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________________ कृतियां ] [ ३४१ ६. मोक्षाधिकार : यहाँ मोक्षतत्त्व का प्रवेश तथा ज्ञान की महिमा को प्रकट करते हुए लिखा है कि प्रवीण पुरुषों द्वारा प्रज्ञारूपी तीक्ष्ण छैनी सावधानीपूर्वक पटकने पर प्रात्मा और कर्मों को भिन्न किया जाता है। इस तरह स्वलक्षण के बल से शेष समस्त पर को भेदा जाता है तथा कारक, धर्म व गुण भेद होने पर भी विभुस्वरूप चतन्यभाव तो अभेद ही हैं, अभेद ही प्रतीत होता हैं । यद्यपि चेतमा एक ही है, तथापि दर्शन-जान अपेक्षा कथंचित् द्वित्व को भी धारण करती है । एक चिन्मय भाव दी ग्राहा है ग्रन्ग सर्वभाव हेय हैं। उदास चित्तवाले मोक्षार्थियों को यह सिद्धांत सेवन योग्य है कि "मैं तो सदा शुद्धचैतन्यमय एक परमज्योति हो हूँ. अन्य सभी मेरे लिए परद्रव्य है ।" आगे कहा कि जो परद्रव्य को ग्रहण करता है. वह माराधी है तथा बंध में पड़ता है तथा जो स्वद्व्य में संवृत्त है लीन है, वह निरपराधी है, वह बंधन में नहीं पड़ता है। अपने को अद्ध चितवन करनेवाला भी अपराधी है तथा अपने को शुद्ध चितवन करनेवाला ही निरपराध है । यहाँ सुख से बैटे हुए प्रम दियों को मोक्ष का अनाधिकारी कहा है ! शुद्धात्मा की पूर्णोपलब्धि तक आत्मारूपी स्तंभ से ही चित्त को बांध कर रहना चाहिए।' जहाँ प्रतिक्रमणादि को विषकुम्भ कहा है, वहां अतिक्रमण आदि अमृत कैसे हो सकते हैं ? अर्थात् कदापि नहीं हो सकते । अतः प्रमाद से नीचे-नीचे क्यों गिरते हो, सावधान होकर ऊपर-ऊपर क्यों नहीं चढ़ते । कषाय के भार से भारी होना प्रमाद है। प्रमादीपना अशुद्ध भाव है, अतः निजस्वभाव में स्थिरता करके ही मुनि मुक्ति प्राप्त करते हैं । चैतन्यामृत के प्रवाह की महिमा गे शुद्ध होकर ही प्रात्मा मुक्त होता है । वहां ज्ञान परिपूर्ण, गम्भीर एवं धीर हो जाता है । इस तरह यह अधिकार भी समाप्त हया । २ १०. सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार : यहाँ प्रथम ही सब विशुद्धज्ञान का प्रवेश होता है, जो टंको कीर्ण जायक स्वभावी, जानपूज महिमावान् है। जिस तरह आत्मा में कपिने का स्वभाव नहीं है, उसीतरह भोक्तापने का भी स्वभाव नहीं है । प्रकर्ता प्रात्मा को कर्ता मानता यह प्रज्ञान की ही गम्भीर महिमा है । अज्ञान के प्रभाव होने पर स्वतः अभोक्ता स्वभाव प्रतीति में आ जाता है । अज्ञानी प्रकृतिस्वभाव का वेदर है, ज्ञानी नहीं है। अतः निपुण पुरुषों को शीघ्र १. समयसार कलश. १८० से १८ तक | २. वहो. कलश १८६ मे १६२ तक।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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