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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
अमृतचन्द्र के व्याख्याकौशल को प्रमाणित करने हेतु पर्याप्न है तथापि यहां एक और सर्वोत्तम मद्यांश उद्धरण स्वरूप प्रस्तुत है। इसमें दृष्टांत का समुचित प्रयोग, सालंकृत गद्य सौन्दर्य, रूपक एवं अनप्रास अलंकारों की छटा, तर्क की विलक्षणता, सामासिक प्रयोग चातुरी, प्रौलतम भाषा तथा अनुपम व विलक्षण गद्य का नमूना देखते ही बनता है। इसमें आत्मा के सुखस्वभाव की सिद्धि दृष्टांतों द्वारा की गई हैं - यथा - "यथा खलु नभसि कारणान्तरमनपेक्ष्येव स्वयमेव प्रभाकरः प्रभूतप्रभाभारभास्वरस्वरूप विकस्वरप्रकाशशालितया तेज; यथा च कादाचित्कोहण्यपरिणतायःविण्इवन्नित्यमेवोडण्यपरिणामापनत्वाष्णः यथा च देवगति नामकर्मोदयानवृत्तिवशवलिम्वभावतया देवः । तदेव लोको कारणानारमनपेक्ष्येव स्वयमेव भगवानात्मापि स्वपरप्रकाशनसमर्थनिविनथानन्तशक्तिसहजसंवेदनतादात्म्यात् ज्ञानं. तथैव चात्मतुप्तिसमुपजातपरिनिवृत्तिप्रतितानाकुलरवस्थितत्वात सौख्य, तथैव वासनात्मतत्त्वोपलम्भलब्धवर्णजनमानस शिलास्तम्भोत्कीर्ण समुदीर्णद्युतिस्तुतियोगिदिव्यात्मस्वरूपस्वादेवः । अतोऽस्यात्मनः सुखसाधनाभासविषयः पर्याप्तम् । इति आनन्दप्रपञ्चः।" उनरोक्त गद्यांश की अंतिम पंक्ति में बीस पदों का
१. प्रवचनगा र गाथा ६८ की टीका :- अर्थ - जैसे प्राकाश में अन्य कारण की
अपेक्षा रखे बिना ही सूर्य स्वयमेव अत्यधिक प्रभा समुह से चमकते हुए स्वरूप के द्वारा विकसित, प्रकाशयुक्त होने से तेज है, कमी उष्णतारूप परिमित लोहे से तेज है, कभी उरणतारूप परिणमित लोहे के गोले की भांति सदा उष्णता परिणाम को प्राप्त होने से उष्ण है और देवगति नामकर्म के धारावाहिक उदय में वशवर्ती स्वभाव से देव है, इसी प्रकार लोक में अन्यकारण की अपेक्षा रखे बिना ही भगवान प्रात्मा स्वयमेव स्वपर को प्रकाशित करने समर्थ सच्ची अनन्तशक्तियुक्त सहज संवेदन के साथ तादात्म्म होने से ज्ञान है, मात्मतृरित से उत्पन्न होने वाली परिनियति (परिपूर्णता-मोक्ष) से प्रवर्तमान अनाकुलता में मुस्थितपने के कारण सौख्य हैं और जिन्हें प्रारमतत्त्व की उपलब्धि निकट है ऐसे बुधजनों मनरूपी शिलास्तम्भ में जिसकी अतिशय यति-स्तुति उत्कीर्ण है, ऐसा दिन्यात्मस्वरूपवान होने से देव है। इसलिए इस प्रात्मा को सुखसाधनाभास के विषयों से बस हो । बीस पदों वाला एक बृहद्पद' इस प्रकार है:- "च+आसन्न प्रात्म-- तत्त्व + उपलम्भ+लब्ध+वर्ण+जन+मानस+शिला+स्तम्भ+उत्कीर्ण+ समुदीर्ण+शु ति+स्तुतियोगि+ दियनयात्म+स्वरूपत्वात्+ देवः ।
(प्रवचनसार गाथा ६८ की टीका)