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[ याचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व त्याग करने वाला प्रात्मा ही ज्ञानी हैं । व्याप्य-व्यापक भाव के बिना कर्ताकर्म की सिद्धि नहीं होती, अतः जीव कर्म का कर्ता नहीं है। ज्ञानी रागादि का भी
होता ही होना प्रशानी भीको उक्त परद्रव्य व परभाव के साथ कर्ताकर्म की बुद्धि तब तक बनी रहती है, जब तक उन्हें भेदविज्ञान नहीं हो जाता।' आगे कर्ता, कर्म तथा क्रिया का लक्षण लिखा है कि जो परिणमन करे बह कर्ता है, जो परिणाम हो, वह कर्म है तथा जो परिणति हो, वह क्रिया है-ये तीनों वास्तव में वस्तु स्वरूप से भिन्न नहीं हैं। एक बस्तु ही परिणमित होकर एक परिणाम को करती है. एक ही परिणति होती है, क्योंकि अनेकरूप होने पर भी वस्तु एक ही है । दो द्रव्य एक होकर परिणमित नहीं होते. दो द्रव्यों का एक परिणाम नहीं होता, दो द्रव्यों की एक परिणति क्रिया नहीं होती, क्योंकि अनेक द्रव्य सदा अनेक ही रहते हैं. वे एक नहीं होते । एक द्रव्य के दो कर्ता नहीं होते, एक द्रव्य के दो कर्म नहीं होते, एक द्रव्य की दो त्रियाएँ नहीं होती, क्योंकि एक द्रव्य अनेक नहीं होता । तथापि अनादि काल से अज्ञानी पर का कर्ता अपने को मानकर चारों ओर दौड़ लगाता है । शुद्धात्मा के प्राथय से यदि अात्मा एक बार भी ज्ञानी हो जाता है तो फिर उसे बंधन नहीं होता । सारांश यह है कि यात्मा प्रात्मभाव का तथा पर परभावों का कर्ता है। र घासमिश्रित अच्छा भोजन खाने वाले पगू की तरह अज्ञानी वो पद्गल मिश्रित अपने प्रात्मा की भिन्नता भासित नहीं होती। मृगतृष्णा की तरह अथवा र-मी में सर्वाभास के कारण भागने वालों की भांति अज्ञानी कतृत्व के अहंकार में व्यर्थ प्राकुलित होते हैं । झानी पर को जानता है । ज्ञान की महिमा ही ऐसी है कि उससे अग्नि की उष्णता, पानी की शीतलता, चैतन्यधातु तथा क्रोध का भेद जाना जाता है। ग्रात्मा अपने ही भाव का कर्ता है, अज्ञानी ग्रात्मा भी परभाब का कर्ता नहीं है। प्रात्मा ज्ञान है. ज्ञानमय है, ज्ञान के सिवा कुछ कर भी नहीं सकता। परभावों का कर्ता मानना व्यवहारी- संसारी जनों का मोह – अज्ञान मात्र है । पुनः अज्ञानी की शंका है कि जीव यदि कर्म को नहीं करता तो कौन करता है ? उत्तर में लिखा है कि पुदगलद्रव्य में अपनी स्वयं की परिणमन शक्ति है, अतः वह अपने ही भाव को कर्ता है। इसीप्रकार जीव की भी अपनी स्वयं की परिणमन शक्ति है, अतः वह अपन
१. समयसार कनश, ४५ में ५० तक। २ वही, कलश ५१ से ५३ तक ।