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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ।
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१८३३
प्रथम तो, जयसेन ने कुन्दकुन्द के उन्हीं तीनों ग्रन्थों पर टीकाएं रची, जिन पर प्राचार्य अमृतचंद्र टीकाएँ रच चुके थे । आचार्य अमृतचन्द्र की प्रायः सभी टीकाएं उन्हें अत्यंत प्रौढ़ तथा विद्वज्जनग्राह्य प्रतीत हई। उन्होंने अमृतचन्द्रकृत टीकाओं के भावों का भी स्पष्टीकरण किया जाना आवश्यक समझा, इसलिए उन्होंने अपनी सभी टीकाओं का नाम "तात्पर्यवृत्ति टीका" रखा।
दूसरे, अपनी समयसार की तात्पर्यवृत्ति टीका में उन्होंने अत्यंत सरल एवं सुगम शैली में भाव-स्पष्टीकरण तो किया परन्तु अपने निरूपण की सम्पुष्टि हेतु प्राचार्य अमृतचन्द्र के पद्यों को "तथा चोक्तं" कहकर प्रमाण रूप में प्रस्तुत किया है। उदाहरण के लिए नयपक्ष के विकल्प को छोड़कर समयसार स्वरूप होते हैं, इस तात्पर्य को व्यक्त करते हुए जयसेनाचार्य लिखते हैं - योऽसौ नयपक्षपातरहित स्वसंवेदनज्ञानी तस्याभिप्रायेण बद्धाबमूढादिनयविकल्परहित चिदाना स्वभाव जीवस्वरूपं भवतीति । तथा चोक्तं --
य एव मुक्त्वा नयपक्षपातं स्वरूपगुप्ता निवसंति नित्यम् । विकल्पजालस्च्युतशांत चित्तास्तएव साक्षादमृतं पिबन्ति ।'
उपरोक्त पद्य समयलार कलश का ६६वां कलश है। इसके बाद ही ७० वां कलश भी उदाहृत किया है। सम्पूर्ण तात्पर्यवृत्ति में समयसार कलश के कुल ७ इन्नोक प्रमाणरूपेण उद्धृत किये गगे हैं !
तीसरे, जयसेन ने अपनी तात्पर्य वृत्ति में अमृतचन्द्राचार्य कृत टीकामों का भली भांति उपयोग किया है। कहीं-कहीं पर उनके कुछ शब्दों को ज्यों का त्यों ग्रहण कर टीका में प्रयोग किया है, तो कहीं पर ममतचन्द्रकृत टीका के ही भावों को अभिव्यक्त किया है। प्रमतचन्द्र द्वारा प्रदत्त दृष्टांतों को तो जयसेन ने बहुत बड़ी संख्या में यथावत् उदाहृत किया है। इस सम्बन्ध में कुछ स्थलों का अवलोकन कराया जाता है । प्रस्तुत उदाहरणों में शब्द भाव एवं दृष्टांत तीनों का अनुसरण किया गया है, यथा१. "यथा खलु म्लेच्छ: स्वस्तीत्यभिहिते सति तथा विधवाच्यवाचक
संबंधावबोधबहिष्कृतत्वान्न किचिदपि प्रतिपद्यमानो मेष इवानि
१. समयसार, जयसेनीय गाथा दीका १५० २. ये ७ पञ्च क्रमशः ६८, ६६, १८३, १३१, २३५, तथा २४७ में है।