________________
४६८ |
[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
अहिंसा तथा साधर्मीजनों में वात्सल्य भाव रखना सातवां वात्सल्य अंग है । निरंतर अपनी आत्मा को रत्नत्रय के तेज से प्रभावना युक्त करना
और दान, तप, जिनपूजन एवं ज्ञानातिशय द्वारा जैन धर्म की प्रभावना करना पाठवां प्रभावना अंग है।' उपरोक्त प्राठों अंगों में किसी भी अंग की हीनता होने पर सम्यग्दर्शन जन्म मरण को परम्परा को नाश करने में समर्थ नहीं होता, जिस प्रकार अक्षरहीन मंत्र विषवेदना को दूर करने में समर्थ नहीं होता । अतः अष्ट अंगसहित सम्यग्दर्शन धारण करना ग्रहस्थ का सर्वप्रथम कर्तव्य है । सम्यग्ज्ञान की पृथक उपासना का उपदेश :
यद्यपि सम्यग्दर्शन के साथ ही सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होता है तथापि सम्यग्दर्शन के पश्चात् सम्यग्ज्ञान की पृथक् आराधना करना श्रेयस्कर है. क्योंकि दोनों में लक्षण भेद से भिन्नता है। सभ्यग्दर्शन कारण है तथा सम्यग्ज्ञान काय है।
सम्यग्ज्ञान का स्वरूप :--प्रशस्त अनेकांतात्मक पदार्थों का निर्णय करना ही सम्यग्ज्ञान है । वह सम्यग्ज्ञान भी संशय विपर्धय तथा अनभ्यवसाय से रहित आत्मा का ही स्त्ररूप है ।
सम्यग्ज्ञान के पोषक आठ प्रम :- सम्यग्दर्शन की तरह सम्याज्ञान के पोषनः अाठ अंग हैं। उनमें मात्र शब्द रूप पाठ को जानना प्रथम व्यंजन।चार है, मात्र अर्थ को जानना, द्वितीय अर्थाचार अंग है, शब्द तथा अर्थ दोनों को जानना उभयाचार नामक तृतीय अंग है, सूर्योदय, सूर्यास्त, मध्यान्ह तथा मध्यरात्रि को छोड़कर योग्य काल में पटनपाटनादि करना कालाचार नामक चतुर्थ अंग है। विनयपूर्वक आराधना करना पंचम बिनयाचार अंग है, पठितांश को स्मरण (धारणा) में रखना उपधानाचार नामक षष्ठ अग हैं, शास्त्र तथा अध्यापक का आदर करना सप्तम बहुभानाचार प्रग है तथा ज्ञानप्रदाता गुरु का उपकार लोप
१. २. ३. ४.
पू. सि. २३-३० र. क. श्रा. पद्य २१ पु. सि. ३१, ३२, ३३ वहीं, ३५