________________
३६८ ।
| प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
पंचम अध्याय में भी उक्त सर्वज्ञता ही प्रतिपाद्य है। प्रारम्भ में विरोधाभास अलंकार का प्रयोग करते हुए लिखा है कि हे जिनेन्द्र ! आप वृद्धि को प्राप्त न होने पर भी उन्नति को प्राप्त हो रहे हैं, नम्रीभूत न होने पर भी अत्यन्त नम्र हैं और अवस्थित एकरूप होकर भी सब ओर विस्तार में व्याप्त हो रहे हैं। आपका अनादि अनंत वैभव प्रवाह सुशोभित होता है । वह वैभव आदि मध्य तथा अंत से रहित है, विकारहित, ज्ञानमात्र रूप से स्पष्ट है । यद्यपि महासत्ता में आप गर्भित हैं, तथापि महासत्ता आपके ज्ञान में गभित है। आप समस्त शब्दानुगम से गम्भीर व ज्ञान से लोकालाक को ग्रास करने वाले हैं। प्रापकी ज्ञानसत्ता द्वारा परपदार्थ व्याप्त न होने पर भी वे चैतन्यक्त् सुशोभित होते हैं। पदार्थसत्ता अर्थसमूह का उल्लंघन न करती हुई आपके ज्ञान में प्रत्यक्ष होती है। शब्दसत्ता पुद्गलपने का उल्लंघन नहीं करतो हई आपके ज्ञान में प्रतिबिम्बत होती है । प्रमेय के बिना ज्ञान में प्रमाणता नहीं तथा प्रमाण बिना प्रमेयता सम्भव नहीं है । प्रमाण में प्रमेय का तथा ज्ञान में ज्ञेय का निषेध सम्भव नहीं हो सकता । वाच्य-वाचक सम्बन्ध न होने पर भी पाप समस्त पदार्थों के वाचक - प्रकाशक हैं । क्रमबद्ध पर्यायों द्वारा सापके सर्वगुणों का वैभव युगपत् प्रकाहित होता है । क्रमरूप पर्याय तथा प्रक्रम रूप गुण को गौण करने पर ग्राप एक, अखण्ड ही प्रतिभासित होते हैं। प्रदेश भेद रूप तिर्यक्प्रचव, क्षणभेद रूप उर्ध्वप्रचय के साथ समस्त पदार्थ आपके ज्ञान में झलकते हैं, परन्तु आपको उनसे ममत्व नहीं है। आप निरंश होकर भी अनंतांशों को प्रकाशित करते हैं। प्रखण्टु सत्ता वाले अनेक द्रश्य खण्ड अापके ज्ञान में पृथक-पृथक भासित होते हैं। पाप सर्वद्रव्यों को सामान्य-विशेषरूप से जानते हैं। अनंत अवस्था सहित अनंत द्रव्यों को आप जानते हैं । अनंत अर्थपर्यायों तथा व्यंजनपर्यायों से युक्त अस्तित्व को न त्यागता हुआ द्रव्य सम्पूर्णतः प्रापके ज्ञान में आता है। पर्यायें द्रव्य को तथा द्रव्य पर्यायों को छोड़ने में समर्थ नहीं हैं । आपकी अभेद तथा भेद युक्त ज्ञानदृष्टियां सर्वत्र विचरती हैं। भिन्न तथा अभिन्न रूप से अवस्थित समस्त पदार्थों के ज्ञान से सम्पन्न प्रापका बैभव है। आप अनंत चतुष्टय विभूति से सुशोभित हैं । अाप यात्माश्रित होने से स्वरूपमग्न हैं तथा पराश्रित होने से समवशरण में स्थित हैं। हे जिनेन्द्र ! मुझे तपद्वारा प्रज्जवलित करो, जिससे समस्त चराचर जगत मेरे ज्ञान में प्रकाशित हो उठे। इस तरह उक्त अध्याय समाप्त हुआ।