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आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तुं स्व
कलशों का होनाधिक रूप से छायानुवाद सा प्रतीत होता है, तथापि बनारसीदास ने अपनी प्रखर प्रतिभा द्वारा उसे अद्वितीय श्राध्यात्मिक रंग में रंगा है। यह एक बड़ा ही अपूर्व ग्रन्थ है।" इस संदर्भ में डॉ. रवीन्द्र कुमार जैन लिखते हैं कि प्राचार्य प्रवर कुन्दकुन्द का समयप्रामृत उसकी अमृतचन्द्राचार्य कृत "आत्मख्याति" नामक संस्कृत टीका और पं. राजमलजी कृत भाषा टीका इन तीनों ग्रन्थों के आधार पर ही इस हिन्दी पद्य बद्ध ग्रन्थ नाटकसमयसार का प्रणयन हुआ है । कविवर पर आचार्य कुन्दकुन्द एवं अमृचन्द्र आचार्य का प्रभाव अवश्य रहा है । बनारसीदासजी ने समयसार के कलशों का अनुवाद ही नहीं श्रपितु उनके मर्म को अपने ढंग से व्यक्त किया है जिससे वह बिल्कुल स्वतन्त्र ग्रन्थ जैसा मालूम होता है । यह कार्य वही लेखक कर सकता है जिसने उसके सुनाय को योग करके अपना बना लिया है । इतना ही नहीं, पं. बनारसीदासजी ने विषय व्यवस्था में भी अमृतचन्द्र का अनुकरण किया है। उनका नाटकसमयसार ग्रन्थ अमृतचन्द्र के कलशों का होनाधिक, संक्षिप्त और विशद् मूलानुगामो पद्यानुवाद है । जो आलंकारिक बहुरंगी रंगों में प्रस्फुटित हुआ है । प. बनारसीदास नै स्वयं ग्रन्थ की प्रशस्ति में इस बात का उल्लेख करते हुए
किया हैं,
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लिखा है
भण्डार ।
समयसार नाटक अकथ, अनुभव रस याको रस जो जानहीं, सो पायें भवपार || अनुभौ रस के रसियाने, तीन प्रकार एकत्र बखानें । समयसार कलशा श्रति नीका, राजमली सुगम यह टीका ताकै अनुक्रम भाषा कीनी, बनारसी ग्याता रसलीनी । ऐसा ग्रन्थ अपूरब भाया, तानें सबका मनहि लुभाया ॥ ४
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आचार्य श्रमृतचन्द्र ने समयसार टीका के अंत में "स्थाद्वादद्वार" स्वयं रचकर जोड़ दिया है। इससे ग्रन्थ की उपयोगिता और भी अधिक हो गई है। उन्होंने स्याद्वादद्वार के सम्बन्ध में अत्यन्त भव्य उद्गार व्यक्त
१. जैन हितैषी, सम्पादक नाथूराम प्रेमी, नवम्बर-दिसम्बर १९१६, भाग १२, अंक ११-१२ पृष्ठ ५६२
२. कविवर बनारसीदारा जीवनी और कृतित्व, ग्रुष्ठ १२६
३. वही, पृष्ठ १४२ - १४३
४. ईडर के भण्डार की प्रति का अन्तिम अंश, पद्य क्रमांक १,
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