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________________ ३३२ । [ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व परिपूर्ण है, आदि अंत से रहित है, एक है, . संकल्प-विकल्प-समूह से रहित है। ऐसा स्वभाव शुद्धनय के द्वारा प्रकाशित होता है । अत: मोह को छोडकर ग्रात्मानुभव करने की प्रेरणा को है।। बार-बार उस स्वरूपानभव के अभ्यास सं स्वयं, शाश्वतदेव आत्मा अनुभव मे आता है। आत्मानुभूति शुद्धनयरूप है । उसे ही ज्ञानानुभूति कहते हैं । ऐसी ज्ञानानुभूति की प्राप्ति की प्रेरणा टीकाकार ने दी है। प्रात्मा उसीप्रकार चैतन्य से परिपूर्ण है, जिसप्रकार नमक की डली सर्वांग क्षारपने से परिपूर्ण है। ऐसा प्रात्मा माध्य व साधक दो रूप होने पर भी एक ही उपासनीय है । प्रात्मा की द्विविधता बतलाते हए लिखते हैं कि दर्शन-ज्ञान-वारिम तीनरूप होने से आत्मा मेचका और स्वरूप की एकता के कारण अमेचक है । वह अमेत्रक अर्थात् अभेद तथा मेचक अर्थात् भेद अन्य रूप: । अतः त्रिरूपता को धारण करनवाली तथा अपनी एकता को न छोड़नेवाली आत्मज्योति का अनुभव ही साध्य की सिद्धि का उपाय है, अन्य नहीं है। उजत प्रकार से शात्मा की अनुभूति करनवाले निबिकारी बनते हैं । अनादिकालीन मोह को छोडकर जगज्जन भी ग्रात्मररा के रसिकों को प्रिय ऐसे भेदविज्ञान को चखें। उस भेदविज्ञान की प्राप्ति के लिए किसी भी प्रकार से, यहां तक कि मरकरके भी तत्व का कौतुहली होकर मूर्तिनः शरीरादि को पड़ोसी की भांति अनुभव करें तो मोह भी प्रात्मा को स्वयं ही शीघ्र छोड़ देगा । यहाँ अज्ञानी प्रश्न करता है कि ग्रान्मा और शरीर एक ही है, क्योंकि तीर्थकरों व प्राचार्यों की "तुति मगेराश्रित होती है। अतः वह मिथ्या सिद्ध होगी ? प्राचार्य कहते हैं तू नय विभाग की नहीं जानता है। जिनेन्द्र का रूप स्वाभाविक. लावण्यमी इत्यादि है. इसमें अधिष्ठाता आत्मा का कुछ भी गुणगाम नहीं हुआ है, जिसप्रकार नगर के वर्णन से गजा का गुणवर्णन नहीं होना है। यह व्यवहार सुति मात्र है. निश्चय तृति में मो चैतन्य प्रात्मा के गुणों का तवन ही चैतन्य का स्तजन है ।* इसप्रकार नयविभाग की यति द्वारा अात्मा और शरीर के एकत्व को जनमल से उखाइनेवाले का जान नत्काल यथार्थपने को प्राप्त होता है । अागे कहा कि परभाव के त्याग की दृष्टि प्राते ही स्वानुभूति प्रकट होती है । उस अनुभूति में आत्मा चैतन्यरस' से भरे अपने प्रात्मस्वभाब को ही अनुभव करता है तथा अनुभव १. समयसारकलश - १ मे २० तकः । २. समयसारकलश, २१ से २७ तक ।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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