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________________ ३३६ । | प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व कर्मों का निषेध किया है. तथा ज्ञान को ही मोक्ष का कारण निरूपित किया है । यहाँ शंकाकार कहता है कि सभी शुभाशुभ कर्मों का निषेध करने पर निष्कर्म अवस्थावाले मुनि क्या अशरण होने हैं ? उत्तर में कहा है कि उस समय ज्ञान में ही आचरण करते हुए उन मुनियों को ज्ञान ही शरण होता है । ऐसा ज्ञानम्वरूप आत्मा ही मोक्ष का कारण तथा मोक्षस्वरूप होता ! है । एकद्रव्य स्वभावी होने से ज्ञान के स्वभाव ले सदा ज्ञानभवन बनता है, अन्यदन्यस्वभावी होने से कर्म के स्वभाव से ज्ञान भवन नहीं बनता; अतः वार्म मोक्ष का कारण नहीं है, अपितु मोक्षकारणों का तिरोधानकर्ता हैं, इसलिए निमशोय है . वहा कि मोदमानों की समस्तकर्मों का परित्याग करने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि जब तक कर्मों से विरति नहीं होती, तब तक कर्म और ज्ञान का एकत्रितपना होता है. यद्यपि उसके रहने में कोई विरोध नहीं, तथापि ऐसा जानना चाहिए कि अबझपन में जो कर्म प्रगट होता है, वह बंध का ही कारण हैं और एक परमज्ञान ही मोक्ष का कारण है। जो कर्मकाड-मध्यिा तो करते हैं, परन्तु ज्ञानम्वरूप आत्मा को नहीं जानने, ने अज्ञान में हो हए हैं तथा जो जागनय ने इताछ क होकर प्रमादी एवं स्वछंदी हैं. वे भा प्रमाद में ब हैं। परन्तु वे जीव विश्व के ऊपर तैनते हैं, जो ज्ञानरूप होते हुए कर्म नहीं करते तथा प्रमाद के वशीभूत भी नहीं होते है। ऐसी ज्ञानकला प्रगट होते ही शुभाशुभकर्म अपना भेदरूप होकर नाचना बंद करके चले जाते हैं। ज्ञानकला क्रमश: केवलज्ञान ज्योतिरूप परिणत हो जाती है । यहाँ उक्त अधिकार समाप्त होता है । ५. प्रास्त्रवाधिकार : इस अधिकार में मदोन्मत्त आस्रव का रंगभूमि में प्रवेश होता है, उसे ज्ञानरूप धनुर्धर जीत लेता है। वह ज्ञान उदार, गम्भीर तथा महानोदयवाला है। राग-दर-मोह रहित ज्ञानमय भावों से भावानव का प्रभाव होता है। भावास्रयों के अभाववाला, द्रव्यानवों से स्वभावत: भिन्न ज्ञानी. निरालव ही है. मार ज्ञायक है । वह इसलिए भी निरास्रव कहलाता है. क्योंकि वह समस्त राम को हेय मानकर, बुद्धिपूर्वक का राग छोड़ता है और प्रबुद्धिपूर्णक को गग को भी मिटाने का उद्यम करता है। यहाँ शंका उठाई है कि ज्ञानी के द्रव्यास्रव विद्यमान होते हैं फिर भी उसे निरास्रव क्यों कहा? १. समयमार कना, १०० से १०८ तक । २. मही. कलम १०६ में ११२ तक |
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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