास्ति । इच्छा त्वज्ञानमयो भावः, अज्ञानमयो भावस्तु ज्ञानिनो ज्ञानमय एवं भावोऽस्ति । ततो ज्ञानी अज्ञानमयस्य भावस्य इच्छाया अभावाद्धर्म नेच्छति । तेन झानिनो धर्म परिग्रहो नास्ति । ज्ञानमयस्यकस्य ज्ञायक भावस्थ भाबादधर्मस्य केवलं ज्ञायक एवायं स्यात् ।''१ ग्रह है अमृतवन्द्र की तुगमव्याख्या .. शैली एवं शृखलाबद्ध कथन का नमूना।
प्रश्नोत्तर शैली- इस शैली में अभूनचन्द्र के गद्य का मनोहारि रूप देखने को मिलता है, साथ उनके गम्भीर दार्शनिक सैद्धांतिक ज्ञन तथा अनोखी तर्क शक्ति का भी परिचय प्राप्त होता है । कतुं त्वगुण के व्याख्यान में जीव के परभावों के कर्तृत्व का निषेध तथा स्वभाव के कर्तृत्व का समर्थन करते हए वे लिखते है:-- जीवा हि निश्चयेन परभावानामकरणास्वभावानां कर्तारी भविष्यन्ति । तांश्च कुर्वाणा: किमनादिनिधनाः, कि सादिस निधना:, कि साद्यनिधनाः, त्रिं तदाकारणेन परिणताः, किमयरिणताः भविष्यतीत्याशक्येदमुक्त । जोवा हि सहज चैतन्य लक्षण पारिणामिक भावेनानादिनिधनः । त एवौदयिक क्षायोपश मिकौपश मिकभावः सादिसनिधनाः । त एव क्षायिक भावेन साद्यनिधनाः। न च सादित्वात्सनिघनत्वं क्षाधिक भावस्याशंक्यम् स खलपाधिनिवृत्तौ प्रवर्तमानः सिद्धभाव इव सद्भाव एव जीवस्या सदभावेन चानन्ता एव जीवाः प्रतिज्ञायते । न च तेषामनादिनिधनसहज चैतन्य लक्षणेक भावानां सादिसनिधनानि साद्यनिधनानि भावांतराणि नोपपद्यंत इति वक्तव्यम्,
१. समयसार गाथा २१० सी टीका- (अर्थ-'इच्छा परिग्रह है। उसो परिग्रह
नहीं है जिसके इच्छा नहीं है। इच्छा तो अज्ञानमय भाव है और प्रज्ञाननय भाव ज्ञानी के नहीं होता, ज्ञानी जानमय ही भाव होता है, इसलिए अज्ञानमय भाव-इच्छा के अनाव होने से ज्ञानी धर्म (पुण्य) को नहीं चाहता, इसलिए शानी के धर्म का परिग्रह नहीं है। ज्ञानमय एक ज्ञायकभाव के सद्भाव के कारण यह (ज्ञानी) धर्म का केवल ज्ञायक ही है।
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१२२ ।
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व . ते खल्वनादि कर्ममलीमसाः पंकसंपृक्त नीयवत्तदाकारेण परिणतत्वात्यंच. प्रत्रानगुणप्रधानत्वेनैवानुभूयंत इति ।'१ अन्यत्र प्रश्नोत्तर शैली में दृष्टांत तथा तर्क का सुन्दर प्रयोग करते हुए स्त्रात्मा में क्रिया के होने में विरोध है इसलिए आत्मा के स्वज्ञायकता कैसे घटित होती है ? इस प्रश्न का उत्तर एक असाधारण व्याख्याकार को प्रनिभा के प्रदर्शन के साथ दिया है- यथा- 'नन स्वात्मनि क्रिया विरोधात् कथ नामात्मपरिच्छेदकत्वम् । का हि नाम क्रिया ? की दशश्च विरोध; ? क्रिया हि नत्र बिरोधिनी समुत्तत्तिरूपा वा ज्ञप्ति रूपा वा । उत्पतिरूपा हि तावन्नक स्वस्मात्प्रजायत इत्याममाविरुद्धंव । ज्ञप्तिरूपायास्तु प्रकाशन क्रिययव प्रत्यवस्थितत्वाम्म तत्र विप्रनिषेचस्यावतारः । यथा ह प्रकाशकस्य परं प्रकाश्यगामा नन्न प्रकाशयतः स्वस्मिन् प्रकाश्ये न प्रकाशकान्तरं मयं स्वयमेव प्रकारानपिनायाः ममलामा । तथा परिच्छेदकस्यत्मनः परं परिच्छेद्यतामापन्न परिच्छिन्दतः स्वस्मिन् परिच्छेचे न परिच्छेद्यकान्तरं मृग्य, स्वयमेव परिच्छंदन क्रियायाः समुपलम्भान् । नम कुन आत्मनो द्रव्यज्ञानरूपत्वं द्रक्ष्याणां च आत्मज्ञेमरूपत्वं च ? परिणाम संवत्वात् । यतः स्खलु प्रात्मा द्रव्याणि च परिणामः
१ पंचास्तिकाय गाथा ५३ की टीम:- निश्चय से जीव परभावों का अकर्ता
होने से स्वभावों के कर्ता होते हैं और उन्हें अपने भावों को) करते हुए क्या वे अनादि अनन हैं ? क्या सादि अनत हैं ? क्या तदाकाररूप परिणत हैं ? क्या तदाकार रूप अपरिगत हैं ? ऐसी अाशंका उठातार यह बहा गया है- कि जीव यास्तव में सहज चतन्य लक्षण पारिणामिक भाव से अनादि यांत है। ने ही औदायिक, झायोप शमिक और योगशमिक भावों से सादि सांत हैं 1 वे ही क्षायिकभाव से सादि अनंत हैं। "क्षायिक भाव सादि होने में सांत होगा ?" ऐसी प्रागंबा करना योग्य नहीं है। (कारण कि) बह वास्तव में उपाधि की निवृत्ति होने पर प्रवर्तता हुआ सिद्धभाव की भ्रांति, जीव का लद्भाव ही वे, और सद्भाव से जीव अनंत ही स्वीकार किये जाते हैं । तथा अनादिअनंत सहजचंतन्यलक्षण एक भाववाले उन्हें सादि सान और सादि अनंत मावान्तर घटित नहीं होते, ऐसा कह्ना योग्य तहीं है; (क्योंकि) व वास्तव में अनादि कर्म से मलिन बनते हुए कीचड़ रो सहित (सम्पर्कयुक्त) जल की भांति तदाकार रूप पारमत होने कारण पांच प्रधानगुणों से प्रधानतावाले ही अनुभव में आते हैं ।। ५३ ।।
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ।
[ १२३
सह संबध्यन्ते, तत आत्मनो द्रव्यालम्बनज्ञानेन द्रव्याणां तू ज्ञानमालम्व्य शंयकारेण परणतिरबाधिता प्रतपति ।। ३६ ।।'
इस प्रकार उपर्यस्त उदाहरणों से अमृतचन्द्र का वाकर का रूप भली भांतिप्रगट हो जाता है।
४. एक ही पद्य के अनेक अर्थ - अमृतचन्द्र एक ही पद के प्रकरणबशात अनेक अर्थ करके संबंधित पद में निहित अभिप्राय को बड़ी कुशलता के साथ प्रदर्शित करत है । प्रवचनसार में ज्ञयतत्व प्रज्ञापन में ''अलिंगग्रहण' पद के २० अर्थ किये हैं। इसी पद का पर्थ समयसार के जीव अजीव अधिकार में ७ भेद तथा ४२ प्रभेदों द्वारा किया है । प्रचास्तिकाय के मोक्षमार्ग-प्रयंचवर्णन प्रकरण में अलिंगग्रहण का अर्थ
१. प्रवचनसार-ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन - गाथा ३६ की तत्त्वप्रदीपिका टीना १-अर्थात (अपने में क्रिया के होने का विरोध है, इसलिए ग्रात्मा के स्वज्ञायत्रता कैसे त्ति होती है ? (उत्तर) कौनसी किया है और किस प्रकार का विरोध है ? जो यहां (प्रश्न ये) विरोध क्रिया नहीं गई है वह या तो उत्पत्तिरूप होगी या ज्ञाप्तिरूप होगी । प्रथम, उत्पत्तिरूप क्रिया "कोई स्वयं अपने में से उत्पन्न नहीं हो सकती" इस पागम कथन से विरुद्ध ही है, परन्तु ज्ञप्तिरूप दिया में विरोध नहीं पाता क्योंकि वह प्रकाशन क्रिया की भांति उत्पत्ति क्रिया से विरुद्ध प्रचार नी होती है। जैसे जो प्रकाश्यभूत पर को प्रकाशित करता है ऐसे प्रकाशक दीपक को स्वप्रकाश्य को प्रकाशित करने के संबंध में अन्य प्रकाशक की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि उसके स्वयत्र प्रकाशन किया की प्राप्ति है, इसी प्रकार जो ज्ञेयभून पर को जानता है ऐसे ज्ञायन्झ यात्मा को स्वज्ञ य के जानने के सम्बन्ध में अन्य ज्ञायक को मावश्यकता नहीं होती, क्योंकि स्वयमेव त्रिया की प्राप्ति है। (प्रश्न) आत्मा को न्यों की जागरूपत्ता और द्रव्यों को प्रात्मा को ज्ञ यरूपता किस प्रकार घटित है? उत्तर - वे परिणाम काले होने से (घटित है) । ग्रात्मा और द्रव्य परिणामयुक्त हैं, इसलिए प्रात्मा के, द्रव्य जिसका प्रालंबन है ऐस ज्ञानाप म और व्यों के, ज्ञान का पालंबन लेकर ज्ञ याकार रूप से परिणत अनामित रूप से उपती
है - प्रतापवन्त दरांती है। २. प्रवचनसार नाथा १७२ की तत्वदीपिका टीका। ३, समयसार गाथा ४६ को प्रात्मख्याति टीका ।
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१२४ ]
| आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व अन्य प्रकार से किया है।' अन्यत्र "युक्ताहार" शब्द के पाठ अर्थ किये हैं। समय पद के अनेक अर्थों का उल्लेख रहले किया जा चुका है। स्यात् पद वा प्रयोग अस् धातु के विध्यर्थक अन्यपुरुप एक वचन के रूप में तथा अन्यत्र उसे अव्यय या निपात रूप में किया है। स्थात् 'पद सर्वथागने का निषेधक, अनेकांत का द्योतक, कथंचित् अर्थ वाचक अव्यय शब्द है । इरा प्रकार कई पदों श्रनेत्रा अर्थ करके आनो मूक्ष्म-अर्थ अवबोधक दृष्टि का परिचय दिया है।
५. पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग- एक ही शब्द के अनेक पर्यायवाची शब्दों के प्रयोग में भी वे सक्षम रहे हैं । स्वर्ग के लिए कनक, कार्तस्वर, सुवर्ण हेम, कांचन, जांजनद, कल्याण आदि पर्यायवाची शब्द प्रवचनसार की टीका में उपलब्ध हैं। समयसार में 'चामीकर" शब्द भी स्वर्ण हेतु प्रयुक्त है । अग्नि के लिए जातवेदस्, नाक, घूमचन, अनल, हव्यवाहा कुकूल, अंगार, सप्ताचि आदि शब्द प्रयुक्त हैं । व्यय पदबाची निमग्न, निमज्जति, उच्छेद, उच्छन्न, प्रलीन, संहार, अवसान, प्रध्वस्त, भग, विलय, प्रसभूत शब्द तथा उत्पाद पदवाची जन्मग्न, उन्मउनति, संभूति, सर्गः, प्रादुर्भाव, प्रभव, संभव सद्भूत शब्द प्रयुक्त हैं। 'कहा गया है" अर्थ प्रकाशनार्थ नाम्नातम्, उपन्यस्तम, उक्तम, आख्यातम्, उदितम, अभिहितम्, विवश्यते ब अभिधीयते, पदों का प्रयोग किया है । इस तरह पर्यायवाची पद प्रयोग में भी अमृतचन्द्र कुशल हैं। इसकारण से उनकी व्याख्या भावस्पष्टीकरण में भी अनूठी हैं। जहाँ अावश्यक
१. गचस्तकाय गाथा १२७ वी समयव्याख्या टीका। २. रामयनार गाथा २२६ की टीका। ६. वही गाथा २३,२४, २४ नथा ६१ की आत्मख्याति टीका । ४. पंचास्तिाय गाथा १४ की टीका । ५. प्रवचनसार गाथा ६१,९६, ८७, १११, ११३, १८ तथा ७७ पी टीकाएं । ६. समयसार गाथा ३६
प्रवचनसार गाथा ३५, ५, ४१, ६३, ११४, १५३, २६, २७५ ८. प्रवचनमार माथा ६,६८,१०,१११,१२६,३७ की टीका । ६. पंचास्तिकाय ४
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
समझते हैं, जहां वे संबंधित प्रकरण के विवेचन के बाद तालार्य प्रथं देकर भी विषय स्पष्टीकरण करते हैं ।'
६. मार्मिक सम्बोधन – एक सफल सहृदय व्याख्याकार के रूप में आचार्य प्रमुतचन्द्र अपनी टीकात्रों में पद पद अत्यंत मार्मिक संबोधन करते चलते हैं, पाठकों को गम्भीर, महत्वपूर्ण प्रेरणा भी देते हैं, जिससे उनके व्याख्याता पद की शोभा और भी बढ़ जाती है। ये हैं उनके कुछेक मार्मिक प्रेरणा वाक्य - प्रसन्न हो जा, सावधान हो जा, तत्वकौतुहली बन, कोलाहाल बन्द कर, ६ मास अनुभव का अभ्यासकर, शशांतरस-ज्ञानसमुद्र में मग्न हो जावो, लाख बात की बात सुनो, एक बार भृतार्थ को ग्रहणकर, भेदज्ञानकला का अभ्यास कर, प्रमाद क्यों करता है, क्लेश क्यों पाता है. रागद्वेष का क्षयकर, अमृतरस को अन्त. काल तक पिओ, अधिक जल्प (वकवास था विकल्प) मत कर, सांख्यवत् अपने को कामत मान, तब मोह को छोड़ो, यह अपद है अपद है, यह पद है, "नशा में कूर, नींद से रो . हैं इमानि । अमृतचन्द्र जहां एक ओर मधुर, मार्मिक, महत्वपूर्ण शब्दों से प्रेरणा करते हैं वहां दूसरी ओर कहीं कहीं कठोर शब्दों का भी प्रयोग करते हैं यथा - रे दुरात्मन, आत्मपंसन् (प्रात्मघाती), नविभागानभिज्ञोसि, दुमधसः ते अद्यापि पापाः, ते मिथ्यादृशो - आत्मनो भवन्ति, अज्ञनिनः एवं व्यवकार विमूढाः, बत ते बराकः, ज्ञानं पशो, सीदति, पशु पशुरिव स्वच्छंदमाचेष्टते, पशुनश्यति, ज्ञान पशुर्नेच्छति, पशुः किल परद्रव्येष विश्रम्य ति, तुच्छीभूय पशु प्रणस्यति, अत्यंततुच्छः पशुः सीदति, स्वर पशुः क्रीडति, इति - अज्ञान विमूढ़ानां..४, इत्यादि । उक्त कठोर संबोधनों में भी जगज्जनों को जागृत करने की हितकारी भावना निहित है।
७. दृष्टांत बहुलता - उनकी टीकाओं में दृष्टांतों, का बाहुल्य है, जिसके कारण गूढ़तम, दार्शनिकः सैद्धांतिक अस्थियों को सुलझाने में उन्हें
१. प्रवचनसार गाथा १५१ टीका "इदमत्र तात्पर्य प्रात्मनोऽत्यं५ विभक्त सिद्धये
व्यवहार जीवत्व हेतवः पुद्गलप्राणा एवमुच्छेतत्र्याः ।" २. समयसार २५, ३८, ४४, ८६, २०२,३४४,३५५, ३७१, ४१४ गाथाओं की
टीका तथा उनमें आगत कलश । ३. समयसार २५, २६, ४३, २००, २५६, ३२७ गाथानों की टीका । ४. समयसार कलश- क्रमांक २४० से २६२ तक।
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१२६ ]
[ आचार्य अमनचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
अपूर्व सफलता मिली है। उन्होंने प्रात्मरूपाति टोका में १०० से अधिक सुन्दर एवं मनोहारि दृष्टांतों का प्रयोग किया है । इस तरह प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका टीका में १२५ के लगभग और पंचास्तिकाय में ३५ के लगभग दृष्टांतों का प्रयोग कर अपने भाष्यों को सुगम एवं सरल बनाया है। यहां कुछ दृष्टांतों को सुन्दरता प्रदर्शित की जाती है। एक स्थल पर प्रात्मा को पुद्गल कर्म का अकर्ता सिद्ध करने हेतु वे मिट्टी के घड़े का स्पष्ट दृष्टांत प्रस्तुत करते हुए लिखते है - "यथा खलु मृण्मये कलश कर्मणि मृद्रव्य मृद्गुणयोः स्वरसत एव वर्तमाने द्रव्यगुणतिर संक्रमस्य वस्तुस्थित्यैव निषित्वादात्मानमात्मगुणं वा नाधते स कलशकारः, द्रव्यांतर संकृमयंनरेगान्यस्य वस्तुनः परिणम यितुमशक्यत्वात् तदुभयं तु तस्मिन्ननादधानो न तत्त्वतस्तस्य कर्ता प्रतिभाति । तथा पुद्गलमय ज्ञानावरणादो कर्मणि गुद्गलद्रव्यपुद्गलगुणयोः स्वरसत एव वर्तमाने द्रव्यगुणातरसंक्रमस्य विधातुमशत्रयत्वादात्मद्रव्यमात्मगुणं वात्मा न खल्वाधत्त, द्रव्यांतरसंक्रमर्मतरेणान्यस्य बस्तुनः परिणयितुनशक्यत्वात्तदुभय तु तस्मिन्ननादधानः कथं नु तत्वतस्तस्य कर्ता प्रतिभायात् ततः स्थितः खल्वात्मा पुद्गलकर्मणामकर्ता।""
इसी प्रकार शुभ अशुभ दोनों कर्मों का निषेध करने हेतु वे सुन्दर दृष्टांत प्रस्तुत करते हैं। वे लिखते हैं - "यथा खलु कुशलः कश्चिद्
१. समवनार गाथा १०४ की टीका – नर्थ जैसे मिट्टीमय कलशारूप कार्य मिट्टी द्रव्य और मिट्टीगुण में निजरस से ही वर्तता है, उसनं कुम्हार अपने को (या अपने गुण को) मिलाता नहीं है क्योंकि (किसी वस्तु का) द्रव्यांतर या गुणांतर रूप में संक्रमण होने का वस्तुस्थिति से ही निषेष है, द्रव्यांतर रूप में संक्रमरग प्राप्त किये बिना अन्य वस्तु को परिण मित करना अशक्य होने से, अगने द्रव्य और गुण दोनों को उस घटरूपी कार्य में न डालता हुआ वह कुम्हार परमार्थ में उसका कर्ता प्रतिभासित नहीं होता। इसी प्रकार पुदगलमय ज्ञानावरगादि कर्म पुद्गलद्रव्य तथा पुद्गलगुणों में निज़रस ही वर्तता हुआ उसमें आत्मा अपने द्रव्य या अपने गुण को वास्तव में मिलाता नहीं है क्योंकि द्रव्यांतर और गुणांतर में संक्रमण होना अशक्य है, द्रव्यांतर रूप में संक्रमण प्राप्त किये विना अन्य वस्तु को परिणमित करना अशक्य होने से अपने दत्र्य और गुरण दोनों को ज्ञानावरणादि कर्मों में न मिलाता हुना, वह प्रात्मा परमार्थ से उसका कर्ता कसे हो सकता हे ? (अयात् कभी नहीं हो सकता) इसलिए वास्तव में प्रात्मा पुद्गलकर्मों का अकर्ता सिद्ध हुआ।
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ।
[ १२७ वनहस्तीस्वस्व बन्धाय उपसर्पन्ती चढुलमुखीं मनोरमाममनोरमां या करेणु कुट्टनी तत्त्वत; कुत्सितशीला विज्ञायतया सह रागसं सगी प्रतिषेधयति, तथा किलात्मा रागो ज्ञानी स्वस्य बन्धाय उपसर्पन्ती मनोरमाममनोरमा वा सर्वमपि कर्मप्रकृति तत्त्वत: कृत्सितशीलां विशाय तया सह रागसंसर्गो प्रतिषेधति ।' एक स्थल पर ज्ञान की सामर्थ्य के कारण ज्ञानी कर्म बन्ध को प्रप्त नहीं होता - इसका स्पष्टोकरण वे एक अत्यंत आकर्षक दृष्टांत देकर कन्ते हैं - यथा कश्चिद्विषवैद्यः परेषां मरणकारण विषमुपमुजानोऽपि अमोधविद्यासामर्थेन निरुद्धतच्छत्ति त्वान्न म्रियते, तथा अज्ञानिनां रागदिभावसभावेन बन्धका रणं पुद्गलकोदयमुपभुजानोऽपि अमोघज्ञानसामात्, रागादिभावानामभावे सति निरुद्धतच्छक्तित्वान्न बध्यते ज्ञानी ।"२ आगे वैराग्य शक्ति को दिखाते हुए लिखा है - "यथाकश्चित्पुरुषो मरेयं प्रति प्रवृत्ततीनारतिभावः सन् मैरेयं पिबपि तीव्रारतिभावसामग्नि माद्यति, तथा रागादिभावानामभावेन सर्वद्रव्योपभोगं प्रति प्रवृत्ततीविरागभावः सन् विषयानुपभुजानोऽपि तीवविरागभावसामर्थ्यान्न बध्यते ज्ञानी । इस प्रकार यद्यपि उपरोक्त दुष्टांत
१. समयसार गाथा १४६ की टीका (अर्थ-जसे कोई जंगल का कुशल हाथी अपने
बन्धन के लिए निकट पाती हुए सुन्दर मुखवाली मनोरम या अमनोरम हथिनीरूप कुटिनी को परमार्थतः बूरी जानकर उसके साथ राग मा संसर्ग नहीं करता, इसी प्रकार यात्मा अरागीज्ञानी होता हया अपने बाध के लिए समीप आने वाली मनोरम या अमनोरम (शुभ या अशुभ) सभी कर्मप्रकृतियों
को परमार्थतः बुरी जानकर उनके साथ राग तथा संसर्ग नहीं करता ।) २. जिस प्रकार कोई विषवैद्य, दुसरों के मारण के कारणभूत विष को भोगता
हुधा भी, अमोघ (रामवाण) विद्या की सामर्थ्य से विषाक के निरुद्ध होने से, नहीं मरता, इसी प्रकार प्रशानियों को, रागादिभावों का सद्भाव होने से बनने के कारण पुद्गलकर्म के उदय की भोगता हुमा भी, शानिअमोघ ज्ञान को सामर्थ्य द्वारा रागादिभाबों का प्रभाव होने से कर्मोदय की माकि
रुक जाने से; बन्ध को प्राप्त नहीं होता । (समवसार गाथा १६५ की टीका) ३. जैसे कोई पुरुष, मदिरा के प्रति तीन प्रतिभाव से प्रवर्तता हुआ, मदिरा को
पीने पर भी. तीन भरतिभाव की सामर्थ्य के कारण मतवाला नहीं होता, उसी प्रकार ज्ञानी भी, रागादिभावों के प्रभाव से सर्व द्रश्यों के उपयोग के प्रति तीव वैराग्य भाव से प्रवर्तता हुअा, विषयों को मोगता हुमा भी तीन बैराग्य भाव की मामध्यं के कारण कर्मवध को प्राप्त नहीं होना । (समयसार गाथा १६६ टीका)
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१२८ ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
अमृतचन्द्र के व्याख्याकौशल को प्रमाणित करने हेतु पर्याप्न है तथापि यहां एक और सर्वोत्तम मद्यांश उद्धरण स्वरूप प्रस्तुत है। इसमें दृष्टांत का समुचित प्रयोग, सालंकृत गद्य सौन्दर्य, रूपक एवं अनप्रास अलंकारों की छटा, तर्क की विलक्षणता, सामासिक प्रयोग चातुरी, प्रौलतम भाषा तथा अनुपम व विलक्षण गद्य का नमूना देखते ही बनता है। इसमें आत्मा के सुखस्वभाव की सिद्धि दृष्टांतों द्वारा की गई हैं - यथा - "यथा खलु नभसि कारणान्तरमनपेक्ष्येव स्वयमेव प्रभाकरः प्रभूतप्रभाभारभास्वरस्वरूप विकस्वरप्रकाशशालितया तेज; यथा च कादाचित्कोहण्यपरिणतायःविण्इवन्नित्यमेवोडण्यपरिणामापनत्वाष्णः यथा च देवगति नामकर्मोदयानवृत्तिवशवलिम्वभावतया देवः । तदेव लोको कारणानारमनपेक्ष्येव स्वयमेव भगवानात्मापि स्वपरप्रकाशनसमर्थनिविनथानन्तशक्तिसहजसंवेदनतादात्म्यात् ज्ञानं. तथैव चात्मतुप्तिसमुपजातपरिनिवृत्तिप्रतितानाकुलरवस्थितत्वात सौख्य, तथैव वासनात्मतत्त्वोपलम्भलब्धवर्णजनमानस शिलास्तम्भोत्कीर्ण समुदीर्णद्युतिस्तुतियोगिदिव्यात्मस्वरूपस्वादेवः । अतोऽस्यात्मनः सुखसाधनाभासविषयः पर्याप्तम् । इति आनन्दप्रपञ्चः।" उनरोक्त गद्यांश की अंतिम पंक्ति में बीस पदों का
१. प्रवचनगा र गाथा ६८ की टीका :- अर्थ - जैसे प्राकाश में अन्य कारण की
अपेक्षा रखे बिना ही सूर्य स्वयमेव अत्यधिक प्रभा समुह से चमकते हुए स्वरूप के द्वारा विकसित, प्रकाशयुक्त होने से तेज है, कमी उष्णतारूप परिमित लोहे से तेज है, कभी उरणतारूप परिणमित लोहे के गोले की भांति सदा उष्णता परिणाम को प्राप्त होने से उष्ण है और देवगति नामकर्म के धारावाहिक उदय में वशवर्ती स्वभाव से देव है, इसी प्रकार लोक में अन्यकारण की अपेक्षा रखे बिना ही भगवान प्रात्मा स्वयमेव स्वपर को प्रकाशित करने समर्थ सच्ची अनन्तशक्तियुक्त सहज संवेदन के साथ तादात्म्म होने से ज्ञान है, मात्मतृरित से उत्पन्न होने वाली परिनियति (परिपूर्णता-मोक्ष) से प्रवर्तमान अनाकुलता में मुस्थितपने के कारण सौख्य हैं और जिन्हें प्रारमतत्त्व की उपलब्धि निकट है ऐसे बुधजनों मनरूपी शिलास्तम्भ में जिसकी अतिशय यति-स्तुति उत्कीर्ण है, ऐसा दिन्यात्मस्वरूपवान होने से देव है। इसलिए इस प्रात्मा को सुखसाधनाभास के विषयों से बस हो । बीस पदों वाला एक बृहद्पद' इस प्रकार है:- "च+आसन्न प्रात्म-- तत्त्व + उपलम्भ+लब्ध+वर्ण+जन+मानस+शिला+स्तम्भ+उत्कीर्ण+ समुदीर्ण+शु ति+स्तुतियोगि+ दियनयात्म+स्वरूपत्वात्+ देवः ।
(प्रवचनसार गाथा ६८ की टीका)
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ।
[ १२६
एक बृहद् सामासिक पद है जो अनेक गद्यवैशिष्ट्यों से परिपूर्ण अमृतचन्द्र को असाधारण प्रतिभा का द्योतक है।
5. अनेक प्रश्नों के उत्तर मित करने की ममता-व्याख्याकार के रूप में एक ही गाथा की टीका में अनेक प्रश्नों के उत्तर गभिनकर अभिव्यक्त करने की उनमें प्रपूर्व-असाधारण क्षमता है । उदाहरणार्थ - समयसार में एक गाथा की टीका में ११ प्रश्नों के उत्तर गभित किये गये हैं ।' अन्यत्र ७ प्रश्नों के उत्तर एक गाथा के भाष्य में व्यक्त किये हैं.। वे ११ प्रश्न क्रमशः इस प्रकार हैं - ग्रह या भूत कौन है ? रोग क्या है ?, रोग का फल क्या है ?, संसारी कैसे हैं ?, संसार में कैसे आचार्य सुलभ हैं ?, आत्मा स्पष्ट भिन्न कब दिखता है ?, आत्मा का शुद्धस्वरूप अनुभव में न आने के कारण क्या हैं ?, अनन्तकाल से सुलभ क्या रहा है ?, दुर्लभ क्या रहा है ?, कामभोगबन्धन की कथा कसी है ?, अनभव का कारण क्या है ? इनके उत्तर क्रमश: इस प्रकार हैमहानमोह भूत है, तृष्णा रोग है, दाहरूप अन्तर पीड़ा रोग का फल है, बैल की तरह भार ढोने वाले संसारी हैं, विषय समूह में फंसाने का मार्ग बताने वाले प्राचार्य सुलभ हैं, जब भेदज्ञानज्योति का प्रकाश होता है, तोन कारण हैं – कषायचक्र, अनात्मज्ञता तथा प्रात्मज्ञजनों की संगति व सेवा न करना, काम-भोग-बन्धन की कथा उनकी रुचि तथा अनुभूति सुलभ रही है, प्रात्मा का एकत्व स्वरूपानुभव दुर्लभ रहा है, एकत्व विभक्त प्रात्मा की विरोधी तथा अत्यंत विसंवाद कराने वाली है, अनभव का कारण परिचय है - परिचय का कारण श्रवण है। इसी तरह वे एक ही तर्क द्वारा अनेक भ्रमों का निवारण भी करने में समर्थ हैं।
गाथानों की स्पष्टता के लिए वे सूत्रतात्पर्य तथा सिद्धांत तात्पर्य ऐसे दो प्रकार से अभिप्राय को स्पष्ट सूचित करते हैं जो एक सफलतम व्याख्याता की विशेषता है - यथा "अलं विस्तरेण । स्वस्ति साक्षान्मोक्षमार्गसारत्वेन शास्त्रतात्पर्यभूताय बीतरामत्वायेति । द्विविधं किल तात्पर्यम् – सूत्रतात्पर्य शास्त्रतात्पर्यञ्चेति । तत्रसूत्रतात्पर्य प्रतिसूत्रमेव
१. समयसार गाथा ४ की टीका । २. वहीं, गाथा ५ की टीका ।। ३. समयसार गाथा ५५ की टीका ।
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१३० ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
प्रतिपादितम् | शास्त्रतात्पयं त्विदं प्रतिपाद्यते । प्रत्येक गाथा की टीका श्रारंभ करते हुये "अ" पद प्रयोग द्वारा सूत्रालय की सूचना ( उत्था निका में या प्रारंभिक पंक्ति में ही ) करते हैं यथा--" अत्र पंचास्तिकायानां कालस्य च द्रव्यत्वमुक्तम् ।"*
६. प्रथम पदों आदि का प्रयोग — उनकी टीकाओं में प्रायः सभी प्रकार के अन्य पदों का विभिन्न उपसर्गों का अधिकांश प्रत्ययों, धातुरूपों तथा अप्रयुक्त क्लिष्ट शब्दों, विभिन्न अलंकारों, रसों, गुणों और छंदों का प्रयोग हुआ है ।
१०. बाणभट्ट को गद्य शैलियों का प्रयोग - अपने पूर्ववर्ती सुप्रसिद्ध प्रोढ़तम गद्यलेखक बाणभट्ट के ग्रंथों में प्रयुक्त गद्यशैलियों को प्राचार्य अमृतचद्र ने अपने असाधारण व्यक्तित्व द्वारा दार्शनिक सैद्धांतिक गुत्थियां को सुलझाते हुये बड़ी कुशलता के साथ प्रस्तुत किया है। यहां तुलनात्मक दृष्टि से कुछ गद्यशैलियों के उदाहरण दिये जाते हैं जिनसे अमृतचंद्र की प्रौढ़ता, क्षमता तथा व्याख्यान कला का भलीभांति परिचय होता है और वे बाणभट्ट की भांति प्रौढ़तम व्याख्याता प्रमाणित होते हैं ।
कवाचित पद का बहुशः प्रयोग - " स कदाचिदनवरत दोलायमान रत्नबलयो घरिकास्कालन प्रकम्पझणझणायमान मणिकर्णपूरः स्वयंमारव्यदंगवाद्यः संगोतक प्रसंगन, कदाचिदविरल विमुक्तशरासर शुन्यीकृत जननो मृगयाव्यापरेण कदाचिदाबद्ध विदग्ध मण्डलः काव्यप्रबंधरचनेन, कदाचिच्छास्त्रालीपेन, कदाचिदाख्यानकाख्यायिकेतिहासपुराणाकर्णनेन कदाचिदालेख्य विनोदन, कदाचिद्वीणया कदाचिद्दर्शनागत मुनिजनचरणशुश्रूषया, कदाचिदक्ष रच्युतकमात्राच्युत क बिन्दुमतीगढ़चतुर्थपादप्रहेलिका प्रदानादिभिर्थनितासंभोग सुख पराङमुख दिवसमनेषीत् । "३
"
सुहृत्परिवृतो
,
दर्शनाचरणाय कदाचित् प्रशाम्यतः कदाचित् संविजमानः, कदाचिदनुकम्पमानाः कदाचिदास्तिक्य मुद्वहन्तः **
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"इव" पद प्रयोग द्वारा उत्प्रेक्षा अलंकार "उपशांतवचसि शुकनासे चन्द्रापीडः ताभिरमलाभिः उपदेशवाग्भिः प्रक्षालित इव, उन्मीलित
१. पंचास्तिकाय गाथ। १७२ की टीका
२. पंचास्तिकाय गाथा ६ की टीका
३. कादम्बरी, पूर्वभाग, पृष्ठ १३ ४. पंचास्तिकाय गाथा १७२ की टीका
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ] इव, स्वच्छीकृत इव, निभृत इव, अभिषिक्त इव, अभिलिप्त इव, अलंकृत इध, पबित्रीकृत इव, उद्भासित इव, प्रीतहृदयोमुहूर्त स्थित्वा स्वभवनमाजगाम "
येऽत्रकेवलनिश्चयाबलम्बिनः सवाल क्रियाकर्मकाण्डाडम्बरविरक्तबुद्धयोऽमोलित विलोचनपुटाः किमपि स्वबदघ्यावलोक्य यथासुखमासते ते खल्ववधीरित भिन्नसाच्यसाधनभावा अभिन्नसाध्यसाधनभावमलभमाना अंतराल एव प्रमादकादम्बरीमदभराल सचेतसो मत्ता इवं, मूच्छिता इव, सुषुप्ता इव, प्रभूत घृतसितोपल पायसासादित सौहित्या इव, समुल्वणबल सजनितजाड्या इव, दारुणमनोन विहितमोहा इब, मुद्रित विशिष्ट चैतन्या वनस्पतीयः इव....... कोवलं पापमेत्र बहनन्ति ।।२।
विभिन्न क्रियापदों का लघुवाक्यों के साथ प्रयोग-'मूढो हि मदनेनायास्यते । या बा सुखाशामा घुजननिन्दितेष्वेवं विधेषु प्राकृतजन बहुमतेषु विषयेषु भवतः । स खलु धर्मबुद्ध्या विषलतां सिञ्चति, कुवलयमालेतिनिस्त्रिशलतामालिंगति, कृष्णागुरुधूमलेखति, कृष्णसर्पमवगृहति, रलमिति ज्वलनमंगारम भिस्पृशति, मृणाल मिति दुष्टवारणदन्तमुसलमुन्मूलयति, भूड़ो विषयोपभोगेपत्र निष्टानबन्धिषु यः सुखबुद्धिमारोपयति ।।
"एतस्य शास्त्रस्यार्थभूतं शुद्धचंतन्यस्वभावात्मानं कश्चिज्जीवतावजानीते, ततस्तमेवानगन्तुमुद्यमते, ततोऽस्य क्षीयते दृष्टिमोहः, तत: स्वरूपरिचयादुन्मज्जति ज्ञानज्योतिः, ततो रागद्वषो प्रशास्यतः, तत: उत्तर पूर्वश्च बन्धो विनश्यति, तत: पूर्वबन्ध हेतुल्वाभावात् स्वरूपस्थो नित्यं प्रतपतीति ।"
जिज्ञासा व्यक्त करने हेतु प्रश्नों की झड़ी.-"कस्मिन्देशे भवान्कथं जातः, केन वा नाम कृतम्, का ते माता, कस्ते पिता, कथं वेदानामागमः, कथं शास्त्राणां परिचयः, कुत: कला आसादिताः, किहेतुकं जन्मान्तरानस्मरणम्, उत बर प्रदानम् अथवा विहङ्गवेषधारी कश्चिच्छन्न निवस सि, क्व वा पूर्वमुषितम्, झियद्वावयः, कथं पञ्जरबन्धनम्, कथं चाण्डालहस्तगमनम्, इह वा कथमागमनम् ।"
१. कादम्बरी, पृष्ठ २३१ २. पंचास्तिकाय गाथा १७२ की टीका ३. कादम्बरी, पृष्ठ ३२१ ४. पंबास्तिकाय गाथा १०४ की दीवा ५. कादम्बरी, पृष्ठ ३७
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१३२ ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व "तांश्च कुर्वाणाः किमनादिनिधनाः, कि सादिसनिघनाः किं साद्यनिधनाः, कि तदाकारेण परिणताः, किम परिणताः भविष्यतीत्याशक्येदमुक्तम्।"
___ “इब" पद प्रयाग द्वारा उपमालङ्कारमय वर्णन-"शरदमिव विकसितपुण्डरीकालोचनाम् प्रावृषमित्र धनोशजालाम्, मलयमेखलामिव चन्दनपल्लबावतंसाम, नक्षत्रमालामिव विश्रवणाभरणभूषिताम् , श्रियमिव हस्तस्थितकमलशोभाम् , मूर्छामिव मनोहारिणीम्, अरण्यभूमि मिव रूपसंपन्नाम्, दिव्योषितमिवाकुलीनाम्, निद्रामिव सोचनग्राहिणीम्, अरण्यकमलिनीमिव मातङ्गकुलदूषिताम्, अमुर्तामिव स्पर्शवजिताम्, आलेख्यगतामिव दर्शनमात्रफलाम्, मधुमासकुसुम समृद्धिमिवाजातिम्, अनङ्गकुमुमचापलेखामित्र' मुष्टिग्राह्यमध्याम् यक्षाधिपलक्ष्मीमिवालकोद्भासिनीम्"..."ददश ।"
"अवलोक्यते हि तेषां स्तम्बेरमस्य करेणु कुट्टनीगावस्पर्श इव, सफरस्य बाडिशाभिषस्वाद इव, इन्दिरस्य संकोचसंमुखारविन्दामोद इव, पतङ्गस्य प्रदीपारीरूप इव, कुरङ्गस्य मुगयुगेयस्वर इव, दुनिवारेन्द्रियवेदनावशी कृतानामासन्न निपातेष्वनि विषयेष्वभिपातः । यदि पुनर्न तेषां दुःखं स्वाभाविकमभ्युपगमयेत तदोपशांतशीतज्वरस्य संस्वेदनमिव, प्रहीणदाहज्वरस्यारनालपरिषेक इव, निवृत्तनेत्रसंरभस्य च बटाचूर्णावचूर्णनमिव, विनष्टकर्णशूलस्य बस्तमुत्रपूरणमिव, रूढप्रयस्थालेपनदानमिव, विषयव्यापारो न दृश्येत । दृश्यते चासौ। ततः स्वभावभूतदुःखयोगिन एव जीवदिन्द्रियाः परोक्षज्ञानिनः ।"3
दीर्घसमास पदावलि--"काव्यनाटकाख्यानकाख्यायिकालेख्यव्याख्यानादि क्रिया निपुणे रति कठिनपीवरस्कन्धोरूबाहूभिरसकृदवदलितसमदरिपुगजघटापीठबन्धः केशरिकिशोरकरिव विक्रमकरसैरपि बिनयव्यवहारिभिरात्मनः प्रतिबिम्बैरिय राजपुत्र सह रममाणः प्रथमे वयसि सुखमतिचिरमुवास ।"
"ईर्यासमितिपरिणतयतीन्द्रव्यापाद्यमानवेगापत्कालचोदितकुलिङ्गवबाह्यवस्तुनो बंघहेतुहेतोरबन्धहेतुत्वेन बंधहेतुस्वस्यानैकांतिकत्वात् । अतो न बाह्य वस्तु जीवस्यातद्भावो बन्धहेतु: अध्यवसानमेव तस्य तद्भावो बन्धहेतुः । ५
१. पंचारितक्राय गाया ५३ टीका ३. प्रवचनसार, गाथा ६४ टीका ५. समयसार, गाथा २६५ की टीका
२. कादम्बरी, पृष्ठ २२-२३ ४. कादम्बरी, पृष्ठ १२
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
| १३३
सालङ्कार क्लिष्ट पदयोजना- "शुककुलदलित डिमीफलवाद्रीकृत तर तिचपलक पिकम्पितकंकोल च्युतवल्लव फलशबलं रनवरत निपचित कुसुमरेणु पांसुः पथिकजन र चितलब गपल्ल व संस्तरं रतिकठोर नालिके रकेतकरीरकुल परिगत प्रान्तस्ताम्बूली लताबनगखण्डमण्डितैर्वनलक्ष्मीवामभुवनैरिव विराजिता लतामण्डपैः । १
1.
" रजक शिलातलस्फाल्यमान विमलसलिला प्लुत विहितोषपरिष्वन्ड गमलिनवासस इव मनाङ मनाविशुद्धिमधिगम्य निश्चयनयस्य भिन्नसाध्यसाधनभावाभावादर्शनज्ञानचारित्र समाहितत्वरूपे विश्रांतसकल क्रियाकाण्ड डम्बर निस्तरंग परम चैतन्यशालिनी निर्भरानन्दमालिनी भगवत्यात्मनि विश्रान्तिमाश्रयन्नः क्रमेण समुपजातसमरसीभावाः परमवीतरागभावमधिगम्य, साक्षान्मोक्षमनुभवन्तीति । *
इस प्रकार उपयुक्त उदाहरणों से आचार्य अमृतचन्द्र का अद्वितीय व्याख्याकार का रूप प्रस्पष्ट हो जाता है जो उनके असाधारण व्यक्तित्व का एक और अभिन्न अंग है ।
-
I
श्राचार्य श्रमूलचन्द्र तार्किक तथा नैयायिक के रूप में- प्राचार्य अमृतचन्द्र के बहुमुखी व्यक्तित्व का एक रूप तार्किक तथा नैयायिक भी है । वे उच्चकोटि के दार्शनिक विद्वान् तथा सफलतम व्याख्याता होने के साथ ही असाधारण तर्कशक्ति सम्पन्न थे। उनके तर्क अनूठे थे तथा न्याय अखण्डित था। उनकी समस्त कृतियों में उनकी विलक्षण तर्कशक्ति प्रस्फुटित हुई है । समयसार की आत्मख्याति टीका में उन्होंने स्वयं टीका के आरम्भ में इस बात की घोषणा की है कि वे अपने समस्त वैभव के साथ एकत्वविभक्त भात्मा का दिग्दर्शन कराते हैं। उनके वैभव के जन्म का एक आधार उनकी निर्वाध युक्तियां भी हैं। उनकी युक्तियां समस्त एकांत पक्षों को निराकृत करने में समर्थ हैं। उनके तर्क निर्दोष तथा सबल हैं। तर्कों के द्वारा वे विखष्ट, दुर्गम तथा दुर्बोध दार्शनिक सिद्धांतों की सिद्धि करने में सिद्धहस्त हैं। उनकी तर्कशक्ति तथा न्यायप्रतिभा
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१. कादम्बरी, पृष्ठ ३८
२. पंचास्तिकाय गाथा १७२ टीका, पृष्ठ २६०-२६१
३. "समस्त विपक्षशोदक्षमा ति निस्तुषयुक्त्यवलम्बनजन्मा...........यः कश्चनापि ममात्मनः स्वविभवस्तेन समस्तेनाप्ययमेकत्व विभक्तमात्मानं बद्ध व्यवसायोऽस्मि ।" ( समयसार गाथा ५ की टीका)
दर्णयेहमिति
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१३४ ]
[ आर्य 31 . तिला एवं कर्तृ स्त्र पंचास्तिकाय ग्रंथ की टीका में विशेषरूप में विकसित और अभिव्यक्त हुई है। प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका टोका में अमृतचन्द्र की ताकिक और नैयायिक शक्ति का परिपाक हआ है। सम्पूर्ण टीकाकृति हेतुपरक, तर्कसापेक्ष शैली से सुसज्जित है। उदाहरण के लिए आकाश द्रवप के प्रदेश की सिद्धि हेतु वे बड़े ही अनोखे व अद्वितीय तर्क प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि आकाश का एक परमाणु से व्याप्य क्षेत्र प्राकाशप्रदेश है जो शेष पांचों द्रव्यों के प्रदेशों तथा सूक्षमता रूप में परिणत स्कंधों को अवकाश देने में समर्थ है ।
आकाश का अंश न मानने वाले के समक्ष वे सुन्दर तर्क प्रस्तुत कर कहते हैं कि आकाश में दो अंगलियां फैजाकर बताइये कि उन अंगुलियों का क्षेत्र एक है या भिन्न हैं ? यदि एक क्षेत्र माना जावे तो दो में से एक अंश का अभाव हो जायेगा, तथा दो से अधिक अंशों का भी प्रभाव सम्भव हो जाने से प्राकाश परमाण की तरह प्रदेशमात्र सिद्ध होगा, जो सम्भव नहीं है। और यदि आकाश को भिन्न अंशों वाला अविभागी एक द्रक्ष्य माना जावे तो अविभागी एक द्रव्य में अंशकलाना फलित होती है। यदि दो अंगलियों के भिन्न (अनेक) क्षेत्र माने जावें तो प्रश्न होगा कि आकाश के खण्डखण्ड रूप में अनेक दृव्य हैं इसलिए दो अंगुलियों के अनेक क्षेत्र हैं ? परन्तु इनमें प्रथम तक सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा होने से आकाश में अनंतद्रव्यपने का प्रसंग प्रा
१. प्रवचनसार गाथा १४५ की टीका - पाकाशस्यकाव्याप्योंशः किलाकाश
प्रदेशः, स खल्वेकोऽपि शेषपंचद्रव्यप्रदेशानां परमसोक्षम्यपरिणतानन्तपरमाणस्कंधानां चावकाशदानसगर्गः । अस्ति नाविभागकद्रव्यत्नेश कल्पनमाकाशस्य, मपामणुनामवकाशदानस्यान्यथानुपपत्त': । यदि पुनराका शस्यांशा न स्युरिति मतिस्तदाङ गुलीयुगले नभसि प्रसार्य निरूप्यता किमेक क्षेत्रं किमाने का ? एक चेत किमभिन्नांशाविभागक प्रध्यत्वेन कि वा भिनाशाविभागक दृश्यस्वेन । अभिन्नांशाविभागकद्रव्यत्वेन चेन येनांशेन कस्या भङ्ग गुले क्षेत्र तेनांशेनेत रस्या इत्यन्तरांशाभावः । एवंद वाद्यशानामभावादावाशस्य परमाणोरिव प्रदेशमात्रस्वम् । भिन्नांशात्रिभागेरु द्रव्यत्वेन चेत् अविभागकद्रव्यस्यांशकल्पनमायातम् । अनेक चेत कि विभागानेकद्रव्यत्वेन किंवा विभागकद्रव्य त्वेन । सविभागानेकद्रव्यत्वेन चेत् एकद्रव्यस्याकाशस्यानन्तद्रव्यत्वं, अविभाग कद्रव्यत्वेन चेत् अविभागकद्रभ्यस्यांशकल्पनमायातम् ।
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
[ १३५ जायेगा और यदि आकाश के अविभागो होने पर भी दो अंगुलियों के अनेक क्षेत्र हैं तो एक अविभागो द्रव्य में अंश हल्पना करना उचित है।
इसी प्रकार एक स्थल पर जानमार से ही " निरोध होता है इस तथ्य की सिद्धि हेतु वे बड़े ही विलक्षण तों का सहारा लेते हैं। वे लिखते हैं:-- "इह किलस्वभाबमात्र वस्तु, स्वस्य भवनं तु स्वभावः । तेन ज्ञानस्य भवनं खल्वात्मा, क्रोधादेभंबनं क्रोधादिः । अथ ज्ञानस्य यद्भवनं तन्न क्रोधादेरपि भवनं, यतो यथा ज्ञानभवने ज्ञानं भवद्विभाव्यते न तथा क्रोधादिर पि, यत्त कोधादेर्भवनं तन्न सानस्यापि भवनं, यतो यया क्रोधादिभवने क्रोधादयो भवन्तो विभाव्यते न तथा ज्ञानस्यापि । इत्यात्मन: क्रोधादीनां च न खल्वेकवस्तुत्वम् । इत्येवमात्मात्मासत्रयोविशेषदर्शनेन यदा भेदं जानाति तदास्यानादिरप्यज्ञानजा कर्तृकर्मप्रवृत्तिनिवर्त ते. तन्निवृत्ताबज्ञाननिमित्तं पुद्गलद्रव्यकर्मबन्धोगि निवर्तते । नपा सति ज्ञानमात्रादेव बन्धनिरोधः सिद्ध्येत् ।''
वे एक स्थल पर प्रकृति (पुद्गल द्रव्य) तथा पुरुष (प्रारमद्रव्य) को अपरिणामी मानने वाले सांख्यमतानुयायी शिष्य को समझाते हुए पुद्गल द्रव्य का परिणाम स्वभावत्व अनेक विलक्षण तर्को द्वारा सिद्ध करते हैं, जिससे उनकी तारिक प्रतिभा का परिचय प्राप्त होता है। वे लिखते हैं --- "अथ पुद्गलद्रव्यस्प परिणामस्वभावत्वं साधयति सांख्यमतानुयायी शिष्यं प्रति - यदि पुद्गल द्रव्यं जोवे स्वयम मद्धं सत्कर्मभावेन स्वयमेव न परिणमेत तदा तदपरिणाम्येव स्यात् तथा सति संसाराभावः । अथ जीव: पुद्गलद्रव्यं कर्मभावेन परिणमयति ततो न संसाराभावः इति तर्क: 1 किं स्वयमपरिणममानं परिणमाननं वा जीवः पुद्गलद्रव्यं कर्मभावेन परिणामयेत् ? न तावत्तत्स्वयमपरिणममान परेण परिणमयितु पार्यंत, न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तु मन्येन पायंते । स्वयं परिणममानं तु न परं परिणमयितारमपेक्षेत, न हि वस्तुशक्तयः परमपेक्षते। ततः पुद्गलद्रव्यं परिणाम स्वभावं स्वयमेवास्तु। तथा सति कलशपरिणता मृतिका
१. समयसार गाथा ७१ की टीका ।
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१३६ ]
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व स्वयं कलश इव जड़ स्वभावज्ञानाबरणादिकर्मपरिणतं तदेव स्वयं जानावरणादिकर्म स्यात् । इति सिद्धं पुद्गलद्रव्यस्य परिणामस्वभावत्वम् ।"
उपरोक्त गद्यांश को अति संक्षेप में तर्क तथा न्याययुक्त शैली में पद्य रचना द्वारा भी व्यक्त करते हुए वे लिखते हैं
(उपजाति छद) स्थितेत्यविघ्ना खलु पुगलस्य स्वभावमूसा परिणाम शक्तिः । तस्यां स्थितायां स करोति भावं यमात्मनस्तस्य स एव कर्ता ॥६४॥
इस तरह आचार्य अमृतचन्द्र जहाँ एक ओर अपनी अकाट्य , अखण्डित युक्तियों (तो) को प्रस्तुत कर वस्तुस्वरूप की सिद्धि करते हुए अपनी तार्किक शक्ति का ज्वलत उदाहरण प्रकट करते हैं, वहीं पर दूसरी ओर यायशैली में गम्भीर दार्शनिक गुत्थियों को बड़ी कुशलता के साथ सुलझाते हुए अपने उच्चकोटि के नैयायिकपने को भी प्रमाणित
१. समयसार गाथा ११६ मे १२० तक की प्रात्मख्याति टीका का अर्थ - यदि
गुदगलद्रव्य जीव में स्वयं न बंधकर कर्मभाव से स्ववमेव न परिणामला हो, तो वह अपरिगामी ही सिद्ध होगा । और ऐसा होने से, संसार का अभाव होगा। अदि यहाँ यह तर्क उपस्थित किया जाये कि "जीव गुद्गलद्रव्य को कर्मभाव से परिगामाता है इसलिए संमार का प्रभाव न होगा।" तो उसका निराकरण दो तो द्वारा करते हैं कि क्या जीय स्वयं न परिगा मते हुए पुद्गलष्ट्रव्य को अमेभावरूप परिणमाता है या स्वयं परिणमते हुए पुद्गलद्रव्य को परिणमाता है ? प्रथम ता स्वयं न परिगमले हुए { पुद्गल द्रव्य) को दूसरों के द्वारा नहीं पनिगमाया जा सकता, क्योंकि जो शक्ति वस्तु में) स्वतः न हो उसे अन्य कोई नहीं कर मावाला । (अतः प्रथगपक्ष असत्य है) दूसरे स्वयं परिणामते हुए अन्य को अन्य परिगमाने वाले की अपेक्षा नहीं होती, क्योंकि वस्तु की शक्तियाँ पर की अपेक्षा नहीं रखती (अतः दूसरा पक्ष भी असत्य है)। अतः (सिद्ध है कि) पुगलद्रव्य परिगामनस्वभाव वाला रवयं ही है। ऐसा होने से, जसे घटरूपपरियमित मिट्टी हो स्वयं घट है उसी प्रकार जइस्वभाव वाले ज्ञानावरगणादिक रूप परिणामित पुद्गलद्रव्य ही स्वयं झानावरणादि कम है। इस
प्रकार पुद्गल ब्रन का परिणाम स्वभावस्व सिद्ध हुश्रा ।। २. उपजाति छन्द का अर्थ – “इस प्रकार पुद्गलद्रव्य की स्वभावभूत परिणमन
शक्ति निविघ्न सिद्ध हुई और उसके सिद्ध होने पर, पुद्गलद्रव्य अपने जिस भाव को करता है उसका वह पुद्गल द्रव्य ही कर्ता है।
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
[ १३७
करते हैं । न्यायशैली में निरूपण तथा वस्तुसिद्धि करते समय वे अन्य मान्यताओं का निराकरण आगम, युक्ति तथा स्वानुभव प्रमाण के बल पर करते हैं । वहाँ उनका उत्कृष्ट नैयायिक का रूप प्रस्फुटित हो जाता है । उदाहरण स्वरूप एक स्थल पर आत्मा के असली स्वरूप को न जानने वालो की विविध प्रकार की असत्य कल्पनाओं और मान्यताओं का सचोट, सतर्क एवं स्वानुभवप्रमाण युक्त शब्दों में खण्डन करते हैं कि "इस जगत में आत्मा का असाधारण लक्षण न जानने के कारण नपुंस कता से अत्यन्त विमूढ होते हुए, तात्विक श्रात्मा को न जानने वाले बहुत से अज्ञानीजन अनेक प्रकार से घर को भी आत्मा कहते हैं - बकते हैं । उनमें कोई तो अध्यवसान को कई कर्म को, कई अध्यवसानों की परिपाटी को, नोकर्म रूप शरीर को, कर्म के उदय को, कर्म के तीत्रमंदरूप गुणों के अनुभव को, आत्मा और कर्म के मिश्रण को कोई कर्म के संयोग को प्रात्मा कहते हैं, तथा अनेक प्रकार से दुर्बुद्विजन पर को आत्मा निरूपित करते हैं, परन्तु परमार्थ के ज्ञाता उन्हें सत्यार्थवादी नहीं मानते ।' वे सत्यार्थवादी क्यों नहीं है देखिये अमृतचन्द्र की न्यायाली के ही मूल कथन को, जो इस प्रकार है
7
"यतः एतेऽध्यवसानादयः समस्ता एवं भावा भगवद्भिविश्वसाक्षिभिरर्हद्भिः पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वेन प्रज्ञप्ताः संतवचैतन्यशून्यात्पुद् गलद्रव्यादतिरिक्तत्वेन प्रज्ञाप्यमानं चैतन्यस्वभावं जीवद्रव्यं भवितुं नोत्सहते ततो न खल्वागमयुक्ति स्वानभर्वर्बाधितपक्षत्वात् तदात्मवादिनः परमार्थवादिनः । एतदेव सर्वज्ञवचनं तावदागमः । इयं तु स्वानुभवगर्भितायुक्तिः । न खलु नैसगिक रागद्वेषकल्माषितमध्यवसानं जीवस्तथाविधाध्यवसानात्कार्तस्वरस्येव श्यामिकाया प्रतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खल्वानाद्यनंतपूर्व पारीभूतावयवैक संसरण लक्षण क्रियारूपेण कीउत्तमंत्र जीवकर्मणोंतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्यविवेचकः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खलु तीव्रमंदानुभवभिद्यमान दुरंत रागरस निर्भराध्यवसानसंतानो जीवस्ततोतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खलु नवपुराणा
J
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१. समयसार गाथा ४३ की टीका "इह खलु तदसाधारणलक्षणा कल नारकलीवत्वेनात्यंतविमूढाः संतस्तात्विक मात्मानमजानतो बहवो बहुषा परमप्यात्मानमिति प्रलयंति ।.......... एवमेव प्रकारा इतरेपि बहुप्रकाराः परमात्मेति व्यपदिशति दुर्मेधसः किन्तु न ते परमार्थ वादिभिः परमार्थवादिन इति निदिश्यन्ते ।"
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१३८ ]
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
वस्थादि भेदेन प्रबर्तमानं नोकर्म जीवः शरीरादतिरिक्तवं मान्यस्य चितस्वभावस्थ विवेचकैः स्वयमएलभ्यमानत्वात् । न खलु विश्वमपि पुण्यपापरूपेणाक्रामकर्मविधाको जीवः शुभाशुभभाबादतिरिक्तत्वेनान्यस्य विवेचकैः स्वयमपलभ्यमानत्वात् । म खल सातासातारूपेणाभिव्याप्त समस्ततीवमंदत्वगुणाभ्यां भिद्यमानः कर्मानुभवो जोवः मुख दुःखातिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्व मावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खलु मज्जितावदुभयात्मकत्वादात्मकर्मोभयं जीव: कासन्यतः कर्मणोतिरिक्तत्वेनान्यस्य चिस्वभावस्प विवेचकः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खल्वर्थ क्रियासमर्थः कर्म संघोंगो जीवः कर्म सयोगात्खट्याशायिनः पुरुषस्येवाष्टकाष्ठसयोगादतिरिफ्तत्यनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचक: स्वयमुपलभ्यमानत्वात् ।'
.- - १. समयसार गाथा' ४४ की टीका -- "यह समस्त अध्यवसानादि भाम, विश्व के
(समस्त पदार्थों के) साक्षात देखने वाले भगवान् (वीतराग-रार्वज्ञ अरहतदेवों के द्वारा पुद्गलद्रव्य के परिणाममग्र' कहे गये हैं. इसलिए ने नैनन्यस्वभावमय जीवद्रव्य के होने के लिए समर्थ नहीं हैं कि जो जीबद्दव्य चैतन्य' भाव से शून्य ऐम पृद्गलइन्य में अतिरिक (भन्न) कहा गया है. अतः जो इन' अध्यवसानादिक पो जीम कहते हैं वे वास्तव में परमार्थवादी नहीं है - क्योंकि नागम, मुक्ति प्ररि स्वानुभव से उनका पक्ष बाधित है। उसमें "वे जीव नहीं है यह सर्वज्ञ का वचन है वह तो अागम है और यह स्वानुभवगभित युक्ति है कि रागदप से मलिन स्वयं ही उत्पन्न होते हए अध्यवमानादिकः जीद नहीं हैं क्योकि कालिमा से भिन्न स्वर्ण की भाति, अध्यवसान से भिन्न अन्य चित्स्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं अपलभ्यमान है । १। जिगका पूर्व अवयव प्रमादि है तथा भविष्य अवयव अनंत है ऐसी एक संगरण क्रिया के रूप में क्रीडा करता हुआ कम भी जीव नहीं है, क्योंकि कर्म से भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेवशानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है । २ । तीनमदम्प अनुभव से भेदरूप होने पर दुरंत रागरसभरित अध्यवसान संतति भी जीव नहीं है, क्योंकि उसनंतति से भिन्न चैतन्यस्वभावी जीव भेदशानियों द्वारा उपलभ्यमान है । ३। मई पुरानी अवस्थाभेद से प्रवर्तमान नोकर्म भी जीव नहीं है, क्योंकि शरीर से अन्य' पृथक् वतन्य स्वभावीजीव भेदज्ञानियों द्वारा उपलम्पमान है । ४ | ममस्त जगत को पुण्य-पाप रूप से व्याप्त करता हुआ कर्मविपाक भी जीव नहीं है, क्योंकि शुभाशुभ भाव से भिन्न चैतन्यस्वभाबीजीव भेदज्ञानियों द्वारा उपलभ्यमान है । ५। साता असाता रूप से व्याप्त तीमंदभेद वाला कर्मानुभव भी जीव नहीं है, क्योंकि सुख-दुःख से भिन्न चैतन्यस्वमाषी
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
। १३६
उपरोक्त भाष्य में न्यायशैली में कथित पांच प्रकार के बाधितपक्षों में ये तीन प्रकारों का प्रयोग प्राचार्य अमृतचन्द्र ने किया है। जैन न्यायग्रन्थों में अनुसार, अम, लोक संवा स्माला इन पांच बाधित पक्षों का उल्लेख है। यहां आगम, यक्ति (अनमान), स्वानुभब (प्रत्यक्ष ) इन तीनों बाधित पक्षों द्वारा आत्मा संबंधी असल्यमान्यता का निराकरण किया है।
न्यायशास्त्रों में अनुमान शैली का प्रयोग अत्यधिक मिलता है। साधन (तर्क, हेतु अथवा यक्ति) से साध्य के ज्ञान को अनुमान कहते हैं । अनुमान के ५ अंग है प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन । इनमें पक्ष तथा साध्य के कहने को प्रतिज्ञा कहते हैं। साधन (तर्क) रूप वचन को हेतु कहते हैं । व्याप्ति पूर्वक दृष्टांत के बाहने को उदाहरण कहते हैं। पक्ष और साधन में दुष्टांत की सदशता दिखाने को उपनय कहते हैं तथा निष्कर्ष निकालकर प्रतिज्ञा के दोहराने को निगमन कहते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र ने अपनी टीकाओं में सर्वत्र उक्त अनुमान शैली के यथावस्यक कहीं सभी, कहीं, दो कहीं ३ तथा कहीं चार अंगों का प्रयोग किया है। उदाहरण के लिए उनकी अनमान शैली का प्रमाण प्रस्तुत है। इसका प्रयोग वे 'द्रव्यों से द्रव्यान्तर (अन्यद्रव्य) की उत्पसि तथा द्रव्य सत्ता के अन्तरत्व (अन्य पदार्थपने ) के होने का खण्डन करते हुए लिखते हैं
जीव भेदज्ञानियों द्वारा उपलभ्यमान है। ६ । श्रीखण्ड की भांति उभयात्मक मिश्रित आत्मा और कर्म गिलकर भी जीव नहीं है, क्योंकि गंपूर्णतया कर्मों से भिन्न चैतन्य स्वभाबीजीव भेवनानियों द्वारा उपलभ्यमान है ! ७ । यर्थ निया में समर्थ कम का संयोग भी जीव नहीं है, क्योंकि पाठ लकड़यों के संयोग से भिन्न पलंग पर सोने वाले पुरुष की भांति, वम संयोग रो भिन्न चतन्यस्वभावी
जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है। १. बाधित: प्रत्यशानुभानागमलोयः स्वपचनः । प्रमेयरत्नमाला। पष्टस मुद्देश
सूत्र १५ की टोका तथा जैन सिद्धांत प्रवेशिका - प्रश्नोत्तर क्रमांक ५५. ५६,
५७, १८ (पृष्ठ १४ व १५) २. जैन सिद्धांत प्रवेशिका कर्माना ४१, ५६, ६०,६१, ६२, ६७, तथा ६८ ३. प्रवचनसार गाथा ६८ वी टीका - (मर्थ - वास्तव में द्रव्यों से द्रव्यांतरों
(दूसरे द्रव्य) की उत्पत्ति नहीं होती । (प्रतिज्ञावाक्य) क्योंकि सवंगव्य स्वभाव
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१४० ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व न खलुदयं व्यन्तराणामारम्भः, सर्वद्रव्यानां स्वभाव सिद्धत्वात् । स्वभावसिद्धत्वं तु तेषामनादिनिधनत्वात् । अनादि निधनं हि न साधनातरमपेक्षते । गुणपर्यायात्मानमात्मनः स्वभावमेव मूलसाधनमुपादाय स्वयमेव सिद्ध सिद्धिमद्भुतं वर्तते । यत्तद्रव्यैरारभ्यते न तदव्यांतर कादाचिकत्वात् स पर्यायः । द्वयणकादिवन्मनुष्यादिवच्च । द्रव्यं पुनरनवधि त्रिसमयावस्थायि न तथा स्थात् । अर्थवं यथासिद्धं स्वभावतराव द्रव्यं तथा सदित्यपि तत्स्वभावत एव सिमित्यवधार्यताम् । सत्तात्मनास्मनः स्वभावेन निष्पन्ननिष्पत्तिमद्भावयुक्तत्वात् । न च द्रव्यादर्थान्तरभूता सत्तोपपत्तिमभिप्रपद्यते, यतस्तत्समवायात्तत्सदिति स्यात् । सनः
सिद्ध हैं । (हेतु या तर्क) स्वभावसिद्धता तो उनकी अनादि निधनता से है । (हेत कामादिनिधन को वास्तव में साधनांतर (अन्यसाधन) की अपेक्षा नहीं होती। वह गृणपर्यायात्मक अपने स्वभाव रूप मूलसाधन को धारणकर के स्वयमेव सिद्ध हुमा वर्तता है। (निगमन)
जो द्रव्यों से उत्पन्न होता है वह द्रव्यांतर नहीं है । (प्रतिज्ञा), क्योंकि कादाचित्वता (अनित्यना) के कारण बह पर्मान है । (हेनु), जैसे दुखयगुराक इत्यादि तथा मनुष्य पर्याय इत्यादि (उदाहरण), द्रव्य तो अनधि भयौदारहित) त्रिगमय अवस्थायी (त्रिकाल स्थायी) होने मे उत्पन्न नहीं होता। प्रत्र इस प्रकार जैसे द्रव्य स्वभाव से ही सिद्ध है, उसी प्रकार वह स्वभाव से ही सतरूप सिद्ध है ऐसा निर्णय हो, क्योंकि सत्तात्मक अपने स्वभाव से निष्पन्न हुए मानवाला है। द्रव्य से अयांतर भूत सत्ता उत्पन्न नहीं होती कि जिसके भमवाय में दून्य सव हो। इसी को स्पष्ट समझाने हैं - प्रथम तो सत से सत्ता को युतसिद्धता दिखाई नहीं देती। दूसरे अयुतसिद्धता में भी वह अर्थान्तरत्व नहीं बनता । "इसमें वह है" (न्य में सत्ता है) ऐसी प्रतीत होती है इसलिए वह बन सकता है ऐसा रहा जाय तो (हम पूछते हैं वि.) "इस में यह है" ऐसी प्रतीति किसके प्राश्रय (कारग) स होती है। यदि नहा जाय कि भेद के प्राथय से होनी है, तो वह कौनसा भेद है ? प्रादेशिक था अताभाविक ? प्रादेशिक तो है नहीं क्योंकि युतसिद्धत्व पहले ही निरर्थक कर दिया गया है और यदि अदाभाविक कहा जाय नो वह उत्पन्न ही है. क्योंकि ऐसा (शास्त्र) का वचन है कि जो द्रव्य है वह गुरण नहीं है; परन्तु (यह भी ध्यातव्य है कि) वह मताद्भाविक भेद एकांत से "इसमें यह है" ऐसी प्रतीति का कारण नहीं है, क्योंकि वह स्वयमेव उन्मग्न (उत्पन्न) तथा निमग्न (नाश) होता है ।
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव 3
[ १४१
सत्तायाश्च न तावद्युत सिद्धत्वेनार्थान्तरत्वं तयोर्दण्डदण्डिवद्युत सिद्धस्यादर्शनात् प्रयुत सिद्धत्वेनापि न तदुपद्यते । इहेदमितिप्रतात्पद्यत इति चेत् कि निबन्धना होहेदमिति प्रतीतिः। भेदनिबन्धनेति चेत् को नाम भेदः । प्रादेशिक अताद्भाविको वा । न तावत्प्रादेशिकः पूर्वमेवयुक्त सिद्धत्वस्यापसरणात् । अताद्भाविकश्चेत् उपपन्न एवं यद्द्रव्यं तन्न गुण इति वचनात् । अयं तु न खल्वेकान्तेने हेदमिति प्रतीतेनिबंधन, स्वयमेवोन्मग्ननिमग्नत्वात्-
इस तरह उक्त भाष्य में सर्वत्र अनुमान शैली के अंगों का प्रयोग किया है। साथ ही न्यायशास्त्रविषयक शब्दावलि - युत सिद्ध अयुत सिद्ध निष्पन्न- निष्पत्तिमद्भाव सिद्धसिद्धमद्भुत भाव, प्रश्नोत्तर, तर्कवितर्क, ऊहापोह आदि का प्रयोग प्रचुरमात्रा में किया है, जिससे अमृतचन्द्र की तार्किक व न्यायज्ञान रूप प्रतिभा का परिचय भलीभांति हो जाता है । एक स्थल पर प्रमुखरूप से सालंकार, ऊहापोह रूप सुन्दरतम शैली में "उत्पादव्यय तथा ध्रौव्य के परस्सर अविनाशीपने की सिद्धि करते हुए वे लिखते हैं
—
१. प्रवचनसार गाथा १०० की टीका- अर्थ वास्तव में उत्पाद व्यय के बिना नहीं होता और व्यय उत्पाद के बिना नहीं होता, उत्पाद और व्यय स्थिति (चव्य) के बिना नहीं होते, और श्रोग्य उत्पाद तथा व्यय के बिना नहीं होता । जो उत्पाद है वही व्यय है, जो व्यय है वही उत्पाद है, जो उत्पाद और व्यय है वही भव्य है, जो भव्य है वही उत्पाद तथा व्यय है । उसी प्रकार जो कुम्भ का उत्पाद है वही मृत्तिकापिण्ड का व्यय है, क्योंकि भाव का भावांतर के प्रभाव स्वभाव से अवभासन है। जो मृत्तिकापिण्ड का व्यय है, वही कुम्भ का उत्पाद है क्योंकि अभाव का भवांतर के भावस्वभाव से अवभासन है तथा जो कुम्भ का उत्पाद और पिण्ड का व्यय है वही मृतिका की स्थिति है, क्योंकि व्यतिरेक अन्वय का प्रतिक्रम नहीं करते, और जो मृत्तिका की स्थिति है वहीं कुम्भ का उत्पाद और पिण्ड का व्यय है क्योंकि व्यतिरेकों के द्वारा ही अन्वय प्रकाशित होता है। और यदि ऐसा न माना जाय तो फिर यह सिद्ध होगा कि उत्पाद अन्य है, व्यय अन्य है तथा घोच्य अन्य है (अर्थात् तीनों भिन्न हैं परन्तु तीनों भिन्न मानने में जो दोष उपस्थित होगा उसे कहते हैं)
केवल उत्पादखोजक कुम्भ की उत्पत्ति के कारण का प्रभाव होने से उत्पत्ति ही नहीं होगी, तब समस्त ही भावों की उत्पत्ति हो नहीं होगी अथवा यदि असत् का उत्पाद होने लगे तो आकाशमादि का भी उत्पाद होगा (जो
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१४२ ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व ___ "न खलु सर्गः संहारमन्तरेण, न संहारो वा सर्गमन्तरेण, न सुष्टिसंहारो स्थितिमन्तरेण, न स्थितिः संहारमन्तरेण । य एव हि सर्गः स एव संहारः, य एव संहारः स एव सर्ग यादेव सर्गमहागौ मन स्थितिः, यंव स्थितिस्ताबेद सर्गसंहाराविति । नथाहि य एव कुम्भस्य सर्गः स एव मृत पिण्डस्य संहारः, भावस्य भावांतराभावस्वभावेनावभासनात् । य एब च मृत्पिण्डस्य संहारः, स एव कुम्भस्य सर्गः ग्रभावस्य भावांतरभात्रस्वभावेनावभास नात् । यो च कुम्भपिण्डयोः सर्गसंहारौ सैब मृत्तिकायाः स्थितिः, व्यतिरेकाणामन्वयान तिक्रमणात् । यैव च मुतिकायाः स्थितिस्तावेव कुम्भपिण्डयोः सर्गसंहारौ, व्यतिरेकमुखेनैवान्त्रग्रस्य प्रकाशनात् । यदि पुनर्नेदमेव मिष्येत तदान्यः सगौं ऽन्यः संहार: अन्या स्थितिरित्यायाति । तथा सति हि केवलं सर्ग मुगयमाणस्य कुम्भस्योत्पादन कारणाभावादभवनिरेव भनेत्, असाद एव वा । तत्र इम्भस्या भनौ सर्वेषामेव भावानामभवनिरेव भवेत् । असदुत्पादे वा दयोमप्रसवादीनामप्युत्पादः स्यात् । तथा केवल संहारभारभभाणस्य मृत्पिण्स्य संहारकारणाभावादसंह रणिरेब भवेत् । सदुच्छब्बे बा संविदादीनामप्यच्छेदः स्यात् । तथा केवला स्थितिमुपगच्छन्त्या मृत्तिकाया व्यतिरेकाक्रान्तस्थित्यन्वयाभावादस्थानिरेब भवेत्, क्षणिक नित्यत्वमेव वा । तत्र मूत्तिकाय। प्रस्थानी सर्वेषामेव भावानामस्थानिरेव भवेत् क्षणिक नित्यत्वे वा चित्तक्षणानामपि नित्यत्वं स्यात् । तत उत्तरोत्तरव्यतिरेकाणां सर्गेण पूर्वपूर्वव्यतिरेकाणां संहारेणान्वयस्यावस्थानेनाबिनाभूत मुद्योतमाननिर्विघ्नत्रलक्षण्यलाञ्छनं द्रव्यमवश्यमनुमन्तव्यम् ।।१००।
असम्भव है ।) और वे वन व्ययारम्भक भूलिंगण्ड का व्यय के कारण का अभाव होने में न्याय ही नहीं होगा अथवा तो मन् का ही उच्छेद होगा। वहां यदि मत्पिण्ड का व्यय न होगा तो ममस्त भावों का व्यय ही न होगा, अथवा यदि रात् वा उच्छेद होगा तो चैतन्य इत्यादि का भी उच्छेद हो जायेगा। (यह दोष पायेगा) । और केवल धोव्य प्राप्त करने को जाने बाली मत्तिा की. व्यतिरेक सहित स्थिति का (मन्वयका) प्रभाव होने से, स्थिति ही नहीं होगी अथवा तो शशिक को ही नित्यत्व का प्रसंग पायेगा । वहां यदि मिट्टी का घोव्यरन न हो तो समस्त ही भावों का ध्रौव्य ही नहीं होगा अथवा क्षणिक वा नित्यत्व हो तो चित्त के क्षणिक भावों का भी नित्यल्न या प्रसंग पायेगा। (यह दोष पायेगा) । इमलिये द्रव्य को उत्तरोत्तर न्यतिरबों की उत्पत्ति के साथ, पूर्व पूर्व के व्यतिरकों के संहार के साथ और अन्वय व अवस्थान के साथ अविनाभाववाला निर्विघ्न त्रिलक्षणता रूप चिल्ल प्रकाशमान है ऐसा अवश्य मानना चाहिये ।।१०।।
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
[ १४३ इस तरह जहाँ अमृतचन्द्र उहापोह के द्वारा क्लिष्ट दार्शनिक तथ्यों को स्पष्ट करने की अनोखी सामथ्य रखा है, वहीं वे अपनी तर्कपूर्ण विधेयात्मक व्याख्या द्वारा एक पद का अर्थ करते हुये अनेक अन्यमतों के निराकरण करने में भी कुशल प्रतीत होते हैं। उनकी नैयायिक कुशलता का ज्वलंत उदाहरण "समय" पद को गंभीर व्याख्या है। "समय" पद का अर्थ करते हुए वे लिखते हैं
"योयं नित्यमेव परिणामात्मनि स्वभाव अवतिष्ठमानत्वात् उत्पादब्ययधोव्यै क्यानुभूतिलक्षणया सत्तथानुस्यूतश्चैतन्यस्वरूपत्वाग्नि
१. समयसार माथा २ की प्रात्मरूपाति टीका, पृष्ठ 5-६ (न-यह जीव नामक
पदार्थ सदा ही परिणमनस्वरूप स्वभाव में रहता हुअा होने से उत्पाद व्ययप्रौव्य की एकतारूप अनुभूति लक्षरगयुक्त सत्तासहित है। (इसमं सत्ता को न मानने वाले नास्तिक वादियों का खण्डन हो गया तथा पुरुष (जीव) को
परिणामी मानने वाले सांस्यवादियों का परिणमनस्वभाव' कहने से खण्डन हुआ । नमायिक और वैदोषिकवादी सत्ता को नित्य ही मानते हैं और बौद्ध क्षगिक ही मागते हैं, उनका निराकरण सत्ता को उत्पादव्यम और धौव्य कहने से हुया है।), नोव चैतन्यस्वरूपता से नित्य ज्योतरूप निर्मल स्पष्ट दनज्ञानज्योति स्वरूप है (इस कथन' से चतन्य को ज्ञानाकार रूप न मानने वाले सख्यमत का निराकरण हुना, वह जीव अननधर्मों में रहने वाले एक धमींगने के कारण प्रगट द्रव्यत्व वाला है (इस विशेषण। से वस्तु को धर्मो से रहित माननेवाले बौद्धमतियों का निराकरण हुग्रा), वह कमरूप और अक्रम रूप प्रवर्तमान अनेक 'माय स्वभाव के कारण गुणगायों को धारण करने वाला है (इस विशेषण द्वारा पुरुष को निगुग मानने वारने सांख्यमत वालों का निरसन हो गया), और अपने तथा परद्रयों के प्राकारों को प्रकाशित करने की सामर्थ्य के कारण समस्त रूप को झलकाने वाली एकरूपता को प्राप्त करने वाला है (इस विशेषण से "ज्ञान अपने को ही जानता है पर को नहीं' ऐसा मानने वालों का निराकरण हुमा ।). वह अन्य द्रव्यों के विशिष्ट गुणरेंअवगाहन, गति, स्थिति, वर्तनाहेत्त्व तथा रूपित्व के प्रभाव के कारण और असाधारण चैतन्यरूपता स्वभाव के सद्भाव के कारण प्राकाग, धर्म, अधर्म, काल और पुद्गल-इन पाँच द्रव्यों से भिन्न है । और वह अनन्त अन्य द्रव्यों के साथ अत्यन्त एकाक्षेवावगाहरूप होने पर भी अपने स्वरूप से न छूटने से टकोत्कीर्ण चैतन्यस्वभावरूप है । ऐसा जीव नामक पदार्थ समय है ।
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१४४ ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
त्योदित विशददृशिशप्ति ज्योतिरनंतधर्माधिरूढ़े कधमित्वादुद्योतमानद्रव्यत्वः क्रमाक्रम प्रवृत्त विचित्र भाव स्वभावत्वादुत्संगितगुण पर्यायःस्वपराकारावभासन समर्थत्वादुपात्तवैश्वरूयेकरूपः प्रतिविशिष्टावगाह गतिस्थितिवर्त्तनानिमित्तत्वरूपित्वाभावादसाधारण चिपतास्वभावसद्भावाच्चाकाश धर्माधिकाल पुद्गलेभ्यो भिन्नोऽत्यंत मनं तद्रव्य संकरेपि स्वरूप प्रच्यवना कोत्कीर्ण चित्स्वभावो जीवो नाम पदार्थः स समयः । "
इसी तरह अन्यमत खण्डनार्थ न्यायशैली में प्रयुक्त विभिन्न दोषों, आपत्तियों तथा प्रसंगों का उल्लेख टीकाओं में सर्वत्र मिलता है । उनमें कुछ के नाम इस प्रकार है: - संकरादिदोषापत्तिः, विसंवादापत्ति', चेतनस्याचेतनापत्ति इतरेतराश्रयदोष अव्याप्ति, अतिव्याप्ति, प्रसंभवदोष * पुनरुक्तिदोष, अनवस्थादोष * भाव्यभावक संकरदोष, ज्ञेयज्ञायक संकरदोष, जीव वा पुद्गल के एकत्व का प्रसंग', द्रव्य के नाश का प्रसंग, नित्यकर्तृत्व का प्रसंग, तन्मयता का प्रसंग" पर का स्वामी बनने से जीवपने का प्रसंग १३, चेतन के अभाव का प्रसंग १३, अनैकांतिक हेत्वाभास १४ इत्यादि ।
५
1
इसके अतिरिक्त वस्तु स्वरूप की सिद्धि हेतु विभिन्न न्यायों का प्रयोग भी उनकी कृतियों में मिलता है । उदाहरण के लिए एक स्थल पर "स्वर्णमुट्ठी न्याय" का उल्लेख करते हुए वे लिखते हैं- "यो हि नामानादिमोहोन्मत्ततयात्यंतमप्रतिबुद्धः सन् निर्विण्णेन गुरुणानवरतं प्रतिबोध्यमानः कथंचनापि प्रतिबुध्य निजकरतलविन्यस्त विस्मृतचामी
१. समयसार गाथा २ की आत्मरुयाति टीका
२. वही गाथा २६८-२६६ की टीका
३. वही गाथा ७० कीं टीका ४. वहीं, गाथा ६६ की टीका तथा कलश नं. ४२ और ४०३ गाया की
टीका भी
५. वही, गाथा २२६ से २३६ की टीका अथवा कलश १५३ से १६० तक व ७०
से ७६ तक
६. बद्दी, गाथा २१६ को टीन
८. वहीं, गाथा ३१ की टीका १०. वही गाथा ६६ को टीवन १२. वहो, गाथा २०८ की टीका १४. वहीं, गाथा २६५ की टोका
७.
वहीं, गाथा ३२ की टोका
६.
1
वही गाथा ६२ की टीका, ११. वही, गाथा १०० को टीका १३. वही, गाया २६९ की टीका
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
[ १४५
करावलोवानन्यायेन परमेश्वरमामानं ज्ञात्वा श्रद्धायानचर्य च सभ्यर्गकास्मारामो भूतः स खल्वमात्मात्मप्रत्यक्षं चिन्मात्रंज्योतिः, समस्त क्रमाक्रम प्रवर्तमान व्यावहारिकभावैश्चिन्मात्राकारेणाभिद्यमानत्वादेकः । 1
इसी तरह "जो पूर्वत्र जो, जो ही है" न्याय का उल्लेख करते हुए लिखा है कि मिथ्यात्वादि गुणस्थान पौद्गलिक मोहकर्म की प्रकृति के उदयपूर्वक होते होने से सदा ही अचेतन है, क्योंकि कारण जैसा ही कार्य होता है -- ऐसा समझकर "जी पूर्वक होने वाले जो जो हैं, वे जी ही होते हैं" इसी न्याय से वे कर्म पुद्गल ही है। यथा - "मिथ्यादृष्ट्यादीनि हि पौदगलिक मोहकप्रकृर्मतिविपाकपूर्वकत्वे सति नित्यमचेतनत्वात् कारणान विधायीनि कार्याणीति कृत्वा ययपूर्वका यवा यवा एवेति न्यायेन पुद्गल व नतु जीबः ।"३
एक स्थल पर "टकोत्कीर्ण न्याय" द्वारा ज्ञान की नित्यता तथा क्षायिकपने के माहात्म्य को दर्शाया है । वे लिखते हैं - "यत्तु युगपदेव सर्वार्थानालम्ब्य प्रवर्तते ज्ञाने तकोत्कीर्णन्यायावस्थित समस्तवस्तुज्ञेयाकारतयाधिरोपित नित्यत्वे अन्यत्र "अंजनचूर्णसमुद्गक न्याय" के आधार पर सभी द्रव्यों के निवास के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण किया है यथा - "कालजीवपुद्गलानामित्येकद्रव्यापेक्षया एकदेश अनेकद्रव्यापेक्षया पुनरजनचूर्णपूर्णसमुद्गकन्यायेन सर्वलोक एवेति ।" इस तरह अनेक
१. समयसार गाथा ३८ की टीका का अर्थ - जो अनादि मोह रूप प्रज्ञान से
उन्मत्तता के कारण प्रत्यंत अप्रतिबुद्ध था और विरक्तगुरु से निरन्तर समझाये जाने पर जो किसी प्रकार रामझकर, सावधान होकर "जसे कोई पुरुष मुट्ठी में रखे हुए सोने को भूल गया हो और फिर स्मरण करके उस सोने को देखें" इस न्याय से, अपने परमेश्वर प्रात्मा को भूल गया था, उसे जानकर, उसका श्रद्धानकर और उसका याचरण करके जो सम्यक प्रकार से एक यात्माराम हुँमा, वह मैं ऐसा अनुभव करता हूँ कि मैं चतन्य ज्योति रूप आत्मा है कि जो मेरे ही अनुभव से प्रत्यक्ष ज्ञात होता है, चिम्मान भाव के कारण मैं समस्त अमरूप तथा अमरूप प्रवर्तमान व्यावहारिक भावों से भेदरूप नहीं होता
इसलिए मैं एक हूँ ......" २. समयसार गाथा ६८ की टीका ३, प्रवचनसार गाथा ५१ को टीका ४. प्रवचनसार गाथा १३६ की दीका
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१४६ ]
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व न्यायों के उल्लेख एवं प्रयोग से उनको न्याय विज्ञता का परिचय मिलता है। उनकी टीकाएँ तथा वस्तुस्वरूप की सिद्धि हेतु प्रयुक्त नैयायिक शब्दावलि भी उनके ताकिक तथा नैयायिका रूप व्यक्तित्व के श्रेष्ठ प्रमाण हैं। उन्होंने स्वमत मंडनार्थ तथा परमत खण्डनार्थ प्रयुक्त न्यायशास्त्रोक्त पदों का प्रचुरमात्रा में प्रयाग किया है, जो अमनचन्द्र को प्रखर ताकिक तथा कुशल न्यायवेत्ता सिद्ध करते हैं। ताकिक तथा नैयायिक का रूप भी आचार्य अमृतचन्द्र के विशाल व्यक्तित्व का एक पहलू है।
प्राचार्य अमृतचन्द्र भाषाविद् के रूप में आचार्य अमृत चन्द्र के बहुमुखी व्यक्तित्व में उनका भाषाविद् का रूभी अप्रतिम है बे प्राकृत तथा संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान थे। संस्कृत भाषा पर ती उनका अस्वलित आधिपत्य था। उनकी पंचा साहित्यकार मावि वाणभट्ट के संबन्ध में 'वाणो बाणो बभूवेति" यह उक्ति चरितार्थ है । आचार्य अमृतचन्द्र की संस्कृत भाषा की प्रौढ़ता, गंभीरता, भावार्थवाहिता तथा सुन्दरता को निहार कर उपयक्त उक्ति अमृतचन्द्र के व्यक्तित्व में भी सार्थक एवं ज्वलंत प्रतीत होती है। वे जेन संद्धांतिक शब्दों तथा साधारण संज्ञाओं की भी व्याख्या करने में नहीं हिचकते। वे सारगभित संकेतों तथा संक्षिप्त व्याख्या को जानते थे ।
.. ... .-... - १. याग्निक शब्दावलि के प्रयोग दो प्रकार के हैं वस्तुस्वरूप के विपरीत मत
खण्डनार्थ तथा वस्तुस्वरूप की सिद्धि (मण्डनार्थ प्रयुक्त शब्द) । खनार्थ प्रयुक शब्दों में प्रसिद्ध, अनुपपत्ते:, अापत्तिः, प्रसंगात, कुतस्त्यात सिद्धि, प्रत्याख्यातम्, उत्थाप्यते यादि प्रमुख हैं तथा मण्डनार्थ प्रयुक्त शाब्दों में साक्यति, सिद्ध्यति, आयातम्, निष्पन्नम्, सिद्धम्, न्याय्यग, अस्तु, निश्चयः, निश्चिनोति, उपपन्नम्, अवश्यं, अनुसत ज्य, व्यवस्थापमितध्यम, निपचीयन्ते, सिद्धांतयति, प्रतिपभम्, अलमतिविस्तरण, सावितम्, अनेन, व्याख्मातम्, उपपत्तिः, प्राम्नातम्, साकल्येन, सिद्धिः, स्थिता, प्रसजेत्, साध्यसिद्धि, अतिष्ठते, निश्चितम् सुष्टपरीक्षय, न्याय्य एव, युक्ता प्रज्ञप्तिः, इति निश्चयसिद्धांतः, प्रसाध्यम्, संपद्यते, मायबलेन एतद्मापातम्, प्रतिनियमः, प्रति नियमः, करण, प्रत्यासत्ति, निश्चिन्वन्, मीमास्यते, प्रसक्ती, दण्डनीतयः इत्यादि मुख्य हैं।
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
[ १४७
कभी कभी उनका गद्य कृत्रिम तथा क्लिष्ट सा प्रतीत होता है। विचारों की अभिव्यक्ति प्रवाहपूर्ण है । वे गद्यकार की अपेक्षा कवि अधिक थे । उनकी श्राध्यात्मिक जगत् पर सम्प्रभुता थी। उनकी विचाराभिव्यक्ति अत्यन्त प्रभावपूर्ण थी । उनकी भाषा ओजपूर्ण, रसपूर्ण अलंकार युक्त तथा अर्थवाही थी । अमृतचन्द्र के व्यक्तित्व की प्रोढ़ना तथा भाषा प्रौढ़ता दोनों समकक्ष है । उनकी प्राकृतभाषा विज्ञता निःसंदेह सिद्ध है, क्योंकि कुन्दकुन्दाचार्य के प्राकृत ग्रन्थों के गूढ़ार्थों को संस्कृत भाषा के माध्यम से उद्घाटित करने में उन्होंने अद्वितीय सफलता तथा ख्याति प्राप्त को है । समयसार की आत्मरुप्रति टीका में उन्होंने पूर्वाचार्यों की कुछ प्राकृत गाथाओं को भी उदारत किया है। उन्होंने प्राकृत गाथाओं के एक-एक शब्द की व्याख्या सविस्तार करके उनमें निहित भाव को अत्यन्त सौष्ठव पूर्ण भाषा में प्रकट किया है। उनकी भाषा की सुष्ठुता एवं चारुता दर्शनीय हैं। उदाहरण के लिए यहाँ उनकी टीका का कुछ अंश प्रस्तुत है । इस अश में उन्होंने आचार्य कुन्दकुन्द के "दारहं प्रप्पणी सविहवेण" पद अर्थात् "आत्मा के निजवंभव से दिखाता हू का भाव स्पष्ट करते हुए लिखा है -
1
"इह किल सकलोद्भासिस्यात्पद मुद्रितशब्दब्रह्मोपासनजन्मा, समस्त विपक्षक्षोदक्ष मानिनिस्तुषयुक्त्यवलम्ब नजन्मा निर्मल विज्ञानघनांतनिमग्नपरापरगुरु प्रसादी कृतशुद्धात्मतत्त्वानु शासनजन्मा, अनवरतस्यन्दिसुन्दरानन्दमुद्विता मंदसंविदात्मकस्य संवेदनजन्मा च यः कश्वनापि ममात्मनः स्व विभवस्तेन ममस्तेनाप्ययमेकत्व विभक्तमात्मानं दर्शयेऽहमिति बद्ध व्यवसायोऽस्मि ""
इस तरह स्पष्ट है कि आचार्य अमृतचन्द्र प्राकृत भाषा तथा उसमें अभिव्यक्त भावों पर असाधारण अधिकार रखते थे । संस्कृत भाषा तो उनके प्रौढ़ व्यक्तित्व की अनुबतिनी और उनके अंतराभिप्राय की प्रेरणा पर नाचने वाली थी। यह कारण है कि श्रात्मख्याति टीका में गद्य तथा पद्य दोनों काव्यविधाओं का सम्मिश्रण देखने को मिलता है । अमृतचन्द्र सर्वप्रथम गाथागत भावों को हृदयगत करते हैं पश्चात् अंतरंगानुभूति को सशक्त, सतर्क तथा सुन्दर भाषा में प्रगट करते हैं। जहाँ से गाथागत या पदनिहित मर्म का विश्लेषण करते हैं, वहाँ भाषा गद्यरूप में प्रवाहित
१. समयसार गाथा ५ की टीका
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१४८ ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
होती है तथा जहाँ गाथा या पदगत रहस्य विषयक प्रानंदानुभूति का अतिरेक प्रगट करते हैं, वहाँ भाषा स्वयमेव पद्यमयी हो जाती है। इस प्रकार उन्हें गद्यपद्यमयी भाषाभिव्यक्ति द्वारा प्रात्मख्याति टीका में सर्वत्र अध्यात्मतरंगिणी प्रवाहित करने में असाधारण सफलता प्राप्त हुई है।
एक श्रेष्ठ भाषाविद् के रूप में प्राचार्य अमृतचन्द्र ने संस्कृत भाषा को अनेक रूपों में प्रस्तुत किया है। वहीं उनकी भाषा अत्यन्त सरल, सुबोध तथा सर्वजनमाही रहती है तो कहीं पर अत्यन्त क्लिष्ट, दुर्गम तथा विद्वज्जन ग्राही होती है। इस तरह भाषाशैली के इन्हीं रूम परिवर्तनों के कारण वे कभी प्रौढ़तम गद्यकाध्यकार, तो कभी रससिद्ध अध्यात्म कवि तथा कभी उभयकाव्यकार - चम्पुकाव्यकार के रूप प्रादुर्भूत होते हैं। संस्कृत भाषा पर असाधारण अधिकार होने के कारण हो उन्होंने उसे विभिन्न छन्दों, विभिन्न अलंकारों, विभिन्न रसों तथा व्याकरण विषयक प्रयोगों से संजोया है। एक शब्द को अनेक अर्थों तथा अनेक शब्दों को एक अर्थ में प्रयोग करने में वे दक्ष हैं। विभिन्न क्रियापदों व विभिन्न गणों की धातुओं का विभिन्न लकारों में प्रयोग, धातु के तद्धित, कृदंत तथा विभिन्न प्रत्ययांत प्रयोग, अनेक अध्ययों का पादपूरणार्थ प्रयोग, अनेक उपसर्गों का अर्थ परिबर्तनार्थ प्रयोग, अप्रयुक्त (अप्रचलित) शब्दों का प्रयोग इत्यादि विशेषताएं उनकी भाषाविज्ञता की स्पष्ट प्रमाण हैं । उदाहरण के लिए उनके कुछ व्याकरण सम्बन्धी प्रयोग इस प्रकार है
एक स्थल पर "प्रज्ञा द्वारा आत्मा को कैसे ग्रहण करना चाहिए ?" इसका स्पष्टीकरण करते हुए वे लिखते हैं—'यो हि नियत स्वलक्षणावलंबिन्या प्रज्ञया प्रविभक्तश्चेतयिता सोऽयमहं,ये त्वमी अवशिष्टा अन्यस्वलक्षणलक्ष्या व्यवह्रियमाणा भावाः, ते सर्वेऽपि चेतयितृत्वस्य व्यापकस्य व्याप्यत्वमानायांतोऽत्यंत मत्तो भिन्नाः । ततोऽहमेव मर्यव मह्यमेव मत्त एव मय्येव मामेव गृह णामि । यत्किल गहाणामि तकिल चेतनक क्रियत्वादात्मनश्चेतय एव, चेतयमान एव चेतये, चेतयमानेनैव चेतये, तयमानायंव चेतये, चेतयमानादेव चेतये, चेतयमाने एव चेतये, चेतयमानमेव चेतये । अथवा न चेतये, न चेतयमानश्चेतये, न चेतयमानेन चेतये, न चेतयमानाय चेतये, न चेतयमानाच्चेतये, न चेतयमाने घेतये, न चेतयमानं
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
[ १४६
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1
चेतये, किन्तु पर्व विशुद्धचिन्मात्र भावोऽस्मि ।" इस प्रकार अस्मद् तथा चेतमान पदों के षट्कारकरूप विकल्पों का निषेध कर अभेद चिन्मात्रभावरूप आत्मा को पकड़ाया। इसके पश्चात् इसी प्रकार की तुन्दर व्याकरण प्रयोग शैली में उक्त सामान्यचेतना को दर्शनमात्र एवं ज्ञानमात्र भाव रूप निरूपित करते हुए लिखा है- चेनावनत्रिप नतिक्रमणाच्चेतयितृत्वमिव दृष्टत्व ज्ञातृत्वं चात्मनः स्वलक्षणमेव । ततोऽहं द्रष्टारमात्मानं गृह्णामि । यत्किल गृह्णामि तत्पश्याम्येव पश्यन्नेव पश्यामि, पश्यतं पश्यामि पश्यते एव पश्यामि पश्यत एवं पश्यामि पश्यत्येव पश्यामि पश्यंतमेपयामि । अथवा न पश्यामि न पश्यन् पश्यामि न पश्यता पश्यासि न पश्यते पश्यामि न पश्यतः पश्यामि न पश्यति पश्यामि न पश्यतं पश्यामि किंतु सर्वविशुद्धो दृङमात्र भावाऽस्मि । अपि ज्ञातारमात्मानं गृह्णामि । यत्किल गृह्णामि तज्जानाम्येव जानन्नेव जानामि जानतेव जानामि जानते एव जानामि जानत एव जानामि, जानत्येव जानामि, जानंतमेव जानामि । अथवा न जानामि न जानन्, जानामि, न जानता जानामि न जानते जानामि, न जानतो जानामि, न जानति जानामि, न जानंतं जानामि, किंतु सर्व विशुद्धो ज्ञप्तिमात्रो भावोऽस्मि । *
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एक "धातु' पद के प्रत्यय परिवर्तन से अनेक रूपों के प्रयोग में वे दक्ष थे । "कु" धातु के कर्म करोति, कार्यत्व, कुर्वाणः, कर्ता, क्रियमाणः
,
१. समयसार गाथा २१७ को टीका - ( अर्थ - - " नियत स्वलक्षण का अबलंबन करने वाली प्रज्ञा के द्वारा भिन्न किया गया जो वेतन आत्मा है वह यह में हैं, और अन्य स्वलक्षणों से लक्ष्य (जानने योग्य) जो ये शेष व्यवहाररूप भाव हैं वे सभी तकत्वरूपी व्यापक के व्याप्य नहीं होते, इसलिए मुझमे अत्यंत भिन्न हैं, प्रत मैं ही, अपने द्वारा ही, अपने लिए ही, अपने में से ही अपने में ही, अपने को ही ग्रहण करता हूँ । श्रात्मा की चेतना ही एक क्रिया है इसलिए मैं " ग्रहण करता हूँ" । ( है ) प्रर्थात् में चेतता ही हैं, चेतता हुवा ही चेतता हूँ, चेतले हुये द्वारा ही चेतता हूँ, चतते हुये चेलते हुए 'से ही चेतता है, चेतते में ही चेतता हूँ, अथवा न तो चेतता हूँ, न चेतता हुधा चेतता हूँ, हूँ, न चेतते हुए के लिये चेतता हूँ, न चेतते हुए से चेतता हूँ, न चेतते हुए को चेतता हूँ, किन्तु सर्वविशुद्ध चिन्मात्र भाव हूँ। २. समयसार गाया, २६८- २६६ की दोका ३. प्रवचनसार गाया, १०४
के लिए ही चेतता हूँ, चेतने को ही चेतता हूँ,
न
चेतते हुए के द्वारा चेतता चेतता है, न चेतवे
ए
में
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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व ज्ञेयीकुर्वन, ज्ञानीकुर्वन्, आत्मीकुर्वन् अकार्ष, प्रचोकरं कुर्वन्तम् करोमि, कारयामि, करिष्यामि, कारयिष्यामि , कृत, कारित' इत्यादि प्रयोग, "दृश'' धातु के पश्यति, दृष्टु. दृष्टव्यं, दृष्टः, दर्शन, दृष्टत्वं, दृष्टार, युद्ध मन्द, दृारा प शि इस दि प्रमोग तथा “सिध्" धातु के प्रसिद्धः, प्रसिद्धिः, प्रसिद्ध्या, प्रसिद्ध्यति, प्रसाधनीयम्, प्रसिद्धन, प्रसाध्यमानत्वात्, प्रसाध्यमान:1 इत्यादि प्रयोग उनकी दक्षता के प्रमाण हैं । वे उपसर्ग परिवर्तन कर अर्थ रिवर्तन करने में भी कुशन थे, उदाहरण के लिये राधः पद में विभिन्न उपसर्ग प्रयोग कर अपराधः, सापराधः, निरपराधः, प्राराधन, आराधक १५ आदि शब्दों का निर्माण हुआ है तथा जर् पद के निर्जीर्य, निर्जरक.१२, निर्जीमाणः, निर्जीर्णः निर्जरा, अजीर्ण:१३ इत्यादि प्रयोग उनकी टीकाओं में मिलते हैं। उनकी टीकाओं नथा मौलिक रचनाओं में प्रायः अधिकांश प्रचलित उपसर्गों का उपयोग१४ तथा अव्ययों का प्रयोग हुआ है। एक स्थल पर तो एक ही गाथा की टीका में बत्तीस १५ प्रकार के विभिन्न अव्ययों के प्रयोग से उनकी संस्कृत भाषाविज्ञता का परिचय प्राप्त होता है । अमृतचन्द्र की टीकाओं तथा
१. समयमार गाथा २०० की टीम २. वहीं, गाथा, २८७ से २८६ तक की दीका पृष्ठ ५२३ ३. नहीं, एट ५२८
४. वही, पृष्ठ ५३१ ५. वही, पृष्ठ ५२३
६. वही, माथा १७२ की टीना ७. वही, गाथा २६६
८. वही, गाथा ५ ९. वही, परिशिष्ट १ स्याहादाधिकार-पृष्ठ ५८६ १०. वहीं, परिशिष्ट १ पृष्ठ ५५६ ११. वही, गाथा ३०४-३०५ की टीका १२. वही, गाथा १३ टीका १३. वही, गाथा १६४ १४. विभिन्न उपसर्गों में मुख्य है-"वि, अन्, सं, प्रति, प्रा. अव्, अ, उप, परि,
प्र, मन् अधि, उप, अन्तः, निः, सु. दुः, अभि, स, सह १५. ये बत्तीस प्रत्यय इग प्रकार हैं-हि, ततः, खलु, अपि, इव, सद्यः, अलं,
स्वस्ति, इति, किल, च, तत्र, एव, त, पुनः अन्यथा, तथा, पुनः पुनः, अध, मनाक्-मनाक् अनवरतं, मुह मुहु, नितरां, कदाचित् किचित्, बहुधा, सुष्य नितांत, सुचिरं, प्रत्र, यथा, केवल । (पंचास्तिकाव गाथा, १७२ की समयव्याख्या टीका)
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
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अन्य कृतियों में प्रयुक्त विपुल संख्या में धातुरूप अथवा क्रियापद भी उनके संस्कृत भाषा के अधिकार को प्रकट करते हैं । विपुलकाय वाक्यावलि, दीर्धसामासिक पदावलि, अप्रयुक्त तत्सम तथा तद्भव शब्दावलि, अनेक गद्यशैलियां तथा संस्कृत भाषा विषयक अनेक विशेषताएं उनके सफलतम तथा उच्चकोटि के भाषाविद रूप व्यक्तित्व के प्रबल प्रमाण हैं। उनकी कृतियों में अप्रयुक्त क्लिष्ट शब्दों की संख्या भी बहुत है। उन अप्रयुक्त शब्दों का अर्थ सर्वसाधारण को सरलता से ग्राह्य नहीं होता है। उनका अर्थ जानने हेतु शब्दकोष का सहारा लेना पड़ता है ।
उनवी सभी कृतियों में संस्कृत भाषा का प्रौढ़तम रूप विद्यमान है शिष्टयो समाप: शिमों को पद पद पर देखा जा सकता है। संस्कृत के विख्यात प्रौढ़ पूर्ववर्ती गद्यकारों के गद्य से भी अधिक प्रौढ़ तथा परिमाजित गद्य तथा अध्यात्मरसभरित, सुन्दर, सालंकार एवं लयात्मक गद्य उनके श्रेष्ठ भाषाविज्ञ होने के प्रबल प्रमाण हैं।
प्राचार्य अमृतचन्द्र सिद्धान्तज्ञ के रूप में
आचार्य अमृतचन्द्र उच्चकोटि के सिद्धान्तज्ञ थे। जिस प्रकार ताथकर महावीर के बाद अनेक सिद्धांतपारगामी आचार्य हा; परन्तु उनमें आचार्य कुन्दकुन्द का नाम सर्वाधिक विध त एवं प्रामाणिक माना जाता रहा है, उसी प्रकार जैन सिद्धांतसुत्रों के तलस्पर्शी वेत्ता अनेक टोकाकार आचार्य हुए, परन्तु आचार्य अमृतचन्द्र का नाम सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं प्रामाणिक टीकाकार के रूप में माना जाता है। इसका प्रमुख कारण है उनकी सिद्धान्तज्ञता। आचार्य कुन्दकुन्द के सूत्र तीर्थंकरों की वाणी का सार है, उस सार को हृदयंगम करके सफलतापूर्वक उसका मर्म प्रकट करने का श्रेय विशेष रूप से टीकाकार अमृतचन्द्र आचार्य को है । उनके सिद्धांतज्ञ होने के कुछ आधार इस प्रकार हैं
१. अमृतचन्द्र कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत ग्रन्थों के टीकाकार हैं। कुन्दकुन्दाचार्य को द्वितीय श्र तस्कंध सिद्धांत परम्परा का ज्ञान प्राप्त था। वह सिद्धांत परम्परा मुख्यतः अध्यात्मपरक तथा शुद्धद्रव्याथिक नय की कधन शैली से सम्बद्ध है। इसी सिद्धांतपरम्परा के टीकाकार प्राचार्य प्रभृतचन्द्र हैं, अतः स्पष्ट है कि वे अध्यात्मपरक सिद्धांतों के तलस्पर्शी, गम्भीर अध्येता तथा व्याख्याता थे।
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। आचार्य अमृत चन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
२. प्रथम अतस्कंध सिद्धांत परम्परा षट्खण्डागम, गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणासार आदि ग्रन्धों में निबद्ध है। कुन्दाकुन्दाचार्य के शिष्य झाचार्य उमास्वामी ने उक्त सिद्धांत परम्परा का सार मूलरूपेण निबद्ध करके 'तत्त्वार्थसूत्र' नामक महा नसूत्रग्रन्थ की संस्कृत में रचना की। आचार्य अमृतचन्द्र ने उक्त तत्वार्थसूत्र के आधार पर "तत्त्वार्थसार'' नामक ग्रन्थ का प्रणयन किया, जिसमें तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रों का पद्यरूप में सरलीकरण तथा विशदीकरण किया, इससे अमृतचन्द्र की जनदार्शनिक सिद्धांतों की विज्ञता भी प्रमाणित होती है।
३. वे जैन आचारपरंपरा विषयक परणानुयोग के सिद्धांतों के भी मर्मज्ञ थे। उनकी मौलिक रचना पुरुषार्थसिद्धयुपाय इसका ज्वलंत प्रमाण है। इस ग्रन्थ में वर्णित अहिंसा सिद्धांत का विशद् विवेचन विद्वानों को भी विस्मयकारी हैं। ऐसी अनूठी सिद्धांतविवेचना अन्यत्र दुर्लभ है ।
४. नवीन उपलब्ध "लघुतत्त्वस्फोट" नामक भक्तिकाव्य विषयक बेजोड़ कृति तो जैन सिद्धांतों का खजाना ही है, साथ ही आचार्य अभूनचन्द्र की सिद्धांतज्ञता का चिरस्थायी स्मारक है। इस ग्रन्थ में जिनेन्द्रदेव' की स्तुति के बहाने प्राचार्य समंतभद्रस्वामी के युक्त्यनुशासन, देवागमस्तोत्र, स्तुतिविद्या, तथा स्वयंभूस्तोत्र ग्रन्थों की तरह दार्शनिक सिद्धांतों की गुत्थियों को एक थेष्ठतम काव्यकलाकार की हैसियत से सुलझाया तथा स्पष्टीकरण किया गया है। उनके पंचास्तिकाय तथा प्रवचनसार की टीकाओं में उनके सिद्धांतज्ञान का चरमोलर्ष देखने योग्य है।
५, अपनी टीकानों में विभिन्न सिद्धांतों के स्पष्टीकरण के साथ हो पूर्वाचार्योक्त गाथाओं के "उक्तञ्च" के रूप में उद्धरण प्रस्तुत कर उनकी सम्पुष्टि की है। उदाहरणार्थ "कर्मग्रन्थप्रतिपादितजीव गुण मार्गणास्थानादिप्रपंचित विचित्रविकल्परूपैः लिखकर गोम्मटसार आदि कर्म सिद्धांत विषयक ग्रन्थों का उल्लेख किया है।
१. देखिये - पंचास्तिकाम गाथा १४६, १७२ की टोकाएं। प्रवचनसार गाथा
५२, १६६ लथा २७५ की टीकाएं। समयसार गाथा १२, ३०५ की
टीकाएं। २. पंचास्तिकाय गाया १२३ की टीका ।
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६. जनदर्शन में बहुचित गूढार्थवाची अनेक सिद्धांतों का विशदरूपेण स्पष्टीकरण प्रस्तुत किया है। उनमें स्याद्वाद, अनेकांत, कर्ताकर्म, निमित्तनैमित्तिक, कमबद्धपर्याय, षट्कारका, नय, प्रमाण, निक्षेप, पुण्यपाप बन्धमोक्ष, निश्चयाभास, व्यवहारभास, शुभ-अशुभ तथा शुद्ध उपयोग, द्रव्य-गुण-पर्याय, अहिंसा, सत्य, यचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, महास्कंध, महासत्ता, अवांतरसत्ता, यतसिद्ध-अयतसिद्ध, सामान्यगुण, विशेषगुण, अस्तिकाय इत्यादि प्रमुख सिद्धांत हैं, जिनका स्पष्टोल्लेख आगे यथा समान किया गया है :
७. आचार्य अमृतचन्द्र जैनसिद्धांतों के पारंगत, अधिकारी, मर्मज्ञविशेषज्ञ तो थे ही, साथ ही थे अन्यदर्शनों में सांख्य, वैशेषिक, नैयायिक, बौद्ध, नास्तिक, मीमांसक, अतब्रह्म तथा श्वेताम्बर आदि दर्शनों के ज्ञाता थे, इसीलिए उन्होंने अपनी कृतियों में इन मतों का उल्लेख तथा निराकरण किया है।'
८. वे सूत्रतात्पर्य तथा शास्त्रतात्पर्य को भी स्पष्ट करते जाते हैं। सूत्रतात्पर्य प्रत्येक सत्र की उत्थानिका के रूप में प्रारम्भ में तथा गाथा टीका के अन्त में देते हैं, तथा शास्त्रतात्पर्य वीतरागता को बताते हैं। गाथा की टीका के अन्त में 'यहां यह ताहार्य है" "इदमन तात्पर्य' लिखकर सिद्धांतस्पष्टीकरण किया गया है। सिद्धांत स्पष्टीकरण करते समय वे बड़ी विलक्षण बद्धि एवं तर्क का प्रयोग करते हैं तथा बालबुद्धिजनों को भी सिद्धांत समझ में आ सके, उसके लिए वे दृष्टांत का सहारा
१. सांख्यमन- देखिये समयगार गाथा, ३३२ से ३४० तक की यात्मख्याति टीका
बालश नं. २०५ से २०७ तक, समयसार गाथा २ की टीका । वैशेषिकमत(प्रवचनसार गाथा, १८. समयसार गाथा २ की टीका । नंयायिकमत-समयसार गाथा, २ की टीका । बौद्धमत-पंचास्तिकाय गाथा, ३८ प्रवचनसार गाथा १४४ । समयसार कलण २०६, २०८ तथा समयसार गाथा २ बी टीका । नास्तिकमत - समयसार गाथा २ की टीका । प्रद्धं तब्रह्ममत - समयसार गाथा २ टीका, स्यावाद अधिकार (समवसार) परिशिष्ट पृष्ठ ५७१ । श्वेताम्बरमतपंचास्तिकाय गाथा १०५ तथा तत्वार्थसार अध्याय ५, पद्य क्रा, ६ । दिगम्बर
जन श्रमणामासों का खण्डन-३३२ से ३४४ गाथा को टीका (समयसार)। २. पंचास्तिकाय गाथा १७२ की टीका ३. प्रवचनसार गाथा १५१ की टीका
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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व लेते हैं। दुष्टांत के सहारे दुर्गम शिवाज भी सुगम दो लाते हैं, इसका उल्लेख एक स्थल पर अमृतं चन्द्र ने स्वयं किया है । यथा
"अथैवममूर्तस्याप्यात्मनो बन्धो भवतीति सिद्धांलयति - येन प्रकारेण रूपादिरहिनो कपीणि द्रव्याणि तद्गुणांश्च पश्यति जानाति च, तेनैव प्रकारेण रूपादि रहितो रुतिभिः कर्मपुद्गलः किल बध्यते, अन्यथा कथ ममूर्तो मूर्त पश्यति जानाति चेत्यत्रापि पर्यु नयोगस्पानिवार्यत्वात् । न चैतदत्यलदुर्घटस्वाहाष्टान्तिवीकृतं, किन्तु दृष्टांत द्वारेमाबालगोपालप्रकटितम् । तथाहि यथा बाल स्य गोपालकस्य वा पृथगवस्थितं मुबलीवर्द बलोवर्दै वा पश्यतो जानतश्च न बलोवर्देन सहास्ति सम्बन्धः, विषय भावावस्थित बनीवर्दनिमित्तोपयोगाघिरूबबलीबर्दाकारदर्शन ज्ञानसम्बन्धो बलीवर्दसंबंधव्यवहारसाधकस्त्वस्टोव, तथा किलात्मनांनीरूपत्वेत स्पर्शशून्यत्वान्न कर्मपुद्गलः सहारित संबंधः, एकादगाहभाबावस्थित कर्मपुद्गलनिमित्तोपयोगाधिरूढ़ रागद्वेषादि भाव सम्बन्धः कर्म पुद्गलबंधव्यवहार साधकस्त्वस्त्येव ।"
उार्यक्त टीका में अमृतचन्द्र की सिद्धानशता स्पष्ट रूप से प्रकट होती है।
6. एव श्रेष्ठ सिद्धांतवेत्ता ही ऐसा विलक्षण तथा गंभीर कथन कर सकता है कि अर्हतादिकी भक्ति रूप शुभ राग - प्रशस्तराग भी साक्षात्
१. प्रवचनसार नाथा १७४ की टीका-अर्थ-जिस प्रकार से ख्यादि रहित (जीव)
रूपो द्रव्यों का, उनके गुणों को देखता व जानता है, उसी प्रकार रूपादि रहित (जीव) रूपी पुद्गल क्रमों के साथ पंश्ता है क्योंकि यदि ऐसा न हो तो यह प्रश्न अनिवार्य होगा कि अमूल मूर्त को कैसे देखता है तथा जानता है ? और यह (रूपी-अरूपी के बंघ की बात) अत्यन्त दुर्घट भी नहीं है इसलिये उसे सिद्धांतरूप बनाया है, परंतु आबालगोपाल सभी को ज्ञात हो जाय इसलिये अष्टांत द्वारा समझाया गया है । जिस प्रकार बालगोपाल के पृथक् रहने वाले मिट्टी के बल को प्रथया सच्चे बैल को देखने जानने पर बल के साथ संबंध नहीं है तथापि विषयरूप से अवस्थित बैल के निमित्त से उपयोगाधिरूढ़ बल याकार के दर्शन ज्ञान के सम्बन्ध से बल के ग़ाथ सम्बन्ध वाले व्यवहार का सापक अभश्य है, इसी प्रकार प्रात्मा अरूपीपने के कारण स्पर्श शून्य होने से उसका कर्भपुद्गलों के साथ सम्बन्ध नहीं है, तथापि एक क्षेत्रावगाही कर्मपुद्गल के निमित्त से उपयोगारून रागादि भावों के साथ सम्बन्ध, कर्मपुद्गलों के साथ के वंधरूप व्यवहार का साधक अवश्य है।
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[ १५५ मोक्ष का बाधक - अन्तराय है । उसका कारण प्रस्तुत करते हुए वे लिखते हैं - "अहंदादिभक्तिमात्ररागज नित साक्षान्मोक्षस्यान्तरायद्योतनमेतत् । यः खल्वहंदादिभक्ति विधेयबद्धिः सन् परमसंयमप्रधानमतितोब तास्तप्यते, स ताबन्मावरागक्रलिकलडित स्वान्तः साक्षान्मोक्षस्यान्तरात्रीभूतं विषयविषद्र मामोदमोहितान्तरङग स्वर्गलोके समासाद्य, सुचिरं रागांगार पच्चमानोऽन्तस्ताम्यतीति ।" इस व्याख्या के पूर्व सिद्धांतवेत्ता अमृतचन्द्र यह बात भो समष्ट करते हैं कि अहतादि की भक्ति परसमय रूप प्रवृत्ति होने से साक्षात् मोक्ष के हेतुपने से रहित है, परन्तु उसमें परम्परा से मोक्ष का हेपना भी दर्शाया गया है। यहाँ परम्परा से राग को मोक्ष का कारण सुनकर राग को उपादेय नहीं मानना चाहिए, बल्किा हेय ही मानना चाहिये। जो रस अहतादि की भकि रूप प्रशस्तराग के एक नाण को भी उपादेय मानता है अथवा जिसके हृदय में रागकण जीवित है, वह भले हो समस्त सिद्धांत का पारंगत हो तथापि गगरहित (अगगी) निज शुद्धस्वरूप स्वसमय (मुद्धात्मा) को वास्तव में नहीं जानता। इसलिए "धनकी से निपकी हुई रुई' के न्याय के अनुसार, जीव को स्वसमय की प्रसिद्धि हेतु अर्हतादि की भक्ति विषयक भी रागरेण क्रमशः दूर करने योग्य है :४ वह रागरेणु अनर्थपरम्परा का कारण है।' एक स्थल पर तो वे यहां तक लिखते हैं कि इस जगत में रत्नत्रयरूप धर्म निर्वाण का ही कारण होता है, अन्य गति का नहीं । रत्नत्रय के साथ जो पुण्य का आलब होता है, वह शुभोपयोग का अपराध है।' भक्तिरूप प्रशस्त राग - शुभराग - पुण्यभाव के विषय में इतना खुलासा कथन करना एक महान् सिद्धांतरेत्ता आचार्य अमृतचन्द्र जसा का काम है ।
१. पंचास्तिकाय माथा. १७१ २. पंचास्तिनाय गाथा १७० (... साक्षामोक्षहेतृत्वाभावेऽपि परम्परा मोक्षहेतु
खगद्गायद्योतनमेतत् ।।") ३. वही गाथा १६६ (ततः रात्र संगकारण काऽपि परिहग्गीया परसमयप्रवृत्ति
निबन्धनत्वदिति"I) ४. यही गाथा १६७ (यस्य खलु रागरेगु कणिकाऽपि जीवति प्रमेण गगरेणु
रपनरणीया ।") ५. वहीं गाथा १६८ (रागलवमुलदोषपरंपराख्यानमेतत्""ततोरागकलिबिला
समूल एवायमनर्थसंतान इति"} ६. पुरुषार्थसिद्धयुपाय गाथा २२०- रत्सत्रयमिह हेतुनिर्वाणस्येव भवति नान्यस्य ।
यात्रवति यत्तु पुण्यं गुभोपयोगोऽयमपराधः ।।
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। आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
१०. उन्होंने अपनी टोकामों में अनेक सैद्धांतिक युगलों का उल्लेख एवं स्पष्टीकरण किया है। उनमें कुछ युगलों के नाम इस प्रकार है -
ज्ञेय-ज्ञायक, बोध्य-बोधक, दाह्य-दहन, धर्म-धर्मी, वाच्य-वाचक, ज्ञान-जानी, ग्राह्य-ग्राहक, विद्यार्य-बिकारवा, आस्राव्य-यास्रवक, संवार्यसंवारक, निर्जर्य-निज रक, बंध्य-बंधक, मोच्च-मोचक, साध्य-सावक, बध्य-घातक, प्रमेय-प्रमाण, कर्ता-कर्म, पुण्य-पाप, भोक्ता-भोग्य, भाव्यभावक, परिणाम-परिणामी, स्व-स्वामी संबंध, व्याय-व्यापक, प्रतिपाद्यप्रतिपादक, निषेध्य-निषेधक, प्राचार-प्राधेय, प्रकरण-प्राकरणिक, चेत्यचेतक, उत्पाद्य-उत्पादक, कार्य-कारण, उपाय-उपेय, दर्शन-दष्टा, ज्ञानज्ञाता, चेतना-चेतयिता, श्वत्यः-श्वेतयित्री, बेद्य-बैदक, साध्य-सिद्धि' विषय-विषयी, विशेषण-विशेष्य, अभिघेय-अभिघान, लक्ष्य-लक्षण, दंडबण्डी, सिद्धि-सिद्धिमत्, निष्पन्न-निष्पत्तिमत्, विधीमान-विधायिका, कार्यकारण, लिंग-लिंगी, वृत्ति-वृत्तिमान, ज्ञान-ज्ञेय, परिणम्य-परिणामक, उत्सर्ग-अपवाद, सामान्य-विशेष, दृष्टांत-दाष्टांत, अंग-अंगी, शेयतत्वजातृतत्व, बधक-मोचक, मेच क-अमेचक, एक-अनेक, तत्-असत्, अस्तिनास्ति, धन-धनी, लक्ष्य-लक्षण, शरीर-शरीरी, गुण-गुणी, त्याज्योपादान, हेय-उपादेय इत्यादि । इस प्रकार इतने सैद्धांतिक युगलों का प्रयोग एवं स्पष्टीकरण सामान्य सिद्धांतवेता नहीं अपितु विशेष सिद्धांतज्ञ ही कर सकता है।
अन्यत्र प्रतिक्रमण, आलोचना तथा प्रत्यास्थान कल्पों का विवेचन ४६-४६ भंगों द्वारा किया गया है। कुत, कारित तथा अनुमोदना के ७ भंग बनाये तथा मन, वचन और काय के ७ भंग' बनाये तथा उन
१. समयसार गाथा क्रमांक ६, ७, ८, १०, ३१. १०, ७४, २३, ८५ २०७, ७५,
२७५, १६३, १९७, २६४, ३११, ४१५, (परिशिष्ट) २. प्रवचनमार गाथा ४०, ८५, ८६, १५, १०६, १२२, १४२, १२६. १६५,
१७४, १६१, १६६, २००, २१५, २३३, २४२, २७५, बी टोकाएं। ३. ममबसार गाथा ४२५ के बाद का परिशिष्ट तथा कलश क्रमांक २४८
से २५५ तक। ४. पंचास्तिकाप गाथा ६, ४७, १२७, १४५, १६१ इत्यादि की टीकाएं। ५. समयसार गाथ ३८७ से ३८९ की टीकाः-७ मंग इस प्रकार बनते हैं (१)
कृत (२) कारित (३) अनुमोदना (४) कृत-कारित (५) कृत अनुमोदना (६) कारित मनुमोदना (७) कृतकारित अनुमोदना । इसी तरह (१) मन (२) बचन (३) काय (४) मन वचन (५) मन काय (६) वचन काय (७) मन वचन काम।
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दोनों को परस्पर में बदल बदल कर प्रयोग करने से ७४७ = ४६ भंग तैयार होते हैं। यह भंगनिर्माण विधि भो काफी श्रम तथा विशेषबुद्धिगम्य है। इन सभी उल्लेखों तथा प्रमाणों के आधार पर प्राचार्य अमृतचन्द्र निःसंदेह रूप से उत्कृष्ट सिद्धांता प्रमाणित होते हैं। एक स्थल पर उनका नाम "सिद्धांत विशारद" पद से विभूषित किया गया है।
आचार्य अमृतचन्द्र जिस प्रकार प्रौढ़तम एवं गभीरतम आध्यात्मिक सिद्धांतों के ज्ञाता तथा रसिक थे, उसो प्रकार दार्शनिक सिद्धांतों के भी वे उत्कृष्ट अधिकारी विद्वान थ। इसका प्रबल प्रमाण यही है कि उन्होंने आध्यात्मिक सिद्धान्तों का रहस्य समयसार की टीका द्वारा उद्घाटित किया है तथा दार्शनिक सिद्धान्तों का मर्म प्रवचनसार, पंचास्तिकाय की टीकाओं तथा तत्वार्थसार नामक कृति द्वारा अभिव्यक्त किया है। उन्होंने सिद्धान्तों को मात्र वाणी का विलास नहीं बनाया, अपितु उन्हें अपने जीवन में उतारा था, इसीलिए एक स्थल पर मोक्षमार्ग का दिग्दर्शन कराते हुये लिखा है कि उस नोभा के प्रणेशा हम खई है : पं द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग के सामंजस्य के प्रबल समर्थक रहे हैं। इसका प्रमाण निम्न पद्य है -
(बसंततिलका छन्द) द्रव्यानसारि चरणं चरणानसारि द्रव्यं मिथो द्वयमिदं नन सव्यपेक्षम् । तस्मान्मुमुक्षुरधिरोहतु मोक्षमार्ग, द्रव्यं प्रतीत्य यदि वा चरणं प्रतीत्य ।।
१. इन दोनों के परस्पर भिन्न भिन्न संयोग वियोग द्वारा ४६ भंग तयार होते
हैं । (वही गाथा ३६) २. देखिये :-- कन्नड़ प्रांतीय ताड़पत्रीय ग्रन्थ सूची - प्रस्तावना, पृष्ठ १५ ३. प्रवचनसार गाथा २०१ की टीका :-- इति अर्हत सिद्धाबायोपाध्यायसाधना प्रतिवन्दनात्मक नमस्कार पुरस्सरं विशुद्धदर्शनज्ञान प्रधानं साम्यनाम नामण्यमत्रान्तरग्रन्थसंदर्भोभय संभावित सोस्थित्यं स्वयं प्रतिपन्न परेषामास्मापि यदि दुःनमोक्षार्थी तथा तत्प्रतिपद्यतां यथानुभूतस्य तत्प्रतिपत्तिवर्मनः प्रणेतारो वयमिमे तिष्याम इति ॥" अर्थात् इस प्रकार प्रहन्तों, सिजों, प्राचार्यों, उपाध्यायों तथा साधुओं को प्रणाम वंदनात्मक नमस्कारपूर्वक विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधान साम्गनामक श्रामण्य को जिसका इस ग्रन्थ के (ज्ञानतत्त्व तथा ज्ञ यतस्व रूप) दो मंदों द्वारा अवस्थापन हुअा है, उसे स्वयं अंगीकार किया, उसी प्रकार दूसरों का भात्मा भी, यदि दुःखों से मुक्त होने का इच्छुक है तो उसे अंगीकार करे। उस धामण्य को अंगीकार करने का जो यथानुभूत मार्ग है उसके प्रणेता हम यह खड़े हैं।
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Saini
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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तितव एवं कर्तृत्व
(इन्द्रयच्चा छंद द्रव्यस्य सिद्धौ चरणस्य सिद्धिः । द्रन्यस्य सिद्धिश्चरणस्य सिद्धौ ॥ बुद्धति कर्माविरता: परेऽपि,
द्रव्याविरुद्धं चरणं चरंतु ।।' इसके अतिरिक्त मुग्याने श्रावकों के तथा गौणपने मुनियों के आधार का निरूपक 'पुरुषार्थसिद्धयपान' नामक श्रेष्ठ ग्रन्थ भी इसका सबल प्रमाण है कि आचार्य अमृतचन्द्र एक गम्भीर सिद्धान्तज्ञ थे।
प्राचार्य अमृतचन्द्र ग्याकरणज्ञ के रूप में संस्कृत साहित्य की विभिन्न विधाओं में व्याकरण का स्थान सर्वोपरि है । अन्य विधाओं के विद्वान मूलभ हैं, परन्तु व्याकरण में दक्ष विद्वान् इने-गिने ही होते हैं, कारण कि व्याकरण एक अत्यंत क्लिष्ट तथा शुष्क विषय माना गया है। उसमें पारङ्गतता सभी को नहीं होती। व्याकरण की दक्षना बिना कोई भी विद्वान् किसी भी भाषा का अधिकारी विद्वान नहीं हो सकता। आचार्य अमृतचन्द्र का व्यक्तित्व अपने अनेक पक्षों में एक पक्ष व्याकरण विशेषज्ञ का भी समाहित किये हैं। उनकी व्याकरणज्ञता के कुछ आधारों का उल्लेख किया जाता है।
१. आचार्य अमृतचन्द्र अपनी टीकानों में कभी-कभी एक-एक पद की व्याख्या समारा विग्रह शैली द्वारा करते हैं। वे अनेक प्रकार के समासविग्रह करके पद-शब्द में निहित भाव को प्रकट करते हैं। उदाहरण के लिए एक स्थल पर "अणुमहान्' पद की व्याख्या करते हुये लिखने हैं-- "अणवोऽत्र प्रदेशा मूर्ताऽमूश्चि निविभागांशास्तैः महान्तो ऽणुमहान्तः ।" अर्थात यहां अणु का प्रदेश मूर्त और अमूर्त निविभाग (छोटे-छोटे) अंश हैं, उनके द्वारा महान् होने से अणुमहान है अर्थात् प्रदेशप्रचयात्मक होने से अणुमहान है, इस प्रकार उन पांचों (जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म तथा आकाश) द्रव्यों के कायपना (बहुप्रदेशीपना) सिद्ध हुआ।' बे इसी पद की व्याख्या पुनः करते हुये लिखते हैं-"अणुभ्यां महान्त इति व्युत्पत्या द्वयणु कपुद्गलस्कंधानामपि तथाविधत्वम् ।" अर्थात् दो अणुओं (प्रदेशों) द्वारा जो महान् है वह अणुमहान है। इस प्रकार व्युत्पत्ति द्वारा द्वयणुक १. प्रवचनसार गाथा २०० की टीका, पद्य नं १२ तथा १३ २. पंचास्तिकाय गाथा ४ की टीका
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पुद्गलस्कंधों को भो (अणु महानपना होने से) कायपना सिद्ध है।' अमृतचन्द्र एक कुशल व्याकरणज्ञ होने से वे प्रथम व्युत्पत्ति में उत्पन्न शंका को दूर करने के लिये वितीय व्युत्पति प्रस्तुन करते हैं 1 शंका यह है कि अणुमहान् की युत्ति में प्रदेशों (अणुप्रों) के लिए बहुवचन का उपयोग किया है, जबकि संस्कृत व्याकरण के नियमानुसार द्विवचन का समावेश बहुवचन में नहीं होता, इसलिये पुनः व्यत्पत्ति में परिवर्तन करके द्वि-अणुक स्कंधों को भी कायत्व सिद्ध किया। आगे फिर से परमाणुओं के कायपने की सिद्धि करने हेतु तृतीय व्युत्पत्ति प्रस्तुत करते हुए व लिखते हैं-"प्रणवश्च महान्तश्च व्यक्तिशक्ति रूपाभ्यामिति परमाणनामेनाप्रदेशात्मकत्वेऽपि तसिद्भिः ।"२ अर्थात पक्ति और शक्ति रूप से अणु तथा महान् होने से (अथवा परमाणु व्यक्ति रूप से एक प्रदेशी तथा शक्ति रूप से अनेक प्रदेशी होने के कारण } परमाणुओं को भी, उनके एकप्रदेशीपना होने पर भी प्रणुमहान पना - कायपना सिद्ध होता है।
२. एक कुशल वैयाकरण की व्याख्या व्युत्पत्ति अथवा निरूक्ति परक हुआ करता है । पूर्व में उनको व्युत्पत्तिपरक शैली की चर्चा का उल्लेख किया जा चुका है । यहाँ फिर भी उनको उक्त व्याख्यापद्धति का एक सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया जा रहा है । द्रन्त्र पद की व्याख्या कारते हुये वे लिखते हैं-"द्रवति गच्छति सामान्यरूपेण स्वरूपेण व्याप्नोति, तांस्तान् क्रम शुवः सहभुवश्च सद्भाव पर्यायान् स्वभावविशेषानित्यानुगतार्थया निरुक्त्या द्रव्यं व्याख्यातम् ।' अर्थात् जी द्रवित होता है प्राप्त होता है, सामान्यरूप स्वरूप से जो व्याप्त होता है, वह द्रव्य है।" इस प्रकार ("द्र" धातु का अनुसरण करने वालो) अनुगत अर्थ बाली निरुक्ति से द्रव्य की व्याख्या की गई है। इसी प्रकार द्रव्य-गुण तथा पर्याय में एक ही अर्थवाचीपना पाया जाता है, इसके स्पष्टीकरण हेतु वे बड़ी कुशलता के साथ "ऋ" धातु से "अर्थ" पद की निष्पत्ति दिखाते हुए लिखते हैं-'तत्र गुणपर्यायानिर्यति गुणपर्यायरय॑न्त इति वा अर्था द्रव्याणि, द्रव्याण्याश्रयत्वेनेति द्रव्य राश्रयभूतरर्यन्त इति वा अर्थी गुणाः, द्रव्याणि
१. वही, गाथा ४ की टीका २. वहीं, माथा ४ कही टीका ३. पंचास्तिवाय गाथा ह की टीका
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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
परिणामेनेति द्रव्यैः क्रमपरिणामेनार्यन्त इति वा अर्थाः पर्यायाः ।" उपरोक्त अंग में "ऋ" धातु से विभिन्न प्रत्यय परिवर्तित करके "अर्थ", यति अर्यन्तः इति तथा अर्थमाणं शब्दों की निष्पति की गई है जो एक कुशल वैयाकरण के द्वारा ही सम्भव है ।
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२. अमृतचन्द्र के वाङमय में अधिकांश प्रत्ययों के प्रयोग से निष्पन्न शब्द उपलब्ध हैं । उनमें कुछ प्रत्ययों के नाम हैं- क्त्वा, उतमच् शतृ, शानच्, "मत्, यत्, तुमुन्, ईयसुन्, अण् इत तथा अन्य अनेक तद्धित-कृदन्त प्रत्यय इत्यादि । उनके द्वारा व्याकरण से सम्बन्धित सभी प्रकार के नियमों, प्रयोगों तथा सूक्ष्मताओं का भलीभांति निर्वहन किया गया है ।
प्रचलित शब्दावलि, विभिन्न उपसर्गों से निर्मित विभिन्नार्थक पद, सभी प्रकार की संधि, समास, बारूद संज्ञा, विशेषण आदि संज्ञाओं का क्रियारूप में प्रयोग जैसे - आत्मीकुर्वन् ज्ञेयोकुर्वन्, ज्ञानीकुर्वन् सूत्रयति सूत्रयिष्यते, आसूत्रयते, आसूत्रयति कक्षीक्रियते, द्रवीकुर्युः, हेमीक्रियेरन् पर्यायेकुर्युः, पर्याय मात्री कियेत् इत्यादि प्रयोगों से उनकी व्याकरणशता भलीभांति विदित होती है ।
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४. वे षट्कारकों के प्रयोग द्वारा क्लिष्टतम सिद्धांत को भी बड़ी चातुरी के साथ समझा देते हैं । यथा एक स्थल पर द्रव्य तथा गुणों में अन्यपने का व्यपदेश (कथन) होने पर भी वे सर्वथा एकांतरूप से अन्य नही होते, अपितु उनमें अनन्यपना भी घटित होता है, इसका स्पष्टीकरण करते वे लिखते हैंहुए
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"व्यपदेशादीनामेकांतेन द्रव्यगुणान्यत्व निबंधनत्वमत्र प्रत्याख्या - तम् । यथा देवदत्तस्य गौरित्यत्त्वे षष्ठीव्यपदेश:, तथा वृक्षस्यशाखा,
१. प्रचलनसार गाथा ८७ की टीका - अर्थ उनमें जो गुणों को और पर्यायों को प्राप्त करते हैं-पहुँचते हैं प्रथवा जो गुणों और पर्यायों के द्वारा प्राप्त किये जाते है -हुँचे जाते हैं ऐसे अर्थ वे द्रव्य हैं, जो द्रव्यों को ग्राश्रय रूप में प्राप्त करते हैं-पहुँचते हैं अथवा जो प्राश्रयभूत द्रव्यों के द्वारा प्राप्त किये जाते हैंपहुँच जाते हैं ऐरो अर्थ के गुण हैं तथा जो दथ्यों को क्रमपरिणाम से प्राप्त करते हैं-पहुंचे हैं प्रथवा जो द्रव्यों के द्वारा क्रमपरिणाम को प्राप्त किये जाते हूं, पहुँचे जाते हैं ऐसे अर्थ व पर्याय हैं ।
३. वही, गाया १३७ की टीका
२. प्रवचनसार गाथा २०० को टोका ४. प्रवचनसार गाथा १११ की टीका
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ।
द्रव्यस्य गुणा इत्यनन्यत्वेऽपि । यथा देवदत्तः फलमड कुशन धनदताय वृक्षावाटिकायामवचिनीतीत्यन्यत्वे कारकः व्यपदेशः, तथा मृत्तिकापटभावं स्वयं स्वेन स्वरमं स्वस्मात् स्वस्मिन् करोतीत्यात्मात्मानमात्मनात्मने आत्मन प्रामिनि जानास्यास्यमिदा प्रशवरत्तस्य प्रांशुमौं रित्यत्यत्वे संस्थानं, तथा प्रांशोवृक्षस्य प्रांशुः शाखाभरो मुर्त द्रव्यस्यमूर्ता गुणा इत्यन्यत्वेऽपि यथैकस्य देवदत्तस्य दशगाव इत्यन्यत्वे संख्या, तथै कस्य वृक्षस्य दशशाखा:, एकस्य द्रव्यस्यानन्ता गुणा इत्यन्यत्वेऽपि । यथा गोष्ठं गाव इत्यन्यत्वे विषयः, तथा वृक्षे शाखा: द्रव्ये गणाः इत्यन्यत्वेऽपि । ततो न व्यपदेशादयो द्रव्यगुणानां वस्तुत्वेन भेदं साघवंतीति"१ षट्कारकों के ऐसे प्रयोग गद्य में ही नहीं, पद्य में भी वे करते हैं और उसके द्वारा अपने सिद्धांत को स्पष्ट कर देते हैं। उदाहरण के लिए तत्त्वार्थसार(उपसंहार) के निम्न श्लोकों में गुणगुणी के भेद को गौण करके अभेदविवक्षा से आत्मr को दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप निरूपित करते हुये लिखा है कि
पश्यति स्वस्वरूप यो जानाति च चरत्यपि । दर्शनज्ञान चारित्रत्रयमात्मैव सः स्मृतः ।। ।। १श्यति स्वरूपं यं जानाति च चरत्यपि । दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः || ६||
१. पंचास्तिकाय गाथा ४६ की टीका- अर्थ-व्यपदेश आदि मात्र से द्रव्य व गुणों के
अन्याने के प्रसंग का खण्डन किया है। जैसे "देवदत्त की माम" इरा प्रकार के अन्यपने में षष्ठी का ध्यप्रदेषा होता है, में से ही "वृक्ष की माला" मा 'द्रव्य के गुण" इस प्रकार के अनन्यपने में भी घष्ठी का व्यपदेश होता है। उसी तरह "मिट्टी स्वयं पटभाम' को अपने द्वारा, अपने लिये, अपने में से, अपने में करती है, तथा आत्मा, आत्मा को, यात्मा यारा, प्रात्मा के लिये, पारमा में से, प्रात्मा में जानना है" ऐसे अनन्यपने में भी कारक व्यपदेश होता है । जिस प्रकार "ऊवे देवदत्त की ऊंची गाय" ऐसा अन्यपने में संस्थान होता है, उसी प्रकार विशालनक्ष का विशाल शाखासमुदाय, मुलं द्रव्य के मूर्तगुण, ऐसे मनन्यपने में भी संस्थान होता है । जिस प्रकार "एक देवदत्त की दस गायें" ऐसे अन्यपने में भी संख्या होती है, जिस प्रकार बाड़े में गायें" ऐसे अन्यपने में विषय (अाधार) होता है, उसी प्रकार “वृक्ष में शाखायें" द्रव्म में गुण ऐसे अन्वपने में भी विषा (प्राधार) होता है, इसलिए व्यपदेशादि मात्र से द्रव्य तथा गुणों में भेद सिद्ध नहीं होता ।
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[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्त त्व दश्यते येन रूपेण ज्ञायते चर्यतेऽपि च । दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ।।१०। यस्मै पश्यति जानाति स्वरूपाय चरत्यपि । दर्शनज्ञान चारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ।।११।। यस्मात्पश्यति जानाति स्वं स्वरूपाच्चरत्यपि । दर्शनलाननारियगारमेन तन्मयः !!१२।! यस्य पश्यति जानाति स्वरूपस्य चरस्यपि । दर्शन ज्ञान चारित्रयमात्मैव तन्मयः ॥१३॥ यस्मिन् पश्यति जानाति स्वस्वरूपे च रत्य पि ।
दर्शनज्ञानचारित्रश्यमात्मैव तन्मयः ।।१४।। इस प्रकार उपरोक्त ७ पदों में ''यद्" पुल्लिग सर्वनाम पद के एक वचन की सातों विभक्तियों के रूपों का प्रयोग किया गया है, साथ ही आत्मा को दर्शन-ज्ञान तथा चारित्र गुणरूप त्रयात्मक एवं अभेद सिद्ध किया गया है ।तत्पश्चात् पद्य क्रमांक १५ से लेकर २० तक में क्रमशः दर्शन ज्ञानचारित्ररूप क्रिया, गुण, पर्याय, प्रदेश, अरुलधुगुण तथा ध्रौव्यउत्पाद-व्यय इन पदों के परिवर्तन के साथ पूर्ववत् श्लोकों की पुनरावृत्तिः हो गई है। इस प्रकार उनकी व्याकरण सम्बन्धी कुशलता स्पष्ट प्रकट होती है।
प्राचार्य प्रमतचन्द्र अध्यात्मरसिक के रूप में
आचार्य अमृतचन्द्र के बहुमुखी व्यक्तित्व का सर्वाधिक श्रेष्ठ पहलू उनका "अध्यात्मर सिक' होना है । "अध्यात्म" का व्युत्पत्यर्थ है "प्रात्मा की सीमा में रहना" | आचार्य अमृतचन्द्र का सम्पूर्ण जीवन एवं टोका साहित्य प्रात्मानुभूति का दर्पण है । समयसार की प्रात्मख्याति टीका के मंगलाचरण में टीकाकार ने "स्वानुभूत्या चकासते" पद द्वारा अनुभूति द्वारा प्रकट होने वाले निजशुद्धात्मा को नमस्कार किया है। उनकी टीका रचना का उद्देश्य भी निजात्मानुभूति द्वारा परमविशुद्धता पाना है तथा उस विशुद्धता की प्राप्ति हेतु स्यात्पद मुद्रांकित जिनेन्द्र के वचनों में रमण करना जरूरी है। जिन वचनों में रमण करने से शीन
१. समयसार कलश, ३
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ध्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
[ १६३
ही उच्च ज्योतिस्वरूप शुद्धात्मा (समयसार) के दर्शन होते हैं। ऐसी आत्मज्योति का दर्शन टीकाकार पद-पद पर करते हैं। इस प्रात्मज्योति के अनुभव में एकमात्र (अत) आत्मा ही प्रकाशित होता है, अन्य समस्त विकल्प छूट जाते हैं। प्राचार्य प्रभृतचन्द्र ऐसी अनुभूति प्रकट करने की कल्याणकारी प्रेरणा सम्पूर्ण जगत् को देते हैं। वे लिखते हैं कि भगवान प्रात्मा की महिमा आत्मानभवगम्य है। तथा अनभव या अनभूति शुद्धनयरूप है, उसे ही ज्ञानानभूति कहते हैं। अतः अपनी प्रात्मा को अपनो प्रात्मा में अचल रूप से स्थिर कर देखने पर अपना आत्मा सर्व ओर से सदा एक ज्ञानघन ही अनुभव में आता है। ऐसी अनुभूति उन्हें निरन्तर होती रहती है, इसीलिए वे स्पष्ट घोषणा करते हैं कि उसे "सततं अनभवामः"हम हमेशा अनभव करते हैं।
आचायें अमृतचन्द्र अध्यात्मरस के रसिक तो थे ही, साथ ही समग्र जगत को भी इस अध्यात्म रस का रसास्वाद करने की प्रेरणा देते हए वे लिखते हैं - "यह सम्पूर्ण जगत् अब तो इस अनादिकालीन मोह को छोड़कर अध्यात्म रसिकों को रूचिकर भेदज्ञान का आस्वादन करें।" उनकी अध्यात्म रसिकता का ज्वलंत प्रमाण यही है कि वे चाहते हैं कि जगत् के प्राणी किसी प्रकार भी, यहाँ तक कि मरकर के भी गुद्धात्मामुभुति की प्राप्ति हेतु कौतुहली (जिज्ञासु) मात्र भो बन जावें, तो एक मुहूर्तमान में परद्रव्य-परभावों से पृथक् प्रकाशमान अपने आत्मा को देखकर उसका अनुभव कर सकते हैं और परद्रव्यों के साथ की एकत्वबुद्धि-मोहभाव को स्वयं ही शीघ्र छोड़ सकते हैं।' आत्मानुभूति के (आनन्द) को प्रकट करते हुए वे लिखते हैं - "मैं सर्वाङ्ग में आत्मरस से परिपूर्ण अपने एक स्वरूप को स्वयं संचेतन अनुभव करता हूँ। मोहजन्यभाव मेरे कोई नहीं है कोई नहीं है, मैं तो शुद्ध चैतन्यरस का महोदघि हूं। ५. इस प्रकार समस्त परद्रव्यों के भावों के साथ भिन्नत्व का ज्ञान हो जाने पर अपना यह उपयोग स्वयं अपने एक स्वरूप को ही १. समयसार कलश ४
२. वही, कलश ८ ३. वही, कला
४. वही, कलश, ११ ५. वही, कलश १२
६. वही, कलश १३ ७. अहो, कलश, २०
८. वही, कलश २२ ९. वहीं, कलश २३
१०, वही, कलश, ३०
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१६४ ]
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
धारण करता है। साथ ही परमार्थस्वरूप को प्रगटकर, सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप परिणति अपनी आत्मा की सीमा में प्रवृत्त होती है । इस आत्मा की सीमा में प्रवृत्त होना ही अध्यात्म का रस है, जिसके रसिक आचार्य अमृतचन्द्र हैं।
आचार्य अमृतचन्द्र ने अध्यात्म की गंगा प्रवाहित की है। उनकी आध्यात्मिक टीकाएं एवं मौलिक कृतियां परवर्ती लेखकों, विद्वानों तथा मुमुक्षुओं कों अध्यात्म की ओर आकृष्ट करने में सफल हुई हैं। यदि आचार्य कुन्दकुन्द के आध्यात्मिक वाङमय पर आचार्य अमृतचन्द्र ने परम आध्यात्मिक, गम्भीर तथा प्रौढ़ टीकाए न रची होतो, तो अध्यात्म गंगा का प्रवाह अब तक अवरुद्ध अथवा लुप्तप्रायः हो गया होता, परन्तु आज एक हजार वर्ष के बाद भी अमृतरस भरी अमरकृतियाँ अध्यात्मसरिता के अजस्र स्रोत के रूप में विद्यमान हैं तथा अगणित भव्यात्माओं को कल्याण पथ पर अग्रसर करती हैं। उनके व्यक्तित्व से प्रभावित एवं अनुप्राणित लेखकों की तालिका देखने पर ज्ञात होता है कि आचार्य अमृतचन्द्र की अध्यात्म रसिकता अध्यात्मजगत् को दिनकर सदृश प्रकाशदायिनी, चन्द्रमा की चांदनी सदृश शांतिदायिनी, तथा कषाय संतप्त जगत् को सुरसरिवत् शीतलता प्रदायनी है।
उनकी अध्यात्म रसिकता का एक सबसे बड़ा प्रमाण यह भी है कि जिन-जिन कृतियों तथा भाष्यों की रचना उनके द्वारा हई, उन सभी के अन्त में अमतचन्द्र ने अपने कर्तापने का निषेध किया तथा कर्तव के समस्त मोहजन्य विकल्पों से परे निर्विकल्प समाधिरूप निजस्वरूप में लीनता के प्रानन्द को ही अभिव्यक्त किया। उन्होंने स्वयं को ग्रन्थकर्ता या व्याख्याता अमृतचन्द्र न लिखकर "स्वरूपगुप्त अमृतचन्द्र" लिखा है जो उनकी अध्यात्म रस की मस्ती को प्रगट करता है। तीन लोक तीन काल में जगत् के समस्त पदार्थों में निजशुद्धात्मा से श्रेष्ठ अन्य कोई पदार्थ नहीं है न खलु समयसारादत्तरं किंचिदस्ति" ऐसा उनका वचन था । वे यहाँ तक लिखते हैं कि अधिक बात करने (विकल्पों) से अब बस होओ अर्थात् अधिक चर्चा बन्द करो, नाना प्रकार के विकल्पों को भी
१. समयसार कलश, ३१ २. प्रारम ख्याति कलश टीका, तत्त्वप्रदीपिका टीका तथा समयच्याख्या टीका के
अंतिम पद्य-- "स्वरूप गुप्तस्य न हि किंचिदस्ति कर्तव्यमेवामृतचन्द्रसूरेः ।"
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ।
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बस करो- छोड़ो। यह एक मात्र परमार्थ-परमतत्त्व (आत्मा) है, उसका ही सदा अनुभव करो, क्योंकि वही सर्वश्रेष्ठ है। अपने चतन्यरस के विस्तार से परिपूर्ण ज्ञान द्वारा बिस्फुरित मुविशुद्ध परमात्मतत्त्व से श्रेष्ठ उत्कृष्ट - सारभूत किचित् कोई पदार्थ नहीं है । ' शुद्धात्मस्वरूप के प्रदर्शक समयमार शास्त्र की टीका को वे सम्पूर्ण जगत् का प्रसाशक (देखने वाला) एक मात्र चक्षु निरूपति करते हैं, क्योंकि वह विज्ञानघनस्वरूप, आनन्द से परिपूर्ण, अक्षय आत्मा की प्रत्यक्ष दिखाता हा पूर्णता को प्राप्त होता है । इस ग्रन्थ में इस आत्मतत्व का प्रतिपादन हुना तथा आत्मा को ज्ञानमात्र सिद्ध किया गया। वह आत्मा अखंडित, एकरूप, निराबाघ तथा स्वयं द्वारा अनभव वारने योग्य है ।
अमृतचन्द्र की अध्यात्म रसिकता प्रत्येक कृति में प्रस्फुटित हई है। प्रवचनसार की टीका के प्रारम्भ में भी उद्घोषणा करते हैं कि परमानंद रूप सुधारस के पिपासु भग्यजनों के हित के लिए तत्त्वप्रदीपिका नामक टीका रची जा रही है, जिसमें अध्यात्मतत्त्व का स्पष्ट रूपेण प्रकटीकरण किया जा रहा है। यद्यपि अमृतचन्द्रकृत मभी मौलिक अथवा टीकाकृतियों में उनकी अध्यात्म रसिकता का रस भरा है, तथापि समयसार की आत्मन्याति टीका में अमृतचन्द्र की अध्यात्मरसिकता का रससमुद्र सर्वत्र लहराता प्रतीत होता है तथा वे उसमें कभी तैरते, कभी कोडा करते तो कभी हुबकी लगाते दिखाई देते हैं। प्रात्मख्याति टीका की रचना अध्यात्म की मस्ती के समय की गई है, इसलिए उसमें आगत गद्यपद्य, छन्द, रस, अलंकार तथा माधुर्यादिगुण सभी अध्यात्म रस से पगे एवं अध्यात्मरस' के उत्कर्षाधायक हैं। इस सभी की सविस्तार चर्चा
१. अलमल पतिजल्य विकल्परतल्परमिह परमार्थश्चेत्यतां नित्यमेकः । ____ मदरसविरारपूर्णज्ञानविस्फूतिमावान खलु समयसारादुतरं किंचिदस्ति ।। २४४ ।।
- समयसार कलश २. इदमेक जगच्चक्षुरक्षयं याति पूर्णताम् ।
विज्ञानघनमानन्दमयमध्यक्षतां नयत् ।। २४५ ।। समयसार कलश ३. इतीदमात्मनस्तत्त्वं ज्ञानमात्रमनस्थितम् ।
प्रखंडमेकमचलं स्वसंवेद्यमबाधितम् ।। २४६ ।। समयसार कलश ४. परमानन्दसुधारस पिपामितानां हिताय भध्यानाम् ।
क्रियते प्रकटिततत्त्वा प्रवधनसारस्य वृत्तिरिमम् ।। ३ ।। प्रवचनसार टीका
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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
यथासमय आगे की गई है। इस तरह आचार्य अमृतचन्द्र का एक पहलू अध्यात्म रसिक का भी है।
प्राचार्य अमृत चन्द्र का प्रभाव
आचार्य अमृतचन्द्र के विशाल व्यक्तित्व का प्रभाव उनके परवर्ती प्राचार्यों, मुनियों, भट्टारकों तथा अनेकानेक विद्वानों पर पड़ा। उनके सर्वतोमुखी व्यक्तित्व से प्रभावित लेखकों ने अपनी कृतियों में अमृतचन्द्र का अनुकरण किया। कुछ ने उनके सिद्धांतज्ञान का अनुकरण किया, कुछ ने उन्हें प्रमाणरूपेण प्रस्तुत किया, कुछ उनकी अध्यात्म रसिकता से आकर्षित हुए, कुछ उनके वाङमय में निहित साहित्यिक वैशिष्टयों को अपनाने लगे, अनेकों ने उनकी जली में साहित्य सृजन किया, अनेक विद्वानों ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा को और कई उनके द्वारा बितरोत परमानंदरूप अध्यात्म गुणाम के बने . काम की, परम्परा काल-व्यापी, क्षेत्र-व्यापी तथा जनमानस-व्यापी रही । कालापेक्षा उनका प्रभाव अद्यावधि वर्तमान है, जो लगभग एक हजार वर्ष से निरन्तर आत्महितैषियों को अनुप्राणित एवं प्रभावित करता आ रहा है। क्षेत्रापेक्षा समग्न भारतवर्ष का कोना-कोना उनकी कृतियों से प्रेरणा पाता रहा है । इतना ही नहीं, उनके प्रभाव में कुछ विदेशी विद्वान भी आये, जिन्होंने आचार्य अमतचन्द्र की कृतियों का अध्ययन, मनन, सम्पादन, भाषान्तरण, प्रकाशन एवं प्रचार-प्रसार किया है । इस दृष्टि से अमेरिका, जर्मनी, इंग्लैंड, अफ्रिका आदि के विद्वानों के नाम उल्लेख्य हैं, जिनका विस्तृत परिचय आगे कराया गया है। आध्यात्मिक जगत् के जनमानसों के बे हृदयहार रहे हैं। उनकी कृतियाँ अमृतरस के जलाशय को भांति कषायसंतप्तजनों को अलौकिक शांति-शीतलता एवं सुखप्रदायिनी हैं । बे साहित्य रसिकों के लिए चमत्कारी, विद्वानों के लिए मनांहारो तथा प्रात्मकल्याणेच्छक जनों को संजीवनी समान समान लाभकारी हैं। आचार्य अमृतचन्द्र के व्यक्तित्व तथा कृतियों का व्यापक प्रभाव - उनकी रचनाओं के अनेक भाषा में प्रकाशन, अनेक संस्करण तथा लाखोंकरोड़ों की संख्या में मुद्रण से प्रमाणित होता है। उनकी इस प्रभाव परम्परा को तीन श्रेणियों में विभाजित कर प्रस्तुत किया जा रहा है। वे श्रेणियां हैं आचार्य व मुनिवर्ग, भट्टारकवर्ग तथा विद्वत्समाज ।
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
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प्रमृतचन्द्र का श्राचार्य - मुनिवर्ग पर प्रभाव
देवसेनाचार्य पर प्रभाव ( ८६३-६४३ ईस्वी) आचार्य देवसेन अमृतचन्द्र के कुछ बाद ही हुए हैं। उनका समय जैनेन्द्र सिद्धांत कोशकार ने ८६३ से ६४२ ईस्वी के बीच लिखा है। आप प्रसिद्ध आचार्यों में गिने जाते हैं । आप घबलाटीकाकार आचार्य वीरसेन के शिष्य थे। आप श्रो विमलगणी के शिष्य तथा अमितगति प्रथम के पुत्र थे। आपकी रचनाओं में दर्शनसार भावसंग्रह, आराधनासार, तत्त्वसार, ज्ञानसार, नयचक्र ( प्राकृत में ), आलापपद्धति (संस्कृत में ) तथा धर्म संग्रह ( संस्कृत- प्राकृत में) मुख्य हैं । उक्त आचार्य देवसेन पर आचार्य अमृतचन्द्र का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है । इसके कुछ आधार निम्नानुसार हैं
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१. जिसतरह आचार्य श्रमृतचन्द्र के पुरुषार्थसिद्ध्युपाय" ग्रन्थ का अपरनाम " जिनप्रवचन रहस्यकोश" है, उसी प्रकार आचार्य देवसेन की "आलापपद्धति” नामक कृति का भी अपरनाम “द्रव्यातुयोगप्रवेशिका" है जो एक प्रकार से ग्रन्थ के दो नामों के प्रचलन का अनुकरण है जो देवसेन में प्राचार्य अमृतचन्द्र की कृतियों से किया है ।
२. आचार्य देवसेन अमृतचन्द्र की कृतियों से परिचित थे। क्योंकि आलापद्धति में निश्चयनय और व्यवहारनय के भेद-प्रभेदों का जो कथन है, वह श्रमृतचन्द्राचार्य द्वारा समयसार की टीका "आत्मख्याति" में प्रतिपादित तत्त्वव्यवस्था के आधार पर रचा गया प्रतीत होता है। उससे पहले किसी भी ग्रन्थ में उन भेद-प्रभेदों का कथन नहीं है । जिनमें उक्त कथन है, वे ग्रन्थ प्रायः आलापपद्धति के पश्चात् के हैं । ३
३. अमृतचन्द्र ने अपने ग्रन्थ पुरुषार्थद्धियुपाय में "अहिंसा" तथा हिंसा के विशद विवेचन के अन्तर्गत दो प्रत्यन्त महत्त्वपूर्ण श्लोक लिखे हैं, जिनमें कहा है कि अत्यन्त कठिनता से पार हो सकने वाले, अनेक प्रकार के भंगों (भेदों) से युक्त गह्न वन में मार्ग भूले हुए पुरुष को, अनेक प्रकार के नयसमूह के ज्ञाता श्रीगुरु ही शरण होते हैं। जिनेन्द्र भगवान का अतितीक्ष्ण धारवाला और दुःसाध्य नयचक्र धारण करने वाले मिथ्या
१. जैनेन्द्र सिद्धांत कोश भाग-१, पृष्ठ ३३७
२. जैनेन्द्र सिद्धांत कोश भाग-२, पृष्ठ ४४६
३. जैन साहित्य का इतिहास भाग - २, पृष्ठ १०२-१०३
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१६८ ]
i आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व ज्ञानी पुरुष के मस्तक को शीघ्र ही खण्ड-खण्ड कर देता है।' उक्त अर्थवाही श्लोकों में "प्रबुद्धनय चक्रसंचारा: गुरुवो शरणं भवन्ति" तथा "जिनवरस्य नयचक्रम्" लिखकर प्रात्महिलै षी तत्त्वजिज्ञासु जनों को सावधान किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि अमृतचन्द्र के अनुवर्ती आचार्य देवसेन ने "आलाप पद्ध" अरनाम 'पानीमा प्रवेशिका" ग्नन्ध रचकर प्रबुद्धनयचक्र ज्ञाता के रूप में नयचक्र का बड़ी सावधानी से सचार किया है। साथ ही "नयचक्र' नामक ग्रन्थ रचकर जिनेन्द्रदेव के महन, तीक्ष्णधारयुक्त, स्यात्पद द्वारा साध्य "नय चक्र" का दिग्दर्शन कराया है। उक्त दोनों ग्रन्थों में नयसंबंधी भेद-अभेद सहित विशद् स्पष्टीकरण किया गया है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि देवसेन ने अमृतचन्द्र के शब्दों में "प्रबुद्धनय चक्रसंचाराः गुरुवः" पद को सार्थक किया है। वे स्वयं 'आलापपद्धति" अन्य रचना द्वारा प्रबुद्धगुरु बने हैं तथा "जिनवरस्यनयचक्र' को नयचक्र ग्रन्थ रचकर स्पष्ट किया है । इस प्रकार प्राचार्य अमृतचन्द्र का प्रभाव देवसेनाचार्य पर स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है।
प्राचार्य अमितगति प्रथम पर प्रभाव (६१-६६८ ईस्वी) - आचार्य अमितगति-प्रथम माथुरसंघ के विद्वान् देवसेन के शिष्य थे । उनका एकमात्र ग्रंथ योगसार है । उनका समय विक्रम की ग्यारहवीं शती का प्रथम चरण है । आचार्य अमृतचन्द्र का प्रभाव अमितगति प्रथम पर था। उनके योगसार ग्रंथ में आचार्य अमृतचन्द्र के तत्वार्थसार तथा समयसारादि की टीकाओं का प्रभाव लक्षित होता है। उन्होंने अपने उक्त ग्रन्थ की रचना तत्वार्थसार तथा समयसारा दि टीकाओं के भावों को ग्रहण कर को है ।४ इससे अमितगति प्रथम का अमृतचन्द्र से प्रभावित होना ज्ञात होता है ।
१. इति विविधभंगगहने सुदुस्तरे मागं मुढ़दृष्टिनाम् ।
गुरुवो भवन्ति शरणं प्रबुद्धनमचक्र संचारा ।।५।। अत्यन्त निशितधार दुरासदं जिनयरस्य नयचक्रम । खडयति धार्यमाणं मूर्धानं झटिति धुर्विदग्धानाम् ।।५६।। पुरुषायंसिद्ध्युपाय २. पुरातन जैनवाक्य सूची, प्रस्तावना, पृष्ठ १२६ ३. जैन साहित्य का प्राचीन इतिहास, पं. परमानन्द, पृष्ठ २०४ ४. तत्वानुशासन, प्रस्तावना, पं. जुगल किशोर, पुष्ठ ३४
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
। १६६ आचार्य प्रभाचन्द पर प्रभाव (९८०-१०६५ ईस्वी) - प्राचार्य प्रभाचन्द्र एक महान् ताकिका, नैयायिक तथा दार्शनिक बिद्वान थे। उनका समय ईस्वी ८९० से १०६५ के बीच निर्णीत है। उनके दो प्रकार के ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, मौलिक तथा टीकाग्रन्थ । उनमें प्रमेय कमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र, नत्वार्थवृत्ति पद विवरण, शब्दाम्भोज भास्कर, प्रवचनसारस रोजभास्कर तथा गद्यकथाकोश आदि प्रमुख है। प्राचार्य प्रभाचन्द्र पर आचार्य अमतचन्द्र का गहरा प्रभाब था। उन्होंने आचार्य अमृतचन्द्र की ताकिक व दार्शनिक शैली का अनुकरण किया है। यहाँ उदाहरणार्थ उक्त आचार्यद्वय की दीकाओं के साम्यसूचक अवतरणों को प्रस्तुत किया जाता है -
१. द्रदः गच्छति यरूपण स्वरूपंग यानाति, तांस्तान्, क्रमभुवः सहभुवश्च सदभावपर्यायान् स्वभावविशेषातित्यनगतार्थया निरूक्त्या द्रष्ये व्याख्यातम् । (पंचास्तिकाय समयव्याख्या गाथा ६ की टीका) तथा एकस्मिन् द्रव्ये यद्व्यं गणो न तद्भवति, यो गुणः स द्रव्यं न भवतीत्येवं यद्रव्यस्य गुणरूपेण गुणस्य वा द्रव्यरूपेण तेनाभवनं सोऽलद्भावः । एतावतवान्यत्वव्यवहारसिद्धर्न पूनच्यास्याभावी गुणो गुणस्याभावो द्रव्यमित्यैवं लक्षणोऽभावोऽतभावः । (तत्वप्रदीपिका गाथा १०८ को टीका)
..........." तथाहि द्रवति 'द्रोष्यत्यदुद्रवतांस्तान् गुणपर्यायान् गुणपर्यायैर्वा द्रोष्यते द्र ते वा द्व्यमिति । गाम्यते उपलभ्यते द्रव्यमनेनेति गुण: । द्रव्यं वा द्रव्यान्तरान् ये न विशिष्यते स गुणः । इत्येतस्मादर्थविशेषात् यद द्रव्यस्य गुणरूपे गुणरूपेण गुणस्य वा द्रव्धरूपेणाभवनं एसो एष हि अतद्भावः । (प्रवचनसारसरोजभास्कर अध्याय २ गाथा १६ की दीका) (प्र. क. मा. प्र. पृ. ७४ से उद्धत)
२. यदि हि द्रव्यं स्वरूपत एव सन्न स्यात्तदा द्वितयी गति: असद्वा भवति, सत्तातः पृथग्वा भवति । तत्रासद्भवदनीव्यस्य संभवादात्मानमधारयद्रव्यमुद्गच्छेत् । सत्तातो पृथग्भूत्वा चात्मानं धारयत्ताबन्मात्र प्रयोजनां सत्तामुद्गमयेत् । ततः स्वयमेव द्रव्यं सत्त्वेनाभ्य गन्तव्यं, भावभाव बतोर पृथकत्वेनान्यत्वात् । (तत्त्वप्रदीपिका टीका, गाथा १०५)
१. प्रमेयकमलमार्तण्ड, प्रस्तावना, पृष्ठ ६७-६८ २. जैन साहित्य का इतिहास, भाग-२, पृष्ठ ३४७
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१७० ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
यदि हि द्रव्यं स्वयं सदात्मकं न स्यात् तदा स्वयमलदात्मकं सत्तातः पृथग्वा ? तत्राद्यः पक्षो न भवति, यदि सत् सद्रूपं द्रव्यं तदा असद्रूपं ध्रुव निश्चयेन न नं तत् भवति । कयं केन प्रकारेण द्रव्यं खरविषाणवत् । अथ सुत्तातः पुनरन्यद्वा पृथग्भूतं द्रव्यं भवति तदा पृथग्भूतस्यापि सत्त्वे सत्ता कल्पना व्यर्था । सत्तासम्बधात्सत्त्वे चान्योन्याश्रयः सिद्धं हि तत्सत्त्वे सत्तासम्बन्धसिद्धिः तस्याश्च सम्बन्ध सिद्धी सत्य तत्सत्वसिद्धिरिति तत्सत्त्वसिद्धिमन्तरेणापि सत्तासम्बन्धे खपुष्पादेरपि तत्प्रसङ्गः । तस्मात् द्रव्यं स्वयं सत्ता स्वयमेव सदभ्युपगन्तव्यम् । ( प्रवचनसार मरोज भास्कर अ. २/गाथा १३ ) ( प्रमेलकमलमार्तण्ड प्र. पृ. ७४ से उद्धृत )
इस प्रकार उपर्युक्त अवतरणों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि श्राचार्य अमृतचन्द्र की तार्किक, दार्शनिक, गम्भीर तथा प्रौढ़ टीका शैली का प्रभाव प्रभाचन्द्र पर अवश्य पड़ा है ।
आचार्य श्रमितगति द्वितीय पर प्रभाव ( ६६३ - २०२१ ) - ये माथुर संघ के विद्वान् नैमिशेण के प्रशिष्य तथा माधवसेन के शिष्य थे । ये विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के विद्वान् थे। उन्होंने अपनो गुरुपरम्परा में वीरसेन, देश्सेन, अमितगति प्रथम, नेमिषेण, माधवमेन आदि का उल्लेख किया है। इनकी उपलब्ध कृतियाँ इस प्रकार हैं- सुभाषितरत्नसंदोह, धर्मपरीक्षा, उपासकाचार, पंचसंग्रह, आराधना, तत्स्वभावना ( सामायिकपाठ), भावनाद्वात्रिंशतिका आदि। उन्होंने इनकी रचना १०५० से १०७३ के बीच की थी। अमितगति द्वितीय पर आचार्य अमृतचन्द्र का गहरा प्रभाव पड़ा है, जिसके कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं:१. अमितगति ने अमृतचन्द्र द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों की उन्हीं के समान शब्दों में पुनरावृत्ति की है। उदाहरण के लिए अभूतचन्द्र ने मद्य (शराब) को बहुत से जीवों की योनि ( जन्मस्थान ) निरूपित किया है। उन्होंने मद्य सेवन से उन जीवों की हिंसा होना भी बताया है । इसी बात का उल्लेख लगभग इन्हीं शब्दों में आचार्य अमितगति ने भी किया है। दोनों आचार्यों के मूल पद्य इस प्रकार हैं:
१. जनसाहित्य का प्राचीन इतिहास - भाग-२, पृष्ठ २८८ ( पं. परमानन्द शास्त्री)
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
__ [ १७१ रसजानां च बहूनां जीवानां योनिरिष्यते मद्यम् । मचं भजतां तेषां हिंसा संजायतेऽवश्यम् ॥ (अमृतचन्द्र)' ये भवन्ति विविधाः शरीरिणस्तत्र सूक्ष्म बपुषो रसाङ्गिकाः । तेऽखिला झटिति यान्ति पंचता, निन्दितस्य सरकस्य पानतः ।।
(अमितगति) इतना ही नहीं, प्राचार्य अमितगति ने आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा प्रयक्त शब्दों तक को ज्यों का त्यों ग्रहण किया है। अमृतचन्द्र ने शराब के लिए "सरक" शब्द का प्रयोग किया है, उसी शब्द का प्रयोग अमितगति ने भी किया है। अन्य श्रावकाचारों में उक्त सरक पद का प्रयोग नहीं मिलता।
२. अमृतचन्द्र ने पांच उदुम्बर तथा तीन मकारों के त्याग करने पर जिनघम की देशना का पात्र होना लिखा है। अमितगत ने भी उक्त कथन को दुहराया है। उक्त प्राशय वाले तथा साम्य प्रगट करने वाले दोनों आचार्यों के पद्य इस प्रकार हैं -
अष्टाव निष्ट दुस्तर दुरिता ग्रत् नान्यभूति परिवर्य । जिनधर्म देशनाया भवन्ति पात्राणि शुद्धधियः ।। (अमृतचन्द्र) ५ आदावेव स्फुटमिह गुणानिर्मला धारणीयाः। पार सि व्रतमपमलं कुर्वत। श्रावकीयम् ।। (अमितगति)
अमृतचन्द्र ने हिंसक, दुखी तथा मुखी को मारने का निषेध किया है", अमितगति ने भी वैसा ही निषेधरून निरूपण किया है ।
१. पुरुषार्थसिद्ध युपान, पञ्च मात्र. ६३ २. मिगति श्राववाचार - (६ वां पद्य अध्याय ५ वा) ३. पुरुषाचं सिद्ध ग्रुपाय पद्य गांक ६४ ४. जननंदेश, शोधांक ५ अक्टूबर १९५६, पृष्ठ १७३ ५. पुरुषार्थसिद्ध युपाय, पद्य क्रमांक ७४ । ६. अमितगति श्रावकाचार, पद्य नं. ७३, अध्याय ५ ७. पुरुषार्थसिद्ध युपाय ८३, ८५, ८६ बां पद्य ८. अमितगति श्रावकाचार ६.६२, ३६, ४० वा पद्य
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१७२ ]
। आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृख
४. अनृतवचन और उसके भेदों का जिस प्रकार से अमृतचन्द्र ने कथन किया है', अमितगति ने भो उसी प्रकार से अनृतवचन के चार भेद करके निरूपण किया है।
५. जिस प्रकार अमृतन्चद्र ने धन को बाह्यप्राण तथा घनहरण करने वाले को प्राणहर्ता बनाया है, उसी प्रकार अमितगति ने भी निरूपण किया है। उनके इस तरह के साम्यदर्शक पद्य निम्नानुसार हैं -
अर्थानां य एते प्राणा एते बहिश्चराः पुसाम् । हरति स तस्य प्राणान् यो यस्य जनो हत्यर्थम् ।। (अमृतचन्द्र )३ यो यस्य हरति वित्तं स तस्य जीवस्य जीवितं हरति । आश्वासकर बाह्य जीवानां जीवितं वित्तम् ।। (अमितगति)
६. व्रतों के अतिचारों के वर्णन में अमितगति ने प्रायः उन्हीं पद्यों को अवतरित किया, जिनकी रचना अमृतचन्द्र ने की। अन्तर केवल कुछ शाब्दिक परिवर्तन मात्र का है। उदाहरणार्थ दो पछ प्रस्तुत किये जाते हैं
प्रतिरूपकव्यवहारस्तेन नियोगस्तदाहृतादानम् । राजविरोधातिकम होनाधिक मान करणे च ।। (अमृतचन्द्र) व्यवहार: कृत्रिम कस्तेन नियोगस्तदाहृतादानम् । ते मानवपरीत्यं विरुद्धराज्य व्यतिक्रमणम् ॥ (अमितगति )२
७. अमृतचन्द्र ने हिंसा त्याग के इच्छुक को सर्वप्रथम मद्य, मांस, मधु तथा पांच उदुम्बर फलों के त्याग वा विधान लिखा है। अमितगति ने भी इसी नियम को दोहराया है। इसी तरह मांस भक्षण के दोष बताते हुए अमृतचन्द्र लिखते हैं कि प्राणियों के घात किये बिना मांस की
१. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय ६२, १३, १४, १५, १६, १७, १८ वा पद्य २. अमितगति श्रावकाचार, अध्याय ६, पद्य प्रमांक ४८ से ५५ तक ३ पुरुषार्थ सिद्ध्वुपाय, पद्य क्रमांक १०३ ४. अमितगति श्रावकाचार, 'पद्य ६१, अध्याय ६ ५. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, पद्य नं. १८५ ६. प्रमितगति श्रावकाचार, पच नं. ५, अध्याय १ ७, पुरुषार्थसिद्ध्युधाय, ६१ वा पद्य ८. अमितगति श्रावकाचार, अध्याय ५, पद्य नं. १
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ।
उत्पत्ति संभव नहीं, अतः मांसभक्षी को हिंसा अनिवार्य रूप से होती है ।' इसी बात की पुनरावृत्ति अमितगति ने भी की है। अमृत चन्द्र ने रात्रि भोजन करने में हिंसा होना अनिवार्य लिखा है तथा उसे छोड़ने का उपदेश दिया है । इशी का समर्थन तथा अनकरण अमितति ने भी किया है। उनके ग्रन्थ 'अमितगतिथावकाचार" की रचना का मूलाधार आचार्य अमृतचन्द्र का पुरुषार्थसिद्ध्युपाय है।
इस प्रकार स्पष्ट रूप से आचार्य अमतचन्द्र का प्राचार्य अमितगति द्वितीय पर भी व्यापक तथा गहन प्रभात्र दृष्टिगोचर होता है ।
प्राचार्य जयसेन (धर्मरत्नाकर कर्ता) पर प्रभाव (REE ईस्वी)लाड़बागड़ संघ की गुर्वावरिल के अनुसार जयसेन भावसेन के शिष्य तथा ब्रह्मसेन के गुरु थे। आपकी कृति धर्मरत्नाकर है। प्रापका समय ६६८ ईस्वी है। पाप प्राचार्य अमृतचन्द्र से विशेष प्रभावित थे। आपने अपने ग्रन्थ धर्मरत्नाकर में आचार्य अमुतचन्द्र के पुरुषार्थसिद्धयुपाय के १२४ पद्य ज्यों के त्यों उद्धृत किये हैं। वैसे तो पुरुपार्थसिद्धयफाय के पद्यों को अमृतचन्द्र के परवर्ती श्रावकाचार ग्रन्थ प्रणेता विद्वानों प्राचार्यों ने बहुत बड़ी संख्या में अवतरित किया है, परन्तु जयसेन ही इस अवतरण के कार्य में सबसे आगे हैं। उन्होंने सम्पूर्ण ग्रन्थ के आधे से अधिक भाग को अपने ग्रन्थ में ज्यों का त्यों सम्मिलित किया है। पुरुषार्थसिद्धयपाय ग्रन्थ में कुल २२६ पद्य है। जयसेन ने अमतचन्द्र कृत पद्यों को कहीं "उक्तं च" लिखकर प्रमाण रूप में प्रस्तुत किया है, तो कहीं पर विषय का निरूपण अमृतचन्द्र के ही मूलपद्यों को उद्धृत करके किया। किसी किसी अध्याय
१. पुरुषार्थगि युपाय, पद्य ६५ २. यमित श्रावनाचार, अध्याय ५, पथ १ ३. गुरुयार्थमिध्युपाय. १२६ वा गद्य ४. नमित्त गति श्रावकाचार, अध्याय ५. पय ८०, ४१, ४२ ५. जैनेन्द्रसिद्धांतकोश, भाग २, पृष्ट ३२४ ६. पुरुषासिन्युपाय से उधत निम्नानुसार है -- २३, २५, २६, २९, ३०,
४२ से १६, ५१ से ५६, ५८ से ६०, ६४, ६६, ६७, ६६, ७० से ७३, ७५ से ६०, ६२ रो १०१, १०३ रो १०५, १०७, १०८, १११ से १३४, १३५ में १४०, १४२, १४३, १४५, १४६ से १६३, १६५, १६५, १६६, १७२, १७३, १७५ से १७६, १८५, १८८ से १६१, १९४, १६८
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१७४ ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
में पुरुषार्थसिद्ध्युपाय के श्लोकों की बहुतायतता है, उदाहरण के लिए "अहिंसासत्यव्रतविचार" नामक बारहवें अध्याय में कुल ११३ श्लोकों में ४३ श्लोक पुरुषार्थसिद्धयुपाय के हैं।
इस प्रकार अमृतचन्द्र का धर्मरत्नाकरकार जयसेन पर प्रभाव स्पष्टरूप से दिखाई देता है।
प्राचार्य पदमनंदि (पंचम) पर प्रभाव (ईस्वी १०१६-११३६) प्राचार्य पद्मनदि (पंचम) श्री वीरनंदि के शिष्य थे, साथ ही ज्ञानार्णवकार शुभचन्द्राचार्य के भी शिष्य थे। वीरनंदि इनके दीक्षागुरु तथा सुमामा शिक्षापुर : इन्होने नंदिपक ति: नामक ग्रन्थ की रचना की थी। उक्त ग्रन्थ के एकत्वसप्तति नामक अधिकार की टीका बिक्रम सं. ११६३ की उपलब्ध है। इनका समय ईस्वी १०१६ से ११३६ है।' आ आचार्य अमृतचन्द्र से प्रभावित थे । मन दि के समक्ष अमृतचन्द्र की कृतियाँ उपस्थित थीं, जिनका पालोड़न करके ही उनका उपयोग पदमनदि ने अपने ग्रन्थ की रचना में किया है। उन्होंने न केवल अमृत वन्द्र की तत्त्वनिरूपण शैली को अपनाया, अपितु उनकी कृतियों की शब्दावलि का भी यथावत् प्रयोग किया है। यहाँ तत्सम्बधी कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं।
पद्मनंदि ने अमृतचन्द्र के ग्रन्थों के आधार पर अपने ग्रन्थ में पद्य रचना की है। अमृत चन्द्र द्वारा निरूपित विषय को लगभग समान रूपेण प्रस्तुत किया है। उदहरण के लिए अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय में लिखा है कि अज्ञानी जीवों को समझाने (ज्ञान कराने के लिए आचार्य अभूतार्थव्यबहारनय का उपदेश देते हैं और जो केवल व्यवहार नय को ही जानता है, उस मिथ्यावृष्टि जीव को उपदेश नहीं है। उनका मूल पद्य इस प्रकार है:
अबुद्धस्य बोधनार्थ मुनीश्वराः देशयन्त्यभूतार्थम् । व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य' देशना नास्ति ॥
इसके अतिरिक्त इन्होंने आत्मख्याति टीका में कर्मक्षय या कर्म से मुक्ति का निमित्त ज्ञानरूप भूतार्थ धर्म ही बताया है । भूतार्थनय को ही १. जनेन्द्र सिद्धांतकोश- भाग ३ पृष्ठ १० २. पुरुषार्थ सिद्ध युपाय - पद्य-६
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
[ १७५
शुवनय भी लिखा है - यथा “कर्ममोक्ष निमित्तं ज्ञानमात्र भूतार्थ धर्म न श्रद्धत्ते" तथा "शुवनय एक एव भूतार्थत्वात् भूतमर्थ प्रद्योतयति"२ इन उपरोक्त कथनों का सार ग्रहण कर आचार्य पद्मनंदि ने भी एक पद्य इसी सम्बन्ध में लिखा है जो इस प्रकार है:
व्यवहृतिरबोधजनबोधनाय कर्मक्षयाय शुद्धनयः । स्वार्थ मुमुक्षरमिति वक्ष्ये तदाश्रितं किंचित् ।। 3
इसी तरह अमृतचन्द्र ने निश्चयनय को भूतार्थ तथा व्यवहार नय को अभूतार्थ लिखकर भूतार्थ ज्ञान से विमुख समस्त अभिप्राय को संसारमय लिखा है। इससे यह भी ध्वनित है कि भूतार्थज्ञान से विमुखपना संसारमय है तो भूतार्थनय (शुद्धनय) का सम्मुखपना (आश्रय) परमपद (मोक्ष) का कारण स्वयमेव सिद्ध हुआ। इसी अभिप्राय को पद्मनंदि ने भी ज्यों का त्यों दुहराया है। उक्त दोनों प्राचार्यों के कथन साम्य को भी देखिये:- (दोनों पद्य प्रार्या छंद में हैं।)
निश्चयमिह भूतार्थ व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थम् । भूतार्थबोधविमुख: प्रायः सर्वोऽपि संसारः ।। (अमृतचन्द्र )" व्यवहारोऽभूतार्थो भूतार्थो देशितस्तु शुद्धनयः । शुद्धनयमाश्रिता ये प्राप्नुवन्ति यतयः पदं परमम् ।। (पद्मनंदि}५
अन्यत्र अमृतचन्द्र ने लिखा है कि हे भव्य ! तुझे व्यर्थ के कोलाहल से क्या लाभ है। तू इस कोलाहल से विरक्त हो और एक चैतन्यमात्र वस्तु को स्वयं निश्चल-लीन होकर देख, ऐसा छह माह तक अभ्यास कर और देख कि ऐसा करने से अपने हृदय सरोबर में उस आत्मा की प्राप्ति होती है या नहीं ? उस आत्मा का तेज-प्रकाश पुद्गल से भिन्न है । उक्त कथन के सार को पद्मनंदि ने भी थोड़ा-बहुत शाब्दिक परिवर्तन
१, समयसार गाथा २७५ की प्रास्मख्याति टीका, पृष्ठ ३९७ २. वही गाथा ११ की टीका, पृष्ठ २३ ३. पद्मनंदिपंचविंशतिः, निश्चयपंचाशत्, पद्य नं. ६ ४, पुरुषार्थसिद्ध युपाय, पद्य नं. ५ ५. पद्मनंदिपचविंशति, निश्वमपंचाशत्, पद्य नं. ६
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१७६ ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व कर पुनरूद्धत किया है। उदाहरण के लिए निम्न पद्यों पर तुलनात्मक दृष्टि से अवलोकन कीजिये:-- विरम किमपरेणाऽकार्य कोलाहलेन,
स्वयमपि निभृतः सन् पश्य षण्मासमेकम् । हृदयसरसिपुसः पुद्गलाद मिश्रानो,
ननु किमनुपलब्धिर्भाति किं चोपलब्धिः ॥ ३४ ॥' निश्चेतव्यो जिनेन्द्रस्तदतुलवचसां गोचरेऽर्थे परोक्षे । कार्यः सोऽपि प्रमाणं वदत किमपरेणालकोलाहलेन ॥ १२८ ॥ किमालकोलाहले रमलबोध संपन्निधेः,
समस्ति यदि कौतुकं किल तवात्मनो दर्शने । निरुद्धसकलेन्द्रियो रहसिमुक्तसंग्रहः,
कियन्त्यपि दिनान्यत: स्थिरमना भवान् पश्यतु ॥१४४॥ उपयुक्त १२८ पद्य में “वदत किमपरेणालकोलाहलेन" अंश समयसार कलश के ३४ दें पद्य का प्रथम चरण "विरम किमपरेणाकार्यकोलाहलेन" का प्रायः ज्यों का त्यों अनुकरण है तथा पद्य १४४ में "किमालकोलाहलेरमलबोध..........." और "रहसिमुक्तसंग्रहः कियन्त्यपि दिनान्यतः स्थिरमना भावन पश्यतु" इन अंशों में उक्त समयसार कलश के ३४ वें पद्य के प्रथम व द्वितीय चरणों का अनुसरण स्पष्ट दिखाई देता है।
यहाँ एक और उदाहरण दृष्टव्य है। प्राचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार तथा पंचास्तिकाय की टीकायों के अन्त में लिखा है कि अपनी सहज योग्यता से वस्तुस्वरूप को सूचित करने वाले शब्दों द्वारा यह समयसार की व्याख्या की गई है, अपने स्वरूप में लीन अमृतचन्द्र सूरि का इसमें कुछ भी कर्त्तव्य नहीं है। इन्हीं शब्दों को किचित् परिवर्तन के साथ पद्मनन्दि ने भी उद्धृत किया है। दोनों आचार्यों के मूल पद्यों को भी देखिये, जो इस प्रकार हैं
-- - १. समयमार कलश, अमृत चन्द्रप्रणीत, क्रमांक ३४ २. पद्मनंदिपंचविंशतिका, धर्मोपदेशामृतम्, पद्य क्रमांक १२८ ३. वही, पद्य क्रमांक १४४
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ] .
