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[ प्राचाय अमृतचन्द्र व्यक्तित्व एवं कानुत्व
प्रशिक्षित हो। प्रबंधन प्राप्त नहीं होता। यहाँ साबधान भी किया गया है कि पर से बंध न होने पर भी ज्ञानी निरर्गल प्रवृत्ति कदापि नहीं करता । निरर्गल प्रवृत्ति तो बंध ही का कारण है । अतः प्रत्येक कथन नयविभागपूर्वक हो यथार्थ जानना चाहिये । जो जानता है। यह करना नहीं तथा करता है, वह जानता नहीं। करने का परिणाम राग है, अज्ञान भावरूप अध्यवसान है, बंध का कारण है । उक्सा अध्यवसान मिथ्याष्टि के होता है। वास्तव में जीवों के गुम्न-दुःख यादि सभी कर्मोदयानुसार स्वयमेव होते हैं। कोई किसी का वार्ता धर्म नहीं है, फिर भी अजान के कारय जीव "मैं पर को सुखी करता हूँ'' ऐसे अपवमान करता है । एसे अध्यवसान करने वाले जीर अहंकार के रस से मत्त हैं, मिथ्याप्टिहै व आत्मघाती है। उक्त अध्यवसान गुभाशुभप होने से शुभाशुभ बंध के कारण हूँ । इसप्रकार मिथ्या अध्यवसानों के कारण प्रात्म। अपने को ममत पदार्थों ने स्वारा जन्मय करता हुआ चतुर्गति में परिनमिः होता है। अध्यनमान एकमात्र मोहकंद है, उनके कारण प्रजानी अपन को विश्वम्प करता है। अतः जिनः] प्रकार के अध्यवसान भाव हैं, वे समस्त छोड्न योग्य हैं -- सा जिन्नद्रवबों ना इचदा है। इसीलिए मम त प्रकार का व्यवहार भी ल्याज्य ही हैं । एकमात्र निज शुद्धज्ञानघन प्रात्मा को महिमा में सत्गुरुपों को स्थिर होना चाहिये ।' शंकाकार की शंका है कि रामादि का बंध का कारण काहा तथा शुद्ध वतन्यमात्र ज्योति से भिन्न कहा, तब इस रागादि का निमित्त आत्मा है या अन्य है ? इसके समाधान में कहा कि जिमप्रकार सूर्यकांत मणि के अग्निरूप परिणमन में सूर्य बिम्ब निमित्त है, उसीप्रकार रागादि के परिणाम में परद्रव्य का संग ही निमिन है - एमा वस्तु का स्वभाव प्रकाशमान है। ऐसे वस्तूस्वभाब को अज्ञानी नहीं जानता, यतः रागादि का प्रकर्ता होता है। इस तरह भली-भांति जानकर निमित नैमित्तिक भाव को पहिचानकर समस्त रागादि भावों को जड़ से उमाइत। हमा भगवान आत्मा स्फूरायमान होता है। भेदज्ञानज्योति रागादि के उदय को विदारण करती हई, रागादि के बंध को तत्काल दुर करते ६ए प्रगः होती है, जिसे पुनः कोई प्रावृत्त नहीं कर सकता । इस तरह उक्त अधिकार भी समाप्त हुआ। -- -... .--.-- -.. १. समयमार कलश, १६७ से १७३ तक। २. बही, कलश १७८ मे १७६ तक ।