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| प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
कर्मी को भीगते हुए भी ज्ञानी कर्मों से नहीं बंधता । ज्ञानी विषयादिक का सेवन करते हुए भी ज्ञानवैभव तथा विरागता की सामर्थ्य में उनके फल को नहीं भोगता। सम्यग्दृष्टि के नियम से ज्ञान तथा वैराग्य शक्ति होती है, दमी लिए बह स्वरूप का ग्रहण तथा पर का त्याग करता है । यहां ऐसे जीवों का भी उल्लेख किया है, जो सभ्य दृष्टि तो है नहीं; परन्तु अपने को सम्यग्दृष्टि मानकर, "मैं बंध रहित हूँ" ऐसी कल्पना करके अभिमान एवं प्रसन्नता के साथ महावतादि का आचरण, समितियों का पालन भले ही करें, परन्तु वे प्रात्मा र तात्मा के शेवगा से मिले मियाटि ही हैं।
अब अनादि काल से नशे में चूर तथा निद्रा से भरपूर को जगाते हुए लिखते हैं कि जिस पद में तूं लीन है - सोया है, वह अपद है, तेरा पद नहीं है । तेरा पद तो यह शुद्ध, चैतन्यधातुरूप, स्वरम से परिपूर्ण तथा स्थायी है । एकमात्र ज्ञान ही प्रात्मा का स्वपद है, शेष सभी अपद हैं । एक मात्र ज्ञायकस्वभाव के अनुभवरूप महास्वाद को ही प्रारमा प्राप्त करें ऐसा उपदेश है । समस्त पदार्थों को पी लेने वाली : निर्मल ज्ञानज्योति स्वयमेव उछलती है। वह भगवान प्रात्मा चैतन्य रत्नाकर तथा ज्ञानपर्यायम्प तरंगों से तरंगित है । अतः उस निरामय - स्वसंवेदन ग्राह्य भगवान प्रारम। को छोडकर महायत, तप, त्याग आदि कितना ही करे; परन्तु निराकूल मोक्षपद कभी प्राप्त नहीं हो सकता। प्राचार्य मार्मिक सम्बोधन करते हुए लिखते हैं कि है जगज्जनों वह ज्ञानरूप पद कर्मों से दुःसाध्य है, उसे तो निज ज्ञानकला के बल से ही प्राप्त करने का निरन्तर उपाय करो। उसकी प्राप्ति होने पर (अर्थात् सम्यग्दर्शन या यात्मानुभूति होने पर) प्रात्मतृष्टिकारक, वचन अगोचर सुख प्राप्त होगा, फिर किसी से भी पूछने की जरूरत नहीं होगी, क्योंकि स्वयं वह चिन्मात्र चिंतामणि रत्न है, वह समस्त प्रयोजनों का साधक होने में ज्ञानी अन्य परिग्रह का क्या करेगा? अर्थात ज्ञानी को अन्य परिग्रह की जरूरत नहीं होती।' इसप्रकार सामान्यतः परिबह को छोड़कर विशेषतः उसका त्याग ज्ञानी करता है । पूर्वबद्ध कदिव के कारण यदि ज्ञानी उपभोग भी करता है, तो भी राग के वियोग को कारण उसको परिग्रहभाव नहीं होता। वेद्यभाव तथा वेदकभाव दोनों चलित होते हैं। इसलिए ज्ञानी कुछ भी नहीं चाहता, सभी के प्रति अत्यन्त
१. समयसार कलश, १३३ से १४४ तक ।