[ १७७ स्वशक्ति संसूचित वस्तुत्त्वं, याख्या कृतेयं समयस्य शब्दैः । स्वरूपगुप्तस्य न किंचिदस्ति. कर्तव्य मेवामुतचन्द्रसूरेः ।। (अमृतचन्द्र)' निश्चयपंचाशत् पमनंदिनं सूरिमाश्रिभिः कश्चित् । शब्दैः स्वशक्ति सूचित वस्तुगुणविरचितेयमिति ।। { पद्मनंदि)२ हमी तह र
वन्द्र सम्यग्दृष्टि के साहस तथा निर्भयता की प्रशंसा करते हुए लिखते हैं कि सम्यग्दृष्टि जीव ही ऐसा श्रेष्ठतम साहस करने में समर्थ हैं कि वज्र के गिरने पर, तीनों लोक के प्राणी उसकी ध्वनि के भय से अपने मार्ग से चलायमान हो जावें, परन्तु ये सम्यग्दष्टि "मैं ज्ञानशरीरो है, पर के द्वारा प्रबध्य है" ऐसा जानते हैं इसलिए स्वाभाविक निर्भयता के कारण सभी प्रकार की शंका को छोड़कर अपने ज्ञानस्वभाव से चलायमान नहीं होते। इसी आशय की पुनरावृत्ति पद्मनंदि ने भी की है। उक्त आशय सूचक पद्यों का साम्य देखिये
सम्यग्दृष्टय एव साहस मिदं का शमन्ते परं, यद् वज्र ऽपि हतत्यमो भयबलत् त्रैलोक्य मुक्तानि । सर्वामेव निसर्गनिर्भयतया शंकां विहाय स्वयं,
जानन्तः स्वमवध्यबोधवपुष बोघाच्चयन्ते न हि ।। (अमृत चन्द्र) वज्जे पतत्यपि भयद् त विश्वलोकमुक्तावनि प्रशामिनो न चलन्ति योगात् । बोधप्रदीपहतमोहमहान्धकाराः सम्यग्दृशः किमुत शेषपरीषहेषु ।।
(पद्मनंदि । एक और स्थल पर अमतचन्द्र ने लिखा है कि प्रात्मतत्त्व का चेतन-अचेतन परद्रव्यों के साथ किसी प्रकार का भी सम्बन्ध नहीं है । जब (आत्मा का) पर के साथ कर्ता-कर्म सम्बन्ध भी नहीं है तब प्रास्मा के पुद्गलकर्म का कर्तापना कैसे होगा? अर्थात् नहीं होगा। इसी भावार्थ को दुहराते हुए पद्मनंदि लिखते हैं - मैं एक चैतन्यस्वरूप ही हूँ, उससे भिन्न दूसरा मेरा कोई भी स्वरूप कभी भी मेरा नहीं हो सकता। किसी
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१. समयसार कलश, श्रमांक २७८ पंचा स्तिकाय टीका का अन्तिम पद्य २. पदमनंदि पंचविशतिः निश्चयपंचाशत्, पद्य नं. ६१ ३. समयसार कलश, क्रमांक १५४ ४. पद्मनंदिपंचविशतः, धर्मोपदेशामृतम्, पद्य नं. ६३
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१७८ ]
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तुं त्व
परपदार्थ के साथ मेरा सम्बन्ध भी नहीं है, ऐसा मेरा दृढनिश्चय है।
उपयुक्त आशय के द्योतक दो पद्य इस प्रकार हैं - नास्ति सर्वोऽपि सम्बन्धः परद्रव्यात्मतत्त्वयोः । कर्तृ-कर्मत्वसम्बन्धाभावे तत्कर्तृता कृतः ॥ (अमृतचन्द्र)' प्रहं चैतन्यमेवेकं नान्यत्किमपि जातचित्, सम्बन्धोऽपि न केनापि दृढ़पक्षो ममेदृशः ॥ (पद्मनंदि)
इस प्रकार अन्य अनेक स्थल उदाहरण योग्य हैं जिनसे स्पष्ट प्रमाणित होता है कि पद्मनंदिपंचविंशतिः ग्रन्थ की रचना के प्रमुख स्रोत अमृतचन्द्र के पुरुषार्थसिद्धयुपाय तथा समयसार की आख्यातिकलशयुक्त टीका को कहना उचित प्रतीत होता है। साथ ही "अमृतचन्द्र की कृतियों का प्रा सचार्य पदमा या उनकी कृतियों पर पड़ा" यह भी स्पष्ट प्रमाणित होता है ।
प्राचार्य शुभचन्द्र प्रथम पर प्रभाव (१००३--११६८ ईस्वी) ये परमारवंशीय राजा मुन्ज के भाई तथा शतकत्रय के कर्ता-भतृहरि के बड़े भाई थे। ये राजा सिंह के पुत्र थे । भतु हरि को संबोधनार्थ शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव नामक ग्रन्थ को रचना की थी। आप पदमनंदिपंचविशतिकार प्राचार्य पद्मनंदि के गुरु थे। आपका समय ईस्वी १००३ से ११६८ के बीच का था । शुभचन्द्र पर आचार्य अमृतचन्द्र का प्रभाव था, जिसके प्राधार निम्नानुसार हैं -
शुभचन्द्र ने अपने ग्रन्थ ज्ञानार्णव में अमृतचन्द्र के ग्रन्थ से १ पद्य उद्धृत किया है। यह उद्धरण १४ प्रकार के अंतरंग परिग्रहों का विवरण प्रस्तुत करने हेतु "उक्त च" लिखकर प्रस्तुत किया है। उक्त पद्य अभूलचन्द्र के पुरुषार्थ सिद्धयुपाय नन्ध का है । पद्य इस प्रकार है -
मिथ्यात्व - वेदराग दोषा हास्यादयोऽपि षट् चैव । चत्वारश्च कषायश्चतुर्दशाभ्यन्तरा ग्रन्थाः ॥
१. समयसार कलश, क्रमांक २०० २. पद्मनंदिपंचविशतिः, एकत्वसप्तति अधिकार, पद्य नं, ५४ ३. जनेन्द्र सिद्धान्तकोश, चतुर्थ भाग, पृष्ठ ४१ ४, ज्ञानर्णत सगंषोडपा, पद्य क्रमांक ६ ५. पुरुषार्थ सिद्ध युपाय, पद्य नं. ११६
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
[ १७६
उक्त उद्धरण से स्पष्ट संकेत मिलता है कि आचार्य अमृतचन्द्र का आचार्य शुभचन्द्र पर प्रभाव रहा है।
आचार्य वादसिंह पर प्रभाव ( १०१५ ११५० ईस्वी) प्राचार्य वादीभसिंह संस्कृत के महाकवियों में अग्रगण्य थे। संस्कृत गद्यकारों में जो स्थान महाकवि बाणभट्ट का है, वही स्थान जैन संस्कृत गद्य लेखकों में प्राचार्य वादीभसिंह का है। उन्होंने "गद्यचितामणि" नामक उत्कृष्ट ग्रन्थ लिखकर जैन संस्कृत गद्यकाव्य को श्रमरत्व प्रदान किया है । उनका अपरनाम ओडयदेव था । वादीभसिंह उनका उपनाम या उपाधि थी ।' उनका समय १०१५ से ११५० ईस्वी है । वादीभसिंह पर आचार्य अमृतचन्द्र का प्रभाव निम्न आधारों से प्रतीत होता है -
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१. " गद्यचितामणि" की स्वोपज्ञ टीका के प्रारम्भिक पद्य में तथा श्राचार्य अमृतचन्द्र कृत समयव्याख्या टीका के आरम्भिक पद्य में शब्द साम्य तथा भावसाम्य झलकता है। उशहरणार्थ निम्न पच अवलोकन है - दुर्निवारनयानीक विरोधध्वंसनोषधिः 1
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स्यात्कार जीविता जीयाज्जैनी सिद्धांत पद्धतिः ॥ ( अमृतचन्द्र ) अशेषभाषामय देहधारिणी जिनस्यवक्त्राम्बुरुहाद् विनिर्गता | सरस्वती में कुरूतादनश्वरों जिनश्रियं स्यात्पदलाञ्छनाञ्चिता ॥ (वादीभसिंह)
२. जिसप्रकार अमूलचन्द्र की टीकाएं प्रौढ़-गम्भीर गद्यशैली से मत हैं उसी प्रकार वादी सिंह को गद्यचतामणि" रचना भो प्रौढ़, गम्भीर गद्यशैली से समन्वित है । उदाहरणार्थ निम्न गद्यांश दृष्टव्य है -
"कदाचित्किञ्चिद्रोचमानाः,
कदाचित् किञ्चिद्विकल्पयन्तः, कदाचित्किञ्चिदाचरन्तः, दर्शनाचरणाय कदाचित्प्रशाम्यतः कदाचित्सं विजमानाः कदाचिदनुकम्पमानाः कदाचिदास्तिक्यमुद्वतः:------- ।
(घमृतचन्द्र )
१. ती. म. उ. श्री. प. आग ३ पृष्ठ २७
२. जैन सि. को, भाग २, पृष्ठ ५४२
३. पंचास्तिकाय, समयव्याख्या टीका, पद्य २ ४. गद्यचितामणि टीका, पद्म ४
५. पंचास्तिकाय गाया १७२ की टीका
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१८० ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व तथा कर्तृत्व कदाचित्प्रतमृदुमृदङ्ग रङ्ग मधिवसन्तिवलासिनीनामति चतुर करण बन्धबन्धमनङ्गतन्त्र शिक्षाविचक्षण विटविदूषकारिषदुपास्यं, लास्यमवालोकिष्ट । कदाचिदनुगतवीणावेणुरणितरमणीयं रमणीयानां गतिमाकर्णयन्कर्णपारणामकार्षीत् । कदाचिकिचकुसुमप रिमलतरल मधुकर कलरवमुखरिते लतामण्डपे विरचितनवकिसलयम शयने कुशोदरीमरीरमत् ।" (वादीसिंह)'
३. उपमार्थे "इव" प्रयोग -
यदि पुनर्न तेषां दुख स्वाभाविकमभ्युपगम्येत् तदोपशान्तशीतज्वरस्य संस्वेदनमिव, प्रहीणदाहज्वरस्यारनालपरिषेक इव, निवृत्तनेत्र संरम्भस्य च वटाचूर्णावचूर्णमिव, विनष्टकर्णशू नस्य बस्तमूत्रपूरण मिब, रूढ़वणस्यालेपनदानमिव विषय व्यापारो न दृश्येत । दृश्यते चासो । ततो स्वभावभूतदुःखयोगिन एव जीबदिन्द्रियाः परोक्षज्ञानिनः । । अमृतचन्द्र)२
स चेन्न स्याबीहिखंडनायास इव तन्डुलत्यागिनः, कूपखननप्रयास इव नीर निपेक्षिणः, कर्णशुक्तिरिव शास्त्रसुश्रुषापराङ मुखस्य , द्रविणार्जन क्लेश इव वितरणगुणानभिज्ञस्य, तपस्याश्रम इव नैरात्म्यवादिनः, शिरोमारघारणश्रान्ति रिव जिनेश्वर चरणप्रणाम बहुमतिबहिष्कृतस्य, प्रवज्याप्रारम्भ इवेन्द्रियदासस्य विफल सकलोप्यये प्रयासः स्यात् । (वादीभसिंह)
इस प्रकार आचार्य वादीभसिंह पर भी आचार्य अमृतचन्द्र की रचनाशैली आदि का तथा व्यक्तित्त्व का प्रभाव प्रगट होता है ।
पद्मप्रभमलबारी देव पर प्रभाव (११४० - ११८५ ईस्वी) पद्मप्रभमलघारी देव एक आध्यात्मिक दिगम्बर साघु थे । उनकी एक मात्र कृति निमयसार ग्रन्थ की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका है। इनका समय ईस्वी ११४०-११८५ था । आप आचार्य अमृतचन्द्र के पदानुगामी आचार्य थे । नियमसार की टीका रचने में आपने अमृतचन्द्र की अनोखी आध्यात्मिक शैली को ही आदर्श एवं आधार बनाया है। वे अमृतचन्द्र से कई प्रकार से प्रभावित थे। जिसके कुछ प्रमाण निम्नानुसार हैं।
१. गद्यचिंतामणि, प्रथम लम्भ, पृष्ठ ४२ २. प्रवचनसार, तत्त्वदीपिका, गाथा ६४ की टीका ३. गद्यचितामणि, द्वितीयो लम्भ, पृष्ठ १०२। ४. जैनेन्द्र सिद्धांतकोश, भाग ३, पृष्ठ १०
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व्यक्तित्व तथा प्राय ।
[ १८१ १. उन्होंने अमृतचन्द्र की प्रौढ़तम गद्यशैली का अनुकरण किया है । जिस प्रकार अमृतचन्द्र प्रत्येक गाथा को टीका रचना के पूर्व गाथा की उत्थानिका या पूर्वसूचना देते हैं, उसी तरह पद्मप्रभ भी उत्थानिका पूर्वक टीका रचते हैं। उदाहरण हेतु - "अत्र शब्दज्ञानार्थरूपेण त्रिविधामिधयेता समयशब्दस्य लोकालोक विभागश्चाभिहितः।" "अत्र पंचास्तिकायानां विशेषसंज्ञा सामान्यविशेषास्तित्वं कायत्वं चोक्तम ।" 'अत्रास्तित्वस्वरूपमुक्तम्"3 "अत्रनियमशब्दस्य सारत्वप्रतिपादनद्वारेण स्वभावरत्नत्रयस्वरूपमुक्तम्"४ "व्यववहार सम्यक्त्वस्वरूपाख्यानमेतत्"५ "परमागमस्वरूपाख्यानमेतत्" इत्यादि ।
पद्मनंदि ने अमृतचन्द्र की गद्यशैली का अनुकरण हो नहीं किया, अपितू कहीं कहीं तो अमतचन्द्र की टीका के मूल शब्दों एवं भावों को ज्यों का त्यों अपनी टीका में समाहित कर लिया है। उदाहरण के लिए अमृतचन्द्र ने नय के सम्बन्ध में स्पष्ट करते हुए लिखा है - "दो हि नयी भगवता प्रणीतौ - व्याथिक: पर्यायाथिकश्च । तत्र न खल्वेकनयायत्ता देशना किन्तु तदुभयायत्ता 1 ततः पर्यायार्थदेशादस्तित्वे स्वतः कथञ्चिद्भिन्नेऽपि व्यवस्थिताः, द्रध्यार्थादेशात्स्वयमेव सन्तः सतोऽनन्यमया भवन्तीती।"" इसी टीका का अनुकरण करते हुए पद्मनंदि लिखते हैं - "इह हि नयद्धयस्थ सफलत्वमुक्तम् । द्वौ हि नयौ भगवदर्हत्परमेश्वरेण प्रोक्तौद्रव्याथिकः पर्यायाधिकश्चेति । द्रव्यमेवार्थः प्रयोजनमस्येति' द्रव्याथिकः । पर्याय एवार्थः प्रयोजनमस्येति पर्यायाथिकः । न खलु एकनयायस्तोपदेशो ग्राह्यः, किन्तु तदुभयायत्तोपदेशः । सत्तानाहकशुद्धद्रव्याक्षिकनयबलेन पूर्वोक्त व्यंजनपर्यायेभ्यः सकाशान्मुक्तामुक्तसमस्त जीवराशयः सर्वथा व्यतिरिक्ता एव ।
१ पंचास्तिकाय गाथा ३ की टीका | २. वहीं गाथा ४ की टीका । ३. वही, गाथा ८ की टीका । ४. नियमसार, गाथा ३ की टीका । ५. वही, गाथा ५ की टीका। ६. वही, माथा ८ को टीका । ७. पंचास्तिकाय, गामा ४ की टीका। ८. नियमसार, गाथा १६ की टीका ।
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१८२ ]
| आचार्य
एवं कर्तृत्व
२. पद्मप्रभ ने अपनी तात्पर्यवृत्ति में श्रमृतचन्द्र के ग्रन्थों के कई श्लोक "उक्तं च" तथा "चोक्तं श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिभिः" इत्यादि लिखकर उद्धृत किये हैं। इनमें १७ श्लोक' समयसार कलश टीका के हैं तथा ४ श्लोक प्रवचसार की तत्त्वप्रदीपिका टीका के हैं। यह अमृतचन्द्र के अनुकरण, अनुसरण तथा प्रभाव का प्रगट प्रमाण है ।
*
३. पद्मप्रभ ने श्रमृतचन्द्र के पद्यों को प्रमाण रूप में उद्धृत करने के साथ ही साथ उनकी ही शैली को अपनाकर गद्यटीका के बीच में तत्र पद्यों की भी रचना की है। जयसेनाचार्य की अपेक्षा श्रमृतचंद्र की शैली को पद्मप्रभ ने अधिक अपनाया है, उन्हीं की तरह सुललित पद्यात्मक शैली में टीका का निर्माण किया है ।
इस तरह श्राचार्य अमृतचन्द्र के व्यक्तित्व तथा कृतित्त्व का प्रभाव आचार्य पद्मप्रभमलधारी देव पर स्पष्ट से रूप से दृष्टिगत होता है। जयसेनाचार्य (द्वितीय) पर प्रभाव (बारहवीं तेरहवीं सदी) माप जयसेन प्रथम ( धर्मरत्नाकर के कर्ता) से भिन्न तथा उनसे बाद के हैं । अमृतचन्द्रसूरि के समान प्राप भी कुन्दकुन्द के समयसार, प्रवचनसार तथा पंचास्तिकाय ग्रन्थों के प्रसिद्ध टीकाकार हैं। प्रवचनसार ग्रन्थ की टीका के अन्त में एक प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि जयसेनाचार्य के गुरु सोमसेन थे। जयसेनाचार्य सेनगणान्वयी हैं । आप अध्यात्मक्षेत्र के एक विरागी आचार्य थे। आपका समय ई. १२१२-१३२३ है । डॉ. नेमिचंद्र शास्त्री ने उन्हें ग्यारहवीं ईस्वी सदी के उत्तरार्ध अथवा बारहवी के पूर्वार्ध का माना है । * श्राप आचार्य अमृतचंद्र से प्रभावित रहे हैं। इसके कुछ आधार इस प्रकार हैं :
४
—
-
९. समयसार कलश के क्रमशः २४, ४४, ११, ३५, ३६, ५, १८५, १३१, २४४, १८७, १६, २२८, १०४, २२७,६०,१६२, १३५ नम्बर के १७ फ्लोक है । २. प्रवचनसार तत्त्वप्रदीपिका टीका के क्रमशः १२, ५, ४ ये ४ श्लोक
1
मृत हैं।
३. जैन साहित्य का इतिहास, भाग २, पृष्ठ १६७
४. तीर्थंकर महावीर और उनकी श्राचार्य परम्परा भाग ३, पृष्ठ १२२
५. जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग २, पृष्ठ ३२४
६. ती. म. और उ. श्री. परम्परा, भाग ३, पृष्ठ १४३
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ।
[
१८३३
प्रथम तो, जयसेन ने कुन्दकुन्द के उन्हीं तीनों ग्रन्थों पर टीकाएं रची, जिन पर प्राचार्य अमृतचंद्र टीकाएँ रच चुके थे । आचार्य अमृतचन्द्र की प्रायः सभी टीकाएं उन्हें अत्यंत प्रौढ़ तथा विद्वज्जनग्राह्य प्रतीत हई। उन्होंने अमृतचन्द्रकृत टीकाओं के भावों का भी स्पष्टीकरण किया जाना आवश्यक समझा, इसलिए उन्होंने अपनी सभी टीकाओं का नाम "तात्पर्यवृत्ति टीका" रखा।
दूसरे, अपनी समयसार की तात्पर्यवृत्ति टीका में उन्होंने अत्यंत सरल एवं सुगम शैली में भाव-स्पष्टीकरण तो किया परन्तु अपने निरूपण की सम्पुष्टि हेतु प्राचार्य अमृतचन्द्र के पद्यों को "तथा चोक्तं" कहकर प्रमाण रूप में प्रस्तुत किया है। उदाहरण के लिए नयपक्ष के विकल्प को छोड़कर समयसार स्वरूप होते हैं, इस तात्पर्य को व्यक्त करते हुए जयसेनाचार्य लिखते हैं - योऽसौ नयपक्षपातरहित स्वसंवेदनज्ञानी तस्याभिप्रायेण बद्धाबमूढादिनयविकल्परहित चिदाना स्वभाव जीवस्वरूपं भवतीति । तथा चोक्तं --
य एव मुक्त्वा नयपक्षपातं स्वरूपगुप्ता निवसंति नित्यम् । विकल्पजालस्च्युतशांत चित्तास्तएव साक्षादमृतं पिबन्ति ।'
उपरोक्त पद्य समयलार कलश का ६६वां कलश है। इसके बाद ही ७० वां कलश भी उदाहृत किया है। सम्पूर्ण तात्पर्यवृत्ति में समयसार कलश के कुल ७ इन्नोक प्रमाणरूपेण उद्धृत किये गगे हैं !
तीसरे, जयसेन ने अपनी तात्पर्य वृत्ति में अमृतचन्द्राचार्य कृत टीकामों का भली भांति उपयोग किया है। कहीं-कहीं पर उनके कुछ शब्दों को ज्यों का त्यों ग्रहण कर टीका में प्रयोग किया है, तो कहीं पर ममतचन्द्रकृत टीका के ही भावों को अभिव्यक्त किया है। प्रमतचन्द्र द्वारा प्रदत्त दृष्टांतों को तो जयसेन ने बहुत बड़ी संख्या में यथावत् उदाहृत किया है। इस सम्बन्ध में कुछ स्थलों का अवलोकन कराया जाता है । प्रस्तुत उदाहरणों में शब्द भाव एवं दृष्टांत तीनों का अनुसरण किया गया है, यथा१. "यथा खलु म्लेच्छ: स्वस्तीत्यभिहिते सति तथा विधवाच्यवाचक
संबंधावबोधबहिष्कृतत्वान्न किचिदपि प्रतिपद्यमानो मेष इवानि
१. समयसार, जयसेनीय गाथा दीका १५० २. ये ७ पञ्च क्रमशः ६८, ६६, १८३, १३१, २३५, तथा २४७ में है।
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१८४ ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
मेषोन्मेषित चक्षुः प्रेक्षत एव । यदा तु स एव तदेतद्भाषासम्बन्धरेकार्थज्ञेनान्येन तेनैव वा म्लेच्छभाषां समुदाय स्वस्ति पदस्याविनासो भवो भवस्वित्यभिधेयं प्रतिपाद्यते तदा सद्य एवोधदमंदानंदमयात्रुझलझलल्लोचन पानस्तत्प्रतिपद्यत एव ।" (अमृतचन्द्र) 'यथा कश्चिद् ब्राह्मणो यतिर्वा म्लेच्छ पल्ल्यां गतः तेन नमस्कारे कृते सति ब्राह्मणेन यतिना वा स्वास्तीति भणिते स्वस्त्यर्थमविनश्वरत्वमजानन् सन् निरीक्ष्यते मेष इव । तथायमज्ञानिजनोप्यात्मेति मणिने सत्यमारमशब्दस्यार्थमजानन् सन् भ्रांत्या निरीक्षत एव । यदा पुननिश्चयव्यवहारशपुरुषेण सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारिप्राणि जीवशायल्प इति वदतमा संतुस्टी सूत्का जानातीति ।"
(जयसेन) ___"केचित्त स्वकरविकीर्ण कतकनिपातमात्रोपजनित पंकपयो विवेक
तया स्वपुरुषकाराविर्भावितसहजैकाच्छभावत्वादच्छमेव तदनुभवन्ति ।" (अमृतचन्द्र) "यथा कोपि ग्राम्यजनः सकर्दम नीरं पिबति नागरिकः पुनः विवेकीजनाः कतक फलं निक्षिप्य निर्मलोदकं पिबति ।" (जयसेन)४ "कतकस्थानीयत्वात् शुद्धनयस्य ।" (अमृतचन्द्र) "कतकफलस्थानीय निश्चनयम् ।' (जयसेन ६ 'अलुब्धबुद्धानां तु यथा संघखिल्योन्य द्रव्यसंयोग व्यवच्छेदेन केवल एवानभूयमानः सर्वतोप्ये केलवणरसत्वाल्लवणत्वेन स्वदते ।" (अमृतचन्द्र) "यथालवण खिल्य एकरसोऽपि फलशाकपत्रशाकादि परद्रष्यसंयोगेन भिनभिन्नास्वाद प्रतिमात्यज्ञानिनाम् ।" (जयसेन)
१. समयसार, गाथा ८ प्रात्मख्याति टीका, पृष्ठ २० २. समयमार, गाथा तात्पर्यवृत्ति टीका, पृष्ठ ६ ३, समयसार, गाथा ११ प्रात्मख्याति टीका, पृष्ठ २४ ४. समयसार, गाथा १३ तात्पर्य वृत्ति टीका, पृष्ठ २ ५. समयसार, गाथा ११ भारमख्याति टीका. पृष्ठ २५ १. समयसार, गाथा १३ सात्पर्य वत्ति टीका, पृष्ठ १२ ७. समयसार, गाथा १५ प्रामरूपाति टीका, पृष्ठ ४४ ८, समयसार, गाथा १६ तात्पर्यवृत्ति टीका, पृष्ठ १८
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
५. “यथा खलु विसिनापत्रस्य सलिलनिमग्नस्य... बद्धस्पष्टत्वं ...... |
यथा च मृत्तिकायाः करक करीरकर्करीकपालादिषयर्षिणानुभूयमानसायामन्यत्वं ....... । यथा च वारिधवृद्धिहानिपर्यायेणानभूयमानतायामनियतत्त्वं..... । यथा च कांचनस्य स्निग्धपीतगुरुत्वादि पर्यायेणानभूयमानतायां विशेषत्व...... | यथा चापा सप्ताचिः प्रत्ययोष्ण समाहितत्व पर्यायेणानुभूयमानतायां संयुक्तत्वं ... ...... । {अमृतचन्द्राचार्य' 'द्रव्यकमनोकर्मभ्यामसंस्पृष्टं जले विसिनीपत्रवत् । अनन्य नरनारकादिपर्यायेषु द्रव्यरूपेण तमेव स्थासकोशकुशूल घटादिपर्यायेषु मृत्तिकाद्रव्यचत् । नियत भवस्थितं निस्तरंगोत्तरंगाबस्थसु समुद्रवत् । अविशेषमभिन्नं ज्ञानदर्शनादिभेदरहितं गुरुरवस्निग्धत्वपीतत्वादि धर्मेषु सुवर्णवत् । असंयुक्तमसंबंद्ध रागादिविकल्परूपभावकमरहितं निश्चयनयेनोष्णरहितजलवदिति ।" (जयसेनाचार्य)२ प्रथाप्रतिमुद्धबोधनाय व्यवसायः क्रियते ।""प्रथायमेव प्रतिबोध्यते रे दुरात्मन् । (अमृतचन्द्र) अथाप्रतिबुद्धसंबोधनार्थ व्यवसायः क्रियते । “अथास्य बहिरात्मनः सम्बोधनं क्रियते रे दुरात्मन्...! (जयसेन)४ इह खलु परस्परावगाढावस्थायामात्मशरीरयोः समवतिसाबस्थायां कनककलधौतयोरेकस्कंघव्यवहारबद्व्यबहारमात्रेणेवैकत्वं, न पुननिश्चयतः ।" (अमृतचन्द्र) ५ यथा कनककलघौतयोः समावतितावस्थायां व्यवहारेणकत्वेऽपि निश्चयेन भिन्नत्वं तथा जीवदेहयोरिति भावार्थः ।" (जयसेन)' इसी तरह कार्तस्बर तथा कलधौत" "नगर वर्णन से राजा का वर्णन नहीं होता, किसी पुरुष द्वारा धोबी के घर से दूसरे के
१. समयसार, गाभा १४, प्रारमख्याति टीका, पृष्ठ ३६-४० २. समयसार, गाथा, १६ तात्पर्यवृत्ति टीका, पृष्ट १८ ३. वही, गाथा २३, २४, २५, की प्रारमख्याति टीका, पृष्ठ ५७, ५८ ४. बही, गाथा २८, २९, ३० तात्पर्यवृत्ति पृष्ठ २६, २७ ५. वही, गाथा २७ मारमख्याति टीका, पुष्ठ ६२ ६. वही, गापा ३२ तात्पर्यवृत्ति पृष्ठ ३० ७. गापा २६ पुष्ठ ६४
५. गाथा ३. पुष्ठ ६५
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१८६ ]
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व वस्त्र लाने तथा उसे अपना समझने' निजक रतल निन्यस्त विस्मृतचामीक रावलोकन न्याय२ माठ लकड़ियों के संयोग से निर्मित भिन्न पलंग पर सोने वाले पुरुष की भांति इत्यादि अनेक दृष्टांत आचार्य अमृतचन्द्र ने अपनी व्याख्या में दिये हैं उन्हें ज्यों का त्यों प्राचार्य जयसेन ने अपनी तात्पर्यवृत्ति में भी ग्रहण कर प्रस्तुत किया है। इतना ही नहीं, कहीं कहीं तो जयसेन ने अमृतचन्द्र की सूत्ररूपेण काथ नशैली को भी उसी रूप में निर्दिष्ट किया है। उदाहरण के लिए अमृतचन्द्र एक स्थल पर लिखते हैं- "एवमेव च मोहपदपरिवर्तनेन रागद्वेष क्रोधमाननायालोभकर्मनोकर्म मनोवचनकायधोत्रचक्षनांगरसनस्पर्शन सूत्राणि षोडश व्याख्येयानि । अनयादिशान्यान्यप्यूहामि ।' इसी का अनुकरण भी देखिये प्राचार्य जयसेन द्वारा, यथा -
एवमेव मोहपदपरिवर्तनेन रागद्वपक्रोधमानमायालोभकर्ममनोवचनकायथोत्रचक्षुणिरसनस्पर्श सूत्राणि षोड़श व्याख्येयानि । अनेन प्रकारेणान्यान्यप्यसंख्येयलोकमात्रअमितानि विभाव परिणामरूपाणि ज्ञातव्यानि । अमृतचन्द्र का जयसेन पर गहन एवं व्यापक प्रभाव का सबसे बड़ा प्रमाण तो यह है कि जयसेन ने कहीं कहीं तो समयसार की गाथा पर अपनी कुछ भी व्याख्या न लिखकर आचार्य अमृतचन्द्र की सम्पूर्ण गाथा टीका को यथावत् उद्धृत कर दिया है। उदाहरण स्वरूप प्रमुतचन्द्राचार्य कृत समयसार की गाथा क्रमांक २६६ से २६६ तक की आत्मख्याति टीका जयसेन ने शब्दशः पूर्णतः
उद्धृत की है। १. गाथा ३५ पृष्ठ ७४ २. गाथा ३८ पृष्ठ ८० ३. गाथा ४४ पृष्ठ १० ४. तुलना हेतु गाथा क्रमांक ३४, ३५, ४०, ४३, ४६ की तात्पर्यवत्ति टीका
द्रष्टव्य है। ५. समयसार, गाथा ३६, प्रात्मत्याति टीका, पृष्ठ ७७ - ५८ ६. समयसार, गाथा ४१, ताल्पनि पृष्ठ ३७ ७. समयसार की गाथा क्रमांक ३१७, ३१८, ३१९ तथा ३२० की तात्पर्यवृप्ति
टीका द्रष्टव्य है।
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव )
[ १८७
उपरोक्त सभी प्रमाणों एवं आधारों पर अमृतचन्द्र का प्रभाव जयसेन पर अत्यंत स्पष्ट हो जाता है।
मुनिरामसेन पर प्रभाव (बारहवी-तेरहवी सदी ईस्वी):- रामसेन नाम के अनेक व्यक्ति हुए हैं। उक्त मुनि रामसेन तत्त्वानुशासन नामक ग्रन्थ के कर्ता हुए हैं जिनका समय ईसा की बारहवीं-तेरहवीं सदी है।' जयसेनाचार्य से पूर्व तत्त्वानशासनकार रामसेन अमृतचन्द्र की टीकाओं से परिचित एवं प्रभावित थे। उन्होंने जो निश्चय-व्यवहार का कथन किया है, वह अमृतचन्द्र के द्वारा प्रदनित दिशा के अनसार ही है। तत्त्वानुशासन पर अमृतचन्द्राचार्य के तत्त्वार्थसार तथा समयसार आदि टीकाओं का प्रभाव पड़ा है, उनकी यक्ति पुरस्सर शैली को अपनाया गया है। इतना ही नहीं अमित मिश्चा सौर व्यवहार होगा + दृष्टि को अमृतचन्द्र की भांति साथ लेकर चला गया है। अमृतचन्द्र की कथनशैली एवं तत्वदृष्टि के अतिरिक्त तत्त्वानुशासन में तात्विक एवं साहित्यिक अनुसरण भी पाया जाता है जिसके कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं -
___आचार्य अमृतचन्द्र में सात तत्त्वों में हेय तथा उपादेयपने का वर्णन करते हुए लिखा है कि उपादेय तत्त्व जीव तथा हेय तत्त्व अजीव हैं। हेय का उनादान हेतु आस्रव हैं तथा हेय का उपादान रूप बंध है। हेय के नाश (हान) का हेतु संवर व निर्जरा है और हेय के परिपूर्ण नाश रूप मोक्ष तत्व है। इसलिए उक्त सातों तत्वों का निरूपण किया गया है। इसी का अनुकरण करते हुए रामसेन ने बन्ध और उसके कारण आम्रव को हेय तथा मोक्ष और उसके कारण संवर-निर्जरा को उपादेय तत्त्व निरूपित किया है। उक्त दोनों विद्वान आचार्यों के मूल शब्द इस प्रकार हैं -
उपादेयतया जीवोऽजीवो हेयतयोदितः । हेयस्मास्मिन्नुपादान हेतुत्वेनास्रवः स्मृतः ।। हेयस्यादानरूपेण बन्धः स परिकीर्तितः । संवरो निर्जरो हेयहानहेतुतयोदिती ।। हेयप्रहाणरूपेण मोक्षो जीवस्त्र दशितः।। (अमृतचन्द्राचार्य)
१. जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग ३, पृष्ठ ४१% २. जनसंदेश शोघांक, अक्टूबर १९५६, पुष्ट १० ३. तत्त्वार्थसार, प्रथम अधिकार, पद्य क्रमांक ७ एवं
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१०० ]
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
बन्धो निबन्धनं चास्य हेयमित्युपदर्शितम् । यस्याशेष-दुःखस्य यस्माद्बीजमिदं द्वयम् ||४|| चैतदुपादेयमुदाहृतम्
मोक्षस्तत्कारणं
उपायेवं सुखं पश्यामाविर्भविष्यत ॥५॥ रामसेन ) ' अन्यत्र अमृतचन्द्र ने निश्चय व व्यवहार की अपेक्षा से मोक्षमार्ग का निपण दो प्रकार करते हुए, उनमें निश्चय को साध्य तथा व्यवहार को साधन के रूप में निरूपित किया है। इन्हीं शब्दों की पुनरावृत्ति रामसेन ने की है। उनके साम्यदर्शक पद्य निम्नानुसार है -
निश्चयव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गों द्विषा स्थितः ।
મ
3
तत्राद्यः साध्यरूपः स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम् ॥ ( अमृतचन्द्र ) २ भोक्षहेतुपुत्र घा निश्चयाद् व्यवहारतः 1 तत्राऽद्यः साध्यरूपः स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम् || ( रामसेन ) ३ उपयुक्त प्रमाणों से यह बात प्रमाणित हो जाती है कि आचार्य अमृतचन्द्र का प्रभाव मुनिरामसेन पर भी था ।
ब्रह्मदेवसूरि पर प्रभाव (१२६२-१३२३ ईस्वी) आप बालब्रह्मचारी थे, इसी से आपका नाम ब्रह्मदेव पड़ा। आप समयसार के टीकाकार जयसेन के सघर्मा थे क्योंकि उनकी उपदेश शैली से ब्रह्मदेव की शैली में अत्यधिक साम्य दिखाई देता है। इनका समय ईस्वी १२६२ से १३२३ है । इनकी कृतियों में द्रव्यसंग्रहटीका, परमात्मप्रकाशटीका, तत्त्वदीपक ज्ञानदीपक, त्रिवर्णाचार दीपक, प्रतिष्ठातिलक आदि मुख्य हैं | आचार्य अमृतचन्द्र के पश्चात् होने वाले ब्रह्मदेव पर उनके व्यक्तित्व का प्रभाव था, जिसके निम्न प्राधार हैं।
1
१. ब्रह्मदेव ने अपनी परमात्मप्रकाशटीका में अमृतचन्द्र के ग्रन्थ पुरुषर्थसिद्धयुपाय से २९६ वा पद्म "दर्शनात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः । इत्यादि पद्य उद्धृत किया है।" यह पद्य " तथा चोक्तम्"
१. तत्त्वानुशासन पद्य क्रमांक ४ तथा ५
२. तत्त्वार्थसार उपसंहार, पद्य नं. २
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३. तत्त्वानुशासन पद्य क्रमांक २८ ४. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृष्ठ २०५ ५. परमात्म प्रकाश गाथा ६६ की टीका
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Re Rece
व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
[ १८६ कहकर प्रमाण रूप में प्रस्तुत किया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि ब्रह्मदेव अमृतचन्द्र को प्रमाण रूप में स्वीकार करते हैं ।
२. पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री लिखते हैं कि ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों पर आचार्य अमृतचन्द्र की टीकाएँ रचे जाने पर उनके बाद के विद्वानों और विद्यारसिक ग्रन्थकारों का ध्यान विशेष रूप से कुन्दकुन्द के साहित्य को ओर आकृष्ट हुआ था। ब्रह्मदेव की द्रव्यसंग्रहीका भी इसका एक उदाहरण है ।"
इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्र का प्रभाव ब्रह्मदेवसूरि पर भी प्रकट होता है ।
कवि उड्डा पर प्रभाव (६६८ ईस्वी) ये संस्कृत के अच्छे विद्वान थे। इनका निवास स्थान चित्तौड़ था। इनके पिता का नाम श्रीपाल था । ये पोरवाल जाति के थे। इनकी एक मात्र कृति संस्कृत "पंचसंग्रह" है । कवि उड्दा अमृतचन्द्रसूरि के बाद तथा के तथा श्रमितगति के पूर्व के विद्वान हैं। इनका समय वि. सं. १०५५ ( ईस्वी ६६८ ) है । कवि डड्ढा आचार्य अमृतचन्द्र से प्रभावित थे। इसका आधार निम्नानुसार है -
-
उड्ढा ने अपने ग्रन्थ पंचसंग्रह में अमृतचन्द्र के ग्रन्थ के पथ को अपने कथन के समर्थन में "उक्तं च" रूप से प्रस्तुत किया है। अमृतचन्द्र ने लिखा है कि "सोलह कषाय व नी नोकषाय" कहीं गई है। इनमें जो किचित् भेद है, वह नहीं गिना जाता है इसलिए दोनों मिलाकर पच्चीस कषाय कहलाती है। उनका मूल पद्य इस प्रकार है -
षोडशव कषायाः स्युनकषाया नवेरिताः । ईषद्भेदो न भेदोऽत्र कषायाः पंचविंशतिः ॥ ३
अमृतचन्द्र के उक्त पद्य को डड्ढा ने अपने ग्रन्थ पंचसंग्रह के प्रकृतिसमुत्कीर्तन अधिकार में उद्धृत किया है । *
इस तरह अमृतचन्द्र का प्रभाव डड्ढा पर भी पड़ा है।
१. जैन संदेश शोधांक २५, लेख पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, पृष्ठ ७ (अक्टूबर ६७ )
२. राजस्थान का जैन साहित्य, पृष्ठ २७-६८
३. तत्त्वार्थसार, बंधाधिकार, पद्य क्रमांक ११
४. जैन संदेश शोधांक- २६ (२६ फरवरी, १९६८ )
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१६० ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
माइलधार (१३६.६२४६ ईपी) ... नाचवल ने अपने ग्रन्थ की अन्तिम गाथाओं में प्राचार्य देवसेन (८६३-६४३ ईस्वी) को अपना गुरु घोषित किया है। उनकी एकमात्र कृति नयचक्र है। उक्त ग्रन्थ में द्रव्यसंग्रह तथा पद्मनंदिपंचविंशति के एकत्यसप्तति से कुछ उद्धरण प्रस्तुत किये गये हैं। उनका समय ११३६ और १२४३ ईस्वी के बीच का है।' नयचक्र का दूसरा नाम द्रव्य स्वभाव प्रकाशक भी है। उक्त ग्रन्थकर्ता माइल्लघवल पर प्राचार्य अमृतचन्द्र का प्रभाव पड़ा था। इसके कुछ आधार इस प्रकार हैं --
दसवीं ईस्वी सदी में आचार्य अमृतचन्द्र की टीकाओं की रचना होने पर विभिन्न लेखकों ने अपनी रचनाएं की। तत्पश्चात भाइलघवल ने भी द्रव्यस्वभाव प्रकाशक अपरनाम नयचक्र नामक ग्रन्थ रचा और उसमें नयों के विवेचन के साथ अध्यात्म का भी विवेचन किया ।' उक्त विवेचन में उन्होंने अमृत चन्द्रकृत पंचास्तिकाय की संस्कृत टीका से भी कुछ उपयोगी विषयवस्तु ग्रहण की। डॉ, हीरालाल एवं डॉ. ए. एन. उपाध्ये ने उक्त आशय का समर्थन करते हुए लिखा है कि द्रव्यस्वभाव प्रकाशक ग्रन्थ संस्कृत में अनवाद मात्र नहीं है, प्रत्यत इसमें कुन्दकुन्द के समयसार तथा उसकी अमृतचन्द्र कृत टीका के उपयोगी अंश पाये जाते हैं।
अत: आचार्य अमृतचन्द्र का प्रभाव माइलधवल पर भी स्पष्ट प्रतीत होता है।
नरेन्द्रसेन पर प्रभाव (१०६८ ईस्वी) - लाड़बागड़ संध की गुर्वावलि के अनुसार आप गुणसेन के शिष्य, उदयसेन के सघर्मा और गुणसेन द्वितीय, जयसेन द्वितीय तथा उदयसेन द्वितीय के गुरु थे। इनको कृति का नाम सिद्धांतसारसंग्रह है। इनका समय ईस्वी १०६८ है। नरेन्द्रसेन अमृतचन्द्र आचार्य से प्रभावित थे - इसके कुछ आधार इस प्रकार हैं -
१. नयचक्र, माहल्लघवल कृत का "जनरल एडीटोरियल", पृष्ठ ६-७ २. द्रव्यस्वभाब प्रकाशक (नयचक्र)-प्रस्तावना, पृष्ठ २१ ३. बही-ज'जनरल एडीटोरियम" पृष्ठ ७ i. e. This is not just a Sanskrit rende
ring but contains useful moatter from the samayasara (of Kundakunda and
Aurtachandra's exposition of the same." Page-7. ४. जैनेन्द्रसिद्धांतकोश,भाग २ पृष्ठ ५७६
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
[ १९१ १. उनका सिद्धांतसार संग्रह ग्रंथ प्राचार्य अमृतचन्द्र के तत्त्वार्यसार की शैली पर रचा गया है। .
२. सम्पूर्ण ग्रन्थ तत्त्वार्थसार की भांति संस्कृत के अनुष्टुप् छंदों में शिक्षा गया है।
३. सिद्धांतसार रचने की प्रेरणा नरेन्द्रसेन ने अभूतचन्द्र के तत्त्वार्थसार से ग्रहण की । इस सम्बन्ध में पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री ने भी अपना समर्थन व्यक्त करते हये लिखा है कि दोनों ग्रन्थों के अंतर्परीक्षण एवं तुलना करने से पता चलता है कि नरेन्द्रसेन को तत्त्वार्थसार से सिद्धांतसार रचने की प्रेरणा मिली । नरेन्द्रसेन के पूर्वज जयसेन ने तो अपने धर्मरत्नाकर में अमृतचन्द्र का पुरुषार्थसिद्ध्यपाय का अधिकांश भाम उद्धत किया है । यद्यपि नरेन्द्र सेन ने ऐसा नहीं क्रिया परन्तु अपने सिद्धांतसार में प्रकारान्तर से तत्त्वार्थसार को अपना लिया है। दोनों ग्रन्थों के नामकरण में भी भावसाम्य है।'
पंडित प्राशाधर पर प्रभाव (११७३-१२४३)- आपका जन्म नागौर के पास माण्डलगढ़ में हुआ था, परन्तु' बादशाह शहाबुद्दीन के अत्याचार के कारण मालवा देश की धारानगरी में रहने लगे । आपके पिता सल्लक्षण तथा माता रत्नो बघेरवाल जाति के थे। आप उच्चकोटि के विद्वान तथा पं० आशाधर नाम से प्रसिद्ध थे। आपका समय ईस्वी ११७३ से १२४३ था। आपकी लगभग २० कृतियाँ उपलब्ध होती हैं उनमें सागार घर्मामृत, अनगारधर्मामृत, अध्यात्मरहस्य, इष्टोपदेश टीका, भगवती आराधना टीका, सहस्रनाम आदि उल्लेखनीय थे ।'
आप आचार्य अमृतचन्द्र के व्यक्तित्व तथा कृतित्व से प्रभावित थे । इसके कुछ माघार इस प्रकार हैं -
१. पाशाघर ने अपनी कृतियों में अमृतचन्द्र की कई कृतियों के उद्धरण अपने तत्वनिरूपण की पुष्टि हेतु प्रमाणरूपेण प्रस्तुत किये हैं। उदाहरण के लिये अनगार धर्मामृत ग्रन्थ में प्राशाधर ने अमृतचन्द्र के
१. जनसाहित्य का इतिहास, भाग २ पृष्ठ ३५५ २. जनेन्द्र सिद्धांतकोश-भाग प्रथम-पृष्ठ २६४
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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
पुरुषार्थसिद्ध्य पाय के १६ पद' समयसार कलश के १४ कलश, तत्वार्थसार का अधिकार २ का ५८ श्लीक तथा प्रबचनसार की तत्त्वप्रदीपिका टीका का एक पद प्रमाणरूप में उद्धत किया है। इससे अमृतचन्द्र के व्य' लादक सहता है।
२. पाशाधर ने अमृतचन्द्र के ग्रन्थों से पदों को उद्धत ही नहीं किया है अपितु कुछ पद्यों को शाब्दिक परिवर्तन के साथ प्रस्तुत कर अपने ग्रन्थ में समाहित किया है। उन पद्यों में अधिकांश साम्य भी पाया जाता है । ऐसे साम्यदर्शक पद्यों के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं -
निश्चयमिह भूतार्थ व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थम् । भूतार्थ बोधविमुखः प्रायः सवोऽपि संसारः ।। (अमृतचन्द्र ) व्यवहारमभूतार्थं प्रायो भूतार्थ विमुखजन मोहात् । केवलमुपयुजानो व्यंजनवद् भ्रश्यति स्वार्थात् ।। (पं. प्राशाधर)५
एक स्थल पर अमृतचन्द्र लिखते हैं कि जो जीव निश्चय के स्वरूप को न जानकर उसको ही निश्चय से अंगीकार करता है वह मूर्ख बाट क्रिया में आलसी है और बाह्य क्रिया रूप प्राचरण का नाश करता है । इसी अभिप्राय का समर्थन एवं पुनरावृत्ति पं. आशाघर भी करते हैं। दोनों के मूल कथन इस प्रकार हैं -
निश्चयमबुध्यमानो यो निश्चयतस्तमेव संश्रयते। नाशयति करणचरणं स बहिः करणालसो बालः ।। (अमृतचन्द्र) व्यवहारपराचीनो निश्चयं यश्चिकीर्षति । बीजा दिना बिना मुढ़ः स सस्यानि सिसृक्षति ॥ (पं. आशाधर)
१. पुरुषार्थ सिद्ध युपाय के क्रमशः १६ पद इस प्रकार उन त है-पद्य नं. २२०, २११,
२२५, ३४, ३३, ३२, २६, २७, २८, २९, ३०, ४६, ४८, ४२, ६६, १११,
११२, ११३ तथा ११४ २. समयसार कलश के १४ कलश क्रमशः १६४, २०५, १३१, ११०, २४, २२५,
२२६, २२७, २२८, २२६, २३०, २३१, २१४ तथा १११ हैं। ३. प्रवचनसार, चरणानुयोगचूलिका (तत्त्वप्रदीपिका टीका) पद्य क्रमांक १३ ४. पुरुषामिद्ध युपाय, पद्य नं. ५ ५.. अनगारधमामृत, अध्याय प्रथम, पच नं. १६ ६. पुरुषार्थ सिख युपाय, पद्य नं. ५ ७. अनगारधर्मामृत, अध्याय प्रथम, पद्य नं. १००
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[ १६३
इसी तरह अमृतचन्द्र ने प्रथम अवस्था में व्यवहारनय को हस्तावलंब रूप बताया, साथ हो खंद भी व्यक्त किया कि वह भी परद्रव्यों से भिन्न, चैतन्यचमत्कार मात्र देयने (अनमव करने वालों के लिए यह व्यवहार भय कुछ भी उपयोगो नहीं है । यथा --
ध्यपहरणनवः स्थात् पर्धा .. ३६मां,
इह निहितपदानां हन्तहस्तावलम्बः । तदपि परमर्थ चिच्चमत्कार मात्र
पर बिरहितमन्तः पश्यतांनष किंचित् ।।' इन्हीं शब्दों तथा भावों को ग्रहण कर पं. आशाधर ने भी लिखा है कि जैसे नट रस्सी पर स्वच्छन्दतापूर्वक बिहार करने के लिए बारम्बार बांस का सहारा लेते हैं और उसमें दक्ष हो जाने पर उसका सहारा छोड़ देते हैं, वैसे ही धीर मुमुक्ष को निश्चय में निरावलम्बन पूर्वक विहार करने के लिए बारम्बार व्यवहारनय का अवलम्बन लेना चाहिए तथा उसमें (निश्चय में) समर्थ हो जाने पर व्यवहार का आलम्बन छोड़ देना चाहिए। मूल गाथा इस प्रकार है
भूतार्थ रज्जुवत्स्वेरं बिहतु वंशबनमूहः ।। थयो धीरेरभूतार्थों हेयस्तविहतीश्वरैः ।। (पं. आशाघर )२
यहां हम अमृतचन्द्र के अनुकरण पर लिखे गये पं. पाशाधर के पद्यों को मूल रूप में ही प्रस्तुत करते हैं।
१, बन्धन होने तथा न होने के नियम का उल्लेख अमृतचन्द्र ने इस प्रकार किया है
येनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य बन्धन नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ।। येनांशेन तु ज्ञानं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । ग्रेनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ।। येनांशेन चरित्रं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ।। (अमृतचन्द्र)
उपरोक्त तीनों पद्यों का भाव एक ही पत्र में समाहित करके पं. आशाघर ने लिखा है
१. समयसार कलश, नं. ५ २. अनगारधर्मामृत, प्रध्याम प्रथम, पद्य नं. १०१ ३. पुरुषार्थ सिर युपाय, पद्य क्रमांक २१२, २१३, २१४
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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
येनांशेन विशुद्धिः स्याज्जन्तोस्तेन न बन्धनम् । येनांशेन तु रागः स्यात्तेन स्यादेव बन्धनम् ।। (पं. आशाघर)'
२. रागादि की अनुत्पत्ति को अहिंसा तथा उसको उत्पत्ति को हिंसा बताते हुए अमृतचन्द्र जैनागम का सार इस प्रकार व्यक्त करते हैं -
अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिसेति ।
तेषामेवोत्पत्तिहिसे ति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ इसी अभिप्राय की पुनरावृत्ति पं. पाशाघर निम्न शब्दों में करते हैं
परं जिनागमस्येदं रहस्यमवधार्यताम् ।
हिंसा रागायुद्भुतिरहिंसा तदनुद्भवः ॥ ३, आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि यद्यपि परवस्तु के कारण आत्मा को जरा भी हिंसा नहीं होती, तथापि परिणामों की निर्मलता के लिये हिंसा के स्थानों से निवृत्त हो जाना चाहिये । यथा -
सूक्ष्मापि न खलु हिंसा परवस्तु निबन्धना भवति पुसः । हिंसायतन निवृत्ति: परिणामविशुद्धये तदपि कार्या ।।
इन शब्दों का ज्यों का त्यों अनुसरण करते हुए पं० आशाघर भी लिखते हैं --
हिंसा यद्यपि पुस: स्याम्न स्वल्पाप्यन्य वस्तुतः । तथापि हिंसायतनाद्विरमेद्भावविशुद्धये ।।
४. प्रात्मा के शुद्धोपयोग रूप परिणामों के घात होने को ही हिंसा बताते हुए तथा असत्य वचनादि भेदों को शिष्यों को समझाने के लिए कहा गया है - इस प्रकार कथन करते हुए अमृतचन्न ने लिखा है -
आत्मपरिणाम हिंसनहेतुत्वात्सर्वमेव हिसतत् । अनुतबसनादि केवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ।।' इसी कथन को आधार बनाकर पं० पाशाधर ने भी लिखा है -
१. अनगारधर्मामृत, अध्याय प्रथम, प्रलोक नं. ११० २. पुरुषार्थसिद्ध युपाय, पद्य नं. ४४ ३. अनगार धर्मामृत, अध्याय चतुर्थ श्लोक नं. २६ ४, पुरुषार्थसिद्ध युपाय, पद्य नं. ४६ ५. अनगार धर्मामृत, अध्याय ४ पद्य नं. २८ ६. पुरुषार्थसिद्ध युपाय, पद्य नं. ४२
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सुखमचलमहिसा लक्षणादेव धर्मात्, भवति विधिरशेषोऽप्यस्य शेषोऽनुकल्पः । इह भवगहनेऽसावेद दुर दुरापः, प्रवचनवचनानां जीवितं चायमेव ।।'
५. कर्ता-कर्म आदि का भेद व्यवहारदृष्टि में कहा गया है परन्तु निश्चयदृष्टि से तो कर्ता-कर्म के भेद दो पदार्थों में घटित न होकर एक ही में घटित होते हैं यथा -
व्यावहारिक-दर्शव केवलं, कत-कर्म च विभिन्न मिष्यते । निश्चयेन यदि वस्तु चिन्त्यते कतुं कर्म च सदकमिष्यते ॥(अमृतचन्द्र) इसी सिद्धांत को लगभग इन्हीं शब्दों में . आशाघर लिखते हैं -
काद्या वस्तुनो भिन्ना येन निश्चयसिद्धये।
साध्यन्ते व्यवहारोऽसौ निश्चयस्तदभेददक ॥ इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्र का गम्भीर प्रभाव पं० आशाघर पर स्पष्टतः प्रकट होता है ।
पण्डित राजमल्ल पाण्डे (ईस्वी १५४६-१६०५) - आप मगध देश के विराटनगर में बादशाह अकबर के समय में निवास करते थे। आप काष्ठासंघी भट्टारकों की आम्नाय के पंडित थे । पं० बनारसीदास ने इन्हें "पाण्डे" राजमल्ल नाम से उल्लिखित किया है । आपकी कृतियों में अमृतचन्द्राचार्य कृत प्रात्मख्याति समयसार कलश टीका की रदारी हिन्दी भाषा में बालबोध टीका, पिंगल ग्रन्थ-छंदोविद्या, पंचास्तिकाय टीका, लाटी संहिता, पंचाध्यायी, जम्बुस्वामीचरित्र तथा अध्यात्मकमलमार्तण्ड मुख्य हैं। इनका समय ईस्वी १५४६-१६०५ है।
१. पंडित राजमल्ल पाण्डे आचार्य अमृतचन्द्र को कृतियों के मर्मज्ञ, तथा रसिकः विद्वान थे । अमृतचन्द्र के व्यक्तित्व का विशेष प्रभाव एवं उनकी कृतियों का प्रभुत्व राजमल्ल की कृतियों पर था । इस सम्बन्ध में पंडित बनारसीदास ने अपने ग्रन्थ नाटक समयसार में पाण्डे राजमल्ल की समयसार मर्मज्ञता का उल्लेख किया है । यथा -
पाण्डे राजमल्ल जिनधर्मी, समयसार नाटक के मर्मी।
तिन हि ग्रन्थ की टीका कीनी, बालबोध सुगम करि दीनी ॥५ - --- - - १. अनगार धर्मामृत, अध्याय षष्ठ, श्लोक ८१ । २. समयसार कलश, क्रमांक २१० ३, प्रनगार धर्मामृत, अध्याय प्रथम, पद्य नं. १०२ ४. जैनेन्द्रसिद्धांतकोश, भाग३ पृष्ठ ४१४ ५. समयसार नाटक, मंतिमप्रशस्ति, पद्य नं. २३
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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
२. अमृतचन्द्र का पं. राजमल्ल पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उनकी कृतियों में यत्र तत्र प्राचार्य अमृतचन्द्र की टीकाओं के मूलशब्द, वाक्य एवं यथावत् भावप्रस्फुटन हुआ है । यही कारण है कि उनकी पंचाध्यायी कृति को, अमृतचन्द्र की टीकाओं, भावों तथा शैली से अनुप्राणित एवं समंजित देखकर, भ्रमवशात् अमृतचन्द्र को ही कृति कुछ विद्वानों ने समझ ली थी । ' अमृतचन्द्र की रचनाशैली की साम्यता पं. राजमल्ल की कृतियों में स्पष्ट दिखाई देती है। उदाहरण के लिए - अमृतचन्द्र ने चेतना प्रकरण के अन्तर्गत ज्ञानचेतना की व्याख्या करते हुए लिखा है कि आत्मा अपने को - ज्ञानमात्र को चेतने से स्वयं ही ज्ञानचेतना है. ऐसा आशय है। उनके मूल शब्द इस प्रकार हैं - "स्वस्य ज्ञानमात्रस्य चेतनात् स्वयमेव ज्ञानचेतना भवतीति भावः । इन्हीं शब्दों को पंचाध्यायीकार ने श्लोकबद्ध करके प्रस्तुत किया है यथा -
प्रत्रात्मा ज्ञानशब्देन वाच्य स्तन्मात्रतः स्वयम् । स नेत्यतेऽनया शुखः शुद्धा या शाल चेतना : (:नाजागा)
३. प्राचार्य अमृतचन्द्र व्यवहार नय को कथंचित् प्रयोजनीय बताते हुए लिखते हैं -
"व्यवहरणनयः स्याद्यद्यपि प्राक्यपदव्या
मिह निहितपदानां हत हस्तावलम्बः । तदपि परममर्थ चिच्चमत्कार मात्र
परविरहितमंतः पश्यतां नैष किंचित् ॥' उक्त पद्य रचना के पूर्व टीका में अमनचन्द्र ने स्पष्ट किया है कि व्यवहारनय विचित्र अनेक वर्णमाला के समान होने से जानने में आता हुआ उस काल में प्रयोजनवान है - क्योंकि तीर्थ तथा तीर्थ के फल की ऐसी ही व्यवस्था है। टीका के मूल शब्द इस प्रकार है - "व्यवहारनयो विचित्रवर्णमालिकास्थानीयत्वात्परिज्ञायमानस्तदात्वे प्रयोजनवान्, तीर्थ
१. पंचाध्यायी, प्रस्तावना पृष्ठ १५, पं. फूलचन्द शास्त्री (टीकाकार, “पण्डित
देवकीनन्दन) २. समयसार, गाथा ३८६ की प्रारमख्याति टीका, पृष्ठ ५२० ३. पंचाध्यायी, अध्याय २, पन नं. १६६ ४. समयसार कलश कांक ४
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
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तीर्थफलयोरित्थमेव व्यवस्थितत्वात् ।" अमृतचन्द्र ने एक स्थल पर महिष के ( मैं से का) ध्यान का दृष्टान्त देते हुए लिखा है -- "यथा बाऽपरीक्षकाचार्यादेशेन मुग्धः कश्चिन्महिषध्यानाविष्टोऽशानान्महिषात्माना देकीकुर्वनात्मन्य कषविषाणमहामहिषत्वाध्यासात् प्रच्यत मानुषोचितापवरकद्वार विनिस्सरणतया तथा विधस्य भावस्य कर्ता प्रतिभाति । इस प्रकार उपरोक्त शब्दों एवं भावों को पं. राजमल्ल ने निम्न पद्यों में ज्यों का त्यों समाहित करके प्रस्तुत किया है । वे पद्म इस प्रकार हैं -
तस्मादाश्रयणीयः केचित् स नयः प्रसंगत्वात् । अपि सविकल्पानामिव न श्रेयो निर्विकल्प बोधवताम् ।। नवं यतोऽस्ति भेदोऽनिर्वचनीयो नयः स परमार्थः । तस्मात्तीर्थस्थितये श्रेयान कश्चित् स याबदूकोऽपि ।। दष्टान्तोऽपि च महिषध्यानाविष्टो यथा हि कोऽपि नरः। महिषोऽयमहं नस्योपासक इति नयावलम्बी स्थात् ॥
इससे स्पष्ट है कि आचार्य अमृतचन्द्र का प्रभाव पं. राजमल्ल पाण्डे पर था।
पण्डित बनारसीवास पर प्रभाव (ईस्वी १५८७-१६४४) - आप आगरा के निवासी, श्रीमालवैश्य थे। आपके पिता खरगसेन थे। प्रारम्भ में आप श्वेताम्बर अाम्नाय में थे, बाद में दिगम्बर हो गये। आप जवाहरात के व्यापारी थे। गोस्वामी तुलसीदास के समकालीन थे ! प्रापकी निम्न कृतियां प्रसिद्ध हैं - नवरस पद्यावलि, नाममाला, नाटकासमयसार, बनारसी बिलास, कर्मप्रकृतिविधान, अर्घकथानक आदि । पापका समय ईस्वी १५५५-१६४४ है। आप आचार्य अमृतचन्द्र के व्यक्तित्व व कृतित्व से प्रभावित ही नहीं थे, अपितु उन्होंने उनके ग्रन्यों को आत्मसात् करके आध्यात्मिक रचनाएं की। प्राकृत भाषा में उपलब्ध आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी का समयप्रामृत तथा उसकी अमतचन्द्राचार्य कृत यात्मख्याति-समयसार कलश दीका को प्रात्मसात् करके नाटकसमयसार की रचना की गई है। यद्यपि नाटकसमयसार अमृतचन्द्र कृत
1. समयसार, पात्मख्याति सीका गाथा १२ २. समयसार, प्रारमस्याप्ति टीका, गाथा ६६ ३. पंचाध्यायी, अध्याय प्रथम, क्रमांक ६३३.६१, ६४६
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१६८ ]
आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तुं स्व
कलशों का होनाधिक रूप से छायानुवाद सा प्रतीत होता है, तथापि बनारसीदास ने अपनी प्रखर प्रतिभा द्वारा उसे अद्वितीय श्राध्यात्मिक रंग में रंगा है। यह एक बड़ा ही अपूर्व ग्रन्थ है।" इस संदर्भ में डॉ. रवीन्द्र कुमार जैन लिखते हैं कि प्राचार्य प्रवर कुन्दकुन्द का समयप्रामृत उसकी अमृतचन्द्राचार्य कृत "आत्मख्याति" नामक संस्कृत टीका और पं. राजमलजी कृत भाषा टीका इन तीनों ग्रन्थों के आधार पर ही इस हिन्दी पद्य बद्ध ग्रन्थ नाटकसमयसार का प्रणयन हुआ है । कविवर पर आचार्य कुन्दकुन्द एवं अमृचन्द्र आचार्य का प्रभाव अवश्य रहा है । बनारसीदासजी ने समयसार के कलशों का अनुवाद ही नहीं श्रपितु उनके मर्म को अपने ढंग से व्यक्त किया है जिससे वह बिल्कुल स्वतन्त्र ग्रन्थ जैसा मालूम होता है । यह कार्य वही लेखक कर सकता है जिसने उसके सुनाय को योग करके अपना बना लिया है । इतना ही नहीं, पं. बनारसीदासजी ने विषय व्यवस्था में भी अमृतचन्द्र का अनुकरण किया है। उनका नाटकसमयसार ग्रन्थ अमृतचन्द्र के कलशों का होनाधिक, संक्षिप्त और विशद् मूलानुगामो पद्यानुवाद है । जो आलंकारिक बहुरंगी रंगों में प्रस्फुटित हुआ है । प. बनारसीदास नै स्वयं ग्रन्थ की प्रशस्ति में इस बात का उल्लेख करते हुए
किया हैं,
I
लिखा है
भण्डार ।
समयसार नाटक अकथ, अनुभव रस याको रस जो जानहीं, सो पायें भवपार || अनुभौ रस के रसियाने, तीन प्रकार एकत्र बखानें । समयसार कलशा श्रति नीका, राजमली सुगम यह टीका ताकै अनुक्रम भाषा कीनी, बनारसी ग्याता रसलीनी । ऐसा ग्रन्थ अपूरब भाया, तानें सबका मनहि लुभाया ॥ ४
—
आचार्य श्रमृतचन्द्र ने समयसार टीका के अंत में "स्थाद्वादद्वार" स्वयं रचकर जोड़ दिया है। इससे ग्रन्थ की उपयोगिता और भी अधिक हो गई है। उन्होंने स्याद्वादद्वार के सम्बन्ध में अत्यन्त भव्य उद्गार व्यक्त
१. जैन हितैषी, सम्पादक नाथूराम प्रेमी, नवम्बर-दिसम्बर १९१६, भाग १२, अंक ११-१२ पृष्ठ ५६२
२. कविवर बनारसीदारा जीवनी और कृतित्व, ग्रुष्ठ १२६
३. वही, पृष्ठ १४२ - १४३
४. ईडर के भण्डार की प्रति का अन्तिम अंश, पद्य क्रमांक १,
J
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव )
[ १९६ किये हैं। पं. बनारसीदास ने वे उद्गार पद्यबद्ध किये हैं। जो इस प्रकार हैं
अद्भुत ग्रन्थ अध्यातम वानी, सम्झे कोई बिरला ज्ञानी । याम स्याद्वाद अधिकारा, ताकी जो की बिसातारा ।। तो गिरस्थ अति शोभा पावे, वह मन्दिर यहु कलश कहावे । तबचित अमृतवचन गढ़ि खोले, अमृतचन्द्र अचारज बोले ।'
पं. बनारसीदास ने अमृतचन्द्र के कलशों एवं भावों को किस प्रकार आत्मसात् करके पद्यरचना द्वारा अभिव्यक्त किया है, उसके कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं -
१. एक स्थल पर प्राचार्य ने नवतत्त्वरूप विविध अवस्थाओं में छिपी प्रात्मज्योति को विविषवर्णसमूह में छिपे स्वर्ण से उदाहरत करके विविध प्रकार दिखाई देने वाली कहा, परन्तु पर्याय दृष्टि छोड़कर शुद्धनय रूप द्रव्यदृष्टि से उसे चैतन्य चमत्कार मात्र प्रकाशमान निरूपित किया है । यथा - चिरमिति नवतत्वच्छन्नमुन्नीयमानं, कनकमिव निमग्नं वर्णमाला कलापे । अथ सततत्रिविक्तं दृश्यतामेकरूपं, प्रतिपदमिदमात्मज्योतिरुद्योतमानम् ।।
इसी कलश का भावार्थ पण्डित बनारसीदास ने इन शब्दों में संजोया है - जैसे बनवारी में सुधात के मिलाप हेम,
___ नाना भांति भयो पै तथापि एक नाम है । कसिके कसौटी लीकु निरखं सराफ ताहि,
वान के प्रवान करि लेतु देतु दाम है || तसे ही अनादि पुद्गल सौं संजोगी जीव,
नव तत्त्व रूप में मरूपी महापाम है। दीसे उनमान सौं उद्योतवान् ठौर ठौर,
दूसरों न और एक प्रातम ही राम है।' २. इसी तरह निजात्मा का स्वरूप दर्शाते हुए आचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा है -
१. नाटकस गसार, स्याद्वादद्वार, १, २ २. समयसार कलश, पद्य नं. ८ ३. समयसार नाटक, भोवतार, पद्य' नं
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२०० ।
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व सर्वतः स्वरसनिर्भर भावं चेतये स्वयमहं स्व मिहकम् । नास्ति नास्ति' मम कश्चन मोहः शुद्धचिद्घनमहोनिधिरस्मि ॥'
इस श्लोक का सार बनारसीदासजी के सरस शब्दों में इस प्रकार हैकहै विचक्षणपुरुष सदा मैं एक हो,
अपने रससौं भर्यो मापनी टेक हों। मोह कर्म मम नाहि नाहि भ्रमकूप है,
शुद्ध चेतना सिन्धु हमारों रूप है ॥ ३. कर्ता, कर्म और क्रिया का स्वरूप बताते हुए उन तीनों को एक ही वस्तु के तीन नाम मंद करते हुए अमृतचन्द्र लिखते हैं -
यः परिणमति स कर्ता, यः परिणामी भवेत्तु तत्कर्म । या परिणति: क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया ॥'
उपरोक्त श्लोकगत भावों को कितने सरल एवं सुबोध शब्दों में पं. बनारसीदास ने व्यक्त किया है। उनके शब्द इस प्रकार हैं -
करता परिणामी दरब, करम रूप परिणाम । किरिया परजय की फिरनि, वस्तु एक प्रय नाम ।
इस तरह के एक दो ही नहीं, सैकड़ों उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं, क्योंकि सम्पूर्ण ही ग्रन्थ अमृतचन्द्र कृत समयसार कलश एवं टीका पर मुख्यपने आधारित है।
अंत में सम्यग्ज्ञान के बिना सम्पूर्ण चारित्र निस्सार है, यहां तक कि महाव्रत-समिति आदि का पालन भी कोई कीमत नहीं रखता" इस बात का स्पष्टीकरण करते हुए प्राचार्य अमृतचन्द्र घोषणा करते हैं कि -
सम्यग्दृष्टिः स्वयमयमहं जातु बन्धो न मे स्थाद्, इत्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोऽप्याचरन्तु । आलम्बन्तां समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा, आत्मानात्मावगम विरहात् सन्ति सम्यक्त्वरिक्ताः॥५
१. समयसार कलश, पद्य नं.३० २. समयसार नाटक - जीयद्वार, पच नं ३३ ३. समयसार कलश, पच नं. ५१ ४. समयसार नाटक, कफिम क्रिया द्वार, पच ७ ५. समसार कलश, ऋमान १३७
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
_ [ २०१ तथा ज्ञानहीन क्रिया मोक्षदायी नहीं होती इस सम्बन्ध में भी स्पष्ट लिखा है - 'विलापता पधन दुष्करतरक्षिोन्मुखेः कर्मभिः । क्लिश्यतां च परे महाव्रततपो भारेण भगनाश्चिरम् ॥ साक्षान्मोक्ष इदं निरामयपदं संवेद्यमानं स्वयम् । ज्ञानं ज्ञानगुण बिना कथमपि प्राप्तु क्षमन्ते न हि ॥
उपरोक्त दोनों पद्यों का अनुसरण करते हुये बनारसीदास जी ने हिन्दी पद्यानुवाद इन शब्दों में किया है -
"जो नर सम्यकवंत कहावत, सम्यग्ज्ञानकला नहिं जागी । आतम अंग प्रबंध विधारत, घारत संग कह हम त्यागी ।। भेष घरें मुनिराज पटतर, अंतर मोहमहानल दागी । सुन्न हिये करतूति करै, पर सो सठ जीव न होय विरागी ।।
तथा आगे वे पुनः लिखते हैं - कोई क्रूर कष्ट सहैं, तपसौं शरीर दहैं,
घूम्रपान करें अधोमुख बके भूले हैं। केई महायत गहैं क्रिया में मगन रहैं,
बहैं मनिभार पै पयार कैसे प्रले हैं ।। इत्यादिक जीवनि को सर्वथा मुकति नाहि,
फिरे जगमाहि ज्यों वयारि के बबूले हैं। जिन के हिए में ज्ञान तिन्ह ही कों निरवान,
करम के करतार भरम में भूले हैं ।। डा० जगदीशचन्द्र जैन ने जम्बूस्वामी चरित की प्रस्तावना में लिखा है कि अमृतचन्द्रसूरि के ग्रात्मख्याति समयसार की तरह पं० बनारसीदास ने अपने नाटक समयसार के प्रादि में चिदात्मभाव को नमस्कार करके संसार ताप को शांति तथा अपने मोहनीय कर्म के नाश के लिए उक्त ग्रन्थ की रचना की और उसमें कुन्दकुन्दाचार्य तथा अमृतचन्द्राचार्य का स्मरण किया है । कवि ने अपने ग्रन्थ को आत्मख्याति के ढंग
१. समयसार कलश नं. १४२ २. समयसार नाटक, निराहार पथ क्रमांक ८ ३. बाही, पचं कमांक २१
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२०२ )
। भाचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व पर अनेक छंद, अलंकार आदि से सुसज्जित अध्यात्म शास्त्र की अति सुन्दर रचना करके जैन साहित्य के गौरव को वृद्धिगत किया है ।'
इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्र का प्रभाव पं० बनारसीदास पर स्पष्ट प्रकट होता है।
पण्डित भूधरदास पर प्रभाव (१७३२ ईस्वी)- पाप आगरा निवासी तथा खण्डेलवाल जैन थे । यापकी कृतियों में प्रमुख कृति "पाचपुराण" है । आपका समय १७८६ संवत् (१७२२ ईस्वी) है। आप आचार्य अमृतचन्द्र की कृतियों से विशेष प्रभावित थे। जिसके कुल आधार इस प्रकार हैं।
प्रथम सो भूधरदास का पार्श्वपुराण यद्यपि पार्श्वनाथ जिनेन्द्र के जीवनचरित से सम्बद्ध प्रधमानयोग का ग्रन्थ है, फिर भी इसका बहुभाग द्रव्यानुयोग विषयक तत्त्वनिरूपण में उपयोग किया गया है । तत्त्वनिरूपण का प्रमुख आधार आचार्य अमृत चन्द्र के हो ग्रंथों में वणित विचार थे। लेखक ने स्वयं भी इस बात को स्वीकार किया है। इसका उल्लेख उन्होंने सात तत्व के निरूपण करते समय किया है । यथा -
अमृतचन्द्र मुनिराज कृत किपि अर्थ अबधार । जीवतत्त्व वर्णन लियो अब अजीव अधिकार ॥3
उक्त प्रमाण से आचार्य अमृत चन्द्र का प्रभाव पण्डित भूधरदास पर भी लक्षित होता है।
पं० हीरानंद पर प्रमाव (१६१३-१६८३ ईस्वी ) - पं० हीरानंद आगरा निवासी पं. जगजीवन के साथी थे। जगजीवन की प्रेरणा से पं० हीरानंद ने पंचास्तिकाय का पद्यानुवाद १६४३ ईस्वी में किया था । उनका समय १६१३ से १६८३ ईस्वा है । पं हीरानंद आचार्य अमृतचन्द्र से प्रभावित थे, इसके कुछ आधार इस प्रकार हैं -
१. अर्धकथानक, पं. बनारसीरासकृत संपादक - नाथू रागप्रेमी, पृष्ठ ८६ (१९७५)
प्रथम संख्या २. बृहत जैन शब्दार्णव, भाग २, पृष्ठ ५७२ ३. पार्श्व पुराण, अधिकार ६, पृष्ठ ७२-७३ (प्रकाशक जैन ग्रन्थ र० का, बम्बई)
वीर० नि० सं० २४३ ४ (ज्ञानसागर प्रेस) ४, पंजास्तिकाय, समयसार - 40 हीरानंद, प्रशस्ति पद्य २६, पृष्ठ १६६
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दर
स्वस्परसनीनी कुंकुंदमुनिजननकारा वाकिया सातमहितसारा २४ तिसमें नानाञ्चरथविधारा ज्ञानीजनमनपश्मपियारा वनमहीरतीरनहिपावै ज्ञानी जनमनजलगावै २० श्रागमध्यात्मकथनी जहांतहांजिनशासन गथनी श्रागमभेदकथन कोकहना अध्यातमनिरमेदनिवहना २१ मैदानेददोक क संगी स्यादवादश्चनासरवंगी तातेयाहीरचनामाही भेदाभेद दोऊ दिष राही २२ ताते ग्रंथन या विसतारा दरवितनाविनश्यविहारा नव्यजीव सुनिसुनिहित उम् जे स्वपरविवेक वीजयदनियजे २३ प्रगटमोषमाश्गदिषराया ज्ञानीजनसुनिसु नियाया जहांतहां पंचासतिकाया कथनञ्चलतबडकालविताया २४ सबक सरतचंद सुनिराजा मानुनिजमलसमाजा जथाजातपदवीनिरयाही स तम श्रष्टम गुनश्रवगाही २५ स्थादवादवादी अतिनीका ताकोंदे विमान मत फीका
१२
पंचास्तिकाय समार, पं० हीरानन्दन पंचानुवाद प्रति काष्ठ
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२०४ ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तुं त्व
१. वे आचार्य अमृतचन्द्र के अत्यधिक प्रशंसक थे । उन्होंने लिखा है कि अमृतचन्द्र मुनिराज समाज में निजामृत के समान थे । वे सातवेंआठवे गुणस्थान में झूलते थे । वे ऐसे कुशल स्याद्वादी वक्ता थे कि उनके समक्ष अन्य मत के वक्ता फीके पड़ते थे। ये श्राचार्य कुन्दकुन्द के अभिप्राय करे प्रगट करने वाले वक्ता थे । वे स्व पर भेदज्ञान के अभ्यास में प्रवीण थे तथा पर को त्याग कर अपने निजात्नस्वरूप में लोन रहते थे । "
२. क्षेपनंद ने पंचस्तिका बलर पद्यानुवाद में सर्वत्र
आचार्य अमृतचन्द्र के मौलिक भाषों को ही अभिव्यक्त किया है । उनकी समग्र कृति आचार्य अमृतचन्द्र के व्यक्तित्व एवं विचारों से अनुप्राणित है ।
こ
३. के आचार्य अमृतचन्द्र की पंचास्तिकाय को समयव्याख्या टीका के रसिक थे । उन्होंने अपनी अनुभूति एवं उद्गारों को व्यक्त करते हुए लिखा है कि पंचास्तिकाय की टीका उपन्यास की भांति रोचक, गम्भीर शब्द एवं श्रयं वाली, समस्त प्रकार के अनुमान प्रमाण से संयुक्त, आत्मानुभव के अमृतरस से प्राप्लावित और कुन्दकुन्द के अनुभवरस की लहरयुक्त तरंगिणी थी। 3
इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्र का पं० हीरानंद पर प्रभाव स्पष्ट होता है ।
पं.
पचव, पं. चतुर्भुज, पं. भगवतीदास, पं. कुंवरपाल प्रावि पर प्रभाव ( १६३६ ईस्वी) - पं. रूपचन्द भी आगरा में पं. बनारसोदास के समकालीन विद्वान कवि थे । उनका समय १६३६ ईस्वी था। पं. रूपचन्द ने पं. बनारसीदास की आस्था को निर्मल एवं दृढ किया था । " उपरोक्त सभी विद्वान, आचार्य अमृतचन्द्र से प्रभावित तथा उनके साहित्य के रलिक थे। पं. रूपचन्द ने नाटक समयसार पर भाषा टीका भी लिखी है। अन्य विद्वान्, कभी समयसार नाटक का रहस्य सुनते थे, कभी शास्त्र सुनते थे तथा कभी तर्कपूर्ण तस्वचर्चा करने थे । उक्त सभी विद्वानों का
१. पंचास्तिवाय, समयसार पद्य क्रमांक ४१६ ४१७, ४२० तथा ४२१, पृष्ठ १६३
"
२. बही पद्य क्रमांक १२ पृष्ठ ३ तथा पद्म १२ पृष्ठ १६५
·
३. बही (हु०लि० प्रति पृष्ठ २ पद्य १३ तथा पृष्ठ ११० पद्य २८)
४. जैन सिद्धांत कोमा, भाग ३, पृष्ठ ४१६
५. समयसार नाटक ( विक्रम संवत् १६५६) पृष्ठ २१ ६. बड़ी, पृष्ठ ५३७
७. नही, पृष्ठ ५३७
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
[ २०५
उल्लेख पं. बनारसीदास ने अपने ग्रन्थ समयसार नाटक में किया है। इससे सभी पर प्राचार्य अन्तयन् का प्रनाथ स्पष्ट प्रगट होता है।
पं. जोषराज गोदीका पर प्रभाव (१६४३-१७०३ ईस्वी) -- पं. जोधराज गोदीका सांगानेर के निवासी थे। उनका समय १६४३ से १७०३ ईस्वी के बीच का है । उनको कृतियों में धर्मसरोवर, सम्यक्त्वकौमुदी भाष्य, प्रीतंकरचरित्र, कथाकोश, प्रवचनसार, भावदीपिकावचनिका, ज्ञानसमुद्र इत्यादि प्रमुख हैं।' पं. जोधराज गोदीका पर प्राचार्य अमृतचंद्र का प्रभाव निम्न आधारों से स्पष्ट होता है -
१. उन्होंने अमतचन्द्रकृत प्रवचनसार की टीका का गम्भीर अध्ययन किया तथा उसके हो भावों को पद्यों में अभिव्यक्त किया।
२. स्वयं उन्होंने उक्त पद्यानुवादरूप भाषाटीका की प्रशस्ति में इस बात का उल्लेख किया है कि आचार्य अमृतचन्दकृत प्रवचनसार की टीका पण्डितों द्वारा पूज्य तथा अनुपम है। उनकी टोका पं. हेमराज ने ने 'तत्त्वदीपिका वचनिका' नाम से की है।
इन प्रकार के उल्लेखों से आचार्य अमृतचन्द्र का प्रभाव कवि पं. जोधराज गोदीका पर भी लक्षित होता है।
पं. हेमराज पर प्रभाव (ईस्वी सत्तरहवी शती- पं. हेमराज आगरा निवासी तथा गर्ग मोत्रीय थे। वे पं. रूपचन्द के शिष्य थे तथा पाण्डे उपनाम से जाने जाते थे। उनका समय ईस्वी की सत्तरहवी शती या । इनकी प्रमुख कृतियां प्रवचसार टीका, पंचास्तिकाय टीका, भक्तामरभाष्य गोम्मटसार बच निका तथा नयचक्रवचनिका आदि हैं। पं. हेमराज भी आचार्य अमुतचन्द्र से प्रभावित रहे हैं । इसका सर्वप्रथम आधार यही है कि उन्होंने आचार्य अमृतचन्द्र कृत प्रवचनसार तथा पंचास्तिकाय की टीका के आधार पर हिन्दी बचनिकाएं लिखी पं. कुन्दावनदास ने प्रवचनसार की टीका की प्रस्ति में इसका उल्लेख भी किया है जो इस प्रकार है
१. जैन सिद्धांत कोश, भाग २, पृष्ठ ३४५ २. प्रशस्ति संग्रह, पृष्ठ २३७ (कस्तूरचन्द कासलीवास कृत) ३. जैन सिद्धांत कोश, भाग ४, पृष्ठ ५४४
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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
मुनि कुन्दकुन्द कृत मूल जु, सु अमृतचन्द्र टीका करी तसु हेमराज ने वचनिकः उनी अध्याता सी'
इस प्रकार पं. हेमराज पर आचार्य अमृत चन्द्र का प्रभाव प्रगट होता है।
पण्डित टोडरमल पर प्रभाष (१७२०-१७६७ ईस्वो) - पंडित टोडरमल का अधिकांश जीवन जयपुर में बोता, वे पण्डित परम्परामें अग्रणी, बौशिक-ताकिक प्रतिभा के धनी तथा आचार्य कल्प की उपाधि से सम्मानित थे। इनकी प्रमुख कृतियां, सम्यग्ज्ञान चंद्रिका, गोम्मटसार पूजा, त्रिलोकसार टीका, मोक्षमार्गत्रकाशक, आत्मानुशासन भाषा टीका, रहस्यपूर्ण चिट्ठी, और पुरुषार्थसिद्धयुपाय भाषा टीका हैं ।२ इनका समय १७२० से १७६७ ईस्वी निर्णीत है।' पण्डित टोडरमल पर आचार्य अमृत चन्द्र के गहन प्रभाव के निम्न आधार है -
१. उन्होंने अमृतचन्द्र कृत समयसार-प्रवचनसार तथा पंचास्तिकाय की टीकाओं का गम्भीर अध्ययन किया था। उनका पुरुषार्थ सिद्धयुपाय ग्रन्थ तो वे आत्मसात् कर चुके थे। इन ग्रन्थों की स्पष्ट झलक मोक्षमार्ग प्रकाशक में मिलती है ।
२. उन्होंने मोक्षमार्ग प्रकाशक में प्राचार्य अमृतचन्द्र की कृतियों के अनेक प्रमाण अपने विवेचन को सम्पुष्टि हेतु प्रस्तुत किये हैं। उन्होंने तीनों टीकाओं आत्मख्याति, तत्त्वप्रदीपिका एवं समयव्याख्या का ग्रन्थ में सर्वत्र उपयोग किया है। आत्मख्याति के पांच, तत्त्वप्रदीपिका के पांच समयब्याख्या के दो और पुरुषार्थसिद्धयुपाय के तीन उद्धरण
१. प्रषचनसार परमागम-प्रशास्ति, पं. इन्दावन कृत, पद्य १०७, पृष्ठ २२६ २. गं टोडरमल व्यक्तित्व एवं कतं त्व, डॉ. भारिल्ल, पच्छ ७६ ३. वही, पृष्ट ५३ ४. मोक्षमार्ग प्रथम, पृष्ठ ११-१२ ५. समयसार वैभव, प्रश्रम, पृष्ठ १७ ६. समयसार गाथा टीका, कमांक ६, ८, ७३, २७६, २७७ ७. प्रवचनमार गाथा टीका, क्रमांक १२१, २३२, २३६, मादि ८. पंचास्तिकाय गाथा टीका, क्रमांक १३६ ६. पुरुषार्थसिद्धपुपाय, पद्य ६, ७, २९६
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
[ २०७ मोक्षमार्ग प्रकाशक में उपलब्ध होते हैं। समयसार कलश के १४ पद्य' भी उद्धृत पाते हैं।
३. अनेक स्थलों पर उन्होंने अमलचन्द्र की कृतियों में वणित भावों को हो । शब्दों में या नि है । उपाहारार्थ निम्न अंश प्रस्तुत है:
"एको मोक्षपथो य एष नियतो दुग्ज प्लिवृत्त्यात्मकः" (अमतचन्द्र)२ "सो मोक्षमार्ग एक वीतराग भाव है।" (टोडरमल)३
न चैतदप्रसिद्ध पुरुषगृहीताहारस्योदराग्निना रमरुधिरमांसा दिभावैः परिणाम कारणस्य दर्शनात (अमृतचन्द्र)
जैसे भूख होने पर मुख द्वारा ग्रहण किया हुआ भोजनरूप पुद्गल पिण्ड मांस, शुक्र, शोणित आदि घातुरूप परिणमित होता है ।" (टोडरमल)५
ततः स कर्मनिमित्तं ज्ञानमात्र भूतार्थधर्म नबद्धते । भोगनिमित्तं शुभकर्ममात्रमभूतार्थमेव श्रद्धत्त । ततो अस्य भूतार्थ धर्मश्रद्धानामावात् श्रद्धानमपि नास्ति । (अमृतचन्द्र ।'
तथा कदाचित् सुदेव सुगुरु सुशास्त्र का भी निमित्त बन जाये तो उनके निश्चय उपदेश का प्रधान नहीं करता, व्यवहार श्रद्धान से अतत्त्वश्रद्धानी ही रहता है । (टोडरमल)
४. पं. टोडरमल ने आचार्य अमृतचाद्र के पुरुषार्थ सिद्धयुपाय ग्रन्थ की विस्तृत हिन्दी वनिका लिखी जो उनकी अमृतचन्द्र के प्रति प्रास्था की परिचायक है।
५.५० टोडरमल ने अपनी "रहस्यपूर्ण चिट्ठी' में स्पष्ट छोषित किया है कि वर्तमान काल में अध्यात्मतत्त्व तो प्रात्मख्याति समयसार प्रन्थ की अमृतचन्द्राचार्य कृत संस्कृत टीका में है। १. समयसार कलश क्रमांक ६, २९, ३७, १११, १३०, १३६, १३७, १४२, - १७३, १९६, २०३, २२१, २५४, एवं २५६ २. समयसार फलश २४०
३. मोक्ष मार्ग प्रकाशक, पृष्ठ १४ ४. समयसार, प्रास्मस्थाति टीका गाथा १७९ ५. मोक्ष मार्ग प्रकाशक, पृष्ठ २६ ६ . समयसार गाथा २७५ की टीका ७. मोक्ष मार्ग प्रकाशक, पुण्ठ ५१-५२ ८. रहस्यपूर्ण चिट्ठी पृष्ठ 6
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२०८ ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तुं त्व
ये शब्द तथा उपरोक्त आधार पं. टोडरमल पर आचार्य अमृतचन्द्र के प्रभाव को स्पष्ट करते हैं ।
P
पं. अथचन्द छाबड़ा पर प्रभाव ( १७६१ - १८२६ ईस्वी) - पंडित जयचन्द छाबड़ा जयपुर निवासी खण्डेलवाल जैन के पंति सदासुखदास के गुरु तथा पं. वृन्दावनदास के समकालीन थे। इनकी अनेक कृतियां उपलब्ध हैं जिनमें परीक्षामुख, प्राप्तमीमांसा पत्रपरीक्षा, सर्वार्थसिद्धि, द्रव्यंसग्रह, समयसार आत्मख्याति, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, अष्टपाहुड़ तथा ज्ञानार्णव इनसभी ग्रन्थों परटीकाएं प्रमुख हैं। उनका समय १७६३ से १८२३ ईस्वी हैं । वे आचार्य अमृतचन्द्र से कई प्रकार से प्रभावित थे।
१. उन्होंने अमृतचन्द्र की आत्मख्याति टीका पर वचनिका लिखी हे जो अमृतचन्द्र की टीका की रहस्योद्घाटक एवं सर्वजनोपयोगी है । यह वचनिका समस्त हिन्दी टीकाओं में श्रेष्ठ, अध्यात्मरसभरित तथा लोकप्रिय है । उन्होंने प्राचार्य अमृतचन्द्र की टीका आत्मसात् कर ली थी । वे उसके रसिक तो थे ही, साथ ही उसके व्यापक प्रसारक व प्रचारक भी थे। टीका के अन्त में उन्होंने स्वयं निम्न उद्गार व्यक्त किये है
-
कुन्दकुन्द मुनि किया गाथाबंध प्राकृत हैं.
प्राभुत समय शुद्ध आतम दर्शावनू' । सुधाचन्द सूरि करी संस्कृत टीका वर,
आत्मख्याति नाम यथातथ्य मन भाव ॥ देश की वचनिका में लिखि जयचन्द्र पढ़,
संक्षेप अर्थ अल्पबुद्धि कू' पावनू ।
पढ़ो सुन मन लाय शुद्धात्मा लखाय,
.
ज्ञानरूप गहो चिदानन्द दरसावतु ||
इस प्रकार आचार्य अमतचन्द्र का पं. जयचन्द्र पर गहन प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है ।
१. जैन सिद्धांत कोश, भाग पृष्ठ २२३
२. समयसार प्राभूत (प्रात्मख्याति संस्कृत टीका ) ( फलटण) पृष्ठ ५६३
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
[ २०६
पं. वृन्दावनदास पर प्रभाव ( १७६१ - १८४८ ईस्वी)- आप अग्रवाल गोयलगोत्री थे। ये काशी निवासी प्रसिद्ध हिन्दी कवि थे । वृन्दावन विलास, प्रबचनसार परमागम (पद्यानुवाद) आदि इनके ग्रन्थ हैं । आपका समय १७६१ - १८४८ ईस्वी है ।' आचार्य अमृतचन्द्र का आप पर गम्भीर प्रभाव पड़ा था। इसके आधार इस प्रकार हैं.
1
१. आपने श्राचार्य अमृतचन्द्र कृत प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका नामक टीका के आधार पर प्रवचनसार परमागम नाम से पद्यानुवाद की रचना की है। "
२. कवि वृन्दावन ने आचार्य अमृतचन्द्र कृत तोनों संस्कृत टीकाएं जो प्राभृतत्रयी या नाटकत्रयों के नाम से अभिहित है, भलीभांति अवलोकन की थीं 13
३. उन्होंने अपनी रचना "गुरुस्तुति" में आचार्य अमृतचन्द्र की टीकाओं की प्रशंसा की है। उनकी टीकाओं को निजानन्द का प्रवाह बहाने वाली टीका लिखा है यथा :
गुरुदेव अमीइन्दु ने तिनकी करी टीका । भरता है निजानन्द अमीवृन्द सरीका ||
इस प्रकार उपरोक्त उल्लेखों से स्पष्ट है कि पं. वृन्दावनदास भी आचार्य अमृतचन्द्र के व्यक्तित्व तथा उनकी कृतियों से प्रभावित थे ।
पं. सदासुखदास पर प्रभाव ( १७६५ - १६७५ इस्वी ) - पं. सदासुखदास जयपुर निवासी पं. दुलीचन्द कासलीवाल के पुत्र थे । आपका जन्म १७९५ ईस्वी में हुआ था। इनकी निम्न कृतियां उपलब्ध हैं - भगवती आराधना भाषाटीका, अकलंक स्तोत्र, मृत्युमहोत्सव, रत्नकरण्ड श्रावकाचार भाषाटीका, तथा नित्यनियम पूजा । आचार्य अमृतचन्द्र का आप पर प्रभाव था । इन्होंने अपनी टीकाओं में अमृतचन्द्र की कृतियों के उद्धरण प्रमाणरूप में प्रस्तुत किये हैं । रत्नकरण्ड श्रावकाचार के पद्य क्रमांक ५३ की टीका में हिंसा का स्वरूप स्पष्ट करने हेतु आचार्य
१. जैन सिद्धांत कोश, भाग २, पृष्ठ ५८५
२. प्रवचनसार परमागम, पृष्ठ १४ (१६१६ ईस्वी) ३. वही, पृष्ठ २८
४. र.रु. भा. प्र. पृष्ठ ( प म)
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२१० ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तुत्व अमृतचन्द्र कृत पुरुषार्थसिद्ध युपाय के पाठ श्लोक' उद्धत किये हैं। उन्होंने अपनी वनिकायों में अभूतचन्द्र के विचारों को यत्रतत्र अभिव्यक्त किया है । इससे स्पष्ट होता है कि वे भी आचार्य अमृतचन्द्र से प्रभावित थे।
पं. दौलतराम (१७९८-१८७५ ईस्वी)- पं. दौलतराम हाथरस के निवासी प्राध्यामिक विद्वान् थे । आपके १०० से अधिक पद्य उपलब्ध होते हैं, जो अध्यात्म एवं वैराग्य रस से रसाप्लावित हैं। "छहढाला" नामक कृति के कारण उनकी जैन समाज में बहुत प्रसिद्धि है । उनका समय १७६८ से १८७५ के बीच रहा है । पं. दौलतराम पर भाचार्य अमृतचन्द्र के प्रभाव के कुछ आधार निम्नानुसार हैं -
१. पं. दौलतराम ने प्राचार्य अमृतचन्द्र की कृति पुरुषार्थ सिद्ध युपाय की अवशेष टीका पूर्ण की, जिसे पं. टोडरमल ने प्रारम्भ किया था किन्तु वे अपने जीवनकाल में पूर्ण नहीं कर पाये।
२. उन्होंने अपनी रचना "छहढाला" में आचार्य अमृतचन्द्र के ग्रन्थों से भाव एवं * अहाकर उरोध रूम में प्रस्तुत किया है। उनके कुछ पद्य तो अमृतचन्द्र के श्लोकों के छायानुवाद मान हैं। उदाहरणार्थ तुलनात्मक निम्न अंश अवलोत्रानीय हैं - निश्चय व्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गो द्विधास्थितः । तबाद्यः साध्यरूपः स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम् ।। (अमनचन्द्र) सम्यग्दर्शन ज्ञान चरन शिवमग, सो द्विविध विचारो। जो सत्यारथ रूप सो निश्चय, कारण सो व्यवहारो।। (दौलतराम) पथगाराधन मिष्टं दर्शन सहभाबिनोऽपि बोधस्थ । लक्षण भेदेन यतो नानात्वं सम्भवत्यनयोः ॥३२॥ पु. सि. उ. । सम्यग्ज्ञानं कार्य सम्यवत्वं कारणं बदन्ति जिनाः। ज्ञानाराधनमिष्टं तम्यक्त्यानन्तरं नस्मात् ।।३३|| पु. सि. उ.।
१. पुरुषार्थसिद्ध युपाय के ४३ से ५.० तक पद्यों को उद्धृत किया है । २. महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व, प्र., पष्य : ३. तरवार्थमार, उपसंहार, पद्य क्रमांक २ ४, छहढाला, तृतीयाल, पद्य !
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
[ २११
कारण कार्य विधानं समकालं जायमानयोरपि हि। दीपप्रकाशयोरिव सम्यक्त्वज्ञानयोः सुघटम् ।। (अमृतचन्द्र)' सम्यक् साथै ज्ञान होय पे भिन्न अराधौ । लक्षण श्रद्धा जान दुहू में भेद अबाघो ।। सम्यक् कारण जान जान कारज है सोई । युगपत् होते हू प्रकाश दीपक ते होई ।। (दौलतराम )२ कर्तव्योऽध्यवसः सदने कारनामेषु पर। संशयविपर्ययानध्यवसाय विविक्तमात्मरूपं तत् ।। (अमृतचन्द्र) तातें जिनवर कथित तत्त्व, अभ्यास करीजे । संशय विभ्रम मोह त्याग आपो लख लीजै । (दौलतराम ) भेदविज्ञानतः सिद्धा सिद्धा ये किल केचन । अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा पे किल केचन ।। (अमृतचन्द्र) ५ जे पूरब शिव गये जांहि अरू आग जैहें। सो सब महिमा ज्ञानतनी मुनिनाथ कहै हैं ।। (दौलतराम)
इस प्रकार स्पष्ट है कि आचार्य अमृतचन्द्र का प्रभाव पं. दौलतराम के रोम रोम में समाया था ।
पं. भूधरमिश्र पर प्रभाव (१८१४ ईस्वी)... पं. भूधरमिथ प्रागरा के समीपस्थ शाहगज के थे। आप जाति से ब्राह्मण थे। आपके गुरु का नाम रंगनाथ था। आपने पुरुषार्थ सिद्धयुपाय की टीका बृजभाषा में विक्रम संवत् १८७१ में लिखी थी। आपका समय संवत् १८५० से १६०० के बीच का प्रमाणित होता है । आप आचार्य अमृतचन्द्र की कृतियों से प्रभावित हुए, विशेषतः अमृतचन्द्र का पुरुषार्थसिद्ध यपाय अन्य उनके जीवन परिवर्तन का मूलकारण बना । पुरुषार्थसिद्धयपाय का अहिंसा प्रकरण आपको विशदबुद्धि में ऐसा समाया, कि आपकी उत्कंठा जैनधर्म के तत्त्वों को जानने की हई। पं. रंगनाथजी के पास आपने जैन सिद्धांतों की अभिज्ञता प्राप्त की, तथा पुरुषार्थसिद्धयुपाय को टोका
१. पुरुषार्थसिद्ध युपाय, पद्य क्रमांक ३४ २. छहढाला, चतुर्थद्वाल, पद्य २ ४. छहढाला, चतुर्धढाल (पद्य ६ पूर्वाध) ६. छहलाला, रतुयंदाल (पद्य ८ पूर्वाध)
३. पुरुषार्थसिद्ध युपाय, ३५ ५. स. सा. क.१३१
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२१२ ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र ; व्यक्तित्त्व एवं कर्तृत्व करने की रुचि हुई। उक्त टीका में टोकाकार ने यशस्तिलकचम्पु, रयणसार, धर्मोपदेशपीयूषवर्षीश्रावकाचार, अष्टादश अक्षरीप्रबोधसार, योगीम्द्रदेवकृत श्रावकाचार, वीरनंदिकृत यत्याचार आदि ग्रन्थों का भी उल्लेख किया है।"
इससे स्पष्ट है कि प्राचार्य अमृतचन्द्र का प्रभाव पण्डित भूधरमिश्र पर भी था।
पं. गणेशप्रसाद वणी पर प्रभाव (१८७४-१६६१ ईस्वो)पं. शिसाद मलितपुर जिले के हसेरा बान में वैष्णव परिवार में पैदा हुए थे। बाद में प्रापने जैनधर्म धारण किया था। इनका जन्म १८७४ ईस्वी में हुआ था । आचार्य अमृतचन्द्र के व्यक्तित्व एवं कृतित्व दोनों से आप गम्भीर रूप में प्रभावित थे। इसके कुछ आधार इस प्रकार है -
१. उन्होंने आचार्य अमृतचन्द्र कृत आत्मख्याति संस्कृत टीका को कण्ठस्थ कर लिया था। क्योंकि वे उक्त टीका के गंभीर रसिक थे।
२. अपने एक पत्र में उन्होंने समयसार को मोक्षमार्ग (मुक्ति) का वकील बताया है। वे उक्त ग्रन्थ की अमृतचन्द्र कृत टीका के अध्ययन, मनन तथा रसास्वादन में निमग्न रहते थे।
३. अपने पत्रों में उल्लिखित सिद्धांतों एवं रहस्यों की पुष्टि में उन्होंने आचार्य अमृतचन्द्र की कृतियों से उद्धरण प्रस्तुत किये हैं । इतना ही नहीं उन उद्धरणों को उन्होंने प्राचार्य अमृतचन्द्र का आदेश कह कर अपनी आस्था एवं अपना आदर व्यक्त किया है ।
इन सभी बातों से प्रमाणित है कि प्राचार्य अमृतचन्द्र का प्रभाव पं. गणेशप्रसाद वर्णी पर अवश्य था।
१. पुरुषार्थसिद्ध युपाय, प्रस्तावना, पृष्ठ ५, पं. नायूराम प्रेमी (श्रीमद् राजचन्द्र
जन शास्त्रमाला) प्रकाशक - परमश्रुतप्रभावकमंडल, बम्बई वीर नि. संवत्
२४३१ (ईस्वी १६०४) । २. श्री गणेशप्रसाद वर्णी स्मृति प्रन्य खण्ड द्वितीय पृष्ठ १ ३. वही, खण्ड प्रथम, पृष्ठ ११३ ४. वणीवारणी, भाग ४, पृष्ठ १४६ ५. माध्यात्मिक पत्रावलि भाग ३, पृष्ठ ७७-७८
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
[ २१३
ब्राह्मचारी शीतलप्रसाद पर प्रभाव (१८७८-१९४८ ईस्वी) -- न. शीतलप्रसाद अग्रवाल गोयलगोत्रीय धावक थे। आपने अपने जीवनमें ज्ञान का अद्वितीय प्रकाश किया । आप कर्मठ, विरागी एवं प्रभावशाली विद्वान थे। आपका जन्म १६:१० ईस्वी में लथा निमः ४. ईश्वी में हुप्रा था ।' आपकी रचनाओं में प्रमुख है - नियमसार भाषाटीका, पंचास्तिकाय टीका (दो खण्डों में) प्रवचनसार टीका (तीन खण्ड ), समयसार तथा समग्रसार कलश भाषा टीका आदि । आप भी आचार्य अमतचन्द्र के व्यक्तित्व एवं ग्रन्थों से प्रभावित थे जिनके कुछ आधार इस प्रकार हैं -
१. उन्होंने समयसार तथा समयसार कलश पर हिन्दी टीकाएं रची जो अमतचन्द्र की कृतियों में वर्णित भावों से अनुप्राणित हैं।'
२. उन्होंने प्रवचनसार की टीका में अपने विचारों के स्पष्टीकरण एवं प्रमाणीकरण के लिए आचार्य अमृतचन्द्र के ग्रन्थों से काई प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। उदाहरण के लिए प्रवचनसार टीका के तृतीय खण्ड में विभिन्न स्थलों पर समयसार कलश के पांव पद्य' तत्त्वार्थसार के आठ पद्य तथा पुरुषार्थसिद्ध युपाय के १३ पद्य उद्धृत किये गये हैं।
३. स्वयं ब्रह्मचारी जी ने एक स्थल पर प्राचार्य अमृतत्रन्द्र की महान् आत्मज्ञानी, न्यायपूर्ण, सुन्दर लेख आदि शब्दों द्वारा प्रशंसा की है । भट्टारक वीरसेन कारंजा के सानिध्य में उन्होंने अमृतचन्द्र की समयसार प्रात्मख्याति टीका का गहन अध्ययन किया था।
इस तरह स्पष्ट होता है कि वे अमृतचन्द्र के व्यक्तित्व एवं ग्रंथों से प्रभावित थे ।
१. जैन सिद्धान्त कोश, भाग ४, पृष्ठ ३० २. आगमपथ (शीतलजन्मशताब्दि विशेषांक), पृष्ठ ७४ ३. प्रवचनसार टीका, तृतीय खण्ड, प्रारम्भिक पद्य १३, १४ ४. वहीं, खण्ड ३, पृष्ठ २४२, २७०, ३३६, ३४७ ५. बही, खण्ड ३, पृष्ठ ७, २२८, २६० ६. वही, खण्ड ३, पृष्ठ १०३, १.७, ११२, ११४, ११५, १७८, २७० ७. सहजसुनसाभन भूमिका, पृष्ठ ३ .
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२१४ ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व संत कानजी स्वामी पर प्रमाण (
१ EE: नी.. संत कानजी स्वामी का जन्म श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन कुल में हुआ था। श्राप विलक्षण बुद्धि के धनी, परमविरागी तथा अध्यात्म रसिक संत थे । आपने प्राचार्य कुन्दकुन्द के समयसार को पाकर दिगम्बर जैनधर्म को स्वीकार किया। पश्चात् समग्न भारत में ही नहीं, अपितु विदेशों में भी दिगम्बर जैन अध्यात्म का शंखनाद एवं समयसार (गुद्वात्मा) का डिमडिम नाद किया। सर्वत्र अभूतपूर्व क्रांति ला दो तथा अध्यात्मयुग का प्रवर्तन किया। आपका जन्म १८८६ ईस्वी तथा स्वर्गवास १९८० ईस्वी में हुआ।' आप प्राचार्य अमृतचन्द्र की कृतियों के भ्रमरवत् रसिक थे। प्राचार्य अमृतचन्द्र के अध्यात्मामृत को पी-पीकर पानंद विभोर हो जाते थे । संत कानजी स्वामी आचार्य अमृतचन्द्र से अत्यधिक प्रभावित थे । इसके कुछ आधार इस प्रकार हैं -
१. उन्होंने अमृतचन्द्र की आत्मख्याति टीका सहित समयसार का सत्रह बार तो लोकोन्मुख पारायण किया था और अनेक बार आत्मोन्मुख । आत्मोन्मुख पारायण तो संख्यातीत किये थे। उन्होंने समयसार की प्रत्येक गाथा के मर्म को गहनता से समझा था, उसकी गूढ़ता में प्रवेश किया था । आत्मख्याति टीका के अतिरिक्त अमतचन्द्र की अन्य कृतियों का भी उन्होंने गहन अध्ययन एवं प्रचार-प्रसार भी किया। इतना ही नहीं, उन्होंने आचार्य अमृतचन्द्र की आत्मख्याति, तत्त्वप्रदी पिका और समयव्याख्या तीनों टीकाओं को संगमरमर की दीवारों पर उत्कीर्ण करा दिया । ये कार्य सोनगढ़ (भावनगर-सौराष्ट्र) में "महावीर कुन्दकुन्द दिगम्बर जैन परमागम मंदिर" में सम्पन्न हुप्रा जो सहस्रों वर्षों तक दिगम्बर अध्यात्म का अनुपम प्रवाह प्रवाहित रखेगा । परमागम मंदिर आचार्य कुदकुद, आचार्य अमतचन्द्र तथा पद्मप्रभमलघारीदेव की यशोगाथा का अमर-स्मारक तो है ही, साथ हो संत कानजी स्वामी की युमसृष्टि का चिर-प्रतीक भी है ।
२. आचार्य अमृतचन्द्र की तत्त्वप्रदीपिका टीका के अंत में वर्णित संतालीस नयों पर विस्तृत प्रबचन किए जो सम्यक अनेकांत शैली में
-. .. -. - - १. आगमपथ, (मासिक) मई १६७६ (विशेषांक), पृष्ठ ४०-४१ :: २. तीर्थकर, (मासिक) सितम्बर, १६७६ पृष्ठ २६ . . . . . .
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व्यक्तित्व तथा प्रभाष ] .
[ २१५
अनुपम आत्म-वैभव दर्शाने वाले हैं । उन प्रवचनों का गुजराती में "नयप्रज्ञापन" तथा हिंदी में 'आत्मप्रसिद्धि' नाम से प्रथबद्ध प्रकाशन हो चुका है।
३. उन्होंने प्राचार्य अमृतचन्द्र को यत्र-तत्र सर्वत्र भूरि-भूरि प्रशंसा यी है। उनके समयसार कलश पर प्रवचन करते हुए उन्होंने कहा था कि आचार्य अमृतचन्द्र महामुनि दिगम्बर संत हुए हैं। वे सर्वशास्त्रों के पारगामी, तथा सातिशय निर्मलबुद्धि के धारक थे। वर्तमान भरतक्षेत्र में तीर्थंकरों का विरह है, परन्तु उन तीर्थङ्करों का उपदेश कैसा था, इसका स्पष्टीकरण कारके आचार्य कुन्दकुन्द ने तीर्थङ्करों के विरह को भुला दिया है और अमतचन्द्राचार्य देव ने भी अलौकिक टीकायें रखकर आचार्य कुन्दकुन्द के गम्भीर रहस्य को प्रगट कर गणवर तुल्य कार्य किया है । वाह, अंतरज्योति जगमगा दे - ऐसी टीका है।
ये हैं संत कानजो स्वामी के अनभूतिगम्ध हार्दिक उद्गार आचार्य अमृतचन्द्र के प्रति, जो प्राचार्य अमृतचन्द्र के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के, संत कानजी स्वामी पर प्रभाव को प्रमाणित करते हैं।
भ. निजानंब (स्वामी कर्मानन्द वेदांती) पर प्रभाव (१९२०१६७० ईस्वी) - रु. निजानन्द (स्वामी कमिन्द) भिवानी के अग्रवाल जातीय वैष्णव सम्प्रदाय में जन्मे थे। आपका मुकाव आर्यसमाजी विचारधारा की ओर विशेष था । वैदिक साहित्य का उनका गम्भीर अध्ययन था। उन पर आचार्य अमृत चन्द्र का गहरा प्रभाव था । इसका प्रबल प्रमाण यह है कि उन्होंने जो समयसार पर निजानंदीय श्लोक सहित टीका लिखी उसमें आचार्य अमृतचन्द्र के समयसार कलश के ६४ पद्य तथा तत्त्वार्थसार के ६ पद्य प्रमाण-रूपेण प्रस्तुत किये हैं। वे समयसार तथा उनकी टीकाओं का १८-१८ घंटे तक अध्ययन व मनन करते थे। इससे प्रकट होता है कि आचार्य अमतचन्द्र का क्षु० निजानंद पर प्रभान था।
१. प्रात्मधर्म (मासिक) जुलाई, १९६४, पृष्ठ ? २. वहीं, दिसम्बर, १९६५, पृष्ठ ४५३, ४५४ ३. समयसार (निजानंदीय भाषा टीका) पृष्ठ क्रमांक १ ४. समयसार (निजानंदीय भाषा टीका) प्रकाशकीय पृष्ठ प्रथम
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२१६ ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व उपाध्याय हर्षवर्धन पर प्रभाव (१५ वीं ईस्वी शती)- उपाध्याय हर्षवर्धन ईसा की १५वी शती के विद्वान हैं। उनकी एक रचना "अध्यात्म बिन्दु" गाम से लालभाई दलपतभाई संस्कृत विद्यामन्दिर, अहमदाबाद से प्रकाशित है। उक्त रचना अध्यात्मपरक शैली में निश्चय-व्यवहार. कर्ता-कर्म तथा शुद्धात्मस्वरूप प्रकाशनार्थ रची गई है। इस रचना पर प्राचार्य कुन्दकुन्द तथा उनके टीकाकार अमृतचन्द्र का प्रभाव पड़ा है । उक्त ग्रन्थ के सम्पादक विद्वान नगीन जे. शाह ने इस सम्बन्ध में अपनी प्रस्तावना में संकेत किया है। उन्होंने, हर्षवर्धन के ''अध्यात्म बिन्दु" ग्रंथ के कई पद्यों का समयसार मूल तथा उसकी अमृतचन्द्रकृत टोका के श्लोकों से शब्द साम्य एवं भावसाम्यदर्शक प्रमाण प्रस्तुत किये हैं।'
इससे ज्ञात होता है कि आचार्य अमृतचन्द्र का उपाध्याय हर्षवर्धन पर भी प्रभाव पड़ा था।
भट्टारक शुभचन्द्र पर प्रभाव (१५१६-१५५६ इस्वी) - नंदिसंघ बलात्कारगण की गुर्वावलि के अनुसार भद्रारक शुभचन्द्र विजयकीर्ति के शिष्य तथा लक्ष्मीचन्द्र के गुरु थे। आप षटभाषा कवि की उपाधि से विभूषित थे। आपने एक टीका रची जो परमाध्यात्मतरंगिणी नाम से विश्रुत है। आपका समय ईस्त्री १५१६ - १५५६ है ।२ आप आचार्य अमतचन्द्र की आध्यात्मिक रचनाओं तथा टीकाओं से प्रभावित थे। इसके कुछ आघार इस प्रकार हैं -
१. अमतचन्द्र की समयसार कलश टीका ने शुभचन्द्र को इतना अधिक प्रभावित किया कि उन्होंने उसके प्रत्येक कलश पर सुदर आध्यात्मिक टीका रची। अमृतचन्द्र के कलश अध्यात्म रसाप्लावित होने के कारण उन पर लिखित टीका का नाम 'परमाध्यात्मतरंगिणी" रखना भी उचित ही है । उक्त टीका उन्होंने त्रिभुवनकीति के आग्रह पर लिखी थी।
२. शुभचन्द्र ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा की संस्कृत टीका भी लिखी है। उक्त टीका में उन्होंने अमृतचन्द्र के ग्रंथों की विषयवस्तु का भी प्रयोग
१. जैन संदेश, शोधांक - ३१, पृष्ठ ३१६ (दिसंबर १९७२) २. जैनेन्द्र सिद्धांतकोश, चतुर्थ भाग, पृष्ठ ४१ ३. संस्कृत काम के विकास में जैन कवियों का योगदान - प्रथम संस्करण
१९.१, पृष्ठ ४६
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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
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किया है। उनके मूल पड़ों को प्रमाण रूप में उद्धृत किया है ।' उद्धृत पद्य इस प्रकार है -
भेदेनैक्यमुपानीय स्वजाते रविरोधतः ।। समस्तग्रहण यस्मात्स नयः संग्रहो मतः ॥ (अमृतचन्द्र)
भट्टारक वीरसेन (कारंजा) पर प्रभाव (१९२६ ईस्वी)-- भट्टारक वीरसेन कारंजा (अकोला) की भट्टारक गद्दी के पट्टधर थे । वे अध्यात्मशास्त्र के मर्मज्ञ तथा प्रसारक थे । जैन अध्यात्म की चर्चा को घर-घर तक फैलाने का उन्होंने प्रयास किया। वे स्वयं आचार्य अमृतचन्द्र की कृतियों में वर्णित अध्यात्म से प्रभावित थे । उन्होंने सर्वप्रथम "श्रीसमयप्रामृत-आत्मख्याति टीका" को मुद्रित कराया था ।
२. पं. हीरानन्द जी कृत 'पंचास्तिकाय-समयसार" पद्यानुवाद का भी प्रकाशन उनकी प्रेरणा से हुआ था । उक्त पद्यानुवाद आचार्य अमतचन्द्र कृत समयव्याख्या टीका से अनुप्राणित है ।
३. पं. जगन्मोहनलाल शास्त्री ने उन्हें वर्तमान युग में समयसार का अध्येता लिखा है।
४. अ. शीतलप्रसाद ने भी उन्हें समयसार का व्याख्यान करने बाला अद्वितीय महात्मा निरूपित किया है। ब्रह्मचारी जी ने स्वयं भट्टारक जी के पास अमृतचन्द्र कृत समयसार-आत्मख्याति टीका का वाचन किया था । वे वीरसेन के अर्थ प्रकाशन से लाभान्वित हुए थे।
इस प्रकार स्पष्ट है कि आचार्य प्रमतचन्द्र का भट्टारक वीरसेन पर प्रभाव था ।
१. काति केमानुप्रेक्षा गापा २७२ को टीका, पृष्फ १६५ राजचन्द जैन शास्त्र माला
मागास, १९६० २. तत्त्वार्थसार, पीठिका (प्रथम अधिकार) पद्य नं ४५ ३. आत्मप्रमोद (प्रस्तावना, प्र. नन्दलाल) पृफ १२ ४, समयसार बैभव, प्रथम पृष्ठ १५ ५. महजसुखसाधन (. सोललप्रसाद जी भूमिका र५३)
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चतुर्थ अध्याय
कृतियाँ
प्राचार्य अमनचन्द्र जितने सफल एवं कुशल टीकाकार थे, उतने ही सिद्धहस्त तथा गम्भीर मौलिक. ग्रंथ-प्रणेता भी। उनकी समस्त कृतियों में अध्यात्म का अमृत छल कता है । वे अध्यात्म-रसिक, प्रौढ़, प्रांजल, व गंभीर टीकाकार, दार्शनिक विद्वान, तथा प्रात्मानुभवी बिचारक थे । उपयुक्त सभी वैशिष्ट्य उनको कृतियों में बत्र तत्र सर्वत्र विकीर्ण हैं ! उनकी समस्त कृतियों का सर्वाङ्गीण परिचय कराने हेतु यहाँ तीन विभाग किये गये हैं, जिनके अन्तर्गत उनकी कृतियों का समुचित परिचय प्रस्तुत है।
प्रथम विभाग में अमतचन्द्राचार्य प्रणीत मौलिक स्वतंत्र कृतियों का आकलन है। दूसरे विभाग में उनकी गद्य तथा पद्यमयी टोकाओं का अनुशीलन प्रस्तुत है, और तीसरे विभाग में अन्य कृतियों का परिचय कराया है । इसके दो खण्ड हैं। प्रथम खण्ड में उन कृतियों का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है, जो अमृतचन्द्र प्रणीत सिद्ध की गई हैं तथा दूसरे खण्ड में उन कृतियों की चर्चा की जा रही है, जो भ्रमवशात् अमृतचन्द्र की कल्पित हैं।
द्वितीय विभाग में ग्रहीत टीकाओं में समयसार को "आत्मख्याति", प्रवचनसार की 'तत्त्व प्रदीपिका" तथा पंचास्तिकाय की 'समयव्याख्या" नामक गद्य टीकाएं हैं, जो संस्कृत गद्य वाङमय की अमूल्य निधियाँ हैं तथा जैनदर्शन का सार अपने में समाहित किये हुए हैं। इसी विभाग में समयसार की आत्मख्याति टीका के साथ-साथ प्रयुक्त संस्कृत पद्यों का संकलन है, जो समयसारकलश नाम से अभिहित है। इसे पाटीका के रूप में प्रस्तुत किया गया है । इसके अतिरिक्त दूसरी पद्यटीका "तत्त्वार्थसार' भी है जो प्राचार्य उमास्वामी कृत तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर लिखी गई सविस्तार टीका है।
तृतीय विभाग में सर्वप्रथम प्रथम बार प्रकाश में आने बाली अमतचन्द्र की अत्यन्त क्लिष्ट, दार्शनिक, गम्भीर रचना है, जिसका नाम 'लघुत्त्वस्फोट' अपरनाम 'शक्तिमाणितकोश' भी है। यह जिनेन्द्रस्तुति विषयक एक अद्वितीय काव्यकृति है। इसी विभाग में उन कृतियों की
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कृतियां ।
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भी चर्चा की गई है, जो किन्हीं विद्वानों द्वारा भ्रम से अमतचन्द्र की मान ली गई हैं जबकि वे कृतियाँ अमृतचन्द्र कृत नहीं हैं। इस सम्बन्ध में षट्पाहुड़ टीका, पन्नाध्यायी, ढाढसीगाथा तथा श्रावकाचार नामक ग्रंथ नचित हैं। प्रस्तुत अध्याय में उपरोक्त विभामों के अन्तर्गत अमतचंद्र श्री कृतियों का सर्वाङ्गीण सविस्तार परिचय कराया जा रहा है।
पुरुषार्थसिद्ध युपाय (पद्य) परिचय -
"पुरुषार्थसिव पाय" आचार्य अमृतचन्द्र कृत, आचारविषयक अनपम ग्रन्यरत्न है। इसका अपरनाम 'जिनप्रबचनरहस्यकोश" भी है। वास्तव में उक्त ग्रन्थ जिनेन्द्र कपिल जिनवाणी का सार है। यह अमृत चन्द्र की मौलिक पद्यरचना है, जो २२६ आर्या छंदों में रचित है तथा जैनजगत में व्यापक रूप से विश्रुत है । इस में श्रावकाचार का प्रमुख रूप से तथा यत्याचार (साघचर्या) का गौणरूप से संक्षिप्त निरूपण है। यह कृति, द्रविड़, कन्नड़, हिन्दी, दंढारी (राजस्थानी हिन्दी), गुजराती, मराठी, अंग्रेजी आदि अनेक भाषाओं में अनेक संस्करणों में, गद्य तथा पद्य उभयरूपों में तथा लाखों की संख्या में प्रकाशित हो चुकी है। अब तक शताधिक विद्वान् इस ग्रन्थ पर टीकायें रचकर प्रकाशित करा चुके हैं। जैन ही नहीं, अजेन विद्वान भी इस कृति से प्रभावित होकर अपने विचारों में परिवर्तन कर जैनदर्शन की ओर आकर्षित हुए हैं।' लगभग एक हजार वर्ष से जैन श्रावक एवं मूनि के आचरण को आलोकित करने वाली इस कृति का प्राचार संहिता के रू। में सर्वोच्च एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है। सर्वप्रथम ईस्वी दूसरी सदी में आचार्य समंत भद्रस्वामी द्वारा जंन श्रावकों को आचार संहिता के रूप में रत्नकरण्डथाबकाचार" नामक कृति की रचना की गई थी। तत्पश्चात् सर्वाधिक मान्य एवं प्रभिद्ध रचना आचार्य अमृत चन्द्र कृत "पुरुषार्थसिद्ध युपाय" ही है। इसका अहिंसा प्रकरण अत्यंत गहन, स्पष्ट, विशद, अद्वितीय एवं अनुपम है । नामकरण -
इस ग्रन्थ का अपग्नाम 'जिनप्रवचनरहस्यकोश" इसके महत्त्व को स्पष्टत: प्रकाशित करता है। आचार्य अमृतचन्द्र को इस रचना का
१. देखिये - प्रस्तावना, पृष्ठ ५; ६ (पु. गि.उ.) पं: नाथूराम प्रेमी सन् १६.०४ ।
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२२० ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व नाम "पुरुषार्थसिद्ध्युपाय' पुकारना ही इष्ट था क्योंकि इस बात का उल्लेख उन्होंने स्वयं ही ग्रन्थारम्भ में किया है। वे लिखते हैं - तीनलोक संबंधी पदार्थों को प्रकाशित करने वाले अद्वितीय नेत्र स्वरूप उत्कृष्ट जैनागम को प्रयत्नपूर्वक जानकर - हृदयंगमकर हमारे द्वारा विद्वानों के लिए बड़ "पुरुषार्थसिद्भयपाश'' एश सद्धार - प्रस्तुत किया जाता है।' "पुरुषार्थसिद्धयुपाय" पद में पुरुष, अर्थ, सिद्धि व उपाय ये चार उपपद हैं जिनका अर्थ है - आत्मा के प्रयोजन की सिद्धि या प्राप्ति का उपाय । वास्तव में जब आत्मा सर्वत्र वार के विभावों से पार होकर अपने अचल चैतन्यस्वरूप को प्राप्त करता है, तब सम्यक प्रकार से पूरुषार्थ के प्रयोजन की सिद्धि प्राप्ति करता है तथा कृतकृत्य होता है। इस तरह अमृतचन्द्र स्वयं अपने ग्रन्थ में 'पुरुष' का अर्थ "चैतन्यस्वरूप आत्मा" घोषित करते हैं। उस चैतन्य प्रात्मा का प्रयोजन मोक्ष है । मोक्ष की प्राप्ति का उपाय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र की एक साथ प्राप्ति होना है। इसका भी निर्देश उन्होंने एक स्थल पर किया है। वे लिखते हैं - "विपरीत अभिप्राय का नाश करके अर्थात् सम्यग्दर्शन प्राप्त करके. निजस्वरूप को यथार्थरूप से जानकर के अर्थात् सम्यग्ज्ञान करके तथा उस स्वरूप में अविचल - स्थिर होना अर्थात सम्यक् चारित्र प्रगट होना ही पुरुषार्थ की सिद्धि का उपाय है। इस तरह अन्थ का पुरुषार्थसिद्ध्यपाय नाम उचित एवं सार्थक प्रतीत होता है। कतृत्व -
उक्त ग्रन्थ के प्रणेता के विषय में आद्यन्त कभी किसी को भी विप्रतिपत्ति नहीं हुई। पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय आचार्य अमृतचन्द्र की मौलिक रचना निर्विवाद सिद्ध है। अमृतचन्द्र के समकालीन तथा उत्तरकालीन सभी ग्रन्धकारों ने उक्त कृति को आचार्य अमृतचन्द्र कृत निरूपित किया है। १, लोकत्रयकनेयं निरूप्म गरमागमं प्रयत्नेन ।
अस्माभिरूपोदध्रियते विदुषां पुरुषार्थसिद्ध युपायोऽयम् । पु.सि.उ., पद्म क्रमांक ३ २. सर्व विवर्तोत्तोर्ण यदा स बसन्यमलमाप्नोति ।
भवति तदा कृतकृत्यः सम्यनपुरुषार्थसिद्धिमापन्न ।। पु.सि.उ., पद्य क्रमांक ११ ३. "मस्ति पुरुषश्चिदात्मा", पुरुषार्थ सिद्ध गुपाय, पय क्रमांक : ४, बिपरीताभिनिवेशं निरस्य सभ्यग्म्यवस्म निजतत्त्वम् ।
पतस्मादबिवलनं स एव पुरुषार्थसिद्ध युपायोऽयम् ।। .सि.उ.,पय क्रमांक१५
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कृतियां ]
[ २२१ अमृतचन्द्र के अन्य ग्रन्थों की रचनाओं से मिलान करने पर शैली, शब्द, विद्वत्ता, विषय स्पष्टीकरण क्षमता और अन्त में ग्रन्थ कर्तुत्व का विकल्प निषेध इत्यादि साम्यताओं से भी उक्त कृति आचार्य अमृतचन्द्र कृत स्पष्टरूप से ज्ञात होती है। प्रामाणिकता -
श्रावकाचारों की परम्परा में रत्नकरण्डनावका वार के पश्चात् यदि कोई सर्वाधिक प्रामाणिक ग्रन्थ माना गया है, तो वह है पुरुषार्थसिद्धयपाय । आचार्य अमृतचन्द्र ने रत्नकरण्डश्रावकाचार में प्रणीत वर्ण्यवस्तु को ही आधार बनाते हए तथा कुन्दकुन्दाचार्य के अध्यात्म ग्रन्थों को आत्मसात् करके जो टीकाएँ रची, उन्हीं के आधार पर पुरुषार्थसिद्धयपाय ग्रन्थ का प्रणयन किया है। इस ग्रन्थ रचना से न केवल श्रावकाचार एवं यत्याचार विषयक प्राचीन आर्षपरम्परा का उन्नयन ही हुआ, अपितु उक्त परम्परा का सम्बर्द्धन, संरक्षण, विकास तथा प्रकाश भी हपा है। उक्त अन्य रचना से प्रभावित एवं वनमापित होकर उनके बाद के विद्वानों ने प्राचार विषयक अनेक ग्रन्थों की रचना की हैं। उन सभी रचनाओं को दिशाबोध एवं प्राधारस्रोत पुरुषार्थसिद्धयुपाय से हीनाधिक रूप में अवश्य प्राप्त हुए हैं। प्राधार स्रोत -
पुरुषार्थसिद्धयुपाय मन्ध के प्राचार स्रोत भी अमृतचन्द्रकृत टीकाओं में उपलब्ध होते हैं । इसके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं -
१. पुरुषार्थ सिद्ध युपाय ग्रन्थ की रचना टीकाकृतियों के बाद की है, क्योंकि टीकाओं में उपलब्ध भाष्य के कुछ अंशों को पद्यरूप में पुरुषार्थसिद्ध युपाय में पुनः प्रस्तुत किया गया है । एक स्थल पर अमृतचन्द्र ने अपनी टीका में पुरुषार्थ की सिद्धि के उपाय स्वरूप ध्यान का उल्लेख किया है ।' उक्त उल्लेख पुरुषार्थ सिद्ध युपाय ग्रन्थ के नामकरण का प्राधार सूत्र प्रतीत होता है।
२. आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्ध युपाय का प्रारम्भ वक्ता के लक्षण से किया है । वे लिखते हैं - मुख्य और उपचार के कथन द्वारा शिष्यों के दुनिवार अज्ञानभाब को नष्ट करने वाले, व्यवहार तथा निश्चय
१. "परमपुरुषार्थसिद युपायभूतं ध्यान जायते इति ।" पंचास्तिकाय गाथा १४६
की टीका, पृष्ठ २१५
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२२२ ।
। प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कतृ त्व
के ज्ञाता गुरु ही जगत् में धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं।' उक्त कथन का आधार पंचास्तिकाय ग्रन्थ की टोका का वह अशोल्लेख है, जिसमें कहा गया है कि इस प्रकार दोनों नयों के आधीन परमेश्वर जिनेन्द्र के धर्मतीर्थ की प्रवर्तना होती है ।२ निश्चय-व्यवहार सम्बन्धी प्रारम्भिक निरूपण भी समयसार की आत्मख्याति टीका के आधार पर किया गया है । व्यवहार निश्चय को भलीभांति जानकर जो जीव उनके पक्ष मे रहित अर्थात् मध्यस्थ होता है, वह्नो शिष्य जिनेन्द्र के उपदेश के सम्पूर्ण फल को प्राप्त करता है। इसी आशय को उन्होंने आत्मख्याति टीका के एक कलश में पहले ही अभिध्यक्त करते हुये लिखा है कि जो जीव नयपक्षपात से मुक्त होकर, विकल्पसमूह से हटकर, शांतचित्त होकर, हमेशा अपने निजस्वरूप में गुप्त (लीन) होते हैं, वे ही साक्षात् आनंद रूप अमृत को पीते हैं । उपरोक्त अर्थवाची तथा साम्यदर्शी उभय श्लोकों से स्पष्ट ज्ञात होता है कि अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्ध युपाय की रचना का आधार स्रोत अपनी स्वोत्रज्ञ' टीकायें बनाई है। यहाँ हम एक उदाहरण प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका का भी प्रस्तुत करते हैं, जिसमें लिखा है कि कर्म रूप परिणमित होने की शक्ति वाले पुद्गल स्कंध, समान क्षेत्रावगाही जीव के परिणाम मात्र का - बहिरंगसाधनमात्र का आश्रय लेकर, जीव उन (पुद्गलस्कंधों) को परिणमाने वाला नहीं होने पर भी, स्वयमेव कर्मभाव से परिणमित होते हैं । टीका के मूल शब्द इस प्रकार हैं -
यतो हि तुल्यक्षेत्रावगाढ़ जीवपरिणाममात्रं बहिरंग साधनमाथित्य जीवं परिणमयितारमन्तरेणापि कर्मत्रपरिणमन शक्तियोगिनः पुद्गल. स्कंधाः स्वयमेव कर्मभावेन परिणमन्ति ।" इस टीका का सार पुस्पार्थसिद्ध यपाय में इस प्रकार समायोजित किया है -
जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ।'
१. पुरुषार्थ सिद्ध पाय, पद्य क्रमांक ४ २. 'प्रत एवोभयनयापत्ता पारमेश्वरी तीर्थप्रवर्तना इति ।"
पंचास्ति काय गाथा १५६ की टीका, ३. व्यवहार निश्चयो यः प्रबुध्यतत्त्वेन भवति मध्यस्थः ।
प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः ||पुरुषार्थसिबू युपाय ४. समयसार कलश, पद्य नम्बर ६९५. प्रवचनसार गाथा १६६ की टीका १. पुरुषार्थ सिद्ध युपाय, पद्म नं. १२
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कृतियाँ ]
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इस तरह कुन्दकुन्द के समयसार, प्रवचनसार तथा पंचास्तिकाय की टोकानों से पुरुषार्थसिद्ध युपाय की रचना के आधार स्रोत प्रस्तुत किये गये हैं। यहां रत्नकरण्ड श्रावकार का भी एक प्रमाण अवलोकनीय है । समंतभद्राचार्य ने चारित्र के यथार्थ स्वरूप का दिग्दर्शन कराते हुए लिखा है कि दर्शनमोह रूप अंधकार के दूर होने पर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से सम्यग्ज्ञान की भी उपलब्धि हुई हो - ऐसा साधु राग-द्वेष के नाश (अभाव) करने के लिए सम्यक्चारित्र को अंगीकार करता है । इसी कथन के आधार पर आचार्य अमृतचन्द्र ने भी सम्यक्चारित्र का स्वरूप इसी प्रकार निरूपित किया है । यहां उपरोक्त दोनों प्राचार्यों के मूलशब्दों का अवलोकन कराया जाता है।
-
मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः ।
*
रागद्वेषनिवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ॥ ( समंतभद्राचार्य) २ विगलितदर्शनमोहैः समञ्जसज्ञानविदिततत्वार्थः । नित्यमपि निःप्रकम्पैः सम्यक्चारित्रमालम्व्यम् । (अमृतचन्द्राचार्य) '
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विषय वस्तु -
"पुरुषार्थसिद्धयुपाय" की प्रतिनाद्य विषयवस्तु अधिकांश रत्नकरण्ड श्रावकाचार में वर्णित प्रकरणानुसार प्रस्तुत की गई है । अन्तर सिर्फ इतना है कि श्रमृतचन्द्र ने किसी प्रकरण को विशेष स्पष्ट किया है किसी को कम । उदाहरण के लिए अहिंसा व्रत में अहिंसा का स्वरूप निरूपण जितना विशद् सूक्ष्म एवं मौलिक रूप से पुरुषार्थसिद्धयुपाय में आचार्य अमृतचन्द्र ने किया है, वैसे अनूठा वर्णन श्रावकाचार ग्रन्थों की समग्र परम्परा में कहीं भी किसी भी ग्रन्थ में युगपत् तथा स्पष्टरूपेण उल्लिखित नहीं मिलता । दिव्रत, देशव्रत तथा अनर्थदण्डव्रत इन तीनों गुणव्रतों का निरूपण पुरुषार्थसिद्धयुपाय में संक्षेप में (केवल ६ पद्यों द्वारा) किया गया है, जबकि रत्नकरण्ड श्रावकाचार में इन्हीं का वर्णन कुछ विस्तृत रूप में ( २४ पद्यों द्वारा ) हुआ है । सम्यग्ज्ञान अधिकार में पुरुषार्थसिद्धयुपाय में प्रमाण-नयों का स्वरूप, सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान में कार्यकारण भाव का नियम, सम्यग्ज्ञान का स्वरूप तथा इसके अंगों
"
२. रत्नकरण्ड श्रावकाचार पद्य नं. ४७
३. पुरुषार्थसिद्ध युपाय, पच नं. ३७
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२२४ ]
1 आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्त. त्य
का प्रतिपादन है, जबकि रत्नकरण्ड श्रावकाचार में केवल सम्यग्ज्ञान का स्वरूप एवं प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग तथा द्रव्यानुयोग का लक्षण दर्शाया गया है । ११ प्रतिमाओं का प्रकरण पुरुषार्थसिद्धयुपाय में वर्णित नहीं है, वहीं रत्नकरण्ड श्रावकाचार में संक्षेप में उल्लिखित है । शेप प्रकरण पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में भी वे ही हैं जो रत्नकरण्ड श्रावकाचार में उपलब्ध हैं । पुरुषार्थसिद्ध युवा में वर्णित समस्त विषय वस्तु को निम्नलिखित ६ विभागों में विभक्त किया गया है -
१. ग्रन्थपीठिका ( श्लोक १ से १६ तक )
३.
