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पूर्व साहित्यिक परिस्थितियां ] "परिग्रह सहित भी गुरू होता है और केवली कबलाहारी होता है, इस प्रकार की जिसकी श्रद्धा होती है, वह विपरीत मिथ्यात्व है।" आचार्य अमृतचन्द्र मोहविजेता, अजेय सेनानी तथा प्रमाद चोर से सदा सावधान रहने वाले सजग प्रहरी के रूप में उनकी ही कृतियों में चित्रांकित पाते हैं । वे स्वयं इस बात का उल्लेख करते हुए लिखते हैं - "मुझे मोह नहीं है, स्वपर का विभाग ( भेदविज्ञान ) है।" "मैंने मोह की सेना जीतने का उपाय पा लिया है।"३ "मैंने मोह की सेना पर विजय प्राप्त करने को कमर कस ली है ।"४ “अब मैंने चिंतामणि रत्न प्राप्त कर लिया है तथापि प्रमाद चोर विद्यमान है, मह विचारकर मेरा आमा साकार रहता है।"५
इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्र ने अपनी समस्त कृतियों में अध्यात्म की गंगा प्रवाहित कर जैनदर्शन, न्याय तथा अध्यात्म और आचार को विमल तथा विकसित करने में भागीरथी प्रयत्न किया है । प्रध्यात्म जैन दर्शन का प्राण हैं और प्राचार्य अमृतचन्द्र की कृतियों उसको परिपुष्ट एवं चिरंजीवी बनाये रखने हेतु संजीवनी समान हैं। इस प्रकार विकाट साहित्यिक परिस्थितियों के बीच भी दृढ़तापूर्वक जन अध्यात्म एवं दर्शन के मौलिक सिद्धांतों की सुरक्षा करते हुए, स्वपर वाल्याणकारी साहित्य की सृष्टि कर प्राचार्य अमृतचन्द्र पूर्वकालीन आचार्य परम्परा को, तत्कालीन साहित्य व समाज को तथा आगामी पीढ़ियों के कल्याणकारी पथ को आलोकित करने में सफल रहें हैं ।
पूर्वकालीन राजनीतिक परिस्थितियों उपयुक्त साहित्यिक परिस्थितियों के प्राकलन के पश्चात् आचार्य अमृतचन्द्र की पूर्व राजनीतिक परिस्थितियों पर प्रकाश डाला जाता है।
१. सग्रन्थोऽपि च निग्रन्थो, ग्रासाहारी च केवली ।
रुचिरेवंविधा यत्र विपरीत हि तत्स्मृतम् ।। तत्त्वार्थसार, अध्याय ५ पद्य ६ २. नास्ति मे मोहोऽस्ति स्वपर विभागः। प्रवचनसार गाथा १५४ टीका. पृ० २५० ३. यद्य बलब्धोमया मोहवाहिनी विजयोगामः ।
प्रवचनसार गाथा ५० टीका, पृ० ११२ ४. अतो मया मोहवाहिनी चिजमाथ बाकक्षेयम् । वहीं, गाथा ७६ टीका,पृ० ११० ५. अथवं प्राप्तचितामणेरपि में प्रमादो दस्युरिति जागर्ति ।
प्रवचनसार तत्त्वप्रदीपिका टीका, गाथा ८१, उत्थानिका, पृ० ११३