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________________ [ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व अज्ञानीपने का त्याग करना चाहिए तथा शुद्ध एका प्रात्मतेज में निश्चल होकर आत्मा का सेवन करना चाहिए । ज्ञानी कर्म का कर्ता तथा भोक्ता नहीं है, मात्र जाता है। अतः वह तो वास्तव में मुक्त ही है । जो अात्मा को कर्ता मानते हैं, वे सामान्यजनों की भांति मुवित्त लाभ नहीं करते है । ग्रात्मा का समस्त परद्रव्यों से कोई सम्बन्ध नहीं है | उसमें कतल व कर्मत्वा अभाव होने से परद्रव्य का कर्तृत्व कसे हो सकता है अर्थात नहीं हो सकता। एक वस्तु का अन्य समस्त के साथ सम्बन्ध का निषेध है, इसलिए वस्तुमद हो न पर कर्ता-कर्मपना भी घटित नहीं होता । जिन्हें उक्त वस्तुस्वभाव का नियम जात नहीं है। वे वेचारे प्रज्ञानी होते हुए स्वयं ही भावकर्म के कर्ता होते हैं। जो कार्य है, वह अकृत (कर्ता विना को) नहीं है और दो द्रव्यों का किया हुआ भी नहीं है। यदि कर्मकृत माना जावे तो कर्मों के उनके भोक्तापने का भी प्रसंग आवेगा, अतः भावकर्म का कर्ता जीव है, कर्म नहीं । ' कोई-कोई प्रात्मधातो, कर्म को ही कर्ता मानकर आत्मा के कर्तृत्व को सर्बथा उड़ाते हैं तथा आत्मा को कथंचित् कर्ता कहने वाली थुनि (जिनवाणी) को कोपित करते हैं । ऐसे मोह । मुद्रित ज्ञान ने वालों को वस्तुस्थिति समझाई जाती है। अहंत मतानुयायी को सांख्यमत की तरह प्रात्मा को सर्वथा अकर्ता नहीं मानना चाहिए, अपितु भेदज्ञान होने से पूर्व तक उसे कर्ता मानना चाहिए। कोई क्षणिकवादी (बौद्धमती) प्रात्मा को कपित क्षणिक मानकर का अन्य तथा भोत्रता अन्य बताते हैं, उनके मोह का भी चेतन्यचमत्कार अपन अमृत समूह स दूर करता है। पर्याय के नाश में न्य का नाश नहीं होता, अतः कोई अन्य को कर्ता, कोई अन्य को भाक्ता भी मत मानो । ऋजुसूत्रनय का विषयमात्र वर्तमान पर्याय है, उस नय के ग्रहण मात्र म अात्मा को शुद्ध व क्षणिक मानना यथार्य नहीं है। जियप्रकार मुत्र में पिरोई मणिमाला भेदी नहीं जा सकती. उसीप्रकार आत्मा में पिरोई गई चैतन्यरूप चिंतामणि की माला भी कभी भेदी नहीं जा सकती । ऐसी चैतन्यमाला हमें प्राप्त होथे । आग कहा है - व्यवहाराष्ट मे का कर्म भिन्न कहे गये हैं, निश्चय से बस्तुस्वरूप विचारने पर वे अभेद ही हैं । वास्तव में परिणाम ही कर्म है और परिणाम परिणामी बिना नहीं होता, इसलिए प्रत्येक वस्तू अपन ही परिणाम की कर्ता है। अन्य बस्तुएँ तो बाहर ही लोटती रहती हैं । बाहर लोढने वाली वस्तु अन्य वस्तु का कुछ भी नहीं कर १. समयसार कला. १६३ मे २०४ तुक । २. वही, कलश २.५ से १६ तक।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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