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________________ कृतियाँ | | ३६५ जाते हैं तथा सकल विश्व उनके ज्ञान में प्रतिबिम्बित हो उठता है । उन्हें कर्म आदि परय ग्रहण नहीं कर सकते हैं अर्थात् ये कर्मबन्धन में नहीं पड़ते हैं । यह अंतिम पद्य हमें भक्तामर स्तोत्र के अंतिम पद्य की याद दिलाता है, क्योंकि उनमें कई तरह से साम्य प्रतीत होता है । द्वितीय अध्याय में विश्वरूपता तथा एकरूपता के आधार पर निर्मित विरोधी वर्मों का निरूपण किया है। लेखक ने सांख्यमत की इस मान्यता का कि पदार्थों का ज्ञान चैतन्य के प्रखण्ड स्वभाव को खण्डित करता है, आदि का खण्डन किया है । एकांतवादी कथन करने वालों को उन्होंने पशु श्रर्थात् प्रज्ञानी शब्द का अनेक बार प्रयोग किया है । अनेकांत स्वरूप स्पष्टीकरण करते हुए जिनेन्द्रदेव को भाव- श्रभाव, गुणपर्याय रूप सिद्ध किया है। उनके अंतरंग - बहिरंग स्वरूप के दर्शन से अंतर्बाह्य शत्रु नष्ट हुए हैं। उन्होंने कार्य को साधनविधि से सम्बद्ध होना बताया है, यथा "कार्यं हि साधनविधि प्रतिबद्धमेव । " " वे लिखते हैं कि यदि विज्ञानतन्तु स्वभाव में लीन हो तो कषाय रूप कन्या नष्ट हो जावें । श्रज्ञानी कषाय तथा ज्ञानी प्रशमभाव का धारण करते हैं । जिनेन्द्रदेव मात्र ज्ञाता हैं, कर्ता नहीं है । जिनेन्द्र के तेजस्मरण से नेत्र निमीलित हो जाते हैं । वे समस्त विश्व के (ज्ञानद्वारा ) भोक्ता है, सामर्थ्य वन्त, ऐश्वर्यवन्त, अंतरहित, निरंतर उदित तथा अद्वितीय महिमावारी है। उनके उदित रहने पर भी स्वार्थ को सिद्ध करने वाले मिथ्यादृष्टि जीव एक-एक दृष्टि को धारण कर क्यों उछलकूद करते हैं ? यह आश्चर्य की बात है । अंत में लिखा है कि विभिन्न श्रात्मशक्तियों के समूहरूप यह आत्मा नयदृष्टि से खण्ड-खण्ड होकर शीघ्र हो नाथ को प्राप्त होता है, अतः मैं प्रखण्ड, एक शांत, अविनाशी चैतन्य रूप हूँ । यह अंतिम कथन समयसार कलश २७० के कथन से साम्य रखता है । तृतीय अध्याय में आशीर्वादात्मक मंगल पच के साथ सामायिक का स्वरूप वर्णन करते हुए लिखा है कि बलपूर्वक मोहव्यूह को छोड़कर ज्ञान-दर्शन मात्र महिमामयी निज ग्रात्म द्रव्य में लीन होना सामायिक है ।14 जिनेन्द्रदेव स्वयं ऐसे सामायिकस्वरूप परिणत हुए हैं। सम्पूर्ण अध्याय में जिनेन्द्र का उत्कृष्ट प्राध्यात्मिक चारित्र प्रस्तुत किया है । सबसे निम्नदशा ?. बल्कोट - अध्याय २ । बड़ी, प्रध्याव २ च २ |
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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