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कृतियाँ ।
| ३४३ सकती। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता है, यह व्यवहार स कहते हैं, परन्तु निश्चय से ऐसा है नहीं। जिराप्रकार पृथ्वी चांदनी की नहीं हो जातो, फिर भी पृथ्वी को धवलित करती रहती हैं, उसीप्रकार ज्ञेय ज्ञान के नहीं हो जाते, तो भी वे ज्ञान में झलकते हैं। राग-द्वेष कोई पृथक सत्तावाले द्रव्य नहीं हैं, जीव के अज्ञान भाव हैं, तत्वदृष्टि से वे ही कुछ वस्तु नहीं हैं । तत्वदृष्टि से ही यह जाना जाता है कि रागद्वेष की उत्पत्ति के परद्रव्य किंचित् भी कारण नहीं हैं, क्योंकि गर्व द्रव्यों की उत्पत्ति गाने स्वभा से ही होती है। राग तथा द्रुष की उत्पत्ति में परद्रव्य का किंचित् भी दोष नहीं है । परद्रव्य को दोष देनेवाले मोहरूपी नदी को पार नहीं करते क्योंकि वे शुद्धज्ञाम से रहित अंध होते हैं। आगे अज्ञानी को राग-द्वेषमय होनेवाला लिखा है तथा ज्ञानी को ज्ञानसंचेतना करनेवाला बताया है । ज्ञानसंचेतना से कर्मबंध नहीं होता, अज्ञानचेतना से कर्मबंध होता है। प्रतिक्रमण, आलोचना तथा प्रत्याख्यान कापों का स्वरूप संक्षेप में इसप्रकार कहा है - मोह-अज्ञान से भूतकाल में किये कर्मों से हटना चैतन्यस्वरूप प्रात्मा में लगना प्रतिक्रमण है, वर्तमानकालीन दोषों से हदना तथा प्रात्मा में लगना, वह आलोचना है तथा भविष्यत्कालीन विकल्पात्मक कर्मों में हटना तथा प्रात्मा में लगना, वह प्रत्याख्यान है । प्रागे सकलकर्म फल संन्यास भावना को नचाकर अनंतकाल तक आनंदामृत पीने की प्रेरणा दी है । साथ ही शुद्धज्ञानधन की महिमा के उदित होने की भो भावना भाई है। समस्त शक्तियों को समेटकर आत्मा में स्थिर होना ही समस्त त्याज्य का त्याग है तथा समस्त ग्राह्य का ग्रहण है । जान के देह तथा कर्म-नोकर्मरूप पाहार भी नहीं होता है | ज्ञाता के लिए लिंग मोक्ष का कारण नहीं है । मुमुक्षयों को तम्बादर्शन-ज्ञान-चारिकरूप प्रात्मा ही सेवन योग्य है, वही मोक्षमार्ग है । मोक्षमार्ग एक ही है, अतः जो पुरुष उसी में स्थिति प्राप्त करता है, उसीका ध्यान करता है, अनुभव तथा स्पर्श करता है, उसी में बिहार करता है, वह समयसार शुद्धात्मा के रूप) को प्राप्त करता है । जो व्यलिंग में ममत्व करते हैं, वे समयसार को नहीं जानते । व्यवहार में मोहित बुद्धि जन परमार्थ को नहीं जानते हैं, जैसे तुष को ही जाननेवाला तंदूल को नहीं जानता है । अंत में टीकाकार लिखते हैं कि अधिक कथन करने से क्या
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१. समयमार कलश, २१० स २२१ लकः । २. वही, कलश २२६ से २३५ तक |