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| आचार्य
एवं कर्तृत्व
२. पद्मप्रभ ने अपनी तात्पर्यवृत्ति में श्रमृतचन्द्र के ग्रन्थों के कई श्लोक "उक्तं च" तथा "चोक्तं श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिभिः" इत्यादि लिखकर उद्धृत किये हैं। इनमें १७ श्लोक' समयसार कलश टीका के हैं तथा ४ श्लोक प्रवचसार की तत्त्वप्रदीपिका टीका के हैं। यह अमृतचन्द्र के अनुकरण, अनुसरण तथा प्रभाव का प्रगट प्रमाण है ।
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३. पद्मप्रभ ने श्रमृतचन्द्र के पद्यों को प्रमाण रूप में उद्धृत करने के साथ ही साथ उनकी ही शैली को अपनाकर गद्यटीका के बीच में तत्र पद्यों की भी रचना की है। जयसेनाचार्य की अपेक्षा श्रमृतचंद्र की शैली को पद्मप्रभ ने अधिक अपनाया है, उन्हीं की तरह सुललित पद्यात्मक शैली में टीका का निर्माण किया है ।
इस तरह श्राचार्य अमृतचन्द्र के व्यक्तित्व तथा कृतित्त्व का प्रभाव आचार्य पद्मप्रभमलधारी देव पर स्पष्ट से रूप से दृष्टिगत होता है। जयसेनाचार्य (द्वितीय) पर प्रभाव (बारहवीं तेरहवीं सदी) माप जयसेन प्रथम ( धर्मरत्नाकर के कर्ता) से भिन्न तथा उनसे बाद के हैं । अमृतचन्द्रसूरि के समान प्राप भी कुन्दकुन्द के समयसार, प्रवचनसार तथा पंचास्तिकाय ग्रन्थों के प्रसिद्ध टीकाकार हैं। प्रवचनसार ग्रन्थ की टीका के अन्त में एक प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि जयसेनाचार्य के गुरु सोमसेन थे। जयसेनाचार्य सेनगणान्वयी हैं । आप अध्यात्मक्षेत्र के एक विरागी आचार्य थे। आपका समय ई. १२१२-१३२३ है । डॉ. नेमिचंद्र शास्त्री ने उन्हें ग्यारहवीं ईस्वी सदी के उत्तरार्ध अथवा बारहवी के पूर्वार्ध का माना है । * श्राप आचार्य अमृतचंद्र से प्रभावित रहे हैं। इसके कुछ आधार इस प्रकार हैं :
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९. समयसार कलश के क्रमशः २४, ४४, ११, ३५, ३६, ५, १८५, १३१, २४४, १८७, १६, २२८, १०४, २२७,६०,१६२, १३५ नम्बर के १७ फ्लोक है । २. प्रवचनसार तत्त्वप्रदीपिका टीका के क्रमशः १२, ५, ४ ये ४ श्लोक
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मृत हैं।
३. जैन साहित्य का इतिहास, भाग २, पृष्ठ १६७
४. तीर्थंकर महावीर और उनकी श्राचार्य परम्परा भाग ३, पृष्ठ १२२
५. जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग २, पृष्ठ ३२४
६. ती. म. और उ. श्री. परम्परा, भाग ३, पृष्ठ १४३