४.
२. सम्यग्दर्शन अधिकार ( श्लोक २० से ३० तक ) सम्यग्दर्शन अधिकार (श्लोक ३१ से ३६ तक ) सम्यक् चारित्र अधिकार (श्लोक ३७ से १७४ तक ) सल्लेखना अधिकार ( इलोक १७५ से १६६ तक ) सकलचारित्र अधिकार (श्लोक १६७ से २२६ तक )
५..
६.
ग्रन्थपीठिका
इसमें प्रथम तो मंगलाचरण के रूप में इष्टदेव को स्मरण किया है । वहाँ गुणप्रधान स्मरण है व्यक्तिप्रधान नहीं । इष्टदेव को परंज्योति श्रर्थात् केवलज्ञानस्वरूप कहा तथा उसे दर्पण के समान समस्त पदार्थो को झलकाने वाला कहा। तत्पश्चात् परमागम का प्राणस्वरूप अनेकांत को समस्त विरोधों का शमन करने वाला होने से नमस्कार किया है । आगे लेखक ने त्रिलोक संबंधी पदार्थों को प्रकाशित करने वाले एकमात्र नेत्रस्वरूप परमागम को भलीभांति जानकर, विद्वानों के लिए पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रन्थ की रचना करने की प्रतिज्ञा की है । साथ ही निश्चयव्यवहार का रहस्यज्ञ वक्ता ही शिष्यों का दुर्निवार अज्ञानांधकार नष्ट कर जगत् में घर्मतीर्थ का प्रवर्तन करने वाला होता है, यह घोषित किया है ।" तत्पश्चात् निश्चय को भूतार्थ तथा व्यवहार को अभूतार्थ बतलाते हुए, अधिकांश जगज्जन भूतार्थज्ञान अर्थात् वस्तुस्वरूप के यथार्थ ज्ञान से रहित है, यह स्पष्ट किया । यद्यपि व्यवहार नय प्रभूतार्थ असत्यार्थं कथन करने वाला है, वस्तु का असली स्वरूप नहीं बतलाता, तथापि अज्ञानीजीवों को समझाने के लिए बाचार्य व्यवहारनय का भी उपदेश
१. पुरुषार्थसिद्ध युपाय, पां१, २, ३, ४
4
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कृतियाँ ।
| २२५
करते हैं, परन्तु जो जीव मात्र व्यवहार को ही जानता है, उसको व्यवहार का उपदेश नहीं है। वास्तव में समग्र देशना का सार या रहस्य उसे हो प्राप्त होता है जो निश्चय-व्यवहार को यथार्थ समझकर नयपक्ष को छोड़कर मध्यस्थ होता है।'
- इसके बाद ग्रन्थ में प्रतिपाद्य विषय का प्रारम्भ होता है । स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि से रहित, गुण-पर्याय सहित तथा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त चैतन्य प्रात्मा ही पुरुष कहलाता है। अपने रागादि विकारी परिणामों का कर्ता और भोक्ता स्वयं अज्ञानी आत्मा ही होता है, परन्तु जब आत्मा सर्व प्रकार के विभावों को त्याग कर अपने निष्कम्प चैतन्यस्वरूप में स्थिर होता है तब प्रात्मा के प्रयोजन की सिद्धि होती है और वह कृतकृत्य होता है । यहाँ कारण कार्य का ज्ञान कराते हुए प्राचार्य लिखते हैं कि जीव के परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गल स्कंध स्वयमेव ज्ञानाबरणादि कर्मरूप परिणमित होते हैं और इसी प्रकार ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म के उदय का निमित्त पाकर जीव स्वयं ही रागादि भाव रूप परिणमित होता होता है। न जीव के परिणाम पुद्गलकर्मों के परिणमन कर्ता हैं और न ही पुदगलकम जीवपरिणाम के कर्ता। इस प्रकार सहज कारण-कार्य या निमित्त-नैमित्तिक संबंध बनता है । ऐसा सहज कारण-कार्य का नियम न मानकर अज्ञानी जीव रागादि भावों तथा शरीरादि को एक दूसरे का कर्ता मानते हैं । उन्हें संयुक्त न होने पर भी संयक्त रूप से मानते हैं, यही अज्ञान उनके संसार परिभ्रमण का बीज है।' इसके बाद विपरीत श्रद्धान का नाश, निजात्मा का यथार्थज्ञान तथा निजस्वरूप की स्थिरता को ही पुरुषार्थसिद्धि का उपाय गया है। मुनियों की अलौकिक वृत्ति नथा मनिधर्म का उपदेश पहले न करके, गहस्थ धर्म के उपदेशदाता को दण्डनीय बताया है जिसका कारण उपदेशदाता द्वारा अक्रम (क्रमभंग) कथन करने से योग्य पात्र का ठगाया जाना है। इस प्रकार पीठिका की प्रतिपाद्य वस्तु समाप्त होती है । सम्यग्दर्शन अधिकार -
इस अधिकार में श्रावकधर्म के साधनार्थ ग्रहस्थ को भी सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र का यथाशक्ति सेवन करने का उपदेश है ।
१. पुरुषार्थ सिद्धः युपाय, पद्य क्रमांक ५, ६, ७, ८ २. पुरुषार्थ सिद्ध युपाय, पद्य क्रमांक ६, १०, ११ ३. वहीं, पद्य क्रमांक १२, १३, १४४. दही, पद्य प्रमांक १५ से १६ तक।
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२२६ ।
| प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्त त्व इन तीनों में सर्वप्रथम श्रावन को सम्यक्त्व की ही साधना भलीभांति, समस्त प्रयत्नों द्वारा करनी चाहिये क्योकि सम्यक्त्व के होने पर ही ज्ञान तथा चारित्र सच्चे होते हैं। यहां सम्यग्दर्शन का स्वरूप निरूपित करते हुए लिखा है कि जीव अजीव प्रादि तत्त्वार्थों का, विपरीत अभिप्राय से रहित श्रद्धान निरन्तर करना चाहिये । वह श्रद्धान आत्मस्वरूप ही है।' सम्यग्दर्शन के संरक्षणार्थ तथा परिशोषणार्थ निकांक्षित, निविचिकित्सा, अमूहदष्टि, उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य तथा प्रभावना इन आठ अंगों का सेवन करना आवश्यक है। इन पाठ अंगों के संक्षेप में लक्षण इस प्रकार हैं - सर्वज्ञकथित, अनेकांतस्वरूा बस्तु-स्वभाव में शंका नहीं करना निकित अंग है। इस लोक की सम्पदा. प्रादि, परलोक की चक्रवर्ती, नारायण आदि पदों की अभिलाषा तथा एकांतवादी मतों की आकांक्षा का त्याग करना निकांक्षित अग है। भुख, प्यास, सर्दी, गर्मी पादि नाना प्रकार के भावों में, मलमुत्रादि से संपर्क होने में ग्लानि न करना निविचिकित्सा अंग है । जगत् के मिथ्या शास्त्रों, मिथ्यातत्त्वों, मिथ्या-देवताओं में श्रद्धा नहीं करना तथा तत्वरुचि रखना अमुष्टि है । मार्दव आदि भावनाओं से हमेशा प्रात्मा के शुद्धस्वरूप की वृद्धि करना तथा दूसरों के दोषों को गुल्ल रखना उपगृहन अंग है । काम, क्रोध, मद आदि के कारण न्यायमार्ग से विचलित होने वाले अपनी तथा पर की यक्तिपूर्वक स्थिरता करना स्थितिकरण है । मोक्षसुख सम्पदा के कारणभूत धर्म - अहिंसा में तथा सभी साधर्मीजनों में हमेशा उत्कृष्ट वात्सल्य भाव धारण करना वात्सल्य अंग है। रत्नत्रय के तेज से अपनी आत्मा को प्रभावित करना तथा दान, तप, जिनपूजनादि और विद्या के अतिशय द्वारा जैनधर्म की प्रभावना करना प्रभावना है। इस प्रकार आठ अंगों के निरूपण सहित उक्त अधिकार समाप्त होता है । सम्यग्ज्ञान अधिकार -
तृतीय विभाग सम्यग्ज्ञान अधिकार में सम्यक्त्व के धारक पुरुषों को हमेशा जिनागम की परम्परा, युक्ति अर्थात् प्रमाण तथा नय से विचार करके प्रयत्नपूर्वक सम्यग्ज्ञान का सेवन करना कत्तव्य निरूपित किया है । यह भी स्पष्ट किया है कि यद्यपि सम्यग्दर्शन के
१. पुरुषार्य सिद्ध युषाम, पद्य क्रमांक २०, २१, २२, २. पुरुषार्थसिद्ध युपाय, पद्य क्रमांक २० से ३० तक।
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कृतियां ]
[ २२७
साथ ही सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होता है तथापि उसकी पृथक् आराधना करना उचित है, कारण कि दोनों में कारण-कार्य रूप लक्षण भेद से भिन्नता संभव है। सम्यग्दर्शन कारण तथा सम्यग्ज्ञान कार्य होने से सम्यक्त्व के बाद ही सम्यग्ज्ञान की प्राराधना करना लिखा है। कारण और कार्य का एककाल होने पर भी दीपक और प्रकाश की भांति सम्यग्दर्शन तथा साशाज्ञान में काना-कागने की विधि सघषित होती है। यहां सम्यग्ज्ञान का लक्षण भी लिखा है कि प्रशस्त अनेकान्तात्मक स्वभाव वाले पदार्थों का संशय, विपर्यय तथा अनध्यवसाय रहित निर्णय करना चाहिये । वह सम्यग्ज्ञान आत्मस्वरूप ही है। इस सम्यग्ज्ञान के भी आठ अंग कहे हैं जो क्रमशः व्यंजनाचार, अर्थाचार, कालाचार, विनयाचार, उपधानाचार, बहुमानाचार तथा प्रनिह्नवाचार नाम से कहे गये हैं।' सम्यक्चारित्र अधिकार -
पुरुषार्थ सिद्ध युपाय का चौथा विभाग सम्यवचारित्र का निरूपक है। इसमें श्रावकों के आचरण व नियमों का विशम् विवेचन है । अमृतचन्द्र ने प्रारम्भ में ही लिखा है कि दर्शनमोह के नाश होने अर्थात सम्यग्ज्ञान से तत्त्वार्थों को भलीभांति जान लेने पर हमेशा दृढ़ चित्तवाले पुरुषों को सम्यक्चारित्र का अवलम्बन करना चाहिये क्योंकि अज्ञान सहित चारित्र सम्यक्चारित्र नाम नहीं पाता, इसलिए सम्यग्ज्ञान के बाद ही सभ्यश्चारित्र की आराधना करना कहा गया है।' सम्यवचारित्र का स्वरूप इस प्रकार वर्णित है कि समस्त पापयक्त मन-वचन-शाय के योग के त्याग से चारित्र होता है जो संपूर्ण कषाय रहित, निर्मल, विरक्तता सहित और आत्मस्वरूप होता है। तत्पश्चात् चारित्र के देश-चारित्र तथा सवाल-चारित्र ये दो भेद किये हैं। उनमें सर्वथा सर्वदेश त्याग में लीन मुनि शुद्धोपयोगस्वरूप में प्राचरण करने वाला होता है तथा एकदेश त्याग में लगा हुआ श्रावक होता है । एकदेश चारित्र के अंतर्गत हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील तथा परिग्रह इन ५ पापों का सूक्ष्म तथा सविस्तार विवेचन किया मया है। इन सभी का स्पष्ट परिचय आगे सातवें अध्याय में किया गया है। प्राचार्य अमृत चन्द्र ने अहिंसा तथा हिंसा का लक्षण बहुत ही मामिक एवं सूत्ररूप में निरूपित
१. पुरुषाथ सिद्ध युपाय, पद्य क्रमांक ३१ से ३६ तक २. वही, पद्य क्रमांक ३७,३८ ३. वहीं, पद्य क्रमांक ३६
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९२८ 1
[ आचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
करते हुये लिखा है कि रागादि भावों की उत्पत्ति होना ही हिंसा है, वह जिनागम का सार है।" उन्होंने प्रायः समस्त प्रकार को हिंसा - पोषक प्रवृत्तियों का सुयुक्तियों द्वारा खण्डन किया है । तथा उपसंहार रूप में लिखा है कि हिस्य (जिसकी हिमा की जाती है), हिंसक ( हिंसा करने वाला कषायवान् जीव), हिंसा ( प्राणघात की क्रिया) तथा हिंसा के फल ( पापसंचय) को यथार्थरूप में जानकर ही वास्तविक रूप में हिंसा का त्याग संभव है । वे यह भी सूचित करते हैं कि अत्यन्त कठिनता से ॥३ पार होने योग्य, अनेक प्रकार संगयुक्त गहन वन में, मार्ग भूले जनों को नय समूह के ज्ञाता गुरु ही शरण होते हैं। जिनेन्द्रदेव द्वारा वर्णित नयरूपी चक्र अत्यंत पंनी धारवाला है, दुःसाध्य है, यह मिथ्याज्ञानी पुरुषों के मस्तक को तुरंत खण्ड-खण्ड कर देता है । अन्य चर्चित विषयों में मद्य, मांस, मधु के शेष तथा त्याग, पांच उदुम्बर, फलों के दोष तथा उनका त्याग, सत्यव्रत के भेद व स्वरूप, अचौर्यव्रत के अंतर्गत कुशील का स्वरूप एवं त्याग का उपदेश गरिग्रह का स्वरूप व त्याग का उपदेश, रात्रि भोजन में हिंसा तथा उसके त्याग का विधान, दिग्वत, देवव्रत, अनर्थदण्डव्रत, इन तीनों गुणव्रतों का स्वरूप, सामायिक प्रोषधोपवास, भोगोपभोगपरिमाण तथा वैयावृत्त इन चार शिक्षाव्रतों का स्वरूप, नवधाभक्ति, दातार के गुण, दान तथा पात्र विचार इत्यादि विषयों पर इस विभाग में विशद् प्रकाश डाला गया है ।"
सल्लेखना अधिकार
इसमें मल्लेखना को धर्मरूप घन को परलोक में साथ ले जाने में समर्थ बतलाया है । मरण के समय शास्त्रोक्त विधि से सल्लेखना धारण करना कर्त्तव्य है । सल्लेखना को श्रात्मघात मानने वालों की मान्यता का निरसन करते हुये लिखा है कि रागादिभावों के अभाव के कारण सल्लेखना आत्मघात नहीं है । वास्तव में क्रोधादि कषायों से घिरा हुआ मनुष्य ही आत्मवाती है । सल्लेखना को अहिंसास्वरूप बतलाते हुये सम्यकत्व, व्रत तथा शीलवतों के अतिचारों का निरूपण किया गया है
१७
१. पुरुषार्थसिद्ध युपाय, पद्य क्रमांक ४४ २. ३. वहीं, पद्य नं. ६०
५. वही, पद्य नं. १६९ से १७४ क ७ पुरुषार्थसिद्ध युपाय, पद्य १२१ से १६६ तक |
वही, पद्य क्रमाक ४५ से ५७ तक ४. नही पद्य ५.८,५६
६. वही, पच १७५ से १७७ तक
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कृतियाँ ]
[ २२६ सकलचारित्र अधिकार -
यह इस ग्रन्थ का छठयां एवं अंतिम विभाग है जिसमें मुनियों के सकल चारित्र का वर्णन है। इनमें अनशन, अवमोदय, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन तथा कायक्लेश ये छह बायतप तथा विनय, वैयावृत्य, प्रायश्चित, व्युत्सर्ग, स्वाध्याय तथा ध्यान ये छह अंतरंग तप - इन बारह तपों का निरूपण हैं । समता, वंदना, स्तव (स्तुति), प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान तथा कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक, तीन गुप्ति मन, वचन, काय), पांच समिति (ईर्या, भाषा, एषणा, आदान निक्षेपण, प्रतिष्ठापना), दशधर्म (उत्तमक्षमा, मार्दैव, आजव, शौच, सत्य, संयम तप, त्याग, आकिंचन्य, एवं ब्रह्मचर्य) बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परिषजय इत्यादि का वर्णन किया गया है। यहाँ यह भी स्पष्ट किया गया है कि रत्नत्रय से कभी बन्ध नहीं होता। वह तो एकमात्र मोक्ष का ही कारण (उपाय) है। यहाँ बन्ध को नियम का निर्देश किया गया है कि जितने अंश में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र हैं, उतने अंश से बन्ध नहीं होता और जितने अंश में राग मौजुद है, उतने रागांश से बन्ध होता है। योग और कषाय बन्ध के कारण हैं परन्तु रत्नत्रय तो न योगरूप है और न कषाय रूप, वह तो शुद्धस्वभावरूप हो है । शुद्धात्मा का निश्चय, सम्यग्दर्शन, शुद्धात्मा का ज्ञान, सम्यग्ज्ञान तथा शुद्धात्मा में स्थिरता, सम्यक्चारित्र है। इन तीनों से बन्ध कदापि नहीं होता, ये तो निर्वाण के ही कारण हैं । आगम में सम्यक्त्व तथा चारित्र से तीर्थंकर प्रकृति, आहारकशरीर तथा अवेयकादि सम्बन्धी देवायु का बन्ध होना लिखा है वह व्यवहार नय का उपचारित कथन मात्र है । नय के ज्ञाताओं को ऐसे कथनों का रहस्य या अभिप्राय ज्ञात हो जाने से ऐसे कथन दोषाधायक नहीं होते। यहाँ मर्म की बात यह है कि योग व कषाय से होने वाला तीर्थंकर आदि प्रकृतियों का बन्ध सम्यक्त्व तथा चारित्र के सदभाव में ही होता है, अभाव में नहीं, परन्तु बन्ध के कारण सम्यक्त्व व चारित्र नहीं है। रत्नत्रयधारी मुनियों को देवाय आदि प्रकृतियों का बन्ध क्यों होता है ! इस शंका का समाधान करते हुए स्पष्ट घोषणा की है कि
१. पुरुषार्थमिद युपात्र, पद्य १६७ से २१० तक २. वही, 'पद्य २११ से २१४ नक ३. वही, पच २१५ से २१८ तक ।
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२३० ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व रत्नत्रय तो एकमात्र निर्वाण का ही कारण है, अन्य गति प्रादि के बन्ध का कारण नहीं है, परन्तु रत्नत्रय के साथ जो पुण्यास्रव होता है, वह शुभोपयोग का अपराध है। फिर भी जगत् में "घी जलाता है" ऐसे प्रसिद्ध लोक व्यवहार की भांति रत्नत्रय को भी बन्ध के कारणपने का व्यवहार रूद्ध हो चुका है। अन्त में यह स्पष्ट किया गया है कि पूर्वोक्त निश्च य-व्यवहार रूप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्रमय मोक्षमार्ग है, जिस पर चल कर प्रात्मा परमात्म पद को प्राप्त करता है तथा लोक के अन्त में विराजमान होता है । वह परमपद कृतकृत्य है, समस्त पदार्थों का ज्ञाता है, विषयसुख से रहित ज्ञानानन्द मय है, ज्ञान स्वरूप है तथा मोक्षपद में सदैव आनन्द रूप से विराजमान रहता है।' प्राचार्य अमृतचन्द्र उपसंहार करते हुए जन नीति अथवा नय विवक्षा को दही की मथानी की रस्सी को खींचने वाली ग्वालिनी की तरह मुख्य तथा गौण करके वस्तु का सार प्राप्त कराने वाली बतलाते हैं । अंतिम पद्य द्वारा प्राचार्य अमृतचन्द्र घोषणा करते हैं कि "नानावों से शब्दों से वाक्यों की और वाक्यों से पवित्र इस पुरुषार्थसिद्ध युपाय शास्त्र की रचना हुई है, इसकी रचना में मेरा कुछ भी (कर्तृत्व) नहीं है।'
इस प्रकार समग्र कृति में विवेचित तथा यथाक्रम समायोजित विषयवस्तु से पुरुषार्थसिद्ध ग्रुपाय की रचना अपने प्राप में अद्वितीय, अनुपम व अनूठी है तथा अमृतचन्द्र के अमृतोपम अानन्दामृत से अभिसंचित है। सूत्रबद्ध, सुव्यवस्थित, सतर्क व सोदाहरण तत्त्वविवेचन से उक्त कृति का अपरनाम "जिनप्रवचनरहस्यकोश" सार्थक हो गया है। पाठानुसंधान -
आचार्य अमनचन्द्र की मौलिक एवं स्वतंत्र रचनाओं में पुरुषार्थ सिद्ध युपाय सर्वाधिक बिश्न त रचना रही है। जैन समाज के बाल गोपाल तक इसरो परिचित हैं । घार्मिक पाठशालाओं में इसका पठन-पाठन अवश्य होता है। इसकी विशेष प्रसिद्धि के कुछ कारण हैं। प्रथम तो, उक्त कृति श्रावकों के आचरण की प्रदर्शिका या आचार संहिता के रूप में ख्यातिप्राप्त है। दूसरे, इस रचना की निरूपण शैली अत्यंत सरल, सीधी एवं सतर्क है। तीसरे, इसमें निरूपित अहिंसा
१. वही, पद्य २१६ से २२४ तक ६. वही, पद्य २२६ बां
२. वही, 'पद्य २२५ वां ।
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कृतियाँ ।
[ २३१ का प्रकरण श्रावकाचारों की आद्यन्त परम्परा में अनुपम, अाकर्षक एवं आश्चर्यकारी है । चौथे, यह कृति आचार्य अमृतचन्द्र के अमृतोपम अध्यात्म रस से परिपूर्ण तथा जिनागम के गम्भीर रहस्यों की उद्घाटन करने वाली रचना है। पांचवे, इस ग्रन्थ की एक नहीं, अनेक प्रतियां मुद्रित एवं हस्तलिखित दोनों प्रकार की प्रायः प्रत्येक जिनमन्दिर तथा जैनशास्त्रमण्डारों में मिलती हैं। इतना ही नहीं, इस ग्नस्थ की प्रतियां अनेक श्रावको पाल उपना होती हैं। रमजोत हिनमन्दिरों में शास्त्रभण्डारों को देखा तो वहां पुरुषार्थसिद्ध युपाय ग्रन्थ की एक से अधिक प्रतियां उपलब्ध हुई । मैने स्वयं भी पाठानसंधान हेतु बीस प्रकार की विभिन्न टीकाकारों, सम्पादकों, अनवादको तथा लिपिकारों की पुरुषार्थसिद्ध पाय की प्रतियाँ प्राप्त की हैं जिनका विस्तृत विवरण आगे दिया गया है। उपलब्ध प्रतियों की भाषा हिन्दी, ब्रजभाषा, मराठी पञ्च व गद्य, गुजराती, अंग्रेजी इत्यादि हैं। ये सभी प्रतियां दो प्रकार की हैं मुद्रित तथा हस्तलिखित । मुद्रित में भी अधिकांश पुस्तकाकार सजिल्द हैं, कुछ शास्त्राकार अर्थात् पृथक् पृष्ठों वाली है। इनमें हस्तलिखित प्रतियां सर्वाधिक प्राचीन हैं। इसका कारण यह है कि मुद्रण के विकास के पूर्व तो हस्तलिखित प्रनियों के माध्यम से ही पठन-पाठन की परम्परा चलती रही है । हस्तलिखित प्रतियों में कुछ प्रतियों का विवरण इस प्रकार है - सर्वप्रथम टीका पंडित प्रवर टोडरमलजी जयपूर की ढढारी भाषा में उपलब्ध होती हैं, जिसे वे अपने जीवन काल में पूर्ण नहीं कर पाये । उसे पंडित दौलतराम जो ने विक्रम संवत् १८२७ (अर्थात् १७७० ईस्वी) में पूर्ण किया था । उक्त हस्तलिखित प्रति सजिल्द एवं सुन्दर लिखावट में है। लिपिकार फतेराम व्यास तथा लिपिकाल १६४६ विक्रम सबत् (१८८६ ईस्वी) है। यह प्रति श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन बड़ा मन्दिर हनुमानताल जबलपूर( मध्य प्रदेश) के हस्तलिखित शास्त्र भण्डार
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१. कुछ देखे गये शास्त्रभन्डारों के नाम इस प्रकार हैं - सिवनी, वारासिवनी,
छिदवाड़ा, जबलपुर, गागर, भोगाल, इन्दौर, उज्जैन, विदिशा, गुना, सीहोर, इत्यादि (मध्यप्रदेश में), नागपुर, पूना, कोल्हापुर, सोलापुर, बालचन्दनगर, बाहुब लिकुम्भोज दरमादि (महाराष्ट्र में), जयपुर के कई शास्त्र भन्डार, आगरा, ब्यावर, अजमेर तथा अहमदाबाद, महेसाना, भावनगर, फतेपुर, (गुजरात) इत्यादि।
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करियेटीकापुरमा उपचारधमेमने हातची कामरणालीमाबामपनिधान कुसातदोबसंघकौलदी जीवन नित्यनारपसुक होजराजाप्रताहोऊधर्मकोधित मिरारोऽवगनके पादौनविजनसिकिस्मताररसैऊयरेसमा विनस लाईसमा समागिसररतिसरिसमुदिस्यतरजातीहारासंदरशातजानना ऊपरनिदेयरवा नाम्हासुकलपंचमगुरुवामाधिस्मालकि विवाह स्टार सतबमात्यावरगान विव्याता प्रास कनानगरमप्रवीन श्रीजिनधर्मविपैलवती मानिनसुनधासीसमकामनारानविलदलीनावसवरोराग्राम निमारम्वनिजजोम्बनित करेंडिचासारनगरको कार सवाया रामहफिर पाय तिनकै सुतज्यवरवारि खुतिसुनवउदारमामानीसमडेगमामालनालघुरितमुक्तान नौचंद्रयरमयदीनलघुमनत्रीमानला लमुलीनारामा यसमधारेवरनिन नमिनकुलको नि मायानितिकरविदारयनाशननदो अधिकार त्यानन्याका कारण पायापलबरमप्रिनिनासकराया नादानवहताजाने नमीददचकुलधान मनसा दादा नभीचे दबोनिननिजयुरहित मुविचारधामधुधायकैलिमवाहितासान यायविटारायणसुष कारागुणधामानगरनगलवकैदिलिखावासनियम रजवलगिनगिमरहनवांगसशिप्रसाद लिगिविजनमुरुमतविवरही यह शान नारन उमरिक्तरूपासियाराभादमागम मिनिप्रसाढस्युरू कवासासंद RANATir tipur
शुभमस्तु (गुरुवर्य मिगलसुगम्य - पं. राम कृ ARE Pe - जनत्मपूर को पाने का आने )
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कृतियाँ 1
[ २३३
में उपलब्ध है। यहां भिन्न भिन्न संवत् की अन्य कई प्रतिलिपियां भी हैं । इस प्रति में लिपि विषयक शाब्दिक त्रुटियां अनेक हैं। उदाहरण के लिए प्रारम्भिक कुछ पथों की टोडरमलजीकृत मुद्रित प्रति से तुलना की जाती है । मुद्रित प्रति दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट - सोनगढ़ जिला भावनगर (सौराष्ट्र) से प्रकाशित है।
जबलपुर की (हस्तलिखित) प्रसि पुरुसार्थ सिद्धयोपयाय
(पद्य क्रमांक १) पय्यायः दर्पण
(पद्य - २) निषद्ध
विलसिताने अनेकां
( पच-३) रूपोद्रयते
विदुष्षां सिधूपायोयं
( पच-४) दुरस्त
निश्चयज्ञा
( पद्य - ५ ) वरणयन्त्यभूतार्थ विमुख प्राय
(पद्य - ६ ) अवुधस्य बोधनार्थ मुनीस्वरा (पद्य ७ ) माणवक हि एव (पद्य) य प्राप्नोति
देखना
शिष्
सोनगढ़ की ( मुद्रित ) प्रति पुरुषार्थसिद्ध युपाय
पर्यायः
दर्पण
निषिद्ध
विलसितानां
श्रनेकान्तम
रूपोद्भियते
विदुषां
सिद्ध युपायोऽयम
दुस्तर निश्चयज्ञाः
वर्णयन्त्यभूतार्थं म्
विमुखः प्रायः
अबुधस्य बोधनार्थं मुनीश्वराः
माणवक एव
यः प्राप्नोति
देशना
शिष्य :
इसी प्रकार की त्रुटियां प्रायः अधिकांश पद्यों में पाई जाती है । उपर्युक्त तुलना से यह स्पष्ट हो जाता है कि हस्तलिखित प्रति में ही टियां पाई जाती हैं, मुद्रित प्रति में उन त्रुटियों का सुधार हुआ है ।
द्वितीय हस्त लिखित प्रति पं० भूवर मिश्र द्वारा रचित उपलब्ध हुई है । यह प्रति ब्रजभाषा (हिन्दी) में है। इसकी रचना संवत् १८७१ ( ईस्वी १८१४ ) ये हुई थी। यह पृथक् पत्रों वाली स्पष्ट अक्षरों में में लिखी गई हैं । लिपिकार पंजवार चौबे चन्देरी ( मध्य प्रदेश ) हैं ।
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मासबसेमिनोभावहरवणुनकर उचित धितकीदेविस्याचिन में भगजहरहामध्यस्थनमोरिया नटे चारभारनारूपनकीरीनिहाशाहाचारभावनावितधरोयभारतिभनुगमन श्लीश्रुतसाभलासीयसमामिलानाyuniतका दावाअवारहरीरकोतरमासभादौन
शुभश्रुतपछसुगंधदशमीग्रंथलिपिहरगकिमाधनिअटाचजनीशजलधराममनोनी कालभाउपदेसवरषाकरसीजलभदिकजनवनमाल पासवैमागासाधरमीलोगनपरेममा हिदिडकीनों मेंभीमनपरहिलिधि मेंधशहरंगनापंडिजनेअरथपढाटीनीमामैको किनकदिशतउपवशेहयाकरनकासकलानिया नियुनभलादसीधरमित्रनिनसोषिसुधार शहारनेउपगारी मिलिकीनायगारलीकात्तव्यहवालवोथीकाविसतरीहमालवहानाम गले दुष्पेलापनविविविविचरनारविरासतरेकरैदासअरदासभामहरसाहिममेरे।
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कृतियाँ ]
[ २३५
यह लिपि संवत् १९२६ ( ईस्वी) की है। यह प्रति श्री दिगम्बर जैन मंदिर, चौक, भोपाल में उपलब्ध है । यहाँ भी विभिन्न संवत्सरों की हस्तलिखित तथा मुद्रित कई प्रतियां हैं। इसमें भी पाठ सम्बन्धी अनेक अशुद्धियां हैं जो लिपि विषयक हैं। पूर्वोक्त सोनगढ़ प्रति के साथ इसकी तुलना करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सर्वाधिक सही एवं उपयोगी पाठ किस प्रति का है। उदाहरण स्वरूप यहाँ कुछ पद्यों की तुलना की जाती है।
भोपाल की (हस्तलिखित) प्रति
पद्म क्रमांक १ पर्याय
दन
पद्य २
पद्य ३
परमागमस्थ जीव
विलसिताना
नेत्रे
परमागम
विदुपा
सिद्ध युपायय
विणेय
दुर्बोधा
व्यवहार वर्णयत्यभूतार्थं
वर्णयन्त्यभूतार्थम
बोधविमुखः देशयत्यभूतार्थं
बोधविमुखः देशयन्त्यभूतार्थं म केवलमवैति
केवल मेवेति
मानवक
माणवक
मध्यस्थ
मध्यस्थः
देशनाया
देशनाया:
शिष्य
शिष्यः
ऐसी ही त्रुटियां प्राय: सम्पूर्ण ग्रन्थ में पाई जाती हैं, अतः शुद्ध पाठानुसंधान की दृष्टि से यह प्रति भी अधिक उपयोगी प्रतीत नहीं होती । इस प्रति में पद्य संख्या में भी अन्तर है। मुद्रित प्रति में २२६ पच हैं जबकि हस्तलिखित प्रति में केवल २२५ पद्य हैं। वास्तव में मूलपाठ पूर्ण है परन्तु पद्य संख्या लिखने में लिपिकार ने कई जगह भूलें की
पद्म ४
पद्य ५
पद्य ६
सोनगढ़ को ( मुद्रित ) प्रति
पर्यायः
दर्पण
पद्य ७
पद्य ८
परमागमस्य जीवं विलसितानां
नेत्रं
परमागमं
विदुषां
सिद्ध युपायोऽयम
विनेय
दुर्बोधा:
व्यवहारं
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अमचंदनाजधानमग्रीमपाल उमदेसवरखाइरीलीजनभावकजनवनः । जाल मारवारमा सामानामोरनीदेवानलमोनराकरदिन्ति ।
...
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नगालोकारवाललोभरीकारिनरीह २६।अमालकाय रसागसम् मुदिनानासाहजनक ननका अवदाहीनकीमालिनमानभारत विनिवरदारपुरासुरकर कोदासवदासनासहरसाहिबारे महसंसारसारखः । समानसरया निरादर सन्सारपसलधुपकरतानापावा यासात
परनामानाचारमान तामाकानीकसुदीमा सवन
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...और में रोज 5 were.) को पुरूघा सहनुमा पनि का अंतिम
पन्म सामने का पुष्ट)
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कृतियाँ |
[ २३७
हैं । उपर्युक्त लेखक ( पं० भूधर मिश्र ) की रचना की एक प्रतिलिपि हनुमानताल, जबलपुर के मन्दिर में भी है। यह तीसरी हस्तलिखित पृथक् पत्रों वाली प्रति है जो लिपि की अपेक्षा भोपाल की प्रति से अत्यधिक सुन्दर, स्वच्छ एवं आकर्षक है परन्तु वटियों की संख्या इसमें और भी अधिक है । उदाहरण के लिए निम्न पद्य तुलना हेतु प्रस्तुत हैं।
-
जबलपुर प्रति पद्य १ रणंतपर्याय
पद्य २ परमागस्य
दर्पनतल इव शकला पदार्थमालि
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जासंधुर विधानं
विरोधमथनः नमाम्यःअनेकान्तं
-
सोनगढ़ प्रति रतपर्यायः
इस प्रकार पाठशोध की दृष्टि से यह प्रति भी अनुपयोगी ही है । इस प्रति की रचना तिथि तो वहीं विक्रम संवत् १८७१ हैं परन्तु लिपि संवत् का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। टीकाकार का परिचय अन्त में अवश्य दिया गया है।' टीकाकार भूधर मिश्र ने जैनधर्म तथा विशेषतः
दर्पण तल इव शकला पदार्थमालिका
परमागमस्य
जात्यात निदिध विरोधमधनं नामाभ्यनेकान्तम्
शाहगंज मोहे सुखी भाग अनुसार,
१. दोहरा नगर आगरे के निकट जैनधाम अभिराम सों चारों वर्ण प्रजा बसे भट्टलोपत तहां विद्याधन मुरिख पंडित होत है जिनकी मंगति पाइ, जैसे पारस को परस लोह कनक हो जाइ || ३ || रंगनाथ तिनमें निपुण, सृजन सराहत जाहि
विधाता ताहि ॥ ४ ॥
सुखकार । अनुसार ॥ ॥
सदा शास्त्र विद्या विमल दई तिनसी भाग रांजोग करि भयो संग तिन में जैन पुराण हम देखे मति चौपाई से पठन करत बहु भाय श्री पुरुषारथ सिद्ध उपाय | अमृतचन्द्रकृतग्रन्थ अनुग, देखो धर्मरसायनिकूप ।। ६ ।। हिंसा भेद बहुत वा मांहि, पैसे और ग्रन्थ में नाहि ।
गम्भीर - कण्डो अर्थ न समझयो जाइ, तब में रंगनाथ पे आई ॥ ७ ॥
सुखवास, धर्मनिवास ।। १ ।।
भण्डार || २ |
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॥
६करमा
नापमानसपास भीओमालक मंदीर पधारे श्रीमान टमारवाडी हरीएयजलगत तलवारेमचं नस्पस्नास्मान दास तस्य भान
छोटेनिसपासनी केलायत्रमानवानेलसाकेला जात नदोरलेपपुर मितिमाउन २ चंदार लवन र २२ नवार-चोवेवदीवारे
4. दि .सेच, भोना भी पुकार प्रति मा प्रतिक मन्त्री विजमा )
।
HERE:
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कृतियो ।
। २३
पुरुषार्थ सिद्ध युपाय का मर्म तत्कालीन विद्वान पण्डित रंगनाथ से समझा था। पण्डित गिरधर मिश्र का यश भी अमृतचन्द्र कृत समयसार कलशों का अमृतमयी अर्थ बखान करने के कारण फैला था । टीकाकार अन्त में लिखते हैं कि इस दुखमा पंचमकाल रूप ग्रीष्म ऋतु से संतप्त, जगत् जंजाल में पड़े भव्य-जीवों को शीतलता प्रदान करने वाली उपदेशामृत की वर्षा करने वाले आचार्य अमृतचन्द्र यतिबर मेघ समान धन्य हैं । टीकाकार भूधरमिथ की टीका की अंतिम प्रशस्ति अत्यंत महत्वपूर्ण है । वह अन्य पुरुषार्थ सिख युपाय तथा ग्रन्थकार आचार्य अमृतचन्द्र पर बहुमूल्य प्रकाश डालती है। साथ ही टीकाकार के समकाल तथा पूर्वकाल में भी उक्त कृति के व्यापक प्रचार-प्रसार को प्रभावित करती है ।
कठिन अधं अवधारन कियो, भाषा वचनरूप लिखि लिमौ ।
असी भांति बचनिका भई, स्वपर हेत हितकारण ठई ।। ८ ॥ छप्पय - अमृत चन्द्रकृत काव्य कलश तहां अर्थ सुधारस ।
गिरधर मिश्च मटीक ठान मुखरूप लियो जस ।। बुधिबलवंत उदार तास रस को आस्वादहि । हमसे अपढ़ अजान हीनवल कसे लाघहि ।। दुजे रंगनाथ पंडित प्रचुर, स्वपर शास्त्र मर्मज्ञ नर ।
तिनके सहाय सत्रांग लव अर्थलाभ उपगारवर ।। || सोरठा - श्रुत समुन्द्र बहुमान, तहां कौन भूले नहिं ।
असे कहत महान, और दीन किस पंक्ति में ।। १० ।। दोहा - भूधर की यह बीनती, मुनियो सज्जन सोय ।।
गुन के गाहक हूजियो, दोस न लीजो कोय ।। ११ ॥ ___ गुन ग्राही शिशु थन लग, रूधिर छोड़ि पय लेत ।
यह बालक सों सीखिये, जो सिर पाये सेत ।। १२ ।। अडिल्ल – सब सौ मैत्री भात्र हरष गुन में करी।
दुखित मुखित को देखि दया चित्त में घरो ।। तहां रहो मध्यस्थ जहां विपरीत है।
चार भावना रूप जैन की रीति हैं ।। १३ ।। दोहरा – चार भावना चिन धरौ यथाशक्ति अनुठान् ।
जिनपुजी श्रत सांभलौ, सीख समापित जान ।। १४ ।। गीतिका - संवत् अठारह से इकोत्तर मास भादौ बर. तीया ।
शुभ शुक्ल पक्ष मुगन्ध दशमी ग्रन्थ लिखि पूरण किया ।
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२४० ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
पुरुषार्थगि म सा गति कोइरमलजी तथा पण्डित भूघर मिश्र की टीकाओं से भी पहले एक टीका संस्कृत भाषा में भी लिखी जा चुकी थी, जिसकी प्रतियां अभी भी जयपुर के श्री दिगम्बर जैन बघीचन्द जी' तथा श्री दिगम्बर जैन मन्दिर ठोलियों का (जयपुर) में उपलब्ध हैं। बधीचन्द मन्दिर की प्रति में टीका का नाम त्रिपाठी टीका दिया है। दिगम्बर जैन मन्दिर पाटोदी जयपुर में उक्त संस्कृत टीका की एक प्रतिलिपि सम्वत् १७०७ (ईस्वी १६५०) की विद्यमान है। प्राचार्य कनककीर्ति के शिष्य सदाराम ने फागुईपुर में प्रतिलिपि की थी।३ संस्कृत टीका की एक प्रति श्री दिगम्बर जैन तेरहपंथी बड़ा
पनि प्रमृतचन्द्र जतीश जलधर दुखमग्रीषम कान में ।
उपदेस वरषा करी शीतल भविक जन बनजाल में ।। १५ ।। सर्वया - साघरमी लोगनि पौर मोहि दिद कीनों ।
मैं भी मन फेरि बुद्धि लिखवे में धरी है ।। रंगनाथ पंडित ने प्ररथ पढाइ दीनौं । यामैं कहो कौन कवि रीति उपचरी है ।। व्याकरन-कोषा-काला विधा में निपुन भला । बंसीधर मित्र तिन सोधि शुद्धि करी है। एते उपगारी मिलि कोना उपगार नीका ।
तब यह बालबोध टीका विसतरी है।। १६ ।। छप्पय - पनविविविध चरनारविन्द प्रसुरासुर केरे।
कर दास अरदास पास हर साहिब मेरे ।। यह संसार असार खार सागर है सोई । तुम बिन तारन तहां तिहुँकाल' न कोई ।। अब हरहु दीन की मलिन मति, भर हौं पास अशरन शरन ।
नित करहु क्षेम चहुसंग में, शांतिदेव सब सुख करन ।। इति (श्री पुरुषार्थ सिद्ध पुपाय अपरनाम जिनप्रवच रहस्य कोश की भाषा टीका सपूर्ण)
(देखिये पृष्ठ १२१, १२२ जबलपुर की पान्डुलिपि) १. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की सूची, भाग ३, पृष्ठ ३२ २. बही, पृष्ठ १८५ ३. बही, भाग ४, पृष्ठ ६८
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कृतियाँ |
[ २४१
मन्दिर जयपुर में भी उपलब्ध है । उक्त टीका की प्रति रायल एसियाटिक सोसाइटी बम्बई में भी है ।
इसी तरह पं. टोडरमलजी तथा भूधर मिश्र की रचना के पूर्व पं. भूधरदास ने भी एक टीका पुरुषार्षसिद्धयुपाय पर सम्वत् १८०१ में लिखी थीं, जिसकी प्रतिलिपि (सम्वत् १९५२ की ) दिगम्बर जैन तेरहपंथो बड़ामन्दिर जयपुर में उपलब्ध हैं । यह टीका हिन्दी में है। इसके अतिरिक्त पुरुषार्थसिद्ध युपाय की उपर्युक्त टीकाकारों की विभिन्न सम्वत्सरों की हस्तलिखित अनेक प्रतियाँ विभिन्न स्थानों पर विद्यमान है । उनमें अजमेर, अलवर, दौसा, बयाना, नागदी (बून्दी), टोक, इन्दरगढ़ ( कोटा ), महावीरजी पियारी, भरतपुर, कामा, डीग, करौली, बन्दो तथा जयपुर के जैन मन्दिरों के शास्त्र भण्डारों में पुरुषार्थ सिवाय की प्रतियाँ उपलब्ध हैं ।
पुरुषार्थसिद्धयुपाय की हस्तलिखित ताड़पत्रीय प्रतियाँ भी अनेक स्थलों पर उपलब्ध होती है। भट्टारक लक्ष्मीसेन जैन सिद्धांत श्रुत भण्डार कोल्हापुर (महाराष्ट्र) में एक ताड़पत्रीय प्रति उपलब्ध है, जिसकी आकृति ७६ १३ इंच है। इसमें लिपि कश्नड़ भाषा की है, परन्तु प्राचार्य अमृतचन्द्र के मूल संस्कृत पद्य हैं ।
पुरुषार्थसिद्धयुपाय को मुद्रित प्रतियों में सर्वाधिक प्राचीन प्रकाशन सन् १६६७ ईस्त्री का उपलब्ध हुआ है। इसके मराठी टीकाकार रा. रा. कृष्णाजी नारायण जोशी है । इसका प्रकाशन वेलगांव (महाराष्ट्र) से हुआ है। इस प्रकाशन की कुछ विशेषताएँ इस प्रकार हैं -
१. इस कृति के मराठी अनुवाद का श्राधार दो प्रतियाँ रही है। एक प्रति द्रविड़ी लिपि में ब्रह्मसूरी शास्त्री के पास से जयराव नैनार द्वारा की गई लिपि हैं तथा दूसरी प्रति जयपुर के मठ की है।
१. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की सूची, भाग ४ पृष्ठ ६=
२. पुरुषाद्धि युपाय प्र. पृष्ठ ५ (सन् १९०४ का संस्करण) संपादक पण्डित नाथूराम प्रेमी ।
३. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की सूची, भाग ४, पृष्ठ ६६
४. वही भाग ५ पृष्ठ १३४-१३५
५. पुरुषाचं सिद्ध युगाय, प्र. पुष्ठ प्रथम ( रा. रा. कृष्णाजी नारायण जोशी कृत मराठी टीकर)
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२४२ ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व २, इस प्रकाशन में पद्य क्रमांक ७० को छोड़ दिया गया है तथा पद्य नं, २२७ नं. नवीन मिला दिया गया है। इसमें मिलाये गये श्लोक पर ध्यान देने से ज्ञात होता है कि उक्त श्लोधा मराठी टीकाकार ने या तो स्वयं ग्रन्थान्त में प्रयुक्त शब्दों को लेकर रच लिया अथवा भ्रम से उसे श्लोक समझ कर उसे श्लोक क्रमांक दे दिया है। प्रक्षिप्त श्लोक इस प्रकार है -
पीयूषचन्द्रसूरे: कृतिरिति पुरुषार्थसिद्धयुपायोयं ।
नाम जिनप्रवचनरहस्य बोशः समाप्तिमति ।।
उक्त पद्य में अमृत चन्द्र की जगह पीयूषचन्द्र पद बदलकर रख दिया है। पं. नाथूराम प्रेमी द्वारा सम्पादित तथा हिन्दी में रूपांतरित पुरुषार्थसिद्धयपाय ग्रन्थ के अन्त में यह गद्यांश दिया है ... 'इति श्रीमदमृनचन्द्रसूरीणां कृतिः पुरुषार्थसिद्धयुपायोऽयं नाम जितप्रवचनरहस्यकोषः समाप्तः ।"२
३. इस प्रकाशन में पश्चात् के प्रकाशनों से पाठ भेद भी पाया जाता है जो महत्त्वपूर्ण है। पाठांतर सूची यहाँ प्रस्तुत की जा रही है -
बेलगांव (मराठी) प्रति सोनगढ़ प्रति पद्य १४ अयमेव हि
एवमयं पद्य २५ कर्त्तव्या
करणीया पद्य ३४ प्रकाशयोरिह
प्रकाशयोरिव पद्य ४६ व्युथ्थानावस्थायां व्युत्थानावस्थायां प्रवृत्तानाम्
प्रवृत्तायाम् पद्य ५६ जगति
झटिति पद्य ६१ तत्काल
प्रथममेव पद्य ६६-६७ निगोद
निगोत पद्य ६८४
१. छोड़ा गया पद्य इस प्रकार है -
स्वयमेव विगलितं यो गृहणीयादा छलेन मधुगोलात् ।
तथापि भवति हिंसा तदाश्रय प्राणिनां घातात् ।।७।। २. पुरुषार्थसिद्ध युपाय, पं. नाथूराम, रायचन्द्र जैन शास्त्रमासा बम्बई से १९०४
ईस्वी में प्रकाशित, अन्तिम पृष्ट ११५
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कृतियाँ ]
। २४३
लोके"
पद्य ६६ संपूर्ण पद्य ६६ मोक्तव्यं शुद्ध द्धिभिः मधुकरहिंसात्मकं भवति
सततम" 'वस्तु नि मधुयति हिंसा "भवति मधु मूढधीको यः |
तदाश्रय प्राणिनां घातात् स भवति हिंसकोऽत्यतम् ।" पद्य ७४ निश्चित्य
परिवज्यं पद्य ७४ औत्सगिकी
उत्सर्गिको पद्य ८५ शीन च
त्वचिरेण पद्य १०६ यद्यपि
तदपि पद्य १५५ प्रोथ्थाय
पोध्याय शुद्धा
कल्पम् उक्त
उक्तं पद्य २२० यत्राधित पुण्यं प्रास्रवतियत्तु पुण्यं पद्य २२१ मित:
मिति ४. उक्त प्रकाशन में पद्य संख्या में कर भंग हैं । पद्य क्रमांक ५० वा हट जाने से शेष सभी में पद्य क्रम भग है । सोनगढ़ प्रति का पद्य क्रमांक ७४, ७५, ७६, ७७, ७८, बेलगांव प्रति के पद्य क्रमांक ७३, ७४, ७५, ७६, ७७ हैं।
पूरुषार्थसिद्ध यपाय के शेष उपलब्ध प्रकाशनों में क्रमश: १६०४ ईस्वी का पं० नाथूराम द्वारा सम्पादित, १६०६ ईस्वी का सूरजभानु वकील देवबन्द का प्रकाशन, १६२६ ईस्वी का पं० पसालाल चौधरीकृत काशी का प्रकाशन, १६२७ ईस्वी का पं मक्खनलाल शास्त्री मुरैना का बहद् सस्करण, १६२८ ईस्वी का अज्ञात लेखक का मराठी संस्करण, १६२६ ईस्वी का शंकर पढरीनाथ रणदिवे सोलापुर का प्रकाशन, १९३६ ईस्वो का पं० सत्यंघर जयपुर का संस्करण, १६५८ ईस्वी का सागरचन्द्र बड़जात्या लश्गर का प्रकाशन, १९५६ ईस्वी का पण्डित सरनाराम बारूमल (सहारनपुर) का, १६७३ का प्रा. बी.डी, पाटिल कोल्हापुर का मराठी संस्करण, १९७४ ईस्वी का वैद्य गंभीरचंद जैन एटा का हिन्दी संस्करण, १९७६ ईस्वी का पं. विद्याकुमार से ठो कुचामन सिटी की बृहद् टीका, १६६६ की पं० मुन्नालाल रांधेलीय सागर तथा पण्डित मनोहर वर्णी की टोकायें इत्यादि के प्रकाशन उपलब्ध हुए हैं । इसके अतिरिक्त पुरुषार्थसिद्ध यपाय कर अंग्रेजी में १६३३ ईस्वी में
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२४४ ]
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कतृ त्व
जे० एल० जैनी का तथा गुजराती भाषा में सन १६६६ स्त्रों में "सोनगढ़" (सौराष्ट्र) से प्रकाशित संस्करण भी देखने में आये । इन सभी प्रकाशनी के मूल पाठ में विशेष अंतर दिखाई नहीं दिया । मूलपाठ का संशोधित, सर्वाधिक शुद्ध व प्रामाणिक संस्करण सन् १६७४ में सोनगढ़ से प्रकाशित हुआ है जिसमें पं० टोडरमलजी कृत टीका का हिन्दी रूपांतर है।
उपरोक्त में १६२६ सन् में शंकर पढगेनाथ रणदिवे सोलापुर का पुरुषार्थसिद्ध युपाय का मराठी प्रकाशन का वैशिष्ट्य यह है कि इसमें ग्रन्थ का अपरनाम श्रावकाचार दिया है । इसके अतिरिक्त कुल १६६ पद्य तक ही टीका की गई है। उक्त प्रकाशन में १६७ से लेकर २२६ के पब जिसमें सकल चारित्र का निरूपण है, छोड़ दिये गये हैं। परम्परा
संपूर्ण जैनागम को निरूपण की दृष्टि से चार अनुयोगों में विभाजित किया गया है। वे अनुयोग हैं - प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग तथा द्रव्यानुयोग | प्रथमानुयोग में पुराण-पुरुषों का चरित्र निरूपित किया गया है । करणानुयोग में लोक-अलोक तथा चारों गतियों का और युग परिवर्तन आदि का निरूपण है। चरणानुयोग में गृहस्थ तथा मुनियों के चारित्र (आचरण) की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के सम्बन्ध में वर्णन है। द्रव्यानुयोग में जीव अजीवादि तत्वों, पुण्य-पाप तथा बन्धमोक्ष का स्वरूप दर्शाया गया है ।' उक्त पुरुषार्थसिद्धयपाय चरणानुयोग की परम्परा का ग्रन्थ है। इसमें गृहस्थाचार का विशद् तथा मुनि-आचार का संक्षिप्त निरूपण है। घरणानुयोग की परम्परा पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार तथा अष्टपाहुइ में आचरण सम्बन्धी सर्वप्रथम निरूपण किया है, परन्तु उक्त निरूपण में मुनि-याचार का ही प्रमुखत: बर्णन है। थानकाचार का सर्वप्रथम, सुव्यवथिन, सविस्तार विवेचन रत्नकरण्ड श्रावकाचार नामक ग्रन्थ के प्रणयन द्वारा आचार्य समंतभद्र स्वामी ने ईस्वी की दूसरी सदी में किया । तत्पश्चात् भगवज्जिनसेनाचार्य ने महापुराण में (ईस्त्री ८०० से ८४८ के बीच) श्रावकों की क्रियानों का उल्लेख किया । किंतु महापुराण में वर्णित क्रियाएं पूर्वाचार्य वणित रत्नकरण्डश्रावकाचार की परम्परा से बिल्कुल भिन्न हैं । उन्हें समय या युग की मांग का प्रतिबिम्ब कहा जा
१. रत्नकरण्डनावकाचार, पद्य क्रमांक ४३ से ४६ तक ।
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कृनिया 1
[ २४५ सकता है । पूर्वाचायवर्णित चरणानुयोग विषयक मूल परम्परा का पुनरुद्धार संवर्द्धन, संरक्षण तथा प्रचार-प्रसार अमृत चन्द्र ने पुरुषार्थसियपाय की रचना करके किया। उन्होंने आचार्य जिनसेन की परम्परा को नहीं अपनाया । प्राचीन मून परम्परा में भी उन्होंने श्रावक की ११ प्रतिमाओं की अपेक्षा, श्रावक के १२ प्रतों पर विशेष जोर दिया; जबकि १२ यतों का निरूपण दो तिहाई भाग में (१५६ पद्यों में) किया है।' साथ ही १२ तार, षट्झावश्यक, पांच समिति तथा दशधर्मों के एकदेवा पालन पर भी जोर दिया है ! उनका परुषार्थसिद्धयपाय वास्तव में चरणानुयोग की परम्परा का संरक्षक है। उनके बाद कई श्रावकाचार ग्रन्थों का प्रणयन हुआ, परन्तु अधिकांश प्रणेताओं ने आचार्य अमतचन्द्र का होनाधिक रूप में अनुकरण अवश्य किया है। पश्चाद्वर्ती मुनि व श्रावकाचार विषयक ग्रन्थों में सोमदेवसूरि (ईस्वी ६४३ से ६६८) का यश स्तिलऋचम्पूगत उपासकाध्ययन, अमितगति आचार्य (ईस्वी ६६३ से १०२१) का अमितगति श्रावकाचार, चामुण्डराय (ग्यारहवीं सदी ईस्वी) का चारित्रसार गत श्रावकाचार, स्वामी कार्तिकेय (ईस्वी १००८ से आगे का कालिके यानुप्रेक्षागत श्रावकाचार, बसुनंदि (१०४३ ईस्वी) का वसुनंदि श्रावकाचार, देवसेन (ईस्वी दसवीं सदी) का सावयधम्म दोहा, पण्द्धित प्राशाधर (ईस्वी वारहवीं सदी) का सागार घर्भामृत तथा अनगार धर्मामृत इत्यादि प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं । पं. आशाबर ने सागारधर्मामृत में पूर्णतः भट्टारकीय पद्धति का अनुकरण किया है। साथ ही पंचामृताभिषक जिनेन्द्रपूजा हेतु बगीचा-बावड़ी आदि बनवाना", कन्यादान को पुण्य बन्ध का कारण लिखना, शिथिलाचार का पोषण' इत्यादि आगम विरुद्ध बातों का समावेश सागार धर्मामुत में किया है। पं आशाधर ने तो युगानुरूप ग्रन्थों की रचना की। वे स्वयं लिखते हैं .. --:. -...१. पुरुषासित युगाय, पशु ३७ से १६६ तक। २. वहीं, गद्य क्रमांक १६७ से २५० तक । ३. वहीं, पद्य क्रमांक २७१ ४. वहीं, पद्य क्रमांक २०३
५. यही, पद्य क्रमांक २०४-२०५ ६. सागारवामृत, अध्याय ६, पद्य २२ ७. वही, अध्याय २, पद्म ४० ८, वही, प्रन्याय : पृष्ठ ५७, ५६, ५६ ६. वही, अध्याय २, पद्य ६४
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२४६ ।
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
"ग्रन्थः कृतस्नेन युगानरूपः' ।' यहां यह भी उल्लेख्य है कि पं. आशाघर ने जहां सागार धर्मामृत में अमृतचन्द्र का अनुसरण नहीं किया, वहीं उन्होंने अपने अनगार घर्मामृत में उनका पूरा-पूरा अनुकरण किया है। अनगारधर्मामृत में उन्होंने आचार्य अमुतचन्द्र के ग्रन्यों के अनेक पद्य प्रमाण रूप में उपस्थित किये हैं। प्रणाली -
श्रावकाचार तथा मुनि-आचार विषयक ग्रन्थों की रचना सीधी निरूपण शैली में की जाती थी जिसे हम परिभाषा शैली कह सकते हैं, इस शैली का प्रयोग सर्वप्रथम रत्नकरण्ड श्रावकाचार में मिलता है। प्राचार्य अमृत चन्द्र ने पुरुषार्थसिद्ध युपाय में परिभाषा शैली के साथ ही साथ आध्यात्मिक एवं ताकिक शैली का भी प्रयोग किया है। जहां एक और उन्होंने नयात्मक कथन शैली पर जोर दिया, वहीं दूसरी और नयपक्ष से सावधान रहने का भी उपदेश दिया है। उदाहरणार्थ एक ओर तो वे मात्र व्यवहार के जानने बानीको व्यवहार जिनाना का निषेध कारते हैं तो दूसरी ओर वे निश्चय को यथार्थ में न जानकर, निश्चय का ही प्राश्रय लेकर अपने परिणामों और आचरण को नहीं सुधारने वालों की भर्सना भी करते हैं। इस प्रकार पुरुषार्थसिद्धय पाय ग्रन्थ में उन्होंने बड़ी सावधानी पूर्वकः निश्चय-व्यवहार नय की योग्य संधि सहित विवेचना की है। अहिंसा के सिद्धांत को ध्या पत्राता एवं सूक्ष्मता पर बल देकर उसे ही प्रमुग्त्र सिद्धांत अथवा जिनागम के साररूप में निरूपित करने में उन्होंने बड़ी कुशलता प्रदर्शित की है । तात्विक, सैद्धांतिक तथा दार्शनिक विवेचना का पर्याप्त पुट उनकी शैली में पाया जाता है। ग्रंथ वैशिष्ट्य -
उक्त ग्रन्थ अनेक विशेषताओं से विभूषित हैं उनमें कुछ इस प्रकार हैं - १. “अनेकांन" की सर्वाधिक महत्ता प्रदर्शित की गई है।
१. जननिबन्धगलावलि, पृष्ठ २४४ २. पुरुषावसिद्ध युपाय, 'पद्य नं. ६ ३. वहीं, गद्य' नं. ५.
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कृतियाँ ।
| २४७
२. नयों का सामंजस्यपूर्ण, संतुलित विवेचन हुआ है । ३. सम्यग्दर्शन की महत्ता तथा समस्त प्रकार से उसकी आराधना पर
बल दिया है। ४. "अहिसा" का विशद, सूक्षम तथा अद्वितीय निरूपण हुआ है। ५. प्रेरणास्पद सैद्धांतिक वृत्तियों का प्रयोग हुआ है। ६. अध्यात्मरसिकता का पुट दिया गया है । पुरुषार्थसिद्ध युपाय के विभिन्न प्रकाशन व संस्करण - १. टीकाकार अज्ञात, प्रकाशक रा. ए. सो., बम्बई, तिथि ईस्वी
१७४४ से पहले, भाषा संस्कृत, विशेष-"त्रिपाठी टीका" २. टीकाकार. रा. रा. कृष्णाजी नारायण जोशी, पूना, प्रकाशक
वालचंद कस्तूरचंद धाराशिवकर, बेलगांव, तिथि-ईस्वी १८६७
भाषा-मराठीगच ३. टीकाकार-नाथूराम ''प्रेमी", देवरी (सागर), प्रकाशक-रा.न.प.प्र.
मंडल, बम्बई, तिथि-ईस्वी १६०४, भाषा-हिन्दी गद्य/१००० ४. टीकाकार-बाबू सूरजभान वकील, प्रकाशक-देवबन्द (सहारनपुर),
तिथि-ईस्वी १६०६, भाषा-हिन्दी गद्य ५. टीकाकार-पण्डित त्रिलोकचन्द कटनी, प्रकाशक-इन्द्रलाल शास्त्री,
जयपुर, तिधि-ईस्वी १६१८, भाषा-हिन्दी गद्य । ६. सम्पादक-पन्नालाल चौधरी, प्रकाशक-पन्नालाल चौधरी, बनारस,
तिथि-ईस्वी १६२६, भाषा-संस्कृत पद्य, विशेष-मूलपाठ ७. टीकाकार-पण्डित मक्खनलाल शास्त्री, मुरैना, प्रकाशक-स, जै. न.
माला भा. ज. सि. प्र. स., कलकत्ता, तिथि-ईस्वी १९२७, भाषा
हिन्दी गद्य ८. टीकाकार-प्रज्ञात, प्रकाश का-जै. बा, क. माला, मोतीलाल हीराचंद
गांधी, उस्मानाबाद, तिथि-ईस्वी १६२८, भापा-मराठो गद्य-पद्य ६. अनुवादक-शंकर गंढरीनाथ रणदिवे, सोलपुर, प्रकाशक-हीराचन्द
नेमचन्द दोगी, सोलापूर, तिथि-ईस्वी १६२६, भाषा-मराठी गद्य
विशेष-"श्रावकाचार" १०. अनुवादक-अजितप्रसाद जैन, हाईकोर्ट जज. बीकानेर, प्रकाशक
जे. एल. नी. स्मृति प्र. मा. दी, से. ज. प. हा., लखनऊ, तिथि१६३३, भाषा-अंग्रेजी गद्य
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६४८ ।
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व ११. सम्पादक- सत्यंघर जन, जयपूर, प्रकाशक-मुन्शी मोतीलाल शाह,
जयपुर, तिथि-ईस्वी १६३६, भाषा-हिन्दी गद्य १२. अनुवादक-सागरचन्द बड़जात्या, लश्कर (मध्य प्रदेश), प्रकाशक
ब्र मूलशंकर देशाई, आगरा, तिथि-ईस्वी १६५२, भाषा-हिन्दी
पद्य/३००० १३. टीकाकार-नाथूराम "प्रेमी", प्रकाशक-रा. न. प. प्र. मंडल, बम्बई,
तिथि-ईस्वी १९५३, भाषा-हिन्दी गद्य, विशेष-चतुर्थावृत्ति । १४. टीकाकार-पण्डित सखाराम जैन, प्रकाशक-सखराम जैन, बारूमल
सहारनपुर, तिथि-ईस्वी १६५६, भाषा-हिन्दी गद्य, विशेष-"मोक्ष
मार्ग प्रकाशिका टीका" १५. अनबाद-ब्रजलाल गिरधरलाल शाह, बढ़वाणशहर प्रकाशक-दि.जै.
स्वा. म. ट्रस्ट, सोनगढ़ (सोराष्ट्र), तिथि-ईस्वी १९६६, भाषा
गुजराती गद्य:४१०० १६. टीकाकार-पण्डित मुलाकामय , .!i :., ......
मा., मागर, तिथि-ईस्वी १६६६, भाषा-हिन्दी 'पद्य-गद्य/१०००,
विशेष-भावप्रकाशिनी टीका १७. टीकाकार-मनोहरलाल वर्णी, मेरठ, प्रकाशक-स. शा. माला, मेरठ,
तिथि-ईस्वी १६६८, भाषा-हिन्दी गद्य १०००। १५. टीकाकार-अ. सुमतिबाई शहा तथा सुमे रचांद्र के. जैन, प्रकाशक
स.ज्ञा.प्र. मण्डल, सोलापूर, तिथि-ईस्वी १६७१, भाषा-मराठी गद्य १६. अनुवादक-बी. डी. पाटिल, कोल्हापूर, प्रकाशक-ल. दि. जै. ग्र.
कोल्हापूर, तिथि-ईस्वी १६७३, भाषा मराठा गद्य १००० २०. अनवादका गम्भीर चंद वैद्य, एटा, प्रकाशक-दि. जं. स्वा, म. द.,
सोनगढ़ (सौराष्ट्र), तिथि ईस्वी १६७४, भाषा-हिन्दी गद्य २२०० २१. अनुवादक-विद्याघर सेठी, कुचामनसिटी, प्रकाशक-दि. जै. समाज,
कुचामन सिटी, तिथि-ईस्वी १९७६, भाषा-हिन्दी गद्य १०००
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ऋनियाँ ।
।
२४६
प्रात्मख्याति टीका परिचय -
द्वितीय विभाग में टीकाओं के अंतर्गत सर्वप्रथम आलोच्य कृति आत्मख्याति संस्कृत गद्य टीका है। यह आचार्य श्रेष्ठ कुन्दकुन्दस्वामी द्वारा प्रणीत परमाध्यात्मिक "समयपाहुड" (समयमा भूत ) नामक रचना की मर्मस्पर्शी, रहस्योद्घाटक टीका है । यह परमानन्द रस से परिपूरित, अनभव-लहरी से उद्वेलित तथा ज्ञानसमुद्र भगवान आत्मा के अतीन्द्रिय ज्ञानानन्द से परिपूर्ण कृति है । आत्मन्याति जैसी परमआध्यात्मिक, अलौकिक टीका अभी तक भी कोई दूसरे जैनग्रन्थ की नहीं लिखी गई है । यद्यपि अमृतचन्द्र ने अन्य टीकायें तथा,मौलिक रचनायें भी की है, तथापि उनकी यह एक अात्मस्यानिटीका हो गढ़ने वालों को अमनचन्द्र की अध्यात्मरसिकता, आत्मानुभूति, प्रखर विद्वत्ता, वस्तुस्वरूप को न्याय बयक्तियों से सिद्ध करने की असाधारण शक्ति नथा उत्तम काव्य-शक्ति का पूरा ज्ञान हो जाता है । अति संक्षेप में गंभीर रहस्यों को अभिव्यक्त करने को उनको अनाखो क्षमता विद्वानों को आश्चर्यचकित करती है। यह टीका ज्ञानसमूद्र भगबान आत्मा के शांत रस का रसास्वादन कराने वाली तथा प्रालीक-लोकपर्यंत उछलते हुए शांत रस के समुद्र में मग्न हो जाने की प्रेरणा प्रदान करने वाली है।'
जिस प्रकार मुल शास्त्र-कर्ता ने अपने समस्त निज वैभव से ग्रन्थ की रचना की है उसी प्रकार इसके समर्थ टीकाकार ने भी अति निस्तुषनिर्बाध यक्तियों के अवलम्बन से, आत्मस्वरूप में निमग्न परापर मुरुओं की कृपा से, स्यात्पदमुद्रित शब्दब्रह्म-श्रुतागम की उपासना से तथा प्रचुरस्वसंवेदन से उत्पन्न से निजवैभव से ग्रन्थ की टीका रची है। उन्होंने आत्मख्याति टीका द्वारा भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य के हृद्गत मर्म को गणधर के समान सफलतापूर्वक उद्घाटित किया है। यह कृति जैन
१. मज्जन्तु निर्भरममी नममन्य लोका, मालोकमुच्छलात शान से समस्ताः । याप्लाव्य विभ्रमतिरस्क रिगीं भरेण, प्रोन्मग्न एप 'भगवानबबोधसिन्धुः ।।
ममयसार कलश, ३२ २. रामयभार गाथा ५ की टीका - समस्त विपक्षक्षात्क्षमातिनिस्नुपयुनायवलंबन
जन्मा, निर्मलविज्ञानधनांतनिमग्नपरापरगुरुप्रसादीकृतसुद्धात्मतत्वानुशासन जन्मा - स्वसदन जन्मा"..........."
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२५० ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
अध्यात्म का मुकुटमणि ग्रन्थ है। जिस प्रकार टीकाकार मल्लिनाथ के बिना कालिदास को समझना कठिन है, उसी प्रकार टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र की आत्मख्याति टीका बिना प्राचार्य कुन्दकुन्द के आध्यात्मिक रहस्यों को समझना कठिन है ।
“समयपाहुड़" की प्रकृत टीका आत्मख्याति का उनकी समवर्ती तथा परवर्ती अध्यात्मधारा पर व्यापक प्रभाव पड़ा । अमृतचन्द्र की उक्त टीका से प्रभावित ग्रन्थकारों ने अध्यात्मपरक तथा प्रात्मख्याति टीका की विशेषताओं से अनुप्राणित रचनायें की हैं जिसका उल्लेख पहले किया जा चुका है । आचार्य अमृतचन्द्र की उक्त कृति प्रौढ़ तथा प्रांजल गद्य शैली का उत्कृष्ट नमूना है । उक्त कृति से एक ओर जैनतत्त्वज्ञान की समृद्धि हुई है वहीं दूसरी ओर संस्कृत वाङमय की साहित्यश्री विशेष रूपेण अलंकृत एवं चमत्कृत हुई है । टीकाकार ने इसे नाटकीय शैली में प्रस्तत किया है । इस टीका में बीच-बीच में पद्यरूप काव्यों का भी समावेश हआ है जो कलश नाम से विश्रत हैं । वे कलश अमृतचन्द्र की उच्चकोटि की काव्य-प्रतिभा के प्रतीक हैं। कालांतर में उक्त कलशों को संकलित कर एक स्वतन्त्र ग्रन्थ की तरह 'समयसार कलश" नाम से प्रकाशन किया जाने लगा । उक्त टोका एवं कलश अध्यात्म रस से परिपर्ण तथा नाटकीय रंग में अनरंजित हैं। अमृतचन्द्र की उक्त टीका ऐसा नाटक प्रस्तुत करती है कि जिसको देखकर या सुनकर श्रोताओं के हृदय के फाटक (जाननेत्र) खुल जाते हैं।' इस टीका के विभिन्न भाषाओं में विभिन्न स्थानों से अनेक संस्करण तथा प्रकाशन हुये हैं । इसकी प्रतियां भी समग्र भारत वर्ष के जिनमंदिरों तथा शास्त्र भण्डारों में विद्यमान हैं। नामकरण -
"समयपाहुड़" की उक्त टोका का नामोल्लेख, स्वयं टीकाकार ने "आत्मख्याति" नाम से अनेक बार किया है। आत्मख्याति नामकरण तथा उसकी सार्थकता के कुछ आधार इस प्रकार हैं
१. उक्त टीका क रसिक पं. बनारसीदासजी ने अपने "समयसार नाटक" नामक
अन्ध में लिखा हैयाही के जौ पक्षी उड़त शान गगन मांहि, याही के विपश्ची जरा जाल में फालत हैं। हाटक सो विमल निराटक सो विस्तार, नाटक सुनत हिय फाटक खूलत हैं ।।
उत्थानिका, पद्य नं. १५
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कृतियो ]
। २५१ १. उक्त टीका के प्रत्येक अधिकार के अंत में प्रात्मरूपाति" नाम ही प्रयुक्त है - इति श्री समयसार व्याख्यात्मख्याती पूर्वरंग: समाप्तः" इत्यादि ।
२. मंगलाचरण में टीकाकार ने ऐसे आत्मा को नमस्कार किया है जो स्वान भव में प्रकाशित या ख्यात होता है। साथ ही टीका का प्रयोजन भी आत्मा की अनुभूति (ख्याति)करना होने से 'आत्मख्याति" नामकरण सार्थक प्रतीत होता है।
३. टोकाकार ने आगे 'आत्मानभूति" का अक्षण ''आत्मख्याति" करते हुये लिखा है कि शुद्धनय से स्थापित प्रात्मा का लक्षण आत्मस्याति ही है, उससे प्रात्मा की प्राप्ति होती है। वह आत्मा की प्राप्ति या अनुभूति ही आत्मरूपाति है तथा आत्मग्यानि ही सम्पर्श न है । इस तरह स्पष्ट है कि समग्र टीका का उद्देश्य एवं प्रतिपाद्य शुद्धात्मा की अनुभूति ( ख्याति) करना तथा उस अनुभूति का उपाय दिखाकर, उसकी प्राप्ति की प्रेरणा करना है अतः प्रात्मा की अनुभूति, सम्बग्दर्शन या आत्मख्याति एकार्थवाची होने से टोका का "आत्मख्याति" नामकरण भी सहेतुक तथा सार्थ है।
४. अमृतचन्द्र के समयी तथा परवर्ती जिन जिन लेखकों ने उक्त टीका का जहां कहीं भी उल्लेख किया, वहां उसे "आत्मख्याति" नाम से ही व्यवहृत किया है। टोका-कर्तृत्व -
बैसे तो उक्त प्रात्मख्याति रीका के कर्तृत्व पर आज तक किसी भी विद्वान या लेखक को कभी भी विप्रतिपत्ति नहीं हुई है, तथापि यहां पर उक्त टीका के टीकाकार का नामोल्लेख उनकी टीका में कई बार हुमा है, उसको जानकारी प्रस्तुत करना समयोचित है। टीका-कर्तृत्व के संबंध में कुछ उल्लेख इस प्रकार है -
१. "स्वानुभूत्या चकामते' (समयगार कलश प्रथम) २. मम गरमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्र मूर्ते, भवतु ममयसार व्याख्ययैवानुभूनेः ।
(वही, पद्य सं. ३) ३. शुद्धनयत्वेन व्यवस्थापिनस्थात्मनोनुभूतरात्मन्याति लक्षणायाः पद्यमानत्वात् ।
सगनगार गाथा १३ की टीका ४. या त्वनुभूतिः सात्मख्याति रेव पारमस्या तिस्तु सम्यग्दर्शनगंव ।(वही, टीका १३)
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२५२ ।
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
१. प्रत्येचा अधिकार के अन्त में आचार्य अमृतचन्द्रसूरि का नाम उपलब्ध होता है। यथा - "इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरि विरचितायां समयसारव्याख्यात्मल्यातो..." इत्यादि ।
२. वहीं वहीं टीका में आचार्य अमृत चन्द्र का नामोल्लेख पाया जाता है जिरासे उनका कांपना स्पष्ट होता है।'
३. सर्वाधिक ठोस तथा पृष्ट प्रमाण तो टीकाकार द्वारा प्रयुक्त माना नाम है जो टीका के अंत में टीका के कर्तुत्व के विकल्प का निषेध करते समय प्रयोग किया गया है। उन्होंने लिखा है कि स्वरूप में गुप्त प्रमुतचन्द्र का टीका के निर्माण में कुछ भी कर्तृत्व नहीं है।
४. उत्तः टीका रचना के काल से लेकर आज तक समस्त विद्वानों व लग्जकों ने उक्ता टोका की सृष्टि आचार्य अमृतचन्द्रकृत ही मानी है। प्रामाणिकता -
जैन अध्यात्म परम्परा में यदि सर्वश्रेष्ठ प्रामाणिक किसी आचार्य को माना जाता है तो वे हैं आचार्य कुन्दकुन्द, जिसके संबंध में कविवर वृन्दावन की यह सुक्ति प्रसिद्ध है "हुए, न हैं, न होहिंगे, मुनीन्द्र कुन्दकुन्द से ।": प्रामाणिवत्ता की दृष्टि से कुन्दकुन्द का प्रथम स्थान है । यद्यपि कुन्दकुन्द की अध्यात्मधारा के प्रसिद्ध तथा प्रामाणिक प्राचार्यों में पुज्यपाद (छटची ईस्त्री सदी) तथा जोहेदु (योगीन्दु,यत्री ईस्वी सदी) का नाम विशेषतः उल्लेखनीय है लथापि कुन्दकुन्द के बाद द्वितीय स्थान प्रामाणिकताका दुद से यदि किसी को मिला है तो वे हैं आचार्य अमृत चन्द्र । व मूल ग्रन्थ-प्रोता की अपेक्षा द्वितीय स्थान पर आते है परन्तु टीकाकारों की इस 'रम्परा में तो वे अद्वितीय ही है । उनको प्रारमख्याति टीका "समयपाहड' मूल ग्रन्थ से कम महत्व की नहीं है। जिस प्रकार तीर्थंकरों की वाणी के अर्थ प्रकाशनकर्ता गणधर होते हैं, उसी प्रकार कुन्दकुन्दाचार्य की वाणी के मर्म प्रकाशनकर्ता प्राचार्य अमृतचन्द्र हैं। उन्हें कुन्दकुन्द का रहस्योद्घाटक गणधर कहें तो अत्युक्ति न होगी।
१. उदितगमृतचन्द्रज्योति र तत्सम गाज्ज्वलतु विमलपूर्ण निःमपत्नस्वभाव ।
समयमार कलश २७६ २. स्वरूप गुप्तस्य न किंचिदस्ति-काव्यमे वामृत चन्द्रसूरे (समयमार कलश २७८) ३. कुन्दकुन्द भारती, प्र., पृष्ट २
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कृतियाँ ]
। २५३
आत्मख्याति की प्रामाणिकता इस कारण से और भी अधिक है कि उसमें 'समयपाहड" के मूलभावों का हो भविशद, मुस्पष्ट व वैदृष्यपूर्ण विवेचन है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि किसी महान् प्राचार्य की महान्कृति पर टीका लिखने मात्र से टीकाकार की प्रामाणिकता सिद्ध नहीं होती, जब तक टीका में मूल ग्रन्थकर्ता के मौलिक भावों को यथार्थ रूप में अभिव्यक्त न किया गया हो। प्राचार्य अमृतचन्द्र की प्रामाणिकता का उपरोक्त कारण है। कुन्दकुन्द के ग्रन्थ अष्टपाहुड पर सोलहवीं सदी के भट्टारक श्रुतसागर ने टीका लिखी है। किन्तु उसमें उन्होंने मूलतथ्यों से विपरीत शासनदेवता अादि की पूजा का विधान भी लिखकर' टीका को प्रामाणिकता की कोटि से गिरा दिया है । आत्मख्याति टीका मूलानुगामी तो है ही, साथ ही प्रमेय की स्पष्ट प्रकाशक होने से पुर्णतः प्रामाणिक टीका है। उनकी मूलानुगामिता का एक उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है । कुन्दकुन्द ने समयसार में प्रात्मा को परद्रव्य का अकर्ता निरूपित किया है ।२ उसी का अनुसरण करते हुए अमृतचन्द्र ने अपनी कृतियों में अपने कर्तृत्व के विकल्प का निषेध किया है। शताधिक लेखकों ने अपनी कृतियों में प्रमाण के रूप में आचार्य अमृतचन्द्र की आत्मख्याति टोका का उल्लेख किया है। अभूनचन्द्र से प्रभावित व्यक्तियों के प्रकरण में उक्त बात की चर्चा सप्रमाण को जा चुकी है। विषयवस्तु
मूलग्रन्थकार ने 'समयपाहुई" ग्रन्थ को स्पष्टतः ६ अधिकारों में विभाजित किया था, परन्तु आचार्य अमृतचन्द्र ने उक्त प्रस्थ की आत्मख्याति टीका १२ अधिकारों में प्रस्तुत की है । कुन्दकुन्द के अधिकार क्रमश: इस प्रकार हैं - (१) जीवाजीवाधिकार, (२) कति कर्माधिकार, (३) पुण्य-पाराधिकार, (४) संबराधिकार, (५) आस्रवाधिकार, (६) निर्जराधिकार, (७) बंधाधिकार, (८) मोक्षाधिकार, (९) सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार । अमृतचन्द्र ने समयसार को नाटक का रूप दिया है अतः उपर्यत नौ अधिकारों को उन्होंने 'नो' अंक निखा है। प्रथम जीवाजीवाधिकार में कुल ६५ गाथायें हैं परन्तु उनमें प्रारम्भिक ३५
१. अष्टपाहुड (दर्शनपाहुड), गाथा २ नी टीका २. समयमार, गाथा ६६, कता-कर्म अधिकार । ३. समयसार कलम २७८
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२५४ ]
| आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
गाथाओं को उक्त "जीवाजीव प्ररूपत्रा" प्रथम अंक लिखा । इसी तरह का सामञ्जस्य दिखाने हेतु अंत में स्याद्वाद तथा उपाय - उपेय अधिकार जोड़कर कुल १२ अधिकार कर दिये हैं । उक्त १२ अधिकार में निरूपित विषयवस्तु इस प्रकार है -
१. पूर्वरंगाधिकार प्रारम्भ में समस्त सिद्धों को नमस्कार करके समयसार पुत्रों का परिभाषण को की की गई है। समग्र टीका में अभिसमय ( शुद्धात्मा) के स्वरूप का विश्लेषण किया है, जिसमें अनेक विपरीत मतों का निराकरण भी हो गया है। समय का अर्थ समस्त पदार्थ करते हुए उन्हें अपने-अपने अनंत धर्मों का स्पर्श करने वाला लिखा है तथा समय के एकत्व को हो सुन्दर कहा है । उस एकत्वविभक्त अर्थात् स्व से एकस्व तथा पर से विभक्त आत्मा को जगत् के जीवों ने कभी भी प्राप्त नहीं किया है । उसकी अति के कारण, कषायों के साथ एकता, अपने निजात्मा का अज्ञान तथा आत्मज्ञानी गुरुओं की संगति सेवा आदि न करना, बताये हैं | पश्चात् उम एकत्वविभक्त आत्मा का दिग्दर्शन युक्ति, आगमपरम्परा तथा स्वानुभव रूप वैभव से कराया है । व्यवहारनय के कथन द्वारा उस आत्मा के दर्शन, ज्ञान, चारित्र प्रादि भेद किये जाते हैं परन्तु परमार्थ से तो बहु अभेद एकमात्र ज्ञायक ही है । फिर भी व्यवहार कथन करने का प्रयोजन बताते हुये लिखा है कि जिस प्रकार श्रनार्य को ग्रनार्यभाषा बिना नहीं समझाया जा सकता, उसी प्रकार जगज्जनों को व्यवहार की भाषा विना परमार्थ स्वरूप समझाया जाना संभव नहीं है इसलिए व्यवहार नय का कथन किया है। यद्यपि व्यवहारनय का कथन वस्तु स्वरूप का प्रतिपादक न होने से वह अनुसरण करने योग्य नहीं है तथापि उक्त व्यवहार किसी-किसी को किसी काल में जानने में आता हुआ प्रयोजनवान है। इस प्रकार तीर्थ तथा तीर्थफल की व्यवस्था है । धागे सम्यक्त्व का स्वरूप निर्देश करते हुये लिखा है भूतार्थं ( निश्चय ) नय से नवतत्त्वों का परिज्ञान सम्यक्त्व है । भूतार्थ नय से ज्ञान करने पर नववत्त्वों में एकमात्र ज्ञायक आत्मा ही प्रकाशित होता है । उन ज्ञायक आत्मा की अनुभूति हो आत्मख्याति है ।" आत्मा की अनुभूति ही एकमात्र भूतार्थ है, उस अनुभूति के उपाय प्रमाण, नय, निक्षेप आदि प्रभूतार्थ हैं। आत्मा को अस्पष्ट, ग्रन्थ, नियत, अविशेष
१. श्रात्मख्याति टीका, गाथा १ से १३ लक
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कृतियाँ ]
[ २५५
i
तथा प्रसंयुक्त ऐसे पांच भाव रूप अनुभव करना परमार्थ से समग्र जिनशासन का अनभव है। आत्मा जिस भाव से साध्य तथा साधन हो, उस भाव से उसकी साधना करनी चाहिए। जब तक प्रात्मा ज्ञानावरणादि द्रव्य-कर्म, भाव-कर्म तथा नोकर्म से अपना एकत्व स्थापित करता है तब तक वह अज्ञानी बना रहता है। उस अज्ञानी को समझाने का प्रयास करते हुए प्रात्मा को उपयोग लक्षण वाला बताया तो पुद्गल कर्म आदि से भिन्न समझाया है। अज्ञानी की शंकाओं का निराकरण भी किया गया है कि तीर्थकर के शरीरादि की स्तुति व्यवहार मात्र है परमार्थ से वह तीर्थंकर की स्तुति नहीं है क्योंकि व्यवहारनय जीव और शरीर को एक रूप कथन करता है परन्तु निश्चय तो उन्हें यथार्थ भिन्न भिन्नही मानता है। आम निश्चय स्तुति का स्वरूप, ज्ञेय-ज्ञायक तथा भाव्य-भावक संकरः दोष का खण्डन, जितेन्द्रिय, जितमोही तथा ज्ञान ही प्रत्यख्यान है इत्यादि निरूपण किया है। अन्त में मोहनिर्ममता, धर्मअधर्म आकाश काला दि द्रव्यों से भेदज्ञान स्पष्ट बारके उपसंहार रूप में ज्ञान प्रकाश होने पर आत्मा, अनादिमोह को नाशकर, सावधान होकर, मुट्ठी में बन्द सोने को भूलने तथा पुन: स्मरण करने वाले की भांति अपने अपने स्वरूप का अनुभव करता है त्रि में एक शुद्ध नित्य अरूपी ज्ञानदर्शनमयो प्रात्मा हूँ, परद्रव्य लेशमात्र भी मेरा नहीं। यहां प्रथम प्रकरण 'रंगभूमि' समाप्त होता है ।
२. जीवाजीवाधिकार - यहां जीव-अजीव द्रव्य दोनों एक होकर रंगभूमि में प्रवेश करते हैं। जीव न अजीव का संयोग अनादिकाल से है। यद्यपि प्रात्मा असाधारण उपयोग लक्षण वाला है तथापि लक्षण ज्ञान से रहित अज्ञानी जन आत्मा के सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार की कल्पनाएं करते हैं । अज्ञानियों की अलतकल्पनाओं का निराकरण करते हए अध्यवसानादि विकारी भावों को जिनमत में जीव संज्ञा है, वह मात्र व्यवहार रूप कथन है इस प्रकार स्पष्ट किया है । वहां "राजा की सेना के गमन को राजा का गमन' का दृष्टांत देकर स्पष्टीकरण किया । जीव का यथार्थ स्वरू। दर्शाते हुए उसे रूप, रस गंध, ब शब्द से रहित, इंद्रियों से गोचर तथा अलिंगग्राह्य (किसी चिन्ह से ग्रहण में न आने वाला)
१. प्रात्मख्याति टीका, गाथा १४ से १८ तपः । २. वही, गाथा १६ से ३८ तक। ६. वहीं, गाथा २६ मे ४३ तक।
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। आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
निरूपित किया गया है। यहाँ निश्चय तथा व्यवहार कथनों के रहस्य का उद्घाटन करते हुए. जीव तथा अजीव का स्पष्ट भेदज्ञान कराया गया है। जीव के केन्द्रियादि व र्याप्तन अपर्याप्तक आदि भेद नामकर्म को प्रकृतियां हैं और पुद्गल की रचना है इत्यादि विवेचन किया गया तथा इस अधिकार का उपसंहार करते हए लिखा है, कि मिथ्यात्वादि गुणस्थान पौद्गलिक कमोदय जन्य होने से अचेतन हैं, वे आत्मस्वरूप नहीं है । इस प्रकार ज्ञानाभ्यास से- मेदविज्ञान के वन रो जीव अजीव का स्वरूा जाना जाता है । उन्हें जान लेने पर बे दोनों अपना एकत्व का स्वांग त्याग कर रंगभूमि से चले जाते हैं।'
३. कर्ता-कम अधिकार - इस अधिकार में जीव अजीव दोनों अपना वेष बदल कर बता-कर्म के धेष में प्रवेश करते हैं। आत्मा जब सक आत्मा तथा आस्रबादि (क्रोधादि चिकारी भावो) में अन्तर नहीं समझता है तब तक कता-कर्म की मान्यता नहीं मिटती और तब तक बन्ध की प्रक्रिया भी चलती रहती है। आस्रवों का स्वरूप अपवित्र, स्वभाव के विपरीत. और दुःस्व के कारण ।। है परन्तु आत्मा का स्वरूप पबित्र, चैतन्य स्वभाव के अनुरूप तथा सूख और सुख के कारण रूप है ऐसा जानने पर आत्मा आस्रवों से निवृत्त होता है। प्रास्त्रों से हटने की विधि इस प्रकार है कि आत्मा अपने स्वरूप को एक, शुद्ध ममत्वरहित तथा ज्ञानदर्शन से परिपूर्ण अनुभव करता है, उस समय अध व, अशरण, अस्थायी आस्रवभाव को दुःखरूप तथा दुःख के बारण जानकर आत्मा उनसे निवृत होता है। आगे ज्ञानो आत्मा का लक्षण करते हुए लिखा है कि जो आत्मा कर्म तथा नोकर्म के परिणामों का कर्ता न होकर मात्र ज्ञाता होता है, वह प्रात्मा ज्ञानी है। आत्मा अनेक प्रकार के पुदगलकार्मों का ज्ञाता है, उनकी पर्याय रूप से न तो परिणमित होता है, न उन्हें ग्रहण करता है और न ही उनका उत्पन्न ही होता है। इसी तरह पुद्गलद्रव्य भी अपने परिणाम रूप ही परिणमता है, जीव द्रव्य की पर्याय रूप न परिणमित होता है, न उमे ग्रहण करना है और न हो उस रूप उत्पन्न होना है। जीव तथा पुदगल के परिणामों में परस्पर निमित्तनैमित्तिकपन। पाया जाता है. कर्ता-कर्म ना नहीं। लोकरूढ़ अनादि के
१. अात्मस्वालिटीका, गाथा ४४ से ६८ तक । २. वही, गाथा ६८ में ७४ नक | ३. वहीं, गाथा ७५ ४. वही, गाथा ७६ से ७८ तक।
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कृतियाँ ।
। २५७
ध्यवहार कथन में जोव एवं पुद्गल में कर्ता-कर्म का उपचार किया जाता है। यह लोकरूढ़ पवहार अनादि अज्ञान के कारण प्रसिद्ध है परन्तु वह दोष पूर्ण है, क्योंकि जगत् में प्रत्येक क्रिया परिणामी में भिन्न नहीं होती। अतः यदि आत्मा व्याप्य-व्यापक भाव से परभाव का कर्ता बने तो स्व तथा पर का विभाग अस्त हो जायेगा। स्व-पर विभाग के अस्त होने पर मिथ्यादटिपना प्राहट होता है । ऐसा जीव जिनमत के बाहर है । साथ ही द्विक्रियावादी मिथ्याद ष्टि भी है। अज्ञान से कर्म बंधते हैं, ज्ञान से कर्तापना दूर होधार कमबन्धन नहीं होता। आगे लिखा कि आत्मा व्याप्यव्यापकभाव से तो पर का कार्ती नहीं, निमिन-नैमित्तिक भाव से भो पर द्रव्य का कर्ता नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से क्रमशः तन्मयने तथा नित्यवत्व का प्रसंग उपस्थित होता है। ज्ञानी ज्ञानभाव का ही कर्ता होता है, पर भाव का नहीं। अज्ञानी भी परभाव का कर्ता नहीं होता, क्योंकि परभाव को कोई भी करने में समर्थ नहीं है, इसलिए स्पष्ट है कि आत्मा पुद्गल कर्म का अकर्ता है 'आत्मा को जहां भी परद्रव्य का कर्ता कहा है' वहां उपचार कथन किया है, परमार्थ नहीं। इसी तरह उसे परिणमनकर्ता, ग्रहण का उत्पादकर्ता, कर्ता, बधनकर्ता इत्यादि कहा जाता है, वह सभी उपचार ही है ।२ प्रागे पुद्गलद्रव्य का कर्ता पुद्गल को ही निरूपित किया तथा भेद करके मिथ्यात्व, अबिरति, कषाय और योग इन चार को ही उसका कर्ता बताया। उन्हीं चार के प्रभेद करके मिथ्यात्वादि से लेकर सयोग-केवलि गुणस्थान तक तेरह को का निरूपित किया है, परंतु ये सभी पद गलमय होने से उनमें आत्मा का कुछ भी नहीं है। उपयोग रूप ग्रात्मा भिन्न है तथा क्रोधादि भाव उससे भिन्नस्वरूपी है। आत्मा चैतन्य स्वभावी है तथा क्रोधादि जड़स्वभावी है। अतः दोनों में एकत्व नहीं है। यहां साँस्यमतानुयायी शिष्य की शंका निवारण हेतु पुद्गल द्रव्य के परिणाम स्वभाव को सिद्ध किया गया है। यहां यह स्पष्ट किया है कि यदि पुद्गलद्रव्य स्वयं कमरूप नहीं परिणमता हो तो अपरिणामी पुद्गल को प्रात्मा कैसे परिणमा सकता है और यदि पुद्गलद्रव्य स्वयं आर्मरूप परिणभन शक्ति वाला है
१. आत्मख्याति टीका, गाथा ६ से १८ तक । २. वहीं, गाथा १६ मे १०८ तक । ३. वहीं, गाथा १.६ से ११२ नका ४, वही, गाथा ११३ से ११७ तक।
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२५८ ।
। आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व तो स्वयं परिण मते पुद्गल को जीब ने परिणमाया, यह कह्ना मिथ्या ठहरा। इस तरह सिद्ध है कि जिसमें स्वयं परिणमन शक्ति है ऐसे द्रव्य को परिणमन हेतु पर की अपेक्षा नहीं रहती, क्योंकि वस्तु की शक्तियाँ पर की अपेक्षा नहीं करतीं। इससे यह स्पष्ट हुअा कि आत्मा जिस भाक को करता है उसी का कर्ता होता है। ज्ञानी ज्ञान भाव का कर्ती होता है, अज्ञानी अज्ञान भाव का कर्ता होता है । जिस प्रकार स्वर्णमय भाव से स्वर्णमय कुण्डलादि भाव होते हैं तथा लोहमय भाव में लोहमय भाव होते हैं।' इसके बाद नबविभाग द्वारा आत्मा में कम बद्ध हैं या अबद्ध हैं ? इस बात का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि कर्म से यात्मा बद्ध है - यह व्यवहारनय का पक्ष है तथा कर्म से आत्मा अबद्ध है - यह निश्चय नय का पक्ष है, किन्तु समयसार तो उक्त दोनों पक्षों से परे - पक्षातिक्रांत स्वरूप है । वह परमात्मा,ज्ञानात्मा, प्रत्यग्ज्योति. आत्मख्यातिरूप अथवा अनुभूतिमात्र समयसार है । अन्त में उपसंहार रूप में पक्षातिक्रांत समयसार की प्राप्ति का ऋमिक उपाय निरूपित करते हुए लिखा है कि प्रथम श्रुतज्ञान के अवलंबन से ज्ञानस्वभावी आत्मा का निश्चय करके, आत्मा की प्रगटप्रसिद्धि के लिए, पर-प्रसिद्धि की कारणभूत इन्द्रियों व मन से उपयोग को समेटकर आत्मसन्मुख करके, नय-विकल्पों को छोड़कर निजरस से प्रगट आदि मध्य ३ अन्त रहित, एकः, अनाकुल, अखण्डप्रतिभासमय, अनन्त विज्ञानधन, परमात्मा समयसार को प्राप्त करता है ।' यहां उक्त अधिकार समाप्त होता है और कर्ता-कर्म रूप पात्र अपना स्वांग त्याग कर रंगभूमि से चले जाते हैं।
४. पुण्य-पाप अधिकार - इस प्रकरण में एक ही कम दो पात्रों {पुण्य-पाप) के बेष धारण कर रंगमंच पर आता है। शिष्य की मान्यता है कि शुभ और अशुभ अर्थात् पुण्य तथा पाप कर्म में कारण , स्वभाव तथा फल के स्वाद की अपेक्षा अन्तर होने से शुभ को सुशील तथा अशुभ को कुशील मानना चाहिये । उसके समाधान में कहा गया है कि जो कर्म संसार में प्रवेश (परिभ्रमण) करावे उसे सुशील कसे कहा जा सकता है । जिस प्रकार स्वर्ण की बेड़ी तथा लोहे को बेड़ी दोनों बंधनकारक होने से बंधनापेक्षा समान हैं, उसी प्रकार शुभाशुभ कर्म भो आत्मा को बंधन में
१. आत्मख्याति टीका, गाथा ११८ से १४० तक। २. वही, गाथा १४१ से १४४ तकः |
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डालते हैं अत: दानों समान हैं। अतः दोनों कर्म निषेधयोग्य हैं ।' पागम से इस बात की पुष्टि होती है वि रागी जीव कर्म बांधता है तथा विरागी जीव काम-बंधन से मुक्त होता है। वास्तव में ज्ञान ही मोक्ष का कारण है । अज्ञानपूर्वक किये गये वन तप आदि वर्म-बंध के कारण हैं अतः उन्हें ''बालवत" नाम दिया गया है। ज्ञान गोक्ष का नया अज्ञान बंध का कारण है। यहां पृण्य कर्म के पक्षपाती को भी दुषण देते हुए लिखा है कि पुण्यकर्म के बांछक परमार्थ बाह्य हैं, मोक्ष के कारण को नहीं जानते तथा संसारपरिभ्रमण के ही हेतु पुण्यकर्म को वाहते हैं । आत्माका श्रद्धान सम्यक्त्व है, प्रात्मा का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है तथा प्रात्मा द्वारा रागादि का त्याग ही राम्याचारित्र है, ये तीनों एकस्वरूप से मोक्ष का उपाय हैं। समस्त कम मोक्ष के कारणों के घातक हैं अतः निषेध योग्य हैं। वे कर्म स्वयं भी बंध पर हैं इसलिक हेप हैं : सरह कर्म !!. पाप दो पात्रों के रूप में था वह अपना स्वांग त्यागकर एक पात्र रूप हो कर मंच से चला जाता है । इस तरह यह अंक भी समाप्त हो जाता है ।
५. ग्रानवाधिकार - यहाँ आत्रय रूप पात्र गभूमि में प्रवेश करता है। प्रात्मा में राग द्वेष तथा मोह रूप प्रास्रवभाव अपने ही परिणाम के कारण होते हैं अतः वे जइ न होकर, चिदाभास रूप हैं। ज्ञानी के ज्ञानमय भावों से अज्ञानमय प्रास्रब भावों का निरोध होता है । रागादि से युक्त अज्ञानमय भाव बंध के कर्ता हैं तथा रागादि रहित ज्ञानमय भाव बंध को कती नहीं है। ज्ञानी के द्रव्याखव नहीं होता । ज्ञानी निरास्रव होता है, क्योंकि उसके बुद्धि पूर्वक रागद्वेषमोहरूपी आस्रवभावों का प्रभाव है। जिस प्रकार बाल-स्त्री अनुपभोग्य होती है तथा वही यौवनावस्था को प्राप्त होने पर पुरुष को बंधन करती है, इसी प्रकार सत्ता स्थित कर्म अनपभोग्य है, वे ही उदय को प्राप्त होकर बंधन के कारण होते हैं - भोग्य होते हैं। ज्ञानी के कर्मोदय तो होता है परन्तु राग-द्वेष-मोह भाव के अभाव में वह बंधन में नहीं पड़ता। ज्ञानी जब शुद्धनय से च्यत होकर, रागादिभाव करता है तब उसके भी द्रव्यकर्म का बंध स्वयमेव होता है। जिस प्रकार भोजन उदर में स्वयमेव पहुंच कर
१. यात्मरूयाति टीका, मामा १४५ मे १४७ तक। २. नही, गाथा १४८ से १५४ तक । ३. वही, माथा १५५ से १६३ तक । ४. वहीं, गाथा १६४ से १७८ तक ।
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| आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
विभिन्न रस रूप स्वयमेव परिणमता है उसी प्रकार राग के सद्भाव में द्रव्यकर्म स्वयमेव बंघ को प्राप्त होता है । इस प्रकार आसवस्वरूप के निरूपण के साथ उक्त अधिकार समाप्त होता है ।" आखव भी रंगभूमि से बाहर चला जाता है ।
६. संवराधिकार - इस अधिकार में सुंदर रूप पात्र का प्रवेश होता है | आचार्य सकल कर्मों का संबर क रने का उत्कृष्ट उपाय भेदविज्ञान बताकर उसकी प्रशंसा करते हैं । उपयोग, उपयोग में है। उपयोग क्रोधादि में नहीं है। उपयोग क्रोधादि रूप नहीं है। मेद-विज्ञान से ही शुद्धात्मा की उपलब्धि होती है । जिस प्रकार अग्नि से तप्त स्वर्ण अपना स्वर्ण भाव का त्याग नहीं करता, उसी प्रकार कर्मोदय से तप्त ज्ञानी अपना ज्ञानस्वभाव नहीं छोड़ता । शुद्धात्मा की उपलब्धि से ही संवर होता है । संकट काहुए लिखा है कि राग-द्व ेष मूलक शुभाशुभ योग में प्रबर्तमान आत्मा दृढतर भेद-विज्ञान के बल से आत्मा को, आत्मा के द्वारा रोककर शुद्ध दर्शन ज्ञान स्वरूप में स्थिर होता है तथा परद्रव्यों की इच्छा से रहित होकर, सर्वसंग से मुक्त होकर आत्मा को ध्याता हुआ, शीघ्र ही आत्मा प्राप्त करता है। संवर प्रगट होने का क्रम इस प्रकार है कि पहले जो भेद-विज्ञान के बल से निजमहिमा में लीन होते हैं, वे शुद्धात्म तत्व की उपलब्धि करते हैं, शुद्धात्मा की उपलब्धि होने पर अक्षय, कर्ममोक्ष होता है । इस प्रकार संवर भी अपना स्वरूप दिखाकर रंगभूमि से चला जाता है और यह बंदा भी यहीं समाप्त होता है ।
७. निर्जराधिकार इस अधिकार में निर्जरा रूप पात्र का प्रवेश होता है। प्रारम्भ में ही यह स्पष्ट किया है कि बिरागी के उपभोग निर्जरा के ही कारण हैं, क्योंकि उसके रागादि का अभाव होता है । मिथ्यादृष्टि के रागादि भाव के सद्भाव के कारण, पूर्व कर्मोदय निर्जरा को प्राप्त होने पर भी नवीन भाव-बंध के कारण होते हैं, भाव-निर्जरा के कारण नहीं होते । ज्ञानी को वहीं कर्मोदय आगामी ( नवोन) बंध किये बिना निर्जरित होते हैं, अतः उसे ही सच्ची निर्जरा कही है। आगे ज्ञान व वैराग्य की सामर्थ्य दिखाते हुए लिखा है कि जैसे वैध मरण के कारण
१. आत्मख्याति टीका, गाथा १७६ से १८० लक ।
२. बही गाया १८१ से १९२ तक ।
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रूप विष को भोगता हुआ भी, अमोघ विद्याशक्ति सामर्थ्य से विष-शक्ति को अवरुद्ध करता हआ, मरण को प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार ज्ञानी (सम्यग्दृष्टि) मिथ्यादृष्टि को नवीन बंध के कारण होने वाले पुद्गल. कर्मोदय को भोगता हुआ भी, अमोघ ज्ञान की सामर्थ्य द्वारा रागादिभावों का अभाव तथा कर्मोदय की शक्ति को अवरुद्ध करता हमा, बंध को प्राप्त नहीं होता।' सम्यग्दृष्टि विशेष रूप से स्व व पर को जानता है। अतः वह ज्ञान एवं वैराग्य सम्पन्न होता है। जिसके रागादि अज्ञानमय भावों का लेशमात्र भी सदभाव होता है वह ज्ञानमय भावों के अभाव के कारण आत्मा को नहीं जानता है. इ.लिए वा मिथ्यादि । . ही वह श्रतकेवली जैसा समस्त आगमों को पढ़ा हुआ हो। आगे परमार्थ पद वाले आत्मा का स्वरूप बताते हये उसे ज्ञानमय ही बताया है। उस ज्ञानमय पद के प्रवलंबन से निजपद की प्राप्ति, भ्रांति का मास, आत्मा का लाभ, अनात्मा का परिहार होता है तथा रागद्वेषमोहादि की उत्पत्ति, नवीनकर्मास्रव, व नवीन कर्मबंध नहीं होता, पूर्व बद्ध कौ की निर्जरा तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है। ज्ञानी पर-द्रव्य को ग्रहण नहीं करता क्योंकि जो जिसका स्वभाव है बह जसका "स्व" है और वह उस
स्व" भाव का स्वामी है ऐसी तीक्ष्णदष्टि से ज्ञानी पर-द्रव्य का परिग्रहण नहीं करता, अत: में भी पर-द्रव्य का ग्रहण नहीं करूगा, उसका कुछ भी हो । जिसके इनछा है उसके परिग्रह है, जिसके इच्छा नहीं उसके परिग्रह नहीं है। ज्ञानी के धर्म, अधर्म आदि का परिग्रह नहीं है। ज्ञानी आहार व पान का ज्ञाता है, ग्राहक नहीं। इस तरह ज्ञानी के सर्व पर-द्रव्यों का परिग्रह नही, उनका ज्ञाताना है। ज्ञानी तोनों काल में कर्मोदय का भोक्ता नहीं हैं। बह तो ज्ञायकस्वभावरूप, नित्य टोत्कीर्ण तथा धब है, तथा समस्त वेद्य-वेदक भाव, विकारी, अनित्य, चलायमान तथा अध्र व हैं इसलिए ज्ञानी उन सभी भाबा की कांक्षा नहीं करता। वह सप्तभयों से रहित निःशंक होता है। उसे इस-लोक, पर-लोक, वेदना, अरक्षा, अगृप्ति, मरण तथा अकस्मात् भय नहीं होते । उसके शंका, कांक्षा,
१. प्रात्मन्यानि टीका गाथा १९३ मे १९८ तक । २. ब्रही, गाथा १९६-२७० तक। ३. वही, गाया २०१ से २०६ नक । ४. वहीं, गाना 21 ग २२७ तन ।
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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व विचिकित्सा (ग्लानि), मूढदृष्टि जीवशक्ति की दुर्बलता (अनुपमूहन), मार्गच्युत, अप्रीति (अवात्सल्य ), तथा ज्ञानप्रभावना के अप्रकर्ष आदि अष्ट-दोष-जन्य बंध नहीं होता है, क्योंकि वह नि:शंकित, निकांक्षित, निवि चिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना इन अष्टगुणों से सम्पन्न होता है । अतः उसके निर्जरा ही होती है, बंध नहीं । इस प्रकार के निरूपण के साथ यह पात्र ("निर्जरा'') भी रंगभूमि से चला जाता है, और यहां यह अधिकार समाप्त होता है।'
८. बन्धाधिकार - यहां रंगमंच पर बंधरूप स्वांग का प्रवेश होता है । बंध के स्वरूप पर प्रकाश डालते हार लेखक कहते हैं कि रागषमोह ही बंध के कारण हैं । जिस प्रकार शरीर में तेल मर्दन करके कोई व्यक्ति कई प्रकार के वृक्षादि छिन्न-भिन्न करे, उससे रजत्राण उड़कर उस व्यक्ति के शरीर से त्रिपकेंगे, जिसका कारण चिकनाई ही होगा । इसी प्रकार रागादि परिणाम स्निग्ध रूप हैं तथा मन, वचन व काय के योग, क्रिया रूप हैं, योगों के कंपन से कमस्रिव होता है परन्तु रागादि की स्निग्धता से वे कर्म बंध को प्राप्त होते हैं । सम्यग्दृष्टि ज्ञानी उपयोग और रागादि का भेद जानकर रागादि का स्वामी नहीं होना, इसलिये उसे बन्ध नहीं होता । प्राचार्य प्रागे अज्ञान को ही बंध का कारण निरूपित करते हये लिखते हैं कि जो यह मानता है कि वह पर जीव को मार या बचा सकता है - यह मान्यता अज्ञानमय है । इन अध्यवसानों को अज्ञानरूप इसलिये कहा है कि किसी भी प्राणी का आय क्षय हुये बिना मरण सम्भव नहीं है. प्राय शेष बिना जिलाना संभव नहीं तथा आय का लेना या देना या हीनाधिक करना किसी के हाथ की बात नहीं, अत: मारने का भावमात्र करना अज्ञान है। इसी प्रकार पर को दुखी करना या सुखी करना भी किसो दूसरे के आधीन नहीं है अतः सुखी दुखी करने की मान्यता भी अज्ञान ही है । अमृतचन्द्र उस अज्ञानी के लिए मिथ्यादष्टि, अात्मघाती आदि संज्ञानों का प्रयोग करते हैं। यहां यह भी स्पष्ट किया गया है कि प्रध्यबसान ही बंध का कारण होने से हिंसा आदि का अध्यवसाय हिंसा है । अध्यवसाय ही पुण्य तथा पाप बंध के कारण हैं । इसी प्रकार - . १. आत्मख्थाति टीका, गाथा २२८ मे २३६ वक । २. बही, गाथा २३७ से २४६ नक। ३. वही, गाथा २४६ मे २६१ तक ।
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असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रह भो अध्यवसाय ही हैं, व पापबंध के कारण हैं । बाह्य बस्तुएं बंध को कारण नहीं हैं । अध्यवसान अपनी अर्थक्रिया करने में असमर्थ होने से मिथ्या हैं । अध्यबसान रहित मुनिराज को मात्र क्रिया से बंध नहीं होता। बुद्धि व्यवसाय, अध्यवसान, मति, विज्ञान, चित्त, भाव तथा परिणाम ये सभी समानार्थी हैं।' आगे नयों के स्वरूप तथा परस्पर सम्बन्ध का निरूपण किया गया है। वहां निश्चय-नय को आत्माश्रित तथा व्यवहार-नय को पराश्रित कहा गया है तथा दोनों में निश्चय को प्रनिषेधक तथा व्यवहार को प्रतिषेध्य निरूपित किया गया है । व्रत, शील, संयमादि का सेवन करता हुआ भी अभव्यजीव अशानी तथा मिथ्यादृष्टि है। व्यवहार-नय से आचारांगादि को शास्त्रज्ञान, जोवादि तत्त्व को दर्शन, तथा षटकाय के जीवों की दया पालन को चारित्र कहा है , परन्तु परमार्थ-नय (निश्चय-नय) से ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र आदि सभी आत्मा ही है । आत्मा में रागादि निजस्वभाव के अवलम्बन से कभी नहीं होते, अपितु उनके उत्पन्न होने में परसंयोग ही निमित्त बनता है। अन्त में आत्मा को रागादि का अकारक सिद्ध करते हुए लिखा है कि यदि ऐसा न हो तो अप्रतिमाम प्य और अप्रत्याख्यान की द्विविधता नहीं बन सकेगी । अर्थात् दूध अतिक्रमण तथा अप्रत्याख्यान का निमित्तपना और भाव अप्रतिक्रमण तथा अप्रत्याख्यान का नैमित्तिकपना सूघटित है। इस प्रकार बंध भी रंगभूमि से चला जाता है।
६. मोक्षाधिकार - इस अधिकार के प्रारंभ में मोक्ष रूप स्वांग का प्रवेश होता है । आत्मा तथा बंघ को पृथक कर देना मोक्ष है । कुछ लोगों की मान्यता है कि बंध के स्वरूप का ज्ञानमात्र मुक्ति का कारण है, इस मान्यता का खण्डन करते हुये लिखा है कि जिस प्रकार बेड़ी से बंधे हुये जीव को बंध के स्वरूप का ज्ञानमात्र बंधन से मुक्ति का कारण नहीं होता उसी प्रकार कर्म से बंधे हुए जीव को भी कर्मबंध के स्वरूप का ज्ञानमात्र कर्मबंधन से मुक्त होने का कारण नहीं है । बंध का विचार करते रहने से भी बंध नहीं करता क्योंकि उक्त विचार तो शुभध्यान मात्र है तथा शुभपरिणाम से कदापि मोक्ष नहीं होता। मोक्ष का कारण एक मात्र बंध का नाश करना ही है । प्रज्ञारूपो छैनो से आत्मा तथा
१. प्रात्मख्याति टीका, गाथा २६२ से २७१ तक । २. वही, गाथा २७२ से २८२ तक । ३. वही, गाथा २८३ से २८७ नक ।
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। प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व बंध को अलग किया जाता है । इस प्रकार प्रात्मा तथा बंध को स्वलक्षणों से पृथक करके, समस्तरागादिरूप बंध को छोड़ना चाहिये तथा शुद्धात्मा को ही ग्रहण करना चाहिये । वास्तव में प्रात्मा और बंध का पृथक्करण तथा शुद्धात्मा का ग्रहण - इन दोनों का कारण एक ज्ञान ही है।' प्रथम चेतकापने के षट्कारकों के विकल्पों की स्थापना करके, पश्चात् षट्कारकविकल्पों को भी त्याग करके एक शुद्ध चैतन्यभाव मात्र का ही अनभव करना चाहिए । इसी प्रकार दृष्टापने के षट्कारकों की एवं ज्ञातापने के पट्कारकों को भेदरू। स्थापना करके, पश्चात् षट्कारकविकाल्पों को भी त्याग कर ज्यों का त्यों एक शुद्ध दृष्टा एवं ज्ञाता मात्र भाव का अनुभव करना चाहिए । आगे अपराधी को बंधन की शंका रहती है और वह बंधन में भी पड़ता है। परंतु निरपरात्री को बंधन की चिता नहीं होती और वह बंधन में भी नहीं पड़ता । अपराध का स्वरूप दर्शाते हुए लिखा है कि परद्रय का परिहार करके निजद्रव्य शुद्धात्मा की सिद्धि को राध कहते हैं, तथा राधरहित आत्मा को अपराध कहते हैं । अंत में उपमंहार करते हुए प्रधर
सोनों कमण, अप्रतिसरण, अपरिहार, अधारणा, अनिवृत्ति, अनिदा, यहीं और अशुद्धि इन पाठों को विषकुम्भ कहा, तथा व्यवहार धन द्वारा द्रश्य रू। प्रतिक्रमणादिर आठों को अमृतकुम्भ कहा है । परन्तु अप्रतिक्रमणादि तथा प्रतिक्रमणादि से विलक्षण अप्रतिक्रामणादि रूप तुतोय भूमिका को न देखने वाले पुरुषों को द्रव्य-प्रतिक्रमणादि भी विषकुम्भ ही निरूपित किए हैं, क्योंकि वे अपना मुक्ति का कार्य करने में असमर्थ हैं । तृतीय भूमि का शुद्धात्मा की सिद्धिरूप साक्षात् अमृतकुम्भ है । उसकी प्राप्ति होने पर द्वितीय भूमिका के प्रतिक्रमणादि में व्यवहार कथन से अमृतकुम्भपना आरोपित किया जाता है । इस तरह मोक्ष भी वहां से चला जाता है।' १. प्रात्मख्याति टीका गाथा २८८ से २९६ नक । २. प्रतिरमण - कृतदोषों का निवारण । तिसरगा - सम्यक्त्वादि गुणों में प्रेरणा । परिहार – मिथ्यात्वादि का निवारण । वारणा - पंचनमस्कारादि के पावन में चिन स्थिर करता । निवृत्ति - वाह्यविषयकषाय प्रादि से वित्त को हटाना । निंदा - प्रात्मसाक्षात्पूर्वक दोपों को प्रगट करना । गर्हा - गुरुसाक्षीपूर्वक दोषी को प्रगट करना । शुद्धि - दोषों के दूर करने हेतु
प्रायश्चित्तादि नेना।। ३. यात्मख्याति टीका, गाथा २९७ गे ३२७ तक ।
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१०. सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार - इस अधिकार में सर्वविशुद्धज्ञान प्रवेश करता है । उक्त ज्ञान की महिमा आचार्य अमृतचन्द्र ने प्रत्येक अधिकार के प्रारम्भ में गाई है। वह जान जीब-अजीव, कर्ता-कर्म, पुण्य-पाप, प्रास्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष रूप आठों स्वांगों को जानने वाला है, एकाकार तथा सर्वविशुद्ध है । यहां आत्मा के अकर्तापने की सयक्तिक, सोदाहरण सिद्धि की गई है । अक्रा आत्मा को कर्ता मानना प्रज्ञान का माहात्म्य है। प्राग कहा है कि जब तक आत्मा कर्म प्रकृति के निमित्त से उपजना, विनशना न छोड़े तब तक बह अज्ञानी है, मिथ्यादष्टि और असंयमी है। जब प्रात्मा कर्म प्रकृति के निमित से उपजना विनशना छोड़ देता है, तब वह ज्ञायक है, दर्शक है, मुनि है तथा बन्ध से रहित है। जिस प्रकार जगत् में सर्प विषभाव को अपने आप नहीं छोड़ता और न ही मिश्री युक्त दुग्धपन से ही विषभाव का त्याग करता है, उसी प्रकार अभव्य जीव प्रकृतिस्वभाव को अपने आप नहीं छोड़ता और न ही प्रकृतिस्वभाव को छ ड्राने में समर्थ द्रव्यश्रुतज्ञान के अधाम से भी प्रकृतिभाव (मिथ्यात्वादि) को छोड़ता है। ज्ञानी सो कर्मफल का अवेदक ही होता है । वह अनेक प्रकार के कर्मों का कर्ता तथा भोक्ता नहीं होता। जैसे नेत्र अनेक पदार्थों के परिणमन को देखते हैं परन्तु वे उनके कर्ता या भोक्ता नहीं हैं उसी तरह ज्ञान भी समस्त कर्मों को जानता हुआ उनका अवेदक तथा अकर्ता ही है । जिस तरह जगत् में लोकिक मत में सभी प्राणियों को विष्णु करता है, ऐसा माना जाता है, उसी प्रकार श्रमणों - मुनियों के अभिप्राय में आत्मा छहकाय के जीवों की दया करता है, ऐसी मान्यता में विष्णुमत के समान कपिना होने से श्रमणों को भी मोक्ष नहीं हो सकता ।3 पागे यह लिखा है कि परद्रव्य और आत्मतत्व में कोई संबंध नहीं है अत: उनमें कर्ता-कर्म सम्बन्ध भी नहीं हैं। व्यवहार कथन में आन्मा का परद्रव्य से सम्बन्ध तथा कर्ता-कर्म पने का सम्बन्ध निरूपित किया जाता है, परन्तु परमार्थ से उक्त निरूपण वस्तुस्वरूप नहीं है। अज्ञानी वस्तुस्वरूप का नियम नहीं जानते, इसलिये वे अज्ञान से भावकर्म के कर्ता होते हैं । कुछ
१. प्रात्मयानि गीका, गाथा ३० से ३१० तक । २. वही गाथा ३१ से ३२० तक। ३. वहीं, गाथा ३२१ में ३२३ तना ।
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। प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कतृत्वं
एरियादी अज्ञानी, बााको तया असा मानते हैं। वे जिनवाणी की विराधना करते हैं क्योंकि वे यह नहीं जानते कि जिनवाणी में आत्मा को कथंचित् कर्ता भी कहा है । अतः जो सांख्यमतियों के समान "कर्म ही जगाते हैं, गुलाते हैं, सुखी दुखी करते हैं" - इत्यादि मानकर आत्मा को सर्वथा अकर्ता मानते हैं, वे अर्हतमतानुयायी नहीं हैं । स्पष्ट है कि भेदज्ञान होने से पूर्व आत्मा को हमेशा कर्ता मानो तथा मेदविज्ञान होने के बाद ज्ञानमंदिर में स्थित स्वयं प्रत्यक्ष आत्मदेव कर्तृत्व रहित, अचल, एवा, परम ज्ञाता होता है, ऐसा मानो।'
"जो कर्ता है, वहीं नहीं भोगता" ऐसी मान्यता भी अज्ञान है। "कोई करता है तथा कोई और भोगता है", ऐसी मान्यता भी मिथ्यात्व तथा अनाहत है । इसे ही शुद्धनय का लोभ तथा ऋजुसूत्र नय का एकांत रूप मिथ्यारव कहा है। व्यवहार दृष्टि में कर्ता-कर्म विभिन्न माने जाते हैं परन्तु निश्चय से कर्ता-कर्म सदा ही एक वस्तु में होते हैं । जो जिसका होता है, वह वही होता है जैसे आत्मा का ज्ञान होने से ज्ञान वह आत्मा ही है । शुद्ध-नय की दृष्टि से तत्त्व का स्वरूप विचार करने पर अन्य द्रव्य में अन्य द्रव्य का प्रवेश दिखाई नहीं देता । जैसे से टिका (कलई} सेटिका की है, सेटिकामय है वह दीवाल की नहीं है, दीवालमय नहीं है। उसी प्रकार ज्ञायक ज्ञायक है, जायक अन्य का नहीं है। दर्शन, ज्ञान, चारित्र अचेतन पदार्थों में किंचित् भात्र भी नहीं हैं, इसलिए पुद्गल का घात होने से दर्शन, ज्ञान, चारित्र का घात नहीं होता।
यथार्थ में रागद्वपादि चेतन के परिणाम हैं। रागद्वेषादि की उत्पत्ति के कारण अन्यद्रव्य कदापि नहीं हैं क्योंकि सर्व द्रव्यों की उत्पत्ति अपने-अपने स्वभाव से होती है । जो जीव रागोत्पत्ति में पारद्रव्यों को ही दोष देते है, वे शुद्ध ज्ञान के बोध से रहित अन्धबुद्धि हैं, वे मोहरूपी नदी को पार नहीं कर सकते । पुद्गल द्रव्य अनेक प्रकार से निन्दा-स्तुति बचन रूप परिणमित होता है । अज्ञानी मानता है कि मेरी निन्दा या स्तुति की गई है अतः वह उनको सुनकर रोष (क्रोध) तथा तोष (संतोष) करता है। भविष्यत् काल का जो शुभाशुभ कर्म जिस भाव
१. आत्ममन्याति टीका, गाथा ३२४ से ३४४ तक। २. वही, गाथा ३४५ । ३४८ तथा । ३. वही, गाथा ३४६ रो ३७१ तक।
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कुलियाँ ।
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में बंधता है उस भाव से निडर होने वाला मा . सान है। वर्तमान काल में उदयागत शुभाशुभ कर्मरूप दोष को जो आत्मा जानता है वह आलोचना है तथा पूर्वकृत (भूतकाल में किए हुए) शुभ-अशभकर्मों से जो प्रात्मा अपने को अलग रखता है, वह आत्मा प्रतिक्रमण है ।'
अपने उपयोग को अज्ञानरूप (कर्मरूप व कर्मफलरूप) करना, उसी का अनुभव करना, वह प्रज्ञान चेतना है। उससे कर्म का बंध होता है तथा शुद्धज्ञान अवरुद्ध होता है । अज्ञान चेतना संसार का बीज रूप है । मोक्षार्थी को अज्ञान चेतना का नाश करने के लिए सकलकों के सन्यास की भावना नचाकर, स्वभावभूत भगवती ज्ञान चेतना को ही सदा नचाना चाहिए । आग प्रतिक्रमण आलोचना तथा प्रत्याख्यान कलमों के ४९ प्रकार के भंगों द्वारा सन्यास भावना को नचाया गया है। पश्चात् आठ कों की १४८ प्रकृतियों के फलभोग की भावना का खण्डन किया गया है। एक मात्र चैतन्य आत्मा के अनुभव की ही बात की गई है। यहां नाटकीय शैली में प्रशांत रस का उत्कर्ष भी दिखाया है ।२ मागे शास्त्र, शब्द, रूप, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, कर्म, धर्म, अधर्म, काल, आकाश, अध्यवसान आदि से ज्ञान को भिन्न दर्शाया गया है । ज्ञान के देह नहीं है और कर्म तथा नोकर्म का प्राहार भी नहीं है। ज्ञान परद्रव्य को किंचित् मात्र भी न तो ग्रहण करता है और न ही छोड़ता है। जब ज्ञान के देह है ही नहीं, तब देहाधिन मुनि-लिंग या गृहस्थी-लिंग में मोक्षमार्ग की कल्पना करना भी अज्ञान है। वास्तव में लिंग मुक्ति का मार्ग नहीं है । अहंत जिनेन्द्र भी देह में निर्मम होते हैं तथा निरन्तर लिंग को छोड़कर दर्शन-ज्ञान तथा चारिश का ही सेवन करते रहते हैं। ऐसे ही मोक्षमार्ग में लग जाने की प्रेरणा आचार्य ने दी है । उसे जिनवाणी की आज्ञा कहा है। अन्त में मोक्षमार्ग में आत्मा को स्थापित करने, उसी का ध्यान करने तथा उसी का अनुभव करने का उपदेश देते हुए लिखा है कि जो मुनि-लिंग या गहस्थी-लिंग प्रादि द्रव्यलिंगों में ममता करते हैं वे समयसार को नहीं जानते । यद्यपि व्यवहार-नय, उक्त दो प्रकार के लिगों का, मोक्षमार्गी के निषेध करता है, परन्तु निश्चय-नय सर्वलिगों का निषेध करता है । वह लिंग को मोक्षमार्ग नहीं मानता । उपसंहार के
१. सात्मख्याति टीका, गाथा ३०२ से ३८६ तब । २. बही, गाथा ३८५ से ३८६ तक। ३. वहीं, गाथा ३६० गे ४११ तक। ४. वहीं, गाथा ४१२ स ४१४ तक।
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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व रूप में मूलग्रन्यकार ने समयप्रामृत पढ़ने तथा अर्थ अवधारण करने वाले को उत्तम सुख (मोक्ष सुख) होना लिखा है, तथा टीकाकार ने निखा है कि समस्त विकल्पों तथा जल्पों से बस होओ, उन्हें बन्द करो तथा एकमात्र परमार्थ स्वरूप आत्मा हो का अनुभव करो, क्योंकि समय सार से अधिक श्रेष्ठ जगत् में अन्य कुछ भी नहीं है। इस तरह उक्त अङ्क समाप्त होता है, परन्तु सर्व विशुद्धज्ञान रूप पात्र का निष्क्रमण नहीं होता, क्योंकि अन्य जीव-अजीबादि तत्त्व तो स्वांग थे अतः उनका निष्क्रमण दिखाया गया, परन्तु सर्वविशुद्धज्ञान, वह तो प्रात्मा का यथार्थ स्वरूप है, अविनाशी, टंकोत्कीर्ण, अचलस्वभाव है अत: उसका प्रागमन (प्रवेश या उदयो दिखागा,
किया जतन नहीं बताया । वह तो सदाकाल प्रकाशमान रहने वाला तत्त्व है।'
११. स्थाद्वाद अधिकार - इस अधिकार को टीकाकार ने ग्रन्थ की गम्भीर, प्रौढ़ तथा मार्मिक टीका समाप्त करने के बाद रवा है जिसका उद्देश्य वस्तुतत्त्व को व्यवस्था तथा उपाय-उपेय भाव पर पुनर्विचार करना है। स्याद्वाद को टीकाकार ने समस्त वस्तुओं के स्वरूप को सिद्ध करने वाला, अहंत, सर्वज्ञ का अस्खलित शासन निरूपित किया है । अने कांत की परिभाषा करते हुए लिखा है कि एक वस्तु में वस्तुत्व की सिद्धि करने वाली परस्पर दो शक्तियों के प्रकाशन को अनेकांत कहते हैं। उसके तत्-असत्, एकत्व-अनेकत्व, सत्व-असत्त्व, नित्यत्व-अनित्यत्व आदि विरोधी यगलों का भी स्पष्टीकरण किया है। स्वचतुष्टय-परचतुष्टय का भी उल्लेख किया है । अनेकांत को जिनदेव का अलंध्य शामन लिखते हुए, अनेकांत द्वारा अात्मा को ज्ञानमात्र ही प्रसिद्ध किया है 1 ज्ञान आत्मा का लक्षण है। लक्षण की प्रसिद्धि से लक्ष्य की भी प्रसिद्धि होती है । अन्त में इस अधिकार के अन्तर्गत अत्यंत अनोखा, एवं दुर्लभ ४७ शक्तियों का निरूपण किया है । उपसंहार में लिखा है कि एकांतवादियों के मन में बस्तुस्वरूप की व्यवस्था सम्भव नहीं है, अनेकांत मन द्वारा ही उसकी सिद्धि सम्भव है ।
१२. उपाय-उपेयाधिकार - यहाँ स्पष्ट किया है कि आत्मा को ज्ञानमात्र कहने पर भी उसमें उपाय-उपेय भाव घटित होते हैं । जो साधक रूप है वह उपाय है और जो सिद्धरूप है वह उपेय है 1 जो भव्य
१. समयनार, माथा ४१५ टोला
२. समयमा कलम २६५ तया ।
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कातियाँ ।
| २६६
स्वयमेव काललब्धिपावार अथवा गुरु के उपदेश से अपने ज्ञानतत्त्व को पा लेते हैं वे संसार परिभ्रमण से छूट जाते हैं तथा ज्ञानतत्त्व को न पाने बाले संसार परिभ्रमण करते रहते हैं । ज्ञान-नय तथा क्रिया-नय में परस्पर मित्रता भी दिखाई गई है । अन्त में टीकाकार काहते हैं कि आत्मा अनेक शक्तियों का समूह है, परन्तु नयों की दृष्टि से बह खण्डित किया जाता है और नय विकल्पों का निराकरण करके एक, अखण्ड, एकांत, शति तथा अचल चैतन्यमात्र तेज स्वरूप है । उपसंहारात्मक रूप में टीकाकार ने लिखा है कि वस्तुस्वरूप को दर्शाने की शक्ति शब्दों में है उससे समयमार की व्याख्या की गई है, उसमें स्वरूपगुप्त अमृतचन्द्र का कुछ भी कर्तव्य नहीं है । इस प्रकार सम्पूर्ण कृति समाप्त होती है । समग्र कृति श्राद्यन्त अनुभव लहरी से मण्डित है एवं प्राचार्य अमृतचन्द्र के अमृतमयी व्यक्तित्व का अद्वितीय निष्यद और अभर स्मारक है। पाठानुसंधान -
आचार्य अमृतचन्द्र की टीकाकृतियों में आध्यात्मिक दृष्टि से समयसार की "आत्मख्याति" टीका का स्थान सर्वोपरि है । अध्यात्मपरक तथा अध्यात्मामृत रस से आग्लावित "प्रात्मयाति" के समान अन्य कोई टीका नहीं है । इसकी हस्तलिखित तथा मुद्रित प्रतियाँ भारत के व.ोने सोने में विद्यमान जिममंदिरों, शास्त्र भण्डारों तथा ग्रन्थालयों में उपलब्ध हैं । सार्वजनिक शोध संस्थानों तथा व्यत्तिगत ग्रन्थ संग्रहालयों में भी इसकी अनेक प्रतियां प्राप्त होती हैं । वर्तमान में परम आध्यात्मिक सन्त कानजी स्वामी, सोनगढ़ (सौराष्ट्र के व्यापक प्राध्यात्मिक प्रभाव के कारण 'आत्मख्याति" टीका समम भारत के दिगम्बर जैन अध्यात्मरसिकों के घर-घर पहुंच चुकी है। महाराष्ट्र प्रदेश के कोल्हापुर जिले के 'बाहुबलि कुम्भोज" नामक दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र के सरस्वती ग्रन्प्र भण्डार में इसकी कन्नड़लिपि में ताड़पत्रीय प्रति भी उपलब्ध है। इसकी सर्वाधिक प्राचीन हस्तलिखित पाण्डुलिपि ईस्वी १३८३ में तैयार की गई थी जो उत्तर प्रदेश के अलवर जिले के बसवा (तहसील) नामक स्थान में लिखी गई थी। इसके अनेक स्थानों से विभिन्न सम्पादकों, टोकाकारों तथा अनुबादकों के विभिन्न संस्करण मिल चुके हैं। वे संस्करण हूँढारी हिन्दी, गुजराती, मराठी, वन्नड़, अंग्रेजी इत्यादि
Jainisin ij] Rajasilian, Page 196.
Page #301
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२५० ]
। प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
भाषाओं में हैं । इसकी हस्तलिखित तथा मुद्रित प्रतियों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि हस्तलिखित प्रतिकों में मुद्रित पतियों की पेक्षा लिपिकार कृत अनेक त्रुटियां हैं । यद्यपि मुद्रित प्रतियों में काफी मात्रा में अशुद्धियों का शोधन हुपा है तथापि उनमें भी किसी संस्करण में मुद्रण विषयक अशद्धियां अधिक हैं तथा किसी में व.म । यहाँ मुद्रित प्रतियों के विभिन्न पांच संस्करणों का तुलनात्मक उदाहरण प्रस्तुत किया जा रहा है। ये पांचों संस्करण क्रमश: ईस्वी १६१४ में काशी, ईस्वी १६६० में फलटण, ईस्वी १६६४ में सोनगढ़, ईस्वी १६७० में कारंजा तथा ईस्वी १९७७ में मुजफ्फरनगर से प्रकाशित हैं। इनका तुलनात्मक पाठभेद अगले पृष्ठ पर दी गई तालिका में दिया गया है, जिससे स्पष्ट है कि काशीप्रति में बाई अशुद्धियां हैं । उसमें एक बड़ा शुद्धिपत्रक भी लगाया गया है । फलटण की प्रति में भी प्राय: वे ही अशुद्धियां हैं जो काशी की प्रति में हैं । सोनगढ़ से मुद्रित प्रति में बड़ी सावधानी रखी गई है तथा पूर्व के संस्करणों में उपलब्ध सूक्ष्म व्याकरणात्मक अशुद्धियों को परिमार्जित किया गया है । कारंजा तथा मुजफ्फरनगर के संस्करणों में भी प्रायः सोनगद प्रति के पाठ काही अन करण किया गया है । इस तरह शुद्ध पाठ की दृष्टि से सोनगढ़ की प्रति अत्यधिक महत्त्वपूर्ण और यथार्थ है । परम्परा
आत्मख्याति टीका द्रव्यानयोग विषयक ग्रन्थ है । इसमें शुद्धात्मा का परिचय, अनुभव तथा पूर्णोपल ब्धि का उपाय निरूपित है । द्रव्यानयोग सम्बन्धी लिखित थ तनिरूपग परम्परा के आद्य प्रवर्तक आचार्य कुन्दकुन्द ही थे । उनके पश्चात् पूज्य पाद, गुणभद्राचार्य, योगीन्दुदेव, देवसेन आदि आचार्यों ने उक्त परम्परा का सम्पोषण किया परन्तु आचार्य अमृतचन्द्र ने जिस प्रकार व्यापकता, स्पष्टता, पटुता तथा प्रौढ़ता के साथ उक्त परम्परा की उन्नति की, वैसी उन्नति अन्य किसी आचार्य द्वारा सम्भव नहीं हो सकी । उनको आत्मख्याति जैन अध्यात्म का सर्वोत्कृष्ट रूप है 1 उक्त टोका द्वारा आचार्य कुन्दकुन्द द्वाग उद्घाटित अध्यात्म का पुनः विशदीकरण, स्पष्टीकरण, प्रचार एवं प्रसार सम्भव हुआ है। उक्त अध्यात्मप्रवाह अमृतचन्द्र के बाद एक हजार वर्ष तक अद्यावधि निर्बाध रूप से प्रवहमान है। उनके पश्चादवर्ती अधिकांश टीकाकारों, लेखकों आदि ने 'आत्मख्या ति" टीका को सर्वाधिक श्रेष्ठ तथा प्रामाणिक मानकर प्रमाण रूपेण अपने ग्रन्थों में उदाहत किया है।
Page #302
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काशी प्रति
गाथा २ -सत्तयानस्यूतः
वर्तत गाथा ३-टंकोत्कीर्ण
दोषापते.
सत्यानुग्रूमः
मोहानुवृत्तितया मोहानुवृत्तितया
काशी, फलटण, सोनगढ़, कारन्जा एवं मुजफ्फरनगर की मुद्रित प्रतियों में
विद्यमान पाठमेव की
तुलनात्मक तालिका
गाथा ४- परावतः
एकत्रीकृत
श्रत एकत्वस्य
फलटर प्रति
विसंपादत्वाचतिः विसंवादत्वापति
समयोत्वादित
समयोत्पादित
गाथा ५- जागरूकैः
गाथा - वर्मिणि निष्णात
गाथा - समुदाय
गाथा ६-१० श्रुतकेवलीति प्रतिपद्यते
वर्तत
टंकोटकीर्ण
दोषापत्तः
परावर्त्तः
एकत्रीकृत
अतः एकत्वस्य
जागरूकैः
वर्मिणोनिष्णात
समुदीर्य
श्रुतकेवलोति
प्रतिपञ्चते
सोनगढ़ प्रति
मत्तयानुस्युतः
मोहानुवृत्तितंत्रतया वर्तते
कोरकीर्णा
दोषापत्तेः
विसंवादापतिः
समयत्वोवादित
परावतः
एकच्छवीकृत
श्रत एकत्वस्थ
जागरूके:
वर्मिण्यनिष्णात
समुदाय
श्रुतके वलीति प्रतिपाद्यते
कारंजा प्रति
सत्तयानुस्यूतः मोहानुवृत्ति वर्तते
टेकोत्कीर्ण
दोषापत्तेः विसंवादापतिः समयत्वोत्पादित
परावर्तेः
एकच्छवीकृत
अन एकत्व त्य
जागरूकै :
धर्मिण्यनिष्यात
समुपादाय
श्रुतकेवल प्रतिपाद्यते
तु
मुजफ्फरनगर प्रति
सत्यानुस्युतः मोहानुवृत्ति
वर्तते
टंकोरकीर्णा
दोषापत्तेः विसंवादापतिः
समयत्वोत्यादित
परावर्तः
एकच्छीकृत
अत एकत्वस्य
जागरूक:
वर्मिण्यनिष्णात
समुपादाय अतकेवलीति तु प्रतिवाद्यते
कृतियाँ ]
[ २७१
Page #303
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यहेसुनियोजातंकियाकारकै दुजानायतोवनतिरविले विनातियायाकलादिशामा || घनधिमममंधनाकिंचित किंचिचिलाछासनालिसंसूचितवसुतधैवाख्यातेयसमय स्पंदानस्पसलमान के विदसिकत्रव्यमवातसरेइत्यान्नातिनासमयसा रत्यारयासमानावा 14
मंचन
विधागासवदिश्यमंगलदि निश्रिीमयोगिनीइरेसममराजावलीसा मालंकृत विनिहितारिवलपरमहारा जाधिराजसरनाश्रीयेरोनयकसा दिराज्यमवर्तनानेटीकाष्टसंघवरमायु सन्यायकरारागागमहायसिाज मुनिर्माहवसेनमायाकाष्टावरीलो। निधिमूविंदमा विजयममतियार्थिनिक्षतोयत्तिय निर्मनिचतवसुंदर मदनशासना नाशनरोडरितनामसविक्षितिताकारापहनदायनयमेलनामानन्येमुनिईनसमाना! धामायहेश्वसनासमनदीयेरिसदाचार विचारसारावामाननंमोगातुल्यकारिन
श्री दिगम्बर जैन बड़ा मन्दिर (तेर हथियान) जयपुर में प्राचार्य अमृतचन्द्र कृत यात्मख्या तिकलशटोका (मूलगाथा सहित ) शन्थ मौजूद है । लिपि संवत् १४४६ । स्थान-योगिनोपुर (दिल्ली)।
उक्त ग्रन्थ के अंतिम पृष्ठ की प्रतिलिपि ।
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कृतियाँ 1
प्रणाली -
आत्मख्याति टीका में प्राचार्य प्रमृतचन्द्र ने अनोखी प्रस्ति नास्ति निरूपण परत अनेकान्तात्मक शैली का प्रयोग किया है। विभिन्न नयों के निरूपण विषयक विरोध का विनाश करने के लिए स्यात् पद मुद्रित "स्याद्वादकथनशैली" को ग्राद्यन्त अपनाया है । उक्त स्थाद्वादमयी निरूपण शैली ही मोह का मन कराने तथा परमज्योति स्वरूप शुद्धात्मा को प्राप्त करने में समर्थ है। घने में उन्नागम, युक्ति, गुरु-परम्परा तथा स्वानुभव को अवश्य गर्भित किया है। ग्रन्थ वैशिष्ट्य
-
उक्त ग्रन्थ के कुछ वैशिष्ट्य इस प्रकार हैं
१. समग्र टीका नाटकीय शैली में रची हुई है ।
"
२. उच्चकोटि की प्रौढ़ साहित्यिक तथा गम्भीर अर्थवाही भाषा का प्रयोग हुआ है।
३. गद्यपद्य मयी चम्पू शैली का प्रयोग भी अध्यात्मनिरूपण में प्रथम बार हुआ है।
४. अन्य मतों का दार्शनिक, तार्किक एवं न्यायशैली में निराकरण हुआ है। ५. सैद्धांतिक तथा दार्शनिक विवेचना भी प्रचुर मात्रा में हुई है ।
६. सर्वत्र आत्मानुभूति तथा अध्यात्म की अनुपम छटा विकीर्ण हुई है । श्रात्मख्याति टीका तथा उससे अनुप्राणित टीकाएं व टीकाकार १. ईस्वी सन् ६१५-६६५, टीकानाम- आत्मख्याति, टीकाकार नाम - आचार्य अमृतचन्द्र, भाषा संस्कृत जानकारी स्रोत मुद्रित ग्रन्थ
-
उपलब्ध
—
-
-
J
२. ईस्वी सन् ६८०-१०६५, टीकानाम समयसारवृत्ति, टीकाकारनाम- श्राचार्य प्रभाचंद्र, भाषा संस्कृत जानकारी स्रोत - जे.सा.वृ. इति. ४/१५३
-
,
[ २७३
→
टीकाकार
३. ईस्वी सन् १०४३-१०७३, टीकानाम भाषा टीका, नाम आचार्य मल्लिषेण प्रथम, भाषा - तमिल, जानकारी स्रोत
--
-
समयसार (चक्रवर्ती) प्र. पृष्ठ १
४. ईस्त्री सन् १२-१३वीं शती, टीकानाम - भाषा टोका, टोकाकारनाम बालचन्द्र देव, भाषा कन्नड़, जानकारी स्रोत- भा.सं. में
जे. यो. पृष्ठ ८५ ।
१. समयसार कलश, ४
Page #305
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________________
२७४ 1
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व ५. ईस्वी सन् १२६२-१३२३, टोकानाम - तात्पर्यवृत्ति, टीकाकार
माम - आचार्य जयसेन, भाषा - संस्कृत, जानकारी स्रोत -- मुद्रित
ग्रन्थ उपलब्ध। ६. ईस्वी सन् १२६२-१३२३, टीकानाम - अज्ञात, टीकाकार नाम -
कविवर ब्रह्मवेत्र, भाषा - कन्नड़, जानकारी स्रोत - क. प्रा. ता. प.
प्र. सू. पृष्ठ २० । ७. ईस्वी सन् अज्ञात, टोकानाम - अज्ञात, टीकाकार नाम -
विलासकीर्ति, भाषा - अज्ञात, जानकारी स्रोत - जै० सा० ३०
इति०४/१५३ ८. ईस्वी सन् अज्ञात, टीकानाम – अज्ञात, टीकाकारनाम - जितमुनि,
भाषा - अज्ञात, जानकारी स्रोत - जै. सा. वृ. इति. ४/१५३ ६. ईस्वी सन् अज्ञात, टोकानाम - अज्ञात, टीकाकार नाम - अज्ञात,
भाषा - संस्कृत, जानकारी स्रोत-जै० सा० वृ० इति०४/१५३ ईस्वी सन् १५८७, टीकानाम - अज्ञात, टीकाकार नाम - श्वे, मुनि जेसा, भाषा - अज्ञात, जानकारी स्रोत - रा. ज. शा, भै. सू. ४२२ ईस्वी सन् १६२३, टोकानाम - भाषाटीका, टीकाकार नाम - जिनोदय सूरि, भाषा - हिन्दी, जानकारी स्रोत - रा. ज. शा. म,
सू. ५/२२३ १२. ईस्वी सन् १६५०-५५, टोकानाम - भाषा टीका, टोकाकारनाम -
पं. हेमराज, भाषा - हिन्दी, जानकारी स्रोत-प्रवचनसार परमागम प्र. पृष्ठ १। ईस्वी सन् १६६४, टीकानाम - तत्त्वबोधिनी टीका, टीकाकारनाम - भ. देवेन्द्र कीर्ति, भाषा - संस्कृत, जानकारी स्रोत - रा..
शा. भ. सु. ३/४४ १४. ईस्वी सन् १७३१, टीकानाम - भाषा टीका, टीकाकार नाम -
भ. देवेन्द्रकीर्ति, भाषा - हिन्दी, जानकारी स्रोत - रा. ज. शा. भ.
सू. ५/२२५-२६ १५. ईस्वी सन् १७३५, टीकानाम - समयसार वालाबवोघ, टीकाकार
नाम - पं. रूपचंद. भाषा - हिन्दी, जानकारी स्रोत - अनेकांत
दिसम्बर ५३, पुष्ठ-२३१-३२ १६. ईस्वी सन् १८०७, टीकानाम - भाषा वच निका, टीकाकार नाम -
पं. जयचंद, भाषा - हिन्दी, जानकारी स्रोत – मुद्रित ग्रन्थ उपलब्ध (प्रतिलिपि संलग्न)
Page #306
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________________
कृतियाँ ।
और प्राचारिज कायमुनानगलमयसादिक्षासिध्यादयनमनाच विकतारेयास शुरुराधारले सर्वसाधुलणारेह मेंनीच सुरुचाएक नमलहरकरार है।।१॥सवईयाकलासा जयपुरनगर
माहिराधोलावावडेडेगुनाजहीमेटेयसारहे। जिम तिलिचोम में प्रयासमकामावुद्धिसासुंधरागतेविवार
सारयताकादेशके वचन रूपनामाकरापासबमिरेधा है। प्राचापरलेटमानियलागिछपात्याही प्रातसय हेबावसार विसरावकमतरांसदशमनोरथो सावकातीवादा पूरणप्रेयसतरनित्रामादकैट
मादामहतसमयमालतनामुपासतमायधमकायत रामवावआचार्ससनेसस्कतका अन्दुसारर्यहसंक्षेप लावायमान शिनास देशमामामयचनिकासपूरमिin
आत्मख्याति की पण्डित जयचन्द छाबड़ा कृत देशभाषामय वचनका को
हस्तलिखित प्रति का अन्तिम पृष्ठ ।
। २७५
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२७६ ।
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कतै त्व १७. ईस्वी सन् १९१२, टीकानाम -- बाल बोधभाषाटीका, टीकाकार
नाम - पं. जयचन्द्र, भाषा - हिन्दी, जानकारी स्रोत – मुद्रित ग्रन्थ
उपलब्ध । १८. ईस्वी सन् १९८१, टी कानाम - भाषाटीका, टीकाकार नाम
अ. शीतलप्रसाद भाषा - हिन्दी, जानकारी स्रोत - प्रवचनसार
(फडेगां)प्र. पृष्ठ २० १६. ईस्वी सन् १६१६, टीका नाम - भाषाटीका, टीकाकार नाम - पं.
मनोहरलाल, भाषा - हिन्दी, जानकारी स्रोत - तीर्थकर, अगस्त
७६, पृष्ठ २८ । २०. ईस्वी सन् १९४०, टीकानाम - भाषाटीका, टी का नाम - पं.
हिम्मतलाल जे.शाह, भाषा – गुजराती, जानकारी स्रोत - जैन सा,
वृ. इति. ४/१५१ २१. ईस्वी सन् १९४०-४५ दीकानाम - प्रवचन, टीकाकार नाम - क्षु.
