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कृतियाँ ]
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में मोह से भिन्न शुद्ध चैतन्य निधि आत्मा ही पाता है । इसप्रकार के विचारों मे प्रवृत्ति स्वात्मनिष्ठ होती है। अंत में भगवान आत्मा को ज्ञानसिंधू म्वरूप में मान होने की प्रेरणा देते हार उक्त अधिकार समाप्त होता है।' २. अजीवाधिकार :
__ इस अधिकार में जीव तथा अजीव का एक वेश में प्रवेश तथा ज्ञान द्वारा उन्हें यथार्थ जान लेने पर वेश त्यागकर चले जाने की सूचना प्रारम्भ में दी है । प्राय पुद्गल से भिन्न प्रात्मा की उपलब्धि का विरोध करनेवालों को टीकाकार प्राचार्य शांतिपूर्वक उपदेश देते हुए लिखते हैं कि हे भव्य, व्यर्थं के कोलाहल को बन्द करो, उससे कुछ भी लाभ नहीं है। एक चैतन्यमात्र वस्तु को स्वयं निश्चल होकर देखो, ऐसा छह माह तक अभ्यास करो तो तुम्हें स्वयं ज्ञात होगा कि तुम्हारे ही हृदय सरोवर में पुद्गल से भिन्न प्रारमा की प्राप्ति होती है या नहीं ? अागे सब परपदार्थों को छोड़कर एक चैतन्य मात्र को ग्रहण करने की प्रेरणा की है। चैतन्यमात्र के सिवा शेप समात भाव पीलिक है । स्पर्श, रस, गंध, वर्णादि तथा राग-द्धप-मोहादि सभी पात्मा से भिन्न पदार्थ हैं। जिसपकार स्वर्णनिर्मित म्यान स्वर्णमय होती है, उसी प्रकार वर्णादि, एकेन्द्रियादि, जीवसमासादि सभी पुद्गलमय हैं. अात्मामय नहीं हैं। घी का घड़ा कहने पर भी घड़ा घो का कभी नहीं होता, इसीप्रकार वर्णादि रूप जीव है, ऐसा काह पर जीव वर्णरूप कदापि नहीं होता । जीव तो अनादि अनंत चैतन्य प्रकाशमान है । जीव का लक्षण अमूर्तत्व भी नहीं है, क्योंकि बह लक्षण धर्म, अधर्म आदि अचेतन द्रव्यों में पाया जाता है । चैतन्य ही सर्वथा जीव का निर्दोष लक्षण है । उस असाधारण चैतन्यभाव को ही सम्बदष्टि अनुभव करता है । सम्यग्दृष्टि मानता है कि अनादि के अविवेकमयी नृत्य में पुद्गल ही नाचनेवाला हूँ, जीव नहीं; जीव तो चैतन्य धारा से बना हुआ है है । इसप्रकार अजीवाधिकार समाप्त होता है । ३. कर्ताकर्माधिकार :
इस अधिकार में अज्ञानी जीव क्रोधादि भावों का कर्ता आत्मा को मानते हैं | उनकी उक्त मान्यता को ज्ञानज्योति दूर करती है । ज्ञानी को पौद्गलिक कर्मबंधन नहीं होता है । द्रव्यकर्म तथा भाबकर्म के कर्तापन का
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समयसारकला, २८ से ३२ तक। वही, कलम ३३ से ४५ तक ।