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कृतियाँ :
होते हैं। अनेक शक्तियों का समूह यह यात्मा नयों की दृष्टि से खंड-वड होता हुआ नाश को प्राप्त होता है। अतः अखंड, एक, शांत. एकांत और अत्तल स्वरूपी चैतन्यमात्र तेज आत्मा है। प्रात्मा मेचक-अमेचक आदि दिखाई देने पर भी ज्ञानी उसके यथार्थ निमंल ज्ञान को नहीं भलता। वह जान, जेय तथा ज्ञाता तीनों भावसंयुक्त मामान्यविशेष वस्तु है । प्रात्मा का अनेकांतम्बरूप वैभव अदभुत है। विभिन्न दृष्टियों से वह एक-अनेक, नित्य-अनित्य. तन्-अतन् हा दिखाई देता है । वह पर्याय दृष्टि से कषायों से मलिन, द्रव्य दृष्टि से मांति युक्त निर्मल, निश्चय से मुक्ति को स्पर्श करता हुआ तथा व्यवहार से सांसारिक पीड़ा युक्त दिखाई देता है । अत: एकमात्र चैतन्य चमत्कार मात्र होने पर भी आत्मा अनेक प्रकार दिखाई देता है । अन्चल चेतनारूप, मोह को नाश करनेवाली जो निर्मल पूर्ण ज्योति है - ऐसी 'अमृतचन्द्रज्योति' मुझे प्रगट हो। इस तरह आत्मा मात्र ज्ञातादृष्टारूप ही बना रहता है। टीकाकार ने अंतिमपद्य में व्याख्या करन के कत्वमा विकमा का निषेध किया है तथा स्वरूप गुप्त अमृतचन्द्र को उसका अकर्ता बताया है। उपरोक्त समस्त प्रतिपाद्य वस्तु प्रायः आत्मत्याति टीका के ही विस्तृत भावों को संक्षेप में समाहित किये हुए है। पाठानुसंधान :
'समयसारकलश' की टीकाएँ एवं पाण्डुलिपियां संकड़ों की संख्या में विभिन्न ग्रन्थभण्डारों में विद्यमान हैं। इसके प्रकाशन एवं संस्करण भी अनेक प्रगट हो चुके हैं। यह बात आगन तालिकानों से स्पष्ट होती है। प्रात्मख्याति टीका की अपेक्षा उसके पद्यरूप समयसार कलशों का प्रचार एवं प्रसार बहुत हुआ है । इसकी ताडपत्रीय. हस्तलिखित कागज एवं कपड़े पर उपलब्ध मूल पाठ विभिन्न कालों के हैं, जिससे उक्त कृति के प्रचार की पारव्यापी एवं क्षेत्र यापी अविच्छिन्नधारा का ज्ञान होता है । दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों में यह कृति समानरूपण समाइत रही है । विभिन्न स्थानों के शायभगतारों की खोज से इसकी अत्यन्त प्राचीन पाण्डुलिपियाँ जपलब्ध हुई । इनमें सबसे प्राचीन पाण्डुलिपि ई. सन् १६११ की उपलब्ध हुई है। यह प्रति जयपुर के बड़े तेरहपंथी जैन मन्दिर में लगभग ६ इंच नोड़ तथा ५१ फुट लम्बे कपड़े पर दोनों तरफ लिखित है । प्रारम्भिक कुछ ८-१० पद्य प्रति के प्रांशिक जीर्ण-शीर्ण हो जाने के कारण स्पष्ट एवं
१. समयसार कल श. पञ्च २६८ से २७८ तक ।