गणेश प्रसाद वर्णी, भाषा - हिन्दी, जानकारी स्रोत – मुद्रित ग्रन्थ
उपलब्ध। २२. ईस्वी सन् १९४५-५०, टीकानाम - भाषाटीका, टीकाकारनाम -
प्रो.ए. चक्रवर्ती भाषा-अंग्रेजी, जानकारी स्रोत-मुद्रित ग्रन्थ उपलब्ध २३. ईस्वी सन् १९४५-५१, टीकानाम – निजानंदीय श्लोकटीका,
टीकाकार नाम - क्षु. निजानंद, भाषा - हिन्दी, जानकारी स्रोत -
मुद्रितग्रन्थ उपलब्ध । २४. ईस्वी सन् १९६०, टीकानाम - भाषाटोका, टीकाकार नाम - मुनि
देशभूषण, भाषा - मराठी, जानकारी स्रोत - मुद्रित ग्रन्थ उपलब्ध २५. ईस्वी सन् १६६०, टीका नाम - प्रवचन, टीकाकारनाम - संत
कानजी स्वामी, भाषा - गुजराती/हिन्दी, जानकारी स्रोत - मुद्रित
ग्रंथ उपलब्ध । २६. ईस्वी सन् १९६८, टीकानाम - भाषाटीका, टीकाकारनाभ - पं.
धन्यकुमार भौरे, भाषा - मराठी, जानकारी स्रोत – मुद्रित ग्रन्थ
उपलब्ध। २७. ईस्वी सन् १६५६, टीकानाम - प्रवचन (१ वण्ड), टीकाकारनाम
पं. मोतीलाल कोठारी, भाषा- मराठी, जानकारी स्रोत - तीर्थकर
अगस्त ५६ पृष्ठ २८ । २८. ईस्वी सन् १९७६, टीकानाम - समयमार वैभव, टीकाकारनाम -
पं. नाथूरामडोंगरीय, भाषा - हिन्दी पच, जानकारी स्रोत -- मुद्रित नन्थ उपलब्ध।
Page #308
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कृतियाँ 1
( ૨૭૭ २६. ईस्वी सन् १९७०-७१, टीका नाम - समयसार प्रवचन (१ से १५
भाग), टीकाकारनाम - १० सहजानंद वर्णी, भाषा - हिन्दी,
जानकारी स्रोत -- मुद्रित ग्रन्थ उपलब्ध । ३०. ईस्वी सन् अज्ञात, टी कानाम - समयसार भाष्यपीठिका, टीकाकार
नाम - क्ष. सहजानंद वर्णी, भाषा - हिन्दी, जानकारी स्रोत -
मुद्रित ग्रन्थ उपलब्ध । ३१. ईस्वी सन् अज्ञात, टीका नाम - समयसार दुषंत मर्म, टीकाकार
नाम - क्षु. सहजानंद वर्णी, भाषा-हिन्दी, जानकारी स्रोत - मुद्रित
ग्रन्थ उपलब्ध । ३२. ईस्वी सन् अज्ञात, टीकानाम - समयसार महिमा, टीकाकारनाम -
क्षु. सहजानंद वर्णी, भाषा - हिन्दी जानकारी स्रोत - समयसार
स. द. टीका पृष्ठ ४। ३३. ईस्वी सन् अज्ञात, गाना - समसामा गरेजीशा, बीमाकार
नाम -शु, सहजानंद वर्णी, भाषा - अंग्रेजी, जानकारी स्रोत -
समयसार स. द. टा. पृष्ठ ४।। ३४. ईस्वी सन् अज्ञात, ती कानाम - समयसार सप्तदशांगी टीका, टीका
कारनाम - क्ष. सहजानंद वर्णी, भाषा - हिन्दी, जानकारी स्रोत -
समयसार स, द. टीका पृष्ठ ४।। ३५. ईस्वी सन् २० वीं शो उत्तरार्व, टीका नाम - भाषा टीका,
टीकाकारनाम - पं. बल्लप्पा भरमप्पा निवे, भाषा - मराठो,
जानकारी स्रोत - पु. सि, अज्ञात । ३६. ईस्वी सन् अज्ञात, टीकानाम - टीका टीकाकारनाम - यशोविजय
भाषा - हिन्दी, जानकारी स्रोत - जि. प्र. र. को. १३४/१३५ प्रात्मख्याति टीका तथा तदनुसारी टोकानों की पाण्डलिपियां प्र:- ताडपत्रीय पाण्डुलिपियां -- टीकाकार – कवि ब्रह्मदेवकृत, लिपि - कन्नड़, जानकारी स्रोत - भा. प्रा. ता. न. सू. पृष्ठ २०।। टीकाकार - बालचन्द्र, लि ि- कन्नड़ (मूलविद्रो में), जानकारी स्रोत - क. प्रा. ता. न. सू. पृष्ठ २०४ । टोकाचार -- आचार्य अमृतचन्द्र, लिपि - कन्नड़ (कारकल में),
जानकारी स्रोत - क. प्रा. सा. प्र. सू. पृष्ठ २८४ । ४. टीकाकार - प्राचार्य अमृतचन्द्र, लिपि - कन्नड़, जानकारी स्रोत ..
क. प्रा, ता. ग्र, सू. पष्ठ २८ ।
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२७८ ]
ब. कागज पर लिखित पाण्डुलिपियाँ
१. लि. १२८३, टीका- आचार्य अमृतचन्द्र, लिपि - बसबा (अलवर), जानकारी स्रोत - जै. इन राजस्थान १६६ ।
२. लि. १३८६ टीका आचार्य अमृतचन्द्र लिपि - योगिनीपुर (दिल्ली), जानकारी स्रोत- तेरहपंथी मंदिर जयपुर में उपलब्ध वे. नं. १६६० ।
३. लि. १४०६, टीका - आचार्य अमृतचन्द्र, लिपि - अजमेर, ज्ञानकारी स्रोत - रा. जे. शा. भ. सू. ।
लि. १४४५, टोका-टा प्रभाचन्द्र, लिपि - अज्ञात, जानकारी स्रोत- रा. शा. भ. सू. ५/२१४-२५
X.
लि. १५३७, टीका- अमृतचन्द्र, लिपि - अज्ञात, जानकारी स्रोत - रा. जे. शा. भ. सू. ४/११८ ।
६. लि. १५४४, टीका प्राचार्य अमृतचन्द्र, लिपि प्रजमेर, ज्ञानकारी स्रोत रा. जे. शा. भ. सू. ५/२२१ ।
लि. १५७५, टीका आचार्य जयसेन, लिपि - अर्गलपूर (म. प्रदेश ) जानकारी स्रोत - तेरहपंथी मंदिर जयपुर में उपलब्ध वे नं. १८६१ लि. २५७३, टीका आचार्य अमृतचन्द्र, लिपि जानकारी स्रोत- रा. जै. बा. भ. सू. ५ / २२१
अज्ञात,
४.
७.
८
11
--
-
| आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
--
-
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£.
लि. १५८७, टीका - आचार्य प्रमृतचन्द्र, लि श्वं मुनि जेसा, लिपि - मालपुरा, जानकारी स्रोत - रा. जे. शा. भ. सू. ४ / २२४ | १०. लि. १६०३, टीका - आचार्य जयसेन, लिपि नया मंदिर, दिल्ली, जानकारी स्रोत अनेकांत जून ४१, पृष्ठ ३४६-५४ ।
BAJ
—
-
११. लि. १६६४, टीका भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति, लिपि अज्ञात, जानकारी स्रोत - रा. जं. शा. भ. सु. ३/४४ | १२. लि. १६६५, टीका आचार्य अमृतचन्द्र, लि-संग्रामपुर, जानकारी स्रोन - तेरहपंथी मंदिर जयपुर में उपलब्ध वे नं. १८५० । १३. लि. १७२२, टीका - भ. देवेन्द्रकीति,
लिपि अज्ञात,
जानकारी
जानकारी
स्रोत - रा. जं. शा. भ. सू. ३/४४ । १४. लि. १७३१, टीका भ, देवेन्द्रकीति, लिपि स्रोत - रा, जं. शा. अ. सु. ३/४३ । १५. लि. १७४७, टीका - भ. देवेन्द्रकीर्ति, लिपि स्रोत- स. जे. शा. भ. सु. ५:२२५-२६ ।
जानकारी
-
—
-
—
प्रज्ञात,
अज्ञात,
Page #310
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कृतियाँ ]
ર૭e
१६. लि. १७७६, टोका - आचार्य अभृतचन्द्र, लिघि – अज्ञात, जानकारी
स्रोत - रा, जै, शा. भ. सू. ४/१२१ १७. लि. १८०५, टीका - आचार्य अमृतचन्द्र, लिपि - नया मन्दिर,
दिल्ली, जानकारी स्रोत - अनेकांत जून ४१ पृष्ठ ३४६-३५५ । १५. लि. १८०७, टीका - पं. जयचंद छाबड़ा, लि. - पं जयचंद्र छाबड़ा,
लिपि - जयपुर मूलपति, जानकारी लोत - तेरहपंथी मन्दिर
जयपुर में वे..नं. १८५६ । १६. लि. १५०६, टीका - भ, देवेन्द्र की ति, लिपि -- अज्ञात, जानकारी
स्रोत - रा. जै, शा. भसू. ३/४४ ।। २०. लि. १८५२, टीका - पं. जयचन्द छाबड़ा, लिपि - नया मन्दिर,
दिल्ली, जानकारी स्रोत - अनेकांत जून ४१ पृ. ३४६-३३५ । २१. लि.१८८१, टीका - पं.जयचंद छाबड़ा, लिपि - जयपुर, जानकारी
स्रोत - तेरहपंथी मंदिर जयपुर में उपलब्ध वे. नं, १८८८ । २२. लि. १८६६, टीकाकार नाम – ग्रा. अमृतचन्द्र, लिपि - जयपुर,
जानकारी स्रोत - तेरहपंथी मंदिर जयपुर में उपलब्ध ते नं.१८८८ | २३. लि. १८६६, टीकाकारनाम - पं. जयचन्द छाबड़ा, लिपि - जयपुर,
जानकारी स्रोत – रा. जं. शा. भमु. ३/४५ । २४. लि. अज्ञात, टीकाकार नाम - जिनोदयसूरि लिपि - अजात, जा,
स्रोत - रा.जे. शा. भ. सु. ५:२३३। २५. लि. अज्ञात टीकाकार नाम - पं. रूपचन्द (र, काल १६४२)
लिपि - अज्ञात, जानकारी स्रोत – रा. जै. शा, भ, सू. ५/२२८ | स. संगमर्मर पर उत्कीर्ण लिपि : १. १६७०-७५, आ. अमृतचन्द्र, संस्कृत,
प्रात्मस्याति टीका एवं तदनुसारी टीकानों
के उपलब्ध प्रकाशन/संस्करण १. सन्थ - समयसार भाषाटीका, दीकाकार - जयचन्द छाबड़ा,
प्रकाशक - रा. जै. शा. मा.बम्बई, तिथि - ईस्वी १६०४, भाषा -
हिन्दो । २. ग्रन्थ - समयसार भाषाटीका, टीकाकार -- जयचन्द छाबड़ा,
प्रकाशक - रा. जै. मा., कलकत्ता, तिथि - ई, १६०५. भाषा - हिन्दी, प्रतियां -
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२५० ]
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
३. ग्रन्ध – समयसार भाषाटीका, टोकाकार - पण्डित जयचन्द छाबड़ा,
संम्पादक - पं. मनोहरलाल, प्रकाशक - रा. ज. शा. मा. बंबई,
तिथि - ईस्वी १६०७, भाषा - हिन्दी । ४. ग्रन्थ - समयप्रामृतम्, टीकाकार - अमृतचन्द्र + जयसेन, सम्पादक - पं० गजाधरलाल, प्रकाशक - स. जै. . मा. बनारस, तिथि -
ईस्वी १६१४, भाषा - संस्कृत । ५. ग्रंथ – समयसार आत्मख्याति, टीकाकार - गोपालशाह, प्रकाशक -
जै. ग्र. उ. का. बंबई, निषि - १९१८ भाषा - हिन्दी । ६. ग्रन्थ - समयसार टीका, टीकाकार - ब्र. शीतलप्रसाद, प्रकाशक -
दि. 5. पू. सूरत, तिथि - ईस्वी १६१८, भाषा - हिन्दी। ७. ग्रन्थ – समयसार आत्मख्यालिटीमा टीकाकार - मनमः ....,
प्रकाशकः – रा. च. ज. प. मा. बम्बई, तिथि - ईस्वी १६१९,
भाषा - हिन्दी ।। ८. ग्रन्थ - मयसारप्राभृत टीका, टीकाकार - अमृतचन्द्र, प्रकाशक -
दि. जै.ग्र. मा. वनारस, तिथि -- १६२५, भाषा - हिन्दी । है. ग्रन्थ - समयसार (दो. सोल एसेंस), अनुवादक - जे. एल. जैनी,
प्रकाशक -- दी. मे. जैन 'प, हा., लखनऊ, तिथि - ईस्वी १६३.,
भाषा - अंग्रेजी। १०. ग्रन्थ - समयसार ग्रात्मख्याति टीका, टीकाकार - पण्डिन जयचंद
छाबड़ा, सं. - पं. मनोहरलाल, प्र. रोहतक, तिथि - ईस्वी १६४२,
भाषा - हिन्दी। ११. श्री समयप्राभूत आत्मन्याति, टीकाकार - पं. जयचन्द्र कृत,
प्रकाशक - ने. म. प्र. पा., कलकत्ता, तिथि -- ईस्वी १६४२,
हिन्दी/१०००। १२. ग्रन्थ – समयसार (अभयटीका), टीकाकार - आचार्य अमृतचन्द्र
जयसेन, प्रकाशक - स. जे. प्र. मा., बनारस, तिथि - १९४४,
भाषा - संस्कृत। १३. ग्रन्थ - समयसार (दी नेचर ऑफ दो सेल्फ), टीकाकार - आचार्य
अमृतचन्द्र, अनुवादक - एक चक्रवर्ती, प्रकाशक - भा. ज्ञा० पी० काशी बनारस, तिथि - ईस्वी १६५०, भाषा - अंग्रेजी। ग्रन्थ - समयसार (निजानन्द्रीन श्लोक सहित), टीकाकार - स्वामी निजानन्द क्षल्लक, प्राशक - नि. जै. ग्र. मा., सहारनपूर, तिथि - १९५१ भाषा - हिन्दी १००० ।
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कृतियाँ 1
[ २८१
१५. ग्रन्थ – समयसार आत्मख्याति, टीकाकार - आचार्य अमृतचन्द्र,
सम्पादक - हिम्मतलाल जे० शाह, प्रकाशक - पा० दि० जे० ग्र०
मा० मारोठ, तिथि - ईस्वी १६५३, भाषा - गुजराती/१०००। १६. ग्रन्थ -- समयसार प्रात्मख्याति, टीकाकार - जयचन्द छाबड़ा,
प्रकाशक - श्रु. भा. अ. प्र. स. फलटण, तिथि --- ईस्वी १६५६,
माः - हिन्दी १७. ग्रन्थ - समयसार टीका, टीकाकार - मोतीचन्द कोठारी, फलटण
तिथि - ईस्वी १६५६, भाषा - मराठी । १८, समयसार, सम्पादक - राजकृष्ण जैन, प्रकाशक - अ. म. दिल्ली,
तिथि - १६५६, भाषा - हिन्दी। १६. ग्रन्थ - समयसार प्रबचन संग्रह, टीकाकार - देशभुषण मुनि,
संग्राह!. -- मुकदेव जोति कुलकर्णी, प्रकाशक -- एस. एम. पाटिल,
कोल्हापूर, तिथि -- ईस्वी १९६०, भाषा - हिन्दी । २०. ग्रन्थ -- समयसार आत्मख्याति (जयचन्द्रीय), अनुवादना -- पण्डित
परमेष्ठीदास, प्रकाशक -- दि. जे. मु. मं. बम्बई, तिथि -- ईस्वी
१६६३, भाषा -- हिन्दी/१५०० । २१. ग्रन्थ - समयसार आत्मरख्या ति, अनुवादक -. 'पण्डित परमेष्ठीदास,
प्रकाशक -- दि. जै. स्वा. म. द्र. सोनगढ़, तिथि -- ईस्वी १९६४,
भाषा -- हिन्दी/२२०० । २२. ग्रन्थ -- समयसा र आत्मख्याति, सम्पादक -- पण्डित मनोहरलाल,
प्रकाशक -- जे. न. माला, दिल्ली, तिथि -- १६६७, भाषा --
हिन्दी। २३. ग्रन्थ -- समयसार आत्मख्याति, टीकाकार -- पं. धन्यकुमार भोरे,
प्रकाशक -- म. ज्ञा, सं. कारंजा, तिथि -- १६६८, भाषा -- मराठी। २४. नन्थ -- समयसार प्रवचन, टीकाकार -- पण्डित गणेश प्रसाद वर्णी,
प्रकाशक - वी . मा. बनारस, तिथि - ईस्वी १६६६, भाषा --
हिन्दी। २५. समयसार वैभव, टोकाकार -- पं० नाथूराम गरीय, प्रकाशक ..
ज. प. प्र. का. इन्दौर, तिथि -- ईस्वी १६७०, भाषा - हिन्दो । २६. सन्थ -- समयसार (दो नेचर अॉफ दी सेल्फ), टीकाकार -
ए० चक्रवर्ती, प्रकाशक -- भा ज्ञा० पी० बनारस, तिथि - ईस्वी १६७१, भाषा - अंग्रजी।
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२८२ ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
२७. ग्रन्थ -- समयसार वैभव, टीकाकार - पण्डित नाथूराम डोंगरीय,
प्रकाशक -- जै० घ० प्र० का. इन्दौर, तिथि -- ईस्वी १९७१, ___ . भाषा - हिन्दी। २८, अन्य -- समयसार आत्मख्याति, टीकाकार - पण्डित मनोहर लाल,
प्रकाशक -- सा. वि. दि.जै. सं. महावीरजी, तिथि - ईस्वी १६७६,
भाषा - हिन्दो/१००० । २६. ग्रन्थ -- समयसार, टीकाकार -- पं. पन्नालाल, प्रकाशक"....... ... ...
तिथि -- ईस्वी १६७४, भाषा -- हिन्दी। ३०, ग्रन्थ -- समयमार टीका (सप्तदशांगी टीका), टीकाकार -
सहजानन्द जमी, प्रकाश - भा. ज.जे. सी. म. मुजफ्फरनगर, तिथि -- ईस्वी १६७७, भाषा -- हिन्दी/११००
तस्वप्रवीपिका वृत्ति परिचय -
टीकाओं के अन्तर्गत प्राचार्य अमृतचन्द्र कृत द्वितीय आलोच्य कृति "तत्त्व प्रदीपिका वृत्ति'' नामक संस्कृत गद्य टीका है। यह भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत "एवयणसारु" (प्रबचनसार) नामक प्रौढ़, दार्शनिक तथा सैद्धांतिक रचना की अतिगहन, अतिप्रौढ़ तथा उच्चकोटि की गद्यकाव्य शैली में रचित अद्वितीय टोका है। इसका बहुप्रचलित नाम तत्त्वप्रदीपिका भी है । दोनों शब्दों में मात्र इतना अंतर है कि दीपिका का अर्थ है प्रकाशक और प्रदीपिका का अर्थ है उत्कृष्ट रूप
नोट:-जैन लिटरेचर सोसाइटी, नंदन द्वारा यात्मख्याति का यंग्रेजी अनुवाद
प्रकाशित होगा । (देखो, जैन हितैषी, संपादक नाथूराम, अंक १०, वी०
नि० सं० २४३६, पृष्ठ ४७८) १. प्रवचनसार, प्रगत चन्द्राचार्य कृत टीका - प्रकाशन १६६४ ई०, सोनगढ़ तथा
प्रवचनसार का अंग्रेजी अनुबाद, अनुवादयः - प्रो. ए.एन. उपाध्ये, प्रकाशन -
१९६४ ई., प्रानाम। २. (म) प्रवचनसार - अमत चन्द्र-जयसेनीटीका प्रयोपेतः - संपादक पण्डित
अजितप्रसाय. न. रतनचंद (वी० नि सं० २४६५) पृष्ठ ६५१ । (ब) सीकर महाबीर और उनकी प्राचार्य परम्परा-भाग २, पृष्ठ ४१६ । (स) प्रवचनसार अंग्रेजी अनुवाद तत्त्वप्रदीपिका गति, अनुवादक -- प्रो. वारंट फहेगा -- प्रकाशन केम्ब्रिज विश्वविद्यालय लंदन, १९३५ ईस्वी, मुख पृष्ठ ।
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कृतियाँ ]
[ २८३
से प्रकाशक । प्रवचनसार की टीका की प्रौढ़ता, प्रांबलता तथा निरूपण शैली देख कर "दीपिका" के स्थान पर प्रदीपिका शब्द का प्रयोग अधिक सार्थक, स्वाभाविक तथा समुचित प्रतीत होता है । टीकाकार ने मंगलाचरण में "प्रकटिततत्त्वा प्रवचनसारस्य वृत्ति' लिखा है तथा टीका के अन्त में "इतिगदितमनीचस्तत्त्वं' अर्थात् इस प्रकार अमंदतथा-प्रकर्षरूप से तत्त्व निरूपित किया है - इत्यादि उल्लेखों से भी तत्वप्रदीपिकावृत्तिः शब्द की सार्थकता स्पष्ट होती है। दूसरे -- मूलग्रन्थ के नाम में "प्र" उप. खर्ग प्रयुक्त होकर प्रवचनसार पद का प्रयोग हुअा हैं, तदनुरूप टोका भी "प्र" उपसर्ग यक्त "दीपिका" होना अर्थात् "प्रदीपिका" पद उपयुक्त प्रतीत होता है । ६० केलाशनन्द्र शास्त्री ने प्रवचनसार की टीका का नाम "तत्त्वदीपिका" तथा पंचास्तिकाय की टीका का नाम "तत्त्वप्रदीपिका" लिखा है । उक्त उल्लेख विचारणीय है ।
प्रवचनमार में उसके नामानुसार प्रवचन का सार अर्थात् जिनेन्द्र को दिव्यध्वनि का सार संगृहीत है । समयसार में शुद्धात्मदर्शन प्रधान निरूपण है तथा प्रवचनसार में ज्ञान प्रधान कथन है। इस टोका में अमृतचन्द्र की दार्शनिक प्रौढ़ना, सैद्धांतिक विद्वत्ता, विलक्षण तर्क शक्ति, गम्भीर तत्वज्ञान तथा अध्यात्म रसिकता के दर्शन होते हैं। समग्र टीका में प्रमुतत्रन्द्र के प्रकाण्ड पाण्डित्य तथा समासबहुल प्रौढ़, गम्भीर व ललित गद्य शैली की अनुपम छटा के दर्शन होते हैं । टीकाकार ने अपनी कृति का लक्ष्य स्पष्टतः घोषित करते हुये लिखा है कि परमानंद रूपी सूचारस के पिपासु भव्यजनों के कल्याणार्थ, तत्व को प्रकट करने वाली टीका रची जा रही है। टीकाकार ने निर्वाण प्राप्ति का साक्षात् कारणरूप वीतराग चारित्र की प्राप्ति की भावना प्रगट की है। समग्र कृति अमृतचन्द्र के ज्ञान वैभव से अनुप्राणित तथा नय, प्रमाण, अकाटय यक्तियों तथा अनभूत उदाहरणों से सुसज्जित है । यद्यपि संपूर्ण टीका सालंकृत संस्कृत मद्य शैली में है तथापि कहीं-कहीं अमृप्तचन्द्र का कवित्व
१. प्रवनगार, नत्वप्रदीपिका वृत्ति, पद्य नं। ३ २. वही, पद्य - २१ ३. जैन साहित्य का इतिहाग, भाग द्वितीय, पाष्ठ १७३ । ४. परमानंदसुधारन पिसिनानां हिताय भव्यानाम् ।
भियत प्रवटिततत्त्वा प्रवचनमारस्व वृत्तिरिया ॥(प्रवचनसार टीका, पद्य ३)
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२८४ ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व रूप सहज ही प्रस्फुटित हो उठा है, इसलिए समस्त कृति में २१ पद यथास्थान, स्वाभाविक रूप से प्रादुर्भूत हुये हैं । प्रवचनसार मूल तथा उसकी उक्त वृत्ति के अनुशीलनवाल होता है कि मूगापागाने उनकी टीका कहीं अधिक क्लिष्ट प्रतीत होती है, किन्तु मूलगाथाओं में निहित भावों की गम्भीरता तथा विशदता का जैसा ज्ञान तत्त्वप्नदीपिकावृत्ति में उपलब्ध है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।
उक्त ग्रन्थ पर हिन्दी, अंग्रेजी, गुजरातो, मराठो, संस्कृत, कन्नड़, तमिल प्रादि भाषाओं में गद्य तथा पद्य में अनेक टोकाएं, अनुवाद तथा प्रकाशन निकल चुके हैं । सम्पूर्ण भारतवर्ष के कोने-कोने में, जिन-मंदिर तथा शास्त्रभण्डारों में इसकी प्रतियां उपलब्ध होती हैं । पाकिस्तान के मुलतान शहर से इस ग्रन्थ की कई हस्तलिखित प्रतिलिपियां जयपुर लाई गयीं थीं। अफीका, लंदन, अमेरिका आदि विदेशों तक में उक्त कृति का समादर एवं प्रचार हुआ है । केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर वारेण्ड फहेगां ने प्रवचनसार तथा उसकी तत्त्वप्रदीपिका वृत्ति का अंग्रेजी भाषान्तरण करके केम्ब्रिज विश्व विद्यालय प्रेस, लंदन से एक संस्करण प्रकाशित कराया था। डॉ. ए. एन. उपाध्ये द्वारा लिखित प्रवचनसार की विस्तृत अंग्रेजी प्रस्तावना का विभिन्न विश्वविद्यालयों में सम्मान किया गया था। बम्बई विश्वविद्यालय में एम० ए० के पाठ्यक्रम में उक्त ग्रन्थ को निर्धारित किया गया था । आज भी उक्त अन्य की हस्तलिखित, ताड़पत्रीय तथा मुद्रित तीनों प्रकार की प्रतियां उपलब्ध हैं। नामकरण -
___ "तत्वप्रदीपिकावृति' के नामकरण के संबंध में कुछ प्रकाश ऊपर डाला जा चुका है । अमृतचन्द्र के पश्चात्वर्ती आचार्य पद्मप्रभमलधारीदेव ने उक्त टीका का उल्लेख "प्रवचनसारव्याख्या'' नाम से किया है। टीकाकार ने स्वयं प्रारम्भ में "प्रकटिततत्त्वा प्रवचनसारवृत्तिः" लिखा है, संभवतः इन्हीं शब्दों पर से उक्त टीका का नाम तत्त्वप्रदीपिकावृत्तिः अथवा तत्त्वदीपिका नाम चल पड़ा है। प्रोफेसर बारेण्ड फडंगां ने इसे "लेम्प ऑफ ट्र. थ" या "तत्त्वप्रदो पिका" या "इल्युमीनेटर प्रॉफ थ"२
१. नियमसार, तात्पर्यवृतिः, गाथा १२३ की टीका - "तथा चोबत प्रवचनसार
व्याख्यायाम्। २, Pravachanasari ol Kundakunda with the CouTumentary "Taluva Dipiks"
B. Foddegon.C.P. II (Lamp of Truth or 'Tillya Pipiku or Illuminator or 'I ruti).
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कृतियां ]
।
२५५
शब्दों का प्रयोग किया है। इस प्रकार का नामकरण समग्र कृति का सार, स्थितिप्रकाशक, सार्थक एवं समुचित है । उभय नामों - "तत्त्वदीपिका" तथा तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति" का प्रयोग प्रारम्भ से होता रहा है हिरी तत्त्वाटोपिकावुनि नाम अधिक उपयुक्त प्रतोत होता है । टीका कर्तृत्व -
आत्मख्याति की भांति तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति के रचयिता के सम्बन्ध आज तक किसी भी बिद्वान् को विप्रतिपत्ति नहीं हुई। सभी ने एकमतेन उक्त टीका को अमृत चन्द्र कृत ही निरूपित किया है।
इस टीका के अन्त में भी टीकाकार प्रवचनसार की टीका का कर्तृत्व स्वयं स्वीकार नहीं करते हैं क्योंकि कर्तत्व का विकल्प भी मोह भाव होने से परमार्थ से उक्त विकल्प हितकारी नहीं है। वे लिखते हैं कि उक्त टीका के कर्ता अमृतचन्द्र नहीं हैं, अमृतचन्द्र को उसका कर्ता (व्याख्याता) मानकर मोह से मत नाचो । विशुद्धज्ञान की कला तथा स्याद्वादविद्या के बल से एक, सकल, शाश्वत, याकुलतारहित निजात्मा को ही प्राप्तकर आत्मानन्द में नाचो ।'
प्रत्येक अध्याय के अन्त में "इति प्रवचनसारवृत्तौ तत्त्वदीपिकायां श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापनो नाम प्रथमः श्रुतस्कंधः समाप्तः" इत्यादि उल्लेख मिलता है।
इस तरह उक्त टीका भी आचार्य अमृतचन्द्र को ही रचना प्रमाणित है। प्रामाणिकता -
आचार्य कुन्दकुन्द की रचनाओं में निहित तत्वों तथा भावों को आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मसात् करके ही उन पर टीकाओं को रचना को है अत: उन टीकाओं की प्रामाणिकता मूल ग्रन्थ से किसी प्रकार कम नहीं है । यदि आचार्य कुन्दकुन्द की वाणी में दियध्वनि का सार निहित है तो अाचार्य कुन्दकुन्द के टीकाकार अमृतचन्द्र की टीकाओं में कुन्दकुन्द के ग्रंथगतसार का ही विस्तार है, अतः उनकी कृतियों की प्रामाणिकता
१. व्यास्येयं विल विश्वमात्मसाहत व्याख्या तु गुम्फे गिरां ।
व्याख्यातामृतचन्द्रमुरिरिति मा मोहाज्जनो बलातु । वलगत्वद्य विशुद्धबोधकलया स्याद्वादविद्यामलात, लब्धर्वक सकलात्मशाश्यतमिद स्वं तत्वमव्याकुलः ॥
(तत्त्वप्रदीपिकावृत्तिः पद्य नं० २०
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२८६ ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्त्व एवं कातृत्व
निर्विवाद है। जैनतत्त्वज्ञान की परम्परा में यद्यपि अनेक प्रामाणिक आचार्य हुये हैं तथापि अमृतचन्द्राचार्य उनके टीकाकारों में अग्रणी हैं। तत्त्वप्रदीपिका टीका प्रवचममा र सत्कृिष्टया मालाही हाक है। प्रवचनसार पर शताधिक आचार्यों एवं विद्वानों ने टीकायें रची परन्तु वे सभी टीकायें तत्त्वप्नदीपिका के बाद ही परिगणित होती हैं । वे सभी टीकायें किसी न किसी रूप में प्राचार्य अमृतचन्द्र की टीका से प्रभावित तथा अनुप्राणित अवश्य हैं । जैनतत्त्वज्ञान तथा सिद्धांतों के पूर्ण अधिकारी एवं गम्भीर झाला होने से आचार्य अमृतवन्द्र परमप्रामाणिक आचार्यों में से हैं, अत: उनकी टीकाओं की प्रामाणिजाता भी सहज सिद्ध है । परवर्ती विद्वानों ने अपनी कृतियों में अमृतचन्द्र की तत्त्वप्रदीपिका के प्रमाण प्रस्तुत किए हैं । विषय वस्तु -
सम्पूर्ण ग्रंथ मुख्यत: तीन विभागों में विभाजित है । प्रथम में ज्ञानतत्त्व, द्वितीय में ज्ञेयतत्व तथा तृतीय में चरणानुयोग सूचक चूलिका का प्रज्ञापन किया गया है। ये तीनों विभाग अपने आप में उपशीर्षकों में भी विभाजित हैं, जो इस प्रकार हैं ।
प्रथम बिभाग ज्ञान तत्त्व-प्रज्ञापन, शुद्धोपयोग, ज्ञान, सुख तथा शुभपरिणाम नामक चार उपशीर्षकों में विभाजित है।
द्वितीय विभाग ज्ञयतत्त्व-प्रज्ञापन, द्रव्यसामान्य, द्रव्यविशेष तथा ज्ञानज्ञेय प्रकरणों में विभक्त है। तुतीय विभाग चरणानयोगसूचक चूलिका के अंतर्गत आचरण प्रजापन, मोक्षमार्ग-प्रज्ञापन, शुभोपयोग-प्रज्ञापन तथा पंचरत्न-प्रज्ञापन - ये चार प्रकरण हैं । अंत में एक परिशिष्ट द्वारा ४७ नयों के माध्यम से आत्मद्रव्य का कथन किया है । यहाँ प्रत्येक विभाग में वर्णित विषयवस्तु का संक्षेप में परिचय कराया गया है । १. ज्ञानतस्व प्रशापन -
उक्त विभाग का आरम्भ मंगलाचरण पूर्वक किया गया है। इसमें ज्ञानानंदमयी परमात्मा को नमस्कार करके, अनेकांतमय ज्ञान की स्तुति की लथा ग्रन्थ की टीका करने का प्रयोजन परमानंद सुधारस के पिपासु भव्यजनों का कल्याण करना बताया है। प्रथम वीतराग चारित्र को सपादेय तथा स राग चारित्र को हेय सिद्ध किया। चारित्र का स्वरूप, आत्मा और चारित्र की एकता तथा आत्मा के शुभ-अशभ तथा शुद्ध परिणामों
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कृतियाँ ।
[ २८७
का उल्लेख तथा फल निरूपण किया।' इतना कथन पीठिका रूप में किया । पश्चात उपशीर्षक के रूप में अधिकारों में प्रथम शद्धोपयोग अधिकार प्रारम्भ किया है।
इसमें शुद्धोपयोग के फल की प्रशंसा, शद्धीपयोग परिणत आत्मा का स्वरूप तथा उससे होने वाली भावशुद्धि की प्रशंसा का निरूपण किया गया है। पश्चात् शद्धोपयोग से शद्वात्मस्वभाव की प्राप्ति बताकर "स्वयंभू" भगवान बनने हेतु अन्य कारकांतरों की अपेक्षा का निषेध किया है । षट्कारक पत्र निजात्मा में ही घटिन होते हैं । यथार्थ में परद्रव्यों के साथ आत्मा का कारक सम्बन्ध नहीं है । इसलिए शुद्धात्मस्वभाव की प्राप्ति के लिये आत्मा को सामग्री (बाह्यसाधन-बाह्यनिमित) खोजने में परतंत्र होने की आवश्यकता नहीं है। आग शुखात्मस्वभाव सम्पन्न स्वयंभू के अविनाशीपने तथा कथंचित् उत्पाद व्यय-ध्रौव्यपने को सिद्ध किया है । आत्मा को इन्द्रियों के बिना भी ज्ञान और आनन्द होता है। यह आनन्द अतीन्द्रिय होता है । उसमें शारीरिक सुख दुखादि नहीं होते। यहां शुद्धोपयोगाधिकार समाप्त होता है।
इसके बाद ज्ञानाधिकार प्रारंभ होता है, जिसमें क्रमशः अतीन्द्रिय ज्ञानरूप परिणत केवली भगवान को सर्वद्रव्यक्षेत्रादि प्रत्यक्ष है, कुछ भी परोक्ष नहीं है. ऐसा निरूपण किया गया है। आत्मा को ज्ञानप्रमाण तथा ज्ञान को ज्ञेय प्रमाण कहा गया है । ज्ञेय में लोकालोक गर्मित है अत: माम सर्वगत-सर्वव्यापक है । आत्मा को ज्ञान प्रमाण न मानने वालों के मतं में दुषण बताते हुए लिखा है कि पार्टी को ज्ञानप्रमाण न मानने से आत्मा को ज्ञानहोन मानना पड़ेगा तथा ज्ञान को अचेतन मानना होगा और यदि आत्मा ज्ञान से अधिक माना जायेगा तो वह ज्ञान के बिना कसे जानेगा? इस प्रकार प्रात्मा का ज्ञान को भांति सर्वंगतत्व न्याय से सिद्ध होता है । आत्मा और ज्ञान में समवाय सम्बन्ध स्वभार सिद्ध है, अत: दोनों में एकत्व है परन्तु ज्ञान की भांति आत्मा में अनन्त गुण हैं, वे परस्पर भिन्न लक्षण वाले हैं, अत: आत्मा और ज्ञान में कथचित् अन्यत्वं भी है । ज्ञान और ज्ञेय एक दूसरे में प्रविष्ट नहीं होते । जिस प्रकार चक्ष रूप को जानता है परन्तु रूप में प्रविष्ट नहीं होता, उसी प्रकार ज्ञान
१. प्रवचनसार, गाथा १ से ११ तक दीका । २. प्रवचनसार, तत्त्वादीपिकाति, गाथा १२ से १६ ताः । ३, वही, गाथा १७ से २० तक।
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२८८ ]
| आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व ज्ञयों को जानता है, उनमें प्रविष्ट नहीं होता । ज्ञान पदार्थ में प्रवृत्त होता है तथा पदार्थ ज्ञान में वर्तते हैं । यह प्रवृत्ति होने पर भी आत्मा पर द्रव्य का ग्रहण ल्याग नहीं करता।' जो वास्तव में युतशान के द्वारा ज्ञायरस्वभावी आत्मा को जानता है, वह श्रुतकेवली नहलाता है । ज्ञान और श्रुत में अभेदपना है । आत्मा ज्ञानक्रिया वार्ता तथा ज्ञान उसका करण है। आगे ज्ञान तथा ज्ञेय का स्वरूप दिखलाते हुए द्रव्यों की प्रतीत, अनागत पर्यायें भी तात्कालिनः पर्यायों की भांति पथक, रूप से ज्ञान में वर्तती हैं। इसकी सिद्धि की है। प्रागे अविद्यमान पर्यायों का कथंचित विद्यमानपना तथा अविद्यमान पर्यायों को ज्ञानप्रत्यक्षता सिद्ध की गई है। इन्द्रिय ज्ञान में होना तथा अतः - नाना संभव नहीं है । ज्ञेयार्थ परिणमनरूप क्रिया ज्ञान में से नहीं होती । वह क्रिया वर्मोदय के काल में अज्ञानी द्वारा स्वयं ही मोह रागद्वेषादि रूप परिणमित होने से, अज्ञानी के होती है, वह उस क्रियाफल का भोक्ता भी है । आगे दृष्टांत पूर्वक लिखते हैं कि जिस प्रकार योग्यता का सद्भाव होने पर स्रियों में अनायास मायाचार युक्त प्रवृत्ति देखी जाती है, उसी प्रकार केवली भगवान के बिना प्रयास ही खड़े रहना, बैठना, विहार आदि क्रियाय स्वयमेव होती हैं, वे क्रियायें बन्ध साधक नहीं होती। यहां यह भी स्पष्ट कहा है कि केवली भगवान की तरह समस्त संसारी जीवों के स्वभाव घात का प्रभाव नहीं है अपितु संसारी जोवों में कथंचित् स्वभाव का विघात विद्यमान है। अर्हतों का पुण्योदय स्वभाव घात नहीं करता अतः अकि चित्कर है। इसीलिए उदयापेक्षा उनकी क्रियायें औदयिकी कही जाती हैं परन्तु मोहादिरहित होने से क्षायिकी भी कहलाती हैं । अतीन्द्रिय ज्ञान सबको जानता है । जो सबको नहीं जानता वह एक को भी नहीं जानता । जो एक को नहीं जानता, वह सबको नहीं जानता । साथ ही क्रम से प्रवर्तमान ज्ञान सर्वगत सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिए युगपत् प्रवृत्ति मानने पर ही ज्ञान का सर्वगतत्व सिद्ध होता है। अन्त में केवलज्ञानी के ज्ञप्ति क्रिया का सद्भाव होने पर भी बंधक्रिया का अभाव सिद्ध किया गया है ।
१, प्रवचनकार, न त्वदीपिकावति, गाथा २१ से ३२ तक २. वही, गाथा ३३ से ३७ तयः । ३. वहीं, गाथा ३८ से ४४ तक । ४. वहीं, गाथा ४५ से ५२ तक ।
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कृतियाँ ।
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यहां से सुख अधिकार प्रारंभ होता है। इसमें प्रारंभ में ज्ञान और सूख की अभिन्नता, अतीन्द्रिय ज्ञान की प्रधानता व उपादेयता और इंद्रियज्ञान की पराधीनता व हेयपना दिखलाया है । अतीन्द्रिय सुख का साधनभूत ज्ञान उपादेय है, तथा इन्द्रियज्ञान इन्द्रिय सुख का साधक होने से हेय तथा निन्दनीय है। इन्द्रिय ज्ञान विषयों में युगात नहीं प्रवर्तता, वह प्रत्यक्ष भी नहीं होता, परोक्ष होता है । इन्द्रियों स्वयं पर हैं, उनके आश्रय से होने वाला ज्ञान राक्ष ज्ञान है। प्रत्यक्ष ज्ञान प्रात्माधित तथा सुख रूप है। केवलज्ञान को एकांततः सुखरूप न मानने का वण्डन तथा उसकी सुखस्वरूपता का मण्डन करते हुए केवलियों के ही परमार्थ सुख होता है इसका श्रद्धान कराया है। आगे इन्द्रिय सूख को दुखरूप तथा आत्मसुख के लिए शरीर सुख का खण्डन किया है । वैक्रियक शरीर भी मुख का कारण नहीं है । आत्मा स्वयं सुत्र शक्ति संपन्न है अतः उसे विषय सुख अकार्यकारी है । अन्त में आत्मा का मुखस्वभाव दृष्टांतों द्वारा दृढ़ किया गया है।
प्रथम विभाग का अन्तिम अधिकार शुभ परिणाम अधिकार है। इसमें इन्द्रिय सुख के साधनों का विचार किया है ।सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की पूजा, दान, शील तथा उनवासादि में प्रवृत्त आत्मा शभोपयोगी है। शुभोपयोगी पारमा इन्द्रिय सुख को प्राप्त ज. रता है। वास्तव में इन्द्रिय सुख दुःखरूप ही है । इन्द्रिय सुख भृगुप्रपातउच्चपर्वतशिखर से पतित होने के समान है। इन्द्रिय मुख का जनक पुण्प है और उस पुण्य का माधक शुभोपयोग है, वह देवादिक त्री विभूति का कारण है तथा अशुभोपयोग नरकादि गतियों के दुःख का कारण है, परन्तु दोनो में आत्मीक मुख का अभाव होने के कारण दोनों समान हैं। दोनों में अन्तर नहीं है। शुभोपयोग जन्य पुण्य भी आगामी दुःखों का बीज होने से हेय है। पुण्योदय में तृष्णाबीज दुःख वृक्षरूप में वृद्धि को ही प्राप्त होता है। पुण्य भी सुखाभास रूप दुःख का ही साधन है । इन्द्रिय सूख पराधीन, बाधासहित, विनाशीक तथा बन्ध का कारण व विषम है अतः दुःख ही है । इसलिए जो जीव पुग्ण तथा पाप में अन्तर मानते हैं वे घोर अपार संसार में ही परिभ्रमण करते हैं। अत: शुभ और अशुभ उपयोग में विशेषता
१. प्रवचननार, तत्वप्रदीपिका बत्ति, गाथा ५३ में ६३ तबः । २. वही, गाथा ६४ से ६० तक। ३. वही, माथा ६६ से ७७ नक ।
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२६० ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व न मानकर दुःखक्षय के कारणभूत शुद्धोपयोग ही शरणभूत मानना चाहिए। मोह सेना को जीतने का उपाय बताते हुए लिखा है कि जो अर्हन्त को द्रव्य गुण तथा पर्याय से जानता है वह अपने प्रात्मा को भी जानता है, उसका मोह क्षय को प्राप्त होता है। प्रागे कहा कि शुद्धात्मानुभूति रूप चिंतामणि रत्न को पाकर उसे, प्रमादरूप चोर से बचाने हेतु जागत रहना चाहिए। यही समस्त अहंतों द्वारा अपनाया गया विधान है जिससे कर्मक्षय किया जाता है, सभी अहंतो ने उससे कर्मक्षय किया है अत: अन्य को भी उसका उपदेश दिया गया है। शुद्धात्मस्वभाव का लुटेरा मोह तीन प्रकार का है - मोह, राग तथा दुषरूप । उसको भलीभांति जानकर नाश करना चाहिए।' मोहनाश के उपायों में सबसे पहले आगम का सम्यक प्रकार अभ्यास करना चाहिए। जिनेन्द्र के शब्दब्रह्म में द्रव्य, गुण तथा उनकी पर्यायों को "अर्थ" कहा गया है। प्रात्मा भी गुण - पर्यायों रूप व्रव्य है। इस प्रकार जिनेन्द्र देव का उपदेश प्राप्त होने पर ही पुरुषार्थ कार्यकारी होता है। आगे, मोहक्षय का मुख्य कारण स्वपरविवेक (भेदविज्ञान) की प्राप्ति है अतः उसकी प्राप्ति का प्रयल करने का उपदेवा दिया गया है। उक्त स्वपरीववेक की सिद्धि आगम के अनुसार करना चाहिए । क्योंकि जिनेन्द्रोक्त अर्थो के श्रद्धान बिना धर्मलाभ नहीं हो सकता । अन्त में आगमकुशल, निहतमोहदृष्टि तथा वीतराग चारित्र में मारून महात्मा श्रमण ही साक्षात् धर्म है इस प्रकार उक्त अधिकार समाप्त होता है। साथ ही प्रथम विभाग जिसे प्रथम श्रुतस्कंघ कहा है, वह भी समाप्त होता है । २. झेपतत्त्वप्रज्ञापन --
इसमें प्रथम द्रव्यसामान्य अधिकार है जिसमें प्रारंभ में पदार्थों का सम्यक स्वरूप द्रव्य-गुण-पर्याय का निरूपण किया गया है। इसके अंतर्गत विस्तार सामान्य समुदाय एवं प्रायत सामान्यसमुदाय,
१. प्रवचनगार, तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति गाथा ७८ से ८५ तक । २. वही, गामा ८६ में ! २ तक । ३. विस्तार अर्थात् नौड़ाई । वहाँ सर्व गुणों में व्याप्त भ्य को विस्तार सामान्य
कहा है। ४. यामत अर्थात् लम्बाई। यहां कालापेक्षित कमभावी पर्यायों में व्याप्त द्रव्य
को आयत सामान्य कहा है।
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कृतियाँ |
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विस्तार विशेष' व आया विशेष का स्वरूप स्पष्ट किया है । पर्याय के द्रव्यपर्याय तथा गुणपर्याय दो हैं। यी दो प्रकार की कही गई है। प्रथम समानजातीय, जैसे पुद्गलस्कंध और द्वितीय असमानजातीय, जैसे मनुष्य देवादिपर्याय | गुणपर्याय भी दो प्रकार कही है; स्वभावरूप दथा विभावरूप । यहां प्रसंगोपात्त स्वसमय व परसमय की व्यवस्था भी दर्शाई है । पश्चात् क्रमशः द्रव्य का लक्षण तथा उसके सामान्य विशेषगुणों का उल्लेख, स्वरूप था सादृश्य दो प्रकार का अस्तित्व स्वरूप, द्रव्यों से द्रव्यांतर सथा सत्ता का अर्थान्तरत्व होने का खण्डन, उत्पाद व्यय भव्य रूप सत् द्रव्य का लक्षण, उत्पाद व्यय श्रीव्य का कथंचित् अविनाभाबीपना इत्यादि का अत्यंत गंभीर दार्शनिक सतर्क व सोदाहरण स्वरूप स्पष्टोकरण किया है। आगे उत्पादादि द्रव्य से भिन्न नहीं है, वे तीनों द्रव्यरूप है, उनका क्षणभेद ग्राह्य नहीं है इत्यादि का निरूपण है । द्रव्य के उत्पाद व्यय श्रव्य का अनेक तथा एक द्रव्यपर्याय के द्वारा विचार किया गया है। सत्ता और द्रव्य में द्रव्यांतर नहीं है, पृथकत्व तथा अन्यत्व का स्वरूप स्पष्टोकरण, अतद्भाव का स्वरूप, अतद्भाव का अर्थ सर्वथा अभाव नहीं है, सत्ता और द्रव्य में गुण गुणी भाव को सिद्धि, गुण गुणों में अनेकत्व का खण्डन, द्रव्य के सत् उत्पाद तथा पर्याय के असत् उत्पाद होने को सिद्धि सत् का उत्पाद अन्यत्व द्वारा सिद्ध किया जाना, असत् का उत्पाद अन्यत्व द्वारा सिद्ध किंवा जाना, एक ही द्रव्य के प्रत्यत्व सथा अनन्यत्व में भासित विरोध का परिहार किया जाना इत्यादि प्रकरणों पर गंभीरतापूर्वक विवेचन किया है । तत्पश्चात् समस्त विरोधों को दूर करने वाली सप्तभंगी कां स्वरूप दर्शाया गया है । सप्तभंगी के सान भग है । वे क्रमशः इस प्रकार है - स्यात् अस्ति, स्थात् नास्ति स्यात् रक्क्तव्य, स्यात् अस्ति नास्ति, स्यात् प्रस्ति अवक्तव्य स्यात् नास्ति वक्तव्य तथा स्यात् अस्ति अवक्तव्य | आगे मनुष्यादि पर्यायों को जीव की मोहयुक्त क्रिया के फल निरूपित किया गया है। मनुष्यादि पर्यायों में जीव के स्वभाव का कारण स्पष्ट करते हुए जावद्रव्य का द्रव्यापेक्षा अवस्थिति नवा पर्यायापेक्षा
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१. यहाँ द्रव्य में सहभावी रूप से रहने वाले गुण को विस्तार विशेष कहा है । २. यहां कालापेक्षित क्रमभावों द्रव्य से अभेद पर्याय की आयत विशेष कहा है। ३. प्रवचनसार, तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति गाथा २३ मे १०० तक |
४. प्रवजनसार तत्त्वप्रदीपिका वृत्ति गाथा १०२ से ११४ तक ।
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| आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व अनव स्थिति बतलाई गई है । जीव मो अनवस्थितपने या कारण बतलाया है तथा संसार में बध होने का कारण आदि भी स्पष्ट किया है। परमार्थ से आत्मा के द्रव्यकर्म का अकविना है। आत्मा जिस स्वरूप परिणमित होता है वह चेतना ही है जो तीन प्रकार की है ज्ञानचेतना, कर्मचेतना तथा कर्मफल चेतना । उक्त तीनों चेतनाओं का स्वरूप भी स्पष्ट किया गया है । अत में ज्ञयतत्व हाप ... उक्त ज्ञयत्व को प्राप्त प्रात्मा की शुद्धता के निश्चय से ज्ञानतत्व की सिद्धि होती है - उससे प्रात्मोपलब्धि होती है, उसका अभिनंदन करते हुए उक्त अधिकार समाप्त किया है।
इसी विभाग का द्वितीय अधिकार द्रव्य विशेष अधिकार है । इसमें द्रव्य के जीव तथा अजीबपने का निश्चय किया है । चेतना-उपयोगमय को जीव तथा पुद्गल च्यादि अचेतन द्रव्यों को अजीव कहा है। द्रव्य के लोक-अलोक का अंतर, क्रिया तथा मानवरूप से द्रव्य में विशेषता इत्यादि बातों पर विचार किया है। परिणाममात्र लक्षणवाला भाव है तथा परिस्पंदलक्षणवाली क्रिया है। जीव तथा पुद्गल में भाववी तथा क्रियावती शक्ति दोनों पाई जाती हैं। शेष द्रव्यों में केवल भाववी शक्ति होती है। गुणभेद के कारण द्रश्यवेद भी किया जाता है । मूतं अमूर्त का लक्षण करते हुए इन्द्रियगाय को मूर्त तथा अमूर्त द्रव्यों के गुण अमूर्त होते हैं - इस तरह निरूपण किया है। पुद्गलद्रव्य मूर्त है उसके गुण स्पर्श, रस, गंध तथा वर्ण है। विविध प्रकार के शब्द भी पुद्गल की हो पर्याय हैं। पर्याय का लक्षण अनित्यत्व है तथा गुण का लक्षण नित्यत्व है। अमूर्त द्रव्यों के गुणों का भी सविस्तार वर्णन किया है ।' आगे द्रव्य का प्रदेशवत्व रूप भेद भी दिखावा है । प्रदेशो-अनदेशी द्रव्यों का निवासी तथा अप्रदेशवत्व तथा प्रदेशवत्व-प्रप्रदेशवत्व का स्वरूप दर्शाया है। कालद्रव्य को अप्रदेशी (एक प्रदेशी) कहा है। कालद्रव्य के द्रव्य तथा पर्याय को स्पष्ट किया है। प्रकाश के प्रदेश का लक्षण लिख कर तिर्यक प्रचय तथा उर्ध्वप्रचय का स्वरूप भी निरूपित किया है। कालद्रव्य में उत्पाद-व्यय-नोव्यपने को सिद्धि, उसके प्रदेशमापना और अस्तित्व इत्यादि की सिद्धि करते हुए इस अधिकार का उपसंहार किया है।
१. प्रवचनसार, तन्वपदीपिकाति, गाथा ११५ से १२६ तक। २. वही, गाथा १२७ में १३४ तया । ३. वही, गाथा १२५ से १४४ तक ,
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कृतियो ।
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उक्त विभाग का ततीय अधिकार ज्ञान-ज्ञयविभाग अधिकार है। इसमें ज्ञान तथा ज्ञवमेंस बतातर -TE: निमम राम: तथा व्यवहार जीवत्व के हेतु का भी विचार किया है। जीव के इन्द्रिय, बल, आय तथा शसोच्छवास ये प्राण है। ये प्राण पूदगलमय हैं। पौदगलिक कर्मफलों को जीव प्राणों से ही भोगता हैं। प्राण पूदगलमय पुद्गल कर्मी के कारण भी है | पुद्गलप्राणों की प्रवाहपरंपरा का हेतु शारीरिक विषयों में ममत्व होता है । इस प्रवाहपरंपरा से निवृत्ति का का कारण उपयोगमयी आत्मा का ध्यान करना है। यहीं पर्यायों के भेद को स्पष्ट किया है। आत्मा को अत्यंत विभक्त करने के लिए परद्रव्य के संयोग का कारण शुभ-अशुभ रूप अशुद्धोपयोग बनाया है, शुभ तथा अशुभोपयोग का स्वरूप भी लिखा है । उभयप्रकार के अशद्धोपयोग को नाश करने हेतु अन्य द्रव्यों में मध्यस्थ होने का अभ्यास करना चाहिये । शरीर, मन तथा वाणी, रूप में नहीं है,उनका कारण, कता या कारयिता भी नहीं है अत: उनके प्रति भी मध्यस्थ होने का अभ्यास करना चाहिए। शरीर, मन तथा वाणी ये परद्रव्य हो हैं तथा प्रात्मा में परद्रव्या का प्रभाब होने से आत्मा के परद्रव्य का बर्तापना भी नहीं होता।' प्रागे परमाणु रूप परिणति कैसे होती है ? इसका स्पष्टोकसण करते हुए स्निग्धत्व तथा रुक्षत्व को उसका कारण बतलाया। साथ ही यह भी नियम बताया कि समान से दो अंश अधिक वाले परमाणों में ही बंध होना है। जघन्य (एक) अंश में बंध नहीं होता। स्निग्ध अथवा रूक्ष परमाणओं में दो और चार तीन और पांच अंशवाले परमाण ही बंधन को प्राप्त होते हैं । आत्मा के पुद्गल पिण्डों का कर्तायना नहीं है। वह पुद्गल पिण्डों को लाने वाला भी नहीं है। वह उन्हें कर्मरूप भी नहीं करता । अात्मा शरीर की क्रियानों का भी कर्ता नहीं है। आत्मा के शरीरत्व का अभाव ही है । पांचों प्रकार के शरीर पुदगलमय ही हैं। आगे जीव का असाधारण लक्षण चेतनागुण बताते हुए उसे रस, प, गंघ, व्यक्ति, शब्द तथा लिंगग्राह्यता आदि से रहित ही बताया है। आत्मा के स्निग्ध मक्षपने के अभाव में उसका बंध किस प्रकार संभव है ? इस कठिन बान को दृष्टांत द्वारा इतना मुगम बनाकर समझाया गया हैं कि आबालगोपाल भी उसे समझ सकता है। यहां भाव बंध १. प्रवचनसार, गत्त्वप्रदीपिका इति, गाथा १४५ ग १६४ नफ . २. वही, गाथा १६५ मे १७२ तक ।
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२६४ ।
। आचार्य अमतचना : न्यनिन्द्र एवं कतुंग्य
का स्वरूप तथा उसके निमित्त हेतुरूप द्रव्यवंध को भी समझाया है। उनमें परस्पर निमित्त नमितिका भाव दर्शाया है। यह भी कहा है कि रागी ही कर्मबंध करता है, रागरहित प्रात्मा कमों से मुक्त होता है । परिणामों के दो प्रकार हैं; परद्रव्य के प्रति प्रवर्तमान परिणाम तथा स्वदन्य में प्रवर्तमान परिणाम। प्रथम दुख के कारण है, दूसरे दुःख क्षय (मुख) के कारण है । अतः स्व में प्रवृत्ति तथा पर से निवृत्त के लिए स्व पर का भेद समझाया है । स्व-पर का भेदज्ञान ही स्व-प्रवृत्ति का निमत्ति है तथा उसका अज्ञान ही पर-प्रवृत्ति का कारण है।' आग आत्मा को अपने स्वभाव भावों का कर्ता तथा पुद्गल द्रव्यमय सर्व परभावों का अकर्ता लिखा है। परभाबों का कर्ता प्रात्मा इसलिए नहीं है क्योंकि उसके परद्रव्य का ग्रहणत्याग नहीं होता । संसारावस्था में पुद्गल परिणामों को निमित्तमात्र करके आत्मा को अशुद्ध परिणाम का कर्ता कहा । कर्मों में ज्ञानावरणादि रूम विचित्र परिणम न स्वयमेव अपनी अपनी योग्यता से होता है, जिस प्रकार नवीन मेघजल का भूमि से संयोग होने पर हरियाली, कुकरमुत्ता (छत्ता) और इन्द्रगोप (लाल कीड़े) स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त होते हैं, उनका कोई कर्ता नहीं है। अकेला प्रात्मा ही रागदि मुक्त होकर कर्मरज से सम्बद्ध होता हुआ बंध कहलाता हैं । आगे निश्चय-व्यवहार में अविरोध दर्शाते हुए। शुद्धद्रव्य निरूपक निश्चयनय साधकतम होने से ग्राह्य या उपादेय बताया है तथा व्यवहारनय हेव बताया है। अशढनय से अशद्धात्मा तथा शुद्धनय से शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है। ध्र व होने के कारण शुद्धात्मा ही प्राप्त करने योग्य है । अन व होने से आत्मा के सिवा अन्य समस्त पर पदार्थ प्राप्त करने योग्य नहीं है। सुद्धात्मा की प्राप्ति से मोहनन्धि का नाश होता है। मोहग्रन्थि के नाश होने से रागद्वेष का क्षय, श्रमणता की प्राप्ति तथा अनंत-अक्षय सुम्न की प्राप्ति होती है। मोह के नाश से, सहजचैतन्य स्वभाव का ध्यान होता है जो आत्मा में प्रशद्धता को आने से रोकता है । मोक्षय हो जाने के कारण केवलज्ञानी आत्मा समस्तज्ञ यों का ज्ञायक होता है, परन्तु उन तो किसी प्रकार की अभिलाषा-जिज्ञासा नहीं होती। वह केवलज्ञानी आत्मा निरंतर परमसुख का हो ध्यान
१. प्रपननसार, नत्वप्रदपिका वति, पाथा १३३ रो १-२ नमः । २. वहीं, गाथा १४ से १८८ नाक ।
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कृतियाँ ]
करता है।' शुद्धात्मा की उपलब्धि स्वरूप हो मोक्षमार्ग है. उसका स्वरूप दिखाया है। अंत में उपसंहार करते हुए आचार्य स्वयं साम्य नामक परमश्रमणता को प्राप्त करते हैं। टीकाकार ने यह सुचना भी दी है कि चरण (चारित्र) द्रव्यानुसार होता है तथा द्रव्य चरणानुसार होता है। दोनों परस्पर सापेक्ष हैं। इसलिए किसी का भी आश्रय लेकर मुमुक्षुओं को मोक्षमार्ग में प्रारोहण करना चाहिए। इस प्रकार ज्ञानजयविभाग अधिकार तथा द्वितीय श्रुतस्कंध रूप द्वितीय विभाग भी समाप्त होता है। ३. चरणानुयोग चूलिका -
अब अन्तिम विभाग प्रारंभ होता है जिसका नाम चरणानयोग सूचक चुलि का है। इसमें प्रथम पाचरण अधिकार पर प्रकाश डाला गया है। टीकाकार प्रारम्भ में लिखते हैं कि द्रव्य की सिद्धि में चरण की सिद्धि है और चरण की सिद्धि में द्रव्य की सिद्धि है। अतः ऐसा जानकर कर्मों से विरत दूसरों को भी द्रव्य के अनुकुल चारित्र धारण करना चाहिए । प्रथम जिनवरवृषमों ( अहतों) को नमस्कार तथा श्रमणों को प्रणाम करके श्रमण होने के लिए विधान निरूपित किया है । श्रमण बनने का इच्छक पहले बंधूवर्ग, माता-पिता, स्त्री, पुत्रादि से अपने को छड़ाता है। सभी की सम्मति लेने का अर्थ यह है कि यदि अन्य भव्य जीव अल्पसंसारी हो तो वह भी वैराग्य को प्राप्त करें। पश्चात् ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और बर्याचार इन पांचों को अंगीकार करके दीक्षागुरु के समक्ष प्रणत तथा अनुगृहीत होता है । फिर वह यथाजातरूप धारी - नग्नावस्था को प्राप्त होता है। २८ मूलगुणों का धारी होता है। इसे प्रमत्त दशा वाला श्रमण कहते हैं । वह छेदोपस्थापक भी कहलाता है । आगे प्रवज्यादायक गुरु वनिर्यापक गह आदि का लक्षण समझाया है । आगे संयमछेद के आयतनों का परिहार करने का उपदेश दिया है। छेद का स्वरूप स्रष्ट किया है । छेद के विभिन्न प्रकार भी दर्शाये हैं। प्रागे उत्सर्ग को ही वस्तूधर्म बताया है, अपवाद को नहीं । अपवाद के भेदों को समझाते हुए यह भी लिखा है कि
१. प्रवचन पार, तत्वप्रदीपि पति. गाथा १८६ से १६८ तक। ३. वही, गाथा १६६ से २०० तक । २. बही, गाथा २०१ से २०६ नाना ।
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| आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तुत्व
मुनियों के समस्त प्रकार के लोकव्यवहार नहीं होते । अन्त में युक्ताहारविहार का सविस्तार निरूपण किया है। उत्सर्ग तथा अपवाद मार्ग को मैत्री संस्थापित करके आचरण को सुस्थित बनाना चाहिए। उत्सर्ग सापेक्ष अपवाद मार्ग होता है । उपसंहार करते हुए टीकाकार ने सर्वप्रकार से निजद्रव्य में ही विपनि करने की प्रेरणा की है।
अंतिम विभाग का द्वितीय अधिकार मोक्षप्रज्ञापन हैं, उसका प्रतिपाद्य इस प्रकार है। श्रमण का प्रमुख कार्य प्रागमाभ्यास-आगमज्ञान है । आगमज्ञान बिना श्रमण मोक्ष का अधिकारी नहीं हो सकता । मोक्षमार्ग में चलने वाले के लिए आगम ही एकमात्र चक्षु है । मुनि को आगम चक्षु (आगम की आज्ञा का ज्ञाता) होना चाहिए। समस्त जगत के प्राणी इन्द्रिय चक्षु वाले होते हैं । देव अवधिचक्ष वाले तथा अर्हत-सिड सर्वतः चक्ष वाले होते हैं। प्रागम चक्षत्रों का ऐसा माहात्म्य है कि उनसे सब कुछ दिखाई देता है । आगम पक्षों को कुछ भी अज्ञात नहीं रहता । आगे कहा है कि प्रागमज्ञान, लत्पूर्वक तत्त्वार्थ श्रद्धान तथा उन दोनों पूर्वक संयम इन तीनों का युगपत् होना ही मोक्षमार्ग है। आगमज्ञान विना तत्व-श्रद्धान तथा श्रद्धान बिना संयम मोक्षमार्ग का विधायक नहीं होना। अज्ञानी लाखों करोड़ों भवों तक जो कर्म खपाता है, वह कर्म ज्ञानी त्रिमुप्ति द्वार। उच्छवासमात्र में खपा देता है। यहां आत्मज्ञान की सर्वश्रष्ठता सिद्ध करते हुए टीकाकार ने स्पष्ट लिखा है कि आत्मज्ञान शन्यसाधक के सर्व आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान तथा संयम की युगमतता भी अकिंचित्कर है । वे कुछ भी नहीं, कर सकते । अतः उक्त तोनों के साथ प्रात्मज्ञान का समवेतपना आवश्यक है। उपरोक्त आत्ममान सहित आगमज्ञान, तस्वश्रद्धान व संयम धारी की प्रवृत्ति शत्रु-मित्र, सुख-दुख, प्रशंसा-निंदा,सोना-मिट्टी तथा जीवन-मरण में समभावरूप होती है। ऐसा श्रमणाना ही मोक्ष का मार्ग है। जो मुनि एकमात्र आत्मा को प्रमुख करके एकाग्र नहीं होता तथा अन्य दव्यों का प्राश्रय करके अनेकान होता है, वह आत्मज्ञान भ्रष्ट होने से मुक्ति को नहीं पाता। इसलिए प्रात्मा की एकाग्रता हो मोक्षमार्ग है ।।
१. प्रवचनगार. सवदीपिकाव नि, गाथा २१० से २२६ तक । २. वही, माथा २२७ से २३५ तक । ३. वहीं, गाथा २३६ से २४० तक। ४. वहीं, गाथा २४२ से २४४ तक ।
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कृतियां ।
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अब उक्त विभाग का तृतीय प्रकरण शुभागयोग प्रज्ञायन अधिकार प्रारंभ होता है। यहां प्रथम ही शुभोपयोगी मुनियों को अप्रधान -- गौण सिद्ध किया है। कारण कि गुभोपयोगी प्रावधान है तथा शुद्धोपयोगी निरास्त्रव है। भोपयोगी श्रमणों की प्रगृति, पोपदेश, शिष्यग्रहण तथा उनके पोषण रूप और जिनेन्द्रपूजा की उपदेशक होती है । यद्यपि गुभोपयोगी की प्रवृति नेप ( कर्मबन्ध । का कारण होती है. तथापि अनेकांत से पवित्र हृदय वाले शुद्ध जैनों के प्रति तथा शुद्धात्मा के ज्ञानदर्शन में प्रवर्तमान प्रात्माओं के प्रति शुखात्मा के सिवा अन्य समस्त बातों की अपेक्षा किये बिना अनुकम्पा आदि शुभप्रवृत्ति करने का निषेध नहीं है 1 उक्त भूमिका में तथोक्त प्रवृत्ति बिना स्त्र-पर की शुद्धात्म परणति की रक्षा संभव नहीं है | शुभोपयोग गरूप प्रवृत्ति के लिए काल का नियम भी दिखाया गया है । शूभोपयोग यूक्त लौकिक जनों से बातचीत कब करना चाहिए, कब नहीं : इसका भी नियम दर्शाया है।' शुभोपयोग के कारणविपरीतता होने से फलविपरीतता भी सिद्ध की गई है । शुभोपयोग शुभबंध का कारण से मोक्ष का कारण नहीं है । शूभोपयोग धूक्त विषयकषायासक्त जनों की सेवा, उपकार या दान करने वाले जीवों को जो पुण्य की प्राप्ति होती है, उसका फल कुदेव तथा कुमानुष होला है।' कारण की विपरीतता से फल की अविपरीतता सिद्ध नहीं होती । प्रविपरीत फल का कारण अविपरीत कारणपना है । अतः ऐसे अविपरीत कारणों में ही प्रवृति बारना चाहिए। श्रमणों को अपनी अधिक गुणी श्रमणों के प्रति प्रत्युत्थान, ग्रहण, उपामन, पोषण, सत्कार, अंजलीकरण तथा प्रणामादि का निपंच नहीं है। प्राग श्रमणाभास का स्वरूप स्पष्ट करते हुए लिखा है कि भागमज्ञानी, संयमी, तपस्वी होने पर भी जिनोक्त विश्व के तत्त्वों का जो ज्ञाता नहीं होता तथा प्रात्मप्रधान पदार्थश्रद्धान नहीं करता, वह मुनि श्रमणाभास है। यहां यह भी कहा है कि जो जिनोक्त शासन में लीन यथार्थ श्रमण को देखकर इष करना है वह चारित्र को नष्ट करता है। जो श्रमण हीन चूण वाला होकर भी "मैं श्रमण हूँ' से अभिमानश अधिक गुणी बमण से अपनी विनय कराना चाहता है, दोनों प्रकार न अमण विनाश को प्राप्त होते हैं, वे
१. प्रवचनखार तानीपिकालि गाना - में ५४ तक । . I, गा। २४५ २१७ ... |
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| आचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व एवं कर्तृच
अनंत संसारी भी है ।" अब बतलाते हैं जो मुनि सूत्रज्ञाता, शांत परिणामी तथा तपस्वी भी है परन्तु वह यदि लौकिक जनों का संपर्क नहीं छोड़ता तो वह संयमी नहीं है। लौकिक का लक्षण स्पष्ट करते हुए बताया है कि जो निर्मन्थ दीक्षाबारी, संयमी, तपस्वी भी है परन्तु बह लौकिक कार्यों सहित प्रवर्तता है. वह मुनि भी लौकिक ही है । इस तरह यह अधिकार भी समाप्त हुआ ।
आगे उक्त विभाग के चतुर्थ प्रकरण पंचरत्न प्रज्ञापन अधिकार को प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम संसारतत्त्व का उद्घाटन किया है। वहाँ कहा हैं कि जो भले ही द्रव्यलिंग से नग्नरूपधारी हो परन्तु " बस्तुस्वरूप ऐसा ही है" ऐसा अस्खलित श्रद्धानी नहीं है, वह संसारतत्त्व है, वह आगामी पंचपरावर्तनों में परिभ्रमण करेगा । पुनः मोक्षतत्त्व का उद्घाटन करते हुए लिखा है कि जो यथार्थं तत्वश्रद्धानी होने से प्रशांतात्मा है, विपरीत आचरण से रहित है, ऐसा श्रमण संसार में अधिक काल तक नहीं रहता अर्थात् शीघ्र मोक्ष को पाता है । अब मोक्ष तत्त्व के साधनतत्त्व का भी अभिनंदन करते हैं कि शुद्धोपयोगी के ही श्रमणपना, दर्शन ज्ञान तथा निर्वाण होता है । उसी के सिद्धदशा प्रगटती है अतः शुद्धोपयोगी साधनतत्व है । अंत में शिष्य जन को शास्त्र के फल में लगाते हुए लिखा है कि जो साकार अनाकार चर्या से युक्त वर्तता हुआ प्रवचनसार के उपदेश को जानता है, वह अल्पकाल में ही प्रवचन के सारभूत भगवान् आत्मा को प्राप्त करना है । यहाँ तृतीय श्रुतस्कंध चरणानुयोग सूचित त्रुलिका समाप्त होती है ।
इस ग्रन्थ की टीका का वैशिष्ट्य यह भी है कि उक्त ग्रन्थ की टीका समाप्ति के पश्चात् टीकाकार ने एक परिशिष्ट जोड़ा है जिसमें "आत्मा कौन है ?" और "उसे कैसे प्राप्त किया जाता है ? इन दोनों का उत्तर साररूपेण पुनः देते हुए लिखा है कि आत्मा वास्तव में चैतन्य सामान्य से व्याप्त अनंतधर्मा का अधिष्ठाता है, एक द्रव्य रूप है । अनंतधर्मों में व्याप्त अनंत नात्मक भी है, तथापि वे अनंत धर्म एक शुतज्ञान से
१.
वहीं, गाथा २५ से २६७ तक
प्रवचनसार, तत्त्वप्रदीपिका गाथा २६ से २७० तक |
बही गाथा २७१ मे २७५ तक ।
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कृतियाँ |
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अभिव्याप्त है, अतः वह श्रुतज्ञान प्रमाण रूप है तथा स्वानुभव द्वारा प्रमेव है । उसे ४७ नयों द्वारा निरूपित किया है। उस आत्मा को स्यात्कार मुद्रा वाले जिनेन्द्र के शासन द्वारा प्राप्त करते हैं। उपसंहार में टीकाकार न नथ की व्याख्या करने का निषेध करते हुए लिखा है कि प्रवचनसार की इस व्याख्या का व्याख्याता अमृतचन्द्रसूरि को बताकर जगज्जनों मोह में मत नाचो । स्याद्वाद विद्या बल से विशुद्ध ज्ञान की कला द्वारा एक शाश्वतसमस्त स्वतत्त्व को प्राप्त करके श्रानंदरूप से नाचो । टीकाकार लिखते हैं कि चैतन्य स्वभाव की ऐसी महिमा है कि उसके समक्ष सारा वर्णव तुच्छता को प्राप्त होता है क्योंकि इस जगत् में एकमात्र चैतन्यतत्त्व ही परम श्रेष्ठ तत्व है, अन्य कुछ नहीं । इस प्रकार सम्पूर्ण तत्त्रप्रदीपिकावृत्ति का प्रतिपाद्य है । उक्त विषय पर गंभीय दार्शनिकों से था अमृतचन्द्र की विलक्षण युक्तियों, तर्कों, न्यायों, दृष्टान्तों, प्रौड़गद्यकाव्य शैलियों से मंडित है और अमृतचन्द्राचार्य के उच्चकोटि के दार्शनिक ज्ञान व व्यक्तित्व की परिचायक है।
पाठानुसंधान :
"तत्वप्रदीपिका टीका भी लात्त्विक, दार्शनिक तथा गंभीरनिरूपण की दृष्टि में सर्वोपरि एवं अप्रतिम है । " आत्मख्याति" टीका की भांति इसकी भी ताडपत्रीय, हप्तलिखित तथा मुद्रित प्रतियाँ बड़ी संख्या में उपलब्ध होती हैं। भारत के कोने-कोने में विद्यमान जैन शास्त्र भण्डारों में इसकी प्रतियाँ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं। इसके भी देश तथा विदेश में कई प्रकाशन एवं संस्करण निकल चुके हैं । वे संस्करण हिन्दी गुजराती, मराठी, कन्नड़, अंग्रेजी आदि विभिन्न भाषाओं में हैं। इसकी ताडपत्रीय एक प्रतिलिपि कन्नड भाषा में महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले के बाहुबलि कुम्भोज नामक स्थान में सरस्वती भण्डार में उपलब्ध है । इसकी कई मुद्रित प्रतियों के पाठों को तुलनात्मक दृष्टि से अवलोकन करने पर पाठभेद तथा मुद्रण विषयक त्रुटियाँ मिलती हैं। यहाँ मुद्रित प्रतियों में तुलना को जाती है। ये प्रतियाँ १६६४ ई. अगास (गुजरात), १९६४ ई. सोनगढ़ ( सौराष्ट्र), १६७० ई. महावीरजी (राजस्थान) तथा १६७५ ई भावनगर से प्रकाशित हैं । इनके संपादक क्रमशः प्रोफेसर ए.एन. उपाध्ये, पं. हिम्मतलाल जे. शाह, पं. अजितकुमार शास्त्री व रतनचन्द्र मुख्तार तथा पं. हिम्मतलाल जे. शाह हैं । तुलनात्मक पाठभेद के उदाहरण इस प्रकार है -
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। प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृव ग्रा, कं. अगास प्रति सोनगढ़ प्रति, महावीरजी प्रति, भावनगर प्रति २ एष
एष एष: ३ तीर्थनायकः तीर्थनायकैः तीथनायकः तीर्थनायक:
टीका है टीका है टीका मुद्रित नहीं टीका हैं १० मविरोधाच्च मविरोधोच्च मविरोधाच्च मविरोधाच्च १३ प्रार्थनीयम प्रार्थनीयम प्राथनीयम् प्रार्थनीयम १५ बिम्भितं विज़म्भित विचम्भित विजृम्भित २२ क्षयक्षण एव क्षयक्षण एव क्षयक्षागे एव क्षयक्षण एव २२ बलाधान बलाधान बलाधान बलाधान
इसप्रकार तुलनात्मक विवरण में स्पष्ट होता है कि अगास, सोनगढ़ तथा भावनगर की प्रतियों के पाठ शुद्धरूप से मुद्रित हैं तथा महावीरजी की प्रति का पाठ शुद्ध रूप से मुद्रित नहीं है । परम्परा :
तत्त्वप्रदीपिका का में द्रश्य पहा विष: श्री संतांतिक निरूपण है । इसमें ज्ञानतत्व झंयतत्व तथा चरणानुयोग का मामिक स्पष्टीकरण हुया है तथा स्वात्मोपलब्धि का श्रेष्ठ मार्ग प्रदशित किया गया है। इसमें भी पूवाचार्य परम्परा में निरूपित सिद्धांतों का सम्पोषण एवं व्यापक स्पष्टीकरण हुआ है । दार्शनिकता का उत्कर्ष, प्रौढ़ता का परिपाक तथा पाण्डित्य का प्रदर्शन, तीनों युगपत् प्रकट हुए हैं। तत्त्वप्रदीपिका का व्यापक प्रचार प्रसार तथा उसके आधार पर अनेक अन्य टीकाओं, भाष्यों आदि की विपुलमात्रा में रचना एवं प्रकाशन आचार्य अमृतचन्द्र की कृति को महानता के द्योतक हैं । प्राचार्य कुन्दशुल्द द्वारा प्रतिपादित दार्शनिक सिद्धान्तों की परम्परा का पूर्णतः निर्वाह हुआ है । प्राचार्य अमृतचन्द्र ने अपने पूर्व की हजार वर्षीय परम्परा को प्रदीप्त कर अपन पश्चातवर्ती नखकों एवं तत्वरसिकों की आगामी हजारों वर्षों की परम्परा को प्रकाशित किया है । निरूपण प्रणाली :
तुल्यप्रदीपिका में प्राचार्य अमृतचन्द्र ने प्रोड, दार्शनिक एवं ताकिक प्रणाली को अपनाया हं । समस्त निरूपण बुक्ति, तर्क. ग्राममप्रमाण तथा दृष्टातों से भक्ति है । न्यायली में अनुमान के अंग, प्रतिज्ञा, हनु, उदाहरण, उपनय तथा निगमन का विशेष प्रयोग किया है। सिद्धान्तों की सिद्धि, सयुक्तिका परमत खजन तथा रवमल मण्डन के साथ की है। इस टीका में
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कृतियाँ ।
अमृतचन्द्र ने साहित्यिक निरूपण गलियों के प्रौढ़तम प्रयोग किये हैं। अंन में स्वरूप मानता के साथ ही टीका की समाप्ति की है।
प्राचार्य अमृतचन्द्र ने अपनी अन्य टीकाकृनियों की भांति इस टीका में भी अंत में टीका के कांपने का निषेध किया है एवं स्वरूप मग्न होने की घोषणा की है । यह विशेगता मतबन्द की प्रायः सभी कृतियों में पाई जाती है । इमप्रकार इस कृति में भी प्राचार्य अमृतवन्द्र ने अपनी विप्रेष निरुपण प्रणाली की छाप छोड़ी है। ग्रन्थ वैशिष्ट्य :
उक्त ग्रन्थ के कुछ वैशिष्ट्य इसप्रकार हैं - १. अनेक लौकिक-अमोरिक निरूपण गलियों का प्रयोग है। २. भाषा प्रौढ, क्लिष्ट तथा दुर्गम है । ३. सैतालीस नयों द्वारा आत्मा के अनेत्रांत स्वरूप की सिद्धि करना
अमृतचन्द्र की एक अपनी ही विणेषता है। ऐसा निरूपण अन्यत्र
दुर्लभ है। ४. सर्वत्र समासबहल, प्रचार प्रचर तथा विस्मयोत्पादक विचारधारा
प्रवाहित हाई है। सिद्धांत-निरूपण में निर्भीकता एवं दृढता का परिचय प्राप्त होता है। चारित्र के सम्बन्ध में वे स्पाद घोषणा करते हैं कि मरागचान्त्रि अनिष्ट फलवाला, पायबंध प्राप्ति का हेतु. देवेन्द्र प्रसुरेन्द्र-नरेन्द्र के वैभवरूप कलेश तथा बंध का कारण है, अतः हेय है और वीतगा चारित्र इण्टफन्सवाला. मोक्षशाप्ति का हेतु, सर्वक्लेशरहित मोक्ष का कारण है, अतः उपादेय है । यह अमृतचन्द्र को सैद्धांतिक दृढ़ता तथा निर्भीक घोषणा है, जो अपने माप में एक विशेषता है। इसीप्रकार भोपयोग को विरोधी शक्ति महिल, स्वकार्य करने में असमर्थ तथा गरम घी की भांति जलन पैदा करने वाला होने से य कहा और गृहोपयोग की विरोधी शक्ति रहित, स्वकार्य करते हों समर्थ, निर 'कूल सुत्र पैदा करने वाला होने से उपाय बताया । उन्होंने अगुभोपयोग को अत्यन्त हेय, शुभोपयोग को हेय तथा शुद्धोपयोग को एक मात्र उपादेय सिद्ध किया है।'
१. प्रजननपार, गावा ५-६ नोकर।। २. यही. मा ११--१२ ।
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३०२ । श्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व |
तत्वप्रदीपिका टोका तथा उससे अनुप्राणित टीकाए एवं टीकाकार
१. ई. ६५०, टीका नाम-तत्त्वप्रदीपिका, टीकाकार नाम - प्रा. अमृतचन्द्र, भाषा संस्कृत जानकारी, स्रोत - उपलब्ध |
२. ई. ६५० - १०६५, टी. प्रवचनसार सरोज भास्कर, टी. ना. - प्रा. प्र. क. मार्तण्ड - ६७, जं.
-
३.
प्रभाचन्द्र, भाषा संस्कृत, जा. त्रो. प्रा. इति. भाग २ पृ. २८४ | ई. १४२५, टी. - भाषाटीका, टी. ना. आ. मल्लिषेण, भाषा - तमिल, जा. स्रो. - जै. सि. को. ३३००, जै. सा. बृ. इ. ४ / १५० । ई. १२ १३ शती, टी. - भाषा टीका, टी. ना. सु. बालचन्द्र, भाषा कन्नड़, जा. स्रो. जे. सा. वृ. ३. ४/१५०
-
।
४.
-
9.
५.
ई. १२४३ - १३२३ टी. तात्पर्यवृत्ति, टी. ना. प्रा. जयसेन, भाषा संस्कृत, जा. स्रो - उपलब्ध ।
--
ई. १५६४ डी.
हिन्दी जा. प्रो.
·
६. ई. १५२०, टी. प्रवचनसार प्राभृतवृत्ति, टी. ना. न. रत्नदेव, भाषा - कन्नड़, जा. स्रो. जे. सा. व. इ. ४/२०१
—
Tм
-
-
-
प्रत्रचतसार दो टीना - पद्मंदिरगजी भाषाजे. सा. वृ. ई. ४:१५० |
31
८. ई. १६५२, टी. प्रवचनसार भाषाटीका, टी. ना. पं. हेमराज भाषा - हिन्दी जा. स्रो. जे. सि. को ४/५४४, जै. सा. वृ. इ. ४/१५० प्र. परमागम प्र. पू.
-
२. ई. १६७० टी. प्रवचनसार टीका, टी. ना.
स्रो. जे. सा. वृ इ. ४/२८८ १०. ई. १६७२. टी. प्रवचनसार भाषा टीका, टी. ना. पं. जोधराज गोदीका, भाषा - हिन्दी जा. स्रो. जे. सि. को २/३४५ ।
-
TA
-
-
प्रज्ञात, भाषा
११.
ई. १७५५ ६७ टी. प्रवचनसार छंद, टी. ना. - कविदेवीदयाल, भाषा हिन्दी पद्य, जा. स्रो. - जै. सि. को ३३३ १४६ । १२. ई. १७७१ टी. प्रवचनसार टी. ना. पं. देवीदास गोधा, भाषा हिन्दी जा. सो. - जं. इ. राज. पू. १५६ ।
१३. ई. १७९१-१४८ टी. प्रवचनसार परमागम, टीका ना. वृन्दावन, भाषा - हिन्दी-पय जा. स्रो. १४. ई. १६३५ टी. प्रवचनसार, टी. ना प्रो. ए. एन. उपाध्ये भाषा - अंग्रेजी. जा. सो. उप ।
उपलब्ध है ।
-
-
-
जा.
कवि
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कृतियाँ ।
१५. ई. १६७८, टी. - प्रवचनसार, टी. ना. - पं. धन्यकुमार भोरे,
भाषा -- मराठी, जा. स्रो. - उपलब्ध । ई. १६४० टो. - प्रवचनसार, टा. ना. -- पं. हिम्मतलास जे. शाह
भाषा -- गुजराती, जा. स्रो. -- उपलब्ध ! १७. ई.१.२५ टी. - श्री प्रवचनसार टीका, टी. ना. दा. शीतलप्रसाद
भाषा - हिन्दी, जा. स्त्रो. - उपलब्ध ।
तत्त्वप्रदीपिका दीका तथा तदनुसारी टीकाओं की पाण्डुलिपियां न :- ताड़पत्रीय पाण्डुलिपियां - १. लिपि - १५४३, टी. बालचंद्र, लि. वर्धमान सेट्टि, भाषा - कन्नड़,
जा. स्रो. - क. प्रा. ता. न. सू. पृ. २०४ । २. लिपि - १८५६.टी. - आ. अमृतचन्द्र. लि. -- बध. भाषा - कन्नड़,
जा. सो .. बाहुबलि कु भोज में | । ३. लिपि - टो,.......पा. अमतनंदि भाषा - कन्नड़, जा. स्रो. - क. प्रा.
ता. अ. सू. पृ. १५ । ४. लिपि..."टो. – पद्मनं दि, भाषा - कन्नड़, जा. सो. – क. प्रा, सा.
ग्र. स. पू. ५"। ब :- कागज पर पाण्डुलिपियां - १. लिपि - १४७७. टी. - प्रा. अमृतचंद्र. भाषा - संस्कृत, जा. स्रो. -
रा. ज. शा. भ. सू. ५:२१० । २. लिपि - १४६६. टी. - आ. जयसेन. भाषा - संस्कृत, जा. सो. -
जै. इ. राज. पृ. १६७। ३. लिपि . १५२०, दो. - अ. रत्नदेव, भाषा - कन्नड़, जा. स्रो. - जे.
सा. न. ३. ४२८५। लिपि - १५२७. टी. - ब. रत्नदेव, भाषा - कन्नड़, जा. स्रो. - जै.
इ. राज.पू. ५६। 2. लिपि - १५४८. टी. - पं. प्रभाचन्द्र, फापा - कन्नड़ जा. स्रो, +
रा. ज. भा. भ. सू.५२१० 1 ६. लिपि - १६५.०.टी. - प्रा. अमृतचन्द्र, भाषा - संस्कृत, जा. सो. -
अने. जन ४१. प्र.३४५ -३५५ । ५. लि। - १६.०.टी. - ऋशात. मापा - . सा. ७. इ. ४:०६ः ।
लिपि --- १६७, दो, - जोधराज गादीका, भाषा - हिन्दी. ना. मो.-. . मं. जयगुर । न ११६४ ।
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३०४ |
| गाचार्य अगुनचन्द्र : पक्कल्व एवं कर्तृत्व
१३.
१६. लिाप
६. लिपि - १६८३. टी. - पं. धोधराज जोदी का भाषा - हिन्दी, जा.
स्रो. - ग. ज. शा. भ. सू. ४१८ । लिपि - १७२४, टी. पं. जोधराज गोदी, भाषा - हिन्दी, जा.
स्रो - अने. जून ४१, पृ. ३४६ - ३५५ । ११. लिपि - १७३६, टी. - प्रा. अमृतचंद्र, भाषा-संस्कृत, जा. स्रो. .
ते. ज. में. जयपुर, वे नं. ११८३ । १२. लिपि -६७३८ टी. - प्रा. अमृतचंद्र भाषा - संस्कृत जा स्रो. -
रा. जै शर. म स. ४११३ । लिपि - १७४७, टी. - या जयसेन, भाषा - संस्कृत, जा, स्रो -
अने. जन ४१ पृ. ३४६ - ३५५ । १४' लिपि - १७७१ टी. पं. देवीदास, भाषा - हिन्दी, जा स्रो. - ते
जै. मं. जयपुर वे नं. ११६५ । १५. लिपि - १७७८, टी. पं. हेमराज, भाषा - हिन्दी, जा स्रो, – अने.
जन ४१ प्र. ३४६ .- ३५५ । लिपि - १७८६, टी. - पं. जोधराज, भाषा - हिन्दी, जा. स्त्रो. - जै. सा वृ. इ. ४:२३७ । लिपि - १८७०, टो - पं वृन्दावन, भाषा - हिन्दी, पञ्च जा. सो.
रा. जै. मा. भ. सू. ३:४२ । १८. लिपि - १८७६, टी. पं. वृदावन, भाषा - हिन्दी, पद्म, जा. स्रो. -
जै शा. भ. मू. ४११४ । १६. लिपि - १८६५. टी. - पं. हेमराज, भाषा - हिन्दीगद्य, जा स्रो -
रा जै. रा. शा. भ. सू. ३१६३ । लिपि - १६०२ टी - बालचंद कन्नड़, लि. - भुजवलि अनंतप्पा शास्त्री, भाषा - हिन्दी, जा. स्रो. - प्रवचनसार प्र. पू १०३ उपाध्ये | लिपि - टी. पं हेमराज (१६५२), हिन्दी - भाषा, जा. स्रो. - रा.
जे शा. भ. सु ३:१६३ । २२. लिपि......"टी. पं. हम राज, भाषा - हिन्दी, जा स्रो - रा. ज. शा
भ. सू. ३४२। लिपि"...."टी. आ. अमृतचंद्र. भाषा - संस्कृत, जा. त्रो. – रा. जै
शा, भ. सू. ३:१६३ । २४. लिपि'......"टी. - या अमृतचन्द्र, भाषा - संस्कृत, जा. स्रो.- रा. जै.
शा. भ. सु. ४:१४२ ।
२५.
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कृतियाँ ।
स :- संगमर्मर पर उत्कीर्ण लिपि : १. दिति - १६५० -७५, टो. प्रा. प्रमुतचन्द्र, भापा - संस्कृत, जा.
सो. -. 'परमागम मंदिर सोनगढ़ । तत्यप्रदीपिका एवं तदनुसारी टीकानों के उपलब्ध प्रकाशन संस्करण :-- १. ग्रं. - श्री प्रवचनसार परमागम, टीकाकार - वृन्दावन, सं. नाथराम,
प्र. - ज. हि. का. बम्बई - १६०८, भाषा - हिन्दी पद्म, प्रथम । २. ग्रं. - प्रवचनसार टीकाश्रय, सं. मनोहरलाल, प्र. - रा. ज. शा. मा.
अगास, ई. - १६१५ भाषा...''प्रा. सं. हि. प्रतिाँ - १००० ।। ग्रं. -प्रवचनसार. टी. -- . मनोहरलाल, प्र. -रा. जै. शा. मा. बंबई,
४. ग्रं.-प्रवचनसार टीकाश्रय सं. - मनोहरलाल, प्र. – रा. जै. शा. मा.
बम्बई ई. १९१५ भाषा'.....''प्रा. सं. हि. प्रतियाँ -- १००० । ५. ग्रं. - श्री प्रवचनसार, टीका....... टी. - न. शीतलप्रसाद, प्र. - मू.
कि. का. सूरत ई. १६२६, भाषा - हिन्दी, प्रति. - १३०० । नं. - प्रवचनसार तन्त्रप्रदीपिका, टी. -- प्रो. ए. एन. उपाध्ये, प्र. - रा. ज. शा. मा. अगास. ई. १९३५, भाषा - अंग्रेजी, प्रतियाँ.......
सं. द्वितीय। १७. ग्रं. - प्रवचनसार तन्वपदी पिका. टी. - प्रो बारेण्ड फड़ेगां प्र. - के.
यूनि. प्रेस. लंदन, ई. १६३५, भाषा - अंग्रेजी। प्रवचनसार त वनदीपिका टी. - पं. हिम्मतलाल जे. शाह, प्र. - दि.
जे. स्वा. म. ट्र. सोनगढ़, ई. १९४०, भाषा - गुजराती। ६. मं. - प्रवचनसार. टी. - पं. हिम्मतलाल जे. नाह. प्र. . दि. जे
स्वा. म. ६. सोनगढ़, ई. १६४८, भाषा - गजराती।। १०. ग्रं--प्रवचनसार, टी............ , प्र. - पा. दि. जं. ग्रे. मा. मारोठ,
ई. १९४६ भाषा........ | ११. ग्रं - पंचरत्नसार, टी. - प्र'. मूलशंकर नेसाई, प्र. -- जं. अ. मं.
मुरादाबाद ई १९६३. भाषा - हिन्दी । ग्रं - प्रवचनसार त. दी..दी. -- प्र. दि. जै. वा. म. द., सोनगढ़,
भाषा - हिन्दी। १३. प्र. - प्रवचनसार नवप्रदीपिका, टी. - प्रो. ए. एन. पाध्ये, प्र. -
रा जं. शा. मा. अगासई. १९६४. भापा - अंग्रेजी, प्रतियाँ.... ..." सं. नृतीय ।
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३०६ ।
। प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व १४. ग्रं.-प्रवचनसार, टीकाद्वय टी. - पं. अजित कु. ब. रतनचन्द्र, प्र -
महावीरजी, ई. १६६६, भाषा - हिन्दी। १५. ग्रं. - श्री प्रवचनसार परमागम, टी, .. पं. वृदावन, प्र. - अ. दु. . !
ग्र. मा. सोनगढ़, ई. १६७४, भाषा - हिन्दी पद्य । १६. ग्रं - प्रवचनसार टीका -. टी. - अमृतचन्द्र, जयसेन, प्र. - वी. स. प्र. ट्र, भावनगर ई. १९७५, भाषा - हिन्दी ।
समय व्याख्या परिचय :
टीकात्रों के अन्त त्रादा तद्र जी तृतीय कृति "T. व्याख्या" नामक संस्कृत गद्य टीका है । यह टीका भी कुन्वन्दाचार्य की प्राकृत रचना पंचत्थि काय पंचास्तिकाय) पर प्रौढ़, दार्शनिक-सैद्धान्तिका, मार्मिक टीका है। इसका अपरनाम तम्बप्रदीपिका नाम भी उपलब्ध हुआ है, जिसका उल्लेख हम पहले कर चुके हैं। उक्त ग्रन्थ पंचस्थिकाय द्वितीय श्रतस्कंध के सर्वोकृष्ट मागम में परिगणित है। इसके कर्ता अलौकिक महापुरुष हैं: तो इसके टीकाकार भी तदनुरूप महासमर्थं आचार्य हैं। अमृतचन्द्र की टोकाएँ देवीय तथा श्रुतकेवली के वचन समान महत्त्वपूर्ण हैं। प्रस्तुत टीका में टोकाकार ने कुशलतम संस्कृत नद्यकाव्य-शिल्पी के रूप में सुन्दर शैलियों तथा प्रोर गद्यभाषा में जैनदर्शन एवं न्याय को प्रदर्शित किया है । इस टीका की रचना का उद्देश्य टोकाकार द्वारा स्पष्ट घोषित किया गया है कि यह सम्य ज्ञान ज्योति को जागृत करनेवाली, द्विनयाथित समय ध्याख्या नामक टोका संक्षेप में कही जाती है । यह टीका तत्त्वों का परिज्ञान कराने वाली तथा प्रयात्मक सम्यग्दर्शन-ज्ञाताचारित्ररूप) मार्ग द्वारा कल्याण स्वम्प मोक्ष प्राप्ति का कारण है । ' इस टीका में द्रव्य, पंचास्तिकाय का सविस्तार, सतर्क, सुस्पष्ट प्रतिपादन है । साथ ही नव पदार्थों का विशेषकर मोक्षमार्ग का परम प्राध्यात्मिक विवेचन हैं। टोकाकार के अमाधारण व्यक्तित्व के कारण यह टीका उच्चकोटि के गद्यकाव्य की विभपतानों से चमत्वात हं । सिद्धांत तथा अध्यात्म दोनों के रसिकजनों को यह टोका परमप्रिय है । प्राचार्य अमृतचन्द्र की इस समय व्याख्या टोका के - ..... .५. नर व्यापा, पगलानरः! माना ।
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कृतियाँ ।
| ३०७
बाद इस ग्रन्थ की अनक टीकाएं रची गई, परन्तु वे सभी टीकाएँ समयव्याख्या टीका की ऋणो है, उससे अनुप्राणित हैं । यह टोका समस्त टीकाओं में (सिरमौर) मुकुटमणि समान है । यह उपन्यास शैली में लिखित, सभी अनुमानादि से तथा शुद्धात्मरस से प्राप्लावित टीका है।'
इसकी अनका टीकाएँ, अनेक संस्करण, विभिन्न भाषाओं में तथा दश विदेश में विभिन्न स्थानों से प्रकाशित हुए हैं, भारतवर्ष के अनेक शास्त्रभण्डागों में की ताइवाय या कविता :,
पलियाँ भी मौजूद हैं। इसके हिन्दी, गुजराती, मराठी, अंग्रेजी, कन्नड़, रोमन आदि कई भाषाओं में अनुवादित तथा सम्पादित प्रकाशन निकल चुके हैं । इसका एक संस्करण इटालिन सम्पादक द्वारा सूचनात्मक भूमिका के साथ रोमन लिपि में फिरेंज - इटली से भी प्रकाशित हुआ है।' नामकरण :
“समय व्याख्या" टीका के नामकरण का सर्वाधिक पृष्ट प्रमाण टीकाकार कृत मंगलपद्य है। जिसमें सूचना दी गई है कि "समय व्याख्या" नामक टीका संक्षेप में कही जाती है। टीकाकार ने यह भी लिखा है कि "समय" की व्याख्या में पंचास्तिकाय, पद्रव्य, नवपदार्थ वादि तत्त्वों को समाहित किया जा रहा है। अतः सम्पूर्ण टीका में बणित विषय एक समय शब्द में समाहित होन कारण इस रची गई ज्याख्या को 'समयव्याख्या" नाम देना सार्थक तथा उपयुक्त है। तीसरे टोकाकार ने टीकान्त में "घ्याख्या कृतेयं समयस्य शब्द:" लिखकर "समयस्य व्याख्या" या
१. उपायारा विधि टीवा कीनी. सत्र प्रगमान गुन भीनों ।
शब्द गहीर अर्थ करि गहरी, दवा द अनुभन रस लहरी । । दुदकुच का अनुभी सारा, दिया दिखाय प्रगट मुखधारा। ताते इह पनातिकाया प्रगट भया अनुभव सुख पाया ।।३१॥ पंचास्तिकाय (पद्य) पं. होरानद बा, पृ.१० (हस्तलिखित) लिपि संवत् १८१६ ।। Pancastikayasara by Prof. A. Chakravartiraynar - Preface Page 7. Edition 11, 1975।
समयव्याजा' टोका गंगलान रग पद्य ऋ.। ४. वहीं, गद्य अ.. 1-2 । ५. वही, पा. ८ ।
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३.८ |
[ प्राचार्य मान-1
यकिन्त्र एवं कन त्व
समयव्याझ्या नाम की सूचना दी है। इस श्राधार में भी जनः नामकरण की मार्थकता ठगन होती है। म टीका के दो नामों का उल्लेख और भी मिलता है जो बीपिका" तथा "त्वप्रदीपिका" हैं। श्रीमद् राजचंद्रशाश्रमाला वे. एक अन्य संस्करण में मुखपृष्ठ पर तत्वदीपिका तथा प्रकाशकीय निवेदन में समय व्याख्या गौर तल्वपती पिकावति इन तीनों नामों का उल्लेख है। यदि उपरोक्त तीनों नामों में कोई विशेष विप्रतिपत्ति प्रतीत नहीं होती. तथापि जल तबदीपिका लचा लवप्रदीपिका दोनों नाम प्रवचनमार की टीका के लिए निर्विवाद रूप से व्यवहृत है तथा टीकाकार द्वारा भी 'सत्यव्याख्या' शब्द का ही प्रयोग होने से इस टीका का उक्त नाम अधिक सार्थक एवं उचित है । टीकाकत स्व :
समयसार की प्रात्मख्याति तथा प्रवचन सार की तत्त्वप्नदीपिका वृत्ति की तरह टीकाकार ने परमार्थदृष्टि ले समय व्याख्या टीका का कर्तृत्व वस्तुतत्त्य को सूचित करने की सामर्थ्य युक्त शब्दों को ही बताकर, निज के कर्तृत्व के विकल्प ना निषेध किया तथा अपने प्रापको स्वरूपगुप्त अमृतचन्द्रसूरि वाहा । उक्त कथन मे ही, व्यवहारिक दृष्टि से विचार करने पर, उक्त टीका के रचयिता भी प्राचार्य अमृतचन्द्र ही निस्संदेह रूप से प्रमाणित होते हैं।
दूसरे, उक्त टीका के प्रत्येक अधिकार के अंत में प्राचार्य अमृतचन्द्र का नामोल्लेख हुया है तथा “इति समयव्याख्यायां श्रीमदमृतचन्द्रसुरि विरचितायामंतींत....... प्रथम श्रुतस्कंधः समाप्तः।"
तीसरे, टीकाकार के पश्चाद्वर्ती सभी प्राचार्यों, विद्वानों तथा लेखकों ने उक्त टीका को एकमातेन प्राचार्य अमृतचन्द्र की ही माना, उल्लेख किया तथा प्रमाण रूप में प्रस्तुत किया है। इसप्रकार समयभ्याख्या टीका भी :: आचार्य अमृतनन्द्र की ही कृति है। १. (अ) तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, माग २ पृ. ४१७, (ब) पनास्तिकाय : तत्वदीपिका (राजचंद्र ग्रन्थमाला-प्रथम संस्करण १६६१, ...
द्वितीय १६७२ मुखपृष्ट)। २. (अ) जन साहित्य का इतिहास-भाग २, प. १७३, (a) Pancastikayasara-Prof. A. Chakravartinayaner, Edn
II, 1975. ३. पंचारितवाय. तत्त्वदीपिका (राजचंन मयमाला, तृतीय संस्करण १६७९)"
-
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कृतियाँ |
प्रामाणिकता :
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"समयव्याख्या" टीका महाश्रमण-सर्वज्ञ वीतराग जिनेन्द्र की वाणी से निःसृत प्रथम श्रुतस्कंध तथा द्वितीय शुतस्कंध के ही तात्पर्य की प्रकाशक है, अतः मूलग्रन्थ के समान ही प्रमाणता को प्राप्त है। कुंदकुंदाचार्य के गाथासूत्रों के मर्म का सूत्रतात्पर्यं दर्शाकर टीकाकार ने उक्त कृति को सर्वाधिक प्रामाणिक बना दिया है। निश्चय व्यवहार नयाश्रित स्याद्वाद शैली में निरूपित, सम्यग्ज्ञानरूप निर्मल ज्योति की जननीरूप इस टीका की प्रामाणिकता सर्वोच्च है । अमृतचन्द्र के परवर्ती लेखकों ने मुक्त कंठ से उक्त टीका की प्रशंसा की है । उन्होंने इसे कु कु'दाचार्य की वाणी की ज्यों का त्यों भावप्रकाशिनी टीका लिखा है। साथ ही अमृतचन्द्र को सप्तम, अष्टम गुणस्थानवाला उच्चकोटि का श्राचार्य लिखा है । उदाहरण के लिए यहाँ पंचास्तिकाय ग्रन्थ की हिन्दी पद्यानुवादरूपरूप टीका के कुछ अवतरण प्रस्तुत हैं, जिसके रचयिता पं. हीरानंदजी हैं । वे लिखते हैं-
तब इक प्रमृतचन्द मुनिराजा, उपध्या जनु निज अमृत समाजा । यथाजानपदवी निरबाही, सप्तम अष्टम गुन ग्रवगाही ।। ४१५ ।। स्याद्वादवादी प्रति नीका, ताकौं देखि आनमत फीका |
।
तिने कु कु दमुनिवानी, देखी स्वपर विवेक निशानी २०१७ || कुंदकुंद मुनिराज के बचन आप रस लीन ।
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जैन के तैसे कहे, अनुचन्द परवीन ||२०|| विषयवस्तु :
आचार्य अमृतचन्द्र ने संपूर्ण ग्रंथ को प्रमुख दी श्रुतस्कंधों में विभाजित किया है । गाया १ से १०४ तक प्रथम श्रुतस्कंध है, जिसमें षद्रव्य तथा पंचारिकाय का निरुपण है। द्वितीय श्रुतस्कंध १०५ से १०३ गा. तक चलता है । इसमें नवपदार्थो तथा मोक्षमार्ग का सविस्तार स्वरूप निरूपित है। प्रथम तथा द्वितीय तस्कंध में कुछ अंतराधिकार हैं, जो निम्नानुसार है
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प्रथम स्कंध में प्रथम पीठबंध अधिकार है । इसमें पंचास्तिकाय तथा षद्रव्यों का सामान्य व्याख्यान है । शान्त्रारंभ में जिनेन्द्रों को भावनमस्कार किया है, जिसके कुछ हेतु प्रस्तुत किये हैं। प्रथम तो जिनेन्द्रों को शत इन्द्र द्वारा वंदनीक कहा और उनका देवाधिदेवपना सिद्ध किया
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: आचार्य अमृततन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
है । दूसरे उनी वाणी को जीव समूह के लिए निर्वाध-विशुद्ध बास्मतन्व की उपलब्धि का उपाय कहने वाली हितकारी वाणी कहा है ! तीसरे परमार्थ रसिकजनों के मन को हरण करने वाली मधुर तथा विशद वाणी के उपदेष्टा जिनेन्द्रों का बहुमान किया है। उपदेश की प्रामाणिकता तथा उद्देश्य को बताते हुए समय शब्द का अर्थ 'पागम'' बताया है । पंचास्तिकाय को ही लोक स्वरूप निरूपित किया है। समय शब्द के शब्द, ज्ञान तथा अर्थसमय ये तीन प्रकार कहे हैं। वहां पंचास्किाब के कथन या शास्त्राम्ह निरूपण को शब्दसमय, मिथ्यात्व के उदय के नाश होनेपर पंचास्तिकाय के सम्बकज्ञान को ज्ञानसमय तथा कथन के निमित्त से ज्ञान में जात पदार्थों को अर्थसमय कहा है। अर्थसमय के लोक तथा अलोक रूप दो भेद किये हैं। पंचारितकाय की विशेष संज्ञा, सामान्य विशेषरूप अस्तित्व तथा कायत्व का विवेचन किया है । ' प्रसंगोपाल जिनेन्द्र कथित द्रव्यार्थिक तथा पर्यायाथिक इन दो प्रकार के नयों का सापेक्ष उल्लेख किया तथा पर्यायाथिकनयापेक्षा जिसे कथंचित् अन्यमय कहा, द्रव्याथिक नयापेक्षा 'उसही अनन्यमय कहा है: कापने को सिद्धि हेतु उनमें अणुमहानपना सिद्ध किया। कालागु के अस्तित्व है, परन्तु कायत्व नहीं है, इसको तथा शेष द्रव्यों के अस्तित्व व कायत्व को युक्तियों द्वारा सिद्ध किया है। उक्त ५ नास्तिकाय नथा शेष द्रव्यों के अस्तित्व व कायत्व को भी यक्तियों द्वारा सिद्ध किया है । अस्तित्व का स्वरूप कथन करके सत्ता और द्रव्य को अर्थात रपना मानने का खण्डन किया है । उक्त निरूपण में सूक्ष्म तथा तीक्षण तकों का प्रयोग किया है । तव्य के तीन लक्षणों का स्पष्टीकरण किया, जिसमें, द्रव्य का लक्ष " सत्", "उत्पादव्ययत्रीब्य" तथा "गुणपर्याय रूप इन तीन लक्षणों का विवेचन क्रिया है । प्राय नय दृष्टि से द्रव्य का स्वरूप दर्शाया तथा द्रव्याथिकानवापेक्षा द्रव्य को ध्रुब तथा उत्पाद-व्यय रहित लिखा और पर्यायाधिकनयापेक्षा द्रव्य को उत्पाद व्यय वाला ही कहा है, ध्रुव नहीं कहा है । द्रव्य में पर्याय का कथंचित् अभेदपना और द्रव्य एवं गुणों में भी कथंचित् अभेदपना दर्शाया है । यहाँ द्रव्यादेशवशात् सप्तभंगी न्याय का कथन करते हुए उसे सर्वथापने का निषेधक, अनेकांत का द्योतक तथा स्यात् पद को कथंचित् अर्थवाची अव्ययरूप से प्रयुक्त लिखा है | आगे
१. भमयमाख्या टीया - गा. १ से 5 तुक । २. वही गा. ४ से १५ तक ।
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कृतियाँ ।
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उत्पाद में असत् का प्रादुर्भाव तथा विनाश में सत् के विनाश का निध किया है । द्रव्य (भाव), गण तथा पर्याय के निरूपण में छह द्रव्यों को भाव कहा तथा उनके गुणों व पर्यायों की चर्चा की। प्रसंगवशात् चेतना के प्रकार भी लिखे । बहाँ ज्ञानानुभूतिरूप शुद्धचेतना, कार्यानुभुतिरूप तथा कर्मफलानुभूति रूप अशुद्धचेतना इतलाई। चैतन्य का अनुसरण करनेवाला उपयोग है । उसके सविकल्प तथा निविकप दो भेद बताये । पश्चात भाव का नाश तथा प्रभाव का उत्पाद होने का निरोध किया। अव्य के कथंचित व्यय व नाशपने को बताकर उसके सदेव अविनष्टपने और अनुत्पन्नपने की सिद्धि की । ध्रु बता के पक्ष से सा का अधिनाग और असत् का अनुत्पाद निरूपित किया । सिद्धत्व पर्याय की उत्पत्ति, असत् की उत्पत्ति नहीं है, यह भी स्पष्ट किया । यहाँ प्राप्त, अागम, सम्यक अनुमान तथा स्वानुभव इन चार प्रकार के प्रमाणों का निर्देश किया है। मुख्यगौण की व्यवस्था द्वारा बस्तु स्वरूप को व्याख्या की जाती है. वहाँ बिरोध में भी विरोध न होना अनेकांत का प्रसाद है। - ऐसा घोषित किया है । इसप्रकार छह द्रव्यों की सामान्य विवेचना की। तत्पश्चात् छह द्रव्यों में पांच के अस्तिकायपना तथा काल द्रव्य के अस्तिकाय न होने पर भी अर्थप ना सिद्ध किया। आगे निश्चय व्यवहार काल का स्वरूप निदेश किया तथा व्यवहार काल का कथंचित् पराश्रयपना और उसका अस्तित्व अतितीक्ष्ण दृष्टिग्राह्य लिखा। यहाँ प्रथम पीठिका बंधाधिकार समाप्त हुआ।
पश्चात् द्वितीय अधिकार में जीवास्तिकाय का विशेष व्याख्यान करते हुए आत्मा को निश्चय-व्यवहार दृष्टि से जीब, रेतयिता, उपयोगमयी, प्रभु, कर्ता, भोना बताया, उसके प्रमाण, अमूर्त और कर्म संयुक्तपने का विवेचन किया । वहाँ प्रथम मुक्तावस्थारूप प्रात्मा का निरुपाधि स्वरूप दर्शाकर उसके निरुपाधि ज्ञान, दर्शन और मुख का समर्थन किया। साथ ही अनेक युलियों से सर्वज्ञ की सत्ता सिद्ध की है, किन्तु अध्यात्मशास्त्र होने से उक्त प्रकरण का विशेष विस्तार नहीं किया है। दूसरे संसारी जीवों के भावप्राण तथा द्रव्यप्राणों का वर्णन किया है। प्रात्मा का देहप्रमाणपना इष्टांत द्वारा सिद्ध किया है । आत्मा का देह से देहान्तर होने
१. सम्यन्याच्या, टोका गा. १२ से १६ नमः । ३ समगव्याख्या, भा १७ से २१ तक । ३. वही, गा. १६ से २६ तक |
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। आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व पर भी उसका अस्तित्व, देह स भिन्नत्व और देहान्तर गमन का कारण स्पष्ट किया है । यहाँ बौद्धमत सम्मत अनित्यपना और पंचभूतमयता के सिद्धान्त का खण्डन किया गया है। सिद्धों के जीवत्व और देहमानत्वपने की सिद्धि श्री गई है। शिद्धों में कार्यकारणपने का निराकरण करके, जीव अभाव-स्प मुक्ति मानन का भी खण्डम किया गया है । चेतयिता गुण की व्याख्या करके उपयोग गुण के अंतर्गत दर्शन तथा ज्ञान भेद किये हैं । सामान्यग्राही दर्शन तथा विशेषग्राही ज्ञान का कथन करके ज्ञानोपयोग के ८ भेद गिनाये हैं। प्रार्ग क्रमशः दर्शनोपयोग के ४ भेद, उनके लक्षण बताकर, आत्मा के अनेक ज्ञानात्मकप, का, द्रव्य व गुणों में परस्पर भिन्नपना मानन में दोष का, द्रव्य और गण के अनन्यपने का, षट्कारक भेद व्यवहार से भी द्रध्य में व गुणों में अन्यपना नहीं हो जाता - इत्यादि का सयुक्तिक निस्पण किया है । वस्तु का स्वाप दाभेदला दीया है । पुनः द्रव्य और गुण के अर्थान्त रखने में दोष दिखाते हुए युसिद्ध तथा अबुसिद्ध की भी चर्चा की है । ज्ञान तथा जानी में समवाय संबंध मानन का खण्डन करते हुए, "द्रव्य का गुणों के साथ अथवा गुणों का द्रव्य के साथ अनादि अनंत सहवर्तीपना होना यही जैनों का समवाय है", ऐसा घोषित किया है। अंत में द्रध्य तथा गुणों के अभिन्न पदार्थपने के व्याख्यान का उपसंहार करते हुए उपयोग गुण का व्याख्यान पूर्ण किया है।'
आगे, अपन भावों को करते हुए जीव अनादि गन्नत है ? सादि सांत है ? सादि अनंत है ? साकार रूप परिणत है ? या तदाकार रूप अपरिणत है ? इत्यादि अंकायों का समाधान करते हुए जीव में अनादि अनंत तथा सादि सांतपन विरोध दिखाई देने का निराकरण किया नै । जीव के सद्भाव के उच्छेद और सदनात्र के उत्पाद में निमित्तभुत नर-नारकादिरूप नामकर्म की प्रकृतियों का उदय है । जोय झ . भावों की सूचना देते हुए लिखा है कि कर्मों के फलदानसमर्थपन रूप में उदभव को उदय, अनूदभत्र को उपशम, उदभव व अनदभव को क्षयोपनम, अत्यन्त विश्लेषण को क्षय, द्रव्य के हो यात्मलाभ के हेतु को परिणाम कहते हैं । यहाँ उदय से युक्त को प्रौदयिक, उपगम से युक्त को गौपमिक क्षयोपलम से युक्त को क्षायोपशमिशशाय ग धुत्त का शाबिन और परिणाम से युक्त को पारणामिक ---.. ... १. भमयव्याख्या गा. २७४ तयः । २, ममगागा ना.४ " . |
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कृतियाँ '
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भाव कहते हैं ।" इनके कवि की चर्चा करते हुए यह स्पष्ट किया है कि निमित्तापेक्षा द्रव्यकर्म को सौदयिक भावों का कर्ता कहा गया है। इसी प्रकार जीवभावों को स्वकर्म कर्ता कहा गया है, यह सब व्यवहार कथन है | निश्चय से जीव जीवभावों के तथा कर्म कर्मपरिणामों के अपनेअपने परिणाम के कर्ता हैं । ग्रतः इसतरह से जीव कर्म का अकर्ता है । वास्तव में षट्कारकरूप व्यवस्था प्रत्येक अन्य में अपनी-अपनी (विद्यमान) होने से उन्हें कारकान्तरों की अपेक्षा ही नहीं है। अतः यह निश्चय करना चाहिए कि न जीव कर्म का कर्ता है और न कर्म जीव का कर्ता है। वहीं यह शंका भी निर्मूल है कि अन्य का दिया हुआ कल कोई अन्य भोगता हैं। सिद्धांततः श्रात्मा स्वयं मोह रागद्र पादि करता है तथा उस काल में यहाँ अवस्थित कर्म स्वयं ही कर्मभावरूप परिणमन करते हैं तथा एक क्षेत्रावगाह सम्बन्धरूप होते हैं । इस कथन की पुष्टि हेतु उदाहरण भी दिया है कि जिसप्रकार अपने योग्य चन्द्र सूर्य के प्रकाश की प्राप्ति होने पर संध्या, बादल, इन्द्रधनुष प्रभामण्डल आदिरूप स्वयमेव अन्यकर्ता की
पेक्षा बिना पुद्गल स्कंध विभिन्न परिणामों को करते हैं, उसीप्रकार योग्य जीवपरिणामों को प्राप्त कर पुद्गलवर्गणाएं कर्मरूप परिणामों को करती हैं। व्यवहार कथन में जो परस्पर कर्ता भोक्ता यादि कहा जाता है, उससे वस्तुस्वरूप में अंतर नहीं पड़ता एवं विरोध पैदा नहीं होता। इस प्रकार कर्तृत्व व भोक्तत्व गुण का उपसंहार करते हुए प्रभुत्व गुण का कथन प्रारम्भ किया । वहाँ लिखा है कि इस प्रकार प्रगट प्रभुत्व शक्ति से जिसने कर्तृत्व व भोक्तत्व के व्यवहार का अधिकार ग्रहण किया है, ऐसा आत्मा मोहाच्छादित तथा विपरीत अभिप्राय वाला होने से संसार में ही परिभ्रमण करता है । वही आत्मा जिनोपदेश द्वारा मार्ग को प्राप्तकर उपशांत तथा क्षीणमोही होता है। वह ज्ञानानुमार्गचारी होकर निर्वाणपुर को प्राप्त होता है । अंत में जीवद्रव्यास्तिकाय का व्याख्यान समाप्त करते हुए लिखा है कि जीव के एक, दो से लेकर दस तक भेद किये हैं । इनमें कर्मबद्ध संसारी जीवों का छह दिशाओं में गमन होता है तथा मुक्त जीवों
१.
समयव्याख्या, गा. ५३ से ५६ तक ।
वहीं, गा. ५७ से ६५ तक । वही, गा. ६६
६० तक |
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३१४ :
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं काव का स्वाभाविक-उर्ध्वगमन होता है ।
तृतीयाधिकार में पुद्गलद्रव्यास्तिवाय का वर्णन किया है । प्रारम्भ. में पुदगलद्रव्य के चार लेद गिनाये जो क्रमश: एकंधपर्याय, स्कंधदेशपर्याय, स्कंधप्रदेशपर्याय तथा परमाणु हैं । इनके लक्षण लिखकर स्कंधों में पुद्गल संज्ञा सिद्ध की है । पुनः कंधों के ६ प्रकार कहे हैं जो क्रमशः बादरबादर, बादर, बादरसूक्ष्म, सूक्ष्मवापर, सूक्ष्म और सूक्ष्ममूक्ष्म हैं । इन के उदाहरण क्रमशः काष्ठ-पाषाणादि, दूध-घी-तेलादि, छाया-धूपादि, स्पर्श-रस-गंध व शब्दादि, कर्मवर्गणादि तथा दो अगु बाटे तक स्कंध हैं । परमाणु को अविभागी, एक प्रदेशी, मुर्तद्रव्य रूप से अविनाशी होने से नित्य कहा है। मूर्तत्व के कारणरूप, स्पर्श, रस, गंधादि द्वारा प्रादेश मात्र से परमाणु में भेद किया जाता है । अागे शब्द को पुद्गल द्रश्य की स्कंध पर्याय कहा है तथा महास्कंधों के परस्पर टकराने से ही शब्दोत्पत्ति कही है। आगे परमाणु के एकप्रदेशीपन तथा गुणपर्यायमय वर्तने का कथन किया है। अंत में सर्व पुद्गल भेदों का उपसंहार करते हुए अध्याय समाप्त किया है । . .
चतुर्थ अधिकार में धर्मद्रव्य तथा अधर्मद्रव्य का स्वरूप निरूपण किया है । धर्मास्तिकाय को अमूर्त (अर्थात् स्पर्श-रस-गंध-वर्णादि व शब्द से रहित), समस्त लोकाकाशव्यापी, अखंड, विशाल एवं असंख्यात प्रदेशी कहा है। उसका विशेष कथन करते हुए उसके गति देतुपने को अष्टांत से स्पष्ट किया है। ग्रागे अधर्मद्रव्य को भी धर्मद्रव्य की तरह गुणोंवाला कहा, परन्तु गति हेतुपने की जगह इस स्थिति हेतुपन का धर्म होता है । लोक-अलोक के विभाग का ज्ञान धर्म तथा अधर्म द्रव्यों से ही होता है । उक्त दोनों द्रव्यों के अस्तित्व की सिद्धि करते हुए लिखा कि यदि इन्हें न माना जाय तो जीव पुद्गल के निरंकुश गति तथा स्थिति परिणाम को रोका नहीं जा सकता । द्रव्यों की गति व स्थिति आदि अलोक में भी सम्भव होगी, साथ ही लोकालोक का विभाग भी भमा त होगा । यथार्थ में धर्मद्रध्य न तो स्वयं गमन करता है और न ही अन्य द्रव्यों को गमन कराता है, अपित गतिशील द्रव्यों का उदासीन कारण (निमित्त) है । इसीप्रकार अधर्मद्रव्य भी किसी को रोकता नहीं, अपितु रुकते हुए द्रव्य को उदासीन हेतु है ।
१. समयव्याल्या, गा. ६६ गे १३ तत्र । २. वही, गा. ७४ स ८२ तवः । ३, बही, गा, - ३ से ८५ तक ।
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कृतियाँ ।
। ३१५
उक्त अधिकार को समाप्त करने हुए लिखा है कि समस्त द्रव्य (जीव व पुद्गल) अपने ही परिणाम से गति तथा अपने ही परिणाम से स्थिति करते हैं। धर्म अधर्म, गतिस्थिति के धुण्य हेतु नहीं हैं. मात्र उदासीन हेतु हैं ।
पंचम अधिकार में प्राकाश दयास्तिकाय का वर्णन है। समस्तु . द्रव्यों के लिए अवकाशदान में निमित्तहंतु अाकाश है. 1. यह लोक मर्यादा से... बाहर प्रयोक में भी अमर्यादित रूप से है । जो आकाश को गति का हेतु मानते हैं. उनकी मान्यता का खंडन करते हुए लिखा है कि यदि आकाश को . गतिहेतु माना जावे तो अलोक की हानि तथा लोवा की वृद्धि का प्रसंग पाता है । साथ ही सिद्ध जीवों की स्थिति लोकांत में ही होती है, इससे भी सिद्ध है कि प्रकाश में गतिहेतुपना नहीं है। इसप्रकार पुनः पूर्वोक्ताः सिद्धांत को दुहराते हुए अधिकार समाप्त किया है ।२.
षष्ठ अधिकार को तूलिका नाम दिया है। इसमें द्रव्यों को मुर्तर अमूर्त दो भेदों में विभाजित करते हुए स्पर्श-रस-गंध-वर्ण के सद्भाववाले । द्रव्यों को मूर्त तथा उनके अभाववाले द्रव्यों को अमूर्त कहा है। वहां पुद्गल द्रव्य मूर्त तथा शेष पाँच जीव-धर्म-अधर्म-पाकास तथा काल अमूर्त::: हैं। आगे द्रव्यों में सक्रिय व निष्क्रियप का भेद किया है। प्रदेशांतर प्राप्ति के कारणरूप परिस्पंदन को क्रिया कहा है । पुद्गल तथा जीव दो.., द्रव्य सक्रिय तथा शेष चार द्रव्य निष्क्रिय हैं । पुनः इंद्रियग्राह्य को मूर्त तथा । उसके विपरीत को अमूर्त कहा है । इस तरह पूलिका समाप्त हुई।
सप्तम अधिकार है कालद्रव्याधिकार । इसमें काल के निश्चयव्यवहार दो भेद किये । यहाँ समय नामक ऋमिका पर्याय को व्यवहारकाल । तथा उसके अाधारभूत द्रव्य को निश्चय काल कहा है । काल के लिए नित्य :- ... तथा क्षणिक दो विभागों द्वारा समझाया है । निश्चय काल को द्रव्यरूपः । तथा व्यवहारकाल को पर्यायरूप कहा है। कालादि छहों पदार्थ द्रव्यसंशा को धारण करते हैं, परन्तु कालद्रव्य अस्तिकाय संज्ञा धारण नहीं करता । .. इस तरह निरूपण करके काल द्रव्य का कथन समाप्त किया ।' तत्पश्चात : प्रथमश्रुतस्कंध का उपसंहार कर, के लिए. १०३ तथा १०४ अंतिम दो..
१. समयव्याख्या, गा. ८६ से २६ तक । 2. वही, गा.६० से १६ तक | ३. वही, गा. ६७ से ६ सबः । ४. वही, गा. १०० स १०२ राफ ।
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। प्राचार्य अमन चन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
गाथाओं में पंचास्तिकाय के अवबोध का कालीदुःग्लों में मर्वथा मुक्ति होना लिखा है। समस्त प्रवचन को काल सहित पंचास्तिकाय का प्रतिपादक बताया है, अतः उसे प्रवचन का मार रहा है। अंत में लिखा कि जो जीव पंपास्तिकाय शास्त्र के अर्थभूत शूद्धर्चतन्यवाले निज आत्मा को जानता है,
और उसी के अनुसरण का प्रयास करता है, वह दृष्टिमोह को क्षय करता हुमा सम्यग्ज्ञान ज्योति प्रगटाता है। उसके राग-द्वेष प्रशमित होते हैं । वह पूर्वापर बंध का नाश करता है और स्वस्वरूपस्थ होकर प्रतापवत वर्तता है।
अब पंचास्तिकाय ग्रंथ का द्वितीय श्रुतस्कंध महाधिकार प्रारम्भ होता है। इसमें मोक्षमार्ग का सविस्तार वर्णन है । इसके भी भूमिका सहित नव अंतराधिकार हैं, जो क्रमश: इसप्रकार विषय वस्तु के प्रतिपादक हैं। भूमिका तपा जीवएवार्थ व्याख्यान अधिकार :
प्रथम ही टीकाकार लिखते हैं कि इस शास्त्र के प्रथम श्रुतस्कंध में । बुद्धिमानजनों को व्यस्वरूप के प्रतिपादन द्वारा शुद्धात्मतत्व का उपदेश दिया गया है। अब इस द्वितीय श्रतस्कंध में पदार्थ भेद द्वारा उपोदधात पूर्वक उसके मार्ग का वर्णन किया जाता है । वहाँ प्राप्त की स्तुतिपूर्वक प्रतिमा की है तथा मोक्षमार्ग को सूचना की है । वह मोक्षमार्ग सम्यक्त्व व ज्ञान युक्त ही है, उनसे रहित नहीं है, चारित्र सहित ही होता है चारित्र रहित नहीं, राग-द्वेष रहित ही है, उस सहित नहीं है, मोक्ष का ही मार्ग है बंध का नहीं है, मार्ग है, अमार्ग नहीं है, भव्यों को ही है, अभव्यों को नहीं है, लब्धबुद्धियों को ही होता है, अलब्धबुद्धियों को नहीं तथा क्षीणकषायपने में ही होता है, कषाय सहितपने में नहीं। इसप्रकार इन ८ नियमों युक्त ही मोक्षमार्ग है । पदार्थों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन, उनका ज्ञान सम्यग्ज्ञान और समभाव बह चारित्र है । मूलपदार्थ जीव तथा प्रजीव हैं, उनके ही भेद पुण्य-पाप, प्रास्रव, संवर, निर्जरा, बंध तथा मोक्ष हैं । इस प्रकार कुल पदार्थ हैं। इनमें जीव दो प्रकार के हैं - संसारी और सिद्ध । संसारी जीवों में पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक तथा वनस्पतिकायिक ये एकेन्द्रिय जीव हैं । अंडे में वृद्धि पानेवाले एवं गर्भ में रहनेवाले प्राणियों और मूर्छा प्राप्त मनुष्यों की भांति, एकेन्द्रिय जीव
१.
ममयव्याख्या: गा. १०५ से १०८ तक।
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कृतियाँ ।
HE
हैं, वे बुद्धिव्यापार रहित हैं ।। स्पर्शन एवं रसना इंद्रियवाले शंख, सीप, केन्या आदि दो इंद्रिय जीव हैं। उक्त दो के अतिरिक्त प्राणेन्द्रिय सहित इंद्रियवाले बिच्छू, खटमल, गू, चीटी आदि तीन इंद्रिय जीव हैं। उक्त तीन को साथ चक्षु इंद्रिय युक्त मछर, मक्खी, भौरा, पतंगे प्रादि चार इंद्रिय जीव हैं। स्पर्शन, रसना, घ्रा, चक्षु और कर्ण इन पांच सहित देव, नारकी, मनुष्य व तिर्यंच जो कि जलचारी, धलचारी तथा नभचारी होते हैं, वे बलवान पंचेन्द्रिय जीव हैं । पंचेन्द्रियों में कुछ जीव मन सहित तथा कुछ मन रहित होते हैं । एके न्द्रिय गे चार इंद्रिय तक मन रहित ही होते हैं। देवों के चार निकाय, मनुष्यों के भोगभूमिज व कर्मभूमिज दो भेद, तिर्यचों के अनेक प्रकार तथा नारकियों के पृथ्वियों के भेदानुसार भेद होते हैं । गति तथा आयुनामकर्म के उदय से प्राप्त देव मनुष्य तिर्यंच तथा नरक पर्यायें आत्मस्वभावभुत नहीं हैं, अनात्मस्वभावभुत हैं । इसप्रकार उपरोक्त भेदवाले शरीर में प्रवर्तने वाले देह सहित संसारी जीव हैं और देह रहित सिद्ध जीव हैं। संसारी जीवों में भय तथा अभय ऐसे दो भेद भी होते हैं।' अपाच्य मूग की भांति शुद्धात्मस्वरूप की उपलब्धि को शक्ति रहित अभव्यजीव हैं। आगे यह स्पष्ट किया है कि उपरोक्त भेदों द्वारा इंद्रियादि की अपेक्षा जीव संज्ञा कही, उसे व्यवहार कथन जानना, उसे परमार्थ से जीव न मानना 1 परमार्थ से जीव तो चैतन्यस्वभाव लक्षणवाले ही होते हैं, इंद्रियादि तो जड़ हैं। जीवद्रव्य को छोड़कर शेष पांच द्रव्यों में न पाई जानेवाली, चेतन्य के विवर्तरूा संकल्प की उत्पत्ति के कारण सूख की अभिलाषारूप क्रिया, दुःखरूप उग की क्रिया, हित-अहित की रचनारूप क्रिया, इत्यादि क्रियाओं का कर्ता जीव ही है । प्रागे जीवव्याख्यान का उपसंहार तथा अजीवव्याख्यान के प्रारम्भ की सूचना देते हुए लिखा है कि इस तरह विभिन्न भेदों द्वारा जीव को जानकर अचेतन्यलक्षणवाले अजीव को भी भेद विज्ञान की प्रसिद्धि के लिए जानना चाहिये ।
तत्पश्चात अजीव द्रव्य का व्याख्यान नामक अधिकार में माकाश, काल, पुद्गल, धर्म तथा अधर्म को जीव के गुणों से भिन्न होने से अचेतनपना कहा है | अचेतनपन का एक हेतु यह भी बताया है कि अाकाशादि को
१. ममयन्यापा. गा. १०८ से ११३ तक । २. वहीं, चा. ११४ मे १२० । १. मही, गा. १२१ त १२३ 1 ।
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। आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृ
सुख-दुःखादि का ज्ञान, हित का प्रयारा तथा अहित का भय आदि चतम्या । परिणामों की प्राणि हैदी साल में संबो में भी भेस्वरूप कर कथन किया है । यह जीव-अजीव का वास्तविक भेद सम्यग्ज्ञानियों के मात्र 'की प्रसिद्धि के लिए प्रतिपादित किया गया है ।' यहाँ अजीव द्रव्याधिकारी भी समाप्त होता है।
आगे सात बिशेषरूप पदार्थों के कथन के पूर्व उपोद्घात द्वारा यो 'मूलपदार्थों के संयोगी भावों से निष्पन्न होनेवाले जीवकर्म तथा पुद्गल की। चक्र का वर्णन किया है । उक्त चक्र में संसारी जीव के अनादि कर्धबंध की | उपाधि के निमित्त से स्निग्ध परिणाम होता है, उस परिणाम के निमित्त से पुद्गल रूप द्रव्यकर्म, उनके निमित्त से नर-नारकादि पर्यायों में गमन, उक्त गतियों की प्राप्ति से देह, देह हे इंद्रियाँ, इंद्रियों से विषयग्रहण, विषयग्रहण | से राग-द्वेष, राग-द्वेष से स्निग्ध परिणाम होता है तथा उपरोक्त चरा चलता रहता है ।
आगे पुण्य-पापाधिकार का निम्पण किया है । इसमें पुण्य-पाप के | योग्य भावों का स्वरूप नाथन किया है । यहाँ प्रशत राग तथा चित्तप्रसाद को शुभपरिणाम और अप्रशस्त राग तथा मोह-पादि को अशुभपरिणाम बताया है । शुभपरिणाम पुग्ध है पीर अशुभारिणाम पाप है । कर्म के फल सुख-दुःख के कारणभूत मूर्तविगय हैं, वे विषय नियम से मूर्त इंद्रियों द्वारा जीव भोगता है. इसलिए कर्म के मुतपने का अनुमान होता है । जिसप्रकार चूहे का विष मूर्त है. उसका फल सूजन-जुम्बारादि भी मूर्त है: उसी प्रकार कर्म भी मूर्त हैं, उनके फल भी मूर्ना हैं । आगे मूर्तकमों का मूर्त से तथा जीव । और कर्मों का मूर्त-अमूर्त म्हाप से बंध का प्रकार समभाया है।
इसके बाद प्रास्रबदार्थ अधिकार प्रारम्भ होता है। प्रथम ही पुण्यात्रव का रवग्टः। लिखते हुए प्रशस्तराग, अनुकम्पापरिणति और चित्त ! की अकषता से जीव को द्रश्य पुण्यात होता ह। यहाँ प्रत्येक का स्वरूप स्पष्ट करते हए लिखा है कि अर्हत. सिद्ध तथा साधुओं में भक्ति, व्यवहार धर्म क्रियाओं के अनुष्ठान में भावनाप्रधान चेष्टा और गुरुपों का रसिकरूप से अनुगमन करना प्रशस्त राग है। क्योकि उसका विषय प्रशस्त होता है।
१. समाज्या, गा. ५२४ स १२७ तक । २. वही, गा. १२८ । ३. यही, गा. १२६ ११४ नक।
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ऋतियो ।
ऐसा प्रशस्त राग स्थूललक्षवाले अज्ञानियों में होता है तथा उच्चभूमिका में अवस्थित न हो पाने से तथा प्रस्थान का राग रोकने के लिए अथवा तीनरागज्वर मिटाने के लिए कदाचित् ज्ञानियों के भी उक्त प्रशस्त राग होता है।' मुख-प्यास से दुखी व्यक्ति को देखकर दया-करुणा भाव होना अनुकम्पा है । क्रोधादि चार कपायों के निमित्त से मन में क्षोभ पैदा होना कलुपता है । यो पापात्रव के कारणों में बहुत प्रमाद युक्त चर्या कलुषपरिणाम, विषयलोलुपता, पर को संतापित करना और पर के अपवाद करने को प्रमुखरूप से गिनाया है। पापासव के भावों का सविस्तार कथन करते हुए लिखा है कि आहार, भय, मैथुन व परिग्रह ये चार संज्ञाएं, कुरुण, नील व कापोत ये तीन लेश्याएँ, राग-द्वेष के प्रकर्ष के कारण इंद्रियाधीनपना, चार प्रकार का प्रार्तध्यान (इष्ट वियोगज, अनिष्ट संयोगज, वेदनज व निदानज ग्रार्तध्यान, चार प्रकार का रौद्रध्यान हिंसानंद, मषानंद, चौर्यानन्द व विषयसंरक्षणानन्द रौद्रध्यान}. व्यर्थ के कार्यों में लगा हना ज्ञान और मोहरूा परिणाम ये सभी भाव पापास्रव हैं, जो द्रव्यपापास्रव के निमित्त हैं । इसप्रकार आपदार्थ का व्याख्यान समाप्त होता है।
__ अब संवर पदार्थ व्याख्यान अधिकार में पाप दो संवर का कथन करते हए लिखा है कि भली-भांति मार्ग में रहकर इंद्रिय, कषाय और संज्ञाओं का जितना निग्रह होता है. उतना पापानव रुकता है । सामान्यतः संवर का स्वरूप लिखते हुए बताया है कि जिसे परद्रव्यों के प्रति मोहराग-द्वेषरूप भाव नहीं है, तथा मध्यस्थ या समभाव है। उसे शुभ-अशुभ कर्म का प्रास्रबनहीं होता। यहाँ शुभाशुभ परिणाम को रोजाना ही भाव व द्रव्यरूप पुण्य तथा पाप संवर का प्रमुख हेतु है ऐसा स्पष्ट किया है । उक्त विवेचन के साथ संवरपदार्थ का व्याख्यान समाप्त हुआ ।'
आगे निर्जरापदार्थ के व्यास्थान में निर्जरा का स्वरूप स्पष्ट करते हुए लिखा है कि शुभाशुभ परिणाम के निरोधरूप संवर द्वारा और शुद्धोपयोग द्वारा अपन को परिणमाता हुमा अथवा इन दोनों से युक्त होता --- .. ....... . १. ममयच्याश्या, गा. १३५ । २. वहीं, गा. १३६ से १३६ तया । १. वहीं, मा. १४० । ४. वहीं, गा. १८१ से १८३ नाक ।
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३२० ।
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
हुआ, बारह प्रकार के अनशन आदि तपों की करने वाला अनेक कर्मों की निर्जरा करता है । परमार्थ मे निर्जरा का प्रमुख हेतु ध्यान है । उस ध्यान का स्वरूप इसप्रकार है कि निज शुद्धात्मस्वरूप में अपनी चैतन्यपरणति को स्थिर करना वह यथार्थ ध्यान है । ऐसा ध्यान ही श्रेष्ठ पुरुषार्थ की सिद्धि का उपाय है। ऐसा ध्यान आज भी इस पंच मकाल में होता है । उसे ध्याकर आज भी त्रिरत्न से शुद्धजीवात्मध्यान करके इन्द्र तथा लौकान्तिक देवपना पाते हैं। वहाँ से चयकर मनुष्य होकर निर्वाण को पाते हैं । इस तरह निर्जरा पदार्थ का व्याख्यान समाप्त हुआ।'
अव बंध पदार्थ का निरूपण प्रारम्भ करते हार बंध का स्वरूप लिखते हैं। यदि प्रात्मा विकारी परिणाम करता है तथा उदयागत शुभाशुभ भाव करता है. तब वह ग्यात्मा उन भावों द्वारा विविध पुद्गलकर्मा से बद्ध होता है । बंध के कारण को बताते हा लिखा है कि योग के निमित्त से ग्रहण होता है । राहग की गई का जीवप्रदेशों से क्षेत्रावगाही होना । वहाँ योग को मन, वचन तथा काय इन तीन रूप कहा है । आगे यह भी कहा है कि बंध का निमित्त भाव है तथा भाव राग-द्वेषादि भूक्त परिणाम है।
____अंत में मिथ्यात्व. संयम, कपाय तथा योग इन चार प्रकार के द्रव्यहेतुओं को आठ प्रकार के ज्ञानाबरणादि कर्मों के बंध का बहिरंग कारण निरूपित किया है। यहाँ रागादि परिणाम का सद्भाव बंध का अंतरंग हेतू बताया है । इसप्रकार चंब पदार्थ का निरूपण भी समात हुप्रा ।।
___ अब मोक्षपदार्थ का व्याख्यान करते हुए भावमाक्ष का स्वरूप कथन किया । पात्रब का हेतु जीव का माह-रागादि भाव है। ज्ञानी को उसका अभाव है, अतः मानवभाव का भी प्रभाव है। मानव के अभाव होने से कर्म का अभाव है नथा कर्माभाव हान से सबंजता, सर्वदर्शिता, अव्याबाधइंद्रियातीत अनंत सुख होता है. यही जोवन्मुक्ति नामक भावमोक्ष है। यह भावमोक्ष द्रव्यकर्ममाक्ष का शेतुभूत परमसंबर का प्रकार है। ग्रागे द्रव्यकर्ममोक्ष की हेतुभूत परमनिर्जरा का कारणरूप ध्यान कहते हैं। स्वभाव साहितसाधू को दर्शन-ज्ञान से सम्पूर्ण और अन्यद्रव्य समसंयुक्त ध्यान निर्जरा का हेतु है । अंत में द्रव्यमान का स्वप कथनकार प्रकरण को समाप्त किया
१. २. ३.
रामयज्यास्या, गा. १४४ से १४६ तक । वही, गा. १७७ स १४८ नक । वहीं, गा. १४६ ।
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कृतियाँ । है । सर्वकर्मों से छुटकारा होना द्रव्यमोक्ष है ।' - इसके बाद मोक्षमार्ग प्रपंच सूचिका चूलिका अधिकार प्रारम्भ होता है। वहीं प्रथम ही मोक्षमार्ग के स्वरूप का वर्णन करते हुए लिखा है कि ज्ञानवर्शनरूप जीवस्वभाव है, उसमें नियतरूप चारित्र मोक्षमार्ग है । संसारियों का चारित्र या प्रकार झोता है - स्वसमवर्ती तथा परसमयवर्ती । स्वसमयवर्ती चारित्र मोक्ष का मार्ग है । परसमयवर्ती चारित्र प्रास्रवबंध का कारण है। स्वसमयवर्ती चारित्र शुशोपयोगरूप है तथा परसमयवर्ती चारित्र शुभोपयोगरूप है । इसका विशेष कथन करते हुए निश्चय से साध्य-साधन भाव एक ही द्रव्य में तथा व्यवहार में भिन्न द्रव्यों में निरूपित किया है। वहाँ प्ररूपणा अपेक्षा चारित्र दो प्रकार का कहा । ऐसी व्यवहारप्ररूपणा से विरोध उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि पारमेश्वरी तीर्थप्रवर्तना उभयनयाधीन है । प्रागे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग का कथन निश्चय तथा व्यवहार दोनों अपेक्षाओं से किया है । निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग में साध्य-साधनपने का व्यवहार भी उपचरित होता है। जो प्रात्मा को आत्मा से आचरता है, जानता है तथा देखता है; वह प्रात्मा ही चारित्र है। मान है तथा दर्शन है । यथार्थ वस्तुस्वरूप तथा मोक्षमार्ग की श्रद्धा करने. वाला भव्यजीव मोक्षमार्ग के योग्य है, परन्तु अभव्य उसमें श्रद्धा नहीं करता हुया उसके अयोग्य है । प्रागे कहा कि दर्शन-ज्ञान-चारित्र यदि अल्प भी परसमयरूप प्रवृत्तियुक्त होते हैं, तो वे बंध के हेतु कहे गये हैं। तात्पर्य यह कि वर्शन-ज्ञान-चारित्र के साथ विद्यमान परसमयरूप प्रवृत्ति या शुभराग ही बंध का कारण है, यथार्थता दर्शन-ज्ञान-चारित्र बंध के कारण नहीं हैं, मोक्ष के ही कारण हैं। अागे लिखा कि भक्ति को मुक्ति का कारण मानना प्रज्ञान है । अर्हन्तादि की भक्ति से पूण्य बंध होता है, कर्म का क्षय नहीं होता है । अतः जिनेन्द्रभक्तिविषयक रागकण भी हेय ही है, बंध का ही कारण है । उक्त राग त्यागने योग्य है, क्योंकि अर्हन्तादि की भक्ति राग बिना नहीं होती, राग मे बुद्धि का प्रसार होता है, बुद्धिप्रसार होने से शुभाशुभ कर्म का निरोध नहीं होता है, इसलिए यह सूक्ष्मप्रशस्त राग भी अन,संतति का मुल रागरूप क्लेग का ही विलास है। अतः समस्त
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-
.
.
-
१. समयपाल्या: मा. १५० से १५३ तक । २. कही, गा, १५ मे १६१ नक । ३. बही, गा, १५२ से १६४ तक।
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३२२ ।
। प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व प्रकार का राग व रागांश नाश करने लायक है । यद्यपि अर्हतादि की भक्ति रूप रागप्रवृत्ति में साक्षात् मोक्ष हेतूपने का अभाव है. तथापि उसे परम्परा से मोक्ष हेतुपने का सद्भाव कहा गया है। आगे अर्हन्तभक्ति को साक्षात् मोक्ष का अंतरायस्वरूप भी लिखा है, क्योंकि संयमप्रधान तपस्वी भी शेष रागरूप मलेष से दुषित अंतःकरण होता हया विषयाविषत्रक्ष के आमोद से जहाँ अंतःकरण मोहित होता है - ऐसे स्वर्गलोक को प्राप्तकर लम्बे समय तक साक्षात् मोक्ष के अंतरायरूप स्वर्ग में रहता हया रागरूपी अंगारों में जलता व दुःखी होता रहता है। अतः समग्र शास्त्र का तात्पर्य यह है कि सर्व ही राग त्याज्य है । अर्हन्तादि का राग भी चन्दन की अग्नि समान अंतर्दाह ही का कारण समझकर साक्षात् मोक्ष के अभिलाषी महाजनों को सब की तरफ का राग छोड़कर, परम वीतरागी होकर, दुःखरूप संसार सागर को पारकर, शुद्धस्वरूप परमामृतसमुद्र में अवगाहन करके, शीघ्र निर्वाण को पाना चाहिए। समस्त ग्रंथ का सार यही है । बहुत विस्तार निष्प्रयोजन है । इसप्रकार तात्पर्य दो प्रकार है - शास्त्रतात्पर्य तथा सुत्रतात्पर्य उनमें शास्त्र तात्पर्य तो वीतरागता है तथा सूत्रतात्पर्य प्रत्येक सूत्र में प्रतिपादित है । अंत में मास्त्रतात्पर्य का सविस्तार स्पष्टीकरण किया है। वहाँ श्रद्धय-अश्रद्धेय. श्रद्धा करनेवाले तथा श्रद्धान के ज्ञेय, अज्ञेय, ज्ञाता व ज्ञान के, आचरणीय, अनाचरणीय, प्राचरण करनेवाले एवं आचरण के और कर्तव्य, अकर्तव्य, कर्ता तथा कर्म के भेदों को समझकर मोहमाल को क्रमशः उखाडकर जीव निर्वाण को प्राप्त होता है। उपरांहार रूप में केवल व्यवहारावलंबी जीव की त्रुटियों का तथा केवल निश्चयावलंबी जीव की त्रुटियों का दिग्दर्शन कराकर निश्चय-यवहार का सम्यक् समन्वित स्वरूप निरूपित करके यथार्थ मार्ग का दर्शन कराया है, जो टीकाकार का निजी वैशिष्ट्य है । शास्त्रसमाप्ति तथा शास्त्रकर्ता की प्रतिज्ञापूति की सूचना देते हुए कहा कि जिनमार्ग की प्रभावना हेतु भक्ति से प्रेरित होकर पंचास्तिकाय ग्रन्थ की रचना की गई है। पंचास्तिकाय शास्त्र अतिसंक्षेप में समस्त वस्तुतत्व प्रतिपादक होने पर भी, अतिविस्तृत प्रबचन का सार है । टीकाकार न अन्य टीकायों की तरह अंत में दीका के कर्तत्व का निषेध किया तथा स्वरूपगुप्त अमृतचन्द्र को समय यास्या टोका का अफर्ता ही घोषित किया है ।।
१. मगयच्या या गा.१.५ से १७० तक । २. वही, गा. 2.52 १७नक | २. वही, पा. १७२ तथा प्रतिम कलश ।
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कुतियां ।
पाठानुसंधान :
समयव्याख्या टीका अत्यन्त प्रौढ़, गम्भीर अर्थयुक्त तथा महान् दार्शनिक कृति है । ऐसा प्रतीत होता है कि सर्वप्रथम दीका प्रात्मख्याति, पश्चात तत्त्वप्रदीपिका और तत्पश्चात् समय व्याख्या नामक टीका की रचना हुई है । समयव्याख्या टीका प्रवचनसार की तन्वप्रदीपिका की सारभूत कृति है ।' प्रात्मख्याति तथा तत्त्वप्रदीपिका टीकाओं की भाँति समयव्याख्या टीका का भी व्यापकरूप में प्रचार एवं प्रसार हया है। समयव्याख्या की अनुसारी टीकाएँ, उनकी पाण्डुलिपियों तथा विभिन्न प्रकाशनों की तालिका से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि इसका भी प्रचार-प्रसार क्षेत्र व्यापी एवं कालव्यापी दोनों प्रकार से हुआ है। इसकी उपलब्ध कुछ मुद्रित प्रतियों के मूलपाठों के तुलनात्मक अनुशीलन से ज्ञात हुआ कि उनमें विशेषतः पाठभेद नहीं है । तुलनात्मक प्रतियों में प्रथम प्रति पं. पन्नालाल बाकलीवाल द्वारा सम्पादित १६१५ ई. में बम्बई से प्रकाशित है । द्वितीय प्रति पं. मनोहरलाल द्वारा संशोधित १९५९ ई. में अगास से प्रकाशित है। तृतीय प्रति पं. हिम्मतलाल जे. शाह द्वारा अनुवादित १९६५ ई. में सोनगढ़ से प्रकाशित है, तथा चतुर्थ प्रति प्रो. ए. चक्रवर्ती द्वारा अनुवादित १६७५ में दिल्ली से प्रकाशित है । इनमें प्रथम प्रति का अविकल अनुकरण द्वितीय प्रति में हया है । तृतीय प्रति का अनुकरण चतुर्थ प्रति में यथावत् पाया जाता है । प्रथम तथा तृतीय प्रलि में विशेषता मात्र इतनी है कि ग्रा. १११ की टीका के रूप में "पृथ्विकायिकादीनां पंत्रानामेकेन्द्रियत्वनियमोऽयम् ।" इन शब्दों का प्रयोग पाया जाता है, जबकि तृतीय प्रति में १११वी गाथा की टीका के रूप में एक भी शब्द नहीं पाया जाता है । दूसरे, प्रथम प्रति में १७३ गाथा की टीका के अंत में स्वशक्ति संमृचिल..." ..." इत्यादि अंतिम पद्म देकर "इति समयन्यारत्या नवपदार्थ पुरस्सर मोक्षमार्ग प्रपञ्चवर्णनो द्वितीयः श्रतस्कंधः समाप्तः" इन शब्दों के साथ दीका समाप्त होती है, जबकि तृतीय प्रति में १७३वीं गाथा की टीका के अंत में "इति .........."थुनस्कंधः .. 'समाप्तः" हम मुचना के पश्चान् “स्वशक्तिसंसूचित".........
१. पंचारितकाय, गा. १७३ वी मममन्याच्या टीका ।
'प्रबनगशाशय गारभूतं पंचास्तिकामभवहाभिधानं भगवत्मज्ञोपनत्वान सुमिभहित नमेति ।"
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३२४ ।
| आचार्य अमृतचन्द्र : क्तित्व एवं कर्तृत्व
इत्यादि पद्य दिया है तथा पद्य के पश्चात् " इति पञ्चास्तिकाय संग्रहाभिधानस्य समयस्य व्याख्या समाप्ता" इन शब्दों के साथ टीका समाप्त होती है । यद्यपि सामान्यतः चारों प्रतियों में मूलपाठ के मुद्रण में कोई प्रकार की त्रुटि नहीं आई है । तथापि तृतीय प्रति में श्रुतस्कंधवर्णन समाप्ति के पश्चात् अंतिम पद्य तथा टीका समाप्ति की सूचना अधिक उचित प्रतीत होती है ।
परम्परा :
समयव्याख्या टीका में भी सिद्धांत विषयक गंभीर निरूपण हुआ है । दार्शनिक तथ्यों का तार्किक स्पष्टीकरण तथा षड्द्रव्य, पंचास्तिकाय एवं सात तत्वों के स्वरूप का निदर्शन भी इस कृति में पाया जाता है । द्रव्यानुयोगपरक न्यायशैली में निरूपण की पूर्वाचार्योक्त परम्परा का इस टीका में प्रान्त निर्वाह हुआ है । यह टीका श्राचार्य कुन्दकुन्द की दार्शनिक मान्यताओं का विवीम् एवं सष्टीकरण करने में पूर्णक सफल सिद्ध हुई है। साथ ही सर्वत्र नयात्मक निरूपण द्वारा शास्त्रतात्पर्य एवं सूत्रतात्पर्य दोनों अभिव्यक्त हुए हैं। इसप्रकार इस टीका द्वारा कुन्दकुन्दाचार्य की दार्शनिक सैद्धान्तिक परम्परा भलीप्रकार पुष्ट हुई है ।
प्रणाली :
समयव्याख्या टीका में आ. अमृतचन्द्र ने सर्वत्र न्यायशैली तथा नयात्मक निरूपण शैली को अपनाया है । नयों का यथोचित सामञ्जस्य तथा नयाभास का पर्दाफाश एक साथ हुआ है । प्रौढ़तम अर्थप्रगल्भा भाया, श्रेष्ठ साहित्यिक शैलियों की योजना तथा सम्यग्ज्ञान ज्योति को जागृत करनेवाली पदयोजना का प्रयोग अपने आप में अनूठा है ।
ग्रन्थशिष्ट्य
इस कृति की कुछ विशेषताएं इसप्रकार हैं। इसमें
१. विभिन्न साहित्यिक बालियों के प्रयोग पाये जाते हैं ।
स्याद्वाद तथा अनेकांत का यथोचित दिग्दर्शन कराया गया है | पद्रव्य, पंचास्तिकाय के निरूपण में परमत की मान्यताओं का तथा सप्ततत्त्व निरूपण में तयाभासियों की मान्यताओं का निराकरण पाया जाता है ।
प्रौढ़, परिष्कृत, चमत्कारोयादव भाषा, गंभीर, उदार, हितकारक भावों का सम्मिलन सर्वत्र दर्शनीय है ।
३.
४.
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कृतियाँ ]
[ ३२५
समय व्याख्या टीका तथा उससे अनुप्राणित टोकाएँ एवं टीकाकार : १. . ६५०, टी. - सध्यव्याख्या, टी. ना. - पा. ममृतचन्द्र, भाषा
संम्वत जानकारी स्रोत – उपलब्ध । ई. १८० - १०६५, टी. पंचास्तिकाय टीका, टी. ना. सा.
पभाचन्द्रषष्ठ, भा, - सस्कृत, जा. स्रो.-.सि. का, ३:१४० । ३. ई. ११२८, टी. पंचाम्तिकाय टीका, टी. ना. - प्रा. मल्लिषेम,
भा. - तमिल, जा. स्रो. अ. सि. को, ३:३०० । ४. ई. ११४०-८५, पंचास्तिकाय टीका, टी. ना. - मलधारी पद्मप्रन,
भाषा - अन्नड़, जा. स्रोत - क, प्रा. ता. अ. सू./१६ । ५. ई.१२६२ -१३२३ टी. - पंचास्तिकायरीका, टी. ना. - बहादेव,
भाषा - संस्कृत जा. स्रो. - ब. सा. ७.इ. ४१५८ । ६. ई. १३५० लि - पंचास्तिकाय टीका, टी. ना. - बालचन्द्र मुनि,
भाषा - कन्नड़, जा. स्रो - जं. सि. को. ३/६४ । ७. ई. १३१२ - १३८०, टी-तात्पर्यवृत्ति, टी. ना. -पा, पयसेन,
भाषा - संस्कृत, जा. स्रो - जै. सि. को. २१३२० । ई. १४७७ -६६, टी. .... .", टी. ना. - भ. शानभूषण, भावा - ............."". जा. स्रो - जै. सि को. २:२७., सं. सा इ. गरोला) ३६१ रा.पं. स. व्य. क, १५४ । १६३३ - ५६ दो, .... .... टी. ना. - नरेन्द्र कीर्ति, भाषा - हिन्दी,
रा. जै. सं. व्य. क. १९६८ । १०. ई. १६४३ – ७० टी. बालावबोध, टी. ना, - पं. हेमराज, भाषा
हिन्दी, जा. खो-जै. सि. को. ३.२, जैः सि. को ४५४४ । ११. १६५६, टी............', टो. ना. - पं. राजमल्ल, भाषा - हिन्दी,
जा. सो - जं. सि. को, ३४१४, पंचा.. प्र. पृ. । (१९१५)। १२. ई. १६६१, टी. - पंचास्तिकाय-समयसार, टी. ना. - कवि हीरानंद,
भाषा - हिन्दीपद्य, जा. स्त्र - उपलब्ध । १३. ई, १७१८, टी. .............", टी, ला, भट्टारकज्ञानचंद, भाषा -
हिन्दी-पद्य, जा. स्रो. - ज. सि. को, २१२७० । १४. १७६४, टी. ............", टी. ना. - कवि विधिचन्द्र, भाषा
हिन्दी-पद्य, जाम्रो - पंचा, प्र. पृ.। १५. ई. ...........", टी. ...........", टी. पं. नायराम, भाषा - हिन्दी-पद,
जा. स्रो - पंचा. प्र. पु.
