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कृतियाँ ।
ही भाषा का कता है। माना ज्ञानमय तथा आमाली के अज्ञानमय भाव होते हैं। क्योंकि ज्ञानी के भाव ज्ञान रचित होते हैं, अज्ञानी के अज्ञान रचित होते हैं । अज्ञानी के भाव द्रव्यकर्म के बंध में निमित्त होते हैं । अतः जो नयपनपात से मुक्त होकर स्वरूप में मुप्त(लोन) होते हैं; वे विकल्प जाल से रहित होकर साक्षात् अमृत का पान करते हैं । आगे नय बिकापों का विशेष स्पष्टीकरण करते हए लिखा है कि बद्ध, मूढ, रक्त. दुष्ट, कर्ता, भोक्ता, जीव, सूक्ष्म. हेतु, कार्य, भाव, एक, सांत, नित्य, वाच्य , नाना, चेत्य, दृश्य, वेद्य, भात (प्रकाशमान) इत्यादि व्यवहारनय के विकल्प हैं तथा प्रबद्ध . अमूढ़ अादि निश्चयनय के विकाप है। परन्तु जो तत्त्वज्ञानी है, वह पक्षपात रहित होकर आत्मा को चित्स्वरूप अनुभवता है ।* चतन्यमात्र तेजपुंज प्रात्मा के अनुभव से समस्त विकल्प उड़ जाते हैं । अतः यह स्पष्ट हामा कि पक्षातिक्रांत ही समयसार है। ऐसे समयसार के दर्शन को ही सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान कहते हैं । सविकल्प का कर्ताकर्मपना कभी नष्ट नहीं होता । जो करता होता है, वह ज्ञाता नहीं होता; जो ज्ञाता होता है, वह करता नहीं होता । 'करोति त्रिया' में 'ज्ञप्तिक्रिया' भासित नहीं होती तथा 'ज्ञप्तिक्रिया में करोति क्रिया' भालित नहीं होती। निश्चय स न तो कर्ता कर्म में है और न कर्म कर्ता में ही है । ज्ञाता ज्ञाता में है, कर्म सदा कर्म में ही है-ऐसी वस्तु स्थिति है। तथापि नेपथ्य में मोह वेग पूर्वक नात्रता है तो नाचे । अव कर्म कर्मरूप रहता है. ज्ञान ज्ञानरूप । ऐसा गम्भीर - ज्ञानज्योति का महत्त्व है । यहाँ उक्त अधिकार समाप्त होता है। ४ पुण्यपाप अधिकार :
इस अधिकार में शुभ-अशुभ (पुण्य-गाप) कर्म दो पात्ररूप वेश धारण करके पाते हैं । ज्ञान उन्हें जान लेता है कि बे दो नहीं, यथार्थ में एक कर्मरूप ही हैं। जिसप्रकार किसी शूद्रा के दो पुत्र पैदा हुए हों, उनमें एक ब्राह्मण के यहाँ तथा एक शूद्रा के घर पर पला हो, इसलिए उनमें एक मदिरा पीता है, तथापि जाति अपेक्षा तो दोनों एक ही हैं । हेतू, स्वभाव, अनुभव तथा प्राश्रय इन चारों की सजा अभेद होने से कर्म में ही निश्चय से भेद नहीं है । समस्त कर्मों को जिनन्द्र ने बंध का साधक कहा है, अतः सर्व ही
१ समयसार कलश, ५७ से ६७ तक । २. वही, कलश ६८ से ८६ तक । ३. वही. कलश ६० से १६ तक।