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________________ ५२ ] [ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व को भी परद्रव्य जानकर उनसे भी पश्चपात न करते हुए अत्यन्त मध्यस्थ होते हैं। वे सदाकाल एक ही व्यापार-उद्यम में लगे रहते हैं- वह है शुद्धात्मद्रव्य में प्रवृत्ति करना । वे इस सम्बन्ध में स्वयं लिखते हैं :"इस प्रकार ज्ञेयतत्त्व को समझाने बाले जन-तत्त्वज्ञान में विशाल शब्दब्रा में सम्यक्तमा मा हुन कसे हम मात्र शुद्धात्म द्रव्य रूप एक ही परणतिवृत्ति से सदाकाल युक्त रहते हैं।"२ "समस्त कषायक्लेश रूपी कलंक से भिन्न होने से निर्वाणप्राप्ति के कारण वीतराग चारित्र रूप साम्य को प्राप्त होते हैं। वे इस वीतरागचारित्रको चिन्तामणि रत्न की तरह समझकर प्रमादरूपो चोरों से सावधान रहते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र अन्ततः यह उदघोषणा करते हैं कि जिस प्रकार दुःखों से मुक्त होने के इच्छुक मेरे प्रात्मा ने अर्हतों सिद्धों प्राचार्यों उपाध्यायों तथा साधुओं को प्रणाम कर विशुद्ध दर्शन ज्ञान प्रधान साम्यनामक धामण्य को अंगीकार किया है, उसी प्रकार दूसरे आत्मा भो यदि दुःख मुक्त होना चाहते हैं तो उस साम्यरूप श्रामण्यपने को अंगीकार करें। उसका जो यथानभूत मार्ग है, उसके प्रणेता हम स्वयं खड़े हुए हैं। इस निर्वाण का अन्य कोई मार्ग नहीं है यह सुनिश्चित है, अधिक प्रलाप से क्या प्रयोजन है। मेरी मति-व्यवस्थित हो गई है। १. शरीरं च वाचं च मनश्च परद्रव्यत्वेनाहं प्रपद्य ततो न तेषु कश्विदपि मम पक्षपातो ऽस्ति । सर्वत्राप्यमत्यन्तं मध्यस्योऽस्मि । प्रवचनसार गाथा १६०, पृष्ट २५५ २. जन-ज्ञान ज्ञचतत्वप्रणेतृ, स्फीतं शब्दब्रह्मसम्यग्विगाए । - संशुद्धाल्पव्य भावकवृत्या, नित्वंयुक्त स्थीयतेऽस्माभिरेवम् ॥१०॥ प्रवचनसार माथा २०० टीका, पृष्ठ ३०४ ३. "सकलकषायकलिकाल क विविस्तया निर्माण संप्राप्तिहेतुभूतं श्रीतराग चारित्रा. स्य साम्यमुपसंपा।" प्रनवसार गाया ५ टीका, पृष्ठ ६ ४. अर्थन प्राप्तचिंतामरिगरपि प्रमादो दस्युरिति जागति । वही, गाथा५१, पृ.११३ ५. यथा ममात्मना दुख मोक्षार्थिना..." अहत्सिद्धाचार्योपाध्यायसाधुनां प्रगति वन्दनात्मकनमस्कारपुरम्गरं विशुद्धदर्शनज्ञान प्रधानं साम्यनाम् श्रामण्यमवान्तर प्रध संदर्भ भय संभावित सौस्थित्यं स्वयं प्रतिपन्नम् । परेषामपि यदि दुखमोक्षायीं तथा नत्प्रतिपद्यतां यथानुभूतस्य तत्प्रतिपत्तिः वमना प्रणेतारो अयमिमे तिष्ठामीति । प्रबचनसार गाथा २०१ टीका, पृष्ठ ३०५ ६. सतो नान्यद्वम निर्वाधस्येत्यवधार्यते । प्रप्तमथवा प्रलपितेन । व्यबस्थिता मतिर्मम । वहीं गाथा ६२. पृष्ठ ११६
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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