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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
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तीर्थफलयोरित्थमेव व्यवस्थितत्वात् ।" अमृतचन्द्र ने एक स्थल पर महिष के ( मैं से का) ध्यान का दृष्टान्त देते हुए लिखा है -- "यथा बाऽपरीक्षकाचार्यादेशेन मुग्धः कश्चिन्महिषध्यानाविष्टोऽशानान्महिषात्माना देकीकुर्वनात्मन्य कषविषाणमहामहिषत्वाध्यासात् प्रच्यत मानुषोचितापवरकद्वार विनिस्सरणतया तथा विधस्य भावस्य कर्ता प्रतिभाति । इस प्रकार उपरोक्त शब्दों एवं भावों को पं. राजमल्ल ने निम्न पद्यों में ज्यों का त्यों समाहित करके प्रस्तुत किया है । वे पद्म इस प्रकार हैं -
तस्मादाश्रयणीयः केचित् स नयः प्रसंगत्वात् । अपि सविकल्पानामिव न श्रेयो निर्विकल्प बोधवताम् ।। नवं यतोऽस्ति भेदोऽनिर्वचनीयो नयः स परमार्थः । तस्मात्तीर्थस्थितये श्रेयान कश्चित् स याबदूकोऽपि ।। दष्टान्तोऽपि च महिषध्यानाविष्टो यथा हि कोऽपि नरः। महिषोऽयमहं नस्योपासक इति नयावलम्बी स्थात् ॥
इससे स्पष्ट है कि आचार्य अमृतचन्द्र का प्रभाव पं. राजमल्ल पाण्डे पर था।
पण्डित बनारसीवास पर प्रभाव (ईस्वी १५८७-१६४४) - आप आगरा के निवासी, श्रीमालवैश्य थे। आपके पिता खरगसेन थे। प्रारम्भ में आप श्वेताम्बर अाम्नाय में थे, बाद में दिगम्बर हो गये। आप जवाहरात के व्यापारी थे। गोस्वामी तुलसीदास के समकालीन थे ! प्रापकी निम्न कृतियां प्रसिद्ध हैं - नवरस पद्यावलि, नाममाला, नाटकासमयसार, बनारसी बिलास, कर्मप्रकृतिविधान, अर्घकथानक आदि । पापका समय ईस्वी १५५५-१६४४ है। आप आचार्य अमृतचन्द्र के व्यक्तित्व व कृतित्व से प्रभावित ही नहीं थे, अपितु उन्होंने उनके ग्रन्यों को आत्मसात् करके आध्यात्मिक रचनाएं की। प्राकृत भाषा में उपलब्ध आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी का समयप्रामृत तथा उसकी अमतचन्द्राचार्य कृत यात्मख्याति-समयसार कलश दीका को प्रात्मसात् करके नाटकसमयसार की रचना की गई है। यद्यपि नाटकसमयसार अमृतचन्द्र कृत
1. समयसार, पात्मख्याति सीका गाथा १२ २. समयसार, प्रारमस्याप्ति टीका, गाथा ६६ ३. पंचाध्यायी, अध्याय प्रथम, क्रमांक ६३३.६१, ६४६