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| प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कतृत्व
पूर्णतः पाट्य नहीं है, शेष पद्य सूपाठ्य हैं । उक्त प्रति के मूल पाठ का कुछ मुद्रित प्रतियों के मूल पाठों से मिलान करने पर कुछ पाठान्तर एवं त्रुटियाँ सामने आई हैं। उक्त कपड़ेवालो प्रति के अतिरिक्त ई. सन् १९९५ में प्रकाशित प्रथम गुच्छक है, जो पं. पन्नालाल चौधरी द्वारा सम्पादित एवं काशी से प्रकाशित है । दूसरे सन् १९३१ में ब्र. शीतलप्रसाद द्वारा सम्पादित नथा सूरत से प्रकाशित ग्रन्थ है। तीसरे सन् १६६६ में पं. फूलचन्द्र शास्त्री द्वारा सम्पादित तथा सोनगढ़ से प्रकाशित कृति है तथा चौथे ई. १९७७ में पं. जगन्मोहनलाल शास्त्री द्वारा सम्पादित तथा कटनी से प्रकाशित ग्रन्थ है। इन सभी का उपयोग पाठानुसंधान में हमा है। यहां पाठान्तर की जानकारी हेतु तुलनात्मक तालिका उदाहृत है - कलश काशी सूरन सोनगढ़ कटनी क्र. १६२५ १९३१
१९७७ २८ प्रस्फुरम्नेक प्रस्फुरस्नेक प्रस्फुटनेक प्रस्फुटन्नेक ३२ प्रत्यावयत् प्रत्यादयत् प्रत्याययत् प्रत्याययत् ३५ चिच्छक्ति - चिच्छक्ति - चिच्छक्ति - चिच्छक्ति - ३६ सकलमपि - मउमपि - समसामपि :- का४१ मिदं स्फुटम् मबाधितम् मबाधितम् मबाधितम् ४३ बत्
बत जयपुर की ई. १६११ की कपड़े पर लिखित प्रति में अनेक स्थलों पर शब्द, वाक्य एवं पंक्तियाँ तक छटी हैं । कहीं पर पुनः लिखा गया है, अतः उक्त प्रति में अत्यधिक श्रुटियाँ होने के कारण पाठानुसंधान की दृष्टि से उसका महत्त्व विशेष नहीं है ।
__ इसप्रकार तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट है कि हस्त लिखित प्रति में लिपिकार की लिपि विषयक त्रुटियां बहुत हैं; किन्तु मुद्रित प्रतियों में उन वृटियों का यथासम्भव परिमार्जन हृया है । यह परिमार्जन उत्तरोत्तरवर्ती प्रतियों में अधिक होता गया है । परम्परा :
समयसार कलश में द्रव्यानुयोग तथा जन-अध्यात्म का उत्कृष्ट रूपेण प्रस्फुटन हुआ है । प्रात्मख्याति टीका में वर्णित अध्यात्म परम्परा को ही समयसार कलशों में साररूपेण समाहित किया गया है। छंद विद्या की सरस व हृदयहारी परम्परा की झलक भी सत्र प्रकट है। समयसार कलश
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