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३२६ ।
१६. ८.
१७. ई.
भाषा
3.
TP
३.
१८. ई. - १८३४, टी. जा. स्रो. जं. सि. को ३२ ।
१६. ई. १८८४ टी.
२०. ई.. "टी. ......
.टी.
·
जा. त्रोको २४४८ ।
2
हिन्दी पद्य, जा. स्रो.
टी.
४. लिपि
| आचार्य प्रमृतचन्द्र व्यक्तित्व एवं कर्तृव
,
टी. ना. पं. नेमचन्द्र प्रध्यापक, पंचा. प्र. पू. ।
अ. कागज पर पाण्डुलिपियाँ :
१.
-
डी. ना.
1
वीरमगांव, भाषा - हिन्दी जा. स्रो पंचा प्र. पू.
टी.
, टी. ना- देवजित प्राचार्य.
-
..
जा. स्रो- जि. र को. वि । पृ. २३७ ।
जा. स्रो. ५. लिपि जा. त्रो.
-
---------
. टी. ना
२१. ई. १८७५ - १६४५, टी. भाषा - हिन्दी जा. प्रो. सहज सुख साधन मु. पू. श्रागम पथ. नवम्बर ७६ पृ. ७४, शीतल ज. श. विशेषांक |
'—
समयव्याख्या टीका तथा तदनुसांरी टीकाओं की पाण्डुलिपियाँ : प्र. ताड़पत्रीय पाण्डुलिपियां :
१.
लिपि - १३५० ई., टीकाकार मुनि बालचन्द, लिपि - कन्नड़, (मूलबिद्री में ) जानकारी स्रोत - क. प्रा ता. ग्र. सू. २०४ | लि. - १८७६ ई. टी. - सवाईजयपुरम् लिपि - कन्नड़ (कुम्भोज) जा. स्रो. - बाहुबलि कुम्भोज में उपलब्ध |
२.
लि. - अज्ञात. टी. मलधारी पद्मप्रभ लिपि जा. स्रो - क. प्रा. वा. ग्र. सू. १६ ।
जा. स्रो. - रा. जं. शा. भा.
१५१६. टीका
रा. जे. शा. भा. सू. ५/७२ ।
१५८०, टीका - जं. सा. वृ. इ. ४८/२८८ |
पं. बुत्रजन, भाषा - हिन्दी,
-
w
Th
दोसी बेलसी वीरचंद
लिपि - १४३०, टीकाकार आ. श्रमृतचन्द्र, लिपि जा. स्रो. रा. जे. शा. भा. सू. ४:४१ ।
लिपि - १४७६. टीका प्रा. अमृतचन्द्र भाषा जा. स्रो- रा. जं. या भा. सु. ५/७२ ।
लिपि
१४८४, टोका - प्रा. अमृतचन्द्र भाषा सु. ४:४१ ।
1
.टी. ना. ब्र. शीतलप्रसाद,
-
J
भाषा - संस्कृत,
भाषा
कन्नड़, (कुम्भोज)
पा. अमृतचन्द्र भाषा
प्रा. अमृतचन्द्र, भाषा
-
-
-
-
संस्कृत.
संस्कृत,
संस्कृत,
संस्कृत,
संस्कृत,
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कृतियाँ ।
[ ३६६ ६. लिग - १६६२, टीका - पं. हेमराज, भाषा - हिन्दी, जा. स्रो, -
ग़ जै. शा. भा. सू. ३:१८१1 ७. लिपि - १६६६. टीका - पं. हेमराज, भाषा - हिन्दी, जा. खो -
जं. मा. न. र. ४२५८ ।। ८. लिपि -- , टीका - पं. बुधजन, भाषा - हिन्दी, जा. स्रो. – रा जं.
शा. मा. सू. ४:४१ । लिपि - १८३६, टीका - पं. हीरानन्द, भाषा - हिन्दी, जा. स्रो.।
प्रादर्शनगर, जयपुर। १२. लिपि -- १८६५, टीका - पं. हेमराज, भाषा - हिन्दी, जा' सो. -
प्रादर्शनगर. जयपुर। ११. लिपि - १८७३, टीका - पं. हेमराज, भाषा - हिन्दी, जा. स्रो. -
आदर्शनगर, जयपुर। १२. नि .. १८८, क - प्रा. रागृतका, भाषः - संस्कृत, जा.
स्रो. - रा. जे शा- भ. सू. ४:४१ । स. संगमर्मर पर उस्क्रोणं : १. लिपि - १९७० - ७५, टीका - अमृतचन्द्र, भाषा - संस्कृत,
जा. स्रो - परमागम मंदिर, सोनगढ़ । समयव्याख्या एवं तदनुसारी टीकास्त्रों के प्रकाशन तथा संस्करण : १. ग्रन्थ - पंचास्तिकाय गाथा (फाईब मेमनीट्यूड्स), सम्पादक -
पी ई. पेमोलिनी, प्रकाशक - ग्रियरनले डेला सो , इटली ई. ११०१,
भाषा - च. प्रतियाँ.... । २. ग्रं. - पंचास्तिकाया, बालावबोध, सं. - पं. हेमराज, प्र. - रा. च.
जै. अ. मा बम्बई, ई. १६०४, भाषा - हिन्दी। ३. पंचालितवाया टीवर. सं. - पन्नालाल बाकलीवाल, प्र- रा.
ग्र मा. बम्बई १६.० ६. भाषा - हिन्दी। ४. ग्रं. - पंचास्तिकायाटीकात्रय, अनु- पनालाल बाकलीवाल, सं. - पं..
मनोहरलाल, प्र - रा. च. जे. ग्र. मा., बम्बई, ई १९१५, भाषा -
हिन्दी। ५. पंचास्तिकाया टीका, सं. - उदयलाल काशलीवाल, प्र. - रा. च. जै. .
ग्र. मा बम्बई, ई १६१६, भाषा - हिन्दी। ६. पंचास्तिकायसार, सं.- ए. चक्रवर्ती, प्र. - दी. से. ज. प. हा. पारा, .
ई. १९२०, भाषा - अंग्रेजी।
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३२८ ]
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कतृत्व ७. ग. -- पंचास्तिकाय (सटीक) अनु. - हिम्मतलाल अ. शाह. प्र -
दि. जै. स्वा. मं ट्र. सोनमक, इ. १६५७. भाषा - गुजराती। ८, ग्रं. - पंचास्तिकायसार, टीका - ए चक्रवर्ती. प्र. - भा. ज्ञा. पी. ।
दिल्ली. ई. १६७५, भाषा - अंग्रेजी । ६. ग्रं. - पंचास्तिकाय. टीका - पं कल्लापा भरमाप्पा निटवे, प्र........"
फलटण, ई, १९२८, भाषा - मराठी। १०. ग्रं. - पंचास्तिकाया. टीका - पं. हिम्मतलाल ज, शाहू, अनु. - पं.
परमेष्टी दास, प्र. - दि. ज. स्वा. म. द. सोनगढ़, ई. १६६५, भाषा - हिन्दी। पंचाचास्तिकाय. टीका - अज्ञात, प्र. - रा च. गै. ग्र, मा. प्रगास, ई. १९६६, भाषा - हिन्दो।
समयसार कलश द्वितीय विभाग में प्राचार्य अमृतचन्द्रकृत तीन गद्यटीकानों पर प्रकाश डाला जा चुका है। ''समयसारकलश" लेखक की स्वतन्त्र दमौलिक रचना नहीं है, अपितु प्रात्मख्याति गद्यटीका में बीच-बीच में प्रागत पद्यों का संग्रह है। मौलिक कृति न होने पर भी प्राचार्य अमृतचन्द्र के असाधारण व्यक्तित्व एवं कवित्व शक्ति से अनुप्राणित होने के कारण इसका मौलिक स्चना की भांति समादर है। प्राचार्य कुन्दकुन्द के समयप्राभूत की गाथानों के भावों की ही क्रमबद्ध प्रकाशक होने के कारण इसे पद्यटीका के रूप में व्यवहृत किया है। इन पद्यों में मूलगाथाओं तथा टीकायों का सार समाहित है। कलश प्रात्मानुभवरूप अमृतरस से परिपूर्ण तथा जैन-अध्यात्म के नवनीत के घट स्वरूप हैं। इनमें अलंकारों की अदभुत छटा, छंदों का रसानुकूलप्रयोग, प्रसाद-माधुर्य आदि गुणों का प्रस्फुटन तथा अंतर्मुखकवीन्द्र की असाधारण काव्यप्रतिभा की अभिव्यक्ति हुई है। इनके रसास्वाद से भव्य सहृदय रसिकों को परमानन्द की अनुभूति प्राप्त होती है । वास्तव में इन्हें जैन अध्यात्म और लेखक की अलौकिक वितता का निस्पंद कहना उचित है । जिसप्रकार मंदिर की शोभा तथा महिमा शिखरस्थ स्वर्णकलशों से विशेषतः वृद्धिगत हुई है। इन पद्यों की प्रसिद्धि अध्यात्म के अध्येतानों के बीच अमृतकलशों के रूप में है । टीकाकार ने अध्यात्मरूप श्रुतसागर का स्थावादनयरूप मथानी से मंथन करके जो नवनीत प्राप्त किया, उसे ही इन कास्यकलशों द्वारा अभिव्यक्त किया है। इस रचना में प्राचार्य के सिद्धान्तपारंगत्व के दर्शन होते हैं । न्याय, तर्क, व्याकरण, साहित्यिक प्रखर
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कृतियाँ |
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विद्वता श्रादि के दर्शन भी पद-पद पर होते हैं । संस्कृत भाषा का साधारण पाठक भी इन कलशों में निहित आनंद व शांतरस का रसास्वादन कर सकता है। इस पर रचित विभिन्न टीकाओं तथा भाष्यों के नाम मात्र इसकी महिमा के उद्घोषक है । परमाध्यात्मतरंगिणी टीका, अध्यात्म अमृतकलश टीका अमृतज्योति टीका, कलशागीत या निजामृतपान (पद्यानुवाद)... इत्यादि इसके उदाहरण हैं । समयसारकलश पर अभी तक भाषाओं में गद्य तथा पद्य में, विभिन्न विद्वानों की टीकाओं का प्रकाशन हो चुका है। इसकी प्रतिप्राचीन हस्तलिखित प्रतियां भी भारत के अनेकों स्थानों के जिनमन्दिरों तथा शास्त्र भण्डारों में विद्यमान हैं । तापीय तथा कपड़े पर भी कलापूर्ण ढंग से समयसार कलशों को लिखकर सुरक्षित रखा जाना उक्त ग्रंथ की महिमा का प्रमाण है ।
P
अमृतचन्द्र के परवर्ती अनेक श्राचार्यो विद्वानों तथा लेखकों ने अपनी कृतियों, टीकाओं आदि में सर्वश्रेष्ठ प्रमाण के रूप में इन कलशों को उधृत किया है । उक्त समयसार कलश रखना के परिचय में विद्वानों ने मुक्तक प्रचंसा की है तथा सगर्व गौरवगाथा गाई है। पं. गजाघरलाल का अनुभव है कि आत्मख्याति टीका की शोभा इस ग्रन्थ बिना नहीं हो सकती । समयसार व उसकी टीका पढ़ने पर भी जबतक समयसारकलशों को नहीं पढ़ा जाता है, तब तक पूर्णरूप से आत्मा का अनुपम आनन्द नहीं आता है। पं. फूलचन्द शास्त्री के शब्द भी तथ्य प्रकाशक हैं । वे लिखते है कलाकाव्यों की रचना प्रसन्नभव्यजीवों के हृदयरूपी कुमुद को विकसित करनेवाली चंद्रिका के समान उनकी मनोहारिणी शैली का सुपरिणाम है। यह प्रमृत का निर्भर है और इसे निर्भरित करनेवाले चन्द्रोपम आचार्य अमृतचन्द्र हैं ।
२
नामकरण :
ग्रन्थ के उक्त नामकरण के सम्बन्ध में लेखक की ओर से कहीं कोई संकेत नहीं मिलता, इससे स्पष्ट है कि उक्त पद्यों का संकलन एवं उनका "समयसारकलश नाम पश्चाद्वर्ती लेखकों द्वारा प्रदत्त है । यहाँ " नामकरण " का कर्ता कौन है ? कब नामकरण हुआ है ? इन प्रश्नों की अपेक्षा नामकरण कितना सार्थक है ? यह अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न है, अतः
"
१. परमायात्मतरंगिणी - प्र. पू. प्रथम |
२. समयसारकलश
प्रस्तावना पृ. ६ ।
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| प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व । नामकरण की सार्थकता पर विचार किया जाता है । प्रथम तो जिसप्रकार मंदिर की शोभा कलशों से विशेहोती है, उसकार समयसाररूप मंदिर की शोभा अमृतचन्द्राचार्य कृत पद्यों से विशेष है, अतः उक्त पदों की कलश संज्ञा सार्थक है। दूसरे जिसप्रकार कलशों (घड़ों) में जल आदि भरकर रखा जाता है तथा उनके जल से पिपासुजनों की प्यास मिटती है । उसीप्रकार टीकाकारकृत पद्यों में समयसार की गाथाओं का तथ्यामृत भरा है, जिससे संसारताप से संतप्त, अतीन्द्रिय अध्यात्म रस के प्यासे भव्यजीवों को उनत पद्यों में परमानन्दरूप अमृतरस की प्राप्ति होती है; और वे प्रात्मीय आनन्द और निराकूल शांति का अनुभव करते हैं, अत: उक्तपद्यों की कलश संज्ञा उचित प्रतीत होती है। तीसरे - पाण्डे राजमल्ल द्वारा लिखित टीका का नाम भी "समयसारकलश बालबोध टीका'' है । यह टीका 'कलश" पद का उल्लेख करनेवाली टीकात्रों में सर्वाधिक प्राचीन है। पश्चात पं० बनारसीदास ने भी उक्त कृति को 'समयसारकलश' नाम से एल्लित्रित किया है।' इसप्रकार प्रवृत नाम "समयसारकलश' उक्त रचना का सार्थक एवं चिरप्रचलित नाम है । कर्तृत्व :
"समयसारकलश" टीका के कर्ता प्राचार्य अमृतचन्द्रही है। इसमें विप्रतिपत्ति के लिए जरा भी सम्भावना नहीं है, क्योंकि प्रथम नो बे पद्य आत्मन्याति टीका में बीच-बीच में टीकांश के सार को पुनः प्रदर्शित करते हैं । दुसरे उक्त पद्यों में प्राचार्य अमृतचन्द्र का नाम दो बार प्रयुक्त हुमा है । यथा "उदित अमृतचन्द्रज्योतिरेतत्समन्तात् । तथा 'स्वरूप गुप्तभ्य न किचिदस्ति कर्तव्यमेवामृतचंद्रसूरेः' इन दोनों पद्यों में प्रमुत्रन्द्र का नाम याया है, अतः उक्त टीका के कर्ता प्रकृत प्राचार्य ही है, यह समस्त लेखकों, विद्वानों. राउकों आदि द्वारा एकमतेन सर्वमान्य तथ्य है । अस्तु । प्रामाणिकता :
समयसारकलश की प्रामाणिकता सर्वोच्च तथा सर्वमान्य है । यह बात हम प्रात्मख्याति टीका की प्रामाणिकता के सम्बन्ध में प्रकाश डालते
१. समवसारकानश'' अति नीका, राजमल्लि सुगम यह टीका ||२||
(समयसार नाटक-ईडर को प्रशि का अंतिम अंश) । २. समयसारकलश क्र. २७६ । ३. वही, कलश क, २७८ ।
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कृतियां ।
समय स्पष्ट कर चुके हैं। समयसारकलश का प्रत्येक पद्य अनेकांत तथा व्यावाद शैली का प्रकाशक, जैनसिद्धांत व अध्यात्म का मोद्घाटक है । उनको समग्र कृलि शुतकेवालवाणी तुन्य प्रभाणता को प्राप्त है । इसे जैनों की अध्यात्मगीता कहना उचित है । कुन्दकुन्द की गाथाओं के मूलभावों का दोहन करके हो टीकाकार ने ज्यों का त्यों अथ कलशरूप काव्यों के माध्यम से पुनः अभिव्यक्त किया है। अतः उनकी प्रामाणिकता निम्संदेह है । उनके परवर्ती समस्त विद्वानों, आचार्यों ने अमृतचन्द्र के उक्त कलशों को प्रमाणरूप में प्रस्तुत बार में गौरव का अनुभव किया है । इन कलशों का सर्वाधिक प्रचार-प्रसार. प्रकाशन व लेखन आदि से भी इस कृति की लोकप्रियता तथा प्रामाणिकता सिद्ध होती है । विषयवस्तु :
आत्मख्याति टीका की तरह इसे भी १२ अधिकारों में बांटा गया है, जो क्रमशः जीव, अजीव, कर्ताकर्म, 'पुण्यपाप, आस्रव, संघर, निर्जरा, बंध, मोक्ष, सर्वविशुद्धज्ञान, स्थावाद तथा साध्यसाधक अधिकार हैं । कुल पद्य मुंग्या २७८ है । इन अधिकारों से प्रतिपाद्य विषयवस्तु संक्षेप में इसप्रकार है। १. जीवाधिकार :
प्रथम ही मंगलाचरण में स्वानुभूनि में प्रकट होने वाले शुद्धात्मा को नमः कार करके अनंलधर्मात्मक तत्वों को प्रत्यक्ष करने वाली अनेकांतस्वरूप मूर्ति-जिनवाणी के जयवंत प्रवर्तन की भावना व्यक्त की । ग्रन्थ रचना का फल निरूपित करते हुए लिखा है कि समयमार व्याख्या द्वारा शुद्धपरणति को प्राप्ति हो । उक्त प्राप्ति उन्हें ही होती है, जो निश्चय-व्यबहार नयों के विरोध को मिटाकर यातपद अंकिन जिन बचनों में रमण करते हैं। ग्रागे व्यवहारनय की कथंचित उपयोगिता बताते हए उमे प्रथम अवस्था में स्थित जनों को हप्तावलंबन समान कहा है, परन्तु चैतन्यचमत्कार मात्र पदार्थ को देखने वालों के लिए व्यवहारनय कुछ भी उपयोगी नहीं है । नवतन्वों में व्याप्त एक पूर्णज्ञानधनम्वरूप प्रात्मा का स्वरूपदर्शन ही सम्यग्दर्शन है। गुद्धनब से देखने पर वह अात्मा एक चनन्यज्योति स्वरूप ही प्रकाशित होता है । प्रतिक्षण उस पात्मज्योति को देखने से प्रात्मदर्शन होता है। आत्मदर्शन या प्रात्मानुभव के काल में नय, प्रमाण, निक्षेप प्रादि के समस्त विकास ममाप्त हो जाते हैं। एक मात्र आत्मा अद्वैतरूप से भासित होता है । प्रात्मा का स्वभाव परद्रव्य तथा उनके भावों से भिन्न है,
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३३२ ।
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व परिपूर्ण है, आदि अंत से रहित है, एक है, . संकल्प-विकल्प-समूह से रहित है। ऐसा स्वभाव शुद्धनय के द्वारा प्रकाशित होता है । अत: मोह को छोडकर ग्रात्मानुभव करने की प्रेरणा को है।। बार-बार उस स्वरूपानभव के अभ्यास सं स्वयं, शाश्वतदेव आत्मा अनुभव मे आता है। आत्मानुभूति शुद्धनयरूप है । उसे ही ज्ञानानुभूति कहते हैं । ऐसी ज्ञानानुभूति की प्राप्ति की प्रेरणा टीकाकार ने दी है। प्रात्मा उसीप्रकार चैतन्य से परिपूर्ण है, जिसप्रकार नमक की डली सर्वांग क्षारपने से परिपूर्ण है। ऐसा प्रात्मा माध्य व साधक दो रूप होने पर भी एक ही उपासनीय है । प्रात्मा की द्विविधता बतलाते हए लिखते हैं कि दर्शन-ज्ञान-वारिम तीनरूप होने से आत्मा मेचका और स्वरूप की एकता के कारण अमेचक है । वह अमेत्रक अर्थात् अभेद तथा मेचक अर्थात् भेद अन्य रूप: । अतः त्रिरूपता को धारण करनवाली तथा अपनी एकता को न छोड़नेवाली आत्मज्योति का अनुभव ही साध्य की सिद्धि का उपाय है, अन्य नहीं है। उजत प्रकार से शात्मा की अनुभूति करनवाले निबिकारी बनते हैं । अनादिकालीन मोह को छोडकर जगज्जन भी ग्रात्मररा के रसिकों को प्रिय ऐसे भेदविज्ञान को चखें। उस भेदविज्ञान की प्राप्ति के लिए किसी भी प्रकार से, यहां तक कि मरकरके भी तत्व का कौतुहली होकर मूर्तिनः शरीरादि को पड़ोसी की भांति अनुभव करें तो मोह भी प्रात्मा को स्वयं ही शीघ्र छोड़ देगा । यहाँ अज्ञानी प्रश्न करता है कि ग्रान्मा और शरीर एक ही है, क्योंकि तीर्थकरों व प्राचार्यों की "तुति मगेराश्रित होती है। अतः वह मिथ्या सिद्ध होगी ? प्राचार्य कहते हैं तू नय विभाग की नहीं जानता है। जिनेन्द्र का रूप स्वाभाविक. लावण्यमी इत्यादि है. इसमें अधिष्ठाता आत्मा का कुछ भी गुणगाम नहीं हुआ है, जिसप्रकार नगर के वर्णन से गजा का गुणवर्णन नहीं होना है। यह व्यवहार सुति मात्र है. निश्चय तृति में मो चैतन्य प्रात्मा के गुणों का तवन ही चैतन्य का स्तजन है ।* इसप्रकार नयविभाग की यति द्वारा अात्मा और शरीर के एकत्व को जनमल से उखाइनेवाले का जान नत्काल यथार्थपने को प्राप्त होता है । अागे कहा कि परभाव के त्याग की दृष्टि प्राते ही स्वानुभूति प्रकट होती है । उस अनुभूति में आत्मा चैतन्यरस' से भरे अपने प्रात्मस्वभाब को ही अनुभव करता है तथा अनुभव
१. समयसारकलश - १ मे २० तकः । २. समयसारकलश, २१ से २७ तक ।
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कृतियाँ ]
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में मोह से भिन्न शुद्ध चैतन्य निधि आत्मा ही पाता है । इसप्रकार के विचारों मे प्रवृत्ति स्वात्मनिष्ठ होती है। अंत में भगवान आत्मा को ज्ञानसिंधू म्वरूप में मान होने की प्रेरणा देते हार उक्त अधिकार समाप्त होता है।' २. अजीवाधिकार :
__ इस अधिकार में जीव तथा अजीव का एक वेश में प्रवेश तथा ज्ञान द्वारा उन्हें यथार्थ जान लेने पर वेश त्यागकर चले जाने की सूचना प्रारम्भ में दी है । प्राय पुद्गल से भिन्न प्रात्मा की उपलब्धि का विरोध करनेवालों को टीकाकार प्राचार्य शांतिपूर्वक उपदेश देते हुए लिखते हैं कि हे भव्य, व्यर्थं के कोलाहल को बन्द करो, उससे कुछ भी लाभ नहीं है। एक चैतन्यमात्र वस्तु को स्वयं निश्चल होकर देखो, ऐसा छह माह तक अभ्यास करो तो तुम्हें स्वयं ज्ञात होगा कि तुम्हारे ही हृदय सरोवर में पुद्गल से भिन्न प्रारमा की प्राप्ति होती है या नहीं ? अागे सब परपदार्थों को छोड़कर एक चैतन्य मात्र को ग्रहण करने की प्रेरणा की है। चैतन्यमात्र के सिवा शेप समात भाव पीलिक है । स्पर्श, रस, गंध, वर्णादि तथा राग-द्धप-मोहादि सभी पात्मा से भिन्न पदार्थ हैं। जिसपकार स्वर्णनिर्मित म्यान स्वर्णमय होती है, उसी प्रकार वर्णादि, एकेन्द्रियादि, जीवसमासादि सभी पुद्गलमय हैं. अात्मामय नहीं हैं। घी का घड़ा कहने पर भी घड़ा घो का कभी नहीं होता, इसीप्रकार वर्णादि रूप जीव है, ऐसा काह पर जीव वर्णरूप कदापि नहीं होता । जीव तो अनादि अनंत चैतन्य प्रकाशमान है । जीव का लक्षण अमूर्तत्व भी नहीं है, क्योंकि बह लक्षण धर्म, अधर्म आदि अचेतन द्रव्यों में पाया जाता है । चैतन्य ही सर्वथा जीव का निर्दोष लक्षण है । उस असाधारण चैतन्यभाव को ही सम्बदष्टि अनुभव करता है । सम्यग्दृष्टि मानता है कि अनादि के अविवेकमयी नृत्य में पुद्गल ही नाचनेवाला हूँ, जीव नहीं; जीव तो चैतन्य धारा से बना हुआ है है । इसप्रकार अजीवाधिकार समाप्त होता है । ३. कर्ताकर्माधिकार :
इस अधिकार में अज्ञानी जीव क्रोधादि भावों का कर्ता आत्मा को मानते हैं | उनकी उक्त मान्यता को ज्ञानज्योति दूर करती है । ज्ञानी को पौद्गलिक कर्मबंधन नहीं होता है । द्रव्यकर्म तथा भाबकर्म के कर्तापन का
१. २.
समयसारकला, २८ से ३२ तक। वही, कलम ३३ से ४५ तक ।
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३३४ ]
[ याचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व त्याग करने वाला प्रात्मा ही ज्ञानी हैं । व्याप्य-व्यापक भाव के बिना कर्ताकर्म की सिद्धि नहीं होती, अतः जीव कर्म का कर्ता नहीं है। ज्ञानी रागादि का भी
होता ही होना प्रशानी भीको उक्त परद्रव्य व परभाव के साथ कर्ताकर्म की बुद्धि तब तक बनी रहती है, जब तक उन्हें भेदविज्ञान नहीं हो जाता।' आगे कर्ता, कर्म तथा क्रिया का लक्षण लिखा है कि जो परिणमन करे बह कर्ता है, जो परिणाम हो, वह कर्म है तथा जो परिणति हो, वह क्रिया है-ये तीनों वास्तव में वस्तु स्वरूप से भिन्न नहीं हैं। एक बस्तु ही परिणमित होकर एक परिणाम को करती है. एक ही परिणति होती है, क्योंकि अनेकरूप होने पर भी वस्तु एक ही है । दो द्रव्य एक होकर परिणमित नहीं होते. दो द्रव्यों का एक परिणाम नहीं होता, दो द्रव्यों की एक परिणति क्रिया नहीं होती, क्योंकि अनेक द्रव्य सदा अनेक ही रहते हैं. वे एक नहीं होते । एक द्रव्य के दो कर्ता नहीं होते, एक द्रव्य के दो कर्म नहीं होते, एक द्रव्य की दो त्रियाएँ नहीं होती, क्योंकि एक द्रव्य अनेक नहीं होता । तथापि अनादि काल से अज्ञानी पर का कर्ता अपने को मानकर चारों ओर दौड़ लगाता है । शुद्धात्मा के प्राथय से यदि अात्मा एक बार भी ज्ञानी हो जाता है तो फिर उसे बंधन नहीं होता । सारांश यह है कि यात्मा प्रात्मभाव का तथा पर परभावों का कर्ता है। र घासमिश्रित अच्छा भोजन खाने वाले पगू की तरह अज्ञानी वो पद्गल मिश्रित अपने प्रात्मा की भिन्नता भासित नहीं होती। मृगतृष्णा की तरह अथवा र-मी में सर्वाभास के कारण भागने वालों की भांति अज्ञानी कतृत्व के अहंकार में व्यर्थ प्राकुलित होते हैं । झानी पर को जानता है । ज्ञान की महिमा ही ऐसी है कि उससे अग्नि की उष्णता, पानी की शीतलता, चैतन्यधातु तथा क्रोध का भेद जाना जाता है। ग्रात्मा अपने ही भाव का कर्ता है, अज्ञानी ग्रात्मा भी परभाब का कर्ता नहीं है। प्रात्मा ज्ञान है. ज्ञानमय है, ज्ञान के सिवा कुछ कर भी नहीं सकता। परभावों का कर्ता मानना व्यवहारी- संसारी जनों का मोह – अज्ञान मात्र है । पुनः अज्ञानी की शंका है कि जीव यदि कर्म को नहीं करता तो कौन करता है ? उत्तर में लिखा है कि पुदगलद्रव्य में अपनी स्वयं की परिणमन शक्ति है, अतः वह अपने ही भाव को कर्ता है। इसीप्रकार जीव की भी अपनी स्वयं की परिणमन शक्ति है, अतः वह अपन
१. समयसार कनश, ४५ में ५० तक। २ वही, कलश ५१ से ५३ तक ।
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कृतियाँ ।
ही भाषा का कता है। माना ज्ञानमय तथा आमाली के अज्ञानमय भाव होते हैं। क्योंकि ज्ञानी के भाव ज्ञान रचित होते हैं, अज्ञानी के अज्ञान रचित होते हैं । अज्ञानी के भाव द्रव्यकर्म के बंध में निमित्त होते हैं । अतः जो नयपनपात से मुक्त होकर स्वरूप में मुप्त(लोन) होते हैं; वे विकल्प जाल से रहित होकर साक्षात् अमृत का पान करते हैं । आगे नय बिकापों का विशेष स्पष्टीकरण करते हए लिखा है कि बद्ध, मूढ, रक्त. दुष्ट, कर्ता, भोक्ता, जीव, सूक्ष्म. हेतु, कार्य, भाव, एक, सांत, नित्य, वाच्य , नाना, चेत्य, दृश्य, वेद्य, भात (प्रकाशमान) इत्यादि व्यवहारनय के विकल्प हैं तथा प्रबद्ध . अमूढ़ अादि निश्चयनय के विकाप है। परन्तु जो तत्त्वज्ञानी है, वह पक्षपात रहित होकर आत्मा को चित्स्वरूप अनुभवता है ।* चतन्यमात्र तेजपुंज प्रात्मा के अनुभव से समस्त विकल्प उड़ जाते हैं । अतः यह स्पष्ट हामा कि पक्षातिक्रांत ही समयसार है। ऐसे समयसार के दर्शन को ही सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान कहते हैं । सविकल्प का कर्ताकर्मपना कभी नष्ट नहीं होता । जो करता होता है, वह ज्ञाता नहीं होता; जो ज्ञाता होता है, वह करता नहीं होता । 'करोति त्रिया' में 'ज्ञप्तिक्रिया' भासित नहीं होती तथा 'ज्ञप्तिक्रिया में करोति क्रिया' भालित नहीं होती। निश्चय स न तो कर्ता कर्म में है और न कर्म कर्ता में ही है । ज्ञाता ज्ञाता में है, कर्म सदा कर्म में ही है-ऐसी वस्तु स्थिति है। तथापि नेपथ्य में मोह वेग पूर्वक नात्रता है तो नाचे । अव कर्म कर्मरूप रहता है. ज्ञान ज्ञानरूप । ऐसा गम्भीर - ज्ञानज्योति का महत्त्व है । यहाँ उक्त अधिकार समाप्त होता है। ४ पुण्यपाप अधिकार :
इस अधिकार में शुभ-अशुभ (पुण्य-गाप) कर्म दो पात्ररूप वेश धारण करके पाते हैं । ज्ञान उन्हें जान लेता है कि बे दो नहीं, यथार्थ में एक कर्मरूप ही हैं। जिसप्रकार किसी शूद्रा के दो पुत्र पैदा हुए हों, उनमें एक ब्राह्मण के यहाँ तथा एक शूद्रा के घर पर पला हो, इसलिए उनमें एक मदिरा पीता है, तथापि जाति अपेक्षा तो दोनों एक ही हैं । हेतू, स्वभाव, अनुभव तथा प्राश्रय इन चारों की सजा अभेद होने से कर्म में ही निश्चय से भेद नहीं है । समस्त कर्मों को जिनन्द्र ने बंध का साधक कहा है, अतः सर्व ही
१ समयसार कलश, ५७ से ६७ तक । २. वही, कलश ६८ से ८६ तक । ३. वही. कलश ६० से १६ तक।
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३३६ ।
| प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व कर्मों का निषेध किया है. तथा ज्ञान को ही मोक्ष का कारण निरूपित किया है । यहाँ शंकाकार कहता है कि सभी शुभाशुभ कर्मों का निषेध करने पर निष्कर्म अवस्थावाले मुनि क्या अशरण होने हैं ? उत्तर में कहा है कि उस समय ज्ञान में ही आचरण करते हुए उन मुनियों को ज्ञान ही शरण होता है । ऐसा ज्ञानम्वरूप आत्मा ही मोक्ष का कारण तथा मोक्षस्वरूप होता ! है । एकद्रव्य स्वभावी होने से ज्ञान के स्वभाव ले सदा ज्ञानभवन बनता है, अन्यदन्यस्वभावी होने से कर्म के स्वभाव से ज्ञान भवन नहीं बनता; अतः वार्म मोक्ष का कारण नहीं है, अपितु मोक्षकारणों का तिरोधानकर्ता हैं, इसलिए निमशोय है . वहा कि मोदमानों की समस्तकर्मों का परित्याग करने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि जब तक कर्मों से विरति नहीं होती, तब तक कर्म और ज्ञान का एकत्रितपना होता है. यद्यपि उसके रहने में कोई विरोध नहीं, तथापि ऐसा जानना चाहिए कि अबझपन में जो कर्म प्रगट होता है, वह बंध का ही कारण हैं और एक परमज्ञान ही मोक्ष का कारण है। जो कर्मकाड-मध्यिा तो करते हैं, परन्तु ज्ञानम्वरूप आत्मा को नहीं जानने, ने अज्ञान में हो हए हैं तथा जो जागनय ने इताछ क होकर प्रमादी एवं स्वछंदी हैं. वे भा प्रमाद में ब हैं। परन्तु वे जीव विश्व के ऊपर तैनते हैं, जो ज्ञानरूप होते हुए कर्म नहीं करते तथा प्रमाद के वशीभूत भी नहीं होते है। ऐसी ज्ञानकला प्रगट होते ही शुभाशुभकर्म अपना भेदरूप होकर नाचना बंद करके चले जाते हैं। ज्ञानकला क्रमश: केवलज्ञान ज्योतिरूप परिणत हो जाती है । यहाँ उक्त अधिकार समाप्त होता है । ५. प्रास्त्रवाधिकार :
इस अधिकार में मदोन्मत्त आस्रव का रंगभूमि में प्रवेश होता है, उसे ज्ञानरूप धनुर्धर जीत लेता है। वह ज्ञान उदार, गम्भीर तथा महानोदयवाला है। राग-दर-मोह रहित ज्ञानमय भावों से भावानव का प्रभाव होता है। भावास्रयों के अभाववाला, द्रव्यानवों से स्वभावत: भिन्न ज्ञानी. निरालव ही है. मार ज्ञायक है । वह इसलिए भी निरास्रव कहलाता है. क्योंकि वह समस्त राम को हेय मानकर, बुद्धिपूर्वक का राग छोड़ता है और प्रबुद्धिपूर्णक को गग को भी मिटाने का उद्यम करता है। यहाँ शंका उठाई है कि ज्ञानी के द्रव्यास्रव विद्यमान होते हैं फिर भी उसे निरास्रव क्यों कहा?
१. समयमार कना, १०० से १०८ तक । २. मही. कलम १०६ में ११२ तक |
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कृतियाँ ।
उत्तर में कहा है कि यद्यपि पूर्णबद्ध द्रव्य कर्म सत्ता में रहते हैं. तथापि सर्व राग-द्वेष-मोह का अभाव होने से उसे निरामय ही कहा है । इसप्रकार शुद्धनय में रहकर जो ज्ञानी सदा एकाग्रता का अभ्यास करते हैं, वे समयसार को देखते हैं । ज्ञानी भी शुद्धोपयोग से हटकर जब शुभोपयोगादि में प्रवर्तते हैं, तब रागानुसार बंध होता ही है, इसलिए ज्ञानी को निरंतर शुद्धोपयोग के अभ्यास में लगे रहने का उपदेश दिया है। सर्व कथन का तात्पर्य यह है कि शुद्धनय त्यागने योग्य नहीं हैं, क्योंकि उसके न त्यागने से कर्मबन्ध नहीं होता है । अंत में इस अधिकार का भी उपसंहार करते हुए ज्ञान की हो महिमा का वर्णन किया है।' ६. लपराधिकार :
अब रंगभूमि में संवर का प्रवेश होता है। वहाँ सम्यग्ज्ञान की महिमा सूचना कथन किया है। चिदम्य ज्ञान तथा जम्प गग में अन्यन्त भेद करके, मेद विज्ञान का प्रगट करके मुदित - प्रसन्न होन की प्रेरणा की है । यदि तीनपुस्पार्थ द्वारा धारावाही जान न शद्धारमा का अनुभव किया जावे तो परपरणति के निरोध से प्रगट पानंदमयी प्रात्मा ही प्राप्त होला है। निज प्रात्मा की महिमा में लीन जन ही कर्म मे मुक्ति पाते हैं । संवर शुद्धात्मतत्व की प्राप्ति से होता है, शुद्धात्मा की प्राप्ति भेदविज्ञान मे होती है । इसलिए भेदविज्ञान ही भाने योग्य है । भेद विज्ञान की भावना तब तक निरंतर करना चाहिए, जब तक ज्ञान पर से हट कर मिज में प्रतिष्ठित न हो जावे । भेदविज्ञान की महिमा ऐसी है कि आज तक जितने भी प्रात्मा सिद्ध हुए हैं, वे सभी भेदविज्ञान से सिद्ध हुए हैं तथा जितने आत्मा अभी तक संमार में बद्ध हैं, वे सब भेदविज्ञान के प्रभाव के कारण बद्ध है। अंत में इस अधिकार का भी उपसंहार करते हार ज्ञान की महिमा की है। इसप्रकार संवर भी रंगभूमि से चला जाता है। ७. निर्जराधिकार :
इस अधिकार में निर्जरा का प्रवेश तथा ज्ञान की महिमा का कथन किया है । आगे लिखा है कि यह ज्ञान तथा विराग की ही महिमा है, जो
१. समयसार बानग, १५ से १२४ तक । २. बहो, कलश १२५ से १३१ तक । ३, वही, कलश १३२ ।
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३३८ ।
| प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
कर्मी को भीगते हुए भी ज्ञानी कर्मों से नहीं बंधता । ज्ञानी विषयादिक का सेवन करते हुए भी ज्ञानवैभव तथा विरागता की सामर्थ्य में उनके फल को नहीं भोगता। सम्यग्दृष्टि के नियम से ज्ञान तथा वैराग्य शक्ति होती है, दमी लिए बह स्वरूप का ग्रहण तथा पर का त्याग करता है । यहां ऐसे जीवों का भी उल्लेख किया है, जो सभ्य दृष्टि तो है नहीं; परन्तु अपने को सम्यग्दृष्टि मानकर, "मैं बंध रहित हूँ" ऐसी कल्पना करके अभिमान एवं प्रसन्नता के साथ महावतादि का आचरण, समितियों का पालन भले ही करें, परन्तु वे प्रात्मा र तात्मा के शेवगा से मिले मियाटि ही हैं।
अब अनादि काल से नशे में चूर तथा निद्रा से भरपूर को जगाते हुए लिखते हैं कि जिस पद में तूं लीन है - सोया है, वह अपद है, तेरा पद नहीं है । तेरा पद तो यह शुद्ध, चैतन्यधातुरूप, स्वरम से परिपूर्ण तथा स्थायी है । एकमात्र ज्ञान ही प्रात्मा का स्वपद है, शेष सभी अपद हैं । एक मात्र ज्ञायकस्वभाव के अनुभवरूप महास्वाद को ही प्रारमा प्राप्त करें ऐसा उपदेश है । समस्त पदार्थों को पी लेने वाली : निर्मल ज्ञानज्योति स्वयमेव उछलती है। वह भगवान प्रात्मा चैतन्य रत्नाकर तथा ज्ञानपर्यायम्प तरंगों से तरंगित है । अतः उस निरामय - स्वसंवेदन ग्राह्य भगवान प्रारम। को छोडकर महायत, तप, त्याग आदि कितना ही करे; परन्तु निराकूल मोक्षपद कभी प्राप्त नहीं हो सकता। प्राचार्य मार्मिक सम्बोधन करते हुए लिखते हैं कि है जगज्जनों वह ज्ञानरूप पद कर्मों से दुःसाध्य है, उसे तो निज ज्ञानकला के बल से ही प्राप्त करने का निरन्तर उपाय करो। उसकी प्राप्ति होने पर (अर्थात् सम्यग्दर्शन या यात्मानुभूति होने पर) प्रात्मतृष्टिकारक, वचन अगोचर सुख प्राप्त होगा, फिर किसी से भी पूछने की जरूरत नहीं होगी, क्योंकि स्वयं वह चिन्मात्र चिंतामणि रत्न है, वह समस्त प्रयोजनों का साधक होने में ज्ञानी अन्य परिग्रह का क्या करेगा? अर्थात ज्ञानी को अन्य परिग्रह की जरूरत नहीं होती।' इसप्रकार सामान्यतः परिबह को छोड़कर विशेषतः उसका त्याग ज्ञानी करता है । पूर्वबद्ध कदिव के कारण यदि ज्ञानी उपभोग भी करता है, तो भी राग के वियोग को कारण उसको परिग्रहभाव नहीं होता। वेद्यभाव तथा वेदकभाव दोनों चलित होते हैं। इसलिए ज्ञानी कुछ भी नहीं चाहता, सभी के प्रति अत्यन्त
१. समयसार कलश, १३३ से १४४ तक ।
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कृतियां ]
उदासीन होता है । जिसप्रकार अकषावित बस्त्र से रंग का संयोग नहीं होता उसीप्रकार ज्ञानी राग से रहित होने के कारण परिग्रह वो ग्रहण नहीं करता। वह तो निजरस से भरपर राग के त्यागरूप स्वभाववाला है । वस्तु का जो स्वभाव होता है, वह उस वस्तु के ही प्राधीन होकर वर्तता है, ज्ञानी का ज्ञानस्वभाव होने से बह ज्ञानरूप ही वर्तता है, अज्ञानरूप नहीं । इसी लिए उसे पर के अपराध से उत्पन्न बंधन नहीं होता । ज्ञानी के लिए कर्म करना तो उचित है ही नहीं। उसे परद्रव्य समझकर भोगना भी अनुचित है। क्योंकि परद्रव्य का भोक्ता चोर होता है । अतः ज्ञानी के इच्छा ही नहीं होती। वहाँ इच्छा बिना परद्रव्य का उदयवशात् उपभोग करने से ज्ञानी को बंधन नहीं होता है। तीन कर्मोदय की परवशता में ज्ञानी कर्म करता है या नहीं ? इसे कौन जानता है ? इस शंका के समाधान में लिखा है कि सम्यग्दृष्टि को ही ऐसा साहस होला है कि भयंकर वज्रपात होने से सारा जगत भयभीत होकर चलायमान हो जावे; परन्तु ज्ञानी निर्भय-नि:शंक होता है, अपने को ज्ञानशरीरी जानता है। अतः जानस्वभाव से व्युत नहीं होता है । ज्ञानी को सात प्रकार के भय नहीं होते, इसलोक, परलोक. वेदना, अरक्षा, अगुप्ति, मरण तथा अकस्मात् ये ७ प्रकार के भय हैं, इनका स्पष्ट विवेचन किया गया है।' सम्यग्दृष्टि के पूर्वबद्ध भय यादि प्रजातियों का उदय होता है, उन्हें भोगते हए भी उसके निःशंकादि घृण विद्यमान होते हैं, उससे पूर्ववद्ध कर्मों की निर्जरा ही होती है। इसप्रकार ज्ञान नवीन बंध को रोकता हुप्रा ज्ञानरूप रस में व्याप्त होकर समस्त गगनमण्डल में व्यापक होकर नृत्य करता है। इसप्रकार सक्त प्रकरण पूर्ण होता है । ८ बंधाधिकार :
यहाँ बंध तत्त्व का प्रवेश होता है तथा ज्ञान उसे दूर करके प्रगट होता है । कर्मबंध का कारण न पुद्गलकार्माणवर्गणा से भरा लोक है और न हो : न-वचन-कायरूप योग चेतन-अचेतन का घात भी बंध का कारण नहीं है, उसका कारण तो एकमात्र रागादि से ऐक्य स्थापित करना है । ज्ञानी रागादि को उपयोगभूमि में नहीं लाता, इसलिए मात्र ज्ञानरूप ----..- .----- १. समसार कलश, १४५ से १६० तक । २. वही, कलण १६१ से १६६ तरः ।
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३४० ।
[ प्राचाय अमृतचन्द्र व्यक्तित्व एवं कानुत्व
प्रशिक्षित हो। प्रबंधन प्राप्त नहीं होता। यहाँ साबधान भी किया गया है कि पर से बंध न होने पर भी ज्ञानी निरर्गल प्रवृत्ति कदापि नहीं करता । निरर्गल प्रवृत्ति तो बंध ही का कारण है । अतः प्रत्येक कथन नयविभागपूर्वक हो यथार्थ जानना चाहिये । जो जानता है। यह करना नहीं तथा करता है, वह जानता नहीं। करने का परिणाम राग है, अज्ञान भावरूप अध्यवसान है, बंध का कारण है । उक्सा अध्यवसान मिथ्याष्टि के होता है। वास्तव में जीवों के गुम्न-दुःख यादि सभी कर्मोदयानुसार स्वयमेव होते हैं। कोई किसी का वार्ता धर्म नहीं है, फिर भी अजान के कारय जीव "मैं पर को सुखी करता हूँ'' ऐसे अपवमान करता है । एसे अध्यवसान करने वाले जीर अहंकार के रस से मत्त हैं, मिथ्याप्टिहै व आत्मघाती है। उक्त अध्यवसान गुभाशुभप होने से शुभाशुभ बंध के कारण हूँ । इसप्रकार मिथ्या अध्यवसानों के कारण प्रात्म। अपने को ममत पदार्थों ने स्वारा जन्मय करता हुआ चतुर्गति में परिनमिः होता है। अध्यनमान एकमात्र मोहकंद है, उनके कारण प्रजानी अपन को विश्वम्प करता है। अतः जिनः] प्रकार के अध्यवसान भाव हैं, वे समस्त छोड्न योग्य हैं -- सा जिन्नद्रवबों ना इचदा है। इसीलिए मम त प्रकार का व्यवहार भी ल्याज्य ही हैं । एकमात्र निज शुद्धज्ञानघन प्रात्मा को महिमा में सत्गुरुपों को स्थिर होना चाहिये ।' शंकाकार की शंका है कि रामादि का बंध का कारण काहा तथा शुद्ध वतन्यमात्र ज्योति से भिन्न कहा, तब इस रागादि का निमित्त आत्मा है या अन्य है ? इसके समाधान में कहा कि जिमप्रकार सूर्यकांत मणि के अग्निरूप परिणमन में सूर्य बिम्ब निमित्त है, उसीप्रकार रागादि के परिणाम में परद्रव्य का संग ही निमिन है - एमा वस्तु का स्वभाव प्रकाशमान है। ऐसे वस्तूस्वभाब को अज्ञानी नहीं जानता, यतः रागादि का प्रकर्ता होता है। इस तरह भली-भांति जानकर निमित नैमित्तिक भाव को पहिचानकर समस्त रागादि भावों को जड़ से उमाइत। हमा भगवान आत्मा स्फूरायमान होता है। भेदज्ञानज्योति रागादि के उदय को विदारण करती हई, रागादि के बंध को तत्काल दुर करते ६ए प्रगः होती है, जिसे पुनः कोई प्रावृत्त नहीं कर सकता । इस तरह उक्त अधिकार भी समाप्त हुआ। -- -... .--.-- -.. १. समयमार कलश, १६७ से १७३ तक। २. बही, कलश १७८ मे १७६ तक ।
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कृतियां ]
[ ३४१
६. मोक्षाधिकार :
यहाँ मोक्षतत्त्व का प्रवेश तथा ज्ञान की महिमा को प्रकट करते हुए लिखा है कि प्रवीण पुरुषों द्वारा प्रज्ञारूपी तीक्ष्ण छैनी सावधानीपूर्वक पटकने पर प्रात्मा और कर्मों को भिन्न किया जाता है। इस तरह स्वलक्षण के बल से शेष समस्त पर को भेदा जाता है तथा कारक, धर्म व गुण भेद होने पर भी विभुस्वरूप चतन्यभाव तो अभेद ही हैं, अभेद ही प्रतीत होता हैं । यद्यपि चेतमा एक ही है, तथापि दर्शन-जान अपेक्षा कथंचित् द्वित्व को भी धारण करती है । एक चिन्मय भाव दी ग्राहा है ग्रन्ग सर्वभाव हेय हैं। उदास चित्तवाले मोक्षार्थियों को यह सिद्धांत सेवन योग्य है कि "मैं तो सदा शुद्धचैतन्यमय एक परमज्योति हो हूँ. अन्य सभी मेरे लिए परद्रव्य है ।" आगे कहा कि जो परद्रव्य को ग्रहण करता है. वह माराधी है तथा बंध में पड़ता है तथा जो स्वद्व्य में संवृत्त है लीन है, वह निरपराधी है, वह बंधन में नहीं पड़ता है। अपने को अद्ध चितवन करनेवाला भी अपराधी है तथा अपने को शुद्ध चितवन करनेवाला ही निरपराध है । यहाँ सुख से बैटे हुए प्रम दियों को मोक्ष का अनाधिकारी कहा है ! शुद्धात्मा की पूर्णोपलब्धि तक आत्मारूपी स्तंभ से ही चित्त को बांध कर रहना चाहिए।' जहाँ प्रतिक्रमणादि को विषकुम्भ कहा है, वहां अतिक्रमण आदि अमृत कैसे हो सकते हैं ? अर्थात् कदापि नहीं हो सकते । अतः प्रमाद से नीचे-नीचे क्यों गिरते हो, सावधान होकर ऊपर-ऊपर क्यों नहीं चढ़ते । कषाय के भार से भारी होना प्रमाद है। प्रमादीपना अशुद्ध भाव है, अतः निजस्वभाव में स्थिरता करके ही मुनि मुक्ति प्राप्त करते हैं । चैतन्यामृत के प्रवाह की महिमा गे शुद्ध होकर ही प्रात्मा मुक्त होता है । वहां ज्ञान परिपूर्ण, गम्भीर एवं धीर हो जाता है । इस तरह यह अधिकार भी समाप्त हया । २ १०. सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार :
यहाँ प्रथम ही सब विशुद्धज्ञान का प्रवेश होता है, जो टंको कीर्ण जायक स्वभावी, जानपूज महिमावान् है। जिस तरह आत्मा में कपिने का स्वभाव नहीं है, उसीतरह भोक्तापने का भी स्वभाव नहीं है । प्रकर्ता प्रात्मा को कर्ता मानता यह प्रज्ञान की ही गम्भीर महिमा है । अज्ञान के प्रभाव होने पर स्वतः अभोक्ता स्वभाव प्रतीति में आ जाता है । अज्ञानी प्रकृतिस्वभाव का वेदर है, ज्ञानी नहीं है। अतः निपुण पुरुषों को शीघ्र १. समयसार कलश. १८० से १८ तक | २. वहो. कलश १८६ मे १६२ तक।
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[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व अज्ञानीपने का त्याग करना चाहिए तथा शुद्ध एका प्रात्मतेज में निश्चल होकर आत्मा का सेवन करना चाहिए । ज्ञानी कर्म का कर्ता तथा भोक्ता नहीं है, मात्र जाता है। अतः वह तो वास्तव में मुक्त ही है । जो अात्मा को कर्ता मानते हैं, वे सामान्यजनों की भांति मुवित्त लाभ नहीं करते है । ग्रात्मा का समस्त परद्रव्यों से कोई सम्बन्ध नहीं है | उसमें कतल व कर्मत्वा अभाव होने से परद्रव्य का कर्तृत्व कसे हो सकता है अर्थात नहीं हो सकता। एक वस्तु का अन्य समस्त के साथ सम्बन्ध का निषेध है, इसलिए वस्तुमद हो न पर कर्ता-कर्मपना भी घटित नहीं होता । जिन्हें उक्त वस्तुस्वभाव का नियम जात नहीं है। वे वेचारे प्रज्ञानी होते हुए स्वयं ही भावकर्म के कर्ता होते हैं। जो कार्य है, वह अकृत (कर्ता विना को) नहीं है और दो द्रव्यों का किया हुआ भी नहीं है। यदि कर्मकृत माना जावे तो कर्मों के उनके भोक्तापने का भी प्रसंग आवेगा, अतः भावकर्म का कर्ता जीव है, कर्म नहीं । ' कोई-कोई प्रात्मधातो, कर्म को ही कर्ता मानकर आत्मा के कर्तृत्व को सर्बथा उड़ाते हैं तथा आत्मा को कथंचित् कर्ता कहने वाली थुनि (जिनवाणी) को कोपित करते हैं । ऐसे मोह । मुद्रित ज्ञान ने वालों को वस्तुस्थिति समझाई जाती है। अहंत मतानुयायी को सांख्यमत की तरह प्रात्मा को सर्वथा अकर्ता नहीं मानना चाहिए, अपितु भेदज्ञान होने से पूर्व तक उसे कर्ता मानना चाहिए। कोई क्षणिकवादी (बौद्धमती) प्रात्मा को कपित क्षणिक मानकर का अन्य तथा भोत्रता अन्य बताते हैं, उनके मोह का भी चेतन्यचमत्कार अपन अमृत समूह स दूर करता है। पर्याय के नाश में
न्य का नाश नहीं होता, अतः कोई अन्य को कर्ता, कोई अन्य को भाक्ता भी मत मानो । ऋजुसूत्रनय का विषयमात्र वर्तमान पर्याय है, उस नय के ग्रहण मात्र म अात्मा को शुद्ध व क्षणिक मानना यथार्य नहीं है। जियप्रकार मुत्र में पिरोई मणिमाला भेदी नहीं जा सकती. उसीप्रकार आत्मा में पिरोई गई चैतन्यरूप चिंतामणि की माला भी कभी भेदी नहीं जा सकती । ऐसी चैतन्यमाला हमें प्राप्त होथे । आग कहा है - व्यवहाराष्ट मे का कर्म भिन्न कहे गये हैं, निश्चय से बस्तुस्वरूप विचारने पर वे अभेद ही हैं । वास्तव में परिणाम ही कर्म है और परिणाम परिणामी बिना नहीं होता, इसलिए प्रत्येक वस्तू अपन ही परिणाम की कर्ता है। अन्य बस्तुएँ तो बाहर ही लोटती रहती हैं । बाहर लोढने वाली वस्तु अन्य वस्तु का कुछ भी नहीं कर
१. समयसार कला. १६३ मे २०४ तुक । २. वही, कलश २.५ से १६ तक।
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कृतियाँ ।
| ३४३ सकती। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता है, यह व्यवहार स कहते हैं, परन्तु निश्चय से ऐसा है नहीं। जिराप्रकार पृथ्वी चांदनी की नहीं हो जातो, फिर भी पृथ्वी को धवलित करती रहती हैं, उसीप्रकार ज्ञेय ज्ञान के नहीं हो जाते, तो भी वे ज्ञान में झलकते हैं। राग-द्वेष कोई पृथक सत्तावाले द्रव्य नहीं हैं, जीव के अज्ञान भाव हैं, तत्वदृष्टि से वे ही कुछ वस्तु नहीं हैं । तत्वदृष्टि से ही यह जाना जाता है कि रागद्वेष की उत्पत्ति के परद्रव्य किंचित् भी कारण नहीं हैं, क्योंकि गर्व द्रव्यों की उत्पत्ति गाने स्वभा से ही होती है। राग तथा द्रुष की उत्पत्ति में परद्रव्य का किंचित् भी दोष नहीं है । परद्रव्य को दोष देनेवाले मोहरूपी नदी को पार नहीं करते क्योंकि वे शुद्धज्ञाम से रहित अंध होते हैं। आगे अज्ञानी को राग-द्वेषमय होनेवाला लिखा है तथा ज्ञानी को ज्ञानसंचेतना करनेवाला बताया है । ज्ञानसंचेतना से कर्मबंध नहीं होता, अज्ञानचेतना से कर्मबंध होता है। प्रतिक्रमण, आलोचना तथा प्रत्याख्यान कापों का स्वरूप संक्षेप में इसप्रकार कहा है - मोह-अज्ञान से भूतकाल में किये कर्मों से हटना चैतन्यस्वरूप प्रात्मा में लगना प्रतिक्रमण है, वर्तमानकालीन दोषों से हदना तथा प्रात्मा में लगना, वह आलोचना है तथा भविष्यत्कालीन विकल्पात्मक कर्मों में हटना तथा प्रात्मा में लगना, वह प्रत्याख्यान है । प्रागे सकलकर्म फल संन्यास भावना को नचाकर अनंतकाल तक आनंदामृत पीने की प्रेरणा दी है । साथ ही शुद्धज्ञानधन की महिमा के उदित होने की भो भावना भाई है। समस्त शक्तियों को समेटकर आत्मा में स्थिर होना ही समस्त त्याज्य का त्याग है तथा समस्त ग्राह्य का ग्रहण है । जान के देह तथा कर्म-नोकर्मरूप पाहार भी नहीं होता है | ज्ञाता के लिए लिंग मोक्ष का कारण नहीं है । मुमुक्षयों को तम्बादर्शन-ज्ञान-चारिकरूप प्रात्मा ही सेवन योग्य है, वही मोक्षमार्ग है । मोक्षमार्ग एक ही है, अतः जो पुरुष उसी में स्थिति प्राप्त करता है, उसीका ध्यान करता है, अनुभव तथा स्पर्श करता है, उसी में बिहार करता है, वह समयसार शुद्धात्मा के रूप) को प्राप्त करता है । जो व्यलिंग में ममत्व करते हैं, वे समयसार को नहीं जानते । व्यवहार में मोहित बुद्धि जन परमार्थ को नहीं जानते हैं, जैसे तुष को ही जाननेवाला तंदूल को नहीं जानता है । अंत में टीकाकार लिखते हैं कि अधिक कथन करने से क्या
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१. समयमार कलश, २१० स २२१ लकः । २. वही, कलश २२६ से २३५ तक |
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३४४ |
| आचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
प्रयोजन है ? एकमात्र परमार्थ का ही निरंतर अभ्यास करो, क्योंकि समयसार उच्च अन्य कोई भी पदार्थ नहीं है । समयसार ही जगत् को जानने वाला एकमात्र नेत्र है ऐसा नेत्र पूर्णता को प्राप्त हो। इसप्रकार उक्त अधिकार भी समाप्त हुआ ।"
११: स्याद्वादाधिकार :
इस अधिकार में वस्तुतत्व की व्यवस्था तथा उपाय उपय भाव को सुघटित करने हेतु पुनः विचार किया है। स्वाद्वाद् को पत् जिनेन्द्रका (ख) अस्खलित शासन कहा है। इसमें स्वरूप से उत्पना, पर से अपना ज्ञानापेक्षा एकपना, ज्ञेयाकार अपेक्षा अनेकपना, स्वद्रव्यापेक्षा सत्ता, परद्रव्यापेक्षा, सपना, स्वक्षेत्रापेक्षा प्रतिक्षणना परक्षेत्रापेक्षा नान्नित्यपना, स्वकाल अपेक्षा अस्तित्व परकाल अपेक्षा नास्ति, से प्ररित, परभाव से नास्ति, द्रव्यापेक्षा नित्यत्व, पर्याय अपेक्षा श्रनित्यत्व इसप्रकार १८ भंगों द्वारा विशेष स्पष्टीकरण किया है। इस तरह अज्ञानी जनों को अनेकांत ज्ञानमात्र आत्म तत्व की प्रसिद्धि करता है | अनेकांत जिनेन्द्रदेव का अलंघ्य शासन है- स्वयं सिद्ध है ।
स्वभाव
१२. साध्य साधक अधिकार :
इसमें आत्मा की अनेक शक्तियों सहित होने पर भी आत्मा ज्ञानमात्रमयता को नहीं छोड़नेवाला लिखा है । एकांत नहीं अर्थात् अनेकांत संगत वस्तु का स्वरूप है, उसकी सिद्धि स्वाद्वाद द्वारा होती है । स्याद्वाद घनीय जिन नीति है । यहाँ उपाय उपय भाव का चिंतन करते हुए कहा कि उक्त ज्ञानमात्र स्वरूप भूमिका को पाकर सिद्धदशा प्राप्त होती है, परन्तु अज्ञानी उस भूमिका को न पाकर संसार में ही भटकते हैं। इसतरह स्याद्वाद की प्रवीणता तथा सुनिश्चल संयम सहित अपनी भावना करनेवाला ज्ञान व विनय की परस्पर तीव्र मैत्री का पात्र होकर ज्ञानमात्रमय गिज भूमिका को पाता है । अंत में उपसंहार करते हुए लिखा है कि चिपिण्ड (अनंतदर्शन), शुद्धप्रकाश (अनंतज्ञान), श्रानंदसुस्थित ( अनंत सुख) तथा प्रचलाचि (अनंतबीयें) को प्रगट करता हुआ आत्मा उदित होता है । उनके शुद्धप्रकाश के समक्ष बन्ध-मोक्ष सम्बन्धी अन्य भाव निष्प्रयोजन प्रतीत
१.
समयसार कलश, २३६ मे २४५ तक | २. बही, कलम २४७ से २६३ तक | ३. बही २६४ मे २६७ तक ।
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कृतियाँ :
होते हैं। अनेक शक्तियों का समूह यह यात्मा नयों की दृष्टि से खंड-वड होता हुआ नाश को प्राप्त होता है। अतः अखंड, एक, शांत. एकांत और अत्तल स्वरूपी चैतन्यमात्र तेज आत्मा है। प्रात्मा मेचक-अमेचक आदि दिखाई देने पर भी ज्ञानी उसके यथार्थ निमंल ज्ञान को नहीं भलता। वह जान, जेय तथा ज्ञाता तीनों भावसंयुक्त मामान्यविशेष वस्तु है । प्रात्मा का अनेकांतम्बरूप वैभव अदभुत है। विभिन्न दृष्टियों से वह एक-अनेक, नित्य-अनित्य. तन्-अतन् हा दिखाई देता है । वह पर्याय दृष्टि से कषायों से मलिन, द्रव्य दृष्टि से मांति युक्त निर्मल, निश्चय से मुक्ति को स्पर्श करता हुआ तथा व्यवहार से सांसारिक पीड़ा युक्त दिखाई देता है । अत: एकमात्र चैतन्य चमत्कार मात्र होने पर भी आत्मा अनेक प्रकार दिखाई देता है । अन्चल चेतनारूप, मोह को नाश करनेवाली जो निर्मल पूर्ण ज्योति है - ऐसी 'अमृतचन्द्रज्योति' मुझे प्रगट हो। इस तरह आत्मा मात्र ज्ञातादृष्टारूप ही बना रहता है। टीकाकार ने अंतिमपद्य में व्याख्या करन के कत्वमा विकमा का निषेध किया है तथा स्वरूप गुप्त अमृतचन्द्र को उसका अकर्ता बताया है। उपरोक्त समस्त प्रतिपाद्य वस्तु प्रायः आत्मत्याति टीका के ही विस्तृत भावों को संक्षेप में समाहित किये हुए है। पाठानुसंधान :
'समयसारकलश' की टीकाएँ एवं पाण्डुलिपियां संकड़ों की संख्या में विभिन्न ग्रन्थभण्डारों में विद्यमान हैं। इसके प्रकाशन एवं संस्करण भी अनेक प्रगट हो चुके हैं। यह बात आगन तालिकानों से स्पष्ट होती है। प्रात्मख्याति टीका की अपेक्षा उसके पद्यरूप समयसार कलशों का प्रचार एवं प्रसार बहुत हुआ है । इसकी ताडपत्रीय. हस्तलिखित कागज एवं कपड़े पर उपलब्ध मूल पाठ विभिन्न कालों के हैं, जिससे उक्त कृति के प्रचार की पारव्यापी एवं क्षेत्र यापी अविच्छिन्नधारा का ज्ञान होता है । दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों में यह कृति समानरूपण समाइत रही है । विभिन्न स्थानों के शायभगतारों की खोज से इसकी अत्यन्त प्राचीन पाण्डुलिपियाँ जपलब्ध हुई । इनमें सबसे प्राचीन पाण्डुलिपि ई. सन् १६११ की उपलब्ध हुई है। यह प्रति जयपुर के बड़े तेरहपंथी जैन मन्दिर में लगभग ६ इंच नोड़ तथा ५१ फुट लम्बे कपड़े पर दोनों तरफ लिखित है । प्रारम्भिक कुछ ८-१० पद्य प्रति के प्रांशिक जीर्ण-शीर्ण हो जाने के कारण स्पष्ट एवं
१. समयसार कल श. पञ्च २६८ से २७८ तक ।
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३४६ ]
| प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कतृत्व
पूर्णतः पाट्य नहीं है, शेष पद्य सूपाठ्य हैं । उक्त प्रति के मूल पाठ का कुछ मुद्रित प्रतियों के मूल पाठों से मिलान करने पर कुछ पाठान्तर एवं त्रुटियाँ सामने आई हैं। उक्त कपड़ेवालो प्रति के अतिरिक्त ई. सन् १९९५ में प्रकाशित प्रथम गुच्छक है, जो पं. पन्नालाल चौधरी द्वारा सम्पादित एवं काशी से प्रकाशित है । दूसरे सन् १९३१ में ब्र. शीतलप्रसाद द्वारा सम्पादित नथा सूरत से प्रकाशित ग्रन्थ है। तीसरे सन् १६६६ में पं. फूलचन्द्र शास्त्री द्वारा सम्पादित तथा सोनगढ़ से प्रकाशित कृति है तथा चौथे ई. १९७७ में पं. जगन्मोहनलाल शास्त्री द्वारा सम्पादित तथा कटनी से प्रकाशित ग्रन्थ है। इन सभी का उपयोग पाठानुसंधान में हमा है। यहां पाठान्तर की जानकारी हेतु तुलनात्मक तालिका उदाहृत है - कलश काशी सूरन सोनगढ़ कटनी क्र. १६२५ १९३१
१९७७ २८ प्रस्फुरम्नेक प्रस्फुरस्नेक प्रस्फुटनेक प्रस्फुटन्नेक ३२ प्रत्यावयत् प्रत्यादयत् प्रत्याययत् प्रत्याययत् ३५ चिच्छक्ति - चिच्छक्ति - चिच्छक्ति - चिच्छक्ति - ३६ सकलमपि - मउमपि - समसामपि :- का४१ मिदं स्फुटम् मबाधितम् मबाधितम् मबाधितम् ४३ बत्
बत जयपुर की ई. १६११ की कपड़े पर लिखित प्रति में अनेक स्थलों पर शब्द, वाक्य एवं पंक्तियाँ तक छटी हैं । कहीं पर पुनः लिखा गया है, अतः उक्त प्रति में अत्यधिक श्रुटियाँ होने के कारण पाठानुसंधान की दृष्टि से उसका महत्त्व विशेष नहीं है ।
__ इसप्रकार तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट है कि हस्त लिखित प्रति में लिपिकार की लिपि विषयक त्रुटियां बहुत हैं; किन्तु मुद्रित प्रतियों में उन वृटियों का यथासम्भव परिमार्जन हृया है । यह परिमार्जन उत्तरोत्तरवर्ती प्रतियों में अधिक होता गया है । परम्परा :
समयसार कलश में द्रव्यानुयोग तथा जन-अध्यात्म का उत्कृष्ट रूपेण प्रस्फुटन हुआ है । प्रात्मख्याति टीका में वर्णित अध्यात्म परम्परा को ही समयसार कलशों में साररूपेण समाहित किया गया है। छंद विद्या की सरस व हृदयहारी परम्परा की झलक भी सत्र प्रकट है। समयसार कलश
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कृतियां ।
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में दार्शनिकता, सैद्धान्तिकता, आध्यात्मिकता तथा काव्य रसिकता की धाराएँ कोक होकर तांगित एवं समाहित हुई है । महक वित्व का उत्कृष्ट रूप भी उक्त कृति में अभिव्यक्त पाते हैं। प्रणाली:
समयसार कलश में माद्यन्त तत्त्व निरूपण प्रणाली का अनुसरण हुआ है । नयात्मना तथा स्थाद्वादात्मक ऋथनशैली द्वारा अनेकांतात्मक ज्ञानस्वरूप प्रात्मा के शुद्ध स्वरूप का निरूपण अथवा समयसार के दर्शन कराना ही अध्यात्म निरूपण का चरम ध्येय है, उसी ध्येय की प्राप्ति का प्रयास समग्र अन्य में सुष्ठुरूपेण हुआ है । ग्रन्थ वैशिष्ट्य :
"समयसार कलश" कृति में अनक विशेषाताएं है। उनमें कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं - १. छंद विद्या का वैज्ञानिक प्रयोग अप्रतिम है। २. भाषा का अर्थ गाम्भीर्य, माधुर्य तथा रसातिरेक असाधारण है। ३. भावों के उत्कर्ष-अपकर्ष की अनुगामिनी भाषा तरंगिणी की भौति
तरंगित हो उठी है। ४. अध्यात्म का अमृत समस्त कलशों में से छलक उठा है।
प्रौद्ध दार्शनिकता, उच्चकोटि को परिमार्जिन भाषा, महाकबि को
प्रतिभा इन्यादि वैशिष्ट्यों से उक्त कृति समलंकृत है। ६. इसके रसिक पाठक व अध्पेता इसके प्रत्येक गुणों पर मोहित हो
उठते हैं । मनम यूर आत्मानुभव के परमानंद में मस्त होकर नाच उठता है।
समसार कलश से अनुप्राणित टीकाएं एवं टीकाकार १. ई. ९१५ -१६५, टोकानाम - समयसारकलश, टोकाकार - आ.
अमृतचन्द्र, भाषा - संस्कृत पद्य, जानकारी स्रोत – उपलब्ध । ई. १५१६ दी, ना. - परमाध्यात्मतरंगिणी, टी. - भट्टारक
शुभचन्द्र, भाषा - संस्कृतगद्य, जा. सो - उपलब्ध । ३. ई. १५८४, टी, ना. - समयसारकलशटीका, टी. - पाण्डे राजमल,
भाषा - ढ़हारी, हिन्दोगद्य, जा. स्रो- उपलब्ध । ४. ई. १६३६, दी. ना. - नाटक समयसार, टी. - पं. बनारसीदास.
भाषा - हिन्दीपद्य, जा, स्त्री- उपलब्ध ।
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३४८ ।
| प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
५. ई. १६६०, टी, ना, - नाटक समयसार, दी. - सदारंग ऋषि
श्वेताम्बर, भाषा - हिन्दीपद्य, जा. स्रो, – अर्धक. ६२ -६३ । ६. ई. १८०७, टी. ना. - समयमारभाषायचनिका, टी. - पं. जयचंद
छाबड़ा, भाषा - हिन्दी (दढारी, जा. स्रो - अर्धक. ६३ - ६४ । ई. १७६३ - १८६३, दी. ना. - समयसारनाटकटीका, दी. -- पं. सदासुखदास, भाषा - हिन्दीगद्य', जा. सो. - अर्धक.६३ ।। ई. १८७६, नाटकसमयसारटीका, टी. - भीमसी माणिक श्वेतांबर, भाषा - गुजराती, जा, स्रो. - अर्चक. ६३ । ई. १९२३, टी. ना. - नाटकसमयसारकलश, टी. - अ. कंकुबाई,
भाषा - मराठी, जा. स्रो. - प्र. सि. अज्ञात । १०. ई. १९२६, टी. ना. - समयसारकलगटीका, टी. - अ. शीतलप्रसाद,
भापा - हिन्दी, जा. खो. - पु. सि. । १५. ई. १८१२, टी. ना. नाटकसमयसार टीका, टी. - ऋषिजिनदत्त
श्वेतांबर, भापा - हिन्दी, जा. स्रो. - अर्धक. ६४।। १२. ई. १९२६, टो. ना, - नाटकसमयसार टीका, टी. - पं. द्धिलाल
वावक, भाषा - हिन्दीगद्य, जा. सो. .. अर्धा. ६४।। १३. ई. १८८२, टी. ना. - नाटकसमयसार टीका, टी. - गजसार मुनि
श्वेताम्बर, भाषा - हिन्दी, जा. ना. - अर्धक. ६४ । १४. ई. १९४८, टी. ना. - निजानंदमार्तण्ड, दी, - मुनि सूर्य सागर,
भाषा - हिन्दी पद्य-पद्य, जा. सो. - अर्धक.६४ । १५. ई. १९६५, टो ना. - समयसारकलशः नाटकम् . टी. - क्षु. प्रादि
सागर, भाषा - मराठी, गद्य, जा. स्रो - अर्धक. ६४ । १६. द. १६७५, टी. ना. - अध्यात्मअमृतकलश, टी. - पं. जगन्मोहनलाल
शास्त्री, भाका - हिन्दी, जा. यो. अर्धा. ६४ । १७. ई. .............", टी. ना. स्व. नाना रामचन्द्र नाग, भाषा - हिन्दी,
जा. स्रो - अर्धव.. ६।।
समयसारकलश तथा तदनसारी टीकाओं की पाण्डुलिपियां प्र :- ताडपत्रीय पाण्डुलिपियाँ :१. लिपिकाल - १६८६ .., लिपिकार - शुभचन्द्र, विपि - संस्कृत
पद्य, जानकारी स्रोत – के. सं. प्रा. पा. लि, जेसलमेर ३०६ । लिपिकाल - १७७५ ई. लिपिकार - देवेन्द्रकीति, लिपि - संस्कृतपद्य, जानकारी स्रोत - के. सं. प्रा. पा. लि. जेसलमेर ३५३ ।
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कृतियों ।
| ३४६
अ. कपड़े पर पाण्डुलिपि :१. लिपिकाल - १६१११, लिपिकार - अमृतचन्द्र, लिपि - संस्कृत
पद्य जानकारी स्रोत - ते. जै. मं., जयपुर । स. कागज पर पापस लिपियां :१. लिपिकाल - १४४३ ई., लिपिकार - अमतचन्द्र, लिपि - संस्कृत
पद्य, जानकारी स्त्रोत - ते. जे. मं. जयपुर (वे, नं. १६४५) । २. लि. - १५४५, लिपि. - अमृतचन्द्र, लिपि - संस्कृत-पद्य, जा. स्रो
रा. ज. को भ. प. ३:४३ ! ३. लि. - १५६६. ई., टी. - पं. राजमल, लि, - हिन्दी-गद्य,
जा, स्रो - प्रशस्ति सं. पृ. ६५७ ।। ४. लि. - १६६०, लिपि - सदारंग ऋषि श्वेताम्बर, लि. - हिन्दी
(कलकत्ता म्युजियम) जा. स्रो - अर्धक. ६३ - ६४ । ५. लि. -- १६६२, टी. .- अमृतचन्द्र. लि. - संस्कृत-पद्य उज्जैन में),
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(फागुई में) , जा. स्रो-ते. जे. में. जयपूर (वे. नं. १८५४)। ७. ई. - १८१२, टी. - ऋषि जिनदत्त श्वेताम्बर, भाषा - हिन्दी,
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जा, सो - अर्धक. - ६३ : १. ई. - १८८२, टी. - गजसार मुनि श्वेताम्बर. लि, ~ हिन्दी,
जा. स्रो. - अर्धक. - ६४ १०. ६. - १८८६, टी, - पं. राजमल्ल, लि.- हिन्दी, जा. स्रो, - रा.जे.
शा. भ. सू. ३:४५ । ११, ई, - १६८६, टी. - अमृतचन्द्र, लि. -सं. पद्य, जा. स्रो. रा. जै शा.
भ. सु. ४:१२० 1 १२. ई. -१६६८, टी. - पं. राजमल, लि, - हिन्दी (दिल्ली) जा. स्रो.
अनेकांत, जन. ४१ पृ. ३४६ - ३५५ ।। ई. - १७०१, टी. - पं. राजमल्ल, लि. - हिन्दी, जा. स्रो. - रा.
जै. शा. भ. सू. ३:४५। १४. ई. - १७६३, टो, - पं. राजमल, लि. - हिन्दी, जा. स्रो. -
रा. जै. शा. भ. सू. २:४५ ।
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३५० ]
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
१५. ई. १८१५, टी. - अमृतचन्द्र, लि. - संस्कृत (दिल्ली), जा. स्रो. अने., जून ४१ ३०६ – ३५५ ।
१६. ई. ·
टी. - नित्यविजय, लि. - संस्कृत. जा. त्रो. रा. जे. शा. भ. सू. ५/२२२ ।
१७. ई. १५० टी. - नाटकसमयसार लि. - हिन्दी (सागर में ), जा स्रो. स. सा. क. टी. पू. २/१६५० ।
-
१८. ई १७१८, टी.
२५. ई.
मं.
—
जा. स्रोस. सा. के. टी. पृ. २:१३५० ।
स्त्रो
१६. ई. - १६३३, टी. - समयसारनाटक लि. बनारसीदास, जा. ते. जं. म., जयपुर . . १८८४ ।
२०. ई. - १६५७, टी. - नाटकसमयसार, लि. बनारसीदास, जा. त्रो. श्रादर्शनगर, जयपुर
२१. ई. - १७३६. टी. - नाटकसमयसार, लि. बनारसीदास, जा. स्रो. - ते. जं. म., जयपुर वे. क्र. १८७६ ।
२२. ई. - १७३६. टी.
समयसारनाटकटीका, रूपचन्द, जा. खो.
ते. जै. म., जयपुर, वे क्र. १५७९ । २३. ई. १८१७, टी. - नाटकसमयसार, सदासुख, जा. सी. - ते. जं. मं., जयपुर, वे. क्र. १८६१ । (फोटो कापी संलग्न) १८८० टी. स. सा. नाटक, बनारसी (दिल्ली), जा. स्रो कांत जून ४१.३४६ – ३५५
२४. ई.
१८६३ टी. स. सा. ना. टीका रूपचन्द. जा. स्रो- ते. पं. जयपुर
चे. नं. १८७० |
३.
—
४.
नाटकसमयसार लि. - हिन्दी ( अंकलेश्वर),
-
—
--
-
समयसारकलश के विभिन्न प्रकाशन व संस्करण
१. स. सा. ना. पं बनारसीदास, सं. ग्रं. मा. दिल्ली, १६५० ।
२.
स. सा. ना. पं. बुद्धिलाल श्रावक, वर्ध पब्लिक लायब्ररी, दिल्ली, १६६२ ।
-
स. सा. क., . शीतलप्रसाद, मूलचन्द किशनदास, सुरत, १६३१ । रा. सा. क., पं. फूलबन्द जी, दि. जे. स्वा. मं. ट्रस्ट, सोनगढ़ १६६४ ।
५. स. सा. क., पं. फूलचन्द जी, दि. जे. स्वा. मं. ट्रस्ट सोनगढ़, १६६६ ।
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तिर्या ]
किषतापकाउनेकोसंबरलगप्रयाहमामंचधर्मकोधारनेवालाहरुकोमोना नामरानीमहे वाकायरतापखंडकोशाटनयोधर्मरैयामेरोगकोटको
करनकोतरमहा नावानसममस्तपरमानना हालागरकहिएतरस्नान मुस्वाससमक्ष नाटकसमय की महाजाकारताकपागनापरमावसचनापारनदलसुखसागार २२५ कामीमाहेमर्यादा यस्कोम्परेचरमोतमार्गकासाश्नकसा जानरूपयानस्सारकोरीत
कीसामसंबरकोरुपयरैमासिवराहसोज्ञानयातसाहता ||मलीमहे । कोमेरीतमलोयाऽतिश्रीसंनयमारनाटकार्थनाममयस
। . नाटकमयमापनाकापनेपूर्णफयायागुनस्थानमा निकासपूर्ण चोहानयोग्थमंपूनावावरनायनयातका
अत्याकावनिकहालककहियथाशक्तिकाहित्रवपदोयहिएसंवतपयकामा | ल. कातनबाद सप्तमीपूीटप्पगलियामदामुघकामती सलवचनकाट पाया|
(पको रिम कीयो
सावरननगरकहालोकहिजथामकतिकहिपकरहिया नाटक समयसार (पं. बनारसीदास कृत) हिन्दी टीका पं. सदासुखदासकृत. लिपि - १९३३ या १६१४ संवत्, तेरहपंथी दि जैन मन्दिर, जयपुर के एक पृष्ठ की फोटो।
सारवाबानकरी
-
D
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३५२ ।
। प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व ६. परमाध्यात्मतरंगिणी. शुभचन्द्र भट्टारक, शा. वी. ज. सि. प्र.
संस्था, महावीरजी. १६६३ । ७. परमाध्यात्मरंगिणी, शुभचन्द्र भट्टारक, भारतीय जै. सि. प्र. संस्था,
कलकत्ता। ८. अध्यात्मममृतकला, पं. जगनमोहन लालजी, चन्द्रप्रभ दि. ज. ..
कटनी १६७७ । ६. म. सा. मा., पं. बुद्धिलाल श्रावक, श्री दि. जैन. स्वा. म. ट्र.
मोनगढ़, १६७०) १०. (प्रथम गुरुन्छका में संकलित मूल स. सा. क.), पं. पन्नालाल चौधरी,
काशी, १९२५ । कलमागीत, प्रा. विद्यासागर, श्री श्यामलाल विजयवर्गीय, ग्वालियर,
१९७८ । १२. निजामतपान, प्रा. विद्यासागर, मंत्री राज. जे. सभा, जयपुर,
१९७६ । १३. निजानंद मार्तण्ड, सूर्यसागर, से. हीरालाल, इन्दौर, १९४८ | . १४. समयसार कलशनाटकम् क्षु. आदिसागर, रतनचन्द सखाराम शाह
मोलापूर, १६७०। १५. परमाध्यात्मतरंगिणी. सं. अजितसागर, प्र.लाड़मल जैन, महावीरजी.
१९७६ । १६. समयसार वलशासहित, बुद्धिलाल, जै. न. र. का. बम्बई, १९२६ । १७ नाट कासमयसार कालशः, ब्र. कंकुबाई, कारंजा, १६२३ ।
उपरोक्त प्रकाशनों के अतिरिक्त प्रात्मख्याति टीका के प्रकाशनों के
साथ समयसार कलशों का भी अनेक बार प्रकाशन हया है।) १८ समयसार कलश, पं फूलचन्दजी. स्वा. मं. ६, सोनगढ़, १६७० । १६ कलमागीत. प्रा. विद्यासागर. श्यामलाल विजयवर्गीय, ग्वालियर,
१६७५। निजागृतपान, सा. विद्यासागर, बाबूलाल सेठी मंत्री रा. जै स.
जयपुर. १६७७ । २१. स सा क. टीका., न. नन्दलाल द्वारा दि. जै. अ. मा. भिण्ड,
१९५० । २२ प्रवचन रत्नाकर भाग १, मंत कानजी स्वामी, कु. कु. क. ऐ. बम्बई,
१६८० |
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कृतियाँ ।
तत्वार्थसार पञ्च टीकानों में आचार्य अमृतचन्द्र कृत "तत्वार्थसार" नामक कृति है । जिस प्रकार समयसार कलश अध्यात्म विषयक पद्य टीका है, उसी प्रकार तत्वार्थसार भी तत्त्वार्थ विषयक पद्य टीका है । इस कृति को कुछ विद्वान मौलिक तथा स्वतन्त्र कृति' मानते हैं। इसमें संदेह नहीं है कि परम आध्यात्मिक तथा गम्भीर दार्शनिक अमृतचन्द्र के व्यक्तित्व से अनुप्राणित यह कृति मौलिक तथा स्वतन्त्र जैसी ही प्रतीत होती है । इसमें उनकी कुछ मौलिक विशेषताएँ भी निहित हैं । इसलिए कुछ विद्वानों ने इसे स्वतन्त्र कृति पाना है. परन्तर ताने बरे पगटीका के पानगत समाहित किया है, जिसके कुछ कारण इस प्रकार हैं:
प्रथम तो तस्वार्थसार पुरुषार्थसिद्ध युपाय की भांति स्वतन्त्र रचना नहीं है, अपितु प्राचार्य उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर ही पल्लविन तथा विकसित रचना है । जैसे तत्त्वार्थसूत्र की अन्य गद्य टोकायों के नाम तत्त्वार्थ राजवातिक तथा तत्वार्थ लोकवार्तिक एवं तत्त्वार्थ वृनि हैं. उसी तरह इस पद्य टीका का नाम तत्वार्थसार है। दुसरे, इसमें तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रों को ही सविस्तार स्पष्ट किया गया है। कहीं-कहीं तो मलसूत्र के गद्य को पद्य रूप प्रदान कर दिया गया है। तीसरे, अन्य गद्य टीकानों सर्वार्थसिद्धि, तत्वार्थ राजवातिक आदि के गद्यांशों का भी प्रयोग पद्यरूप में किया गया है। चौथे, टीकाकार ने भी मंगलाचरण रूप पद्य में यह स्पष्ट लिखा है कि तत्वार्थसार नामक यह कृति मोक्षमार्ग को प्रकासित करने वाले दीपक के समान है। इसमें मुमुक्षुत्रों के हित के लिए तत्त्वार्थ का ही सार अत्यन्त स्पष्ट रूप से कहा गया है । इस प्रकार तत्वार्थसूत्र गत भावों का हो प्रमुख रूप से प्रतिपादक तथा सुविस्तारक होने से इसे स्वतन्त्र मौलिक रचनाओं के अन्तर्गत न गिनाकर, पद्य टीकात्रों के अन्तर्गत गिनाया है। तत्त्वार्थसार यद्यपि तत्वार्थसत्र तथा अन्य भाष्यों से अनुप्राणित है, तथापि उसके कुछ मौलिक वैशिष्ट्य भी हैं, जो ग्रन्थ की मांशिक मौलिकता की प्रतीति कराते हैं। यह कृति भी प्रकृत प्राचार्य की आध्यात्मिकता की छाप
१. तत्वार्थसार परतावनर, '. १६, प. पन्नालाल साहित्यामा ।
वही, प्र. पृ. २७ । (३.) अथ तत्वार्थसारोऽयं मोक्षमार्गक दीपकः ।
मुमुक्षरणः हितार्थाय प्रस्पमित्यभिधीयते ॥२॥ तत्वार्थसार, पद्य क्र. ३ ।
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३५४ ।
| प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व से अछूती नहीं है । जहाँ अकलंक देव में सर्वार्थसिद्धि के अनुसार सात तत्व का विवेचन किया है, वहाँ अमृतचन्द्र ने आध्यात्मिक शैली में ''हेय. ज्ञेय उपादेय" के साथ तत्वों का परिचय कराया है। निश्चय व्यवहार का संतुलित कथन भी किया है। षट्कारकों को एक आत्मा में ही सुघटित करना उनकी अध्यात्म शैली के परिचायक है। यथार्थ में तत्वार्थसूत्र तथा उसके वार्तिकों में तत्त्वज्ञान का अगाध रत्नाकर समाया हुआ है, उस रत्नाकर के ही मथितार्थ को एवं तत्त्व विषयक रत्मों को संग्रहीत करके तत्वार्थसार नामक ग्रन्थ की रचना की है, अतः उक्त रचना भी एक असाधारण कृति है । जहाँ समयसार का विवेचन सिद्धान्त की आत्मा का विधेचन है, वहीं तत्वार्थसूत्र का विवेचन उसके कलेवर का विवेचन है। इन दोनों "आत्मा तथा कलेवर" को सांगोपांग प्रगट करने में प्राचार्य अमृतचन्द्र ने अन्नपम सफलता पाई है। उन्होंने एक मोर मध्यात्म गंगा बहाई तथा उसमें स्वयं को निमग्न किया है, तो दूसरी ओर तत्वार्थसार की रचना करके तत्वज्ञान के समुद्र में भी गोते लगाये हैं, इसीलिए उक्त कृति की विशेषता स्वयं ही बढ़ जाती है । इस ग्रंथ की महिमा ग्रंथकार के ही शब्दों में इस प्रकार है - जो पुरुष मध्यस्थ होकर इस तत्त्वार्थसार को जानकर निश्चल चित्त होता हुआ, मोक्षमार्ग का आश्रय लेता है, यह निर्मोही होकर संसार के बंधन को दूरकर चैतन्यस्वरूप अविनाशी मोक्षतत्व को प्राप्त करता है । नामकरण :
तत्त्वार्थसार" नाम का ग्रंथकार ने अपने ग्रंथ में अनेक बार स्पष्टतः उल्लेख किया है । इसका अन्य कोई नाम आज तक प्रकट नहीं हुआ, अतः उक्त नाम यथार्थ प्रचलित नाम है । जहाँ तक नामकरण के औचित्य का प्रश्न है, उसका बहुत कुछ स्पष्टीकरण ऊपर पा चुका है । संक्षेप में तत्त्वार्थसुत्र के भावों का सार दर्शाने वाला होने के कारण तथा तत्वार्थसुत्र के ही सूत्रों को मुख्यतः पल्लवित, पुष्पित एवं विकसित करने वाला होने से भी इसका नाम तत्त्वार्थ सार सार्थक है। इसमें निरूपण भी सात तत्त्वों के अर्थों का हुआ है तथा पद्यात्मक निरूपण होने से संक्षिप्त अर्थात् सार रूप
[१.) तत्वार्थसारमिति यः समधीविदित्या, निर्वाणमार्गमधितिलति निष्पकम्पः । संसारबंधमधूप स धूतमोहाचैतन्यरूपमचर्न शिवतत्वमेति ! २२॥
तत्त्वार्थसार (उपसंहार)
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कृतियाँ ।
हा है. इसलिए भी ग्रंथ का उक्त तत्वार्थसार नाम उचित है । साथ ही तत्त्वार्थ विषयक प्रमुख टीकाओं तथा रचनाओं का भी सार इस ग्रंथ में समाहित किया गया है । अतः सर्व प्रकार से ग्रंथ का उक्त नाम सार्थक तथा उचित है। कर्तृत्व :
("पुरुषार्थसिद्ध युपाय" तथा अन्य टीकाओं की तरह तत्वार्थमार के अंत में परमार्थ दृष्टि से अमृतचन्द्र ने ग्रंथ के कर्तृत्त्र का विकल्प दूर करते हा लिखा है कि अक्षर पदों के कर्ता हैं, पद समूह वाक्यों के कर्ता हैं तथा वाश्य इस शास्त्र के कर्ता हैं। इस प्रकार अमृतचन्द्राचार्य इसके कर्ता नहीं हैं । उपर्युक्त शैली से उक्त वृत्ति स्वतः अमृतचन्द्रप्रणीत प्रमाणित होती है।
दुसरे अन्य टीकाकारों तथा लेखकों ने भी उक्त कृति को अमृतचन्द्र की ही उनिमावि किया है। उन कृति में भी शंग में उपसंहारात्मक अध्याय जोड़कर निश्चय-व्यवहार कथन शैली का प्रदर्शन किया है तथा अपनी अध्यात्मली की भी छाप छोड़ रखी है । इस तरह उक्त ग्रंथ भी प्राचार्य अमृतचन्द्र की ही निविवाद रचना प्रमाणित है। प्रामाणिकता :
"तत्त्वार्थमार" तत्वार्थसूत्र की अनुगामिनी टीका होने से तथा राजवातिक, श्लोकवातिक, सर्वार्थ सिद्धि, पंचसंग्रह आदि महान् रचनाओं से परिपुष्ट होने के कारण तत्वज्ञानविषयक सर्वाधिक प्रामाणिक ग्रंथों में ही परिगणित है । प्राचार्य अमृतचन्द्र के असाधारण व्यक्तित्व मे निमित होकर मूलसून साहित्य की भांति प्रमागता को है। जिस तरह मूल्य प्रणेतानों में प्राचार्य कुन्दकुन्द स्वामी सर्वोपरि स्थान पर सुशोभित है, उसी तरह टीकाकारों तथा स्वतंत्र ग्रंथकारों में प्राचार्य अमृतचन्द्र अग्रणी मान्य प्राचार्य है, अतः उनकी उक्त रचना भी तत्त्वार्थ विषयक वाङमय में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मान्य कृति है । विषयवस्तु :
तित्वार्थसार में निम्न पाठ अधिकार हैं - सप्ततत्वपीठिका, जीवतत्त्ववर्गन, जोत्दवर्णन, मानवतत्त्व, बंधास्त्र, संवरतत्त्व, निर्जरातत्व या मोक्षतत्व वर्णन अधिकार । अंत में उपसंहारात्मक २१ पद्य हैं।
प्रथमाधिकार में, प्रारम्भ में ही ग्रंथकार ने उक्त अंथ को मोक्षमार्ग का प्रकाश करने वाला दीपक लिखा है । उसमें समस्त निरूपण युक्ति और
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[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
मागम द्वारा सुनिश्चित तथा सुस्पष्ट किया गया है । सम्यग्दर्शनादि का लक्षण निर्देश करते हुए तत्त्वार्थश्रद्धान को सम्यग्दर्शन, तत्त्वार्थबोध को सम्यग्ज्ञान तथा वस्तु स्वरूप को जानकर उसकी उपेक्षा करने को सम्यनचारित्र लिखा है । जीव, अजीव, ग्रासव, बंध, संवर. निर्जरा और मोदा ये सात तत्व हैं। इनमें जीवतत्व उपादेय, अजीवतत्व हेय, हेयभुत अजीव (कर्म) के जीव में उपादान का कारण प्रासब, हेय के ग्रहण का नाम बंध, हेय को हानि के कारण संबर व निर्जरा, तथा हेय से परिपूर्ण छुटकारा वह मोक्षतत्त्व है । इस प्रकार प्रात्मा के प्रयोजन को ध्यान में रखकर उक्त सात तत्त्वों का स्वरूप अत्यन्त सुन्दर ढंग से निरूपित किया है। पश्चात् चार प्रकार के निईगों का स्वरूप बताकर प्रमाण व नयों को भेद-प्रभेद सहित समझाया है । अंत में निवेश यादि नथा सत् संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर व अल्पबहुत्व द्वारा तत्त्व को जानने को कहा । इस तरह प्रथम पीठिका अधिकार समाप्त हुआ।
द्वितीय अधिकार में जीव के औपमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, ग्रौदयिक और पारिणामिका इन पाँच स्वतत्त्वों का वर्णन किया है । जीव का लक्षण उपयोग बताते हुए उसके साकार तथा अनाकार दो भेद बताते हुए ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग का वर्णन किया है। पश्चात् जीव के संसागे
और मुक्त दो भेदों तथा संसारी जीवों के वर्णन के लिए गुणस्थान आदि बीस प्ररूपणाओं का आश्रय लिया है। यद्यपि उपरोक्त निरूपण का आधार मुख्यतः तत्त्वार्थसूत्र ही है, तथापि प्राकृत पंचसंग्रह की गाथाओं के साथ तत्वाधंसार के कुछ पद्यों में भावसाम्य होने से उक्त ग्रंथ की भी सहायता ली गई प्रतीत होती है । जीवतत्त्व के निरूपण में ही जीवों के निवास क्षेत्र को बतलाने हेतु अधोलोक, मध्यलोक तथा उर्ध्वलोक का स्वरूप लिखा है। इस अधिकार में तत्त्वार्थसूत्र के द्वितीय व चतुर्थ अध्यायों का सार समझाया गया है।
नृतीयाधिकार में अजीवतन्व का वर्णन करते हुए छह द्रव्यों का स्वरूप. उनके प्रदेश, कार्य आदि का भी निरूपण किया है । गुदगल के अ: व स्कंध ये दो भेद किये हैं। पुद्गल द्रव्य की पर्यायों तथा स्कंध निर्माण की प्रक्रिया पर भी स्पष्ट प्रकाश डाला गया है । इस निम् पण में तत्त्वार्थसूत्र का पाँचवा अध्याय आधारभूत रहा है । विस्तृत स्पष्टीकरण हेतु सर्वार्थ सिद्धि टीका का सहारा लिया गया है ।
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कृतियाँ ।
| ३५७
चतुर्थ अधकार में पाखवतन्य का वर्णन है जिसका आधार लत्वार्थसूत्र का षष्ठ व सप्तम अधिकार है। कर्मों के प्राग मन का कारण पानव कहलाता है । मन, बचन, काय म्रूप योगों को प्रास्त्रब कहा गया है। वह योग शुभ व अशुभ अथवा पुण्य व पाप रूप दो प्रकार का है । साम्परायिक तथा ईय पिथ ये दो प्रकार का कर्मानव है । सकषाय कर्मबंधन साम्परायिक कर्म है. अकषाय योग के कारण कर्म पाते हैं, परन्तु बंधते नहीं, उसे ईपिथ कर्म कहते हैं । पश्चात् ज्ञानावरणादि कर्मों के प्रास्त्रव के कारणों का सविस्तार कथन किया है । व्रत से पूण्य का और अबत से पाप का ग्रास्रव होता है। हिंसादि पान पापों के एकदेश त्याग का नाम देगवत और परिपूर्ण त्याग का नाम महावत है। पूर्ण त्याग करने वाले साधु, एकदेश न्याग करने वाले श्रावक होते हैं। प्रत्येक वन को सम्पष्टि हेतु पाँच-पाँच' भावनामों का निरूपण किया है । हिसा, मट, चोरी कुशील व परिग्रह के त्याग रूप ५ व्रत तथा दिग्नत, देशवत, अनर्थदण्डवत, सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग संख्या और अतिथिसंविभाग ये ५ शीलवत मिलाकर श्रावक के कुल १२ व्रत होते हैं। अंत में सन्लेखना पूर्वक मरण का स्वरूप बताकर उनके अतिचारों के निरूपण के साथ अध्याय समाप्त किया है।
पंचमाधिकार में बंध तत्त्व का वर्णन है । इसका प्राधार तत्त्वार्थसूत्र का अष्टम अध्याय है । इसमें सर्वप्रथम मिथ्यात्व, असंयम, प्रमाद, कषाय और योग इन पांचों को बन्धका कारण बताया है। उनके स्वरूप व भेदों का वाचन किया है। जीव कर्मोदय में कषाय युक्त होकर योग के निमित्त से योग्य पृद्गगलों का ग्रहण करता है, वह बंध है । बंध के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेश ये चार भेद किये हैं। इन चारों के निरूपण के साथ जानावरणादि कर्मों को ८ मुल तथा १९८ उत्तर प्रकृतियों का सविस्तार वर्णन किया है। उनकी कालमर्यादा प्रादि का विशद स्पष्टीकरण किया है ।
___पष्ठमाधिकार में संबरतन्त्र का प्रतिपादन है। इसका प्राधार दन्वार्थगुष का नबमा अधिकार है । इसमें गुप्ति, समिति. धर्म परिषहजय, नप अनुप्रेक्षा और चारित्र इन कारणों को आस्रव निरोध अर्थात् संवर का वारण लिखा है। इन कारणों की क्रमशः व्याख्या करते हुए अध्याय समाप्त किया है।
सप्तमाधिकार में निर्जरा तत्त्व का कथन किया है । इसका प्राधार तन्वार्थ मूत्र का नवमाध्याय है। पूर्वोपार्जित कर्मों का ग्रान्मा से अलग
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३५८ ]
। प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व होना निर्जरा है । वह विपाकजा तथा अविपाकजा दो प्रकार की है । समय पर उदित होकर फल देकर कर्मों का झड़ जाना विपाकजा निर्जरा है तथा तपादि द्वारा उदय में न पाये हुए कर्मों को उदयावलि में लाकर उन्हें झड़ाना अविपाकजा निर्जरा है । यह निर्जरा तपस्वियों के होती है । ग्रागे क्रमशः अवमौदर्य, उपवास, रसपरित्याग, वृत्तिपरिसंख्यान, कायक्लेश और विविक्तशय्यासन ये ६ बाद्य तप तथा स्वाध्याय, प्रायश्चित्त, वैयावृत्त, व्यत्सर्ग, विनय और ध्यान ये ६ अंतरंग तपः इस प्रकार कुल १२ तपों का वर्णन करते हुए अधिकार समाप्त किया।
अष्टमाधिकार में मोक्षतत्व का स्पष्टीकरण है, जिसका प्राधार सन्वार्थसूत्र का दाम अधिकार है । विशद् स्पष्टीकरण हेतु राजवार्तिक को भी आधार बनाया गया है । बंध के कारणों के प्रभाव तथा पूर्वबद्ध समस्त कर्मों की निर्जरा को मोक्ष कहते हैं । केवली के दो भेद सयोग तथा प्रयोग रूप से किये हैं और सबोगी के एकमात्र सातावेदनीय का वन्ध होता है। परन्तु प्रयोग केवली के नहीं होता। आगे मुक्त जीवों के प्रौपशमिनादि भावों का और भव्यत्व का भी प्रभाव होना वर्णित है । उनके उस समय सिद्धत्व, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन ये चार विनापान रलते हैं : गापि संध को परम्परा अनादि है, तथापि उसका विनाश सम्भव है । समस्त कर्मों के क्षय होने पर जीव स्वभावतः उर्ध्व गमन करके लोकांत में स्थित होता है। उससे ग्राग धर्मास्तिकाय रूप गति-निमित्तिक द्रव्य का प्रभाव होता है। अवगाहनशक्ति के कारण एक ही स्थान पर अनंत सिद्ध विराजमान हैं। इस तरह मोक्ष विषयक शंकानों का समाधान करते हुए अधिकार समाप्त किया।
अंत में उपसंहार रूप में कहा कि प्रमाण, नय, निक्षेपादि द्वारा सात तत्त्वों कोजानकार मोक्षमार्ग का अाश्रय लेना चाहिए। मोक्षमार्ग को निश्चयव्यवहार रूप निरूपित करके उनमें कथंचित् साध्य-साधन भाव भी कहा है । निश्चय मोक्षमार्ग स्वाचित (आत्माश्रित) है । व्यवहार मोक्षमार्ग 'पराश्रित है । निश्चय से षट्कारकादि के विकल्प एक ही प्रात्मा में सुघटित है, अतः अंत में कहा कि जो सुबुद्धि इस तत्त्वार्थसार को जानकर मोक्षमार्ग में स्थिरता करता है, वह संसार बंधन से छूटकर निश्चय मोक्षतत्त्व को पाता है । अन्य ग्रंथों की भांति इसमें कर्तापन के विकल्प का निषेध किया है। इस तरह तत्त्वार्थसार लघुकाय ग्रंथ होने पर भी मोक्षमार्ग का सांगोपांग वर्णन करने वाला अद्वितीय ग्रंथ है। जो सामग्री तत्त्वार्थसूत्र में सविस्तार
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कृतियो ]
। ३५६
नहीं पा सकी, उसे अमृतचन्द्र ने तत्त्वार्थसार में व्यक्त करके अपनी मौलिकता की छाप भी छोड़ी है। पाठानुसंधान :
तत्त्वार्थसार यद्यपि वर्ण्य विषय की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण सिद्धांत निरूपक कृति है, तथापि इसका अमृतचन्द्र की अन्य कृतियों की भांति व्यापक प्रचार प्रसार नहीं हुआ । उक्त कृति की अनुसारी टीकाएँ भी कम है। इसकी हस्तलिखित लिपिशा अधिक नहीं है। कार की इसके बहा थोड़े हुए हैं। इसका सर्वप्रथम प्रकाशन १९१६ का है, जो पं. बंशीधर शास्त्री द्वारा सम्पादित तथा कलकत्ता से प्रकाशित है । दूसरे १९२६ के प्रथम गुच्छक के अन्तर्गत काशी से प्रकाशित है तथा तीसरे १६७ , में पं. पन्नालाल साहित्याचार्य द्वारा सम्रादित एवं वर्णी ग्रंथमाला वाराणसी द्वारा प्रकाशित है । इसमें उपलब्ध पाठभेद निम्न नालिका से स्पष्ट होता है - अध्यायपद्य कलकत्ता प्रति काशी प्रति वाराणसी प्रति
१६७० १२ तत्त्वार्थसारोयं तत्त्वार्थसारोऽयं तस्वार्थसारोऽयं १३ सुनिश्चितः सुनिश्चितम् सुनिश्चितः १४ सुनिश्चितम् सुनिश्चितः सुनिश्चितम् ११ तन्वा:
तत्वार्या
तत्वार्थाः १: न्य प्यमानानयादेशात् न्यस्यमानतयादेशात् न्यस्यमान नयादेशात् १:१३ यद्यन
यत्लेन
यलन ११५ पुनः
पुना
पुनः १२० बुद्धिमेधादयो -बुद्धिर्मेधादयो बुद्धिर्मेषादयो १२१ ततस्त्वीहा
तपस्वीहा
ततस्त्वीहा १.२६ अनवस्थितः अनवस्थितिः
अनस्थिति १२६ मनःस्वार्थ
मन:स्वार्थ
मनस्वार्थ १२८ ज्ञानमक्षानपेक्षया ज्ञानमन्यानपेक्षया ज्ञानमन्यानपेक्षया १:३२ सोवधे:
सोऽवधिः
सोऽवधि: उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि कलकत्ता तथा काशी प्रतियों में त्रुटियाँ अधिक हैं। उनका यथासंभव परिमार्जन वाराणसी प्रति में हुआ है। यद्यपि वाराणसी प्रति में पाठशोधन तो अवश्य हुआ है। परन्तु मुद्रण विषयक त्रुटियाँ इसमें भी अनेक हैं।
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| आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
परम्परा :
तत्त्वार्थसार ग्रंथ में तत्रार्थसूत्र में वर्णित सिद्धांतों का ही विशदीकरण एवं स्पष्टीकरण हुआ है। आचार्य उमास्वामी के अनुवर्ती प्रकलंकदेव, विद्यानंद यादि भाष्यकारों की ही निरूपण परम्परा तत्त्वार्थसार में प्रवहमान पाते हैं | आचार्य अमृतचन्द्र ने सूत्रगत भावों को पद्य के रूप में प्रस्तुत करके सूत्रार्थ को जहाँ एक ओर प्रतिव्यक्ति प्रथम की है यही दूसरी ओर सूत्रार्थंगत भावों की महिमा भी प्रदर्शित की है तथा अपनी कवित्व शक्ति द्वारा तत्व निरूपण में भी सरसता पैदा की है ।
प्रणाली :
३६० |
जिनागम में तस्वनिरूपण की दो शैलियाँ है । प्रथम है प्राच्य शैली जो प्रयोग द्वार के माध्यम से तत्व निरूपण करती है तथा दूसरी है अध्यात्म शैली जो तत्र निरूपण सीधे सरल तरीके से करती है तथा इस शैली में अध्यात्म का वर्णन प्रमुख होता है । तन्वार्थसार में आचार्य श्रमृतचन्द्र ने आचार्य पुष्पदंत भूतबलि द्वारा प्रसारित प्राच्य शैली को अपनाया है । उन्होंने उमास्वामी की सूत्रशैली का भी अनुकरण किया है । इन दोनों शैलियों (प्राच्य तथा सूत्र शैली को करणानुयोग प्रमुख शैलियाँ कह सकते हैं । ग्रन्थ वैशिष्ट्य :
2.
२.
इस ग्रन्थ के निम्नलिखित वैशिष्ट्य हैं :
संक्षेप में कथन करके गहन भावों को स्पष्ट करना । सिद्धांत का सर्वांगीण तत्व निरूपण किया जाना ।
तत्त्वार्थसार की उपलब्ध पाण्डुलिपियाँ :
१.
ई. सन् १५२७, टीकाकार - अमृतचन्द्र, लिपि - संस्कृत जानकारी
स्रोत- जिनरत्नकोश, बैलंकर पृ. १५३ ।
1
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ई. म १५८२ टी. अमृतचन्द्र, लिपि संस्कृत, जाः स्रांत - रा. जैघा. भ सु. भाग ५.४३
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ई.
जे.
टी. अमृतचन्द्र लिपि - संस्कृत जा. स्रोत रा.
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शा. म. सू. भाग ३:१७६ ।
"टी. - ग्रमृतचन्द्र लिपि संस्कृत जा. त्रो बा. भ. सु. भाग २२ । तत्त्वार्थसार के विभिन्न प्रकाशन :
?. ग्रं. तस्वार्थसार, टीकाकार सं. पं. बंशीधर शास्त्री, प्रकाशक भा. जै. सि. प्र. संस्था कलकत्ता: सन् १६१६ भाषा संस्कृत प्रतियों ७५०१ उपलब्ध |
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रा. जै.
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कृतियाँ ] २. न. - तत्वार्थसार (अध्याय चौथा) टी. - प्रस्ता. हिराचंद नमचंद
प्र. - सोलापुर सन् १६२० भाषा - संस्कृत । ३. न. - तत्त्वार्थसार (प्रथम गुच्छक में) सं. - पन्नालाल चौधरी प्र. -
पन्नालाल चौधरी काशी, सन् १९२५ भाषा -- संस्कृत । ४. न. - तत्त्वार्थसार सं. - पं. पन्नालाल साहित्याचार्य, प्र. वर्णी प्र. मा. वाराणसी, सन् १९७० भाषा - संस्कृत प्रतियाँ - १००० ।
लघुतत्वस्फोट इसका अपरनाम, शक्तिमणित् कोश, भी है, जिसका उल्लेख ग्रंथ के अंत में है। यह प्राचार्य अमृतचन्द्र कृत सवांधिक क्लिष्ट, प्रौढ़, दार्शनिक, स्वतन्त्र एवं मौलिक कृति है | अतः इसका परिचय प्रथम विभाग में कराया जा सकता था, परन्तु इसे तृतीय विभाग में अन्य कुतियों के अंतर्गत रखा गया है, क्योंकि पूर्वोक्त कृतियाँ ही अमृतचन्द्र की रचनाओं के रूप में पाठकों और विद्वज्जनों के बीच विश्रुत एवं मान्य रही हैं । यह एक नवोदित कृति है । अहमदाबाद के डेला भण्डार में मुनि श्री पुण्यविजयजी को इसकी ताडपत्रीय पाण्डुलिपि प्रथमबार १६६५ ई. में उपलब्ध हुई है। इस अज्ञात कृति की प्राप्ति से समस्त अध्यात्म एवं तस्वप्रेमी विद्वानों को अत्यन्त हर्ष हुअा है। अभी इस रचना का एकमात्र अंग्रेजी संस्करण लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर, अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ है । उक्त संस्करण का सफल सम्पादन एवं अनूवाद डा. पद्मनाभ श्रीवर्मा जनी - प्रोफेसर बौद्धदर्शन केलफोर्निया विश्वविद्यालय, वर्कली (यू. एस ए.) द्वारा हुआ है ।
इसमें ६२५. श्लोक हैं। २५-२५ श्लोक वाले २५ अध्याय हैं । समस्त रचना में १३ प्रकार के छंदों का प्रयोग किया है। यह रचना अमृतचन्द्र की जैन तत्वज्ञान एवं सिद्धांत विषयक असाधारण प्रतिभा के चरमोत्कर्ष की द्योतक है । यह स्तुतिपरक रचना है। इसमें सर्वोत्कृष्ट स्तोत्रकाव्य की प्रौढ़ता प्रदर्शित की गई है । इसे हम अमृतचन्द्र के अमृतमयी
आश्चर्यकारी तत्त्वज्ञान का परिपाक कह सकते हैं। अर्थ गाम्भीर्य तथा क्लिष्ट संस्कृत शब्दावली के प्रयोग से भाव प्रवाह की रसानुमिति में कठिनता प्रतीत होती है। प्रथम अध्याय २४ तीर्थंकरों के गुणस्मरण में समर्पित है । शेष अध्यायों में भी जिनेन्द्र स्तुति के नाम पर गहन सिद्धांतों का प्रतिपादन हुआ है। स्तोत्र परम्परा में उक्त वृति का असाधारण व महत्त्वपूर्ण स्थान है।
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[ याचार्य अमृत चन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
कर्तृत्व :
इसके रचयिता भी प्रकृत प्राचार्य अमृतचन्द्रसूरि ही हैं । इस सम्बन्ध में निम्न प्राधार उपलब्ध हैं - प्रथम तो मूलपाठ में प्राचार्य अमृतचन्द्र का नाम दो बार प्रयुक्त हुआ है। एक बार प्रथम अध्याय के अंत में तथा एक बार उपसंहारात्मक अंतिम श्लोक में कवीन्द्र पर सहित अमृतचन्द्र का नामोल्लेख हुआ है।
दूसरे लधुतत्त्वस्फोट के कुछ पछ समयसार कलश से साम्य रखते हैं। इसके ५०७ तथा ३२४ नं. के पद्य क्रमश: समयसारकलश के २७० और १४१ व पद्य के समान है।
तीसरे इन दोनों रचनात्रों में शैली और शब्दावलि दोनों में भी कई प्रकार के साम्य हैं।
चौथे प्राचार्य संमतभद्र के रत्नकरण्डश्रावकाचार का प्रभाव जिस तरह पुरुषार्थसिद्धयुपाय पर दिखाई देता है, जी प्रत सामनभावामी रे ही वृहद् स्वयंभूस्तोत्र आदि स्तोत्रों की शैली का तथा तत्त्व निरूपण का प्रभाव अमृतचन्द्र कृत लघुतत्त्वस्फोट में दिखाई देता है। दोनों के प्रारम्भ में स्वयंभू शब्द का प्रयोग चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति, स्याद्वाद व निश्चयपरक विवेचन, सर्वज्ञता की सिद्धि, अनेकांत का विशेष स्पष्टीकरण, अन्यदर्शनों का निराकरण प्रादि साम्य इसके प्रमाण हैं ।
पाँचवें - जिस प्रकार पुरुषार्थसिद्धयुपाय का अपरनाम "जिनप्रवचनरहस्य कोश" है, उसी प्रकार लघुतत्त्वस्फोट का भी अपरनाम शक्तिमणितकोश है।
छठवें ग्रन्थ के अंत में अंतिम दो पद्यों में स्तुति रूप रस के प्रास्वादी अमृतचन्द्र का उल्लेख हुआ है। साथ ही "इत्यमृतचन्द्रसूरिणां कृतिः शक्तिमाणितकोशो नाम लधुतस्वस्फोटः समाप्तः" इन अंतिम शब्दों से उक्त कृति का प्रकृत प्राचार्य अमृतचन्द्र कृत होना भलीभांति प्रमाणित होता है। नामकरण :
इस कृति के उपरोक्त उभय नाम समूचित एवं सार्थक प्रतीत होते हैं । “शक्तिमणितकोश" नाम का उल्लेख अंतिम ६२६ वे पद्य में हुआ
- - - -- १. लघुतत्त्वतस्फोट - अध्याय १ पछ २५ । है लहो, अध्याय २५ पद्य २६ ।
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कृतियाँ !
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है। सया लत वस्फोट:" यह नाम अंतिम वाक्यों में प्रयुक्त हुआ है। प्रथम नाग में 'मणित्" पद की जगह ''भणित'' भी हो सकता है । 'शक्तिमणितकोशः'' का अर्थ है शक्ति रूप मणियों से भरा खजाना । "शक्तिमाणितकोशः" पद का अर्थ है शक्तियों का कथन करने वाला खजाना। इसके अतिरिक्त "लघुतत्त्वस्फोट:" शब्द का अर्थ है तत्वों का. संक्षिप्त प्रकाशन । उपरोक्त तीनों अर्थ उक्त रचना की सार्थकता के द्योतक हैं । वास्तव में अमृतचन्द्र ने समयसार तथा : अव बनसार टीका के अंत में आत्मा की जिन शक्तियों का वर्णन किया है. उन्हीं का इस ग्रंथ में नये परिवेश में प्रतिपादन किया है । लघुतत्त्वस्फोट शीर्षक उसके अपरनाम की अपेक्षा अधिक.ग्राफर्षक प्रतीत होता है। प्रामाणिकता :
स्तोत्र काव्यों को परम्परा के सर्वाधिक प्रसिद्ध अग्रणी प्राचार्य स्वामी समलभद्र के स्तोत्र काव्य अपनी पश्नात्वर्ती परम्परा के प्रमुख प्रेरणा स्रोत तथा आधार स्तम्भ हैं। उन्हीं की शैली का अनुकरण करते हए जिनेन्द्रस्तुति के नाम पर अमृत चन्द्र ने उक्त रचना की है। जिसमें समंतभद्र की ही भांति गम्भीर दार्शनिक तत्वों का विवेचन किया है। अतः अपने अन्य ग्रंथों बटीकायों के समान अमृत चन्द्र में इस ग्रंथ का भी महान तथा प्रामाणिक बनाया है। उन्होंने पूर्वोक्त स्वतन्त्र ग्रंथों तथा टीकाओं में णित तत्त्वों का स्तोत्र शैली में रसास्वादन कराया है, अतः उक्त रचना की प्रामाणिकता और भी अधिक बढ़ जाती है। स्वयं लेखक ने अंत में लिखा है कि म्यादाद के मार्ग में, निज त्र पर के श्रेष्ठ विचार में, ज्ञान तथा क्रिया के अतिशयपूर्ण बैभव की भावना में, शब्द और अर्थ की संघटन सम्बन्धी सीमा में तथा रस की अधिकता में व्युत्पत्तिविशिष्ट ज्ञान प्राप्त करने के इच्छुक अपज्ञ जनों को यह मेरी रचना दिशा प्रदर्शन करने वाली है। प्राधारस्रोत :
आचार्य समंतभद्र का स्वयंभूस्तोत्र. सिद्धसेन दिवाकर का द्वात्रिंशतिका स्तोत्र मानतुंगाचार्य वा भक्तामर स्तोत्र से तीनों प्रमुख रूप से अमनचन्द्र के लघुतत्त्वस्फोट की रचना में प्रेरणास्त्रोत रहे हैं। स्वयंभूस्तोत्र के अनुकरण पर २४ तीर्थंकरों की स्तुति तथा गम्भीर तत्वविवेचन किया है । सिद्धसेन
१. लपुतत्त्वस्फोट -- अध्याय २५ पशा २६ । २. वहीं - अध्याय २५ पद्म २७ !
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| श्राचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
की ३२ पद्यों बाली ३२ अध्यायवाली द्वात्रिंशतिका के अनुकरण पर अमृतचन्द्र ने २५ पद्यों वाली २५ अध्यायवाली रचना की। मानतुरंग के भक्तामर के उपसंहार का अनुकरण अमृतचन्द्र ने किया है । भक्तामर का अंतिम पद्म " स्तोत्रस्त्रयं तव जिनेन्द्र गुणनिर्बद्धां "इत्यादि" तथा तत्त्वस्फोट के प्रथम अध्याय का अंतिम श्लोक "ये भावयंति विकलार्थंवतीं जिनाना इत्यादि में शैलीसाम्य, ध्वनिसाम्य है। साथ ही अर्थ साम्य भी है। इसके अतिरिक्त समयसार कलश, आत्मख्याति टीका के अंशों, तत्वदीपिका के अंशों तथा समयव्याख्या के अंशों से भी विषय वस्तु ग्रहण कर स्तोत्र की सृष्टि की है।
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विषयवस्तु
:
वस्फोट में वर्णित विषयवस्तु को पच्चीस श्लोक वाले पच्चीस ध्यायों में प्रस्तुत किया गया है। उन अध्यायों में निरूपित प्रकरण इस प्रकार हैं
—
<
प्रथम अध्याय में २४ तीर्थंकरों के गुणों का चमत्कारपूर्ण शैली में, अनुप्रास तथा विरोधाभास आदि अलंकारों के सरस आकर्षण के साथ स्मरण किया है । यह अध्याय समग्र कृति में सर्वाधिक क्लिष्ट अंश है । कुछ पद्य तो पहेलियों के रूप में प्रस्तुत किये गये हैं । स्याद्वाद सिद्धांत के माध्यम से विरोधाभास अलंकार का प्रयोग करने का लेखक को असीमित अवसर मिला है । इसमें शून्य शून्य, नित्य-अनित्य, सत् श्रसत् भूत-भविष्यत् श्रात्मक - निरात्मक, एक अनेक, बद्ध-मुक्त, कर्तृ -बोद्ध इत्यादि विरोधी युगलों का प्रदर्शन किया है। आत्मा के इन द्वन्द्वात्मक धर्मों को निश्चय तथा व्यवहार की निरूपण शैलियों द्वारा प्रस्तुत किया है । अनेकांत से अलग न होकर निश्चय नय परक् वाक्पटुता द्वारा तथ्य का समर्थन करना अमृतचन्द्र का मौलिक वैशिष्ट्य है । यद्यपि उन्होंने समस्तपदार्थों की प्रकाशक जिनेन्द्र की सर्वज्ञता के अनेकरूपों की प्रशंसा की है, तथापि निश्चयदृष्टि से उक्त सर्वज्ञता को अर्द्धत सिद्ध करने पर वजन भी दिया है । उक्त प्रत महान् ज्योति की वे उपासना करते हुए कहते हैं " श्रद्रतमेवमहयामि महन्महस्ते" | ये शब्द हमें उनके समयसार कलश में प्रयुक्त "अनुभवमुपयाते न भाति द्वं तमेव" इत्यादि का स्मरण कराते हैं । अध्याय की समाप्ति करते हुए वे लिखते हैं कि जो भब्य जीव अमृतचन्द्रसूरि के ज्ञान द्वारा गृहीत परिपूर्ण अर्थ से युक्त ऋषभादि तीर्थकरों की नामावलि का चिंतन करते हैं, वे निश्चय से अनायास ही सकल विश्व को पी जाते हैं अर्थात् सर्वज्ञ हो
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कृतियाँ |
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जाते हैं तथा सकल विश्व उनके ज्ञान में प्रतिबिम्बित हो उठता है । उन्हें कर्म आदि परय ग्रहण नहीं कर सकते हैं अर्थात् ये कर्मबन्धन में नहीं पड़ते हैं । यह अंतिम पद्य हमें भक्तामर स्तोत्र के अंतिम पद्य की याद दिलाता है, क्योंकि उनमें कई तरह से साम्य प्रतीत होता है ।
द्वितीय अध्याय में विश्वरूपता तथा एकरूपता के आधार पर निर्मित विरोधी वर्मों का निरूपण किया है। लेखक ने सांख्यमत की इस मान्यता का कि पदार्थों का ज्ञान चैतन्य के प्रखण्ड स्वभाव को खण्डित करता है, आदि का खण्डन किया है । एकांतवादी कथन करने वालों को उन्होंने पशु श्रर्थात् प्रज्ञानी शब्द का अनेक बार प्रयोग किया है । अनेकांत स्वरूप स्पष्टीकरण करते हुए जिनेन्द्रदेव को भाव- श्रभाव, गुणपर्याय रूप सिद्ध किया है। उनके अंतरंग - बहिरंग स्वरूप के दर्शन से अंतर्बाह्य शत्रु नष्ट हुए हैं। उन्होंने कार्य को साधनविधि से सम्बद्ध होना बताया है, यथा "कार्यं हि साधनविधि प्रतिबद्धमेव । " " वे लिखते हैं कि यदि विज्ञानतन्तु स्वभाव में लीन हो तो कषाय रूप कन्या नष्ट हो जावें । श्रज्ञानी कषाय
तथा ज्ञानी प्रशमभाव का धारण करते हैं । जिनेन्द्रदेव मात्र ज्ञाता हैं, कर्ता नहीं है । जिनेन्द्र के तेजस्मरण से नेत्र निमीलित हो जाते हैं । वे समस्त विश्व के (ज्ञानद्वारा ) भोक्ता है, सामर्थ्य वन्त, ऐश्वर्यवन्त, अंतरहित, निरंतर उदित तथा अद्वितीय महिमावारी है। उनके उदित रहने पर भी स्वार्थ को सिद्ध करने वाले मिथ्यादृष्टि जीव एक-एक दृष्टि को धारण कर क्यों उछलकूद करते हैं ? यह आश्चर्य की बात है । अंत में लिखा है कि विभिन्न श्रात्मशक्तियों के समूहरूप यह आत्मा नयदृष्टि से खण्ड-खण्ड होकर शीघ्र हो नाथ को प्राप्त होता है, अतः मैं प्रखण्ड, एक शांत, अविनाशी चैतन्य रूप हूँ । यह अंतिम कथन समयसार कलश २७० के कथन से साम्य रखता है ।
तृतीय अध्याय में आशीर्वादात्मक मंगल पच के साथ सामायिक का स्वरूप वर्णन करते हुए लिखा है कि बलपूर्वक मोहव्यूह को छोड़कर ज्ञान-दर्शन मात्र महिमामयी निज ग्रात्म द्रव्य में लीन होना सामायिक है ।14 जिनेन्द्रदेव स्वयं ऐसे सामायिकस्वरूप परिणत हुए हैं। सम्पूर्ण अध्याय में जिनेन्द्र का उत्कृष्ट प्राध्यात्मिक चारित्र प्रस्तुत किया है । सबसे निम्नदशा
?.
बल्कोट - अध्याय २ । बड़ी, प्रध्याव २ च २ |
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| प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर आध्यात्मिक विकास की सर्वोच्च स्थिति सर्वज्ञता लक का प्रात्मा के क्रमिक विकास का विवरण प्रस्तुत किया गया है । क्रमिक विकास की १४ सीढ़ियां हैं, जिन्हें गुणस्थान कहते हैं, गणस्थानातील दशा सिद्धदशा है, जो जैनों का चरम श्रादर्श है। विकास का प्रारम्भ चौथे गुणस्थान से होता है, जिसे सम्यवत्व कहते हैं। सम्यक्त्व मुमुक्षु का मोक्षमार्ग का प्रवेशद्वार है, जिसे अमृतचन्द्र ने मंगलाचरण में "मार्गावतार" शब्द से ईंगित किया है । यह मागवितार का क्षण परम आनंदमय होता है। लेखक ने सम्यनस्व और उपरोक्त सामायिका में साम्य स्थापित किया है। प्रागे लिखा है कि जिनेन्द्र ने पूर्व में भावसंयम सहित द्रव्यसंमम धारण किया था।' तप की महिमा से जिनेन्द्र के राग-द्वेष शांत हो चुके थे। वे उन दोनों के ज्ञाता मात्र थे । उन्होंने शुद्धोपयोग की भूमिका में दर्शनमोह का क्षय किया था । दर्शनमोह का क्षय चौथे गुणस्थान में हुअा था । पश्चात् शुद्धोपयोग रूप किंचित् स्थिरता द्वारा प्रांशिक चारित्रमोह का क्षयोपशम किया था। यह कार्य पाँचवें गुणस्थान में हुमा था । छठवें गुणस्थान में परिषहजयी हुए तथा दृढ शुद्धोपयोग का पालम्त्र लेकर निकांचित कर्म का भी क्षय किया था। वे परमसंयमी तथा द्वादशांग के ज्ञाता हुए थे । उन्होंने शुद्ध क्षायिक ज्ञान में शुशोभित अात्मद्रव्य का अनुभव किया था। उन्होंने पिरंतर अंतर्बाह्य तपों के द्वारा ज्ञान तथा चारित्र की पूर्णता प्राप्त की थी। सातवें गुण स्थान में उपशम श्रेणी मर मारोहण किया और मोहाजा को दबा दिया था। उन्होंने अनंतगुणी परिणाम शुद्धि द्वारा क्षपकश्रेणी पर आरोहण करके अपूर्वकरण नामक आठवें गणस्थान को प्राप्त किया था। आगे अनिवृत्तिकरण रूप परिणामों के प्रभाव से शीघ्र ही बादर (स्थूल) कर्म रूप किट्टिमा को दूर किया था तथा नवमां गूणस्थान पाया था। सूक्ष्म कर्मरूप किट्टिमा को नष्ट करने पर भी सुक्ष्मलोभ रूप कर्म कालिमा मेष रह गई थी. इस तरह सूक्ष्मलोभ नामक दसवें गुण स्थान को प्राप्त किया था । पुनः अनंतमुणी परिणाम विशुद्धि द्वारा ग्यारहवाँ उपशांतमोह नामक गुणस्थान प्राप्त किया था। तत्पश्चात् उन्होंने पृथकरव वीचार शुक्लध्यान धारण क. १२वाँ क्षीणमोह नामक गुणस्थान प्राप्त किया तथा चार घातियों कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान प्रगट किया। यह १३व गुणस्थान बी दशा है। उन्होंने १. लताद: - यरूपाय - 1. पद्य .. 2 | ९. वही - अपाय ३ : ५ "Tiमिगिन.............' स्यादि।
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चातियां :
अनंतवीर्य प्रगट करके लोकालोक को जाना | आगे १४वें जुण स्थान में योगों का निरोध करके प्रयोग केवली अवस्था धारण की । अंत में गुणस्थानातीत होकर सिद्धावस्था को प्राप्त हए। उस अवस्था में ने समस्त द्रव्यकमे, नोकर्म तथा भावकर्म से रहित हुए। उन्होंन अनुपमेय सिद्ध दशा को प्रमटे किया। उस समय मागों ने समस्त लोकालोक को केवलज्ञान में संक्रांत कर रहे हो, लिव रहे हो, आकृष्ट सा कर रहे हों, संरक्षित सा कर रहे हों. पी सा रहे हों तथा उत्कृष्ट अनंत वीर्य से मानों प्रत्येक दिशा में स्वयं प्रगट हो रहे हों। इस प्रकार सिद्धदशा का उत्प्रेक्षा रूप कथन करके उनके समान बनने की मंगल कामना करते हुए अध्याय समाप्त किया।
चतुर्थ अध्याय में सर्वज्ञता का ही प्रतिपादन चलता है । वहाँ प्रथम ही केवलज्ञानमयी सूर्य को नमस्कार करते हुए लिखा कि जिनन्द्र का तेज मेरे अनुभव में आने लगा है । जिनेन्द्र भगवान प्रारमर्शियों द्वारा पूज्य तथा तेजवंत हैं । अज्ञानियों को मात्र एक भामित होते हैं. परन्तु ज्ञानियों को एक तया अनेक रूप एकमाथ ज्ञात होते हैं। वे अनंतरूप होकर भी है। उनकी ज्ञानरूप लता चरमसीमा तक वृद्धिंगत होक स्वभाव में ही क्रीडारा रहती है। वे अनंतनात रूप वायु से समस्त जगत को कम्पिन सा करते हैं, जिससे साधक का मन भी कम्पित सा हो उठता है । जिनेन्द्र के मान समुद्र की एक ही तरंग में समस्त लोक अपनी अनंतपर्यायों सहित तैरता मा प्रतील होता है । उनके केवलज्ञान रूप तेज में चेतन-पत्रेतन प्रकाशित होते हैं । अनेक जिनेन्द्र को एकांत दष्टि से नहीं देखा जा सकता। प्रत्येक द्रव्य की पर्यायें अंतर्बाद्य कारणों को सन्निधि में उत्पन्न होती हैं । समुद्र में तरंगमाला की तरह शब्दावली भी जिनेन्द्र के द्रव्यस्वभाव को महिमा में विलीन हो जाती है। उनका विधि-निपेषरूप स्वभाव कृष्ण व शुक्लपक्ष की भांति उभयरूपता को नहीं छोड़ता। उनके अस्ति-नास्ति, भाव-भात्र. एक नेक रूप स्वभाव. ऋम-अक्रम आदि चुगल युगपत् रहते हैं । पदा) में पा. माने वाली शक्तियाँ तर्कणा के योग्य नहीं होतो । जिनेन्द्र के समक्ष का रूप क्षणिकवाद ध्वस्त हो जाता है तथा द जगत् को प्रकाभित करते हुए भी जगत् स भिन्न रहते हैं पर को जानन मात्र में नेतना में दोष नहीं पाता। बे परज़यों में राग-द्रंप व मोह नहीं करते । उनको जान योनि में परसदार्या या प्रतिबिम्ब कलकता है। जो जोब पर पदार्थों में रखा है, उन्हें जिनंन्द्रका दर्शन नहीं हो सकता। अंत में उनके अंतरंग बहिरंग वैभव ना विशद अनुभव को ध्यान जमा होता है ।
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३६८ ।
| प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
पंचम अध्याय में भी उक्त सर्वज्ञता ही प्रतिपाद्य है। प्रारम्भ में विरोधाभास अलंकार का प्रयोग करते हुए लिखा है कि हे जिनेन्द्र ! आप वृद्धि को प्राप्त न होने पर भी उन्नति को प्राप्त हो रहे हैं, नम्रीभूत न होने पर भी अत्यन्त नम्र हैं और अवस्थित एकरूप होकर भी सब ओर विस्तार में व्याप्त हो रहे हैं। आपका अनादि अनंत वैभव प्रवाह सुशोभित होता है । वह वैभव आदि मध्य तथा अंत से रहित है, विकारहित, ज्ञानमात्र रूप से स्पष्ट है । यद्यपि महासत्ता में आप गर्भित हैं, तथापि महासत्ता आपके ज्ञान में गभित है। आप समस्त शब्दानुगम से गम्भीर व ज्ञान से लोकालाक को ग्रास करने वाले हैं। प्रापकी ज्ञानसत्ता द्वारा परपदार्थ व्याप्त न होने पर भी वे चैतन्यक्त् सुशोभित होते हैं। पदार्थसत्ता अर्थसमूह का उल्लंघन न करती हुई आपके ज्ञान में प्रत्यक्ष होती है। शब्दसत्ता पुद्गलपने का उल्लंघन नहीं करतो हई आपके ज्ञान में प्रतिबिम्बत होती है । प्रमेय के बिना ज्ञान में प्रमाणता नहीं तथा प्रमाण बिना प्रमेयता सम्भव नहीं है । प्रमाण में प्रमेय का तथा ज्ञान में ज्ञेय का निषेध सम्भव नहीं हो सकता । वाच्य-वाचक सम्बन्ध न होने पर भी पाप समस्त पदार्थों के वाचक - प्रकाशक हैं । क्रमबद्ध पर्यायों द्वारा सापके सर्वगुणों का वैभव युगपत् प्रकाहित होता है । क्रमरूप पर्याय तथा प्रक्रम रूप गुण को गौण करने पर ग्राप एक, अखण्ड ही प्रतिभासित होते हैं। प्रदेश भेद रूप तिर्यक्प्रचव, क्षणभेद रूप उर्ध्वप्रचय के साथ समस्त पदार्थ आपके ज्ञान में झलकते हैं, परन्तु आपको उनसे ममत्व नहीं है। आप निरंश होकर भी अनंतांशों को प्रकाशित करते हैं। प्रखण्टु सत्ता वाले अनेक द्रश्य खण्ड अापके ज्ञान में पृथक-पृथक भासित होते हैं। पाप सर्वद्रव्यों को सामान्य-विशेषरूप से जानते हैं। अनंत अवस्था सहित अनंत द्रव्यों को आप जानते हैं । अनंत अर्थपर्यायों तथा व्यंजनपर्यायों से युक्त अस्तित्व को न त्यागता हुआ द्रव्य सम्पूर्णतः प्रापके ज्ञान में आता है। पर्यायें द्रव्य को तथा द्रव्य पर्यायों को छोड़ने में समर्थ नहीं हैं । आपकी अभेद तथा भेद युक्त ज्ञानदृष्टियां सर्वत्र विचरती हैं। भिन्न तथा अभिन्न रूप से अवस्थित समस्त पदार्थों के ज्ञान से सम्पन्न प्रापका बैभव है। आप अनंत चतुष्टय विभूति से सुशोभित हैं । अाप यात्माश्रित होने से स्वरूपमग्न हैं तथा पराश्रित होने से समवशरण में स्थित हैं। हे जिनेन्द्र ! मुझे तपद्वारा प्रज्जवलित करो, जिससे समस्त चराचर जगत मेरे ज्ञान में प्रकाशित हो उठे। इस तरह उक्त अध्याय समाप्त हुआ।
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कृतियों ]
| ३६६
- षष्ठ अध्याय में पुनः निर्ग्रन्थ जिन के तपस्यापूर्ण मार्ग का, गुण स्थानानुसार विकास प्रक्रिया का वर्णन है। जिनेन्द्र ने मिथ्याचारित्र को सम्यग्चारित्र से दूर किया था । वे उत्कृष्ट वैराग्य, निस्पृह तप से युक्त तथा संसार के कौतुहल मे मुक्त थे। उन्होंने संसार मार्ग को छोड़कर मोक्षमार्ग को पाया था तथा मोक्षमार्ग का प्रवर्तन किया था । उनका धैर्य प्रस्खाड़ था। वे मोक्षमार्ग में अकेले ही बिहार करते थे । उन्होंने साधनाकाल में तपों द्वारा अविपाक निर्जरा की थी। साथ ही कषाय रूप कर्मरज को नष्ट करते हए क्षपक श्रेणी पर आरोहण किया था। अपने निर्मल ज्ञान-ध्यान संतति द्वारा स्थूल तथा सूक्ष्म कषायों का क्षय करके सूक्ष्मसाम्प राय तथा क्षीणकषाय अवस्था प्राप्त की थी। उन्होंने साम्परायिक पात्रत्र को पारकर. ईपिच प्राव की दशा को पाया था और शुक्लध्यान द्वारा क्षीणकपाय गुणस्थान में पहुँच थे । पश्चात् केवलज्ञान पाका सम्पूर्ण जगन् को जाना और विज्ञानघन स्वरूप हुए। आग प्रायु कर्म को भी क्षीण करके सिद्धपद पाया था । उनमें अनंत वीर्य आदि गुणों से पूर्णता प्रगटी थी, क्योंकि इस जगत् में द्रव्य अपने वस्तुत्व गुण को छोड़कर अन्य द्रव्य के साथ कभी भी एकरूपता स्थापित नहीं करता। जिनेन्द्र ने तीनों लोकों को देखा तथा अनंतमेयों को जानने के कारण अनंतरूपता को भी पाया था । वे त्रिकालदर्शी होकर, स्वरूप में सुशोभित थे। वे यात्मज्ञ हुए। उन्होंने अनंत ज्ञेयों सहित निजात्मा को जाना था तथा वर्तमान में जानते हैं। उनके ज्ञान का अक्षुण्ण प्रवाह सदा जारी रहता है। उनमें अनंत शक्तियाँ स्फुशयमान हो उठी हैं, वे उनसे सुशोभित हैं। वे स्वरूपगुप्त - सुरक्षित. निराकूल तथा पर से शून्य रूप में सुशोभित हैं । अंत में प्रात्मलघुता का प्रदर्शन करते हुए लिखा है कि यदि इस स्तुति द्वारा मुझ में आप जैसा चैतन्यतेज नहीं प्रगटता तो वह मेरी ही जड़ता है। आपका उसमें कुछ भी कारणपना नहीं। इस तरह उक्त अध्याय समाप्त होता है ।
सप्तम अध्याय में प्रारम्भ में स्तुतिकार पूर्णतः जिनेन्द्र की शरण लेने की सूचना देते हैं । वे लिखते हैं कि हे जिनेन्द्र ! मेरा मतिज्ञान रूप प्रकाश अत्यल्प है। मेरा ज्ञान अविकसित तथा प्राच्छादित है। पाप मुझ पर कृपाकर अमृतवर्षा करते हैं, तथापि मैं शक्तिहीन होने से उस अमृत को कितना पी सकता हूँ अर्थात् थोड़ी सामर्थ्यानुसार पीता हूँ। प्रापकी ज्ञानामृत की चूद भी मुझे औषधिममान गुणकारी है । आपका अंतरंग तापा बहिरंग संयम अखण्ड है 1 मैं उक्त उभय प्रकार के संयम से आपके समान
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३७० ।
| प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कटुत्व हो जाऊँगा। मैं संयमलन्धि गुणस्थान में हूँ तथा पाप तेरहवें सयोग केवली गुणस्थान में हैं, अतः मुझसे आप बहुत दूर हैं। मैं तो आपके स्वरूप का यथार्थ विश्लेषण करने वाला है। विवेक धारा से मेरा मन उत्कृष्टता को प्राप्त हो रहा है । आपने समता रूपी अजूत द्वारा कर्म रूप कालिमा को नष्ट किया है । अापने राग का शोषण किया है, जबकि अन्य देवगण राग में ही लिप्त हो रहे हैं । आपने संयम मार्ग की कुछ शुभक्रियाओं का अवलम्बन कर समस्त पाप-क्रियाओं को नाश किया तथापि शुभक्रिया के भी कर्तृत्व से दूर रहे। आप ज्ञानस्वरूप में मग्न, परम औदारिक शरीर धारी हैं । आपकी समस्त शक्तियाँ आपके स्वभाव को नहीं भेदती । आपका फेवलजान तेज उत्कृष्ट तथा जयवंत है । आप अपने केवलज्ञान में प्रतिबिम्बित विश्व को स्पर्शते हुए भी पर से अभिभूत नहीं होते । ग्याप मात्र ज्ञाता हैं कर्ता नहीं। अापका अनंतशक्ति सम्पन्न केवलज्ञान कभी स्खलित नहीं होता। प्रापका स्वभाव सकाल कारक चक्र की प्रक्रिया से पार है। आपका केवलज्ञाम न तो प्रवर्तन करता है और न ही प्रतिवर्तन करता है, अपितु स्व वर्तन करता है । ग्राप परिपूर्ण होकर भी परिपूर्ण हो रहे हैं। आप तुप्त होकर मी तप्त, बुद्धिगत होकर भी वृद्धिगत हो रहे हैं। प्रायका सम्यग्ज्ञान कभी भी सर्वपदार्थों को जानने की शक्ति को नहीं छोड़ा: महबापका प्रतायत तेजस्वीस्वरूप और कहाँ मेरा अज्ञानान्धकार रूप पर्दा, दोनों की कथा कैसे हो सकती है ? प्राप दसों दिशाओं में प्रकाशित है । अन्त में स्तुतिकार लिखत हैं कि हे जिनेन्द्र पाएको महिमा का गुणगान वास्तव में केवलज्ञान से या विशिष्ट ज्ञानियों से ही सम्भव है ।
अष्टम अध्याय में जिनेन्द्र को सर्वोत्कृष्ट उपदेष्टा - प्राप्त के रूप में मरण किया है । स्तुतिकार कहते हैं कि हे जिनेन्द्र पापका संसारदशा का रागीस्वभाव अब मोक्षमार्ग में शान्त हो चुका है । कषाय का क्षय ही एकमात्र मुक्ति का कारण प्रापने बताया है। आपने एक होने पर भी अनेक कमात्र समूह को जीता है। देव-दानवों आदि सभी ने प्रापके मुख से वस्तुस्वरूप को दिखाने वाला स्याहादस्वरूप सूना तथा जाना है । शुद्ध अभिप्राय वाले ही सापकी नयात्मक वाणी द्वारा अर्थ अवधारण कर सकते हैं । स्थाद्वाद की मुद्रा के विना गब्द शक्ति सर्वांशों के प्रकाशन में स्खलित
समर्थ) हो जाती है । सत का कथन असत' सापेक्ष होता है। यदि ऐसा न होता तो वस्तुस्वभाव अपनी मर्यादा तोड़ देता ? सत्ता द्वारा समस्त विश्व नहीं गिया जा सकता, परन्तु समसा किन्न. द्रारा गत्ता को गिया जा सकता
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MAMIO
हतियाँ ।
1 ३७१ है । आत्मा-विश्व के एक अंश रूप से सत् है, वही विश्वरूप न होने से उस अपेक्षा से असत् है । ज्ञानघन आत्मा-विश्व के अनादिसिद्ध नानापने को नष्ट नहीं कर सकता। सबको जानकर भी चेतन तथा अचेतन के स्वरूप को नाश नहीं किया जा सकता । जैसे मुर्दे में अनेक संस्कार करने पर मो चेतनत्व की प्रतीक्षिाहीं होती। विध्य सारा निरूपण करने वाली स्यावाद रूप मुद्रा प्रत्यक्ष खड़ी प्रतीत होती है। प्रापक सिद्धान्तों तथा अन्यमतियों के सिद्धान्तों में बहुत बड़ा अन्तर है 1 गापने स्याहाद मुद्रा की रचना की है, जो बस्तु के तत्-प्रतत् स्वभाव । प्रकाशक है। आप स्व-पर के दुःख नाशक हैं। अन्य मतियों को खेदोतवाद तथा गुमुक्षयों के उपास्य हैं । आपका शासन जगत् के प्राणियों के दुःखों को दूर करने वाला है। समरसी महामुनियों को महादुःख भी सुख रूप लगते हैं। जैसे बिल्ली को गर्म दूध भी रुचिकर लगता है । आप सर्वज्ञता तथा निर्दोषता सहित श्रेष्ठ प्राप्त हैं । शब्द परमब्रह्म भी आप ही हैं । इस नरह उक्त अध्याय समाप्त होता है।
नवम अध्याय में पुनः जिनेन्द्र निर्ग्रन्थ जिन) के गाव्यात्मिक चरित्र का वर्णन है । इसमें जिनेन्द्र की पूर्वसाधना का विवरण हे। पूर्व में वे अन्य मतियों द्वारा निन्दा किये जाने पर भी अपने स्वरूप साधना के मार्ग से विचलित नहीं हुए। आपनं एकाकी रहा तथा अन्तरंग-बहिरंग परिग्रह त्यागने की प्रतिज्ञा की और पामर प्राणियों पर दया की । प्राप वरतुस्वरूप के विचार में निरत: छहकाय के जीवों की दया के पालक पक्षपात रहित होकर भी प्राणियों के हित के पक्षपाती थे । ग्रहागि सूर्यकिरण आपके शरीर को जलाती थी, अापका प्रात्मा तो अमृतकण की भांति ही था । पाप समता रस के भार से शिथिल हो रहे थे तथा योग धारणकर मृतकवत् निश्चेष्ट थे, उस समय शृगालों द्वारा प्रापका शरीर विदीर्ण दिया गया था । अापने अर्धं तथा पूर्ण मासोपवास करके मोहम्वर को नाश त्रिया था । बापने अन्य तथा पूर्णसंयम प्रगटने से आप सर्वज्ञ बने थे। उस समय आपः। मोक्षमार्ग का उपदेश दिया था । अापके समग्र उपदेश का नार यह है कि अन्तरंग की कषायों को क्षय करते हुए शक्ति अनुसार चारित्र सारण कर । ज्ञानप्रधानचारित्र की महत्ता दिखाते हुए लिखा है कि सभ्याज्ञान पूर्वक ही सम्यक्चारित्र होता है । साथ ही सम्यक्चारित्र रहित ज्ञान भी अहेतुबन होता है । आपने परम यथाख्यात चारित्र को पाकर कालाय तथा योग निरोध द्वारा, मनुष्य प्रायु के अंतिम क्षण को पूर्ण कर अग्नि की शिग्दा के समान उर्ध्वगति सिद्धावस्था को प्राप्त किया था। अाप अनन्त चतुराय युक्त है।
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३७२ ।
. आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व वीर्य-शक्ति दर्शन-शान की तीक्ष्णता को तथा दर्शन-शान की तीक्ष्णता निराकुलता को और निराकुलता सुख को पैदा करती है । हे जिनेन्द्र ! प्राप ऐसे निराकुल-सुख से तन्मय हए हैं। तृष्णा का अभाव, अखण्डित वीर्य, निधिज्ञान इत्यादि जो सुख के कारण हैं, वे आप में विद्यमान हैं। प्राप संसार नाम से थक, दिशा में स्थित तथा तीनों काल की पर्यायमाला सहिल प्रात्मतत्व को देखते व जानते हैं। आप समस्त विश्व के अविभागी प्रतिच्छेदों को भी जानते हैं। आप प्रमाता व प्रमेय रूप से तन्मयी हैं. तथापि एकत्व को प्राप्त नहीं होते । परद्रव्य के प्रदेशों मे द्रव्य प्रदेशवान नहीं होता अपितु स्वप्रदेशों से प्रदेशवान होता है। आपके अनन्तदर्शन व ज्ञान में लोकालोक झलकते हैं, यही उनके प्रति प्रापका उपकार है । आप दर्शनज्ञानमयी मूर्ति होकर भी नाना ज्ञेयों के अपेक्षा नानारूप भी हैं । आप सदा स्वभाव सीमा में भग्न रहते हैं । त्रिकालवर्ती अखिल-विश्व के ज्ञाता आपके ज्ञान में अनन्त विश्वों को जानने की सामर्थ्य है। आपकी सामर्थ्य अप्रतिहत है । मैं जगत् के परिभ्रमण से थक चुका है, अतः प्राणपण से आपकी शरण लेता हूँ। मुझे अन्ध विवादों से कोई प्रयोजन नहीं है।
दशम अध्याय में शुद्धनय की दृष्टि से जिनेन्द्र का स्मरण किया है। शुद्धनय में समस्त नय गभित हैं । अनन्तचतुष्टययुक्त चैतन्य 'चमत्कार मात्र आपका म्प है। आपका चैतन्य रम प्रवाह किसी से रोका नहीं जा सकता। आका निर्मल तेज उत्तरोत्तर उछलता है । आपकी चेतन्य महिमा में समस्त विश्व डूबा सा लगता है । आपका स्वभाव रस, विभाव परणति से भिन्न है। उसमें विकल्प जाल नहीं है। आपकी दृष्टि स्वभाव से प्रतिबद्ध है। आप सिद्धालय पाने वाले हैं। आपका ज्ञान सर्वतः सुशोभित है । आपकी अनुभूति अखण्डित है । अनादि काल से उत्पाद-व्यय करते हुए भी आप आत्मतेज को नहीं छोड़ते। आपकी चतन्य-शक्ति के विकास से, . सुगंध फैल रही है । आप नमक की डली की भांति एक ज्ञायकस्वभाव तथा स्वानुभव से परिपूर्ण हैं। बर्फपिण्ड की तरह आत्मरस से परिपूर्ण हैं । आप अपार बांधामृत सागर होकर भी स्व के पारदशी हैं । आपके स्वानुभव में ज्ञान का सार समाया है । आपका स्वभाव अनुभवमय है । आप कारकमय होकर भी कारकों के चक्रों से पार हैं । आप काल से कलंकित नहीं होते। आप एक स्वभावी, ज्ञानमात्र हैं। पाप में मिश्रण भी नहीं तथा शून्यता भी नहीं है । पाप भावरूप तथा चैतन्य स्वरूप हैं। मैं भी चिद्भाव रुपता को धारण करता हूँ।
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कृतियाँ ]
एकादश अध्याय में भी शुद्धनय की दृष्टि से कथन किया है । प्रारभ में लिखा है कि हे जिनेन्द्र प्रापने मिथ्यात्वरूप रात्रि को नाश किया है तथा चैतन्यद्वारों से पाप नष्ट होते हैं, ऐसा उपदेश दिया है । सम्यग्ज्ञान रूप अग्नि समस्त विश्व को चाहती है, परन्तु पाप उतना ही ज्ञेय उसे प्रदान करते हैं, जितने से प्राकुलता न हो । ज्ञानाग्नि कर्म रूप ईधन को जलाती है तथा प्रात्मगुणों का पोषण करती है । आपका अनुपम वीर्य अनुभव में प्राता है। आप अनन्तबलयूक्त, अनन्तशेयों को जानते हए अंतर्लीन हैं। प्रापरे समस्त पदार्थों को जान लिया है, अतः अब कुछ भी जानना बाकी नहीं रहा है। पाप एकरूप तथा अनेकरूप हैं। पापका उपयोग साकार (ज्ञान) तथा अनाकार (दर्शन) रूप से दो प्रकार का है । आप में दर्शन, ज्ञान तथा अनंतबल सदा विद्यमान रहते हैं। आप निष्प्रमाद ज्ञाता-दृष्टा हैं । प्रापका दर्शन-शान अविनश्कर है। आप षट्कारक रूप हैं। आपका देखना जानना स्वभावतः है, पर शेयों के कारण नहीं है । आपके दर्शन व ज्ञान कभी भी आपसे पृथक नहीं होते । आपने षट्कारक चक्र को अन्तगढ़ किया है। दर्शन-ज्ञान की क्रिया से शोभित पाप कर्ता, कर्म तथा करणरूप हैं । षट्कारकों को अंतगढ़ करने में प्रापन निपुणता प्राप्त की है। आप निराकुल, अखंडित, अंतर्बाह्य ज्योति रूप है। आपके द्वारा कथित तस्व को धारण करने वाला एकांती नहीं होता। आप अनन्त शक्तियों से शोभायमान हैं। दीपक की अग्नि से व्याप्त बाती की नीति की तरह मैं आपसे तन्मय होता हूँ।
___ द्वादश अध्याय में भी उक्त शुद्धनय की दृष्टि से वर्णन किया है । जिनेन्द्र को नमस्कार करते हए, उन्हें अनेकरूप होकर भी एकरूप ही सिद्ध किया। आकाश तथा कालगत पर्याय भी जिनेन्द्र के ज्ञान को नष्ट नहीं कर सकती। वे स्वचतुष्ट्य रूप हैं, पर रूप नहीं है। सर्वज्ञ रूप से जाने जाते हैं। वे एक ज्ञान रूप होकर भी अनन्तज्ञान रूप परिणमते हैं । वे शुद्धनय के समुद्र हैं। हे जिनेन्द्र आपकी ज्ञानधारा ऋम को आक्रान्त करके, अनाम से खींचती हुई, क्रम से खींची जा रही है। पर्याय क्रममुत्रः (क्रमबद्ध) है । पर्यायापेक्षा आप अनेक रूप तथा द्रव्यापेक्षा एक रूप है । आपन अनन्त भूत, भविष्य तथा वर्तमान को धारण कर एकरूपता नहीं छोड़ी। आपकी गहराई तथा ऊँचाई अज्ञात है। अन्तर्बाह्य प्रकाश रूप, ग्राप आक्षेप - परिहार (विधि-निषेध नीति से सुशोभित हैं। पाप तद्-अतद् रम्प स्वरूपसत्तावलम्बी, साधारण में असाधारणता धारण करने वाले हैं। श्राप ज्ञान शक्ति
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: प्राचार्य प्रगृत चन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
द्वारा अनंतधर्मात्मक स्वभाव में अवगाहन करते हैं । नन्वयीगण, व्यतिरेकी पर्याय परम्पर निमग्न होसी ई न्याप में निगा होशील है :ो नामाद
आदि चार प्रकार के प्रभावों की चर्चा की है । पर्यायलव को अनित्य तथा द्रव्यतत्त्व को नित्य बताते हुए जिनेन्द्र को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप लिखा है । आप भात्र को प्रभावता तथा प्रभाव को भावता प्राप्त कराते हैं । प्राप हेतु तथा हेतुमान भी हैं। सत्सामान्यापेक्षा आप न कार्यरूप हैं और न ही कारण रूप हैं, अपितु अखण्ड एक रूप हैं । आप परिपूर्ण होकर भी विभाव से खाली हैं, खाली होकर भी स्वाभाविक गुणों से परिपूर्ण हैं तथा पूर्ण होकर भी खाली व खाली होकर भी कुछ वृद्धि रूप (अर्थात् षड्गुणी हानि वृद्धिरूप) होते हैं। जिस प्रकार याप विज्ञानघन स्वभावी हैं, उसी प्रकार में भी बनू।
त्रयोदश अध्याय में शुद्धगय की दृष्टि से दर्शन की सर्वोच्च ! दिखाई है । प्रात्मा के संकोच-विस्तार स्वरूप का निरूपण किया है । स्तुतिकार लिखते हैं कि हे जिनेन्द्र प्रापका ज्ञानमयो दिव्य शरीर स्व-पर प्रकाशक है ।
आप अादि अंत रहित, त्रिकालवर्ती पर्यायों का समूह, चैतन्यचमत्कार मात्र हैं। उसके साथ ही सुख, वीर्य आदि शक्तियों का वेदन होता है। आप अनंतधर्मात्मक, उपयोगमयी है। चेतन कभी अचेतन नहीं हो सकता, क्योंकि परद्रज्य अन्यद्रव्य की शक्ति हरण नहीं कर सकता। आप स्व-पर प्रमेय के जानकार हैं। अचेवनपदार्थ का ज्ञान अचेतन से नहीं, चेतन से होता है । आत्मज्ञान में परज्ञेयों का ज्ञान सिद्ध होता है । पर के ज्ञान बिना निज का भी ज्ञान सच्चा नहीं होता । दर्शन गुण पर पदार्थों के ज्ञान से दूर रहता है। पूर्ण स्वाधीन प्रात्मा के सहकारी कारणों का अभाव है। ज्ञान ही स्व-पर. प्रकाशक है। आत्मघाती, अनानीजन ही परपदार्थों का स्पर्श करते हैं तथा उनसे सहकार की अपेक्षा करते हैं। प्रात्मा ज्ञेय-ज्ञायक के भेदवाला तथा अभेदरूप भी है । सूर्य के प्रकाश में जगत् प्रकाशित हो तो भले हो, परन्तु सूर्य को तो प्रकाशपने की इच्छा नहीं है, इसी तरह यदि जगत् स्वयं ही ज्ञेय बनता है तो वन, ज्ञान तो बिना इच्छा के ज्ञाता है। अज्ञानी ही पर प्रकाशन की इच्छा करते हैं । अापका स्वरूप सहज स्व-पर प्रकाशक है । निश्चय-व्यवहार रूप इस जगत् की स्थिति ह्रास को प्राप्त नहीं होती।
आपकी चेतना सहज स्फुरित है, उसमें भेद परकृत होता है, जो आपको स्वीकार्य नहीं है । अाप अनंतवीर्य, क्षायिक ज्ञान तथा वीतरागता सहित । हैं । बहिरंग कारणों में निमित्त मात्र पना होता है, ऐसा वस्तु का निश्चित
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कृतियाँ |
| ३.७५
नियम है | आपका केवलज्ञान सकल विश्व को व्याप्त करता है। उसकी एक कला मात्र प्राणी को अनुभूति कराती है । श्रात्मा स्व पर प्रकाशक शक्ति बाला है ।
चतुर्दश अध्याय में जिनेन्द्र के प्रत्येक गुण का अलग-अलग तथा एकसाथ निदर्शन कराया है। जिनेन्द्र सामान्यापेक्षा एक चैतन्यमात्र प्रभेद हैं, विशेषापेक्षा दर्शन ज्ञान रूप भेद है । वे एकांतदृष्टियों को ज्ञानगोचर नहीं होते। उनकी प्ररूपणा आत्मा के स्वरूप समझने वालों के लिए है । आप पर्याय से उत्पन्न द्रव्य से अनुप हैं, समुदाय रूप से एक तथा जयव रूप से अनेक हैं | आप नित्य श्रनित्य तथा अनादि अनंत ज्ञान सागर रूप हैं । सामान्य ज्ञानदृष्टि से एक तथा विकल्पदृष्टि से अनेक हैं, परन्तु दोनों ही अवस्थाओं में विभागी प्रतिच्छेदों से समान ही रहते हैं । आप वृद्धिंगत होकर भी वृद्धि को प्राप्त नहीं होते, घटते हुए भी घटते नहीं और न ही घटते हैं, न बढ़ते हैं । वस्तु का स्वभाव परिणाममय है । स्वभाव में तर्क करना निरर्थक है । श्रापका प्रत्यक्ष स्वरूप प्रज्ञानी की प्रतीति से परे हैं । ज्ञानियों की दृष्टि पर पर पड़ी रहती है, जबकि श्राप निजमहिमा में लीन रहते हैं । स्व वगर के भेदज्ञान के लिए विधि-निषेध रूप पद्धति से निर्णय करना चाहिए । दर्शन गुण स्वयं प्रतिभासित होता है, उसे पर पदार्थों से प्रयोजन नहीं है । आप दृश्य पदार्थों से विरक्त तथा परपदार्थों के प्रकाशक हैं | है जिनेन्द्र, दर्शन-ज्ञान की बिजलियाँ मानो चंदोबा रचतीं हैं, समस्त जगत् मानो ग्रापके ज्ञानमुख में ग्रासीभूत होता है । सर्वशदशा होने पर सर्वजगत् आपका प्रतिबिम्ब जैसा लगता है । आत्मा मात्र ज्ञायक है । उसके दर्शन - ज्ञान की क्रिया से संसार बीज नाश होता है । भेदज्ञानी क्रिया में नहीं रमता है । संसार के कारणों के नाश से मुक्ति होती है । प्राप मत्स्यावतार की भांति पुनः जन्म धारण नहीं व रते | आपका समागम ही सुख हैं तथा वियोग ही दुःख है । वे धन्य हैं, जिनमें प्राप स्थित हैं । प्राप सकल परमात्मा हैं। आप में एकदेश संलग्न होने पर भी कषाय मल नहीं
लगता ।
पंचदश अध्याय में पूर्वोक्त विधिनिषेध पद्धति का ही स्पष्टीकरण प्रस्तुत है । आपका आश्चर्यकारी पद केवली के ज्ञानगम्य है । श्रापका रसास्वादी, गन्ने के स्वाद में प्रतृप्त बालक की तरह संतुष्ट नहीं होता । श्रापका ज्ञानास्त्र परपदार्थों पर पड़ते रहने से भोथला नहीं होता । श्रापके दर्शन रूप मस्त्र का पराक्रम लोकालोक में फैल रहा है । द्रव्य पर्याय विना
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३७६ ]
| प्राचार्य अमृतनन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व ! तथा पर्याय द्रव्य बिना उदित नहीं होते । सूर्य व प्रकाश की भांति आथयी तथा प्राश्रय परस्पर आश्रित होते हैं । अस्ति नास्ति से तथा नास्ति अस्ति से बाधित होता है, परन्तु उभय पक्षों से बस्तुस्वरूप सिद्ध होता है । स्वचतुष्टयापेक्षा पदार्थ होते हैं, परापेक्षा नहीं । आपका महात्म्य वाच्य तथा अवाच्य उभयरूप है । वह क्रमशः वक्तव्य है तथा युगपत् प्रवक्तव्य है। इसी तरह एक-अनेक, अवयव-अवययी, नित्य-अनित्य इत्यादि युगलों द्वारा जिनेन्द्र स्तुति की है। जिनेन्द्र के मत में अंतरंग तथा बहिरंग उभयकारणों को यथारूप 'वीकारा गया है। आपका ज्ञान स्वकारण से तथा उसमें भेद पर कारण से होता है। प्रापका उपयोग स्व-पर अवभासक है । स्व-पर को मणिमय दीपक की तरह पाप प्रकाशित करते हैं । वस्तु का यह गौरव है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य रूप नहीं होता । आपकी स्थिति स्वाश्रयी पराश्रयी उभय प्रकार की है । आप सर्वव्यापी होकर भी स्वसीमा में सीमित है। अपवाद (निषेध), तथा उत्सर्ग (विधि) से प्रापकी महिमा तत-प्रतात रूप हैं। निश्चय से आप गति रहित हैं, व्यवहार से गति युक्त हैं । पेले गये गन्ने से छलकते हुए रस की भांति श्रापकी विवेचना में प्रतिमा का पूर छलकता है। अापके चरणकमल पाकर मेरी मोह रूप रात्रि समाप्त हो गई है । आप मुझे अपनी गोद में स्थित कीजिये ।
षोड़श अध्याय में मंगलाचरण करते हुए स्तुतिकार लिखते हैं कि हे जिनेन्द्र आप अनंतज्ञान रूप अमृतरस के प्रदाता हैं। शांतरस के कलशों से धुलने से आपका कप्रायम्प रंग निकल गया है। ज्ञानशस्त्र से कषायों का नाराकर अापने यात्मशक्तियों को विकसित किया है । अंनतभवरूपी मम्भीर गर्त से निर्मल ज्ञान का प्रवाह बहता है। पाप में सोमातीत गम्भीरता तथा उदारता है । आप अनंतज्ञान से पूर्ण, परिमित प्रदेशी तथा वैभवयुक्त हैं। स्वभाव के प्राथय के कारण नष्ट नहीं होते । आपके ज्ञान में सर्वज्ञेय प्रतिबिम्बित तथा मत्स्यसमूह की भांति तैरते प्रतीत होते हैं । आपमें ज्ञान ज्ञेय सम्बन्ध होने पर भी शंकर दोष नहीं है । भेदाभेद रूप प्रात्मा अनुभव गम्य है । माप अनेक तथा एक स्वभाव का अनुभव करते हुए अनंत शक्तियों के कारण अनंत है। अनंत भावरूप परिणमन के साथ प्रापका वैभव प्रगट होता है। आपका ज्ञान समस्त गुणपर्यायों सहित परद्रव्यों को पी सा रहा है । आपका ज्ञानास्त्र तीक्ष्ण है तथा आप ज्ञान लक्ष्मी से सुशोभित हैं। चराचर को चतन्यभाव रूप कराता हम्रा पापका ज्ञान है, उसमें वह ज्ञान भावलक्ष्मी से सुशोभित है । चराचर को चैतन्यभाव
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कृनियाँ ।
[ ३७७
रूप कगता हुअा आपरा ज्ञान है, उसमें वह ज्ञान भावलक्ष्मी से सुशोभित है । चराचर को चैतन्यभावरूप करता हा आपका ज्ञान है, उसमें वह भिन्नता को प्रतीति कराता है । प्रकाशहीन जगत् आपके ज्ञानप्रकाश से प्रकाशित है । पापका ज्ञान विश्व को जानकर भी विश्वरूप नहीं होता । अापकी समस्त मान्टियां आत्मरस से सिचित हैं। यद्यपि परमागम त्रिकाल व त्रिलोक का प्रकाशक है, तथापि आपके केवलज्ञान के समक्ष वह जुगनुवत् ही है । हे जिनेन्द्र मेरा श्रुतज्ञान शीघ्र ही केवलज्ञानरूप बने ।
____ सप्तदश अध्याय में स्यात् पद और उसके प्रतिपाद्य की चर्चा की है। विधि-निषेधरूप द्रव्यों का स्वरूप न्यान् पद द्वारा ही प्रतिपाद्य होता है । शब्द यात्मा की त्रिकाली दगाओं का प्रतिपादन नहीं कर सकते । नास्ति पक्ष की निरूपण की असमर्थता को स्यात्पद के प्रयोग द्वारा दूर करते हैं। शब्द बिधि पक्ष को मधुररूप में तथा निषेध पक्ष को अटुकरूप में व्यक्त करने है । शब्दों या वस्तु बान्य-वाचक को भिन्नता बनी रहती है। शब्द अर्थरूपता को धारण नहीं कर सकते, क्योंकि घट शब्द व घट अर्थ में भेदपना है. अभेदपना नहीं । जगत् को सल रूप कहकर समस्त वस्तुप्रों को प्रकट नहीं किया जा सकता, क्योंकि सत् को स्वयं असत् की अपेक्षा होती है । अग्ति की प्रात्मानुभूति पर की नास्ति पूर्वक ही होती है । तथा नास्ति की अनुभूति अस्ति पूर्वक होती है । जगत् में स्व-पर का विभाग है, अतः एक पक्ष के कथन में दूसरा पक्ष छूट जाता है ! एकांत रूप से जगत् को सत् या असत् कहना नहीं बनता, क्योंकि वे दोनों परस्पर सापेक्ष हैं। वस्तु में भाव व प्रभाव तथा अस्ति में नास्ति ध्वनित है। इसी तरह नास्ति में अस्ति ध्वनिन है। विधि पक्ष प्रगट करने पर निषेध पक्ष भी प्रगद होता है। भ्यान पद में द्विधा निरूपक शक्ति है। शब्द की द्वं धता स्यात् पद से प्रगट होती है । एक पद में दो पक्ष व्यक्त हो सकते तो स्यात् पद की जरूरत न होती । उभय पक्षों की प्रगटता स्याहाद में ही होती है। विवक्षित कथन मृमय तथा अविविक्षित गौण होता है । म्यात्कार बिना पदार्थों की अनंतता तथा विधि अपेक्षा बिना मर्यादा व्यक्त करना सम्भव नहीं है । विधि निषेध में भी परस्पर मैत्री है, अतः स्यादाद के माध्यम से ही निजात्मा के स्वरूप की भरी बजायो।
अष्टादश अध्याय में भी द्रव्य के दूत स्वभाव की चर्चा की है। केवलज्ञान ज्योति को स्मरण करते हुए एकब अनेकत्व, सामान्य विशेष, एकरूप अनकरूप, एक अनेक में परस्पर सम्बन्ध, नित्यानित्यता, द्रव्य-पर्याय
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३७० |
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
की अभिन्नता, भाव-अभाव तथा उनमे परस्पर सापेक्षपना, द्रव्य का वाच्पना तथा अवाच्यपना, उनमें भी सापेक्षता, जिनेन्द्र का वान्य अवाच्य स्वरूप, शुद्धभाव कारण समूह में तथा कारक समूह शुद्ध भाव में लीन होना, कार्य व कारणपन की द्विरूपता इत्यादि का विवेचन किया है। आगे कहा कि लोग ज्ञान में निमित्तला बाह्य पदार्थों को मादा हेतु मार दो नको हैं तो बकते रहें, परन्तु बाह्य हेतु कदापि अन्तरंग हेतु नहीं हो सकता। वास्तव में जिनेन्द्र ने अपने स्वयं उपादान कारण से विश्वव्यापी विज्ञानधन ग्वभाव प्रगटाया है । व्यवहार से कर्ता-कर्म भिन्न कहे जाते हैं परमार्थ से वे भिन्न नहीं है। अाप स्वतः अाधार एवं प्राधेय हैं। ज्ञाता-ज्ञेय तथा बाचक-वाच्य दोनों में भिन्नता है । आप भविष्यत् अपेक्षा सिद्ध थे, वर्तमान में भी सिद्ध हैं तथा भूतकाल में अापके रागदशा थी, जो वर्तमान में वीतराग रूप हो चुकी है। ग्राप एक रहकर पुनः पुनः उत्पन्न होते हैं, तथापि वह अन्य द्रव्य की उत्पत्ति नहीं है। ग्राम विज्ञानधनस्वभाव एक रूप हैं तथा दर्शन ज्ञानादि अपेक्षा अनेक रूप हैं । हे जिनेन्द्र आप विरुद्धधर्म मंयुक्त वंभव वाले हैं । स्वतत्त्व का अाराधक आप में प्रवेश पाता है।
एकोनविना अध्याय में भी उपयुक्त द्वत स्वभाव की चर्चा है । जिनेन्द्र पराश्रय, शून्य,संकर दोष प्रादि से रहित हैं । आत्मपरायण हैं, चैतन्य युक्त, पुद्गल भिन्न हैं तथा आत्मानन्द में रमण करने वाले हैं। आप निजभाव से परिपूर्ण, एक - सामा-य रूप हैं। प्रव, नित्य विशेषण युक्त हैं। पाप कभी प्रभाव पाता को नहीं धारण करते। आपके विशेषण पर से भिन्न, स्व में अभिन्न हैं । प्रात्मणों की भावना से स्वानुभूति प्रगटती है | व्यवहार से कारक भेद आप में हैं, निश्चय से नहीं हैं। कारण मे कार्य होता है । कर्माकर्म की कल्पना कलंक है | आप चैतन्य, त्रैकालिक, स्त्र-पर प्रकाशक, मानरूप, अशुद्धि रहित, भ्रम रहित, विभामय, निराकूल, पाश्चर्यकारी तेजयुक्त, विधिनिषेध स्वभाव मय तथा अपनी विमा से वनोंदिशामों कुत तथा काल कृत भेद को मिटाने वाले हैं। आपका ज्ञान स्वाधीन है । अापको जानने का प्रयास करने वाला स्व-पर ज्ञानी होता है । मैं भी मध्यस्थ होकर अपनी विभा का अनुभव तब तक करता हूँ जब तक पूर्ण ज्ञान ज्योनि नहीं प्रगटती ।
विश अध्याय में प्रमुखतः एकांतवादी बौद्धमत की अालोचना प्रस्त की है । व लिखते हैं कि सर्वथा एकांतवाद की वाणी स्यात् पद लगाने से एकान्त विष का वमन होकर सत्यामृत रूप बन जाती है । संग्रहनय से
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कृतियाँ ।
[ ३७६ चिन्मात्र तथा ऋजुभूत्रनय मे अग्निशिखावत् प्रकाशमान हैं। ऋजुसूत्र नय से ज्ञान के अनन्तांशों में एक अंश ही नाह्य होता है। साथ ही एक पर्याय मात्र विषय होने से पर्याय परम्परा भी नहीं बनती । श्राप में विचित्राकृतियों रूप परिणमन होता है । ज्ञान में जेय स्वयं प्रतिबिम्बित होते हैं, तभी तो उनकी भी मना स्वय सिद्ध होती है। आपका ज्ञान समस्त जगत को व्याप्त करता है। मका पर में, पर ना मार मार है किन्तु मन्द बुद्धियों को यह समझ में नहीं पाता । पर द्रव्य आपत्तिकारक होने से उसे छोड़ा है. यही आपका अपोहवाद है, जो ज्ञानियों को भ्रमनाशक है । परस्पर अपोहबाद से प्राप गत, यूगत और तथागत भासित होते हैं। शून्यतावादी बौद्धमत में क्या, कहाँ, किससे प्रतिभासित है इत्यादि कल्पनाएँ समाप्त हो जाती हैं। उक्त कल्पनाएं निर्णायक के अभाव में कौन निर्णय करेगा ? शून्यवाद से पदार्थों का प्रभाव सिद्ध होगा अतः उक्त सिद्धान्त स्वयं खण्ठित है । अन्त में कपना रहित निविक्रान्परूप गून्य में लीन होने की स्तुतिकार ने भावना की है।
* एकविश प्राध्याय में न्याय तथा वैशेषिक मतों की अालोचना है। गूणस्थान ग्रारोहण तथा प्रात्मशक्तियों का प्रकट होना जिनेन्द्र में पाया जाता है । एक-अनक, विशेषण-विशेष्य, बर्तना-वृत्तिमान, उत्पाद-व्ययप्रौव्य, पृथकत्व-अपथकत्व-सत् असत् सामान्य-विशेष आदि का विप्लत स्पष्टीकरण है। भाव-अभावरूपता, उनकी सापेक्षता तथा मापके मन में वन्तु का नाश न होना इत्यादि पर प्रकाश डाला है तथा अन्त में आप मेरे में प्रवेश करें अर्थात मैं भी आप समान बने ऐसी भावना भाई है ।
__ अन्तिम चार अध्यायों में ज्ञान दर्शन के आधार पर ही दार्शनिक गुत्थियों को सुलझाया है । प्रायः उपर्युक विषय ही विभिन्न अलंकारों तथा शब्दविन्यासों द्वारा पुनरुक्त हुए हैं। अनन्त मुख स्वरूप, शेय-ज्ञान, अखंडता-खुण्डपना, भेद-भेद आदि युगलों की चर्चा की गई है। केवल मान की महिमा के साथ द्वात्रिंश अध्याय समाप्त किया।
योविश अध्याय में पूर्ववत् गुणों का · मरण विभिन्न विकन्पों द्वारा किया है तथा अनन्त-चतुष्टय प्रगट हो ऐसी भावना की है।
चतुर्विश अध्याय में लिखा है कि भाग्यहीन पाणी अापके स्वरूप का ध्यान नहीं कर सकता । आपका स्वरूपामृत पीकर कौन
आनन्द में मन नहीं होता ? शाप की गक्ति महान् है, अतः केवलज्ञान सागर को आपने मथा है । चतना ब चैतन्य में कवित् भेदाभेदपना है। उत्पाद-व्यय, अस्ति-मास्ति युक्त आपका भ्र व स्वभाव है
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३८० ]
पाई शापूरकन : यतित्व एवं कर्तृत्व आप चिपिंड हैं। तीनों लोक मानो आपकी चैतन्यता का एक पत्ता है । आपकी चैतन्य चान्दनीरूप सागर में मानो तीनों लोक डूब रहे हैं । पूर्व पर्याय, अपर पर्याय को नहीं स्पर्शती । पाप नित्य होकर भी परिवर्तनशील हैं । आप अमृतस्रोत, परमतृप्त, आत्मतेजयुक्त तथा स्वस्थ हैं। आपकी महिमा से हमारे विकारी भावप्राण नाश हो रहे हैं । आपकी महिमा अवर्णनीय है, 1 मैं आपके केवलज्ञान जल में स्नानकर, आलस्य रहित, आत्मलीन होता हैं।
पंचविश अन्तिम अध्याय में कर्म तथा ज्ञान का समुच्चय रूप से वर्णन है । आप सर्वोदय की अवस्था को प्राप्त हैं । आपने संयम से असंयम को नाशकर कर्मों को निराकृत कर विज्ञानघन म्वरूप को प्रगट किया है। आप आत्मगरिमा तथा प्रात्मव्यापार युक्त हैं । आप अन्तर्बाह्य संयम के धारी हैं। पापका पात्मा परमार्थ रसिक और सवेदशी है । निपुण पुरुष क्रमशः क्रियाओं से विरक्त होकर ज्ञानस्थ होते हैं। आपने कर्म व ज्ञान के सुयोग को धारण किया है ! जो भाग्यवान् जिनागम का अध्ययन करते हैं, वे संयमामृत से ज्ञानभूमि को सिंचित कार अपने लक्ष्य को पा लेते हैं। अापके अनुभव में मत्त होकर भी साधक प्रमत्त नहीं होता। सम्यग्ज्ञान से ही बाह्य वस्तु का भी यथार्थज्ञान होता है। जो क्षणभर को भी रागादिरूप या करूप होता है। यह समस्त कर्म कालिमा को नष्ट नहीं कर पाता। आपमें समस्त भावरूप रस पीने से निर्मलज़ान की विशेषाताएं छलक उठी हैं । ऐसा भगवान प्रात्मा चैतन्य सागर तथा आश्चर्यों का भण्डार है । मेरे उस्कृष्ट संयम का पुटपाक ज्ञानाग्नि में सम्पन्न हो तथा स्वाभाव लक्ष्मी प्रगटे ऐसी भावना स्तुतिकार करते हैं। वे लिखते हैं कि इस स्तुतिरूप रस को अमृतचन्द्र कवीन्द्र ने अनेक बार पिया है । ग्रन्थान्त करते हुए लिखा है कि म्याद्वाद के मार्ग में, स्व-पर के विचार में, ज्ञान व क्रिया के अतिशयपूर्ण वैभव को विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करने के इच्छुक अपनजनों के लिए मेरी यह रचना दिशा प्रदर्शन करने वाली है। इस तरह अमृतचन्द्रमुरि की यह 'शक्तिमणित् कोश अपरनाम लघुतत्त्वस्फोट नामक कृति समाप्त हुई। इस तरह अध्यात्म तथा भक्ति की धाराओं के साथ दार्शनिक ज्ञान धारा का सम्मिलन करके अमृतचन्द्र ने इस रचना द्वारा जिनेन्द्र की स्तुति के नाम पर अपूर्व त्रिवेणी प्रवाहित की है । समग्र कृति में जनदर्शन के गूढ़तम सिद्धान्तों तथा आध्यात्मिक रहस्यों का भलीभांति प्रस्फुटन हुपा है। अतः उक्त कृति का नाम ''लघुतम्बस्फोट" सार्थक हो गया है।
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कृतियाँ । पाठानसंधान :
"लघुत्वस्फोट'' की उपलब्ध एकमात्र ताडपत्रीय प्रति में बहुत कम शाब्दिक एवं लिपि विषयक त्रुटियां थीं, जिन्हें प्रथम अंग्रेजी संस्करण के सम्पादक डॉ. पदमनाम जैनी (प्रोफेसर विश्वविद्यालय, केलोफोनिया, यू. एस. ए) ने संशोधित कर दिया है। पश्चात् डॉ. पं. पन्नालाल साहित्याचार्य ने इसका द्वितीय बार हिन्दी में सम्पादन किया है जो दि. जैन, वर्णी संस्थान वाराणसी में प्रकाशित हुँचा है। अतः उक्त उपलब्ध दोनों ही प्रकाशन पाठानुसंधान की दृष्टि से पूर्णतः शुद्ध हैं। परम्परा :--
अपन अन्य वस्यों की भांति आमतचन्द्र ने इस ग्रन्थ में भी मुख्यतः जिनस्तुति परक चरणानुयोग तथा करेंणानुयोग विषयक अध्यात्मरस का निर्भर प्रवाहित किया है । इस प्रकार इस कृति में जैन-स्तोत्रकाव्य परम्परा का ही निर्वाह हुना है। प्रणाली :
स्तुति काव्यों की निरूपण प्रणाली वर्णनात्मक तथा ताकिक रही है। प्राचार्य अंमतचन्द्र ने भी इसमें उक्त प्रणाली का ही प्रयोग किया है । ग्रंथ में आद्यन्त दार्शनिक, प्राध्यात्मिक तथा नार्किक शैली के पद-गद पर दर्शन होते हैं। प्रन्यवैशिष्ट्य :..
