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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
२. अमृतचन्द्र का पं. राजमल्ल पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उनकी कृतियों में यत्र तत्र प्राचार्य अमृतचन्द्र की टीकाओं के मूलशब्द, वाक्य एवं यथावत् भावप्रस्फुटन हुआ है । यही कारण है कि उनकी पंचाध्यायी कृति को, अमृतचन्द्र की टीकाओं, भावों तथा शैली से अनुप्राणित एवं समंजित देखकर, भ्रमवशात् अमृतचन्द्र को ही कृति कुछ विद्वानों ने समझ ली थी । ' अमृतचन्द्र की रचनाशैली की साम्यता पं. राजमल्ल की कृतियों में स्पष्ट दिखाई देती है। उदाहरण के लिए - अमृतचन्द्र ने चेतना प्रकरण के अन्तर्गत ज्ञानचेतना की व्याख्या करते हुए लिखा है कि आत्मा अपने को - ज्ञानमात्र को चेतने से स्वयं ही ज्ञानचेतना है. ऐसा आशय है। उनके मूल शब्द इस प्रकार हैं - "स्वस्य ज्ञानमात्रस्य चेतनात् स्वयमेव ज्ञानचेतना भवतीति भावः । इन्हीं शब्दों को पंचाध्यायीकार ने श्लोकबद्ध करके प्रस्तुत किया है यथा -
प्रत्रात्मा ज्ञानशब्देन वाच्य स्तन्मात्रतः स्वयम् । स नेत्यतेऽनया शुखः शुद्धा या शाल चेतना : (:नाजागा)
३. प्राचार्य अमृतचन्द्र व्यवहार नय को कथंचित् प्रयोजनीय बताते हुए लिखते हैं -
"व्यवहरणनयः स्याद्यद्यपि प्राक्यपदव्या
मिह निहितपदानां हत हस्तावलम्बः । तदपि परममर्थ चिच्चमत्कार मात्र
परविरहितमंतः पश्यतां नैष किंचित् ॥' उक्त पद्य रचना के पूर्व टीका में अमनचन्द्र ने स्पष्ट किया है कि व्यवहारनय विचित्र अनेक वर्णमाला के समान होने से जानने में आता हुआ उस काल में प्रयोजनवान है - क्योंकि तीर्थ तथा तीर्थ के फल की ऐसी ही व्यवस्था है। टीका के मूल शब्द इस प्रकार है - "व्यवहारनयो विचित्रवर्णमालिकास्थानीयत्वात्परिज्ञायमानस्तदात्वे प्रयोजनवान्, तीर्थ
१. पंचाध्यायी, प्रस्तावना पृष्ठ १५, पं. फूलचन्द शास्त्री (टीकाकार, “पण्डित
देवकीनन्दन) २. समयसार, गाथा ३८६ की प्रारमख्याति टीका, पृष्ठ ५२० ३. पंचाध्यायी, अध्याय २, पन नं. १६६ ४. समयसार कलश कांक ४