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________________ चातियां : अनंतवीर्य प्रगट करके लोकालोक को जाना | आगे १४वें जुण स्थान में योगों का निरोध करके प्रयोग केवली अवस्था धारण की । अंत में गुणस्थानातीत होकर सिद्धावस्था को प्राप्त हए। उस अवस्था में ने समस्त द्रव्यकमे, नोकर्म तथा भावकर्म से रहित हुए। उन्होंन अनुपमेय सिद्ध दशा को प्रमटे किया। उस समय मागों ने समस्त लोकालोक को केवलज्ञान में संक्रांत कर रहे हो, लिव रहे हो, आकृष्ट सा कर रहे हों, संरक्षित सा कर रहे हों. पी सा रहे हों तथा उत्कृष्ट अनंत वीर्य से मानों प्रत्येक दिशा में स्वयं प्रगट हो रहे हों। इस प्रकार सिद्धदशा का उत्प्रेक्षा रूप कथन करके उनके समान बनने की मंगल कामना करते हुए अध्याय समाप्त किया। चतुर्थ अध्याय में सर्वज्ञता का ही प्रतिपादन चलता है । वहाँ प्रथम ही केवलज्ञानमयी सूर्य को नमस्कार करते हुए लिखा कि जिनन्द्र का तेज मेरे अनुभव में आने लगा है । जिनेन्द्र भगवान प्रारमर्शियों द्वारा पूज्य तथा तेजवंत हैं । अज्ञानियों को मात्र एक भामित होते हैं. परन्तु ज्ञानियों को एक तया अनेक रूप एकमाथ ज्ञात होते हैं। वे अनंतरूप होकर भी है। उनकी ज्ञानरूप लता चरमसीमा तक वृद्धिंगत होक स्वभाव में ही क्रीडारा रहती है। वे अनंतनात रूप वायु से समस्त जगत को कम्पिन सा करते हैं, जिससे साधक का मन भी कम्पित सा हो उठता है । जिनेन्द्र के मान समुद्र की एक ही तरंग में समस्त लोक अपनी अनंतपर्यायों सहित तैरता मा प्रतील होता है । उनके केवलज्ञान रूप तेज में चेतन-पत्रेतन प्रकाशित होते हैं । अनेक जिनेन्द्र को एकांत दष्टि से नहीं देखा जा सकता। प्रत्येक द्रव्य की पर्यायें अंतर्बाद्य कारणों को सन्निधि में उत्पन्न होती हैं । समुद्र में तरंगमाला की तरह शब्दावली भी जिनेन्द्र के द्रव्यस्वभाव को महिमा में विलीन हो जाती है। उनका विधि-निपेषरूप स्वभाव कृष्ण व शुक्लपक्ष की भांति उभयरूपता को नहीं छोड़ता। उनके अस्ति-नास्ति, भाव-भात्र. एक नेक रूप स्वभाव. ऋम-अक्रम आदि चुगल युगपत् रहते हैं । पदा) में पा. माने वाली शक्तियाँ तर्कणा के योग्य नहीं होतो । जिनेन्द्र के समक्ष का रूप क्षणिकवाद ध्वस्त हो जाता है तथा द जगत् को प्रकाभित करते हुए भी जगत् स भिन्न रहते हैं पर को जानन मात्र में नेतना में दोष नहीं पाता। बे परज़यों में राग-द्रंप व मोह नहीं करते । उनको जान योनि में परसदार्या या प्रतिबिम्ब कलकता है। जो जोब पर पदार्थों में रखा है, उन्हें जिनंन्द्रका दर्शन नहीं हो सकता। अंत में उनके अंतरंग बहिरंग वैभव ना विशद अनुभव को ध्यान जमा होता है ।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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