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कृतियां ।
समय स्पष्ट कर चुके हैं। समयसारकलश का प्रत्येक पद्य अनेकांत तथा व्यावाद शैली का प्रकाशक, जैनसिद्धांत व अध्यात्म का मोद्घाटक है । उनको समग्र कृलि शुतकेवालवाणी तुन्य प्रभाणता को प्राप्त है । इसे जैनों की अध्यात्मगीता कहना उचित है । कुन्दकुन्द की गाथाओं के मूलभावों का दोहन करके हो टीकाकार ने ज्यों का त्यों अथ कलशरूप काव्यों के माध्यम से पुनः अभिव्यक्त किया है। अतः उनकी प्रामाणिकता निम्संदेह है । उनके परवर्ती समस्त विद्वानों, आचार्यों ने अमृतचन्द्र के उक्त कलशों को प्रमाणरूप में प्रस्तुत बार में गौरव का अनुभव किया है । इन कलशों का सर्वाधिक प्रचार-प्रसार. प्रकाशन व लेखन आदि से भी इस कृति की लोकप्रियता तथा प्रामाणिकता सिद्ध होती है । विषयवस्तु :
आत्मख्याति टीका की तरह इसे भी १२ अधिकारों में बांटा गया है, जो क्रमशः जीव, अजीव, कर्ताकर्म, 'पुण्यपाप, आस्रव, संघर, निर्जरा, बंध, मोक्ष, सर्वविशुद्धज्ञान, स्थावाद तथा साध्यसाधक अधिकार हैं । कुल पद्य मुंग्या २७८ है । इन अधिकारों से प्रतिपाद्य विषयवस्तु संक्षेप में इसप्रकार है। १. जीवाधिकार :
प्रथम ही मंगलाचरण में स्वानुभूनि में प्रकट होने वाले शुद्धात्मा को नमः कार करके अनंलधर्मात्मक तत्वों को प्रत्यक्ष करने वाली अनेकांतस्वरूप मूर्ति-जिनवाणी के जयवंत प्रवर्तन की भावना व्यक्त की । ग्रन्थ रचना का फल निरूपित करते हुए लिखा है कि समयमार व्याख्या द्वारा शुद्धपरणति को प्राप्ति हो । उक्त प्राप्ति उन्हें ही होती है, जो निश्चय-व्यबहार नयों के विरोध को मिटाकर यातपद अंकिन जिन बचनों में रमण करते हैं। ग्रागे व्यवहारनय की कथंचित उपयोगिता बताते हए उमे प्रथम अवस्था में स्थित जनों को हप्तावलंबन समान कहा है, परन्तु चैतन्यचमत्कार मात्र पदार्थ को देखने वालों के लिए व्यवहारनय कुछ भी उपयोगी नहीं है । नवतन्वों में व्याप्त एक पूर्णज्ञानधनम्वरूप प्रात्मा का स्वरूपदर्शन ही सम्यग्दर्शन है। गुद्धनब से देखने पर वह अात्मा एक चनन्यज्योति स्वरूप ही प्रकाशित होता है । प्रतिक्षण उस पात्मज्योति को देखने से प्रात्मदर्शन होता है। आत्मदर्शन या प्रात्मानुभव के काल में नय, प्रमाण, निक्षेप प्रादि के समस्त विकास ममाप्त हो जाते हैं। एक मात्र आत्मा अद्वैतरूप से भासित होता है । प्रात्मा का स्वभाव परद्रव्य तथा उनके भावों से भिन्न है,