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| प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर आध्यात्मिक विकास की सर्वोच्च स्थिति सर्वज्ञता लक का प्रात्मा के क्रमिक विकास का विवरण प्रस्तुत किया गया है । क्रमिक विकास की १४ सीढ़ियां हैं, जिन्हें गुणस्थान कहते हैं, गणस्थानातील दशा सिद्धदशा है, जो जैनों का चरम श्रादर्श है। विकास का प्रारम्भ चौथे गुणस्थान से होता है, जिसे सम्यवत्व कहते हैं। सम्यक्त्व मुमुक्षु का मोक्षमार्ग का प्रवेशद्वार है, जिसे अमृतचन्द्र ने मंगलाचरण में "मार्गावतार" शब्द से ईंगित किया है । यह मागवितार का क्षण परम आनंदमय होता है। लेखक ने सम्यनस्व और उपरोक्त सामायिका में साम्य स्थापित किया है। प्रागे लिखा है कि जिनेन्द्र ने पूर्व में भावसंयम सहित द्रव्यसंमम धारण किया था।' तप की महिमा से जिनेन्द्र के राग-द्वेष शांत हो चुके थे। वे उन दोनों के ज्ञाता मात्र थे । उन्होंने शुद्धोपयोग की भूमिका में दर्शनमोह का क्षय किया था । दर्शनमोह का क्षय चौथे गुणस्थान में हुअा था । पश्चात् शुद्धोपयोग रूप किंचित् स्थिरता द्वारा प्रांशिक चारित्रमोह का क्षयोपशम किया था। यह कार्य पाँचवें गुणस्थान में हुमा था । छठवें गुणस्थान में परिषहजयी हुए तथा दृढ शुद्धोपयोग का पालम्त्र लेकर निकांचित कर्म का भी क्षय किया था। वे परमसंयमी तथा द्वादशांग के ज्ञाता हुए थे । उन्होंने शुद्ध क्षायिक ज्ञान में शुशोभित अात्मद्रव्य का अनुभव किया था। उन्होंने पिरंतर अंतर्बाह्य तपों के द्वारा ज्ञान तथा चारित्र की पूर्णता प्राप्त की थी। सातवें गुण स्थान में उपशम श्रेणी मर मारोहण किया और मोहाजा को दबा दिया था। उन्होंने अनंतगुणी परिणाम शुद्धि द्वारा क्षपकश्रेणी पर आरोहण करके अपूर्वकरण नामक आठवें गणस्थान को प्राप्त किया था। आगे अनिवृत्तिकरण रूप परिणामों के प्रभाव से शीघ्र ही बादर (स्थूल) कर्म रूप किट्टिमा को दूर किया था तथा नवमां गूणस्थान पाया था। सूक्ष्म कर्मरूप किट्टिमा को नष्ट करने पर भी सुक्ष्मलोभ रूप कर्म कालिमा मेष रह गई थी. इस तरह सूक्ष्मलोभ नामक दसवें गुण स्थान को प्राप्त किया था । पुनः अनंतमुणी परिणाम विशुद्धि द्वारा ग्यारहवाँ उपशांतमोह नामक गुणस्थान प्राप्त किया था। तत्पश्चात् उन्होंने पृथकरव वीचार शुक्लध्यान धारण क. १२वाँ क्षीणमोह नामक गुणस्थान प्राप्त किया तथा चार घातियों कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान प्रगट किया। यह १३व गुणस्थान बी दशा है। उन्होंने १. लताद: - यरूपाय - 1. पद्य .. 2 | ९. वही - अपाय ३ : ५ "Tiमिगिन.............' स्यादि।