________________
३४४ |
| आचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
प्रयोजन है ? एकमात्र परमार्थ का ही निरंतर अभ्यास करो, क्योंकि समयसार उच्च अन्य कोई भी पदार्थ नहीं है । समयसार ही जगत् को जानने वाला एकमात्र नेत्र है ऐसा नेत्र पूर्णता को प्राप्त हो। इसप्रकार उक्त अधिकार भी समाप्त हुआ ।"
११: स्याद्वादाधिकार :
इस अधिकार में वस्तुतत्व की व्यवस्था तथा उपाय उपय भाव को सुघटित करने हेतु पुनः विचार किया है। स्वाद्वाद् को पत् जिनेन्द्रका (ख) अस्खलित शासन कहा है। इसमें स्वरूप से उत्पना, पर से अपना ज्ञानापेक्षा एकपना, ज्ञेयाकार अपेक्षा अनेकपना, स्वद्रव्यापेक्षा सत्ता, परद्रव्यापेक्षा, सपना, स्वक्षेत्रापेक्षा प्रतिक्षणना परक्षेत्रापेक्षा नान्नित्यपना, स्वकाल अपेक्षा अस्तित्व परकाल अपेक्षा नास्ति, से प्ररित, परभाव से नास्ति, द्रव्यापेक्षा नित्यत्व, पर्याय अपेक्षा श्रनित्यत्व इसप्रकार १८ भंगों द्वारा विशेष स्पष्टीकरण किया है। इस तरह अज्ञानी जनों को अनेकांत ज्ञानमात्र आत्म तत्व की प्रसिद्धि करता है | अनेकांत जिनेन्द्रदेव का अलंघ्य शासन है- स्वयं सिद्ध है ।
स्वभाव
१२. साध्य साधक अधिकार :
इसमें आत्मा की अनेक शक्तियों सहित होने पर भी आत्मा ज्ञानमात्रमयता को नहीं छोड़नेवाला लिखा है । एकांत नहीं अर्थात् अनेकांत संगत वस्तु का स्वरूप है, उसकी सिद्धि स्वाद्वाद द्वारा होती है । स्याद्वाद घनीय जिन नीति है । यहाँ उपाय उपय भाव का चिंतन करते हुए कहा कि उक्त ज्ञानमात्र स्वरूप भूमिका को पाकर सिद्धदशा प्राप्त होती है, परन्तु अज्ञानी उस भूमिका को न पाकर संसार में ही भटकते हैं। इसतरह स्याद्वाद की प्रवीणता तथा सुनिश्चल संयम सहित अपनी भावना करनेवाला ज्ञान व विनय की परस्पर तीव्र मैत्री का पात्र होकर ज्ञानमात्रमय गिज भूमिका को पाता है । अंत में उपसंहार करते हुए लिखा है कि चिपिण्ड (अनंतदर्शन), शुद्धप्रकाश (अनंतज्ञान), श्रानंदसुस्थित ( अनंत सुख) तथा प्रचलाचि (अनंतबीयें) को प्रगट करता हुआ आत्मा उदित होता है । उनके शुद्धप्रकाश के समक्ष बन्ध-मोक्ष सम्बन्धी अन्य भाव निष्प्रयोजन प्रतीत
१.
समयसार कलश, २३६ मे २४५ तक | २. बही, कलम २४७ से २६३ तक | ३. बही २६४ मे २६७ तक ।