इसमें प्रथम सो दार्शनिक स्पर्धा युग की क्लिष्ट व तात्विक काव्य शैली प्रयुक्त है । दूसरे जैनदर्शन के गुढ़तम रहस्यों का मात्र विद्वज्जनग्राह्य मंथन है। तीसरे अनेकांत ग्याद्राद तथा नयों का विशद् स्पष्टीकरण हुया है। प्रकाशन :--
अब तक उक्त नवोदित कृति के केवल दो ही संस्करण प्रकाशित हुए हैं, जो इसप्रकार हैं१. ल. त. स्फोट, सं. डा. पद्मनाम जैनी यू. पास.ए, प्रकाशक एल.डी.
इंस्टीट्युट अहमदाबाद, सन् १९७८, अंग्रेजी ५०० प्रतियां, प्रथम
संस्करण। २. ल. त. स्फोट. सं. डा. पं. पन्नालाल जैन, सागर म. प्र., प्रकाशक
वर्णी दि. जैन संस्थापक बाराणसी, सन् १९८१. हिन्दी, १००० प्रतियां, प्रथम सं..
अन्य चचित कृतियां आचार्य अमृप्तचन्द्र के नाम पर कुछ अन्य कृतियों की चर्चा पवचित् कदाचित् मिलती है । ऐसी चचित कृतियों में 'षट्पाहु पर संस्कृत टीका, श्रावकाचार (प्राकृत), पंचाध्यायी, ढाढसी गाथा के नाम विचारणीय हैं ।
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३८२ ।
। प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व षट्पाहड़ टीका :
'षट्पाहुई" नामक प्राकृत भाषा में गाथाबद्ध रूप में लिखित एक रचना है, जो प्राचार्य कृन्दकुन्द स्वामी की कृति है । उस पर श्रुतसागरसूरि की १६वीं सदी में लिखी गई संस्कृत टीका तथा पं. जयचन्दजी कृत हिन्दी (ढहारी में भाषा बचानका उपलब्ध होती है। प्रोफेसर विन्टरनिजी ने रक्त ग्रन्थ का परिचय कराते हा फटमोट में श्रतसागर सरि के साथ अमृतचन्द्रसूरि को भी षट्पाहुड का संस्कृत टीकाकार लिखा है, जिसका अाधार उन्होंने पीटर्सन रिपोर्ट जिन्द २ पृ. ८० तथा १५० बताया है । प्रो. विन्टरनिटज के उल्लेख के अनुसार डॉ. मोहनलाल एवं प्रो. हीरालाल र. कापडिया ने भी अमृतचन्द्र द्वारा पदपाहन पर टीका लिने जाने की सम्भावना का उल्लेख किया है. परन्तु उक्त सम्भावनाएँ निराधार हैं । आचार्य अमृतचन्द्र कृत कृतियों में आज तक ऐसी कोई रचना प्रकाश में नहीं आई है, और न ही जनदर्शन के विख्यात प्राचार्यों तथा विद्वानों ने इसका कहीं पर जुग्लेख ही किया है। डॉ. ए. एन. उपाने ने भी इस प्रकार की कृति के सम्बन्ध में अपनी अनभिज्ञता ही प्रगट की है। अतः उक्त सम्बन्ध में जब तक कोई ठोस प्रमाण या तथोक्त टीका उपलब्ध नहीं होती तब उक्त टीका को अमृतचन्द्र के साथ प्रसिद्ध करना निराधार तथा अनुचित है। श्रावकाचार (प्राकृत) :
ऐसी एक विद्वान की मान्यता है कि अमतचन्द्र ने कोई श्रावकाचार नामक प्राकृत में ग्रन्थ लिखा होगा, कारण कि वे प्राकृत गाथानों के टीकाकार थे। दूसरे समयसार को टीका में एक प्राकल गाथा भी उद्धृत है। मेघविजय ने उक्त गाथा को अमृतचन्द्र कृत माना है। तीसरे एक गाथा "ढाढसी गाथा" में भी अवतरित है. जो अमृतचन्द्रकत होनी चाहिए । इस प्रकार के सभी तर्क दिये हैं, परन्भू श्रावकाचार जैसी कोई कति आज तक उपलब्ध नहीं हुई, जिसे अमृतचन्द्र कृत माना जा सकें। दूसरे श्रावकाचार विषयक ग्रन्थ की रचना संस्कृत पद्यों में “पुरुषार्थसिद्धयुपाय" नाम से करने के बाद पुनः प्राकृत में रचना करना कोई प्रयोजनभूत बात नहीं ? History of Indian Literatura, V.:] – J!. Page 57? (Footnote) २. जैन साहित्य का वृहतिहास - भाग ४ पृ. १५६ । ३. ravicharrasara - Preface Page 36 (Footnote Edited by ____AN Timadhye, l-dn. II, 145 ४. Pravacanarara Preliace Page 95 Edited by A. N. Upadhye,
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कृतियाँ |
[३-३ जचती । उपर्युक्त कथन मात्र निराधार अनुमान हैं अतः उक्त श्रावकाचार नामक प्राकृत रचना अमृतचन्द्र ने की है, यह मान्यता भी निराधार
ढाहसो गाया :___मेघविजयजी ने एक प्राकृत गाथा हादसीगाथा में उद्धृत देखकर उसे अमनचन्द्रवत मानकर, सम्पर्ण ग्रन्थ को ही अमतचन्द की रचना मान लिया है, जो मात्र कापना ही है । ढाढसीगाथा नामक लघुकति का एक सम्करण माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला की १३वीं जिन्द के रूप में निकल चुका है । परन्तु उसमें लेखक के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं दी गई है। प. नाथुराम प्रेमी ने उक्त अन्य को कोई काष्ठासंधी आचार्य की कृति अनुमानित किया है, क्योंकि ऐसा प्रत्य में प्रागत कठो वि मूलसंघो" (काटासंघ भी मूलसंध है) पदों पर से प्रतीत होता है। पंचाध्यायी :
उस ग्रन्थ का सर्वप्रथम प्रकाशन पं. मक्खनलाल शास्त्री कत भाषाटीका का किया गया । भाषाटीकाकार ने इसे प्राचार्य अमतचन्द्रसूरि की रचना माना है । टीकाकार ने पंचाध्यायी को अमृतचन्द्र कृत घोषित तो किया है. परन्तु उसके लिए कोई ठोस प्रमाण प्रस्तुत नहीं किये । दुसरी अोर प्रसिद्ध साहित्यकार पं जुगल किशोरजी ने अपने एक लेख द्वारा ठोस प्रमाणों के प्राचार पर यह सिद्ध किया है कि उक्त ग्रन्थ अमृतचन्द्रसूरि कृत नहीं है। उसके रचयिता लाटीसंहिता के कर्ता तथा समयसारकला के भाषाटोकाकार महाकवि पं. राजमल पाण्डे हैं । उक्त रचना के सम्बन्ध में कुछ तक एवं प्रमाण इस प्रकार हैं :
प्रथम तो जाध्यापी में अध्याय दो, इलोक में ४६६ के बाद "संवेयो............ जिक्वेनो................।' इत्यादि गाथा "उक्तं च" रूप में उद्धृत की गई है, जो वसुनंदिश्रावकाचार की ४६वीं गाथा है । वसुनंदि का समय विक्रम की १२वीं सदी है, जो अमृतचन्द्र से काफी बाद हुए हैं; अतः उनल गाथा का उद्धरण वसुनंदि के पश्चादवर्ती पं. राजमल्ल द्वारा दिया जाना सम्भब है. उनके पूर्ववर्ती अमतचन्द्र द्वारा सम्भव नहीं है । उक्त गाथा को प्रक्षिप्त भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि उसके सन्दर्भ में अग्रिम श्लोक ४६७ व की रचना की गई है जिसमें "उक्त गाथार्थसूत्रेऽपि प्रशमादिचतुष्टयम्" इत्यादि कथन द्वारा गाथा को सन्दभित किया गया है । अतः 1. Pravaxhanasara Freiace 95 Edited by A. IV. Upadhye. 2. Itid – Page 95 तथा पुरातन जैन याम्यसूलो - पृ. १०४ (प्रस्तावना.
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३८४ ]
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व स्पष्ट है कि पंचाध्यायी अमृतचन्द्र की रचना नहीं है, अपितु पं. राजमल की ही है।"
दुसरे - पं. राजमल ने उक्त ग्रन्थ में पुरुषार्थसिद्धयुपाय का "येनाशन मुदृष्टि'............" नामक पद्य "उक्तं च' लिखकर उद्धृत किया है।' इससे स्पष्ट है कि यदि उक्त ग्रन्थ अमृतचन्द्र की कृति होती तो वे स्वयं ही अपनी कृति में अपने दूसरे ग्रन्थ पुरुषार्थसिद्ध्युपाय के उक्त ११२वें श्लोक को "उस्तं च" रूप में कैसे उद्धृत करते, अतः यह उद्धरण पं. राजाल्ल द्वारा ही उदाहृत किया गया प्रतीत होता है। इससे पंचाध्यायी भी उनकी ही रचना सिद्ध होती है।
तीसरे - पंचाध्यायी तथा लाटी संहिता में परस्पर तुलना करने से ज्ञात होता है कि दोनों रचनात्रों की कथन शैली, लेखनप्रणाली, रचनापद्धति एक जैसी है, ऊहापोह का ढंग, पदविन्यास और साहित्य में भी दोनों में समानता है। दोनों में किन्च, नन्, अथ, अपि, अर्थात, अयमर्थः, अयभावः, एवं, मैवं, मैवं, नो, न चाराडक्यं, चेत्, नोचेत्, यतः, ततः, अत्र, तत्र. तद्यथा इत्यादि शब्दों का प्रचुर प्रयोग समान रूप से पाया जाता है । दोनों ग्रन्थों की लेखनी एवं शैली से प्रतीत होता है कि दोनों रचनाएँ एक ही कर्ता की है।
चौथ - लाटीसंहिता व पंचाध्यायी दोनों के श्लोकों में भी समानता पाई जाती है। उदाहरण के लिए पंचाध्यायी के द्वितीय अध्याय के ३७२ से ३६६ तक के पद्य लाटीसंहिता के तीसरे सर्ग के २७वें श्लोक से ५४३ तक समान हैं । इसी तरह चाध्यायी के ४१० से ४३४ तक के पद्य लाटीसंहिता के ५५ से ७४ तक के पद्यों में साम्य पाया जाता है। अन्य पद्यों में पंचाध्यायी के ४३५, ४३६. ४३६ से ४७६ तक तथा लादी संहिता के क्रमश: ८०, ८१, ८२ से ११४ तक के पद्यों में समानता है। इसी तरह अन्य कितने ही पद्य साम्य प्रदर्शित करते हैं। इससे दोनों कृतियों के कर्तव में भी एकत्व यथवा अभेदपना स्पष्ट होता है ।
पांचवें - चाध्यायी के प्रारम्भिक चार मंगलाचरण विषयक पद्य तथा लाटीसंहिता के प्रारम्भ के ६ मंगलपद्यों में भावसाम्य पाया जाता है।
उठवे - f. जुमलकिशोर के लेख द्वारा प्रस्तुत प्रमाणों एवं परीक्षण के बाद प्रायः अधिकांश विद्वानों ने एकमतेन पंचाध्यायी को पं. राजमल की कृति माना है, प्रमतचन्द्र की नहीं ।
१. "वीर" पत्र वर्ष ३, अंक १२, १३ । २. पंचाध्यायी अंक २, श्लोक नं. ७७१ के बाद ।
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पश्चम अध्याय
साहित्यिक मूल्यांकन
प्राचार्य अमृतचन्द्र के व्यापक व्यक्तित्व का विहंगामावलोकन करने के बाद उनकी कृतियों का साहिचिमा नबनान करने के लिए उनके साहित्य में उपलब्ध विभिन्न विशेषताओं पर प्रकाश डाला जा रहा है । उनमें भाषा, शैली, अलंकार यादि बिन्दुओं का अवलोकन करना आवश्यक है। भाषा :
प्राचार्य अमृतचन्द्र संस्कृत तथा प्राकृत भाषा के निष्णात, अधिकारी विद्वान थे । संस्कृत पर तो उनका असाधारण प्रभुत्व था । उनकी लेखनी के इशारे और सहारे पर संस्कृत वाङमय की गद्यसरिता अनेक वैशिष्ट्य रूप तरंगों के साथ उद्वेलित हो उठती थी । पद्यरूप कामिनी अपनी समस्त कलाओं के साथ नृत्य करने तयार रहती थी । गद्यरूप भाषा प्रवाह निर्भर की भांति प्रवाहित होती हुया तथा पद्यमयी भाषा अध्यात्म रस के फुब्बारों की तरह प्रवाहित होती हुई अध्यात्म एवं साहित्य रसिकों का मनमोह लेती है। पाठक उनकी भाषा में अपूर्व मिठास,सहज आकर्षण तथा गम्भीर ज्ञान भरा पाते हैं। संस्कृत भाषा प्रायः तीन रूपों में प्रकट होली है। वे तीन रूप है गद्य, पद्य तथा चम्पू मिश्र)। टीकायों में उन्होंने उक्त तीनों साहित्य रूपों का प्रयोग किया है, जबकि मौलिक रचनाओं में केवल पद्यरूप में ही अभिव्यक्ति हुई है । यात्मख्याति,तत्त्वदीपिका तथा समयव्याख्या टीकाओं में गद्यम्य भाषा-प्रौढ़ता देखते ही बनती है। समयसार. कलश, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, तत्त्वार्थसार तथा लघुतत्त्वस्फोट इन रचनाओं में परिष्कृत पद्यरूप का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण उपलब्ध है | आत्मस्यानि कलशयुक्त टीका में चम्पू या मिश्रभाषा रूप के दर्शन होते हैं। उनके विशाल, निर्दोष गन्ध - गगन में पद्यरूप सितारों की झिलमिलाहट साहित्यरमिकों का हृदय प्रफुल्लित करती है, सहृदयजनों का मन मोह लेती है। उनकी कविता कामिनी कभी सीधे सादे, सहज देश में प्रकट होती है, तो कभी बन्द, रस एवं प्रालंकारों से अलंकृत होकर पाठकों को
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३८६ ।
[ माचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
याश्चर्यान्वित करती है। पुरुषार्थसिद्धपान आर्या छन्दों में तथा तत्रार्थसार अनुष्टुप छन्दों में सहज सुगम रूप के उदाहरण हैं । समयसारकला तथा कृत्रिमता स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है । ग्रात्मरूपातिकलव युक्तः • टोका का तो गंगा-यमुना के संगम की भांति प्रनुभव किया जा सकता है। जिसमें अवगाहन करके पाठक अभूतपूर्व सन्तुष्टि तथा परमानन्द का अनुभव करता है |
संस्कृत भाषा पर प्रमृतचन्द्र का आधिपत्य है । दार्शनिक गुत्थियों को सुलझाने तथा गुड़े रहस्यों को उद्घाटित करने की क्षमता उनकी गद्य तथा पद्ममयी दोनों प्रकार की भाषाओं में है । जहाँ एक ओर वे सरल, सुगम, सुबोध सोदाहरण तथा बालबुद्धिगम्य भाषा के प्रयोग में मस्त हैं, वहीं दूसरी ओर वे क्लिष्ट, दुर्गम सामासिक एवं तर्कप्रधान भाषा के प्रयोग द्वारा विजनों के गर्भ को खर्व करने में भी समर्थ हैं । इसप्रकार उनकी भाषा प्रौढ़ता, भावोत्कर्ष, रसोत्कर्ष, अर्थगांभीर्य आदि विशेषताएं उनके उच्चकोटि के साहित्य के प्रमाण हैं ।
उनकी श्रात्मख्याति टीका तत्वज्ञान की गम्भीरता तथा आध्यात्मिक रसोत्कर्ष का ज्वलंत उदाहरण है | आचार्य कुन्दकुन्द को अभिप्रेत आत्मतत्व के सूक्ष्म विश्लेषण एवं निदर्शन कराने में उनकी अर्थवाही - भावप्रवण भाषा समर्थ सिद्ध हुई है । श्रात्मतत्व का साक्षाकार कराने में अमृतचन्द्र ने कोई कसर नहीं उठा रखी है। उनकी भाषा अर्थका अनुधावन पूर्ण प्रामाणिकता के साथ करती है । उनके भाषाविषयक प्रौढ़ प्रयोगों से अमूर्तशुद्धात्म-रूप-परंब्रह्म साकार एवं सचेतरूप में प्रकट हो उठा है। आचार्य कुन्दकुन्द के सुत्रगत भाव रत्न की उपमा को तथा अमृतचन्द की भाषा स्वर्ण की उपमा को प्राप्त होकर पाठकों के समक्ष मणिकांचन संयोग का सुन्दर सुमेल उपस्थित करते हैं। अद्भुत अश्रुतपूर्व श्रात्मा के एकत्वविभक्त-सजीव सौन्दर्य को अभिव्यक्त करके प्रत्मपूजक भाषादेवी मानो पूज्य एवं श्रेष्ठ बन गई है ।
स्वयं
मृतचन्द्र की गद्य-पद्यमयी भाषा, भाषाविषयक अनेक वैशिष्ट्यों व प्रयोगों के कारण, आकर्षक, चमत्कारोत्पादक, सरम एवं हृदयावर्जक बन गई है। साथ हो प्रमृतचन्द्र के प्रलोकिक प्राध्यात्मिक व्यक्तित्व के संस्पर्श से भाषा में अलौकिक रस समा गया है। जिसके अस्वादन से मनमपुर मत्त होकर नाच उठता है। यहाँ उनके नाना विषयक वैशिष्ट्यों की कुछ उदाहरणों द्वारा आलोकित किया जाता है ।
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कृतियाँ
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पदलालित्य एवं भाषाप्रौढ़ता का उदारहण :
यात्म ख्याति टीका प्रारम्भ करने की प्रतिज्ञा एवं सिद्धों को नमस्कार करते हुए, उनके व. अचल एवं अनुपम स्वरूप का हेतुपुरस्सर स्पष्टीकरण करते हुए, वे लिखते हैं – “अथ प्रथमत एव स्वभावभावभूतनया ध्र बत्नमवलंबमानानाविभावान्तर चारवृत्ति विधान्ति बोनाचलत्वमु. गतामखिलापमानवादभुतमाहापरवनाविद्यमानापयामपवर्ग संज्ञिका गतिमापन्नान् भगवतः सर्वसिद्धान् सिद्धल्नेन साध्यस्थात्मनः प्रलिछदस्थानीयान् भावद्रव्यरतवाभ्याम् स्वात्मनि परात्मनि च निधायानादि निधनच त ।काशितत्वेन निविलार्थसाथसाक्षात्कारिकेलिप्रणीतनेन भूतकेवलिभिः स्वयंमनुभवद्भिरभिहितत्वेन च प्रमाणतामुपगतस्य समयप्रकाश क्रम्य प्रामृताव्यस्याहत्प्रवचनावयवस्य स्वापरयोरनादि मोह प्राणाय भावधाचा द्रध्यबाचा च परिभाषणमुपक्रम्यते ।
इमी तरह टीकाकार अमृतचन्द्र सिद्धान्त' को सुबोध, सरल तथा वालबुद्धिगम्य बनाने हेतु दृष्टांत एवं दाति दोनों में समान पद तथा वाक्यों का प्रयोग करते है । वे पुनरूक्ति दोष को चिन्ता किए बिना समान भाषाप्रयोग को तब तक जारी रखते हैं, जब तक दृष्टान्त के समान ही सिद्धान्त स्पष्ट नहीं हो जाता है । वे एक स्थल पर प्रतिबुद्ध-ग्रज्ञानो तथा प्रतिबुद्ध-ज्ञानी की पहिचान कराते हुए लिखते हैं ..
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१. समयसार गा, पं. १ टीका का अर्थ – अथ'' पद मंगल अर्थ को मुचित करता है। प्रथम' ही स्त्रभान' भाव से उत्पन्न होने के कारण (नई सिद्धानि-पंचम गति! धवस्व का अवलम्बन करती है। वह गनि अनादिकाल से परभावों के निपिन से होने वाले परिभ्रमण के अभाव के कारण अब नाना को प्राप्त है नया गत में जो समस्त' उपमा योग्य पदार्थ हैं, उनमे विलक्षण-अभुत महिमावाली है, अतः अनुपमता को प्राप्त है। उसे अपवर्ग नाम से जाना जाता है, ऐसी गति का मानहाप समस्त सिद्ध भगवन्नों को अपने तथा पर के आत्मा में स्थापित करने हैं. क्योंकि वे सिद्ध भगवान सिद्धत्य मे साध्य आत्मा के प्रति छन्द के समान पर है. अन: भाव तथा द्रब्य रूप से स्यापित करके समय मा प्रमाणा 'सर्व पदार्थों या जीवपदार्थ का प्रकाशना). अहन के प्रवचन का अवानरूप प्राभृत नाम से व्यवहित ग्रन्थ वा, अनादिकाल में उत्पन्न हुए अपने तथा ५. के मोह को नाश करने के लिए. परिभाषण बारता हूँ। वह अर्हत्प्रया का असर अगादिनिधन परमागमरूप शब्दमा से प्रकाशित होने से, केलियों के निपटननी साक्षात् सुनने वाले ती स्वयं अनुभव करनेवाले शुभके बली -- गणधरदेवों के द्वारा मानित होने गे. रामापवास को सात् नेवाल नली द्वारा प्राणीत होने से प्रमाणता को प्राप्त है।
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नाय अमानना : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व "यथाग्निरिन्धनमस्तीधनमग्निरस्त्यग्नेरिधनमस्तींधनल्याग्निरस्ति, अग्नेरिधनपूर्वमासीदिधनस्याग्निः पूर्वमासीत्, अग्नेरिंधने पुनर्भविष्यतींधनस्याग्निः पुनर्भविष्यतीतींधन एवासद्भूताग्नि विकल्पत्वेनाप्रतिबुद्धः कश्चिलक्ष्येत्, तथाहमेतदस्म्येतदहमस्ति ममतदात्येतस्याहम स्मि, मर्मतत्पूर्बमासोदेतस्याहं पूर्वमासं, ममं पत्पुनर्भविष्यलेतस्याहं पुनर्भविष्यामीति परद्रयाएवासद्भुतात्म विकल्पत्वेनाप्रतिबुद्धो लक्ष्वेतात्मा । नाग्निरिधनमस्ति मंधनमग्निरम्यग्निरस्तीधनमिधनमस्ति, नागरिधनं पूर्वमासीन्नेधनस्यागिनः पूर्वमासीदग्नेगरिन नमामीदिभरोभनं पूर्वमासोत, ना!रपन पुनर्भविष्यति नेधनस्याग्निः पुनर्भविष्यत्यग्ने र ग्निः पुनर्भविध्यतींधनत्ये धनं पुनर्भविष्यतीति कस्यचिदानावेव सद्भूताग्निविकल्पबन्नामेतर्दा म. नेतदमस्त्यहम हमसम्बतदेतदस्ति न मतदन्ति नैतस्याहमस्मि ममाहमस्म्येतदस्यतदस्ति, न ममैतत्पूर्वमासीन्नेतस्याहं पूर्वमासं ममाह पूर्वमासमतस्यतत्पुर्वमासीत्, न ममैतत्पुनर्भविष्यति नंतस्याहं पुनर्भविष्यामि ममाह पुनर्भविष्याम्येतस्यैतत्पुनर्भविष्यतीति स्वद्रव्य एवं सद्भूतात्मविक यस्य प्रतिबुद्ध लक्षणस्य भावात् ।' १. समपसार गाथा २०-२१-२२ को टीका:-अर्थ -- जिम प्रकार कोई पुप ईधन
और अग्नि को मिला हुआ, देखकर ऐसा झूठा विकल्प करे कि "जो अग्नि है मो ईधन है और ईधन है, सो अग्नि है । अग्नि का ईश्वन है, ईधा को अग्नि है, अग्नि का ईधन पहले था, ईधन की अग्नि पहले थी, अग्नि का ईधन भविश्य में होगा, ईधन की अग्नि भविष्य में होगी, “एमा विकल्म करने वाला अप्रतिबुद्धि-अजानी प्रकट होता है । इसी प्रकार कोई (पुरुय) आत्मा एवं पर भव्य में असत्यार्थ विकल्प करे fF "मैं यह परद्रव्य हूँ, सह पदव्य मुझग्यरूप है, यह परद्रव्य मेरा है. मैं इस परनब का हूँ, मेग यह पहिले था, मैं इसका पहले था, मेरा यह भविष्य में होगा, मैं इसका भविष्य में होऊंगा' ऐने विकल्पों से अप्रतिवृद्ध अज्ञानी पहिचाना जाता है और अग्नि है. वह ईधन नहीं है, ईधन है यह अग्नि नहीं है, अग्नि है वह अग्नि ही है. ईधन है वह ईधन ही है. अग्नि का ईधन नहीं, ईधन की अग्नि नहीं, अग्नि की अग्नि है, ईधन का ईधन है, अग्नि का ईधन पहले नहीं था, ईधन की अग्नि पहले नहीं थी, अग्नि की अग्नि पहले थी और ईधन का ईधन पहले था, अग्नि का ईधन भविष्य में नहीं होगी, अग्नि की अग्नि ही भविष्य में होगी, ईधन का ई धन ही भविष्य में होगा। इस प्रकार किसी को सत्यार्थ अग्नि का विकला है, वह प्रतिबुद्ध-ज्ञानी का लक्षण है । इसी प्रकार "मैं यह परद्रव्य नहीं हूँ, यह परतबग मुझस्त्ररूप नहीं है. मैं तो मैं ही हैं, परवा तो परद्रव्य ही है. मेरा
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कृतियाँ ।
[ ३८६
उपरोक्त अंश यद्यपि समासबहुलता के कारण पढ़ने तथा समझने में क्लिष्ट प्रतीत होता है, तथापि समासविग्रह करने पर उसका अर्थ अत्यन्त सरल, सुगम एवं सुस्पष्ट हो जाता है । प्रागे अमृचन्द्र की सामासिक, क्लिष्ट एवं दुर्बोत्र भाषा का उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है । उक्त अश अलंकार सौंदर्य से समन्वित है तथा प्रवाहपूर्ण, गम्भीर अर्थगरिमा को भी व्यक्त करता है । इसमें मोक्षतत्व का साधनतत्व कौन है, यह स्पष्ट किया गया है यथा -
"अनेकांतकलितसकलज्ञातृजेयतत्वयथास्थितस्वरूपपाण्डित्यशोग्डा: सन्तः समस्त बहिरंगान्तरंगसंगति परित्यागविविक्तान्तश्चकचकायमानानन्तयक्ति चैतन्य भास्वरात्मतत्त्व स्वरूपा: स्वरूपगुप्तमुषप्तक पान्तस्तत्त्व तितया विषयेषु मनागप्यासक्तिमनासादयन्तः समस्तानुभाववन्तो भगवन्तः शुद्धा एवासंसार घटिन विकट कर्मकबाट विघटनपटीयसाध्यावसायेन प्रकदीक्रियमाणावदाना मोक्षतत्वसाधनतत्त्वमवबुध्यताम् ।'
इस प्रकार स्पष्ट है कि अमृतचन्द्र की भाषा में भले ही समासबहुलता एवं क्लिष्टता हो परन्तु उसमें एक लयात्मक प्रवाह एवं ध्वन्यात्मक
एह परद्रव्य नहीं, इस परदव्य' का में नहीं, मरा ही मैं हूँ, परदन्म का ही परद्रव्य है, इस परद्रव्य का मैं पहले नहीं था, वह परद्रव्य मेरा पहले नहीं था, मेरा मैं पहले था, परद्रव्य' मा परद्रव्य ही पहले था। वह परद्रव्य मेरा भविष्य में नहीं होगा, इस परद्रव्य का में भविष्य में नहीं होकगा, मैं अपना हीभविष्य में होऊँगा, इस परदव्य का यह परद्रव्य हो भविष्य में होगा" ऐसा जो स्वदव्म में ही सत्यार्थ आत्म-विकल्प करता है, यही प्रतिबुद्धि-शानी का लक्षण है। इससे झानी पहिचाना जाता है ।। प्रवचनसार गाया २७६ की टीकाः-अर्थ – अनेकांन्न के द्वाग शान सकल ज्ञातृतत्त्व और शेयतत्त्व को यथावस्थित स्वरूप में जो प्रवीण है, अन्तरङ्ग में चकित होते हुए अनन्न शक्तिवाले चैतन्य से तेजस्वी आत्मनन्ध के स्वरूप को गिनने समस्त बहिरङ्ग तथा अन्तरङ्ग संगति के परित्याग से भिन्न किया हैं और अन्तःतत्त्व की बत्ति (आत्मा की परिणति) स्वरूप गुप्त तथा सुषप्त (गोरे दृग के समान) ममान (शांत) होने से किंचित् भी विषयों में जो
आसक्ति को प्राप्त नहीं होते, एमे सकालमहिमावान् भगवन्तशुद्धशुद्धोपयोगी) हैं। उन्हें ही मोक्षतत्व का साधनमान्य जानने, क्योंकि वे अनादि संमार में रनिन वन्द रहे हग विकट कर्मकपाद को तोड़ने के लिए अति उग्र प्रयत्न से परामम प्रकट कर रहे हैं ।
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३६० ]
| श्राचार्य अमूलचन्द्र व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
आकर्षण विद्यमान है । यहाँ एक स्थल उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत किया जा रहा है, जिसमें लयात्मकता, ध्वन्यात्मकता, विषयप्रकाशिती भाग तथा अर्थ की गम्भीरता आदि विशेषताएँ युगपत् प्रस्फुटित हो उठती हैं यथा आत्मज्ञान के होने तथा प्रस्रवों से निर्वृति होने का समकालपना समयपना सिद्ध करते हुए, आत्मा और आम्रवों के स्वरूप का तुलनात्मक स्पष्ट निदर्शन हुए करते हुए वे लिखते हैं
-
"जतुपादपवध्यघातक स्वभावत्वाज्जो व निबद्धाः स्वन्वासवाः, पुनरविरुद्ध स्वभावत्वाभावाज्जीव एव । अपस्माररयवद्वर्धमान हीयमानत्वाद गः खल्वाखवाः, अ, वश्चिन्मात्रो जीव एव । शोतदाहज्वरावेशवत् क्रमेणोज्जृम्भमाणत्वादनित्याः सवासवाः नित्यो विज्ञानघनस्वभावो जीव एव । बीजनिमक्षिक्षणक्षीयमाणदाणराम रसंस्कारवत्त्रातुमशक्यत्वादशरणाः खवास्रवाः, मशरणः स्वयं गुप्तः सहजचिच्छक्तिर्जीव एव । नित्यमेवाकुलभावत्वादुःखानि स्वन्वास्त्रवाः, अदुःखं नित्यमेवानाकुलस्वभावोजीव एव । प्रायत्यामाकुलत्वोत्पादकस्य पुद्गलपरिणामस्य हेतुत्वादुःखफला स्वन्वास्रवाः, श्रदुःखफलः सकलस्यापि मुद्गलपरिणामस्याहेतुत्वाज्जीव एव । इति विकल्पानंतरमेव शिथिलतकर्मविपाको विघटितघनघटतदिगाभोग इव निरर्गलप्रसरः सहजविजृम्भमाणचिच्छक्तितया यथा यथा विज्ञानचनस्वभावो भवति तथा तथा स्रवेभ्यो निवर्तते यथा यथास्रवेभ्यश्च निवर्तते तथा तथा विज्ञानघनस्वभावो भवतीति । तावद्विधानघनस्वभावो भवति यावत्सम्यगात्रत्रेभ्यो निवर्तते तावदात्रवेभ्यश्च निवर्तते यावत्सम्यग्विज्ञानघनस्वभावो भवतीति ज्ञानास्रवनिवृत्योः समकालन्यम् ।
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१.
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सारगाथा ७४ की टोकन अर्थ वृक्ष और लाख की भांति व्य पात भावना होने से अव जी के मात्र बन्धे हुए हैं, किन्तु अनिलस्वभाव का अभाव होने से ये जीव ही नहीं है! मृगी के वेग की बढ़ते होने में आव अब हैं, चैतन्यमात्र जीव ही ध्रुव है । शीतदाहज्वर के आयण को भांति अनुक्रम से उत्पन्न होते हुए होने में स अनित्य हैं, विज्ञानघनस्य भावी जीव ही नित्य है। कामसंवन में वीर्य जाने के क्षण से दारुण काम का संस्कार नष्ट हो जाना है. उसी में रोका जाना सम्भव न होने से रोका नही जानता है। इस कमय छूट जाने पर उसी क्षण शास्त्र नाश को प्राप्त होता है, इसे को से रोका जाना सम्भव न होने से के आ जाने होने से आलव जाण हैं. स्वयंरक्षित सहज चित्शक्तिरूप जीव ही शरणसहित है। मदा अकुल स्वभाव वाले होने से आसव दुःखफलरूप है. गदा निराकुल स्वभा जीव ही अदुःखम्प अर्थात् मुखरूप है। आगामी काल में आकुलता को पन्न करने वाले ऐसे पुन्नपरिणाम के हेतु होने से अन दुःखरूप हैं । जीव
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कृतियाँ 1
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इसी तरह उनकी भाषा में कहीं कहीं विपुलकाय वाक्यों तथा कहीं कहीं लघुकायवाक्यों का सुन्दर सहजप्रवाहमयी व प्रभावोत्पादक प्रयोग हुआ हैं | संस्कृत गद्य टीका के साथ कहीं कहीं प्राकृत गाथाएँ उदाहरण के रूप में उपलब्ध होती हैं । उक्त दीर्घवाक्यों तथा प्राकृत गाथा के प्रयोग का एक उदाहरण प्रस्तुत है। इस उदाहरण में केवल दो विशाल वाक्यों में निश्चय तथा व्यवहार नय की उपयोगिता प्रदर्शित की गई है। तथा पूर्वायक्त एक प्राकृत पद्य द्वारा अपने मित्राय की पुष्टि की गई है यथा- "ये खलु पर्यन्त पाक सीर्णजात्य कार्त्तस्वरस्थानीयं परमं भावमनुभवन्ति तेषां प्रथमद्वितीयाद्यनेकपाकपम्परापच्यमान कार्त स्वरानुभवस्थानीयापरमभावानुभवनशून्यत्वाच्छुद्धद्रव्यादेशितथा समुद्योतितास्खलिते कस्त्रभावकभावः शुद्धनय एवोपरितनकप्रतिर्वाणका स्थानीयत्वात्परिज्ञायमानः प्रयोजनवान् । ये तु प्रथम द्वितीयाद्यनेक पाकपरम्परापच्यमान कार्तस्वरस्थानीयमपरं भावमनुभवन्ति तेषां पर्यन्तपाकोसीर्ण जात्यकार्तस्वरस्थानीय परमभावानुभवनशून्यत्वादशुद्धद्रव्यादेशित यो पदर्शित प्रतिविशिष्टक भावानेकभावो व्यवहारतयो विचित्रवर्णमालिकास्थानीयत्वात्परिज्ञायमानस्तदात्वे प्रयोजनवान् तीर्थतीर्थफलयोरित्यमेत्र व्यवस्थितत्वात् । उक्तं
जई जिणमयं पवज्जह ता मा व्यवहारणिच्छए मुयह । एक्केण विणा छिन्जर तित्थं श्रणेण उण तच्चं ॥ ५
१.
ही समय गलगरिणामों का हेतु होने में अदुःखरूप है। इस प्रकार आम्रवीं तथा जीव का भेदविज्ञान होते हो (तत्काल ) कर्म विपाक शिथिल - आरमा बादल समूह रचना के होने से प्रगट दिशाविस्तार वी "भांति अमर्याद विस्तार वाला सहजरूप से विकास को प्राप्त विज्ञानघनस्वभाव (विरक्तिमय ) ज्यों-ज्यों होता जाता है, त्यों-त्यों आसनों से निव ́न होता जाता है, और ज्यों-ज्यों आत्रों से निवृत्त होता जाता त्यों-त्यों विज्ञानघनस्वभाव होना जाना है, क्योंकि मान तथ
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आस्रवनिवृत्ति का एककाल है ।
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समयम र गाथा १२ को टीका:- अर्थ - "जो पुरुष अन्तिम पाक से उतरे हुए शुद्ध स्वर्ण के समान उत्कुष्ट भाव का अनुभव करते हैं. उन्हें प्रथम, द्वितीय आदि पाकों को परम्परा से पच्यमान अशुद्ध स्वर्ण के समान अनुत्कृष्ट मध्यमभाव का अनुभव नहीं होता, इसलिए शुद्धद्रव्य की निरूपण करते वाला होने से "अवचित अण्ड एक स्वभाव रूप एक भाव को प्रकाशित
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[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कतृत्व
प्राचार्य अमृतचन्द्र की दीर्घवाक्यमयी भाषा के समान ही लघुवाक्यमयी भाषा भी प्रभावोत्पादक, तारतम्यमयी, सहजबोधगम्य तथा सालंकृत है। उदाहरण के लिए वे एक स्थल पर जीव के भावकर्म तथा पुद्गल द्रव्यकर्म को परम्परा का निदर्शन कराते हुए लिखते हैं -
"इह हि संसारिणो जीवादनादिबंधनोपाधिवशेन स्निग्धः परिणामो भवति । परिणामात पुन पनगलपरिणामानातं कर्म । कर्मणो नारकादिगतिषु गतिः । गत्यधिगमनाइहः देहादिन्द्रियाणि । इंद्रियेभ्यो विषयग्रहणम् । विषयग्रहणाद्रागद्वेषो । रागद्वेषाम्यां पुनः स्निग्धः परिणामः । परिणामात्पुनः पुद्गलपरिणामात्कं कर्म । कर्मणः पुनर्नारकादिगतिषुः गतिः । गत्यधिगमनात्पुनदहः । देहातुनरिन्द्रियाणि । इन्द्रियेभ्यः पुनविषयग्रहणम् । विषयग्रहणान्युनः रागद्वेषौ। रागद्वेषाभ्यां पुनरपि स्निग्धपरिणामः । एवमिदमन्योन्य कार्यकारणभूतजीवपुद्गलपरिणामात्मकं कर्मजालं संसारचक्र जीवस्यानाद्य निधनं अनादिसनिधनं वा चक्रवत्परिवर्तते। तदत्र पृदगलपरिणाम निमितो जीवपरिणामो जीवपरिणाम निमित्तः पुद्गलपरिणामश्चवक्ष्यमाणपदार्थबीजत्वेन संधारणीय इति।"
शिणा है, ऐसा शुद्धता की सबसे ऊपर की एक प्रतिषणिका (स्वर्णसमान) होने से, जानने में आता हुआ प्रयोजनवान् है । परन्तु जो पुरुष प्रथम-द्वितीय आदि अनेक पाकों (तावों) की परम्परा से पच्यमान अशुद्धस्वर्ण के समान जो अनुत्कृष्ट-मध्यम भाव का अनुभव करते हैं, उन्हें अन्तिम ताव से उतरे हुए शुद्धस्वर्ण के समान उत्कृष्ट भात्र का अनुभव नहीं होता. इसलिए अशुद्धद्रव्य का निरूपण करने वाला होने से – भिन्न-भिन्न एक एक भावस्वरूप अनेक भाव दिम्बाये हैं. ऐसा स्थान हारनग. विचित्र अनेक वर्णमाला को सामान होन मे. जानने में आता हुआ प्रयोजवान है, क्योंकि तीर्थ और नीर्थ के फल की व्यवस्थिति ऐसी ही है । कहा भी है - "जो जिनमत को प्रवताना वाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों को मत छोड़ो, क्योंकि व्यवहारनय के बिना जीर्थ -- व्यवहारमार्ग का तथा निश्चय नय के बिना तत्न का नाम हो जायगा ।" पंचाशिफाय गाथा १२८ से १३० तक को दीक्राः- अर्थ - "इस जगत् में संसारीजी के अनादि बंधन रूप उपाधि के कारण स्निग्ध परिणाम होता है । परिणाम से पुन: पुद्गलपरिणाम रूप कर्म से नारकादिगतियों में गमन होता है। गनि की प्राप्ति मे देह प्राप्त से देह प्राप्त होती है। देह से इन्द्रियाँ,
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कृतियाँ 1
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( याचा अमृतचन्द्र की टीकात्रों में प्रयुक्त भाषा में जहाँ प्रौढ़ता, विद्वत्ता, चारुता, आलंकारिक सुन्दरता, विभिन्न भाषाशैलियों आदि की दृष्टि से एक और साम्य प्रतीत होता है, वहीं दूसरी ओर कई बातों में वैषम्य भी पाया जाता है । बाणभट्ट की भाषा में कृत्रिमता काल्पनिकता तथा क्लिष्टता के दर्शन प्रचुरमात्रा में होते हैं जबकि प्राचार्य अमृचन्द्र की भाषा में सहजता, यथार्थता तथा सुबोधता की उपलब्धि होती है । बाणभट्ट की भाषा पाठकों को कन्पनालोक की इन्द्रजालवत् क्षणिक विविधरंगी झाँकियों से रंजायमान कर लेती है जबकि अमृतचन्द्र की भाषा पाठक को अध्यात्मलोक की यथार्थ तास्विक अनुभूतियों से श्रात्मदर्शन तथा स्थाई आत्मीय आनंदामृत की उपलब्धि कराती है। उनकी भाषा भावानुगामिनी है । सर्वत्र भावानुकुल भाषा तथा भाषानुकूल छंद प्रयोग, शैला प्रयोग आदि सहज ही अभिव्यक्त हुए हैं। जहाँ उन्हें संक्षेप में विस्तृत तथ्य प्रदर्शन करना इष्ट लगा वहाँ उन्होंने सूत्रात्मक भाषा का प्रयोग किया है किन्तु जहाँ स्पष्टीकरण करना इष्ट हुआ वहाँ भाषात्मक पुनरावृत्ति करने में उन्हें संकोच नहीं हुआ है । सूत्रात्मक भाषा में कथन करते हुए वे लिखते हैं - त्रे एवमेव परिवर्तन समजेलको कर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षुघ्राणरसन स्पर्श सूत्राणि षोडश व्यारूपेयानि । अनयर दिशान्यान्यप्यहानि ।
""
१.
इन्द्रियों से विषय ग्रहण विवष ग्रहण से रंगा-द्वेष, राग-द्वेष से पुनः स्निग्ध परिणाम होता है । परिणाम से पुनः पुद्गल परिणाममय कर्म कर्म से पुनः नारकादि गतियों में गमन गतिगमन से पुनः देहप्राप्ति, देह से पुनः इन्द्रियाँ, इन्द्रियों से पुनः विषयग्रहण, विषयग्रहण से पुनः रागद्वेष, रागद्वेष से पुनः स्निग्ध परिणाम होता है । इस प्रकार यह परस्पर कार्य कारणपना जीव तथा पुद्गल के परिणाममय मंजाल संसारचक्र में जीव के श्रनादि अनंत अथवा अनादि मांत चक्र के समान होता है। इस प्रकार यहां पुद्गल परिणाम के निमित्त से जीन के परिणम तथा जीवपरिणाम के निमित्त से पुद्गल के परिणाम पूर्वोक्त (पुण्यादि सात) पदार्थों के बीज रूप से समझना चाहिए ।"
समयसार गा. टीका ३३ अर्थ "यहाँ इसी प्रकार ( पूर्वकथनानुसार ) "मोह" पद को बदलकर राग-द्वेष, फोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्स, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घाण, रसना, स्पर्धा इन पदों को रखभर १६ सूत्रों का व्याख्यान करना और विचार लेना । "इसी प्रकार मा. ६४, १३६ उल्लेखनीय है" ।
इसी प्रकार से अन्य मी तथा २१० की टीका भी
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३६४ ।
| प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
भाषात्मक पुनरावृत्ति के लिए निम्न उदाहरण प्रस्तुत है "यः कृष्णो हरितः पीतो रक्तः श्वेतो वा वर्णः स सर्वोपि नास्ति जीवस्य पुद्गलपरिणाममयल्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात्" ........... "उक्त अंश में प्रयुक्त "पुद्गलपरिणामयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात्" इस पद का प्रयोग टीका में यागे २८ बार किया गया है। इसी प्रकार एक स्थल पर समस्त कर्मफल सन्यास की भावना को नचाते हुए लिखा है - "नाहं मतिज्ञानावरणीयकर्मफलं भूजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये । नाहं श्रुतज्ञानावरणीय कर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्म नमेव संचेतये ।" इसी प्रकार मलिशानावरणीय के स्थान पर श्रुतज्ञानावरणीय तथा अन्य १४८ कर्म प्रकृतियों के नाम लिखकर शेष पंक्ति की १४५ बार पुनरावृत्ति की गई है ।
आचार्य प्रमतचन्द्र की भाषा, चाहे वह गद्य रूप हो या पद्यरूप हो, अपने चरम उत्कर्ष के साथ भाषा वैशिष्ट्यों से सुरभित, अलंकारों से मण्डित, शब्द विन्यारा एवं वाक्य संरचना में असाधारण, सतर्क, सशक्त, सोदाहरण आदि अनेक विशेषतानों से समन्वित होकर साहित्यगगन में अपनी अनुपम छटा बिखेरती हुई अभिव्यक्त हुई है। उसमें पर्यायवाची शब्दों की बहुलता है, अनेकार्थवाची शब्दों का प्रयोग है । बह अप्रचलित विलष्ट शब्दावली से युक्त है। अनेक प्रकार के प्रत्यय, उपसर्ग, अव्यय, धातुप्रयोग, कारक प्रयोग आदि से श्रेष्ठता एवं प्रौढ़ता को प्राप्त है । इस तरह स्पष्ट है कि प्राचार्य अमृतचन्द्र की भाषा अपने युग के साहित्यिक उत्कर्ष की प्रतीक है, साथ ही साहित्यिक विशेषतानों से सुसमृद्ध है। शैली :
___ प्राचार्य अमृतचन्द्र के साहित्यानुशीलन से ज्ञात होता है कि उन्होंन अपनी गद्य तथा पद्यमयी रचनाओं में विभिन्न साहित्यिक शैलियों का प्रयोग किया है 1 अनेक प्रकार की शैलियों के दर्शन हमें प्रायः उनके गद्य साहित्य में होते हैं । उनका पद्य काव्य भी शैलियों के प्रयोग से अछूता नहीं रहा है।
१. समयमार गा. टीका ५५ - अर्थ - जो काला हरा पीला, लाल और सफेद
वर्ण है. ह समस्त ही जीव का नहीं है क्योंकि यह पुद्गलदच्य का परिणाम
स्वरूप होने से अपनी अनुभूति स भिन्न है। २. समयसार, गा. ३८७ से ३८६ तक की टीका - "अर्थ - '' मैं (जानी होने
स) मतिज्ञानावरणीय कर्म के फल को नहीं भोगता, चैतन्य स्वरूप प्रात्मा का हो सचेतन करता हूँ।
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कृतियाँ ।
[ ३६५ साहित्यिक शैलियों के प्रयोग में वे जितने कुशल हैं उससे भी अधिक आध्यात्मिक शैलियों के अनुसार विवेचन करने में वे निष्णात हैं । उनके वाङमय में प्रयुक्त समस्त भाषाशैलियों तथा निरूपण शैलियों को मुख्यतः दो विभागों में रख सकते हैं । प्रथम विभाग में व समस्त साहित्यिक शैलियां गर्भित हैं जिनका प्रयोग अमृतचन्द्र के पूर्ववर्ती तथा समवर्ती साहित्यकारों द्वारा हया है । इन्हें हम लौकिक शैलियां कहेंगे । दूसरे विभाग में वे समस्त प्राध्यात्मिक दार्शनिक शैलियाँ आती हैं जिनका प्रयोग अध्यात्म एवं दर्शन के क्षेत्र में वस्तुतत्त्व के निरूपण में किया जाता है । इन्हें हम अलौकिक शैलियाँ कहेंगे। अलौकिक शैलियों में कुछ तो अमृतचन्द्र के पूर्ववर्ती जैनाचार्यों के जिनागम में उपलब्ध होती हैं किन्तु कुछ शैलियां ऐसी भी मिलती है जिनका प्रणयन श्राचार्य अमृतचन्द्र ने ही अपनी टीकाकृतियों में किया है । लौकिक शैलियों में व्युत्पत्ति या निरुक्त्यर्थ, सरलार्थ, सुगमव्याख्या, प्रश्नोत्तर, दीर्घसमासपदयुक्त, सालंकृत-क्लिष्ट पद रचना, प्रश्नबहुल, उत्प्रेक्षार्थे "इव"प्रयोग, उपमार्थे "इव"प्रयोग, बहुश: "कदाचित्" पद प्रयोग, विभिन्न क्रिया पद प्रयोग प्रादि शंलियों की चर्चा सप्रमाण तृतीय अध्याय में की जा चुकी है। इनके अतिरिक्त सभासविग्रह, दृष्टांत - दान्ति , तुलनात्मक निरूपण, दृष्टांत, सूत्ररूपेण कथन, अलंकार युक्त कघन, समासबहुल, दीर्घकायवाक्यरचना, लघुकायवाक्य रचना, उपमार्य बत् प्रयोग इत्यादि गद्यशं लियाँ भी प्रयोग की गई हैं । अलौकिक शैलियों में हेतुपुरस्सर कथन बोली, नयरूपकथन, अनुमान-पंचावयब प्रयोग, न्यायशैली ग्रादि के सम्बन्ध में प्रकाश डाला जा चुका है। इसके अतिरिक्त हेतुहेतुमद्भुत शैली, अस्ति नास्ति रूप कथन, प्रत्यभिज्ञान, अनेकांत, तक्रबहुल दार्शनिक निरूपण इत्यादि शैलियाँ भी दृष्टव्य हैं। उपरोक्त लौकिक तथा अलौकिक नैलियों के प्रयोग में आचार्य अमृतचन्द्र की भाषा विशेषरूपेण गौरवान्वित तथा सौन्दर्यान्वित हो उठी है । इन शैलियों में कुछ के उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं। समास विग्रह शाली:
एक स्थल पर " महान्" पद के समासविग्रह करके तीन प्रकार से अर्थ निष्पन्न करते हए वे लिखते हैं - "अभिः महान्तः अगुमहान्तः" अथवा "अणुभ्यां महान्तः अणुमहान्तः" अथवा "प्रणवश्च महान्तश्च अगुमहान्तः ।' इस तरह समास विग्रह कथन शैली द्वारा तीन प्रकार के १. पंचास्तिकाय, गा, ४ को टीका।
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[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तुत्व अर्थ किये गये हैं। इस प्रकार की शैली के प्रयोग टोकानों में अन्यत्र भी मिलते हैं। अष्टांत - वाष्र्टान्त कथम शैली :
दृष्टांत एवं दान्ति शैली का प्रयोग करके टीकाकार दृष्टांस में मूर्तपदार्थ का ना सिद्धान्त में व एकाई का लेश मरहे हैं। पाठकों को विषयवस्तु सुगम तथा सुबोध बनाने हेतु शिक्षण सूत्रों में मूर्त से अमूर्त । समझाने वाला सूत्र भी प्राता है । उक्त शली में इसी सूत्र का समाहार हुधा है । द्रव्य तथा गुणों के अभिन्नपदार्थपना सिद्ध करते हुए वे उक्त शैली में लिखते हैं - "वर्णरसगंधस्पर्शा हि परमाणोः प्ररूप्यंते, परमाणोरविभक्त प्रदेशत्वेनानन्येऽपि संज्ञादि व्यपदेशेन निबंधनविशेषेरन्यत्वं प्रकाशयन्ति । एवं ज्ञानदर्शने अप्यात्मनि सम्बद्ध प्रात्मद्रव्यादविभक्त प्रदेशत्वेनान्येऽपि संज्ञादिव्यपदेशनिबंधनविशेषः पृथकत्वमासादयतः नित्यमपृथकत्वमेव विभ्रतः। तुलनात्मक कथन शैली :
इस शंली का प्रयोग अमृतचन्द्र ने मुख्यतः दो वस्तुओं में भिन्नता सिद्ध करने तथा उनके भिन्न-भिन्न स्वभाव का प्रकाशन करने हेतू किया है। एक स्थल पर जीव तथा अजीव द्रव्य में भिन्नता निरूपित करते हुए वे लिखते हैं --
"इह हि द्रव्यमेकत्वनिबंधनभूतं द्रव्यत्वसामान्यमनुज्झदेव तदधिरूढ़विशेषलक्षणसभावादन्योन्यव्यवच्छेदेन जीवाजीवत्व विशेषमुपीकते । तत्र जीवस्यात्मद्रव्यमेवैकाध्यक्ति: । अजीवस्य पुनः पुद्गलद्रव्यं धर्मद्रव्यमधर्मद्रव्यं कालद्रव्यमाकाशद्रव्यं चेति पञ्च व्यक्तयः । विशेषलक्षणजीवस्य चेतनोपयोगमयत्वं, अजीवस्य पुनरचेतनत्वम् । तत्र यत्र स्वधर्म ध्यापक त्वात्स्वरूपत्वेन प्रोतमानयानपायिन्या भगवत्या सेवित्तिरूपया चेतनया
१.
पाचास्तिकाय गा. ५१-५२ टीका अर्थ - "वर्ण-रस-गंध-स्पर्श वास्तव में परमाणु के कहे गये हैं। बे परमाणु से अभिन्न प्रदेणवाले होने के कारण अनन्य होने पर भी संज्ञादि प्रदेश के कारणभूत भेदों के द्वारा अन्यपने को प्रकाशित करते है। इसी प्रकार प्रात्मा के शान-दर्शन भी आरमद्रव्य से अभिन्न प्रदेशवाले होने के कारण अनन्य होने पर भी, संज्ञादि व्यपदेश के कारणभूत भेदों के द्वारा अन्यपने को प्राप्त करते हैं, परन्तु आत्मा स्वभाव से हमेशा अपृथक्पने को ही धारण करता है ।
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कृतियाँ 1
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परिणामलक्षणेन द्रव्यवृत्तिरूपेणोपयोगेन च निर्वत्तत्वमवतीर्णं प्रतिभाति स जीवः । यत्र पुनरुपयोगसहचारिताया यथोदितलक्षणायाश्चेतनाया प्रभावाद्बहिरन्तश्चाचेतनत्वमवतीर्णे प्रतिभाति सोऽजीव: "" इस प्रकार की तुलनात्मक निरूपण शैली में दो वस्तुओं में भेदपने को सुस्पष्ट करने वाली स्पष्ट भेदक रेखा खचित प्रतीत होती है । अन्यत्र भी ज्ञानभ्य भाव से तथा अज्ञानमय भाव से क्या होता है ? उनके बीच स्पष्ट भेदक रेखा खीचते हुए तुलनात्मक कथन शैली में ही वे लिखते है -
"अज्ञानिनो हि सम्यक्स्वपर विवेकाभावे नात्यंत प्रस्तमितविविक्तात्मख्यातित्वाद्यस्मादज्ञानमय एव भावः स्यात् तस्मिंस्तु सति स्वपरयोरे करवाव्यासेन ज्ञानमात्रात्स्वस्मात्प्रभृष्टः पराभ्यां रागद्वेषाभ्यां सममेकीभूय प्रवर्तिताहंकारः स्वयं किलेवोऽहं रराज्ये रूष्यामीति रज्यते रुष्यति च तस्मादज्ञानमयभावादज्ञानी परी रागद्वेषावात्मानं कुर्वन् करोति कर्माणि । ज्ञानिनस्तु सम्यक्स्वपर विवेकेनात्यंतो दितविविक्तात्मख्यातित्वाद्यस्माद् ज्ञानमय एवं भावः स्यात् तस्मिंस्तु सति स्वपरयोर्नानात्वविज्ञानेन ज्ञानमात्रे स्वस्मिन्सुनिविष्टः पराभ्यां रागद्वेषाभ्यां पृथग्भूततया स्वरसत एव निवृत्ताहंकारः स्वयं किल केवलं जानात्येव न रज्यते, न च रुष्यति, तस्मात् ज्ञानमयभावात् ज्ञानी परी रागद्वे पावात्मानमकुर्वन्न करोति कर्माणि । २
१. प्रवचनसार, गाथा १२७ की टीका - अर्थ - "इस विश्व में द्रव्य, एकत्व के कारणभूत द्रव्यसामान्य को छोड़े बिना ही, उसमें रहे हुए विशेष लक्षणों के सद्भाव के कारण एक दूसरे से पृथक किये जाने पर जीवस्वरूप और अजीव रूप विशेष को प्राप्त होता है । उसमें जीव का आत्मद्रव्य ही एक भेद है और अजीव के पुद्गलद्रव्य, धमंद्रव्य, कालद्रव्य, तथा प्रकाशद्रव्य यह पाँच भेद है। जीव का विशेष लक्षण चेतना-उपयोगमयत्व है और अजीव का अचेतनपता है। वहां (जीव ) स्वयम में व्यापनेवाली होने से स्वरूप से प्रकाशित होती हुई, अविनाशनी भगवती, संवेदन रूप चेतना के द्वारा तथा चेतना परिणामलक्षण द्रव्यपरिणति रूप उपयोग के द्वारा जिसमें निष्पापना अवतरित प्रतिभासित होता है वह जीव है और जिसमें उपयोग के साथ रहने बाली यथोक्त लक्षणवाली चेतना का अभाव होने से बाहर तथा भीतर अचेतनापना अवतरित प्रतिभासित होता है । वह अजीव है ।
२.
समयसार, गाया १२७ को टीका का अर्थ - "अज्ञानी के सम्यक्प्रकार से, स्वपर का विवेक न होने के कारण भिन्न श्रात्मा की ख्याति अत्यन्त श्रस्त हो चुकने
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| प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
इस प्रकार उक्त तुलनात्मक शैली का प्रयोग मात्र गद्य में ही नहीं हुआ अपितु पद्यों में भी इसी शैली का प्रयोग बड़ी ही कुशलता के साथ हुआ है। उदाहरण के लिए ज्ञान मोक्ष का कारण है, कर्म मोक्ष का कारण नहीं है - इस बात की सिद्धि हेतु वे दो पद्यों द्वारा विभाजित रेखा खींचकर स्पष्ट करते हैं - यथा -
वृत्त ज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं सदा । एकद्रव्यम्वभावत्वान्मोक्षहेतुस्तदेव तत् ।।१०६।। वृत्तं कर्मस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं न हि ।
द्रव्यांतरस्वभावत्वान्मोक्षहेतुर्न कर्म तत् ।।१०७।।' दृष्टांत शैली :
प्राचार्य अमृतचन्द्र द्वारा प्रयुक्त दृष्टांत शैली अत्यन्त स्पष्टता के साथ प्रतिपाद्य विषय को उद्घाटित करती है। दृष्टांत के कारण विषयवस्तु अत्यन्त सरल एवं सहजग्राह्य हो जाती है । यथा - एक स्थान पर सुभोपयोग की कारणविपरीता मे फल विपरीतता होती है, यह स्पष्ट करते हुए लिखा है -
यथैकेषामपि बोजानां भूमिवपरीत्यान्निष्पत्तिवपरीत्य, तथैकस्यापि प्रशस्तरागलक्षणस्य शुभोपयोगस्य पात्रवपरीत्यात्फलवैपरीत्थं कारणविशेषात्कार्यविशेषस्यावश्यंभावित्वात् ।।
से अज्ञानमय भाव ही होता है । और उसके होने से, स्वपर के एकत्व के अभ्याम के कारण ज्ञानमात्र ऐसे निज में से भ्रष्ट हुआ है, पर कप रागद्वेष के साय एक होकर स्वयं अहंकार में प्रवत रहा है । "यह मैं पवार्थ में रागी हूं, द्वेषी हूं" ऐसा मानता हुना रागी और द्वेषी होता है । इसलिए अमानमय भाव के कारण अज्ञानी अपने को पररागद्वेपरूप करता हुआ कमों को करता है। समयसार कलण १०६-१०७ अर्थ - "जान एक (जीब) व्यस्वभावी होने से ज्ञान के रव भाव से सदा ज्ञान का भवन बनता है, इसलिए शान ही मोक्ष का कारण है। १०६।" कर्म प्रन्य (पुद्गल) द्रब्यस्वभावी होने से कम के स्वभाव से ज्ञान का भवन नहीं बनाता है, इसलिए कर्म
मोक्ष का कारण नहीं है।" १७७ । २. प्रवचनसार गाथा २५५ की टीका - अर्थ - "जैसे बीज ज्यों का यों होने
पर भी भूमि की विपरीसता से निष्पत्ति (फल) की विपरीतता होती है,
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कृनियों ]
| ३६६ सालंकृत दीर्घसमास-दीर्घवाश्य प्रयोग रूप शैलो :
उक्त टीकाकार की अलंकारयुक्त, समासमयी तथा दीर्घकाय वाक्य प्रयोग रूप शैली भी अत्यन्त आकर्षक है। उक्त विशेषताओं से युक्त गद्य में वाक्यविन्यास चातुरी, शब्दासंघटनारूप कुशलता, ध्यन्याकर्षण, सहजप्रवाह, अनुप्रास चालता आदि वैशिष्ट्य भी विद्यमान हैं। उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत निम्नांकित गद्यांश उपरोक्त विशेषताओं से तो परिपूर्ण है ही, साथ ही अमृतचन्द्र की असाधारण भाषाप्रभुता, प्रौढ़ता तथा प्रखर विद्वता का भी परिचायक है । यथा - प्रागम-ज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयतत्त्व का युगपतपना होने पर भी प्रात्मज्ञान के मोक्षमार्ग का साधकतमपना बताते हुए लिखा है – 'यदज्ञानी कर्मक्रमपरिपाट्या बालतपोवैचित्र्योपक्रमेण च पध्यमानमुपात्तरागद्वेषतया सुखदुःखादिविकारभावपरिणत: पुनरारोपितसंगानं भवशतसहस्रकोटिभिः कथंचन निस्तरति, तदेव ज्ञानी स्यात्कार केतनागमज्ञानतत्त्वार्थधवानसंयतत्वयोगपद्यातिशयप्रसादासादित मुद्धज्ञानमयात्मतत्त्वानुभूतिलक्षणशानित्वसद्भावात्कायवाड्.मनःकपिरमप्रवृत्तत्रिगुप्तत्वात प्रचण्डोपक्रमपव्यमानमपहस्तित रागद्वेषतया दुरनिरस्तस मस्त सुखदुःखादिविकारः पुनरनारोपितसंतानमुच्छ वासमात्रेणैव लीलयेव पातयति । अत प्रागमज्ञानतत्वार्यश्रद्धानसंयतत्वयोगपद्य ऽयात्मज्ञानमेव मोक्षमार्गसाधकतममनुमन्तव्यम् ।
....... . . --- उसी प्रकार प्रशासगमस्यरूप शुभोपयोग के ज्यों का त्यों होने पर भी पात्र की विपरीतता से फ। की विपरीता होती हैं। क्योंदियाए के भेद गे कार्य का भेद अवश्यम्भावी (अनिवार्य) है। प्रवचनसार, गा. २३८ - अर्थ जो कर्म (अज्ञानी को) क्रमपरिपाटी ने तथा अनेक प्रकार के बालत्तपादि रूम उद्यम से पकते हुए, राग-द्वेष को ग्रहण क्रिया हुना होने से मुख दुःखादि विकारभावरूप परि एमित होकर, पुन: उसकी संतान-परम्परा को पारोपित करता हुआ लक्षकोटि भवों तक जिस प्रकार यजानी पार करता है, वहीं कम सानी। को स्थानमा रतनरूप आगमज्ञान, तत्वार्थवद्धान और संयतत्व के युगपत्पने के अतिशय प्रसाद प्राप्ती हुई मुझज्ञानमय यात्मतत्व की अनुभूति लक्षण वाले ज्ञानोपने के सदभाव के कारगा काय वचन मन के कर्मों के उपरभ (विश्राम) से त्रिगुप्तिता प्रवर्तमान होने से प्रचण्ड उद्यम से पचता हुआ, राग-द्वेग के छोड़ने से समझ सुखदुःखादि विकारः अत्यन्त निरस्त हुमा होने से. पुन: महान (राग-नुष की
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४०० ।
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व आचार्य अमृतचन्द्र ने जहाँ उक्त दीर्घकाय, - पाण्डित्यपूर्ण, अर्थगरिमायुक्त तथा प्रभावोत्पादक भाषाशैली का प्रयोग किया है, वहाँ उन्होंने लघुकाय वाक्य, सरलसुबोध तथा प्रभावमयी शैली का भी प्रयोग किया है। एक स्थल पर अध्यक्सान का स्वरूप बताते हए उक्त शैली का प्रयोग किया है। लघुकायवाक्यावलि युक्त शैली - यथा -
"रत्रपरयोरविवेके सति जीवस्याध्यवमितिमात्रमध्यवसानं, तदेव च बोधनमात्रत्वाद् बुद्धिः, व्यवसानमात्रत्वाद् व्यवसाया, माननमात्रत्वान्मतिः, विज्ञाप्तिमात्रत्वादविज्ञान, चेतनामात्रत्वाच्चित्तं, चित्तो भवनमात्रत्वाद्भावः, चितः परिणमनमात्रत्वाद्परिणाम ।"
इस प्रकार यहाँ प्राचार्य अमृतचन्द्र द्वारा प्रयुक्त लौकिक साहित्यिक भाषा शैलियों का परिचय कराया गया। अब उनकी कतिपय अलौकिक दार्शनिक कथन शैलियों पर भी प्रकाश डाला जाता है। उपरोक्त उद्धरण में लधुबाक्य मयी शैली के साथ ही साथ हेतु परक शैली का भी प्रयोग हुआ है। यथा "बोधनमात्रत्वात्" पद के अंत पंचमी विभक्ति के प्रयोग द्वारा हेतृपने को प्रदर्शित किया है। उक्त पद का अर्थ है "बोधनमानपने के कारण" प्राध्यवसान को बुद्धि कहा है। यहाँ "के कारण" पद हेतु वाचक है। उक्ल पंचमी विभक्ति का प्रयोग प्रायः उक्त उद्धरण के प्रत्येक वाक्य में किया गया है । यही उनके द्वारा प्रयुक्त हेतुपरक दार्शनिक शैली है । उत्त शैली शैली का एक और उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किया जाता है । पुण्यजनित
परम्परा) को आरोपित न करता हुआ उच्छ्वास मात्र में ही लीला से ही ज्ञानी नष्ट कर देता है। अत: प्रागमन, तत्वार्थश्रद्धान तया संयसपने का युगपतपना होने पर भी आत्मज्ञान को ही मोक्ष का साधकतम कारग मानना चाहिए। समयसार, गाथा २७१ की टीका-अर्थ - "स्वप'र का अविवेक होने पर जीय को अध्यवसिति (परणति) मात्र से अध्यवसान है, वही बोधनमापने के कारण बुद्धि है, व्यवसायमापने के कारण व्यवसाय है, मननमा अपने के कारण मति है, विज्ञप्तिमात्रपने के कारण विज्ञान है, चेतनामात्रपने के कारण चित्त है, चेतन के भवनमात्राने के कारण भाव है, चेतन के परिणाममा अपने के कारण परिणाम है।
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कृतियाँ ]
i ४०१
इन्द्रियसुखों को दुःख रूप ही प्रकाशित करते हुए टीकाकार टीका में हेतुओं की बौछार सी करके तथ्य सिद्धि करते हैं । वे लिखते हैं -
"सपरत्वात्, बाधासहितत्वात् विच्छिन्नत्वात् बंधकारणत्वात्, विषमत्वाच्च पुण्यजन्यमपीन्द्रिय सुखं दुःखमेव स्यात् । " - श्रन्यस्थलों पर हेतु का हेतु प्रस्तुत करके हेतुहेतुभूत् शैली का परिचय दिया है । यथा "न खलु द्रव्यं व्यान्तरणामारम्भः सर्वद्रव्याणां स्वभावसिद्धत्वात्, स्वभावसिद्धत्वं तु तेषामनादिनिधनत्वात् श्रनादिनिधनं हि न हि साधनान्तर मपेक्षते |
प्रस्तिनास्ति रूप कथन शैली :
इस शैली में प्राचार्य अमृतचन्द्र तथ्य की सिद्धि एवं श्रद्धा की दृढ़ता हेतु एक ही श्रभिप्राय को अस्तिरूप से तथा नास्ति रूप से प्रस्तुत करते हैं। उदाहरण के लिए मोक्षमार्ग की ही सूचना करते हुए मोक्षमार्ग को आठ विशेषताओं द्वारा श्रस्ति तथा नास्ति उभय पक्षीय कथन द्वारा करते हुए लिखते हैं।
१.
.12
“मोक्षमार्गस्य तावत्सूचनेयम् । सम्यक्त्वज्ञानयुक्तमेव, नासम्यक्त्वज्ञानयुक्तं चारित्रमेवनाचारित्रं रागद्वेषपरिहीणमेव, न रागद्वेषापरिहीण, मोक्षस्यैव नभावतो बंधस्य, मार्ग एव, नामार्गः, भव्यानामेव, नाभव्यानां लब्धबुद्धीनामेव, नालब्धबुद्धीनां क्षीणकषायत्वे भवत्येव न कषायसहितत्वे भवतीत्यन्धा नियमोऽत्र दृष्टव्याः । ३
7
३.
,
F
प्रवचनसार गाथा ७६ की टीका का अर्थ " पर सम्बन्धयुक्त होने के कारण, बाधासहित होने के कारण, विच्छिन्न होने के कारण, बंध का कारण और विषम होने के कारण इन्द्रियसुख - पुण्यजन्य होने पर भी दुःख ही है ।"
प्रवचनसार गा. & की टीका का अर्थ "वास्तव में द्रव्यों से इव्यान्तर की उत्पत्ति नहीं होती क्योंकि सर्व द्रव्य स्वभावसिद्ध है तथा स्वभावसिद्धता भी अनादिनिधनता के कारण है। क्योंकि अनादि निधन को माधनान्तर की अपेक्षा नहीं होती ।”
पंचास्तिकाय गावा १०६ "अर्थ - मोक्षमार्ग को ही यह सूचना है। वह मोक्ष मार्ग) सम्यक्त्व और ज्ञान सहित हो है, न कि सम्यक्त्व और ज्ञान रहित । चारित्र रूप ही है, न कि अनारित्ररूप राग द्वेष से रहित ही है, न कि राग द्वेष से सहित मोक्ष का ही मार्ग है, न कि भाव रूप से बंध का मार्ग
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जा शरद्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व उपरोक्त वाक्यों में पहले अस्तिपरक तथा "न" पदयुक्त वाक्यों में नास्तिपरक कथन किया है। ऐसी कथनशैली में भ्रान्ति का अवसर नहीं रहता अपितु श्रद्धान पक्का हो जाता है। इसी शैली में विरोधी भावों के बीच तथा हेव उपादेय के बीच स्पष्ट अन्तर दिखाया जा सकता है । यथा - वीतरागचारित्र से मोक्ष तथा सराग चारित्र से बंध बताकर प्रथम को उपादेय तथा दूसरे को हेय निरूपित करते हुए अस्तिनास्तिपरक शैली में ही लिखा है - "संपद्यते हि दर्शनज्ञानप्रधानाच्चारित्राद्वीतरागान्मोक्षः । तत एव च सरागाद्ध वासुर मनुजराजविभवक्लेशरूपो बंधः । अतो मुमुक्षुणेष्टफलत्वाद्गीतरागचारित्रमुपादेयमनिष्टफलत्वात्सरागचारित्रं हेयम् ।' क्लिष्ट तर्कबहुल गम्भीर वार्शनिक तत्त्वनिरूपण शैली -
प्राचार्य अमृतचन्द्र की आध्यात्मिक शैलियों में निरूपण की असाधारण क्षमता का चरमोत्कर्ष एवं रसोत्कर्ष उनकी समयसार की आत्मख्याति टीका में सर्वत्र देखने में आता है, परन्तु उनको दार्शनिक, गम्भीर, तर्कबहल, क्लिष्ट तस्वनिरूपक शैली का चरमोत्कर्ष पंचास्तिकाय की टोका में तथा विशेषरूपेण प्रवचनसार की तत्वप्रदीपिका टीका में आद्यन्त दृष्टिगोचर होता है । जिस तथ्य की सिद्धि करने की प्रतिज्ञा के करते हैं, उसे वे सतर्क, सोदाहरण एवं दार्शनिक प्रौढ़ता द्वारा अत्यन्त स्पष्ट करने में कोई कसर नहीं रखते । ऐसी दार्शनिक व्याख्याएँ इतनी क्लिष्ट तथा अर्थगाम्भीर्य से युक्त होती है कि वे अच्छे-अच्छे दार्शनिक विद्वानों के गर्व को खर्व करती हुई तात्विक मर्म को भलीप्रकार प्रकट करती हैं । ऐसी दार्शनिक व्याख्याओं में प्रयुक उक्त दार्शनिक शैली पाठकों को बाणभट्ट की क्लिष्ट समासबहुल शैली की याद दिलाती है । बाणभट्ट को उक्त शैली
मार्ग ही है, न कि अमार्ग । भन्न्यजीवों का ही (मार्ग), न कि अभव्यजीवों का । सन्धबुद्धिजनों का ही, न कि अलब्धबुद्धिजनों कः क्षीरसकषायपने में ही होता है, न कि कषाय सहितपने में होता है । इस प्रकार आठ प्रकार के
नियम यहाँ जानना चाहिए। . प्रवचनमार, गा. ६ "अयं -- दर्शनजाम प्रधानता से वीप्त राग चारित्र से
मोक्ष होता है । और वही यदि सरागधारित हो तो उससे देवेन्द्र-प्रसुरेन्द्रनरेन्द्र के वैभव कलेपारूप बंध की प्राप्ति होती है। इगालए मुमुक्षुओं को इष्टफल वाला होने से शेतसगचारित्र ग्रहण करने योग्य है (उपादेय है) । भौर अनिष्टफन वाला होने से सरागचारित्र त्यागने योग्य है (हेय है)।
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कृतियां ]
[ ४०३ को पालोचकों ने विन्ध्याचल की भांति गहन तथा क्लिष्ट दिलष्ट पदयोजना, जटिल समासयुकदीर्घपदावलि मादि रूप हिस जन्तुओं से संचारित और पाठकों को भयोत्पादक माना है। यहाँ प्राचार्य अमृतचन्द्र की भी जवत दार्शनिक निरूपण शैली अर्थगांभीर्य तथा अद्वितीय तर्क बाहूल्य के कारण दार्शनिकों को चमत्कारोत्पादक तथा खरतर दृष्टि हीन जनों को भयोत्पादक भी प्रतीत होती है किन्तु उनके रसिक अध्येतानों को नारिकेलफल की भांति परमानन्ददायक, प्रात्मतृप्तिकारक परम रसायन श्री भांति प्रतीत होती है। उदाहरण के लिए यहाँ उपरोक्त दौली में निरूपित तत्त्व को प्रस्तुत किया जाता है। कालद्रव्य की सिद्धि करके यद हार काल के कथंचित् पराश्यपने का निरूपण करते हुए वे लिखते हैं -
यह हि ज्यहास्या निमिव समाजादी अम्ति तावत् चिर इति क्षिप्र इति सम्प्रत्ययः । स खलु दीर्घहस्वकाल निबंधनं प्रमाणमंतरेण न संभाव्यते तदपि प्रमाणं पुदगलद्रव्यपरिणाममंतरेण नावधार्यते । तत: परपरिणामद्योतमानत्वाद्व्यवहार कालो निश्चयेनानन्याश्रितोऽपि प्रतीत्यभव इत्यभिधीयते । तदवास्तिकाय सामान्यप्ररूपणायामप्तिकायत्वाभावात्साक्षादनपनन्यस्यमानोऽपि जीवपुद्गल परिणामान्यथानुपपत्या निश्चियरूपस्तत्परिणामायत्ततया व्यवहाररूपः कालोऽस्तिकाय पञ्चकवाललोकमपेण परिणत इति स्वरतर इष्ट्याम्धुपगम्यत इति ।' इसी तरह
१. पंचास्तिकाग्न गा. २F की टीका - अर्थ - प्रथम तो निमेषसमयादिकाल में
चिर और क्षिप्र (टम्वे तथा थोड़े समय तक) ज्ञान होता है । वह ज्ञान वास्तव में दीर्घ नथा लप कान के साथ सम्बन्ध रखने वाला प्रमाण (काल परिमाणा) विना सम्भव नहीं है । वह प्रमाण पुद्गलद्रव्य के परिणाम बिना निश्चित नहीं होता । अत: व्यवहारत्राा पर के परिणाम द्वारा जानने में आता हुआ होने से . निश्चय से यह अन्य के आश्रित नहीं है नो भी (पर के) आश्रयपने से उत्पन्न होने वाला कहा जाता है। इसलिए काल के अस्तिकावपने के अभाव के कारण यहाँ अस्तिकाय की सामान्य प्ररूपणा में उसका (काल बा) सीधा कधन नहीं है, तो भो जीब व पुदगल के परिणाम को अन्यया अनुपपसि के द्वारा निपचय रूप काल सिद्ध है तथा उसके परिणाम के आश्चय से यह निश्चित होता है कि व्यवहारकाल पंचास्तिकाय की भांति लोकरूप में परिणामता है, इस प्रकार अति तीक्ष्ण दृष्टि से जानना सम्भव है।
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४०४ ।
। प्राचार्य अमृत चन्द्र : व्यक्तित्व एवं कस्व अन्यत्र भी कालद्रव्य के उर्वप्रचय को निरन्वय (एक प्रवाह रूप न रहने वाला) मानने का खण्डन करते हुए दार्शनिक गंभीर शैली में ये लिखते हैं। -
"समयो हि समयपदार्थस्य वृत्यंशः । तस्मिन् कस्याप्यवश्यमुत्पादप्रध्वंसी संभवतः, परमार्गोव्यतिपातोत्पद्यमानत्वेन कारण पूर्वत्वात् । तौ यदि वृत्यंशस्यैव,कि योगपद्य न, कि क्रमेण ? योगपोन चेत् नास्ति योगपद्य, सममेकग्य विरुद्धधर्मयोरनवतारात्। क्रमेण लेत् नास्ति क्रमः वृत्यंशस्य सूक्ष्मत्वेन विभागाभावात् । ततो वृत्तिमानकोडप्ययवश्यमनुसतव्यः । स च समय पदार्थ एव। तम्य' खलु - कस्मिन्दपि वृत्यंशे समुत्पादप्रध्वं सौ संभवत: । यो हि वस्य वृत्तिमतो यस्मिन् वृत्यंश तवृत्यंशविशिष्टत्वेनोत्पादः, स एव तस्यैव वृत्तिमतस्तिस्मिन्नेव वृत्यशे पूर्ववृत्यंश विशिष्टत्वेन प्रध्यंस | यद्यघमूत्पादब्ययावेकस्मिन्नपि वृत्वंश संभवतः समयपदार्थस्य कथं नाम निरन्वयत्वं, यतः पूर्वोत्तरवृत्यंश विशिष्टत्वाम्यां युगपदुपातप्रध्वंसोत्पा - स्यापि स्वभावेनाप्रध्वस्तानुत्पन्नत्वादवस्थितप्वमेव न भवेत् । एवमेकस्मिन्,
१. प्रवचनसार गा. १४२ (जेयतत्त्वप्रज्ञापन) - अर्थ - "समय कालपदार्थ वा
वृत्यंश है उस वृत्तंश (मुक्ष्मातिसूक्ष्म पर्याय) में किसी के भी अवश्य उत्पाद तथा विनाश सम्भाविन हैं, क्योंकि परमाणु के अतिक्रमण के द्वारा (समय रूप वृत्यंग) पैदा होता है । अतः वह कारण पूर्वक है । यदि उत्पत्ति और विनामा मृत्यंश के ही माने जायें तो, (प्रश्न होता है कि वे युगपत् है या क्रमशः ? यदि युगपत् कहा जाय तो युगपतपना घटित नहीं होता, क्योंकि एक ही समय में एक के दो विरोधी धर्म (पर्यान) नहीं होते । यदि कहा जाय कि क्रमशः है, तो ऋम भी घटित नहीं होता कोंकि वृत्यंश के मुक्ष्म होने से उसमें विभाग का अभाव है, इसलिए कोई तृतिमान, अवश्य देना चाहिए । और वह (वृत्तिमा) कालपदार्थ ही है। उसको वास्तव में एक वृस्पेश में भी उत्पाद-विनाश सम्मन है, क्योंकि जिस वृत्तिमान. के जिस वृत्ति ग्रंश में जिस वृत्या की अपेक्षा मे जो उत्पाद है वो उसी वृत्तिमान के उसी दृन्यंश में पूर्ववृत्यंश की अपेक्षा से विनाश है । यदि इस प्रकार जमाद और विनाश एक वृत्यंश में भी सम्भषित है. तो कालपदार्थ निरन्वयन कैसे हो सकता है कि जिससे पूर्व और पश्चात वृल्मंग की अपेक्षा से गात् विनाश और उत्पाद को प्राप्त होता हुआ भी स्वभाव से अविनष्ट और अनुत्पन्न होने से वह (कालपदार्थ) अवस्थित न हो ? इस प्रकार एक वृत्यंश में कालपदार्थ उत्पाद व्यय धौष्य वाला है ऐसा सिद्ध हुआ।
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कृतियाँ ।
। ४०५
वृत्यंशे समयपदार्थस्योत्पाद व्यय ध्रौव्यत्त्वं सिद्धम् ।" अागे बड़ी दृढ़ता के साथ वे लिखते हैं कि काल की सामान्य विशेष अस्तित्व की सिद्धि भी अस्तित्व की सिद्धि बिना किसी प्रकार भो सिद्ध नहीं हो सकती - यथा
"अस्ति हि समस्तेष्वनि वृत्यंशेषु समयपदार्थस्योत्पादव्यय प्रौव्यत्वमेकन्मिन् वृत्यंशे तस्य दर्शनात्, उपपत्तिमच्चंतत्, विशेषास्तित्वस्य सामान्याप्तित्वमन्तरेणानुपपत्तेः । अयमेव च समयपदार्थस्य सिद्धयति सद्भावः । यदि विशेषसामान्यास्तित्वे सिद्धतस्तदा तु अस्तित्वमंतरेण न सिद्धयतः कथंचिदापि ।"१
इस प्रकार अमृतचन्द्र की कुतियों की भाषा अनेक लौकिक अलौकिक शैलियों से समृद्ध है। वे कहीं भी अपनी आध्यात्मिक रसिकता तथा ती मां की
निह. । उनकी भाषा तथा भाषाशैलियाँ जहाँ एक ओर संस्कृत वाङमय के समृद्धिशाली युग को इंगित करती हैं, वहीं दूसरी ओर जैन अध्यात्म एवं दर्शन की श्रेष्ठता तथा साहित्यक वैभव को भी प्रगट करती हैं। अमृतचन्द्र ने उपरोक्त शैलियों के अतिरिक्त नाट्यौली तथा चम्पूकाव्य शैली में भी निरूपण किया है । उनकी भाषा तथा शैली विषयक प्रांजलता, प्रौढ़ता, पाण्डित्य प्रखरता, तथा भाषा प्रभुता निश्चित ही अद्वितीय, अनुपम एवं असाधारण है। उनकी भाषा और शैली का सूमेल अध्यात्म की गंगा तथा दार्शनिक भावों की यमुना की भांति है एवं जिज्ञासुग्रों को अवगाहनार्थ प्राकर्षित करती है । प्रलंकार :
अब, प्राचार्य अमृतचन्द्र की भाषा तथा शैली के प्राकलन के पश्चात् अलंकार छंद, रस, गुण आदि साहित्यिक विधानों का भी मूल्यांकन किया जाता है । यद्यपि उनके व्यक्तित्व तथा भाषा - शैली आदि पर प्रकाश डालते समय यत्र तत्र उद्धरणों में अलंकार आदि उक्त सभी काव्यात्मक विशेषताओं के भी दर्शन होते हैं, तथापि यहाँ उनको विशेषरूपेण दिखाते हैं।
१. प्रवरनसार, गा. १४३ की टीका का अर्थ - "कालपदार्थ के सभी वृत्यशों में
उत्पाद-व्यय घोव्य होते हैं क्योंकि एक अत्यंश के देखे जाते हैं। और यह उचित ही है क्योंकि विशेष अस्तित्व सामान्य अस्तित्व के बिना नहीं हो सपना । यही कान पदार्थ के सदभाव की सिद्धि है, क्योंकि। यदि विशेष अस्तित्व और सामान्य अस्तित्व सिद्ध होते हैं तो वे अस्तित्व के बिना किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं होते।
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| आचार्य श्रमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
साहित्यालोचकों की दृष्टि में सालंकृत काव्य चाहे वह गद्य रूप हो या पद्य रूप, सहृदय पाठकों को मनोरम, सरल तथा विशेष प्रानंददायक होता है | साहित्य विदों में कुछ तो अलंकार से ही काव्य को सहज ग्राह्य मानते हैं' क्योंकि अलंकार काव्य का सोन्दर्य है तथा सौंन्दर्य ही आकर्षण का कारण है। अधिकांश कवियों के प्रयोग में सतर्कता तथा प्रयास की श्रावश्यकता पड़ती है किन्तु सिद्धहस्त - प्रतिभासम्पन्न कवियों के काव्य में अलंकारों का प्रस्फुटन सहज एवं स्वयमेव हो जाता है। अलंकारों का यथावसर यथोचित प्रयोग ही कवि की काव्यकुशलता का परिचायक है | अलंकारों के वैज्ञानिक वर्गीकरण तथा स्पष्टीकरण में भी काव्यकला की प्रवीणता ज्ञात होती है । कवि की मनस्थिति तथा अनुभूतियों का मापन भी अलंकारों के द्वारा किया जा सकता है अतः अलंकारों के प्रयोग से काव्य में चारुता, सुन्दरता, ग्राकर्षण तथा रसानुभूति आदि गुणों का उत्कर्ष देखा जाता है। अलंकारों का काव्योत्कर्ष तथा कवि प्रतिभा की अभिव्यक्ति में महत्वपूर्ण योगदान होता है।
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४०६ |
उपरोक्त अलंकारविषयक कसौटी पर आचार्य प्रमृतचन्द्र काव्यक्तित्व प्रतिभा सम्पन्न - सिद्धहस्तकवि के रूप में उभर कर सामते श्राता है । उनकी कृतियां सालंकृत होने से मनोहर, सरस एवं रसप्लावित है। अपने अलौकिक यानंद तथा अध्यात्मरस के अतिरेक द्वारा उनकी कृतियां अध्यात्मरसिक मुमुक्षुमों को सौन्दर्याधायक एवं आकर्षक बनी हुई हैं । अलंकारों के समुचित प्रयोग से अमृतचन्द्र की गद्य तथा पद्य कृतियों में आत्मानुभूति विषयक रस का श्रास्वादन कराने की अपूर्व क्षमता विद्यमान है । उनकी कृतियों में प्रयुक्त अलंकार सहज एवं अनुभूतिपरक हैं । अनुप्रास तथा उपमा यदि प्रलंकार ग्राभूषणों की भांति शब्द तथा अर्थ दोनों के सौन्दर्यवर्धक माने गये हैं । प्राचार्य अमृतचन्द्र की कृतियों में प्रयुक्त अनुप्रास तथा उपमा की छटा अनुपम है। चाहे गद्यरचना हो या पच, अनुप्रास और उपमा के समुचित प्रयोग में अमृतचन्द्र सिद्धहस्त हैं । उनके द्वारा प्रयुक्त अनुप्रास उपमादि प्रलंकारों का सौन्दर्य प्रस्तुत है.
—
९.
२.
म.
काव्यं ग्राह्यमलवङारात् ।
सौन्दर्य मलङकारः ( अलंकार सूत्र - वामन ) सूत्र ६/१/२ ।
अलंकार मीमांसा - डा. राजवंश सहाय पृ. ६९ ।
४. काव्यप्रकाश अष्टम उल्लास ६७ ।
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कृतियां ]
यथा - गद्यकाव्य में अनुप्रास की छटा निराली ही है "मेषइवा निमेषोन्मेषितचक्षु ।" ( श्रात्मख्याति गा. ८ की टीका ) "एबोद्यदमंदानंदमयाश्रुजल झलल्लोचनपात्रस्तत्प्रतिपद्यत" ।
(वही, गा. = की टीका)
सतत भवन्ति ।"
"विघटितघनघटनो दिगाभोग इव निरर्गलप्रसरः । "
(वही, गा. ७४ की टीका) "यथा वर्णादयो भावाः क्रमेण भाविताविर्भाव तिरोभावाभिस्तामिस्ताभिव्यक्तिभिः पुद्गलद्रव्यमनुगच्छन्तः पुद्गलस्य वर्णादि तादात्म्यं प्रथयन्ति ।” (वही, गा. ६२ टीका ) “यथोत्तरंग निस्त रंगावस्थयोः समीरसंचरणासंचरण निमित्तयोरपि समीरपारावारयोग्य प्यिव्यापकभावाभावात्कर्तृ कर्मत्वासिद्धी' भाव्यभावक भावाभावात्परभावस्य । " (वही, गा. ८३ टीका) "घोरघनघाताभिघातपरम्परास्थानीयं शरीरगतसुखदुखं न स्यात् । (प्रवचनसार गा. २० की त. प्र. टीका) “प्रभाकरः प्रभतप्रभाभारभास्वर स्वरूप विकस्वरप्रकाशशालितयातेजः । "
समुपचीयमान महामोहमलमलीमसमानसतया
(वही, गा. ६८ टीका ) नित्यमज्ञानिनो (वही, गा. २.७१ टीका)
पाकाव्य में भी अनुप्रास का प्रयोग देखिये भूतं भांतमभूतमेव रभासान्निभिद्य बंध सुधी द्यन्तः किल कोऽप्यहो कलयति व्याहृत्य मोहं हठात् । "निश्शंकः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति । " "दुराखदचरित्रवैभववलाच्चं च चिचदचिर्मयों । विदन्ति स्वरसाभिषिक्त भुवनां ज्ञानस्य संचेतनाम् ।। "उन्मुक्तमुन्मोच्यमशेषतस्तत्, तथात्तमादेयमशेषतस्तत् । यदात्मनः संहत सशक्तेः पूर्णस्य संधारणमात्मनीह || (वही, क्र. २३६) ! "हेलोलुप्तमहामोहत मस्तोमं जयत्यदः । प्रकाशयज्जगत्तत्वमनेकान्तमयं महः || ” ( प्रवचनसार त. प्र. पद्य क्र. २ )
(वही, क्र. २२३)
-
[ ४०७
गद्यकाव्य में उपमा विधान भी मनोरम है - यथा "गौरिव बाह्यमानस्य ः "
( कलश क्र. १२) (वही, ऋ. १५६ )
( श्रात्मख्याति टी. गा. ४)
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४२८ 1
[प्राचार्य अमृत चन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व "प्रवलोक्यते हि तेषां स्तम्बेरमस्य करेगुकुट्टनीमात्रस्पर्श इव, सफरस्य बाडिशा मिषस्वाद इव, इन्दिरस्य संकोचसंमुखारविन्दामोद इव, पतछ गस्य प्रदीपा रूप इब, कुरगङमस्य मृगेयुगेयस्वर इव,"......."
(प्रवचनसार गा. ६४ की टीका) ....."कुशील मनोरमामनोरम करेणुकुट्टनीरागसंसर्गवत्'
अात्मख्याति टी. गा. १४७) पद्यरचनात्रों में उपमा का रूप वर्शनीय है -
तज्जयति पर ज्योलिः समं समस्तरनन्तपर्यायः । दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थ मालिका यत्र ।।' इतियो नतरक्षार्थ सततं पालयति सफलशीलानि । वरयति पतिबरेव स्वयमेव तमुत्सुका शिवपदनी ।। २
प्राचार्य अमृतचन्द्र की रचनायों में अलंकार ही नहीं, अपितु उनके भेद-प्रभेदों का भी अवतरण पथावसर हुआ है । उपमा के भेदों में पूर्णोपमा, लुप्तोपमा प्रादि का प्रयोग देखने को मिलता है। समयसार कलश में एक स्थल पर "उदितममृतचन्द्र ज्योतिरेतत्समंतात्" पद द्वारा प्रात्मा को अमृतचन्द्रज्योति अर्थात् अमृतमय चन्द्रमा के समान ज्योति कहा है, जो लुप्तोपमालंकार है, क्योंकि "अमृतचन्द्रबज्योतिः" पद का समास करने पर यत् का लोप होकर "अमृतचन्द्रज्योतिः" होता है।
इस प्रकार उक्त उदाहरणों से उपमालंकार के प्रयोग की कविचातरी का स्पष्ट बोध हो जाता है । मालोचकों का अभिमत है कि उपमालंकार की अपेक्षा उत्प्रेक्षालंकार के प्रयोग में कवि की काव्यप्रतिभा विशेषरूप से विकसित होती है। अमृतचन्द्र उत्प्रेक्षा के प्रयोग में भी अपने कौशल का प्रयोग करते हैं । उनके द्वारा प्रयुक्त उत्प्रेक्षाअलंकार उनकी काव्य प्रतिभा का ज्वलंत प्रमाण है। गद्यरचना में उत्प्रेक्षालंकार का मनोहारि रूप देखिये -
एक स्थल पर वे लिखते हैं कि एक ज्ञायक भाव (आत्मा) का समस्त शेयों को जानने का स्वभाव होने से क्रमशः प्रवर्तमान, अनंत भूत वर्तमान
१. पु. सि. - पद्य नं. १ । २. वही - पद्य १८० । ३. समरसार, आत्मख्याति टीका, कलश क्र. २७६ का भावार्थ । ४, महाकवि हरिचन्द्र - एक अनुशीलन -- पृ. ४९. अध्याय २.
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कृतियां ।
। ४०६
भावी विचित्र पर्यायसमूह वाले, गम्भीर तथा अगाध स्वभाव वाने समस्त द्रव्यमात्र को, मानो वे द्रव्य ज्ञायक स्वभाव में उत्कीर्ण हो गये हों, चित्रित हो गये हों, भीतर घुस गरे हों, कीलित हो गये हों, डूब गधे हों, समा गये हों, प्रतिबिम्बित हुए हों, इस प्रकार - एक क्षण में ही (वह शुद्धात्मा. प्रत्यक्ष करता है । टीकाकार की मुल शब्द संरचना इस प्रकार है - "अथैकल्य ज्ञायकभावस्य समस्तज्ञेयभावस्वभावत्वात् प्रोत्कीर्ण-लिखितनिखात - की लित - मज्जित - समावर्तित - प्रतिबिम्बितबत्तत्र क्रमप्रवृत्तानन्त भूतभवद्भाविविचित्रपर्याय प्रारभारमगाधस्वभावं गम्भीर समस्तमपि द्रध्यजातमेक क्षण एव प्रत्यक्षयन्तं ......" पद्यरचना में उत्प्रेक्षालंकार का सौन्दर्य भी दृष्टव्य है :
प्राकारकलिताम्बर-मुपवन राजीनिर्गीण भूमितलम् ।। पिबतीव हि नगरमिदं परिखावलयेन पातालम् ।।
इसी तरह रूपक अलंकार का प्रयोग टीका कार न अपनी गद्य तथा पच उभय विधाओं में बहुशः किया है । उनको “लघुतत्वस्फोट" नामक कृति तो उत्प्रेक्षा अलंकार से प्राधान्य मण्डित है। रूपकालंकार के भी अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं :मोक्षलक्ष्मी स्वयंवरायमाण........ (प्रवचनसार गा. ५ को टीका) महामोहमलस्य जीवदवस्थत्वात्...' (वही गा. ५५ की टोका। संसारसागरे भ्रमन्तीति............ (पंचास्तिकाय गा. १७२ की कीका) प्रमादकादम्बरीमदभरालसचेतसो..... (वही, गा, १७२ टीका। महता मोहनहेण..........
(समयसार गा. ४ टीका) सम्यग्बोधमहारथरथिनान्येन ........ (वहीं, गा. ८ टीका) इति विविधभंगगहने......... (पु. सि. पद्य ५८) परममहिसारसायनं लब्ध्वा ....... (पु. सि. पद्म ७८) अनकांतमयीमूर्तिनित्यमेव प्रकाशताम ""(समयसार कलश - क्र. २॥ प्रानंदामृतनित्यभोजि.........।
(समयसार कलश - क्र. १६३) उदितममृतचन्द्रज्योति.....
(वही, कलश क्र. २७६) १. प्रवचनसार ~ टीका गा. २००, २, समयसारकलश क्र. २५ का अर्थ – यह नगर ऐसा है कि मानों जिसने कोट के
द्वारा आकाश को ग्रसित कर रखा है, बगीचों की पंकियों से मानों भूमितल को निगल लिया हो और कोट के चारों ओर की खाई के घेरे में म नों पाताल को पी रहा हो।
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४१० ।
| प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्त्र
ग्रा. अमृत चन्द्र ने अपनी अनुपम कृति "लधुतत्त्वस्फोट" में तो रूपक का प्रयोग बहुत बार किया है। उनके एक ही पध में अनेक रूपक देखने में याते हैं - यथा प्रच्छादयन्ति यदनेकविकल्पशङ कु खातान्तरङ्ग जगतीज नितैरजोभिः । एतावतैव पशवो न विभो भवन्तमालोकयन्ति निकटं प्रकटं निघानम ।।
अर्थात् हे स्वामिन्, अज्ञानीजीवरूप पशु, अनेक विकल्प रूपी कीलों से खोदी गई मनरूप भूमि द्वारा समुत्पन्न कर्मरूपधूलि से निजस्वरूप को आच्छादित करते हैं, इसलिए वे निकट प्रकाशमान निधान (कोश) रूप श्रापको नहीं देख पाते हैं । यहाँ रूपक का एक और सुन्दर रूप दर्शनीय है यथा
ज्ञानाग्नौ पुटपाक एष घटतामत्यन्तमन्तर्बहिः, प्रारम्घोद्धत संयमस्य सततं विष्वक् प्रदीप्तम्य मे ।। बेनाऽशेष य.षाय किट्ट गलनस्पष्टीभवद्वभवाः, सभ्यग् भान्त्यनुभूतिवर्म पतिताः सर्वाः स्वभावश्रियः ।।
अर्थात् निरन्तर सर्वतः देदीप्यमान अंतरंग बहिरंग में प्रकट हुए उत्कृष्ट संयम वा गुटपाक जान रूप अग्नि में सम्पन्न हो, जिससे समस्त कथायरूपी कीट के नाश हो जाने से स्पष्ट वैभवशाली समस्त स्वभावरूपी लक्ष्मियाँ, अनुभूतिरूपी मार्ग में पड़कर अच्छी तरह सुशोभित हों। कारणामाला अलंकार की झांकी भी देखिये:
___ "द्रव्यकर्ममोक्षहेतु परमसंवररूपेण भावमोक्षस्वरूपाख्यानमेतत् । आस्रवतहि जीवस्य मोहरागद्ध षरूपो भावः । तदभावो भवति ज्ञानिनः । तदभावे भवत्यासवभावाभावः । मानवभावाभावे भवति कर्माभावः। कर्माभावेन भवति सार्वज्ञ सर्वदर्शित्वमव्याबाधमिन्द्रियव्यापारातीतननन्तसुखस्वञ्चेति । स एष जीवन्मुक्तिनामा भावमोक्षः ।।
गद्य रचनाओं में अनेक स्थल' उक्त कारणमाला अलंकार के रूप में उदाहरणीय है किंतु विस्तारभय से यहां प्रस्तुत नहीं किये हैं। यहां उक्त अलंकार का एक उदाहरण पद्यरचना से प्रस्तुत है । यथा :१. लघुतत्त्व:फोट", अध्याय - ६ पद्म क्र. ३. २. वहीं अध्याय २५, पद्य क्र. २५. ३. पंचास्तिकाय गा. १५०-१५१ वी टीका । ४. खिये, पंचास्तिकाय गा. १२८, १६९ की टीकाए ।
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कृतियां ।
[ ४११ मद्य मोह्यति मनो, मोहितचित्तस्तु विस्मरति धर्मम् ।
विस्मृतधर्माजीवो हिसामविशङ क-माचरति ।।' अनुमान प्रलंकार को प्रयोग चातुरी भी देखिये :
न बिना प्राणिविघातान्मांसस्योत्पत्ति रिष्यते यस्मात् । मांसं भजतस्तमात् प्रसरत्यानिधारिता हिंसा ।'
यहां प्राणियों का घात होना कारण (साधन) है, उससे मांसोत्पत्ति रूप कार्य (साध्य) का अनुमान किया इसलिए मांसभक्षी को हिंसा अवश्य होती है, यह अनुमान से सिद्ध किया अतः यहाँ अनुमान अलंकार है । गद्य टोकानों में भी इस तरह का अनुमान अलंकारयुक्त निरूपण बहुशः किया गया है। अन्योन्य प्रलंकार का निदर्शन भी दर्शनीय है :
द्रव्यानुसारि चरणं चरणानुसारि, द्रव्यं मिथो द्वयमिदं ननु सव्यपेक्षम् । तस्मान्मुमुक्षुरधिरोहतु मोक्षमार्ग, द्रव्यं प्रतीत्य यदि वा चरणं प्रतीत्य ।। द्रव्यस्य सिद्धौ चरणस्य सिद्धः, द्रव्यम्य सिद्धः चरणस्य सिद्धौ । बुद्ध्वेति कर्माविरताः परेऽपि, द्रव्याविरुद्धचरणं चरन्तु ।।
१. २.
पु. सि. ६२ वां पड़ा । पु. सि, ६५ मां पद्य । प्रवचनसार गा. २०० को टोका का रश नं. १२. प्रवचनसार टीका पद्म १३ उक्त दोनों पधों का अर्थ इस प्रकार है - चरण द्रव्यानुसार होता है, द्रव्य चरणानुसार होता है, इस प्रकार ये दोनों परस्पर सापेक्ष हैं इसलिए या तो द्रव्य का प्राश्नय सेकर अथवा तो चरण का आश्रय लेकर मुमुक्षु मोक्षमार्ग में आरोहण करो ।।१२।। द्रव्य को सिद्धि में चरण की सिद्धि है और चरण की सिद्धि में द्रव्य की सिद्धि है, यह जानकर को रो अविरत दूसरे भी, द्रव्य से अविरुद्ध चरण (चारिन का आचरण करो ।।१३।।
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४१२ ]
। प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तुत्व । अब स्वभावोक्ति प्रलंकार का सहजरूप प्रस्तुत किया जाता है :
नित्यमविफारसुस्थितसर्वागमपूर्व सहजलावण्यम् ।
प्रक्षोभमिव समुद्र जिनेन्द्ररूपं परं जयति ।।'
"अर्थात् जो सर्वांग रूप से प्रविकार तथा सुस्थित है, अपूर्व और स्वाभाविक लावण्य रूप है तथा समुद्र की भांति क्षोभ रहित है, ऐसा जिनेन्द्र का रूप उत्कृष्टतया जयवन्त वर्तता है। यहां जिनेन्द्र के सहज रूप का स्वाभाविक वर्णन होने से स्वभावोक्ति अलंकार है, साथ ही 'अक्षोभमिय" पद में उपमालंकार भी है । इस प्रकार स्वभावोषित तथा उपमा अलंकार का सुन्दर सम्मिश्रण उक्त पद्य में विद्यमान है । ऐसा हो स्वभावोक्ति तथा उपमा का एक उदाहरण और प्रस्तुत हैं। इससे सिद्धात्मा या मुक्त परमात्मा का सहज स्वरूप वणित है । यथा
नित्यमपि निरूपनेप: स्वरूप समवस्थितो निरुपत्रातः ।
गगनमिव परमपुरुषः परमपदे स्फुरति विशदतमः ।। प्राने विकोपोक्ति भार का हरण दिया जाता है :--
जिससे समस्त प्रसिद्ध कारणों के सद्भाव में भी उनके फल या कार्य का असाव दर्शाया हो वहीं विशेषोक्ति अलंकार होता है। यहां दो पद्यों द्वारा यह विशेष कथन किया है कि सम्यग्दगिट ज्ञान या बंराग्य की सामर्थ्य के कारण कर्मों को भोगता हया भी कर्मो से नहीं बंधता, जबकि कर्मों का भोग रूप बंध का कारण मौजूद है। इसी तरह विषय सेवन करता हश्रा भी ज्ञानी उसके फल को नहीं भोगता। उसे, विषय सेवक होने पर भी प्रसेवक कहा है । लेखक के मूल पद्य इस प्रकार हैं :
तज्ज्ञानस्यव सामर्थ्य विरागस्यैव वा किल। यत्कोऽपि कर्मभिः कर्म भुजानोऽपि न बध्यते।। नाश्नुते विषयसेवनेऽपि यत्, स्वं फल विषय सेवनस्य ना ।
ज्ञानवैभव विरागता बलात्, सेवकोऽपि तदसावसेवकः ।। इसी प्रकार मद्य टीका में भी विशेषोषित का प्रयोग किया गया है।
१. समयसारकलश पद्य क. २६. २. पु. सि. पद्य २२३. ३. काव्यप्रकाण, दशम उल्लास, पृ. ३६१. ४, समयसार कलश, पछ क्र. १३४, १३५, ५. समयसार गा. १६५ तथा १६६ की टीका देखिये ।
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कृतियां ]
[ ४१३
अब दीपकालंकार का प्रयोग भी प्रस्तुत है :
कात्यैव स्नपयंति ये दशदिशो धाम्ना निरूधंति ये । घामोद्धाममहस्विां जनमनो मुष्णंति रूपेण ये | दिव्येन ध्वनिना सुखं श्रवणयोः साक्षात्क्षरतोऽमृतं बंद्यास्तेऽष्टसहस्त्रलक्षणधरास्तीर्थश्वराः सूरयः ।।
इस पद्य में कारक दीपक अलंकार है क्योंकि एक ही तीर्थकर रूप कारक की अनेक क्रियाएं दिशाओं को धोना, सूर्यतेज को ढकना, मन को हरना और कानों में सुस्त्रामृत बरसाना) दिखाई गई हैं ।
__प्राचार्य अमृतचन्द्र कृत "लघुत्त्वस्फोट" नामक स्तोत्रकाव्य सर्वाधिक सालंकृत, क्लिष्ट एवं उच्चतम काव्य प्रतिभा का अमर स्मारक है। इसमें अलंकारों का बहुतायत से प्रयोग हुना है। इससे कवि की सर्वोत्कृष्ट काव्यशक्ति की अभिव्यक्ति हुई है। इसलिए इस काव्य के अनुशीलन से कवि का एक कुशल पालंकारिक का रूप भी मुखरित हो उठता है । इस कृति में लेखक ने जहां अनुप्रास, उपमा, रूपक तथा उत्प्रेक्षा का बाहुल्लता से निदर्शन कराया है वहीं अन्य अनेक अलंकारों की झांकी भी प्रस्तुत की है। विरोधाभास अर्थान्तरन्यास, अन्योन्य, संभावना, प्रतोप, दृष्टांत, अन्योक्ति, श्लेष, काव्यलिंग आदि अलंकारों की विविधरंगी उर्मियों से समग्र काव्य को पालोकित, चमत्कृत तथा रसाप्लावित किया है । यहाँ हम उनके प्रयोग कौशल की संक्षिप्त झलक प्रस्तुत करते हैं। विरोधाभास का सुन्दरतम उदाहरण प्रास्वाध है :नित्योऽपि नाशमुपयासि न यासि नाशं नष्टोऽपि सम्भवमुपैषि पुनः प्रसह्य । जातोऽप्यजात इति तर्कयतां विभासि श्रेयः प्रभोऽद्भुतनिधान किमेतदीदृक् ।।
अर्थात् हे आश्चर्यनिधान श्रेयोजिनेन्द्र, आप (द्रव्यस्वभाव की अपेक्षा) नित्य होकर भी (पर्याप्त स्वभाव की अपेक्षा) नाश को प्राप्त होते हो और नाश को प्राप्त होकर भी पुनः उत्पन्न होते हो । इस प्रकार उत्पन्न होकर भी आप अनुत्पन्न हो ऐसा (विभिन्न दष्टियों से) विचार करने वालों को प्राप प्रतिभासित होते हो । हे प्रभु ! यह ऐसा क्यों है ? अर्थात् यह आश्चर्य की बात है।
१. सममसार कलश क्र. २४. २. लघुतत्त्वस्फोट, अध्याय प्रथम, पद्य ११.
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४१४ ]
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व उपरोक्त उदाहरण में विरोधाभास के साथ ही अनुप्रास का सौन्दर्य भी प्रस्फुटित हुआ है जो पाठक कोचमत्कृत करता है । लघुतत्त्वस्फोट के प्रथम अध्याय में सर्वत्र विरोधाभास अलंकार मुख्य रूप से अभिव्यक्त हुआ है। प्रर्यान्तरन्यास अलंकार :
तवसहजविभाभरेण विश्व वरद ! विभात्य विभामयत् स्वभावात् । म्नपितमपि पड़ोभिकष्णरश्मेस्तव निरहेगा किनितीय ।।
अर्थात हे वरदायक, स्वभाव से अप्रकाशित जगत् अापके प्रकाशमय ज्ञान के समूह से प्रकाशित हो रहा है । सो ठीक ही है क्योंकि सूर्य तेज से प्रकाशित होने पर भी जगत् आपके अभाव में किंचित् भी प्रकाशित नहीं होता। दृष्टांत अलंकार :
इसमें उपमान तथा उपमेय वाक्य दोनों में सभी उपमान, उपमेय तथा साधारण धर्म का प्रतिबिम्बन होता है । नीचे उदाहुत पद्म में कहा गया है कि प्रकट होता हुआ बहुत भारी दुःख का समूह भी समतामृत के स्वाद को जानने वाले मुनियों के लिए सुखरूप होता है, जिस प्रकार इस लोक में हटपूर्वक अग्नि से तपा हुया दूध पीने वाले, दुग्धरस के ज्ञाता मार्जार को महादुःख का भार भी सुख रूप मालभ होता है । मूल पद्य इस प्रकार है....
समामृरास्वादविदां मुनीनामुद्यन्महादुःखभरोऽपि सौख्यम् । परोरसज्ञस्य यथा वृषारेहाग्नितप्तं पिबतः पयोऽत्र ।।'
इसी प्रकार अन्यत्र भी दृष्टांत अलंकार प्रयोग करते हुए वे लिखते हैं कि जिस प्रकार सिंह को सर्वथा न जानने वाले पुरुष के लिए बिलाव ही सिंहरूप होता है, उसी प्रकार निश्चय नय के स्वरूप से अपरिचित मनुष्य के लिए व्यवहार ही निश्चयपने को प्राप्त होता । उनका मूल पद्य इस प्रकार है :
लघुतस्वस्फोट, अध्याय १६, पद्य २१. २. काव्यप्रकाश, उल्लास १०, पृ. ३७८. ३. लघुतत्त्वस्फोट, अध्याय , पद्य २३.
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कृतियाँ ।
माणबक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीत सिंहस्य ।
व्यवहार एव हि तथा निश्च यतां यात्य निश्चयज्ञस्य ।।' व्य तिरेक प्रलंकार :
कवि ने एक स्थल पर जहां "उदितममृतचन्द्रज्योतिरेतत्समंताज्जवलतु विमलपूर्ण निःसपलस्वभावम् ।। २ पंक्तियाँ रची हैं, वहाँ उपमा, रूपक तथा अनप्रास अलंकार के साथ व्यतिरेक अलंकार का सम्मिश्रण भी किया के ग्रात्मा को अमृतमय चन्द्रमा के समान कहने पर भी, वहाँ प्रयुक्त विशेषणों द्वारा चन्द्रमा के साथ व्यतिरेक भी प्रदर्शित किया है, क्योंकि "ध्वस्तामोह" विशेषण अज्ञानधिकार का दुर होना बतलाता है, "विमलपर्ण" विशेषण लाछन रहितपन तथा पर्णता को सचित करता है. 'नि:मपत्नस्वभाव'' विशेषण राहुबिम्ब तथा मेघादि स पाच्छादित न होने को बतलाता है, और "समंतात् ज्वलनु विशेषण सर्वक्षेत्र तथा सर्वकाल में प्रकाश करना स चित करता है, परन्तु चन्द्रमा एसा नहीं है, अतः व्यतिरेक अलंकार भी सुघटित होता है।
इस तरह प्राचार्य अमृत चन्द्र की कृतियों के साहित्यिक मन्यांकन के अंतर्गत अलंकारों का अनुशीलन किया गया, जिससे स्पष्ट हा कि एक ओर जहाँ अमृतचन्द्र की कृतियों की भाषा प्रौड़, गम्भीराशययुक्त, सशक्त अमर्त अनुभूतियों को भी स्पष्ट करने वाली तथा विभिन्न शैलियों में माण्डित है. वहीं दूसरी ओर वह अलंकारों की विविधरंगो आकर्षक झिलमिलाहट से सुशोभित तथा सौन्दर्यान्वित भी है। इतना ही नहीं, भाषा, संली तथा अलंकारों के अतिरिक्त, अन्य भी विशेषताएँ हैं जिनसे उनका साहित्य सौरभित है। उनमें छंद, रस तथा गुण प्रादि मुख्य हैं जिन पर संक्षिप्त प्रकाश डाला जा रहा है ।
तीन भावावेश अथवा अनुभूति की अवस्था में प्रयुक्त भाषा छदात्मक हो जाती है । उस समय भाषा में सहज ही लयात्मा प्रवाह कूट पड़ता है। भाषा का यह लयात्मक प्रवाह ही छंद है। गद्य की अपेक्षा पद्यातमत्र या छंदात्मक भाषा विशेष प्रभावशाली, आकर्षण एवं भाववाही
१. . सि , पच ७. ६. समयसार कलश, ऋ, २७६ ३. हिन्दी खुदप्रकाश, रघुनंदन शास्त्री, एम, ए. भूमिका पृ. १५.
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४१६ ]
! आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व होती है। छंदात्मक भाषा का आकर्षण अद्भुत होता है । मानव ही नहीं अपितु पशुपक्षी तथा सर्प ग्रादि प्राणी भी लयात्मक भाषा पर मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। इसलिए छंदशास्त्रों में छंद को संगीत को योनि तथा काव्य की जान कहा जाता है । छेदों में गुम्फिल भाव सहस्रों श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करते हैं। छंदों का प्रभाव हृदय तक ही सीमित नहीं होता अपितु मस्तिष्क के विकास में छंदों का उपयोग वैज्ञानिक माना जाता है । स्मरण शक्ति एवं बुद्धि की प्रखरता के लिए छंद बहुत ही उपयोगी होते हैं ।' छंदोबद्ध साहित्य चिर गौर चमत्कारपूर्ण होता है, साथ ही दीर्घजीवी भी। छंदों में प्रक्षेपण (मिलावट आदि) की भी संभावना कम हो रहती है। लेखक के विचारों की मौलिकता, प्रामाणिकता तथा विश्वसनीयता बनी रहती है। छंदज्ञान के बिना साहित्यकार की साहित्यिक क्षमता का मूल्यांकन कर पाना असंभव है।
यहाँ उक्त कसौटी, छंदों की महत्ता एवं वैज्ञानिकता, के परिप्रेक्ष्य में आचार्य अमृत चन्द्र के व्यक्तित्व का अवलोकन तथा कृतित्व का मूल्यांकन किया जा रहा है। प्राचार्य प्रमृतचन्द्र ने अपनी अनुभूतियों तथा पूर्वाचार्यों की अध्यात्म वाणो के रहस्यों को विभिन्न छंदों के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। कुन्दलान्द प्रणीत समयप्राभूत पर लिखित 'आत्मख्याति" टोका में प्रागत पद्यों को विभिन्न छन्दों में वैज्ञानिक ढंग से ढाला है। "आत्मख्याति" में उन्होंन १६ प्रकार के छंदों का प्रयोग किया है । वे छंद हैंअनुष्टुप्, मालिनी, शार्दूलविक्रीड़ित, उपजाति, वसंततिलका, पृथ्वी, आर्या, स्वागता, शालिनी, मंद्राकान्ता, स्रग्धरा, उपेन्द्रबज्रा, स्थोद्धता, इन्द्रयचा, दूताबिलम्बित, शिखरिणी, नर्दटक, वंशस्थ और वियोगिनो । दूसरी कृति प्रवचनसार की तत्वप्रदीपिका नामक टीका है जो प्रमुखतः गद्य में ही निर्मित है परन्तु उक्त घटीका भी आनार्य अमृतचन्द्र कबीन्द्र की कविप्रतिभा से अछुती नहीं रह पायी है । इसमें भी बिभिन्न सुप्रसिद्ध छंदों में २१ 'पद्यों की सृष्टि हुई है। इसमें छंदों में स्रग्धरा, मंदाक्रांता, वसंततिलका, अनुष्टुप्, शालिनी, इन्द्रवज्ञा, शार्दूलविक्रीडित तथा मालिनी का प्रयोग हुआ है। इसी प्रकार पंचास्तिकाय की समय व्याख्या नामक गद्य टीका में भी 5 पद्यों की रचना हुई है । पद्यटीका में "तत्त्वार्थसूत्र" की "तत्त्वार्थसार" नामक टीका में मुख्यपने से तो अनुष्टुप् छंदों का प्रयोग हुआ है तथा शालिनी, प्रार्या और वंसततिलका छेद भी प्रयुक्त हुए हैं। ७२० पद्यों में १. हिन्दी छन्दप्रकाश, भूमिका पृ. ११
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कृतियाँ |
18219
1
,
८
७१५ अनुष्टुप हैं । मौलिक ग्रंथ पुरुषार्थसिद्धयुपाय में प्राद्यन्त आर्या बंद का ही उपयोग किया है । इनकी कुल संख्या २२६ है, उनकी उपलब्ध अंतिम कृति लघु स्वस्फोट नामक स्तोत्र काव्य में १३ प्रकार के उत्कृष्ट काव्य प्रतिभा छंदों का अवतरण हुआ है । इनमें अनुष्टुप, शार्दूलविक्रीडित, उपजाति, वसंततिलका, मंद्राक्रान्ता वंशस्थ तथा वियोगिनी ये ७ तो पूर्वप्रयुक्त छंदों में से हैं। तथा मंजुभाषिणी तोटक, पुष्पिताग्रा, प्रहर्षिणी मत्तमयूर तथा हरिणी ये ६ बिल्कुल नये छंद हैं। इस तरह आचार्य अमृतचन्द्र के उपलब्ध पद्य साहित्य में २५ प्रकार के छंदों की सृष्टि हुई है जो उनके काव्यज्ञ, रसज्ञ तथा छंद विशेषज्ञ होने का स्पष्ट प्रमाण है। जिस प्रकार कवि पाणिनी ( ई. ५वीं शती) को उपजातिछंद, कविवर कालीदास को मंद्राक्रांता छंद मारवि को वंशस्थ छंद, महाकवि भवभूति को शिखरिणी छंद विशेष रूप से प्रिय थे, उसी प्रकार आचार्य अमृतचन्द्र को श्रार्या अनुष्टुप् शार्दूलविक्रीडित वसंतलिका, मंद्राक्रांता तथा उपजाति से छह छंद प्रत्यधिक प्रिय थे, इसलिए इनका प्रयोग उन्होने अपनी रचनाओं में सबसे अधिक किया है । उदाहरण के लिए उन्होंने अनुष्टुप् =११, र्या २४० वंशन्थ १५०, शार्दूलविक्रीडित १२३, उपजाति ११० वसतिलका १०५ तथा मन्दाक्रान्ता ४७ छंद अपने साहित्य में लिखे हैं। उन्होंने छंदों का प्रयोग पाण्डित्य प्रदर्शन हेतु नहीं किया है अपितु विभिन्न प्रकार के भावों तथा अनुभवों को अभिव्यक्त करने हेतु किया है। इसलिए विभिन्न छंदों का प्रयोग सहजरूप से हुआ है कृत्रिमरूप में नहीं । उनके द्वारा प्रयुक्त छंद उनकी अनुभूतियों की विभिन्न स्थितियों के परिचायक हैं। उन्होंने अपने भावों को छंदों में हालने का प्रयास उतना नहीं किया है जितना कि भावप्रवाह तथा अनुभूतियों के आवेग में अनायास ही विभिन्न छंद प्रस्फुटित हुए हैं । ये सहज प्रफुल्लित छंद गुलदस्ते की भांति यथोत्रित प्रसंगानुकूल अलंकार तथा रस सौन्दर्य से सुशोभित हैं एवं सहृदयजनों को चित्ताकर्षक एवं हृदयावर्जक हैं। उनके द्वारा प्रयुक्त छंद विभिन्न प्रकार से आध्यात्मिक रस का रसास्वादन कराने में समर्थ हैं । प्रत्येक छंद एक कला - घट की भाँति है, जिसमें अध्यात्मामृत लबालब भरा है। उनके अमृतरस को पीकर मनमयूर मल्ल, व रोमांचित होकर नांच उठता है तथा एक अदभूत् श्रभूतपूर्व परमानन्द का अनुभव करता है ।
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१.
हिन्दी छंद प्रकाश, पृ. ३१.
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४१८ |
छंब प्रयोग को वैज्ञानिक :
जहाँ जिस प्रकार के मनोभाव या अनुभव को व्यक करना होता है, वहाँ तदनुकूल भावचाही तथा अर्थप्रकाशी छंदी का प्रयोग होता है, यही छंद प्रयोग की वैज्ञानिकता है। अधिकांश बंद तो अपनी महत्ता तथा उपयोगिता को अपने (सार्थक ) नाम द्वारा ही प्रकट करते हैं। इसी महत्त्व को समझकर अमृतचन्द्र ने छंदों को विचाराभिव्यक्ति का सर्वोत्कृष्ट साधन बनाया है | आचार्य वीरनंदि ने भी उत्कर्ष और अपकर्ष के अनुसार छंदों में परिवर्तन करने के प्रयोग किये हैं। उन्होंने दर्शन या प्राचार सम्बन्धी तथ्यों के निरूपण में अनुष्टुप् छंद को अपनाया है। वियोग तथा करुणा के चित्र में मन्दात्रता, मालिनी और उपजाति छंद प्रयोग किया है। वस्तु व्यापार वर्णन को सशक्त बनाने के लिए वसन्ततिलका तथा नगर, सरोवर, ऊषा आदि के चित्रण में पुष्पिताग्रा, वनस्थ, प्रहर्षिणी और ललिता छंदों को अपनाया है । इस तरह विषय निरूपण में छंद वैविध्य चमत्कारोत्पादक होता है ।" महाकवि क्षेमेन्द्र भी सुवृत्ततिलक में लिखते हैं कि कथा विस्तार तथा शांतरस के उपदेश में अनुष्टुप् श्रृंगार तथा नायिका के उत्कृष्ट वर्णन में वसंततिलका तथा उपजाति छंद सुशोभित होते हैं । चन्द्रोदय ग्रादि विभाव भावों के वर्णन में रथोद्धता छंद अच्छा माना जाता है जबकि संधि, विग्रह तथा नोति के उपदेश में वंशस्थ छंद सुशोभित होता है । वीर तथा रौद्र रस के संकर में वसंततिलका, सर्ग के अंत में मालिनी खिलती है । युक्तिपूर्ण अभिव्यक्ति में शिखरिणी, उदारता व औचित्य वर्णन में हरिणी, शौर्य वर्णन में शार्दूलविक्रीडित तथा वेगवाली वायु वर्णन में स्रग्धरा छंद का प्रयोग उचित माना गया है। आचार्य अमृतचन्द्र ने छंदों की सार्थकता को ध्यान में रखकर आध्यात्मिक तत्त्वनिरूपण में छन्दों का समुचित वैज्ञानिक प्रयोग किया है। उदाहरण के लिए "बालविक्रीडित" शब्द का अर्थ है "सिंह की विशिष्ट क्रीड़ा" अर्थात् सिंह जब अपनी विशेष क्रीड़ाएं करता है तब उसका पुरुषार्थ प्रोज तथा प्रभाव दर्शनीय होता है। आचार्य अमृतचन्द्र ने भी पुरुषार्थ या ओजपूर्ण भावों की अभिव्यक्ति के लिए शार्दूलविक्रीडित छंद का प्रयोग किया है | आत्मख्याति कलश टीका में एक स्थल पर वे लिखते हैं कि कोई सुबुद्ध जीव भूत,
२.
[आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
--
संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान,
महाकवि हरिचन्द्र - एक अनुशीलन, पृ. ७६.
पू. १००.
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कृतियां ]
[ ४१६
वर्तमान तथा भविष्य-तीनोंकाल में कर्म के बंध को अपन आश्मा से शीध्र भित करके तथा कमोदय के निमित्त से होने वाले मोह (अज्ञान) को अपने पुरुषार्थ से (बल से) हटाकर अंतरंग में अभ्यास कर देखें तो यह आत्मा अपने अनुभव से ही प्रात्मानुभवगोचर जिसकी एकमात्र महिमा है ऐसा निश्चल, शाश्वत, नित्य, कर्मकलंक कर्दम से रहित स्वयं स्तुति करने योग्य देव को विराजपान पायेगा। उक्त अर्थवाची शार्दूलविक्रीडित छंद मलतः इस प्रकार है :
भूतं भांतमभूतमेव रभासानिभिद्य बन्ध सुधी - यंद्यन्तः किल कोऽप्यहाँ कलयति व्याहत्य मोहं हठात् ।
आत्मात्मानुभवकगम्यहिमा व्यक्तो यमास्ते ध्रुवं, नित्यं कर्मकलंकपकविकलो देवः स्वयं बाश्वत ।'
उक्त छंद में अनुप्रास अलंकार सौन्दर्य, आत्म-पुरुषार्थ, प्रोजगुण तथा मात्मानुभति का रस युगपत् प्रतीयमान है। इसी प्रकार प्रभावातिशय तथा प्रोजपूर्ण स्वरूप कथन हेतु भो शार्दूलविक्रीडित छंद का चमत्कारी प्रयोग अनेक स्थलों पर हुआ है। ज्ञानरूप नायक के उत्कर्ष, प्रभावाविश्य तथा पराक्रम को व्यक्त करने हेतु भी इसो छंद को भावाभिव्यक्ति का वाह्न बनाया गया है। एक स्थल पर जिरेन्द्र देव के ग्रनंतवीर्य के उत्कृष्ट न्यापार से विकारी भावों का नाश तथा अनंतवीर्य की महिमा का प्रोजपूर्ण शब्दों में, अनुप्रास अलंकार के सरस सौन्दर्य के साथ वर्णन करते हुए वे लिखते हैं कि हे भगवन् अत्यधिकता के साथ अनंतवीर्य के उत्कृष्ट व्यापार से विस्तारित, बहुत भारी बड़ी बड़ी तरंगों से परिपुष्ट यापकी दृष्टियों के समह क्रीडा करते रहते हैं। हमारी कांति की उत्कृष्ट रूप से खींची हई, ममरूप महिमा के विस्तार पर आक्रमण कर, विविध विकारी भावों की ये पंक्तियाँ यथार्थ में प्राण त्याग करती हैं। उनका मूल पद्य इस प्रकार है -
उद्दामोद्यदन्तवीर्यपरमव्यापार विस्तारित - फारस्फारमहोभिमांसलदृशां चक्रे तव क्रीडति ।
१.
समयसारमलश क्र. १२. उदाहरण स्वरूप समयसार रलश क्रमांक २४, ४८, ९ तथा ३६, १४ विशेष रूप से हटव्य हैं। कलश १७८ इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। देखिये, समयसार अलग, पद्य क्र. ३३, १२५, १३३, १५४ तथा १६३.
३.
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४२० ।
। प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत प्राक्रम्याकुलकुष्ट मर्ममहिमा प्रोत्तनिता नस्त्विषो, भावानां ततयो निरन्तरमिमामुन्धन्ति जीवं किल ।।'
मालिनी छंद का प्रयोग अात्मानुभति या आत्मज्योति के प्रदर्शन के लिए किया है । यथा -
चिरमिति नवत्वच्छन्नमुन्नीयमानं कनकमिव निमग्नं वर्णमालाकलाये । अथ सततविविक्तं दृश्यतामेक रूप
प्रतिपद-मिदमात्मज्योतिरुद्योतमानम् ।। अन्य स्थलों पर प्रात्मकन्याण की प्रेरणा या उसका उपदेश देने के लिए भी मालिनी छंद का ही प्रयोग किया है। कहीं कहीं सहेतुक कथन करने स्पष्टीकरण करने, व्याख्या करने और शुभभावना व्यक्त करने के लिए भी मालिनी छंद का ही उपयोग किया है ।
अनुष्टुप् छंद का प्रयोग दार्शनिक तत्त्व निरूपण हेतु ही मुख्य रुप से किया है। तत्त्वार्थसार मुख्यत: अनुष्टप् छंद में ही रचित है। उसमें श्राद्यान्त दार्शनिक तत्त्वों का तथा मुनि व धावक के प्राचारों का ही वर्णन है । अन्यत्र मंगलाचरण तथा उपसंहारात्मक कथन करने हेतु भी अनुष्टुप् का ही प्राश्रय लिया है।
उपजाति छेद का प्रयोग आत्मस्वरूप प्रदर्शन के लिए किया है। उदाहरण के लिए प्रात्मा का स्वरूप निरूपण करते हुए वे लिखते हैं -
प्रात्मस्वभावं परभावभिन्न - मापूर्ण माद्यन्तविमुक्तमेकम् । विलीन संकप विकल्प जालं, प्रकाशयन् शुद्धनयोभ्युदेति ।।
लश्रुतस्वस्फोट में २५ पद्यवाले तीन अध्यायों की रचना उपजाति छंद में ही की है जिसमें जिनेन्द्र के उत्कृष्ट स्वरूप की ही महिमा विभिन्न प्रकार से प्रस्तुत की गई है।
१. लघूतस्वस्फोट, अध्याय २४. पन नं. २२. २, समयसार कला, वां पद्य । ३. देखिये, समयसार कलश क्र. ११, २०, २२, २३ और 4.9. ४, वही, पद्य क्र. ३ तथा ३१.
बही, पद्य १, २, ७, १५, ३६, ६. समयसार कालण पद्य १०.
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कृतियां 1
[ ४२१
वसंततिलका छेत्र में आत्मानुभूति का ग्रानन्द तथा मस्ती प्रगट की
है । यथा :
आत्मानुभूतिरिति शुद्धनयात्मिकाया, ज्ञानानुभूतिरियमेव किलेति बुद्धवा । आत्मानमात्मनि निवेश्य सुनिष्प्रकम्प,
मेकोऽस्ति नित्यमवबोधघनः समन्तात् ।। ११ ।।
पृथ्वी छंद अनुभूति की गम्भीरता तथा अखण्डता के निरूपण में प्रयोग किया है। 'पृथ्वी' शब्द भी गंभीरता तथा अखण्डता का प्रतीक है अतः उसके माध्यम से अभिव्यक्त विचार भी वैसे ही गम्भीर तथा प्रखण्ड हैं ।' पृथ्वी एक सामान्य, सुप्रसिद्ध वर्णवृत्त है परन्तु वह मंदाक्रांता तथा शिखरिणी वर्णवृत्तों की भांति लोकप्रिय नहीं है। फिर भी अमृतचन्द्र ने इसका उपयोग किया है ।
शिखरिणी छंद का प्रयोग निष्कर्ष रूप कथन करने तथा शंका के समाधान में भी हुआ है । उक्ति पूर्ण कथनों की अभिव्यक्ति भी शिखरिणी छंद में ही हुई है । "
स्थानता एक प्रचलित
है जिसका प्रयोग अमृतचन्द्र ने अनुभव के प्रदर्शन में किया है | यहाँ इसका एक सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत है । यथा
५.
६.
७.
-
चित्स्वभावभरभावितभावा भावभावपरमार्थतयैकम् । बंधपद्धतिमपास्थ समस्तां चेतये समयसारमपारम् ||
शालिनी छंद भी मालिनी की तरह निष्कर्ष रूप कथन में सुशोभित हुआ है । सहेतुक कथन के लिए भी शालिनी का प्रयोग कवि ने किया है। "
१. समयसार कलश, क्र. १३.
2.
Annals of the Bhandarkar Oriental Research Institute Pune, Vol. 58-59, 1977-78. Page 627.
३. समयसार कलश ऋ. १०४, १०५, १६५.
४.
वही, पद्म १८०.
वहीं, पच ९१.
वहीं, पच ३७, ११३.
वहीं, पद्म २१६.
