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________________ ३६४ | | श्राचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व की ३२ पद्यों बाली ३२ अध्यायवाली द्वात्रिंशतिका के अनुकरण पर अमृतचन्द्र ने २५ पद्यों वाली २५ अध्यायवाली रचना की। मानतुरंग के भक्तामर के उपसंहार का अनुकरण अमृतचन्द्र ने किया है । भक्तामर का अंतिम पद्म " स्तोत्रस्त्रयं तव जिनेन्द्र गुणनिर्बद्धां "इत्यादि" तथा तत्त्वस्फोट के प्रथम अध्याय का अंतिम श्लोक "ये भावयंति विकलार्थंवतीं जिनाना इत्यादि में शैलीसाम्य, ध्वनिसाम्य है। साथ ही अर्थ साम्य भी है। इसके अतिरिक्त समयसार कलश, आत्मख्याति टीका के अंशों, तत्वदीपिका के अंशों तथा समयव्याख्या के अंशों से भी विषय वस्तु ग्रहण कर स्तोत्र की सृष्टि की है। 12 विषयवस्तु : वस्फोट में वर्णित विषयवस्तु को पच्चीस श्लोक वाले पच्चीस ध्यायों में प्रस्तुत किया गया है। उन अध्यायों में निरूपित प्रकरण इस प्रकार हैं — < प्रथम अध्याय में २४ तीर्थंकरों के गुणों का चमत्कारपूर्ण शैली में, अनुप्रास तथा विरोधाभास आदि अलंकारों के सरस आकर्षण के साथ स्मरण किया है । यह अध्याय समग्र कृति में सर्वाधिक क्लिष्ट अंश है । कुछ पद्य तो पहेलियों के रूप में प्रस्तुत किये गये हैं । स्याद्वाद सिद्धांत के माध्यम से विरोधाभास अलंकार का प्रयोग करने का लेखक को असीमित अवसर मिला है । इसमें शून्य शून्य, नित्य-अनित्य, सत् श्रसत् भूत-भविष्यत् श्रात्मक - निरात्मक, एक अनेक, बद्ध-मुक्त, कर्तृ -बोद्ध इत्यादि विरोधी युगलों का प्रदर्शन किया है। आत्मा के इन द्वन्द्वात्मक धर्मों को निश्चय तथा व्यवहार की निरूपण शैलियों द्वारा प्रस्तुत किया है । अनेकांत से अलग न होकर निश्चय नय परक् वाक्पटुता द्वारा तथ्य का समर्थन करना अमृतचन्द्र का मौलिक वैशिष्ट्य है । यद्यपि उन्होंने समस्तपदार्थों की प्रकाशक जिनेन्द्र की सर्वज्ञता के अनेकरूपों की प्रशंसा की है, तथापि निश्चयदृष्टि से उक्त सर्वज्ञता को अर्द्धत सिद्ध करने पर वजन भी दिया है । उक्त प्रत महान् ज्योति की वे उपासना करते हुए कहते हैं " श्रद्रतमेवमहयामि महन्महस्ते" | ये शब्द हमें उनके समयसार कलश में प्रयुक्त "अनुभवमुपयाते न भाति द्वं तमेव" इत्यादि का स्मरण कराते हैं । अध्याय की समाप्ति करते हुए वे लिखते हैं कि जो भब्य जीव अमृतचन्द्रसूरि के ज्ञान द्वारा गृहीत परिपूर्ण अर्थ से युक्त ऋषभादि तीर्थकरों की नामावलि का चिंतन करते हैं, वे निश्चय से अनायास ही सकल विश्व को पी जाते हैं अर्थात् सर्वज्ञ हो -
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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