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________________ कृतियाँ । उत्तर में कहा है कि यद्यपि पूर्णबद्ध द्रव्य कर्म सत्ता में रहते हैं. तथापि सर्व राग-द्वेष-मोह का अभाव होने से उसे निरामय ही कहा है । इसप्रकार शुद्धनय में रहकर जो ज्ञानी सदा एकाग्रता का अभ्यास करते हैं, वे समयसार को देखते हैं । ज्ञानी भी शुद्धोपयोग से हटकर जब शुभोपयोगादि में प्रवर्तते हैं, तब रागानुसार बंध होता ही है, इसलिए ज्ञानी को निरंतर शुद्धोपयोग के अभ्यास में लगे रहने का उपदेश दिया है। सर्व कथन का तात्पर्य यह है कि शुद्धनय त्यागने योग्य नहीं हैं, क्योंकि उसके न त्यागने से कर्मबन्ध नहीं होता है । अंत में इस अधिकार का भी उपसंहार करते हुए ज्ञान की हो महिमा का वर्णन किया है।' ६. लपराधिकार : अब रंगभूमि में संवर का प्रवेश होता है। वहाँ सम्यग्ज्ञान की महिमा सूचना कथन किया है। चिदम्य ज्ञान तथा जम्प गग में अन्यन्त भेद करके, मेद विज्ञान का प्रगट करके मुदित - प्रसन्न होन की प्रेरणा की है । यदि तीनपुस्पार्थ द्वारा धारावाही जान न शद्धारमा का अनुभव किया जावे तो परपरणति के निरोध से प्रगट पानंदमयी प्रात्मा ही प्राप्त होला है। निज प्रात्मा की महिमा में लीन जन ही कर्म मे मुक्ति पाते हैं । संवर शुद्धात्मतत्व की प्राप्ति से होता है, शुद्धात्मा की प्राप्ति भेदविज्ञान मे होती है । इसलिए भेदविज्ञान ही भाने योग्य है । भेद विज्ञान की भावना तब तक निरंतर करना चाहिए, जब तक ज्ञान पर से हट कर मिज में प्रतिष्ठित न हो जावे । भेदविज्ञान की महिमा ऐसी है कि आज तक जितने भी प्रात्मा सिद्ध हुए हैं, वे सभी भेदविज्ञान से सिद्ध हुए हैं तथा जितने आत्मा अभी तक संमार में बद्ध हैं, वे सब भेदविज्ञान के प्रभाव के कारण बद्ध है। अंत में इस अधिकार का भी उपसंहार करते हार ज्ञान की महिमा की है। इसप्रकार संवर भी रंगभूमि से चला जाता है। ७. निर्जराधिकार : इस अधिकार में निर्जरा का प्रवेश तथा ज्ञान की महिमा का कथन किया है । आगे लिखा है कि यह ज्ञान तथा विराग की ही महिमा है, जो १. समयसार बानग, १५ से १२४ तक । २. बहो, कलश १२५ से १३१ तक । ३, वही, कलश १३२ ।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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