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४२२ ।
। प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व नवंटक भी एक अप्रचालित छंद है। वस्तुस्थिति अथवा सैद्धान्तिक नियम दिखाने के लिए इस छंद का प्रयोग किया है । उनके सम्पूर्ण साहित्य में मात्र समयसार कलशों में एक छंद में नर्दटक का प्रयोग हुआ है 11
हरिणीचंद का प्रयोग जिनेन्द्र के असाधारण रूप तथा प्रगट गुणों के वर्णन में किया है जो निश्चित ही हृदयहारी है। अस्ति नास्ति रूप अनेकांतमयी वस्तु का निरूपण प्रणा में शिकलोमावान का प्रतीक है कि आचार्य अमृतचन्द्र को अनेकांत तथा स्थाद्वादरूप कथन करने में अत्यधिक हर्ष होता था । मंदाक्रांता तथा मत्तमयूर छंद अमृतचन्द्र के प्रात्मानुभवानन्द के अभिव्यंजक है।
इस प्रकार अमृतचन्द्र द्वारा प्रयुक्त २५ प्रकार के प्रचलित तथा अप्रचलित उभय प्रकार के छंदों के अनुशीलन से यह बात स्पष्ट प्रमाणित हो जाती है कि प्राचार्य अमृत चन्द्र का प्रभुत्व संस्कृत भाषा, शैली, अलंकार, आदि की तरह छंदोबद्ध रचना करने में भी था। इससे उनकी कविप्रतिभा तथा सर्वतोमुखो व्यक्तित्व का भी पता चलता है। सर्वत्र छंदों के प्रयोग की वैज्ञानिकता को देखते हुए उन्हें वैज्ञानिक छंद प्रयोग शैली का पुरस्कर्ता भी कह सकते हैं।
रस
रस के स्वरूप के सम्बन्ध में अध्याय तृतीय के नाटककार तथा काव्यकार के रूप में अमृतचन्द्र के व्यक्तित्व निदर्शन से बहुत कुछ कहा जा चुका है । प्राचार्य अमृत चन्द्र की कृतियों में प्रयुक्त प्रमुख अथवा अंगीरस शांत रस है । इसी शांत रस' के लिए ही स्वरस'; चैतन्यरस, परमार्थरस,
१. ममयसार कलश, पद्म २११. २. ल. त. स्फोट -- अध्याय २३ वो ३. वहीं, अध्याय १७ वी ४. वही. प्र. २२ तथा १८. ५. रामयसार कालण ३२. ६. वही, कानश १६०, सया गा, ६ को टीका । ७. समयसार गाथा की टीका । ८, बही, गाथा २०३ की टीका ।
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....
कृतियाँ ।
! ४२३
प्रशमरस', महारस', जानरम, परमानन्द सुधा रस', निजरस', आदि पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग उनकी कृतियों में हुअा है । इसे ही एक स्थल पर ज्ञायकभाव मे परिपूर्ण महास्वाद पद भी व्यवहृत हुआ है । अन्यत्र इसे शुद्धोपयोग रस नाम से भी पुकारा गया है। इस तरह सर्वत्र शांतरस ही प्रमुख रस के रूप में अभिव्यक्त हुमा हैं। साथ ही वीररस, अद्भुतरस का भी यथास्थान दिग्दर्शन हुआ है । उदाहरण के लिए प्रास्रव रूप योद्धा को समरभूमि में अजेय ज्ञानरूप धनुर्धारी योद्धा जीत लेता है, इस कथन में स्पष्टतः वीर रस झलकता है - यथा - प्रथमहामद निर्भरमन्थर, समररंगपरागतमास्रवम् ।
अयमुदारगंभीरमहोदयो; जयति दुर्जय बोधधनुर्धरः ।। इसी तरह वीररस पूर्ण वर्णन अन्य कई स्थलों पर उपलब्ध होता है। इसी तरह अद्भुतरस का प्रयोग करते हुए वे लिखते हैं कि हे नाथ केवलदर्शन एवं केवलज्ञान की एकाग्नता से तन्मय उपयोगरूपी तेज के सर्वतः विस्तृत होने पर, क्षणता को अपनी तरह धारण करने वाले आपकी, समस्त जगत् में व्याप्त होने हेतु अद्भुत रस की प्रस्तावना करने वाली, दूर तक व्याप्त अनंतवीर्य सम्बन्धी गौरव की ये विस्तृत सम्मू नाएँ एवं अत्यधिक चेष्टाएँ बेगपुर्वक, अतिशय रूप से प्रकट हो रही है । उनका पद्य इस प्रकार है -
बोधक्यमयोपयोगमहसि व्याजम्भमाणेऽमित्, एतेक्षण्यं संदधतस्तत्रेश ! रभसादत्यन्तमुद्यन्त्यमूः । विश्वव्यापिकृते कृताद्भुतरसप्रस्तावनाडम्बरा, दुरोत्साहितगाढ़वीर्यगरिमव्यायामसम्मूछनाः ।।२३।।
नमपसार कसण, २३३, २. लघुसन्धस्फोट, अ. २३, पद्य ६ तथा य.४, पद्य २. ३. समयसार कलश २२२. ४, प्रवचनसार, तत्त्वतीपिका पश्च क्र. ३. ५. नचुतत्त्वस्फोट, अ. २४, पञ्च २०/स. कलश १२५. ६. समयसार, कलम १४०. ७. लघुतत्वस्फोट. अ, ३, पद्य ६. ८. लि. स. सा. फलश १३३, १६३, १७८ प्रादि । ६, लघुतत्त्वस्फोट, प्र. २४, पद्य, २३.
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४२४ 1
[ प्राचार्ग अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व अब यहाँ एक रौद्र रस का उदाहरण प्रस्तुत है, जिसमें वे लिखते हैं कि बंध के कारण रूप रागादि के उदय को निर्दयता पूर्वक विदारण करती हुई, उस रागादि के कार्य को (अनेक प्रकार के बंध को) अब तत्काल दूर करके अज्ञानरूप अंधकार को नाश करने वाली ज्ञानज्योति भलीभाँति इस प्रकार सज्ज हुई है कि उसके विस्तार को अन्य कोई प्रावृत नहीं कर सकता । उनका मूल पद्य इस प्रकार है
रागादीनामुदयमदयं दारयत्कारणानां, कार्य बंधं विविधमधुना सद्य एव प्रशुद्य । ज्ञानज्योतिः क्षपिततिमिरं साधु सनद्धमेतत्,
तद्वद्यद्वत्प्रसरमपरः कोऽपि नास्यावृणोति ।।' इस तरह अमृतचन्द्र के वाङ्मय में जितने प्रकार के भी अंगभूत रस एकदित हुए हैं। सभी सही तत्यमा महारस के नाना प्राकार हैं । वास्तव में तो सर्वत्र एकमात्र प्रधान - अंगीरस के रूप में शांतरस ही स्फुरित है । इस तथ्य का उल्लेख स्वयं अमृतचन्द्र । एक स्थल पर किया है । यथा -
इदम ति 'भरान्नाकारं समं स्नपयन्। जगत्परिणतिमितो नानाकारेस्तवेश ! चकास्त्ययम् । तदपि सहज न्याप्तया रुन्धनवान्तर भावनाः।
म्फुरति परितोऽप्येकाकारश्चिदेकमहारसः ।। प्राचार्य अमृतचन्द्र का "चिदेकमहारसः" के भाव को व्यक्त करने वाला उक्त पद्य महाकवि भवभूति (ई. ७००) के उस पद्य की याद दिलाता है जिसमें उन्होंन "एको रस: करूणएव........" इत्यादि लिखा है तथा करूणरस को अपने नाटक उत्तररामचरितम का प्रमुख - अंगीरस तथा अन्य सभी को अंगरस निरूपित किया है । उन्होंने लिखा है कि पावर्त, बुबुद्, तरंग आदि एक जल के ही रूप हैं । अस्तु, अमृतचन्द्र के साहित्य में
१. २. ३.
समयसार कलश, पद्य १७६. लबुतात्वस्फोट - अ, २३, पद्म ६. उत्तररामचरित् ३/४५ "एको रस: करुण एवं निमित भेदाद,
भिन्नः पृथक् पृअमिवाश्रयते विवर्तान् । आवर्त छुन खुद तरंगम यान् विकारान्, अम्भो यथा सलिलमेघ तु तत्समग्रम् ।
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कृतियां ।
[ ४२५
अन्य गुणों तथा विशेषताओं की भांति रश संघटना भी सुष्टुरूपेण सम्पन्न
गुण
साहित्यकारों ने मुख्यतः तीन गुण माने हैं माबुर्ग, प्रोज तथा प्रसाद । माधुर्य गुण के अभिव्यांजक वर्ण द इद, को छोड़कर अन्त्यवों छ, अ, न्, म्, ण, से संयुक्त क् से म् पर्याप्त वर्ण हैं, प्रोज के व्यंजक वर्ष क, छ, त्, प्, ट्, ग्, ज्, द् ब्, ड् वर्ण अपने वर्ग के प्रथम वर्ण के अन्य वर्ण प्. झ. घ, भ, द, के संयोग से निर्मित पद हैं, तथा प्रसाद के अभिव्यंजक वे वर्ण हैं जिनका अर्थज्ञान श्रवणमात्र से हो जाय ।' अस्तु उक्त आधार पर हमें अमृतचन्द्र के साहित्य में तीनों प्रकार के गुणों का सौन्दर्य उपलब्ध होता है । यथा :माधुर्य गुण के उदाहरण :..
सद्य एवोद्यदमंदानंदमयानुजलझल लोचनपात्रस्तत्प्रतिपद्यत एव ।' सद्य एवोद्यदमंदानंदांतः सुन्दरबंधुरबोधतरंगस्तत् प्रतिपद्यत एव ।'
आत्मस्वभावं परभावभिन्नमापूर्णमाद्यन्त विमुक्तमेकम् ।
विलीनसंकल्प विकल्प जालं प्रकाशयन् शुद्धनयोम्युदेति ।। अोज गुण का प्रयोग :
अनेकांतकलितसकलज्ञातृज्ञेयतत्वयथावस्थितस्वरूपपाण्डित्यशोग्डाः सन्तः समस्त बहिर शान्तरसङ्गति परित्याग विवितान्तश्चकचकायमानान्तशक्तिचैतन्यभास्वरात्मतत्त्वस्वरूपाः स्वरूपगुप्तसुषुप्त कल्पान्तस्तत्ववृत्तितया विषयेषु मनागप्यासक्तिमनासादयन्तः समस्तानुभाववन्तो भगवन्तर: शुद्धा एवासंसारघटितविकट कर्म कबाट विघटन पटीयसाध्या. वसायेन प्रकटोक्रियमाणावदाना मोक्षतत्वसाधनतत्वमबबुध्यताम् ।
१. काव्यप्रकाश -- अष्टमोल्लामः । २. समयसार गाथा ८ की टीका । ३. समयसार गाया की टोका।
सामनार कलण ?०. ५. प्र-चनसार गाथा १३३ टीका ।
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36--
४२६ ।
: प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व प्रसाद गृण का प्रयोग :
प्राचार्य अमृतचन्द्र की श्रेष्ठ कृति पुरुषार्थसिद्धयुपाय प्रसादगुण युक्त रचना है । उममें प्रयुक्त सभी पद्य सुगम, स्पष्ट तथा प्रसादगुण मण्डित हैं। उदाहरण के लिए इन पद्यों का अवलोकन कीजिये -
अर्था नाम य एते प्राणा एते बहिश्चराः प्रसाम् । हरति स तस्य प्राणात यो यस्य जनो हरत्यर्थान् ।।' न मधं नवनीतं पिशितं च महाविकृतयस्ताः । पलभ्यन्ते न वतिना दल या जमरतव ।।
प्राचार्य ऋभतचन्द्र में माधुरी हेतु उपजाति तथा बसंततिलका लंद का, प्रोजगण के लिए मुख्यतः पार्दूलविक्रीडित तथा प्रसादगुण को मन्दाक्रान्ता छंद का प्रयोग मुख्य रूप से किया है । इस तरह उनकी कृतियों में अन्य नभस्त गुणों के साथ भाधुर्श, योज तथा प्रसाद इन लोनों गुणों का
मुचित प्रसाद हा है। Annnvimmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm.
अमृतचन्द्र कला के तीन अर्थ अछर अरथ में मगन रहै मदा काल,
महासग्य दवा जैसी बवा कामगविको। रमल अबाधित अलख न गावना है,
पाचना परम सुद्ध भावना है भविकी ।। मिथ्या तिमिर अपहारा वर्षमान धारा,
जैसी उर्भ जामलौं किरण दोप रविवार ऐसी है अमतचन्द्र काला विधाहप धर,
अनुभी दसा गरथ टीका बुद्धि कबिकी ।।५।। अर्थ – अमृतचन्द्र स्वामी की चंद्रनाला. अनुभव को, टीका को और कविना की तीन रूप है तो सदासरल प्रक्षर अर्थ अर्थात् मोक्ष पदार्थ से भरपुर है. सेवा करने से कामधेन के सनान महा सुखदायक है। इसमें निर्मल और ३ शुद्ध मना के गुण- समूह का वर्णन है, परम पवित्र है, निर्मल है और ६ मम जीवों के चितवन करने योग्य है. मिथ्याव का अन्वकार नष्ट करने वाली है. पहर के सूर्य के समान जननिशील है।
___ - कविवर बनारसीबारा, नाक समयसार, माथ्य जाधक हार, ५२४ SmmmmmmsammwwwmummMInamammMiwar
१. २.
पु. सि. गद्य नं. १०३. वही, पद्य नं. ७१
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षष्ठ प्रध्याय
दार्शनिक विचार
दर्शन का अर्थ है देखना। वह दो प्रकार का है स्वयं को देखना तथा पर की । प्रथम आत्म-दर्शन तथा द्वितीय पर दर्शन । इस स्व व पर के यथार्थ दर्शन को सम्यग्दर्शन तथा प्रयथार्थ दर्शन को मिथ्यादर्शन कहते हैं । दर्शन विचार मूलक होता है अतः हेतु पूर्वक वस्तुस्वरूप की सिद्धि करते हुए यथार्थ का दिग्दर्शन कराना दर्शन का काम है । दार्शनिक विचारों के अन्तर्गत उन सभी सिद्धान्तों का परिज्ञान अपेक्षित है जिनका मोगा में महत्व है अथवा जिनके यथार्थ ज्ञान विना तत्त्वार्थश्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन नहीं होता । तीर्थकर सर्वज्ञ जिनेन्द्रों की दिव्यध्वनि में निहित आत्मदर्शन प्रथवा विश्वदर्शन परक गम्भीर रहस्यों का उद्घाटन गणधरों तथा महान आचार्यों द्वारा मौखिक तथा तत्पश्चात् लिखित रूप में होता रहा है । पदार्थनिक वन प्रमत द्वितीय दोषों में समाहित होकर होता कटा ह प्रथम तस्कंको बागमत द्वितीय को परमागम नाम ने अभिहित किया गया है । आगम या सिद्धांत विषयक परम्परा में ग्रात्मा का कर्मों तथा पर द्रव्यों से होने वाल विविध संबंधों का पर्याष्टिपरक संयोगी कथन है और परमागम में मुख्यरूप से शुद्धात्मस्वरूप अथवा शुद्धद्रव्यरूप निरूपक विवचन है। परमागम परम्परा के पुनरुद्धार तथा प्रकृष्ट प्रचारक के रूप में आचार्य श्रेष्ठ कुन्दकुन्द का नाम विश्रुत है। उनकी दार्शनिक विचारधारा को पुनरुज्जीवित परिपुष्ट तथा व्यापक बनाने बान आचार्यों में अग्रणी याचार्य अमृतचन्द्र हैं जिन्होंन एक ओर टीकाग्रंथों की सृष्टिकर परमागम संबंधी दार्शनिक विचारों को प्रस्पष्ट रूप से प्रकट किया तथा दूसरी ओर मौलिक ग्रंथों के प्रणयन द्वारा श्रागम तथा सिद्धांत परम्परा की सुरक्षा भी की। उनके द्वारा प्रदर्शित दार्शनिक विचारों को यहां विभिन्न प्रकरणों के माध्यम से स्पष्ट किया जा रहा है ।
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.
४२८ ]
। प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
निश्चय-व्यवहार नय ज्ञान की प्रावश्यकता र महत्व :
प्राचार्य उमास्वामी (गृद्धपिच्छाचार्य) ने वस्तुस्वरूप के अधिगम (समझने) का उपाय प्रमाण तथा नयों को बताया है। वस्तू का स्वरूप अनेकांतमय है। अनेकांतस्वरूप का दिग्दर्शन या प्रकाशन स्याद्वाद (सापेक्ष कथन) द्वारा ही सम्भव है । स्थावादमयी निरूपण नयों के प्राश्रय से ही सम्भव है। नयज्ञान बिना एकांत.यक्ष का प्राग्रह नहीं मिट सकता। एकांतपक्ष का आग्रह मिटे बिना अनेकांतमय वस्तुस्वरूप की प्राप्ति नहीं हो सकती। वस्तुम्वरूप की पापिट जिना' समादृष्टि नहीं हो सकता तथा सम्यग्दृष्टि हुए बिना मोक्षमार्ग की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि तथा फल प्राप्ति नहीं हो सकती अतः मोक्षमार्ग में पाने के लिए, वस्तुम्वरूप समझने के लिए, जिनदर्शन का दर्शन करने अथवा आत्मदर्शन करने के लिए नयों का ज्ञान होना सर्वप्रथम आवश्यक है। प्राचार्य देवसन मानते हैं कि जो पुरुष नय दृष्टि से रहित हैं, उन्हें वस्तुस्वभाव की उपलिब्ध (परिज्ञान) संभव नहीं है, तथा वस्तुस्वभाव के ज्ञान बिना सम्यष्टि की हो सकता है? अर्थात नहीं हो सकता । २ नयज्ञान के बिना मनुष्य को स्याद्वाद की प्रतिपत्ति नहीं होती, अत: जो एकांतपक्ष के भामह से मुक्त होना चाहता है उसे नय जानना चाहिए। नय को तत्त्वज्ञान की प्राप्ति का साधन तथा तत्त्वज्ञान की प्राप्ति को परम कल्याण का उपाय कहा गया है। अतः नयों के ज्ञान की प्रावश्यकता तथा उनके स्वरूप का विवेचन भी महत्वपूर्ण है। नय का स्वरूप :
प्राचार्य पष्पदंत एवं भूतबलि प्रणीत षट्खण्डागम सूत्र में नय का लक्षण इस प्रकार उलिखित उच्चारित अर्थ, पद तथा उसमें निहित निक्षेप को समझकर पदार्थ को ठीक निर्णय तक पहुंचा देते हैं इसलिए वे नय कहलाते हैं । यह नय का निस्लत्यर्थ है। वस्तुतः अनेकांत धर्ममयी १. "प्रमाधिपाः" (नत्त्वार्थभूज अ. १, मूत्र ६) ६. जे गा यदिदि बिहूणा ताण ण वत्थू सहाव उवलद्धी ।
उत्सहाव विहगा सम्माविट्टि कह होति ।। नयचत्र, ग'. १. ३. जम्हा ण णयेन विणा होई वस्स सियघाय पविती ।
सम्हा सो णायबो एयंत हत्त, कामेण । । नयचक्र, गा. १७४. ५. धवला पु. १. पृ. १०, ५. धवला पु. १, पृ. ११
Hindi
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दार्शनिक विचार }
[ ४२६
प्रमाण द्वारा वस्तु को वस्तु प्रमाण से परिपूर्णतः ग्रहण में आती है । जानकर पश्चात् उसकी किसी एक अवस्था द्वारा पदार्थ का निश्चय करना अथवा सम्यग्ज्ञान को प्रमाण और ज्ञाता के हृदय के नय कहलाता है ।" अभिप्रायको नय कहते हैं। यहां अभिप्राय से तात्पर्य है प्रमाण से गृहीत वस्तु के एक देश में वस्तु का निश्चय करना । एकदेश अर्थात् एक धर्म का कथन करना नय का काम है । यद्यपि वस्तु नाना धर्मा से संयुक्त होती है तथापि नय उसके एक ही धर्म का कथन करता है क्योंकि उस समय उस ही धर्म की विवक्षा होती है, शेष धर्मों की विवक्षा नहीं होती है । ४ इस तरह पूर्वाचार्यो के दार्शनिक विचारों के प्रकाश में आचार्य अमृतचन्द्र के निश्चय तथा व्यवहार नय संबंधी विचार प्रस्तुत किये जा रहे हैं ।
वक्ता उभय नयज्ञ होना चाहिए:
प्राचार्य अमृतचन्द्र नयवेत्ता, नय मर्मज्ञ तथा नयस्वरूप के स्पष्ट निरूपक थे । सर्वत्र उनके साहित्य में नय सापेक्ष, स्पष्ट निरूपण तथा निश्चय-व्यवहार उभय नयों का स्पष्टीकरण दिखाई देता है । निश्चय को मुख्य तथा व्यवहार को उपचार कथन दिखाकर शिष्यों के अज्ञान को दूर किया जा सकता है । ग्रतः जिन मार्ग के वक्ता को निरचय तथा व्यवहार दोनों नयों का ज्ञाता होना चाहिए । नयों के रहस्य के जानकार वक्ता ही जगत् में धर्मतीर्थ की प्रभावना करते हैं । *
नय प्रयोग में सावधानी की आवश्यकता है
:
नय अनेक हैं, उनके अपने अपने अलग-अलग अभिप्राय हैं । प्रत्येक नय के कथन के अभिप्राय को समझे बिना वक्ता या श्रोता किसी का भी कल्याण होना संभव नहीं है, अपितु नयों का यथार्थ श्रभिप्राय ग्रहण न करने वाले को लाभ न होकर उल्टे नुकसान में ही पड़ना पड़ता है ।
१. सर्वार्थसिद्धि १/३ . २० (जानपीठ )
२.
तिलोचवण्यात १
धवला पु. ९/४५ १६२.
कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा. २६४ (मूल)
मुख्योपचार विवरण निरस्तर विनेयदुर्बोधाः ।
व्वहारनिश्चयज्ञाः प्रवर्तयन्ते जगति तीर्थम् । पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, पच ४.
3.
४.
५.
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म
४३० ]
| आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तिस्व एवं कतृत्व जिस प्रकार चक्र चलाने से शत्रुओं का नाश होता है परन्तु यदि चक्र चलाना न पाता हो और अकुशल व्यक्ति चक्र को असावधानीपूर्वक चलाता है तो अपना ही मस्तक काट लेता है. इसी प्रकार जिनेन्द्र भगवान का नयों के समहरूप नयचक्र है, जो अतितीक्ष्ण धारवाला है, जिसका चलाना कठिन है, उसे मिथ्या अभिप्रायपूर्वक चलाने वाला पुरुष कर्मरूप शत्रुओं का नाश पाता है अतः नयों के कथनों में यथार्थ अभिप्राय ग्रहण करना तथा उनके प्रयोग में सावधानी रखना आवश्यक है। नय चक्र संचालन में कुशल गुरु को शरण प्रावश्यक है :
पागम में कहा है कि जितने वचन है उतने ही नय हैं अर्थात् नयों के अनेक भेद हैं। उनके भेद प्रभेदों को सुनकर विज्जनों को भी बुद्धि श्राश्चर्यचकित होती है। प्रवचनसार की सत्वदीपिकाठोका मे ही प्राचार्य अमृतचन्द्र ने एक स्थल पर संतालीस' प्रकार के नयों का शव एवं स्पष्टीकरण किया है। अहिता तथा हिशा के वरूप निदर्शन में प्रक दृष्टियों से कथन किये है। इन सभी कथनों के विस्तार तथा विविध भंगों प्रकारों को सुनकर सम्पमतिजनों को भव पंदा हो जाता है। जिस प्रकार गहन वन में कोई पथिक मार्ग भूल जाता है तो उसका उस वन से सुरक्षित पार होना कठिन हो जाता है। उस समय कोई गहनबन के समस्त मार्गों का कुशल जानकार ही उसे बचा सकता है, इसी प्रकार विविध भंग युक्त नय समह रूप गहनवन में सन्मार्ग भूले हुए पुरुष को अथवा तत्त्वज्ञान से रहित पुरुष को नयचक्र के चलाने में कुशल अथवा नयों के मर्म के कमाल जानकार श्री गुरु ही शरणभत होते हैं। उनके पिवा अन्य कोई सानार्ग का प्रदर्शन नहीं कर सकता। इस प्रकार स्पष्ट है कि प्राचार्य अमतचन्द्र
१. प्रत्यः निणिरधारं दुरासदं गिनवरस्य नयनकम् ।
लण्यात धार्य मारा मन भ.दिति दुविदग्धानाम् ।। पु सि. पद्य ५६. जावदिया वय-वहा तावदिया व होसि ग्णय वादा । जावदिया णयवादा ताबदिया व होति परसमया ।।
बयला खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, सूप १, गाधा नं ६७ पृ. १. प्रवचनसार तत्त्वदीपिका टीका, चरणानुयोग चूलिका के अंत में परिगिण्ट, पृ. ४०२.
पु. सि. पद्य ४३ से ५७ तक । ५. इति विविधभंग गहने सुदुस्तरे मार्ग मून टीनाम् ।।
गुरुवो भवति शरणं प्रत्रुनयन संचाराः ॥" पु. सि. पद्य ५८,
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दार्शनिक विचार |
४३ १
नयचक्र संचालन पट्टु गुरु थे। ऐसे हो गुरु आत्मकल्याण हेतु आश्रय करने योग्य होते हैं | आचार्य अमृतचन्द्र की नयचक्र संचालनपटुता का एक सुन्दर उदाहरण यह है कि एक स्थल पर वे सम्यग्दर्शन, सम्याज्ञान तथा सम्यकूचारिय रूप रत्नत्रय से बंध होने का निषेध करते हैं । " साथ ही इस शंका का भी स्पष्ट शब्दों में निराकरण करते हैं कि श्रागम में सम्यक्त्व तथा चारित्र से तीर्थंकर तथा आहारक द्वय प्रकृतियों का बंध होना लिखा है। वे लिखते हैं कि उक्त कथन नथ के ज्ञाताओं को दोष का कारण नहीं है। क्योंकि सम्यक्त्व तथा चारित्र के सद्भाव में योग और कषाय के द्वारा उक्त प्रकृतियों का बंध होता है । सम्यक्त्व एवं चारित्र से बंध नहीं होता, बंध होने में दोनों उदासीन होते हैं फिर भी सम्यक्त्व और चारित्र के सद्भाव की मुख्यता एवं महत्ता दिखाने के लिए उपचार (व्यवहार) मे उन्हें बन्ध का कारण कहा गया है। वास्तव में वे यंत्र के कारण नहीं है। यदि कोई पुनः शंका करे कि रत्नत्रय के धारक श्रेष् मुनियों को भी देवायु तथा अन्य उत्तमप्रकृतियों का गंध होना सर्व लोक में भली भांति प्रसिद्ध है तो यह कथन किस प्रकार घटित होगा ? इसके समाधान में कहा गया है कि सम्यक्व, ज्ञान तथा चारित्र रूप त्यती एकमात्र निर्वाण का ही कारण होता है। अन्य गति का कारण नहीं है तथापि तत्रधारी के जो देवगति आदि के योग्य पुण्य प्रकृतियों का प्रान्त्रव (तथा बंध होता है, वह बंध अपराध शुभोपयोग का है. रत्नत्रय का नहीं ।' उक्त सर्व जगत् प्रसिद्ध कथन रू- व्यवहार का कथन
दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिध्यते बांधः ।
थिस्मिनि चारित्रं कुल एतेम्योगवति बन्धः । पु. सि. पद्य २१६. सम्यक्त्वचारिताम्यां तीर्थंकराहारको बन्धः ।
वोऽभ्युपदिष्टः समये न नयविशं सोग दोपाय ॥ पु. नि. पद्य २१०. मचरित्रे तीर्थंकराहार बन्धको मन्तः योगका
नानति तत्पुनरस्मिन्नुदासीनम् ॥ पु. मि. पद्य २१५.
'' नमेवं सिद्धयति देवायुः प्रभृतिसत्प्रकृतित्रः ।
जनम्प्रसिद्धो रत्त्रधारिणां मुनिवराणाम् ।। वही पद्य २१६. रत्नययमिह हेतुनिर्वाणस्यैव भवति नाव्यस्थ । आजति यत्तु पुष्यं शुभोवयोगोऽयमपराधः ॥ बही पद्य २२०.
१.
५.
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४३२ ]
| प्राचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्त्व : एवं कर्तृत्व है। निश्चय से एक वस्तु में अत्यंत विरोधी दो कार्यों के भी मेल से उक्त व्यवहार रूढ़ि को प्राप्त होता है जिस प्रकार लोक में यह व्यवहार रूढ़ हो चुका है कि "घी जलाता है" । वास्तव में देखा जाय तो घी नहीं जलाता. घी में जलाने के स्वभाव का अभाव है, जलाती तो अग्नि है क्योंकि उसमें ही जलाने का स्वभाव है। इसी प्रकार उपरोक्त कथन जानना चाहिए।' यह है प्राचार्य अमृतचन्द्र की नयपटुता का स्पष्ट उदाहरण । निश्चय व्यवहार का स्वरूप :
निश्चय गय भूतार्थ है तथा व्यवहार नय अभूतार्थ है, क्योंकि भूतार्थ (निश्चयनय) के ज्ञान के विरुद्ध जो भी अभिप्राय है वह सभी संसार स्वरूप है। अथवा समाप्त ही संसार भूतार्थ (निश्चय) के ज्ञान से विमुख है । यह नय स्वरूप कथन अाचार्य अमृतचन्द्र ने प्राचार्य कुन्दकुन्द के कथानानुसार ही किया है। उन्होंने भी यही बात अमृतचन्द्र से हजार वर्ष पहले ही कही है कि व्यवहार अभूतार्थ है तथा शुद्धनय (निश्च यनय) भूतार्थ है ऐसा ऋषीश्वरों ने कहा है। भूतार्थ का आश्रय लेने वाला सम्पादृष्टि होता है। भूतार्थ-अभूतार्थ का स्पष्टीकरण :
प्राचार्य अमृतचन्द्र ने उक्त भूतार्थ तथा अभूतार्थ का बहुत विस्तार से स्पष्टीकरण किया है। वे लिखते हैं कि समस्त ही व्यवहार अभूतार्थ है क्योंकि वह अविद्यमान या अभूत अर्थ को बताता है । निश्चय नय भूतार्थ है क्योंकि वह विद्यमान या भूत अर्थ का प्रकाशन करता है। जिस तरह प्रबल कीचड़संयुक्त, आच्छादित हना है निर्मल स्वभाव जिसका, ऐसे जल को जल तथा कीचड़ का भेदज्ञान न करने वाले पुरुष मलिनरूप अनुभव करते हैं, परन्तु अपने हाथ से कतकफल डालकर जल एवं कीचड़
१. एकस्मिनु समवायादल्यन्त बिगद्धकार्ययोरगि हि।
इह दहित घृतमिति या व्यवहारम्सादृशोऽपि रूढमिति । पु. शि. पद्य. २१. 2. निश्वयमिहाभूतार्थ व्यवहार वर्णयन्त्यभुतार्थम् ।
भृतार्थ बोधविमुखः प्रायः सर्वोऽपि संसारः । पु. सि. पद्य ५. ३. बवहारोऽभूयत्थो भूयस्थो देसिदो दु सुद्धरण प्रो।
भूपत्थमम्सिदो स्खलु सम्माट्टी हृवइ जीवो । समयप्राभृत, गाधा ११. ४. समयसार की ११ वीं गाथा की आत्मख्याप्ति टीका।
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दार्शनिक विचार |
दोनों में भेद कर भेद ज्ञानी पुरुष जल को निर्मल अनुभव करते हैं, इमी प्रकार प्रबल कमों से संयुक्त जिसका एक सहज ज्ञायक स्वभाव प्रान्छादित हो गया है ऐसे अात्मा को, पात्मा और कर्मों का भेदज्ञान न करने वाले अभूतार्थ (व्यवहारनय) के अबलम्त्री पुरुष (अथवा व्यवहार से विमोहित पुरुष) अनेक भाव रूप तया मलिन ही अनुभव करते हैं, परन्तु भूतार्थ (शुद्ध नय या निश्चय नय) को देखने वाले पुरुष अपनी बुद्धि से शुद्ध नय के द्वारा प्रात्मा तथा कर्म में भेदकर, अपने पुरुषार्थ से पाविर्भूत महज एक ज्ञायक स्वभाव के कारण प्रात्मा को निर्मल प्रकाशमान ही अनुभव करते हैं। अतः स्पष्ट है कि कतकफल की भांति शुद्ध नय मलिनता से भेदज्ञान कराकर शुद्ध स्वभाव को ग्रहण कराता है इसलिए शुद्ध नय या निश्चय का अवलम्बन लेने वाले सम्यम्यदृष्टि हैं तथा दुसरे अशुद्ध नय या व्यवहार नय का प्राश्रय लेने वाले सम्यग्दृष्टि नहीं है। अतः स्पष्ट है कि कर्मों से भिन्न आत्मा को देखने वालों को व्यवहार नय अनुसरण करने योग्य नहीं है। प्रभूतार्थ के उपदेश का प्रयोजन :
यहां कोई शंका करे कि यदि व्यवहार नय अभूतार्थ है. उपचार मात्र है तथा अनुसरण करने योग्य नहीं है, तो प्रामम में उसका उपदेश ही क्यों दिया गया है ? इसके समाधान में स्पष्ट किया गया है कि प्रज्ञानी जीवों को जान उत्पन्न करने अथवा समझाने के लिए प्राचार्य व्यवहार नय का उपदेश करते हैं, परन्तु जो जीव निश्चय यथार्थ वस्तु स्वरूप को तो नहीं जानते हैं, मात्र व्यवहार नय को ही जानते हैं उन्हें व्यवहार नय का उपदेश करना योग्य नहीं है। उक्त अभिप्राय का समर्थन प्राचार्य कुन्दकन्द की वाणी में पहले से ही उपलब्ध है यथा जिस प्रकार अनार्य को अनार्य भाषा के बिना गमभाना संभव नहीं है, उसी प्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश हो सकना संभव नहीं है । कुन्दकुन्द के उक्त कथन का अत्यंत सरल, सुबोध एवं सुन्दर दृष्टांत द्वारा अमृत चन्द्र ने अपनी प्रात्मख्याति टीका में स्पष्टीकरण किया है। यथा- जिस प्रकार किसी
१. अबुधम्य बोधनार्थ मुनीश्वरा: देशन्यत्यभूतार्थम् ।।
व्यवहारमेव केवलमवैति यस्यस्य देशना नास्ति ।। यु. सि.. 'द्य-, २. जहानि मक्कमज्जो आपनमा विमा दमाहेउं ।
तह ववहारेण विणा परमत्थु एसण मसक्कं ।। ममयप्रामुन, गाथा ८. ३. समयनार गा. ८ की आत्मख्याति टीका ।
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। आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व नार्थ (म्लेकछ ! से यदि कोई ब्राह्मण 'स्वस्ति' शब्द कहता है तो वह
माद को धन्यवान साधको न मानने के कारण कछ भी नहीं समझ पाता है और उस ब्राह्मण की और में ही भांति टकटकी चगाकर, श्रां माड़कर देखता ही रहता है किन्तु जब ब्राह्मण तथा मनेन्छ दोनों की भाषा जानने वाला पुरुष ममझाता है कि "स्वप्नि" का अर्थ है ''तेरा अविनाशी कन्याण हो", तब तत्काल ही उत्पन्न होने वाले आनंदमय प्रश्नों ग नेत्र भर कर बह मलेच्छ "स्वस्नि' पद के अर्थ को समझा जाता है, एमी प्रकार व्यवहारी जनों को प्रात्मा" शरद कहे जाने पर अात्मा माब्द के का नान न होने से कछ भी न समझकर ये मेढ़ की मति टकटकी लगाकर, अगि फाड़कर देखते रहते हैं परन्तु जब बहार एवं परमायरूप मार्ग पर सम्यग्जानरूपी रथ को चलाने वाले सारथी की भांति अन्य कोई आचार्य "जात्मा" शब्द का यह अर्थ बतलाते हैं कि जो दर्शन ज्ञान तथा चारित्र को प्राय हो, वह झाल्ना है, नव नत्काल ही उत्पन्न होने वाले अानंदातिरेव गे जिसके हृदय में सुन्दर तथा मनोहर बोधतरंगें ज्ञानतरंगे उदलने लगती है ऐसा बह व्यवहारी जन उस "मात्मा" पदक अर्थ की समझ जाता है। यहां ऐसा समभाना साहिा कि जगत् (व्यवहारीगन) नो मननछ के स्थान पर होन से तथा व्यवहार नयच्छ भाषा के स्थान पर होने में न्यबहार को परमार्थ का प्रतिपादक कहा है । अतः स्पष्ट हे कि यद्यपि व्यवहार नय स्थापित करने योग्य है तथापि ब्राह्मण को म्लेच्छ नहीं हो जाना चाहिए. इस बचन से व्यवहार नय अनुसरण करने योग्य नहीं है। व्यवहार (प्रभूतार्थ को परमार्थ मानना भूल है :
यद्यपि म्यवहार के द्वारा निश्चय (परभार्थी का प्रतिपादन किया जाता है अतः वह निश्चय स्वरूप को समझाने का साधनमात्र है, अन्य काछ भी नहीं ।' शाधन को साध्य मानना भी भूल ही है। टीकाकार अमृतचन्द्र ने स्वयं ही एक स्थल पर इस विषय कारपष्टीकरण करते हए लिखा है कि जिस प्रकार बिलाव सिंह को समझने का एक साधन मात्र है परन्तु सिंह के स्वरूप से सर्वया अपरिचित पुन बिलाब को ही सिंहरूप मानने लाना है. उसी तरह यथार्थ में निश्चय के स्वरूप से सर्वथा अपरिचित पुरुष के लिए व्यवहार ही निश्चय स्वरूप सत्यार्थ या भूतार्य लगनं - ....... .--. ५. व्यवहांगगापि परमार्थमात्रमेय प्रतिपाद्यते, न किंचिदप्यतिरिक्तम् ।
- समयसार गा. १० की आत्मस्वाति टीका
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I
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दार्शनिक विचार !
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लगता है । यही अज्ञानी की व्यवहार को सत्यार्थ मानने सम्बन्धी जो उक्त स्पष्टीकरण से निराकृत हो जाती है । भूल है, व्यवहार को परमार्थ मानने वालों को शुद्धात्मा अथवा समयसार का अनुभव नहीं हो सकता । भव्य तथा अज्ञानी का व्यवहार नय का श्राधय कैसा होता है :
भव्य प्रथवा अज्ञानी जनों के मी व्यवहार नये का प्राश्रय देखा जाता है। वे तप एवं शील को धारण करने हैं, तीन गुप्ति, पांच समितियों तथा पांच महाव्रतों रूप व्यवहार चारित्र का पालन करते हैं । उक्त सभी करते हुए भी निश्चय चान्त्रि के कारणरूप ज्ञान तथा श्रद्धान से शून्य होने के कारण वे चारित्र रहित है। अज्ञानी तथा मिथ्यादृष्टि भी हैं । श्राचार्य अमृत के पष्ट दों में कहा है कि भव्य जीव के शुद्धात्मा का ज्ञान नहीं होता है। मोक्ष की श्रद्धा से ज्ञानतन्व की भी श्रद्धा होती है पत ज्ञान की श्रद्धा बिना ११ अंगज्ञान रूपल (वास्त्रों) को पढ़ता हुआ भी. शास्त्र पठण का गुण श्रात्मज्ञान न होने से वह अज्ञानी ही है । उसके प्रारम ज्ञान तथा प्रात्मश्रद्धान नहीं होता । इससे यह भी स्पष्ट हुआ कि आत्मज्ञान तथा श्रद्धान होते ही ज्ञानी संज्ञा प्राप्त होती है भर ही उसके निवरूप व्रत चारिश्रादि न हों ।' ग्रभव्य जीव हमेशा कर्मफलता रूप वस्तु की श्रद्धा करता है परन्तु नित्यज्ञान चेतनामात्र वस्तु को श्रद्धा नहीं करता क्योंकि वह सदा ही दविज्ञान के अयोग्य होता है। इसलिए वह कर्मों से मुक्ति के विमितरूप ज्ञानमात्र, भूतार्थ ( निश्चय) धर्म की श्रवा
૧
:
6.
माणवक एव हि या भगतसिहत्य |
व्यवहारएवहिता निश्चयतां त्यतियशस्य ॥ पु. सि. पच's व्यवहारमेव परमार्थं वृद्धा यन्तं तं समयसारमेव नरातयन्ते । (रामयसार ग्रा. ४१४ की टीका)
कथमभवन प्यायित व्यवहारतवः ति चेत् ? शोलतः परित्रगुप्ति पंरानितिरिकलितमहिम दिपत्रा
व्यवहारवान् अभव्यांऽपि विश्वपचारिवहेतु
कुनिश्चारिवज्ञाननिष्टप
भूतवानश्रन्यत्शत् । (AT. BOT. ROB.)
मोक्ष हि न तावदभव्यः श्रद्धते शुद्धज्ञानमात्मज्ञानशून्यत्वात् ततो ज्ञाननिवासी श्रद्धते । ज्ञानमश्रद्धानञ्चाचाराचं कादशांगंश्रुतमधीयानोऽनि
श्रुताध्ययनगुणाभा मात्र ज्ञानी स्वात् । सोऽशानीति प्रतिनियतः ।
ततञ्च ज्ञानश्रद्धानाभावात्
समयसार गाथा २७४ को आत्मख्याति टीका ।
14 --
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४३६ ।
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
नहीं करता तथा प्रभूतार्थ (व्यवहार) धर्म की श्रद्धा करता है जो कि भोग का निमित तथा शुभ कर्ममात्र रूप होता है । ऐसे अभूतार्थ धर्म की श्रद्धा प्रतीति रुचि और स्पर्शन से ऊपर के ग्रैवेयकों तक के भोग प्राप्त करता है परन्तु कर्मों से कदापि मुक्त नहीं होता। इसका एकमात्र कारण यही है कि उसके भूतार्थं धर्म के श्रद्धान का अभाव है ।" उपरोक्त समस्त दार्शनिक विचारों का आधार प्राचार्य कुन्दकुन्द प्रणीत समयसार की संबंधित गाथाएं हैं।
निश्चय व्यवहार का एक और लक्षण :
भी
प्राचार्य मृतचन्द्र निश्चय व्यवहार का भूतार्थ- प्रभूतार्थ स्वरूप स्पष्ट रूप से दिखा चुके हैं । अन्यत्र ने उनका एक और लक्षण प्रस्तुत करते हैं । वे निश्चय को आत्माश्रित अथवा स्वाश्रित तथा व्यवहार को पराश्रित करते हैं। उन्होंने किया है कि समस्त परयों के निमित्त से होने वाले अध्यवसान भाव हैं वे पराश्रित होने से त्यागने योग्य है । इससे यह भी फलित होता है कि जितने प्रकार के व्यवहार भाव हैं, वे सभी परार्थित हैं तथा पराश्रित होने के कारण ही जिनेन्द्रदेवों ने समस्त व्यवहार को तथा व्यवहारनय के विकल्पों को त्याज्य कहा है । सत्पुरुषों को एक शुद्धात्मा में ही स्थिरता करनी चाहिए। इस प्रकार उक्त द्वितीय लक्षण द्वारा भी निश्चय को उपादेय तथा व्यवहार को हेय कहा है । निश्चय व्यवहार की तृतीय परिभाषा :
शुद्धद्रव्य का निरूपण करने वाला निश्चय नय है तथा अशुद्धद्रव्य का निरूपण करने वाला व्यवहार नय है । शुद्धद्रव्य का अर्थ मात्र एक द्रव्य से है, उसमें अन्य द्रव्य निरपेक्ष है । अशुद्धद्रव्य से तात्पर्य एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य का आरोपण है । उदाहरण के लिए राग परिणाम ही श्रात्मा का कर्म है । वही पुण्य तथा पाप रूप से दो प्रकार का है। आत्मा अपने राग परिणाम का कर्ता है. उसी को ग्रहण करता है तथा उसी का त्याग करता है, वह शुद्ध द्रव्य ( एकस्याश्रित) निरूपण स्वरूप निश्चयनय है तथा पुद्गल परिणाम प्रात्मा
समयसार ना. २३५ यात्मख्याति टीका
देखिये समय
गाथा नं० २७३ २७४ तथा २७५.
आम तो निश्चयः पराचितो व्यवहारः । समयमार गा. २७२ की टीका. ४, समयसार कल नं० १३३.
?.
२.
३.
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दार्शनिक विचार ]
[ ४३७
का कर्म है. वहीं पुण्य पाप के भेद से दो प्रकार का है, आत्मा पुद्गल परिणाम का कर्ता है, उसका ग्रहण करने वाला तथा छोड़ने वाला है, यह अशुद्धद्रव्य (अन्य द्रव्याश्रित निरुपण स्वरूप व्यवहार नय है। शुद्ध तथा अशुद्ध अथवाएक
तथा मिश्रितरूप से द्रब्य की प्रतीति की जाती है अतः एक द्रव्य ग्राहक को शुद्ध द्रव्य ग्राही निश्चय तथा मिश्रद्रव्य ग्राहक को अशुद्धद्रव्य ग्राही व्यवहार, ये दो नय कहे है किन्तु इन दोनों में निश्चय नय को ही साधकतम मानकर उपादेय निरूपित किया है और व्यवहार नय को अशुद्धत्व क' द्योतक होने के कारण साधकतम नहीं कहा है अतः साधकतम न होने में उसे हेय कहा है।' नयों को हेयता तथा उपादेयता का कारण :
___अशुद्धद्रव्य का ग्राहक अशुद्धनय व्यवहार नब) कहलाता है । अशुद्धनय को उपादेय मानने या उसका याश्रय लेन से अनुद्ध आत्मा की ही प्राप्ति होती है तथा शुद्धद्रव्यग्राही सुद्धनय (निश्चयनय) को उपादेय मानने तथा उसका प्राश्रय करने से शुद्ध प्रात्मा की उपलब्धि होती है । शुद्धात्मा की उपलब्धि से मोक्षमार्ग एवं मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है, जिससे प्रात्मा का प्रयोजन सघता है तथा अशुद्धात्मा की उपलब्धि तो सदा से संसारी जीव को है ही, जिससे सदैव दुःखी रहा है और आत्मा का प्रयोजन नहीं साधा जा सका है अतः प्रयोजन के साधक निश्चय नय को उपादेय और प्रयोजन का साधक न होने से व्यवहार नय को हेय कहा गया है। व्यवहार नय में मूचित जीवों को प्राचार्य अमृतचन्द्र ने उन्मार्गगामी लिखा है। द लिखते हैं कि जो आत्मा शुद्ध द्रव्य के निरूपक निश्चय नय से निरपेक्ष होकर अशुद्धद्रव्य के निरूपक व्यवहार नय में मोह करता है तथा मानता है कि ये देहादि व धनादि पर द्रज्य मेरे हैं, मैं इनका हूँ मैं यह हूँ" इत्यादि ममत्व करता है, वह अशुद्धात्म परिणतिरूप उन्मार्ग का ही पथिक है, भले ही वह श्रम (मुनि) क्यों न हो । प्रस्तु, जो श्रात्मा निश्चय नय के द्वारा पर द्रश्य विषयक ममत्व को त्यागता है वह शुद्धामा की प्राप्ति तथा शुद्धात्मानुभूति रूप सन्मार्ग को प्राप्त करता है। यहाँ यदि कोई तर्क करे कि व्यवहार नय के कथन अनुसार लोक व्यवहार चलता है, जैसे लोक में
१. प्रवचनसार, तत्वक्षेपिका गा. टीका १८९.
वच ।मार, गा. 180-१६१ वी तत्वदीपिका टीका ।
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४३८ ।
। प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व बात प्रसिद्ध एवं रूह है कि कुम्भार घड़े का कर्ता है।' व्यवहार नय को हेय निरूपित करने तथा मानने से समस्त प्रकार के लोक व्यवहार का लोप हो जायेगा। आगम में ष्ट घोषणा है कि यदि लोक व्यवहार का लोप होता है तो होने दो, इस में हमारी क्या हानि है, क्योंकि लोक व्यवहार तो वास्तव में नय नहीं है, नयाभास है। उक्त लोकव्यवहार तो मिथ्याही है साथ ही ग्रात्मा के अनर्थ का कारण है यथा - मैं परजीवों को दुस्त्री करता हूँ. सुखी करता हूँ, बंधाता हूँ. छड़ाता हूँ इत्यादि सभी अध्यवसान रूप व्यवहार, परभाव का, पर में व्यापार न होने के कारण अपनी अर्थ क्रिया करने वाला नहीं है। अतः ''मैं प्राकाश कुसुम को तोड़ता हूं" मानने की भांति उक्त अध्यवसान मिथ्या है. मान अप ग्रात्मा के। अनर्थ के लिए ही है। इसीलिए आचार्य अमृतचन्द्र सापट शब्दों में निश्चय व्यवहार के निरूपण का सार प्रस्तुत करते हैं कि यहां यही तात्पर्य है कि शद्धनय (निश्चयनय) त्यागने पोग्य नहीं है, क्योंकि उसके अन्याग से बन्ध नहीं होता है तथा त्याग से बंध होता है। साथ ही व्यवहार नय को त्याज्य बताने का कारण यह है कि वह स्वयं ही मिथ्या उपदेश अर्थात् जैसा वस्तुस्वरूप नहीं है वैसा कथन करता है इसलिए वह निषेध करने या त्यागने योग्य है, परन्तु जो प्रात्मा व्यवहार नय के विषय पर दृष्टि रखता है, वह मिथ्याडष्टि माना गया है। अतः न्यायवल स बह बात सिद्ध
१. कुनालः कश करोगनुभनन नि नोमानामानात निसाबरयया ।
समयमार न. ४ की का. २. अथ घटना यो पटका: जनपदोनिलेशोऽमग ! दोरो भवन नया का नो हानिम्रता नामानः ।।
पंचाध्यायी, प्रथम अध्याय, पद्य ५७६. ३. पराग जीया पयामि मुखयामीन्यादि बंधयामि मोयामीत्यादि वा
यदेल पयसानं नमकमपि प मालम्य परस्मिन्नव्या प्रियमा गारवेग स्वार्थविनाकरित्याभावान् कुसम लुनामीत्यवमान बनिया कवनमात्मना. ऽनर्धायैव । समयसार मा. २६६ की टोका) इए पंधनात्र तात्पर्य हेय: अनमो न हि । नास्ति बंधातदत्यागार तलागाय एहि ।। (समयसार कला, १२) व्यवहारः किल मिश्या म्पयमपि मिथ्योपदेशकश्च यतः । प्रतिषच्यस्तस्मादिह मियादृष्टिस्ते दर्थस्टिश्च ।।
६२८ पंचाध्यायो, प्रथम अध्याय ।
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दार्शनिक विचार ।
[ ४३६ है कि व्यवहार नय अभूतार्थ है तथा जो केवल व्यवहार नाय को अनुभव करने वाले हैं वे मिथ्याइष्टि हैं और पथभ्रष्ट भी हैं।' व्यवहारनय कथंचित् प्रयोजनीय है :
प्राचार्य अमृतचन्द्र में जहां एक ओर व्यवहार नर के कथन को अभूतार्थ या असत्यार्थ का प्रकाशक होने से अनुसरण न करन योग्य लिखा है वहीं दूसरी ओर उनमें उसे हस्ताबलम्न तुन्य बताकर उसकी समुचित स्थापना भी की है। उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि प्रथम भूमिका में कदम रखने वाले पुरषों को वह व्यवहार नय सखेद हस्तावलम्ब समान है, तथापि जो पुरुष चैतन्य चमत्कारगाव परद्रयों तथा परभावों से भिन्न परम "अर्थ" को अपने अंतरंग में अवलोकन करते हैं, उसकी श्रद्धा करते हैं तथा उसमें लीन होकर चरित्रभाव को प्राप्त करते हैं उन्हें यह व्यवहार नए फुल्छ भी प्रयोजनबान नहीं है। एक अन्य स्थल पर भी इसी सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है कि जो पुरुष अंतिम ताव से पच्यमान शद्ध स्वर्ण के समान परमभाव को अनुभवता है उस शुद्धनय ही जानन्द में आता हुआ प्रयोजनवान हैं, परन्तु जो पुरुष उस्कृष्ट भाव का अनुभव नहीं करते, उन्हें अशुद्धद्रव्य को बाहने वाला, भिन्न-भिन्न एक एक भाबम्बम्प अनकभावों को दिखाने बाला यवहार नय जानने में प्राता हुआ प्रयोजनवान है। इस प्रकार स्पष्ट है कि कोई भी भय का कथन सवथा परिपूर्ण वस्तुस्वरूप का निक नहीं होता है अपितु एकांश का निरूपक होता। साथ ही सापेक्ष नय हा सम्यक् नय हे सर्वथा निरपेक्षा नव मिथ्या नव हैं । अस्तु नयों के कथनों के सत्यार्थ अभिप्राय या भावार्थ को यथा प्रसंग यथाचित जानना तथा मानना चाहिए । व्यवहार की स्थापना भी न्यायसंगत है :
प्राचार्य अमृत चन्द्र ने नयों का यथार्थ-अयथार्थपना ही प्रदर्शित
तस्मान्न गयागत नि व्यवहारः स्यालयोनभूनाथ . 1 जवलमनुभवितारसास्थ व निच्या गो हतास्तेऽपि ।। ६३६, पन्नाध्याची प्र.अ. व्यवहाणनग. याद्यपि प्राकादम्यामिह नितिपदानां हंत हस्तावलंबः । तदपि पभमर्थं नियमकारमाभं पर विरहितमंत: पश्यता नर किचित् ।।
स. मा. ना. ५. ३. गमवनार गा १ मी आत्मरूपाति टोक । ४. गिरानया मिश्या सापेक्षा धस्तु तेऽर्थकृत ।। देवागम स्त्रोत, १०८,
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४४० ।
| प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व नहीं किया है, अपितु उनके प्रयोग का कहाँ कितना नौचित्य है, इसका भी भली प्रचार प्रकार स्पष्टीकरण किया है। व्यवहार नय को जहां वे अभुतार्थ - अयथार्थ लिखते हैं, वहीं वे उसे स्थापित करने योग्य भी लिखते है क्योंकि मलेच्छभाषा को भांति व्यवहारनय व्यवहारी जीवों को परमार्थ बतलाने वाला है, इसलिए वह स्वयं अपरमार्थभूत होन पर भी धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति के लिए व्यवहार नय बतलाना न्यायसंगत हो है । यदि व्यवहार न बताया जावे और परमार्थ गे (निश्चय स) जीव को शारीर मे भिन्न बताया जाने पर भी जैसे भाम (राख) को मसल देने पर हिंसा का अभाव है, उसी प्रकार अस स्थावर जीवों को निःशकतया मसल देन, कुचल देने या बात करने पर भी हिंसा का ग़भाब ठहरेगा और इस कारण बंध का भी प्रभाव सिद्ध होगा तथा परमार्थतः जीव राग-द्वेष से भिन्न बताये जाने पर भी रागी दुषी, मोही जीव कर्म से बंधता है उसे छडाना चाहिए" ऐसे मोक्ष के उपाय के ग्रहण का अभाव हो जायेगा और इससे मोक्ष का भी प्रभाव होगा जो सिद्धांत विरुद्ध है । उत्त कथन से स्पष्ट है कि परमाध्यात्मी परन्तु अनेकांती ग्राचार्य अमृतचन्द्र ने सर्वत्र एकान्त के झुकाव से जगज्जनों को सावधान किया है। जहां एक ओर वे व्यवहार नयको अनुसरण करने लायक नहीं हैं - लिखते हैं, वहां दूसरी ओर चे व्यवहार नय को दिखाना न्यायसंगत सिद्ध करते हैं। इससे यह भी निश्चित होता है कि एकांत चाहे व्यवहार नयना हो या निश्चय नय का, वह अनर्थ की परम्परा का ही कारण है। निश्चय नय की एकांत स्थापना से भी अनर्थ परम्परा का ही जन्म होता है:
निश्चय नय की एकांत स्थापना में होने वाले अनर्थ को दिखाते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि जो जीव यथार्थ में निश्चय के स्वरूप को तो नहीं जानता था अयथार्थ को ही निश्चयरूप से अंगीकार करता है, यह मूर्ख बाह्य क्रिया में आलसी है। वह बाह्य क्रियारूप आचरण को नाश करता है। अतः हे भव्य जीवो यदि तुम जिनमत का प्रवर्तन करना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों नयों को मत छोड़ो, क्योंकि व्यवहार के बिना तीर्थ (व्यवहार मार्ग) का नाश हो जायेगा तथा - --- १. समयमार, गा. ४६ प्रारमख्याति टोका। २. निश्चयमयुध्यमाना यो निशनमास्तमेव संथयते ।
नाशयति करण चरण स बहिः कारणालत्तो बालः || पु. सि., ५० !
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दार्शनिय विचार ।
[ ४४१ निश्चय के बिना तत्त्व का नाश होगा।' यहां विशेष जान देने योग्य बात यह है कि दोनों नयों का ग्रहण किस प्रकार करना चाहिए ? वहां आगम में निश्चय नय की मुरूग्रता लिए कथन हो, वहां तो "सत्यार्थ ह", बस्तु वरूप ऐसा ही है - ऐसा मानना, तथा जहां व्यवहार नय की मुस्यता से कथन हो वहां ''असत्यार्थ है' ऐसा है नहीं, किसी अपेक्षा उपचार किया है इस प्रकार जानने का नाम ही दोनों नय का ग्रहण है, परन्तु दोनों नयों को समान रूप से सत्यार्थ मानना भूल है। मिथ्यात्व है। दोनों नयों का कथन (स्वरूप) परस्पर विरोध लिए हुए है अतः दोनों को समान रूप से सत्यार्थ नहीं माना जा सकता । अस्तु । नयों के भेव :
प्राचार्य अमृतचन्द्र ने प्रत्येक तथ्य के निरूपण में अपने पूर्वाचार्यों की सिद्धांत परम्परा को ही विशेष रूप से स्पष्ट किया है। उन्होंन प्रमाण, नय तथा निक्षेप को अधिगम ज्ञान) का उपाय बतलाते हुए नयों के मूलतः दो ही 'भेद लिये हैं, वे हैं द्रव्याथिक तथा पर्यायाथिक । वहां द्रव्य पर्यापात्मक वस्तु में द्रव्य की मुममतः अनुभव करने वाला दयाशिम नग दै तथा पर्याय की मुख्यता से अनुभव कराने वाला पर्यायायिक नय है। ये दोनों नयों का पर्याय से अनुभव करने पर भूतार्थ हैं. सत्यार्थ हैं और द्रव्य व पर्याय से अनालिगित शुद्धवस्तुमात्र जीव के चैतन्य स्वभाव का अनुभव करने पर प्रभूनार्थ हैं। अन्यत्र इन्हीं दो मूल भेदों का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि भगवान् ने दो नय कहे हैं - द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक । वहां कथन एक नय के प्राधीन नहीं होता किन्तु दोनों नयों के पाधोन होता है। इसलिए वे पर्यापार्थिक कथन से जो प्रपन से कथचित् भिन्न नी है ऐसे अस्तित्व में व्यवस्थित हैं तथा द्रव्याथिक कथन से स्वयमेव सत (विद्यमान होने के कारण अस्तित्व से अनन्यमय हैं । उक्त दो नयों का
.:. उक्त -- ''जह जिण मयं गवाह ता मा यवहाररिगए मुयह । एकेगा विणा जिइ तिल्यं अगण उण तच्च ।।
-समयसार गा. १२ की दीका. २. मा. मा. प्रकाशक अ. ७. प. २५१. ३. वही अ. ७. पृ. २४८. ४. रामयसार गर. १? आत्मख्याति । ५. पंवास्तिकाय गा, ४ कोटीका ।
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४४२
| प्राचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
ही उल्लेख याचार्य अमृतचन्द्र के पूर्ववर्ती आचायों द्वारा भी प्रमाणित होता है । खण्डागमकार ने भी स्पष्ट लिखा है कि तीर्थकरों के वचनों के सामान्य प्रस्तार का मूल व्याख्यान करने वाला द्रव्यार्थिक नय है और उन्हीं वचनों के विशेष प्रस्तार का मूल व्याख्याता पर्यायार्थिक नय है । योग सभी नय इन दोनों नयों के ही प्रभेद है ।" "नयचक्र" प्रणेता माइल्ल धवलन भी उक्त दो ही भेदों का उल्लेख किया है | अनेकांती आचार्य अमृतचन्द्र ने सभी टीकाएं मुख्यतः दोनों नयों के आश्रय से लिखी है । पंचास्तिकाय की समयव्याख्या नामक टीका में इसका संकेत उन्होंने टीका के आरम्भ में ही किया है कि जो सम्यग्ज्ञान रूपी निर्मल ज्योति की जननी है तथा दोनों नयों के प्राश्रित है ऐसी समयव्याख्या नाम की टीका कहीं जाती है।
नयों के अन्य प्रभेदों का उल्लेख :
सर्वप्रथम श्राचार्य अमृतचन्द्र ने अपनी श्रात्मख्याति टीका में भूतार्थस्वरूप निश्चय तथा प्रभूतार्थ- वरूप व्यवहार इन दो नयों की चर्चा की। तत्पश्चात् निश्चय नय के ही मूलतः दो भेद दर्शाये एक द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक | अभूतार्थप व्यवहार के भी सद्भूत तथा अद्भुत ये दो दूसरा भेद भी किये तथा अद्द्भुत व्यवहार के भी अनुपचारित और अचरित भेदों का उल्लेख किया है। प्रसंगवशात् याचार्य श्रमृतचन्द्र ने नयों के उक्त भेदों का निर्देश तथा उनके ग्राश्रय से कथन भी किया है। यहां उनके द्वारा उल्लिखित भेद प्रभेदात्मक नयों को प्रस्तुत किया जाता है ।
सद्भूत व्यवहार नय :
व्यवहार दो प्रकार का कहा गया है, सद्द्भुत तथा श्रसद्भूत वहां एक वस्तु विषयक व्यवहार को लद्भूत व्यवहार तथा भिन्न वस्तु विषमक व्यवहार को प्रसद्भूत व्यवहार कहते हैं ।" स्वभावतः वस्तु एक भेद
१. धना पु. १, गाथा ५..
܀
नवगा. १८३ तथा आलाप पद्धति गा. ४. पंचारिकाय, समयव्याख्या टीका, पथ
३.
४. व्यवहारो द्विविधः सभूतव्यवहारोऽसद्द्भूतव्यवहारश्च । तवस्तुनयः सद्भूत व्यवहारः । भिन्नवस्तुविषयोऽसद्भूतव्यवहारः ।
आलापपद्धति, सूत्र नं. २२०-२२२ तक |
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दार्शनिक विचार ।
[ ४४३
ही होती है तथापि उस में भेद करके कथन करना सद्भूत व्यवहार नय की कथन शैली है। इस शैली का प्रयोग अनंतवत्मिक अभेद प्रखण्ड एक वस्तु बरूप का परमार्थ को न जानने वाले शिष्यों को समझाने के लिए किया जाता है। उक्त अभिप्राय को व्यक्त करते हुए प्राचार्य अमृतचन्द्र लिखते हूँ कि वास्तव में तो एकमात्र ज्ञायक प्रात्मा के बंधपर्याय विषयक अशुद्धता तथा दर्शन ज्ञान चारित्र रूप भेद भी विद्यमान नहीं है तथापि अनंत धर्मात्मक एक धर्मी को न जानने वाले अनिष्णात निकटवर्ती शिष्यों को, धर्म तथा धर्मी के अभेद होने पर भी, धर्मा को समझाने वाले धर्मों के द्वारा अभेद वस्तु में भी भेद उत्पन्न कर व्यवहार मात्र से ऐसा कथन किया जाता है कि ज्ञानी के ज्ञान, दर्शन तथा चारिम्न हैं, परन्तु परमार्थ से पण्डित (ज्ञानी) पुरुष के अनंत धर्मात्मक एक वरतु का स्वभाव अनुभव होने से उक्त दर्शन ज्ञान चारित्रादि भेद नहीं है । एकमात्र शुद्ध ज्ञायक प्रात्मा ही अनुभत है।' इस प्रकार स्पष्ट है कि उक्त कथन सदभत व्यवहार नय के आश्रम से ही किया है क्योंकि गुण-गुणी में अभेद होने पर भी भेदोपचार करना सद्भत व्यवहार नय है ऐसा ग्रागमोक्त है।' असदभूत व्यवहार नय :
भिन्न वस्तुओं में अभिन्नपने का उपचार करना असद्भूत व्यवहार नय है। अथवा भेद होने पर भी अभेदपन का उपचार करना प्रसद्भूत व्यवहार नय कहलाता है। उक्त व्यवहार को सत्यार्थ मान लेने वाले जीवों को अमृतचन्द्र न अज्ञानी अथवा नय विभाग ज्ञान से मनभिज्ञ रहकर उक्त नय के आश्रय से किये जाने वाले कथनों का अभिप्राय स्पष्ट किया है। एक स्थल पर वे लिखते हैं कि 'जो प्रात्मा है, वही शरीर है या पुद्गलद्रव्य है" ऐसा वस्तु स्वरूप नहीं है । नय विभाग से अनभिज्ञ अज्ञानी की ऐसी मान्यता है। नय विभाग की स्पष्ट मर्यादा इस प्रकार है - जैसे लोक में सोने और चांदी को गलाकर एक कर देने में एक पिण्ड का व्यवहार होता है, उसी प्रकार यात्मा और शरीर को परस्पर एक क्षेत्र में रहने वाली अवस्था के होने से एकपन का व्यवहार होता है। ऐसे व्यवहार में प्रात्मा और शरीर का एकपना कहा जाता है परन्तु निश्चय मे एकपना नहीं है ।
५. समयसार गा. ७ यात्मख्याति दीका । २. निरूपाधि गुणगुनोभेंदविषयोऽनुपचरित सद्भूत व्यवहारो
ग्राला पद्धति सम नं. २२५. ३. व. द्र. सं.-गा. ३ की दीका ।
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४४४ ]
[प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व जिस प्रकार निश्चय से पीलापना आदि तथा सफेदी आदि स्वभाव वाले सोने तथा चांदी में अत्यन्त भिन्नता होने से उनमें एक पदार्थपना प्रसिद्ध है क्योंकि उनमें अनेकत्व है, इसी प्रकार उपयोग स्वभावी मारमा तथा उपयोग रहित शरीर में अत्यंत भिन्नता होने से उनमें एक पदार्थपना सिद्ध नहीं है क्योंकि उन में अनेकत्व ही है। इस प्रकार यह प्रगट नय . विभाग हैं। अतः स्पष्ट है कि उक्त कथन असद्भतव्यवहार नय के आश्रयसे है। यहां शरीर और आत्मा की भिन्नद्रव्यसत्ता है, तथापि भिन्न सत्तावाले दो द्रव्यों में संश्लष (एक शेत्रावगाह) संबंध देखकर अभेद कथन करा असद्भाहारनय ती का शैतको है। अनुपचरित असद्भूत व्यवहार :
उपरोक्त कथन असद्धृतव्यवहार नय का तो स्पष्ट है ही। साथ ही असद्भूत व्यवहार के दो प्रभेदों, अनुपचारित तथा उपचरित के लक्षणों की कसौटी पर कसने से उक्त कथन अनुपन्त्ररित असद्भुत व्यवहार नय का सिद्ध होता है क्योंकि एकक्षेत्रावगाह या संश्लिष्ट संबंध को ही अनुपचरित काहते हैं । आत्मा और शरीर संशिलान्ट संबंध वाले होने से अनुपचरित हैं तथा दोनों की स्वरूप ब द्रव्यसत्ता भिन्न होने से असद्भूत हैं और दोनों एक द्रव्य नहीं हैं, फिर भी एकपन का कथन किया सो व्यवहार है। इस प्रकार देह तथा जीव को एक कहने वाला, देह की क्रिया का कर्ता पात्मा है अथवा आत्मा की श्रिया में देह साधक-बाधक हैं - इत्यादि समस्त कथन अनुपचरित असद्भुत व्यवहार नय के ही हैं। उपचरित असद्भूत व्यवहार नय :
भिन्न क्षेत्रवर्ती भिन्न वस्तु में अथवा एकक्षेत्रावगाह संबंध से रहित
१. सतो बदला सादव गरीर पुद्गलाद्रव्य मिक्ति ममेकांतिका प्रतिपत्तिः ।
नैवं, न पविभागानभिज्ञासि इस खलु परस्परागा दाबथायामात्मशारीरयोः समतिला म्थरयां कनवालधोतेयोरेवस्यव्यवहारवव्यवहारमात्रेरणवैकत्वं, न पुनिश्चयत, निश्चयतो ह्यात्मशरीरयोगायोगानुपयोगस्वभावयोः कनक कलधौतयाः पीनपापद्वरत्वादि स्वभावयोरित्रात्यत व्यतिरिक्तत्यनैकार्थत्वानुपपत्त : नानारमेवेति । एवं हि किन नयाँवभागः ।
- समयसार भत्मिख्याति गा. २६, २७. २. ब.. म. गाथा ३, टीका, पालाप पद्धति, सूर नं. २२५.
संपलेप सहित वस्तु सम्बन्धी विषयोऽनुपचरितास न व्यवहारो..
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दार्शनिक विचार ]
[ ४४५
भिन्न वस्तु में अन्य द्रश्य के प्रसिद्ध धर्म को पारोपित करना उपचरित असद्भुत व्यवहार नय है। उक्त नय के आश्रित कथन करते हए प्राचार्य अमृतचन्द्र एक स्थल पर लिखते हैं कि कुम्भकार घड़े का कर्ता तथा भोक्ता है, ऐसा लोगों का अनादि रुढ़ व्यवहार है । अथवा यह राजा पांच योजन के विस्तार में निकल रहा है ऐसा कहना, ज्यवहारीजनों का सेना समुदाय में राजा कह देने का व्यवहार है क्योंकि एक राजा का पांच योजन में फैलना प्रारक है. परम तेत राही है। उत्तः दोनों उदाहरण उपस्ति असद्भत व्यवहारनय के हैं, क्योंकि कुम्भकार और घड़ा अथवा राजा और सेना दोनों भिन्न क्षेत्रवर्ती होने से उपचरित हैं, दोनों की सत्ता भिन्न होल से असद्भुत हैं तथा अन्य का गुण-धर्म अन्य द्रव्य में आरोपित करना व्यवहार है। असद्भूत व्यवहार स्वयं उपचार है तथा उपचार का भी उपचार करना उपचरित नसद्भुत व्यवहार है।
इस प्रकार सुद्धनय निश्चयनय), अशुद्धनय व्यवहारनय), सद्भूतव्यवहार, असद्भुत व्यवहार, अनुपरित व्यवहार तथा उपचरित व्यवहार इन छह नयों के पाश्चय से कथन तथा स्पष्टीकरण करके प्राचार्य श्रमतचन्द्र ने अपनी टीकात्रों में तथा मौलिक ग्रंथों में प्राध्यात्मिक दृष्टि से नयचक्र का कुशल संचालन किया है। ये छहों नय अध्यात्म भाषा में नयचक्र के मूल मान गये हैं। उक्त छह नयों का ही अनुकरण एवं प्रयोग करते हुए अमृतचन्द्र के पश्चाद्वर्ती ब्रह्मदेव सूरि ने भी इन छहों नयों को नयचक्र का मल एवं संक्षेप में उनको ही ज्ञातव्य लिखा है ।" नयों के ४७ प्रकारों का निर्देश :
एक कुशल नयचक्रवेत्ता तथा नयचक्र संचालक के रूप में अमृतचन्द्र न उपरोक्त छह मल प्राध्यात्मिक नयों के अतिरिक्त ४७ नयों का उल्लेख भी किया है। उनमें ७ नय सप्तभंगी के अनुसार, ४ नय निक्षेपों के अनुसार
२,
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१. व. द. गं.--मा. ३, तथा अलाप पद्धति-सूत्र नं. २२७.
समयसार, गा. ८४. यात्मख्याति टीका । ३. बही, गा, ४. प्रात्मयानि टीका । ४. अन तव्यबहार एवोपचारः, उपचारादावार यः करोति म उपचारिता
सद्व्यवहार: ।। पालापपद्धति सूत्र नं. २०८, ५. बद्र. में, गा. ३- इतिन यामलं संक्षेपेण नयषदकं ज्ञातव्यमिति ।"
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४४६ ]
। प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत तथा शेष नय विरोधी धर्मसुचक युगलों पर आधारित हैं। इन ४७ नयाँ । के आश्रय से एकमात्र अात्मा का निरूपण किया है ।' समस्त नयों का ३ प्रकारों द्वारा भी निर्देश :
उपर्युक्त समस्त नयों द्वारा निरूपित एक आत्मा का तीन प्रकार से विवेचन किया है शब्दरूप, ज्ञानरूप तथा अर्थरूप । वहाँ ज्ञान रूप प्रात्मा (समय की प्रसिद्धि के लिए, शब्दरूप प्रात्मा के सम्बन्ध से, अर्थरूप प्रात्मा . ] को प्रकाशित किया जाता है। यही नथ तथा पर्यनय भी नही। जाता है। अन्यत्र कर्मनय तथा ज्ञाननय २ प्रकारों का भी उल्लेख है। वहां पराश्रित क्रियाकाराष्ट्र को दर्शाने वाले समस्त प्रकार के व्यवहार नयों को कर्मनय से तथा परमभाव-ज्ञानमयी शुद्धात्मस्वभाव ग्राही निश्चय नय को जाननय नाम से अभिहित किया गया है। इस तरह नयों के भेद प्रभेदों के कथन में प्राचार्य अमृतचन्द्र ने अत्यंत स्पष्ट एवं विहंगम दृष्टि रखी है। निश्चय व्यवहार नयों में परस्पर सम्बन्ध :
उक्त दोनों नयों के स्वरूप, लक्षण प्रकार तथा प्रयोजन को स्पष्ट करने के अतिरिक्त प्रा. अमृतचन्द्र ने उन दोनों में प्रतिपाद्य प्रतिपादक, साध्यसाधक तथा निषेधक-निध्य आदि सम्बन्धों पर भी प्रकाश डाला है। इन सम्बन्धों के स्पष्टीकरण हेतु उन्होंने अपने ग्रंथों में पर्याप्त प्रकाश डालकर उनके समुचित एवं संतुलित महत्त्व को भी प्रदर्शित किया है, जो इस प्रकार है :प्रतिपाद्य-प्रतिपादक सम्बन्ध :
निश्चयनय एक अभेद-अखण्ड ज्ञायकस्वभावी प्रात्मा का प्रकाश का है परन्तु अनादि अज्ञान के कारण एक चिदानन्द ज्योति प्रात्मा के ज्ञान रहित अज्ञानी जनों को सीधे निश्चय कथन से अभेद प्रात्मा का वाच्यपना अनुभव में - पकड़ में नहीं आता, इसलिए दर्शन, ज्ञान, चारित्र नादि भेद करके -- - - १. प्रवननमार तदीपिका, परिशिष्ट । २. पंक्षास्तिकाय ना. ३ की टोका |-"अन पाद ज्ञानार्थ रूपेशा विविधाऽभित्र येता
समयशब्दस्य"""|'''''तद | जानसमयप्रसिदव्यर्थ समयसम्बन्यतार्थ
समयोऽभिधातुमभिप्रेतः । 5. समयमार कलशा-१११.
.---
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दार्शनिक विचार
| ४४७
व्यवहार कथन द्वारा समझाया जाता है तथा व्यवहार कथन से दर्शन, ज्ञान, चारित्रादि लक्षणमयी दिखाकर अभेद आत्मा का भी ग्रहण करना सम्भव होता है, जिस प्रकार म्लेच्छ भाषा में आर्यभाव को समझाया जाना शक्य है उसी प्रकार व्यवहारीजनों को व्यवहार भाषा में निश्चय का विषयभूतात्मा समझाया जाता है ।" अमृतचन्द्र ने स्पष्ट कहा है कि ज्ञान और ज्ञानी के भेद से कहने वाला व्यवहार, परमार्थ मात्र का ही प्रतिपादक है अन्य कुछ का नहीं ।" यहां विशेष सावधानी इस बात की होना आवश्यक है कि प्रतिपाद्यप्रतिपादक को वाच्य वाचक सम्बन्ध नहीं मान लेना चाहिए क्योंकि निश्चयनय द्वारा निरूपित वस्तु तथा निश्चय के वचनों में वाध्य वाचक संबंध बन जाता है परन्तु व्यवहार नथ के वचन वस्तु स्वरूप के प्रकाशक नहीं हैं. श्रपितु आरोपित, उपचरित, असत्यार्थ स्वरूप के प्रकाशक हैं अतः व्यवहारत के कथन के विपरी वस्तुस्वरूप होने से व्यवहार तथा निश्चय में वाचक - वाच्य सम्बन्ध नहीं बनता। इसी लिए व्यवहार नय को प्रतिपादक लिखकर भी अमृतचन्द्र ने उसे अनुसरण न करने योग्य लिखा है ।
साध्य-साधक सम्बन्ध :
निश्चय को साध्य तथा व्यवहार को साधक निरूपित करते हुए एक स्थल पर वे लिखते हैं कि निश्चय व्यवहार की अपेक्षा मोक्षमार्ग दो प्रकार का कहा गया है, उनमें प्रथम - निश्चय मोक्षमार्ग साध्यरूप तथा द्वितीय व्यवहार मोक्षमार्ग साधक रूप हैं ।" यहां यह ध्यान देने योग्य है कि ज्ञेयों को ज्ञान कहना जैसे घट ज्ञान, श्रद्धेय को दर्शन कहना जैसे देव गुरु-शास्त्र की श्रद्धा सम्यग्दर्शन है तथा आचरण करने योग्य को चरित्र कहना जैसे हिंसादि का त्याग चारित्र है, यह सब व्यवहार रत्नत्रय विषयक कथन प्रसद्भूत व्यवहारनय का है ।" इसे परमार्थ नहीं जानना चाहिए ।
६. नमसार आत्मख्याति गा. ७ टीका तथा ८ की टीका |
:.
वहीं, गा. टीका ६-१०.
३.
समयसार गाडी तथा ११. इलि बननात् व्यवहारनको नानुसंय" तत्त्वार्थमार, उपसंहार पद्य - २. 'निश्चयव्यवहाराभ्या मोक्षमार्गे दिवा स्विनः तत्राद्यः सान्यरूपः स्याद्वितोयस्तस्य साधनम् ।।"
मयचक्र ३२० गा. "णेयं खु जत्था सद्धे व जत्य दसणं भरिब' । चरि चारित वच्य तं प्रसवभूव ॥"
खलु
५.
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४४८ ।
| प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व परमार्थ से साध्य साधनपना कदापि घटित नहीं होता, कारण कि व्यवहार पराधित होने से बंधभाव है तथा हेय है. निश्चय स्वाश्रित होने से निजभाव - मोक्षभाव है तथा उपादेय है ।' फिर भी व्यवहार दृष्टि से ही कर्ताकर्म अथवा साध्य साधन भावों में भिन्नता कही जाती है। निश्चय दृष्टि से विचारने पर कर्ता-कर्म अथवा साध्य-साधन भाव तक ही द्रव्य में होते हैं, दो में नहीं । निषेधक-निषेध्य सम्बन्ध :
निश्चय, कर्मों से मुक्ति दिलाने में निमित्तभूत तथा भूतार्थ है इसलिए वह निषेधक है। व्यवहार-धर्म भोगों की प्राप्तिमें निमित्तभूत है तथा अभूतार्थ है इसलिए वह निध्य है। व्यवहार को निषेध्य बताकर
आचार्य समस्त ही पराश्रित, बंध-कारक व्यवहार सड़ाना चाहते है तथा निश्चय के द्वारा स्वाचित, मोर-माधकाट प्रगट कराला नाहते हैं।' एकांत व्यवहाराभासी का स्वरूप :--
प्राचार्य अमृतचन्द्र ने निरपेक्षनय रूप व्यवहार तथा निश्चय के एकांत का अवलम्बन करने वाले जीवों की भूलों का स्पष्ट दिग्दर्शन कराकर उन्हें सम्यक अनेकान्त रवरूप दिखाकर परमार्थ मार्ग - मोक्षमार्ग में लगाने में कोई असर नहीं रखी है। व्यवहारनय के एकांतरूप से अवलम्बन करने की भूलों को दिखाते हुए वे लिखते हैं - जो केवल व्यवहारावलम्बी जीव हैं, वे प्रथम तो भिन्न साध्यसाधन भाव के अपनाने में निरन्तर लगे रहते हैं तथा व्यर्थ ही अत्यधिक खेदखिन्न होते रहते हैं। दूसरे, बार बार धर्मादि को श्रद्धान रूप अध्यबसान में उनका चित्त लगा रहता है, वे निरन्तर बहुत श्रुताभ्यास रूप संस्कारों से उठने वाली विचित्र विकल्पजाल. रूप वृत्ति से चैतन्यवृत्ति को कलुषित करते हैं । तीसरे, यतियों के प्राचार रूप समस्त प्रकार के सपों में प्रवर्तते हुए कर्मकाण्ड की धमाल में तल्लीन रहते हैं। ये कभी किसी विषय की रुचि करते हैं, कभी किसी विषय के विकल्प करते हैं और कभी कुछ प्राचरण करते हैं। इस तरह कर्म चेतना में हो संलान रहते हैं। वे दर्शन, ज्ञान, चरित्र, तप तथा वीर्याचार कप पंचाचारों के पालन हेतु किस प्रकार प्रवृत्ति करते हैं इसे स्पष्ट करते हुए ५. समसार कता - मन्ये यबहार एवं निलोऽयन्याययस्याजितः।" २. हो.कलश, २१०. "व्यावहारिकहरवलं, कर्तृ कर्म च विभिन्नमिष्यते ।।"
निश्चयेन यदि बस्तु चिन्यते. कत कर्म च सदै कमिप्यते ।।" ३. नमबहार, बंभाषिनार गा २७५-२७६ को टीका.
समयगार कलश, १७३.
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दार्शनिक विचार ]
। ४४६ अमृतचन्द्र लिखते हैं कि वे दर्शनाचार के लिए कभी अत्यंत शांत होते हैं, कभी संसार-शरीर तथा भोगों की अरुचिरूप संवेग भाव को धारण करते हैं, कभी षटकाय के जीवों की दया का पालन करते हैं, कभी ग्रास्तिक्य भाव को धारण करते हैं, शंका-कांक्षा-विचिकित्सा और मढष्टिता के उत्थान को रोकने के हेतु निता कटिबद्ध रहते उपबहाग कर बारसा और प्रभावना के कार्य में बारम्बार उत्साह को बढ़ाते हैं। वे ज्ञानाचार के लिए स्वाध्याय काल का ध्यान रखते हैं, बहुत प्रकार सेवि नय करते हैं. दुर्धर उपधान (नीरस आहार तप) करते हैं, भली-भांति बहुमान को प्रसारित करते हैं, निदव दोष को अत्यंत दूर करते हैं, अर्थ व्यंजन तथा तभय की शुद्धि में सावधान रहते हैं। वे चारित्राचार के लिए पंच महावतों में तल्लीन रहते हैं, योगनिरोध लक्षणयुक्त गुप्तियों में उद्योग रखते हैं, पांच सामतियों का पालन करते हैं। वे तपाचार के लिए यह अंतरंग एवं छह बहिरंग एंसे १२ प्रकार के लपों को सपते हुए अपने अंतकरण पर अंकुश रखते हैं तथा वीर्याचार के लिए कर्मकाण्ड में पूर्णशक्ति के साथ संलग्न होते हैं, इस प्रकार के आचरण से अशुन कर्मरूप प्रवृत्ति से निरन्तर दूर रहते हैं तथापि कर्मचेतना रूप शुभ कर्म प्रवृत्ति को बारम्बार ग्रहण करते हैं परन्तु वे समस्त क्रिया काण्ड से परे दर्शनज्ञानचारित्र को एकता रूप ज्ञानचेतना को जरा भी उत्पन्न नहीं करते हैं तथा बहुत पुण्य के भार मे मंदचित्त वृत्ति वाले होकर स्वर्गलोकादि के क्लेशों की परम्परा को पाते हैं और अत्यन्त दीर्घकाल तक संसार सागर में परिभ्रमण करते हैं। कहा भी है-जो चरण परिणाम प्रधान हैं और स्वसमयरूप परमार्थ में व्यापार रहित हैं, वे चरण परिणाम का सार जो निश्चय शुद्धात्मा है उसे नहीं जानते।' एकल निश्चयाभासी का स्वरूप :
प्राचार्य ने जहां एक ओर व्यवहार नयावलम्बी के दोषों का दिखाकर उसे परमार्थ पथ की ओर प्रसर किया, वहाँ दूसरी ओर एकांत निश्चय नयावलम्बी की भी भूलें दिखाकर उसे भी भवसागर में डूबने से सावधान किया। वे लिखते हैं कि जो केवल निश्चय नमावलम्बी हैं व प्रथम तो समस्त क्रियाकर्मकाण्ड के आडम्बर से विरक्त रहते हैं। दूसरे वे अपनी आंखों को अधमुदा रखकर वृाछ भी बुद्धि मे क पनाकर इच्छानुसार मुखी रहते हैं। तोगरे, बे भिन्न साध्यसाधनभाव का सर्वथा तिरस्कार करते हैं तथा अभिन्न साध्यसाधनभाव को भी उपलब्ध नहीं कर
१. पंचास्तिका गा १७२. टीका।
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४५० ]
| आचार्य श्रमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एक कव
पाते इसलिए प्रमादरूपी मदिरा से मदमत्तवत् ग्राहसी चित वाले ब रहते हैं। चौथे वे मुछित व्यक्ति के समान गाव-निद्रा में सोये हुए के. समान बहुत घी शक्कर खाकर तृप्त हुए के समान, मोटे शरीर के कारण जड़ता पैदा हुए के समान, दारुण बुद्धि से मूढ़ता को प्राप्त होने वाले के समान, विशिष्ट चेतना मुदी हुई वनस्पति के समान, मुनीन्द्र पदोचित कर्मचेतना का पुज्यबंध के भय से अवलम्बन नही करते हैं। पांचवे, वे परम निष्कर्मावस्थारूप ज्ञानचेतना को प्राप्त नहीं करते तथा व्यक्तव्यक प्रमाद के ही प्राधीत वर्तते है । वे निकृष्ट कर्मफल की चेतना प्रमुख प्रवृत्ति वाली वनस्पति की भांति केवल पाप को ही बांधते हैं। कहा भी है निश्चय का श्रालम्बन लेने वाले परन्तु यथार्थ में निश्चय को न जानने वाले कुछ जीव बाह्याचरण में आलसी होते हुए आचरण तथा परिणाम को नाश करते हैं । '
-
आभासरहित, उभयनयसुमेल सहित सम्यग्ज्ञानी साधक का स्वरूप :आचार्य ने व्यवहार तथा निश्चय दानों के एकान्त वलंबी अज्ञानो के दोषों का दर्शन कराकर आभास रहित, उभयनय का परस्पर सापेक्ष हि सुमेल दिखाकर सच्चे मोक्षमार्ग का उद्यात किया है। सम्यग्ज्ञानी साधक की प्रवृत्ति का निरूपण करते हुए वे लिखते हैं जो न मोक्ष) के लिए सतत प्रयत्नशील रहने वाले महान् भगवान् पुरुष हैं, ये प्रथम तो निश्चय व्यवहार में से किसी एक का ही आलम्बन पक्ष न लेने से अत्यंत मध्यस्थ रहते हैं । दूसरे वे शुद्धचैतन्य रूप श्रात्मतत्त्व में विश्रांति को बढ़ाते रहते हैं। तीसरे, वे प्रमाद के उदय से उत्पन्न वृत्ति को नाश करने वाली क्रियाकाण्ड रूप पति को अंतरंग में महत्व नहीं देते अपितु उदासीन वर्तते हैं। चौथे वे यथाशक्ति प्रात्मा को आत्मा में ग्रनुभव करते हुए अनुभव में ही लीन रहते हैं । ऐसे महान भाग्यशाली जीव स्वतत्व में विवाति के अनुसार क्रमशः कर्म का त्याग करते हैं तथा अत्यंत निष्प्रमाद निष्कम्पमृर्ति होकर यद्यपि वनस्पति की उपमा को धारण करते हैं और कर्मानुभूति के प्रति निरुत्सुक रहते हैं, केवल ज्ञानानुभूति से हो उत्पन्न तान्त्रिक ग्रानंद से अत्यंत भरपूर वर्तते हैं । इस प्रकार वे शीघ्र ही संसारसमुद्र को पार कर शब्द ब्रह्म के माश्वत फल निर्वाण सुख के भोक्ता होते हैं । "
२. पंचास्तिकाय ग. १७२ की टीका । पंचारिया १७२ की टीका.
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दार्शनिक विचार |
। '४५१ उपयुक्त व्यवहार रूप कर्मनय तथा निश्चय रूप ज्ञाननय के एकांत अवलम्बन का तथा दोनों के सम्यक् सुमेल का फल निरूपण करते हुए प्राचार्य अमृतचन्द्र ने एक स्थल पर लिखा है - कि कर्मनय के अवलम्बन में तत्पर पुरुष दूबे हुए हैं क्योंकि वे ज्ञानस्वभावी प्रात्मा को नहीं जानते । सायही तनम के इस जी हाए हैं क्योंकि स्वरूप प्राप्ति का पुरुषार्थ नहीं करते तथा प्रमादी होकर विषय कषाय में प्रवर्तते हैं, परन्तु जो निरन्तर ज्ञान रूप होते हए, कम नहीं करते तथा प्रमाद के वशीभत भी नहीं होते, वे जीत्र संसार समुद्र से कार तरले हैं। नय पद्धति - जैनी नीति के प्रयोग का उदाहरण :
प्राचार्य अमृतचन्द्र उक्त निश्चय-व्यवहार अथवा द्रव्याथिक पर्यायाथिक नयों को ग्वालिनी की मथानी की रस्सी के दो छोर की भांति निरूपित पारते हैं। जिस प्रकार ग्वालिनी मथानी की रस्सी के एक छोर को खीचती है तथा दूसरे को ढीला करती है, इस प्रकार मन्थन करके तत्वमक्खन को प्राप्त करती है उसी प्रकार Hिद्रदेव की स्यादवाद नीति है जो दध्यार्थिक नय से वस्तुस्वरूप को खींचती - प्रमुख भारती है तथा पर्यायाथिक नय शिथिल करती हैं, इस प्रकार प्रात्मानुभूति रुप तन्त्र को प्राप्त कराती है। उभयनयों के विरोध को स्यात् पद से मिटाया जाता है :--
व लिखते हैं कि दोनों नयों में यद्यपि विषय की अपेक्षा परस्पर विरोध है तथापि स्यात् पद के प्रयोग में यह विरोध मिट जाता है तथा स्यात् पद से चिह्नित जिनवाणी में जो पुरुष रमण करते हैं वे पुरुष स्वयं ही मोहकम का वमन करके शीघ्र ही अतिशयरूप से प्रकाशमान शुद्धात्मा को प्राप्त करते हैं, जो शुद्धात्मा नवीन पैदा नहीं हया। मध्यस्थ शिष्य हो देशना का फल पाता है :
वास्तव में नय तो वस्तुस्वरूप को जानने के लिए साधनमात्र हैं.
१ सहसा कलेश. १११. २. एकनावर्षन्ती इलथनी वस्तुतत्वमित ।
अन्तेग जाति जनी नीतिमन्यानने अमिय गापा । पृ.मि.२२५ वा पद्म । उभयनः विगेवयसिनी स्यास्पदा, जिनवचसि रमाले ये स्त्रयं गान्त मोहाः सपटि समयसारं ते परं ज्योतिश्च्च-नयनय पक्षरक्षा भीक्षन एव ।।
-रा. ना. क. ४.
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४५२ }
[ आचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
अतः जो जीव निश्चय व्यवहार नय को वस्तुस्वरूप से यथार्थ जानकर उनमें मध्यस्थ होता है, वहीं शिष्य जिनदेशना के सम्पूर्ण फल को प्राप्त करता हैं । "
१
पक्षपात का भी त्याग जरूरी है :
ऊपर प्राचार्य ने नयों के स्वरूप को जानकर मध्यस्थ होने की बात कही है । मध्यस्थ होना या नयों के पक्ष का विकल्प त्याग करना एक बात है । यथार्थ में तत्त्वनिर्णय रूप सविकल्प अवस्था में व्यवहार का विकककर छुड़ाया है। तथा निश्चय के आलम्बन का विकल्प कराया है, परन्तु यात्मानुभूति के लिए तयपक्ष रूप विकास बाधक ही है । जो विकल्प तत्वनिर्णय में साधक कहे गये हैं वे ही श्रव बाधक कहे गए हैं, क्योंकि अनुभूति की दशा में द्वौत नहीं होता. नय का विकल्प नहीं होता । इसलिए आचार्य अमृतचन्द्र शुद्धात्मानुभूति रूप प्रमृतपान करने के इच्छुक जनों को साक्षात आनंदामृत प्राप्त करने हेतु नय पक्षपात को त्यागने की प्रेरणा करते हैं । वे लिखते हैं कि जो आत्मा नयों के पक्षपात से मुक्त होकर अपने स्वरूप में लीन होते हैं, वे ही विकल्प रूप जाल से छूटकर शांत विचित्त होकर साक्षात् अमृत का पान करते हैं । 3 अस्तु |
-M
श्रनेकान्त
स्याद्वाद
अनेकांत जैनदर्शन तथा अध्यात्म की आधारशिला है तथा स्याद्वाद उस आधारशिला पर सुस्थित भव्य भवन है । वस्तु का स्वरूप अनेकातमयी है तथा उस अनेकांतस्वरूप वस्तु की शब्दात्मक अभिव्यक्ति स्याद्वादममी है । वस्तु का स्वरूप यनादि अनंत तथा खण्डित होता है यतः अनेकांतरूप आधारशिला भी प्रखण्डित है । वस्तु स्वरूप का यथार्थ कथन करने वाली वाणी भी अम्बलित ही होती है ग्रतः स्याद्वादरूप भव्य भवन
१.
२.
M
व्यवहारनिञ्चवः प्रयतवेन भवति सत्पथः ।
प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः ॥ पु. लि. द्य
उनि नयश्रीरस्तमेति प्रमाणं
-
"भूषयति भाति तमेव ।
- म. सा. क. २.
एवमुक्ाक्षात स्वरूपगुप्ता निवसन्ति नित्यम् । विकल्पच्युत नान-विनास एवं साक्षादमृतं पिवन्ति ॥
- समयसार कन.६०.
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दार्शनिक विचार ।
। ४५३
भी अस्खलित एवं अनुल्लंघनीय है। प्राचार्य अमृतचन्द्र भी उक्त तथ्य की घोषणा करते हुए लिखते हैं कि इस प्रकार जो जिन दव का अनेकांतरूप अलंध्य शासन है, वह वस्तु के यथार्थ स्वरूप की ध्यबस्थिति के द्वारा स्वयं को व्यवस्थापित करता हुआ व्यवस्थित है।' अनेकान्त और स्याद्वाद दोनों में घनिष्ट सम्बन्ध है। उनमें द्योत्य-द्योतक सम्बन्ध है। अनेकांत स्वरूप वस्तु द्योत्य है तथा स्वाद्वादमयी वाणी या कथन शैली उसकी द्योतक हैं । अमृतचन्द्र ने इस तथ्य की पुष्टि करते हुए स्पष्ट लिखा है कि स्याद्वाद समस्त वस्तुत्रों के स्वरूप को सिद्ध करने वाला, प्रहन्तदेव सर्वज्ञ जिनेन्द्र का एक अस्खलित शासन है। वह स्याद्वाद “समस्त वस्तुएं अनेकान्तात्मक है" ऐसी उद्घोषणा या उपदेश करता है, क्योंकि सभी वस्तुओं का स्वभाव अनेकान्तमय है। जो अनेकांतमय वस्तुस्वरूप को अनेकांतसंगत दृष्टि से स्वयं ही अवलोकन करते हए, स्याद्वाद की शद्धि को अतिशयता से जानकार जिननीति (जिनेन्द्र के मार्ग का उल्लंघन नहीं करते हैं, वे सत्तुरुप ज्ञानम्वरूप होते हैं। इस प्रकार दोनों अनेकांत तथा स्याद्वाद की आवश्यकता तथा महिमा को देखते हुए ही आचार्य अमृतचन्द्र ने अपनी समग्र रचनाओं में अनेकांतस्वरूप का जिस पटुता एवं स्पष्टता के साथ विवेचन किया है तथा स्याद्वादमयी शैली में तस्वमीमांसा में जो कौशल प्रदर्शित किया है, वैसी पटुता, स्पष्टता तथा कुशलता अन्यत्र दुर्लभ है। यहां हम अमृतचन्द्र द्वारा प्रस्तुत अनेकान्त की प्रास्था, उसका महत्व, लक्षण, उदाहरण एवं अन्य बातों पर प्रकाश डालते हैं :अमृतचन्द्र को अनेकान्त विषयक प्रास्था :
प्राचार्य अमृतचन्द्र ने अनेकांत के सम्बन्ध में अपनी विशेष आस्था प्रगद की है। प्रत्येक ग्रंथ में चाहे वह टीकाकृति हो या मौलिक ग्रंथ, उन्होंने अनेकांत का स्मरण अवश्य किया है। प्रात्मख्याति टीका के प्रारम्भ में
१. एवं व्यवस्थित्या स्वं व्यवस्थापयन् स्वयम् ।
अलंध्यासनं जंगमनेकान्तो व्यवस्थितः । समयसार कलश, २६३. २. पंचा. गा. १४ की टीका ।
समपसार, आत्मख्याति, परिशिष्ट पृ. ५११. नैकालसंगतहशा स्त्रयमेववन्तु-तत्त्वध्यवस्थितिमिति प्रविलोकयन्तः । रसादाद दिम धिकाधिगम्य संतो, शानोभवन्ति जिननी निमलंधयन्तः ।
-समयसार.का. २६५.
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४५४ ]
। प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व अनेकांतमयी वस्तु स्वरूप को वे मूर्तिमन्त रूप में अवलोकन करते हुए स्मरण करते हैं। वे लिखते हैं कि पर द्रव्यों से भिन्न, अपने स्वरूप से अभिन्न प्रात्मा के अनंतधर्मों के रहस्य को प्रकाशित करने वाली अनेकांतरूपमूर्ति । जिनवाणी। सदाकाल ही जगत् में प्रकाशित रहे ।' तत्वदीपिका टीका में प्रारम्भ में अनेकांत का स्मरण करते हुए लिखा है कि जो अनेकांत मय तेज महामोह साप अंधकार समह को लीलामात्र में नष्ट करता है तथा जगत् के स्वरूप को प्रकाशित करता है ऐसा अनेकांत तेज सदा जयवन्त रहे । समयव्याख्या टीका के मंगलाचरण में लिखा है कि उस परमात्मा को नमस्कार हो जो सहजानंद तथा सहजवतन्यप्रकाशमय होने से महान है लथा अनेकांत में जिसकी महिमा स्थित है। मौलिककृति पुरुषार्थसिद्धयुपाय में भी अनेकान्त को बन्दना करते हुए लिखा है कि जन्मान्धपुरुषों के हस्तिविधान का निषेध करने वाले, समस्त गयों से प्रकाशित वस्तू स्वरूप के विरोध को दूर करने वाले, अनेकान्त को नमस्कार करते हैं। वह अनेकांत उत्कृष्ट जैन सिद्धान्त का प्राण है ।' लघु तत्त्वस्फोट में राग को जीतने वाले, अनेकांत से सुशोभित, अविनाशी चैतन्यकला के विलाय से स्पष्टता को प्राप्त रानालेज वाले तथा कर्म-शत्रु विजेता जिनेन्द्र को नमस्कार किया है । इस प्रकार स्पष्ट है कि अमृतचन्द्र अनेकांत के अनन्य उपासक एवं अनेकान्त में गहरी आस्था रखने वाले थे। वे अनेकान्त के महत्स्त्र में भली भांति परिचित थे ।
१ ख. सा क. २. हेनोल्नुनमहामोहतमस्तोमं जयत्यदः । प्रकाश पज्जगत्तत्तमनेकान्तमयं महः ।।
-प्रवचनसार, तत्वदीपिका टीफा, पद्य-२ ३. सहजानन्द चैतन्य प्रकागाय महीयसे। नमोऽने कात विधानामहिम्ने परमात्मने ।।
-चास्तिकाय समयव्याख्या टोका,पद्य १. ४. परमागमस्य जीवं निषिद्धजात्यन्ध सिन्धु रविधानम् ।
___ सकलनविलासिताना विरोध मथनं नमाम्पनेकान्तम् । पु. सि. पद्य २, ५. जिननाय जिनरागाय नमोऽनेकान्त शालिने । अनंतचित्कलास्कोट स्पृष्टसप्टात्मतेजमें ।
लघु त. स्फोट, अध्याय १२ पद्य १.
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दार्शनिक विचार ]
J४५५
अनेकान्त का महत्व :
उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि आचार्य अमृतचन्द्र की दृष्टि में अनेकान्त को सर्वोत्कृष्ट महिमा समायो थी, इसलिए उसके स्मरण तथा नमस्कार के हेतु स्वरूप उन्होंने अनेकान्त के कई विशेषण बताये जो उसकी महिमा के परिचायक हैं। उन्होंने अनेकान्त को परमागम का प्राण, नयों के विरोध को शमन करने वाला, अलंध्यशासन, जि क्नोति, महन्त का अस्खलित शासन, मोहांधकारनाशक इत्यादि विशेषण प्रयोग किये हैं। एक स्थल पर वे लिखते हैं कि अनेकान्त की ऐसी महिमा है कि विरोध भी विरोध नहीं है।' वस्तु स्वभाव में पाई जाने वाली विरोधी शक्तियों का प्रकाशन अथवा उसकी सिद्धि अनेकान्त ही करता है। वास्तव में हे जिनेन्द्र ! आप में, जो एक-अनेक, सगुण-निर्गुण, शून्य-श्रशन्य, नित्यअनित्य, व्यापक-अध्यापक, विश्वरूप-एकरूप तथा चैतन्य के समूह से संसार के प्राभोग विस्तार को क्षीण करने वाली ज्ञान की उठतो हुई तंरगों से उन्मग्न सिद्ध करता है. वह अनेकान्त ही तो है ।२ अमृतचन्द्र के पूर्व प्राचार्य समन्तभद्र ने अनेकान्त की महत्ता जिन शब्दों में घोषित की है, उनसे भी प्राचार्य अमृतचन्द्र के अनेकान्त विषयक विचार प्राचार्यपरम्परानुकूल प्रमाणित होते हैं। वे लिखते हैं कि हे जिनेन्द्र ! अापकी अनेकांत दृष्टि सच्ची है। इसके विपरीत जो एकांतमत है, ये शन्यरूप असत् है अतः अनेकांत दृष्टि से रहित समस्त वचन मिथ्या है, क्योकि वे स्व के घातक है । जैन सिद्धांत में अनेकान्त को बलवान माना गया है । सर्वथा एकांत बलवान नहीं है इसलिए अनेकांत पूर्वक सर्व कथन अविरुद्ध
१. समवयं प्रसादोऽनेकान्तबाटस्य यदीशोऽपि बिरोधो न विरुध्यते ।"
-पंचास्तिकाय २१, गा. दी. २. "एकाने के गुरगवदगुणं शुन्यमत्यन्तपूर्ण ।
नित्यानित्यं पिततमततं विश्वरूपकरूपम् । नित्यारभारग्लपिनभुवना भोगरङ्गत्तरङ्ग मज्जन्त क्लयति किल स्वामनेकान्त एव ।।
लधुतत्व, स्फोट, अ. २२, पद्य २५. ३. अनेकान्तात्म दृष्टिस्ते सती शून्यो विपर्ययः । गतः सर्वं मृषोक्तं स्यात्तदफ्तं स्वधातप्तः ।।
बृहद् स्वयं भूस्तोत्र अनजिनस्तोत्र पद्य १३.
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४५६ ।
| प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व होता है तथा अनेकांत के बिना सर्व ही कथन बिरुद्ध हो जाता है ।' यहां तक कि आत्म वस्तू ज्ञानमात्र वाही गई है तथापि वहां भी अनकांत प्रकाशित होता है। स्वयमेव अनेकांत प्रकाशित होने पर भी महन्त में उसके साधनरूप में अनेकांत का उपदेश क्यों दिया है। इसका समाधान यह है कि अज्ञानियों के ज्ञानमात्र वस्तु आत्मा) की प्रसिद्धि करने के लिए उपदेश दिया गया है ऐसा हम कहते हैं। वास्तव में अनेकांत के बिना ज्ञानमात्र अात्म बस्तु ही प्रसिद्ध नहीं हो सकती। इस प्रकार अनेकांत की महत्ता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। अनेकांत तत्व का श्रद्धान करने वाला सम्यक दृष्टि होता है । अनेकांत की मंत्री से चित्त पवित्र होता है । अतः अनेकांत की महिमा स्पष्ट है। प्राचार्य अमृतचन्द्र में यत्र तत्र अनेकांन का स्वरूप भी प्रदर्शित किया है। अनेकांत का स्वरूप :
"अनेकान्त' पद का शाब्दिक अर्थ है "अनेक अन्त या धर्मों वाला'। अर्थात प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मात्मक है अतः अनेकान्त स्वरूप है। अनेक धर्मो में जात्यन्तरभाव पाया जाता है अर्थात् एक धर्म दूसरे धर्म मे भिन्न स्वरूप वाला होता है अतः ववलाकार ने जात्यंतर भाव को ही अनेकांत लिखा है। प्राचार्य अमृतचन्द्र ने तो अनेकान्त का म्वरूप पष्ट करते हर लिखा है कि जो तत है, यही अतत हैं, जो एक है वहीं अनेक है. जो सत् है वही यसत् है, जो नित्य है वही अनित्य है, इस प्रकार एक ही वस्तु में वस्तुत्व की उपजाने वाली परम्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशित होना अनेकांत है। अनेकांत स्वरूप वस्तु में जो विरुद्ध युगल १. नत्रवतोशकान्तो बलरानिह खल न सर्वथै काम्लः ।।
सर्व स्यादविरुद्ध' तत्पूर्व सद्विना विरुद्ध स्यात् ।।
--पंचाप्यागो-पूवार्ध पश्च २२७, तथा प्रवरसार गा. २७. टीका। २. आत्मख्याति टीका परिशिष्ट पृ. ५७३. 2. कार्तिकेयानुप्रेक्षा । मू. मा. ३११. ४ सा खल्बनेकान्तमैत्रीपविनितचित्सेषु... (प्रवचनसार गा. २५१ टीका) ५. धवाला, पु. १५, २५. । ___यदेव तल देवातन् प्रदेवक देवानेकं, यव सत्तदेवासत् यदेव नित्यं तदेवानित्यमित्येकवस्तु वस्त्वनिष्णानक परस्पर विरुद्धशतिद्वयश्काशनमनेकातः ।"
-आस्मख्याति परिशिष्ट पृ. ५७२.
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दार्शनिक विचार ।
शाक्तियों का प्रकाशन होता है, वह किस प्रकार मात्र ? इमका लाना भी किया गया है। आत्ता में उप रक्त विरोधी शक्तियों के युगों का प्रकाशन क्रमशः इस प्रकार संभव है :
जानमात्र यात्म बस्तु नः अपने अंतरंग में प्रगट प्रकाशित ज्ञानरूप के द्वारा नत्थना तथा बाहर में प्रगट अनन्त ज्ञेयों से स्वरूप की भिन्नता होने के कारण ग्रात्मा के परजेचा के स्वरूप की अपेक्षा ।। अतत्पना भी हैं । रा. मूत प्रवर्तमान (गुणां) तथा क्रमशः प्रवतमान (पर्यायों के) अनंत चतम्यांगों के समूदाय रूप प्रतिभागी द्रव्य की अपेक्षा एकत्व हे और विभागी द्रव्य में व्याप्त सहभूत तथा श्रमदाः प्रवर्तभान अनंत चैतन्य अंश रूप पर्यायों की दृष्टि अनेकत्व है। अपने ह। द्रवयात्र-काल तथा भावरूप भवन शक्ति के हो से साव, तथा न होने स असत्व भी है । अन्नादि निधन अविभाग एक वृमिन से पति को हरा निमय है और अपशः प्रवर्तमान एकासमग्यवती पर्याय र वृत्तिा में परिणत होने के कारण अनित्यत्व ह।' इस प्रकार ग बिरोधीयुगलों के प्रकाशन में कोई बाधा नहीं ह अतः बस्तु स्वप में प्राकाल का प्रकाशन भो निर्वाध सिद्ध होता है। वह अनकान्त अज्ञान ग मूह हुए जीवों को ज्ञान मात्र प्रात्म तत्त्व की प्रसिद्धि करता हुमा अनुभव में प्राता। प्राचार्य अमृतचन्द्र के उपरक्त अनकान्त स्वरूप विषयक दार्शनिक विचार पूवाचार्य परम्परा म साम्य रखते है। प्राचार्य अकलंक देव के इस कथन में उक्त बात प्रमाणित होता है कि जेन एक ही हेतु सपक्ष में सत और विपक्ष में असत होता है, उसी तरह विभिन्न अपेक्षायों से अस्तित्वादि धर्मो के वस्तु में रहन में भी कोई विरोध नहीं है। वास्तव में अनकान्त स्वरूप वस्तु को समझने के लिए साक्ष दृष्टि चाहिए। सापेक्ष दृष्टि से ही विरोधी धर्मों की सिद्धि होती है। प्राचार्य पूज्यपाद न सर्वार्थ सिद्धि में स्पष्ट किया है कि अपित (मुख्य) तथा अर्पित (गौण) इन दोनों दृष्टियों से एक वस्तु में परस्पर विरोधी दो धर्मों की
. --- - है. आत्मख्याति, परिशिष्ट पृ. ५.७३,
त्यज्ञानविमूढना जानमा प्रसाधय । शात्मतत्त् मनेकान्तः स्वयमानुभूयते ।। समयसार कलश नं. २६२. गपक्षारापापेक्षयोपशक्षितानां सच्चासवादीमा भेदातामाधारेण पक्ष धर्मपाकेन तुल्यं सर्वम् । -रात्रा तिक, अ. १, सत्र (भा. ज्ञानगीठ, त्रि. मं. २००८)
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४५८ !
आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
सिद्धि होती है। इसलिए कोई विरोध नहीं है। जैसे देवदन के पिता, पुत्र, भाई तथा भानजे. इसी प्रकार और भी जन कल्व और जन्यत्व प्रादि के निमित्त से होने वाले सम्बन्ध विरोध को प्राप्त नहीं होते। जब जिस धर्म की प्रधानता होती है, उस समय उसमें वही धर्म माना जाता है। उदाहरण के लिए पुत्र की अपेक्षा वह पिता है प्रौर पिता की अपेक्षा बह पुत्र हैं; आदि। उसी प्रकार द्रव्य भी मामान्य की अपेक्षा नित्य है, और विशेष को अपेक्षा अनिरम है। इसलिए कोई पिराध नहीं है। उपरोक्त प्राचार्य परम्परा का अनुसरण आचार्य अमृतचन्द्र के विचारों में स्प-तः पाया जाता है। एक स्थल पर वे कहते हैं कि यद्यपि अस्ति पक्ष नास्ति पक्ष से बाधित है और नास्ति पक्ष अम्ति पक्ष से बाधित है पर वे दोनों अस्तिनानि पक्ष समता को प्राप्त कर परस्पर मिले हुए। प्रपोजन अथवा पदार्थ की सिद्धि के लिए यत्न करते हैं। सम्पूर्ण जगत् को यद्यपि एक 'सल" शब्द से कहा जा सकता है तथापि वह सत् वास्तव में समस्त वन्तुनों को प्रकट नहीं करता क्योंकि सत् स्वयं ही असत् स्वरूप की अपेक्षा रखता है। अस्ति रूप चैतन्य स्वरूप की प्रतीति - अनुभूति यात्मानुभूति) नास्तिपूर्वक ही होती है । तथा नास्ति रूप परानुभूति (स्वकी) अस्ति की अपेक्षा रखती है क्योंकि जगत् में स्व तथा पर का विभाग पाया जाता है अतः जब शब्दों द्वारा एक पक्ष या विधि पक्ष कहा जाता है तब दूसग पक्ष या निषेध पक्ष शब्दों में छुट जाता है। अम्ति की ध्वनि निषेध को साक्षात स्पर्शतो है तथा नाप्ति की ध्वनि अमित को अपेक्षा रखती है। इसलिए यदि सापेक्ष कथन न किया जाय तो विधि पक्ष द्वारा अपना स्वयं का विधेय प्रगट नहीं किया जा सकता; क्योंकि विधि अर्थ तो पर के निषेध के लिए अभिहित किया जाता है तभी वह स्वयं को प्रकट कर पाता है। इस प्रकार अमृतचन्द्र ने अनेकान्त का स्पष्ट स्वरूप
१. रावार्थसिद्धि अ. ५, मुत्र (ज्ञानपी: १९५५.ई। २. निधिरेष निषेधवा धित: प्रतिषेधी विधिना विरूक्षितः । ज'मयं समतामुपेत्य तयतने मंहितमर्थसिद्धये ।। ७ ]
-लघुतत्वस्फोट | अ १५. ३. लधुतत्वस्फोटः अ. १५ पहा नं. ७,८,९.
ल. न. स्फोट: अ. १७ पद्य १०, १४, १५, १६ सत्य मन स्वार दि भाजि विश्वे किन बाद् विधिनियमादया स शब्दः । प्रब याद्यदि विधिमेव नाति भेदः प्रत्र ते यदि नियम जगत् प्रमिष्टम् ॥१०॥
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दार्शनिक विचार :
{ ४५६ प्रस्तुत किया है। इन्होंने अनेकान्त शैली में अत्यंत स्पष्ट प्ररूपणा की है। निश्चय तथा व्यवहार अथवा द्रव्याथिक तथा पर्यायाथिक नयों में प्रस्तुत निरूपण भी अनेकांत शैली के अन्तर्गत समाहित है। अनेकान्त शैलो में निरूपण :
प्राचार्य अमृतचन्द्र ने अनेकान्तमयी शैली में टीकाएं रची, मौलिक गंगों को परूपणा की मशः निगम की स्तुति करते हुए भी उक्त शैली का प्रयोग किया है। जिनेन्द्र की स्तुति करते हुए वे एक स्थल पर लिखते हैं कि हे जिनेन्द्र देव ! पाप सदैव पदार्थ की प्थिरता का उपदेश नहीं देते और सदा ही आत्मस्वरूप की महिमा की अस्थिरता को दूर करते हैं, इसीलिए आपका पाश्चर्यकारक चैतन्यज्योति द्वारा प्रसिद्ध आत्मस्वभाव एक होने पर भी विधि निषेत्ररूप अथवा अस्ति नास्ति रूप है ।' आपका सहज स्वभावोत्पन्न निर्माण (म्वरूप भवन) विधि तथा निषेध रूप से सुशोभित है अतः आप में प्रकट अनुभव में आने वाला सत् असत् आदि विकल्पों का समूह उच्छलित हो रहा है, इसमें पाश्चर्य नहीं है। आप देदीप्यमान, बहत भारी, परस्पर मिश्रित अनंत चतुष्टय रूप संपत्ति के समूह से प्रकाशित होते हैं । नित्य अनित्य, एक अनेक आदि अनेक धर्मों सहित हैं, अविनाशी हैं । आपको एक धर्म में स्थिर दृष्टि रखने वाले (एकांतदृष्टि) पुरुष कैसे देख सकते हैं ।
अस्तीनि ध्वनिरनिवारिस: प्रणाम्यन्यत् कुर्य निधिमयमेव नैव विनम् । स्त्रस्वार्थ परगमनानिवर्तयन्तं तनं स्पृशति निषेधमेव माक्षात् ।। १४ ।। नास्तीति निमितमन उ कुशप्रनारायलयं अगित करोति नव विश्वम् । तन्नूनं लियमपदे तदात्मभूमावस्तीति व्यनितमपेक्षते स्वयं तत् ।। १५ ।। सापेक्षो यदि न विधीयते बिधिरतल्यस्यार्थ ननु विधिरेव नाभिधस्त ।
विध्यर्थ; म खलु परान्निषिद्धमर्थ यत् स्वस्मिन्नियतमसो स्वयं अवीति ।।१६।। १. नावस्थिति जिनददाति न चाऽनवस्थामुत्थापयस्यनिशमात्ममहिम्नि नियम् । पेनायमद् तुतविद्गमचंचुरुचरेकोऽपि ते विधिनिषेधमय स्वभावः ।। ५ ।।
- लघुतत्त्व स्फोट, अर, यस्मादिदं विधिनिषेधमयं चकास्ति निरिणमेव सहजप्रविजृम्भतं ते । तस्मात् सदा सदसशदिविकल्पजालं त्वय्य विलासमिदमुत्प्लवते न चित्रम् ।।६।।
नही अ, २, परस्परं संवड़ितेन दीयताम मुन्निषन्भूनि मरेण भूयसा। स्वमेका धमी वहिलाचलेक्षणीक धर्मा बाथमीक्ष्यसऽक्षर; || ११ ।।
वहीं अ.
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४६० ]
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व आपका विधि निषेध में रचित स्वभाव अपनी मर्यादा का उलंघन किये विना कृष्ण तथा शुक्ल पक्ष की भांति अपनी द्विरूपता को नहीं छोड़ता । आप प्रस्ति-नास्ति उभयरूप प्रतीत होते हैं । प्राप स्वचतुष्दय से भावरूप तथा परचतुष्टय से अभावरूप हैं । ऐसे अापके द्धशक्ति युक्त स्वभाव को अज्ञानी जनों द्वारा समझा जाना कठिन है ।' वास्तव में सत् रूप कथन असत् की अपेक्षा रखता है यदि ऐसा न हो तो वस्तुस्वरूप अपनी मर्यादा तोड दवें। हे जिनेन्द्र, निज तथा परपदार्थ दर्शन का विषय होने से दर्शन गण में प्रविष्ट हो रहे हैं, इसलिए आपके द्वारा स्वपर का भेदशान करने के लिए विधि तथा निषेध की (अनेकांत) पद्धति का निर्णय किया गया है। 3 स्यावाद को प्रावश्यकता तथा महत्ता :
हम यह स्पष्ट कर चुके है कि प्रकान्त और स्याद्वाद दोनों में घनिष्ट सम्बन्ध है । अनेकान्त वस्तु का स्वरूप है तथा स्याद्वाद वस्तु स्वरूप प्रतिपादक कथन शैली है । अनेकांत ज्ञानगोचर वस्तु है तो स्माद्वाद वचनाभित कथन पद्धति । यद्यपि अनुभूति वाणी से परे तथा वाणी अनुभति से भिन्न वस्तु है. तथापि अनुभूति को इंगित करने वाली प्राणी ही है। अज्ञानी जीवों को वाणी के सर्वत या वचन व्यवहार विना बस्तु स्वरूप का परिज्ञान एवं अनुभव होना असंभव है अतः स्याद्वाद की आवश्यकता स्पष्ट है।
१. त्रिभो विधानप्रतिषेधनिर्मिता स्वभावसीमानममूमलङत्रयम् ।
त्वमेव मेगाऽयम शुक्न शुक्लवन्न जास्वपि द्वयात्मकतामपोहसि ।। १४ ।। भक्त्सू भावेषु विमान्यतऽस्तिता तथाऽभवत्सु प्रतिभाति नास्तिता । स्वमहिलनास्नित्य समुदयेन नः प्रकाशमानो न ननोवि विस्मयम् ।। १५ ।। उपरि भावं त्वमित्मना भन्न भारतां यामि परात्मना भवन् । प्रभाव भावोपचितोऽयमस्ति से समान एन प्रतिपक्तिदागगा; || १६ ।।
-लक्षु तत्त्व स्फोट अ. ४, २. इयं सदियुक्ति रपेक्षते मयाबृश्निमी मनितसत्वृत्ती; । जमत्समक्षा सहभव ा व्यभावसीमानमथान्यथार्थः ।।१३।।
वही अ. , ३. दशि दृश्णतया परितः पयाक्तिरेतरमीश्वर संविणतः । अत एव विवेगकृते भवता निरणामि विभिप्रतिषेध विधिः ॥ १३ ॥
वही, अ, १४,
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दार्शनिक विचार ]
[४६१
स्यावाद समस्त वस्तुओं के स्वरूप को सिद्ध करने वाला, अर्हन्तसर्वज्ञ का एक अस्त्रलित शासन है ।' स्याद्वाद वस्तु स्वरूप को प्रकाशित करने बाला दीपक है। वह लहलहाट तेज से युक्त, शुद्ध स्वभावरूप महिमा से संयुक्त ज्ञानरूप प्रकाश को उदित करने वाला है। प्राचार्य अमृतचन्द्र ने स्याद्वाद को जिन्द्र भगवान की सिद्धान पद्धति लिखा है । यह पद्धति नयों के समूह में पाये जाने वाले दुनिवार विरोध को नाश करने वाली है तथा स्यात्कार ही उसका जीवन है। वे लिखते हैं कि निश्चय व्यवहार दोनों नयों में विषयापेक्षा परस्पर विरोध है। उस विरोध को नाश करने बाला यातपद है। "स्यात्पद' से चिन्हित जिनेन्द्र की वाणी में जो पुरुष रमण करते हैं, में शीघ्र ही मोह का वमन (त्याग करते हैं तथा तत्काल परमज्योतिरूप प्रकाशमान शुद्धात्मा (समयसार) को देखते हैं । वह शुद्धात्मा नवीन नहीं है तथा एकांत रूप कुनय के पक्ष से खण्डित भी नहीं है । जिनेन्द्र की वागी रूप जो शब्द बह्म है वह स्यात्पद से मुद्रित होता है ।" स्यात्पद मुद्रा में ला शब्दशतिः स कारन में असमर्थ होती है क्योंकि विरोधी धर्म से सापेक्ष होने के कारण जिनेन्द्र के शब्द विरुद्ध धर्म से युक्त वस्तु को स्पर्श करते हैं परन्तु स्थाद्वाद मुद्रा से रहित शब्द बस्तु स्वरूप के एक देश में शक्ति बिखर जाने से स्खलित हो जाते हैं । आचार्य अमृतचन्द्र
१. स्याहामो हि लगतवतत्व पायक पस्खलित शासनमहसार्वजस्व ।
-प्रात्मख्याति, परिशिष्ट पृ. ५४१ २. स्थावाददीपितलसन्मसि प्रकाणे. शुद्धस्वभावमहिमन्युदित मीनि । कि बंधमोनपथपातिभिरन्यभाव - जित्योदय: परगयं राफुरतु स्वभावः ।।
-ससा. क. २६९. ३. दुनिबारनयानीक विरोधध्वंसनौषधिः,
स्यात्कारजीविता जीयाजनी सिद्धान्त पद्धति । -पंचास्तिकाय टीका, , ४. उभयनय विरोषध्वलिनी यारपदांके, जिननचसि ररान्त ये स्त्रयं बान्त मोहाः । सपदि समयसार त परं ज्योनिरूच्च, रनमानयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव ।।
समयसार कलश ४ "स्यास्पदमुद्रित गन्दब्रह्मोपासनजन्मा"" समयमार मा. ५ की टीका विपक्षसापेक्षतमेव दाः स्पृशन्ति ते वस्तु विरुद्धधर्मा। तदेव देशेऽपि विशीणंसारा: स्वाद्वादमुद्राविकालाः स्वगन्ति ।। १२ ।।
-लघु-नत्य स्फोट, अध्याय ,
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४६२ ।
। प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व के उपरोक्त विचार स्यावाद की महिमा के प्रकाशक हैं। वे जिस प्रकार अनेकांत को मूर्तिमन्त रूप में स्मरण करते हैं उसी प्रकार स्याद्वद मुद्रा को भी मूर्तिमन्त रूप में ही देखते है । वे लिखते हैं कि हे जिनेन्द्र ! जो अनक बार विश्व को अच्छी तरह शब्द मार्ग का विषय बनाकर एक साथ कायन करने में नहीं मुक्ती, ऐसी को यह नसोर दान जाना हान सामने उठ खड़ी होती है । ' हे भगवान् : शब्दों में दृढ़ता स्थापित पेरने के लिए ही आपन स्यादाद मृद्रा को रचा है । इसलिए उस स्याद्वाद मुद्रा से चिन्हित वे शब्द स्खलित न होते हुए अपने आप वस्तु को तत् अज्ञत् स्वभाव पुक्त निरूपित करते हैं।' प्राप वस्तु के नास्ति पक्ष के निरूपण की शब्दों को असर्थता नहीं चाहते, इसलिए स्यात् पद के प्रयोग द्वारा शब्दों को उक्त निरूपण में समर्थ करते हैं। स्यात पद, शब्द में द्विवाशक्ति पैदा करता है जिसस अस्तिनास्ति' उभय शक्तियों का प्रतिपादन होता है । यद्यति शब्द स्वयं ही हूँ व शक्ति युक्त है क्योंकि कोई किसी में शक्ति पैदा नहीं कर सकता परन्तु उक्त शब्द की वैधशक्ति स्यावाद की सहायता से ही प्रकट होती हैं। इसलिए उसे व्यवहार से शक्ति उत्पादक कहते हैं। यदि जगत में एक ही शब्द से दोनों पक्ष व्यक्त किये जाना संभव होता तो स्यात् पद प्रयोग को प्रावश्यकता न होती परन्तु दुसरे शब्द का उपयोग भी अर्थपुर्ण माना जाता है इसलिए द्वैध शक्ति के विवाद में पड़ना व्यर्थ है । स्याद्वाद के अाश्रय से मुख्य (विधि) पक्ष द्वारा गौण । निषेधः पक्ष को भी अभिव्यक्ति होती है। विवक्षित की मुख्यता तथा अविवक्षित को गौणता होती है। उक्त मुख्य तथा गौण दोनों में मंत्री होती है तथा स्यात्कार पद के श्राश्रय १. प्रत्यक्षमुनि निष्ठुरेयं पाद्वादमुद्राहठकः रतन्ते । __ अनेकाश; शब्दाथोपनीतं संस्कृत्य विश्वं मममस्त लन्नी ।।
- लघु तत्व स्फोट अ. = पद्य १५ गिरा वनाधानविधान देतोः स्याहादमुद्रःममृजस्त्वमेव । नडिय नास्ते तदतत्त्व भावं वदन्ति यातु स्वयमः बलन्त'; !।
-वही. अ. स. पद्य २० ३. नस्यास्तंगमनमनिच्छता त्रये व स्यात्कारायणगुणाद्विधान तिम् । मापेक्ष्यं प्रविधता निषेधशत्तिादत्तासौ स्त्र रस भरंगा बल्गती ।।
-वही अ, १८ पद्य लभ तत्त्व रूफोट, अ, १७, 'पद्म३, १८, १६. रचात्कार: किमु कुरुते सती सती वा सादानाम अमुभी मका स्थापितम् । यद्यस्ति भरसत एव मा कृतिः कि नासत्याःकरणामह प्रसह्य मुत्तम् ।। १७ ।।
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दार्शनिक विचार ]
| ४६३
है ।
अमृतचन्द्र
से दोनों अपने अर्थ को व्यक्त करते हैं। इस प्रकार स्यात्पद तथा स्याद्वाद की महिमा श्राचार्य अमृतचन्द्र ने पद पद पर व्यक्त की है। सर्वथा एकांतवादी वाणी भी जब स्यात् पद से युक्त होती है तब वह परिष्कृत हो जाती है. एक विष को वमन करती है तथा सत्यरूप अमृत की वर्षा करती तत्त्वस्फोट नामक स्तोत्रकाव्य में तो आचार्य न समन कृति में प्रान्त अनेकांत तथा स्याद्वाद की महिमा गाई है । उनकी महिमा का नगाड़ा बजाया है तथा अन्य आत्म हितैषीजनों को भी अनकांत स्वरूप का स्याद्वाद के माध्यम से नगाड़ा बजाने की प्रेरणा की है । वे लिखते हैं कि स्वद्रव्य को अपेक्षा विधि तथा परद्रव्य की अपेक्षा निषेध तथा इसी प्रकार स्वक्षेत्र स्वकाल तथा स्वभाव की अपेक्षा विधि और परक्षेत्र परकाल परभाव की अपेक्षा निषेध प्रकट किया जाता है। इस प्रकार से प्रथम ही इस जगत् में, शब्द जोरों से मेरा बजाकर, निर्वाध रूप से निजात्म स्वरूप में आचरण करें। तार्किक शिरोमणि आचार्य समंतभद्र ने भी स्याद्वाद को निर्दोष कहा, क्योंकि वह कथंचित् अर्थ के वाचक स्यात्पद सहित है तथा
३.
·
शब्दानां स्वयमुनामिकारिक शक्ति शक्तानां स्वयमसनो परो न तुम् न व्यक्तिर्भवति कदाचनारि किन्तु स्याद्वाद चरमन्तरेण तस्य ॥ १८ ॥ एकस्मादपि वज्रसो द्वयस्यसिद्धी किन्नस्वाद विफल इतरप्रयोगः । साफल्यं यदिषुनरेति नां तत् कि फ्लेशाय स्वयमुनायिनेयम् ॥१६॥ तन्मुख्यं विधिनियमद्वयामदुक्तं स्याद्वादश्रमणोदितस्तु गौण : एक स्मिन्नुम मिहान योधारणे मुख्यत्व भवति हि तद्द्वयप्रयोगात् ॥२० मुख्यत्वं भवति विनक्षितस्य साक्षात् गोणत्वं यजति विवक्षितों न यः स्यात् । एकस्मिंस्तदिक्षितो द्वितीयो गौणत्वं दधदुपयाति मुख्यसख्यम् ।। २१ ।। धत्तं स विधिरमित निषेधमैत्री साकाक वहति विधिनिषेधत्राणी । स्वात्कारण समर्थितात्मवयाख्याती विधिनियम निजार्थमित्थम् ॥२३॥ - लघु तत्र स्फोट अ. १७ "अतत्वमेव प्रणिधानसौष्ठवात् तवेश ! तत्त्वप्रतिपत्तये परम् । विषं वमन्त्योऽप्यामृतं भरन्ति यत् पदे पदे म्यास्पदसंस्कृता गिरा || १ | - वहीं, ४. २०
स्वपाद विधिरयमच्या निषेधः क्षेत्राद्यं रपि हि निजेतरः क्रमोऽ । seged: प्रथममि प्रताय मेरी निर्वाध निजविषये चरन्तु यदा ।। लघु तन्त्र स्फोट. १८२५
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४६४ ]
। प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
प्रत्यक्ष परोक्षरूप दृष्ट और अनुमान आगमरूप इष्ट प्रमाणों से अविरुद्ध है ।' इस प्रकार अमृतचन्द्र के स्यावाद विषयक दार्शनिक विचार पूर्वाचार्यों की विचार रारणि का ही अनुचरण करते हैं । स्यावाद का अर्थ :--
___ आचार्य अमृतचन्द्र ने, स्याद्वाद की आवश्यकता तया महत्ता को जिस अतिशयता से व्यक्त किया है, उसका स्वरूप स्पष्टीकरण भी उसी तरह जोर देकर किया है। उन्होंने म्यादाद का पर्थ दिखाकर उपके सम्बन्ध में कल्पित प्रमों का भी यथा संभव निराकरण किया है । ल्याबाद में मूलतः दो शब्द है स्यात् तथा बाद । स्यात् का अर्थ है किसी अपेक्षा से कथन करना । तार्किक प्राचार्य प्रभाचंद्र लिखते हैं कि जिसके द्वारा प्रतिपादन किया जाय, वह वाद कहलाता है तथा जिसका वाचक शब्द स्यात् हो वह स्याद्वाद है।' अथवा म्यात् अर्थात् कथंचित् या विवक्षित प्रकार से अनेकांत रूप से वदना, वाद करना, जम करना, कहना तथा प्रतिपादन करना म्याद्वाद है। स्यात् पद के प्रयोग का प्रयोजन :
स्याद्वाद में प्रयुक्त मनात पद का प्रयोजन प्राचार्य अमृतचन्द्र की दृष्टि में इस प्रकार है - वह स्यात् पद सर्वथापने का निषेधक है, अनेकांत का द्योतक है तथा कथंचित् या किसी अपेक्षा अर्थ बोधक अव्यय के रूप में प्रयुक्त है। यहां नह स्पष्ट है कि स्थाबाद में प्रयुक्त स्यात् पद अस् धातु
१. "अनवद्यः म्यादादम्तव दृष्टाविरोधतः स्यावादः । इनरो न स्याद्वांदो सद्वितन विरोधान्मुखनीरा स्वाद्वादः । ।
___ -स्वयंभूस्तोत्र-वीन जिनस्तुति, प४३ २. पाद्यते प्रतिगाम्लोने ग्रेनासौ बाटः -: स्यादिति वादो वाचकः शब्दो
यम्याने कान्यवादस्यो स्यातायः ।" -स्वयंभूतोत्र, टोका. : २६ "म्यान कथंचि चित्रक्षितप्रकारेणानेकांनरूपेण वदनं वादो जल्प: कथन प्रतिपादन मिनी म्यादादः ।"
. -समयसार (नात्पर्य बृत्ति स्वादाद अधिकार, आ. अगसेन ४. “अत्र मन्त्र यत्वनिषेध कोदोमान्नद्योगकः कथं चिदथें स्थाच्छदो मिपाल: ।"
-पंचास्तिकाय गा. १५ की गनय व्याख्या टीका ।
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दार्शनिक विचार ]
। ४६५
का विधिलिंक का अन्य पुरुष एकवचन का रूप नहीं है अपितु स्यात् पद अव्यय या निपात शब्द है। जिसका विशिष्ट प्रथं "किसी अपेक्षा या कथंचित् ।
"स्यात्'' पद संशयवाची 'शायद" अर्थ का सूत्रक भी नहीं है अपित निश्चित, किसी एक प्रक्षिा का प्रकाशक एवं निर्णायक है। इसलिए स्यात् पद के साथ "एव' पद का प्रयोग भी होता है जो दृढ़ता का सूचक है, संशय का नहीं । प्राचार्य अमृतचन्द्र ने स्पष्ट किया है कि अनंतधमा वाले द्रव्य के एक एक धर्म का प्राश्रय लेकर विवक्षित तथा अविवक्षित रूप विधि-निषेध के द्वारा गप्तभंगी प्रकट होती है, ऐसी सप्तभंगमयी वाणी का निरन्तर मम्यक रूप से उपचार किये जा , सलारस नोगमं पद के द्वारा, "एव" कार में रहने वाले समस्त विरोध रूप विष के मोह को दूर किया जाता है । इस प्रकार स्यात् पद का निहित अर्थं एवं माहात्म्य स्पष्ट हो जाता है । जिस प्रकार विभिन्न देशों में प्रचलित सिक्कों पर उस देश की निर्धारित मुद्रा अपित होती है उससे सिक्के की दशोयता तथा सत्यता प्रमाणित होतो है, उसी प्रकार जिनेन्द्र की वाणी भी स्यात् पद की मुद्रा से अंकित होती है। अथवा जनश्रुत या जिनवाणी को पहिचान ही स्यात् पद है। उससे वाणी की सत्यता प्रमाणित होती है । अमृतचन्द्र के स्यात पद एवं स्याद्वाद विषयक उक्त विचार पुर्वाचायों की तर्कणा एवं दार्शनिक विचारणा के हो निम्वन्द हैं। प्राचार्य समन्तभद्र ने भी स्यात् पद को अव्यय (निपात) अर्थ में प्रयुक, अनेकात का द्योतक तथा विवक्षित (बोध्य) अर्थ का बोधक लिखा है। साथ ही उसे सर्वथा एकांत
...चानन्तवमोगा द्रव्य स्वर चममाश्रित्य विवक्षिताविवक्षितविधि प्रतिषेशभ्यामतरत्तो नभदायमाविनामधान्नसमुच्चामाणस्यात्कारामो-घ मन्नपदन ममस्तमणि विप्रतिपंधविषमोहमुदस्यति ।"
__ -प्रवचनसार गाय! ११५ जात. प्र. टीका २. वह किल सकलोद्भासिस्या:पद मुद्रित शाद ब्रह्मोपास नजन्मा ......."
-समवसार गा. '५ की टीका ३. स्वस्ति स्याद्वाद मुद्रिताय जैनेन्द्राय शब्दब्रह्मणे प्रवचनसार गा १२ की टीका ४. वाक्येष्वनेकांतद्योनी गम्यं प्रति विशेषणम् । न्याटिपातेऽर्थ योगित्वात्तः कलिनामपि ॥
-देवागम स्तोत्र, अपरनाम थालमीमासा ।
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४६६ !
| आचार्य श्रमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व.
का त्यागी होने से कि" शब्द से निष्पन्न कथञ्चित् अर्थ का पर्यायवाची लिखा है | वह स्याद्वाद सप्तभंगों, नयों तथा हेय उपादेय की अपेक्षाओं को प्रकट करता है ।" उक्त सप्तभंगों का स्पष्टीकरण भी प्राचार्य अमृतचंद्र में अनेक प्रकार से किया है ।
सप्तभंग रूप न्याय :
यद्यपि सप्तभंग रूप न्याय का संक्षिप्त उलेख प्राचार्य कुन्दकुन्द ने प्रसंगोपात्त किया है तथापि उसका विशेष स्पष्टोकरण एवं प्रयाग आचार्य मृतचन्द्र से अपनी टीकाओं तथा अन्य रचनाओं में किया है। वे एक स्थल पर द्रव्यादेश से प्रयुक्त सप्तभंगी का निर्देश करते हुए लिखते हैं :- द्रव्य " स्यात् ग्रस्ति" है (१) द्रव्य " स्यात् नास्ति " है (२) द्रव्य " स्यात् श्रस्ति और नास्ति" हूँ (३) द्रव्य " स्यात् अवक्तव्य" है (४), द्रव्यस्यात् अस्ति थोर अवक्तव्य" है ( ५ ) द्रव्य "स्यात् नास्ति और अवक्तव्य" है (६), और द्रव्य "स्यात् अस्ति और नास्ति और अवक्तव्य" है (७) इस प्रकार द्रव्य सात भंग वाला है |
3
उक्त सप्तभंगात्मक द्रव्य स्वरूप की तथा प्रत्येक भंग को सिद्धि इस स्वक्षेत्र, प्रकार होती है। प्रथम भंग द्रव्य " स्यात् मस्ति" जो स्वद्रव्य स्वकाल तथा स्वभाव इन द्रव्य के स्वचतुष्टय की अपेक्षा विचार करने पर सिद्ध होता है तथा द्वितीय भंग द्रव्य स्यात् नास्ति है अर्थात् परद्रव्य, परक्षेत्र' परकाल तथा परकाल तथा परभाव द्रव्य के परचतुष्टय की अपक्षा
१. स्वाद्वादः सर्वकन्तु त्यागात् किं वृत्त-चिद्-विधि भंग नयोपेक्ष माऽऽश्य- विशेषकः ।। १०४ ॥
तिय अस्थिथ उहवं अन्धत्त पुणो य तलिक्ष्यं ॥ दबं सन्तमंग आसवसेण संभवदि
॥ १४ ॥
5
- देवाग स्त्रीभ
- पंच विकाय
अत्र पस्यादेश वशेनोक्तः सप्तभंगी । स्यादस्ति द्रव्यं त्यान्नास्ति द्रव्यं, न्यादस्ति च नास्ति च द्रव्यं सादवक्त द्रव्यं, स्पादनक्तन्यं द्रव्यं स्वादस्ति चाक्तव्य च द्रव्यं, स्पामास्ति चावकम् च द्रव्यं स्यादस्ति च नास्ति चरवक्तव्यं द्रव्यमिति ॥ "
1
पंचास्तिकाय समय, व्याख्या टीका गाथा १४.
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दार्शनिक विचार विचार करने पर द्वितीय भंग की सिद्धि होती है । तात्पर्य यह है कि जो दश्य स्पस्वरूप चतुम्न्य से मस्ति खप है तथा वही द्रन्य परस्वरूप चतुष्टय से नास्ति रूप है। तृतीय भंग अस्तिनास्ति रूप है जिसकी सिद्धि -वचतुष्टय तथा परचतुष्टय अपेक्षा क्रमशः कथन करने पर होती है । चतुर्थ भंग प्रवक्तव्य का है अर्थात् द्रव्य का कथन स्वचतुष्टय तथा परच तुष्टय की अपेक्षा से बुगपत् हो सकना संभव नहीं है, अतः द्रव्य स्यात् प्रवक्तव्य है। पंचम भंग सिद्धि प्रथम तथा चतुर्थ भंग की युगपत प्रपेक्षा से होती है अति द्रव्य स्वचतुष्टय में है (अस्ति , तथा स्व तथा परचतुष्टय की युगपत अपेक्षा से बक्तव्य नहीं है अर्थात प्रवक्तव्य.. प्रत द्रव्य स्यात् अति तथा अबक्तव्य है । पष्ठ भंग का निर्माण द्वितीय तथा चतुर्थ भंग के मेल से होता अर्थात् परचतुष्टय अपेक्षा तथा स्व-परचतुष्टय की अपेक्षा द्रव्य स्यात नास्ति अबक्तव्य है और सा' का निर्माण गरी और नतर्थमंग के संयोग से होता है । अर्थात स्वचतुष्टय से, परनतुष्टय से तथा स्त्रपर चतुष्टय से कथम करने पर द्रव्य अस्ति और नास्ति और वक्तव्य है । उपरोक्त सप्तभंग रूप कथन प्रसिद्ध भी नहीं है क्योंकि सर्व वस्तु स्वरूपादि से अन्य हैं, पररूपादि से शून्य है, दोनों मे प्रशून्य तथा शून्य है, दोनों एक ही अवाच्य हैं, अन्व भंगों के संयोग से कथन करने पर अशून्य तथ। अवाच्य हैं, शून्य और अवाच्य है तथा अशून्य, शून्य और अवाध्य हैं।' इस प्रकार एक हो वस्तु के सापेक्ष कथन में सप्त भंगों की सिद्धि होती है।
"एव" कार का प्रयोग :
उक्त सप्तभंगों में जहां सभी के साथ स्वात् पद का प्रयोग होता है, वहीं सभी भंगों के साथ "एव" कार पद भी प्रयुक्त हुमा है । स्यात् पद जहां सर्वथा एकांत अभिप्राय को दूर करता है, वहीं पर "एव" पद वस्तु के विवक्षित इष्ट अर्थ की प्राप्ति तथा अनिष्ट अर्थ की निराकृति के लिए
१. चारितवाय गाव।की टोना । २. "स्पादन, स्वाना हाव, स्पावत यमन, स्वादानास्त्येव, स्यादम्त्यवक्तव्यमे, नास्त्यवक्तव्याने व . स्मादस्तिनास्त्यवक्तामद।"
-प्रवचनसार गा. ११५ टीका
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४६८ !
| आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
प्रयुक्त होता है । यह मानना भी भ्रम ही है कि किसी कथन में "ही" एवकार का प्रयोग मिथ्या एकांतवाची है । एवं "ही" का प्रयोग मिथ्या एकांत का सूचक नहीं बल्कि सम्म एकांत का ग्राहक है । सम्यक् एकांत सम्यक् यांत साक्ष ही होता है । स्यात् पद सम्यक अनेकांत को तथा एव पद सम्यक् एकांत का बनाता है। मोक्षमार्गी के लिए सम्पर्क पद विभूषित एकांत तथा अनेकांत दोनों इष्ट एवं पुज्य हैं। सम्यक् अनकांत प्रमाण रूप है अर्थात् एक ही वस्तु में रहने वाले अनेक धर्मों के स्वरूप को विषय करने वाला, या प्रकाशन करने वाला सम्यक् अनेकांत है । जबकि सम्यक् एकांत नय रूप है यक्षत् तु के विविक्षत एक धर्म
का ग्राहक-प्रकाशक नय धम्मक एकांत है ।
(2
ग्रतः स्पष्ट है कि नयात्मक निरूपण में "ही" पद का प्रयोग करने से अनर्थ न होकर, अनर्थ का निषेध होता है एवं निर्णय की दृढ़ता प्रकट होती है । इस सम्बन्ध में जयधवलाकार ने स्पष्ट किया है कि जितने भी शब्द हैं, उनमें स्वभाव से ही एत्रकार का अर्थ रहता है, इसलिए कार का प्रयोग इष्ट के अवधारण के लिए होता है । जिस प्रकार प्रभा अंधकार का नाश करती है उसी प्रकार शब्द दूसरे के अर्थ का निराकरण करता है । और अपने अर्थ को कहता है । "
स्याद्वाद के सम्बन्ध में भ्रांतियां :
१. वाक्पेऽवधारणं तावदनिष्टार्थं निवृत्तये । समत्वात्तस्य कुचित् ॥
कर्त्तव्यमन्यया
--श्लोक कार्तिक २/१/६ फ्लोक ५२ (जैनेन्द्र सि. कोश, भाग ४ पृ ५०३ ) एकत्र प्रतिपक्षाने धर्मस्वरूपनिरूपण युक्त्यागमायामविरुद्धः सभ्ययनेकांतः । - राजनातिक १/६/७ (जे. सि. कोशमान | पृ. १२८ ) गिरः सर्वाः स्वभावतः |
अभूते एवकार प्रयोगो यमिष्टतां नियमाय सः ।।
३.
कुछ विचारकों ने स्याद्वाद में प्रयुक्त स्यात् पद का अर्थ शायद
1.
तिरी रस्ता स्वार्थ कथयति श्रतिः । मोवी भास्यं वथा भासयति प्रभा ।
– कपाय पाहुड ११, १३-१४ जनेन्द्र सि. कोश- भाग ४ पृ. ५०३ डा. बलदेव उपाध्याय भारतीय दर्शन पृ. १५५ न स्यात् का अर्थ शायद तथा संभवतः किया है। (जेवदर्शन पू. ५२६) डा. देवराज जी ने "पूर पश्चिमी दर्शन" के पृ. ६५ परस्यान् श का कदाचित् अर्थ किंग है, जो कालवादी है तथा श्रमपूर्ण है। (जैन दर्शन पृ. ५३१)
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दार्शनिक विचार
[ ४६६ करके म्यादाम को शायदवाद संशयवाद अथवा अनिश्चयवाद और संभावना वाद का बोधक माना है, जो भ्रमपूर्ण है। उक्त समात भ्रमों की जड़ स्यात् पद का निश्चित निहित अर्थ न करके अन्य अर्थ की कल्पना करना है । आचार्य अमृलचन्द्र ने उक्त भ्रांति को दूर करने हेतु स्यात् पद को निपात तथा “किसी अपेक्षा" अर्थ का पर्यायवाची लिया है । स्यात् पद का प्रर्थ अंग्रेजी का परहेप्स"५ अथवा "में बी" न होकर 'काम सम प्याइंट ग्राफ न्हयु' है। स्थाहाद का यार्थ भाव ग्रहण का फल :
प्राचार्य प्रगृतचन्द्र ने न्यावाद को यथार्थ समझने का महान फल प्रदशन करते हुए लिखा है कि प्रानंदामृत के पूर मे भरार प्रवहमान कैवल्य सरिता में जो डबा है. जगत् को देखने में समर्थ महाविदन रूप लक्ष्मी जिसमें प्रमुबई. जो उत्तम रत्न किरण की भांति अत्यंत स्पष्ट और इष्ट. ऐसे प्रकाशमान निजतन को जगत् जन स्यात्कार लक्षण वाले जिनेन्द्र शासन के प्राथप से प्राशन करें। जो पुरुष स्याद्वाद में कुशल तथा संपर में शुश्थित होते हैं, वे नित्य अपने स्वरूप को भाते हुए, ज्ञान तथा क्रियानय में मित्रता स्थापित करते हुए जानवभावी निजात्मद्रव्य की भूमिका को प्राप्त करते हैं। प्राचार्य अमृतचन्द्र ने स्याद्वाय शली में वस्तु स्वरूप की अनेकांतात्मकता सिद्ध करने में विशेष पद्धता प्रदर्शित की है। समयमार की प्रात्मख्याति टीका के प्रत में आत्मा की अगक शक्तियों में - - - - - - 1, "Perhaps'' 2. 'May he 3. Brown Somu Point of View.
प्रानंदानपूरनिर्भर वकवल्य कल्लोलिनी, निर्मग्नं जग दोक्षणक्षममहासंवेदन श्रीमुम्बम् । स्यात्कारा कजिनेशशासनवशादासादयन्तुलनसन् स्वं तत्त्वं वृत्तजारपरन पिरणप्रस्पष्टमिषः जनाः ।।
-तत्त्वप्रदीपिका, रिशिष्ट, पृ ४१५ ५. त्याद्वादकौशलसुनिश्चलसंयमाभ्यां यो भावयत्यहाहाः जमिहोपयुक्तः । ज्ञानक्रियानवपरस्परतीवमैत्री पात्रीकृतः अयति भूमिमि । स एकः ।।
-समयसार कलश, २६७
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४७० ।
। प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तिस्व एवं कर्तृत्व से ४७ शक्तियों का :पष्ट विवेचन किया है। प्रवचनसार की तस्वीपिका व्याख्या के अंत में नयात्मक कथनों द्वारा, ४७ नयों के ग्राश्रय से प्रात्मा की अनेकान्तात्मकना पदर्शित की है। पंचास्तिकाय की समयव्याख्या टीका के अंत में निश्चय तथा व्यवहार के एकांत का निराकरण एवं सम्यक मार्ग का प्रकाशन क्रिया है। पुरुषार्थसियुपाय मौलिक कृति के अंत में दही मथन गाली गोपिका , माहार लिखा कि जिस प्रकार गोपिका मथाजी की रस्सी के एक छोर को खींचनी है तथा दूसरे छोर को शिथिल करती है तथा अल में सारतःच न नो प्राप्त करती है, उसी प्रकार एक नय (द्रव्याथिक) को मुख्य करके, दूसरे ना पर्यायाधिक) को गौण करके वस्तुस्वरूप की प्राप्ति कराने वाली जननीन शादाद-प्रततः जयवन्त होती है । इस प्रकार स्यात्कार लक्ष्मी के निवास के वशीभत रहने वाले नय समझों से देखने पर भी और प्रमाणष्टि से देखने पर भी स्पष्ट अनंता वा निज पान का अतरंग में शुद्ध विमात्र ही दखते हैं।
निमित्त - उपादान
आत्महितैषी को जिस प्रकार निश्चय-व्यवहार तथा अनेकांत म्यादाद समझना जरूरी है, उन्हें समझे बिना उसे बस्तुस्वरूप का यथार्थ परिज्ञान नहीं हो सकता । उसी प्रकार उसे निमित्त-उपादन को भी समझना अत्यावश्यक है, उन्हें समझे विना पराश्रित (अथवा निमित्ताधीन दृष्टि का परित्याग नहीं हो सकता तथा स्वाश्रित (अथवा उपादानाधीन) दृष्टि प्रकट नहीं हो सकती। स्वाथित दृष्टि बने बिना स्वाधीन मोक्ष सुख की प्राप्ति तो दूर ही रहो. निज शुद्धात्म स्वरूप का दर्शन अथवा सम्यग्दर्शन की भी प्राप्ति नहीं हो सकती । सम्यग्दर्शन की प्राप्ति बिना मोक्षमार्ग की शुरुवात भी नहीं हो सकती और सम्यग्ज्ञान तथा सम्य चारित्र को स्थिति वृद्धि तथा फल प्राप्ति होना
- - १. केरकर्वयन्तो पलथयन्ती यस्तु तत्वमिनरंग ।
अन्तेन गाति जैनी नीतिमंन्यानने अमिवगोगी ।। २२५ पृ. सि. | स्याकार श्रीवा गवस्यनयोधेः, पशान्तोत्थं चेन् प्रमाणे त्रापि । पश्यन्त्येव प्रस्फुटागन्तवमल्वात्मद्रध्यं शुद्धनि मात्रमन्नः ।।१६ ।।
-प्रवचनसार तत्वदीपिका।
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दार्शनिक विचार |
[ ४७ १
असंभव है । अतः अन्य विषयों की भांति निमित्त उपादान को यथार्थ समना मोक्षमार्गी का परम कर्त्तव्य है । प्राचार्य अमृतचन्द्र ने उक्त विषय पर भी पूर्वाचार्यो की दार्शनिक विचारधारा का ही विशेषतः स्पष्टीकरण किया है। उक्त दोनों को ग्राम में निमित्त कारण तथा उपादान कारण के नाम से व्यवहृत किया है ।
कारण का स्वरूप :
जिसके होने पर ही जो होता है, नहीं होने पर नहीं होता, वह उसका कारण कहलाता है । कार्य की उत्पादक सामग्री को भी कारण कहते हैं । 3 कारण दो प्रकार के होते हैं प्रथम - निर्मित कारण, द्वितीय
उपादान कारण 1
निमित्त कारण का लक्षण :
जो कारण स्वयं तो कार्यरूप न परिणमे, किंतु कार्य की उत्पत्ति में सहायक हो उसको निमित्त कारण कहते हैं, जैसे बड़े की उन्ति में भिकार, दंड, चक्र आदि । निमित्त कारण को "परयोग" भी कहते
निर्मित कारण के पर्यायवाची नाम :
आगम में प्रत्यय, कारण तथा निमित्त को एकार्थवाची लिखा है ।" इसके अतिरिक्त सात सहकारी उरकारी, उपग्राहक, आश्रय, आलम्बन,
܀
२.
३.
४
५.
:
विद्यावृतम् भूपितवृद्धिफलोदमाः ।
न त्यति नम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव ।। ३२ ।।
- संगतभद्राचार्य कृत रत्नकरण्ड श्रावकचार |
यन्त्र स्निन् सत्येव भवति नासति तत् तस्य कारणमिति ।
जैन सिद्धान्त प्रवेशिका प्रश्नोत्तर नं. ४०२
वहीं, प्रश्नोत्तर ४०७
"है निमित्त परयोग में अन्यो अनादि बनाव "
- वल पु. १२ पृ. २०६.
- या भगवतीदास कृत "निमित्तनाशन संवाद" पद्य ३
प्रत्यवः कारणं निमित्तमित्यनन्तरम्
- सर्वार्थसिद्धि १ २१, १२५. ७. सि. को २ पृ. ६०६ )
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४.७२ :
! प्राचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्य : एव वार्तृत्व
अनुग्राहक, उत्पादक, प्रेरक, अभिव्यंजक आदि शब्दों का निमित्तकारण के लिए प्रयोग भी होता है ।' अन्यत्र बन्धक, परिणाम, उपकारक, सहायक,
आधार निमित्त प्राश्रय निमित्त, उदासीन निमित्त आदि पर्यायवाची नामों का भी उलेम्म है । स्वयं प्राचार्य अमृतचन्द्र ने निमित्त के लिए कारण, हनु, निमितकर्ता,५, हेतूक , वहिरंग साधन" उदासीनकारण, आश्रयकारण उदासीन हेतु निमित्त मात्र प्रादि शब्दों का प्रयोग किया । निमित्त कारण के भेद :
उपरोक्त अनेक प्रकार के निमित्तों को मुख्यतः दो भेदों में समाहित किया जा सकता है । वे दो भेद हैं प्रयोग गौर विनसा । इन्हीं को प्रेरक निमित्त तथा उदासीन निमिन भी कहा जाता है। प्ररवः निमित्त के लिए शर्मा निभिस, उत्पादक निमित्त, परिणामक निमित्त इत्यादि शब्दों का प्रयोग होता है। जहां प्रज्ञानी जीव की योगरूप प्रवृत्ति और विज्ञाप निमित्त होता है वहां उसे प्रेरक या प्रयोग निमित्त कहते हैं, तथा जहां विभाबपरिणत जीव और पद्गलादि तय निमित्त होते हैं वहां उसे विस्त्रसा या उदासीन निमित्त कहा जाता है। उ बाल का संकेत पाचायं अमृतचंद्र ने भी किया है एक म्थल पर में लिखते हैं कि जिस प्रकार गतिपरिणत बायु, पताकाओं के मतिपरिणान का हेतु गर्ता देखा जाता है, वैस ही धर्मद्रा हेतकर्ता नहीं देखा जाता, क्योंकि वह परमार्थ से परिस्पंद लक्षण क्रिया से रहित होने के कारण भी गति क्रिया को प्राप्त नहीं होता है,
१. जनेन्द्र निद्धांत कोश- भाग २ पृ. ६१० । ५. जनतत्वमीमांशा-द्वितीय संस्मरण पृ. ५६ ३. लातस्य स्फोट-प्र. १५ ४, शमलतार गाया ॥३२ से १३६ की प्रारमख्याति टोका । ५. वी. माथा ९०० को अात्मणति टीका। ६. पनारि काय गायः ८८, समयध्याख्या टीका । ५. प्रवत्तारलार, त्वदीपिका गाथा २५ ८. पंचालित काय गाथा ८८ टोका । ६. वही, गाथा .९३, १४ १०. अामख्यारि गाथा ६० की उत्थानिका ।
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दार्शनिक विचार ]
[ ४७३
इसलिए सहकारी कारणरूप से दूसरों से दूसरों की गति क्रिया का कर्त्ता कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता । किन्तु मछलियों को जिस प्रकार जल ग्राश्रय कारणमात्र है उसी प्रकार जीव पुद्गलों का प्राश्रयमात्र होने से वह धर्मद्रव्य भी गति में उदासीन निमित्त होता है ।" इस प्रकार निमित्त के मुख्यत: दो भेद किये गये हैं। संक्षेप में कहा जाय तो प्रक निमित्त त्रे निमित्त हैं जो अपने आप में क्रियाशील सक्रिय रह कर अन्य वस्तु के परिणमन में अनुकूल होते हैं तथा उदासीन निमित्त वे हैं जो अपने श्राप में किया रहित - निष्क्रिय रह कर अन्य वस्तु के परिणमन में अनुकूल रहते हैं ।
निमित्त कारण कार्य का नियामक नहीं होता :
निमित्त कारण कार्य का नियामक या कर्ता कदापि नहीं होता क्योंकि वह परद्रव्य के कार्यरूप परिणमन की शक्ति से रहित है। उसमें परद्रव्य रूप परिणमन करने की योग्यता ही नहीं होती । जिस वस्तु मैं स्वयं की परिणमन शक्ति या बोग्यता न हो, उसमें अन्य वस्तु योग्यता पंदा नहीं कर सकती । इसलिए निमित्त कारण कार्य का कर्ता या नियामक नहीं होना है। कार्य की कि दो में वन शक्ति या योग्यता ही होती हैं । अपनी ही योग्यता से प्रत्येक द्रव्य अपने परिणमन का कर्ता है तथा जीव के रागादि भावों परिणामों) का निमित्तमात्र प्राप्त कर पुद्गल स्कंध स्वयं ही कर्मरूप में परिणमन करते हैं। ऐसा कथन अन्यत्र भी उपलब्ध होता है । इसमें निमित्त को बहिरंग साधनरूप
?.
