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________________ कृतियों ] | ३६६ - षष्ठ अध्याय में पुनः निर्ग्रन्थ जिन के तपस्यापूर्ण मार्ग का, गुण स्थानानुसार विकास प्रक्रिया का वर्णन है। जिनेन्द्र ने मिथ्याचारित्र को सम्यग्चारित्र से दूर किया था । वे उत्कृष्ट वैराग्य, निस्पृह तप से युक्त तथा संसार के कौतुहल मे मुक्त थे। उन्होंने संसार मार्ग को छोड़कर मोक्षमार्ग को पाया था तथा मोक्षमार्ग का प्रवर्तन किया था । उनका धैर्य प्रस्खाड़ था। वे मोक्षमार्ग में अकेले ही बिहार करते थे । उन्होंने साधनाकाल में तपों द्वारा अविपाक निर्जरा की थी। साथ ही कषाय रूप कर्मरज को नष्ट करते हए क्षपक श्रेणी पर आरोहण किया था। अपने निर्मल ज्ञान-ध्यान संतति द्वारा स्थूल तथा सूक्ष्म कषायों का क्षय करके सूक्ष्मसाम्प राय तथा क्षीणकषाय अवस्था प्राप्त की थी। उन्होंने साम्परायिक पात्रत्र को पारकर. ईपिच प्राव की दशा को पाया था और शुक्लध्यान द्वारा क्षीणकपाय गुणस्थान में पहुँच थे । पश्चात् केवलज्ञान पाका सम्पूर्ण जगन् को जाना और विज्ञानघन स्वरूप हुए। आग प्रायु कर्म को भी क्षीण करके सिद्धपद पाया था । उनमें अनंत वीर्य आदि गुणों से पूर्णता प्रगटी थी, क्योंकि इस जगत् में द्रव्य अपने वस्तुत्व गुण को छोड़कर अन्य द्रव्य के साथ कभी भी एकरूपता स्थापित नहीं करता। जिनेन्द्र ने तीनों लोकों को देखा तथा अनंतमेयों को जानने के कारण अनंतरूपता को भी पाया था । वे त्रिकालदर्शी होकर, स्वरूप में सुशोभित थे। वे यात्मज्ञ हुए। उन्होंने अनंत ज्ञेयों सहित निजात्मा को जाना था तथा वर्तमान में जानते हैं। उनके ज्ञान का अक्षुण्ण प्रवाह सदा जारी रहता है। उनमें अनंत शक्तियाँ स्फुशयमान हो उठी हैं, वे उनसे सुशोभित हैं। वे स्वरूपगुप्त - सुरक्षित. निराकूल तथा पर से शून्य रूप में सुशोभित हैं । अंत में प्रात्मलघुता का प्रदर्शन करते हुए लिखा है कि यदि इस स्तुति द्वारा मुझ में आप जैसा चैतन्यतेज नहीं प्रगटता तो वह मेरी ही जड़ता है। आपका उसमें कुछ भी कारणपना नहीं। इस तरह उक्त अध्याय समाप्त होता है । सप्तम अध्याय में प्रारम्भ में स्तुतिकार पूर्णतः जिनेन्द्र की शरण लेने की सूचना देते हैं । वे लिखते हैं कि हे जिनेन्द्र ! मेरा मतिज्ञान रूप प्रकाश अत्यल्प है। मेरा ज्ञान अविकसित तथा प्राच्छादित है। पाप मुझ पर कृपाकर अमृतवर्षा करते हैं, तथापि मैं शक्तिहीन होने से उस अमृत को कितना पी सकता हूँ अर्थात् थोड़ी सामर्थ्यानुसार पीता हूँ। प्रापकी ज्ञानामृत की चूद भी मुझे औषधिममान गुणकारी है । आपका अंतरंग तापा बहिरंग संयम अखण्ड है 1 मैं उक्त उभय प्रकार के संयम से आपके समान
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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