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कृतियां ]
उदासीन होता है । जिसप्रकार अकषावित बस्त्र से रंग का संयोग नहीं होता उसीप्रकार ज्ञानी राग से रहित होने के कारण परिग्रह वो ग्रहण नहीं करता। वह तो निजरस से भरपर राग के त्यागरूप स्वभाववाला है । वस्तु का जो स्वभाव होता है, वह उस वस्तु के ही प्राधीन होकर वर्तता है, ज्ञानी का ज्ञानस्वभाव होने से बह ज्ञानरूप ही वर्तता है, अज्ञानरूप नहीं । इसी लिए उसे पर के अपराध से उत्पन्न बंधन नहीं होता । ज्ञानी के लिए कर्म करना तो उचित है ही नहीं। उसे परद्रव्य समझकर भोगना भी अनुचित है। क्योंकि परद्रव्य का भोक्ता चोर होता है । अतः ज्ञानी के इच्छा ही नहीं होती। वहाँ इच्छा बिना परद्रव्य का उदयवशात् उपभोग करने से ज्ञानी को बंधन नहीं होता है। तीन कर्मोदय की परवशता में ज्ञानी कर्म करता है या नहीं ? इसे कौन जानता है ? इस शंका के समाधान में लिखा है कि सम्यग्दृष्टि को ही ऐसा साहस होला है कि भयंकर वज्रपात होने से सारा जगत भयभीत होकर चलायमान हो जावे; परन्तु ज्ञानी निर्भय-नि:शंक होता है, अपने को ज्ञानशरीरी जानता है। अतः जानस्वभाव से व्युत नहीं होता है । ज्ञानी को सात प्रकार के भय नहीं होते, इसलोक, परलोक. वेदना, अरक्षा, अगुप्ति, मरण तथा अकस्मात् ये ७ प्रकार के भय हैं, इनका स्पष्ट विवेचन किया गया है।' सम्यग्दृष्टि के पूर्वबद्ध भय यादि प्रजातियों का उदय होता है, उन्हें भोगते हए भी उसके निःशंकादि घृण विद्यमान होते हैं, उससे पूर्ववद्ध कर्मों की निर्जरा ही होती है। इसप्रकार ज्ञान नवीन बंध को रोकता हुप्रा ज्ञानरूप रस में व्याप्त होकर समस्त गगनमण्डल में व्यापक होकर नृत्य करता है। इसप्रकार सक्त प्रकरण पूर्ण होता है । ८ बंधाधिकार :
यहाँ बंध तत्त्व का प्रवेश होता है तथा ज्ञान उसे दूर करके प्रगट होता है । कर्मबंध का कारण न पुद्गलकार्माणवर्गणा से भरा लोक है और न हो : न-वचन-कायरूप योग चेतन-अचेतन का घात भी बंध का कारण नहीं है, उसका कारण तो एकमात्र रागादि से ऐक्य स्थापित करना है । ज्ञानी रागादि को उपयोगभूमि में नहीं लाता, इसलिए मात्र ज्ञानरूप ----..- .----- १. समसार कलश, १४५ से १६० तक । २. वही, कलण १६१ से १६६ तरः ।