२.
४.
"यथा हि गतिपरिणतः प्रभञ्जनो वैजन्तीनां गतिपरिणामस्य हेतुकर्ताऽवलो क्यले न तथा धर्मः । स खलु निष्क्रियत्वात् न कदाचिदपि गति परिणाममेव आयते । कुतोऽस्य सहकारित्वेन परेषां गतिपरिणामस्य हेतुकर्तृत्वम् । किन्तु सलिलमित्र मत्स्यानां जीवपुद्गलानामाश्रयकार मात्र नांदासीन एग प्रसरो भवति ।" पंचास्तिकाय, ग्रा. पद की टीका
न हि स्वतोऽसी शक्तिः कतु'भन्येन पार्यते । समयसार गा. ११८, ११. जीवतं परिणाम निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरये ।
स्वव परिणमन्ने
पुमनाः कर्मभावेन ।। १२ ।। . सि. ।।
"जीवपरिणाममा बहिरंगसाधनमाश्रित्य जीवं परिणमयितारमन्तरेणापि कर्मस्वपरिणमनशतियोगिनः पुद्गलस्कंधाः स्वयमेव कर्मभावेन परिणमन्ति । - प्रबचनमार गा. १६० टीका ।
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४७४ ]
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
लिखा, साथ ही निमित्त कार्य का कराने वाला - परिणमाने बाला नहीं है इस बात का भी उख किया है। यहाँ यह बात स्पष्ट होती है कि पुद्गल स्कंधों में कर्म रूप से परिणमन की शक्ति स्वयं की है अतः पुदगल स्कंधों में जो कमैदशा रूप कार्य उत्पन्न हझा, उसका उपादान कारण तो तदप परिणमन शक्ति सम्पन्न पुद्गल स्कंध ही है। उस शक्ति से ही, पुद्गल व आर्मरूप परिणभा हैं - यह बतान के लिये अमृतचन्द्र ने "स्वयमेव" पद का प्रयोग किया है तथा तद्रप (कर्म भाव रूप) परिणमन शक्ति से रहित अथवा गुदगलर कंधों को कर्मरूप परिणमाने की शक्ति से रहित जीव को परिणाम उम परिणाम के निमित्तमात्र है।
इसी प्रकार जीव भी निश्चय से अपने चैतन्यस्वरूप रागादि भावों से स्वयं परिणमन करते हैं क्योंकि उनमें भी वैसे परिणमन की स्वयं की कि उनके परिणमन में प्राकमाँ का उदय निमित्त मात्र होता है, वह रागादि भाव कराता नहीं है।' परिणमन में विशेषता - विचित्रता भी निमित्तों के कारण नहीं होती :
जो पुद्गलस्कंध कर्म रूप परिणमन करते हैं, वे पाठ प्रकार के विचित्र परिमणन करते हैं। इन आठ प्रकारों को ही ज्ञानवरणी, दर्शनावरणी, वेदनीय, मोहनीय, प्रायु, नाम, गोत्र तथा अंतराय ये माम व्यबहुत हैं। इन आठों प्रकारों के १४८ उत्तरोतर प्रकार होते है अत: पुद्गल रकंध १४८ प्रकार से विशेषता - विचित्रता को प्राप्त करते हैं, इस विचित्रपरिणमन का भी कारण पुद्गलरकंधों की स्वयं की परिणाम शक्ति है । आत्मा उनका कर्ता नहीं है, निमित्तमात्र है । इससे स्पष्ट है कि समस्त कार्यों की नियामक शक्ति समस्त द्रव्यों में निहित अपनी अपनी तत्तत्कालीन योग्यता ही है । किसी प्रकार का निमित्त परसंयोग मात्र है ।
१. "परिमपमान वितश्विनामः स्वयमपि स्वर्भावः ।
भवति हिनिमित्तमात्रं पोद्गलिक कर्म तस्यापि ।। १३ ॥ पु. मि. 1॥ 'अदायमात्मा रागढ़े पयशीकृता शुभाशु भावेन परिणति तदा अन्य योग द्वारेण प्रविन्तः कर्मपुद्गलाः स्वयमेत्रसमुपात वैचित्र्यानाधरणादि भावः परिणमन्ने । अस्वभाव कृतं कर्मणा वंचिश्यं न पुनरात्माम् ।
-प्रवचनसार गा. १८७ टीका ।
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दार्शनिक विचार ]
[ ४७५ प्रेरकनिमिस भी कार्य का नियामक नहीं है :
निमित्त-उपादान के यथार्थ ज्ञान से रहित बहुत से जन तो सर्वनिमित्तों को ही कार्य का कर्ता मानकर भ्रांतिवशात् अनंतसंसार में परिभ्रमण करते हैं, यह तो उनकी स्थूल भूल है ही, किन्तु कुछ लोग उदासीन निमित्त को कार्य का कर्ता नहीं मानते और प्रेरक निमित्त को कार्य का प्रेरक नियामक - विशेषता पैदा करने वाला मानते हैं, परन्तु यह भी एक स्थूल भूल है । मुल का कारण "प्रेरक" शब्द का यथार्थ अर्थ न समझना है। प्रेरक निमित्त यथार्थ में परद्रव्य की क्रिया का प्रेरक नहीं होता, अपितु स्वयं में सक्रिय होकर परद्रव्य के परिणमन में अनुकूल होता है । सक्रियपना वास्तव में अन्य प्रदेश की प्राप्ति को कारणरूप परिस्पन्दन क्रिया है। बह क्रिया जीव तथा पूदगल दो प्रकार के द्रव्यों में होती है अतः ये दो द्रव्य सक्रिय कहलाते हैं । थे ही परिस्पन्द क्रिया युक्त होकर अन्य द्रव्य की स्वयमेव होती हुई क्रिया में अनुकूल होने के कारण प्रेरक निमित्तपने की संज्ञा प्राप्त करते हैं तथा शेष चार द्रव्य धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल ये परिस्पन्दन-क्षेत्रांतर रूप क्रिया से रहित होने से निष्क्रिय या उदासीन निमित्त के रूप में व्यवहृत होते हैं। अतः निमित्तों के दो भेद प्रेरक तथा उदासीन, स्व-सापेक्ष हैं। निष्क्रिय की उदासीन तथा सक्रिय को प्रेरक कहते हैं। परद्रव्य की क्रिया - पर्याय में प्रेरक निमित्त कुछ नहीं करते । यदि यागम में कहीं उन्हें परद्रव्य का प्रेरक भी लिखा हो तो उसे केवल उपचार कथन मात्र जानना चाहिए, परमार्थ नहीं । उक्त तथ्य का समर्थन प्राचार्य पूज्यवाद से निम्न शब्दों से भी होता है कि अज्ञानी को ज्ञानी नहीं किया जा सकता तथा ज्ञानी को अज्ञानी नहीं बनाया जा सकता । अन्य द्रव्य तो उसके निमित्त मात्र ही होते हैं जिस प्रकार धर्मास्तिकाय गति में निमित्तमात्र है। इस तरह स्पष्ट है कि दोनों प्रकार १. "देगात प्राप्तिहेतुः परिस्पंदनरूपपर्यायः क्रिया । तप सक्रिया बहिरङ्गसाधनेन
सहभूता: जीया:, सक्रिय। बहिरङ्गसाधनेन सहभूताः पुद्गलाः । निष्क्यिमा कागं, निष्क्रियोधर्म:, दिस्त्रियोऽधर्मः. निष्क्रियः कालः ।"
-पंचास्तिकाय गाथा - टीका. नाज्ञो विज्ञत्वमायःनि विशो नाशत्वमक्छति । निमित्तमात्र अन्यस्त गते धर्मास्तिकायवन् ॥ इष्योपदेश, पद्य ३५. समयसार गाथा ८४ "कुलालः कलम करोति -अनुभवनि चेति कोकानामनादिकोस्ति तायद्न्यवहारः।" तथा गाथा १०६-१०७ की टीका ।
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४७६ ]
| आचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
के निमित्त कार्य के यथार्थतः कर्ता नियामक नहीं होते । समुद्र में उत्पन्न तरंगावस्था में हवा का चलना निमित्त है तथा निष्त रंगावस्था में हवा का न चलना निमित्त है। हवा का चलना यह सक्रिय प्रेरक निमित्त है, और हवा का न चलना यह उदासीन निमित्त है; तथापि हवा का समुद्र के साथ व्याप्यव्यापक भाव का प्रभाव होने से उनमें कर्ता - कर्मपने की प्रसिद्धि है । समुद्र स्वयं ही तरंगावस्था में अन्तयपिक होकर उत्तरंग तथा निस्तरंग अवस्थाओं को स्वयं ही कर्ता है |" अपने कार्य का कर्ता समुद्र, पर का कार्य नहीं करता है, अतः सिद्ध है कि प्रेरक प्रादि समस्त निमित्त कार्य के नियामक नहीं है ।
निमिश को अपेक्षा उपादान से सम्पन्न कार्य को नैमित्तिक कहते हैं
1
निमित्त की अपेक्षा उपादान को ही नैमित्तिक कहते हैं । निमित्त उपादान को दूसरे शब्दों में निमित्तनैमित्तिक नाम से भी व्यवहृत किया जाता है। निमित्तनैमितिक सम्बन्ध में भी निमित्तनैमित्तिक का कर्ता नहीं होता, क्योंकि व्याप्य व्यापक भाव के बिना कर्ता-कर्म संबंध घटित नहीं होता । निमित्त नैमिनिक में प्रव्यापक है अतः निमित्त नैमितिक भाव का कर्ता नहीं है । उन दोनों में निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध मात्र घटित होता है। निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध में भी दोनों अपने अपने परिणाम के कर्ता होते हैं, कोई किती के परिणाम के कर्ता नहीं, क्योंकि अपन भाव से अपना भाव किया जाता है. अपने भाव से परभाव कदापि नहीं किया जा सकता । जैसे मिट्टी अपने भावरूप घट को करती है परन्तु परभाव रूप पट (वस्त्र को नहीं करती। उसी प्रकार जीव, जीवभाव को करता है। जीव पुद्गलकर्म भाव का कर्ता नहीं है, किन्तु निमित्तमात्र है। इसी प्रकार पुद्गलकर्मोदय जीवभाव का कर्ता नहीं है, निमित्तमात्र है, अतः निमित्तनैमित्तिक अपने अपने भाव के कर्ता है, परभाव के कर्ता नहीं। उनमें परस्पर में समकाल कार्यपना तथा अनुकुलता देखकर ही निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध माना गया है। दुसरे शब्दों में निमित्त को नैमिलिक का अकर्ता कहा गया है। वास्तव में निमित्तमिलिक अथवा निमित्त उपादान सम्बन्ध दो द्रव्यों में होता है, जबकि कर्ता कर्म सम्बन्ध एक ही द्रव्य में होता है । आचार्य अमृतचन्द्र के उक्त दार्शनिक विचारों की प्रमाणता प्राचार्यश्रेष्ठ श्राचार्य कुन्दकुन्द के वचनों
५. समयसार
३ की टीका ।
समयसार गा८र की टीका
N
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दार्शनिक विचार
{ ४७७ से भी होती है। उन्होंने तो स्पष्ट घोपित किया है कि जीव के परिणाम के निमित्त से पुद्गल कर्मरूप में परिणमित होते हैं तथा पुद्गल कर्म के निमित्त से जीव भी परिणमन करता है। जीव, वार्म के गुणों को नहीं करता, उसी तरह कर्म, जीव के गुणों को नहीं क ता. परन्तु परम्पर निमित्त से दोनों के परिणाम जानना चाहिए। इसी कारण ग्रात्मा अपन ही भाव का करता है और पुद्गल-कर्मकृत सभी भावों का कर्ता नहीं है । निश्चय नय का ऐसा मत है कि ग्रात्मा अपने को ही करता है, तथा अपन को ही भोगता है - ऐसा जानना चाहिए । व्यवहार नय का यह कथन है कि आत्मा अनेक प्रकार के पुद्गल वार्मों को करता है तथा उन्हीं अनेक प्रकार के पुद्गल कमों को भोगता है। यहां ध्यान रहे कि व्यबहार नय का कथन अनादिरूढ़ जगत् व्यवहार है, वह कथन यथार्थ नहीं है । यदि व्यवहार नय के कथन को यथार्थ मानकर प्रात्मा को पृदंगल कर्म का कर्ता तथा भोका माना जावे तो आत्मा हिक्रिया में अभिन्न ठहरेगा, किन्तु ऐसा द्विक्रियापना जिनेन्द्र मत सम्मत नहीं है । निमित्त को उपादान की क्रिया का कर्ता मानने में द्विप्रिया वादी मिथ्याइष्टिपना प्रगट होता है। कार्य की सम्पन्नता में निमित्त को दूषण देने का फल :
निमित्त को नियामक या कार्य का कर्ता मानने वाले ग्रात्मा में गगादि की उत्पत्ति का कारण कमोदय को मानते हैं अतः वे रागादि की उत्पति में कर्म को दोष देते हैं। परन्तु रागादि की उत्पत्ति में कर्मोदय रूप निमित्तों को दोष देना अज्ञानता है। प्राचार्य अमृतचन्द्र निमित्त को दोष देने का परिणाम घोषित करते हुए लिखते हैं कि जो प्रात्मा रागादि की उत्पत्ति में निमित्त प परद्रध्य !व.मोदय) को दोष लगाते हैं, वे शुद्धात्म स्वरूप के ज्ञान से रहित हैं। तथा ने मोहरूपी नदी को पार नहीं करते है। अर्थात वे मियात्व में ही पड़े रहते हैं 1 यहां यह भी स्पष्ट है कि जिस प्रकार विकारी भाबों की उत्पत्ति में निमित्तों को दूषण देना भल है, उसी प्रकार किसी अन्य कार्य की उत्पत्ति का श्रेय निमित्तों को देना भी भूल ही है, क्योंकि कायोत्पत्ति में बाह्य हा या निमित्त अंकिचित्कर है। इस सन्दर्भ मे पंचाध्यायीकार रपष्ट लिखा है कि भतिज्ञान के समय एक प्रात्मा ही उनका उपादान कारण है। देह, इन्द्रिय और इन्द्रिय-विषय तो केवल बाह्य कारण हैं इसलिए वें अहत वा समान है
१. समयमार गाथा E0 से ८६तका । २. समयसार कनश २२१ ३. पंवाध्यागी, अ. २, पच ३५१.
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४७८ ।
। प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्त्व इससे यह बात भी सिद्ध होती है कि शरीर तथा अपने अपने विषय सहित पाँचो इन्द्रियाँ अात्मा के ज्ञान और सुख को उत्पन्न करने में अकिञ्चित्कर हैं।' निमिनों की अकिञ्चित्करता का कारण प्राचार्य अमृतचन्द्र ने स्पष्ट लिखा है कि समस्त द्रव्यों का अन्य द्रव्यों के साथ उत्पाद्य-उत्पादक भाव का प्रभाव है २ अतः निमित्त, उपादान की पर्याय को उत्पन्न कर यह कदापि संभव नहीं है । अस्तु । निमिस में बाह्य हेतुता की स्वीकृति :
यद्यपि सम त ही कार्य उपादान गत योग्यता से ही सम्पन्न होते हैं, निमितों का कांपना उनमें असंभव है, तथापि निमित्तों की मनिधि का निषेध भी सम्भव नहीं है। प्रत्येक कार्य या उपादान का निमित्त अवश्य होता है, परन्तु निमित्त, उपादाम का कर्ता नहीं होता। यदि एकांत रूप से निमिनों को नहीं स्वीकारा जावे तो भी अद्वैत एकांत का प्रसंग उपस्थित होगा। साथ ही श्रात्मा में होने वाले रागादि भावों के निमित्तों का निषेध किया जाने पर रागादि भाव आत्मा के स्वभाव बन जायेंगे तथा स्वभाव का अभाव न होने से रागादि का भी कभी भावना होगा, ना रागादि की उत्पत्ति में प-द्रव्य की निमित्तता नत्रश्य स्वीकृत की गई है तथा कतानि का निधि किया गया है। अमृतचन्द्र ने इस सम्बन्ध में स्पष्टीकरण प्रस्तुत करते हु लिखा है कि जिस प्रकार सूर्यकांतमणि स्वयं के पात्रय मे अग्निरूप नहीं परिणमती, उसके अग्निरूप परिणमन में परसा रूप निमित्त प्रवक्ष्य है, उसी प्रकार प्रात्मा भी स्वयं ही स्वयं को रागादि भावों का निमित्त नहीं होता है, उन रागादि को उत्पत्ति में परसंग रूप निमित्त अवश्य होता है - ऐसा बस्तु का स्वभाव है। इस प्रकार यह फलित हना कि रागादि की उत्पत्ति स्वाक्षय से, पराश्रय के काल में अथवा पराश्रित दृष्टि से ही होती है, अतः रागादि के अभाव का एकमात्र उपाय पराश्रित दृष्टि और पराश्रय का त्याग करना और स्वाश्रित दृष्टि या स्वाश्रयपना प्रगट करना ही है । संसार की विद्यमानता का कारण पराश्रित दृष्टि ही है तथा संसार मे मुक्ति - शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति का कारण स्वाचित दृष्टि है। स्वाश्रित दृष्टि को उपादानाधीन तथा पराश्रित दृष्टि को निमित्ताधीन इष्टि भी कहते हैं अतः निमित्त का पररूपपना जानकर उसका आश्रय छोड़ना और उपादान का स्वरूपपना जानकर उसका अवलम्बन
१. पंचाध्यायो, अ. २ प ३५६. २. ममय सारगाथा ३०८ से ३११ टीका । ३. समयसार कलम, १७५.
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दार्शनिक विचार ]
[ ४७६
करना श्रेयस्कर है। यहां श्रेयस्कर उपादान कारण पर भी विचार किया जाता है ।
उपादान - कारण का स्वरूप :
जो कारण स्वयं कार्य रूप परिणमे उसे उपादान - कारण कहते हैं । जैसे घट की उत्पत्ति में मिट्टी उपादन कारण है क्योंकि वह घटरूप स्वयं परिणमती है । ' उपादान - कारण को निजशक्ति भी कहते हैं । उपादान - कारण के पर्यायवाची नाम :
आगम में उपादान कारण को समर्थ कारण मूल हेतु", अंतरंग साधन, मुख्य हेतु कर्ता" इत्यादि नामों से अभिहित किया गया है । उपादान - कारण के भेद :
:
·
उपादान कारण के मुख्य दो भेद हैं शाश्वत (त्रिकाली) उपादान तथा क्षणिक उपादान | द्रव्य तथा गुण स्वभाव को त्रिकाली उपादान तथा विस्वव को कहते हैं । त्रिकाली उपादान यह बताता है कि कार्य की उत्पत्ति द्रव्य के स्वाश्रय से होती पर से नहीं । पृथक् सत्ताकद्रव्य तो निमित्त मात्र हो सकता है। क्षणिक उपादान के भी दो प्रकार हैं: प्रथम तो अनंतर पूर्वक्षणवर्ती पर्याय रूप उपादान तथा द्वितीय, तत्समय की योग्यता युक्त पर्याय रूप क्षणिक उपादान | इनमें प्रथम प्रकार इस नियम की घोषणा करता है कि अनंतरपूर्वेक्षणवर्ती पर्याय ( अर्थात् कार्यं प्रकट होने से एक समय पूर्व वाली पर्याय का व्यय ही उत्तरक्षणवर्ती पर्याय रूप कार्योत्पत्ति का उपादान कारण है। द्वितीय प्रकार
१.
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जै. सि. प्र. ४० प्रश्नोत्तर
- उपादान निजशक्ति है जि को यहीं स्वभाव" (निमित्त उपादान संवाद
पद्य नं ३)
घरला - १२/४ - जै. सि. को भाग २. २४.
वृ. स्वयंभुस्तोत्र - पद्म ६०
प्रवचनसार गा. टीका ६५.
पंचास्तिकाय गा. टी. मह
यः परिणमति सः कर्ता" (स. सा. क., ५१ ) असही-५८ में पद्य की टीका ।
वागम स्तोष पद्य ५ तथा मष्टसहस्त्रो पृ. ११
- नियतपूर्वक्षणतत्व कारणलक्षणम् ।
नियतोच रक्षगुवतित्वं कार्यं लक्षणम् ।" (जै. नि. को, भाग २ पु. ५४ . )
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४८० ]
| आचार्य श्रमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
एक समय में ही कारण तथा कार्य के यभेदपने की सूचना करता है ।" वास्तव में पर्याय की साकीता ही उपवन कारण तथा तत्समय की पर्याय ही कार्य है । उपादान को कारण तथा उपादेय को कार्य कहते हैं । इससे स्पष्ट है कि कारण कार्य या उपादान - उपादेय भाव एक ही द्रव्य की एक ही समयवर्ती एक पर्याय में घटित होता है । इस तरह त्रिकाली उपादान द्रव्य रूप तथा अनंतरपूर्वक्षणवर्ती एवं तत्समय की योग्यता रूप उपादान पर्याय रूप हैं। ये तीन भेद ( उपादान कारण के) आगम में उपलब्ब होते हैं ।
-
उपादान कारण ही कार्य का नियानक होता है :यद्यपि निमित्त कारण पर विचार करते समय यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कार्य की उत्पत्ति का नियामक कारण उपादान ही है, निमित्त नहीं, तथापि यहाँ उक्त विषय में आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा प्रतिपादित दार्शनिक विचारों का विशेष रूप से आकलन किया जा रहा है। कार्य की उत्पत्ति कारण के अनुसार होती है। जैसे जौ पूर्वक होन वाले जो जो वे जो ही होते हैं। यहां कार्य की उत्पत्ति का जो कारण कहा, वह समर्थ कारण ही है। समर्थ कारण उपादान कारण को कहते हैं। अतः उपादान कारण के अनुसार रही कार्य होता है ऐसा प्रागम का वचन है. तथा वस्तु स्वरूप है। वास्तव में वस्तु की शक्तियां पर की अपेक्षा नहीं रखतीं ।" यद्यपि कार्योत्पत्ति में अंतरंग बहिरंग उभय कारणों की सन्निधि पाई जाती है। तथापि बहिरंग कारण अंतरंग कारण की भांति कार्य का नियामक नहीं हो सकता । इस तथ्य को प्रकट करते हुए आ. अमृतचन्द्र ने लिखा है कि ज्ञान के निमित्तपन को प्राप्त हुए अन्य पदार्थ भले ही गतिशील रहें, परन्तु परमार्थ से बाह्य कारण अंतरंग कारण नहीं बन सकता है जिनेन्द्र, आप बुद्धि को प्राप्त अपने ज्ञान तथा वीर्य के विशेष सेवापक या लोकालोक के ज्ञाता तथा केवल ज्ञान स्वरूप हुए हैं।"
-
४.
५.
"स एवं कार्यकारणभात पर्यामाधिकः ।
रा. वा. १३३ (जं. सि. की २५५)
"कारणानुविधानि कामणीति कृत्वा यवपूर्वका पवा यवा एवेति"
समयसार गाथा ६८ की टीका ।
. . . टीकामा २१ उनका सहर्श कार्यमिति वचनात् । ( ६१ )
समयसार गा ११६ टीका न हि वस्तु मक्तक्तः परमपेक्षते ।"
लघु तत्त्व स्फोट, प्र. १८, पच १८.
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दार्शनिक विचार
। ४८१ पूर्व अवस्था संयुक्त द्रव्य उचित बहिरंग साधनों (निमित्तों के सानिध्य के सद्भाव में जो अनेक प्रकार की अवस्थाएं करता है, उनके प्रकट होने में अंतरंग साधन भूत उपादान कारणरूप स्वरूप कर्ता तथा स्वरूप करण की ही सामर्थ्य ही अनुग्रह रूप होती है, अर्थात् स्वरूप कर्ता एवं स्वरूप करण की सामर्थ्य से ही समस्त विभिन्न पर्याय प्रगटती है।' अमृतचन्द्र के उक्त विचारों का समर्थन धवलाकार के उल्लेख से भी होता है कि सर्वत्र ही अंतरंग कारण (उपादानकारण) से ही कार्य की उत्पत्ति होती है. ऐसा निश्चय करना चाहिए, क्योंकि बाह्य कारण (निमित्त कारणों) से कार्य की उत्पत्ति मानने पर शाली के बीज से (धान स जौ की उत्पत्ति का प्रसंग उपस्थित होगा। उपादान कारण की अपेक्षा कार्य को उपादेय कहते हैं :
अभ्यंतर कारण को उपादान कारण कहा है, उससे निष्पन्न कार्य को उपादेश कहा गया : माथान-उपदिय को हो कारण कार्य नाम से अथवा कर्ता-कर्म नाम से भी जाना जाता है। उपादान-उपारय सम्बन्ध द्रव्यार्थिक - निश्चय गय की अपेक्षा एक ही द्रव्य तथा उसकी ही उत्पन्न पर्याय में निर्दिष्ट किया गया है, तथा पर्यायाथिक नय की अपेक्षा एक ही समय की एक ही पर्याय में बताया गया है। पूर्व पर्याय को उपादान तथा उत्तरवर्ती पर्याय को उपादेय कहना, दो पर्यायों में एक ही द्रव्य की होने से) सद्भूत व्यवहार नय की अपेक्षा घटित होता है । निमित्त-उपादान की समन्वित स्थिति :
वास्तव में जब जब कार्य की उत्पत्ति होती है, तब तब उसमें दोनों हेतुओं (बहिरंग - अंतरंग) की विद्यमानता अवश्य होती है. ऐसा वस्तु का स्वभाव है। अन्य प्रकार से मोक्ष की प्राप्ति की विधि सम्भव नहीं है, अतः है जिन्द्र ! ग्राप ऋषियों तथा ज्ञानियों द्वारा बंदनीय हैं। यह बात भी सत्य है कि उभय कारणों निमित्त तथा उपादान) श्री सन्निधि में ही कार्य होन का वस्तु स्वभाव गत नियम होने पर भी ज्ञानियों की दृष्टि बाह्य हेतु से हटकर आभ्यंतर हेतु में ही निहित रहती है, प्राचार्य संमतभद्र
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१. प्रजचनसार गा.१५ को दीका । २. जनेन्द्र मि. कोश भाग, २ पृ. ६२. ३. वृ स्व. स्तोत्र, पद्य, ६५
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४८२ ]
| प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
ने स्पष्ट घोषित किया है कि हे जिनेन्द्र ! गण दोष की उत्पत्ति में बाला वस्त निमित्त मात्र है. तथा अभ्यंतर कारण - उपादान उसका मूल हेतु है । अध्यात्मार्गी के वह अभ्यंतर कारण ही पर्याप्त है। उसे वाह्य कारण प्रमुख नहीं है। उसकी दृष्टि में बाह्य कारण की सन्निधि गौणपने स्वीकार्य है। प्राचार्य अमृतचन्द्र ने भी उपरोक्त विचारों की स्पष्ट रूप से घोषणा की है, कि प्रात्मा स्वयं ही देव है, अचित्य शक्ति का धारक है क्योंकि वह चैतन्य चिन्तामणि रत्न ही है, अतः ज्ञानी सर्व प्रकार से शुद्धात्मा को धारण करते हैं, उन्हें अन्य परिग्रहों से क्या प्रयोजन ? अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं है । उभय कारणों की समन्वित स्थिति पर प्रकाश डालते हए वे लिखते हैं कि निदनय से स्त्र ही अथवा पर ही एकमात्र कारण नहीं है, अपितु कार्य की सिद्धि में उभय कारणों को विद्यमानता होती है। अंतरंग तथा बहिरंग कारणों में समस्त वस्तुओं में अनंत पर्यायों की संतति प्रकट होती है, इस बात का ज्ञान अज्ञानी जीव को नहीं होता परन्तु उन पर्यायों की संतति को आप संपूर्णतया जानते हैं ! हे जिनेन्द्र ! बहिरंग कारणों की निश्चित व्यवस्था के कारण अन्य पदार्थ को निमित्त मात्रपना प्राप्त कराते हुए भी आप स्वयं ही केवल अपने द्वारा अत्यधिक विभेदों से परिपूर्ण परिणमन को प्राप्त होते हैं। इससे स्पष्ट है कि उपादान द्वारा मम्पन्न होने वाले कार्यों के बाह्य कारण -निमित्त भी व्यवस्थित है - निश्चित है, जिनेन्द्र के ज्ञान में फलित हैं। अतः निमिलों की जोड़ तोड़ में परतंत्र होना व्यर्थ है। वास्तव में श्रात्मा का पर द्रव्यों के साथ कोई कारक सम्बन्ध नहीं है कि जिससे शुद्धात्म स्वरूप की प्राप्ति हेतु बाह्य सामग्री निमितों की खोज में व्यग्र होकर परतंत्र होते हैं। जिनकी दृष्टि निमित्त रूप बाह्य कारणों में लगी रहती है वे मिथ्या दृष्टि हैं। प्राचार्य श्री ने उक्त बात का भी उल्लेख किया है कि स्ब - पर की आकृति के ग्रहण
१. ग. रद. लोग, पहा ५६ २. स. सा. क. १४४ ३. ल. न. स्फोट. प्र. १५. पद्य १५ ४. ल. त. स्फोट, अ. ४ पद्य १२ ५. म. त, स्फोट अ. १३ पद्य २२ ६. प्रवचनसार गा. १६ टोका ।
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दार्शनिक विचार ]
1 ४८३ करने में पाकुलित रहत वाली अन्य मिथ्यादृष्टि मनुष्यों की दृष्टि, निज को छोड़कर पर पदार्थों पर जा पड़ो है परन्तु आपकी दृष्टि बलपूर्वक निज महिमा में ही चाला होता है।
अन्य सिद्धान्त कर्ता-कर्म और द्रव्य-गुण-पर्याय :
____ जो परिणमन करे सो कर्ता, जो कर्ता का परिणाम तो कर्म, तथा जो कर्ता की परिणलि सो ही क्रिया है । ये तीनों वस्त स्वरूप से भिन्न नहीं हैं 12 प्राचार्य अमृतचन्द ने उपरोक्त परिभाषामों द्वारा यह स्पष्ट किया है कि कार्य रूप में परिणमन करने वाला द्रव्य वयं ही अपनी उस कार्य रूप पर्याय का कर्ता है। अन्य जमके परिणमन काल में अनुकूल रहने वाले द्रव्य उस पर्याय के निमित्त हो सकते हैं, कर्ती नहीं। कर्ता-कर्म तो व्याप्य. व्यापक के नियम के सदभाव में ही घटित होते हैं। जो पर्याय प्रगटतो है उसे व्याप्य कहते हैं तथा उस पर्याय में जो द्रव्य फलता है, परिणमित होता है वह द्रव्य व्यापक कहलाता है। उदाहरण के लिए मिट्टी रूप कलश पर्याय व्याप्य है तथा उस पर्याय में मिट्टी ही व्यापक है म्हार नहीं, अत: कलश पर्याय कर्म तथा मिट्टी द्रव्य उसका कर्ता है, कुम्हार उसका कर्ता नहीं है। कुम्हार तो कलश रूप कार्य का निमित्त मात्र है। निमिन को भी का कहना जगज्जनों का अनादिरूढ़ व्यवहार है। वास्तव में निमित्त किसी भी कार्य का परमार्थतः कर्ता नहीं होता। इस पर में यह भी फलित होता है कि एक द्रव्य दुमरे द्रव्य का परमार्थतः कर्ता नहीं होता। एक द्रव्य को दूसरे का कर्ता कहना वह व्यवहार कथन मात्र है परन्तु एक द्रव्य को दूसरे का बर्ता मानना वह अज्ञानी व्यवहारी जनों का प्रज्ञान या मोह भाव है। जिस प्रकार एक द्रव्य दूसरे का का नहीं है, उसी प्रकार एक ही द्रव्य में रहने वाले अनेक गुण भी परप्पर में एक-दूसरे के काय पर्याय) के कर्ता नहीं हैं । प्रत्येक गुण प्रपना अपना कार्य करता है. कोई चूण किसी अन्य गुण का कार्य नहीं करता, जमे, ज्ञान गुण
१. ल त. स्फोट, अ. १४, पद्य १२.
समयसार कलश, ५१ ३. सन यसार मा. १०० तथा १०८ की आ. ख्या, टीका । ४. पही, गा ८४ को दीका । ५. समयार वनश ६२
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४८४ ]
प्राचार्य अमृतचन्द्र ; व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व का काम जानना है वह जानने का ही कार्य करता है अन्य कुछ नहीं कर सकता। दर्शन गुण का काम देखना है, वह देखने का ही काम करता है, जानने का नहीं क्योंकि एक गुण में दूसरे गुण का कार्य करने की सामर्थ्य नहीं है । एक गुण दूसरे गुण के कार्य परिणमन) में अनुकूल होने पर निमित्त हो सकता है किन्तु उसका कर्ता नहीं। इससे स्पष्ट है कि द्रव्य की भांति द्रव्य के गुण भी परस्पर में कर्ता-कर्म सम्बन्ध नहीं रखते, मात्र निमित-नैमितिक सम्बन्ध रखते हैं। जिस प्रकार द्रव्य तथा गुण अपने अपने कार्य के कर्ता हैं उसी प्रकार प्रत्येक गुण में उत्पन्न होन बाली प्रतिममयवर्ती पर्यायें भी परस्पर में स्वतन्त्र होती है। कोई भी पर्याय किसी भी अागामी या पूर्व पर्याय की कर्ता नहीं होती. क्योंकि उन पर्यायों में परस्पर प्रागभाब एवं प्रध्वंसाभाव होता है। इस तरह, प्रत्येक पर्याय भी अपनी अपनी स्वतंत्रपने कार्यकर्बी हैं अतः द्रव्य भी स्वतन्त्र, गुण भी स्वतन्त्र तथा पर्यायें भी स्वतन्त्र हैं। कोई किसो के आधीन नहीं है। न द्रव्य को किसी ने रचा है, न गुण को कोई ने बनाया है, वेवयं सत रूप हैं, जो सत् रूप है उसका कोई कर्ता नहीं होता है अतः द्रव्य स्वभाव एवं गुण स्वभाव पूर्णतः स्वतन्त्र अनादि अनंत, प्रकृत तथा अकार्य हैं। पर्याय भी पर्याय रूप मे सत् होने से अपनी स्वतन्त्र सत्ता तत्तत्समय के लिए रखती है। इस प्रकार सत के स्वतन्त्रपन की घोषणा द्वारा आचार्य अमृतचन्द्र में समस्त द्रव्य तथा उनके समस्त गुण और पर्यायों को स्वतन्त्र बताया है। जैन दर्शन कर्तावादी दर्शन नहीं है बलिक ज्ञातावादी दर्शन है। ज्ञातापने में सहजसुख एवं परम शांति या निराकुलता होती है। जबकि कर्तापने में कर्तृत्व की याकुलता एवं अशांति ही होती है । प्राचार्य अमृतचन्द्र ने जैन दर्शन के उक्त रहस्य को प्रस्तुत करते हए समस्त परमार्थ शांति का इच्छ को को परम शांति का माग प्रदर्शित किया है। mom...mmmmmmmmmmmmmmmmmm
वस्तु एक वय नाम करता परिनामी दरब, करप रूप परिनाम । किरिया परजय की फिरनि, बस्तु एक य नाम ।।
-समयसार नाटक, कर्ता कर्म क्रिपा द्वार,
१. समय तार कलश ६२
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सप्तम् अध्याय
धार्मिक विचार
यह हा का कि पर्शका सम्बन्ध विचारों से तथा धर्म का सम्बन्ध प्राचारों से हैं । धर्म प्रवृत्तिमूलक होता है । वहां भी निश्चय धर्म स्ववृत्ति अथवा पर से निवृत्ति मूलक है तथा व्यवहारधर्म पराश्रयवृत्ति का द्योतक है । अतः धार्मिक विचारों के अंतर्गत स्व-पर प्रवृत्तिमूलक आचरणों की चर्चा अभिप्रेत रहती है। प्रात्मा को अपथा मार्ग से हटाकर स्वरूप की प्राप्ति हेतु स्वसम्मुख प्रवृत्ति कराना धार्मिक प्राचारों का मुख्य प्रयोजन है । इसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए स्वामी समंतभद्र में धर्म का स्वरूप स्पष्ट करते हए लिखा है कि यहाँ उस समीचीन धर्म का उपदेश दिया जाता है, जो जीवों को संसार के चतर्गति सम्बन्धी दुःखों से बचाकर श्रेष्ठ मोक्ष सुख में ले जाता है तथा जो कर्मों का नाश करने वाला है।' ऐसा धर्म धर्म के ईश्वर अर्थात् तीर्थंकरोंग गम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सयरचारित्रम्प कहा है और इनके विपरीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान तथा मिथ्याचारित्र को संसार परिभ्रमण की परम्पर का कारण लिखा है। अतः उक्त धर्म के प्राधारों को दो विभागों में निरूपित किया गया है। उनमें प्रथम है। मनि प्राचार तथा द्वितीय श्रावकाचार । उक्त दोनों प्रकारों पर क्रमशः विचार किया जाता है ।
मुनि प्राचार यहां मुनि प्राचारों का प्राकलन करने के लिए सर्व प्रथम मुनि के स्वरूप का अवलोक करना आवश्यक है।
१. देशवामि नमीचीनं धर्म कर्मनिबहंशाम् ।
संभारदुःस्वतः सन्नात् यो धरायतमे सुखे ॥२॥ २. सदृष्टि भा. वृत्तानि धर्म धर्मेश्वग विदुः ।
पदीय प्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ।। ३ ॥
करण्ड श्रावतार
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४८६ ।
| प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
मुनि का स्वरूप :
जो इंद्रिय विषयों की प्राशा से रहित हैं, छकाय के जीवों के घातरूप प्रारम्भ से रहित हैं, चौदह प्रकार के अंतरंग तथा दश प्रकार के बहिरंग परिग्रहों से रहित हैं, तथा जो सदा ज्ञान और ध्यान में तथा तप में अनुरक्त हैं, वे साधु - तपस्वी प्रशंसनीय हैं। धवलाकार प्राचार्य वीरसेन ने साधु का लक्षण सर्वसाधारण से विलक्षण ही बताया है। वे लिखते हैं कि जो अनंतजानादि रूप शुद्धात्मा के स्वरूप की साधना करते हैं, वे साधु हैं । जो सिंह के समान पराक्रमी, गज के समान स्वाभिमानी, बैल के समान भद्रप्रकृति, मृग के समान सरल, 'पशु के समान निरीह गोचरीवृत्ति करने बाले, पवन के समान निःसंग अथवा सर्वत्र बिना काबट बिचरण करने वाले, सुर्य के समान तेजस्वी या सकल तत्त्वों के प्रकाशक, सागर के समान गंभीर, मेरू के समान परिषह व उपसर्गों के बीच निश्चल या अडिग रहन वाले, चन्द्रमा के समान शांतिप्रदायक, मणि के समान मा पुजयुक्त, पृथ्वी के समान सर्व बाधाएं सहन करने वाले, सर्प के समान परिनिर्मित अनियत प्राधय वसतिका आदि में निवास करने वाले, आकाश के समान लिरावलम्बी, निलप, सदाकाल मोक्ष का अन्वेषण करने वाले साधु होते हैं। वे पांच महाव्रतों को धारण करते हैं, तीन गुप्तियों से सुरक्षित रहते हैं। अठारह हजार शील के भदों को पालन करते हैं तथा चौरासो हजार उत्तर गुणों को धारण करते हैं, ऐसे माधु परमेष्ठी होते हैं। प्राचार्थ अमृतचन्द्र ने भी साधु - मुनि का स्वरूप तो भलीभांति स्पष्ट किया ही है, साथ ही मुनिधर्म पर सर्वप्रकार से सविस्तार प्रकाश डाला है। वे लिखते हैं कि रत्नत्रय रूप पदवी का अनुसरण करने वाले मुनियों की वृत्ति पापक्रिया मिश्रित प्राचारों से सर्वया परा-मुख होती है। वे सर्वथा उदासीन रूप तथा लोक से विलक्षण प्रकार फी वृत्ति के धारक
१. विषयागावागातीतो निरारम्भोऽप रेग्रहः ।
ज्ञानम्माननपो रक्तस्तपत्री से प्रशस्यते || १० || र. क. भा ।। २. "पो और मन्द गाहणं" अनतजानादिशुद्धात्मस्वरूपं साधयन्तीति सानमः ।
धबला खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, गाथा ३३ पृष्ठ ५२ महि गय बगह निय पशु मारूद सूखिहि मंदरिदु मणीं । विदि उगम्बर सरिला परम पर विमरगया साहूं ॥३३ ।।
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धार्मिक विचार ]
[ ४८७
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होते है । १ वे मोह रूपी सेना को जीतने के लिए कमर कसे रहते हैं। उन्हें मोह सेना जीतने का उपाय उपलब्ध हो जाता है। उनकी मति व्यवस्थित हो जाती है। वह समस्त परद्रव्यों में मध्यस्थ होता है । उनके मोह ग्रंथि के क्षय होने से रागद्वेष का भी क्षय होता है, रागद्वेष के क्षय होने मे वे सुख-दुख में समान बने रहते हैं और समानता के कारण ही मध्यस्थ लक्षण वाले श्रमणपने को प्राप्त करते हैं, जिससे अक्षय सुख की प्राप्ति होती है ।' यथार्थ में मुनि के द्वारा शुद्धात्मा की वृत्ति ही निरन्तर अपनाई जाती है। वे पागम चक्षु होते हैं । वे सर्व बातों का निर्णय
आगम से ही करते हैं। संयत साधु का लक्षण साम्य है । वे शत्र-मित्र में, सुख-दुख में, प्रशंसा-निंदा में, मिट्टो तथा सोने में, जीवन-मरण में, अपने पराये, प्रह्लाद परिणाम में, यश-अपयश में, उपयोगी-अनुपयोगी में स्थायीअस्थायी में इस प्रकार सर्वत्र ही मोह नाश होने के कारण समता भाव धारण करते हैं।
१. अनुसरतां पदमेतत् करम्बिनाचार नित्यनिरभिमुना । एकांत विररूपा भवति मुनीनामलौकिकी वृतिः ॥ १६ ॥
-पुरुषार्थ सिदयुपाय २ 'प्रतो मया मोहवाहिनी विजयाय बद्धाकक्षेपम ।"
-प्रवचनसार गाथा ७९ की टोका ३. नयी मया मोहयाहिनी विजयोपायः ।" -वहीं, गाथा ८० को टीका ४, यवस्थिता मलिमम ।"
-वही. गाथा ८२ की टीका ५. 'ततोऽहमेस सर्वस्मिन्नेन पन्द्रले मध्यस्थो भवामि ।"
-प्रवचनसार गाथा १५९ दीका ६. "मोहन थिक्षपणाद्धि तमनरागद्वेषक्षपणं तत: समसुखदुःखस्य परममाध्य. स्थलक्षणे श्रामो भवन, ततोऽनाकुलत्वलक्षगाक्षयसौख्यलाभ ।'
वहो गाथा १९५ की टीका ७. संशुद्धात्मद्रव्यमबैकन त्या, नित्यं युक्तः स्बीयतेऽस्माभिरेवम् ।'
-वही गाथा २०० टीका का छंद नं, १० ८. "श्रमणाः आगमचक्षुषो भवन्ति ।" "यथागमचक्षुषासर्वमेव दृश्यत एवेति समर्थयति ।" ।
वही, गापा २३४ की टीका उत्थानिका २३५ को
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४८८ ।
! आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व मुनि के पर्यायवाची नाम :
____ मुनि के लिए पागम में श्रमण, संयत् ऋषि, साधु, बीत राग, अनगार, भदन्त, दान्त द यति मादि पदों का भी प्रयोग होता है। तपस्वी पद भी मुनि के लिए हो प्रयुक्त हैं । ' मुनियों के भेव :..
ग्राचार्य अमृतचन्द्र ने मुनियों के पनेक प्रकार से भेद प्रदर्शित किये हैं। उनमें कुछ इस प्रकार हैं :शुद्धोपयोगी तथा शुभोपयोगी मुनि :
जो वास्तव में श्रामण्य परणति की प्रतिज्ञा करके भी कषाव कण के जीवित होने मे, समस्त पर द्रव्यों से निवृत्ति रूप से प्रवर्तमान सुविशुद्ध दर्शन ज्ञान स्वभारी प्रात्मतत्त्व में परिणति रूप शुभोपयोग भूमिका में आरोहण करते हैं, वे शुद्धोपयोगी मुनि हैं, शुद्धोपयोगी मुनि समस्त कषायो को निरस्त कर के निरासव हो जाते हैं , परन्तु शुभोगयोगी मुनि उपरोक्त शुद्धोपयोग की भूमिका में प्रारोहण नहीं करके, उसके समीप ही कषाय द्वारा शक्ति कुठिन होने से शुभोपयोग की भूमिका में रहते हैं वे सुभाषयागा श्रमग । गुनायागो मुनि कषाय कण का विनष्ट नहीं कर सकने के कारण पावसहित होते हैं। यहां यह विशेष ज्ञातव्य है कि शुद्धोग्रपोगी शुभोपयोगो श्रमण से श्रेष्ठ होते हैं।
१. जे. सि. को. ' ४ पृ. ४०४ २. र क श्रा..१० वां 'पद्य । ३. ये व नु यामध्यपरिगति प्रतिज्ञाकागि जीवतिकषावकणतया सनस्तारिद्रय
निर्बु त प्रवृत्त विशुद्धशिति वभावत्वात्मत्यवृत्तिरूपा शुद्धोपयोग भूमिकामधिरोदन क्षमन्ते । में नदुःसाठनिविष्ट्रा: कपालकुन्ठी कृतसक्तयों नितान्तमुत्कण्ठ मनः श्रमणा: किं भवेयुर्न त्यत्रामितीयते । 'धम्मण परिदप्पा...' इन व्ययमंव निरूपितत्यादन्ति तावच्छुमोपयोगस्य धर्मग्ण सहकार्थमनमःमः । ततः शुभोप-योगिनोऽपि धर्मसभाधाद्भवेयुः श्रमणाः मि.नु तेषां शुद्धोपयोगिभिः समं सभकाष्ठत्वं न भवेत् यतः शुद्धोपयोगिनो निरस्त समस्त कवायत्वादनालवा एवं । इमे पुनरनवकीर्णकपायकगासाश्रया एव ।
-प्रवचनसार गाथा २४५ की टीका
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धार्मिक विचार |
froat तथा व्यवहारी सुनि :
अन्यत्र उन्होंने निश्चयी तथा व्यवहारी मुनियों के स्वरूप का भी उल्लेख किया है। उनमें जो स्वद्रव्य (आत्मा) की श्रद्धा करता है, स्वद्रव्य को जानता है और स्वद्रव्य के प्रति उपेक्षाभाव रखता है वह निश्चय नय से श्रेष्ठ मुनि है । जो परद्रव्य की (७ तत्त्वों की भेद रूप) श्रद्धा करता है, परद्रव्य को जानता है तथा परद्रव्य के प्रति उपेक्षाभाव रखता है वह व्यवहारी मुनि माना गया है ।"
चार प्रकार के श्रमण संघ :
आचार्य अमृतचन्द्र ने ४ प्रकार के श्रमण संघों का भी संकेत किया है । वे ४ प्रकार है ऋषि, मुनि, यति और अनगार। इनमें ऋद्धि प्राप्त को ऋषिः प्रवधि, मनः पर्यय तथा केवलज्ञानी को मुनि उपशम या क्षपक श्रेणी में प्रारूढ़ को यति और सामान्य साधुनों को अनगार कहते हैं । इन चारों प्रकार के श्रमण संघों के उपकार का अनुराग शुभोपयोगी मुनियों में होता है युद्धोपयोगियों में नहीं पी श्राचार्य, उपाध्याय तथा साधु भी शुद्धोपयोगी मुनि की बन्दना आदि करते हैं । उक्त प्रवृत्ति शुद्धोपयोगियों के नहीं होती ।
[ ४८
मुनियों के ५ प्रकार :
पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ तथा स्नातक ये ५ प्रकार भी मुनियों के कहे गये हैं। इनमें बकुश के शरीर अकुश तथा उपकरण बकुश ये दो भेद हैं । कुशल के प्रतिसेवना तथा कषाय ये दो प्रकार हैं। इनके
१.
३.
स्वद्रव्यं श्रद्दधानस्तु बुध्यमानस्तदेव हि । तदेवापेक्षमाणश्च निःचयान्मुनिसत्तमः ॥६ श्रद्धानं परद्रव्यं बुध्यमानस्तदेव हि । तदेवोपेक्षमाणाश्च व्यवहारी स्मृतो मुनिः । ५ ।।
- तत्वार्थसार उपसंहार । "चातुर्वर्णस्य श्रममासघस्योपकारकरणप्रवृत्तिः सा सर्वापि रामप्रधानत्वात् शुभनामेव भवति, न कदाचिदपि शुद्धोपयोगिनाम् । " श्रमणेषु यदननमकरण - " प्रवचनमार गाथा १४९ तथा २४७ की टीका । शोधा कुशीलो द्विविधस्तथा
"पु·ाको
त्रिन्थः स्नातकश्चैव नियंन्थाः पञ्च कीर्तिताः ॥
तत्वार्थसार श्र. ७ पद्य ५८ ।
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४६० ।
। प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तुत्र
संक्षेप में निम्न प्रकार के लक्षण होते हैं । जो उत्तर गुणों की भावना से रहित हो तथा किसी क्षेत्र काल में किसी मूलगुण में प्रतिचार लगावे, जिनके अल्प विशुद्धता हो उसे पुलाक कहते हैं । जो मूलगुणों को निर्दोष पालन करता हो किन्तु धर्मानुराग के कारण शरीर व उपकरणों की शोभा बढ़ाने के लिये कुछ इच्छा रखता है वह बकुश है । जो शरीर तथा उपकरण प्रादि से पूर्ण विरक्त न हो और मूलगुणों तथा उत्तरगुणों की परिपूर्णता हो परन्तु उत्तर गुण की कदाचित् क्वचित् विराधना होती हो, वे प्रतिसेवना कुशील हैं और जिनके मात्र संज्वलन' कषाय शेष हो उसे कषाय कुशील कहते हैं। जिन मोह कर्म उपशांत अथवा नाश हो गया हो ऐसे ११वें तथा १२वें गुणस्थान वाले मुनि निनन्थ कहलाते हैं। समस्त घातिया कर्मों का नाश करने वाले सयोगी तथा अयोगी के वली म्नातक कहलाते हैं ।' मुनि दीक्षा विधि :
प्राचार्य अमृतचन्द्र ने स्पष्ट लिखा है कि गृहस्थों को अपने पद तथा शक्ति का विचार करके ही सफल व्रतधारियों मुनियों के प्राचरण को अंगीकार करना चाहिए। उन्हें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय धारण करने के बाद ही यथाशीघ्र मुनि पद ग्रहण करना चाहिए । निग्रन्थता को दीक्षा का उत्सव मोक्ष रूपी लक्ष्मी के स्वयम्बर समान है। अतः मुनि धर्म का उपदेश न करके ग्रहस्थ धर्म का उपदेश दाता तुच्छबुद्धि तथा दण्डनीय है, क्योंकि वह क्रम भंग उप झ देने वाला है। उसके कप भंग उपदेश से अति उत्साही शिष्य भी तुच्छ स्थान में हो संतुष्ट होकर उगाया जाता है । इस प्रकार महान, महत्त्वपूर्ण मुनिपद
१. तत्त्वार्थसून अ. ६ सूत्र ४६ पृ. ७४० सं. पं. रामजी भई । २. पु. सि. पच २०० ३. वही, पद्य २१० ४ मोक्षलक्ष्मी स्वयंवरायमारपपरमनग्रन्थ्यदीभाक्षगा-."
-प्रवचनसार गाथा 5टी। ५. “यो यति धर्मभकथन्नुपदिशति ग्रहस्मधर्ममल्पमतिः ।"
तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शित निग्रहस्थानम् ॥१८ ।। अक्रमकायनेन यतः प्रोत्सहमानोऽतिदूरमपि शिष्यः । अदिपि सम्प्रतृप्तः प्रतारितो भवति तेन दुर्मतिना ।। १६ ।। पु. सि. ॥
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धार्मिक विचार ]
[ ४६१
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की दीक्षा विधि का उल्लेख भी सविस्तार किया गया है। जो व्यक्ति श्रमण होना चाहता है, वह सर्वप्रथम विदाई लेता है।
१. विधाई क्रिया :-वह बंधुवर्ग से विदा मांगता है तथा गुरुजनों अर्थात् बड़ों से (माता-पिता स्त्री पुत्रादि से) अपने को छुड़ाता है और ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चरियाचार, तपाचार तथा बीर्याचार इन पंचाचारों को स्वीकार करता है। वह समस्त वाह्य सम्बन्धों को भिन्न जानकर अपने आत्मा को माता-पिता-पुत्र आदि रूप में देखता है ।"
२. पंचाचारों का स्वरूप :
ज्ञानाचार :- मुनि स्वाध्याय काल बिचारते हैं, अनेक प्रकार विनय आदि करते हैं, शास्त्र भक्ति हेतु दुर्धर उपधान तथा बहुमान करते हैं, उपकार को नहीं भूलते. अर्थ व्यंजन तथा दोनों की शुद्धता में सावधान रहते हैं. यह सभी पाचरण ज्ञानाचार है ।
वर्शनाचार :- वे प्रनाम, संवेग, अनुकम्पा तथा आस्तिक्य भावनाओं का पालन करते हैं तथा शंका, कांक्षा आदि दोषों को टालते हैं उपगृहन, स्थितिकरण ग्रादि अंगों को पालन करते हैं, इसे ही दर्शनाचार कहते हैं।
चारित्राचार :-द पंच महाव्रतों, तीन गुप्तियों का प्रवलम्बन करते हैं तथा ५ समितियों की सावधानी रखते हैं, इसे चारित्राचार कहते हैं ।
तपाचार :- बारह प्रकार सपों का पालन तपाचार है।
वीर्यात्तार :- शुभ क्रिया काण्ड में पूर्ण शक्ति के साथ वर्तन करना वीर्याचार है। इस प्रकार वे पंचाचारों को अंगीकार तो करते हैं परन्तु वे यह जानते हैं कि निश्चय से ये समस्त प्राचार आत्मा के नहीं हैं, पराधित हैं, तथापि शुद्धात्मा की प्राप्ति से पूर्व तक इसे धारण करते हैं ।
३. प्रणत तथा अनुगृहीत होने की विधि :-- तत्पश्चात् श्रमण पद का इच्छुक प्रणत तथा अनुगृहीत होता है। वह श्रमण, गुणाढ्य, कूलविशिष्ट, रूप बिशिष्ट, बय विशिष्ट तथा श्रमणों को इष्ट गणी आचार्य) के समीप जाकर शुद्धात्म तत्त्व की उपलब्धि रूप सिद्धि के लिए नाचार्य से प्रार्थना करता है और उनके समक्ष प्रणाम करता है इसे प्रणत विधि
१. "यो हि नाम श्रमणों भवितुमिच्छति स पूर्वमेय बन्धुवर्गमापृच्छत, गुरु
वालापुत्रेभ्प पात्मानं निमोच यति, ज्ञानदर्शनचारित्रतपोबी यांचारमासीदति । तथाहि ।"
-प्रवचनसार, गायः २०२ की टीका ।
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४६२ ]
। प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
कहते हैं। प्राचार्य उसे अभ्यथित अर्थ की सिद्धि का उपदेश देकर अनुगृहीत करते हैं यही अनुगृहीत विधि है ।'
४ नग्नत्व धारण किया :- तत्पश्चात वह यथाजात रूप धारण (अर्थात् जन्म के समय जैसा नग्न रूप धारण करता है। वह विचार करता है कि कोई परद्रव्य उसके नहीं, वह किसी परद्रव्य का नहीं है। वास्तव में प्रात्मा को समस्त परद्रव्यों से कोई सम्बन्ध नहीं है। समस्त लोक में एक प्रात्मा ही उसका है अन्य कुछ भी नहीं। इस प्रकार इन्द्रिय नोइन्द्रिय को जीतकर जितेन्द्रिय होता है। आत्म द्रव्य का सहज रूप धारण करने से यथा जातरूता पर दोता है। थानाना भर यात्मा के अयथाजातरूप धरत्व के कारण रूप मोह-राग-द्वषादिभावों का प्रभाव होता है तथा उनके प्रभाव के कारण, वस्त्राभूषण धारण, सिर व दाढ़ी के बालों का रक्षण, परिग्रह का लेशमात्रपना, सावद्य (हिंसा-कारक) योग से सहितपना तथा शारीरिक संस्कार करना -- इन पांचों का प्रभाव होता है। इस प्रकार बाह्य लिंग होता है। साथ ही मोह-राग-द्वेषादि के अभाव के कारण ही ममत्व परिणाम, जिम्मेदारी ग्रहण का भाव, शुभाशुभ से रंजित उपयोग की शुद्धता, तथा परद्रव्यों का सापेक्षपना, इन सभी का अभाव होता है, इसलिए अंतरंग लिंग भी होता है। इस प्रकार दोनों लिंगधारी होकर श्रमणपने को प्राप्त करता है ।२
५. २८ मूलगुणों का धारण :-२८ मूलगुणों में ५ महाव्रतत ५. समिति, पांच इन्द्रियजय, षट् आवश्यक तथा शेष ७ गुणों का उल्लेख है। मुनियों के १२ तप :
इनमें ६ बहिरंग तप हैं तथा छह अंतरंग तप हैं। बहिरंग तपों में अनशन, ऊनोदर (एकाशन), विविक्त शय्यासन अर्थात् जीव रहित स्थान में रहना, रस परित्याग तथा काय-क्लेश, ये छह बताये गये हैं; तथा दर्शन ज्ञान चारित्र-उपचार-रूप विनय करना, अपने गुरु आदि पूज्य पुरुषों की सेवा करने रूप बयाबृत्य, गुरु के समक्ष अपने दोषों को कहना - प्रायश्चित, शरीर में ममत्व में व्युत्सर्ग, चारों अनुयोगों के अभ्यास रूप स्वाध्याय
१. "ततो श्रामण्याची प्रणतोऽनुगृहीतश्च भवति । तथाहि .......।"
-प्रवचनलार गाथा २०३ टीका। २. वही, गाथा २०५, २.६, २०७.
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धार्मिक विचार
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तथा पंच परमेष्ठी और निज आत्मा का ध्यान करना ये ६ अंतरंग तप हैं।' तोन गुप्तियां :- .
वे मन गुप्ति, वचन गुप्ति और काय गुप्ति रूप ३ गुप्तियों को पालन करते हैं। दशधर्म :
सत्तममा, उत्तम मार्दव रम ग्रार्जन, नतम शीच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम नप, उत्तम त्याग, उत्तम प्राकिंचन्य तथा उत्तम ब्रह्मचर्य इन दशधर्मों को मुनि धारण करते हैं । बारह भावनाएं :___अनित्य, अशरण, संमार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, बोधिदुर्लभ, धर्मानुप्रेक्षा, लोक भावना इन १२ भावनाओं का चिन्तन मुनिराज निरन्तर करते रहते हैं । बाईस परीषह-जय :
क्षुधा (भूरस सहन करना}, नृषा (प्यास सहन करना], शीत (ठंड सहन करना), उष्ण (गर्मी सहन करना), नग्न रहने में दुःख न मानना, याचना नहीं करना, अनिष्ट संयोग में अरति न करना, अलाभपरीषह, (पारणा के दिन निर्दोष प्राहार का लाभ न होना!, दंशमशक (मच्छर आदि के काटने पर सहनशील रहना), अपनी निंदा सुनकर आक्रोश न करना, रोग परीषह रोग आने पर दुःखी परिणाम नहीं करना , तृण परीषह (शरीर में कांदा आदि लगने पर उसे नहीं निकालना), अज्ञान परीषह (श्रुत का पूर्ण लाभ न होना), प्रदर्शन परीषह (प्रयोजन सिद्धि न होने पर भी क्लेश न करना), प्रज्ञा परीषह जान का गर्व न करना), सत्कार-पुरस्कार परीषह (सत्कार में हर्ष अगादर में विषाद नहीं करना, शय्या परीषह (कोमल त्रय्या पर सोने का अनुराग छोड़ना), चर्या परीषह (यमन में दुःख
१. पु. सि. पद्य १६८, १९६, २. यही, २०२ ३. बही, पद्य २०४ ४. वही, पद्य २०५ ५. वही, पद्य २०६, २०८
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| आचार्य श्रमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
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न मानना ), वध परीषद् ( किसी द्वारा सताये मारे जाने के दुःख सहन करना), निषधा परीषद् (कंचन कांच महल श्मशान में उपसर्ग में वयं धारण करना) तथा स्त्रीसंग परित्याग रूप स्त्री परीषद् । इन २२ परीषहों को मुनिराज धारण करते हैं ।"
आचार्य अमृतचन्द्र ने मुनियों के प्रतिक्रमण, आलोचना, प्रत्याख्यान तथा सकल कर्म सन्यास विधि का विस्तृत गम्भीर, स्पष्ट तथा प्रायोगिक वर्णन प्रस्तुत किया है।
मुनि के निषिद्ध कार्य :
ज्योतिष मन्त्र तन्त्रादि का निषेध :- आचार्य अमृतचन्द्र ने जहां तहां मुनि पद के अयोग्य कार्यों का संकेत तथा निषेध किया है । वे लिखते है कि परम निर्ग्रन्थता रूप प्रवृज्या की प्रतिज्ञा लेकर संयम तपादि के भार को वहन करने पर भी यदि मुनि मोह की बहुलता के कारण शुद्ध चैतन्य ग्रात्मा के व्यवहार को छोड़कर निरन्तर मनुष्य व्यवहार के चक्कर में पड़कर लौकिक कार्यों से निवृत्त नहीं होता तो वह लौकिक श्रमण है। मोक्षमार्गी श्रमण नहीं है । * श्रमण तो शुद्ध आत्मतत्व में परिणत होने तथा कषाय रहित होने से वर्तमानकाल में मनुष्यत्व होने पर भी स्वयं समस्त मनुष्य व्यवहार से रहित (बहिर्भुत) निस्पृह होता है ।" उसकी प्रवृत्ति प्रलौकिक होती है । प्राचार्य जयसेन ने लौकिक कार्यों में निश्चय व्यवहार रत्नत्रय के नाश करने वाले, अपनी प्रसिद्धि, बड़ाई व लाभ यादि के कारणभूत ज्योतिष मन्त्र-तन्त्र, वैद्यक तथा गृहस्थों के जीवन के उपाय रूप कार्यों को परिगणित किया है। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवती ने तो स्पष्ट लिखा है कि जो जिनलिंग ( मुनिपना) धारणकर कष्ट करते हैं, ज्योतिष, मन्त्र तन्त्र वैद्यक यदि कार्य करते हैं, घन चाहते हैं, यश, सुख, ऋद्धि आदि चाहते हैं. ग्राहार,
r
१.
?.
४.
५.
६
७.
पु. सि २०७ २०८
आत्मख्याति गु. ५२३ से ५३५ तक
जै. सि. कोप भाग ४
पृ. ४०६
प्रवचनसार गाधा २६६ की दोका ।
मही गया २२६ की टोका सि.नं. १६
प्रवचनसार गा. २६६ (टीका जयसेन )
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[ ४६५ भय, मथुन, परिग्रह आदि से संयुक्त होते हैं, गृहस्थों की विवाह विधि आदि मिलाते हैं वे मुनि कुभोगभूमि में कुमानुष बनते हैं । अतः प्राचार्य मल्लिपेण न तो स्पष्ट लिखा है कि है मुनि । क्या इन वस्त्रों के त्यागने मात्र से मुनि हो जाता है ? क्या कांचली छोड़ने मात्र से सर्प निविष हो जाता है ? अर्थात् कदापि नहीं होता । तप का मूल तो उत्तम क्षमा, इन्द्रियों पर विजय पाना, सत्यवचन बोलना तथा शुद्ध आचरण पालना है। यदि हृदय में रागादि को ही बढ़ाया अर्थात धन-धान्य, सबारी, चेले, महल, वस्त्राभूषशादि परिग्रह की चाह न मिटी तो मुनिमुद्रा नग्नता) भेष मात्र ठहरी, ग्रतः मुनि को सर्वप्रथम अंतरंग मिथ्यात्वादि परिग्रह का त्यागी होना योग्य है ।' पशून्य, हास्य, ईर्ष्या, माया आदि की बहुलता युक्त श्रमणपने (नग्नपने) से क्या साध्य है । वह तो एकमात्र अपयश का पात्र है। अन्य निषिद्ध कार्य :
मुनि को स्वच्छन्द तथा एकल बिहारी होना इस काल में वजित है। उसे दुर्जन, लौकिकजन, तरुणजन, स्त्री, पुश्चली, नपुसक, पशु प्रादि की संगति वर्जित है। मुनि को प्रायिका से ७ हाथ दूर रहना चाहिए। पार्श्वस्थ आदि नष्ट मुनियों की संगति नहीं करना चाहिए। जिनलिंग धारण कर नाचना, गाना, बाजा बजाना, अभिमान करना, कलह विवाद करना, महिला वर्ग में राग करना, दूसरे के दोष निकालना, गृहस्थों तथा शिष्यों पर सतह करना, स्त्रियों में विश्वास करके उन्हें दर्शन, झान, चारित्र प्रदान करना ये सभी पार्श्वस्थ आदि भ्रष्ट मुनि के कार्य हैं । इनसे मनि तियंग्योनि तथा नरकगति का पात्र होता है। जो पांच प्रकार के पावस्थ, कुशील, संसक्त, अपगतसंज्ञ, तथा मृगचारी मुनि कहे हैं. वे बन्दना प्रशंसा, सगति करने के योग्य नहीं है। इनको शास्त्रादिक विद्या
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१. त्रिलोकसार गाया ६२६ २. सजनविल्ल भ पद्य नं. ३. पृ. ६. ३. ष्टपाहुड़ (भावपाहड़) गाथा मान । ४. जे मि, कोश, ४:४० ६. ५. वहीं, ४ ४०६. ४०७ ६. वही, पृ ४.४०६
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मा करानान्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व के लोभ से, राग से, भय से भी कभी भी वन्दना-विनय आदि नहीं करे।' ऐसा जिनागम का प्रादेश है। आहार के ४६ दोषों के त्याग का उपदेश :__मुनियों को आहार के ४६ दोषों को दूरकर ही आहार लेन का विधान है। उनमें १६ उद्गमदोष, १६ उत्पादन दोष, १० भोजन सम्बन्धी दोष तथा ४ अन्य दोष परिगणित है ।
१६ उद्गम दोषों के नाम :- प्रधः कर्म, उद्दिष्टाहार, साधिक, प्रति, मित्र, स्थापित, बलि, प्राभत, प्रादुष्कर क्रीतनर, ऋण, परावर्त, अभिहत उद्भिन्न मालरोहण पाच्छेद्य, अनीशार्थ ये १६ दोष दातार के प्राधीन हैं।
१६ उत्पादन दोषों के नाम :- धात्री, दूत. निमित्त, आजीव, वनीयक, चिकित्सा, क्रोष मान, माया, लोभ, पूर्व संस्तुति, पश्चात् संस्तुति, विद्या. मंत्र, चूर्ण तथा मूल दोष, ये १६ पात्र के प्राधीन है।
१० भोजन सम्बन्धी दोष :- शंकित, मृक्षित, निक्षिप्त विहित, संव्यवहार, दायक, जन्मिश्र, परिणत, लिप्त, परिजन ये १. भोजन संबंधी दोष हैं।
शेष ४ अन्य दोष :- अंगार, धूप, संयोजन तथा प्रमाण दोष, ये ४ अन्य दोष है। इस तरह ४६ दोपों का निषेध करके ही आहार लेना यथार्थ मुनि का कर्तव्य है।
इस प्रकार मुनि-पाचार पर प्रकाश डालने के पश्चात् श्रावकाचार पर प्रकाश डाला जाता है ।
श्रावकाचार प्राचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा है कि जो जीव बारबार समभाने पर भी सवाल पाप रहित मुनि-वृत्ति को ग्रहण करने में असमर्थ हो, उसे एक देश पाप क्रिया र हित श्रावकचार का उपदेश दिया जाता है। श्रावक भी अपनी शक्ति अनुसार सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप मुक्ति मार्ग का हमेशा सेवन
१. मुलाराधना (भनवती अराधना) पृ. १५७ २ माधु को ध्यान में रखकर बनाया गया पाहार उद्दिष्टाहार है। ३. पु. सि. १७
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धार्मिक विचार
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करता है । उपरोक्त रत्नत्रय में से सर्वप्रथम समस्त प्रयत्नों द्वारा सम्यग्दर्शन को भलीभांति प्रकट करना चाहिए क्योंकि उसके होने पर ही सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र होता है।" सम्यग्दर्शन का स्वरूप :
जोव अजीवादि तत्त्वार्थों का सदा विपरीत अभिप्राय रहित अद्धान ही सम्यग्दर्शन है । वह श्रद्धान ही पात्मा का स्वरूप है। उक्त जीवादि तत्त्वों में बहत समय से छिपी हई आत्मज्योति द्धनय के द्वारा प्रकट होती है। वह आत्मज्योति या आत्मस्वरूप समस्त नैमित्तिक भावों से भिन्न है, एक रूप है, तथा पद पद पर चैतन्य चमत्कार मात्र प्रकाशमान है। उक्त आत्मज्योति की जो अनुभूति है, वहीं यात्मख्याति है तथा जो आत्मख्याति है, वहीं सभ्यग्दर्शन है। ऐसा सम्यग्दर्शन जिसे प्रकट होता है उसे दूसरों से पूछने की जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि उसके प्रकट होने पर प्रात्मा की तृप्ति तथा वचन अगोचर सुख की प्राप्ति होती है। वह सुख तत्काल ही स्वयं के अनुभव में प्राता है ।
सम्यग्दर्शन के पोषक पाठ मंग :- सम्यग्दर्शन के पोषक पाठ अंग माने गये हैं। उनमें सर्वज्ञदेव कथित समस्त जीवादि पदार्थो के अनेकान्तात्मक स्वरूप में शंका न करना प्रथम निशंक्ति अंग है। इस लोक में ऐश्वर्य-सम्पदा आदि तथा परलोक में चक्रवर्ती, नारायण
आदि पदों तथा एकांतवादी अन्य धर्मों की बांछा नहीं करना दूसरा निकांक्षित अंग है । भूख प्यास. सर्दी गर्मी प्रादि विभिन्न भावों में तथा मलिन पदार्थों में ग्लानि नहीं करना तोसरा निविचिकित्सा अंग है। लोक में शास्त्राभास, धर्माभास तथा देबलाभास में तत्त्वरूचिवान पुरुषों द्वारा सदा मूढ़ता रहित श्रदान करना चौथा यमुढढष्टि अंग हैं । दुसरे के दोषों को ढकना तथा मार्दव, क्षमा, संतोषादि धर्म की अपने में वृद्धि करना पाचवां उपगहन अंग है। काम क्रोध मद लोभ आदि विकार के कारण न्यायमार्ग से विचलित हुए स्वयं तथा पर को पुन: स्थित करना छठवां स्थिति करण अंग है । मोक्ष सुखसंपदा का कारण धर्म
१. पु. मि. २०, २१ २. वहीं, २२ ३. समयसार गा. १३ की नात्मख्याति टीका, तथा कलश ऋ ५ ४. समयसार गा. २०६ की आत्मख्याति टीका ।
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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
अहिंसा तथा साधर्मीजनों में वात्सल्य भाव रखना सातवां वात्सल्य अंग है । निरंतर अपनी आत्मा को रत्नत्रय के तेज से प्रभावना युक्त करना
और दान, तप, जिनपूजन एवं ज्ञानातिशय द्वारा जैन धर्म की प्रभावना करना पाठवां प्रभावना अंग है।' उपरोक्त प्राठों अंगों में किसी भी अंग की हीनता होने पर सम्यग्दर्शन जन्म मरण को परम्परा को नाश करने में समर्थ नहीं होता, जिस प्रकार अक्षरहीन मंत्र विषवेदना को दूर करने में समर्थ नहीं होता । अतः अष्ट अंगसहित सम्यग्दर्शन धारण करना ग्रहस्थ का सर्वप्रथम कर्तव्य है । सम्यग्ज्ञान की पृथक उपासना का उपदेश :
यद्यपि सम्यग्दर्शन के साथ ही सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होता है तथापि सम्यग्दर्शन के पश्चात् सम्यग्ज्ञान की पृथक् आराधना करना श्रेयस्कर है. क्योंकि दोनों में लक्षण भेद से भिन्नता है। सभ्यग्दर्शन कारण है तथा सम्यग्ज्ञान काय है।
सम्यग्ज्ञान का स्वरूप :--प्रशस्त अनेकांतात्मक पदार्थों का निर्णय करना ही सम्यग्ज्ञान है । वह सम्यग्ज्ञान भी संशय विपर्धय तथा अनभ्यवसाय से रहित आत्मा का ही स्त्ररूप है ।
सम्यग्ज्ञान के पोषक आठ प्रम :- सम्यग्दर्शन की तरह सम्याज्ञान के पोषनः अाठ अंग हैं। उनमें मात्र शब्द रूप पाठ को जानना प्रथम व्यंजन।चार है, मात्र अर्थ को जानना, द्वितीय अर्थाचार अंग है, शब्द तथा अर्थ दोनों को जानना उभयाचार नामक तृतीय अंग है, सूर्योदय, सूर्यास्त, मध्यान्ह तथा मध्यरात्रि को छोड़कर योग्य काल में पटनपाटनादि करना कालाचार नामक चतुर्थ अंग है। विनयपूर्वक आराधना करना पंचम बिनयाचार अंग है, पठितांश को स्मरण (धारणा) में रखना उपधानाचार नामक षष्ठ अग हैं, शास्त्र तथा अध्यापक का आदर करना सप्तम बहुभानाचार प्रग है तथा ज्ञानप्रदाता गुरु का उपकार लोप
१. २. ३. ४.
पू. सि. २३-३० र. क. श्रा. पद्य २१ पु. सि. ३१, ३२, ३३ वहीं, ३५
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धार्मिक विचार ]
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नहीं व.रना अष्टम अनिवाचार नामक अग है।' इस प्रकार अष्ट अगम हित सम्य ज्ञान की उपासना करनी चाहिए। सम्यक्चारित्र की ग्राराधना का उपदेश :
___ सम्यग्दर्शन द्वारा दर्शनमोह को नाशकर, तथा सम्बज्ञान द्वारा तत्वार्थ को जानकर सदाकाल अकम्प सम्यकचारित्र का अवलंबन करना चाहिए। प्रज्ञान सहित चारित्र का सेवन सम्याचारित्र नाम नहीं पाता अतः सम्यग्ज्ञान के बाद ही सभ्यश्चारित्र की आराधना कही गई है ।। सम्यक्चारित्र का स्वरूप :
समस्त पापयुक्त मन-वचन-कायरूप योगों के त्याग से संपूर्ण कषाय रहित, निर्मल परपदार्थों से विरक्तिका सम्यक् चारित्र है। वह सम्यक्चारित्र भी यात्मस्वरूप है । वहां पांचों पापों के एक देदा त्यागरूप देशवत तथा सर्वदेश त्याग रूप महायत ये चारित्र के दो प्रकार है। वास्तव में गंचों T!प हिंगामा ही हैं : माजी सभी गभित हो जाते है तथापि शियों का समझाने के लिए ही उसके ५ भेद उदाहरण स्वरूप कहें हैं।
हिसा हिसा का लक्षण :- कषाय के कारण परिणमित मन-वचनकाय के योग से जो द्रव्य तया भावरूप दोनों प्रकार के प्राणों का घात है वह निश्चय ने हिंसा है । अथवा रागादि भावों की उत्पत्ति ही हिंसा है तथा उनकी उत्पत्ति न होना ही अहिंमा है. यही हिंसा प्रहिंसा के संबंध में जिनागम का सार है । यद्यपि परबस्तु के कारण थोडी भी हिंसा नहीं होती तथापि परिणामों की निर्मलता के लिए हिंसा के स्थानों का परित्याग करना उचित है । द्रव्य तथा भाव हिंसा के विशेषों को समझार समस्त प्रकार के आभागों का त्याग करना उचित है । हिसा के अभिप्राय वाला जीव द्रव्याहिंसा न होने पर भी हिंसा के फल को भोगता है जबकि तदाशय रहित को द्रव्यहिंसा होने पर भी हिंसा का फल प्राप्त नहीं होता । तीव्र कषायी जीव को हिंसा कम होने पर भी हिंसा का फल बहुत होता है । जैसे
१. २. ३. ४.
. सि. ३: रट्टी ".. वही ६, ४०. ४ पु. मि. ४३. ४४
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५०० ।
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व मछली, हरिण प्रादि को मारने के अमिप्राय से युक्त ढीमर तथा बहेलिया आदि | तथा मंदकषायवान् को यहिंसा अधिक होने पर भी हिंसा का फल कम होता है जैसे किसान प्रादि ।' एक साथ कई जनों द्वारा की गई हिंसा का फल परिणामानुसार भिन्न-भिन्न होता है । किसी को हिंसा करने के पूर्व ही हिंसा का फल मिल जाता है, किसी को हिंसा के काल में ही हिंसा का फल मिलता है तथा किसी को हिंसा करने का प्रारम्भ करके हिंसा न करने पर भी हिंसा का फल मिलता है। जैसे किसी का मारने का घात लगाकर बैठ हए जन का ही घात हो जाता है तथा मए स्वयं ही समुद्र में तुफानादि से मर जाते हैं । इस तरह स्पष्ट है कि हिंसा काय भावों के अनुसार ही फलती है । इसी तरह एक हिंसक के अनेक अनुमोदन कत्रिों को हिंसा का फल होता है। अनेक जनों द्वारा की गई हिंसा का फल एक को ही मिलता है । जैसे सेना हिंसा करती है तथा फल राजा भोगता है । हिंसा किसी को उदय काल में अधिक तो किमी को कम फल देती है । इस प्रकार हिस्य, हिमक, हिंसा तथा हिंसाफलों को जानकर यथाशक्ति हिंसा का परित्याग करना चाहिए ।
__ पांच उदुम्बर फलों तथा तीन मकारों के त्याग का उपवेश :- हिंसा के त्याग के इच्छुक जनों को सर्वप्रथम प्रयत्नपूर्वक मद्य, मांस तथा मधु इन तीन मकारों का तथा बड़, पोपल, गुलर, ऊमर, कटूमर इन पांच उदुम्बरों का त्याग करना चाहिए क्योंकि इनसे महान हिसा होती है।
मद्य का स्वरूप :- मदिरा मन को मोहित करती है। मोहित चितवाला पुरुष धर्म को भूल जाता है तथा धर्म को भूला हुमा जीव निश्शंक होकर हिंसा का आचरण करता है । मदिरा रस बहुत से जीवों की उत्पत्ति का स्थान है अतः मद्य सेवन करने वाले को उनकी हिंसा अवश्य होती है। अभिमान, भय, ग्लानि, हास्य. अरति, शोक, काम, क्रोधादि सभी हिंसा के भेद हैं और यह सभी मदिरा के निकटवर्ती है । मनत्यागी को इन सभी का त्याग करना चाहिए।
मांस का स्वरूप :- प्राणियों के घात बिना मांसोत्यति नहीं होती इसलिए मांसभक्षी पुरुष को अनिवार्य रूप से हिंसा लगतो है, । स्वयं मरे
१. पु. मि. ४६, ५१, ५२ २. वही ५३ से ६० ३. पु. सि. ६१-६४
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धार्मिक विचार |
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हुए प्राणी के मांस में भी उसो जाति के निगोदिया जीव होते हैं, अतः मांस भक्षो को उनकी हिंसा लगती है । कच्ची, पकी या पकतो हुई मांस पेशियों में उसी जाति कि सम्मूच्र्छन जीवों की निरंतर उत्पत्ति होती रहती है अतः सर्वप्रकार के मांस भक्षण में हिंसा अनिवार्य रूप से होती है । इसलिए मांस भक्षण का परित्याग करना चाहिए।
मधु का स्वरूप :-मधु की एक बूद भी मधुमक्खियों की हिंसा रूप होती है । स्वयं पतित मधु में उसो जाति के अनंतजीव उत्पन्न होते हैं अतः उसके खाने से महान हिंसा होती है । इसी प्रकार मक्खन को भी हिंसा का कारण जानकर त्याग करना चाहिए ।
पांच उदुम्बरों का स्वरूप :--पांच उदुम्बरों में अनेक बस जीवों की उत्पत्ति होती है, अत: उनके भक्षण से महान हिंसा होती है इसलिए उनका भी परित्याग करना चाहिए । उपरोक्त पाठ पदार्थों का त्यागी अथवा अष्टमूल गुणों का धारी ही जिन देशनः श्रवण करने के पात्र है । इस प्रकार अमृतदशा (मोक्ष की कारण रूप अहिंसारूपी रसायन पाकर के भी अज्ञानी जीवों का असंगत वर्तन देखकर व्याकुल नहीं होना चाहिए ।
। रात्रिभोजन त्याग का उपदेश :-- रात्रि भोजन में भाव हिमा तथा द्रव्य हिंसा दोनों होती है । रात दिन का भेद किये बिना पाहार ग्रहण करने में रागादि की तीव्रता पाई जाती है । जैसे अन्न के पास तथा मांस के ग्रास ग्रहण में मूी को न्यूनाधिकना होती है उसी प्रकार दिन के भोजन ग्रहण तथा रात्रि के भोजन ग्रहण में भी मूर्छा की न्यूनाधिकता पाई जाती है, अत: रात्रि में भोजन में भाव हिंसा अधिक होती है सूर्य के प्रकाश में सूक्ष्म जीवोत्पत्ति नहीं होती तथा सूक्ष्म जीवों को देखा भी जा सकता है, परंतु रात्रि में दीपक ग्रादि के प्रकाश में जीवों की उत्पत्ति भी विशेष होती है तथा उन्हें देखा भी नहीं जा सकता प्रतः रात्रि भोजन में द्रव्य हिंसा भी होती है, अतः अहिंसादि पांच नतो की सुरक्षा के लिए रात्रि भोजन त्याग अवश्य करना चाहिए ।
१. पृ. सि.. ६५-७१ २. वही, ७२-७५ तथा ७५ ३. वी, १२९, १२२. १३५
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| प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
तीन गुण व्रतधारण का उपवेश :---
श्रावकों को पंचावनों के उपरांत तीन गृणवत धारण करने योग्य कहे हैं । वे तीन हैं - दिव्रत, देशनत तथा अनर्थदण्डव्रत ।
दिग्नत का स्वरूप :- भली भांति प्रसिद्ध ग्राम, नदी, पर्वतादि द्वारा सभी दिशाओं में मर्यादा करके उन दिशानों में समान न करने की प्रतिज्ञा करता दिानत है ।
देशव्रत का स्वरूप :- दिग्बल की मर्यादानों के अंतर्गत ग्राम, बाजार मकान, मोहल्ला इत्यादि का परिमाण करके उस मर्यादा से बाहर न जाना देशवत है।
अनर्थदण्डवत का स्वरूप :- यह पांच प्रकार का है। इसमें शिकार, जय, पराजय, पुल पर त्रीसमान चारा आदि का किसी भी समय चितवन नहीं करना, अपध्यान त्याग नामक प्रथम अनर्थदय डवत' है । विद्या, ध्यापार. लेखन, पेतो नौकरी तथा कारीगरी प्रादि से निर्वाह करने वाले पुरुषों को पाप का उपदेशक बचन कभी नहीं कहना चाहिए। यह पामोपदेश त्याग नाम का दूसरा अनर्थदंडवत है। पृथ्वी खोदना, वृक्ष उखाइना. अतिशय घासबाली. भूमि रौंदना, पानी सींचना आदि: पत्र, फूल तोड़ना आदि कार्य बिना प्रयोजन नहीं करना प्रमादची त्याग नामक तीसरा अनर्थदण्डन्नत है । करी, विष, अग्नि, हल, तलवार, धनुष आदि हिंसा के साधनों को और को देना छोड़ना, हिसादान त्याग नामक चौथा अनर्थदण्डवत है । गग-द्वेष मोहादि वर्धक, अधिकांश प्रज्ञानांश युतः दुष्ट कथाएं सुनना, धारण करना तथा सीखना इत्यादि का त्याग दुःश्रति त्याग नामक पांचवा अनर्थदण्डवत हैं। जुमा त्याग का उपदेश :
सप्त ध्यसनों में प्रथम सब अनर्थों में मुख्य संतोष का नाशक, मायाचार का घर, चोरी और असत्य का स्थान स्वरूप प्रादुर से ही त्यागना चाहिए । चार शिक्षावतों के धारण का उपवेश :
तीन गुणवतों के बाद चार प्रकार के शिक्षायतों के धारण का भी उपदेश जिनागम में है। वहां राग-द्वेष के पाग से समस्त पदार्थों में साम्य - -- --. - १. पु. सि. १३७, १३६, १४१, १४५ २. वही १४६
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धार्मिक विचार !
[ ५०३
भाव को अंगीकार करके श्रात्म तत्त्व की प्राप्ति का मूल कारणरूप सामायिक बहुत बार करना चाहिए। सामायिक मुख्यतः रात्रि तथा दिन अंत में अवश्य करना चाहिए : अन्य किसी भी सामायिक करने में दोष नहीं है। सामायिक के समय चारित्रमोह के उदय होने पर भी समस्त पापों का त्याग होने से महाव्रत होता है । यह सामायिक नामक प्रथम शिक्षाबत
है ।
सामायिक की पुष्टि हेतु दोनों पक्षों की अष्टमी चतुर्दशी के दिन उपवास करना चाहिए। उपवास के लिए समस्त आरम्भ से मुक्त होकर, शरीरादि का ममत्व त्याग कर पर्व के पहले दिन में ही उपवास धारण करना चाहिए । पश्चात् संपूर्ण ४८ घंटे का काल धर्मध्यान में ही व्यतीत करना चाहिए । ' यह द्वितीय प्रवास नामक शिक्षाव्रत है | देशव्रती भावक भोगोपभोग से होने वाली हिंसा से बचने के लिए भोग तथा उपभोग की वस्तुनों में भी परिमाण कर लेता है, शेष का त्याग कर देता है । इसके अंतर्गत चनतकाय बाजे आदित्य बहुत ही बीदों की उत्पत्ति का स्थान मक्खन आदि का त्याग करना है । यह तीसरा भोगोपभोगपरिमाण नामक शिक्षावत है । गृहस्थ को विधिपूर्वक दातार के सप्तगुण तथा नवधाभक्ति युक्त अपने निमित्त से बनाये हुए शुद्ध भोजन का अंश अर्थात् ग्राहार दान करना चाहिए। दातार के ७ गुण इस प्रकार हैं - इस लोक संबंधी फल की इच्छा न करना सहनशील होना, निष्कपट होना, ईपरिहित होना, प्रत्रिभाव होना, हर्षनाव होना। नवधा भक्ति में पड़गाहन उच्चासन प्रदान, पादप्रक्षालन, पूजा करना, नमस्कार करना, मनशुद्धि, कायशुद्धि तथा भोजनशुद्धि ये नत्र बातें परिगणित हैं। श्रेष्ठ तप तथा स्वाध्याय की वृद्धि में सहायक द्रव्य ही दान करना चाहिए। दान के योग्य पात्र व्यक्ति तीन प्रकार के होते हैं। व्रतरहित सम्पादृष्टि देशव्रती श्रावक तथा सकलनती मुनि ये तीनों पात्र मोक्षमार्गी हैं। इस प्रकार यह यात्रत या अतिथि संविभाग व्रत नामक चौथा गुणव्रत है । इस प्रकार पाँच अबत और चार शिक्षात्रत ये १२ व्रत श्रावकों के धारण योग्य श्रावकाचार है | इनके धारण के पश्चात् मरण के समय सल्लेखना धारण करने का भी विधान है ।
१. पु.सि. १४८, १५४
२.
वहीं, १६१ से १७१
r
1
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५०४ ।
सल्लेखना का स्वरूप:
अवश्य होने वाले मरण के समय के पूर्व से हो काय तथा कषाय को क्षीण करना लेखना है । इसमें रागादि विभावों का अभाव होग से आत्मघात का दोष भी नहीं है 1 आत्मघाती तो वह है जो कषायाविष्ट होकर श्वारा निरोध तथा जल, अग्नि, विष शस्त्रादि से अपने प्राणों को पृथक करता है। जिनोक्त सल्लेखना या समाधिमरण तो कषायों की क्षोणता करने वाली तथा अहिंसा की सिद्धि करने वाली होने से अवश्य धारण करने योग्य है ।
! श्राचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
उपर्युक्त सम्यग्दर्शन. १२ व्रत, तथा सल्लेखना में दोष पैदा करने वाने प्रत्येक के पांच पांच प्रतिचार भी कहे हैं । उनके त्याग से निर्दोष परिपूर्ण श्रावकाचार पालन होता है ।
इस प्रकार उपरोक्त समस्त प्रतिचारों का त्याग करके श्रावकाचार का परिपूर्ण निर्दोष पालन करने बाला द्यात्मा शीघ्र ही अन्यकाल में पुरुष के प्रयोजन - मोक्ष की सिद्धि करता है । इस तरह प्राचार्य अमृतचन्द्र द्वारा वॉगत मुनि - प्राचार तथा श्रावकाचार, जैनाचार्य परम्परा में समंतभद्र के बाद सर्वाधिक प्रमाणिक माना गया है, तथा व्यापकता से प्रचलित हुआ है, बाद के सभी श्रावकाचार विषयक निरूपण उपरोक्त विचारों पर ही आधारित है ।
कृतकृत्यः परमपदे परमात्मा सकल विषय विषयात्मा । परमानन्द निमग्नो ज्ञानमयो नम्बति
पु. सि. १७७-१७९
श्रन्वयार्थः -- कृतकृत्य, समस्त पदार्थ जिनके विषय हैं अर्थात् सर्व पदार्थों के ज्ञाता विषयानन्द से रहित ज्ञानानन्द में अतिशय मग्न ज्ञानमय ज्योतिरूप मुक्तात्मा सर्वोच्च मोक्षपद में निरन्तर ही आनन्दरूप से विराजमान हैं।
श्राचार्य अमृतचन्द्र : पुरुषार्थ सिद्धयुपाय
सदैव ।। २२४||
JAAJ
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अष्टम अध्याय
उपसंहार
१. प्राचार्य अमृतचन्द्र का वैशिष्टय :
___प्राचार्य अमृतचन्द्र के विशाल व्यक्तित्व तथा व्यापक कर्तत्व पर गत सध्यायों में विशद् प्रकाश डाला गया है। उनके कुछ महत्वपूर्ण वैशिष्ट्य संक्षप में इस प्रकार हैं :
प्रथम - प्राचार्य अमृतचन्द्र का समग्न व्यत्तित्य अध्यात्मनिष्ठ, निज शुद्धात्मामृत से परिपूर्ण तथा प्रलौकिक है। वे अपनी सहस्रवर्षीय पूर्वाचार्य परम्परा के उन्नायक बं सम्प्रसारक है । साथ ही अपनी सहस्रवर्षीय उत्तरवर्ती शिष्य परम्परा के प्रणेता एवं अध्यात्मधारा के प्रवाहक हैं।
दूसरे - वे चिरस्थायी. परम हितकारी एवं परमानन्दामृत रस भरित साहित्य के असाधारण प्रणेता हैं । उनकी समस्त ऋतियां उनके बहुमुखी व्यक्तित्व की अमर म्मारक हैं । वे कृतियाँ मौलिक हों या भाष्यरूप, द्रव्यानयोग विषयक हों या चरणानुयोग सम्बन्धी, ज्ञानपरक हों या भक्तिपरक, दार्शनिक हों या धार्मिक - सभी में एक अद्वितीय अलोकिक अध्यात्मरस छलकता है ।
तीसरे - उन्होंने अपनी समस्त कृतियों के प्रारम्भ में अनेकांत अथवा स्याद्वाद की महिमा अवश्य प्रदर्शित की है। सर्वत्र ही उन्होंने प्रनकांतमयी बस्तूस्वरूप का निदर्शन स्याद्वादमयी निरूपण शैली में ही किया है। निश्चय-व्यवहार नय का समन्वित यथार्थ स्वरूप भी सुस्पष्ट किया है।
___ चौथे -- उन्होंने सभी टीकायें एवं मौलिक रचनायें अत्यंत पद्धता, समर्पणता तथा मग्नता के साथ की हैं। उनकी सभी टोकायें - "प्रथसूत्रावतार' शब्द से प्रारम्भ होती हैं और ग्रंथरचना के अहंकार के विकल्प
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५०६ ।
[ प्रापा अमृतचन्द्र : रवि एवं का
का निषेध करती हुई समाप्त होती हैं। टीकानों के अंत में उन्होंने स्वयं अपने को 'स्वरूप गुप्त अमृतचन्द्र" घोषित किया है. ग्रन्थकर्ता अमृत चन्द्र नहीं।
पांचवे - प्रत्येक रचना के प्रारम्भ में ही ग्रन्थ रचना का उद्देश्य, प्रतिपाद्य वस्तु तथा फल स्पष्ट घोषित किया गया है। प्रतिपाद्य वस्तु की सिद्धि में याप्त, आगम, अनुमान और आत्मानुभव का आधार लिया गया है। तत्व निरूपण में युक्तियों, तको तथा दृष्टांतों को प्रस्तुत किया गया है।
छठवें - उनत्री वातियां प्रालंकारिक, प्रौट, अर्थ-प्रगम्भा. किष्ट तथा विद्यमान-मनहानी संस्कृत भाषा में निर्मित है। उन्होंने सभी कृतियों में स्वानुभव की मती ग्नध्यात्म रसिकता की छाप छोड़ी है । साथ ही किसी भी कृति में उन्होंने अपन कुल, गुरु, शिष्य तथा स्थानादि का थोड़ा भी संकेत नहीं किया है जो उनकी परम निस्पृहता का श्रेष्ठ प्रमाण है।
सातवें - उनकी कृतियां उनके युग को सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों की झलक भी प्रस्तुत करती हैं। हिंसा, अहिंसा अादि सिद्धांतों का विशद् स्पष्टीकरण इसका प्रमाण है।
भाट - उत्थानिका या भाव सूचना पूर्वक टीका लिखने की गली का सूत्रपात मी उन्होंने किया है. जिसका अनुकरण पश्चाद्वर्ती अनेक टोकाकारों ने किया है। संस्कृत गद्यकाव्य. गद्यकाव्य तथा मिथकाव्य के प्रणमन में पं सिद्धहस्त एवं लन्ध प्रतिष्ठ। विस्तृत भाग्योक्त भावों को साररूप में इलोक रूप कलश में भरने की उनमें प्रपूर्व क्षमता थी।
तबमें – समयसार की प्रात्मख्याति टीका के अंत में स्यावाद एवं उपाय-जय अधिकार रचकर अद्वितीय कार्य किया है। उक्त अधिकार प्रात्मख्याति टीका का एसा बंशिष्ट्य है जो अन्यत्र सुलभ नहीं है। इसी अधिकार की समाप्ति पर सतालीम आत्मशक्तियों का स्वरूप दर्शन भी जैन अध्यात्म साहित्य में जोड़ है। इसी प्रकार प्रवचनसार नी तत्त्वप्रदीपिका टीका के अन्त में संतालीस नयों का सरल, स्पष्ट एवं सोदाहरण वर्णन वा तव में अर्णनीय है। पंचास्तिकाय की समय व्याख्या टीका के अन्त में निश्चया भाभी, व्यवहाराभासी का स्वरूप तथा सम्यग्दृष्टि के यथार्थ श्रद्धान, ज्ञान, व याचरण का स्पष्टीकरण जैन अध्यात्म
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उपसंहार ।
[ ५०७ साहित्य में अनुपम निधि है। उक्त वर्णन तत्त्वाम्यासियों, मोक्षमार्गाभिलापियों एवं मोक्षमागियों - सभी के लिए अत्यन्त हितकारी एवं महत्त्वपूर्ण है।
दसवें - पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में समस्त प्रकार के रागादि भावों की उत्पति को हिला तथा अनुत्पत्ति को दिया और पुण्यालय नो भोपयोग का अपराध कोषित करना अध्यात्म प्रवपा प्राचार्य अमृत चन्द्र की अध्यात्म दृष्टि का अनुपम नियंद है। 'ल तत्व स्फोट' नामक स्तोत्र काव्य द्वारा जैन दर्शन, अध्यात्म तथा भक्ति मार्ग को प्रदीप्त किया है। उक्त कृति प्राचार्य यमतचन्द्र को सैद्धांतिक विज्ञता, जिनेन्द्रनिष्टा तथा अध्यात्मरसिकता के चरमोत्कर्ष की प्रतीक है। संस्कृत वाङमय में प्रतीकात्मक नाटयशली तथा जम्पू काव्य-शैली का सफल प्रयोग भी अनुपम है। इस प्रवार प्राचार्य अमृतचन्द्र के बुछ वैशिष्ट्यों का यह संक्षेप है। २. अध्यात्मवाद के लिए प्राचार्य अमृतचन्द्र का योगदान :
प्राचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की रचना होने के बाद यद्यपि प्राचार्य परम्परा में अध्यात्म का पर्याप्त हा से रसास्वादन हुमा। उसके प्राधार पर ही संमतभद्र. पुज्यपाद, ग्रकलंकदव, विद्यानदि, गुणभद्र यादि आचार्यों ने अध्यात्म का रहस्योद्घाटन किया है, तथापि उक्त रहस्योद्घाटन इस तरह सर्वजनगाहा तथा सुलभ नहीं हो सका जिससे कि प्रत्येक ममक्ष सहज रूप से कन्द के साहित्य में निरूपित अध्यात्म के गहन रहस्य को हृदयंगम कार मात्म-मयाणोन्मम्स हो सके । साहित्यिक पत्र में यह एक बहुत बड़ी कमी थी। प्राचार्य अमृतचन्द्र ने इस कमी का अनुभव किया तथा 'इम निकृष्ट पंचमकाल में भी प्रत्येक भव्य प्राणी अध्यात्म रस पीकर मोक्षमार्ग का निसरपा करने में समर्थ हो सके हम परम उदाल भावना को ध्यान रखकर ही उन्होने अन्दनन्द प्राभृतय समय सार. प्रवचनसार तथा पंचाग्नि काय पर सारगभित, भाषिक टीकाये लिखीं। इसके साथ ही तदनसंगी और भी मालिका साहित्य का निर्माण कर अध्यात्मवाद के क्षेत्र में अक्षुग्ण, अपूर्व और असाधारण योगदान दिया।
जहां कलिकाल के प्रभाव से प्रज्ञानमयी मान्यतानों के मेधों से आच्छादित साहित्य-ग्राकाश में अध्यात्म के उपदादा खद्योतवत् टिमटिमाते थे.' वहां प्राचार्य प्रगृतचन्द्र अपन' चन्द्रोपम व्यक्तित्व के साथ प्राविर्भूत
१. सागर धमामृत (पं. आषाधर) अ./१ पद्य नं. ७
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५०८ ]
। आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व हुए तथा उन्होंने अपनी कृतियों द्वारा अध्यात्म की शीतल शांति दायिनी चांदनी बिहेर कर पथ भ्रष्ट पथिकों को परम कल्याण का पथ प्रदर्शित किया। उनका व्यक्तित्व अध्यात्मवाद का ऐसा द्रह था जिससे उनकी कुतियों रूपी अध्यात्म तरंगिणी प्रवाहित हुई जो चिरकाल तक अध्यात्म वाद की धारा को इस धरा-धाम पर प्रवाहित करती रहेगी। यह प्राचार्य - अमृतचन्द्र का अध्यात्मवाद के लिए महान् योगदान है।
कुन्दकुन्दार्य ने जिम तत्त्व का प्रतिपादन बड़ी सरल रीति से किया है, आचार्य अमृतचन्द्र ने उसी का विवेचन अपने समय की पाण्डित्य पूर्ण दार्शनिक शैली में किया है। इस प्रकार उन्होंने कुन्दकुन्द द्वारा प्रतिपादित आध्यात्म को दार्शनिक शैली में अवतरित करके कुन्दकुन्द के पश्चात् विकास को प्राप्त हुए दार्शनिक मन्तव्यों को भी उसमें समन्वित करने की - चेष्टा की है। इतना ही नहीं, कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में जो तत्त्व निहित थे, किन्तु अस्पष्ट थे, उन्हें भी उन्होंने स्पष्ट करके जैन तत्त्वज्ञान को समृद्ध बनाया है।'
अध्यात्मबाद वह निर्विकल्प रमायन है जिसके सेवन से आत्मा अपने स्वानुभव रूप अात्म तेज से चमकने लगता है तथा आत्मा में अमृत धारा बहने लगती है। प्रात्मा परमानंद सागर में निमग्न होकर परम तृप्ति को प्राप्त करता है । कुन्दकुन्द ने उक्त उद्देश्य से ही अपने प्रात्मानुभव के वैभव से अध्यात्म रहस्यभत मन्थों का प्रणयन किया है । प्राचार्य अमृतचन्द्र ने अध्यात्म रसपूरित, परमानन्द की मस्ती में झूमले हुए अपनी टोकायें रची हैं। उन्होंने कुन्दकुन्द के अध्यात्म तथा आत्मानुभूति विषयक रहस्यों का उद्घाटन करके उसे सर्वसाधारण को भी सुलभ बनाया है, २
उन्होंने हिंसा को मोक्ष की कारणभूत परम रसायन लिखा है।' साथ ही इस अहिंसा तत्व को नयद्दष्टि द्वारा समझने की अनोखी दृष्टि प्रदान की है।
इसी तरह आत्मख्याति टीका के अन्त में परिशिष्ट रूप में स्याद्वाद अधिकार तथा उपाय-उपेय अधिकार जोड़ कर जैन अध्यात्म को समझने की कुन्जी प्रदान की है। जिससे अध्यात्म का संदेश घर घर फैला है।
१. ज. सा. का ति पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री) पृ. १७६ २. श्री कुन्दकुन्दाचार्य का जीवन परिचर-संग्राहक न. यवानन्द, पृ. ६ रो तक ३. पु. सि. ७८ (कापी नं. २ पृ. ६३) ४. आ. शांतिसागर जन्मशताब्दि स्मृति ग्रन्थ पृ. ३५ (प्रारम्भिक)
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उपसंहार |
| ५०६
प्रवचनसार के ज्ञेयाधिकार में द्रव्य स्वरूप का विश्लेषण करते हुए आचार्य प्रमृतचन्द्र ने जो तिर्यय और उर्ध्वप्रचय का निरूपण किया है | वह उनकी एक ऐसी देन है जो उनसे पूर्व के साहित्य में नहीं पाई जाती । साथ ही उन्होंने कालद्रव्य को अनुरूप सिद्ध करने में जो उपपत्ति दी है, वह उनके जैन तत्त्वज्ञानविषयक अपूर्व पाण्डित्य की परिचायक है तथा अध्यात्मवाद के लिए अमूल्य योगदान भी है ।
३. वर्तमान युग के लिए उनकी देन :
अध्यात्म का
लोक में ग्रध्यात्म के नाम पर अनेक विचारधारायें प्रचलित हैं । इनमें किसी का ध्यान ब्रह्माद्वैत की प्ररूपणा करने वाले साहित्य की ओर जाता है और बहुतों का ध्यान उपनिषदों की ओर मुड़ता है, परन्तु वे वहां भी अध्यात्म के रहस्य को रहस्यमयी ही पाते हैं । मर्म स्पष्ट अनुभव न होने से उसके सम्पक् परिज्ञान, श्रद्धान तथा श्राचरण से वंचित ही रहना पड़ता है उसका अनुसरण ग्रात्मकल्याण में साधक नहीं बन पाता है । इन सभी समस्याओं का हल न हो पाना साहित्यिक क्षेत्र की एक बहुत बड़ी कमी थी। उक्त कमी को प्राचार्य कुन्दकुन्द ने प्राकृत गाथाबद्ध साहित्य रचकर दूर करने की सफल कोशिश की किन्तु 1 कालान्तर में कुन्दकुन्द द्वारा निरूपति अध्यात्मधारा का वृद्धिगत अर्थहीन क्रियाकाण्ड के घटाटोप में, लोप मा हो गया था। उसे पुनर्प्रवाहित करने, कुन्दकुन्द के सूत्रों का मर्मोद्घाटन करने और जगत् को सच्ची शांति व
विनाशी सुख का मार्गप्रदर्शन करने में बाचार्य अमुतचन्द्र की कृतियां + पूर्णतः सफल हुई हैं। उनके द्वारा प्रवाहित अध्यात्मगंगा चिरकाल तक श्रात्महितंबीजनों को प्रेरणा एवं शांतिदायिनी बनी रहेगी । यही उनकी वर्तमान युग को अनुपम देन है ।
उन्होंने भारतीय वार्मिक संस्कृत वाङ्मय को न केवल अपनी अमूल्य कृतियों की भेंट ही प्रदान की है श्रपितु उसे भलीभांति प्रौढ़ता और प्रगति भी प्रदान की है। साथ ही उसे विकसित एवं सुसमृद्ध भी किया है । वर्तमान में समग्र भारत एवं विदेशों में प्राचार्य प्रमृतचन्द्र की परम आध्यात्मिक कृतियों का समादर हुआ है। उनकी कृतियाँ ताड़पत्रों, कागजों तथा कपड़ों पर सैकड़ों वर्षों मे सुरक्षित हैं। अध्याय चतुर्थ में प्रदत्त सूचियाँ इस बात की प्रबल प्रमाण हैं कि प्राचार्य कुन्दकुन्द के बाद
१ जैसा का इतिहास ४ ११४४ पृ. ३३२
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५१० ]
| आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
अध्यात्म के क्षेत्र में याचार्य अमृतचन्द्र के समग्र साहित्य का जितना व्यापक प्रचार व प्रसार भारतवर्ष के कोने-कोने में हुआ है, जितनी के अमृतचन्द्र व्यक्तित्व से अध्यात्मधारा धनुप्राणित रही तथा वर्तमान में है उतना प्रचार-प्रसार ग्रन्य ग्राचार्य की कृतियों का संभवतः नहीं हुआ और उतनी अन्य आचार्य के व्यक्तित्व से अध्यात्म वारा अनुप्राणित नहीं रही है । आचार्य चन्द्र की कृतियों का विभिन्न भाषायों में विभिन्न प्रकाशनों संस्करणों तथा स्थानों द्वारा लाखों की संख्या में प्रकाश में आना, भारत के कोने कोने में उनकी कृतियों का अनवरत श्रध्ययन, मनन, पठन-पाठन, प्रचार एवं प्रसार होना इस बात का प्रमाण है कि समृतचन्द्र का व्यक्तित्व महत्वपूर्ण वरदान और उनकी कृतियां महत्वपूर्ण देन हैं ।
"उनका बहुमुखी व्यक्तित्व एक ऐसा सुव्यवस्थित जीवनरूपी गुलदस्तों है, जिसमें व्यक्तित्व के विभिन्न प्रसून प्रफुल्लित, सौरभित एवं सुशोभित हैं। ये अन्तर्मुख कवीन्द्र, प्रीतम साहित्यसृष्टा, सकल वैयाकरण, लब्धप्रतिष्ठ भाषाविद् स्थावित्रा शिद्धानेता अद्वितीय तार्किक, नैयायिक, ग्रपादक अध्यात्मरस में निमग्न रहने बाने स्वरूपगुप्त अमृतचन्द्र हैं । वे गम्भीर अध्यात्म रसिक तथा अध्यात्मयुग प्रणेता हैं । उनका कृतित्व भी व्यापक विमल एवं गम्भीर है। उनके साहित्य से निर्झरित अध्यात्म प्रवाह द्वारा प्रज्ञान विषय तथा कषाय में संतप्त जनों को निरन्तर अनुपम शांति, संतुष्टि एवं द्यानन्द मिलता रहेगा ।
|
उनका व्यक्तित्व भारतीय संस्कृत वाङ् मयाकाश का पूर्णचन्द्र है, जैन प्रध्यात्मरस का ध्रुवतारा है, दिगम्बर जैन श्राचार्य परम्परा का महान् रत्न है तथा उनका कर्तृत्व विशाल, गहन एवं सुसमृद्ध है, महान् वैशिष्टयों का रत्नाकर धौर चिन्तामणिरत्नवत् हितकर है D
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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पाण्डुलिपियाँ (हस्तलिखित) :१. पञ्चास्तिकाय - समयसार : (पद्यानुवादक-पं. हीरानन्द) रचनाकाल
६५४३ १. लिपिकाले १८३६. ई., व जैन मन्दिर, प्रादर्श नगर,
जयपुर। २ पुरुषार्थ सिद्ध युपाय : पं. टोडरमल कृत टीका, रचनाकाल १७७० ई
लिपिकाल १५८६ ई, लिपिकार-फतेराम व्यास, थी पाश्र्वनाथ
दि. जैन बड़ा मन्दिर, हनुमानताल, जबलपुर। ३. परुषार्थ सिद्ध युपाय :पं. भूधर मिथ कृत टीका. रचनाकाल १८१४
ई., लिपिकाल १८७२ ई., लिपिकार-पंजवार चौबे चंदेरी, श्री दि.
जैन मन्दिर चौक-भोपाल । ४. पुरुषार्थ सिद्ध युपाय : पं भूधर मिश्र कृत टीका, ग्चनाकाल १८१४
ई. लिपिकाल..., श्री पार्श्वनाथ दि. जन बड़ा मन्दिर हनुमानताल,
जबलपुर। ५. प्रवचनसार भाषा टोका : पं जोधराज गोदिका. रचनाकाल, १६८९
ई., लिपिकाल १६७२ ई., दि जैन तेरहपंथी बदा मदिर, जयपुर । ६. प्रवचनसार भाषा टीका : पं. देवीदास, रचनाकाल १७६७ ई,
लिपिकाल १७७१ ई , दि. जैन तेरहपंथी बड़ा मन्दिर, जयपुर। ७. प्रवचनसार सटीक : आचार्य अमृतचन्द्र कृत, लिपिकाल. १७३६ ई.
दि. जैन तेरहपंथी बड़ा मन्दिर, जयपुर। समयसार - प्रात्मख्याति कलश टीका : याचार्य अमृतचन्द्र कृत, लिपिकाल, १३८६ ई , योगिनीपुर (दिल्ली) में प्रतिलिपि की गई,
दि. जैन तेरह पंथी बड़ा मन्दिर, जयपुर। १. समयसार - प्रात्मल्याति कलश टीका : प्राचार्य अमृत चन्द्र कृत,
लिपिकाल १६६५ ई., संग्रामपुर में लिपि की गई, दि. जै. ब. मं.
जयपुर। १०. समयसार कलश टीका : प्राचार्य अमृत चन्द्र कृत, कपड़े पर, लिपि सन्
१६११ ई., दि. जे. ते. ब. मं., जयपुर ।
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५१२ ।
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व ११. समयसार कलशा : आ. अमृतचन्द्र कृत, कागज पर, लिपिकाल
१४४३ ई., दि. जै. ते. ब. मं., जयपुर । समयसार कलशा : प्रा. अमृतचन्द्र कृत, कागज पर, लिपिकाल
१६:४६., दि. न. ले. ब. मन्दिर, जयपुर । १३. समयसार तात्पर्यवृत्ति : प्रा. जयसेन कृत, कागज पर, लिपिकाल
१५:७५ ई., अगलपर म. प्र. में लिखी गई) दि. जै. ते. ब. म., जयपुर। समयमार भाषा टीका : पं. जयचन्द कृत, कागज पर, लिपिकाल १:६८ ई., : लेखक कृत मल हस्तलिखित प्रति दि. जै. ते. ब. म.,
जयपुर। १५. समयसार भाषा टोका : पं जय सन्त ऋत. कागज पर, लिपिकाल
१८८१ ई. दि. जे. ते. ब. मं., जयपुर । सिद्धान्त ग्रन्थ :-- १६. प्रष्टसहस्री : प्रायिका ज्ञानमती जी, प्रकाशक - बीर ज्ञानोदय
ग्रंथमाला, (पुष्प प्रथम, दिल्ली, १६७५ प्रथमावृत्ति । १७. प्राप्त परीक्षा : विद्यानन्द स्वामी कृन, अनुवादक - पं. दरबारी लाल
कोठिया, प्रकाशक - वीर सेवा मन्दिर, सरसावा (सहारनपुर)
१९४६ ई. प्रथमावृत्ति । १६. पालापपद्धति : टीकाकार व्र. रतनचन्द मुख्तार. प्र. - श्री शांति वीर
दिगम्बर जैन संस्थान, महावीर जी (राज.) १६७० ई. प्रथमावृत्ति । १६. कुन्दकुन्द भारती : संपादकः - पं. पन्नालाल साहित्याचार्य, प्रकाशक
श्रुतभण्डार ग्रंथ प्रकाशन समिति, फलटण । १९७० ई. प्रथमावृत्ति । गोम्मटसार कर्मकाण्ड : टीकाकार - पं. मनोहरलाल, प्रकाशक-- रेवा शंकर जगजीवन जौहरी, परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई, १९२८ 1. द्वितीयावृत्ति । जैनसत्त्वमीमांसा : लेखक - पं. फूलचन्द सिद्धांत शास्त्री. प्रकाशक -
अशोक प्रकाशन पन्दिर, वाराणसी, १६७८ ई. द्वितीय संस्करण । २२. जैन सिद्धांत प्रवेशिका : पं. गोपालदास वरैया कृत, प्रकाशक - जैन
ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई।
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सन्दर्भ ग्रंथ सूची |
५१३
२३. तत्त्वप्रदीपिका टीका (श्री प्रवचनसार) अनुवादक पं. परमेष्ठीदास प्रकाशक - श्री दि. जे. स्वा. मं. ट्रस्टू, सोनगढ़ १९६४ ई. द्वितियावृत्ति ।
:
२४. तत्त्वार्थसार संपादक पं. पन्नालाल साहित्याचार्य, प्रकाशक श्री गणेश प्रसाद वर्णी ग्रंथमाला, वाराणसी, १६७० ई. प्रथम संस्करण | २५. तस्वार्थ सूत्र : सम्पादक व टीकाकार - पं. रामजी मा. दोशी, श्री दि. जे राजग १९५४ वृतीय शरण
--
२६. तर्कभाषा : केशवमिश्र कृत, सम्पादक- बिश्वेश्वर सिद्धांत शिरोमणि, प्रकाशक - चौखम्बा संस्कृत सीरीज, वाराणसी, १६६७ ई. तृतीयावृत्ति ।
२७. तिलोयपण्पत्ति यतिवृषभाचार्य जीवराज ग्रंथमाला, सोलापुर १९४२ ई., प्रथम संस्करण ।
२८. धवला टीका ( षट्खण्डागम) : टीकाकार - आचार्य बीरसेन, सम्पादक डा. हीरालाल जैन, पुस्तक १, २, १२ एवं १५, प्रकाशक - जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर -२, ई. १६७३ |
२६. नयचत्र माइल्लधवलकृत सम्पादक पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, प्रकाशक- भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन दिल्ली, १६७१ ई. प्रथमावृत्ति ।
-
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३०. निमित्त उपादान संवाद (दोहा) : पं भैया भगवतीदास जी कृत, प्रकाशक - दि. जे. स्वा मन्दिर ट्रस्ट सोनगढ़, १६६४ ई., प्रथमावृत्ति ।
1
३१. पंचाध्यायी : टीकाकार पं. देवकीनन्दन शास्त्री प्रकाशक श्री गणेश प्रसाद वर्णी जैन ग्रंथमाला, बनारस, १५० ई. प्रथमावृत्ति । ३२. पंचास्तिकाय संग्रह : समयव्याख्या टीका हिन्दी अनुवादक, श्री मगनलाल जैन, प्रकाशक- 1 - दि. जे. स्वा. मं ट्रस्ट, सोनगढ़ । १६६५ ई.. द्वितीयावृत्ति ।
1
३३. पंचास्तिकाय: टीकात्रयोपेत अनुवादक- पं पन्नालाल बाकलीवाल, प्रकाशक- परमश्रुतप्रभावक मण्डल, बम्बई, १९१४ ई. द्वितीयावृत्ति । ३४. पंचास्तिकाय: टीकाप्रयोपेतः अनुवादक पं. पन्नालाल बाकलीवाल, प्रकाशक - परमश्रुत प्रभावक मण्डल, प्रगास १६६६ ई. तृतीयावृत्ति ।
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५१४ ।
: आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
३५. पंचास्तिकाय-समयसार : (पद्यानुवादक - पं. हीरानंद) सम्पादक
उदयलाल काशलीवाल, प्रकाशक - हिन्दी जैन साहित्य प्रसारक
कार्यालय, बम्बर, १६१६ ई. प्रथमावृत्ति । ३६. पंचास्तिकायसार (अंग्रेजी : प्रो. ए चक्रवर्ती, प्रकाशक - दी
सेन्ट्रल जैन पब्लिशिंग हाउस, आरा, १६२० ई. प्रथमावृत्ति । ३५. पंचास्तिकायसार प्रग्नजी) : प्रो ए. चत्रावर्ती, प्रकाशक - भारतीय
ज्ञानपीठ बनारस, १६७५ ई., द्वितीया वृत्ति । ३८. प्रमेयरत्नमाला : (अनतवीर्य आचार्य कृत टोबा) बच निका
पं. जयगद, प्रकाशक-मुनि अनंतकीति ग्रन्थमाला समिति, चम्बई,
१८०६ ई. रचनाकाल व नका, प्रथमावृत्ति। ३१. प्रवचनसार (अंग्रेजी) : प्रो. ए. एन. उपाध्ये, प्रकाशक - परमश्रुत
प्रभावक मण्डल, श्रीमद् राजचन्द्र जैन शास्त्रमाला, अगास, १६६४
ई. तृतीयावृत्ति । ४०, प्रवचनसार : तत्त्वप्रदीपिका - तात्पर्य बत्ति टीका यिोगत:) पं.
अजित प्रनाद एवं न. रतनचन्द-सम्पादक द्वय प्रकाशक-श्री शांति
वीर दि, जं. संस्थान, महाबीर जी. १९६७ ई. । ४१. प्रवचनसार टीका : तीसरा खण्डः, टीकाकार ब. शीतलप्रसाद,
प्रकाशक - मूलचंद किशनदास का डिया, सूरत, १६९६ ई.
प्रथमावृत्ति । ४२. प्रवचनसार : तित्वप्रदीपिका टीका), अनुवादक-पं. परमेष्ठीदास,
प्रकाशक दि. जै स्वा. मं., सोनगढ़, १६:४. द्वितीयावृत्ति । ४३. प्रवचनसार : तत्त्वप्रदीपिका) मनु पं. परमेष्टोदास, प्रकाशक-श्री
बी. स. सा. प्र. ट्र. भावनगर, १६७५६. तृतीयावृत्ति । ४४. प्रवचनसार परमागम : कविबर वन्दाबन कृत, संशोधक-नाथूराम
प्रेगी, प्रकाशक -- जन हितैषी कार्यालय, बम्बई, १९०८ ई. प्रथमावृनि । प्रवचनसार परमागम : कविवर वृन्दावन कृत, संशोधक नाथूराम प्रेमी, प्रकाशक-ब्र, दुलीचंद जैन ग्रथमाला, सोनगढ़ १८४७ ई.
द्वितीयावति । ४६. भगवद्गीता : (डा, राधाकृष्णन्) अनुवादक - विराज एम. ए.,
राजपाल एण्ड सन्स. काश्मीरी गेट, दिल्ली, १६६६६, चतुर्थावृत्ति ।
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सन्दर्भ ग्रंथ सूची ] ४७. मोक्षमार्ग प्रकाशक : पं. टोडरमल हता हिन्दी अनुवादक - पं.
मगनलाल, प्रकाशक - प्रा. क, पं. टोडरमल ग्रन्थमाला, जयपुर,
१६६६ ई., प्रथमावृत्ति । ४८. राजवातिक : प्रा. अकलंक स्वामी वृत) प्रकाशक - भारतीय
ज्ञानपीठ, दिल्ली, १९५१ ई. प्रथमावृत्ति । ४६. बृहद् द्रब्ध संग्रह (ब्रह्मदेव सुरिहात । प्रकाशक - गणेशवणी दि. जे.
प्र. मा. खरखरी (बिहार) १६५८ ई. प्रथमावृत्ति । सिद्धि विनिश्चय टोका पूर्वार्ध : अनंतवीर्याचार्य कृत) सम्पादक - पं. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य, प्रकाशक - भारतीय ज्ञानगीठ, काशी,
१६५६ ई. प्रथमावृत्ति। नाटक :-- ५१. उत्तररामचरितम् : (व्याख्याकार-श्री शेषराज शर्मा) प्रकाशक
चौखम्बा संग्कृत मीरीज, आफिस, वाराणी, १६६२ ई.
चतुर्यावृति । अध्यात्म साहित्य :५२. अध्यात्म अमृत कलझा : मा. अमृत चन्द्र कृत। व्याख्याकार-पं.
जगन्मोहनलाल शास्त्रो, प्रकाशक-श्री चन्द्रप्रभु दिगम्बर जैन मन्दिर,
कटनी, १६७५ ई. प्रथमावृत्ति। ५३. प्रमतज्योति : संपादक - नानकचन्द जैन, एडवोकेंद, प्रकाशक -
लालचंद जैन एडवोकेट, रोहतक, १६६१ । अर्धकथानक : (कविवर बनारसीदास), सम्पादक-नाथूराम प्रेमी, प्रकाशक - यशोधर विद्याधर मोदी, संशोधित साहित्यमाला, बम्बई
१६५७ १. द्वितीयावृत्ति। ५५. प्रात्मख्यासि टीका : अमृत चन्द्रसूरि कृता) हिन्दी अनुवादक - पं.
परमेष्ठीदास न्यायतीर्थ, प्रकाश -श्रो दि. जै. स्वा. म. ट्र., सोनगढ़,
१६६४ ई. तृतीयावृति। ५६. प्राध्यात्मिक पत्रावला : (लतोय भाग) श्री गणेश प्रसाद वर्मा,
प्रकाशक - जिज्ञासु मण्डल. कलकत्ता. १६४१ ६. प्रथमावृत्ति । ५७. इष्टोपदेश : प्राचार्य पूज्यपाद, टोका - पं. पाशाधर कृत, प्रकाशक -
बीर सेवा मन्दिर, दिल्ली।
५४.
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५१६ ]
| आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
५८. कार्तिकेयानुप्रक्षा (अनुवाद-पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री) टीका डा. ए. एन. उपाध्ये, प्रकाशक - श्री राजचन्द्र जैन शास्त्रमाला ग्रेगास, १२६० ई. प्रथमावृत्ति
५.६.
-
कार्तिकेयानुप्रक्षा : (मूल), सम्पादक डा. ए. एन. उपाध्ये, प्रकाशक श्री राजचन्द्र जैन शास्त्रमाला, अगास. १६६६ ई. प्रथमावृति ।
६०. छहढाला (सटीचा) अनुवादक - मगनलाल जैन, प्रकाशक- दि. जैन स्वा. मन्दिर ट्रस्ट सोनगढ़, १९६०. प्रथमावृत्ति |
·
६१. तत्त्वानुशासन (मुनि राममेन कृत) अनुवादक - पं. जुगल किशोर मुख्तार, प्रकाशक वीर सेवा मंदिर ट्रस्ट, प्रकाशन, दिल्ली, १६६३ प्रथमावृत्ति |
-
६२. निजानन्द मार्तण्ड (श्री समयसार नाटक) सम्पादक पं. मुन्नालाल इन्दौर, प्रकाशक - सेठ हीरालाल जी इन्दौर, १९४८ ।
६३. पद्मनंदिपंचविंशति सम्पादक - प्रो. ए. एन. उपाध्ये व डा. होरालाल जैन, प्रकाशक जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर, १६६२ ई. ।
-
-
६४. परमात्म प्रकाश टीका (अंग्रेजी प्रस्तावना) डा ए. एन. उपाध्ये, प्रकाशक श्रीमद् राजचन्द्र जैन आश्रम, अगास १६६० ई. प्रथमावृत्ति ।
६५. परमात्मरंगिणी : (शास्त्राकार), पं. गजाधरलाल सम्पादक प्रकाशक • भा. जै. सिद्धांत प्रकाशिनी संस्था, कल हल्ला |
L
६६. परमाध्यात्म रंगिणी ( पुस्तकाकार) प्रकाशक - शांतिसागर जैन सिद्धांत प्रकाशिनी संस्था महावीर जी, १३६२ ई.
६७. रहस्यपूर्ण चिट्ठी (मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रन्थ के साथ) प्रकाशक पं. टोडरमला ग्रन्थमाला, जयपुर १६६६, प्रथमावृत्ति |
--
-
६८. समयप्राभृतम् (तात्पर्यवृत्ति आत्मख्याति टीका व्यापतम्। सं.पं. गजाधरलाल, प्रकाशक- भारतीय जैन सिद्धांत प्रकाशिनी संस्था काशी । १६१८ ई. प्रथमावृत्ति |
7
६६. समयसार (ग्रात्मख्याति टीकाकार पं. जयचन्द, प्रकाशक - शांतिसागर जैन सिद्धांत एवं श्रुतभन्डार प्रकाशन संस्था, फलटण | १९५६ ई. प्रथमावृत्ति ।
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सन्दर्भ ग्रंथ सूची |
| ५१७
५०. समयसार : (दी नेचर याफ दी सेल्फी प्रो. ए. चक्रवर्ती, प्रकाशक
भारतीय ज्ञानपीठ काशी । अंग्रेजी सीरीज ग्रंथांक १, १९५०
प्रथमावृत्ति । ७१. समयसार कलश नाटकम् : सम्पादक - क्षु, प्रादिसागर, प्रकाशक
रतनचन्द सखाराम शाह, सोलापुर १६७० ई. । ७२. समयसार कलश टीका : सं. - ब. शोतल प्रसाद, प्र. - मूलचंद
किशनदास कापड़िया सूरत, १६२६ प्रथम । ७३. समयसार कलश : सम्पादक-पं. फूलचन्दजी, प्रकाशक - दि. जे.
स्वा. म. ट्रस्ट्र, सोनगढ़ १६६६ ई. द्वितीयावृत्ति । ७४. समयसार : (जयसेनीय टीका! हिन्दी टीकाकार - प्रा. ज्ञानसागर-जी,
प्रकाशक - श्री दि. जे. समाज , अजमेर १९६६ ई. प्रथमावृत्ति ।। समयसार नाटक : (पं. बनारसीदास कृत) हिन्दी टीका -पं बुद्धिलाल श्राब, प्रकाशक - दि. जे. स्वा. मं. ट्रस्ट, सोनगढ़, १६७१ ई.
प्रथमावृत्ति। ७६. समयसार नाटक : (पं. बनारसीदास कृत) हिन्दी टीका-पं. बुद्धिलाल
श्रावक, प्रकाशक - श्री वर्षमान पब्लिक लायब्ररी धर्मपुरा, दिल्ली।
७७. समयसार नाटक : (पं. बनारसीदास कृत) हिन्दी, पं. बुद्धिलाल
श्रावक, प्रकाशक-ज, प्र. का; बम्बई १६२६, प्रथमा । ७८. समयसार--(निजानंदीय भाषा टीका) क्षु. निजानंद, प्रकाशक
निजानद जैन ग्रन्थमाला सहारनपुर, १९५१ प्रथमावृत्ति । ७६. समयसार : (मूल) सम्पादक - पं. बलभद्र जैन, प्रकाशक - मन्त्री
श्री कुन्दकुन्द भारती दिल्ली १६७७ प्रथमावृक्ति । ८०. समयसार वैभव : पं. नाथूराम डोंगरीय, प्रकाशन - दि. जैन धर्म
कार्यालय, इन्दौर १६७० द्वितीयावृत्ति । समयसार : सप्तदशांगी टीका) सहजानन्द वर्णी कृत प्र. भा. वर्णी जैन साहित्य मन्दिर मुजफ्फरनगर, १६७७ ई. प्रथमः । सहजसुख साधन : लेखक - प्र. शीतल प्रसाद जी, प्रकाशक-अमरग्रन्थमाला, इन्दौर, १६७२ ई. द्वितीयावृत्ति ।
८२.
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[ आचार्य अमृत चन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
८३. ज्ञानार्णव : शुगनन्द्राचार्य कृन) अनुवादक पं पन्नालाल बाकली
अल्ल, प्रमाक -- श्री राजवन्द्र जैन शात्रमाला, प्रगास, १६६१ ई. तृतीयावृत्ति।
प्राचार ग्रन्थ :
६४. अनपार धर्मामृत ; it. ग्रागाधर कृत सम्पादक - पं. कैलाशचन्द्र
कात्री, प्रकाशक -- भारतीय ज्ञानपीट, दिल्ली. ६ सन् १६७७,
प्रथमावनि । ८५. अमितगति श्रावकाचार : आयकाचार सब्रहान्तर्गत) सं. - पं.
हीरालाल मा. प्रकाश - जन सं कृति संरक्षा संय सोलापुर,
६६. प्रष्ट पाहुट्ट : टाका टोकाकार-श्रु नागर पुरि, प्रकाशक-शांतिवीर
दि. जैन, संध्यान महावीरी. १६६८. प्रथमावृत्ति । ६७. अष्टयाहइ : मिल ग्राचार्य वन्मन्द प्रणीत, टीकर - जयचन्द कृत,
प्रकाश-श्रो दि. जन ग्रन्थमाला, बाई १६७१ प्रथमायति । ८८. नियमसार : मदनाचार्य कृत) अनुवादक - मगनलाल जैन,
श्री दि. जैन वा. मन्दिर ट्रड, सोनगढ़, १६६६, द्वितीयावृति । ६. पुरुषार्थ सिद्ध युग . जात टीनाना। प्रनाशक - मोतीलाल
हराचन्न गांव। मानाबाद. जन बाइ भय कुसुममाला-१०, सन्
६०. पुरुषार्य सिद्ध उपाय : सम्पादक -- पं. नाथूराम प्रेगी, रेवाशंकर
जगजीबन भावेरी प्रकाशक - राजचन्द्र जैन शास्त्रमाला, बम्बई,
१६० ई. प्रथमावनि । १.१. पुरुषार्थ सिद्ध,युपाय : सम्पादर एवं टीयागार - पं. मापनलाल
झाली. प्रकाशक - भारतीय जन सिद्धांत प्रकाशिनी संस्था. कलकत्ता
६१. पुरुषार्यसिद्ध युपाय : सम्पादक व टीकाकार ग. मुत्रालाल रांयेलीय
प्रकाशक -- • वाधीन सन्धगाला. राागर, १९५६ प्रथम, । ६३. पुरुषार्थ सिद्ध युपाय : सम्पादक पं. विद्याधर ने टी-प्रकाशक श्री दि.
जैन समाज कुचामन मिटी, राजस्थान. ई. १६७८, प्रथमावृत्ति ।
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सन्दर्भ ग्रंथ सची ।
। ५१६ १४. पुरुषार्थ सिद्ध युपाय : सम्पादक - पं. बंद्य गंभीरमलजी, प्रकाशक
____ श्री दि. जन म्दा. मन्दिर ट्रस्ट्र, सोनगढ़ १६७४ ई. प्रथमावृत्ति। १५. पुरुषार्य सिद्ध युपाय : संपादक व टीकाकार -- श्री कृष्णा नारायण
जोशी. प्रकाशक . वालचन्द कस्तूरच द धाराशिवकर (बेलगांव , १८६ ई. प्रथमावृत्ति । भगबलो आराधना : मलाराधना) मित्रकोटी आचार्य कृत, टीकापं. मदासुखदास नृत, - कपल हरावणी मेशिनल गोहाटी।
६६.
६७. रत्नकरण्ड श्रावकाचार : टीकाकार .. पं सदासुखदासजी,
प्रकावा . प्र. भागेन्द्रीय दि. जैन महासमिति. दिल्ली. १६.५.१ ई. द्वितीयावनि।
१८. सागरधर्मावृत सटीक : . ग्रानाधः कृत टीकाकार-पं. देवकीनंदन
शास्त्री, प्रकाशका - मूलचन्द किशनदास कापड़िया, सूरत, ई. सन्
१६४० प्रथमावृति। ६६. सजनविताल्लभ : प्राय मल्लिोण - मुन्शी नाथूराम लभेचू
कटनी । जबलपुर : १८८६ ई. प्रथमावति ।
१००. श्रावकाचार संग्रह : भाग १: सम्पाटक-अनुवादक पं. ही गलाल
शाश्री, प्रकाशक - जैन संस्कृति संरक्षक संघ सोलापूर, १९७६ ई.
प्रथमाTI अन्य साहित्य :१०१ प्रात्मत्र मोह : अ. नंदलाल कृन (गावलि, प्रकाशक - अमीचंद
सखाराम शहा गोलापुर, १६२६ ई. १.२ कादम्बरी : यशामुख सम्पादका-कृष्णामाहन ठाकुर, प्रकाशक
चौखम्या संस्का नीीज, वाराणसी । १६६३ ई. चतुर्थावृत्ति । १०३. कादम्बरी : (पूर्व एवं उनर भाग) मम्पादक - पाण्य रामतेज शास्त्री
प्रकाशक - पति पुस्तकालय, काशी, १६६५ ई. ।
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।
! श्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व १०४. गद्यचितामणि : (बादीसिंह आचार्य कृत) सम्पादक - पं. पन्नालाल
साहित्याचार्य, प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली,
१९६५, प्रथमावृत्ति । १०५. जैन धर्म प्राणि वाङमय : लेखक -- पी. एल. बैद्य, प्रकाशक - मागपुर
विश्वविद्यालय, नागपुर १६४८ | १०६. जैन धर्म : लेखक पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, प्रकाशन - मन्त्री साहित्य
विभाग, मथुरा, १६६६ चतुर्थावृत्ति । १०७. जैन निबन्ध रत्नावली : लेखक मिलापचंद रतनलाल कटारिया
प्रकाशक - वीर शासन संघ कलकत्ता, १६.६६ प्रथमावृत्ति । १०५. दर्शनसार : दिवसेनाचार्य कृत) सम्पादक पं. पन्नालाल जैन, देहली,
१०७० ई. (जन साहित्य प्रकाशन दिल्ली १०६. धर्मरत्नाकर : (जयसेनाचार्य कृत सम्पादक - प्रो ए. एन, उपाध्ये,
प्रकाशक - जीवराज जैन ग्रंथमाला, सोलापूर १६७४ ई. प्रथमावृत्ति। ११०. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान : (लेखक-डॉ. हीरालाल
जैन) प्रकाशक - म. प्र. शासन साहित्य परिषद, भोपाल, १९६० ई.
प्रथमावृत्ति । १११. मुनिवंशप्रदो पिका : (लेखक-पं. नयनसुखदास) प्रकाशक-दुलीचंद
परवार, हरीबेन रोड़, कलकत्ता, प्रथमावृत्ति । ११२. युगबीर निबन्धावलि : (प्रथमखण्ड) लेखक - पं. जुगल किशोर मुख्तार
"युगवीर", वीरसेवा मंदिर ट्रस्ट प्रकाशन, दिल्ली, १६६३ प्रथम । ११३. वर्णीवाणी भाग ४ : (संपादक - विद्यार्थी नरेन्द्र, प्रकाशक -
गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रंथमाला, काशी । १६५७, प्रथमावृत्ति । ११४. संस्कृत मंजरी : (संकलनकर्ता) मा. शि. मण्डल, भोपाल, प्रकाशक
भैया प्रकाशन, इन्दौर ई. १६७४, चतुर्थवृत्ति । ११५. हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन भाग १ : लेखक पं. - नेमिचन्द्र
शास्त्री. भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस, १६५६ प्रथमावृत्ति ।
।
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सन्दर्भ ग्रंथ सूची ]
[ ५२१
स्तोत्र काव्य :११६, एफोभाव स्तोत्रम् : (बादिराज मुनिकृत) ज्ञानपीठ पूजांजलि के
अंतर्गत, संपादक - डॉ. ए. एन. उपाध्ये एवं पं. फूलचन्द्र शास्त्री,
प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, ई. १६६६. द्वितीयवृत्ति । ११७. जिनस्तोत्र पूजन संग्रह : पम्पादक प्रकाशक - हिरालाल छगनलाल
काले, सोलापुरी १९५४. ई. । ११८. देशगम स्तोत्र (प्राप्तमीमांसा) : समंतभद्राचार्य कृत - अनुवादक -
प.मलनिशोक मुरमार, .. वीर सेवा मंदिर ट्रस्ट प्रकाशन
दिल्ली, १६६७, प्रथमावृत्ति। ११६. लघुतस्वस्फोट : (प्राचार्य अमृतचन्द्र कृत) सम्पादक प्रो. पद्मनाम
जनी केलीफोर्निया, प्रकाशक एल. डी. इन्स्टीट्यूट आफ इन्डोलाजी, अहमदाबाद, १९७८, प्रथमावृत्ति । लघुतस्वस्फोट : (आचार्य अमृतचन्द्र कृत) अनुवादक - सम्पादक - डा. पं. पन्नालाल साहित्याचार्य । प्रकाशक - गणेश प्रसाद वर्णी
जन ग्रंथमाला, बाराणसी १९८१ प्रथम । १२१. वह जिनवाणी संग्रह : सम्पादक व प्रकाशक पं. पन्नालाल बाकली
वाल, प्रकाशक - नेमीचंद बाकलीवाल, किशनगढ़ १९७८ ई. । १२२. बृहद् स्वयंभू स्तोत्र : (संस्कृत टीका - प्रभाचन्द्राचार्य कृत) हिन्दी
टीका - पं. पन्नालाल साहित्याचार्य, प्रकाशक - शांतिवीर दि. .
संस्थान महावीरजी, १६६६ ई. प्रथमावृत्ति । १२३. सामायिक स्तोत्र (पाठ) : प्रा. अमितगति कृत - (जिनस्तोत्र पूजन
संग्रहान्तर्गत) सम्पादक - हिरालाल छगनलाल काले, सोलापुर
१९५४ ई. । अन्य काव्य ग्रन्थ :१२४. अलंकार मीमांसा : डा. राजवंश सहाय, चौखम्बा विद्या भवन,
वाराणसी १६७०, प्रथमावृत्ति । १२५. काव्य प्रकाश : (मम्मटाचाय कृत) सं. -- डॉ. सत्यवतसिंह, चौखम्बा
विद्या भवन, वाराणसी, १६७८ ई, तृतीयावृत्ति ।। जैन गीता : ("समणसुत्रों का प्रा. विद्यासागर कृत पद्यानुवाद)" मुनिसंघ स्वागत समिति, सागर, १९७८ ई. प्रथमावृत्ति।
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५२२ ]
। प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व १२.७. दशरूपक : कवि धनंजयकात! सं. - डॉ. भोलाशंकर व्यास,
चौखम्बा विद्या भवन, वाराणसी, १६५४ १२८. निजामृतपान : (प्रा. विद्या सागर कृत पद्यानुवाद) राजस्थान जैन
सभा अयपुर, १६७६ ई. प्रथमावृत्ति । १२६. पारपुराण : (पद्यरचना, पं. भूधरदास कृत जैन ग्रंथ रत्नाकर
कार्यालय, बम्बई १६०१ ई. प्रथमावृत्ति । १३०. यशस्तिलक चम्पू महाकाव्यम् : (पूर्व ग्यण्ड) अनुवादक - सम्पादका -
पं. सुन्दरलाल शास्त्री, प्रकाशक - श्री महावीर जैन ग्रंथमाला,
वाराणसी. १६६०, ई. प्रथमावृत्ति 1 १३१. हिन्दी छव प्रा : लेखक रघुनदन शामी, प्रकाशकः .. राजपाल
एण्ड सन्स, काश्मीरी गेट, दिल्ली, प्रथमावृत्ति । १३२. सिद्धांत कौमुची : (बालमनोरमा टीका - वासुदेव दीक्षित कृत)
सम्पादक - श्री गोपाल शास्त्री नेने, प्रकाशक - चौखम्बा संस्कृत सीरीज, वाराणसी, १९६८ ई. पंचमावृत्ति ।
कोश ग्रन्थ :१३३ अमिधान राजेन्द्र कोश : प्रकाशन स्थान - रतलाम १९३४ १३४. अमरकोष : (लिंगानुशासन सम्पादक · भट्ट विनायक, प्रकाशक
- पाण्डुरंग जीवाजी, निर्णयसागर प्रेम, बम्बई, १९२७, चतुर्थावृत्ति १३५. कन्नड प्रांतोग्य ताडपत्रीय ग्रंथ सूची : संकलयिता - के. भुजबलि
शास्त्री, प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, कापी, १६४८ प्रथमावृत्ति । १३६. जिनरत्नकोष : (प्रथम भाग) लेखक - हरि दामोदर बेलकर,
प्रकाशन - भाण्डारकर प्राच्या विद्या संस्था, पुणे, १९४६ ई..
प्रथमावृत्ति । १३७. जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह : (द्वितीय भाग) पं. परमानन्द जैन शास्त्री,
वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली, १९६३, प्रथमावृत्ति । १३८. जन शिलालेख संग्रह : (भाग ५) डॉ. विद्याधर जोहरापुरकर,
भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली, १९७१ प्रथमावृत्ति। १३६. जैनेन्द्र सिद्धांत कोष : भाग १, २, ३, ४,) लेखक क्षु जिनेन्द्रवर्णी,
भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, वाराणसी, १९७० ई. प्रथमावृति।
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सन्दर्भ ग्रंथ सूची ]
। ५२३ १४०. पूर्णाऱ्या : (जैनज्ञान कोष) संपादिका - पं. सुमतिबाई शहा, भगवान
महावीर निर्वाणोत्सब समिति, सोलापुर, १६७८ ई. प्रथमावृत्ति । १४१. प्रशस्ति संग्रह: (सम्पादक - कस्तुरचन्द' कासलीवाल) प्रकाशक -
जैन प्रबन्धकारिणी समिति, जयपुर १६५० प्रथमावृत्ति । १४२. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की सूची : (भाग ३, ४. ५,) डा.
कस्तूरचन्द एवं पं. अनपचंद शास्त्री, प्रकाशक श्री दि. जै. अतिशय
क्षेत्र, महावीर जी. १६७२, प्रथमावृत्ति । १४३. वृहद जैन शब्दार्णव : (खण्ड एक संपादक - बी. एल.जैन "चैतन्य",
प्रकाराक बाबू शातिचन्द जैन, बाराबकी, १६२४, ई. प्रथमावृत्ति । १४४. यहद जैन शब्दार्णव : । खण्ड दो) सम्पादक - ब्र. शीतल प्रसाद जैन,
प्रकाशक - मूलचन्द किशनदास कापड़िया, दि. जे. पुस्तकालय,
सूरत । १९३४ ई. प्रथमावृत्ति । शोध प्रबन्ध :१४५. प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनका समयसार : लेखक - पं. लाल बहादुर
शास्त्री, चांदमल सरावगी चेरिटेबल ट्रस्ट, गोहाटी, १६७६, प्रथमावत्ति । कविवर बनारसी जीवनी और कृतित्व : लेखक - डा, रवीन्द्र कुमार जैन, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन वाराणसी, १९६६
प्रथमावृत्ति । १४७. जन भक्तिकाव्य की पृष्ठभूमि : ले. डॉ. प्रेमसागर जैन, भारतीय
ज्ञानपीठ काशी, ई. १९६३. श्रमावृत्ति । १४५. जैनिज्म इन राजिस्थान : (Jsinistin in Rajisthun) कैलाशचन्द्र
जैन, पी. एच. बी., ही लिट , प्रकाशक - गुलाबचन्द हीराचन्द
दोशी, जैन संस्कृति संरक्षक संघ सोलापुर, १९६३ प्रथम । १४६. पं. टोडरमल व्यक्तित्व और कर्तृत्व : डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल,
प्रकाशक - मंत्री, टोडरमल स्मारक ट्रस्ट जयपुर, १९७३ प्रथमावृत्ति। महाकवि दौरतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व : डॉ. कस्तचन्द कासलीवाल, दि. जै. अतिशय क्षेत्र प्रबंधकारिणी समिति महावीरजी, १६७३ प्रथमावृत्ति ।
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५२४ ]
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व १५१. महाकवि हरीचंद : एक अनुशीलन - डा. पन्नालाल साहित्याचार्य,
भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली, १६७५ ई. प्रथमावृत्ति । १५२. संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान : डा. नेमिचंद
जैन, पारा भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, १९७१, प्रथमावृत्ति । १५३. हिस्ट्री प्राफ जन मोनाकिजम फ्राम इन्सक्रिप्सन्स एण्ड्स लिटरेचर:
(पार्ट वन) डा. एस. बी. देव. बुलेटिन आफ डेक्कन कालेज रिसर्च
इस्टीट्यूट पूना। इतिहास ग्रन्थ :१५४. जैन धर्म का प्राचीन इतिहास : (भाग - २) लेखक - पं. परमानन्द
प्रकाशक - रमेशचन्द्र जैन, मोटरवाले, दिल्ली, १९७५, ई.
प्रथमावृत्ति। १५५. जैन साहित्य और इतिहास : (द्वितीय संस्करण) लेखक - पंडित
नाथूराम प्रेमी, शोध, विद्याधर मोदी, बबई १९५६ । १५६. जैन साहित्य और इतिहास : (प्रथम संस्करण) ले. - पं. नाथूराम
प्रेमी, हेमचन्द मोदी, बम्बई १९४६ । १५७, जैन साहित्य का इतिहास : (भाग दो) ले. - पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री,
श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रंथमाला, वाराणसी १६७६,
प्रथमावृत्ति। १५८ जैन साहित्य का यहद इतिहास : (भाग चार) डॉ. मोहनलाल व
प्रो. हीरालाल कापड़िया. पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान -
जैनाश्रम हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, १६६८, १५६. तीर्थकर महाबीर और उनकी प्राचार्य परम्परा : (भाग १, २, ३,)
डॉ नेमीचन्द्र शास्त्री पारा, मंत्री, भा. ब. दि. जैन विद्वत्परिषद कार्यालय सागर, १६७४ प्रथमावृत्ति । दक्षिण भारत में जैन धर्म : पं. कैलाशचन्द्र सिद्धांताचार्य, भारतीय
ज्ञानपीठ प्रकाशन दिल्ली, १९६७ प्रथमावृत्ति । १६१. पुरातन जैन वाक्यसूचो : (को प्रस्तावना) ले. - पं. जुगलकिशोर
मुख्तार "युगवीर" वीर सेवा मन्दिर सरसावा (सहारनपुर) १६५. प्रथमावृत्ति।
१६०. दक्षिण मा
।
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची ]
[ ५२५
१६२. प्राचीन भारत : (लेखक - डॉ. राजबलि पाण्डेय), प्रकाशक - नन्दकिशोर एण्ड सन्स वाराणसी, ई. १९६८, द्वितीयावृत्ति ।
१६३. भट्टारक समुदाय सं विद्याधर जोहरापुरकर, जैन संस्कृति संरक्षक संघ सोलापुर, ई. १९५८, प्रथमावृत्ति ।
१६४. भारतीय इतिहास पर एक दृष्टि : डॉ. ज्योति प्रसाद जैन, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन बनारस, १९६६, द्वितीयावृत्ति ।
१६५. राजस्थान का जैन साहित्य : "सम्पादक - अगरचंद नाहटा, डॉ. कस्तुरचंद कासलीवाल,......", सचिव प्राकृत भारती जयपुर १६७७, प्रथमावृत्ति ।
=
१६६. राजस्थान के जैन संत व्यक्तित्व एवं कृतित्व डॉ. कस्तुरचन्द कासलीवाल, श्री दि. जे. अतिशय क्षेत्र महावीरजी १६६७,
प्रथमावृत्ति ।
1
१६७. वीरशासन के प्रभावक श्राचार्य डॉ. विद्याधर एवं डॉ. कस्तूरचन्द जी, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन दिल्ली, १६७५ प्रथमावृत्ति ।
१६८. संस्कृत साहित्य का इतिहास : ले. बलदेव प्रसाद उपाध्याय, शारदा मन्दिर बनारस १६६०, षष्ठ संस्करण ।
१६६. संस्कृत साहित्य का इतिहास : ले. - वाचस्पति गेरोला, चौखम्बा विद्या भवन वाराणसी,
१७०. हिन्दी नाटक उद्भव और विकास : डॉ. दशरथ ओझा, रीडर, दिल्ली, दिल्ली विश्वविद्यालय के तत्त्वाधान में राजपाल एण्ड सन्स, दिल्ली, १६७०, पंचम |
,
अभिनन्दन ग्रन्थ :
१७१. आचार्य शांतिसागर जन्म शताब्दि स्मृति ग्रन्थ : सम्पादक बालचन्द देवचन्द शहा, शांतिसागर जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्था. फलटण १२७३, प्रथमावृत्ति ।
१७२. श्री गणेश प्रसाद वर्णी स्मृति ग्रन्थ : डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य ब नीरज जैन, प्रकाशक - श्री भारतवर्षीय दि. जैन विद्वत्परिषद् कार्यालय, सागर, १६७४ ई.
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५२६ ]
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्त्व एवं कर्तृत्व
पत्र-पत्रिकाएं :१७३. अनेकांत (मासिक) : सम्पादक - पं. जुगलकिशोर मुख्तार, वोर
सेवा मन्दिर, दिल्ली, जून १६४१. १६४६, १६५३ । १७४. प्रागमपथ (मासिक) : (शीतल जन्म शताब्दी विशेषांक) सम्पादक --
विनोद कुमार जैन, दिल्ली, नवम्बर १६.७८ । । १७. प्रागमय : संत हार, गुर विष्लेषांक (.. - विनोद कुमार जैन,
दिल्लो (मई १९७६) १७६, प्रात्मधर्म : (मासिक) सं. - जगजीवन बालचंद दोशी, दि. ज. स्वा.
म. ट्रस्ट सोनगढ़, अप्रेल १६६६, दिसम्बर १९६५, जुलाई १६६४ । १७७. जैन संदेश : (साप्ताहिक) सोघांक क्र. ५, १६. २५, २६, सं. पं.
जगन्मोहनलाल, - पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, प्रकाशक - मा. दि. जं. संघ. मथुरा, १९५६-६३-६७-६८ जैन संवेश : (साप्ताहिक) शोषांक (३१, ३२) सम्पादक पं. कैलाश 'चन्द्र शास्त्री, ज्योति प्रसाद जैन, भारतीय दि. गै. संघ, मथुरा
१६७२-७३ । १७६. जैन सिद्धांत भास्कर : (त्रैमासिक (भाग-४) किरण १, सम्पादक
प्रो. हीरालाल, डॉ. ए. एन. उपाहणे, जैन सिद्धांत भवन - पारा
१९३७ । १८०. जैन हितैषी : सम्पादक - पं. नाधाम प्रेमी, प्रकाशक - जी. न. र.
कार्यालय, बम्बई, दिसम्बर १६१६ । १८१. तीर्थंकर : (मासिक) सम्पादक - डॉ. नेमीचन्द्र जीन, हीरा भैया
प्रकाशन, इन्दौर, सितम्बर १६७४ । १८२. "वीर" पाक्षिक पत्र (सम्पादक - प्र. शीलल प्रसाद कामता
प्रसाद, प्रकाशक - राजेन्द्र कुमार जैन, बिजनौर १९२६ ई.
(वर्ष ३ संख्या १२-१३) १८३. सहस्रनाम : सं. - पं. हीरालाल शास्त्री ।
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची] ENGLISH
1. A History of Indian Literature—By Maurice Winternitz. Trans
lated in English from German by Mrs S. Ketkar & Miss H. Kohn, Published by the Univer
sity of Calcutta 1933. A D. 2. An Epitome of Jainism-By Paorag Chand Nahar Krishna
Chandra Ghosh. Published by H. Duby Gulab
Kumar Library-Calcutta 1917 A. D. 3. Annals of the Bhandarkar Oriental Research Institute, Vol.
LX1 ed. By R N Dandekar, Bhandarkar,
Institute Press, Poona, 1981. 4. Catelogue of Sanskrit & Prakrit Monuscripts Jesalmer. Collec.
tion by muni Shri Punyavigayaji. ed. BY Dalsukh Malvania. Pub. By L. D. Institute of
Indology Ahmedabad, 1972 ed. First. 5. Jainism-By Mrs. N. R. Guseva, Translated in English from
Russian by Y. S. Redkar, Sindhu Publications
Private Ltd. Bombay, 1971, First Ed. 6. The Pravachanasara of kunda-kunda Acharya, together with the
Commentary, Tattva Dipika by Amrtachandra Suri-Eng, Tr. By Barend Faddegon, Cambridge
University Press London, 1935. 7. Shankeracharya his life and times (Edition-III) by Krishna
Swamy Aly8r, Pub-By-A Natsesan & Co.
Esplande Madras. 8. The Heart of Jainism or the Religious quest of India-by Miss
Sinclair Stevenson. Dublin. Pub. by Oxford
University Press London. 1915 9. The Jain Path OR the Path of Conquered (Samayasara)-By
Prof. Matthew Mckay, Jain Sahitya Samiti
Agra. 1950 First Ed. 10. The Soul Essence (Samayasara) by Shri J. L. Jaini, Pub. by
the Central Jain Publishing House, Lucknow. 1930. First Ed.
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________________ शोधोपयोगी सामग्री प्राप्ति में माहयोगी पलायो सही 1. डेक्कन कालेज, पूना / 2. भाण्डारकर प्राच्य विद्या शोध संस्थान, पूना / 3. सन्मति मण्डल पुस्तकालय, बालचन्दनगर / 4. महावीर ब्रह्मचर्याश्रम, कारंजा / 5. दिगम्बर जैन मन्दिर, बाहुबलि चुम्भोज / दिगम्बर जैन सेतवाल मन्दिर, पूना / 7. दिगम्बर जैन मन्दिर, सांगली। 8. दिगम्बर जैन मन्दिर, सोलापुर / 6. दिगम्बर जैन मन्दिर, सीहोर / 10. दिगम्बर जैन मन्दिर रामाशाह, इन्दौर / दिगम्बर जैन मन्दिर हनुमानताल, जबलपुर / 12. दिगम्बर जैन मन्दिर चौक, भोपाल / 13. दिगम्बर जैन मन्दिर, वारासिवनी। 14. शा. उच्च माध्यमिक विद्यालय, तिरोड़ी (बालाघाट)। 15. दिगम्बर जैन चैत्यालय उस्मानपुरा, अमदाबाद / 16. दिगम्बर जैन मन्दिर, मेहसाना / 17. दिगम्बर जैन मन्दिर, आदर्शनगर, जयपुर / 18 दिगम्बर जन बड़ा मन्दिर तेरहपंथी, जयपुर। 19. दिगम्बर जैन मन्दिर सिवाड़, बाकलीवालान जयपुर / 20. दिगम्बर जैन मन्दिर न सियाजी, अजमेर / 21. दिगम्बर जैन पन्नालाल ऐलत सरस्वती भवन, व्यावर /